महाभारत का सबसे बड़ा संदेश है कर्म
महाभारत कई मायनों में धर्म प्रधान होते हुए भी कर्म प्रधान ही है। स्वयं श्रीकृष्ण भी कर्म की प्रधानता अर्जुन को गीता उपदेश के समय समझाते हुए कहते है कि कर्म करो फल की चिंता मत करो।अर्जुन युद्ध के मैदान में जब अपने ही परिजनों को समक्ष देखकर घबरा जाते हैं तब श्रीकृष्ण उन्हें कहते हैं कि एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि ये मेरे भाई-बंधु है, मुझे इनसे युद्ध नहीं करना चाहिए और मेरे बड़ों पर मैं अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाऊंगा तथा दूसरी तरफ तुम हे अर्जुन, जिन लोगों के विषय में नहीं सोचना चाहिए उनके विषय में तू सोचता है और ज्ञानियों की तरह बातें करते हो।
महाभारत केवल युद्धकथा नहीं, जीवन जीने की शैली है
महाभारत का नाम सुनते ही मस्तिष्क में भयंकर संहारक युद्ध का नजारा आंखों के सामने घूमने लगता है। अधिकतर लोग समझते हैं कि महाभारत एक युद्धकथा है, जिसमें राज्य के लिए पांडवों और कौरवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। किंतु अगर बारिकी से देखा जाए तो महाभारत में श्रेष्ठ जीवन के कई सूत्र छिपे हैं। यह कथा हमें सिखाती है कि पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन में कैसे जीया जाए।
यह कथा एक संपूर्ण जीवन शैली है।महाभारत की रचना महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास (वेद व्यास) ने की है। महाभारत के विषय में कहा जाता है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के विषय में जो महाभारत में कहा गया है वह ही सब ओर है, और जो इसमें नहीं है वह कहीं नहीं है।इसे पांचवा वेद भी कहते हैं। महाभारत का नाम जय, भारत और उसके बाद महाभारत हुआ। इसमें एक लाख श्लोक हैं।यह बहुनायक प्रधान ग्रंथ है। जिसे किसी भी पात्र के दृष्टिकोण से देखा जाए वही नायक प्रतीत होता है। महाभारत के एक लाख श्लोकों को अठारह खंडों (पर्वों) में विभाजित किया हुआ है। इन पर्वों का नाम रखा गया है- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शांति, अनुशासन, अश्वमेद्य, आश्रमवाती, मौसल, महाप्रस्थानिक तथा अंतिम स्वर्गारोहण पर्व है।
चिकित्सा का आश्चर्य भी है महाभारत में
महाभारत केवल एक धर्म शास्त्र या कोई युद्ध कथा नहीं है। यह भारतीय जीवन शैली का प्रामाणिक लेख है। नीति और धर्म की शिक्षा का सबसे बड़ा ग्रंथ है। जीवन का सार जो भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले अजरुन को दिया था, वह भी इसी ग्रंथ का एक हिस्सा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि महाभारत में चिकित्सा क्षेत्र का वह चमत्कार भी है, जिस पर अब लगभग सारे ही देशों में काम चल रहा है। वह है टेस्ट टच्यूब बेबी का। क्या आप जानते हैं हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों लाखों साल पहले ऐसे चमत्कार कर दिखाए हैं जो अब भी कई जगह आश्चर्य का विषय माने जाते हैं।
दुनिया के हर कोने में टेस्ट टच्यूब बेबी द्वारा बच्चों के प्रजनन पर प्रयोग चल रहे हैं। महाभारत में यह प्रयोग हजारों वर्ष पहले ही सफलता पूर्वक किया जा चुका है। महाभारत के रचियता और इस कथा के मुख्य पात्र महर्षि वेद व्यास ने यह प्रयोग किया था। वे चिकित्सा पद्धति के विख्यात विद्वान भी रहे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि महर्षि वेद व्यास ने दुर्योधन और उसके 99 भाइयों और एक बहन को इसी पद्धति से पैदा किया था। महाभारत में कथा आती है कि दुर्योधन की माता गांधारी को महर्षि वेद व्यास ने ही सौ पुत्र होने का वरदान दिया था। गांधारी जब गर्भवती हुईं तो दो साल तक गर्भस्थ शिशु बाहर नहीं आया। वह लोहे के एक गोले जैसा सख्त हो गया। गांधारी ने लोकापवाद के भय से इस गोले को फेंकने का निर्णय लिया। जब वह इसे फेंकने जा रही थी तभी वेद व्यास आ गए और उन्होंने उस लोहे के गोले के सौ छोटे-छोटे टुकड़े किए और उन्हें सौ अलग-अलग मटकियों में कुछ रसायनों के साथ रख दिया। एक टुकड़ा और बच गया था, जिससे दुर्योधन की बहन दुशाला का जन्म हुआ। इस तरह एक सौ एक मटकियों में सभी कौरवों का जन्म हुआ। महर्षि वेद व्यास ने ऐसे ही कई और चमत्कारिक प्रयोग किए हैं।
एक श्लोक में महाभारत पाठ
महाभारत ऐसा दिव्य ग्रंथ है, जिसमें मानवीय जीवन के संघर्ष में विजय पाने के वह सभी सूत्र है, जिनकी अज्ञानता में कोई व्यक्ति प्रतिकूल स्थितियों तनावग्रस्त और बैचेन रहकर जीवन का अनमोल समय गंवा देता है।
आदौ देवकीदेवी गर्भजननं गोपीगृहे वर्द्धनम् ।
मायापूतन जीविताप हरणम् गोवर्धनोद्धरणम् ।।
कंसच्छेदन कौरवादि हननं कुंतीतनुजावनम् ।
एतद् भागवतम् पुराणकथनम् श्रीकृष्णलीलामृतम् ।।
भावार्थ यह है कि मथुरा में राजा कंस के बंदीगृह में भगवान विष्णु का भगवान श्रीकृष्ण के रुप में माता देवकी के गर्भ से अवतार हुआ। देवलीला से पिता वसुदेव ने उन्हें गोकुल पहुंचाया। कंस ने मृत्यु भय से श्रीकृष्ण को मारने के लिए पूतना राक्षसी को भेजा। भगवान श्रीकृष्ण ने उसका अंत कर दिया। यहीं भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रदेव के दंभ को चूर कर गोवर्धन पर्वत को अपनी ऊं गली पर उठाकर गोकुलवासियों की रक्षा की। बाद में मथुरा आकर भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी कंस का वध कर दिया। कुरुक्षेत्र के युद्ध में कौरव वंश का नाश हुआ। पाण्डवों की रक्षा की। भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता के माध्यम से कर्म का संदेश जगत को दिया। अंत में प्रभास क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण का लीला संवरण हुआ।
महाभारत में भीष्म से सीखिए निष्ठा
महाभारत एक बहुनायक प्रधान रचना है। इस कथा में कई नायक हैं, जिनके जीवन पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। हर पात्र का एक विशेष गुण है और वह हमें इसी का संदेश भी देता है। महाभारत का पहला ऐसा पात्र है भीष्म। भीष्म पितामह जैसी निष्ठा महाभारत के अन्य पात्रों में कम ही दिखाई देती है। पितामह भीष्म का नाम देवव्रत था उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य की जो भीष्म प्रतिज्ञा की इस कारण उनका नाम भीष्म पढ़ गया। हस्तिनापुर राज्य के राजा का पद अस्वीकार कर दो पीढिय़ों के बाद उन्हीं की मौजूदगी में हुए भीषण नरसंहारकारी महायुद्ध के वे दृष्टा बने। उन्हें यह ज्ञात होने पर भी कि कौरवों ने अधर्म और छल से पांडवों को राज्य से हटा दिया फिर भी वे निष्ठा पूर्वक कौरवों का साथ निभाते रहें। जबकि हृदय से तो वे पांडवों के साथ ही थे।
भीष्म की ही निष्ठता का प्रमाण है कि उन जैसे वीर ने दस दिन तक लगातार युद्ध कर पांडवों की सेना को समाप्त कर ही रहे हैं किंतु कृष्ण के द्वारा अर्जुन को भीष्म के पास भेजे जाने पर उन्होंने स्वयं अपनी ही पराजय का गुप्त राज अर्जुन को बताया था। यह सत्य के प्रति उनकी निष्ठा थी।हमें भीष्म जैसे व्यक्तियों से जो कि नि:संतान होते हुए भी पितामह कहलाए जिनका श्राद्ध आज भी हर सनातन धर्म का अनुयायी करता है।हमें भी उनके जीवन के आदर्शों को अपने जीवन में उतारकर जीवन को विभिन्न आनंदों के साथ जीना चाहिए। जीवन में बहुत सी घटनाएं हमें हमारी प्रतिज्ञाओं से अलग हटा देती है। भीष्म पर भी कई बार दुविधा के क्षण आए किंतु वे अपनी प्रतिज्ञा से हटे नहीं।
कर्ण ने दिया मित्रता का संदेश
जीवन मित्रों के बिना अधूरा है। महाभारत काल में यदि मित्रता का प्रसंग हो और दुर्योधन और कर्ण की मित्रता की बात न हो ऐसा कभी नहीं हो सकता। कर्ण-दुर्योधन की मित्रता का परिचय हमें इस घटना से मिलता है जब श्रीकृष्ण संधि दूत बनकर हस्तिनापुर गए थे तो लौटते समय उन्होंने कर्ण को अपने रथ पर बैठाकर बताया कि वे सूतपुत्र नहीं बल्कि कुंती पुत्र हैं और कहा कि यदि तुम पांडवों की ओर से युद्ध करोगे तो राज्य तुम्हें ही मिलेगा। कर्ण ने इस बात पर जो कहा वह उनकी दोस्ती की सच्ची मिसाल है। उन्होने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पांडवों के पक्ष में श्रीकृष्ण आप है तो विजय तो पांडवों की निश्चय ही है। परंतु दुर्योधन ने मुझको आज तक बहुत मान-सम्मान से अपने राज्य में रखा है तथा मेरे भरोसे ही वह युद्ध में खड़ा है। ऐसी संकट की स्थिति में यदि मैं उसे छोड़ता हूं तो यह अन्याय होगा। तथा मित्र धर्म के विरुद्ध होगा। श्रीकृष्ण अर्जुन के परम सखा थे।
द्रोपदी की साड़ी इतनी लंबी कैसे हो गई...?
महाभारत में द्युत क्रीड़ा के समय युद्धिष्ठिर ने द्रोपदी को दांव पर लगा दिया और दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि ने द्रोपदी को जीत लिया। उस समय दुशासन द्रोपदी को बालों से पकड़कर घसीटते हुए सभा में ले आया। वहां मौजूद सभी बड़े दिग्गज मुंह झुकाएं बैठे रह गए। देखते ही देखते दुर्योधन के आदेश पर दुशासन ने पूरी सभा के सामने ही द्रोपदी की साड़ी उतारना शुरू कर दी। सभी मौन थे, पांडव भी द्रोपदी की लाज बचाने में असमर्थ हो गए। तब द्रोपदी द्वारा श्रीकृष्ण का आव्हान किया गया और श्रीकृष्ण ने द्रोपदी की लाज उसकी साड़ी को बहुत लंबी करके बचाई।
श्रीकृष्ण द्वारा द्रोपदी की लाज बचाई गई। इसके पीछे द्रोपदी का ही एक ऐसा पुण्य कर्म है जिसकी वजह से द्रोपदी पूरी सभा के सामने अपमानित होने से बच गई। वह पुण्य कर्म यह था कि एक बार द्रोपदी गंगा में स्नान कर रही थी उसी समय एक साधु वहां स्नान करने आया। स्नान करते समय साधु की लंगोट पानी में बह गई और वह इस अवस्था में बाहर कैसे निकले? इस कारण वह एक झाड़ी के पीछे छिप गया। द्रोपदी ने साधु को इस अवस्था में देख अपनी साड़ी से लंगोट के बराबर कोना फाड़कर उसे दे दिया। साधु ने प्रसन्न होकर द्रोपदी को आशीर्वाद दिया।
एक अन्य कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण द्वारा सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया गया, उस समय श्रीकृष्ण की अंगुली भी कट गई थी। अंगुली कटने पर श्रीकृष्ण का रक्त बहने लगा। तब द्रोपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर श्रीकृष्ण की अंगुली पर बांधी थी। इस कर्म के बदले श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को आशीर्वाद दिया था कि एक दिन अवश्य तुम्हारी साड़ी की कीमत अदा करुंगा।
इन कर्मों की वजह से श्रीकृष्ण ने द्रोपदी की साड़ी को इस पुण्य के बदले ब्याज सहित इतना बढ़ाकर लौटा दिया और द्रोपदी की लाज बच गई।
सर्वश्रेष्ठ गुरुभक्त एकलव्य
एक भील बालक जिसका नाम एकलव्य था। उसे धनुष-बाण चलाना बहुत प्रिय था। वह धनुर्विद्या सीखना चाहता था। इसीलिए वह गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचा। परंतु जब द्रोणाचार्य को मालूम हुआ कि यह बालक भील है तब उन्होंने उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया।
एकलव्य निराश होकर वहां से लौट आया परंतु उसने हार नहीं मानी और गुरु द्रोण की मूर्ति बनाई और उसके आगे अभ्यास करने लगा।एक दिन गुरु द्रोण और पांडव जंगल से गुजर रहे थे। उनके साथ उनका एक कुत्ता भी था। कुत्ता भौंकते हुए आगे-आगे चल रहा था। कुत्ता भौंकते हुए थोड़ी आगे चला गया और जब वह वापस आया तो उसका मुंह बाणों से भरा हुआ था। यह देखकर गुरु आश्चर्यचकित रह गए कि बाण इतनी कुशलता से मारे गए थे कि कुत्ते मुंह से रक्त की बूंद भी नहीं निकली।
द्रोणाचार्य ने सभी शिष्यों को उस कुशल धनुर्धर की खोज करने की आज्ञा दी। जल्द ही उस धनुर्धर को खोज लिया गया। धनुर्धर वही भील बालक एकलव्य था, उसने बताया कि गुरु द्रोणाचार्य द्वारा धनुर्विद्या सीखाने से इंकार करने के बाद मैंने इनकी मूर्ति बनाकर उसी से प्रेरणा पाई है। द्रोणाचार्य चूंकि अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे, इसलिए अर्जुन को भी पीछे छोडऩे वाले एकलव्य से उन्होंने गुरु दक्षिणा में अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना विचार किए अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में अंगूठा काटकर दे दिया।
आज भी एकलव्य की गुरुभक्ति से बढ़कर ओर कोई उदाहरण दिखाई नहीं देता।
ऐसे हुई कौरवों की उत्पत्ति
धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे। उनमें दुर्योधन सबसे ज्येष्ठ था। दुर्योधन का जन्म कैसे हुआ तथा उसके शेष भाइयों का नाम क्या था? महाभारत के आदिपर्व में इस संदर्भ में विस्तृत उल्लेख मिलता है। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी दो वर्ष तक गर्भवती रही लेकिन संतान का जन्म न हुआ। भयभीत होकर गांधारी ने गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के गोले के समान मांस-पिण्ड निकला। यह बात जब महर्षि व्यास को पता चली तो उन्होंने गांधारी से कहा कि एक सौ एक कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो तथा इस मांस पिण्ड पर ठंडा जल छिड़को।
जल छिड़कने पर उस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। व्यासजी की आज्ञानुसार गांधारी ने प्रत्येक कुण्ड में मांस पिण्ड के टुकड़े डाल दिए। समय आने पर उन्हीं मांस-पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में शेष पुत्र व एक पुत्री का जन्म हुआ।
धृतराष्ट्र के शेष पुत्रों के नाम युयुस्तु, दु:शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसंध, सम, सह, विंद, अनुविंद, दुद्र्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, दुर्मद, दुर्विगाह, विवत्सु, विकटानन, ऊर्णानाभ, सुनाभ, नंद, उपनंद, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, आयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुण्डल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवद्र्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधार, महोदर, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृन्दारक, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ़संध, जरासंध, सत्यसंध, सद:सुवाक, उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढ़हस्त, सुहस्त, बातवेग, सुवर्चा, आदित्यकेतु, बह्वाशी, नागदत्त, अग्रयायी, कवची, क्रथन, कुण्डी, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृढऱथाश्रय, अनाधृष्य, कुण्डभेदी, विरावी, प्रमथ, प्रमाथी, दीर्घरोमा, दीर्घबाहु, महाबाहु, व्यूढोरस्क, कनकध्वज, कुण्डाशी और विरजा। धृतराष्ट्र की पुत्री का नाम दुश्शला था।
गंगापुत्र भीष्म कौन थे पिछले जन्म में?
गंगापुत्र भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था अर्थात उनकी इच्छा के बिना यमराज भी उनके प्राण हरने में असमर्थ थे। वे बड़े पराक्रमी तथा भगवान परशुराम के शिष्य थे। भीष्म पिछले जन्म में कौन थे तथा उन्होंने ऐसा कौन सा पाप किया जिनके कारण उन्हें मृत्यु लोक में रहना पड़ा? इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है।
उसके अनुसार-गंगापुत्र भीष्म पिछले जन्म में द्यौ नामक वसु थे। एक बार जब वे अपनी पत्नी के साथ विहार करते-करते मेरु पर्वत पहुंचे तो वहां ऋषि वसिष्ठ के आश्रम पर सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाली नंदिनी गौ को देखकर उन्होंने अपने भाइयों के साथ उसका अपहरण कर लिया। जब ऋषि वसिष्ठ को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने द्यौ सहित सभी भाइयों को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। जब द्यौ तथा उनके भाइयों को ऋषि के शाप के बारे में पता लगा तो वे नंदिनी को लेकर ऋषि के पास क्षमायाचना करने पहुंचे। ऋषि वसिष्ठ ने अन्य वसुओं को एक वर्ष में मनुष्य योनि से मुक्ति पाने का कहा लेकिन द्यौ को अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए लंबे समय तक मृत्यु लोक में रहने का शाप दिया।
द्यौ ने ही भीष्म के रूप में भरत वंश में जन्म लिया तथा लंबे समय तक धरती पर रहते हुए अपने कर्मों का फल भोगा।
भगवान कृष्ण का महानिर्वाण
धर्म के विरुद्ध आचरण करने के दुष्परिणामस्वरूप अन्त में दुर्योधन आदि मारे गये और कौरव वंश का विनाश हो गया। महाभारत के युद्ध के पश्चात् सान्तवना देने के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण गांधारी के पास गये। गांधारी अपने सौ पुत्रों के मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थी। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दिया कि तुम्हारे कारण जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी आपस में एक दूसरे को मारने के कारण नाश हो जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यादवों की मति फेर दी।
एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाए। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आये। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर एक दूसरे को मारने लगे। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण को छोड़ कर एक भी यादव जीवित न बचा।
इस घटना के बाद भगवान श्रीकृष्ण महाप्रयाण कर स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गए। जरा नामक एक बहेलिये ने भूलवश उन्हें हिरण समझ कर विषयुक्त बाण चला दिया जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्री कृष्णचन्द्र स्वधाम को पधार गये। इस तरह गांधारी तथा ऋषि दुर्वासा के श्राप से समस्त यदुवंश का नाश हो गया।
रिश्तों की कश्मकश से भरी किताब
इंसानी रिश्तों पर कई किताबें, ग्रंथ रचे गए हैं। इंसानी रिश्ते जितने सुलझे दिखाई देते हैं, भीतर से उतने ही उलझे हुए होते हैं। हिंदू संस्कृति में रिश्तों पर सबसे बड़ा ग्रंथ अगर कोई है तो वह निर्विवाद रूप से महाभारत है। एक परिवार या कुटुंब में जितने रिश्तों पर लिखा जा सकता है, वह सारे रिश्ते महाभारत में मिलते हैं। लोग महाभारत को युद्ध पर आधारित ग्रंथ मानकर छोड़ देते हैं लेकिन यह रिश्तों का ग्रंथ है।
महाभारत की खासियत यह है कि इसमें हर रिश्ते के सारे पहलू मौजूद हैं। पिता-पुत्र के आदर्श रिश्ते भी हैं तो ऐसे पिता पुत्र भी हैं जिनके बीच सिर्फ कपट है। महाभारत रिश्ते बनाना तो सिखाती भी है, उसे निभाने के लिए कितना समर्पण चाहिए यह भी बताता है। इस ग्रंथ में सारे जायज और नाजायज रिश्ते हैं। कई रिश्ते तो ऐसे जो आज के दौर में समझना मुश्किल है। शायद इन्हीं रिश्तों के कारण महाभारत को घर में रखने से मना किया गया है। इन रिश्तों की पवित्रता और पारदर्शिता को केवल इस ग्रंथ को पढ़कर ही समझा जा सकता है।
पांचवा वेद
महाभारत को पांचवा वेद माना गया है। महर्षि वेद व्यास ने इसे इसी के कालखंड में लिखा था और खुद वेद व्यास महाभारत की कथा की शुरुआत से आखिरी तक एक पात्र के रूप में मौजूद भी हैं। वेदों का सारा ज्ञान वेद व्यास ने इस ग्रंथ में डाल दिया है। हिंदू धर्म ग्रंथों में यह आकार और घटनाक्रम दोनों के अनुसार सबसे बड़ा और रोचक ग्रंथ है।
महाभारत लिखकर भी खुश नहीं थे वेद व्यास
महाभारत को हिंदू धर्म का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। महाभारत की रचना से कई रोचक बातें जुड़ी हुई हैं, जो हर व्यक्ति नहीं जानता। महाभारत की कहानी इतनी विस्तृत थी कि वेद व्यासजी कई सालों तक केवल इसी बात पर शोध करते रहे कि इसकी रचना का सूत्र धार किसे बनाया जाए। आइए जानते हैं महाभारत की रचना से जुड़ी कुछ रोचक बातें। यह भी एक रोचक बात है कि इतना बड़ा और कालजयी ग्रंथ लिखने के बाद भी वेद व्यास इससे खुश नहीं थे।
- महाभारत की रचना एक लाख श्लोकों से की गई थी।
- इसके लेखन के लिए भगवान गणपति को प्रसन्न किया। गणेश ने एक शर्त रखी कि मैं लगातार लेखन करूंगा, अगर बीच में रुके तो लिखना बंद कर दूंगा।
- वेद व्यास ने गणेशजी की शर्त मान ली और खुद भी एक शर्त रख दी कि गणेश लिखने से पहले हर श्लोक को समझकर ही लिखेंगे। गणपति ने यह बात मान ली। वेद व्यास जल्दी-जल्दी श्लोक बनाकर बोलने लगे। हर 10-15 श्लोक के बाद वे एक ऐसा श्लोक बोलते जिसे समझने के लिए गणपति को भी थोड़ी देर ठहरना पड़ता। इसी दौरान वेद व्यास नए श्लोक बना लेते।
- महाभारत की रचना वेद व्यास ने महाभारत की घटना के पहले ही कर ली थी। वे स्वयं भी उस कथा के एक पात्र थे।
- महाभारत की रचना से पहले वेद व्यास ने वेद के चार भाग किए थे और उनके शिष्यों ने उन्हीं चार वेदों के आधार पर उपनिषदों की रचना की।
- महाभारत में वेद व्यास ने सृष्टि के आरंभ से लेकर कलयुग तक का वर्णन है।
- महाभारत की रचना के बाद भी वेद व्यास खुश नहीं थे। वे उसकी रचना से संतुष्ट नहीं हुए। उन्हें कथा में कोई कमी खल रही थी। एक दिन वे उदास बैठे थे और उधर से नारदजी गुजरे। नारदजी ने उन्हें सुझाया कि आपकी कथा संसार पर आधारित है। इसलिए इसकी रचना के बाद आप दु:खी हैं। आप ऐसा ग्रंथ रचें जिसके केंद्र में भगवान हों।
- इसके बाद ही वेद व्यास ने श्रीमद् भागवत की रचना की।
महाभारत सिखाती है लाइफ मैनेजमेंट....
महाभारत की कहानी केवल कोई पौराणिक कथा भर नहीं है। यह जीवन का सार है। अगर आधुनिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो मैनेजमेंट के सारे सूत्र महाभारत में मौजूद है। महाभारत हमें कर्म की शिक्षा और व्यवहारिक जीवन का ज्ञान दोनों बातें बताती हैं। महाभारत की घटनाओं से हम कई महत्वपूर्ण बातें सीख सकते हैं। हिंदू धर्म के चार प्रमुख ग्रंथ हमें चार बातें सिखाते हैं, रामायण रहना, महाभारत करना, गीता जीना और भागवत मरना सिखाती है।
आज हम महाभारत से कर्म और लाइफ मैनेजमेंट के कुछ सूत्र सीख सकते हैं।
- महाभारत का सबसे बड़ा सूत्र है सकारात्मक दृष्टिकोण। जो भी हो रहा है उसमें सकारात्मक दृष्टि से देखें। उसमें अपने लिए कुछ नई संभावनाएं तलाशें। जब युधिष्ठिर और दुर्योधन के बीच राज्य का बंटवारा हुआ तो दुर्योधन को हस्तिनापुर का राज्य मिला और पांडवों को वीरान जंगल खांडवप्रस्थ, लेकिन पांडव दु:खी नहीं हुए उन्होंने भगवान कृष्ण की मदद से उसे इंद्रप्रस्थ बना दिया।
- संयमित भाषा, महाभारत सिखाती है कि शत्रुओं से भी संयमित भाषा से बात करनी चाहिए। जिससे हमारे भावी संकट टल सकते हैं। इंद्रप्रस्थ में द्रोपदी ने दुर्योधन को अंधे का बेटा कहकर मजाक उड़ाया और खुद अपमानित हुई।
- शांति का रास्ता सबसे श्रेष्ठ होता है। महाभारत सिखाती है कि जीवन में सबसे मुश्किल से केवल शांति ही मिलती है। भगवान कृष्ण ने शांति के लिए मथुरा छोड़ द्वारिका बसाई। महाभारत युद्ध के पहले भी वे खुद शांति दूत बने थे।
- आज के प्रतिस्पर्धा के दौर में सबसे कठिन है प्रतियोगिता में टिकना। भगवान कृष्ण के जीवन से सीखा जा सकता है कि जब तक आपको अपने शत्रु की कमजोरियों का पता न हो, उससे दूर ही रहना चाहिए। जब हमें दुश्मन को हराने का सूत्र मिल जाए तभी किसी से मुकाबले में उतरना चाहिए।
- पांडवों में एकता का सूत्र द्रोपदी थी, जो कि प्रेम का प्रतीक थी और सौ कौरव भाइयों में एकता का उद्देश्य राज्य का लालच था। हमारे संबंधों के केंद्र में जैसी भावनाएं होंगी, उसका परिणाम भी वैसा ही होगा। पांडव प्रेम से अंत तक साथ रहे, कौरव युद्ध में मारे गए।
जानिए महाभारत के हर पहलू को...
महाभारत को लेकर हमेशा लोगों में कई तरह की जिज्ञासाएं रही हैं। हिंदू धर्म ग्रंथों में यह सबसे बड़ा और विस्तृत ग्रंथ है। इस कहानी में वेदों और उपनिषदों का सारा ज्ञान मौजूद है, इसलिए इसे पांचवा वेद भी कहा जाता है। महाभारत महर्षि वेद व्यास की रचना है। वे इस कथा के रचनाकार भी हैं और खुद इस कथा में एक पात्र भी है। वेद व्यास का असली नाम कृष्णद्वैपायन व्यास था।
इस ग्रंथ में ज्ञान का अथाह भंडार है। चारों वेद, अठारह पुराण, 108 उपनिषद और शेष धर्म सूत्रों का ज्ञान भी अकेले इस ग्रंथ में है।इसमें मौजूद ज्ञान के भंडार के बारे में खुद वेद व्यास ने महाभारत में लिखा है कि - यन्नेहास्ति न कुत्रचित। यानी जिस विषय की चर्चा इस ग्रंथ में नहीं की गई है, उसकी चर्चा अन्य कहीं भी उपलब्ध नहीं है इसीलिए महाभारत को पांचवा वेद कहा गया है। अठारह अध्यायों (पर्वों) में लिखे गए इस ग्रंथ में कुल एक लाख श्लोक हैं। इसी कारण इसे शतसाहस्त्री संहिता भी कहते हैं। इस ग्रंथ के नायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। महाभारत में अठारह पर्व क्रमश: आदिपर्व, सभापर्व, वनपर्व, विराटपर्व, उद्योगपर्व, भीष्मपर्व, द्रोणपर्व, कर्णपर्व, शल्यपर्व, सौप्तिकपर्व, स्त्रीपर्व, शांतिपर्व, अनुशासनपर्व, अश्वमेधिकपर्व, आश्रमवासिकपर्व, मौसलपर्व, महाप्रास्थानिकपर्व तथा स्वर्गारोहणपर्व है।
महाभारत की दस वे 'गुप्त' बातें जो सिर्फ चंद लोगों को हैं पता
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष
महाभारत कई मायनों में धर्म प्रधान होते हुए भी कर्म प्रधान ही है। स्वयं श्रीकृष्ण भी कर्म की प्रधानता अर्जुन को गीता उपदेश के समय समझाते हुए कहते है कि कर्म करो फल की चिंता मत करो।अर्जुन युद्ध के मैदान में जब अपने ही परिजनों को समक्ष देखकर घबरा जाते हैं तब श्रीकृष्ण उन्हें कहते हैं कि एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि ये मेरे भाई-बंधु है, मुझे इनसे युद्ध नहीं करना चाहिए और मेरे बड़ों पर मैं अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाऊंगा तथा दूसरी तरफ तुम हे अर्जुन, जिन लोगों के विषय में नहीं सोचना चाहिए उनके विषय में तू सोचता है और ज्ञानियों की तरह बातें करते हो।
महाभारत केवल युद्धकथा नहीं, जीवन जीने की शैली है
महाभारत का नाम सुनते ही मस्तिष्क में भयंकर संहारक युद्ध का नजारा आंखों के सामने घूमने लगता है। अधिकतर लोग समझते हैं कि महाभारत एक युद्धकथा है, जिसमें राज्य के लिए पांडवों और कौरवों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। किंतु अगर बारिकी से देखा जाए तो महाभारत में श्रेष्ठ जीवन के कई सूत्र छिपे हैं। यह कथा हमें सिखाती है कि पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन में कैसे जीया जाए।
यह कथा एक संपूर्ण जीवन शैली है।महाभारत की रचना महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास (वेद व्यास) ने की है। महाभारत के विषय में कहा जाता है कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के विषय में जो महाभारत में कहा गया है वह ही सब ओर है, और जो इसमें नहीं है वह कहीं नहीं है।इसे पांचवा वेद भी कहते हैं। महाभारत का नाम जय, भारत और उसके बाद महाभारत हुआ। इसमें एक लाख श्लोक हैं।यह बहुनायक प्रधान ग्रंथ है। जिसे किसी भी पात्र के दृष्टिकोण से देखा जाए वही नायक प्रतीत होता है। महाभारत के एक लाख श्लोकों को अठारह खंडों (पर्वों) में विभाजित किया हुआ है। इन पर्वों का नाम रखा गया है- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शांति, अनुशासन, अश्वमेद्य, आश्रमवाती, मौसल, महाप्रस्थानिक तथा अंतिम स्वर्गारोहण पर्व है।
चिकित्सा का आश्चर्य भी है महाभारत में
महाभारत केवल एक धर्म शास्त्र या कोई युद्ध कथा नहीं है। यह भारतीय जीवन शैली का प्रामाणिक लेख है। नीति और धर्म की शिक्षा का सबसे बड़ा ग्रंथ है। जीवन का सार जो भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले अजरुन को दिया था, वह भी इसी ग्रंथ का एक हिस्सा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि महाभारत में चिकित्सा क्षेत्र का वह चमत्कार भी है, जिस पर अब लगभग सारे ही देशों में काम चल रहा है। वह है टेस्ट टच्यूब बेबी का। क्या आप जानते हैं हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों लाखों साल पहले ऐसे चमत्कार कर दिखाए हैं जो अब भी कई जगह आश्चर्य का विषय माने जाते हैं।
दुनिया के हर कोने में टेस्ट टच्यूब बेबी द्वारा बच्चों के प्रजनन पर प्रयोग चल रहे हैं। महाभारत में यह प्रयोग हजारों वर्ष पहले ही सफलता पूर्वक किया जा चुका है। महाभारत के रचियता और इस कथा के मुख्य पात्र महर्षि वेद व्यास ने यह प्रयोग किया था। वे चिकित्सा पद्धति के विख्यात विद्वान भी रहे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि महर्षि वेद व्यास ने दुर्योधन और उसके 99 भाइयों और एक बहन को इसी पद्धति से पैदा किया था। महाभारत में कथा आती है कि दुर्योधन की माता गांधारी को महर्षि वेद व्यास ने ही सौ पुत्र होने का वरदान दिया था। गांधारी जब गर्भवती हुईं तो दो साल तक गर्भस्थ शिशु बाहर नहीं आया। वह लोहे के एक गोले जैसा सख्त हो गया। गांधारी ने लोकापवाद के भय से इस गोले को फेंकने का निर्णय लिया। जब वह इसे फेंकने जा रही थी तभी वेद व्यास आ गए और उन्होंने उस लोहे के गोले के सौ छोटे-छोटे टुकड़े किए और उन्हें सौ अलग-अलग मटकियों में कुछ रसायनों के साथ रख दिया। एक टुकड़ा और बच गया था, जिससे दुर्योधन की बहन दुशाला का जन्म हुआ। इस तरह एक सौ एक मटकियों में सभी कौरवों का जन्म हुआ। महर्षि वेद व्यास ने ऐसे ही कई और चमत्कारिक प्रयोग किए हैं।
एक श्लोक में महाभारत पाठ
महाभारत ऐसा दिव्य ग्रंथ है, जिसमें मानवीय जीवन के संघर्ष में विजय पाने के वह सभी सूत्र है, जिनकी अज्ञानता में कोई व्यक्ति प्रतिकूल स्थितियों तनावग्रस्त और बैचेन रहकर जीवन का अनमोल समय गंवा देता है।
आदौ देवकीदेवी गर्भजननं गोपीगृहे वर्द्धनम् ।
मायापूतन जीविताप हरणम् गोवर्धनोद्धरणम् ।।
कंसच्छेदन कौरवादि हननं कुंतीतनुजावनम् ।
एतद् भागवतम् पुराणकथनम् श्रीकृष्णलीलामृतम् ।।
भावार्थ यह है कि मथुरा में राजा कंस के बंदीगृह में भगवान विष्णु का भगवान श्रीकृष्ण के रुप में माता देवकी के गर्भ से अवतार हुआ। देवलीला से पिता वसुदेव ने उन्हें गोकुल पहुंचाया। कंस ने मृत्यु भय से श्रीकृष्ण को मारने के लिए पूतना राक्षसी को भेजा। भगवान श्रीकृष्ण ने उसका अंत कर दिया। यहीं भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रदेव के दंभ को चूर कर गोवर्धन पर्वत को अपनी ऊं गली पर उठाकर गोकुलवासियों की रक्षा की। बाद में मथुरा आकर भगवान श्रीकृष्ण ने अत्याचारी कंस का वध कर दिया। कुरुक्षेत्र के युद्ध में कौरव वंश का नाश हुआ। पाण्डवों की रक्षा की। भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता के माध्यम से कर्म का संदेश जगत को दिया। अंत में प्रभास क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण का लीला संवरण हुआ।
महाभारत में भीष्म से सीखिए निष्ठा
महाभारत एक बहुनायक प्रधान रचना है। इस कथा में कई नायक हैं, जिनके जीवन पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। हर पात्र का एक विशेष गुण है और वह हमें इसी का संदेश भी देता है। महाभारत का पहला ऐसा पात्र है भीष्म। भीष्म पितामह जैसी निष्ठा महाभारत के अन्य पात्रों में कम ही दिखाई देती है। पितामह भीष्म का नाम देवव्रत था उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य की जो भीष्म प्रतिज्ञा की इस कारण उनका नाम भीष्म पढ़ गया। हस्तिनापुर राज्य के राजा का पद अस्वीकार कर दो पीढिय़ों के बाद उन्हीं की मौजूदगी में हुए भीषण नरसंहारकारी महायुद्ध के वे दृष्टा बने। उन्हें यह ज्ञात होने पर भी कि कौरवों ने अधर्म और छल से पांडवों को राज्य से हटा दिया फिर भी वे निष्ठा पूर्वक कौरवों का साथ निभाते रहें। जबकि हृदय से तो वे पांडवों के साथ ही थे।
भीष्म की ही निष्ठता का प्रमाण है कि उन जैसे वीर ने दस दिन तक लगातार युद्ध कर पांडवों की सेना को समाप्त कर ही रहे हैं किंतु कृष्ण के द्वारा अर्जुन को भीष्म के पास भेजे जाने पर उन्होंने स्वयं अपनी ही पराजय का गुप्त राज अर्जुन को बताया था। यह सत्य के प्रति उनकी निष्ठा थी।हमें भीष्म जैसे व्यक्तियों से जो कि नि:संतान होते हुए भी पितामह कहलाए जिनका श्राद्ध आज भी हर सनातन धर्म का अनुयायी करता है।हमें भी उनके जीवन के आदर्शों को अपने जीवन में उतारकर जीवन को विभिन्न आनंदों के साथ जीना चाहिए। जीवन में बहुत सी घटनाएं हमें हमारी प्रतिज्ञाओं से अलग हटा देती है। भीष्म पर भी कई बार दुविधा के क्षण आए किंतु वे अपनी प्रतिज्ञा से हटे नहीं।
कर्ण ने दिया मित्रता का संदेश
जीवन मित्रों के बिना अधूरा है। महाभारत काल में यदि मित्रता का प्रसंग हो और दुर्योधन और कर्ण की मित्रता की बात न हो ऐसा कभी नहीं हो सकता। कर्ण-दुर्योधन की मित्रता का परिचय हमें इस घटना से मिलता है जब श्रीकृष्ण संधि दूत बनकर हस्तिनापुर गए थे तो लौटते समय उन्होंने कर्ण को अपने रथ पर बैठाकर बताया कि वे सूतपुत्र नहीं बल्कि कुंती पुत्र हैं और कहा कि यदि तुम पांडवों की ओर से युद्ध करोगे तो राज्य तुम्हें ही मिलेगा। कर्ण ने इस बात पर जो कहा वह उनकी दोस्ती की सच्ची मिसाल है। उन्होने स्पष्ट शब्दों में कहा कि पांडवों के पक्ष में श्रीकृष्ण आप है तो विजय तो पांडवों की निश्चय ही है। परंतु दुर्योधन ने मुझको आज तक बहुत मान-सम्मान से अपने राज्य में रखा है तथा मेरे भरोसे ही वह युद्ध में खड़ा है। ऐसी संकट की स्थिति में यदि मैं उसे छोड़ता हूं तो यह अन्याय होगा। तथा मित्र धर्म के विरुद्ध होगा। श्रीकृष्ण अर्जुन के परम सखा थे।
द्रोपदी की साड़ी इतनी लंबी कैसे हो गई...?
महाभारत में द्युत क्रीड़ा के समय युद्धिष्ठिर ने द्रोपदी को दांव पर लगा दिया और दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि ने द्रोपदी को जीत लिया। उस समय दुशासन द्रोपदी को बालों से पकड़कर घसीटते हुए सभा में ले आया। वहां मौजूद सभी बड़े दिग्गज मुंह झुकाएं बैठे रह गए। देखते ही देखते दुर्योधन के आदेश पर दुशासन ने पूरी सभा के सामने ही द्रोपदी की साड़ी उतारना शुरू कर दी। सभी मौन थे, पांडव भी द्रोपदी की लाज बचाने में असमर्थ हो गए। तब द्रोपदी द्वारा श्रीकृष्ण का आव्हान किया गया और श्रीकृष्ण ने द्रोपदी की लाज उसकी साड़ी को बहुत लंबी करके बचाई।
श्रीकृष्ण द्वारा द्रोपदी की लाज बचाई गई। इसके पीछे द्रोपदी का ही एक ऐसा पुण्य कर्म है जिसकी वजह से द्रोपदी पूरी सभा के सामने अपमानित होने से बच गई। वह पुण्य कर्म यह था कि एक बार द्रोपदी गंगा में स्नान कर रही थी उसी समय एक साधु वहां स्नान करने आया। स्नान करते समय साधु की लंगोट पानी में बह गई और वह इस अवस्था में बाहर कैसे निकले? इस कारण वह एक झाड़ी के पीछे छिप गया। द्रोपदी ने साधु को इस अवस्था में देख अपनी साड़ी से लंगोट के बराबर कोना फाड़कर उसे दे दिया। साधु ने प्रसन्न होकर द्रोपदी को आशीर्वाद दिया।
एक अन्य कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण द्वारा सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया गया, उस समय श्रीकृष्ण की अंगुली भी कट गई थी। अंगुली कटने पर श्रीकृष्ण का रक्त बहने लगा। तब द्रोपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर श्रीकृष्ण की अंगुली पर बांधी थी। इस कर्म के बदले श्रीकृष्ण ने द्रोपदी को आशीर्वाद दिया था कि एक दिन अवश्य तुम्हारी साड़ी की कीमत अदा करुंगा।
इन कर्मों की वजह से श्रीकृष्ण ने द्रोपदी की साड़ी को इस पुण्य के बदले ब्याज सहित इतना बढ़ाकर लौटा दिया और द्रोपदी की लाज बच गई।
सर्वश्रेष्ठ गुरुभक्त एकलव्य
एक भील बालक जिसका नाम एकलव्य था। उसे धनुष-बाण चलाना बहुत प्रिय था। वह धनुर्विद्या सीखना चाहता था। इसीलिए वह गुरु द्रोणाचार्य के पास पहुंचा। परंतु जब द्रोणाचार्य को मालूम हुआ कि यह बालक भील है तब उन्होंने उसे शिक्षा देने से इंकार कर दिया।
एकलव्य निराश होकर वहां से लौट आया परंतु उसने हार नहीं मानी और गुरु द्रोण की मूर्ति बनाई और उसके आगे अभ्यास करने लगा।एक दिन गुरु द्रोण और पांडव जंगल से गुजर रहे थे। उनके साथ उनका एक कुत्ता भी था। कुत्ता भौंकते हुए आगे-आगे चल रहा था। कुत्ता भौंकते हुए थोड़ी आगे चला गया और जब वह वापस आया तो उसका मुंह बाणों से भरा हुआ था। यह देखकर गुरु आश्चर्यचकित रह गए कि बाण इतनी कुशलता से मारे गए थे कि कुत्ते मुंह से रक्त की बूंद भी नहीं निकली।
द्रोणाचार्य ने सभी शिष्यों को उस कुशल धनुर्धर की खोज करने की आज्ञा दी। जल्द ही उस धनुर्धर को खोज लिया गया। धनुर्धर वही भील बालक एकलव्य था, उसने बताया कि गुरु द्रोणाचार्य द्वारा धनुर्विद्या सीखाने से इंकार करने के बाद मैंने इनकी मूर्ति बनाकर उसी से प्रेरणा पाई है। द्रोणाचार्य चूंकि अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे, इसलिए अर्जुन को भी पीछे छोडऩे वाले एकलव्य से उन्होंने गुरु दक्षिणा में अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने बिना विचार किए अपने गुरु को गुरुदक्षिणा में अंगूठा काटकर दे दिया।
आज भी एकलव्य की गुरुभक्ति से बढ़कर ओर कोई उदाहरण दिखाई नहीं देता।
ऐसे हुई कौरवों की उत्पत्ति
धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे। उनमें दुर्योधन सबसे ज्येष्ठ था। दुर्योधन का जन्म कैसे हुआ तथा उसके शेष भाइयों का नाम क्या था? महाभारत के आदिपर्व में इस संदर्भ में विस्तृत उल्लेख मिलता है। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी दो वर्ष तक गर्भवती रही लेकिन संतान का जन्म न हुआ। भयभीत होकर गांधारी ने गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के गोले के समान मांस-पिण्ड निकला। यह बात जब महर्षि व्यास को पता चली तो उन्होंने गांधारी से कहा कि एक सौ एक कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो तथा इस मांस पिण्ड पर ठंडा जल छिड़को।
जल छिड़कने पर उस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। व्यासजी की आज्ञानुसार गांधारी ने प्रत्येक कुण्ड में मांस पिण्ड के टुकड़े डाल दिए। समय आने पर उन्हीं मांस-पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में शेष पुत्र व एक पुत्री का जन्म हुआ।
धृतराष्ट्र के शेष पुत्रों के नाम युयुस्तु, दु:शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसंध, सम, सह, विंद, अनुविंद, दुद्र्धर्ष, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कर्ण, विविंशति, विकर्ण, शल, सत्व, सुलोचन, चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, दुर्मद, दुर्विगाह, विवत्सु, विकटानन, ऊर्णानाभ, सुनाभ, नंद, उपनंद, चित्रबाण, चित्रवर्मा, सुवर्मा, दुर्विमोचन, आयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुण्डल, भीमवेग, भीमबल, बलाकी, बलवद्र्धन, उग्रायुध, सुषेण, कुण्डधार, महोदर, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृन्दारक, दृढ़वर्मा, दृढ़क्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ़संध, जरासंध, सत्यसंध, सद:सुवाक, उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्पराजय, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढ़हस्त, सुहस्त, बातवेग, सुवर्चा, आदित्यकेतु, बह्वाशी, नागदत्त, अग्रयायी, कवची, क्रथन, कुण्डी, उग्र, भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, रौद्रकर्मा, दृढऱथाश्रय, अनाधृष्य, कुण्डभेदी, विरावी, प्रमथ, प्रमाथी, दीर्घरोमा, दीर्घबाहु, महाबाहु, व्यूढोरस्क, कनकध्वज, कुण्डाशी और विरजा। धृतराष्ट्र की पुत्री का नाम दुश्शला था।
गंगापुत्र भीष्म कौन थे पिछले जन्म में?
गंगापुत्र भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था अर्थात उनकी इच्छा के बिना यमराज भी उनके प्राण हरने में असमर्थ थे। वे बड़े पराक्रमी तथा भगवान परशुराम के शिष्य थे। भीष्म पिछले जन्म में कौन थे तथा उन्होंने ऐसा कौन सा पाप किया जिनके कारण उन्हें मृत्यु लोक में रहना पड़ा? इसका वर्णन महाभारत के आदिपर्व में मिलता है।
उसके अनुसार-गंगापुत्र भीष्म पिछले जन्म में द्यौ नामक वसु थे। एक बार जब वे अपनी पत्नी के साथ विहार करते-करते मेरु पर्वत पहुंचे तो वहां ऋषि वसिष्ठ के आश्रम पर सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाली नंदिनी गौ को देखकर उन्होंने अपने भाइयों के साथ उसका अपहरण कर लिया। जब ऋषि वसिष्ठ को इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने द्यौ सहित सभी भाइयों को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। जब द्यौ तथा उनके भाइयों को ऋषि के शाप के बारे में पता लगा तो वे नंदिनी को लेकर ऋषि के पास क्षमायाचना करने पहुंचे। ऋषि वसिष्ठ ने अन्य वसुओं को एक वर्ष में मनुष्य योनि से मुक्ति पाने का कहा लेकिन द्यौ को अपने कर्मों का फल भुगतने के लिए लंबे समय तक मृत्यु लोक में रहने का शाप दिया।
द्यौ ने ही भीष्म के रूप में भरत वंश में जन्म लिया तथा लंबे समय तक धरती पर रहते हुए अपने कर्मों का फल भोगा।
भगवान कृष्ण का महानिर्वाण
धर्म के विरुद्ध आचरण करने के दुष्परिणामस्वरूप अन्त में दुर्योधन आदि मारे गये और कौरव वंश का विनाश हो गया। महाभारत के युद्ध के पश्चात् सान्तवना देने के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण गांधारी के पास गये। गांधारी अपने सौ पुत्रों के मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थी। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दिया कि तुम्हारे कारण जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का नाश हुआ है उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी आपस में एक दूसरे को मारने के कारण नाश हो जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यादवों की मति फेर दी।
एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। इस पर दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाए। उनके शाप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आये। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर एक दूसरे को मारने लगे। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण को छोड़ कर एक भी यादव जीवित न बचा।
इस घटना के बाद भगवान श्रीकृष्ण महाप्रयाण कर स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गए। जरा नामक एक बहेलिये ने भूलवश उन्हें हिरण समझ कर विषयुक्त बाण चला दिया जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्री कृष्णचन्द्र स्वधाम को पधार गये। इस तरह गांधारी तथा ऋषि दुर्वासा के श्राप से समस्त यदुवंश का नाश हो गया।
रिश्तों की कश्मकश से भरी किताब
इंसानी रिश्तों पर कई किताबें, ग्रंथ रचे गए हैं। इंसानी रिश्ते जितने सुलझे दिखाई देते हैं, भीतर से उतने ही उलझे हुए होते हैं। हिंदू संस्कृति में रिश्तों पर सबसे बड़ा ग्रंथ अगर कोई है तो वह निर्विवाद रूप से महाभारत है। एक परिवार या कुटुंब में जितने रिश्तों पर लिखा जा सकता है, वह सारे रिश्ते महाभारत में मिलते हैं। लोग महाभारत को युद्ध पर आधारित ग्रंथ मानकर छोड़ देते हैं लेकिन यह रिश्तों का ग्रंथ है।
महाभारत की खासियत यह है कि इसमें हर रिश्ते के सारे पहलू मौजूद हैं। पिता-पुत्र के आदर्श रिश्ते भी हैं तो ऐसे पिता पुत्र भी हैं जिनके बीच सिर्फ कपट है। महाभारत रिश्ते बनाना तो सिखाती भी है, उसे निभाने के लिए कितना समर्पण चाहिए यह भी बताता है। इस ग्रंथ में सारे जायज और नाजायज रिश्ते हैं। कई रिश्ते तो ऐसे जो आज के दौर में समझना मुश्किल है। शायद इन्हीं रिश्तों के कारण महाभारत को घर में रखने से मना किया गया है। इन रिश्तों की पवित्रता और पारदर्शिता को केवल इस ग्रंथ को पढ़कर ही समझा जा सकता है।
पांचवा वेद
महाभारत को पांचवा वेद माना गया है। महर्षि वेद व्यास ने इसे इसी के कालखंड में लिखा था और खुद वेद व्यास महाभारत की कथा की शुरुआत से आखिरी तक एक पात्र के रूप में मौजूद भी हैं। वेदों का सारा ज्ञान वेद व्यास ने इस ग्रंथ में डाल दिया है। हिंदू धर्म ग्रंथों में यह आकार और घटनाक्रम दोनों के अनुसार सबसे बड़ा और रोचक ग्रंथ है।
महाभारत लिखकर भी खुश नहीं थे वेद व्यास
महाभारत को हिंदू धर्म का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। महाभारत की रचना से कई रोचक बातें जुड़ी हुई हैं, जो हर व्यक्ति नहीं जानता। महाभारत की कहानी इतनी विस्तृत थी कि वेद व्यासजी कई सालों तक केवल इसी बात पर शोध करते रहे कि इसकी रचना का सूत्र धार किसे बनाया जाए। आइए जानते हैं महाभारत की रचना से जुड़ी कुछ रोचक बातें। यह भी एक रोचक बात है कि इतना बड़ा और कालजयी ग्रंथ लिखने के बाद भी वेद व्यास इससे खुश नहीं थे।
- महाभारत की रचना एक लाख श्लोकों से की गई थी।
- इसके लेखन के लिए भगवान गणपति को प्रसन्न किया। गणेश ने एक शर्त रखी कि मैं लगातार लेखन करूंगा, अगर बीच में रुके तो लिखना बंद कर दूंगा।
- वेद व्यास ने गणेशजी की शर्त मान ली और खुद भी एक शर्त रख दी कि गणेश लिखने से पहले हर श्लोक को समझकर ही लिखेंगे। गणपति ने यह बात मान ली। वेद व्यास जल्दी-जल्दी श्लोक बनाकर बोलने लगे। हर 10-15 श्लोक के बाद वे एक ऐसा श्लोक बोलते जिसे समझने के लिए गणपति को भी थोड़ी देर ठहरना पड़ता। इसी दौरान वेद व्यास नए श्लोक बना लेते।
- महाभारत की रचना वेद व्यास ने महाभारत की घटना के पहले ही कर ली थी। वे स्वयं भी उस कथा के एक पात्र थे।
- महाभारत की रचना से पहले वेद व्यास ने वेद के चार भाग किए थे और उनके शिष्यों ने उन्हीं चार वेदों के आधार पर उपनिषदों की रचना की।
- महाभारत में वेद व्यास ने सृष्टि के आरंभ से लेकर कलयुग तक का वर्णन है।
- महाभारत की रचना के बाद भी वेद व्यास खुश नहीं थे। वे उसकी रचना से संतुष्ट नहीं हुए। उन्हें कथा में कोई कमी खल रही थी। एक दिन वे उदास बैठे थे और उधर से नारदजी गुजरे। नारदजी ने उन्हें सुझाया कि आपकी कथा संसार पर आधारित है। इसलिए इसकी रचना के बाद आप दु:खी हैं। आप ऐसा ग्रंथ रचें जिसके केंद्र में भगवान हों।
- इसके बाद ही वेद व्यास ने श्रीमद् भागवत की रचना की।
महाभारत सिखाती है लाइफ मैनेजमेंट....
महाभारत की कहानी केवल कोई पौराणिक कथा भर नहीं है। यह जीवन का सार है। अगर आधुनिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो मैनेजमेंट के सारे सूत्र महाभारत में मौजूद है। महाभारत हमें कर्म की शिक्षा और व्यवहारिक जीवन का ज्ञान दोनों बातें बताती हैं। महाभारत की घटनाओं से हम कई महत्वपूर्ण बातें सीख सकते हैं। हिंदू धर्म के चार प्रमुख ग्रंथ हमें चार बातें सिखाते हैं, रामायण रहना, महाभारत करना, गीता जीना और भागवत मरना सिखाती है।
आज हम महाभारत से कर्म और लाइफ मैनेजमेंट के कुछ सूत्र सीख सकते हैं।
- महाभारत का सबसे बड़ा सूत्र है सकारात्मक दृष्टिकोण। जो भी हो रहा है उसमें सकारात्मक दृष्टि से देखें। उसमें अपने लिए कुछ नई संभावनाएं तलाशें। जब युधिष्ठिर और दुर्योधन के बीच राज्य का बंटवारा हुआ तो दुर्योधन को हस्तिनापुर का राज्य मिला और पांडवों को वीरान जंगल खांडवप्रस्थ, लेकिन पांडव दु:खी नहीं हुए उन्होंने भगवान कृष्ण की मदद से उसे इंद्रप्रस्थ बना दिया।
- संयमित भाषा, महाभारत सिखाती है कि शत्रुओं से भी संयमित भाषा से बात करनी चाहिए। जिससे हमारे भावी संकट टल सकते हैं। इंद्रप्रस्थ में द्रोपदी ने दुर्योधन को अंधे का बेटा कहकर मजाक उड़ाया और खुद अपमानित हुई।
- शांति का रास्ता सबसे श्रेष्ठ होता है। महाभारत सिखाती है कि जीवन में सबसे मुश्किल से केवल शांति ही मिलती है। भगवान कृष्ण ने शांति के लिए मथुरा छोड़ द्वारिका बसाई। महाभारत युद्ध के पहले भी वे खुद शांति दूत बने थे।
- आज के प्रतिस्पर्धा के दौर में सबसे कठिन है प्रतियोगिता में टिकना। भगवान कृष्ण के जीवन से सीखा जा सकता है कि जब तक आपको अपने शत्रु की कमजोरियों का पता न हो, उससे दूर ही रहना चाहिए। जब हमें दुश्मन को हराने का सूत्र मिल जाए तभी किसी से मुकाबले में उतरना चाहिए।
- पांडवों में एकता का सूत्र द्रोपदी थी, जो कि प्रेम का प्रतीक थी और सौ कौरव भाइयों में एकता का उद्देश्य राज्य का लालच था। हमारे संबंधों के केंद्र में जैसी भावनाएं होंगी, उसका परिणाम भी वैसा ही होगा। पांडव प्रेम से अंत तक साथ रहे, कौरव युद्ध में मारे गए।
जानिए महाभारत के हर पहलू को...
महाभारत को लेकर हमेशा लोगों में कई तरह की जिज्ञासाएं रही हैं। हिंदू धर्म ग्रंथों में यह सबसे बड़ा और विस्तृत ग्रंथ है। इस कहानी में वेदों और उपनिषदों का सारा ज्ञान मौजूद है, इसलिए इसे पांचवा वेद भी कहा जाता है। महाभारत महर्षि वेद व्यास की रचना है। वे इस कथा के रचनाकार भी हैं और खुद इस कथा में एक पात्र भी है। वेद व्यास का असली नाम कृष्णद्वैपायन व्यास था।
इस ग्रंथ में ज्ञान का अथाह भंडार है। चारों वेद, अठारह पुराण, 108 उपनिषद और शेष धर्म सूत्रों का ज्ञान भी अकेले इस ग्रंथ में है।इसमें मौजूद ज्ञान के भंडार के बारे में खुद वेद व्यास ने महाभारत में लिखा है कि - यन्नेहास्ति न कुत्रचित। यानी जिस विषय की चर्चा इस ग्रंथ में नहीं की गई है, उसकी चर्चा अन्य कहीं भी उपलब्ध नहीं है इसीलिए महाभारत को पांचवा वेद कहा गया है। अठारह अध्यायों (पर्वों) में लिखे गए इस ग्रंथ में कुल एक लाख श्लोक हैं। इसी कारण इसे शतसाहस्त्री संहिता भी कहते हैं। इस ग्रंथ के नायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। महाभारत में अठारह पर्व क्रमश: आदिपर्व, सभापर्व, वनपर्व, विराटपर्व, उद्योगपर्व, भीष्मपर्व, द्रोणपर्व, कर्णपर्व, शल्यपर्व, सौप्तिकपर्व, स्त्रीपर्व, शांतिपर्व, अनुशासनपर्व, अश्वमेधिकपर्व, आश्रमवासिकपर्व, मौसलपर्व, महाप्रास्थानिकपर्व तथा स्वर्गारोहणपर्व है।
महाभारत की दस वे 'गुप्त' बातें जो सिर्फ चंद लोगों को हैं पता
महाभारत ऐसा महाकाव्य है, जिसके बारे में जानते तो दुनिया भर के लोग हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है, जिन्होंने उसे पूरा पढ़ा हो। कौरवों और पांडवों के बीच दुश्मनी की इस महागाथा महाभारत के बारे में तमाम ऐसी बातें हैं , जिनसे लोग आमतौर पर अपरिचित हैं।
28वें वेदव्यास ने लिखी महाभारत ज्यादातर लोगों को लगता है कि महाभारत वेदव्यास ने लिखी थी। यह पूरा सच नहीं है। वेदव्यास कोई नाम नहीं, बल्कि एक उपाधि थी, जो वेदों का ज्ञान रखने वाले लोगों को दी जाती थी। कृष्णद्वैपायन से पहले 27 वेदव्यास हो चुके थे, जबकि वह खुद 28वें वेदव्यास थे। उनका नाम कृष्णद्वैपायन इसलिए रखा गया, क्योंकि उनका रंग सांवला (कृष्ण) था और वह एक द्वीप पर जन्मे थे।
गीता सिर्फ एक नहीं माना जाता है कि श्रीमद्भगवद्गीता ही अकेली गीता है, जिसमें कृष्ण द्वारा दिए गए ज्ञान का वर्णन है। यह सच है कि श्रीमद्भगवद्गीता ही संपूर्ण और प्रामाणिक गीता है, लेकिन इसके अलावा कम से कम 10 गीता और भी हैं। व्याध गीता, अष्टावक्र गीता और पाराशर गीता उन्हीं में से हैं।
द्रौपदी के लिए दुर्योधन के इशारे का मतलब मौलिक महाभारत में यह प्रसंग आता है कि चौसर के खेल में युधिष्ठिर से जीतने के बाद दुर्योधन ने द्रौपदी को अपनी बाईं जांघ पर बैठने के लिए कहा था। ज्यादातर लोगों की नजर में इस वजह से भी दुर्योंधन खलनायक है। उसमें तमाम बुराइयां जरूर थीं, लेकिन उस समय की परंपरा के मुताबिक यह द्रौपदी का अपमान नहीं था। दरअसल, उस जमाने में बाईं जंघा पर या बाईं ओर पत्नी को और दाईं जंघा पर या दाईं ओर पुत्री को बैठाया जाता था। यही वजह है कि धार्मिक पोस्टरों या कैलेंडरों में देवियों को बाईं तरफ स्थान दिया जाता है। हिंदू रीति-रिवाजों में शादी के समय भी पत्नी, पति के बाईं ओरखड़ी होती है।
धर्म की कोई एक परिभाषा नहीं तमाम लोगों को लगता होगा कि महाभारत धर्म का पाठ सिखाती है। कुछ लोग महाभारत को सत्य और असत्य से भी जोड़ते हैं, लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। मौलिक महाभारत में ऐसा कोई प्रसंग नहीं आता, जिसमें सही और गलत की सटीक परिभाषा दी गई हो। दरअसल, सही और गलत परिप्रेक्ष्य तथा परिस्थिति के हिसाब से बदलता है। जैसे कि एक ही परिस्थिति में भीष्म और अजरुन ने अलग-अलग निर्णय लिए और दोनों को सही माना गया।
भीष्म ने अंबा से विवाह करने से मना कर दिया क्योंकि उन्होंने अपने पिता के समक्ष जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने की प्रतिज्ञा ली थी। उनके लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन ही सही था। अजरुन के सामने ऐसी ही परिस्थिति आई, जब उलुपी ने उनसे विवाह करने की इच्छा जाहिर की और प्रस्ताव अस्वीकार होने पर आत्महत्या करने की बात कह डाली। अजरुन भी उस समय ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर रहे थे, लेकिन उनके लिए उलुपी का जीवन ज्यादा महत्वपूर्ण था।
इसीलिए, अजरुन ने उसकी रक्षा करने को प्राथमिकता दी और ब्रह्मचर्य व्रत तोड़ने के अपने निर्णय को सही ठहराया। महाभारत में सही और गलत का ऐसा ही एक और प्रसंग आता है। ज्यादातर लोग मानते हैं कि द्रोणाचार्य ने न्याय नहीं किया जब उन्होंने एकलव्य से अंगूठा मांगकर, अजरुन को आगे किया। यह पूरा सच नहीं है। महाभारत के अनुसार, एक बार तालाब में स्नान करते समय जब मगरमच्छ ने द्रोणाचार्य को जकड़ लिया था, तब अजरुन ने उनकी जान बचाई थी। उसी समय द्रोणाचार्य ने अजरुन को वचन दिया था कि वह उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ योद्धा बनाएंगे। अजरुन को दिए गए इस वचन को निभाने के लिए ही उन्होंने गुरु-दक्षिणा के तौर पर एकलव्य से अंगूठा मांगा। इससे स्पष्ट है कि सही और गलत की कोई सटीक परिभाषा नहीं गढ़ी जा सकती।
राशियां नहीं थीं ज्योतिष का आधार महाभारत के दौर में राशियां नहीं हुआ करती थीं। ज्योतिष 27 नक्षत्रों पर आधारित था, न कि 12 राशियों पर। नक्षत्रों में पहले स्थान पर रोहिणी था, न कि अश्विनी। जैसे-जैसे समय गुजरा, विभिन्न सभ्यताओं ने ज्योतिष में प्रयोग किए और चंद्रमा और सूर्य के आधार पर राशियां बनाईं।
चार पटल वाला पासा शकुनि ने जिस पासे से पांडवों को चौसर का खेल हराया था, कहते हैं उसके 4 पटल थे। आमतौर पर लोगों को 6 पटल वाले पासे के बारे में ही पता है। हालांकि, महाभारत में उस चार पटल वाले पासे की सटीक आकृति का जिक्र नहीं आता। यह भी नहीं बताया गया है कि वह किस धातु या पदार्थ का बना था। महाभारत के मुताबिक, उस पासे का हर एक पटल एक-एक युग का प्रतीक था। चार बिंदु वाले पटल का अर्थ सतयुग, तीन बिंदु वाले पटल का अर्थ त्रेतायुग, दो बिंदु वाले पटल का द्वापरयुग और एक बिंदु वाले पटल का अर्थ कलियुग था।
मंत्र से बन जाते थे ब्रह्मास्त्र ज्यादातर लोगों के बीच यही मान्यता प्रचलित है कि ब्रह्मास्त्र दैवीय अस्त्र थे, जो देवताओं की तपस्या के बाद हासिल होते थे। लेकिन, यह भी पूरा सच नहीं है। कुछ ब्रह्मास्त्र साफ-साफ नजर आते थे, लेकिन कुछ ऐसे भी थे, जिन्हें मंत्रों की शक्ति से संहारक अस्त्र बना दिया था। जैसे, रथ के पहिए को चक्र बना देना। मंत्रोच्चरण के साथ ही ब्रह्मास्त्र दुश्मन का सिर काट दिया करते थे। लेकिन, एक खास बात यह भी थी कि मंत्रों के जरिए उन्हें बेअसर भी किया जा सकता था और ये उन्हीं पर इस्तेमाल होता था, जिनके पास वही शक्तियां हों।
विदेशी भी शामिल हुए थे लड़ाई में भारतीय युद्धों में विदेशियों के शामिल होने का इतिहास बहुत पुराना है। महाभारत की लड़ाई में भी विदेशी सेनाएं शामिल हुई थीं। यह अलग बात है कि ज्यादातर लोगों को लगता है कि महाभारत की लड़ाई सिर्फ कौरवों और पांडवों की सेनाओं के बीच लड़ी गई थी। लेकिन ऐसा नहीं है। मौलिक महाभारत में ग्रीक और रोमन या मेसिडोनियन योद्धाओं के लड़ाई में शामिल होने का प्रसंग आता है।
दुशासन के पुत्र ने मारा अभिमन्यु को भले ही यह माना जाता हो कि अभिमन्यु की हत्या चक्रव्यूह में सात महारथियों द्वारा की गई थी। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। मौलिक महाभारत के मुताबिक, अभिमन्यु ने बहादुरी से लड़ते हुए चक्रव्यूह में मौजूद सात में से एक महारथी (दुर्योधन के बेटे) को मार गिराया था। इससे नाराज होकर दुशासन के बेटे ने अभिमन्यु की हत्या कर दी थी।
तीन चरणों में लिखी महाभारत वेदव्यास की महाभारत को बेशक मौलिक माना जाता है, लेकिन वह तीन चरणों में लिखी गई। पहले चरण में 8,800 श्लोक, दूसरे चरण में 24 हजार और तीसरे चरण में एक लाख श्लोक लिखे गए। वेदव्यास की महाभारत के अलावा भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणो की संस्कृत महाभारत सबसे प्रामाणिक मानी जाती है।
अंग्रेजी में संपूर्ण महाभारत दो बार अनूदित की गई थी। पहला अनुवाद, 1883-1896 के बीच किसारी मोहन गांगुली ने किया था और दूसरा मनमंथनाथ दत्त ने 1895 से 1905 के बीच। 100 साल बाद डॉ. देबरॉय तीसरी बार संपूर्ण महाभारत का अंग्रेजी में अनुवाद कर रहे हैं।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,अंग्रेजी में संपूर्ण महाभारत दो बार अनूदित की गई थी। पहला अनुवाद, 1883-1896 के बीच किसारी मोहन गांगुली ने किया था और दूसरा मनमंथनाथ दत्त ने 1895 से 1905 के बीच। 100 साल बाद डॉ. देबरॉय तीसरी बार संपूर्ण महाभारत का अंग्रेजी में अनुवाद कर रहे हैं।
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष
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