नवरात्रि में देवी भक्ति के क्यों और कैसे होते हैं शुभ प्रभाव?
हर काम में शक्ति की जरूरत होती है। इससे साफ है कि संसार में रचना, पालन और विनाश जैसा
अद्भुत काम किसी महाशक्ति द्वारा ही संभव है। हिन्दू धर्म में महाशक्ति का यही
स्वरूप आद्यशक्ति के नाम से जाना जाता है। शास्त्रों के मुताबिक आदि शक्ति
परब्रह्म का ही रूप है, जो साकार न होकर भी चर-अचर जगत में फैली कई रूपों व
शक्तियों में नजर आती है।
वेदों में भी देवी ने खुद को हर काम का फल और वैभव देने वाली बताया है। वहीं
दुर्गासप्तशती में भी देवी की महिमा का एक मंत्र उजागर करता है कि पूरे ब्रह्माण्ड
को शक्ति और ऊर्जा निराकार रूप में आदिशक्ति द्वारा ही मिलती है। लिखा है कि -
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:।।
जिसका मतबल यही है कि पंचतत्वों यानी आकाश, जल, वायु, अग्रि और पृथ्वी सहित सभी
प्राणियों में बसी शक्तिरूपा व प्राणदायी देवी को बार-बार मेरा नमस्कार है। साफ है
कि देवी ही ब्रह्माण्ड की अधिष्ठात्री है।
शास्त्रों के मुताबिक त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी शक्ति के अधीन
है और आदिशक्ति के जरिए ब्रह्मदेव जगत रचना करते है। ब्रह्मा के साथ यह शक्ति रूप
ब्राह्मी पुकारा जाता है। इसी तरह भगवान विष्णु जब इस शक्ति द्वारा ही जगत का पालन
करते हैं तो यह शक्ति रूप वैष्णवी के रूप में पूजा जाता है। इसी तरह शिव की संहार
शक्ति शिवा के रूप में जानी जाती है।
इसी तरह देवी के अलग-अलग रूप, शक्ति और गुणों के पीछे भी भक्त और साधकों की भावनाएं ही
जुड़ी हैं। भक्त की भावनाओं के मुताबिक आदिशक्ति वैसे ही स्वरूप को धारण करती है।
यही वजह है कि निराकार देवी शक्ति के अलग-अलग दिव्य स्वरूप जैसे महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा, जगदंबा, गायत्री आदि कई साकार
रूपों में पूजनीय है। इनके स्मरण द्वारा शक्ति साधना की गहरी आस्था जुड़ी है। ये
शक्तियां सुख-शांति, वैभव देने वाली, संकट, काल, भय,
कलह मुक्त जीवन और
हर सांसारिक मनोरथसिद्धि करने वाली मानी जाती है।
सरल शब्दों में सार यही है कि शक्ति उपासना असल में हर भक्त को उसकी गुण व
शक्तियों की ज्ञान व चेतना देती है। इससे मिली नई ऊर्जा आत्मविश्वास जगाकर कर्म के
लिए प्रेरित करती है।
गीता की इस बात में है बुरे नतीजों से बचने का सटीक उपाय
हर धर्म में अच्छी और बुरी ताकतों के बीच संघर्ष में अच्छाई की जीत और उसे अपनाने को ही ज़िंदगी में अपने साथ दूसरों के सुखों का सूत्र बताया गया है। हर इंसान जीवन में व्यक्तिगत तौर पर भी व्यावहारिक जीवन में हर रोज अच्छे-बुरे को चुनने की मानसिक जद्दोजहद में लगा रहता है।
अच्छे और शुभ की चाहत में इंसान की यह कवायद उसके मन को अस्थिर और अशांत भी करती है। मन को शांत और स्थायी सुख पाने के लिये ही हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भावतगीता में एक छोटा-सा सूत्र बताया गया है।
लिखा गया है कि - मन: स्वबुद्ध्यामलय नियम्य।
लिखा गया है कि - मन: स्वबुद्ध्यामलय नियम्य।
जिसका मतलब है कि अपनी पवित्र बुद्धि से ही मन को साधें। इसमें बुद्धि की पावनता के लिए कर्म, वचन और व्यवहार की बुराई से बचने का संकेत है। यह तभी मुमकिन है जब यहां बताए जा रहे कुछ बुरे काम और भावों से इंसान बचकर रहे।
जानिए शास्त्रों में बताई ये बुरी बातें।
अहं, कर्महीनता, नफरत यानी घृणा, बुरे संस्कार और आचरण, मान-सम्मान की लालसा, राग, मोह, आसक्ति, ईर्ष्या, द्वेष, स्त्री प्रसंग, स्वार्थ भाव के कारण मन व ह्दय से उदार न होना, दुराग्रह, झूठा दंभ।
स्वभाव, व्यवहार से जुड़ी ये सारी बातें इंसान के बुद्धि और विवेक पर सीधे ही बुरा असर डालती है, जिससे जीवन में आए बुरे बदलाव दु:ख और पीड़ा का कारण बन सकते हैं। इसलिए संयम और समझ के साथ इन बुरी बातों से बचने की यथासंभव कोशिश करें।
सफलता के सूत्र : ये बातें समझ लीं तो सक्सेस कभी साथ नहीं छोड़ेगी
जीवन में सफलता के लिए सिर्फ पैसे की जरुरत नहीं होती। पैसे से सिर्फ कुछ पल का सुख पाया जा सकता है शांति और सुकुन नहीं। अगर शांति के साथ सफलता चाहिए तो व्यवहार में कुछ छोटे-छोटे परिवर्तन करने जरुरी हैं।
महान संत रहीमदास ने अपने दोहों से ऐसे कई पहलुओं को उजागर किया है जहां आम आदमी मात ख जाता है। उन्होंने व्यवसायिक सफलता से ज्यादा व्यवहारिक सफलता पर जोर दिया है। रहीम ने मानव व्यवहार की उन खामियों को पकड़ा है जिसमें अधिकतर लोग मात खा जाते हैं।
रहीम का कहना है कि इन छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रख लिया जाए तो व्यक्ति व्यवसायिक रुप से तो सफल होता ही है, अपने समाज और देश में भी वो नाम कमाता है, रिश्ते बनाता है और ख्याति अर्जित कर सकता है। आइए जानते हैं ऐसे ही पांच बहुमूल्य सूत्रों के बारे में...
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
जो लोग अच्छे आचरण वाले होते हैं उन पर बुरी संगति का भी कोई असर नहीं पड़ता। बुरी संगत का असर उन पर ही होता है जिनके संस्कार कमजोर होते हैं। जैसे चंदन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं लेकिन चंदन पर सांप के जहर का कोई असर नहीं होता। ऐसे ही संसार में अच्छे जीवन के लिए अच्छे आचरण और उच्च संस्कारों की आवश्यकता होता है।
बजाय दूसरों को दोष देने के अगर हम खुद के संस्कारों और आचरण पर ध्यान देंगे तो ज्यादा सफल होंगे, फिर हम कितने ही बुरे लोगों के बीच रहते हों हम पर उनके कुसंस्कारों का कोई असर नहीं होगा।
मीठा सब से बोलिए, फैले सुख चहुँ ओरे।
वाशिकर्ण है मंत्र येही, ताज दे वचन कठोर।।
रिश्ते सबसे ज्यादा खराब होते हैं हमारी वाणी से। बिना सोचे-समझे बोली गई बात किसी के भी मन को आहत कर सकती है। बोलने से पहले सोचना जरुरी है। मीठा बोलने से सब ओर सुख फैलता है।
वशीकरण के लिए तंत्र-मंत्र की जरुरत नहीं। मीठे बोल से ही किसी को भी अपने वश में किया जा सकता है। इसलिए कठोर भाषाशैली को त्यागकर मीठा बोलने की आदत डालें, आपकी सफलता सुनिश्चित है।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय।।
जो दूसरों में बुराई खोजते हैं वे कभी समझ नहीं पाते कि संसार में बुराई आ कहां से रही है क्योंकि वो खुद ही एक बुराई की जकड़ में होते हैं।
दूसरों में बुराई खोजना या निंदा करना ही सबसे बड़ी बुराई है। अगर संसार से बुराई को खत्म करना हो तो शुरुआत खुद से होनी चाहिए।
जब हम अपने भीतर की बुराई को खत्म कर लेंगे तो संसार में बुराई रह ही नहीं जाएगी। हम लोगों की अच्छाई भी देख पाएंगे।
जब अच्छाई देखेंगे तो उसको ही आगे बढ़ाएंगे। इसलिए सुधार की शुरुआत खुद से करनी चाहिए।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय।।
रिश्ते कच्चे धागों की तरह होते हैं। प्रेम ही इस धागे की मजबूती होती है। लोग थोड़े से स्वार्थ के लिए प्रेम की बली चढ़ा देते हैं।
प्रेम के धागों के स्वार्थ के लिए नहीं तोड़ना चाहिए क्योंकि स्वार्थ की पूर्ति उतनी शांति नहीं देगी जितनी अशांति हमें रिश्तों को तोड़कर मिलती है। एक बार रिश्ते की डोर टूट जाए तो फिर नहीं जुड़ती।
अगर हम उसमें जोड़ लगा भी लें तो उसमें गांठ बांधनी पड़ती है। ये गांठ हमारे रिश्ते को पहले जैसा सौम्य नहीं रहने देती।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।
वो तरक्की किसी काम की नहीं होती जिसमें किसी दूसरे को सहायता ना मिल सके। हमारी सफलता या तरक्की अगर केवल हमारे लिए ही है तो वो बेकार है क्योंकि उससे हमारे अपनों और समाज को कोई लाभ नहीं मिल रहा है।
ऐसे में व्यक्ति खजूर के उस पेड़ की तरह हो जाता है जो ऊंचा तो बहुत हो जाता है लेकिन ना तो कोई उसकी छांव में बैठकर सुस्ता सकता है ना ही कोई आसानी से उसके फल तोड़ सकता है। ऐसा पेड़ बनने से कोई लाभ नहीं है।
सुख के सूत्र : जो इनको समझ ले वो दुःखी नहीं होगा
आज सुखी कोई नहीं है। हर किसी को कुछ ना कुछ दुःख या अशांति जरुर है। सुख और शांति दोनों मन के भीतर के भाव हैं। बाहरी पदार्थों में ढूंढ़ने से नहीं मिलेंगे। इसके लिए हमें मन के भीतर की यात्रा करनी होगी।
जब तक हम बाहरी दुनिया में रमे हुए हैं, तब तक भीतरी शांति नहीं पा सकते। कई बार प्रयासों के बाद भी सफलता नहीं मिलना, बहुत सफल होने पर भी अशांति का एहसास होना, बहुत संसाधनों को भोगने के बाद भी सुख का अनुभव नहीं होना ये सब भीतरी अशांति और असंतोष के परिणाम हैं।
महान संत कबीर दास ने जीवन में अशांति के ऐसे ही कारणों पर रोशनी डाली है। कबीर का दार्शनिक भाव अनूठा और सटीक है। आइए कबीर से सीखें भीतरी शांति और संतुष्टि पाने के कुछ उपाय।
साईं इतना दीजिए, जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय॥
भगवान से उतना ही मांगना चाहिए जितने की हमें जरुरत है। जरुरत से ज्यादा मांगी गई चीजें या तो बहुत देर से मिलती हैं या फिर मिलती ही नहीं।
कबीरदास भी भगवान से यही मांग रहे हैं कि उन्हें सिर्फ इतना मिल जाए जिसमें उनके परिवार का भरणपोषण हो जाए और उनके दर से कोई भी भूखा ना जाए।
तिनका कबहुं ना निंदए, जो पांव तले होए।
कबहुं उड़ अंखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥
पैर के नीचे आने वाले तिनकों को कभी भी बेकार या कमजोर नहीं समझना चाहिए। जब ये ही तिनका हवा से उड़कर आंख में गिर जाता हैं तो बहुत तकलीफ देता है।
ऐसे ही छोटे शत्रुओं को छोटा समझकर कभी भी नजर अंदाज नहीं करना चाहिए क्योंकि कभी कभी छोटा दुश्मन भी बड़ी हानि कर सकता है।
प्रतिस्पर्धा में हर तरह के लोगों का ध्यान रखना चाहिए। किसी को छोटा या कमजोर मानकर उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदली जाय॥
दुनिया में अधिकतर लोगों को समय की कीमत का अंदाजा नहीं है। समय अपनी गति से चल रहा है, लगातार, बिना रुके। लेकिन कई लोग अच्छे समय के इंतजार में दिन काट रहे हैं।
रात सोने में, दिन खाने-पीने और दूसरे कामों में जा रहा हैं लेकिन लोग इस बात की गहराई को समझ नहीं पा रहे हैं कि जो समय आज गुजर गया है वो कल नहीं आएगा। मनुष्य जीवन हीरे जैसा दुर्लभ और कीमती है लेकिन लोग इसे कौड़ियों के दाम खर्च कर रहे हैं।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥
जो लोग जल्दबाजी करते हैं वो अक्सर असफल हो जाते हैं। हर काम अपनी स्वभाविक गति से हो तो ही सफल होता है। हमें किसी भी काम में जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए।
लोग अक्सर थोड़े से प्रयासों के बाद ही प्रतिफल की इच्छा करने लगते हैं। जबकि किसी भी चीज का अपना एक समय होता है। जैसे माली दिन रात पौधों को सींचता है।
कई से घड़े पानी उनमें डालता है लेकिन फल तो ऋतु आने पर ही लगते हैं। पौधे अपनी ऋतु आने के पहले कभी फल नहीं देते।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥
सुखी रहना है तो इच्छाओं की पूर्ति नहीं, इच्छाओं पर नियंत्रण जरूरी है। हमें इच्छाओं का गुलाम नहीं होना चाहिए। जो लोग मन की हर बात पूरी करने में लगे रहते हैं वो कभी सुखी नहीं रह पाते क्योंकि एक इच्छा पूरी होते ही, मन में दूसरी इच्छा उठने लगती है।
शरीर खत्म हो जाता है लेकिन मन की इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। मन इस संसार की माया के वश में है। माया कभी खत्म हो नहीं सकती। इसलिए माया के वश में जो मन है, उस मन को हम अपने वश में कर लेंगे तो सुख के सारे रास्ते खुल जाएंगे।
संसार में सभी हमारे अपने हैं
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वेसन्तु निरामयाः।
सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्॥
सभी सुखी हों, सभी निरोगी रहें, सभी सबका मंगल देखें और किसी को भी किसी दुःख की प्राप्ति न हो। इस सिद्धांत पर आ जायें तो अशांति देखने को नहीं मिलेगी। क्या आप अपनी उँगली खराब देखना चाहते हो या आँख खराब देखना चाहते हो? क्या पैर खराब करना चाहते हो या पेट खराब देखना चाहते हो? जैसे आपका पूरा शरीर स्वस्थ हो तब आप स्वस्थ हैं, ऐसे ही ‘सभी के मंगल में मेरा मंगल है, सभी के स्वास्थ्य में मेरा स्वास्थ्य है, सभी की प्रसन्नता में मेरी प्रसन्नता है।’ - ऐसा एक-दूसरे के लिए सोचने लग जायें तो बुरे, क्रूर व्यक्तियों का भी मंगल हो जायेगा। जब हम उनको क्रूरता से देखेंगे तो वह हमें और क्रूरता से देखेंगे, ऐसे में मंगल नहीं हो सकता, अमंगल ही बढ़ेगा। आतंक से आतंक को मिटायेंगे तो आतंक बना ही रहेगा मिटेगा नहीं, क्या ख्याल है!
जो आपके प्रतिकूल है उसको लोहे चबवाने का मत सोचो, उसको खीर-खाँड़ खिलाने का सोचो तो आपके पास खीर-खाँड़ रहेगा। अपना भला चाहते हो तो दूसरों की भलाई कर लो, स्वास्थ्य चाहते हो तो स्वास्थ्य बाँटो, यश चाहते हो तो दूसरों को यश बाँटो, आप अमानी रहकर दूसरों को मान दो। आज यह पक्का करो कि अपने को जो अच्छा नहीं लगता वैसा व्यवहार दूसरों से नहीं करेंगे। मेरा मंगल हो ऐसा मैं चाहता हूँ तो मुझे ऐसा सोचना चाहिए कि सबका मंगल हो।
आप जो अपने लिए चाहते हो वही दूसरों के लिए करो। एकत्व के ज्ञान से सुख-शांति बढ़ती है। एकत्व होते हुए भी अनेकत्व दिखे, यह उस कलाकार की सुंदर व्यवस्था है ताकि सब एक-दूसरे के काम आयें। स्त्री और पुरुष की अगर भिन्नता न होती तो वे एक-दूसरे के काम नहीं आते और सृष्टि नहीं हो सकती थी लेकिन भिन्नता होते हुए अभिन्नता में स्नेह भी तो होता है। ग्राहक की अपनी आवश्यकता है तो माल बेचने वाले की अपनी आवश्यकता है।
ग्राहक और माल बेचनेवाला भीतर से एक-दूसरे को हित की भावनाएँ दें तो वहाँ स्वर्ग बन जायेगा परंतु दुकानदार सोचता है कि ग्राहक अंधा हो जाय ताकि मैं उसे लूट लूँ। ग्राहक सोचता है दुकानदार भले भूखा मरे, मुझे सामान सस्ता मिले। नौकर चाहता है कि बिना मेहनत के पगार मिल जाय और पगार देनेवाला सोचता है कि कम पगार में इसका खून चूस लूँ। इसलिए अशांति और शोषण बढ़ता है। अहं को पोषना और दूसरे को शोषना, यह अशांति का फल है। अहं को विसर्जित करके आत्मभाव से सभी का मंगल चाहो तो अपना भी मंगल हो जाता है।
तुझमें राम मुझमें राम, तुझमें ॐ मुझमें ॐ, सबमें ॐ समाया है।
कर लो सभी से स्नेह जगत में कोई नहीं पराया है॥
इस ज्ञान का आदर होने पर सारे विश्व में सुख और शांति होगी। इस ज्ञान से जितना दूर होते हैं उतनी ही अशांति होती है। अपना बाहर का अहं मिटाकर वास्तविक ‘मैं’ में शांत होना और उसका महत्त्व समझना सारी समस्याओं का समाधान है।
सफलता चाहें तो न करें ये 5 गलतियां !
अक्सर देखा जाता है कि कई लोग कम मेहनत या वक्त में बहुत फायदा होने का लालसा में गलत काम करने को भी तैयार हो जाते हैं। किंतु लंबे वक्त तक सुख देने वाले मेहनत के कामों से कतराते हैं। आखिरकार बुरे काम बुरे, नतीजे व पछतावा देते हैं और अच्छे काम मनचाहा सुख, शांति व संतोष।
धर्म के नजरिए से भी इंसान पाप कर्मों से तो जल्द जुड़ता है, वहीं सद्कर्मों और पुण्य कर्मों को लेकर ज्यादा सोच-विचार करता और वक्त लेता है। शास्त्रों में ऐसी प्रवृत्ति के पीछे 5 खास बातें बताई गई हैं, जिनके चलते सांसारिक जीवन में हर कोई जाने-अनजाने गलतियां करता रहता है। इसलिए सफलता की चाहत रखने और मेहनत करने वालों को गलत कामों से बचने के लिए 5 खास बातों को सामने रख अपने काम, सोच और बर्ताव पर हमेशा गौर करना जरूरी बताया गया है। जानिए कौन सी 5 गलतियां न करें। शास्त्रों में लिखा गया है कि -
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशा:।।
मतलब है कि इन पांच गलत बातों के सोच-विचार पर हावी होते ही गलतियां व पाप होते हैं, ये पांच क्लेश भी कहलाते हैं-
अविद्या - अज्ञानता का रूप है। सरल शब्दों में समझें तो हर स्थिति और विषय को लेकर सही समझ का अभाव। इससे बुरे कर्म या सोच में भी सुख और सुकून मिलता है, इसके नतीजे पाप के रूप में सामने आते हैं।
अस्मिता - मैं या अहं भाव। इसे मन, मस्तिष्क व विचारों को जकडऩे वाला माना गया है। रावण, हिरण्यकशिपु या कंस भी इस दोष की वजह से पाप कर्म में लिप्त होकर दुर्गति को प्राप्त हुए।
राग - आसक्ति का ही एक नाम, जो अच्छे-बुरे की समझ से दूर कर इंद्रिय असंयम का कारण बन पाप करवाती है।
द्वेष - मनचाहा न होने पर दु:खी और क्रोधित होने का भाव, जिससे कर्म, विचार और व्यवहार में दोष पैदा होता है।
अभिनिवेश - मौत का डर। हर इंसान यह जानते हुए भी कि मृत्यु अटल है, इससे बचने के लिए किसी न किसी रूप में तन, मन या धन का गलत उपयोग कर पाप कर्म करता है।
जीवन में सफलता का रहस्य है आत्मविश्वास
मनुष्य कितनी भी मेहनत कर ले, परंतु उसे अपने पर भरोसा नहीं है तो वह सफल नहीं हो सकता। अपने पर जिसे विश्वास रहता है उसे अंदर से ही अलौकिक शक्ति का बल मिलता है। जन्म से ही कोई महान अथवा गुणवान पैदा नहीं होता, लेकिन दृढ़तापूर्वक अभ्यास से हरेक व्यक्ति अपने में गुण पैदा कर सकता है।
बहुत से विचारक ऐसे हुए हैं जिन्हें बचपन में बहुत डर लगता था, परंतु अच्छे संगत विचारों से उनमें आत्मविश्वास जागा और वे ऐसे निडर बने कि दुनिया की कोई ताकत उन्हें नहीं डरा सकी। मनुष्य का मन चंचल है इसलिए बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती। बिना बुद्धि स्थिर हुए आत्मविश्वास नहीं हो सकता। इसलिए सत्पुरुषों की संगत अति आवश्यक है। अस्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति सूखी पत्ती की तरह हवा में उडऩे वाला, सदैव दूसरों पर ही निर्भर रहता है। परंतु जिसकी अपनी मजबूती होती है वह अपने बल पर चलता है। आत्मविश्वास पर खड़ा किया गया भवन हमेशा सुरक्षित रहता है।
नि:संदेह आत्मविश्वास अनेकों रोगों की दवा है, जहां व्यक्ति अनेक प्रकार की भूत-भविष्य की चिंताओं में घुटता रहता है। और परिश्रम से जी चुराता है, वहीं आत्मविश्वासी को किसी प्रकार की असफलता का मुंह नहीं देखना पड़ता। एक राजा पर किसी दुश्मन राजा ने चढ़ाई कर दी। राजा ने उसका मुकाबला किया। लेकिन हार गया। अपने प्राण बचाने के लिए जंगल में एक गुफा में शरण ली। जब राजा छिपकर बैठा था तो उसने देखा कि एक कीड़ा दीवार में चढ़ने की कोशिश करता है, परंतु गिर जाता है।
राजा उसी कीड़े के प्रयास को देखता रहा कई बार वह गिरा, परंतु कीड़े का प्रयास बराबर जारी रहा और अंत में उसे सफलता मिली। राजा सोचने गला कि इस छोटे से कीड़े ने हिम्मत नहीं हारी और आखिर दीवार पर चढऩे में उसे सफलता मिल ही गई। उससे राजा को प्रेरणा मिली, भीतर का विवेक जागा और उसने सोचा जब इस कीड़े को सफलता मिली तो मैं तो मानव हूं। कोशिश करूं तो अवश्य मेरी भी जीत होगी। वह गुफा से बाहर निकला। उसने बिखरी सेना को एकत्रित किया और सैनिकों में भी आत्मविश्वास जगाया तथा अपना खोया हुआ राज्य पुन: हासिल कर लिया।
बहुत से व्यक्ति आत्म-विश्वास को घमंड मानते हैं। यह सरासर गलत है। आत्मविश्वास गुण है- जो आदमी को धीरज प्रदान करता है। घमंड दुर्गुण है- वह आदमी को गिराता है। घमंड व्यक्ति का दुश्मन है, आत्मविश्वास सच्चा मित्र है।
सुख पाना है तो बुद्घ का गणित सीखें
बुद्ध ने कहा, यह छोटा सा गणित याद रखो कि कभी-कभी ऐसा होता है कि आज हमें लगता है कि इसमें खूब सुख है और हमें यह भी दिखायी पड़ता है कि अगर इसका त्याग कर दें तो कल अनंतगुना सुख हो सकता हैं। लेकिन वह कल होगा, तो हम आज के ही सुख को पकड़ लेते हैं। कल के अनंत गुने को छोड़ देते है। इसलिए हम दीन रह जाते हैं, दरिद्र रह जाते हैं। समझो कि तुम्हारे पास मुट्ठी भर अन्न है, तुम आज खा लो उसे, तो थोड़ा सा सुख मिलेगा। लेकिन अगर तुम इसे बो दो-तो शायद दो-चार महीने प्रतीक्षा करनी पड़ेगी-लेकिन बड़ी फसल पैदा होगी। शायद साल भर के लायक भोजन पैदा हो जाए।
तो बुद्ध कहते हैं, बुद्धिमान कौन है? बुद्धिमान वह है, जो अल्प को छोड़कर विराट को उपलब्ध करने में लगा रहता है। जो जीवन के आत्यंतिक गणित पर सदा ध्यान रखता है कि जो मैं कर रहा हूं, इसका अंतिम फल क्या होगा? आज का ही सवाल नहीं है, इसका आंत्यतिक परिणाम क्या होगा?
स्वभावतः, उस दिन जब बुद्ध शंख नाम के ब्राह्यण थे, थोड़ी अड़चन हुई होगी। अगर जैनों के मंदिर में गए होंगे तो हिंदुओं ने कहा होगा, तू वहां क्यों जाता है-ब्राह्यण थे कष्ट हुआ होगा। अगर हिंदुओ के मंदिर में गए होंगे तो जैनों ने कहा होगा, कि तू तो हमारे मंदिर में आता है, अब वहां क्यों जाता है? कष्ट हुआ होगा। गांव में शायद पागल समझे जाते होंगे।
तुम जरा सोचो कि तुम सब मंदिर-मस्जिद में जाकर नमस्कार करने लगो, लोग समझेंगे दिमाग खराब हो गया। जिनका दिमाग खराब है, वे समझेंगे कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया। कष्ट हुआ होगा। प्रतिष्ठा गंवायी होगी। लोगों ने पागल समझा होगा। लेकिन बुद्ध कहते हैं, वह छोटा सा त्याग था, क्या फर्क पड़ता है कि लोगों ने पागल समझा! क्या फर्क पड़ता था अगर लोग समझते कि मैं पागल नहीं हूं! कुछ भी फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन उसका जो परिणाम हुआ, व्यापक है।
जब गंगा पैदा होती है तो बूंद-बूंद पैदा होती है। गोमुख से गिरती है गंगोत्री, तुम अपनी मुट्ठी में सम्हाल ले सकते हो। फिर रोज बड़ी होती जाती है, बड़ी होती जाती है। जब गंगा सागर में गिरती है तब तुम विश्वास भी न कर सकोगे कि यह वही गंगा है जो गोमुख से गिरती है। जो गंगोत्री में बूंद-बूंद टपकती है, जिसको तुम मुट्ठी में बांध ले सकते थे, यह वही गंगा है? पहचान नहीं आती।
बीज छोटा, वृक्ष बहुत बड़ा हो जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति अल्पसुख को छोड़ता चले महासुख के लिए। छोटे को न पकड़े, क्षुद्र को न पकड़े, विराट पर ध्यान रखे। ‘दूसरे को दुख देकर जो अपने लिए सुख चाहता है, वह वैर चक्र में फंसा हुआ व्यक्ति कभी वैर से मुक्त नहीं होता।’ और बुद्ध ने कहा, सुख तो सभी चाहते हैं, मगर सुख की चाह में एक बात खयाल रखना-पहला सूत्र, अल्पसुख को छोड़ देना महासुख के लिए; दूसरा सूत्र कहा-यह खयाल रखना कि सुख तो चाहना, लेकिन दूसरे के दुख पर तुम्हारा सुख निर्भर न हो। दूसरे के दुख पर आधारित सुख तुम्हें अंततः दुख में ही ले जाएगा, महादुख में ले जाएगा।
हम जो जीवन में दुख भोग रहे हैं, वह हमने कभी न कभी उन सुखों की आकांक्षा में पैदा कर लिए थे, जिनके कारण हमें दूसरों को दुख देना पड़ा था। दूसरों के लिए खोदे गए गड्डे एक दिन स्वयं को गिराते हैं।
जानिए, किसके साथ कैसा व्यवहार करें?
इस दुनिया में हर किसी को खुश रखना संभव नहीं है। हर कोई आपसे अपेक्षा करता है कि आप उसे प्रसन्न रखें, उसके मनमाफिक काम करें लेकिन हर व्यक्ति की अपनी कुछ सीमाएं होती हैं। उन सीमाओं के बाहर जाकर कोई भी व्यवहार नहीं कर सकता।
घर, ऑफिस या दुकान में ही मान लें, दो, चार, दस, सौ या हजार सदस्य हैं। उनमें से कुछ तो ऐसे ही होंगे, जो आपकी बात सुनी-अनसुनी करते रहेंगे, टाल देंगे। उनसे सावधान होकर आप धीरे-धीरे उनकी उपेक्षा कर दीजिये। उनसे लड़-झगड़कर अपना समय खराब न करें। जैसे - इंदिरा गाँधी की गुरु आनंदमयी माँ करती थीं।
उनके आश्रम में कुछ लोग उलटा-सीधा करते तो वे पहले एक-दो बार उन्हें संकेत करके समझातीं, किंतु यदि वे लोग सुना-अनसुना कर देते तो बाद में वे उनकी तरफ ध्यान ही नहीं देती थीं। जो महापुरुषों द्वारा उपेक्षित हो जाते हैं, उन्हें फिर शांति और आनंद से हाथ धोने पड़ते हैं जो नहीं मानें उनकी उपेक्षा।
जो बराबरी के हैं उनसे मुदिता, जो छोटे हैं उन पर करुणा और जो श्रेष्ठ हैं उनसे मैत्री करें। जो व्यक्ति मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा - इन चार बातों के अनुसार जीवन में व्यवहार करेगा, वह सुखी और शांत रहेगा।
आपको व्यवहारकाल में अगर भक्ति में सफल होना है तो तीन बातें समझ लेना चाहिए :
(1) अपने साथ पुरुषवत् व्यवहार करो। जैसे पुरुष का हृदय अनुशासनवाला, विवेकवाला होता है, ऐसे अपने प्रति तटस्थ व्यवहार करो। कहीं गलती हो गयी तो अपने मन को अनुशासित करो।
(2) दूसरों के साथ मातृवत् व्यवहार करो। जैसे माँ बालक के प्रति उदार होती है, उसी तरह दूसरों के साथ उदार व्यवहार करो। पूत कपूत हो जाए लेकिन माता कुमाता नहीं होती। इसी प्रकार दूसरों के साथ मातृवत् व्यवहार करना चाहिए ।
(3) भगवान के साथ शिशुवत् व्यवहार करो। जीवन सरल, स्वाभाविक, निर्दोष होगा तो भगवत्प्राप्ति सहज है और जीवन जितना अड़ा-कड़ा-जटिल होगा, छल-छिद्र-कपटयुक्त होगा, उतना भगवान हमसे दूर होंगे। भगवान राम कहते हैं : मोहि कपट छल छिद्र न भावा।
अतः इनसे बचो। जैसे निर्दोषचित्त शिशु माँ की गोद में अपनेको डाल देता है, ऐसे ही आप भी कभी-कभी उस नारायणरूपी माँ की गोद में उसीका ध्यान-चिंतन करते हुए निश्चिंत होकर लेट जाओ कि ‘मैं उस परमात्मा में, ईश्वरीय सुख में विश्रांति पा रहा हूँ... मैं निश्चिंत हूँ... जो होगा प्रभु जानें।’
इसी प्रकार पतंजलि ऋषि ने ‘पातंजल योग-दर्शन’ में सफल व्यवहार के चार सिद्धांत बताये हैं :
मैत्री
जो श्रेष्ठ लोग हैं, सत्संगी हैं, भगवान के रास्ते जाते हैं व दूसरों को ले जाते हैं, उनसे मित्रताभरा व्यवहार करो। उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर उनके दैवी कार्य में भागीदार हों।
श्रेष्ठजनों से, अपने से ऊँचे पुरुषों से, शुद्धात्मा-पवित्रात्मा व्यक्तियों से प्रयत्नपूर्वक सम्बन्ध जोड़ें। चाहे मित्रता का सम्बन्ध जोड़ें, चाहे कोई और जोड़ें, चाहे गुरु का जोड़ें किंतु अपने से श्रेष्ठ के साथ सम्बन्ध जोड़ना, यह मैत्री है।
करुणा
आपसे जो छोटे हैं, नासमझ हैं, नौकर हैं, बच्चे हैं, कम योग्यतावाले हैं उनसे करुणाभरा व्यवहार करो। पुत्र-परिवार जो अपने अधीन हैं, जो दीन-दुःखी हैं, अपने से आध्यात्मिकता में पीछे हैं, उनके प्रति करुणा रखकर व्यवहार किया जाता है। उनसे गलतियाँ होंगी, उनका अपना स्वार्थ, अपनी आवश्यकताएँ होंगी फिर भी वे अपने से छोटे हैं, इसलिए उनके प्रति करुणा रखकर उन्हें ऊपर उठायें। ऊपर उठाने के लिए प्यार-पुचकार व डाँट-फटकार भी करुणा का ही रूप है।
मुदिता
जो अच्छे कार्य में, दैवी कार्य में लगे हैं उनका अनुमोदन करो। जिनसे आपका सम्बन्ध नहीं है किंतु वे अच्छा काम करते हैं। उन्हें ‘भाई! अच्छा किया। यह काम हम तो नहीं कर पाये। आपने कर दिया, बहुत अच्छा है।’ ऐसा कहकर उनका अनुमोदन करें तो अच्छाई बढ़ाने का पुण्य आपको भी मिलेगा। यह है मुदिता।
उपेक्षा
जो निपट निराले हैं, उनको छोड़ो। उनको ठीक करने का ठेका आप लोगे तो आप परेशान हो जाओगे। ऐसे लोग समझो, आपके लिए पैदा ही नहीं हुए। उनकी उपेक्षा कर दो।
नित अभ्यास से दर्शन कर सकते हैं ईश्वर का
सभी शास्त्र कहते हैं कि बिना भगवान को प्राप्त किये मुक्ति नहीं मिल सकती है। इसलिए भगवान की तलाश के लिए कोई व्यक्ति मंदिर जाता है तो कोई मस्जिद, कोई गुरूद्वारा, तो कोई गिरजाघर। लेकिन इन सभी स्थानों में जड़ स्वरूप भगवान होता है। अर्थात ऐसा भगवान होता है जिसमें कोई चेतना नहीं होती है।
असल में भगवान की चेतना तो अपने भक्तों के साथ रहती है इसलिए मंदिर में हम जिस भगवान को देखते हैं वह मौन होकर एक ही अवस्था में दिखता है। जब हमारी चेतना यानी इन्द्रियां अपने आस-पास ईश्वर को महसूस करने लगती है तब हम जहां भी होते हैं वहीं ईश्वर प्रकट दिखाई देता है। उस समय भगवान को ढूंढने के लिए मंदिर या किसी तीर्थ में जाने की आवश्यकता नहीं होती है।
जब व्यक्ति इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है तब व्यक्ति के साथ चल रही भगवान की चेतना व्यक्ति के मंदिर में प्रवेश करने पर मंदिर में मौजूद ईश्वर की प्रतिमा में समा जाती है और मूक बैठी मूर्ति बोलने लगती है। यह उसी प्रकार होता है जैसे मृत शरीर में आत्मा के प्रवेश करने पर शरीर में हलचल होने लगती है। शरीर की क्रियाएं शुरू हो जाती है।
मंदिर में विराजमान मूर्ति वास्तव में एक मृत शरीर के समान है। मृत की पूजा करें अथवा न करें उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारी श्रद्धा और भक्ति की अनुभूति वही कर सकता है जिसमें चेतना हो प्राण हो। इसलिए तीर्थों में भटकने की बजाय जिस देवता की उपासना करनी हो उसे अपनी आत्मा से ध्यान करें उनकी आत्मा अर्थात परमात्मा से संपर्क करें, परमात्मा की पूजा करें तो, जो फल वर्षों मंदिर यात्रा से नहीं मिल सकता, वही फल कुछ पल के ध्यान से मिल सकता है।
कबीर दास जी ने इसी बात को अपने दोहे में कहा है:-
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में ,ना काशी कैलास में
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में
ना मैं जप में ना मैं तप में, ना मैं ब्रत उपबास में
ना मैं किरिया करम में रहता नहीं जोग सन्यास में
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में।।
कबीर दास जी ने कहा है कि भगवान को कहीं ढूंढने की जरूरत नहीं है वह हमेशा अपने भक्तों के साथ रहते हैं। इन्हें पाने के लिए तीर्थस्थलों में भटकने की जरूरत नहीं है। मन से ध्यान करके देखिए ईश्वर नजर आ जाएंगे। कभी ध्यान लगाकर देखिए ईश्वर में मन जितना स्थिर होगा ईश्वर की छवि उतनी साफ सामने नज़र आएगी। जब तक ध्यान ईश्वर में पूरी तरह रम नहीं जाता तब तक धुंधली छवि चित्त में आती जाती रहती है।
कई संत महापुरूषों ने ईश्वर को अपने सामने स्पष्ट देखा है। उन्हें ईश्वर को देखने में इसलिए कामयाबी मिली क्योंकि उनका ध्यान हर चीज का हट कर एक स्थान पर केन्द्रित हो गया था। अगर हम भी नित ईश्वर में ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करें तो संत महात्माओं की तरह ईश्वर के दर्शन हम भी प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि ईश्वर कहीं दूर नहीं हमारे आस-पास है और हर पल हमें देख रहा है।
रोज इन 5 की सेवा से आसान होता है यश व सफलता पाने का रास्ता
ज़िंदगी को सफल और यशस्वी बनाने के लिए बाहरी तौर पर सुख-सुविधाओं को जुटाकर कई उपाय मुमकिन हैं। किंतु भीतरी सुख-शांति के बगैर तमाम बाहरी सुख बेमानी ही महसूस होते हैं। बाहरी और भीतरी हर तरह से ही भरपूर सुख बटोरने के लिए ही हिन्दू धर्मग्रंथों में कुछ ऐसी बातें या यूं कहें कि उपाय उजागर हैं, जिनको अपनाने से किसी भी इंसान को मनचाहे सुख-सौभाग्य मिल सकते हैं।
वैसे शास्त्रों की सीख है कि सुख के लिए अहं को परे रखना और विनम्रता को स्वभाव में उतारना जरूरी है। व्यावहारिक तौर पर ऐसा करने के लिए किसी की सेवा-सत्कार व सम्मान भी आसान और बेहतर रास्ता भी बताया गया है। लेकिन सेवा किनकी और कब हो, ये जानना भी बेहद जरूरी है।
इस संबंध में हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में ऐसे 5 लोग व देव विशेष की सेवा व आदर का महत्व बताया गया है, जो सुनिश्चित सफलता और तुरंत यश देने वाली बताई गई है।
जानिए, किसकी सेवा व पूजा यशस्वी और सफल जीवन तय करती है? लिखा गया है कि -
पञ्चैव पूजयंल्लोके यश: प्राप्रोति केवलम्।
देवान् पितृन् मनुष्यांश्च भिक्षूनतिथिपञ्चामान्।।
इस श्लोक में साफ तौर पर कहा गया है कि इन 5 की पूजा-सेवा यशस्वी व सफल जीवन बनाने वाली होती है -
देवता - देव पूजा धार्मिक नजरिए सें काम व कामनासिद्धि करने वाली मानी जाती है। यहीं नहीं जीवन में आत्मविश्वास कायम रखने के साथ सद्कर्मों से जोड़ती है।
पितृदेव - पितृ स्मरण या पूजा धार्मिक नजरिए से दु:ख-दारिद्रय दूर करने वाली मानी जाती है। वहीं व्यावहारिक तौर पर यह पितरों द्वारा दिए गए अच्छे संस्कारों और जीवन मूल्यों के स्मरण से अच्छे काम की प्रेरणा देकर यश व कामयाबी दिलाती हैं।
मनुष्य - मानव सेवा सबसे बड़ा धर्म माना गया है। दूसरों को अपना ही रूप मानकर की गई सेवा प्रेम, परोपकार, दया आदि द्वारा धर्म से जोड़कर यशस्वी बनाता है।
संन्यासी - शास्त्रों में संन्यासी देव रूप कहा गया है। संयम और तप की मूर्ति सन्यासी सेवा देव पूजा का फल ही नहीं देती, बल्कि श्री व सुयश तय करती है।
अतिथि - अतिथि, भगवान के समान माना गया है। दरअसल, इसके पीछे मानवीय रिश्तों, भावनाओं और संवेदनाओं से जुड़े रहने का संदेश है। जिसके बिना प्रेम, सेवा, दया, अहिंसा के धर्म भावों से जुडऩा व यशस्वी जीवन संभव नहीं होता।
ऐसी स्त्री, पुरुष को बनाती है अमीर!
धन या संपत्ति का इंसान के जीवन से गहरा नाता है। धर्म और व्यवहार दोनों ही नजरिए से पैसा इंसान की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही अहम नहीं है, बल्कि धन बटोरने के सकारात्मक पहलू पर विचार करें तो यह इंसान को गुण, ज्ञान और पुरूषार्थ से जोड़ता है, जिनसे जीवन हर तरह की अशांति और कलह से दूर रह सकता है।
धर्मशास्त्रों में भी धन की इन खूबियों की वजह इसे लक्ष्मी का रूप भी बताया गया है। यही नहीं, इंसान के जीवन में खासतौर पर पुरुष के जीवन के लिए मां लक्ष्मी के एक ऐसे ही रूप का महत्व बताया गया है। जिसके जीवन में होने पर पुरुष कभी न खत्म होने वाली दौलत का आनंद पाता है।
मां लक्ष्मी का यह रूप विशेष है - स्त्री। माता, बहन, पत्नी हर रूप में स्त्री, पुरुष के लिए सुख की वजह बनती है। शास्त्र और हिन्दू संस्कृति में स्त्री को साक्षात् लक्ष्मी माना गया है।
ऐसा मानने के पीछे बताए गए व्यावहारिक कारण भी यह साबित करते हैं। असल में, पैसा या धन बेजान और अस्थिर होता है, परंतु बुद्धिमान, सद्गुणी और सहयोगी स्त्री साक्षात और जीवित लक्ष्मी के रूप में पुरुष का सौभाग्य बन जाती है। हालांकि वक्त और हालात बुरे होने पर स्त्री के नकारात्मक पक्ष भी सामने आ सकते हैं। किंतु स्त्री के लिए हमेशा सम्मान, आदर और सहयोग का भाव रखने पर स्त्री भी हमेशा शुभ और मंगल करने वाली मानी गई है।
यही वजह है कि स्त्री को लक्ष्मी का अवतार माना गया है। खासतौर पर पुरुष के जीवन में सद्गुणी, प्रेम और ममता से भरी समर्पित और सहयोगी स्त्री होने पर वह पुरुष धन या दौलत से अर्जित भौतिक सुख-सुविधाओं से भी अधिक पाए सुखों की अमीरी का अंतहीन आनंद पाता है।
3 बातें! जो हर युवा के लिए होती हैं घातक
आज तमाम सुख-सुविधाओं को बटोरने की आपाधापी में कई लोग कुछ मौकों पर मानवीय मूल्यों को ताक पर रख स्वार्थ या हित तो साध लेते हैं, लेकिन ऐसे व्यवहार या स्वभाव का बुरा असर गलत संस्कारों के जरिए किसी न किसी रूप अगली पीढ़ी तक भी पहुंचना तय हो जाता है।
खासतौर पर युवा पीढ़ी की ऊर्जा और विचारों को संस्कारों, मेहनत और ज्ञान की और न मोड़ा जाए तो सुख-सुविधाओं की चकाचौंध में सब कुछ जल्द और आसान पाने की सोच से कोई भी युवा ऐसी आदतों व कमजोरियों का शिकार हो सकता है, जो आखिरकार अपशय व निराशा के साथ असफलता जिंदगी की बड़ी वजह बन कर सामने आती हैं।
शास्त्रों की बातों पर गौर करें तो खासतौर पर कामयाब और यशस्वी जीवन के लिए हर युवा को कमजोर बनाने वाली 3 बातों को सोच व व्यवहार पर हावी नहीं होने देना चाहिए ताकि तमाम जिंदगी सुखों और खुशियों के बीच गुजरे। जानिए ये 3 बातें -
लालच - लालच यानी लोभ किसी भी इंसान का विवेक छीन कमजोर बनाता है। यानी जिन सुखों या चीजों को पाने को वह लालायित रहता है, उसको पाने के लिए सही या गलत पर विचार नहीं करता। शास्त्रों के मुताबिक भी काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर के साथ लोभ भी छ: विकार या दोषों में शामिल है। इससे बचने के लिए सेवा, दान व भलाई के भावों के अलावा किसी भी चाहत को पूरा करने के लिए आगे बढऩे से पहले उससे जुड़े सारे पहलुओं को जानने, समझने, विचारने की अहमियत बताई गई है।
क्रोध - क्रोधी यानी गुस्सैल स्वभाव व व्यवहार अक्सर दोष या कमजोरी बन गलत नतीजों की वजह बनता है।
खासतौर पर आज कई युवाओं में कम समय में बहुत ज्यादा पाने के मकसद से अपनाए छोटे रास्ते जब कारगर नहीं होते तो नाकामी, कुण्ठा, निराशा, सहनशीलता की कमी या व्यग्रता भी क्रोध बनकर सामने आती है। शास्त्रों में क्रोध से बचने के लिए अक्रोध यानी गुस्सा न करना भी एक उपाय बताया गया है। जिसके लिए वक्त व विषय के मुताबिक मौन रहना भी कारगर साबित होता है।
चरित्रहीनता - चरित्रहीनता या सरल शब्दों में कहें तो बदचलनी भी खासतौर पर मोह, आसक्ति के अलावा क्रोध और लालसा से ही पैदा होने वाला दोष है, जो किसी भी ताकतवर युवा के लिए कमजोरी बन रिश्तों और जिंदगी को बिगाडऩे वाला साबित होता है। इससे बचने के लिए अच्छे लोग, माहौल व सोच के साये में रहने के साथ संयम, मर्यादा व अनुशासन को कड़ाई से अपनाने का बड़ा ही महत्व बताया गया है।
सफल व ताकतवर बनने के लिए जानिए ब्रह्मचर्य से जुड़ीं खास बातें
साधारण तौर पर ब्रह्मचर्य का मतलब केवल शरीर से जोड़कर ही निकाला जाता है। जबकि शास्त्रों में ब्रह्मचर्य को हर व्यक्ति के मन, वचन और कर्म की शुद्धि के लिए अहम माना गया है। चाहे वह व्यक्ति विवाहित हो या अविवाहित, पुरुष हो या फिर स्त्री।
शास्त्रों की बातों पर गौर करें तो असल में, ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ शरीर के स्तर पर काम, वासना को रोकना या वीर्य व रज रक्षा से ही नहीं है। बल्कि ब्रह्मचर्य का गूढ़ संदेश मन और चित्त को काबू में रखना है। चूंकि मन का संबंध इन्द्रियों से होता है। इसलिए सभी इन्द्रियों, जिनमें आंख, कान, जीभ, त्वचा, नाक, हाथ, पैर, मुख, गुदा आदि शामिल है, का दुरुपयोग न करना ही ब्रह्मचर्य का मूल है। जाहिर है कि काम ही नहीं कामनाओं यानी इच्छाओं पर काबू करना वास्तविक ब्रह्मचर्य है।
इस तरह इंद्रिय संयम के जरिए काम-वासनाओं को वश में रखने से मन भरपूर ऊर्जा और शरीर ओजस्वी, तेजस्वी, साहस, पराक्रम के गुण और भाव से भरा होता है। तन की यही शक्ति और मन की शुद्धता मेहनत हो या फिर देव साधना सारे सार्थक लक्ष्यों की ओर बढऩे को प्रेरित करती है।
इस तरह ब्रह्मचर्य के सही अर्थों की समझ व पालन शारीरिक, आध्यात्मिक, वैचारिक ताकत देकर व्यवाहारिक तौर पर भी कामयाब और ताकतवर बनाए रखता है।
असुरक्षा में जीना शुरू करो
पूर्ण असुरक्षा और उसमें जीने की क्षमता बुद्धत्व के पर्याय हैं। तो जो
व्यक्ति संबुद्ध नहीं है वह असुरक्षा में नहीं रह सकता और जो पूर्ण असुरक्षा में
नहीं रह सकता वह संबुद्ध नहीं हो सकता। ये दो बातें नहीं है, ये एक ही बात को कहने के
दो ढंग हैं। तो तुम असुरक्षा में रहने की तब तक प्रतीक्षा न करो जब तक तुम संबुद्ध
न हो जाओ, नहीं! क्योंकि फिर तो तुम कभी संबुद्ध न हो पाओगे।
असुरक्षा में जीना शुरू करों, यही बुद्धत्व का मार्ग है। और पूर्ण असुरक्षा के बारे में
मत सोचो। जहां तुम हो वहीं से शुरू करो। जैसे तुम हो वैसे तो किसी चीज में समग्र
नहीं हो सकते, लेकिन कहीं से तो शुरू करना ही होता है। शुरू में इससे संताप होगा, शुरू में इससे दुख होगा।
लेकिन बस शुरू में ही। यदि तुम शुरूआत पार कर सको, तो दुख मिट जाएगा, संताप मिट जाएगा।
इस प्रक्रिया को समझना पड़ेगा। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो संतप्त
क्यों होते हो? यह असुरक्षा का कारण नहीं है बल्कि सुरक्षा की मांग के कारण हैं। जब तुम
असुरक्षित अनुभव करते हो तो संतप्त हो जाते हो, संताप पैदा होता है। वह असुरक्षा
के कारण पैदा नहीं हो रहा बल्कि जीवन को एक सुरक्षा प्रदान करने की मांग से पैदा
हो रहा है। यदि तुम असुरक्षा में रहने लगो और सुरक्षा की मांग न करो तो जब मांग
चली जाएगी तो संताप भी चला जाएगा। वह मांग ही संताप पैदा कर रही है।
असुरक्षा जीवन का स्वभाव है। बुद्ध के लिए संसार असुरक्षित है; जीसस के लिए भी
असुरक्षित है। लेकिन वे संतप्त नहीं है, क्योंकि उन्होनें इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है। वे
इस वास्तविकता की स्वीकृति के लिए प्रौढ़ हो गये हैं। प्रौढ़ता और अप्रौढ़ता की
मेरी यही परिभाषा है। उस व्यक्ति को मैं अपरिपक्व कहता हूं जो कल्पनाओं और सपनों
के लिए वास्तविकता से लड़ता रहता है। वह व्यक्ति अपरिपक्व है। प्रौढ़ता का अर्थ है
वास्तविकता का साक्षात्कार करना, सपनों को एक ओर फेंक देना और वास्तविकता जैसी है वैसी
स्वीकार कर लेना। बुद्ध प्रौढ़ है। वह स्वीकार कर लेते है कि यह ऐसा ही है।
उदाहरण के लिए, हालांकि मृत्यु सुनिश्चित है, पर अपरिपक्व व्यक्ति सोचे चला जाता है कि बाकी सब चाहें मर
जाए लेकिन वह नहीं मरने वाला। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि उसके मरने के समय तक
कुछ खोज लिया जाएगा, कोई दवा खोज ली जाएगी, जिससे वह नहीं मरेगा। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि मरना
कोई नियम नहीं है। निश्चित ही, बहुत से लोग मरे हैं, लेकिन हर चीज में अपवाद होते हैं
और वह सोचता है कि वह अपवाद है।
जब भी कोई मरता है तो तुम सहानुभूति अनुभव करते हो, तुम्हें लगता है, बेचारा मर गया। लेकिन
तुम्हारे मन में यह कभी नहीं आता कि उसकी मृत्यु तुम्हारी भी मृत्यु है। नहीं,
तुम उससे बचकर
निकल जाते हो। इतनी सूक्ष्म बातों को तो तुम छूते ही नहीं। तुम सोचते रहते हो कि
कुछ न कुछ तुम्हें बचा लेगा-कोई मंत्र, कोई चमत्कारी गुरु। कुछ हो जाएगा और तुम बच जाओगे।
तुम कहानियों में, बच्चों की कहानियों में जी रहे हो।
प्रौढ़ व्यक्ति वह है जो इस तथ्य की ओर देखता है और स्वीकार कर लेता है कि
जीवन और मृत्यु साथ-साथ हैं। मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, वह तो जीवन का शिखर है। वह जीवन
के साथ घटी कोई दुर्घटना नहीं है, वह तो जीवन के हृदय में विकसित होती है और एक शिखर पर
पहुंचती हैं। प्रौढ़ व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार कर लेता है और उसे मृत्यु का कोई
भय नहीं रहता। वह समझ लेता है कि सुरक्षा असंभव है।
तुम चाहे एक चारदीवारी बना लो, बैंक बैलेंस रख लो, स्वर्ग में सुरक्षा पाने के लिए धन दान दे दो,
तुम सब कर लो,
लेकिन गहरे में
तुम जानते हो कि असल में कुछ भी सुरक्षित नहीं है। बैंक तुम्हें धोखा दे सकता है।
और पुरोहित धोखेबाज हो सकता है, वह सबसे बड़ा धोखेबाज हो सकता है, कोई नहीं जानता।
मौत भी जिस फल का अंत नहीं कर पाती
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां
पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां
दृढव्रताः॥
भगवान बोलते हैं: "येषां
त्वन्तगतं पापं..." अर्थात जिनके पापों का अंत होता है, "जनानां पुण्यकर्मणाम्।" यानी जिनके पुण्य जोर मारते हैं,
"ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ताः..." वे
द्वन्द्व और मोह से मुक्त होकर "भजन्ते मां दृढव्रताः।" अर्थात सत्संग
में, साधना में, ईश्वरप्राप्ति में लगते हैं।
बाकी के जो तुच्छ लोग हैं उनके लिए
भगवान ने ‘गीता’ में कहा- जन्तवः। जैसे जीव-जंतु खाते-पीते, बच्चे पैदा करते और फिर मर जाते हैं, उनको पता ही नहीं कि इतना मूल्यवान जीवन कैसे बिताना चाहिए, ऐसे लोगों को भगवान ने जन्तवः कहकर उपेक्षा करके एक प्रकार की
गाली दी है। तेन मुह्यन्ति जन्तवः। वे जंतु हैं, मोहित हो रहे हैं। ‘भागवत’ में आया है: मन्दाः सुमन्दमतयः... ऐसे लोग मंदमति के हैं,
मन्दभाग्याः भाग्य भी उनका मंद है, उपद्रुताः इसकी निंदा, उसकी चुगली करने के उपद्रवी स्वभाव के हैं। कलियुग के दोषों से भरे हुए
मनुष्य की पहचान कराते हैं भगवान और सत्शास्त्र।
मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या
ह्युपद्रुताः। वे मंदमति हैं, मंदभागी हैं और
उपद्रवी हैं। खुद तो उपद्रवी हैं और दूसरों को भी ऐसे-वैसे साजिश करके, अफवाह फैलाकर उपद्रवों की आग में झोंकते हैं। जब महापुरुष
हयात होते हैं तो बोलते हैं: उल्टा मार्ग दसेंदा नानक। नानकजी के विरुद्ध बगावत
करते हैं। नानकजी जैसे महान संत को कारागार में डालने वाले ऐसे अभागे लोग पीछे
नहीं हटा करते। उसमें भी अपने को बड़ा आदमी साबित करते हैं कि देखो, इनके गुरु बड़े कि मैं बड़ा हूँ। नानकजी को कारागार में डाल
दिया बाबर ने, ऐसी बेकदरी की लोगों ने नानकजी की।
तो ये मंदमति हैं। जिनकी मति मारी गयी है वे संतों की हयाती में संतों का फायदा
नहीं ले पाते हैं अपितु संतों में दोष दर्शन करते हैं।
हयात गुरु जब समाज में होते हैं तो
लोग अवज्ञा करते हैं, उनके लिए कुछ-की-कुछ अफवाहें करते
हैं, निंदा आदि करते हैं, जिससे हयात गुरु से लोग वंचित हो जाते हैं, कम फायदा उठा पाते हैं। भगवान के मंदिर में जाते हैं, मूर्ति के आगे माथा टेकते हैं तो मूर्ति न कुछ बोलती है,
न टोकती है, न डाँटती
है। अपनी तरफ से श्रद्धा होने से थोड़ा पुण्य होता है।
इसलिए संत कबीरजी ने यह पर्दा उठाया
समाज की आँखों से, बोले: तीरथ नहाये एक फल... तीर्थ में
नहाते हो तो एक फल होता है। संत मिले फल चार- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष लेकिन उन संत में अगर
श्रद्धा-भक्ति हो और वे तुम्हारे सद्गुरु हैं तो उनके साथ अपनत्व होगा। गुरु के
साथ शिष्य का अपनत्व होता है तो गुरु का भी शिष्य के साथ अपनत्व होता है- जैसे माँ
का बच्चों के साथ अपनत्व होता है तो माँ सार-सार बच्चे को पिला देती है।
गाय का बछड़े के साथ अपनत्व होता है
तो गाय सर्दी-गर्मी, आँधी-तूफान, धक्का-मुक्की खुद सहती है, दिनभर भटकती है
लेकिन दूध बनता है तो बछड़े को तैयार माल ऐसा मिलता है कि बस सकुर-सकुर पी ले। बछड़े
को तो मुँह हिलाना पड़ता है लेकिन सद्गुरुरूपी माँ ने जन्म-जन्म से जो कमाई की,
अब भी घंटों भर ध्यान-समाधि और रब के साथ एकाकार होते
हैं... तो गाय तो खड़ी होती है और बच्चे को सिर हिलाना पड़ता है दूध पीने के लिए
लेकिन यहाँ शिष्य रूपी बछड़े खड़े नहीं होते, प्रयत्न नहीं करते, बैठे रहते हैं और
गुरु रूपी गाय ही अपने अनुभव का अमृत रब को छुआकर कानों के द्वारा हृदय में भर
देती है।
तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार॥
न अंतः इति अनन्तः। जिसका अंत न हो
उसे बोलते हैं अनंत। ये सारे फल अंतवाले हैं और दुःख देनेवाले हैं। सत्शिष्य का जो
फल है वह अनंत फल है, जिसका अंत मौत भी नहीं कर सकती।
ईश्वर को पाने के लिए प्रेम मार्ग से
गुजरना होगा
प्रेम शक्ति भी है और आसक्ति भी। जब
व्यक्ति का प्रेम कामना रहित होता है तो यह शक्ति होती है और जब प्रेम में किसी
चीज को पाने का लोभ रहता है तो यह आसक्ति बन जाती है। सच्चा प्रेम वह होता है जो
प्रेम में किसी प्रकार का लोभ और किसी चीज को पाने की कामना नहीं रखता है। ऐसा
व्यक्ति प्रेम में ऐसा कमाल कर जाता है कि, बड़े से बड़े बलवान और धनवान उसके आगे घुटने टेक देते हैं।
मीराबाई को दिया गया जहर असरहीन
होना। घ्रुव को पहाड़ की चोटी से गिराने पर भी बच जाना, प्रह्लाह का आग के शोलों में भी मुस्कुराते हुए रहना और तुलसीदास का उफनती
नदी को पार कर जाना यह प्रेम की शक्ति का उदाहरण है। संतजन कहते हैं कि जिसके हृदय
में सच्चा प्रेम होता है वही व्यक्ति ईश्वर का भक्त हो सकता है। जरूरत है बस प्रेम
की चाहे वह पैसे से हो, किसी स्त्री से, बच्चे से या अन्य सांसारिक वस्तुओं से।
अगर हृदय में प्रेम होगा ही नहीं तो
ईश्वर क्या संसार में किसी चीज से लगाव हो ही नहीं सकता। भगवान से प्रेम करना
वास्तव में उसी प्रकार है जैसा एक दिशाहीन गाड़ी को सही दिशा देना। संत श्री
गोकुलनाथ जी ने कहा है कि जिसके हृदय में प्रेम का अंकुर होता है उस व्यक्ति को
भक्ति की ओर प्रेरित किया जा सकता है, क्योंकि
प्रेम का वृक्ष तभी उग सकता है जब प्रेम का बीज, प्रेम का अंकुर हृदय में मौजूद हो। बिना बीज के खेती भला कैसे हो सकती है।
इस संदर्भ में एक कथा है कि एक बार
संत श्रीगोसाईं जी के यहां एक धनवान व्यक्ति बहुत सारा धन लेकर शिष्य बनने की
कामना से आया। गोसाईं जी ने उस व्यक्ति से पूछा कि क्या तुम्हारा कहीं किसी वस्तु
पर ऐसा स्नेह है, जिसके बिना तुम्हारा मन व्याकुल हो
जाता हो। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया मेरा कहीं किसी वस्तु में तनिक भी स्नेह नहीं
है।
उत्तर सुनकर गोसाईं जी ने कहा कि फिर
तो हम तुम्हें दीक्षा कदापि नहीं दे सकते। तुम किसी और गुरू को ढूंढ लो।
भक्तिमार्ग में प्रेम ही प्रधान है। व्यक्ति का जो प्रेम संसार से होता है,
दीक्षा शिक्षा से उसी को पलटकर भगवान में लगा दिया जाता
है। जब तुम्हारे हृदय में कहीं प्रेम है ही नहीं तो भगवान के प्रेम से भला कैसे
सराबोर हो सकते है।
बार-बार इजहार करने से प्यार कम होता है
बार-बार इजहार करने से प्यार कम होता है
जब एक कली समाप्त होती है तब वह एक फूल बन जाती है और जब एक एक हृदय समाप्त हो
जाता तब वह दिव्य हो जाता है। एक विदीर्ण हृदय का अर्थ है, अधूरी इच्छाएं, अपेक्षाएं और आशावादिता।
एक सच्चे प्रेम में दिल टूटता नही है। क्या पानी टूट सकता है? पानी तरल है। प्रेम भी
तरल है। जो भी तरल है वह भंगुर नही हो सकता है। जो कुछ भी अकड़ा हुआ है वह टूट
सकता है।
जीवन घटनाओं से भरपूर है, कुछ अच्छी और कुछ बुरी, कुछ पसंदीदा और कुछ नापंसदीदा।
कई बार ऐसा होता है कि, आप कुछ कर रहे थे लेकिन उससे दूसरे आहत हो जाते हैं,
आप ऐसा करना नही
चाहते थे। और फिर या तो आपका अपना दिल टूट हुआ अनुभव होता है या उनका। यह एक
परिपक्व मन का या परिपक्व प्रेम का लक्षण नहीं है। तो जब अगली बार उस मित्र से
मिलो या उस पूर्व के साझेदार से मिलो तो ऐसे मिलो जैसे पहले कुछ हुआ ही नही था या
उनसे आप पहली बार मिल रहे हो।
आपको कोई सफाई देने की आवश्यकता नही है। ठीक है, कभी आप साझेदार रहे होंगे और ऐसा
कुछ हो गया जो आप नही करना चाहते थे और आप अलग हो गये। एक बार फिर आप उनके पास
जाएं और उन से बात करें। उनसे मित्रवत मिलो जैसे कुछ हुआ ही नही। ऐसे जिओ जैसे
आपका कोई शत्रु नही है।
हमारी परेशानी क्या है कि, हम अपने प्रेम को इतना प्रदर्शित कर देते हैं कि थोड़े समय
बाद हमें लगता है कि हमारे पास और कुछ देने के लिए है ही नही। आपने सब कुछ
प्रदर्शित कर दिया। अब सब खाली हो गया। तो यदि प्रेम अत्यधिक प्रदर्शित कर दिया
जाये तो इसकी आयु छोटी हो जाती है। यह एक बीज के समान है। आपको इसे उगाना होता है,
धरती के भीतर,
ज्यादा कुछ दिखाई
नही पड़ता। तब आपके कार्यों में यह प्रकट होने लगता है।
इसे बार-बार कहकर, ‘‘ओह! मैं तुमसे प्यार करता हूं, मैं तुमसे प्यार करता हूं,
मैं तुमसे प्यार
करता हूं। ‘‘आपने सब नष्ट कर दिया। सच्ची अंतरंगता यही है कि आप पहले से अंतरंग हो और इस
बारे में निश्चिंत हों, आप दूसरों को यह कह कर उनको ये विश्वास नही दिलाते हो कि आप
उनसे गहरे जुड़े हो, आप अपने भाव बार-बार प्रकट नही करते हो। अपने प्रेम को बार-बार सिद्ध करना ही
सबसे बड़ी समस्या है। आपको किसी को विश्वास दिलाने की आवश्यकता नही है, ‘‘मैं तुमसे बहुत प्यार
करता हूं। ‘‘यदि वह समझते हैं तो समझ जाएंगे।"
आप अपनी अंतरंगता को बताने के लिये जितने चिंतित होते हों उतनी अंतरंगता नष्ट
हो जाती है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। आप बस जानकारी रखें, आप मुस्कुराएं और उनको आपके साथ
अंतरंगता का अनुभव होने दें। अपने प्रेम को बताने के लिए जल्दबाजी न दिखायें।
उन्हें यह स्वयं ही समझने दें कि आप उनके हैं और वे आपके हैं। अन्य लोगों को यह
समझाने का प्रयास ना करें कि आप उनसे प्रेम करते हैं। और आप यह भी शक ना करे कि वे
आप से प्रेम करते है या नही। इसे स्वभाविक ही लें, ‘‘हां, हर कोई मुझ से प्यार करता
है।" क्या आप जानते हैं कि क्या होगा? यहां तक प्रेम का अभाव और शक
दोनो ही समाप्त हो जाएंगे। यह एक रहस्य है।
सभी लोगों को एक निश्चित व्यक्तित्व में नही देखें। हर व्यक्तित्व बदल रहा है।
एक अच्छा व्यक्ति भी आपके कर्मों के या स्पंदनों के कारण आपको कुछ गलत शब्द कह
सकता है यदि उस समय आपको व्यथित होना है। एक गलत व्यक्ति भी आपको आपके अच्छे
कर्मों के कारण आपकी सहायता करना आरंभ कर देता है। एक अद्भुत व्यक्ति या सज्जन
व्यक्ति आपको कुछ कहकर आहत कर सकता है, लेकिन वास्तव में आपको कोई भी आहत नही कर सकता।
यह आप स्वयं ही हैं जो आहत होते हैं। सही अंतरंगता तो वास्तव में वही है जो यह
समझ सके कि अन्य कोई व्यक्ति तो है ही नही। जब मन इस अद्वैत में आ जाता है तब मन
समाप्त हो जाता है, गायब हो जाता है। यह सब मैं ही हूं, यह सब मेरे ही अंग हैं। अद्वैत पर केंद्रित होना
विकास का पथ है। यह तब आपके मन और दिल के भारीपन को दूर कर देता है। तब प्रेम बहता
है। यह प्रेम दिव्य प्रेम है, ठीक वैसे ही जैसे एक बड़ा सा सुंदर सा पूष्प पूरा खिला हुआ
हो। यहां पर कोई भेद नही है, सब कुछ मैं ही हूं और मेरा ही हिस्सा है। यही सच्ची
अंतरंगता है।
कभी न करें ये 3 गलतियां! इनसे यदुवंश भी हो गया था बर्बाद
अक्सर यह देखा जाता है कि इंसान जब दु:खी हो तो उसके बोल, स्वभाव, व्यवहार में कोमलता आ
जाती है। किंतु दु:ख से बाहर निकलने या फिर सुखों को पाते ही किसी न किसी रूप में
अहं मन-मस्तिष्क पर हावी होने लगता है। इसके चलते बोल व बर्ताव में पैदा दोष के
कारण दूसरों की उपेक्षा व अपमान भी उसे तब तक गलत नहीं लगता, जब तक कि बुरे नतीजे
भुगतना न पड़े।
हिन्दू शास्त्रों में आया एक प्रसंग जीवन में ऐसे ही दु:खों से बचने के लिए
खासतौर पर तीन चरित्रों का हमेशा सम्मान करने की सीख देता है। जानिए, उस प्रसंग के साथ वे तीन
चरित्र, जिनका
धार्मिक ही नहीं व्यावहारिक नजरिए से भी उपेक्षा जीवन के लिये घातक हो सकती है -
पौराणिक प्रसंग है कि भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारकापुरी में आए
रुद्र अवतार दुर्वासा मुनि के रूप व दुबले-पतले शरीर को देख उनकी नकल करने लगा।
अपमानित दुर्वासा मुनि ने साम्ब को ऐसे कृत्य के लिए कुष्ठ रोगी होने का शाप दिया।
फिर भी साम्ब नहीं माना और वही कृत्य दोहराया। तब दुर्वास मुनि के एक ओर शाप से
साम्ब से लोहे का एक मूसल पैदा हुआ, जो आखिरकार यदुवंश की बर्बादी की वजह बना।
दरअसल, इस प्रसंग में व्यावहारिक तौर पर नीचे बताए तीन चरित्रों के सामने अहं से बचने
व उनके लिए सम्मान, निष्ठा, श्रद्धा व समर्पण रखने के साथ वाणी में भी विनम्रता व मिठास को अपनाने का सबक
है। साम्ब द्वारा अहंकार व दुर्भाव के वशीभूत होने से ही एक साथ 3 गलतियां करना यदुवंश को
ले डूबीं। जानिए शांत व सफल जीवन के लिए किन 3 चरित्रों के साथ गलत भावनाओं को
मन में स्थान न दें -
गुरु - गुरु को भगवान का ही साक्षात् रूप माना गया है। क्योंकि वह ईश्वर के
समान ही ज्ञान के जरिए चरित्र को बेहतर बनाकर इंसान को नया जन्म देता है।
व्यावहारिक नजरिए से भी जिस इंसान से शिक्षा, गुण, कला, कौशल प्राप्त हो, वह गुरु पद का भागी है। धर्म और व्यवहारिक दृष्टि से ऐसे
गुरु का अपमान चरित्र और व्यक्तित्व में दोष पैदा कर जीवन में तमाम सुखों से वंचित
कर देता है।
देवता - शास्त्रों के नजरिए से ईश्वर का स्मरण व विश्वास जीवन में संकल्प और
कर्म शक्ति को हर स्थिति में मजबूत बनाए रखता है। किंतु ईश या धर्म निंदा पाप का
भागी ही नहीं बनाती, बल्कि धर्म आस्था व श्रद्धा को चोट पहुंचाने से अपयश, कलह लाकर जीवन को भी खतरे में डाल सकती है।
ब्राह्मण - ब्राह्मण को ब्रह्म का अंश माना गया है। धार्मिक परंपराओं में
ब्राह्मणों से भगवान की पूजा-अर्चना, ब्राह्मण-पूजा व ब्रह्मदान जीवन में आ रहे सारे कष्ट,
बाधाओं से मुक्ति
का श्रेष्ठ उपाय माना गया है। व्यावहारिक तौर पर ब्रह्मपूजा या दान के मूल में
पावनता और परोपकार के भावों से जुडऩा है। इससे दूरी पाप कर्म से जोड़ती है। इसलिए
ब्राह्मण का अपमान धर्म और ईश्वर के प्रति दोष से जीवन के लिये घातक भी माना गया
है।
वहीं इस बात से जुड़ा एक दर्शन यह भी है कि सृजन करने की क्षमता रखने से हर
प्राणी भी ब्रह्म या ईश्वर का ही अंश या रूप है। इसलिए बोल, सोच व व्यवहार में मानवीय
भावनाओं को सबसे ऊपर रख जीवन जीना ही शांति और सफलता पाने का सबसे बेहतर तरीका है।
कैसे जानेंगे कि आप ताकतवर हैं या कमज़ोर
हमलोगों में एक बड़ी ही अजीब बात है अगर सामने वाला अपने से कमज़ोर दिखता है
तो हम उसकी छोटी सी गलती पर भी भड़क उठते हैं और मार-पीट करने तक के लिए तैयार हो
जाते हैं। इसके उलट अगर सामने वाला ताकतवर है तो उसकी बड़ी गलती पर भी खामोश रह
जाते हैं। इसकी वजह है हमारी कमज़ोरी। हम अपनी कमज़ोरी को छुपाने के लिए ही कमज़ोर
के सामने अपनी ताकत की नुमाईश करते हैं। तकतवर तो वह होता है जो अपनी शक्ति का
प्रयोग कमज़ोर पर नहीं करता है।
इस संदर्भ में एक कथा उल्लेखनीय है। गुरू गोविंद सिंह जी का एक शिष्य था। एक
बार वह गुरू जी के पास आकार बोला कि, आज मार्ग में एक दुबले-पतले व्यक्ति ने मेरा अपमान किया। इस पर मैंने उसकी खूब
पिटाई की। गुरू जी ने कहा, यह तो तुमने बहुत ही गलत
किया। कुछ दिनों बाद वही शिष्य गुरू जी के पास आया और बोला आज एक व्यक्ति ने फिर
मेरा अपमान किया, लेकिन मैंने उसे कुछ
नहीं कहा।
गुरू जी ने पूछा, वह व्यक्ति कैसा था।
शिष्य ने जवाब दिया, काफी हट्ठा-कट्ठा और
तंदुरूस्त था। गुरू गोविंद सिंह जी ने कहा कि, तुमने बहुत ही ग़लत किया जो उसे अपमान का उत्तर नहीं दिया। गुरू का उत्तर
सुनकर शिष्य बड़ा हैरान हुआ और कहा कि, पिछली बार जब मैंने अपमान करने वाले की पिटाई की तब भी आपने मुझे ग़लत कहा था
और इस बार जब मैंने अपमान का कोई उत्तर नहीं दिया तब भी आप मुझे ग़लत कह रहे हैं।
आखिर मुझे करना क्या चाहिए?
गुरू जी ने शिष्य को समझाया,
पिछली बार
तुमने एक कमज़ोर व्यक्ति की पिटाई की थी। इस बार तुम्हारा अपमान एक सबल व्यक्ति ने
किया था। तकतवर व्यक्ति की पहचान यही है कि, वह कमज़ोर पर हाथ न उठाए और सबल व्यक्ति के द्वार किये गये अपमान को सहन न
करे। इस बार तुमने एक सबल व्यक्ति द्वारा किये गये अपमान को सहन कर लिया है इसलिए
मैंने तुम्हें गलत कहा है।
उसके पास सिर्फ मन होता है और कुछ नहीं
संन्यास का अर्थ ही यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का
केंद्र ध्यान होगा। और कोई अर्थ ही नहीं है संन्यास का। जीवन का केंद्र धन नहीं
होगा, यश
नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंन्द्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा-ऐसे
निर्णय का नाम ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है।
वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है--इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह मुक्ति की,
मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु-मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा
ध्यान है।
तो जो व्यक्ति ध्यान को जीवन के और कामों में एक काम की तरह करता है, चौबीस घंटों में बहुत
कुछ करता है, घंटे भर ध्यान भी कर लेता है-निश्चित ही उस व्यक्ति की बजाय जो व्यक्ति अपने
चैबीस घंटे के जीवन को ध्यान में समर्पित करता है, चाहे दुकान पर बैठेगा तो
ध्यानपूर्वक, चाहे भोजन करेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे बात करेगा किसी के साथ तो ध्यानपूर्वक, रास्ते पर चलेगा तो
ध्यानपूर्वक, रात सोने जाएगा तो ध्यानपूर्वक, सुबह में बिस्तर से उठेगा तो ध्यानपूर्वक-ऐसे
व्यक्ति का अर्थ है संन्यासी, जो ध्यान को अपने चौबीस घंटों पर फैलाने की आकांक्षा से भर
गया है।
निश्चित ही संन्यास ध्यान के लिए गति देगा। और ध्यान संन्यास के लिए गति देगा।
ये संयुक्त घटनाएं है। और मनुष्य के मन का नियम है कि निर्णय लेते ही मन बदलना
शुरू हो जाता है। आपने भीतर एक निर्णय किया कि आपके मन में परिवर्तन होना शुरू हो
जाता है। वह निर्णय ही परिवर्तन के लिए क्रिस्टलाइजेशन बन जाता है।
कभी बैठे-बैठे इतना ही सोचें, चोरी करनी है, तो तत्काल आप दूसरे आदमी हो जाते हैं-तत्काल! चोरी
करनी है इसका निर्णय आपने लिया कि चोरी के लिए जो मदद रूप है, वह मन आपको देना शुरु कर
देता है सुझाव कि क्या करें, क्या न करें, कैसे कानून से बचें, क्या होगा, क्या नहीं होगा! एक
निर्णय मन में बना कि मन उसके पीछे काम करना शुरु कर देता है। मन आपका गुलाम है।
आप जो निर्णय ले लेते हैं, मन उसके लिए सुविधा शुरू कर देता है कि जब चोरी करनी ही है
तो कब करें, किस प्रकार करें कि, फंस न जाएं, मन इसका इंतजाम जुटा देता है।
जैसे ही किसी ने निर्णय लिया कि मैं संन्यास लेता हूं कि, मन संन्यास के लिए भी
सहायता पहुंचाना शुरू कर देता है। असल में निर्णय न लेने वाला आदमी ही मन के चक्कर
में पड़ता है। जो आदमी निर्णय लेने की कला सीख जाता है, मन उसका गुलाम हो जाता है। वह जो
अनिर्णयात्मक स्थिति है वही मन है। इनडिसीसिवनेस इज़ माइंड। निर्णय की क्षमता,
डिसीसिवनेस ही मन
से मुक्ति हो जाती है। वह जो निर्णय है, संकल्प है, बीच में खड़ा हो जाता है, मन उसके पीछे चलेगा। लेकिन जिसके
पास कोई निर्णय नहीं है, संकल्प नहीं है, उसके पास सिर्फ मन होता है। और उस मन से बहुत पीड़ित
और परेशान होते हैं। संन्यास का निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है।
ध्यान रहे, आदमी बहुत अनूठा है। उसका अनूठापन ऐसा है कि कोई अगर आपसे कहे कि दो हजार,
या दो करोड़ या
अरब तारे हैं, तो आप बिल्कुल मान लेते हैं। लेकिन अगर किसी दीवार पर नया पेंट किया गया हो और
लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब किया गया
हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब तक अंगुली
खराब न हो जाए तब तक मन नहीं मानता।
सूरज को बिना सोचे मान लेते हैं और दीवार पर पेंट नया हो तो छूकर देखने का मन
होता है। जितनी दूर की बात हो उतनी बिना दिक्कत के आदमी मान लेता है। जितनी निकट
की बात हो उतनी दिक्कत खड़ी होती है। संन्यास आपके सर्वाधिक निकट की बात है। उससे निकट
की और कोई बात नहीं है। अगर जो विवाह करेंगे तो वह भी दूर की बात है। क्योंकि
उसमें दूसरा सम्मिलित है, इनवाल्व्ड है। आप अकेले नहीं है। संन्यास अकेली घटना है
जिसमें आप अकेले ही हैं, कोई दूसरा सम्मिलित नहीं है। बहुत निकट की बात है। उसमें आप
बड़ी परेशानी में हैं। उस निर्णय को लेकर बड़ी कठिनाई होती है मन को।
कई रोगों का उपचार संभव शिव बीज मंत्र से
चार महारात्रियाँ हैं - जन्माष्टमी, होली, दिवाली और शिवरात्रि। शिवरात्रि को ‘अहोरात्रि’ भी कहते हैं। इस दिन
ग्रह-नक्षत्रों आदि का ऐसा मेल होता है कि हमारा मन नीचे के केन्द्रों से ऊपर आये।
देखना, सुनना,
चखना, सूंघना व स्पर्श करना-
इस विकारी जीवन में तो जीव-जंतु भी होशियार हैं। यह विकार भोगने के लिए तो बकरा,
सुअर, खरगोश और कई नीच योनियां
हैं। विकार भोगने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है।
विकारी शरीरों की परम्परा में आते हुए भी निर्विकार नारायण का आनंद-माधुर्य
पाकर अपने शिवस्वरूप को जगाने के लिए शिवरात्रि आ जाती है कि ‘लो भाई! तुम उठाओ इस
मौके का फायदा...।’ शिवजी कहते हैं कि ‘मैं बड़े-बड़े तपों से, बड़े-बड़े यज्ञों से, बड़े-बड़े दानों से,
बड़े-बड़े व्रतों से
इतना संतुष्ट नहीं होता हूँ जितना शिवरात्रि के दिन उपवास करने से होता हूँ।’
अब शिवजी का संतोष क्या है ? तुम भूखे मरो और शिवजी खुश हों, क्या शिव ऐसे हैं? नहीं, भूखे नहीं मरोगे,
भूखे रहोगे तो
शरीर में जो रोगों के कण पड़े हैं, वे स्वाहा हो जाएंगे और जो आलस्य, तन्द्रा बढ़ानेवाले विपरीत आहार
के कण हैं वे भी स्वाहा हो जाएंगे और तुम्हारा जो छुपा हुआ सत् स्वभाव, चित् स्वभाव, आनंद स्वभाव है, वह प्रकट होगा।
शिवरात्रि का उपवास करके, जागरण करके देख लो। शरीर में जो जन्म से लेकर विजातीय
द्रव्य हैं, पाप-संस्कार हैं, वासनाएं हैं उन्हें मिटाने में शिवरात्रि की रात बहुत काम करती है।
शिवरात्रि का जागरण करो और ‘बं’ बीजमंत्र का सवा लाख जप करो। संधिवात (गठिया) की तकलीफ दूर
हो जाएगी। बिल्कुल पक्की बात है! एक दिन में ही फायदा! ऐसा बीजमंत्र है शिवजी का।
वायु मुद्रा करके बैठो और ‘बं बं बं बं बं’ जप करो, उपवास करो फिर देखो अगला दिन कैसा स्फूर्तिवाला होता
है। शिवरात्रि की रात का आप खूब फायदा उठाना। विद्युत के कुचालक आसन का उपयोग
करना। भीड़भाड़ में, मंदिर में नहीं गये तो ऐसे ही ‘ॐ नमः शिवाय’ जप करना। मानसिक मंदिर में जा सको तो जाना। मन से ही
की हुई पूजा षोडशोपचार की पूजा से दस गुना ज्यादा हितकारी होती है और अंतर्मुखता
ले आती है।
अगर आप शिव की पूजा-स्तुति करते हैं और आपके अंदर में परम शिव को पाने का
संकल्प हो जाता है तो इससे बढ़कर कोई उपहार नहीं और इससे बढ़कर कोई पद नहीं है।
भगवान शिव से प्रार्थना करें: ‘इस संसार के क्लेशों से बचने के लिए, जन्म-मृत्यु के शूलों से बचने के
लिए हे भगवान शिव ! हे साम्बसदाशिव! हे शंकर! मैं आपकी शरण हूं, मैं नित्य आनेवाली संसार
की यातनाओं से हारा हुआ हूँ, इसलिए आपके मंत्र का आश्रय ले रहा हूँ। आज के शिवरात्रि के
इस व्रत से और मंत्रजप से आप मुझ पर प्रसन्न रहें क्योंकि आप अंतर्यामी
साक्षी-चैतन्य हो। हे प्रभु! आप संतुष्ट होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्राप्त कराएं। सुख
और दुःख में मैं सम रहूँ। लाभ और हानि को सपना समझूँ। इस संसार के प्रभाव से पार
होकर इस शिवरात्रि के वेदोत्सव में मैं पूर्णतया अपने पाप-ताप को मिटाकर आपके
पुण्यस्वभाव को प्राप्त करूँ।’
शिवधर्म पाँच प्रकार का कहा गया हैः एक तो तप (सात्त्वि आहार, उपवास, ब्रह्मचर्य) शरीर से,
मन से, पति-पत्नी, स्त्री-पुरुष की तरफ के
आकर्षण का अभाव। आकर्षण मिटाने में सफल होना हो तो ‘ॐ अर्यमायै नमः... ॐ अर्यमायै
नमः...’ यह
जप शिवरात्रि के दिन कर लेना, क्योंकि शिवरात्रि का जप कई गुना अधिक फलदायी कहा गया है।
दूसरा है भगवान की प्रसन्नता के लिए सत्कर्म, पूजन-अर्चन आदि (मानसिक अथवा
शारीरिक), तीसरा शिवमंत्र का जप, चौथा शिवस्वरूप का ध्यान और पाँचवाँ शिवस्वरूप का ज्ञान।
शिवस्वरूप का ज्ञान- यह आत्मशिव की उपासना है। चिता में भी शिवतत्त्व की सत्ता है,
मुर्दे में भी
शिवतत्त्व की सत्ता है तभी तो मुर्दा फूलता है। हर जीवाणु में शिवतत्त्व है। तो इस
प्रकार अशिव में भी शिव देखने के नजरियेवाला ज्ञान, दुःख में भी सुख को ढूँढ़
निकालनेवाला ज्ञान, मरुभूमि में भी वसंत और गंगा लहरानेवाला श्रद्धामय नजरिया, दृष्टि यह आपके जीवन में
शिव-ही-शिव लायेगी।
ऐसे लोगों को हानि उठानी पड़ती है
हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों ने बिना किसी पूर्व तैयारी के एकाएक मंत्र साधना
में कूद पड़ने की इजाजत नहीं दी है। मंत्र साधना करने से पहले जरूरी है कि व्यक्ति
किसी अनुभवी मार्गदर्शक द्वारा विधिवत दीक्षा ग्रहण करे। मार्गदर्शक द्वारा बतायी
गयी विधियों का अनुसरण करें और अपने जीवनशैली में इन्हें शामिल कर लें।
जिज्ञासु मंत्र-साधको को सर्वप्रथम समय के मार्गदर्शक से मंत्र- दीक्षा लेने
के साथ मंत्र के विनियोग और न्यासों की जानकारी हासिल करनी होती है। ताकि इसके
माध्यम से वे अपने शरीर को मंत्र-साधना के लिए अपेक्षित परिवेश में सुस्थिर रहने
का अभ्यासी बना सकें। देश, काल, पात्र और परिस्थिति भेद से मार्गदर्शक जिज्ञासुओं को आवश्यक
यम, नियम,
आसन, बंध, मुद्राओं व प्राणायाम
आदि का सहारा लेने का निर्देश देता है।
कुछ लोग किताबें पढ़कर या दूसरों की देखा-देखी स्वतः मंत्रसाधना के क्षेत्र
में कूद पड़ते है। किंतु वैसे लोगों को कभी भी लक्ष्य तक पंहुचते नहीं देखा गया
है। अधिकतर लोगों को इससे लाभ के बदले हानि उठानी पड़ती है। ऐसे लोग लक्ष्य भ्रष्ट
होकर इधर-उधर भटक जाते है।
हंसी के हैं अलग-अलग रूप
यदि आपका कभी ईश्वर से मिलना हो तो जानते है आप उन्हें क्या कहेंगे? ‘‘अरे! मैं तो अपने भीतर
आपसे मिल चुका हूं। ‘‘ईश्वर आप में नृत्य करते हैं उस दिन जिस दिन आप हंसते और प्रेम में होते हो।
सुबह हंसना ही सच्ची प्रार्थना है। सतही हंसना नही बल्कि अंदर की गहराई से हंसना।
हंसना आपके भीतर से आपके हृदय से आती है। सच्ची हंसी ही सच्ची प्रार्थना है। जब आप
हंसते हो तो सारी प्रकृति आपके साथ हंसती है। यही हंसी प्रतिध्वनि होती है और गूंजती
है, यही
वास्तविक जीवन है। जब सब कुछ आपके अनुसार हो रहा हो तो कोई भी हंस सकता है,
लेकिन जब आपके
विपरीत हो रहा हो और आप हंस सके तो समझो विकास हो रहा है। तो आपके जीवन में आपकी
हंसी से मूल्यवान और कुछ नही। चाहे जो हो जाये इसे किसी के लिये खोना नही है।
घटनाएं आती हैं और जाती है। कुछ तो सुखद होगी और कुछ दुखद, लेकिन जो कुछ भी हो आप
को वे छु न पाये। आपके अस्तित्व के भीतर ऐसा कुछ है जो कि अनछुआ है। उस पर ही रहे
जो अपरिवर्तनशील है। तभी आप हंसने के योग्य होंगे। हंसने में भी भेद है। कभी-कभी
आप अपने आप को नही देखने के लिये या कुछ सोचने से बचने के लिये हंसते हो। लेकिन जब
आप हर क्षण यह देखते हो और अनुभव करते हो कि जीवन हर क्षण है और जीवन का हर क्षण
अपराजेय है तो आपको कोई परेशान नही कर सकता।
आपने एक नवजात हो देखा होगा, छ माह का या एक वर्ष का। जब वे हंसते हैं तो उनका पूरा शरीर
हिलता और कूदता है। उनकी हंसी उनके मुंह से ही नही आती, उनके शरीर का हर एक कण हंसता है।
यह समाधि है। यह हंसी अबोध है, शुद्ध है, बिना किसी तनाव की है। हंसी हमें खोलती है, हमारे दिल को खोलती है।
और जब हम इस अबोधता को प्राप्त नही हो पाते तो क्या करे? आप पूछे -‘‘मैं उस मुक्ति को या
अबोधता को अनुभव नही कर पा रहा हूं। मैं क्या करुं? ‘‘ आपके अस्तित्व के कई स्तर हैं।
पहला, शरीर-
ध्यान रखे कि आपने पूरा विश्राम किया है, सही भोजन किया है और कुछ व्यायाम किया है। फिर श्वास
पर ध्यान दें।
श्वास की अपनी एक लय है। मन की प्रत्येक स्थिति के लिये श्वास की एक निश्चित
लय है। श्वास की उस लय को प्राप्त करके तन और मन दोनो को ऊपर उठाया जा सकता है। तब
आप उन धारणाओं और विचारों को देखें जो कि आप मन में सदैव बने रहते हैं। अच्छे,
बुरे, सही, गलत, ऐसा करना चाहिये,
ऐसा नही करना
चाहिये ये सब आपको बांध लेते हैं। हर विचार किसी ना किसी स्पंदन या भावना से जुड़ा
है। स्पंदनों को देखें और शरीर में अनुभव को देखें। भावना की लय को देखें- यदि आप
देखेंगे तो आप कोई गलती नही करेंगे। आप के पास एक ही तरह की भावनाओं का पथ है,
लेकिन आप इन
भावनाओं को अलग कारणों से, अलग-अलग वस्तुओं से, अलग अलग लोगों से, स्थितियों-परिस्थितियों
से जोड़ लेते हो।
एक विचार को विचार के रुप में ही देखें, एक भावना को भावना के रुप में ही
देखे तब आप खुल जायेगें अपने आप में ईश्वरत्व को देख पाएंगे। देखना इन्हें अलग-अलग
परिणाम देता है। जब आप नकारात्मकता को देखते हैं तो ये तुरंत समाप्त हो जाती है और
जब आप सकारात्मकता को देखते हैं तो वे बढ़ने लगती हैं। जब आप क्रोध को देखेंगे तो
यह समाप्त हो जाएगा और जब आप प्रेम को देखेंगे तो यह बढ़ जायेगा।
यही सर्वोत्तम और एकमात्र उपाय है। आने वाले हर विचार को देखें और उन्हें जाते
हुये देखें। नकारात्मक विचारों के आने का एकमात्र कारण तनाव है। यदि आप किसी दिन
बहुत तनाव में हों तो उसके अगले दिन या उस से अगले दिन आप में नकारात्मक विचार आने
लगेंगे और आप परेशान हो जाएंगे। इन विचारों से, जिनका कोई अर्थ नही है, पीछा छुड़ाने के स्थान
पर आप उन बिंदुओं को, कारणों को खोजें जिनके कारण ये विचार आ रहे हैं। यदि स्रोत स्वच्छ है तो मात्र
सकारात्मक विचार ही आएंगे। यदि नकारात्मक विचार आते है तो आप ये मान ले, ‘‘तो क्या।‘‘ वे आयेंगे और तुरंत गायब
हो जाएंगें। हमें जो जैसा है उसे वैसा ही देखने की आवश्यकता है, विषय और पूर्णता के साथ।
यह जीवन के लिये सारभूत है। जब आप में ऐसा होने लगे तो आपके जीवन में सही अर्थों
में हंसी जन्म लेगी।
आनंद जो कभी समाप्त नहीं होगा
मनुष्य का सबसे प्रमुख लक्ष्य है आनंद की प्राप्ति। इससे बड़ा कोई लक्ष्य नहीं
है। अज्ञनता के कारण हम इस लक्ष्य को पाने में असफल रहते हैं अर्थात आनंद प्राप्त
नहीं कर पाते हैं। ज्ञान के तीन प्रकार हैं ब्रह्म, जीव और माया। हमें बस यही ज्ञान
प्राप्त करना है। ब्रह्म ही वास्तविक आनंद है। सत् चित इसका विशेषण है।
कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रह्म ही ऐसा आनंद है जो नित्य है। सांसरिक आनंद
जड़ है, अनित्य
और इनकी सीमाएं हैं। सासंरिक आनंद एक समय पर समाप्त हो जाता है। मान लीजिए आपने
रसगुल्ला खाया आपको बड़ा आनंद मिला। लेकिन कितनी देर के लिए, इस आनंद से बड़ा भी आनंद
है। लेकिन ब्रह्म से बड़ा कोई आनंद नहीं है और इसका आनंद कभी समाप्त नहीं होता है।
रूपी ब्रह्म के दो रूप हैं। मूर्त और अमूर्त। वह जब चाहे निर्गुण निराकार बन
जाता है और जब चाहे सगुण साकार बन जाता है।श्वेताश्वतर उपनिषद् के छठे अध्याय का
आठवां मंत्र कहता है कि उसके पास अनंत अस्वभाविक शक्तियां है। इनमें सबसे प्रमुख
है स्वरूप शक्ति। इस शक्ति के द्वारा वह दोनों रूप धारण कर लेता है अमूर्त और
मूर्त।
अमूर्त रूप को मानने वाले शंकराचार्य ने भी मान है कि मूर्त और अमूर्त दो
स्वरूप हैं ब्रह्म के। इसे इन्होंने व्यवहारिक रूप में भी दर्शाया है। चारों
दिशाओं में चारों धाम की स्थापना करके उसमें ब्रह्म की मूर्ति स्थापित करके। जबकि
भाष्य में लिखा शंकराचार्च ने लिखा है कि ब्रह्म का सगुण साकार रूप तो मायिक होता
है। जीव भी मायिक और भगवान का सगुण साकार रूप वह भी मायिक यानी मायिक जीव मायिक
ब्रह्म की पूजा करे।
मूर्त और अमूर्त रूप में ब्रह्म के तीन स्वरूप हैं जिसे ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के
नाम से जाना जाता है। वास्तव में ब्रह्म एक होते भी अनंत है। इसी प्रकार उनकी सभी
चीजें अनंत हैं। उनकी लीलाएं, नाम, धाम सभी अनंत हैं।
एक शुरुआत को जन्म देता है 'नहीं' कहना
वह व्यक्ति जो खुद को स्वस्थ,
निर्भार, निर्बोझ, ताजा, युवा, कुंआरा अनुभव करता है, वही समझ पाएगा कि संतोष क्या है। अन्यथा तो तुम कभी न समझ पाओगे कि संतोष
क्या होता है-यह केवल एक शब्द बना रहेगा। संतोष का अर्थ हैः जो कुछ है सुंदर है;
यह अनुभूति कि जो कुछ भी है श्रेष्ठतम है, इससे बेहतर संभव नहीं। एक गहन स्वीकार की अनुभूति है संतोष;
संपूर्ण अस्तित्व जैसा है उसके प्रति ‘हां’ कहने की अनुभूति
है संतोष।
साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है।’ साधारणतया
मन खोजता ही रहता है शिकायतें- ‘यह गलत है,
वह गलत है।’ साधारणतया
मन इनकार करता है: वह ‘न’ कहने वाला होता है, वह ‘नहीं’ सरलता से कह देता
है। मन के लिए ‘हां’ कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है; तब मन की
कोई जरुरत नहीं होती।
क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर?
जब तुम ‘नहीं’ कहते हो, तो मन आगे और आगे
सोच सकता है; क्योंकि ‘नहीं’ पर अंत नहीं होता। नहीं के आगे कोई
पूर्ण-विराम नहीं है; वह तो एक शुरुआत है। नहीं एक शुरुआत
है; हां अंत है। जब हां कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, बड़बड़ाने-कुनमुनाने के लिए, खीझने के लिए,
शिकायत करने के लिए कुछ नहीं रहता-कुछ भी नहीं रहता। जब
तुम हां कहते हो, तो मन ठहर जाता है; और मन का वह ठहरना ही संतोष है।
संतोष कोई सांत्वना नहीं है-यह स्मरण
रहे। मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैं, क्योंकि वे तसल्ली दे रहे हैं स्वयं को। नहीं, संतोष सांत्वना नहीं है, सांत्वना एक खोटा सिक्का है। जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते।
वस्तुतः भीतर बहुत गहरा असंतोष होता
है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता है, यह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता है, यह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं-बौद्धिक रूप से तुमने
समझा-बुझा लिया होता है अपने को कि ‘यह कोई ढंग नहीं
है।’ तो तुमने एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है
स्वयं पर; तुम कहते रहते हो, ‘मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनो के पीछे नहीं भागता; मैं धन के लिए नहीं लालायित होता; मैं किसी
बात की आकांक्षा नहीं करता।’
लेकिन तुम आकांक्षा करते हो। अन्यथा
यह आकांक्षा न करने की बात कहां से आती? तुम कामना
करते हो, तुम आकांक्षा करते हो, लेकिन तुमने जान लिया है कि करीब-करीब असंभव ही है पहुंच पाना;
तो तुम चालाकी करते हो, तुम होशियारी करते हो। तुम स्वयं से कहते हो, ‘असंभव है पहुंच पाना।’ भीतर तुम जानते
होः असंभव है पहुंच पाना, लेकिन तुम हारना
नहीं चाहते, तुम नपुंसक नहीं अनुभव करना चाहते,
तुम दीन-हीन नहीं अनुभव करना चाहते, तो तुम कहते हो, ‘मैं चाहता
ही नहीं।’
तुमने सुनी होगी एक बहुत सुंदर
कहानी। एक लोमड़ी एक बगीचे में जाती है। वह ऊपर देखती हैः अंगूरों के सुंदर गुच्छे
लटक रहे हैं। वह कूदती है, लेकिन उसकी छलांग
पर्याप्त नहीं है। वह पहुंच नहीं पाती। वह बहुत कोशिश करती है, लेकिन वह पहुंच नहीं पाती। फिर वह चारों ओर देखती है कि किसी
ने उसकी हार देखी तो नहीं। फिर वह अकड़ कर चल पड़ती है। एक नन्हा खरगोश जो झाड़ी
में छिपा हुआ था बाहर आता है और पूछता है, ‘मौसी, क्या हुआ?’ उसने देख लिया कि लोमड़ी हार गई, वह पहुंच
नहीं पाई। लेकिन लोमड़ी कहती है, कुछ नहीं अंगूर
खट्टे हैं।
करें ये 6 खास उपाय तो कोई नहीं रोक सकता सफलता व तरक्की
जब कोई भी इंसान नया काम शुरू करता है तो उसके मन में कामयाबी व नतीजों को
लेकर उम्मीदों के साथ किसी न किसी रूप में काम में आने वाली अड़चनों को लेकर संशय
भी होते हैं। धर्म-अध्यात्म से लेकर कारोबारी, कर्मचारी या फिर विद्यार्थी भी
उतार-चढ़ाव व सफलता-असफलता के ऐसे दौर का सामना करते ही हैं।
क्या ऐसा मुमकिन है कि काम का आगाज ही बेहतर न हो बल्कि सफलता में संदेह और
रुकावटों की गुजांइश न रहे। हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में ज़िंदगी से जुड़े ऐसे ही
भय-संशय व मनोदशा से बचने या बाहर निकलने के अहम सूत्र छुपे हैं। खासतौर पर काम
में सफलता के ये सूत्र आज के दौर में भी जोश व ऊर्जा से भरी युवा पीढ़ी के लिए
सटीक व सार्थक हैं।
लिखा गया है कि -
उत्थानं संयमो दाक्ष्यमप्रमादो धृति: स्मृति:।
समीक्ष्य च समारम्भो विद्धि मूलं भवस्य तु।।
जानिए इसका सरल शब्दों में मतलब और व्यावहारिक पहलू। संदेश है कि काम को शुरू
करने और उसमें तरक्की के लिए नीचे लिखे गुणों या उपायों को अपनाना बेहद जरूरी है -
उद्योग या मेहनत- किसी भी काम में सफलता के लिए जरूरी है पुरुषार्थ, परिश्रम के लिए मन पक्का
कर लिया जाए। अनमने मन से काम करना ही संदेह पैदा करता है।
दक्षता - जिस काम को शुरू करें, पहले उससे जुड़ा ज्ञान और अनुभव जरूर बंटोरे यानी कार्य-कुशलता के बिना सफलता की राह
मुश्किल होती है।
धैर्य - काम के दौरान विचारों और भावनाओं पर काबू रखना अहम होता है। वरना किसी
भी वक्त उत्तेजना या उकसावा आपको तय राह से भटका सकता है।
संयम - काम में हमेशा अच्छे ही नहीं बुरे नतीजे भी मिलते हैं। इसलिए
मानसिक
संयम रखकर अच्छे नतीजों में अति उत्साहित और बुरे नतीजों में निराश होकर योजना
से भटके नहीं।
सावधानी - हर काम में प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा या प्रतिद्वंदिता का सामना जरूर करना
होता है। इसलिए नुकसान से बचने के लिए हर कदम पर माहौल और अपने साथ दूसरों के
गुण-दोषों पर नजर रखें।
स्मृति - काम से जुड़ी पिछली भूलों को याद रख फिर से न दोहराएं, अहम लक्ष्यों को याद
रखें, साथ
ही बुरे अनुभवों को विस्मृत करें।
सोच-विचार - भूत-वर्तमान-भविष्य को सामने रखते हुए पूरी समझबूझ से कार्य से
जुड़े फैसले लें।
बच्चों को योग्य बनाने के उपाय
इन दिनों माता-पिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि, वे अपने बच्चों के समक्ष एक
स्वप्न रखकर बच्चों को उस पर चलने के लिए प्रेरित कैसे करें। आपको अपने बच्चों को
बहुमुखी प्रवृत्तियों से परिचित कराना आवश्यक है- जैसे विज्ञान, कला और सबसे महत्वपूर्ण
है सेवा। ये सुनिश्चित करें कि बच्चों की दृष्टि विशाल हो साथ ही उनकी जड़ें भी
गहरी हों। प्रत्येक बालक इस धरती पर कुछ निश्चित प्रकृति और मूलभूत सोच के साथ आया
है जो कि बदली नही जा सकती है।
माता पिता के रुप में उनको स्वप्न के लिए प्रेरित करना आवश्यक है लेकिन झूठी
आशा जगानी ठीक नही है। यह सुनिश्चित कर लें कि, आपके बालक की दायें और बायें
मस्तिष्क की गतिविधियां ठीक है। ‘विद्या की देवी सरस्वती‘ की अवधारणा-विश्व मे अनूठी है।
उनके एक हाथ में वीणा संगीत का यंत्र और दूसरे हाथ में पुस्तक ज्ञान का चिन्ह।
पुस्तक बायें मस्तिष्क की प्रवृत्तियों को दर्शाता है और संगीत दायें मस्तिष्क
की। जप माला भी है जो कि ध्यानमग्नता के पहलु पर प्रकाश डालती है। इस प्रकार गान,
ज्ञान और ध्यान ये
तीनों मिलकर सभी पहलुओं से शिक्षा को पूर्ण करते हैं। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते
हैं उनमें कई प्रकार की मनोग्रंथियों का विकास होने लगता है। एक अभिभावक के रुप
में उनके विभिन्न आयु वर्ग के अनुसार व्यवहार का सूक्ष्म अध्ययन करके आपको
महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है।
इस प्रकार उनके व्यवहार को देखकर आप समझ सकते है कि उनमें कोई हीन या अहं की
भावना का विकास तो नही हो रहा या फिर वे पूर्ण अंतर्मुखी या ब्राह्यमुखी तो नही हो
रहे। जो बच्चे हीनभावना से ग्रस्त होते हैं वे अपने से छोटों के साथ ज्यादा और
अपने से बड़ों के साथ कम बातचीत करते हैं ।
जो बच्चे अहंभावी होते है वे छोटों को छोड़कर बड़ो के साथ ज्यादा रहते हैं। आपको
कुछ इस प्रकार के खेल सृजित करने होंगे और उनके साथ इस प्रकार व्यवहार करना होगा
ताकि वे तीनों आयु वर्ग के लोगों के साथ थोड़ी बहुत बातचीत करने लगें। आप उनका
व्यक्तित्व केन्द्रित गुणवान सरल और सभी ग्रंथियों से मुक्त हो ऐसे ढाल सकते हैं।
जब एक बच्चा आपके पास आकर आपसे शिकायत करता है तो आप क्या करते हैं? क्या आप उनकी
नकारात्मकता को बढ़ावा देते हैं या उसे सकारात्मकता में ढाल देते हैं? यहां पर आपको एक संतुलित
भूमिका निभानी होती है। यदि वे किसी के बारे में आकर नकारात्मक बातें करते है तो
आपको सकारात्मकता का दर्पण बनना होगा।
प्रकृति के अनुसार बालक में भरोसा रखने की प्रवृति होती है। लेकिन जब वे बड़े
होते है तो उनका विश्वास कहीं ना कहीं टूट या हिल जाता है। एक स्वस्थ बालक में तीन
प्रकार का विश्वास होता हैः- पहला दिव्यता में, दूसरा लोगों में और तीसरा लोगों
की अच्छाई में। ये तीन प्रकार के विश्वास ही एक बालक को गुणवान और प्रतिभाशाली
बनाने के लिए आवश्यक तत्व हैं।
यदि आप उनसे ये ही कहते रहेंगे कि यहां सभी झूठे या धोखेबाज़ है तो उनका लोगों
और समाज से विश्वास उठ जाता है। और इसका असर हर रोज़ की उनकी बातचीत पर पड़ता है
यदि उनका लोगों से, समाज से और लोगों की अच्छाई से विश्वास हट जाता है फिर वे चाहे कितने भी योग्य
हों उनकी सारी योग्यता किसी के काम नही आती और वे कुछ भी करें असफल ही रहते है।
जब हम विश्वास का वातावरण बनाते हैं तो बच्चे बुद्घिमान बनकर बड़े होते हैं।
लेकिन यदि हम नकारात्मकता, परेशानी, उदासी और क्रोध का वातावरण बनाते हैं तो वे बड़े होकर यही सब
वापस लौटाते हैं। हर रोज़ जब आप काम से लौटें तो उनके साथ खेलें या हंसे। जहां तक
हो सके सभी एक साथ बैठकर खाना खाएं। एक रविवार उन्हें बाहर ले जाएं और उनको कुछ
चॉकलेट देकर उन्हें सबसे गरीब बच्चों में बाँटने को कहें या फिर साल में एक दो बार कच्ची
बस्ती में ले जाकर उनसे कोई सेवा कार्य करने के लिए कहें।
थोड़ी बहुत धार्मिकता, नैतिक और अध्यात्मिक मूल्य उन पर गहरा प्रभाव उत्पन्न करते
हैं। यह अज्ञात रुप से उनके व्यक्तित्व का विकास करते हैं। उनसे थोडा बहुत गाना,
मंत्रोच्चारण,
ध्यान और प्राणायम
करवाना चाहिए। संशोधन से पता चला है कि ध्यान और प्राणायम उनकी योग्यता को बढ़ाते
हैं। वे शांत, सतर्क, सजग और समझने की योग्यता को बेहतर कर पाते हैं।
पहले शिक्षक, गुरु और उपदेशक उनके सलाहकार की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। आजकल यह बच्चों
के लिए उपलब्ध नही है। अभिभावक को दोनो ही भूमिका निभानी होती है, एक प्रेरक और दूसरी
सलाहकार की। यह एक घुडसवारी की तरह ही है; कभी लगाम कसनी होती है तो कभी ढीली छोड़नी होती है।
भगवान कृष्ण
का मैनेजमेंट फंडा: जानिए कैसे बनाएं अपनी लाइफ परफेक्ट....
भागवत में मिले वर्णन के अनुसारभगवान ने अपनी माया से वृक्ष, रेंगने वाले जन्तु,
पशु, पक्षी, डॉस और मछली आदि अनेक
प्रकार की योनियों की रचना की, परंतु उनसे संतोष न हुआ, तब उन्होंने मनुष्य के शरीर की रचना
की। उसमें ऐसी बुद्धि है कि वह ब्रम्ह साक्षात्कार कर सकता है। अन्य योनियों में
यह संभव नहीं। यद्यपि मनुष्य शरीर है तो अनित्य ही, मृत्यु उसके पीछे लगी रहती है।
परन्तु इससे परम पुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। पुरुषार्थ चार प्रकार के
हैं-अर्थ, धर्म, काम व मोक्ष। इनमें परम पुरुषार्थ मोक्ष है।
अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि मृत्यु से पहले
ही मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न कर ले। इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। अन्य
पुरुषार्थ या योग तो अन्य योनियों में प्राप्त हो सकते हैं, किंतु मोक्ष नहीं।भगवान
श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को यह उपदेश तो दिया ही उसी के साथ उन्होंने साधक के परम
कर्तव्य की पद्धति भी समझाई। ''निष्काम भाव से अपने वर्ण, आश्रम और कुल के अनुसार सदाचार
का अनुष्ठान करे तात्पर्य यह है कि वर्ण, आश्रम और कुल मनुष्य को पूर्व जन्मों के कर्मों के
फल के रूप में मिलते हैं। इनके अनुसार कर्म करते रहने में सद्कर्मों में सतत्ता
बनी रहती है। पूर्व जन्म की साधना इससे चलाए रखने में सहायता मिलती है और साधक की
साधना आगे बढ़ती रहती है।
स्वधर्मों का पालन करने से शुद्ध हुए चित्त में यह विचार करे कि जगत के विषयी
प्राणी शब्द, स्पर्श रूप आदि विषयों को सत्य समझकर उनकी प्राप्ति के लिए जो प्रयत्न करते
हैं, उनका
उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले परन्तु मिलता है दु:ख। इससे यह विचार करना
चाहिए कि सब स्वप्नवत है। अपने जीवन की पूर्णता पर भगवान उद्धव को अनेक सुंदर
बातें समझा रहे हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं- भाई उद्धव! ज्ञानी पुरुष का अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूं।
उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूं। मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थ से वह प्रेम
नहीं करता। भागवत का संदेश ही है प्रेम करो। जिसने प्रेम का सही अर्थ जान लिया वह
वासनाओं से आसानी से मुक्त हो जाएगा। जो परमात्मा से प्रेम करने का सही अर्थ जान
जाएगा वह फिर परिवार के सदस्यों से भी प्रेम करेगा और यहीं से परिवारों में शांति
आएगी। आज परिवारों से प्रेम खत्म होने के कारण ही परिवार बिखर रहे हैं। इसलिए मेरे
प्यारे उद्धव! तुम ज्ञान सहित अपने आत्मस्वरूप को जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञान से
सम्पन्न होकर भक्तिभाव से मेरा भजन करो।
किस व्यक्ति से कैसा व्यवहार कर पाएं सफलता? जानिए 4 खास सूत्र :
ज़िंदगी में सफलता पाने के लिए केवल ज्ञानी, बलवान या फिर धनी हो जाना ही काफी नहीं होता, बल्कि इन शक्तियों को कारगर बनाने के लिए इंसान में एक खास खूबी होना भी जरूरी
है, जिसके बूते मनचाहा मकसद पूरा
करना भी आसान हो जाता है। यह खास खूबी है-अलग-अलग स्वभाव के लोगों से उचित व्यवहार
करने व काम बनाने की बेहतर समझ,
जिसे व्यवहार कुशलता भी कहते हैं।
हिंदू धर्मशास्त्रों में स्वभाव कर्म व स्थिति के मुताबिक 4 तरह के लोगों से बताकर उनसे व्यवहार के 4 खास सूत्र बताए गए हैं। इनसे कोई भी इंसान, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, व्यवहार कुशलता में महारत हासिल कर जीवन को सफल बना
सकता है।
- अपने
समान गुण,
काबिलियत, शौक व हैसियत वाले इंसान
से दोस्ती का व्यवहार करें, जिसमें खासतौर पर प्रेम व सहयोग का भाव हो। क्योंकि ऐसे
लोगों से तालमेल बहुत ही जल्दी व आसानी से कायम हो जाता है।
- किसी
भी तरह से बड़े या गुणी लोग, जो प्रेरणादायी या आत्मविश्वास बढ़ाने वाले हों, उनसे मिलकर या देखकर
सम्मान के साथ खुशी जाहिर करें और उनके गुणों को अपनाने का भरसक कोशिश करें।
- अपने
से छोटे चाहे वह गुण, ज्ञान, धन से ही कमजोर क्यों न
हो, से व्यवहार में दया व
करुणा का भाव रखें। शास्त्रों में तो कर्म से कमजोर यानी बुरे कामों में शामिल
इंसान के लिये भी दया और सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करना श्रेष्ठ माना गया है। ऐसे
लोगों से नफरत न कर अपनी तरह ही सुखी और गुणों से ऊंचा बनाने के लिए यथासंभव कोशिश
और मदद करें।
- बुरे
लोग यानी जो बुरी लत या कामों से जुड़े होकर पाप कर्म करते रहते हैं या जिनमें
तमाम तरीके अपनाने के बाद भी सुधार की संभावना न दिखे। उनके प्रति नफरत या शत्रुता
का भाव न रख तटस्थ हो जाएं। उनसे न भयभीत हो न उनके शमन के लिए मन में बुरे भाव या
कर्म द्वारा स्वयं को भी अपराध या पाप कर्म में शामिल कर अपने गुण, योग्यता और भविष्य को
दांव पर लगाएं। नीतिपूर्वक निपटें।
इस तरह स्त्री हो या पुरुष, दोनों के लिए इन चार तरीकों से व्यवहार कुशलता न केवल जीवन
में सफलता की राह को आसान बनाएगी, बल्कि इनके नतीजों में मिले दूसरों के स्नेह, विश्वास, सहयोग व मनोबल की ऊर्जा
से आप मनचाहा मकसद भी सही और तय वक्त पर पा लेंगे।
गुरू बनाने से पहले गुरू को जानें
मनुष्य के अंदर सुख का खजाना है,
किंतु सबको उसकी जानकारी नहीं है। यदि बौद्धिक स्तर पर
किसी को कुछ जानकारी है भी तो, व्यावहारिक रूप
में उसे वह नहीं मिल पा रहा है। किंतु, स्वभावत:
ही वह अंदर से उसे पाने का प्रयास करने की प्रेरणा प्राप्त कर रहा है। अंतरतम में
जाने के लिए उसे एक कुशल गुरु चाहिए, किंतु सफल
मार्गदर्शक खोजने में बराबर भूल होती रहती है।
क्योंकि मनुष्य शब्दों के बाह्य
आडंबरों में फंसकर यह विचार नहीं करता कि गुरु बनने का दावा करने वाले व्यक्ति में
मात्र सैद्धांतिक वाक्-पटुता है या वह क्रियात्मक रूप से हमारे अंतरतम में छिपे
सुख-शांति के अपरिमित खजाने तक पहुंचने की विधि बताने की घोषणा भी करता है।
सच्चे मार्गदर्शक के स्थान पर झूठे
और भुलावा देने वाले मार्गदर्शकों का चुनाव होता रहता है। यही कारण है कि उसको
अंदर से तो प्रेरणा होती है कि वह सुख प्राप्त करें, किंतु दु:ख ही मिलता है। सच्चे मार्गदर्शक की खोज करना अति आवश्यक है
क्योंकि उसके बिना जीवन अधूरा और सूना-सूना रहता है, हृदय में शाश्वत सुख का अभाव सदैव खटकता रहता है। दूसरे शब्दों में सच्चे
मार्गदर्शक की खोज करना, जीवन के लक्ष्य
की प्राप्ति करना है। परंतु सच्चे मार्गदर्शक कहां मिले, हम किस पर विश्वास करें, यह भी एक समस्या
है।
यदि कोई रोगी किसी डाक्टर के पास
जाकर रोगमुक्त होता है तो वह उसी के गुण गाता है। उस रोगमुक्त व्यक्ति के संपर्क
में आया हुआ दूसरा रोगी व्यक्ति भी उसी डाक्टर के पास जाने का प्रयास करता है और
अगर वह भी रोगमुक्त हो जाता है तो डाक्टर पर लोगों का विश्वास जम जाता है। स्पष्ट
है, व्यक्तिगत संपर्क में जाकर उसके द्वारा
बतायी गयी औषधि का उपयोग करके ही कोई रोगी डाक्टर की योग्यता का आकलन कर सकता है।
एक रोगी के लिए डाक्टर की परीक्षा की
यही कसौटी होती है। उसी प्रकार जिसकी कृपा से अपने ही अंतरतम में स्थित शाश्वत सुख
की खान से व्यावहारिक रुप से पहुंचने में सहायता मिलती है। उसी समय के तत्वदर्शी
सद्गुरु की शरण लेने पर ही ऐसा संभव हो सकता है। अपने आपसे कैसे जुडऩा है, कैसे अपने आप का परिचय प्राप्त करना है, इसकी प्रक्रिया सच्चे जिज्ञासुओं को सद्गुरु द्वारा प्रदान की
जा सकती है।
होली की तरह जीवन भी भरा हो रंगो से
होली रंगों का त्योहार है। यह संसार
कितना रंग भरा है। प्रकृति की तरह ही हमारी भावनाओं तथा संवेदनाओं का रंगों से
संबंध है। क्रोध का लाल, ईर्ष्या का हरा,
आनंद और जीवंतता के लिए पीला, प्रेम का गुलाबी, नीला विस्तार के
लिए, शांति के लिए श्वेत, त्याग का केसरिया और ज्ञान का जामुनी।
प्रत्येक मनुष्य रंगों का एक फव्वारा
है जो बदलते रहते हैं। पुराण अनेक सुन्दर उदाहरणों एवं कथाओं से युक्त है और यहां
होली की एक कहानी है। राजा हिरण्यकश्यप चाहता था कि सभी उसकी पूजा करें। किन्तु
उसका पुत्र प्रह्लाद भक्त था भगवान विष्णु का, जिनका वह राजा कट्टर शत्रु था।
क्रोधित राजा चाहता था कि उसकी बहन
होलिका, प्रह्लाद से छुटकारा दिलाये। अग्नि को सहन
करने कि शक्ति से युक्त होलिका, प्रह्लाद को गोद
में लेकर अग्नि के कुण्ड में बैठ गयी। लेकिन, होलिका जल गयी। प्रह्लाद सुरक्षित रहा। हिरण्यकश्यप स्थूलता का प्रतीक है।
प्रह्लाद भोलपन, श्रद्धा एवं आनंद की प्रतिमूर्ति है।
चेतना को केवल भौतिकता के प्रेम तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। हिरण्यकश्यप चाहता
था कि संपूर्ण आनंद भौतिक संसार से ही प्राप्त हो, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
जीवात्मा सदैव सांसारिक वस्तुओं के
बन्धन में नहीं रह सकती। स्वभावतः वह 'नारायण',
अपने उच्च स्वयं, की ओर अग्रसित होगी ही। होलिका भूतकाल की बोझिलता की प्रतिनिधि है,
जो प्रह्लाद के भोलेपन को नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध
है। किन्तु प्रह्लाद नारायण की भक्ति में इतनी गहराई में स्थित है कि, अपने सभी पुराने संस्कारों को, प्रभावों को, मिटा देता है और आनंद खिल उठता है
नये रंगों के साथ!
जीवन एक उत्सव बन जाता है। भूत की
छाप को मिटाकर आप नई शुरूआत के लिए उद्धत होते हैं। आपकी भावनाएं अग्नि की तरह
आपको जलाती हैं। किन्तु जब वह रंगों की फुहार सी हों, तो आप के जीवन में रंग भर देती है। अज्ञानता में भावनाएं कष्टकारी हैं,
ज्ञान में यही भावनाएं जीवन के भिन्न रंग हैं। होली की
तरह ही जीवन भी रंगों से भरा होना चाहिए न कि उबाऊ।
जब सभी रंग स्पष्ट देखे जाएं तब वह
रंग भरा है, जब सभी रंग घुल जाते हैं, वह हो जाता है- "काला"। जीवन में हम विभिन्न भूमिकाएं
निभाते हैं। प्रत्येक भूमिका एवं भावना स्पष्ट रूप से परिभाषित होनी चाहिए।
अस्पष्ट भावनाएं कष्ट उत्पन्न करती हैं।
जब आप एक पिता हैं, आपको पिता का पात्र निभाना है। कार्यस्थल पर आप पिता नहीं हो
सकते! जब आप जीवन की विभिन्न भूमिकाओं को मिश्रित करते हैं तब आप से गलतियां होनी
शुरू होती हैं। आप अपने जीवन में जो भी पात्र निभा रहे हैं पूर्ण रूप से उस ही में
हों।
विविधता में समन्वयता जीवन को अधिक
जीवंत एवं रंग भरा बनाती है। जीवन में आप आनंद का जो भी अनुभव करते हैं वह आपको
स्वयं से ही प्राप्त होता है- जब आप वह सभी छोड़कर शांत हो जाते हैं, जिसे आपने जकड़ा हुआ है। यह भी ध्यान कहलाता है।
ध्यान कोई क्रिया नहीं है यह कुछ भी
नहीं करने की कला है। ध्यान में आप को गहरी नींद से भी अधिक विश्राम मिलता है
क्योंकि आप सभी ईच्छाओं के पार होते हैं। यह मस्तिष्क को गहरी शीतलता देता है। यह
मस्तिष्क शरीर तंत्र को पुनर्जीवन देने के समान है।
उत्सव चेना का स्वभाव है, तथा वह उत्सव जो मौन से उत्पन्न होता है वह ही वास्तविक है।
यदि उत्सव के साथ पवित्रता को जोड़ दिया जाए तो वह पूर्ण हो जाता है। केवल शरीर
तथा मन ही उत्सव नहीं मनाता बल्कि चेतन भी उत्सव मनाती है, तथा उस स्थिति में जीवन रंग युक्त हो जाता है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू
का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता
है......MMK
https://adhyatmikgyanvandna.blogspot.com/2020/08/28.html
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