होलाष्टक, अशुभ क्यों हैं ये 8 दिन?
होली की सूचना होलाष्टक से प्राप्त होती है। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर होलिका दहन तक के समय को धर्मशास्त्रों में होलाष्टक का नाम दिया गया है।
ज्योतिष के ग्रंथों में ‘होलाष्टक’ के आठ दिन समस्त मांगलिक कार्यों में निषिद्ध कहे गए हैं। इस साल होलाष्टक 20 मार्च से शुरू हो रहा है। माना जाता है इस दौरान शुभ कार्य करने पर अपशकुन होता है। इस मान्यता के पीछे यह कारण है कि, भगवान शिव की तपस्या भंग करने का प्रयास करने पर कामदेव को शिव जी ने फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को भष्म कर दिया था।
कामदेव प्रेम के देवता माने जाते हैं, इनके भष्म होने पर संसार में शोक की लहर फैल गयी थी। कामदेव की पत्नी रति द्वारा शिव से क्षमा याचना करने पर शिव जी ने कामदेव को पुनर्जीवन प्रदान करने का आश्वासन दिया। इसके बाद लोगों ने खुशी मनायी। होलाष्टक का अंत दुलहंडी के साथ होने के पीछे एक कारण यह माना जाता है।
होलाष्टक के दौरान शुभ कार्य प्रतिबंधित रहने के पीछे धार्मिक मान्यता के अलावा ज्योतिषीय मान्यता भी है। ज्योतिष के अनुसार अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए हुए रहते हैं।
इससे पूर्णिमा से आठ दिन पूर्व मनुष्य का मस्तिष्क अनेक सुखद व दुःखद आशंकाओं से ग्रसित हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को अष्ट ग्रहों की नकारात्मक शक्ति के क्षीण होने पर सहज मनोभावों की अभिव्यक्ति रंग, गुलाल आदि द्वारा प्रदर्शित की जाती है।
सामान्य रूप से देखा जाए तो होली एक दिन का पर्व न होकर पूरे आठ दिन का त्योहार है। भगवान श्रीकृष्ण आठ दिन तक गोपियों संग होली खेले और दुलहंडी के दिन अर्थात होली को रंगों में सने कपड़ों को अग्नि के हवाले कर दिया, तब से आठ दिन तक यह पर्व मनाया जाने लगा।
होलाष्टक पूजन विधि
होलिका पूजन करने के लिए होली से आठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकड़ी, सूखी घास व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है।
जिस दिन यह कार्य किया जाता है, उस दिन को होलाष्टक प्रारंभ का दिन भी कहा जाता है। जिस गांव, क्षेत्र या मौहल्ले के चौराहे पर यह होली का डंडा स्थापित किया जाता है, होली का डंडा स्थापित होने के बाद संबंधित क्षेत्र में होलिका दहन होने तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता है।
शिव-हनुमान मंत्रों से दनादन दूर होती हैं मुसीबतें
सोमवार, शिव ही नहीं बल्कि उनके हर संकटमोचक अवतार के स्मरण का दिन है। जगत का दुःख
हरने वाले माने गए रुद्र का अंश होने से हनुमानजी भी मंगलमूर्ति पुकारे जाते हैं।
खासतौर पर सोमवार को तो शिव के साथ रुद्र अवतार श्रीहनुमान की पूजा के कुछ
आसान उपाय काल, भय, पीड़ा,
रोग व उलझनों से
छुटकारा दिलाने में बेहद असरदार माने गए हैं।
इन उपायों में ऐसे 3 मंत्रों का स्मरण भी है, जिनके जरिए शिव-हनुमानजी का
साथ-साथ ही ध्यान हो जाता है और इनके प्रभाव हर परेशानी का अंत करने में अचूक होते
हैं।
- तीर्थ जल से स्नान के बाद शिव मंदिर में शिव का जल से अभिषेक कर सफेद चंदन के
साथ एक बिल्वपत्र व पांच सफेद आंकड़े के फूल चढ़ाएं। साथ ही मिठाई, एक मुट्ठी गेहूं और
नारियल शिवलिंग के सामने चढ़ाएं।
- इसी तरह श्रीहनुमान को पवित्र जल से स्नान कराकर लाल फूलों की माला, पान व जनेऊ चढ़ाकर गुड़
से बने लड्डू या शहद का भोग लगाएं।
- अब इन शिव मंत्रों के साथ हनुमान का ध्यान संकटमोचन की कामना से करें -
- ऊँ रुद्राय नम:
- ऊँ सर्वविद्या सर्वसम्पत्ति प्रदायकाय नमः
- ऊँ सर्वदुःखहराय नमः
- शिव चालीसा व हनुमान चालीसा का पाठ कर शिव-हनुमान की आरती गुग्गल धूप, दीप से करें।
- शिव स्नान का जल व श्रीहनुमान का सिंदूर व प्रसाद ग्रहण करें व बांटे। इन
सामान्य पूजा उपायों से पितृदोष, ग्रहदोष और शनिदोष का बुरा असर भी जीवन व घर-परिवार पर नहीं
होता।
सूर्य से जुड़ी यह बात आपके लिए भी होगी अनसुनी!
सूर्य की महिमा बताने वाले हिन्दू धर्मग्रंथ भविष्यपुराण के मुताबिक सूर्यदेव
ही सर्वशक्तिमान ईश्वर है। सूर्य से ही सृष्टि रचना हुई। आदित्य को ही पूरे जगत का
आधार और सर्वव्यापक माना गया है। इसलिए सूर्यदेव को 'आदित्य' भी पुकारा जाता है।
माना गया है कि आदित्य के कारण ही सारे देवता और जगत का तेज संभव है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी सूर्यदेव को पूजते हैं।
सारे देवता और जगत की ऊर्जा व शक्ति सूर्य से ही संभव है। अग्रि में किया गया होम
भी सूर्य को मिलता है। सूर्यदेव के कारण ही होने वाली बारिश और पैदा अन्न जगत में
प्राण फूंकते हैं। सारी कालगणना का आधार भी सूर्य हैं।
भविष्यपुराण के मुताबिक सूर्य की अद्भुत शक्तियों और गुणों के बिना संसार के
सारी क्रिया और व्यवहार का नाश हो जाता है। धार्मिक नजरिए से सूर्यनारायण इन
शक्तियों, गुणों और ऊर्जा से हिन्दू पंचांग के बारह माहों में अलग-अलग 12 रूपों में जगत का
पालन-पोषण करते हैं। ये द्वादश यानी बारह आदित्य के रूप में भी जाने जाते हैं।
भविष्य पुराण में 12 आदित्यों के अलावा सूर्यदेव के 12 मंगलकारी नाम भी उजागर हैं।
जानिए सूर्य के ये कल्याणकारी बारह नाम और बारह आदित्य के माहवार नाम -
सूर्य के बारह नाम हैं - आदित्य,
सविता,
सूर्य, मिहिर, अर्क, प्रतापन, मार्तण्ड, भास्कर, भानु, चित्रभानु, दिवाकर और रवि।
इसी तरह सूर्य ये बारह आदित्य रूप अलग-अलग माहों में उदय होते हैं। जानिए किस
माह सूर्यदेव किस शक्ति के रूप में प्रकट होते हैं -
चैत्र माह - विष्णु
वैशाख - अर्यमा
ज्येष्ठ - विवस्वान
आषाढ़ - अंशुमान
श्रावण - पर्जन्य
भाद्रपद - वरुण
आश्विन - इन्द्र
कार्तिक - धाता
मार्गशीर्ष - मित्र
पौष - पूषा
माघ - भग
फाल्गुन – त्वष्टा
पुरुष दोस्ती में न करें ये 3 काम!
मित्रता की अहमियत समझने के लिए कई पहलू हो सकते हैं, लेकिन मोटे तौर पर समझना चाहे
तों मित्रता, प्रेम और विश्वास का ही दूसरा नाम है, जिसके जरिए कोई व्यक्ति मुश्किल वक्त, दु:ख और डर का भी सामना
आसानी से कर लेता है। यहां तक कि सच्चा मित्र उतना ही भरोसेमंद होता है जितना माता,
पत्नी, भाई और पुत्र।
सच्ची मित्रता नि:स्वार्थ होती है। शास्त्रों में भी दोस्ती के कई प्रसंग इस
बात को साबित भी करते हैं। इनमें कृष्ण-सुदामा की मित्रता हर काल में आदर्श है। आज
के दौर में मित्रता की बात करें तो यह भी देखा जाता है कि किसी स्वार्थ या खास वजह
से मित्रता होती है और जल्द बिगड़ती भी है। क्योंकि प्रेम और भावना दिखावा या सतही
होती है। इसलिए जब स्वार्थ टकराते हैं तो दोस्ती में कटुता आने में देर नहीं लगती
और नतीजे में मिलते हैं दु:ख और कलह।
अगर आप भी स्वार्थ व दुःख से परे सच्ची मित्रता का सुख चाहते हैं या अलगाव,
मतभेदों या
गलतफहमियों के कारण दोस्ती में दरार से बचना चाहते हैं तो खासतौर पर पुरुष
शास्त्रों में बताए इन 3 कामों से जरूर बचें।
द्यूत क्रीड़ा यानी जुआ खेलना - द्यूत या जुआ असल में लोभ और लालच का कारण है।
यह लत रिश्तों की मर्यादा और भावना को भंग कर देता है। इससे कटुता आना स्वाभाविक
है।
पैसों का लेन-देन यानी धन का व्यवहार - संकेत यही है कि मित्र से धन का
लेन-देन साफ हो। मदद के रूप में मित्र से पाए धन को किसी विवशता के अलावा, लौटाने में आनाकानी या
किसी भागीदारी में धन के हिसाब-किताब में खोट मित्रता से विश्वास उठाकर शत्रुता भी
पैदा कर सकती है।
मित्र की स्त्री पर अप्रत्यक्ष दृष्टि या दर्शन - मित्र की स्त्री के लिए गलत
सोच, नजर,
भाव या व्यवहार
धार्मिक नजरिए से तो पाप हैं ही, व्यावहारिक तौर से भी विश्वास भंग करने वाले दोष हैं,
जो मित्रता का
सबसे बड़ा आधार है।
शिव को कहते हैं "पशुपति", पर ऐसे नाम की यह वजह आप नहीं जानते होंगे
हिन्दू शैव (शिव की महिमा बताने वाले) ग्रंथों के मुताबिक शिव लीला ही सृष्टि,
रक्षा और विनाश
करने वाली है। शिव साकार भी है और निराकार भी।
वे जन्म और मृत्यु से भी परे हैं
यानी अनादि व अनन्त हैं इसलिए भगवान शिव
की भक्ति कल्याणकारी होती हैं।
भगवान शिव को ऐसे विलक्षण शक्तियों और स्वरूप के कारण पशुपति नाम से भी पुकारा
जाता प्रमुख है। आखिर कौन सी अद्भुत शक्तियां शिव के इस नाम से जुड़ीं हैं,
इनका रहस्य शिव
पुराण में बताया गया है।
शिव पुराण के मुताबिक भगवान ब्रह्मदेव से लेकर सभी सांसारिक जीव शिव के पशु
हैं। इनके जीवन, पालन और नियंत्रण करने वाले भगवान शिव हैं। इन पशुओं के पति यानी स्वामी होने
से ही शिव पशुपति हैं।
भगवान शिव ही इन पशुओं को माया और विषयों द्वारा बंधन में बांधते हैं। इनके
द्वारा शिव ब्रह्मा सहित सभी जीवों को कर्म से जोड़ते हैं। पशुपति द्वारा ही
बुद्धि, अहंकार
से इन्द्रियां व पंचभूत बनते हैं, जिससे देह बनती हैं। इसमें बुद्धि कर्तव्य और अहंकार अभिमान
नियत करती है। साथ ही चित्त में चेतना, मन में संकल्प, ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अपने
विषय और कर्मेन्दियों द्वारा अपने नियत कर्म पशुपति की आज्ञा से ही संभव है।
पशुपति ही आराधना और भक्ति से प्रसन्न होकर ब्रह्म से लेकर कीट आदि पशु सभी को
जन्म-मरण और सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त करते हैं।
महाभारत के इस 7 अंकों के हिसाब-किताब में है आपके हर सवाल का जवाब!
अगर हम पशुओं के स्वाभाविक खान-पान, व्यवहार या दिनचर्या पर गौर करें तो उनमें बदलाव नजर
नहीं आते। वहीं व्यावहारिक तौर पर अक्सर देखा जाता है बुद्धिमान होने के बावजूद भी
इंसान पशु की तरह व्यवहार करते हैं। जाहिर है कि इंसान व पशु के तौर-तरीकों में इस
फर्क की वजह बुद्धि ही होती है।
इस बात से यह भी साफ है कि बुद्धि के उपयोग से ही अच्छे या बुरे कर्म इंसान के
सुख-दु:ख नियत करते है। बुद्धि ईश्वर की वह देन है, जो हर इंसान को प्राप्त होती है।
किंतु धर्मशास्त्रों के मुताबिक ज्ञान के साथ अनुभव और व्यवहार के जरिए ही बुद्धि
निखरती है। यानी विद्या, पुण्य कर्म और विचार बुद्धि को धार देते हैं। वहीं ज्ञान के
अभाव, बुरे
या पाप कर्मो से बुद्धि का नाश होता है।
हिन्दू धर्मशास्त्र महाभारत में सुखी जीवन के लिए ही बुद्धि के सही उपयोग से
सुख की मंजिल तय करने के लिये ऐसा अंक गणित भी बताया गया है, जिसे सीखकर हर इंसान
सांसारिक जीवन के संघर्ष में सफलता पा सकता है।
लिखा गया है कि -
एकया द्वे विनिनिश्चित्य त्रींश्चतुर्भिवशे कुरु।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखो भव।।
इस श्लोक में जीवन में कर्म, व्यवहार और नीति में बुद्धि के उपयोग द्वारा सुख बंटोरने के
लिये 1 से
लेकर 7
अलग-अलग सूत्रों को उजागर किया गया है। सरल शब्दों में जानिए यह अंक गणित -
1 यानी बुद्धि से 2 यानी कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय कर 4 यानी साम, दाम, दण्ड, भेद द्वारा 3 यानी दुश्मन, दोस्त और तटस्थ को काबू
में करें। इनके साथ-साथ 5 यानी पांच इन्द्रियों के संयम द्वारा 6 यानी छ: गुण यानी सन्धि- मेलजोल या मित्रता, विग्रह - संधि विच्छेद या मित्रता के रिश्ते न रखना, यान - सही मौके पर वार, आसन - विपरीत हालात में शांत रहना, द्वैधीभाव - ऊपर से मित्रता अंदर से शत्रुता का भाव और
समाश्रय - सक्षम व सबल की पनाह लेना, समझें और जानें। साथ ही 7 यानी स्त्री, जूआ, मृगया यानी शिकार,
नशा, कटु वचन, कठोर दण्ड और गलत तरीके
से धन कमाने के बुरे गुण और कर्म को छोडऩा, कठिन और विरोधी स्थितियों में
किसी भी इंसान के लिये सुख का कारण बन जाते हैं।
जानिए हनुमानजी का बताया वह खास उपाय, जिससे कभी न होंगे दुःखी
हर इंसान ज़िंदगी को सुकूनभरा बनाने के लिये हर दिन जूझता है। हालांकि यह सच
है कि सुख और दु:ख के रास्ते ही ज़िंदगी का सफर तय होता है। इस सफर को सफलतापूर्वक
पूरा करने के लिये गुण, योग्यता, विचार और शक्तियां अहम होती हैं। किंतु सुरक्षित रहने और
दु:खों से परे रहने की सोच और आतुरता कई मौकों पर उसको सुकून के बजाए ज्यादा चिंता
में डूबो देती है।
धर्मशास्त्रों में ऐसे ही दु:खों और चिंता से दूर जीवन के लिये ऐसे सूत्र बताए
गए हैं, जिनमें
छुपे अर्थ को गंभीरता से समझा जाए तो वह जीवन में संतुलन लाने के साथ तमाम
मुश्किलों से निजात दिला सकते हैं।
इसी कड़ी में संकटमोचक देवता और संयम के महान आदर्श हनुमानजी का दु:ख व तनावों
से बचने के लिए बताया एक सूत्र सांसारिक जीवन के लिये बहुत ही सटीक और कारगर है।
श्रीहनुमान चिरंजीवी सरल शब्दों में कहें तो अमर देवता माने गए हैं। माना जाता
है कि वे हर युग में सशरीर मौजूद होते हैं। इसलिए उनका किसी भी रूप में स्मरण हर
संकट व दुःख को टालने वाला माना गया है।
श्रीहनुमान चरित्र का एक सुखद पहलू है ‘भक्ति’। इससे जुड़े सुख-शांति के कई
सूत्र सांसारिक जीवन में भी कलह व संताप दूर कर देते हैं। इसी कड़ी में
रामचरितमानस में श्रीहनुमान के बोल हैं कि –
कह हनुमंत बिपत्ति प्रभु सोई।
जब तब सुमिरन भजन न होई।।
इस चौपाई में श्रीहनुमान द्वारा देव स्मरण, भक्ति और समर्पण की अहमियत बताते
हुए जीवन को सुखी बनाने का बहुत ही अच्छा संदेश दिया है। इसमें दु:ख को अच्छा
मानते हुए संकेत है कि साधारण इंसान दु:ख को मुसीबत मानता है, किंतु असल में दु:ख सुख
से श्रेष्ठ इसलिए हो जाता है कि ऐसे वक्त में ही भगवान की याद आती है। इसके विपरीत
बुरा समय तो वह होता है जब भगवान का स्मरण न हो।
व्यावहारिक रूप से प्रेरणा यही है कि चूंकि बुरा वक्त इंसान को सोने की तरह
तपाकर निखारने वाला होता है। कहा भी जाता है कि सांसारिक जीवन में सुख के साथी
प्राणी व दुःख के भगवान होते हैं। इसलिए ऐसे वक्त हिम्मत हारकर रुकने के बजाय
इंसान ईश्वर और खुद पर विश्वास रख आगे बढ़ता चले। साथ ही वह दु:ख ही नहीं बल्कि
सुखों में भी अहंकार से परे रहे। सुख-दुःख दोनों को ही ईश्वर की देन मानकर हमेशा
सरल और सहज भाव से देव स्मरण कर ज़िंदगी गुजारता चले।
इस तरह श्रीहनुमान के इस सूत्र को अपनाने से बड़े से बड़े दु:ख में भी इंसान
अस्थिर और अशांत नहीं होता।
संसार जल से पैदा हुआ और जल में ही मिल जाएगा
‘हे जल ! आप कल्याणकारी हैं, हमारे बल की वृद्धि और परमात्मा की प्राप्ति के लिए पालन
करें। जिस प्रकार माता अपनी संतानों को पुष्ट करने के लिए उन्हें अपना दुग्ध पान
कराती हैं, उसी प्रकार आप भी हमारे पोषण के लिए अपने परम कल्याणमय रस का हमे भागी बनाओ।
हे जल! जगत् के जिस रस के एक अंश से तुम समस्त विश्व को तृप्त करते हो उस रस कि
पूर्णता को हम प्राप्त हों।'
एक भारतीय धर्मानुयायी को जितने भी संस्कार और कर्मकाण्ड होते है, पूजा पाठ और संध्यावंदन
जैसे नित्य कर्मो का विधान निभाना होता है, उन सबमें इस आशय के मार्जन
मन्त्र का पाठ भी अनिवार्य है। जल प्रसेचन और आराधना तो दिन में पांच सात बार करने
पड़ते है। लौकिक जीवन तो जल; के बिना चलता ही नहीं सकता, धर्मिक और आत्मिक जीवन के लिए तो
जल और भी आवश्यक है।
इसीलिए कहा गया है कि संसार की उत्पत्ति जल से हुई। जल जीवन का ही नहीं उसके
अधिपति परमात्मा का भी आधार है। पुराणों के विवरण प्रसिद्ध है कि संसार की
उत्पत्ति के अधिष्ठाता ब्रह्मा जल से ही उत्पन्न हुए। वे जिस कमल पर बैठे प्रकट
हुए थे वह विष्णु की नाभि या संकल्प से निकला था और विष्णु गहरे सागर में शेष
शैय्या पर सोए हुए थे.. संहार या कल्याण के देवता शिव भी ब्रह्मा के आंसुओं से ही
हर हर कहते हुए निकले बताए जाते है।
सृष्टि, जीवन और संहार तीनो के अधिपति देवताओ के जल से ही जन्म लेने की तो यह एक बानगी
है। वर्ना समुद्र मंथन में से निकले चौदह रत्नो समेत विष और अमृत भी जल की ही देन
है। भारतीय धर्म में माने गए दस अवतारों में से शुरू के तीन स्वरुप मत्स्य कश्यप
और वराह भी सागर के गर्भ से ही प्रकट होते है।
तैंतीस मुख्य देवताओं में से आठ का सीधा सम्बन्ध-उनके जन्म से हो या कर्म से
पूरी तरह जल से ही है। इसलिए सारभूत तथ्य यह है कि जल जीवन ही नहीं धर्म संस्कृति
और आत्मचेतना का भी आधार है।
निर्विवाद तथ्य है कि ‘वेद’ प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इनकी भाषा और छन्द भी
कल्पनातीत-पुरातन है। वैदिक मन्त्रदृष्टा ऋषियों ने ‘जल’ का विभिन्न रूपों में अनुभव किया
और उसी तरह उन मंत्रों का ‘विनियोग’ भी किया। जल की बारे में कुछ जानने के लिए उन अनुभवों और
विनियोगों को जान लेना चाहिए।
पहली बात तो यह की वेदों के करीब बीस हजार मन्त्रों में दो हजार से ज्यादा
मंत्र जल और उससे जुड़े देवताओ के बारे में हैं। वेदों और उनकी व्याख्या के लिए
लिखे-कहे गए आसान कथा काव्य स्वरुप ग्रंथ पुराणों में जल, उसकी उत्पत्ति और नित्यता या सदा
बने रहने के बारे में तरह तरह से कहा गया है।
इन मान्यताओं में कुछ विरोधाभास भी है। यह विरोध अनुभूति और अभिव्यक्ति की
शैलियों के कारण है। वरना वेदों की नै मीमांसा शैली के लिए प्रसिद्घ कुमार स्वामी
के अनुसार मूल रूप से वे स्थापना विरोधाभासी होने के बजाय मूल रूप में एक ही ही है,
एक धारणा के
अनुसार सृष्टि से पहले सिवा ‘परब्रह्म’ के कुछ नहीं था। ‘परब्रह्म’ ने अपने आपको ‘पुरुष’, ‘प्रधान’ और ‘काल’ रूप में विभाजित किया।
‘काल’ के
प्रभाव से प्रधान और पुरुष ने मिलकर तो चौथे रूप व्यक्त संसार की रचना की। इस ‘व्यक्त’ से सर्वप्रथम महत्तत्व
और अह्नाकार उत्पन्न हुआ। एक स्थापना के अनुसार महत्तत्व से लेकर प्रकृति के सभी
विकारों के सहयोग से एक बृहद-अण्ड अस्तित्व में आया जो ‘हिरण्यगर्भ’ कहलाया। यह पिंड लगभग एक
‘कल्प’
तक ‘जल’ में रहा। बाद में इसके
दो भाग हो गये जिनमें प्रथम भाह ‘द्युलोक’ तथा द्वितीय भाग ‘भूलोक’ के नाम से जाना गया।
इन दोनो के मध्यवर्ती भाग को ‘आकाश’ कहा गया। इस ‘अण्ड’ से सर्वप्रथम ‘ब्रह्मा’ की तत्पश्चात् स्थावर जंगम या
जड़ चेतन की सृष्टि हुई। वेद और पुराण ‘सृष्टि’ को ‘अनादि’ मानते हैं, उन के अनुसार सृष्टि-स्थिति-संहार की तीनों क्रियाएँ अनवरत
चलती रहती हैं। कोई नहीं बता सकता कि ये कब शुरु हुईं और कब समाप्त होंगी?
महाप्रलय के समय सब कुछ नष्ट हो जाएगा और केवल जल ही शेष रह जाएगा है जिसे ‘एकार्णव’ कहते हैं। इन गूढ़ दार्शनिक
सिद्धांतों की विवेचना करते हुए स्वामी अकहंदानंद कहा करते थे ‘जल’ वस्तुतः वह ‘तत्व’ है जो सृष्टि के आदि से
अन्त तक मौजूद रहता है। ऐसा तत्व केवल ‘परब्रह्म’ ही हो सकता है। यह वह महाभूत नहीं है जो ‘तामस-अहंकार’ के कारण पैदा होता है।
बल्कि वह ‘तत्’ है
जो परब्रह्म की वाचक है एवं जिसे ब्रह्मा-विष्णु-तथा रुद्र का ‘रसमय-रूप’ माना गया है। संभवतः इसी
कारण ‘जल’
के लिए मुख्यतः ‘आपः’ शब्द का प्रयोग किया गया
है और वेदों के मंत्रों में इसे ‘आपो देवता’ कहा गया है। आधुनिक वैज्ञानिक भी इस तथ्य को मानते हैं कि
सृष्टि से पहले कोई न कोई ‘नित्य तत्व’ अवश्य रहता है।
इस तरह जल से जन्म हुआ पृथ्वी और मनुष्य का
सृष्टि के आरम्भ में संपूर्ण ब्रह्माण्ड जलमग्न था। केवल भगवान नारायण ही शेष
शैया पर विराजते योगनिद्रा में लीन थे। सृजन का समय आने पर कालशक्ति ने भगवान
नारायण को जगाया।
उनके नाभि प्रदेश से सूक्ष्म तत्व कमल कोष बाहर निकला और सूर्य के समान तेजोमय
होकर उस अपार जलराशि को प्रकाशित करने लगा। उस देदीप्यमान कमल में स्वयं भगवान
विष्णु प्रविष्ट हो गये और ब्रह्मा के रूप में प्रकट हुये। कमल पर बैठे ब्रह्मा को
भगवान ने जगत की रचना के लिए आदेश दिया।
"ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया और उनके मन से मरीचि, नेत्रों से अतरि,
मुख से अंगिरा,
कान से पुलस्त्य,
नाभि से पुलह,
हाथ से कृतु,
त्वचा से भृगु,
प्राण से विशष्ठ,
अँगूठे से दक्ष
तथा गोद से नारद उत्पन्न हुये। इसी प्रकार उनके दायें स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, हृदय से काम, दोनों भौंहों से क्रोध,
मुख से सरस्वती,
नीचे के ओंठ से
लोभ, देह
से समुद्र, निऋति आदि और छाया से कर्दम ऋषि प्रकट हुये।
इस प्रकार यह जगत ब्रह्मा के मन और शरीर से उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्मा की कन्या
सरस्वती अत्यन्त लावण्यमयी थीं। ब्रह्मा उस कन्या को देख कर आसक्त हो उठे। इस पर
ब्रह्मा को उनके पुत्रों ने समझाया कि यह अधर्मपूर्ण है। इस पर ब्रह्मा ने लज्जित
होकर अपना शरीर त्याग दिया। उनके निष्प्राण शरीर को दिशाओं ने कोहरे और अन्धकार के
रूप में ग्रहण कर लिया।
इसके बाद ब्रह्मा के पूर्व वाले मुख से ऋग्वेद, दक्षिण वाले मुख से यजुर्वेद,
पश्चिम वाले मुख
से सामवेद और उत्तर वाले मुख से अथर्ववेद की ऋचाएँ निकली। इसके बाद ब्रह्मा ने
आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और स्थापत्व (शिलपविद्या) आदि उप-वेदों की रचना की। इसके बाद
उन्होंने अपने मुख से इतिहास पुराण उत्पन्न किए।
फिर योग विद्या, दान, तप,
सत्य, धर्म, चारों आश्रम और विकृतिया
आदि की रचना की। उनके हृदय से ओंकार, अन्य अंगों से वर्ण, स्वर, छन्दादि तथा क्रीड़ा से षडज्,
ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत् और निषाद ये सात
सुर प्रकट हुये। "इतनी रचना करने के बाद भी ब्रह्मा ने देखा कि सृष्टि में
वृद्धि नहीं हो रही है तो उन्होंने अपने शरीर को दो भागों में बाँट लिया।
उनके नाम 'का' और
'या'
(काया) हुये।
उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष
का नाम स्वयम्भुव मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था। स्वयम्भुव मनु और शतरूपा से दो
पुत्र प्रियव्रत तथा उत्तानपाद और तीन कन्यायें आकूति, देवाहुति एवं प्रसुति की
उत्पत्ति हुई। मनु ने आकूति का विवाह रुचि प्रजापिता और देवाहुति का विवाह मुनि
कर्दम के साथ कर दिया।
इन्हीं तीन कन्याओं से सारे जगत की रचना हुई। "फिर ब्रह्मा ने इन सबके
निवास के लिए भगवान नारायण से प्रार्थना की कि वे जलमग्न सृष्टि से पृथ्वी को बाहर
निकालें। उनकी प्रार्थना पर भगवान नारायण ने वाराह का अवतार धारण करके पृथ्वी को
निकाला। वहां स्वायंभु मनु और शतरूपा की सन्तानें, जो कि मानव कहे जाते हैं,
रहने लगे।
आमलकी एकादशी, आंवले से करें मोक्ष प्राप्ति के उपाय
फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष एकादशी को
आमलकी एकादशी कहा गया है। यह एकादशी इस वर्ष 23 मार्च को है। आमलकी का अर्थ होता है आंवला इस एकादशी का महत्व अक्षय नवमी
के समान है। जिस तरह अक्षय नवमी में आंवले के वृक्ष की पूजा होती है उसी प्रकार
आमलकी एकादशी के दिन आंवले की वृक्ष के नीचे भगवान विष्णु की पूजा करने से पुण्य
की प्राप्ति होती है।
आमलकी एकादशी के विषय में कई पुराणों
में वर्णन मिलता है। आध्यात्मिक विषयों के जानकार 'पण्डित शास्त्री जी ' बताते हैं कि
अमालकी एकादशी के दिन आंवले की पूजा का महत्व इसलिए है क्योंकि इसी दिन सृष्टि के
आरंभ में आंवले के वृक्ष की उत्पत्ति हुई थी।
इस संदर्भ में कथा है कि विष्णु की
नाभि से उत्पन्न होने के बाद ब्रह्मा जी के मन में जिज्ञासा हुई कि वह कौन हैं,
उनकी उत्पत्ति कैसे हुई। इस प्रश्न का उत्तर जानने के
लिए ब्रह्मा जी परब्रह्म की तपस्या करने लगे। ब्रह्म जी की तपस्या से प्रश्न होकर
परब्रह्म भगवान विष्णु प्रकट हुए। विष्णु को सामने देखकर ब्रह्मा जी खुशी से रोने
लगे।
इनके आंसू भगवान विष्णु के चरणों पर
गिरने लगे। ब्रह्मा जी की इस प्रकार भक्ति भावना देखकर भगवान विष्णु प्रसन्न हुए।
और ब्रह्मा जी के आंसूओं से आमलकी यानी आंवले का वृक्ष उत्पन्न हुआ। भगवान विष्णु
ने ब्रह्मा जी से कहा कि आपके आंसूओं से उत्पन्न आंवले का वृक्ष और फल मुझे अति
प्रिय रहेगा। जो भी आमलकी एकादशी के दिन आंवले के वृक्ष की पूजा करेगा उसके सारे
पाप समाप्त हो जाएंगे और व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी होगा।
अमालकी एकादशी की कथा में इस संदर्भ
में एक राजा की कथा का उल्लेख किया गया है जो पूर्व जन्म में एक शिकारी था। एक बार
आमलकी एकादशी के दिन जब सभी लोग मंदिर में एकादशी का व्रत करके भजन और पूजन कर रहे
थे तब मंदिर में चोरी के उद्देश्य से वह मंदिर के बाहर छुप कर बैठा रहा।
मंदिर में चल रही पूजा अर्चना देखते
हुए वह लोगों के जाने का इंतजार कर रहा था। अगले दिन सुबह हो जाने पर शिकारी घर
चला गया। इस तरह अनजाने में शिकारी से आमलकी एकादशी का व्रत हो गया। कुछ समय बाद
शिकारी की मृत्यु हुई और उसका जन्म राज परिवार में हुआ।
पण्डित जी कहते है कि कई जगहों पर
भगवान विष्णु के थूक से आंवले के वृक्ष की उत्पत्ति की कथा मिलती है जो सही नहीं
है। अगर आंवला भगवान का थूक है तो वह भगवान को इतना प्रिय नहीं हो सकता।
आमलकी एकादशी व्रत विधिः
एकादशी के दिन प्रातः स्नानादि से
निवृत होकर भगवान विष्णु एवं आंवले के वृक्ष की पूजा करें। अगर आंवले का वृक्ष
उपलब्ध नहीं हो तो आंवले का फल भगवान विष्णु को प्रसाद स्वरूप अर्पित करें। घी का
दीपक जलकार विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें। जो लोग व्रत नहीं करते हैं वह भी इस
एकादशी के दिन भगवान विष्णु को आंवला अर्पित करें और स्वयं खाएं भी।
शास्त्रों के अनुसार आमलकी एकादशी के
दिन आंवले का सेवन भी पाप का नाश करता है।
इन 4 देवताओं
के भक्तों पर बेअसर होती है शनि की तिरछी नजर
हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक शनिवार विशेष रूप से सूर्य पुत्र शनि की
उपासना का विशेष दिन है। क्रूर स्वभाव वाले शनि की प्रसन्नता या रुष्ट होना इंसान
के जीवन में सुख-दु:ख नियत करने वाला माना गया है। ज्योतिष शास्त्रों में शनि
दृष्टि, दशा
और चाल इंसान के जीवन में बड़ा फेरबदल लाने वाली मानी गई है।
कुण्डली में शनि दशा में अन्य ग्रहों से युति या दृष्टि से बने बुरे योग के कारण
या शनि दोष इंसान की तन,मन और आर्थिक पीड़ा का कारण बन सकते हैं। जीवन में बाधक शनि
के बुरे प्रभाव से रक्षा के लिए ही शनि उपासना के अलावा अन्य देवताओं की पूजा के
छोटे-छोटे उपाय असरदार माने गए हैं। खासतौर पर इन देवताओं के भक्तों पर शनि की दशा
व दोष के अशुभ प्रभाव नहीं होते।
पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक हनुमानजी पर क्रूर दृष्टि बेअसर होने व उनसे
पस्त होकर शनि ने हनुमान भक्तों को शनि पीड़ा से मुक्त रहने का वचन दिया। इसलिए
शनिवार को श्रीहनुमान के चरणों में जाकर काली उड़द चढ़ाकर शनि दोष शांति की कामना
करें।
शास्त्रों के मुताबिक शनि के कोप से बचने के लिये मंगलमूर्ति श्रीगणेश की
भक्ति भी बहुत मंगलकारी है। इसलिए शनिवार को श्री गणेश पूजन में 21 दूर्वा या मोदक का भोग
लगाएं और काम पर जाते समय श्रीगणेश मूर्ति से कार्यसिद्धी और शनि कोप व अनिष्ठ से
रक्षा की कामना करें। पौराणिक मान्यताओं में शनि की दृष्टि से श्रीगणेश का सिर धड़
से अलग होने पर श्रापित हुए शनि श्रीगणेश वंदना से ही श्राप मुक्त हुए।
शिव भक्ति शनि को प्रसन्न करती है। क्योंकि शनि शिव भक्ति से ही नवग्रहों में
श्रेष्ठ और दण्डाधिकारी बने। वहीं शिव भी शक्ति के बिना अधूरे माने जाते हैं।
इसलिए देवी भक्ति भी शनि सहित नवग्रहों की शांति के लिए बड़ी ही असरदार मानी गई
है। शिव जी को मात्र जल, दूध व बिल्वपत्र चढ़ाकर व देवी को लाल रंग की पूजा सामग्री
चढ़ाकर शनि दोष से रक्षा की प्रार्थना करें।
पुराणों में शनिदेव को कृष्ण भक्त भी बताया गया है। इसलिए बालकृष्ण को केसर
चंदन लगाकर माखन-मिश्री का भोग अर्पित करें और शनि की प्रसन्नता की कामना करें।
इसके अलावा शनिवार को शनि व्रत कर शनिदेव की भी तिल, सरसों या अन्य कोई मीठा तेल
अर्पित कर कमजोर या ब्राह्मण को दान कर दें।
गुड फ्राइडे:जानिए,
कौन सी हैं प्रभु
यीशु की सात वाणियां
ईसाई धर्म के लोग गुड फ्राइडे को प्रभु यीशु को क्रूस पर चढ़ाए जाने और
पापियों के लिए प्राण देने की याद में मनाते हैं। इस दिन से पहले 40 दिनों तक ईसाई धर्म के
लोग व्रत भी रखते हैं। इस बार गुड फ्राइडे 28 मार्च, शुक्रवार को है।
इसे गुड फ्राइडे इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दिन प्रभु यीशु ने पापियों के
लिए क्रूस पर प्राण देकर समस्त मानवजाति के लिए उद्धार का मार्ग खोल दिया।
गुड फ्राइडे के दिन दोपहर 12 से 3 बजे तक गिरिजाघरों में विशेष प्रार्थना होती है, जिसमें यीशु के दु:ख
उठाने एवं क्रूस पर सात पर वाणी आदि पर प्रवचन होते हैं। ये सात वाणियां इस प्रकार
हैं-
1- हे पिता। इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये जानते नहीं कि क्या कर रहे हैं। (लूका 23:24)
2- मैं तुझसे सच-सच कहता हूं कि आज ही मेरे साथ स्वर्गलोक में होगा (यह शब्द एक
डाकू से कहे गए थे, जो यीशु के साथ क्रूस पर टंगा था)। (लूका 23:43)
3- हे नारी। देख तेरा पुत्र(माता मरियम से कहा) और देख तेरी माता(यूहन्ना चेले से
कहा)। (यूहन्ना 19:26)
4- हे मेरे परमेश्वर। हे मेरे परमेश्वर। तूने मुझे क्यों छोड़ दिया(क्योंकि उस
समय यीशु मानव रूप में थे) (मत्ती 27:46) (मरकुस 15:34)
5- मैं प्यासा हूं।(यूहन्ना 19:28)
6- पूरा हुआ।(यूहन्ना 19:30)
7- हे पिता। मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूँ। (लूका 23:46)
गणेश चतुर्थी , इस व्रत से पूरी होती है हर मनोकामना
भगवान गणेश सभी दु:खों को हरने वाले हैं। इनकी कृपा से असंभव कार्य भी संभव हो
जाते हैं। भगवान गणेश को प्रसन्न करने के लिए प्रत्येक महीने के कृष्ण पक्ष की
चतुर्थी को व्रत किया जाता है, इसे गणेश चतुर्थी व्रत कहते हैं। इस बार यह व्रत 30 मार्च, शनिवार को है। गणेश
चतुर्थी का व्रत इस प्रकार करें-
- सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि काम जल्दी ही निपटा लें।
- दोपहर के समय अपने सामथ्र्य के अनुसार सोने, चांदी, तांबे, पीतल या मिट्टी से बनी भगवान
गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।
- संकल्प मंत्र के बाद श्रीगणेश की षोड़शोपचार पूजन-आरती करें। गणेशजी की मूर्ति
पर सिंदूर चढ़ाएं। गणेश मंत्र (ऊँ गं गणपतयै नम:) बोलते हुए 21 दूर्वा दल चढ़ाएं।
- गुड़ या बूंदी के 21 लड्डूओं का भोग लगाएं। इनमें से 5 लड्डू मूर्ति के पास रख दें तथा
5 ब्राह्मण
को दान कर दें शेष लड्डू प्रसाद के रूप में बांट दें।
- पूजा में भगवान श्री गणेश स्त्रोत, अथर्वशीर्ष, संकटनाशक स्त्रोत आदि का पाठ करें।
- ब्राह्मण भोजन कराएं और उन्हें दक्षिणा प्रदान करने के पश्चात् संध्या के समय
स्वयं भोजन ग्रहण करें। संभव हो तो उपवास करें।
व्रत का आस्था और श्रद्धा से पालन करने पर भगवान श्रीगणेश की कृपा से मनोरथ
पूरे होते हैं और जीवन में निरंतर सफलता प्राप्त होती है।
ईस्टर संडे, इस दिन फिर दुनिया में लौट आए थे
प्रभु यीशु
ईस्टर संडे, ईसाइयों का महत्वपूर्ण
धार्मिक पर्व है। ईसाई धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार सूली पर लटकाए जाने के तीसरे
दिन यीशु पुनर्जीवित हो गए थे। इस पर्व को ईसाई धर्म के लोग ईस्टर दिवस, ईस्टर रविवार या संडे के रूप में मनाते हैं। इस बार
ईस्टर संडे 31 मार्च को है।
ईस्टर संडे, गुड फ्राईडे के बाद आने
वाले रविवार को मनाया जाता है। ईस्टर खुशी का दिन होता है। इस पवित्र रविवार को
खजूर इतवार भी कहा जाता है। ईस्टर का पर्व नए जीवन और जीवन के बदलाव के प्रतीक के
रूप में मनाया जाता है। ईस्टर रविवार के पहले सभी गिरजाघरों में रात्रि जागरण तथा
अन्य धार्मिक परंपराएं पूरी की जाती है तथा असंख्य मोमबत्तियां जलाकर प्रभु यीशु
में अपने विश्वास प्रकट करते हैं।
यही कारण है कि ईस्टर पर सजी हुई मोमबत्तियां अपने घरों में जलाना तथा मित्रों
में इन्हें बांटना एक प्रचलित परंपरा है। ईसाई धर्म की कुछ मान्यताओं के अनुसार
ईस्टर शब्द की उत्पत्ति ईस्त्र शब्द से हुई है। यूरोप में प्रचलित पौराणिक कथाओं
के अनुसार ईस्त्र वसंत और उर्वरता की एक देवी थी।
इस देवी की प्रशंसा में अप्रैल माह में उत्सव होते थे। जिसके कई अंश यूरोप के
ईस्टर उत्सवों में आज भी पाए जाते हैं इसलिए इसे नवजीवन या ईस्टर महापर्व का नाम
दे दिया गया।
सिक्ख गुरू बनने के लिए अंगद को देनी पड़ी सात कठिन परीक्षाएं
सिक्खों के दूसरे गुरू अंगद देव का जन्म 31 मार्च 1504 ईश्वी को हुआ था और
मार्च महीने की ही 28 तारीख को 1552 ईश्वी में इन्होंने शरीर त्याग दिया।
इनका वास्तविक नाम लहणा था। गुरू नानक जी ने इनकी भक्ति और आध्यात्मिक योग्यता
से प्रभावित होकर इन्हें अपना अंग मना और अंगद नाम दिया।
नानक देव जी ने जब अपने उत्तराधिकारी को नियुक्त करने का विचार किया तब अपने
पुत्रों सहित लहणा यानी अंगद देव जी की कठिन परीक्षाएं ली।
परीक्षा में गुरू नानक देव जी के पुत्र असफल रहे, केवल गुरू भक्ति की भावना से
ओत-प्रोत अंगद देव जी ही परीक्षा में सफल रहे।
नानक देव ने पहली परीक्षा में कीचड़ के ढे़र से लथपथ घास फूस की गठरी अंगद देव
जी को सिर पर उठाने के लिए कहा।
दूसरी परीक्षा में नानक देव ने धर्मशाला में मरी हुई चुहिया को उठाकर बाहर
फेंकने के लिए कहा। उन दिनों यह काम केवल शूद्र किया करते थे।
जात-पात की परवाह किये बिना अंगद देव ने चुहिया को धर्मशाला से उठाकर बाहर
फेंक दिया।
तीसरी परीक्षा में गुरू नानक देव जी ने मैले के ढ़ेर से कटोरा निकालने के लिए
कहा। नानक देव के दोनों पुत्रों ने ऐसे करने से इंकार कर दिया जबकि अंगद देव जी
गुरू की आज्ञा मानकर इस कार्य के लिए सहर्ष तैयार हो गये।
चौथी परीक्षा के लिए नानक देव जी ने सर्दी के मौसम में आधी रात को धर्मशाला की
टूटी दीवार बनाने की हुक्म दिया, अंगद देव जी इसके लिए भी तत्काल तैयार हो गये।
पांचवी परीक्षा में गुरु नानक देव ने सर्दी की रात में कपड़े धोने का हुक्म
दिया। सर्दी के मौसम में रावी नदी के किनारे जाकर इन्होंने आधी रात को ही कपड़े
धोना शुरू कर दिया।
छठी परीक्षा में नानक देव ने अंगद देव की बुद्धि और आध्यात्मिक योग्यता की
जांच की। एक रात नानक देव ने अंगद देव से पूछा कि कितनी रात बीत चुकी है।
अंगद देव ने उत्तर दिया परमेश्वर की जितनी रात बितनी थी बीत गयी। जितनी बाकी
रहनी चाहिये उतनी ही बची है।
इस उत्तर को सुनकर गुरु नानक देव समझ गये कि उनकी अध्यात्मिक अवस्था चरम सीमा
पर पहुंच चुकी है। सातवीं परीक्षा लेने के लिए नानक देव जी अंगद देव को शमशान ले
गये।
शमशान में एक मुर्दे को देखकर नानक देव ने कहा कि तुम्हें इसे खाना है,
अंगद देव इसके लिए
भी तैयार हो गये।
तब नानक देव ने अंगद को अपने सीने से लगा लिया और अंगद देव को अपना
उत्तराधिकारी बना लिया।
रोगों से मुक्ति दिलाती हैं माता शीतला और उनका मंत्र
चैत्र कृष्णपक्ष अष्टमी तिथि को महाशक्ति के एक प्रमुख रूप शीतलामाता की पूजा
पुराने समय से की जाती रही है।
इस वर्ष यह तिथि तीन अप्रैल को है शीतला की आराधना दैहिक तापों ज्वर, राजयक्ष्मा, संक्रमण तथा अन्य
विषाणुओं के दुष्प्रभावों से मुक्ति दिलाती हैं।
मान्यता है कि ज्वर, चेचक, एड्स, कुष्ठरोग, दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोड़े तथा अन्य चर्मरोगों से आहत होने पर मां
की आराधना रोगमुक्त कर देती है।
यही नहीं व्रती के कुल में भी यदि कोई इन रोंगों से पीड़ित हो तो ये रोग-दोष
दूर हो जाते हैं। इन्हीं की कृपा से मनुष्य अपना धर्माचरण कर पाता है बिना शीतला
माता की अनुकम्पा के देहधर्म संभव नहीं है।
मां का पौराणिक मंत्र 'हृं श्रीं शीतलायै नमः' भी प्राणियों को सभी संकटों से
मुक्ति दिलाते हुए समाज में मान सम्मान दिलाता है। मां के वंदना मंत्र में भाव
व्यक्त किया गया है कि शीतला स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं।
शीलता माता के हाथ में झाड़ू और कलश होता है। हाथ में झाडू होने का अर्थ है कि
हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए।
कलश में सभी तैतीस करोड देवी देवताओं का वास रहता है अतः इसके स्थापन-पूजन से
घर परिवार में समृद्धि आती है। स्कन्द पुराण में इनकी अर्चना का स्तोत्र शीतलाष्टक
के रूप में मिलता है।
इस स्तोत्र की रचना भगवान शंकर ने जनकल्याण के लिए की थी। शीतलाष्टक शीतला
देवी की महिमा गान करता है, साथ ही उनकी उपासना के लिए भक्तों को प्रेरित भी करता है।
इनकी आराधना मध्य भारत एवं उत्तरपूर्व के राज्यों में बड़े धूम-धाम से की जाती
है!
11 अप्रैल
से शुरु होगा हिंदू नव वर्ष, गुरु होगा राजा और शनि मंत्री
विश्व में विभिन्न धर्मों में अलग-अलग तिथि व समय को नया वर्ष मनाया जाता है।
इसी तरह हिंदू धर्म में नए साल का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी गुड़ी पड़वा
से माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन से सृष्टि निर्माण
का कार्य प्रारंभ किया था। इस दिन से चैत्र नवरात्रि का प्रारंभ भी होता है। इस
बार हिंदू नव वर्ष का प्रारंभ 11 अप्रैल, गुरुवार से हो रहा है।
इस तिथि से विक्रम संवत् का प्रारंभ भी होता है। ग्रंथों के अनुसार उज्जयिनी
(वर्तमान उज्जैन) के राजा विक्रमादित्य ने इसी तिथि से कालगणना के लिए विक्रम
संवत् का प्रारंभ किया था जो आज भी हिंदू कालगणना के लिए सर्वोत्तम माना जाता है।
ज्योतिष के अनुसार प्रत्येक संवत् का एक विशेष नाम होता है तथा विभिन्न ग्रह इस
संवत् के स्वामी, राजा व मंत्री होते हैं
जिसका असर वर्ष भर जन सामान्य पर दिखाई देता है।
हिंदू पंचांग के अनुसार इस वर्ष ११ अप्रैल 2013 को विक्रम संवत् 2070 का प्रारंभ होगा। इस
वर्ष विश्वेदेवा युग में पराभव नामक संवत्सर रहेगा जिसके स्वामी बुध हैं। विष्णु
विशंति में इस पराभव नामक संवत्सर की गणना 20वें क्रमांक पर होती है। इस संवत्सर के राजा गुरु, मंत्री शनि है साथ ही दुर्गेश का पद शुक्र के पास रहेगा। इस
वर्ष मेघों में संवर्त नाम का मेघ बारीश करेगा।
दुर्गासप्तशती
जगतजननी दुर्गा आद्यशक्ति पुकारी जाती हैं। शास्त्रों में इसी आद्यशक्ति के
अलग-अलग रूपों में जगत के मंगल के लिए प्रकट होने की महिमा बताई गई है। देवी शक्ति
के खासतौर पर तीन रूप जगत प्रसिद्ध है - महादुर्गा, महालक्ष्मी और महासरस्वती। वहीं
नवदुर्गा, दश महाविद्या के रूप में भी देवी के अद्भुत और चमत्कारिक स्वरूप पूजनीय है।
देवी उपासना सांसारिक जीवन के सभी दु:खों का नाश कर भरपूर सुख देने वाली मानी
गई है। यह शक्ति साधना के रूप में भी प्रसिद्ध है। इसके लिए अनेक धार्मिक विधान,
देवी मंत्र,
स्त्रोत व
स्तुतियों का बहुत महत्व बताया गया है।
इसी कड़ी में नवरात्रि में दुर्गासप्तशती का पाठ बहुत मंगलकारी और धर्म,
अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करने वाला
माना गया है। यही कारण है कि दुर्गासप्तशती और उसका हर मंत्र बड़ा शक्तिशाली व
चमत्कारी भी माना जाता है। खासतौर पर देवी उपासना के विशेष कालों शुक्रवार या नवमी
तिथि में तो इन मंत्र शक्तियों के शुभ प्रभाव जीवन को संकटमुक्त कर देते हैं।
दुर्गासप्तशती मार्कण्डेय पुराण का अंग है, जो वेदव्यास द्वारा रचित पवित्र
पुराणों में एक है। श्रीव्यास भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं। मार्कण्डेय पुराण में दुर्गासप्तशती के रूप में मार्कण्डेय मुनि द्वारा पूरे
जगत की रचना व मनुओं के बारे में बताते हुए जगतजननी देवी भगवती की शक्तियों की
स्तुति की गई है। इसमें देवी की शक्ति व महिमा उजागर करते सात सौ मंत्रों के शामिल होने से यह
सप्तशती नाम से पुकारी जाती है। इसमें देवी की 360 शक्तियों की स्तुति है।
दुर्गासप्तशती के मंगलकारी होने के पीछे धार्मिक दर्शन है कि जगतपालक विष्णु
द्वारा स्वयं भगवान वेद व्यास के रूप में अवतरित होकर शक्ति रहस्य उजागर किया गया
है। दूसरा इसमें शामिल पद्य संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। संस्कृत देववाणी कहलाती
है। देव कृपा व प्रसन्नता के लिए ही तपोबली महान मुनि और ऋषियों द्वारा इस भाषा का
उपयोग कर देव साधनाओं के लिए दुर्गासप्तशती के साथ अन्य देव स्तुतियों और
स्त्रोतों की रचना की गई। इसलिए ऋषि-मुनियों की ये स्तुतियां देववाणी होने व तप के
प्रभाव से संकट व अनिष्ट से रक्षा के लिए बहुत असरदार मानी गई है। यही वजह है कि
श्री वेदव्यास रचित मार्कण्डेय पुराण व उसके अंग दुर्गासप्तशती के मंत्र भी देव
शक्तियों और तप के शुभ प्रभाव से भक्त के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाकर चमत्कारी
व मंगलकारी सिद्ध होते हैं। ये मंत्र हर कामनासिद्धी का अचूक उपाय भी माने गए हैं।
बिना धड़ के सिर ने देखा पूरा महाभारत और युद्घ का निर्णायक बना
बात उस समय कि है जब महाभारत का युद्घ आरंभ होने वाला था। भगवान श्री कृष्ण
युद्घ में पाण्डवों के साथ थे जिससे यह निश्चित जान पड़ रहा था कि कौरव सेना भले
ही अधिक शक्तिशाली है लेकिन जीत पाण्डवों की होगी।
ऐसे समय में भीम का पौत्र और घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक ने अपनी माता को वचन
दिया कि युद्घ में जो पक्ष कमज़ोर होगा वह उनकी ओर से लड़ेगा बर्बरीक ने महादेव को
प्रसन्न करके उनसे तीन अजेय बाण प्राप्त किये थे। भगवान श्री कृष्ण को जब बर्बरीक
की योजना का पता चला तब वह ब्राह्मण का वेष धारण करके बर्बरीक के मार्ग में आ गये।
श्री कृष्ण ने बर्बरीक का मजाक उड़ाया कि, वह तीन वाण से भला क्या युद्घ
लड़ेगा। कृष्ण की बातों को सुनकर बर्बरीक ने कहा कि उसके पास अजेय बाण है। वह एक
बाण से ही पूरी शत्रु सेना का अंत कर सकता है। सेना का अंत करने के बाद उसका बाण
वापस अपने स्थान पर लौट आएगा।
इस पर श्री कृष्ण ने कहा कि हम जिस पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हैं अपने बाण
से उसके सभी पत्तों को छेद कर दो तो मैं मान जाउंगा कि तुम एक बाण से युद्घ का
परिणाम बदल सकते हो। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार करके, भगवान का स्मरण किया और बाण चला
दिया। पेड़ पर लगे पत्तों के अलावा नीचे गिरे पत्तों में भी छेद हो गया।
इसके बाद बाण भगवान श्री कृष्ण के पैरों के चारों ओर घूमने लगा क्योंकि एक
पत्ता भगवान ने अपने पैरों के नीचे दबाकर रखा था। भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि
युद्घ में विजय पाण्डवों की होगी और माता को दिये वचन के अनुसार बर्बरीक कौरावों
की ओर से लड़ेगा जिससे अधर्म की जीत हो जाएगी।
इसलिए ब्राह्मण वेषधारी श्री कृष्ण ने बर्बरीक से दान की इच्छा प्रकट की।
बर्बरीक ने दान देने का वचन दिया तब श्री कृष्ण ने बर्बरीक से उसका सिर मांग लिया।
बर्बरीक समझ गया कि ऐसा दान मांगने वाला ब्राह्मण नहीं हो सकता है। बर्बरीक ने
ब्राह्मण से कहा कि आप अपना वास्तविक परिचय दीजिए। इस पर श्री कृष्ण ने उन्हें
बताया कि वह कृष्ण हैं।
सच जानने के बाद भी बर्बरीक ने सिर देना स्वीकार कर लिया लेकिन, एक शर्त रखी कि, वह उनके विराट रूप को
देखना चाहता है तथा महाभारत युद्घ को शुरू से लेकर अंत तक देखने की इच्छा रखता है।
भगवान ने बर्बरीक की इच्छा पूरी कि, सुदर्शन चक्र से बर्बरीक का सिर काटकर सिर पर अमृत
का छिड़काव कर दिया और एक पहाड़ी के ऊंचे टीले पर रख दिया। यहां से बर्बरीक के सिर
ने पूरा युद्घ देखा।
युद्घ समाप्त होने के बाद जब पाण्डवों में यह विवाद होने लगा कि किसका योगदान
अधिक है तब श्री कृष्ण ने कहा कि इसका निर्णय बर्बरीक करेगा जिसने पूरा युद्घ देखा
है। बर्बरीक ने कहा कि इस युद्घ में सबसे बड़ी भूमिका श्री कृष्ण की है। पूरे
युद्घ भूमि में मैंने सुदर्शन चक्र को घूमते देखा। श्री कृष्ण ही युद्घ कर रहे थे
और श्री कृष्ण ही सेना का संहार कर रहे थे।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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