यम-नियम
सभी संत एवं मत अहंकार के त्याग पर
बल देते हैं। सभी संतों का यही कहना है कि अगर इन्सान अहंकार का त्याग कर दे,
तो वह परमेश्वर को प्राप्त कर सकता है। बिना अहंकार के
त्याग के परब्रह्म-परमेश्वर कि प्राप्ति कभी भी नहीं हो सकती। जब तक इन्सान का
अहंकार समाप्त नहीं होगा। तब तक वह साधक बनने के लायक ही नहीं है। किन्तु आज के
समय में प्रत्येक व्यक्ति या साधक अहंकार में डूबा हुआ है। एक आम व्यक्ति जब साधना
के पथ पर बढ़ता है, तो उसे आवश्यकता होती है गुरू की,
एक शिक्षक की। जब वह गुरू द्वारा बताये हुऐ यम-नियमों का
पालन करते हुऐ, जैसे-जैसे साधना करता जाता है,
वैसे-वैसे उस का अहंकार बढ़ता जाता है। कभी-कभी तो
अहंकार इतना अत्यधिक बढ़ जाता है, कि वह अपने सामने
दूसरे व्यक्तियों एवं अन्य साधकों को तुच्छ समझने लगता है। साधक के अन्दर जहाँ,
साधना करते हुऐ अहंकार समाप्त होना चाहिऐ, किन्तु वहीं इस के विपरीत अहंकार घटने कि बजाये बढ़ने लगता
है। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करे तो हमे पता चलेगा कि साधक की साधना ही उसके
अहंकार को बढ़ावा देती है। क्योंकि इस के मूल में जो कारण है, वह है नियम। अनेकों ही जगह देखने को मिलता है कि अगर कोई साधक
साधना करते हुऐ, मात्र प्याज का भी त्याग कर देता है
तो वह अनेकों ही जगह इस का बखान करने लगता है और कहता है कि, मुझे प्याज खाये इतने साल हो गये या मैं प्याज बिल्कुल नहीं
खाता। मात्र एक छोटी सी वस्तु प्याज जिसका कि त्याग साधक ने कर दिया, वह उसका बखान अनेकों ही लोगों के सामने करता है, और इस प्रकार साधक साधना कि तरफ कम ध्यान देता है और अपने
यम-नियमों का बख़ान अनेकों व्यक्तियों के सामने करता है। जिससे कि उसके अहंकार को
बढ़ावा मिलता है। यही हाल सभी साधकों का है। किसी साधक को अगर किसी वस्तु के त्याग
का अहंकार है तो, किसी को अपने वस्त्र और उपवास का
अहंकार है। किसी साधक को अपनी माला तथा जाप का अहंकार है कि मैने इतना जाप कर लिया,
तो किसी साधक को अपने गुरू या अपने मत का अहंकार है। यही
हाल सभी साधकों का है।
यम-नियम बनाये तो इस लिऐ गये थे,
कि साधक की तरक्की में चार चाँद लग जाऐं और साधक जल्दी
से जल्दी सिद्धि को प्राप्त हो जाऐं। किन्तु आज का साधक सिद्धि तो बहुत दूर कि बात,
उसकी परछाई तक को प्राप्त नहीं कर पाता। क्योंकि जहाँ
अहंकार होगा, वहाँ सिद्धि हो ही नहीं सकती। प्रश्न
वहीं का वहीं है कि क्या यम-नियमों से उस परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है।
इसको जानने के लिऐ, हमें विभिन्न धर्मों के इतिहास को
समझना होगा। जैसे कि मुस्लिम-सम्प्रदाय में शराब का त्याग बताया गया है। वहीं
दूसरी तरफ सिख-सम्प्रदाय में तम्बाखू के सेवन पर प्रतिबन्ध है। इसके विपरीत सिख
सम्प्रदाय में शराब का सेवन होता है और मुस्लिम-सम्प्रदाय में तम्बाखू का सेवन।
अगर एक आम व्यक्ति के सामने इन दोनों ही मत के नियमों को रखा जाऐं कि शराब के
त्याग से वह परमेश्वर मिल सकता है। तो अब तक सभी मुस्लिमों को उस अल्लाह का दीदार
हो गया होता। दूसरी तरफ अगर तम्बाखू छोड़ने से वह परमात्मा मिलता तो सभी सिखों को
उस परमेश्वर के दर्शन हो गये होते। सही मायने में कोई भी चीज क्यों न हो, किसी के भी त्याग से या सेवन से वह परमात्मा किसी को भी
प्राप्त नहीं हो सकता। अगर आपने कोई नियम बना लिया है और उस नियम का आप के अलावा
किसी को भी मालूम नहीं है, तभी वह नियम सही
मायने में नियम है। अगर आप ने कोई नियम बनाया और उसका बखान लोगों के सामने कर दिया
तो वह नियम, नियम नहीं रहा। अगर आपको अपने अहंकार
का त्याग करना है, तो आपको एक ही नियम कि आवश्यकता है
और वह यह है, कि गुरू को सम्पूर्ण रूप से पूर्ण
मानना और उसके बताऐ हुऐ मार्ग पर चलना। अगर आपने कोई गुरू नहीं बना रखा हो तो आप
का धर्म बनता है, कि सभी जीवों में उस परमेश्वर को ही
देखें और उस परमात्मा कि बन्दगी करते हुऐ, उस
परमेश्वर के ध्यान में ही खोऐ रहें। कोई भी ऐसा काम ना करें, जिससे कि किसी दूसरे व्यक्ति के मन को दुखः पहुँचे। क्योंकि
सभी जीवों में वह परमेश्वर ही विराजमान है और जब आप किसी व्यक्ति को दुखः देते है
या परेशान करते है, तो आप उस व्यक्ति को नहीं बल्कि उस
के अन्दर विराजमान परमात्मा को ही दुखः पहुँचाते है।
अगर आप सम-भाव से सभी में उस परमेश्वर
को दिखेगें, तो आपके अन्दर का अहंकार स्वतः ही
समाप्त हो जाऐगा। साथ-ही-साथ आपके अन्दर किसी भी मत-विशेष या धर्म-विशेष का अहंकार
पैदा न हो, इसके लिऐ आप अपने साधना कक्ष में सभी
धर्मो या मतों के देवताओं या संतों के स्वरूपों को लगाऐं। जिससे कि आप को यह ऐहसास
हो सके, कि आप जो भी अराधना कर रहे है या आप जो भी
नियमों का पालन कर रहे हो, उससे अधिक कठोर
नियमों का पालन करते हुऐ एवं कठोर साधना करते हुऐ सभी धर्मो के संतो ने उस
परमेश्वर को प्राप्त किया है। इससे आप के अन्दर अत्यधिक उत्साह पैदा होगा और आप के
मन में भी उन के जैसा बनने कि कामना पैदा होगी। जिस प्रकार हम इस संसार में एक
दूसरे से मदद माँगते है या एक दूसरे कि मदद करते हैं, उसी प्रकार जब हम परमात्मा को प्राप्त करने के रास्ते पर बढ़ते चले जाते
हैं तो, अनेकों ही दिव्य-आत्माऐं एवं सिद्ध-पुरूष
हमारी अदृश्य रूप से मदद करते है और हमें ज्ञान और मोक्ष का रास्ता बताते है। ये
दिव्य-आत्माऐं एवं सिद्ध-महापुरूष बिना किसी भेद-भाव के साधक कि मदद करते है। साधक
चाहे किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो, इन
पवित्र-आत्माओं कि नजर में सभी साधक एक समान हैं। हमें नियमों कि नहीं बल्कि परमेश्वर
की आवश्यकता है। जैसे-जैसे हम साधना-मार्ग पर बढ़ते जायेंगे नियम अपने आप ही बनते
व टूटते चले जायेंगे।
अगर हम बात करे बाबा नानक कि तो
उन्होंने सभी नियमों का त्याग कर उस परमेश्वर से एकाकार हुऐ और अनहद् नाद रूप में ‘ॐकार’ को प्राप्त किया
एवं सम्पूर्ण मानव जाति को ‘ॐकार’ का ही सन्देश दिया। जब उन्होंनें ‘अनहद-नाद’ को प्राप्त किया तो उन के श्रीमुख से
जो पहला शब्द निकला वह था ‘एक ॐकार सत् नाम’
अर्थात उस परब्रह्म (सत् का अर्थ है- परब्रह्म)का केवल
एक ही नाम है और वह है ‘ॐ’। सभी धर्मों के सन्तों ने ‘ॐकार’ पर ही जोर दिया है। इसलिऐ आप भी ॐकार का ही जाप करें।
जैसे-जैसे आप ॐकार का जाप करते जायेंगे, वैसे-वैसे
आपका मन, बुद्धि और आत्मा ॐकार में विलीन होती चली
जायेगी और आप उस परमात्मा को प्राप्त हो जाओगे। इस प्रकार जब कोई नियम ही नहीं
होगा तो अहंकार का जन्म ही नहीं होगा और जब अहंकार नहीं होगा तो मन निर्मल हो
जायेगा। मन के निर्मल होने से मन-बुद्धि में, बुद्धि-आत्मा में और आत्मा उस परमात्मा में समा जायेगी और बिना समय गँवाये,
थोडे से समय में ही आप उस परमात्मा को अपने हृदय में
प्रकट कर लोगे। जहाँ यम-नियमों की वजह से सालों कि तपस्या करने के बाद भी, वह परमात्मा आप को नहीं मिला। वहीं यम-नियमों का त्याग करते
ही आप का अहंकार गिर जायेगा, आप कि बुद्धि
पवित्र हो जाऐगी और जिस परमात्मा कि एक झलक पाने के लिए आप तरस रहें थे वह
परमात्मा आप के रोम-रोम में एवं सृष्टि के कण-कण में आप को दिखाई देगा। जो
अनहद-नाद कठोर नियमों का पालन करने पर भी सुनाई नहीं दिया, वह अनहद-नाद आप के रोम-रोम में प्रकट हो जाऐगा।
अनेकों ही व्यक्तियों के मन में यह
प्रश्न उठता है कि यम-नियमों का त्याग करने से क्या वह परमात्मा हमें प्राप्त
होगा। तो इसका सबसे बड़ा उदाहरण है महात्मा-बुद्ध। महात्मा-बुद्ध ने राज-पाट का
त्याग करके सन्यास ले लिया और वनों में घुमने लगे। परमात्मा को प्राप्त करने कि
अभिलाषा मन में थी। इसलिऐ वनों में जो भी साधू-सन्यासी मिलता, महात्मा-बुद्ध उससे परमात्मा को पाने का रास्ता पूछते और
सामने वाला साधू जो भी रास्ता बताता वह उससे भी ज्यादा कठोर नियमों के साथ साधना
करते। किन्तु ॠद्धि-सिद्धियाँ तो प्राप्त होती चली गई, किन्तु उस परमात्मा कि प्राप्ति नहीं हो सकी। महात्मा-बुद्ध को अनेकों ही
साधुओं ने साधना बताई और महात्मा-बुद्ध ने सभी साधनाऐं पूर्ण-विधान के साथ सम्पन्न
कि किन्तु मन में साधना का अहंकार होने कि वजह से सिद्धियां तो अनेकों प्राप्त हुई
किन्तु परमात्मा कि प्राप्ति नहीं हो सकी। किन्तु आखिर में बौद्धि-वृक्ष के नीचे
बैठ कर महात्मा-बुद्ध ने सभी नियमों और सिद्धियों का त्याग कर दिया और शांत चित्त
हो गये। जैसे ही नियमों और सिद्धियों का त्याग कर दिया और शांत चित्त हो गये। जैसे
ही नियमों और सिद्धियों का त्याग हुआ वैसे ही अहंकार तिरोहित हो गया और
महात्मा-बुद्ध बौद्धित्व को प्राप्त हो गये अर्थात् उन्हें
पूर्ण-परब्रहम्-परमेश्वर कि प्राप्ति हो गई और वे स्वयं उस परमात्मा का रूप बन
गये। आवश्यकता यम-नियमों कि नहीं है, बल्कि उस
परमेश्वर के प्रति समर्पित होने की है। जब तक आप यम-नियमों मे बंधे हुऐ है,
तब तक आप उस परमात्मा के प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित
हो ही नहीं सकते। क्योंकि बंधा हुआ इन्सान एक गुलाम के समान होता है और गुलाम उसका
होता है, जिसने उसको बांध रखा हो। सम्पूर्ण रूप से
बन्धन मुक्त हो कर ही आप उस परमेश्वर को प्राप्त कर सकते है। क्योंकि परमात्मा न
तो स्वयं बंधा हुआ है और न ही वह किसी को बन्धनों में बांधता है।
वह परमात्मा तो सर्व-व्यापक और
स्वतन्त्र है। इसलिऐ स्वतन्त्र साधक ही उस परमात्मा को प्राप्त करके सर्व-व्यापक
बन सकता है। बंधा हुआ व्यक्ति कभी भी अपनी सीमा से बाहर नहीं निकल सकता। इसलिऐ वह
कभी भी सर्व-व्यापक नहीं बन सकता। कहने का तात्पर्य यही है कि बन्धन-युक्त व्यक्ति
कभी उस परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता, बल्कि
बन्धन-मुक्त साधक ही उस परमेश्वर को अपने हृदय में प्रकट कर सकता है और उसका
साक्षात्कार कर सकता है। अधिकतर साधक विशेष रंग के वस्त्र, विशेष माला, विशेष आसन आदि पर ही टिके रहते हैं,
कि हमारे गुरू ने हमें वस्त्र, माला और जिस आसन के लिये कहा है, हम उसी का
इस्तेमाल करेंगे। किन्तु ऐसा सम्भव नहीं है। क्योंकि वस्त्र, माला और आसन गुरू के अनुसार नहीं अपितु इष्ट के अनुसार होते
हैं। जिसका जैसा इष्ट होगा, उसका वस्त्र,
माला और आसन भी उसी के अनुसार होगें। जैसे कि गायत्री
उपासकों के लिये श्वेत वस्त्र, रूद्राक्ष की
माला और कुशा का आसन अनिवार्य है, वहीं पर काली के
उपासकों हेतु लाल वस्त्र, काले हकीक की
माला और कम्बल का आसन होना अनिवार्य है। दुर्गा एवं हनुमान के उपासकों के लिये लाल
वस्त्र, लाल चंदन कि माला और लाल रंग का आसन आवश्यक
है।
आज के समय में जिन यम नियमो की
आवश्यकता है, उनको तो मानने व करने के लिये कोई भी
तैयार नहीं है। सभी संतो ने जिन यम-नियमो के लिये, साधकों को कहा उनको तो साधक समझ नहीं पाऐ, अपितु उल्टे-सीधे नियमों में उलझ कर रह गये। जिसका परिणाम यह हुआ कि
सिद्धि तो प्राप्त हुई ही नहीं, उल्टे साधक अपना
मानसिक संतुलन भी खो बैठे। आज के समय में साधक के लिये, जो यम-नियम जरूरी है, वह यह है कि साधक
किसी से घृणा न करें, किसी से द्वैष न रखें, काम क्रोध और अहंकार पर काबू रखें, किसी से ईर्ष्या न करें एवं स्वयं सहित सबके अन्दर उस परमपिता-परमात्मा का
आभास करते हुऐ उस परमात्मा के ध्यान में आनंदित रहें। इस प्रकार यदि कोई साधक
यम-नियमों का पालन करता है, तो आठों
सिद्धियाँ उस साधक की गुलाम होती हैं और वह साधक आत्म-ज्योति का साक्षात्कार करता
हुऐ एवं अनहद-शब्द को सुनते हुऐ पूर्णता को प्राप्त हो जाऐगा और कह उठेगा ‘सोऽहं-सोऽहं’ अर्थात् ‘मैं वही हूँ, मैं वही हूँ’।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू
का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता
है......MMK
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