सगुण निरगुण
जब से यह सृष्टि बनी है और उस के पश्चात जब जीव उत्पन्न हुआ उसके मन में हमेशा ही यह प्रश्न गूँजते रहे की मैं कौन हूँ? यह प्रकृति क्या है और उसको बनाने वाला पुरूष कौन है। अर्थात् उन ज्ञानी पुरूषों के हृदय में जिन्होंने कि सम्पूर्णता को प्राप्त नहीं किया है, अपितु सम्पूर्णता की तरफ अग्रसर है। उनके हृदय में हमेशा ही जीव, प्रकृति एवं पुरुष के प्रति जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती रहती है। जीव अर्थात् व्यक्ति, प्रकृति(माया) अर्थात् यह सम्पूर्ण ब्रहमांड। पुरूष का अर्थ है- वह परमपिता परमात्मा। विशेषतः जो व्यक्ति, जीव का अर्थ इंसान को लेते है, वे गलत है। सही मायने में जीव का अर्थ आत्मा है। इस आत्मा को ही पँचतत्त्वों में बँधे होने के कारण शास्त्रों में जीव कहा गया है। सबसे पहले हमें यह समझना होगा की जीव, प्रकृति और पुरूष अनादि है। इनका कभी भी एक दूसरे में विलय नहीं होता। जैसा की अनेकों जगह कहा जाता है, कि महाप्रलय में जीव और प्रकृति का लय, परमात्मा में हो जाता है। ऐसा नहीं है, अगर हम ध्यान पूर्वक शास्त्रों का अध्ययन करें तो पता चलेगा की महाप्रलय के वक्त स्वयं मनु-महाराज ने एक विशाल नाव में सभी जीवों को बिठाया एवं उस नाव को मत्स्य रूपी उस परमात्मा के रूप ने ही अथाह सागर की लहरों के बीच खिंचा अर्थात् चलाया।
अगर यह मान लिया जाये की महाप्रलय में जीव और सृष्टि का लय परमात्मा में हो जाता है, तो यह कहानी मिथ्या साबित होती है। लेकिन यह कहानी मिथ्या नहीं हैं। बल्कि मिथ्या यह है कि महाप्रलय में जीव और प्रकृति का लय, परमात्मा में हो जाता है। इतना अवश्य है कि महाप्रलय में सभी जीव राजा मनु की नाव में विराजमान थे, एवं सम्पूर्ण धरा पानी की गोद में समा गई थी। महाप्रलय का जो भी समय होता है। तब तक यह सभी जीव उस नाव में विराजमान होते है। उस के पश्चात् जब महाप्रलय का वक्त समाप्त होता है और कुछ धरा सूख जाती है, तो एक जीव का देह रूप में जन्म होता है, जिसे की कच्छप या कछुआ कहा गया है। क्योंकि यह ही ऐसा जीव है जो पानी और धरा दोनो पर ही रह सकता है। उस के उपरान्त ज्यों-ज्यों धरा सूखती गई या यों कहे की धरा कुछ दल-दली रह गई, उस वक्त एक ओर जीव का जन्म हुआ जिसे की वराह(सुअर) कहा गया। क्योंकि वराह ही इस दल-दली भूमि पर निवास कर सकता है। उस के उपरान्त जब धरा ओर अधिक सूखने लगी तो एक ओर जीव अश्व का जन्म हुआ। उस के उपरान्त ज्यों-ज्यों धरा हरियाली होती चली गई, तो धीरे-धीरे करके अनेकों ही जीवों ने इस धरा पर जन्म लिया। सब से बाद में इंसान का जन्म हुआ। आज के वक्त में जो हम मत्स्य, कच्छप, वराह, अश्व, वानर आदि को ईश्वरावतार मानते है। इसके पीछे कारण है, कि महाप्रलय से लेकर और उसके उपरान्त एक-एक करके उस परमात्मा ने जिन जीवों को इस धरा पर उतारा और उन जीवों ने मानव को धरा पर रहने में मदद की। इस लिऐ हिन्दू-धर्म में इन सभी की पूजा की जाती है।
सृष्टि की उत्पत्ति के उपरान्त जब मानव का जन्म हुआ। तो प्रश्न वहीं का वहीं था। जीव, प्रकृति और पुरूष। इस को समझने के लिऐ इन्सान भटकता रहा। अन्त में उसे ज्ञान की प्राप्ति हुई, और उस पूर्णता को प्राप्त हुआ, जिस के द्वारा उस का जन्म हुआ था। साधक के मन में हमेशा ही अनेकों प्रश्न उठते रहते है। जैसे की वह परमात्मा सगुण है, या निर्गुण। साकार है, या निराकार। सगुण और निर्गुण में वह परमात्मा सगुण भी है और निर्गुण भी है। अनेकों साधक सगुण से अर्थ यह लगाते हैं, कि उस परमात्मा का कोई रंग रूप भी है। लेकिन यह मिथ्या है। सगुण का अर्थ यह है, कि जिसमें सभी सुंदर गुणों का समावेश हो, उस परमात्मा के अन्दर सभी गुण मौजूद है। निर्गुण का अर्थ- जिस में कोई बुरे गुण न हो। चूँकि यह सम्पूर्ण सृष्टि एवं 84 लाख जीव उस परमात्मा ने बनाये हैं। इससे हमें पता चलता है, कि वह परमात्मा सर्वगुण संपन्न अर्थात् सगुण है। इस के उपरान्त साकार का अर्थ है कि- उस का अपना एक रंग रूप होना और निराकार का अर्थ है जिस का कि कोई रंग रूप न हो। इस प्रकार हम ध्यान-पूर्वक देखें तो हमे पता चलता है, कि वह परमात्मा निराकार है। क्योंकि उसका अपना कोई भी रंग और रूप नहीं है। वह केवल ज्ञानियों के हृदय में ज्योति स्वरूप होकर भासता है। इस तरह ध्यान-पूर्वक मनन करने पर हमे पता चलता है कि वह परमात्मा निराकार है।
लेकिन जो साधक कोई भी या किसी भी प्रकार की मूर्ति रूप में पूजा करता है। वह असल में उस परमात्मा की पूजा न करके देव विशेष की पूजा करता है। अनेकों शास्त्रों में अनेकों जगह स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि- जो साधक जिस देव विशेष की पूजा करेगा, वह मृत्यु उपरान्त उसी लोक या मंडल में प्रवेश पाने का अधिकारी है। लेकिन वह उस परमात्मा तक उस देव के द्वारा नहीं पहुँच सकता। उस परमात्मा तक पहुँचने के लिए आवश्यकता है, सही मार्ग निर्देशन की। गीता के अन्दर भी भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो जिस देव की पूजा करेगा, वह उसी लोक में जायेगा। जो मुझ अर्थात् उस परमात्मा तत्त्व को भजेगा, वह मुझे अर्थात् उस परमात्मा को प्राप्त होगा। अनेकों ही साधक इस बात का गलत अर्थ निकालते हुऐ, श्रीकृष्ण के स्वरूप एवं उनके नाम का जाप करते हैं। लेकिन हमें ध्यान-पूर्वक इस बात को समझना होगा कि भगवान श्रीकृष्ण जी ने अपने उपदेश में यह कदापि नहीं कहा, कि मुझ कृष्ण का भजन करो। बल्कि उन्होंने यह कहा है कि मेरे अन्दर जो परमात्मा तत्त्व है उसका भजन करो। लेकिन अनेकों साधक उस परमात्मा तत्त्व को छोड़कर कृष्ण नाम के दीवाने हैं। हमें फिर से यह समझना होगा, कि चाहे हम राम जपें या कृष्ण नाम का जाप करे हम सहस्त्र मंडल से आगे इन नामों के द्वारा नहीं जा सकते। इसलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहा है, कि मंत्रों में महामंत्र ‘गायत्री’ मैं हूँ। और अक्षरों में अक्षर ‘ॐकार’ मैं हूँ।
इसलिए हम सभी का कर्त्तव्य बनता है, कि अनादि काल से जो परम्परा चली आ रही है। उस का पालन करें अर्थात् गायत्री मंत्र युक्त संध्या करें। एवं ॐकार के द्वारा जितना भी सम्भव हो सके ज्यादा-से-ज्यादा समय उस परमात्मा के ध्यान में लगाये। अनादि काल से ही प्रत्येक धर्म के ऊपर प्रतीकों का प्रभाव रहा हैं। अगर हम हिन्दू-धर्म की बात करें तो प्रारम्भ में प्रतीक रूप ॐ और स्वास्तिक थे। ॐकार सर्वव्यापक परमात्मा का प्रतीक था, तो स्वास्तिक सुख समृद्धि का प्रतीक था। राज दरबार से लेकर एक झोंपड़े तक में यह प्रतीक विद्यमान रहते थे। जहाँ पर इन प्रतीकों को स्थापित किया जाता था, उसे पूजा-स्थल कहते थे। उस के उपरान्त धीरे-धीरे मूर्ति रुप में अनेकों प्रतीक बनने लगे। प्रारम्भ में लिंग रुप में एवं उस के बाद चतुर्भुजी विष्णु रुप में प्रतीक सामने आये। उस के बाद अनेकों ही देवी-देवताओं के प्रतीक भी बनने लगे। प्रारम्भ में इन प्रतीकों को ॐकार की तरह ही सर्वव्यापक परमात्मा का स्वरुप मानते हुऐ पूजा होती थी। किन्तु बाद में लिंग रुप को मानने वाले शैव और चतुर्भुजी विष्णु को प्रतीक रूप में मानने वाले वैष्णव कहलाये। उसके कुछ समय बाद ही एक नया मत सामने आया। जिसने कि योनी से लेकर सुन्दर स्त्री तक के प्रतीक बनाये। यह सभी प्रतीक रूप थे। इन प्रतीकों को मानने वाले शाक्त कहलाये। शाक्त शक्ति के उपासक थे। इसलिए इन्होंने शक्ति का प्रतीक, स्त्री को माना और उसका प्रतीक बनाया। उसके बाद तो धीरे-धीरे करके अनेकों ही मत बनते चले गये। कलियुग प्रारम्भ होने के बाद इन सभी मतों में इतना अधिक द्वेष पैदा हो गया था, कि आम आदमी की समझ से बाहर था। प्रत्येक मत अपने आप को सर्वोतम एवं शक्तिशाली मानता था। किन्तु उसके बाद धीरे-धीरे उस ॐकार को मानने वाले अनेकों ही संत पैदा हुऐ। किन्तु प्रतीकों से कोई भी संत या कोई भी साधु बच नहीं पाया। उन्होंने पुराने प्रतीक नहीं माने, तो नये प्रतीक बना डालें। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें, तो हमे पता चलेगा की कोई भी धर्म या मत प्रतीकों से बच नहीं पाया।
अगर हम 2500 साल पहले बने जैन या बौद्ध-धर्म की बात करें, जो कि प्रारम्भ में निराकार-परमात्मा को मानने वाले थे, वे सभी बाद में प्रतीकों को बनाने और मानने लगे। अगर कहा जाये की जैन और बौद्ध-धर्म दोनों नास्तिक हैं, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि ये दोनों ही धर्म 24 तीर्थंकरों एवं महात्मा बुद्ध को परमात्मा मानते है। लेकिन यह उस परमात्मा को नहीं मानते, जिसने की 24 तीर्थंकरों एवं महात्मा बुद्ध को पैदा किया। उस के उपरान्त ईसाई धर्म आया। जिसमें की ईसाईयों के पवित्र ग्रंथ बाईबल में ईसा-मसीह ने अपने आप को खुदा का बेटा बतलाया है। ईसा-मसीह ने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में हमेशा परमात्मा और उस के नाम का प्रचार किया और कहा कि मैं तो उस परमात्मा का बेटा हूँ। मुझे उस परमात्मा ने ही तुम्हें लेने के लिऐ भेजा है। मैं तुम सबको उस परमात्मा तक ले कर जाऊँगा। ईसा-मसीह ने जिस निराकार-परमात्मा की सेवा की, एवं उसका प्रचार किया। ईसा-मसीह की मृत्यु के उपरान्त ईसाईयों ने जिस क्रूस के ऊपर ईसा-मसीह को लटकाया गया था। उसी को अपना प्रतीक बना लिया। ईसा-मसीह के जीवन काल में कहीं भी कोई भी प्रतीक नहीं था। लेकिन उनके जाने के उपरान्त अनेकों गिरजाघर (चर्च) बनने लगें एवं प्रतीक रूप में प्रत्येक गिरजाघर (चर्च) के अन्दर ईसा-मसीह, मरियम एवं क्रास की स्थापना कर दी गई। ईसाई धर्म के पश्चात मुस्लिम धर्म आया, मुस्लिम धर्म में हजरत मोहम्मद साहब के जीवन काल तक कोई भी प्रतीक नहीं था। किन्तु उन के बाद अनेकों ही प्रतीक बन गये। मुस्लिम धर्म में जो सब से बड़ा प्रतीक हैं, वह मक्का है। किन्तु आज भी मुस्लिम धर्म के दो मत है – शिया और सुन्नी। शिया सिर्फ खुदा को मानते है, जबकि सुन्नी खुदा के साथ-साथ मज़ार आदि को भी मानते है। लेकिन फिर भी दोनों ही मत प्रतीक रूप में तो मक्का को मानते ही हैं।
लगभग 500 साल पहले बाबा नानक का जन्म हुआ। उनके बारे में कहा जाता है, कि एक बार वे मक्का गये और मक्का की तरफ पाँव करके लेट गये। जब किसी ने उनसे कहा की आप के पाँव खुदा की तरफ है। आप हटा लीजिए। तो बाबा नानक ने कहा कि जिस तरफ खुदा नहीं है, तू उस तरफ मेरे पाँव कर दे। जब उस मौलवी ने बाबा नानक के पाँव उठाये, तो बताते है, कि जिस तरफ भी पाँव होते चले गये, उसी तरफ मक्का भी घूमता चला गया। ऐसे महापुरूष ‘बाबा नानक’ ने अपने जीवन काल में सभी प्रतीकों का खंड़न किया एवं उस निराकार परमात्मा की बन्दगी की। किन्तु नौ गुरूओं तक तो निराकार की बन्दगी होती रही। परन्तु जैसे ही दसवें गुरू गुरूगोविन्द सिहँ जी महाराज आये, और जब उन्होंने महसूस किया की मुस्लिम अत्याचारी राजाओं से अध्यात्म के बल पर जीता नहीं जा सकता, तो उन्होंने स्वयं ‘चण्डी साधना’ की एवं पाँच बकरों की बली दे कर पाँच प्यारे बनाये। बाद में उन्होंने भी प्रतीक रूप में गुरू ‘ग्रंथ-साहिब’ की स्थापना की। बाबा नानक से लेकर 9वें गुरू तक जहाँ निराकार की बन्दगी थी, वहीं दसवें गुरू के समय से गुरू ‘ग्रंथ-साहिब’ को ही निराकार परमात्मा का प्रतीक माना गया। साथ ही पाँच ककारों को भी प्रतीक रूप में ग्रहण करने का आदेश 10वें गुरू ने सभी सिखों को दिया। इसके साथ ही दसवें गुरू ने यह भी ने यह भी हुक्म दिया कि आज के बाद न तो कोई ‘देह-धारी गुरू’ होगा और न ही उसका कोई ‘शिष्य’। बल्कि गुरू ‘ग्रंथ-साहिब’ ही सब के ‘गुरू’ होगें व हम सब ही इसके सिख कहलायेंगे।
श्रीगुरू गोबिंद सिहँ जी ने ‘श्री गुरू ग्रंथ-साहिब जी’ के पावन स्वरूप को संमुख रखते हुए फरमाया-
पूजा अकाल की, परचा शब्द का, दीदार खालसे का।
श्रीगुरू गोबिंद सिहँ जी ने ‘श्री गुरू ग्रंथ-साहिब जी’ को गुरतागद्दी बख्शी व आदेश दिया-
आगिआ भई अकाल की, तबै चलायो पंथ।
सभ सिक्खन को हुकम है, गुरू मानीओ ग्रंथ॥
गुरू ग्रंथ जी मानयो, प्रगट गुरां की देह।
जो प्रभ को मिलि बोच है, खोज शब्द में लेह॥
गुरू ग्रंथ-साहिब को न मानने वाला पूरा सिख नहीं हो सकता। अब हम अगर ध्यानपूर्वक इन सभी धर्मों को देखें तो सब के अपने-अपने नियम है। सिख मत में जहाँ बीड़ी-सिगरेट पीना बन्द बताया गया है। वहीं मुस्लिम धर्म में शराब पर पाबन्दी है। जैन धर्म में माँस के ऊपर प्रतिबंध है। तो इस तरह अगर हम इन बातों को समझे तो हमें पता चलता है, कि सभी धर्मों ने किसी एक चीज पर विशेष-प्रतिबंध लगाई है। इसके उलट, वहीं वस्तु दूसरे धर्म में इस्तेमाल होती है। तो हमें सोचना होगा, समझना होगा कि क्या सही है, या क्या गलत। लगभग 150 सौ साल पहले एक नया मत जिसे की राधा-स्वामी कहते है, प्रकाश में आया। जब 10वें गुरू ने ‘देहधारी-गुरूओं’ के ऊपर प्रतिबन्ध लगा दिया था, तो राधा-स्वामी ने 10 वें गुरु के हुक्म का निरादर क्यों किया।
इतिहास गवाह है कि- कोई भी मत वह चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो। उसके नियम ज्यादा समय तक टिक नही सकते। क्योंकि जो नियम किसी व्यक्ति विशेष ने बनाये हैं। वह समय के चक्र से बंधे हुऐ हैं। इसलिऐ वह व्यक्ति विशेष अपने समय को ध्यान में रख कर जो नियम बनाता है। वह अधिक समय तक टिक नहीं पाते। क्योंकि समय का पहिया गतिशील है। सभी धर्मों में कुछ थोड़े से साधकों को अगर छोड़ दिया जाये तो बाकी सभी अपने-अपने नियमों का खंडन करते जा रहे है। जिस तरह 500 साल पहले बाबा नानक ने जनेऊ और मुर्तिपूजा का खंडन किया था। उसी तरह आज के समय में सिख केश कटवा रहें है तथा चोरी-छिपे बीड़ी-सिगरेट का सेवन भी कर रहे हैं। ऐसे ही मुस्लिम सम्प्रदाय में भी शराब का सेवन होने लगा है। तथा जैन धर्म में भी माँस का सेवन होता है। अगर ध्यान-पुर्वक हम अपने शास्त्रों, अपने समाज एवं अपने चरित्र का अध्ययन करें तो हमें स्वतः ही पता चल जायेगा, कि हम सभी के अन्दर कितना बदलाव आ गया है।
हमें ध्यान-पूर्वक अपने चेतन मन को योग निन्द्रा में पहुँचाना होगा और उसके उपरान्त अवचेतन मन के निर्देशन में अपने कर्म करने होगे। हम यही कहेंगे की हम चाहें किसी भी मत को क्यों न मानते हो। किन्तु हमारा लक्ष्य वह मत नहीं अपितु परमात्मा है। आप को जो भी मत अच्छा लगे, आप उसी मत में रह कर भी उस परमात्मा को प्राप्त कर सकते है। सभी मत नियम भेद से अलग-अलग हैं। किन्तु सब की मंजिल एक है। अगर हमारा ध्येय उस परमात्मा को पाने का है, तो हम किसी भी मत के अन्दर जो पूजा विधान है, उसके द्वारा हम उस परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं। हमें किसी भी मत के सिर्फ़ पूजा विधान मात्र की आवश्यकता है, न कि उसके प्रतीकों एवं नियमों की। क्योंकि वह परमात्मा तो प्रतीकों एवं नियमों से परे निराकार है। कोई भी प्रतीक और नियम उस परमात्मा को बाँध नहीं सकता। थोड़े बहुत जो नियम है, जैसे की सूर्योदय से पहले उठना एवं समय पर संध्या या पाठ आदि करना। ये सिर्फ इसलिऐ है, कि व्यक्ति के अन्दर आलस न आये और वह अनुशासन हीन न बने। अगर हम यह समझे की सभी नियम आवश्यक हैं, तो यह सही नहीं है।
अगर यह सही होता तो आज जैन धर्म के अन्दर श्वेताम्बरी, पिताम्बरी और दिगम्बरी आदि अलग-अलग मत न होते। क्योंकि जैन धर्म को स्थापित करने वाले भगवान महावीर तो एक ही थे। अगर यह मान लिया जाये कि भगवान महावीर या उससे पहले जिस किसी ने भी जैन धर्म की स्थापना की, उसने सिर्फ एक मत बनाया होगा। किन्तु आज तीन-तीन मत है। इस प्रकार सिखों में भी 10 वें गुरू ने एक मत बनाया होगा। किन्तु आज अनेकों मत है। जैसे आज नीली पगड़ी वाले अलग हैं, पीली पगड़ी वाले अलग, और बाकी सब अलग। इस तरह सभी धर्मों का यही हाल है। इसलिऐ हमें उस परमात्मा के नाम एवं उस नाम को जपने में अनुशासन की आवश्यकता है। हम को धर्म एवं मतों के चक्रव्युह को छोड़ कर उस परमात्मा के ‘निज-नाम’ का ही जाप करना चाहिये। परमात्मा के ‘निज-नाम’ को सभी धर्मों एवं मतों ने स्वीकार किया है। फिर क्यों हम सभी परमात्मा के ‘निज-नाम’ को छोड़ कर धर्म-जाल के चक्रव्युह में फंसे हुऐ है। आज तक न तो कोई ऐसा धर्म बना है, न ही कोई ऐसा मत बना है, और न ही कोई ऐसा सिद्ध महापुरूष पैदा हुआ है, जिसने उस परमात्मा के ‘निज-नाम’ को स्वीकार न किया हो। सभी ने उस परमात्मा के ‘निज-नाम’ का जाप किया है और उसके द्वारा ही उस परमात्मा का साक्षात्कार किया है। इसलिए हम सभी को परमात्मा के उस ‘निज-नाम’ का जाप करना होगा, तभी वह परमात्मा हमें प्राप्त होगा, और हम उस परमात्मा रूपी अथाह-सागर की लहरों को आंनद ले सकेगें।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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