सवेरे ये 5 आसान देवमंत्र बोलने से
जल्द पूरी होगी हर इच्छा
(1) जो गुरु से ऊंची जगह पर बैठे, देवता के सामने जूता और छतरी लेकर जाए। आधुनिक संदर्भ में बड़ों का सम्मान न करने वाला या धर्म से दूर व उसकी निंदा करने वाला। ये लोग 'अधम' कहलाते हैं।
शादीशुदा स्त्री के ये 2 काम रखते हैं पति को खुश
धर्मशास्त्रों के मुताबिक सुख-सफलता
से जुड़ी इच्छाओं को पूरा करने का एक बेहतर उपाय है- देव स्मरण। यह उपाय हर इंसान
को नियम व अनुशासन के साथ सच्चाई व पवित्रता के संकल्प से जोड़कर भी रखता है।
दरअसल, सत्य और पवित्रता भगवान का ही
स्वरूप माने गए हैं। माना जाता है कि भगवान भी उन जगहों पर वास करते हैं जहां ये
दोनों ही भाव मौजूद होते हैं।
हर इंसान खुशहाल घर-गृहस्थी के साथ यह भी चाहता है कि उसकी संतान ताउम्र सुखी
व यशस्वी जीवन बिताए। इसके लिए भी मन, बोल और काम में सच्चाई और पवित्रता कायम रखना अहम होता है।
ऐसी ही चाहत को पूरा करने के साथ जीवनशैली और दिनचर्या को नियमित और संयमित
करने के लिये यहां बताए जा रहे 5 सरल देव मंत्रों का हर
रोज मन ही मन स्मरण परिवार के हर सदस्य के लिए सुख-सफलता देने वाला माना गया है।
जानिए ये सरल देव मंत्र और उन मंत्रों से शुभ प्रभाव किस रूप में होता है
ऊँ नमो नारायणाय नम: या अच्युतं केशवं रामनारायणं कृष्ण दामोदरं वासुदेवं
हरिम्(शांति, संयम, पवित्रता)।
भगवान शिव - ऊँ नम: शिवाय (परोपकार, दया, उदारता)।
मां सरस्वती - ऊँ सरस्वत्यै नम: (ज्ञान, कला, कौशल)।
श्रीगणेश - ऊँ गं गणपतये नम: (बुद्धि और विवेक)।
श्रीहनुमान - ऊँ हं हनुमते रुद्रात्मकाय नम: (शक्ति, ऊर्जा, समर्पण)
चाहें कामयाबी या दबदबा बनाना तो करें यह चमत्कारी हनुमान ध्यान उपाय
हर रोज घर, नौकरी या कारोबार से
जुड़े कई कामों को लेकर घर या कार्यस्थल से निकलते वक्त मन में यही सोच होती है कि
काम और मकसद को पूरा करने में सफलता मिले। यहां हम बता रहे हैं, एक ऐसा ही सरल धार्मिक उपाय जो कम वक्त लेकर काम के
साथ ही पूरा दिन भी सुखद और कामयाबी से भरपूर बना सकता है।
धर्म के नजरिए से आस्था की शक्ति विश्वास को मजबूत करती है, इसलिए देव स्मरण का यह उपाय काम पर जाते वक्त या घर
से बाहर निकलने से पहले जरूर करें। यह उपाय है हिन्दू धर्मग्रंथ रामचरितमानस के
लंकाकाण्ड की उस चौपाई का ध्यान,
जो
श्रीहनुमान के लंका प्रवेश के वक्त की है। श्रीहनुमान मंगलमूर्ति और संकटमोचक
देवता के रूप में पूजे जाते हैं।
यही वजह है कि धार्मिक मान्यताओं में यह चौपाई किसी भी काम या यात्रा पर जाने
से पहले बोलना बहुत ही शुभ और मनचाहे नतीजे देने वाली होती है। साथ ही किसी भी जगह
पर काम के जरिए दबदबा बढ़ाने वाली भी साबित होती है। जानिए कैसे और कब बोलें यह
चौपाई –
सुबह स्नान करें सफर या किसी काम पर जाने से पहले देवालय में भगवान श्रीराम, जानकी, लक्ष्मण और हनुमान को गंध, फूल, अक्षत चढ़ाएं। यथाशक्ति फल या मिठाई का भोग लगाएं।
धूप या दीप लगाकर आरती करें। ये उपाय न भी कर पाएं तो मन ही मन सभी देवी-देवताओं
का ध्यान कर रामचरित मानस की यह चौपाई बोलें - "प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।
हृदयॅं राखि कोसलपुर राजा।।" रामायण में श्रीहनुमान के लंका प्रवेश के संबंध
में लिखी गई यह चौपाई आपको भी शुभकार्य या लक्ष्य को पाने में श्रीहनुमान की तरह
ही सफलता देगी।
दुनिया में होकर भी दुनिया का न होने वाला सच्चा प्रेमी
बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे जो कहेंगे कि उन्हें किसी से प्यार हो गया है। अपने
प्रेम को पाने के लिए वह दुनिया छोड़ने की बात करेंगे। लेकिन वास्तव में प्रेम को
पाने के लिए दुनिया छोड़ने जरूरत ही नहीं है। प्रेम तो दुनिया में रहकर ही किया
जाता है। जो दुनिया छोड़ने की बात करते हैं वह तो प्रेमी हो ही नहीं सकते है।
दुनिया छोड़ने की बात करने वाले लोग वास्तव में रूप के आकर्षण में बंधे हुए लोग
होते हैं। वह प्रेम के वास्तविक स्वरूप से अनजान होते हैं। ऐसी स्थिति कभी रामचरित
मानस के रचयिता तुलसीदास जी की भी थी, लेकिन जब उन्हें प्रेम का सही बोध हुआ तब वह परम पद को पाने में सफल हुए।
तुलसीदास जी के युवावस्था के समय की बात है इनका विवाह एक अति रूपवती कन्या से
हुआ जिसका नाम रत्नावली था। रत्नवती के रूप में तुलसीदास ऐसे खो गये कि उनके बिना
एक क्षण जीना उनके लिए कठिन प्रतीत होने लगा। एक बार रत्नावली अपने मायके चली आयी
तो तुलसीदास बचैन हो गये। आधी रात को आंधी तूफान की परवाह किये बिना रत्नावती से
मिलने चल पड़े। नदी उफन रही थी जिसे पार करने के लिए वह एक आश्रय का सहारा लेकर
तैरने लगे।
रत्नावली के ख्यालों में तुलसीदास जी ऐसे खोये हुए थे कि उन्हें यह पता भी
नहीं चला कि वह जिस चीज का आश्रय लेकर नदी पार कर रहे हैं वह किसी व्यक्ति का शव
है। रत्नावली के कमरे में प्रवेश के लिए तुलसीदास जी ने एक सांप का पूंछ रस्सी
समझकर पकड़ लिया जो उस समय रत्नावली के कमरे की दीवार पर चढ़ रहा था।
रत्नावली ने जब तुलसीदास को अपने कमरे में इस प्रकार आते देखा तो बहुत हैरान
हुई और तुलसीदास जी से कहा कि हाड़-मांस के इस शरीर से जैसा प्रेम है वैसा प्रेम
अगर प्रभु से होता तो जीवन का उद्देश्य सफल हो जाता है। तुलसीदास को पत्नी की बात
सुनकर बड़ी ग्लानि हुई और एक क्षण रूके बिना वापस लैट आए। तुलसीदास का मोह भंग हो
चुका था। इस समय उनके मन में भगवान का वास हो चुका था और अब वह सब कुछ साफ-साफ देख
रहे थे। नदी तट पर उन्हें वही शव मिला जिसे उन्होंने नदी पार करने के लिए लकड़ी
समझकर पकड़ लिया था।
तुलसीदास जी अब प्रेम का सच्चा अर्थ समझ गये थे। तुलसीदास जान चुके थे कि वह
जिस प्रेम को पाने के लिए बचैन थे वह तो क्षण भंगुर है। यह प्रेम तो संसार से दूर
ले जाता है। वास्तविक प्रेम तो ईश्वर से हो सकता है जो कण-कण में मौजूद है उसे
पाने के लिए बेचैन होने की जरूरत नहीं है उसे तो हर क्षण अपने पास मौजूद किया जा
सकता है। इसी अनुभूति के कारण तुलसीदास राम के दर्शन पाने में सफल हुए। जिस पत्नी
से मिलने के लिए तुलसी अधीर रहते थे वही उनकी शिष्य बनकर उनका अनुगमन करने लगी।
सफलता पाने व कायम रखने के ये भी हैं 2
जबर्दस्त पैंतरे
हर सफल इंसान की ज़िंदगी में एक ऐसा वक्त आता है, जब वह कामयाबी की ऊंचाई से नीचे की ओर आने लगता है।
असल में कामयाबी की राह ही कठिन नहीं होती, बल्कि उससे भी मुश्किल होती है सफलता के शिखर पर बने रहना और बिरले लोग ही ऐसा
करने में माहिर होते हैं।
यह वक्त बहुत ज्यादा कठिन तब बन जाता है, जब कामयाबी की दौड़ में शामिल उसके प्रतिद्वंदी इस मौके का किसी भी तरह से
फायदा उठाना नहीं छोड़ना चाहते। खासतौर पर महत्वाकांक्षा और जोश से भरी युवा पीढ़ी
ऐसे मौके पर कभी-कभी संयम खोकर अपना ही नुकसान कर लेती है। अगर आप भी सफलता के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहें या शिखर पर पहुंचकर विरोधियों
के गलत हथकंड़ों का सामना कर रहें है, तो ऐसे वक्त खुद को संभाल गलत दिशा में जाने के बजाए किन खास पैंतरों से
कामयाबी की राह पर टिके रहें? इसके लिए जानिए धर्म के
नजरिए से 2 व्यावहारिक व असरदार
तरीके सफलता के लिए संघर्ष के वक्त या सफलता की मंजिल पर पहुंचने पर संयम और मौन दो
ऐसे सूत्र है, जो हर विपरीत हालात को
अनुकूल बना देंगे।
धर्म के नजरिए से मौन यानी बोलने की शक्ति का सदुपयोग बहुत अहम है। खासतौर पर युवाओं को वाणी पर संयम बेहद फायदेमंद साबित होता है। विपरीत हालात में कम बोलना और अधिक सुनने पर ध्यान दें। जहां एक शब्द से काम बने वहां दस शब्दों का उपयोग न करें। क्योंकि इससे आप व्यर्थ की बातों और विवादों में उलझ सकते हैं। आपकी शक्ति, ऊर्जा और समय बेकार हो जाता है और आप लक्ष्य पर केन्द्रित नहीं रह पाते।
धर्म के नजरिए से मौन यानी बोलने की शक्ति का सदुपयोग बहुत अहम है। खासतौर पर युवाओं को वाणी पर संयम बेहद फायदेमंद साबित होता है। विपरीत हालात में कम बोलना और अधिक सुनने पर ध्यान दें। जहां एक शब्द से काम बने वहां दस शब्दों का उपयोग न करें। क्योंकि इससे आप व्यर्थ की बातों और विवादों में उलझ सकते हैं। आपकी शक्ति, ऊर्जा और समय बेकार हो जाता है और आप लक्ष्य पर केन्द्रित नहीं रह पाते।
यही नहीं. आलोचनाओं में से नकारात्मक बातों को दिमाग में रख अशांत होने के
बजाय खामोश रहकर उन बातों में से ही अपनी गलतियों और दोषों को पहचान सुधार करें।
मौन ध्यान और योग की भांति ही शांति और सुकून देता है। इससे आप अपनी विचार शक्ति
का पूरा उपयोग काम को अच्छा करने और बेहतर नतीजों के लिए कर सकते हैं।
इसी तरह दूसरा सूत्र है- संयम। मौन की तरह ही संयम भी व्यक्ति को संतुलित और
एकाग्रता बनाए रखने में अहम योगदान देता है। संयमहीन व्यक्ति न स्वयं तरक्की कर
पाता है, न ही दूसरों के लिए उपयोगी होता
है। शास्त्रों में संयम के श्रेष्ठ आदर्श भीष्म पितामह भी बताए गए हैं। उनकी
ब्रह्मयर्च व्रत की प्रतिज्ञा और संयमित जीवन ने ही उनको यश, कीर्ति देकर शिखर पुरूष बना दिया।
सरल शब्दों में बातें कम, काम ज्यादा का सूत्र ही
आपको किसी भी विपरीत हालात से निकालकर कामयाबी के शिखर पर ले जाएगा।
देवालय में या पूजा के वक्त गुस्सा करने का होता है ये नतीजा!
हिन्दू धर्म मान्यताओं में बुरे काम पाप तो अच्छे काम पुण्य बढ़ाने वाले माने
गए हैं। माना जाता है कि इनके मुताबिक ही मरने के बाद जीव आत्मा को स्वर्ग या नरक
मिलता है। इस तरह स्वर्ग सुख और नरक दु:ख का पर्याय भी हैं। दरअसल, व्यावहारिक तौर पर
अच्छाई-बुराई जीते-जी भी सुख-दु:ख को नियत करने वाली होती है। गौर करें तो सुख और
दु:ख के पीछे इंसान के बोल, कर्म और व्यवहार के
गुण-दोष ही होते हैं। यही वजह है कि दु:ख व दरिद्रता से घिरा जीवन नारकीय और
सुख-समृद्ध जीवन स्वर्ग सा सुख देने वाला भी माना जाता है।
वैसे हर इंसान ऐसे वैभव की इच्छा रखता है, किंतु शास्त्रों के मुताबिक कलियुग में हावी कलह राग-द्वेष पैदा कर ही देता
है। इससे व्यक्ति सुखों की चाहत में भी जाने-अनजाने गलत काम कर दु:ख के बीज बोता
है। इनसे बचने के लिए हर रोज कर्म,
वचन और
व्यवहार से जुड़ी कुछ बातों को लेकर सावधान होना जरूरी बताया गया है। इनमें देव
कार्य भी शामिल हैं।
इसके लिए हिन्दू धर्मग्रंथों में देव पूजा के दौरान भी इंसान के ऐसे कई काम व
दोष बताएं गए हैं, जो नरक में ले जाने वाले
पुकारे गए हैं। ऐसे बुरा काम व व्यवहार करने वाले व्यक्तियों के अलग-अलग नाम उजागर
हैं। जानिए, ऐसे ही लोग, उनके नाम व काम –
(1) जो गुरु से ऊंची जगह पर बैठे, देवता के सामने जूता और छतरी लेकर जाए। आधुनिक संदर्भ में बड़ों का सम्मान न करने वाला या धर्म से दूर व उसकी निंदा करने वाला। ये लोग 'अधम' कहलाते हैं।
(2) जो क्रोध कर देव पूजा व
दान करे। यही नहीं धार्मिक व पितृ कर्मो में अन्न-धन से संपन्न होने पर भी निम्न
स्तर का या सस्ता भोजन कराने वाला। ये लोग 'कृपण' कहलाते हैं।
(3) जो सामने मीठे बोल बोले
और पीछे कटु वचन, जिनकी कथनी और करनी में
फर्क हो। ऐसे लोग 'विषम' कहलाते हैं।
(4 ) कपट, झूठ,
छल, शक्ति या प्रेम का दिखावा कर ठगने वाला। ऐसे लोग 'पिशुन' पुकारे जाते हैं।
(5) व्यावहारिक नजरिए से
केवल सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने की चाहत रख हर काम करने वाला। देव सेवा व
शास्त्रों के ज्ञान से दूर। एक धार्मिक मान्यता के मुताबिक प्रयाग में रहते हुए भी
स्नान न करने वाला। इस तरह के लोग 'पशु' पुकारे जाते हैं।
कहा गया है कि ऐसे स्वभाव व दोष वाले व्यक्तियों को न तो स्वर्ग मिलता है न ही
मोक्ष। इसलिए ऐसे दोष और व्यक्तियों से बचकर पवित्र भावों से जीवन गुजारने पर ही
सुखों के रूप में जीते-जी स्वर्ग का आनंद पाया जा सकता है।
जानिए भूत-प्रेत बनने के खास रहस्य!
शास्त्रों की सीख है कि अच्छे कर्म और सोच जीवन के रहते सुख-सुकून व मृत्यु के
बाद दुर्गति से बचने के लिए बहुत जरूरी हैं। व्यावहारिक तौर पर किसी भी लक्ष्य को
पाने के लिए सही विचार होने और उसके मुताबिक काम को अंजाम देने पर ही मनचाहे नतीजे
संभव है। अन्यथा सोच और क्रिया में तालमेल का अभाव या दोष बुरे नतीजों के रूप में
सामने आते हैं।
मृत्यु के संदर्भ यही बात सामने रख शास्त्रों की बात पर गौर करें तो बताया गया
है कि कर्म ही नहीं विचारों में गुण-दोष के मुताबिक भी मृत्यु के बाद आत्मा
अलग-अलग योनि प्राप्त करती है। इनमें भूत-प्रेत योनि भी एक है। हालांकि विज्ञान
भूत-प्रेत से जुड़े विषयों को वहम या अंधविश्वास मानता है लेकिन यहां बताई जा रही
मृत्य के बाद भूत-प्रेत बनने से जुड़ी बातें मनोविज्ञान व व्यावहारिक पैमाने पर
प्रामाणिक होने के साथ ही सुखी व शांति से भरे जीवन के एक अहम सूत्र भी उजागर करती
हैं। जानिए, किस वजह से मृत्यु के
बाद मिलती है भूत-प्रेत योनि हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भगवदगीता में लिखी ये बातें मृत्यु के बाद भूत-प्रेत
बनने की वजह उजागर करती है -
भूतानि यान्ति भूतेज्या:
यानी भूत-प्रेतो की पूजा करने वाले भूत-प्रेत योनि को ही प्राप्त करते हैं। इस
बात को एक और श्लोक अधिक साफ करता है -
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:।।
यानी मृत्यु के वक्त प्राणी मन में जिस भाव, विचार या विषय का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वही उसी भाव या विषय के अनुसार योनि को प्राप्त हो
जाता है।
भूत-प्रेत होने के अंधविश्वासों से परे इन बातों में छिपे संदेश पर गौर करें
तो संकेत यही है कि अगर व्यक्ति ताउम्र बुरे काम व उसका चिंतन करता रहे, तो वह बुराई के रूप में मन में स्थान बना लेते हैं
और अन्तकाल में भी वही बातें मन-मस्तिष्क में घूमती हैं। ऐसे बुरे भावों के
मुताबिक वह व्यक्ति भूत-प्रेत की नीच योनि को ही प्राप्त हो जाता है। दरअसल, भूत-प्रेत भी मलीनता या
बुराई के प्रतीक भी हैं। इसलिए यहां भूत-प्रेत उपासना का अर्थ बुराई का संग भी है।
इसलिए सीख यही है कि जीवन में बुरे कर्मों से दूरी बनाए रखे, ताकि जीवन रहते भी व जीवन के अंतिम समय में मन के
अच्छे भावों के कारण मृत्यु के बाद भी दुर्गति से बचें।
शादीशुदा स्त्री के ये 2 काम रखते हैं पति को खुश
गृहस्थ जीवन तालमेल की ऐसी कला व खूबी के रूप में भी देखा जाता है, जिसमें अलग-अलग स्वभाव, आदतों, रुचियों, संस्कारों, विचारों के स्त्री-पुरुष आपस में बेहतर गठजोड़ व
संतुलन बनाकर जीवन के अहम लक्ष्यों को साधते हैं। शास्त्रों के मुताबिक गृहस्थी का केन्द्र पतिव्रता स्त्री ही होती है। खासतौर
पर बुद्धिमान व सुशील स्त्री घर का सौभाग्य बन जाती है यानी ऐसी स्त्री घर-परिवार
के लिए शुभ व लाभ का कारण बनती है,
वहीं इसके
उलट आचरण दु:ख-दरिद्रता की वजह।
चूंकि गृहस्थी में पुरुष के कार्यों में स्त्री की भी अहमियत होती है। यही वजह
है कि धर्म शास्त्रों में गृहस्थ जीवन की सफलता के लिये त्रिवर्ग यानी धर्म, अर्थ व काम को पाने के लिए विवाहित स्त्री के लिए
ऐसे दो काम भी जरूरी बताए गए हैं,
जिनके बिना
खूबसूरती भी बेमानी हो जाती है। जानिए, कौन से हैं ये दो काम –
लिखा गया है कि -
तासां त्रिवर्गसंसिद्धौ प्रदिष्टं कारणद्वयम्।
भर्तुर्यदनुकूलत्वं यच्च शीलमविप्लुतम्।।
न तथा यौवनं लोके नापि रूपं न भूषणम्।
यथा प्रियानुकूलत्वं सिद्धं शश्वदनौषधम्।।
सरल शब्दों अर्थ समझें तो विवाहित स्त्री गृहस्थी में दो कामों से न चूके -
पहला हर तरह से पति को खुश रखें और दूसरा हर तरह से पवित्र रहे।
पहले काम पर गौर करें तो पति की इच्छा के मुताबिक चलने से पति का भाव व प्रेम
स्त्री के लिए इतना गहरा बना रहता है कि जो रंग-रूप, यौवन और गहनों से लदे शरीर को देखकर भी नहीं पैदा होता।
ऐसा कर कोई भी सौंदर्यहीन स्त्री भी पति को प्रिय हो सकती है, वहीं युवा और सुंदर होने पर भी पति के खिलाफ जाने
वाले वाली स्त्री, पति से दुराव होने से
दु:खी हो जाती है।
इसी तरह दूसरी बात के मुताबिक स्त्री अपने तन, विचार से लेकर चरित्र को गहना मानकर उसकी चमक व पवित्रता बनाए रखें। क्योंकि
घर-परिवार, कुल की प्रतिष्ठा के लिए
कुलीन स्त्री बुरी संगति, काम या मनमाने तरीके से
किसी जगह पर उठना-बैठना या आना-जाना कर अनचाहे कलंक या दोष से बचे और माता, पिता के कुल के साथ ही संतान को भी विवाद व कलंक
लगने से बचाए।
असली सौन्दर्य तो तुम्हारे भीतर का आनंद है
इस ग्रह पर जन्मा हरेक बच्चा सुंदर है, जैसे-जैसे वो बड़ा होने लगता है, बच्चे की सुंदरता, मासूमियत खो जाती है।
निर्दोषता तुम्हें सुंदर बनाती है। दिखने में तुम चाहे जितने भी सुंदर क्यूं न हों, अगर तुम्हारा मन तनावग्रस्त है, अगर तुम्हारी चेतना क्रोध, निराशा और नकारात्मक विचारों से भरी है, तो यह तुम्हारे चेहरे पर साफ़ दिखई देता है।
असली सौन्दर्य आनंद है, और आनंद भीतर से आता है, जागो और देखो कि तुम एक बालक जैसे निर्दोष हो, एक बार जब हम मान लेते हैं कि हम स्वयं के, जीवन के बारे में बहुत कम जानते हैं, तब हम निर्दोषता की ओर वापस जाते हैं, ज्ञान का उद्देश्य तुम्हें उस अज्ञानमय "मैं
कुछ नहीं जानता से एक सुन्दर "मैं कुछ नहीं जानता" तक ले के जाना है। जब
ये परिवर्तन भीतर से घटित होता है। तब तुम सबसे सुन्दर व्यक्ति बन जाते हो। निराशा, क्रोध हमेशा अतीत को
लेकर होते हैं और व्यग्रता हमेशा भविष्य के लिए होती है। जीवन में तुम्हें चिंता
और पश्चाताप के बहुत से उदहारण मिले होंगे। अगर तुम भूतकाल से छुटकारा पा लो और
वर्तमान में आ जाओ तो तुम आत्मा की निर्दोषता पर वापस आ सकते हो।
भरोसा भी तुम्हारी सुन्दरता को बढ़ाता है। तुम लोगों की अच्छाई पर शक करते हो
लेकिन लोगों के बुरे गुणों पर कभी शक नहीं करते। शक के स्वभाव को समझो। तुम इस
संसार में भरोसे के गुणों को ले कर आए हो। एक बच्चे के रूप में हम इस ग्रह पर
भरोसे के साथ आए हैं। इसीलिए बच्चा इतना सुंदर है। बालक उसके आनंद, मासूमियत और भरोसे की वजह से सुंदर है। बालक का दूसरा गुण है वर्तमान में जीना। ये गुण तुम्हारी सुन्दरता को बढ़ाता
है। ज़रा आइने में अपने चेहरे पर निगाह डालो और देखो इस शरीर के भीतर क्या है।
क्या भरोसा है। अगर नहीं, तो ऐसा कब होगा। अब ये
होना चाहिए। जिस क्षण तुम उस पर ध्यान लगाओगे। तुम पाओगे कि भरोसा निरंतर बढ़ रहा
है।
किसी ऐसे व्यक्ति की तरफ देखो जो किसी चीज़ के लिए तरस रहा है और किसी ऐसे
व्यक्ति की तरफ देखो जो संतुष्ट और तृप्त है। जो संतुष्ट है वह ज़्यादा सुन्दर लगता
है। हम जितने ज़्यादा संतुष्ट होंगे उतनी ज़्यादा उन्नति कर सकेंगे। जब तुम अपना जीवन किसी उद्देश्यपूर्ण, उपयोगी सेवा में लगा देते हो,
तुम्हारी
सुन्दरता बढ़ती है, यदि तुम हमेशा अपने बारे
में सोचते रहते हो, तो यह तुम्हें बदसूरत
बनाने के लिए काफी है। अगर तुम अपना जीवन किसी के लिए बाँट सकते हो, तब भीतर से जो सुन्दरता उगती है, वो अद्वितीय है, असली सुन्दरता तुम्हारे भीतर जो गुण हैं उन्हें प्रदर्शित करने में है।
बस, महसूस करो कि तुम इस दैवत्व का
हिस्सा हो। यह ब्रह्माण्ड प्राणशक्ति का अखंड प्रवाह है। बस इस सत्य पर तुम्हारा
ध्यान तुम्हारे भीतर की सुन्दरता को जागृत करता है। तुम्हारे पास जो भी है जैसे
तुम्हारी ऑंखें, कानए पैर, आदि कुछ चीज़ों के लिए कृतज्ञता महसूस करो। हर रोज़
सुबह, जीवन में तुम्हें जो भी मिला है
उसके बारे में सोचो। फिर तुम्हारा सारा दिन ज़्यादा कृतज्ञता और आभार में व्यतीत
होगा।
कृतज्ञता तुम्हें और भी सुंदर बनाती है। लगभग सभी सभ्यताओं में माँ अपने
बच्चों को सोने से पहले प्रार्थना करना सीखाती है। इस प्राचीन अभ्यास का महत्त्व
ये है कि जब तुम अपने हृदय में इतनी कृतज्ञता ले कर सोते हो, तुम्हारा मन शांत और स्थिर हो जाता है, रोज़ सोने से पहले तुम्हें जितने वरदान मिले हैं
उनकी गिनती करना, ये तुम्हारे भीतर की
सुन्दरता का आह्वान करेगी और तुम दुसरे दिन तरोताज़ा, तनावमुक्त और पुनर्जीवित हो कर जागोगे।
कोई खोज सार्थक नहीं है, जब तक भीतर आलोकित न हो
स्वभावतः हम जीवन में उसी चीज के प्रति जागृत होते हैं जिसे देखते और महसूस
करते हैं जो हमें दिखता है। दरख्त को देखते हैं, आदमी को देखते हैं, आसमान को देखते हैं, चांद-तारों को देखते हैं क्योंकि यह हमारी चेतना में
मौजूद होते हैं। कोई विषय होता है,
कोई वस्तु
होती है। फिर भी प्रश्न उठना स्वभाविक है कि जागरण किसके प्रति?
एक बात समझ लें। जब तक किसी के प्रति आप जागे हैं, तब तक आप संसार में हैं। जब तक कोई वस्तु मौजूद है
चेतना में है तब तक आप अपने से बाहर हैं। जिस क्षण चेतना अकेली रह गई और वहां कोई
वस्तु, कोई विषय, कोई नाम, कोई शब्द, कोई रूप न रहा, कोई भी न रहा, चेतना अकेली रह गई-कंटेंटलेस-विषय-वस्तु से रहित और शून्य, अकेली है उस क्षण आप अपने में है। निश्चित ही, अगर हम एक दीया जलाएं, तो उस दीये के प्रकाश में आसपास के दरख्त दिखाई पडेंगे, लेकिन क्या दरख्तों के दिखाई पड़ने के अतिरिक्त दीये
का अपना होना नहीं हैं?
अगर दीये का अपना होना न हो,
तो दरख्त
भी कैसे प्रकाशित होंगे? प्रकाश अलग है उन
दरख्तों से, जो प्रकाशित हो रहे हैं।
मैं आपको देख रहा हूं, आपसे अलग हूं। मेरे भीतर
अपनी चेतना है। अगर इस चेतना के शुद्ध स्वरूप को मुझे अनुभव करना है, तो मुझे अपने को सारे विषयों से अलग शांत और निस्पंद
कर लेना होगा। उस घड़ी मैं स्वयं को जानूंगा। जब तक कोई और मौजूद है, तब तक मैं उसे जानूंगा।
विज्ञान किसी और को जानता है,
धर्म स्वयं
को। विज्ञान तथ्यों को खोज रहा है वस्तु को तलाश रहा है, पदार्थ की, पर की, पराए की, बाहर की। धर्म उसकी खोज है, जो स्व है, स्वयं है, भीतर है-वह जो तथ्य है, वह जो आत्मिकता है, वह जो आंतरिकता है। और दो ही दिशाएं हैं मुनष्य के सामने। भूगोल तो कहता है, दस दिशाएं हैं, लेकिन मुनष्य के सामने वस्तुतः दो दिशाएं हैं।
दस दिशाओं की बात तो झूठी है। एक दिशा है बाहर की तरफ, एक दिशा है भीतर की तरफ। और कोई दिशा नहीं है। एक
खोज है बाहर की तरफ की दुनिया में,
एक खोज है
भीतर की दुनिया में। बाहर की दुनिया में हम सारे लोग खोजते हैं और जीवन उलझता से
उलझता चला जाता है। हम तो समाप्त हो जाते हैं, खोज वहीं की वहीं रह जाती है। क्योंकि एक बुनियादी बात हम भूल गए कि जिस आदमी
ने स्वयं को नहीं खोजा है, उसकी कोई भी खोज सार्थक
नहीं हो सकती, क्योंकि जिसको स्वयं का
ही कोई बोध नहीं है, उसे और ज्ञान कैसे हो
सकता है?
जो अपने भीतर अंधेरे से भरा है,
सारे जगत्
में भी रोशनी हो, उससे उसे कोई फर्क नहीं
पड़ेगा। जहां जाएगा, अपने अंधेरे को साथ ले
जाएगा। अंधेरा उसके भीतर है। तो वह जहां भी जाएगा, अंधेरा उसके रास्तों को घेर लेगा। इसीलिए तो विज्ञान इतनी खोज करता है, लेकिन परिणाम अच्छे नहीं आते। क्योंकि आदमी के भीतर अंधकार है और बाहर विज्ञान बड़ी ताकतें इकट्ठी कर लेता
है। वह अज्ञानी आदमी के हाथ में पड़ जाती है। उनसे फल शुभ नहीं आता, अशुभ होता है। वह आदमी को मारने के उपाय निकलते हैं, उनसे हत्या करने के, हिंसा करने के तीव्र उपाय निकलते हैं। निकलेंगे ही, बाहर की कोई खोज सार्थक नहीं है, जब तक भीतर आलोकित न हो।
हमारा हर कर्म आनंद प्राप्ति के लिए होता है
'सुखाय दुःख मोक्षाय
संकल्प इह कर्मिना' प्रत्येक कर्म करने वाले
का उद्देश्य दो सकता है। एक सुख के लिए और दूसरा दुःख समाप्त करने के लिए तीसरा
कोई लक्ष्य नहीं हो सकता है। हम प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ कर रहे हैं इसका एक मात्र
कारण है आनंद के लिए और दूसरा सुख के लिए। हम सभी दुःखी हैं, प्रत्येक क्षण दुःखी हैं। हम सभी हंसते हैं लेकिन
हंसना ही सुख नहीं है।
गीता के तीसरे अध्याय का पांचवां श्लोक कहता है कि, कोई जीव एक क्षण भी अकर्मा नहीं रह सकता। हम भले ही
कह लें कि, हम कर्म नहीं करेंगे, रजाई ओढ़ भी लें तब भी कर्म करेंगे। सपने में भी आप
कर्म करेंगे। लेकिन हर कर्म का उद्देश्य एक है दुःख निवृति और आनंद प्राप्ति लेकिन
वास्तव में तो एक लक्ष्य है आनंद प्राप्ति क्योंकि आनंद प्राप्ति हो जाएगी तो दुःख
निवृति अपने आप हो जाएगी।
मन सुख और दुःख का भोक्ता है। मन जब निश्चल होता है तब दुःख की अनुभूति नहीं
होती है लेकिन यह क्षणिक होता है। लेकिन दुःख से मुक्ति तभी मिल सकती है जब सुख
मिल जाए। वास्तव में दुःख का कारण अज्ञान है। अज्ञान के दूर होते ही दुःख के बादल
छंट जाते हैं।
वेदों में उल्लेख किया गया है कि मनुष्य शरीर ही एक मात्र अज्ञानता को दूर
करने का माध्यम है। जो मनुष्य शरीर में ज्ञान अर्जित नहीं करता है वह 84 लाख योनियों में भटकता रहता है। केनोपनिषद् में कहा
गया है कि मनुष्य शरीर में अगर अज्ञान को नहीं मिटाया तो कई कल्पों तक दुःख
प्राप्त करते रहोगे।
भागवद् में कहा गया है कि, मानव देह बड़ा दुर्लभ
है। देवता लोग मानव शरीर को प्राप्त करने के लिए तरसते हैं। इसका कारण यह है कि
मानव शरीर में ही कर्म करने का अधिकार है। तुलसीदास जी ने भागवद् के शब्द का
अनुवाद करते हुए लिखा है कि वह आत्महत्यारा है जो मानव देह प्राप्त करके अज्ञान
दूर नहीं करता है, जिससे आनंद मिल जाता है
वह सुखी हो जाता है उसके दुःख दूर हो जाते हैं।
जीवन का आनंद मृत्यु के साथ सामने होता है
चीन में च्वांगत्से नाम का एक फकीर था। उसकी स्त्री मर गई। राजा च्वांगत्से का
आदर करता था अतः च्वांगत्से के पास संवेदना के दो शब्द कहने पहुंचा। जब राजा वहां
पहुंचा तो देखकर हैरान हुआ। च्वांगत्से एक झाड़ के नीचे बैठकर खंजड़ी बजा रहा था।
सुबह उसकी पत्नी मरी थी। राजा थोड़ा हैरान हुआ।
उसने च्वांगत्से से कहा, यह तो बर्दाशत के बाहर है। तुम दुःख न मनाते, इतना ही काफी था। लेकिन
तुम खंजड़ी बजाओ और गीत गाओ! यह तो कुछ समझ में नहीं आता। च्वांगत्से बोला,
जिसको विदा दी है,
उसने इस विदा से
कुछ पाया है, खोया नहीं तो खुशी मनाऊं कि रोऊं? और फिर जिसके साथ इतने दिन रहा हूं, उसे आंसुओं के साथ विदा
करना क्या शुभ होगा?
उचित है कि मेरे गीत की छाया में ही उसकी विदाई हो। उसके आगे के मंगल-पथ पर
यही उचित होगा कि मेरे गीत उसके साथ जाएं, बजाय मेरे आंसुओं के और मेरे रोने के। और च्वांगत्से
ने कहा, स्मरण
रखो, जब
मैं मरूं तो जरूर तुम गीत गाना, क्योंकि मैं तो प्रतीक्ष कर रहा हूं उस क्षण की, जब मैं विदा होऊंगा। कब
मेरी तैयारी पूरी होगी और कब मैं विदा होऊंगा? क्योंकि स्कूल से विदाई का वक्त
दुःख का थोड़े ही होता है! प्रशिक्षण था, पूरा हुआ। विदाई आ गई।
जीवन तो एक प्रशिक्षण है, एक बहुत गहरे अर्थों में, बहुत गहरी अनुभूतियों का। जब
परिपक्व होकर कोई विदा होता है, तब प्रसन्नता से विदा होता है। जब असफल होकर कोई विदा होता
है, तो
दुःख से विदा होता है। वह दुःख असफलता का है, विदाई का नहीं। वह जीवन की
व्यर्थता का है, अर्थहीनता का है। अगर कहीं कोई सार्थकता पा ली हो, तो मृत्यु तो सुख है, मूल्य तो आनंद है।
मृत्यु से ज्यादा बड़ा सखा और मित्र कौन है? लेकिन चूंकि सब गलत है, और सब गलत इकट्ठा होता
जाता है, एकुमेलटेड
होता चला जाता है, तो मौत एकदम गलत दिखाई पड़ती है। जीवन-भर का गलत मौत के सामने ही आता है। अगर
जीवन सुंदर रहा हो, शांत रहा हो और आनंद से भरा हो तो, मृत्यु एक घनी अनुभूति होगी। सारे जीवन का आनंद
मृत्यु के साथ हमारे सामने खडा़ हो जाता है। हम गलत करते हैं। गलत यह करते हैं कि
हम थोपते हैं, ऊपर से थोपना परिवर्तन नहीं है।
फिर क्या हो? तो मेरा पहला निवेदन तो यह है कि क्रोध को बदलने की चिंता न करें, घृणा को बदलने की चिंता
न करें। क्योंकि बदलने की चिंता से ही थोपने का उपाय सामने आ जाता है। फिर करें
क्या? इतना
ही जानें कि, जीवन जब बहिर्गामी होता है, चेतना जब बाहर की तरफ बहती है, तो उसके लक्षण हैं, क्रोध, घृणा, हिंसा। ये बहिर्गामी चेतना
के अनिवार्य लक्षण हैं। ये चेतना के लक्षण हैं, ये चेतना को बाहर बहवाने के कारण
नहीं। चेतना को बाहर ले जाने के कारण नहीं हैं। चेतना चूंकि बाहर है, इसलिए ये लक्षण प्रकट
होते हैं।
अगर चेतना भीतर लौटने लगे तो दूसरे लक्षण प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। घृणा
की जगह प्रेम प्रकट होने लगता है, क्रूरता की जगह करुणा प्रकट होने लगती है। वह भीतर जाती
चेतना के लक्षण हैं। बहिर्गामी चेतना के लक्षण हैं ये सब, अंतर्गामी चेतना के लक्षण दूसरे
हैं। वे केवल खबरें हैं कि, अब चेतना भीतर जाने लगी है। इसलिए इसकी बिल्कुल फिक्र छोड़
दें कि क्रोध मिटे। इससे तो केवल इतना संकेत लें कि मेरी चेतना बाहर बहती है इसलिए
क्रोध है। इसलिए मैं चेतना को भीतर लाऊं। क्रोध की फिक्र छोड़ दें। क्रोध तो लक्षण
है।
संभव व असंभव हमारे भीतर ही निहित है
विषय पूर्णत: आपसे जुड़ा हुआ है। क्योंकि हमारी वह अवस्था है कि, हमारा घर है लेकिन हम
अपने घर के बाहर खड़े है। हम अपने घर के भीतर जा ही नहीं रहे हैं। मैं आपसे कहता
हूं कि आप मालिक हैं अपने घर के फिर भी घर के बाहर क्यों खड़े हैं? भीतर जाओ।
मालिक की तरह प्रत्येक आने-जाने वाले पर नियंत्रण रखो। हमारे पास सब कुछ है पर
हम उसका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए अपने मकान में प्रवेश नहीं कर पा रहे
हैं। भीतर प्रवेश करो। जिस दिन आप अपने मकान में प्रवेश कर जाएंगे। भीतर आने वाली
और बाहर जाने वाली चीज के प्रति जानकार होंगें वहीं आत्मबोध हो जाएगा, स्वजागरण हो जाएगा।
आपको एहसास ही नहीं है कि आप मालिक है। जब आपके भीतर की चेतना जागेगी कि आप
मालिक है, तभी भीतर प्रवेश करेंगे, तो ही निरीक्षण कर पाएंगें। नियंत्रण पैदा कर पाएंगें।
सुव्यवस्था करेंगे, तभी बुद्धि और विवेक का विकास होगा। आत्मज्ञान का दीपक जलेगा। हमें बोध नहीं
है कि हम सब शक्तियों से परिपूर्ण है, प्रत्येक संभव व असंभव हमारे भीतर ही निहित है। उसे
मोड़ऩा होगा।
सुख पाने के लिए भूख जरूरी।
भावनाएं ही कमजोर और बलवान बनाती हैं
ज़्यादा ज़रूरी क्या है- वस्तुएँ, इन्द्रियाँ, मन या बुद्धि? इन्द्रिय के साधन से इन्द्रियाँ
अधिक ज़रूरी हैं। टेलीविज़न से तुम्हारी आँखें अधिक ज़रूरी हैं, संगीत या ध्वनि से
तुम्हारे कान अधिक ज़रूरी हैं। स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों या आहार से जिह्वा अधिक
ज़रूरी है। हमारी त्वचा, जो भी कुछ हम स्पर्श करते हैं उससे अधिक ज़रूरी है।
लेकिन मूर्ख सोचते हैं कि इन्द्रिय सुख देनेवाली वस्तुएँ इन्द्रियों से अधिक
ज़रूरी हैं। उन्हें मालूम है कि अत्यधिक टीवी देखना आँखों के लिए अच्छा नहीं है,
फिर भी वे परवाह
नहीं करते और लंबे समय के लिए टेलीविज़न देखते रहते हैं। उन्हें मालूम है उनकी शरीर
प्रणाली को अत्यधिक खाना नहीं चाहिए, लेकिन वे शरीर से आहार को अधिक महत्व देते हैं।
बुद्धिमान वह है जो इन्द्रियों की तुलना में मन की ओर अधिक ध्यान देता है। यदि
मन का ध्यान नहीं रखा, केवल इन्द्रिय सुख के साधन व इन्द्रियों पर ही ध्यान रहा,
तो तुम अवसाद में
उतर जाओगे। वस्तुओं के प्रति तुम्हारी लालसा तुम्हारे मन से अधिक आवश्यक हैं।
तुम्हारी बुद्धि, बुद्धिमता मन से परे है। यदि तुम केवल मन के अनुसार चलोगे तो तुम डांवाडोल
स्थिति में रहोगे। जीवन में तुम्हारी कोई प्रतिबद्धता नहीं रहेगी तुम और भी दुखी
हो जाओगे। जो वस्तु मन की इस प्रकृति को मिटा सकती है, वह है अनुशासन। तुम्हारा मालिक
तुम पर दबाव डालता है, तुम्हें इतने दिन काम करना है, सप्ताह के पांच दिन। यदि ये दबाव
न हो, तो
तुम कभी काम नहीं करोगे।
बुद्धि मन से अधिक ज़रूरी है क्यूंकि बुद्धि ज्ञान की मदद से निर्णय लेती है।
कहती है: "ये अच्छा है, ये करना चाहिए, ये नहीं करना चाहिए।" जो बुद्घिमान बुद्धि का अनुसरण करेंगे, मन का नहीं। बुद्धिमता
ये है कि तुम भावनाओं की परवाह नहीं करते क्योंकि वे हमेशा बदलती रहती हैं। लोग
बैठ कर कहते रहते हैं, "ओह, मुझे अच्छा लग रहा है, ओह, मुझे बुरा लग रहा है, मुझे ऐसा लग रहा है,
मुझे वैसा लग रहा
है।" तुम अपने लिए नरक बना लेते हो।
तुमने भूतकाल में कुछ लोगों को दुखी किया है और वह दुःख तुम अभी अनुभव कर रहे
हो। इस अनुभव को झेलो, उससे भागो मत। जीवन प्रतिबद्धता से चलता है। तुम्हारा जीवन
इस ग्रह पर किसी कल्याणकारी हेतु के लिए समर्पित है। ये तुम में निर्भयता, ताक़त, शांति, स्थिरता, जोश, सब कुछ तुम्हारे भीतर से
बाहर ले आता है।
औरों की चिंता करो, भावनाओं की ज़्यादा परवाह मत करो। किसी भी बात के लिए विलाप
करके बैठे मत रहो। इस संसार की कोई भी वस्तु की कीमत तुम्हारे आंसुओं के बराबर
नहीं है। अगर तुम्हें आंसू बहाने ही हैं, तो वे कृतज्ञता के, विस्मय के, प्रेम के मीठे आंसू होने चाहिए। निरर्थक बात के लिए रोना
उचित नहीं है। हमारा जीवन इसके लिए नहीं बना है। हमें यह समझना चाहिए।
किसी पद में लिखा है कि चन्दन को जितना घिसा जाए, उस में से उतनी ही अधिक सुगंध
उभरती है, सोने पर जितनी चोट लगाई जाए, वह उतना ही अधिक चमकता है, गन्ने को जितना अधिक निचोड़ा जाए,
उस में से उतना ही
अधिक मीठा रस निकलता है। जीवन को ऐसे रखना चाहिए- एक एकीकृत, सम्पूर्ण व्यक्तित्व की
निशानी ये प्रतिबद्धता है- "मैं ये करूंगा, चाहे कुछ भी हो जाए।"
तुम्हारी भावनाएं तुम्हें कमज़ोर बनातीं हैं और यही तुम्हें सशक्त बनातीं हैं।
जब तुम्हारी भावनाएं सकारात्मक हों तो वे तुम्हें सत्य, सूक्ष्म और कोमलता के प्रति
संवेदनशील बनाती हैं और गहरे ध्यान में ले जाती हैं। लेकिन वही भावनाएं जब रुखी
हों, तुम्हारे
मन और शरीर को नष्ट कर देती हैं। भावना तुम्हारी शत्रु और मित्र दोनों हैं। वह
भावना जो तुम्हें भीतर से कोमल बनाए, वह तुम्हारी मित्र है, जो भावना तुम्हें भीतर से रुखा
बना दे, तुम्हारी
शत्रु है। यदि तुम में कोई भावना नहीं हैं, तो तुम एक मरे हुए चिथड़े जैसे
हो और तुम में दिव्य प्रेम नहीं खिल सकता।
सभी भावनाएं लोगों, वस्तुओं और घटनाओं से जुडी हुई हैं। वस्तुओं, लोगों और संबंधों को
पकड़े रहने से मुक्ति, मोक्ष में बढ़ आती है। जब मन सभी प्रभावों और धारणाओं से
मुक्त हो, तभी तुम मुक्त हो। जब तुम जान लो कि सभी संबंध, लोग, शरीर, भावनाएँ बदल रहे हैं- अचानक वो
मन जो दुःख को पकड़े हुए है, लौट कर स्वयं के पास आ जाता है। मेरे से मैं की वापसी,
तुम्हें दुःख से
संतोष और मुक्ति दिलाती है। जब हम अपनी भावनाओं की परवाह नहीं करते और भावनाओं की
चिंता नहीं करते, तब हम ज्ञान में अधिक स्थापित होते हैं। और ज्ञान में स्थापित हो कर तुम आत्मा
की ओर जाते हो। आत्मा शांति, आनंद, प्रेम, शक्ति और सब कुछ है।
बिना भोजन के उपवास नहीं हो सकता
यह बड़े मजे की बात है। लोग समझते हैं, उपवास भीतर है और भोजन बाहर है।
लेकिन बिना भोजन के उपवास नहीं हो सकता। और उलटी बात भी सच है, बिना उपवास के भोजन नहीं
हो सकता। इसलिए हर दो भोजन के बीच में आठ घंटे का उपवास करना पड़ता है। वह जो आठ
घंटे का उपवास है, वह फिर भोजन की तैयारी पैदा कर देता है।
इसलिए अगर तुम दिनभर खाते रहोगे, तो भूख भी मर जाएगी, भोजन का मजा भी चला जाएगा। भोजन
का मजा भूख में है। यह तो बड़ी उलटी बात हुई! भोजन का मजा भूख में है। जितनी
प्रगाढ़ भूख लगती है, उतना ही भोजन का रस आता है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि ध्यान का रस विचार में है।
तुमने जितना विचार कर लिया होता, उतनी ही ध्यान की आकांक्षा पैदा होती। इसका तो अर्थ हुआ कि
ब्रह्मचर्य की जड़ें कामवासना में हैं; कि तुमने जितना काम भोग लिया होता, उतने ब्रह्मचर्य के फूल
तुम्हारे जीवन में खिलते।
ये मेरी बातें तुम्हें उलटी लगेंगी; क्योंकि जिन्होंने तुम्हें समझाया है अब तक, उन्होंने खंड करके
समझाया है। उन्होंने कहा, कामवासना ब्रह्मचर्य के विपरीत है। उन्होंने कहा, संसार संन्यास के विपरीत
है। उन्होंने हर चीज के बीच द्वंद्व और संघर्ष और कलह पैदा कर दी है। ये जो कलह
पैदा करने वाले लोग हैं, इनको तुम गुरु समझ रहे हो। यही तुम्हें भटकाए हैं।
मैं चाहता हूं कि तुम्हारे जीवन में अकलह हो जाए, एक संवाद छिड़ जाए, संगीत बजने लगे। अलग-अलग
स्वर न रह जाएं, सब एक संगीत में समवेत हो जाएं। तुम्हारे भीतर एक कोरस का जन्म हो, जिसमें सभी जीवन की
तरंगें संयुक्त हों, बाहर और भीतर मिले, शरीर और आत्मा मिले, परमात्मा और प्रकृति मिले।
इसलिए कबीर कह सके कि वे ही विरले योगी हैं, जो धरनी महारस चाखा। विरले योगी
वे ही हैं। परमात्मा का जिन्होंने अकेले रस चखा, वे कोई बहुत विरले योगी नहीं है।
अधूरे हैं, आधे हैं। पूरे तो वे ही हैं, जे धरनी महारस चाखा। जिन्होंने धरती के महारस को भी चखा।
परमात्मा को तो जाना ही, पदार्थ को भी जाना। भीतर तो मुड़े ही, बाहर के विपरीत नहीं;
बाहर के सहारे
मुड़े। भीतर गए और बाहर की नाव पर गए। उनको कबीर ने कहा विरले योगी।
उन्हीं विरले योगियों से संसार उस शांति को उपलब्ध होगा, जो पूरब जानता है;
और उस सुख को
उपलब्ध होगा, जो पश्चिम जानता है। और जहां सुख और शांति के पलड़े बराबर हो जाते हैं,
वहीं जीवन में
संयम पैदा होता है। संयम यानी संतुलन। पूरब भी असंयमी है और पश्चिम भी असंयमी है।
इसलिए दोनों दुखी हैं। असंयम दुख है। संयम महासुख है।
सुख और दुःख सब विचारों का खेल है
भगवान श्रीरामचन्द्रजी अरण्य में
विश्राम कर रहे थे और लखन भैया तीर-कमान लेकर पहरेदारी कर रहे थे। निषादराज ने
श्रीरामजी की यह स्थिति देखकर कैकेयी को कोसना शुरू किया: ‘‘यह कैकेयी, इसे जरा भी खयाल नहीं आया! सुख के
दिवस थे प्रभुजी के और धरती पर शयन कर रहे हैं! राजाधिराज महाराज दशरथनंदन
राजदरबार में बैठते। पूर्ण यौवन, पूर्ण सौंदर्य,
पूर्ण ज्ञान, पूर्ण
प्रेम, पूर्ण प्रकाश, पूर्ण जीवन के धनी श्रीरामजी को धकेल दिया जंगल में, कैकेयी की कैसी कुमति हो गयी!’’
लखन भैया के सामने कैकेयी को उसने
कोसा। निषादराज ने सोचा कि ‘लक्ष्मणजी मेरी
व्यथा को समझेंगे और वे भी कैकेयी को कोसेंगे’ लेकिन लखन लाला ऐन्द्रिक जीवन में बहनेवाले पाशवी जीवन से ऊँचे थे। वे मानवीय
जीवन के सुख-दुःखों के थपेड़ों से भी कुछ ऊँचे उठे हुए थे। उन्होंने कहा : ‘‘तुम कैकेयी मैया को क्यों कोसते हो?
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।
कोई किसी को सुख-दुःख देनेवाला नहीं
है।’’
निषादराज कहता है: ‘‘क्या श्रीरामचन्द्रजी अपना कोई प्रारब्ध, अपने किसी पाप का फल भोग रहे हैं? आपका क्या कहना है?’’ लक्ष्मणजी कहते
हैं: ‘‘श्रीरामजी दुःख नहीं भोग रहे हैं, दुःखी तो आप हो रहे हैं। श्रीरामजी तो जानते हैं कि यह नियति
है, यह लीला है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण ये सब
खिलवाड़ हैं, मैं शाश्वत तत्त्व हूँ और रोम-रोम
में रम रहा हूँ, अनंत ब्रह्माण्डों में रम रहा हूँ।
यहां तो नरलीला करने के लिए यहाँ रामरूप से प्रकट हुआ हूँ। श्रीरामजी प्रारब्ध का
फल नहीं भोग रहे हैं।
श्रीरामजी तो गुणातीत हैं, देशातीत हैं, कालातीत हैं और
प्रारब्ध से भी अतीत हैं। महापुरुष प्रारब्ध का फल नहीं भोगते, वे प्रारब्ध को बाधित कर देते हैं। प्रारब्ध होता है शरीर का,
मुझे क्या प्रारब्ध! यश-अपयश शरीर का होता है, बीमारी-तंदुरुस्ती शरीर को होती है, मेरा क्या! हम हैं अपने-आप, हर परिस्थिति को
जाननेवाले उसके बाप! ऐसा तो सब ज्ञानवान जानते हैं फिर श्रीरामचन्द्रजी तो
ज्ञानियों में शिरोमणि हैं। वे कहाँ दुःख भोग रहे हैं! दुःख तो निषादराज आप बना
रहे हैं।’’
अब ध्यान देना, इस कथा से आप कौन-सा नजरिया लेंगे? कैकेयी कुटिल रही, स्वार्थी रही और
अपने बेटे के पक्ष में वरदान लिया, यह अनुचित किया -
ऐसा समझकर आप अगर अनुचित से बचना चाहते हैं तो इस पक्ष को स्वीकार करके अपने
अंतःकरण को गलतियों से, कुटिलता से बचा लें तो अच्छी बात है।
अगर, कैकेयी में प्रेम था और रामजी के दैवी कार्य
में कैकेयी ने त्याग और बलिदान का परिचय दिया है, इतनी निंदा सुनने के बाद भी, लोग क्या-क्या
बोलेंगे, यह समझने के बाद भी कैकेयी ने यह किया है
ऐसा आप मानते हैं तो कैकेयी के इस त्याग, प्रेम को
याद करके अंतःकरण में सद्भाव को स्वीकार करिये।
कैकेयी को कोसकर आप अपना दिल मत
बिगाड़िये अथवा कैकेयी ने श्रीरामजी को वनवास दिया, अच्छा किया और हम भी ऐसा ही आचरण करें- ऐसा सोचकर अपने दिल में कुटिलता को
मत लाइये। जिससे आपका दिल, दिलबर के ज्ञान
से, दिलबर के प्रेम से, दिलबर की समता से, परम मधुरता से
भरे, वही नजरिया आपके लिए ठीक रहेगा, सही रहेगा, बढ़िया रहेगा।
कोई भाभी, कोई देवरानी, कोई जेठानी, कोई सास या बहू अनुचित करती है तो आप यह अनुचित है ऐसा समझकर अपने जीवन
में उस अनुचित को न आने दें, तब तक तो ठीक है
लेकिन ‘यह अनुचित करती है, यह निगुरी ऐसी है, वैसी है...’
ऐसा कहके आप उन पर दोषारोपण करके अपने दिल को बिगाड़ने की
गलती करते हैं तो आप पशुता में चले जायेंगे।
यदि सामनेवाली सास-बहू, देवरानी-जेठानी सहनशक्तिवाली है तो उसका सद्गुण लेकर आप समता
लाइये। किसी में कोई सद्गुण है तो वह स्वीकारिये और किसी में दुर्गुण है तो उससे
अपने को बचाइये। ऐसा करके आप अपने अंतःकरण का विकास कीजिये। न किसी का दोष देखिये
और न किसी को दोषी मानकर आरोप करिये और न किसी की आदत के गुलाम बनिये।
किसी का दोष देखकर आप मन में खटाई
लायेंगे तो आपका अंतःकरण खराब होगा लेकिन दोष दिखने पर आप उन दोषों से बचेंगे और
उसको भी निर्दोष बनाने हेतु सद्भावना करेंगे तो आप अपने अंतःकरण का निर्माण कर रहे
हैं। संसार तो गुण-दोषों से भरा है, अच्छाई-बुराई से
भरा है।
आप किसी की अच्छाई देखकर उत्साहित हो
जाइये, आनंदित होइये और बुराई दिखने पर अपने को उन
बुराइयों से बचाकर अपने अंतःकरण का निर्माण करिये और गहराई में देखिये कि यही
अच्छाई-बुराई के ताने-बाने संसार को चलाते हैं। वास्तव में तत्त्वस्वरूप भगवान
सच्चिदानंद हैं, मैं उन्हीं में शांत हो रहा हूँ।
जहाँ-जहाँ मन जाय, उसे घुमा-फिराकर छल, छिद्र, कपट से रहित,
गुण-दोष के आकर्षण से रहित अपने भगवत्स्वभाव में
विश्रांति दिलाइये, विवेक जगाइये कि ‘मैं कौन हूँ ?’, अपने से ऐसा
पूछकर शांत होते जाइये।
तब असली बुद्धिमत्ता का पता चलता है।
इस संसार में सभी मनुष्य एक ही प्रकार के नहीं हैं। रंग रूप में भिन्नता तो
होती ही है, लोगों के मन भी अलग-अलग
प्रकार की चीजों को पसंद करते हैं। किसी को मीठा पसंद है तो किसी को तीखा। जिसे जो
भी पसंद है, उसकी उपलब्धि होने पर
खुशी मनाता है और जो नापसंद है उसे पाने पर ना खुशी जाहिर करता है। इस संसार में
हमारे लिए क्या करना उचित है और क्या करना उचित नहीं है, इसके भी अलग-अलग मापदंड बने हुए हैं। उन्हीं
मापदंडों के आधार पर समाज के अनेक कायदे-कानून बने हुए हैं।
इनका पालन करना लोगों के लिए आवश्यक माना गया है। कुछ लोग तो इन कायदों के
प्रति इतने सख्त होते हैं कि लोगों को पहले से ही हिदायतें देते रहते हैं कि इन
कानून-कायदों का उल्लंघन न हो। आश्चर्य तो तब होता है कि कानून के ये तथाकथित
पहरेदार कभी-कभी भविष्य में इन कानूनों के उल्लंघन होने की संभावना पर भी पहले ही
लोगों को दण्डित कर देते हैं।
इस संसार का काम कैसे चलाएं,
इसके लिए
बहुत कुछ सीखना पड़ता है। लोग पाठशालाओं में बच्चों को पढऩे के लिए भेजते हैं ताकि
उनका बौद्धिक विकास हो। स्कूल कालेजों में मनुष्य को शिक्षित किया जाता है, उन्हें बुद्धिमान बनाने का प्रयत्न किया जाता है।
लेकिन एक अन्य प्रकार की भी बुद्धिमत्ता होती है जो सांसारिक बुद्धिमत्ता से अलग
है।
भगवान श्री कृष्ण उस बुद्धिमत्ता की ही बात अर्जुन से करते हैं जिसका भगवद्
गीता में उल्लेख मिलता है। वे कहते हैं, जब कोई व्यक्ति आभ्यंतरिक दुनिया में अपने मन को उन्मुख करते हुए अग्रसर होता
है तब वह अपने निज सत्यस्वरूप से जुड़ जाता और वह अपने आप में स्पष्ट हो जाता है
कि वह परमात्मा का ही अंश है। उस स्थिति में पहुंचने पर ही उसे असली बुद्धिमत्ता
का पता चलता है कि वास्तव में बुद्धि क्या है।
स्वस्थ रहने के पांच तरीके।
यदि आप यह सोचते हैं कि पूर्ण स्वस्थ रहना बहुत कठिन कार्य है, एक बार फिर सोचें श्री
श्री रविशंकर हमें बताते हैं कि किस प्रकार सामान्य बातें आश्चर्य चकित रुप से
हमारे जीवन को सुधार सकती हैं। एक पूर्ण स्वस्थ अवस्था के लिये, एक व्यक्ति को मानसिक
रुप से शांत, स्थिर और भावनात्मकता के रुप से कोमल रहना होगा। यह आजकल की तेज रफ्तार वाले
जीवन में इतना सरल नही है। अपने तनाव के स्तर को संभालने के लिये दो माध्यम है। हम
अपने मानसिक और शारीरिक कार्य भार में कमी लायें। या फिर अपनी ऊर्जा के स्तर को
बढ़ायें।
अपनी ऊर्जा को बढ़ाने का और स्वयं को स्फूर्तिवान बनाने के 5 सरल उपायः
1 स्वयं को जानें
हमें अपने अस्तित्व सभी स्तर को जानना होगा- शरीर, श्वास, मन, बुद्धि, स्मृति, अहं और स्व। इससे हमें वर्तमान क्षण
में रहने में सहायता मिलती है और जीवन के सुर से सुर मिल जाता है। हर वर्ष एक
सप्ताह का समय चुनो, जिस प्रकार एक कार सर्विस के लिए जाती है। इस सप्ताह में अपने अंतर को प्रकृति
के साथ लय बद्घ कर लें, सूर्योदय के साथ उठे, योगाभ्यास करें, सही भोजन करें और गीत
संगीत के साथ कुछ समय गुजारें।
2. ध्यान को जीवन का हिस्सा बना लें
ध्यान से गहरा विश्राम मिलता है। जो गहरा विश्राम करता है, वह ज्यादा सक्रियता से
काम कर पाता है। पूर्ण अध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिय तो ध्यान एक कुंजी है। ध्यान
का अर्थ है-मन बिना क्रोध के, संकोच के और प्रतिक्रिया के हो और वर्तमान क्षण में हो।
3 श्वास के बारे में जानें
श्वास जीवन है। हमें न तो विद्यालय में और न ही घर में श्वास के महत्व के बारे
बताया गया है। यदि हमे हमारी श्वास की शक्ति के बारे में समझ में आ जाये तो हमें
हमारे विचार और अनुभव का ज्ञान हो जायेगा। हम अपने क्रोध और नकारात्मकता को जीत
सकते हैं।
4 सही भोजन करें
एक स्वस्थ शरीर और हमारी भावनाओं, विचारों और कर्मों के नियंत्रण के लिये हमें यह
ध्यान रखना होगा कि हम क्या खा रहे हैं। ऐसा कहा जाता है ‘जैसा अन्न वैसा मन‘। जो कुछ भी हम भोजन करतें
हैं उसका हमारे शरीर और मन पर पूरा प्रभाव पड़ता है। ताजा भोजन, फल और कुछ सब्जियों से
हमारे प्राण ऊर्जा में वृद्घि होती है, जंक भोजन एवं डिब्बा बंद भोजन में कम प्राण ऊर्जा
होती है। ताजा भोजन एक सर्वोत्तम पोषक भोजन होता है जो उत्साह, स्फूर्ति, जीवटता, शक्ति और दीर्घ आयु
प्रदान करता है।
5 स्वयं के लिये समय निकाले
हर दिन हम अपना सारा समय सूचना एकत्रित करने में ही निकालते हैं और स्वयं के
लिये कोई समय नही निकाल पाते। ऐसा करने पर हम स्वयं थका हुआ और उदास पाते है। कुछ
देर का मौन रचनात्मकता को बढ़ाता है। मौन से स्वयं में शक्ति का संचार होता है और
स्वयं को गहराई और स्थिरता देता है। दिन में कुछ समय आंखे बंद करके स्वयं के दिल
में बैठ कर संसार को एक गेंद की तरह किक मारो।
सुख पाने के लिए भूख जरूरी।
मानव शरीर सबसे दुर्लभ होता है। इससे भी दुर्लभ है वास्तविक गुरू का मिलना।
वेदों और शास्त्रों को जितना पढ़ोगे उतने ही उलझते जाओगे। लेकिन जब वास्तविक गुरू
मिल जाता है कि तो वह उलझनों को दूर करके ज्ञान प्रदान करता है। इसलिए वास्तविक
गुरू का मिलना दुर्लभ कहा गया है। नारद पुराण में कहा गया है कि मानव शरीर इतना
दुर्लभ है कि स्वर्ग में रहने वाले देवता भी इसके लिए तरसते रहते हैं। हजारों
जन्मों के बाद यह मानव देह मिलता है। गुरूड़ पुराण कहता है कि मनुष्य शरीर पाये
बिना तत्व ज्ञान नहीं मिल सकता है।
शंकराचार्य ने कहा है कि मानव शरीर और वास्तविक गुरू के अलावा एक अन्य चीज और
है जो दुर्लभ है वह है भूख। जब तक भूख नहीं होगी, किसी चीज को पाने की ललक नहीं
होगी तब तक उसे प्राप्त नहीं कर सकते। अगर पेट भरा हो तो छप्पन भोग भी सामने हो तो
उस ओर मन नहीं जाता है। इसी प्रकार अगर ईश्वर को पाने की इच्छा गहरी नहीं हो तो
प्रवचन सुनते रहेंगे, समझकर भी नासमझ बने रहेंगे। भूख ऐसी होनी चाहिए जैसे दो-तीन दिन से कुछ खाया
नहीं वैसी भूख। अनंत संत मिले और हमने सुना पर हम समझे नहीं क्योंकि हमने लेकिन,
लगाया। हमने कहा
कि अभी तो हम गृहस्थ हैं। करेंगे, अभी हमारी उम्र ही क्या है। अभी तो खेलने कूदने के दिन हैं,
करेंगे! यही करते
करते बुढ़ापा आ जाता है और हम जहां थे वहीं रह जाते हैं।
मनुष्य शरीर में एक शक्ति है धारण करने की जो अन्य जीवों में नहीं है। गरूड़
जी ने काक भुसुण्डी से प्रश्न किया कि सबसे दुर्लभ कौन शरीर है। इसके जवाब में काक
ने कहा कि सबसे दुर्लभ मानव शरीर है क्योंकि इसी देह से नर्क, स्वर्ग, भक्ति और ईश्वर को
प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मानव शरीर में ही ज्ञान धारण करने
की शक्ति है। मानव शरीर इन्द्रियों से बना है इसलिए माया कि ओर स्वभाविक जाता है।
नदी की धारा की ओर जैसे वस्तु स्वभाविक बहती है उसी तरह हमारा मन भी प्रवाहित होता
है। भगवान की ओर जाना इन्द्रियों के विरूद्घ दिशा में जाना है इसलिए कठिनाई महसूस
होती है। इस कठिनाई को ज्ञान के द्वारा दूर किया जा सकता है। सुख पाने के लिए इसी
मानव शरीर में भूख पैदा करनी होगी।
जिनमें होती हैं ये 4 बातें, वही होते हैं संत-महात्मा
संत का सरल शब्दों में अर्थ है मन, वचन और कर्म में शुभ और सद्भावों से भरा चरित्र और
व्यक्तित्व। व्यावहारिक जीवन में बोला जाने वाला 'सज्जन' शब्द भी संत का ही पर्याय माना
गया है। धर्मशास्त्रों में कलियुग में ऐसा संत जन या स्वभाव बहुत ही दुर्लभ माना
गया है और धर्म पालन से जुड़ी चार खूबियां संत-महात्मा की पहचान बताई गईं
हैं।
आज जबकि देखा और सुना जा रहा है कि कतिपय लोग संत और महात्मा के मुखौटों के
पीछे धार्मिक आस्था और विश्वास को आहत करते हैं। इसलिए अगर आप भी धर्म और अध्यात्म
क्षेत्र से जुडऩे के लिए संत या महात्मा की शरण और संगति चाह रहे हैं तो संत जन के
लिए बताई धर्मशास्त्रों की ये 4 कसौटी आपके विश्वास को और मजबूत करेगी-
सत्य- सत्य यानी सच का पालन संत या महात्मा का पहला गुण है। संत के व्यवहार,
बोल और विचारों
में सच्चाई होती है। संत के ऐसे आचरण दूसरों को भी सदाचरण की प्रेरणा देते हैं।
ऐसा चरित्र ही सही मायनों में संत माना गया है। फिर चाहे वह धर्म क्षेत्र में हो
या सामाजिक जीवन में।
क्षमा - संत का दूसरा गुण क्षमाशीलता बताई गई है। तन, मन, धन, सम्मान या किसी भी रूप में हानि
पहुंचाने पर भी जो शांत बना रहकर पूरी सहनशीलता के साथ हानि पहुंचाने वाले के लिए
शुभ या सद्भाव ही रखे, यह गुण ही क्षमाशीलता कहलाती है। स्वयं के साथ दूसरों की
गलतियों के लिए भी क्षमा भाव रखना संत का अहम गुण होता है।
दया - दया का सीधा संबंध संवेदना और भावना से होता है, जो संत का तीसरा गुण माना गया
है। दया एक ऐसा गुण है जो व्यक्ति को निस्वार्थ व सरल बनाए रखती है। दया भाव
द्वारा संत मानव मात्र ही नहीं बल्कि समस्त प्राणी और प्रकृति जगत जुड़ा होता है।
अलोभ - अलोभ यानी लालसा, इच्छा और लालच से दूर रहना। बिना स्वार्थ भलाई और धर्म-कर्म
करना ही संत का सबसे अहम गुण माना गया है। धर्म शास्त्रों में भी निष्काम भाव से
जीवन का ही महत्व बताया गया है। क्योंकि लोभ चरित्र में दोष पैदा करता है और लालच
के वशीभूत व्यक्ति अधर्मी बन जाता है। इसलिए इच्छाओं को काबू रखने वाला महात्मा
बताया गया है।
जानिए शिवपुराण में बताए शिव भक्ति के 5 सबसे असरदार उपाय
शास्त्रो में भगवान शिव को वेद या ज्ञान स्वरूप माना गया है। इसलिए शिव भक्ति
मन की चंचलता को रोक व्यक्ति को दुःख व दुर्गति से बचाने वाली मानी जाती है। भगवान
शिव की प्रसन्नता के लिए ही धर्म व लोक परंपराओं में अभिषेक, पूजा व मंत्र जप आदि किए
जाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि तन, मन और वचन के स्तर पर सच्ची शिव भक्ति, उपासना, साधना और सेवा के सही
तरीके या विधान क्या हैं? इसका जवाब शिवपुराण में मिलता है, जिसमें शिव सेवा को 'शिव धर्म' भी बताया गया है। जानिए,
शिव भक्ति और सेवा
के ये खास तरीके -
शिवपुराण के मुताबिक भक्ति के तीन रूप हैं। यह है मानसिक या मन से, वाचिक या बोल से और
शारीरिक यानी शरीर से। सरल शब्दों में कहें तो तन, मन और वचन से देव भक्ति। इनमें भगवान शिव के स्वरूप का चिन्तन मन से, मंत्र और जप वचन से और पूजा
परंपरा शरीर से सेवा मानी गई है। इन तीनों तरीकों से की जाने वाली सेवा ही शिव
धर्म कहलाती है। इस शिव धर्म या शिव की सेवा के भी पांच रूप हैं, जो शिव भक्ति के 5
सबसे अच्छे उपाय
भी माने जाते हैं।
ध्यान - शिव के रूप में लीन होना या चिन्तन करना ध्यान कहलाता है।
कर्म - लिंगपूजा सहित अन्य शिव पूजन परंपरा कर्म कहलाते हैं।
तप - चान्द्रायण व्रत सहित अन्य शिव व्रत विधान तप कहलाते हैं।
जप - शब्द, मन आदि द्वारा शिव मंत्र का अभ्यास या दोहराव जप कहलाता है।
ज्ञान - भगवान शिव की स्तुति, महिमा और शक्ति बताने वाले शास्त्रों की शिक्षा ज्ञान कही
जाती है।
इस तरह शिव धर्म का पालन या शिव की सेवा हर शिव भक्त को बुरे कर्मों, विचारों व इच्छाओं से
दूर कर शांति और सुख की ओर ले जाती है।
क्रमश:..
संसार का सामना करने के लिए श्रद्धा रखो
मानव जाति कठिन समय से गुज़र रही है। बढ़ते हुए तनाव के स्तर, आतंकवादी हमले, पर्यावरण प्रदूषण के साथ
खतरे हर दिशा में छुपे हुए हैं। जब समय बुरा होने लगे, हमें अपनी श्रद्धा ताज़ा करनी
चाहिए। श्रद्धा ही मनुष्य को कठिन समय से बाहर खींच लाती है। ये कई प्रकार से छुपी
हुई हिम्मत और व्यक्ति का सामर्थ्य बाहर ले आती है।
कठिन समय से गुजरने के लिए जो दूसरी चीज़ चाहिए वो है शांत मन। जब मन शांत हो
और तुम केन्द्रित हो, तब किसी भी परिस्थिति का सामना करना बहुत आसान हो जाता है। इसके लिए तुम्हें
मन को वर्तमान क्षण में रहने की और तनाव को छोड़ने की थोड़ी सी शिक्षा देनी होगी।
ये साँस पर ध्यान देने से हो सकता है।
भीतर की शांति को अपनी श्रद्धा के साथ जोड़ दो तब किसी भी परिस्थिति का सामना
करने का फार्मूला तुम्हारे हाथ आ जाएगा। श्रद्धा होना मतलब इस बात को समझना कि,
इश्वर का संरक्षण तुम्हारे
साथ है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए इतनी श्रद्धा काफी है। फसल काटने के समय किसान
एक बड़ी सी छलनी लेकर सारी फसल उसमें डाल देता है इसके बाद एक ऊँचे मचान पर खड़ा
हो जाता है और छलनी को हिलाने लगता है। छिलके हवा में उड़कर कहीं खो जाते हैं अनाज
ज़मीन पर गिरकर वहीं रह जाते हैं। अगर तुम्हारी श्रद्धा हिल जाती है और ऐसा
बार-बार होता है तो ये बिलकुल उन छिलकों के सामान है।
जब मुश्किल परिस्थिति आती है तब अगर तुम्हारी श्रद्धा तुरंत ही हिल जाए तब तुम
उसका सामना अपनी मुस्कान बरकरार रख कर नहीं कर सकोगे। अगर तुममें श्रद्धा नहीं है,
तो तुम डर और
अवसाद के शिकार हो जाओगे। तुम्हरे पास कोई सहारा नहीं होगा। अगर तुम्हारे पास
श्रद्धा है तो तुम एक ठहराव पा सकोगे। और अगर तुम में श्रद्धा है तो सब कुछ ठीक हो
जाएगा। सब कुछ शांत हो जाएगा।
एक बार तुम जान जाओ कि तुम भाग्यवान हो तब सब असुरक्षा की भावनाएँ गायब हो
जाएँगी। जीवन 80 प्रतिशत आनंद है और 20 प्रतिशत दुःख। पर हम उस 20 प्रतिशत को पकड़े रहते हैं और
उसे 200
प्रतिशत बना देते हैं! ये जानबूझ कर नहीं किया जाता, बस हो जाता है। इस संसार में सब
कुछ हमेशा सम्पूर्ण नहीं होता। यहाँ तक कि श्रेष्ठतम, महत्तम कार्य जो उत्कृष्ट इरादों
से किया गया हो, उसमें भी कुछ त्रुटियाँ होंगी, बहुत स्वाभाविक है।
लेकिन अगर तुम श्रद्धा में टिके हुए हो तो तुम जीवन में उन्नति करोगे और संसार
में समभाव बनाए रखोगे। अगर तुम्हारी श्रद्धा गहरी है तो और सब चीज़ें अपने आप
चलेंगीं। भौतिक दुनिया में श्रद्धा का महत्त्व और भी स्पष्ट हो गया है क्योंकि ये
व्यक्ति को आत्मघाती प्रकृति से बचाता है और किसी चीज़ के कारण को प्रकट से परे
देखने में मदद करता है। जब जीवन का आधार श्रद्धा हो, तब व्यक्ति बदले और नफ़रत की
भावना में उलझे रहने की बजाय तत्वज्ञान का अनुसरण करता है।
प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिए प्रतिबद्धता ज़रूरी है। जीवन की
सभी बातें, छोटी हों या बड़ी, प्रतिबद्धता पर ही चलतीं हैं, अक्सर हम ऐसा सोचते हैं कि पहले
हमरे पास साधन हों उसके बाद हम वचनबद्ध होंगे। जितनी महान वचनबद्धता तुम लोगे उतने
ही महान साधन तुम्हें प्रदान होंगे। ये प्रकृति का नियम है। जब तुम में कुछ अच्छा
करने का उद्देश्य हो, ज़रूरी साधन जब जितनी ज़रुरत हो, बस आते जाते हैं।
कठिन समय पर काबू पाने का दूसरा तरीका है दृष्टि को उतनी विशाल बनाना जिसमें
सारी मनुष्य जाति शामिल हो जाए। जब हरेक व्यक्ति समाज को योगदान देने का इरादा रखे
तो वह एक दिव्य समाज होगा। हमें अपनी व्यक्तिगत चेतना को विकसित करने की शिक्षा
देनी चहिये कि वह 'मेरा क्या होगा' से ' कैसे
सहयोग दूं' के ज्ञान की ओर उन्नत हो।
अगर तुम अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए वचनबद्ध हो, तो तुम में उतनी क्षमता और शक्ति
होगी। अगर तुम्हारी वचनबद्धता सम्प्रदाय के लिए है तो तुम्हें उतनी शक्ति मिलेगी।
जो तुम्हारे पास है उसका तुम योग्य उपयोग करोगे तभी तुम्हें उससे ज़्यादा दिया
जाएगा! ये प्रकृति का दूसरा नियम है। जब तुम अपने तुच्छ मन में अटके रहोगे तो
प्रकृति क्यों तुम्हें ज़्यादा दे। सारे संसार की सेवा करने के लिए वचनबद्ध बनो,
फिर तुम किसी भी
कठिनाई का सामना कर सकोगे।
विकास के लिए परीक्षा जरूरी है
हर इंसान में उसकी कुछ न कुछ इच्छाएं हुआ करती हैं। उसी के अनुरूप वह कार्य
करता है। परंतु वह कार्य कहां तक सही या कहां तक गलत हैं इसकी जांच तथा अगर सही भी
है तो उसकी स्वीकृति हेतु परीक्षा से गुजरना अनिवार्य है।
मनुष्य अपनी बढ़ती हुई और बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार नयी-नयी चीजों का
आविष्कार करता है अथवा किसी तकनीक और कला को सीखता है। वह उसे सीख पाया है कि नहीं
इसके लिए उसकी परीक्षा होती है। इस प्रकार जो भी व्यक्ति जीवन और जगत में
उत्तरोत्तर आगे बढऩा या विकास करना चाहता है, उसे उस विषय के संबंध में जानने,
सीखने और समझने की
दृढ़ इच्छा तो आवश्यक है ही साथ ही समुचित जानकारी, किसी योग्य परीक्षक द्वारा
परीक्षा भी अनिवार्य है।
फिर, परीक्षा
ही तो एक मापदंड है जिसके आधार पर परीक्षार्थी को डिग्रियां या प्रमाण पत्र मिलते
हैं। जिसके आधार पर वह किसी काम-धंधे या उद्योग के लिए योग्य समझा जाता है। उसके
बाद साक्षात्कार में, जो एक परीक्षा का ही रूप है, सफल होने पर उसे विश्वास के साथ बड़ी से बड़ी जिम्मेदारियां
सौंप दी जाती है।
आज देखने में आता है कि, स्वेच्छाचार और कदाचार की बहुलता है। कई विद्यार्थियों में
किसी प्रकार से भी परीक्षा पास कर लेने की तो तमन्ना है। किंतु सीखने की दृढ़
इच्छा का अभाव है। वे बिना आवश्यक परिश्रम और मेहनत के ही परीक्षा में सफल होना
चाहते हैं। कई बार तो परीक्षक भी इस कदाचार में संलिप्त और लालच का शिकार हुआ
दिखता है। यही कारण है कि बिना परीक्षा दिये हुए ही बहुत जगहों पर नकली डिग्रियां
और सर्टिफिकेट छुप-छुपकर बिकते हैं।
पैसे और प्रभाव से बड़े-बड़े और महत्वपूर्ण पदों पर अयोग्य तथा गैर जिम्मेदार
लोग भी बैठ रहे हैं। यह सब गिरे हुए शिक्षण-प्रशिक्षण, परीक्षा तथा परीक्षण के स्तर के
परिणाम हैं। ऐसी अवस्था में शिक्षार्थी या परीक्षार्थी तथा परीक्षक को याद दिलाये
जाने की जरूरत है कि परीक्षा शिक्षा का एक अभिन्न अंग हैं। परंतु याद दिलाये तो
कौन?
इसका उत्तर हमें ईमानदारी और गंभीरता से ढूंढऩा होगा। अर्थात हमें एक सच्चे
शिक्षक तथा सच्चे परीक्षक की तलाश करनी होगी जो विद्या और विद्यार्थी के तारतम्य
को बनाये रखें। दोनों में सही ढंग से सामंजस्य स्थापित कर सकें। कहा भी गया हैं कि
'विद्या
ददाति विनयं'। अर्थात सच्ची विद्या या सीख से नम्रता आती है। जो सभी गुणों की खान है।
यही नम्रता मनुष्य को आजीवन एक विद्यार्थी बनाये रखती है। एक बालक की भांति जो
कुछ वह सीखना चाहता है, सीखता चला जाता है और उसकी सच्ची सीख ही उसे परीक्षा की
घडिय़ों में खरा उतारती है। इस प्रकार इच्छा और परीक्षा का एक अनोखा मिलन होता है।
परीक्षार्थी अपनी लगन, मेहनत और आत्म-विश्वास के फलस्वरूप हंसते-हंसते सफलता की
मंजिल पर पहुंच जाता है।
वसंत पंचमी: लाइफ मैनेजमेंट सीखें मां सरस्वती के वाहन हंस से
वसंत पंचमी के अवसर पर देवी सरस्वती की पूजा अर्चना की जाती है। धर्मशास्त्रों
के अनुसार मां सरस्वती का वाहन सफेद हंस है इसलिए उन्हें हंस पर बैठा हुआ
प्रदर्शित किया जाता है। यही कारण है कि देवी सरस्वती को हंसवाहिनी भी कहा जाता
है।
देवी का वाहन हंस हमें कुछ संदेश भी देता है। शास्त्रों के अनुसार देवी
सरस्वती विद्या की देवी हैं और उनका स्वरूप श्वेत वर्ण बताया गया है। उनका वाहन भी
सफेद हंस ही है। सफेद रंग शांति और पवित्रता का प्रतीक है। यह रंग शिक्षा देता है
कि अच्छी विद्या और संस्कार के लिए आवश्यक है कि आपका मन शांत और पवित्र हो। आज के
समय में सभी को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करना होती है। मेहनत
के साथ ही माता सरस्वती की कृपा भी उतनी आवश्यक है।
यदि आपका मन शांत और पवित्र नहीं होगा तो देवी की कृपा प्राप्त नहीं होगी और न
ही पढ़ाई में सफलता मिलेगी। देवी का वाहन हंस यही संदेश देता है कि मां सरस्वती की
कृपा उसे ही प्राप्त होती है जो हंस के समान विवेक धारण करने वाला है। केवल हंस
में ही वह विवेक होता है कि वह दूध और पानी को अलग-अलग कर सकता है। सभी जानते हैं
कि हंस दूध ग्रहण और पानी छोड़ देता है। इसी तरह हमें भी बुरी सोच को छोड़कर
अच्छाई को ग्रहण करना चाहिए।
दुर्भाग्य के साथ इन 4 बातों से पार पाना संभव बनाती हैं मां सरस्वती
हिन्दू धर्म में आद्यशक्ति जगतजननी दुर्गा का ही ज्ञान स्वरूप माता सरस्वती
मानी जातीं हैं। इस ज्ञान स्वरूपा शक्ति के जन्म से जुड़ी पौराणिक मान्यता यह भी
हैं ब्रह्मदेव ने जब सृष्टि रचना की तो सारी प्रकृति मौन, शांत व चेतनाहीन थी। ब्रह्मदेव
ने अपने कमण्डल से जल छिड़क देवी सरस्वती को प्रकट किया। देवी की वीणा की सुरीले
संगीत, ध्वनि
से ही पूरे जगत में ऊर्जा व चेतना जागी।
यह भी वजह है कि मां सरस्वती विद्या, मन, बुद्धि, ज्ञान, कला व संगीत की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं। शास्त्र
कहते हैं कि विद्या यानी हर तरह से ज्ञान और दक्षता को पाना, हर इंसान के सफल जीवन के
लिए निर्णायक साबित होता है। व्यावहारिक तौर पर विद्या पाने का मतलब मात्र
पुस्तकों में लिखी बातें पढ़ना ही नहीं, बल्कि उन बातों में समाए ज्ञान से तन, मन, विचार और व्यवहार को
संपूर्ण व कुशल बनाए जाने से हैं।
असल में विद्या ही बुद्धि, चरित्र और व्यक्तित्व को संवारती है। यही वजह है कि अच्छे
भविष्य की चाहत के लिए विद्यावान यानी अधिक से अधिक ज्ञान और कला को पाकर जीवन को
कामयाब बनाने के 4 काम मां सरस्वती की कृपा से संभव माने गए हैं। जानिए बसंत पंचमी के मौके पर
किन 4
बातों के लिए बेहद जरुरी है माता सरस्वती की भक्ति –
विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मति:।
परलोके धनं धर्म: शीलं सर्वत्र वै धनम्।।
इसमें सरल शब्दों में सबक है कि स्वदेश से बाहर विद्या संपत्ति के समान है।
दुर्भाग्य या बुरे हालात में बुद्धिमानी ही धन है। परलोक में धर्म या नैतिक मूल्य
धन के समान है यानी इहलोक या इस जन्म में धर्म पालन ज्ञान से ही मुमकिन होता है।
किंतु अच्छा चरित्र तो हर स्थिति में धन के समान है, जो विद्या और ज्ञान से पावन बना
रहता है। यानी चरित्र पतन से बचना भी विद्या या यूं कहें कि माता सरस्वती की भक्ति
ही संभव है।
इस तरह साफ है कि ज्ञान व्यक्ति को दूरदर्शी, बुद्धिमान, विवेकवान बनाकर जीवन से
जुड़े अहम फैसले लेने में मददगार साबित होता है। विद्या व्यक्ति को गुणी, अहंकाररहित और विनम्र
बना देती है, जिनसे व्यक्ति धर्म और कर्म के माध्यम से सभी सुख पाने लायक बनता है। इसलिए
ध्यान रहे कि असफलता से बचने के लिए विद्या और ज्ञान को ही ढाल बनाएं यानी हर दिन
मां सरस्वती का स्मरण न चूकें।
15 को अबूझ व अचूक योग : इन 12 सरस्वती नाम मंत्रों से ही बनेंगे हर काम
सनातन धर्म में बसंत पंचमी प्राकृतिक, व्यावहारिक व धार्मिक नजरिए से उत्साह व उमंग से भरी
सबसे श्रेष्ठ व शुभ घड़ी मानी जाती है। मौसम के लिहाज से जहां शीत ऋतु की विदाई व
वसंत ऋतु के आगमन की तैयारी सेहत को भी सुकून देती है, तो धर्म व लोक परंपराओं में यह
ज्ञान की अधिष्ठात्री माता सरस्वती की पूजा का शुभ दिन है।
खासतौर पर यह दिन सभी शुभ कामों के लिए स्वयंसिद्ध यानी अबूझ मुहूर्त माना
जाता है। मान्यता है कि इस दिन पवित्रता, श्रद्धा व साफ मन के साथ किए गए सारे शुभ काम देवी
सरस्वती की कृपा से सफल होते हैं।
अगर आप भी घर-परिवार, नौकरी, धन या जीवन से जुड़ा कोई भी शुभ काम बनाना चाहते हैं,
या बड़े दिनों से
नहीं बन पा रहें हैं तो 15 को बसंत पंचमी के दिन बताए जा रहे सरस्वती के 12 नाम मंत्रों का स्मरण
कर हर काम सिद्ध कर सकते हैं। ये 12 नाम 'सरस्वती द्वादश नामावली' के नाम से भी प्रसिद्ध है –
प्रथमं भारती नाम द्वितीयं च सरस्वती।
तृतीयं शारदा देवी चतुर्थ हंस वाहिनी।।
पञ्चम जगतीख्याता षष्ठं वागीश्वरी तथा।
सप्तमं कुमुदी प्रोक्ता अष्टमें ब्रह्मचारिणी।।
नवमं बुद्धिदात्री च दशमं वरदायिनी।
एकादशं चन्द्रकान्ति द्वादशं भुवनेश्वरी।।
द्वादशैतानि नामानी त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः।
जिह्वाग्रे वसते नित्यं ब्रह्मरूपा सरस्वती ।।
प्रेम की मर्यादा को संभालकर रखना भी एक साधना
वैलेंटाइन्स डे महानगरों से होकर गांव की गलियों तक पहुंच गया है, प्रेम प्रदर्शन के लिए
तमाम नए उपाय तलाशे जा रहे हैं लेकिन संतों ने दिन, समय और दिखावे में बंधे किसी
प्रेम की अवधारणा को ही खारिज कर दिया है।
संतों की राय है कि प्रेम के लिए वैलेंटाइन्स डे जैसे किसी दिन की जरूरत नहीं।
प्रेम दिखावे की चीज नहीं होती, यह अंतस में बसने वाला भाव है। दिखावे के प्रेम को लेकर
संतों ने ऐतराज जताया है। उनकी राय में प्रेम की मर्यादा होती है, जिसे संभालना बड़ी साधना
से कम नहीं है। प्रेम पवित्र, मर्यादित, संयमित भाव है जो सभी करते हैं।
आत्मा के स्पर्श का नाम प्रेम
प्रेम, मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। प्रेम से देह नहीं छुई जा सकती, यह आत्मा के स्पर्श का
नाम है। प्रेम पवित्र और संयत तत्व है। हम इसके बिना नहीं रह सकते हैं। उनकी राय
में प्रेम व्यक्ति की उच्चतम साधना है। जो इसकी मर्यादा को संभालकर रख सकता है,
वही प्रेम कर सकता
है।
प्रेम की कोई परिधि नहीं
संतों की नजर में एक दिन, सात दिन या 15 दिन का पर्व प्रेम पर्व नहीं, बाजारू गणित है। प्रेम
को किसी परिधि में नहीं बांधा जा सकता है। हमारी संस्कृति में तो हर पल प्रेम है,
हम ईश्वर, प्रकृति और मनुष्य के
प्रति हर पल प्रेम करते हैं। कर्म और विचारों को आत्मा की ऊंचाई तक पहुंचाना प्रेम
है। शिव और गंगा की तरह जिसने भी प्रेम की मर्यादा का पालन किया, अमर हो गया।
परिभाषा और सीमा में बांधना उचित नहीं
प्रेम के बिना जीवन संभव नहीं है लेकिन न तो इसे किसी परिभाषा और सीमा में
बांधना उचित है और न ही इसे दर्शन की वस्तु बनने देना चाहिए। प्रेम में भावपक्ष की
प्रधानता जरूरी है। प्रेम मन तथा भावना की दूरियां मिटाने का नाम है। उनके मुताबिक
जब ऐसी दृष्टि बन जाए कि मैं और हम का भेद न रहे, उसे सच्चा प्रेम कहेंगे। जैसे हम
अपनी चिंता करते हैं, वैसी ही किसी और की करने लगें तो कह सकते हैं कि उससे प्रेम करते हैं। यदि उसे
अपने से अलग दृष्टि से देखते हैं तो वह व्यक्ति नहीं वस्तु होकर रह जाता है।
प्रेम, आनंद की प्राप्ति का नाम
प्रेम अंतस का भाव है जिसके लिए कोई दिन नहीं निर्धारित किया जा सकता है।
प्रेम का देह से कोई नाता नहीं है। जिसे हर पल प्रेम चाहिए, वही इसका असली मर्म समझ सकता है।
प्रेम का अर्थ ऐसी शांति है, जो किसी से बात करके, उससे मिलकर या उसे देखकर मिल
सकती है। प्रेम की विशेषता यह कि उसे हम बार-बार नए रूप में देखते हैं। प्रेम,
आनंद की प्राप्ति
का नाम है न कि बाजारू वस्तु जुटाने का।
इन 4
तरीकों से पहचानें किसी का प्रेम
प्रेम केवल इंसान ही महसूस नहीं करता, बल्कि प्रेम का एहसास कुदरत की हर रचना और मानवीय
ज़िंदगी में अलग-अलग रूपों में उजागर होता है। सच, भलाई, सेवा, त्याग की तरह जिंदगी में
वास्तविक सुखों को पाने के लिए प्रेम बहुत जरूरी है। हर धर्म में प्रेम को ईश्वर
से साक्षात्कार के लिए अहम माना गया है। व्यावहारिक नजरिए से भी प्रेम अहम जीवन
मूल्य है।
असल में प्रेम ऐसा एहसास है, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है क्योंकि यह कोई सोच
नहीं है। अलग-अलग व्यक्ति में और उम्र के हर पड़ाव पर प्रेम का अहसास भी अलग-अलग
होता है। सरल शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि प्रेम करने वाले या प्रेम
पाने वाले दोनों आत्मा में सुकून पाते हैं। लेकिन प्रेम कितना सच्चा है, धर्मशास्त्रों में
उजागर जीवन में उजागर होने वाले प्रेम के
4 रूपों से
पहचाना जा सकता है -
लौकिक प्रेम - प्रेम का यह रूप दौलत, प्रतिष्ठा, सौंदर्य, स्वाद के प्रति आसक्ति या लगाव के रूप में प्रेम
दिखाई देता है। यह लौकिक प्रेम कहलाता है। इसमें कई अवसरों पर मानव हित और स्वार्थ
के चलते भी संबंध बनाता है। इसे स्वार्थ पर आधारित प्रेम कहते हैं।
अलौकिक प्रेम - अध्यात्म में डूबकर ईश्वरीय सत्ता पर भरोसा, पूरी प्रकृति को ईश्वर
की रचना मान प्रेम, ईश्वर को जेहन में रख आदर्श और मर्यादा पालन अलौकिक प्रेम कहलाता है।
मोहजन्य प्रेम - माता-पिता और संतान, पति-पत्नी या अन्य मानवीय रिश्तें में एक-दूसरे से
लिए प्रेम मोहजन्य प्रेम कहलाता है।
नि:स्वार्थ प्रेम - प्रेम का यह रूप सेवा भावना में दिखाई देता है, जिसमें व्यक्ति कुछ देने
के बदले लेने का भाव नहीं रखता। बिना किसी हितपूर्ति के वह समर्पण भाव से दूसरों
के लिए हरसंभव मदद करता है। ऐसा प्रेम पावन-पवित्र और श्रेष्ठ माना जाता है।
क्योंकि यह प्रेम करने और पाने वाले दोनों को आत्मिक सुख देता है।
सुख पाना है तो पहले दुःख को जानो
यदि दुख को मिटाना हो, तो सुख की कल्पना छोड़ देनी पड़ेगी और दु:ख को ही जानना
पड़ेगा। जो दुख को जानता है, उसका दु:ख मिट जाता है। जो सुख को मानता है, उसका दुख छिप जाता है;
मिटता नहीं,
भीतर चला जाता है।
अगर अज्ञान को मिटाना है, तो ज्ञान की कल्पना नहीं करनी है-अज्ञान को ही जानना है। अज्ञान
को जो जानता है, वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन जो ज्ञान को, झूठे ज्ञान को, कल्पित ज्ञान को पकड़
लेता है, उसका
अज्ञान छिप जाता है, अज्ञान मिटता नहीं, और ज्ञान उसे मिलता नहीं, क्योंकि कल्पित ज्ञान का कोई भी
अर्थ नहीं है।
इसे दो-तीन कोणों से समझना अच्छा होगा। जैसे, मैं पूछना चाहता हूं, क्या हम सुखी हैं?
क्या हमने कभी भी
सुख जाना है? अगर कोई बहुत निष्पक्ष अपने जीवन पर लौट कर देखेगा, तो पाएगा, सुख-सुख तो कभी नहीं जाना,
दुख ही जाना है।
लेकिन दुख को हम भुलाते हैं। और जिस सुख को नहीं जाना, उसको कल्पित करते हैं, उसको थोपते हैं। हां,
एक आशा है मन में
कि कभी जानेंगे। और आशा उसी की होती है, जिसे न जाना हो। सुख को जाना नहीं है, इसलिए निरंतर सोचते
हैं-कल, आने
वाले कल, भविष्य
में सुख मिलेगा। जो और भी ज्यादा काल्पनिक हैं, वे सोचते हैं, अगले जन्म में। जो और भी
ज्यादा काल्पनिक हैं, वे सोचते हैं, किसी स्वर्ग में, किसी मोक्ष में सुख मिलेगा।
अगर आदमी ने सुख जाना होता, तो स्वर्ग की कल्पना कभी न की गई होती। स्वर्ग की कल्पना उन
लोगों ने की है, जिन्होंने सुख कभी भी नहीं जाना है। जो नहीं जाना है, उसको स्वर्ग में निर्मित करने की
आशा बांधे बैठे हुए हैं! सुख हमने जाना है कभी? कोई ऐसा क्षण है जीवन का जब हम
कह सकें कि मैंने जाना सुख? और ध्यान रहे, बहुत जल्दी में ऐसा मत कह देना; क्योंकि जिसने एक बार
सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है। जिसने सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ
हो जाता है। फिर वह दुख जानता ही नहीं। फिर वह दुख जान ही नहीं सकता। क्योंकि जो
सुख जानता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि मैं सुख हूं। यह बहुत मजे की बात है। और चूंकि हम
दुख जानते ही चले जाते हैं, यह इस बात का सबूत है कि सुख हमने कभी जाना नहीं। आशा है,
कल्पना है। और
कभी-कभी सुख को थोप भी लेते हैं।
एक मित्र आया है, गले लग गया है और हम कहते हैं, बहुत सुख आ रहा है। गले मिल कर कितना सुख मिला है, उसके आलिंगन में कितना
रस मिला है; लेकिन कभी आपने सोचा है कि जो मित्र आकर गले मिल गया है, वह गले मिला ही रहे दस
मिनट, पंद्रह
मिनट, बीस
मिनट और गला छोड़े ही नहीं, तब ऐसी तबीयत होगी कि
कोई पुलिस वाला निकल आए, किसी तरह इससे छुटकारा दिलाए, यह क्या कर रहा है? और अगर घंटे दो घंटे वह
गले को न छोड़े तो फांसी मालूम पड़ेगी।
अगर सुख था तो और बढ़ जाता? जो एक क्षण में सुख मिला था तो दस क्षण में और दस गुना हो
जाता? लेकिन
एक क्षण में सुख लगा था और दस क्षण में फांसी मालूम होने लगी! सुख नहीं था,
कल्पित था;
एक क्षण में खो
गया। जो कल्पित है, वही क्षण भर टिकता है; जो सत्य है, वह सदा है। जो कल्पित है, वही क्षणभंगुर है। जो क्षणभंगुर
है, उसे
कल्पित जानना। क्योंकि जो है, वह शाश्वत है, वह सदा है। वह क्षण में नहीं है, वह नित्य है, वह कभी मिटता नहीं। वह
है, और है,
और है। था,
और होगा, और होगा। कभी ऐसा क्षण
नहीं आएगा, जब वह न हो जाए। जो सुख दु:ख में बदल जाता है, उसे कल्पित जानना। वह सुख था ही
नहीं। और सब सुख जो हम जानते हैं, दु:ख में बदलने में समर्थ हैं।
इस मंत्र से मां सरस्वती के चित्र के सामने जलाएं दीप, दूर होंगे टेंशन
देव पूजा परंपरा का एक अहम अंग है- दीपक लगाना। इससे जुड़ा धर्म सूत्र यही है
कि दीपज्योति यानी प्रकाश, ज्ञान का प्रतीक है। जहां ज्ञान होता है, वहां सुख-समृद्धि ही
नहीं होती, बल्कि कलह व तनाव भी दूर रहते हैं। इस ज्ञान के साथ ईश्वर कृपा और आशीर्वाद हो
तो वह स्थान या व्यक्ति संकटमुक्त रहता है।
देव पूजा में दीपक लगाने के पीछे भी ईश्वर से ज्ञान, विद्या, सुख, समृद्धि की कामना ही होती है।
धार्मिक मान्यताओं में दीप ज्योति में अग्रिदेव का वास भी माना गया है, जो पंचदेवों में एक
सूर्य देवता का रूप भी माने गए हैं, जो प्राणशक्ति, सुख, सेहत और प्रतिष्ठा देने वाले
परब्रह्म का ही रूप है।
बसंत पंचमी भी ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की शुभ घड़ी है। ऐसे शुभ काल
में धर्मशास्त्रों में देव उपासना के लिए बताया गया दीप जलाने का विशेष मंत्र बोल
या पढ़ घी या तेल का दीप जलाकर माता सरस्वती की प्रतिमा या तस्वीर के सामने रखना
भी ज़िंदगी के सारे तनावों व परेशानियों को दूर करने का आसान उपाय माना गया है।
इसके साथ यथासंभव पूजा के अन्य विधान भी पूरे करें तो मंगलकारी होगा। यह दीप मंत्र
–
साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया।
दीपं गृहाण देवेश त्रैलोक्यतिमिरापहम्।।
अपने बच्चों को दें संसार का सबसे बड़ा धन
हर माता-पिता की इच्छा रहती है कि वह अपने जीवन में काफी धन इकट्ठा कर लें
ताकि अपने बच्चों को धन संपत्ति देकर दुनिया से विदा हों। इसके लिए माता-पिता अपनी
ओर से काफी प्रयास भी करते हैं। बैंक बेलैंस करते हैं, घर और जमीन खरीदते हैं। लेकिन यह
सारी संपत्ति उस एक धन के आगे कंकड़ के समान है जिसे ज्ञान कहते हैं।
नीतिशास्त्र में कहा गया है कि 'माता शत्रुः पिता वैरी, येन बालो न पाठितः' अर्थात वह माता पिता
बच्चों के शत्रु हैं जो अपने बच्चों को शिक्षा प्रदान करने की उचित व्यवस्था नहीं
करते हैं। भौतिक संपत्ति अर्जित कर देने मात्र से माता-पिता बच्चों के शुभचिंतक
नहीं होते। शास्त्रों में ऐसा इसलिए कहा गया है क्योंकि बच्चों के लिए भले ही
ढ़ेरों संपत्ति अर्जित कर दें लेकिन अगर वह योग्य और बुद्धिमान नहीं होगा तो
माता-पिता की गाढ़ी कमाई से अर्जित संपत्ति को क्षण भर में नष्ट कर देगा।
इस संदर्भ में एक दोहा काफी प्रचलित है 'पुत्र कुपुत्र तो का धन संचय,
पुत्र सुपुत्र तो
का धन संचय' इस दोहा में कहा गया है कि संतान के मोह में उसके लिए किसी भी स्थिति में धन
संपत्ति अर्जित करने की जरूरत नहीं है। संतान को अच्छी शिक्षा दीजिए और योग्य
बनाईये। योग्य संतान अपनी क्षमता और बुद्घि से वह सब कुछ स्वयं अर्जित कर लेगा जो
आप उसे अपनी जरूरतों के साथ समझौता करके भी नहीं दे सकते।
बच्चों की शिक्षा के मामले में किसी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहिए। शिक्षा
के महत्व को समझाने के लिए ही प्राचीन काल से हमारे ऋषि-मुनि ज्ञान की देवी
सरस्वती की पूजा करते आ रहे हैं। प्रत्येक वर्ष बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा का
तात्पर्य भी यही है कि मनुष्य शिक्षा के महत्व को समझे। जहां पर ज्ञान होता है वहीं
लक्ष्मी अवश्य होती है। लेकिन जहां लक्ष्मी होती है वहां सरस्वती भी हो ऐसा आवश्यक
नहीं है।
लक्ष्मी से संपन्न व्यक्ति अर्थात धनवान व्यक्ति तभी तक आदर पाता है जब तक
उसके धन-वैभव को लोग देखते हैं। जिसके पास ज्ञान होता है वह खाली हाथ भी कहीं जाए
तो उसकी वाणी और विद्या के कारण लोग उसकी पूजा करते हैं। जिस पर सरस्वती की कृपा
होती है उस पर लक्ष्मी अवश्य ही कृपा करती है। इसलिए हर माता-पिता को अपने बच्चों
को संसार का सबसे बड़ा धन ज्ञान प्रदान करने की पूरी व्यवस्था करनी चाहिए।
रहस्य: जानिए, क्यों करते हैं पूजा-पाठ?
प्राचीन काल की बात है। मिथिला में एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिंगला।
मैंने उससे कुछ शिक्षा ग्रहण की। वेश्या को केवल देह से न जोड़ा जाए। यह तो एक
वृत्ति है। वेश्या शब्द के आसपास है यह शब्द। वेश्या वह जो व्यवसाय करे। देह को भी
व्यापार साधन बनाने के कारण यह शब्द दिया गया। आज के समय में देह का कई तरह से
व्यापारिक उपयोग हो रहा है। इस स्त्री के माध्यम से संदेश यह दिया जा रहा है कि
शरीर के और भी अच्छे उपयोग हो सकते हैं। चलिए कुछ जानते हैं।
उसे पुरुष की नहीं, धन की कामना थी और उसके मन में यह कामना इतनी दृढ़मूल हो गई
कि वह किसी भी पुरुष को उधर से आते-जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे
धन देकर उपभोग करने के लिए ही आ रहा है। राजन! सचमुच आशा और सो भी धन की, बहुत बुरी है। धनी की
बाट जोहते-जोहते उसका मुंह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अब उसे इस वृत्ति से बड़ा
वैराग्य हुआ। जब पिंगला के चित्त में इस प्रकार वैराग्य की भावना जाग्रत हुई,
तब उसने एक गीत
गाया। वह मैं तुम्हें सुनाता हूं। पिंगला ने गाया था- मैं इन्द्रियों के अधीन हो
गई। भला! मेरे मोह का विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषों से, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है,
विषय सुख की लालसा
करती हूं। मैं मूर्ख हूं। देखो तो सही, मेरे निकट से निकट हृदय में ही मेरे सच्चे स्वामी
भगवान विराजमान हैं। वे वास्तविक प्रेम सुख और परमार्थ का सच्चा धन भी देने वाले
हैं।
शरीर परमात्मा से जुड़ जाए तो आत्मा तक पहुंचना सरल हो जाएगा। हिन्दुओं ने
मूर्ति पूजा तथा अन्य कर्मकाण्ड इसीलिए रखे हैं कि देह का सद्पयोग होता रहे। शरीर
को एक पड़ाव मानें, कुछ लोग पड़ाव को ही मंजिल मान लेते हैं।शरीर क्या है? शरीर एक साधन हो सकता है। यह कभी
साध्य नहीं हो सकता। जो लोग देह पर टिक जाते हैं वे परमात्मा तक पहुंच नहीं पाते
और जो देह से परे हैं वे ही परमात्मा तक पहुंच पाते हैं। राजा भृतहरि की कथा इसमें
सबसे अच्छा उदाहरण हो सकती है। जब तक वे पत्नी की देह और रूप में आसक्त रहे तब तक
परमात्मा दूर रहा। जब आसक्ति टूटी तो परम योगी हो गए। देह आपको थोड़ी देर बांधे रख
सकती है लेकिन यह आपके लिए मंजिल नहीं हो सकती। मंजिल तो देह से परे आत्मा है।इस
देह को पवित्र कामों में लगाना ही श्रेयस्कर होता है। अगर केवल भोग-विलास में ही
रमे रहे तो बाद में पछताना भी पड़ सकता है। हिंदू संस्कृति में इस बात को बहुत
गंभीरता से लिया और उन्होंने ऐसे नियम, परम्पराएं बनाई जो व्यक्ति की देह को अच्छे कामों
में लगा सके। ये मंदिर, मूर्तियां और तीर्थ इसीलिए बनाए गए हैं कि जब व्यक्ति इनमें
प्रवेश करे, पूजा शुरू करे तो उसे देह की पवित्रता का एहसास होता रहे।
यह एहसास ही हमारे अंतर्मन को अच्छे कामों के लिए, परमात्मा की प्राप्ति के लिए
प्रेरित करता है। जब देह परमात्मा की तलाश में निकल पड़े तो मन और आत्मा खुद उसका
साथ देने लगते हैं। इसलिए ध्यान रखें कि मन और आत्मा भी तब तक शुद्ध नहीं हो सकते
तब तक शुद्ध नहीं हो सकते हैं जब तक देह पवित्र न हो। देह को भी संभालें, यह परमात्मा का सबसे
सुंदर उपहार है। परमात्मा से जुड़ जाए तो आत्मा तक पहुंचना सरल हो जाएगा। हिन्दुओं
ने मूर्ति पूजा तथा अन्य कर्मकाण्ड इसीलिए रखे हैं कि देह का सद्पयोग होता रहे।
शरीर को एक पड़ाव मानें, कुछ लोग पड़ाव को ही मंजिल मान लेते हैं।
अचला सप्तमी: जानिए इस व्रत की संपूर्ण विधि, कथा व महत्व
माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अचला सप्तमी व्रत किया जाता है। इस व्रत
की विधि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताई है। इस बार यह व्रत 17 फरवरी, सोमवार को है। इस व्रत
की विधि इस प्रकार है-
व्रत विधि
माघ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को नियम पूर्वक रहें। सप्तमी तिथि की
सुबह जल्दी उठकर नदी या सरोवर पर जाकर स्नान करें। सोने, चांदी अथवा तांबे के दीपक में
तिल का तेल डालकर जलाएं। दीपक को सिर पर रखकर ह्रदय में भगवान सूर्य का इस प्रकार
ध्यान करें-
नमस्ते रुद्ररूपाय रसानाम्पतये नम:।
वरुणाय नमस्तेस्तु हरिवास नमोस्तु ते।।
यावज्जन्म कृतं पापं मया जन्मसु सप्तसु।
तन्मे रोगं च शोकं च माकरी हन्तु सप्तमी।
जननी सर्वभूतानां सप्तमी सप्तसप्तिके।
सर्वव्याधिहरे देवि नमस्ते रविमण्डले।।
अचला सप्तमी व्रत का महत्व इस प्रकार है-
अचला सप्तमी को पुराणों में रथ, सूर्य, भानु, अर्क, महती तथा पुत्र सप्तमी भी कहा गया है। इस दिन व्रत
करने से संपूर्ण माघ मास के स्नान का फल मिलता है। अचला सप्तमी के महत्व का वर्णन
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को कहा था। धर्मग्रंथों के अनुसार इस दिन यदि
विधि-विधान से व्रत व स्नान किया जाए तो संपूर्ण माघ मास के स्नान का पुण्य मिलता
है। व्रत के रूप में इस दिन नमक रहित एक समय एक अन्न का भोजन अथवा फलाहार करने का
विधान है। एक मान्यता यह भी है कि अचला सप्तमी व्रत करने वाले को वर्षभर रविवार
व्रत करने का पुण्य प्राप्त हो जाता है। जो अचला सप्तमी के महत्व को श्रद्धा भक्ति
से कहता अथवा सुनता है तथा उपदेश देता है वह भी उत्तम लोकों को प्राप्त करता है।
अचला सप्तमी व्रत की कथा इस प्रकार है-
मगध देश में इन्दुमती नाम की एक वैश्या रहती थी। एक दिन उसने सोचा कि यह संसार
तो नश्वर है फिर किस प्रकार यहां रहते हुए मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है?
यह सोच कर वह
वैश्या महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में चली गई और उनसे कहा- मैंने अपने जीवन में कभी
कोई दान, तप,
जप, उपवास आदि नहीं किए हैं।
आप मुझे कोई ऐसा व्रत बतलाएं जिससे मेरा उद्धार हो सके। तब वशिष्ठजी ने उसे अचला
सप्तमी स्नान व व्रत की विधि बतलाई। वैश्या ने विधि-विधान पूर्वक अचला सप्तमी का
व्रत व स्नान किया, जिसके प्रभाव से वह वैश्या बहुत दिनों तक सांसारिक सुखों का उपभोग करती हुई
देहत्याग के पश्चात देवराज इंद्र की सभी अप्सराओं में प्रधान नायिका बनी।
नर्मदा जयंती रावण भी आया था नर्मदा के तट पर, जानिए रोचक बातें
धर्म शास्त्रों के अनुसार माघ माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को नर्मदा
जयंती के रूप में मनाया जाता है। नर्मदा नदी का उद्गम स्थल विंध्य पर्वत पर
अमरकंटक नामक स्थान पर माना जाता है। इस बार नर्मदा जयंती का पर्व 17 फरवरी, रविवार को है। जानिए
नर्मदा से जुड़ी रोचक बातें-
1- अमरकंटक से प्रकट होकर लगभग 1200 किलो मीटर का सफर तय कर नर्मदा गुजरात के खंबात में
अरब सागर में मिलती है। विध्यंचल पर्वत श्रेणी के प्रकट होकर देश के ह्रदय क्षेत्र
मध्य प्रदेश में यह प्रवाहित होती है। नर्मदा के जल से मध्य प्रदेश सबसे ज्यादा
लाभांवित है। यह पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है तथा डेल्टाओं को निर्माण नही करती।
इसकी कई सहायक नदियां भी हैं।
2- स्कंद पुराण के अनुसार नर्मदा प्रलय काल में भी स्थायी रहती है एवं मत्स्य
पुराण के अनुसार नर्मदा के दर्शन मात्र से पवित्रता आती है। इसकी गणना देश की पांच
बड़ी एंव सात पवित्र नदियों में होती है। गंगा, यमुना, सरस्वती एवं नर्मदा को ऋग्वेद,
सामवेद, यर्जुवेद एवं अथर्ववेद
के सदृश्य समझा जाता है। महर्षि मार्कण्डेय के अनुसार इसके दोनों तटों पर साठ लाख
साठ हजार तीर्थ हैं एवं इसका कंकर-कंकर भगवान शंकर का रूप है। इसमें स्नान,
आचमन करने से
पुण्य तो मिलता ही है केवल इसके दर्शन से भी पुण्य लाभ होता है।
3- यह विश्व की एक मात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है क्योंकि इसके हर घाट
पर पवित्रता का वास है तथा इसके घाटों पर महर्षि मार्कण्डेय, अगत्स्य, महर्षि कपि एवं कई
ऋषी-मुनियों ने तपस्या की। शंकराचार्यों ने भी इसकी महीमा का गुणगान किया है।
मान्यता के अनुसार इसके घाट पर ही आदि गुरु शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को
शास्त्रार्थ में पराजित किया था।
4- महर्षि वाल्मीकि के अनुसार रावण भी अपने मंत्री, अनुचर एवं परिवार सहित नर्मदा तट
पर आया था तथा उसने परिवार सहित नर्मदा का पूजन किया तथा पुष्पादि से उसका सत्कार
किया था।
5- 12 ज्योर्तिर्लिंगों में से एक ओंकारेश्वर इसके तट पर ही स्थित है। इसके अलावा
भृगुक्षेत्र, शंखोद्वार, धूतताप, कोटीश्वर, ब्रह्मतीर्थ, भास्करतीर्थ, गौतमेश्वर। चंद्र द्वारा तपस्या करने के कारण सोमेश्वर तीर्थ आदि पचपन तीर्थ
भी नर्मदा के विभिन्न घाटों पर स्थित हैं। वर्तमान समय में तो कई तीर्थ गुप्त रूप
में स्थित हैं।
हमारी परंपरा भगवान के अवतार का कारण
विदेश के मनीषियों ने, बड़े-बड़े विद्वानों ने, अच्छे-खासे ‘इंटेलिजेंट’ कहलानेवाले लोगों ने यह
स्वीकार किया कि भारत का तत्त्वज्ञान, फिलासफी, भारतीय दर्शन समझ में तो आ जाता है कि एक ही सत्ता
है, अनेक
अंतःकरणों में और अनेक वस्तु-व्यक्तियों में वह एक ही परमात्मा है।
उसके अनेक-अनेक नाम और रूप हैं। यह समझ में तो आ जाता है, लेकिन हिन्दुस्तानियों
के पास यह कौन-सा मेथड है कि जो सर्वव्यापक है, सर्वेश्वर है, परमेश्वर है, उसको नन्हा-मुन्ना बच्चा
बना देते हैं, छछिया भर छाछ पर नचा देते हैं। ‘हाय सीते ! हाय लखन!’ करके रोने की लीला करवा देते हैं,
सखा बना देते हैं?
जो परात्पर ब्रह्म
है उसे अर्जुन का रथ चलानेवाला कैसे बना देते हैं? हिन्दुस्तानियों के पास यह
कौन-सा मेथड है? विदेशी दार्शनिकों के दिल में यह गुत्थी बड़ी गहरी है।
‘पार्लमेंट ऑफ वर्ल्ड रिलिजन्स’ में यह सवाल मुझसे पूछा गया था कि, बताओ हिन्दुस्तानी! ‘‘इंडिया में भगवान के
अवतार क्यों होते हैं?’’ मैंने पूछा: ‘‘जहाँ बारिश होती है वहाँ वृक्ष क्यों होते हैं और
जहाँ वृक्ष होते हैं वहाँ बारिश क्यों होती है?’’ बोले: ‘‘यह कुदरत का नियम है।’’ मैंने कहा: ‘‘ऐसे ही जहाँ भक्त होते
हैं वहाँ भगवान आ जाते हैं और जहाँ भगवान होते हैं वहाँ भक्त आ जाते हैं।’’
यह मेथड-वेथड कुछ नहीं है। यहाँ की भूमि पर भगवद्अवतार हुए शिवजी की परम्परा
से, भगवान
नारायण और ऋषियों की परम्परा से। यहाँ नश्वर शरीर की आसक्ति कम करके भाव और प्रेम
विकसित हो ऐसी उपासना और साधना पद्धति है। तो जहाँ भाव और प्रेम होता है वहाँ
महाराज! पशु भी वश हो जाते हैं, पक्षी भी वश हो जाते हैं, मनुष्य भी वश हो जाते हैं और
पत्थर भी पिघल जाते हैं तथा पत्थर से देव भी प्रकट हो जाते हैं। भक्तों की भावना
और प्रेम से विश्वनियंता भी नन्हा-मुन्ना बालक होकर लीला करने को तैयार हो जाता
है।
हिन्दू धर्म की विशेषता है कि उसकी मंत्रशक्ति, उपासना की पद्धति अपने में महान
विशेषताएँ सँजोये हुए है। कई प्रकार के योग- लययोग, कुंडलिनी योग, नादानुसंधान योग,
ज्ञानयोग, ध्यानयोग, टंक विद्या, आत्मविद्या, कर्मविद्या, भगवद्विद्या. अब कहाँ तक
विस्तार करें? इस हिन्दू धर्म की महिमा अपरंपार है! इसकी पद्धति से साधन-भजन करे तो मनुष्य
में छुपी अलौकिक शक्तियाँ विकसित होती हैं। अभी तो केवल लाखवाँ हिस्सा विकसित हुआ
है।
भगवान व्यापक हैं। जब चाहे, जहाँ चाहे, जैसे चाहे अपने प्रेमी, भावुक भक्त के आगे लीला करने के
लिए, प्रेरणा
देने के लिए प्रकट हो सकते हैं। भगवान के अवतार अर्थात् केवल कृष्ण अवतार हुआ,
राम अवतार हुआ ऐसा
मत समझो; भगवान
के नित्य, नैमित्तिक, प्रेरणा, आवेश और प्रवेश अवतार होते रहते हैं। जैसे जब दुःशासन द्रौपदी का वस्त्र
खींचने लगा तब द्रौपदी खूब विह्वल हो गयी और उसने भगवान को पुकारा: ‘द्वारिकाधीश!’ तो उनका साड़ी में
प्रवेश अवतार हुआ। ऐसे ही प्रह्लाद को सताया गया और भगवान नरसिंह का आवेश अवतार
हुआ। बढ़िया काम करते हैं तो अंतर्यामी प्रभु आपको प्रेरणा देते हैं कि यह उचित है,
यह अनुचित है। यह
करो, यह न
करो। यह प्रेरणा अवतार है।
तात्पर्य यह कि कोई बड़ा मेथड-वेथड नहीं है। आप प्रेम किये बिना नहीं रह सकते
लेकिन जब नश्वर चीजों को प्रेम करते हैं तो मोह हो जाता है और शाश्वत परमात्मा को
प्रेम करते हैं तो वह प्रेम परमात्मा हो जाता है। भारतवासी बोलते हैं: ‘भगवान मेरे हैं, भगवान गोविंद हैं, भगवान गोपाल हैं, भगवान अच्युत हैं, भगवान दामोदर हैं, माता की गहराई में मेरे
प्रभु, पिता
की गहराई में प्रभु... त्वमेव माता च पिता त्वमेव...’ इस प्रकार की प्रेमाभक्ति और
दृढ़ भावना ही निराकार ब्रह्म को साकार, नाचने-खेलने और हँसने-रोने वाला बना देती है। अहं
भक्त पराधीनो... भक्तिभाव से भगवान भक्त के अधीन हो जाता है। जैसे बच्चे के प्रेम
से माँ-बाप, दादा-दादी, पड़ोसी- सभी वश हो जाते हैं।
प्रेम न खेतों उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा चहो प्रजा चहो, अहं दिये ले जाय॥
ज्यों-ज्यों अहं गलता है और भगवान की महत्ता व अपने शरीर की नश्वरता समझ में
आती है तथा भगवान की करुणा-कृपा स्वीकार होने लगती है, त्यों-त्यों भगवान का सद्भाव,
भगवान का प्रेम,
भगवान का आश्रय
प्रकट होने लगता है। उस प्रेम और भाव के बल से परात्पर परब्रह्म लीला करने को
अवतरित हो जाता है।
जया एकादशी 21 को, जानिए
इस व्रत का महत्व व संपूर्ण विधि
माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को जया एकादशी कहते हैं। धर्म शास्त्रों में
इसे अजा व भीष्म एकादशी भी कहा गया है। इस दिन भगवान विष्णु के निमित्त व्रत किया
जाता है। इस बार यह एकादशी 21 फरवरी, गुरुवार को है।
जया एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा करने का विधान है। जया एकादशी के विषय
में जो कथा प्रचलित है उसके अनुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण से
निवेदन कर जया एकादशी का महात्म्य, कथा तथा व्रत विधि के बारे में पूछा था। तब श्रीकृष्ण ने
युधिष्ठिर को बताया था कि जया एकादशी बहुत ही पुण्यदायी है। इस एकादशी का व्रत
विधि-विधान करने से तथा ब्राह्मण को भोजन कराने से व्यक्ति नीच योनि जैसे भूत,
प्रेत, पिशाच की योनि से मुक्त
हो जाता है।
जया एकादशी की व्रत विधि इस प्रकार है-
जया एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। जो श्रद्धालु भक्त इस
एकादशी का व्रत रखते हैं उन्हें दशमी तिथि को एक समय आहार करना चाहिए। इस बात का
ध्यान रखें कि आहार सात्विक हो।
एकादशी के दिन भगवान श्रीविष्णु का ध्यान करके संकल्प करें और फिर धूप,
दीप, चंदन, फल, तिल, एवं पंचामृत से उनकी
पूजा करें। पूरे दिन व्रत रखें संभव हो तो रात्रि में भी व्रत रखकर जागरण करें।
अगर रात्रि में व्रत संभव न हो तो फलाहार कर सकते हैं। द्वादशी के दिन ब्राह्मणों
को भोजन करवाकर उन्हें जनेऊ व सुपारी देकर विदा करें फिर भोजन करें। इस प्रकार
नियमपूर्वक जया एकादशी का व्रत करने से महान पुण्य फल की प्राप्ति होती है। धर्म
शास्त्रों के अनुसार जो जया एकादशी का व्रत करते हैं उन्हें पिशाच योनि में जन्म
नहीं लेना पड़ता।
भीष्म द्वादशी 22 को, पापों
का नाश करता है यह व्रत
माघ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी कहते हैं। इस दिन
व्रत किया जाता है। इस बार यह व्रत 22 फरवरी, शुक्रवार को है। इसका महत्व इस प्रकार है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं तथा
सुख व समृद्धि की प्राप्ति होती है। भीष्म द्वादशी व्रत सब प्रकार का सुख वैभव
देने वाला होता है। इस दिन उपवास करने से समस्त पापों का नाश होता है। इस व्रत में
ब्राह्मण को दान, पितृ तर्पण, हवन, यज्ञ,
आदि करने से अमोघ
फल प्राप्त होता है। माघ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के ठीक दूसरे दिन भीष्म
द्वादशी का व्रत किया जाता है। इस व्रत को भगवान श्रीकृष्ण ने भीष्म पितामाह को
बताया था और उन्होंने इस व्रत का पालन किया जिससे इसका नाम भीष्म द्वादशी पड़ा। इस
व्रत में ऊँ नमो नारायणाय नम: आदि नामों से भगवान नारायण की पूजा अर्चना करनी
चाहिए। ऐसा करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
इस आसान विधि से करें ये व्रत
भीष्म द्वादशी के दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद संध्यावंदन करें और षोड़शोपचार विधि से लक्ष्मीनारायण भगवान की
पूजा करें। भगवान की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंचामृत, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुंकुम, दूर्वा का उपयोग करें। पूजा के
लिए दूध, शहद केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार कर
प्रसाद बनाएं व इसका भोग भगवान को लगाएं।
इसके बाद भीष्म द्वादशी की कथा सुनें और भगवान का पूजन करें। देवी लक्ष्मी
समेत अन्य देवों की स्तुति भी करें तथा पूजा समाप्त होने पर चरणामृत एवं प्रसाद का
वितरण करें। ब्राह्मणों को भोजन कराएं व दक्षिणा दें। इस दिन स्नान-दान करने से
सुख-सौभाग्य, धन-संतान की प्राप्ति होती है। ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन
करें और सम्पूर्ण घर-परिवार सहित अपने कल्याण धर्म, अर्थ, मोक्ष की कामना करें।
बड़ा होने की कला सीखें बांस के
वृक्ष से
नीतिशास्त्र कहता है कि जो असर प्यार
में है वह मार में नहीं, जो जादू झुकने
में है वह अकड़ने में नहीं। आपने बांस के वृक्ष को देखा होगा, बांस की जड़ से जब कोंपल निकलता हैं तब वह सीधा अकड़कर खड़ा
होता है। यह अकड़न बांस की छोटेपन का प्रतीक है। लेकिन जैसे-जैसे बांस बड़ा होता
जाता है वह नम्र होता जाता है, उसमें लचीलापन
आता जाता है। एक समय ऐसा भी आता है जब बांस झुककर पृथ्वी को चूमने लगता है। इस समय
अगर आप बांस की लंबाई को नापेंगे तो बड़े-बड़े वृक्ष इसके आगे बौने नज़र आएंगे।
अन्य वृक्ष बांस के आगे इसलिए बौने हो जाते हैं क्योंकि, उन्होंने झुकने का महत्व नहीं जाना और अकड़कर खड़े रहे।
बांस का बड़ा होकर झुकना एक सामान्य
घटना नहीं है। यह मनुष्य के लिए प्रकृति का एक ज्ञान है। प्रकृति कहती है बड़प्पन
झुकने में हैं। पद, प्रतिष्ठा और सम्मान मिलने के बाद
अहंकार करके दूसरों पर अपना प्रभाव दिखाना नीचता का प्रतीक है। यह उसी प्रकार है,
जैसे एक बरसाती नदी बरसात की कुछ बूंदों से उफनने लगती
है और थोड़ी देर बाद जिसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसके प्रति न तो लोगों में
सम्मान रहता है और न आदर। बड़ा होने का तात्पर्य है गंभीर होना।
जो पद, प्रतिष्ठा और सम्मान मिलने के बाद गंभीर होते जाते हैं वह गंगा, यमुना की तरह आदरणीय होते हैं। लोग इन्हें मुख से नहीं बल्कि
हृदय से आदर देते हैं। अहंकारी व्यक्ति जब तक जीवित रहता है तब तक वास्तविक सम्मान
नहीं प्राप्त कर पाता है। मृत्यु के बाद ऐसे व्यक्ति की आत्मा को चैन नहीं मिलता
है क्योंकि लोग इनकी निंदा करते हैं। इनकी आत्मा अपने कर्मों को याद करके दुःखी
होती रहती है।
पुराणों में कई कथाओं का उल्लेख
मिलता है, जिसमें बताया गया है कि देवताओं के राजा
होते हुए भी इन्द्र को अपमानित होना पड़ा। असुरों ने इन्हें पराजित करके स्वर्ग से
निकाल दिया। ऋषि मुनियों ने इन्हें भला बुरा कहा। ऐसे समय में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की कृपा से इन्हें पुनः स्वर्ग की प्राप्ति
हुई और फिर से सम्मान प्राप्त कर सके।
इन्द्र की इस स्थिति का कारण हमेशा
ही यह रहा कि उन्होंने पद-प्रतिष्ठा और शक्ति के अहंकार में मर्यादा का उल्लंघन
किया। इसलिए देवराज होते हुए भी बार-बार अपमानित हुए। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने कभी अपनी
शक्ति और पद का दुरूपयोग नहीं किया यही कारण है कि यह देवताओं के राजा नहीं होने
के बाद भी सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। शास्त्र हमें यही समझाता है कि आप बड़े हैं
यह दिखाने के लिए क्रोध और अहंकार का त्याग करें, शालीनता और नम्रता अपने व्यक्तित्व में शामिल करें। जब हम अपने से छोटे के
प्रति बुरा वर्ताव करते हैं तब बड़े होकर भी हम छोटे हो जाते हैं।
इसलिए रह जाती है पूर्व जन्म की
स्मृतियां
माना जाता है कि संसार में हम जो भी
काम करते अथवा बोलते हैं वह एक उर्जा के रूप में प्रकृति में वर्तमान रहती है।
उर्जा के विषय में विज्ञान कहता है कि उर्जा कभी नष्ट नहीं होती है। इसका स्वरूप
बदलता रहता है। हमारी आत्मा भी उर्जा का ही स्रोत है इसलिए कभी मनुष्य शरीर में
रहती है तो कभी पशु, कीट की योनी में जाकर रहती है।
लेकिन अपनी आत्मा को हम किस रूप में
स्थान देना चाहते हैं यह हमारे अपने हाथ में है। जिस प्रकार उर्जा को कर्म के
अनुसार रूपांतरित किया जा सकता है ठीक उसी प्रकार कर्म के अनुसार आत्मा को भी रूप
दिया जा सकता है। पुराणों में बताया गया है कि आत्मा का वही रूप होता है जैसे शरीर
में वह विराजमान होता है। वर्तमान जन्म में हम जो अच्छे या बुरे कर्म करते हैं
उसके अनुरूप आत्मा दूसरा शरीर ग्रहण करती है।
आत्मा अपने साथ पूर्व जन्म की स्मृति
और आकांक्षाओं को भी साथ में लेकर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। शरीर बदलने के
बाद भी आत्मा पुराने शरीर की स्मृतियों को नहीं भूलती है। इस तथ्य को
परामनोवैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। मरने के समय जिनकी आत्मा अतृत्प रहती है और
पूर्व जन्म कार्यों को पूरा करने के लिए छटपटाती रहती है। ऐसे लोगों को अपने पूर्व
जन्म की कई बातों की स्मृति रहती है।
पुराणों में पार्वती के पूर्व जन्म
की कथाओं का उल्लेख मिलता है। कथाओं में बताया गया है कि पार्वती को पूर्व जन्म
में प्रजापति दक्ष की पुत्र के रूप में जन्म लेकर शिव से विवाह और अग्नि कुण्ड में
भष्म होने की घटना का स्मरण था। शिव को फिर से पति रूप में पाने के लिए ही सती ने
पार्वती के रूप में जन्म लिया और कठोर तपस्या किया। पुराणों और शास्त्रों में कई
ऐसी कथाओं का जिक्र किया गया है जिसमें व्यक्ति को अपने पूर्व जन्म की घटनाओं की
स्मृति रही। जिमूतवाहन व्रत में भी इसी तरह की एक कथा का उल्लेख मिलता है।
सामाजिक एकता के प्रतीक संत रविदास की जयंती
हमारे देश में समय-समय पर कई महान संत हुए जिन्होंने समाज को एक नई दिशा दी
तथा समाज में फैली कुरीतियों को दूर किया। संत रविदास भी उन्हीं में से एक थे। संत
रविदास को ही रैदास के नाम से भी जाना जाता है। इस बार संत रविदास जयंती 25 फरवरी, सोमवार को है।
संत रविदास ने साधु-संतों की संगति से व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा पाई। जूते
बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम
पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते
थे। प्रारम्भ से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना
उनका स्वभाव था।
साधु-संतों की सहायता करने में उनको विशेष आनंद मिलता था। उन्होंने समाज में
फैली छुआ-छूत, ऊँच-नीच आदि सामाजिक
बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। संत रविदास की भक्ति से
प्रभावित भक्तों की एक लंबी श्रृंखला है। संत रविदास के आदर्शों और उपदेशों को
मानने वाले 'रैदास पंथी' कहलाते हैं। रविदास के पद, नारद भक्ति सूत्र और रविदास की बानी उनके प्रमुख
संग्रह हैं।
जानिए क्यों बनी ये कहावत- मन चंगा तो कठौती में गंगा
25 फरवरी सोमवार को संत रविदासजी की जयंती है। संत रविदास से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित
हैं। उन्हीं से एक यह है। संत रविदास जूते बनाने का काम करते थे। जिस रास्ते पर वे बैठते थे, वहां से कई ब्राह्मण
गंगा स्नान के लिए जाते थे। एक बार एक एक पंडित ने संत रविदास से गंगा स्नान को
चलने के लिए कहा तब उन्होंने कहा कि पंडित जी मेरे पास समय नहीं है पर मेरा एक काम
कर दीजिए और उन्होंने अपनी जेब में से चार सुपारी निकालते हुए कहा कि ये सुपारियां
मेरी ओर से गंगा मईया को दे देना।
पंडितजी ने गंगा स्नान के बाद गंगा में सुपारी डालते हुए कहा कि रविदास ने
आपके लिए भेजी हैं। तभी गंगा मां प्रकट हुईं और पंडितजी को एक कंगन देते हुए कहा
कि यह कंगन मेरी ओर से रविदास को दे देना। हीरे जड़े कंगन को देख कर पंडित के मन
में लालच आ गया और उसने कंगन को अपने पास ही रख लिया।
कुछ समय बाद पंडित ने वह कंगन राजा को भेंट में दे दिया। रानी ने जब उस कंगन
को देखा तो प्रसन्न होकर दूसरे कंगन की मांग करने लगीं। राजा ने पंडित को बुलाकर
दूसरा कंगन लाने को कहा। पंडित घबरा गया क्योंकि उसने संत रविदास के लिए दिया गया
कंगन खुद रख लिया था और उपहार के लालच में राजा को भेंट कर दिया था। वह संत रविदास
के पास पहुंचा और पूरी बात बताई।
तब संत रविदास ने अपनी कठौती (पत्थर का बर्तन जिसमें पानी भरा जाता है) में जल
भर कर भक्ति के साथ मां गंगा का आवाह्न किया। गंगा मईया प्रसन्न होकर कठौती में
प्रकट हुईं और रविदास की विनती पर दूसरा कंगन भी भेंट किया। तभी से ये कहावत बनी
कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।
बहुत कम लोग जानते हैं शनिदेव से
जुड़ीं ये दिलचस्प बातें!
धर्म और ज्योतिष शास्त्रों में
विश्वास करने वाला शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो यह सुनकर भय या संशय में न पड़ता हो कि शनि दशा शुरू होने वाली है।
अक्सर शनि चरित्र के केवल नकारात्मक पहलू को दिमाग में रखना भी इसकी वजह है,
जिनके मुताबिक शनि के रंग-रूप से लेकर कद-काठी या
चाल-ढाल अशुभ करने वाले माने जाते हैं।
दरअसल, शास्त्रों पर गौर करें तो शनिदेव का चरित्र मात्र क्रूर या पीड़ादायी ही
नहीं, बल्कि तकदीर संवारने वाले
देवता के रूप भी
प्रकट होता है। शनि के स्वभाव के संबंध में लिखा भी गया है कि -
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरिस
तत्क्षणात्।
यानी अगर शनि प्रसन्न हो तो राजसी
सुख देते हैं, वहीं रुष्ट होने पर सारे सुख छीन
दुर्गति कर देते हैं। जाहिर है कि शनि कृपा सद्गुणी को सौभाग्य व दुर्गुणी को
दुर्भाग्य के रूप में मिलती है। यही नहीं शास्त्रों में बताए शनिदेव
के परिवार के सारे सदस्य भी हमारे सुख-दु:ख को नियत करते हैं। शनि चरित्र, उनके कुटुंब, शनि कृपा देने वाले काम व शनि प्रकोप
से जुड़ी कुछ रोचक बातें, जिनसे कई लोग
अनजान हैं- शास्त्रों में राजा दशरथ द्वारा की
गई शनि स्तुति में शनि का ऐसा अद्वितीय स्वरूप बताया गया है, जो बुराईयों और दुष्ट प्रवृत्तियों पर कहर बनकर टूटता है।
जानिए कैसे हैं शनि का वह स्वरूप, शक्तियां व
कुटुंब ।
- शनि का रंग कृष्ण या नीला सरल शब्दों
में कहें तो काला माना गया है।
- उनकी दाढ़ी, मूंछ ओर जटा बढ़ी हुई और शरीर मांसहीन यानी कंकाल जैसा है।
- उनकी बड़ी-बड़ी गहरी और धंसी हुई
आंखे हैं।
- पेट का आकार भयानक है, घोर तप से पेट पीठ से सटा हुआ है।
- शनि का स्वभाव क्रूर किंतु गंभीर,
तपस्वी, महात्यागी बताया
गया है।
- उनका शरीर लंबा-चौड़ा किंतु रुखा है।
- उनकी दाढ़ें काल का साक्षात रूप मानी
जाती हैं।
- इस भयानक रूप के साथ उनकी चाल मंद है
यानी वह धीरे-धीरे चलते हैं। उनके हाथों में लोहे का दंड होता है।
- शनि का जन्म क्षेत्र - सौराष्ट
क्षेत्र में शिंगणापुर माना गया है।
- शनि के पिता सूर्यदेव और माता छाया
हैं।
- शनि के भाई-बहन यमराज, यमुना और भद्रा है। यमराज मृत्युदेव, यमुना नदी को पवित्र व पापनाशिनी और भद्रा क्रूर स्वभाव की होकर विशेष काल
और अवसरों पर अशुभ फल देने वाली बताई गई है।
- शनि ने शिव को अपना गुरु बनाया और तप
द्वारा शिव को प्रसन्न कर शक्तिसंपन्न बने।
- शनि, कोणस्थ, पिप्पलाश्रय, सौरि, शनैश्चर, कृष्ण, रोद्रान्तक, मंद, पिंगल, बभ्रु नामों से
भी जाने जाते हैं।
- शनि के जिन ग्रहों और देवताओं से
मित्रता है, उनमें श्री हनुमान, भैरव, बुध और राहु
प्रमुख है।
- शनि को भू-लोक का दण्डाधिकारी व रात
का स्वामी भी माना गया है।
- शनि का शुभ प्रभाव अध्यात्म, राजनीति और कानून संबंधी विषयों में दक्ष बनाता है।
- शनि की प्रसन्नता के लिए काले रंग की
वस्तुएं जैसे काला कपड़ा, तिल, उड़द, लोहे का दान या
चढ़ावा शुभ होता है। वहीं गुड़, खट्टे पदार्थ या
तेल भी शनि को प्रसन्न करता है।
- शनि की महादशा 19 वर्ष की होती है। शनि को अनुकूल करने के लिये नीलम रत्न धारण
करना प्रभावी माना गया है।
- शनि के बुरे प्रभाव से डायबिटिज,
गुर्दा रोग, त्वचा रोग,
मानसिक रोग, कैंसर और
वात रोग होते हैं। जिनसे राहत का उपाय शनि की वस्तुओं का दान है।
ऐसे 5 काम, जो शनि को बेहद प्रसन्न करते हैं
शनि के बुरे प्रभाव से बचने के लिए
शनि भक्ति व पाठ-पूजा के साथ ही दैनिक जीवन में बोल, व्यवहार और कर्म में 5 बातों को अपनाना
भी जरूरी बताया गया है। धर्मशास्त्रों के नजरिए से भी ये बातें हर इंसान का जीवन
सफल बनाती हैं। माना जाता है कि इन कामों से शनि बिना पूजा-सामग्रियों के भी
प्रसन्न हो जाते हैं, साथ ही ऐसे 5 पुण्य कर्मों से बैर भाव होने पर भी सूर्य कृपा कर अपार यश, प्रतिष्ठा देते है। जानिए, शनि के साथ सूर्य कृपा पाने के
लिए दैनिक जीवन में धर्म पालन से जुड़ी ये खास 5 बातें -
परोपकार - दूसरों पर दया खासतौर पर गरीब, कमजोर को अन्न, धन या वस्त्र दान
या शारीरिक रोग व पीड़ा को दूर करने में सहायता शनि की अपार कृपा देने वाला होता
है। क्योंकि परोपकार धर्म का अहम अंग है।
दान – अहं व दोषों से मुक्त इंसान से शनि प्रसन्न होते हैं, जिसके लिए दान का महत्व बताया गया है। दान उदार बनाकर घमण्ड
को भी दूर रखता है। इसलिए यथाशक्ति शनि से जुड़ी सामग्रियों या किसी भी रूप में
दान धर्म का पालन करें।
सेवा – हमेशा माता-पिता व बड़ों का सम्मान व सेवा करने वाले पर शनि की अपार कृपा
होती है। क्योंकि मान्यता है कि शनिदेव जरावस्था या बुढ़ापे के स्वामी है। इसलिए
इसके विपरीत वृद्ध माता-पिता या बुजुर्गों को दु:खी करने वाला शनि के कोप से बहुत
पीड़ा पाता है।
सहिष्णुता – शनि का स्वरूप विकराल है। वहीं शनि को कसैले या कड़वे पदार्थ जैसे सरसों
का तेल आदि भी प्रिय माना गया है। किंतु इसके पीछे भी सूत्र यही है कि कटुता चाहे
वह वचन या व्यवहार की हो, से दूर रहें व
दूसरों के ऐसे ही बोल व बर्ताव को द्वेषता में न बदलें यानी सहनशील बनें।
क्रोध का त्याग – शनि का स्वभाव क्रूर माना गया है, किंतु वह बुराईयों को दण्डित करने के लिए है। इसलिए शनि कृपा पाने व कोप
से बचने के लिए क्रोध जैसे विकार से दूर रहना ही उचित माना गया है।
जानिए बुरे काम करने पर किन-किन पर
शनि कहर बरपाते हैं
धार्मिक मान्यताओं में शनि की तिरछी
नजर सबल, सक्षम को भी पस्त करने वाली मानी गई है। शनि की ऐसी ही क्रूर दृष्टि से
कौन-कौन बदहाल हो सकता है? इसका जवाब भी शास्त्रों में लिखा गया है कि -
देवासुरमनुष्याश्च
सिद्धविद्याधरोरगा:।
तव्या विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति
समूलत:।।
जिसका मतलब है - देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर
और नाग इन सभी का शनि की टेढ़ी नजर समूल नाश कर सकती है।
जानिए भगवान शिव से जुड़ीं कई अनोखी व अनजानी बातें
शिव ऐसे देवता है कि जिनकी भक्ति और पूजा साकार और निराकार दोनों रूप में होती
है। दूसरें शब्दों में शिव मूर्त या सगुण और अमूर्त या निर्गुण रूप में पूजे जाते
हैं। शिव को अनादि, अनंत,
अजन्मा
माना गया है यानी उनका कोई आरंभ है न अंत है। न उनका जन्म हुआ है, न वह मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस तरह भगवान शिव
अवतार न होकर साक्षात ईश्वर माने जाते हैं।
शिव ऐसे अनूठे स्वरूप, अलग-अलग गुण और शक्तियों
की वजह से कई नामों से भी प्रसिद्ध हैं। महाशिवरात्रि यानी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी
भी दिव्य ज्योर्तिलिंग के प्राकट्य की शुभ घड़ी मानी जाती है। जानिए इस शुभ घड़ी
में भगवान शिव के चरित्र से जुड़े कई अनूठे व अनजाने पहलू –
पुराणों में शिव महिमा उजागर करती है कि काल पर शिव का नियंत्रण है। इसलिए शिव
महाकाल भी पुकारे जाते हैं। ऐसे शिव स्वरूप में लीन रहकर ही काल पर विजय पाना भी
संभव है। सांसारिक जीवन के नजरिए से शिव व
काल के संबंधों में छिपा संकेत यही है कि काल यानी वक्त की कद्र करते हुए उसके साथ
बेहतर तालमेल व गठजोड़ ही जीवन व मृत्यु दोनों ही स्थिति में सुखद है। इसके लिए
शिव भाव में रम जाना ही अहम है। शिव भाव
से जुडऩे के लिए वेदों में आए शिव के अलावा अन्य दो नामों शम्भु व शंकर के मायनों
को भी समझना जरूरी है।
जानिए एक ही देवता होने पर भी इन 3 नामों के खास अर्थ व जीवन पर होने वाला शुभ प्रभाव
-
- वेदों के मुताबिक शम्भु
मोक्ष और शांति देने वाले हैं। वहीं शंकर शमन करने वाले और शिव मंगल और कल्याण
कर्ता। इस तरह शम्भु नाम यही भाव उजागर करता है कि सुकून के लिए अच्छी भावनाओं व
कामों को ही अपनाए। इनसे मन भय व तन रोगों से दूर रहेगा और मनचाहे लक्ष्य को पाना
संभव होगा।
- शंकर का मतलब है- शमन करने
वाला। यह नाम स्मरण यही भाव जगाता है कि मन को हमेशा शांत, संयमित व संकल्पित रखें, ठीक शंकर के योगी स्वरूप की तरह। संकल्पों से मन को
जगाए रखने से ही सारे कलहों का शमन यानी शांति होती रहेगी। इससे सफलता का रास्ता
भी साफ दिखाई देगा।
- शंभु व शंकर के साथ शिव
नाम का अर्थ और भाव है - मंगल या कल्याणकारी। इसके पीछे कर्म, भाव व व्यवहार में पावनता का संदेश है। जिसके लिए
जीवन में हर तरह से पवित्रता, आनन्द, ज्ञान, मंङ्गल, कुशल व क्षेम को अपनाएं, ताकि अपने साथ दूसरों का भी शुभ हो। शिव नाम के साथ
जब मंङ्गल भावों से जुड़ते हैं,
तो मन की
अनेक बाधाएं, विकार, कामनाएं और विकल्प नष्ट हो जाते हैं।
इस तरह शिव, शंभु हो या शंकर, तीनों ही नाम हमेशा जीवन में सुंदरता, सफलता और महामंङ्गल ही लाने वाले हैं।
महादेव किन-किन दिव्य स्वरूपों में पूजनीय हैं -
शिव का साकार रूप सदाशिव नाम से प्रसिद्ध है। इसी तरह शिव की पंचमूर्तियां -
ईशान, तत्पुरुष, अघोर,
वामदेव और
सद्योजात से पूजनीय है, जो खासतौर पर पंचवक्त्र
पूजा में पंचानन रूप का पूजन किया जाता है।
शास्त्रों में भगवान शिव की अष्टमूर्ति पूजा का भी महत्व बताया गया है। यह
अष्टमूर्ति है - शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव जो क्रम से पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु,
आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चन्द्र रूप में स्थित मूर्ति मानी गई है।
साम्ब-सदाशिव, अर्द्धनारीश्वर, महामृत्युञ्जय, पशुपति, उमा-महेश्वर, पञ्चवक्त्र, कृत्तिवासा, दक्षिणामूर्ति, योगीश्वर और महेश्वर नाम से भी शिव के अद्भुत और
शक्ति संपन्न स्वरूप पूजनीय है।
रुद्र भगवान शिव का परब्रह्म स्वरूप है, जो सृष्टि रचना, पालन और संहार शक्ति के
नियंत्रक माने गए हैं। रुद्र शक्ति के साथ शिव घोरा के नाम से भी प्रसिद्ध है।
रुद्र रूप माया से परे ईश्वर का वास्तविक स्वरूप और शक्ति मानी गई है।
जानिए एकादश रुद्र व उनकी चमत्कारी शक्तियां –
वेदों का ज्ञान कुदरत के कण-कण में शिव के कई रूपों का दर्शन कराता है। इन
रूपों में ही एक हैं - रुद्र। रुद्र का शाब्दिक अर्थ होता है - रुत यानी दु:खों को
अंत करने वाला। यही वजह है कि शिव को दु:खों का नाश करने वाले देवता के रुप में
पूजा जाता है। शास्त्रों के मुताबिक शिव ग्यारह अलग-अलग रुद्र रूपों में दु:खों का
नाश करते हैं। यह ग्यारह रूप एकादश रुद्र के नाम से जाने जाते हैं।
व्यावहारिक जीवन में भी कोई दु:खों को तभी भोगता है, जब तन, मन या कर्म किसी न किसी रूप में अपवित्र होते हैं। इसी कारण धर्म और ध्यात्म
के धरातल पर दस इन्द्रियों और मन को मिलाकर ग्यारह यानी एकादश रुद्र माने गए है।
जिनमें शुभ भाव और ऊर्जा का होना ही शिवत्व को पाने के समान है। शिव के रुद्र रूप
की आराधना का महत्व यही है कि इससे व्यक्ति का चित्त पवित्र रहता है और वह ऐसे
कर्म और विचारों से दूर होता है,
जो मन में
बुरे भाव पैदा करें। जानिए ऐसे ही ग्यारह रूद्र रूपों को–
शम्भू - शास्त्रों के मुताबिक यह रुद्र रूप साक्षात ब्रह्म है। इस रूप में ही
वह जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं।
पिनाकी - ज्ञान शक्ति रूपी चारों वेदों के स्वरूप माने जाने वाले पिनाकी रुद्र
दु:खों का अंत करते हैं।
गिरीश - कैलाशवासी होने से रुद्र का तीसरा रुप गिरीश कहलाता है। इस रुप में
रुद्र सुख और आनंद देने वाले माने गए हैं।
स्थाणु - समाधि, तप और आत्मलीन होने से
रुद्र का चौथा अवतार स्थाणु कहलाता है। इस रुप में पार्वती रूप शक्ति बाएं भाग में
विराजित होती है।
भर्ग - भगवान रुद्र का यह रुप बहुत तेजोमयी है। इस रुप में रुद्र हर भय और
पीड़ा का नाश करने वाले होते हैं।
भव - रुद्र का भव रुप ज्ञान बल,
योग बल और
भगवत प्रेम के रुप में सुख देने वाला माना जाता है।
सदाशिव - रुद्र का यह स्वरुप निराकार ब्रह्म का साकार रूप माना जाता है। जो
सभी वैभव, सुख और आनंद देने वाला
माना जाता है।
शिव - यह रुद्र रूप अंतहीन सुख देने वाला यानी कल्याण करने वाला माना जाता है।
मोक्ष प्राप्ति के लिए शिव आराधना महत्वपूर्ण मानी जाती है।
हर - इस रुप में नाग धारण करने वाले रुद्र शारीरिक, मानसिक और सांसारिक दु:खों को हर लेते हैं। नाग रूपी
काल पर इन का नियंत्रण होता है।
शर्व - काल को भी काबू में रखने वाला यह रुद्र रूप शर्व कहलाता है।
कपाली - कपाल रखने के कारण रुद्र का यह रूप कपाली कहलाता है। इस रूप में ही
दक्ष का दंभ नष्ट किया। किंतु प्राणीमात्र के लिए रुद्र का यही रूप समस्त सुख देने
वाला माना जाता है
जानिए शिव के कई नामों के रोचक अर्थ, इन नामों को आपने कई बार सुना तो होगा, किंतु अर्थ पर गौर नहीं किया –
कालों के भी काल भगवान शिव को मृत्युलोक का देवता भी माना गया है। उनके
कल्याणकारी दिव्य चरित्र और गुणों की वजह से भगवान शिव कई रूप में पूजित हैं। शिव के कई रूपों से जुड़े धर्मशास्त्र में अनेक नाम आते हैं। धार्मिक आस्था से
इन शिव नामों का ध्यान मात्र ही शुभ फल देता है। शिव के इन सभी रूप और सभी नामों
का स्मरण मात्र ही हर भक्त के सभी दु:ख और कष्टों को दूर कर हर इच्छा और सुख की
पूर्ति करने वाला माना गया है। जानिए शिव के ऐसे रूपों और नाम का अर्थ, जिनमें से कई नामों को आप शायद अब तक नहीं जानते होंगे -
पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले
शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले
कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले
नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले
शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले
खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले
विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी
शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले
अंबिकानाथ - भगवति के पति
श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले
भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले
भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले
शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले
त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी
शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले
शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय
उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले
कपाली - कपाल धारण करने वाले
कामारी - कामदेव के शत्रुअंधकार
सुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले
गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले
ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले
कालकाल - काल के भी काल
कृपानिधि - करूणा की खान
भीम - भयंकर रूप वाले
परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले
मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले
जटाधर - जटा रखने वाले
कैलाशवासी - कैलाश के निवासी
कवची - कवच धारण करने वाले
कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले
त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले
वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले
वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले
भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले
सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले
स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले
त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले
अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है
सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले
परमात्मा - सबका अपना आपा
सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र,
सूर्य और
अग्निरूपी आँख वाले
हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले
यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले
सोम - उमा के सहित रूप वाले
पंचवक्त्र - पांच मुख वाले
सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाल
विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर
वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले
गणनाथ - गणों के स्वामी
प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले
हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले
दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले
गिरीश - पहाड़ों के मालिक
गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले
अनघ - पापरहित
भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले
भर्ग - पापों को भूंज देने वाले
गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले
गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी
कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले
पुराराति - पुरों का नाश करने वाले
भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न
प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति
मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले
सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले
जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले
जगद्गुरू - जगत् के गुरू
व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले
महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता
चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले
रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले
भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी
स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले
अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले
दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले
अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले
अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले
सात्त्विक - सत्व गुण वाले
शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले
शाश्वत - नित्य रहने वाले
खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
अज - जन्म रहित
पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले
मृड - सुखस्वरूप वाले
पशुपति - पशुओं के मालिक
देव - स्वयं प्रकाश रूप
महादेव - देवों के भी देव
अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले
हरि - विष्णुस्वरूप
पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले
अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले
दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाल
हर - पापों व तापों को हरने वाले
भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले
अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले
सहस्रपाद - अनंत पैर वाले
अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले
अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित
तारक - सबको तारने वाला
परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर
महेश्वर - माया के अधीश्वर
महाशिवरात्रि को शिवलिंग पर ये अनाज चढ़ाने से चमकेगी
हिन्दू पंचांग के फाल्गुन माह के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि यानी
महाशिवरात्रि (10 मार्च) शिव भक्ति की अचूक घड़ी मानी जाती है। पौराणिक मान्यता है कि दिव्य
ज्योर्तिलिंग के प्रकट होने की महारात्रि होने से इस दौरान शिव की पूजा और भक्ति
तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं को देने वाली होती है। खासतौर पर शिवपुराण के मुताबिक शिव
पूजा में अन्य पूजा सामग्रियों के अलावा कई तरह के अनाज का चढ़ावा सुख-सौभाग्य व
धन सहित कई मनचाहे फल देने वाला मंगलकारी उपाय है।
वर्तमान में फाल्गुन कृष्ण पक्ष की पंचमी से महाशिवरात्रि तक चलने वाली 'शिव नवरात्रि' भी जारी है। 4 को शिव नवरात्रि में
सोमवार का संयोग है। इसलिए 4 को शिव नवरात्रि के सोमवार से लेकर 10 को महाशिवरात्रि तक शिव
पूजा के दौरान किस तरह के अनाजों को चढ़ाने से सौभाग्यशाली बनाने वाली कौन-सी
कामनाएं पूरी होंगी-
देव पूजा में अक्षत यानी चावल का चढ़ावा बहुत ही शुभ माना जाता है। शिव पूजा
में भी महादेव या शिवलिंग के ऊपर चावल, जो टूटे न हो चढ़ाने से लक्ष्मी की कृपा यानी धन लाभ
होता है।
शिव की तिल से पूजा करने पर मन, शरीर और विचारों से हुए दोष का अंत हो जाता है।
शिव की गेहूं चढ़ाकर की गई पूजा से संतान सुख मिलता है।
शिव को मूंग चढ़ाने से विशेष मनोरथ पूरे होते हैं।
अरहर के पत्तों या दाल से शिव की पूजा करने से कई तरह के दु:ख दूर हो जाते
हैं।
जौ चढ़ाकर शिव की पूजा अंतहीन सुख देती है।
जल और बेलपत्र से महादेव की पूजा का रहस्य
भगवान शिव को औढ़र दानी कहते हैं। शिव का यह नाम इसलिए है क्योंकि यह जब देने
पर आते हैं तो भक्त जो भी मांग ले बिना हिचक दे देते हैं। इसलिए सकाम भावना से
पूजा-पाठ करने वाले लोगों को भगवान शिव अति प्रिय हैं। भगवान विष्णु को प्रसन्न
करना कठिन भी है और इनसे वरदान प्राप्त करना उससे भी कठिन क्योंकि, यह बहुत ही सोच-समझकर वरदान देते हैं।
भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या और भोग सामग्री की भी जरूरत
होती है जबकि शिव जी थोड़ी सी भक्ति और बेलपत्र एवं जल से भी खुश हो जाते हैं। यही
कारण है कि भक्तगण जल और बेलपत्र से शिवलिंग की पूजा करते हैं। शिव जी को ये दोनों
चीजें क्यों पसंद हैं इसका उत्तर पुराणों में दिया गया है।
सागर मंथन के समय जब हालाहल नाम का विष निकलने लग तब विष के प्रभाव से सभी
देवता एवं जीव-जंतु व्याकुल होने लगे। ऐसे समय में भगवान शिव ने विष को अपनी
अंजुली में लेकर पी लिया। विष के प्रभाव से स्वयं को बचाने के लिए शिव जी ने इसे
अपनी कंठ में रख लिया इससे शिव जी का कंठ नीला पड़ गया और शिव जी नीलकंठ कहलाने
लगे।
लेकिन विष के प्रभाव से शिव जी का मस्तिष्क गर्म हो गया। ऐसे समय में देवताओं
ने शिव जी के मस्तिष्क पर जल उड़लेना शुरू किया जिससे मस्तिष्क की गर्मी कम हुई।
बेल के पत्तों की तासीर भी ठंढ़ी होती है इसलिए शिव जी को बेलपत्र भी चढ़ाया गया।
इसी समय से शिव जी की पूजा जल और बेलपत्र से शुरू हो गयी।
बेलपत्र और जल से शिव जी का मस्तिष्क शीतल रहता और उन्हें शांति मिलती है।
इसलिए बेलपत्र और जल से पूजा करने वाले पर शिव जी प्रसन्न होते हैं। शिवरात्रि की
कथा में प्रसंग है कि, शिवरात्रि की रात में एक
भील शाम हो जाने की वजह से घर नहीं जा सका। उस रात उसे बेल के वृक्ष पर रात बितानी
पड़ी। नींद आने से वृक्ष से गिर न जाए इसलिए रात भर बेल के पत्तों को तोड़कर नीचे
फेंकता रहा। संयोगवश बेल के वृक्ष के नीचे शिवलिंग था। बेल के पत्ते शिवलिंग पर
गिरने से शिव जी प्रसन्न हो गये। शिव जी भील के सामने प्रकट हुए और परिवार सहित
भील को मुक्ति का वरदान दिया।
अगर आपकी कुंडली में कालसर्प दोष है तो ये जरुर पढ़ें
कालसर्प दोष का नाम सुनते ही लोगों के मन में भय उत्पन्न हो जाता है क्योंकि
जिन लोगों की कुंडली में यह दोष होता है उन्हें अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का
सामना करना पड़ता है। कालसर्प दोष से मुक्ति के उपाय करने के लिए कुछ विशेष दिन
होते हैं इनमें से महाशिवरात्रि भी है। इस दिन कालसर्प दोष से मुक्ति के उपाय करने
से विशेष फल मिलता है।
विद्वानों के अनुसार कालसर्प दोष मुख्य रूप से 12 प्रकार का होता है, इसका निर्धारण जन्म
कुंडली देखकर ही किया जा सकता है। प्रत्येक कालसर्प दोष के निवारण के लिए अलग-अलग
उपाय हैं। ज्योतिष के अनुसार कालसर्प दोष के विभिन्न प्रकार व उनके निवारण के उपाय
बताए गए हैं। यह उपाय महाशिवरात्रि के दिन करने से श्रेष्ठ फल मिलता है-
1- अनन्त कालसर्प दोष
- अनन्त कालसर्प दोष होने पर महाशिवरात्रि के दिन एकमुखी, आठमुखी या नौमुखी रुद्राक्ष धारण
करें।
- यदि इस दोष के कारण स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है तो महाशिवरात्रि के दिन रांगे
(एक धातु) से बना सिक्का पानी में प्रवाहित करें।
2- कुलिक कालसर्प दोष
- कुलिक नामक कालसर्प दोष होने पर दो रंग वाला कंबल अथवा गर्म वस्त्र दान करें।
- चांदी की ठोस गोली बनवाकर उसकी पूजा करें और उसे अपने पास रखें।
3- वासुकि कालसर्प दोष
- वासुकि कालसर्प दोष होने पर रात्रि को सोते समय सिरहाने पर थोड़ा बाजरा रखें
और सुबह उठकर उसे पक्षियों को खिला दें।
- महाशिवरात्रि के दिन लाल धागे में तीन, आठ या नौमुखी रुद्राक्ष धारण
करें।
4- शंखपाल कालसर्प दोष
- शंखपाल कालसर्प दोष के निवारण के लिए महाशिवरात्रि के मौके पर 400 ग्राम साबूत बादाम बहते
पानी में प्रवाहित करें।
- शिवलिंग का दूध से अभिषेक करें।
5- पद्म कालसर्प दोष
- पद्म कालसर्प दोष होने पर महाशिवरात्रि के दिन से प्रारंभ करते हुए 40 दिनों तक रोज सरस्वती
चालीसा का पाठ करें।
- जरुरतमंदों को पीले वस्त्र का दान करें और तुलसी का पौधा लगाएं।
6- महापद्म कालसर्प दोष
- महापद्म कालसर्प दोष के निदान के लिए हनुमान मंदिर में जाकर सुंदरकांड का पाठ
करें।
- महाशिवरात्रि के दिन गरीब, असहायों को भोजन करवाकर दान-दक्षिणा दें।
7- तक्षक कालसर्प दोष
- तक्षक कालसर्प योग के निवारण के लिए 11 नारियल बहते हुए जल में प्रवाहित करें।
- सफेद वस्त्र और चावल का दान करें।
8- कर्कोटक कालसर्प दोष
- कर्कोटक कालसर्प योग होने पर बटुकभैरव के मंदिर में जाकर उन्हें दही-गुड़ का
भोग लगाएं और पूजा करें।
- शीशे के आठ टुकड़े पानी में प्रवाहित करें।
9- शंखचूड़ कालसर्प दोष
- शंखचूड़ नामक कालसर्प दोष की शांति के लिए महाशिवरात्रि के दिन रात को सोने से
पहलेसिरहाने के पास जौ रखें और उसे अगले दिन पक्षियों को खिला दें।
- पांचमुखी, आठमुखी या नौमुखी रुद्राक्ष धारण करें।
10- घातक कालसर्प दोष
- घातक कालसर्प के निवारण के लिए पीतल के बर्तन में गंगाजल भरकर अपने पूजा स्थल
पर रखें।
- चारमुखी, आठमुखी और नौमुखी रुद्राक्ष हरे रंग के धागे में धारण करें।
11- विषधर कालसर्प दोष
- विषधर कालसर्प के निदान के लिए परिवार के सदस्यों की संख्या के बराबर नारियल
लेकर एक-एक नारियल पर उनका हाथ लगवाकर बहते हुए जल में प्रवाहित करें।
- भगवान शिव के मंदिर में जाकर यथाशक्ति दान-दक्षिणा दें।
12- शेषनाग कालसर्प दोष
- शेषनाग कालसर्प दोष होने पर महाशिवरात्रि के एक दिन पूर्व रात्रि को लाल कपड़े
में सौंफ बांधकर सिरहाने रखें और उसे अगले दिन सुबह खा लें।
- दूध-जलेबी का दान करें।
शिव के अर्द्घनारीश्वर स्वरूप में
छिपा है सृष्टि का रहस्य
भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती की
अर्द्घनारीश्वर तस्वीर आपने जरूर देखी होगी। शिव पार्वती के अन्य स्वरूपों से यह
स्वरूप बहुत ही खास है। इस स्वरूप में संसार के विकास की कहानी छुपी है। शिव पुराण,
नारद पुराण सहित दूसरे अन्य पुराण भी कहते हैं कि अगर शिव
और माता पार्वती इस स्वरूप को धारण नहीं करते तो सृष्टि आज भी विरान रहती।
अर्द्घनारीश्वर स्वरूप के विषय में
जो कथा पुराणों में दी गयी है उसके अनुसार ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचना का कार्य
समाप्त किया तब उन्होंने देखा कि जैसी सृष्टि उन्होंने बनायी उसमें विकास की गति
नहीं है। जितने पशु-पक्षी, मनुष्य और
कीट-पतंग की रचना उन्होंने की है उनकी संख्या में वृद्घि नहीं हो रही है। इसे
देखकर ब्रह्मा जी चिंतित हुए। अपनी चिंता लिये ब्रह्मा जी भगवान विष्णु के पास
पहुंचे। विष्णु जी ने ब्रह्मा से कहा कि आप शिव जी की आराधना करें वही कोई उपाय
बताएंगे और आपकी चिंता का निदान करेंगे।
ब्रह्मा जी ने शिव जी की तपस्या शुरू
की इससे शिव जी प्रकट हुए और मैथुनी सृष्टि की रचना का आदेश दिया। ब्रह्मा जी ने
शिव जी से पूछा कि मैथुन सृष्टि कैसी होगी, कृपया यह भी बताएं। ब्रह्मा जी को मैथुनी सृष्टि का रहस्य समझाने के लिए
शिव जी ने अपने शरीर के आधे भाग को नारी रूप में प्रकट कर दिया।
इसके बाद नर और नारी भाग अलग हो गये।
ब्रह्मा जी नारी को प्रकट करने में असमर्थ थे इसलिए ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर
शिवा यानी शिव के नारी स्वरूप ने अपने रूप से एक अन्य नारी की रचना की और ब्रह्मा
जी को सौंप दिया। इसके बाद अर्द्घनारीश्वर स्वरूप एक होकर पुनः पूर्ण शिव के रूप
में प्रकट हो गया। इसके बाद मैथुनी सृष्टि से संसार का विकास तेजी से होने लगा।
शिव के नारी स्वरूप ने कालांतर में हिमालय की पुत्री पार्वती रूप में जन्म लेकर
शिव से मिलन किया।
शिव महापुराण: जानिए किस दिन, कौन से देवता का पूजन करना चाहिए
हिंदू धर्म में सप्ताह के सातों दिन अलग-अलग देवताओं के पूजन का विधान बताया
गया है जिनसे मनचाहे फल की प्राप्ति संभव है। शिवमहापुराण में इस संदर्भ में
विस्तृत वर्णन मिलता है। शिवमहापुराण के अनुसार किस दिन कौन से देवता का पूजन करना
चाहिए व उसका क्या फल मिलता है
- शिव महापुराण के अनुसार रविवार को सूर्य की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन
कराने से समस्त प्रकार के शारीरिक रोगों से मुक्ति मिलती है।
- शिव महापुराण के अनुसार सोमवार को लक्ष्मी की पूजा करने तथा ब्राह्मणों को
सपत्नीक घी से पका हुआ भोजन कराने से धन-सम्पत्ति का लाभ होता है।
- शिव महापुराण के अनुसार मंगलवार को काली मां की पूजा करने तथा उड़द, मूंग एवं अरहर की दाल
आदि अन्नों से युक्त भोजन ब्राह्मण को कराने से सभी रोगों समाप्त हो जाते हैं।
- शिव महापुराण के अनुसार बुधवार को दही युक्त अन्न से भगवान विष्णु का पूजन
करने से पुत्र सुख मिलता है।
- शिव महापुराण के अनुसार गुरुवार को वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घी मिश्रित खीर से
देवताओं का पूजन करने से लंबी आयु प्राप्त होती है।
- शिव महापुराण के अनुसार शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करने
तथा यथासंभव ब्राह्मणों को अन्न दान करने से समस्त प्रकार के भोगों की प्राप्ति
होती है।
- शिव महापुराण के अनुसार शनिवार अकाल मृत्यु का निवारण करने वाला है। इस दिन
भगवान रुद्र की पूजा तथा तिल से होम करने, दान से देवताओं को संतुष्ट करके ब्राह्मणों को
तिलमिश्रित भोजन कराने से अकाल मृत्यु नहीं होती।
इस एकादशी के व्रत से भगवान राम समुद्र पार कर पाए
फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम विजया एकादशी है। यह एकादशी इस
वर्ष 7 और 8 मार्च को है क्योंकि 7 तरीख को 10 बजे के बाद एकादशी तिथि
होगी। पद्म पुराण एवं स्कंद पुराण में कहा गया है कि अपने नाम के अनुसार यह एकादशी
विजय प्रदान करने वाली है। जो भी व्यक्ति श्रद्घा भाव से विधि पूर्वक इस एकादशी का
व्रत रखता है वह जीवन में आने वाली विपरीत परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने में
सफल होता है।
पुराणों में बताया गया है कि, जब नारद मुनि ने ब्रह्मा जी से विजया एकादशी के व्रत के
पुण्य के विषय में पूछा तब ब्रह्मा जी ने बताया कि यह एकादशी अत्यंत पुण्यदायी है।
इस एकादशी के व्रत से कई जन्मों के पाप का प्रभाव कम हो जाता है। भगवान राम ने भी
इस एकादशी का व्रत किया था। इसी के पुण्य से वह वानर सेना सहित समुद्र पार करने
में सफल हुए।
ब्रह्मा जी ने कहा कि अथाह समुद्र को देखकर सभी वानर सोच में पड़ गये कि
समुद्र कैसे पार करेंगे। भगवान राम और लक्ष्मण ने इस गंभीर विषय पर विचार किया और
बकदाल्भ्य मुनि के पास पहुंचे। मुनि ने भगवान राम का स्वागत किया और आने का
प्रयोजन पूछा। राम ने कहा कि, हमें सेना सहित समुद्र पार करना है, इसके लिए कोई उपाय बताएं।
बकदाल्भ्य मुनि ने राम को विजया एकादशी करने का सुझाव दिया। मुनि ने विजया
एकादशी व्रत की विधि बताते हुए कहा कि दशमी के दिन सोने, चांदी, तांबा अथवा मिट्टी का एक कलश
स्थापित करके उस कलश को जल से भरें और उसमें पल्लव डालें। इसके ऊपर भगवान विष्णु
का सोने का एक विग्रह स्थापित करें। एकादशी के दिन प्रात: काल स्नान करें। माला,
चन्दन, सुपारी तथा नारियल आदि
के द्वारा कलश की पूजा करें।
एकादशी के दिन कलश के सामने भगवान की कथाओं का पाठ करें और रात में जागरण करके
भजन कीर्तन करें। अगले दिन कलश को जल में प्रवाहित कर दें और कलश पर रखा सामान
ब्रह्मण को दान कर दें। भगवान राम ने इसी विधि से विजया एकादशी का व्रत किया। इस
व्रत के प्रभाव से समुद्र पर सेतु निर्माण का कार्य सफल हुआ और राम सेना समेत लंका
पहुंचकर रावण पर विजय प्राप्त करने में सफल हुए।
जानिए भगवान
शिव के इन 19 अवतारों के बारे में
10 मार्च, रविवार को महाशिवरात्रि
का पर्व है। इस दिन भगवान शिव की पूजा करने का विशेष महत्व है। ये बहुत ही उचित
अवसर है जब हम भगवान शिव के चरित्र व उनसे मिलने वाले ज्ञान को समझ सकते हैं। शिव
महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है लेकिन बहुत ही कम लोग
इन अवतारों के बारे में जानते हैं ।
1- पिप्पलाद
अवतार
मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का
निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से
पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया
शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना।
पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए।
उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। शाप के प्रभाव से शनि
उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर
क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद
का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार
स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।
पिप्पलादेति तन्नाम चक्रे ब्रह्मा प्रसन्नधी:।
-शिवपुराण
शतरुद्रसंहिता 24/61
अर्थात ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर सुवर्चा के पुत्र का नाम पिप्पलाद रखा।
2- नंदी
अवतार
भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार
भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल)
कर्म का प्रतीक है जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा
इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने
शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना
से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में
जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक
बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष
बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह
हुआ।
3- वीरभद्र
अवतार
यह अवतार तब हुआ था जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का
त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से
एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से
महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-
क्रुद्ध: सुदष्टोंष्ठïपुट: स धूर्जटिर्जटां
तडिद्वह्लिïसटोग्ररोचिषम्।
उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥
ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं।
श्रीमद् भागवत -4/5/1
4- भैरव
अवतार
शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार
भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने
लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी
ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात
सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति
शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से
इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखुन से ब्रह्मा के पांचवे सिर
को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए।
तब काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। काशीवासियों के लिए
भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।
5- अश्वत्थामा
महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल,
क्रोध, यम व भगवान शंकर के
अंशावतार हैं। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर
तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मे
अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र
अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज
भी धरती पर ही निवास करते हैं। इस विषय में एक श्लोक प्रचलित है-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय ये आठों अमर हैं।
शिवमहापुराण(शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे
निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।
6- शरभावतार
भगवान शंकर का छटा अवतार है शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा
मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (आख्यानिकाओं में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर
से भी शक्तिशाली था) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की
क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार-
हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था।
हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो
देवता शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव शरभ के रूप में भगवान नृसिंह के पास
पहुंचे तथा उनकी स्तुति की लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई तो शरभ रूपी
भगवान शिव अपनी पुंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि
शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।
7- गृहपति अवतार
भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट
पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी
शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति
से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए
मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की
आराधना की।
एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी
शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से
अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मती गर्भवती हुई और भगवान शंकर
शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं पितामह ब्रह्म ने ही उस
बालक का नाम गृहपति रखा था।
8- ऋषि दुर्वासा
भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म
ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार
पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर
ब्रह्मा, विष्णु
और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र
होंगे, जो
त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर
ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए जो देवताओं के द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर
उससे प्रकट हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले
दत्त उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया। शास्त्रों में
इसका उल्लेख है-
अत्रे: पत्न्यनसूया त्रीञ्जज्ञे सुयशस: सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोममात्मेशब्रह्मïसम्भवान्॥
-भागवत 4/1/15
अर्थ- अत्रि की पत्नी अनुसूइया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्रमा नाम के तीन
परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमश: भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से
उत्पन्न हुए थे।
9- हनुमान
भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में
भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को
अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर
अपना वीर्यपात कर दिया।
सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर लिया। समय आने पर
सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के
माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री
हनुमानजी उत्पन्न हुए।
10- वृषभ अवतार
भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान
शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु
दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई
पड़ी। विष्णु जी ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए जिन्होंने पाताल
से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी
के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर
विष्णु पुत्रों का संहार किया।
11- यतिनाथ अवतार
भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया है।
उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी जिसके कारण भील
दम्पत्ति को अपने प्राण गवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के
समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष
में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की।
आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर
बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा।
इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि
वन्य प्राणियों ने आहुक का मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने
उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है
और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो
शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।
12- कृष्णदर्शन अवतार
भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस
प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार
इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन
को गुरुकुल गए नभग जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस
में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गया। पिता ने नभग
से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न
करके, उनके
धन को प्राप्त करे।
तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा
यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले
गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर
तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से
ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान
हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी
की स्तुति की।
13- अवधूत अवतार
भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों
के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के
दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र
की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उसका मार्ग रोक लिया। इंद्र
ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा।
इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा
चाहा त्यों ही उसका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर
अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।
14- भिक्षुवर्य अवतार
भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के
रक्षक भी ही हैं। भगवान शंकर काभिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों
के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने
शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल
पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास
से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची।
तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके
पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र
है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया।
शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उसे बालक का पालन पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने
शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।
15- सुरेश्वर अवतार
भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को
प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति
से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के
अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा
से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण
में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जाप करने लगा।
शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक
प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा
हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने
वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान
किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।
16- किरात अवतार
किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी।
महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को
वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए
तपस्या कर रहे थे तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने
के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा।
अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात
वेष धारण कर उसी शूकर का बाण चलाया। शिव के माया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न
पाया और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है यह कहने लगा। इस पर दोनों में विवाद हो
गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव
प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरव पर विजय का
आशीर्वाद दिया।
17- सुनटनर्तक अवतार
पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने
सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर जब शिवजी हिमाचल के घर पहुंचे तो
नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए।
जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में
पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज
वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और
हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।
18- ब्रह्मचारी अवतार
दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो
शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए
शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की।
जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की
निंदा करने लगे तथा उन्हें शमशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत
क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप
दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।
19- यक्ष अवतार
यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के
अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के धारण किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार
देवता व असुर द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर
ने उस विष को ग्रहण कर अपने कण्ठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान
करने से सभी देवता अमर तो हो गए साथ ही उनहें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली
हैं।
देवताओं के इसी अभिमान को तोडऩे के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व
देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी
देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक
शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए
क्षमा मांगी।
शिवरात्रि की रात में पूजा विशेष
फलदायी
प्रत्येक महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को
मास शिवरात्रि कहा जाता है। इन शिवरात्रियों में सबसे प्रमुख है फाल्गुन मास की
कृष्ण पक्ष की एकादशी जिसे महाशिवरात्रि के नाम से जाना जाता है। शास्त्रों में
कहा गया है कि महाशिवरात्री की रात में देवी पार्वती और भगवान भोलेनाथ का विवाह
हुआ था इसलिए यह शिवरात्रि वर्ष भर की शिवरात्रि से उत्तम है।
महाशिवरात्रि के विषय में मान्यता है कि इस दिन भगवान भोलेनाथ का अंश प्रत्येक शिवलिंग में पूरे दिन और रात मौजूद रहता है। इस दिन शिव जी की उपासना और पूजा करने से शिव जी जल्दी प्रसन्न होते हैं। शिवपुराण के अनुसार सृष्टि के निर्माण के समय महाशिवरात्रि की मध्यरात्रि में शिव का रूद्र रूप प्रकट हुआ था।
सृष्टि में जब सात्विक तत्व का पूरी तरह अंत हो जाएगा और सिर्फ तामसिक शक्तियां ही रह जाएंगी तब महाशिवरात्रि के दिन ही प्रदोष काल में यानी संध्या के समय ताण्डव नृत्य करते हुए रूद्र प्रलय लाकर पूरी सृष्टि का अंत कर देंगे। इस तरह शास्त्र और पुराण कहते हैं कि महाशिवरात्रि की रात का सृष्टि में बड़ा महत्व है। शिवरात्रि की रात का विशेष महत्व होने की वजह से ही शिवालयों में रात के समय शिव जी की विशेष पूजा अर्चना होती है।
ज्योतिष की दृष्टि से भी महाशिवरात्रि की रात्रि का बड़ा महत्व है। भगवान शिव के सिर पर चन्द्रमा विराजमान रहता है। चन्द्रमा को मन का कारक कहा गया है। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात में चन्द्रमा की शक्ति लगभग पूरी तरह क्षीण हो जाती है। जिससे तामसिक शक्तियां व्यक्ति के मन पर अधिकार करने लगती हैं जिससे पाप प्रभाव बढ़ जाता है। भगवान शंकर की पूजा से मानसिक बल प्राप्त होता है जिससे आसुरी और तामसिक शक्तियों के प्रभाव से बचाव होता है।
रात्रि से शंकर जी का विशेष स्नेह होने का एक कारण यह भी माना जाता है कि भगवान शंकर संहारकर्ता होने के कारण तमोगुण के अधिष्ठिता यानी स्वामी हैं। रात्रि भी जीवों की चेतना को छीन लेती है और जीव निद्रा देवी की गोद में सोने चला जा जाता है इसलिए रात को तमोगुणमयी कहा गया है। यही कारण है कि तमोगुण के स्वामी देवता भगवान शंकर की पूजा रात्रि में विशेष फलदायी मानी जाती है।
महाशिवरात्रि के विषय में मान्यता है कि इस दिन भगवान भोलेनाथ का अंश प्रत्येक शिवलिंग में पूरे दिन और रात मौजूद रहता है। इस दिन शिव जी की उपासना और पूजा करने से शिव जी जल्दी प्रसन्न होते हैं। शिवपुराण के अनुसार सृष्टि के निर्माण के समय महाशिवरात्रि की मध्यरात्रि में शिव का रूद्र रूप प्रकट हुआ था।
सृष्टि में जब सात्विक तत्व का पूरी तरह अंत हो जाएगा और सिर्फ तामसिक शक्तियां ही रह जाएंगी तब महाशिवरात्रि के दिन ही प्रदोष काल में यानी संध्या के समय ताण्डव नृत्य करते हुए रूद्र प्रलय लाकर पूरी सृष्टि का अंत कर देंगे। इस तरह शास्त्र और पुराण कहते हैं कि महाशिवरात्रि की रात का सृष्टि में बड़ा महत्व है। शिवरात्रि की रात का विशेष महत्व होने की वजह से ही शिवालयों में रात के समय शिव जी की विशेष पूजा अर्चना होती है।
ज्योतिष की दृष्टि से भी महाशिवरात्रि की रात्रि का बड़ा महत्व है। भगवान शिव के सिर पर चन्द्रमा विराजमान रहता है। चन्द्रमा को मन का कारक कहा गया है। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात में चन्द्रमा की शक्ति लगभग पूरी तरह क्षीण हो जाती है। जिससे तामसिक शक्तियां व्यक्ति के मन पर अधिकार करने लगती हैं जिससे पाप प्रभाव बढ़ जाता है। भगवान शंकर की पूजा से मानसिक बल प्राप्त होता है जिससे आसुरी और तामसिक शक्तियों के प्रभाव से बचाव होता है।
रात्रि से शंकर जी का विशेष स्नेह होने का एक कारण यह भी माना जाता है कि भगवान शंकर संहारकर्ता होने के कारण तमोगुण के अधिष्ठिता यानी स्वामी हैं। रात्रि भी जीवों की चेतना को छीन लेती है और जीव निद्रा देवी की गोद में सोने चला जा जाता है इसलिए रात को तमोगुणमयी कहा गया है। यही कारण है कि तमोगुण के स्वामी देवता भगवान शंकर की पूजा रात्रि में विशेष फलदायी मानी जाती है।
महाशिवरात्रि पर मंत्र और पूजा से
पाएं मनोवांछित फल
महाशिवरात्रि, अपने
भीतर स्थित शिव को जानने का महापर्व है। वैसे हर महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी
को शिवरात्रि होती है, पर
फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की शिवरात्रि का विशेष महत्व होने के कारण ही उसे
महाशिवरात्रि कहा गया है। यह भगवान शिव की विराट दिव्यता का महापर्व है।
शिव के संग गौरी की भी हो पूजा
धार्मिक मान्यतानुसार भगवान शंकर इस दिन संपूर्ण शिवलिंगों में प्रवेश करते हैं। शिव मनुष्य जीवन में सुख संपत्ति, ऋद्धि-सिद्धि, बल-वैभव, स्वास्थ्य, निरोगता, दीर्घायु, लौकिक-पारलैकिक सभी शुभ फलों के दाता हैं। शक्ति का हर रूप शिव के साथ ही निहित है। इसलिए महाशिवरात्रि पर शिव और शक्ति की संयुक्त रूप से आराधना करनी चाहिए। शिवरात्रि को आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने के लिए शिव और शक्ति का योग भी कहा गया है।
कुंवारी ही नहीं, सुहागिनों के भी आराध्य हैं शिव
महाशिवरात्रि का पावन दिन सभी कुंवारी कन्याओं को मनचाहा वर और विवाहित महिलाओं को अखंड सुहाग का वरदान दिलाने वाला सुअवसर प्रदान करता है। अगर विवाह में कोई बाधा आ रही हो, तो भगवान शिव और जगत जननी के विवाह दिवस यानी महाशिवरात्रि पर इनकी पूजा-अर्चना करने से मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती हैं।
इस दिन व्रती को फल, पुष्प, चंदन, बिल्वपत्र, धतूरा, धूप, दीप और नैवेद्य से चारों प्रहर की पूजा करनी चाहिए। दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से अलग-अलग तथा सबको एक साथ मिलाकर पंचामृत से शिव को स्नान कराकर जल से अभिषेक करें। चारों प्रहर के पूजन में शिव पंचाक्षर 'ओम् नमः शिवाय' मंत्र का जप करें। भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महान, भीम और ईशान, इन आठ नामों से पुष्प अर्पित कर भगवान की आरती और परिक्रमा करें।
शिव के फलदायी मंत्र
शिव को पंचामृत से अभिषेक कराते हुए इस मंत्र का उच्चारण करें- ऊं ऐं ह्रीं शिव गौरीमव ह्रीं ऐं ऊं।
महिलाएं सुख-सौभाग्य के लिए भगवान शिव की पूजा करके दुग्ध की धारा से अभिषेक करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करें। मंत्रः ऊं ह्रीं नमः शिवाय ह्रीं ऊं।
लक्ष्मी अपने `श्री' स्वरूप में अखंड रूप से केवल भगवान शिव की कृपा से ही जीवन में प्रकट हो सकती हैं।
अखंड लक्ष्मी प्राप्ति हेतु निम्न मंत्र की दस माला का जाप करें। मंत्रः ऊं श्रीं ऐं ऊं।
शादी में हो रही देरी दूर करने के लिए इस मंत्र के साथ शिव-शक्ति की पूजा करें। हे गौरि शंकरार्धांगि यथा त्वं शंकरप्रिया। तथा मां कुरु कल्याणी कान्तकांता सुदुर्लभाम।।
पुत्र विवाह के लिए निम्न मंत्र का जप मूंगा की माला से पुत्र द्वारा करवाएं। पत्नी मनोरमां देहि मनोवृत्तानु सारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसार सागरस्य कुलोद्भवाम्।
संपूर्ण पारिवारिक सुख-सौभाग्य हेतु निम्न मंत्र का जाप भी कर सकते हैं। ऊं साम्ब सदा शिवाय नमः।।
शिव के संग गौरी की भी हो पूजा
धार्मिक मान्यतानुसार भगवान शंकर इस दिन संपूर्ण शिवलिंगों में प्रवेश करते हैं। शिव मनुष्य जीवन में सुख संपत्ति, ऋद्धि-सिद्धि, बल-वैभव, स्वास्थ्य, निरोगता, दीर्घायु, लौकिक-पारलैकिक सभी शुभ फलों के दाता हैं। शक्ति का हर रूप शिव के साथ ही निहित है। इसलिए महाशिवरात्रि पर शिव और शक्ति की संयुक्त रूप से आराधना करनी चाहिए। शिवरात्रि को आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने के लिए शिव और शक्ति का योग भी कहा गया है।
कुंवारी ही नहीं, सुहागिनों के भी आराध्य हैं शिव
महाशिवरात्रि का पावन दिन सभी कुंवारी कन्याओं को मनचाहा वर और विवाहित महिलाओं को अखंड सुहाग का वरदान दिलाने वाला सुअवसर प्रदान करता है। अगर विवाह में कोई बाधा आ रही हो, तो भगवान शिव और जगत जननी के विवाह दिवस यानी महाशिवरात्रि पर इनकी पूजा-अर्चना करने से मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती हैं।
इस दिन व्रती को फल, पुष्प, चंदन, बिल्वपत्र, धतूरा, धूप, दीप और नैवेद्य से चारों प्रहर की पूजा करनी चाहिए। दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से अलग-अलग तथा सबको एक साथ मिलाकर पंचामृत से शिव को स्नान कराकर जल से अभिषेक करें। चारों प्रहर के पूजन में शिव पंचाक्षर 'ओम् नमः शिवाय' मंत्र का जप करें। भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महान, भीम और ईशान, इन आठ नामों से पुष्प अर्पित कर भगवान की आरती और परिक्रमा करें।
शिव के फलदायी मंत्र
शिव को पंचामृत से अभिषेक कराते हुए इस मंत्र का उच्चारण करें- ऊं ऐं ह्रीं शिव गौरीमव ह्रीं ऐं ऊं।
महिलाएं सुख-सौभाग्य के लिए भगवान शिव की पूजा करके दुग्ध की धारा से अभिषेक करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण करें। मंत्रः ऊं ह्रीं नमः शिवाय ह्रीं ऊं।
लक्ष्मी अपने `श्री' स्वरूप में अखंड रूप से केवल भगवान शिव की कृपा से ही जीवन में प्रकट हो सकती हैं।
अखंड लक्ष्मी प्राप्ति हेतु निम्न मंत्र की दस माला का जाप करें। मंत्रः ऊं श्रीं ऐं ऊं।
शादी में हो रही देरी दूर करने के लिए इस मंत्र के साथ शिव-शक्ति की पूजा करें। हे गौरि शंकरार्धांगि यथा त्वं शंकरप्रिया। तथा मां कुरु कल्याणी कान्तकांता सुदुर्लभाम।।
पुत्र विवाह के लिए निम्न मंत्र का जप मूंगा की माला से पुत्र द्वारा करवाएं। पत्नी मनोरमां देहि मनोवृत्तानु सारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसार सागरस्य कुलोद्भवाम्।
संपूर्ण पारिवारिक सुख-सौभाग्य हेतु निम्न मंत्र का जाप भी कर सकते हैं। ऊं साम्ब सदा शिवाय नमः।।
अमावस्या पर करें ये उपाय, अचानक होगा धन लाभ
तंत्र शास्त्र के अनुसार अमावस्या के दिन किया गया उपाय बहुत प्रभावशाली होता
है और इसका फल भी जल्दी ही प्राप्त होता है। यदि आप धनवान होना चाहते हैं तो बताये
गये उपाय करें इससे आपको अचानक धन लाभ होगा।
- अमावस्या की रात को करीब 10 बजे नहाकर साफ पीले रंग के कपड़े पहन लें। इसके उत्तर दिशा
की ओर मुख करके ऊन या कुश के आसन पर बैठ जाएं।
- अपने सामने पटिए (बाजोट या चौकी) पर एक थाली में केसर का स्वस्तिक या ऊँ बनाकर
उस पर महालक्ष्मी यंत्र स्थापित करें। इसके बाद उसके सामने एक दिव्य शंख थाली में
स्थापित करें।
- अब थोड़े से चावल को केसर में रंगकर दिव्य शंख में डालें। घी का दीपक जलाकर
नीचे लिखे मंत्र का कमलगट्टे की माला से ग्यारह माला जप करें-
मंत्र
सिद्धि बुद्धि प्रदे देवि मुक्ति मुक्ति प्रदायिनी।
मंत्र पुते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते।।
- मंत्र जप के बाद इस पूरी पूजन सामग्री को किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर
दें। इस प्रयोग से कुछ ही दिनों में आपको अचानक धन लाभ होगा।
गणेशजी से जुड़ी यह दिलचस्प बात!
भगवान गणेश मंगलमूर्ति माने गए हैं।
हिन्दू धर्मग्रंथों में भगवान गणेश को एक ही ईश्वर के पांच अलग-अलग रुपों यानी
पंचदेवों में विघ्रहर्ता देवता माना गया है। इस तरह श्रीगणेश भी अनादि, अजर परमात्मा का ही रूप माने गए हैं। यही वजह है कि शास्त्रों
में भगवान शिव द्वारा भी गणेश उपासना के प्रसंग आए हैं।
श्रीगणेश के परब्रह्म स्वरूप और
महिमा को ही प्रमाणित करते हैं शास्त्रों में बताए अलग-अलग युगों में श्रीगणेश के
चार विघ्रनाशक अवतार। इनमें कृतयुग में विनायक, त्रेतायुग में मयूरेश्वर, द्वापर युग में
गजानन और कलियुग में धूम्रकेतु नाम से गणेश पूजनीय माने गए हैं।
इन अलग-अलग युगों के श्रीगणेश
अवतारों में विनायक अवतार से ही जुड़ी एक रोचक बात कई धर्मावलंबी नही जानते हैं,
जो प्रचलित मान्यताओं में अलग होने से कम ही लोगों ने
सुनी है। जानिए क्या है यह दिलचस्प बात –
अक्सर हर धर्मावलंबी श्रीगणेश के
स्वरूप से जुड़ी ऐसी ही विशेष बातों में गणेश का वाहन मूषक या चूहा जानते और मानते
हैं। किंतु गणेश के विनायक अवतार में उनका वाहन चूहा नहीं बल्कि सिंह यानी शेर है।
श्रीगणेश के सिंह पर विराजित इसी
स्वरूप का वर्णन करते हुए ही शास्त्रों में लिखा गया है कि-
सिंहारूढो दशभुज: कृते नाम्रा
विनायक:।
तेजोरूपी महाकाय: सर्वेषां वरदो
वशी।।
जिसका आसान मतलब है कि कृतयुग यानी
सतयुग श्रीगणेश का वाहन सिंह है, वे दशभुजाधारी,
तेज कांतिमान, विशाल
शरीर वाले सभी को अभय और वरदान देने वाले हैं।
इस तरह साफ है कि भगवान गणेश चूहे पर
ही नहीं शेर पर भी सवारी करते हैं।
गीता के ये 2 खास उपाय देते हैं मनचाही सफलता और शांति
"मन के हारे हार है, मन के जीते जीत" यह बात साफ करती है कि मनोदशा भी
अच्छे या बुरे नतीजे तय करती है। क्योंकि मन का स्वभाव चंचल माना गया है।
शास्त्रों में भी यह बताया गया है कि जहां मन की एक स्थिति मोह में बांध दुःख की
वजह बन सकती है, तो वहीं यही मन सुख व मोक्ष की राह पर भी ले जाता है। यानी मन अगर साफ और
स्थिर हो तो इंसान सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंच जाता है, वहीं बुरे भाव से भरी, चंचल या अस्थिर मनोदशा
व्यक्ति का पतन कर देती है।
व्यावहारिक जीवन में मन की अच्छी या बुरी स्थिति सुख-दु:ख का कारण बनती है।
चूंकि हर इंसान सदा सुखी रहना चाहता है, किंतु भटकता मन इस कामना में बाधा बनता है। इसलिए
सुख में बाधा बने मन को अगर चंचलता से बचाना है तो हिन्दू धर्मग्रंथ गीता में बताए
सूत्र कारगर हो सकते है।
लिखा है कि -
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
सार है कि चंचल मन को रोकना कठिन है। किंतु अभ्यास और वैराग्य भाव से इस पर
काबू पाया जा सकता है। व्यावहारिक रूप से संकेत है कि अगर मन को स्थिर और शुद्ध बनाना है तो एक
लक्ष्य साधें। अच्छे विचारों के साथ उस मकसद को पाने के लिए ध्यान लगाया जाए। इस
दौरान विपरीत या नकारात्मक विचारों से मन कितना भी भटके सही सोच के साथ लक्ष्य पर
ही ध्यान साधें रखें। बाकी सभी बुरी भावनाओं पर ध्यान ही न दिया जाए यानी वैराग्य
भाव बना लें।
इस तरह एक स्थिति में मन की स्थिर हो जाएगा। मन को पवित्र बनाने के लिये बहुत
जरूरी है कि लगातार अच्छे विचारों का मनन और चिंतन किया जाए। जिससे मन से बुरे
विचार और भाव अपने आप ही निकल जाएंगे।
तनाव का कारण पूर्व जन्म का संस्कार
समय की दी हुई प्रमुख समस्या है
तनाव। व्यस्त जिंदगी, ऊंचे ख्वाबों को हकीकत में बदलने की
आतुरता और भागमभाग में चारों दिशाओं से मिलने वाली चुनौतियां इस समस्य को जन्म
देती है। मोटे तौर पर हमारे मन की तीन अवस्थाएं हैं। प्रथम, चेतन मन जिसमें सारे अनुभव हमारी स्मृति में रहते हैं और हमें उनका ज्ञान
रहता है। द्वितीय अवचेतन मन इसमें हमारे वे अनुभव होते हैं जो बिना ध्यान के ही
रिकॉर्ड हो जाते हैं। अवचेतन मन स्वतः अपना कार्य करता रहता।
तृतीय,अचेतन मन इसमें पुराने दबे हुए संस्कार रहते हैं। समझा जाता है कि अचेतन
मन में पूर्व जन्म के संस्कार भी संचित रहते हैं। समय या सभ्यता के प्रभाव से तनाव
जीवन का अंग सा बन गया है तो इसके प्रभाव से मुक्त रहने के बारे में सोचना चाहिए।
योगशास्त्र के अनुसार तनाव से मुक्ति का सरल सा उपाय है- योग निद्रा।
इसके लक्षण गहरी नींद की तरह होते
हैं परन्तु वास्तव में यह नींद नहीं होती। इसमें हमारी चेतना मन की आन्तरिक परतों
को खोलती हुई अचेतन अवस्था तक पहुंचने का प्रयास करती है। हमारे मस्तिष्क के
प्रत्येक भाग में हमारे जीवन से संबंधित लाखों, करोड़ों प्रकार के अनुभव, सिद्धान्त,
आदर्श और संस्कार आदि जमा रहते हैं। इसी प्रकार हमारे
पूर्व जन्मों के भी लाखों, करोड़ों संस्कार
बीज रूप में मौजूद रहते हैं। इन्हीं सब संस्कारों के कारण हमारा मन समय-समय पर
तनाव से प्रभावित होने लगता है। योग निद्रा के बार-बार और लगातार लंबे समय तक
अभ्यास करते रहने से व्यक्ति उस अचेतन मन में पड़े संस्कारों तक पहुँचकर उनसे
मुक्ति प्राप्त करने में सफल हो सकता है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK
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