शिष्यों ने सीखा सहनशीलता का पाठ
पुराने समय में अबु उस्मान नाम के आला
दर्जे के संत हुए हैं। वे शांत स्वभाव के तथा मितभाषी थे। स्नेहमय आचरण उनके
स्वभाव की विशेषता थी। उनसे कोई कितनी ही कड़वी बात कह दे, किंतु वे उसका प्रत्युत्तर बड़े
स्नेह से ही देते थे। क्रोध से वे कोसो दूर रहते थे और कहा जा सकता है कि वे
विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे। उनके चरित्र की इस ऊंचाई के कारण उनके बहुत सारे
अनुयायी थे, जो उनके प्रति श्रद्धा-भाव रखते थे।
एक दिन की बात है, अबु उस्मान अपने कुछ अनुयायियों के साथ कहीं जा रहे थे। जब
वे एक मकान के नीचे से गुजरे, तो ऊपर से किसी ने उन पर राख फेंक दी। जो सीधे उनके सिर पर
आकर गिरी। यह दृश्य देखकर संत के अनुयायी क्रोध से आगबबूला हो गए। अपने गुरु का
अपमान उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ और वे राख फेंकने वाले से बदला लेने पर उतारू हो
गए।
तब संत अबु ने उन्हें रोकते हुए कहा- ‘तुम लोग गुस्सा क्यों कर रहे हो? जबकि जिस व्यक्ति ने ऐसा
आचरण किया है, उसका तो तुम्हें उपकार मानना चाहिए। इसे इस तरह से सोचकर देखो कि जो सिर आग
में जलाने लायक था, उस पर उसने मात्र राख ही फेंकी।’ अपने गुरु की सहज-सरल मुस्कान के साथ कही गई यह बात
शिष्यों पर जादू सा असर कर गई। उनके इस बड़प्पन को देखकर वे सभी शांत हो गए और
गुरु की बात उन्होंने गांठ बांध ली। इस सांकेतिक कथा का निहितार्थ यह है कि धर्य
और प्रेमपूर्ण आचरण से ही बड़प्पन आता है, जो मनुष्य को उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा का सही हकदार
बनाता है।
क्रोध को जीतना सिखाया विनोबाजी ने
भूदान आंदोलन के दिनों की बात है। इसके प्रणोता आचार्य विनोबा भावे थे और उनकी
पदयात्रा चल रही थी। अपने कुछ अनुयायियों के साथ विनोबाजी मीरा बहन के आश्रम में
रुके थे। थोड़े विश्राम के उपरांत पदयात्रा पुन: आरंभ हुई। इस बार हरिद्वार की ओर
सभी लोग जा रहे थे। विनोबाजी कुछ अस्वस्थ थे। उन्हें कमर और पैरों में तकलीफ थी।
इसलिए उन्हें कुर्सी पर बैठाकर ले जाया जाता था, किंतु बीच-बीच में वे कुर्सी से
उतरकर पैदल भी चलने लगते थे। एक दिन जब वे पैदल चल रहे थे, तो सहयात्रियों में शामिल एक
व्यक्ति उनके पास आकर बोला- 'बाबा! मुझे बहुत गुस्सा आता है। इसे कैसे दूर करूं? विनोबाजी ने कहा- 'बचपन में मुझे भी बहुत गुस्सा आता था। तब मैं अपने
पास मिश्री रखता था। जैसे ही गुस्सा आता, मैं मिश्री का एक टुकड़ा मुंह में रख लेता। ऐसा करने
से गुस्सा काबू में आ जाता था।
किंतु कभी-कभी ऐसा भी होता था कि गुस्सा आता और मिश्री पास में नहीं होती
थी।ञ्ज यह सुनकर उस व्यक्ति ने पूछा- 'फिर आप क्या करते थे?' विनोबाजी ने हंसकर उत्तर दिया- 'मैंने इस पर काफी
सोच-विचार किया। फिर मेरे मन में यह बात आई कि जब हमारे मन के प्रतिकूल कोई काम
होता है, तो
हम तत्काल नाराज हो जाते हैं।
यदि उस पहले क्षण को हम टाल जाएं, तो गुस्से को जीत सकते हैं। हर्ष और विषाद से हम तभी
प्रभावित होते हैं, जबकि उनका पहला क्षण हम पर हावी होता है। उस क्षण को टालना कठिन है, किंतु अभ्यास करने से वह
आसान हो जाता है। मैंने इसका खूब अभ्यास किया और इसीलिए जीवन में बड़ी से बड़ी
दुखद घटना होने पर भी कभी संतुलन नहीं खोया। वस्तुत: सोच-विचारकर उठाया गया कदम
सदैव उचित परिणाम देता है।
निष्पाप हृदय की प्रार्थना सुनी प्रभु ने
शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास उच्चकोटि
के संत थे। निस्पृहता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थी। वे भिक्षा मांगकर अपना
पेट भर लेते और भगवद्भक्ति में लीन रहते। जो अपनी इच्छा से जितना दे देता, वे ले लेते।
अपनी तरफ से कोई मांग नहीं रखते। एक दिन सुबह जब समर्थ गुरु रामदास भिक्षा
लेने निकले, तो मार्ग में जो पहला घर दिखाई दिया, वहां पहुंचकर आवाज लगाई। उनकी आवाज सुनकर
गृहस्वामिनी नाराज हो गई, क्योंकि उस समय वह चौका साफ कर रही थी। उसे समर्थ रामदास की
पुकार इतनी नागवार गुजरी किवह उन्हें अपशब्द कहने लगी। रामदास शांत रहे। फिर उसे
और गुस्सा आया। अब वह बाहर उस अस्वच्छ वस्त्र को लेकर आई, जिससे चौका साफ कर रही थी।
उसे स्वामीजी पर फेंककर बोली - ‘ले, इसे ले जा।’ रामदास ने चुपचाप उसे ले लिया और नदी पर गए। वहां जाकर
स्नान किया और वह वस्त्र भी साफ किया। रात को उसी वस्त्र में से एक टुकड़ा फाड़कर
बत्ती बनाई और घी में भिगोकर दीपक जलाकर भगवान की आरती की। आरती के पश्चात अत्यंत
स्नेहपूर्ण स्वर में भगवान से प्रार्थना की - ‘हे प्रभु! इस दीपक के प्रकाश से
जिस प्रकार मेरे घर का अंधकार दूर हो गया है, उसी प्रकार इस वस्त्र को देने
वाली माता के हृदय का अंधकार भी दूर हो।’
लोगों ने अगले दिन देखा किवह महिला समर्थ गुरु रामदास के पास आई और अपने
द्वारा किए गए र्दुव्यवहार के लिए क्षमा मांगी। कथा का सार यह है कि शुद्ध हृदय
से की गई प्रार्थना कभी निष्फल नहीं होती। वह सदैव सद्परिणाम देती है।
लकड़हारे ने हातिमताई को किया निरुत्तर
अरब देशों में हातिमताई का नाम अपनी
उदारता के लिए विख्यात था। हातिमताई खुले हाथों दान करता। उसके द्वार से कभी कोई
खाली हाथ नहीं जाता था। वह किसी जरूरतमंद को देखता तो अपनी कीमती से कीमती वस्तु
देने में भी संकोच नहीं करता था। लोग उसके पास निर्भयतापूर्वक आते और वे जो भी
मांग रखते, हातिमताई उसे पूरी करता। एक बार हातिमताई के मन में विचार आया कि एक बड़ी दावत
दी जाए, जिसमें
प्रत्येक व्यक्ति को आने की छूट हो। इस दावत में हर वर्ग के लोग शामिल हो सकें,
इसके लिए हातिमताई
ने इसका खूब प्रचार करवाया। दावत के दिन लोग आने लगे।
हातिमताई हर आने वाले का स्नेहपूर्वक स्वागत करता और लोग उसकी दावत में
स्वादिष्ट भोजन कर उसे दुआ देते। कुछ देर बाद हातिमताई ने सोचा कि दावत-स्थल से
दूर रहने वाले लोगों को यहां तक पहुंचने में परेशानी होगी। अत: उन्हें स्वयं ही
सवारी में ले आना चाहिए। उसने अपने कुछ सरदारों को लिया और दूर बसे लोगों को लेने
चल पड़ा। मार्ग में उसे लकड़ी काटता एक लकड़हारा दिखाई दिया, जो पसीने में तरबतर हो
रहा था। थकान उसके चेहरे से स्पष्ट दिखाई दे रही थी।
हातिमताई ने उससे कहा- 'मेरे भाई! जब हातिमताई दावत दे रहा है, तो तुम इतनी मेहनत क्यों
कर रहे हो? ये काम करना छोड़ो और दावत में शरीक होकर आराम से भोजन करो। यह सुनकर
स्वाभिमानी लकड़हारे ने उत्तर दिया- 'जो अपनी रोटी स्वयं कमाते हैं, उन्हें हातिमताई की
उदारता नहीं चाहिए। हातिमताई लाजवाब हो गया। कथा का सार यह है कि अपनी आजीविका
स्वयं कमाने से परिश्रम का सुख प्राप्त होता है और आत्मनिर्भरता भी आती है। जो
अखंड आत्मविश्वास का आधार बनती है।
गुरु ने शिष्य की साधना की दिशा बदल दी
एक संत दुनिया-जहान से अलग वन में
कुटिया बनाकर रहते थे। कंद-मूल पर गुजारा करते और ईश्वर के ध्यान में डूबे रहते।
कभी वन से गुजरते हुए कोई उनकी कुटिया पर रुकता, तो उससे दो बात कर लेते और जो
पास में होता, बड़े स्नेह से खिला देते। एक दिन एक युवा उनसे मिलने आया।
वह उनकी बातों से बहुत प्रभावित हुआ और उनका शिष्य बनकर वहीं ठहर गया। संत ने
अपने साधनविहीन जीवन के विषय में उसे बता दिया था, जो उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
गुरु-शिष्य प्रेमपूर्वक रहने लगे। एक दिन बातों-बातों में संत ने उससे कहा- ‘मन बड़ा चंचल होता है।
इसे नियंत्रण में रखना चाहिए।’ यह बात शिष्य के मन में गहरे तक पैठ गई।
उसने उसी दिन से स्वयं को एक कोठरी में बंद कर लिया। संत के पूछने पर उसने कहा
कि वह मन को काबू में करने की कोशिश कर रहा है। वह दिन-रात कोठरी में ही रहता और
आश्रम में आने-जाने वालों की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देता। एक दिन संत ने उससे
कोठरी का दरवाजा खुलवाया और अंदर रखे एक पत्थर पर ईंट घिसने लगे। जब ऐसा करते हुए
काफी देर हो गई, तो शिष्य ने उनसे पूछा- ‘गुरुदेव! यह आप क्या कर रहे हैं?’ संत बोले- ‘इस ईंट का आईना बनाऊंगा।’
शिष्य ने कहा- ‘आप जीवनभर इसे घिसते रहेंगे, तो भी ईंट से आईना नहीं बनेगा।’ तब संत ने उसे समझाते हुए कहा- ‘यदि ईंट का आईना नहीं बन
सकता, तो
मन का भी आईना नहीं बन सकता। मन तो धूल है, जो आत्मा के आईने पर पड़ी रहती
है। उस धूल को छोड़ो, तब सत्य का साक्षात्कार होगा।’ गुरु के इन वचनों ने शिष्य की साधना की दिशा बदल दी। चंचल
मन को आत्मिक गुणों के प्रतिकार से साधना चाहिए। उसकी अस्थिर वृत्ति को स्थिर
आत्मा ही थाम सकती है।
बुद्ध ने सिखाई आत्मनियंत्रण की कला
एक लड़का अत्यंत जिज्ञासु था। जहां भी
उसे कोई नई चीज सीखने को मिलती, वह उसे सीखने के लिए तत्पर हो जाता। उसने एक तीर बनाने वाले
से तीर बनाना सीखा, नाव बनाने वाले से नाव बनाना सीखा, मकान बनाने वाले से मकान बनाना सीखा, बांसुरी वाले से बांसुरी
बनाना सीखा। इस प्रकार वह अनेक कलाओं में प्रवीण हो गया। लेकिन उसमें थोड़ा अहंकार
आ गया। वह अपने परिजनों व मित्रों से कहता- ‘इस पूरी दुनिया में मुझ जैसा
प्रतिभा का धनी कोई नहीं होगा।’
एक बार शहर में गौतम बुद्ध का आगमन हुआ। उन्होंने जब उस लड़के की कला और
अहंकार दोनों के विषय में सुना, तो मन में सोचा कि इस लड़के को एक ऐसी कला सिखानी चाहिए,
जो अब तक की सीखी
कलाओं से बड़ी हो। वे भिक्षा का पात्र लेकर उसके पास गए।
लड़के ने पूछा- ‘आप कौन हैं?’ बुद्ध बोले - ‘मैं अपने शरीर को नियंत्रण में रखने वाला एक आदमी हूं।’ लड़के ने उन्हें अपनी बात स्पष्ट
करने के लिए कहा। तब उन्होंने कहा- ‘जो तीर चलाना जानता है, वह तीर चलाता है। जो नाव चलाना
जानता है, वह नाव चलाता है, जो मकान बनाना जानता है, वह मकान बनाता है, मगर जो ज्ञानी है, वह स्वयं पर शासन करता है।’
लड़के ने पूछा - ‘वह कैसे?’ बुद्ध ने उत्तर दिया- ‘यदि कोई उसकी प्रशंसा करता है, तो वह अभिमान से फूलकर खुश नहीं
हो जाता और यदि कोई उसकी निंदा करता है, तो भी वह शांत बना रहता है और ऐसा व्यक्ति ही सदैव
आनंद में रहता है।’ लड़का जान गया कि सबसे बड़ी कला स्वयं को वश में रखना है। कथा का सार यह है कि
आत्मनियंत्रण जब सध जाता है, तो समभाव आता है और यही समभाव अनुकूल-प्रतिकूल दोनों
स्थितियों में हमें प्रसन्न रखता है।
अमीर की गरीबी सिद्ध की इब्राहीम ने
इब्राहीम आदम बलख के बादशाह थे। वे प्रजा के हितों का बहुत ध्यान रखते थे।
स्वयं संपूर्ण राज्य में घूमते और पता लगाते कि कहीं किसी को कोई कष्ट तो नहीं है।
प्रजा भी अपने इस नेकदिल बादशाह का बहुत सम्मान करती थी।
कुछ सालों के राजपाट के बाद इब्राहीम का मन विरक्त हो गया। उन्होंने सब कुछ
त्यागकर फकीरी का मार्ग अपना लिया और एक सामान्य कुटिया में रहने लगे। चूंकि प्रजा
के मन में उनके प्रति अत्यधिक आदर था, इसलिए लोग उनसे मिलने आते रहते थे। एक बार एक संपन्न
व्यक्ति उनसे मिलने आया और हजार अशर्फियों की थैली उन्हें भेंट की। इब्राहीम ने
उसकी ओर देखा और बोले- ‘मुझे यह नहीं चाहिए। मैं गरीब की एक कौड़ी भी नहीं चाहता।’
धनी बोला- ‘मैं गरीब नहीं हूं, बहुत अमीर हूं।’ इब्राहीम ने कहा- ‘माना कि तुम्हारे पास बहुत पैसा
है, किंतु
यह बताओ कि पैसे पाने की तुम्हारी इच्छा पूरी हो गई या अभी भी बनी हुई है?’
धनी कुछ अचरज
जताते हुए बोला- ‘यह बड़ा विचित्र प्रश्न है।
आप तो जानते हैं कि पैसे कमाने की इच्छा किसी की कभी पूरी नहीं होती। मेरे मन
में भी यह इच्छा बनी हुई है और मैं निरंतर पैसे कमा भी रहा हूं।’ तब इब्राहीम ने उसे
समझाया- ‘अमीर
होते हुए भी और पैसा पाने की इच्छा जिसकी बनी रहे, उसे मैं सबसे गरीब मानता हूं,
क्योंकि वह सदा
पैसे का अभाव ही महसूस करता है। इसलिए अपनी अशर्फियां ले जाओ। मुझे इनकी कोई
आवश्यकता नहीं है।’
उनकी बात सुनकर धनी को अपनी सोच पर ग्लानि हुई और वह उनसे क्षमा मांगकर वहां
से चला गया। सार यह है कि अधिक से अधिक पाने की लालसा व्यक्ति को अमीर तो बना देती
है, किंतु
सुखी नहीं, क्योंकि सुख धन से नहीं, संतोष से आता है।
गांधीजी ने दूर की लड़कियों की दुविधा
एक बार गुजरात विद्यापीठ की छात्राओं
ने एक बैठक की, जिसमें प्रमुख रूप से इस बात पर विचार किया गया कि जो लड़के उन्हें छेड़ते हैं,
उनके सुधार के लिए
क्या किया जाए? इस कारण उनकी पढ़ाई भी प्रभावित होती थी।
तय हुआ कि श्री किशोरीलाल मशरूवाला (जो महात्मा गांधी के अनुयायी थे) से मिलकर
समस्या का हल खोजा जाए। लड़कियों ने समस्या उनके समक्ष रखी। मशरूवाला बोले- ‘अपनी चरण पादुकाओं से उन
लड़कों की अच्छी खबर लो।’ यह सुनकर छात्राएं हैरान रह गईं, क्योंकि मशरूवाला गांधीजी के
अनुयायी थे। फिर उन्होंने यह रास्ता क्यों बताया? छात्राओं ने कहा- ‘यह तो हिंसा है।
और कोई मार्ग सुझाइए?’ मशरूवाला बोले- ‘यदि तुम लोगों को यह ठीक नहीं लगता, तो बापू से जाकर पूछो।’
छात्राएं गांधीजी
के पास गईं और बोलीं- ‘बापू! अहिंसा के साधक हिंसा का सहारा कैसे ले सकते हैं?’
गांधीजी ने उनकी
बात सुनकर कहा- ‘किशोरीलाल ने तुम्हें सही मार्ग बताया है। ऐसी विकट परिस्थिति में ऐसा करने को
मैं अहिंसा ही कहूंगा।’
उल्लेखनीय है कि गांधीजी ने अनेक अवसरों पर यह कहा था कि यदि हिंसा व कायरता
में से एक को चुनना पड़े, तो वे हिंसा को चुनने की सलाह देंगे। छात्राओं को गांधीजी
से बात कर आत्मरक्षार्थ यह उचित राह मिल गई कि पाशविक वृत्ति की संतुष्टि के लिए
हिंसा करना गलत है, किंतु अपने मान की रक्षा के लिए हिंसा का सहारा लेना गलत नहीं है। वस्तुत: यह
आपद्धर्म है, जो विपत्ति में सामान्य रूप से धर्म विरुद्ध माने जाने वाले मार्ग का समर्थन
करता है और आज के युग में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के मद्देनजर इसे अमल में
लाना ही चाहिए।
बुद्ध ने शिष्य को सिखाया धैर्य रखना
भगवान बुद्ध किसी यात्रा पर जा रहे थे। उनका परम प्रिय शिष्य आनंद भी उनके साथ
था। चलते-चलते दोपहर हो गई, तो आनंद ने बुद्ध से निवेदन किया कि थोड़ा विश्राम कर लिया
जाए। बुद्ध एक घने वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए। आनंद भी पास में ही बैठ गया। कुछ
देर बाद बुद्ध को प्यास लगी।
उन्होंने आनंद को पानी लाने के लिए कहा। आनंद ने आसपास घूमकर देखा तो कोई कुआं,
तालाब या नदी नहीं
दिखाई दी। एक नाला अवश्य दिखाई दिया, जिसमें पहाड़ों से बहने वाले झरने का पानी बह रहा
था। थोड़ी देर पहले ही कुछ बैलगाड़ियां वहां से होकर गुजरी थीं, जिनके पहियों के कारण
कीचड़ व धूल से पानी गंदा हो गया था। आनंद ने यह दृश्य देखा तो वह खाली हाथ लौट
आया।
उसने बुद्ध को इस विषय में बताया और यह कहा कि मैं नदी खोजकर वहां से पानी ले
आता हूं। यह सुनकर बुद्ध ने कहा-‘आनंद, पानी नाले से ही लाओ।’ आनंद ने बुद्ध की बात मान ली। वह
पुन: नाले पर पहुंचा, किंतु उसने देखा कि पानी अब भी अस्वच्छ है। उसे ऐसा पानी बुद्ध के लिए लाना
कदापि उचित नहीं लगा। वह बुद्ध से आकर बोला- ‘भंते! वह अस्वच्छ जल आपके पीने
योग्य नहीं है। मैं अभी दौड़कर नदी से पानी ले आता हूं।’ किंतु बुद्ध ने पुन: उसे नाले का
पानी लाने के लिए भेजा।
इस बार जब आनंद नाले पर गया तो उसने देखा कि पानी में जो कीचड़ व धूल की गंदगी
थी, वह
नीचे बैठ गई है और पानी निर्मल हो गया है। वह प्रसन्न हो बुद्ध के लिए पानी ले
आया। तब बुद्ध ने कहा- ‘आनंद! व्यक्ति के लिए धैर्य रखना बहुत जरूरी है। बिना धैर्य
धारण किए निर्मलता प्राप्त नहीं होती।’ वस्तुत: धैर्य का फल सदैव मीठा होता है। इसलिए
विपरीत स्थितियों में भी धैर्य बनाए रखें।
संत ने जाना परदुख-कातरता का महत्व
एक संत दुनियादारी से विरक्त होकर अपनी कुटिया में भगवद् चिंतन करते और
कंद-मूल खाकर खुश रहते। न तो वे किसी से मिलते-जुलते और न कहीं आते-जाते।
बुजुर्गावस्था में एक बार संत काफी
अस्वस्थ हो गए। आसपास के लोगों ने उनका उपचार करवाया, किंतु संत जल्दी ही
मृत्यु को प्राप्त हो गए। मृत्यु के बाद जब वे स्वर्ग में पहुंचे तो उन्हें सोने
का मुकुट पहनाया गया। उन्होंने देखा कि वहां दूसरे संत भी थे, जिन्हें हीरे-जवाहरात
जड़े मुकुट पहनाए गए थे। यह देखकर उन्हें दुख हुआ।
उन्होंने देवदूतों को बुलाया और प्रश्न किया- ‘मैं संतत्व में इन लोगों से किसी
भी दृष्टि से कम नहीं हूं, फिर मुझे सोने का मुकुट और इन्हें हीरे-जवाहरात का मुकुट
क्यों पहनाया गया? यह भेदभाव स्वर्ग में तो नहीं होना चाहिए।’ उनकी बात सुनकर देवदूतों ने कहा-
‘आपने धरती
पर हीरे-जवाहरात नहीं दिए थे। इसलिए आपको यहां भी ये नहीं मिले।’ संत ने पूछा- ‘क्यों, दूसरे संतों ने
हीरे-जवाहरात दिए थे?’ देवदूत बोले- ‘हां, दिए थे। वस्तुत: ये हीरे-जवाहरात वे आंसू हैं, जो सांसारिक जीवन में
बहाए थे।
आपने तो अपनी आंखों से एक आंसू भी नहीं गिराया।’ संत ने उत्तर दिया- ‘मैं भला आंसू क्यों
गिराता? मैं
तो भगवान की भक्ति और स्नेह पाकर बहुत आनंद में था। कभी दुख महसूस नहीं हुआ,
जो आंसू बहाता।’
तब देवदूतों ने
संत को समझाया- ‘आपको भगवान का स्नेह मिला, इसी कारण आपको यहां सोने का मुकुट मिला।’ संत को अपनी इस भूल का
अहसास हुआ कि वे सदा स्वयं में मस्त रहे और दुनिया के दुखी लोगों पर उनका ध्यान ही
नहीं गया। दूसरों के कष्ट में उनके साथ खड़े होना और हरसंभव मदद करना सर्वोत्तम
मानवीय धर्म है। जो इस धर्म का निर्वाह करता है, वह श्रेष्ठतम मनुष्य होता है।
प्रकृति के अनुशासन का पालन
कुदरत इंसान पर लगातार अपनी कृपा बरसाती है। जहां कहीं भी प्रकृति का कहर नजर
आता है, वहां
कहीं न कहीं मनुष्य द्वारा की गई छेड़छाड़ जरूर होगी। मनुष्य चाहे तो प्रकृति
द्वारा दी गई स्वतंत्रता का सदुपयोग कर ले। इसका फायदा हमें हमारी सेहत पर मिलता
है। प्रकृति के भीतर कल्याण की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। इसके पीछे रहस्य यह है
कि प्रकृति परमात्मा की प्रतिनिधि है। उस परमतत्व को यहां से भी प्रकट किया जा
सकता है।
अगर आप संसार कमाने निकलेंगे तो मिलेगा या नहीं, कितना मिलेगा, यह उत्तर तय नहीं होंगे।
लेकिन प्रकृति से परमतत्व पाने के प्रयास करेंगे, तो शत-प्रतिशत संभावना है कि
मिलेगा ही। प्रकृति की सारी महिमा इसमें है कि आप उसका कैसे सदुपयोग करते हैं,
क्योंकि प्रकृति
एक अनुशासन है। बागवानी करने वाले लोग जानते हैं कि इसे साधना की तरह करना पड़ता
है।
हमारे यहां चिकित्सा पद्धति का एक नाम प्राकृतिक चिकित्सा भी है। इसे यूं न
लिया जाए कि जब हम बीमार हों, तब यह चिकित्सा अपनाई जाए। इसे तो स्वस्थ रहते हुए स्वीकार
किया जाए। प्रकृति का अनुशासन स्वस्थ रहते हुए भी है। इस अनुशासन को स्वस्थ रहते
हुए भी पाला जाए, क्योंकि गहराई से देखें तो पाएंगे कि जीवन में स्वास्थ्य से आगे जाकर भी कुछ
और होता है, वह है जीवन।
स्वास्थ्य जब अपनी ऊंची दशा को छूता है, तब जीवन का सही पता चलता है।
इसलिए जीवन की असली खोज प्रकृति में होगी। वह परमतत्व प्रकृति में समान रूप से
बंटा है, अत:
उसके मिलने की संभावना भी सबके लिए समान होगी।
युवक की धृष्टता और संत का धैर्य
महाराष्ट्र में एकनाथ नाम के विख्यात
संत हुए हैं। उनका आचरण स्नेह और उदारता से भरा होता था। एक बार उनके विरोधियों ने
तय किया कि किसी भी तरह एकनाथ को गुस्सा दिलाया जाए। इसके लिए एक आदमी को चुना
गया।
उसने पहले तो इनकार किया, किंतु पैसों का लालच देने पर वह मान गया। अगले दिन जब संत
एकनाथ पूजा कर रहे थे, तो वह आदमी उनके घर में घुस गया और बिना कुछ बोले उनकी गोद
में जाकर बैठ गया। एकनाथ ने विचलित हुए बिना कहा- ‘वाह! तुम्हारे इस प्रेम से मुझे
बड़ा सुख मिला है।’ थोड़ी देर बाद वह आदमी उठकर एक ओर बैठ गया।
जब एकनाथ की पत्नी ने संत के लिए भोजन की थाली लगाई, तो एक थाली उस आदमी के लिए भी
परोसी। जैसे ही एकनाथ की पत्नी थाली लेकर उस आदमी के पास आई, वह उनकी पीठ पर सवार हो
गया। यह देखकर एकनाथ ने पत्नी से कहा- ‘देखना, कहीं यह भाई तुम्हारी पीठ से गिर न जाए।’ पत्नी भी उतने ही स्नेह
से बोली- ‘आप चिंता न करें।
मुझे अपने बेटे को पीठ पर लादे रहने से इसका बड़ा अभ्यास हो गया है।’ दोनों पति-पत्नी की इस सहृदयता और धर्य को देखकर वह आदमी अत्यंत
लज्जित हुआ और एकनाथ के चरणों में गिरकर बोला- ‘महाराज! आप मुझे क्षमा कीजिए।
मुझसे आपके विरोधियों ने कहा था कि यदि तुम एकनाथ को गुस्सा दिला दोगे, तो हम तुम्हें सौ रुपए
देंगे। मैंने पैसों के लोभ में आकर ऐसा किया।’ तब एकनाथ ने उसे गले लगाते हुए
कहा - ‘भाई!
इस बात को भूल जाओ। आओ, हम साथ भोजन करें।’ सार यह है कि बुराई का प्रतिकार अच्छाई से ही संभव
है। यदि दुष्टता का जवाब स्नेह और सहनशीलता से दिया जाए, तो दुष्ट का भी हृदय परिवर्तन हो
जाता है।
भोज की इच्छा में छिपा महान दर्शन
राजा भोज परमदानी और धर्मालु
प्रवृत्ति के थे। उनकी उदारता की अनेक कथाएं उनके राज्य से लेकर अन्य राज्यों तक
प्रचलित थीं और इसी कारण वे बहुसंख्य लोगों की श्रद्धा के केंद्र थे। राजा भोज एक
बार अस्वस्थ हुए और चिकित्सकों ने भी लगभग हार मान ली, तब राजा भोज के दिमाग में एक
विचार आया।
उन्होंने तत्क्षण अपने दीवान को बुलवाया और उससे कहा- ‘संभवत: मैं अधिक समय तक जीवित
नहीं रहूंगा। मैं अपनी अंतिम इच्छा तुम्हें बताना चाहता हूं।’ दीवान ने
विनम्रतापूर्वकउनकी अंतिम इच्छा के प्रति जिज्ञासा प्रकट की, तो वे बोले- ‘जब मेरी अर्थी महल से
श्मशान स्थल पर ले जाओ, तो मेरा एक हाथ सफेद और दूसरा काला कर देना। फिर दोनों
हाथों को अर्थी से बाहर सबको दिखाते हुए ले जाना।’
राजा भोज की अंतिम इच्छा दीवान को बड़ी विचित्र लगी। उसने पूछा- ‘राजन! ऐसा करने को क्यों
कह रहे हैं?’ तब राजा भोज ने कहा- ‘इसलिए कि खाली हाथ देखकर सभी को ज्ञात हो जाए कि राजा हो या
रंक, कोई
भी अपने साथ किसी प्रकार की धन-दौलत नहीं ले जाता। सभी खाली हाथ इस संसार से जाते
हैं। सफेद और काले रंग के माध्यम से मैं यह बताना चाहता हूं कि व्यक्ति के साथ यदि
कुछ जाता है तो उसके अच्छे और बुरे कर्म ही जाते हैं।’
दीवान ने राजा भोज की बात के मर्म को जान श्रद्धापूर्वक उन्हें नमन किया। सार यह है कि व्यक्ति इस
संसार में खाली हाथ ही आता और जाता है, इसलिए जन्म से लेकर मृत्यु तक सत्कर्म और सदाचरण को
अपने व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनाना चाहिए, ताकि मृत्यु के बाद हमारा यश
काया के रूप में सम्मानपूर्वक जीवित रहे।
पत्थर ने तोड़ा नारियल का गुरूर
नदी के मनोरम तट पर एक नारियल का पेड़ लगा था। पेड़ पर लगे नारियल को खुद पर
बड़ा गुमान था। वह अक्सर अपने आस-पास की तमाम चीजों को छेड़ता रहता, लेकिन उसके स्वभाव से
परिचित होने के कारण कोई उससे कुछ नहीं कहता।
नदी में पड़े पत्थर को तो वह अक्सर अपमानित करता, लेकिन पत्थर चुपचाप उसकी बातें
सुनता रहता। एक दिन उसने पत्थर से कहा- ‘देखो, तुम्हारी भी क्या अजीब स्थिति है? यहीं पड़े-पड़े
घिस-घिसकर मर जाओगे, लेकिन नदी के पैर नहीं छोड़ोगे। आखिर यह नदी तुम्हें देती क्या है? आखिर अपमान की भी कोई हद
होती है। मुझे देखो!
किस तरह स्वाभिमानपूर्वक अपनी इस उन्नत स्थिति में मौज कर रहा हूं।’ पत्थर ने हर बार की तरह
नारियल की बात सुन ली और कोई जवाब नहीं दिया। कुछ समय बाद पत्थर और नारियल दोनों
ही उस जगह से विस्थापित हो गए।
नारियल अब पूजा की थाली में पहुंच चुका था। मंदिर में पहुंचने पर नारियल ने
देखा कि नदी का वही पत्थर शालिग्राम के रूप में पूजापीठ पर प्रतिष्ठित है, जिसकी पूजा के लिए उसे
लाया गया है। यह देख नारियल तमतमा गया। पत्थर ने नारियल का भाव समझा और कहा- ‘नारिकेल! देखा घिस-घिसकर
परिमार्जित होने का परिणाम क्या होता है और अभिमान के मद में मतवाले रहने वालों की
गति क्या हुआ करती है।’ नारियल को अपनी भूल का एहसास हुआ और उसने पत्थर से क्षमा
मांगी।
सार यह है कि वक्त कभी किसी का एक समान नहीं रहता। आज जो ऊंचाई पर है, कल वह नीचे आ सकता है और
नीचे वाला ऊपर प्रतिष्ठित हो सकता है। बेहतर यही है कि हम समदृष्टि बनाए रखें और
अपनी श्रेष्ठता पर कभी गुमान न करें।
पिता ने किया बेटे की सत्यनिष्ठा का सम्मान
एक किसान था। बड़ा परिश्रमी था। खेत में दिनभर काम करता और फसल से प्राप्त आय
से परिवार का पालन-पोषण करता था। उसका एक बेटा था, जो बहुत शरारती था। अभी वह छोटा
था, इसलिए
किसान अधिक टोकता नहीं था। उसके किशोर होने पर पिता ने सोचा कि कुछ काम उसे भी
देना चाहिए।
एक दिन उन्होंने बेटे को बुलाकर उसे कुल्हाड़ी दी। कहा कि खेत में रखा लकड़ियों का गट्ठर काटो। लड़का
कुल्हाड़ी लेकर खेत पहुंचा। उसने लकड़ियां काट दीं, किंतु चंचल स्वभाव के चलते अन्य
हरे-भरे पेड़ों पर भी कुल्हाड़ी चला दी। जो भी पेड़ उसे सामने नजर आया, उसने उसे काट डाला। उसके
पिता ने थोड़े दिनों पूर्व ही फल का एक वृक्ष लगाया था। उसमें फल आने शुरू हुए ही
थे।
लड़के ने उसे भी काट दिया। फिर घर लौट आया। अगले दिन किसान ने खेत पर देखा कि
बहुत से पेड़ कटे हैं। यह देखकर वह बहुत दु:खी हुआ। उसने खेत में काम करने वाले
नौकरों को डांटा। उसने उनसे जानना चाहा कि यह हरकत किसकी है? सभी का जवाब था कि हम तो
स्वयं यहां की देखरेख करते हैं, फिर भला पेड़ क्यों काटेंगे? तभी किसान का बेटा वहां पहुंचा।
उसने कहा - ‘यह काम मैंने किया है। आपने कुल्हाड़ी दी थी। मैं देखना चाहता था कि मैं पेड़
काट सकता हूं या नहीं? मुझे क्षमा कर दीजिए।’ पिता ने कहा- ‘तुमने सत्य बोलकर गलती
स्वीकारी, यह मुझे अच्छा लगा। जाओ, मैंने तुम्हें माफ किया। भविष्य में ऐसा मत करना।’ यही सत्यनिष्ठ लड़का आगे
चलकर अमेरिका का राष्ट्रपति बना। इसका नाम था - जॉर्ज वाशिंगटन। सत्यभाषण, आत्मा की वह नैतिकता है,
जो व्यक्तित्व को
आंतरिक दृढ़ता देती है। इसके बल पर बड़ी उपलब्धियां अर्जित की जा सकती हैं।
बुद्ध ने शिष्य को दी अनूठी सीख
भगवान बुद्ध के सभी शिष्यों की कोशिश
यही रहती थी कि उनके सिद्धांतों को यथाशक्ति आचरण में उतार लें। साथ रहने वाले शिष्य
परस्पर एक-दूसरे के आचरण पर दृष्टि रखते थे और एक के द्वारा कोई भूल होने पर दूसरा
उसे टोक देता था।
एक दिन बुद्ध के दो शिष्य नालंदा से पाटलिपुत्र आ रहे थे, जहां बुद्ध रुके थे।
पूरे दिन के सफर में दोनों चलते-चलते थक गए। रास्ते में नदी दिखी, तो पानी पीकर थोड़ा
सुस्ताने रुके। तभी उन्होंने देखा कि एक स्त्री पानी में डूब रही है। बौद्ध
भिक्षुओं के लिए स्त्री का स्पर्श वर्जित माना जाता है, अत: एक ने कहा- हमें धर्म की
मर्यादा का पालन करना चाहिए।लेकिन दूसरा बोला- मेरी आंखों के सामने कोई मर जाए और
मैं कुछ न करूं, यह असंभव है।
यह कहते हुए वह पानी में कूद पड़ा और स्त्री को कंधे पर उठाकर बाहर ले आया।
दोनों की यात्रा फिर शुरू हो गई। रास्तेभर पहले भिक्षु ने दूसरे की खूब निंदा की।
बुद्ध के सामने पहुंचने पर पहले भिक्षु ने पूरी बात सुनाते हुए कहा- भंते! इसे
मैंने काफी रोका, किंतु यह इस भीषण पाप को करने में तनिक नहीं हिचकिचाया।
बुद्ध ने उसकी पूरी बात सुन शांतिपूर्वक पूछा- इसे स्त्री को कंधे पर बाहर
लाने में कितना समय लगा होगा? उसने जवाब दिया- पंद्रह मिनट। फिर बुद्ध ने पूछा- उसके बाद
तुम लोगों को यहां आने में कितना समय लगा? उत्तर मिला- यही कोई छह घंटे। तब बुद्ध ने उसे
समझाया- इसने तो उस स्त्री को पंद्रह मिनट ही कंधे पर रखा, लेकिन तुम तो उसे छह घंटे से
अपने ऊपर बिठाए हुए हो। अब बताओ तुम दोनों में बड़ा पापी कौन है? उस भिक्षु ने अपनी गलती
जान लज्जा से सिर झुका लिया। सार यह है कि सदैव सद्विचारों और खुली सोच को प्रश्रय
देना चाहिए।
दुःखी होने की बजाय दुःख का उपचार करें
लोगों से अपने सुना होगा कि संसार में दुःख ही दुःख है। असफलता मिलने पर कई
बार आप भी यही सोचते होंगे, जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है। संसार में दुःख इसलिए है
क्योंकि संसार में सुख है। अगर सुख नहीं होता तो दुःख का अस्तित्व भी नहीं होता
है। ईश्वर हमें दुःख की अनुभूति इसलिए करवाता है ताकि हम सुख का एहसास कर पाएं,
सुख के महत्व को
समझें।
श्रीमद्भागवद् में कहा गया है कि हमारा हर कर्म सुख पाने के लिए होता है। इसके
बावजूद भी जीवन में कई बार हमें दुःख और कष्ट की अनुभूति होती है। ऐसा इसलिए होता
है क्योंकि सुख और दुःख धूप-छांव एवं दिन और रात की तरह हैं। हम चाहें न चाहें
दुःख को आना है। भगवान राम, श्री कृष्ण, बुध और महावीर को भी दुःख उठाना पड़ा। लेकिन इन महापुरूषों
ने दुःख को गले लगाकर नहीं रखा बल्कि दुःख का उपचार किया।
दुःख रात के समान है। रात के अंधेरे को दूर करने के लिए सूर्य जिस तरह निरंतर
प्रयास करता रहता है और नियत समय पर रात के अंधकार को पराजित करके दिन का प्रकाश
ले आता है, इसी तरह हमें भी दुःख को दूर करने के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। दुःख
से दुःखी होकर बैठने से दुःख और बढ़ता है लेकिन जब हम समाधान के लिए प्रयास करने
लगते हैं तो दुःख का अंधेरा छंटने लगता है।
दुःख से हम जितना डरते हैं दुःख हमें उतना ही डराता है। अगर कोई यह सोचता है
कि मृत्यु के बाद दुःख का अंत हो जाता है तो गरूड़ पुराण उसे जरूर पढ़ना चाहिए।
गरूड़ पुराण में मृत्यु के बाद प्राप्त होने वाले कष्टों का वर्णन किया गया है।
मृत्यु के बाद जीव को और भी कष्ट उठाना पड़ता है क्योंकि वहां तो शरीर भी नहीं
होता है जिससे अपने दुःख का उपचार किया जा सकता है।
सीता का हरण करके रावण ने राम को दुःख दिया। राम जी ने धैर्य से काम लिया और
रावण जो उनके कष्ट का कारण था उसका पता लगाकर उसका अंत किया। पाण्डवों का सारा
राज्य कौरवों ने छल से छीन लिया। पाण्डव अगर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाते और दुःख का
उपचार नहीं करते तो इतिहास में उनकी वीरता और साहस का बखान नहीं मिलता। इसलिए दुःख
से दुःखी होने की बजाय दुःख का उपचार करना चाहिए।
सेठ ने दान कर पाया सच्चा सुख
किसी शहर में एक आदमी रहता था। उसने
थोड़ी पूंजी लगाकर व्यापार की शुरुआत की। धीरे-धीरे उसका कारोबार बढ़ने लगा। पैसों
से पैसा बढ़ा और कुछ ही समय में वह लखपति सेठ बन गया। अब वह कई आलीशान हवेलियों का
मालिक था और जो वस्तु चाहता, धन के बल पर प्राप्त कर लेता।
धीरे-धीरे वह प्रौढ़ और फिर वृद्ध हुआ, किंतु धन पाने की लालसा कम न
हुई। एक दिन उसने स्वप्न में मृत्यु को देखा। वह डर गया। उस दिन के बाद से उसे
सोते-जागते मृत्यु का भय सताने लगा। सारी खुशी जाती रही। मन की अस्वस्थता ने तन को
भी रोगी बना दिया। एक दिन उसका मित्र उसे एक साधु के पास ले गया। सेठ ने साधु को
प्रणाम कर- महाराज! मौत मेरा पीछा नहीं छोड़ती।
दिन-रात इसी चिंता में रहता हूं कि पता नहीं कब मृत्यु आ जाए।ञ्ज उसकी समस्या
सुनकर साधु ने कहा- मोह और मृत्यु अभिन्न मित्र हैं। जब तक तुम्हारे मन में मोह है,
मृत्यु का भय
सताता रहेगा। मोह का दामन छोड़ो, तो मृत्यु के डर से भी मुक्त हो जाओगे। आदमी बोला- मैं क्या
करूं? यह
मोह तो मुझसे छूटता ही नहीं।
तब साधु ने समाधान सुझाया- मोह से मुक्त होने के लिए तुम एक हाथ से लो और
दूसरे हाथ से दो। तुम्हारे हाथ लेने में जितने स्वतंत्र हैं, देने में भी उतने मुक्त
रखो। तुम्हारा रोग शीघ्र ही ठीक हो जाएगा।ञ्ज साधु की बात आदमी ने गांठ बांध ली।
अब वह धन कमाने के साथ खुले हाथ से दान भी करता, जिससे मृत्यु का भय जाता रहा और
देने के सुख से उसका मन आनंदित रहने लगा। मोह अंतहीन होता है, इसलिए वह व्यक्ति को
सदैव असंतुष्ट बनाए रखता है और असंतोष दुख का जनक होता है। अत: परिश्रम और भाग्य
से जो व जितना मिल जाए, उसमें संतुष्ट रहें। यही सुख की कुंजी है।
गुरु के वचन सुन निर्भीक हुआ राजा
एक राजा था। उसके जीवन में किसी वस्तु
की कमी नहीं थी। पड़ोसी राज्यों से भी उसके मैत्रीपूर्ण संबंध थे। इसके बावजूद
राजा के मन में सदैव यह भय बना रहता था कि कहीं कोई हमला करके उसे मार न डाले।
एक दिन राजा अपने शयनकक्ष में लेटा हुआ इसी बात पर सोच रहा था कि अचानक उसे एक
उपाय सूझा। उसने सोचा कि एक ऐसा महल बनवाया जाए, जो चारों ओर से बंद हो। न उसमें
खिड़कियां हों, न रोशनदान, न दरवाजे हों। बस, मात्र एक दरवाजा हो, जिससे प्रवेश और निकास हो सके।
ऐसे महल पर किसी का हमला होगा भी, तो वह कारगर न होगा।
अगले ही दिन से राजा ने इस महल को बनवाना आरंभ कर दिया। कारीगरों ने दो माह
में ही महल तैयार कर दिया। एक परिंदा भी उसमें नहीं घुस सकता था। अब राजा के मन का
भय भी जाता रहा। उसे विश्वास हो गया कि अब उस पर कोई हमला नहीं कर सकता। एक दिन
राजा के गुरु मिलने आए। राजा ने बड़े उत्साह से उन्हें महल दिखाकर इसके बारे में
उनकी राय पूछी, तो वे बोले- ‘राजन महल अच्छा बनवाया है, किंतु एक भूल कर दी।’ राजा ने वह भूल जाननी चाही,
तो गुरु बोले- ‘आपने इस महल में एक
दरवाजा रखा है।
उससे दुश्मन तो नहीं आ सकता, किंतु मृत्यु आ गई तो क्या करेंगे?’ गुरु के वचन सुन राजा के
ज्ञानचक्षु खुल गए। उसने समझ लिया कि बंद महल से वह दुश्मन से तो बच सकता है,
किंतु मृत्यु तो
फिर भी आ सकती है। अब राजा ने स्वयं को हर प्रकार के भय से मुक्त कर निर्भीक रहना
सीख लिया। जो जन्मा है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है। अत: मृत्यु से डरने के स्थान पर
जब तक जीवन है, उसे कर्मशील रहते हुए पूर्ण साहस व आनंद के साथ जीना चाहिए।
स्वयं पर टिकने से निखरती है प्रतिभा
घोर परिश्रम के इस दौर में यदि कोई कम
परिश्रम करना चाहेगा, तो वह आलसी माना जाएगा। लेकिन दो स्थितियां ऐसी हो सकती हैं, जब आप कम परिश्रम में या
किए गए पर्याप्त परिश्रम में उससे ज्यादा परिणाम पा सकते हैं। पहली स्थिति है
प्रभु कृपा और दूसरी होगी हमारा प्रतिभाशाली होना।
यह भी ध्यान रखें कि प्रतिभाएं केवल पढ़-लिखकर नहीं बनतीं। यह एक नैसर्गिक गुण
है। इसे भीतर से उगाना पड़ता है। सामान्य पढ़ाई-लिखाई से मनुष्य की जानकारियां बढ़ती हैं और बुद्धि
विकसित होती है। लेकिन प्रतिभा योग्यता से अधिक गहरी और मूल्यवान बात है।
इसलिए प्रतिभा को जगाने, उजागर करने के लिए आंतरिक अभ्यास और प्रशिक्षण की आवश्यकता
होती है। योग्यता और प्रतिभा में जो अंतर होता है, उसे समझना पड़ेगा। जब मनुष्य मन
पर ज्यादा टिकता है और उस पर नियंत्रण करता है तो योग्यता का जन्म होता है।
मन को भगवान में लगाना, या अच्छे कार्यों से जोडऩा थोड़ा कठिन होता है। इसीलिए
योग्य व्यक्ति भी मार्ग से भटक जाते हैं। कई बार तो योग्य व्यक्ति अधिक गलत काम
करते नजर आते हैं। मन को शून्य कर जो कार्य होगा, उससे प्रतिभा चमकती है। मन के
हटते ही मनुष्य स्वयं से जुड़ता है।
प्रतिभा निखरती है दूसरे से हटकर और स्वयं पर टिककर। प्रतिभाशाली भी परिश्रम
करता है, पर
वह जानता है कि उसके पीछे उसके अपने बल के अलावा एक परमशक्ति काम कर रही है।
योग्यता को मनुष्य अपने परिश्रम का परिणाम मानता है, परंतु प्रतिभा को स्वयं के
प्रयास के साथ प्रभु कृपा का प्रसाद समझता है।
जब मां ने ली देशभक्त बेटे की परीक्षा
घटना उन दिनों की है, जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था। देश में एक ओर क्रांतिकारी
थे, जो
हिंसा का मार्ग अपनाकर आजादी पाने का प्रयास कर रहे थे और दूसरी ओर अहिंसा के
रास्ते आजादी पाने की इच्छा रखने वाले भी थे। एक बालक यह सब देख-देखकर देशभक्ति की
प्रेरणा पाता था। बालक की मां ने जब देखा कि पुत्र में देशभक्ति कूट-कूटकर भरी हुई
है, तो वह
बड़ी प्रसन्न हुई।
वह भी चाहती थी कि देश गुलामी की बेडिय़ों से मुक्त हो, लेकिन उसके मन में यह डर सदा बना
रहता था कि यदि पुत्र पुलिस के हाथों पड़ गया, तो घबराकर उन लोगों के नाम-पते न
बता दे, जो
गुप्त रूप से देश की आजादी के लिए काम कर रहे थे।
एक दिन मां ने बेटे को अपने मन का भय बताया, तो उसने दृढ़ स्वर में कहा- 'मां! तुम निश्चिंत रहो,
मैं कभी भी उन
लोगों के नाम-पते नहीं बताऊंगा।' मां उसका जवाब सुनकर खुश तो हुई, किंतु आश्वस्त न हो पाई। इसलिए
बोली - 'मैं
तेरी परीक्षा लूंगी।'
बेटे ने कहा- 'मैं देने को तैयार हूं।' मां ने दीया जलाया और बेटे को अपनी अंगुली उसकी लौ के ऊपर
रखने के लिए कहा। बालक जरा भी नहीं घबराया। उसकी अंगुली जलती रही, किंतु जब तक मां ने उसे
हाथ हटाने को नहीं कहा, उसने हाथ नहीं हटाया।
उसके मुंह से उफ् तक न निकली। बालक की हिम्मत देखकर मां ने उसे गले से लगा
लिया। बालक दोगुने उत्साह से देशभक्ति के कामों में जुट गया। यही बालक आगे चलकर
अशफाक उल्ला खां के नाम से मशहूर क्रांतिकारी बना, जिसे काकोरी कांड में फांसी की
सजा दी गई। जब अशफाक के गले में रस्सी का फंदा डाला गया, तो उनके चेहरे पर भय नहीं,
बल्कि देश के लिए
मर मिटने की खुशी और गर्व था। ऐसी देशभक्ति प्रणम्य व अनुकरणीय है।
महिला को खलीफा ने सलाम किया
एक बार खलीफा उमर को जनता के बीच
भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया। उनका भाषण प्रभावशाली था। बीच-बीच में खलीफा
ने लोगों से प्रश्न भी किए, जिनके संतोषजनक जवाब उन्होंने दिए। खलीफा से धर्म व नीतिगत
जिज्ञासाओं का भी लोगों ने समाधान प्राप्त किया। इसी क्रम में खलीफा ने लोगों से
प्रश्न किया - 'यदि मैं आप लोगों को कोई हुक्म दूं, तो क्या आप सब उस हुक्म को मानेंगे?'
अधिकांश व्यक्तियों ने सहमति सूचक सिर हिलाए, किंतु एक महिला ने कहा- 'जी नहीं! हम आपका हुक्म
नहीं मान सकते।' यह सुनते ही भीड़ में गुस्से का भाव नजर आया। खलीफा ने सभी को शांत रहने का
संकेत दिया और उस महिला से इसका कारण पूछा। वह बोली - 'आप इतना लंबा चोगा पहने हुए हैं,
लेकिन मेरे पति का
चोगा घुटनों तक भी नहीं आता।
इससे स्पष्ट है कि आपने शाही भंडार से अपने हिस्से से अधिक कपड़ा लिया है।'
महिला की बात
सुनकर खलीफा ने कहा- 'मैं नहीं जानता कि यह कैसे हुआ है? मेरा बेटा इसका उत्तर देगा।' खलीफा का संकेत पाकर उनका बेटा
आगे आकर बोला- 'मेरे पिता ने शाही भंडार से अधिक कपड़ा नहीं लिया। मैंने अपने हिस्से का
उन्हें दे दिया है। तभी उनका चोगा इतना लंबा बन सका है।' यह सुनते ही उपस्थित लोग उस महिला
को कोसने लगे।
किंतु खलीफा उस पर तनिक भी नाराज नहीं हुए, बल्कि उसे शाबाशी देते हुए बोले-
'जब तक इस
महिला की तरह ईमानदार और निर्भीक होकर अपने दिल की बात कहने वाले लोग मौजूद हैं,
तब तक हमारे मजहब
को कोई खतरा नहीं है।' सार यह है कि सत्य को साहसपूर्वक बोलने से हर स्तर पर
पारदर्शिता बनी रहती है। इससे व्यक्तिगत और सामाजिक नैतिकता भी कायम होती है।
जब राजा ने दी क्रोध को तिलांजलि
एक बार राजा श्रेणिक और उनकी रानी
चेलना की इच्छा भगवान महावीर के दर्शन करने की हुई। दोनों उनसे मिलने पहुंचे और
उनसे बहुत प्रभावित हुए। लौटते समय रास्ते में रानी ने देखा कि एक मुनि तन पर एक
कपड़ा पहने तपस्या में लीन है। वे भीषण ठंड के दिन थे। इस कठोर साधना को देखकर
रानी ने मुनि को प्रणाम किया। महल में लौटकर जब रानी रात को सोई, तो नींद में उनका एक हाथ
बिस्तर से नीचे लटकने के कारण अकड़ गया। सुबह उनके हाथ में तेज दर्द था।
रानी की सेविकाओं ने आग पर कपड़ा गर्म कर उनके हाथ की सिकाई शुरू की। तभी रानी
को जंगल में मिले उस तपस्वी की याद आई, जो भीषण ठंड में एकमात्र वस्त्र लपेटे तपस्यारत था।
रानी के मुंह से बरबस निकला- 'हाय! उस बेचारे का क्या हाल होगा?उसी समय राजा का आगमन हुआ और
रानी के ये शब्द सुनकर उन्होंने समझा कि रानी का लगाव किसी और से है।
क्रोध में उन्होंने मंत्री को अंत:पुर में आग लगाने का आदेश दे दिया। इसके बाद
वे भगवान महावीर के पास पहुंचे और सारी बात उन्हें कह सुनाई। महावीर बोले- 'राजन! चेलना पतिव्रता
हैं। उन्होंने दिव्य दृष्टि से मुनि वाला प्रसंग जान लिया और श्रेणिक को बताया।
श्रेणिकका क्रोध शांत हुआ।
वे तत्काल महल में लौटे और मंत्री से पूछा- 'क्या आपने अंत:पुर जला दिया?'
मंत्री ने हां में
सिर हिलाया। श्रेणिकके दुख की सीमा न रही। उन्हें व्यथित देख मंत्री ने कहा- 'राजन! मैं जानता था कि
आपने ऐसा क्रोध में कहा है। इसलिए मैंने हस्तिशाला को जलाया, अंत:पुर को नहीं। राजा
को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने क्रोध न करने का संकल्प लिया। वस्तुत:
क्रोध व्यक्ति के विवेक को हर लेता है और विवेकहीनता अनुचित कर्मों की ओर ले जाती
है।
दृढ़ता से कोलंबस ने खोजा अमेरिका
कोलंबस के मन में एक ही धुन थी नई दुनिया की खोज। साधन सीमित थे, किंतु हौसला बड़ा था।
उसने तय कर लिया कि अब नए देशों की खोज करनी है, तब उसके पास मात्र एक छोटा-सा
जहाज था। उसने अपने कुछ सहयोगियों से इस विषय में चर्चा की। वे लोग उसकी लगन को
देखकर उसका साथ देने के लिए राजी हो गए। सभी ने तय किया और एक दिन ठीकसमय पर वे
जहाज पर सवार होकर चले। सभी उत्साहित थे।
चलते-चलते समुद्र में तूफान आ गया। तीन दिन तक उनका जहाज बड़ी-बड़ी लहरों से
जूझता रहा। फिर जहाज का मस्तूल खराब हो गया। मस्तूल के खराब होने का आशय सीधे-सीधे
जहाज को खतरा था और उस पर सवार लोगों की जान संकट में थी। कोलंबस के साथी घबरा गए।
उन्होंने आगे जाने से मना किया तो कोलंबस ने उनकी हिम्मत बढ़ाते हुए कहा- 'तूफान हम सभी के साहस की
परीक्षा ले रहा है। हम हार मानेंगे, तो कभी अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएंगे। इसलिए
बिना घबराए बढ़े चलो।'
कोलंबस के शब्दों ने साथियों को जोश दिला दिया। वे आगे बढ़ते रहे, किंतु कुछ देर बाद उनकी
दिशा बताने वाली घड़ी खराब हो गई। उसकी खराबी से यह जानना जटिल हो गया कि वे लोग
किधर जा रहे हैं? किंतु कोलंबस ने फिर भी हार नहीं मानी। उसने साथियों से कहा- 'मेरा दृढ़ विश्वास है कि
कितनी भी परेशानियां आएं, किंतु जीत हमारी ही होगी।' वास्तव में उसकी बात सही निकली।
वे सभी आगे बढ़ते गए और आखिर उन्हें अमेरिका के रूप में वह नई दुनिया मिल गई,
जिसकी तलाश में वे
निकले थे। सार यह है कि विपरीत परिस्थितियों में भी अडिग रहने वालों को सफलता
मिलती ही है। दृढ़ मनोबल अंतत: विजय हासिल करके ही रहता है।
संत से जाना भक्त होने का सही अर्थ
एक संत ईश भक्ति में सदा डूबे रहते और
अपना हर कार्य ईश्वर को समर्पित कर देते। वे परम भक्ति की अवस्था को प्राप्त कर
चुके थे। एक बार संत अत्यधिक बीमार हो गए। उनके भक्तजन अनेक नामी वैद्यों को लेकर
आए, किंतु
कोई उन्हें स्वस्थ नहीं कर पाया। हालांकि संत अपनी इस अवस्था में भी भगवद् स्मरण
करते रहते, पर कभी ईश्वर से शिकायत का वचन उन्होंने मुंह से नहीं निकाला।
एक दिन उनका एक भक्त उनसे मिलने आया और चुपचाप सामने बैठ गया। संत समझ गए कि
वह कुछ कहना चाहता है। उन्होंने उससे कहा- क्रबेटा! तुम जो कुछ कहना चाहते हो,
खुलकर कहो।ञ्ज संत
के स्नेहपूर्ण व्यवहार से शिष्य की हिम्मत बंधी और वह बोला- क्रआप इतने बीमार हैं,
कोई औषधि काम नहीं
कर रही है
ऐसे में आप स्वयं ईश्वर से अपनी बीमारी दूर करने की प्रार्थना क्यों नहीं करते?
आप तो उनके इतने
बड़े भक्त हैं। वह आपकी प्रार्थना जरूर सुनेगा।
उसकी बात सुनकर संत मुस्कराए और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले- क्रक्या
तुम्हें मालूम नहीं कि बीमारी किसकी इच्छा से होती है? क्या मेरी बीमारी में प्रभु का
हाथ नहीं है? भक्त ने कहा- क्रयह तो आपने ठीक कहा। बिना उसकी इच्छा के कुछ भी नहीं हो सकता।
संत ने उसे फिर समझाया- क्रतब तुम कैसे कह सकते हो कि मैं उसकी इच्छा के
विरुद्ध बीमारी से मुक्त होने के लिए उससे प्रार्थना करूं? उसने बीमार किया है, ठीक करना या न करना भी
उसकी इच्छा पर है। हमें तो बस अपने ईश्वर पर भरोसा रखना होगा। संत की अपने आराध्य
के प्रति अटूट भक्ति देखकर उनके भक्त ने स्वयं की सोच में सुधार कर लिया। वस्तुत:
सच्ची भक्ति पूर्ण समर्पण मांगती है और जहां समर्पण होता है, वहां सुख-दुख एक समान
अनुभूत होते हैं।
राजा ने किया गुलाम का सम्मान
प्राचीन यूनान की घटना है। वहां एक
बार विशाल प्रदर्शनी लगी। उस प्रदर्शनी में अपोलो की एक अत्यंत सुंदर मूर्ति थी।
यूनानी लोग अपोलो को अपना ईश्वर मानते थे। सभी जानना चाहते थे कि वह मूर्ति किसने
बनाई? किंतु
यह किसी को नहीं पता था। एक दिन यूनान के राजा से उसके मंत्री ने प्रदर्शनी की
चर्चा की। राजा ने वहां जाने की इच्छा व्यक्त की। राजा ने रानी को साथ लिया और
प्रदर्शनी में पहुंचे। ये दोनों अपोलो की मूर्ति के सामने पहुंचे तो मंत्रमुग्ध रह
गए। राजा ने मूर्तिकार का नाम पूछा, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं था।
राजा ने अपने सैनिकों को मूर्तिकार की खोज करने का आदेश दिया। थोड़ी देर बाद
सैनिक एक लड़की को पकड़ लाए। राजा ने लड़की से कई बार पूछा, किंतु वह चुप खड़ी रही। अंतत:
राजा को क्रोध आ गया और उसने लड़की को कारागार में डालने का आदेश दिया। राजा का यह
आदेश सुनते ही वहां खड़ी भीड़ में से एक युवक राजा से बोला- क्रमहाराज! मेरी बहन
को छोड़ दीजिए। गलती मैंने की है। यह मूर्ति मैंने बनाई है। राजा ने उसका परिचय
पूछा तो वह बोला- मैं एक गुलाम हूं।
उसे गुलाम जानकर वहां उपस्थित लोगों में गुस्से की लहर दौड़ गई, क्योंकि उस समय यूनान
में गुलामों को भगवान की मूर्ति बनाने का अधिकार नहीं था। वे लोग उसे मारने दौड़े,
किंतु कलाप्रेमी
राजा ने उन्हें रोकते हुए कहा- क्रतुम लोग शांत हो जाओ। देखो यह मूर्ति क्या कह रही
है? यह कह
रही है कि भगवान के दरबार में सब बराबर हैं। यह सुनकर भीड़ शांत हो गई। राजा ने
मूर्तिकार को पुरस्कार से सम्मानित किया। कथा का सार यह है कि ईश्वर ने समदृष्टि
रखकर इस प्राणी जगत का निर्माण किया है। अत: मनुष्य को भी अपनी सोच व आचरण को
पक्षपातरहित रखना चाहिए।
मोहन ने सिखाया बड़ों का आदर करना
बचपन में गांधीजी को प्यार से सभी
मोहन के स्थान पर मोनिया कहते थे। पेड़ पर चढ़ना उसका शौक था। घर के लोगों को पेड़
से मोनिया के गिरने का डर लगता, किंतु वह निर्भीक था। एक दिन वह अमरूद के पेड़ पर चढ़ गया।
वह नीचे उतरता, इसके पहले ही उसकेबड़े भाई वहां आ गए।
उन्होंने उसे पेड़ पर चढ़े देखा, तो नाराज होकर उसे दो-चार थप्पड़ रसीद कर दिए।
मोनिया रोते हुए मां के पास पहुंचा और बोला- ‘मां! भाई ने मुझे मारा।’ मां ने सहज भाव से कह
दिया- ‘जा,
तू भी उसे मार आ।’
मां के ऐसा कहते ही
वह गंभीर होकर बोला- ‘ऐसा तुम कहती हो, मां? मैं अपने बड़े भाई पर हाथ उठाऊं?’
मां ने हंसते हुए
कहा- ‘तो
क्या हुआ? भाई-बहनों में तो लड़ाई-झगड़ा होता ही रहता है।’ मोनिया तत्काल मां की बात काटते
हुए बोला- ‘तुम गलत हो मां, जो बड़े को मारने की सीख देती हो। भाई मुझसे बड़े हैं।
वे भले मुझे मार लें, किंतु मैं उन्हें नहीं मारूंगा।’ मां यह सुनकर चकित रह गईं।
उन्होंने तो बड़े भाई को मारने की बात साधारण रूप में कह दी थी। मोनिया ने फिर
कहा- ‘मां!
जो मारता है, उसे तुम क्यों नहीं रोकतीं? तुम्हें उससे कहना चाहिए कि वह नहीं मारे, न कि मार खाने वाले से
कहना चाहिए किवह बड़े भाई को मारे।’ अपने पुत्र के पवित्र हृदय पर मां का सीना गर्व से
फूल उठा। वे मोनिया को गले लगाकरबोलीं- ‘बेटा!
तूने इतनी अच्छी बातें कहां से सीखीं? मालूम नहीं कि ईश्वर ने तेरे लिए क्या भाग्य रचा है?’
आगे चलकर इसी
मोनिया ने महात्मा गांधी के रूप में न केवल अपने देश, बल्कि विदेशों से भी अगाध
श्रद्धा पाई और आज वे विश्व के महान आदर्श माने जाते हैं। सार यह है कि बड़ों का
सम्मान छोटों का कर्तव्य है, किंतु इसकी शिक्षा बड़ों को अपने आचरण के द्वारा छोटों को
देनी चाहिए।
अजनबी ने कराया गलती का अहसास
काफी समय पहले की बात है। दस लड़के बहुत अच्छे मित्र थे। वे साथ ही पढ़ते थे
और अधिकांश समय साथ ही रहते। एक बार उन लोगों ने लंबी यात्रा का कार्यक्रम बनाया।
उन्होंने स्थान तय किया। फिर अपनी-अपनी गति से सफर तय करने लगे। उनमें से कोई धीरे
चलता था, तो
कोई तेज। इस कारण सभी एक-दूसरे से अलग-अलग हो गए। आगे-पीछे होकर शाम तक सभी तय
स्थान पर पहुंच गए। तब उन्होंने विचार किया कि अपने पूरे समूह को गिन लेना चाहिए,
कहीं कोई रास्ते
में छूट तो नहीं गया। एक लड़के ने सभी को पंक्तिबद्ध खड़ा किया और गिनने लगा। फिर
बोला- ‘हम
तो नौ ही हैं। दसवां कहीं रह गया।’
दूसरे लड़के ने कहा- ‘ठहरो, मैं गिनता हूं। शायद तुमसे भूल हो गई होगी।’ उसने गिना, तो भी नौ ही लड़के मिले।
सभी के चेहरों पर यह सोचकर दुख छा गया कि हममें से एक गुम हो गया। तभी एक अजनबी
उधर से गुजरा और उन लोगों को परेशान देख कारण पूछा। जब उसने उनकी समस्या सुनी,
तो वह बोला- ‘मैं तुम्हारे खोये साथी
को मिला दूंगा। तुम सब एक कतार में खड़े हो जाओ।’
वे सभी एक पंक्ति में खड़े हो गए और उसने उन सभी को गिना। अब वे दस थे। सभी
लड़कों ने उस आदमी का बहुत आभार माना और उससे इस चमत्कार का कारण पूछा। वह बोला- ‘तुममें से जो गिनता था,
वह स्वयं को छोड़
देता था। इस कारण हिसाब गलत हो जाता था।’ इस प्रतीकात्मक कथा का संकेत यह है कि व्यक्ति स्वयं
को भूलकर अन्यों पर ध्यान देता है। इसी कारण उसे दुनिया अधूरी दिखाई देती है।
वेदों में कहा गया है- ‘पहले स्वयं को पहचानो, फिर दुनिया को’ आत्मविश्लेषण परम ज्ञान
की कुंजी है।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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