महर्षि रमण का जन्म 30 दिसंबर सन् 1879 में तमिलनाडु के मदुरै से 30 मील दूर एक छोटे से गांव तिरूचल्ली में हुआ था। उनके बचपन का
नाम वेंकटरमण था। उनके पिता का नाम सुंदरम अय्यर व मां का नाम अलगम्माल था। दोनों
एक आदर्श दम्पति और भगवान के बड़े भक्त थे।
बचपन में आलसी थे रमण
वेंकटरमण अपने तीन भाइयों में दूसरे
नंबर पर थे। उनका जन्म गांव में लगनेवाला
प्रसिद्ध मेला जत्रा के दिन हुआ था। वेंकटरमण के प्रारंभिक जीवन की कोई घटना
उल्लेखनीय नहीं है। वह अन्य बच्चों के समान ही थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा
गांव में ही हुई थी। जब वे 12 वर्ष के थे,
तब उनके पिता का देहांत हो गया। पति की मृत्यु के बाद
उनकी मां अलगम्माल गांव छोड़ने को विवश हो गई और बच्चों को लेकर वे मदुरै चली गईं,
जहां उनके देवर सुब्बाराव अक्षयर रहते थे। उन्होंने
वेंकटरमण को मदुरै के मिशन उच्च विद्यालय में नामांकन करवा दिया, जहां वह पढ़ाई करने जाने लगे, पंरतु उनका मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता था।
बचपन में वे बड़े आलसी थे। बालक
वेंकटरमण का शरीर तगड़ा तथा चमकता हुआ ओजस्वी चेहरा और पूर्णरूपेण स्वस्थ थे। उनके
सहपाठी रमण के डील-डौल शरीर से डरे रहते थे। वेंकटरमण की गहरी नींद सब लोगों के
लिए कौतुहल और आश्चर्य की बात थी। उसकी नींद इतनी गहरी होती थी कि उन्हें जगाने की
सारी कोशिशें बेकार जाती थी, चाहे कोई उसे
पीटे, एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर ले जाय या
फिर कहीं जमीन में लिटा दे, पर उनकी नींद
नहीं खुलती। इसलिए उनके सहपाठी उन्हे 'कुंभकर्ण"
कहकर चिढ़ाते थे।
लेकिन, तब शायद किसी को यह नहीं मालूम था कि यही आलसी बालक आगे चलकर एक दिन
संन्यासी बन जाएगा। हालांकि, उनके जीवन में कई
महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटी जो संयोग ही था। यह संयोग उनके जीवन में कैसे आए, उसकी भी चर्चाएं रोचक है।
बालमन में अरुणाचल को देखने की प्रबल
इच्छा
16 वर्ष की अवस्था में वेंकटरमण के घर
पर एक अतिथि आये थे और वह अरुणाचल के रहने वाले थे। 'अरुणाचल" शब्द ने बालक मन को बहुत प्रभावित किया, रमण के ऊपर जादुई असर डाला। उनके मन में अरुणाचल के विषय में
अधिक जिज्ञासाएं पैदा हो गईं। बालक वेंकटरमण अपनी जिज्ञासा को रोक न सका। उसने
अतिथि से पूछा क्या आप अरुणाचल से आए हैं?
अतिथि बालक के इस सवाल
से बहुत प्रभावित हुआ। उन्होंने बताया ''हां! मैं अरुणाचल से आ रहा हूं। तुमने तिरूवन्न्मलाई का नाम सुना है?
तिरूवन्न्मलाई ही अरुणाचल है। बालक वेंकटरमण के मन को
अतिथि ने आकृष्ट किया।
उसने मन में ठान लिया है कि वह एक
बार अरुणाचय अवश्य जाएगा। वेंकटरमण ने कुलोत्तुंग के पेरिय पुराण की तमिल कविताओं
में उसने एक कविता पढ़ी थी, जिसमें शैव संतों
का वर्णन किया गया है। शैव संतों की कथाओं ने बालक के दिल और दिमाग पर गहरी जादुई
प्रभाव डाला। बालक के हृदय में तीव्र लालसा पैदा हुई और वह मन ही मन सोचने लगा
क्या मेरा सपना कभी सच होगा, मैं उन संतों के
सामान बन सकूंगा। उसी दिन बालक ने एकांत
में, ईश्वर की मौन साध्ना आरंभ कर दी।
ज्ञान का बोध
सन् 1896, जब वेंकटरमण केवल 17 वर्ष के थे और
एक दिन अपने चाचा के घर की पहली मंजिल के एक कमरे में गहरे विचारों में डूबे हुए
थे, तभी एकाएक उनके हृदय में मृत्यु भय का विचार
आया और वे बेसुध हो गए, उन्हें लगा कि वे मर गए। मृत्यु के
विचार उन्हें दुर्बल न कर दे यह सोचकर इन विचारों को रोकने के लिए उन्होने
आत्मचिंतन प्रारंभ किया। उन्होंने मन ही मन कहा ''मुझे क्या करना चाहिए। अब मृत्यु समीप आ रही है । मैं मर रहा हूं। मृत्यु
क्या है ? क्या यह शरीर नष्ट हो जाएगा?" ऐसा सोच कर तब उन्होंने पूर्णरूप से अपनी आंखों को बंद कर
लिया। मुर्दे के समान जमीन पर लेट गए और चिंतन-मनन आरंभ कर दिया।
अब मेरा शरीर मर चुका है, शरीर निर्जीव हो गया है। मेरे सगे-संबंधी इस निर्जीव शरीर को
श्मशान में ले जाएंगे। और चिता में रखकर जला देंगे। परंतु, क्या इसी शरीर के साथ 'मैं' मर गया? क्या मैं अपना
नाम जानता हूं। मैं अपने माता-पिता, चाचा, भाई, मित्रों तथा अन्य
परिचितों को स्मरण कर सकता हूं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मुझे अपनी वैयक्तिकता का
ज्ञान अब भी है। इस प्रकार मेरे शरीर के अंदर, जो 'मैं" है, वह शरीर से परे हैं। 'मैं" ही
आत्मा है तथा आत्मा चिरस्थायी व अनश्वर है। इस प्रकार बिजली की तरह यह अनुभूति
वेंकटरमण के दिमाग में कौंध गई।
वेंकटरमण के ये विचार बचकानी
कल्पनाएं लगती है। पर, यह याद रखना चाहिए कि ईश्वर की
अनुभूति वर्षों की तपस्या से ही प्राप्त होती है। तपस्या काल में भूख और नींद का
परित्याग करना पड़ता है। शरीर को यातना देनी पड़ती है। परंतु, वेंकटरमण को बिना कष्ट सहे ही ऊंचा ज्ञान प्राप्त हो गया। वे मृत्यु भय
से मुक्त हो गए और वेंकटरमण से 'महर्षि रमण'
हो गए।
घर छोड़ने का निर्णय
विलक्षण अनुभूति प्राप्त होने के छ:
सप्ताह बाद 29 अगस्त 1896 का वह दिन जब अंग्रेजी अध्यापक के कहने पर कि व्याकरण की किताब से तीन
बार गद्यांश लिख कर लाओ, तब वेंकटरण ने
शिक्षक के आदेशानुसार दो बार लिखे और तीसरी बार लिखने के लिए सोच ही रहे थे कि
एकाएक हाथ रुक गए। वह सोचने लगे कि वह क्या कर रहे हैं? गद्यांश का नकल करने से क्या लाभ? यह कार्य
तो उद्देश्यहीन और निरर्थक है। इन विचारों के साथ ही उन्होंने पुस्तक और कलम फेंक दी
और ईश्वर के ध्यान में डूब गये।
बालक के इस विलक्षण व्यवहार को देखकर
अध्यापक ने अपना सिर पीट लिया। इस विचित्र छात्र को कैसे सुधरे? तब तक वेंकटरमण अपने
किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हो चिंतन -मनन में खो गए। वेंकटरमण का तो सारा ध्यान अब
अरुणाचल में लगा था। वे उधेड़बुन में पड़े
थे कि यदि वह अपना विचार घरवालों को बताते हैं तो घरवाले उन्हें घर से जाने
नहीं देंगे, इसलिए चुपचाप भाग जाने में ही फायदा
है।
घर छोड़ते वक्त, उन्होंने एक पत्र लिखकर छोड़ दिया था। जिसमें लिखा था मैं
परमपिता ईश्वर की खोज में जा रहा हूं। आप मेरे संबंध् में किसी प्रकार की चिंता न
करें। मुझे ढूंढ़ने का प्रयत्न भी नहीं करें। मैंने कालेज की फीस नहीं भरी है और उन रुपयों में से
मैंने तीन रुपए इस पत्र के साथ रख दिए हैं। वेंकटरमण दोपहर के बाद घर से सीधे
रेलवे स्टेशन गए। स्टेशन पहुंचने में काफी समय लगा। उस दिन गाड़ी देर से आई,
इसलिए उस दिन वे गाड़ी पकड़ सके, अन्यथा उस दिन की यात्रा स्थगित करनी पड़ती।
दूसरे दिन, बहुत तड़के वे विलुपुरम स्टेशन पहुंचे। पैसे न होने के कारण वहां से
उन्होंने तिरूवन्न्मलाई तक पैदल जाने का संकल्प किया। उनके पास इतने कम पैसे थे कि
रेल द्वारा केवल मांम्बलपट्टु तक ही जा सकते थे इसलिए विवश होकर उन्होंने
मांम्बलपट्टु तक का टिकट खरीदा और वहां तक रेल यात्रा की। मांम्बलपट्टु पहुंचकर वे
रेल से उतर गए।
अब उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं बची
थी। भूखे-प्यासे पैदल चलते रहे और शाम तक दस मील की यात्रा तय कर ली। लम्बी
यात्रा के कारण वेंकटरमण थककर चूर हो गए। शाम तक किसी तरह वे अरायिणीनल्लूर नामक
गांव तक पहुंचे। उस गांव में एक शिव मंदिर था। वे उस शिव मंदिर में गए और वहां
ध्यान में डूब गए। वहां उन्हें एक अलौकिक ज्ञान प्रभा के दर्शन हुए।
समाधि में लीन
मंदिर के पुजारी ने देखा कि एक बालक
ध्यानमग्न है। वह मंदिर के द्वार कैसे बंद करे यह सोच कर वह धर्म संकट में पड़
गया। उसने कुछ सोचा और बालक की समाधिक भंग की, उसने बालक को झकझोर कर समाधि से जगाया। बालक की समाधि भंग हो गई और उसने
पुजारी को कौतूहल भरी नजरों से देखा।
पुजारी ने बताया कि उसे यहां से तीन
मील दूर दूसरे मंदिर में जाना है, इसलिए दरवाजे बंद
करने हैं वेंकटरमण भी पुजारी के साथ हो लिए और उसके साथ किलूर के एक मंदिर में
पहुंच गये और वह उस मदिर में भी ध्यानस्थ हो गये। पूजा पाठ समाप्त करने के बाद,
पुजारी ने फिर उनकी समाधि भंग की। पुजारी ने उन्हें गांव के शास्त्री जी के घर पहुंचा दिया
ताकि बालक को मंदिर में रात न बितानी पड़े।
वेंकटरमण जैसे ही शास्त्री जी के घर
पहुंचे, बेहोश होकर गिर पड़े। कुछ मिनटों के बाद
उन्हें होश आया। आस-पास के लोग उन्हें कौतुहल और विस्मय से देख रहे थे। उन्होंने
एक-दो घूंट पानी पीया। पानी पीने से उन्हें कुछ शक्ति मिली। शास्त्री जी ने बड़े
प्यार से उन्हें भोजन कराया। भोजन करने के पश्चात वेंकटरमण सो गये।
वेंकटरमण को अपनी यात्रा आगे जारी
रखनी थी। सो, अपने कान की सोने की बालियों को
उतारकर उन्होंने शास्त्री भागवतरण को दे दिया और उनसे चार रुपये देने के लिए
निवेदन किया। भागवतरण ने उन बालियों का ध्यान से परीक्षण किया और अनुमान लगाया कि
उनका मूल्य बीस रुपये से कम न होगा। उसने वेंकटरमण को चार रुपये दे दिए तथा एक
कागज पर अपना पता भी लिखकर दिया। उसने वेंकटरमण से कहा तुम किसी भी समय आकर अपनी
बालियां ले जा सकते हो।
वेंकटरमण चार रुपये पाकर बहुत
प्रसन्न् हुए और आगे की यात्रा के लिए चल पड़े। चलते समय भागवतरण की पत्नी ने कुछ
मिठाई बांध दी। उनसे विदा लेकर वे अपनी यात्रा पर रवाना हो गए। जिस कागज पर
भागवतरण ने अपना पता लिख कर दिया था, उस कागज को
पफाड़कर उन्होंने हवा में उड़ा दिया। बालियों को फिर से लेने का उनका कोई इरादा नहीं
था।
रमण का संन्यास
दूसरे दिन, वेंकटरमण तिरूवन्न्मलाई पहुंच गए। जहां, उनकी प्रसन्न्ता का कोई ठिकाना न रहा। वे आनंद से अरुणाचलेश्वर मंदिर की
ओर दौड़े। उस समय मंदिर के द्वार खुले हुए थे, मंदिर में कोई न था। वेंकटरमण का
हृदय प्रसन्न्ता के मारे तेजी से धड़क रहा था। अब, वेंकटरमण भगवान अरुणाचलेश्वर के सम्मुख थे।
इस तरह वेंकटरमण की लम्बी यात्रा समा'त हुई । अब जहाज बंदरगाह पर सुरक्षित पहुंच चुका था। अपनी
यात्रा को विराम देते हुए वेंकटरमण ने संन्यास ले लिया। अब वे एक गहरे विचार में
डूब गए 'यह शरीर नश्वर है, फिर शरीर के लिए इतना आडम्बर क्यों? इतनी भाग-दौड़ क्यों? इसलिए उन्होंने
स्नान तक करना बंद कर दिया। दिन-रात साधना में लगे रहते मंदिर ही अब उनकी दुनिया
बन गई थी। यहां तक की मंदिर से वह कभी बाहर नहीं निकलते थे।
तरुण संन्यासी वेंकटरमण की कठोर
साध्ना ने शीघ्र ही लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। अब श्रद्धालु लोगों ने
उनकी देखभाल का उत्तदायित्व अपने ऊपर ले लिया। परंतु, वेंकटरमण सबसे निर्लिप्त रहते थे। वह किसी से बातचीत तक नहीं करते थे।
जितना आवश्यक होता था, वह उतना ही बोलते थे। अधिक बातचीत
करना उन्हें पसंद नहीं था।
ईश्वर साधना में लीन
धीरे-धीरे समय बीतता गया। अभी छ: महीने बीते होंगे कि थंबीरंगास्वामी
नामक एक श्रद्धालु ने उन्हें अपने यहां ठहरने का निमंत्रण दिया। वेंकटरमण ने उनके
निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार किया। रंगास्वामी के पास एक बहुत सुंदर सा बाग था ।
रंगास्वामी ने इसका नाम वृंदावन रखा था। उसने वृंदावन में ही वेंकटरमण के रहने और
साधना करने की सारी व्यवस्था कर दी। उस रमणीय तथा एकांत स्थान में वेंकटरमण की
साधना निर्विघ्न रूप से चलने लगी। वहां उन्हें किसी प्रकार की परेशानी नहीं थी।
वहां वे ईश्वर के गंभीर चिंतन में डूब गए और अपना पूरा ध्यान ईश्वर में केन्द्रित
कर लिया।
कठोर साधना के पफलस्वरूप उन्हें नए
ज्ञान का प्रकाश मिला। इस नए ज्ञान ने उन्हें और भी जिज्ञासु बना दिया। अब अनेक
प्रश्न उनके मस्तिष्क को अशांत करने लगा, जैसे
ईश्वर क्या है? आत्मा क्या है? आत्मा तथा परमात्मा का क्या संबंध् है? देहांत के बाद आत्मा का क्या होता है? क्या शरीर की तरह आत्मा भी नश्वर है? या आत्मा अमर है। समाधि अवस्था में उन्हें इन सारे प्रश्नों के उत्तर मिल
गए।
वेंकटरमण से बने महर्षि रमण
वेंकटरमण ने अपनी समाधि भंग की ।
उन्हें ज्ञान का साक्षात्कार हो गया और ज्ञान के प्रकाश के कारण उनका संदेह नष्ट
हो गया। वह साक्षात ज्ञानस्वरूप हो गए। अब उन्होंने संकल्प किया कि वे अपनी एकांत
साधना छोड़कर जन-कल्याण का कार्य करेंगे । जनता के दुख दूर करने का प्रयत्न करेंगे
और उनकी समस्याओं का समाधन करेंगे। उनका नाम चारों ओर दूर-दूर तक फैल गया, दर्शनार्थियों की भीड़ दिनोंदिन बढ़ने लगी। अरुणाचल मंदिर में
आने वाले तीर्थयात्री अवश्य उनका दर्शन करने आते और अपनी श्रद्धा व्यक्त करते।
थंबी रंगास्वामी के घर के समीप एक आम्र-कुंज था। अब रमण महर्षि ने उसमें निवास
करने का निश्चय किया।
वेंकटरमण के चाचा का नाम नेल्लिअप्पा
अय्यर था। उन्हें किसी तरह यह खबर मिल गई कि वेंकटरमण ने तपस्या की है, और वह सिद्ध संन्यासी हो गया है। वेंकटरमण की मां ने
नेल्लिअप्पा को अरुणाचल भेजा कि वे वेंकटरमण को घर ले आएं । नेल्लिअप्पा वेंकटरमण को लेने अरुणाचल पहुंच गए। पर
वेंकटरमण अपने निश्चय से टस से मस नहीं हुए। वे निराश होकर भारी मन से घर लौट गए
और सारी बातें अलगम्माल को बताई।
मां का पुत्र से घर लौटने का अनुरोध
अलगम्माल अपने पुत्र से मिलने स्वयं
तिरूवन्न्मलाई गई, उनके साथ उनका बड़ा पुत्र भी वहां
गया। मां को देखते ही वेंकटरमण उन्हें पहचान गए, पर मां से उन्होंने कुशलक्षेम तक भी नहीं पूछे । वे एकशब्द भी नहीं बोले ।
मां बहुत रोयी, पर वे अविचलित रहे। एक तीर्थयात्री
मां का करुणा-क्रंदन तथा पुत्र की दृढ़ता व ध्येयनिद्गा ध्यान से देख रहा था,
उसे मां पर बहुत दया आई। उसने वेंकटरमण से निवेदन किया
कि मां जी से भले ही बात न करें, पर कागज में
लिखकर आप कुछ बता तो सकते हैं। वेंकटरमण ने उस तीर्थयात्री की बात मान ली।
उन्होंने कागज में निम्नलिखित वाक्य
लिखे, ''प्रत्येक व्यक्ति को उसके प्रारब्ध कर्मों
के अनुसार ही कार्य करने पड़ते हैं। कोई कितना ही प्रयत्न करे, जो प्रारब्ध में है, वह होकर
रहेगा। असंभव बात कभी संभव नहीं हो सकती । जो होना है, वह होकर रहेगा, आप कितना ही सर पटकें, कई बातें आपकी शक्ति से बाहर है। इसलिए सबके लिए श्रेयस्कर
मार्ग यही है कि वह अपने कर्तव्य का पालन करें। पुत्र की दार्शनिक बातों को सुनकर
अलगम्माल निराश हो गई और भारी हृदय से घर लौट गई।
बीमार मां की सेवा
कुछ समय के बाद अलगम्माल के बड़े
पुत्र की मृत्यु हो गई अब उनके मां के पास कोई दूसरा आसरा नहीं रह गया था। इसलिए
वह अपने पुत्र नागसुंदरम को लेकर तिरूवम्मलाई आ गई। वहां पहुंचते ही वे टाइफाइड से
बीमार पड़ गर्इं और कई सप्ताह तक पीड़ित रही। महर्षि रमण ने अपनी मां की खूब सेवा
सुश्रूषा की। अब वे अपनी मां के शैय्या के पास ही समाधिक लगाते थे और अधिक से अधिक
समय अपनी मां के सेवा में देते थे। उन्होंने भगवान अरुणाचलेश्वर की स्तुति में
स्तोत्र लिखे और उनसे विनय की कि वे उनकी मां को शीघ्र स्वस्थ कर दे।
कुछ दिनों के बाद अलगम्माल स्वस्थ हो
गई। स्थायी रूप से वह वहीं रहने लगीं । अलगम्माल ने भोजनादि बनाने का दायित्व अपने
ऊपर ले लिया और नागसुंदरम को संन्यास आश्रम की दीक्षा दिला दी तथा उनका नाम
निरंजनानंद रखा गया। आश्रम के अन्य आश्रमवासी उन्हें चिन्न्स्वामी नाम से पुकारते
थे। सन् 1922 के मई महीने में आश्रम में निवास
करते हुए महर्षि रमण की मां ने इहलीला सामा'त की।
पशु-पक्षियों से प्रेम
महर्षि रमण साक्षात करुणा के अवतार
थे। दूसरों के कष्टों को देखकर उन्हें उन पर तरस आता था। दुखी व्यक्तियों के दुखों
को देखकर वे दुख के सागर में डूब जाते थे। वे मनुष्य मात्र के ही नहीं अपितु पशु
पक्षियों के भी हितैषी थे। उनका आश्रम प्राचीन मुनियों के आश्रम की याद दिलाता था।
गाय, चिड़िया, बंदर तथा गिलहरी उनके आश्रमवासी थे, उनके संगी साथी थे। वे सदैव उन्हें सम्मानित ढ़ंग से आप कहकर संबोधित करते
थे। जब उनकी लक्ष्मी नामक गाय मर गई तब वे फूट-फूट कर रोए थे।
सेवाश्रम
महर्षि रमण अपने देहावसान तक अरुणाचल
में रहे, उन्होंने अरुणाचल कभी नहीं छोड़ा। उनका आश्रम
का जीवन सुखी तथा शांतिपूर्ण था। कई दर्शनार्थी कुछ दिन उनके पास रहते थे तथा कुछ
स्थायी रूप से निवास करने आ जाते थे। इस प्रकार आश्रम-परिवार सा हो गया था।
आश्रम में कई विभाग खोले गए जिनमें
गौशाला, वेदपाठशाला, प्रकाशन विभाग तथा श्रीदेवी का मंदिर प्रमुख था। महर्षि रमण कभी भी
निष्क्रिय नहीं रहे, वे सदैव सक्रिय रहते थे। वे आश्रम के
प्रत्येक विभाग के कार्य में हाथ बंटाया करते थे। छपाई की अशुद्धियां ठीक करने से लेकर
आश्रम से संबंधित पत्र व्यवहार स्वयं करते थे।
आत्मचिंतन का मार्ग
महर्षि रमण बहुत ही सादगी पंसद संतों
में से थे, उनकी कभी भी यह लालसा नही रही कि वह
अपना प्रचार, प्रसार एवं विस्तार करें, तभी तो उन्होंने भाषाओं एवं पुस्तक लेखन द्वारा अपनी शिक्षाओं
एवं उपदेशों का प्रचार एवं प्रसार नहीं किया।
उनका शिष्यों को दिए जाने वाले उत्तर
काफी संक्षिप्त, सटीक एवं सरल होता था, जिससे जिज्ञासु शिष्य संतृप्त हो जाते थे। महर्षि रमण के
मतानुसार मन के कुविचारों को शुद्ध करने का एकमात्रा मार्ग है आत्मचिंतन। वे हमेशा
अपने शिष्यों को आत्मचिंतन के जरिये अपने कुविचारों को शुद्ध करने की सलाह दिया
करते थे।
जीवन की अंतिम यात्रा
समय के साथ महर्षि का स्वास्थ्य अब
उनका साथ नहीं दे पा रहा था, दिनोंदिन उनका
स्वास्थ्य बिगड़ता ही जा रहा था। डाक्टरों ने उन्हें पौष्टिक आहार लेने का सलाह दी,
लेकिन उन्होंने ने डॉक्टरों की सलाह को अनदेखा कर दिया।
जिसके वजह से उनके बांये हाथ पर गांठ बन आई थी। डॉक्टरों के मुताबिक, उन्हे 'सरकोमा" की
बीमारी हो गई थी। हालांकि, ऑपरेशन के बाद उस
गांठ को निकाल दिया गया। परंतु वह गांठ फिर से निकल आई।
इस रोग ने उन्हें इस प्रकार घेर रखा
था कि डॉक्टरों के पास अब उनका हाथ काटने के सिवाय और कोई चारा नहीं था, लेकिन महर्षि रमण अपना हाथ कटवाने को तैयार नही हुए, उनका कहना था कि मनुष्य का शरीर ही बीमारी का घर है। इसलिए
बेचारा हाथ को क्यों दंड दिया जाए? इस तरह वह अपने
जिद्द पर अड़े रहे, जिससे रोग दिनोंदिन बढ़ता ही गया।
लेकिन मौत को लेकर उनके चेहरे पर कभी भी वेदना का भाव नहीं आया।
अपने गुरु को इस रुग्णावस्था में
देखकर शोकाकुल और वेदना में डूबे शिक्ष्यों को वह सांत्वना देते और कहते कि संसार
में जो पैदा हुआ है, उसे मरना ही है। यह शरीर नश्वर है और
आत्मा स्वाश्वत अमर है। इसलिए इस नश्वर शरीर के लिए दुखी नहीं होना चाहिए। और इस
प्रकार महर्षि रमण अपनी जीवन लीला को समेटते हुए 14 अप्रैल 1950 अंतिम सांस लेकर महासमाधिक को
उपलब्ध हो गये।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो
मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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