साक्षात करुणा के अवतार- महर्षि रमण
रमण महर्षि २० वीं सदी के महान संत
थे जिन्होंने तमिलनाडु स्थित पवित्र अरुनाचला पहाड़ी पर गहन साधना की। उन्हें भारत
तथा विदेशो में शांत ऋषि के रूप में जाना जाता है। उन्होंने आत्म विचार पर बहुत बल
दिया। वेंकटरमण (रमण महर्षि) का जन्म मदुरई (तमिलनाडु) भारत के पास तिरुचुली नामक
गाँव में ३० दिसम्बर १८७९ को हुआ था।
रमण को १७ वर्ष की अवस्था में मृत्यु
के भय का अनुभव हुआ। उन्होंने अपने आप से कहा, "अब मृत्यु आ गयी है!" वह तत्काल लेट गए। अब क्या होगा? यह शरीर अब मर चुका है। यह अब जला दिया जायेगा और राख में बदल
जायेगा। लेकिन शरीर की मृत्यु के साथ क्या मैं भी मर गया हूँ? लेकिन मैं तो अपनी पूर्ण शक्ति और यहाँ तक कि आवाज को भी
महसूस कर पा रहा हूँ। शरीर मर जाता है, पर आत्मा
को मृत्यु नहीं छू पाती। मैं अमर आत्मा हूँ। बाद में रमण ने इस अनुभव को अपने
भक्तों को सुनाया और बताया कि यह अनुभव तर्क की प्रक्रिया से परे है। इस प्रकार
युवा वेंकटरमण ने बिना किसी साधना के अपने आप को आध्यात्मिकता के शिखर पर पाया। एक
नई दृष्टि लगातार उनके साथ थी।
इसके बाद उन्होंने घर छोड ने का
फैसला कर लिया। उन्हें पता था की उन्हें कहाँ जाना है। उन्होंने पवित्र अरुनाचला
पर्वत की यात्रा प्रारंभ कर दी। उन्होंने घरवालों के लिए एक चिट्ठी लिखी जिसमें
लिखा था, "मैं भगवान की खोज में उनके
आदेशानुसार जा रहा हूँ वे जल्दी से पवित्र अरुनाचलेश्र्वर मंदिर पहुंचे। उन्होंने
अपने आप को एक भूमिगत स्थान पर स्थान्तरित कर लिया जिसे आजकल पाताल लिंगम' के नाम से जाना जाता है। यहाँ उन्होंने कई दिन समाधि और ध्यान
में बिताये। समाधि के समय वें गहरी ध्यान अवस्था में चले जाते जिससे उनको कीड़े और
चीटियाँ के काटने का भी अनुभव न होता। अंत में उनको भक्तों द्वारा पाताल लिंगम से
बाहर निकाला गया। इसके बाद उन्होंने कई स्थान बदले।
रमण महर्षि की तपस्या और समाधि देखकर
उनका यश सब तरफ फैलने लगा। कुछ समय के पश्र्चात महर्षि अरुनाचला पर्वत पर
विरुपाक्ष नामक गुफा में रहने लगे। यहीं पर १९०२ में शिव प्रकासम पिल्लै नामक
व्यक्ति रमण के पास १४ प्रश्र्न स्लेट पर लिखकर लाये। इन्हीं १४ प्रश्र्नों के
उत्तर रमण की पहली शिक्षाएं है। इनमें आत्म निरीक्षण की विधि है जो कि तमिल में
"नान यार" और अंग्रेजी में "हूँ एम आई" के नाम से प्रकाशित की
गयी। उस समय के प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान गणपति आचार्य १९०७ में रमण से मिलने गए
और उनसे अपने आध्यत्मिक संदेह पर बात की।
गणपति आचार्य ने बताया कि जो कुछ भी
आध्यात्मिकता के बारे में पढा जा सकता है मैंने पढा है,यहाँ तक कि वेदान्त शास्त्रों की भी मुझे पूर्ण समझ है। जप भी मैं अपने
हृदय से करता हूँ। लेकिन फिर भी 'तपस' क्या है अब तक समझ नहीं पाया हूँ? यही जानने के लिए आपकी शरण मैं आया हूँ। रमण १५ मिनट तक उनकी आँखों में
शांत होकर देखते रहे और फिर बोले- "अगर कोई यह देख पाए कि 'मैं' के भाव का उद्भव
कहाँ से होता है तो उसका मन उसी स्थान पर अवशोषित हो जायेगा, और यही तपस है। अगर कोई देख पाए कि मंत्र बोलते समय मंत्र की
ध्वनि कहाँ से पैदा होती है, तो उसका मन उसी
स्थान पर अवशोषित हो जायेगा, और यही तपस है।
यह रहस्योद्घाटन जानकर विद्वान
शास्त्री ने उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया और उन्हें भगवान व महर्षि के नाम से
संबोधित किया। शास्त्री ने बाद में रमण-गीता लिखी जिसमें महर्षि की शिक्षाओं के
बारे में बताया गया है।रमण महर्षि के शिष्यों ने उनके लिए एक आश्रम और मंदिर का
निर्माण किया जहाँ पर देश और विदेश से भक्त आकर रहते थे।आश्रम में जानवर और पक्षी
भी र्निभय होकर रहते थे।
महर्षि इन पक्षियों और जानवरों को
मनुष्यों की तरह संबोधित करते थे। महर्षि और यें पशु-पक्षी एक दूसरे से बहुत घुल
मिल गए थे। बाद के वर्षो में वें अधिकतर क्तों के सामने मौन बैठे रहते थे। की किसी
ने सवाल पूछा तो जवाब दे दिया। उनके सामने बैठने वाले लोगों को विशेष अनुभव होता
था। कुछ ने अनुभव किया कि जैसे समय रूक गया है। कुछ ने एक असीम शांति, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, का अनुभव उनकी मुस्कुराती शांत आँखों में देखते हुए किया।
मौन महर्षि रमण के जीवन में रचा-बसा
था। उन्होंने जीवन का अधिकांश भाग मौन रहकर गुजारा। वे मौन रहकर भी उपदेश देते थे
और पास आने वालों की समस्याओं का समाधान करते थे। रमण महर्षि का सीधा-सादा संदेश
है अपनी सहज स्थिति में रहिये। अपनी नित्य, स्वाविक, निर्विचार अवस्था में रहिये, इससे अधिक कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है। उनके मतानुसार मन
के कुविचारों को शुद्ध करने का एकमात्रा मार्ग है आत्मचिंतन। वे हमेशा अपने
शिष्यों को आत्मचिंतन के जरिये अपने कुविचारों को शुद्ध करने की सलाह दिया करते
थे। १५ अप्रैल १९५० की शाम के समय महर्षि ने सभी भक्तों को दर्शन दिए एक गहरी साँस
के साथ वें शांत हो गये।
बुद्ध ने फटेहाल को सबसे सुखी बताया
एक बार भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के
साथ पाटलिपुत्र पहुंचे। सभी लोग विहार में रुके। भोजन के बाद बुद्ध ने आनंद से
अगले दिन से प्रवचन आरंभ करने को कहा। अगले दिन बुद्ध के प्रवचन सुनने बड़ी संख्या
में लोग उपस्थित थे। बुद्ध प्रवचन देने के बाद लोगों से मिलते, उनकी समस्याएं सुनते और
नेक सलाह देते।
एक दिन प्रवचन के समय बुद्ध के शिष्य आनंद ने उनसे पूछा- भंते! आपके सामने
हजारों लोग बैठे हैं। बताइए कि इनमें सबसे सुखी कौन है? बुद्ध ने एक विहंगम दृष्टि भीड़
पर डालते हुए कहा- वह देखो, सबसे पीछे एक दुबला-पतला फटे वस्त्र पहने जो आदमी बैठा है,
वह सर्वाधिक सुखी
है। आनंद सहमत नहीं हुआ। वह बोला- यह कैसे संभव है? वह तो बहुत दयनीय जान पड़ता है।
बुद्ध ने अपनी बात सिद्ध करने के लिए बारी-बारी से सामने बैठे लोगों से पूछा-
तुम्हें क्या चाहिए? किसी ने संतान मांगी, तो किसी ने मकान। कोई रोगमुक्ति चाहता था, तो कोई अपने शत्रु पर
विजय। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं था, जिसे कोई इच्छा न हो। अंत में बुद्ध ने उस फटेहाल आदमी को
बुलाकर पूछा- तुम्हें क्या चाहिए? उसने हाथ जोड़कर जवाब दिया -कुछ नहीं। यदि ईश्वर को मुझे
कुछ देना ही है तो बस इतना कर दे कि मेरे अंदर कभी कोई चाह पैदा न हो। मैं ऐसे ही
स्वयं को सबसे बड़ा सुखी मानता हूं। उसकी बात सुनकर आनंद से बुद्ध ने कहा-आनंद!
जहां चाह है वहां सुख नहीं हो सकता। आनंद ने बुद्ध की इस शिक्षा को सदा के लिए
गांठ बांध लिया। सार यह है कि लालसा से लोभ बढ़ता है, जो असंतोष का जनक होता है। यदि
सही अर्थो में सुख पाना है तो लालसा के स्थान पर उपलब्ध स्थितियों में संतुष्ट
रहना चाहिए।
भक्ति से राबिया बनी महान संत
राबिया आला दर्जे की संत थीं। एक बार
राबिया ने रोजा रखा। सात दिन तक उन्होंने कुछ भी नहीं खाया। सभी उनके ऐसे कठोर
उपवास को देखकर दंग थे और चिंतित भी थे कि उन्हें कुछ हो न जाए, किंतु राबिया अपने प्रण
पर दृढ़ रहीं।
आठवें दिन उन्होंने रोजा खोलने का निश्चय किया। किसी ने उनका निश्चय जान एक
प्याले में फलों का रस रख दिया। राबिया जब वह रस ग्रहण करने उठीं, तो कहीं से एक बिल्ली आ
गई और उसने प्याला उलट दिया। राबिया ने सोचा कि रस न सही, मैं पानी से रोजा खोल लेती हूं।
वे मिट्टी के एक प्याले में पानी लाईं और चिराग जलाया।
जैसे ही उन्होंने प्याला होंठों से लगाया, चिराग बुझ गया और हाथ से प्याला
गिरकर टूट गया। राबिया बहुत दुखी हुईं। वे कहने लगीं- ‘ओ परवरदिगार! तू क्या चाहता है?
यह सब मेरे साथ
क्यों कर रहा है?’ तभी राबिया को महसूस हुआ कि कोई उनसे कह रहा है - ‘राबिया! यदि तू चाहती है कि मैं
दुनिया की नियामतें तुझे दूं, तो ठहर। पहले मैं अपना गम तेरे दिल से निकाल लूं। देख,
तेरी एक मुराद है
और मेरी भी एक मुराद है। ये दोनों मुरादें एक ही स्थान पर नहीं रह सकतीं।’
राबिया को बोध हो गया कि अल्लाह उनसे क्या चाहता है। उन्होंने उसी दिन से अपना
दिल इस भौतिक संसार से हटा लिया और हर समय अल्लाह से यही मांगतीं- ‘ऐ खुदा! मेरे दिल को तू
अपनी ओर ही लगाए रख, जिससे वह इस मायावी संसार की ओर आकर्षित न हो।’ इस प्रार्थना को पूरी ईमानदारी
से अपने आचरण में जीकर राबिया महान संत बनीं। सार यह है कि दुनियावी आकर्षणों से
परे रहकर आस्था और निष्ठा का एक ही केंद्र होने पर ही परमात्मा से एकाकार होने की
दिव्य अनुभूति प्राप्त होती है।
पंडितजी शर्म से पानी-पानी हुए
एक पंडितजी को किसी यजमान ने अपने
यहां प्रवचन देने के लिए आमंत्रित किया।
यजमान के घर काफी लोग जमा थे। प्रवचन सुनने वालों में एक सफाई कर्मचारी भी था,
जिसे पंडितजी
नित्य सड़क साफ करते देखते थे। पंडितजी ने प्रवचन शुरू किया।
अनेक छोटी-छोटी नीति कथाओं के माध्यम से पंडितजी ने क्रोध को जीतने के उपाय
समझाए। अंत में उन्होंने कहा- क्रोध से बुद्धि-विवेकसब नष्ट हो जाता है और ऐसा
मनुष्य पशु के समान है। मेरा तो मानना है कि क्रोध चांडाल होता है। अत: उससे सदैव
दूर रहना चाहिए।ञ्ज लोगों ने करतल ध्वनि से पंडितजी की बात का समर्थन किया।
श्रद्धा-भाव से फूलकर कुप्पा हुए पंडितजी जब यजमान के भोजन कक्ष की ओर जाने लगे तो
वह सफाई कर्मी भी आगे आया और उसने पंडितजी के पैर छू लिए। अब तो पंडितजी का पारा
सातवें आसमान पर पहुंच गया।
वे चिल्लाए- अरे पापी! तू यहां कहां से आ गया? तूने मुझे स्पर्श कर अपवित्र कर
दिया। अब फिर से स्नान करना पड़ेगा। यह कहते हुए वे पास ही स्थित नदी की ओर भागे।
तभी उन्होंने देखा कि सफाईकर्मी भी नदी की ओर जा रहा था। उन्होंने चिढ़कर पूछा-
क्यों रे, तू कहां जा रहा है? उसने कहा- नदी में नहाने जा रहा हूं। आप ने ही कहा था कि
क्रोध चांडाल होता है। मैं उस चांडाल को छू गया। इसलिए मुझे स्नान करना होगा। उसका
जवाब सुनकर पंडितजी मारे शर्म के धरती में गड़ गए। इस प्रतीकात्मक कथा का सार यह
है कि दूसरों को उपदेश देने से पहले उसे स्वयं के आचरण में लाना चाहिए।
गिद्ध ने पाया प्रत्युपकार का ज्ञान
सदियों पहले मगध राज्य की राजधानी में
भीषण आंधी-तूफान आया। उसी दौरान कहीं से एक गिद्ध उड़ता हुआ आया और पानी से बचने
के लिए एक दीवार के पास बने चबूतरे पर बैठ गया। उसके साथ उसके चार साथी भी वहीं आ
गए।
गिद्ध सर्दी से कांप रहे थे। उनकी यह दशा देख नगर सेठ ने उन्हें सुरक्षित
स्थान पर पहुंचाया। गिद्धों ने पर्वत पर लौटकर विचार किया- ‘मगध सेठ ने हम पर उपकार किया है।
हमें उनके उपकार का बदला चुकाना चाहिए।’ लेकिन प्रत्युपकार कैसे करें - इसके लिए पहले गिद्ध
ने रास्ता सुझाया - ‘अब हमें जो भी कीमती वस्तु कहीं से मिले, हम उसे सेठजी के आंगन में गिरा
दें।’ वे
छतों पर सूखते वस्त्र उठा लेते।
कहीं किसी स्त्री का आभूषण उठा लेते और नगर सेठ के आंगन में डाल देते। जब सेठ
को यह बात पता चली तो उन्होंने उन सभी वस्तुओं को एक अलग कक्ष में रखवा दिया। राजा
को पता चला किगिद्ध चोरी कर रहे हैं, तो उन्होंने उनमें से एक गिद्ध को सैनिकों द्वारा
पकड़वाया। राजा ने पूछा- ‘तुम लोगों के वस्त्र-आभूषण चुराकर ले जाते हो?’ गिद्ध ने बताया - ‘नगर सेठ ने हमारी
प्राण-रक्षा की थी। हम उस उपकार का बदला चुका रहे हैं।’
राजा ने नगर सेठ से इस बाबत पूछताछ की, तो उन्होंने चोरी गए सामानों को
अपने पास होना बताया और यह भी कहा कि उन्हें अलग इसीलिए रखा गया है कि जो जिसका है,
वह उसे ले जाए।
फिर नगर सेठ ने गिद्ध को समझाया कि उपकार चुकाना अच्छा है, किंतु उसका तरीका भी सही होना
चाहिए। वस्तुत: उपकार के बदले प्रत्युपकार की भावना प्रशंसनीय है, किंतु वह जनहित का विचार
कर उचित रूप से करनी चाहिए।
संत रैदास ने ठुकराया पारस पत्थर
रैदास भगवान के बहुत बड़े भक्त थे। वे काशी में गंगा के घाट के निकट छोटी-सी
झोपड़ी में अपनी पत्नी के साथ रहते थे। झोपड़ी के बाहर ही बैठकर वे जूते गांठने का
काम करते थे। काम करते हुए भी रैदास निरंतर ईश-स्मरण करते रहते।
कमाई कम होने से उनका जीवन अभावग्रस्त था, किंतु इसकी उन्हें कोई चिंता
नहीं थी। एक दिन एक साधु रैदास के घर आया। दोनों ने साधु की बड़ी आवभगत की। भोजन
के बाद जब साधु जाने लगा तो उसने अपनी झोली में से एक पत्थर निकाला और बोला-
रैदास! यह पारस पत्थर लो। इससे तुम लोहे को सोना बना सकते हो।
साधु की बात सुनकर रैदास बोले- महाराज! आप यह भेंट अपने पास ही रखिए। मुझे
इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। अपनी मेहनत से जितना कमा लेता हूं, उसी में अपनी घर-गृहस्थी
चला लेता हूं। साधु ने कहा- देखो रैदास! तुम्हारी सारी गरीबी इस पारस पत्थर से
पलभर में दूर हो जाएगी। रैदास बोले- महाराज!
हमें अपने पसीने की कमाई से जो आनंद मिलता है, वह दुनिया के सभी सुखों पर भारी
है। आपको यह पारस पत्थर यदि किसी को देना ही है तो यहां के राजा को दे दीजिए। मेरी
निगाह में वह बहुत गरीब है। उसे अपने शौक-मौज के लिए हर वक्त रुपयों की बड़ी जरूरत
रहती है या फिर उस निर्धन मन वाले धनी को यह पारस पत्थर दीजिए, जो रात-दिन पैसों के लिए
पागल रहता है। यह कहकर रैदास भजन गाते हुए अपने काम में लग गए और साधु उनकी महानता
को नमन करते हुए चला गया। सार यह है कि परिश्रम की कमाई अलौकिक सुख देती है,
जबकि मुफ्त का
पैसा अंतत: कष्ट का कारण बनता है। इसलिए सदैव मेहनत से ही अपनी आजीविका चलानी
चाहिए।
आचार्य ने जड़मति शिष्य से मानी हार
वाराणसी में आचार्य बोधिसत्व के आश्रम
में अनेक शिष्य थे। इन्हीं में से एक अत्यंत मूर्ख था। एक दिन आचार्य विचार करने
लगे - ‘यह
मेरी बहुत सेवा करता है, किंतु कम अक्ल होने से विद्या अर्जित नहीं कर पाता। यदि मैं
नित्य इसे लकड़ी व फल-फूल लेने जंगल और गांव में भिक्षा मांगने भेजूं और लौटने पर
इससे पूछूं कि आज तूने क्या-क्या देखा? तब मुझे शायद यह नई-नई उपमा देकर समझाएगा और हो सकता
है कि यह भी ज्ञानी बन जाए।’
अगले दिन उन्होंने उससे कहा- ‘आज से तुम जंगल में जाओ और वहां जो देखो मुझे बताओ।’
शिष्य ने जंगल में
सांप देखा। लौटने पर आचार्य ने पूछा- ‘सांप कैसा होता है?’ वह बोला- ‘हल की फाल जैसा।’ आचार्य ने सोचा कि इसने
उपमा ठीकदी है, क्योंकिसांप हल की फाल के तरह ही होता है। अगले दिन उसने हाथी देखा। आचार्य ने
पूछा - ‘हाथी
कैसा होता है?’ उसने वही जवाब दोहराया- ‘हल की फाल जैसा।’
हाथी की सूंड हल की फाल जैसी होती है, इसलिए यह ऐसा कह रहा है और आचार्य अपने शिष्य के
बुद्धिमान बनने के प्रति आशावान बने रहे। एक दिन उसने कहा- ‘गुरुजी! आज हमने गांव में
दही-दूध के साथ गुड़ खाया। वह हल की फाल की तरह होता है। सुनते ही आचार्य सोच में
पड़ गए- ‘सांप,
हाथी को तो हल की
फाल जैसा मान सकते हैं, किंतु दूध-दही को बिल्कुल नहीं। यहां तो यह उपमा बिल्कुल
गलत है। इस मूर्ख को मैं तो क्या, दुनिया का कोई भी आचार्य बुद्धिमान नहीं बना सकता।’ आचार्य ने उसी दिन उस
शिष्य को आश्रम से विदा कर दिया। वस्तुत: कुछ लोग मतिहीन होते हैं और ऐसे लोगों पर
समय व्यर्थ करने से बेहतर इनसे मुक्ति ले लेना ही होता है।
दुनिया परमात्मा का बनाया घड़ा है
दुख किसके जीवन में नहीं आता। आप न चाहें तो भी वह जीवन द्वार पर दस्तक दे ही
देता है। जब हमें दुख मिल जाता है तो हम संसार को कोसने लगते हैं।
हमारा स्वभाव बन जाता है कि हम संसार पर ताने कसें और अन्य लोगों को इसका दोषी
बताएं। हनुमान भक्त रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार सरल विचारों में व्यक्त करते
हैं कि मलिक मोहम्मद जायसी के जीवन का एक प्रसंग है। किसी राजा के दरबार में जब वे
गए तो दरबारियों ने उनका मजाक बनाया। जायसी कुरूप थे और उनकी एक आंख नहीं थी। लोगों को अपने ऊपर हंसता हुआ
देखकर जायसी ने कहा- मुझ पर हंस रहे हो या मुझे बनाने वाले कुम्हार पर हंस रहे हो।
ये दुनिया उस परमात्मा का बनाया घड़ा है। ईश्वर इसका कुम्हार है। जो लोग इस
संसार पर तथा संसार के लोगों पर हंसते हैं, वे ईश्वर का ही मजाक बना रहे
होते हैं। संसार का सामना ठीक से किया जाए और संसार को पर्याप्त सम्मान भी दिया
जाए। जायसी ने जो बात दरबारियों से कही, उसका बड़ा व्यापक अर्थ है। जब दुख आए तो उनसे डरना
नहीं चाहिए। दुखों का सामना ऐसे किया जाए जैसे वे हमारे मित्र हों। दुखों से कहा
जाए कि आप मेरे साहस की परीक्षा लेने आए हैं। मैं तैयार हूं।
दुखों को देखकर कभी भी यह न कहा जाए कि संसार बुरा है, दुखमय है। संसार भी ईश्वर की
पुण्य कृति है। इसके कण-कण में ईश्वर ने अपनी श्रेष्ठ कलाकृति भरी है। इसलिए यह बुरी
नहीं हो सकती। इसे कोसना इसके बनाने वाले को कोसना है। ईश्वर की पुण्यभूमि में दुख
का एक भी अणु नहीं है। सत्य तो यह है कि हमारा दुख काफी हद तक हमारे सोच का परिणाम
है।
धर्य खोकर लड़के ने गंवाई जान
एक ब्राह्मण वैदर्भ मंत्र का ज्ञाता था। इस मंत्र का जप करने से रत्नों की
वर्षा होती थी। वह इस गुप्त विद्या का उपयोग स्वयं के लाभ के लिए नहीं, बल्कि निर्धनों की मदद
के लिए करता था। एक बार एक लड़का उसके पास पढ़ने आया।
लड़के के सद्गुण देख ब्राह्मण ने उसे अपने पास रख लिया। जब ब्राह्मण का दिल
लड़के ने अपनी कुशाग्र बुद्धि व सेवा से जीत लिया, तब ब्राह्मण ने उसे वैदर्भ मंत्र
सिखाया, किंतु
उचित स्थान पर उसके उपयोग की चेतावनी भी दी। एक दिन ब्राह्मण को पड़ोस के गांव
जाना था। उसने शिष्य को साथ लिया।
मार्ग में कुछ डाकुओं ने दोनों को पकड़ लिया और धन की मांग की। ब्राह्मण के
पास धन नहीं था, इसलिए डाकुओं ने लड़के को बंधक बना लिया और ब्राह्मण को धन लाने घर भेज दिया।
संयोग से उसी रात धन-वर्षा का नक्षत्र-योग था।
ब्राह्मण ने सोचा- यदि मेरा शिष्य डाकुओं के चंगुल से छूटने के लिए उस मंत्र
का उपयोग करेगा तो ये दुष्ट उसे अधिक धन के लिए और सताएंगे या मार डालेंगे। अत:
ब्राह्मण ने शिष्य को संकेत में समझाया कि वह मंत्र का उपयोग न करे, क्योंकि इससे उसकी
मुसीबत बढ़ सकती है।
रात होने तक लड़के का धर्य जवाब दे गया। उसने सोचा कि मंत्र जप से रत्न वष्र
कर इन डाकुओं को मालामाल कर दूं, तो ये मुझे छोड़ देंगे। उसने रत्न वर्षा करा दी। डाकुओं ने
लालच में और रत्न वर्षा करने को कहा। लड़के ने असमर्थता जताई, क्योंकि मंत्र का उपयोग
एक बार ही किया जा सकता था। उन्होंने क्रोध में आकर लड़के को मार डाला। वस्तुत:
धर्य के अभाव और ज्ञान के गलत स्थान पर उपयोग के कारण संकट की स्थिति बन जाती है,
इसलिए विपरीत
परिस्थिति में भी धर्य बनाए रखें।
गुरु ने दिया सेवा का अमूल्य मंत्र
किसी नगर में एक महात्मा रहते थे। वे महीने में एक बार भंडारा कराते और सभी को
साग्रह भोजन कराते थे। एक बार एक युवा साधु महात्मा से अत्यधिक प्रभावित हो उनके
साथ ही रहने लगा। उसने महात्मा से शिक्षा देने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने स्वीकार
कर लिया। थोड़े दिनों बाद महात्मा ने भंडारा किया।
महात्मा और युवा साधु ने मिलकर सभी को स्नेहपूर्वक भोजन कराया। जब सब चले गए
तो वे दोनों भी भोजन करने बैठे। तभी वहां एक कुष्ठ रोगी आया। उसके शरीर के
अंग-प्रत्यंग गल गए थे और उनसे खून व मवाद बह रहा था। महात्मा तत्काल उठ खड़े हुए
और प्रेम से उसे आसन पर बैठाया। फिर अपने शिष्य से भोजन लाने को कहा।
जब वह भोजन ले आया, तो उन्होंने कहा- 'ये अपने हाथ से तो खा नहीं सकते, तुम इन्हें खिला दो।ञ्ज
युवा साधु का चेहरा आभाहीन हो गया। फिर भी गुरु के कहने पर उसने उसे खिलाना शुरू
किया। वह कोशिश कर रहा था कि उसकी उंगलियां रोगी के होठों से स्पर्श न करे। इसलिए
कुछ खाना मुंह में न जाकर नीचे पत्तल पर भी गिर रहा था। जब वह रोगी खाना खाकर चला
गया, तो
महात्मा ने साधु से कहा- 'उनकी पत्तल पर जो शेष है, उसे तुम ग्रहण कर लो।
साधु की हिचकिचाहट देख महात्मा ने वह जूठा भोजन स्वयं खा लिया। फिर बोले- 'तुम उसे रोगी समझ रहे हो?
जरा सोचो कि जिसका
हर अंग गल गया हो, वह स्वयं चलकर कैसे आ सकता है? दरअसल, वे साक्षात भगवान थे, जो अपनी कुटिया को पवित्र करने
आए थे।ञ्ज अपने गुरु की बात सुनकर युवा साधु के अंतर्मन की आंखें खुल गईं। वस्तुत:
दीन-दुखियों की सेवा में ईश्वर बसता है। इसलिए सदा उनकी सेवा समर्पित भाव से करनी
चाहिए।
उम्मीद का दामन कभी न छोड़ें
उन दिनों विश्व मंदी के दौर से गुजर रहा था। ब्रिटेन के हालात भी ठीक नहीं थे।
लोगों को परिश्रम का उचित मूल्य नहीं मिलता था। ऐसे समय में मैरी कुशमैन नाम की एक
महिला भी जीवन-संघर्षों से जूझ रही थी। उसके पांच बच्चे थे और पति की आमदनी बहुत
कम थी। पति का स्वास्थ्य भी कमजोर था। पांच बच्चों के भोजन, वस्त्र और दूध-दवा की व्यवस्था
करना सरल नहीं था।
गरीब को हर व्यक्ति शंका की दृष्टि से देखता है। मैरी का दस वर्षीय पुत्र एक
दुकान पर कुछ लेने गया, तो दुकानदार ने उस पर चोरी का आरोप लगा दिया और उसे सबके
सामने अपमानित किया। इस घटना से मैरी हताश हो गई। थोड़ी देर बाद वह अपनी सबसे छोटी
बेटी, जो
पांच वर्ष की थी, को लेकर कमरे में गई और दरवाजे-खिड़कियां बंद कर गैस के हीटर को खोल दिया।
कमरे में गैस फैलने लगी।
मैरी बच्ची को लेकर लेट गई। वह मरना चाहती थी। तभी पास के कमरे में बज रहे
रेडियो को उसने सुना। ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करता कोई गीत था, जिसमें उसकी कृपाओं का
गुणगान था। मैरी के निराश हृदय में आशा का संचार हुआ और उसने तत्काल गैस का बटन
बंद कर खिड़की-दरवाजे खोल दिए।
उसने सही समय पर राह बताने के लिए मन ही मन ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त किया
और उसी क्षण से अपने कष्टों से लड़कर उन पर विजय पाने के लिए तत्पर हो गई। मैरी ने
अपना मकान छोड़ा और किराए के मकान में चली गई। अपने मकान को किराए से दिया। स्वयं
भी दौड़-भाग कर एक नौकरी पा ली। धीरे-धीरे मैरी का परिवार कष्टों से मुक्त होकर
खुशहाल बन गया। अत: कष्ट की अति में भी आशा का दामन नहीं छोडऩा चाहिए।
कुपात्र ने कर दिया बाग को तबाह
किसी समय वाराणसी में राजा विश्वसेन का शासन था। विश्वसेन को बाग-बगीचों का
बड़ा शौक था। उसने अपने महल में भी एक सुंदर बाग लगाया था, जिसकी देखभाल के लिए एक योग्य
माली को ऊंचे वेतन पर रखा गया था।
एक बार हर साल की तरह राज्य में सात दिवसीय उत्सव की घोषणा हुई। माली के मन
में भी इस उत्सव को देखने की इच्छा जागी, किंतु माली के सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि बाग की जिम्मेदारी
किसे सौंपकर जाए? उसने बाग को सुंदर व हरा-भरा बनाने के लिए काफी मेहनत की थी।
इस मेहनत पर पानी न फिर जाए, इसके लिए वह चिंतित था। तभी उसका छोटा भाई तथा उसकी पत्नी
ने यह जिम्मेदारी लेने की इच्छा व्यक्त की। माली दोनों की बुद्धिहीनता से परिचित
था, किंतु
उत्सव देखने की इच्छा के चलते उसने इस बात को नजरअंदाज कर दिया।
वह उन्हें नित्य पौधों में पानी डालने की बात कहकर चला गया। उसके जाने के बाद
छोटे भाई और उसकी पत्नी ने विचार किया- 'हम बगीचे को और खूबसूरत बना देंगे। इसके लिए पहले
पौधों को उखाड़कर उनकी लंबाई नापनी चाहिए। फिर बड़ी जड़ वाले पौधों में अधिक और
छोटी जड़ वाले पौधों में कम पानी देना चाहिए।
उन दोनों ने सभी पौधों को उखाड़ा। फिर उनकी लंबाई देख-समझकर उन्हें पुन: रोपने
लगे। नतीजतन दो-चार दिन में ही सभी पौधे मुरझा गए। जब माली वापस आया, तो बाग तबाह हो चुका था।
उसने दोनों को बहुत कोसा, किंतु गलती तो उसी की थी, क्योंकि उसने गलत हाथों में
जिम्मेदारी सौंपी थी। सार यह है कि महत्वपूर्ण जिम्मेदारी पात्र-कुपात्र का विचार
कर सौंपी जानी चाहिए, अन्यथा अनिष्ट की संभावना रहती है।
निर्धन से मिला ईश प्राप्ति का मार्ग
एक पंडित प्रतिदिन प्रार्थना करते कि हे भगवान! ऐसा कोई मार्गदर्शकमिल जाए,
जो सत्य का मार्ग
बता सके। उनकी प्रार्थना सुन एक संत ने उन्हें पास के मंदिर जाने को कहा और बताया
कि वहीं तुम्हें सच्चा मार्गदर्शक मिलेगा।
पंडितजी तत्काल मंदिर पहुचें। वहां उन्हें एक फटेहाल व्यक्ति मिला। पंडितजी
उससे हैरानी से बोले-भगवान तुम्हें अच्छे दिन दिखाए। उनकी बात सुनकर उसने कहा-मेरे
लिए तो बुरा दिन कोई हुआ ही नहीं।
पंडित फिर बोले - ईश्वर तुम्हारे भाग्य पर पड़ी धूल को हटा दे। उसने तत्काल
कहा - मेरे भाग्य पर धूल पड़ी ही कहां है? पंडित ने कहा- भाई! तुम हर प्रकार से सुखी रहो,
ऐसी मैं शुभकामना
प्रकट कर रहा हूं। इसमें ऐसा क्या है, जो तुम उल्टे जवाब दे रहे हो?
उसने कहा- उल्टा-सीधा मैं नहीं जानता, लेकिन इतना कह सकता हूं कि दुख का मुंह मैंने कभी
नहीं देखा। पंडित ने जिज्ञासा व्यक्त की- तुम्हारी दशा तुम्हें दुखी दिखाने के लिए
पर्याप्त है।
उसने अपनी बात स्पष्ट की - तुमने कहा कि भगवान मुझे अच्छे दिन दिखाए, किंतु मैं हर स्थिति में
निरंतर प्रभु-स्मरण में मस्त रहा। इसलिए दुख की अनुभूति कभी हुई ही नहीं। फिर
तुमने कहा कि मेरे भाग्य पर पड़ी धूल हट जाए, तो मेरा जवाब यह है कि
अच्छी-बुरी दोनों स्थितियों को मैं भगवान की देन मानता हूं।
इसके बाद तुमने कहा कि मैं हर तरह से सुखी रहूं तो भाई मेरे! जब भगवान की
इच्छा में मैंने अपनी इच्छा को मिला दिया है, तो मैं तो सदा के लिए सुखी हो
गया हूं। उसकी बातों ने पंडितजी को ईश्वर प्राप्ति का सच्चा मार्ग बता दिया।
वस्तुत: अच्छा हो या बुरा, दोनों स्थितियों को ईश्वर-इच्छा मानकर संतुष्ट रहने पर ही
परम सुख की प्राप्ति होती है।
गुरु गोबिन्द सिंह का बुजुर्ग को नमन
औरंगजेब के समय में मुगलों के अत्याचारों ने हद पार कर दी। तब गुरु गोबिंदसिंह
ने इन अत्याचारों का साहसपूर्वक सामना करने का निश्चय किया।
उन्होंने सिखों के दिल में हिम्मत पैदा की। एक दिन गुरु के समक्ष एक बहुत
बूढ़ा व्यक्ति पहुंचा और बोला- 'गुरु महाराज! मुझे युद्धभूमि में जाने की आज्ञा दीजिए। गुरु
गोबिंदसिंह उस वृद्ध को आश्चर्य से देखने लगे, क्योंकि उसका शरीर हड्डियों का
ढांचा मात्र था। उन्होंने कहा- 'बाबा! तुम युद्धभूमि में जाकर क्या करोगे? वृद्ध बोला- 'मैं अपने गुरु की खातिर
अपना शीश उतारकर भेंट कर दूंगा।
गोबिंदसिंह उसका साहस देख बहुत प्रसन्न हुए, फिर बोले- 'बाबा सिखों के शीश इतने
सस्ते नहीं हैं। तुम युद्धभूमि में जाकर घायल सैनिकों को पानी पिलाने का काम करो।
वृद्ध गुरु गोबिंदसिंह को प्रणाम कर खुशी-खुशी युद्धभूमि में चला गया। थोड़े दिनों
बाद गुरु गोबिंदसिंह के पास उसकी शिकायतें आने लगीं। उन्होंने अपने सरदारों से
वृद्ध की गलती पूछी, तो वे बोले- 'उसकी तो मति मारी गई है।
वह घायल सिखों के साथ मुस्लिम सैनिकों को भी पानी पिलाता है।’ जब वृद्ध से इस शिकायत
के बाबत पूछताछ की, तो वह बोला- 'दशम पातशाह! जैसे ही कोई पानी-पानी पुकारता है, मैं दौड़ पड़ता हूं। प्यासे को
पानी पीते देखकर उसके चेहरे में मैं अपने दशम पातशाह का मुख देखता हूं। उसका जवाब
सुनकर गुरु गोबिंदसिंह ने कहा- 'बाबा! तुमने सिख धर्म का नाम रोशन कर दिया। किसी भी धर्म के
सैनिक को पानी पिलाना हमारा सर्वोच्च धर्म है। गुरु गोबिंदसिंह के इन वचनों ने
उपस्थित सभी सिख सरदारों को धर्म के सही मायने समझा दिए। वस्तुत: सच्च धर्म प्राणी
मात्र में कोई भेद नहीं देखता।
परोपकार को कर्म में जिया वृद्ध ने
एक गांव में एक वृद्ध रहता था। उसकी उम्र अस्सी पार कर चुकी थी और वह कृशकाय
था। उसका गांव हरे-भरे खेतों से भरपूर था। वह प्रतिदिन गांव से पांच मील दूर उस
उजाड़ वन में जाता, जो उसके गांव को पास वाले गांव से जोड़ता था और दोनों गांवों के लोग इस मार्ग
से आते-जाते थे। इस वन के अधिकांश पेड़-पौधे सूख चुके थे।
वृद्ध वन में बने एक नाले से पानी ला-लाकर उन पेड़-पौधों को रोज सींचता। एक
दिन जब नाले का पानी सूख गया, तो वह कुछ दूर स्थित एक किसान के खेत पर गया। किसान खेत पर
बनी झोपड़ी में बैठा था। उसने वृद्ध से पूछा- ‘क्या चाहिए बाबा?’ वृद्ध बोला- ‘मुझे चार-पांच घड़े पानी
चाहिए। वन के सूखे पेड़-पौधों को सींचना है। नाले का पानी सूख गया है, यदि तुम थोड़े दिन मुझे
अपने कुओं से पानी दे दोगे, तो ये पेड़-पौधे पनप जाएंगे।’
किसान ने हैरानी से पूछा- ‘बाबा! तुम गांव से पांच मील यहां आकर क्यों पेड़-पौधे सींच
रहे हो?’ वृद्ध
ने कहा - ‘मेरा एक ही बेटा था, जो जवानी में किसी बीमारी से मर गया। मैं ठहरा गरीब। उसकी
याद में धर्मशाला, तालाब, बावड़ी तो बना नहीं सकता, इसलिए इन पेड़-पौधों को इस आस में सींचता हूं कि जब ये
हरे-भरे हो जाएंगे, तो इनकी छाया में मनुष्य, पशु-पक्षी विश्राम लेंगे और फल के रूप में उन्हें कुछ आहार
मिलेगा।
जब तक मेरे शरीर में ताकत है, तब तक तो यह काम करूंगा।’ उस कृशकाय वृद्ध की कल्याणकारी
भावना देख किसान उसके प्रति नतमस्तक हो गया। किसान ने भी उस दिन से उसके कार्य में
हाथ बंटाना शुरू कर दिया। सार यह है कि अपने लिए तो सभी जीते हैं, दूसरों के लिए जीने वाला
मनुष्य सच्चे अर्थो में महान होता है
साधु ने समझाया इच्छाएं अमरबेल हैं
एक राजा प्रजा की हर सुख-सुविधा का ख्याल रखता था। फिर भी प्रजा के बीच से हर
दिन कोई नई मांग उठ खड़ी होती। राजा दिन-रात इसी प्रयास में लगा रहता कि वह प्रजा
को पूर्ण संतुष्ट रखे, किंतु लोगों की इच्छाओं का कोई अंत नहीं था।
अंततोगत्वा राजा बीमार हो गया, क्योंकि उसके मन में गहरा दुख था। वह सोचता रहता कि और क्या
करूं, जिससे
मेरी प्रजा खुश रहे? राजा का बेहतर से बेहतर उपचार कराया गया, किंतु कोई लाभ नहीं हुआ, क्योंकि राजा की परेशानी
मानसिक थी। संयोग से एक दिन उस राज्य में हिमालय के एक साधु आए।
राजा ने उन्हें अपने मन की पीड़ा बताई और निवेदन किया- ‘आप परम ज्ञानी हैं। मेरा कष्ट
निवारण कीजिए।’ साधु समझ गए कि राजा के तन को नहीं, बल्किमन को उपचार की जरूरत है। उन्होंने राजा को
समझाया- ‘राजन!
तुम्हारे इस कष्ट का कारण तुम्हारी अपनी सोच है। तुम प्रजा की नित नई इच्छा को
पूर्ण करने में लगे रहते हो, किंतु यह भूल जाते हो कि मन चंचल होता है। उसका काम ही
इच्छा करना है।
उसे जितना दोगे, वह और मांगेगा। मन का कोई अंतिम संतुष्टि-बिंदु नहीं होता। इसलिए यह तुम्हें
तय करना होगा कि प्रजाहित में जो जरूरी है, वे ही इच्छाएं पूर्ण की जाएं,
शेष को नियंत्रित
किया जाए। सुख इच्छाओं की नियंत्रित पूर्ति में है।’ साधु की बात सुनकर राजा को अपनी
भूल समझ में आई। अब वह साधु के बताए मार्ग पर चलने लगा और उसके राज्य ने पहले से
अधिक बेहतर स्थिति प्राप्त की। सार यह है कि इच्छाएं अमरबेल की तरह होती हैं। पहली
को पूर्ण करें, चाहे सौवीं को, वे निरंतर फैलती ही जाती हैं। इसलिए आवश्यक-अनावश्यक के आधार पर इच्छापूर्ति
की प्राथमिकता तय करनी चाहिए।
कठोर तप से शिव को पाया पार्वती ने
भगवान शंकर को पति रूप में पाने के
लिए पार्वती ने कठोर तप किया। उन्होंने कंद-मूल खाना छोड़ सूखे पत्तों को आहार
बनाया। फिर उन्होंने पत्ते भी खाने छोड़ दिए। यह देख देवताओं में खलबली मच गई।
पत्तों का भी त्याग कर देने वाली उमा (पार्वती) का नाम देवताओं ने अपर्णा रख दिया।
देवताओं का मत था कि भगवान शंकर को
उमा को दर्शन देने ही होंगे। उमा ने और अधिक कठोरता अपनाई। जल और निद्रा का भी
त्याग कर एक पैर पर खड़ी हो शिवजी का स्मरण करने लगीं। किंतु उमा की शंकरजी को
पाने की आशा पूर्ण नहीं हुई। एक दिन तेज धूप में उमा एक पैर पर आंखें खोले खड़ी
थीं।
तभी पास के सरोवर में एक सूअर का
बच्चा पानी पीने आया और कीचड़ में फंस गया। उमा तपस्या भंग होने के डर से कुछ कर
नहीं रही थीं। वे पुन: शंकर भगवान का ध्यान करने लगीं, किंतु मन उसमें रमा नहीं। बच्चा यदि कीचड़ में डूब गया, तो मर जाएगा- यह विचार कर वे बोल उठीं- हे देव! इस बच्चे की
प्राण रक्षा करो।
अपनी सारी तपस्या का फल मैं इसका
जीवन बचाने के लिए अर्पित करती हूं। उनके ऐसा कहते ही सूअर के बच्चे के स्थान पर
भगवान शंकर प्रकट हुए और बोले- देवी! तुम्हारे इस काम ने सदा के लिए मुझे तुम्हारा
दास बना दिया, क्योंकि मैं अतिक्षुद्र प्राणी के
प्रति सहानुभूति व सेवा के भाव को करोड़ों वर्षों की तपस्या से बढ़कर मानता हूं।
इस प्रकार उमा ने भगवान शंकर को पति
रूप में प्राप्त कर लिया। मानवीय मूल्यों में निष्ठा सबसे बड़ी ईश भक्ति है। ऐसी
भक्ति का बल पूजा-पाठ, दान-ध्यान, तीर्थ-उपवास आदि किसी भी धार्मिक उपक्रम में नहीं होता और यही आत्मा व
परमात्मा दोनों को सर्वाधिक प्रसन्नता देती है।
गांधीजी ने बताया अहिंसा का गुण
गुलामी के दिनों की बात है। देशभक्त अपने-अपने तरीके से आजादी पाने का प्रयास
कर रहे थे। गांधीजी ने अहिंसा का मार्ग चुना था। एक बार महाराष्ट्र के विख्यात संत
तुकड़ोजी गांधीजी के पास एक महीना रहने आए। वे गांधीजी की विचारधारा और स्वयं
गांधीजी को निकट से देखना-समझना चाहते थे।
तुकड़ोजी को गांधीजी ने बड़े स्नेह से अपने पास रखा। वे रोज उन्हें कीर्तन में
ले जाते, प्रार्थना
में साथ रखते और परस्पर विचार-विमर्श करते। एक दिन तुकड़ोजी ने जिज्ञासा व्यक्त की
कि अहिंसा के बल पर गांधीजी हिंसा को कैसे जीत पाएंगे? तब गांधीजी ने एक कहानी सुनाई।
एक गरीब और एक धनी व्यक्ति थे। दोनों के घर पास-पास थे।
एकदिन गरीब के घर चोर आए। बहुत खोजने पर भी उन्हें वहां कोई वस्तु नहीं मिली।
खटपट सुनकर गरीब जाग गया। उसने कहा- ‘आप लोग नाहक परेशान हो रहे हैं। मेरे घर में कुछ
नहीं है। मेरी जेब में दस रुपए हैं। ये आप ले जाइए।’ चोरों ने हैरानी से उसकी ओर देखा
और फिर रुपए लेकर चले गए। अब वे धनी व्यक्ति के घर पहुंचे। वह पहले से ही जाग रहा
था और गरीब की बातें सुन चुका था। उसने विचार किया कि जब गरीब अपने सारे पैसे दे
सकता है, तो
मैं भी ऐसा कर सकता हूं।
उसने चोरों को अपनी सारी जमा-पूंजी लाकर दे दी। यह देख चोरों के भीतर का जमीर
जाग उठा। वे दोनों को उनका धन वापस देकर साधु बन गए। कहानी सुनाकर गांधीजी बोले- ‘संतवर! मैं हिंसा के मुख
में अहिंसा को इसी प्रकार झोंक देना चाहता हूं। आखिर कभी तो हिंसा की भूख शांत
होगी। कथा का निहितार्थ यह है कि यदि इस दुनिया को शांति से जीना है, तो अहिंसा से बेहतर कोई
मार्ग नहीं है।’
लक्ष्य पाने के लिए किया महान त्याग
इटली के एक नगर में एक संपन्न व्यापारी का पुत्र अपने पिता के कारोबार में खूब
मदद करता था। यह देख उसके पिता ने सारा व्यापार उसके हवाले कर दिया। उनका कपड़ों
का कारोबार था। बेटा व्यापार से खूब धन कमाता और ऐशोआराम पर भी बहुत व्यय करता।
नगर के शौकीन युवक इस नौजवान के मित्र थे। चूंकि वह कर्मठ था, इसलिए पिता भी उसके
मौज-शौक पर आपत्ति नहीं लेते थे। एक दिन घूमते हुए यह नौजवान संत दामिया के एक
जर्जर मंदिर के सामने पहुंचा। नौजवान ने वहां ईसा की फांसी वाला चित्र देखा। तभी
उसे ऐसा महसूस हुआ कि वह मानव धर्म को बिल्कुल भूल बैठा है।
उसे ईसा मसीह की वाणी महसूस हुई- 'मेरे मंदिर का जीर्णोद्धार कर।ञ्ज इन शब्दों को अपना
जीवन-लक्ष्य बनाकर उस नौजवान ने अपना ठाठ-बाट त्याग दिया। उसके पिता ने यह सब
देखकर उसे घर से निकाल दिया। अब वह जमीन पर सोने लगा और रूखा-सूखा भोजन करने लगा।
स्वार्थी मित्रमंडली भी गायब हो गई। संत दामिया के मंदिर का जीर्णोद्धार करने
के लिए उसने ईंट, पत्थर, लकड़ी, रेत आदि सभी सामान मांग-मांगकर इकट्ठा किया। मंदिर का पूरा निर्माण राज,
बढ़ई, मिस्त्री आदि सभी का काम
उसी ने किया। लोग उसे 'मूर्ख' कहकर उसका उपहास उड़ाते, किंतु वह अपना लक्ष्य पूर्ण करने
में लगा रहता।
धीरे-धीरे उसके लक्ष्य और परिश्रम को अन्य लोगों ने भी समझा और शेष कार्य सभी
के सहयोग से जल्दी हो गया। ईश्वर की आज्ञा का पालन करने के लिए अपना सुख त्यागने
वाले इस युवा का नाम था- संत फ्रांसिस। वस्तुत: संकल्प दृढ़ हो, तो लोक कल्याणकारी
लक्ष्य की प्राप्ति में साधनहीनता बाधा नहीं बनती और राह के शूल भी फूल हो जाते
हैं।
कथा सुनकर राजा सुधर गया
एक बार गौतम बुद्ध एक राज्य में
पहुंचे। वहां की प्रजा अपने राजा के अत्याचारों से बहुत त्रस्त थी। जब राजा को
बुद्ध के राज्य में आने की सूचना मिली, तो वह
उनसे मिलने आया और आग्रह किया- हे मुनिवर! क्या आप मुझे ऐसा कोई उपदेश दें,
जिससे मेरे मन को शांति मिले।
बुद्ध बोले- राजन! मैं आपको एक भूखे
कुत्ते की रूपक कथा सुनाता हूं। आप इससे प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। एक बहुत
अत्याचारी राजा था। जब प्रजा उसके जुल्मों से बहुत परेशान हो गई, तो देवराज इंद्र ने उसे सबक सिखाने की सोची। वे शिकारी का रूप
धारण कर उसके नगर में गए। उनका भयावह कुत्ता भी उनके साथ था।
शिकारी और कुत्ता राजमहल पहुंचे।
वहां पहुंचते ही कुत्ता योजनानुसार जोर-जोर से भौंकने लगा। राजा चौंककर जाग उठा।
उसने शिकारी को बुलाकर कुत्ते के भौंकने का कारण पूछा, तो वह बोला- राजन! मेरा कुत्ता भूखा है। आप पहले इसकी भूख शांत कीजिए।
राजा ने अपने नौकरों से कुत्ते के
लिए भोजन लाने के लिए कहा। खाद्य भंडार में जितनी वस्तुएं थीं, वे सभी कुत्ते को खाने के लिए दे दी गईं, किंतु उसका भौंकना जारी रहा। यह देख राजा ने फिर शिकारी से
पूछा, तो वह बोला- जब तक आपके राज्य में भूख-प्यास
से बेहाल लोग भटकते रहेंगे, तब तक मेरे
कुत्ते का भौंकना बंद नहीं होगा।
यह उन अत्याचारियों को समाप्त किए
बिना भौंकना बंद नहीं करेगा।ञ्ज भगवान बुद्ध से यह रूपक कथा सुनकर राजा को अपने
पाप कर्म याद आ गए। वह भयभीत हो गया और उसने भविष्य में अत्याचार न करने का प्रण
किया। वस्तुत: मुखिया के बुरे कर्म संपूर्ण व्यवस्था को तबाह कर देते हैं, इसलिए उसे सदैव सत्कर्म की राह पर चलना चाहिए।
व्यापारी को भूल का अहसास हुआ
मध्य रात्रि का समय था। बसरा (इराक) के एक संपन्न व्यापारी की आंखों से नींद
कोसों दूर थी। उसे स्वयं के द्वारा लोगों पर किए गए अत्याचार याद आने लगे। ऐसा लगा
जैसे कोई कह रहा हो- 'अपने सारे काले कारनामे याद कर और नर्क में जाने के लिए तैयार रह।
व्यापारी घबराहट में अंत:पुर की ओर भागा, किंतु वहां सन्नाटा था। सभी सोए
थे। तभी उसे गुलामों के लिए बनी एक कोठरी में दीपक जलता नजर आया। उसे हैरानी हुई।
वह कोठरी तक गया। उसने देखा कि वह कोठरी फरीदा नामक बांदी की थी। फरीदा घुटनों के
बल बैठी प्रार्थना कर रही थी- 'ऐ खुदा! मेरे गुमराह मालिकपर रहम कर। उसके गुनाहों को माफी
बख्श।
व्यापारी फरीदा की प्रार्थना सुन स्तब्ध रह गया। उसे फरीदा पर किए अत्याचार
याद आए। उसने वह दिन याद किया, जब उसकी हवेली में बगदाद के अमीरों के लिए दावत का आयोजन
किया गया था। शराब की मदहोशी में किसी ने खुदा के बनाए मानव जिस्म की तारीफ करते
हुए घुटनों की लाजवाबी बताई। सभी ने उसका समर्थन किया। फिर किसी अमीरजादे ने शराब
की खुमारी में घुटनों के जोड़ देखने की इच्छा जाहिर की। व्यापारी के आदेश पर फरीदा
के एक घुटने पर नौकरों ने डंडे से प्रहार किया।
फरीदा कराहने लगी, किंतु किसी ने उस पर दया नहीं दिखाई। आज फरीदा का अपने
प्रति सद्भाव देख व्यापारी ग्लानि से भर गया। उसने फरीदा से माफी मांगी और उसे
गुलामी से आजाद किया। तब फरीदा बोली- मालिक! मैं सभी इंसानों में खुदा का नूर
देखती हूं। इसलिए आप मेरे बदले दूसरे सभी गुलामों को आजाद कर दीजिए। व्यापारी ने
ऐसा ही किया। वस्तुत: क्षमा दुर्जनता को सज्जनता में बदलने की ताकत रखती है।
आप भी हो सकते हैं भगवान राम की तरह मर्यादा पुरूषोत्तम
भगवान विष्णु के दस अवतारों में से सातवां अवतार राम का है। भगवान राम मर्यादा
पुरूषोत्तम कहलाते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने अद्भुत शक्तियों का परिचय दिया,
गुरू दक्षिणा के
रूप में गुरू के मृत पुत्र को जीवित कर दिया। इनके हाथों में भगवान विष्णु का
सुदर्शन चक्र था। इन सारी खूबियों के बावजूद भगवान श्री कृष्ण मर्यादा पुरूषोत्तम
नहीं कहलाते हैं।
भगवान राम एक सामान्य मनुष्य की भांति जीवन के हर दुःख, सुख का सामना करते हैं। राम
लोगों को यह बताने का प्रयास करते हैं कि मनुष्य को किस प्रकार से जीवन बीताना
चाहिए। श्री कृष्ण की तरह राम गीता का उपदेश नहीं देते हैं बल्कि जो उपदेश वह देना
चाहते हैं उसे स्वयं के ऊपर प्रयोग करके सच्चे पुरूष का आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
यही कारण है कि राम मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाते हैं।
वाल्मीकि रामायण के अनुक्रमणिका में प्रसंग आया है कि नारद वाल्मीकि से पूछते
हैं कि संसार में कोई ऐसा मनुष्य है जिसमें सिर्फ सद्गुण भरे हों। वाल्मीकि कहते
हैं ऐसा एक मात्र पुरूष हैं श्री राम। वाल्मीकि नारद से राम के जो गुण बताते हैं
वह उनके जीवन की घटनाओं में स्पष्ट दिखता है।
शिक्षा ग्रहण करने के दौरान राम गुरू भक्ति का परिचय देते हैं और जैसा गुरू
सीखाते हैं उसे यथावत सीखने का प्रयत्न करते हैं। राम का सौन्दर्य मनमोहक है। सीता
इन्हें पहली नज़र में ही देखकर माता पार्वती से राम को पति रूप में पाने की
प्रार्थना करती हैं। रावण की बहन सूपर्णखा भी राम को पति रूप में पाना चाहती थी।
वैष्णवी शक्ति से उत्पन्न देवी त्रिकूटा भी राम को पति रूप में पाना चाहती
थीं। लेकिन राम ने सीता को एक पत्नी व्रत रहने का वचन देने के कारण त्रिकूटा के
प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। यहां राम वचन पालन और पति धर्म का परिचय देते हैं।
पिता के वचनों का पालन करने के लिए राम ने सहर्ष वन जाना स्वीकार कर लिया और
छोटे भाई को राजगद्दी सौंप दी। यहां राम ने पिता की भक्ति और निःस्वार्थ जीवन का
ज्ञान दिया। विमाता केकैय ने राम को वन भेजने की योजना बनायी थी, यह जानते हुए भी राम ने
माता से किसी प्रकार का द्वेष नहीं रखा।
हमेशा उन्हें अपनी माता के सामान आदर और सम्मान दिया। यहां राम ने यह समझाया
कि माता का पद हमेशा और हर हाल में आदरणीय होता है। सीता हरण के बाद भी राम
धैर्यवान बने रहे और अपनी शक्तियों को संचित करके समय पर रावण को इस कार्य के लिए
दंडित किया।
यहां राम ने धैर्य और वीरता का गुण दिखाया। राम ने यह भी बताया कि धैर्य वीर
पुरूषों का गुण है। स्वामी को अपने सेवक के साथ किस प्रकार से मित्रवत व्यवहार करना
चाहिए इसका परिचय रामायण में राम और हनुमान के प्रसंग में अनेक स्थान पर मिलता है।
राम के यह सभी गुण उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में स्थापित करता है। जिस
मनुष्य में यह सभी गुण मौजूद हों वह भी राम की तरह मर्यादा पुरूषोत्तम बन सकता है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू
का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता
है......MMK
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