बच्चों की शादी तय करते समय ये बात जरूर ध्यान रखें...
हमारे समाज में आमतौर पर विवाह माता-पिता की मर्जी से होता है। अक्सर लोग
बच्चों का विवाह तय करते समय उन्हीं कीए इच्छा-अनिच्छा का ध्यान नहीं रखते। विवाह
सिर्फ दो लोगों को साथ रखने की एक रस्म नहीं है, यह भावी सृष्टि के निर्माण की एक
दिव्य परंपरा है।
पुरुष प्रधान समाज में लड़कों को तो फिर भी अपनी पसंद-नापसंद रखने का अधिकार
मिल जाता है लेकिन जो वंश को चलाने का आधार मानी जाती है, उन्हीं लड़कियों से अक्सर उनकी
पसंद नहीं पूछी जाती। हमारे धर्म ने स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार दिए
हैं। लड़कियों से उनकी इच्छा पूछी जाए। वे किस के साथ अपना जीवन बिताना चाहती हैं।
हमारे ग्रंथों में स्वयंवर की परंपरा रही है। जिसमें लड़की अपना वर खुद चुन
सकती थी, उसके
फैसले का सम्मान भी किया जाता था। हम जितने आधुनिक पहनावे और रहन-सहन में हुए हैं,
उससे ज्यादा अपने
विचारों और मानसिकता में पिछड़े भी हैं।
महाभारत में एक कन्या का विवाह देखिए। पुरातन काल में विचारों की आधुनिकता का
इससे अच्छा उदाहरण नहीं मिल सकता। मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री जब
विवाह के योग्य हुई, तो लोगों ने उन्हें अच्छे-अच्छे राजकुमारों के प्रस्ताव भेजने शुरू किए।
अश्वपति ने सावित्री को बुलाकर उससे कहा कि उसे अब विवाह कर लेना चाहिए। विवाह के
लिए मैं किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाऊंगा। तुम सेना की एक टुकड़ी ले जाकर पूरे
भारत वर्ष का भ्रमण करो।
अपनी पसंद से कोई वर चुनों। तुम जिसे पसंद करोगी मैं पूरे सम्मान से उसके साथ
तुम्हारा विवाह कर दूंगा। सावित्री ने एक वर्ष तक पूरे भारत वर्ष का भ्रमण किया।
अंत में उसने सत्यवान नाम के एक राजकुमार को पसंद किया। सत्यवान के पिता भी राजा
थे लेकिन उनके भाइयों ने धोखे से उनका राज्य छिन लिया। इस कारण वे वनवासी हो गए
थे।
सत्यवान की उम्र मात्र एक वर्ष ही शेष थी, फिर भी अश्वपति ने अपनी बेटी की
इच्छा का मान रखते हुए, उसका विवाह सत्यवान से कर दिया। इसी सावित्री ने अपने तप बल
से सत्यवान के प्राण यमराज से वापस मांग लिए थे।
श्रीकृष्ण से सीखें, पारिवारिक दुश्मनी में भी प्रेम का सम्मान कैसे रखा जाए?
कई बार शादी-ब्याह के मामलों में खानदानी दुश्मनी और व्यक्तिगत द्वेष को
ज्यादा महत्व दे दिया जाता है। कई परिवारों में आपसी रंजिशों के चलते बच्चों के
विवाह नहीं किए जाते। जब कोई युवा जोड़ा आपसी विचारों के मिलने से नजदीक आता है,
उनके बीच प्रेम
पनपता है। अगर वे एक साथ रहने का, विवाह के पवित्र बंधन में बंधने का निर्णय लें, तो इसका विरोध नहीं होना
चाहिए।
दो परिवारों या कुटुंबों की आपसी कटुता में प्रेम के अंकुरण को मसला नहीं जाना
चाहिए। बल्कि उसका पूरा सम्मान किया जाना चाहिए।
अक्सर होता यह है कि बच्चे विवाह करना चाहते हैं लेकिन परिवारों की आपसी
दुश्मनी में यह प्रेम बलि चढ़ जाता है। भगवान कृष्ण ने अपने जीवन में ऐसे अनेक
उदाहरण प्रस्तुत किए हैं, जो आज के समाज के लिए उपयोगी हैं। विवाह में पारिवारिक
दुश्मनी से ऊपर उठ पे्रम का सम्मान करना भगवान कृष्ण से सीखिए।
भागवत के एक प्रसंग में चलते हैं। दुर्योधन भगवान कृष्ण को पसंद नहीं करता था।
पांडवों का हितैषी होने के कारण वह भगवान कृष्ण को अपना परमशत्रु मानता था। भगवान
भी दुर्योधन को धर्म और शांति के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोधा समझते थे, पूरी तरह से उसके खिलाफ
भी थे।
इसके बावजूद भगवान कृष्ण का पुत्र साम्ब और दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा आपस
में प्रेम करते थे। दुर्योधन इस रिश्ते के खिलाफ था, इसलिए उसने लक्ष्मणा का स्वयंवर
रखा लेकिन उसमें यादवों को न्यौता नहीं भेजा। साम्ब को इसके बारे में पता चला तो
वह भरे स्वयंवर में से लक्ष्मणा का अपहरण करके ले गया।
दुर्योधन ने सेना के साथ उसका पीछा किया और उन्हें बंदी बना लिया। बलराम
उन्हें छुड़वाने और दुर्योधन को मनाने भी आए लेकिन वह नहीं माना। तब श्रीकृष्ण आए
और उन्होंने दुर्योधन और अन्य कौरवों को समझाया कि हमारी आपसी मतभिन्नता अलग है और
बच्चों का प्रेम अलग। अगर ये साथ रहना चाहते हैं तो हमें आपसी दुश्मनी को भूलाकर
इनके प्रेम का सम्मान करना चाहिए। हमारी दुश्मनी का इनके प्रेम पर कोई प्रभाव नहीं
पडऩा चाहिए।
दुर्योधन मुझे और मैं दुर्योधन को चाहे पसंद ना करूं लेकिन हमें हमारे बच्चों
के प्रेम का सम्मान करना चाहिए। तब कौरवों ने दोनों का विवाह करवा दिया।
ऐसे की जाए वैवाहिक जीवन की शुरुआत तो गृहस्थी बनेगी स्वर्ग
युवा दंपत्तियों में कलहपूर्ण दाम्पत्य और अशांत गृहस्थी आज आम बात है।
पति-पत्नी में वैचारिक तालमेल का अभाव, एक-दूसरे पर अविश्वास और धोखा ये मामले अक्सर देखने
में आते हैं। आखिर क्यों हमारे दाम्पत्य अशांत और रिश्ते विश्वास हीन होते जा रहे
हैं। इसके लिए कुछ चारित्रिक दोष तो कुछ हमारे वैवाहिक जीवन की शुरुआत जिम्मेदार
होती है।
वैवाहिक जीवन की शुरुआत कुछ ऐसी होनी चाहिए, जिसमें हम एक-दूसरे के प्रति
अपना भरोसा और समर्पण देख-दिखा सकें। आज के युवा वैवाहिक जीवन और व्यक्तिगत जीवन
दोनों को अलग रखना चाहते हैं। इसी की होड़ में रिश्तों की मर्यादाएं टूटती हैं और
गृहस्थी का कलह सड़क का तमाशा बन जाता है।
आइए, राम
सीता के वैवाहिक जीवन से सीखें कि युवा दम्पत्तियों को कैसे अपनी शादीशुदा जिंदगी
की शुरुआत करनी चाहिए। भगवान राम और सीता का विवाह हुआ। बारात जनकपुरी से अयोध्या
आई। भारी स्वागत हुआ। राजमहल में सारी रस्में पूरी की गईं।
भगवान राम और सीता का दाम्पत्य शुरू हुआ। पहली बार भगवान ने पत्नी सीता बातचीत
की। बात समर्पण से शुरू हुई। राम ने सीता से पहली बात जो कही वह समर्पण की थी।
उन्होंने सीता को वचन दिया कि वे जीवनभर उसी के प्रति निष्ठावान रहेंगे। उनके जीवन
में कभी कोई दूसरी स्त्री नहीं आएगी। सीता ने भी वचन दिया, हर सुख और दुख में साथ रहेगी।
पहले वार्तालाप में भरोसे का वादा किया गया। एक-दूसरे के प्रति समर्पण दिखाया।
तभी दाम्पत्य दिव्य हुआ। कभी आपसी विवाद नहीं हुए। हमेशा राम सीता के और सीता राम
के कल्याण की सोचती थी। व्यक्तिगत अहंकार और रुचियां कभी गृहस्थी में नहीं आए।
वैवाहिक जीवन में जरूरी हैं पति-पत्नी के बीच ये तीन बातें होना...
पति-पत्नी में छुटपुट झगड़े आम बात हैं, ये जरूरी भी होते हैं रिश्ते की
ताजगी के लिए। लेकिन अक्सर छोटी-छोटी बातें बड़ा रूप ले लेती हैं और गृहस्थी नर्क
लगने लगती है। वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी का आपसी तालमेल बहुत जरूरी होता है। ये
ऐसे नहीं बनता, इसके लिए तीन चीजों की जरूरत होती है। पहला एक-दूसरे के प्रति सम्मान, दूसरा आपसी विश्वास और
तीसरा एक दूसरे के प्रति निष्ठा। इन तीनों में से एक भी बात नदारद हो तो गृहस्थी
बिखरने में देर नहीं लगेगी।
भावगत में राजा ययाति की कथा आती है। ययाति ने एक बार अपनी पत्नी का विश्वास
तोड़ा और गृहस्थी, बिखर गई, ययाति को शाप झेलना पड़ा, माफी मांगनी पड़ी। ययाति बड़े प्रतापी राजा थे। उनका विवाह
दैत्य गुरु शुक्राचार्य की बेटी देवयानी से हुआ था। एक शर्त के तहत दैत्यों की
राजकुमारी शर्मिष्ठा उसके साथ दासी रूप में आई थी। शुक्राचार्य ने ययाति से वचन
लिया था कि वो कभी देवयानी के अलावा किसी अन्य स्त्री से संबंध नहीं रखेगा। ययाति
ने बात भी मान ली।
देवयानी गर्भवती हुई तो शर्मिष्ठा जो उसके महल के पीछे कुटिया में रहती थी,
उसे ईष्र्या होने
लगी। उसने ययाति को अपने रूप जाल में फांस लिया। ययाति भी शुक्राचार्य को दिया गया
वचन भूल गए और शर्मिष्ठा से संबंध स्थापित हो गए। पति-पत्नी के बीच आपसी निष्ठा और
विश्वास खत्म हो गया। एक दिन देवयानी को ये बात पता चल गई। वो ययाति को छोड़
शुक्राचार्य के पास आ गई। शुक्राचार्य ने ययाति के भ्रष्ट आचरण की बात सुन उसे शाप
दे दिया कि वो युवा अवस्था में ही वृद्ध हो जाए।
ययाति ने अपने किए की क्षमा मांगी। बहुत गिड़गिड़ाए तो शुक्राचार्य ने उसे शाप
से मुक्ति का तरीका बता दिया। फिर भी वैवाहिक जीवन का सुख, विश्वास और सम्मान ययाति ने अपनी
पत्नी की नजर में खो दिया। ऐसा अक्सर कई गृहस्थियों में होता है। पति-पत्नी आपसी
विश्वास कायम नहीं रख पाते।
शादीशुदा जिंदगी में ये काम बन सकता अच्छे परिवार की नींव....
बढ़ती जनसंख्या एक बड़ी समस्या है, लेकिन उससे भी बड़ी समस्या यह है कि जो संतानें जन्म
ले रही हैं, क्या वे संस्कारजन्य हैं? अधिक जनसंख्या भुखमरी, बेरोजगारी, अपराध जैसी समस्याएं
पैदा करेगी, लेकिन ऐसे संस्कार की नई पीढ़ी पूरे परिवार और समाज में अशांति पैदा कर देगी।
बढ़ती जनसंख्या को रोका जाए, लेकिन साथ ही जो बढ़ चुके हैं या सीमित संख्या में आ रहे
हैं, उन्हें
भी बचाया जाए। समझदार लोगों के घरों में एक या दो बच्चे होते हैं, लेकिन उपद्रव देख लगता
है कि कई गुना संख्या वाले भी इन पर कम पड़ेंगे। संस्कारशून्य सीमित परिवारों के
बच्चे भी बढ़ती जनसंख्या जैसे घातक परिणाम देंगे।
केवल प्रजनन रोकने से काम नहीं चलेगा, कामुकता की दुष्प्रवृत्ति को भी रोकना होगा। इसके
लिए नवविवाहित जोड़ों और नए माता-पिताओं को चाहिए कि वे पूजा-पाठ के अलावा थोड़ा
समय योग-ध्यान पर जरूर दें। कर्मकांड से आचरण बदलता है और ध्यान से प्रवृत्ति।
थोड़ा ध्यान लगाने का प्रयास हमें चीजों का सही मूल्य समझाएगा। हम कई ऐसी बातों पर
टिके रहते हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं होता।
दुनिया की जगमगाहट में डूबकर भी अंधेरा महसूस करते हैं। बाहर की रोशनी तो जला
लेते हैं, पर भीतर अंधेरा ही रहता है। ध्यान करते ही हमें हमारे भीतर एक दीपक-सा जलता
नजर आएगा। उस रोशनी में अपने ही भीतर एक कोना ऐसा दिखेगा, जहां बैठकर हम असली जागरण
प्राप्त कर सकेंगे। थोड़ा प्रकाश प्राप्त करने के बाद ही संतान पैदा करें। वरना
इसका असर लालन-पालन पर भी पड़ेगा। हम अपने बच्चों के शरीर को तो बड़ा कर देंगे,
पर आत्मा जीवन भर अछूती
रह जाएगी।
जानिए, क्यों असफल हो जाते हैं शादी के बाद रिश्ते?
अक्सर देखा जाता है कि कई पति-पत्नी के रिश्ते कई बार शादी के कुछ ही दिनों
में दरकने लगते हैं। ऐसा तब होता है जब दोनों पक्ष एक-दूसरे को अपनी ओर खिंचने में
लग जाते हैं। कई परिवारों में बहुओं आते ही उन पर अपने घर का अनुशासन, जिम्मेदारियां और नियम
कायदे इस तरह थोप दिए जाते हैं कि लड़की अपने आप को उस घर में पराया समझने लगती
है। लड़के का परिवार उस पर अपनी अपेक्षाओं का इतना वजन रख देता है कि उसके मन में
ससुराल के प्रति अपनापन महसूस ही नहीं कर पाती, उसे यह सब केवल जिम्मेदारी ही
लगता है।
जबकि नई बहु के साथ ऐसा व्यवहार होना चाहिए कि उसका मन कम समय में ही पति के
घर और परिवार को अपना मान ले। भागवत के एक प्रसंग में चलते हैं। भगवान कृष्ण
रुक्मिणी का हरण करके भागे। रुक्मिणी के भाई रुक्मी ने उनका पीछा किया और कृष्ण को
युद्ध के लिए आमंत्रित किया। भगवान कृष्ण ने रुक्मी से घमासान युद्ध किया और उसे
पराजित कर दिया।
जब भगवान रुक्मी को मारने लगे तब रुक्मिणी ने उन्हें रोक दिया। भाई की जान बचा
ली। फिर भी कृष्ण ने उसे आधा गंजा करके और आधी मूंछ काटकर कुरुप कर दिया। रुक्मिणी
इस पर कुछ नहीं बोली, वो उदास हो गई। लेकिन बलराम ने रुक्मिणी के मन के भाव ताड़ लिए। उन्होंने
कृष्ण को समझाया कि रुक्मी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना था। वो तुम्हारी पत्नी का
भाई है। तुम्हारा परिजन है।
बलराम ने रुक्मिणी से हाथ जोड़कर माफी मांगी। उन्होंने रुक्मिणी से कहा कि
तुम्हारा भाई हमारे लिए आदरणीय है और कृष्ण द्वारा किए गए व्यवहार के लिए मैं
क्षमा मांगता हूं। तुम उस बात के लिए अपना मन मैला मत करना। ये परिवार अब तुम्हारा
भी है, इसे
पराया मत समझना। तुम्हारे भाई के साथ हुए दुव्र्यवहार के लिए मैं तुमसे माफी
मांगता हूं।
इस बात से रुक्मिणी की उदासी जाती रही। वो यदुवंश में घुल मिल कर रहने लगी और
उसी परिवार को अपना सबकुछ मान लिया। नई बहुओं को जिम्मेदारी दें लेकिन उनसे सिर्फ
अपेक्षाएं ही ना रखी जाएं, उन्हें आदर-सम्मान और अपनापन भी दिया जाए। बहुओं के आते ही
अपने घर के अनुशासन में भी थोड़ा बदलाव करें, जिससे वो अपने आप को उस माहौल
में ढाल सके।
इस भावना से रहेंगे तो गृहस्थी स्वर्ग बन जाएगी...
अगर वैवाहिक जीवन सफल है तो जीवन सफल है। गृहस्थी, हमारी संस्कृति की सबसे
महत्वपूर्ण कड़ी है। अविवाहित रहना और विवाह के बाद के जीवन में जमीन आसमान का
फर्क होता है। विवाह संतुलन का नाम है। जीवन में संतुलन तब तक नहीं आता जब तक इसके
सुख-दु:ख बांटने वाला कोई आ ना जाए। सन्यास से भी बड़ी जिम्मेदारी होती है
गृहस्थी। भगवान राम और कृष्ण ने भी इस जिम्मेदारी को निभाया, विवाह और उसके बाद जीवन
के सुख-दु:ख और जिम्मेदारियों को उठाया है।
जीवन में श्रेष्ठ क्या है इसकी सबकी अपनी-अपनी परिभाषा होती है। किसी धार्मिक
आदमी से पूछो तो वह कहेगा श्रद्धा के बिना धर्म बेकार है। किसी आध्यात्मिक आदमी से
पूछो तो वह प्रेम पर टिक जाएगा। कोई योद्धा हो और लम्बे समय से रणक्षेत्र में हो
तो उसके लिए घर से बढ़कर और कुछ नहीं होगा। व्यापारी व्यवसाय को उत्तम बताएगा।
ऐसे जीवन के अनेक क्षेत्र हैं जिनमें सबकी अपनी-अपनी राय होगी। कल्पना करिए ये
सब एक जगह मिल जाएं तो जीवन का दृश्य क्या हो? और इसका नाम है दृष्टि। दाम्पत्य
एक तरह का कोलाज है। यहां धर्म, प्रेम, श्रद्धा, शान्ति, अशान्ति, लोभ सब एक साथ मिल जाएगा। जोगी, यति, तपस्वी, फकीर, महात्मा, सफल व्यवसायी, उच्च शिक्षाविद् सबकुछ
इस एक छत के नीचे घट सकता है।
इसलिए दाम्पत्य को संन्यास से भी कठिन माना है। इसमें धैर्य और दूसरे के लिए
जीने की तमन्ना रखना पड़ती है। गृहस्थी से गुजरे हुए लोग स्वतंत्र जीवन जीने वाले
लोगों के प्रति परिपक्व और गंभीर नजर आते हैं। परमात्मा की खोज में निकलने वाले
लोग केवल पहाड़ों, जंगलों से निकलेंगे ऐसा नहीं है, चूल्हा, चौका, शयनकक्ष और आंगन परमात्मा ने इन्हें भी अपना स्थान
बनाया है।
भगवान् ने अपने लिए एक नाम रखा है ब्रह्म। इसका अर्थ बड़ा सुन्दर है। इसका अर्थ
है जो सदा विस्तार की ओर चले, हमेशा विराट होने की सम्भावना अपने अंदर रखे, जो अनन्त हो। और यह भाव
गृहस्थी में बड़ा काम आता है क्योंकि भीतर से विशाल हुए बिना बाहर का विराट कैसे
उपलब्ध होगा।
पति-पत्नी का रिश्ता बंधा हो इस अटूट डोर से...
पति-पत्नी का रिश्ता अक्सर तब खटास पर आता है, जब वे एक-दूसरे की बजाय खुद के
प्रति ज्यादा लगाव रखने लगते हैं। समर्पण का भाव सूखते ही प्रेम का पौधा मुरझाने
लगता है। पति-पत्नी का रिश्ता समर्पण की डोर से बंधा होता है। पति, ऐसा हो जो पत्नी को अपने
आधे शरीर की तरह माने, पत्नी वो जो पति के बिना खुद को अधूरा समझे। दोनों में
एक-दूसरे पर न्योछावर होने का भाव हो। तनते रिश्ते और कम होते समर्पण से ही
दाम्पत्य नर्क हो जाता है।
श्रीरामजी को वनवास जाना था। वे चाहते थे सीताजी माँ कौशल्या के पास रुक जाएं।
सीताजी उनके साथ जाना चाहती थीं। कौशल्याजी भी चाहती थीं सीता न जाए। सास, बहू और बेटा, ऐसा त्रिकोण यहां पैदा
हो गया था।
दुनिया में इस रिश्ते ने कई घर बना दिए और बिगाड़ दिए। लेकिन रामजी के धैर्य,
सीताजी की समझ और
कौशल्याजी की समझ ने रघुवंश का इतिहास बदल दिया। हमारे अवतारों की यह घटनाएं हमें
अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों में बड़े-बड़े संदेश दे जाती हैं। हमारे परिवारों
में सास-बहू पति-पत्नी के संबंधों में जो विच्छेदन आता है उसका बड़ा मनोवैज्ञानिक
संकेत है।
जब कोई किसी परिवार में किसी पर निर्भर होता है तो परिवार के सदस्य को लगता है
कि हम उसकी जरूरत पूरी कर रहे हैं। माँ-बाप बच्चों को जब बड़ा करते हैं तो वे
इसलिए प्रसन्न रहते हैं कि बच्चे उन पर निर्भर हैं। जैसे ही बच्चे बड़े हो जाते
हैं तो वे अपना काम खुद करने लगते हैं। उनका अपना संसार बस जाता है, अब वो माँ-बाप पर निर्भर
नहीं हैं। तब एक मनोवैज्ञानिक भीतरी अन्त:विरोध शुरू होता है।
सास-बहू के झगड़े का एक कारण यह भी होता है कि सास सोचती है कि इस बेटे को जो
सदा से मेरे ऊपर निर्भर था, मुझे उसे बुद्धिमान बनाने में २५ साल लगे और इस नई औरत ने
पांच मिनट में उसको बुद्धू बना दिया। जो बेटा सदा से मुझ पर निर्भर था वह आज इस पर
निर्भर हो गया। यही हाल पति-पत्नी के होते हैं। वह भी एक-दूसरे को एक-दूसरे पर
निर्भर करना चाहते हैं। दाम्पत्य का आधार प्रेम होना चाहिए।
हम पहले भी यह बात कर चुके हैं कि जिस परिवार के केन्द्र में प्रेम होगा वह
परिवार फिर अहंकाररहित होगा उसमें बड़ा-छोटा, तेरा-मेरा नहीं होता और इसलिए
विरोध की संभावना समाप्त हो जाती है।
विवाह का उद्देश्य सिर्फ दैहिक सुख ना हो..
विवाह का उद्देश्य सिर्फ वासना की पूर्ति नहीं होना चाहिए। पति या पत्नी दोनों
में से एक भी अगर वासना पर टिक जाते हैं, तो वे अपने जीवन साथी के सामने बौने हो जाते हैं।
वासना को सृजन से जोडऩे वाले परिवार को महत्व देते हैं। जो लोग केवल दैहिक सुख की
कामना से विवाह करते हैं, वे थोड़े ही दिनों में गृहस्थी को नर्क के मार्ग पर ले आते
हैं।
गृहस्थी बसाना सभी को पसंद है भले ही मजबूरी हो या मौज। अधिकांश लोग इससे
गुजरते जरूर हैं। जब-जब गृहस्थी में अशांति आती है तब आदमी इस बात को लेकर परेशान
रहता है कि क्या किसी के दाम्पत्य में शांति भी होती है। समझदार लोग गृहस्थ जीवन
में शांति तलाश लेते हैं।
आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपने एक वक्तव्य में गृहस्थी में अशांति के कारण को
वासना भी बताया है। उन्होंने कहा है वासना के कारण पुरुष स्त्री के प्रति और
कभी-कभी स्त्री पुरुष के प्रति जैसा द्वेष भाव रख लेते हैं उससे परिवारों में
उपद्रव होता है। एंजिलर मछली का उदाहरण उन्होंने दिया है।
यह मछली जब पकड़ी गई इसका आकार था 40 इंच। मामला बड़ा रोचक है लेकिन नर एंजिलर पकड़ में
नहीं आ रहा था क्योंकि वह उपलब्ध नहीं था। एक बार तो यह मान लिया गया कि इसकी नर
जाति होती ही नहीं होगी। लेकिन एक दिन एक वैज्ञानिक को मादा मछली की आंख के ऊपर एक
बहुत ही छोटा मछली जैसा जीव नजर आया जो मादा मछली का रक्त चूस रहा था। यह नर मछली
था। मादा का आकार 40 इंच था और नर का 4 इंच। पं. शर्मा ने इसकी सुंदर व्याख्या करते हुए कहा था कि
नारी को भोग और शोषण की सामग्री मानने वाला पुरुष ऐसा ही बोना होता है। जो
मातृशक्ति को रमणीय मानकर भोगने का ही उद्देश्य रखेंगे वे जीवन में एंजिलर नर मछली
की तरह बोने रह जाएंगे।
हम इस में यह समझ लें कि जानवरों में उनकी अशांति का कारण वासनाएं होती हैं।
केवल बिल्ली की बात करें बिल्ली का रुदन उसकी देह की पीड़ा नहीं उसकी उत्तेजित
कामवासना का परिणाम है। ठीक इसी तरह मनुष्य भी इनके परिणाम भोगता है और उसका रुदन
ही परिवार में अशांति का प्रतीक है।
कैसे निभाएं दाम्पत्य में रिश्ते.....
इस समय दो तरह के दाम्पत्य चल रहे हैं। पहला अशांत दाम्पत्य और दूसरा असंतुष्ट
दाम्पत्य। जो पति-पत्नी ना समझ हैं उनके उपद्रव, खुद उनके सामने और दुनिया के आगे
जाहिर हो जाते हैं। वे अपनी अशांति पर आवरण नहीं ओढ़ा पाते।
दूसरे वर्ण का दाम्पत्य वह है जिसमें पति-पत्नी थोड़े समझदार या कहें चालाक
हैं, लिहाजा
इस अशांति को ढंक लेते हैं, उपद्रव को खिसका भर देते हैं। ऐसा दाम्पत्य असंतुष्ट
दाम्पत्य है। फिर ये असंतोष स्त्री या पुरुष दोनों को ही अपने-अपने गलत मार्ग पर
जाने के लिए प्रोत्साहित कर देता है। जिन्हें सचमुच घर बसाना हो वे चमड़ी की तरह
एक बात अपने से चिपका लें और वह है प्रेम।
बिना प्रेम के परिवार चलाया जा सकता है, बसाया नहीं जा सकता। इस समय
ज्यादातर लोगों की गृहस्थी शोषण और उत्पीडऩ पर चल रही है। पति-पत्नी में से जो
ज्यादा चालाक है वह इसे व्यवस्थित ढंग से करता है और जो कम समझदार है वह
अव्यवस्थित तरीके से निपटा रहा है। मूल कृत्य में कोई अंतर नहीं है। प्रेम यदि
आधार बनेगा तो जो पक्ष अधिक बुद्धिमान, समझदार होगा वह अपने जीवनसाथी को भी वैसा बनाने का
प्रेमपूर्ण कृत्य करेगा। यही आपसी मुकाबला न होकर समान होने के सद्प्रयास होंगे।
गुण, कर्म
और स्वभाव की समानता से जोड़े बन जाएं यह किस्मत की बात है। वरना अपनी समूची
सहनशक्ति, उदारभाव और माधुर्य को अपने जीवनसाथी के साथ संबंधों में झोंक दें और इसके लिए
जो ताकत लगती है उसके शक्ति संचय के लिए ये नौ दिन काम आएंगे। नामभर नवरात्र है,
पर इसमें गजब का
उजाला है।
पति-पत्नी के बीच होना चाहिए इस तरह का समझौता...
एक-दूसरे के साथ रहने में थोड़ा सा यदि प्रेमभरा समझौता किया जाए तो आनंद और
सुगंध दोनों मिल जाते हैं। बगीचे में हर फूल अपनी महक लिए होता है। उसी प्रकार जब
हम परिवार में रहते हैं तो हर सदस्य की अपनी एक खुश्बू होती है।
जो सुगंध आपको अच्छी लगती है वैसे व्यक्ति के पास हम रहना पसंद करते हैं। चाहत
सबकी होती है कि किसी न किसी का सान्निध्य बना रहे। यह संगति चाहे मन से हो या तन
से, अपने
तरीके से संतोष देती ही है और इसकी हैण्डलिंग ठीक से न की जाए तो यह निराशा और
तनाव भी देती है। परिवार में सहयोग, समझौता और सूझबूझ रिश्तों के मतलब ही बदल देती है।
एक कुटुंब में न तो केवल पुरुषों से जीवन आएगा और न केवल स्त्रियों से। घर की
माता, पत्नी,
बहन, पुत्री, बहु, भाभी के रूप में हर औरत
एक विशेष सुगंध लिए रहती है। जैसे पुरुष के पास एक सौरभ होता है वैसे ही स्त्री के
पास विशिष्ट सुगंध होती है। जैसे ही यह किसी पवित्र रिश्ते से जुड़ती है पूरा जीवन
महक उठता है।
परिवारों में साथ-साथ जीने की जो इच्छा होती है उसके पीछे ऐसी ही महक काम करती
है। इसे पवित्र रखने के लिए हर घर में भक्ति का आचरण बड़ा काम आएगा। जैसे ही
परिवार में भक्ति उतरती है सबसे समानता का व्यवहार होने लगता है।बाहर की दुनिया
में कहा जाता है व्यक्तिवादी दृष्टिकोण ठीक नहीं है लेकिन घर के संसार में
व्यक्तिवादी दृष्टिकोण होना चाहिए।
इसका अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति का घर में समान विकास हो। उसके मान और ध्यान
में भेदभाव न हो। न कोई विशिष्ट हो और न ही निकृष्ट। हर एक की स्वतंत्रता मान्य की
जाए और उसके निजी तथा सामाजिक विकास में पूरा परिवार सहयोग करे। परिवार की सामुहिक
भक्ति भावना इस जीवनशैली को प्रेरित और प्रोत्साहित करती है। इसलिए परिवार के जीवन
में भक्ति बनाए रखें।
पति-पत्नी के रिश्ते तन से नहीं, मन से निभाएं...
परिवारों में रिश्ते बनते भले ही शरीर से हैं, लेकिन रिश्तों को निभाने के लिए
शरीर से अलग हटना पड़ता है। भारतीय परिवारों में भी बदलते दौर में एक बड़ा
परिवर्तन आया है। हमारे यहां पहले रिश्तों को महत्व दिया गया, शरीर को गौण रखा गया।
इसीलिए भारत के परिवार के सदस्य एक-दूसरे से भावनात्मक रूप में रहते हैं।
धीरे-धीरे घर-गृहस्थी का विस्तार हुआ। बाहर की दुनिया में लोगों का समय अधिक बीतने
लगा। लक्ष्य परिवार से हटकर संसार हो गया और यहीं से शरीर का महत्व बढ़ गया।
जैसे ही हम रिश्तों में शरीर पर टिकते हैं, हमारा आदमी या औरत होना भारी
पड़ने लगता है, उनका अहं टकराने लगता है। बाप और बेटे का एक रिश्ता है। जब तक इसमें केवल
रिश्ता काम कर रहा होता है, प्रेम और सम्मान भरपूर रहेगा, लेकिन जैसे ही दोनों अपने शरीर
पर टिकेंगे, तो भीतर का पुरुष जाग जाता है और यहीं से फिर बाप-बेटे नहीं, दो पुरुष नजर आने लगते
हैं।
ठीक यही स्थिति पति-पत्नी के बीच बन जाती है। स्त्री हो या पुरुष, जब तक रिश्ते की डोर से
बंधे हैं, दोनों एक-दूसरे के प्रति अत्यधिक सम्मानपूर्वक रहेंगे, लेकिन इनके भीतर का आदमी,
औरत जागते ही
रिश्ते बोझ बन जाते हैं।
यही स्थिति हर संबंध में काम करती है। पत्नी के रूप में रिश्ता एक दायित्व,
एक स्नेह का होता
है, लेकिन
यदि वह स्वयं भी अपने भीतर की स्त्री को ही जाग्रत कर ले, पुरुष भी केवल शरीर ही देखने लगे,
तो फिर सारी
अनुभूतियां कामुकता, अपेक्षा, महत्वाकांक्षा और लेन-देन पर टिक जाती हैं।
जिन रिश्तों में शरीर गौण हों और भावनाएं प्रमुख हों, वहां जिंदगी मीठी होने लगती है।
यह सही है कि शरीर के बीज से ही रिश्ते अंकुरित होते हैं, लेकिन जो लोग वापस शरीर की ओर
लौटेंगे, वे
रिश्तों का वृक्ष नहीं बना पाएंगे।
रिश्तों से जुड़ने पर ऐसा लगता है, जैसे पत्थर में से मूर्ति संवारी गई। छुपा हुआ
निखरकर आता है। हमें आज के दौर में यह ध्यान रखना होगा कि रिश्ते शुरू तो शरीर से
हों, पर
धीरे-धीरे शरीर से हटकर भावना, संवेदना, ममता, सम्मान और प्रेम पर जाकर टिकें।
सिर्फ दैहिक सुख का साधन नहीं होता है विवाह...
विवाह का एक आध्यात्मिक अभिप्राय भी होता है। दांपत्य को सामाजिक दृष्टि से ही
न देखा जाए। पति-पत्नी होना स्त्री-पुरुष के लिए कोई शारीरिक कृत्य मात्र नहीं। इस
रिश्ते में आध्यात्मिक अनुभूतियां जितनी गहन होंगी, रिश्ता उतना ही आनंददायक हो
जाएगा।
आज के दौर में सर्वाधिक मतभेद और आंतरिक तनाव इसी रिश्ते में देखा जा रहा है।
आदमी दांपत्य के सुख से भी ऊब गया है और दुख से भी। जिन लोगों को दांपत्य में दुख
ही दुख मिला हो, वे भी दुख से बाहर निकलने के लिए या तो आत्मघात जैसा कदम उठाते हैं या फिर
गृहस्थी छोड़कर भागने लगते हैं।
जिन्हें घर-गृहस्थी में बहुत अधिक सुख मिल गया हो तो या तो उनके भीतर अहंकार आ
जाता है या वे विलास में डूब जाते हैं। पुनरावृत्ति सभी बातों की महंगी ही पड़ती
है। इसीलिए शायद भगवान पति-पत्नी के रिश्ते में कभी मिठास तो कभी खटास देता है।
आध्यात्मिक अनुभूति इस रिश्ते में एक-दूसरे को इस बात के लिए प्रेरित करती है
कि कैसी भी परिस्थिति हो, एक-दूसरे का परित्याग न किया जाए। टूटते-बिखरते हर तार को प्रेम
से बांधा जाए। पति-पत्नी समझौता, सुलह, क्षमायाचना और क्षमादान करने के मामले में जितने सहज,
सरल होंगे,
रिश्ता उतना ही
लंबा चल सकेगा।
इसलिए सहानुभूति, शील, त्याग
और प्रेम बनाए रखने के लिए अध्यात्म का स्पर्श इस रिश्ते में बड़े काम का है। इतना
सब हो और सुख-दुख भी आता रहे तो इसे मणिकांचन योग कहेंगे।
फिर पति-पत्नी के रिश्ता बोझ नहीं रहता
राम-सीता, शिव-पार्वती जैसे पात्रों से इस रिश्ते की बारीकियां सीखी जा सकती हैं। राम
सीता का दांपत्य और शिव पार्वती की गृहस्थी दोनों ही प्रेरणास्पद है। राम ने धनुष
तोड़कर सीता से विवाह किया। धनुष अहंकार का प्रतीक है।
हमेशा तना रहता है और जब भी बाण चलाता है किसी के प्राण ही लेता है। अहंकार भी
हमारे जीवन में ऐसा ही है। जब तक हमारे भीतर अहंकार है हम किसी के प्रति प्रेम,
दया, सौहार्द, विश्वास और करूणा जैसी
भावनाओं से जुड़ ही नहीं सकते। दाम्पत्य के लिए ये भावनाएं जरूरी हैं।
राम ने पहले अहंकार को तोडा फिर सीता से विवाह किया। तभी कई परेशानियों के बाद
भी उनका दाम्पत्य आदर्श और दिव्य ही रहा।अब शिव-पार्वती के दाम्पत्य को देखें। शिव
के लिए पार्वती ने कड़ी तपस्या की। कई मुसीबतें झेलीं, कड़े उपवास किए।
कई देवताओं ने बहकाया भी, शिव के विरोध में बातें भी कहीं लेकिन पार्वती का विश्वास
नहीं डिगा। न ही पार्वती का समर्पण कम हुआ। विष्णु ने भी विवाह का प्रस्ताव भेजा,
जिनके पास अपार
वैभव था, लेकिन
पार्वती ने सारी परिस्थितियों में शिव को ही चुना। ऐसा समर्पण, श्रद्धा, विश्वास और प्रेम अगर
हमारी गृहस्थी में हो तो फिर किसी भी परिस्थिति में कभी हमारा रिश्ता कमजोर नहीं
होगा। ये हमारे लिए आदर्श हैं। अगर स्त्री-पुरुष या पति-पत्नी के बीच ऐसा रिश्ता
है तो फिर वो कभी बोझ नहीं हो सकता है।
कई लोग शादी को मुसीबत या जंजाल कहते हैं। आज कम ही ऐसे पति-पत्नी होंगे जो
पूरी इमानदारी से यह स्वीकार करते हों कि उनका दाम्पत्य पूरी तरह सुखी और खुशियों
भरा है। गृहस्थी को सफलता पूर्वक चलाना भी एक कला भी है और चुनौती भी। कुछ बातें
होती हैं जो जीवन उतार ली जाएं तो फिर गृहस्थी आसानी से चल जाती है।
सुखी वैवाहिक जीवन के हैं ये तीन सूत्र...
आज पहले तो विवाह न होना बड़ी परेशानी है और फिर विवाह के बाद निबाह होना उससे
बड़ी परेशानी। अधिकांश लोगों की शिकायत है कि उनका दाम्पत्य जीवन असहज है।
पति-पत्नी में तकरार और अविश्वास लगभग हर गृहस्थी में प्रवेश करता जा रहा है।
वास्तव में हम सुखी दाम्पत्य के तीन प्रमुख सूत्रों को भूलते जा रहे हैं ये सूत्र
हैं आदर, विश्वास
और प्रेम।
सभी चाहते हैं कि दाम्पत्य सुखी रहे। इसके लिए खूब कोशिश भी की जाती है। सुख
दाम्पत्य का मूल स्वभाव है। चूंकि गृहस्थी में हम मूल छोड़ आवरण पर टिक जाते हैं
इस कारण सुख जो है ही उसे बाहर से लाने के लिए प्रयास करते हैं। दाम्पत्य में सुख
बिल्कुल ऐसा है जैसे कोई चीज रखकर भूल जाएं। यदि ठीक से ढूंढ लें तो वस्तु मिल
जाती है उसे बाहर कहीं से लाना नहीं पड़ेगा या पैदा नहीं करना पड़ेगा।
वह पूर्व से हमारे पास था, बस हम विस्मृत कर गए, बिल्कुल ऐसा ही है परिवार में
सुख। इस सुख को ढूंढना है तो शुरुआत अपने भीतर के प्रेम से की जाए। हम जितने प्रेम
से भरे होंगे, परिवार में सुख की संभावना उतनी ही बढ़ा देंगे। जीवन में प्रेम उतरने के बाद
क्रियाएं करना नहीं पड़ती, होने लगती हैं।चलिए आज शिव-पार्वती के दाम्पत्य के एक
प्रसंग के दर्शन कर लें।
विवाह के बाद शिव कैलाश पर बैठे थे और पार्वतीजी का प्रवेश हुआ। इस घटनाक्रम
के लिए तुलसीदासजी ने लिखा है
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा, बाम भाग आसन हर दीन्हा
अपनी प्रिया पत्नी को जानकर बैठने के लिए आदर से बाएं भाग में स्थान दिया। शिव
का अर्थ है कल्याण, जो प्रेम का ही प्रतिबिंब है। यहां पार्वतीजी के आने पर शिव तीन काम करते
दिखते हैं। इस पंक्ति में तीन शब्द आए हैं-प्रिया, आदर और आसन। पत्नी को प्रिया
माना। पति-पत्नी दोनों के बीच जुड़ाव प्रेम होना चाहिए, मजबूरी नहीं। फिर आदर दिया।
प्रेम का दावा करें और एक दूसरे के प्रति आदर का भाव न हो, गड़बड़ यहां से शुरु हो
जाती है। और फिर बाएं भाग में बराबर का आसन दिया। पति-पत्नी के बीच समानता का भाव
हो, बड़े-छोटे
होने के इरादे, एक ऐसी प्रतिस्पर्धा को जन्म देते हैं जिससे वह अशांति का केन्द्र बन जाती है।
शास्त्रों ने शिव को विश्वास और पार्वती को श्रद्धा माना है।
अगर आपका दाम्पत्य जीवन अशांत और असंतुष्ट है तो क्या करें....
इस समय दो तरह के दाम्पत्य चल रहे हैं। पहला अशांत दाम्पत्य और दूसरा असंतुष्ट
दाम्पत्य। जो पति-पत्नी ना समझ हैं उनके उपद्रव, खुद उनके सामने और दुनिया के आगे
जाहिर हो जाते हैं। वे अपनी अशांति पर आवरण नहीं ओढ़ा पाते।
दूसरे वर्ण का दाम्पत्य वह है जिसमें पति-पत्नी थोड़े समझदार या कहें चालाक
हैं, लिहाजा
इस अशांति को ढंक लेते हैं, उपद्रव को खिसका भर देते हैं। ऐसा दाम्पत्य असंतुष्ट
दाम्पत्य है।
फिर ये असंतोष स्त्री या पुरुष दोनों को ही अपने-अपने गलत मार्ग पर जाने के
लिए प्रोत्साहित कर देता है। जिन्हें सचमुच घर बसाना हो वे चमड़ी की तरह एक बात
अपने से चिपका लें और वह है प्रेम।
बिना प्रेम के परिवार चलाया जा सकता है, बसाया नहीं जा सकता। इस समय
ज्यादातर लोगों की गृहस्थी शोषण और उत्पीडऩ पर चल रही है। पति-पत्नी में से जो
ज्यादा चालाक है वह इसे व्यवस्थित ढंग से करता है और जो कम समझदार है वह
अव्यवस्थित तरीके से निपटा रहा है।
मूल कृत्य में कोई अंतर नहीं है। प्रेम यदि आधार बनेगा तो जो पक्ष अधिक
बुद्धिमान, समझदार होगा वह अपने जीवनसाथी को भी वैसा बनाने का प्रेमपूर्ण कृत्य करेगा।
यही आपसी मुकाबला न होकर समान होने के सद्प्रयास होंगे।
गुण, कर्म
और स्वभाव की समानता से जोड़े बन जाएं यह किस्मत की बात है। वरना अपनी समूची
सहनशक्ति, उदारभाव और माधुर्य को अपने जीवनसाथी के साथ संबंधों में झोंक दें और इसके लिए
जो ताकत लगती है उसके शक्ति संचय के लिए ये नौ दिन काम आएंगे। नामभर नवरात्र है,
पर इसमें गजब का
उजाला है।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK
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