Saturday, June 30, 2012

Sidhdhi ( सिद्धि)


अगर अपनी सिद्धि को हमेशा कायम रखना है तो यह करें...
कोई भी सिद्धि तभी तक कायम रहती है, जब तक कि उसका अनुशासन नहीं तोड़ा जाए। हर सिद्धि का अपना एक अनुशासन होता है जैसे वाकसिद्धि यानी बोली की सिद्धि तभी तक होती है जब तक आप सच बोलते हैं। भूले से भी बोला गया एक झूठ कई वर्षों की वाक सिद्धि को खत्म कर सकता है।

एक निरपराध का मारने से वर्षों की युद्ध निपुणता खत्म हो सकती है। अगर आप किसी सिद्धि के साथ हैं तो उसके अनुशासन को लगातार पालन करते रहे। एक चूक आपकी वर्षों की मेहनत को धूल में मिला सकता है।

महाभारत का युद्ध चल रहा था। भीष्म तीरों की शैय्या पर लेट चुके थे। कौरव सेना की बागडोर गुरु द्रौणाचार्य के हाथ में थी। द्रौणाचार्य लगातार नई-नई व्यूह रचनाओं से पांडवों की सेना का नाश कर रहे थे। पांडवों की सेना में हड़कंप मचा हुआ था।

कृष्ण ने कहा किसी भी सूरत में द्रौणाचार्य को रोकना होगा, नहीं तो पांडव सेना समाप्त हो जाएगी। द्रौणाचार्य को शस्त्रों से रोकना मुश्किल था, सो कूट नीति का सहारा लिया गया। कौरव सेना के एक हाथी का नाम अश्वत्थामा था, कृष्ण ने भीम को कहा कि उसे मार दे। भीम ने ऐसा ही किया। और शोर मचाया कि मैंने अश्वत्थामा को मार दिया। अश्वत्थामा द्रौण के पुत्र का नाम भी था।

वो इसकी पुष्टी करने के लिए युधिष्ठिर के पास गए। युधिष्ठिर से पूछा कि क्या वाकई अश्वत्थामा मारा गया है तो उन्होंने कहा हां मारा गया। इसी बीच कृष्ण ने विजयी शंख फूंक दिया। युधिष्ठिर ने यह भी कहा हाथी या मनुष्य यह नहीं पता। लेकिन द्रौण शंख के शोर में ये सुन नहीं पाए। वे पुत्रशोक में ध्यान लगाकर बैठे और धृष्ठघुम्र ने उनका सिर काट दिया।

युधिष्ठिर ने सत्यव्रत लिया था। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे। कहते हैं इसी के प्रभाव से उनका रथ धरती से तीन अंगुल ऊपर चलता था। द्रौणाचार्य से बात के बाद उनका रथ जमीन पर आ गया। युधिष्ठिर ने झूठ नहीं बोला लेकिन उन्होंने एक झूठे कर्म में सहयोग दिया।

इस कर्म के कारण उनकी सत्य सिद्धि जाती रही। हम जब भी कोई सिद्धि पाएं तो उसके अनुशासन को भूलकर भी ना तोड़ें। नहीं तो वह सिद्धि पलभर में हमारा साथ छोड़ देगी।

जानिए कैसे पाई जा सकती है कोई सिद्धि?
कहते हैं कोई भी सिद्धि बहुत अभ्यास के बाद ही मिलती है। लगातार किसी चीज का अभ्यास हमें उसमें निपुण बनाता है और यह निपुणता ही हमारी सिद्धि कहलाती है। पुराणों में सिद्धियों के आठ प्रकार बताए गए हैं लेकिन ये सब तप से मिलती हैं। अधिकांश तंत्र साधना का हिस्सा हैं।

हम जिन सिद्धियों की बात कर रहे हैं वे हमारे व्यवहार से आती हैं। पुराणों में ऐसे पात्रों का भी उल्लेख मिलता है जिनके व्यवहार से ही प्रसिद्ध थे, और उनका व्यवहार ही सिद्धि था। जैसे सत्य बोलना। ऐसा माना जाता है कि हम अगर कई वर्षों तक सत्य बोलते रहे, कभी मजाक में भी किसी से झूठ ना कहें तो ये हमारी वाक सिद्धि होती है।

महाभारत में कुंती की वाक सिद्धि मानी गई है। ऐसा कहा जाता है कि कुंती ने कभी कोई झूठ नहीं बोला। उसने वो ही कहा जो सत्य था। जब पांचों पांडव द्रौपदी के स्वयंवर से लौटे। अर्जुन ने मछली की आंख भेदकर द्रौपदी को जीता था।

वे गए थे भिक्षा मांगने और स्वयंवर मे चले गए। कुंती को यह बात पता नहीं थी। भाइयों ने आकर मां से कहा देखो मां आज हम क्या लेकर आए हैं। कुंती ने बिना देखे कह दिया पांचों भाई बराबर बांट लो। युधिष्ठिर ने कहा मां ने आज तक कभी असत्य नहीं कहा। मां का हर वचन सत्य होता है।

नतीजतन पांचों भाइयों ने द्रौपदी से विवाह किया। ये प्रताप था कुंती के सत्य बोलने का। वो जो कहती थी वो सच होता था। हम अपने व्यवहार में ऐसी बातें लाएं, उनका कठोरता से पालन भी करें तो सिद्धि मिलना कोई मुश्किल नहीं है। इसके लिए जरूरत है लगातार अभ्यास और इसे व्यवहार में उतारने की।

इस तरह से आती हमारे भीतर सिद्धि...
किसी भी काम में कुशलता तभी आती है जब इसमें निरंतरता हो। बिना नियमित अभ्यास के कोई सिद्धि नहीं मिल सकती। भगवान हनुमान इसी की तरफ संकेत कर रहे हैं कि जब भी कोई काम करो, उसमें निरंतरता बनाए रखो। तभी वो काम और उसकी कुशलता आपकी सिद्धि बन जाएगी।

तुलसीदासजी ने भी हनुमान चालीसा में इसका उल्लेख किया है कि हर अच्छे काम में नियमित रहना जरूरी है। हनुमान की रामभक्ति इसलिए सिद्ध है क्योंकि उसमें निरंतरता है। वे कभी राम नाम से अलग ही नहीं हुए।
सफलता का एक सिद्धांत यह है कि या तो आप हालात को अपने अनुकूल बना लें या परिस्थितियों के अनुकूल बन जाएं। दोनों ही स्थितियों में संघर्ष भले ही हो, लेकिन सफलता सरलता से मिल जाती है। श्रीहनुमानचालीसा की बत्तीसवीं चौपाई है -

राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा।।

इसकी दूसरी पंक्ति में एक शब्द आया है- सदा। आइए इन शब्दों को जीवन से जोड़कर देखें। हनुमानचालीसा में जिस रसायन की चर्चा हुई है और जो हनुमानजी के पास है, इसका अर्थ है सभी परिस्थितियों के अनुकूल रहना।

इस रसायन का आध्यात्मिक संदेश यह है कि हमारा रहना इस प्रकार हो कि हम संसार में रहें, संसार हममें न रहे। सदा रहो रघुपति के दासा इसमें सदा शब्द महत्वपूर्ण है। श्रीराम ने हनुमानजी को उनकी उपयोगिता, उनके समर्पण और भक्ति के कारण सदा अपने पास रहने का गौरव दिया है।

श्रीराम का मानना है कि जाने कब, कौन-सी समस्या आ जाए। इसलिए समाधान हेतु श्री आंजनेय का साथ रहना ठीक है। प्रबंधन का सूत्र है कि यदि आप समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो फिर आप स्वयं एक समस्या हैं।

हनुमानजी का यह समाधानकारी चरित्र हमें जीवन तत्वों का सही उपयोग करते हुए व्यक्तित्व विकास की प्रेरणा देता है। परमात्मा की निकटता बड़ी उपलब्धि है। यह सदा रहनी चाहिए। ऐसा न हो कि आज सफल हुए, लापरवाही के कारण कल वह सफलता जीवन से फिसल जाए।

किसी भी सिद्धि के लिए सबसे जरूरी बात यह है...
शरीर में शक्ति का संचय तभी होता है, जब उसे इसका समय मिले। ध्यान शरीर में मानसिक और शारीरिक शक्ति को इकठ्ठा करने का वो समय देता है। ध्यान एकाग्रता बढ़ाता है। एकाग्रता किसी भी सिद्धि की पहली सीढ़ी होती है। बिना एकाग्र मन के कोई उपलब्धि हासिल नहीं की जा सकती। जब तक हम मन को पकडऩा नहीं सिखते, ये हमें कुछ और नहीं सिखने देता। सबसे जरूरी है, अपने मन पर नियंत्रण किया जाए। फिर किसी सिद्धि के पीछे भागा जाए। दुनिया की लम्बी दौड़ में कई मोड़ ऐसे आते हैं जब न चाहते हुए भी हाफना पड़ जाता है। ऊर्जा के सांसारिक केन्द्र बहुत अधिक मदद नहीं कर पाते हैं। ऐसे समय आध्यात्मिक शक्ति अपने भीतर उत्पन्न करने की कला हमें सीख लेना चाहिए।

हमारे ऋषि-मुनियों ने एकाग्रता पर बहुत काम किया है। हर काम करते समय एकाग्रता का अभ्यास रखें। जब जो करें, जमकर करें। यह भी एकाग्रता है। एकाग्रता से तीन फायदे होते हैं। पहला- शक्ति उत्पन्न होती है, दूसरा- धैर्य जागता है और तीसरा- शक्ति और धैर्य के परिणाम में हम साहसी हो जाते हैं।

यह साहस ही हमें संसार की हर उपलब्धि को प्राप्त कराएगा तथा भगवान के निकट भी ले जाएगा। इतिहास गवाह है कि जो-जो लोग भी खूब सफल हुए हैं वे अपने कार्य के प्रति एकाग्र चित्त रहे हैं। एकाग्र चित्त होने का अभ्यास प्रतिदिन नियमित रूप से करना होगा। सीधा सा तरीका तो यह है कि कोई भी कार्य आरंभ करने के पहले अनर्गल विचार और गतिविधियों को विराम दें।

निश्चय करें कि जो भी कुछ करना है, सोचना है, मिलना-जुलना है वह किए जा रहे कार्य के बाद ही होगा। इस समय जो कर रहे हैं, बस वही करना है। यह दृढ़ता धीरे-धीरे एकाग्र चित्त बना देगी। हम जितने एकाग्र चित्त होंगे उतने ही जागे हुए रहेंगे। भगवान महावीर स्वामी ने जैन धर्म में एक सुंदर शब्द दिया है- असुत्ता मुनि और सुत्ता अमुनि।

इसका अर्थ है जो एकाग्र चित्त है वह जागा हुआ है और जो जाग कर जी रहा है उसे लोग संन्यासी कहेंगे, वर्ना सोया हुआ व्यक्ति संसारी है। असुत्ता मुनि मतलब जो सोया हुआ नहीं है और सुत्ता अमुनि मतलब जो सोते हुए चल रहा है, वह असाधु है। इसलिए खूब काम करें, पर होश में करें। इसी को जागते हुए करना कहते हैं।

हनुमान से सीखें, कैसे हर समस्या से निपटा जाए...
किसी भी व्यक्ति में सबसे बड़ी सिद्धि होती है अपना काम बिना किसी परेशानी के पूरा करने की। हनुमान इस मामले में आदर्श देवता हैं। किसी भी काम में आने वाली मुश्किलों से कैसे निपटा जाए ये हनुमान से सिख सकते हैं।

हमारे व्यक्तित्व में जिस बात का रस भरा होगा, उसके छींटे हमसे मिलने वालों पर गिरेंगे ही। हनुमानजी तो भीतर से भक्ति रस से भरे हुए हैं, उनके रोम-रोम में राम हैं। इसी कारण जो उनसे मिलता है, उसे सान्निध्य सुख प्राप्त होता है।

उनकी मौजूदगी ही अपने आप में एक संरक्षण बन जाती है। सुंदरकांड में लंका प्रवेश पर हनुमानजी व लंकनी का वार्तालाप तुलसीदासजी ने बड़े गहन भाव के साथ लिखा है। वह हनुमानजी से हो रही अपनी इस वार्ता को सत्संग बताती है और आगे लंका प्रवेश के लिए हनुमानजी को एक विचार देती है।

इस विचार की चौपाई को तुलसीदासजी ने लंकनी जैसी राक्षसी के मुंह से कहलाया है-
 
प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयं राखि कोसलपुर राजा।।
 
अयोध्या पुरी के राजा श्रीरघुनाथजी को हृदय में रखकर नगर में प्रवेश करते हुए सब काम कीजिए।

मानस की यह चौपाई अपने प्रभाव के कारण ही मंत्र हो गई। विपत्तियों को छोटी मान लेना ही उन पर विजय जैसा है। हनुमानजी के हृदय में तो श्रीराम पूर्व से थे ही, क्योंकि लंका के लिए उड़ते समय उनके लिए लिखा गया है-
 
यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा।।

उन्होंने दो काम किए थे- पहला श्रीराम हृदय में थे, दूसरा प्रसन्न थे। इसी कारण हनुमानजी की उपस्थिति मात्र से लंकनी के विचार भी दिव्य हो गए। हम अपनी भीतरी स्थिति को जितना पुनीत रखेंगे, बाहर का वातावरण उतना ही शुभ होगा।

काम को इस तरह पूरा करना भी एक सिद्धि ही है...
बुद्धिमान व्यक्ति को धैर्यवान भी होना चाहिए। कभी-कभी बुद्धि की अधिकता आदमी को अधीर बना देती है। हनुमानजी के लिए सुंदरकांड में मतिधीर शब्द का उपयोग किया गया है। इसका अर्थ है - वे बुद्धिमान भी हैं और धैर्यवान भी।

सुरसा नाम की राक्षसी जब मुंह फैलाकर उन्हें खाने के लिए आगे बढ़ी तो हनुमानजी पहले तो बड़े हुए और फिर बहुत छोटे होकर उसके मुंह से बाहर आ गए थे। वे अपने समय, लक्ष्य और ऊर्जा को लेकर अत्यधिक सावधान रहे। वे जानते थे कि उनका लक्ष्य रामकाज है।

सीताजी तक श्रीराम का संदेश पहुंचाना है। इसीलिए मैनाक पर्वत को उन्होंने कह दिया था -

रामकाजु कीन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम।

दूसरी बात, वे जानते थे कि सुरसा से युद्ध करने पर ऊर्जा और समय दोनों नष्ट होंगे। इसीलिए तुरंत वहां से आगे बढ़ गए। आगे उनके साथ एक घटना घटी- समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। हनुमानजी ने उसको मार डाला और आगे चले।
तुलसीदासजी ने हनुमानजी के लिए लिखा है -

ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।

धीर, बुद्धिमान, वीर श्री हनुमानजी उसको मारकर समुद्र के पार गए। मतिधीर लिखकर तुलसीदासजी बताते हैं कि इस समय जब शिक्षा के युग में बुद्धिमान होना सरल है, तब धर्यवान उतना ही कठिन होता जा रहा है। बुद्धि के साथ धर्य जुड़ जाए तो लक्ष्य पर पहुंचना आसान हो जाएगा।

यही काम असली सिद्धि, असली वीरता है...
मानवता की जो असाधारण विशेषताएं हैं, उनमें से एक है खूब परिश्रमी होना। परिश्रम के लिए स्वाथ्य तथा समझ, दोनों जरूरी हैं। यह समय खूब परिश्रम करने का है।आजकल लोग 14 से 16  घंटे सामान्य रूप से काम करते हैं, लेकिन ऐसा देखा गया है कि परिश्रमी दुर्बल भी हो जाते हैं।

उनमें करुणा की जगह व्याकुलता आ जाती है। उन्हें देखकर कभी-कभी लगता है काम के नशे में इनका दिल सो गया है। शरीर को कपड़े की तरह निचोड़ा और कूटा जा रहा है। फटे कपड़े में जिस तरह से रफू की कारीगरी होती है, आज के सफल परिश्रमियों के शरीर को भी ऐसा देखा जा सकता है। आध्यात्मिक दृष्टि यदि जीवन में हो, तो परिश्रम के साथ वीरता भी आ जाएगी।

अध्यात्म कहता है वीरता आने से सहृदयता और व्यवहार में खूबसूरती आ जाती है। यह जरूरी नहीं कि परिश्रमी व्यक्ति अपने लक्ष्य और शक्ति के प्रति सही हो। कई बार मेहनतकश इंसान जान ही नहीं पाता कि वह क्या और क्यों कर रहा है।

मेहनत उसकी मजबूरी हो जाती है, लेकिन परिश्रम के साथ व्यक्तित्व में जब वीरता जुड़ जाए, तो साहस, धर्य, लक्ष्य और संकल्प निखर कर आ जाता है। जब हम अपने कामकाज की दुनिया में रहते हैं, तो मन अपने तरीके से सक्रिय रहता है।

हमें कई तरह की भूमिकाएं निभाना पड़ती हैं। कभी हम ब्राह्मण की तरह ज्ञान का कर्म कर रहे हैं तो कभी शूद्र की तरह सेवारत हैं, कभी क्षत्रिय की तरह पराक्रम में डूबे हैं, तो कभी वैश्य की तरह सौदे निबटा रहे होते हैं।

इस परिवर्तन से हमें सीखना चाहिए कि हमें ही हर भूमिका में अपना नेतृत्व करना है। ऐसे में केवल परिश्रम से काम नहीं चलेगा, वीरता की जरूरत है, लेकिन यह भी ध्यान रखें वीरता किसके लिए? हमेशा हमको युद्ध नहीं लड़ना है, दरअसल सबसे बड़ी वीरता है अपने मन पर जीत हासिल करना।

यह मन भीतर से हमें हमारी बाहरी भूमिकाओं में परेशान करता है। यह हम पर हावी होने की कोशिश में रहता है और इसीलिए न चाहते हुए भी कुछ ऐसे काम करवा लेता है कि बाद में हमें पछतावा होता है।

मेहनतकश इंसान का मन जरूरी नहीं है कि उसके वश में हो, लेकिन वीर व्यक्ति मन पर नियंत्रण पा लेता है और जीवन के हर क्षण पर सवार हो जाता है, सदुपयोग कर लेता है।

यही है हमारी असली शक्ति और सिद्धि...
संपत्ति के कई रूप हैं। शक्ति व पुण्य को भी संपत्ति माना गया है। इनको प्राप्त करने के कई तरीके हैं। तप से शक्ति और सेवा से पुण्य प्राप्त होते हैं। इनका दुरुपयोग दुर्भाग्य है और सदुपयोग सौभाग्य। शक्ति का प्रवाह नदी की भांति होता है। यदि सही रूप से इसे नहीं संभाला तो यह गलत दिशा में जाएगा। कुछ बातें इनका दुरुपयोग करने में सक्रिय होती हैं।

हमारी देह, इंद्रियां, मन, बुद्धि को इसका दुरुपयोग करने में देर नहीं लगती। इस प्रवाह को परमात्मा तक मोड़ना ही सच्चा पुरुषार्थ है। यह प्रवाह अपने आप में एक मार्ग है। इस मार्ग को वैज्ञानिक रखिए और लक्ष्य परमात्मा रखिए। देखा गया है कि दिमाग यदि वैज्ञानिक हो तो आदमी बाहर की ही दुनिया में रहता है और तर्क के आधार पर फैसले लेता है।

भगवान की ओर चलने में ये बातें उल्टी हो जाती हैं, खारिज नहीं। बुद्धि से विज्ञान को स्वीकार करें और सांसों से भीतर की यात्रा करें। तर्क को नकारें न। बात अच्छी हो या बुरी, उसी के आधार पर स्वीकार करें, फिर तर्क को पकड़कर उसी के पार चले जाएं। विचारों से आमना-सामना कर उनसे झगड़ा नहीं करना है, बस छलांग लगाकर उनके पार ही चले जाना है।

इस पार जाने के लिए शक्ति की जरूरत है और विचारों का सामना करने के लिए पुण्य काम आते हैं। पुण्य का अर्थ है अच्छे कामों से जुड़े रहना। हम जितना भले कार्यो में संलग्न होंगे, उतने ही विचारों से पार जाने में सक्षम हो पाएंगे। आज दुनिया विज्ञान से चल रही है, इसलिए भक्त बनते समय प्रयास किया जाए कि हम आचरण में बुद्धिप्रधान हों, पर प्रवृत्ति में हृदय पर टिकें। तब शक्ति भी एक संतुलन का माध्यम बन जाएगी, जगत तथा जगदीश का।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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