अपने कमाए धन का सही उपयोग कैसे करें?
अपने लिए तो सभी कमाते हैं, पर हमारी कुछ कमाई ऐसी होना चाहिए जो सेवा के रूप में बदल
सके। आजकल सेवा भी हथियार बना ली गई है। धंधा बना ली गई थी यहां तक तो ठीक था,
लेकिन अब शस्त्र
के रूप में सेवा और खतरनाक हो जाती है।
जो दुनियादारी के सेवक हैं, यह अक्सर ऐसे ही काम करते हैं। कोई सेवक कहता है कि मैं
हिन्दू धर्म को संगठित करना चाहता हूं। कोई कह रहा है मैं इस्लाम की सेवा करना
चाहता हूं। कोई ईसा की सेवा में घूम रहा है। नेता कह रहे हैं कि हम देश की सेवा कर
रहे हैं। यह सब समाजसेवा तो हो सकती है, लेकिन इससे भीतर परमात्मा पैदा नहीं होता।
जब चित्त में ईश्वर या कोई परम शक्ति होती है तो सेवा का रूप बदल जाता है।
हिन्दू धर्म के साधु-संतों की, इस्लाम के ठेकेदारों की, क्रिश्चनिटी के पादरियों की और
हमारे राष्ट्र के नेताओं की सेवा के ऐसे परिणाम नहीं आते, जैसे आज धर्म के नाम पर मिल रहे
हैं। इसलिए सेवा के ईश्वर वाले स्वरूप को समझना होगा। अभी सेवा चित्त के आनंद से
वंचित है। परमात्मा का एक स्वरूप है सत्य।
ईमानदारी से देखा जाए तो चाहे धर्म हो या राजधर्म, जो लोग सेवा का दावा कर रहे हैं
उनके भीतर से सत्य गायब है। धर्म का चोला ओढ़ लें यहां तक तो ठीक है, अब तो लोगों ने भगवान का
ही चोला ओढ़ लिया है। वेष के भीतर से जब विचार समाज में फिंकता है तो लोग सिर्फ
झेलने का काम करते हैं। वे यह समझ नहीं पाते कि सत्य कहां है। इसलिए दूसरे जो कर
रहे हैं उनसे सावधान रहें और हमें जो करना है उसके प्रति ईमानदार रहें। लगातार
प्रयास करें कि भीतर परमात्मा जागे और तब बाहर हमारे हाथ से सेवा के कर्म हों।
हनुमान ही दे सकते हैं हमें हर तरह का धन और वैभव...
हम मनुष्यों की एक बड़ी मांग ऐश्वर्य प्राप्ति की रहती है। छह प्रकार के
ऐश्वर्य बताए गए हैं-धर्म, अर्थ, ज्ञान, यश, श्री और वैराग्य। श्रीराम ने यश और लक्ष्मी दोनों हनुमानजी
को दी है तथा हमको यश और लक्ष्मी हनुमानजी ही दे सकते हैं।
श्री हनुमानचालीसा की तेरहवीं चौपाई में लिखा है-
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।
आपके यश का गान हजार मुख वाले शेषनाग भी सदैव करते रहेंगे। इस प्रकार करते हुए
लक्ष्मीपति विष्णु स्वरूप श्रीराम ने उन्हें अपने गले से लगाया है। इसमें
तुलसीदासजी कह रहे हैं कि आपका यश अनंतकाल तक असंख्य रूप में गाया जाएगा। यहां कहा
गया है कि श्रीपति ने आपको कंठ से लगाया। श्रीपति का अर्थ है लक्ष्मीपति।
गोस्वामीजी ने यहां सोच समझकर श्रीराम को श्रीपति संबोधित किया है।
हमें एक बात ध्यान में रखना होगी। भक्तों पर कृपा करने की भगवान की अपनी एक व्यवस्था
होती है। हमें गहराई में जाकर समझना होगा कि भगवान नियंता ही नहीं, एक नियम भी हैं। जैसा
धरती का एक नियम गुरुत्वाकर्षण का होता है। विज्ञान कहता है धरती का स्वभाव है कि
वह वस्तु को अपनी ओर खींचती है। यह धरती का नियम है। असावधानी से चलते हुए यदि हम
गिर जाएं और यह कहें कि धरती का स्वभाव है खींचना, इसीलिए हम गिर गए तो हम गलत हैं।
हम अपनी ही गलती से गिरे हैं। इसी तरह परमात्मा का नियम अपनी जगह है। जैसे नदी
का स्वभाव सागर में मिलना है, उसका मिलना तय है। अब वह चट्टान से टकराकर जाए, मुड़कर जाए, जिस प्रकार से भी जाए।
नियम यह है कि उसे सागर में मिलना है। उस नियम का पालन हमें करना चाहिए। इसका पालन
करने में श्री हनुमानचालीसा हमारी मार्गदर्शक और सहयोगी है।
लक्ष्मी को खुश रखने के लिए ऐसे करें धन का उपयोग....
धन हो तब मनुष्य धनवान कहलाता है, कुछ लोग दिवाली इसी विचार से मनाते हैं। यह संसार की
साधारण परिभाषा है, लेकिन अध्यात्म बताता है बिना धन के धनवान कैसे बनें? दौलत को ही धन न समझा जाए।
लक्ष्मी के अनेक स्वरूप हैं। लोग लक्ष्मी के संदर्भ में केवल संपत्ति पर टिक
गए। स्वस्थ शरीर, पवित्र मन, प्रेमपूर्ण परिवार, ईमानदार आचरण व योग्य संतानें हों तो आदमी बिना रुपयों के
भी अधिक दौलतमंद होगा।
ऋषि-मुनियों और संतों की परंपरा में अनेक नाम ऐसे हैं, जिनके सिर पर छत, तन पर सामान्य वस्त्र और
निर्धन से भी बीता व्यावहारिक रहन-सहन था, लेकिन बड़े-बड़े राजा उनके चरणों में नतमस्तक थे।
सदाचारी के पास लक्ष्मी अलग रूप में आती है। लोगों ने लक्ष्मी को अपने जीवन
में लाने और जाने के कई तरीके ईजाद किए। आज उनमें से एक पर विचार करें। वह तरीका
है दान। इससे पुण्य अर्जन का काम किया गया।
दान लक्ष्मीजी को भी प्रिय है, लेकिन वे चाहती हैं, दया-भाव से दान मत करो, प्रेम-भाव से करो। जब तक
कोई कमजोर न हो, दया शुरू कैसे होगी? दया करने के लिए सामने वाला दीन होना जरूरी है।
धनवानों की एक रुचि यह भी रहती है कि लोग दीन बने रहें, वरना उनका दान कैसे चलेगा?
यहीं से
अमीरी-गरीबी की खाई गहरी बनाई जाती है। सब बराबर हों और यदि ऐसा न भी हो तो
कम-से-कम दान प्रेम की उपस्थिति से अहंकार व शोषण से मुक्त रहेगा।
लक्ष्मी का आचरण यही है कि मुझ पर दबाव मत बनाना, वरना मैं कब, कैसे विपरीत परिणाम
दूंगी, आदमी
समझ ही नहीं पाएगा। इनका जन्म समुद्र मंथन से हुआ था। यह इस बात का प्रतीक है कि
मुझे पुरुषार्थ से प्राप्त करो और परमार्थ में खर्च करो।
धन कमाने के लिए आपके मन में ये सोच होना जरूरी है...
धन कमाने के लिए ऐसी समझ विकसित की जाए, जो धन से परे है। इसका यह अर्थ
नहीं है कि निर्धन रहा जाए। इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि धन के अर्थ को ठीक से समझा
जाए। धन-ऐश्वर्य कमाने के चक्कर में हम उसे बंधन बना लेते हैं। फिर व्यक्ति मुक्त
होना भूल ही जाता है। वह संपत्ति कमाने के तरीकों में पुरुषार्थ से अधिक गुलामी से
जुड़ जाता है।
खूब धन कमाया जाए, किसी धर्म ने इस बात के लिए नहीं रोका, लेकिन इस बंधन से मुक्त
होने के लिए जिस मर्जी की जरूरत पड़ती है, उसे अपने भीतर जरूर पैदा किया जाए। ध्यान का उपयोग
इसके लिए किया जा सकता है। ध्यान करने के बाद जब सामान्य जीवनचर्या में उतरते हैं
तो हम जो भी कर रहे होते हैं, उसमें मुक्ति का भाव महसूस करने लगते हैं। वर्तमान का
असंतोष कम होने लगता है, भविष्य का भय डराता नहीं है।
उस समय हम धन कमा भी रहे होते हैं और फकीरी में जीने भी लगते हैं। सांसारिक
साधनों का उपयोग करते हुए भी उसमें लिप्त नहीं रहते। उच्च तकनीक के इस युग में भी
यह समझ में आने लगता है कि जिंदगी में ऐसा भी कुछ होता है, जो विज्ञान से परे है। कोई मस्ती
इस प्रकार भी है, जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती और कुछ दुख इस तरह के होते हैं, जिन्हें धन रोक भी नहीं
सकता। साथ में यह स्पष्टता भी रहती है कि धन कमाने में कोई बुराई नहीं है।
झंझट शुरू होती है उसके उपयोग में। ध्यानी उपयोग से ज्यादा सदुपयोग की कला सीख
जाता है। वह समझ जाता है कि आखिर में घूम-फिरकर भीतर ही उतरना होगा। दुनियादारी का
जीवन, बर्बादी
का जीवन नहीं है। दुनियादारी का जीवन केवल परेशानी का कारण हो सकता है।
धन कमाने के लिए सबसे अच्छा रास्ता यह है...
संसार की मांग है धन, परमात्मा की मांग है सत्य। ये दुनिया इन्हीं दो मांगों के
इर्द-गिर्द घूम रही है। लोग धन कमाने की अंधी दौड़ में सारी नैतिकता को पीछे
छोड़ते जा रहे हैं। भगवान के मंदिरों में सौदेबाजी का सिलसिला चल रहा है। वहीं परमात्मा
की पहली मांग है कि सत्य मार्ग पर आया जाए।
जब तक हम सत्य के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ेंगे, धन का मार्ग प्रशस्त नहीं होगा।
हमेशा याद रखिएगा, असत्य और अनीति से कमाया गया धन सदैव अशांति ही देगा। धन वो जो शांति और सुख
दे, ऐसा धन
सत्य और नीति के रास्ते से ही अर्जित किया जा सकता है।
आज के बच्चे पूछते हैं आखिर सत्य क्या देता है? सत्य का पहला फल है, धन की प्राप्ति। धन की
कामना सभी को है। अधिकांशत: धन के मूल में लोभ रहता है। अति महत्वाकांक्षा,
वासनाएं ये सब लोभ
के बायप्रॉडक्ट हैं। लोभ भविष्य पर निशाना रखता है।
कल जो आने वाला है उसके लिए लोभ मनुष्य को लगभग बीमार जैसा कर देता है लेकिन
जीवन में जिसने सत्य जान लिया उसका भविष्य, आने वाला कल, संवर जाता है। दूसरा फल
है, बंधन
मुक्ति। सम्पत्ति और परिवार छोडऩे से बंधन मुक्ति नहीं आएगी। असल में एक सम्पत्ति
हमारे भीतर है जो हमें जन्म से परमात्मा ने दी है। हम उसे भूल गए हैं।
यह वह दौलत है जो जन्म से पहले हमारे साथ भी और मृत्यु के बाद भी हमारे साथ
रहेगी। यह हमारी निजी धरोहर है, रत्तीभर भी उधार नहीं। इसको कहते हैं जो हमारा अपना होना है
हमारी आत्मा। तीसरा फल है भय मुक्त होना। बड़े-बड़े साधन होने के बाद भी आदमी
भयभीत है। बड़ी सुरक्षा व्यवस्था है, बहुत धन है, बहुत बाहुबल है, बहुत लोग हैं साथ में उनके,
इसके बाद भी आदमी
भयभीत है। हमें निर्भय कोई नहीं कर सकता दुनिया में।
धन के साथ यदि सत्य है तो ही हम निर्भय हो सकेंगे। चौथा फल है वैकुण्ठ की
प्राप्ति होना। वैकुण्ठ का अर्थ है जहाँ हम पूरी तरह परमात्मा को समर्पित हो गए।
जिस क्षण स्वयं को उसे दे दिया बस वहीं वैकुण्ठ घट गया। उसकी परम निकटता का नाम
वैकुण्ठ है। संसार में अर्थहीन अस्तित्व रहता है परन्तु भगवान के आते ही इसमें
अर्थ आ जाता है और संसार यहीं अभी का अभी वैकुण्ठ में बदल जाता है। इसलिए जीवन के
हर आचरण में सत्य बना रहना चाहिए।
धन कमाने के लिए सबसे अच्छा रास्ता यह है...
संसार की मांग है धन, परमात्मा की मांग है सत्य। ये दुनिया इन्हीं दो मांगों के
इर्द-गिर्द घूम रही है। लोग धन कमाने की अंधी दौड़ में सारी नैतिकता को पीछे
छोड़ते जा रहे हैं। भगवान के मंदिरों में सौदेबाजी का सिलसिला चल रहा है। वहीं
परमात्मा की पहली मांग है कि सत्य मार्ग पर आया जाए।
जब तक हम सत्य के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ेंगे, धन का मार्ग प्रशस्त नहीं होगा।
हमेशा याद रखिएगा, असत्य और अनीति से कमाया गया धन सदैव अशांति ही देगा। धन वो जो शांति और सुख
दे, ऐसा धन
सत्य और नीति के रास्ते से ही अर्जित किया जा सकता है।
आज के बच्चे पूछते हैं आखिर सत्य क्या देता है? सत्य का पहला फल है, धन की प्राप्ति। धन की
कामना सभी को है। अधिकांशत: धन के मूल में लोभ रहता है। अति महत्वाकांक्षा,
वासनाएं ये सब लोभ
के बायप्रॉडक्ट हैं। लोभ भविष्य पर निशाना रखता है।
कल जो आने वाला है उसके लिए लोभ मनुष्य को लगभग बीमार जैसा कर देता है लेकिन
जीवन में जिसने सत्य जान लिया उसका भविष्य, आने वाला कल, संवर जाता है। दूसरा फल
है, बंधन
मुक्ति। सम्पत्ति और परिवार छोडऩे से बंधन मुक्ति नहीं आएगी। असल में एक सम्पत्ति
हमारे भीतर है जो हमें जन्म से परमात्मा ने दी है। हम उसे भूल गए हैं।
यह वह दौलत है जो जन्म से पहले हमारे साथ भी और मृत्यु के बाद भी हमारे साथ
रहेगी। यह हमारी निजी धरोहर है, रत्तीभर भी उधार नहीं। इसको कहते हैं जो हमारा अपना होना है
हमारी आत्मा। तीसरा फल है भय मुक्त होना। बड़े-बड़े साधन होने के बाद भी आदमी
भयभीत है। बड़ी सुरक्षा व्यवस्था है, बहुत धन है, बहुत बाहुबल है, बहुत लोग हैं साथ में उनके,
इसके बाद भी आदमी
भयभीत है। हमें निर्भय कोई नहीं कर सकता दुनिया में।
धन के साथ यदि सत्य है तो ही हम निर्भय हो सकेंगे। चौथा फल है वैकुण्ठ की
प्राप्ति होना। वैकुण्ठ का अर्थ है जहाँ हम पूरी तरह परमात्मा को समर्पित हो गए।
जिस क्षण स्वयं को उसे दे दिया बस वहीं वैकुण्ठ घट गया। उसकी परम निकटता का नाम
वैकुण्ठ है। संसार में अर्थहीन अस्तित्व रहता है परन्तु भगवान के आते ही इसमें
अर्थ आ जाता है और संसार यहीं अभी का अभी वैकुण्ठ में बदल जाता है। इसलिए जीवन के
हर आचरण में सत्य बना रहना चाहिए।
जब पैसा नहीं हो तब कैसे बनें धनवान?
धन हो तब मनुष्य धनवान कहलाता है, कुछ लोग दिवाली इसी विचार से मनाते हैं। यह संसार की
साधारण परिभाषा है, लेकिन अध्यात्म बताता है बिना धन के धनवान कैसे बनें? दौलत को ही धन न समझा जाए।
लक्ष्मी के अनेक स्वरूप हैं।
लोग लक्ष्मी के संदर्भ में केवल संपत्ति पर टिक गए। स्वस्थ शरीर, पवित्र मन, प्रेमपूर्ण परिवार,
ईमानदार आचरण व
योग्य संतानें हों तो आदमी बिना रुपयों के भी अधिक दौलतमंद होगा। ऋषि-मुनियों और
संतों की परंपरा में अनेक नाम ऐसे हैं, जिनके सिर पर छत, तन पर सामान्य वस्त्र और निर्धन
से भी बीता व्यावहारिक रहन-सहन था, लेकिन बड़े-बड़े राजा उनके चरणों में नतमस्तक थे।
सदाचारी के पास लक्ष्मी अलग रूप में आती है। लोगों ने लक्ष्मी को अपने जीवन
में लाने और जाने के कई तरीके ईजाद किए। आज उनमें से एक पर विचार करें। वह तरीका
है दान। इससे पुण्य अर्जन का काम किया गया।
दान लक्ष्मीजी को भी प्रिय है, लेकिन वे चाहती हैं, दया-भाव से दान मत करो, प्रेम-भाव से करो। जब तक
कोई कमजोर न हो, दया शुरू कैसे होगी? दया करने के लिए सामने वाला दीन होना जरूरी है। धनवानों की
एक रुचि यह भी रहती है कि लोग दीन बने रहें, वरना उनका दान कैसे चलेगा?
यहीं से
अमीरी-गरीबी की खाई गहरी बनाई जाती है।
सब बराबर हों और यदि ऐसा न भी हो तो कम-से-कम दान प्रेम की उपस्थिति से अहंकार
व शोषण से मुक्त रहेगा। लक्ष्मी का आचरण यही है कि मुझ पर दबाव मत बनाना, वरना मैं कब, कैसे विपरीत परिणाम
दूंगी, आदमी
समझ ही नहीं पाएगा। इनका जन्म समुद्र मंथन से हुआ था। यह इस बात का प्रतीक है कि
मुझे पुरुषार्थ से प्राप्त करो और परमार्थ में खर्च करो।
ऐसी दौलत अपने साथ लाती है सुख और शांति...
धन कमाने के रास्ते पर थोड़ा भी भटके तो सुख और शांति बिछड़ जाएंगे। गलत
मार्गों से कमाया गया धन हमेशा अशांति और पीड़ा ही देता है। धन कमाएं लेकिन उसमें
अपने सद्गुण होने चाहिए, दुर्गुणों से कमाई गई सम्पत्ति जितनी आसानी से आती है,
उतनी ही जल्दी
जाती भी है। अवैधानिक तरीकों से कमाया गया पैसा सुख उठाने नहीं देता, व्यक्ति हमेशा चिंता और
तनाव में रहता है।
हमारे हृदय में जितने अधिक सद्गुण हैं, समझ लें हम उतने ही धनवान हैं।
हृदय सद्प्रवृतियों से जुड़कर न सिर्फ सुखी रहता है, बल्कि शांति को भी प्राप्त करता
है। बाहर का भ्रम अस्थिर होता है, क्योंकि हम उसे मन और बुद्धि से जोड़कर चलते हैं। हमें धन
की यात्रा में हृदय और आत्मा से गुजरना चाहिए।
कहते हैं धन कमाने के लिए आत्मा मार्ग में पड़ती है। इसका अर्थ है आत्मा से
दूर हटना पड़ता है, क्योंकि आत्मा तो कभी किसी की मरी नहीं है। आत्मा से छुपना पड़ता है, उसकी तरफ पीठ करके बैठना
पड़ता है, लेकिन यह एक आम धारणा है। भगवान ने धन को सद्प्रवृतियों से जोड़ने का संदेश
दिया है।
सद्गुणों के साथ जब दौलत आती है तो सुख अकेला नहीं आएगा। वहां शांति भी रहेगी।
सुख कभी अकेला आता ही नहीं, उसके पीछे दुख आता ही है। धन से दुख का मिटना बिल्कुल जरूरी
नहीं, लेकिन
यदि सुख के साथ शांति भी है तो दुख की समझ बढ़ जाएगी। दुख की समझ ही दुख का जाना
है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने उपवास की एक व्यवस्था की थी। इसका अर्थ होता है कम भोजन
करना या कुछ समय अन्न से मुक्ति पा लेना। उपवास के पीछे प्रयोजन यह था कि हम जान
लें हमारे भीतर कुछ ऐसा है जो भोजन बंद करने पर भी चलता रहता है।ऐसी ही भावना धन
कमाने के साथ रखी जाए। एक दौलत बाहर से आएगी और एक सम्पत्ति भीतर से लानी है,
क्योंकि भीतर कोई
है जो उस सम्पत्ति को हमें दे सकता है। इस दौलत के प्राप्त होने के बाद बाहरी धन
भी अपना असली मजा देगा।
एक झूठ से कमाया गया धन कितनी मुसीबतें खड़ी करता है...
झूठ से आया धन अपने साथ परेशानी तो लाता ही है, इसका व्यय भी झूठे कामों में
होता है। एक बार अगर झूठ और अनीति की कमाई हमारे दिमाग में चढ़ जाए तो धीरे-धीरे
पूरी तरह हमें दलदल में धकेल देती है। कोशिश करें धन ईमानदारी और नीति से कमाया
हुआ हो।
आजकल अमीरी जताना भी फैशन हो गया है। थोड़ा-सा धन आया कि प्रदर्शन की इच्छा
बलवती हो जाती है। इसके मूल में अहंकार होता है। अहंकार से बड़ा कोई झूठ नहीं।
चूंकि आजकल आदमी झूठ और सच की ज्यादा चिंता नहीं पालता, इसलिए वह अमीरी जताने में फिक्र
भी नहीं करता। मनोवैज्ञानिकों ने कहा है कि धन यदि सही तरीके से उपयोग में न लिया
जाए तो वह जीवन को सत्य से दूर ले जाता है।
झूठ धन के आसपास मंडराता है। झूठ में पैदा करने की अद्भुत क्षमता होती है,
जबकि सत्य को बांझ
कहा है। सत्य स्वयं होता है और उसके बाद वही रहता है, लेकिन एक झूठ कई झूठों को जन्म
देता है। सत्य अपने आप में परिवार नियोजन है और झूठ अपने परिवार का विस्तार जमकर
करता है। धन कमाने में लोग झूठ का उपयोग करते हैं, क्योंकि झूठ का स्वभाव है फैलना।
इसीलिए झूठ बोलने वाला व्यक्ति अपनी याद्दाश्त को मजबूत रखना चाहता है,
वरना पकड़ा जाएगा।
यही झूठ का फैलाव है। लेकिन सत्य बेफिक्र होता है, जब भी बोला होगा, सत्य ही बोला होगा।
इसलिए धन जब सत्य के निकट हो तो भले ही उसमें फैलाव न हो, लेकिन शांति रहेगी। झूठ से जुड़ा
हुआ धन हमेशा अशांति, बीमारी, दुगरुण लेकर आएगा।
पहले बड़े लोग अपने श्रंगार और ठाट-बाट से जाने जाते थे, लेकिन अब कई तरह के
धनवान पैदा हो गए हैं और उन्हीं में प्रदर्शन की होड़ लगी हुई है। अमीर बढ़ गए,
पर गरीब कम नहीं
हुए, क्योंकि
धन झूठ से जुड़ा है। जैसे ही धन सत्य के निकट आएगा, यह खाई भी मिटेगी।
खूब धन है फिर मन अशांत हो तो क्या करें...
इन दिनों लोगों का समय भारी व्यस्तता में बीत रह है। कुछ लोग कमाने में जुटे
हैं तो कुछ कामाया हुआ ठिकाने लगाने में। अब जिनके पास खूब धन आ गया यदि वो भी
अशांत होंगे और जिनका गया वो भी शांत नहीं होंगे तो बेकार रही सारी मारा-मारी। जरा
इस पर ध्यान दीजिए बचाया क्या हमने?
हमारी बचत सुख के साथ शांति होना चाहिए। जब हमारे भीतर मानसिक असंतुलन और
उत्तेजना आती है तो व्यक्तित्व में अधीरता आ जाती है। अधिक अधीरता हृदय को संकीर्ण
करती है और कुछ लोगों को मानसिक बालपन आ जाता है। इसलिए इस समय खूब मेहनत के बाद
थोड़ा थम जाएं, शांत हो जाएं।
इसके लिए एक तरीका अपनाएं, जो होना था वह हो गया, अब जो हो रहा है वह भी होता
रहेगा, बस
खुद को बीच में से हटा लें। अपनी ही रुकावट को खुद ही खत्म कर दें। मैंने किया,
मैं कर दूंगा यहीं
से अशांति शुरू होती है। हमारा च्च्मैंज्ज् ही हमसे भिड़ जाता है। एक कुत्ता पानी
में झांक रहा था। अपनी ही परछाई दिखी तो भोंकने लगा।
जाहिर है परछाई भोंक रही थी और कुत्ता समझ रहा था सामने वाला मुझ पर भोंक रहा
है। वह डरा भी और गुस्से में भी आया। पानी में अपनी ही परछाई पर कूद गया। बस,
परछाई गायब हो गई।
इसी तरह हम भी अपनी ही छाया से झगड़ रहे हैं। एक बार भीतर कूद जाएंगे तो परछाई मिट
जाएगी और हम ही रह जाएंगे। परछाई शब्द पर यदि ध्यान दें तो ये हमारी छाया के लिए
कहा जाता है। लेकिन इसमें च्च्परज्ज् शब्द आया है यानी दूसरे की छाया। होती हमारी
ही छाया है पर नाम है परछाई।
अपना ही शेडो दूसरे के होने का भान कराती है और हम उससे उलझ जाते हैं। खुद से
लड़ते रहो, हाथ कुछ नहीं लगेगा। बीच में से खुद को हटा लो, शांत होना आसान हो जाएगा। दिवाली
की धूम के बाद आइए इस शून्य का अभ्यास करें।
सुख और शांति चाहिए तो अपनी कमाई का उपयोग ऐसे करें...
कमाए हुए धन का सामाजिक व व्यावसायिक स्वरूप अलग होता है, परंतु पारिवारिक स्वरूप
आते ही इसमें उत्तराधिकार महत्वपूर्ण हो जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी संपत्ति का
स्थानांतरण भारत की परंपरा है। कभी नई पीढ़ी उस संपत्ति को बढ़ा देती है तो कभी
उसे खत्म ही कर देती है। कमाए हुए धन का हिस्सा घरवालों को मिलना ही है, लेकिन समय आ गया है इस
पर नई दृष्टि रखी जाए।
कुटुंब की परिभाषा को विस्तृत किया जाना चाहिए और संपत्ति का अधिकार भी थोड़ा
विस्तार लेगा। हम जो कमा रहे हैं, उसमें उन लोगों का भी अधिकार है, जिनके पास इतना भी धन नहीं है कि
दो वक्त की रोटी जुटा सकें। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मजबूरी में उपचार नहीं करा पा
रहे या योग्य किसी अभाव के कारण अच्छी शिक्षा नहीं ले पाते।
ये सब भी हमारे कुटुंब का हिस्सा हैं। इसलिए अपनी आमदनी का एक भाग इन तक भी
पहुंचना चाहिए। तभी धन का औचित्य सिद्ध हो पाएगा। धन के बंटवारे के समय बुद्धि यह
समझाती है कि हमने इसे कमाया है तो हम किसको कितना दें, इस पर विचार करेंगे। धन कमाया तो
बुद्धि से ही जाता है, लेकिन खर्च करते समय इसे हृदय से जोड़ दें।
धर्म केवल बुद्धि से जुड़ने पर खतरनाक हो जाता है और हृदय से जुड़ने पर भक्ति
बन जाता है। वैसा ही धन का भी है। धन जब हृदय से जुड़ेगा तो उसका व्यय भी
सद्कार्यो में होगा। सद्कर्म की परछाई प्रतिष्ठा व भक्ति की परछाई प्रेम है,
ऐसे ही धन की
परछाई सेवा हो जाएगी। जब हम सेवा की दृष्टि से अपने कुटुंब का विस्तार करेंगे,
तब हमारा मूल
कुटुंब भी उसके परिणाम में सुख व शांति पाएगा।
जब भी पैसा आता है, ये दो चीजें साथ लाता है...
धन जीवन में आने पर जो भी चीजें लाता है, दो बातें जरूर कर जाता है। दौलत
बाहर की भीड़ और भीतर का अकेलापन भी देती है। धनवान लोग अपने बाहरी जीवन में अकेले
कम ही रहते हैं।
धन कमाने के लिए दूसरे जरूर चाहिए। यही दृश्य खर्च के साथ भी है। अत्यधिक खर्च
की वृत्ति भी अपने आसपास भीड़ बढ़ाने का ही कार्यक्रम है। रुपया-पैसा तीन बातों पर
असर करता ही है। स्वास्थ्य, तृष्णा और दुर्गुण।
अधिक धन का अमर्यादित उपभोग स्वास्थ्य को बिगाड़ता है और कमाने की भूख पाशविक
बना देती है। धन कमाने की होड़ में आदमी अपने शरीर से खिलवाड़ करने लगता है और एक
दिन जब शरीर इतना बीमार हो जाए कि धन भी काम न दे, तब पछतावा होता है। दौलत और
दुगरुण का नाता तो पुराना है ही।
इसलिए कमाने से ज्यादा उपभोग में सावधानी रखी जाए। ज्यादातर मामलों में
पर्याप्त से अधिक धन आने पर लोग भीतर से अशांत पाए गए। बाहरी शांति का काम तो
मुखौटों से चल जाता है, लेकिन भीतर के विचलन का निदान हमें स्वयं निकालना पड़ेगा।
रुपया बचाए रखने का भी एक भय होता है। बाहर यह डर बना ही रहता है कि कहीं
गंवाना न पड़े। इसी भय के कारण आदमी भीतर भी नहीं झांकता। जब-जब धन अधिक आने लगे,
बाहर की भीड़ तो
बढ़ेगी। ऐसे में अपने भीतर झांकें, उतरें और रुकें भी।
थोड़ा उस मौन को महसूस करें, जो सिर्फ भीतर होता है। वहां दौलत के सिक्के की कोई खनक
नहीं होगी। मनुष्य होने का एक फायदा यह है कि आपको अपने भीतर अकेले जाने की सुविधा
प्राप्त है। इसलिए बाहर धन का मजा भीतर के मौन से उठाया जाए।
धन के एक हिस्से का उपयोग इस तरह करें...
धन का उपयोग सिर्फ अपने लिए करना स्वार्थ है। लोग खूब कमा रहे हैं, खर्च भी दिल खोलकर कर
रहे हैं लेकिन इस दुनियादारी के बीच जो चीज गुम होती जा रही है वह है संवेदना। हम
स्वकेंद्रित होते जा रहे हैं। संवेदना नहीं है तो मन में सेवा का भाव नहीं जागता।
कमाई का कुछ भाग ऐसा भी हो जो सेवा में लगाया जा सके।
अपने लिए तो सभी कमाते हैं, पर हमारी कुछ कमाई ऐसी होना चाहिए जो सेवा के रूप में बदल
सके। आजकल सेवा भी हथियार बना ली गई है। धंधा बना ली गई थी यहां तक तो ठीक था,
लेकिन अब शस्त्र
के रूप में सेवा और खतरनाक हो जाती है।
जो दुनियादारी के सेवक हैं, यह अक्सर ऐसे ही काम करते हैं। कोई सेवक कहता है कि मैं
हिन्दू धर्म को संगठित करना चाहता हूं। कोई कह रहा है मैं इस्लाम की सेवा करना
चाहता हूं। कोई ईसा की सेवा में घूम रहा है। नेता कह रहे हैं कि हम देश की सेवा कर
रहे हैं। यह सब समाजसेवा तो हो सकती है, लेकिन इससे भीतर परमात्मा पैदा नहीं होता।
जब चित्त में ईश्वर या कोई परम शक्ति होती है तो सेवा का रूप बदल जाता है।
हिन्दू धर्म के साधु-संतों की, इस्लाम के ठेकेदारों की, क्रिश्चनिटी के पादरियों की और
हमारे राष्ट्र के नेताओं की सेवा के ऐसे परिणाम नहीं आते, जैसे आज धर्म के नाम पर मिल रहे
हैं। इसलिए सेवा के ईश्वर वाले स्वरूप को समझना होगा। अभी सेवा चित्त के आनंद से
वंचित है। परमात्मा का एक स्वरूप है सत्य।
ईमानदारी से देखा जाए तो चाहे धर्म हो या राजधर्म, जो लोग सेवा का दावा कर रहे हैं
उनके भीतर से सत्य गायब है। धर्म का चोला ओढ़ लें यहां तक तो ठीक है, अब तो लोगों ने भगवान का
ही चोला ओढ़ लिया है। वेष के भीतर से जब विचार समाज में फिंकता है तो लोग सिर्फ
झेलने का काम करते हैं।
वे यह समझ नहीं पाते कि सत्य कहां है। इसलिए दूसरे जो कर रहे हैं उनसे सावधान
रहें और हमें जो करना है उसके प्रति ईमानदार रहें। लगातार प्रयास करें कि भीतर
परमात्मा जागे और तब बाहर हमारे हाथ से सेवा के कर्म हों।
जानिए बिना धन के कैसे बनें धनवान और कैसे करें लक्ष्मी को प्रसन्न?
धन हो तब मनुष्य धनवान कहलाता है, कुछ लोग दिवाली इसी विचार से मनाते हैं। यह संसार की
साधारण परिभाषा है, लेकिन अध्यात्म बताता है बिना धन के धनवान कैसे बनें? दौलत को ही धन न समझा जाए।
लक्ष्मी के अनेक स्वरूप हैं। लोग लक्ष्मी के संदर्भ में केवल संपत्ति पर टिक
गए। स्वस्थ शरीर, पवित्र मन, प्रेमपूर्ण परिवार, ईमानदार आचरण व योग्य संतानें हों तो आदमी बिना रुपयों के
भी अधिक दौलतमंद होगा।
लक्ष्मी का आचरण यही है कि मुझ पर दबाव मत बनाना, वरना मैं कब, कैसे विपरीत परिणाम
दूंगी, आदमी
समझ ही नहीं पाएगा। इनका जन्म समुद्र मंथन से हुआ था। यह इस बात का प्रतीक है कि
मुझे पुरुषार्थ से प्राप्त करो और परमार्थ में खर्च करो।
धनवानों की एक रुचि यह भी रहती है कि लोग दीन बने रहें, वरना उनका दान कैसे चलेगा?
यहीं से
अमीरी-गरीबी की खाई गहरी बनाई जाती है। सब बराबर हों और यदि ऐसा न भी हो तो
कम-से-कम दान प्रेम की उपस्थिति से अहंकार व शोषण से मुक्त रहेगा।
ऋषि-मुनियों और संतों की परंपरा में अनेक नाम ऐसे हैं, जिनके सिर पर छत, तन पर सामान्य वस्त्र और
निर्धन से भी बीता व्यावहारिक रहन-सहन था, लेकिन बड़े-बड़े राजा उनके चरणों में नतमस्तक थे।
सदाचारी के पास लक्ष्मी अलग रूप में आती है। लोगों ने लक्ष्मी को अपने जीवन
में लाने और जाने के कई तरीके ईजाद किए। आज उनमें से एक पर विचार करें। वह तरीका
है दान। इससे पुण्य अर्जन का काम किया गया।
दान लक्ष्मीजी को भी प्रिय है, लेकिन वे चाहती हैं, दया-भाव से दान मत करो, प्रेम-भाव से करो। जब तक
कोई कमजोर न हो, दया शुरू कैसे होगी? दया करने के लिए सामने वाला दीन होना जरूरी है।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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