जब कभी जीवन में दुःख आये तो क्या करें?
दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहें,
जितनी जल्दी हो
इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का
नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है।
तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के
सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव
उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है।
कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैं, वे खुश रहने का मुखौटा
ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल
करार कर देते हैं। दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है।
इसलिए दु:ख, निराशा, उदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और
जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण
खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे
समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार
दिया, इसलिए
हम परेशान हैं।
अगर आप चाहते हैं कि जीवन में भरपूर सुख हो...
जीवन में मंगल और शुभ की तलाश सभी को रहती है। अमंगल को आमंत्रण कोई नहीं देना
चाहता। हनुमान चालीसा के समापन पर तुलसीदासजी ने हनुमानजी को मंगल के रूप में याद
किया है।
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।
हे पवनसुत! आप सारे संकटों को दूर करने वाले साक्षात् कल्याण स्वरूप हैं। आप
भगवान श्रीराम, लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ मेरे हृदय में निवास करें। श्री हनुमान चालीसा का
आरंभ 'श्रीगुरु
चरन सरोज रज' से हुआ है और अंत 'हृदय' पर हुआ है।
गुरु के चरण-रज से मन को साफ करें, क्योंकि परमात्मा को बसाने के लिए एकमात्र स्थान है
हृदय। हृदय से स्वभाव बनता है और मस्तिष्क से व्यवहार बनता है। बाहरी संसार मनुष्य
के व्यवहार से संचालित होता है और भीतरी जगत् (आध्यात्मिक) मनुष्य के स्वभाव से
नियंत्रित होता है। पहली श्रेणी में वे लोग होते हैं जो व्यवहार से स्वभाव को
बनाते हैं। दूसरी श्रेणी में ऐसे लोग होते हैं जो स्वभाव से व्यवहार बनाते हैं।
ज्ञान, कर्म,
उपासना, अपनी नौकरी, व्यवसाय, समाज, परिवार में दोनों ही
प्रकार के लोग अलग-अलग परिणाम देते हैं।
पहली श्रेणी के लोग कुशल होते हैं, किन्तु उनके कार्यकलाप कहीं न कहीं स्वार्थ से
प्रेरित होंगे। दूसरी श्रेणी के लोग सर्वप्रिय रहेंगे और उनकी कार्यशैली में
मूलरूप से ईमानदारी रहेगी। ऐसे लोग स्वयं का मंगल करेंगे तथा दूसरों का भी कल्याण
करेंगे। इनका हर काम शुभ और जनहितकारी होगा। आप दूसरों के संकट तभी हर सकते हैं जब
आपके भीतर शुभ करने की वृत्ति हो। इसलिए अपना स्वभाव साधें। इसके लिए एक काम जरूर
करें जरा मुस्कराइए...।
इस तरह नहीं हो सकता है हमारे दुःख और तनाव का निदान...
मानवीय सुख हमारे परिवारों की प्राचीन मांग है। अधिकांश लोगों की गृहस्थी की
शुरुआत इसी से होती है। देह का भान, उसकी तृप्ति और अतृप्ति ही अशांति का कारण बनती
है।कई रिश्ते तो घरों में देह से चलकर देह पर ही खत्म हो जाते हैं। शरीर से परे हो
ही नहीं पाता परस्पर आत्म समर्पण। अधिक समय दांपत्य जब शरीर पर ही टिकता है तो
त्याग की भावना जन्म नहीं ले पाती।
भोग, उसकी
पूर्ति और अपेक्षा के आसपास जीवन मंडराने लगता है। फिर शुरू होता है तनाव। केवल
शरीर पर टिके रहकर तनाव का निदान नहीं हो सकता। फिर तनाव अपना वंश बढ़ाता है,
तब प्रवेश होता है
अशांति का। एक-दूसरे के प्रति शंका होने लगती है।संदेह एक धीमा जहर है घर-परिवार
के लिए। परिवार का हर व्यक्ति फिर अपने-अपने अधिकार में, अपने-अपने अधिकार के लिए ही जीने
लगता है। दांपत्य में अपेक्षा, संदेह, देह, अधिकार जैसी वृत्तियों से बचने के लिए एक ही उपाय है और वह
है प्रेम।
यह प्रेम न तो दहेज में मिलता है, न डिग्री से प्राप्त होता है, इसे कोई तिजोरी भी नहीं उगल पाती,
न किसी दवा की
शक्ल में बाजार में उपलब्ध है। इसे अपने भीतर जगाने का एक ही तरीका है अपनी सांसों
से अपनी चेतना को जोड़कर थोड़ा भीतर उतरने का अभ्यास रोज करें। हृदय को जब सांसों
से चेतना का पवित्र स्पंदन मिलता है तो आप स्वत: प्रेमपूर्ण हो जाते हैं। योग से
योगी ही तैयार नहीं होते, प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व भी निर्मित होते हैं, इसीलिए अपने घर में किसी
भी सदस्य को दया का पात्र न बनाएं, बल्कि प्रेम का भागीदार बनाएं।
हमेशा सुखी रहने के लिए यह बहुत जरूरी है...
हमारी प्रसन्नता या उदासी हमारे आसपास प्रवाहित होती है। जब हम भीतर से खुश
रहते हैं, तब बाहर भी एक सदाशय व्यक्तित्व की तरह फैलते हैं और जब अन्दर से दुखी या
अप्रसन्न रहते हैं, तब हमारा व्यक्तित्व संकुचित, छोटा और दूसरों को भी बोझिल कर देने वाला बन जाता है।
कुल मिलाकर सारा मामला संचरण का है। इसलिए जब एक-दूसरे से मिलें तो अपना बेहतर
उसको देने की कोशिश करें। हमारे यहां सत्संग की व्यवस्था इसीलिए है। सत्संग का
अर्थ है किसी के अच्छे गुणों की चर्चा। सुंदरकांड में तुलसीदासजी ने विभीषण और
हनुमानजी की बातचीत के दौरान एक चौपाई में लिखा है- एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।
इस प्रकार श्रीरामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय शांति
प्राप्त की। यहां एक शब्द आया है दोनों को यानी हनुमानजी और विभीषण को शांति
प्राप्त हुई। वे दोनों ही श्रीराम की चर्चा कर रहे थे। इसका सीधा-सा अर्थ है अच्छे
व्यक्तियों के गुणगान के बाद, परमात्मा के स्मरण के बाद शांति प्राप्त होनी चाहिए।
इसलिए जब भी सत्संग करें तो इस तरह करें कि बाद में शांति प्राप्त हो। विश्राम
की उपलब्धि के लिए परमात्मा का यशगान होना चाहिए। सुंदरकांड में ऐसे अनेक प्रसंग
हैं, जो
जीवन को सुंदर बनाते हैं ।
दुनियाभर के काम करने के बाद शांति उपलब्ध हो जाए, तब जीवन सुंदर है और यहां शांति
के लिए सूत्र दिया गया है कि जब भी अवसर मिले, अच्छे लोगों के साथ समय बिताएं
और सत्संग करते रहें।
सुखी रहने के सारे तरीकों में ये सबसे अच्छा है...
सब चाहते हैं कि वे खुश रहें, सुखी रहें लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। कारण क्या है? सारे भौतिक संसाधन,
जमानेभर की
सुविधाएं और हर तरह का सुख होने के बाद भी हम भीतर से कहीं दु:खी ही हैं। ऐसा
क्यों होता है। कारण बहुत सीधा और सरल है, निदान भी वैसा ही सहज है।
हम संसाधनों पर टिक गए हैं। बाहरी आवरण को ही दुनिया समझ रहे हैं। जबकि असली
सुख भीतर की यात्रा में मिलेगा। अगर सुखी रहना है तो एक यात्रा अपने भीतर की ओर भी
करें।
खुश रहने के कई तरीके हैं। सांसारिक माध्यम से जब हम खुश रहते हैं तो एक
दिक्कत आती है वह माध्यम खत्म हुआ और हम पुन: दु:खी हो जाते हैं। क्लब गए, टीवी देखी, खेल खेला उनसे दूर हटे
और हम वापस अशांत हुए। कुछ स्थाई इलाज ढूंढना होंगे। अपनी निजी और आंतरिक
वृत्तियों में इसके सहारे ढूंढे जाएं।
यदि स्थाई प्रसन्न रहना है तो अपने आंतरिक सुख को पकड़ें। जो लोग भी इस संसार
में स्थाई रूप से प्रसन्न रहे हैं उन्होंने अपने अकेलेपन को ठीक से समझा है और
उसका एक बड़ा लाभ यह उठाया है कि उस अकेलेपन के दौरान अपनी भीतरी शक्तियों को विकसित
कर लिया, क्योंकि
ऐसा करने के लिए थोड़ा संसार से कटना जरूरी हो जाता है। भीतरी सुख थोड़ा सहज होता
है, लेकिन
सांसारिक सुख में एक उत्तेजना होती है।
मजेदार बात यह है इस संसार का दु:ख भी उत्तेजित करता है और सुख भी, लेकिन इन दोनों को जब
अपनी भीतरी शक्तियों से जोड़ दें तो भीतर न सुख होता है न दु:ख और इन दोनों के पार
की स्थिति है शांति। परमात्मा ने हर व्यक्ति की समझदारी का एक आंतरिक तल तय कर
दिया है।
आप जितनी जल्दी उस तल तक पहुंच जाएंगे उतने ही शीघ्र शांत हो सकेंगे। इस तल पर
कोई उत्तेजना नहीं होती। यहां सबकुछ ठहरा हुआ रहता है। आप सुख और दु:ख दोनों को
भोग रहे होते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं रहते। बाहर अनेक लोगों से घिरे हुए रहने के
बाद भी भीतर बिल्कुल एकांत घट रहा होता है। ऐसी शांति सुगंध बनकर आपके व्यक्तित्व
से झरती है और उस घेरे में आने वाले अन्य व्यक्तियों को वह महसूस भी होती है।
सुखी रहने के सारे तरीकों में ये सबसे अच्छा है...
सब चाहते हैं कि वे खुश रहें, सुखी रहें लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। कारण क्या है? सारे भौतिक संसाधन,
जमानेभर की
सुविधाएं और हर तरह का सुख होने के बाद भी हम भीतर से कहीं दु:खी ही हैं। ऐसा क्यों
होता है। कारण बहुत सीधा और सरल है, निदान भी वैसा ही सहज है।
हम संसाधनों पर टिक गए हैं। बाहरी आवरण को ही दुनिया समझ रहे हैं। जबकि असली
सुख भीतर की यात्रा में मिलेगा। अगर सुखी रहना है तो एक यात्रा अपने भीतर की ओर भी
करें।
खुश रहने के कई तरीके हैं। सांसारिक माध्यम से जब हम खुश रहते हैं तो एक
दिक्कत आती है वह माध्यम खत्म हुआ और हम पुन: दु:खी हो जाते हैं। क्लब गए, टीवी देखी, खेल खेला उनसे दूर हटे
और हम वापस अशांत हुए। कुछ स्थाई इलाज ढूंढना होंगे। अपनी निजी और आंतरिक
वृत्तियों में इसके सहारे ढूंढे जाएं।
यदि स्थाई प्रसन्न रहना है तो अपने आंतरिक सुख को पकड़ें। जो लोग भी इस संसार
में स्थाई रूप से प्रसन्न रहे हैं उन्होंने अपने अकेलेपन को ठीक से समझा है और
उसका एक बड़ा लाभ यह उठाया है कि उस अकेलेपन के दौरान अपनी भीतरी शक्तियों को
विकसित कर लिया, क्योंकि ऐसा करने के लिए थोड़ा संसार से कटना जरूरी हो जाता है। भीतरी सुख
थोड़ा सहज होता है, लेकिन सांसारिक सुख में एक उत्तेजना होती है।
मजेदार बात यह है इस संसार का दु:ख भी उत्तेजित करता है और सुख भी, लेकिन इन दोनों को जब
अपनी भीतरी शक्तियों से जोड़ दें तो भीतर न सुख होता है न दु:ख और इन दोनों के पार
की स्थिति है शांति। परमात्मा ने हर व्यक्ति की समझदारी का एक आंतरिक तल तय कर
दिया है।
आप जितनी जल्दी उस तल तक पहुंच जाएंगे उतने ही शीघ्र शांत हो सकेंगे। इस तल पर
कोई उत्तेजना नहीं होती। यहां सबकुछ ठहरा हुआ रहता है। आप सुख और दु:ख दोनों को
भोग रहे होते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं रहते। बाहर अनेक लोगों से घिरे हुए रहने के
बाद भी भीतर बिल्कुल एकांत घट रहा होता है। ऐसी शांति सुगंध बनकर आपके व्यक्तित्व
से झरती है और उस घेरे में आने वाले अन्य व्यक्तियों को वह महसूस भी होती है।
कैसे पाएं सफलता के साथ सुख-शांति? सीखें सुंदरकांड से...
युवाओं के सामने बड़ी विकट स्थिति होती है। सफलता तो बहुत मिल जाती है लेकिन
शांति नहीं मिल पाती। सुख और शांति के अभाव में सफलता हमेशा अजीब लगती है। एक
अधूरापन, कुछ
खाली-खाली सा हमेशा महसूस होता है। आखिर सफलता के साथ शांति और सुख कैसे पाया जाए,
ये सिखना है तो
सुंदरकांड से सीखें। बाबा हनुमान के चरित्र और उनके व्यवहार में वे सब बातें शामिल
हैं।
यह दिख रही सफलता को केवल अर्जित करने का ही नहीं, बल्कि नई-नई सफलता गढऩे का भी
युग है। असफल कोई नहीं रहना चाहता। इसी कारण सतत् सफलता का तनाव असफलता से भी
ज्यादा हो गया है। सुख अर्जित करना एक बड़ी सफलता माना जा रहा है।
पढ़ा-लिखा हो या बिना पढ़ा-लिखा आजकल इतना सक्षम और जुगाड़ु तो आदमी होता ही
जा रहा है कि इधर-उधर से सुख उठा ही लेता है। सुख की सामान्य परिभाषा यही बना दी
गई है कि जो हमारे अनुकूल हो वह सुख तथा विपरीत हो वह दु:ख। तो सुख अर्जित करना इस
समय बहुत कठिन काम नहीं है। परन्तु सवाल यह है कि शांति कहां से लाएंगे?
यह किसी तिजोरी से नहीं निकलती, किसी सैलेरी से नहीं मिलती, केवल बही-खाते में नहीं बसी है,
किसी इंस्टीट्यूट
में नहीं पढ़ाई जाती। यह तो आदमी को खुद अर्जित करना पड़ेगी। सुख के साथ जब शांति
होगी तभी सफलता सही और स्थाई होगी तथा जीवन सुंदर होगा। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस
के पाँचवें सौपान का नाम सुंदरकाण्ड रखा है।
इसमें हनुमानजी की सफलताओं के प्रसंग हैं। इसके आरंभ के श्लोक का पहला शब्द ही
शांति को समर्पित है-
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं...
शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परम्शान्ति देने वाले श्रीराम की वंदना इन
पंक्तियों में की गई है। जीवन सुंदर ही तब है जब सफलता के साथ शांति हो।
सुंदरकाण्ड में हनुमानजी ने तीन बड़ी सफलताएं एक साथ अर्जित की थीं। सीताजी को
संदेश दिया था, विभीषण के हृदय में श्रीराम का स्वभाव स्थापित किया और रावण के मन में प्रभाव।
सुखी होने के लिए यह तरीका सबसे अच्छा है...
जब भी हम दु:खों को दूर करने के बारे में सोचते हैं, कुछ ही उपाय हमारे सामने होते
हैं। कोई धन से सुखी होता है, कोई तन से, कोई भौतिक साधनों से तो कोई भावनाओं के संबल से।लेकिन इनके
अलावा भी एक साधन है जो ना केवल दु:ख दूर करता है बल्कि सुख का अनुभव भी कराता है।
यह तरीका भगवान हनुमान से सीखा जा सकता है। रामचरितमानस के सुंदर कांड में इस पर
तुलसीदासजी ने बहुत सुंदर वर्णन लिखा है।
भक्ति भी एक युक्ति है। युक्ति यानी उपाय। परमात्मा को पाने का तरीका, ढंग या रीति। भगवान
विशेष प्रयास से मिलते हैं। सुंदरकांड में युक्ति का एक प्रसंग आता है। विभीषण और
हनुमानजी की चर्चा हो रही थी। हनुमानजी ने विभीषण से सीताजी का पता पूछा।
तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी -
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।
विभीषण ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियां कह सुनाईं।
विभीषण को हनुमानजी समझा चुके थे कि आप राम-नाम तो लेते हैं, परंतु राम-काम नहीं
करते। ज्यादातर लोग संसार में ऐसा ही करते हैं। राम-काम का अर्थ तिलक लगाना,
मंदिर जाना,
पूजा करना ही नहीं
है, असली
राम-काम है ईमानदारी, निष्ठा और परिश्रम से अपना कर्तव्य पूरा करना। सीताजी को भक्ति, शक्ति व शांति का प्रतीक
बताया गया है।
विभीषण ने सीताजी की खोज की युक्ति बताई थी, इसका अर्थ है कि हम समाज की
शांति, भक्ति
व शक्ति की खोज में लगे रहें, यही राम-काम है। हनुमानजी ने अशोक वाटिका में जाकर सीताजी
को देखा। वे कृशकाय हो चुकी थीं और राम-नाम का जप कर रही थीं। उनको देखकर हनुमानजी
भी दुखी हो गए।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।। (दोहा-8)
हनुमानजी हमें समझा रहे हैं कि दूसरों के दुख का ठीक से एहसास करें। भक्त
दूसरों के दुख को समझता है और उसे दूर करने का प्रयास भी करता है। आज उल्टा है,
हम दूसरों के दुख
से दुखी नहीं, बल्कि उनके सुख से दुखी हैं। हनुमानजी से सीखें दूसरों का दुख समझकर कैसे दूर
किया जाता है।
कैसा होना चाहिए सुख या दुःख में हमारा व्यवहार...
मानव जीवन में सुख और दुःख का आना-जाना लगा रहता है। ये दोनों चीजें हमारे
कर्म और व्यवहार पर निर्भर करता है। कभी-कभी हमारा व्यवहार और हमारी सोच ही सुख और
दुःख के प्रभाव को कम कर देते हैं।
जीवन जितना उच्च है उतना ही हम घटनाओं में अनुकूलता देखने लगेंगे और जीवन की
गतिविधियां जितनी अधिक निम्न स्तर की होंगी हम प्रतिकूलता देखेंगे। अनुकूल यानी
सुख, प्रतिकूल
यानी दु:ख। कोई भी दावा नहीं कर सकता कि सदैव एक ही स्थिति बनी रहेगी।
इसलिए कोशिश यह की जाए कि दोनों ही हालात में जो उत्तम है, जो जीवन को ऊँचा ले जा
सकता है वह सब ग्रहण किया जाए और बाकी छोड़ दिया जाए। सुख और दु:ख दोनों ही हमारे
ऊपर राज न करे बल्कि हम उन पर अधिकार बना लें।
जैसे ही अधिकार बनेगा दोनों के प्रति हमारा आग्रह बदल जाएगा। अभी हमारा सुख के
प्रति आग्रह होता है और दु:ख के प्रति नकारने का भाव होता है। श्रेष्ठ लोगों ने
अपने जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आने पर कैसा आचरण किया लगातार इस पर
वॉच रखें।
सभी धर्मों ने यह सुविधा दी है कि आप कई विभूतियों के माध्यम से सीख सकते हैं।
अवतार परंपरा संभवत: इसीलिए हुई है। यह न समझें कि अवतार किसी पुराने युग में हुए,
उनका जीवन आज कैसे
प्रेरणा दायक होगा और यह भी न मानें कि आज तो हमारे बीच वे अवतार नहीं हैं। जिस भी
युग में ऐसे लोग हुए उस समय जिन लोगों ने उन्हें पाया ठीक वैसी ही स्थितियाँ आज भी
हमारे साथ हैं।
हम अवतारों को उनके पुराने रूप में खोजने की आदत बना लेते हैं। हमने जो अपने
भीतर छवि बनाई है वह अपनी सुविधा से बना ली है। लेकिन भगवान हर काल में नए-नए रूप
में आता है। वह तब भी था और आज भी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार वह नए
स्वरूप में हमें मिलेगा ही। इसके लिए सबसे पहले स्वयं के भीतर के परमात्मा को
स्वीकार करना पड़ेगा।
हम उसका अंश हैं यह एहसास ही हमें उसके स्वरूप से परिचित करा देगा। और तब जीवन
का जो भी उत्तम है वह हमारे हाथ जरूर लगेगा।
इस कारण से हमें दुःख बहुत भारी लगता है...
दूसरों के दुख में हम शामिल होते हैं, लेकिन उसे अपने भीतर नहीं लाते। हमें यह मालूम रहता
है कि यह सारा घटनाक्रम दूसरे का है। लेकिन ऐसी ही घटना जब अपने ही जीवन में घटे
तो दुख तत्काल हम भीतर ले आते हैं। चूंकि हमें सुख भी भीतर लाने की आदत है,
इसलिए दुख भी ले
आएंगे और फिर असली परेशानी शुरू होती है।
जैसे हम दूसरे के दुख को देखकर भीतर नहीं लाते, ऐसे ही हम अपने सुख के साथ हो
जाएं, तब
एक नई स्थिति आनंद की अनुभूति होगी, जिसमें सुख है न दुख। पर हम जी-तोड़ कोशिश करते हैं
कि केवल सुख मिले, दुख मिले ही नहीं। पर ऐसा मुमकिन हो नहीं सकता। सुख और दुख इतने जुड़े हुए हैं
कि एक का सुख दूसरे का दुख बन जाता है और दूसरे का दुख किसी और के लिए सुख होता
है।
हिंदुओं में पुनर्जन्म की कल्पना इसमें बड़ी राहत पहुंचाती है। एक घर में हुई
मृत्यु का दुख, दूसरे किसी घर में हुए जन्म का सुख बन जाता है। जो लोग दूसरों के दुख में
विवेकपूर्ण ढंग से उन्हें समझाते हैं, ऐसे लोग अपने दुख में सारी समझ भूल जाते हैं।
निर्लिप्त रहने का जितना अभ्यास बढ़ाएंगे, सुख और दुख दोनों एक जैसा रस देने लगेंगे।
यदि प्रेम को ठीक से समझें तो पाएंगे कि प्रेम की अपनी पीड़ा है। प्रेम के
बिना पीड़ा हो नहीं सकती, पर उस पीड़ा में भी एक रस है, वरना दुनिया से प्रेम मिट जाएगा।
इसलिए सुख व दुख दोनों ही स्थितियों में प्रेमपूर्ण जरूर बने रहें। प्रेम के लिए
पहला पात्र परमात्मा को बनाएं तो धीरे-धीरे उसी का विस्तार संसार में हो जाता है
और तब संसार छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती और न ही वह तकलीफ पहुंचाता है।
जब भी दुःख या परेशानी आए तो यह काम करें...
किसके जीवन में मुसीबत नहीं आती। छोटे को छोटी और बड़े को बड़ी दिक्कतें आती ही
रहती हैं। मुसीबतों को आने के लिए कोई रिजर्वेशन नहीं कराना पड़ता और ना ही वे
पूर्व सूचना दिए आती हैं।
कुछ तो वे स्वयं चलकर आती हैं और कुछ हम खुद आमंत्रित करते हैं। स्वआमंत्रित
समस्याओं के मामले में कुछ लोग बहुत भरेपूरे होते हैं। जैसे ही मुसीबतों के आने का
एहसास हो या वह सामने आकर खड़ी ही हो जाए तो अपने भीतर के अध्यात्म को जगाएं। यहीं
से आपका होश बदलेगा, सोचने का तरीका परिवर्तित हो जाएगा।
अपने मन में ग्रंथी न बनने दें। हानि-लाभ, खुशी-गम इनके बारे में ज्यादा न
सोचें क्योंकि जब मुसीबत आती है हम उसके परिणाम पर टिक जाते हैं। अभी घटा नहीं है
और हम भविष्य के भय से जुड़ जाते हैं। मन को ग्रंथी बांधने का शौक होता है।
इसी कारण वह दिमाग में उलझनें और उथल-पुथल पैदा कर देता है। ऐसे समय सात्विक
आहार, शुद्ध
विचार और संतुलित शारीरिक क्रियाएं बड़े काम आती हैं। मुसीबत आते ही इन तीनों पर
काम करना शुरू कर दीजिए। मन ऐसे समय बार-बार हमें कुछ पुरानी स्थितियों, व्यक्तियों से विपरीत
भाव से जोड़ता है। हम निदान निकालने की जगह पुरानी झंझटों में उलझ जाते हैं। एक
अजीब सा उद्वेग पैदा होने लगता है।
इससे मुसीबत को बड़ा होने में सुविधा हो जाती है। यहीं से मेंटल बॉडी का लोड
फिजीकल बॉडी पर और फिजीकल का लोड मेंटल बॉडी पर आने लगता है। हम शक्तिहीन होने
लगते हैं। जबकि हमारा धर्म, हमारी भक्ति हमें सिखाती है शरीर और आत्मा दोनों के महत्व
को जानें और दोनों के बीच अंतर को बढ़ाएं।
कुछ लोग केवल आत्मा पर टिककर शरीर को भूल जाते हैं और कुछ लोग केवल शरीर पर
टिककर आत्मा को भूल जाते हैं, लेकिन हमें दोनों पर टिकना है अंतर बनाकर। और फिर कैसी भी
समस्या हो, मुसीबत रहे, हम पार लग जाएंगे।
अगर आप दुःख और अभावों में जी रहे हैं तो...
अभाव किसी को भी नहीं भाता। वस्तु पास में न हो, स्थिति अनुकूल न रहे तब जो अभाव
होता है वह तो समझ में आता है परन्तु मन चाहा मिल जाए और फिर भी जीवन में अभाव,
असंतोष बना रहे,
खतरा यहां से शुरू
होता है और आज अनेक लोग इसी खतरनाक स्थिति में जी रहे हैं। जो लोग ये मानते हैं कि
सम्पन्नता के साधनों से ही प्रसन्नता आएगी और प्रगति होगी वे भूल जाते हैं कि केवल
इससे ही कुछ नहीं होगा।
इन बाहरी साधनों के साथ भीतर की मनोवृत्ति पर भी काम करते रहना होगा। हमारी
मनोवृत्ति में यदि संतोष, सहानुभूति, संयम और सदाचार नहीं है तो बाहर से सबकुछ मिल जाने पर भी
अभाव का भाव बना रहेगा जो अशांति का कारण बनेगा। इसी कारण जिनके पास सबकुछ है
जरूरी नहीं कि उनके पास शांति भी हो।
भौतिकता और आध्यात्मिकता का संघर्ष यहीं से शुरू होता है। भौतिकता कहती है
पदार्थ ही प्रमाण है, मटैरिएलिस्कि एप्रोच बनाए रखो, भावनाएं भ्रांति हैं। आध्यात्मिकता का आग्रह है पदार्थ गौण
हैं, संवेदनाओं
को साधो, इसी
छीना-झपटी में मनुष्य उलझ जाता है फिर कैसे जीतें इस द्वन्द को? गुरूनानक की बात काम आ
सकती है। वे कहते हैं-जिउ भावै तिउ राखु तूं मै हरि नामु अधारू
हे प्रभु जैसे भी तुझे भाता हो हमें रख, तेरी मर्जी। ये जो दो शब्द हैं
तेरी मर्जी ये हमारे सारे पुरूषार्थ को पवित्र और प्रभावशाली बना देंगे। हम कर्म
तो पूरा करेंगे पर फल की प्राप्ति या अप्राप्ति हमें अशांत नहीं करेगी।
नानक कहते हैं ऐसे रहते हुए शब्द की, नाम की कमाई करो। व्यावसायिक जीवन में जो भी कमाएं
परन्तु आध्यात्मिक जीवन की इस आमदानी को न भूलें जिसे नानक ने च्च्नामु अधारूज्ज्
कहा। नाम की कमाई सारे अभाव दूर कर देती है। वे शरीर के सौंदर्य के प्रति जागरूक
हैं। सुसज्जित रहने का स्वभाव भी एक गुण है। वे यह नहीं कहते कि जो ब्रह्मचर्य का
पालन करे वह सौंदर्यबोध को ठुकरा दे। सुंदरता की अनुभूति भी परमात्मा तक पहुंचने
में साधक बन जाती है।
हमारे दुःखों का एक कारण यह भी है...
जीवन में उत्थान और पतन चलता ही रहता है। भौतिक सफर में ऐसा हो तो आश्चर्य
नहीं, लेकिन
आध्यात्मिक यात्रा में भी ऐसा हो जाता है और इसकी चिंता पालना चाहिए। कई बार पतन
के बाद भी उत्थान का क्रम बन जाता है, लेकिन जीवन की कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं कि पतन पर
पहुंचकर आदमी उत्थान पर पहुंचना ही नहीं चाहता।
इसका उदाहरण है रावण। रावण एक ऐसा पात्र है जिसको कई बार अनेक पात्रों ने अपने-अपने
स्तर पर समझाया था। हनुमानजी, अंगद, शूर्पणखा, मंदोदरी, मारीच जैसे लोगों ने उसे समझाया लेकिन उसे समझ में नहीं
आया। मानस रोगों का वर्णन करते हुए लिखा गया है-
'मोह सकल व्याधिन कर मूला।'
मोह ही मूल है और रावण साक्षात मोह का प्रतीक है। मेघनाथ काम है और शूर्पणखा
अंदर की वासना है। रावण को मेघनाथ और शूर्पणखा दोनों बहुत प्यारे थे। शूर्पणखा का
अर्थ है जिसके नाखून बड़े हों। इंद्रियों में जो वासनाएं होती हैं उसकी तुलना
नाखूनों से की जाती है।
यानी एक सीमा तक वासना ठीक है, उसके बाद नाखूनों को काट देना चाहिए। जो अपने नाखून नहीं
काटेगा, समाज
में उसका जीवन अमर्यादित हो जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि रावण ने कुछ गलत नहीं
किया था। उसकी बहन की नाक काटे जाने पर उसने राम की पत्नी का हरण कर लिया।
शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव रखा, इसमें क्या गलत था।
इस प्रसंग को लोग गहराइयों में नहीं देखते। शूर्पणखा ने पूरे समय झूठ बोला था,
छल किया था। रावण
ने शूर्पणखा यानी छल का पक्ष लिया। जो छल का पक्ष लेता है वह रावण के समान होता है
और पतन में गिरने के बाद उत्थान की संभावना को रावण ने स्वयं नकार दिया था।
अगर ऐसा नहीं करेंगे तो सुख का आनंद नहीं उठा पाएंगे...
हर मनुष्य के भीतर ऊर्जा का एक हिस्सा रचनात्मक कार्यों के लिए रहता ही है।
अपनी ऊर्जा के जिस हिस्से से हम नाम और दाम कमाने में सक्रिय रहते हैं, उससे ही जीवन में
पूर्णता नहीं आती। इस तरह लगातार काम करने से दो ही प्रकार के लोग समाज में बनते
हैं।
एक, शोषण
और लूट के द्वारा धन कमाने वाले और दूसरे, शोषित और लुटने वाले लोग। इन दोनों वर्गो के बीच
मनमुटाव, प्रतिद्वंद्विता
और वैमनस्य आना स्वाभाविक है। इसका सीधा असर राष्ट्रीय, सामाजिक व पारिवारिक जीवन पर
पड़ता है। कुल मिलाकर हर क्षेत्र में अशांति हाथ लगती है।
इसलिए हम किसी भी स्तर के व्यक्ति हों, अपनी ऊर्जा का रचनात्मक हिस्सा
जरूर सक्रिय रखें। इससे भेदभाव मिटेगा, वार्तालाप का वातावरण बनेगा और एक-दूसरे के प्रति
सद्भाव जागेगा। जितना हम रचनात्मकता की ओर बढ़ेंगे, उतना ही पॉजिटिव होते जाएंगे।
जीवन निषेध का नाम नहीं है। जीवन को विधेय से चलाना चाहिए, यानी सकारात्मकता बढ़ाने
के प्रयास लगातार करते रहें। प्रतिस्पर्धा के इस युग में सुख और दुख आते ही रहते
हैं।
यदि हम पॉजिटिव नहीं रहे तो सुख का सदुपयोग नहीं कर पाएंगे और दुख हमसे लगातार
ऐसे काम करवा लेगा, जिन्हें हम होश में तो कभी नहीं करना चाहेंगे। दुख विचलन लाता है और यदि लंबे
समय विचलन टिक जाए, तो मनुष्य या तो डिप्रेशन में डूब जाएगा या डिस्ट्रक्टिव हो जाएगा।
इसलिए 24 घंटे में कुछ समय अपनी ऊर्जा की रचनात्मकता पर पकड़ बनाए रखें। अन्यथा यह एक
बार गलत दिशा में बह गई तो लौटाकर लाना कठिन हो जाएगा।
सुख नहीं, दु:ख सिखाता है जीवन के कई अनुभव
हर कोई सुख की डोर को पकड़कर जिंदगी का सफर तय करना चाहता है। जीवन सिर्फ सुख
के लिए नहीं होता, अक्सर जो अनुभव और ज्ञान सुख नहीं दे पाता, वो दु:ख सीखा जाता है। सुख के
पीछे भागने वाले अक्सर सबसे ज्यादा दु:खों से घिरते हैं। जो दु:खों की परवाह नहीं
करते, सुख
उन्हें बिना खोजे ही मिल जाता है।
राम, सीता
और लक्ष्मण वनवास को जा रहे थे। राम वन जाने के अपने फैसले पर अडिग थे। राज परिवार
के लोग सीता को समझा रहे थे, जंगल में कितने दु:ख और परेशानियां होंगी। जंगली जीवों,
राक्षसों का डर,
ना सुख का बिस्तर
ना, शाही
भोजन। फिर भी सीता राम के साथ जाने पर अड़ी रहीं। कारण था, वो जंगल के दुखों के बारे में
नहीं सोच रही थीं, वो पति के सामिप्य और उनकी सेवा से मिलने वाले सुख को लेकर आश्वस्त थी।
कई बार हम भौतिक सुख-सुविधाओं के चक्कर में मानसिक सुख को गौण कर देते हैं।
पहले तो ये सुख अच्छा लगता है लेकिन जब अपनों की कमी महसूस होती है, तो वो ही साधन अखरने
लगते हैं। परिवार से बढ़कर सुख का और दूसरा कोई रास्ता नहीं हो सकता। हमेशा क्षणिक
या आंशिक सुख के बारे में ना सोचें, कभी-कभी भीतरी सुख को भी ध्यान में रखें।
तनाव और चिंता में भी हो सकता है रचनात्मक काम...
तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के
सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव
उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है।
दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहें,
जितनी जल्दी हो
इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का
नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है।
कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैं, वे खुश रहने का मुखौटा
ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल
करार कर देते हैं। दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है।
इसलिए दु:ख, निराशा, उदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और
जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण
खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे
समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार
दिया, इसलिए
हम परेशान हैं।
पैदा होने पर मान लेते हैं बस अब जिन्दगी कट जाएगी लेकिन जन्म और जीवन अलग-अलग
मामला है। जन्म एक घटना है और उसके साथ जो सम्भावना हमें मिली है उस सम्भावना के
सृजन का नाम जीवन है।
इसलिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त नहीं है। इस जीवन के साथ होने वाले संघर्ष को
सहर्ष स्वीकार करना पड़ेगा और इसी सहर्ष स्वीकृति में समाधान छुपा है। सत्संग,
पूजा-पाठ, गुरु का सान्निध्य इससे
बचने और उभरने के उपाय हैं।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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