जब कुंभकर्ण नींद से जागा तो...
स्त्री के लिए भाई का प्यार खोकर, मैं कौन सा मुंह लेकर अवध जाऊंगा? लक्ष्मण तुम अपनी माता
के एक ही पुत्र हो उसके प्राणधार हो। हर तरह से सुख देने वाला और परम हितकारी
जानकर उन्होंने तुम्हे हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था। मैं अब जाकर उन्हें उत्तर दूंगा?
भाई तुम उठकर मुझे
सिखाते क्यों नहीं। ऐसा बोलेते हुए श्रीराजी की आंखे छलक पड़ी। तभी हनुमानजी वहां
आए वैद्य ने बूटी से लक्ष्मणजी का इलाज किया। लक्ष्मणजी उठकर बैठ गए। रामजी को
चेतना में देख रामजी ने उन्हें गले से लगा लिया। जब रावण ने यह समाचार सुना तो वह
चिंतित हो गया। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया। उसने हर संभव प्रयास करके
कुंभकर्ण को नींद से जगाया।
कुंभकर्ण ने पूछा भाई कहो तुमने मुझे क्यों जगाया है। तब रावण ने उसे अपनी
परेशानी का कारण बताया रावण की यह बात सुनकर कुंभकर्ण दुखी होकर बोला तू जानकीजी
को हर कर लाया है और अब कल्याण चाहता है? तूने अच्छा नहीं किया। श्रीरामजी के रूप और उनके
गुणों को याद करके कुंभकर्ण एक क्षण के लिए प्रेम मग्न हो गया। फिर उसने रावण से
कहा मुझे भूख लग रही है। तब रावण ने करोड़ों घड़े मदिरा और भैसें मंगवाए। भैसे
खाकर और मदिरा पीकर यह वज्राघात के समान गरजा और युद्ध के मैदान में पहुंचा।
ऐसे हुआ था युद्ध में कुंभकर्ण का अंत
कुंभकर्ण को हनुमानजी ने घूंसा मारा, जिससे व्याकुल होकर वह गिर पड़ा और सिर पीटने लगा।
उसने उठकर हनुमानजी को मारा वे चक्कर खाकर तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर उसने
नल और नील को पृथ्वी पर पछाड़ दिया और दूसरे योद्धाओं को भी जहां तहां पटक दिया।
वानरसेना वहां से भागने लगी। सब भयभीत हो गए। सुग्रीव सहित अंगद आदि भी बेहोश हो गए।
जब कुंभकर्ण ने सुग्रीव को मरा हुआ समझा। सुग्रीव ने कुंभकर्ण के नाक कान को
काट लिया। उसने सुग्रीव को पैर पकड़कर पछाड़ दिया। कुंभकर्ण ने वानर सेना को
तितर-बितर कर दिया। यह सुनकर राक्षस सेना भी दौड़ी। रामचंद्रजी ने देखा कि अपनी
सेना बिखर गई है तब रामजी ने लाखों बाण छोड़े। रामजी के बाणों ने कई हजार भयानक
राक्षसों को काट दिया। कुंभकर्ण ने मन में विचार करने लगा कि रामजी ने क्षणभर में
सेना का संहार कर दिया। फिर रामजी ने कुछ और बाण छोड़े इस तरह उन्होंने कुंभकर्ण
का वध कर दिया।
ये था एक मात्र योद्धा जिसने रामजी को कर लिया था अपने वश में....
दिन का अंत होने दोनों सेनाएं लौट पड़ी। योद्धाओं को बहुत थकावट हुई। रावण के
महल में मातम का माहौल था। तभी वहां मेघनाद आया उसने रावण को समझाया। उसने कहा मैं
अपने मुंह से अपनी क्या बढ़ाई करूं? पिताजी मैंने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ पाया था
वह बल अब तक आपको नहीं दिखाया था। इस तरह रावण को समझाते हुए सबेरा हो गया। दोनों
ओर के योद्धाओं ने अपनी-अपनी विजय के लिए युद्ध आरंभ किया। मेघनाद अपने रथ पर
चढ़कर आकाश को चला। वानर सेना में भय छा गया।
आकाश में दसों दिशाओं में बाण छा गए। उसने लक्ष्मण, सुग्रीव और विभीषण आदि को बाण से
मारकर उनके शरीर को छलनी कर दिया। फिर वह रामजी से लडऩे लगा। वह जो बाण छोड़ता है,
वह सांप होकर लगते
हैं। रामजी भी नागपाश के वश में हो गए। मेघनाद ने पूरी सेना को व्याकुल कर दिया।
तभी जाम्बवान ने बोला अरे मूर्ख मैं तुझे अभी बताता हूं। यह सुनकर मेघनाथ क्रोधित
हो गया।
जाम्बावन ने मेघनाद की छाती पर त्रिशुल दे मारा। वह गिर पड़ा। वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता तब जाम्बवान ने उसका पैर पकड़कर लंका पर फेंक
दिया। नारदजी ने गरुडज़ी को रामजी के पास भेजा वे सभी सांपों के समूहों को खा गए।
रामजी नागपाश से मुक्त हुए। इधर मेघनाद की मूच्र्छा छूटी।
जब लक्ष्मणजी को लगा मेघनाद को हराना है मुश्किल तो...
पिता को देखकर उसे बहुत शर्म आई। उसने मन ही मन सोचा कि मुझे अजेय यज्ञ करना
चाहिए। लेकिन यह बात विभीषण को पता चली। उन्होंने रामजी को यह बात बताई। रामजी ने
सोचा अगर यह यज्ञ सिद्ध हो गया तो मेघनाद
को जीतना कठिन हो जाएगा। उन्होंने अंगद आदि वानरों के साथ लक्ष्मण को यज्ञ विध्वंस
करने भेजा। वानरों ने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैसें की आहूति दे रहा है।
वानरों ने पूरा यज्ञ विध्वंस कर दिया। फिर भी जब नहीं उठा तब वे उसकी प्रशंसा करने
लगे। इतने पर भी वह न उठा उन्होंने जाकर उसके बाल पकड़े और लातों से उसे मारा। उसे
मारकर वे भागने लगे। वह त्रिशूल लेकर
दौड़ा, वानर
भागे और वहां आ गए
जहां लक्ष्मणजी खड़े थे। हनुमानजी और अंगद गुस्से में आकर उसकी तरफ दौड़े। तब
उसने छाती में त्रिशूल मारकर दोनों को गिरा दिया। उसके बाद मेघनाद ने लक्ष्मणजी पर
त्रिशूल छोड़ा। लक्ष्मणजी ने बाण चलाकर उस त्रिशूल के दो टूकड़े कर दिए। अंगद उसे
मारने लगे लेकिन उसे चोट न लगी। मेघनाद मारे नहीं मरता, यह देखकर लक्ष्मणजी ने भयानक बाण
छोड़े। वज्र के समान बाणों को आते देखकर वह अंर्तध्यान हो गया। शत्रु को पराजित न
होता देखकर वानर डर गए। तब लक्ष्मणजी ने मन ही मन सोचा कि इस पापी का अंत कर देने
में ही सबकी भलाई है। लक्ष्मणजी ने एक प्रभावशाली बाण छोड़ा और मेघनाद के जीवन का
अंत कर दिया।
रामजी ने कैसे लड़ा बिना रथ के युद्ध?
मेघनाद की मौत पर पूरी लंका में शोक छा गया। उसकी पत्नियां विलाप करने लगी।
रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश दिया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा शुभ और पवित्र है।
दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। ऐसे लोग अधिक नहीं हैं जो
उपदेश के अनुसार आचरण भी करें। उस समय
अपशकुन होने लगे। अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता नहीं
है। राक्षसों की अपार सेना चली। रावण युद्ध के मैदान में पहुंचा। रामजी के पास न
रथ है न तन रक्षा करने वाले कवच।
रावण का ऊंचा सुंदर रथ देखकर सभी भयभीत होने लगे। तब रामजी बोले युद्ध जीतने
के लिए और शौर्य और धैर्य का रथ चाहिए। जिसके पास धर्ममय रथ होता है उसे जीतने के
लिए कहीं कोई शत्रु है ही नहीं। रामजी की ये बात सुनकर हर्षित होकर विभीषण बोले
प्रभु आपने इसी बहाने मुझे बहुत बड़ा उपदेश दिया है। उधर से रावण ललकार रहा है और
इधर से अंगद और हनुमान। दोनों और के योद्धा रण मतवाले हो रहे हैं।
रामायण के युद्ध में जब लक्ष्मणजी का सामना रावण से हुआ तो...
वे एक-दूसरे को मारते हैं काटते हैं पकड़ते हैं, पछाड़ते हैं। राक्षसों के सिर
तोड़कर उन्हीं सिरों से दूसरे राक्षसों को मारते हैं। राक्षस योद्धाओं को भालू
पृथ्वी में गाड़ देते हैं। ऊपर से बहुत सी बालू डाल देते हैं। रावण गुस्से में आकर दौड़ा। वानर हुंकार करते
हुए उसके सामने चले। उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड़ लेकर रावण पर एक
साथ डाले। लेकिन ये सभी उसके वज्रतुल्य शरीर पर लगते ही तुरंत टुकड़े-टुकड़े होकर
फूट जाते हैं। उसे बहुत गुस्सा आया। वानर योद्धाओं को चिटियों की तरह मसलने लगा।
पूरी रामजी की सेना में अफरा-तफरी मच गई। लक्ष्मणजी वहां आए और रावण से बोले अरे
दुष्ट वानरों और भालूओं को क्या मार रहा है? मुझे देख मैं तेरा काल हूं। रावण
ने कहा मेरे पुत्र को मारने वाले मैं तुझे ही ढूंढ रहा था।
ऐसा कहकर उसने भयंकर बाण छोड़े। लक्ष्मणजी ने सबके सैकड़ों टुकड़े कर डाले।
फिर उन्होंने अपने बाणों से प्रहार किया और रथ को तोड़कर सारथि को मार डाला।
उन्होंने रावण पर कई सौ बाणों से हमला किया। वह बेहोश हो गया लेकिन कुछ समय बाद
उसने उठकर वह शक्ति चलाई जो उसे ब्रह्माजी ने दी थी। ब्रह्माजी की दी हुई शक्ति
लक्ष्मणजी की ठीक छाती में लगी। वीर लक्ष्मणजी व्याकुल होकर गिर पड़े। रावण
लक्ष्मणजी को वहां से उठाने का प्रयास करने लगा।
हनुमानजी से युद्ध के बाद रावण क्यों नहीं लौटा?
यह देखकर हनुमानजी कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमानजी के आते ही रावण ने उन
पर बहुत भयंकर घूंसे से प्रहार किया। हनुमानजी संभल गए और क्रोध में रावण को एक
घूंसा मारा वह गिर पड़ा। हनुमानजी बोले धित्कार है मुझ पर अगर जो तू अब भी जीवित
रह गया। ऐसा कहकर और लक्ष्मणजी को उठाकर हनुमानजी रामजी के पास ले आए। यह देखकर
रावण को आश्चर्य हुआ। रामजी ने धीरे से लक्ष्मणजी के कानों में कहा लक्ष्मण तुम
काल के भक्षक और देवताओं के रक्षक हो।
ये बात सुनते ही लक्ष्मणजी फिर धनुष बाण लेकर दौड़े और बहुत शीघ्रता से शत्रु
के सामने पहुंचे। वहां रावण मूच्र्छा से जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। यहां विभीषणजी
को यह खबर मिली और उसने तुरंत जाकर रामजी को सुनार्र्ई। रावण एक यज्ञ कर रहा है।
उसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा। तुरंत वानर योद्धाओं को भेजिए जो
यज्ञ विध्वंस करें। जिससे रावण युद्ध में आए। सुबह होते ही हनुमान और अंगद आदि सब
दौड़े। वे सभी लंका पर जा चढ़े और रावण के महल में जा घुसे।
ज्यो ही उसको यज्ञ करते देखा, त्यो ही सब वानरों को बहुत गुस्सा आया। वे सभी वहां जाकर
बोले अरे निर्लज रणभूमि से घर भाग आया और यहां आकर बगुले का सा ध्यान लगाकर बैठा
है। ऐसा कहकर अंगद ने लात मारी। जब उसने आंखें नहीं खोली तो वानर क्रोध करके
स्त्रियों को बाल पकड़कर घर से बाहर ले आए। वे रावण को पुकारने लगी। तब रावण काल
के सामान क्रोधित हो उठा और वानरों को पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी बीच वानरों ने यज्ञ
विध्वंस कर डाला। यज्ञ विध्वंस करके वे सभी वानर रामजी के पास लौट आए। रावण
क्रोधित होकर जब वापस युद्धभूमि जाने लगा तो गिद्ध आकर उसके सिर पर बैठने लगे।
आप भी जान लीजिए रामजी ने रावण से कही ये नीति की बात ..
रावण युद्ध के मैदान में पहुंचा। वह बहुत क्रोधित था। वह बोला- अरे तपस्वी
सुनो तुमने युद्ध में जिन लोगों को जीता है। मैं उनके समान नहीं हूं। मेरा नाम
रावण हैं। तुमने खर, दूषण और विराध को मारा तुमने कुंभकर्ण और मेघनाद को भी मारा। अगर तुम रण से
भाग न गए तो आज ही मैं तुम से सारा वैर निकालुंगा। रावण के दुर्वचन सुनकर और उसे काल के वश में
जानकर श्रीरामजी ने हंसकर यह बात ही- तुम्हारी सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो,
बिल्कु ल सच है।
अब व्यर्थ बकवास न करो पुरुषार्थ दिखाओ।
व्यर्थ बकवास करके अपने सुंदर यश करो। क्षमा करना मैं तुम्हे नीति सुनाता हूं।
संसार में तीन तरह के पुरुष होते हैं आम, कटहलऔर गुलाब के समान। एक आम में फल और फूल दोनों
लगते हैं। दूसरे कटहल में केवल फल ही लगते हैं। गुलाब जिसमें केवल फूल ही लगते
हैं। इसी तरह पुरूष भी एक वो होते हैं जो कहते हैं और करते भी हैं दूसरे वो जो
कहते हैं और करते नहीं और तीसरे जो करते हैं पर कहते नहीं। श्रीरामजी की बात सुनकर
रावण खूब हंसा और बोला मुझे ज्ञान सिखाते हो? उस समय वैर करते तो नहीं डरे अब
प्राण प्यारे लग रहे हैं।
क्या आप जानते हैं, विभीषण और रावण में क्यों हुआ भयंकर युद्ध?
रामजी को गुस्सा आया और धनुष को कान तक तानकर रामचंद्रजी ने भयंकर बाण छोड़े।
रावण दस त्रिशूल लाया और श्रीरामजी के चारों घोड़े मारकर पृथ्वी पर गिरा दिए।
घोड़ों को उठाकर रामजी ने गुस्सा करके धनुष खींचकर बाण छोड़े। रणभूमि में रावण ने
गुस्सा किया और बाण बरसाकर रामजी के रथ को ढक दिया। रावण ने प्रचण्ड शक्ति छोड़ी। वह विभीषण के
सामने ऐसी चली जैसा काल का दण्ड हो। बहुत भयानक शक्ति को अपनी तरफ आते हुए देख
रामजी ने विभीषण को पीछे कर लिया और वह शक्ति अपने ऊपर ले ली।
शक्ति लगने से रामजी बेहोश हो गए। रामजी को कष्ट पाता हुआ देखकर विभीषण बहुत
गुस्सा हुए और हाथ में गदा लेकर दौड़े। विभीषण ने गुस्से में आकर गदा मारी। चोट
लगते ही रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके
दसों मुंह से रक्त बहने लगा। वह अपने को फिर संभालकर गुस्से से भरा हुआ दौड़ा।
दोनों योद्धा भीड़ गए और मल्ल युद्ध करने लगे। विभीषण को बहुत थका देखकर हनुमानजी
पर्वत धारण किए हुए दौड़े। उन्होंने उस पर्वत से रावण के रथ, घोड़े और सारथि का संहार
कर डाला और उसके सीने पर लात मारी।
जब त्रिजटा ने सीताजी को युद्ध की पूरी कहानी सुनाई तो....
रावण ने माया रची तो रामजी ने उसकी माया काट डाली। देवताओं ने रामजी की स्तुति
की। यह देखकर रावण आकाश की तरफ दौड़ा सारे देवता हाहाकार करते हुए भागे। मेरे आगे
से कहां जा सकोगे। देवताओं को व्याकुल देखकर अंगद दौड़े और रावण का पैर पकड़कर उसे
जमीन पर गिरा दिया। पृथ्वी पर गिराकर लात मारकर अंगद रामजी के पास चले गए। उधर उसी
रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें पूरी कहानी सुनाई। उसकी बात सुनकर
सीताजी को बहुत डर लगा। उनका मुंह उदास हो गया।
श्रीरामजी को याद कर सीताजी विलाप करने लगी। तब त्रिजटा ने कहा सुनो राजकु
मारी देवताओं का शत्रु रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा। यह बात सुनकर सीताजी
के मन में बहुत खुशी हुई। ऐसा कहकर और सीताजी को समझाकर त्रिजटा घर चली गई। सीताजी
व्याकुल हैं इसलिए रात और चंद्रमा से बहुत प्रकार से निंदा कर रही हैं। इधर आधी
रात को रावण जगा और अपने सारथि पर रूठकर कहने लगा- अरे मूर्ख उठ तूने मुझे रण भूमि
से अलग कर दिया। धिक्कार है, धिक्कार है। सारथि ने रावण के पैर पकड़कर उसे कई तरह से
समझाया। सवेरा होते ही रावण रथ पर चढ़कर फिर युद्ध भूमि पहुंचा। रावण के आने की
बात सुनकर वानरों की सेना में बहुत खलबली मच गई।
विभीषण ने कब बताया रामजी को रावण की मौत का राज?
वहां वानरों को प्रबल देखकर रावण ने विचार किया और वह अंर्तध्यान हो गया। उसने
माया रची योगिनियां एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य की खोपड़ी लेकर
नाचने लगी। वे पकड़ो और मारों ऐसा बोलकर मुंह फैलाकर खाने को दौड़ती हैं। वानर
भागकर जहां भी जाते हैं वहां आग जलती देखते हैं। वानर-भालू व्याकुल हो गए फिर रावण
पर बालू बरसाने लगे। रावण ने फिर से एक माया रची। उसने कई सारे हनुमानजी प्रकट किए,
जो पत्थर लेकर
दौड़े।
उन्होंने चारों ओर से दल बनाकर रामजी को जाकर घेर लिया। वे पूंछ उठाकर कटकटाते
हुए पुकारने लगे। मारो, पकड़ों कहीं जाने न पाए।रामजी ने उसकी माया को नष्ट कर
दिया। श्रीरामजी ने बाणों के समूह छोड़े, जिनसे रावण के हाथ और सिर पृथ्वी पर कटकटकर गिर रहे
हैं। जब रावण और अधिक विकराल हो गया। तब विभीषण ने आकर रामजी से कहा रावण के
नाभिकुंड में अमृत का निवास है। रामजी ने विकराल रूप लेकर हाथ में बाण लिए। चारों
और अपशकुन होने लगे।
क्या हुआ रावण के मरने के बाद लंका का हाल?
मूर्तियां रोने लगी, आकाश से वज्रपात होने लगे, बहुत तेज हवाएं चलने लगी,
पृथ्वी हिलने लगी,
बाल, रक्त और धूल की वर्षा
होने लगी। रामजी ने कई बाण छोड़े। एक बाण ने रावण की नाभि के अमृतकुंड को सोख
लिया। रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई।
समुद्र, नदियां और दिशाएं क्षुब्ध हो गई। रावण का तेज रामजी में समा गया। चारों और
रामजी की जय-जयकार होने लगी। रामजी के सिर पर जटाओं का मुकुट है। जिसमें बीच में
फूल शोभा दे रहा है। उनके शरीर पर रक्त की छोटी-छोटी बूंदे बहुत सुंदर लग रही हैं।
इधर पति के मृत शरीर को देखकर मंदोदरी बेहोश हो गई। अपने पति की दशा देखकर वह रोने
लगी। रावण की ऐसी स्थिति देखकर विभीषण का भी मन भारी हो गया।
रामजी ने लक्ष्मणजी से कहा-विभीषण को जाकर धैर्य बंधाओ। उन्होंने विभीषण को
समझाया कि सब शोक त्यागकर रावण की अंत्येष्टी क्रिया करो। विभीषण ने विधि-पूर्वक
अंत्येष्टी क्रिया की। सब क्रिया-कर्म करने के बाद विभीषण ने आकर सिर नवाया। तब
रामजी के छोटे भाई लक्ष्मणजी को बुलाया और बोले सब लोग मिलकर विभीषण का राजतिलक
करो। रामजी विभीषण से बोले- पिताजी को दिए वचन के कारण में नगर में नहीं आ सकता
हूं लेकिन अपने ही समान छोटे भाई को भेज रहा हूं।
युद्ध के बाद रामजी ने हनुमान को क्या संदेश लेकर सीताजी के पास भेजा?
सभी लोगों ने रामजी की आज्ञा का पालन किया। राजतिलक की सारी व्यवस्था की। आदर
के साथ विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की। विभीषण ने राज्य
पाया। रामजी ने कहा इसके कारण ही तुम्हारा यश तीनों लोकों में बना रहेगा। फिर
प्रभु ने हनुमानजी को बुला लिया। भगवान ने कहा - तुम लंका जाओ। जानकीजी को सब
समाचार सुनाओ और उसका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ। तब हनुमानजी नगर में आए। यह
सुनकर राक्षस-राक्षसी दौड़े। उन्होंने हनुमानजी की पूजा की।
हनुमानजी ने सीताजी को दूर से प्रणाम किया। जानकीजी ने उन्हें पहचान लिया कि
यह वही रामजी का दूत है। सीताजी ने बोला-
कहो प्रभु का क्या संदेश है। वे कुशल से तो हैं ना। भैया लक्ष्मण कैसे हैं?
हनुमानजी ने कहा
रामजी सब प्रकार से कुशल है। उन्होंने संग्राम में दस सिरवाले रावण को जीत लिया
है। विभीषण ने राज्य प्राप्त कर लिया है। हनुमानजी से यह समाचार सुनकर सीताजी ने
कहा अब तुम कुछ ऐसा उपाय करो कि मैं जल्द ही प्रभु का दर्शन करूं। हनुमानजी ने
सीताजी का कुशल समाचार रामजी को सुनाया। रामजी ने संदेश सुनकर अंगद और विभीषण से
कहा जाओ और सीताजी को ले आओ। वे सब तुरंत ही वहां गए जहां सीताजी थी। सब
राक्षसियां उनकी नम्रता सेवा कर रही थी।
क्यों ली रामजी ने सीताजी की अग्रिपरीक्षा?
उसके बाद सीताजी को राक्षसियों ने गहने पहनाए। एक सुंदर पालकी सजाकर विदा
किया। चारों और हाथी घोड़ों और रक्षकों के साथ सीताजी की पालकी वहां से चलने को
तैयार हुई। रीछ-वानर सभी दर्शन करने के लिए आए। तब रक्षक उन पर क्रोध करके दौड़े।
रामजी ने कहा मेरी मानो सीताजी को पैदल ले आओ ताकि रीछ और वानर अपनी माता के दर्शन
कर सकें। उसके बाद रामजी ने सीताजी को अग्रिपरीक्षा देने को कहा। रामजी की ऐसी बात
सुनकर राक्षसियां विषाद करने लगी।
सीताजी ने लक्ष्मणजी से कहा हे लक्ष्मण आप मेरे धर्म आचरण में सहायक बनो और
तुरंत आग तैयार करो। सीताजी की विरह, विवेक और धर्ममयी वाणी सुनकर लक्ष्मणजी के नेत्रों में आंसु भर आए। वे दोनों हाथ जोड़े
खड़े रहे। वे रामजी को कुछ कह भी नहीं सकते। रामजी को स्मरण करके सीताजी ने अग्रि
में प्रवेश किया। तब अग्रि ने शरीर धारण कर श्रीरामजी को वैसे ही समर्पित किया
जैसे क्षीरसागर ने विष्णुभगवान को लक्ष्मी समर्पित की थी।
जब अग्रि परीक्षा के बाद रामजी और सीताजी विमान में बैठे तो....
रामजी ने सब पर दया की। फिर वे कोमल वचन बोले- भाइयों तुम्हारे बल से मैंने रावण
को मारा और फिर विभीषण का राजतिलक किया। अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ। मेरा स्मरण
करते रहना और किसी से डरना नहीं। ये बात सुनते ही सब वानर रामजी के सामने हाथ
जोड़कर बोले- आपकी बातें सुनकर आपसे मोह होता है। आप तीनों लोकों के ईश्वर हैं।
वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज,
जाम्बावान,
अंगद, नल और हनुमान विभीषण
सहित जो बलवान वानर सेनापति हैं। वे कुछ कह नहीं सकते हैं। सभी की आंखों में प्रेम
के आंसु हैं। उनका प्रेम देखकर सबको विमान
पर चढ़ा दिया। उत्तर दिशा की ओर विमान चलाया।
विमान में एक ऊंचा सिहासन है जिस पर रामजी और सीताजी बैठे हैं। बहुत सुख देने
वाली हवा चल रही है। सबके मन प्रसन्न हो रहे हैं। रामजी ने सीताजी से कहा सीते
देखो लक्ष्मण ने यहां मेघनाद को मारा था। हनुमान और अंगद के मारे हुए ये भारी-भारी
निशाचर रणभूमि में पड़े हैं। देवताओं को दुख देने वाले कुंभकर्ण और रावण दोनों भाई
यहां मारे गए। मैंने यहां पुल बांधा और शिवजी कि स्थापना की। विमान जल्द ही वहां
पहुंच गया जहां दंडकवन था। जहां ऋषि-मुनि रहते थे। उन सभी से आशीर्वाद लेकर रामजी
चित्रकूट आए। श्रीरामजी ने सीताजी से कहा पापों का हरण करने वाली यमुना के दर्शन
करो। फिर तीर्थराज प्रयाग को देखो, जिसके दर्शन से ही करोड़ों जन्म के पाप क्षीण हो जाते हैं।
फिर पवित्र त्रिवेणी का दर्शन करो। यूं कहकर रामजी ने सीताजी सहित अवधपुरी को
प्रणाम किया।
रामजी के अयोध्या लौटने में एक दिन बाकि था और......
अवधपुरी पहुंचकर हनुमानजी को समझाकर रामजी ने कहा तुम ब्रह्माचारी का रूप धरकर
अवधपुरी को जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना। पवनपुत्र
हनुमान तुरंत ही चल दिए। रामजी भारद्वाजजी के पास गए। मुनि ने उनकी अनेकों प्रकार
से पूजा की और स्तुति की और फिर आर्शीवाद दिया। रामजी विमान पर चढ़कर फिर चले।
सीताजी ने गंगाजी की पूजा की। भगवान जैसे गंगा तट पर पहुंचे। निषादराज गुह प्रेम
में विहल होकर दौड़ा। सुख से परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया।
जानकीजी सहित प्रभु को देखकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसे शरीर की सुध ना रही। भगवान
ने उसे उठाया और गले से लगा लिया। श्रीरामजी के आयोध्या लौटने में एक ही दिन बाकि
रह गया था। नगर के लोग बहुत आतुर हो रहे हैं। इतने में ही शुभ शकुन होने लगे। सबके
मन प्रसन्न हो गए। नगर भी चारों ओर से रमणीक हो गया। भरतजी की दाहिनी आंख और
दाहिनी भुजा फड़क रही है।
इसे शुभ शकुन जानकर वे मन ही मन बहुत खुश हुए। लेकिन अगले ही पल सोचने लगे
रामजी अब तक क्यों नहीं आए कहीं वे मुझ से नाराज तो नहीं हैं। श्रीरामजी की विरह
में भरतजी डूब रहे थे। तभी हनुमानजी वहां पहुंचे। हनुमानजी ने भरतजी को संदेश
सुनाया कि रामजी शत्रु को रण में जीतकर लक्ष्मणजी सहित आ रहे हैं। भरतजी ने पूछा
तुम कौन हो कहां से आए हो? तब हनुमानजी ने कहा मैं पवन पुत्र हूं। जाति से वानर हूं
मेरा नाम हनुमान है। यह सुनकर भरतजी हनुमानजी से गले मिले।
जब रामजी वनवास के बाद अयोध्या लौटे तो...
भरतजी ने हनुमानजी से कहा देखो मेरे सारे दुखों का अंत हो ही गया। आज मुझे
प्यारे रामजी मिल ही गए। भरतजी ने बार-बार कुशल पूछी। हे! भाई सुनो तुम्हे क्या
दूं। इस संदेश के समान जगत में कुछ भी नहीं है, मैंने यह विचार किया मैं तुमसे
किसी प्रकार से भी ऋणी नहीं हो सकता अब मुझे रामजी के समाचार सुनाओ। जब भरतजी ने आज्ञा दी तब
हनुमानजी ने भरतजी का आर्शीवाद लिया और रामजी की सारी गुण गाथा सुनाई। उसके बाद
भरतजी भी हर्षित होकर अयोध्यापुरी आ गए।
यह खबर सुनते ही सभी माताएं दौड़-पड़ी भरतजी ने रामजी के कुशल पूर्वक होने का
समाचार सुनाया। नगरवासियों ने जब ये समाचार सुना तो पूरे नगर में हर्ष की लहर दौड़
पड़ी। फिर रामजी के स्वागत के लिए सभी नगरवासी तैयारियां करने लगे। रामजी वानरों
को विमान से अवधपुरी दिखा रहे हैं। रामजी का विमान अवधपुरी की धरती पर उतरा।
विमान से उतरकर प्रभु ने पुष्पक विमान से कहा कि तुम अब कुबेर के पास जाओ।
श्रीरामजी की प्रेरणा से वह चला गया। भरतजी सभी लोगों के साथ आए। रामजी वियोग में
उनका शरीर दुबला हो रहा है। रामजी ने जैसे ही सब मुनियों को देखा तो उन्होंने अपने
धनुष-बाण पृथ्वी पर रखे और छोटे भाई लक्ष्मणसहित दौड़कर गुरुजी के चरण पकड़ लिए। रामजी को सभी मुनियों ने आशिर्वाद दिया। भरतजी पृथ्वी
पर पड़े हैं। उठाए नहीं उठते। रामजी ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया।
रामजी का राजतिलक हुआ तो...
रामजी के अवध आगमन पर नगर में चारों ओर आनंद छा गया। रामजी, लक्ष्मणजी व सीताजी ने
सभी गुरुओं और माताओं का आशिर्वाद लिया। रामजी को देखकर मुनि वसिष्ठजी का मन भर
गया। उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मंगवाया। रामजी और सीताजी का राज तिलक किया
गया। पहले मुनि वसिष्ठ ने तिलक किया। फिर पुत्र को राजसिंहासन पर देख अन्य माताएं
भी तिलक करने लगी। उन्होंने ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से दान दिया। देवताओं ने
नगाड़े बजाए। सारे वानर आनंद में मग्र हैं।
उन्हें पता ही नहीं चला और छ: महीने बीत गए। स्वप्र में भी घर की सुध न रही।
रामजी ने सभी को बुलाया। सभी ने आदर सहित सिर नवाया। बड़े ही प्रेम से श्रीरामजी ने
उनको अपने पास बैठाया। सभी से कहा तुम लोगों ने मेरी बहुत सेवा की है। मैं अपने
मुंह से तुम्हारी किस तरह बड़ाई करूं । मेरे हित के लिए तुम लोगों ने हर तरह के
सुख त्याग दिए। तुम सब मुझे बहुत प्रिय हो। अब सब लोग घर जाओ। रामजी के वचन सुनकर
सभी प्रेममग्र हो गए।
इसीलिए कहा जाता है राजा हो तो श्रीराम जैसा
श्रीरामजी ने उन्हें अनेकों प्रकार के उपदेश दिए। प्रभु के सम्मुख वे कुछ कह
नहीं सकते। बार-बार प्रभु के चरणों को देखते हैं। रामजी ने अनेकों रंगों के अनुपम
गहने मंगवाए। सबसे पहले भरतजी ने अपने हाथ से संवारकर सुग्रीव को वस्त्रआभुषण
पहनाए। जांबवान और नील आदि सबको रामजी ने वस्त्र और आभुषण दिए। वे सभी उन्हें धारण
कर चल दिए।
अंगद भी रामजी को सिर नवाकर नेत्रों में जल भरकर और हाथ जोड़कर चल दिए। भरतजी
शत्रुघ्नजी और लक्ष्मणजी सहित उनको पहुंचाने चले। आदर के साथ सब वानरों को पहुंचाकर
भाइयों सहित भरतजी लौट आए। उसके बाद रामजी ने निषादराज को बुला लिया और उसे आभुषण
और वस्त्र प्रसाद आदि देकर विदा किया कहा तुम मेरे मित्र हो भाई हो। अयोध्या में
सदा आते-जाते रहना। यह वचन सुनते ही उसे बहुत सुख का अनुभव हुआ।
रामचंद्रजी के प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे।
कोई किसी से वैर नहीं करता। सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार वेद मार्ग
पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक है और नहीं कोई रोग सताता
है। राम-राज्य मैं किसी को किसी तरह का संताप नहीं है। सभी अपने-अपने धर्म का पालन
करते हैं। धर्म और अपने चारों चरणों (सत्य, शौच, दया और दान)से जगत परिपूर्ण हो
रहा है। स्वप्र में भी कोई पाप नहीं है। पुरुष और स्त्री सभी रामभक्ति परायण हैं।
इसलिए देवताओं को चंदन चढ़ाया जाता है
सनकादि मुनि ब्रह्मलोक चले गए। तब भाइयों ने रामजी के चरणों में सिर नवाया। सब
भाई प्रभु से पूछते सकुचाते हैं। सब हनुमानजी की ओर देख रहे हैं। हनुमानजी हाथ
जोड़कर बोले- भगवान सुनिए भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं। तब हनुमानजी ने कहा प्रभु
सुनिए भरतजी कुछ कहना चाहते हैँ। रामजी ने कहा हनुमान तुम मेरा स्वभाव जानते ही
हो। भरत के और मेरे बीच में कभी भी कोई अंतर भेद है? प्रभु के वचन सुनकर भरतजी ने
उनके चरण पकड़ लिए कहा शरणागतों के दुख हरने वाले सुनिए।
न तो मुझे कुछ संदेह है और न स्वप्र में शोक और मोह यह केवल आप की कृपा का फल
है। मैं आपका सेवक हूं। हे प्रभु आप मुझे संत और असंत में भेद अलग-अलग करके मुझको
समझाकर कहिए। संतो के गुण असंख्य हैं, जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध है। संत और असंतो की
करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। कुल्हाड़ी चंदन को काटती है।
लेकिन चंदन अपना गुण देकर उसे सुगंध से सुवासित कर देता है। इसीलिए चंदन देवताओं
के सिर पर चढ़ता है। और कुल्हाड़ी के मुख को यह दण्ड मिलता है कि उसको आग में
जलाकर फिर घन से पीटता हैं। संत के विषयों में लम्पट लिप्त नहीं होते हैं। उन्हें
पराया देखकर दुख और सुख देखकर सुख होता है। उन्हें पराया दुख देखकर दुख और सुख
देखकर सुख होता है। वे समता रखते हैं। उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है, वे मद से रहित और
वैराग्यवान होते हैं और लोभ क्रोध हर्ष और भय का त्याग किए हुए रहते हैं।
ऐसे लोगों को कभी दोस्त नहीं बनाना चाहिए...
उनका मन बहुत ही कोमल होता है। वे दीनों पर दया करते हैं। मन, वचन और कर्म से मेरी
निष्कपट भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मान रहित होते हैं।
उनको कोई कामना नहीं होती। ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा संत
जानना। जो शम, दम, नियम
और नीति से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते वही संत होते
हैं।
अब असंतो का स्वभाव सुनो कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी चाहिए। उनका संग
सदा दुख देने वाला होता है। दुष्टों के हृदय में बहुत अधिक संताप रहता है। वे पराई
सम्पति देखकर सदा जलते रहते हैं। ऐसे लोग
जहां कही दूसरे की निंदा सुन पाते हैं, वहां ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पड़ा
खजाना मिल गया हो। वे काम, क्रोध, मद और लोभ के परायण निर्दयी, कपटी, कुटील और पापों के घर होते हैं।
वे बिना ही कारण हर किसी से वैर किया करते
हैं। जो भलाई करता है। उसके साथ भी बुराई करते हैं।
शिवजी ने कब और किससे सुनी रामायण?
रामजी की कथा सुनकर गरूडज़ी को रामजी के चरणों में विश्वास उत्पन्न हो गया।
शिवजी ने पार्वतीजी से कहा है उमा मैं वह सब आदरसहित कहूंगा। तुम मन लगाकर सुनो
मैंने जिस तरह ये जन्म-मृत्यु से छुड़वाने वाली यह कथा तुम्हे सुनाई। अब तुम यह
प्रसंग सुनो। पहले तुम्हारा अवतार दक्ष के घर में हुआ था। तब तुम्हारा नाम सती
था।। दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ तब तुमने क्रोध से अपने प्राण त्याग दिए
और फिर मेरे सेवकों ने यज्ञ विध्वंस कर डाला। वह सारा प्रसंग तो तुम जानती ही हो।
तब मेरे मन में बड़ा सोच हुआ और मैं तुम्हारे वियोग से दुखी हो गया। मैं
विरक्तभाव से सुंदर वन, पर्वत, नदी और तालाबों का दृश्य देखता फिरता था। सुमेरु पर्वत की
उत्तर दिशा में, और भी दूर एक बहुत ही सुंदर नील पर्वत है। उसके सुंदर स्वर्णमय शिखर हैं मैं
वहां पहुंचा। चार सुंदर शिखर मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन शिखरों में एक-एक
पर बरगद, पीपल
पाकर और आम के बहुत विशाल पेड़ हैं। पर्वत के ऊपर बहुत सुंदर तालाब सुशोभित है।
जिसकी मणियों की सिढिय़ां देखकर मन मोहित हो जाता है। उसका जल शीतल और निर्मल मीठा
है।
उसमें रंग बिरंगे बहुत से क ल खिले हुए हैं। उस सुंदर पर्वत पर वही पक्षी यानी
काकाभशुण्डी बसता है। उसका नाश कल्प के अन्त में भी नहीं होता। आम की छाया में
मानसिक पूजा करता है। बरगद के नीचे हरि की कथाओं के प्रसंग करता है। वहां अनेकों
पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वहां मैंने हंस का शरीर धारण किया। कुछ समय के लिए
वहां निवास किया और रामजी के गुणों को सुनकर आदर सहित वहां लौट आया।
जिनमें ये चार गुण हैं, उन्हें राज की बात बताने में संकोच नहीं करना चाहिए
काकभशुण्डी ने मुझे वह सब कथा कही जो मैंने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर
पक्षिराज गरुडज़ी मन में बहुत उत्साहित हो गए। उनका शरीर ऐसा पुलकित हो गया,
उनके नेत्रों में
जल भर आया और वे मन में बहुत हर्षित हुए। सुंदर बुद्धिवाले, सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के
सेवक श्रोता को पाकर सज्जन बहुत गोपनीय रहस्य को भी प्रकट कर देते हैं।
काकभशुण्डी ने फिर कहा पक्षिराज आपको न मोह या माया ही है। आपने तो मुझ पर दया
की है। हे पक्षियों के स्वामी आपने अपना मोह कहा है तो इसमें मुझे कोई आश्चर्य
नहीं है। संसार में ऐसा कौन है जिसे मोह
नहीं हुआ है। इस संसार में कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान और गुणों के धाम हैं। जिसकी लोभ ने विडम्बना न की
हो। लक्ष्मी के मद किसको टेढ़ा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दिया? ऐसा कौन है, जिसे मृगनयनी युवती के
नेत्र बाण न लगे हो। ऐसा कोई नहीं है जिसे मद ने अधूरा छोड़ा हो। मनोरथ कीड़ा है,
शरीर लकड़ी है।
ऐसा धैर्यवान कौन है, जिसके शरीर में ये कीड़ा न लगा हो? पुत्र की, धन की और लोकप्रतिष्ठा की इन तीनों प्रबल इच्छाओं ने
किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया।
ये वेदों की नीति है, सफल होना है तो इसे जरूर याद रखें
काकभुशुण्डीजी हर्षित हुए और उन्होंने गरुड़ से कहा मुझे अपने बहुत जन्मों की
याद आ गई। मैं अपनी कथा तुम्हे विस्तार से कहता हूं। आदर सहित मन लगाकर सुनिए।
अनेक जप, तप,
शम, दम, व्रत, दान, वैराग्य, विवेक, योग विज्ञान आदि सबका फल
श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रेम होना है। इसके बिना कोई कल्याण नहीं पा सकता।
मैंने इसी शरीर से श्रीरामजी की भक्ति प्राप्त की है।
वेदों मे मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते हैं कि अपना परम हित जानकर
अत्यंत नीच से भी प्रेम करना चाहिए। जैसे रेशम के कीड़े से रेशम मिलता है इसलिए
इससे सुंदर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसी से उस परम अपवित्र कीड़े को लोग प्राणों के
समान पालते हैं। जीव के लिए सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन, और कर्म से रामजी के चरणों में
प्रेम हो। वही शरीर पवित्र और सुंदर है जिस का शरीर को पाकर रामजी का भजन किया
जाए।
तुलसीदासजी कह गए हैं ऐसा कलियुग आएगा कि स्त्रियां....
काकभशुण्डीजी गरूडज़ी से बोले अनेकों जन्मों में मैंने अनेकों प्रकार के योग,
जप, तप, यज्ञ व दान किए। जगत में
ऐसी कौन सी योनी है जिसमें मैंने जन्म न लिया हो। मैंने सब कर्म करके देख लिए पर
में इस जन्म की तरह कभी सुखी नहीं हुआ। अब मैं अपने पहले जन्म का चरित्र कहता हूं।
जिन्हें सुनाकर प्रभु चरणों में प्रीति उत्पन्न होती है, जिससे सब क्लेश मिट जाते
हैं। पूर्व के एक कल्प में पापों का मूल कलियुग था। जिसमें पुरुष और स्त्री सभी
अधर्मपरायण और वेद विरोधी थी। उस कलियुग मैं अयोध्यापुरी में जाकर शूद्र का शरीर
पाकर जन्मा। मैं मन वचन और कर्म से शिवजी का सेवक और दूसरे देवताओं की निंदा करने
वाला अभिमानी था। मैं धन के मद से मतवाला बहुत उग्रबुद्धिवाला था। मेरे हृदय में
बहुत भारी दम्भ था। मैं
रघुनाथजी की राजधानी में रहता था। मैंने उस समय उसकी महिमा कुछ भी नहीं जानी। अब मैंने अवध का प्रभाव
जाना। कलियुग में पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सदग्रंथ लुप्त हो गए। वेद,
शास्त्र और
पुराणों ने ऐसा गया है कि किसी भी जन्म में जो कोई भी अयोध्या में बस जाता है,
वह अवश्य ही
श्रीरामजी परायण हो जाएगा। अवध का प्रभाव जीव तभी जानता है, जब हाथ में धनुष धारण करने वाले
श्रीरामजी उसके हृदय में निवास करते हैं। सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभकर्मों का लोभ ने
हड़प लिया। जो दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है। जो झूठ बोलता है
और हंसी दिल्लगी करना जानता है। कलियुग गुणवान कहा जाता है।
जो आचारहीन और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और
वैराग्यवान है। जिसके बड़े-बड़े नाखून और लंबी जटाएं हैं वही प्रसिद्ध तपस्वी है।
जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं,
वे ही सिद्ध है।
जिनके आचरण दूसरों का अपकार करने वाले हैं उन्ही का बड़ा गौरव होता है और वे ही
सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से झूठ बोलने वाले हैं वे ही कलियुग के वक्ता
माने जाते हैं। सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और स्त्रियां उन्हें
बंदर की तरह नचाती है। स्त्रियां गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर परपुरुष का
सेवन करती हैं। सुहागिन स्त्रियां तो आभूषणोंसे रहित होती हैं पर विधवाएं नित नए
श्रंृगार करती हैं।
ये इशारे बता देंगे....आ गया है घोर कलियुग
कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादाहीन हो गए हैं। वे पाप करते हैं और दुख,
भय, रोग, शोक और वियोग पाते हैं।
वेदसम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरीभक्ति मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं
चलते और अनेकों नए-नए पथों की कल्पना करते हैं। सन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते
हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ
दरिद्र। कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं। अच्छी चाल को छोड़कर
घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक उन्हें पत्नी का
मुंह नहीं दिखाई पड़ा। जब से सुसराल प्यारा लगने लगा, तब से कुटुम्बी शत्रुरूप हो गए।
राजा लोग पाप परायण हो गए। उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही दण्ड
देकर उसकी विडम्बना किया करते हैं।
इस तरह कलियुग का विस्तार से वर्णन करने के बाद काकभशुण्डी ने अपने कई जन्मों
की कथा गरुडज़ी को सुनाई। उन्होंने वह कथा भी सुनाई जिसके कारण उन्हें कौए का जन्म
मिला। शिवजी कहते हैं। हे भवानी भशुण्डी की बात सुनकर गरुडज़ी हर्षित होकर कोमल
वाणी से बोले-आपके प्रसाद से मेरे हृदय में अब संदेह, शोक, भ्रम, कुछ भी नहीं रह गया। काकाभशुण्डी
कहते हैं गरुडऱाज ज्ञान कहने में कठिन, साधने में कठिन है। यह ज्ञान हो भी जाए तो फिर
अनेकों विघ्न हैं। ज्ञान का माग तलवार की धार के समान है। इस मार्ग से गिरते देर
नहीं लगती।
जिसमें ये गुण नहीं हो उसे कभी दोस्त नहीं बनाना चाहिए...
दोस्ती शब्द से एक पवित्र रिश्ते का एहसास होता है अगर आप दोस्ती के वास्तविक
अर्थ से अवगत है और अपनी दोस्ती को पूरे विश्वास,निष्ठा व वफादारी से निभाने की
क्षमता रखते हैं। साथ ही दोस्त भी विश्वास करने लायक हो तब ही आपको दोस्ती के लिए
अपने हाथ बढ़ाने चाहिए। रामचरित मानस के किष्किन्धाकाण्ड में तुलसीदासजी ने बताया
है कि एक मित्र में क्या गुण होने चाहिए और किन लोगों को दोस्त नहीं बनाना
चाहिए.....
देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई। बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।
यानी देने लेने में जो शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित करता रहे।
विपत्ति के समय में तो सदा सौ-गुना स्नेह करे। वेद कहते हैं संत मित्र के यही गुण
हैं।
आगे कह मृदु बचन बनाई। पांछे अनहित मन कुटिलाई। जाकर चित अहि गति सम भाई। अस
कुमित्र परिहरेहिं भलाई।
जो सामने कोमल वचन कहे और पीठ पीछे बुराई करे। जो मन में कुटिलता रखे और जिसका
मन सांप के समान टेड़ा है। ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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