नवरात्र में दुगरुणों से निपटने के लिए की जाए उपासना
वासनाओं को तो रस ही इस बात में है कि पुराने किसी भोग की याद दिलाए और नए की ओर प्रेरित करे। इच्छाएं विषयों को भूलने नहीं देतीं। आदमी लगातार सोचता रहता है। नतीजे में स्मृति बैंक तो लबालब हो जाता है, लेकिन ज्ञान का भंडार लुट जाता है।
सबको मस्तक नवाकर और हृदय में रघुनाथ को धारण करके हनुमानजी प्रसन्न भाव से उड़े थे। आज पुन: ‘मैं उन्हीं का दूत हूं’, कहकर उन्होंने श्रीराम को याद किया और रावण को उत्तर देना आरंभ किया। परमात्मा का स्मरण वाणी को निर्दोष और प्रभावशाली बनाता है। एक-एक उत्तर सुनकर रावण चौंकता गया। फिर हनुमानजी तो उनमें से थे, जो अपने शब्दों की जिम्मेदारी भी उठाने को तैयार रहते हैं।
इसलिए परमात्मा का महत्व समय रहते समझना चाहिए, लेकिन दिनभर और देर रात तक हम इतने व्यस्त हैं कि अपने परिश्रम के अलावा दूसरे की मौजूदगी महसूस ही नहीं कर पाते। खूब काम करिए, चौबीस घंटे भी कम पड़ जाएं, इतने जुटे रहिए। ध्यान रखें, सोने के बाद तो रुकना ही है, नींद आ ही जाएगी।
वरना हमारे जीवन में बहुत सारे लोग ऐसे आते हैं, जिनका हम क्षणिक सहयोग लेते हैं और फिर भविष्य में कोई संबंध नहीं रहता, लेकिन सतत सहयोग मित्रता में वृद्धि करता है। मोटे तौर पर मित्र सात स्थितियों में बनते हैं - सुख, दुख, शिक्षा के दौरान, मनोरंजनों में, कार्यस्थल पर, आस-पड़ोस में और परिवार में।इन स्थानों पर हुई दोस्ती में ध्यान रखें कि अपने मित्रों की अच्छाइयों को आदर दें और उनमें लगातार वृद्धि करने की कोशिश करें। दोस्ती नदी और नाव की तरह न हो कि काम हुआ और अलग-अलग हो गए। सतत मेल-जोल मित्रता का मापदंड है। दरअसल मनुष्य के सामाजिक जीवन के वृक्ष के फल का नाम दोस्ती है। किसी भी वृक्ष को देखें तो उसकी पहचान उसके फल से होती है। इस वक्त जब जिंदगी का नजरिया कामकाजी हो चला है, सांस-सांस में धंधा, नफा-नुकसान जुड़ गया है, ऐसे में दोस्ती करना और बनाए रखना जीवन में शुभ और शांति लाने जैसा है।
गुरु के झरोखे से ही ईश्वर में झांका जा सकता है।
तुलसीदासजी ने श्रीहनुमानचालीसा में चौपाई लिखकर यह घोषणा कर दी कि यदि कोई गुरु न
मिले तो हनुमानजी को गुरु बना लें - जै जै जै हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की
नाईं। अब देखिए गुरु क्या करते हैं। सुंदरकांड में रावण ने हनुमानजी की पूंछ जलाने
की आज्ञा दे दी थी। हनुमानजी लंका जला चुके थे, लेकिन विभीषण का घर बच गया था। हनुमानजी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला।
एक विभीषण का घर नहीं जलाया। गुरु जीवन में होते हैं तो चाहे सारी दुनिया में
विपरीत स्थिति हो, हम सुरक्षित रहेंगे विभीषण की तरह। विभीषण के जीवन में हनुमानजी गुरु ही बनकर
आए थे।
इसीलिए समाज में आज आदर्श व्यक्ति ढूंढ़ना मुश्किल हो
गया। जरूरी नहीं कि प्रसिद्ध व्यक्ति आदर्श हो। इस मामले में आज अकाल का दौर है। अच्छा
यही होगा कि अपने भीतर के आदर्श व्यक्ति को बचाएं, पाएं और अपनाएं। ऐसा करने पर आप बाहर धन कमाएंगे तो
भीतर निर्धन नहीं होंगे। आप संसार में रहेंगे, पर संसार आप में नहीं रहेगा।
इस समय शक्तिपर्व चल रहा है। हमारी भारतीय संस्कृति के कुछ पात्र ऐसे रहे,
जिन्होंने अपनी
शक्ति का बहुत ही अच्छा सदुपयोग किया। उनमें से एक हनुमानजी हैं। सुंदरकांड में
उनकी बुद्धिमत्ता के ही प्रसंग नहीं आए हैं, बल्कि उनके बल के भी बढ़िया
उदाहरण सामने आते हैं। हम इस नवरात्र में जप-तप, हवन-यज्ञ, उपवास कर रहे हैं। क्या यह सब
मोक्ष पाने के लिए हैं?
नवरात्र में समझना चाहिए कि उपासना दुगरुणों से निपटने के लिए हो। ये नौ दिन
की तैयारी सालभर काम आएगी। हनुमानजी से सीखें जिनका हर काम उपासना जैसा था। उठि
बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया।। फिर उठकर मेघनाद ने बहुत माया
रची, परंतु
पवन के पुत्र उससे जीते नहीं जाते। मेघनाद लगातार उन पर प्रहार कर रहा था, पर हनुमानजी पकड़ में
नहीं आते।
यह पंक्ति बता रही है कि हनुमानजी पर दुगरुणों का आक्रमण हो रहा था और वे उनकी
पकड़ से बाहर रहे। हमारे जीवन में भी मेघनाद कई शक्लों में आएगा। हम हनुमानजी की
तरह ऐसी उपासना करें कि कभी दुगरुणों की पकड़ में न आएं। दरअसल हनुमानजी योगी के
रूप में इस बात के अभ्यस्त थे कि जब दुगरुण उन्हें पकड़े, तो वे अपने ही भीतर प्रवेश कर
जाते। इसी को ध्यान कहा गया है।
यही विपश्यना विधि है। इसे ही सहजयोग बोला जाता है। इस सबका अर्थ यही होता है
कि लौटकर अपनी ही ओर मुड़ जाना। अपने भीतर उतरते ही बाहर की वस्तुएं आपको ढूंढ़
नहीं पाएंगी, आप अत्यधिक सुरक्षित हो जाएंगे और फिर जब आप बाहर आते हैं तो आपका बल बढ़ा हुआ
होता है। दुगरुणों के सामने आप निर्बल नहीं होते।
भीतरी शांति का स्पर्श पाते ही बाहरी उपद्रव ठंडे हो जाते हैं
संसार की वस्तुएं मिलने पर अगर हम यह मान लें कि सुख आ जाएगा तो जरूरी नहीं कि
ऐसा होगा। अप्राप्त का रेगिस्तान यदि हमें परेशान करता है तो प्राप्त का दलदल भी
हमें चैन से नहीं रहने देगा। चीजें मिल जाने पर जिंदगी की जमीन ठोस हो जाए,
यह जरूरी नहीं
होता।
कई बार सारे सुख और भोग आसपास हों, तब भी लगता है जैसे जिंदगी की जमीन दलदल की तरह है।
एक पैर फंसा हुआ है, उसी में से दूसरे को उठाने की कोशिश की जाती है। पूरी चाल लड़खड़ाने लगती है,
वस्त्र अलग गंदे
हो जाते हैं, परिश्रम ज्यादा लगता है और ऐसा लगता है कि हमने नहीं, जिंदगी ने हमको लूट लिया है।
अपने बोझ के कारण दलदल में से निकलने की हिम्मत नहीं हो पाती। इसलिए संसार से
जब भी कुछ प्राप्त करें, इस बात की सावधानी रखी जाए कि वह वजन न बन जाए। उपलब्धि दोष
न हो जाए। असल में जब बाहर से हमें मिलने लगता है तो हम बाहर की ओर भागने लगते
हैं। जैसे ही हम थोड़ी हिम्मत करके अपने भीतर झांकेंगे, तो पाएंगे कि वहां एक प्रकाश है,
दौलत का एक भंडार
है, बेशक
सुरंग-सा रास्ता है, लेकिन खजाने पर जाकर खुलता है।
हमें समझ में आने लगता है कि बाहर जो रोशनी थी, उससे बड़ा कोई अंधेरा नहीं है और
भीतर आरंभ में जो अंधकार लग रहा था, उससे भव्य कोई प्रकाश नहीं। जो लोग भीतर से रोशन हो
जाते हैं, वे सक्षम मनुष्य बन जाते हैं। जब भीतर की गहन शांति हमें स्पर्श कर लेती है तो
बाहर के उपद्रव खुद-ब-खुद ठंडे हो जाते हैं। अमृत और जहर का अंतर पता लगने लगता
है। नवरात्र भीतर उतरने की नौ सीढ़ियां हैं, चूक न जाएं।
नवरात्र में भोजन, भजन के साथ संबंधों की उपासना भी करें
रिश्तों का निर्वहन, संबंधों का दायित्वबोध अपने आप में एक उपासना है। इस
नवरात्र में भोजन, भजन के अलावा संबंधों की उपासना भी करिए। पहले तो यह समझ लें कि उपासना का
अर्थ क्या है। उपासना एक शैक्षणिक प्रक्रिया है। सीखने की क्रमबद्ध पद्धति,
कुछ जान लेने की
प्रक्रिया उपासना होती है।
संतों ने कहा है कि जो वस्तु जैसी नहीं है, उस प्रकार की भावना उस वस्तु में
करने का नाम उपासना है। सर्वोदयी दादा धर्माधिकारी कहा करते थे - एक वस्तु में
अन्य वस्तु की भावना का अभ्यास उपासना है। हम पत्थर में देवता की भावना करते हैं
और वो पूज्य हो जाता है।
हम किसी पुस्तक के शब्दों का अपने जीवन से जुड़ाव करते हैं, वे शास्त्र बन जाते हैं।
हम किसी व्यक्ति में परमात्मा की झलक स्थापित करते हैं और वह गुरु बन जाता है। ऐसे
ही जब हम रिश्तों में प्रेम को जोड़ दें, रिश्तों का निर्वहन उपासना से करें तो परिवार की
भावना विस्तृत बन जाती है। यह सही है कि हमें जन्म देने वाली स्त्री एक ही होगी,
लेकिन जननी का भाव
हम अन्य स्त्रियों में विस्तृत कर दें तो इसे उपासना कहा जाएगा।
जीवनसाथी के रूप में स्त्री या पुरुष एक ही होगा, लेकिन बाकी सबके प्रति निष्कपट
प्रेम, सहज
भाव, सम्मान
की भावना जैसे-जैसे बढ़ा देंगे, यह उपासना होगी। रिश्तों में दायित्वबोध की अधिकता लाने और
उपासना के सही अर्थ समझने से वह निष्ठा में बदल जाती है। धीरे-धीरे हमारा यह
अभ्यास छूट जाता है कि हम दूसरों को अपने जैसा मानें। दरअसल अपने आप सब अपने-से
लगने लगते हैं। नवरात्र से गुजरकर यदि हमारी शक्ति रिश्तों की धमनियों में नहीं
बसी तो जगत मां कैसे खुश हो पाएंगी।
खुद को बदल लिया तो दुनिया भी बदल ही जाएगी
भीतर से, गहरे में हम जो भी होते हैं, कुल मिलाकर हम बाहर वैसा ही कर जाते हैं। हम लीपापोती जरूर
कर लें, पर
मूल रूप से हमारी करनी कृत्य बन ही जाती है। शायद इसीलिए परमशक्ति ने हमको सबक
देने के लिए एक तरीका निकाला है।
हमारे जीवन में जब कटु अनुभव होते हैं, विपरीत स्थितियां बनती हैं,
संघर्ष करना पड़ता
है, शोक की
स्थिति आती है, तब समझ लें कि ऐसा हमें सबक देने के लिए किया जा रहा है। कटु अनुभव सद्गुणों
का विकास करते हैं। धन का नुकसान सदुपयोग की अक्ल दे जाता है, विपत्तियां धर्य सिखा
जाती हैं।
धीरे-धीरे हम अपने ही कर्मो से मुक्त होने की कला सीख जाते हैं। ध्यान रखें,
अपने कर्मो से
मुक्त होने का अर्थ यह नहीं है कि कामकाज करना छोड़ दें। इसका अर्थ है, बंधन में रहकर काम न
करें। बंधन अहंकार का होता है, लोभ का होता है, काम का होता है।
जैसे ही हम अपने आपको थोड़ा स्वतंत्र करते हैं, हमारी दृष्टि का दायरा बढ़ जाता
है। जीवन में जब कष्ट आएंगे, दुख आएंगे तो हम अपने पर टिकना सीख जाएंगे। हम खुद को ही
समझाएंगे कि यह दुख जितना दूसरे ने नहीं दिया है, उससे अधिक हमने लिया है।
दुनिया को ऐसी क्या बेताबी है, जो हमको दुखी करे, लेकिन हमारा अहम भीतर ही भीतर हमसे कहता है कि ये
झंझट दूसरों की पैदा की हुई है तो हम निदान भी दूसरों में ढूंढ़ने लगते हैं। सारी
ताकत दूसरों को बदलने में लगाते हैं और खुद के रूपांतरण का मौका खो देते हैं।
नवरात्र स्वयं के रूपांतरण के दिन हैं। जिसने खुद को बदला, उसकी दुनिया अपने आप बदल जाती
है।
नवरात्र के समापन पर विश्लेषण करें कि हमने क्या पाया
विवेचक बुद्धि और विवेक इन दोनों के अंतर को समय रहते समझ लेना चाहिए।
परमात्मा के मार्ग पर विवेचक बुद्धि सहायता तो करती है, पर विवेक के अभाव में नुकसान भी
कर जाती है। चाहे पूजा की पद्धति हो या शास्त्रों के विचारों को ग्रहण करने का
मामला, अपना
विवेक जाग्रत रखिए।
नवरात्र के समापन पर इस बात का विश्लेषण जरूर करिए कि हमने इन नौ दिनों में
क्या पाया। यदि गड़बड़ लगे तो आज एक दिन अपने विवेक को जगाने का प्रयास करिए। यदि
विवेक नहीं जागा तो शक्ति पर्व की सारी उपलब्धि बेकार जाएगी। विज्ञान विवेचक
बुद्धि से चलता है और अध्यात्म में विवेक काम आता है।
केवल विज्ञान से चलेंगे तो हर काम एक आदत बन जाएगा और आदत पूजा की हो या नशे
की, दोनों
बुरी हैं। संसार में कोई दावा नहीं कर सकता कि यह आदत अच्छी है और वह बुरी। हम
अपनी रुचि के अनुसार इनको नाम दे देते हैं अच्छाई और बुराई।
हम स्वयं को सुविधाजनक रखने के लिए बेईमानी पर उतर आते हैं और उसी तरीके से
पूजा करने लगते हैं या गलत काम करने लगते हैं। ध्यान दीजिए कहीं नवरात्र मनाना
हमारी आदत तो नहीं हो गया। यदि विवेक जाग जाए तो आदत और स्वभाव का फर्क पैदा कर
देगा। विवेक केवल पूजा से नहीं जागेगा, इसमें ध्यान-योग जोड़ना पड़ेगा।
बहुत गहराई में जाएं तो योग का बायप्रोडक्ट विवेक है। इसलिए यदि अपने आपको
भीतर से बेईमान बना रहे हैं तो कोई भी काम करें, वह बेकार है और यदि ईमानदार हैं तो
जो भी काम करेंगे, सही होगा। नवरात्र की विदाई में कुछ बातों का समावेश कर लें, उनमें से एक विवेक होना
चाहिए।
अहंकार मन को कमजोर बनाता है
जीवन एक शब्द नहीं है। यह एक वाक्य है। कृपया इसे आजीवन कारावास मत बना लीजिए।
जीवन जीने का अर्थ है जुड़ना, संबंधित होना। प्रत्येक संबंध के तीन पहलू हैं: संबंध बनाने
वाला, संबंधित,
संबंध। जब कोई
संबंध समरस होता है, तो जीवन भी समरस होता है, वरना इसके विपरीत होता है। समरस होने की कला हमें धर्म
सिखाती है।
एक ग्रामीण व्यक्ति अपने मित्र के घर गया। चूंकि उसका मित्र एक इलेक्ट्रिक
इंजीनियर था, वह एक कमरे में बिजली के उपकरणों पर प्रयोग करता था। वह ग्रामीण व्यक्ति,
जब भी बिजली के
किसी उपकरण को छूता, तो उसे झटका लगता। उसे लगा शायद उन चीजों में कोई भूत रहता है। मित्र ने उसे
उन उपकरणों का प्रयोग करना सिखाया। ग्रामीण ने देखा कि जो कमरा पहले उसे नरक जैसा
लगाता था, वही अब स्वर्ग बन गया है।
इसी प्रकार संसार भी एक बिजली के कमरे जैसा है। अगर तुम उससे बुद्धिमानी से
जुड़ते हो, तो वह एक स्वर्ग बन जाएगा अन्यथा नरक। भगवान बुद्ध कहा करते थे- ‘मन ही नरक है, मन ही स्वर्ग।’
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने गुरु से कहा, ‘बुरे लोगों के संग मैं अक्सर
बहुत शराब पी लेता हूं। दुख की बात तो यह है कि वे सब आपके शिष्य हैं। वे आपकी
शिक्षा पर अमल नहीं कर रहे हैं।’‘वे कौन-सी शिक्षा पर अमल नहीं कर रहे?’ गुरु ने पूछा।
‘आपने अपने शिष्यों को मिल-बांटकर जीने की शिक्षा दी है, पर जब मैं शराब लेकर आता हूं,
तो उनमें से कोई
मेरे साथ उसे बांटता नहीं है और मुझे अकेले ही पीनी पड़ती है।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने
रोते हुए कहा।
अहंकार के किसी चीज को उचित बताने के अपने ही तर्क होते है। अहंकार के तर्क
अशक्त बनाते हैं, मुक्त नहीं करते। धर्म का सच्च गुण है व्यक्ति को मुक्त करना। हम अहंकाररहित
हो जाते हैं, तो सुख सहज भाव से खुल जाता है। अहंकाररहित होने से बुद्धि जाग्रत होती है।
व्यक्ति का बुनियादी रवैया यह होना चाहिए कि समस्याओं के प्रति वह अपना
दृष्टिकोण बदले। समस्याएं हमें क्षति नहीं पहुंचातीं, बल्कि उन समस्याओं को हम किसी
रूप में लेते हैं तो वह हमें क्षति पहुंचाता है। केवल मृत व्यक्ति की ही कोई
समस्या नहीं होती। जीवित रहना समस्याओं के साथ जीना है। अगर हम रवैया बदल लें कि
समस्याएं झंझट नहीं हैं, बल्कि रचनात्मक होने का एक निमंत्रण हैं, तो जीवन बदल जाएगा।
ईष्र्यालु व्यक्ति से परमात्मा भी प्रसन्न नहीं होता
जब हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे होते हैं तो हमारा प्रयास रहता है कि हमारी
ऊर्जा पूरी तरह एकाग्र होकर सफलता अर्जित करने में लगी रहे, लेकिन तमाम सावधानियों के बाद भी
ऊर्जा इधर-उधर चली जाती है। बहुत सारे ऐसे छिद्र हैं, जहां से ऊर्जा क्षरण की ओर चल
देती है। इनमें से एक छिद्र है निंदा की वृत्ति, ईष्र्या का भाव। स्वामी जी
ईष्र्या के इस भाव पर बड़ी सुंदर टिप्पणी करते हैं।
हम अपने जीवन की सारी ऊर्जा समेटकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं और क्षणिक
जीवन में व्यक्ति दूसरे का मान, वैभव और प्रभाव देखकर ईष्र्या करता है। मनुष्य का स्वभाव है
कि वह अपने अभाव में दुखी तो रहता ही है, उससे भी ज्यादा दूसरों के प्रभाव से पीड़ित होता है।
अपनी उन्नति से संतुष्ट नहीं होता, बल्कि दूसरे की अवनति से उसे प्रसन्नता होती है।
वस्तुत: तुलनात्मक दृष्टि उन्नति के लिए होनी चाहिए कि दूसरे का उत्थान देखकर
उन्नति करो और ईष्र्या-द्वेष आपके हृदय को दग्ध न करे।
लेकिन ईष्र्यालु व्यक्ति सोचता है कि कोई वस्तु मुझे मिले न मिले, परंतु दूसरे को न मिले
तो बेहतर। इस तरह की अवधारणा मन में रखने वाले व्यक्ति से परमात्मा प्रसन्न नहीं
होता। जीवन की पहली कसौटी यह है कि वाणी मधुर हो, व्यवहार में सौम्यता हो और मन
में सद्भावना हो।
ईष्र्या एक अपराध है, जो इंसान बार-बार करता है। शायद गुनहगार इंसान यह सोचता है
कि मैं तो अमर हूं, मुझे तो संसार में सदैव रहना है और बाकी सब यहां से चले जाएंगे। इसलिए हमारी
सारी गतिविधि हमारे हित और दूसरे के अहित पर केंद्रित हो जाती है। ऊर्जा के ऐसे
दुरुपयोग को हमें ही रोकना होगा।
दूसरों का मान रखते हुए अपना काम करना हनुमानजी से सीखें
दूसरे का मान रखते हुए हम सम्मान अर्जित कर लें, इसमें गहरी समझ की जरूरत है।
होता यह है कि जब हम अपनी सफलता, सम्मान या प्रतिष्ठा की यात्रा पर होते हैं, उस समय हम इसके बीच में
आने वाले हर व्यक्ति को अपना शत्रु ही मानते हैं।
महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए मनुष्य सारे संबंध दांव पर लगा देता है। आज के
युग में महत्वाकांक्षी व्यक्ति का न कोई मित्र होता है, न कोई शत्रु। उसे तो सिर्फ अपनी
महत्वाकांक्षा की पूर्ति करनी होती है। हर संबंध उसके लिए शस्त्र की तरह हैं।
लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो दूसरे की भावनाओं, रिश्ते की गरिमा और सबके
मान-सम्मान को ध्यान में रखकर अपनी यात्रा पर चलते हैं। हनुमानजी उनमें से एक हैं।
सुंदरकांड में एक प्रसंग है।
हनुमानजी और मेघनाद का युद्ध हो रहा था। मेघनाद बार-बार हनुमानजी पर प्रहार कर
रहा था, लेकिन
उसका नियंत्रण बन नहीं रहा था। तब उसने हनुमानजी पर ब्रह्मास्त्र का प्रहार किया।
हनुमानजी को भी वरदान था कि वह किसी अस्त्र-शस्त्र से पराजित नहीं होंगे। उनका नाम
बजरंगी इसीलिए है कि वे वज्रांग हैं। जिसे कह सकते हैं स्टील बॉडी।
जैसे ही शस्त्र चला, हनुमानजी ने विचार किया और तुलसीदासजी ने लिखा - ब्रह्मा
अस्त्र तेहि सांधा कपि मन कीन्ह बिचार। जौं न ब्रह्मासर मानउं महिमा मिटइ अपार।।
अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, तब हनुमानजी ने मन में विचार
किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूं तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी। यहां
हनुमानजी ने अपने पराक्रम का ध्यान न रखते हुए, ब्रह्माजी के मान को टिकाया।
दूसरों का सम्मान बचाते हुए अपना कार्य करना कोई हनुमानजी से सीखे।
खुद को जानना और परम शक्ति से परिचय ही सच्चा जीवन है
जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है उस जीवन को समझना, जो परमात्मा ने हमें दिया है। हम
उम्र बिता देते हैं, पर जीवन क्या है यह नहीं समझ पाते। रोजी-रोटी, पूजा-पाठ ही जीवन नहीं है। दरअसल
खुद को जान लेना और इसके बाद उस परम शक्ति से परिचय हो जाना सच्च जीवन है। भगवान
महावीर ने मनुष्य के जीवन को दो चरणों में बांटकर बड़ी सरलता से समझाया है।
जैन मुनि श्री चंद्रप्रभजी कहते हैं - भगवान ने मुक्ति के लिए दो मार्ग बताए
हैं - एक श्रमणत्व का और दूसरा श्रावकत्व का। एक मार्ग कठोर है तो दूसरा
अपेक्षाकृत सरल। इसे दूसरी तरह से कहें तो मुनि-जीवन विशुद्ध रूप से तलवार की धार
पर चलता है और श्रावक-जीवन दुधारी तलवार पर चलता है।
श्रावक-जीवन को दुधारी तलवार इसलिए कहा गया है कि इसके जीवन में योग और भोग
दोनों ही तरह के अवसर होते हैं, जबकि श्रमण यानी मुनि का जीवन विशुद्ध रूप से योग के लिए
समर्पित रहता है।
एक श्रावक अर्थात अभ्यास का जीवन जीने वाले को भोग भोगते हुए भी अपनी
योग-साधना का लक्ष्य आंखों में रखना पड़ता है। श्रावक-जीवन श्रमण-जीवन से भी कठिन
है, बशर्ते
व्यक्ति श्रावक जीवन को आचरित करने का सच्च प्रयास करे। गृहस्थ होते हुए भी लोग
संन्यस्त की स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
सारा मामला संयम और अभ्यास का है। भगवान महावीर संयम का प्रतीक हैं। वे कहते
हैं कि अभ्यास हमें उस चरम पर ले जा सकता है, जहां से जीवन जाना जा सकता है।
मनुष्य के अंतर्घट में विराजित परमात्मा का परिचय अभ्यास मार्ग से ही संभव है।
प्रभु प्रेम की शुभकामना मन में रखकर ही गुरु की सेवा करें
इन दिनों निष्ठा और ईमानदारी ढूंढ़ना कठिन काम है। दरअसल जब हमारा काम सेवा से
जुड़ेगा, तभी
हमारे भीतर कर्म का सही स्वरूप उतरेगा। शक्तिपात के स्वामी शिवोम्तीर्थजी कहा करते
थे - कामना तथा सेवा की दिशाएं एक-दूसरे से विपरीत हैं।
केवल प्रभु के प्रेम की शुभकामना मन में रखकर ही गुरु की सेवा करनी चाहिए।
गुरु से हमारा संबंध हमारी सेवाभावना को बढ़ाता है। यह सेवा नम्र तथा श्रद्धाभाव
से अभिमानरहित होकर की जाए, तो ही सेवा है। यदि अभिमान उदय हो जाए, तो की हुई सेवा बंधन का
कारण हो जाती है।
गुरु, असहाय, गाय तथा प्रकृति में एक ईश्वर को ही देखते हुए जो इनकी सेवा करता है, उसके अंतर की मलिनता
धुलती जाती है। सेवा में इन सबके केवल बाह्य स्वरूप पर ही दृष्टि नहीं रहती,
वरन अंदर के तत्व
पर लक्ष्य स्थिर होता है। इसलिए बाहर की दुनिया पर हमारा ध्यान कम जाता है और अपने
भीतर के तत्वों के प्रति प्रेम बढ़ जाता है।
जितने धार्मिक कृत्य हैं, सभी भगवान के सेवारूप ही हैं। आराधना, साधना में सेवाभाव ही
प्रमुख होता है। सेवाधर्म से पूर्व-संचित संस्कार क्षीण होते हैं तथा नए संस्कार
संचित नहीं होते, जिससे चित्त शुद्ध होता जाता है।
जगत का यही स्वभाव है कि जो इसको प्राप्त करने की कामना करता है, उसके पास फटकता ही नहीं,
परंतु जो इससे
उदासीनता दर्शाता है, उसके आगे हाथ बांधकर खड़ा हो जाता है कि मेरा भोग करो, किंतु सेवक को तो केवल परमशक्ति
की ही कामना होती है, भोगों की नहीं। इसलिए उसके पास भोगों की ओर लक्ष्य देने का समय ही नहीं होता।
भोग आगे-पीछे घूमते रहते हैं, सेवक सेवा में मस्त रहता है।
जिन्होंने हनुमानजी को जाना उन्हें परमात्मा मिल गया
बड़े-बड़े सिद्ध लोगों की उम्र बीत जाती है और वे परमात्मा के स्वरूप को नहीं
जान पाते। संतों से सबसे ज्यादा पूछा गया सवाल ही यह है कि क्या आपने भगवान को
देखा है? क्या
आपको परमात्मा कहीं मिले हैं? फकीरों ने अपने-अपने उत्तर भी दिए।
सर्वाधिक मान्य उत्तर है - परमात्मा आकार से अधिक अनुभूति का विषय है। यदि
अनुभूति हो जाए तो अनेक रूपों में भगवान मिल जाता है। आज देश के कई हिस्सों में
हनुमान जयंती मनाई जाती है।
क्या केवल इसलिए कि वे रामजी की सेना के छोटे-से सैनिक हैं या रामलीला के
पात्र हैं या पत्थर पर लपेटी हुई सिंदूर की मूर्ति हैं। दरअसल, हनुमानजी की लोकप्रियता
का एक बड़ा कारण उनका अनुपस्थित होकर भी उपस्थित रहना है। भगवान के लिए शास्त्रों
में लिखा है - ‘रसो वै स:।’ यानी भगवान रसरूप हैं। यह रस जब जीवन में उतरता है तो आनंद पैदा करता है।
प्रभुचरित सुनिबै को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया।। श्री हनुमानचालीसा में
हनुमानजी को तुलसीदासजी ने रसिया लिखा है। सच तो यह है कि परमात्मा का रस हनुमानजी
हैं। जिन्होंने हनुमानजी को चखा, उन्हें परमात्मा का स्वाद अपने आप आ जाएगा।
रस का शाब्दिक अर्थ है बहते रहना, जो गतिशील है। जैसे जल बहता है और स्वाद से अधिक
तृप्ति देता है, वैसे ही हनुमानजी हैं। जल की निर्मलता जल को पूज्य बनाती है और हनुमानजी बहुत
निर्मल हैं। कल्पना कीजिए कोई निर्मल भी हो और सक्रिय भी रहे, कोई विनम्र भी हो और
बलशाली भी बना रहे। उनकी यही अनुभूति हमें श्रेष्ठ मानव बनने के लिए प्रेरित करती
है।
गंदे वस्त्रों के लिए साबुन है और मन की मलिनता के लिए सत्संग
हम दो स्थितियों में किसी की आलोचना करते हैं। पहली तो तब जब हमारे पास निर्णय
लेने का कोई अधिकार होता है और दूसरी स्थिति ईष्र्या से पैदा होती है। जैन मुनि
तरुणसागरजी बड़ी तार्किक व्याख्या करते हुए कहते हैं - आलोचक कैंची की तरह हैं और
प्रशंसक सुई की तरह। कैंची काटने का काम करती है, इसीलिए दर्जी उसे अपने पैरों में
रखता है, जबकि
सुई जोड़ने का काम करती है, इसीलिए उसे कमीज की कॉलर या टोपी में खोंसकर रखता है।
याद रखें दुनिया को काटने वाले को देर-सबेर पैरों के नीचे कुचल दिया जाता है
और जोड़ने वाला बांहों में लिया जाता है, गले लगाया जाता है या सिर पर बैठाया जाता है। अब हम
ही निर्णय करें कि हमें दिलों को काटने का काम करना है या जोड़ने का। आलोचना मन को
अपवित्र कर जाती है। वस्त्र गंदा हो गया तो साबुन से धुल जाएगा, लेकिन मन गंदा हो तो
धोने के लिए सत्संग है। सत्संग के साबुन से ही मन धुलता है।
लोग मंदिर जाते हैं तो साफ-सुथरे कपड़े पहनकर जाते हैं। सिर्फ कपड़े बदलकर न
जाइए, बल्कि
अपना मन भी बदलकर जाइए। प्रभु कपड़े नहीं देखते, भक्त के मन को देखते हैं। इसलिए
सत्संग सुधार की एक कार्यशाला है। सुधार की प्रक्रिया ऊपर से नीचे की ओर होनी
चाहिए।
इसलिए जब हम भगवान बाहुबली के मस्तक का अभिषेक करते हैं तो वह जल ऊपर से नीचे
की तरफ आता है। अभी देखा जाता है कि लोग दूसरों से सुधार की अपेक्षा करते हैं,
खुद में परिवर्तन
की कोई तैयारी नहीं रखते। इसीलिए आलोचक बनकर उनके अहंकार को संतुष्टि मिल जाती है
और वे स्वयं कभी नहीं सुधरते।
अपने व्यक्तित्व के संन्यासी हिस्से को जानने के लिए समय दीजिए
अक्सर पूछा जाता है कि दुख दूर करने के सरल उपाय क्या हैं? इसका उत्तर ढूंढ़ने में
ही कुछ लोगों ने अपने आसपास और बड़े-बड़े दुख खड़े कर लिए हैं। हमारे शास्त्रों
में भी आत्म-साक्षात्कार के जो साधन बताए गए हैं, वे दुख से मुक्ति के ही तरीके
हैं। दुख की समझ ही दुख से मुक्ति है। इस समझदारी से आगमन होता है सुख, शांति और प्रसन्नता का।
भारत की संस्कृति ने दुख को समझने के लिए उसे प्रारब्ध से जोड़ा है। प्रारब्ध
यानी पूर्व संचित कर्म एवं संस्कारों का परिणाम। ये भोगकर ही पूरे होते हैं। इसी
को दुख माना गया है। जीवन में समझ आने पर इनके भोगने की सहनशक्ति आ जाती है। दूसरे
हमारे व्यवहार से पैदा होने वाले दुख हैं। इन्हीं में बीमारियां आती हैं। रोगी
काया बहुत बड़ा दुख है। तीसरे तरीके से जीवन में दुख मनुष्य द्वारा स्वनिर्मित दुख
होते हैं।
डिप्रेशन इसी का परिणाम है। जीवन से दुख मिटाने के लिए अपने व्यक्तित्व को दो
भागों में बांटकर देखिए। हमारा एक हिस्सा संसारी होता है और दूसरा संन्यासी। हम
संसारी हिस्से पर ही ज्यादा टिके रहते हैं। संसार छोड़ना नहीं है, साथ ही संन्यास को भी
पकड़ना है। संन्यास उस समझ का नाम है, जिसमें हम जान जाते हैं कि जीवन में कई ऐसी बातों से
हमने स्वयं को जोड़ रखा है जो मरण धर्मा हैं, व्यर्थ हैं, छोड़ने लायक हैं। तो कुछ
ऐसी बातों से स्वयं को जोड़ा जाए जो मृत नहीं, अमृत हैं। जैसे ही हम अमृत से
जुड़ेंगे, हमारा हर कार्य अमृत हो जाएगा। हमारा परिश्रम नशा नहीं, पूजा बनकर हमें दुख मुक्त कर देगा।
इसलिए अपने व्यक्तित्व के संन्यासी हिस्से को जानने के लिए कुछ समय दीजिए।
जीवन को सुंदर बनाने के लिए अनुशासन में रहना जरूरी है
जीवन के संबंध में बंधन और मुक्ति की बात बहुत कही जाती है। दुनियादारी में
आसक्ति बंधन है। अनासक्ति के साथ संसार में रहना अपने आप में मुक्ति है। बंधन और
मुक्ति से संबंधित शास्त्रों का साहित्य पढ़ो तो जानकारी हाथ भले ही लग जाए,
अर्थ फिर भी समझ
में नहीं आता।
सिद्धांत और फिलॉस्फी भले ही हाथ लग जाएं, लेकिन इन्हें जीवन में उतारे
बिना न तो बंधन का दुख समझ में आएगा और न ही मुक्ति की भक्ति गले उतरेगी।
सुंदरकांड में हनुमानजी को मेघनाद ब्रह्मास्त्र से बांध चुका था। इसी प्रसंग में
तुलसीदासजी को लगा कि यही अवसर है एक अच्छे सिद्धांत को सरलता से समझाने का। तासु
दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बंधावा।। प्रभु के कार्य के लिए स्वयं
हनुमानजी ने अपने को बांध लिया।
जीवन में कुछ बंधन भी जरूरी हैं, बस समझना यह पड़ेगा कि इस बंधन के पीछे का हेतु क्या
है? यदि
गृहस्थी बसाई है तो बच्चों का लालन-पालन, जीवनसाथी का साथ, माता-पिता की सेवा, ये सब बंधकर ही अच्छे से
पूरे होंगे। हैं तो ये भी बंधन, पर मुक्ति के सारे मार्ग यहां खुले हैं। बंधन को मजबूरी और
बोझ न मानकर एक नैतिक अनुशासन समझना चाहिए। ऐसे अनुशासन के बिना न तो भगवान का
कार्य सधता है और न ही परिवार के दायित्व निपटते हैं। कुछ निश्चित उद्देश्य की
पूर्ति के लिए ऐसे बंधन भी स्वीकार करने पड़ते हैं। हनुमानजी जानते थे कि मेरा
लक्ष्य इस समय रावण के समक्ष जाने का है। इस बंधे जाने से ही उस तक जाने के रास्ते
खुलेंगे। यह घटना हमें समझा रही है कि जीवन को सुंदर बनाने के लिए अनुशासन भी
जरूरी है।
जब तगड़ा झटका लगता है तब हमें परमात्मा याद आता है
ऐसा कहते हैं कि जब संसार की कुछ चीजें बेस्वाद लगने लगती हैं, तब संसार बनाने वाले का
स्वाद जागता है। जब तक संसार की चीजों का हमें स्वाद आ रहा है, शायद भगवान की जरूरत
पड़े भी नहीं। जब इधर एकाध तगड़ा झटका लगता है, तब उधर कोई शक्ति है, इसकी सूझ पड़ने लगती है।
संसार से भागना नहीं है, क्योंकि संसार बना है जड़ पदार्थो से। उनमें कोई दोष है भी
नहीं। इनसे जो सुख-दुख मिलता है, इसमें इनकी सीधी अपनी कोई भूमिका नहीं रहती।
इस सुख-दुख को मनुष्यों ने ही इन जड़ पदार्थो में गढ़ा है। संसार के जड़
पदार्थ तो पाप-पुण्य क्या होता है, ये समझते ही नहीं हैं। खेल शुरू होता है, उनके उपयोग से। उपयोग
में नीयत अच्छी है तो पुण्य, खराब है तो पाप। टेक्नोलॉजी कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हो,
केंद्र में मनुष्य
रहेगा ही। इसलिए मनुष्य को तय करना है कि इन चीजों में उसका अपना स्वाद क्या है।
संसार के बेस्वाद होने से ही परमात्मा का स्वाद आता है। सफलता में स्वाद है तो
आदमी संसार में ही रमा रह जाता है।
असफलता उसे मोड़ती है और उस संभावना को पैदा करती है, जिसमें परमात्मा खोजा जा सकता
है। संसार के सुख की बारिश होती तो है, पर यह ऐसा बरसना होता है, जहां गागर कभी नहीं भरती। मनुष्य
की तृप्ति का घड़ा खाली का खाली ही रहता है, लेकिन परमात्मा की अनुभूति की एक
बूंद भी न सिर्फ घड़े को लबालब कर जाती है, बल्कि उसमें ओवरफ्लो हो जाता है।
संसार की आशा और आश्वासन के अंतिम पायदान से परमात्मा की पहली पगडंडी शुरू हो जाती
है।
मनुष्य की चाहत के दो द्वार हैं एक शारीरिक, दूसरा मानसिक
जो चाहें और वह न मिले तो उदासी, निराशा स्वाभाविक है, लेकिन कभी-कभी चाहा मिल जाए,
तो भी मन में खुशी
नहीं आ पाती। आज तक जिन्हें मिला, उनके नजदीक जाकर देखें तो उन्हें भी मिल जाने पर परेशानी कम
होती नहीं दिखी। दरअसल, चाहत का द्वंद्व अलग ही होता है।
चाहत और असंतुष्ट भाव एक साथ चलते हैं। दो द्वार हैं चाहत के, पहला शारीरिक, दूसरा मानसिक। मानसिक
चाहत, शारीरिक
चाहत से भी खतरनाक होती है। शरीर की चाहतें तो फिर भी पारिवारिक, सामाजिक मान-मर्यादा से
नियंत्रित हो जाती हैं, लेकिन मानसिक चाहतें तो शुरू होती ही हैं अमर्यादा के साथ।
विचारों में जितनी सात्विकता, सद्गुण और सद्भाव होंगे, मानसिक चाहत उतनी ही नियंत्रित
हो जाएगी। भीतर की पवित्रता हमें फकीरों-सी चाहत से जोड़ देगी।
संतों की पवित्रता उनके विचारों और कार्यो में ओतप्रोत रहती है। परमात्मा को
भी सैर-सपाटे, क्रीड़ा आदि के लिए मन के ऐसे आंगन पसंद हैं, जो पवित्रता से भरे हुए हों।
इसलिए अपनी मानसिक चाहतों पर ज्यादा सजग रहकर उन्हें नियंत्रित करिए।
यह चाहत पसरकर एक दिन भगवान को पाने की भी चाहत में बदल जाती है, जबकि भगवान पाने की नहीं,
भगवान होने की
कोशिश की जाए। चौबीस घंटे में कुछ समय ऐसा बिताइए, जिसमें कोई चाहत ही न रखें।
अपेक्षाहीन जीवन के क्षण। न तो कोई मांग रखिए, न चाहत और न ही अपेक्षा। ऐसे हो
जाएं जैसे मृतवत हैं। यह शून्यकाल बाकी समय को मस्ती में बदल देगा।
शिक्षा ने आदमी को बुद्धिमान बनाया पर बेताब भी बना दिया
इस समय जितनी शिक्षा बढ़ी है, उतनी ही अधीरता भी बढ़ रही है। पढ़े-लिखे लोग अपने लक्ष्य
प्राप्ति के लिए इस कदर अधीर होते जा रहे हैं कि जरा-सी रुकावट या देरी उन्हें
डिप्रेशन की ओर ले जाती है। जो थोड़े हिम्मत वाले हैं, वे अपने आप को डिप्रेशन से तो
बचा लेते हैं, लेकिन चिड़चिड़े हो जाते हैं।
कुल मिलाकर शिक्षा ने आदमी को बुद्धिमान बनाया, पर बेताब भी बना दिया। हर
पढ़े-लिखे आदमी को यह बात जरूर समझनी चाहिए कि कुछ बातें होकर ही रहती हैं। जीवन
के प्रवाह में कुछ ऐसा होता ही है, जो घट जाता है।
आप चाहें या न चाहें। उस समय शिक्षा को समझ का काम करना चाहिए। प्रिय लोगों की
मृत्यु, बिछड़ना,
अचानक नुकसान हो
जाना, दुर्घटनाएं
इत्यादि पर आपका सीधा वश नहीं चलता। ऐसे वक्त पढ़े-लिखे होने का अर्थ है हिम्मत न
हारें। जैसे निरोगी काया एक सुख है, वैसे ही समझ देने वाली शिक्षा भी अपने आप में बहुत
बड़ा सुख है।
अत: यह उपलब्धि हमारे लिए काम की होनी चाहिए। दो वक्त की रोटी को पढ़ाई-लिखाई
तो जुटा ही देगी लेकिन शरीर और मन के स्वास्थ्य के अलावा एक और स्वास्थ्य होता है,
जिसे नैतिक
स्वास्थ्य कहते हैं। इसकी अनुभूति शिक्षा कराती है। नैतिक रूप से निरोगी व्यक्ति
दूसरों के प्रति प्रेम, सेवा, परोपकार, उदारता और मधुरता का व्यवहार करता है।
दरअसल शिक्षा एक समझ की तरह बननी चाहिए, जो मनुष्य के शरीर और आत्मा के
संयोग को समझा सके, क्योंकि मनुष्य पूरी दुनिया में आत्मा और शरीर का अद्भुत संयोग है और इस
अनुभूति को शिक्षा परिपक्व कर देती है।
अपने स्वार्थ, वासना व इच्छाओं का ज्ञान होते रहना चाहिए
कोई भी काम करने जाएं, चाहे सांसारिक हो या आध्यात्मिक, एकाग्रता नहीं आ पाती है। यह
सबकी आम शिकायत है। कई लोग लगातार प्राणायाम और ध्यान से गुजरते हैं और फिर भी
एकाग्र नहीं हो पाते। तीन काम और करिए।
पहला - अपने स्वार्थ को नियंत्रित करें, इसे त्यागना नहीं है। अपने हित
में थोड़ा-बहुत स्वार्थ होना चाहिए, लेकिन स्वार्थपूर्ति में लोभ और दूसरों के नुकसान की
वृत्ति न बन जाए। दूसरा - वासनाओं पर निगरानी रखनी चाहिए। तीसरी बात, इच्छाओं को आवश्यकताओं
से जोड़ें।
जैसे-जैसे ये तीन अभ्यास बढ़ाएंगे, एकाग्रता सधेगी। इसके साथ यदि प्राणायाम, ध्यान किया जाए तो सोने
पे सुहागा है, क्योंकि आज ज्यादातर लोग अपने लक्ष्य की पूर्ति में अपनी भावनाओं को सही दिशा
में नहीं मोड़ पाते। कुछ को लक्ष्य का ज्ञान गलत होता है और कुछ भावनाओं की दिशा
में लापरवाह होते हैं।
कम से कम अपने स्वार्थ, वासनाओं, इच्छाओं का ज्ञान होते रहना चाहिए। ये तीनों हमारी
स्मृतियों को समृद्ध बना देती हैं। इन तीनों के कारण हम कई ऐसी चीजें अपने दिमाग
में लंबे समय रखने के आदी हो जाते हैं, जिन्हें भुला देना चाहिए। हमें बातों की स्मृति रहती
है, पर वे
बातें कहां से आ रही हैं, इसका ज्ञान नहीं रहता। जैसे हमारा स्वार्थ हमें कई पिछली
बातें भूलने नहीं देता।
वासनाओं को तो रस ही इस बात में है कि पुराने किसी भोग की याद दिलाए और नए की ओर प्रेरित करे। इच्छाएं विषयों को भूलने नहीं देतीं। आदमी लगातार सोचता रहता है। नतीजे में स्मृति बैंक तो लबालब हो जाता है, लेकिन ज्ञान का भंडार लुट जाता है।
क्रोध का कारण दूसरों में ढूंढ़ने से अपना ही नुकसान होगा
कभी तसल्ली से बैठकर इस बात की सूची बनाइए कि आपको किन बातों पर गुस्सा आता
है। सूची बनने के बाद फिर विश्लेषण करिए कि इनमें से कितनी बातों का कारण आप हैं
और कितनी बातों में दूसरे जिम्मेदार हैं।
यह काम निष्पक्षता से किया जाए, क्योंकि हमारी आदत होती है कि हम अपने क्रोध का कारण
सदैव दूसरे में देखते हैं। थोड़ी देर के लिए आया हुआ क्रोध हमारी ऊर्जा का नुकसान
कर जाता है। हम उस ऊर्जा को खो देते हैं, जो किसी और उपयोगी काम में खर्च की जा सकती है।
कई स्थितियां ऐसी होती हैं, जब क्रोध आता है, लेकिन हम उसे व्यक्त नहीं कर पाते और नई बीमारी शुरू
हो जाती है। अब क्रोध भीतर ही भीतर बहने लगता है। भारत के ऋषि-मुनियों ने हर औरत
के भीतर आधा आदमी और हर आदमी के भीतर आधी औरत का बड़ा सुंदर सिद्धांत दिया है।
सद्गुण और दुगरुण भीतर ही भीतर इसी वृत्ति से अपने परिणाम देते हैं। आज हम
क्रोध की बात कर रहे हैं। क्रोध जब पुरुष भाव से जुड़ता है तो वह प्रकट हो जाता है
और स्त्री भाव से जुड़कर कुढ़न में बदल जाता है। कुढ़न ईष्र्या के आसपास की स्थिति
है। स्त्री भाव से जुड़कर क्रोध जलन, दाह, रश्क में बदल जाता है। पुरुष भाव से जुड़कर क्रोध आगबबूला
मुद्रा में आ जाता है।
वह अपनी अप्रसन्नता को भी आक्रमण से प्रस्तुत करने लगता है। उसका क्रोध
झल्लाहट, बौखलाहट
और हिंसा में भी उतर सकता है। जब तक क्रोध के कारण दूसरों में ढूंढ़े जाएंगे,
तब तक स्त्री हो
या पुरुष दोनों भाव से जुड़कर नुकसान ही पहुंचाएंगे। इसलिए कारण अपने में ढूंढ़िए
और अपने आप से जुड़िए।
गलत के प्रति हम निडर रहें और सही के प्रति तटस्थ
अपने अधिकार की वस्तु के लिए हम कभी-कभी बहुत अधिक झुक जाते हैं, क्योंकि सामने वाला
सक्षम होता है और कभी-कभी हम दूसरों के अधिकार की वस्तु छीनने पर उतारू हो जाते
हैं, क्योंकि
सामने वाला कमजोर होता है।
हमारी सबसे बड़ी बहादुरी इसी में है कि हम गलत के प्रति निडर रहें और सही के
प्रति तटस्थ। सबकुछ मैं कर लूंगा, मेरे करने से ही ऐसा होगा, यह भाव भय पैदा करता है। यदि ऐसा
नहीं हो पाया, तब क्या होगा? यह सोच हमें डराने लगती है।
थोड़ा गहराई से सोचिए, इस संसार में कुछ चीजें ऐसी घट जाती हैं, जो बिना कुछ करे-धरे
होती हैं। जिसे हम कर सकें, उसकी कीमत दुनिया में हो सकती है, लेकिन जो हमारे किए बिना घटती है,
वह परमात्मा की
दुनिया में भी कीमती हो जाती है।
सुंदरकांड में मेघनाद हनुमानजी को पकड़कर विश्वविजेता रावण के दरबार में ले
आता है। मृत्यु भी रावण के यहां नीची गर्दन करके खड़ी रहती थी। चारों दिग्पाल उसके
यहां खड़े रहते थे। रावण ने अपने सामने कभी किसी को निर्भय देखा ही नहीं।
लेकिन हनुमानजी इस तरह निर्भय खड़े थे कि तुलसीदासजी को लिखना पड़ा - देखि
प्रताप न कपि मन संका, जिमि अहिगन महुं गरुड़ असंका।। उसका ऐसा प्रताप देखकर भी
हनुमानजी के मन में तनिक भी डर पैदा नहीं हुआ।
वे ऐसे निर्भय खड़े रहे, जैसे सर्पो के समूह में गरुड़ भयमुक्त रहते हैं। इसके पीछे
हनुमानजी का विश्वास था कि सबकुछ अपने करने से नहीं होता। जीवन में बहुत सारी
बातें कोई और परमशक्ति करती है। उनका यही भरोसा उन्हें श्रीराम से जोड़कर रावण की
सभा में निर्भय बना देता है।
परीक्षा चाहे जिंदगी की हो या पढ़ाई की, तैयारी जरूरी है
विद्यार्थी जीवन में पढ़ाई-लिखाई का सारा सुकून परीक्षा से होता है। आप
उत्तीर्ण नहीं हुए तो पढ़ाई-लिखाई का कोई मतलब नहीं निकलेगा। कागज पर पास होना ताश
के पत्तों के ढेर जैसी दुनिया में बड़ा जरूरी हो जाता है। इसलिए इसमें कोई ढील
देनी भी नहीं चाहिए। परीक्षा में ज्ञान, जानकारी के अलावा उत्तीर्ण होने की तकनीक बहुत जरूरी
है। परीक्षा पास करना अपने आप में एक तकनीक है।
पाठ्यक्रम का हर अध्याय अपने भीतर ठीक से उतारना पड़ता है, तब जाकर परीक्षार्थी
उत्तीर्ण हो पाता है। जैसे यह शिक्षा का सच है, उसी तरह जिंदगी का एक अलग सच
होता है। जीवन में भी परीक्षा चलती है। फर्क इतना है कि विद्यार्थी की परीक्षा समय
पर होती है और जिंदगी की परीक्षा सदैव चलती रहती है। शिक्षा जगत में उसका टाइम
टेबल होता है, पर जिंदगी में 24 घंटे ही परीक्षा के रहते हैं।
यहां की कामयाबी कागजों पर मायने नहीं रखती, क्योंकि प्रतिपल चल रही परीक्षा
की मार्कशीट नहीं बनाते। हां, उत्तीर्ण होने के परिणाम जरूर आते हैं। विद्यार्थी रहते हुए
तो याद रहता है कि अब परीक्षा होने वाली है और ऐसे पढ़ना है, लेकिन जिंदगी में ऐसा
नहीं हो पाता। यहां नकल नहीं चलती, यहां का तयशुदा पाठच्यक्रम नहीं होता, यहां परीक्षक कौन है,
पता ही नहीं चलता।
मजेदार बात यह है कि कभी तो खुद ही की आंसरशीट जांचनी पड़ जाती है, लेकिन एक नियम दोनों जगह
लागू होता है और वह है आपकी तैयारी जरूर होनी चाहिए। बिना तैयारी के जीवन का एक भी
क्षण न बिताएं, क्योंकि एक जीवन में परीक्षा समय पर होती है और दूसरे जीवन में सदैव चलती है।
अदृश्य शक्ति से हमारा परिचय होगा तो अहंकार मिट जाएगा
यदि आपके भीतर झुक जाने की ताकत, इच्छा, क्षमता है तो आप अपने अहंकार को गला सकेंगे। झुक
जाना और पराजय दो अलग-अलग बातें हैं। आदमी का अहंकार विजय और पराजय की भी परिभाषा
बदल देता है। अहंकारी मनुष्य हारने पर भी उसे जीत की परिभाषा कहता है।
अजीब-से तर्क करता है और शत्रुतापूर्ण जीवन बना लेता है। निरहंकारी अपनी विजय
में दूसरों को भी श्रेय देना जानता है। जैसे कोई पेड़ बड़ा होकर फल देता है,
यह उसकी जीवन यात्रा
की विजय है। उसने वह काम कर दिया, जिसके लिए वह है।
पेड़ अपने लक्ष्य में जीत गया, लेकिन उसे इस बात का एहसास नहीं है कि मैंने किया। वह समूचे
अस्तित्व के क्रम को स्वीकार करता है। यही प्रकृति की विशेषता है। किसी पेड़ से
पूछें तो वह कहेगा कि मैं बीज से चला हूं, फिर मिट्टी ने संभाला, जल ने आगे बढ़ाया, माली ने सुरक्षा दी,
हवाओं ने अपना काम
किया, सूर्य
का सहारा मिला और मैंने फल दे दिया।
दिया मैंने, लेकिन परिणाम इन सबके किए का है। मैं तो निमित्त हूं। प्रकृति और मनुष्य मंे
यही भेद है। मनुष्य मानने को तैयार नहीं है कि जो सहयोग मिल रहा है, वह दूसरों के देने पर
मिल रहा है। वह तो यह भी मानकर चलता है कि सहयोग भी मैंने लिया है।
अदृश्य शक्ति से यदि परिचय प्राप्त करना चाहें तो प्रकृति से अधिक से अधिक
जुड़ जाएं। कोई न कोई सत्ता उनके भीतर या इन सबके पीछे है। इतना बड़ा क्रियाकलाप
कोई तो है जो चला रहा है। उस अज्ञात से जिस दिन हमारा परिचय होगा, हमारा अहंकार कपूर की
तरह उड़ जाएगा और हमारी सफलता सुगंध की तरह रह जाएगी।
वर्तमान पर टिककर परमशक्ति में डुबोने की क्रिया है प्रार्थना
हमारे जीवन की हर व्यवस्था में एक शीर्ष पद होता है। कोई न कोई प्रमुख होता है,
जिसके निर्देश पर
अन्य को काम करना पड़ता है। परिवार में मुखिया, कार्यालयों में बॉस, सामाजिक जीवन में
कर्णधार। ऐसी अनेक शक्लों में आदेश, प्रेरणा और निर्णय लेने वाले लोग होते हैं। चलिए,
आज इस बात पर
चर्चा करें कि जीवन कितना आदेशों से और कितना प्रेरणा से चलता है। फिर इसे भी समझ
लें कि किसका आदेश मानें और किससे प्रेरित हों।
आप किसके प्रति आज्ञाकारी हैं, किनके निर्देशों से संचालित हैं, इससे जिंदगी की गति तय होती है।
व्यावहारिक, पारिवारिक जीवन में शीर्ष व्यक्ति का चयन हमारे हाथों में नहीं होता।
माता-पिता और बॉस के चयन की गुंजाइश कम ही लोगों को मिलेगी।
ये तय होते हैं, लेकिन हमारे निजी, आध्यात्मिक जीवन में आदेश और प्रेरणा के स्रोत हम स्वयं चुन
सकते हैं। जैसे हमारा मन हमारी आत्मा की प्रेरणा से चलना चाहिए, पर वह हो जाता है
स्वेच्छाचारी। यदि हम आत्मा तक न पहुंच पाएं, तो कम से कम मन, बुद्धि द्वारा तो
प्रेरित रहें।
शीर्ष पर बुद्धि हो, निर्णय लेने के अधिकार बुद्धि के पास रहें, पर चूंकि मन ये अधिकार
छीन लेता है तो हमें वो उन आकर्षणों की ओर ले जाता है, जो नुकसानदायक हैं। हमारे जीवन
के शीर्ष पर आत्मा व बुद्धि होनी चाहिए, लेकिन प्रभावशाली हो जाता है मन।
इसलिए थोड़ी देर प्रार्थना से जरूर गुजरिए। प्रार्थना हमें वर्तमान पर टिकाकर
परमशक्ति में डुबोने की क्रिया है। जैसे ही हम प्रार्थना में उतरे, मन निष्क्रिय हो जाएगा,
क्योंकि प्रार्थना
मांग नहीं है, सिर्फ जुड़ाव है और यहीं से हम सही नेतृत्व में जीवन को चलाने लगेंगे।
जीवन में सुख हो या दुख दोनों स्थितियों में प्रेमपूर्ण बने रहें
दूसरों के दुख में हम शामिल होते हैं, लेकिन उसे अपने भीतर नहीं लाते। हमें यह मालूम रहता
है कि यह सारा घटनाक्रम दूसरे का है। लेकिन ऐसी ही घटना जब अपने ही जीवन में घटे
तो दुख तत्काल हम भीतर ले आते हैं। चूंकि हमें सुख भी भीतर लाने की आदत है,
इसलिए दुख भी ले
आएंगे और फिर असली परेशानी शुरू होती है।
जैसे हम दूसरे के दुख को देखकर भीतर नहीं लाते, ऐसे ही हम अपने सुख के साथ हो
जाएं, तब
एक नई स्थिति आनंद की अनुभूति होगी, जिसमें सुख है न दुख। पर हम जी-तोड़ कोशिश करते हैं
कि केवल सुख मिले, दुख मिले ही नहीं। पर ऐसा मुमकिन हो नहीं सकता। सुख और दुख इतने जुड़े हुए हैं
कि एक का सुख दूसरे का दुख बन जाता है और दूसरे का दुख किसी और के लिए सुख होता
है।
हिंदुओं में पुनर्जन्म की कल्पना इसमें बड़ी राहत पहुंचाती है। एक घर में हुई
मृत्यु का दुख, दूसरे किसी घर में हुए जन्म का सुख बन जाता है। जो लोग दूसरों के दुख में
विवेकपूर्ण ढंग से उन्हें समझाते हैं, ऐसे लोग अपने दुख में सारी समझ भूल जाते हैं।
निर्लिप्त रहने का जितना अभ्यास बढ़ाएंगे, सुख और दुख दोनों एक जैसा रस देने लगेंगे।
यदि प्रेम को ठीक से समझें तो पाएंगे कि प्रेम की अपनी पीड़ा है। प्रेम के
बिना पीड़ा हो नहीं सकती, पर उस पीड़ा में भी एक रस है, वरना दुनिया से प्रेम मिट जाएगा।
इसलिए सुख व दुख दोनों ही स्थितियों में प्रेमपूर्ण जरूर बने रहें। प्रेम के लिए
पहला पात्र परमात्मा को बनाएं तो धीरे-धीरे उसी का विस्तार संसार में हो जाता है
और तब संसार छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती और न ही वह तकलीफ पहुंचाता है।
हम सकारात्मक सोच रखेंगे तभी सुख का सदुपयोग कर पाएंगे
हर मनुष्य के भीतर ऊर्जा का एक हिस्सा रचनात्मक कार्यो के लिए रहता ही है।
अपनी ऊर्जा के जिस हिस्से से हम नाम और दाम कमाने में सक्रिय रहते हैं, उससे ही जीवन में
पूर्णता नहीं आती। इस तरह लगातार काम करने से दो ही प्रकार के लोग समाज में बनते
हैं।
एक, शोषण
और लूट के द्वारा धन कमाने वाले और दूसरे, शोषित और लुटने वाले लोग। इन दोनों वर्गो के बीच
मनमुटाव, प्रतिद्वंद्विता
और वैमनस्य आना स्वाभाविक है। इसका सीधा असर राष्ट्रीय, सामाजिक व पारिवारिक जीवन पर
पड़ता है। कुल मिलाकर हर क्षेत्र में अशांति हाथ लगती है।
इसलिए हम किसी भी स्तर के व्यक्ति हों, अपनी ऊर्जा का रचनात्मक हिस्सा
जरूर सक्रिय रखें। इससे भेदभाव मिटेगा, वार्तालाप का वातावरण बनेगा और एक-दूसरे के प्रति
सद्भाव जागेगा। जितना हम रचनात्मकता की ओर बढ़ेंगे, उतना ही पॉजिटिव होते जाएंगे।
जीवन निषेध का नाम नहीं है। जीवन को विधेय से चलाना चाहिए, यानी सकारात्मकता बढ़ाने के
प्रयास लगातार करते रहें। प्रतिस्पर्धा के इस युग में सुख और दुख आते ही रहते हैं।
यदि हम पॉजिटिव नहीं रहे तो सुख का सदुपयोग नहीं कर पाएंगे और दुख हमसे लगातार
ऐसे काम करवा लेगा, जिन्हें हम होश में तो कभी नहीं करना चाहेंगे। दुख विचलन लाता है और यदि लंबे
समय विचलन टिक जाए, तो मनुष्य या तो डिप्रेशन में डूब जाएगा या डिस्ट्रक्टिव हो जाएगा। इसलिए 24 घंटे में कुछ समय अपनी
ऊर्जा की रचनात्मकता पर पकड़ बनाए रखें। अन्यथा यह एक बार गलत दिशा में बह गई तो
लौटाकर लाना कठिन हो जाएगा।
अहंकार समाधान कम, समस्याएं ही अधिक पैदा करता है
अधिकांश विवादों की जड़ में ‘मैं’ होता है। अहंकार समाधान कम, समस्याएं ज्यादा पैदा करता है।
सफल से सफल लोग अहंकारी होने पर भले ही असफल न हुए हों, पर अशांत जरूर हो गए और अशांति
अपने आप में एक असफलता है। अहंकार कैसे उल्टे-उल्टे काम कराता है, पता ही नहीं लगने देता
है कि आदमी कब हंस रहा है और कब रो रहा है। चलिए, रावण की सभा में चलते हैं।
सुंदरकांड का वह दृश्य चल रहा था, जहां विश्वविजेता रावण के दरबार में हनुमानजी खड़े
थे। कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद। सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयं
बिषाद।। हनुमानजी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हंसा। फिर पुत्रवध का स्मरण
किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया। यहां दो दृश्य एकसाथ चले हैं।
पहले तो रावण हंसा। इसके बाद उसे तत्काल विषाद, दुख हो गया था। उसे ऐसा लगता था
कि दुनिया में कभी उसकी पराजय नहीं हो सकती। उसने तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर
लिया था कि वह किसी के हाथों नहीं मारा जाएगा, मनुष्य और बंदरों को छोड़कर।
इतनी बड़ी उपलब्धि एक अहंकारी के लिए उसके अभिमान में वृद्धि करने के लिए काफी
थी, लेकिन
वह यह भूल गया था कि वरदान उसे मिला है, उसके बेटे को नहीं। अभिमानी रावण ने अपने बच्चों को
भी खूब गलत मार्ग दिखाए थे।
आदमी का अहंकार स्वयं को और उसके आसपास के लोगों को परेशानी में डालता ही है।
नतीजे में एक बेटा मारा गया और जो रावण सारी दुनिया को दुखी कर रहा था, वह अपनी ही सभा में
स्वयं दुखी हो गया और माध्यम थे हनुमानजी।
व्यक्तित्व की शुष्कता हमें निष्ठुर, कठोर और नीरस बना देती है
अपने लोगों से तो सभी सद्व्यवहार करते हैं, यह एक सामान्य बात है। जब प्रेम
दूसरों पर प्रकट हो तो वह और अच्छा व्यवहार है। लेकिन जिन्हें हम पसंद न करें और
उनके प्रति भी हमारा व्यवहार अच्छा रहे, तो इसे सहृदयता कहेंगे। आजकल लोग सामान्य व्यवहार
में रूखे होते हैं।
व्यक्तित्व की यह शुष्कता न सिर्फ आपको निष्ठुर और कठोर बनाएगी, बल्कि नीरस भी बना देगी
और नीरस आदमी दूसरों से अधिक स्वयं को कष्ट पहुंचाता है। हमारे यहां अध्यात्म में
कहा गया है कि इंद्रियों का संबंध रस से होता है।
जहां भी थोड़ा रस मिले, इंद्रियां वहां बह लेती हैं। इंद्रियां जब बाहर की वस्तुओं
पर टिकती हैं तो मनुष्य की आत्मीयता का दायरा सिकुड़ जाता है। वह दूसरों की खुशी
से दुख पाता है। उनके लाभ में अकारण अपनी हानि देखने लगता है।
हर अच्छाई में बुराई देखने की आदत बन जाती है। थोड़ी देर इंद्रियों की गति को
मोड़ने का अभ्यास करें। उदाहरण के तौर पर इंद्रियों की मांग है टीवी देखना। अब यदि
स्वयं पर अनुशासन लादकर हम टीवी देखना बंद कर दें, तब भी इंद्रियों की देखने की
मांग बनी रहेगी और वे भीतर ही भीतर अकुलाती रहेंगी।
जो इंद्रियां हमें बाहर की दुनिया से संपर्क में ला रही हैं, वे ही हमें आंतरिक जगत
से जोड़ भी सकती हैं। परमात्मा को रसमय कहा गया है। इंद्रियों को तो रस चाहिए। आप
बस उनका स्वाद बदल दीजिए। जो इंद्रियां भोजन में रस पा रही हैं, वे भीतर की ओर मुड़कर
बिना भोजन किए भी वैसा ही रसपान कर सकती हैं। यहीं से हमारे भीतर सहृदयता जागेगी।
अपने-पराए का भेदभाव मिटाकर हम हर स्थिति में आनंदित रहेंगे।
विपरीत परिस्थिति आने पर सबसे पहले भीतर से एक हो जाएं
सुविधाएं, संपत्ति और सहयोग होने पर सफलता आसान हो जाती है, लेकिन स्वयं की तैयारी न हो तो
ये तीनों बातें होते हुए भी आदमी असफल हो जाता है। अभाव, गरीबी, समस्याएं जीवन में होने पर लगेगा
कि यह दुर्भाग्य है, लेकिन अपनी प्रतिभा को चमकाने के लिए अच्छे अवसर भी इन्हीं में छिपे रहते हैं।
जितने रोलमॉडल हम टटोलें, उतने ही नए दृश्य सामने आएंगे और हर दृश्य यह बताता है कि
परिस्थितियां विपरीत हों तो आंतरिक प्रतिभा का जागरण होकर रहता है।
हर कामयाब आदमी ने हथेलियों और पंजों को लोहे की तरह मजबूत रखा है, ताकि डगमगाएं नहीं।
विचारों को तो घोड़े की तरह प्रवहमान रखा, ताकि समय से पीछे न छूट जाएं और अपने परिश्रम को
सूर्य की तरह तेजस्वी और विशाल बनाया, ताकि कोई हिस्सा ऐसा न रहे, जहां पहुंच न पाएं। चलिए,
अब इस पर विचार
करें कि हमारा आध्यात्मिक होना इसमें हमारी क्या मदद करेगा। जब हम विपरीत
परिस्थितियों से टकरा रहे होते हैं, उस समय हमें अपने भीतर स्वयं से कभी नहीं लड़ना
चाहिए।
ऐसे समय कई लोग बाहर तो उलझे रहते ही हैं, भीतर से भी बिखर जाते हैं।
मनुष्य जब भीतर से खंड-खंड हो जाता है, अपने आप को टुकड़ों में देखने लगता है तो वह बाहर की
परिस्थितियों का समाधान नहीं जुटा पाएगा। हमें भीतर से एक रहना है।
अपने आपको तोड़ने का मतलब है अर्धविक्षिप्तता। स्वयं ही समाधान ढूंढेंगे और
स्वयं ही उसे मिटा भी देंगे। पागलपन हम ही करेंगे और दोष दूसरों को देंगे। इसलिए
जीवन में विपरीत परिस्थितियां आएं तो सबसे पहले भीत से एक हो जाएं। इसी को कहते
हैं आत्मविश्वास।
शब्दों के प्रेम के जरिए आप बिना युद्ध के जीत सकते हैं
हम आजकल इतने अधिक व्यस्त हो गए हैं कि अब तो किसी से बात करने के लिए भी
कैलकुलेशन लगाना पड़ता है। दिनभर में कई लोगों से कामकाजी वार्तालाप करना ही पड़ता
है। कई बार हम दबाव में शब्दों की पुनरावृत्ति कर जाते हैं। हम मानकर चलते हैं कि
चूंकि बात को समझाना है, इसलिए रिपीट करना है और आजकल न सिर्फ बाहर, बल्कि घरों में भी ऐसा
ही होने लगा है।
या तो सदस्य काम की ही बात करते हैं या फिर मूड खराब की चुप्पी छा जाती है।
कुशल-मंगल जानना तो लोग भूल ही गए हैं। दो कारणों से ऐसा करने में लोग डरते हैं।
पहला तो यह कि इसके लिए बातचीत में स्पेस ही नहीं है और दूसरा यह कि किसी से
कुशल-मंगल पूछी और उसने अपने अमंगल का बखान कर दिया, तब क्या होगा, क्योंकि आपकी तैयारी
सहानुभूति और सहायता की होती भी नहीं है। हमें तत्काल अगले वार्तालाप पर जाना होता
है।
इसी वृत्ति के कारण परिवारों में लोग कई-कई दिन तक बातचीत में जान ही नहीं
पाते कि सब कुशल-मंगल तो है। क्रियाकलापों की खानापूर्ति शब्दों से की जा रही है।
जीवन में जीत-हार का खेल चलता ही रहता है। घरों में भी जय-पराजय के दृश्य दिखने
लगे हैं।
सभी धर्मो ने कहा है जीतिए जरूर, लेकिन यह भी इशारा किया है कि दुनिया में किसी को
हराकर जीता जाता है और एक तरीका ऐसा भी है, जिससे किसी को पराजित किए बिना
भी आप जीत सकते हैं, बिना युद्ध, बिना लड़ाई के और वह है शब्दों का प्रेम। आप अपनी बातचीत में सहानुभूति,
मंगल भाव, शुभ शब्द जितने अधिक
रखेंगे, आप
तो जीत ही जाएंगे और दूसरे की पराजय को भी अपनी जीत से जोड़ लेंगे।
आराम ऊर्जा पाने के लिए होना चाहिए आलस्य के लिए नहीं
भौतिक वस्तुओं का उपयोग करते समय उन्हें तीन खंडों में बांट लीजिए। पहला,
उनमें आवश्यकता का
तत्व देखें। दूसरा, उनमें आराम कितना है और तीसरा वे हमें विलासिता की ओर कब और कैसे ले जाएंगी।
भौतिक वस्तुओं का अधिकांश संबंध शरीर से होता है।
शरीर का सुख उठाते-उठाते हम भूल ही जाते हैं कि जिस दिन यह दुख में बदलेगा,
उस दिन बहुत देर
हो जाएगी। इसलिए इन तीन स्थितियों पर लगातार नजर रखें। पहले ध्यान दें कि विलासिता
बीमारी की पैकेजिंग है। भोग आलसी भी बना सकता है और आलस्य अपराध है।
फिर ख्याल कीजिए आराम पर। आराम को नकारा नहीं जा सकता। आराम ऊर्जा के
पुनर्निर्माण की प्रक्रिया होनी चाहिए, न कि आलस्य का पड़ाव। जो लोग आराम नहीं करेंगे,
वे भी शरीर की अति
पर टिक जाएंगे। अति शरीर के लिए बहुत खतरनाक है। इसके बाद आती है आवश्यकता। यह
सबसे जरूरी पक्ष है। शुरुआत इसी से की जानी चाहिए। हमारे जीवन में आने वाली हर
वस्तु कितनी आवश्यक है, इसकी समझ से ही उसका उपयोग शुरू करें।
जब आप वस्तु की आवश्यकता पर टिकेंगे तो आपके शरीर का हर अंग उसका सही लाभ उठा
सकेगा। शरीर अपने साथ होने वाली अति को रोकने के लिए संकेत देता है। लेकिन हम आराम
व विलासिता की ओर बढ़ने में रुचि रखते हैं, इसलिए समझ ही नहीं पाते। जितना
हम आवश्यकता पर टिकेंगे, उतना ही संयम का अर्थ समझ जाएंगे। संयम का सही अर्थ है
संतुलन। आवश्यकता, आराम व विलासिता में संतुलन बनाए रखें, फिर देखें शरीर सबसे बड़ा सुख
देगा।
अपने विचारों का मूल्यांकन कभी बंद न करें
अपने विचारों का मूल्यांकन करना कभी भी बंद न करें, क्योंकि विचारों का प्रवाह अनवरत
और कभी-कभी अत्यधिक भी हो जाता है। हर नया विचार पुराने को चुनौती देता है। यहीं
से भ्रम भी पैदा होता है और कभी-कभी अधिक विचार आने से निर्णय भी गलत हो जाते हैं।
रावण के साथ यही हुआ। वह बहुत विद्वान था। लिहाजा उसके भीतर विचारों की भरमार थी।
सुंदरकांड का दृश्य है। रावण के दरबार में हनुमानजी निर्भीक खड़े थे। दोनों का
वार्तालाप शुरू होता है। कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा।। की
धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउं अति असंक सठ तोही।। लंकापति रावण ने कहा - रे
वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मेरा नाम और यश
नहीं सुना? रे शठ! मैं तुझे अत्यंत नि:शंक देख रहा हूं।
मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।। तूने किस अपराध से
राक्षसों को मारा? बता, क्या
तुझे प्राण जाने का भय नहीं है? यहां रावण ने हनुमानजी से पांच प्रश्न पूछे। इन शब्दों में
अहंकार भरा हुआ था। रावण ने अपने ही विचारों को शब्दों से जोड़ने के लिए अहंकार का
सेतु बनाया, जबकि विश्लेषण के साथ शब्द प्रस्तुत करने थे, क्योंकि सामने हनुमानजी खड़े थे।
हनुमानजी की विशेषता यही थी कि वे अपने विचारों का मूल्यांकन करते रहते थे।
दरअसल रावण यह मानता ही नहीं था कि वह अहंकारी है। उसके हिसाब से तो जो वह कर रहा
होता था, वही
सही माना जाए। उसके पास सबकुछ होने के बाद भी वह अव्वल दर्जे का भिखारी था। यहीं
से हनुमानजी उसे बुद्धि का दान देना शुरू करते हैं।
प्रकृति के सारे रूप ये संदेश देते हैं कि सतत कर्मशील रहो
संसार में रोज ही नए-नए संकट पैदा होते रहते हैं। कोई एक क्षेत्र इसके लिए तय
नहीं होता। इसके समाधान के लिए हमें लगातार प्रयत्न करने होंगे। जब हम एक समस्या
से छुटकारा पा रहे होते हैं, तब दूसरी समस्या दस्तक देने के लिए आ रही होती है। लेकिन कई
बार हम निराश हो जाते हैं।
विशाल दृष्टि रखकर सोचें। परमात्मा ने इतना बड़ा संसार बनाया, उसमें कोई न कोई संकट
आता ही रहता है। इसीलिए वह परमशक्ति लगातार प्रयत्नशील रहती है। धर्मो में अवतारों
की कल्पना उसी क्रियाशील शक्ति का प्रतीक है। अपनी उस शक्ति को सूर्य के रूप में
स्थापित करके हमें यह शिक्षा दी है कि अपने तेज प्रकाश को लगातार परिभ्रमण करते
हुए सबमें बांटें।
धरती न सिर्फ देती है, बल्कि क्रियाशील भी रहती है। धरती सूर्य का चक्कर लगाती है,
बादल अपने वेग से
चलते हैं। वायु कभी विश्राम नहीं करती। नदियां बाधाओं को पार कर अपने मुकाम समुद्र
तक पहुंच जाती हैं। समुद्र अपनी गहराई तक क्रियाशील है। प्रकृति के ये सारे रूप
हमें संदेश दे रहे हैं कि लगे रहो, रुको मत। धर्म और अध्यात्म ने कर्म को इसीलिए तप से जोड़ा
है।
केवल करने के लिए काम न करें। हमारे यहां साधु-संतों ने भी तप को दो भागों में
बांटा है - एक बाहरी तप और दूसरा भीतरी तप। जो कमर्कांड हम करते हैं, धार्मिक रूप से सक्रिय
रहते हैं, यह बाहरी तप है, इसमें शरीर जुड़ा हुआ है। लेकिन यह कर्म नहीं, तप कहलाएगा। इसलिए आध्यात्मिक
लोग अपना प्रत्येक कर्म तप में बदल देते हैं। यही तप जब भीतर उतर जाता है तो योग
हो जाता है।
अपयश के हालात में थोड़े समय शरीर को बिल्कुल शांत कर दें
जिंदगी में कभी-कभी बिना किसी कारण के अपयश मिलता है। हमारी कोई भूमिका न हो,
फिर भी जिंदगी में
अपकीर्ति आ जाए तो अच्छे-अच्छे सहनशील भी परेशान हो जाते हैं। कहा गया है -‘नास्त्यकीर्ति समो
मृत्यु:’ यानी
अकीर्ति के समान मृत्यु नहीं है। ऐसा लगता है जैसे मौत आ गई है। जब अकारण अपयश
मिले तो मनुष्य दो काम कर जाता है।
पहली स्थिति तो यह होगी कि कुछ न किया जाए, चुपचाप बैठकर इस अपयश को भोग
लें। लेकिन ऐसे में भी स्थितियां बार-बार घूमकर सामने आती हैं और निरंतर प्रताड़ना
का एक स्थायी दौर जीवन में आ जाता है। दूसरी स्थिति मनुष्य यह बनाता है कि प्रयास
करके इस अपयश को धोया जाए।
लेकिन यह इतना आसान नहीं होता। मानसिक दबाव के कारण मार्ग दिखना ही बंद हो
जाता है। राम कथा में हम सुन चुके हैं कि भरत को राम वनवास का अपयश अकारण ही मिला
था। लेकिन प्रयास और त्याग वृत्ति के कारण वह अपयश यश में बदल गया था।
कभी जीवन में ऐसा हो जाए तो मनुष्य प्रयास शुरू करता है कि यह अकीर्ति मिट जाए,
लेकिन परेशानी
होने के कारण उसके प्रयास भी उलटे पड़ने लगते हैं। हमारे ही प्रयास हमें और पीड़ा
पहुंचाते हैं। तब एक प्रयोग करिए, चूंकि अपयश के कारण पूरा व्यक्तित्व कंपन करने लगता है।
भले ही लोग न देख सकें, पर हम जानते हैं कि ऐसे हालात में थोड़े समय शरीर को
बिल्कुल शांत कर दें। बाहरी कंपन दूर करें तो भीतरी यात्रा प्रारंभ हो सकेगी।
लगातार विचारशून्य सांस लें और पूरे व्यक्तित्व को अकंपन की स्थिति में ले आएं।
अकंपन की स्थिति आपके प्रयासों को अपयश मिटाने में मदद करेगी।
जब लोग आपकी प्रशंसा के पुल बांधें तो अपना आकलन करें
बड़े से बड़े संयमी, समझदार और विनम्र व्यक्ति को भी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता
है। संसार में आपके कार्यो पर लोग चार तरह से प्रतिक्रिया देंगे। कुछ तटस्थ होंगे,
कुछ आलोचना करेंगे,
कुछ चापलूसी
करेंगे और बचे हुए प्रशंसा करेंगे।
जो तटस्थ हों, उनके प्रति ईष्र्या का भाव न पालें और जो आलोचना कर रहे हों, उनको लेकर शत्रुता मन
में न लाएं। चापलूसों से सावधान रहें और जो प्रशंसा कर रहे हों, उनके प्रति अत्यधिक
सजगता रखें। प्रशंसा का फायदा ऐसा उठाएं कि अपना विश्लेषण कर लें कि क्या सचमुच हम
इसके योग्य हैं? जरा इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिए - बिबि रसना तनु श्याम है, बंक चलनि बिष खानि।
तुलसी जस श्रवननि सुन्यो सीस समरप्यो आनि - जिसकी दो जीभें हैं, काला शरीर और टेढ़ी चाल
है तथा जो विष की खान है, ऐसा सर्प भी अपनी प्रशंसा सुनते ही आकर अपना सिर सौंप देता
है। सपेरा मंत्र पढ़कर सांप की बड़ी प्रशंसा करता है और बीन बजाता है। सांप
प्रसन्न होकर आता है और सपेरे द्वारा पकड़ा जाता है।
सपेरा जब बीन बजाता है तो सांप को जो रस आता है, वैसा ही रस हमें अपनी प्रशंसा
सुनकर आता है। सावधान रहिए, प्रशंसा का बीन हमारे भीतर के फन को फैला देगा और आप ऐसी
गिरफ्त में होंगे, जिसे अहंकार कहते हैं। इसलिए हमें सांस से जुड़ने का प्रयास करने को कहा गया
है। जब भी हमसे कोई ऐसा काम हो, जो सचमुच प्रशंसनीय हो और लोग प्रशंसा के पुल बांध रहे हों,
तब स्वयं अपना
आकलन करिए, क्या हम इस योग्य हैं। इसके लिए प्राणायाम एक अच्छी क्रिया होगी।
असफल होने पर भी उत्सव मनाने की वृत्ति न छोड़ें
उत्सव मनाना और सौभाग्य को आमंत्रित करना लगभग एक जैसा है। सफलता का उत्सव तो
बहुत लोग मनाते हैं, लेकिन असफल होने पर भी उत्सव की वृत्ति न छोड़ें। भारतीय संस्कृति उत्सवों की
ही संस्कृति है।
उत्सव का अर्थ यह नहीं होता कि खुशियों का बंटवारा कर लें, बल्कि उत्सव का अर्थ
होता है, उत्साह
को पैदा करना। सुख और दुख बांटो या न बांटो, उनके अपने फैलने के तरीके होते
हैं, लेकिन
उत्साह हमें भीतर से ही लाना पड़ेगा। उत्सव का अर्थ धूम-धड़ाका और भाग-दौड़ ही न
मान लें।
सच तो यह है कि जिस दिन आप खूब शांति से बैठ जाते हैं, उस दिन आप भरपूर उत्सव में डूबे
रहते हैं। तमाशे और उत्सव में यही फर्क है। जिंदगी की चलती हुई गाड़ी में उत्सव उस
कील की तरह है, जिसके आसपास पहिया घूम रहा है। हम कहते हैं, वाहन चल रहा है।
दरअसल वाहन दो हिस्सों में बंटा है। उसका चलना उसके पहिये पर निर्भर है और
पहिये का घूमना उसकी बीच की कील पर निर्भर है। कील रुकी रहती है, पहिया घूमता है और गाड़ी
को चलता हुआ बताया जाता है। बस जिंदगी की गाड़ी भी ऐसी ही है। आप घूमते हुए पहिए
पर ज्यादा न टिकें। उस रुकी हुई कील पर ध्यान दें, जिसे जीवन का केंद्र कहा गया है।
उत्सव मनाना और सौभाग्य को आमंत्रित करना लगभग एक जैसा है। सफलता का उत्सव तो
बहुत लोग मनाते हैं, लेकिन असफल होने पर भी उत्सव की वृत्ति न छोड़ें। भारतीय संस्कृति उत्सवों की
ही संस्कृति है।
उत्सव का अर्थ यह नहीं होता कि खुशियों का बंटवारा कर लें, बल्कि उत्सव का अर्थ
होता है, उत्साह
को पैदा करना। सुख और दुख बांटो या न बांटो, उनके अपने फैलने के तरीके होते
हैं, लेकिन
उत्साह हमें भीतर से ही लाना पड़ेगा। उत्सव का अर्थ धूम-धड़ाका और भाग-दौड़ ही न
मान लें।
सच तो यह है कि जिस दिन आप खूब शांति से बैठ जाते हैं, उस दिन आप भरपूर उत्सव में डूबे
रहते हैं। तमाशे और उत्सव में यही फर्क है। जिंदगी की चलती हुई गाड़ी में उत्सव उस
कील की तरह है, जिसके आसपास पहिया घूम रहा है। हम कहते हैं, वाहन चल रहा है।
दरअसल वाहन दो हिस्सों में बंटा है। उसका चलना उसके पहिये पर निर्भर है और
पहिये का घूमना उसकी बीच की कील पर निर्भर है। कील रुकी रहती है, पहिया घूमता है और गाड़ी
को चलता हुआ बताया जाता है। बस जिंदगी की गाड़ी भी ऐसी ही है। आप घूमते हुए पहिए
पर ज्यादा न टिकें। उस रुकी हुई कील पर ध्यान दें, जिसे जीवन का केंद्र कहा गया है।
उत्तम पुरुष का वैर जल की लकीर के समान होता है
व्यक्ति की रुचियों में अंतर होता है। हम इसे ही सिद्धांतों का अंतर या भेद
मान लेते हैं। धर्म से धर्म टकराने का एक बड़ा कारण यह भी रहा है। धर्म-जाति से
जुड़े कुछ लोगों ने अपनी निजी पसंद को धर्म के सिद्धांत से जोड़ दिया। जैसे प्रीति
और वैर के मामले में पत्थर, रेत और पानी की निजी तासीर अलग-अलग परिणाम समझाएगी। उत्तम,
मध्यम नीच गति
पाहन सिकता पानि।
प्रीति परिच्छा तिहुन की बैर बितिक्रम जानि।। अर्थात प्रीति की परीक्षा में उत्तम,
मध्यम और निम्न,
इन तीनों की
स्थिति क्रमश: पत्थर, बालू और जल के समान है। अर्थात उत्तम पुरुष की प्रीति पत्थर की लकीर के समान
अमिट है। मध्यम मनुष्य की प्रीति बालू की रेखा के समान दूसरी हवा न लगने तक ही है
और निम्न या नीच की प्रीति तो जल की लकीर के समान है।
जैसे अंगुली से जल में लकीर खींचते जाइए, साथ ही साथ वह मिटती चली जाएगी,
ऐसे ही नीच की
प्रीति तत्काल नष्ट हो जाती है। परंतु वैर में इसके विपरीत होगा। उत्तम पुरुष का
वैर जल की लकीर के समान तत्काल नष्ट होने वाला, मध्यम की दुश्मनी का बालू की
रेखा के समान कुछ समय तक रहने वाला और नीच की शत्रुता पत्थर की लकीर के सदृश
चिरस्थायी रहेगी। देखा जाता है कि एक धर्म में सहिष्णु लोग दूसरे में हिंसक हो
जाते हैं।
अपनी रुचि से हम धर्म तैयार करने लगते हैं, जबकि धर्म से रुचि होनी चाहिए।
इसी कारण हर धर्म में प्रीति और वैर के अर्थ बदल जाते हैं, जो होना नहीं चाहिए। प्रेम सब
जगह प्रेम ही रहेगा और इसी के अभाव में शत्रुता जागेगी, लेकिन लोगों ने अपनी रुचि के
अनुसार इनकी परिभाषाएं तय कर दीं और सिद्धांत बना दिए।
दिल-दिमाग के संतुलन से वाणी और विचार एक गति से चलते हैं
जो भी काम करें, उसे पूरे दिल और दिमाग से करें। इसे सुंदरकांड में हनुमानजी ने समझाया है। जब
हम दिल और दिमाग के संतुलन से काम करते हैं, उस समय हमारी वाणी और विचार एक
गति से चलते हैं। हमारी वाणी विचार, तर्क और तथ्यों के आधार पर प्रभावशाली बन जाती है।
रावण ने अपनी सभा में हनुमानजी से पांच प्रश्न पूछे थे और हनुमानजी ने उसके दस
उत्तर दिए थे।
सुंदरकांड में हनुमानजी की वाक्शैली और चातुर्य का अद्भुत प्रसंग है। रावण के
प्रश्नों का उत्तर देने के आरंभ में हनुमानजी कहते हैं - जाके बल लवलेस तें जितेहु
चराचर झारि। तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।
जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी
को तुम हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूं। अपनी बातचीत की शुरुआत में ही हनुमानजी ने रावण को यह
स्पष्ट कर दिया कि मैं श्रीराम का दूत हूं।
वे परमात्मा को याद करके अपने भाषण का आरंभ कर रहे थे। हम थोड़ा-सा याद करें
कि जब हनुमानजी लंका की ओर उड़े थे, तब भी उन्होंने परमात्मा को याद किया था - यह कहि
नाई सबनी कहूं माता चलेउ हरषिही भयउ रघुनाथा।
सबको मस्तक नवाकर और हृदय में रघुनाथ को धारण करके हनुमानजी प्रसन्न भाव से उड़े थे। आज पुन: ‘मैं उन्हीं का दूत हूं’, कहकर उन्होंने श्रीराम को याद किया और रावण को उत्तर देना आरंभ किया। परमात्मा का स्मरण वाणी को निर्दोष और प्रभावशाली बनाता है। एक-एक उत्तर सुनकर रावण चौंकता गया। फिर हनुमानजी तो उनमें से थे, जो अपने शब्दों की जिम्मेदारी भी उठाने को तैयार रहते हैं।
दीनता को आदत नहीं बल्कि अपना स्वभाव बनाएं
खूब परिश्रम के समय में हम कब आक्रामक हो जाते हैं, पता ही नहीं चल पाता है। लगातार
प्रतिस्पर्धा के चलते हमारे हृदय की उदारता धीरे-धीरे खत्म होने लगती है। फकीरों
ने कहा है भगवान को अपने भक्तों के व्यक्तित्व में जो-जो अच्छा लगता है उनमें एक
है दीनभाव। दीन गरीबी बंदगी, साधुन सों आधीन। ताके संग मैं यौं रहूं, त्यौं पानी संग मीन।।
अर्थात जिसमें विनम्रता, गरीबी का विनय भाव, सेवा-समर्पण तथा साधु-संतों की शरण में रहने का
श्रद्धाभाव है, उसके साथ मैं ऐसे रहूं, जैसे पानी के साथ मछली रहती है। अर्थात मछली और पानी के संग
की भांति ऐसे सेवक भक्तों के साथ रहना चाहिए। दीन लखै मुख सबन को, दीनहि लखै न कोय।
भली बिचारी दीनता, नरहु देवता होय।। यानी विनम्र-विनीत पुरुष सबके मुख को
देखता है, परंतु उसके मुख की ओर कोई नहीं देखता। अत: यह दीनता बहुत ही अच्छी है, जो भले-बुरे की पहचान
कराकर मनुष्य से देवता बना देती है। दीनभाव होने का यह अर्थ नहीं है कि हम भिखारी
की तरह हो जाएं।
दरअसल इसके आते ही कठोरता करुणा में बदल जाती है, जटिलता पवित्रता हो जाती है।
आदमी के भीतर जो शांति उतरती है, वह उसका सौंदर्य बन जाता है। उसकी गंभीरता बाहर ही नहीं
होती, बल्कि
भीतर भी लबालब रहती है। क्षमा करके वह महान नहीं बनना चाहता, बल्कि क्षमा उसका स्वभाव
बन जाता है।
इसलिए दीनता को आदत न बनाएं, बल्कि स्वभाव बनाएं। प्रकृति हमें स्वभाव देती है और मशीनी
जीवन शैली हमें आदत देती है। जो लोग स्वभाव से दीन होते हैं, वे ही सबसे बड़े
पराक्रमी माने जाएंगे।
मनुष्य को पढ़ना नहीं सीखा तो सारी पढ़ाई बेकार है
जीवन में शिक्षा की शुरुआत पढ़ने से होती है। अब तो पढ़ने के तरीके भी बदल गए
हैं। किताबों का अक्षर-ज्ञान कंप्यूटर की स्क्रीन पर जा धंसा है। समय बदलता है तो
शिक्षा के तरीके भी बदल जाते हैं। लेकिन आप जिस भी तरीके से पढ़ें, आपके पास कितना ही अच्छा
शब्द-ज्ञान हो, पर यदि एक पढ़ाई नहीं की तो सारी शिक्षा बेकार हो जाएगी और वह है मनुष्य को
पढ़ना। जैसे किताब पढ़ते समय कठिन शब्द आए तो डिक्शनरी देखनी होती है, वैसे ही मनुष्य को पढ़ते
समय कठिनाई आए तो स्वयं को पढ़ना होगा।
इस मामले में प्रत्येक मनुष्य एक डिक्शनरी है। आप अपने को जितना अच्छा टटोल
लेंगे, दूसरों
का अध्ययन उतना ही अच्छा कर सकेंगे। लोगों को पहचानने में भूल नहीं करेंगे। कभी
दर्पण के सामने खड़े होकर खुद को देखने का प्रयास करें। खासतौर पर उस समय, जब आपको बहुत गुस्सा आ
रहा हो।
क्रोध में रहते हुए कांच में खुद को देखना, क्रोध को कम करने का एक बड़ा
कारण बन जाएगा। यहीं से आप खुद को पढ़ने का अर्थ समझ जाएंगे। शिक्षा के लिए कहा
गया है कि यह वह धन है, जो कोई चुरा नहीं सकता।
लेकिन आदमी इसका सही उपयोग नहीं कर पाता। शिक्षा ऐसा धन है, जो देने से और बढ़ता है।
इसके वितरण का संबंध उदारता से है। मरने के बाद भी शिक्षा का धन काम आता है। ऐसा
कहा गया है कि अर्जित ज्ञान मौत के बाद संस्कार के रूप में सूक्ष्म शरीर बनकर
आत्मा के साथ जाता है और अगले जन्म की तैयारी में काम भी आता है। इसलिए शिक्षित
हों, खूब
पढ़ें और उस पढ़ाई का उपयोग अपने को तथा अन्य मनुष्यों को पढ़ने में भी लगाएं।
परमात्मा को समर्पित भक्तों की आज कमी होती जा रही है
पिछले दिनों संन्यास परंपरा के शीर्ष संत से भेंट हुई। उन्होंने तीन बातें
बड़ी गंभीरता से कहीं - पहली तो यह कि लोगों का धार्मिक रुझान बढ़ा है और गृहस्थी
में साधुवृत्ति से रहने वाले लोग दिखने लगे हैं। दूसरी बात उनकी यह थी कि अखाड़ों
में, आश्रमों
में रहने वाले साधुओं की संख्या बढ़ती जा रही है और तीसरी बात में उन्होंने यह
चिंता व्यक्त की कि संत परंपरा के लिए अच्छे उत्तराधिकारी मिलना मुश्किल हो गए
हैं। लोगों ने आवरण ओढ़ लिया, लेकिन आचरण नहीं बना पाए।
अग्नि है, पर तपिश नहीं है। वस्त्र हैँ, लेकिन व्यवहार में संन्यास नहीं है। अब तो संतों द्वारा जो
समाजसेवा के काम किए जा रहे हैं, वे भी प्रतिष्ठा और प्रदर्शन के आयोजन बन गए हैं। उनकी
तीसरी चिंता पूरे समाज की चिंता बनेगी। यदि संत परंपरा में अच्छे उत्तराधिकारी
नहीं मिले, तब आगे क्या होगा?
पारिवारिक लोग संतों के भरोसे अपने जीवन का एक बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा बिताते
रहे हैं। लिहाजा अब उत्तराधिकारी बनाने के लिए भी अभ्यास, प्रशिक्षण व समर्पण की व्यवस्था
बनानी होगी। अनुयायी और उत्तराधिकारी अपने पूज्य से बाहरी रूप से जुड़ जाते हैं।
एक नई शक्ति उनके भीतर आनी चाहिए और उससे उनके व्यक्तित्व में फैलाव होना
चाहिए। जहां समर्पण होना चाहिए, वहां सौदे शुरू हो जाते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि
गद्दी पर बैठे लोगों ने अपने अनुयायियों को अपने से तो जोड़ा, लेकिन परमात्मा से
जोड़ने में चूक गए। आदमी यदि परमात्मा को समर्पित हो जाए तो वह गद्दी पर रहे या न
रहे, पर
आचरण से सदा भक्त रहे। ऐसे ही भक्तों की आज कमी होती जा रही है।
ऐसे लोगों को अपने आसपास रखें जो प्रेरणा के स्रोत हों
अपनी आलोचना करने वालों को अपने आसपास रखा जाए, ऐसे प्रेरक वाक्य हर युग में कहे
गए हैं। निंदक नियरे राखिए.. इसका अर्थ है, आलोचकों को अपने पास रखेंगे तो
हमें अपनी गलतियां पता लगती रहेंगी, लेकिन यह बात उन आलोचकों के लिए कही गई, जिनके पास कोई विश्लेषण
नहीं रहता। आधुनिक प्रबंधन यह भी सिखाता है कि आलोचकों से दूर रहो, क्योंकि आलोचना करने
वाले भी अब स्वार्थी हो गए हैं। आलोचना उनके लिए एक शस्त्र है, जिससे वह आप पर प्रहार
कर सकते हैं।
एक संत ने इसका उल्टा करने को कहा। प्रेरक नियरे राखिए.. ऐसे लोगों को अपने
पास रखें, जो प्रेरणा के स्रोत हों। प्रेरणा दो तरीके से मिलती है। पहली, मस्तिष्क से, दूसरी मन से। अच्छी
किताबें, अच्छे
लोग, गुरुजन
ये आपको मस्तिष्क से प्रेरणा देंगे और माता-पिता, वृद्धजन, परिवार के लोग मन से प्रेरणा
देंगे। मस्तिष्क का काम है जानकारी एकत्रित करना, उनको व्यवस्थित करना और आगे
स्थानांतरित कर देना। लेकिन मन दो हिस्सों में बंटा होता है।
एक हिस्से से वह विचारों का भोजन करता है और दूसरे से वासनाओं को गतिशील करता
है। हमारे अपने लोग और खासतौर पर माता-पिता जब हमें कोई प्रेरणा दे रहे होते हैं,
उस समय उनका मन
विचार और वासना दोनों से शून्य रहता है। इन दोनों के जाते ही प्रेम अपना स्थान ले
लेता है।
पवित्रता अपना काम करने लगती है। इस समय प्रेरणा बिना कहे भी उनके शरीर के
आसपास पॉजिटिव एनर्जी के रूप में आने लगती है। इसे दुआ और आशीर्वाद भी कहा जाता
है। जब भी मौका मिले, ऐसी प्रेरणा दीजिए और लीजिए।
बचपन से ही माता-पिता अपनी संतानों के लक्ष्य तय कर दें
कई लोगों का जीवन बीत जाता है और वे तय नहीं कर पाते कि उनके जीवन का लक्ष्य
क्या है। कई लोग लक्ष्य का दावा करते हैं, पर वो उनके अहंकार के कारण भ्रम ही होता है। लक्ष्य
गढ़ने की कोई उम्र नहीं होती।
अब तो समय आ गया है कि बचपन से ही माता-पिता अपनी संतानों के लक्ष्य तय कर दें,
क्योंकि इस बात
में समय लग जाता है कि लक्ष्य को समझा भी जाए। जिस दिन यह नारा हृदय में उतर जाए
कि सफलता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, उस दिन लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक तड़प भीतर पैदा हो
जाती है।
बिना लक्ष्य के न तो भौतिकता का जीवन जिएं और न भक्ति का। लक्ष्यहीन भक्ति
कोरा कर्मकांड बनकर रह जाती है। लक्ष्य यदि बचपन से तय हो जाए, तो युवावस्था आते-आते
परिश्रम के अर्थ सही ज्ञात हो जाएंगे। वैसे आजकल इस मामले में नई पीढ़ी बहुत
सक्रिय है कि वह अपने लक्ष्य तय करके चलती है।
गलत है कि सही, इस पर वह किसी का हस्तक्षेप भी नहीं चाहती। अब लक्ष्य के साथ दो काम जरूर
करें। अपने लक्ष्य को पारिवारिक और सामाजिक उद्देश्यों से जरूर जोड़ें, अन्यथा हम तो लक्ष्य की
पूर्णता की ओर चल देंगे, पर हमसे जुड़े परिवार और समाज के लोग पीछे छूट जाएंगे। यहीं
से परिवार के लोगों को लगने लगता है कि मनुष्य स्वार्थी हो गया है।
इसलिए लक्ष्य के सपने देखें और उन सपनों में अपने निकट के लोगों को भी जोड़
लें। हम स्वप्न देखेंगे तो उन्हें पूरा करने में समर्थ भी होंगे। देखी हुई वस्तु
पाना आसान है, अनदेखे को कैसे पाएंगे? देखने का तरीका बुद्धि, बल और विवेक होना चाहिए। फिर
लक्ष्य चाहे संसार हो या परमात्मा, प्राप्त जरूर होगा।
रामकाज का अर्थ है ईमानदारी और परिश्रम से सद्कार्य करना
अहंकारी व्यक्ति जब कोई प्रश्न पूछता है तो उत्तर में वही सुनना चाहता है,
जो उसकी इच्छा
होती है। उसे उत्तर के पीछे के सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता। रावण ने हनुमानजी
से प्रश्न तो पूछे थे, पर हनुमानजी भी जानते थे कि इस विश्व विजेता को उत्तर देने
का तरीका कुछ अनूठा रखना होगा। चूंकि लंका के लोग देह पर ही अधिक टिकते हैं। जब
मनुष्य केवल देह को ही प्रधानता दे तो उसे राक्षस वृत्ति कहेंगे।
हनुमानजी ने उत्तर देने का सिलसिला देह से ही शुरूकिया। खायउं फल प्रभु लागी
भूंखा। कपि सुभाव तें तोरेउं रूखा।। सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि
कुमारग गामी।। हे राक्षसों के स्वामी! मुझे भूख लगी थी, इसलिए मैंने फल खाए और वानर
स्वभाव के कारण वृक्ष तोड़े। हे मालिक! देह सबको परम प्रिय है। कुमार्ग पर चलने
वाले दुष्ट राक्षस जब मुझे मारने लगे, तब मैंने उन्हीं को मारा, जिन्होंने मुझ पर प्रहार किया और
यह भी स्पष्ट कर दिया कि मैं इसलिए बंधा हूं क्योंकि मैं भगवान का काम कर रहा हूं।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बांधेउं तनयं तुम्हारे।। मोहि न कछु बांधे
कइ लाजा। कीन्ह चहउं निज प्रभु कर काजा।।
तब जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा। उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बांध
लिया। मुझे अपने बांधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है। मैं तो बस अपने प्रभु का काम
करना चाहता हूं। रामकाज का अर्थ होता है - ईमानदारी और परिश्रम से सद्कार्य करना।
हनुमानजी रावण और हम लोगों को यह समझा रहे हैं कि सत्य और धर्म के पक्ष में यदि
शस्त्र भी उठाना पड़े तो उठाया जाना चाहिए। इस हिंसा में बहुत बड़ी अहिंसा छिपी
हुई होगी।
परिवार व कुटुंब में रिश्ते निभाना सबसे बड़ी योग्यता है
परिवार में रहते हुए लगातार इस बात की कोशिश करते रहना चाहिए कि यह टूटे नहीं।
जैसे हर बात की आयु होती है, वैसे ही परिवार की भी उम्र होती है और जिस तरह हर उम्र की अपनी
हेंडलिंग अलग रहती है, वैसे ही परिवार में रहते हुए सदस्यों द्वारा एक-दूसरे की
हेंडलिंग पर लगातार सजगता रखनी चाहिए। यदि हम दीये की रोशनी पर दृष्टि गड़ाते हुए
ध्यान कर रहे हों तो हमें ज्योति के महत्व को समझना चाहिए।
हम दीये के आकार, मिट्टी के प्रकार पर ध्यान न दें। दीया जो ज्योति दे रहा है, हम उस पर टिकें। परिवार
में कोई सदस्य कमजोर है और कोई सक्षम, हमें इस बात पर ध्यान नहीं देना है कि कौन क्या है?
हमारी पहली
प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह उसका सदस्य हो। स्वयं भी इस बात पर गौरव करें कि हम
इस परिवार के सदस्य हैं। इसको कहते हैं मानसिक एकता। मानसिक रूप से जैसे ही सबको
समान मानेंगे, हम भावनात्मक रूप से जुड़ने लगेंगे। आज अविश्वास की स्थिति परिवारों में बहुत
जल्दी आ जाती है। कई लोगों का तो पूरा पारिवारिक जीवन संदेह की भूल-भुलैया में खो
जाता है।
अजीब-अजीब सुरंगें परिवार में बन जाती हैं, जबकि कुटुंब में रिश्ते निभाना
ही सबसे बड़ी योग्यता मानी जाएगी। किससे किसको क्या मिलेगा, इसकी जगह महत्वपूर्ण यह होना
चाहिए कि हमको परिवार मिला है और इसे परमात्मा का प्रसाद मानकर स्वीकार करना
चाहिए। दुनियादारी के सारे रिश्ते यदि ठीक से टटोलें तो परिवार में ही मिल जाएंगे।
मित्र, गृहिणी,
रमणी, गुरु, परमात्मा, सेवक, सहयोगी सबकुछ जिस परिवार
में है, उसका
टूट जाना दुर्भाग्य ही होगा।
यदि आप सकारात्मक रहेंगे तो वातावरण मंगलकारी होगा
अनेक मौकों पर हम जान ही नहीं पाते हैं कि हमारे भीतर जो क्रोध, काम, लोभ जागा है, वह हमारा नहीं है,
बल्कि किसी और के
द्वारा फेंका हुआ है। इसे कहते हैं विचारों का संक्रमण। अब तो विज्ञान भी स्वीकृत
करता है कि किसी और का थ्रो आपके भीतर पेस्ट हो रहा है और फिर आप रिएक्ट कर रहे
हैं। साधारण-सी बात है, कहा जाता है कि गाड़ी चलाते हुए ड्राइवर के पास बैठी हुई
सवारी को सोना नहीं चाहिए, क्योंकि पड़ोसी के आलस्य से उसकी निद्रा निश्चित ही
संक्रमित होगी और यह संक्रमण बाहर ही नहीं होता, भीतर तक प्रभाव छोड़ जाता है।
जैन धर्म में महावीर स्वामी ने कहा है कि अज्ञानी से दूर रहना और ज्ञानी के
पास रहना मंगलकारी है। जिसकी चेतना बीमार हो, उसका सान्निध्य अमंगलकारी होगा
और जो जाग्रत है, प्रसन्न है, उसकी मौजूदगी मंगलकारी होगी। शास्त्रों में कहा गया है - महतां योपराध्येत
दूरस्थोस्मीति नाश्वसेत्। दीघौ बुद्धिमतौ, ताभ्यां हिंसति हिंसकम्।।
महापुरुषों के प्रति अपराध करके मैं उनसे दूर हूं, यह सोचकर आश्वस्त नहीं होना
चाहिए। बुद्धिमान के बड़े लंबे हाथ होते हैं, उनसे वह हिंसक को मार डालता है।
पंचतंत्र में इसीलिए कहा गया है कि बुद्धिमान का अर्थ है जिसकी चेतना जाग्रत है।
और इसीलिए यदि आप उसके प्रति कोई अपराध करेंगे तो वह अपने जाग्रत बोध से ही आप तक
पहुंच सकता है। उसके विचार प्रवाहित होते-होते आप तक पहुंच ही जाएंगे।
दांपत्य जीवन वृक्ष की तरह जितना ऊपर बढ़ेगा जड़ें गहरी होंगी
आज शादी रचाने के मामले में स्त्री और पुरुष अधिक स्वतंत्र हैं। भारतीय समाज
में तो अब शादी तोड़ने में भी लोग स्वतंत्र होते जा रहे हैं। अधिकांश मौकों पर
दोनों की पसंद को प्राथमिकता दी जा रही है। स्त्री-पुरुष की मित्रता दांपत्य में
सरलता से बदल रही है। पति-पत्नी होने की शुरुआत इन दिनों सरल है, झंझटें शुरू हो रही हैं
बाद में।
इस समय धरती पर पति-पत्नी बन जाना बहुत मुश्किल नहीं लगता। कुछ लोगों ने तो
इसे ‘चाहे
जब, चाहे
जैसे’ की
श्रेणी में लाकर रख दिया है, लेकिन जब दांपत्य शुरू होता है, तब अकुलाहट आरंभ हो जाती है। पति
और पत्नी के रिश्ते में अच्छाई और बुराई अलग-अलग नहीं होती। यह रिश्ता इतना
प्रगाढ़ होता है कि एक की बुराई बढ़ी, तो कहीं न कहीं दूसरे की भी बढ़ेगी।
एक में अच्छाई बढ़ी तो दूसरे में भी बढ़नी ही है। यह रिश्ता पेड़ की तरह है,
जितना पेड़ ऊपर
बढ़ेगा, जड़ें
उतनी ही नीचे उतरती जाएंगी। इसलिए यदि कोई भी एक क्रोध में होगा तो प्रभाव दूसरे
पर पड़ना ही है। पति-पत्नी में से कोई कभी जड़ की भूमिका में होगा तो कभी कोई
वृक्ष की तरह नजर आएगा।
इसलिए दांपत्य जीवन की मधुरता इसी में है कि पति-पत्नी शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक रूप
से एकसाथ विकसित हों। क्षमा और सहिष्णु होना इन दोनों के गहने होंगे। आजकल दिखावट
और बनावटीपन के कारण जल्दी मनोमालिन्य आ जाता है। इस गठबंधन को संस्कार इसीलिए कहा
गया है कि भले ही नासमझी से इसकी शुरुआत कर दें, लेकिन बाद में हर सांस समझदारी
से लेते रहिए।
नींद आने से पहले कुछ सवाल खुद से पूछकर सोइए
आप कितने ही सक्षम हों, लेकिन आपका जन्म लेना आपके हाथ में नहीं था और कितने ही
बहादुर हो जाएं, आपकी मृत्यु आपके वश में नहीं रहेगी। इन दोनों के मध्य जीवन चलता है और इस
तेजी से चलता है कि आदमी यह भूल ही जाता है कि उसका दुनिया में आना और जाना किसी
और शक्ति के नियंत्रण में है। तो क्या वह शक्ति बीच में काम नहीं कर रही होती?
इसलिए परमात्मा का महत्व समय रहते समझना चाहिए, लेकिन दिनभर और देर रात तक हम इतने व्यस्त हैं कि अपने परिश्रम के अलावा दूसरे की मौजूदगी महसूस ही नहीं कर पाते। खूब काम करिए, चौबीस घंटे भी कम पड़ जाएं, इतने जुटे रहिए। ध्यान रखें, सोने के बाद तो रुकना ही है, नींद आ ही जाएगी।
लेकिन नींद आने से पहले कुछ सवाल खुद से पूछकर जरूर सोइए। पहला सवाल, आज दुनिया खूब नापी,
लोगों का खूब
उपयोग किया, अपना भी यूज होने दिया, लेकिन जीवन की एक बहुमूल्य निधि है परमात्मा, क्या उससे जुड़ाव बना
रहा? दूसरा
सवाल, इस
पूरी आपाधापी में परिवार कहां था?
तीसरा सवाल, जो गलतियां आज हो गईं, वे कल न हों और चौथा सवाल न होकर आभार होगा - ‘धन्यवाद प्रभु! कल फिर
तेरे भरोसे उठेंगे।’ यह अभ्यास हमें महसूस कराएगा कि जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा उस परमात्मा पर
छोड़ दो। करना हमको ही है, लेकिन करा वो रहा है, इस भाव को मजबूत करें। हम उस
परमात्मा के अंश हैं, इसलिए जन्म और मृत्यु के बीच का जीवन भी उसी का होगा। यह भावना व्यस्त से
व्यस्त लोगों को भी कभी अशांत नहीं होने देगी।
सद्विचारों और सद्साहित्य का प्रचार-प्रसार करें
प्रचार-प्रसार की इस दुनिया में संजीदा लोगों को एक काम हाथ में लेना चाहिए।
आप किसी भी धर्म के हों, यदि आपके भीतर भक्ति-भाव है तो आप सद्विचार, सद्साहित्य का
प्रचार-प्रसार जरूर करें। लोकरंजन के लिए हम बड़े-बड़े आयोजन करते हैं। वे
प्रचार-प्रसार के लिए प्रायोजित रहते हैं।
ये सब भले ही चलता रहे, लेकिन लोकरंजन के साथ लोकमंगल का भी दायित्व निभाएं। जहां
तक आपका वश चले, अच्छे शब्दों का प्रचार-प्रसार जरूर करें। इसकी शुरुआत परिवार से ही की जा
सकती है। आज घरों में बच्चों ने अच्छी पुस्तकें पढ़ना बंद कर दिया है। चूंकि उनकी
रुचि अन्य विषयों में है, इसलिए माता-पिता ने भी उन्हें पुस्तकें भेंट करना बंद कर
दिया है।
जिंदगी में रोजी-रोटी कमाने का जरिया तो आज की शिक्षा सिखा ही देगी, लेकिन जीवन दर्शन से
परिचय अच्छी पुस्तकें ही कराएंगी। अंग्रेजी शब्द ‘फिलासफी’ का हिंदी अर्थ ‘दर्शन’ किया गया है। फिलासफी
में चिंतन, मनन और विचारों का ठीक से संगठन करना आता है, लेकिन जैसे ही यह शब्द हिंदी
बनता है तो दर्शन का अर्थ हमारे यहां दृष्टि से जुड़ जाता है।
देखने में दिव्यता आ जाए, पवित्रता आ जाए तो उसे दर्शन कहा गया है। इसलिए अच्छे शब्द
यदि नई पीढ़ी के लोगों के पास प्रचार-प्रसार से पहुंचाए जाएं तो वे चिंतन, मनन और दर्शन तीनों एक
साथ कर सकेंगे। यह क्रिया उन्हें गहराई देगी और जब इस गंभीरता के साथ वे आधुनिक
तकनीक की शिक्षा ग्रहण करेंगे तो उन्हें दबाव, तनाव व अवसाद नहीं घेरेगा।
अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लोग इसीलिए अशांत हैं कि वे चिंतन, मनन और दर्शन से वंचित रह गए
हैं।
समय आने पर अपने ज्ञान का सही उपयोग करना चाहिए
ज्ञानी और अज्ञानी व्यक्ति में यूं तो कई फर्क होते हैं, लेकिन एक फर्क यह भी
बताया गया है कि अज्ञानी जब किसी काम के पीछे पड़ जाता है तो उसके सिर पर एक ही
धुन सवार रहती है, इसे जैसे भी हो पूरा करना, क्योंकि इस सबके पीछे उसका अहंकार काम कर रहा होता है। उसका
अहंकार चोट न खा जाए, इसलिए वह कठिन से कठिन तप कर जाता है, लेकिन ज्ञानी मेहनत करता है और अपने अहंकार को गलाकर
परिश्रम करता है। इसीलिए ज्ञानियों के लिए कहा गया है कि वह हमेशा इस तरह काम करते
हैं, जैसे
नींद में हों।
नींद में अच्छे-अच्छों का अहंकार समाप्त हो चुका होता है। ऐसा प्रयोग जागते
हुए भी किया जा सकता है। सुंदरकांड में रावण के दरबार में रावण से चर्चा करते हुए
हनुमानजी ज्ञानी और रावण अज्ञानी होने के प्रतीक थे। इसीलिए अपने पराक्रम के प्रति
आश्वस्त हनुमानजी अपनी विनम्रता नहीं छोड़ते। समझाते-समझाते वे रावण से कह जाते
हैं - बिनती करउं जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन। देखहु तुम्ह निज कुलहि
बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।। हे रावण!
मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूं कि तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। तुम
अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भ्रम छोड़कर भक्तभयहारी भगवान को भजो।
उन्होंने रावण से विनती की, यानी अपनी विनम्रता बताई। फिर रावण को प्रेरित किया,
उसके कुल के बारे
में संकेत करके और उसके बाद उसे भ्रम छोड़ने की शिक्षा दी। विनम्रता, प्रेरणा और सीख तीनों का
अद्भुत समन्वय हनुमानजी की वाणी में था। हमें भी अपने ज्ञान का समय आने पर ऐसा ही
उपयोग करना चाहिए।
दोस्त वही होता है जो दोस्ती निभाएं इस तरह...
भागवत में मिले वर्णन के अनुसार भगवान् ने सुदामा को जीवन का उपदेश दिया है।
हम मित्रों से जब भी मिलें तो परिवार, समाज, देश और धर्म पर सार्थक चर्चाएं होनी चाहिए। निरर्थक
बातों से समय की बर्बादी होती है। किसी भी विषय को गंभीरता से नहीं लिया जाए तो
बाद में परिणाम गंभीर हो जाते हैं। सुदामा ज्ञानी थे लेकिन श्रीकृष्ण परम ज्ञानी
थे।
उन्होंने सुदामा को जीवन की चारों दशाओं के बारे में सम्यक ज्ञान दिया। वे
जीवन के व्यापक दृष्टिकोण पर बात कर रहे हैं। हम अपने जीवन में उतरें। सोचिए,
क्या जब कभी आप
अपने पुराने मित्रों से मिलते हैं तो ऐसी कोई चर्चा होती है। क्या आप अपने भीतर,
अपने मित्रों के
भीतर अध्यात्म की ऐसी चेतना का प्रवाह कर पाते हैं, अगर नहीं तो फिर आप खुद और अपने मित्र
दोनों का समय बर्बाद कर रहे हैं। समय की कीमत को समझिए। इस ज्ञान की धारा में
अवरुद्ध न करें।
आपके बीच जब भी कोई चर्चा हो तो उसका कोई सार हो। वो फिजुल न हो। हम कई बार
मित्रों के साथ केवल गप्पे लड़ाया करते हैं, बेमतलब की बातों पर घंटों बहस
किया करते हैं। उसे रोकिए। समय, ज्ञान और परमात्मा बार-बार नहीं मिलता। इसके लिए तप किया
जाता है। समय परमात्मा का सबसे बड़ा उपहार है, फिर ज्ञान और फिर स्वयं भगवान
समय के लिए हमें सबसे ज्यादा तप करना चाहिए।
उसे बरबाद न करें। कृष्ण कहते हैं जीवन का हर क्षण जो हम बिता रहे हैं वह
साद्देश्य होना चाहिए। निरुद्देश्य समय की बरबादी बेकार है। समय को साधिए। समय
जिसने साध लिया परमात्मा उसके लिए आसान हो जाएगा। इस समय को ज्ञान की प्राप्ति में
खर्च करें। जब मित्रों से मिलें कुछ ज्ञान की बातें भी हों। कृष्ण ने सुदामा से
पहले हालचाल पूछा फिर ज्ञान की बात की और अब वे बचपन को याद कर रहे हैं लेकिन वह
भी साद्देश्य ही है।
हमारे पास जो भी अतिरिक्त हो उसे समाज में जरूर बांटें
मनुष्य और पशु में कई कारणों से भेद है। लेकिन धीरे-धीरे अब ये भेद समाप्त हो
रहा है। पशुओं को लगातार अभ्यस्त किया जा रहा है और मनुष्य निरंतर पशुओं जैसा आचरण
करने पर उतर आया है। लेकिन एक नैसर्गिक फर्क है। मनुष्य के पास बोध की संभावना है,
जो पशुओं के पास
नहीं।
हम अपने जीवन को जीने अर्थात रोटी, कपड़ा और मकान जुटाने के लिए एक निश्चित व्यवस्था कर
सकते हैं। इसके अलावा सारा जोड़ लोभ, भोग और विलास के लिए है। पशु के पास यह संभावना नहीं
होती। उन्हें अपनी भूख मिटाने और आसरे के लिए भटकना ही पड़ता है और इसी का फायदा
मनुष्य उठाता भी है।
निजी निर्वाह के बाद मनुष्य के पास बहुत कुछ ऐसा बच जाता है, जो वह दूसरों में बांट
सकता है। यह उसे मानवीय गरिमा भी प्रदान करेगा। पशु के पास यह चिंतन नहीं होता।
अत: हम अपने मनुष्य होने पर चिंतन करते हुए अपने पास जो भी अतिरिक्त है, उसे समाज में जरूर
बांटें, वरना
हमारी यह सफलता नपुंसक कहलाएगी यानी एक दिन यह सफलता विफलता ही नजर आएगी। जमाने भर
का धन होने के बाद भी निर्धनता का अनुभव आपको होगा।
इसके विपरीत सफलता में स्वाद होगा। लोगों की दुआएं होंगी और आपको संतोष होगा
कि आपने औरों के लिए भी कुछ किया है। बहुत सारे लोग इस दुनिया में ऐसे हैं,
जिन्हें थोड़ा
मिला, कुछ
ऐसे हैं जिन्हें थोड़े से अधिक मिला, लेकिन बड़ी संख्या में आज भी ऐसे लोग हैं, जिन्हें कुछ नहीं मिला।
ऐसे ‘कुछ
नहीं’ वालों
के लिए हम बहुत कुछ कर सकते हैं। अपनी सफलता को उनके बीच फैलाइए, इससे बड़ी खुशी की बात
और क्या होगी।
हर परिवार के केंद्र में परमात्मा होना ही चाहिए
ऐसा कहा जाता है कि बाहर संसार है और संसार से हटकर जब हम भीतर आते हैं तो वह
परिवार है। परिवार एक तरह से बाहर की दुनिया से अंदर आने का आमंत्रण है और इसीलिए
हमें दोनों क्षेत्रों में अपनी भूमिका और अपनी पहचान अलग-अलग बनानी होगी।
अपनी व्यावहारिक और व्यावसायिक दुनिया में आपकी जो भी पहचान हो, लेकिन घर के भीतर आते ही
परिवार के सदस्यों के बीच हमें उदारता, सतर्कता व दूरदर्शिता से काम लेना होगा, वरना कलह होने में देर
नहीं लगती। कलह तो घरों में स्थायी रूप से घर बसा गई है। कब अंगड़ाई ले ले,
पता ही नहीं लगता।
संतुष्ट जोड़े कम ही परिवारों में मिल रहे हैं। शादी रचाने के पहले की मधुर
कल्पनाएं, शादी के बाद के जीवन में अंगारों की लहरें बन जाती हैं।
आकर्षण उबाऊपन हो जाता है। कुछ लोग तो इतने नीरस हो जाते हैं कि ऐसा लगता है
कि घर दो लोगों का श्मशान है और प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कौन-किसकी चिता पहले
जलाए। इसलिए कहा गया है हमारे परिवार के केंद्र में परमात्मा होना ही चाहिए।
परमात्मा होने का अर्थ है प्रेम की अनुभूति। हम मानकर चलें कि परमात्मा एक सदस्य
है और वो हमारे घर में रहकर हमें देख रहा है। उसकी मौजूदगी को हम जितना महसूस
करेंगे, उतने
ही परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे के शरीर, दिमाग, स्वभाव और गतिविधियों के प्रति जागरूक होकर सम्मान
देने की मुद्रा में आ जाएंगे। पहले तो विवाद के केंद्र कुछ ही थे - सास-बहू,
पति-पत्नी,
लेकिन अब हर
व्यक्ति एक छावनी बना बैठा है। कब, किस पर, कौन आक्रमण कर दे, भरोसा नहीं है। सिर्फ एक प्रेम है, जो परिवारों को बचाएगा।
अच्छी नींद चाहिए तो सोने से पहले थोड़ा प्राणायाम करें
नींद जितनी राहत पहुंचाती है, उससे ज्यादा परेशान भी करने लगी है। इन दिनों भारतीय जीवन
में नींद को लेकर लोगों का आचरण बड़ा विचित्र हो गया है। किसी को इस कदर नींद आती
है कि वह खुद से और दूसरे उससे परेशान रहते हैं। घर में युवा पीढ़ी को समय पर
उठाना एक अभियान जैसा हो जाता है।
लोग सुबह का अर्थ ही भूल गए। देर रात तक काम करने वाले सुबह देर से उठें यह तो
फिर भी समझ में आता है, लेकिन अकारण जागकर विलंब से उठना या समय पर सोने के बाद भी
सूर्योदय के पश्चात उठना फैशन हो गया है।
हम जब बच्चों पर सुबह जल्दी उठने के लिए दबाव बनाते हैं तो बालमन यह समझ ही
नहीं पाता कि आखिर यह बिस्तर की कसरत क्यों कराई जा रही है। हमें उन्हें समझाना पड़ेगा
कि मनुष्य के शरीर में इंद्रियों का मैकेनिज्म दो तरह काम करता है। एक होती है
बाहरी व्यवस्था, इसका नाम शरीर है।
इसको नींद आएगी, इसको भूख लगेगी, इसकी और भी मांगें हैं। वो आप पूरी कर दें, यह चुपचाप हो जाएगा। लेकिन किसी
कारण से जब इसकी मांग पूरी न हो, जैसे बहुत देर तक भोजन करना, नींद पूरी न हो तो उसी समय भीतर
एक आरक्षित व्यवस्था भी होती है।
यह आपातकालीन व्यवस्था कुदरत ने भीतर कर रखी है। नींद के मामले में भी ऐसा ही
है। भीतर एक व्यवस्था है, जो नींद की पूर्ति कर देगी। उस व्यवस्था का नाम है, सोने से पहले थोड़ा-सा
प्राणायाम कर लें। आपका कोटा पूरा हो जाएगा और आप उगते हुए सूरज के तेज को अपने
व्यक्तित्व से जोड़ सकेंगे।
क्रोध को अपने धर्य के शीतल जल से शांत कर दें
कहावत है कि गुस्से की आग पर धर्य का ठंडा पानी डाल दो। क्रोध और जल का बड़ा
गहरा संबंध है। दोनों की तासीर एक जैसी है। दोनों नीचे की ओर बहते हैं। अगर ऊपर
उठाना हो तो प्रयास करना पड़ता है। इसीलिए आदमी क्रोध के मामले में यदि विचार करे
तो पाएगा कि किसी और व्यक्ति और स्थिति का परिणाम उसने अपने ऊपर ले लिया।
थोड़ा-बहुत नुकसान खुद का किया और फिर इसे आगे स्थानांतरित कर दिया। पारिवारिक
खेलों में एक खेल होता है। गोला बनाकर लोग बैठ जाते हैं और कोई गेंद या वस्तु
एक-दूसरे के हाथ में ट्रांसफर करते रहते हैं। जिस समय रेफरी सीटी बजा देता है और
उस समय जिस किसी के हाथ में वह वस्तु होती है, उसे मैदान के बाहर जाना पड़ता
है। क्रोध के मामले में भी हम रोज ऐसा ही खेल खेलते हैं। सब एक-दूसरे को थमाए जाते
हैं।
अब चूंकि जल की गति नीचे की होती है, ऐसे ही क्रोध भी अपने से नीचे वाले में आसानी से
खिसकाया जाता है। कार्यालयों में बॉस ने डांटा, अब चूंकि क्रोध ऊपर नहीं फेंका
जा सकता, इसलिए
वह पहली फुर्सत में इस खतरनाक गेंद को नीचे टपकाएगा। जीवनसाथी और बच्चे क्रोध के
ऐसे ही स्थानांतरण की चपेट में आ जाते हैं।
चूंकि अपने से वरिष्ठ से मिला हुआ क्रोध लौटाना तो दूर, व्यक्त भी नहीं किया जा सकता,
बल्कि उसे अपने
भीतर दबाया जाता है तो फिर उसका विस्फोट होना ही है। इसीलिए घरों में दफ्तर जैसी
अशांति नजर आती है। क्रोध से बचने का सरल उपाय यह है कि पहले तो इसे स्वीकार ही न
करें और यदि लेना ही पड़े तो दूसरे को स्थानांतरित न करते हुए अपने ही धर्य के जल
से इसे शांत कर दें।
हमें भोजन की उपयोगिता समझाता है उपवास
विकार खत्म करना हो और विवेक जगाना हो तो उपवास की क्रिया बड़ी उपयोगी होती
है। प्रसन्नता और प्रेम का संबंध भी उपवास से है। इसलिए सभी धर्मो में उपवास को
बहुत महत्व दिया है। कहीं-कहीं तो जन्म और मृत्यु के समय भी उपवास की व्यवस्था है।
सुकरात ने यूनान के कई उपवासों की चर्चा की है। रमजान भी उपवास का ही संदेश
देते हैं। जीसस स्वयं भी उपवास से गुजरे हैं। उपवास का अर्थ केवल फलाहार करना या
एक अलग किस्म का भोजन करना ही नहीं है। इसके दो प्रभाव हैं, पहला शरीर और दूसरा मन पर। दोनों
को एक-दूसरे का समर्थन चाहिए। इसके लिए उपवास सेतु का काम करता है।
सच तो यह है कि उपवास किसी एक क्रिया का नाम न समझा जाए। जब हम भोजन करते हैं
तो समय का जो अंतर होता है, उसके मध्य काल को उपवास कहते हैं। भोजन का ब्रेक ही उपवास
है। जहां भोजन की क्रिया को तोड़ा जाता है, रोका जाता है या बदला जाता है।
अल्पाहार उपवास की ओर बढ़ने का कदम है। नाश्ता भोजन के संयम का अभ्यास है। इससे
अन्न की पूर्ति तो होती है, पर अधिकता नियंत्रित हो जाती है।
हम बिना भोजन किए रह नहीं सकते और इसीलिए जो जरूरत है, उसे हम स्वाद से जोड़ लेते हैं।
और यहीं से मनुष्य अधिक भोजन करने लगता है। इसका सीधा असर शरीर पर पड़ता है। शरीर
अपने आलस्य को मन तक ले जाते हुए विलास में बदल देता है। जिन्हें धार्मिक और
आध्यात्मिक कार्य करना हो, उन्हें भोजन नियंत्रण के लिए उपवास को समझना जरूरी हो जाता
है। उपवास एक समझ है, जो भोजन की उपयोगिता हमें समझाती है।
हम संतापग्रस्त हैं तो इसका दोष दूसरों को कतई न दें
हमारी जिंदगी अक्सर गुणा-भाग, जोड़-घटाने में ही बीत जाती है। सारी कोशिश होती है कि हम
तक आने वाले हर रास्ते पर सुख ही चलकर आए। हम दुख को आता हुआ देखना ही नहीं चाहते।
लेकिन जब भी जोड़-घटाना करते हैं, जिन-जिन चीजों को दोगुना कर रहे होते हैं, उनमें एक दुख भी होता
है।
अगर हम संतापग्रस्त हैं, पीड़ा में पड़े हुए हैं, अकारण अवसाद लपेटे हैं तो इसका
दोष दूसरों को कतई न दें। कुछ है, जो हमारे ही भीतर सूख गया है। इसका इशारा सुंदरकांड में
हनुमानजी ने रावण की राजसभा में गरजते हुए रावण को बताया था। राम विमुख संपति
प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई।। सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएं पुनि तबहिं सुखाहीं।। अर्थात रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता
रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है। जिन नदियों के मूल में
कोई जल स्रोत नहीं है (अर्थात जिन्हें केवल बरसात का ही आसरा है) वे वर्षा बीत
जाने पर तुरंत ही सूख जाती हैं।
दरअसल हनुमानजी रावण के माध्यम से हमें सिखा रहे हैं कि यदि हमारे अंतरतम में
धर्य, प्रसन्नता
और शांति नहीं है तो सारी सफलताएं बरसाती नदी की तरह होंगी। राम विमुख का अर्थ है
यथार्थ को नकारते हुए भ्रम में जीना। राम की ओर मुख रखकर जीने का अर्थ यह भी नहीं
होता कि संसार छोड़ दें। रावण उस समय सफलतम व्यक्तियों में से था, लेकिन उसकी सारी प्रभुता
सिर्फ इसीलिए चली गई क्योंकि उसने जीवन के सत्य से मुंह मोड़ लिया था।
शिवजी से सीखें कि परिवार कैसे बचाया जाता है
जीवन की जिन-जिन गतिविधियों पर हमें भविष्य का संदेह बना रहता है, उनमें से एक है विवाह।
वर्तमान में विवाह एक संस्कार न होकर दबाव बन गया है।
विवाह करने और कराने वाले सभी इस बात को लेकर आशंकित रहते हैं कि भविष्य में
शांति मिलेगी या नहीं। अब जो शादियां हो रही हैं, उनमें समूचे परिवार की
जिम्मेदारी केंद्र में नहीं है। अब केंद्र में दो व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाएं
हैं। सबकी अपनी-अपनी दिशाएं हैं।
इसलिए सहयोग समन्वय से ज्यादा समझ का कारक वैवाहिक जीवन में जरूरी हो गया है।
आपसी समझ का उदाहरण शिव-पार्वती के दांपत्य में आया है। आज एक बड़ा समाज महेश
जयंती मना रहा है। इस दिन का संदेश यह होना चाहिए कि शिव से सीख लें कि परिवार
कैसे बचाया जाता है।
परिवार के तीन कोण हैं - पहला है भोग, जिसका संबंध शरीर से है। दूसरा है संतानउत्पत्ति,
जो परिवार से
जुड़ता है और तीसरा है भावना, जिससे परिवार में अध्यात्म जगता है। भोग दांपत्य जीवन की
आवश्यक बुराई है।
इसलिए रास्ता यह निकाला जाए कि भोग भावना और अध्यात्म से जुड़ जाए। इससे यह
हानिकारक नहीं रहेगा। इसलिए शादी और समझ का गठबंधन पहले होना चाहिए, फिर फेरे लगाते समय
गठबंधन की बात की जाए।
स्त्री और पुरुष का जुड़ाव निरपेक्ष भाव से होगा तो शादी का आनंद ही अलग होगा।
पर हमारे यहां विवाह मांग से शुरू होते हैं, मांग से ही चलते हैं और
मांगते-मांगते ही खत्म हो जाते हैं। जिसने वैवाहिक जीवन दान से चलाया, जो अपने जीवनसाथी को
देने को तयार हो, बस वहीं से सुगंध उठेगी और वहीं से बैकुंठ जागेगा।
यदि हमारा शरीर संयमित है तो जीवन में आरोग्य आएगा
जीवन में समृद्धि आ जाए तो यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि पूरी तरह से सुख भी आ
जाएगा। जैसे यह भी आवश्यक नहीं होता कि जीवन में सुख आ जाए तो शांति भी मिल जाएगी।
समृद्धि तक की यात्रा जो लोग करना चाहें, उन्हें समृद्ध के साथ बहुत ध्यान देना होगा।
जितना परिश्रम हम जीवन में समृद्धि लाने के लिए करते हैं, उतनी ही मेहनत जीवन में
सुद्धि बनी रहे इसके लिए भी करनी चाहिए। यहां सुद्धि का अर्थ है सदाचार। सदाचार का
हमारे जीवन पर दो तरीके से असर होता है। पहला प्रभाव पड़ता है देह पर। सदाचार से
शरीर सध जाता है।
आज जिनके पास समृद्धि है, वे अपने शरीर से हाथ धो बैठे हैं। और इसीलिए कई समृद्ध लोग
शरीर का सामान्य सुख भी नहीं उठा पाते। सदाचार का दूसरा प्रभाव पड़ता है चरित्र पर,
क्योंकि चरित्र
बनाने के लिए मन पर नियंत्रण जरूरी होता है।
शरीर यदि संयमित है तो आरोग्य जीवन में आएगा और आरोग्य मन को प्रभावित करता
है। बीमार व्यक्ति का मन अविचलित होने लगता है। इसलिए आहार से शरीर को संवारना
चाहिए। हमारा खानपान न सिर्फ ताजा, साफ-सुथरा हो, बल्कि हिंसा शून्य भी होना चाहिए। आहार से चूकने पर
शरीर और मन दोनों अपने-अपने तरीके से प्रभावित हो जाएंगे।
मन को विकार मुक्त रखने में अन्न की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि विकार युक्त मन
जीवन के हर क्षेत्र में, पहलू में, गतिविधि में अकारण उत्तेजना पैदा करता है या फिर उदासीनता
ले आता है। मन की सक्रियता उत्तेजना और उदासीनता दोनों से जुड़ी है। इसलिए समृद्धि
सदाचार से संयुक्त हो, इसके लिए लगातार सजग बने रहें।
जब जीवन के रस अनियंत्रित होने लगें तो सावधान हो जाएं
इस दुनिया में प्रकृति ने अपनी उपस्थिति से खूब रस भर रखा है। प्रकृति का
रसपान जरूर करना चाहिए। हर स्वाद का सम्मान करें, लेकिन जब जीवन के रस अनियंत्रित
होने लगें, तब थोड़ा सावधान हो जाएं। जब हम साधन-संपन्न होते हैं, तब भोग की इच्छा भी होती है।
शरीर के लिए जितना जरूरी है, उतना भोग तो करना ही पड़ेगा। लगातार एक अभ्यास करते रहिए और
वह है अस्वाद व्रत का।
विनोबा भावे कहा करते थे - जीभ का संबंध स्वाद से है, इसलिए जिन्हें जीवन में अस्वाद
व्रत का पालन करना हो, वे जीभ को चम्मच की तरह मान लें। चम्मच में मीठी चीज रखें
या नमकीन, चम्मच को इससे कोई लेना-देना नहीं होता। वह एक पात्र है, एक माध्यम है। ऐसा ही
व्यवहार और स्वभाव जीभ का बनाया जाए। जिस दिन जीभ चम्मच की भूमिका में आ जाएगी,
उस दिन अस्वाद
व्रत सधने लगेगा। शरीर को कई रसों की जरूरत होती है और माध्यम बनती है जीभ।
इसलिए शरीर की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए जीभ के बैरियर पर कंट्रोल रखें।
जिह्वा का नियंत्रण सरल भी नहीं है, इसलिए योग में जीभ के नियंत्रण की भी एक क्रिया है।
आंखें बंद करके, कमर सीधी रखकर होंठ बंद कर लें और जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से लगाने का
अभ्यास किया जाए। वैसे तो इसके और भी दूसरे परिणाम हैं, लेकिन इससे जिह्वा नियंत्रण में
आ जाती है। इसकी रुचि स्वाद में कम हो जाती है। अस्वाद व्रत हमारे लिए शारीरिक,
मानसिक और आर्थिक
रूप से बहुत उपयोगी है। अस्वाद व्रत की संभावना सिर्फ मनुष्य के पास है। इसलिए इस
अस्वाद व्रत को भीतर से पैदा करना होगा।
स्त्री-पुरुष दंपती के रूप में संयुक्त रूप से पूजा करें
जोड़े से रहना जीवन की एक विशिष्ट शैली है। मनुष्य स्त्री-पुरुष के रूप में इस
जीवनशैली को अपनाता ही है और जो पशु-पक्षी थोड़े सजग होते हैं, वे भी अपने जोड़े बनाते
हैं। हमारे यहां पारिवारिक जीवन में इसी जोड़े की पद्धति को विवाह का रूप दिया गया
है।
इस जीवन में जो परस्पर आकर्षण होता है, वह भले ही देह से आरंभ हो,
लेकिन उसमें प्रेम
की संभावना बनी रहती है। प्रकृति ने जोड़े के जीवन में अपनी कुछ अद्भुत शक्ति डाल
रखी है और इसीलिए जैसे-जैसे शरीर युवावस्था में प्रवेश करता है, उसकी कुछ शारीरिक मांगें
तैयार होने लगती हैं। उसकी जो शक्ति है, वह या तो कामवासना में बदल सकती है या जीवन के
निर्माण में। संतान उत्पत्ति जोड़े का एक धर्म है।
प्रकृति ने इसमें आनंद का समावेश कर दिया है, यहीं प्रकृति का कमाल नजर आता
है। आनंद भी है और दायित्व भी, दोनों एक साथ चलते हैं। यदि उस आनंद से प्रेम चला जाए और
शरीर सिर्फ भोग के लिए रह जाएं तो वासना फिर तांडव करने लगती है और यदि देह के बीच
प्रेम उपस्थित हो तो संतान का जन्म भी एक अनुष्ठान बन जाता है। पंडित श्रीराम
शर्मा कहा करते थे, यों तो बिजली पंखे और प्रकाश दोनों का सुख देती है, लेकिन यदि उसके खुले तार को छू
लिया जाए तो प्राण ले लेगी।
स्त्री और पुरुष के देह का आकर्षण जोड़े के जीवन को संवार भी सकता है और
बिगाड़ भी सकता है। इसीलिए इस जीवन में वासना के प्रवेश को रोकने के लिए हमारे
यहां जोड़े से पूजा का विधान रखा है। किसी भी धर्म में स्त्री-पुरुष दंपती के रूप
में जब संयुक्त रूप से पूजा करें, वह उन्हें वासना से मुक्त रखने का एक सुंदर उपाय है।
सोच और विचार सतही नहीं गहराई से उपजे होने चाहिए
जो लोग पेड़ का उपयोग कर रहे हों या पेड़ पर बैठे हों उन्हें जो हिस्सा ऊपर
दिख रहा है केवल उसी में रुचि नहीं होना चाहिए। जड़ों के बारे में पूरी जानकरी
रखना होगी। लोग जड़ों में पानी तो डालते हैं, पर जड़ों से जुड़ नहीं पाते।
चलिए, इस विचार को अपने कामकाज और कार्यस्थल से जोड़ कर चलें। व्यावसायिक क्षेत्र
में प्रबंधन के गुर हमें सिखाते हैं कि सतही काम न किया जाए। हर निर्णय और उसके
क्रियान्वयन में गहराई होना चाहिए। हमारे पारिवारिक जीवन में हमारी जड़ परिवार से
गुजर कर माता-पिता तक जाती है। हमारी जड़ें वह ही। उनसे कट कर सफल से सफल आदमी भी
सुख में शांति नहीं ला सकता। इसी तरह इस बाहरी जुड़ाव के अलावा हमारा अपने से एक
आंतरिक मेलजोल भी होना चाहिए।
जब भी हम खुद से जुड़ना चाहें अपनी नाभि पर अपने ध्यान को टिकाने का अभ्यास
बढ़ाएं। यह अपने ही भीतर की जड़ से जुड़ना होगा। जैसे ही हम स्वयं के केंद्र पर
केंद्रित होते हैं, हमारे विचार स्पष्ट होने लगते हैं। हमारी वाणी प्रभावशाली हो जाती है और हमारा
व्यवहार निष्कपट होने लगेगा। बिना जड़ों से जुड़े हुए लोग यदि अपने शारीरिक
परिश्रम और बौद्धिक प्रयासों से सफलता के शीर्ष पर पहुंच जाते हैं, तो लड़खड़ाने की संभावना
बनी रहती है।
अहंकार के झोंके लगातार सफल बने रहने का तनाव और अज्ञात का भय पैदा करते हैं।
कब शिखर से शून्य पर आ जाएं, तय नहीं रहता। इसलिए जड़ों से जुड़ा रहना जरूरी है। परिजनों
से जुड़ने के दो फायदे हैं। बुजुर्गो का आशीर्वाद और अन्य सदस्यों की सद्भावना एक
पॉजिटिव एनर्जी लेकर हमारे आसपास एक घेरा सा बना देती है। यह घेरा हमें भटकाव से
रोकता है। हमारे और अपने लोगों के बीच एक पुल बन जाता है, आवागमन सरल हो जाता है। तनाव के
क्षणों में वे हमें राहत देने आ सकते हैं और हम उनकी छांव में शांति पाने जा सकते
हैं। इसी तरह अपनी नाभि के केंद्र से जुड़कर हम और गहरे हो जाते हैं, जिसका सीधा असर
आत्मविश्वास पर पड़ता है। यहीं से हम अपना और अपने साथियों का सही नेतृत्व करने
लगते हैं।
पते की बात ।
वस्तुत: अच्छा समाज वह नहीं है, जिसके अधिकांश सदस्य अच्छे हैं, बल्कि अच्छा समाज वह है,
जो अपने बुरे
सदस्यों को प्रेम के साथ अच्छा बनाने में सतत् प्रयत्नशील है।
आस्तिकता का बोध एक आंतरिक अनुशासन है
सामान्य रूप से हम मानते हैं कि जो भगवान को माने वो आस्तिक और जो परमात्मा
में विश्वास न करे, वो नास्तिक। लेकिन देखा गया है कि कई आस्तिक लोग सदाचारी नहीं होते और कई नास्तिक सदाचार
का पालन करते हैं। इसलिए आस्तिक और नास्तिक की परिभाषा को भी ठीक से समझा जाए।
आस्तिक वो है, जो हां करने की हिम्मत रखता है, जिसके जीवन में अपने और प्रकृति के अस्तित्व को
स्वीकारने की शक्ति है।
नास्तिक व्यक्ति ‘ना’ करता
है, संसार
के परमतत्व के प्रति। उसकी यही अस्वीकृति नास्तिक बनाती है। पर यह ‘ना’ एक दिन उसके आसपास
नकारात्मक सोच और भाव ले आता है। इसलिए सदाचारी होने के बाद भी वह अहंकारी हो जाता
है।
अत: समृद्धि सदाचार से जुड़े और निरहंकारी रहे और जो सचमुच निरहंकारी होगा,
वह आस्तिक होगा।
नास्तिकता निरहंकारी भाव को आहत करती है। हम धर्म के मामले में अधिकांशत: अनुशासन,
नियम व मर्यादाओं
को बाहर से लादते हैं।
किसी भी धर्म में बच्चे के होश संभालते ही उसे बाहरी नियमों से परिचित कराया
जाता है। बहुत कम लोग समझ पाते हैं कि धर्म के मामले में जितने जरूरी बाहर के
अनुशासन हैं, उतने ही जरूरी भीतर के नियम हैं और उसी में से एक है आस्तिकता का बोध।
यह आंतरिक अनुशासन है। आपके भीतर बहुत कुछ ऐसा है, जिसका स्वाद जागने पर बाहर की
चीजों के प्रति विश्वास जाग जाता है। आस्तिकता एक अनुभूति है। आप प्रकृति के प्रति
आस्तिक होंगे, परिवार के प्रति आस्तिक रहेंगे। इसका अर्थ ही है आपके भीतर दूसरों के लिए
विश्वास, सेवा
व समर्पण का भाव जागेगा।
अहंकार से बचना हो तो अपने मोह से मुक्त हो जाओ
समस्याओं के समाधान के लिए सबके अपने-अपने तरीके होते हैं। कुछ लोग मानकर चलते
हैं कि कुछ समस्याओं के समाधान होते ही नहीं हैं। कुछ का मानना होता है कि समस्या
है तो समाधान भी होंगे और कुछ लोग समस्या को समस्या ही नहीं मानते।
वे इसे जीवनशैली मानकर अपने आप समाधान जुटा लेते हैं। भारतीय संस्कृति ने एक
बहुत ही मौलिक तरीका हर समस्या के लिए सुझाया है और वह है मूल को पकड़ना। हर बात
में कुछ न कुछ छुपा है, बस देखने की निगाह होनी चाहिए।
रावण की राजसभा में जब हनुमानजी उसे समझा रहे थे तो उन्हें लगा कि रावण की एक
बड़ी समस्या है उसका अभिमानी होना। फिर था तो विद्वान, सामान्य भाषा में उसे समझ में
आना भी नहीं था, इसलिए हनुमानजी इस सिद्धांत का आधार लेते हैं कि हर बात के मूल में क्या है,
यह देखा जाए।
रावण की समस्या थी अहंकार, इसलिए हनुमानजी कहते हैं - मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम
अभिमान। भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।। मोह ही जिसका मूल है, ऐसे पीड़ा देने वाले,
तमरूप अभिमान का
त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के सागर भगवान श्रीरामचंद्रजी का भजन करो।
रावण से उन्होंने कहा - उस अभिमान का त्याग कर दो, जिसके मूल में मोह है। मोह आदमी
को मजबूर कर देता है कि वह यथार्थ से हटकर निजी पसंद पर अधिक टिके। अहंकारी हमेशा
यही चाहता है कि जो उसे पसंद है, वही काम होना चाहिए और इसीलिए मोहग्रस्त होकर वह किसी की
बात नहीं सुनता। हनुमानजी ने यहां एक सिद्धांत दिया कि अहंकार से बचना हो तो अपने
मोह से मुक्त हो जाओ।
वे सौभाग्यशाली हैं जिनके पास अपना मित्रमंडल है
कुछ लोगों का स्वभाव होता है कि वे अपने कार्यो को खुद ही करना चाहते हैं।
दूसरों का हस्तक्षेप उन्हें पसंद नहीं होता। सहयोग लेने को वो कमजोरी मानते हैं।
धीरे-धीरे यह आदत अहंकार में बदल जाती है। ‘मैं कर लूंगा’ का भाव दूसरों से उनको
दूर कर देता है।
सहयोग लेना ऐसे लोगों के लिए उनके अहंकार को चोट लगने जैसा होता है और सहयोग
देने में उनके अहंकार को तृप्ति मिलती है। लेकिन सहयोग लेने की वृत्ति जीवन में एक
बड़ा लाभ ये पहुंचाती है कि हम मित्र बनाना शुरू कर देते हैं। वे सौभाग्यशाली
होंगे, जिनके
पास अपना मित्रमंडल होता है। सहयोग जब लगातार होने लगता है, तब दोस्ती का जन्म होता है।
वरना हमारे जीवन में बहुत सारे लोग ऐसे आते हैं, जिनका हम क्षणिक सहयोग लेते हैं और फिर भविष्य में कोई संबंध नहीं रहता, लेकिन सतत सहयोग मित्रता में वृद्धि करता है। मोटे तौर पर मित्र सात स्थितियों में बनते हैं - सुख, दुख, शिक्षा के दौरान, मनोरंजनों में, कार्यस्थल पर, आस-पड़ोस में और परिवार में।इन स्थानों पर हुई दोस्ती में ध्यान रखें कि अपने मित्रों की अच्छाइयों को आदर दें और उनमें लगातार वृद्धि करने की कोशिश करें। दोस्ती नदी और नाव की तरह न हो कि काम हुआ और अलग-अलग हो गए। सतत मेल-जोल मित्रता का मापदंड है। दरअसल मनुष्य के सामाजिक जीवन के वृक्ष के फल का नाम दोस्ती है। किसी भी वृक्ष को देखें तो उसकी पहचान उसके फल से होती है। इस वक्त जब जिंदगी का नजरिया कामकाजी हो चला है, सांस-सांस में धंधा, नफा-नुकसान जुड़ गया है, ऐसे में दोस्ती करना और बनाए रखना जीवन में शुभ और शांति लाने जैसा है।
जब तक अहंकार है, तभी तक अपने दोषों का अस्वीकार है
हम मानें न मानें, पर यह सत्य है कि हम अपनी कई कमजोरियों को स्वीकार नहीं
करते। यह अस्वीकृति ही हमारी अशांति का कारण बन जाती है। कई दफा हम दूसरों पर
टिप्पणी करते हैं कि क्या जानवर जैसा व्यवहार कर रहे हो।
दरअसल में सभी लोग कहीं न कहीं भीतर से पशु होते हैं। कुछ अपनी पशुता को भीतर
रोक लेते हैं तो कुछ बाहर प्रकट कर जाते हैं, लेकिन दोनों ही स्थिति में
मनुष्य अपनी पशुता को स्वीकार नहीं करता। हमारे भीतर यह कौन है जो हमें स्वीकार
नहीं करने देता? यह है हमारा अहंकार। जैसे ही हम अपने भीतर की पशुता को स्वीकार करते हैं,
सबसे पहली चोट
हमारे अहंकार को लगती है। यह अहंकार ही हमें समझाता है कि हम पशु जैसे नहीं हैं,
यह जो बुराई है यह
हमारे भीतर दूसरों के कारण है, वरना हम तो श्रेष्ठ ही हैं। जिस दिन हम अपने काम, क्रोध और लोभ को स्वीकार
करते हैं, उसी दिन हम इनसे पार जाने की संभावना का निर्माण भी कर लेते हैं।
पार जाने का अर्थ है काम, क्रोध और लोभ से मुक्त हो जाना। अपनी कमजोरियों में गहरे
उतर जाने से हमारा और उनका परिचय होता है। देख तो हम लेते हैं, पर स्वीकार नहीं करते और
जैसे ही स्वीकार किया, बस हम अपनी बुराइयों से मुक्त हुए। दूसरे हमें जब टोकें तो
एकदम खारिज न करें, थोड़ा धर्य से विचार करें कि जो टिप्पणी हमारी कमजोरियों पर की जा रही है,
उसे भीतर जाकर
कहां पकड़ा जाए। पकड़ में जरूर आएगी, क्योंकि भीतर कहीं न कहीं है जरूर। इसके लिए थोड़ी
देर प्राणायाम-ध्यान का अभ्यास जरूर करें। यही वह मार्ग है जो हमें अपने भीतर ले
जाकर कुछ चीजों की खोज में मदद करेगा।
हमारे किए हुए काम एक दिन हमारी पूंजी बन जाते हैं
हर ओर बहुत कुछ पाने की होड़ मची हुई है, लेकिन त्यागने की बात आए तो
थोड़ा-सा भी स्वीकार नहीं होता। बदलते दौर में हर कोई सफलता के मुकाम पर पहुंचने
का प्रयास करता हुआ एकत्रित करता चला जाता है। अब समझने वाली बात यह है कि क्या
एकत्रित किया जाए। इसके लिए उन कृत्यों पर लगातार नजर रखिए, जो हमारे दैनिक जीवन में उपयोग
में लाए जाते हैं।
हमारे किए हुए काम भी एक दिन हमारी पूंजी बन जाते हैं। हर कार्य अपना प्रभाव
और हिस्सा हमारे व्यक्तित्व पर छोड़ता है। मनुष्य का पूरा जीवन मिले-जुले प्रभावों
पर टिका है। जैसे हमारे शरीर में पिता का एक अंश है तो माता का समूचा ही शरीर
हमारा हिस्सा बन जाता है। चूंकि माता की हिस्सेदारी अधिक होती है, इसीलिए माता की जिम्मेदारी
भी संतान के मामले में अधिक मानी गई है।
समूची मनुष्य जाति को समझना पड़ेगा कि नारी यदि सुविकसित हुई तो उसके सद्गुण
और सद्बुद्धि आखिरकार संतानों में ही उतरेगी। इसलिए नारी का शोषण और पिछड़ापन
समूची मनुष्य जाति द्वारा अपने ही पैरों पर चलाई गई कुल्हाड़ी साबित होगी। हमारा
यह सामाजिक कृत्य हमें भविष्य के लिए महंगा पड़ेगा। जो कर्म हम शरीर से करते हैं,
वे अलग किस्म की
पूंजी बनते हैं और जो कर्म हम मन से करते हैं, वे अलग तरीके से हम पर प्रभाव
छोड़ते हैं। इसलिए पहले शारीरिक कर्मो को कितना किया जाए और कौन से कर्म न किए
जाएं, इस
पर ध्यान दिया जाए तथा इसके बाद मन के कर्मो पर काम होना चाहिए। 24 घंटे इस बात के लिए सजग
रहें कि कौन-से काम करें, कौन-से न करें, क्योंकि दोनों अपना प्रभाव हमारे जीवन पर रखेंगे।
बच्चे के संपूर्ण विकास में सबसे अहम है परिवार की भूमिका
इस समय सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण काम है बच्चों का लालन-पालन करना। बड़े से बड़े
पराक्रमी और सक्षम लोग भी इस मामले में चूक जाते हैं। इसके लिए बेहद जरूरी है कि
पति-पत्नी अत्यधिक समझदार माता-पिता बनें।
संतानों ने जो कुछ भी सीखा, इसका 80 प्रतिशत भाग आनुवंशिक रूप से माता-पिता से आया और घर में
देखकर सीखा गया। बच्चों के सर्वागीण विकास में परिवार की बड़ी भूमिका होती है। हर
सदस्य बालमन को कुछ न कुछ सिखा जाता है। यदि घर दुखी है, असंतुष्ट है, कलह में डूबा हुआ है तो
बच्चे संतोष और प्रसन्नता बाहर ढूंढ़ने लगते हैं।
माता-पिता के मन-मुटाव में वे स्वयं को असहज पाते हैं और सहजता की खोज में घर
की देहरी पार करते ही गलत दिशा में निकल पड़ते हैं। घर में हो रहा कोहराम तथा
सूनापन भी बालमन को विचलित करता है। उनका अपरिपक्व मस्तिष्क माता-पिता के असंतुष्ट
प्रतिबिंब को अपने भीतर उतार लेता है और जो जन्मजात निर्दोष था, वो दोषपूर्ण आचरण के लिए
तैयार होने लगता है।
उसकी निर्दोषता में हम अपनी भूमिका डाल देते हैं। जबकि उस समय हमें उनके भीतर
चरित्र, शिक्षा
के अलावा विवेक जगाना चाहिए वरना आने वाले दौर में स्त्री-पुरुष पति-पत्नी बनकर
माता-पिता के रूप में संतुष्ट और प्रसन्न होने का दावा नहीं कर पाएंगे। लेकिन यदि
बच्चों में विवेक जगाने में कामयाब हो गए तो बच्चे इन चीजों को ग्रहण करते समय ‘क्या फेंकें, क्या रखें’ की अक्ल से काम लेंगे।
वे शुभ और अशुभ का अंतर सीख जाएंगे, जो इस समय पारिवारिक जीवनशैली के लिए बहुत जरूरी है।
सफलता के लिए जरूरी गुण योग्यता, परिश्रम व ईमानदारी
सारे व्यावसायिक प्रयास कुल मिलाकर धन के आसपास केंद्रित रहते हैं। यह धन
कमाने का दौर है। जब इसका नशा चढ़ता है, तो आदमी अच्छे और बुरे तरीके पर ध्यान नहीं देता।
अपने व्यावसायिक जीवन में धन कमाने को तीन बातों से जोड़े रहिए- योग्यता, परिश्रम और ईमानदारी। ये
त्रिगुण जिसके पास हैं, वह किसी भी व्यावसायिक व्यवस्था में शेर की तरह होगा। शेर
का सामान्य अर्थ लिया जाता है हिंसक पशु, लेकिन यहां शेर से अर्थ समझा जाए जिसके पास नेतृत्व
की, यानी
राजा बनने की क्षमता।
एक पुरानी कहानी है। एक शेर का बच्च माता-पिता से बिछड़ भेड़ों के झुंड में
शामिल हो गया। उनके साथ रह उसकी चाल-ढाल, रंग-ढंग सब बदल गए। संयोग से किसी शेर ने भेड़ों के
उस काफिले पर हमला किया। भेडें भागीं, तो शेर का बच्च भी भागा। हमलावार शेर को समझ में आ
गया। उसने भेड़ों को छोड़ा और उस शेर के बच्चे को पकड़ा। पानी में चेहरा दिखाया और
कहा- तू मेरे जैसा है। तू शेर है, सबसे अलग, सबसे ऊपर। हमारे साथ ऐसा ही होना चाहिए। हमारे त्रिगुण हमें
आईना दिखाते हैं कि हमें योग्यता, परिश्रम और ईमानदारी से धन कमाना है।
संस्थानों में अनेक लोगों की भीड़ होगी, पर हमें सबसे अलग रहना है। जो धन
हम कमा रहे हैं वह तभी शुद्ध होगा और हमें अपनी सफलता के साथ शांति भी देगा।
शास्त्रों में लिखा है- सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं पर स्मृतम्। योर्थै शुचिहिं स
शुचिर्न मृद्वारिशुचि: शुचि:।। सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि सर्वोपरि है।
वास्तव में वही शुद्ध है जो धन से शुद्ध है। जल और मिट्टी की शुद्धि कोई
शुद्धि नहीं है। धन कमाने के मामले में हमारे ये त्रिगुण हमें बार-बार सामान्य
लोगों की भीड़ से अलग, विशिष्ट बनाएंगे। अब जो समय है वह माचिस से आग जलाने का
नहीं रहा। अब तो अपने व्यक्तित्व के तेज से प्रकाश फैलाने का वक्त है। किसी भी
संस्थान में इंसानों का ढेर होगा। उसमें यदि पूरे और सलामत आप दिखना चाहें तो
लगातार अपने इन त्रिगुणों पर टिके रहिए और योग-प्राणायाम को थोड़ा समय जरूर दीजिए।
पते की बात-
यह बात सच है कि अपने विषय में सच्चाई से कुछ कहना प्राय: कठिन होता है,
क्योंकि स्वयं के
अंदर दोष देखना सभी को अप्रिय लगता है, लेकिन आपके द्वारा अपने दोषों का अनदेखा करना दूसरों
को अप्रिय लगता है।
जो योग और प्राणायाम करते हैं उनमें निर्दोषता जन्म लेती है
हमें बचपन से सिखाया जाता है कि अच्छाई और बुराई का फर्क रखिए। हमारे पूरे
जीवन का मापदंड इसी के आसपास चलता है। जैसे-जैसे हमारे भीतर परिपक्वता आई कि हम
थोड़ा इससे ऊपर सोचने लगेंगे। अच्छाई और बुराई से भी गहरी बात होगी कि हम शुभ और
अशुभ से जीवन जिएं।
अच्छाई-बुराई का संबंध दृष्टिकोण से है और शुभ-अशुभ का संबंध आचरण से। जैसे ही
हम शुभ और अशुभ से जोड़कर अपने जीवन को जिएंगे, दूसरों की बुराइयों से ज्यादा
अच्छाइयों पर नजर रखने लगेंगे। इससे हमारा हितकारी दृष्टिकोण व्यापक हो जाएगा।
हमारे भीतर एक सात्विक स्वभाव जागेगा। बाहर की परिस्थितियों से अरोपित करके हम
अपने आचरण को नहीं बनाएंगे। जीवन में किसी को भी हमेशा सुख नहीं मिला। दुख आते ही
हम खुद परेशान होते हैं और दुख के कारण दूसरों में ढूंढ़ते हैं।
दोषारोपण की वृत्ति मनुष्य का सहज स्वभाव बन जाता है। जो लोग लगातार योग और
प्राणायाम करते हैं, उनके भीतर अच्छाई से अधिक निर्दोषता का जन्म होता है। अच्छे होने और निर्दोष
होने में फर्क है। अच्छाई आवरण भी हो सकती है, किंतु निर्दोषता भीतर से आती है।
निर्दोष व्यक्ति के साथ जब दुख की स्थिति आती है तो वह उसे अपने से ही जोड़कर चलता
है। उसका कारण दूसरों में नहीं ढूंढ़ता। इसीलिए उसे विपत्तियां बड़ी नहीं लगेंगी।
हम अपनी परेशानियों को बढ़ा-चढ़ाकर इसीलिए आंकते हैं कि हम उनमें दूसरों को जोड़
लेते हैं। इसीलिए उसकी वास्तविकता खत्म होती है तथा भ्रम के कारण परेशानियां और
व्यापक हो जाती हैं।
अच्छी बातों को जो उपहास में उड़ाए उसका पतन निश्चित है
जीवन कई सहारों से चलता है, लेकिन हम ध्यान रखें कि ये सहारे कहीं बैसाखियां बनकर हमें
विकलांग न बना दें। परमात्मा और अपने पुरुषार्थ का सहारा जरूर लीजिए, लेकिन यह सहारा हमारे
लिए रूपांतरण की प्रक्रिया बने, न कि हम मजबूर होकर उन्हीं पर टिक जाएं।
सुंदरकांड में रावण के दरबार में हनुमानजी रावण को समझा रहे थे। उस समय
तुलसीदासजी लिखते हैं - जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी।।
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।। यद्यपि हनुमानजी ने भक्ति,
ज्ञान, वैराग्य और नीति से
युक्त बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी अभिमानी रावण हंसकर बोला कि हमें यह बंदर बड़ा ज्ञानी
गुरु मिला।
हनुमानजी की वाणी के लिए तुलसीदासजी ने चार बातें लिखी हैं - हनुमानजी केवल
शब्दों की जुगाली नहीं करते थे। वे जानते थे कि पानी और वाणी एक बार विसर्जित हुईं
कि दोबारा पकड़ना मुश्किल है। इसलिए उनकी वाणी में भक्ति का आधार था। भक्त सबका
हित चाहता है। दूसरी बात, उनमें ज्ञान का पुट था, यानी वे स्थितियों का विश्लेषण
करने की क्षमता रखते थे। तीसरी बात, उनकी वाणी में वैराग्य था। जो लोभरहित वाणी बोलेंगे
वे हमेशा भीतर से शांत होंगे और चौथी बात उनके शब्द नीति से गुंथे हुए थे। इसी
कारण उनके शब्द हितकारी बन गए।
महान व्यक्ति वह है, जो अपने शत्रु का भी हित देखे और उसे पराजित करने की जगह
परिष्कृत करने की प्रक्रिया अपनाए। लेकिन रावण हनुमानजी को गुरु कहकर उनका उपहास
उड़ाता है। अच्छी बात या विचारों को जो उपहास में उड़ाए, उसका रावण की तरह ही पतन होता
है।
अभिनय के लिए अपने घर को मंच बनाना उचित नहीं
बीज की प्रवृत्ति पौधे का भविष्य है। विचार भी बीज की तरह हैं। हर विचार में
एक वृक्ष बनने की संभावना छिपी हुई है। हमारे घर-परिवार में इस समय जब पढ़े-लिखे
होने का जोर है तो विचारों के आदान-प्रदान की स्थितियां भी अधिक होती जाएंगी। पहले
घर में नेतृत्व पिता या किसी वरिष्ठ पुरुष के हाथ में होता था और उनके विचार
निर्णय बन जाते थे। पर अब नेतृत्व का बंटवारा हो गया है।
जो-जो भी पढ़ा-लिखा है, वह न सिर्फ अपनी बात रखना चाहेगा, बल्कि उसे निर्णय में बदलने का
आग्रह भी रखेगा। इसलिए जब हम घर-परिवार में हों तो विचार और वाणी को केवल दिमाग से
न तौलें। आप कोई बात कह रहे हों या किसी की बात सुन रहे हों तो इसे केवल दिमाग के
स्तर पर स्वीकार न करें, थोड़ा-सा आगे बढ़कर दिल में भी उतरें, क्योंकि घर में रिश्तों
का बड़ा महत्व है और रिश्ते दिमाग का नहीं, दिल का मामला होते हैं।
चिंतन की लहर अपनेपन के भाव को कहीं बहाकर न ले जाए। आजकल के लोग इतनी
जानकारियां प्राप्त कर चुके होते हैं कि उनके भीतर एक चित्त नहीं होता, जिसमें वे स्नेह को टिका
लें। आदमी बहुचित्तवान हो गया है पॉलिसाइकिक।
जिस समय बोल रहा होता है, उस समय सोच कुछ और रहा होता है। परिवार के केंद्र में ईश्वर
को रखने का अर्थ है हम अपने चित्त को भी किसी परमशक्ति पर टिकाएं। जैसे ही हम
परमात्मा से संयुक्त होंगे, खासतौर से परिवार में हम बहुचित्त की अपने-पराए वाले की
प्रवृत्ति से मुक्त होंगे। घर में सबसे अच्छा यही है कि भीतर और बाहर आदमी बिल्कुल
अपनापन लिए रहे। अभिनय के लिए घर को मंच नहीं बनाएं।
हर समस्या अपने साथ समाधान भी लेकर आती है
कुछ लोगों को भगवान अपनी समस्याओं के परीक्षण की प्रयोगशाला बना देता है। एक
समस्या को घर से विदा किया नहीं कि दूसरी दस्तक देती दिखेगी, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी
हैं, जिनका
कहना है कि हर समस्या हमारे जीवन में दो बातें कर जाती है - पहली तो यह कि वह हमें
गहरा बनाती है और दूसरी, भगवान के प्रति भरोसा बढ़ा देती है। गहराई और भरोसा
समस्याओं के परिणाम होने चाहिए। ज्यादातर लोग निराशा में डूब जाते हैं।
परमात्मा जानता है कि मैंने इसे जीवन दिया है और मैं ही अब समस्या भी दूंगा।
इसलिए उसने हर मनुष्य के भीतर कुछ गुप्त शक्तियां दे रखी हैं। ये शक्तियां शरीर,
मन और आत्मा में
अलग-अलग ढंग से छिपी हुई हैं। जैसे ही जीवन में विकट स्थिति आए, तुरंत अपनी गुप्त और
प्रबल शक्ति पर काम करना शुरू कर दें। हो सकता है वह आसानी से न मिले, लेकिन है जरूर। इस शक्ति
को ढूंढ़ने के दो तरीके हैं - धर्य और उत्साह। बिल्कुल ऐसे ढूंढ़िए जैसे अपने घर
में कोई चीज किसी स्थान पर रखकर भूल गए हों। इसका मतलब वस्तु वहीं है और मिलकर
रहेगी।
बस गुप्त शक्ति हाथ लगी और संकल्प जाग जाएंगे। संकल्पित व्यक्ति कभी समस्याओं
से नहीं घबराता। आपकी शक्तियां आपको समझाएंगी कि घर और संसार छोड़कर मत भागना।
संसार और समस्याएं साथ-साथ चलती हैं। इनका जीवन से कोई विरोध मत रखिए। हर समस्या
अपने साथ एक समाधान लेकर जरूर आती है और समाधान गुप्त शक्ति से नजर आता है। वरना
हम अंधे के अंधे ही रह जाएंगे। आग लगने पर अंधों का नुकसान ही यही होता है कि वे
मार्ग नहीं ढूंढ़ सकते।
लाइफः जागने और उठने के बीच के अंतर को समझें
ईश्वर ने इंसान के रूप में जन्म देकर आपको तोहफा दिया है। जिस तरह से आप अपनी
जिंदगी जीएंगे वह आपके द्वारा ईश्वर को दिया गया तोहफा होगी। सवाल यह है कि आप
अपनी जिंदगी का सर्वोत्तम कैसे दे सकते हैं? आपका जन्म आपकी इच्छा से नहीं
हुआ था और मृत्यु भी आपकी मर्जी से नहीं आएगी।
मगर, इन
दोनों के बीच का जीवन आपकी मर्जी का है। जीवन से अधिकतम पाने के लिए आपको जागना
होगा। जब आप मां के गर्भ में थे तो सो रहे थे और मृत्यु के बाद भी गहरी नींद में
सो जाएंगे। इन दोनों घटनाओं के बीच में आपके पास एक ही जीवन है और एक ही मौका भी।
क्या आप अभी भी अपनी जिंदगी सोते हुए गुजारना चाहते हैं? जागो। हर कोई सफल होने का सपना
देखता है, लेकिन सफल वही होता है जो जागा है और जिसने उसके लिए काम किया। इसलिए जागो।
हम सभी पहले जागते हैं और फिर उठते हैं। दोनों बातों में अंतर है। आपकी सफलता
और हार सिर्फ उस दिन की नहीं है बल्कि यह आपकी जिंदगी की है, जो इस गैप के बीच में
है। जागने के बाद, उठने के बजाय आप कुछ देर के लिए फिर से सो जाते हो।
क्या आपने महसूस किया है कि ‘जागने’ और ‘उठने’ के बीच के अंतर को सरेंडर करने के कारण आपका दिन हार के साथ
शुरू होता है। जो दिन हार के साथ शुरू हुआ है आप उस दिन से और क्या उम्मीद कर सकते
हैं। आप दिन के पहले अनुभव को नेगेटिव कैसे होने दे सकते हैं? आप उस पूरे दिन पॉजिटिव
सोच कैसे बनाए रखेंगे जो दिन नेगेटिव सोच के साथ शुरू हुआ है।
आपने खुद पर जो पहली छवि बनाई वह ये है कि आपका खुद पर कंट्रोल नहीं है। तो आप
जिंदगी को कंट्रोल करने के बारे में क्यों कहते हैं? वहीं दूसरी ओर यदि आप इस गैप को
जीत पाए तो आप जानते हैं कि आपके दिन की शुरुआत जीत के साथ हुई थी।
शिक्षा और नौकरी के साथ बच्चों के चरित्र की चिंता भी जरूरी
अपने बच्चों को विद्यार्थी जीवन देते समय पुराने दौर में माता-पिता बड़े प्रसन्न होते थे। हमारे देश में एक वक्त ऐसा भी था, जब अच्छी शिक्षा के लिए बहुत संघर्ष था। आज डिग्री वाली शिक्षा ठेलों पर मूंगफली की तरह बिक रही है। अब विद्यार्थी जीवन में शिक्षा और नौकरी से अधिक माता-पिता को बच्चों के चरित्र की चिंता भी करनी चाहिए।
पढ़ने-लिखने वाले बच्चे कुछ ऐसा आचरण करते हुए दिखते हैं तो पहचानना मुश्किल हो जाता है कि ये विद्यार्थी हैं या विलासी। पढ़ रहे हैं या भोग रहे हैं? आजकल बुद्धिहीन बच्चे कम ही होते हैं, मूढ़ ज्यादा रहते हैं। अगर केवल शब्दों को पकड़ें तो मूढ़ का अर्थ दिखता है ऐसा व्यक्ति जिसमें बुद्धि न हो, लेकिन ये सांसारिक अर्थ है।
आध्यात्मिक अर्थ है कि मूढ़ वह मनुष्य है, जो जाग सकता है, लेकिन जानबूझकर सोया हुआ है। जानते हुए भी अनजान बना हुआ है। नशा करने वाले इसी श्रेणी में आते हैं। वे जानते हैं कि हम गलत कर रहे हैं। इसे कहते हैं मूढ़ता। आज का विद्यार्थी जीवन इन्हें खूब पढ़ा-लिखा बनाने के बाद भी मूढ़ बना रहा है। ये बच्चे जान-बूझकर कुछ ऐसा गलत कर रहे हैं, जो जानते हैं कि नहीं करना चाहिए। कैंपस इन्हें उन्मुक्तता देगा और घर इन्हें संस्कार दे सकेगा।
इसलिए समय-समय पर ध्यान देते रहें। उनके मित्र कौन हैं और कैसे हैं, इसकी शुरुआत और पूरी जानकारी घर से हो। स्वास्थ्य के प्रति ये पीढ़ी सजग रहे, यह स्वाद घर-परिवार ही दे सकेगा। अनुशासन क्या होता है, यह घर के सदस्य अपने आचरण से इन्हें बता पाएंगे। कोरी डांट-डपट और रोका-टोकी इनके भीतर के लावा को न तो रोक सकेगी और न ठंडा कर सकेगी।
जीवन-सौंदर्य के लिए विपरीत स्थिति में भी जीना आना चाहिए
संसार वह दलदल है, जिसमें उतरने पर आप डूबने की तैयारी रखें। जिनके पास आत्मबल होगा, वे आकंठ डूबे होंगे, लेकिन सांस लेने के लिए नाक के छिद्र बचे रहेंगे और दुनिया देखने के लिए आंखें सलामत होंगी। जो पूरे डूब जाते हैं, वे संसार का आनंद नहीं ले पाते और संसार को कोसते रहते हैं।
जब कभी आपको दुनिया काटने लगे, कमल के फूल को हाथ में लीजिए और विचार करिए इसके उगने और खिलने की क्रिया पर। जो खूबसूरत चीज आपके हाथ में है, वह सौंदर्य कीचड़ से निकलकर आया है। कीचड़ यानी संसार की विपरीत परिस्थितियां। कीचड़ में कोई नहीं रहना चाहता, लेकिन जीवन का सौंदर्य पकड़ना हो तो विपरीत स्थितियों में जीना आना चाहिए। हमारी केंद्रीय सामथ्र्य ऐसी रहे कि हम संसार में रहकर भी संसार को अपने भीतर न आने दें। चूक यहां हो जाती है कि हम समझते हैं धन, भौतिक सफलताएं, सुख ही संसार है।
हमें यह गलतफहमी हो जाती है कि यह सब संसार में ही मिलते हैं या इन्हीं से संसार प्राप्त होता है, जबकि ऐसा है नहीं। आत्मबल का अर्थ है विवेक से ली जाने वाली क्षमता। संसार के भोग और अध्यात्म के योग में एक संतुलन के साथ जीवन में उतरना चाहिए। साधु-संतों की संगत में जब जाएं तो लगातार इस बात पर निगाह रहे कि वे संसार का उपयोग किस प्रकार कर रहे हैं। अगर सतही तौर पर देखेंगे तो पाएंगे कि वे भी भोग रहे हैं और यहीं से चूक हो जाएगी। थोड़ा गहराई में उतरकर पूर्वग्रह से हटकर देखिए तो आप पाएंगे कि वे संसार में हैं, संसार उनमें नहीं है। इसीलिए उनके भोग में भी योग होगा और हमारे योग में भी भोग रहेगा।
जहां पवित्रता होगी प्रसन्नता का निवास भी वहीं होगा
यदि हमारा अंतस विकारों से भरा है तो बाहरी सौंदर्य का कोई अर्थ नहीं होगा।
लोग अपने व्यक्तित्व को लगातार बाहर से धोते रहते हैं, भीतर की सफाई का मतलब ही नहीं
समझते। शास्त्रों में लिखा गया है कि पवित्रता में ही प्रसन्नता बसती है। दुखी कोई
नहीं रहना चाहता। सभी लोग प्रसन्न रहने के लिए प्रयासरत हैं।
असली प्रसन्नता वह है, जिसके पीछे निश्चिंतता भी हो। बिना बेफिक्र रहे खुश कैसे
रहा जा सकता है? हमारा जीवन इतना अस्त-व्यस्त और घिचपिच हो जाता है कि हम इसी में उलझ जाते हैं
और प्रसन्नता जहां से पकड़ी जा सकती है, वह केंद्र ही हमारे हाथ से खिसक जाते हैं। मन मलिन
और मुख प्रसन्न जैसी दोहरी बातें भले ही अपना ली जाएं, पर ये जीवन की समस्याओं का
स्थायी निदान नहीं हो सकता। पांच तरह से पवित्रता उतारी जानी चाहिए। पहली, धर्म की पवित्रता।
हम किसी भी धर्म से जुड़े हों, वहां पूरी पवित्रता रहे। दूसरी पवित्रता आर्थिक रूप से हो।
धन कमाने के तरीके अनुचित न रहें। तीसरी पवित्रता होनी चाहिए शारीरिक। आलस्य
शारीरिक अशुद्धता है। इसलिए अति भोजन से बचें। चौथी पवित्रता मानसिक होनी चाहिए।
विचार और भाव शुद्ध रखें तथा पांचवीं पवित्रता होगी व्यावहारिक विषयों से संबंधित।
अपने सांसारिक लेन-देन, वाणी-व्यवहार में साफ-सुथरे बने रहें। आप पाएंगे कि जितने
अधिक आप पवित्र होंगे, आपके विचार पवित्र होंगे, उतने ही अधिक प्रसन्न रहेंगे।
शरीर धोने के लिए पानी की जरूरत होती है और भीतर से पवित्रता लाने के लिए ध्यान के
जल की आवश्यकता होती है। मेडिटेशन पानी की तरह हमारे भीतर की सफाई कर देता है।
इच्छाओं को न दूसरों पर थोपें न दबाएं बस सही दिशा में मोड़ दें
दांपत्य जीवन में इच्छाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हर सदस्य अपनी इच्छा
से जीना चाहता है। चूंकि परिवार रिश्तों पर टिका होता है, इसलिए इच्छापूर्ति में दूसरों की
भूमिका भी रहती है और यहीं से झंझटें चालू हो जाती हैं। अब दो स्थितियां बनती हैं
या तो इच्छा दूसरे पर जबर्दस्ती थोपी जाए या फिर अपनी इच्छाओं को दबा लिया जाए। ये
दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं। थोपेंगे तो पूरे परिवार का नुकसान है और यदि भीतर
दबाएंगे तो स्वयं के लिए हानि होगी।
इच्छाओं का दमन मानसिक बीमारियां पैदा करता है। कभी-कभी मानसिक नपुंसकता पैदा
हो जाती है। ऐसे लोग चिड़चिड़े हो जाते हैं। इसलिए इच्छाओं के साथ तीसरा रास्ता
निकाला जाए। इन्हें न दूसरों पर आरोपित करें, न दबाएं, बस मोड़ दें। इच्छाओं को मोड़ते
समय ध्यान रखें कि ये किसकी ओर जा रही हैं। कुछ लोग घर से बाहर की ओर इच्छाओं को
मोड़ देते हैं और फिर उनका समय बाहर अधिक कटने लगता है।
शराब, जुआ, क्लब
ये सब ज्यादातर मौकों पर घर से बचने के अड्डे बन जाते हैं। पहली बात तो यह है कि
घर के सदस्य आयु, स्थिति और रिश्तों के अनुसार इच्छा से जुड़ते हैं। माता-पिता, जीवनसाथी और बच्चे आपकी
इच्छा के मामले में अलग-अलग ट्रैक पर रहेंगे। जब इनकी ओर अपनी इच्छा को मोड़ें तो
उनसे आपके रिश्ते, उम्र और भावना का ध्यान रखें। आदर, प्रेम और कोमलता के साथ इच्छा को मोड़ें। हो सकता है
आप इनकी और ये आपकी इच्छा को नहीं समझ पाएं। इसलिए अपनी इच्छा के साथ उनकी इच्छा
को जरूर जोड़ें। इच्छा संयुक्त होते ही प्रेम की दिशा में बह जाएगी।
घर को कलह से बचाना एक बड़ी जिम्मेदारी है
परिवारों में परिस्थितियां, रिश्ते, उनके पीछे की भावनाएं और उम्र का अंतर कलह पैदा करने में
भूमिका निभाते हैं। इस समय हर आदमी अपनी स्वतंत्रता में बाधा नहीं आने देना चाहता।
अपनी इच्छा, आवश्यकता और रुचि को अत्यधिक प्रधानता देने के कारण परिवार के सदस्यों में कलह
बढ़ने लगी है।
कलह जब लंबे समय चलती है तो एक-दूसरे के प्रति अविश्वास की भावना प्रबल हो
जाती है। कोई किसी को समझना ही नहीं चाहता। आक्षेप, आरोप और आक्रमण पारिवारिक लाइफ
स्टाइल बनते जा रहे हैं। जो लोग चाहते हैं कि परिवार में कलह न आए, उन्हें अपनी रचनात्मक
भूमिका पर ध्यान देना चाहिए। जिनके भीतर घर से कलह मिटाने की तमन्ना हो, वो किसी भी घटना में
अन्य सदस्यों के भीतर छह बातों को देखा करें।
सबसे पहले अन्य सदस्यों के भीतर संस्कारों को पकड़ें, दूसरा, उनकी भावना को समझें, तीसरा उनकी योग्यता पर
नजर रखें, चौथे में परिस्थिति का मूल्यांकन करें, पांचवें में उस सदस्य की इच्छा
को पकड़ें कि उसकी इच्छा क्या है और छठवें में यह जानें कि वह चाहता क्या है। जब
सदस्य एक-दूसरे के प्रति इन छह बातों के माध्यम से संपर्क रखेंगे तो कलह होने की
संभावना कम हो जाएगी। अभी लगता है घर के सदस्य एक-दूसरे को सुख की जगह दुख अधिक
पहुंचा रहे हैं। जब ऐसा हो तो हमें उस दुख के प्रति एक गहरी दृष्टि रखनी होगी।
बिना दुख को समझे अचानक उबल न पडे़। जितना दुख को जान लेंगे, आप दुख को उतना ही
नियंत्रित कर सकेंगे। इसके लिए ऊपर लिखी छह बातें काम आएंगी। घर को कलह से बचाना
एक बहुत बड़ा दायित्व है।
उदासी का बोझ सताए तो गलत का पश्चाताप जरूर करें
इस भागती-दौड़ती दुनिया में हम अपने पैरों तले जिन बातों को रौंद रहे हैं,
उनमें दो प्रमुख
हैं : संवेदना और शुद्धता। इस समय ये दोनों बातें आधुनिक जीवनशैली में हाशिए पर
पटक दी गई हैं। अपनी चाल को धीमा नहीं करना है, लेकिन विश्राम के लिए कुछ पड़ाव
जरूर बना लेना चाहिए।
आजकल शारीरिक शुद्धता के प्रति सौंदर्य के कारण रुझान बढ़ रहा है। लोग अपने
कार्यस्थल भी साफ-सुथरे रखने लगे हैं। होटलों में, सफर में साफ-सफाई की ही कीमत
वसूली जाती है। लेकिन मानसिक पवित्रता के प्रति लोग उदासीन हो गए हैं। लोग
औपचारिकताओं के प्रति सजग हैं लेकिन सज्जनता, सद्व्यवहार और प्रेम के प्रति
सोचते ही नहीं हैं। कई बार तो ढोंग इतना हावी हो जाता है कि सत्य खो ही जाता है।
जिन्हें अपनी मानसिक पवित्रता पर कार्य करना हो, उनको अपने और अपने परिवार में
खान-पान के प्रति अत्यधिक सावधानी रखनी चाहिए। मात्र निवास, वस्त्र और रहन-सहन की सफाई पूरे
परिणाम नहीं देगी। सात्विक भोजन व्यक्तित्व को निर्मल बना ही देता है।
व्यक्तित्व निर्मल होगा तभी आप सद्व्यवहार के पाखंड से बच सकेंगे। हमारे यहां
सभी धर्मो ने पश्चाताप की अवस्था को बड़ा महत्व दिया है। भूल सभी से हो जाती है।
जो लोग पश्चाताप करेंगे, उनके पास इस बात की संभावना हो जाएगी कि गलत काम से जो
भारीपन आया है, वो मिट सकेगा। जब कभी उदासी का बोझ सताए तो अपने गलत किए हुए का पश्चाताप जरूर
करें, क्योंकि
अच्छे कार्य के परिणाम में उदासी नहीं आती है यह तो गलत का ही प्रतिफल है।
क्रोध पर नियंत्रण पाना हो तो निरहंकारी होने का प्रयास करें
आजकल गुस्सा तो लोगों की नाक पर बैठा है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि नाक
शरीर का वह अंग है जिसका संबंध सांस से है और सांस मन को भोजन प्रदान करती है। यह
एकमात्र क्रिया है, जिसका संबंध परमात्मा के हाथ में है।
इसीलिए नाक पर बैठा गुस्सा फौरन भीतर जाता है और क्रोध वह विष है, जो शरीर में तुरंत फैल
जाता है। हमें अपने जीवन में जिन-जिन बातों को गंभीरता से लेना चाहिए, उनमें से एक क्रोध है।
एक बड़ा खतरा भविष्य के लिए दिख रहा है कि इस समय बच्चे बुरी तरह गुस्सैल हो उठे
हैं। मैं पिछले दिनों अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक स्तर के लगभग 15 परिवारों के संपर्क में
आया। इनमें से 12 परिवार के लोगों की दिक्कत यह थी कि उनके घर के छोटे बच्चे, जो 5 साल से 14 साल के हैं, बहुत अधिक गुस्सा करने
लगे हैं।
क्रोध के कारण हमारे हार्मोस में एक विषैला तत्व पैदा हो जाता है। हम अपने ही
द्वारा, अपने
ही भीतर एक चिता तैयार कर लेते हैं और उसकी अग्नि में न सिर्फ खुद, बल्कि अन्य लोगों को भी
झुलसाने लगते हैं। कम से कम बड़े तो इस बात को समझ लें कि हर क्रोध के मूल में
अहंकार होता है। अहंकार अपने ही प्रति एक तरह का अज्ञान माना जाता है। इसके पीछे
यह हठ होता है कि हर व्यक्ति हमारी बात माने। जिन्हें अपने क्रोध पर नियंत्रण पाना
हो, वे
निरहंकारी होने का प्रयास करें। निरहंकारी वही हो पाएगा, जिसने अहंकार को जाना है। जैसे
ही आप अपने अहंकार से परिचित होते हैं, यह विसर्जित होने लगता है और यहीं से क्रोध नियंत्रण
में आ जाता है। अगर बड़ों का क्रोध नियंत्रण में है तो वे बच्चों को भी इससे
मुक्ति दिला पाएंगे।
सोते और उठते समय अपनी श्रेष्ठता को स्पर्श करें
भूल किससे नहीं होती। भूल होते ही दंड देने के साथ गलती करने वाले के भीतर की
योग्यता, अच्छाई
को भी देखा जाए और उसे निखारा जाए। जितना आप किसी के भीतर के अच्छे पहलू को
पकड़ेंगे, उतना ही वे अच्छा प्रदर्शन कर पाएंगे। रोक-टोक करते समय भीतरी अच्छाई को देखने
वाली दृष्टि समाप्त न करें, इसके लिए दो एक्सरसाइज करते रहें।
आप किसी भी पद पर हों जब अपने कार्यस्थल से घर आएं तो अपने ऊपर वाले
अधिकारियों से परेशान हों या अधीनस्थ लोगों से दुखी हों, दोनों ही स्थितियों में यह आपको
सोते और उठते समय बेचैन करेगा। शास्त्रों में लिखा है और सभी धर्मो ने मान्य किया
है कि दो समय इंसान अपनी श्रेष्ठता को भीतर जाकर स्पर्श कर सकता है।
प्रात:काल सूर्योदय के साथ उठें और नींद के बाद शरीर जिस विश्राम अवस्था में
होता है, उसी
में बिस्तर पर बैठकर पूरी खामोशी के साथ आंखें बंद करते हुए अपने भीतर उतर जाएं।
यह वो समय होता है, जब आप पूरी तरह से रिलेक्स रहते हैं। इस ताजगी के समय अपने आप से जुड़े रहिए।
कोई चिंतन न करें, बस उस अवस्था का रसपान करें और ऐसे ही रात को सोते समय जब
आपकी भाव दशा थकी हुई हो, दिनभर आप दुनिया से मेल-जोल करके लौटे हों, एक वैराग-सा जागा हो,
एक अजीब-सी बेचैनी
हो, उस समय
भी सोने से पहले अपने भीतर उतर जाएं। बिल्कुल शांत मुद्रा में खुद से जुड़ जाएं और
नींद को आमंत्रण देते हुए उसके साथ जुड़ें। इन दो अवस्थाओं में खुद से जुड़ने का
मतलब है अपनी श्रेष्ठता को स्पर्श कर लेना। ये जुड़ाव आपके दिनभर के बाहरी कामकाज
में बड़ा काम आएगा।
जब विशेष कार्य करना हो तो शांतचित्तता बनाए रखें
व्यक्ति निर्भय हो और उसका मन भीतर से शांत हो तो ऐसे लोग परमात्मा को सरलता
से पा सकते हैं। परमात्मा को पाने का यह अर्थ न समझा जाए कि वे व्यक्ति के रूप में
साक्षात मिल जाएंगे। परमात्मा को पाने का मामला अनुभूति से जुड़ा है। दुनिया में
कई तरह के भय हैं।
धन, प्रतिष्ठा,
रिश्ते, सम्मान और अपना शरीर,
इन सबके नुकसान का
भय मनुष्य को सताता है। आदमी इन्हीं के भय में उलझ जाता है और भूल जाता है कि सबसे
बड़ा भय है मृत्यु का भय। जिसने मृत्यु के भय को ठीक से समझ लिया, वह इन भय के टापुओं से
मुक्ति पा लेगा। सुंदरकांड में रावण के दरबार में रावण हनुमानजी को मारने का फैसला
ले चुका था। जब उसे रोका गया तो उसने पूंछ में आग लगाने का आदेश दे दिया। सुनत
बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर।। यह सुनते ही रावण हंसकर बोला - अच्छा,
तो बंदर को
अंग-भंग करके भेज दिया जाए। जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउं मैं तिन्ह कै
प्रभुताई।
जिनकी इसने बहुत बढ़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता तो देखूं। यहां रावण और हनुमानजी भय
और निर्भयता की स्थिति में खड़े हुए हैं। रावण बार-बार इसीलिए हंसता है, क्योंकि वह अपने भय को
छुपाना चाहता है। उसने कहा - मैं इस वानर के मालिक की ताकत देखना चाहता हूं।
श्रीराम की सामथ्र्य देखने के पीछे उसे अपनी मृत्यु दिख रही थी, जबकि हनुमानजी मृत्यु के
भय से मुक्त थे। रावण का चित्त अशांत था, जबकि हनुमानजी शांतचित्त से बोल भी रहे थे और आगे की
योजना भी बना रहे थे। हमें जीवन में जब भी कोई विशेष कृत्य करना हो, निर्भयता और शांतचित्तता
की स्थिति बनाए रखनी चाहिए।
ध्यान प्रक्रिया के जरिए करें अपने ‘मैं’ का विसर्जन
कहा जाता है कि जीवन से दुख मिटाना हो तो ध्यान करिए। जब आप किसी व्यक्ति को
ध्यान में बैठे देखें तो लगता है कि यह कुछ नहीं कर रहा है। दरअसल ध्यान का अर्थ
है मैं कुछ नहीं कर रहा हूं, जो भी हो रहा है, उसमें मैं एक माध्यम हूं।
इसका सीधा अर्थ है कुछ नहीं हो रहा, ऐसा न समझो। संसार में सुख पाने के लिए जितने काम
करते हैं, उनमें से जरूरी नहीं होता कि सबके परिणाम में सुख मिल जाए। लेकिन एक बात समझ
में आ जाती है कि सुख पाने के लिए कुछ करना पड़ेगा। जैसे ही ‘मैं कर रहा हूं’ का भाव आता है, इसी सुख में दुख मिलने लगता है और फिर हम दुख मिटाने के लिए
भी ‘मैं
दुख मिटा रहा हूं’, इस तरीके से काम करने लगते हैं। बस, इस ‘मैं’ के विसर्जन के लिए ही अध्यात्म ने ध्यान जैसी प्रक्रिया
बनाई।
जैसे ही ‘मैं’ हटा,
कर्ताभाव गिरा,
वह व्यक्ति
परमशक्ति परमात्मा से जुड़ जाएगा। उससे जुड़ते ही हम पूरे व्यक्तित्व में एक हो
जाते हैं और उससे हटकर अपना ‘मैं’ जोड़ने से खंडित व्यक्तित्व बन जाते हैं। जैसे कभी हम प्रेम
करते हैं, कभी घृणा। कभी अच्छे होते हैं, कभी बुरे। लगातार हम बदलते रहते हैं। हर आदमी भीतर से कई
आदमी-सा हो जाता है। जो भगवान से जुड़ा, फिर वह भीतर से एक व्यक्ति हो जाता है। अभी हम भीतर
से संतरे की तरह हैं। न मालूम कितनी फांकें हमारे भीतर हैं। ‘मैं’ गिराकर भगवान से जुड़ने
पर हम भीतर से केले की तरह हो जाएंगे और फिर हमारी सांसारिक गतिविधियां भी
आध्यात्मिक होने लगेंगी। काम कोई भी करें, परिणाम में सुख मिलने लगेगा, क्योंकि दुख का कारण हम भीतर से
खत्म कर चुके होंगे।
प्रार्थना एक कवच की तरह हमें दुर्गुणों से बचाती है
इनकार करना और स्वीकार कर लेना, ये दो स्थितियां 24 घंटे हमारे जीवन से गुजरती हैं।
चूंकि हम भौतिक परिणामों पर अधिक टिकते हैं, इसलिए हम अस्वीकार और स्वीकार के
प्रति जागरूक दृष्टि नहीं बना पाते। हम इन्हें केवल निर्णय से जोड़ लेते हैं।
यदि आप सफलता के साथ शांति चाहते हैं तो इन दो स्थितियों को आध्यात्मिक दृष्टि
से जरूर देखें। जिसके जीवन में अधिक अस्वीकार है, वह ज्यादा अशांत हो जाता है। हर
अस्वीकार के पीछे कहीं नकहीं अहंकार जरूर होगा। माता-पिता अपने बच्चों को गलत काम
करने से रोकते हैं। इसमें जहां तक लालन-पालन है, वहां तक का निर्णय बिल्कुल ठीक
है, लेकिन
जैसे ही इसमें अहंकार आया, खतरा उत्पन्न हो जाता है।
कई बार तो माता-पिता के रूप में पति-पत्नी अपने अहंकार के चलते अपने निर्णय
बच्चों पर लाद देते हैं। अहंकार के विपरीत है विनम्रता। अपने भीतर विनम्रता उतारने
के लिए सबसे सरल उपाय है प्रार्थना। प्रार्थना करते ही संपूर्ण जीवन के प्रति एक
भरोसा, एक
सम्मान पैदा हो जाता है। प्रार्थना एक कवच की तरह आपको दुगरुणों से बचाती है।
विनम्र व्यक्ति के निर्णय और प्रभावशाली हो जाते हैं।
आप प्रकृति और उसके अस्तित्व को जितना अधिक स्वीकार करेंगे, मनुष्यों के प्रति भी आप
उतने ही प्रेमपूर्ण हो जाएंगे। उस समय आप अपने निर्णयों में आदेश कम और प्रेम अधिक
भर सकेंगे। ऐसे लोगों के निर्णयों को दूसरे अधिक अच्छे ढंग से पूरा करेंगे और
मानेंगे। इसलिए 24 घंटे में थोड़ा समय प्रार्थना जरूर करिए। इससे हमारे भीतर एक स्वीकृति का भाव
आता है, जो
हमें विनम्र बना जाता है।
श्वास के प्रति श्रद्धावान होने से प्राणशक्ति मजबूत होगी
लगातार मेहनत करने के बाद चाहे सफलता मिले या न मिले, जब रात को हम सोने जाते हैं तो
इस बात पर विचार करिए कि क्या हम प्रसन्न उठे थे और क्या हम प्रसन्न सो रहे हैं?
हम दिनभर जो काम
करते हैं, उसमें हमारे भीतर प्राण ऊर्जा सक्रिय रहती है। जिन इंद्रियों का उपयोग हम करते
हैं, दरअसल
वे अचेतन हैं। उनमें अपनी कोई सक्रियता नहीं है। प्राण ऊर्जा से वे क्रियाशील होती
हैं। शरीर भी प्राण ऊर्जा के कारण ही गतिशील है।
इस बात को भी स्पष्ट समझ लें कि ये प्राण ऊर्जा हमारे भीतर सांस से आती है। हम
जो सांस लेते हैं, उसमें केवल वायु ही नहीं भरते, अन्य रासायनिक तत्व ही प्रवेश नहीं कराते, बल्कि प्राण भी लेते
हैं। आप जब बहुत गहरी सांस लेंगे तो अधिक प्राण अपने भीतर उतारेंगे। भीतर जाकर यही
प्राणशक्ति हमारी इंद्रियों को चैतन्य बनाती है।
हमारी बाहरी क्रियाशीलता का यह आंतरिक दृश्य है, इसलिए अपनी सांस पर थोड़ी-थोड़ी
देर में ध्यान देते रहिए। दिनभर हम कई मामलों में चौकन्ने रहते हैं, बस श्वसन क्रिया के
मामले में लापरवाह हो जाते हैं। हर सांस बड़ी श्रद्धा से ली जाए। सांस के प्रति
जितने श्रद्धावान होंगे, प्राणशक्ति उतनी अधिक मजबूत होगी और आपको प्रसन्नता देगी।
अभी हम सांस लेते हैं तो विश्वास करते हैं कि हम सांस ले रहे हैं। इस मामले में
हमें अपने पर ही भरोसा है। अब आप इस विश्वास को श्रद्धा में बदल दीजिए। श्रद्धा के
साथ सांस लेते ही आप एक परमशक्ति के प्रति आभार से भर जाते हैं, क्योंकि यह क्रिया उसके
द्वारा पूरी कराई जा रही है और यहीं से आपकी समूची गतिविधियां आपको उत्साहित करने
लगेंगी।
अपने जन्मदिन पर परमात्मा के प्रति आभार जरूर व्यक्त करिए
जन्मदिन के अवसर पर भेंट लेने और देने की परंपरा चली आ रही है, लेकिन ध्यान रखें जन्म
देकर परमात्मा ने सबसे पहली भेंट हमें दे दी और वो दिव्य शक्ति हमसे अपेक्षा करती
है कि हम अपने जन्म को जीवन में बदलें। जन्म तो पशु भी लेता है, लेकिन उसे जीवन बनाने की
संभावना ईश्वर ने सिर्फ मनुष्य में छोड़ी है।
अपने जन्मदिन पर परमात्मा के प्रति आभार जरूर व्यक्त करिए कि आपने जो हमें
अवसर दिया है, हम आपको निराश नहीं करेंगे। किसी के पास उसके जन्मदिन पर शुभकामनाओं की पूंजी
आ जाती है। शुभकामनाओं को ऐसे स्वीकार करना चाहिए, जैसे वर्षभर के लिए उत्साह का
भंडार प्राप्त हो रहा है। अपने जन्म को जीवन में बदलने के लिए खुश रहने का प्रयास
करिए।
आप जितने अधिक खुश रहेंगे, उतने ही जीवन के निकट होंगे। लोग अपने जीवन में आनंद का
अनुभव ही नहीं करते। आजकल आसपास इतना दुख होता है कि हमें आदत-सी पड़ जाती है दुखी
बने रहने की। सामान्य दुख के हम अभ्यस्त हो जाते हैं लेकिन जब कोई असामान्य दुख
आता है तो हम चिड़चिड़े होकर अवसाद में डूब जाते हैं। इसलिए ऊर्जा आनंद उठाने में
लगाएं तो फिर असाधारण दुख साधारण दुख ही बना रहेगा। दुख से मुक्ति पाने की कोशिश न
करें, वे
तो आने ही हैं। वर्ष में एक बार अपने जन्मदिन को आनंद के अर्जन के लिए समर्पित
करें और दूसरे के जन्मदिन पर भी जमकर आनंद बरसाएं। जैसे बारिश के पानी को संग्रहण
करने के लिए यंत्र लगाया जाता है, ऐसे ही आनंद की वर्षा को इंद्रियों के माध्यम से संग्रहीत
कर लें और सालभर के लिए जब चाहें उपयोग करते रहें।
भगवान से अगर कुछ मांगना ही है तो श्रेष्ठ गुरु मांगिए
वे सौभाग्यशाली होते हैं, जिनके जीवन में गुरु आ जाते हैं। सभी लोग अपनी पूजा में
परमात्मा से कुछ न कुछ मांगते हैं। भगवान से मांगें या न मांगें ये एक अलग विषय है,
लेकिन यदि कुछ
मांगना है तो गुरु मांगिए, क्योंकि हम लोग बाजार के युग के प्रोडक्ट हैं।
हर चीज वारंटी और गारंटी से लाते हैं, लेन-देन हिसाब से करते हैं, इसीलिए गुरु भी ठोंक-बजाकर बनाते
हैं। सोमवार को हम गुरुजी बनाते हैं, मंगलवार को उनमें खोट ढूंढ़ना शुरू कर देते हैं,
बुधवार को गुरुजी
रवाना कर दिए जाते हैं और गुरुवार से फिर नए गुरु की तलाश शुरू हो जाती है। इस
चक्कर में गुरु नहीं मिल पाते। हम गुरु बनाएंगे तो अपनी पसंद खाली कर देंगे और यदि
भगवान से मांगा और उन्होंने दिया तो आप पाएंगे कि एक दिन चलकर कोई गुरु आपके द्वार,
आपके जीवन में आ
जाएगा। परमात्मा तक सीधे छलांग लग भी नहीं पाती।
मन को काबू में किए बिना जीवन में शांति नहीं आ सकती
योग न तो फैशन है, न धंधा। थोड़ा अफसोस होता है, लेकिन यह सही है कि इन दिनों योग
के साथ ये दोनों बातें जुड़ गई हैं। योग को उपलब्ध होने का अर्थ है शांति को
प्राप्त होना और शांति जिस भी कीमत पर मिले, जरूर हासिल करें। विज्ञान के युग
में भौतिक साधनों की कोई कमी नहीं है। लेकिन शांति विज्ञान का विषय नहीं है और जो
लोग जीवन में योग लाना चाहें, उन्हें मन को नियंत्रित करना आना चाहिए। फकीरों ने कहा है
कि मन को नियंत्रित किए बिना किसी के जीवन में योग या शांति नहीं आ सकती। करोड़ों
में ही कोई ऐसा होगा, जिसे मन को नियंत्रित किए बिना शांति मिल जाएगी।
लेकिन यह अपवाद है। कोई पहुंचा हुआ फकीर ही इस स्थिति में मिलेगा। सामान्य
व्यवस्था यह है कि मन को काबू में किया जाए। मस्तिष्क के तीन विभाग हैं - अवचेतन
मन, चेतन
मन और अचेतन मन। ये आत्मा से अलग हैं। रहा सवाल शरीर का तो उसकी रचना कोशिकाओं से
हुई है। चिकित्सा विज्ञान के लोग जानते हैं कि एक सूक्ष्म कोशिका कितनी बड़ी जटिल
रचना होती है। ऐसा कहा गया है कि एक वर्ग इंच में 11 लाख 77 हजार 500 कोशिकाएं देखी गई हैं। एक कोशिका
नष्ट होने पर अपने सारे आनुवंशिक गुण दूसरी में दे जाती है। विज्ञान के लिए भी ये
बड़ी अजीब घटना है। इसलिए मनुष्य के भीतर झांकना केवल शरीर के स्तर पर भी विज्ञान
के लिए लगातार शोध का विषय है। ऐसे में मन तो और सूक्ष्म हो जाता है, लेकिन सांस के माध्यम से
आप मन को पकड़ सकेंगे। शरीर का इलाज तो चिकित्सक पर छोड़ दें, लेकिन कम से कम साधक तो
हुआ जा सकता है, ताकि मन का इलाज तो कर ही लें।
बाहर की हरियाली भीतर उतारने का अवसर है सावन
जीवन में सबके अपने-अपने लक्ष्य होते हैं। लक्ष्य की पूर्ति के लिए खूब
परिश्रम भी करना पड़ेगा। ऐसा करते भी हैं, लेकिन इस तेजी और दबाव में हम कुछ चीजें खोने लगते
हैं। जिसका महत्व शायद आज पता न लगे, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा कि पछताना पड़ेगा। चरम पर
पहुंचने की गति इस वक्त हर कोई चाहता है, पर अध्यात्म में एक परमगति भी कही गई है। यह एक ऐसी
अनुभूति है, जिसमें सारी दुनिया खूबसूरत लगती है और हम खुश रहने लगते हैं।
आज इसलिए भी इसकी चर्चा की जा रही है कि कल से सावन माह आरंभ हो चुका है। अब
प्रकृति हमें देने की तैयारी में है। चारों ओर हरियाली है। अब पूरे सावन माह
सराबोर होने की तैयारी कर लीजिए। संतों ने कहा है केवल शुद्ध चित्त से ईश्वर नहीं
मिलेगा, उसके
लिए साधना भी करनी पड़ेगी। शरीर विज्ञानियों का कहना है कि जब हम आवेग और आवेश में
होते हैं तो हमारे भीतर एड्रिनल ग्रंथि को ज्यादा काम करना पड़ता है। क्रोध,
कलह, भय इस पर दबाव डालते
हैं।
हमारी यह ग्रंथियां डिस्टर्ब होती हैं और इनसे जो डिस्चार्ज होता है, वह हमारे भीतर विकृति
पैदा कर देता है। डिप्रेशन का यह साइंस है, लेकिन सावन वह अवसर है, जब बाहर की हरियाली भीतर
उतर सकती है। इस समय प्रकृति अपने शुद्ध और श्रेष्ठ डिस्चार्ज में रहती है और इसे
हम अपने भीतर उतार लें तब पाएंगे कि एक सावन भीतर भी होता है। जल से शिव अभिषेक
केवल एक कर्मकांड नहीं है। सावन माह यह संकेत दे रहा है कि ऐसा ही जलाभिषेक अपने
व्यक्तित्व का करिए। प्रफुल्लित, प्रसन्न रहिए। सावन को जमकर जिएं और पिएं।
अंदर से बदलाव बिना बाहर का फैलाव परेशान ही करेगा
अनेक सत्संग करने और अच्छी-अच्छी किताबों को पढ़ने के पश्चात भी आदमी भीतर से
नहीं बदल पाता। इसे अंत:करण का रूपांतरण कहा गया है। आज के वक्त में इसकी जरूरत
क्यों पड़ती है? एक छत के नीचे रहते हुए रिश्तों में जब दरार आती है तो उसे बारीकी से पकड़िए।
उसके पीछे जितने कारण होते हैं, उनमें एक महत्वपूर्ण कारण है शब्द। हमारे पास कहने
को तो शब्दों का भंडार है, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। घूम-फिरकर हम सीमित शब्दों
से ही काम चला रहे हैं। जिनके पास शब्दावली बड़ी होगी, वे केवल बाहरी प्रभाव बना
सकेंगे। यदि सचमुच शब्दों में भाव लाना है तो इस बात पर विचार करिए कि हमारी वाणी
भीतर किससे जुड़ी है।
यदि हम भीतर से संसार में आसक्त हैं तो हमारी वाणी भी गुणा-भाग, हानि-लाभ, निजहित-परहित में ही
डूबी रहेगी। ध्यान रखें कि अनासक्त होने का अर्थ यह नहीं है कि संसार छोड़ दें।
संसार से अनासक्ति का मतलब है परमात्मा में अनासक्ति। आप जितना भगवान से जुड़े हुए
हैं, आपके
शब्द अपने आप ही बाहर से प्रेमपूर्ण हो जाएंगे। पति और पत्नी के संबंध गड़बड़ाते
ही रहते हैं। यह एक अंतरराष्ट्रीय घटना है।
भले ही कोई छुपा ले, पर सभी के साथ स्थिति एक जैसी रहती है। जैसे ही आंतरिक
रूपांतरण हुआ और आप भीतर परमात्मा से आसक्त हुए, उस समय पति पत्नी से और पत्नी
पति से बात नहीं करेगी, बल्कि उनके भीतर के परमात्मा से बात होगी। यहीं से रिश्तों
के अर्थ बदल जाएंगे। इसलिए हर बाहर का भीतर जरूर ढूंढ़ते रहिए, क्योंकि अंदर से बदलाव
बिना बाहर का फैलाव परेशान ही करेगा।
किसी के भी भीतर झांकने की कला आनी चाहिए
किसी व्यवस्था के शीर्ष पद पर या किसी संस्थान में जिम्मेदारी का कार्य करते
हुए एक दायित्व बड़ी सावधानी से निभाना होता है और वह है लोगों पर नजर रखना। दो
बातों पर निगाह रखी जाती है। पहली, लोग गलत काम न कर पाएं और दूसरा, वे अच्छे काम करें। कई बार
प्रमुख लोग अधिक ऊर्जा लोगों की गलतियां पकड़ने में लगाते हैं।
धीरे-धीरे ये आदत बन जाती है और फिर प्रताड़ित करने और दंड देने में मजा आने
लगता है। लिहाजा कई बार तो गलती करने का मौका दिया जाता है और बाद में पोस्टमार्टम
होता है, जबकि
होना यह चाहिए कि ऑपरेशन कर दिया जाए ताकि पोस्टमार्टम की नौबत ही न आए। गलतियां
ढूंढ़कर अपमानित करना लंबे समय तक चलता रहे तो कुल मिलाकर काम का नुकसान होता है
और लोगों में सुधरने की संभावना खत्म हो जाती है।
इसलिए किसी के भी भीतर झांकने की कला आनी चाहिए। गलती करते हुए व्यक्ति को
केवल ऊपर से मत देखिए, थोड़ा-सा भीतर जाकर पकड़िए कि आखिर दोष का मूल कहां है?
वो कौन-सी जड़ है,
जो पेड़ को बाहर
से सुखा रही है? किसी के भी भीतर तब झांका जा सकता है, जब हमारी अपने भीतर देखने की तैयारी हो। आज के दौर
में हम क्या नहीं देख रहे, हथेली से चिपके हुए मोबाइल के परदे से सारी दुनिया देखी जा
सकती है और लोग देख भी रहे हैं। लोग यह भूल रहे हैं कि दृश्य जितने अधिक होंगे,
दृष्टि उतनी ही
कमजोर होती जाएगी। कमजोर दृष्टि से आप अपने भीतर कभी नहीं झांक पाएंगे। इसलिए रोज
थोड़ा अभ्यास करिए, खुद को निहारने का। अपनी निजता को जानने के लिए योग जरूर करिए।
कर्म को ही फल मानें तो चली जाएगी आसक्ति
सामान्य विचार यह है कि कर्म और फल अलग-अलग होते हैं। हम काम करें तो परिणाम
मिलेगा, लेकिन
एक और विचार है कि यदि हम कर्म को ही फल मान लें तो फल से हमारी आसक्ति चली जाएगी,
सारे तनाव दूर हो
जाएंगे। इसी को निष्काम कर्मयोग कहा जाएगा।
सावन के महीने में सोमवार का महत्व और बढ़ जाता है। सावन में प्रकृति अपने
लुटाने के स्वरूप में होती है। हम अपनी कर्म की वृत्ति को प्रकृति से जोड़कर
देखें। गहराई से सोचें तो प्रकृति का कर्म ही उसका फल है। इसी तरह जब सावन सोमवार
में हम शिवजी का अभिषेक करें तो ध्यान दें कि चढ़ाया हुआ जल निर्माल्य बन जाता है।
ऐसे ही हम अपने कर्म के प्रति विचार रखें, किया और जाने दें। इससे यह भावना प्रबल होगी कि कर्म
ही फल है।
यह बात भी समझ में आ जाएगी कि संसार में रहते हुए कर्म करना जरूरी है। कई लोग
कर्म ही छोड़ने लगते हैं। यह आलस्य होगा। कर्म छोड़ना सरल है, लेकिन कर्म करते हुए फल
छोड़ना कठिन है। कर्म और फल के मामले में एक और बहस जुड़ जाती है और वह है
पुरुषार्थ व भाग्य। भाग्य का अर्थ है, जो घटना जीवन में अभी घटी नहीं, उसका होना बाकी है। इस
स्थिति में अपना प्रभाव दिखाने का भाग्य को अवसर मिल जाता है। परीक्षार्थी पूरी
तैयारी के साथ परीक्षा में पहुंचता है, लेकिन प्रश्न पत्र जब उसके हाथ में आता है तो
हल्का-सा भाग्य का झोंका लेकर आता है। उसके बाद जब वह लिखने बैठता है तो पुन:
पुरुषार्थ आरंभ हो जाता है। यह एक लंबी बहस है, लेकिन जितना अधिक हम अपने कर्म
को फल मानेंगे, उतने अधिक काम करते हुए शांत रह पाएंगे।
काम और लक्ष्य बड़े हों पर शैली ‘बालवत’ हो
काम बड़े-बड़े करें, लक्ष्य भी बड़े रखें और काम करने की शैली बालवत रखें। बालवत
शब्द को समझ लिया जाए। बच्चों की तरह काम नहीं करना है, बल्कि काम करते हुए बच्चों के
जैसा भाव रखना है। आप बच्चों को कुछ करता हुआ देखिए तो वे ऐसे कर रहे होते हैं,
जैसे कोई उनसे
करवा रहा हो। सबकुछ बड़ा सहज होता है। संतों ने कहा है भगवान जिस पल जो करवा लें,
वो करते रहो,
क्योंकि दुनिया
बड़ी रहस्यपूर्ण है।
आज जो हो रहा है, कल वह नहीं होगा। एक के लिए जो सही है, दूसरे के लिए वह गलत है। इसलिए
आप कर्ता मत बनिए, आप निमित्त बन जाएं। चलिए, सुंदरकांड के उस दृश्य में चलते हैं, जहां हनुमानजी लंका जलाकर मां
सीता के सामने लौट आए थे। हनुमानजी की कार्यशैली बालवत थी। विश्व विजेता रावण की
लंका जलाना कोई छोटा-मोटा काम नहीं था। इस पूरे घटनाक्रम में हनुमानजी कर्ता नहीं
थे, वे
निमित्त बन गए। इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा - पूंछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप
बहोरि। जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।
पूंछ बुझाकर, थकावट दूर करके और फिर छोटा-सा रूप धारण कर हनुमानजी जानकीजी के सामने हाथ
जोड़कर जा खड़े हुए। यहां एक शब्द आया है हनुमानजी ने छोटा रूप धरा। इसका अर्थ है
बड़ा काम करने के बाद वे विनम्र बने रहे। यह बालवत कार्यशैली है। आगे तुलसीदासजी
ने लिखा है - तब सीताजी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमानजी ने उसको हर्षपूर्वक ले
लिया, यानी
वे इतना भीषण काम करने के बाद भी प्रसन्न थे। कैसा भी काम हम करें, कर्ताभाव का बोझ न रखें,
बस हनुमानजी की
तरह रामजी के निमित्त बन जाएं।
शांति पाने के लिए आत्मा को संक्रमण से बचाना होगा
जब हम शरीर के रोगों के निवारण का उपचार करते हैं तो इस बात पर ध्यान दिया
जाता है कि संक्रमण का रोग में योगदान होता है। इसीलिए कहा जाता है कि इन्फेक्शन
से बचें और अब तो विज्ञान और तकनीक के युग में भी वायरस के प्रभाव को महत्व दिया
जा रहा है।
कंप्यूटर के निर्माण में ऐसे सावधानी बरती जाती है, जैसे छूत की बीमारी के समय। संत
राजिंदर सिंहजी का कहना है कि वैज्ञानिक यंत्रों को बनाते समय जो सावधानी हम बरतते
हैं, वैसी
हमें अपनी आत्मा के लिए भी बरतनी चाहिए। आत्मा हमारा शुद्ध रूप है, वह जन्म के पहले भी थी
और मृत्यु के बाद में भी रहेगी। भौतिक शरीर हमें बाद में मिला है और ये यहीं खत्म
भी हो जाएगा। इस स्थूल शरीर के लिए हम बहुत जागरूक रहते हैं। इसमें संक्रमण न हो
जाए, इसकी
सावधानी भी बरतते हैं। लेकिन जिन्हें जीवन में शांति प्राप्त करनी हो, उन्हें आत्मा को भी
संक्रमण से बचाना चाहिए।
शरीर से आत्मा तक की यात्रा मन से होकर गुजरती है और मन विचारों में रुचि रखता
है। उसे जो करना होता है, वो कर जाता है और जो नहीं करना होता, उसे वो अपने मालिक को भी नहीं
करने देता। लोगों की उम्र बीत जाती है और वे अपने मन पर नियंत्रण नहीं कर पाते,
क्योंकि विचार
रूपी बीमारी का निदान केवल ध्यान है। विचार यदि रोग है तो ध्यान उसकी दवा और इस
औषधि के बाद ही हम आत्मा तक पहुंच पाएंगे। इसलिए जीवन में थोड़ी देर ध्यान की
आवश्यकता है। ध्यान सध जाने से हम मन को यह समझा सकेंगे कि कब और कौन-से विचार
कितने लेने हैं। इसी से शरीर और आत्मा दोनों संक्रमणमुक्त रह पाएंगे।
परमात्मा को जानने के लिए एकांत को समझना जरूरी है
आपाधापी और भीड़ भरे जीवन में कुछ समय एकांत के लिए जरूर निकालना चाहिए। लोग
जैसे ही एकांत में जाते हैं, अकेलेपन से घिर जाते हैं। एकांत को समझ ही नहीं पाते। दरअसल
जिन्हें परमात्मा को जानना हो, उन्हें एकांत को समझना ही होगा। एकांत में हम दुनिया को भूल
जाते हैं।
अब सिर्फ हम हैं और हमारा परमात्मा। भक्तों ने इसे ही स्मरण का नाम दिया है।
जैसे ही एकांत में हों, लगातार ईश्वर का स्मरण करें। चूंकि आप संसार की विस्मृति कर
चुके हैं, इसलिए परमात्मा की स्मृति सरल हो जाएगी। जैसे-जैसे स्मरण गहरा होगा और जब आप
अपने एकांत से बाहर निकलेंगे तो एकांत भले ही चला जाएगा, संसार का प्रवेश हो जाएगा,
परंतु स्मरण बना
रहेगा।
फिर यदि हम किसी मनुष्य को देखेंगे तो उसमें पहले ईश्वर को देखेंगे, बाद में वह मनुष्य
दिखेगा। हम संसार की कोई भी वस्तु देखें, परमात्मा स्मरण में आ जाएगा और यहीं से हमारी पूरी
जीवनशैली बदल जाएगी। स्मरण में परमात्मा है तो मन को भी स्वीकार करना पड़ेगा,
वरना मन तो
संसारभर को अपने भीतर भरने के लिए तैयार ही रहता है।
मन में यदि परमात्मारहित स्मरण है तो एक दिन उस स्मरणशक्ति की मन में गठानें
बनने लगती हैं। कबीरपंथ के संत निष्ठादासजी ने कहा है कि ये गठानें मस्तिष्क की
शक्ति को कम करती हैं, लेकिन यदि मन परमात्मा से स्मरणयुक्त है तो हमारी स्मृति
बहुत अच्छी हो जाएगी। अच्छी स्मृति उसी को कहते हैं, जो अवसर आने पर उपयोगी हो जाए।
इसलिए थोड़ी देर के एकांत प्रभु स्मरण से बाकी भीड़ भरी जिंदगी भी सहज-सरल हो सकती
है।
जब भी देखें और जो भी देखें पूर्णता
के साथ देखें
जीवन में कोई भी स्थिति, व्यक्ति या वस्तु स्वयं स्वतंत्र नहीं हो सकते। हर कोई किसी न
किसी पर निर्भर होगा। इसलिए हमें आधार पर नजर रखनी होगी। यदि आप जीवन में
संपूर्णता चाहते हैं तो वह परिश्रम पर आधारित होगी। विवेक सत्संग पर निर्भर रहेगा।
संत की कृपा के लिए सत्कर्म को आधार
बनाना होगा और सत्कर्म चाहते हैं तो उसे परमार्थ, त्याग और समर्पण के आधार पर निर्मित करिए। हनुमानभक्त रविशंकर महाराज
रावतपुरा सरकार इसे यूं कहते हैं - मनुष्य का मूल्यांकन उसके संकल्पों से नहीं,
उसके कार्यो से होना चाहिए। उनका इशारा है कि कोई भी
वस्तु किसी को स्वतंत्र नहीं मिल सकती। कुछ आधार समझने होंगे। वे कहते हैं कि जैसे
जीवन में समर्पण विश्वास पर आधारित है, वैसे ही
परमात्मा भी श्रद्धा और विश्वास पर आधारित है।
श्रद्धा-विश्वास पर आधारित सक्रियता
जरूर सफलता प्रदान करेगी। हम जीवन के आधे हिस्से को ही देखते हैं, जैसे कोई लगनशीलता चाहे, पर धर्य को नहीं समझे तो उसका प्रयास अधूरा रहेगा। इसीलिए जब जीवन एकतरफा
देखा जाता है तो वह गलत पकड़ में आता है। नेत्रहीन व्यक्ति जीवन की व्याख्या अलग
करेगा, आंख वाला भिन्न तरीके से करेगा। जीवन रावण
के पास भी था और राम के पास भी। जीवन को केवल कर्मकांड से देखेंगे तो अलग नजर आएगा,
ध्यान और योग से देखेंगे तो स्वाद बिल्कुल बदला हुआ
होगा। दरअसल जीवन वही होता है, लेकिन आपके देखने
का नजरिया इसके स्वाद को बदल देता है। इसलिए जब भी देखें और जो भी देखें, पूर्णता के साथ देखें।
भीतर से तय कर लेंगे तो असंभव काम भी संभव हो जाएंगे
जब हम सोचते हैं कि जो भी प्रयास हमने किया है, उसमें अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी थी,
प्रयास में कोई
कमी नहीं रखी थी, तो यह एक गलतफहमी होती है। कुछ न कुछ गुंजाइश जरूर बची रह जाती है। हमें अपनी
सारी ऊर्जा को इस बात से उस समय जोड़ना चाहिए, जब हम समझते हैं कि हमने अपनी
पूरी ताकत लगा दी।
अध्यात्म में कहा गया है, ऐसे समय अपनी ऊर्जा का संग्रहण करिए, फिर उसे केंद्रित करिए और तब हम
पाएंगे कि अब अधिक प्रयास की ताकत हमारे भीतर आ गई है। यदि हम अपने प्रयासों को
रोकेंगे, तब
भी हमें संतोष होगा कि हमने सोच-समझकर रोका है, ऊर्जा की कमी के कारण या ‘बस हो चुका इससे अधिक अब
नहीं हो सकता’, ऐसा सोचकर नहीं।
अपने कार्यस्थल पर सहयोगियों से काम लेते हुए या उनके लिए काम करते हुए कई बार
हमें लगता है कि हमने अपनी सारी ताकत लगा दी, फिर भी परिणाम नहीं आया। ऐसे समय
अपनी वचनबद्धता और संकल्प का लगातार अध्ययन करते रहें। अपनी ऊर्जा को जितना अधिक
केंद्रित कर देंगे, जहां-जहां से उसका संग्रह किया जाता है वहां-वहां से उसे उठा लाएंगे, तब जाकर जीवन में संकल्प
पैदा होता है।
वचनबद्धता का अर्थ है अपने भीतर से हम बिखरे हुए न हों, खंड-खंड न रहें, एक हो जाएं। जिस समय काम
को परिणाम दे रहे हों, भीतर से एक रहें। भीतर ये कर लें, वो हो जाएं, इस तरह के विचार हमें
बिखरा देते हैं। जैसे ही हम अंदर से तय कर लेते हैं कि हमें यह करना है और करके
रहेंगे, सारे
असंभव संभव हो जाएंगे। इसके लिए थोड़ी देर भीतर उतरना भी पड़ता है। इसलिए योग जीवन
में जरूरी हो जाता है।
प्रार्थना में कुछ मांगें या न मांगें पर दीन भाव बनाए रखें
भगवान और भक्त के बीच एक ऐसा रिश्ता होता है, जिसमें भगवान की ओर से लगातार
कृपा बरसती रहती है। यदि भक्त की तरफ से भी प्रार्थना का सिलसिला जारी रहे तो फिर
मिलन होकर रहता है। प्रार्थना में आप मांग बनाए रखें या न रखें, लेकिन दीन भाव जरूर बनाए
रखें। दीन भाव एक तरह से प्रार्थना के प्राण हैं।
सुंदरकांड में हनुमानजी जब मां सीता से विदाई ले रहे थे, तब सीताजी ने अपनी और
रामजी की स्थिति पर जो पंक्तियां कही थीं, वो भक्त और भगवान के रिश्तों पर प्रकाश डालती हैं।
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।। दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।। जानकीजी ने कहा - हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस
प्रकार कहना - प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्णकाम हैं (आपको किसी प्रकार की
कामना नहीं है), तथापि दीन-दुखियों पर दया करना आपका विरद है और मैं दीन हूं, अत: उस विरद को याद करके
नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए।
यहां सीताजी ने एक शब्द प्रयोग किया है पूरनकामा। भगवान को भक्त से कोई कामना
नहीं है। वे इस तरह कृपा बरसाते हैं, जैसे जलता हुआ दीया रोशनी। दीए को यह फिक्र नहीं
होती कि रोशनी किसे दें या न दें। परमात्मा की कृपा भी इसी प्रकार बरसती है। साथ
ही सीताजी ने हनुमानजी से कहा, मैं दीन हूं इसलिए आपका मेरा रिश्ता इस प्रकार रहेगा कि
आपको मेरे संकट दूर करने होंगे। यह बात हनुमानजी से इसलिए कही गई कि हनुमानजी दूत
बनकर आए थे। आज भी कोई संदेश हम उनके माध्यम से परमात्मा तक पहुंचा सकते हैं।
बदलाव को समझें और उसके अनुसार जीवन जिएं
इस समय स्थितियां लगातार तेजी से बदल रही हैं। जिन्हें जीवन में विकास करना हो,
वे बदलाव को समझें
और उसके अनुसार जिएं। महाभारत के दौर में बदलाव को श्रीकृष्ण ने समझा था और अर्जुन
को उसके अनुसार तैयार कर दिया था। इधर दुर्योधन को शकुनि तैयार कर रहा था।
कृष्ण और शकुनि की दृष्टि में परिवर्तन के अलग-अलग मायने थे। स्वामी
सत्यमित्रानंदगिरि विश्लेषण करते हुए बताते हैं, आज हम अर्जुन-दुर्योधन के नवीन
संस्करण बनकर घूम रहे हैं। हम देखते हैं कि क्षण-क्षण परिवर्तन हो रहा है। जहां
परिवर्तन होता है, वहीं संसार है। परमात्मा अपरिवर्तनीय है। सिखाना यह चाहिए कि परमात्मा
अपरिवर्तनशील है। संसार में होने वाले परिवर्तन को हम समझ नहीं पाते। जीवन में
होने वाले परिवर्तन को भी हम नहीं देख पाते। परिवर्तन एक तरह से दर्पण है। दर्पण
का अर्थ है - ‘दर्प न’, यानी दर्प नहीं करें, अभिमान नहीं करें।
दर्पण की भाषा मूक होती है, हम उसे समझ नहीं पाते। लाख चेष्टा करने पर भी हम परिवर्तन
को रोक नहीं पाते। मनुष्य परमात्मा की सर्वोत्तम कृति है। वह विवेकशील होता है।
उसमें निर्णय करने की शक्ति है, परंतु वह संशय में जीता है। विचार करें कि ऐसा क्यों होता
है? हम जिस
चिंतन में जीते हैं - जब वह शास्त्रसम्मत नहीं होता तो अपनी ही बुद्धि पर भरोसा कर
बैठते हैं, वह भी इसलिए कि हमारी बुद्धि स्वार्थ में लिप्त रहती है। हम जिस चिंतन में
जीते हैं, वह शास्त्रसम्मत, महापुरुषसम्मत, आत्मसम्मत होना चाहिए। ‘आत्मानि प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत’ अर्थात आत्मा के
प्रतिकूल आचरण न रखते हुए परिवर्तन पर लगातार नजर रखें।
गुरु और परमात्मा अलग होते हुए भी एक हैं
गुरु और शिष्य के रिश्ते में स्थितियों के अनुसार भाव नहीं बदलने चाहिए। यह
रिश्ता भरोसे पर टिका है। शक्तिपात के संत स्वामी शिवोमतीर्थ कबीरदासजी का उदाहरण
देते हुए कहा करते थे, जब भक्त के सामने गुरु तथा गोविंद दोनों एक साथ आ खड़े हुए।
भक्त बेचारा परेशान कि किसको पहले प्रणाम करे? उसका उत्तर भी कबीर साहिब स्वयं
ही देते हैं कि मैं तो अपने गुरु महाराज का बलिहारी हूं, जिनके द्वारा तथा जिनकी कृपा से
मुझे गोविंद के दर्शन हुए।
बात भी ठीक है, भक्त के लिए तो गुरु भगवान से भी बड़े हैं। ईश्वर तो अपनी चेतन शक्ति को संसार
की ओर मोड़कर मनुष्य को जन्म देते हुए माया रच देते हैं, जगत को माया से भ्रमित कर देते
हैं, जीवों
को जन्म-मरण के चक्र में घुमा देते हैं। फिर जीव जैसे कर्म करता है, वैसा ही फल देते हैं।
भगवान ने तमाशा देखने के लिए क्या-क्या कौतुक रचे हैं।
मानवों-जीवों को माया के गहरे गर्त में धकेल दिया है। अविद्या से उनकी बुद्धि
का हरण कर लिया। सुख-दुख भोगें बेचारे जीव तथा तमाशा देखने का आनंद भगवान लें।
गुरु ठीक इसके विपरीत हैं। वह शक्ति के जगदामुखी प्रवाह को पलटकर अंतमरुखी कर देते
हैं। जीव में शक्ति का चक्र उल्टा घूमने लगता है। संचित संस्कार क्षीण होकर चित्त
निर्मल होने लगता है। अंतर का भ्रम विलीन अर्थात अविद्या का आवरण उतरने लगता है।
गुरु आशीर्वाद तथा कृपा-शक्ति से जीव का बंधन टूटने लगता है। उसे अंधकार और भ्रम
से मुक्ति मिल जाती है तथा जन्म-मरण का चक्र टूट जाता है। इसीलिए गुरु और परमात्मा
अलग होते हुए भी एक हैं।
भीतरी सुंदरता ही व्यक्ति की असली
खूबसूरती है
जिंदगी में बहुत कुछ अनदेखा भी होता
है। जो दिख नहीं रहा, उसे भी देख लेना दिव्य दृष्टि
कहलाएगी। दृष्टि में दिव्यता चित्त से जुड़कर आती है। स्वामी अवधेशानंदगिरि इस
फिलॉस्फी पर बड़े सुंदर विचार व्यक्त करते हैं। देखते सब हैं, परंतु सब देखना नहीं जानते।
देखना वही जानता है, जिसके पीछे चित्त की निर्मलता होती है। लेकिन जिसके पीछे
राग-द्वेष भरा होता है, वह देखना नहीं जानता। व्यक्ति सबसे
पहले अपने शरीर को देखता है। शरीर को देखना भी एक कला है। इसे देखकर मनुष्य
विकारग्रस्त भी हो सकता है और वीतरागी भी। इस प्रकार देखने-देखने में बड़ा अंतर
है। एक बार सुकरात स्वयं को शीशे में देख रहे थे, तभी सामने बैठा शिष्य हंस पड़ा। सुकरात ने कहा - मैं जानता हूं तुम क्यों
हंस पड़े? मैं कुरूप हूं, फिर भी शीशे में देख रहा हूं, यह
तुम्हारी हंसी का कारण है।
परंतु शीशे में देखने का मेरा दूसरा
प्रयोजन है, जो तुम नहीं जानते। मैं जानता हूं,
मैं सुंदर नहीं हूं। किंतु बाहर जो कुरूपता है, वह कहीं भीतर भी न बस जाए। मैं भीतर की कुरूपता को मिटाने के
लिए शीशे में देख रहा हूं। जो देखना जानता है, वह अपनी कुरूपता के कारण कभी हीन भावना से ग्रस्त नहीं होता। जो देखना
नहीं जानते, वे अपनी कुरूपता देखकर हीन भावना से
ग्रस्त होकर जीवन का रस समाप्त कर देते हैं। जो व्यक्ति भीतर के सौंदर्य को प्रकट
कर सकता है, उसके लिए बाह्य असौंदर्य का कोई
विशेष अर्थ नहीं रह जाता। जो व्यक्ति भीतर से सुंदर है, वही वास्तव में सुंदर है। भीतरी सौंदर्य को निखारने के लिए बाहरी साधन
उपयोग में नहीं लाए जा सकते। योग आंतरिक प्रसाधन है। कुछ समय इसे अवश्य करिए।
किसी भी व्यक्ति को प्रेरित करने के
लिए उसकी भावनाएं समझें
किसी को प्रेरित करना हो तो उसे उत्तेजित
करना पड़ेगा। खासतौर पर आज के समय में किसी को भी प्रेरित करने के लिए सैद्धांतिक
भाषण या किताबी ज्ञान काम नहीं आएगा। आप चाहते हैं कि कोई व्यक्ति किसी कार्य के
लिए प्रेरित हो तो पहले सामने वाले की भावनाओं को पकड़ने का प्रयास करें।
केवल विचारों से प्रेरित हुआ आदमी
जरा-सी बाधा आने पर थक जाएगा, लेकिन यदि आपने
उसे भावना के स्तर पर उत्तेजित किया तो वह उस काम में जुट जाएगा। हम भाषण देकर
उसके विचारों को परिपक्व कर सकेंगे और उसकी चेतना को जगा सकेंगे, लेकिन हमें उसके अवचेतन को भी स्पर्श करना होगा। हमारे
मस्तिष्क के दो हिस्से हैं - बाएं से चेतना अलग जागेगी और दाएं से अलग। दायां
हिस्सा थोड़ा गरम है, उसकी रुचि सक्रियता में है।
वह ओज और तेज से काम करेगा, इसलिए हमें मस्तिष्क के दाएं हिस्से पर काम करते हुए आदमी को
जगाना होगा। प्रतिकूलता और चुनौतियों की कहानी दाएं हिस्से की रुचि का विषय होती
है। इसीलिए गीता पढ़कर लोग ज्ञान ही प्राप्त नहीं करते, अपनी सक्रियता को भी सही दिशा देते हैं। प्रबंधन के क्षेत्र में गीता की
मान्यता विचारों तक ही नहीं टिकी है। गीता पढ़ने के बाद हमारा दायां हिस्सा सक्रिय
हो जाता है। इसलिए जब भी किसी को प्रेरित करना चाहें, चाहे व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से, तो उन्हें लगातार पांच से दस मिनट सांस लेने और छोड़ने का प्रयास कराएं।
उनके सूर्य और चंद्र स्वर जाग्रत होंगे, वे किसी
भी बात को भावना के स्तर पर समझने के लिए सक्षम होंगे। इसके पश्चात प्रेरणा उनके
लिए सक्रियता का विषय हो जाएगी।
अकेलापन दूर करने के लिए मन तक पहुंचना जरूरी
बड़े से बड़े बलवान आदमी को भी अकेलापन तोड़ देता है। जब व्यक्ति सक्षम होता
है, तब
उसके साथ कई लोग होते हैं। इन सबसे हटने के बाद अकेलापन काटता है। यह एक ऐसी
बीमारी है कि कई लोगों के बीच में रहते हुए भी घेर लेती है।
भारतीय घरों में भी इस बीमारी ने प्रवेश कर लिया है। जिसे देखो वह कुछ लोगों
के साथ रहते हुए भी अकेला महसूस करता है। इस बीमारी ने राजा जनक की बेटी, श्रीराम की धर्मपत्नी
सीताजी को भी घेर लिया था। जब हनुमानजी लंका जलाकर लौट रहे थे और उन्होंने सीताजी
से वापस जाने की अनुमति मांगी, तब सीताजी ने कहा था - तुम जा तो रहे हो, पर मेरे लिए वही दिन,
वही रात हो
जाएंगे। सुंदरकांड में तुलसीदासजी ने लिखा है - जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि
धीरजु दीन्ह। चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।
हनुमानजी ने जानकीजी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरणकमलों में
सिर नवाकर श्रीरामजी के पास गमन किया। इसमें एक शब्द आया है बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
हनुमानजी ने सीताजी को समझाने के लिए उन्हें धर्य दिया और बहुत प्रकार से दिया। जब
कोई अवसाद में हो तो उसे साधारण तरीके से नहीं समझाया जा सकता। हनुमानजी तो
मनोविज्ञान के जानकार थे। वे जानते थे समझाने के चार तरीके होते हैं - एक तकनीकी
विज्ञान का, दूसरा प्रशासक का, तीसरा कलाकार का और चौथा गुरु का। परिणाम इन सबमें मिलते
हैं, पर
स्थायी तरीका गुरु के पास है, क्योंकि गुरु भीतर की सफाई करता है और अशांति तथा अकेलेपन
का जन्म वहीं से होता है। यही काम उस समय हनुमानजी कर रहे थे।
दूसरों को आदर देकर हम स्वयं भी सम्मान पाते हैं
आप अपने ही घर में बुजुर्ग लोगों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वे विश्वास से
अधिक जिए हैं और नई पीढ़ी पर दृष्टि रखें तो पाएंगे कि ये लोग विचार से जीते हैं।
विश्वास से जीने वालों के पास संतोष, धर्य और शांति होती है। वे तर्क के सामने निरुत्तर
होते हैं।
गुजरती पीढ़ी से यदि पूछा जाए कि वे आज भी कुछ काम ऐसे कर रहे हैं, जिनका उनके पास जवाब
नहीं है तो वे यही कहेंगे कि सारा मामला विश्वास का है। उन्होंने रिश्तों में
विश्वास किया है, प्रकृति पर विश्वास किया है और सबसे बड़ा विश्वास उनके लिए परमात्मा है। नई
पीढ़ी विचार को प्रधानता देती है। विचार और विश्वास सही तरीके से मिल जाएं तो आनंद
और बढ़ जाएगा। खाली विश्वास एक दिन आदमी को पंगु बना देगा। उसकी सक्रियता आलस्य
में बदल सकती है। इस बदलते युग में वह लाचार हो जाएगा और शायद बेकार भी।
खाली विचार से चलने वाले लोग घोर अशांत पाए जाते हैं। श्री शंकरजी एक जगह
कहते हैं - उदारता इसमें है कि जीवन में दोनों का संतुलन हो। विश्वास का अर्थ है
स्वयं के प्रति आदरपूर्ण होना। विश्वास और विचार जुड़ते ही हम समग्र के प्रति
आदरपूर्ण हो सकते हैं। जब हम कहते हैं कि परमात्मा महान है तो इसका विश्वास में
अर्थ है कि सचमुच वो महान है और विचार का अर्थ होगा कि वो महान है इसलिए उसकी कृति
के रूप में हम भी महान हैं। हमें उस महानता को याद रखना है और वैसे ही कार्य करने
हैं। किसी को आदर देकर हम स्वयं भी सम्मान पाते हैं। जैसे-जैसे विचार और विश्वास
जीवन में मिलते जाएंगे, वैसे-वैसे विज्ञान और धर्म का भी संतुलन जिंदगी में होता
रहेगा।
जीवन में आत्मा और शरीर दोनों का संतुलन बनाए रखिए
मनुष्य शरीर और आत्मा दोनों से बना है, लेकिन इस सिद्धांत को व्यावहारिक
रूप से समझना होगा। जीवन में जो भी क्रिया करें, दोनों को समझकर करें। केवल शरीर
पर टिककर करेंगे तो जीवन भौतिकता में ही डूब जाएगा और केवल आत्मा से जोड़कर करेंगे
तो अजीब-सी उदासी जीवन में होगी। न बाहर से कटना है और न बाहर से पूरी तरह जुड़ना
है। दोनों का संतुलन रखिए। जैन संत तरुणसागरजी दो घटनाएं शरीर से जुड़ी सुनाते
हैं।
महावीर स्वामी पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे थे। पेड़ पर आम लटक रहे थे। बच्चों
ने आम तोड़ने के लिए पत्थर फेंके। कुछ पत्थर आम को लगे और एक महावीर स्वामी को
लगा। बच्चों ने कहा - प्रभु! हमें क्षमा करें, हमारे कारण आपको कष्ट हुआ है।
प्रभु बोले - नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ। बच्चों ने पूछा - तो फिर आपकी आंखों में आंसू क्यों?
महावीर ने कहा -
पेड़ को तुमने पत्थर मारा तो इसने तुम्हें मीठे फल दिए, पर मुझे पत्थर मारा तो मैं
तुम्हें कुछ नहीं दे सका, इसलिए मैं दुखी हूं। यहां शरीर का महत्व बताया गया है।
आखिर इस शरीर पर किसका अधिकार है? माता-पिता कहते हैं - संतान मेरी है। पत्नी कहती है
- मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आई हूं, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है। मृत्यु होने पर शरीर को
श्मशान ले जाते हैं तो श्मशान कहता है - इस पर अब मेरा अधिकार है। चिता की अग्नि
कहती है - यह तो मेरा भोजन है। अब आप ही विचार करें कि इस शरीर पर आखिर किसका
अधिकार है? इसलिए शरीर और आत्मा को जोड़कर, समझकर जिएंगे तो शरीर का सदुपयोग कर पाएंगे और आत्मा
का भी आनंद ले पाएंगे।
लेने की चाह हमें दास बनाती है और देने की इच्छा मालिक
यह लेन-देन का समय है। जिसे देखो वह सौदेबाजी में लगा है। बाजार-दुकान में
चीजों का सौदा हो वह तो समझ में आता है, लेकिन लोग घर-परिवार में ही रिश्तों का सौदा करने लग
गए हैं। जब भी आप बाहर से कोई चीज पा रहे हों तो ध्यान रखें कि भीतर कमी न रह जाए।
बाहर के सुखों से भीतर के अभाव की पूर्ति होनी चाहिए। आज उल्टा हो रहा है। आदमी के
पास बाहर से सबकुछ है, लेकिन वह भीतर से दुखी है, अशांत है।
भीतर की तृप्ति के लिए जागरूक रहिए। परमहंस संत स्वामी रामसुखदासजी ने जिंदगी
में लेन-देन की व्याख्या करते हुए कहा था - सुख लेने से अंत:करण अशुद्ध होता है और
सुख देने से अंत:करण शुद्ध होता है। इस संसार-समुद्र से जो लेना चाहता है, वह डूब जाता है और जो
देना चाहता है, वह तर जाता है। देने के भाव से समाज में प्रेम उत्पन्न होता है और लेने के भाव
से संघर्ष उपजता है। शरीर को मैं, मेरा अथवा मेरे लिए मानने से ही लेने का भाव उत्पन्न होता
है।
सेवा करने के लिए ही दूसरों से संबंध रखो। लेने के लिए संबंध रखोगे तो दुख
मिलेगा। संसार से कुछ भी लेना पाप है और देना पुण्य है। सुख लेने के लिए शरीर भी
अपना नहीं है और सुख देने के लिए पूरा संसार अपना है। लेने की इच्छा से मनुष्य दास
हो जाता है और देने की इच्छा से मालिक। लेने के भाव से भोग होता है और देने के भाव
से योग होता है। शरीर को आवश्यकतानुसार अन्न, जल, वस्त्र तो देना है, पर शरीर से ही संबंध
जोड़कर अन्न, जल, वस्त्र
लेने वाला नहीं बनना है। लेना बंधन है और देना मुक्ति।
शांतिपूर्ण जीवन जीना है तो तन, मन और आत्मा को न भूलें
परमात्मा ने हमारे जीवन प्रबंधन को बहुत ही व्यवस्थित तरीके से जमाकर हमें
दिया है, लेकिन
हम उसे समझ नहीं पाते और बिना समझे उसका उपयोग करने लगते हैं, जो बाद में दुरुपयोग में
बदल जाता है। इन छोटी-छोटी बातों को गहराई से समझ लें तो बहुत काम आएंगी।
जिसे भी शांतिपूर्ण जीवन जीना है तो उसे शरीर, मन और आत्मा तीनों को कभी नहीं
भूलना चाहिए। इंद्रियों को आत्मा का औजार कहा गया है। परमात्मा ने यह औजार हमें
देकर आत्मा की आवश्यकताएं पूरी करने के अवसर दिए। इंद्रियों का संबंध उपभोग से
जोड़ा गया है और सामान्य रूप से भोगों की आलोचना की जाती है। साधारण लोग इसका अर्थ
ये ले लेते हैं कि इंद्रियों के कारण पतन होता है, इसलिए इनका दमन किया जाए।
शास्त्रों में शब्द आया है इंद्रिय-निग्रह।
इसका अर्थ दमन करना नहीं है, इनकी दिशाओं को मोड़कर इनका सदुपयोग करना है। नियंत्रित
इंद्रियां सबसे अच्छी दोस्त होंगी और अनियंत्रित इंद्रियों से बड़ा कोई दुश्मन
नहीं होता। जो लोग अपनी इंद्रियों से परिचित रहेंगे, वे स्वयं का और दूसरों का भी
पूरा व्यक्तित्व ही देखेंगे। अभी इंद्रियों के दुरुपयोग के कारण हम न तो स्वयं को
जान पाते हैं और न ही दूसरों को, इसी कारण अशांत रहते हैं। इंद्रियां हमें मनुष्य से मनुष्य
में भेद करा देती हैं। अपना-पराया, भोग-विलास के झंझट यही से शुरू होते हैं। अध्यात्म कहता है,
इंद्रियों के
प्रति जागरूकता आते ही हम उस समग्र के प्रति विसर्जित होने लगते हैं, जिसे परमात्मा कहा गया
है। इसलिए थोड़ा समय बाहर की दुनिया से हटकर भीतर की दुनिया में उतरकर इंद्रियों
के प्रति होश जगाने में लगाएं
कितना ही बड़ा काम करके लौटें प्रसन्नता को समाप्त न करें
जीवन में जब भी कोई उपलब्धि होती है तो उसे दो दृष्टि से देखें। सांसारिक
उपलब्धि में परिश्रम और समर्पण के साथ क्रमिक स्थितियां बनती हैं और तब एक दिन
सफलता मिलती है। अध्यात्म में प्रेम और प्रार्थना के साथ स्थितियां आरंभ होती हैं,
लेकिन जो उपलब्धि
होती है, तब
अचानक छलांग-सी लग जाती है। ऐसा लगता है जैसे कोई विस्फोट हो गया हो।
यहां की सफलता एक हार्दिक दशा है। संसार की सफलता भौतिक स्थिति है। सुंदरकांड
में हनुमानजी माता सीता से मिलकर लंका से लौटे और जिन वानरों को समुद्र तट पर
छोड़कर गए थे, उनसे फिर मिले। यहां तुलसीदासजी ने लिखा -
हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।। मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर
काजा।। हनुमानजी को देखकर सब हर्षित हो गए और तब वानरों ने अपना नया जन्म समझा।
हनुमानजी का मुख प्रसन्न है और शरीर में तेज विराजमान है। ये श्रीरामचंद्रजी का
कार्य कर आए हैं। मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी।। सब हनुमानजी से मिले और बहुत ही सुखी हुए, जैसे तड़पती हुई मछली को
जल मिल गया हो। इस समय हनुमानजी के मुख पर प्रसन्नता और तेज था। हनुमानजी बताते
हैं कि कितना ही बड़ा काम करके लौटें, अपनी प्रसन्नता को समाप्त न करें।
हमारे साथ उल्टा होता है। हम बड़ा और अधिक काम कर लें तो अपनी थकान व
चिड़चिड़ाहट दूसरों पर उतारने लगते हैं। इसलिए खुश रहना आसान है, लेकिन दूसरों को खुश
रखना कठिन है। हनुमानजी से सीखा जाए - खुश रहें और खुश रखें।
परिवार और संस्कारों को ध्यान में रखते हुए करें अपना विकास
हमने अपने विकास का ढांचा पूरी तरह से पश्चिम देशों से उठा लिया है। 15-20 साल बाद हमारे देश के
पास विकास की वही स्थिति होगी, जो आज किसी भी विकसित पश्चिमी देश की है। कामयाबी के सारे
शिखर हम छू चुके होंगे, पर सावधान रहना होगा। जो नुकसान पश्चिम ने उठाया, खासतौर पर पारिवारिक
जीवनशैली में, कहीं वो हमें न उठाना पड़े।
हमारे पास परिवार और संस्कार ये दो बातें आज भी ऐसी हैं कि हम इनका ध्यान रखते
हुए विकास करें। पश्चिम ने विकास किया और नुकसान दिखने के बाद देर हो गई। हमारे
पास संभावना है कि हम उस नुकसान के प्रति अभी से सचेत हो जाएं। हमारे यहां परिवार
के केंद्र में माताएं और बहनें हैं। इनका आत्मविश्वास ही हमारे परिवार को बचाएगा।
माताओं और बहनों से जुड़ा एक त्योहार है रक्षाबंधन। वे राखी का एक धागा बांधकर
अपना प्रेम प्रदर्शित करती हैं, लेकिन हम उन्हें इसके एवज में न तो पूरा सम्मान दे पा रहे
हैं और न ही संरक्षण।
अज्ञात भय, अकेलेपन और अवसाद में डूबी हमारी कतिपय माताएं-बहनें घर व बाहर दोनों जगह
संघर्ष कर रही हैं। रक्षाबंधन की पूर्व संध्या पर ‘एक शाम रिश्तों के नाम’ से सारी दुनिया में यह
आह्वान किया जा रहा है कि राखी के दिन माताएं-बहनें हनुमानजी को राखी का एक धागा
अवश्य बांधें या चढ़ाएं। प्रेम, सेवा, बुद्धि, विवेक और बल के देवता हनुमानजी हैं। जब वे स्त्रियों से भाई,
पिता, पुत्र या गुरु के रूप
में जुड़ेंगे तो उनके जीवन की गरिमा ही बदल जाएगी। हमारे राष्ट्र के लिए नारी
स्वाभिमान का यह महात्योहार वर्षो बाद अपने शुभ परिणाम देगा ही।
रक्षाबंधन एकमात्र ऐसा बंधन है जिसमें आध्यात्मिक मुक्ति भी है
कई बार हमें लगने लगता है कि सारी दुनिया में हम इसीलिए श्रेष्ठ हैं कि हमारे
पास धर्म-अध्यात्म की कुछ अद्भुत घटनाएं हैं। जैसे रक्षाबंधन को ही लीजिए।
शास्त्रों में इस रक्षा-सूत्र की कहानी राजा बलि और लक्ष्मीजी से भी जोड़ी गई है।
और भी पात्र इस धागे से जुड़े किरदार में हैं।
धीरे-धीरे यह त्योहार धर्म की सीमाएं पार कर गया और मानवीय रिश्तों का प्रतीक
बनता गया। फिर जैसा होता है कि लगातार करते-करते हम क्रिया की ताजगी खो बैठते हैं,
यही रक्षाबंधन के
साथ हुआ। प्रेम और सुरक्षा के इस पर्व का आध्यात्मिक अर्थ है - एक ऐसे बंधन में
बंध जाएं, जहां हमारे मनोवेगों को स्वतंत्रता न मिले। अभी हमारे आंतरिक विचार तूफान की
तरह बेतरतीब हैं। कोई बंधन खुद ही को, खुद ही के विचारों के लिए रखना पड़ेगा। ये सही है कि
महिलाओं की उपस्थिति मात्र घर और बाहर के वातावरण में एक अनुशासन और मर्यादा ला
देती है।
इसीलिए उनके हाथों से बंधा रक्षा-सूत्र आध्यात्मिक रूप से हमें अपनी ही शक्ति
को नियंत्रित करने के लिए प्रेरित करता है। प्रेम का ये धागा बांधने और बंधवाने
वाले दोनों के लिए ही आवेशों को नियंत्रित करने का अद्भुत उपचार है, क्योंकि मनुष्य अपने
ऊपरी मुखौटे के ऊपर अपने मानसिक आवेशों का एक अलग ही संसार रचाए बैठा है और ये
आवेश हमारे मानसिक तंतुओं को झुलसा देते हैं। हमारे भीतर एक ऐसी ज्वाला जल रही
होती है, जिसमें
भीतरी व्यक्तित्व झुलस रहा होता है, लेकिन बाहर से हम शीतलता ओढ़ लेते हैं। राखी का धागा
हमें भीतर और बाहर दोनों मौकों पर आवेगों पर नियंत्रण करना सिखाता है। यह एकमात्र
बंधन है, जिसमें
आध्यात्मिक मुक्ति भी है।
क्रोध हमारी कमजोरी और नियंत्रित क्रोध ताकत बन जाता है
जब हम परेशान होते हैं या अपनी किसी गलती के कारण किसी को जिम्मेदार बनाने पर
उतारू होते हैं, तब काम, क्रोध, लोभ, मोह
और अहंकार जैसे शब्दों को कोसने लगते हैं। हमें लगता है सारी झंझटें इन्हीं के
कारण हैं। इन्हें बुरा कहा जाता है और इनके परिणामों पर खूब प्रवचन होते हैं,
लेकिन आधा सच पूरे
झूठ से भी खतरनाक है।
गुरुनानक देव ने एक जगह कहा है - अंधा-अंधा ठेरिया। अंधे लोग अंधों को ही
धक्का दे रहे हैं। ये हमारी मनोवृत्तियां हैं और इन्हें ठीक से नहीं समझ पाने के
कारण हम अंधों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। अपने काम-क्रोध को दूसरे के
काम-क्रोध से जोड़ लेते हैं। यही अंधा-अंधा ठेरिया वाला व्यवहार होता है। इन
मनोवृत्तियों से काम लिए बिना जिंदगी चल भी नहीं सकती। परमात्मा ने जन्म से हमें
इन्हें दे रखा है। इसका मतलब ही है कि इनका कोई न कोई उपयोग जरूर होगा।
इसलिए दिमाग ठीक जगह लगाया जाए। क्रोध में जो उत्तेजना होती है, यदि उसे समझ लिया जाए तो
उसे उत्साह में बदलना आसान हो जाएगा। उत्साह एक ताकत है। यह एक तरह की सामथ्र्य
है। खाली क्रोध कमजोरी और नियंत्रित क्रोध ताकत बन जाता है। लोभ मनुष्य को उन्नति,
प्रगति और विकास
की ओर ले जाता है। लोभ क्रियाशील भी बनाता है। मोह न हो तो लोभ एक-दूसरे के प्रति
घातक हो जाए। निर्मोही भाव यदि ठीक से न समझा जाए तो निर्ममता में बदल जाता है।
इसलिए इन मनोवृत्तियों को समझना बहुत जरूरी है। इनका सदुपयोग इनकी ताकत से हमें
जोड़ता है।
स्वास्थ्य, सुव्यवस्था और सौंदर्य सफाई की तीन संतानें हैं
भारत की संस्कृति में स्वच्छता को दैवीय गुण बताया है। जब हम बाहरी सफाई से
जुड़ते हैं, तब दो बातों पर टिक जाते हैं - सौंदर्य और वस्तु की अवधि बढ़ाना। बाहरी
साफ-सफाई इन दो बातों को तो पूरा कर देती है, लेकिन यदि उसी समय भीतर की सफाई
न की गई तो बीमारी के खतरे बने ही रहेंगे।
भारत में देव स्थानों को तबीयत से गंदा किया और रखा जाता है। लोग स्नान करके,
शरीर साफ करके देव
स्थान में प्रवेश करना चाहते हैं, लेकिन वहां के ढांचे को गंदा करने में कसर नहीं छोड़ते।
गोकुल की गलियों को कोई आज देखे तो श्रीकृष्ण कथा से मिलने वाला आनंद दुख में बदल
जाता है। शरीर के प्रत्येक अंग कलपुर्जे की तरह हैं और भोजन की पाचन क्रिया के
कारण ये अंग सक्रिय होकर मैले भी होते रहते हैं। हम बाहर से शरीर साफ कर लेते हैं,
पर भीतर इन अंगों
की सफाई के प्रति लापरवाह रहते हैं।
हाथ धोकर खाना खाते हैं अच्छी बात है, पर भीतर आंतें धुली कि नहीं, इस बात का ख्याल नहीं रखते। अपने
घरों को साफ रखते हैं और सार्वजनिक स्थानों की साफ-सफाई को लेकर लापरवाह रहते हैं।
सफाई की तीन संतानें हैं - स्वास्थ्य, सुव्यवस्था और सौंदर्य। गंदगी आई और हम इन तीनों से
हाथ धो बैठते हैं। घरों में पाई जाने वाली मक्खी इंसान के अंदर तीस तरह की
बीमारियां फैलाती है। सफाई के मामले में यह दोहरी आदत हमारी पूजा-पाठ में भी उतर
जाती है। हम रामनाम की चादर ओढ़ते हैं और उस चादर के नीचे जमानेभर की गंदगी ढंक
लेते हैं। इसलिए अपने देह स्थान और देव स्थान समान रूप से सतत साफ रखें। ईश्वर को
साफ-सफाई संतान की तरह प्रिय है।
कर्मकांड की उलझन से बचाकर आत्मविश्वास जगाता है योग
हमारा जीवन कई अलिखित नियमों से चलता है। लिखित नियमों को तोड़ने में हमारी
विशेष रुचि रहती है। अधिकार संपन्न, सक्षम लोगों ने तो अपने ही नियम बना लिए हैं। इन
लिखित व अलिखित नियमों की सबसे ज्यादा कीमत चुकाई है स्त्रियों ने, फायदा उठाया पुरुषों ने।
अब महिलाओं को अपनी इस स्वतंत्रता, प्रगति को अपने विचारों और वृत्ति से जोड़कर देखना होगा।
पुरुषों जैसा होकर, पुरुष के समान या उनसे आगे नहीं निकला जा सकता। स्त्री की मौलिकता में ही अनेक
गुण समाए हैं। देखा जा रहा है कि औरत या तो आदमी के आगे रहना चाहती है या पीछे
चलना चाहती है।
आदमी के साथ खड़े रहने के लिए उसे अपनी औरत होने की मौलिकता को बनाए रखना
होगा। वे खुद स्वीकार करती हैं कि डाह की वृत्ति हम नारियों में न सिर्फ नारियों
के प्रति रहती है वरन पुरुषों के प्रति भी यही तंगदिली काम करने लगती है। धर्म ने
नारी को जो मान दिया है, उसे धर्म से जुड़े लोगों ने ही गलत रूप दे दिया। अभी भी
धर्म के पालन के रूप में महिलाएं स्वयं को पुरुष की अनुगामी मानकर खुद को निखरने
ही नहीं देतीं।
इसीलिए अब उन्हें अध्यात्म से जुड़ना होगा। योग-मेडिटेशन उन्हें कर्मकांड की
उलझनों से बचाकर आत्मविश्वास जगाने में मदद करेगा। ताज्जुब होता है पुरुषप्रधान
समाज में स्त्री भी संतान के रूप में पुरुष ही चाहती है। जैसे हमने धर्म को इतना
सस्ता और प्रदर्शन का विषय बना दिया, वैसे ही औरत को भी धर्म से जोड़कर ऐसा ही स्वरूप
दिया। अच्छा हो महिलाएं अपना कुछ समय मेडिटेशन को दें। उनकी मौलिकता के निखार के
लिए यह अद्भुत परिणाम देगा।
सफलतापूर्वक कार्य होने पर कुछ अनूठा करने की सूझती है
कई बार अच्छे काम करने के लिए भी हम अधिक सोच-विचार करने लगते हैं। ‘करें या न करें’ का भ्रम बहुत अधिक समय
ले लेता है। योजना बनाने में भले ही समय लें, पर क्रियान्वयन में विलंब न हो।
अकारण की देरी असफलताओं का कारण बन जाती है।
शुभ कार्य, खासतौर पर परमात्मा की ओर ले जाने वाले निर्णयों में छलांग ही लगानी पड़ती है।
हमारे जीवन में जो व्यर्थ है, जब वह दिखने लगता है, तब एक बोध का जन्म होता है और उस
समय अचानक सबकुछ छूटने लगता है, छोड़ना नहीं पड़ता। एक छलांग-सी लग जाती है और हम ईश्वर के
मार्ग पर चलने लगते हैं। सुंदरकांड में एक प्रसंग आता है।
हनुमानजी लंका से लौटे और वानरों को जब सारी सूचना मिली तो बड़े प्रसन्न हुए।
इतने प्रसन्न कि अंगद के नेतृत्व में वे राज-वन को उजाड़ने लगे। राजा सुग्रीव को
वन के रक्षकों ने सूचना दी कि युवराज जंगल को उजाड़ रहे हैं। वैसे यह गतिविधि राज
व्यवस्था के विपरीत ही थी, लेकिन राजा सुग्रीव ने इसे अलग ही दृष्टि से लिया।
उन्होंने मन ही मन कहा कि वानरों के इस आचरण का मतलब है कि वे सौंपा हुआ शुभ
कार्य सफलतापूर्वक कर आए हैं। जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज। सुनि सुग्रीव हरष
कपि करि आए प्रभुकाज। क्योंकि जब परमात्मा के कार्य को हम संपन्न करते हैं,
एक ऐसी मानसिकता
में आ जाते हैं, जहां अचानक अनूठा करने की आकांक्षा हो ही जाती है। तब कहना कुछ नहीं पड़ता,
खुद-ब-खुद होने
लगता है। शुभ काम जब भी किया जाए, तत्काल फैसला ले लें। शुभ टाला नहीं जाना चाहिए और अशुभ के
लिए भरपूर समय बिताएं, ताकि वह टल सके।
अपने ‘मैं’ को
विसर्जित करने में ही है सुख और शांति
जीवन में वे अवसर ढूंढ़े जाने चाहिए, जब हम अपना उपकार कर सकें। अशांति से मुक्ति चाहने
वालों को स्वयं पर एक उपकार करना होगा। हमारे भीतर कुछ दैवीय गुण होते हैं। उन्हें
जाग्रत करने से शांति प्राप्त करना सरल है। इन दिनों अनेक लोगों के जीवन में तीन
बातें बहुत परेशान करती हैं।
जीभ पर नियंत्रण नहीं होना पहली परेशानी है। हमारा अधिकांश समय इसी में उलझा
रहता है। दूसरी बड़ी झंझट है क्रोध। बाहर से हम इसे नियंत्रित कर लेते हैं तो भीतर
से यह कई बीमारियों को जन्म दे जाता है। तीसरी दिक्कत है अपवित्र-अवांछित विचार,
जो हमारे भीतर
चलते ही रहते हैं। विचारों के प्रवाह में हमारी शांति बह जाती है। ये तीनों ही
गुलामी के लक्षण हैं। इन पर पार पाने की औषधि का नाम है आत्म-संयम।
इसे समझ लें कि शरीर और आत्मा अलग हैं। यह बोध ही आत्म-संयम को हमारे जीवन में
ले आएगा। मैं शरीर नहीं आत्मा हूं, लगातार इसका चिंतन करना होगा। हमारी अशांति बसी ही इसी में
है कि हमने जीवन के केंद्र में शरीर और उसके सुखों को रख छोड़ा है। अपने ‘मैं’ को विसर्जित करने में ही
सुख और शांति है। शरीर जन्म लेता है तो मृत्यु भी होती है और इन दोनों में दुख है।
इसीलिए हम जीवनभर दुख आने से डरते हैं और सुख की चाहत में भटकते हैं।
जैसे और जितने हम आत्मा से परिचित होते जाएंगे, हम समझने लगेंगे कि आत्मा का न
जन्म है, न
मृत्यु। इस बोध के बाद हमारे जीवन में वही सब होगा जो हो रहा है, लेकिन हम अशांति से दूर
होंगे क्योंकि हम द्रष्टा भाव से चीजों को लेंगे। हम ही कर रहे हैं और हम ही अलग
हटकर देख रहे हैं। फिर किस बात का दुख?
सत्य के साथ कभी दुखमय नहीं हो सकता हमारा जीवन
उदासी किस को नहीं घेरती। बड़े से बड़े महात्मा को और सामान्य से सामान्य
व्यक्ति को भी उदासी घेर लेती है। दुख, शोक, निराशा ये सब कभी-कभी अकारण भी आ जाते हैं। जिंदगी में
सबकुछ अच्छा चल रहा होता है, फिर भी कुछ लोगों को लगता है कि मजा नहीं आ रहा है।
दरअसल हमारे शरीर में एक केंद्र है, जो इन सब उपद्रवों का अड्डा है। इसका नाम है मन।
विज्ञान की दृष्टि में यह कोई अंग नहीं है, जिसको पकड़ा या देखा जा सके,
वरना विज्ञान इसकी
सर्जरी की विधि निकाल चुका होता। सचमुच मन कोई पृथक अंग नहीं है। यह तो एक मेमोरी
बैंक है। इसमें विचार उठते ही रहते हैं। मन इन विचारों के निर्माण का केंद्र है।
मन में विचार भी व्यवस्थित नहीं रहते, बिखरे-बिखरे आंधी-तूफान की तरह होते हैं। मन पर काम
करने के लिए सात्विक बुद्धि, विवेक और योग का सहारा लेना होगा।
ये तीन मन से संकल्प को हटाकर मन को शून्य करेंगे। शून्य मन ही व्यक्तित्व को
शांत बनाएगा। इन संकल्पों को मारना नहीं है, ये शिफ्ट होंगे आत्मा में। वहां
जुड़ते ही जो सत्य होगा वही रहेगा, असत्य, भ्रांति, बेकार यहां गिरना ही है। मन को झूठ प्रिय है और आत्मा सत्य
है। झूठ है इसलिए इसे मरना होगा। सत्य सदैव रहेगा। आत्मा तक पहुंचने के बाद सत्य
ही बचेगा। सत्य के साथ जीवन कभी दुखमय हो ही नहीं सकता। सत्य का डिस्चार्ज ही आनंद
है, उसका
वाईब्रेशन ही प्रसन्नता है, इसलिए मन से संकल्पों की शिफ्टिंग आत्मा तक कराने के तीनों
तरीके अपनाते रहें।
अहं अकारण ही हमारे जीवन के आनंद को खा जाता है
फिजूलखर्ची एक बुराई है, लेकिन ज्यादातर मौकों पर हम इसे भोग, अय्याशी से जोड़ लेते हैं।
फिजूलखर्ची के पीछे बारीकी से नजर डालें तो अहंकार नजर आएगा। अहं को प्रदर्शन से
तृप्ति मिलती है। अहं की पूर्ति के लिए कई बार बुराइयों से रिश्ता भी जोड़ना पड़ता
है।
अहंकारी लोग बाहर से भले ही गंभीरता का आवरण ओढ़ लें, लेकिन भीतर से वे उथलेपन और
छिछोरेपन से भरे रहते हैं। जब कभी समुद्र तट पर जाने का मौका मिले, तो देखिएगा लहरें आती
हैं, जाती
हैं और यदि चट्टानों से टकराती हैं तो पत्थर वहीं रहते हैं, लहरें उन्हें भिगोकर लौट जाती
हैं। हमारे भीतर हमारे आवेगों की लहरें हमें ऐसे ही टक्कर देती हैं। इन आवेगों,
आवेशों के प्रति
अडिग रहने का अभ्यास करना होगा, क्योंकि अहंकार यदि लंबे समय टिकने की तैयारी में आ जाए तो
वह नए-नए तरीके ढूंढ़ेगा।
स्वयं को महत्व मिले अथवा स्वेच्छाचारिता के प्रति अति आग्रह, ये सब फिर सामान्य
जीवनशैली बन जाती है। ईसा मसीह ने कहा है- मैं उन्हें धन्य कहूंगा, जो अंतिम हैं। आज के
भौतिक युग में यह टिप्पणी कौन स्वीकारेगा, जब नंबर वन होने की होड़ लगी है। ईसा मसीह ने इसी
में आगे जोड़ा है कि ईश्वर के राज्य में वही प्रथम होंगे, जो अंतिम हैं और जो प्रथम होने
की दौड़ में रहेंगे, वे अभागे रहेंगे। यहां अंतिम होने का संबंध लक्ष्य और सफलता से नहीं है। जीसस
ने विनम्रता, निरहंकारिता को शब्द दिया है ‘अंतिम’। आपके प्रयास व परिणाम प्रथम हों, अग्रणी रहें, पर आप भीतर से अंतिम हों
यानी विनम्र, निरहंकारी रहें। वरना अहं अकारण ही जीवन के आनंद को खा जाता है।
जड़ वस्तुओं के प्रति भी हम हमेशा जागरूक रहें
यदि दृष्टि कलात्मक हो, तो निर्जीव वस्तु से भी सौंदर्य पैदा किया जा सकता है।
दरअसल हम अपने समूचे जीवन में जड़ वस्तुओं के प्रति अत्यधिक लापरवाह और निष्ठुर
होते जाते हैं। हम उनका रख-रखाव या उनसे संबंध स्वार्थ भाव के कारण ही रखते हैं।
हमारा सारा लगाव यूटीलिटी के लिए है, इमोशन से नहीं। धीरे-धीरे यह आदत सजीव लोगों के साथ
भी पड़ जाती है। इसीलिए घर-परिवार में भी लोग एक-दूसरे को यूज करने लगते हैं। कल
जन्माष्टमी का त्योहार मनाया गया। कृष्ण ने बांसुरी का उपयोग कर एक बड़ा संदेश यह
दिया था कि संवेदनाओं की फूंक से लकड़ी की खोखली पोंगरी भी मधुर ध्वनि दे देती है।
हमें अपने आसपास पसरी रोजमर्रा की उपयोगी वस्तुओं के साथ न सिर्फ स्वच्छता वरन
संवेदना के साथ व्यवहार करना चाहिए।
इनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाए, जैसे ये जीवित वस्तुएं हैं। इसके परिणाम में उनकी
उम्र, सौंदर्य
एवं गुणवत्ता बढ़ जाएगी। इसके लिए लगातार प्रयोग करने होंगे। एक काम एक ही समय में
करें। दरअसल हम भीतर से बंटे हुए रहते हैं। भोजन करें तो सिर्फ भोजन ही करें,
हो सके तो उस समय
सोच-विचार भी बंद कर दें। अधिकांश लोग भोजन करते समय वो सारे काम कर लेते हैं,
जो पेंडिंग हैं।
कहने का आशय यह नहीं कि मौन धारण कर लें, लेकिन फिर भी भोजन और उसकी क्रिया के प्रति ईमानदार
रहें। हम भोजन के साथ जिस तरह से कामचलाऊ व्यवहार करते हैं, वैसा ही मनुष्यों के साथ करने
लगते हैं। जितना हम जड़ वस्तुओं के प्रति जागरूक रहेंगे, उतने ही हम सजीव वस्तुओं के
प्रति प्रेमपूर्ण होते जाएंगे।
जिस घर के केंद्र में मां प्रतिष्ठित है वहीं परमात्मा स्थापित है
घर घर नहीं है, वरन गृहिणी ही घर कही जाती है। यह बात महाभारत के शांति पर्व में व्यक्त की गई
है। आज भारत के परिवारों में जिन-जिन बातों ने तेजी से प्रवेश किया है, उनमें से एक अशांति भी
है। जो लोग चाहते हों कि हमारे गृहस्थ जीवन में शांति बनी रहे, उन्हें घर की स्त्रियों
को समझना और सम्मान देना होगा।
माता संबोधन में भारतीय घरों का अमृत भंडार भरा हुआ है। जिस घर के केंद्र में
मां प्रतिष्ठित है, समझ लीजिए परमात्मा स्थापित है। दरअसल, जब-जब नारी स्वतंत्रता की बात की
गई, हमने
उसकी बाहरी प्रतिष्ठा पर ही ध्यान दिया। स्त्रियों ने भी इसे इसी रूप में लिया और
इसीलिए घर से बाहर निकलने को ही नारी का विकास मान लिया गया, लेकिन घरों में स्त्री
के आंतरिक विकास की जरूरत है, क्योंकि जीवन के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र उन्हीं के हाथ में
हैं और उनमें से एक है संतान को जन्म देना।
शास्त्रों में स्पष्ट व्यक्त किया गया है कि भार्या पुरुष का आधा भाग व उसकी
श्रेष्ठतम मित्र है। हमने स्त्रियों के बाहरी विकास को लेकर जागरूकता दिखाई,
संघर्ष किए,
लेकिन स्त्री अपने
जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा संवेदनाओं के साथ भीतर से जीती है। जीवन जिस रस का नाम
है, उसे
क्रम से प्राप्त करना पड़ता है। प्रेमपूर्ण जीवन नारियों का सहज स्वभाव हो जाता
है। इसको प्रेरित करने और बचाने के लिए स्त्रियों को ध्यान-योग के माध्यम से पहले
शरीर की आवश्यकताएं पूरी करनी चाहिए, उसके बाद मन की ओर बढ़ें, फिर आत्मा तक चलें। चौथी अवस्था
आती है आनंद की। देखा गया है माताएं-बहनें ध्यान-योग से कम जुड़ती हैं, लेकिन उनके आंतरिक विकास
के लिए यही एक राजपथ है।
कराने वाला ईश्वर है और कृपा करने वाला भी वही
मनुष्य अपने परिश्रम से ही प्राप्त करता है। भाग्य और कर्म का मतभेद सदैव से
चला आ रहा है, लेकिन भक्तों ने एक मध्य मार्ग निकाला है। उन्होंने भाग्य की जगह कृपा पर
विश्वास किया है। भक्तों के शीर्ष प्रतिनिधि हनुमानजी भाग्य की जगह कृपा से जुड़े
हैं। उनके अनुसार प्रभु की कृपा में भाग्य और कर्म दोनों समाहित हैं। लंका से
लौटने के बाद प्रसन्नचित्त वानरों के साथ हनुमानजी प्रभु श्रीराम से मिलते हैं,
तो सीधे बातचीत
नहीं करते।
चर्चा जामवंतजी के माध्यम से होती है। पराक्रमी हनुमानजी विनम्र और मौन हो गए।
तब जामवंत ने कहा था- जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।। ताहि
सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।। जामवंत ने कहा - हे रघुनाथजी!
जिस पर आप दया करते हैं, उसका सदा कल्याण होता है। देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर
प्रसन्न रहते हैं। जैसे ही भक्त भगवान की कृपा से अपने को जोड़ता है, उसे अपने परिश्रम और
सफलता का अहंकार नहीं होता।
न ही वह इसे कर्म या भाग्य से जोड़ता है। उसके अनुसार तो कराने वाला भी ईश्वर
है और कृपा करने वाला भी वही है। जामवंत भगवान से फिर कहते हैं - वही विजयी है,
वही विनयी है और
वही गुणों का समुद्र बन जाता है। उसी का सुंदर यश तीनों लोकों में प्रकाशित होता
है। प्रभु की कृपा से सब कार्य हुआ। आज हमारा जन्म सफल हो गया। ये पंक्तियां
हनुमानजी को केंद्र में रखकर कही गई हैं। हमें भी संसार के सारे कार्य करते हुए
उसकी कृपा बनी रहे, ऐसे प्रयास करने चाहिए।
जिस दिन इंद्रियां आजाद होती हैं हमारी गुलामी शुरू हो जाती है
हर मनुष्य की अपनी कुछ कल्पनाएं होती हैं। कल्पना करने और सपने देखने में फर्क
है। कल्पना में उत्सुकता जुड़ने के साथ यदि मनुष्य अपनी इंद्रियों पर संयम न रखे
तो यहीं से प्रलोभन आरंभ होता है। जीवन में प्रलोभन आया और नैतिक दृष्टि से आप जरा
भी कमजोर हुए तो पतन की पूरी संभावना बन जाती है। देखते ही देखते आदमी विलासी,
नशा करने वाला,
आलसी, भोगी हो जाता है।
प्रलोभन इंद्रियों को खींचते हैं।
इनका कोई स्थायी आकार नहीं होता, न ही कोई स्पष्ट स्वरूप होता है। इनके इशारे चलते
हैं और इंद्रियां स्वतंत्र होकर दौड़-भाग करने लगती हैं। गुलामी इंद्रियों को भी
पसंद नहीं। वे भी स्वतंत्र होना चाहती हैं। दुनिया में हर एक को स्वतंत्रता पसंद
है और उसका अधिकार है, लेकिन जिस दिन इंद्रियों का स्वतंत्रता दिवस होता है,
उसी दिन से मनुष्य
की गुलामी के दिन शुरू हो जाते हैं। इंद्रियां सक्रिय हुईं और मनुष्य की चिंतनशील
सहप्रवृत्तियां विकलांग होने लगती हैं।
देखा जाए तो बाहरी संसार की वस्तुओं में आकर्षण नहीं होता, लेकिन जब हमारी कल्पना व
उत्सुकता उस वस्तु से जुड़ती है, तब उसमें आकर्षण पैदा हो जाता है। विवेक का नियंत्रण ढीला
पड़ने लगता है, इंद्रियों के प्रति हमारी सतर्कता गायब होने लगती है और वे दौड़ पड़ती हैं।
इंद्रियों को रोकने के लिए दबाव न बनाएं। रुचि से उनका सदुपयोग करें। इसमें सत्संग
बहुत काम आता है। सत्संग में मनुष्य की इंद्रियां डायवर्ट होनी शुरू होती हैं।
उनके आकर्षण के केंद्र बदलने लगते हैं। उसमें एक ऐसी सुगंध होती है कि इंद्रियां
फिर उसी के आसपास मंडराने लगती हैं और यह हमारी कमजोरी की जगह ताकत बन जाती है।
प्रकृति का संरक्षण करें और प्राणायाम से साधें गुरुमंत्र
अवर्षा और अतिवर्षा, असमय वर्षा ने वायु का स्वाद भी बदल दिया। सावन-भादौ माह के
दौरान प्रकृति जिस रूप में होती है, उसको जीवन से जोड़कर देखिए। इस वर्षाकाल से एक सबक
लें कि जब हम गुरुमंत्र प्राप्त करते हैं तो उस मंत्र के साथ भी ऐसा ही करते हैं।
या तो मंत्र की अतिवर्षा करते हैं या अवर्षा होती है या असमय वर्षा में उलझ जाते
हैं। कई लोग तो गुरुमंत्र इसीलिए लेते हैं कि गुरु बनाने का काम निपट जाए।
उन्हें लगता है अब उनके जीवन के दायित्व संभालने वाला कोई और आ गया और वे गुरु
के प्रति इस तरह से अवलंबित हो जाते हैं, जैसे हम प्रकृति पर। हम प्रकृति का उपयोग भी करते
हैं और दुरुपयोग भी। गुरुमंत्र भी हमारे लिए ऐसा ही हो जाता है। बहरहाल, प्रकृति के जितने टुकड़े
से हम संबंधित हैं, उसके प्रति ईमानदार रहें। भूगर्भ के वैभव को अपने जीवन का हिस्सा मानें।
पेड़ों को कटने से बचाएं, जल को बर्बाद होने से रोकें और वायु को विषमय न होने दें।
आइए, पुन:
इन्हें गुरुमंत्र से जोड़ें। गुरुमंत्र सबसे अच्छा सधता है प्राणायाम से। हर सांस
के साथ अपने गुरुमंत्र को भीतर लाएं। सांस जब बाहर जाए तो गुरुमंत्र मानसिक जप के
साथ बाहर निकले। जब आप सघन प्राणायाम करेंगे तब महसूस होगा कि प्रकृति के साथ
छेड़छाड़ करने पर वायु कितनी प्रदूषित हो गई है। उसके भीतर का प्राण तत्व हम ही
नष्ट कर गए हैं और इसीलिए गुरुमंत्र का प्रभाव भी हम पर नहीं पड़ पाता। प्रकृति को
नाराज करके गुरु को कैसे खुश रखा जा सकता है? गुरु की प्रसन्नता उसके मंत्र के
सही जप में है। इसलिए वर्षा के इस काल में प्रकृति के संरक्षण का संकल्प लिया जाए।
पुरुषोत्तम मास है व्यक्तित्व निखारने का स्वर्णिम अवसर
विपरीत परिस्थितियों को जीतने के लिए केवल शारीरिक श्रम ही काम नहीं आएगा,
विचारों की भी
जरूरत पड़ती है। चिंतन यदि आध्यात्मिक आधार ले ले तो चुनौतियों से निपटना आसान हो
जाता है। शास्त्रों में आध्यात्मिक चिंतन के लिए प्रकृति के कुछ कालखंड विशेष बताए
गए हैं। आज से उसी का एक उदाहरण आरंभ हो रहा है। किसी ने इसे पुरुषोत्तम मास तो
किसी ने मलमास कहा है। खगोलीय गणना के मुताबिक एक मास अधिक होता है जिसे अधिमास
कहा गया है।
हर माह का कोई न कोई देवता या स्वामी माना गया है, परंतु इस अधिमास या मलमास का कोई
स्वामी नहीं होता। इसलिए मांगलिक, शुभ एवं पितृ कार्य वर्जित मान लिए गए हैं। इस माह ने
विष्णु से अनुरोध किया और उन्होंने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया कि मेरे भीतर जितने
सद्गुण हैं, तुम्हें प्रदान करता हूं और तुम पुरुषोत्तम मास के नाम से विख्यात हो जाओगे।
इसलिए 18
अगस्त से 16 सितंबर तक व्रत, दान, पूजा,
हवन, ध्यान विशेष रूप से किए
जाएं, क्योंकि
हमारी क्रिया को प्रकृति का समर्थन मिलेगा।
वासनाओं की जो धूल हमारे व्यक्तित्व पर जम जाती है, यह महीना उसकी सफाई के लिए बड़ा
सहयोगी रहेगा। हम अपनी कामवासना को समझकर सात्विक दिशा में मोड़ सकेंगे। क्रोध को
ऊर्जा में बदल कर सृजन कर पाएंगे। लोभ को संतोष से जीत सकेंगे। दान का अर्थ है
अहंकार गिराना। हवन का अर्थ है जीवन में अनुशासन लाना और ध्यान का अर्थ है अपने से
ही जुड़ जाना। यह माह व्यक्तित्व को निखारने में बड़ा काम आएगा। इसे केवल धार्मिक
कृत्य न मानें। ये जीवन को संवारने के लिए जुट जाने के दिन होने चाहिए।
ईश्वर के होंठों से निकला गीत और संगीत बन सकते हैं हम
भविष्य के प्रति आशान्वित और आशंकित रहना मनुष्य का स्वभाव है। इसीलिए
अच्छे-अच्छे आत्मविश्वासी भी भविष्यवाणी में रुचि लेने लगते हैं। कुछ लोग
अंतरात्मा के नाम पर खुद ही अपनी भविष्यवाणी करने लगते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं
है, क्योंकि
भविष्य के लिए बोली जा रही वाणी आकर्षक, उत्सुकता भरी और ताकतवर ही होती है।
कल काल के गर्भ में मेरे लिए क्या है, यह जानने की ललक किसे नहीं होगी! फिर भविष्यवाणियों
के शब्द वैसे भी डरावने होते हैं। कई बार तो भविष्यवक्ता इन्हें इतना गूढ़ बना
देते हैं कि समझ नहीं आता ये जटिल शब्द अपना हित बता रहे हैं या अहित कह रहे हैं।
ऐसे में जब स्वयं अपना भविष्य पढ़ें या कहें तो शब्द सरल रखिए। अंतर की ध्वनि
स्पष्ट सुनिए। आपसे बढ़कर आपको कौन अच्छा पढ़ और जान सकता है। अपने भीतर को पढ़ना
और सुनना एक कला है।
हमारे भीतर जो शब्द होंगे, उन्हें ऐसा महसूस करके सुनिए कि ये परमेश्वर की ध्वनि हैं।
हम लकड़ी की ऐसी पोली डंडी हैं, जिसे परमात्मा बांसुरी बना लेगा। बांसुरी को देखें तो समझ
में आएगा कि उसमें जो छिद्र हैं, उनका उपयोग कर बजाने वाला अपनी फूंक से स्वर देता है। यही
काम परमात्मा हमारे साथ करेगा। हम भी ईश्वर के होंठों से निकला हुआ गीत-संगीत बन
सकते हैं। जो वचन कृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद कह गए- वे सब अभी भी गूंज रहे हैं प्रकृति में।
जैसे ही हम अंतर्मन से उनसे जुड़े, हमारी भविष्यवाणी स्वयं के लिए फिर कैसे गलत हो सकेगी?
सफलता और समृद्धि के साथ स्वभाव में उदारता भी बढ़ाएं
उस परमशक्ति, परमात्मा की अनुभूति होने पर व्यक्ति के मन में पहली इच्छा यह आती है कि यदि
मैंने पा लिया है उसे, तो वह दूसरों को भी जरूर मिले। मैंने रसपान कर लिया है तो
दूसरे भी प्यासे न रहें। लेकिन संसार की उपलब्धियां बांटने में कष्ट होता है।
इस समय संसार में दो बातों के लिए आदमी प्रयासरत और बेताब है- सफलता और
प्रसिद्धि। कामयाब आदमी ख्याति जरूर बांटता है। इससे अहंकार को पुष्टि मिलती है।
बिना सफल हुए भी कुछ लोग ख्यात होना चाहते हैं, फिर वे कुख्यात बनने की ओर बढ़
जाते हैं। सफलता को तो लोग फिर भी आपस में बांट लेते हैं, लेकिन प्रसिद्धि का बंटवारा दौलत
के बंटवारे से भी अधिक कठिन हो जाता है। बाप-बेटे, भाई-भाई, पति-पत्नी के रिश्ते भी ख्याति
के बंटवारे के मामले में ईष्र्या में डूब जाते हैं।
जीवन में सफलता और प्रसिद्धि आने पर उदारता का स्वभाव और बढ़ा देना चाहिए।
बिना उदार भाव के ये दोनों आपको ही खा जाएंगी। अपने उदार भाव को अधिक प्रदर्शन में
न रखें। जो इसे थोड़ा रहस्यमयी रखेंगे, उन्हें अहंकार से बचने में सुविधा होगी। उदारता
हमारे भीतर के बड़प्पन को संवार रही है। जब सेवा करें तो उसे रहस्यमयी न रखें,
उसमें पूरा खुलापन
रखें। जिन्हें परमात्मा की अनुभूति होती है, उनके लिए सफलता और सेवा के अर्थ
भिन्न हो जाते हैं। वे बांटने को उतावले होते हैं। हमें मिला तो दूसरों को भी मिले,
उनका हर कृत्य इस
भाव से भरा रहता है। ऐसे लोग सांसारिक वस्तुओं को बांटने में भी संकोच नहीं करते
हैं। यह भी प्रेम का एक रूप होगा।
अपने भीतर के आदर्श व्यक्ति को बचाएं और उसे अपनाएं
ख्याति के साथ आलोचना बोनस में आती है और विवाद ब्याज में। अब प्रसिद्धि
उपलब्धि से ज्यादा एक हथियार है। पहले के लोगों ने काम करके नाम कमाया था, अब लोग नाम से काम
निकालने के चक्कर में रहते हैं। अब तो छोटी-मोटी यात्रा में भी लोग अपने पहुंचने
से पहले अपनी ख्याति को पहुंचाते हैं, ताकि मान, सुविधा मिल सके।
कई लोग तो मानकर चल रहे हैं कि प्रसिद्ध हो जाओ तो उद्देश्य की पूर्ति में
परिश्रम कम करना पड़ता है। नाम की अति चाहत बदनाम होना भी स्वीकार कर लेती है।
सांसारिक व्यक्ति इसे ही श्रेष्ठ तरीका समझ लेता है,
लेकिन अध्यात्म का आग्रह इससे
हटकर है। व्यावसायिक जीवन का अर्थ है दूसरे को जीतना, लेकिन आध्यात्मिक जीवन का अर्थ
है स्वयं पर विजय पाना।
जिन्हें ख्याति की तड़प है, वे संसार में अपने व्यावसायिक जीवन में इतना तो जान लेते
हैं कि अपने भीतर कुछ कमी है, कमजोरी है। उसे दुरुस्त करने की जगह वे दूसरों को जीत कर,
शोषित कर उसे ढंक
लेते हैं। अक्सर देखा जाता है कि ख्याति अपनी कमजोरी ढंकने के लिए नकाब की तरह बन
जाती है।
बाहरी प्रतिष्ठा के साथ भीतरी पवित्रता ही है सुख का सूत्र
आभूषण कितने ही कीमती या सुंदर हों, लेकिन एक वक्त के बाद उन्हें चमकाना जरूर पड़ता है।
केवल इस्तेमाल करने पर ही नहीं, रखे-रखे भी उनकी चमक फीकी पड़ जाती है। सोने को भी निखरने
के लिए आग बर्दाश्त करनी पड़ती है। नग-नगीने भी पड़े-पड़े प्रभाव खोने लगते हैं।
यही हाल इंसान के व्यक्तित्व और चरित्र का है।
इसे कभी-कभी नहीं, रोज मांजना पड़ेगा, क्योंकि हर सांस गंदगी और सफाई दोनों की संभावना लिए
भीतर-बाहर आती-जाती है। सांस लेने का मतलब फेफड़ों में हवा भरना भर नहीं है। यह
प्रकृति के प्राणतत्व के पान करने का दिव्य अवसर होता है। कुदरत ने हमें अपने
व्यक्तित्व और चरित्र को संवारने के लिए सहज ही सुविधा दी है। फिर भी इंसान है कि
दोहरा जीवन जीने लगता है।
बाहर से प्रतिष्ठा और भीतर से पतन, दोनों एक साथ चला लेता है। लोगों के कंधे पर चढ़
ऊंचा पद पाने वाले भीतर से पूरी तरह गिरे रहते हैं। उनकी बाहरी प्रतिष्ठापूर्ण
मुस्कान भीतर वासनामयी लहरों से संचालित रहती है। लेकिन सच यह है कि ऐसा बहुत
दिनों तक नहीं चल पाता। लोगों को तो धोखा दिया जा सकता है, पर स्वयं से छल कब तक करेंगे!
कुछ समय बाद एक ऊब, उदासी और डर शुरू हो जाता है। अपनी ही छवि, प्रतिष्ठा अपने को ही डराने लगती
है। इसीलिए बाहर-भीतर का भेद मिटाकर जिएं। बाहर की प्रतिष्ठा को भीतर के सद्चरित्र
से जोड़े रखें। आंतरिक पवित्रता बाहर कभी उदास नहीं रहने देगी। भीतर का मटमैलापन
थोड़े दिन में बाहर के सुख को भी ऊब में बदल देगा।
अपने घड़े को उल्टा न रखें, प्रभु कृपा का संग्रह करें
उल्टे घड़े पर पानी डालने का मतलब है व्यर्थ प्रयास और जल का अपमान। परमात्मा,
प्रकृति के माध्यम
से लगातार अपनी कृपा बरसा रहा है, जिसे लेने के हमारे पास तीन तरीके हो सकते हैं। पहला और सही
तरीका यह होगा कि हम स्वयं को खाली रखें, तभी कृपा भर सकेगी। दूसरी बात, हम पहले से भरे हुए हों
तो कुछ भरेगा, कुछ छलक जाएगा। तीसरी स्थिति है, उल्टे घड़े की तरह कुछ लेने को तैयार ही न हों।
ज्यादातर मौकों पर हम तीसरी स्थिति से गुजरते हैं। इसी कारण जीवन में जो
श्रेष्ठ संग्रहणीय है, उसे बहा रहे हैं। हमारी अति महत्वाकांक्षाएं इस कृपा-जल के
लिए नालियों का काम करती हैं। गंदगी नाली का स्थायी भाग्य है। हम जीवन में इस
दुर्भाग्य को समझ ही नहीं पाते। परमात्मा की कृपा का हम जितना सम्मान करेंगे,
अहंकार से उतनी
जल्दी मुक्ति मिलेगी। उसकी कृपा हमारे व्यक्तित्व में सहज विनम्रता ला देती है।
विनम्र लोग कभी-कभी शुष्क, उदास, बोझिल भी हो जाते हैं, पर ईश्वर की कृपा से जुड़कर
विनम्रता भी दिलचस्प हो जाती है। हमारी विनम्रता ऐसे में दूसरों को प्रभावित ही
नहीं, संतुष्ट
भी करेगी। इसलिए उस बरसती कृपा का संग्रहण करते रहें। लोग तो इतना चूक रहे हैं कि
घड़े को उल्टा ही नहीं किया, फोड़ ही डाला है। कइयों के व्यक्तित्व के घड़े में तो इतने
छिद्र हो गए हैं कि प्रभु-कृपा के अलावा उनकी अपनी योग्यता भी रिस-रिसकर फिंक गई
है। विनम्र व्यक्ति सब स्वीकार करता है। इसलिए प्रभु कृपा स्वीकार करने पर जगत के
इनकार की भी सही समझ आ जाएगी।
अध्यात्म से जोड़ पैनी नजर को बदलें दिव्य दृष्टि में
गिद्ध को नोचने में, चील को लूटने में और कौए को ताड़ने में महारथ हासिल होती
है। इन तीनों प्राणियों में एक बात जो समान है, वह है इनकी पैनी नजर। इनकी इस
खूबी से कोई बच नहीं सकता। अपनी इस योग्यता का तीनों एक इस्तेमाल यह करते हैं कि
दूसरों की मेहनत से अपना भोजन प्राप्त करते हैं।
सांसारिक जीवन में कुछ लोग इन तीनों की तरह पैनी नजर का मकसद ऐसा ही बना लेते
हैं। ये पैनी नजर वाले जानते हैं कि जो सचमुच अंधे हैं, उनकी आड़ में तो मौके का फायदा
उठाना ही है, लेकिन ये इस जुगाड़ में भी रहते हैं कि आंख वालों को चकाचौंध में डाल उस
अस्थाई अंधत्व की ओट में भी अपना स्वार्थ सिद्ध कर लिया जाए। आज प्रबंधन के युग
में पैनी नजर होना एक गुण है, योग्यता है, लेकिन इसे थोड़ा अध्यात्म से जोड़ दिया जाए तो यही दिव्य
दृष्टि बन जाएगी।
दिव्य दृष्टि अपने अधिकार को तो देख लेती है, लेकिन दूसरे के शोषण, मजबूरी का लाभ उठाने की
अनुमति नहीं देती। जैसे सूर्य प्राप्त करना हो तो पंख खोलने की तैयारी रखनी होगी
और जीवन में धर्म प्राप्त करना हो तो ऊंचा उठना होगा। यह उम्मीद न रखें कि धर्म या
सूर्य हमारे लिए नीचे आएगा। ये हमारे द्वार पर नहीं आएंगे, हमें ही अपनी देहरी छोड़कर उनकी
ओर जाना होगा। अध्यात्म भी अभ्यास और श्रम मांगता है। यह श्रम हमारे भीतर चील,
गिद्ध, कौए जैसी परजीवी वृत्ति
खासतौर पर दृष्टि से नोचने वाली वृत्ति से मुक्ति दिलाएगा। हानि-लाभ के लेन-देन
वाले इस दौर में निज हित की फिक्र रखें, लेकिन साथ ही साथ परहित का भाव भी न छोड़ें।
जिसके भीतर मौन घटित हो गया समझो वह मुनि बन गया
अधिकांश मनुष्य चाहते हैं कि उनके भीतर प्रसन्नता, कर्तव्य और पवित्रता बनी रहे। कई
लोग ईमानदार प्रयास करते भी हैं, फिर भी दुगरुणों के झोंके अचानक भीतर प्रवेश कर जाते हैं।
पता नहीं कौन-सा झरोखा खुला रह जाता है कि सारे प्रयासों के बाद भी मन में मलिनता
आ ही जाती है।
हमारे भीतर विपरीत विचारों की टकराहट चलती ही रहती है। जिस समय जो विचार जीत
जाते हैं, मनुष्य का वैसा ही आचरण हो जाता है। यदि हम अपनी आत्मा में सात्विकता की
वृद्धि करना चाहें तो हमें इस टकराहट को लेकर सावधान रहना होगा।
‘ऋषि-मुनि’ में मुनि उनके लिए कहा गया है, जिनके भीतर मौन घटित हो जाता है। मुनि हर वह मनुष्य हो सकता
है जो भीतर से मौन साध ले। जो लोग लगातार ध्यान की क्रिया से गुजरेंगे, उनके भीतर मौन का जन्म
होगा। मेडिटेशन का ‘बाय-प्रोडक्ट’ मौन है। आपको अपने ही भीतर मौन का अनुभव होने लगेगा। विचारों की टकराहट बंद हो
जाएगी।
विचार सांस से प्रवेश करते हैं और हमें सांस के प्रति 24 घंटे में कुछ समय अतिरिक्त रूप
से सजग रहना होगा। जिन बातों से विचार जन्म लेते हैं, वे बातें हमारे चाहने पर ही
होंगी। जैसे ही मौन घटित होता है, मनुष्य के चेहरे पर असाधारण शांति, प्रसन्नता, संतोष और तेज प्रकट होने
लगता है।
फिर वह जो भी करता है, पुण्यमय होता है। करुणा, दया, उदारता, मैत्री और आत्मीयता उसका सहज
व्यवहार हो जाता है। उसकी क्रिया में अपने आप तप, साधना, स्वाध्याय, सत्संग घटित होने लगता
है। ये मौन के परिणाम हैं। 24 घंटे में कुछ समय भीतर से बिल्कुल खामोश हो जाएं।
परमात्मा के हृदय में स्थान मिल जाना है सबसे बड़ा पुरस्कार
अपनी प्रशंसा अपने मुख से करना सीधे-सीधे अहंकार का अंकुरण करना है। सफलता को
पचाना भी बड़ी ताकत का काम है। हम लोग अपने जीवन में जरा भी सफल होते हैं, तो सबसे पहले इसे शोर और
प्रदर्शन में तब्दील करते हैं। सुंदरकांड में हनुमानजी महाराज हमें सिखा रहे हैं
कि सफल होने पर थोड़ा खामोश हो जाइए। हमारी सफलता की कहानी कोई दूसरा बयान करे,
तो कामयाबी में
चार चांद लगना ही है।
लंका जलाकर और सीताजी को संदेश देने के बाद उनका रामजी की ओर लौटना सफलता की
चरम सीमा थी। वह चाहते तो अपने इस काम को स्वयं श्रीरामजी के सामने बयान कर सकते
थे। जैसा हम लोगों के साथ होता है, हम लोग अपनी सफलता की कहानी स्वयं दूसरों को न सुनाएं,
तो कइयों का तो
पेट दुखने लगता है। लेकिन हनुमानजी जो करके आए, उसकी गाथा श्रीरामजी को जामवंत
सुना रहे थे।
तुलसीदासजी को लिखना पड़ा- नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुं मुख न जाइ सो
बरनी।। पवनतनय के चरित्र सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।। हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान
ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जामवंत ने हनुमानजी के
सुंदर चरित्र (कार्य) श्रीरघुनाथजी को सुनाए।।
आगे लिखा गया है- सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियं लाए।।
सुनने पर कृपानिधि श्रीरामचंद्रजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित
होकर हनुमानजी को फिर हृदय से लगा लिया। परमात्मा के हृदय में स्थान मिल जाना अपने
प्रयासों का सबसे बड़ा पुरस्कार है।
काम ऊर्जा को सृजन की ओर मोड़ने से होंगे बड़े काम
भारतीय संस्कृति ने जीवन की कुछ सामान्य क्रियाओं को बड़े ही अद्भुत दर्शन से
जोड़ा है। हमने जीवन के हर प्रमुख कृत्य को संस्कार नाम दिया है। जिस इरादे से आप
काम कर रहे हैं, वह महत्वपूर्ण है। परिणाम क्या होगा, इसमें हमारे प्रयास और ईश्वरीय शक्ति को जोड़कर देखा
गया है। मनुष्य के शरीर में जो जीवन ऊर्जा होती है, उससे सांसारिक कर्म तो पूरे होते
ही हैं, लेकिन
संतान उत्पत्ति भी इसी जीवन ऊर्जा का परिणाम है।
इसीलिए इसे काम ऊर्जा भी कहा गया है। जब यह काम ऊर्जा अमर्यादित हो जाती है,
तो इसके भीतर की
अग्नि मनुष्य के शरीर पर विपरीत असर डालती है। जीवनशक्ति का प्रवाह बड़े से बड़ा
पराक्रम करा सकता है और इसी के भीतर की अग्नि काम क्रीड़ा में भी पटक देती है। काम
ऊर्जा से जो दहक शरीर में आती है, उसके कारण कई आवश्यक शारीरिक धातुएं जलने और पिघलने लगती
हैं।
शरीर में जो आवश्यक तत्व हैं, उनका संतुलन कामाग्नि के कारण बिगड़ने लगता है। इसके
संतुलित उपयोग से बुद्धि, विचार, हृदय तीनों ही अद्भुत परिणाम देते हैं, लेकिन इसका असंयमित आचरण
देह को खोखला भी बना देता है। इसलिए ऋषि-मुनियों ने काम को भी अध्यात्म से जोड़कर
समझाया है।
अतिरिक्त कामाग्नि सबसे अधिक घातक असर मस्तिष्क पर करती है। आदमी की स्मरण
शक्ति चली जाती है और उसके विचारों में विस्फोट होने लगता है। उसके संकल्प क्षीण
होने लगते हैं। कामुक आदमी किसी भी समय अपने-पराए का बोध छोड़ देता है। इसलिए काम
ऊर्जा को जीवन ऊर्जा से जोड़कर सृजन की ओर मोड़ना चाहिए।
भक्त होने का अर्थ है हर पल हर राशि का सदुपयोग
जिंदगी में ज्यादा वस्तुओं का बोझ होना भी चाल बिगाड़ देता है। सिर पर बोझ
अधिक हो, तो
सीधा असर पंजों तक जाता है। कुछ बोझ तो थका भी देते हैं। प्रतिदिन हम अपनी
जीवनचर्या में कुछ ऐसी वस्तुओं का उपयोग करते हैं, जो अकारण होती है। भक्त को कम
में गुजारा करने की आदत होती है, क्योंकि उसका पूरा जीवन परमात्मा पर आधारित होता है।
उसके पास जो होता है, उसे वह पर्याप्त से अधिक मानता है। हमारे जीवन में वस्तुएं
थोड़ी-सी हों और हम उनका सदुपयोग कर लें, तो पूरा जीवन सुंदर हो जाए। जब हमारे पास भौतिक रूप
से बहुत अधिक वस्तुएं होती हैं, तब दो परिणाम होते हैं- अधिकांश वस्तुएं बिना उपयोग के ही,
सिर्फ प्रदर्शन के
काम आती हैं और शेष वस्तुओं का उपयोग हम अकारण ही करने लगते हैं। मोह, लालच में पड़कर हम जिन
वस्तुओं का उपयोग करते हैं, वे हमारे जीवन को भारी बनाती हैं। हमें आदत हो जानी चाहिए
कि हम छोटी-छोटी वस्तुओं को बहुमूल्य मानकर स्वयं तथा दूसरों के लिए भी उपयोगी
बनाएं।
हमारे पास जब भी दो चीजें अतिरिक्त हों, तो वे दूसरों के काम आएं। पहला
समय और दूसरा धन, इनका दुरुपयोग भी जीवन को भारी बनाता है। इनकी छोटी से छोटी स्थिति भी
बहुमूल्य है। पांच मिनट का समय भी व्यर्थ न गुजारें। यदि आपके काम नहीं आ रहा,
तो किसी और के भले
में लगाएं। यही हाल धन का होना चाहिए। हम लोगों ने इनका जमकर दुरुपयोग किया है।
समय के मामले में तो हम लगातार लापरवाह रहे हैं और इसीलिए इसका समूचा असर
राष्ट्रीय स्तर पर भी पड़ा। भक्त होने का अर्थ है पल-पल और प्रत्येक राशि का
सदुपयोग।
हमारे व्यस्त जीवन से जुड़े रहें उपवास और जल
शरीर में बीमारियों के जो कारण बताए गए हैं, उनमें एक महत्वपूर्ण कारण है
असंतुलित खान-पान। इसका संबंध पाचन से है। पाचन क्रिया गड़बड़ हो जाए तो शरीर में
संचित मल विष बन जाता है। प्रतिदिन प्रात:काल आंतों से मल शुद्धि एक बड़े वर्ग के
लिए समस्या है। कब्जियत अच्छे-अच्छों की कामयाबी पर भी असर डालती है। आज की
व्यस्ततम जिंदगी में खान-पान का क्रम बिगड़ना स्वाभाविक है। अब तो उपवास के अर्थ
ही बदल गए हैं।
इसे विशुद्ध धार्मिक क्रिया मान लिया गया। 26 फीट लंबी पाचन प्रणाली पर कोई
ध्यान नहीं देता। सबकुछ जुबान के मजे पर टिका है। इसलिए उपवास और जल इन दो चीजों
को व्यस्त जीवन से जोड़े रखें। खूब पानी पिएं। संचित मल को विसर्जित करने में जल
सहयोग करता है। साफ पेट दिमाग को भी ठंडा रखता है। उपवास का एक उद्देश्य है आंतों को
विश्राम देना। आध्यात्मिक जगत में एक और प्रयोग बड़े काम का है।
शब्दों से भी आंतों की सफाई की जा सकती है। भोजन करते समय मौन रखा जाए और यदि
अन्न के हर दाने पर भगवान का नाम जोड़कर कंठ के नीचे उतारा जाए, तो मंत्र या नाम का रस
अन्न पर सीधा असर करेगा। यूं तो शब्दों में कोई रस नहीं होता, लेकिन जैसे ही वे मंत्र
बनते हैं, प्रभुनाम बन जाते हैं, वैसे ही उनका स्वाद अलग हो जाता है।
अनुराग की स्थिति को समझ पाएं दुख-शोक से मुक्ति
दुख का आगमन किसी को अच्छा नहीं लगता। सुख बटोरने के सारे उपाय गुबारे की तरह
होते हैं। हम लगातार इन्हें फुलाए जाते हैं और दुख सुई की तरह एक दंश से इसकी हवा
निकाल देता है।
इसीलिए लोग जीवन में दुख नहीं आने देना चाहते। जिनके जीवन में दुख कम हैं,
वे शोक नामक एक नई
बीमारी पाल लेते हैं। दुख यदि स्वयं आता है तो शोक हम खुद बुलाते हैं। ये दोनों
जुड़वां भाइयों की तरह हैं। जो लोग इनसे मुक्ति चाहते हों, उन्हें हमारे जीवन की एक स्थिति
से परिचित होना चाहिए, जिसका नाम है अनुराग।
यह राग शहद से बना है। राग जब थोड़ा सात्विक होता है तो अनुराग में बदलता है
और तामसिक होता है तो आसक्ति में तब्दील हो जाता है। फिर आगे की स्थिति मोह आती है।
इसलिए थोड़ा अनुराग पर ही सावधान हो जाएं। अनुराग को समझने के लिए दृष्टि विशाल
रखनी होगी।
दरअसल हम किसी एक वस्तु या व्यक्ति से अत्यधिक जुड़ जाते हैं, तब अनुराग के वृक्ष का
अंकुरण हो जाता है। अपने पुत्र-पुत्री, जीवनसाथी, सम्पति इत्यादि से अनुराग हो ही जाता है और जब हम
इनसे बिछड़ते हैं, तो शोक और दुख का जन्म होता है।
परमात्मा के सर्वश्रेष्ठ उपहार का दुरुपयोग न करें हम
परमात्मा ने हमें मनुष्य शरीर देकर सबसे बड़ा उपहार दिया है। उपहार की एक खूबी
उत्सुकता में भी रहती है। इसीलिए पैकिंग का महत्व बढ़ जाता है। भीतर क्या होगा,
इसका रहस्य उपहार
का आकर्षण बढ़ा देता है। उपहार देखकर अच्छे-अच्छे धीर-गंभीर वरिष्ठ आयु वालों के
भीतर का बच्चा भी मचल जाता है। आजकल उपहारों के भी दो प्रयोग हो रहे हैं।
एक स्नेह व्यक्त करने के लिए, दूसरा रिश्वत देने के लिए। भारतीय मन उपहारों को जब
मनुष्यों से जोड़ता है, तो कुछ अलग व्यवहार करता है और भगवान से जोड़ता है, तब उसके हाव-भाव बदल
जाते हैं। दुनियादारी में उपहार अपने स्नेह व्यक्त करने के अलावा षड्यंत्र और
कुटिलता छिपाने के भी काम आते हैं। कई लोग उपहारों की आड़ में धोखे का खेल,
खेल जाते हैं।
धीरे-धीरे यही आदत भगवान के सामने भी अपना रंग दिखाने लगती है। जब हम अपने
जीवन को सही ढंग से जीने लगते हैं, तो यह भगवान को दिया गया ‘रिटर्न गिफ्ट’ है। यहां तक तो ठीक है,
परंतु लोग
परमात्मा को भी उपहारों की आड़ में दुनियादारी की तरह रिश्वत देने लगते हैं।
नि:स्वार्थ भाव से परहित के लिए दिया गया दान भी उपहार है और पाप धोने के
चक्कर में अहंकार के प्रदर्शन की आड़ में दिया गया दान भी भगवान को दिया गया
रिश्वत जैसा उपहार है। कइयों का यह विश्वास यहीं से जाग जाता है कि जब भगवान ‘सेट’ हो सकते हैं तो इंसान
क्यों नहीं खरीदा जा सकता। यहीं से हम परमात्मा के श्रेष्ठ उपहार जीवन का भी
दुरुपयोग करने लगते हैं।
दांपत्य जीवन में सेतु की भूमिका निभा सकते हैं हमारे हनुमान
भारतीय दांपत्य में इस समय जो रिश्ता सबसे अधिक तनावग्रस्त है, वह है पति-पत्नी का
रिश्ता। इन दोनों के मतभेद मिटाने के लिए यदि कोई सांसारिक व्यक्ति पहल भी करे तो
बहुत सकारात्मक परिणाम नहीं मिलते। ये दोनों ही एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ और समझा
सकते हैं। प्रेम के प्रतिनिधि देवता हनुमानजी जरूर पति-पत्नी के मध्य की
गलतफहमियां दूर करने में सक्षम हैं।
सुंदरकांड में जब हनुमानजी पहली बार सीताजी से मिले थे तो अशोक वाटिका में
सीता ने श्रीराम के प्रति एक भोली शिकायत हनुमानजी से की थी कि क्या श्रीराम मुझे
भूल गए? आज
भी अनेक जीवनसाथियों को एक-दूसरे से यही शिकायत रहती है। उस समय श्रीराम का पक्ष
लेकर हनुमानजी ने सीताजी की शिकायत दूर की थी। लंका जलाकर लौटने पर हनुमानजी श्रीराम
के सामने खड़े थे। तब श्रीराम ने सीताजी के प्रति एक शिकायत व्यक्त की। कहहु तात
केहि भांति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।
अर्थात कहो, हनुमान सीता किस प्रकार रहतीं और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं। राम ये
संकेत कर रहे थे कि सीता तो कहा करती थीं कि मेरे (राम के) बिना वे जीवित ही नहीं
रहेंगी और अब? हनुमान समझ चुके थे प्रभु परीक्षा ले रहे हैं। अत: उन्होंने बहुत सुंदर तरीके
से उत्तर दिया - नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद जंत्रित
जाहिं प्रान केहिं बाट।। हनुमानजी ने कहा- आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है,
आपका ध्यान ही
किवाड़ है। वे नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यहीं ताला लगा हुआ है, फिर प्राण जाएं तो किस
मार्ग से?
लोगों की कुटिलता से बचने के लिए ईश्वर कृपा जरूरी है
अच्छे-अच्छे समझदार और सावधान लोगों को धोखा देने के लिए तुच्छ मानसिकता के
लोग ईमानदारी का सहारा लेते हैं। अपने आप को उदार दिखाकर दूसरों को ठगने वाले तो
फिर भी पकड़ में आ जाते हैं, पर ईमानदारी को हथियार बनाकर धोखा देने वाले लोग समझ के परे
होते हैं।
आज जिंदगी को भौतिक मार्ग में जो रफ्तार दे दी गई है, उसमें ऐसे धोखेबाज लोग अचानक आकर
टक्कर मार जाते हैं। हम संभलें, तब तक तो दुर्घटना घट ही जाती है। अत्यधिक सावधानी की जरूरत
इसलिए है कि ऊंची उड़ान की टक्कर के नुकसान भी ज्यादा होते हैं। विचार करें कि हम
साइकिल सवार हों तो मार्ग में आने वाली बाधा दूर से दिख भी जाएगी और हमारी गति
हमें बचने-बचाने का पूरा मौका देगी।
यदि हम स्कूटर-कार में हैं तो शायद मौका कम मिले, साइकिल के मुकाबले गति तेज होगी,
सावधानी भी अधिक
रखनी होगी। लेकिन यदि यात्रा हवाई है तो पायलट की तरह दूर से खूब ध्यान रखना होगा,
क्योंकि आप में और
बाधा में तेज गति के कारण दूरी कब मिट जाए, पता ही नहीं चलेगा।
सावधानीपूर्वक फैसला तुरंत लेना होगा। ऐसे वक्त भगवान के प्रति भरोसा बड़ा काम आता
है। मनुष्य के प्रयासों की दौड़ से उसकी कृपा की गति बहुत तेज होती है।
भक्तगण भगवान से ईमानदारी से यदि यह कहें ‘तेरी मर्जी’, तो फिर उसे ऐसे छिपे हुए
धोखेबाजों से अपने भक्तों को बचाने के लिए आना ही पड़ता है। खासतौर पर जब कुटिल
लोग अच्छाई की आड़ में बुराई पनपा रहे हों, तब ईश्वर की जरूरत ज्यादा पड़ती
है।
सांसारिक छवि छोड़ें और महापुरुषों से जुड़ें
गुजरे वक्त में जो महापुरुष हुए, उनकी छवि भले ही अलग-अलग थी, पर उद्देश्य एक से थे। वे बाहर
से भिन्न थे, पर भीतर से गजब के समान रहे। अपनी-अपनी मंजिल पर पहुंचने के उनके रास्ते
जुदा-जुदा हों, पर नीयत सबकी एक-सी साफ रही।
इन सभी महापुरुषों ने अपनी छवि-चरित्र में एक संभावना जरूर छोड़ी थी और वह
संभावना थी कि हम अपने सद्कार्यो में इसका सही उपयोग कर लें। जब आपका जैसा
उद्देश्य हो, इनकी उस छवि से जुड़ जाएं। विपरीत परिस्थिति में ज्ञान देना हो तो गीता के
श्रीकृष्ण बड़े काम के हैं। सत्य के आधार वचन को पालना हो तो राम से गुजरें। तप पर
आधारित जीवन जीना हो तो महावीर स्वागत कर रहे हैं अपने पास बुलाने के लिए। भीतर की
गहन-शांत यात्रा पर ले जाने के लिए बुद्ध तैयार हैं।
फकीरी का अंदाज छूना हो तो नानक को पकड़ लें। ईश्वर पर भरोसे की पराकाष्ठा
जीसस समझा देते हैं। हमें इतनी अधिक स्वतंत्रता दे गए हैं ये महापुरुष। आज के समय में
हम अपनी ही बनाई छवियों में उलझ जाते हैं। छवि की आड़ में दूसरों को भी ठगते हैं,
खुद भी ठगाते हैं।
अगर आज छवि का उपयोग ही करना है तो क्यों न इन महापुरुषों से जुड़ें, क्योंकि हम जो अपनी छवि,
प्रतिष्ठा,
पहचान आज बनाते
हैं, उसमें
संसार का खूब योगदान लेते हैं। दूसरों की स्वीकृति, उनके द्वारा की गई हमारी प्रशंसा,
ये सब हमारे लिए
कच्च माल होते हैं और लोगों को गलत प्रेरणा देकर आपको बनाने तथा गिराने में मजा
आता है। अत: सांसारिक छवि से अलौकिक छवि ज्यादा बेहतर है। उसी पर टिकें।
गलत लोगों से हमें बचाती भी है ध्यान की क्रिया
ध्यान भटकना फायदेमंद और नुकसानदायक दोनों होता है। बच्चों की जिद तोड़ने के
लिए माता-पिता बच्चों का ध्यान भटकाने की कला जानते हैं। यह बालमन के लिए हितकारी
होता है। कुछ लोग यही प्रयोग बड़ों पर भी करते हैं। शातिर दिमाग के व्यक्ति दूसरों
को ठगने के लिए ध्यान भटकाने जैसा फॉमरूला प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार जो लोग
अपनी सफलता की यात्रा में लक्ष्य के प्रति एकाग्र रहते हैं, उनसे उनकी सफलता छीनने के लिए
भटकाने वाले प्रयोग किए जाते हैं।
इसके लिए प्रलोभन और भय के निर्माण की जरूरत नहीं होती। कई बार अपनी हितकारी
छवि के पीछे भी लोगों का यही मकसद होता है, दूसरों का भरोसा जीतो और इसकी
आड़ में उन्हें भटका दो। जो लोग अति-महत्वाकांक्षी होते हैं, उन्हें धोखेबाजी पसंद
आने लगती है। ये लोग लेन-देन के मामले में पहले देने में उदार बनते हैं । ऐसा लगता
है जैसे इनका जन्म संसार में दूसरों को देने के लिए ही हुआ है। ये कभी किसी से कुछ
लेंगे ही नहीं। लोग इनके दाता भाव में ही बंध जाते हैं।
फिर आपको बांधकर ये लूटने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं। अत: बेहद जरूरी है कि
पहला काम यह करें कि किसी भी अच्छी या बुरी छवि से अपना ध्यान भटकने न दें।
एकाग्रता विजय को सुनिश्चित बनाती है। धर्म और अध्यात्म एकाग्रता के अभ्यास को
सुगम बनाते हैं। भक्त के जीवन के केंद्र में परमात्मा होता है, इसलिए उसके लिए एकाग्रता
को साधना सरल हो जाता है। चौबीस घंटों में कुछ समय एकाग्रता साधने के लिए आरक्षित
रखें। ध्यान की क्रिया गलत लोगों से आपको बचाने में भी बड़ी उपयोगी रहेगी।
परिवार में भक्ति की सामूहिक क्रियाएं अवश्य होनी चाहिए
आज के दौर में व्यवसाय अब केवल आत्म-रुचि या निज हित में नहीं किया जा सकता।
ग्राहक के मन को पढ़ना और मान को बनाए रखना आज ज्यादा जरूरी है। प्रबंधन से जुड़े
लोग इसमें लगातार माहिर होते जा रहे हैं। लोग बाहर तो पराए लोगों को अपना ग्राहक
बनाकर जीत लेते हैं, लेकिन घर में अपने ही लोगों को पराया बनाकर हार जाते हैं।
भारत के परिवारों में रिश्तों के बीच यह शिकायत लगातार बढ़ती जा रही है कि या
तो उन्हें बोझ माना जा रहा है या सौदा। जैसे धंधे में परिश्रम और ईमानदारी जरूरी
है, वैसे
ही परिवार में श्रद्धा और विश्वास का महत्व है। हमें अपने घरों में दूसरे सदस्यों
की रुचि और मान-सम्मान पर लगातार नजर रखनी होगी। उसकी पूर्ति भी करनी होगी। चूंकि
मामला अपनों का होता है और उम्र में बड़े तथा छोटे की स्थिति भी रहती है, इसलिए अहंकार बीच में
अपना काम दिखा जाता है।
घर को तोड़ने में अहंकार की बड़ी भूमिका रहती है और अहंकार को तोड़ने में भक्ति
का बड़ा योगदान रहता है। घरों में भक्ति की कुछ सामूहिक क्रियाएं जरूर होनी चाहिए।
हमने चूंकि अन्न में भी ईश्वर देखा है, इसलिए साथ में बैठकर एक साथ खान-पान भी पूजा का
हिस्सा माना जाए। सामूहिक मेडिटेशन के भी अवसर घरों में हों तो रिश्तों को निभाने
में विश्वास जागेगा तथा जीने में श्रद्धा बनेगी। विश्वास और श्रद्धा एक-दूसरे के
लिए जीने की तमन्ना को बढ़ाते हैं। इससे आप धंधे को भले ही घर की तरह प्रेमपूर्ण
होकर चलाएंगे, पर घर में धंधा नहीं लाएंगे।
संत-फकीरों ने जीवन में कर्म को ही अधिक महत्व दिया है
समाज कई तरह के सिद्धांतों पर चलता है। सिद्धांत के पीछे विचारधारा होने के
कारण मतभेद भी होते हैं और यदि मामला धर्म का हो तो एक ही धर्म में भी मतभेद नजर
आते हैं, लेकिन
दुनियाभर के विभिन्न धर्मो के संत-फकीरों ने एक सिद्धांत को सामान्य रूप से सहमति
दी है और वह है कर्म का सिद्धांत।
इस सिद्धांत का संबंध जीवन और आचरण दोनों से है। यह सिद्धांत आने वाले समय के
लिए एक आशा जगाता है और बीते हुए वक्त के प्रति विस्मृति भी देता है। कर्म का
सिद्धांत वर्तमान पर बहुत अधिक टिकता है। आज का मनुष्य विज्ञान और तकनीक से सर्वाधिक
प्रभावित है। इसीलिए कर्म के सिद्धांत को न समझते हुए भी लोग उसमें जीने लगते हैं।
काम करने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व कर्म के सिद्धांत पर आधारित होता है।
कर्म के सिद्धांत को आत्मा से जोड़कर देखें तो परमात्मा की परिकल्पना आसान
होने लगेगी, क्योंकि परमात्मा के अनुसार कर्म करो, फल की आशा भी रखो, लेकिन उसके प्रति आसक्ति न हो।
हमने कुछ ऐसे नियम जोड़ लिए हैं, जिनकी हमारे जीवन में कोई सार्थकता नहीं होती, क्योंकि परिस्थिति बदलने
से कर्म के सिद्धांत के नियम भी बदलते हैं। हथियार चलाने का कर्म सैनिक और अपराधी
दोनों ही करेंगे, लेकिन दोनों की स्थितियां अलग हैं। इसकी समझ परमात्मा से जुड़ने पर परिपक्व हो
जाती है। सृष्टि का निर्माण परमपिता का कर्म है और इसी भाव को उसने हमारे भीतर
फैला रखा है। इसलिए शुभ और श्रेष्ठ करने के प्रति अति आग्रही बन जाएं।
टेढ़ी चाल वालों के प्रति हमें सावधान कर देता है योग
अभी भी कुछ लोगों को गलतफहमी है कि योग का संबंध शारीरिक स्वास्थ्य से है। यदि
केवल देह से जोड़कर चलेंगे तो संबंध शारीरिक ही रहेगा और जैसे ही हम ध्यान की
यात्रा में उतरेंगे, योग हमें सरल बना देगा। हमारे व्यक्तित्व में कुछ ऐसी जटिलताएं होती हैं,
जिनके साथ हम अपने
निर्णय लेने लगते हैं। चरन चोंच लोचन रंगौ चलौ मराली चाल। छीर नीर बिबरन समय बक
उघरत तेहि काल।।
बगुला चाहे अपने चरण, चोंच और आंखों को हंस की तरह रंग ले और हंस की सी चाल भी
चलने लगे, परंतु जिस समय दूध और जल को अलग-अलग करने का अवसर आता है, उसकी पोल खुल जाती है।
हम लोग छल करते हैं, लेकिन एक दिन वह सामने आ ही जाता है। जो पकड़ा गया वह अपराधी, वरना लोग जीवनभर साहूकार
बनकर घूमते रहते हैं और दूसरों को ठगते हैं। इसीलिए योग करने से हमारे भीतर वह समझ
आ जाएगी कि हम अपने भीतर की कुटिलता तो मिटा देंगे, लेकिन दूसरे के षड्यंत्र की समझ
भी हमारे भीतर पैदा हो जाएगी।
कहा गया है-मिलै जो सरलहि सरल ह्वै कुटिल न सहज बिहाइ। सो सहेतु ज्यों बक्र
गति ब्याल न बिलहिं समाइ।। कुटिल मनुष्य अपने स्वभाव को नहीं छोड़ सकता। यदि वह
किसी सरल हृदय पुरुष से सरल होकर मिलता भी है तो समझ लेना चाहिए कि उसके ऐसा करने
में कोई न कोई हेतु अवश्य है। जैसे सांप टेढ़ी चाल से बिल में नहीं घुस सकता। बिल
में घुसने के समय सीधा हो जाता है, परंतु वास्तव में उसकी स्वाभाविक टेढ़ी चाल नहीं मिटती।
इसलिए योग हमें तो सहज बनाएगा, पर दूसरे टेढ़ी चाल वालों के प्रति हमें सावधान भी कर देगा।
हनुमानजी से सीखें शब्दों का सुंदर संयोजन कर बात बनाना
सही बात का ठीक तरह से प्रस्तुतीकरण हो जाए तो उसके भीतर के सत्य को उजागर
करने में सुविधा होती है। इसमें तर्क, विचार और शब्द का सुंदर संयोजन करना पड़ता है। चलिए,
हनुमानजी से सीखा
जाए कि किसी की सही बात की पैरवी करते समय क्या करना चाहिए। सुंदरकांड में जब
रामजी ने सीताजी कैसे रह रही हैं, यह प्रश्न पूछा तो हनुमानजी समझ गए कि प्रभु माताजी की
परीक्षा ले रहे हैं।
तब उन्होंने बड़े अच्छे तरीके से सीताजी का पक्ष रखा। तुलसीदासजी ने लिखा
है-नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान
केहिं बाट।। हनुमानजी ने कहा- आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किवाड़
है। नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएं तो किस
मार्ग से? इन पंक्तियों में हनुमानजी ने श्रीराम के सामने तीन बातें कही थीं। नाम,
ध्यान और ताला। इन
तीन शब्दों के साथ वे सीताजी का पक्ष रखते हैं। श्रीराम पूछ रहे थे कि मेरे बिना
सीता जीवित कैसे हैं?
हनुमानजी का उत्तर था, प्राण तो कब के निकल जाते लेकिन आप के नाम का पहरा लगा हुआ
है, आपके
ध्यान के किवाड़ों पर जो ताला लगा है, वह सीताजी के नेत्रों के कारण है, क्योंकि उन्होंने अपने
नेत्रों को आपके चरणों में लगा दिया है। श्रीराम समझ गए कि हनुमान ने बड़ी चतुराई
से मेरे ऊपर यह जिम्मेदारी डाल दी। हनुमानजी श्रीराम को बताना चाहते हैं कि भक्त
के प्राण निकलते हैं तो जिम्मेदारी आपकी होगी। पति-पत्नी के मध्य में जो भ्रम पैदा
हो रहा था, उसे हनुमानजी ने बहुत ही अच्छे ढंग से दूर कर दिया।
अहंकारी व्यक्ति को जीवन में अकेले ही रहना पड़ता है
गणित विषय में रेखाओं को लेकर एक समानांतर शब्द आता है। दो ऐसी रेखाएं जो
पास-पास दिखती हैं, दूर से देखने पर मिलती हुई भी नजर आ सकती हैं, लेकिन वे कभी मिलती नहीं,
उन्हें समानांतर
रेखा कहा गया है। हमारे परिवारों में आजकल रिश्ते इसी सिद्धांत से पाले जा रहे
हैं। या तो लोग आमने-सामने हो जाते हैं, मुकाबला करने लगते हैं या फिर पूरे जीवन समानांतर
चलते हैं।
मिलन कहीं हो ही नहीं पाता क्योंकि उसके लिए एक-दूसरे की कुछ इच्छाएं पूरी
करनी पड़ती हैं और मनुष्य अपनी इच्छा दूसरे पर लादना चाहता है। बिना खुद को मिटाए
कोई किसी से कैसे मिल सकता है। इसीलिए सारा जीवन समानांतर चलता है। फिर आज तो वैसे
भी पढ़े-लिखे सदस्यों का युग है। हर आदमी के पास अपना ज्ञान, जानकारी और इसी के कारण
अहंकार है। अहंकारी को जीवन में अकेला ही रहना पड़ता है। इसलिए सबको एक-दूसरे के
समानांतर चलना पड़ता है, पति-पत्नी हों, भाई-भाई हों या बाप-बेटे।
इन दोनों समानांतर रेखाओं के बीच सेतु बनाया जा सकता है और यह सेतु मीठी वाणी
का होना चाहिए। तीन स्थितियों में हमेशा प्रेमपूर्ण शब्द बोलिए - किसी के द्वारा
प्रश्न पूछने पर। दूसरा, यदि हमें प्रश्न पूछना है तो प्रश्न को पूरी मिठास के साथ
व्यक्त करें और इन दोनों से कठिन है जब किसी को आदेश देना हो, तब भी मधुरता न छोड़ी
जाए। इसके लिए सबसे अच्छा अभ्यास है लगातार अपने ईष्ट का नाम जपते रहिए। नाम जप जब
सांस के माध्यम से होता है तो जिह्वा से निकलने वाले शब्द अपने आप मिठास ले लेते
हैं।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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