इस तरह पढ़ी जाए हनुमान चालीसा तो मिलेंगे बेहतर परिणाम..
अधिकांश लोग पूजा-पाठ में मंत्रों या शब्दों को रट लेते हैं। यह सही है कि श्रद्धा से पढ़े हुए शब्द अपना असर करते हैं, लेकिन अर्थ समझकर दिल से यदि पंक्तियां बोली जाएं तो परिणाम और सुंदर होंगे। हनुमानचालीसा की ३९वीं चौपाई में तुलसीदासजी कहते हैं -‘जो यह पढ़ै हनुमानचालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा।’
ऐसा नहीं लिखा है कि जो यह ‘बोले’, लिखा है ‘पढ़ै’, क्योंकि पुस्तक खोलकर पढ़ने का मतलब है कि नेत्रों से पढ़ना ही पड़ेगा। तुलसीदासजी यहां ऐसा लिख सकते थे कि जो यह ‘सुने’ हनुमानचालीसा। ऐसा होता तो लोगों को और आराम मिल जाता।
किसी को सामने बिठा लेते कि चलो सुनाओ पांच बार और वो सुना देता। हम सुन लेते, लेकिन तुलसीदासजी ने स्पष्ट लिखा है कि जो यह ‘पढ़ै’ हनुमानचालीसा। पढ़ना खुद को पड़ता है, सुना कोई दूसरा भी सकता है। ‘पढ़ै’ शब्द का एक और गूढ़ अर्थ है।
यदि हम जप भी करें तो हृदय की पुस्तक पर उस जप को पढ़ते रहें। मन की पुस्तक खुली हुई है और हम उसे पढ़ रहे हैं, तो आनंद अलग ही आएगा। इसलिए गोस्वामीजी ने कहा कि पढ़ना ही पड़ेगा। आगे वर्णन आया है ‘होय सिद्धि साखी गौरीसा।’ तुलसीदासजी ने प्रमाण दिया ‘साखी गौरीसा।’
गौरीसा का अर्थ है शंकर व पार्वतीजी। इनकी शपथ ली गई है, क्योंकि इन्हें श्रद्धा-विश्वास का प्रतीक माना गया है। कहने का अर्थ है कि श्री हनुमानचालीसा श्रद्धा और विश्वास के साक्ष्य में पढ़ा जाए।
हर परिवार के लिए जरूरी हैं हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां...
परमात्मा के प्रति प्रेम जगाना हो तो परिवार एक पाठशाला है। रिश्तों में प्रेम एक बीज की तरह है, जिस दिन इसमें अंकुरण हुआ, समझ लें जीवन में परमात्मा की कोपलें फूट पड़ी हैं। जैसे बीज टूटता है, फूटता है, तब वृक्ष बाहर आता है।
ऐसे ही परिवार में प्रेम जब बनता है या फूटता है, दोनों ही स्थिति में परमात्मारूपी वृक्ष हाथ लगेगा ही। तुलसीदासजी ने हनुमानजी को केंद्र में रखकर जो चालीस चौपाइयां लिखी हैं, वे परिवार प्रबंधन की आचार संहिता बन गईं।
अपनी गृहस्थी में हम अनेक ऐसे प्रयास करते हैं जैसे पानी पर खिंची लकीर। यह चालीसा उन प्रयासों को खाली नहीं जाने देगी। परिवार में होने वाले आमोद-प्रमोद के साधनों को ये तिरयालिस पंक्तियां निष्काम कर्मयोग से जोड़ देती हैं।
परिवार में भोग से प्यास जागती है और इस प्यास को योग से बुझाना पड़ेगा। भोग से विषाद होगा और वह योग का आरंभ होगा। योग तक पहुंचने के लिए श्रीहनुमान चालीसा की चौपाइयां सीढ़ियों के समान हैं। गृहस्थी के राग को अनुराग से गुजारकर विराग तक ले जाने के लिए ये चौपाइयां राजपथ हैं। जीवन में कितनी ही भक्ति और भौतिकता हो, इसके संतुलन के सूत्र समाए हैं इस चालीसा में।
आज सारे विश्व में इसका महापाठ है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, यह तो प्रत्येक व्यक्ति की निजता को निखारने का उद्घोष होगा। राष्ट्रीय जागरण के लिए एक आह्वान है, मुरझाए हुए अंत:करण के लिए नवजीवन है।
दुनियाभर की सफलता मिलती है इन तीन गुणों से...
परमात्मा को जीवन में उतारना हो तो सबसे सही स्थान है हृदय। श्री हनुमानचालीसा के अंतिम दोहे में तुलसीदासजी ने श्री आंजनेय को आमंत्रण दिया है कि वे पधारें, लेकिन साथ में श्रीरामजी, सीताजी और लखनजी को भी लाएं और स्थायी रूप से निवास करें।
भगवान को रहने के लिए तुलसीदासजी ने जो स्थान प्रस्तावित किया है, वह है उनका हृदय। ‘कीजै नाथ हृदय महं डेरा’ तथा अंतिम दोहे में कहा ‘हृदय बसहु सुर भूप।’ हृदय में परमात्मा उतरते ही हम व्यवहार की जगह स्वभाव पर टिकना सीख जाते हैं। इससे स्वभाव सधेगा और ऐसे लोग सरल, सहज व सुव्यवस्थित होंगे।
प्रबंधन की ऊंची उड़ानें इन्हीं तीनों से आरंभ होती हैं, परिश्रम की सारी ऊर्जा इन्हीं में समाहित है। जो सरल होता है, उसकी सोच सत्य और स्पष्ट होती है। जो सहज होता है, उसके निर्णय परिपक्व और दूरगामी होते हैं और जो सुव्यवस्थित है, वह अथाह परिश्रम में भी थकता नहीं।
दुनिया की सारी सफलताएं इन्हीं तीनों गुणों की दासी हैं और ये गुण श्री हनुमानचालीसा का प्रसाद हैं। अब जब श्री हनुमानचालीसा का समापन हो, तब विचार करें कि गोस्वामीजी की श्री हनुमानचालीसा किस तरह उपयोगी है।
तुलसीदासजी ने श्री हनुमानचालीसा लिखकर यह बताया कि इसकी पंक्ति-पंक्ति में परिणाम तो वेद मंत्र का है, लेकिन यदि कोई दोष हो जाए तो दुष्परिणाम नहीं मिलेगा। इसकी हर पंक्ति मंत्रों के समान प्रभावशाली और दिव्य बन गई।
एक यही चाह आपके लिए अशांति का कारण है...
जरूरतों और इच्छाओं का संघर्ष हमेशा चला करता है। ईश्वर हमारी इच्छा होनी चाहिए, जरूरत नहीं। लेकिन सांसारिक चीजें हमारी जरूरत की श्रेणी में आनी चाहिए, इच्छाओं की नहीं। हम जितना इच्छाओं पर टिकेंगे, उतना स्वार्थी होंगे और जितना जरूरतों से जुड़े
रहेंगे, उतने उदार हो जाएंगे। इच्छापूर्ति के लिए आदमी किसी भी हद तक जाता है।
इच्छा जब ईश्वर से जुड़ती है तो प्रत्येक कृत्य उपासना बन जाता है। परमात्मा के लिए हमारी इच्छा में जितनी तीव्रता होगी, परमात्मा की दृष्टि में हम उतने ही सुपात्र होंगे। अब इन्हीं बातों को संसार की दृष्टि से देखें। संसार में इच्छाओं को काटना चाहिए और आवश्यकताओं के अनुसार जीना चाहिए। आदमी की अनेक इच्छाओं में एक इच्छा होती है कि मैं लोकप्रिय हो जाऊं। अधिक लोकप्रिय व्यक्ति एक चलती-फिरती जेल होता है।
अपनी लोकप्रियता से वह खुद ही परेशान होने लगता है। फिर भी सब चाहते हैं नाम हो जाए। यह एक इच्छा है। गहराई में जाकर देखें तो इच्छा एक सपना है, इसमें यथार्थ कम रहता है। आवश्यकता सदैव यथार्थ पर टिकी है। इसीलिए आवश्यकता की पूर्ति में आप अशांत नहीं होंगे, लेकिन इच्छाओं के चक्कर में जरूर परेशान हो जाएंगे।
जिस दिन हम आवश्यकता और इच्छा का फर्क समझेंगे, उस दिन से हमारे परिवारों में बच्चों के लालन-पालन पर भी असर पड़ने लगेगा। जो बच्चे जरूरतों से पाले जाएंगे, वे बड़े होकर कुछ अलग मानसिकता के होंगे और जो इच्छाओं से पाले जाएंगे, वे अलग आचरण के होंगे।
सफलता के लिए इस तरह करें लक्ष्य तक रास्ता तय.....
आदमी की शक्ति, उत्साह और इरादे तब ही प्रशंसा पाएंगे, जब वह जो काम हाथ में ले उसे अंजाम तक पहुंचा दे। बहुत सारे लोग काम हाथ में लेते हैं और आधा छोड़कर दूसरे में लग जाते हैं या पूरा होने के पहले ही थक जाते हैं।
काम को अंजाम तक पहुंचाना ही दृढ़ इच्छाशक्ति का सही स्वरूप है। कार्य आरंभ से लेकर अंत तक तथा उसके बीच में सांसारिक तरीकों के अलावा भीतर के आध्यात्मिक साधन भी अपनाना पड़ेंगे। जैसे ही कोई कार्य हाथ में लें, ध्यान रखें सफलता की इच्छा कहीं वासना में न बदल जाए। वासना की उत्तेजना शक्ति को गलत दिशा में मोड़ देती है।
पहला ही कदम लड़खड़ाते हुए उठता है। हिलते-डुलते व्यक्ति की आंखें भी मंजिल को धुंधला देखती हैं। अंजाम तक जाने के लिए एक मानसिक संतुलन जरूरी है। तीन बातों पर ध्यान रखें और उन्हें अपने जीवन से जोड़े रखें। पहली बात, कार्य शुरू करते ही प्रेम से भर जाएं। प्रेम के जितने भी परिणाम हैं, इस समय सबसे काम का यह परिणाम मिलेगा कि क्रोध नियंत्रित हो जाएगा।
क्रोध आत्मिक विकास का तो विरोधी है ही, सांसारिक प्रगति में भी बाधा बन जाता है। क्रोध को आध्यात्मिकता के साथ नियंत्रण में न रखें, तो वह आवेश की शक्ल में जीवन में प्रवेश कर जाता है। आवेश कार्य को अंजाम तक ले जाने में बाधा रहेगा। प्रेम का दूसरा परिणाम यह होता है कि वह जीवन को सरल बनाता है।
सरल जीवन वालों की बुद्धि कम भ्रमपूर्ण होती है। भ्रम मुक्त निर्णय अंजाम तक जाने में सहयोगी होंगे। प्रेम के बाद दूसरी बात करें, घोर परिश्रम। इसका संबंध केवल शरीर से नहीं है। जीवन को पूरी तरह जीना, जमकर जीना, जो भी उपलब्ध है, उसका भरपूर उपयोग करने की मानसिकता ही परिश्रम का रूप है।
मालिक ने जितना दिया, उसे तो जमकर जानें और जीएं, फिर अगले की तैयारी रखें। प्रेम और परिश्रम के बाद तीसरी बात है प्रसन्नता। जो भी करें उसमें खुशी न खोने दें। आरंभ से अंत तक खुशी को दौलत की तरह साथ रखें। प्रसन्नता की अंतर्दशा ही शांति है। शांत चित्त आपको आसानी से अंजाम तक ले जाएगा।
खुशी का सांस से बड़ा संबंध है। जितना जागरूक होकर सांस पर नियंत्रण रखेंगे, उतने खुश रह सकेंगे। काम को अंजाम तक ले जाने वालों को दुनिया जुबान के पक्के, ईमान के सच्चे और इरादों के दबंग मानती है।
सिर्फ किसी को आकर्षित करने के लिए नहीं होता है श्रंगार....
सुंदरता भगवान की विभूति है। सौंदर्य और श्रंगार परमात्मा को पसंद हैं। सामान्य तौर पर श्रंगार को शरीर से जोड़कर देखा और समझा गया है और इसीलिए श्रंगार वासना के लिए सेतु बन जाता है। सौंदर्य का संबंध जब तक शरीर से रहेगा, यह भोग का विषय होगा।
लेकिन सुंदरता ईश्वर से जुड़ते ही अनुभूति हो जाती है। सौंदर्य को केवल संसार से जोड़ेंगे तो श्रंगार केवल रूप संयोजन होगा और यदि यह भगवान से जुड़ता है तो इसमें पवित्रता आ जाती है। भगवान की दुनिया में पवित्रता सबसे अच्छा श्रंगार और सौंदर्य है। यदि पवित्रता हो तो सादगी भी गजब का श्रंगार बन जाएगी। श्रंगार में यदि स्वरूपता न हो तो वह भी अभद्रता ही है।
अब तो श्रंगार का अर्थ एक-दूसरे को आकर्षित करना ही रह गया है। श्रंगार को शस्त्र बनाकर शरीर के आक्रमण हो रहे हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने श्रंगार के लिए एक साधन बताया है, इसे संसार तप के नाम से जानता है। तप एकांत की घटना है, इसमें प्रदर्शन नहीं होता। तप से जो सौंदर्य प्राप्त होता है, वह ईश्वर का ही सौंदर्य है।
केवल शरीर को ही न संवारा जाए, संवारने के लिए जीवन में और भी कई उपाय हैं। बहुत कम लोग समझ पाते हैं कि समय को भी संवारा जाता है। समय का सदुपयोग करें, यह एक बड़ी शिक्षा है, लेकिन खाली समय में क्या करें, यह उससे भी अधिक समझ का मामला है। खाली समय का सदुपयोग कैसे करें, यह समय का श्रंगार है। अपने लोगों के साथ खाली समय प्रेम से बिताया जाए, यह भी एक श्रंगार है और पारिवारिक जीवन को सौंदर्य प्रदान करता है।
हमारे व्यक्तित्व में एक यही चीज बनती है हमें कमजोर...
आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है? दार्शनिकों ने इस सवाल के अलग-अलग उत्तर दिए हैं। लेकिन इस बात पर सभी सहमत हैं कि हर कमजोरी में यदि कोई दुगरुण मौजूद है तो वह है अहंकार। अहंकार जीवन में आते ही बुद्धि को उल्टा कर देता है। यहीं से लोग अहंकार और इज्जत को एक समझने लगते हैं और भूल जाते हैं कि अहंकार बढ़ने से इज्जत बढ़ती नहीं, बल्कि घट जाती है।
अहंकारी मनुष्य समाज में प्रतिष्ठा भले ही बना ले, लेकिन उसका मनोबल और आत्मविश्वास कम होने लगता है। कहते हैं अहंकार नीच कर्मो का बादशाह होता है। अहंकार जैसे-जैसे कम होगा, हम सरल और विनम्र होते जाएंगे और यहीं से हम दूसरों से अपेक्षा करना छोड़ देंगे।
जीवन जितना अपेक्षारहित होगा, उतना ही अशांति से दूर होगा। अहंकारी सारी दुनिया के सामने अपनी ऊर्जा इस बात में खर्च करता है कि लोग जान जाएं ‘मैं कौन हूं।’ इसे सिद्ध करने के लिए वह हर तरह के हथकंडे अपनाता है। जबकि अध्यात्म कहता है - ताकत इस बात में लगाओ कि आप स्वयं जान जाएं कि आप कौन हैं?
अपनी खासियत, अपनी विशिष्टता, हम भी कुछ हैं, इस भाव के आसपास जीवनभर ताने-बाने बुने जाते हैं। जब मनुष्य इससे संघर्ष करता है तो अहंकार अपनी विदाई के अंतिम क्षणों में विनम्रता का वेश धर लेता है, पर जाना नहीं चाहता। इसको भेजे बिना जीवन का सच्च सुख नहीं मिल सकता।
कामयाबी को बड़ा बनाना हो तो अपने सामने ऐसे रखें लक्ष्य....
जिंदगी में अवसर और काम को निपटाने के साधन कई लोगों को समान रूप से उपलब्ध होने के बाद भी वे इसका लाभ नहीं उठा पाते और कुछ लोग उन्हीं स्थितियों में सफलता प्राप्त कर जाते हैं। केवल साधन होने पर सफल हो जाएं यह जरूरी नहीं होता।
साधनों के सहारे कामयाबी स्थायी भी नहीं रहती। इसके पीछे एक बड़ी शक्ति काम करती है और वह होती है आदमी की योग्यता। इसी को किसी ने प्रतिभा तो किसी ने मेधा कहा है। यदि आपने अपनी प्रतिभा को बचा लिया है और सही उपयोग करना आ गया है तो साधन और अवसर का आप पूरा लाभ उठा सकेंगे।
अच्छे स्वप्न देखें और बड़े दायित्वों को अपने ऊपर लेने की तैयारी हमेशा रखें। यदि सपने देखेंगे तो बड़े लक्ष्य भी गढ़ सकेंगे। लक्ष्य बड़े होंगे तो अपने पुरुषार्थ पर जोर देंगे। कई लोगों का जीवन बीत जाता है और उन्हें पता नहीं चल पाता कि उनका लक्ष्य क्या है।
हमेशा बड़े दायित्व अपने कंधों पर रखने की इच्छा मनुष्य को कर्मठ बनाती है। बड़ी जिम्मेदारियों से भागने की कोशिश न की जाए। हिंदुओं में अवतार की परंपरा को यदि बारीकी से देखें तो दायित्वबोध का अर्थ समझ में आ जाएगा।
ईश्वर अवतार लेकर लोकहित की बहुत बड़ी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता है और इसीलिए भगवान अपने भक्तों से यह अपेक्षा करते हैं कि जिम्मेदारियों से मुंह मत मोड़ना। सपने देखो और उसे जरूर पूरा करो। परहित भी तभी किया जा सकता है, जब हम सक्षम हों।
जानिए, उपवास के क्या फायदे हैं आपके लिए...
जब-जब जीवन में कठिनाई आए, उसके बाहरी स्वरूप को देखते हुए उसके निदान जरूर निकाले जाएं। लेकिन उसी समय उसके भीतरी स्वरूप को भी पहचाना जाए। अध्यात्म कहता है कि भीतर की परेशानी की ही प्रतिछाया बाहर पड़ती है और इसीलिए हर मनुष्य भीतर और बाहर समान रूप से परेशान रहता है। या तो वह बाहर से चीजों को अंदर गिराता है या फिर भीतर की दिक्कतों को बाहर फेंकता है।
समझदार लोग इस अंतर को समझते हैं और वे इस अदला-बदली को रोक देते हैं। जैसे ही यह आवागमन नियंत्रित होता है, मनुष्य शांत होना शुरू हो जाता है। आंतरिक चिंतन मनुष्य के बल को बढ़ाता है। हमारे भीतर परमात्मा ने शक्ति का अपार भंडार भरा है। आप उस स्टोरेज से जितना मांगेंगे, उतना जरूर मिलेगा। कुछ लोग जीवनभर इस स्टोरेज का उपयोग भी नहीं कर पाते।
वे सतह पर जीकर ही गुजर जाते हैं। उपवास की व्यवस्था इस शक्ति को बढ़ाने के लिए ही की गई है। उपवास का अर्थ है, भीतर उतरने का अनुशासन। इसे अन्न व शरीर से न जोड़ा जाए। लोग उपवास का अर्थ समझते हैं, खुद को शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना। इसलिए कुछ लोग खान-पान के संयम को ही उपवास मानते हैं, लेकिन उपवास का अर्थ है देह और आत्मा के अंतर को बढ़ाना।
जो लोग इस भाव को समझकर उपवास करेंगे, वे उपवास के बाद खूब शांत पाए जाएंगे। वरना लोग उपवास भी करते हैं और दूसरों पर क्रोधित भी होते हैं। आश्चर्यजनक है दो बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं।
अपने चेहरे का तेज बढ़ाना हो तो यह करें....
किसी काम को पूरा करने के लिए कुशल पुरुषार्थ, पराक्रम और परिश्रम जब पूरी सामथ्र्य से जुट जाए, तब जीवन में तेजस्विता आती है। तेज का अर्थ यह नहीं है कि चेहरा कांतिमान हो जाए। तेज का अर्थ है हर स्थिति में व्यक्तित्व के भीतर का फोर्स काम करे, चाहे आध्यात्मिक गतिविधियां हों या सांसारिक।
आदमी के भीतर का आवेग अपना काम दिखाता है। यह आवेग जब श्रद्धा और भक्ति से जुड़ जाता है, तब तेजस्विता प्रकट होती है। तेज एक झरोखा बन जाता है और उसमें से व्यक्ति की महानता, उसकी श्रेष्ठता झरने लगती है। हनुमान भक्त रविशंकरजी रावतपुरा सरकार कहते हैं कि तेजस्विता आयु में नहीं, वृत्ति और स्वभाव में होती है। उम्र का इससे लेना-देना नहीं है।
बहुत-से लोग शरीर के मामले में बूढ़े हो जाते हैं, लेकिन बुद्धि और विवेक के मामले में उनका बचपन वहीं का वहीं रहता है। आज चूंकि हर आदमी चाहे पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, एक अजीब-सी चालाकी अपने भीतर लाने की तैयारी में है। ऐसे समय तेजस्विता हमारे लिए सबसे बड़ा सहारा यह बनेगी कि हम पर कोई अकारण और अनुचित आक्रमण नहीं कर पाएगा और न ही हमारा शोषण हो सकेगा, क्योंकि तेजस्विता हमें अन्याय के विरुद्ध हिंसा को भी सही अर्थ देकर प्रकट करती है।
कृष्ण ने अर्जुन की तेजस्विता को ही स्पर्श किया था, क्योंकि अर्जुन अहिंसा के नाम पर अधर्म को बचाने के चक्कर में पड़ गए थे। तेजस्विता तन को सक्रिय रखती है और मन को विश्राम की मुद्रा में। इसलिए जो लोग मेडिटेशन से गुजरते हैं, उनके चेहरे पर तेज झलकता है।
सफलता सिर्फ ऐसे लोगों को ही मिलती है....
हर कोई चाहता है कि मनचाहा मिल जाए और मनचाहा मिलता भी है, लेकिन इसके लिए तीव्र इच्छा और लगातार क्रिया करने की रुचि होनी चाहिए। हनुमान भक्त महाराज जी अपनी सरल भाषा में बताते हैं - हमें प्रतिदिन यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हे ईश्वर हमें लगन और संकल्प-शक्ति प्रदान करिए, क्योंकि बड़े से बड़ा वृक्ष भी एक लघु बीज से पैदा हुआ है और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह बीज धरती के अंतस में निरंतर प्रगतिशील रहा। इंसान की जिंदगी श्रेष्ठ है, क्योंकि समस्याओं व मुसीबतों के दौर से गुजरती है।
हमें इन सब समस्याओं से विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। ये समस्याएं संकल्प के समक्ष अधिक समय तक नहीं रह पाएंगी। समस्याओं से निपटने के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए। समस्याएं तो सहज ही शांत हो जाएंगी। जो व्यक्ति अवसर का महत्व नहीं जानते, वे सफलता से दूर रहते हैं।
सपने सदैव उन्हीं लोगों के सच हुए हैं, जो अपनी संकल्प- शक्ति पर अटल रहे, जो अपनी महत्वाकांक्षाओं पर अडिग रहे, जो कभी परिश्रम से पीछे नहीं हटे, जिन्होंने निराशाओं को कभी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया। व्यक्ति का मूल्यांकन इस बात से नहीं होता कि वह कौन-सा काम प्रारंभ करता है, बल्कि इससे होता है कि वह कौन-सा काम पूरा कर लेता है।
भक्त होने का एक बड़ा फायदा यह है कि वह जीवन के हर क्षण को परमात्मा की कृपा मानता है, इसीलिए अवसरों का लाभ उठाना भी जानता है, क्योंकि भक्ति यह कहती है कि हर सांस उस ईश्वर की दी हुई है। इसलिए एक भी क्षण नष्ट न हो, लगन बनी रहे और संकल्प-शक्ति कभी खत्म न हो।
धन कमाने से पहले अपने भीतर यह परिवर्तन करें...
धन कमाने के लिए ऐसी समझ विकसित की जाए, जो धन से परे है। इसका यह अर्थ नहीं है कि निर्धन रहा जाए। इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि धन के अर्थ को ठीक से समझा जाए। धन-ऐश्वर्य कमाने के चक्कर में हम उसे बंधन बना लेते हैं। फिर व्यक्ति मुक्त होना भूल ही जाता है। वह संपत्ति कमाने के तरीकों में पुरुषार्थ से अधिक गुलामी से जुड़ जाता है।
खूब धन कमाया जाए, किसी धर्म ने इस बात के लिए नहीं रोका, लेकिन इस बंधन से मुक्त होने के लिए जिस मर्जी की जरूरत पड़ती है, उसे अपने भीतर जरूर पैदा किया जाए। ध्यान का उपयोग इसके लिए किया जा सकता है। ध्यान करने के बाद जब सामान्य जीवनचर्या में उतरते हैं तो हम जो भी कर रहे होते हैं, उसमें मुक्ति का भाव महसूस करने लगते हैं। वर्तमान का असंतोष कम होने लगता है, भविष्य का भय डराता नहीं है।
उस समय हम धन कमा भी रहे होते हैं और फकीरी में जीने भी लगते हैं। सांसारिक साधनों का उपयोग करते हुए भी उसमें लिप्त नहीं रहते। उच्च तकनीक के इस युग में भी यह समझ में आने लगता है कि जिंदगी में ऐसा भी कुछ होता है, जो विज्ञान से परे है। कोई मस्ती इस प्रकार भी है, जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती और कुछ दुख इस तरह के होते हैं, जिन्हें धन रोक भी नहीं सकता। साथ में यह स्पष्टता भी रहती है कि धन कमाने में कोई बुराई नहीं है।
झंझट शुरू होती है उसके उपयोग में। ध्यानी उपयोग से ज्यादा सदुपयोग की कला सीख जाता है। वह समझ जाता है कि आखिर में घूम-फिरकर भीतर ही उतरना होगा। दुनियादारी का जीवन, बर्बादी का जीवन नहीं है। दुनियादारी का जीवन केवल परेशानी का कारण हो सकता है।
हनुमान से सीखें, कैसे बनाया जाए संबंधों को मधुर....
जरा-सी गलतफहमी जीवनभर के संबंधों को खराब कर देती है। लोगों के बीच संघर्षपूर्ण स्थिति में भी संबंध मधुर बने रहें, ऐसा प्रयास भी एक बड़ी सेवा है। कुछ लोग दूसरों के संबंधों में बिगाड़ लाने में ही रुचि रखते हैं। पीठ पीछे एक-दूसरे को एक-दूसरे की गलत जानकारी देकर यह काम आसानी से किया जाता है।
दूसरों के संबंध सुधारने या मधुर बनाए रखने में हमारी भूमिका कैसी हो, यह हनुमानजी से सीखा जा सकता है। सुंदरकांड के 13वें दोहे की 3-4 चौपाइयों में तुलसीदासजी ने सीता-हनुमानजी की बड़ी सुंदर बातचीत बताई है। पहली ही भेंट में दुखी सीताजी ने हनुमानजी के सामने श्रीरामजी की शिकायत रख दी थी।
श्रीरघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? आज ज्यादातर जीवन साथी आपस में यही शिकायत करते पाए जाते हैं कि व्यस्तता में हमें भुला दिया गया है।
बड़े दुख से सीताजी बोलीं - नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया। तब हनुमानजी ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने दावा कर दिया कि श्रीराम के मन में आप से ज्यादा प्रेम है।
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
जनि जननी मानहु जियं ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।
हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित कुशल हैं, परंतु आपके दुख से दुखी हैं। आप दुख न कीजिए। श्रीरामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है।
विचार की यह अति प्रस्तुति दोनों के बीच गलतफहमी दूर करने की भूमिका ही थी। हनुमत भक्तों को आज अशांत समाज में यही भूमिका निभानी होगी।
अगर जीवन में शांति चाहिए तो यह जरूर करें...
सांसारिक जीवन में भराव की जितनी जरूरत है, आध्यात्मिक जीवन में खालीपन का उतना ही महत्व है। हम संसार में खाली रह ही नहीं सकते। दुनिया ऐसे ही चलती है। कोई किसी से छीनकर भर रहा है और जिसका छिन जाता है, वो दोबारा भरने की तैयारी करता है।
अध्यात्म में इसका उल्टा है। अध्यात्म कहता है थोड़ा खालीपन, थोड़ा कोरा होना भी जरूरी है। इसीलिए भीतर के शून्य की बात कही जाती है। हम भीतर जितना खाली रहेंगे, उतने शांत रहेंगे और भीतर जितने भरे हुए रहेंगे, अशांत रहेंगे।
जब संसार में उतरें तो खालीपन न रखें, भराव से झगड़ा न रखें। संसार, संसार की तरह ही चलेगा। उसमें ज्यादा उलझन पैदा न करें, लेकिन जैसे ही अपने भीतर उतरें, फौरन खालीपन के महत्व को समझें। लोग हमसे पूछते हैं - आखिर यह खालीपन होता क्या है और मिलेगा कैसे?
जिनके जीवन में गुरु आए हैं, वे खालीपन को समझ सकेंगे, क्योंकि गुरु का काम ही है भीतर जाकर सफाई कर देना और इसके लिए वह ध्यान सिखाता है। ध्यान सफाई की उस क्रिया का नाम है, जो भीतर खालीपन पैदा करता है।
शास्त्रों में लिखा है - आचार्यो मृत्यु: यानी आचार्य मृत्यु है। सीधी-सी बात है गुरु के पास गए और हमारी उस बात की मृत्यु हो जाएगी, जिस बात को संसार ने जीवन माना है। हम बाहर जहां-जहां जीवन ढूंढ़ते हैं, दरअसल वहां होता नहीं है, इसलिए लोग अपना जीवन जीने के लिए दूसरे का जीवन छीनने लगते हैं।
भीतर उतरते ही आप अपने जीवन से परिचित हो जाते हैं और जो अपनी जिंदगी को जान गया, वो दूसरे की जिंदगी का भी मान करेगा।
बच्चों को संस्कारवान बनाना है तो यह करें...
शिक्षा को इस समय सत्संग से जोड़ा जाना चाहिए। आधुनिक शिक्षा और परंपरागत सत्संग का मेल असंतुष्ट, अशांत और असंयमित व्यक्तित्व के लिए जरूरी हो गया है। इस समय बच्चे इंटरनेट पर टिक गए हैं।
सारी पढ़ाई परदे से खींची जा रही है। लैपटॉप और कंप्यूटर कितनी शिक्षा उगल रहे हैं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन बच्चे उसमें किस तरह से डूब रहे हैं, यह हमें मालूम कर लेना चाहिए।
एक अच्छा तरीका बुरे परिणाम दे रहा है। बच्चों को इसीलिए थोड़ा सत्संग से गुजारा जाना चाहिए। सत्संग के शब्दों में सुरक्षा है। सत्संग से गुजरने के बाद यह आत्मविश्वास प्रबल होता है कि संसार में जो यात्रा हम करेंगे, वह गलत नहीं होगी।
हमारे देश में तो सत्संग के कई तरीके हैं। आदर्श वाक्यों के बैनर, दीवारों पर शुभ शब्द, पुस्तकों के स्लोगन, लेकिन अब इनमें धीरे-धीरे लोगों की रुचि कम हो रही है। बोलती दीवारें, जगाती किताबें बच्चों की अंतिम प्राथमिकता हो गई हैं। इन्हें सबकुछ एक क्लिक में मिल रहा है।
सत्संग में दो बातें महत्वपूर्ण हैं - एक गायन का हिस्सा, दूसरा प्रवचन का पक्ष। आजकल वक्ता यह मानकर चल रहा है कि जो हम कह रहे हैं, वही सही है या जो हमें अच्छा लग रहा है, वही दूसरों को भी लग रहा होगा। लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है।
सभी अपनी यूटिलिटी देखते हैं, सत्संग में भी। यदि वह उनको नहीं मिले तो इसे समय खराब करना माना जाता है। इसलिए ऐसी पीढ़ी जिसे सबसे ज्यादा शांति की जरूरत है, इसकी पूर्ति कहीं और से करने लगती है। सत्संग का महत्व उसके जीवन प्रबंधन से जुड़ते ही एकदम बढ़ जाएगा। श्रोता और वक्ता दोनों पक्ष इसकी तैयारी रखें।
सफल जीवन का सबसे बड़ा फार्मूला यह है...
समय के साथ दो बातें हमेशा ध्यान रखी जाएं, उसका आना और जाना। आते हुए समय की चुनौती को समझा जाए और गुजरते हुए वक्त के नुकसान को पकड़ा जाए। भारतीय संस्कृति ने तो समय को भी काल रूप में देव माना है। उसमें प्राण जैसी अनुभूति दी है।
समय को जीवनरूप में स्वीकार कर मान दिया है। आज का काम आज किया जाए, यह सिर्फ कहावत नहीं है, पूरा जीवन दर्शन है। कबीर ने अपनी एक पंक्ति में ‘पल में परलय’ शब्द का बहुत सही उपयोग किया है।
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब? आज की चूक एक बहुत बड़ा धक्का है। इसकी चोट जीवन के अंतिम समय तक असर करती है। यूं तो समय बहुत हल्का होता है, हौले-हौले गुजरता है।
शीतल और सुगंधित पवन की तरह समय भी आनंद देता बीत जाता है, लेकिन विलंब और टालने की वृत्ति आते ही अपने आप को भारी बना देता है और हर अगले दिन वह अपने भार को मल्टीपल कर लेता है। इसीलिए टाले हुए काम बोझ बनकर अशांत बनाते हैं। साथ ही हमारे व्यक्तित्व को अप्रिय व आलोचनापूर्ण बना देते हैं।
भारी समय अपने साथ अंधकार भी लाता है। वक्त की बर्बादी अपराध है। ऐसे लोग खुद का समय भी नष्ट करते हैं और दूसरे के समय का महत्व भी नहीं समझ पाते। यदि समय के मामले में स्फूर्त रहना है तो हर कार्य करने के पूर्व थोड़ा शांत होकर, विश्राम मुद्रा में अपने भीतर उतरें, एक गहरे प्रकाश को पकड़ने का प्रयास करें, जो हमारे भीतर होता ही है, फिर काम करें। भीतर उतरकर मौन साधना समय का सम्मान ही होता है।
पति-पत्नी के बीच प्यार तब रहेगा जब उनके रिश्ते में ये बात होगी...
परिवारों में आपसी तनाव का एक बड़ा कारण यह है कि सदस्य एक-दूसरे को उनके अधिकार का समय नहीं दे पा रहे हैं। पति-पत्नी के बीच मतभेद का मनोवैनिक कारण भी यही है कि ये दोनों जब एकांत में साथ में होते हैं, तब भी साथ नहीं होते। दोनों के बीच तन होता है, धन होता है और जन भी होते हैं यानी दूसरे लोग भी, लेकिन मन नहीं होता।
दोनों साथ होते हैं, लेकिन दोनों के ही मन कहीं दूर भाग रहे होते हैं। मन वहीं उपस्थित रहे तो दोनों के बीच का प्रेम दिव्य रूप ले लेगा। सुंदरकांड में श्रीराम का विरह-संदेश सीताजी को देते समय हनुमानजी ने रामजी की ओर से जो पंक्तियां कही थीं, उसमें श्रीरामजी ने तीन बार मन शब्द का प्रयोग किया है।
इसे इस बात से समझ लें कि जब भी हम अपने निकट के व्यक्तियों के साथ परिवार में हों तो मन को साथ ही रखें। मन का भटकाव रिश्तों के तनाव का एक बड़ा कारण है। रामजी ने सीताजी के लिए संदेश भेजा था -
कहेहु तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनि मोरा।।
अर्थात मन का दुख कह देने से भी बहुत कुछ घट जाता है। पर कहूं किससे? यह दुख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का रहस्य मेरा मन ही जानता है। और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है।
इस तरह मनाएं अपना नया साल...
जीवन एक किताब है। कुछ लोगों ने इसे डायरी भी कहा है और कुछ लोग कैलेंडर की तरह भी मानते हैं। एक-एक करके पन्ने उतरते जाते हैं, उम्र अपनी संख्या घटाती जाती है। हर आने वाला नया समय जीवन को फिर चार्ज करता है। मौजूदा वर्ष बीत रहा है तो नया साल आ रहा है। जो बीत गया, उससे हम कुछ सीखें। अब जो आ रहा है, उस वर्ष में सीखे हुए का उपयोग करें। घटनाएं केवल बीतने के लिए नहीं होतीं, सिखाने के लिए भी होती हैं।
जो अच्छा रहा, उसका उत्साह अपने भीतर रखें और जो बुरा था, उसे विस्मृत करें। आदमी यहीं चूक जाता है। बुरे को बोझ बनाकर दिमाग में रखता है और आने वाले नए समय के उत्साह को उससे जोड़ लेता है। इसीलिए हम देखते हैं कि नए वर्ष की तैयारी में लोग जमकर नशा करते हैं। नशा कैसा भी हो, जागरूकता को खा जाता है।
नशे में आदमी अंधा हो जाता है, चरित्र तो दूर, उसकी शालीनता तक चली जाती है। नशा आत्म-विस्मृति की एक ऐसी क्षणिक स्थिति में डाल देता है कि आदमी होश में आने पर समझ नहीं पाता कि क्या खोया, क्या पाया। पुराने वर्ष को शरीर की तरह समझें, शरीर का क्षरण होता है।
जैसी देह आज है, वैसी कल नहीं रहेगी और नए वर्ष को आत्मा से जोड़ें। आत्मा सदैव जैसी है, वैसी ही है। नया वर्ष एकदम शुद्ध है, कोरी स्लेट की तरह कई पवित्र संभावनाएं लिए। उसमें जो चाहे भर लें। इसीलिए नए वर्ष की तैयारी में जागरूक रहें, मदहोश न हों, वरना लड़खड़ाते कदमों से प्रवेश करने वाले लोग पूरे वर्ष भटकते ही रहेंगे।
जब धन आता है तो साथ में आती हैं ये चीजें भी...
धन जीवन में आने पर जो भी चीजें लाता है, दो बातें जरूर कर जाता है। दौलत बाहर की भीड़ और भीतर का अकेलापन भी देती है। धनवान लोग अपने बाहरी जीवन में अकेले कम ही रहते हैं। धन कमाने के लिए दूसरे जरूर चाहिए। यही दृश्य खर्च के साथ भी है। अत्यधिक खर्च की वृत्ति भी अपने आसपास भीड़ बढ़ाने का ही कार्यक्रम है। रुपया-पैसा तीन बातों पर असर करता ही है। स्वास्थ्य, तृष्णा और दुगरुण।
अधिक धन का अमर्यादित उपभोग स्वास्थ्य को बिगाड़ता है और कमाने की भूख पाशविक बना देती है। धन कमाने की होड़ में आदमी अपने शरीर से खिलवाड़ करने लगता है और एक दिन जब शरीर इतना बीमार हो जाए कि धन भी काम न दे, तब पछतावा होता है। दौलत और दुगरुण का नाता तो पुराना है ही।
इसलिए कमाने से ज्यादा उपभोग में सावधानी रखी जाए। ज्यादातर मामलों में पर्याप्त से अधिक धन आने पर लोग भीतर से अशांत पाए गए। बाहरी शांति का काम तो मुखौटों से चल जाता है, लेकिन भीतर के विचलन का निदान हमें स्वयं निकालना पड़ेगा।
रुपया बचाए रखने का भी एक भय होता है। बाहर यह डर बना ही रहता है कि कहीं गंवाना न पड़े। इसी भय के कारण आदमी भीतर भी नहीं झांकता। जब-जब धन अधिक आने लगे, बाहर की भीड़ तो बढ़ेगी। ऐसे में अपने भीतर झांकें, उतरें और रुकें भी।
थोड़ा उस मौन को महसूस करें, जो सिर्फ भीतर होता है। वहां दौलत के सिक्के की कोई खनक नहीं होगी। मनुष्य होने का एक फायदा यह है कि आपको अपने भीतर अकेले जाने की सुविधा प्राप्त है। इसलिए बाहर धन का मजा भीतर के मौन से उठाया जाए।
समस्याओं को ऐसे सुलझाएंगे तो कभी परेशान नहीं रहेंगे....
जीवन में कुछ चीजें कभी खत्म नहीं होतीं, बल्कि नई-नई शक्लों में सामने आती रहती हैं। इनमें से एक है - समस्या। इसके छोटे-बड़े दो रूप होते हैं। दरअसल यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो व्यक्ति की समझ, सहनशीलता के अनुसार समस्या छोटी या बड़ी होती है।
किसी एक व्यक्ति के लिए जो समस्या जीवनभर का बोझ बने, वही समस्या दूसरे के लिए चुटकी में निपटाए जाने वाली हो सकती है। समस्याओं को शक्ल बदलने में भी महारत हासिल होती है। इसलिए उपाय, निदान भी वैसे ही जुटाने चाहिए। प्यास कई लोगों की हो तो केवल एक नल से आ रहा जल पर्याप्त नहीं होगा, फिर निदान जलाशय ही रहेगा।
इसलिए समस्या निपटाने में सूझबूझ का बड़ा महत्व है। समस्या को अपने मनुष्य होने के स्तर पर निपटाएंगे तो तनाव तो होगा ही, परिश्रम भी ज्यादा लगेगा। इसमें किसी सहारे और मददगार की जरूरत को समझें। इसलिए ईश्वर को अपने साथ रखें। परमात्मा ने अपने स्वरूप में भी विभिन्नता रखी है।
वह अपने भक्तों की परीक्षा इसी रूप और रुचि से लेता है। इसीलिए समस्याओं के भी अनेक रूप होते हैं। हर समस्या अपने साथ एक स्वाद लेकर आती है। हम उससे निपटने में थकते नहीं हैं, बल्कि अपने परमात्मा से यह कहने की इच्छा होती है - तू सितम पर सितम किए जा, हम तैयार हैं।
हम रहम पर रहम मांगेंगे, तू भी तैयार रह। समस्या का मूल क्या है, इसमें समझ काम आती है। समस्या का रूप क्या है, इसके लिए निगाह काम आती है। समस्या दोबारा न आए, इसके लिए दूरदर्शिता होनी चहिए और किसका सहयोग लिया जाए, इस हेतु संपर्क होना चाहिए।
सफलता के लिए ये रोज ये काम जरूरी है...
हर कोई चाहता है कि मनचाहा मिल जाए और मनचाहा मिलता भी है, लेकिन इसके लिए तीव्र इच्छा और लगातार क्रिया करने की रुचि होनी चाहिए। हनुमान भक्त रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार अपनी सरल भाषा में बताते हैं -
"हमें प्रतिदिन यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हे ईश्वर हमें लगन और संकल्प-शक्ति प्रदान करिए, क्योंकि बड़े से बड़ा वृक्ष भी एक लघु बीज से पैदा हुआ है और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह बीज धरती के अंतस में निरंतर प्रगतिशील रहा। इंसान की जिंदगी श्रेष्ठ है, क्योंकि समस्याओं व मुसीबतों के दौर से गुजरती है।"
हमें इन सब समस्याओं से विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। ये समस्याएं संकल्प के समक्ष अधिक समय तक नहीं रह पाएंगी। समस्याओं से निपटने के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए। समस्याएं तो सहज ही शांत हो जाएंगी। जो व्यक्ति अवसर का महत्व नहीं जानते, वे सफलता से दूर रहते हैं।
सपने सदैव उन्हीं लोगों के सच हुए हैं, जो अपनी संकल्प- शक्ति पर अटल रहे, जो अपनी महत्वाकांक्षाओं पर अडिग रहे, जो कभी परिश्रम से पीछे नहीं हटे, जिन्होंने निराशाओं को कभी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया। व्यक्ति का मूल्यांकन इस बात से नहीं होता कि वह कौन-सा काम प्रारंभ करता है, बल्कि इससे होता है कि वह कौन-सा काम पूरा कर लेता है।
भक्त होने का एक बड़ा फायदा यह है कि वह जीवन के हर क्षण को परमात्मा की कृपा मानता है, इसीलिए अवसरों का लाभ उठाना भी जानता है, क्योंकि भक्ति यह कहती है कि हर सांस उस ईश्वर की दी हुई है। इसलिए एक भी क्षण नष्ट न हो, लगन बनी रहे और संकल्प-शक्ति कभी खत्म न हो।
परिवार में आपसी प्रेम बढ़ाना हो तो शुरुआत ऐसे करें
आजकल दोस्त मिलना मुश्किल हो गया है और मित्रता भी एक धंधा बन गई है। जिस उम्र में मित्र बनते हैं, वह उम्र पढ़ाई-लिखाई और कॅरियर के इतने दबाव में है कि हर संबंध बस लेन-देन का जरिया हो गया है। एक प्रयोग करें, बाहर की दुनिया में अगर दोस्त नहीं बन पा रहे हों और जो पुराने थे, वे वक्त के बही-खाते में जमाखर्च हो गए हों या सब अपनी-अपनी दुनिया में उलझ गए हों तो अब दोस्ती घर में की जाए।
भारतीय परिवारों में रिश्तेदारी तो है, लेकिन दोस्ती नहीं है। हम नातेदारी को महत्व देते हैं, मित्रता को नहीं। इसीलिए पति-पत्नी एक नाता है, यह रिश्ता मित्रता नहीं बन पाता। दोनों एक-दूसरे के लिए जो भी कर रहे होते हैं, उसमें कुटुंब के संबंध रहते हैं, दोस्तों जैसी दोस्ती नहीं। यही हालत बाप-बेटे, मां-बेटी में भी चलती है।
इसी कारण लंबे समय चलते हुए रिश्ते बोझ बन जाते हैं। जबकि दोस्ती में हमेशा ताजगी रहती है। परिवार का आधार प्रेम होना चाहिए और परिवारों में प्रेम की शुरुआत मित्रता से की जाए, क्योंकि मित्रता में यह संभावना रहती है कि एक दिन वह प्रेम में बदल सकती है। और जैसे ही संबंधों में प्रेम जागा तो शुचिता व शांति अपने आप आ जाएगी।
अभी जब एक-दूसरे की मांग पूरी नहीं होती तो आवेश जागता है। लेकिन मैत्री और प्रेम आने के बाद एक-दूसरे के प्रति क्षमाभाव जागेगा। परिवारों में रिश्तों के बीच अपेक्षा ही प्रधान होती है। अपेक्षा अशांति का कारण है। प्रेम अपेक्षा के रूप को बदल देता है। अपेक्षा हटी कि एक-दूसरे पर दोषारोपण बंद हो जाएंगे, क्योंकि प्रेम बीच में आते ही हम हर रिश्ते में परमात्मा की झलक देखने लगेंगे। इसी को वैकुंठ कहते हैं।
ये 3 बातें बताती हैं पैसों का सही उपयोग कैसे करें...
नदी पर बांध बनने से ऊर्जा और सिंचाई जैसे काम अच्छे से संपन्न होते हैं। ऐसे ही धन पर भी बांध बनाना होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि धन को रोका जाए। अनुशासन और नियमपूर्वक धन के साथ व्यवहार किया जाना ही उस पर बांध बनाने जैसा है।
धन और नदी की गति एक जैसी चलती है। यह नदी नष्ट, कष्ट और संतुष्टि तीनों प्रदान करती है। जैसे ही धन हमारे जीवन में आता है, कई बातों के उत्तर मिलने लगते हैं और कई सवाल भी खड़े हो जाते हैं।हर चीज के दो पक्ष बन जाते हैं। इसलिए धन के मामले में सदैव एक बात पर दृढ़ रहिए कि जब भी पक्ष लेना पड़े, धर्म का पक्ष लीजिए। अधर्म जीवन में जिन मार्गो से प्रवेश करता है, उनमें से एक धन का मार्ग भी है। इसलिए सावधानी जरूरी है।
धन प्राप्त करने में ही बुद्धिमानी नहीं लगती, उसे बचाने में भी ताकत लगती है और सबसे ज्यादा योग्यता लगती है उसको खर्च करने में। इन तीनों का संतुलन बिगड़ा और दौलत ज्वालामुखी बन जाएगी। हमारे भीतर जितनी आध्यात्मिक वृत्ति परिपक्व होगी, धन के संबंध में हम संसार और संसार बनाने वाले के मामले में लाभ उठा सकेंगे। धन हमें संसार से जोड़ता है, उस धारा का नाम राग है।
राग को परमात्मा से जोड़ने के लिए अनुराग पैदा करना होता है और जैसे ही हम परमात्मा से जुड़े, वैराग्य जागता है। राग, अनुराग और वैराग्य ये तीनों मिलकर धन का सदुपयोग सिखाते हैं। दौलत खूब मजा देगी, यदि हम इन तीनों से ठीक से परिचित रहेंगे।
जीवन के सभी दुखों का एक कारण ये भी है, इसे खुद से दूर रखें...
जीवन में उत्थान और पतन चलता ही रहता है। भौतिक सफर में ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं, लेकिन आध्यात्मिक यात्रा में भी ऐसा हो जाता है और इसकी चिंता पालना चाहिए। कई बार पतन के बाद भी उत्थान का क्रम बन जाता है, लेकिन जीवन की कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं कि पतन पर पहुंचकर आदमी उत्थान पर पहुंचना ही नहीं चाहता।
इसका उदाहरण है रावण। रावण एक ऐसा पात्र है जिसको कई बार अनेक पात्रों ने अपने-अपने स्तर पर समझाया था। हनुमानजी, अंगद, शूर्पणखा, मंदोदरी, मारीच जैसे लोगों ने उसे समझाया लेकिन उसे समझ में नहीं आया। मानस रोगों का वर्णन करते हुए लिखा गया है-
'मोह सकल व्याधिन कर मूला।'
मोह ही मूल है और रावण साक्षात मोह का प्रतीक है। मेघनाथ काम है और शूर्पणखा अंदर की वासना है। रावण को मेघनाथ और शूर्पणखा दोनों बहुत प्यारे थे। शूर्पणखा का अर्थ है जिसके नाखून बड़े हों। इंद्रियों में जो वासनाएं होती हैं उसकी तुलना नाखूनों से की जाती है।
यानी एक सीमा तक वासना ठीक है, उसके बाद नाखूनों को काट देना चाहिए। जो अपने नाखून नहीं काटेगा, समाज में उसका जीवन अमर्यादित हो जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि रावण ने कुछ गलत नहीं किया था। उसकी बहन की नाक काटे जाने पर उसने राम की पत्नी का हरण कर लिया। शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव रखा, इसमें क्या गलत था।
इस प्रसंग को लोग गहराइयों में नहीं देखते। शूर्पणखा ने पूरे समय झूठ बोला था, छल किया था। रावण ने शूर्पणखा यानी छल का पक्ष लिया। जो छल का पक्ष लेता है वह रावण के समान होता है और पतन में गिरने के बाद उत्थान की संभावना को रावण ने स्वयं नकार दिया था।
भावनात्मक स्पर्श भी अकेलापन मिटाने का एक तरीका है...
दिल लगता नहीं अकेले में, यह भी आजकल की जीवनशैली की एक बड़ी समस्या है। पुराने दार्शनिक लोग कह गए हैं कि दो ही लोगों को अकेलापन प्रिय लगा है। योगियों में साधु-संतों को और भोगियों में स्त्रियों को। अकेलेपन में मनुष्य की निकटता, स्पर्श और संग को अलग-अलग रूप में देखा जाता है। अकेलेपन का अर्थ लिया जाता है किसी का साथ न होना और इसीलिए इसे दूर करने के लिए दूसरे को ढूंढ़ा जाता है। अकेलापन मिटाने का दूसरा तरीका होता है भावनात्मक स्पर्श से। आदमी केवल शरीर से शरीर को नहीं छूता, दृष्टि और हृदय से भी दूसरों को स्पर्श किया जा सकता है। अकेलापन मिटाने की इस क्रिया में मन और हृदय सक्रिय हो जाते हैं। भावनात्मक स्पर्श अपना काम तो करता है, लेकिन जरूरी नहीं कि अकेलापन मिट जाए, पूर्ण तृप्ति और संतुष्टि तब भी नहीं मिलती।
भावनात्मक रूप से अकेलापन मिटाने में मन केवल विचार और जानकारियां भीतर भरता है और बाहर उगलता है। मन से हटकर जब हृदय से जुड़ जाएं तो अकेलेपन में हृदय कुछ अधिक पवित्र होता है, ठीक बदलाव लाता है। मन को विचारों से खाली कर दीजिए।
खाली मन अपने आप खिसककर हृदय के पास चला जाता है और हृदय से फिर पूरे शरीर में भावनाओं का संचार होता है और ऐसा संचार अकेलेपन को आनंद में बदल देता है। यह क्रिया है तो गहरी, पर करने पर परिणाम बड़े शुभ देती है।
स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ब्रह्मचर्य जरूरी है, क्योंकि...
सामान्यत: ब्रह्मचर्य पुरुषों के लिए आरक्षित स्थिति मानी जाती है। दरअसल ब्रह्मचर्य एक ऐसा आचरण है, जो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही समान है। ब्रब्रह्मचर्य एक शक्ति का नाम है, जो ब्रह्म के आचरण से आती है।
एक आंतरिक अनुशासन ब्रह्मचर्य का रूप है। इसका संबंध केवल शारीरिक नहीं है। शरीर के स्तर पर तो ब्रह्मचर्य स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अलग-अलग होगा, लेकिन जब इसे आंतरिक शक्ति के रूप में लेंगे, तो यह स्त्री के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण होगा, जितना पुरुष के लिए है।
स्त्री का ब्रह्मचर्य उसे रूप-धन की स्थिति से भी मुक्त कराएगा। जैसे-जैसे वह अपनी आंतरिक शक्ति को पहचानेगी, मां बनना उसके लिए विवशता नहीं, विशेष अधिकार बन जाएगा। स्त्री का ब्रह्मचर्य उसके मातृत्व के लिए एक वरदान है।
जो स्त्रियां अपनी आंतरिक शक्ति पर बखूबी टिकीं, उन्हें पुरुष से बराबरी का रुतबा पाने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। बिना आंतरिक शक्ति के पुरुष से जो बाहरी संघर्ष होगा, वह ऊर्जा को नष्ट करने वाला, वातावरण को दूषित करने वाला और जीवन को संकट में डालने वाला ही रहेगा।
माताओं, बहनों को योग, प्राणायाम और ध्यान से गुजरते समय अधिक सरलता रहेगी। माताओं, बहनों को अपने व्यक्तित्व की प्रस्तुति करने में आज भी कई परेशानियां हैं, लेकिन ब्रह्मचर्य यानी आंतरिक शक्ति पर टिकते ही उनके लिए सारा वातावरण मित्रवत हो जाएगा।
इसका अर्थ है सम्मान और सदाचार के साथ उन्हें सहयोग मिलेगा और वे भी सान्निध्य दे सकेंगी।
ऐसा काम करने से आपको हो सकता कोई बड़ा नुकसान...
भूल किससे नहीं होती। अनजाने में होती है और जानबूझकर भी की जाती है, लेकिन कर्म के साथ भूल का सिलसिला बना ही रहता है। कुछ लोगों की भूलें दूसरे ही उनको बताते हैं और कुछ लोग स्वयं उन्हें पकड़ लेते हैं।
जो अनजाने में गलती कर जाते हैं उनकी अबोध दशा तो माफ की जा सकती है लेकिन जो जानबूझकर गलत कर रहे हों और ऐसा समझकर कि यह हमारे हित के लिए है फिर भी करते रहें, उन्हें सावधान रहना चाहिए। लम्बे समय तक ऐसी गतिविधि भविष्य में बड़ा नुकसान पहुंचाएगी। जिस क्षण यह पता लगे कि हमसे गलती हो गई है और वह गलती किसी व्यक्ति या परिस्थिति से जुड़ी है तो फोरन क्षमा मांग ली जाए।
धर्म में इसे ही प्रायश्चित का बोध कहा गया है। प्रायश्चित का भाव केवल अफसोस नहीं होता, बल्कि दोबारा गलत काम न करने का संकल्प भी इसमें छुपा रहता है। गलत काम हो जाने पर जब हम क्षमा मांगने की तैयारी कर रहे होते हैं तब हमारा मन हमें रोकता है। इसके पीछे हमारा अहं काम कर रहा होता है। अहंकार को क्षमायाचना करने में बड़ी पीड़ा होती है।
अहंकार हमें समझाता है कि गलत काम करने के बाद यदि क्षमा मांगी गई तो लोग आपको कायर, निर्बल, मूर्ख समझेंगे। अहंकार कहता है बड़ी से बड़ी मुसीबत आ जाए उससे निपट लेंगे, पर गलती होने पर क्षमा मत मांगो। और यहीं से मनुष्य लगातार गलतियां करते चला जाता है। जीवन में प्रसन्नता और आनंद की जो संभावना होती है वह समाप्त होने लगती है।
हमारे और हमारी सफलता के बीच में ये गलतियां रुकावटें और बाधाएं बनकर स्थाई रूप बस जाती हैं। गलत के विरूद्ध लडऩे और संघर्ष करने की रूचि समाप्त हो जाती है। इसलिए पहली बात तो गलत करें न और यदि हो जाए तो प्रायश्चित से गुजरें। हो सकता है हर गलती एक सीख बन जाए।
सभी को बस यही एक चीज चाहिए, सफलता...
यदि जाना सीखा है तो लौटना भी सीखिए। व्यावहारिक जानकारी हमें संसार में जाना सिखाता है और आध्यात्मिक ज्ञान हमें भीतर मुडऩा बताता है। जीवन में भक्ति और भौतिकता का संतुलन बनाए रखना चाहिए। अति हर बात की बुरी है।
संयम की जरूरत हर क्षेत्र में है, पर संयम की भी अति न कर दें। हर परिस्थिति के दूसरे पहलू से परिचित जरूर रहें। संसार से भी परिचय रखें और संसार बनाने वाले को भी न भूलें। हम संसार में सफलता की खोज पर निकले हुए हैं। सभी यही कर रहे हैं, बस क्षेत्र अलग हैं, मार्ग अलग हैं, मंजिल अलग हैं।
कुल मिलाकर चाहिए सबको सफलता। आप जो कुछ भी खोज रहे हों थोड़ा रुकिए जरूर, फिर भीतर मुड़ जाएं। अपनी इस तलाश को थोड़ा रोक दें, अपने भीतर झाकें और कुछ पाने की कोशिश करें। जो भीतर मिलेगा वह बाहर की खोज और सफलता के अर्थ बदल देगा। अपना कुछ भी नहीं है बस पकडऩे के तरीके बदलना है। जैसे ही आपने अपने भीतर भगवान होने को जान लिया, फिर आपके कर्म में निष्कामता आ जाएगी और आपकी वाणी में विश्वसनीयता तथा प्रभाव आ जाएगा।
एक ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि आपको बोलने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी और लोग खुद ब खुद आपकी ओर खिंचे चले आएंगे। जैसे ही हम भीतर उतरते हैं, जिस ईश्वर से हमारा परिचय होता है वह परमपिता है, जो सबके भीतर जन्म से ही आया हुआ है। हम उसके निकट गए, उसको पहचाना और उसी के जैसे होना शुरू कर देते हैं। बाप की नकल बेटा करता ही है। संतानों में अपने जनक-जननी के लक्षण आ ही जाते हैं। इस अनुभूति के बाद हमारी बाहरी क्रियाएं ईश्वर की तरह दिव्य और पवित्र होने लगती हैं।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
अधिकांश लोग पूजा-पाठ में मंत्रों या शब्दों को रट लेते हैं। यह सही है कि श्रद्धा से पढ़े हुए शब्द अपना असर करते हैं, लेकिन अर्थ समझकर दिल से यदि पंक्तियां बोली जाएं तो परिणाम और सुंदर होंगे। हनुमानचालीसा की ३९वीं चौपाई में तुलसीदासजी कहते हैं -‘जो यह पढ़ै हनुमानचालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा।’
ऐसा नहीं लिखा है कि जो यह ‘बोले’, लिखा है ‘पढ़ै’, क्योंकि पुस्तक खोलकर पढ़ने का मतलब है कि नेत्रों से पढ़ना ही पड़ेगा। तुलसीदासजी यहां ऐसा लिख सकते थे कि जो यह ‘सुने’ हनुमानचालीसा। ऐसा होता तो लोगों को और आराम मिल जाता।
किसी को सामने बिठा लेते कि चलो सुनाओ पांच बार और वो सुना देता। हम सुन लेते, लेकिन तुलसीदासजी ने स्पष्ट लिखा है कि जो यह ‘पढ़ै’ हनुमानचालीसा। पढ़ना खुद को पड़ता है, सुना कोई दूसरा भी सकता है। ‘पढ़ै’ शब्द का एक और गूढ़ अर्थ है।
यदि हम जप भी करें तो हृदय की पुस्तक पर उस जप को पढ़ते रहें। मन की पुस्तक खुली हुई है और हम उसे पढ़ रहे हैं, तो आनंद अलग ही आएगा। इसलिए गोस्वामीजी ने कहा कि पढ़ना ही पड़ेगा। आगे वर्णन आया है ‘होय सिद्धि साखी गौरीसा।’ तुलसीदासजी ने प्रमाण दिया ‘साखी गौरीसा।’
गौरीसा का अर्थ है शंकर व पार्वतीजी। इनकी शपथ ली गई है, क्योंकि इन्हें श्रद्धा-विश्वास का प्रतीक माना गया है। कहने का अर्थ है कि श्री हनुमानचालीसा श्रद्धा और विश्वास के साक्ष्य में पढ़ा जाए।
हर परिवार के लिए जरूरी हैं हनुमान चालीसा की ये चौपाइयां...
परमात्मा के प्रति प्रेम जगाना हो तो परिवार एक पाठशाला है। रिश्तों में प्रेम एक बीज की तरह है, जिस दिन इसमें अंकुरण हुआ, समझ लें जीवन में परमात्मा की कोपलें फूट पड़ी हैं। जैसे बीज टूटता है, फूटता है, तब वृक्ष बाहर आता है।
ऐसे ही परिवार में प्रेम जब बनता है या फूटता है, दोनों ही स्थिति में परमात्मारूपी वृक्ष हाथ लगेगा ही। तुलसीदासजी ने हनुमानजी को केंद्र में रखकर जो चालीस चौपाइयां लिखी हैं, वे परिवार प्रबंधन की आचार संहिता बन गईं।
अपनी गृहस्थी में हम अनेक ऐसे प्रयास करते हैं जैसे पानी पर खिंची लकीर। यह चालीसा उन प्रयासों को खाली नहीं जाने देगी। परिवार में होने वाले आमोद-प्रमोद के साधनों को ये तिरयालिस पंक्तियां निष्काम कर्मयोग से जोड़ देती हैं।
परिवार में भोग से प्यास जागती है और इस प्यास को योग से बुझाना पड़ेगा। भोग से विषाद होगा और वह योग का आरंभ होगा। योग तक पहुंचने के लिए श्रीहनुमान चालीसा की चौपाइयां सीढ़ियों के समान हैं। गृहस्थी के राग को अनुराग से गुजारकर विराग तक ले जाने के लिए ये चौपाइयां राजपथ हैं। जीवन में कितनी ही भक्ति और भौतिकता हो, इसके संतुलन के सूत्र समाए हैं इस चालीसा में।
आज सारे विश्व में इसका महापाठ है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, यह तो प्रत्येक व्यक्ति की निजता को निखारने का उद्घोष होगा। राष्ट्रीय जागरण के लिए एक आह्वान है, मुरझाए हुए अंत:करण के लिए नवजीवन है।
दुनियाभर की सफलता मिलती है इन तीन गुणों से...
परमात्मा को जीवन में उतारना हो तो सबसे सही स्थान है हृदय। श्री हनुमानचालीसा के अंतिम दोहे में तुलसीदासजी ने श्री आंजनेय को आमंत्रण दिया है कि वे पधारें, लेकिन साथ में श्रीरामजी, सीताजी और लखनजी को भी लाएं और स्थायी रूप से निवास करें।
भगवान को रहने के लिए तुलसीदासजी ने जो स्थान प्रस्तावित किया है, वह है उनका हृदय। ‘कीजै नाथ हृदय महं डेरा’ तथा अंतिम दोहे में कहा ‘हृदय बसहु सुर भूप।’ हृदय में परमात्मा उतरते ही हम व्यवहार की जगह स्वभाव पर टिकना सीख जाते हैं। इससे स्वभाव सधेगा और ऐसे लोग सरल, सहज व सुव्यवस्थित होंगे।
प्रबंधन की ऊंची उड़ानें इन्हीं तीनों से आरंभ होती हैं, परिश्रम की सारी ऊर्जा इन्हीं में समाहित है। जो सरल होता है, उसकी सोच सत्य और स्पष्ट होती है। जो सहज होता है, उसके निर्णय परिपक्व और दूरगामी होते हैं और जो सुव्यवस्थित है, वह अथाह परिश्रम में भी थकता नहीं।
दुनिया की सारी सफलताएं इन्हीं तीनों गुणों की दासी हैं और ये गुण श्री हनुमानचालीसा का प्रसाद हैं। अब जब श्री हनुमानचालीसा का समापन हो, तब विचार करें कि गोस्वामीजी की श्री हनुमानचालीसा किस तरह उपयोगी है।
तुलसीदासजी ने श्री हनुमानचालीसा लिखकर यह बताया कि इसकी पंक्ति-पंक्ति में परिणाम तो वेद मंत्र का है, लेकिन यदि कोई दोष हो जाए तो दुष्परिणाम नहीं मिलेगा। इसकी हर पंक्ति मंत्रों के समान प्रभावशाली और दिव्य बन गई।
एक यही चाह आपके लिए अशांति का कारण है...
जरूरतों और इच्छाओं का संघर्ष हमेशा चला करता है। ईश्वर हमारी इच्छा होनी चाहिए, जरूरत नहीं। लेकिन सांसारिक चीजें हमारी जरूरत की श्रेणी में आनी चाहिए, इच्छाओं की नहीं। हम जितना इच्छाओं पर टिकेंगे, उतना स्वार्थी होंगे और जितना जरूरतों से जुड़े
रहेंगे, उतने उदार हो जाएंगे। इच्छापूर्ति के लिए आदमी किसी भी हद तक जाता है।
इच्छा जब ईश्वर से जुड़ती है तो प्रत्येक कृत्य उपासना बन जाता है। परमात्मा के लिए हमारी इच्छा में जितनी तीव्रता होगी, परमात्मा की दृष्टि में हम उतने ही सुपात्र होंगे। अब इन्हीं बातों को संसार की दृष्टि से देखें। संसार में इच्छाओं को काटना चाहिए और आवश्यकताओं के अनुसार जीना चाहिए। आदमी की अनेक इच्छाओं में एक इच्छा होती है कि मैं लोकप्रिय हो जाऊं। अधिक लोकप्रिय व्यक्ति एक चलती-फिरती जेल होता है।
अपनी लोकप्रियता से वह खुद ही परेशान होने लगता है। फिर भी सब चाहते हैं नाम हो जाए। यह एक इच्छा है। गहराई में जाकर देखें तो इच्छा एक सपना है, इसमें यथार्थ कम रहता है। आवश्यकता सदैव यथार्थ पर टिकी है। इसीलिए आवश्यकता की पूर्ति में आप अशांत नहीं होंगे, लेकिन इच्छाओं के चक्कर में जरूर परेशान हो जाएंगे।
जिस दिन हम आवश्यकता और इच्छा का फर्क समझेंगे, उस दिन से हमारे परिवारों में बच्चों के लालन-पालन पर भी असर पड़ने लगेगा। जो बच्चे जरूरतों से पाले जाएंगे, वे बड़े होकर कुछ अलग मानसिकता के होंगे और जो इच्छाओं से पाले जाएंगे, वे अलग आचरण के होंगे।
सफलता के लिए इस तरह करें लक्ष्य तक रास्ता तय.....
आदमी की शक्ति, उत्साह और इरादे तब ही प्रशंसा पाएंगे, जब वह जो काम हाथ में ले उसे अंजाम तक पहुंचा दे। बहुत सारे लोग काम हाथ में लेते हैं और आधा छोड़कर दूसरे में लग जाते हैं या पूरा होने के पहले ही थक जाते हैं।
काम को अंजाम तक पहुंचाना ही दृढ़ इच्छाशक्ति का सही स्वरूप है। कार्य आरंभ से लेकर अंत तक तथा उसके बीच में सांसारिक तरीकों के अलावा भीतर के आध्यात्मिक साधन भी अपनाना पड़ेंगे। जैसे ही कोई कार्य हाथ में लें, ध्यान रखें सफलता की इच्छा कहीं वासना में न बदल जाए। वासना की उत्तेजना शक्ति को गलत दिशा में मोड़ देती है।
पहला ही कदम लड़खड़ाते हुए उठता है। हिलते-डुलते व्यक्ति की आंखें भी मंजिल को धुंधला देखती हैं। अंजाम तक जाने के लिए एक मानसिक संतुलन जरूरी है। तीन बातों पर ध्यान रखें और उन्हें अपने जीवन से जोड़े रखें। पहली बात, कार्य शुरू करते ही प्रेम से भर जाएं। प्रेम के जितने भी परिणाम हैं, इस समय सबसे काम का यह परिणाम मिलेगा कि क्रोध नियंत्रित हो जाएगा।
क्रोध आत्मिक विकास का तो विरोधी है ही, सांसारिक प्रगति में भी बाधा बन जाता है। क्रोध को आध्यात्मिकता के साथ नियंत्रण में न रखें, तो वह आवेश की शक्ल में जीवन में प्रवेश कर जाता है। आवेश कार्य को अंजाम तक ले जाने में बाधा रहेगा। प्रेम का दूसरा परिणाम यह होता है कि वह जीवन को सरल बनाता है।
सरल जीवन वालों की बुद्धि कम भ्रमपूर्ण होती है। भ्रम मुक्त निर्णय अंजाम तक जाने में सहयोगी होंगे। प्रेम के बाद दूसरी बात करें, घोर परिश्रम। इसका संबंध केवल शरीर से नहीं है। जीवन को पूरी तरह जीना, जमकर जीना, जो भी उपलब्ध है, उसका भरपूर उपयोग करने की मानसिकता ही परिश्रम का रूप है।
मालिक ने जितना दिया, उसे तो जमकर जानें और जीएं, फिर अगले की तैयारी रखें। प्रेम और परिश्रम के बाद तीसरी बात है प्रसन्नता। जो भी करें उसमें खुशी न खोने दें। आरंभ से अंत तक खुशी को दौलत की तरह साथ रखें। प्रसन्नता की अंतर्दशा ही शांति है। शांत चित्त आपको आसानी से अंजाम तक ले जाएगा।
खुशी का सांस से बड़ा संबंध है। जितना जागरूक होकर सांस पर नियंत्रण रखेंगे, उतने खुश रह सकेंगे। काम को अंजाम तक ले जाने वालों को दुनिया जुबान के पक्के, ईमान के सच्चे और इरादों के दबंग मानती है।
सिर्फ किसी को आकर्षित करने के लिए नहीं होता है श्रंगार....
सुंदरता भगवान की विभूति है। सौंदर्य और श्रंगार परमात्मा को पसंद हैं। सामान्य तौर पर श्रंगार को शरीर से जोड़कर देखा और समझा गया है और इसीलिए श्रंगार वासना के लिए सेतु बन जाता है। सौंदर्य का संबंध जब तक शरीर से रहेगा, यह भोग का विषय होगा।
लेकिन सुंदरता ईश्वर से जुड़ते ही अनुभूति हो जाती है। सौंदर्य को केवल संसार से जोड़ेंगे तो श्रंगार केवल रूप संयोजन होगा और यदि यह भगवान से जुड़ता है तो इसमें पवित्रता आ जाती है। भगवान की दुनिया में पवित्रता सबसे अच्छा श्रंगार और सौंदर्य है। यदि पवित्रता हो तो सादगी भी गजब का श्रंगार बन जाएगी। श्रंगार में यदि स्वरूपता न हो तो वह भी अभद्रता ही है।
अब तो श्रंगार का अर्थ एक-दूसरे को आकर्षित करना ही रह गया है। श्रंगार को शस्त्र बनाकर शरीर के आक्रमण हो रहे हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने श्रंगार के लिए एक साधन बताया है, इसे संसार तप के नाम से जानता है। तप एकांत की घटना है, इसमें प्रदर्शन नहीं होता। तप से जो सौंदर्य प्राप्त होता है, वह ईश्वर का ही सौंदर्य है।
केवल शरीर को ही न संवारा जाए, संवारने के लिए जीवन में और भी कई उपाय हैं। बहुत कम लोग समझ पाते हैं कि समय को भी संवारा जाता है। समय का सदुपयोग करें, यह एक बड़ी शिक्षा है, लेकिन खाली समय में क्या करें, यह उससे भी अधिक समझ का मामला है। खाली समय का सदुपयोग कैसे करें, यह समय का श्रंगार है। अपने लोगों के साथ खाली समय प्रेम से बिताया जाए, यह भी एक श्रंगार है और पारिवारिक जीवन को सौंदर्य प्रदान करता है।
हमारे व्यक्तित्व में एक यही चीज बनती है हमें कमजोर...
आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है? दार्शनिकों ने इस सवाल के अलग-अलग उत्तर दिए हैं। लेकिन इस बात पर सभी सहमत हैं कि हर कमजोरी में यदि कोई दुगरुण मौजूद है तो वह है अहंकार। अहंकार जीवन में आते ही बुद्धि को उल्टा कर देता है। यहीं से लोग अहंकार और इज्जत को एक समझने लगते हैं और भूल जाते हैं कि अहंकार बढ़ने से इज्जत बढ़ती नहीं, बल्कि घट जाती है।
अहंकारी मनुष्य समाज में प्रतिष्ठा भले ही बना ले, लेकिन उसका मनोबल और आत्मविश्वास कम होने लगता है। कहते हैं अहंकार नीच कर्मो का बादशाह होता है। अहंकार जैसे-जैसे कम होगा, हम सरल और विनम्र होते जाएंगे और यहीं से हम दूसरों से अपेक्षा करना छोड़ देंगे।
जीवन जितना अपेक्षारहित होगा, उतना ही अशांति से दूर होगा। अहंकारी सारी दुनिया के सामने अपनी ऊर्जा इस बात में खर्च करता है कि लोग जान जाएं ‘मैं कौन हूं।’ इसे सिद्ध करने के लिए वह हर तरह के हथकंडे अपनाता है। जबकि अध्यात्म कहता है - ताकत इस बात में लगाओ कि आप स्वयं जान जाएं कि आप कौन हैं?
अपनी खासियत, अपनी विशिष्टता, हम भी कुछ हैं, इस भाव के आसपास जीवनभर ताने-बाने बुने जाते हैं। जब मनुष्य इससे संघर्ष करता है तो अहंकार अपनी विदाई के अंतिम क्षणों में विनम्रता का वेश धर लेता है, पर जाना नहीं चाहता। इसको भेजे बिना जीवन का सच्च सुख नहीं मिल सकता।
कामयाबी को बड़ा बनाना हो तो अपने सामने ऐसे रखें लक्ष्य....
जिंदगी में अवसर और काम को निपटाने के साधन कई लोगों को समान रूप से उपलब्ध होने के बाद भी वे इसका लाभ नहीं उठा पाते और कुछ लोग उन्हीं स्थितियों में सफलता प्राप्त कर जाते हैं। केवल साधन होने पर सफल हो जाएं यह जरूरी नहीं होता।
साधनों के सहारे कामयाबी स्थायी भी नहीं रहती। इसके पीछे एक बड़ी शक्ति काम करती है और वह होती है आदमी की योग्यता। इसी को किसी ने प्रतिभा तो किसी ने मेधा कहा है। यदि आपने अपनी प्रतिभा को बचा लिया है और सही उपयोग करना आ गया है तो साधन और अवसर का आप पूरा लाभ उठा सकेंगे।
अच्छे स्वप्न देखें और बड़े दायित्वों को अपने ऊपर लेने की तैयारी हमेशा रखें। यदि सपने देखेंगे तो बड़े लक्ष्य भी गढ़ सकेंगे। लक्ष्य बड़े होंगे तो अपने पुरुषार्थ पर जोर देंगे। कई लोगों का जीवन बीत जाता है और उन्हें पता नहीं चल पाता कि उनका लक्ष्य क्या है।
हमेशा बड़े दायित्व अपने कंधों पर रखने की इच्छा मनुष्य को कर्मठ बनाती है। बड़ी जिम्मेदारियों से भागने की कोशिश न की जाए। हिंदुओं में अवतार की परंपरा को यदि बारीकी से देखें तो दायित्वबोध का अर्थ समझ में आ जाएगा।
ईश्वर अवतार लेकर लोकहित की बहुत बड़ी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता है और इसीलिए भगवान अपने भक्तों से यह अपेक्षा करते हैं कि जिम्मेदारियों से मुंह मत मोड़ना। सपने देखो और उसे जरूर पूरा करो। परहित भी तभी किया जा सकता है, जब हम सक्षम हों।
जानिए, उपवास के क्या फायदे हैं आपके लिए...
जब-जब जीवन में कठिनाई आए, उसके बाहरी स्वरूप को देखते हुए उसके निदान जरूर निकाले जाएं। लेकिन उसी समय उसके भीतरी स्वरूप को भी पहचाना जाए। अध्यात्म कहता है कि भीतर की परेशानी की ही प्रतिछाया बाहर पड़ती है और इसीलिए हर मनुष्य भीतर और बाहर समान रूप से परेशान रहता है। या तो वह बाहर से चीजों को अंदर गिराता है या फिर भीतर की दिक्कतों को बाहर फेंकता है।
समझदार लोग इस अंतर को समझते हैं और वे इस अदला-बदली को रोक देते हैं। जैसे ही यह आवागमन नियंत्रित होता है, मनुष्य शांत होना शुरू हो जाता है। आंतरिक चिंतन मनुष्य के बल को बढ़ाता है। हमारे भीतर परमात्मा ने शक्ति का अपार भंडार भरा है। आप उस स्टोरेज से जितना मांगेंगे, उतना जरूर मिलेगा। कुछ लोग जीवनभर इस स्टोरेज का उपयोग भी नहीं कर पाते।
वे सतह पर जीकर ही गुजर जाते हैं। उपवास की व्यवस्था इस शक्ति को बढ़ाने के लिए ही की गई है। उपवास का अर्थ है, भीतर उतरने का अनुशासन। इसे अन्न व शरीर से न जोड़ा जाए। लोग उपवास का अर्थ समझते हैं, खुद को शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना। इसलिए कुछ लोग खान-पान के संयम को ही उपवास मानते हैं, लेकिन उपवास का अर्थ है देह और आत्मा के अंतर को बढ़ाना।
जो लोग इस भाव को समझकर उपवास करेंगे, वे उपवास के बाद खूब शांत पाए जाएंगे। वरना लोग उपवास भी करते हैं और दूसरों पर क्रोधित भी होते हैं। आश्चर्यजनक है दो बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं।
अपने चेहरे का तेज बढ़ाना हो तो यह करें....
किसी काम को पूरा करने के लिए कुशल पुरुषार्थ, पराक्रम और परिश्रम जब पूरी सामथ्र्य से जुट जाए, तब जीवन में तेजस्विता आती है। तेज का अर्थ यह नहीं है कि चेहरा कांतिमान हो जाए। तेज का अर्थ है हर स्थिति में व्यक्तित्व के भीतर का फोर्स काम करे, चाहे आध्यात्मिक गतिविधियां हों या सांसारिक।
आदमी के भीतर का आवेग अपना काम दिखाता है। यह आवेग जब श्रद्धा और भक्ति से जुड़ जाता है, तब तेजस्विता प्रकट होती है। तेज एक झरोखा बन जाता है और उसमें से व्यक्ति की महानता, उसकी श्रेष्ठता झरने लगती है। हनुमान भक्त रविशंकरजी रावतपुरा सरकार कहते हैं कि तेजस्विता आयु में नहीं, वृत्ति और स्वभाव में होती है। उम्र का इससे लेना-देना नहीं है।
बहुत-से लोग शरीर के मामले में बूढ़े हो जाते हैं, लेकिन बुद्धि और विवेक के मामले में उनका बचपन वहीं का वहीं रहता है। आज चूंकि हर आदमी चाहे पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, एक अजीब-सी चालाकी अपने भीतर लाने की तैयारी में है। ऐसे समय तेजस्विता हमारे लिए सबसे बड़ा सहारा यह बनेगी कि हम पर कोई अकारण और अनुचित आक्रमण नहीं कर पाएगा और न ही हमारा शोषण हो सकेगा, क्योंकि तेजस्विता हमें अन्याय के विरुद्ध हिंसा को भी सही अर्थ देकर प्रकट करती है।
कृष्ण ने अर्जुन की तेजस्विता को ही स्पर्श किया था, क्योंकि अर्जुन अहिंसा के नाम पर अधर्म को बचाने के चक्कर में पड़ गए थे। तेजस्विता तन को सक्रिय रखती है और मन को विश्राम की मुद्रा में। इसलिए जो लोग मेडिटेशन से गुजरते हैं, उनके चेहरे पर तेज झलकता है।
सफलता सिर्फ ऐसे लोगों को ही मिलती है....
हर कोई चाहता है कि मनचाहा मिल जाए और मनचाहा मिलता भी है, लेकिन इसके लिए तीव्र इच्छा और लगातार क्रिया करने की रुचि होनी चाहिए। हनुमान भक्त महाराज जी अपनी सरल भाषा में बताते हैं - हमें प्रतिदिन यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हे ईश्वर हमें लगन और संकल्प-शक्ति प्रदान करिए, क्योंकि बड़े से बड़ा वृक्ष भी एक लघु बीज से पैदा हुआ है और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह बीज धरती के अंतस में निरंतर प्रगतिशील रहा। इंसान की जिंदगी श्रेष्ठ है, क्योंकि समस्याओं व मुसीबतों के दौर से गुजरती है।
हमें इन सब समस्याओं से विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। ये समस्याएं संकल्प के समक्ष अधिक समय तक नहीं रह पाएंगी। समस्याओं से निपटने के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए। समस्याएं तो सहज ही शांत हो जाएंगी। जो व्यक्ति अवसर का महत्व नहीं जानते, वे सफलता से दूर रहते हैं।
सपने सदैव उन्हीं लोगों के सच हुए हैं, जो अपनी संकल्प- शक्ति पर अटल रहे, जो अपनी महत्वाकांक्षाओं पर अडिग रहे, जो कभी परिश्रम से पीछे नहीं हटे, जिन्होंने निराशाओं को कभी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया। व्यक्ति का मूल्यांकन इस बात से नहीं होता कि वह कौन-सा काम प्रारंभ करता है, बल्कि इससे होता है कि वह कौन-सा काम पूरा कर लेता है।
भक्त होने का एक बड़ा फायदा यह है कि वह जीवन के हर क्षण को परमात्मा की कृपा मानता है, इसीलिए अवसरों का लाभ उठाना भी जानता है, क्योंकि भक्ति यह कहती है कि हर सांस उस ईश्वर की दी हुई है। इसलिए एक भी क्षण नष्ट न हो, लगन बनी रहे और संकल्प-शक्ति कभी खत्म न हो।
धन कमाने से पहले अपने भीतर यह परिवर्तन करें...
धन कमाने के लिए ऐसी समझ विकसित की जाए, जो धन से परे है। इसका यह अर्थ नहीं है कि निर्धन रहा जाए। इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि धन के अर्थ को ठीक से समझा जाए। धन-ऐश्वर्य कमाने के चक्कर में हम उसे बंधन बना लेते हैं। फिर व्यक्ति मुक्त होना भूल ही जाता है। वह संपत्ति कमाने के तरीकों में पुरुषार्थ से अधिक गुलामी से जुड़ जाता है।
खूब धन कमाया जाए, किसी धर्म ने इस बात के लिए नहीं रोका, लेकिन इस बंधन से मुक्त होने के लिए जिस मर्जी की जरूरत पड़ती है, उसे अपने भीतर जरूर पैदा किया जाए। ध्यान का उपयोग इसके लिए किया जा सकता है। ध्यान करने के बाद जब सामान्य जीवनचर्या में उतरते हैं तो हम जो भी कर रहे होते हैं, उसमें मुक्ति का भाव महसूस करने लगते हैं। वर्तमान का असंतोष कम होने लगता है, भविष्य का भय डराता नहीं है।
उस समय हम धन कमा भी रहे होते हैं और फकीरी में जीने भी लगते हैं। सांसारिक साधनों का उपयोग करते हुए भी उसमें लिप्त नहीं रहते। उच्च तकनीक के इस युग में भी यह समझ में आने लगता है कि जिंदगी में ऐसा भी कुछ होता है, जो विज्ञान से परे है। कोई मस्ती इस प्रकार भी है, जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती और कुछ दुख इस तरह के होते हैं, जिन्हें धन रोक भी नहीं सकता। साथ में यह स्पष्टता भी रहती है कि धन कमाने में कोई बुराई नहीं है।
झंझट शुरू होती है उसके उपयोग में। ध्यानी उपयोग से ज्यादा सदुपयोग की कला सीख जाता है। वह समझ जाता है कि आखिर में घूम-फिरकर भीतर ही उतरना होगा। दुनियादारी का जीवन, बर्बादी का जीवन नहीं है। दुनियादारी का जीवन केवल परेशानी का कारण हो सकता है।
हनुमान से सीखें, कैसे बनाया जाए संबंधों को मधुर....
जरा-सी गलतफहमी जीवनभर के संबंधों को खराब कर देती है। लोगों के बीच संघर्षपूर्ण स्थिति में भी संबंध मधुर बने रहें, ऐसा प्रयास भी एक बड़ी सेवा है। कुछ लोग दूसरों के संबंधों में बिगाड़ लाने में ही रुचि रखते हैं। पीठ पीछे एक-दूसरे को एक-दूसरे की गलत जानकारी देकर यह काम आसानी से किया जाता है।
दूसरों के संबंध सुधारने या मधुर बनाए रखने में हमारी भूमिका कैसी हो, यह हनुमानजी से सीखा जा सकता है। सुंदरकांड के 13वें दोहे की 3-4 चौपाइयों में तुलसीदासजी ने सीता-हनुमानजी की बड़ी सुंदर बातचीत बताई है। पहली ही भेंट में दुखी सीताजी ने हनुमानजी के सामने श्रीरामजी की शिकायत रख दी थी।
श्रीरघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? आज ज्यादातर जीवन साथी आपस में यही शिकायत करते पाए जाते हैं कि व्यस्तता में हमें भुला दिया गया है।
बड़े दुख से सीताजी बोलीं - नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया। तब हनुमानजी ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने दावा कर दिया कि श्रीराम के मन में आप से ज्यादा प्रेम है।
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
जनि जननी मानहु जियं ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।
हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित कुशल हैं, परंतु आपके दुख से दुखी हैं। आप दुख न कीजिए। श्रीरामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है।
विचार की यह अति प्रस्तुति दोनों के बीच गलतफहमी दूर करने की भूमिका ही थी। हनुमत भक्तों को आज अशांत समाज में यही भूमिका निभानी होगी।
अगर जीवन में शांति चाहिए तो यह जरूर करें...
सांसारिक जीवन में भराव की जितनी जरूरत है, आध्यात्मिक जीवन में खालीपन का उतना ही महत्व है। हम संसार में खाली रह ही नहीं सकते। दुनिया ऐसे ही चलती है। कोई किसी से छीनकर भर रहा है और जिसका छिन जाता है, वो दोबारा भरने की तैयारी करता है।
अध्यात्म में इसका उल्टा है। अध्यात्म कहता है थोड़ा खालीपन, थोड़ा कोरा होना भी जरूरी है। इसीलिए भीतर के शून्य की बात कही जाती है। हम भीतर जितना खाली रहेंगे, उतने शांत रहेंगे और भीतर जितने भरे हुए रहेंगे, अशांत रहेंगे।
जब संसार में उतरें तो खालीपन न रखें, भराव से झगड़ा न रखें। संसार, संसार की तरह ही चलेगा। उसमें ज्यादा उलझन पैदा न करें, लेकिन जैसे ही अपने भीतर उतरें, फौरन खालीपन के महत्व को समझें। लोग हमसे पूछते हैं - आखिर यह खालीपन होता क्या है और मिलेगा कैसे?
जिनके जीवन में गुरु आए हैं, वे खालीपन को समझ सकेंगे, क्योंकि गुरु का काम ही है भीतर जाकर सफाई कर देना और इसके लिए वह ध्यान सिखाता है। ध्यान सफाई की उस क्रिया का नाम है, जो भीतर खालीपन पैदा करता है।
शास्त्रों में लिखा है - आचार्यो मृत्यु: यानी आचार्य मृत्यु है। सीधी-सी बात है गुरु के पास गए और हमारी उस बात की मृत्यु हो जाएगी, जिस बात को संसार ने जीवन माना है। हम बाहर जहां-जहां जीवन ढूंढ़ते हैं, दरअसल वहां होता नहीं है, इसलिए लोग अपना जीवन जीने के लिए दूसरे का जीवन छीनने लगते हैं।
भीतर उतरते ही आप अपने जीवन से परिचित हो जाते हैं और जो अपनी जिंदगी को जान गया, वो दूसरे की जिंदगी का भी मान करेगा।
बच्चों को संस्कारवान बनाना है तो यह करें...
शिक्षा को इस समय सत्संग से जोड़ा जाना चाहिए। आधुनिक शिक्षा और परंपरागत सत्संग का मेल असंतुष्ट, अशांत और असंयमित व्यक्तित्व के लिए जरूरी हो गया है। इस समय बच्चे इंटरनेट पर टिक गए हैं।
सारी पढ़ाई परदे से खींची जा रही है। लैपटॉप और कंप्यूटर कितनी शिक्षा उगल रहे हैं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन बच्चे उसमें किस तरह से डूब रहे हैं, यह हमें मालूम कर लेना चाहिए।
एक अच्छा तरीका बुरे परिणाम दे रहा है। बच्चों को इसीलिए थोड़ा सत्संग से गुजारा जाना चाहिए। सत्संग के शब्दों में सुरक्षा है। सत्संग से गुजरने के बाद यह आत्मविश्वास प्रबल होता है कि संसार में जो यात्रा हम करेंगे, वह गलत नहीं होगी।
हमारे देश में तो सत्संग के कई तरीके हैं। आदर्श वाक्यों के बैनर, दीवारों पर शुभ शब्द, पुस्तकों के स्लोगन, लेकिन अब इनमें धीरे-धीरे लोगों की रुचि कम हो रही है। बोलती दीवारें, जगाती किताबें बच्चों की अंतिम प्राथमिकता हो गई हैं। इन्हें सबकुछ एक क्लिक में मिल रहा है।
सत्संग में दो बातें महत्वपूर्ण हैं - एक गायन का हिस्सा, दूसरा प्रवचन का पक्ष। आजकल वक्ता यह मानकर चल रहा है कि जो हम कह रहे हैं, वही सही है या जो हमें अच्छा लग रहा है, वही दूसरों को भी लग रहा होगा। लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है।
सभी अपनी यूटिलिटी देखते हैं, सत्संग में भी। यदि वह उनको नहीं मिले तो इसे समय खराब करना माना जाता है। इसलिए ऐसी पीढ़ी जिसे सबसे ज्यादा शांति की जरूरत है, इसकी पूर्ति कहीं और से करने लगती है। सत्संग का महत्व उसके जीवन प्रबंधन से जुड़ते ही एकदम बढ़ जाएगा। श्रोता और वक्ता दोनों पक्ष इसकी तैयारी रखें।
सफल जीवन का सबसे बड़ा फार्मूला यह है...
समय के साथ दो बातें हमेशा ध्यान रखी जाएं, उसका आना और जाना। आते हुए समय की चुनौती को समझा जाए और गुजरते हुए वक्त के नुकसान को पकड़ा जाए। भारतीय संस्कृति ने तो समय को भी काल रूप में देव माना है। उसमें प्राण जैसी अनुभूति दी है।
समय को जीवनरूप में स्वीकार कर मान दिया है। आज का काम आज किया जाए, यह सिर्फ कहावत नहीं है, पूरा जीवन दर्शन है। कबीर ने अपनी एक पंक्ति में ‘पल में परलय’ शब्द का बहुत सही उपयोग किया है।
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब? आज की चूक एक बहुत बड़ा धक्का है। इसकी चोट जीवन के अंतिम समय तक असर करती है। यूं तो समय बहुत हल्का होता है, हौले-हौले गुजरता है।
शीतल और सुगंधित पवन की तरह समय भी आनंद देता बीत जाता है, लेकिन विलंब और टालने की वृत्ति आते ही अपने आप को भारी बना देता है और हर अगले दिन वह अपने भार को मल्टीपल कर लेता है। इसीलिए टाले हुए काम बोझ बनकर अशांत बनाते हैं। साथ ही हमारे व्यक्तित्व को अप्रिय व आलोचनापूर्ण बना देते हैं।
भारी समय अपने साथ अंधकार भी लाता है। वक्त की बर्बादी अपराध है। ऐसे लोग खुद का समय भी नष्ट करते हैं और दूसरे के समय का महत्व भी नहीं समझ पाते। यदि समय के मामले में स्फूर्त रहना है तो हर कार्य करने के पूर्व थोड़ा शांत होकर, विश्राम मुद्रा में अपने भीतर उतरें, एक गहरे प्रकाश को पकड़ने का प्रयास करें, जो हमारे भीतर होता ही है, फिर काम करें। भीतर उतरकर मौन साधना समय का सम्मान ही होता है।
पति-पत्नी के बीच प्यार तब रहेगा जब उनके रिश्ते में ये बात होगी...
परिवारों में आपसी तनाव का एक बड़ा कारण यह है कि सदस्य एक-दूसरे को उनके अधिकार का समय नहीं दे पा रहे हैं। पति-पत्नी के बीच मतभेद का मनोवैनिक कारण भी यही है कि ये दोनों जब एकांत में साथ में होते हैं, तब भी साथ नहीं होते। दोनों के बीच तन होता है, धन होता है और जन भी होते हैं यानी दूसरे लोग भी, लेकिन मन नहीं होता।
दोनों साथ होते हैं, लेकिन दोनों के ही मन कहीं दूर भाग रहे होते हैं। मन वहीं उपस्थित रहे तो दोनों के बीच का प्रेम दिव्य रूप ले लेगा। सुंदरकांड में श्रीराम का विरह-संदेश सीताजी को देते समय हनुमानजी ने रामजी की ओर से जो पंक्तियां कही थीं, उसमें श्रीरामजी ने तीन बार मन शब्द का प्रयोग किया है।
इसे इस बात से समझ लें कि जब भी हम अपने निकट के व्यक्तियों के साथ परिवार में हों तो मन को साथ ही रखें। मन का भटकाव रिश्तों के तनाव का एक बड़ा कारण है। रामजी ने सीताजी के लिए संदेश भेजा था -
कहेहु तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनि मोरा।।
अर्थात मन का दुख कह देने से भी बहुत कुछ घट जाता है। पर कहूं किससे? यह दुख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का रहस्य मेरा मन ही जानता है। और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है।
इस तरह मनाएं अपना नया साल...
जीवन एक किताब है। कुछ लोगों ने इसे डायरी भी कहा है और कुछ लोग कैलेंडर की तरह भी मानते हैं। एक-एक करके पन्ने उतरते जाते हैं, उम्र अपनी संख्या घटाती जाती है। हर आने वाला नया समय जीवन को फिर चार्ज करता है। मौजूदा वर्ष बीत रहा है तो नया साल आ रहा है। जो बीत गया, उससे हम कुछ सीखें। अब जो आ रहा है, उस वर्ष में सीखे हुए का उपयोग करें। घटनाएं केवल बीतने के लिए नहीं होतीं, सिखाने के लिए भी होती हैं।
जो अच्छा रहा, उसका उत्साह अपने भीतर रखें और जो बुरा था, उसे विस्मृत करें। आदमी यहीं चूक जाता है। बुरे को बोझ बनाकर दिमाग में रखता है और आने वाले नए समय के उत्साह को उससे जोड़ लेता है। इसीलिए हम देखते हैं कि नए वर्ष की तैयारी में लोग जमकर नशा करते हैं। नशा कैसा भी हो, जागरूकता को खा जाता है।
नशे में आदमी अंधा हो जाता है, चरित्र तो दूर, उसकी शालीनता तक चली जाती है। नशा आत्म-विस्मृति की एक ऐसी क्षणिक स्थिति में डाल देता है कि आदमी होश में आने पर समझ नहीं पाता कि क्या खोया, क्या पाया। पुराने वर्ष को शरीर की तरह समझें, शरीर का क्षरण होता है।
जैसी देह आज है, वैसी कल नहीं रहेगी और नए वर्ष को आत्मा से जोड़ें। आत्मा सदैव जैसी है, वैसी ही है। नया वर्ष एकदम शुद्ध है, कोरी स्लेट की तरह कई पवित्र संभावनाएं लिए। उसमें जो चाहे भर लें। इसीलिए नए वर्ष की तैयारी में जागरूक रहें, मदहोश न हों, वरना लड़खड़ाते कदमों से प्रवेश करने वाले लोग पूरे वर्ष भटकते ही रहेंगे।
जब धन आता है तो साथ में आती हैं ये चीजें भी...
धन जीवन में आने पर जो भी चीजें लाता है, दो बातें जरूर कर जाता है। दौलत बाहर की भीड़ और भीतर का अकेलापन भी देती है। धनवान लोग अपने बाहरी जीवन में अकेले कम ही रहते हैं। धन कमाने के लिए दूसरे जरूर चाहिए। यही दृश्य खर्च के साथ भी है। अत्यधिक खर्च की वृत्ति भी अपने आसपास भीड़ बढ़ाने का ही कार्यक्रम है। रुपया-पैसा तीन बातों पर असर करता ही है। स्वास्थ्य, तृष्णा और दुगरुण।
अधिक धन का अमर्यादित उपभोग स्वास्थ्य को बिगाड़ता है और कमाने की भूख पाशविक बना देती है। धन कमाने की होड़ में आदमी अपने शरीर से खिलवाड़ करने लगता है और एक दिन जब शरीर इतना बीमार हो जाए कि धन भी काम न दे, तब पछतावा होता है। दौलत और दुगरुण का नाता तो पुराना है ही।
इसलिए कमाने से ज्यादा उपभोग में सावधानी रखी जाए। ज्यादातर मामलों में पर्याप्त से अधिक धन आने पर लोग भीतर से अशांत पाए गए। बाहरी शांति का काम तो मुखौटों से चल जाता है, लेकिन भीतर के विचलन का निदान हमें स्वयं निकालना पड़ेगा।
रुपया बचाए रखने का भी एक भय होता है। बाहर यह डर बना ही रहता है कि कहीं गंवाना न पड़े। इसी भय के कारण आदमी भीतर भी नहीं झांकता। जब-जब धन अधिक आने लगे, बाहर की भीड़ तो बढ़ेगी। ऐसे में अपने भीतर झांकें, उतरें और रुकें भी।
थोड़ा उस मौन को महसूस करें, जो सिर्फ भीतर होता है। वहां दौलत के सिक्के की कोई खनक नहीं होगी। मनुष्य होने का एक फायदा यह है कि आपको अपने भीतर अकेले जाने की सुविधा प्राप्त है। इसलिए बाहर धन का मजा भीतर के मौन से उठाया जाए।
समस्याओं को ऐसे सुलझाएंगे तो कभी परेशान नहीं रहेंगे....
जीवन में कुछ चीजें कभी खत्म नहीं होतीं, बल्कि नई-नई शक्लों में सामने आती रहती हैं। इनमें से एक है - समस्या। इसके छोटे-बड़े दो रूप होते हैं। दरअसल यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो व्यक्ति की समझ, सहनशीलता के अनुसार समस्या छोटी या बड़ी होती है।
किसी एक व्यक्ति के लिए जो समस्या जीवनभर का बोझ बने, वही समस्या दूसरे के लिए चुटकी में निपटाए जाने वाली हो सकती है। समस्याओं को शक्ल बदलने में भी महारत हासिल होती है। इसलिए उपाय, निदान भी वैसे ही जुटाने चाहिए। प्यास कई लोगों की हो तो केवल एक नल से आ रहा जल पर्याप्त नहीं होगा, फिर निदान जलाशय ही रहेगा।
इसलिए समस्या निपटाने में सूझबूझ का बड़ा महत्व है। समस्या को अपने मनुष्य होने के स्तर पर निपटाएंगे तो तनाव तो होगा ही, परिश्रम भी ज्यादा लगेगा। इसमें किसी सहारे और मददगार की जरूरत को समझें। इसलिए ईश्वर को अपने साथ रखें। परमात्मा ने अपने स्वरूप में भी विभिन्नता रखी है।
वह अपने भक्तों की परीक्षा इसी रूप और रुचि से लेता है। इसीलिए समस्याओं के भी अनेक रूप होते हैं। हर समस्या अपने साथ एक स्वाद लेकर आती है। हम उससे निपटने में थकते नहीं हैं, बल्कि अपने परमात्मा से यह कहने की इच्छा होती है - तू सितम पर सितम किए जा, हम तैयार हैं।
हम रहम पर रहम मांगेंगे, तू भी तैयार रह। समस्या का मूल क्या है, इसमें समझ काम आती है। समस्या का रूप क्या है, इसके लिए निगाह काम आती है। समस्या दोबारा न आए, इसके लिए दूरदर्शिता होनी चहिए और किसका सहयोग लिया जाए, इस हेतु संपर्क होना चाहिए।
सफलता के लिए ये रोज ये काम जरूरी है...
हर कोई चाहता है कि मनचाहा मिल जाए और मनचाहा मिलता भी है, लेकिन इसके लिए तीव्र इच्छा और लगातार क्रिया करने की रुचि होनी चाहिए। हनुमान भक्त रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार अपनी सरल भाषा में बताते हैं -
"हमें प्रतिदिन यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हे ईश्वर हमें लगन और संकल्प-शक्ति प्रदान करिए, क्योंकि बड़े से बड़ा वृक्ष भी एक लघु बीज से पैदा हुआ है और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह बीज धरती के अंतस में निरंतर प्रगतिशील रहा। इंसान की जिंदगी श्रेष्ठ है, क्योंकि समस्याओं व मुसीबतों के दौर से गुजरती है।"
हमें इन सब समस्याओं से विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। ये समस्याएं संकल्प के समक्ष अधिक समय तक नहीं रह पाएंगी। समस्याओं से निपटने के लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए। समस्याएं तो सहज ही शांत हो जाएंगी। जो व्यक्ति अवसर का महत्व नहीं जानते, वे सफलता से दूर रहते हैं।
सपने सदैव उन्हीं लोगों के सच हुए हैं, जो अपनी संकल्प- शक्ति पर अटल रहे, जो अपनी महत्वाकांक्षाओं पर अडिग रहे, जो कभी परिश्रम से पीछे नहीं हटे, जिन्होंने निराशाओं को कभी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया। व्यक्ति का मूल्यांकन इस बात से नहीं होता कि वह कौन-सा काम प्रारंभ करता है, बल्कि इससे होता है कि वह कौन-सा काम पूरा कर लेता है।
भक्त होने का एक बड़ा फायदा यह है कि वह जीवन के हर क्षण को परमात्मा की कृपा मानता है, इसीलिए अवसरों का लाभ उठाना भी जानता है, क्योंकि भक्ति यह कहती है कि हर सांस उस ईश्वर की दी हुई है। इसलिए एक भी क्षण नष्ट न हो, लगन बनी रहे और संकल्प-शक्ति कभी खत्म न हो।
परिवार में आपसी प्रेम बढ़ाना हो तो शुरुआत ऐसे करें
आजकल दोस्त मिलना मुश्किल हो गया है और मित्रता भी एक धंधा बन गई है। जिस उम्र में मित्र बनते हैं, वह उम्र पढ़ाई-लिखाई और कॅरियर के इतने दबाव में है कि हर संबंध बस लेन-देन का जरिया हो गया है। एक प्रयोग करें, बाहर की दुनिया में अगर दोस्त नहीं बन पा रहे हों और जो पुराने थे, वे वक्त के बही-खाते में जमाखर्च हो गए हों या सब अपनी-अपनी दुनिया में उलझ गए हों तो अब दोस्ती घर में की जाए।
भारतीय परिवारों में रिश्तेदारी तो है, लेकिन दोस्ती नहीं है। हम नातेदारी को महत्व देते हैं, मित्रता को नहीं। इसीलिए पति-पत्नी एक नाता है, यह रिश्ता मित्रता नहीं बन पाता। दोनों एक-दूसरे के लिए जो भी कर रहे होते हैं, उसमें कुटुंब के संबंध रहते हैं, दोस्तों जैसी दोस्ती नहीं। यही हालत बाप-बेटे, मां-बेटी में भी चलती है।
इसी कारण लंबे समय चलते हुए रिश्ते बोझ बन जाते हैं। जबकि दोस्ती में हमेशा ताजगी रहती है। परिवार का आधार प्रेम होना चाहिए और परिवारों में प्रेम की शुरुआत मित्रता से की जाए, क्योंकि मित्रता में यह संभावना रहती है कि एक दिन वह प्रेम में बदल सकती है। और जैसे ही संबंधों में प्रेम जागा तो शुचिता व शांति अपने आप आ जाएगी।
अभी जब एक-दूसरे की मांग पूरी नहीं होती तो आवेश जागता है। लेकिन मैत्री और प्रेम आने के बाद एक-दूसरे के प्रति क्षमाभाव जागेगा। परिवारों में रिश्तों के बीच अपेक्षा ही प्रधान होती है। अपेक्षा अशांति का कारण है। प्रेम अपेक्षा के रूप को बदल देता है। अपेक्षा हटी कि एक-दूसरे पर दोषारोपण बंद हो जाएंगे, क्योंकि प्रेम बीच में आते ही हम हर रिश्ते में परमात्मा की झलक देखने लगेंगे। इसी को वैकुंठ कहते हैं।
ये 3 बातें बताती हैं पैसों का सही उपयोग कैसे करें...
नदी पर बांध बनने से ऊर्जा और सिंचाई जैसे काम अच्छे से संपन्न होते हैं। ऐसे ही धन पर भी बांध बनाना होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि धन को रोका जाए। अनुशासन और नियमपूर्वक धन के साथ व्यवहार किया जाना ही उस पर बांध बनाने जैसा है।
धन और नदी की गति एक जैसी चलती है। यह नदी नष्ट, कष्ट और संतुष्टि तीनों प्रदान करती है। जैसे ही धन हमारे जीवन में आता है, कई बातों के उत्तर मिलने लगते हैं और कई सवाल भी खड़े हो जाते हैं।हर चीज के दो पक्ष बन जाते हैं। इसलिए धन के मामले में सदैव एक बात पर दृढ़ रहिए कि जब भी पक्ष लेना पड़े, धर्म का पक्ष लीजिए। अधर्म जीवन में जिन मार्गो से प्रवेश करता है, उनमें से एक धन का मार्ग भी है। इसलिए सावधानी जरूरी है।
धन प्राप्त करने में ही बुद्धिमानी नहीं लगती, उसे बचाने में भी ताकत लगती है और सबसे ज्यादा योग्यता लगती है उसको खर्च करने में। इन तीनों का संतुलन बिगड़ा और दौलत ज्वालामुखी बन जाएगी। हमारे भीतर जितनी आध्यात्मिक वृत्ति परिपक्व होगी, धन के संबंध में हम संसार और संसार बनाने वाले के मामले में लाभ उठा सकेंगे। धन हमें संसार से जोड़ता है, उस धारा का नाम राग है।
राग को परमात्मा से जोड़ने के लिए अनुराग पैदा करना होता है और जैसे ही हम परमात्मा से जुड़े, वैराग्य जागता है। राग, अनुराग और वैराग्य ये तीनों मिलकर धन का सदुपयोग सिखाते हैं। दौलत खूब मजा देगी, यदि हम इन तीनों से ठीक से परिचित रहेंगे।
जीवन के सभी दुखों का एक कारण ये भी है, इसे खुद से दूर रखें...
जीवन में उत्थान और पतन चलता ही रहता है। भौतिक सफर में ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं, लेकिन आध्यात्मिक यात्रा में भी ऐसा हो जाता है और इसकी चिंता पालना चाहिए। कई बार पतन के बाद भी उत्थान का क्रम बन जाता है, लेकिन जीवन की कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं कि पतन पर पहुंचकर आदमी उत्थान पर पहुंचना ही नहीं चाहता।
इसका उदाहरण है रावण। रावण एक ऐसा पात्र है जिसको कई बार अनेक पात्रों ने अपने-अपने स्तर पर समझाया था। हनुमानजी, अंगद, शूर्पणखा, मंदोदरी, मारीच जैसे लोगों ने उसे समझाया लेकिन उसे समझ में नहीं आया। मानस रोगों का वर्णन करते हुए लिखा गया है-
'मोह सकल व्याधिन कर मूला।'
मोह ही मूल है और रावण साक्षात मोह का प्रतीक है। मेघनाथ काम है और शूर्पणखा अंदर की वासना है। रावण को मेघनाथ और शूर्पणखा दोनों बहुत प्यारे थे। शूर्पणखा का अर्थ है जिसके नाखून बड़े हों। इंद्रियों में जो वासनाएं होती हैं उसकी तुलना नाखूनों से की जाती है।
यानी एक सीमा तक वासना ठीक है, उसके बाद नाखूनों को काट देना चाहिए। जो अपने नाखून नहीं काटेगा, समाज में उसका जीवन अमर्यादित हो जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि रावण ने कुछ गलत नहीं किया था। उसकी बहन की नाक काटे जाने पर उसने राम की पत्नी का हरण कर लिया। शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव रखा, इसमें क्या गलत था।
इस प्रसंग को लोग गहराइयों में नहीं देखते। शूर्पणखा ने पूरे समय झूठ बोला था, छल किया था। रावण ने शूर्पणखा यानी छल का पक्ष लिया। जो छल का पक्ष लेता है वह रावण के समान होता है और पतन में गिरने के बाद उत्थान की संभावना को रावण ने स्वयं नकार दिया था।
भावनात्मक स्पर्श भी अकेलापन मिटाने का एक तरीका है...
दिल लगता नहीं अकेले में, यह भी आजकल की जीवनशैली की एक बड़ी समस्या है। पुराने दार्शनिक लोग कह गए हैं कि दो ही लोगों को अकेलापन प्रिय लगा है। योगियों में साधु-संतों को और भोगियों में स्त्रियों को। अकेलेपन में मनुष्य की निकटता, स्पर्श और संग को अलग-अलग रूप में देखा जाता है। अकेलेपन का अर्थ लिया जाता है किसी का साथ न होना और इसीलिए इसे दूर करने के लिए दूसरे को ढूंढ़ा जाता है। अकेलापन मिटाने का दूसरा तरीका होता है भावनात्मक स्पर्श से। आदमी केवल शरीर से शरीर को नहीं छूता, दृष्टि और हृदय से भी दूसरों को स्पर्श किया जा सकता है। अकेलापन मिटाने की इस क्रिया में मन और हृदय सक्रिय हो जाते हैं। भावनात्मक स्पर्श अपना काम तो करता है, लेकिन जरूरी नहीं कि अकेलापन मिट जाए, पूर्ण तृप्ति और संतुष्टि तब भी नहीं मिलती।
भावनात्मक रूप से अकेलापन मिटाने में मन केवल विचार और जानकारियां भीतर भरता है और बाहर उगलता है। मन से हटकर जब हृदय से जुड़ जाएं तो अकेलेपन में हृदय कुछ अधिक पवित्र होता है, ठीक बदलाव लाता है। मन को विचारों से खाली कर दीजिए।
खाली मन अपने आप खिसककर हृदय के पास चला जाता है और हृदय से फिर पूरे शरीर में भावनाओं का संचार होता है और ऐसा संचार अकेलेपन को आनंद में बदल देता है। यह क्रिया है तो गहरी, पर करने पर परिणाम बड़े शुभ देती है।
स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ब्रह्मचर्य जरूरी है, क्योंकि...
सामान्यत: ब्रह्मचर्य पुरुषों के लिए आरक्षित स्थिति मानी जाती है। दरअसल ब्रह्मचर्य एक ऐसा आचरण है, जो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही समान है। ब्रब्रह्मचर्य एक शक्ति का नाम है, जो ब्रह्म के आचरण से आती है।
एक आंतरिक अनुशासन ब्रह्मचर्य का रूप है। इसका संबंध केवल शारीरिक नहीं है। शरीर के स्तर पर तो ब्रह्मचर्य स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अलग-अलग होगा, लेकिन जब इसे आंतरिक शक्ति के रूप में लेंगे, तो यह स्त्री के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण होगा, जितना पुरुष के लिए है।
स्त्री का ब्रह्मचर्य उसे रूप-धन की स्थिति से भी मुक्त कराएगा। जैसे-जैसे वह अपनी आंतरिक शक्ति को पहचानेगी, मां बनना उसके लिए विवशता नहीं, विशेष अधिकार बन जाएगा। स्त्री का ब्रह्मचर्य उसके मातृत्व के लिए एक वरदान है।
जो स्त्रियां अपनी आंतरिक शक्ति पर बखूबी टिकीं, उन्हें पुरुष से बराबरी का रुतबा पाने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। बिना आंतरिक शक्ति के पुरुष से जो बाहरी संघर्ष होगा, वह ऊर्जा को नष्ट करने वाला, वातावरण को दूषित करने वाला और जीवन को संकट में डालने वाला ही रहेगा।
माताओं, बहनों को योग, प्राणायाम और ध्यान से गुजरते समय अधिक सरलता रहेगी। माताओं, बहनों को अपने व्यक्तित्व की प्रस्तुति करने में आज भी कई परेशानियां हैं, लेकिन ब्रह्मचर्य यानी आंतरिक शक्ति पर टिकते ही उनके लिए सारा वातावरण मित्रवत हो जाएगा।
इसका अर्थ है सम्मान और सदाचार के साथ उन्हें सहयोग मिलेगा और वे भी सान्निध्य दे सकेंगी।
ऐसा काम करने से आपको हो सकता कोई बड़ा नुकसान...
भूल किससे नहीं होती। अनजाने में होती है और जानबूझकर भी की जाती है, लेकिन कर्म के साथ भूल का सिलसिला बना ही रहता है। कुछ लोगों की भूलें दूसरे ही उनको बताते हैं और कुछ लोग स्वयं उन्हें पकड़ लेते हैं।
जो अनजाने में गलती कर जाते हैं उनकी अबोध दशा तो माफ की जा सकती है लेकिन जो जानबूझकर गलत कर रहे हों और ऐसा समझकर कि यह हमारे हित के लिए है फिर भी करते रहें, उन्हें सावधान रहना चाहिए। लम्बे समय तक ऐसी गतिविधि भविष्य में बड़ा नुकसान पहुंचाएगी। जिस क्षण यह पता लगे कि हमसे गलती हो गई है और वह गलती किसी व्यक्ति या परिस्थिति से जुड़ी है तो फोरन क्षमा मांग ली जाए।
धर्म में इसे ही प्रायश्चित का बोध कहा गया है। प्रायश्चित का भाव केवल अफसोस नहीं होता, बल्कि दोबारा गलत काम न करने का संकल्प भी इसमें छुपा रहता है। गलत काम हो जाने पर जब हम क्षमा मांगने की तैयारी कर रहे होते हैं तब हमारा मन हमें रोकता है। इसके पीछे हमारा अहं काम कर रहा होता है। अहंकार को क्षमायाचना करने में बड़ी पीड़ा होती है।
अहंकार हमें समझाता है कि गलत काम करने के बाद यदि क्षमा मांगी गई तो लोग आपको कायर, निर्बल, मूर्ख समझेंगे। अहंकार कहता है बड़ी से बड़ी मुसीबत आ जाए उससे निपट लेंगे, पर गलती होने पर क्षमा मत मांगो। और यहीं से मनुष्य लगातार गलतियां करते चला जाता है। जीवन में प्रसन्नता और आनंद की जो संभावना होती है वह समाप्त होने लगती है।
हमारे और हमारी सफलता के बीच में ये गलतियां रुकावटें और बाधाएं बनकर स्थाई रूप बस जाती हैं। गलत के विरूद्ध लडऩे और संघर्ष करने की रूचि समाप्त हो जाती है। इसलिए पहली बात तो गलत करें न और यदि हो जाए तो प्रायश्चित से गुजरें। हो सकता है हर गलती एक सीख बन जाए।
सभी को बस यही एक चीज चाहिए, सफलता...
यदि जाना सीखा है तो लौटना भी सीखिए। व्यावहारिक जानकारी हमें संसार में जाना सिखाता है और आध्यात्मिक ज्ञान हमें भीतर मुडऩा बताता है। जीवन में भक्ति और भौतिकता का संतुलन बनाए रखना चाहिए। अति हर बात की बुरी है।
संयम की जरूरत हर क्षेत्र में है, पर संयम की भी अति न कर दें। हर परिस्थिति के दूसरे पहलू से परिचित जरूर रहें। संसार से भी परिचय रखें और संसार बनाने वाले को भी न भूलें। हम संसार में सफलता की खोज पर निकले हुए हैं। सभी यही कर रहे हैं, बस क्षेत्र अलग हैं, मार्ग अलग हैं, मंजिल अलग हैं।
कुल मिलाकर चाहिए सबको सफलता। आप जो कुछ भी खोज रहे हों थोड़ा रुकिए जरूर, फिर भीतर मुड़ जाएं। अपनी इस तलाश को थोड़ा रोक दें, अपने भीतर झाकें और कुछ पाने की कोशिश करें। जो भीतर मिलेगा वह बाहर की खोज और सफलता के अर्थ बदल देगा। अपना कुछ भी नहीं है बस पकडऩे के तरीके बदलना है। जैसे ही आपने अपने भीतर भगवान होने को जान लिया, फिर आपके कर्म में निष्कामता आ जाएगी और आपकी वाणी में विश्वसनीयता तथा प्रभाव आ जाएगा।
एक ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि आपको बोलने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी और लोग खुद ब खुद आपकी ओर खिंचे चले आएंगे। जैसे ही हम भीतर उतरते हैं, जिस ईश्वर से हमारा परिचय होता है वह परमपिता है, जो सबके भीतर जन्म से ही आया हुआ है। हम उसके निकट गए, उसको पहचाना और उसी के जैसे होना शुरू कर देते हैं। बाप की नकल बेटा करता ही है। संतानों में अपने जनक-जननी के लक्षण आ ही जाते हैं। इस अनुभूति के बाद हमारी बाहरी क्रियाएं ईश्वर की तरह दिव्य और पवित्र होने लगती हैं।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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