Tuesday, December 20, 2011

Jeevan Darshan(जीवन दर्शन) Part 4

जहां तन है वहीं मन रखें
हम जहां भी रहें हमारी चेतना हमारे साथ रहे, तब जो कर्म होगा है, वह सृजन बन जाएगा और कैसी भी स्थिति हो हम अशांत नहीं रहेंगे। यदि हम अपनी चेतना के साथ नहीं हैं, तो हमारे भीतर दंभ, आलस्य, प्रमाद और धूर्तता जल्दी प्रवेश करेगी। आदमी अपने मन के हाथों मजबूर होता है। यह मन उसको वहां नहीं रहने देता, जहां उसको होना चाहिए। अपनी चेतना के साथ रहने में अभ्यास करना पड़ता है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं यदि हम मौजूद हैं और हमारा मन वहां नहीं है, तो इसका नाम सपना है। सपना एक तरह की नींद नहीं, बेहोशी है। जैसे हम नींद में बेहोश होते हैं, ऐसे ही हम जागते हुए भी बेहोश रहते हैं। इसलिए २४ घंटे में कुछ समय अपने से भी सवाल करें कि क्या हम बेहोश तो नहीं।

इस बेहोशी का यह अर्थ नहीं है कि धरती पर गिर गए हों, आंखें बंद हो गई हों। यह चलते-फिरते भी आ जाती है। आदमी मौजूद है, लेकिन मन कहीं और है। ऐसे में हम जो भी काम करेंगे वह कच्च होगा। लोग ऐसी ही बेहोशी में परमात्मा की खोज करते हैं, व्यावसायिक कार्य करते हैं और बिना होश के पारिवारिक जीवन जीने लगते हैं।

अब बताइए, क्या कोई सपनों में रहकर भी सत्य के निकट पहुंचा है। स्वप्न केवल भाव संसार की यात्रा कराते हैं, उसमें यथार्थ जोड़ने के लिए होश में आना जरूरी है। जैसे नींद में देखे गए सपनों में हम वह सब कर चुके होते हैं, जो यथार्थ में होना मुश्किल है। ऐसे ही हम जागते हुए बिना चेतना के करते हैं।

अभ्यास इस बात का किया जाए कि हम अपनी समूची चेतना के साथ वहां मौजूद रहें, जहां हमारी देह उपस्थित रहती है। फिर देखिए काम में कभी वजन नहीं लगेगा,माहौल में तनाव महसूस नहीं होगा और सामने वाला आपके प्रति प्रेमपूर्ण रहेगा तथा आप भी दूसरों के प्रति आनंद के भाव में होंगे।

नि:स्वार्थ लोक सेवा के बल पर संत को मिला स्वर्ग
एक संत थे, जो दुनिया से बेखबर, अपने भगवद्-भजन में लीन रहते और किसी से कोई सरोकार नहीं रखते थे। वृद्धावस्था में एक दिन वे मृत्यु को प्राप्त हुए। मरने के पश्चात संत स्वर्गलोक पहुंचे। स्वर्गलोक के द्वार पर चित्रगुप्त अपना हिसाब-किताब लेकर बैठे थे। उन्होंने साधु का नाम-पता पूछा। तब साधु ने बड़े गर्व से कहा - क्या आप नहीं जानते कि मैं धरती का अमुक संत हूं?

चित्रगुप्त ने प्रश्न किया - आपने अपने जीवन में कौन-से उल्लेखनीय कार्य किए? संत ने उत्तर दिया - मैं जीवन के आरंभिक आधे भाग में तो लोगों से प्रेम करता रहा और दुनियादारी में डूबा रहा। जीवन के अंतिम आधे भाग में मैंने सब कुछ छोड़कर तपस्या की और पुण्य लाभ लिया। यह सुनकर चित्रगुप्त बोले - आपसे जीवन के आरंभिक भाग में ही पुण्य हुए हैं, पिछले भाग में तो कुछ भी नहीं है।

संत ने कहा - यह तो उल्टी बात है। आरंभिक जीवन तो मैंने संसार से प्रेम करने में बिताया। यथासंभव सभी की सेवा और सहायता की, किंतु जीवन के अंतिम भाग में सांसारिकता से परे रहकर एकांत में परमात्मा की आराधना की, तो वही तो जीवन की सार्थकता है।

तब चित्रगुप्त बोले - धरती पर प्रेम, आत्मीयता और परहित में लगे रहना ही पुण्य है। ईश-पूजा और मानव सेवा के कारण ही तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई है। वस्तुत: नि:स्वार्थ जनसेवा ही सच्चे अर्थो में प्रभुसेवा है, क्योंकि यह दुनिया प्रभु की बनाई हुई है। इसलिए इसके प्रति समर्पित व्यक्ति निश्चित रूप से प्रभु को प्रिय होता है।

बुद्धिमान साहूकार ने अपनी सूझबूझ से टाला संकट
एक जा बड़ा बुद्धिमान और व्यक्तियों का बड़ा कद्रदान था। उसके दरबार में प्राय: ऐसी प्रतिस्पर्धाओं का आयोजन होता था, जो बुद्धि और चतुराई पर केंद्रित होती थी। इनमें से जीतने वालों को राजा की ओर से बड़ा पुरस्कार और सम्मान दिया जाता था। एक बार राजा अपने दरबारियों के बीच बैठा था। परस्पर बातचीत में उसे मालूम हुआ कि साहूकार बड़े बुद्धिमान और होशियार होते हैं। वे सभी प्रकार की चीजों का मूल्य आंक लेते हैं।

राजा ने अपने मंत्री को भेजकर नगर के एक प्रसिद्ध साहूकार को बुलवाकर कहा - यह मेरा पुत्र है। इसका मोल बताओ। साहूकार घबरा गया, क्योंकि वह वस्तुओं की परख कर सकता था, इंसानों की नहीं। उसने राजा से कुछ दिनों की मोहलत ली और एक बुजुर्ग साहूकार से सलाह ली। बुजुर्ग साहूकार अनुभवी था। उसने तुरंत उपाय बता दिया।

अगले दिन साहूकार दरबार में पहुंचा और राजा से बोला - राजकुमार के दाम तो ठीक-ठीक बता दूंगा, किंतु आप बुरा मत मानना। यह कहते हुए उसने राजकुमार का ललाट छूकर कहा - राजन, ललाट के लेख का तो कोई मूल्य नहीं हो सकता, वैसे राजकुमार दो आने रोज का मजदूर है।

राजा समझ गया कि किस्मत की कीमत कोई नहीं आंक सकता। किंतु यदि राजकुमार मजदूरी करे तो उसे दो आने से अधिक नहीं मिलेंगे। राजा ने साहूकार की बुद्धिमानी देख उसे पुरस्कृत किया। सार यह है कि सूझबूझ और अनुभव का कोई जोड़ नहीं होता। यदि बड़े से बड़ा संकट भी आ जाए तो सूझबूझ से काम लेने पर संकट टल सकता है।

दृढ़ शिव भक्ति से गरीब उपमन्यु सामथ्र्यवान बन गया
अपने मामा के पुत्र को दूध पीते देख उपमन्यु के बाल हृदय में भी दूध पीने की इच्छा हुई। लगभग 12-13 वर्षीय उपमन्यु अपनी विधवा माता के पास तीर की तरह पहुंचा और बोला - मां, मैं भी दूध पीऊंगा। पुत्र की बात सुनकर मां बोली - बेटा, तुम्हारे भाग्य में दूध पीना नहीं लिखा है।

मां की ओर नाराजगी से देखते हुए बालक उपमन्यु ने कहा - मेरे भाग्य में दूध पीना क्यों नहीं लिखा? मां ने लाचार होकर आटे को पानी में घोलकर उपमन्यु को दे दिया। उसने जैसे ही एक घूंट पिया, मुंह बिगाड़कर उसे दूर रखते हुए कहा - यह दूध नहीं है।

मां बोली - मैं गरीब हूं, तुम्हें दूध कहां से दूं? उपमन्यु ने दुखी होकर कहा - मां, क्या कोई उपाय है? मां ने कहा - यदि तुम वन में जाकर शिवजी को प्रसन्न करो तो तुम्हारा भाग्य बदल जाएगा। उपमन्यु समर्पित भाव से वन में जाकर शिव-शिव का जाप करने लगा। उसकी दृढ़ भक्ति देख शिवजी इंद्र का वेश धारण कर उपमन्यु के पास आकर बोले - तुम व्यर्थ ही शिव भक्ति कर रहे हो, वे भला तुम्हें क्या देंगे? मैं तीनों लोकों का स्वामी हूं, तुम मेरा नाम लो, मैं तुम्हारी सभी इच्छाएं पूर्ण करूंगा। उपमन्यु यह पूछते हुए कि तुम कौन हो, उन पर झपट पड़ा।

यह देख शिवजी प्रसन्न हो अपने असली स्वरूप में प्रकट हुए और उपमन्यु के घर में दूध का सागर बहने का वर दिया। वास्तव में यही हुआ और उपमन्यु प्रतिदिन हजारों लोगों को दूध बांटने लगा। शिवजी की कृपा से उपमन्यु बहुत बड़ा विद्वान बना और उसने पर्याप्त यश अर्जित किया। दरअसल अपने आराध्य के प्रति एकनिष्ठ भक्ति सदैव शुभ फलदायी होती है। इसलिए जिसके प्रति आस्था हो, वह अटूट रहनी चाहिए।

मृत्यु के बाद शिष्य ने जाना सुखी रहने का रहस्य
एक आश्रम में महात्मा और उनके दो शिष्य रहते थे। दोनों शिष्य महात्मा के कहे अनुसार भगवान का भजन-पूजन करते। आश्रम के कार्य भी अत्यंत लगन से दोनों ही करते थे। आश्रम की सफाई, पेड़-पौधों की देखरेख, पशुधन का रखरखाव और महात्माजी की सेवा इन्हीं दोनों शिष्यों के जिम्मे थी, जिसे वे निष्ठापूर्वक किया करते थे।

किंतु इनमें से एक शिष्य सदा दुखी रहता और दूसरा हमेशा खुश रहता, जबकि दोनों की स्थितियां और वातावरण एक समान थे। पहला छोटी-छोटी बात पर परेशान हो जाता और दूसरा विपरीत बातों में भी कुछ अच्छा खोजकर प्रसन्न हो जाता। कुछ दिनों बाद महात्मा की मृत्यु हो गई। दो ही दिनों के अंतराल से दोनों शिष्य भी काल कवलित हुए। देवयोग से स्वर्गलोक में तीनों एक ही स्थान पर आ मिले, किंतु यहां भी पहला शिष्य अशांत था और दूसरा प्रसन्न।

दुखी शिष्य ने गुरुदेव से पूछा - गुरुजी, लोग कहते हैं ईश्वर भक्ति से स्वर्ग में सुख मिलता है, किंतु हम तो यहां भी दुखी के दुखी रहे। तब महात्मा बोले - वत्स, भक्ति से स्वर्ग तो मिल सकता है, किंतु सुख और दुख तो मन की देन है। मन शुद्ध हो तो नर्क में भी सुख है और यदि मन शुद्ध नहीं हो तो स्वर्ग में भी दुख है।

मन:स्थिति को बदलने की कोशिश की जाए तो वह हर कहीं दुखद परिणाम ही देती है। वस्तुत: प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न रहने वाला प्रतिकूलता में भी अनुकूलता खोज लेता है और दुख व निराशा पर विजय प्राप्त कर सदा सुखी बना रहता है।

व्यापारी ने साधक से जाने दान देने के सही मायने
एक झेन साधक के अनेक शिष्य थे। साधक अत्यंत ज्ञानी और परम त्यागी पुरुष थे। इसलिए उनकी ख्याति भी बहुत थी। उनका प्रवचन सुनने लोग दूर-दूर से आते। धीरे-धीरे भीड़ इतनी होने लगी कि आश्रम छोटा पड़ने लगा। एक धनी व्यापारी भक्त ने सोचा कि वह साधक के लिए बड़ा आश्रम बनवा देगा।

इस कार्य के लिए उसने एक थैली में पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं भरीं और साधक के पास गया। उसने साधक से कहा - मैं ये पांच सौ सोने के सिक्के आपको भेंट करना चाहता हूं ताकि आप नया आश्रम बनवा सकें। साधक ने निर्विकार भाव से कहा - ठीक है, मैं ले लेता हूं।

व्यापारी को अजीब लगा। उस जमाने में तीन-चार सोने के सिक्कों से एक साधारण परिवार का वर्षभर का खर्चा निकल जाता था और साधक ने पांच सौ सोने के सिक्के लेकर भी कुछ नहीं कहा। व्यापारी बोला - गुरुजी, थैली में सोने के सिक्के हैं। साधक ने कहा - हां तुमने बताया।

व्यापारी फिर बोला - पांच सौ। साधक ने कहा - हां पांच सौ। व्यापारी इस उम्मीद में था कि शायद साधक उसकी उदारता को देखकर उसका शुक्रिया अदा करेगा। वह फिर बोला - बड़ी रकम है गुरुजी। साधक ने कहा - हां, वास्तव में बड़ी रकम है और क्षमा करना कि तुम इतने कृतघ्न हो कि इतनी बड़ी रकम स्वीकारने के लिए तुमने मेरा शुक्रिया अदा नहीं किया। साधक की बात का मर्म समझ व्यापारी शर्मिदा हो गया।

वस्तुत: दान में देने का भाव न होकर स्वीकारने वाले के प्रति आभार भाव होना चाहिए। यही विनम्रता और निष्कामता दानदाता को सच्चे दानी का पुण्य उपलब्ध कराती है।

बुद्ध के वचन सुनकर डाकू ने हिंसा का मार्ग त्याग दिया
एक बार महात्मा बुद्ध अपनी शिष्य मंडली के साथ श्रावस्ती में ठहरे हुए थे। वे नित्य प्रवचन करते और श्रावस्ती के लोग उन्हें सुनने उमड़ पड़ते। बुद्ध सुनने वाले के हृदय में उतरकर उसे भीतर-बाहर से बदलने के लिए विवश कर देते थे। बुद्ध के प्रवचनों ने अनेक व्यक्तियों का दुखमय जीवन सुखमय कर दिया था।

श्रावस्ती का बच्च-बच्च महात्मा बुद्ध से प्रभावित था। एक दिन कुछ लोगों ने बुद्ध को बताया कि जंगल के मार्ग में एक डाकू रहता है, जो राहगीरों को लूटकर उनकी हत्या कर देता है। उसके कारण आवागमन बहुत मुश्किल हो गया है। बुद्ध ने सभी को आश्वस्ति दी और जंगल की ओर चल दिए। जब वे जंगल के बीचोंबीच पहुंचे तो उन्हें एक कड़क स्वर सुनाई दिया - ठहर जा। जब बुद्ध रुके तो घनी झाड़ियों में से निकलकर वह डाकू उनके सामने आकर खड़ा हो गया।

उसे देखकर बुद्ध ने शांत भाव से कहा - मैं तो ठहर गया, किंतु तू कब ठहरेगा? डाकू अचरज से उन्हें देखता रहा, क्योंकि बुद्ध के चेहरे पर भय रंचमात्र भी नहीं था। बुद्ध फिर बोले - बोल तू कब ठहरेगा? डाकू ने कहा - मैं आपकी बात नहीं समझा। बुद्ध ने स्पष्ट किया कि जीवन में वैसे ही जन्म से मरण तक दुख ही दुख हैं।

मैं तो ज्ञान प्राप्त कर बंधनों से मुक्त हो गया, किंतु तू लोभ में पड़ा हुआ मार-काट करता जा रहा है। इन सबसे तू कब मुक्त होगा? बुद्ध की प्रभावशाली वाणी सुनकर डाकू ने तत्काल हिंसा का मार्ग त्याग दिया। कथा का सार यह है कि मन की शांति, मन में ही मौजूद होती है। बस आवश्यकता मन को लोभ, माया, मोह से मुक्त कर निर्मलता व निरपेक्ष भाव प्राप्त करने की होती है।

पक्षियों को गिलहरी ने पढ़ाया एकता का पाठ
एक नदी के किनारे एक पेड़ पर चिड़ियों के एक जोड़े ने घोंसला बनाया था। उसमें चिड़िया ने अंडे दिए थे। एक दिन चिड़िया दाने की खोज में दूर निकल गई। संयोग से चिड़ा भी घोंसले में नहीं था। उसी पेड़ पर एक गिलहरी रहती थी। उसने अंडे सहित उसे गिरा दिया और घोंसले के एक-एक तिनके को कुतरने लगी।

तभी एक तिनका उसकी आंख में चुभ गया। वह दर्द से कराहने लगी। तभी चिड़ा और चिड़िया वापस आए। वे अपना उजड़ा घोंसला और टूटे अंडे देखकर बहुत दुखी हुए। गिलहरी उनसे बोली - मुझसे भूल हो गई। मैं तुम्हारे सुख से जलती थी। मुझे क्षमा कर दो और कृपा कर मेरी आंख में से यह तिनका निकाल दो। उसका पश्चाताप देख दोनों ने उसे क्षमा किया और तिनका निकाल दिया।

अब तीनों मित्र बन गए। फिर चिड़ियों के जोड़े ने नया घोंसला बनाकर उसमें अंडे दिए और गिलहरी उनकी रक्षक बन गई। जब बच्चे हुए तो गिलहरी बड़े स्नेह से उनकी देखरेख करने लगी। एक दिन चिड़ियों का जोड़ा घोंसले में नहीं था, तभी गिलहरी को एक सांप घोंसले की ओर बढ़ता दिखाई दिया। उसने पेड़ पर ही रहने वाली लाल चींटियों से मदद मांगी। वे मान गईं और सांप पर पिल पड़ीं।

सांप इस आकस्मिक आक्रमण से घबराकर भाग गया। तभी चिड़ा-चिड़िया भी आ गए। गिलहरी ने सारी घटना सुनाकर कहा - दुश्मन दुर्बल पर हमला करते हैं, इसलिए हमें एक होना चाहिए। उसकी बात को मानकर चिड़ियों का जोड़ा, गिलहरी, तोता, कोयल, मैना, कबूतर और नीलकंठ मिलकर एक ही पेड़ पर रहने लगे। कथा का सार यह है कि शक्ति की सामूहिकता अजेय बनकर उभरती है।

कबीर ने सत्य बोलकर निर्दोष व्यक्ति को बचा लिया
यह सर्वविदित है कि महात्मा कबीर का पालन-पोषण एक जुलाहे के घर में हुआ था। उनके पिता जब रुई पींजने (धुनने) का कार्य करते तो बालक कबीर भी उनके पास बैठकर यह कार्य सीखा करते। वयस्क होने तक कबीर रुई पींजना भलीभांति सीखकर पिता के कार्य में सहयोग करने लगे थे।

एक दिन कबीर रुई पींज रहे थे। उनके पास पींजी हुई रुई का ढेर लगा था। उसी समय एक आदमी दौड़ता हुआ कबीर के पास आया और बोला - महाराज, कृपा कर मुझे बचा लीजिए। राजा के सिपाही किसी चोर के बदले मुझे पकड़ना चाहते हैं। मैं निर्दोष हूं। मुझे कहीं छिपा लीजिए, अन्यथा मैं बेमौत मारा जाऊंगा।

कबीर ने उसे रुई के ढेर में छिप जाने को कहा। आदमी तत्काल रुई के ढेर में छिप गया। कबीर फिर से रुई पींजने लगे। थोड़ी देर में सिपाही आए और कबीर को प्रणाम कर पूछा - यहां कोई चोर आया क्या? कबीर ने सहज भाव से उत्तर दिया - चोर तो इस रुई के ढेर में छिपा है।

सिपाही समझे कि कबीर मजाक कर रहे हैं और वहां से चले गए। उनके जाने के बाद वह आदमी रुई के ढेर में से निकला और नाराज होकर बोला - तुम्हें सच बोलने की क्या जरूरत थी? यदि मैं पकड़ा जाता तो? कबीर ने शांति से कहा - भैया, इतना क्रोधित क्यों होते हो? यदि मैं सच नहीं बोलता तो वे तुम्हें अवश्य खोज लेते।

यह मेरे सत्य बोलने का ही नतीजा है कि वे मेरी बात को मजाक समझकर बिना रुई का ढेर टटोले चले गए और तुम्हारी जान बच गई। वस्तुत: असत्य बोलना तात्कालिक लाभ दे सकता है, किंतु दीर्घकालिक लाभ सत्य बोलने से ही मिलता है। इसलिए हमें हर स्थिति में सत्य ही बोलना चाहिए।

बहू की बुद्धिमानी से सदा के लिए अंधकार का अंत हो गया
यह कथा उस समय की है, जब पृथ्वी पर हर स्थान पर प्रकाश नहीं था और अग्नि भी नहीं थी। चारों ओर अंधेरा छाया रहता था। एक गांव के लोग सदैव अंधकार में ही रहते थे। अंधकार से मुक्ति पाने की इच्छा सभी के मन में थी। इसके लिए उन लोगों ने बहुत उपाय किए, तंत्र-मंत्र का भी सहारा लिया, किंतु सब व्यर्थ रहा। एक दिन सभी ने सामूहिक रूप से विचार किया।

आम सहमति से यह निर्णय हुआ कि गांव के सब लोग अंधेरे को टोकरियों में भरकर फेंकेंगे। उसे गहरी खाई में डाल देंगे तो एक दिन अवश्य ही उसका अंत होगा। उस दिन से गांव के सभी लोग अंधेरे को टोकरियों में भरकर खाई में फेंकने लगे। दिन, माह, वर्ष और युग बीत गए। गांव की पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस कार्य को करते खप गई, किंतु अंधकार का अंत नहीं हुआ।

अंधेरे को फेंकना वहां एक रिवाज बन गया। फिर एक नई पीढ़ी आई। उसे यह रिवाज निर्थक लगा। उस पीढ़ी का एक नौजवान एक दूसरे गांव की लड़की से प्यार करता था। थोड़े दिनों बाद वह उससे ब्याह कर गांव ले आया। पहले ही दिन उस लड़की के सास-ससुर, ननद, जेठ, देवर आदि सभी उसके पीछे पड़ गए कि गृह प्रवेश बाद में करना, पहले पांच टोकरी अंधेरा खाई में फेंको।

लड़की ने अपने वस्त्रों की गांठ से एक सफेद रंग की वस्तु निकाली। दीपक निकाला। दो पत्थर रगड़कर आग जलाई। दीया, बाती, तेल और अग्नि के संयोग से उजाला हो गया और अंधकार सदा के लिए दूर हो गया। इस प्रतीकात्मक कथा का आशय यह है कि बंधी-बंधाई लीक पर चलकर समस्या हल नहीं होती। उसके समाधान के लिए नए मार्गो पर बुद्धि को लगाना चाहिए।

जब मार्ग पर सम्राट ने स्वयं को जूते मारते हुए चक्कर लगाए
एक सम्राट को संन्यास ग्रहण करने की इच्छा हुई। वे एक नामी संत के पास पहुंचे। संत के आश्रम में उस समय काफी भीड़ थी। सम्राट चुपचाप एक कोने में बैठ गए और अपनी बारी आने की प्रतीक्षा करने लगे। जब संत का ध्यान उनकी ओर गया तो उन्होंने सम्राट को अपने पास बुलाया। सम्राट ने संत के पास जाकर आग्रह किया कि वे एकांत में उनसे कुछ कहना चाहते हैं। संत बोले - यहां सर्वत्र एकांत है।

ऐसा समझकर जो भी कहना है, कहो। सम्राट ने संन्यास लेने की इच्छा व्यक्त की। संत ने इसके लिए एक शर्त रखी। उन्होंने सम्राट से कहा कि अपने कपड़े और जूते उतारकर नग्न हो जाओ। फिर अपनी राजधानी के मार्गो पर स्वयं को जूते मारते हुए चक्कर लगाओ।

सम्राट ने ऐसा ही किया। उनके चले जाने पर शिष्यों ने पूछा - जब हम दीक्षा लेने आए थे, तब तो आपने ऐसी कठोर शर्त नहीं रखी थी। फिर सम्राट के साथ ऐसा क्यों किया? संत बोले - तुम्हारा अहंकार इतना बड़ा नहीं था। अत: तुमसे भिक्षाटन करवाकर ही काम बन गया। यह सम्राट है।

इसलिए इनका अहंकार बहुत बड़ा है। जब इस दशा में वह अपनी प्रजा के सामने से गुजरेगा, तब उसका अहंकार नष्ट होगा। सम्राट ने शाम तक शर्त पूरी कर दी और संत के पास आकर दीक्षा देने को कहा। तब संत ने सम्राट के सिर पर मुकुट रखते हुए कहा - अब तुम्हें संन्यास की आवश्यकता नहीं है। कर्ताभाव छोड़कर साक्षी भाव से राज करो, क्योंकि अब तुम राजर्षि हो चुके हो। दरअसल ईश प्राप्ति के मार्ग में मैं का विसर्जन जरूरी है। वस्तुत: अहं का द्वंद्व में विसर्जन होने पर ही प्रभु मिलन होता है।

रामकृष्ण परमहंस ने शिष्यों को दी समानुभूति की सीख
रामकृष्ण परमहंस परम ज्ञानी संन्यासी थे। देशी-विदेशी दार्शनिकों के विचारों का गहन अध्ययन परमहंस ने किया था और इस क्षेत्र में उन्हें खासा अनुभव था। एक दिन उनसे भेंट करने आए कुछ लोगों से एक प्रसिद्ध दार्शनिक की चर्चा चल गई। परमहंस ने उसका एक वाक्य उद्धृत किया -द्वैत नर्क है। परमहंस ने समझाया कि अद्वैत में परम सुख है और वही मानवीयता का चरम है। कुछ देर बाद रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों के साथ नौका में बैठकर नदी पार करने लगे।

अचानक नाव में बैठे-बैठे परमहंस चिल्लाने लगे - मुझे मत मारो, मत मारो। क्यों मारते हो? सभी शिष्य चकित होकर कहने लगे - स्वामीजी, आपको कौन मार रहा है? परमहंस ने पीठ खोलकर दिखाई। वहां कोड़ों के निशान थे और खून छलक आया था। सभी घबरा गए। तब तक नाव किनारे पहुंच गई। वहां कुछ मल्लाह एक मछुआरे को पीट रहे थे। उसकी पीठ पर मार के वैसे ही निशान बने, जैसे परमहंस की पीठ पर थे।

मछुआरा मल्लाहों द्वारा पिटाई का विरोध कर रहा था, किंतु परमहंस नहीं कर रहे थे। जब उनके शिष्यों ने उनकी चोट देखकर दुख व्यक्त किया तो वे बोले - उस दार्शनिक की सूक्ति ‘द्वैत नर्क है’ यही है। उसे मत मारोञ्ज यह द्वैत है। यह कहकर सहानुभूति जताई जाती है।

किंतु दूसरे को पिटता देखकर मुझे मत मारोञ्ज कहना अद्वैत है। यहां सहानुभूति अर्थात सिंपैथी के स्थान पर समानुभूति अर्थात एम्पैथी है और वही स्तुत्य है। जब दूसरों का दर्द स्वयं की अनुभूतियों में उतर आए, तभी मनुष्य सच्च हमदर्द बनता है।

गौतम बुद्ध की साधुता ने दुष्टों का हृदय परिवर्तन कर दिया
गौतम बुद्ध निर्जन जंगल में एक पहाड़ी पर बैठे ध्यान कर रहे थे। वहां चारों ओर शांति थी। कहीं कोई शोर नहीं था। ध्यान करने के लिए इससे उपयुक्त स्थान और कहीं नहीं हो सकता, यही सोचकर बुद्ध ने इसे चुना था। अचानक इस नीरवता को एक कोलाहल ने भंग कर दिया। कुछ दुश्चरित्र लोग एक वेश्या को लेकर वहां आमोद-प्रमोद के लिए आ धमके। एक क्षण में वातावरण की पवित्रता भंग हो गई और शांति, अशांति में बदल गई। उन लोगों ने मदिरापान शुरू कर दिया।

इसी बीच वेश्या अवसर पाकर भाग गई। उन दुष्टों ने उसे वस्त्रविहीन कर दिया था। जब मदिरा का नशा थोड़ा उतरा तो वे लोग उसे खोजने निकले। थोड़ी दूर जाने पर उन्हें ध्यानस्थ बुद्ध दिखाई दिए। उन्होंने बुद्ध का ध्यान भंग कर पूछा - क्या तुमने यहां से किसी को जाते देखा?

बुद्ध के ‘नहीं’ कहने पर उन्होंने फिर पूछा - क्या तुमने एक सुंदर स्त्री को यहां से जाते देखा? बुद्ध द्वारा इंकार करने पर उन्होंने निर्लज्जता से पूछा - क्या यहां से एक निर्वस्त्र स्त्री को भागकर जाते देखा? बुद्ध ने शांत भाव से उत्तर दिया - यहां से कोई गया जरूर था, किंतु वह स्त्री थी या पुरुष, मेरे लिए यह पहचान करना असंभव है। जब तुम्हारा मन भी वासनाविहीन हो जाएगा तो वह भी स्त्री-पुरुष या वस्त्रधारी-निर्वस्त्रधारी का भेद करना भूल जाएगा। सभी दुष्ट अपनी भूल जान लज्जित होकर वहां से चले गए।

सार यह है कि साधुता विकार रहित और निरपेक्ष दृष्टि से देखती है। वहां प्राणिमात्र में किसी प्रकार के भेद के लिए कोई स्थान नहीं होता।

अच्छे लोग जहां भी मिलें उनसे जुड़ जाएं
व्यावहारिक जीवन में हमें कई तरह के लोग मिलते हैं। आप नौकरी कर रहे हों या व्यवसाय, जानते हुए भी कुछ गलत लोगों से संपर्क रखना पड़ता है। जब आपके पास अधिकार या विकल्प हो तो निश्चित ही आप बुरे लोगों से बचना चाहेंगे, लेकिन कभी-कभी मजबूरी हो जाती है, गलत लोगों को भी जिंदगी से गुजारना पड़ता है। व्यावसायिक मजबूरी की बात छोड़ दें, लेकिन यदि आपका बस चले तो हमेशा अच्छे लोगों को ढूंढ़ते रहिए और अच्छे व्यक्ति जहां कहीं मिल जाएं, फौरन उन्हें लपक लीजिए।

एक सवाल यह भी उठता है कि आखिर अच्छे लोगों को कैसे पहचाना जाए। देखिए, कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनके पास बैठकर शांति महसूस होती है। वे यदि बात भी कर रहे होते हैं, तो मौन जैसा रहता है। उनके पास आते ही ऐसी इच्छा होती है कि जीवन को नई दृष्टि से देखा जाए। उनके साथ बैठने का ही दूसरा नाम सत्संग हो जाता है। ऐसे लोग जब जीवन में मिलें, तो उनसे इस तरह से मिलिएगा जैसे अपने पुराने दोस्त से मिल रहे हों। कल्पना करिए बचपन का आपका कोई मित्र बरसों बाद आपको मिले, उसे देखकर जो खुशी आपको होगी, उससे मिलकर जो भाव जागेगा, वैसा ही आनंद अच्छे लोगों से मिलकर हमें होगा।

देव स्थान पर आपको महसूस होगा कि परम शक्ति आपके आह्वान पर आपके भीतर उतरने को तैयार है। परमात्मा पुकारने पर चला आता है। किसी भी देव स्थान में अच्छे लोगों की संग्रहीत ऊर्जा अपना काम कर रही होती है। हमारे कार्यक्षेत्र में सब तरह के लोग होते हैं, लेकिन देव स्थान और सत्संग में भले लोगों की संख्या और संभावना ज्यादा रहती है। अत: अपना कुछ समय देव स्थान में प्रतिदिन जरूर बिताएं और अच्छे लोग जहां से भी मिलें उनसे जुड़ जाएं या उनको अपने से जोड़ लें। अच्छाई-अच्छाई को जगाती है और कोशिश करें कि हम भी दूसरों के लिए अच्छे लोगों की श्रेणी में आएं। जैसे हम उन्हें ढूंढ़ रहे हैं, लोग हमें ढूंढ़ रहे हैं।

एकनाथ से प्रभावित हो चोरों ने लिया चोरी न करने का संकल्प
विख्यात संत एकनाथ बारह वर्ष की अवस्था में ही अपने गुरु के पास देवगढ़ पहुंच गए थे। गुरु ने उन्हें आश्रम के हिसाब-किताब का काम सौंप दिया। एक दिन जब एकनाथ ने हिसाब और रोकड़ का काम किया तो एक पाई की कमी थी। खूब सोचने के बाद आखिरकार उन्हें आधी रात को उस एक पाई का हिसाब मिल गया तो उन्होंने उसी समय गुरुजी को जाकर यह बात बताई।

गुरु जनार्दन स्वामी बोले - बेटा! एक पाई की भूल मिलने से तुम इतने प्रसन्न हो और इस संसार के मायाजाल जैसी महाभूल को अपनाए हुए हो। यह सुनते ही एकनाथ को वैराग्य हो गया। वे अपने गुरु से कृष्णोपासना की दीक्षा लेकर पर्वत पर जाकर तपस्या करने लगे। तपस्या के बाद वे अपनी जन्मभूमि के निकट पिपलेश्वर महादेव में रहने लगे। किंतु थोड़े ही समय बाद वे विवाह कर गृह संन्यासी बने।

एकनाथ ने गुरु के आदेश का पालन किया। विवाह के बाद उनके घर में नित्य कीर्तन होता और अन्न वितरण किया जाता। एक दिन कीर्तन में कुछ चोर आ गए। उन्होंने घर का सभी सामान समेट लिया। फिर उन्होंने देवमूर्ति के आभूषण चुराने का प्रयास किया। वहीं एकनाथ ध्यान मग्न बैठे थे।

उन्होंने चोरों से कहा - तुम्हें इनकी बहुत ज्यादा जरूरत होगी अन्यथा इतनी रात गए भला कोई जोखिम क्यों उठाता? यह कहते हुए उन्होंने अपनी अंगुली की अंगूठी भी उतारकर उन्हें दे दी। यह देख चोर लज्जित हुए और उन्होंने कभी चोरी न करने का संकल्प लिया। सार यह है कि बुराई का प्रतिकार अच्छाई से ही संभव है।

श्रीराम के हाथों मृत्यु पाकर मेंढक ने पाया मोक्ष
श्रीराम को अपने पिता द्वारा 14 वर्ष का वनवास दिया गया, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उनके साथ लक्ष्मण और सीता भी वन में गए। चौदहवें वर्ष के आरंभ में रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के लिए सीता का हरण कर लिया। राम और लक्ष्मण सीता को खोजते-खोजते एक दिन एक सरोवर पर पहुंचे।

राम ने लक्ष्मण को वहीं रुकने के लिए कहा और पानी पीने के लिए किनारे की ओर बढ़े। उन्होंने अपना धनुष कंधे से उतारकर रखा और बाण को नम भूमि में धंसा दिया। जब राम पानी पीकर लौटे तो उन्होंने मिट्टी में धंसे अपने बाण को खींचा। तभी उन्हें बाण की नोंक पर रक्त लगा दिखाई दिया। उन्होंने मिट्टी की ओर देखा तो वहां एक मेंढक बाण की नोंक से घायल होकर लहुलूहान पड़ा था।

राम ने मेंढक को बाहर किया और कहा - तुमने मुझे आवाज क्यों नहीं दी? यदि तुम दर्द के मारे चिल्लाते तो मैं बाण निकालकर तुम्हें बचा लेता और इस पाप कर्म का भागी न बनता। मेंढक कराहते हुए बोला - प्रभु! जीवन में जब भी मुझ पर संकट आया तो आपको ही याद किया और आपने हमेशा मेरी रक्षा की। आप ही तो इस जगत में सर्वोपरि हैं।

राम ने दुखी होकर कहा - फिर तुमने इस बार मुझे क्यों नहीं पुकारा? मेंढक बोला - इस बार जब मेरे राम, मेरे रक्षक स्वयं ही मुझे मार रहे थे तो आपके ऊपर कौन-सी ऐसी सत्ता है, जिसे पुकारता? यह कहते हुए मेंढक सदैव के लिए जीवन मुक्त हो गया। वस्तुत: अखंड भक्ति अटूट विश्वास को जन्म देती है और यही विश्वास सबसे बड़ा जीवन संबल बन जाता है। इसे पाने के बाद भक्त सभी अवस्थाओं में परम प्रसन्न रहता है।

एक संत ने दूसरे संत को दिया जीवन जीने का संदेश
सूफी संतों में एक महिला संत हुई हैं राबिया। वे अत्यंत सादगी से अपना जीवन व्यतीत करती थीं। हर क्षण अल्लाह का नाम लेती रहतीं और किसी से कुछ पाने की कभी इच्छा न करतीं। उनकी कुटिया में साधु-संतों और भक्तों का आना-जाना लगा रहता था। वे सभी का अतीव प्रेम व स्नेह से सत्कार करती थीं।

एक दिन एक संत उनकी कुटिया में आए और रात को भी रुके। रात को सोते समय उन्होंने देखा कि राबिया ने अपने सोने के लिए टाट बिछाया और तकिए के स्थान पर एक ईंट रख ली। फिर अल्लाह का नाम लेकर लेटीं और कुछ देर में गहरी नींद में सो गईं। इतनी बड़ी संत का ऐसा कठोर जीवन देखकर संत को बड़ा दुख व आश्चर्य हुआ।

वे रातभर इस कष्ट में सो नहीं पाए। सुबह उठकर उन्होंने राबिया से कहा - आप इतना कष्ट क्यों उठाती हैं? मेरे कई धनी मित्र हैं। मैं उन्हें कहकर आपके लिए एक अच्छे बिस्तर की व्यवस्था करवा देता हूं। राबिया बोलीं - तुम्हारी मोहब्बत के लिए शुक्रिया। मगर ये तो बताओ कि मुझे, तुम्हें और अमीरों को देने वाला क्या एक नहीं है? संत ने कहा - हां एक ही है।

तब राबिया बोलीं - क्या वह हमें भूल गया है और दौलतमंदों की उसे याद है? यदि उसे हमारी याद नहीं तो हम क्यों याद दिलाएं? मेरे भाई, सच तो यह है कि हमें यह पसंद है क्योंकि उसे (ईश्वर को) भी यही पसंद है। कथा का सार यह है कि जितना मिले, उसे ईश्वर की इच्छा मानकर आत्मसंतुष्टि कर लेने से न अभाव महसूस होता है और न ही कष्ट।

जब गुलाम ने मालिक के रूप में अपनी बोली लगाई
यूनानी दार्शनिक डायजनीज शारीरिक रूप से काफी स्वस्थ और बलशाली थे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने सब कुछ त्याग दिया था और निर्वस्त्र रहने लगे थे। वे महीनों जंगल में घूमते और बस्तियों से दूर रहते। एक दिन वे किसी निर्जन वन में घूम रहे थे। तभी उन्हें कुछ व्यापारी मिले। ये सभी सशस्त्र थे और इनका काम गुलामों का व्यापार करना था।

ये लोग निर्धन और लाचार लोगों को पकड़ लेते और गुलाम बनाकर मंडियों में बेच देते। डायजनीज को देखकर उन्हें लगा कि इतना सुंदर और बलवान गुलाम तो काफी अच्छे पैसों में बिकेगा। उन्होंने डायजनीज को घेर लिया और बोले - हम तुम्हें गुलाम बनाने आए हैं।

डायजनीज ने निर्भीकता से कहा - ठीक है, हम गुलाम हुए। किंतु हम अपने मन के मालिक हैं। बोलो कहां चलना है? वे बोले - पहले तुम्हें जंजीरें तो डाल दें।

डायजनीज ने कहा - क्यों व्यर्थ समय और शक्ति नष्ट करते हो? मैं कहीं नहीं भागूंगा। उन्होंने मंडी पहुंचकर डायजनीज की गुलाम के रूप में बोली लगानी शुरू की। तब डायजनीज ने कहा - नासमझो! तुम मेरे पीछे आए हो या मैं तुम्हारे पीछे आया हूं? कौन, किससे बंधा है? इसलिए मैं आवाज लगाता हूं कि एक मालिक बिकने आया है। जिसे खरीदना हो, खरीद ले।

डायजनीज ने यही आवाज लगाई। खरीदारों की भीड़ हैरान रह गई और उधर से गुजर रहे यूनान के बादशाह सिकंदर ने डायजनीज को अपना गुरु मानकर उसके समक्ष सिर झुका दिया। वस्तुत: किसी को शारीरिक रूप से परास्त करके गुलाम नहीं बनाया जा सकता। प्रेम से अधिकार पाया जा सकता है, बल से नहीं।

फ्रायड के शिष्यों ने जाना सच्चा शिष्य होने का अर्थ
प्रख्यात मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड के अनेक शिष्य थे, जो उनके मनोविश्लेषणवादी सिद्धांतों के समर्थक थे। मानव मन के आरोह-अवरोह के विषय में फ्रायड की दृष्टि अत्यंत सूक्ष्म थी और उनके निष्कर्ष बड़े सटीक होते थे। जब फ्रायड बुजुर्ग हो गए तो उन्हें लगा कि अपने ऐसे असली शिष्यों को छांटना चाहिए, जो उनके सिद्धांतों को सही-सही स्वरूप में समझकर उनका ठीक से प्रचार कर सकें।

ऐसा सोचकर उन्होंने अपने तीस शिष्यों के पास सूचना भेजी - ‘मेरा अंत समय निकट है, तुम लोग शीघ्र आ जाओ।’ शिष्य तत्काल आ गए। फ्रायड ने उनसे कहा - देखो, मैंने मनोविश्लेषण पर आधारित सिद्धांतों को लेकर बड़ा आंदोलन चलाया और तुम सब मेरे बाद भी मेरी विचारधारा का प्रचार करते रहना। शाम को सबने फ्रायड के साथ भोजन किया और फिर फ्रायड ने ऐसा नाटक किया, मानो वे बेहोश हो गए हों।

शिष्यों ने समझा कि गुरुजी अब जाने वाले हैं। थोड़ी ही देर में फ्रायड के सिद्धांतों को लेकर उन सभी में बहस छिड़ गई। सभी अलग-अलग व्याख्याएं करने लगे। यहां तक कि आपस में मरने-मारने पर उतारू हो गए, क्योंकि सभी का दावा था कि फ्रायड को केवल उसी ने समझा है।

कुछ समय बाद फ्रायड उठकर बैठ गए और सभी शिष्यों को शांत करते हुए बोले - अभी तो मैं जिंदा हूं, तो ये हाल है। मेरी मृत्यु के बाद भी वही होगा, जो अन्य धर्मगुरुओं के साथ होता रहा है। कथा का सार यह है कि गुरु के विचारों को अपनी बपौती मानने से नहीं, बल्कि उन्हें अपने आचरण में जीने से सच्च शिष्यत्व सिद्ध होता है।

अनोखे ढंग से महात्मा ने दिया मोह से बचने का संदेश
एक महात्मा की संपत्ति मात्र चार वस्तुएं थीं - एक कंबल, चिमटा, तूंबी और लंगोटी। इन चारों वस्तुओं में कीमत की दृष्टि से सर्वाधिक मूल्यवान था कंबल, जो महात्मा को किसी भक्त ने दिया था। एक रात वह कंबल चोरी हो गया। दूसरे दिन जब महात्मा के भक्त उनकी कुटिया में आए तो उन्हें यह जानकर बड़ा दुख हुआ।

उन सभी ने महात्मा को दूसरा कंबल लाकर देने की बात कही, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा - मुझे पता है कि वह कंबल कौन ले गया है? कहां है और कब मिलेगा? भक्त समझे कि महात्मा त्रिकालदर्शी हैं और उन्होंने चोर का पता लगा लिया है। उन लोगों ने महात्मा से प्रार्थना की कि वे चोर के बारे में बता दें ताकि उसे दंड दिया जा सके। यह सुनकर महात्मा उठ खड़े हुए और भागने लगे। भक्तों ने पूछा कि कहां जा रहे हैं? वे बोले - चोर को पकड़ने जा रहा हूं। तुम सभी मेरे पीछे चले आओ। सभी भक्तों को लेकर वे श्मशान में पहुंचे और धूनी रमाकर बैठ गए।

भक्तों ने पूछा - क्या चोर यहीं है? महात्मा ने उत्तर दिया - एक न एक दिन वह यहीं आएगा। सारी दुनिया यहीं आती है। यही सभी की अंतिम मंजिल है। उनकी भी, जिनके पास कंबल है और उनकी भी, जिनके पास कंबल नहीं है। उसकी भी, जिसका कंबल चोरी चला गया है और उसकी भी, जिसने कंबल चुराया है। महात्मा की बात का मर्म जानकर भक्तों को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ। सार यह है कि मानव जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है। इसलिए किसी भी वस्तु के प्रति मोह नहीं रखना चाहिए, क्योंकि मोह अंतत: दुख का कारण बनता है।

माओत्से तुंग ने जड़ से समझा जीवन का रहस्य
चीन के महान नेता माओत्से तुंग के जीवन से जुड़ी एक घटना है। उनके घर में एक बगीचा था। वह इतना मनोहर था कि लोग उसे रोजाना देखने आते थे। बगीचे की देखभाल माओत्से की मां करती थीं। एक बार मां बीमार हो गईं। बीमारी में भी मां को स्वयं से अधिक बगीचे की चिंता थी। उन्हें लगता था कि खिले हुए फूल मुरझा न जाएं।

मां की चिंता देख माओत्से तुंग ने बगीचे की देखरेख स्वयं आरंभ कर दी और मां को आश्वस्त कर दिया कि फूल नहीं मुरझाएंगे। मां के स्वस्थ होने तक माओ ने बगीचे की भरपूर देखभाल की, किंतु फूल मुरझा गए और बगीचा सूखने लगा। ठीक होने पर जब मां बगीचे में आईं तो यह देखकर बहुत दुखी हुईं। उन्होंने कहा - तूने बगीचे के पीछे अपने खाने-पीने की चिंता नहीं की। फिर यह कैसे हो गया?

माओ बोले - मैंने तो एक-एक पत्ते की धूल झाड़ी, एक-एक फूल पर पानी छिड़का फिर भी न जाने क्यों बगीचा सूख गया। तब मां ने माओ को प्रेम से गले लगाते हुए कहा - मेरे बच्चे फूलों के प्राण उसकी जड़ों में होते हैं। फिक्र जड़ों की करनी पड़ती है, पत्तियों और शाखाओं की नहीं।

माओ ने पूछा - जड़ें कहां होती हैं मां? मां ने कहा - जडें जमीन के भीतर होती हैं, इसलिए दिखाई नहीं देतीं। किंतु उनके पोषण से ही पौधा बढ़ता है क्योंकि वही पौधे की नींव होती है। मां की इसी बात से आगे चलकर माओत्से ने यह जीवन दर्शन समझा कि जीवन बाहर कहीं नहीं है। वह अपने ही भीतर होता है। सार यह है कि आवश्यकता केवल अंतर्यात्रा की है, जिससे जीने के सूत्रों को सही ढंग से समझा जा सके।

जापान में साम्राज्यवाद की बहाली व सुधारीकरण का एक अहम दौर
मेजी रेस्टोरेशन वर्ष 1868 में जापान में हुए घटनाक्रमों का एक ऐसा सिलसिला था, जिसके जरिए वहां पर साम्राज्यवादी शासन बहाल हुआ और व्यापक सुधारों की राह प्रशस्त हुई। जापान में उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर से ही तोकुगावा शोगुनेट की सत्ता का विरोध बढ़ने लगा था। वहां पर पश्चिमी ताकतों और खासकर अमेरिकियों के दखल ने विरोध को और भड़का दिया। 1854 में शोगुनेट ने विदेशी दबाव के आगे झुकते हुए कई संधियां की।

पश्चिमी जापान के ताकतवर चोंशु और सात्सुमा प्रांतों ने अपने बलबूते विदेशियों को रोकने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे। जनवरी 1868 में इन इलाकों के समुराइयों ने शोगुनेट के विरोधियों के साथ मिलकर एक सफल क्रांति को अंजाम दिया, जिससे वहां साम्राज्यवाद फिर से स्थापित हो गया। राजसभा को क्योटो से टोक्यो ले जाया गया, जहां एक केंद्रीकृत प्रशासन व्यवस्था तैयार की गई।

सम्राट मेजी के नेतृत्व में इस सरकार ने सामंती व्यवस्था को खत्म करते हुए प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक, वैधानिक, शैक्षणिक व सैन्य स्तर पर कई सुधारवादी कार्यक्रमों का आगाज किया, जिससे जापानी समाज में व्यापक सकारात्मक बदलाव आए। वर्ष 1889 में मेजी संविधान को अंगीकार किया गया।

आखिर सम्राट ने कंफ्यूशियस को असली सम्राट माना
चीन के महानतम संत कन्फ्यूशियस एक दिन जंगल में बैठकर चिंतन कर रहे थे। उन्हें प्राय: एकांत स्थलों पर जाना पसंद था क्योंकि वहां की शांति ध्यान और चिंतन-मनन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती थी। उस दिन चीन के सम्राट का काफिला उधर से गुजरा। जब सम्राट ने कन्फ्यूशियस को ध्यानमग्न देखा तो उनके मन में यह जिज्ञासा हुई कि ये कौन है? वे कन्फ्यूशियस के पास आए और कुछ देर तक उन्हें देखते रहे।

फिर बोले - आप कौन हैं? कन्फ्यूशियस ने कहा - मैं सम्राट हूं। सम्राट को यह सुनकर अचरज हुआ। वे बोले - सम्राट तो मैं हूं। देखो, मेरे पास सेना है, सेवक है, अपार धन-संपत्ति और हाथी-घोड़े हैं। तुम्हारे पास तो इनमें से कुछ नहीं दिखाई देता। फिर तुम सम्राट कैसे हुए? कन्फ्यूशियस मुस्कराते हुए बोले - सेना उसे चाहिए, जिसके शत्रु हों।

मेरा कोई शत्रु नहीं है। इसलिए मुझे सेना की जरूरत नहीं। जो आलसी या असमर्थ होते हैं, उन्हें सेवकों की जरूरत होती है। न मैं आलसी हूं और न असमर्थ, इसलिए मुझे सेवक की आवश्यकता नहीं। धन-संपत्ति दरिद्र को चाहिए और मैं दरिद्र भी नहीं हूं, क्योंकि मेरे पास संतोष रूपी धन है।

अब आप ही बताइए कि असली सम्राट आप हैं या मैं? सम्राट निरुत्तर हो आगे बढ़ गए। कथा का सार यह है कि अमीरी साधनों से नहीं, संतुष्टि से तय होती है। असीमित साधनों के होते हुए भी असंतोष होना सबसे बड़ी निर्धनता है और सीमित साधनों में परम संतुष्टि का भाव आत्मा की महान संपन्नता को दर्शाता है।

सम्राट सिकंदर ने आत्मप्रशंसा से दूर रहने का संदेश दिया
यह बात उन दिनों की है जब यूनान का बादशाह सिकंदर था। सिकंदर किसी भी विधा में पारंगत कलाकारों की बहुत कद्र करता था। वह अपने दरबार में आने वाले हर उस कलाकार का भरपूर सम्मान और सत्कार करता था, जो अपने फन में माहिर हो।

एक दिन सिकंदर के मन में यह विचार आया कि राजधानी के किसी बड़े बगीचे में स्वर्गीय और वर्तमान सभी महापुरुषों की मूर्तियां स्थापित की जानी चाहिए, ताकि उनके विषय में हर आने-जाने वाले को जानकारी मिल सके और उनकी ख्याति चारों ओर फैले।

अपने इस विचार को कार्यान्वित करने के उद्देश्य से सिकंदर ने शीघ्र ही कारीगरों को बुलाकर यह कार्य करने का आदेश दिया। कारीगरों ने बड़े परिश्रम से सभी मूर्तियां बनाईं और एक बड़े बगीचे में स्थापित कर दीं। एक दिन पड़ोसी राज्य का महामंत्री शाही अतिथि के रूप में राजधानी आया। सिकंदर उसे मूर्तियों वाला बगीचा दिखाने ले गया।

सिकंदर ने महामंत्री को मूर्तियां दिखाते हुए एक-एक मूर्ति का परिचय दिया। अंत में महामंत्री ने पूछा - महाराज। आपकी मूर्ति कहीं भी दिखाई नहीं पड़ी? वह भी यहां होनी चाहिए? सिकंदर ने उत्तर दिया - मेरी मूर्ति यहां स्थापित की जाए और फिर अगली पीढ़ी यह पूछे कि यह मूर्ति किसकी है, इससे बेहतर मुझे यह लगता है कि मेरी मूर्ति यहां न हो और लोग पूछें कि सिकंदर की मूर्ति यहां क्यों नहीं है? कथा का सार यह है कि यश तो हमारे सत्कर्मो से मिलता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म करें।

दुर्गुणों से बचने की राह बताई महावीर स्वामी ने
भगवान महावीर के अनेक शिष्य थे, जो उनसे कई गंभीर विषयों पर सार्थक चर्चा करते थे। ऐसी चर्चाओं से शिष्यों को ही लाभ प्राप्त नहीं होता था, बल्कि उनके द्वारा जनता के मध्य भी ज्ञान का प्रचार होता था। एक दिन महावीर स्वामी ने अपने शिष्यों से पूछा कि मनुष्य के पतन के क्या कारण हो सकते हैं? शिष्यों ने सोचा-विचारा। फिर किसी ने अहंकार बताया तो किसी ने काम वासना।

किसी शिष्य का विचार था कि लोभ मानव के पतन का मूल कारण है तो कोई यह मानता था कि क्रोध इसकी जड़ है। सभी की बात सुनने के बाद महावीर ने कहा - मान लो कि मेरे पास एक कमंडल है, जिसमें काफी मात्रा में पानी समा सकता है। यदि उसे नदी में यों ही छोड़ दिया जाए तो क्या वह डूबेगा? शिष्यों ने इंकार में सिर हिलाया। महावीर ने पूछा - यदि उसमें छिद्र हो तो? शिष्यों ने कहा - तब वह अवश्य डूबेगा।

महावीर ने पुन: प्रश्न किया - यदि छिद्र दाईं ओर हो तो? तब एक शिष्य बोला - छिद्र दाईं ओर हो या बाईं ओर, वह डूबेगा ही। तब महावीर ने समझाया - मानव जीवन भी उस कमंडल की तरह ही है। उसमें दुगरुण रूपी छिद्र जहां हुआ, समझ लो वह डूबने वाला है। काम, क्रोध, लोभ, अहंकार आदि में कोई भेद नहीं है। कथा का सार यह है कि दुगरुण कोई भी हो, व्यक्ति का जीवन बर्बाद करने हेतु पर्याप्त है क्योंकि उससे व्यक्ति की विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है और उसके निकट संबंधी भी उससे दूरी बना लेते हैं।

तुलाधार से सच्च पुण्य कमाने की कुंजी पाई साधु ने
तुलाधार एक उदार विचारधारा वाले विद्वान थे। उन्हें व्यर्थ के आडंबर और दिखावे में विश्वास नहीं था। वे न कभी किसी धार्मिक यात्रा पर गए और न ही नित्य मंदिर जाना, पूजा-पाठ करना, व्रत-उपवास रखना उनकी दिनचर्या में शामिल था। वे प्राणिमात्र की सेवा को सर्वोपरि मानकर उसी में लगे रहते थे। एक दिन तुलाधार के घर एक साधु आए।

तुलाधार ने उनका यथोचित सत्कार किया। फिर दोनों के बीच धर्मचर्चा होने लगी। साधु तुलाधार से बहुत प्रभावित हुए। बातों ही बातों में वे बोले - बेटा! तुम कुछ दिन के लिए तीर्थयात्रा कर आओ। इससे तुम्हें शांति और पुण्य की प्राप्ति होगी। साधु की बात सुनकर तुलाधार मुस्कराकर बोले - महाराज! मेरे इस गांव में कितने ही लोग भूख से पीड़ित हैं, कितनों को दवाइयों की आवश्यकता है और कितने ही वस्त्र के जरूरतमंद हैं। मैं अपनी कमाई के चार पैसे इनकी रोटी, कपड़े और दवा आदि पर खर्च करना अधिक बेहतर मानता हूं।

यही मेरी तीर्थयात्रा है और इसी से मुझे परम शांति मिलती है। इसे ही मैं सच्च पुण्य भी मानता हूं। तुलाधार की बात सुनकर साधु को अपनी मिथ्या आस्तिकता का अहसास हुआ और वे तुलाधार को अपना गुरु मानकर सेवा कार्यो में लग गए। सार यह है कि सेवा ही सच्च धर्म और कर्म है, क्योंकि यह ‘निज का पर’ के प्रति समर्पण है, जबकि व्रत-उपवास, तीर्थयात्रा आदि निजी लाभ के लिए किए जाते हैं।

अंतस में जगाएं तीन वृत्तियां विवेक, वैराग्य और सरलता
संसार पाना हो, तो दौड़ लगाना ही पड़ती है और भगवान से मिलना हो, तो थोड़ा रुकना पड़ता है। इन दोनों के बीच की स्थिति है चलना। नए वर्ष में जब हमारे कदम प्रवेश के साथ फूट रहे हों इस बात पर विचार करिए कि यात्रा को केवल बाहर ही न रखें, भीतर की ओर मोड़ने की तैयारी भी हो। अब पूरा एक वर्ष चलना है। कितनी ही रुकावटें, कितने ही मोड़ आएंगे। गति रुकेगी नहीं, लेकिन गति मोड़ी जा सकती है। अपनी कामकाज की दुनिया में देखिए आप पाएंगे हम चारों ओर भीड़ से घिरे हुए हैं।

कल्पना करिए कि जैसे हम मेले में जा रहे हों और हमारे आसपास लोगों की भारी भीड़ हो, जब आप सामान्य मनुष्य की तरह भीड़ में चल रहे होते हैं, तब आपको याद होगा कि रेले का धक्का आपको अपने आप चला रहा है। इसीलिए भीड़ में चलने का एक कायदा है, अपने को ढीला छोड़ दो। पीछे से धक्का आ रहा होता है, आप चाहें तो भी नहीं रुक सकते और ऐसे में किसी धक्के से गिर गए, तो दुख की बात यह होगी कि लोग आपके ऊपर चढ़कर, हो सकता है आपको रौंदकर निकल जाएं और ऐसी दुर्घटनाएं होती भी रहती हैं।

लगभग यही दृश्य जिंदगी के साथ भी है। चारों तरफ भीड़ है, फिर भी हम अकेले रहते हैं। एेसे में हमारे भीतर भी निराशा, प्रतिद्वंद्विता आने लगती है। अपने को बचाने के लिए या आगे जाने के लिए हम भी भीड़ का हिस्सा हो जाते हैं। हम भी धक्का-मुक्की करने लगते हैं। न चाहते हुए और अनजाने में ही किसी को गिराने का कारण बन जाते हैं।

दुनिया की दौड़ ऐसी ही होती है। दौड़ना तो है ही। ऐसे में अपने भीतर एक थ्री डी सिस्टम पैदा करिए, जिसको वैराग्य कहा है। यह आध्यात्मिक प्रयोग है। थ्री डी का अर्थ होता है डिस्क्रिमिनेशन, यानी विवेक, डिस्पेशन, यानी वैराग्य और डिवोशन, यानी सरलता। इन तीन वृत्तियों को अपने भीतर जगाए रखें और भीड़ के साथ चलते रहें। तब आप भीड़ का हिस्सा भी रहेंगे और भीड़ से अलग भी। जहां आपको पहुंचना है पहुंच भी जाएंगे और रुकावटें आपकी मददगार हो जाएंगी।

ईश्वर पर आस्था के सहारे मैना ने पाई मृत्यु पर विजय
वर्षा के दिन थे। शाम घिर आई थी। एक वृक्ष पर बहुत सारे कौए बैठे थे। वे आपस में लड़ रहे थे। उसी समय एक मैना वहां आई और उस वृक्ष की एक डाल पर बैठ गई। अब कौए अपना झगड़ा छोड़ मैना से लड़ने लगे। मैना ने कहा - बारिश होने वाली है और अंधेरा घिर आया है।

मुझे आज रात इस पेड़ पर आश्रय दे दो, कल चली जाऊंगी। किंतु कौए नहीं माने। उन्होंने पेड़ पर केवल अपना अधिकार बताया। तब मैना बोली - यह संपूर्ण पृथ्वी और उसके प्राणी सब ईश्वर के बनाए हुए हैं। यदि बारिश हुई और ओले पड़े तो भगवान ही हमारे प्राण बचा सकते हैं।

यह सुनकर कौए कहने लगे - तुम भगवान का बहुत नाम लेती हो तो भगवान के भरोसे यहां से चली क्यों नहीं जाती? तुम जाओ, नहीं तो हम तुम्हें मार डालेंगे। बेचारी मैना वहां से उड़कर आम के एक पेड़ पर बैठ गई। रात को आंधी आई और जोरदार बारिश के साथ ओले भी पड़ने लगे। ओलों की मार से सभी कौए घायल होकर जमीन पर गिर पड़े और कुछ मर गए।

मैना जिस वृक्ष पर बैठी थी, उसकी एक मोटी डाल आंधी में टूट गई। वह भीतर से पोली थी। मैना डाल की खोह में घुस गई और उसे एक भी ओला नहीं लगा। सुबह धूप निकलने पर वह उड़ी तो घायल कौओं में से एक ने उससे पूछा - तुम्हें ओलों की मार से किसने बचाया? मैना बोली - मैं लगातार भगवान को याद करती रही, इसीलिए सुरक्षित रह पाई। मैना की बात सुनकर कौओं को भूल का अहसास हुआ। कथा का सार यह है कि कष्ट में पड़े हुए प्राणी को ईश्वर ही बचा सकता है।

सलाह नहीं मानने की सजा पाई सिंह शावक ने
एक जंगल में अनेक पशु-पक्षियों के साथ शेर का परिवार भी रहता था। शेर के साथ शेरनी और उसके दो बच्चे थे। शेर और शेरनी अपने दोनों बच्चों को अत्यधिक स्नेह करते थे और उन्हें कहीं अकेले नहीं जाने देते थे। कभी-कभी वे अपने बच्चों को लेकर निकलते। उन्हें देखकर जंगल के सभी पशु डरकर भाग जाते थे।

अधिकतर वे बच्चों को गुफा में छोड़कर जंगल में भोजन की तलाश में जाते थे और बच्चों को अकेले गुफा से बाहर नहीं निकलने की सलाह देते थे। एक दिन जब शेर-शेरनी जंगल में गए थे, तो बड़े बच्चे ने छोटे से कहा - चलो, झरने से पानी पी आएं और वन में थोड़ा घूमें। हिरनों को डराना मुझे बहुत अच्छा लगता है।

छोटे बच्चे ने माता-पिता की सलाह याद दिलाई, किंतु बड़ा नहीं माना। अंतत: छोटे ने जाना स्वीकार नहीं किया और बड़ा झरने के पास गया। उसने भर पेट पानी पिया और फिर हिरनों को खोजने लगा, तभी वहां घूमते हुए कुछ शिकारियों ने उसे घेरकर पकड़ लिया और रस्सियों से बांधकर शहर ले गए।

शहर में जाकर उन्होंने शेर के बच्चे को चिड़ियाघर वालों को बेचकर धन कमाया। शेर के बच्चे ने माता-पिता की सलाह न मानकर परिवार के साथ ही अपनी स्वतंत्रता भी गंवा दी। अब उसके पास सिवाय पछताने के और कुछ नहीं था। कथा का संकेतार्थ यह है कि पुरानी पीढ़ी की तुलना में युवा पीढ़ी अधिक ज्ञानी हो सकती है, किंतु अनुभव बुजुर्गो की ही संपत्ति होता है और अनेक महत्वपूर्ण अवसरों पर ज्ञान से अधिक अनुभव काम आता है।

बिना विचारे काम करने पर पछताना ही पड़ता है
जातक कथाओं में एक कथा आती है, जो कार्य से पूर्व विचार की शिक्षा देती है। एक पुरानी हवेली में एक वृद्ध महिला रहती थी। उसके घर में और कोई नहीं था, वह अकेली थी। इसलिए उसने घर के प्रत्येक कार्य के लिए नौकर-नौकरानी रख रखे थे। उस वृद्धा के पास एक तोता था, जो अत्यंत वफादार था। वह वृद्धा का सुबह से लेकर रात तक मनोरंजन करता था।

यहां तक कि पिंजरा खुला होने पर भी वह कभी नहीं भागा। वृद्धा भी उससे बहुत स्नेह करती थी। चूंकि वृद्धा को समय देखना नहीं आता था, इसलिए वह तोते के जगाने पर ही उठती थी। तोता उसे सुबह होते ही जगाता और फिर वृद्धा अपने नौकर-नौकरानियों को उठाकर घर के कामों में लगाती थी।

इसलिए नौकर-नौकरानी उस तोते से बहुत चिढ़ते थे। एक दिन उन्होंने विचार किया कि यदि तोते को मार डालें तो समस्या हल हो जाएगी। ऐसा सोचकर उन्होंने अवसर पाकर तोते को मार डाला। तोते की मृत्यु के बाद वृद्धा को समय का कोई अंदाजा नहीं हो पाता था।

इसलिए जब उसकी नींद खुल जाती, वह नौकर-नौकरानियों को उठाकर काम में लगा देती। अब तो उन लोगों के पास अपनी करनी पर पछताने के सिवाय कुछ नहीं बचा था। कथा का निहितार्थ यह है कि किसी भी काम को करने के पहले उसके परिणामों पर एक बार अवश्य विचार कर लेना चाहिए, क्योंकि अविचारित कर्म अधिकांशत: प्रतिकूल परिणाम ही देते हैं।

घोड़े से गिरने के बाद युवक ने गुरु का महत्व जाना
एक युवक अत्यंत जिज्ञासु प्रवृत्ति का था। वह अल्प समय में सभी प्रकार का ज्ञान हासिल करना चाहता था। इसके लिए वह अक्सर पुस्तकालय जाता और वहां नई-पुरानी सभी प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन करता रहता था। लगातार किताबें पढ़ते रहने से युवक के ज्ञान में काफी वृद्धि हुई भी थी और उसे इसका बहुत अहंकार भी था। एक बार युवक को घुड़सवारी सीखने की इच्छा हुई। वह तत्काल पुस्तकालय में पहुंचा और वहां घुड़सवारी से संबंधित पुस्तक खोजने लगा।

काफी देर खोजने के बाद उसे एक पुस्तक मिली, जिसमें घुड़सवारी के गुर लिखे हुए थे। उसने एक दिन में ही पूरी पुस्तक पढ़ डाली। अगले दिन वह अपने एक मित्र के घर गया, जिसके पास एक घोड़ा था। घोड़ा देखकर युवक ने मित्र से घुड़सवारी का आग्रह किया। मित्र ने कहा - बैठकर देखो।

युवक ने घोड़े पर चढ़ने का प्रयास किया, किंतु घोड़े ने उसे गिरा दिया, क्योंकि वह केवल अपने मालिक को पहचानता था। युवक ने हरसंभव कोशिश की, लेकिन सफल न हो सका। तब मित्र ने पूछा - तुमने घुड़सवारी कहां से सीखी? युवक बोला - किताब से। यह सुनकर मित्र ने कहा - किताबें पढ़कर ही सभी कलाएं नहीं सीखी जा सकतीं।

इसके लिए गुरु की जरूरत होती है। प्रत्येक विधा का ज्ञान पुस्तकों से होना संभव नहीं है। विषय पर पूर्ण अधिकार व दक्षता हासिल करने के लिए किसी योग्य गुरु का मार्गदर्शन लेना चाहिए।

महात्मा ने टेढ़े मार्ग से पाया सीधा व बेहतर परिणाम
एक गांव में दो भाई रहते थे, जो अपनी शैतानियों के लिए कुख्यात थे। उन्हें दूसरों को परेशान करने में बड़ा आनंद आता था। वे हर समय किसी न किसी को परेशान करने में लगे रहते थे। गांव के लोगों के साथ-साथ उनके माता-पिता भी उनकी ऐसी हरकतों के कारण बहुत दुखी थे।

जब गांव का कोई व्यक्ति उनके माता-पिता के पास उनकी शिकायत लेकर आता तो वे दोनों को बहुत समझाते, किंतु दोनों भाइयों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। एक दिन उनकी मां गांव में आए हुए एक महात्मा के पास गईं और अपने बच्चों में किसी भी तरह ईश्वर का भय भर देने का आग्रह किया, ताकि वे लोग शैतानी से बाज आएं। महात्मा ने मां से दोनों को एक-एक करके उनके पास भेजने को कहा।

मां ने अपने पहले लड़के को महात्मा के पास भेजा। वह जाकर महात्मा के पास बैठ गया। महात्मा ने उससे पूछा - ईश्वर कहां है? लड़के की कुछ समझ में नहीं आया और उसने कोई उत्तर नहीं दिया। तब महात्मा ने दोबारा यही सवाल कड़ककर पूछा तो डर के मारे लड़का वहां से तेजी से भागा और भागते हुए अपने भाई के पास जा पहुंचा और बोला - भाई, तुम्हें पता है ईश्वर खो गया है और सब लोग इसके लिए हमें ही जिम्मेदार समझ रहे हैं। छोटा भाई भी इतना बड़ा आरोप सुनकर डर गया और उस दिन से दोनों ने शैतानी करना छोड़ दिया। कथा का सार यह है कि जब सीधे मार्ग से सुधार की राह न मिले तो टेढ़े मार्ग का सहारा लेना ही सर्वथा उचित है।

शारीरिक मेहनत करने से राजा शीघ्र स्वस्थ हो गया
बहुत पुराने समय की बात है। एक राजा था, जो हर समय अस्वस्थ रहता था। कोई न कोई शारीरिक कष्ट उसे सदैव बना रहता था। इस कारण राज-काज में भी उसका मन नहीं लगता था। राजवैद्य से लेकर अन्य कई नामी वैद्य उसका उपचार कर चुके थे, किंतु बीमारी की जड़ कोई नहीं पकड़ पा रहा था। राजा बड़ा परेशान हो गया। एक दिन राजा को किसी से पड़ोसी राज्य के एक अच्छे वैद्य के बारे में पता चला।

उसने उसे सादर बुलावा भेजा। वैद्य ने आकर राजा का सूक्ष्म परीक्षण किया, फिर उसकी दिनचर्या के बारे में पूछताछ की। राजा से समस्त जानकारी लेने के बाद वैद्य ने राजा को दो बाट दिए और प्रतिदिन उन्हें दोनों हाथों से तब तक उठाते रहने के लिए कहा, जब तक कि शरीर से पसीना न निकलने लगे। राजा ने ऐसा करना आरंभ किया और वह महीने भर में पूरी तरह से स्वस्थ हो गया।

राजा ने वैद्य के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त किया और अपनी बीमारी का कारण जानना चाहा। तब वैद्य ने उसे समझाया कि उसकी अस्वस्थता का एकमात्र कारण मेहनत का कोई काम नहीं करना है। और यदि वह स्वस्थ रहना चाहता है तो बेहद जरूरी है कि वह रोज मेहनत करे। कथा का सार यह है कि स्वस्थ रहने के लिए शारीरिक परिश्रम अत्यावश्यक है। मेहनत करने से शरीर के सभी अंग एक मशीन की भांति चुस्त-दुरुस्त रहते हैं। इसलिए अपनी नित्य दिनचर्या में इसे अवश्य ही शामिल किया जाना चाहिए।

अपने भीतर जाने के लिए ध्यान का प्रयोग उपयोगी
किसी भी काम को करने के लिए अक्ल के अलावा उत्साह भी जरूरी है। अक्लमंद यदि उत्साही नहीं है, तो बुद्धि भी बोझ बन जाएगी। उत्साही व्यक्ति के पास यदि अक्ल नहीं है, तो वह रचनात्मक नहीं हो पाएगा, लेकिन हमारा उत्साह झरने की तरह नहीं होना चाहिए, जिसमें शोर है, झाग है, जिसके जल में तीखापन है, लेकिन गहराई नहीं है।

झरने में भी मस्ती होती है, उसमें भी सौंदर्य होता है, फुहारें उसकी भी भिगोती हैं, इसमें भी चट्टानों को रगड़ने की क्षमता होती है, फिर भी झरना आरंभ से अंत तक गिरता ही रहता है। हमारे भीतर झील सी गहराई भी होना चाहिए। अधिकांश लोगांे का जीवन तूफान की तरह है, बिल्कुल ऐसा जैसे किसी सॉफ्ट ड्रिंक की बोतल को हिलाएं, तो उसमें भरपूर झाग आता है। ढक्कन खोलें तो उफान बाहर भी आ जाता है और धीरे-धीरे शांत हो जाता है।

आजकल लोगों का उत्साह इसी प्रकार है। बोतल में बंद रहेंगे, तो शराब की माफिक होंगे, बाहर रहेंगे तो तेजाब की तरह रहेंगे, लेकिन दोनों ही स्थितियों में ठोस परिणाम नहीं होंगे। अध्यात्म इसको सतह पर जीना कहता है। जिंदगी ऐसे बहती है, जैसे सतह का पानी। दुख आया तो दुखी हो गए, सुख आया तो सुखी हो गए। अपना मौलिक कॉन्ट्रीब्यूशन नहीं रहता, पूरी तरह हालात से संचालित रहते हैं। जरा सा झोंका आया और सूखे पत्ते की तरह उड़ गए।

गहरे जीवन का अर्थ है पेड़ की गहरी जड़ें। ऐसे पेड़ हवा के झोंकों से कम टूटते हैं। इसी तरह हम भी गहरे उतरकर अपनी जड़ों को टटोलें। जितने हम गहरे उतरेंगे उतने ही परमात्मा से जुड़ जाएंगे और बाहर की बातें हमें अधिक प्रभावित नहीं कर सकेंगी। अपने भीतर गहरे जाने के लिए ध्यान का प्रयोग बड़ा उपयोगी है।

दो काम और किए जा सकते हैं ध्यान के अलावा जो हमें प्रकृति से जोड़ते हैं। सुबह उठकर सूर्य को जल अर्पित करें, तुलसी के पौधे को सींचें। किसी विशिष्ट दिन पौधरोपण करें, समूची प्रकृति को तो हम अपनी बाहों में नहीं भर सकते, लेकिन कम से कम हम छोटे से प्रयोग करते हुए प्रकृति के अंदर जा सकते हैं और यहीं से प्रकृति हमें भीतर ले जाती है। जहां एक गहरी शांति होती है।

चींटियों से बालकों ने सीखा सहभाव का पाठ
एक छोटा-सा गांव था। एक बार उस गांव में लगातार तीन दिनों तक बारिश हुई। इसी दौरान कई लोगों के घरों में ईंधन समाप्त हो गया। बारिश के कारण लकड़ी और उपले (कंडे) बेचने वाले भी नहीं आए। उस गांव के दो लड़के (जो सगे भाई थे) अपने घर के लिए सूखी लकड़ी खोजने निकले। उनके पिता बाहर गए हुए थे।

इसलिए माता ने दोनों को भेजा क्योंकि सूखी लकड़ी के बिना भोजन बनाना असंभव हो गया था। झूमते-झूमते दोनों को एक स्थान पर आम की एक मोटी डाल नीचे गिरी दिखाई दी। बड़ा लड़का बोला - ‘लकड़ी बहुत भारी है। इसे कैसे ले जाएं?’ छोटे ने कहा - ‘यदि इसे छोड़ देंगे तो कोई और उठा ले जाएगा।’ दोनों की उम्र भी कम थी - क्रमश: दस और आठ वर्ष।

दोनों कोई मार्ग सोच ही रहे थे कि तभी उन्होंने देखा कि एक मोटे बड़े सफेद कीड़े को, जो मर गया था, बहुत-सी चींटियां उठाकर ले जा रही हैं। कीड़ा भारी था, इसलिए वह बार-बार गिर जाता था और अनेक चींटियां उसके नीचे दब जाती थीं। किंतु वे प्रयास नहीं छोड़ती थीं और आखिरकार वे कीड़े को ले जाने में सफल हो गईं। यह देख बड़े ने छोटे को वहीं बैठाया और अपने मित्रों को बुलाकर लाया। तब सभी लड़कों ने मिलकर उस भारी डाल को खींचना आरंभ किया। सभी के मिले-जुले प्रयासों से वह डाल उन भाइयों के घर पहुंच गई और काफी दिनों के ईंधन की व्यवस्था हो गई। कथा का सार यह है कि यदि सहभाव हमारे दैनिक जीवन का आधार हो तो न संकट भारी लगेंगे और न ही उन्नति करना कठिन होगा।

मूर्खो की सूची में अपना नाम देख राजा की बुद्धि जाग्रत हुई
प्राचीनकाल की बात है। एक अत्यंत समृद्ध राज्य था। वहां का राजा अपने राज्य की उन्नति पर बहुत ध्यान देता था। उसने अपने मंत्री के रूप में भी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त कर रखा था, जो अत्यंत बुद्धिमान और योग्य था। एक दिन राजा ने मंत्री को बुलाकर कहा - मैं चाहता हूं कि हमारी राजधानी में बुद्धिमान और चतुर लोग ही रहें, इसलिए मूर्खो और कमअक्लों को भी चतुर बनाना चाहिए।

आप ऐसे लोगों की एक सूची बनाइए। राजा के आदेशानुसार मंत्री ऐसी सूची बनाने के काम में जुट गया। उन्हीं दिनों एक व्यक्ति राज दरबार में आया और उसने स्वयं को उत्तम घोड़ों का व्यापारी बताया। अपनी वाणी से उसने राजा को मोहित कर लिया। राजा ने उसके घोड़ों की उत्तम नस्लों के विषय में सुनकर उसे कुछ रुपए अग्रिम भी दे दिए।

व्यक्ति एक हफ्ते बाद घोड़े लाने का वादा कर चला गया। कुछ दिनों बाद मंत्री मूर्खो की सूची लेकर राजा के समक्ष उपस्थित हुआ। राजा ने उसमें स्वयं का नाम सर्वप्रथम पाया। उसने चिढ़कर मंत्री से कारण पूछा तो वह बोला - आपने बिना घोड़े देखे व लिए रुपया पेशगी दे दिया। यह भी न पूछा कि वह कौन है और कहां से आया है? इसलिए आपका नाम सबसे ऊपर है।

राजा ने पूछा - यदि वह वापस आकर घोड़े दे जाए तो? मंत्री बोला - तब आपका नाम काटकर वहां उसका लिख दूंगा। वस्तुत: ग्राहक-व्यापारी के मध्य सभी शर्ते तय होकर एक ही समय पर लेन-देन होना सर्वोत्तम व्यापार होता है। क्योंकि तभी दोनों की आवश्यकताएं संतुष्ट होती हैं और परस्पर विश्वास कायम होता है।

मंत्र ज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति जब मंदिर का पुजारी बना
दक्षिण भारत के एक प्रांत में एक विशाल मंदिर था। उस मंदिर के प्रबंधक प्रधान पुजारी की मृत्यु के बाद मंदिर के महंत ने दूसरे पुजारी को नियुक्त करने के लिए घोषणा कराई कि जो कल सुबह प्रथम पहर मंदिर में आकर पूजा विषयक ज्ञान में सही सिद्ध होगा, उसे पुजारी रखा जाएगा। यह घोषणा सुन अनेक ब्राह्मण सुबह मंदिर के लिए चल पड़े।

मंदिर पहाड़ी पर था और पहुंचने का मार्ग कांटों व पत्थरों से भरा हुआ था। मार्ग की इन जटिलताओं से किसी प्रकार बचकर ये सभी ब्राह्मण मंदिर पहुंच गए। महंत ने सभी से कुछ प्रश्न और मंत्र पूछे। जब परीक्षा समाप्त होने को थी, तभी एक युवा ब्राह्मण वहां आया।

वह पसीने से लथपथ था और उसके कपड़े भी फट गए थे। महंत ने देरी का कारण पूछा तो वह बोला - घर से तो बहुत जल्दी चला था, किंतु मंदिर के मार्ग में बहुत कांटे व पत्थर देख उन्हें हटाने लगा, ताकि यात्रियों को कष्ट न हो। इसी में देर हो गई।

महंत ने उससे पूजा विधि पूछी, जो उसने बता दी। फिर मंत्र पूछे तो वह बोला - भगवान से नहाने-खाने को कहने के लिए मंत्र भी होते हैं, यह मैं नहीं जानता। महंत ने कहा - पुजारी तो तुम बन गए। मंत्र मैं सिखा दूंगा। यह सुनकर अन्य ब्राह्मण नाराज होने लगे।

तब महंत ने कहा - अपने स्वार्थ की बात तो पशु भी जानते हैं, किंतु सच्चा मनुष्य वह है, जो दूसरों के दुख के लिए अपना सुख छोड़ दे। कथा का सार यह है कि ज्ञान और अनुभव वैयक्तिक होते हैं, जबकि मनुष्यता सदैव परोन्मुखी होती है और इसीलिए वह समाज कल्याण में निरंतर लगी रहती है।

जीवदया के भाव ने बहेलिए को नर्क से स्वर्ग पहुंचाया
एक बहेलिया जाल फैलाकर चिड़ियों को पकड़ता और उन्हें बाजार में बेच देता था। यही उसका पेशा था। एक दिन वह जाल फैलाकर किसी चिड़िया के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी एक टिटहरी चिल्लाती हुई आई और बहेलिए की चादर में छिपने का प्रयास करने लगी।

चूंकि टिटहरी को कोई पालने के लिए नहीं खरीदता, यह सोचकर बहेलिए ने उसे उड़ा देना चाहा, किंतु एक बाज को आता देख वह समझ गया कि यह टिटहरी को खाने के लिए आ रहा है। उसने पत्थर मारकर बाज को भगा दिया। इस प्रकार टिटहरी की जान बच गई। कुछ दिनों बाद बहेलिया बीमार हुआ और उसकी मृत्यु हो गई। यमराज के दूत उसे नर्क में ले गए।

बहेलिए के वहां जाते ही सैकड़ों चिड़ियाएं वहां आ गईं और कहने लगीं - ‘इसने हमें बिना अपराध के फंसाया और बेचा। इसे नर्क की यातना दो।’ लेकिन तभी वहां एक टिटहरी आकर बोली- ‘महाराज! इसने बाज से मेरे प्राण बचाए हैं। इसे आप क्षमा करें।’ यमराज ने बहेलिए के लिए नर्क की घोषणा की, किंतु टिटहरी के प्राण बचाने के लिए एक वर्ष और संसार में रहने का समय दिया। बहेलिया पुनर्जीवित हो गया और अब उसने चिड़िया पकड़ना छोड़ दिया।

वह मजदूरी करने लगा, सुबह-शाम चिड़ियों को दाना डालने लगा और भगवान का स्मरण करने लगा। एक वर्ष पश्चात जब वह मरा तो उसे लेने देवताओं का विमान आया और वह स्वर्ग चला गया। कथा का संकेत यह है कि जीवदया का भाव न केवल लौकिक जगत में मानसिक शांति देता है, बल्कि पारलौकिक जगत में भी श्रेष्ठ स्थान दिलाता है।

भूखे रहकर स्वाधीन रहना ज्यादा पसंद किया ऊंट ने
एक दिन एक ऊंट अपनी नकेल छुड़ाकर भाग गया। वह नाक की सीध में लगातार भागता गया और वहीं रुका, जहां रास्ता बंद हो गया था क्योंकि वहां एक नदी आ गई थी। ऊंट पकड़े जाने के डर से रास्ते में हरे-भरे खेत और पत्तेदार झाड़ियां छोड़ आया था, जहां वह अच्छी तरह से अपना पेट भर सकता था। अब उसके सामने मात्र नदी का पानी था।

दोनों ओर दूर-दूर तक रेत थी। हरियाली का कोई नामोनिशान नहीं था। वह बेचारा पानी पीकर खाली पेट जमीन पर बैठ गया। भूख के मारे ऊंट बिलबिला रहा था। इसी प्रकार दो-तीन दिन बीत गए। ऊंट की दशा बहुत खराब हो गई। तभी एक कौआ वहां आया। उसे ऊंट पर दया आ गई। वह बोला - भाई, मैं उड़ता हूं, तुम मेरे पीछे चलो। मैं तुम्हें हरे-भरे खेत तक पहुंचा दूंगा। ऊंट बहुत प्रसन्न हुआ।

तभी उसने चलने के पहले पूछा - भाई, उस खेत में कभी आदमी तो नहीं आता? कौए ने हंसकर कहा - भला आदमी के बिना खेत हरा कैसे होगा? ऊंट उदास होकर बोला - तब तो मैं यहीं अच्छा हूं। कौए ने समझाया - यहां तो तुम भूखे मर जाओगे। तब ऊंट संतोष व गर्व भरे स्वर में बोला - लेकिन यहां रात-दिन नकेल डालकर कोई सताया तो नहीं करेगा।

यहां मैं अपनी मर्जी का राजा हूं। सार यह है कि सुविधाओं के साथ पराधीनता की तुलना में कष्ट के साथ लेकिन स्वाधीन रहना बेहतर है, क्योंकि तब अपने जीवन से संबंधित निर्णयों में पूर्णत: स्वतंत्र रहा जा सकता है, जबकि पराधीनता स्वतंत्रता को स्वामी की इच्छा और आज्ञा का गुलाम बना देती है।

जब घोड़े को अपनी होशियारी दिखाना महंगा पड़ा
किंतु विवाद इतना बढ़ गया कि मारपीट तक पहुंच गया। भैंस ने सींग मार-मारकर घोड़े को अधमरा कर दिया। जब घोड़ा किसी भी तरह भैंस का सामना नहीं कर पाया तो वह वहां से भागकर एक मनुष्य के पास पहुंचा। उसने मनुष्य से अपनी सहायता करने की प्रार्थना की। मनुष्य ने कहा - भैंस के बड़े-बड़े सींग हैं। वह बहुत शक्तिशाली है। मैं उससे नहीं जीत सकूंगा।

घोड़े ने समझाया - तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ। एक मोटा डंडा ले लो। मैं जल्दी-जल्दी दौड़ता रहूंगा। तुम डंडे से मार-मारकर भैंस को अधमरा कर देना और फिर रस्सी से बांध देना। मनुष्य ने पूछा - मैं भैंस को बांधकर क्या करूंगा? घोड़े ने कहा - वह बड़ा मीठा दूध देती है। तुम उसे पीकर ताकतवर बन जाओगे। मनुष्य ने घोड़े के कहे अनुसार भैंस को खूब मारा और फिर बांध लिया। तब घोड़े ने कहा - अब तुम मुझ पर से उतरो, मैं चरने जाऊंगा।

यह सुनकर मनुष्य जोर-जोर से हंसने लगा और बोला - मैं तुम्हें भी बांधूंगा। मैं नहीं जानता था कि तुम मेरे लिए सवारी के काम आ सकते हो। मैं भैंस का दूध पीऊंगा और तुम्हारे ऊपर सवारी करूंगा। घोड़े ने भैंस के साथ जैसा किया, स्वयं भी वैसा ही फल पाया। सार यह है कि बुरे कर्म हमेशा बुरा नतीजा देते हैं। इसलिए यथाशक्ति उनसे बचना चाहिए और अपनी ऊर्जा सत्कर्मो में लगानी चाहिए।

ठीक से न समझे, तो आपकी सुरुचि बन सकती है कुरुचि
हर मनुष्य के पास अपना एक टेस्ट होता है, यह आदत से अलग होता है। इसे पसंद भी नहीं कहा जा सकता है। सही शब्द है रुचि। इसमें गहराई में जाएं, तो इसके कई रूप सामने आएंगे- रुचि, सुरुचि, कुरुचि और अरुचि। बिना रुचि के जीवन चल भी नहीं सकता। हम अपनी रुचि को यदि ठीक से न समझें, तो वह कभी भी कुरुचि में बदल सकती है। कुरुचि को परिष्कृत करेंगे, ऊंचा उठाएंगे, सद्गुणों से जोड़ेंगे, तो वह सुरुचि में बदल जाएगी और जब इसका उलटा होगा, पतन की ओर चलेंगे, गलत चीजों के प्रति आकर्षण बढ़ेगा, तो यह कुरुचि होगी।

कुरुचि हमेशा जीवन को गलत मार्ग पर ले जाती है। यदि कुरुचि लंबे समय तक अपना स्थान बना ले, तो फिर आदमी चोरी, झूठ, ईष्र्या और छल स्वीकार करने लगता है। आदमी की कुरुचि उसे समझाती है कि कुछ गलत नहीं होता, सिर्फ अपना हित साधो। आदमी छोटी-छोटी गलत बातों से धीरे-धीरे बड़े अपराध की ओर चलने लगता है। अब यदि मनुष्य इसी को सुरुचि में बदल दे, तो सुरुचि कहती है झूठ, चोरी, अपराध न छोटा होता है, न बड़ा रहता है। वह होता ही है या नहीं होता है। इसीलिए जीवन को सुरुचि से जोड़े रखना है। पर मन को यह पसंद नहीं है। मन कुरुचि के माध्यम से हमें समझाता है, आज पाप कर लो, कल पुण्य से धो लेंगे।

इसीलिए हम देखते भी हैं कि समाज में कई लोग, जिन्हें हम जानते हैं कि ये खुलकर गलत काम करते हैं और खुल कर ही भले काम भी करते हैं। असल में यह इनकी सुरुचि नहीं होती, कुरुचि होती है। इसमें भी इनका गणित होता है। लगातार आध्यात्मिक प्रयोग, जैसे ध्यान आदि करने से स्वस्थ रहते हुए भी अरुचि पैदा की जा सकती है। यहीं से वैराग्य का जन्म होता है। यह अरुचि हमारे भीतर एक धर्य लाती है। इसलिए जीवन के किसी भी क्षेत्र में रहें रुचि को कुरुचि होने से बचाएं, सुरुचि की ओर ले जाएं और अंत में हमारे भीतर अरुचि का जन्म हो। अरुचि अपने साथ शांति लेकर आती है।

बुजुर्ग ने कछुए से जाना पवित्र जीवन का राज
कई बरस पहले की बात है। एक बुजुर्ग सज्जन अपना घर-परिवार त्यागकर गंगा किनारे रहने चले गए। उन्होंने एक झोपड़ी बना ली। उसमें सोने के लिए बिस्तर, पीने के लिए जल से भरा मिट्टी का घड़ा और दो वस्त्र पहनने के लिए थे। बस, यही उनकी जमा पूंजी थी। एक कछुआ भी उन्होंने पाल रखा था।

सुबह नहा-धोकर वे पास की बस्ती में जाते और वहां कोई न कोई गृहस्थ उन्हें रोटी दे देता। कछुए को खिलाने के लिए वे थोड़े चने भी मांग लेते। वे रोटी खाते और कछुआ भीगे चने खाता। इस प्रकार दोनों कम में गुजारा कर बहुत आनंद में थे। एक दिन किसी ने पूछा - आपने यह गंदा जीव क्यों पाल रखा है? इसे गंगा में डाल दीजिए।

बुजुर्ग यह सुनकर बहुत नाराज हुए और बोले - इस कछुए को मैं अपना गुरु मानता हूं। देखो, तनिक-सी आहट पाकर या किसी के स्पर्श से यह अपने सभी अंग भीतर खींचकर गुड़ीमुड़ी हो जाता है। चाहे जितना हिलाओ, यह अपना एक अंग तक नहीं हिलाता।

मनुष्य को भी इस प्रकार लोभ, क्रोध, हिंसा आदि दुगरुणों की भीड़ से स्वयं को बचाकर रखना चाहिए और ये सभी उसे कितना आमंत्रण दें, किंतु इनसे अप्रभावित रहना चाहिए। यह कछुआ मुझे सदैव ही प्रेरणा देता है। ईश्वर ने संपूर्ण प्रकृति की रचना सोद्देश्य की है। हम इसके कण-कण से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। वस्तुत: मानव जीवन को सुख व शांति से परिपूर्ण करने वाले सभी प्रेरक तत्व प्रकृति में मौजूद हैं। आवश्यकता इन्हें पहचानकर ग्रहण करने की है।

राजा की अनुपस्थिति में रानी एलिजाबेथ बनी सच्ची शासक
हंगरी के राजा एंड्र्यू के घर कन्या का जन्म हुआ। नाम रखा गया - एलिजाबेथ। इस राजकन्या के मन में आरंभ से ही दीन-दुखियों के प्रति अपार स्नेह था। ईश्वर से सदैव वह इन लोगों के कष्ट हरने की प्रार्थना करती थी। एलिजाबेथ का विवाह राजा हरमैन के बेटे लुई से हुआ।

हरमैन के अवसान के बाद लुई राजा बने और एलिजाबेथ महारानी। रानी होने के बावजूद एलिजाबेथ अत्यंत सादगी से रहती और निर्धन, असहाय और कुष्ठ रोगियों की अपने हाथों से सेवा करतीं। राजघराने के अन्य सदस्य एलिजाबेथ की इस सरलता का उपहास करते, किंतु वे अप्रभावित रहकर अपने कार्य में लगी रहती थीं।

एक बार राजा लुई युद्ध के सिलसिले में अन्य देश गए। उनकी अनुपस्थिति में एलिजाबेथ ने समस्त राजकार्य बड़ी सूझबूझ के साथ संभाला और प्रजा को कभी राजा के न होने का अहसास नहीं होने दिया। उनके शासन में प्रजा बहुत सुखी रही।

देवयोग से उसी समय राज्य में अकाल पड़ गया। रानी एलिजाबेथ ने भूखों के लिए राजकीय भंडारों के द्वार खुलवा दिए। उनके देवर हेनरी और अन्य राज्याधिकारियों के घोर विरोध के बावजूद रानी ने प्रजा को हरसंभव सहायता दी, जिससे प्रजा के कष्ट दूर हो गए।

लुई के आने पर हेनरी व अन्य लोगों ने रानी की शिकायत की, किंतु उन्होंने भी रानी का समर्थन किया। सार यह है कि स्वहितों को तिलांजलि देकर समाज के भले के लिए कार्य करने वाला सच्च शासक होता है और प्रजा भी ऐसे शासक को ही सम्मान देती है। वस्तुत: शासक का एकमात्र धर्म है प्रजा का हित।

दोनों शिष्यों ने एक-एक जूता गुरु के पैरों के सामने रखा
अरब देश में एक सुल्तान हुए हैं खलीफा मामू। वे विद्वानों का बड़ा सम्मान करते थे। खलीफा मामू के दो पुत्र थे, जिनकी उचित शिक्षा-दीक्षा के लिए उन्होंने काफी विचार-विमर्श किया। अनेक विद्वानों के साक्षात्कार लिए और फिर उनमें से एक को अपने पुत्रों की शिक्षा के लिए नियुक्त किया। शिक्षक ने दोनों शहजादों को पढ़ाना आरंभ कर दिया। एक दिन शिक्षक किसी काम से अपनी गद्दी पर से उठे, तो दोनों शाहजादे उनके जूते सीधे कर उनके आगे रखने के लिए दौड़ पड़े।

किंतु दोनों एक साथ जूतों के पास पहुंचे, इसलिए दोनों में झगड़ा शुरू हो गया कि गुरुदेव का यह पुण्यकर्म कौन करे? अंत में दोनों ने यह तय किया कि दोनों एक-एक जूता उठाकर गुरु के पैरों के सामने रखें और फिर उन्होंने यही किया। इस बात की सूचना खलीफा तक पहुंची, तो उन्होंने शिक्षक को बुलाया।

शिक्षक के दरबार में आने पर खलीफा ने पूछा - आज दुनिया में सबसे प्रतिष्ठित व पूज्य कौन है? शिक्षक ने कहा - आप। मामू बोले, नहीं, वह पुरुष जिसके जूते उसके सामने रखने के लिए मुस्लिमों के स्वामी के पुत्र परस्पर झगड़ते हैं। शिक्षक ने कहा - मुझे शाहजादों को पहले तो रोकने की इच्छा हुई, किंतु फिर लगा कि मैं इनकी श्रद्धा को क्यों रोकूं? मामू बोले - आपने इन्हें रोका होता तो मैं बहुत नाराज होता।

गुरु की सेवा करने से प्रतिष्ठा बढ़ती है, घटती नहीं। सार यह है कि गुरु के प्रति हार्दिक श्रद्धा ही ज्ञान के उस चरम को उपलब्ध कराती है, जहां शिष्य बौद्धिक रूप से सर्वज्ञ हो जाता है और मानसिक रूप से दिव्य शांति और समरसता को प्राप्त कर लेता है।

जब देवता ने ब्रह्मजी से मांगा मनुष्य बनने का वरदान
एक बार एक देवता परब्रह्मजी प्रसन्न हो गए। उस देवता को महर्षि दुर्वासा ने श्राप दिया था कि तू अब देवता नहीं रहेगा। देवता ने ब्रह्म से कुछ और बना देने की प्रार्थना की। ब्रह्मजी बोले - तुम जो कहोगे, वही बना दूंगा। तब देवता ने कहा - एक बार मुझे सब लोक देख आने दीजिए। ब्रह्मजी ने स्वीकार कर लिया। देवलोक तो देवता का देखा हुआ था।

इसलिए वह छोड़कर उसने जनलोक, तपलोक, महलरेक और सत्यलोक देखे। उसने सोचा कि इन लोकों में ऋषि बनकर तपस्या करनी होगी। फिर वह पाताल लोक गया। वहां दैत्य और बड़े-बड़े नागों को देखकर देवता डर गया। वह पृथ्वी पर आया। उसने सोचा कि पक्षी बनूं तो चाहे जहां उडूंगा, किंतु फिर अगले ही पल उसने हवाई जहाज उड़ाता मानव देखा।

वह डरा कि पक्षी बनने पर मनुष्य उसे मार सकता है। उसने जल में रहना चाहा, तो वहां भी मनुष्य जहाज और पनडुब्बियां चला रहा था। देवता ने पाया कि हाथी, सिंह जैसे शक्तिशाली जानवरों को भी मनुष्य पिंजरे में बंद कर अपना दास बना लेता है। पानी और हवा में भी चलता है और एक स्थान पर बैठकर हजार कोस दूर की बात सुन लेता है।

उसने आकर ब्रह्मजी से वैकुंठ, साकेत व शिवलोक के विषय में पूछा तो ब्रह्मजी ने बताया कि मनुष्य अपनी साधना और भक्ति से इन परम दिव्य लोकों में जा सकता है। तब देवता ने ब्रह्मजी से स्वयं को मनुष्य बना देने की प्रार्थना की, जिसे उन्होंने मान लिया। वस्तुत: मनुष्य को ईश्वर द्वारा दी गईं शारीरिक व मानसिक क्षमताओं को विकसित कर तद्नुसार कार्यशील होने की जरूरत है।

उपकार के बदले प्रत्युपकार की भावना दिखाई सिंह ने
यह कथा अफ्रीका की है। चूंकि अफ्रीका में बहुत घने वन हैं और उन वनों में जंगली जानवर बहुतायत में होते हैं, इसलिए कई लोग सिंह का चमड़ा पाने के लिए उसे गड्ढा बनाकर उसमें कैद कर मार देते थे। एक बार सिंह पकड़ने वालों ने अफ्रीका के एक जंगल में सिंह को मारने के लिए ऐसा ही एक गड्ढा बनाया और उसे ढंक दिया। रात में एक सिंह उसमें गिर पड़ा।

तभी एक शिकारी उधर से निकला। उसने देखा कि सिंह गड्ढे से बाहर निकलने के लिए बार-बार उछलता है किंतु गड्ढे के चारों ओर गड़ी नोंक वाली लकड़ियों से उसे चोट लगने से वह पुन: गिर जाता है। शिकारी को सिंह पर दया आ गई। उसने एक रस्सी में दो लकड़ियों को बांधा और पेड़ पर चढ़ गया।

पेड़ पर से रस्सी खींचकर उसने लकड़ियां उखाड़ दीं। बीच से लकड़ियां इसलिए नहीं उखाड़ीं कि कहीं गड्ढे से निकलने पर सिंह उसे मार न डाले। शिकारी की मदद से सिंह बाहर आ गया। थोड़े दिनों बाद शिकारी वन में थककर लेटा था कि तभी एक चीते ने उस पर हमला कर दिया। चीता उसे मारने ही वाला था कि एक सिंह ने चीते पर आक्रमण कर उसे मार दिया।

शिकारी समझ गया कि चीते को मारकर सिंह अब उसे मारेगा, किंतु सिंह शिकारी के सामने बैठकर पूंछ हिलाने लगा। शिकारी पहचान गया कि यह वही सिंह है जिसे उसने गड्ढे में से निकाला था। शिकारी ने स्नेह से सिंह के सिर पर हाथ फेरा और फिर अपने रास्ते चला गया। सार यह है कि उपकार के बदले प्रत्युपकार की भावना होने पर ही सही अर्थो में सौमनस्य उपजता है, जिससे समाज की नैतिक सबलता बढ़ती है।

खुश रहने के लिए क्रिएशन की क्रिया को समझना होगा
हम अपने आसपास एक संसार रचते हैं और उसी में हमारा जीवन चलता है। कुछ अपने ही बसाए संसार में सुख से रह लेते हैं, तो कुछ आजीवन दुखी रहते हैं। हमें यह समझना होगा कि एक है वो संसार जो ईश्वर ने रचा है, जिसे अस्तित्व कहते हैं। हम इसी का हिस्सा हैं। इसके बाद फिर हम इसी में से अपनी दुनिया बना लेते हैं, जो हमारा हिस्सा होती है। यदि हम चाहते हैं कि हम भी उसी तरह प्रसन्न रहें, निर्लिप्त रहें जैसे परमात्मा रहता है, तो हमें उसके क्रिएशन की क्रिया को समझना होगा।

शास्त्रों में कथा आती है कि परमात्मा ने यह जो संसार रचा है, उसके पीछे उसकी शक्ति होती है, जिसे परमात्मा ने आदेश दिया और वह दुनिया बनाने में जुट गई। सामान्य भाषा में इस शक्ति को हम ऊर्जा कह सकते हैं। निर्माण के पीछे की इस ऊर्जा को हम आज इच्छाशक्ति भी कह सकते हैं।

हमें अपने भीतर की शक्ति को अपनी शांति से जोड़ना होगा। जो लोग खूब मेहनत कर, धन और सफलता अर्जित करने के साथ प्रसन्न रहना चाहते हैं, उन्हें अपने भीतर की शक्ति के रूप को समझना होगा। 24 घंटे में चार बार ऐसे मौके आते हैं, जब शक्ति में परिवर्तन होता है और इसके उपयोग पर हमें ध्यान देना पड़ता है।

ऋषि-मुनियों ने इसीलिए चार बार की पूजा का वर्णन किया है, जिसे कर्मकांड में संध्या कहा गया है। इन चारों काल में हमारे भीतर की ऊर्जा अपना रूप और उद्देश्य बदलती है। सूर्योदय के एक घंटे पूर्व तथा बाद भी ऊर्जा का जो रूप है, वह पूरी तरह से रचनात्मक होता है और उसमें पॉजीटिव तत्व काम कर रहे होते हैं।

हमारे उच्च उद्देश्य, ध्यान और गहन चिंतन के कार्य इस समय किए जाने चाहिए। फिर हमारी दिनचर्या आरंभ हो जाती है और दोपहर 12 बजे के आसपास एक बार फिर हमें अपनी ऊर्जा के प्रति जागना होगा, क्योंकि इस समय पॉजीटिव और नेगेटिव दोनों तत्व एक साथ सक्रिय हो जाते हैं। हम अच्छे-बुरे दोनों कार्यो को तैयार रहते हैं।

शाम को नेगेटिव तत्व चरम पर रहते हैं, सो अच्छे-अच्छे लोग थक और परेशान हो जाते हैं। रात 11 बजे केआसपास फिर नेगेटिव ऊर्जा पॉजीटिव होने लगती है। इसलिए सोते समय शांत रहें, मेडिटेशन करें और सो जाएं। इन चारों समय में जो लोग ऊर्जा का सही उपयोग करेंगे वे अपने बनाए हुए संसार का मजा उठा सकेंगे।

और हंसते-हंसते खुदीराम बोस फांसी के फंदे पर झूल गए
पराधीनता के दिनों की बात है। अंग्रेज न्यायाधीश कार्नडेफ ने जब कठघरे में खड़े युवक को फांसी की सजा सुनाने के बाद उसकी ओर देखा तो वह आश्चर्यचकित रह गया, क्योंकि उस युवक के चेहरे पर हंसी थी। न्यायाधीश ने सोचा कि शायद इसने अपनी फांसी की सजा सुनी न हो। यह सोचकर उसने दोबारा कहा - सुना तुमने, पुलिस इंस्पेक्टर सांडर्स पर बम फेंकने के जुर्म में तुम्हें फांसी की सजा दी जाती है। युवक मुस्कराया और बोला - बस, फांसी? हम भारतीय मौत से नहीं डरते। यह तो मेरे लिए खुशी की बात है कि मुझे फांसी पर झूलकर भारत माता की सेवा करने का मौका मिलेगा। यह सुनकर न्यायाधीश ने कहा - तुम्हें उच्च न्यायालय में अपील करने के लिए एक सप्ताह का समय दिया जाता है। यह सुनकर युवक ने कहा - इसकी कोई आवश्यकता नहीं। मुझे यदि जीवन की भीख ही मांगनी होती तो मैं बम क्यों फेंकता? यदि मेरे प्रति आपके मन में तनिक भी दया है तो मुझे पांच मिनट का समय दीजिए, ताकि मैं अदालत में बैठे अपने साथियों को बता सकूं कि बम कैसे बनाया जाता है? यह सुनते ही न्यायाधीश नाराज होकर चला गया। ११ अगस्त को यह युवक हंसते-हंसते फांसी पर झूल गया। यह देशभक्त साहसी युवक था - खुदीराम बोस। राष्ट्र की स्वतंत्रता और उन्नति ऐसे देशभक्तों पर ही टिकी होती है, जो अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए तत्पर रहते हैं। वस्तुत: राष्ट्र को अपनी प्राथमिकता सूची में सर्वोपरि रखने वाला ही सच्च राष्ट्रभक्त होता है और देश के लिए उसका बलिदान उसे अमर बना देता है।

प्रतिभावान फ्रेंक के ज्ञान से प्रभावित हुए चिकित्सक
अमेरिका में रहने वाला फ्रेंक हैरिस प्रतिभावान युवक था। उसे नए-नए स्थानों पर घूमने और ज्ञानार्जन का शौक था। एक दिन उसने संपूर्ण अमेरिका का भ्रमण करने की ठानी। अपनी यात्रा के लायक धन जुटाकर वह चल पड़ा। जहाज पर फ्रेंक सवार हुआ तो अनेक सहयात्रियों से बातचीत का अवसर मिला। फ्रेंक ने उन सभी से अलग-अलग संस्कृतियों का ज्ञान ग्रहण किया। उसी जहाज पर एक चिकित्सक भी थे। फ्रेंक की बातों से प्रभावित होकर उन्होंने उसे अपने केबिन में स्थान दे दिया।

उनके केबिन में विभिन्न विषयों की पुस्तकें रखी हुई थीं। फ्रेंक ने उन्हें पढ़ने की अनुमति चाही, जो चिकित्सक महोदय ने दे दी। कुछ पुस्तकें पढ़ने के बाद फ्रेंक ने कहा - सर ये पुस्तकें बहुत अच्छी हैं। कभी मैं इतने पैसे जुटा पाया तो मैं भी ऐसे मूल्यवान ग्रंथ खरीदकर पढ़ूंगा। फ्रेंक के ज्ञान की परख करने के लिए चिकित्सक ने एक पुस्तक उठाकर उसमें से कुछ प्रश्न पूछे, जिनके सही-सही जवाब उसने दिए। कुछ प्रसंगों को तो फ्रेंक ने अक्षरश: सुना दिया। यह देख चिकित्सक ने पूछा - पुस्तक के इन अंशों को तुमने कितनी बार पढ़ा, जो तुम्हें ये कंठस्थ हो गए? फ्रेंक ने उत्तर दिया - एक बार ही पढ़ा है सर, किंतु तन्मयता के साथ। फ्रेंक की स्मरण शक्ति व ज्ञान की तीव्रता से चिकित्सक व अन्य यात्रियों ने प्रभावित होकर चंदा किया और उसके लिए प्रथम श्रेणी का टिकट खरीदा। प्रतिभा अवसर मिलते ही अपना चमत्कार दिखा देती है। इसलिए प्रतिभावान व्यक्तियों को आशान्वित रहकर अवसरों की तलाश करनी चाहिए।

पं. नेहरू ने महात्मा गांधी से सीखा मितव्ययिता का पाठ
महात्मा गांधी पार्टी के कार्यो के सिलसिले में प्राय: यात्राएं किया करते थे, जो देश की स्वतंत्रता के उद्देश्य को लेकर होती थीं। एक बार गांधीजी ऐसे ही किसी कार्य से इलाहाबाद आए और पंडित मोतीलाल नेहरू के निवास स्थान ‘आनंद भवन’ में ठहरे। नेहरू परिवार ने इसे अत्यंत सौभाग्य का विषय माना और गांधीजी का आत्मीयता से परिपूर्ण सत्कार किया।

गांधीजी रात्रि विश्राम के बाद जब सुबह उठे तो नित्य कर्म से निवृत्त होकर हाथ-मुंह धोने लगे। इसी दौरान पं. जवाहरलाल नेहरू गांधीजी से बात भी कर रहे थे। कुल्ला करते-करते गांधीजी का पानी खत्म हो गया। इससे उनका मन कुछ उखड़ गया और बातचीत बीच में ही रुक गई।

नेहरूजी ने उनसे पूछा तो वे बोले - देखो न, मैं बातचीत में इतना खो गया कि सारा पानी खर्च हो गया और अब मुझे दोबारा पानी लेना पड़ेगा। नेहरूजी उनकी बात सुनकर हंसते हुए बोले - बस, इतनी-सी बात है। यहां तो गंगा और यमुना दोनों बहती हैं।

जितना चाहे, उतना पानी इस्तेमाल कीजिए। गांधीजी ने कहा - गंगा और यमुना अकेले मेरे लिए ही तो नहीं बहती हैं। प्रकृति में कोई चीज कितनी ही मात्रा में क्यों न उपलब्ध हो, किंतु मनुष्य को अपने लिए उतनी ही मात्रा में उसे लेना चाहिए, जितना अनिवार्य हो।

मितव्ययिता से किसी भी वस्तु का उपयोग करने पर आगे की पीढ़ियों के लिए वह संग्रहित रहती है और इस प्रकार वह समाज की अधिकतम आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। सार यह है कि मितव्ययिता को अपनाकर कल्याण को साकार किया जा सकता है।

दमे के बावजूद दौड़-दौड़कर जनसेवा की डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने
देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद भावनाओं के प्रबल समर्थक थे। वे इनका न केवल वाणी से समर्थन करते थे, बल्कि अपने आचरण में भी इन्हें जीते थे। उनके जीवन की एक घटना है, जो उनके इसी स्वरूप को दर्शाती है। एक बार राजेंद्र प्रसाद रेल द्वारा दरभंगा से पटना जा रहे थे कि उनकी गाड़ी सोनपुर स्टेशन पर रुकी। वहां से उन्हें पहलेजा घाट जाना था, जहां से स्टीमर द्वारा गंगा नदी पार कर पटना पहुंचना था।

सोनपुर एक बड़ा जंक्शन है, जहां चारों ओर से गाड़ियां आती हैं। राजेंद्र प्रसाद की गाड़ी जहां रुकी थी, उसके सामने ही छपरा की ओर से एक गाड़ी आकर रुकी। मई का महीना था और सूरज तीव्र गर्मी बरसा रहा था। छपरा से आने वाली गाड़ी पूरी भरी थी। उसमें से जितने लोग उतरे, उससे कहीं अधिक घुस गए। गाड़ी एक्सप्रेस थी और 5-10 मिनट बाद चल देती थी। कुछ स्त्रियां और बच्चे पानी-पानी चिल्ला रहे थे, किंतु उनकी चीख-पुकार सुनने वाला वहां कोई नहीं था।

राजेंद्र बाबू से उनका कष्ट देखा नहीं गया। वे लोटा लेकर नल की ओर दौड़े और उन्हें पानी पिलाने लगे। इस बीच उनकी गाड़ी भी रवाना हो गई। वे दौड़कर उसमें सवार तो हो गए, किंतु दमे के कारण उनकी हालत खराब हो गई। कथा का सार यह है कि जरूरतमंदों की निष्काम मदद का भाव व्यक्ति का बड़प्पन दर्शाता है और स्वयं के कष्टों को परे रखकर सहायता करने में बड़प्पन से भी बढ़कर महानता परिलक्षित होती है।

यूक्लिड ने विद्यार्थी को समझाए शिक्षा के सही मायने
महान गणितज्ञ यूक्लिड के जीवन का एक प्रसंग है। यूक्लिड गणित के परम ज्ञाता थे। अपने इस ज्ञान को वे दूसरों को भी सहर्ष देने के लिए तैयार रहते थे। यूक्लिड के पास जो भी गणित सीखने आता, वे उसे अत्यंत लगन से पढ़ाते और उसकी गणित संबंधी सभी जिज्ञासाओं को शांत करते।

यूक्लिड के गणित ज्ञान और सहृदयता से प्रभावित होकर उनके पास दूर-दूर से विद्यार्थी गणित सीखने आते और यूक्लिड उन्हें कभी निराश नहीं करते। एक दिन यूक्लिड के पास एक लड़का आया और उसने उनसे ज्यामिति पढ़ाने का आग्रह किया। यूक्लिड ने स्वीकार कर लिया। उसी दिन से यूक्लिड उसे ज्यामिति पढ़ाने लगे। लड़का कुशाग्र बुद्धि था। उसने यूक्लिड के ज्ञान को तीव्रता से सीखना आरंभ कर दिया।

एक बार यूक्लिड उसे एक प्रमेय पढ़ा रहे थे। छात्र ने कहा - इस प्रमेय को पढ़ने से मुझे क्या लाभ होगा? यह सुनते ही यूक्लिड नाराज हो गए और अपने नौकर से बोले - इसे एक ओबेल (यूनानी सिक्का) दे दो, क्योंकि यह विद्या में कम, धन कमाने में अधिक रुचि रखता है और जो धन कमाने में रुचि रखता है उसके लिए शिक्षा ग्रहण करना बेकार है।

यह सुनकर शिष्य ने अपनी भूल को स्वीकार कर यूक्लिड से क्षमा मांगी। सार यह है कि शिक्षा आत्मसमृद्धि का मार्ग है। उसे कभी भौतिक लाभ की तुला में नहीं तौलना चाहिए और वह जहां से व जिस मात्रा में मिले, उसे आत्मीयता से ग्रहण करना चाहिए।

और पति-पत्नी के शरीर पर पैदा हो गईं ढेर सारी नाक
एक गरीब आदमी अपनी पत्नी के साथ एक झोपड़ी में रहता था। मजदूरी कर जैसे-तैसे दोनों अपना घर चलाते थे। उनकी दयनीय दशा देखकर भगवान को उन पर दया आ गई। उन्होंने उस आदमी के सामने प्रकट होकर उसे एक पासा दिया और कहा - यह पासा किन्हीं तीन इच्छाओं को स्मरण कर फेंकोगे तो वे पूरी हो जाएंगी।

आदमी खुश होकर घर गया और अपनी पत्नी को सारी बात बताकर परामर्श करने लगा कि क्या वर मांगना चाहिए। पत्नी ने कहा - खूब धन-दौलत मांगते हैं। पति बोला - नहीं, हम दोनों की नाक चपटी है, जिसे देखकर लोग हमारी बड़ी हंसी उड़ाते हैं।

इसलिए पहले हमें सुंदर नाक मांगनी चाहिए। इस प्रकार दोनों में खूब विवाद हुआ। आखिर पत्नी ने क्रोध में यह कहकर पासा फेंक दिया कि हम लोगों को केवल सुंदर नाक मिले और कुछ नहीं चाहिए। पासा फेंकते ही दोनों के शरीर में ढेरों नाक पैदा हो गइ। साथ ही उनकी अपनी नाक भी चली गई। अब एक ही इच्छा का वर बाकी था। दोनों ने सोचा कि यदि इस बार अच्छी नाक मांगेंगे तो लोग उसके विषय में पूछेंगे, तब हमें सारी बात बतानी पड़ेगी।

यह सब सुनकर लोग हमारी हंसी उड़ाएंगे कि तीन वर पाकर भी हम अपनी दशा नहीं सुधार सके। यह सोचकर दोनों ने अपनी पुरानी चपटी नाक ही पुन: मांग ली। कथा का सार यह है कि लोभ की कोई सीमा नहीं होती, बल्कि वह प्राप्त होने के साथ और बढ़ता जाता है। इसलिए बेहतर यही है कि जो हमारे पास है, उसी में संतुष्ट रहा जाए।

श्वास क्रिया पर ध्यान दें स्वस्थ और मस्त रहेंगे
आजकल बीमारियां शरीर को ऐसे घेर लेती हैं कि हैरत होती है। पता नहीं कैसे हो जाती हैं। प्रबंधन के इस युग में हम एक-एक कागज को जब पूरे मैनेजमेंट के साथ चलाते हों, अपने कार्यालय में व्यक्तियों का उपयोग पूरे प्रबंधन से करते हों, तब स्वयं का दुरुपयोग करने से बचें।

यूं तो आहार और विश्राम शरीर की मांग है, लेकिन व्यस्त लोग इन दोनों के ही प्रति प्रबंधन बिगाड़ लेते हैं। इसलिए एक क्रिया पर काम करते हुए भी ध्यान देते रहना चाहिए, तो बीमारी आने की संभावना कम हो सकती है।

हमारे शरीर के भीतर जो सिस्टम चल रहा है, उसका संबंध सांस से होता है और सांस को प्राणायाम से साधा जा सकता है। पांच तरीके से हम सांस का उपयोग करते हैं। शास्त्रों में पहले तरीके को कहा है उपान। प्राण का यह भाग शरीर में से बेकार तत्वों को बाहर फेंकता है।

इस मामले में हम सावधान रहें कि जो व्यर्थ है, वह समय पर विसर्जित हो जाए। प्राण, यानी वायु का दूसरा काम है पचे हुए भोजन को पूरे शरीर में ठीक से पहुंचाना, इसे व्यान कहा गया है। तीसरा प्राण है, जिसका नाम है समान। यह बॉडी के मस्क्यूलर सिस्टम पर नियंत्रण रखता है। नई

कोशिकाओं का निर्माण करता है और हमारे आसपास एक आभामंडल बनाता है। इसके बाद उदान नाम का प्राण हमारी नजर में होना चाहिए। यह शरीर के भीतर की महत्वपूर्ण क्रियाओं को नियंत्रित करता है। हमारे कंठ और ध्वनि का नियंत्रण भी इसी के पास है। इस प्राण के प्रति हम जितना जागरूक रहेंगे, हमारी वाणी उतनी ही प्रभावशाली हो जाएगी।

इसी प्रकार पांचवां नाम है प्राण। यह वायु या जिन्हें प्राण कह लें, हमारे शरीर के हर हिस्से में उपयोगी और अनुपयोगी प्रसार के लिए जिम्मेदार होते हैं। जिस तरह बाहर की दुनिया में हम परिचित होते हैं कि किस जगह कौन-सी चीज नहीं पहुंचने पर क्या नुकसान हो सकता है और कौन व्यक्ति राइट मैसेंजर है, इसकी पकड़ बनाए रखते हैं। ऐसे ही हमारे भीतर की दुनिया में प्राण तत्व से प्राणायाम पर पकड़ बनाए रखते हैं। फिर स्वस्थ भी रहेंगे और मस्त ।

संत ने समझाया लोक-कल्याण पर आधारित ज्ञान ही सार्थक
एक दिन एक व्यक्ति किसी संत के पास पहुंचा। वह बहुत अधिक तनाव में था। अनेक प्रश्न उसके दिमाग में घूम-घूमकर उसे परेशान कर रहे थे - जैसे आत्मा क्या है? आदमी मृत्यु के बाद कहां जाता है? सृष्टि का निर्माता कौन है? स्वर्ग-नर्क की अवधारणा कहां तक सच है और ईश्वर है या नहीं? उसे इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल रहे थे।

जब वह संत के पास पहुंचा तो उसने देखा कि संत को कई लोग घेरकर बैठे हैं। संत उन सभी के प्रश्नों व जिज्ञासाओं का समाधान अत्यंत सहज भाव से कर रहे हैं। काफी देर तक यह क्रम चलता रहा। किंतु संत धर्यपूर्वक हर एक को संतुष्ट करते रहे।

बेचारा व्यक्ति यहां का हाल देखकर परेशान हो गया। उसने सोचा कि ये संत हैं, इन्हें दुनियादारी के मामलों में पड़ने से क्या लाभ? अपना भगवद् भजन करें और बुनियादी समस्याओं से ग्रस्त इन लोगों को भगाएं। किंतु संत का व्यवहार देखकर तो ऐसा लग रहा था मानो इन लोगों का दुख उनका अपना दुख है। आखिर उस व्यक्ति ने पूछ ही लिया, महाराज आपको इन सांसारिक बातों से क्या लेना-देना? संत बोले - मैं ज्ञानी नहीं हूं, त्यागी हूं और इंसान हूं।

वैसे भी वह ज्ञान किस काम का, जो इतना घमंडी और आत्मकेंद्रित हो कि अपने अतिरिक्त दूसरे की चिंता ही न कर सके? ऐसा ज्ञान तो अज्ञान से भी बुरा है। संत की बातें सुनकर व्यक्ति की उलझन दूर हो गई। उस दिन से उसकी सोच व आचरण दोनों बदल गए। कथा का सार यह है कि ज्ञान तभी सार्थक होता है, जबकि वह लोक-कल्याण में संलग्न हो।

साधना के बल पर माधवाचार्य ने रचा दुर्लभ आयुर्वेद ग्रंथ
स्वामी माधवाचार्यजी ने वृंदावन में रहकर गायत्री साधना करनी आरंभ की। स्वामीजी अत्यंत मनोयोग और विशुद्ध भाव से साधना करते। 13 वर्ष तक उनकी गायत्री साधना चलती रही, किंतु इतनी लंबी अवधि बीत जाने के उपरांत भी कोई चमत्कार नहीं दिखाई दिया।

स्वामीजी निराश हो गए। फिर किसी की सलाह पर वे वाराणसी गए और वहां एक अघोरी को अपनी समस्या बताई। अघोरी ने कहा कि तुम हमारी बताई हुई साधना आरंभ कर दो तो एक माह में ही प्रत्यक्ष चमत्कार हो जाएगा। माधवाचार्यजी ने उसकी बताई विधि से साधना आरंभ की। एक माह बाद साधना के दौरान स्वामीजी को आवाज आई कि हम तेरी साधना से प्रसन्न हैं, वर मांग।

स्वामीजी ने दर्शन देने की प्रार्थना की, किंतु आवाज आई कि मैं तुम्हारे समक्ष नहीं आ सकता, क्योंकि तुम्हारे मुखमंडल पर गायत्री साधना का तेज है। उसके सामने मैं ठहर नहीं सकता। माधवाचार्यजी बोले - यदि ऐसा है तो आप मुझे यह बताइए कि मैंने तेरह वर्ष गायत्री साधना की, किंतु कोई चमत्कार क्यों नहीं हुआ? आवाज आई कि अब तक की साधना प्रारब्ध को काटने में विनष्ट हो गई। अब आगे साधना करने पर अच्छे प्रतिफल प्राप्त होंगे।

यह सुनकर माधवाचार्यजी पुन: वृंदावन में गायत्री साधना करने लगे और साधना से प्राप्त शक्ति से उन्होंने ‘माधव निदानम्’ नामक आयुर्वेद के दुर्लभ ग्रंथ की रचना कर दी। कथा का निहितार्थ यह है कि एकनिष्ठ भक्तिभाव से साधना करने पर उसका प्रतिफल अवश्य मिलता है। बस, जरूरत है तो धर्य धारण करने की।

सूई खोजने के बहाने वृद्धा को मिला अद्भुत ज्ञान
एक वृद्धा अकेली रहती थी और अपनी आजीविका के लिए कपड़े सिलती थी। एक दिन वह अपनी कोठरी में बैठी सिलाई कर रही थी कि अचानक उसके हाथ से सूई गिर गई। शाम होने से वृद्धा को सूई दिखाई नहीं दी। वह खोजने की कोशिश करने लगी, किंतु असफल रही। धीरे-धीरे रात हो गई। वृद्धा फिर भी खोजती रही। तभी कोई ग्राहक उसके पास अपने कपड़े लेने आया। उसने वृद्धा से पूछा - माई, अंधेरे में क्या खोज रही हो? वृद्धा बोली - भैया, मेरी सूई गुम हो गई है। उसे खोज रही हूं। ग्राहक ने कहा - माई, सूई तो उजाले में मिलेगी। यह कहकर वह अपने कपड़े लेकर चला गया। वृद्धा कोठरी के बाहर आकर उजाले में खड़ी होकर सूई खोजने लगी। उसी समय किसी राहगीर ने उससे पूछा - ओ माई, क्या खोज रही हो?

वृद्धा ने वही जवाब दोहराया। राहगीर ने प्रश्न किया - सूई कहां खोई थी? वृद्धा बोली - कोठरी के अंदर। तब राहगीर ने हंसकर कहा - अरे माई, सूई यदि कोठरी के अंदर खोई है तो यहां बाहर कैसे मिलेगी? वृद्धा आश्चर्य से बोली - मुझे किसी ने कहा था कि सूई को उजाले में खोजो। तब राहगीर ने समझाया - चीज जहां खोई है, वहीं मिलेगी। जिसने भी ऐसा कहा, उसका मतलब यह था कि सुबह जब उजाला हो जाए, तब सूई को कोठरी में खोजना। वस्तुत: कभी-कभी समझ के फर्क से बात के मूल आशय से पृथक अर्थ ग्रहण कर लिया जाता है, जो कष्ट का कारण बनता है। इसलिए किसी के द्वारा सुझाए मार्ग या दिए गए ज्ञान पर भलीभांति विचार करने के बाद ही उसे अमल में लाना चाहिए।

सेठ ने गांधीजी से समझा दान और व्यापार का अंतर
महात्मा गांधी के पास अनेक व्यक्ति अपनी विभिन्न प्रकार की समस्याएं लेकर पहुंचते थे। चूंकि गांधीजी का जनसंपर्क अत्यंत विशुद्ध था और उनका स्वभाव भी उदार व सहयोगी, इसलिए आम जनता से लेकर खास लोगों तक कोई भी उनके पास आने में संकोच नहीं करता था। गांधीजी जब पार्टी के कार्यो से निवृत्त हो अवकाश पर रहते तो लोगों से भेंट का उनका सिलसिला चल पड़ता। ऐसे ही एक बार गांधीजी के पास एक सेठजी आए। गांधीजी उनका चेहरा देखकर समझ गए कि वे काफी परेशानी में हैं। गांधीजी ने उनसे बड़े स्नेह से उनकी समस्या के विषय में पूछा तो वे शिकायती लहजे में बोले - देखिए न बापू दुनिया कितनी कपटी है। मैंने पचास हजार रुपए लगाकर एक धर्मशाला बनवाई। धर्मशाला बनने पर मुझे ही उसकी प्रबंध समिति से अलग कर दिया गया। जब तक वह नहीं बनी थी, तब तक वहां कोई नहीं आता था और अब बन जाने पर पचासों उस पर अधिकार जताने आ गए हैं।

गांधीजी ने मुस्कराकर समझाया - दान का सही अर्थ न समझ पाने के कारण आपको दुख हो रहा है। किसी चीज को देकर कुछ पाने की इच्छा दान नहीं, व्यापार है और जब आपने व्यापार किया है तो लाभ और हानि दोनों के लिए आपको तैयार रहना चाहिए। व्यापार में लाभ भी हो सकता है और हानि भी। गांधीजी की बात सुनकर सेठजी को अपनी गलती का अहसास हुआ। सार यह है कि दान तभी फलितार्थ होता है, जब वह प्रतिदान की इच्छा से रहित हो। नि:स्वार्थ और निरपेक्ष भाव से किया गया दान अपने सही आशय को पूर्ण करता है।

राजा नमि ने युद्धविजयी से महान माना आत्मविजयी को
राजा नमि राजर्षि हो गए थे। उनकी इच्छा थी कि राजपाट छोड़कर योग-साधना में लीन हो जाएं। उनकी यह इच्छा जानकर एक देवदूत उनके पास आया और उन्हें राजा के कर्तव्यों का हवाला देकर कहने लगा- हे राजन, तुम्हें अपने महल की रक्षा के लिए मजबूत दरवाजे, बुर्ज, खाई और तोपखाना आदि बनाकर ही साधु होना चाहिए।

यह सुनकर नमि राजर्षि बोले - हे देवपुरुष, मैंने एक नगर बनाया है। उसके चारों ओर श्रद्धा, तप और संयम की दीवार बनाई है। रक्षा के लिए मन, वचन और काया की एकरूपता की खाई भी बनाई है। अत: संसार के दोष छल-कपट, काम, क्रोध, माया, मोह और लोभ भी मेरी बनाई खाइयों को लांघकर मेरी आत्मा में प्रविष्ट नहीं हो सकते।

मेरा पराक्रम ही मेरा धनुष है। मैंने उसमें धर्य की मूठ लगाई है और सत्य की प्रत्यंचा चढ़ाई है। भौतिक संग्राम से अब मुझे क्या मतलब है? देवपुरुष ने फिर कहा - राजा का कर्तव्य है कि आसपास के राज्यों को अपने अधिकार में ले। आप यह कार्य करने के बाद साधु बनो। नमि बोले - बलवान उसे माना जाता है, जो अपने मन को जीत लेता है।

इसलिए दूसरों को अपने अधिकार में करने के बजाय मन को वश में करना अधिक श्रेयस्कर है। साधु को शत्रुओं से लड़ने की जरूरत नहीं रहती। मैं भी ऋषि बन चुका हूं। अत: मेरी बाहर की लड़ाई खत्म हो गई। अब मैं मन के विकारों पर विजय प्राप्त करना चाहता हूं, जिनसे बाहर के शत्रु पैदा होते हैं। वस्तुत: आत्मजयी विश्व विजेता बन जाता है, क्योंकि इच्छाओं पर नियंत्रण होते ही व्यक्ति का अंतर्द्वद्व समाप्त हो जाता है।

अवसर का लाभ उठाकर बंदर ने शेर को दी मात
एक शेर काफी वृद्ध हो गया था। इसलिए वह शिकार करने में सक्षम नहीं रह गया था। उसे गुफा के बाहर ही जो छोटा-मोटा जीव दिख जाता, उसे मारकर खाना उसकी विवशता बन गई थी। इसलिए वह अधिकतर भूखा ही रह जाता था। एक दिन उसे जोरों की भूख लगी थी। वह जैसे-तैसे जंगल में थोड़ा अंदर पहुंचा। वहां उसे एक बंदर दिखाई दिया।

शेर ने उसे शिकार बनाने का विचार किया। ऐसा सोचकर वह लंगड़ाकर चलने लगा। बंदर उसे इस तरह चलता देखकर चकित रह गया और कारण पूछने लगा। शेर बोला - वृद्धावस्था में मैंने अहिंसा का व्रत ले लिया है। इसलिए बहुत संभलकर चल रहा हूं ताकि मेरे पैरों के नीचे चींटियां कुचलकर न मर जाएं। शेर की यह सज्जनता देखकर बंदर उससे मिलने के लिए पेड़ से नीचे उतर आया।

अवसर पाते ही शेर ने उसे पकड़ लिया। किंतु बंदर चतुर था। वह तुरंत जोर-जोर से ठहाका लगाने लगा। शेर द्वारा कारण पूछने पर वह बोला - इस समय जो भी ठहाका लगाएगा, वह सीधे स्वर्ग जाएगा। शेर ने भी उसकी बातों में आकर ठहाके लगाने शुरू कर दिए। बंदर को मौका मिल गया और वह शेर की गिरफ्त से भाग निकला।

शेर अपनी बेवकूफी पर पछताता रह गया। कथा का निहितार्थ यह है कि अवसर दुर्लभ होते हैं और आकस्मिक रूप से ही मिलते हैं। इसलिए जब भी वे आएं, उन्हें गंवाना नहीं चाहिए क्योंकि दूसरी बार अवसर मिलने का सौभाग्य अपवादस्वरूप ही मिलता है।

जब आपने सांस नहीं ली वह आपकी उपलब्धि है
जिज्ञासा और जागरूकता व्यावसायिक जीवन की यात्रा में यदि सही रूप में उपयोग में लाई जाए, तो यह आगे जाकर योग्यता बन जाती है। जब हम नौकरी या व्यवसाय कर रहे होते हैं, तो अपने काम के बारे में जिज्ञासा और जागरूकता जरूर रखते हैं।

जिसके पास ये दोनों चीजें जितनी अधिक हैं, उसके लिए सफलता उतनी आसान है। बेशक, शांति का इनसे कोई लेना-देना नहीं है, परंतु हमसे जरूर है। हम सफल हो, तो शांति मिलना ही चाहिए। भौतिकता कहती है कि कर्म केंद्रित जीवन हो, जीवन प्रबंधन कहता है, थोड़ा सेल्फलेस सर्विस भी करिए। संसार कहता है इंद्रियों का उपयोग जमकर करें, अध्यात्म कहता है मोड़कर करें।

जब आप संसार में सफल होंगे, तो लोग कहेंगे यह व्यक्ति शानदार है और आधार आध्यात्मिक होगा, तो कहेंगे, यह इंसान परमात्मा का उपहार है। हमारे काम को लोग गॉड गिफ्ट मानेंगे। हम यदि किसी के मित्र या शत्रु भी बन जाएं, तो लोग इसे उपलब्धि समझें, हमारी उपलब्धि उनके लिए गौरव बने। यह तभी हो सकता है जब व्यक्तित्व में अध्यात्म के छींटे होंगे। मेडिकल साइंस जब इलाज करता है, तो उसकी नजर इस पर होती है कि आपने कितनी सांस ली।

आप सांस ले रहे हैं, इसी में उसकी सफलता है। लेकिन आध्यात्मिक जीवन कहता है, आपने जिन अवसरों पर सांस नहीं ली, वे आपकी उपलब्धि हैं। यहां सांस रोकना एक कला है। सांस रोककर जो शून्य पैदा होता है, वह संसार के शोर को गलाता है।

यदि हमारे काम के परिणाम में शक्ल है, तो अध्यात्म के आते ही उसमें श्रंगार भी आ जाएगा। जैसे शादी के समय श्रंगार करते हैं, वैसे ही हमारा हर कर्म श्रंगारित होना चाहिए। भौतिक प्रयास सिर्फ शक्ल है, उसमें आध्यात्मिक आधार आने से श्रंगार आ जाता है, अत: इसका भी हिसाब रखें कि कभी-कभी बिन सांस के भी जिया जाए। इसी का नाम मेडिटेशन है।

आम का पेड़ कटने के बाद आलसी भाई बने परिश्रमी
एक गांव में दो भाई रहते थे। दोनों बेहद आलसी थे। उनकी आय का एकमात्र स्रोत उनके घर में लगा एक आम का पेड़ था। उसमें लगने वाले आमों को वे बेचते और उससे अपनी गुजर-बसर करते। दोनों इतने अकर्मण्य थे कि गर्मी के मौसम में जब आम बहुतायत में होते, तब आम खाकर ही पेट भरते, भोजन बिलकुल नहीं बनाते। यदि कोई मेहमान भी आ जाए तो दोनों उसे मात्र आम ही खिलाते। गर्मी के अलावा अन्य ऋतुओं में जब पेड़ पर आम नहीं लगते तो वे बचे हुए पैसों से काम चलाते और जब वे भी समाप्त हो जाते तो पड़ोसियों से मांगकर खाते।

एक दिन उनका कोई रिश्तेदार उनके घर आया। गर्मी का मौसम था, इसलिए दोनों ने सुबह, दोपहर और रात के खाने में रिश्तेदार को आम ही परोसे। वह बेचारा आम खाते-खाते ऊब गया। उसने दोनों आलसी भाइयों को सबक सिखाने के लिए योजना बनाई। जब रात में दोनों सो गए तो उसने वह पेड़ काट दिया और भाग गया। सुबह दोनों कटा पेड़ देखकर खूब रोए। अब उनके पास अपने पालन-पोषण के लिए मेहनत करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। कुछ वर्ष बाद जब वही रिश्तेदार उनके घर आया तो उसने पाया कि उनकी आर्थिक स्थिति काफी अच्छी हो गई थी, क्योंकि अब दोनों परिश्रमी हो गए थे। दोनों ने अपने रिश्तेदार का आत्मीय सत्कार करते हुए उनकी गलती का अहसास दिलाने के लिए उसे धन्यवाद दिया। कथा का सार यह है कि परनिर्भरता अस्थायी और आत्मनिर्भरता स्थायी होती है। इसलिए आजीविका सदैव स्वयं परिश्रम कर कमानी चाहिए।

आखिर विशाखा ने सदाशयता से दुर्जनता को जीत लिया
प्राचीन समय की बात है। मगध के नगरसेठ थे अंगपाल। वे जितने मृदु स्वभाव के थे, उनकी पत्नी उतनी ही कटु प्रकृतिवाली थी। इस कारण उनके घर कोई नौकरानी टिक नहीं पाती थी। इतने विशाल घर की साज-संभाल पत्नी से अकेले जब नहीं हो पाती तो उसका सारा क्रोध पति पर निकलता। बेचारे सेठजी नई नौकरानी की खोज में सदा लगे रहते ताकि घर में शांति रहे।

एक दिन सौभाग्य से उन्हें एक सेविका ऐसी मिली, जिसने कर्कश परिजनों के ही बीच जीवन गुजारा था। इसलिए वह जब सेठजी के घर आई, तो घबराई नहीं, बल्कि दृढ़तापूर्वक रुकी रही। उसका नाम था विशाखा। नगरसेठ की पत्नी विशाखा को अत्यंत कड़वी बात भी कह देती और खूब काम भी कराती, किंतु विशाखा हंसकर सब कुछ सहन करती। अंतत: उसकी मृदुलता और श्रमशीलता ने सेठजी के साथ ही उनकी पत्नी का भी मन जीत लिया। जब सब कुछ ठीक हो गया तो विशाखा ने जाने की आज्ञा चाही। हालांकि सेठजी ने उसे सभी सुविधाएं दे रखी थीं, किंतु विशाखा रुकने को तैयार न हुई।

सेठ व सेठानी का परम आग्रह भी नाकाम रहा। विशाखा कलह व अशांति वाले दूसरे घर की खोज में निकल पड़ी। उसका कहना था कि प्रवचन द्वारा धर्मोपदेश करने की अपेक्षा विपन्नों के साथ रहकर उन्हें अपनी सदाशयता के सहारे सुधारना अधिक उपयुक्त है। अंतत: वह ब्रहावर्त क्षेत्र की प्रसिद्ध संत के रूप में ख्यात हुई। वस्तुत: दुर्जनों को अपने सद्गुणों के संपर्क में रखकर सुधारने का सेवाकार्य पत्थर को पानी से काटने जैसा जटिल है, किंतु असंभव नहीं है।

सच्ची शरणागति
एक संत कहीं जा रहे थे। रास्ते में कड़ाके की भूख लगी। गाँव बहुत दूर था। उनका मन कहने लगा प्रभु विश्व के पालन कर्ता हैं। उनसे भोजन माँग लो। वे कैसे भी करके अपने प्यारे भक्त को भोजन देंगे।संत ने अपने मन को समझाया अरे ! मैं प्रभु का अनन्य भक्त होकर प्रभु में अविश्वास करूँ? क्या प्रभु को पता नहीं है कि मुझे भूख लगी है? प्यारे प्रभु से माँगना विश्वासी भक्त का काम नहीं है।संत ने इस प्रकार मन को समझा दिया। मन की कुचाल विफल हो गयी। तब वह दूसरी चाल चला। मन ने कहा अच्छी बात है। तुम खाना मत माँगो लेकिन भूखे कब तक रहोगे? भूख सहन करने का धीरज तो माँग लो।

संते ने सोचा यह ठीक है। भोजन न सही, लेकिन धीरज माँगने में कोई हर्ज नहीं।इतने में ही उनके शुद्ध अन्तःकरण में भगवान की दिव्य वाणी सुनाई दी धीरज का समुद्र मैं सदा तेरे साथ ही हूँ न? मुझे स्वीकार न करके धीरज माँगने चला है? अपनी श्रद्धा-विश्वास को क्यों खो रहा है? क्या बिना माँगे मैं नहीं देता? अनन्य भक्त के योगक्षेम का सारा भार उठाने की तो मैंने घोषणा कर रखी है।

संत के हृदय में समाधान हो गया। भाव से गदगद होते हुए कहा सच है प्रभो ! मैं मन के भुलावे में आ गया था। मैं भूला था नाथ भूला था। मैं भूलने वाला कौन हूँ यह खोजूँ। खोजने बैठा तो जगन्नियन्ता, सर्वान्तर्यामी प्रभु ही प्रभु को पाया। मन की क्षुद्र इच्छाएँ, वासनाएँ ही आज तक मुझे तुझसे दूर कर रहीं थीं। मैं उन्हें सत्ता देता था तभी वे मुझे दबाए हुए नाच रही थीं। तेरे मेरे शाश्वत सम्बन्ध की जब तक मुझे विस्मृति थी तब तक मैं इनके चंगुल में था। ऐसा सोचते सोचते संत अपने परमानंद स्वरूप में डूब गये।

जब अपनी चतुराई से ब्राह्मण ने संकट को टाला
एक राजा को शास्त्रार्थ करवाने का बड़ा शौक था। वह उच्च कोटि के विद्वानों को अपने दरबार में आमंत्रित करता और उनके मध्य शास्त्रार्थ करवाता। जो विद्वान उसमें विजय हासिल करता, उसे राजा भारी-भरकम उपहार देता। उसकी इस रुचि को जानकर देश-विदेश से उसके दरबार में विद्वानों का तांता लगा रहता और इस प्रकार राजा की बौद्धिक भूख शांत होती। एक बार किसी आध्यात्मिक विषय को लेकर राजा के दरबार में शास्त्रार्थ हुआ। विषय जटिल था, किंतु विद्वान और पंडित भी कब हार मानने वाले थे? जोरदार बहस हुई और घंटों चली। अंतत: एक ब्राह्मण ने बाजी मार ली।

राजा ने प्रसन्न होकर उसे सोने के सिक्कों से भरे दो थैले इनाम में दिए। ब्राह्मण अपना इनाम लेकर जब जंगल के रास्ते अपने घर जा रहा था तो एक सिक्का एक थैले में से गिर गया। ब्राह्मण उसे खोजने लगा। तभी संयोग से राजा वहां से गुजरा। ब्राह्मण को एक सिक्के के लिए परेशान देखकर राजा ने उसे लोभी समझा और नाराज होकर उससे स्वर्ण के सिक्कों से भरे थैले वापस करने को कहा।

चतुर ब्राह्मण बिना घबराए शांति से बोला - महाराज, शास्त्रों के अनुसार राजा का उपहार पवित्र होता है। इसीलिए मैं वह सिक्का खोज रहा हूं। सुनते ही राजा का क्रोध शांत हो गया और उसने प्रसन्न हो ब्राह्मण को एक थैला स्वर्ण मुद्राएं और दीं। सार यह है कि आकस्मिक संकट को प्रत्युत्पन्नमति संपन्न व्यक्ति दूर कर लेता है। अत: ऐसे समय बिना धर्य खोए चतुराई व समझदारी से काम लेना चाहिए।

जानवरों के मरने पर पेड़ को आखिरकार पछताना पड़ा
जातक कथाओं में एक कथा आती है। एक जंगल में दो काफी ऊंचे और घने वृक्ष थे। उनके नीचे वन के हिंसक जीव प्राय: आकर बैठते थे। शेर, चीता, भालू, बाघ आदि ये सभी शिकार मारकर लाते और उन वृक्षों के नीचे बैठकर खाते थे। इस कारण वहां हड्डियां बिखरी रहतीं और गंदगी फैल जाती।

एक दिन एक वृक्ष ने दूसरे वृक्ष से कहा - भाई, कुछ ऐसा उपाय करें, जिससे ये हिंसक जानवर यहां न आएं। दूसरा वृक्ष बोला - नहीं, इनसे हमारी रक्षा होती है। इनकी वजह से ही हम बचे हुए हैं, क्योंकि मनुष्य इनके भय से हमें काट नहीं पाएगा। किंतु पहला वृक्ष अपनी हठ पर अड़ा रहा।

वह उपाय सोचता रहा और एक दिन जब आंधी चली तो उसने जोर-जोर से हिलकर अपनी दो-चार मोटी डाल नीचे गिरा दी। इनसे कई हिंसक जीव मर गए और कुछ वृक्ष के उखड़ने के डर से वहां से भाग गए। दूसरे दिन उस वृक्ष ने पहले वृक्ष को अपनी सफलता सगर्व बताई, किंतु पहले वृक्ष ने फिर दुष्परिणाम की बात दोहराई।

आखिर वही हुआ। एक दिन दो व्यक्ति आए और उन्होंने दोनों वृक्षों को काटकर गिरा दिया। तब पहले वृक्ष ने दूसरे से कहा - देखा, आज हमारा ये हाल उन जीवों के जाने से हुआ है। यदि वे हमारी छाया में होते, तो हमें कोई नहीं काट सकता था। दूसरे वृक्ष के पास अब सिवाय पछताने के कुछ नहीं बचा था। कथा का निहितार्थ यह है कि बुराई से अधिक अच्छाई पर ध्यान देने के बेहतर परिणाम मिलते हैं। इसलिए अविचारित हठ नहीं करना चाहिए और अच्छाई को ग्रहण करते हुए बुराई को हटाने के प्रयास करने चाहिए।

कंजूस व्यक्ति ने पांच पैसे के लिए पचास पैसे गंवाए
एक शहर में श्याम नाम का अत्यंत कंजूस व्यक्ति रहता था। जरूरी चीजों के लिए भी वह बहुत हाथ खींचकर धन खर्च करता था। इस कारण घर में प्राय: विवाद होता रहता, किंतु श्याम पर इसका कोई असर नहीं होता था। एक दिन सुबह से उसके घर की बत्ती गुल हो गई। दिन तो निकल गया, किंतु शाम को अंधेरा घिरने पर उसकी पत्नी ने उसे मोमबत्ती खरीदकर लाने को कहा।

श्याम मन मारकर मोमबत्ती खरीदने गया। दुकानदार ने उसे एक मोमबत्ती की कीमत पचास पैसे बताई। श्याम ने एक मोमबत्ती ली और दुकानदार को एक रुपया दिया। दुकानदार ने उसे पांच-पांच पैसे के सिक्कों में पचास पैसे वापस किए। जब श्याम घर पहुंचा तो उसकी जेब से पांच पैसे का एक सिक्का नीचे कहीं गिर गया।

इस बीच लाइट आ चुकी थी। श्याम सिक्का खोजने लगा, किंतु वह नहीं मिला। वास्तव में सिक्का कमरे के नीचे बने तहखाने में गिर गया था, जहां दिन में ही रोशनी होती थी। श्याम की पत्नी ने उसे सुबह सिक्का ढूंढ़ने को कहा,किंतु उसने मोमबत्ती की रोशनी में सिक्का खोजना शुरू किया।

काफी देर बाद सिक्का मिला, किंतु इस पांच पैसे के सिक्के के लिए उसने पचास पैसे की मोमबत्ती पूरी गंवा दी। अपनी मूर्खता का अहसास होने पर वह बहुत पछताया। दरअसल कभी-कभी हम छोटे लाभ को पाने के लिए उतावली में उसके कारण होने वाली बड़ी हानि को अनदेखा कर देते हैं। इसलिए किसी भी कार्य से होने वाले लाभ और हानि का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद ही उसे करने या न करने का निर्णय लेना चाहिए।

जंगल में वायलिन वादन और एक बहरा तेंदुआ
एक वायलिन वादक बहुत अच्छी वायलिन बजाता था। लोग उसे दूर-दूर से सुनने आते थे। अनेक कार्यक्रमों में उसे बुलाया जाता और वह उनमें सम्मिलित होकर सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता। अपनी इस कला के बल पर वायलिन वादक ने काफी धन और यश अर्जित कर लिया था।

इस वजह से उसमें अहंकार आ गया था। उसे लगता था कि इस पृथ्वी पर उससे बढ़कर कोई वायलिन नहीं बजा सकता। एक दिन इसी अहंकार की झोंक में उसके दिमाग में एक विचित्र विचार आया कि अपने संगीत का प्रयोग जंगली जानवरों पर किया जाए। उसे सभी ने समझाया, किंतु वह नहीं माना। उसने अपनी बात को आजमाने के लिए घने जंगल में पहुंचकर वायलिन बजानी शुरू कर दी। कुछ ही देर में एक भयानक शेर, एक खूंखार भेड़िया और एक विशालकाय भालू उसके पास आकर बैठ गए और संगीत सुनने में मस्त हो गए।

अचानक कहीं से एक तेंदुआ आया और वायलिन वादक पर आक्रमण कर उसे मार डाला। यह देखकर शेर ने तेंदुए को डांटते हुए कहा - ‘तुमने इसे क्यों मार डाला? इतना अच्छा संगीत अब हमें कभी सुनने को नहीं मिलेगा।’ तेंदुआ शेर की ओर मुंह करके बोला - महाराज! क्या आपने मुझसे कुछ कहा?’ शेर समझ गया कि यह तेंदुआ ऊंचा सुनता है और वायलिन वादक का संगीत सुने बिना उसे एक शिकार के बतौर इसने मार दिया। कथा का निहितार्थ यह है कि नैसर्गिक शत्रुओं पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि किसी भी प्राणी की मूल प्रकृति कभी नहीं बदलती।

दूसरों के भीतर झांकने से पहले स्वयं के भीतर देखें
जब हमें अपने गुणों का अभिमान होने लगता है, तब हम दूसरों में दोष भी अधिक देखने लगते हैं। नतीजा यह होता है कि हम अपने को और श्रेष्ठ मानते हैं और यहीं से हमारा अभिमान बढ़ता जाता है। अपने ऑफिस में हम वरिष्ठ हैं, हमारे अधीनस्थ कई लोग हों, तो हमारा एक दायित्व दूसरों के दोष देखना भी होता है।

असल में यह अधिकार इसलिए मिला है कि हम दोष देखें और उसे दूर करें, लेकिन ज्यादातर लोग दोष देखकर सामने वाले को नीचा दिखाते हैं, अपमानित करते हैं और लगातार इस भावना से स्वयं को ऊंचा समझने लगते हैं। इस क्रिया के कारण हम स्वयं भी निर्दोष नहीं रह पाते।

अपने सहयोगी और अधीनस्थों के साथ काम करते हुए परिणाम को केवल ऊपरी सतह से मत देखिएगा। यदि हम प्रतिदिन थोड़ा अभ्यास ध्यान का करते हैं, तो हमारे स्वभाव में अपने भीतर जाने की वृत्ति बन जाती है, जो हमारे कर्म में काम आती है। जैसे ही घटना का परिणाम आया हम किसी भी व्यक्ति के बाहरी परिणाम पर नहीं टिकेंगे, थोड़ा उसके भीतर जाकर विश्लेषण करेंगे आखिर मूल में है क्या।

श्रीराम के लिए तुलसीदासजी ने कहा है कि उनसे जुड़े लोग यदि मन, वचन और कर्म में वचन और कर्म से चूक भी जाएं, तो राम मन के भाव को पकड़ लेते हैं। मन और वचन की चूक पर ध्यान नहीं देते। यहीं से वे अपने साथियों को सुधारने में लग जाते हैं।
इसलिए दूसरों के दोष को दूर करने में केवल देखने का इरादा न हो, भीतर उतरकर मन के भाव को पकड़कर दोष का निराकरण किया जाए। क्योंकि मूल रूप से सबका स्वरूप निर्दोष ही है। दोष तो एक बाहरी व्यक्ति की तरह आता है और भेजा भी जा सकता है। इसीलिए अपने से जुड़े लोगों के साथ व्यवहार करते समय केवल सतही निणय न लें, उनके भीतर झांकने का प्रयास करें।

हरेक के भीतर एक योग्यता, प्रतिभा छिपी है। व्यक्ति की विशुद्ध अवस्था का नाम प्रतिभा है। इसे टटोलने के लिए पहले स्वयं अपने भीतर उतरने की तैयारी करें और फिर दूसरे के भीतर उतरकर प्रोत्साहन के साथ उसकी प्रतिभा को अपने कामकाज से जोड़ लें।

राजा र्पयक को एक किसान से मिली कर्मशील होने की शिक्षा
राजा र्पयक को लगा कि राज-काज तो चल ही रहा है, अब थोड़ा पुण्य कमा लिया जाए। ऐसा विचार कर उन्होंने अपना सिंहासन और उसके दायित्व अपने विश्वस्तों को सौंपे और स्वयं राज्य छोड़कर निकल पड़े। अनेक स्थानों पर भ्रमण किया, खूब सत्संग किया, बहुत ध्यान लगाया और साधना भी भरपूर की, किंतु उनके मन को न शांति मिली और न संतोष।

राजा र्पयक उदास होकर तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। मार्ग में चलते-चलते जब थक गए, तो एक खेत के पास लगे वृक्ष की छांव में लेट गए। थोड़ी देर बाद एक किसान वहां आया और उन्हें लेटे देखकर उनके पास आकर हालचाल पूछने लगा। राजा को भूखा जानकर उसने थोड़े चावल निकाले और हांडी में डालकर आग पर रख दिए।

फिर वह राजा से बोला - ‘उठो, इसे पकाओ और जब पक जाएं तो मुझे बताना’ राजा ने उसे अपना असली परिचय नहीं दिया था, इसलिए उसने राजा को काम में लगा दिया। राजा ने चावल पकाए और फिर दोनों ने खाए। उसके बाद किसान अपने खेत पर चला गया और राजा बहुत दिनों के बाद चैन की नींद सोया।

गहरी नींद में स्वप्न में राजा ने एक ब्रहास्वरूप दिव्य पुरुष को यह कहते हुए सुना - ‘मैं कर्म हूं! मेरा आश्रय लिए बिना किसी को शांति नहीं मिलती। अत: तुम भी परमार्थ पुरुषार्थ में लगो।’ राजा को अपनी समस्या का हल मिल गया और उसने पुन: राजकार्य संभाल लिया। वस्तुत: सुख के अभिलाषी को पहले शांति प्राप्त करना अनिवार्य है, जो कर्मशील होने पर मिलती है। इसलिए सबसे बड़ा सत्संग कर्म है, जो सदैव सत्परिणाम देता है।

सच्ची साधुता से साधु ने पाया राजपुरोहित का पद
एक राजा को अपने राज्य के धार्मिक कार्यो हेतु एक राजपुरोहित की आवश्यकता थी। चूंकि जो राजपुरोहित थे, वे बुजुर्ग होने के कारण अस्वस्थ रहे, फिर उनका अवसान हो गया, अत: राजपुरोहित का पद रिक्त था। राजा ने विचार किया कि अत्यंत योग्य व्यक्ति को राजपुरोहित बनाना चाहिए, क्योंकि वह एक प्रकार से राज्य का आध्यात्मिक नेतृत्व करता है।

बहुत सोच-विचार के बाद राजा ने यह घोषणा की कि जिस साधु का आश्रम सबसे बड़ा होगा, वह उसे ही अपना राजपुरोहित नियुक्त करेंगे। यह घोषणा सुनकर अनेक साधु श्रेष्ठि वर्ग के पास वित्तीय मदद के लिए पहुंचने लगे, ताकि वे अपने आश्रम को विशाल बना सकें।

राजा ने उन साधुओं में से पांच का चुनाव किया और उन्हीं में से एक को राजपुरोहित बनाने का निश्चय किया। उन पांच में से चार साधु तो ढेर सारी आर्थिक मदद प्राप्त कर अपने आश्रमों को बड़ा बनाने में जुट गए, किंतु एक साधु ने इस सबमें तनिक भी रुचि नहीं ली। वह चुपचाप जंगल में जाकर तपस्या करने लगा।

जब राजा को इस बात का पता चला तो वह उससे मिलने जंगल में पहुंचा और उसके आश्रम के विषय में उससे पूछने लगा। तब साधु बोला - ‘महाराज! मेरा आश्रम तो पूरा संसार है। मैं तो कहीं भी रहकर शिक्षा और ज्ञान का प्रसार कर सकता हूं।’

यह सुनकर राजा ने प्रभावित हो उस संत को राजपुरोहित बना दिया। कथा का सार यह है कि जो ‘पर’ के लिए अपने ‘स्व’ को सर्वथा त्याग दे, वही सच्च साधु होता है। वस्तुत: समाज के लिए स्वयं को प्रत्येक स्तर पर समर्पित करना साधुता है।

मनगढ़ंत अनुमान लगाने वाले जब खुद बने उपहास के पात्र
मोहन और नितिन दो मित्र थे। दोनों बिना सोचे-विचारे किसी भी व्यक्ति अथवा परिस्थिति के विषय में अनुमान लगा लेते थे। उनके अनुमान अधिकतर गलत निकलते और वे उपहास के पात्र बन जाते थे। किंतु फिर भी दोनों सुधरने का नाम नहीं लेते थे।

दोनों के परिजन उनकी इस आदत से परेशान थे, क्योंकि दोनों अनर्गल अनुमान लगाने के बाद उसी दिशा में कार्य भी करने लगते, जिससे बाद में हानि उठानी पड़ती थी। एक दिन दोनों के अभिभावकों ने उन्हें सुधारने के लिए एक नाटक रचा। उन्होंने एक व्यक्ति को जान-बूझकर दोनों के सामने भेजा। वह व्यक्ति लंगड़ाकर चल रहा था। उसे देखकर झट से मोहन बोला - ‘मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि यह पैदाइशी लंगड़ा है।’

नितिन उसकी बात काटते हुए बोला - ‘नहीं, मेरा मानना है कि यह दुर्घटना में लंगड़ा हुआ है।’ दोनों के बीच बहस होने लगी। तभी वहां नितिन और मोहन के पिता आए और अपने-अपने पुत्र को सही बताकर परस्पर लड़ने लगे। बात बढ़ती देख दोनों मित्रों ने तय किया कि जिसका अनुमान गलत निकलेगा, वह बिना विचारे आजीवन अनुमान नहीं लगाएगा।

फिर दोनों ने उस आदमी से लंगड़ाने का कारण पूछा तो वह बोला - ‘मैं तो लंगड़ाकर इसलिए चल रहा हूं क्योंकि मेरी एक चप्पल टूट गई है।’ सुनकर दोनों को अपनी मूर्खता का अहसास हुआ और उन्होंने कभी अविचारित अनुमान न लगाने की कसम खा ली। अत: ठोस प्रमाण और परिस्थिति जन्य साक्ष्य के आधार पर ही अनुमान लगाना उचित होता है, अन्यथा उपहास का पात्र बनते देर नहीं लगती।

जब नारद मुनि ने किया ज्ञान का लोक-विस्तार
नारदजी कलियुग का क्रम देखते हुए एक बार वृंदावन पहुंचे। वहां उन्होंने एक स्थान पर देखा कि एक युवती के पास दो पुरुष मूचर्छित पड़े हैं और युवती अत्यधिक दुखी है। जब नारदजी उसके पास पहुंचे तो वह रोने लगी। नारदजी ने उसके दुख का कारण पूछा तो वह बोली - ‘मैं भक्ति हूं! मेरे ये दो पुत्र ज्ञान और वैराग्य असमय ही वृद्ध हो गए और मूचर्छित पड़े हैं।

इनकी मूच्र्छा दूर करें।’ नारदजी को उस पर दया आ गई और वे भगवान से युवती का दुख दूर करने की प्रार्थना करने लगे। तभी आकाशवाणी हुई - ‘हे नारद! मात्र आपके वेदपाठ से इनकी मूच्र्छा दूर न होगी, संतों से परामर्श कर कुछ सत्कर्म करो, तो ज्ञान व वैराग्य भी प्रतिष्ठापित हों’ नारदजी बद्री विशाल क्षेत्र में सनकादि मुनियों से मिले। उन्होंने नारदजी की बात सुनकर कहा - ‘आपकी भावना दिव्य है।

कलि के प्रभाव से मूचर्छित ज्ञान-वैराग्य की मूच्र्छा दूर करने के लिए ज्ञान यज्ञ ही एकमात्र ऐसा सत्कर्म है, जिसका प्रभाव निश्चित रूप से होगा। ज्ञान यज्ञ के लिए वेदादिका उपयोग भी ठीक है। अत: आप कथा माध्यम से ज्ञान यज्ञ करें। वह निश्चित रूप से सफल होगा।’ तब नारदजी सनतकुमारों के साथ गंगा के किनारे आनंद वन में गए।

वहां के पवित्र वातावरण में उन्होंने ज्ञान यज्ञ का कथा व दृष्टांतों के माध्यम से धर्मधारण के विस्तार हेतु शिक्षण का शुभारंभ किया। उनकी इस सक्रियता से अन्य ऋषियों को भी प्रेरणा मिली और उन्होंने भी सद्ज्ञान विस्तार का परमार्थ करने का निश्चय किया। वस्तुत: ज्ञान का लोक में विस्तार ही उसे सार्थक करता है।

हमेशा दूसरों के दोष निकालने वाले को जब शर्मिदा होना पड़ा
एक आदमी की प्रत्येक कार्य में मीनमेख निकालने की आदत थी। वह कभी भी, कहीं भी संतुष्ट नहीं होता था। भोजन में, साफ-सफाई में दोष निकालता और पत्नी पर नाराज होता। बच्चों के कार्यो में भी गलतियां खोजता रहता। कार्यालय में अपने कनिष्ठों के काम में त्रुटियां निकालकर उन्हें डांटता। उसकी इस आदत से घर-बाहर सभी लोग परेशान थे और चाहते थे कि किसी तरह वह सुधर जाए।

वह आदमी कई बार होटल में भोजन करने जाता था क्योंकि घर के भोजन में भी उसे खामियां नजर आती थीं। होटल में भी वह वेटर को पचासों निर्देश देता और जब वह उसका मनमाफिक भोजन बनाकर लाता तो उसमें गलतियां निकालता।

इस कारण होटल के वेटर भी उससे परेशान थे। एक दिन उसे समुद्री भोजन करने की इच्छा हुई। वह होटल पहुंचा और वेटर को कुछ सीपियां लाने का आदेश दिया। वेटर आगे बढ़ा ही था कि वह उसे ताकीद करता हुआ बोला - ध्यान रखना कि सीपियां न अधिक बड़ी हों और न अधिक छोटी, न ज्यादा नमकीन हों और न ज्यादा तली हुईं।

वे अधिक मोटी या पतली भी नहीं होनी चाहिए। यह सुनते ही वेटर ने व्यंग्य से पूछा - आप सीपियां बिना मोतियों की खाना पसंद करेंगे या मोतियों के साथ? आदमी वेटर का व्यंग्य समझ गया और इतने ग्राहकों के बीच अपनी बेइज्जती होते देख सदा के लिए मीनमेख निकालने की आदत त्याग दी। वस्तुत: वाणी का संतुलित उपयोग जहां प्रशंसा व आदर देता है, वहीं इसका अतिरेकवादी उपयोग निंदा, उपेक्षा और कभी-कभी अपमान का पात्र भी बना देता है।

जिंदगी में सारा खेल विश्वास का है
एक खबर पढ़ी, बस यात्रियों ने नशे में धुत्त ड्राइवर की धुनाई की। आखिर ऐसा क्यों? क्योंकि उक्त चालक ने यात्रियों के विश्वास को ठेस पहुंचाई। यात्री इससे संतुष्ट हैं कि चालक अपनी जिम्मेदारी निभाएगा, इसी विश्वास के बल पर वे अपना जीवन उसके हवाले कर पूरी निशिचतता के साथ सफर करते हैं।

ऐसे में उन्हें पता चले कि जिसके भरोसे उन्होंने अपना जीवन छोड़ दिया है, वह नशे में है, तो क्रोध आना स्वाभाविक है। ऐसा जीवन में कई बार होता है, जब हम विश्वास की पराकाष्ठा से परे जाकर सोचते हैं। विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है, यदि हो तो। विश्वास के बल पर बड़े-बड़े काम हो जाते हैं। मैंने स्वयं अपनी एकमात्र किताब के प्रकाशक को देखा तक नहीं है। फिर भी उससे बेहतर संबंध कायम हैं। मानव को विश्वासी होना चाहिए।

जीवन की आपाधापी में कई बार हम अपनों पर भी विश्वास नहीं कर पाते और कई बार किसी अनजाने पर भी पूरा भरोसा कर लेते हैं। बेटी के रिश्ते के लिए किसी रिश्तेदार ने बात की। हमें उस पर विश्वास नहीं होता। हम अपने तईं लड़के के बारे में गोपनीय तरीके से पूछताछ करते हैं। इस बीच कहीं छोटा-सा भी खटका लगा, हम रिश्ता नहीं जोड़ पाते। हम आशंकित हो जाते हैं। बेटी पर किसी प्रकार का दुख न आने पाए, इसलिए हम तमाम जुगत करते हैं। लड़का भला हो, बस।

दूसरी ओर लड़की के ही रिश्ते के लिए पूरे परिवार समेत कहीं जाते हुए ट्रेन पर सवार हो जाते हैं। अपना सीट नंबर देखकर पूरे परिवार को सो जाने के लिए कह देते हैं। केवल हमारा ही नहीं, कई लोगों का परिवार केवल एक ड्राइवर के भरोसे पर आश्रित हो जाता है। हम यह तक नहीं सोच पाते हैं कि कहीं चालक नशे में तो नहीं? कहीं वह किसी से झगड़ा करके डच्यूटी पर तो नहीं आया? कहीं वह किसी तरह से दिमागी रूप से परेशान तो नहीं? यहां हम सशंकित नहीं होते, हो भी नहीं सकते, क्योंकि हम विश्वास की पराकाष्ठा के रथ पर सवार हैं। ट्रेन का ड्राइवर हमारा विश्वास है, वही विश्वास की पराकाष्ठा भी। उस पर एक नहीं, सैकड़ों जानें निर्भर हैं।

इस विश्वास को क्या कहें हम? मानव है ही ऐसा जीव। जो एक तो विश्वास ही नहीं करता, पर जब करता है, तो पूरे विश्वास के साथ करता है। हम कितने भी आधुनिक हो जाएं, पर विश्वास के मामले में अपने संस्कारों पर निर्भर होते हैं। घर के बुजुर्गो के किस्से-कहानियों में यदि कहीं, किसी व्यक्ति विशेष के बारे में कुछ किंवदंती भले ही हो, पर अपने जीवन में वही किंवदंती हम दोहराना नहीं चाहेंगे। जिसने हमारे बुजुर्गो के साथ विश्वासघात किया, उनकी पुश्तों पर हम कभी विश्वास नहीं कर सकते। विश्वाहस एक छोटा-सा शब्दय है, जिसे पढ़ने में एक सेकंड लगता है, सोचो तो मिनट लगता है, समझो तो दिन लगता है, पर साबित करने में तो जिंदगी लगती है।

कभी आपने देखा है पिता के कंधे पर बच्च कितने विश्वास के साथ बैठा खिलखिलाता रहता है। मुर्गी कितने विश्वास के साथ अपने अंडों को सेती है। बंदरिया कितने विश्वास के साथ अपने बच्चे को चिपटाए छलांग लगाती है। नट एक रस्सी पर कितने विश्वास के साथ आगे बढ़ता है। अधिक दूर जाने की कतई आवश्यकता नहीं है।

अपनी घड़ी को ही देख लीजिए। उसे पट्टे के साथ जोड़ने वाली एक छोटी-सी सूईनुमा चीज कितनी महत्वपूर्ण है। वह चीज महंगी भी नहीं है। मात्र कुछ रुपए में लगा दी जाती है, पर हमारी कीमती घड़ी को वही छोटी-सी सूईनुमा चीज ही संभालती है। है न विश्वास का बड़ा उदाहरण। यही है विश्वास और यही है विश्वास की पराकाष्ठा।

दूसरों के कहे पर भरोसा करके पंडितजी ने गंवाई बकरी
एक पंडित यजमानी कर दूसरे गांव से अपने घर की ओर लौट रहे थे। वे बहुत प्रसन्न थे, क्योंकि दक्षिणा में उन्हें एक बकरी मिली थी। रास्ते में पड़ने वाला जंगल जब शुरू हुआ तो पंडितजी को चोर-लुटेरों का डर सताने लगा। इसलिए वे राम-राम जपते हुए रास्ता पार करने लगे। उसी जंगल में एक घने पेड़ के पीछे चार ठग छिपकर बैठे हुए थे। पंडितजी को देखते ही वे प्रसन्न हो गए।

चारों ने उनकी दुधारू बकरी लूटने की योजना बना ली। दो ठग आगे बढ़कर पंडितजी के पास पहुंचे और उन्हें प्रणाम कर बोले - महाराज, यह कुत्ता ऊंची नस्ल का लगता है। आपको किसने दिया? पंडितजी ने चिढ़कर कहा - यह बकरी तुम्हें कुत्ता दिखाई दे रही है? यह तो मुझे दक्षिणा में मिली है। किंतु दोनों ठग यही कहते रहे - आपके साथ किसी ने मजाक किया है और बकरी के स्थान पर कुत्ता दे दिया है।

पंडितजी आगे बढ़े, तो उन्हें दो ठग और मिले और उन्होंने भी बकरी को कुत्ता बताया। पंडितजी सोचने लगे कि चार लोग असत्य नहीं बोल सकते। उन्हें विश्वास हो गया कि जो उन्हें दक्षिणा में दी गई है, वह बकरी नहीं, कुत्ता ही है। उन्होंने बकरी को जंगल में छोड़ दिया और अपने यजमान को कोसते हुए घर की ओर चल दिए।

इस प्रकार ठगों ने पंडितजी की बकरी हथिया ली। कथा का सार यह है कि दूसरों के कहे-सुने पर विश्वास करने से प्राय: बुरे नतीजे भुगतने पड़ते हैं। इसलिए अपने ऊपर विश्वास रखते हुए और परिस्थितियां पहचानकर स्वविवेक से निर्णय करना चाहिए।

अपना धन गंवाकर किसान ने सीखा समय पर काम करना
एक किसान को अक्सर अपने काम के सिलसिले में शहर जाना पड़ता था। वह गांव से शहर का सफर या तो बैलगाड़ी से तय करता या पैदल जाता। इस कारण उसे विलंब हो जाता। एक दिन जब वह शहर के बाजार में खरीदारी कर रहा था तो उसे एक घोड़े बेचने वाला दिखाई दिया।

उसने विचार किया कि घोड़े से उसका सफर अधिक तेजी से तय होगा, इसलिए इसे खरीद लेना चाहिए। उसने उचित मोल-भाव कर एक अच्छा घोड़ा खरीद लिया। घोड़ेवाले ने उसे समझाया कि वह घोड़े को अच्छी खुराक दे और उसके पैर की नाल कसकर रखे तो घोड़ा लंबे समय तक साथ देगा। किसान के लिए अब गांव से शहर का सफर आसान हो गया। वह बहुत प्रसन्न था। एक दिन वह घोड़े पर बैठकर शहर की ओर जा रहा था, तभी उसने देखा कि घोड़े के एक खुर की नाल ढीली पड़ गई है। किंतु उसने नाल की मरम्मत नहीं की। उसने सोचा कि घोड़ा अभी चल तो रहा है।

हालांकि घोड़े की चाल इस कारण धीमी हो गई थी। थोड़ी देर बाद दूसरी नाल भी ढीली होकर निकल गई, किंतु किसान लगातार इसे अनदेखा करता रहा। तभी दो डाकुओं ने किसान को घेर लिया और उसका सारा धन लूटकर भाग गए। किसान पछताने लगा कि यदि उसने घोड़े की नाल की मरम्मत कर ली होती तो वह तेजी से घोड़े को भगाकर डाकुओं से अपना धन बचा लेता। सार यह है कि निरंतर किसी काम को टालते रहने से एक दिन परेशानी अवश्य खड़ी होती है और तब उसकी उपयोगिता मालूम होती है। इसलिए प्रत्येक कार्य को समय रहते पूरा कर लेना चाहिए।

जब अहंकारी शेर को सबक सिखाया हाथी ने
जंगल के राजा शेर को अपनी शक्ति पर बहुत अभिमान था। वह स्वयं को अपराजेय मानता था और प्राय: अन्य जानवरों का अपमान करता रहता था। इससे जंगल के सभी जानवर परेशान थे, किंतु शेर को कौन समझाए? सभी को अपनी जान प्यारी थी। एक दिन शेर जंगल में घूमने निकला।

उस दिन भी वह अहंकार में भरा अकड़ा हुआ चला जा रहा था। तभी उसकी दृष्टि एक बाघ पर पड़ी। वह तत्काल उसके पास पहुंचा और अपनी ताकत की शेखी बघारते हुए बोला - मेरी शक्ति का कोई सानी नहीं है। तो बताओ, जंगल का राजा कौन है? बाघ ने विनम्रता से उत्तर दिया - हुजूर, आप ही हैं।

फिर शेर थोड़ा आगे गया तो वहां उसे भालू मिला। उसने भालू से भी यही सवाल पूछा - जंगल का राजा कौन है? भालू तुरंत बोला- आप ही हैं महाराज। कुछ देर बाद शेर को हाथी नजर आया, तो उसके पास जाकर भी उसने वही प्रश्न दोहराया। हाथी को गुस्सा आ गया। उसने जवाब में शेर को अपनी सूंड में लपेटकर दूर फेंक दिया। तब शेर लंगड़ाता हुआ हाथी के पास आकर बोला - भाई, क्षमा करना।

अब कभी अपनी शक्ति का घमंड नहीं करूंगा। कथा का निहितार्थ यह है कि अहंकार सदैव हानि का कारण बनता है। इसलिए उससे सदैव दूर रहना चाहिए और अपनी किसी भी विशिष्टता अथवा उपलब्धि पर घमंड करने के स्थान पर विनम्र रहकर उसकी प्रशंसा शेष समाज से सुननी चाहिए।

सद्चिंतन से गणिका ने किया नर्क से स्वर्गारोहण
एक संन्यासी बड़े ही वीतरागी थे। शहर के बाहर नदी किनारे एक छोटी-सी कुटिया में रहते थे और भगवद् भजन करते थे। उनकी त्यागी वृत्ति और ज्ञानपूर्ण बातों से प्रभावित होकर लोग उनके पास आते और उनके सान्निध्य में सत्संग का लाभ पाते। संन्यासी सभी को अच्छा बनने की राह दिखाते और यथासंभव व्यसनों व कुप्रवृत्तियों से बचने की सलाह देते।

एक दिन एक वेश्या ने संन्यासी की कुटिया के सामने एक विशाल भवन बनवाया और वहां राग-रंग शुरू हो गया। संन्यासी उसे देखकर यह सोचते कि कैसी पतिता है, कैसे निकृष्टतम कर्म करती है। यह अवश्य ही नर्क में जाएगी। उधर, वेश्या रोज सुबह उठकर संन्यासी की कुटिया का धर्ममय पवित्र वातावरण देखकर विचार करती कि इनका जीवन कितना पवित्र है। संन्यासी ने इस स्थान को अपने भजन भाव से कैसा पुनीत शांति से भर दिया है। क्या मैं उनके जैसा सात्विक जीवन कभी जी सकूंगी? कालांतर में दोनों की मृत्यु हुई और दोनों यमलोक पहुंचे।

संन्यासी ने यहां भी वेश्या को देखकर कोसा। यमदूतों ने वेश्या को नर्क में डाल दिया, किंतु उन्होंने वहां भी उसे संन्यासी का ध्यान करते पाया और देखा कि वह उन्हीं के सात्विक भावों से ओतप्रोत हो उनके जैसा बनने की प्रार्थना कर रही है। तब यमदूतों ने उसे स्वर्ग में स्थान दिया। कथा का निहितार्थ यह है कि मनुष्य मन से जैसा चिंतन करता है, उसे वैसी ही गति मिलती है। इसलिए प्रतिकूलताओं में भी सदचिंतन करते रहना चाहिए।

बुद्धिबल से खरगोशों ने पाई हाथियों पर विजय
एक जंगल में हाथियों के समूह के साथ उनका मुखिया चतरुदत रहता था। एक बार उस जंगल में कई वर्षो तक पानी नहीं बरसा। अकाल की स्थिति निर्मित हो गई। चतरुदत ने कुछ हाथियों को पानी की खोज में जंगल से बाहर भेजा। उन्होंने आकर एक सरोवर के विषय में बताया।

सभी हाथी अगले दिन वहां पहुंचे और जीभरकर पानी पिया, स्नान किया और दिनभर जलक्रीड़ा की। उस सरोवर के चारों ओर फैली घास पर खरगोश रहते थे। हाथियों के इधर-उधर आने-जाने से उनके पैरों के नीचे कई खरगोश दबकर मर गए। कुछ घायल हुए और कुछ के घर टूट गए। हाथियों के जाने के बाद खरगोशों ने विचार किया कि यदि हाथी रोजाना यहां आएंगे तो हममें से कोई भी नहीं बचेगा।

एक बुजुर्ग खरगोश ने सुझाव दिया कि हमारा राजा विजयदत्त चंद्रमा के मंडल में निवास करता है। हमारा एक साथी चंद्रमा का दूत बनकर हाथियों के राजा के पास जाकर चंद्रमा का संदेश दे कि इस सरोवर के चारों ओर उसके परिजनों का निवास है, जिनके हाथियों के पैरों से कुचले जाने की आशंका से उन्हें इसके पास न आने की आज्ञा दी जाती है।

लंबकर्ण नामक एक बुद्धिमान खरगोश ने चतरुदत को यह संदेश दिया और प्रमाणस्वरूप तेजी से बहते सरोवर के जल में हिलते चंद्रमा को दिखाकर कहा - गौर से देखो। भगवान चंद्रमा क्रोध से किस तरह कांप रहे हैं? चतरुदत ने भयभीत होकर हाथियों को सरोवर की ओर न जाने का आदेश दिया और नया जलस्रोत खोजने को कहा। सार यह है कि बाहुबल न होने पर बुद्धिबल से काम लेने से सफलता प्राप्त होती है।

जब मां ने अपने पुत्र से अनोखे गहनों की मांग की
19वीं शताब्दी का एक प्रसंग है। मेदिनीपुर जिले के एक गांव में एक मां अपने पुत्र के साथ रहती थी। मां का रहन-सहन अत्यंत सादा था और विचार अति उच्च। अपने पुत्र को वह सदा सुसंस्कारों की शिक्षा देती थी। पुत्र भी मां का आज्ञाकारी था। मां बहुत संघर्ष कर पुत्र का पालन-पोषण कर रही थी।

पुत्र अपनी मां के कष्टों को देखता-समझता था और इसी वजह से उसके मन में यह भावना थी कि बड़ा होनेपर मां को सभी प्रकार के सुख दूं। एक दिन पुत्र ने अपनी मां से कहा -‘मां मेरी बहुत इच्छा है कि तुम्हारे लिए कुछ गहने बनवाऊं, तुम्हारे पास एक भी गहना नहीं है।’ यह सुनकर मां बोली- ‘बेटा! मुझे बहुत दिनों से तीन प्रकार के गहनों की इच्छा है।’ पुत्र ने पूछा - ‘वे कौन से हैं?’ मां ने उत्तर दिया - ‘बेटा इस गांव में अच्छा स्कूल नहीं है। सो तुम एक अच्छा स्कूल बनावाना।

एक दवाखाना खुलवा देना और गरीब अनाथ बच्चों के रहने-खाने की व्यवस्था करवा देना। यही मेरे लिए गहनों के समान होगा।’ मां की बात सुनकर पुत्र रो पड़ा। यह पुत्र था पं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर और मां थी भगवती देवी। वीरसिंह गांव में इस पुत्र द्वारा स्थापित किया हुआ भगवती विद्यालय आज भी उन अमूल्य गहनों की कथा सुना रहा है। कथा का सार यह है कि स्वयं की सज्जा से अधिक समाज को संवारने की कामना ही मनुष्य को मनुष्यत्व प्रदान करती है और ऐसी मनुष्यता से भरा समाज एक सुसंस्कृत राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करता है।

स्वयं को मृत्यु के लिए प्रस्तुत कर गुरु ने बचाया शिष्य को
एक गुरु और शिष्य तीर्थाटन हेतु जा रहे थे। चलते-चलते शाम घिर आई तो दोनों एक पेड़ के नीचे रात्रि विश्राम के लिए रुक गए। गुरुजी रात्रि में मात्र तीन-चार घंटे ही सोते थे, इसलिए उनकी नींद जल्दी पूर्ण हो गई। वे शिष्य को जगाए बिना दैनिक कार्यो से निवृत्त हो पूजा-पाठ में लग गए।

इसी बीच उन्होंने एक विषधर सर्प को अपने शिष्य की ओर जाते देखा। चूंकि गुरुजी पशु-पक्षियों की भाषा समझते थे, इसलिए उन्होंने सर्प से प्रश्न किया - ‘सोए हुए मेरे शिष्य को डसने का क्या प्रयोजन है?’ सर्प ने उत्तर दिया -‘महात्मन! आपके शिष्य ने पूर्वजन्म में मेरी हत्या की थी। मुझे उससे बदला लेना है।

अकाल मृत्यु होने पर मुझे सर्प योनि मिली है। मैं आपके शिष्य को डसकर उसे भी अकाल मृत्यु दूंगा।’ क्षणभर विचार के उपरांत गुरुजी बोले - ‘मेरा शिष्य अत्यंत सदाचारी व होनहार होने के साथ ही अच्छा साधक भी है, फिर तुम उसे मारकर विश्व को उसके ज्ञान और प्रतिभा से क्यों वंचित कर रहे हो? स्वयं तुम्हें भी इस कार्य से मुक्ति नहीं मिलेगी।’ किंतु सर्प का निश्चय नहीं बदला, तब गुरुजी ने एक प्रस्ताव रखते हुए कहा - ‘मेरे शिष्य की साधना अभी अधूरी है। उसे अभी इस क्षेत्र में बहुत कुछ करना है, जबकि मेरे लक्ष्य पूर्ण हो चुके हैं। मेरे नाश से किसी की हानि नहीं है।

अत: उसके स्थान पर मुझे डस लो।’ गुरु का यह स्नेह देखकर सर्प का हृदय परिवर्तन हो गया और वह उन्हें प्रणाम कर वहां से चला गया। वस्तुत: गुरु की गुरुता न केवल शिष्य को ज्ञान देने में, बल्कि उसके पूर्ण परिपक्व होने तक उसकी रक्षा करने में निहित है।

व्यस्तता से थोड़ा वक्त प्रार्थना के लिए निकाल कर तो देखिए
कार्यस्थल और धर्मस्थल दोनों में ऊपरी तौर पर फर्क है। कार्यस्थल पर आप अपने हिस्से का कमाने जाते हैं, धर्मस्थल पर परमात्मा के अधिकार का उसे देने जाते हैं। कार्यस्थल हमें धन देता है और पूजास्थल धर्म देते हैं। कार्यस्थल पर ज्यादा समय अशांति, कम समय शांति रहेगी तथा धर्मस्थल पर अधिक समय शांति, कम समय अशांति रहेगी। हम जब अपने ऑफिस, दुकान, संस्थान में कार्यरत रहते हैं, तो अपने काम को समय और लक्ष्य से साध कर चलते हैं।

अच्छे-बुरे लोगों से सामना होता ही रहता है। अच्छे लोग तो खैर कुछ देकर ही जाते हैं, लेकिन चालाक, छल-कपट वालों से भी सामना होगा। ऐसे समय हमें भी सुरक्षा की तैयारी करना होगी। एक प्रयोग करते रहें। अपने प्रोफेशनल डिसीप्लिन और कमिटमेंट को जरा परमात्मा की ओर भी मोड़िए। आपके कार्य की समयावधि जो भी हो, उसमें से कुछ समय प्रार्थना के लिए रिजर्व रखिए।

अपने कार्यस्थल पर प्रार्थना के माध्यम से परमात्मा को याद करना हमारे प्रोफेशनल एटीटच्यूड को और रिच करेगा। कामकाज में प्रार्थना ईश्वर से मीटिंग और एपांइटमेंट दोनों हैं। हम अपने भीतर के नकारात्मक व्यक्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाते हैं, यही व्यक्तित्व कार्यस्थल पर और सक्रिय रहता है। थोड़ी सी देर हम प्रार्थना से जुड़ते हैं। हमारे भीतर जाग्रति, सतर्कता, विश्वास, जुनून, प्रतिबद्धता और आनंद बहने लगेगा।

इसके बाद हम जो भी बोलेंगे, वे शब्द प्रभावशाली और दूसरों के लिए स्वीकार करने योग्य होंगे। 8-10 घंटे काम करते हुए हम कुछ समय चाय-नाश्ता, भोजन, चर्चा में जरूर बिताते हैं। इसी में से थोड़ा वक्त प्रार्थना को दे दीजिए। प्रार्थना का रूप क्या रखेंगे, यह आप अपनी स्थिति पर निर्धारित कर लें, पर प्रार्थना करें जरूर। यहीं से आप प्रतिदिन विजय यात्रा करेंगे। तारीफ पचाना, उद्देश्य छिपाना, योजनाएं बनाना और प्रगति सही वक्त पर दिखाना, ये सब युद्ध के पहले ही विजय की घोषणा के लक्षण हैं। काम के दौरान प्रार्थना से जुड़कर ये खूबियां स्वत: आएंगी।

जब पत्नी ने अपने पति को पराजित घोषित किया
एक बार आदिशंकराचार्य और मंडन मिश्र के मध्य किसी विषय को लेकर बहस छिड़ गई। दोनों अपने-अपने तर्को पर अडिग थे और कोई हार मानने के लिए तैयार नहीं था। आखिर यह तय हुआ कि दोनों परस्पर शास्त्रार्थ करें और जिसके तर्क अकाट्य सिद्ध हों, वही विजेता माना जाएगा। दोनों के बीच सोलह दिन तक शास्त्रार्थ चला।

निर्णायक थीं - मंडन मिश्र की विदुषी पत्नी देवी भारती। हार-जीत का निर्णय हो नहीं पा रहा था, क्योंकि दोनों एक से बढ़कर एक तर्क रख रहे थे। इसी बीच देवी भारती को किसी जरूरी काम से कुछ समय के लिए बाहर जाना पड़ा। जाने के पूर्व उन्होंने दोनों विद्वानों के गले में फूलों की एक-एक माला डालते हुए कहा : ‘मेरी अनुपस्थिति में मेरा काम ये मालाएं करेंगी।’ उनके जाने के बाद शास्त्रार्थ यथावत चलता रहा। कुछ समय बाद जब वे लौटीं तो उन्होंने दोनों को बारी-बारी से देखा और आदिशंकराचार्य को विजेता घोषित कर दिया।

अपने पति को बिना किसी आधार पर पराजित करार देने पर हैरानी जताते हुए लोगों ने उनसे इसका कारण पूछा, तो वे सहजता से बोलीं - ‘जब विद्वान शास्त्रार्थ में पराजित होने लगता है, तो वह स्वयं को कमजोर मानकर क्रोधित हो उठता है। मेरे पति के गले की माला क्रोध के ताप से सूख गई, जबकि शंकराचार्य की माला के फूल अभी भी ताजे हैं, इससे प्रकट होता है कि शंकराचार्य की विजय हुई है।’ वस्तुत: किसी भी कठिन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बुद्धि के साथ ही धर्य की भी आवश्यकता होती है, क्योंकि वह आसानी और शीघ्रता से प्राप्त नहीं होता है।

नेताजी की हाजिरजवाबी से अधिकारी हुआ लाजवाब
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की देशभक्ति और त्याग भावना से सभी परिचित हैं। इसके अतिरिक्त वे बचपन से ही अत्यंत मेधावी थे। अपनी शैक्षणिक संस्थाओं में वे प्राय: अग्रणी छात्रों में रहते थे और उनके अध्यापक भी उनके ज्ञान व ग्रहण क्षमता से प्रभावित होते थे। साथ ही सुभाषचंद्र बोस हाजिरजवाब भी थे। किसी भी बात का तत्काल जवाब देने से वे कभी नहीं चूकते थे।

जटिल से जटिल प्रश्नों का उत्तर उनके पास होता था और त्वरित गति से वे जिज्ञासाओं का समाधान करते थे। एक बार वे आईसीएस की परीक्षा में बैठे। उन्होंने लिखित परीक्षा बहुत तैयारी से दी और उसमें वे सफल रहे। जब साक्षात्कार का अवसर आया तो जहां अन्य प्रतिभागियों के चेहरों पर घबराहट व तनाव था, वहीं बोस सहजता से बैठे थे। जो प्रतिभागी साक्षात्कार देकर बाहर आ रहे थे, उनके चेहरों पर भी तनाव था, क्योंकि अंग्रेज अधिकारी विचित्र प्रश्न पूछ रहे थे।

जब सुभाषचंद्र अंदर गए तो एक अंग्रेज अधिकारी ने अपने हाथ की अंगूठी उतारकर उनसे पूछा : ‘क्या तुम इस अंगूठी में से निकल सकते हो?’ सुभाषचंद्र ने तत्काल ‘हां’ कहा और कागज की एक पर्ची पर अपना नाम लिखकर उसे मोड़कर अंगूठी में से आर-पार निकाल दिया। अधिकारी उनकी त्वरित बुद्धि पर दंग रह गया और बोस साक्षात्कार में सफल रहे। वस्तुत: हाजिरजवाबी ऐसा गुण है, जो सभी को प्रभावित करने की ताकत रखता है। इससे अनेक बार प्रतिकूलता भी अनुकूलता में बदल जाती है।

धर्मग्रंथों से सदाचरण ग्रहण करने की शिक्षा दी महात्मा ने
एक महात्मा बड़े ज्ञानी थे। वे प्राय: अपने शिष्यों को रामायण, महाभारत और नीति ग्रंथों की अच्छी बातें बताकर उन्हें अपने आचरण में उतारने का आग्रह करते थे। प्रतिदिन संध्या को वे प्रवचन करते और श्रोताओं को इन धर्मग्रंथों की कथाएं व दृष्टांत सुनाकर उनमें सदाचरण जाग्रत करने का प्रयास करते थे। स्वयं महात्माजी का आचरण भी तदनुकूल ही था।

वे कंदमूल खाते, कभी किसी वस्तु की इच्छा न करते थे और संग्रह में उनकी कदापि रुचि नहीं थी। यदि कोई शिष्य अथवा श्रोता श्रद्धापूर्वक उन्हें कुछ भेंट करता तो वे तत्क्षण उसे किसी जरूरतमंद को दान कर देते। प्रवचन के पश्चात लोगों के प्रश्नों व जिज्ञासाओं का भी महात्माजी समाधान करते।

वे प्राय: रामायण आदि ग्रंथों से शिक्षा ग्रहण करने की बात कहते थे। एक दिन किसी व्यक्ति ने उनसे प्रश्न किया - ‘महात्माजी! रामायण को सही माना जाए या गलत?’ उन्होंने उत्तर दिया - ‘वत्स! जब रामायण की रचना हुई थी, तब मैं नहीं था।

रामजी वन में विचरण कर रहे थे, तब भी मेरा अता-पता नहीं था। इसलिए मैं बता नहीं सकता कि रामायण सही है या गलत। मैं तो सिर्फ इतना बता सकता हूं कि इसके अध्ययन एवं शिक्षा से मैं सुधरकर इस स्थिति में हूं। चाहो तो तुम भी इसका प्रयोग कर अपना जीवन बेहतर बना सकते हो।’ सार यह है कि धर्मग्रंथ व नीतिग्रंथ तर्क का विषय नहीं होते। उनमें सतोमुखी जीवन के तत्व होते हैं। अत: उनसे अपने जीवन को सार्थकता देने की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, न कि उन्हें तर्क की कसौटी पर कसना चाहिए।

देशहित को प्राथमिकता दी
एक बार की बात है - पं. जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू काफी अस्वस्थ थीं, भारत में चल रहे उपचार से कोई लाभ न होता देख निर्णय लिया गया कि उन्हें स्विट्जरलैंड ले जाया जाए। स्विट्जरलैंड में उनका उपचार शुरू हुआ। नेहरूजी उनका हर तरह से खयाल रखते। एक दिन भारत से नेहरूजी के नाम एक तार आया, जिसमें लिखा था - शीघ्र चले आओ। भारत माता के लाल मां की बेड़ियों को काटने के लिए तुम्हारा आह्वान करते हैं।

तार पढ़कर नेहरूजी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया। एक ओर पत्नी मरणासन्न अवस्था में थी, दूसरी ओर अपने देश को स्वाधीन कराने का महत्वपूर्ण कार्य। जब कमलाजी ने उन्हें चिंतित देखा तो कारण पूछा। नेहरूजी ने तार की बात बताते हुए कहा - मैं तुम्हारे पास रहता हूं तो दुनिया कहेगी कैसा स्वार्थी है जवाहर? चालीस करोड़ जनता की परवाह न कर पत्नी के मोह में फंस गया और जाता हूं तो तुम कहोगी कि अंत समय में भी साथ नहीं दिया। कमला नेहरू ने कहा - आप बिलकुल चिंता न करें। मैं ठीक हो जाऊंगी। आपका जन्म मेरे लिए नहीं, बल्कि भारतवासियों को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए हुआ है। आपको तत्काल देश लौट जाना चाहिए।

इधर, नेहरूजी भारत आए और उधर कमलाजी का अवसान हो गया। सार यह है कि परिवार की चिंता छोड़कर वृहत्तर हितों की चिंता करने वाला सच्च परोपकारी होता है। ऐसे लोगों से ही समाज में नैतिक व मार्गदर्शक मूल्यों की स्थापना होती है और अन्यों के लिए वे मिसाल व मार्गदर्शन बन जाते हैं।

प्रारब्ध कभी-कभी प्रसन्नता में उदासी भी पैदा कर देता है
कभी -कभी सबकुछ करते, अच्छे परिणाम मिलने के बाद भी मन में उदासी आ जाती है। ऐसा लगने लगता है कि जो खुशी मिल रही है, वह भी सच है या नहीं। स्वयं को समझाने की इच्छा होती है कि खुश रहें। सोचिए, ऐसा क्यों होता है? हम अपने कार्यस्थल पर हों या घर में, सबके बीच खुशी के माहौल में भी ऐसा लगता है।

जैसे-तैसे सबके बीच खुद को एडजस्ट कर, समय बिताया जाता है। जब कभी ऐसा होने लगे, तो कर्म के सिद्धांत को याद करें। विचार करें कि हम संसार में क्यों हैं, क्या करने आए हैं और क्या कर रहे हैं। ऋषि-मुनि कह गए हैं कि प्रारब्ध है और उसे भोगकर ही पूरा करना पड़ता है।

आधुनिक प्रबंधन की भाषा में प्रारब्ध को संयोग कहते हैं। हम इस बहस में न भी पड़ें, तो मानकर चलें कि प्रारब्ध कभी-कभी प्रसन्नता में उदासी ला देता है। अब जब भोगना ही है, तो थोड़ा कर्म के सिद्धांत पर ध्यान दें, वरना अकारण दयनीय जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाएंगे। इस उदासी को टालें नहीं।

ऐसी स्थिति से पल्ला न झाड़ें। जीवन में कुछ बातें अनुभव से ही समाप्त होंगी। प्रार्थना शुरू करें। सामान्य रूप से ऐसा लगता है कि प्रार्थना पूजा के समय या मंदिर जाकर ही की जाए, लेकिन कई लोगों के बीच भरे-पूरे माहौल में भीतर उदासी जागते ही तुरंत प्रार्थना शुरू कर दीजिए। याद रखें इसमें शिकायत का भाव न हो। यह एक भावदशा बन जाना चाहिए। हम अपना सारा रस परमात्मा की ओर मोड़ दें, क्योंकि बाहर के रस से हम भीतर नीरस हो रहे हैं।

इसलिए केंद्र बिंदु बदलना है और वह परिवर्तित केंद्र परमात्मा होगा। जब हम किसी से प्रार्थना करते हैं, तो इसका अर्थ है हम उससे जुड़ना चाहते हैं। शुरुआत आभार से करें। परमात्मा से कहें आपने मौका दिया है, वरना मैं तो उदास होने जा रहा था। वैसे तो कोई मांग नहीं है, लेकिन फिर भी छोटी सी इच्छा है और वह है आपको पाना। बस, यहीं से अच्छी खासी उदासी विदा होने लगेगी और आप अंदर-बाहर रसाभोर हो जाएंगे।

सोनिंगदेव ने धनुष के दो टुकड़े कर देश की प्रतिष्ठा बचाई
उस समय दिल्ली पर मुगलों का शासन था। खुरासान के सम्राट ने मुगल दरबार में लोहे का एक धनुष इस चुनौती के साथ भेजा कि या तो धनुष की डोरी चढ़ाकर मेरे पास भेजें या धनुष सहित दूत के साथ सवा मन सोना भेज दें। यह हिंदुस्तान की प्रतिष्ठा का सवाल था।

बादशाह ने घोषणा की कि जो इस धनुष की डोरी चढ़ा देगा, उसे मुंहमांगा इनाम दिया जाएगा। अनेक वीर पुरुषों और शाही पहलवानों ने लौह धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास किया, किंतु कोई सफल नहीं हुआ। इससे बादशाह चिंतित हो गए। उन्हीं दिनों भाटी वंश का एक सरदार सोनिंगदेव दिल्ली की सड़कों पर काम की तलाश में भटक रहा था। उसने शाही घोषणा को सुनकर सोचा कि यदि धनुष की प्रत्यंचा न चढ़ी, तो देश की प्रतिष्ठा के लिए ठीक न होगा।

उसने दरबार में जाकर यह कार्य करने की इच्छा व्यक्त की, तो बादशाह बोले - जहां कोई शाही पहलवान सफल नहीं हुआ, वहां तुम क्या कर पाओगे? सोनिंगदेव ने कहा - मैं केवल यह बताना चाहता हूं कि भारत का पौरुष अभी मरा नहीं है। बादशाह की अनुमति मिलते ही सोनिंगदेव ने उस विशाल धनुष को अपनी बलिष्ठ भुजाओं में उठाकर पूरे दरबार का चक्कर लगाया और फिर प्रत्यंचा चढ़ाकर उसके दो टुकड़े कर दिए। बादशाह ने उसे सीने से लगाया और उसे सेनापति पद की पेशकश की। सोनिंगदेव ने विनम्रतापूर्वक यह प्रस्ताव ठुकरा दिया, क्योंकि वह सिर्फ देश का नाम ऊंचा रखने की खातिर वहां आया था। वस्तुत: देश की प्रतिष्ठा के लिए नि:स्वार्थ प्रयास करने वाला सच्चा देशभक्त होता है।

अपना मजाक उड़ाने वाले की मदद की विद्वान दिदरो ने
यूरोप के महान विद्वान दिदरो के पास एक युवक आया और बोला - मैं एक लेखक हूं और मैंने एक पुस्तक लिखी है। मैं चाहता हूं कि छपने के पहले आप उसे एक बार भली प्रकार देख लें और अपनी प्रतिक्रिया मुझे बताएं। दिदरो ने उसे अगले दिन आने के लिए कहा। दूसरे दिन जब वह लेखक आया तो दिदरो ने कहा - मुझे बड़ी खुशी है कि तुमने मुझे लक्ष्य बनाकर अपनी पुस्तक में मेरा खूब मजाक उड़ाया है और मुझे बहुत गालियां दी हैं।

लेकिन जरा यह तो बताओ कि इससे तुम्हें क्या लाभ होगा? युवक बोला - अभी मुझे अच्छी तरह लिखना नहीं आता है, अत: मेरी पुस्तक को कोई प्रकाशक छापने के लिए तैयार नहीं होगा। मुझे मालूम है कि आपके अनेक दुश्मन हैं और यदि मैं आपका मजाक उड़ाने वाली पुस्तक लिखूं तो मुझे अच्छा पैसा मिल सकता है।

दिदरो ने कहा - यह तुमने बहुत ही अच्छा किया है। एक काम और करो। यह पुस्तक छापने के लिए तुम्हें पैसा चाहिए। उसका एक उपाय है। एक व्यक्ति से मेरा धर्म के विषय में गहरा मतभेद है। तुम यह पुस्तक उसे समर्पित कर दो। वह प्रसन्न होकर तुम्हें अवश्य ही आर्थिक सहयोग करेगा।

तुम उसके नाम एक शानदार समर्पण पत्र लिखो। युवक ने कहा - मुझे समर्पण पत्र लिखना नहीं आता। दिदरो ने कहा - मैं ही तुम्हें अच्छा समर्पण पत्र लिख देता हूं। उन्होंने उसी समय समर्पण पत्र लिखकर युवक को दे दिया। जिससे उसका काम सफल हो गया। कथा का सार यह है कि स्वयं की कीमत पर दूसरों की मदद करना त्याग और साहस की संयुक्त मिसाल है।

छोटे काम को भी लगन से कर महान बने पाइथागोरस
यूनान के थ्रेस प्रांत में एक निर्धन बालक दिनभर परिश्रम करके जंगल में लकड़ियां काटता और शाम को उनका गट्ठर बनाकर बाजार में बेच देता। इसी से उसके परिवार का पालन-पोषण होता था। एक दिन एक सज्जन उस बाजार से गुजर रहे थे, जहां वह लड़का लकड़ी का गट्ठर बेचने आया था।

उस व्यक्ति ने देखा कि गट्ठर बहुत ही कलात्मक रूप से बंधा हुआ है। उसने उस लड़के से पूछा - क्या यह गट्ठर तुमने बांधा है? लड़के ने जवाब दिया - जी हां? मैं दिनभर लकड़ी काटता हूं, स्वयं गट्ठर बांधता हूं और फिर रोज बाजार में बेचता हूं।

उस व्यक्ति ने लड़के से कहा - क्या तुम इसे खोलकर इसी प्रकार वापस बांध सकते हो? लड़के ने हां कहते हुए गट्ठर खोला और अत्यंत सुंदर तरीके से उसे पुन: बांध दिया। यह कार्य वह बड़े ध्यान, लगन और फुर्ती के साथ कर रहा था। वह व्यक्ति लड़के की एकाग्रचित्तता, लगन व कलात्मक प्रतिभा देखकर बहुत प्रभावित हुआ। उसने देखा कि बालक में छोटे-से काम को भी दिलचस्पी, लगन व कलात्मक ढंग से करने का गुण विद्यमान है। उसने लड़के से कहा - क्या तुम मेरे साथ चलोगे? मैं तुम्हें शिक्षा दिलाऊंगा। लड़के ने हामी भर दी।

थोड़े ही समय में वे सज्जन व्यक्ति, जो यूनान के विख्यात तत्वज्ञान डेमोक्रिट्स थे, की मदद से बालक ने अपनी लगन व कुशाग्र बुद्धि के बल पर उच्च शिक्षा प्राप्त की और यूनान के महान दार्शनिक पाइथागोरस के नाम से विख्यात हुआ। वस्तुत: अपने छोटे-छोटे कार्यो को भी लगन व निष्ठा से करने वाले व्यक्तियों में ही महानता के बीज छिपे रहते हैं।

बालक गोपाल ने स्ट्रीट लाइट में पढ़कर अपना बजट सुधारा
गोपाल नाम का एक बालक था। अत्यंत निर्धन परिवार का यह बालक बड़े संघर्षो के बीच अपनी पढ़ाई पूरी कर रहा था। वह काम भी करता और अध्ययन भी। जब उसके सहपाठी मनोरंजन के लिए मेले, नाटक या कहीं घूमने के लिए कहते तो वह चलने से इंकार कर देता, क्योंकि न तो उसके पास इन सब चीजों के लिए पैसे होते थे और न ही वह इनकी इच्छा रखता था।

एक बार उसके एक मित्र ने उसे एक नाटक देखने के लिए साथ चलने पर बहुत जोर दिया, तो वह मान गया। दोनों ने नाटक देखा। उस समय तो मित्र ने दोनों के पैसे दे दिए, किंतु अगले ही दिन गोपाल से उसके टिकट के पैसे देने को कहा।

यह सुनकर गोपाल को झटका-सा लगा, क्योंकि वह समझ रहा था कि मित्र ने अपनी ओर से नाटक दिखाया है। गोपाल ने उसे दो आने दे दिए, किंतु उसका बजट गड़बड़ा गया। उसे महीने भर के लिए कुल आठ रुपए मिलते थे, जिसमें से चार खाने के, चार स्कूल फीस, किताब व कपड़ों पर खर्च होते थे। तब अपना बजट सही करने के लिए गोपाल ने अपनी लालटेन में डालने वाले तेल में बचत करने की ठानी।

फिर शेष महीने की पढ़ाई उसने सड़क पर लगे खंभों की रोशनी में की और अपना बजट ठीक किया। आगे चलकर वह बालक गोपालकृष्ण गोखले के नाम से विख्यात हुआ, जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में महती भूमिका निभाई। वस्तुत: अपव्यय सदा असंतुलन का जनक होता है, जबकि अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखकर मितव्ययिता से काम करने वाले का जीवन अत्यंत सधा हुआ और संतुलित होता है।

जब जिन्ना को मिला अपने संदेश का सटीक जवाब
सुभाषचंद्र बोस ने देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। उन्होंने इसमें सभी संप्रदायों के लोगों को शामिल होने का न्यौता दिया था। उनका विचार था कि भारत में रहने वाले सभी हिंदू, मुस्लिम, सिख आदि पहले भारतीय हैं, फिर अन्य धर्मो से संबंधित, इसलिए वे अपनी आजाद हिंद फौज के द्वार सभी के लिए खुले रखते थे। जिसके भी सीने में देश को आजाद करने की आग हो, वह उनकी फौज में शामिल हो सकता था। इसलिए आजाद की इस सेना में सभी संप्रदायों के लोग थे। कैप्टन शाहनवाज खान भी फौज में शामिल थे।

एक बार अंग्रेजों ने उनकी किसी गतिविधि को लेकर उन पर मुकदमा दायर किया। कैप्टन को बचाने का बीड़ा भूलाभाई देसाई ने उठा लिया। तभी मुहम्मद अली जिन्ना ने कैप्टन को संदेश भिजवाया - यदि आप आजाद हिंद फौज के साथियों से अलग हो जाएं तो आपका मुस्लिम भाई होने के नाते मैं आपका मुकदमा लडूंगा। शाहनवाज खान ने तत्काल जवाब भिजवाया - हम सब हिंदुस्तानी कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमारे कई साथी इसमें शहीद हो गए और हमें उनकी शहादत पर नाज है।

आपकी जर्रानवाजी का शुक्रिया। हम सब साथ-साथ ही उठेंगे या गिरेंगे, पर साथ नहीं छोड़ेंगे। वस्तुत: धर्म या जाति की संकीर्णता से ऊपर रहने वाला देश ही उन्नति करता है। इसलिए सभी को समानता की दृष्टि से देखते हुए सामूहिकता में विश्वास रख मिलकर कार्य करना चाहिए।

अहंकार को विनम्रता से जीतने का संदेश दिया संत राबिया ने
संत राबिया का जीवन त्याग और वैराग्य का सर्वोत्तम उदाहरण है। राबिया निरंतर खुदा का स्मरण करतीं और संतों के साथ आध्यात्मिक चर्चाओं में लीन रहती थीं। लोग उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे और उनका आशीर्वाद लेने के लिए दूर-दूर से आते थे। किंतु राबिया इस लोकप्रियता के अहंकार से कोसों दूर अत्यंत विनम्र थीं। एक बार वे संतों के साथ आध्यात्मिक चर्चा कर रहीं थीं। कुछ ही देर में वहां हसन बसरी नाम के एक संत आए।

उन्होंने कहा - बहन राबिया! क्यों न हम झील के पानी पर बैठकर खुदा की बात करें। ऐसा कहा जाता था कि हसन बसरी पानी पर चल सकते थे। राबिया उनके संकेत को समझकर बोलीं - हसन भैया, हम खुदा का जिक्र आसमान में उड़ते हुए करें तो कैसा रहे? दरअसल राबिया को आकाश में उड़ने का कमाल हासिल था। हसन को निरुत्तर देख राबिया ने कहा - भैया, जो काम तुम कर सकते हो, वो तो एक छोटी-सी मछली भी कर सकती है और जो मैं कर सकतीं हूं, उसे एक मामूली मक्खी भी कर लेती है, लेकिन सत्य इस करिश्मेबाजी से कोसों दूर है।

उसे तो विनम्र होकर खोजना पड़ता है। जो विनम्र है, वही सत्य का सच्च अन्वेषी है। हसन राबिया की महानता से अभिभूत हुए। परमात्मा को प्राप्त करने का लक्ष्य अहंकार को विनम्रता में विलीन कर ही पूर्ण किया जा सकता है। वस्तुत: मैं अथवा द्वैत के भाव का हम या अद्वैत भाव में विसर्जन ही ईश्वर की उपलब्धि का द्वार है।

दूसरों से अपने सुख की चाह यानी जीवन में दुख की आस
दिनभर महीनेभर और सालभर काम करते हुए सभी लोग अपनी उपलब्धियों का आकलन जरूर करते हैं। व्यावसायिक क्षेत्र में तो तराजू के एक पलड़े में उपलब्धियां और सफलता रखी जाती हैं और दूसरे पलड़े में जिंदगी के बांट पहले से ही रखे होते हैं।

समझदार लोग दोनों पलड़ों के वजन पर नजर रखते हैं और नाप-तौल के मामले में सावधान हो जाते हैं। यदि सावधानी नहीं रखी, तो उपलब्धियों में दुख भी हाथ आ सकता है तथा सफलता के पीछे अशांति भी खड़ी नजर आएगी। इसको अध्यात्म की भाषा में अमंगल शब्द कहा है। सबकुछ मिलने के बाद भी जिंदगी में मंगल नहीं होता।

चूंकि सफलता और उपलब्धियां एक मुखौटा बन जाती हैं, तो आदमी को उसी में रहना पड़ता है। हमने जो भी सुख अर्जित किया है, उसमें दूसरों की भूमिका प्रधान रखी है, बल्कि कई बार तो सुख दूसरों में ही खो जाते हैं। व्यावसायिक क्षेत्र में दूसरों के सहयोग बिना काम हो भी नहीं सकता। बाहर से सहयोग मिलता है, तो नुकसान के खतरे भी हैं। सफलता की यात्रा में हम कभी-कभी यह भूल जाते हैं कि लोग प्रशंसा के लिए ही नहीं, बल्कि हमें पराजित करने या हाशिए पर पटकने की फिराक में होते हैं।

इसलिए हमें सजग रहना होगा। और यह सजगता आती है अपने भीतर उतरने से। अध्यात्म आपको सफलता के सूक्ष्म तरीकों से परिचित कराएगा। एक सूक्ष्म तरीका है, सफलता का सुख दूसरों के सहयोग से तो मिलेगा, लेकिन दूसरों में नहीं मिलेगा। दूसरों से अपने सुख की आकांक्षा की और दुख का प्रवेश हुआ।

आपका सुखी रहना पूरी तरह आप पर ही आधारित है। इसीलिए धीरे-धीरे सुख कल्पना बन जाता है और दुख अनुभव बन जाता है। कुछ समय मेडिटेशन करते हुए अपने आपसे जुड़ें, आप सजग हो जाएंगे। सजग होकर आपके लिए सफलता का सुख एक अलग ही मायने रखेगा।

तीनों चोरों को अलग-अलग सजा देकर अकबर ने पाई प्रशंसा
अकबर का न्याय बहुत प्रसिद्ध था। वे दूध का दूध और पानी का पानी कर देते थे। एक बार उनका दरबार लगा था। एक के बाद एक मुकदमे अकबर निपटाते जा रहे थे। तभी तीन व्यक्तियों को सैनिक पकड़कर दरबार में लाए।

अकबर ने उनका अपराध पूछा तो सैनिकों ने बताया कि तीनों चोरी करते पकड़े गए। अकबर ने पहले चोर को बुलाकर पूछा - क्यों, यह सब करते हो तो शर्म नहीं आती? चोर के चेहरे पर गहरी ग्लानि के भाव थे और आंखों में आंसू। अकबर ने उसे छोड़ देने का आदेश दिया। फिर दूसरे को अकबर के समक्ष पेश किया गया। अकबर ने उसे देखा और वही प्रश्न किया। चोर की आंखों में शर्म के भाव थे। अकबर ने उसे पीठ पर दस कोड़े लगाने का आदेश दिया। तीसरे अपराधी से जब अकबर ने अपना पूर्वोक्त प्रश्न किया तो वह निर्लज्ज की भांति हंसने लगा।

अकबर का आदेश था - इसका मुंडन कर चूने से इसके सिर को पोतो और गधे पर चढ़ाकर पूरे नगर में घुमाओ। वैसा ही किया गया। अकबर ने जानना चाहा कि एक ही अपराध में पकड़े गए तीन लोगों को अलग-अलग दंड देने के बाद वे क्या कर रहे हैं? पता लगा कि पहले ने आत्महत्या कर ली, दूसरा स्वयं को घर में बंद कर रो रहा है और तीसरा चौराहे पर पान खाकर ठहाके लगाते हुए फिर से चोरी करने की इच्छा व्यक्त कर रहा है। यह जानकर पूरा दरबार अकबर के न्याय की प्रशंसा करने लगा। दरअसल संस्कारों से प्रवृत्तियां विकसित होती हैं। इसलिए व्यवहार के मापदंड संस्कारों के आधार पर तय करने चाहिए।

जब घूंसे खाकर भी अंग्रेज छात्र ने आजाद से क्षमा मांगी
यह प्रसंग महान क्रांतिकारी देशभक्त चंद्रशेखर आजाद के जीवन का है, जो बाल्यकाल से ही उनमें मौजूद परम देशभक्ति की भावना को दर्शाता है। आजाद उन दिनों एक विद्यालय में पढ़ते थे। एक दिन कक्षा में अध्यापक नहीं आए थे, इसलिए समूचा कमरा बच्चों के शोरगुल से गूंज रहा था। बातों-बातों में एक भारतीय छात्र का हाथ पास ही कुर्सी पर बैठे एक अंग्रेज छात्र को छू गया।

गोरे छात्र ने नाराजी दिखाते हुए उस भारतीय विद्यार्थी को कड़वे शब्दों कहा - ब्लैक हिंदुस्तानी, तुम डंकी है। यह सुनते ही भारतीय छात्र ने भयभीत होकर उससे क्षमा मांगी। वहीं पास में आजाद बैठे थे। उन्हें गोरे छात्र के मुंह से निकली गाली चुभ गई और उसका मुंह तोड़ देने की इच्छा हुई।

किंतु तभी अध्यापक आ गए और सभी छात्र शांत होकर पढ़ने लगे। आजाद छुट्टी होने तक अपने क्रोध को दबाए बठे रहे। जैसे ही छुट्टी हुई और छात्र बाहर निकले, आजाद ने उस गोरे छात्र को धक्का देकर नीचे गिरा दिया। फिर उससे कहा - हमारे देश में रहते हो और हमें ही गाली देते हो।

जब हम बड़े होंगे तो तुम सब गोरों को अपने देश से बाहर खदेड़ देंगे। फिर आजाद ने उसके मुंह पर ऐसे घूसे मारे कि खून बहने लगा। उस गोरे छात्र ने अपने व्यवहार के लिए आजाद से क्षमा मांगी। दरअसल अपने अधिकारों की रक्षा के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाना चाणक्य की भारतीय परंपरा में है। अत: अवसर आने पर इनका विवेकपूर्ण उपयोग सर्वथा उचित है।

दातुन के जरिए गांधीजी ने दिया प्रकृति को बचाने का संदेश
महात्मा गांधी जब यरवदा जेल में थे तो हमेशा की तरह उनकी दिनचर्या अति सात्विक थी। सुबह जल्दी उठकर अपने दैनिक कार्यो को निपटाकर वे लेखन संबंधी कार्य करते और जब मुलाकात का समय होता तो आने वाले लोगों से भेंट करते। उनसे उनकी आवश्यकताओं के विषय में कोई पूछता तो वे विनम्रता से इंकार कर देते और किसी प्रकार की सुविधा भी नहीं लेते।

एक बार गांधीजी को किसी कारणवश जेल में दातुन की आवश्यकता थी। स्वाभाविक रूप से वह नित्य की जरूरत थी, इसलिए एक दिन जब काका कालेलकर उनसे मिलने आए तो गांधीजी ने उन्हें यह समस्या बताई। काका ने कहा - बापू, यहां नीम के बहुत-से पेड़ हैं। मैं आपको प्रतिदिन ताजी दातुन ला दिया करूंगा।

दूसरे दिन वे दातुन ले आए और उनका एक छोर काटकर कूंची बनाई। उसे प्रयोग में लेने के बाद गांधीजी बोले - अब इसका कूंची वाला भाग काट दो और इसकी फिर नई कूंची बना दो। काका कालेलकर ने आश्चर्य से कहा - मगर यहां तो रोज नई दातुन उपलब्ध है। तब गांधीजी समझाते हुए बोले - यह तो मैं भी जानता हूं लेकिन हमें इसका अधिकार नहीं है। जब तक एक दातुन बिलकुल सूख न जाए, हम उसे फेंककर उसका दुरुपयोग नहीं कर सकते। यह प्रकृति का भी अपमान है, जिसने हमें यह सब दिया है।

अपने इस व्यवहार के जरिए गांधीजी ने यह सीख दी कि किसी वस्तु का किफायत से उपयोग करने पर वह लंबे समय तक साथ देती है और इससे होने वाली बचत का लाभ शेष समाज को प्राप्त होता है।

गौतम बुद्ध ने संगारव में जगाया जल संरक्षण का बोध
एक बार भगवान बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे। उन्हें अपने शिष्य आनंद से ज्ञात हुआ कि संगारव नामक एक ब्राह्मण पानी का अत्यधिक उपयोग करता है। वह शुद्धि पर जोर देता है तथा प्रतिदिन कई बार पानी से शुद्धि के लिए स्नान करता है। इससे न केवल अनावश्यक रूप से पानी का दुरुपयोग होता था, बल्कि समय भी नष्ट होता था।

आनंद ने तथागत से अनुरोध किया कि वे संगारव को शुद्धि का सही मार्ग दिखाएं। तथागत ने मौन भाव से आनंद की प्रार्थना स्वीकार कर ली और संगारव के घर पहुंचे। बुद्धि ने संगारव से पूछा, क्या जैसाकि लोग तुम्हारे बारे में बताते हैं, यह सच है? क्या तुम प्रतिदिन प्राय: स्नान ही करते रहते हो?

संगारव ने सहमति में सिर हिलाया। तब भगवान ने पूछा आखिर इसमें तुम क्या लाभ देखते हो? संगारव ने उत्तर दिया दिन में मुझसे जो भी पापकर्म होते हैं, मैं लगातार स्नान से उन्हें धो लेता हूं। तब भगवान ने समझाया सबसे बड़ी शुद्धि मन की शुद्धि है।

यदि मन शुद्ध है तब स्नान करने या न करने से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता। इस तरह जल का अपव्यय उचित नहीं। हम यदि अपनी आदतों में आंशिक परिवर्तन कर शुद्धि के सही अर्थ को अनुभव कर सकें और जीवन में उतार सकें, तब जीवनरूपी जल की बड़े स्तर पर रक्षा संभव है। संयुत्त निकाय के संगारव सुत्त के अनुसार इसके बाद संगारव ने अपनी आदत बदल ली।

गार्ड ने क्षमा मांगकर तुलवाया शाह अशरफ अली का सामान
शाह अशरफ अली अपने समय के विख्यात संत थे। वे नैतिक मूल्यों में बहुत विश्वास रखते थे और शिष्यों से भी इनका सदैव पालन करने को कहते थे। एक बार वे सहारनपुर से रेलगाड़ी द्वारा लखनऊ के लिए चले। उनके साथ काफी सामान था, इसलिए सहारनपुर रेलवे स्टेशन पर उन्होंने शिष्यों से कहा कि सामान तुलवा लें और अधिक होने पर उसका किराया अदा कर दें।

यह बात गाड़ी का गार्ड सुन रहा था। वह तत्क्षण बोला- सामान तुलवाने की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं साथ चल रहा हूं। शाह अशरफ अली ने पूछा- तुम कहां तक जाओगे? गार्ड बोला- मैं बरेली तक जा रहा हूं, किंतु सामान की आप चिंता न करें। शाह ने कहा- मगर मुझे तो और आगे जाना है। गार्ड बोला- मैं दूसरे गार्ड से कह दूंगा। वह लखनऊ तक आपके साथ जाएगा।

शाह ने पूछा- फिर आगे क्या होगा? मेरा सफर बहुत लंबा है। गार्ड ने जिज्ञासा व्यक्त की- तो क्या आप लखनऊ से भी आगे जा रहे हैं? शाह बोले- अभी तो केवल लखनऊ तक जा रहा हूं, किंतु जिंदगी का सफर बहुत लंबा है। वह खुदा के पास जाकर समाप्त होगा।

वहां पर अधिक सामान का किराया न देने के अपराध से मुझे कौन बचाएगा? यह सुनकर गार्ड ने क्षमा मांगते हुए शाह के शिष्यों से सामान तुलवाया और अधिक सामान के रुपए जमा कराए। विशिष्ट हस्ती होने के बावजूद किसी प्रकार का लाभ न लेकर नियमों का पूर्ण पालन जहां एक ओर आमजनों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है, वहीं उस विशिष्ट व्यक्ति को महान की श्रेणी में ला खड़ा करता है।

जब युधिष्ठिर व दुर्योधन को मिली गुरु से महत्वपूर्ण सीख
कौरवों व पांडवों की शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी। उनके गुरु द्रोणाचार्य ने सोचा कि दुर्योधन व युधिष्ठिर के चारित्रिक-विकास की स्थिति के आकलन के लिए अलग से परीक्षा ली जाए। ऐसा करने के पीछे उनका मंतव्य यह था कि आगे चलकर दोनों ही शासन के प्रमुख बनने वाले थे, अत: दोनों का उस कसौटी पर परीक्षण आवश्यक था।

द्रोणाचार्य ने दुर्योधन को पहले अपने पास बुलाया और कहा- जाओ, एक अच्छे व्यक्ति को तलाशकर मेरे पास लाओ। दुर्योधन के जाने के बाद उन्होंने युधिष्ठिर को बुलाकर आदेश दिया- जाओ और एक बुरे व्यक्ति को खोजकर लाओ। सायंकाल तक भटकने के बाद दोनों अकेले लौट आए।

आकर दुर्योधन ने गुरुदेव से शिकायत की कि आपने कैसे व्यर्थ काम में मुझे लगा दिया? दुनिया में आखिर कोई पूरी तरह भला आदमी भी हो सकता है? मैं सवेरे से शाम तक भटकता रहा, किंतु एक भी ऐसा आदमी नहीं मिला। वहीं युधिष्ठिर का कहना था- गुरुदेव, मैंने लोगों से बुरे व्यक्ति के बारे में पूछताछ की तो उन्होंने कई नाम बताए।

किंतु जब मैं उनसे मिला तो देखा कि उनमें भी अनेक गुण हैं। संपूर्ण रूप से बुरा एक भी व्यक्ति नहीं मिला, अत: मैं किसी को नहीं ला सका। तब द्रोणाचार्य ने दोनों को यह जीवन दर्शन दिया कि सर्वाग, पूर्ण मात्र ईश्वर है, जबकि इंसान में अच्छाई और बुराई दोनों होती है। बस, प्रतिशत कम या अधिक हो जाता है। इसलिए अच्छाई को ग्रहण और बुराई का त्याग करने पर ही हमारा जीवन सुखमय होता है।

बिना योजना बनाए नहीं करें कोई भी महत्वपूर्ण काम
बिना योजना बनाए कोई भी काम करना इस समय आत्महत्या करने जैसा ही है। ऐसा कहते हैं जब मनुष्य आत्महत्या करता है, तो वह उसके जीवन का सबसे अनियोजित, अनियंत्रित कृत्य होता है। चर्चा भले ही इस प्रकार की होती है कि वह बहुत दिनों से कोशिश कर रहा था जीवन के समापन के लिए, लेकिन होता यह मूर्खतापूर्ण काम है। इसी प्रकार बिना योजना बनाए कोई भी महत्वपूर्ण कार्य न करें। योजना बनाने में आंकड़े, भविष्य की दृष्टि और चिंतन की जरूरत होती है। चूंकि आपकी योजना पर कई लोगों का भविष्य आधारित है जो आपके हितैषी और प्रतिद्वंद्वी भी हो सकते हैं।

इसलिए योजना का हर चिंतन एक रणनीति की तरह किया जाए। योजना के प्रस्तावों में प्रलोभन हो न हो, पर सम्मोहन जरूर रखिए। जैसे परमात्मा जब अवतार लेता है, तो उसकी लीला सम्मोहित करती है, लोभ में नहीं डालती है। अध्यात्म कहता है अपनी भक्ति, अपने पुण्य का गोपन करते रहिए।

इसे अकारण, असमय और अधिक प्रकट न होने दें। चूंकि भक्ति परमात्मा और भक्त के बीच का मामला है, इसलिए गोपनीयता उसका महत्वपूर्ण भाग है। व्यावसायिक जगत में योजना बनाते समय अपने निर्णयों को छिपाने की कला आना चाहिए, क्योंकि प्रतिद्वंद्वी हमेशा छिपकर और सूक्ष्म तरीके से सूचनाएं निकलवाने में माहिर होते हैं।

अध्यात्म की दुनिया में यही काम दुगरुण करते हैं। वे हमारे सत्कर्मो को ठिकाने लगा देते हैं। शास्त्रों ने मंत्रों का महत्व इसलिए बताया है। मंत्रों में एक तरंग होती है, उनके शब्दों में संचारी भाव होता है। यहां तक कि उनके द्वारा पैदा की गई पॉजीटिव एनर्जी हमारे आसपास के पेड़-पौधों को भी प्रभावित कर जाती है।

अत: व्यावसायिक जगत में योजना बनाते समय शब्दों का उपयोग मंत्रों के भाव की तरह करिए। एक-एक आंकड़ा, एक-एक पंक्ति अपनी एकाग्रता से मंत्र में बदलने का प्रयास करेगी। फिर देखिए कागज की योजना अपनी ऊर्जा के साथ व्यावसायिक जगत में प्रभावी होगी।

मां ने संत विनोबा को परसेवा के सही मायने समझाए
संत विनोबा भावे ने अपना सारा जीवन परसेवा में समर्पित कर दिया और भारतीय समाज को सुसंस्कारों का शानदार उपदेश दिया। बाल्यकाल में उनके माता-पिता उन्हें विनायक नाम से पुकारते थे, लेकिन महात्मा गांधी ने एक बार उनके पिता को पत्र लिखा, जिसमें उनके लिए विनोबा शब्द का प्रयोग किया।

तभी से सब लोग उन्हें विनोबा कहने लगे। विनोबा को सेवा, त्याग, सौहार्द आदि संस्कारों की विरासत अपनी मां से प्राप्त हुई। एक प्रसंग द्रष्टव्य है। एक बार विनोबा के पड़ोस में रहने वाले किसी परिवार का कोई सदस्य बीमार हो गया। ऐसी कठिन परिस्थिति में विनोबा की मां ने पड़ोसी की बहुत मदद की। वे अपने घर का भोजन बनाने के बाद पड़ोसी के घर जाकर उनका खाना बनातीं और बीमार व्यक्ति की सेवा भी करतीं।

एक दिन विनोबा ने अपनी मां से कहा - ‘मां! आप कितनी मतलबी हैं कि स्वयं के घर का खाना पहले तैयार करती हैं, फिर पड़ोसी के घर खाना बनाने जाती हैं।’ मां ने उत्तर दिया - ‘तू समझता नहीं है, विनोबा! यदि पड़ोसी के लिए भोजन पहले बना दिया तो उनका भोजन ठंडा हो जाएगा।

इसलिए मैं वहां खाना बाद में बनाती हूं।’ दूसरों के संकट के समय मदद करने का यह पुनीत भाव विनोबा ने सदा के लिए गांठ बांध लिया और उनका संपूर्ण जीवन इस भाव का प्रत्यक्ष उदाहरण बन गया। वस्तुत: विपत्ति के समय की जाने वाली सहायता असीम दुआओं का सबब बनती है। इसलिए इसे बच्चों के संस्कारों की नींव में ही डाल देना चाहिए, ताकि यह उनके आचरण का अंग बनकर समाज का भला करे।

क्रमश:...


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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