प्राचीन विधि-विधान
अनादि काल से एक ही परिपाटी चली आ रही थी, जिसमें की साधक और गुरू, चाहे वशिष्ठ हो या राम, कृष्ण हो या सांदीपन, दोनो ही गायत्री मंत्र युक्त संध्या व हवन करते थे एवं ॐकार के द्वारा ध्यान करते थे। इस तरह गायत्री संध्या से उस आदिशक्ति की उपासना पूर्ण होती थी और ॐकार के ध्यान के द्वारा परब्रहम् की उपासना सम्पूर्ण होती थी। प्राचीन महर्षियों ने पुरूष और प्रकृति की उपासना का यह विधान इतना श्रेष्ठ बनाया था, की इस विधान के करने वाले साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सम्पूर्ण सफलता मिलती थी। वह सम्पूर्ण शक्तियों का मालिक बनते हुऐ, उस परमात्मा में लीन रहता था। सम्पूर्ण सुख-समृद्धि का भोग करते हुऐ मोक्ष को प्राप्त करता था। किन्तु समय का पहिया गतिशील है। प्रकृति में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं, उसी के अनुसार साधक की मन और बुद्धि भी बदलती है।
कालान्तर में गायत्री-संध्या के साथ-साथ अनेकों ही महापुरूषों ने तान्त्रिक-संध्या का विधान बनाया। जहाँ गायत्री-संध्या में गायत्री-मंत्र की ही उपासना होती थी एवं गायत्री ही सबकी अधिष्ठात्री होती थी। वहीं पर तान्त्रिक-संध्या में नये-नये देवता और मंत्र जुड़ने लगे। सर्वप्रथम जहाँ पर गायत्री को इष्ट माना जाता था, वहीं पर साधकों ने बाद में अपने अलग-अलग इष्ट बनाने प्रारम्भ कर दिये। जो साधक शिव को अपना इष्ट मानने लगा, वह शिव मंत्र के द्वारा ही संध्या करने लगा। यह शिव की तान्त्रिक-संध्या कहलाई। इस सम्प्रदाय को मानने वाले साधकों ने जो अपना मत बनाया वह शैव-मत कहलाया। भगवान शिव के उपासकों में घन्टाकर्ण नाम का एक ऐसा उपासक भी हुआ, जिसने अपने कानों में घन्टे लटका लिये। अगर उसके सामने कोई भी व्यक्ति या साधक भगवान शिव के नाम के अलावा, किसी भी दूसरे देव का नाम लेता था, तो वह अपने सिर को हिलाने लगता था। जिससे कि उसके कानों में बंधे हुऐ घन्टे बजने लगते थे और किसी दूसरे देव का नाम उसे सुनाई नहीं पड़ता था।
इसी तरह शैव-मत के बाद वैष्णव-मत सामने आया, जिसमें कि राम, कृष्ण और विष्णु की मुर्ति-रूप में सुन्दर प्रतीक बनाये जाने लगे और विष्णु के मंत्रो के द्वारा ही संध्या की जाने लगी। उसके कुछ समय बाद दस महा-विद्या सामने आई और इन महा-विद्याओं के मंत्रों के द्वारा तान्त्रिक-संध्या करने वाले साधक शाक्त कहलाये, यहीं से कलियुग का प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे यह तीनों ही मत फलने-फूलने लगे। जिस तरह गायत्री-संध्या के बाद तान्त्रिक-संध्या आई, उसी तरह शक्ति मत के भी दो मत हो गये। शक्ति-मत में दस महा-विद्याओं की तान्त्रिक-संध्या करने वाले व्यक्ति दो कुलों में विभाजित हो गये। एक श्रीकुल कहलाया एवं दूसरा कालीकुल । यहाँ तक दोनों कुलों की उपासना करने वाले, तन्त्र के साथ-साथ ब्रहम् को भी मानने वाले थे। धीरे-धीरे ये दोनों कुल भी दो भागों में बँट गये। एक दक्षिण-मार्गी और दूसरा वाम-मार्गी। दक्षिण-मार्गी उन को कहा गया, जो कि काली-कुल के अन्तर्गत आने वाली शक्तियों की उपासना सात्विक रूप से करते थे। प्रारम्भ में दोनों कुलों के उपासक सात्विक ही थे, किन्तु बाद में जब इसके दो भेद हो गये, तो दक्षिण-मार्गी सात्विक कहलाऐ एवं वाम मार्गी तामसिक। सात्विक मार्ग में अनादि काल से ले कर आज तक बहुत कम बदलाव आया जो थोड़ा बहुत बदलाव आया, तो वह यह था कि अपने इष्ट के सामने प्रतीक रूप में घी की बजाय तेल का दिया जलाना। आज भी कुछ साधक शक्ति मार्ग में घी का दीपक जलाते है, तो कुछ सरसों के तेल का और कुछ तिलों के तेल का। दुसरा जो बदलाव आया वह वस्त्र का था।
सात्विक शक्ति उपासक अपनी इच्छा के अनुसार सफेद या लाल कपड़े का इस्तेमाल करने लगे। जबकि तामसिक साधक अधिकतर काले कपड़ो का इस्तेमाल करने लगे।कोई काली को बड़ा मानता तो कोई तारा को और कोई श्रीविद्या को। अनेकों ही शक्ति की साधना-उपासना करने वालों ने अपने-अपने ग्रन्थ लिखे और अपने-अपने इष्ट को सम्पूर्ण बताया। छोटे-बड़े का मत भेद बढ़ता चला गया। किन्तु अन्तः करण से सभी उस अनादि शक्ति को ही अपने इष्ट-रूप में मानते थे। सभी साधक यही कहते थे कि सभी महा-विद्याऐं उस आदिशक्ति का ही अंश रूप है। किन्तु अंश रूप में भी सभी भेद रखते थे। जिस प्रकार वैष्ण्व मत में राम को 14 कला अवतार एवं कृष्ण को 16 कला अवतार माना जाता है। उसी प्रकार शाक्त मत में भी यही भेद था, किन्तु धीरे-धीरे इनके अधिकार क्षेत्र बांट दिये गये। हर महाविद्या को एक सीमित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया। जब की वह महाविद्या अपने आप में सम्पूर्ण थी। जहाँ दुष्टों के नाश का अधिकार क्षेत्र बगलामुखी को दिया गया, वहीं धन का अधिकार क्षेत्र कमला-महाविद्या को दिया गया। काली को जो अधिकार क्षेत्र दिया गया वह शक्ति का था और तारा का अधिकार क्षेत्र ज्ञान की वृद्धि के लिये था। भुवनेश्वरी का अधिकार क्षेत्र आकस्मिक धन प्राप्ति के लिऐ होता था। वहीं मातगीं का अधिकार क्षेत्र वशीकरण, आकर्षण एवं विद्या क्षेत्र था। जहाँ शरीर के ताप को मिटाने का और तान्त्रिक द्वारा अभिचार कर्म को काटने का अधिकार क्षेत्र धूमावती के पास था। वहीं साधक की इच्छाओं की पूर्ती का अधिकार क्षेत्र छिन्नमस्ता के पास है। जहाँ मन, इच्छा अनुसार स्त्री या पुरूष की प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र त्रिपुर-भैरवी के पास है। यह साधकों के अन्दर भय का नाश करती है। वहीं सम्पूर्ण सुख-समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र श्रीविद्या राज-राजेशवरी त्रिपुर-सुन्दरी के पास है।
शक्ति उपासकों का जो दुसरा वाम मार्गी मत था, उसमें शराब को जगह दी गई। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। इसी प्रकार इसके भी दो हिस्से हो गये, जो शराब और माँस क सेवन करते थे, उन्हे साधारण-तान्त्रिक कहा जाने लगा। लेकिन जिन्होने माँस और मदिरा के साथ-साथ मीन(मछली), मुद्रा(विशेष क्रियाँऐं), मैथुन(स्त्री का संग) आदि पाँच मकारों का सेवन करने वालों को सिद्ध-तान्त्रिक कहाँ जाने लगा। आम व्यक्ति इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा। किन्तु आरम्भ में चाहे वह साधारण-तान्त्रिक हो या सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा उस ब्रहम् को पाने की कोशिश करते थे। जहाँ आरम्भ में पाँच मकारों के द्वारा ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुन्डलिनी जागरण में प्रयोग किया जाता था, ताकि कुन्डलिनी जागरण करके सहस्त्र-दल का भेदन किया जा सके और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जा सके। किन्तु धीरे-धीरे पाँच मकारों का दुर-उपयोग होने लगा और यह पाँच मकार सिर्फ स्वार्थ सिद्धि, नशा और काम वासना की पुर्ति के साधन मात्र ही रह गये।
कोई माने या न माने लेकिन यदि काम भाव का सही इस्तेमाल किया जा सके तो इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव है।इसी वक्त एक और मत सामने आया जिसमें की भैरवी साधना या भैरवी चक्र को प्राथमिकता दी गई। इस मत के साधक वैसे तो पाँचो मकारों को मानते थे, किन्तु उनका मुख्य ध्येय काम के द्वारा ब्रहम् की प्राप्ति था इसी समय में शैव-मत में से एक मत अलग हो कर बाहर आया जिसे अघोर-मत कहा जाने लगा। आघोर-मत को मानने वाले साधक नशे के रुप में गाँजे का सेवन करते थे एंव श्मशान में बैठ कर मसिक शिव या भैरव मंत्रों का जाप करते थे। प्रारम्भ में जहाँ नशा करके चेतन मन को शान्त कर दिया जाता था और अवचेतन मन के द्वारा परमात्मा के नाम का जाप किया जाता था। वहीं बाद में परमात्मा के ‘ॐ’ नाम को छोड़ कर विभिन्न मंत्रों का जाप होने लगा।धीरे-धीरे यह साधक पर-ब्रहम् को भूल कर आम व्यक्तियों को चमत्कार दिखाने की खातिर शव-साधना करने लगे। ऐसे मंत्रों का निर्माण हुआ जिन के द्वारा तुच्छ सिद्धियाँ प्राप्त करके आम जनता को चमत्कार दिखाया जा सके। आज वाम मार्गीयों का सबसे वीभत्स रूप हमारे सामने है। आज के समय में साधारण-तान्त्रिक, सिद्ध-तान्त्रिक, भैरवी-मत को मानने वाले या अघोर आदि अधिकतर साधक उस परमात्मा को भूल ही गये है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज जो तान्त्रिकों का विभत्स रूप हमारे सामने है, वह नहीं होता।
ब्रहम् को मानने वाला तान्त्रिक अपनी शक्तियों का कभी दुर-उपयोग नहीं करेगा।लेकिन आज अधिकतर तान्त्रिक अपनी सिद्धियों का दुर-उपयोग के अलावा और कहीं इस्तेमाल नहीं करते। प्रारम्भ का तान्त्रिक जहाँ ब्रहम् का उपासक होता था, वहीं आज का तान्त्रिक पैसे का उपासक बन गया है। कुछ सौ वर्षों पहले एक नई विद्या प्रकाश में आई। इसको मानने वाले भी अपने आप को तान्त्रिक, ओझा या गुणी कहते थे। अगर इस विद्या का सही इस्तेमाल किया जाऐ तो, आम व्यक्ति को काफी हद तक फायदा हो सकता है। किन्तु इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस विद्या को मानने वाले साबर-मंत्रों का प्रयोग करते है। इस विद्या का अपना कोई नाम नहीं है। किन्तु साबर-मंत्रों का इस्तेमाल करने वालों को ओझा या गुणी ही कहा जाता है। नाथ समप्रदाय में ‘बाबा मछन्दर नाथ’ के शिष्य ‘गुरू गोरक्ष नाथ जी’ थे। गुरू गोरक्ष नाथ जी ने साबर-मंत्रों की रचना साधारण व्यक्तियों के लिये की। जिससे की वे साबर-मंत्रों का प्रयोग करके सुख-समृद्धि को प्राप्त कर सके। आज के समय में साबर-मंत्रों के उपर अनेकों ग्रन्थ देखने में आते है, पर इन ग्रथों के अन्दर न तो सही विधि-विधान लिखा हुआ है और न ही सम्पूर्ण मंत्र लिखें हुऐ हैं। साबर-मंत्रों में जो सिद्ध मंत्र है, वह आज भी गुरू परम्परा के अनुसार चले आ रहे हैं । अगर कोई साधक गुरू से प्राप्त साबर-मंत्र का जाप करता है, तो उसे सभी भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। साथ ही इन मंत्रों के द्वारा लोक-देवताओं की सिद्धि भी सम्भव है। गोरक्ष नाथ जी द्वारा रचित साबर-मंत्रों में काली, भैरव, हनुमान की सिद्धि, वीर सिद्धि, मन इच्छा अनुसार खाद्य-पदार्थ सामग्री को प्राप्त करने हेतु वेताल सिद्धि आदि है। किन्तु आज के समय में साबर-मंत्रों का भी दुर-उपयोग होने लगा है।
प्रारम्भ का तान्त्रिक केवल 10 महा विद्याओं को मानता था, किन्तु जैसे-जैसे समय बदलता चला गया वैसे-वैसे साधक 10 महा विद्याओं की कठिन साधना से बचने लगे और जो दुसरा तान्त्रिक पड़ाव आया उस में 10 महाविद्याओं कि जगह, 9 दुर्गाओं ने ली। कहने का तात्पर्य यह है कि आम व्यक्ति दस महा विद्याओं की कठिन साधनाओं को छोड़ कर नौ दुर्गाओं की साधना करने लगा और इस प्रकार नवरात्रों का प्रारम्भ हुआ। कहने को तो यह 9 दुर्गायें आदिशक्ति माता पार्वती का ही रूप है। किन्तु इनकी शक्तियाँ एवं कार्य क्षेत्र अगल-अगल है। इन्ही नौ दुर्गाओं के आधार पर नवरात्रे शुरू हुऐ, जिसमें कि तान्त्रिक साधक आदिशक्ति के नाम पर उपवास रखतें है और अपनी इच्छा अनुसार दुर्गा के किसी एक रूप की साधना करते है। आज भी अनेकों साधक इसी नियम को मानते हुऐ साधना करते आ रहे है। किन्तु इन साधकों में भी दो मत बन गये- एक सात्विक दुसरा तामसिक। सात्विक साधक साधना पूर्ण होने पर खीर-हलवे आदि का भोग लगाते है। किन्तु तामसिक साधक साधना पूर्ण होने पर मदिरा और बकरे आदि कि बलि लगाते है। सिद्धियाँ दोनों ही साधकों को प्राप्त होती है और दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धियों का उपयोग करते है। किन्तु जो साधक लोक-कल्याण में अपनी सिद्धि का उपयोग करता है, वह सद्गति को प्राप्त होता है। और जो साधक अपनी सिद्धि का दुर-उपयोग करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।
शैव-सम्प्रदाय को मानने वाले तान्त्रिक शिव के साथ-साथ धीरे-धीरे भैरव की उपासना करने लगे। भैरव-साधना को स्थापित करने के पीछे जो मूल कारण था, वह यह था कि साधक का तामसिक होना। क्योंकि भगवान शिव कि साधना सात्विक है। इसलिऐ शिव-संप्रदाय में जो तामसिक साधक पैदा हुऐ, उन्होंने भैरव-साधना प्रारम्भ कि और साथ ही माँस-मदिरा का सेवन प्रारम्भ कर दिया। यहीं से तान्त्रिकों में व्यभिचार उत्पन्न हो गया। क्योंकि जो साधक सात्विक से तामसिक बन गया हो, तो उस कि तामसिकता का अन्त सहज नहीं होता। धीरे-धीरे भैरव-उपासकों ने एवं नौ दुर्गा उपासकों ने अपने आप को नीचे कि तरफ गिराना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे मूल साधनाऐं और सात्विक साधनाऐं समाप्त होने लगी और सभी जगह तामसिकता ने स्थान ग्रहण कर लिया। नौ दुर्गाओं का स्थान 64 योगनियों ने ले लिया और साथ-ही-साथ डाकनी, शाकनी की पूजा, नवदुर्गा के सात्विक और तामसिक साधकों ने प्रारम्भ कर दी। दुसरी तरफ भैरव-साधना करने वाले साधक भूत, प्रेत की सिद्धि करने लगे। इन साधकों का मुख्य ध्येय यही था कि आम व्यक्तियों को अपनी सिद्धि का चमत्कार दिखाया जा सके और चमत्कार के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा सके। तान्त्रिकों का व्यभिचार बढ़ता चला गया।
तन्त्र के इस वीभत्स रूप को देख कर आम व्यक्ति सामने आया, जो शास्त्रों कि बड़ी-बड़ी सिद्धियों को तो नहीं कर सकता था। अपितु वह परमात्मा के लिये श्रद्धा और भावना से भरा हुआ था। इन आम व्यक्तियों ने छोटे-छोटे मंत्र जिनकों कि यह असानी से याद कर सकते थे, उनका जाप प्रारम्भ कर दिया। इन मंत्रो में अधिकतर साबर मंत्र थे, क्योंकि साबर मंत्र आम बोल-चाल कि भाषा में होते थे और इन्हे याद करना भी आसान होता था। कहते हैं कि श्रद्धा में शक्ति होती है और इन आम व्यक्तियों कि श्रद्धा रंग लाई और ओझा-गुणीयों का मत प्रारम्भ हो गया। ये ओझा-गुणी-साधक न तो कोई लम्बा चौड़ा विधान जानते थे और न ही कोई विशेष कर्म-कांड करते थे। यह साधक तो श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। धीरे-धीरे तन्त्र-सम्प्रदाय मिटने लगा और ओझा-गुणीयों का समप्रदाय फलने-फुलने लगा। आम व्यक्ति या जन-मानस को अत्यधिक फायदा होने लगा। अधिकतर हर छोटी-बड़ी समस्याओं का ईलाज, इन साधकों के पास होता था और ये साधक नि-स्वार्थ भाव से जन-सेवा करते थे। एक समय ऐसा भी आया जब तान्त्रिकों और इन साधकों में टकराव उत्पन्न हुआ। जिस में तान्त्रिकों कि हार हुई और इन श्रद्धा से भरे हुऐ साधकों कि जीत हुई। इस जीत से भी इस सम्प्रदाय को बल मिला और धीरे-धीरे यह सम्प्रदाय, एक छोटे से गाँव से ले कर शहरों तक फैलता चला गया।
इस सम्प्रदाय कि मुख्य पहँचान यही थी कि यह साधक सात्विक होते हुऐ भी श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। मंत्रो के नाम पर सिर्फ अपने देवता का नाम लेते थे और हर समस्या का समाधान करते थे। यह साधक लोक-देवताओं को प्रधान मानते हुऐ, निष्कपट भाव से उनकी सेवा करते थे। जहाँ तान्त्रिक अनुष्ठान करके सिद्धि को प्राप्त करते थे, वहीं यह साधक अपने लोक-देवता को स्नान आदि करा कर या सिर्फ अपने घर में ही एक अलग स्थान बना कर, अपने देवता के नाम का एक अलग दीपक(चिराग) जलाते थे। इतना भर करने से ही उन्हें उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। जो साधक मन, क्रम, वचन से अधिक पवित्र होता था, उसे उतनी ही जल्दी उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। इन साधकों ने अपने लोक-देवताओं में जिनको मुख्य स्थान दिया- उन में हनुमान जी, भैरव जी, क्षेत्रपाल, कुल देवता (अपने कुल की परम्परा में जिस देवता की पूजा होती थी), ग्राम देवता(गाँव में जो प्रधान देवता होता है), नगर देवता(सम्पूर्ण नगर का श्रेष्ठ देवता, जैसे कि दिल्ली में कालका जी)। सिर्फ इतना ही नहीं, इन साधकों ने हिन्दु और मुस्लिमों का भेद भाव त्याग कर सयैद, पीर, परी आदि कि साधना भी प्रारम्भ की। प्रत्येक साधक अपनी गुरू परम्परा के अनुसार या अपनी इच्छा अनुसार देवताओं की पूजा करने लगा। इन्हीं साधकों ने कुछ समय बाद सात-माताओं की पूजा पर बल दिया और हर गाँव या नगर में, एक छोटे से मन्दिर के रूप में इन सात माताओं कि स्थापना होने लगी। साधकों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी इन माताओं की पूजा करते लगा। आज भी होली से ठीक सात दिन बाद जो शीतला माता की पूजा होती है, वह वास्तव में सात माताओं कि पूजा होती है।
सात माताओं कि सहज पूजा के मूल में दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याओं का रहस्य छिपा हुआ है। दस महाविद्याओं कि साधना कठिन होने कि वजह से इन्हें सात-माताओं का सुक्ष्म रूप दिया गया। दस में से सात को स्थान देने के पीछे जो रहस्य था, वह यही था कि दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याऐं सात्विक और तामसिक दोनों है। इसलिऐ एक नई परिपाटी प्रारम्भ की ताकि सात्विक और तामसिक दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार पूजा कर सके। क्योंकि ओझा-गुणीयों में भी धीरे-धीरे तामसिकता आने लगी थी। आज भी इन सात-माताओं की पूजा सात्विक और तामसिक दोनों साधक अपने-अपने ढंग से करते है एवं हिन्दु धर्म की लगभग सभी जातियाँ इनकी पूजा करती है, चाहे वह क्षत्रिय हो या ब्राह्मण, वैश्य हो या शुद्र। इससे जो सबसे बड़ा फायदा हुआ, वह यह था कि दोनों ही तरह के साधक एक ही जगह बन्ध कर रह गये। जहाँ पुरानी परिपाटी में सात्विक-सात्विक था और तामसिक-तामसिक, वहीं इस नई परिपाटी में दोनों एक हो गये और जन-मानस को फायदा होने लगा। सात-माताओं कि स्थापना गाँव कि सीमा पर की जाती थी। इससे साधकों को दुसरा जो सबसे बड़ा फायदा था, वह यह था कि यह सात-माताऐं उस गाँव को प्रत्येक अला-बला और बिमारियों से सुरक्षा प्रदान करती थी।
इन सात-माताओं के साधकों में से कुछ साधक व्यभिचार होकर श्मशान की साधनाओं की तरफ बढ़ने लगे। श्मशान की तरफ बढ़ने वाले ये साधक, भैरव-साधकों की तरह भूत, प्रेत या शव-साधना नहीं करते थे। बल्कि ये मसान और कलवों की पूजा करने लगे। इस पूजा में यह लोग मरे हुऐ छोटे बच्चों के शव को बाहर निकालतें और उस कि सिद्धि करते, जिसे कलवा सिद्धि या मसान सिद्धि कहाँ जाता है। इन साधकों कि यह सिद्धि प्रारम्भ में लोक-कल्याण कारक थी, किन्तु कुछ समय बाद इसका भी वीभत्स रूप आम व्यक्ति को देखने को मिला। मसान आदि की सिद्धि करने वाले साधक धीरे-धीरे लोभ में फँसने लगे और जहाँ ये साधक प्रारम्भ में जन सेवा करते थे या दुष्टों का मूठ या घात चला कर नाश करते थे। वहीं बाद में ये साधक पैसा ले कर किसी के उपर भी मूठ या घात चलाने लगे जिससे कि आम जन-मानस परेशान हो उठा। ऐसे दुष्ट-साधकों से बदला लेने के लिये वीर-सिद्धि के साधक सामने आये। इसमें पाँच-वीरों की साधना को प्रधानता दी गई। इन पाँच-वीरों को एक चिराग या पाँच चिराग जला कर और सफेद रंग का कोई भी प्रसाद लगा कर सिद्ध किया जाता था। इन पाँच-वीरों में जो मुख्य स्थान मिला वह गुगाजी(जाहर वीर) को था। गुगाजी को जाहर वीर भी कहा जाता है। जाहर वीर के झन्ड़े तले पाँच वीरों की स्थापना हुई और 52 वीरों का जन्जीरा बना। कुछ साधक 52 वीरों के जन्जीरे को, 52 डोर के नाम से भी जाना जाता है। पाँच वीरों में जाहार वीर, हनुमन्त वीर, नाहरसिहं वीर, अंघोरी वीर, भैरव वीर मुख्य थे। 52 वीरों के जन्जीरे के पाँच मालिक हैं। सात्विक और तामसिक देवताओं का यह अनुठा गठबन्धन था। इन वीरों में जहाँ जाहर वीर और हनुमन्त वीर सात्विक है, वहीं नारसिहं, भैरव वीर और अंघोरी वीर तामसिक है। इस की जो स्थापना की गई, उसमें सात्विक और तामसिक दोनों ही पूजा विधान रखे गये। इस साधना में भी श्रद्धा और भावना को प्रधान माना गया। किन्तु पाँच वीरों की साधना करने वाला साधक, अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धि का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे।
यहाँ पर साधक या आम व्यक्ति केवल अर्जी लगा कर (प्रार्थना करके) छोड़ देता है। उस अर्जी का फैसला उन पाँच वीरों के हाथ में होता है। ये पाँच वीर साधक की अर्जी को सुनकर, उसके भाग्य, कर्म, श्रद्धा और भक्ति को देख कर ही फैसला करते है। हिन्दुओं की इस नई व्यवस्था को देख कर ही, मुस्लिम सम्प्रदाय में भी पाँच पीरों की स्थापना हुई। इन पाँच पीरों को कुछ साधक पाँच-बली भी कहते है। अस्त बली, शेरजंग, मोहम्मद वीर, मीरा साहब और कमाल-खाँ-सैयद जैसी व्यवस्था पाँच पीरों-वीरों की साधना में थी। वैसी ही परम्परा और व्यवस्था पाँच पीरों में थी जैसी कि पाँच वीरों में थी। दोनों ही मतों में श्रद्धा और भावना प्रदान थी। आज के समय में इस परम्परा का रूप अनेकों ही जगह देखा जा सकता है। धीरे-धीरे पाँच हिन्दू वीर और पाँचों मुस्लमानी पीर इकठ्ठे पूजे जाने लगे। अधिकतर हिन्दू पाँच वीरों के साथ-साथ पाँच पीरों को भी मानने लगे। जहाँ पाँच वीर साधक और आम व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करते हुऐ, दुष्टों का विनाश करते थे, वहीं पाँचों पीर सुख और समृद्धि प्रदान करते थे। इसी प्रकार सिख धर्म में भी पंच प्यारे हैं।
धीरे-धीरे आवेश का प्रचलन प्रारम्भ हुआ जो साधक बदन को हिलाते अर्थात झुमते हुऐ लोगों कि समस्याओं का समाधान करने थे। ऐसे साधकों के बारे में कहा जाता है कि इस साधक के अन्दर देवता की आत्मा ने प्रवेश किया हुआ है। साधक के शरीर में किसी भी देवी या देवता की आत्मा का प्रवेश करना आवेश कहलाता है। ऐसे साधक जोर-जोर से हिलने लगते है और अपने पास आये हुऐ आम व्यक्तियों का ईलाज करते है। इस व्यवस्था में आम व्यक्ति और देवता के बीच कोई माध्यम नहीं होता अपितु आप व्यक्ति सीधे ही देवता से बात करके अपनी समस्या का समाधान पाता है।
साधना का यह प्रयोग भी आम व्यक्तियों के बीच में काफी प्रचलित है। किन्तु सही मायने में यह क्रिया तभी फलीभूत है, जब साधक गुरू के सान्निध्य में इस साधना को बार-बार करे। क्योंकि ऐसा न करने वाले साधक को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मान लीजिऐ किसी साधक के अन्दर देवता के आवेश की बजाऐ किसी भूत या प्रेत का आवेश आ गया और उसे देवता का आवेश मान कर वह साधक जन-कल्याण करने लगा तो सम्भव है, कि आम व्यक्ति की समस्याऐं तो दूर होने लगेगीं, किन्तु साधक और उसके परिवार को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। आज अनेकों ही ऐसे साधक हैं, जिन में देवता का नहीं बल्कि भूत-प्रेतों का आवेश आता है।
जिसके द्वारा वह जन कल्याण करते हैं। किन्तु साधक व उसका परिवार अनेकों ही परेशनियों से घिरा रहता है। अगर कोई उनसे कहे कि आप तो साधक हो देवता कि आप के ऊपर असीम कृपा है। फिर आप या आपके परिवार में परेशानी क्यों है। तो ऐसे साधक हँसकर यही जवाब देते हैं, कि जैसी देवता की इच्छा। अगर अधिक जोर देकर उनसे पूछा जाऐ तो वह, यह कहते है, कि जिस प्रकार एक डॉक्टर अपना ईलाज़ स्वयं नहीं कर सकता उसी तरह हम स्वयं अपनी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। जो साधक ऐसा कहते है, यह पूर्णतः मिथ्या प्रचार है। अगर आप मन, कर्म, वचन से पवित्र हैं और पूर्णतः देवता का ही आवेश है, तो आपके घर परिवार में किसी भी प्रकार की कोई भी परेशानी नहीं होगी। जिन साधकों के घरों में यह परेशानियाँ है, वह साधक मन, कर्म, वचन से पवित्र नहीं है अथवा देवता के आवेश के स्थान पर भूत या प्रेत का आवेश है। आज का जो समय है, इसमें सबसे ज्यादा जो देखने को तन्त्र मिलता है, वह ओझा, गुणी या आवेश वाले तान्त्रिकों का अधिक है। सिद्ध तान्त्रिक तो बहुत ही कम देखने को मिलते है। अघोर-विद्या के जो भी सिद्ध तान्त्रिक थे, वह भी धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे है। भैरवी-साधना का तो बड़ी मुश्किल से ही कोई नाम लेवा बचा है। कोई माने या न माने किन्तु सभी साधनाऐं धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।
इसके मूल में जो कारण है, वह यही है कि तान्त्रिकों का व्यभिचारी होना एवं शिष्यों की आस्था का न होना। जब तक गुरू और शिष्य दोनों के ही अन्दर श्रद्धा भाव नहीं होगा और दोनों ही ब्रहम् के प्रति समर्पित नहीं होगे, तब तक तन्त्र का उत्थान सम्भव नहीं है। प्राचीन काल में जो भी साधना की जाती थी, उसके मूल में गुरू और शिष्य का एक ही उद्देश्य होता था कि अधिक से अधिक ऊर्जा का इकट्ठा करना एव कुन्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करते हुऐ, उस के द्वारा ब्रहम् को प्राप्त करना। ऊर्जा शक्ति को इकट्ठा करने हेतु, फिर चाहे सात्विक साधना करनी पड़े या तामसिक। साधना कोई भी क्यों न हो सभी साधनाऐं हमें ऊर्जा प्रदान करती है। अगर इस ऊर्जा का हम सही इस्तेमाल करें, तो हम पूर्ण ब्रहम् को प्राप्त कर सकते हैं। अगर हमारा उद्देश्य पवित्र है, तो फिर कोई भी शक्ति हमें उस परमात्मा से मिलने से रोक नहीं सकती।
हम सभी का कर्तव्य है कि एक बार फिर से एक नये युग की रचना हो और जितनी भी साधनाऐं लुप्त होती जा रही है, उन सबको पुनः स्थापित करें।अगर हमने समय रहते अपने आपको जागरूक नहीं बनाया तो एक दिन ऐसा आयेगा, जब हमारी सभी प्राचीन धरोहर समाप्त हो जायेगी। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें तो कुछ वक्त पहले वेदों का अध्ययन सभी करते थे, किन्तु आज के समय में अधिकतर व्यक्तियों को तो चार वेदों के नाम तक भी मालूम नहीं है। कैसी विड़म्बना है कि जिन चार वेदों से यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है हमें उन का नाम तक याद नहीं। अगर यही हाल रहा तो एक समय ऐसा भी आयेगा, जब हम धीरे-धीरे करके सब कुछ खो चुके होगें। किन्तु कहते है कि ‘फिर पछतायेत होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ इसलिये हम आवाहन करते है, उन साधकों का जो सही मायने में हिन्दु धर्म कि सभ्यता को और हिन्दु धर्म के मूल तत्त्व श्रद्धा और भावना को बचाना चाहते है।
अगर हमने समय के रहते अपने आप को नहीं संभाला तो एक समय ऐसा भी आऐगा, जब हमारी हालत पश्चिमी सभ्यता से भी बुरी हो जाऐगी। पश्चिम के देशों की नकल करके हम अपने आप को महान समझ रहे है। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने पर पता चलता है कि आज वही पश्चिमी देश वेद-मंत्रों और गीता के ऊपर अनुसंधान (रिसर्च) कर रहे है। आर्य सभ्यता में 21 वीं सदी के अन्दर धीरे-धीरे जहाँ यह कहा जाने लगा है कि वेदों में क्या रखा है। वही पश्चिमी देशों ने वेदों का अध्ययन करके अपनी ध्यान-योग की शक्ति को इतना अधिक बढ़ा लिया है, कि जिसके बारे में हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति सोच भी नही सकता। हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति पश्चिमी सभ्यता की देन रेकी, लामाफैरा, क्रिश्टल-हीलिंग, फैंग-शूई, टच-थेरेपी आदि की तरफ भाग रहा है। वही पश्चिम का आम व्यक्ति हिन्दुस्तान के प्राचीन ग्रन्थों का अनुसंधान करने में लगा हुआ है। इसे हम अपना दुर्भाग्य ही कहगें कि आर्यों के पास सब कुछ होते हुऐ भी, वह पश्चिम के देशों की नकल कर रहा है। इसलिऐ हम सबको फिर से जागना होगा और जगाना होगा आम व्यक्ति को, ताकि लुप्त होती जा रही आर्य सभ्यता को समय के रहते बचाया जा सके।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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