हनुमानजी से सीखें लोगों के बीच संबंध मधुर बनाने के गुर
जरा-सी गलतफहमी जीवनभर के संबंधों को खराब कर देती है। लोगों के बीच संघर्षपूर्ण स्थिति में भी संबंध मधुर बने रहें, ऐसा प्रयास भी एक बड़ी सेवा है। कुछ लोग दूसरों के संबंधों में बिगाड़ लाने में ही रुचि रखते हैं। पीठ पीछे एक-दूसरे को एक-दूसरे की गलत जानकारी देकर यह काम आसानी से किया जाता है।
दूसरों के संबंध सुधारने या मधुर बनाए रखने में हमारी भूमिका कैसी हो, यह हनुमानजी से सीखा जा सकता है। सुंदरकांड के 13वें दोहे की 3-4 चौपाइयों में तुलसीदासजी ने सीता-हनुमानजी की बड़ी सुंदर बातचीत बताई है। पहली ही भेंट में दुखी सीताजी ने हनुमानजी के सामने श्रीरामजी की शिकायत रख दी थी।
श्रीरघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? आज ज्यादातर जीवन साथी आपस में यही शिकायत करते पाए जाते हैं कि व्यस्तता में हमें भुला दिया गया है।
बड़े दुख से सीताजी बोलीं - नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया। तब हनुमानजी ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने दावा कर दिया कि श्रीराम के मन में आप से ज्यादा प्रेम है। मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।। जनि जननी मानहु जियं ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।। हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित कुशल हैं, परंतु आपके दुख से दुखी हैं। आप दुख न कीजिए। श्रीरामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है।
विचार की यह अति प्रस्तुति दोनों के बीच गलतफहमी दूर करने की भूमिका ही थी। हनुमत भक्तों को आज अशांत समाज में यही भूमिका निभानी होगी।
गीता के याद रखने योग्य सिद्धांत
भगवान कृष्ण के उपदेशों को ‘भगवद्गीता’ नामक लोकप्रिय किताब में लिखा गया है। हिंदुओं के लिए यह किताब उतना ही महत्व रखती है जितनी कि ईसाइयों के लिए बाइबिल और मुस्लिमों के लिए कुरान। चूंकि यह किताब काफी विस्तृत है इसलिए इसे एक बार में पढ़ पाना काफी मुश्किल होता है। गीता सार भगवान कृष्ण के द्वारा दिए गए उपदेशों का निचोड़ है। यह पवित्र गीता का सारांश है।
>>> भगवान प्रत्येक इंसान से विभिन्न मुद्दों पर सवाल करते हैं और उन्हें मायावी संसार को त्यागने को कहते हैं। उनका कहना है कि पूरी जिंदगी सुख पाने का एक और केवल एक ही रास्ता है और वह है उनके प्रति पूरा समर्पण।
>>> तुम क्यों व्यर्थ चिंता करते हो? तुम क्यों भयभीत होते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा का न कभी जन्म होता है और न ही यह कभी मरता है।
>>> जो हुआ वह अच्छे के लिए हुआ, जो हो रहा है वह अच्छे के लिए हो रहा है और जो होगा वह भी अच्छे के लिए ही होगा। भूत के लिए पश्चाताप मत करो, भविष्य के लिए चिंतित मत हो, केवल अपने वर्तमान पर ध्यान लगाओ।
>>> तुम्हारे पास अपना क्या है जिसे तुम खो दोगे? तुम क्या साथ लाए थे जिसका तुम्हें खोने का डर है? तुमने क्या जन्म दिया जिसके विनाश का डर तुम्हें सता रहा है? तुम अपने साथ कुछ भी नहीं लाए थे। हर कोई खाली हाथ ही आया है और मरने के बाद खाली हाथ ही जाएगा।
>>> जो कुछ भी आज तुम्हारा है, कल किसी और का था और परसों किसी और का हो जाएगा। इसलिए माया के चकाचौंध में मत पड़ो। माया ही सारे दु:ख, दर्द का मूल कारण है।
>>> परिवर्तन संसार का नियम है। एक पल में आप करोड़ों के स्वामी हो जाते हो और दूसरे पल ही आपको ऐसा लगता है कि आपके पास कुछ भी नहीं है।
>>> न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- आग, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।
>>> अपने आप को भगवान के हवाले कर दो। यही सर्वोत्तम सहारा है। जो कोई भी इस सहारे को पहचान गया है वह डर, चिंता और दु:खों से आजाद रहता है।
पवित्र गीता के बारे में कुछ विद्वानों की राय:-
अल्बर्ट आइंस्टीन>>>>जब भी मैं भगवद्गीता पढ़ता हूं तो पता चलता है कि भगवान ने किस प्रकार संसार की रचना की है। इसके सामने सब कुछ फीका लगता है।
महात्मा गांधी>>>>जब भी मैं भ्रम की स्थिति में रहता हूं, जब भी मुझे निराशा का अनुभव होता है और मुझे लगता है कि कहीं से भी कोई उम्मीद नहीं है तब मं भगवद्गीता की शरण में चला जाता हूं। ऐसा करते ही मैं अथाह दु:खों के बीच भी मुस्कराने लग जाया करता हूं। वे लोग जो गीता का अध्ययन और मनन करते हैं उन्हें हमेशा शुद्ध विचार और खुशियां मिला करती हैं और प्रत्येक दिन वे गीता के नए अर्थ को प्राप्त करते हैं।
हर्मन हीज>>>>भगवद्गीता का सबसे बड़ा आश्चर्य जीवन की बुद्धिमानी के बारे में रहस्योद्घाटन करना है जिसकी मदद से मनोविज्ञान धर्म के रूप में फलता फूलता है।
आदि शंकर >>>>भगवद्गीता के स्पष्ट ज्ञान को प्राप्त करने के बाद मानव अस्तित्व के सारे उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है। यह सारे वैदिक ग्रंथों का सार तत्व है।
रुडोल्फ स्टेनर>>>>भगवद्गीता को पूरी तरह समझने के लिए अपनी आत्मा को इस काम में लगाना होगा।
संसार में आए हैं तो हमें अपनी उपयोगिता साबित करनी होगी
हमें मनुष्य जीवन मिला है। यह मजबूरी नहीं, गौरव की बात है। बहुत सारे लोगों का जीवन बीत जाता है और वे अपने इंसान होने की गरिमा को स्पर्श ही नहीं कर पाते। उनकी क्रिया ही नहीं, विचार और वाणी भी नपुंसक रह जाते हैं। उनकी भूमिका स्थापित होना तो दूर, वे धरती पर बोझ ही रह जाते हैं। अभी ऐसा कोई राष्ट्रीय परिदृश्य नहीं है कि आपको सामान्य रूप से स्वयं का बलिदान देना पड़े, लेकिन कम-से-कम योगदान तो तय किया जाए।
परिवार, समाज, राष्ट्र व निजी जीवन में हमारी सक्रियता हो और वह भी जीवंत अस्तित्व के साथ हो। इसके लिए जीवन में चार बातों का संतुलन जरूरी होगा - शिक्षा, स्वास्थ्य, धन और सहयोग। ये चारों संतुलित होकर जीवन में उतरने पर इच्छाशक्ति को जन्म देते हैं।
इच्छाशक्ति केवल लक्ष्यपूर्ति के ही काम नहीं आती है, उसकी भूमिका विवशता, चिंता और शिकायत चित्त को समाप्त करने की रहती है। हमारे योगदान में इच्छाशक्ति न हो तो हम स्वयं के भीतर निकम्मापन ही पैदा करेंगे। आलस्य और काम न करने की वृत्ति भ्रष्टाचार जैसा ही अपराध है।
इसलिए हरेक को अपने योगदान की भूमिका तय करनी होगी। निजहित और परिवार पालन के दायरे से बाहर आकर योगदान को स्थापित करना भी एक पूजा है। हमारे योगदान की स्थिति ऐसी हो कि गलत व्यवस्था भयभीत हो तथा सही लोग सुरक्षित महसूस करें।
खाना-पीना तो जानवर भी कर लेते हैं, संसार में आए हैं तो हमें अपनी उपयोगिता को हर क्षेत्र में साबित करना होगा। परिवार में यदि हम पालक हैं तो दायित्वबोध सिद्ध किया जाए। यदि संतान की भूमिका में हैं तो से
धन का अमर्यादित उपयोग हमारे स्वास्थ्य को बिगाड़ता है
धन जीवन में आने पर जो भी चीजें लाता है, दो बातें जरूर कर जाता है। दौलत बाहर की भीड़ और भीतर का अकेलापन भी देती है। धनवान लोग अपने बाहरी जीवन में अकेले कम ही रहते हैं। धन कमाने के लिए दूसरे जरूर चाहिए। यही दृश्य खर्च के साथ भी है। अत्यधिक खर्च की वृत्ति भी अपने आसपास भीड़ बढ़ाने का ही कार्यक्रम है। रुपया-पैसा तीन बातों पर असर करता ही है। स्वास्थ्य, तृष्णा और दुगरुण।
अधिक धन का अमर्यादित उपभोग स्वास्थ्य को बिगाड़ता है और कमाने की भूख पाशविक बना देती है। धन कमाने की होड़ में आदमी अपने शरीर से खिलवाड़ करने लगता है और एक दिन जब शरीर इतना बीमार हो जाए कि धन भी काम न दे, तब पछतावा होता है। दौलत और दुगरुण का नाता तो पुराना है ही।
इसलिए कमाने से ज्यादा उपभोग में सावधानी रखी जाए। ज्यादातर मामलों में पर्याप्त से अधिक धन आने पर लोग भीतर से अशांत पाए गए। बाहरी शांति का काम तो मुखौटों से चल जाता है, लेकिन भीतर के विचलन का निदान हमें स्वयं निकालना पड़ेगा।
रुपया बचाए रखने का भी एक भय होता है। बाहर यह डर बना ही रहता है कि कहीं गंवाना न पड़े। इसी भय के कारण आदमी भीतर भी नहीं झांकता। जब-जब धन अधिक आने लगे, बाहर की भीड़ तो बढ़ेगी। ऐसे में अपने भीतर झांकें, उतरें और रुकें भी।
थोड़ा उस मौन को महसूस करें, जो सिर्फ भीतर होता है। वहां दौलत के सिक्के की कोई खनक नहीं होगी। मनुष्य होने का एक फायदा यह है कि आपको अपने भीतर अकेले जाने की सुविधा प्राप्त है। इसलिए बाहर धन का मजा भीतर के मौन से उठाया जाए।
आज का काम आज किया जाए यही संपूर्ण जीवन दर्शन है
समय के साथ दो बातें हमेशा ध्यान रखी जाएं, उसका आना और जाना। आते हुए समय की चुनौती को समझा जाए और गुजरते हुए वक्त के नुकसान को पकड़ा जाए। भारतीय संस्कृति ने तो समय को भी काल रूप में देव माना है। उसमें प्राण जैसी अनुभूति दी है। समय को जीवनरूप में स्वीकार कर मान दिया है। आज का काम आज किया जाए, यह सिर्फ कहावत नहीं है, पूरा जीवन दर्शन है। कबीर ने अपनी एक पंक्ति में ‘पल में परलय’ शब्द का बहुत सही उपयोग किया है।
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब? आज की चूक एक बहुत बड़ा धक्का है। इसकी चोट जीवन के अंतिम समय तक असर करती है। यूं तो समय बहुत हल्का होता है, हौले-हौले गुजरता है। शीतल और सुगंधित पवन की तरह समय भी आनंद देता बीत जाता है, लेकिन विलंब और टालने की वृत्ति आते ही अपने आप को भारी बना देता है और हर अगले दिन वह अपने भार को मल्टीपल कर लेता है। इसीलिए टाले हुए काम बोझ बनकर अशांत बनाते हैं। साथ ही हमारे व्यक्तित्व को अप्रिय व आलोचनापूर्ण बना देते हैं।
भारी समय अपने साथ अंधकार भी लाता है। वक्त की बर्बादी अपराध है। ऐसे लोग खुद का समय भी नष्ट करते हैं और दूसरे के समय का महत्व भी नहीं समझ पाते। यदि समय के मामले में स्फूर्त रहना है तो हर कार्य करने के पूर्व थोड़ा शांत होकर, विश्राम मुद्रा में अपने भीतर उतरें, एक गहरे प्रकाश को पकड़ने का प्रयास करें, जो हमारे भीतर होता ही है, फिर काम करें। भीतर उतरकर मौन साधना समय का सम्मान ही होता है।
हर गलती एक सबक है और उसे दुबारा न करना समझदारी
गलती हर इंसान से होती है। शायद ही किसी का दावा सच हो कि उसने कभी कोई गलती नहीं की। गलती के साथ दो बातें हैं, एक की जाती है जानते हुए भी और दूसरी हो जाती है। जानकर की हुई गलती लापरवाही है और अनजाने में हुई गलती एक भूल। दुनिया में समझदार बनने के जितने तरीके हैं, उनमें से एक है गलती करना। बड़े से बड़े समझदार गलती करके ही अक्लमंद बने हैं।
हर गलती एक सबक है और दुबारा गलती न करना समझदारी। गलती का एक आध्यात्मिक अर्थ है भटक जाना। अध्यात्म में भटकने को अंधेरे की यात्रा कहा है। इसलिए धर्मशास्त्रों ने प्रकाश के महत्व को खूब बखान किया है। लगातार गलती करने वालों के साथ दो परिणाम होते हैं, वे या तो अपराधी बन जाएंगे या फिर पराश्रित। उनका आत्मविश्वास इतना गिर जाता है कि वे सिर्फ अनुसरण करने वाले ही रह जाते हैं।
यहीं से मानसिक दासता का जन्म होता है। हम अपने ही हाथों अपने रोम-रोम को विकलांग बना लेते हैं। और तो और, जहां हमें अपने मन को निष्क्रिय करना है, वहां हम उसे अपाहिज बना देते हैं। मन जितना सक्रिय है, गलती करने के लिए उतना ही प्रेरित करेगा। मन को अपाहिज करने से पूरा व्यक्तित्व आहत हो जाएगा।
वो शक्ति का केंद्र भी है। उसे निष्क्रिय करने से उसके शक्ति के सदुपयोग करने की संभावना बढ़ जाती है। जब हम पराश्रित होते हैं, तब हमारा जीवन पूर्णत: दूसरों से संचालित होने लगता है। मानसिक दासता का अगला चरण मानसिक रोग है। इसलिए गलतियों को सीखने का साधन बनाएं। उन्हें लगातार करते हुए निराशा, हतोत्साह, भ्रमपूर्ण स्थिति के लिए आमंत्रण न बनाएं।
समझ के साथ धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया जाना चाहिए
दूसरों के रोजी-रोटी कमाने के साधनों को देखकर किसी के भी मन में प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक है। अपने जॉब से संतुष्टि न होना एक अंतरराष्ट्रीय कायदा-सा बन गया है।
इसीलिए लोग दूसरे की कमाई के साधन पर नजर रखते हैं। उसे मिल रहा है तो हमें क्यों नहीं? यह दृश्य तब और दुखी करने वाला बन जाता है, जब लोगों की निगाह धर्म तंत्र से जुड़े हुए लोगों की आमदनी पर पड़ती है। हमारे देश में यह भी एक बहुत बड़ा व्यवसाय है। धर्म के नाम पर और उसकी आड़ में लोग बेतहाशा कमा रहे हैं।
सामान्य आदमी को लगता है कि ये पंडित-पुरोहित, साधु-बाबा समाज पर बोझ हैं। देश में लोग खूब मेहनत करके भी उतना अर्जित नहीं कर पाते, जितना ये हाथ और मुंह हिलाकर कर लेते हैं। इस विचार में अर्धसत्य है। धर्म के क्षेत्र में तीन तरह के लोग हैं, पहले वे जो शुद्ध धंधा करने इसमें उतर आए हैं। दूसरे, पुण्य कमाने के उद्देश्य से तथा तीसरे, स्वांत: सुखाय के लिए इस क्षेत्र में आ चुके हैं।
इसीलिए इस क्षेत्र में जितने रचनात्मक कार्य होने चाहिए, उससे अधिक नकारात्मक व विध्वंसक काम हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र की कोई आचार-संहिता नहीं है। धर्मशास्त्र इस क्षेत्र की आचार-संहिता हंै। चूंकि धर्मशास्त्र का भी कुछ लोगों ने ठेका ले लिया, इसलिए इसकी गलत व्याख्या प्रस्तुत कर दी जाती है।
जिन्हें थोड़ा भी पढ़ना-लिखना आता हो, वे समझ के साथ शास्त्रों का अध्ययन जरूर करें। पाठ यदि सही तरीके से हो जाए तो अर्थ गलत नहीं निकलेंगे। पढ़ने और पाठ में फर्क है। पढ़ने में सिर्फ बुद्धि काम करती है और पाठ में हृदय भी जुड़ जाता है।
मन को साधने के लिए प्राणायाम और ध्यान एक माध्यम है
परिवारों में आपसी तनाव का एक बड़ा कारण यह है कि सदस्य एक-दूसरे को उनके अधिकार का समय नहीं दे पा रहे हैं। पति-पत्नी के बीच मतभेद का मनोवैनिक कारण भी यही है कि ये दोनों जब एकांत में साथ में होते हैं, तब भी साथ नहीं होते। दोनों के बीच तन होता है, धन होता है और जन भी होते हैं यानी दूसरे लोग भी, लेकिन मन नहीं होता।
दोनों साथ होते हैं, लेकिन दोनों के ही मन कहीं दूर भाग रहे होते हैं। मन वहीं उपस्थित रहे तो दोनों के बीच का प्रेम दिव्य रूप ले लेगा। सुंदरकांड में श्रीराम का विरह-संदेश सीताजी को देते समय हनुमानजी ने रामजी की ओर से जो पंक्तियां कही थीं, उसमें श्रीरामजी ने तीन बार मन शब्द का प्रयोग किया है।
इसे इस बात से समझ लें कि जब भी हम अपने निकट के व्यक्तियों के साथ परिवार में हों तो मन को साथ ही रखें। मन का भटकाव रिश्तों के तनाव का एक बड़ा कारण है। रामजी ने सीताजी के लिए संदेश भेजा था - कहेहु तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनि मोरा।। अर्थात मन का दुख कह देने से भी बहुत कुछ घट जाता है। पर कहूं किससे? यह दुख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का रहस्य मेरा मन ही जानता है। और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है।
बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। यहां श्रीराम ने पति-पत्नी के बीच मन को स्थापित किया है। मन को साधने के लिए प्राणायाम व ध्यान ही एक माध्यम है। पति-पत्नी यदि साथ में मेडिटेशन करें तो वैकुंठ ढूंढ़ने कहीं और नहीं जाना पड़ेगा।
जीवन में हर समस्या अपने साथ एक स्वाद लेकर आती है
जीवन में कुछ चीजें कभी खत्म नहीं होतीं, बल्कि नई-नई शक्लों में सामने आती रहती हैं। इनमें से एक है - समस्या। इसके छोटे-बड़े दो रूप होते हैं। दरअसल यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो व्यक्ति की समझ, सहनशीलता के अनुसार समस्या छोटी या बड़ी होती है।
किसी एक व्यक्ति के लिए जो समस्या जीवनभर का बोझ बने, वही समस्या दूसरे के लिए चुटकी में निपटाए जाने वाली हो सकती है। समस्याओं को शक्ल बदलने में भी महारत हासिल होती है। इसलिए उपाय, निदान भी वैसे ही जुटाने चाहिए। प्यास कई लोगों की हो तो केवल एक नल से आ रहा जल पर्याप्त नहीं होगा, फिर निदान जलाशय ही रहेगा।
इसलिए समस्या निपटाने में सूझबूझ का बड़ा महत्व है। समस्या को अपने मनुष्य होने के स्तर पर निपटाएंगे तो तनाव तो होगा ही, परिश्रम भी ज्यादा लगेगा। इसमें किसी सहारे और मददगार की जरूरत को समझें। इसलिए ईश्वर को अपने साथ रखें। परमात्मा ने अपने स्वरूप में भी विभिन्नता रखी है।
वह अपने भक्तों की परीक्षा इसी रूप और रुचि से लेता है। इसीलिए समस्याओं के भी अनेक रूप होते है। हर समस्या अपने साथ एक स्वाद लेकर आती है। हम उससे निपटने में थकते नहीं हैं, बल्कि अपने परमात्मा से यह कहने की इच्छा होती है - तू सितम पर सितम किए जा, हम तैयार हैं।
हम रहम पर रहम मांगेंगे, तू भी तैयार रह। समस्या का मूल क्या है, इसमें समझ काम आती है। समस्या का रूप क्या है, इसके लिए निगाह काम आती है। समस्या दोबारा न आए, इसके लिए दूरदर्शिता होनी चहिए और किसका सहयोग लिया जाए, इस हेतु संपर्क होना चाहिए।
बुद्धिमान व्यक्ति के लिए समझ एक द्वारपाल की तरह है
बुद्धिमान व्यक्ति जब ऊंचा उठता है, अपनी बुद्धि को परिष्कृत करता है, तब वह प्रज्ञावान कहलाता है। प्रज्ञा बुद्धि का परिष्कृत रूप है। लेकिन संसार में रहते हुए इन दोनों के बीच एक और स्थिति है, जिसे समझ कहा गया है। आध्यात्मिक भाषा में विवेक शब्द इसके आसपास है।
बुद्धिमान व्यक्ति में समझ न हो तो वह एक ही भूल को बार-बार करता है, लेकिन यदि समझ है तो पहली बात यह होगी कि वह भूल ही नहीं करेगा और यदि करेगा तो कोई नई भूल करेगा। इसलिए इन दोनों के बीच समझ बचाए रखना बहुत जरूरी है। बुद्धिमान के लिए समझ एक द्वारपाल की तरह है, वरना दुगरुणों का प्रवेश आसानी से हो जाता है।
इसीलिए हम पाते हैं कि अच्छे-अच्छे बुद्धिमान चिड़चिड़े स्वभाव के होते हैं। चिड़चिड़ापन यदि लंबे समय तक टिक जाए तो मनुष्य के भीतर दो मानसिक बीमारियों का जन्म होता है। एक, सदैव चिंता में डूबे रहना और दूसरी, दूसरों पर शक करना। चिंता और संदेह धीरे-धीरे गहरी निराशा की ओर ले जाते हैं।
एक अजीब-सा अव्यक्त और अदृश्य मानसिक उद्वेग, उफान ऐसे लोगों के भीतर अपना आकार लेने लगता है। तत्काल प्रतिक्रिया करना, धर्य से किसी बात को न पचाना रिएक्शनरी नेचर कहलाएगा। यह व्यवहार धीरे-धीरे हमें रूखेपन की ओर ले जाता है।
ऐसे लोग दूसरों की अच्छाइयां देखना बंद कर देते हैं। इसलिए कहा गया है भक्ति करिए। सच्ची भक्ति कभी नीरस नहीं होती और रस में डूबे हुए लोग दूसरों के अनुभव से सीखने के लिए तैयार रहते हैं। हरेक के पास एक अनुभव है, चिड़चिड़े और रिएक्शनरी स्वभाव के लोग इसका लाभ नहीं उठा सकते।
मनुष्यों के भीतर नारीनरेश्वर का ईश्वरीय रूप है
सामान्य रूप से माना जाता है कि स्त्री कोमल होती है और पुरुष खुरदुरा रहकर सख्त बना रहता है। सारी कोमलता स्त्रियों के खाते में दर्ज की जाती है। पुरुष अपने शरीर की कोमलता को दोष मानता है। दोनों में असमानताओं के अनेक लक्षण समाज ने स्थापित कर रखे हैं। इसीलिए नेतृत्व का झगड़ा भी शुरू होता है।
दुनियादारी में तो फिर भी स्त्री-पुरुष के नेतृत्व की स्थितियां विवाद के बाद भी बर्दाश्त कर ली जाती हैं, लेकिन परिवारों में नेतृत्व कौन करे, इसके झगड़े अब जमकर होने लगे हैं। पुरुष गृहस्थी में स्त्री को अब भी कोरी स्लेट मानकर चलता है। जिस पर जो वह लिखना चाहता है लिख देता है और उसे ही पढ़ता है।
जब चाहे पोंछ दे, इसी में वह अपना नेतृत्व देखता है। इधर स्त्री अपने ही घर में, अपने ही हक के लिए छटपटा रही है। इसी संघर्ष में वह पुरुष की फोटोकॉपी बन जाती है। दोनों की प्रतिस्पर्धा का परिणाम बच्चों की परवरिश पर पड़ रहा है।
विवाह की परंपरा में पुरुष की उम्र अधिक व स्त्री की कम जिन कारणों से रखी गई थी, वे कारण ही अब खत्म हो गए। शिक्षा व घर-बाहर का फर्क जब नए अर्थ में आ गया हो, तब उम्र भी आड़े नहीं आती। ऐसा माना जाता था कि औरतों के शरीर की उम्र पुरुषों की देह से कुछ अधिक होती है।
इसलिए दोनों के विवाह की उम्र में फर्क रखा गया है। लेकिन अब जीवनशैली बदल गई है और बुद्धिमानी इसी में है कि उम्र का अंतर भले ही हो, लेकिन अधिकार, निर्णय व भावनाओं का अंतर न रहे। भारतीय संस्कृति में अर्धनारीश्वर की कल्पना की गई है, लेकिन वह ईश्वर की कल्पना है। मनुष्यों के भीतर नारीनरेश्वर का ईश्वरीय रूप है।
यदि परमात्मा हमारे साथ है तो हम यहीं स्वर्ग बना लेंगे
हम प्रकृति के पर्वितन पर लगातार नजर रखते हैं। जब अधिक ठंड पड़ती है तो हमारे पास उसके आंकड़े होते हैं। ठंड से बचने के साधन भी हम अपना लेते हैं। इसी तरह धूप का भी हिसाब-किताब है। कितना पानी गिरा, वर्षा ने कितना फायदा-नुकसान किया, यह सब प्राकृतिक परिणाम हमारी चर्चा का विषय रहता है।
इन मामलों में हम जागरूक रहते हैं। अधिक धूप, ठंड और वर्षा से कैसे बचा जाए, इसके उपाय भी करते हैं। आइए, आध्यात्मिक दृष्टि से इस पूरे दृश्य पर नजर डालें। एक भक्त की नजर से प्रकृति को देखें, तब आप पाएंगे कि प्रकृति अमृत भी बरसाती है।
जिस वातावरण को पाकर वृक्ष अपने भीतर प्राण महसूस करते हैं, पक्षी पवन के जिस झोंके से और प्रकृति के स्पर्श से चहचहाने लगते हैं, वैसा हमारे भीतर क्यों नहीं हो पाता? प्रकृति से हमारा रिश्ता, परमात्मा से रिश्ता बनाने जैसा होना चाहिए। प्रकृति परमात्मा और हमारे बीच एक माध्यम है।
हम जितना उसके निकट जाएंगे, वह उतनी ही तेजी से हमें परमात्मा के निकट भेजेगी। एक तरह से प्रकृति का हर झोंका हमे टटोलता है कि हम कहां हैं, ताकि वह हमे परमात्मा तक ले जाए। इसी से हमारे भीतर एक बोध जागता हैकि कोई है, जो इस दुनिया को चला रहा है।
समर्थ रामदास ने शिवाजी से एक चट्टान तुड़वाकर उसमें से एक छोटा-सा जीवित कीड़ा दिखाकर यह कहा था कि देखो इसकी भी रक्षा कोई कर रहा है। इसलिए समझ लें कोई है, जो हमसे ऊपर है। यदि वह हमारे साथ है तो हम और प्रकृति जुड़कर यहीं स्वर्ग बना लेंगे और जितना हम उस भगवान से अलग रहेंगे, उतना ही नर्क बना लेंगे।
काम को करने से पहले समझें कि वह क्यों किया जा रहा है
कोई भी काम सिर्फ करने के लिए न करें। आरंभ में ही उसे समझें कि यह कर्म क्यों किया जा रहा है। पशु और मनुष्य का फर्क यहीं से शुरू होता है। मनुष्य के पास यह गुंजाइश होती है कि वह करने के पहले जान ले कि आखिर इसे करने से होगा क्या? जब आप जानकर, समझकर कर्म करते हैं तो सद्कर्म ही करेंगे। सद्कर्म का परिणाम होता है रूपांतरण।
सद्कर्म हमारे भीतर बदलाव लाता ही है। जैसे ही हम कर्म को अपनी समझ से जोड़ते हैं, उसके परिणाम व्यक्तित्व में उतरने लगते हैं। इसीलिए कहा गया है कि धार्मिक व्यक्ति धर्म को इसलिए स्वीकार नहीं करता कि वह उस धर्म में पैदा हुआ है, बल्कि उसकी स्वीकृति इसलिए होनी चाहिए कि वह धर्म उसको रूपांतरित कर रहा होता है।
हम किसी भी धर्म के हों, लेकिन उसके माध्यम से यदि हमारे भीतर रूपांतरण नहीं होता, जीवन ऊंचा नहीं उठता तो धर्म सिर्फ एक चोला है। कोई-सा भी चोला ओढ़ लो, फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए धर्म का अगला चरण भक्ति बताया है। हम भक्ति में उतरते ही किसी ऐसी परमशक्ति से जुड़ जाते हैं, जो हमारे रूपांतरण में सहायक होती है।
ज्ञान और कर्म के अर्थ भी भक्त को समझ में आने लगते हैं। रूपांतरण का अर्थ है एक ऐसा बदलाव, जो हमें परमात्मा की ओर ले जाए। जो सांसारिक जीवन हम जी रहे हैं, केवल उसे ही मान्य न करें। इसे जीते हुए भी उसे जान लें, जो दिखता नहीं है।
बिना दुनिया छोड़े उसे पा लें, जिसने दुनिया बनाई है। पहले नींव मजबूत करें, फिर भवन खड़ा करें। यदि रूपांतरण की तैयारी न हो और भक्ति में उतर गए तो जीवन में पाखंड उतरेगा और पाखंड अशांति लेकर आता है।
जीवन में बड़े से बड़ा संकट आया है तो जाएगा भी
जिंदगी में संकट किसी भी रूप में आ जाता है। कभी-कभी तो हम थक जाते हैं कि आखिर हम इससे कैसे निपटें? कुछ लोगों ने महसूस किया होगा कि हमारा अनुभव भी ऐसे समय काम नहीं आता। हम कितनी ही ऊंची कक्षा के व्यक्ति हों, कुछ संकट ऐसे होते हैं, जो हमें विचलित कर ही जाते हैं। सुंदरकांड में सीताजी के साथ ऐसा ही हुआ था। वे परमज्ञानी विदेहराज जनक की बेटी थीं।
स्वयं बहुत सुलझी हुई स्त्री थीं और श्रीरामजी की धर्मपत्नी थीं। इसके बावजूद जब हनुमानजी उनसे पहली बार मिले तो वे अत्यधिक विचलित थीं। तुलसीदासजी ने लिखा है - कह कपि हृदयं धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।। उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई।। हनुमानजी ने कहा - हे माता! हृदय में धर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्रीरामजी का स्मरण करो।
उनकी प्रभुता को हृदय में लाओ और कायरता छोड़ दो। हनुमानजी के सामने दो जिम्मेदारियां थीं - पहली, श्रीराम का विरह संदेश देना और दूसरी सीताजी को सांत्वना देकर शोक से बाहर निकालना। तब हनुमानजी सीताजी को समझाते हैं - चार बातों को स्मरण रखें तो बड़े से बड़े संकट से पार हो जाएंगे।
पहली बात, धर्य न छोड़ें; दूसरी, भगवान का स्मरण करें। स्मरण धर्य का काम करता है। तीसरी बात, भगवान सर्वशक्तिमान हैं, उनकी ताकत को प्रभुता कहा है। उसे अपने हृदय में रखें। चौथी बात, कायरता छोड़ दें। ये दिन भी बीत जाएंगे, ऐसा भाव बनाए रखें। दुनिया का बड़े से बड़ा संकट आया है तो जाएगा भी।
जीवन में अधीरता मनुष्य को उच्छृंखल बना देती है
नुकसान का दुख होता ही है। कोई चीज खो जाए तो पीड़ा देने वाली बात है। जैसे खोए का दुख होता है, वैसे ही पाए का भी दुख होता है। विज्ञान के इस दौर में उपलब्धियां सदैव सुख पहुंचा दें, ऐसा जरूरी नहीं है। विज्ञान ने जो-जो हमें दिया इसमें एक भावना और भी है कि जो कुछ भी मिले, जल्दी मिले। इसीलिए बदहवासी आजकल सामान्य जीवनशैली बन गई है।
कोई भी इंतजार नहीं करना चाहता। यह अधीरता विक्षिप्तता में बदलकर आदमी को उच्छृंखल बना देती है। आदमी के दिमाग में एक सनक चढ़ जाती है कि मुझे यह मिलना ही चाहिए और यदि जल्दी नहीं मिला तो मैं कुछ भी कर सकता हूं।
इसीलिए कुछ लोग अपने जीवन की श्रेष्ठतम बातों को चुन-चुनकर चकनाचूर कर देते हैं, क्योंकि उन्हें तो बस चाहिए। आदमी सबकुछ अपनी मुट्ठी में करना चाहता है। इसलिए पकड़ने के लिए बेताब है। बेताबी पकड़ने के लिए हो या छोड़ने के लिए, दोनों ही स्थितियों में खतरनाक है।
जब आदमी जो चाहता है, उसे नहीं मिलता तो वह धर्म की दुनिया में चला जाता है। उसे लगता है कि भोग में दुख है तो त्याग में सुख होगा। लेकिन यदि भीतर की बेताबी खत्म नहीं हुई तो त्याग भी दुख ही देगा। इसे अध्यात्म में भटकाव कहा गया है।
जो लोग बहुत तेजी से दौड़ते हैं, वे भटक जाते हैं। संसार में लोग दुखी हैं तो कोई नई बात नहीं है, लेकिन संसार छोड़ने के बाद भी दुख नहीं जाता। त्याग और भोग क्रीड़ा बन जाते हैं। आदमी इसी खेल में उलझ जाता है। अच्छा यह हो कि न हम ज्यादा पकड़ने के लिए बेताब हों और न ही छोड़ने के लिए। एक संतुलन के साथ दोनों को स्वीकार करें।
बच्चों को परिवार से जोड़ने की शिक्षा अवश्य दी जाए
पढ़े-लिखे होने का अर्थ है, केवल एक क्षेत्र में अपनी भूमिका को केंद्रित न किया जाए। शिक्षा हमारे व्यक्तित्व को हर क्षेत्र में विस्तार दे, तब ही इसका कोई अर्थ होगा। आजकल पढ़े-लिखे व्यक्ति का पहला लक्ष्य धन कमाना हो गया है और इसीलिए वह इतना केंद्रित हो गया है कि अपने अन्य दायित्वों को भूल गया।
भारत में शिक्षा संस्थानों को इस बात पर विचार करना होगा कि शिक्षा अच्छे कॅरियर के साथ ही परिवार बचाने के सूत्र भी दे। बच्चों के पढ़ने की उम्र में उन्हें पारिवारिक दायित्व कम रहते हैं। जवानी की संवेदनाएं घर से ज्यादा बाहर बह रही होती हैं। घर उनके लिए महज छत होता है और माता-पिता कभी खलनायक, तो कभी पालन करने वाली मशीनें भर रह जाते हैं।
ऐसे में जब अधिकांश समय शिक्षा संस्थानों में बीत रहा हो, तब बच्चों को परिवार से जोड़ने की शिक्षा जरूर दी जानी चाहिए। वहां का वातावरण पारिवारिक हो, अन्यथा ये बच्चे इतनी दूर दौड़ जाएंगे कि परिवार की ओर मुड़ना ही भूल जाएंगे। ये घर बसाएंगे, पर गृहस्थी नहीं चला पाएंगे। पति-पत्नी के रूप में साथ जी लेंगे, लेकिन एक-दूसरे के लिए नहीं जिएंगे। आज की शिक्षा-व्यवस्था तीन तरह के बच्चे तैयार कर सकती है - पहले, पत्थर की तरह।
इनके भीतर आवेश है, कुछ करने का जज्बा है, लेकिन ये पाषाण जैसे हैं। अत: इनके व्यक्तित्व को पत्थर बनने से बचाना होगा। दूसरे, जल की तरह। कितने ही बड़े व्यक्ति हो जाएं इनके भीतर बच्चों की सरलता खत्म न हो। तीसरे, ये वायु की तरह गतिमान हों। आज की शिक्षा परिवार बचाएगी भी और बिगाड़ेगी भी। इसलिए जितनी हो सके, सावधानी जरूर रखी जाए।
झूठ से जुड़ा धन जीवन में अशांति, बीमारी व दुगरुण लाता है
आजकल अमीरी जताना भी फैशन हो गया है। थोड़ा-सा धन आया कि प्रदर्शन की इच्छा बलवती हो जाती है। इसके मूल में अहंकार होता है। अहंकार से बड़ा कोई झूठ नहीं। चूंकि आजकल आदमी झूठ और सच की ज्यादा चिंता नहीं पालता, इसलिए वह अमीरी जताने में फिक्र भी नहीं करता। मनोवैज्ञानिकोंने कहा है कि धन यदि सही तरीके से उपयोग में न लिया जाए तो वह जीवन को सत्य से दूर ले जाता है।
झूठ धन के आसपास मंडराता है। झूठ में पैदा करने की अद्भुत क्षमता होती है, जबकि सत्य को बांझ कहा है। सत्य स्वयं होता है और उसके बाद वही रहता है, लेकिन एक झूठ कई झूठों को जन्म देता है। सत्य अपने आप में परिवार नियोजन है और झूठ अपने परिवार का विस्तार जमकर करता है। धन कमाने में लोग झूठ का उपयोग करते हैं, क्योंकि झूठ का स्वभाव है फैलना।
इसीलिए झूठ बोलने वाला व्यक्ति अपनी याद्दाश्त को मजबूत रखना चाहता है, वरना पकड़ा जाएगा। यही झूठ का फैलाव है। लेकिन सत्य बेफिक्र होता है, जब भी बोला होगा, सत्य ही बोला होगा। इसलिए धन जब सत्य के निकट हो तो भले ही उसमें फैलाव न हो, लेकिन शांति रहेगी। झूठ से जुड़ा हुआ धन हमेशा अशांति, बीमारी, दुगरुण लेकर आएगा।
पहले बड़े लोग अपने श्रंगार और ठाट-बाट से जाने जाते थे, लेकिन अब कई तरह के धनवान पैदा हो गए हैं और उन्हीं में प्रदर्शन की होड़ लगी हुई है। अमीर बढ़ गए, पर गरीब कम नहीं हुए, क्योंकि धन झूठ से जुड़ा है। जैसे ही धन सत्य के निकट आएगा, यह खाई भी मिटेगी।
बीते वर्ष के अनुभवों से सबक लेकर बेहतर बनाएं भविष्य
जीवन एक किताब है। कुछ लोगों ने इसे डायरी भी कहा है और कुछ लोग कैलेंडर की तरह भी मानते हैं। एक-एक करके पन्ने उतरते जाते हैं, उम्र अपनी संख्या घटाती जाती है। हर आने वाला नया समय जीवन को फिर चार्ज करता है। मौजूदा वर्ष बीत रहा है तो नया साल आ रहा है। जो बीत गया, उससे हम कुछ सीखें। अब जो आ रहा है, उस वर्ष में सीखे हुए का उपयोग करें। घटनाएं केवल बीतने के लिए नहीं होतीं, सिखाने के लिए भी होती हैं।
जो अच्छा रहा, उसका उत्साह अपने भीतर रखें और जो बुरा था, उसे विस्मृत करें। आदमी यहीं चूक जाता है। बुरे को बोझ बनाकर दिमाग में रखता है और आने वाले नए समय के उत्साह को उससे जोड़ लेता है। इसीलिए हम देखते हैं कि नए वर्ष की तैयारी में लोग जमकर नशा करते हैं। नशा कैसा भी हो, जागरूकता को खा जाता है।
नशे में आदमी अंधा हो जाता है, चरित्र तो दूर, उसकी शालीनता तक चली जाती है। नशा आत्म-विस्मृति की एक ऐसी क्षणिक स्थिति में डाल देता है कि आदमी होश में आने पर समझ नहीं पाता कि क्या खोया, क्या पाया। पुराने वर्ष को शरीर की तरह समझें, शरीर का क्षरण होता है।
जैसी देह आज है, वैसी कल नहीं रहेगी और नए वर्ष को आत्मा से जोड़ें। आत्मा सदैव जैसी है, वैसी ही है। नया वर्ष एकदम शुद्ध है, कोरी स्लेट की तरह कई पवित्र संभावनाएं लिए। उसमें जो चाहे भर लें। इसीलिए नए वर्ष की तैयारी में जागरूक रहें, मदहोश न हों, वरना लड़खड़ाते कदमों से प्रवेश करने वाले लोग पूरे वर्ष भटकते ही रहेंगे।
नए माता-पिता पूजा-पाठ के अलावा योग व ध्यान भी करें
बढ़ती जनसंख्या एक बड़ी समस्या है, लेकिन उससे भी बड़ी समस्या यह है कि जो संतानें जन्म ले रही हैं, क्या वे संस्कारजन्य हैं? अधिक जनसंख्या भुखमरी, बेरोजगारी, अपराध जैसी समस्याएं पैदा करेगी, लेकिन ऐसे संस्कार की नई पीढ़ी पूरे परिवार और समाज में अशांति पैदा कर देगी।
बढ़ती जनसंख्या को रोका जाए, लेकिन साथ ही जो बढ़ चुके हैं या सीमित संख्या में आ रहे हैं, उन्हें भी बचाया जाए। समझदार लोगों के घरों में एक या दो बच्चे होते हैं, लेकिन उपद्रव देख लगता है कि कई गुना संख्या वाले भी इन पर कम पड़ेंगे। संस्कारशून्य सीमित परिवारों के बच्चे भी बढ़ती जनसंख्या जैसे घातक परिणाम देंगे।
केवल प्रजनन रोकने से काम नहीं चलेगा, कामुकता की दुष्प्रवृत्ति को भी रोकना होगा। इसके लिए नए माता-पिताओं को चाहिए कि वे पूजा-पाठ के अलावा थोड़ा समय योग-ध्यान पर जरूर दें। कर्मकांड से आचरण बदलता है और ध्यान से प्रवृत्ति। थोड़ा ध्यान लगाने का प्रयास हमें चीजों का सही मूल्य समझाएगा। हम कई ऐसी बातों पर टिके रहते हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं होता।
दुनिया की जगमगाहट में डूबकर भी अंधेरा महसूस करते हैं। बाहर की रोशनी तो जला लेते हैं, पर भीतर अंधेरा ही रहता है। ध्यान करते ही हमें हमारे भीतर एक दीपक-सा जलता नजर आएगा। उस रोशनी में अपने ही भीतर एक कोना ऐसा दिखेगा, जहां बैठकर हम असली जागरण प्राप्त कर सकेंगे। थोड़ा प्रकाश प्राप्त करने के बाद ही संतान पैदा करें। वरना इसका असर लालन-पालन पर भी पड़ेगा। हम अपने बच्चों के शरीर को तो बड़ा कर देंगे, पर आत्मा जीवन भर अछूती रह जाएगी।
चिंता हमें बर्बाद भी कर सकती है और आबाद भी
चिंताग्रस्त रहना एक आदत भी है और मजबूरी भी। चिंता से आप बर्बाद भी हो सकते हैं और आबाद भी। जब हम इतने लाचार हो जाएं कि दूसरे का सहारा जरूरी हो, तब परमात्मा का प्रवेश आसान हो जाता है। हम मदद के लिए हाथ उठा रहे होते हैं और ईश्वर हाथ बढ़ा देता है। इस स्थिति को समझने के लिए गुरु, संत और उनके शब्द काम आते हैं।
सुंदरकांड के एक प्रसंग में रावण की कैद में सीताजी इसी स्थिति में आ चुकी थीं। तब हनुमानजी उन्हें शब्दों के माध्यम से सहारा देते हैं। निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु। जननी हृदयं धीर धरु जरे निसाचर जानु।। राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्रीरघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं। हे माता! हृदय में धर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो। श्रीराम के बाणों को अग्नि कहा है। राक्षसों का जलना अर्थात दुगरुणों का समाप्त होना। चिंता भी एक दुगरुण है। आगे हनुमानजी आश्वस्त करते हैं कि भगवान विलंब नहीं करेंगे।
विलंब शब्द का भक्ति में बड़ा महत्व है। जिनके भीतर विलंब की वृत्ति होगी, वे एक दिन अपने को आलस्य में डुबो लेंगे और आलस्य एक अपराध ही है। श्रीरामचंद्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे विलंब न करते। हे जानकीजी! रामबाणरूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों का सेनारूपी अंधकार कहां रह सकता है? श्रीराम सूर्य हैं और उनके आने पर राक्षसों का अंधकार मिटना ही है। अंधकार का उल्टा प्रकाश नहीं होता। प्रकाश के प्रभाव में अंधकार को जाना ही पड़ता है। हमारे जीवन में सद्कर्म का, प्रभु स्मरण का प्रकाश आएगा तो व्यर्थ का अंधेरा जाएगा ही सही।
साक्षी भाव से अपने शरीर का मूल्यांकन करें
प्रदर्शन और विज्ञापनों के इस युग में अब तो लगता है कोई बात तब ही प्रभावशाली होगी तथा समझ में आएगी, जब उसका प्रेजेंटेशन बेहतर रहेगा। सीधे-सादे का जमाना ही चला गया। हर चीज में सजावट, दिखावट और जमावट हावी हो रही है। प्रदर्शन करते-करते हम वस्तुओं से हटकर अपने खुद का प्रदर्शन भी करने लगते हैं। आदमी ने अपनी देह को इस प्रवृत्ति के कारण वस्तु जैसा बना लिया है।
यह सच है कि हजारों वर्षो से शरीर बेचा और खरीदा जा रहा है, लेकिन इस समय तो लगता है शरीर ही बाजार के केंद्र में आ गया है। शरीर की उत्तेजना पूरे वातावरण में फैल गई। हम समाज में हों या परिवार में, हमारे सुख और दुख शरीर के आसपास घूमने लगे हैं।
ऐसे हालात से बचा भी नहीं जा सकता। इसलिए अब जो है, उसमें से रास्ता निकाला जाए। अपने शरीर को देखना शुरू करें, दर्पण में नहीं खुद ही की निगाहों से। इसको साक्षी भाव कहा है। सुख और दुख को राहगीर की तरह समझें। जीवन के राजपथ पर हमारा शरीर चल रहा है और साथ में सुख-दुख के रूप में अन्य लोग। हम इनसे अलग हैं।
बस यहीं से बाहर जो घटनाएं घटेंगी, वो हमारे भीतर घट नहीं पाएंगी। अभी हम और घटना एक हो जाते हैं। इसीलिए हम बाहर इन्हें विदा न करके अपने भीतर ले आते हैं। जिंदगी में सुख आते ही हमारे तौर-तरीके बदल जाते हैं, क्योंकि हम खुद सुख हो जाते हैं। दुख आते ही हमारी हरकतें एकदम बदली रहती हैं। हम मान लेते हैं - मैं ही दुख हूं, लेकिन अभ्यास करें, सुख और दुख हमसे अलग बाहर हैं। आज हैं, कल नहीं रहेंगे और यहीं से जीवन में शांति आएगी।
एक की उपलब्धि दूसरे के लिए अशांति का कारण न बने
हमें कुछ प्राप्त हो और उसके कारण दूसरे का कुछ कम न हो, ऐसी जीवनशैली परमात्मा को पसंद है। दुनिया का कायदा यह है कि जब हमें कुछ मिलेगा तो दूसरे का कुछ घटेगा। सारा हिसाब-किताब ऐसे ही चलता है। स्वास्थ्य घटता है, तब दौलत कमाई जाती है। शांति भंग होती है, तब दाम मिलता है। अपनों से संबंध बिगड़ते हैं और दुनियाभर का जनसंपर्क तैयार हो जाता है।
मेहनत कोई और करता है, तिजोरी किसी और की भरती है। जैसे ही हम अध्यात्म के क्षेत्र में उतरेंगे, हमें महसूस होगा कि यहां कुछ ऐसा धन है, जो हमें तो मिलता है, पर दूसरे का कम नहीं होता। भक्ति करने से हमारे भीतर प्रेम बढ़ता है, बल्कि हमसे जुड़े लोगों का प्रेम और बढ़ जाता है। हमारी बढ़त किसी के लिए कमी नहीं बनती। अगर हमारे भीतर प्रकाश जागा है तो दूसरों का अंधकार मिटेगा।
हमारे भीतर एक फूल खिला तो समझ लीजिए दूसरों के लिए पूरी बगिया की तैयारी हो गई। इस भाव से जब हम संसार में काम करेंगे तो हम समझ जाएंगे कि सुख हमें अर्जित करना है, पर दूसरों को दुख देकर नहीं। हमारे सुख में किसी का दुख भीतर ही भीतर न हो, क्योंकि ऐसा सुख आगे जाकर हमें उसी दुख में डाल देगा, जो हमने दूसरे को दिया है।
आज कई लोग जब धन-दौलत कमाते हैं तो उनके घरवाले उनसे कहते हैं, हमारे लिए क्या किया? एक की उपलब्धि दूसरे के लिए अशांति का कारण बन रही है। इसलिए कोशिश की जाए, यदि मामला परिवार का हो तो हर सदस्य को यह लगे कि आपके उत्थान में उसका भी उत्थान है। आपकी बढ़ोतरी में उसका कुछ कम नहीं हुआ है।
ध्यान करने से बनेगा विचारों और वाणी में संतुलन
अधिक जानकारियां भी जब मस्तिष्क में ओवर फ्लो होने लगती हैं तो इसका असर जुबान पर पड़ता है। हम देखते हैं कि कई बार कुछ लोग, जो बोल रहे हैं, उसे वे खुद ही नहीं समझ पाते। आज की शिक्षा में ज्ञान से ज्यादा जानकारियों पर दबाव है।
यदि जानकारियों का बहीखाता कोई ईमानदारी से लिखे तो वह पाएगा कि निजी जीवन के उत्थान के लिए इनमें से कुछ ही काम की होंगी, बाकी तो ‘व्यर्थ का भराव’ हैं। इसके लिए जानकारी एकत्रित करने की पद्धति को खत्म भी नहीं करना है, पर प्रतिदिन इसकी सफाई करनी जरूरी है। इसका एक तरीका है मेडिटेशन। जैसे ही हम मेडिटेशन में उतरते हैं, बाढ़ की तरह विचार हमारी ओर बहने लगते हैं।
विचारों का यही सैलाब बिल्कुल चौबीस घंटे हमारी ओर ऐसे ही चलता है। उस समय हम कहीं और व्यस्त रहते हैं, इसलिए इनकी ओर ध्यान नहीं दे पाते। खाना खाते समय, कंप्यूटर पर काम करते समय और तो और किसी से जरूरी मीटिंग करते हुए भी यही सब चलता है। चूंकि ध्यान के समय हम थोड़ा शरीर के साथ एकांत में होते हैं, इसलिए हमारी नजर इन पर आसानी से पड़ जाती है।
उस समय हम अपने एकांत को जीने की कोशिश कर रहे होते हैं, बाकी समय हम दूसरों के साथ होते हैं। इस कारण लगता है कि ध्यान नहीं हो पाएगा। लेकिन इसे भूल जाएं और क्रिया जारी रखें। इसका बड़ा फायदा यह होगा कि दिनभर एकत्रित की गई जानकारियां ओवर फ्लो होकर आपकी वाणी को गलत रूप से प्रभावित नहीं करेंगी। विचार और वाणी का संतुलन अपने आप बनने लगेगा।
अपनी आमदनी का एक हिस्सा गरीबों तक भी पहुंचे
कमाए हुए धन का सामाजिक व व्यावसायिक स्वरूप अलग होता है, परंतु पारिवारिक स्वरूप आते ही इसमें उत्तराधिकार महत्वपूर्ण हो जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी संपत्ति का स्थानांतरण भारत की परंपरा है। कभी नई पीढ़ी उस संपत्ति को बढ़ा देती है तो कभी उसे खत्म ही कर देती है। कमाए हुए धन का हिस्सा घरवालों को मिलना ही है, लेकिन समय आ गया है इस पर नई दृष्टि रखी जाए।
कुटुंब की परिभाषा को विस्तृत किया जाना चाहिए और संपत्ति का अधिकार भी थोड़ा विस्तार लेगा। हम जो कमा रहे हैं, उसमें उन लोगों का भी अधिकार है, जिनके पास इतना भी धन नहीं है कि दो वक्त की रोटी जुटा सकें। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मजबूरी में उपचार नहीं करा पा रहे या योग्य किसी अभाव के कारण अच्छी शिक्षा नहीं ले पाते।
ये सब भी हमारे कुटुंब का हिस्सा हैं। इसलिए अपनी आमदनी का एक भाग इन तक भी पहुंचना चाहिए। तभी धन का औचित्य सिद्ध हो पाएगा। धन के बंटवारे के समय बुद्धि यह समझाती है कि हमने इसे कमाया है तो हम किसको कितना दें, इस पर विचार करेंगे। धन कमाया तो बुद्धि से ही जाता है, लेकिन खर्च करते समय इसे हृदय से जोड़ दें।
धर्म केवल बुद्धि से जुड़ने पर खतरनाक हो जाता है और हृदय से जुड़ने पर भक्ति बन जाता है। वैसा ही धन का भी है। धन जब हृदय से जुड़ेगा तो उसका व्यय भी सद्कार्यो में होगा। सद्कर्म की परछाई प्रतिष्ठा व भक्ति की परछाई प्रेम है, ऐसे ही धन की परछाई सेवा हो जाएगी। जब हम सेवा की दृष्टि से अपने कुटुंब का विस्तार करेंगे, तब हमारा मूल कुटुंब भी उसके परिणाम में सुख व शांति पाएगा।
हर क्षेत्र में अपनी आध्यात्मिक वृत्ति जाग्रत रखना जरूरी है
चाहे भौतिकता की दुनिया में चल रहे हों या भक्ति के संसार में भ्रमण कर रहे हों, कोई भी कदम बढ़ाने से पहले अपने यात्रा के तरीके और पहुंचने वाले स्थान की जानकारी स्पष्ट होना जरूरी है। सभी समझदार पथिक यात्रा पूर्व भरपूर तैयारी करते हैं, अन्यथा भटकने पर धन, समय, ऊर्जा तीनों नष्ट होते हैं।
जो भौतिकता के क्षेत्र में हैं, उन्हें धन, पद, प्रतिष्ठा और सुखी परिवार चाहिए। ये कामनाएं इस क्षेत्र के प्राण हैं। जो भक्ति की दुनिया के लोग हैं, उनको परलोक का सुख, ईश्वर की प्राप्ति और मुक्ति चाहिए। इनके बिना भक्ति भी बेकार है। भौतिकता के क्षेत्र में कर्तव्य एक धर्म है और भक्ति के क्षेत्र में सेवा धर्म है। केवल धर्म पर टिकते हैं तो कई भ्रम पैदा हो जाते हैं। इसलिए अध्यात्म से संबंध होना जरूरी है।
आप किसी भी क्षेत्र में रहें, अपनी आध्यात्मिक वृत्ति को जरूर जाग्रत रखें। दृढ़ता, उत्साह और विश्वास अध्यात्म से आता है और बिल्कुल स्पष्ट आता है। ये तीनों ही दोनों क्षेत्र में काम आते हैं। इनके बिना जो यात्रा हम करेंगे, वो बिल्कुल ऐसी होगी, जैसे किसी समुद्र या नदी के किनारे दौड़ने वाले लोग। सफलता का अर्थ है सागर के पार जाना। इसलिए तैयारी ऐसी हो कि केवल किनारे पर चलने वाले ही न रह जाएं।
थोड़ा अतिक्रमण करके पार जाना ही पड़ेगा। जो लोग ऊंचे उठे हैं, उन्होंने पार जाने की तैयारी की ही है। अब जिन्हें बाहर लंबी छलांग लगानी हो, उन्हें भीतर गहरे उतरने की तैयारी भी करनी होगी। आप अपने ही भीतर जितना नीचे उतरेंगे, बाहर उतने ही ऊंचे जाने पर अशांत नहीं होंगे, थकेंगे नहीं। अपने भीतर उतरने के लिए मेडिटेशन सीढ़ी का काम करता है।
श्रीराम की लीला का मान करने वाला उनकी कृपा पाता ही है
एक सवाल सबके मन में रहता है कि जो काम हमने किया है, उसमें हमारा योगदान कितना है और दूसरों की मदद कैसी है? उदार लोग दूसरों को क्रेडिट देने में पीछे नहीं हटते और संकुचित मानसिकता वाले दूसरों का क्रेडिट भी खुद ले लेते हैं। यह तय है कि कोई भी काम मनुष्य अकेला नहीं कर सकता। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद दूसरों की लेनी ही पड़ती है।
यदि ध्यान से देखें तो पाएंगे कि किसी की मदद न भी लें, तो भी अपने आप कुछ मदद हमारी होने लगती है और हमें ऎसी स्थितियों को, व्यक्तियों को ध्यान में रखना चाहिए। दूसरों के श्रेय के मामले में हनुमानजी बहुत जागरूक और उदार थे। सीताजी को आश्वस्त करते समय उन्होंने सुंदरकांड में यह पंक्ति कही थी - अबहिं मातु मैं जाउं लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।। हे माता! मैं आपको अभी यहां से लिवा जाऊं, पर मुझे श्रीरामचंद्रजी की आज्ञा नहीं है। अत: हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो। श्रीरामचंद्रजी वानरों सहित यहां आएंगे। हनुमानजी सक्षम थे, लंका में राक्षसों को मारकर सीताजी को ले जा सकते थे। लेकिन उन्होंने कहा भगवान श्रीराम की आज्ञा नहीं है, इसलिए मैं आपको नहीं ले जा रहा।
सबके पीछे परमात्मा की शक्ति काम कर रही होती है। बीज में वृक्ष है, पर स्थितियां अनुकूल होने पर ही अंकुरण होता है। ऐसे ही हनुमानजी ने सोचा कि सीताजी को श्रीराम ही ले जाएंगे, इसके पीछे उनका कोई न कोई विचार होगा, जिसको भक्तों ने लीला कहा है। जो उसकी लीला का मान करता है, उसे अपने काम में सहायता ही मिलती है।
बुरा काम करने से पहले हमारा अंत:करण हमें रोकता है
जब भी हम कोई गलत काम कर रहे होते हैं, हमारे भीतर कुछ ऐसा होता है, जो एक बार हमें जरूर टोकता है। जब तमो गुण हावी होते हैं, पाप प्रिय लगने लगता है, आचरण में पशुता उतरती है तो भीतर भी हलचल होती है।
हमारे अंत:करण में आग्रह का एक भाव जागता है कि रुक जाओ, गलत काम न करो। कुछ लहरें चलती हैं जिसमें दया, सेवा, दान, ज्ञान, त्याग, उदारता और विवेक एक बार शरीर के रग-रग में बहता जरूर है। गलत काम के ठीक पहले यदि हम इन्हें महसूस करें तो निश्चित ही हम अपने आप को रोक लेंगे। कबीरदासजी ने कहा है कि ईश्वर हमसे चौबीस अंगुल दूरी पर है।
कबीर बात पते की कहते थे, लेकिन तरीका तिरछा ही रहता था। यदि सचमुच परमात्मा इतने निकट हैं तो हर किसी को मिल जाएगा। लेकिन कबीर जिस भाव से कह रहे हैं, उसे समझा जाए। आत्मा का स्थान हृदय होता है और मन का स्थान मस्तिष्क। हृदय से मस्तिष्क की दूरी चौबीस अंगुल है। आत्मा का ही अगला रूप परमात्मा है। बुरे विचार या गलत काम का केंद्र मन होता है। जैसे ही यह सक्रिय हुआ, वैसे ही हृदय हमें अवसर देता है कि रुक सकें तो रुक जाएं।
हृदय से आवाज भी आती है सत्य पर टिको, ये दुष्कर्म अस्थायी हैं। यदि हम हृदय की भाषा सुनने से चूक जाएं तो मन वहां ले जाकर पटकता है, जिसे गलत दुनिया कहते हैं। इसलिए भीतर की सत्ता से जुड़े रहें तो बाहर की सत्ताएं हमसे गलत काम नहीं करवाएंगी। गलत में एक आकर्षण होता है और सही में सहज आमंत्रण। हृदय पुकारता है और मन खींचता है।
आप सिर्फ क्रिया करिए, अपने आप वह मिलेगा जो सही है
कहना आसान है कि कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो। पहले तो इसी पंक्ति में संशोधन कर लें। फल की चिंता जरूर करें, क्योंकि बिना चिंता पाले कर्म की योजना, कर्म में परिश्रम नहीं हो पाएगा। इतना जरूर ध्यान रखें कि फल में आसक्ति न हो। दिक्कत आसक्ति से शुरू होती है, लेकिन ऐसा करना भी कठिन मालूम पड़ता है।
आजकल तो पहले फल निर्धारित किया जाता है, फिर आदमी कर्म करता है। इसीलिए जब उसे वांछित फल नहीं मिलता, तब वह परेशान होता है। फल की आसक्ति से मुक्त होने के लिए हमें अपने मनुष्य होने की रचना को समझना होगा। हम दो बातों से मिलकर बने हैं, दैवीय तत्व और भौतिक तत्व।
हमारी आत्मा दैवीय तत्व का हिस्सा है, मन भौतिक तत्व से जुड़ा है और तन इन दोनों का मिश्रण है। मन का स्वभाव है कि उसे सबकुछ चाहिए, बेलगाम चाहिए। इसीलिए मन या तो भविष्य की सोचता है या भूतकाल की, उसे वर्तमान में रुचि नहीं है। यह तमोगुणी स्वभाव है। आत्मा के भी तीन गुण होते हैं, जिन्हें सत्, चित् और आनंद कहा गया है।
जैसे मछली को जल में रहना ही प्रिय है, वैसे ही आत्मा आनंद में ही रहती है। जो आनंद में रहता है, वह भविष्य में फल की आसक्ति नहीं करता। इसलिए कर्म करते समय शरीर पूरा परिश्रम करे, लेकिन हम आत्मा की ओर मुड़े रहें, केवल मन पर न टिकें। और इसीलिए योगियों ने ध्यान को महत्व दिया है। ध्यान का अर्थ है वर्तमान पर टिकना। कई लोग पूछते हैं - क्या ध्यान करने से शांति मिलेगी? यह प्रश्न ही ध्यान में बाधा है। आप सिर्फ क्रिया करिए और अपने आप वह मिलेगा, जो सही है।
संपूर्ण जीवन को समझने के लिए आत्मज्ञान जरूरी है
इस समय अधिकांश समय लोग शरीर की परिधि पर ही टिक गए हैं। अपने शरीर से बाहर आए तो दूसरे के शरीर में टिक गए। बस इतनी ही यात्राएं मनुष्य के जीवन में चल रही हैं। सारे उद्देश्य, लक्ष्य शरीर की पूर्ति के आसपास घूम रहे हैं। मजेदार बात यह है कि जिस शरीर के लिए सब किया जा रहा है, सबसे ज्यादा नुकसान भी उसी का हो रहा है।
‘निज तन ही निज तन को खाए’ जैसी जीवनशैली हो गई है। बहुत कम लोग जान पाते हैं कि आत्मा भी कोई अंग है। वास्तव में हमारी शिक्षाप्रणाली को चाहिए कि वह हर विषय के साथ कहीं न कहीं आत्मा को अवश्य जोड़े, क्योंकि बिना आत्मा को स्पर्श किए शांति नहीं मिलती। आने वाले समय में भारत जब भौतिक ऊंचाइयां छुएगा तो यहां अशांति के वे सब आयाम होंगे, जो पश्चिम में हैं।
ऐसे समय यदि आत्मबोध हमारे पास हुआ तो हम कामयाब भी रहेंगे और शांत भी। शिक्षा हमें सभ्य बना रही है और सभ्यता का संबंध शरीर से है, लेकिन संस्कार मन को प्रभावित करेंगे, तब आत्मा की यात्रा आसान होगी। केवल शरीर पर टिकने से छोटी मानसिक बीमारियां आसानी से प्रवेश करती हैं और बाद में विकराल रूप ले लेती हैं।
जैसे ज्यादातर क्रोध करने वाले लोग जानते हैं कि यह गलत हो रहा है। पछताते भी हैं, छोड़ना भी चाहते हैं, फिर भी क्रोध नहीं छूटता। अब जानकर भी यदि बुराई न छूटे तो समझ लें कुछ नहीं जाना गया। केवल शरीर पर टिककर समूचा जीवन नहीं जाना जा सकता, आत्मज्ञान जरूरी है। जैसे ही आत्मज्ञान प्राप्त होगा, उसके बाद हम जो भी करेंगे तो ऐसा लगेगा जैसे स्वत: हो रहा है और दुगरुण अपने आप छूटेंगे।
जीवन अति का नहीं, संतुलन का नाम होना चाहिए
दबाव में रहकर कोई काम न किया जाए, क्योंकि दबाव लंबे समय बाद तनाव का कारण बन जाता है। आजकल तो लोग भक्ति भी दबाव में करते हैं। पूजा दबाव में नहीं, अनुशासन से की जानी चाहिए, क्योंकि दबाव अपने आप मंे एक अति है। जीवन अति का नहीं, संतुलन का नाम होना चाहिए।
हमारे यहां हर चीज का संतुलन है, दिन है तो रात है, गर्मी है तो सर्दी का मौसम भी है, जन्म है तो मृत्यु भी है, बुराई है तो अच्छाई भी है। अच्छाई को अपने भीतर बनाने के लिए बहुत अधिक दबाव बनाना भी एक नई बुराई को जन्म देता है। बुराई का स्वभाव है नीचे की ओर गिरना।
इसका केंद्र मन होता है। मन का स्वभाव है पतन की ओर जाना। जैसे पानी को नीचे फेंकने में ताकत नहीं लगती, लेकिन ऊपर ले जाने में शक्ति लगती है, ऐसे ही अच्छाई तक पहुंचने में ताकत लगेगी और इसी ताकत के नाम पर लोग अति करने लगते हैं।
कोई इतने उपवास करता है कि वो शारीरिक दोष बन जाता है। अपने को बहुत अधिक सताने पर सद्गुण मिल जाएं, जरूरी नहीं है। सारा जीवन संतुलन का नाम है। जीवन का सृजन करना पड़ता है और सृजन दबाव मुक्त होकर ही किया जाता है। शरीर, मन व आत्मा तीनों हमसे कुछ मांगते हैं।
शरीर की अपनी भाषा और शब्द हैं, उसकी अपनी मांग है, जो संतुलन के साथ पूरी की जाए। फिर मन की चाहतों का तो कहना ही क्या। इसे सावधानी के साथ हैंडल किया जाए और आत्मा तो आनंद देने को तैयार है। हम जाग्रत होकर उस आनंद को झेल लें। इतनी समझ आते ही हमारा जीवन दबाव मुक्त हो जाएगा। हम अनुशासन में रहेंगे, लेकिन अपने आपको सताएंगे नहीं।
शिष्टाचार बाहर से और संस्कार हमारे भीतर से जुड़ा हुआ है
शिष्टाचार और संस्कार में फर्क है। शिष्टाचार का संबंध सिर्फ बाहर से और संस्कार का भीतर से जुड़ा हुआ है। इस समय ये दोनों ही बातें मानवीय जीवन में या तो कम हो रही हैं या फिर इनका स्वरूप बदलता जा रहा है। सारा शिष्टाचार धंधे का गुर बन गया है। हम उन्हीं के प्रति सभ्य हैं, जिनसे हमें कुछ मिलना है।
अकारण सहज होना, शिष्ट होना कमजोरी की निशानी है। शिष्टाचार सिर्फ इसलिए है कि व्यावसायिक संबंध बिगड़ न जाएं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि शिष्टाचार का संबंध शरीर से है और संस्कार का भीतर से। इसीलिए आज के समय में लोग शरीर क्या कर रहा है, इसकी चिंता अधिक पालते हैं। भीतर जो हो रहा है, उसे कैसे ठीक किया जाए, इसकी फिक्र कम है।
खाते समय हम गिरा न दें, किसी से बात करते समय बॉडी लैंग्वेज ठीक रहे, किसी से वस्तु आदान-प्रदान करते समय आभार-धन्यवाद जरूर बोलें, भोजन का आमंत्रण दें, भोजन करवाएं, थाली कैसी सजी हो, खान-पान की वैरायटी, ऊपरी साफ-सफाई, मौके-दर-मौके उपहार भेंट करना, उपहारों की शानदार पैकिंग, ये सब शिष्टाचार हैं। एक दिन इनसे जुड़कर मनुष्य केवल शरीर पर ही टिका रहता है।
चूंकि वह जान जाता है कि शरीर जो कर रहा है, भीतर वैसा नहीं हो रहा और धीरे-धीरे इसी का आदी हो जाता है। यहीं से आदमी में बाहर कुछ, भीतर कुछ का भेद चलने लगता है। एक दिन हम दोनों को ही धोखा देने लगते हैं, शरीर को भी और आत्मा को भी। हमारी विनम्रता अहंकार का मुखौटा बन जाती है। हमारा क्रोध हमारे सिद्धांतों की प्रतिक्रिया हो जाती है और कुल मिलाकर हम अशांत बन जाते हैं।
संदेह होना स्वाभाविक है, पर हमें विश्वास जीतना आना चाहिए
जीवन में संदेह और विश्वास का खेल चलता ही रहता है। जब अपने पर ही संदेह होने लगे तो उसका निराकरण आत्मविश्वास से होता है, लेकिन जब दूसरों पर संदेह हो तो या तो हमें उदारता से उन पर विश्वास करना पड़ेगा या सामने वाले को अपनी निष्ठा, ईमानदारी व योग्यता से संदेह का निवारण करना पड़ेगा।
फिर आज के दौर में विश्वास करना भी कठिन काम है। देखा जाता है कि मनुष्य, मनुष्य से बात कर रहा होता है, लेकिन भीतर ही भीतर हर शब्द को संदेह की दृष्टि से तौल ही रहा होता है। भरोसा ही नहीं होता कि आदमी की उपस्थिति, शब्दों और निर्णयों में कितनी सच्चई है।
सुंदरकांड में हनुमानजी और सीताजी की बातचीत हो रही थी। हनुमानजी सीताजी के सामने अपने आप को रामजी का दूत साबित कर चुके थे, लेकिन फिर भी सीताजी को उनकी क्षमता पर संदेह था। हे सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।। हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हे-नन्हे) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान योद्धा हैं।
अत: मेरे हृदय में भारी संदेह है कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे मारोगे? हनुमानजी समझ गए कि संदेह का निवारण अब शब्दों से नहीं होगा। यह सुनकर हनुमानजी ने अपने शरीर को विशालकाय बना लिया। तब उन्होंने बताया कि हम आचरण से ही दूसरों के प्रति विश्वसनीय हो सकते हैं।
तुलसीदासजी ने लिखा - सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।। तब सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमानजी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया। इसलिए संदेह होना स्वाभाविक है, लेकिन हमें विश्वास जीतना भी आना चाहिए।
हम और हमारा शरीर भी आपस में एक-दूसरे से वार्ता करते हैं
जब हम दूसरों से बात कर रहे होते हैं, भाषा और शब्द उसमें माध्यम बनते हैं, लेकिन जब संबंधों में अत्यधिक पवित्रता आ जाती है, प्रेम आ जाता है तो संकेत की भाषा में भी बातचीत होने लगती है। ऐसी ही वार्ता हम हमारे शरीर से भी कर सकते हैं। इसके लिए थोड़ी-सी कला आनी चाहिए। हम और हमारा शरीर भी एक-दूसरे से वार्ता करते हैं, लेकिन तरीका थोड़ा अलग होता है।
इसमें कोई ध्वनि नहीं होती, शब्द नहीं होते। यह सिर्फ अनुभूति की भाषा है। जिस दिन हम अपने शरीर की और हमारा शरीर हमारी भाषा समझने लगते हैं, उस दिन फिर शरीर और हम मिलकर एक-दूसरे के पतन का कारण नहीं बनते। इस वार्तालाप के लिए इंद्रियों को समझना जरूरी है। हमारी दस इंद्रियां हैं- पांच कर्मेन्द्रियां, पांच ज्ञानेन्द्रियां। जैसे केवल आंख की बात लें। यह एक ज्ञानेन्द्री है। खराबी आंख में नहीं होती, खराबी इसके विषय यानी दृश्य में होती है।
इंद्रियों को अश्लील दृश्य देखना प्रिय होता है और इसलिए वह प्रेरित करती है। फिर वह शरीर को उस दृश्य में खींचकर ले जाती है। चूंकि हमारा और हमारे शरीर के बीच वार्तालाप नहीं होता, इसलिए हम भी खिंचे चले जाते हैं। लेकिन हमारे और शरीर के बीच समझ है, संवाद है तो इंद्रियां ऐसा प्रभाव नहीं छोड़ पाएंगी और शरीर हमारी आज्ञा मानेगा।
इस संगठन से एक शक्ति पैदा होती है, जो हमें निर्भय बनाती है, आत्मविश्वास जगाती और सद्भाव पैदा करती है। हम हमेशा चिंतित रहते हैं कि अच्छा काम करने जाएं और हाथ से बुरा न हो जाए, इसलिए सावधान रहना जरूरी है। यह काम हमारे और शरीर के बीच एक-दूसरे की भाषा समझने से हो सकेगा।
हम हर हाल में परमपिता परमेश्वर से जुड़े रहें
भारतीय संस्कृति में ऋषि-मुनियों ने नर से नारायण बनने का एक सुंदर विचार दिया है। यह विचार ही बहुत प्रगतिशील है। आज का भौतिक युग लगातार परिवर्तन में विश्वास रखता है। आगे बढ़ने के लिए बदलाव को समझना जरूरी है। यही बात अध्यात्म कहता है। पुरुष से पुरुषोत्तम बनने की संभावना हर एक के भीतर छिपी हुई है।
आप पाएंगे कि इस समय जब चारों ओर प्रगति और विकास के नारे लग रहे हैं, सफलताओं के नए-नए मापदंड गढ़े जा रहे हैं, उसी समय अवसाद और आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। योग्य लोग भी मृत्यु के इस स्वरूप को जीवन से जोड़ रहे हैं।
दरअसल संसार और हमारे बीच जो रिश्ता है, उसको गलत समझने से आदमी के भीतर आत्महत्या करने की इच्छा होती है। वैसे जिंदगी की ओर मुंह करके चलने का नाम सुखी जीवन है और जीवन से पीठ करके भागने का नाम आत्महत्या है। हमें जो मानवीय सत्ता मिली है, वह परम सत्ता का अंश है।
अंश और अंशी का संबंध जब-जब हम भुला देंगे, जीवन में हम आत्महत्या का विचार करेंगे। इसीलिए भारतीय परिवारों में देखा गया है कि कई गृहस्थ अपने दांपत्य जीवन में कुछ मौकों पर घर छोड़कर भागना या जिंदगी से मुक्ति पाने का विचार करते हैं।
असल में यह विचार उनको वर्तमान की परेशानी से राहत देता है। थोड़ी देर बाद आवेग बह जाता है और विचार भी निकल जाते हैं। यदि यह आवेग हमारे और परम सत्ता में अलगाव करा दें, तब आदमी आत्महत्या कर लेता है। इसलिए कैसी भी स्थिति हो, परमपिता परमेश्वर से जुड़े रहें, स्वयं को उससे काटें नहीं।
आत्मा के सशक्त क्रिया रूप को ही भगवान कहते हैं
भगवान कहां हैं, किस रूप में हैं और क्या करते हैं? ये सवाल आज के किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति के मन में आना स्वाभाविक हैं। जब सभी कुछ हमें करना है तो भगवान नाम की सत्ता को बीच में लाने का क्या अर्थ? आचार्य ने एक स्थान पर भगवान की सुंदर व्याख्या की है। उन्होंने कहा है कि आत्मा के सशक्त क्रिया रूप को भगवान कहते हैं।
आत्मा अनंत शक्तियों का पुंज है। यही शक्ति बलवान देवता के रूप में प्रकट होती है और कार्य करती है। हमने अपनी भक्ति को संगठित करके और उसके सात्विक भाव को क्रियाशील करके एक रूप बनाया है, जो भगवान है। सबने अपनी-अपनी शक्ल के अनुसार इसके रूप तैयार कर दिए। कुल मिलाकर हमारी ही शक्ति हमारे सामने नए रूप में आ गई है। मनुष्य का स्वभाव होता है - खुद पर अविश्वास करना, खुद को शक्तिहीन मानना और अपनी योग्यता को भूल जाना।
जब ऐसा जीवन में होता है, तब यह भगवान रूपी शक्ति हमारे काम आती है। रहा सवाल इसके दिखने और न दिखने का, तो सारा मामला ऐसा है कि जब हम किसी वाहन में सफर करते हैं तो मार्ग सीधा हो, तब तो आने वाला दृश्य स्पष्ट रहता है, लेकिन यदि मोड़ हो तो दृश्य मोड़ने पर ही दिखता है और मुड़ने के बाद वो दृश्य नहीं दिखता, जो पहले दिख रहा था। जबकि होता सबकुछ वहीं है।
हवाई जहाज धरती से उड़ता है, कुछ देर तक जमीन दिखती है, फिर दिखना बंद हो जाती है और हम आसमान में होते हैं। जबकि आसमान और धरती अपनी-अपनी जगह होते ही हैं। इसी तरह परमात्मा होता ही है, हमारी स्थिति से उसका दिखना और नहीं दिखना बनता है।
थोड़ी देर रुक जाओ और ध्यान पर टिक जाओ, तभी पाप गलेंगे
परमात्मा की दुनिया में निष्पक्ष न्याय होता है, क्योंकि भगवान ने सारी व्यवस्था एक नियम के तहत बना दी है। इसीलिए साधु-संतों ने उपासना का बड़ा महत्व बताया है। उपासना परमात्मा के द्वारा बनाया गया एक नियम है। इसका सामान्य-सा अर्थ है पास में बैठना।
जैसे ही हम ईश्वर के पास बैठते हैं, उसके भीतर जो-जो भी अद्भुत गुण हैं, उनका असर हमारे ऊपर होने लगता है। उपासना जितनी गहरी होगी, हमारा रूपांतरण उतना ही मजबूत होगा। हमें उसके जैसा होने में अधिक ताकत नहीं लगेगी, लेकिन लोगों ने उपासना को सिर्फ कर्मकांड से जोड़ दिया है।
मंदिर बनाकर दक्षिणा देते हुए, तीर्थ यात्राएं करके, कथाएं सुनकर उपासना नहीं हो सकती। ये परमात्मा जैसी होने की जगह परमात्मा को अपने जैसा बनाने के काम हैं। इसीलिए बहुत बारीकी से देखिए कि सारे कर्मकांड या तो इस पर आधारित हैं कि जो जीवन बीत गया है, उन पापों का निराकरण करें या फिर पुण्य अर्जित करके आने वाले समय को बचाएं। जीवन में जब पाप आता है तो वह या तो पुरानी किसी घटना से जुड़कर आता है या भविष्य से अपने को जोड़कर चलता है। जो लोग वर्तमान पर टिकना जानते हैं, वे शायद कम पाप करेंगे।
अध्यात्म की भाषा में वर्तमान और ध्यान एक है। केवल कर्मकांड हमारे भूतकाल और भविष्य का खेल है, लेकिन ध्यान कहता है कि थोड़ी देर रुक जाओ और वर्तमान पर टिक जाओ। यहीं से पाप गलेंगे और पुण्य सही रूप लेंगे। ध्यान में प्राप्त वर्तमान भी इतना सूक्ष्म होता है कि यह वर्तमान है सोचते ही वह बीता हुआ हो जाता है। इस सूक्ष्म को जितना पकड़ेंगे, हम उतने निर्दोष, शांत और आनंदित रहेंगे।
प्रदर्शन का नहीं हार्दिक भावना का विषय है सेवा
जीवन प्रेमपूर्ण हो जाना एक बड़ी उपलब्धि है। स्त्री-पुरुष ही नहीं, कुछ और रिश्ते भी हैं, जो प्रेम को समझाते हैं। मनुष्य अपनी साधना-भक्ति से प्रेम प्राप्त नहीं कर सकता। प्रेम जिस पर कृपा करता है, उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। हमारी संस्कृति में गुरु का बहुत महत्व बताया गया है।
कर्म में सेवा का भाव गुरुचरण सेवा ही है। यदि उदार दृष्टि से विचार किया जाए तो सेवाभाव की सर्वव्यापकता स्पष्ट हो जाती है। शक्तिपात के संन्यासी शिवोमतीर्थजी कहा करते थे - व्यावहारिक स्तर पर, निम्न बातें सेवक को अपने मन में स्पष्ट समझ लेनी चाहिए - गुरुसेवा का अभिमान नहीं हो, अन्यथा वह सेवा नहीं रह जाएगी।
अन्य गुरु सेवकों से वैमनस्य पैदा न हो जाए, अन्यथा सेवा अशांति का कारण बन जाएगी। यदि कोई दूसरा आ जाए तथा सेवा करना चाहे तो सेवक को हट जाना चाहिए तथा सेवा कार्य उसे सौंप देना चाहिए। कई बार सेवा से हट जाना भी सेवा होती है। इससे परस्पर प्रेम का वातावरण बनाने में सहायता मिलती है।
सेवा प्रदर्शन का नहीं, हार्दिक भावना का विषय है। गुरुसेवा के बदले कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। सेवा साधन से अलग नहीं है। जितनी सामथ्र्य, शक्ति, समय तथा श्रद्धा हो, उतनी ही सेवा का प्रयत्न करना चाहिए। सामथ्र्य-समय से अधिक करने पर आसक्त हो जाने का भय है।
सेवा का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक कई प्रकार की सेवाएं हैं। यदि कोई आपके समान सेवा नहीं कर पाता, किंतु किसी अन्य क्षेत्र में सेवा करता है तो उसका आदर करना चाहिए। ऐसी गुरुसेवा जीवन में प्रेम उतारेगी।
यदि हम चाहें कि सब हमारे जैसे हो जाएं तो यह संभव नहीं है
दुखी होने के लिए अब बड़ी घटनाओं की जरूरत नहीं है। छोटी-सी बात भी आपको बड़े से बड़ा दुख दे जाएगी और बड़ी से बड़ी घटनाएं भी छोटा-सा सुख नहीं दे पाएंगी, क्योंकि सारा मामला भीतरी समझ का है।, जरा भीतर उतरिए, तो समझ में आ जाएगा कि यह जगत परिवर्तनशील है। दिमाग में, मन में, अनुभव में जाकर हम देख लें, तब हम छोटी-छोटी बातों को लेकर दुखी नहीं होंगे। नहीं तो मन में लगातार एक अफसोस बना रहता है कि उसने ऐसा किया, इसने ऐसा क्यों कहा, इसे ऐसा नहीं करना चाहिए।
सारा समय तर्क में लगे रहते हैं। यह तर्क एक माया है। हर आदमी आपके जैसा नहीं हो सकता। फिर भी हम चाहते हैं कि सब हमारे जैसे हो जाएं। यह संभव नहीं है। असंभावनाओं और अनहोनी बातों को लेकर हम बैठ जाते हैं, इसलिए दुखी हो जाते हैं।
जो घटना हो चुकी है, उसको लेकर हम बैठ जाते हैं और एक कल्पना जगत में घूम आते हैं। लेकिन इससे क्या पाएंगे हम? फिर जीवन में हम कब खुश रहेंगे? अब देखो, आप विदेश में रहते हैं। हिंदुस्तान में किसी से पूछो, उनका सपना है कि विदेश में जाकर बस जाऊं।
जैसे स्वर्ग में चले जाएंगे। वहां भी चले गए तो क्या होगा? कुछ आराम मिलेगा। उसके आगे क्या? इन बातों को विवेकपूर्ण ढंग से हमें देखना चाहिए। जब विवेक से देखते हैं तो ये मन पर छाए हुए बादल छंटकर दूर हो जाएंगे। फिर एकदम जागृति, प्रसन्नता, प्रेम। जीवन ऐसा प्रेम से चमक जाएगा, फिर देखिए आनंद ही आनंद है। इसलिए मन पर काम किया जाए।
सत्संग जिस भी तरीके से मिले जीवन को उससे जरूर जोड़ें
निराशा आने पर हम आशा की किरण दूसरों में ढूंढ़ते हैं। वैसे तो सबसे अच्छा समाधान हमारे भीतर होता है, लेकिन फिर भी यदि बाहर ढूंढ़ रहे हों तो एक स्थान पर जरूर जाएं जिसे सत्संग कहते हैं। यहां कुछ ऐसा मिल जाता है, जो जीवन के नैराश्य को मिटा सकता है। निवृत्तमान शंकराचार्य सत्यमित्रानंदगिरिजी कहते हैं - सत्संग करते-करते विचार जागेगा, मन में करुणा जागेगी।
सत्संग आपको संसार में रहते हुए उलझने नहीं देगा। साधक को जब भी, जिस क्षण परमात्मा के प्रति भावोद्वेग होगा, जीवन धन्य हो जाएगा। यह क्षण तभी उपस्थित होता है, जब आपका मन संवेदनशील हो। संवेदना के रहते ही हृदय भाव विगलित हो जाता है। आज हम देख रहे हैं कि संवेदना समाप्त होती जा रही है।
निष्ठुरता और नैराश्य में जीने की आदत-सी पड़ गई है। यदि कुछ मंत्र गुनगुनाए जाएं तो उनके साथ एकाकार के क्षण उपस्थित होते ही हृदय गद्गद् हो जाता है। परंतु धीरे-धीरे अब यह सब लोप होता जा रहा है। किसी संत की वाणी, ग्रंथ, स्तोत्र से हृदय द्रवित होता है। संत का जीवन अत्यंत निर्मल होता है।
वे आत्मा के साथ एकाकार होकर अपनी वाणी प्रवाहित करते हैं। बाह्य जगत से उबरने की हम बहुत बार चेष्टा करते हैं। कभी छूटते हुए भी अनुभव करते हैं। परंतु अंतर्द्वद्वों से उबरने की चेष्टा करनी चाहिए। बाहरी जगत में यदि छूट भी गए तो अंतर्जगत के द्वंद्वों में जकड़ जाते हैं। अंतर्द्वद्वों से छुटकारा पाने के लिए अपने अंतर में अंतरयामी का दर्शन करने का पूरा प्रयास करना चाहिए। सत्संग एक श्रेष्ठ माध्यम है। जिस भी तरीके से मिले, जीवन को जरूर इससे जोड़ें।
भगवान अच्छे और बुरे कार्यो का प्रतिफल अवश्य देते हैं
यह सवाल ज्यादातर लोगों के मन में उठता है कि क्या भगवान हमारा भला चाहते हैं? क्योंकि कई बार जब हमारी पसंद का काम नहीं होता तो हमें भगवान की भूमिका पर संदेह होने लगता है। स्वामी अवधेशानंदगिरिजी कहते हैं - मनुष्य नहीं समझ पाता है कि भगवान उसका हर पग पर भला चाहते हैं और भला करते हैं।
यदि मनुष्य अपने समस्त कर्म भगवान को समर्पित कर दे तो उसकी आत्मा कभी गलत काम नहीं होने देगी और उसे यह आभास हो जाएगा कि गलत काम नहीं करना चाहिए। भगवान सत्कर्मी और भक्त को प्रेरणा देते हैं कि यह मत करना, वह करना। अर्थात भगवान हमारा भला चाहते हैं। अनचाहे कार्य करने वाले को भगवान की कृपा इसलिए समझ में नहीं आती क्योंकि उसकी आत्मा में भगवान द्वारा की गई भलाई का भान ही नहीं होता।
सभी प्राणियों से प्रेम करने वाले और सबकी सहायता करने वाले व्यक्ति ही यह समझ पाते हैं कि ईश्वर एक शक्ति है, जो सबमें विद्यमान है। ऐसा व्यक्ति इस धारणा के विपरीत कार्य नहीं कर सकता। वह हर समय डरता रहता है कि भगवान मुझे क्या कहेंगे क्योंकि भगवान मनुष्य के हर कार्यो पर दृष्टि रखते हैं, चाहे हम कितना भी छिपकर कार्य करें।
इसलिए कहा जाता है कि भगवान से डरो। यह सत्य है कि भगवान के यहां देर है, अंधेर नहीं। अर्थात वे अच्छे और बुरे कार्यो का फल अवश्य ही देते हैं। सत्कर्मी को अनायास यह आभास होने लगता है कि ईश्वर मुझे इस कार्य में मदद कर रहे हैं, मुझे उनकी कृपा मिल रही है। इनमें से लोग भी हैं, जो जानने लगते हैं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ही हमारा भला कर रहे हैं।
हम भीतर से जितने शांत होंगे दूसरों पर अच्छा प्रभाव डालेंगे
हमारे भीतर दो बातों का संघर्ष चलता ही रहता है - हिंसा और अहिंसा। बाहर भले ही हम प्रदर्शित न करें, लेकिन भीतर ही भीतर कभी-कभी हम इतने हिंसक हो जाते हैं कि यदि उसे क्रियान्वित कर दें तो शायद कानून के दायरे में आ जाएं और दंड भोगना पड़े। अहिंसा और हिंसा की यही वृत्ति हमें शांति और अशांति की ओर ले जाती है। आजकल आसानी से कोई भी काम होना कठिन है। ऐसे में भीतर से हमारे हिंसक होने की संभावना बनी रहती है और यदि जीवन के उद्देश्य पाना हों तो अपने भीतर की हिंसा को निमरूल करना पड़ेगा। जब हम भीतर से हिंसक होते हैं तो हमारी बाहरी क्रियाएं भी प्रभावित होती हैं। हमारा व्यवहार रूखा हो जाता है, जोर से बोलने लगते हैं और ऐसे में हमसे संबंधित लोगों से या तो हमारे रिश्ते खराब हो जाते हैं या वे भी इसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते हैं। कुल मिलाकर सारी ऊर्जा जिस रचनात्मक कार्य में लगनी चाहिए, वहां से हटकर उलझनों में ही लग जाती है। हम भीतर से जितना अहिंसक होंगे, शांत होंगे, उतना ही अच्छा प्रभाव आसपास के लोगों पर डालेंगे। हमारी अशांति दूसरों के शरीर पर अपना प्रभाव रखती है और हमारी शांति दूसरों की चेतना पर अपना असर डालती है। अशांति समय, ऊर्जा और संबंध तीनों को नष्ट करती है तथा शांति इन तीनों को मजबूत करती है, क्योंकि प्रकृति का मूल स्वभाव है शांत रहना। इसलिए कोई भी काम करें, प्रकृति से जुड़े रहें, पेड़-पौधों से ऊर्जा प्राप्त करते रहें और अपने आसपास के वातावरण में उस शांति को फैलाते रहें। आपके लिए प्रत्येक कार्य करना सरल हो जाएगा।
चुनौतियों पर विजय
शारीरिक समस्याओं का असर यदि हमारे मन पर पड़ने लगा, तो हमारा जीवन दुष्कर हो जाता है। इसलिए शारीरिक चुनौतियों का सामना डटकर करें और मन को विकार रहित रखें..एक युवक कॉलेज में पढ़ता था। वह अन्य विद्यार्थियों से थोड़ा अलग था। उसे ह्वीलचेयर पर बैठकर कॉलेज जाना पड़ता था। विकलांगता के बावजूद उसके सहपाठी और शिक्षक उसे बहुत पसंद करते थे। क्योंकि वह मिलनसार और आशावादी युवक था। एक दिन उसके सहपाठी ने उससे पूछा- तुम्हारी इस विकलांगता का कारण क्या है? युवक ने उत्तर दिया- मुझे बचपन में ही लकवा मार गया था। मित्र ने पूछा- इतने बड़े दुर्भाग्य के बावजूद तुम इतनी मुस्कराहट और आत्मविश्वास के साथ संसार का सामना कैसे करते हो? लड़के ने मुस्कराकर जवाब दिया- उस रोग ने सिर्फ मेरे शरीर को छुआ है, मेरे मन और आत्मा को नहीं।
कितनी ही बार हम स्वयं को या अपने परिवार के सदस्यों को छोटी-मोटी तकलीफों की शिकायत करते देखते हैं। हम आमतौर पर मुश्किलों से परेशान होकर शिकायत करते रहते हैं। लेकिन अगर हम आसपास नजर दौड़ाएं, तो देखेंगे कि कितने ही लोग गंभीर रोगों से ग्रस्त हैं। किसी का कोई अंग नहीं है, तो किसी को जानलेवा बीमारी है। इनमें से कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो इन चुनौतियों के बावजूद जिंदगी को भरपूर जीते हैं। क्योंकि वे उस विद्यार्थी की तरह उसका असर अपने मन और आत्मा पर नहीं पड़ने देते।
कई बार कार खराब हो जाती है और उसे मरम्मत के लिए भेजना पड़ता है। इससे हमें चाहे थोड़े दिनों के लिए असुविधा हो, लेकिन हमें ऐसा नहीं लगना चाहिए कि हमारी जिंदगी ही खत्म हो गई है। हम जानते हैं कि कार तो सिर्फ एक भौतिक साधन है, जिसका इस्तेमाल हम खुद को एक स्थान से दूसरी जगह ले जाने के लिए प्रयोग करते हैं। इसी तरह हमारा शरीर भी हमारी आत्मा के लिए एक भौतिक साधन है। कभी-कभी इसमें खराबी भी आ सकती है, लेकिन इससे हमारे मन और आत्मा पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। हम अपने जीवन को भरपूर जी सकते हैं, चाहे हमारे पास भौतिक साधन हों या न हों।
जीवन के किसी न किसी मोड़ पर हमारे शरीर में बढ़ती आयु के चिन्ह दिखने लगते हैं। हमारा शरीर उतना अच्छा काम नहीं करता, जितना युवावस्था में करता था। लेकिन हमें इससे निराश नहीं होना चाहिए। मन और आत्मा की गहराई में शांति और प्रसन्नता है, जिसे हम खोज सकते हैं।
हमारी शारीरिक स्थिति कैसी भी हो, लेकिन हम लोगों के बीच प्रेम और प्रसन्नता बांट सकते हैं। यदि बीमारी के कारण हम घर में हैं, तो परिवार के सदस्यों को प्रेम दे सकते हैं। बीमार तो सिर्फ हमारा शरीर ही रहता है, मन और आत्मा तो सदैव पूर्ण रूप से स्वस्थ रहते हैं। आशावादी और सकारात्मक रवैया अपनाकर हम हर विपरीत चुनौती पर विजय पा सकेंगे और दूसरों के जीवन में खुशी ला सकेंगे।
मधुर वाणी द्वारा बड़ी से बड़ी उपलब्धि पाई जा सकती है
जीवन में विपरीत परिस्थितियों में शब्दों का उपयोग बड़े काम का होता है। स्वयं को समझाना हो या दूसरों को, शब्दों का उपयोग करते समय उसमें चार बातों का समावेश करिए। सुंदरकांड में सीताजी से बातचीत करते हुए जब हनुमानजी ने भगवान के प्रताप का वर्णन किया तो सीताजी आश्वस्त हो गईं। हालांकि उन्हें लग रहा था कि रावण के राक्षस विशाल हैं और रामजी के बंदर बहुत छोटे, लेकिन हनुमानजी के शब्दों ने सीताजी के भीतर विजय के प्रति आश्वासन भर दिया। मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी।। आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना।।
भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमानजी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ। उन्होंने हनुमानजी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ। हनुमानजी की वाणी में तुलसीदासजी ने चार बातें बताईं। जीवन में जब संकट की स्थिति हो तब हमारे शब्दों में भक्ति, प्रताप, तेज और बल होना चाहिए। भक्ति हमारे शब्द और आचरण में मेल बनाती है। प्रताप का अर्थ है जबर्दस्त पुरुषार्थ। यह बोलता ही नहीं, करता भी है। तेज हमारे शब्दों में पवित्रता लाता है और बल का अर्थ है अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की वृत्ति। चूंकि हनुमानजी स्वयं भी बहुत अच्छे वक्ता थे, इसलिए वे वाणी का उपयोग किस जगह कैसा करना है, इसमें दक्ष रहे। परिणाम यह हुआ कि सीताजी के मन में संतोष पैदा हो गया और हनुमानजी को बल और शील का वरदान मिला। वाणी के माध्यम से कितनी बड़ी उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है, यह इसका उदाहरण है।
गृहस्थी में रहते हुए भी थोड़ा-सा तपस्वी जीवन अवश्य जिएं
दुनिया में अनेक तरह के लोग होते हैं। किसे आपका कौन-सा काम पसंद या नापसंद है, इसका ठीक से आप हिसाब-किताब नहीं लगा पाते।चूंकि हम अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा दूसरों से प्रभावित रखते हैं, इसलिए हम भी चिंतित रहते हैं कि किसे क्या पसंद आएगा? कुछ लोग तो आपकी प्रशंसा करके अहंकार को बढ़ाएंगे और आप समझ नहीं पाएंगे कि आप अपना कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं। हमारे जीवन में वन का बड़ा महत्व है।
इसलिए नहीं कि जंगलों में पर्यावरण बसता है, बल्कि इसलिए कि सभी महान लोगों ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा वन से जोड़कर रखा है। दरअसल वन और तप एक-दूसरे के पर्याय हैं। जीवन में तप जरूर होना चाहिए। हमारे यहां आज भी उपवास और तप को लोगों ने प्रशंसा का विषय बनाया है।
कई लोग तो इसीलिए साधु-महात्मा बन गए कि उन्होंने जरा शरीर पर काम किया और लोगों ने जय-जयकार कर दी। संसार में लोगों को इसी में मजा आने लगता है कि कोई अपना शरीर सुखा रहा है, कोई भूखा रह रहा है, कोई आग पर बैठा है तो कोई धरती पर उल्टा हो रहा है।
ऐसा ही जीवन में होने लगता है। विचित्र को प्रशंसा मिल ही जाती है। हमारे यहां वन में जाकर तप इसीलिए किया जाता था कि एकांत में जो आपको उपलब्ध होगा, वह आपके अहंकार को नहीं बढ़ाएगा। वन में चुप्पी, मौन और दृष्टि तीनों रहती थी। जंगल भगवान की अभिव्यक्ति होती है और परमात्मा मिले तो दूसरों की प्रशंसा, आलोचना की चिंता नहीं करनी चाहिए। इसलिए घर में रहते हुए भी थोड़ा-सा तपस्वी जीवन अवश्य जिएं।
अहंकार को समझ लेना ही अहंकार मिटाने जैसा है
पूजा-पाठ, साधना-तपस्या के बाद भी एक दुगरुण ऐसा है जिसके बचे रहने की संभावना बनी रहती है और वह है अहंकार। चूंकि अहंकार बचा रहता है, इसलिए संसार भी बचा रहता है। संसार बचा रहे पूजा के बाद भी, इसमें कोई दिक्कत नहीं है। संसार छोड़ने की जरूरत है ही नहीं, लेकिन परेशानी यह है कि पूजा के समय भी संसार साथ में चलता है।
इसके मूल में अहंकार भी होता है। अहंकार इतना बारीक है कि वह त्याग में उतर जाता है, क्षमा में प्रवेश कर जाता है। कहा जाता है कि अहंकार मिटा दिया जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। दरअसल अहंकार को समझ लेना ही अहंकार को मिटाने जैसा है।
अहंकार को समझने के लिए जीवन में क्षमावृत्ति को बढ़ाया जाए। हमारे अपने लोग जब भूल करते हैं तो हम उनकी बड़ी से बड़ी भूलों को माफ कर देते हैं और दूसरों की छोटी से छोटी भूल पर भी उनके विरुद्ध निर्णय ले लेते हैं। हम क्षमाभाव को भी दो हिस्सों में बांट देते हैं - अपना और पराया। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिनके भीतर क्षमाभाव अधिक होता है, वे कम बीमार पड़ते हैं। ऐसा कहा जाता है कि क्रोध आए तो क्षमा से जीतो, पर कभी-कभी ऐसा करने के बाद भीतर असंतोष का जन्म हो जाता है।
अपनी ही क्षमावृत्ति पर, स्वयं पर क्रोध आने लगता है। यह असंतोष है और इसके पीछे अहंकार है। कई बार तो लोग क्षमा भी अहंकार की तुष्टि के लिए करते हैं। लोग तारीफ करेंगे, इसीलिए क्षमा कर दो। जबकि क्षमा में नि:स्वार्थभाव होना चाहिए और नि:स्वार्थभाव से जो क्षमाभाव पैदा होगा, उसमें वह समझ होगी, जो हमें अहंकार को गलाने में मदद देगी।
बर्तनों से परिवार की शांति व अशांति तय की जाती है
लोग शांति की खोज में हों, उनके लिए फकीरों ने एक प्रयोग बताया है कि चेतन के साथ जड़ वस्तुओं के प्रति जीवंत व्यवहार करें। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यदि घर में शांति चाहते हों तो बर्तनों से इस तरह पेश आएं, जैसे वे बेजान चीजें नहीं, प्राणवान वस्तुएं हैं। गृहस्थी के केंद्र में बर्तनों की महत्वपूर्ण भूमिका है। कहावत भी इसीलिए बनी - ‘घर-घर में बर्तन बज रहे हैं।’
बर्तनों से परिवार की शांति और अशांति तय की जाती है। आवेश में पटके हुए बर्तन गृहिणी की मानसिकता बता देते हैं। शास्त्रों में इन्हें ‘पात्र’ कहा गया है। इसलिए मनुष्यों को भी सुपात्र और कुपात्र का संबोधन दिया गया है। पात्र यानी जो कुछ ग्रहण कर सकता हो। जैसे ही बर्तनों से हम जीवित वस्तुओं की तरह व्यवहार करेंगे, हमारी अपनी पात्रता भी दिव्य होती जाएगी।
शास्त्रों में तो पात्रों को नारियों से जोड़ा गया है, क्योंकि स्त्रियों की जिंदगी का लंबा हिस्सा बर्तनों के साथ गुजरता है। महाभारत में द्रौपदी को एक अक्षय पात्र मिला था। उसकी विशेषता यह थी कि जब तक द्रौपदी भोजन करके इसे धो नहीं लेगी, तब तक इसमें से भोजन निकलेगा। यह प्रतीकात्मक घटना है। माताओं के हाथ में अन्न का नियंत्रण रहना पूरे परिवार की शांति का नियंत्रण है। पात्र के गर्भ में जल या खाद्य सामग्री होना ही पात्र का महत्व है।
स्त्रियों के साथ भी यही है। वे पुरुष से इस बात के लिए मूल्यवान हैं कि उनमें गर्भधारण की क्षमता है। इसीलिए परिवार में शांति के लिए यदि बेजान वस्तुओं का प्रयोग करना हो तो बर्तनों के प्रति यही भाव लाएं। पात्र जितने महत्वपूर्ण होंगे, परिवार में शांति और संस्कार उतनी ही आसानी से प्रवेश कर जाएंगे।
ज्ञान का गोदाम नहीं, समझ का उपकरण हैं शास्त्र
जीवन में अनेक बार प्रश्नों का समाधान ऐसे स्थानों से मिलता है, जहां की हम उम्मीद भी नहीं करते। इसीलिए जो लोग साधना के पथ पर रहते हैं, वे लगातार अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए शास्त्रों का सहारा लेते हैं। ये सही है कि कुछ शास्त्र समाधान कर देते हैं तो कुछ उलझा भी देते हैं। बहुत अधिक अध्ययन से ज्ञान प्राप्त हो जाए, यह जरूरी नहीं होता।
खासतौर पर धार्मिक शास्त्रों में दिए गए पात्रों के आचरण में संदेह होना स्वाभाविक है। उनके जीवन में जो चुनौतियां आती हैं, शास्त्रों के लेखक उस पर केंद्रित होकर संदेश देते हैं। शास्त्रों की कथाओं की सामग्री इसी तरह चुनी जाती है कि जीवन के प्रश्नों के उत्तर ठीक से मिल जाएं।
इसीलिए पढ़ते समय जो अनावश्यक हो, उसे अस्वीकार करने का विवेक धार्मिक पाठक को रखना होगा, क्योंकि जरूरी नहीं कि लेखक के भाव से जुड़कर पढ़ने वाले को समाधान मिल जाए। इसलिए पंक्तियों को परीक्षण के माध्यम से पढ़ना चाहिए। कई पंक्तियां परिपक्व व विकसित मन से लिखी गई होती हैं, इसलिए पढ़ते समय संतुलित और आशावादी दृष्टिकोण रखना होगा।
ऋषि-मुनियों ने अच्छाई और बुराई के संघर्ष को बताने के लिए अपने साहित्य का जो खलनायक रचा, कई बार वह एक नैतिक चुनौती भक्तों के सामने खड़ी कर देता है। पाठक को दुविधा होने लगती है कि जिसे परमात्मा कहा है, वो सही हैं या नहीं या ईश्वर मनमानी पर उतर आया है। चूंकि मनुष्य का मन प्रतिस्पर्धी होता है, इसलिए अवतारों की लीलाओं पर भी प्रश्नचिह्न् खड़ा करता है। अत: शास्त्रों को ज्ञान का गोदाम न मानकर समझ का उपकरण भी स्वीकार करना पड़ेगा।
श्रीराम की कृपा यदि है तो जीवन जैसा भी है सुंदर है
यह सवाल सबके मन में उठता है कि भगवान से जब हम रिश्ता रखें तो उनसे कुछ मांग की जाए या नहीं। कुछ भक्त कहते हैं कि जब भगवान भक्तों के मन की बात जानते ही हैं तो फिर मांगने से क्या मतलब। लेकिन कुछ का कहना है कि यह हमारा अधिकार है। वो परमपिता हैं, हम उनकी संतान हैं। दरअसल परमात्मा को देखने की हमारी दृष्टि शुद्ध नहीं होने के कारण हम परमात्मा को वैसा देखते हैं, जैसा हम देखना चाहते हैं।
हमारी धारणा हावी हो जाती है और परमात्मा के मूल स्वरूप पर एक परदा पड़ जाता है। हम छोटे हैं और वह विराट। इसलिए यह बहस भक्तों में चलती रहती है कि भगवान से मांगा जाए या नहीं। भगवान से मांगा भी जाए तो ऐसा मांगा जाए कि मांग भी लगे और न भी लगे। इस मामले में हनुमानजी का दृष्टिकोण बिल्कुल साफ है।
सुंदरकांड में जब वे अपनी बातों से मां सीता को संतुष्ट कर रहे होते हैं, उस समय इस बात को लेकर बहुत प्रसन्न हो जाते हैं कि भगवान उन पर कृपा करेंगे। अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुं बहुत रघुनायक छोहू।। करहुं कृपा प्रभु सुनि काना। निर्भय प्रेम मगन हनुमाना।। हे पुत्र! तुम अजर बुढ़ापे से रहित, अमर और गुणों के खजाने होओ। श्रीरघुनाथजी तुम पर कृपा करें। ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमानजी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए। हनुमानजी ने भक्तों को एक शब्द दिया है ‘कृपा’। यदि परमात्मा से मांगना ही है तो कृपा मांगना। इस कृपा में सबकुछ शामिल है, हमारी याचना और देने का उसका अधिकार। उसकी कृपा यदि जीवन में है तो जीवन जैसा भी है, उसी की देन है। सुंदर जीने की यही परिभाषा है।
मन को नयापन भीतर ही मिल जाए तो वह बाहर नहीं कूदेगा
मन को जो-जो चीजें पसंद हैं, उनमें से एक है बेईमानी करना। उसे नई-नई किस्म की बेईमानियां ढूंढ़ने में बड़ा मजा आता है। मनुष्य के भीतर गलत के प्रति जो प्रोत्साहन होता है, वह मन द्वारा ही फेंका गया होता है। मन की आकांक्षाएं मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं बन जाती हैं और अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति अनुचित का चुनाव करने में संकोच नहीं करता। मन को नवीनता में भी रुचि है।
जैसे कुछ लोगों का स्वभाव होता है कि वे वस्तु की उपयोगिता से ज्यादा उसके नए होने में रुचि रखते हैं। फिजूलखर्ची इसी का नाम है। हम उदाहरण ले सकते हैं आज के जीवन में मोबाइल रखना और लगातार बदलना उपयोगिता से ज्यादा लेटेस्ट का मामला है। मन इसी शैली में रिश्तों पर, सिद्धांतों पर काम करता है। जो लोग मन की रुचि से चलते हैं, वे संसार पर टिक जाते हैं। संसार की दौड़ तेजी से परिवर्तन का मामला है।
इसीलिए मन की रुचि सांसारिक कार्यो में ज्यादा होती है। अब जैसे ही हम भीतर उतरते हैं, मन को अध्यात्म से जोड़ने का क्रम आरंभ हो जाता है। अब मन छटपटाता है। इसलिए समझदार भक्त लोग मन की नवीनप्रियता को जानकर उसे भीतर ही नई-नई वस्तुएं उपलब्ध कराते हैं। भीतर जाकर जैसे ही आप अपने पुराने को काटने लगते हैं, बस वहीं से चेतना जाग्रत होती है। नई-नई कथाएं सुनना, लगातार ध्यान करते रहना हमारे भीतर हमारे अतीत के बोझ से हमको मुक्त कराता है। अब मन को नया चाहिए। यदि वो उसे भीतर ही मिल जाए तो फिर वह बाहर नहीं कूदेगा। ईश्वर के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि वो नित-नया होता जाता है। इसी का नाम जिंदगी की ताजगी है।
काम की अपनी मदहोशी होती है और सफलता का अपना नशा
आजकल व्यावसायिक जीवन में सफल लोगों के बीच इस बात की लगातार बहस छिड़ी होती है कि सफल होना हो तो समय देना पड़ेगा और किस-किस का समय चुराकर अपनी सफलता को तैयार किया जाए। यह सवाल जब अध्यात्म के सामने खड़ा किया गया तो अध्यात्म कहता है कि सवाल सफल होने का नहीं है, होश में सफल होने का है।
अत्यधिक काम की अपनी मदहोशी होती है और सफलता का अपना नशा है। दोनों ही समय आदमी अपने होश से बाहर चला जाता है। संसार को आपके पद से लेना-देना है और अध्यात्म का आपके होश से संबंध है। अवेयरनेस यदि पूरी तरह है तो किसी भी तरह की सफलता और असफलता परेशान नहीं करेगी। यह होश किस बात का नाम है। सीधी-सी बात है अपने बारे में जानकारी होना, अपने क्रियाकलाप के प्रति सजग रहना और इस शरीर के भीतर ऐसा कुछ है, जिसको चेतना कहते हैं उससे जुड़ने का नाम होश है। जिस तरह इत्र में सुगंध, अगरबत्ती के धुएं में खुशबू और चंदन में महक होती है, उसी प्रकार आप फूलों के राजा गुलाब को देखिए, किसी भी स्थिति में उसकी महक और खूबसूरती अलग ही अंदाज में होती है।
शायद इसीलिए उसको फूलों का राजा कहा गया है। उसमें गुलाबीपन होता है। अलग-अलग रंग के गुलाब हों तो भी आप गुलाबीपन पकड़ सकते हैं। इसी तरह आदमी में होश जाग जाए तो वो किसी भी पद पर हो, किसी भी क्षेत्र में हो, कोई-सा भी काम कर रहा हो, एक अलग अंदाज में, अलग सुगंध के साथ करेगा। लोगों को महसूस होगा कि इसमें कुछ बात है और वही बात हमें भीतर से शांत और बाहर से सफल रखेगी।
विपरीत परिस्थिति में भी कीचड़ में कमल की तरह खिले रहें
नवजात शिशुओं की इंद्रियों की स्थिति एक जैसी होती है। आधि-व्याधि के कारण कुछ अपवाद को छोड़ दें तो जन्म के समय और मौत के वक्त सभी देह एक जैसी रही है। पैदा होने के बाद धीरे-धीरे हालात बदलते हैं, लालन-पालन, माता-पिता, समाज-खानदान के द्वारा दिए गए सुख-दुख, सुविधा-दुविधा, अभाव और सहयोग से मनुष्य का व्यक्तित्व बदलने लगता है।
धीरे-धीरे जैसे ही समझ बढ़ती है, पहली चुनौती यह सामने आती है कि यदि जीवन में सुविधाएं हैं और आप बन गए तो यह एक सामान्य प्रक्रिया होगी, लेकिन यदि अभाव हो, संघर्ष हो, विपरीत परिस्थिति हो और उसके बाद भी हम कुछ बन जाएं, तब लगेगा जीवन जिया। भारतीय संस्कृति ने कमल के फूल को बड़ा महत्व दिया है।
इसके पीछे एक बहुत अच्छा दर्शन है। कमल का फूल विपरीत परिस्थितियों में खिलता है। कीचड़ में रहकर भी उसकी प्रतिष्ठा है। खूबसूरती उसकी भी निर्दोष है। कमल का फूल एक संदेश देता है कि आपको जीवन में कितना और क्या मिला, इससे ज्यादा जरूरी यह है कि उस मिलने की क्रिया में आप कितने प्रसन्न और सहमत रहे।
जिंदगी में कितना ही उल्टा-सीधा घट जाए, आपको खिलना ही है। हर सफलता आपका सृजन है। कीचड़, जल और सूर्य की किरणों अलग-अलग शक्लों में हमारे सामने आएंगी ही, लेकिन हमें हर हाल मंे कमल बनकर न सिर्फ खिलना है, बल्कि परमात्मा के लिए पुष्पांजलि का गौरव भी प्राप्त करना है। एक और बात, कमल के फूल की नाल बड़ी लंबी होती है। खिले हुए व्यक्तित्व अगर गहरे हो जाएं तो उन्हें परमात्मा तक पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता।
दृढ़ व्यक्ति बाधाओं के निदान में शॉर्टकट नहीं ढूंढ़ता
दृढ़ रहना एक तपस्या है। संसार में जिसको अनुशासन का नाम दिया गया है, धर्म ने उसे दृढ़ता कहा है। धर्म हमेशा संसार के मामलों में गहराई से उतरकर सोचने का नाम है। अनुशासन में यदि दृढ़ता आएगी तो ही अनुशासन का पालन हो सकेगा, वरना अनुशासन भी एक आवरण बनकर जाएगा।
जिन्हें भक्ति करनी हो, जो अपने व्यक्तित्व में भलाई उतारना चाहते हों, जो लोग तनाव-असफलता के बाद भी गलत रास्ते पर नहीं जाना चाहते, उन्हें दृढ़ता का मतलब समझना होगा। जब मनुष्य धर्म के मार्ग पर दृढ़ होता है, तब वह केवल धार्मिक नहीं होता, वह परंपरा और मूल्यों में भेद समझ जाता है। बाधाओं के आने पर उसे भ्रम नहीं होता।
वह उनके निदान में शॉर्टकट नहीं ढूंढ़ता। उसके व्यक्तित्व की दृढ़ता उसके कदमों में भी होती है। इसीलिए ऐसे लोगों के पैर गलत मार्ग की ओर उठते ही नहीं हैं। यदि कभी मार्ग ही गलत हो जाए तो फिर चलते नहीं हैं। दार्शनिकों ने कहा है कि धर्म का निर्वहन दृढ़ता से ही होता है। यहां धर्म का अर्थ सांप्रदायिकता न लिया जाए।
दरअसल बिना दृढ़ हुए आप धार्मिक हो ही नहीं सकते। दृढ़ व्यक्ति आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति के अर्थ जल्दी समझ लेगा। दृढ़ व्यक्ति वासनाओं से टकराने में थकेगा नहीं। उसकी दृढ़ता उसके निर्णयों को गलत होने से रोकेगी। जो लोग एक क्षेत्र में सफल हैं, जरूरी नहीं कि दूसरे क्षेत्र में भी सफल ही हों। शिक्षा के क्षेत्र में सफल लोग चरित्र में असफल हो जाते हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में सफल लोग परिवार पालन में चूक जाते हैं। ये दृढ़ता की कमी के उदाहरण हैं। कहीं न कहीं समझौता करने के फलस्वरूप जीवन में चूक हो जाती है।
जैसे ही मन के प्रति होश जागा शांति का जन्म होने लगेगा
शांति की खोज करना आजकल फैशन-सा हो गया है, लेकिन यदि प्रक्रिया गलत हो तो परिणाम सही कैसे निकलेंगे? शांति कहां और कैसे मिलती है, इसके लिए सभी धर्मो के फकीरों ने जो रास्ता बताया है, वो लगभग एक जैसा है। हम लोग चाल बदलने से रास्ते को भी बदला हुआ मानते हैं। सारे रास्ते वहीं जा रहे हैं, लेकिन हमारी चाल-ढाल के बदलाव के कारण लोगों ने हानि-लाभ को मार्ग से जोड़ दिया है। शांति ऐसे खोजी जा रही है, जैसे बाजार में सामान ढूंढ़ा जाता है। फिर सौदा किया जाता है। अगर जम गया तो बढ़िया पैकिंग के साथ घर लाया जाता है। कुछ लोग सामान उपहार की तरह खरीदते हैं जो दूसरों को भेंट कर देते हैं।
शांति के साथ ऐसा ही किया जा रहा है। लोग समझते हैं, क्रोध व हिंसा के अभाव का नाम शांति है। कुछ लोग मानते हैं कि मोक्ष की तरफ चल देने में शांति है। कुछ लोग समझ रहे हैं कि बाहर निकलने के सारे दरवाजे बंद कर दिए जाएं तो शांति मिल जाएगी। दरअसल पता लग जाए कि शांति कहां हो सकती है तो भी उपलब्धि आसान रहेगी। थोड़ा उल्टा समझें। अशांति का केंद्र पकड़ लें और वह मन होता है। मन तक पहुंचने की कोशिश की जाए और जैसे ही मन के प्रति होश जागा कि अपने आप शांति का जन्म होने लगेगा। इसलिए शरीर पर टिकेंगे तो भूतकाल में रुचि बढ़ेगी। अगर भविष्य पर टिकेंगे तो मस्तिष्क सक्रिय हो जाएगा। लेकिन यदि वर्तमान में टिकेंगे तो मन पर काम करना पड़ेगा। मन चूंकि भीतर और बाहर के बीच में एक सेतु की तरह है। यदि आपने पुल को ठीक से समझ लिया तो दोनों किनारों का सही उपयोग करना सीख जाएंगे और इसी के परिणाम में शांति मिलेगी।
अचूक, अतुलनीय और अद्भुत होता है मां का आशीर्वाद
अपने प्रयासों को करते समय यदि अन्य कोई सहारा मिलने लगे तो थोड़ी राहत हो जाती है। करना हमें ही है, लेकिन कुछ बातें सहायक हो जाती हैं। हमारे यहां आशीर्वाद और वरदान की परंपरा है। रावण को खूब वरदान मिले, लेकिन अहंकार के कारण उसके सारे वरदान शाप में बदलते गए। एक दौर ऐसा भी आया कि रावण सिर्फ शाप का ही संग्रह कर रहा था।
सामान्यत: वरदान तप से या किसी सक्षम व्यक्ति को प्रसन्न करके पाया जाता है। श्रीराम ने वरदानों से अधिक आशीर्वाद को प्राथमिकता दी। बड़े-बड़े जब आशीर्वाद देते हैं तो वे किसी दबाव में नहीं होते। वरदान कई बार अपने तप से दूसरे पर दबाव डालकर लिया जाता है, जबकि आशीर्वाद स्वेच्छा के साथ दिया जाता है।हनुमानजी के पास वरदान और आशीर्वाद दोनों भरपूर थे। सीताजी ने प्रसन्न होकर हनुमानजी को भरपूर आशीर्वाद दिया। तब हनुमानजी ने कहा - बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।। अब कृतकृत्य भयउं मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता।।
हनुमानजी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा - हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है। आशीर्वाद को लेकर हनुमानजी ने कृतकृत्य शब्द का उपयोग किया है।कृतकृत्य का अर्थ है इसके बाद करने के लिए, पाने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया। मां का आशीर्वाद अपने आप में परिपूर्ण होता है और हनुमानजी ने घोषणा कर दी कि मां का आशीर्वाद अचूक, अतुलनीय और अद्भुत है। हर हालत में इसे अपने जीवन में बनाए रखना चाहिए।
विनम्र होने के लिए हमें प्रकृति से सीखना चाहिए
जिसने इस संसार को बनाया है, उस परमशक्ति के सारे गुण यदि हम देखना चाहें तो हमें प्रकृति को देख लेना चाहिए। प्रकृति में अस्तित्व है, लेकिन ‘मैं’ का बोध नहीं है। वह अहंकाररहित है, इसलिए अत्यधिक विनम्र है। वह परमात्मा के सृजन की अभिव्यक्ति है। संतुष्ट होकर विनम्र होने और असंतुष्ट रहकर विनम्र रहने में अंतर है।
हम प्रकृति के तत्वों को देखें तो उनका मूल स्वभाव हितकारी होता है। जो लोग अपने भीतर विनम्रता का भाव लाना चाहते हों, उन्हें प्रकृति से सीखना चाहिए। हमें क्या मिल रहा है और हम क्या दे रहे हैं। इसमें अहंकार व स्वार्थ को दूर रखकर निर्णय लिया जाए, क्योंकि यदि हम मैं और निजहित की भावना से भरे हुए हैं तो हम अपने हक के बारे में जागरूक रहेंगे, लेकिन दूसरों के हित के प्रति अनजान बने रहेंगे।
इसलिए थोड़े समय प्रकृति के पंच तत्वों से इर्मानदारी से जुड़ा जाए। हम पृथ्वी से जुड़ने पर धर्य की शक्ति पाएंगे। जल के संपर्क में आते ही सरलता का भाव जागेगा। अग्नि से हमें दृढ़ता व निष्पक्षता जैसे गुण मिलेंगे। वायु हमें सक्रिय रखेगी और आकाश विशालता का बोध देगा। इसलिए थोड़ा समय प्रकृति के आसपास एकांत में रहकर गुजारा जाए।
इसका एहसास जितना गहरा होगा, परमसत्ता की अनुभूति उतनी ही सरल हो जाएगी। हम सब परमेश्वर का हिस्सा हैं, लेकिन प्रकृति के माध्यम से। भगवान के उन्मुक्त होने के लिए ये प्रकृति हमारा सहारा है। लगातार संसार में रहते हुए हम एक अजीब से प्रदूषण और दरुगध के शिकार हो जाते हैं। हमारी नाक दरुगध को ही सुगंध समझने लगती है, लेकिन प्रकृति से जुड़ते ही हमें सुगंध का सही स्वरूप पता लगेगा।
कर्म की आध्यात्मिक प्रक्रिया के प्रति थोड़ा जागरूक हो जाएं
अध्यात्म के क्षेत्र में तीन शब्द प्राय: आते हैं - ज्ञान, कर्म और उपासना। जैसे-जैसे इनसे परिचय बढ़ाएं इनके रूप सामने आने लगते हैं। आजकल कर्मप्रधान विश्व है। जिसे देखो वह अपने कामकाज में लगा है, इसलिए कर्म की आध्यात्मिक प्रक्रिया के प्रति थोड़ा जागरूक हो जाएं।
शक्तिपात के गुरु विष्णुतीर्थजी कहा करते थे कि कर्म दो श्रेणी में रखे जाते हैं - काम्य और नित्य कर्म। किसी फल प्राप्ति की इच्छा से, उस फल को निमित्त बनाकर जिस किसी कर्म का अनुष्ठान किया जाता है, ऐसे सब कर्म काम्य कर्मो की श्रेणी में आते हैं।
नित्य कर्म जैसे संध्यावंदन, पूजा-प्रार्थना आदि हमारे धार्मिक कर्तव्य हैं। इनमें कर्ता फल की कामना नहीं करता व कर्म आम दिनचर्या के अंग होते हैं। मनुष्य के पूर्व-संचित संस्कार मन में विभिन्न कामनाएं जाग्रत करते रहते हैं। इन पर विजय प्राप्त करने के लिए वह परमशक्ति के प्रति समर्पित बुद्धि से काम्य कर्म करता है।
इस विषय पर दो मत हैं - पहला, सब कर्म दोषयुक्त हैं, सभी का त्याग उचित है। दूसरा है यज्ञ, दान और तप ये ऐसे कर्म हैं, जो त्याज्य नहीं हैं। त्याग भी सात्विक, रजोगुणी और तमोगुणी होता है। मोह से कर्मो का त्याग तमोगुणी, भय व कष्ट कठिन मान, दुख रूप त्याग रजोगुणी और कर्तव्य समझकर जो नित्य कर्म फल की इच्छा न रखकर किया जाता है, उसे सात्विक त्याग कहा जाता है। कर्म की इस भूमिका को समझकर हम अपने जीवन में इसके प्रयोग करें। रोजी-रोटी कमाना है, लेकिन इस काम को हम रज, तम या सत किस भाव से जोड़कर कमाते हैं, उसी से उसका परिणाम शांति और अशांति देगा।
शांति चाहिए तो अपने श्रवण, रुचि और क्षमता पर ध्यान दें
बोलना और सुनना हमारी फितरत में शामिल है। कुछ लोगों को बोलने की बीमारी-सी हो जाती है। इसी तरह सुनने का भी नशा होता है। जब सुनने की इच्छा खूब होने लगती है तो आदमी दूसरों की बातों में रुचि लेने लगता है। क्या सुना जाए, भक्ति के क्षेत्र में यह भी आवश्यक है, क्योंकि हमारे जीवन में और इस ब्रहांड में बहुत कुछ अनसुना भी मौजूद है। भजन, कीर्तन आध्यात्मिक प्रतिध्वनि होते हैं। इनके बोल जागरूकता के लिए प्रेरक बन जाते हैं। जिन्हें शांति की तलाश हो, वे अपने श्रवण, रुचि और क्षमता पर थोड़ा ध्यान दें।
ऐसा न सुनें, जो आवश्यक न हो और ऐसा जरूर सुनें, जो हमें और गहराई में ले जाए। इसलिए मेडिटेशन के समय शास्त्रीय संगीत की कुछ धुनें बड़ी काम आती हैं। कभी-कभी तो हमें ऐसा लगता है, जैसे ये स्वर हमें हौले-हौले हमारे ही भीतर गहरे ले जा रहे हों।
अंदर जाते समय जरा भी लड़खड़ाहट हो तो संगीत हमें संभाल लेता है। इसे ही साउंड ऑफ साइलेंस कहेंगे। थोड़ा समय इसे सुनने का प्रयास करें, क्योंकि हम सब शून्य से घबराते हैं। थोड़ा समय आंखें बंद करके जब बैठेंगे तो जो मौन, शून्य भीतर घटता है, उससे घबराहट होगी, क्योंकि आंखें बंद करते ही अंधेरा छा जाता है और अंधेरे में जैसे हम चलते समय किसी भी चीज से टकराते हैं, वैसे ही भीतर के अंधेरे में भी हड़बड़ाहट शुरू होती है।
थोड़ा-थोड़ा अभ्यास रोज करें। थोड़ी देर अधिक अंधेरे में रहो तो उस स्थान पर चलने का अभ्यास हो जाता है। आंखें बंद हों और कानों से कुछ ऐसा सुनें, जो हमें अपने ही भीतर उस अनसुने की ओर ले जाएगा, जिसे सुनकर गहरी शांति मिलेगी।
शिवरात्रि का संदेश है कल्याण की भावना अपने भीतर उतारना
शिवरात्रि पर देश में शायद ही कोई शिव मंदिर बचता हो, जहां लोग जलाभिषेक न करते हों। शिवरात्रि की कथाआंे में जितने संदेश हैं, उनका सार है कल्याण की भावना अपने भीतर उतारना। कल्याण करना आसान नहीं होता, दो चीजें आड़े आती हैं - निजहित की भावना और अहंकार का ख्याल।
अहंकारी यदि कल्याण भी करेगा तो परहित के लिए नहीं, अहंकार के पोषण के लिए। शिवलिंग को जल से जब अभिषेक कराते हैं तो भावना यह होती है कि भगवान भोलेनाथ संतुष्ट हो रहे हैं, लेकिन उसी समय यह भी कल्पना करनी चाहिए कि हम अपने अंतर्मन को धो रहे हैं और हमारा अहंकार गल रहा है, क्योंकि भगवान भोलेनाथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे बहुत सरल हैं। सरलता अहंकार मिटाने में सहयोगी होती है। आजकल कोई भी सरल रहना पसंद नहीं करता।
शिवपूजा हमारे भीतर के अहंकार को हमसे छीनने की क्रिया है। जीवन में अहंकार का भराव जितना अधिक होगा, परमात्मा के लिए रिक्त स्थान उतना कम होगा। इसीलिए हम भगवान को आमंत्रित तो करते हैं, लेकिन उन्हें जीवन में बैठाएं कहां, इसके लिए स्थान नहीं दे पाते।
जिस परमात्मा ने हमें इस संसार में जीवन नाम का स्थान दिया है, उसी के लिए हम जगह नहीं दे पा रहे हैं। शिवलिंग पर जल चढ़ाने का अर्थ है, हो रहा है तो होने दो। जिस दिन जीवन को इस दृष्टि से देखेंगे कि घटनाएं जल की तरह हमारे ऊपर आ और जा रही हैं, हम शिव की तरह अपनी सरलता को बचाए रखें, तो अहंकार भी गलेगा, पूजा भी सार्थक होगी और शिवरात्रि की एक रात आने वाले पूरे ३६५ दिन संवार देगी।
मां के हाथों से बना हुआ भोजन अमृत बन जाता है
अब विज्ञान भी मानता है कि भोजन का असर मानसिक शांति पर पड़ता है। आप कैसा भोजन कर रहे हैं, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है किसके हाथों का भोजन कर रहे हैं। इसलिए हर दिन के भोजन को एक अवसर मानकर सावधानी से उसका लाभ उठाना चाहिए। भोजन के महत्व पर तुलसीदासजी ने लिखा है।
सुंदरकांड में अशोक वाटिका में हनुमानजी और सीताजी की बातचीत चल रही थी - सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।। हे माता! सुनो, सुंदर फलवाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है। सारा संदेश देने के बाद जब हनुमानजी को मां सीताजी से आशीर्वाद मिल गया, तब हनुमानजी ने सीताजी के सामने एक विचित्र मांग रख दी।
वे सीताजी से भोजन मांगते हैं। सीताजी को भी दुखमिश्रित आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा भी कि बेटा यदि अयोध्या होती तो मैं तुझे छप्पन भोग खिला देती। अब यहां लंका में तेरे लिए भोजन की व्यवस्था मैं कैसे करूं? दरअसल हनुमानजी का मानना था कि वे जबसे लंका की ओर चले हैं, जो मिल रहा है, वो खाने की बात करता है।
सुरसा, सिंहिका, लंकिनी तीनों ने ही हनुमानजी को खाने के लिए अपना आक्रोश दिखाया था। हनुमानजी का मानना है कि सभी मुझे खाने की कोशिश में थे, किंतु यदि भोजन कोई करा सकता है तो मां ही करा सकती हैं। सीताजी और हनुमानजी के इस संवाद में मां के हाथों के भोजन को स्थापित किया गया है। परमात्मा ने यह नियामत सिर्फ मां को दी है कि उसके हाथ का भोजन अमृत बन जाता है। संभवत: हनुमानजी इसी की ओर संकेत कर रहे थे।
कोई भी बीमारी होने पर सबसे पहले कारण का पता लगाएं
जिसे देखो, उसे कोई न कोई बीमारी चिपकी हुई है। किसी ने कोशिश करके यदि शरीर को स्वस्थ रख भी लिया है तो कहीं भीतर से परेशानी पाल रखी होगी। हमारे शरीर की रचना इस तरह से है कि यदि एक भी हिस्सा परेशानी में होगा, अस्वस्थ होगा तो भीतर ही भीतर तुरंत शरीर के दूसरे हिस्सों पर उसका प्रभाव पड़ेगा ही। सिर दुखेगा तो पूरा शरीर असहज हो जाएगा। दुखते सिर से हाथ उठाकर काम करने में भी कष्ट होगा।
इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने बीमारी होने पर उसके संबंधों के प्रति जागरूक रहने के लिए कहा है। कोई भी व्याधि आए तो सबसे पहले ध्यान दिया जाए कि इसके पीछे कारण क्या हो सकता है। हमारा खान-पान, नींद, परिश्रम, विश्राम, काम-धंधा, लोगों से संबंध ये सब बीमारियों के आने के रास्ते हैं। इसलिए जब बीमारी आए तो बाहर से इन रास्तों पर नियंत्रण रखा जाए। साथ ही भीतर की व्यवस्था को भी समझ लिया जाए, क्योंकि जब हम इलाज कर रहे होते हैं तो सामान्य रूप से हम औषधि पर ही आश्रित हो जाते हैं।
वह औषधि हमारे भीतर शरीर में जैसे विचरण करके अपना प्रभाव डालती है, उस समय उसकी मदद के लिए हमें हमारे भीतर चल रहे जीवन ऊर्जा के प्रभाव को सहज बनाना होगा। जीवन ऊर्जा सात केंद्रों से होकर बह रही है। हमें इसके बहाव को बिना रुकावट के सक्रिय रखना होगा, क्योंकि प्रत्येक केंद्र एक चिकित्सा परामर्श केंद्र जैसा है। स्वास्थ्य की अभिव्यक्ति हमेशा भीतर ही होगी और बीमारी की घोषणा हमेशा बाहर से होती है। जितना हम इनके आवागमन से स्वयं को जोड़ लेंगे, उतना स्वास्थ्य के निकट होंगे।
मुक्त रहने का भाव हमारे मन को शांति पहुंचाएगा
आवश्यकता और इच्छा का भेद लंबे समय से हमें समझाया जाता है। भारतीय संस्कृति में घोषणा की गई है कि साधु आवश्यकता में जीता है और संसार इच्छा में। दोनों का संबंध भीतर इंद्रियों से होता है। इंद्रियों की मांग आवश्यकता से शुरू होती है और इच्छा में बदल जाती है।
इसमें मन की बड़ी भूमिका होती है। जब हम भीतर के सिस्टम को जान नहीं पाते और बाहर ही बाहर टिक जाते हैं, तब इच्छाएं एक दिन प्रबल होकर हमें पूर्ति के लिए गलत मार्ग पर ले जाती हैं। आज के समय में लोगों ने इच्छाएं इतनी प्रबल कर ली हैं कि उन्हें जो पाना है, एक तो जल्दी पाना है और दूसरा येन केन प्रकारेण प्राप्त करना ही है।
जिसकी इच्छा की जा रही है, वह सही है या गलत, इसकी भी फिक्र नहीं की जाती। जो इंद्रियों से बाहर इच्छा के रूप में सक्रिय हो जाती है। यहीं से आदमी कुछ चीजों में बंध जाता है। बंधन अशांति का कारण है, मुक्त रहने का भाव शांति पहुंचाएगा। मन सक्रिय हुआ कि मनुष्य इच्छाओं में बंध गया। फिर इच्छाएं काम, क्रोध, मद, लोभ की शक्ल में हमारे आसपास मंडराती हैं।
मोटे तौर पर हमें समझा दिया जाता है कि यह सब बुरे हैं, तो लोग इनकी उल्टी यात्रा पर चल देते हैं। क्रोध दबाने के लिए करुणामय हो जाते हैं, लोभ मिटाने के लिए दान करने लग जाते हैं। मन तब भी सक्रिय होता है। मन चलायमान है और करुणा प्रदर्शित हो रही है तो वह भी क्रोध के आसपास अहंकार को जन्म देगी। इसलिए जिन्हें अपनी इच्छाओं के प्रति नियंत्रण की भावना हो, वे भीतर जाकर मन पर काम करें। निष्क्रिय मन आवश्यकता और इच्छा दोनों में शांति प्रदान करेगा।
पसंद और नापसंद का काम भी आपकी मेहनत से जुड़ा है
जब हम मेहनत से धन कमा रहे होते हैं तो जितना संतोष मिलता है, उतना ही इस बात का आग्रह बढ़ता जाता है कि और कमाया जाए। इस और की मांग में आदमी मेहनत की वो सीमारेखाएं लांघ जाता है, जहां के बाद मेहनत भी दोष बनने लगती है। हरेक के अपने परिश्रम की सीमा है। कोई एक घंटे काम करके थक जाता है तो कोई २ घंटे काम करके भी तरोताजा रहता है।
आपकी पसंद-नापसंद का काम भी आपकी मेहनत से जुड़ा है, लेकिन मेहनत व्यवहार से नहीं, स्वभाव से की जाए। आज संसार में अधिकांश लोग अपने परिश्रम को व्यवहार से जोड़कर चल रहे हैं। पैसा कमाना व्यवहार का विषय हो गया है, इसीलिए कुछ लोग जमकर मेहनत करते हैं और कुछ भरपूर कामचोरी करते हैं।
केवल व्यवहार से करने पर दोनों ही स्थितियों में दोष सामने आएंगे। इसीलिए परिश्रम को सेवा से जोड़ दें। सेवा व्यवहार नहीं, स्वभाव का विषय है। शास्त्रों में स्वभाव से जीने का अर्थ है अपनी आत्मा के निकट रहकर जीना। स्वभाव से जो परिश्रम किया जाएगा, उसके भीतर क्रोध का अभाव होगा, इसमें शांति सहज हो जाएगी।
आप व्यक्तियों से वैसा व्यवहार करेंगे, जैसा परमात्मा से किया जाता है। आप संबंधों को सतह पर नहीं देखेंगे, लोगों के भीतर झांकने की कला आ जाएगी। स्वभाव में जीते हुए भीतर ब्रह्म का अनुभव होता है और बाहर ब्रह्मचर्य का। सैकड़ों लोगों की बेचैनी आप अपनी शांत स्थिति से दूर कर पाएंगे। जब आप किसी को दे रहे होंगे या ले रहे होंगे, दोनों में निष्काम रहेंगे और परिश्रम आपको कभी थकाएगा नहीं।
पूरी दुनिया जादू जैसी है और परमात्मा सबसे बड़ा जादूगर
जब भी हम जादू देखते हैं, हर्षित भी होते हैं और विस्मित भी। हमें अच्छा भी लगता है और उसके भीतर झांकने की इच्छा भी होती है। इस रहस्य को यदि जीवन से जोड़ें तो समझ में आएगा कि पूरी दुनिया एक जादू जैसी है और परमात्मा सबसे बड़ा जादूगर है। इंद्रजाल में कल्पना का बड़ा महत्व होता है।
जादूगर आपको एक अलग कल्पनालोक में ले जाता है और वहीं से हमें जादू का अहसास होता है। अच्छे जादूगर जादू दिखाएं या न दिखाएं, लोग कल्पना जरूर बदल लेते हैं। भगवान ने इसी फिलॉसफी से दुनिया बना दी। लोगों ने इस व्यवस्था में अपना कल्पनालोक जोड़ दिया।
बस इसीलिए यह संसार है तो एक जैसा, लेकिन सबको अलग-अलग लगता है। लोग कल्पना में ही भोग कर रहे हैं और उसी से त्याग हो रहा है। जब तक यह कल्पना है, आप सत्य से दूर हैं और अशांत रहेंगे। इसीलिए संसारी लोग सोचते हैं कि दुनिया को जमकर भोग लो तो सुख मिल जाएगा। कल्पना की उनकी अपनी दुनिया है और आखिर में वे दुख पाते हैं।
जो भक्त हो जाते हैं, साधु-संत की वृत्ति में उतरने की कोशिश करते हैं, वे भोग जैसी तीव्रता से ही त्याग करने लगते हैं, कल्पनालोक से बाहर तब भी नहीं आते।
इसलिए जितना दुखी भोगी होता है, उतना ही दुखी त्यागी भी हो जाता है। लेकिन परमात्मा कहता है कि संसार वैसा ही है, तुम अपने आप में स्वयं को पहचान लो। जैसे ही आपको अपने होने का बोध होगा, आप समझ जाएंगे कि मेरा होना ही मेरा संसार है। लेकिन बोध से हटकर कल्पना में उतरें तो संसार तो वही रहता है, पर हम कल्पना का संसार बना लेते हैं और इस टकराहट से अशांति पैदा होती है।
वस्तुएं उपयोग के लिए हैं पर हम उन्हें आत्मा से चिपका लेते हैं
हम जिंदगी में विकास करना चाहते हैं। इसीलिए हमारे प्रयासों में फैलाव होता है। जो भक्ति कर रहे हैं, वे भक्ति का विस्तार करते हैं। शक्ति वाले शक्ति को बढ़ा रहे हैं। धन वाले धन के फैलाव में लगे हैं। इन सबमें कोई दिक्कत नहीं है। विकास और प्रगति होनी ही चाहिए, अन्यथा योग्यता का क्या मतलब रहेगा? फिर खतरे कहां हैं, इस पर विचार किया जाए। दरअसल, जब इन प्रयासों में ‘मैं’ प्रवेश कर जाता है, तब ये सारे विस्तार मेरे का विस्तार हो जाता है और ये ‘मेरा’ बहुत खतरनाक है, अशांति लाता है। इसीलिए हमारे यहां योग का एक लक्षण अपरिग्रह बताया गया है।
परिग्रह मतलब चीजों को समेटना, इकट्ठा करना, मैं के भाव से। महावीर स्वामी का एक वचन है - परिग्रह अपने आप में एक हिंसा है। बात बड़े पते की है, क्योंकि चीजों को इकट्ठा करते-करते हम भूल ही जाते हैं कि वस्तुएं हमारे उपयोग के लिए हैं, पर हम उन्हें आत्मा से चिपका लेते हैं। फिर हम और वस्तु एक हो जाते हैं, यहीं से दुख शुरू हो जाता है। अब जब मेरी वस्तु, मेरे अधिकार का भाव जागता है तो इस बात की चिंता भी शुरू हो जाती है कि कहीं दूसरा इस पर अधिकार न जमा ले। पहले झगड़ा था अब युद्ध शुरू हो जाता है। पहले बैर था, अब शस्त्र बीच में आ जाते हैं और आदमी हिंसक हो जाता है।
महावीर स्वामी ने हिंसा की बात इसीलिए कही है। चीजें कभी किसी को नहीं जानती हैं। उदाहरण के तौर पर यदि हम मकान के लिए झगड़ रहे हैं तो मजेदार बात यह है कि मकान वहीं रहता है और हम झगड़ रहे होते हैं। यही बात जमीन पर भी लागू होती है। परिग्रह का अर्थ ही यह है कि हम हमारे और वस्तुओं के बीच के भेद को समझ सकें।
जीवन तभी सुंदर है जब हमारे पास बुद्धि और बल दोनों हों
आज के युग में बुद्धि और बल में निपुणता का नाम ही योग्यता है। सुंदरकांड में हनुमानजी ने मां सीता से भोजन मांगा था। तब सीताजी ने हनुमानजी से कहा - अशोक वाटिका में जाकर फल खा लो, लेकिन वहां बड़े-बड़े योद्धा हैं। इस पर हनुमानजी ने तत्काल टिप्पणी कर दी कि मुझे उनका डर नहीं है।
भक्त निर्भय होता है, क्योंकि उसे परमात्मा पर भरोसा होता है। सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी।। सीताजी ने कहा - हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं। हनुमानजी का जवाब था - तिन कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।। हे माता! यदि आप मन में सुख मानें, प्रसन्न होकर आज्ञा दें तो मुझे उनका भय बिल्कुल नहीं है। जिस आत्मविश्वास से हनुमानजी सीताजी को कह रहे थे, एक क्षण के लिए सीताजी को लगा कि कहीं यह अतिशयोक्ति तो नहीं है।
फिर हनुमानजी से किया हुआ वार्तालाप याद आया। सीताजी जानती थीं कि अशोक वाटिका में प्रवेश करने का अर्थ है सीधे रावण तक पहुंचना और रावण के सामने केवल बल से काम नहीं चलेगा, बल के साथ-साथ बुद्धि भी चाहिए। वे हनुमानजी के भीतर दोनों को संयुक्त रूप से देख चुकी थीं। देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।। हनुमानजी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा - जाओ। हे तात! श्रीरघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ। हनुमानजी के माध्यम से हमें यह संदेश मिलता है कि जीवन तभी सुंदर है, जब हमारे पास बुद्धि और बल दोनों हों।
हमारे मूड का कंट्रोल दूसरों के हाथों में रहता है
सबसे बड़ी विजय है अपने स्वभाव का स्वामी बनना। इसका अर्थ है जीवन पर स्वयं का नियंत्रण। अभी हमारा जीवन दूसरों से संचालित है। दूसरों की टिप्पणियों और राय से हमारा दिनभर तय होता है। हमारे मूड का कंट्रोल दूसरों के हाथों में रहता है। इसका कारण है मन पर हमारा ज्यादा टिकना। मन को दूसरों में रुचि होती है। बुद्धि को व्यवस्थित रखना हो तो ज्ञान काम आता है।
भक्ति से भावनाएं संभाली जाती हैं, लेकिन मन को नियंत्रित करना हो तो साधना करनी पड़ेगी। केवल साधना से भी काम नहीं चलेगा। दरअसल मन का सबसे अच्छा नियंत्रण ध्यान या मेडिटेशन द्वारा ही होगा। इंद्रियों और मन को प्रशिक्षित करने की क्रिया ध्यान है।
हमारी आंतरिक बेचैनी का केंद्र मन ही होता है। भारतीय संस्कृति ने साधना के जितने रूप बताए हैं, उनमें एक है जागरण। यह भी एक तरह की साधना है, जिसमें श्रवण द्वारा मन को नियंत्रित किया जाता है। आजकल भक्ति की दुनिया में जागरण का बहुत जोर है। जागरण को केवल एक रतजगा न मानें। ये तो परमपिता और जगद्माता की गोद में समय बिताने जैसा है।
जागरण एक तरह का उपवास है। इसका शाब्दिक अर्थ है परमात्मा के पास बैठना। उपवास में हम इंद्रियों पर अपने नियंत्रण के प्रयोग करते हैं। उपवास का साधारण अर्थ समझा जाता है कि अन्न का भोजन नहीं करना, यानी पेट भरने के मामले में नियंत्रण। लेकिन मामला केवल उस उदर का नहीं है, जहां भोजन भरा जाता है। सच तो यह है कि हर इंद्रिय का अपना पेट होता है, जो उसके विषय से भरता है। जागरण करें या उपवास, अभ्यास यह करें कि मन पर नियंत्रण सधे। यहीं से शांति व सुकून मिलेगा।
बाहरी रिश्तों के समान ही हमें स्वयं से भी रिश्ता बनाना चाहिए
संसार में रहते हुए हम अनेक लोगों से रिश्ते बनाते हैं। हर रिश्ता एक दायित्व होता है। दायित्व बोध आध्यात्मिक जागृति के लिए भी आवश्यक है। जिस तरह हम बाहरी रिश्ते बनाते हैं, हमें स्वयं से भी अपना रिश्ता बनाना चाहिए। इस बात पर बराबर नजर रखनी चाहिए कि हमारे स्वयं से रिश्ते कैसे हैं। क्या हम उसका निर्वहन ठीक से कर रहे हैं? दरअसल स्वयं से रिश्ता बनाने के लिए अपने भीतर उतरना पड़ता है।
अध्यात्म कहता है - मनुष्य भविष्य में झांकने में रुचि रखता है। भविष्य में चुनौतियां हो सकती हैं, लेकिन अनुभव नहीं होता। अतीत में स्मृतियां होती हैं, इसलिए अपने अतीत से अनुभव प्राप्त करना चाहिए। अतीत का अनुभव हमें न सिर्फ पीछे ले जाता है, बल्कि अपने भीतर उतरने में भी मदद करता है।
मनुष्य अपने भीतर जाकर ही जान सकता है कि यहां हमारा रिश्ता अपनी चेतना से हो जाता है। ध्यान रखें, भीतर उतरते समय अहंकार एक बाधा है, इसे जरूर दूर किया जाए। बाहरी रिश्ते निवेश के लिए होते हैं और भीतर का रिश्ता बोध के लिए बनता है। जैसे ही हम स्वयं से रिश्ता बनाते हैं, हमारे आसपास एक दैवीय शक्ति सुरक्षा के लिए सक्रिय हो जाती है।
ध्यान हमारे लिए सरल होने लगता है। हमें बाहर की स्थितियों से विराम मिलने लगता है, हमारी आत्मा को उसकी खुराक प्राप्त हो जाती है। भीतर उतरते ही हमें अपने जीवन में कुछ परिवर्तन महसूस होंगे। कुछ लोग इन परिवर्तनों से घबरा जाते हैं, लेकिन ये परिवर्तन एक उपलब्धि है। यह हमारे विश्वास को बढ़ाएंगे। हमारे आसपास सौंदर्य, शांति और सुख की वृद्धि करेंगे। इसलिए इस रिश्ते को जीवन में जरूर पैदा करें।
जीवन में जब तनाव आए तो उसे चुनौती मानकर स्वीकार करें
कोई काम करते हुए दबाव बन जाना स्वाभाविक है, लेकिन तनाव में आ जाना ठीक नहीं। प्रेशर और टेंशन के बीच की लक्ष्मण रेखा को हमें समझना चाहिए। तनाव को सांसारिक दृष्टिकोण से देखेंगे तो हम पाएंगे कि हमारे आसपास नेगेटिव ऊर्जा एकत्रित हो गई है, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि हमें सकारात्मक संकेत देगी। यह दृष्टि हमें बताएगी कि तनाव हमारी क्षमता को बढ़ा देगा।
दरअसल तनाव सकारात्मक घटना का नकारात्मक नाम है। जीवन में जब तनाव आए, तब इसे चुनौती मानकर स्वीकार करेंगे तो तनाव दबाव में बदलेगा और दबाव की कार्यशैली हमारी योग्यता को बढ़ा देगी। एक प्रयोग किया जा सकता है। जब तनाव आए तो अपनी इंद्रियों पर लौट जाइए।
उदाहरण के तौर पर जैसे आंख हमारी एक इंद्रिय है। हम आंखें बंद करें और पूरी तरह से उसी पर एकाग्र हो जाएं। एक आध्यात्मिक व्यवस्था है कि सभी इंद्रियां भीतर से अपने परिणामों को लेकर इंटरकनेक्टेट हैं। जिस दिन हम आंख नाम की इंद्रिय पर नियंत्रण करेंगे, हम पाएंगे कान पर भी हमारा नियंत्रण शुरू हो गया। आंख से जो हम भीतर दर्शन कर रहे होंगे, कान से भी दिव्य श्रवण होने लगेगा। यह एक नया अनुभव रहेगा। यह भीतरी अनुभव हमें बाहरी तनाव से मुक्त करेगा।
बाहर काम तो होना ही है, आप नहीं करेंगे तो कोई दूसरा करेगा, पर तनाव से परेशान होकर आप उस दौड़ में या तो बाहर हो जाएंगे या लड़खड़ाकर गिर जाएंगे। अंतिम सफलता या तो असफलता में बदल जाएगी या अशांति में। अत: तनावमुक्त होने के लिए अपनी इंद्रियों पर लौटने का यह छोटा-सा प्रयोग करते रहें।
जीवन के प्रति आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाएं
हम जैसे होते हैं, वैसे ही लोग जीवन में हमें मिल जाते हैं। यह एक सामान्य धारणा है। हमारा व्यवहार जैसा होगा आगे-पीछे वैसा ही व्यवहार दूसरों से हमें मिलने लगेगा। सांसारिक रूप से देखें तो इस विचार में भेद नजर आएगा। समाज में जो लोग प्रभावशाली होते हैं, वे दूसरों से र्दुव्योवहार करते हैं, पर मजबूरीवश दूसरे उनसे विनम्रता से ही पेश आते हैं, लेकिन यह सब बाहर ही बाहर होता है।
इसीलिए प्रभावशाली लोग भीतर से अशांत पाए जाएंगे, क्योंकि उनसे बात करने वाले लोग भी भीतर से उनके प्रति सदाशय नहीं होंगे। जब जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण आध्यात्मिक हो जाता है, तब हम अपनी हर क्रिया को व्यवहार की जगह स्वभाव से जोड़कर चलते हैं। इसलिए यदि हम भीतर से शांत हैं तो हमारे आसपास का वातावरण और उसमें आने वाले लोग भी शांत हो जाएंगे। हम शॉर्ट टेंपर्ड हैं तो दूसरों से धर्यपूर्ण, विनम्र व्यवहार की भीतर से कल्पना न करें। वो लोग भी हमारे प्रति भीतर से ऐसे ही होंगे।
दुनियादारी में रहते हुए जब हम इस प्रकार के व्यवहार के आदी हो जाते हैं तो इसका असर हमारे वैवाहिक जीवन पर भी पड़ता है। विवाह के पहले हम जो भी हों, लेकिन विवाह के पश्चात हम और हमारे जीवनसाथी का भी भीतरी संसार, स्वभाव आपस में मिलता है। यदि जीवनसाथी में से कोई एक नेगेटिव है तो वह दूसरे को भी उसी ऊर्जा से प्रभावित करेगा। दो दुखी आपस में मिलकर दुख का एक और बड़ा संसार बनाने लगते हैं। इसलिए भीतर से ईमानदार, क्षमाशील, मृदुभाषी, विनम्र और गैरअहंकारी आदमी स्वयं खुश रहकर अपने आसपास आने वाले हर व्यक्ति को खुश रख सकेगा।
कर्म की मूल भावना पर ही टिका होता है परिणाम
किस नजरिए से और किस इरादे से हम काम कर रहे हैं, उस पर परिणाम टिका होता है, लेकिन कई बार ऐसा भी हो जाता है कि काम हम सही कर रहे होते हैं और तरीका हमारा गलत होता है। इस बात की भी संभावना रहती है कि काम हम गलत कर रहे होते हैं और तरीका हमारा सही होता है। मूल भावना क्या है, इस पर परिणाम टिका रहता है।
सुंदरकांड में अशोक वाटिका में हनुमानजी की मुठभेड़ रावण के सैनिकों से हुई। रावण के बेटे अक्षयकुमार को हनुमानजी ने मार डाला था। हनुमानजी जानते थे कि रावण की नगरी में उसी के बेटे को मार डालना कितनी बड़ी घटना होगी। जबकि जाम्वंतजी ने हनुमानजी से कहा था - कोई ऐसा काम मत करना, जिसमें बड़े पैमाने पर हिंसा हो जाए, लेकिन हनुमानजी ने अपनी दृष्टि में परिणाम को रखा। देखने में लगता है, रावण के बेटे को मारना गलत था, क्योंकि हनुमानजी दूत बनकर गए थे।
पर हनुमानजी जानते थे कि मुझे रावण तक संदेश पहुंचाना है और रावण जैसा अहंकारी आदमी छोटी-मोटी घटना से न तो प्रभावित होगा और न ही हनुमानजी को ठीक से नोटिस में लेगा। प्रबंधन में दक्ष हनुमानजी ने अक्षयकुमार के माध्यम से एक ऐसा संदेश तैयार किया कि रावण सारे काम छोड़कर हनुमानजी से बात करने पर मजबूर हो गया।
वह जान चुका था कि जो व्यक्ति मात्र वाटिका उजाड़ने में मेरे पुत्र को संसार से विदा कर सकता है, वह सामान्य नहीं होगा। इसकी बात मुझे विशिष्ट शैली में सुननी और समझनी होगी। यहीं से हनुमानजी ने रावण पर अपना प्रभाव जमाया था और अपने दूत कर्म को स्थापित किया था।
स्त्रियों की मौजूदगी वातावरण को प्रेमपूर्ण बनाती है
एक समय था जब रिश्ते दूसरों को लाभ पहुंचाने के लिए होते थे। फिर वक्त बदला, रिश्ते साझा लाभ के लिए होने लगे और अब वक्त आ गया है, जब निज हित रिश्तों पर हावी हो गया है। सार्वजनिक स्थान पर जब किसी काम के लिए कतार लगती है तो कुछ लोग बीच में घुसने की कोशिश कर रहे होते हैं और जो नियम से खड़े रहते हैं, वे आक्रोश व्यक्त करते हैं।
यह एक सामान्य दृश्य है। कतार में न लगना या पंक्ति तोड़कर आगे जाना कुछ लोगों के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन जाता है। आजकल घरों में भी ऐसे कतार वाले दृश्य देखने को मिलते हैं। हर सदस्य दूसरे से जल्दी में है। वक्त आने पर धक्का भी दे रहा है।
परंपराओं की पंक्ति अहंकार के धक्के से तोड़ी जा रही है। लोगों ने घर के बाहर और घर के भीतर के शिष्टाचार की परिभाषा बदल दी है। घर के भीतर अपने ही लोगों के प्रति और उनकी जरूरतों के लिए न तो संवेदनशीलता बचाई जा रही है और न ही जिम्मेदारी निभाई जा रही है।
हमें एक बात समझनी चाहिए कि सार्वजनिक जीवन और पारिवारिक जीवन में एक फर्क होता है माताओं, बहनों की उपस्थिति। कुल मिलाकर यह स्त्री की उपस्थिति का आभास है, चाहे वह पत्नी के रूप में हो या और कोई रिश्ते से। उन्हीं की मौजूदगी में घर में शिष्टाचार के अर्थ बदल जाते हैं। हमने देखा होगा सार्वजनिक स्थल पर यदि स्त्री मौजूद हो तो लोगों के तौर-तरीके और नीयत बदल जाती है। वैसा ही घर में होता है। इनकी मौजूदगी घर में प्रेमपूर्ण वातावरण बनाती है। इसलिए परिवारों में शिष्टाचार रिश्तों की दृष्टि से निभाए जाने चाहिए।
जब अच्छे-अच्छे हों परेशान तो आम आदमी की क्या बिसात!
केवल दुख का दुश्चक्र नहीं होता, सुख का भी चक्रव्यूह होता है। बहुत सारे लोग मानते हैं कि दुख आए तो उलझनें बढ़ जाती हैं। यदि दुख में संघर्ष है तो सुख में भी कोई कम संघर्ष नहीं रहता। इसलिए आप देखें कि जितने सुखी लोग हैं, वे संघर्ष करते ही मिलेंगे। कामयाब आदमी की परेशानियां खत्म ही नहीं होतीं।
जिनकी लोकप्रियता चरम पर है, ऐसे लोग भी कोर्ट-कचहरी, कानून-व्यवस्था, धंधा-पानी, योग और भक्ति इन सबमें उलझे हुए दिखाई पड़ते हैं। जब अच्छे-अच्छे परेशान हैं तो आम आदमी की क्या बिसात? दरअसल हमें समझना होगा कि यदि कोई संघर्ष कर रहा है तो वो संघर्ष से किस रूप में जुड़ा है।
जैसे संन्यासी अपने गुजरे वक्त से मुक्त होता है, पूरी तरह वर्तमान पर टिका होता है और भविष्य उसके लिए भगवान के साथ जुड़ने जैसा है। उसी का उल्टा एक गृहस्थ जीवनभर अपने अतीत में उलझा रहता है, वर्तमान को तनाव का कारण मानता है और भविष्य के लिए बावले जैसा रहता है। ऋषि-मुनियों ने एक नाम दिया है वैराग्य। यह एक तरह की वृत्ति है, जो ऐसी स्थितियों में काम आती है।
हमें जो साधु-संत या महान व्यक्ति परेशान नजर आते हैं, हम उनके व्यक्तित्व को चार हिस्सों में बांटकर देखें। शरीर से वे शूद्र लगेंगे, मन में उनके वैश्य वृत्ति हो सकती है, कर्म में वे क्षत्रिय नजर आएंगे और उनकी आत्मा को देखें तो वहां ब्राह्मण बैठा दिखेगा। मनुष्य के ये चार रूप उससे अलग-अलग समय, अलग-अलग कार्य करवाते हैं, लेकिन उसकी मूल वृत्ति संन्यासी की होती है और फिर कैसा भी कार्य करते हुए वैराग्य के साथ सुख-शांति को उपलब्ध होगा ही।
रंग खेलने में जल का क्या काम मन की तरंगें ही काफी हैं
भारत में त्योहारों की रचना बड़े शानदार ढंग से की गई है। हमने रंगों को भी त्योहार से जोड़ दिया है। जिंदगी रंगीन होनी चाहिए, इस पंक्ति का अर्थ है जीवन में सुख और शांति दोनों एक साथ हो। होली के बाद रंगपंचमी पर जलविहीन रंग एक-दूसरे को लगाने का बड़ा आध्यात्मिक अर्थ है।
हम अपने हाथों से किसी को रंग लगा रहे हों और कोई दूसरा जब हमें रंग लगा रहा हो, तब उस अबीर-गुलाल के ‘कलर’ पर मत टिक जाइए, क्योंकि कलर केवल एक शरीर है। इस शरीर के भीतर की आत्मा को समझते हुए रंग लगाएं और लगवाएं। इसे यूं समझ लें कि हमारे यहां भोजन की शुद्धि पर बड़ा जोर दिया गया है। इसीलिए कहा जाता है हर किसी के हाथ का बना हुआ भोजन न करें। घर की माता-बहन जब भोजन बनाकर खिलाती है तो उनके हाथों की संवेदना और प्रेम तरंगों के रूप में भोजन में उतरते हैं।
थोड़े भी संवेदनशील व्यक्ति इसका असर महसूस भी कर सकेंगे। आप बाहर अच्छे से अच्छे महंगे स्थान का भोजन कर लें, लेकिन गहराई से महसूस करें तो पाएंगे कि इसमें कोई न कोई कमी है। यह भोजन कुछ इस तरह का होता है, जैसे निष्प्राण देह को सोलह श्रंगार करा दिया गया है। इसीलिए बाहर का भोजन केवल शरीर का भोजन बनकर रह जाता है, आत्मा अतृप्त ही रहती है। होली हो या रंगपंचमी, इस दिन रंगों को हाथ में लेते समय यही भाव रखिए कि आपकी आत्मा से होती हुई तरंगें हथेलियों से गुजरकर रंग के कणों में उतर रही हैं और प्रेम का सेतु एक-दूसरे के बीच बना रहे। फिर इसमें जल का क्या काम, मन की तरंगें ही काफी हैं।
सुंदरकांड की सीख है काम के दबाव में सजगता बनाए रखें
भीतर से ललक हो तो हम काम करने पर ज्यादा टिकेंगे, परिणाम पर कम। हमारे लिए प्रयास ही परिणाम जैसा होगा। प्रयास केंद्रित होने पर परिणाम अनुकूल होने की संभावना बढ़ जाती है। हनुमानजी के जीवन में हर कृत्य पर योग का प्रभाव रहता है। योगी होकर जब कोई काम किया जाता है तो मन और भावनाएं रचनात्मक दिशा में रहती हैं।
सुंदरकांड में हनुमानजी रावण के बेटे को मारने के बाद राक्षसों पर प्रहार करते हैं। उनकी इस क्रिया में दो पक्ष हैं। पहला तो यह कि वे गलत को समाप्त करने के लिए भी भीतर से पूर्णत: शांत थे। दूसरा पक्ष यह है कि वे जो भी काम करते हैं, शत-प्रतिशत करते हैं।
आज के युग में शतक ही आंकड़ों में दर्ज होता है। निन्यानवे का महत्व नहीं होता। यहां दोहे में तुलसीदासजी ने व्यक्त किया है - कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि। कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।। उन्होंने सेना में कुछ को मार डाला, कुछ को मसल डाला तथा कुछ को पकड़-पकड़कर धूल में मिला दिया।
कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बंदर बहुत ही बलवान है। यहां चार बार ‘कछु’ शब्द का प्रयोग किया गया है। हर कछु में पच्चीस प्रतिशत की संख्या छिपी है। यानी पचहत्तर प्रतिशत का तो उन्होंने यह हश्र कर दिया, लेकिन वे शत-प्रतिशत परिणाम में विश्वास करते हैं।
इसलिए शेष पच्चीस प्रतिशत को इस लायक बनाकर छोड़ा कि वे रावण को जाकर सूचना दे सकें। वे हिंसा करते हुए भी पूरी तरह से जागरूक थे। इस तरह काम के दबाव में सजगता बनाए रखते हैं हनुमानजी। सुंदरकांड सिखा रहा है प्रेशर में टेंशन न लें, वरना अटेंशन भी चला जाता है।
गुरु हमारे मनोरथ को सुफल करने का आशीर्वाद देते हैं
प्रत्येक आस्थावान व्यक्ति ईशकृपा और गुरुकृपा की आकांक्षा रखता है। लेकिन ‘कृपा’ की परिभाषा हर व्यक्ति अपने-अपने अनुसार करता है। एक बार भगवान गौतम बुद्ध ने अपने प्रवचन के अंत में कहा - आज का वचन पूर्ण हुआ, अब आप अपने-अपने काम पर जाएं और सफल हों। सुनने वालों ने इसका अर्थ अपनी-अपनी वृत्ति के अनुसार लिया।
मजदूर ने सोचा कि मजदूरी का समय हो गया है। व्यापारी ने व्यापार के लिए, चोर ने चोरी के लिए, किसान ने खेती के लिए और ठगों ने ठगी के धंधे के लिए इसे बुद्ध का आशीर्वाद समझा। इसे हमें ठीक से समझना होगा। श्री रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार कहते हैं - गुरुकृपा आपके मनोरथ के अनुसार नहीं चलती, अन्यथा कृपा का दुरुपयोग हो जाएगा।
गुरु और परमात्मा हमारे मनोरथ को सुफल करने का आशीर्वाद देते हैं। सुफल और सफलता में फर्क है। मनोरथ अर्थात ऐसी कामना, जो मन के रथ पर सवार है और मन का कोई भरोसा नहीं है। किसी का मनोरथ समाज विरोधी, धर्म या आत्मविरोधी भी हो सकता है। ऐसा है तो भी उसका परिणाम सुखद होना चाहिए अर्थात मनोरथ करने वाले को इतनी बुद्धि आ जाए कि उसे अपनी कामना की व्यर्थता का पता चल जाए और मनोवृत्ति सुधार ले, यही सुफल है।
कृपा का आभास भी पुरुषार्थ व परिश्रम की पूर्णता पर होता है। कृपा से पूछें तो उसका उत्तर होगा कि मैं तो कब से इनके पीछे-पीछे फिर रही हूं, लेकिन लोगों के पास वह पात्र तो हो, जिसमें मैं प्रवेश करूं। यह पात्र या बर्तन आपका परिश्रम, प्रयास, बुद्धि, विज्ञान और विवेक है। तब ही कृपा का आभास होता है।
जीवन में चार क्रियाएं महत्वपूर्ण हैं - शयन, भजन, भोजन, श्वसन
हर आदमी अभ्यास के द्वारा इच्छित कार्य में दक्ष हो जाता है। बिना अभ्यास के कोई भी काम अधूरा होगा और परिणाम में हमेशा संदेह बना रहेगा। अभ्यास से जो-जो चीजें नियंत्रित होती हैं, उनमें से एक है मन। समझदार लोग अपने मन को एक विशेष अवस्था का पालन करने के लिए बाध्य करते हैं।
तन और मन संतुलन के अभ्यास से साधने पर समूचे जीवन में समझदारी आती है। कुछ लोग अपनी प्रवृत्ति के अनुसार अभ्यास के केंद्र चुन लेते हैं। चार क्रियाएं हमारे जीवन में महत्वपूर्ण हैं - शयन यानी नींद, भोजन, भजन और श्वसन यानी सांस लेना।
इनमें दो क्रियाएं आवश्यक हैं और दो ऐच्छिक। नींद और सांस, इन पर हमारा पूरा नियंत्रण नहीं हो सकता। ये होती हैं और हम मानकर चलते हैं कि हम करते हैं। आप लाख न चाहें, नींद को जब आना हो तभी आएगी। इसी प्रकार सांस की क्रिया होकर रहती है।
ये हमारे वश के बाहर है। यदि इन्हें वश में करना है तो कठिन साधना करनी पड़ेगी। इसलिए शेष दो क्रियाएं सरल हैं, वे हैं भोजन तथा भजन। भजन से तात्पर्य आपकी पूजा पद्धति से है। आप किसी भी धर्म के हों, आपका इबादत का तरीका अपनी जीवनशैली से जोड़ लीजिए तो पूजा-पाठ भी सहयोग का तत्व बन जाएगी। रहा सवाल भोजन का तो इस पर नियंत्रण पूजन से भी सरल है।
पूजन में तो फिर भी विधि-विधान है, पर आप भोजन की शुद्धि पर आसानी से काम कर सकते हैं। भोजन से भजन, नींद और सांस तीनों प्रभावित होती हैं। इसलिए समय पर और सीमित मात्रा में भोजन करें और पूरी शुद्धता बनाए रखें। यह एक क्रिया कई क्रियाओं को नियंत्रित कर देगी।
जीवन में जो कुछ भी श्रेष्ठ है उन सबका इकट्ठा नाम धर्म है
एक समय था जब धर्म को रोजगार से जोड़ा गया था। ब्राह्मण लोग इस काम में सीधे जुड़े थे। इसका यह अर्थ नहीं है कि धर्म आजीविका का साधन बन जाए। सही अर्थ यह है कि हमारी आजीविका का साधन हमारे धर्म से जुड़ा होना चाहिए। धर्म का अर्थ जाति विशेष न ले लिया जाए। जीवन में जो कुछ भी श्रेष्ठ है, उन सबका इकट्ठा नाम धर्म है।
जब हमारी आजीविका का साधन इस प्रवृत्ति से जुड़ता है तो निश्चित ही हम भ्रष्टाचार और अपराधमुक्त जीवन जी रहे होते हैं। देवस्थान और मूर्तियां केवल इसलिए नहीं बनाई गईं कि वे किसी विशेष धर्म के प्रतीक बन जाएं, बल्कि यह दोनों हमारे रोजगार और व्यक्तित्व विकास के केंद्र हैं।
मूर्ति प्राण प्रतिष्ठित या अभिमंत्रित होते ही हमसे एक पवित्र रिश्ता बना लेती है। उसकी मौजूदगी हमारे विचार, कर्म को प्रभावित करती है। हम अपने दुख और दर्द को अज्ञात से बांटने की स्थिति में आ जाते हैं। हमें तीन तरह के सुख चाहिए - भावनात्मक, बाहरी और अंदरूनी।
हम इन तीनों का विपरीत दुख मान लेते हैं। इसीलिए हम अधिकांश मौकों पर दुखी रहते हैं। सुख और दुख के बीच एक संतुलन होना चाहिए। संतुलन आते ही हम समझ जाते हैं कि न तो कभी सुख अकेले आएगा और न दुख। हमें इन्हें समझने के लिए कोई व्यक्ति, कोई संस्थान और कोई सिद्धांत चाहिए।
देवस्थान, प्रभु प्रतिमाएं और शास्त्र सुख-दुख के संतुलन में हमारा मार्गदर्शन करते हैं। जैसे ही हम सुख-दुख का मतलब समझ जाते हैं, हमारे रोजगार के तरीके में भी फर्क आ जाता है। अधिक कमाने के लिए हम अशांत नहीं होंगे और जो है, उसका उपयोग पूरी शांति से कर सकेंगे।
जब भी हम निराश हों तो अपने ही भीतर छलांग लगाएं
जब कभी हम परेशान होते हैं तो परेशानी दूर करने का निदान ढूंढ़ते हैं। ऐसा करना भी चाहिए। ऐसा करते हुए एक काम और किया जाए। उस परेशानी के कारण को भी पकड़ें। यहां यह ध्यान रखें कि कारण दूसरों में न ढूंढे़।
जब भी हम निराश हों, परेशान हों, दुखी हों तो सीधे अपने भीतर छलांग लगाएं और टटोलें कि इसके पीछे हम कहां हैं। अब जैसे-जैसे हम गहराई में उतरकर अपने पर ही काम करेंगे, हमारी मुलाकात हमारी इंद्रियों से होगी। इंद्रियां भी चूंकि एक नहीं हैं, इसलिए उनमें से उस एक को पकड़ो, जो सबसे ज्यादा ताकतवर है और विषयों से जुड़कर हमें परेशान कर रही है। लेकिन उससे झगड़ा न किया जाए, क्योंकि उसकी शक्ति हमारी कमजोरी बनती है। उसका अनियंत्रण ही हमारी परेशानी का कारण है। जीवन में गुरु अपने शिष्यों की कमजोरियों को इंद्रियों के माध्यम से पकड़ते हैं और उसी कमजोरी को शक्ति में रूपांतरित कर देते हैं।
इंद्रियों को हमारा दुश्मन बनाने की जगह दोस्त बनाने की कला एक सच्चा गुरु जानता है। इंद्रियों से जितना अधिक झगड़ा करेंगे, उतनी ही परेशानी हम और बढ़ा लेंगे। हम भीतर ही भीतर खुद से उलझने लग जाएंगे। इंद्रियां हमारी खुशी और परेशानी के लिए एक पुल की तरह हैं। वे एक रास्ते के माफिक हैं। हम उनसे झगड़ा करके पुल को ध्वस्त कर लेते हैं और रास्ते को ऊबड़-खाबड़ बना लेते हैं। कोई कभी उनसे भी झगड़ा करता है, जो काम आने वाले लोग हों। इंद्रियां जितना काम बिगाड़ती हैं, उससे ज्यादा काम बना भी सकती हैं। इसलिए इंद्रियों को समझें तो सुख और दुख के कारण समझ में आ जाएंगे तथा निदान भी सही हो जाएगा।
श्रद्धा जितनी बलवती होगी गुरु कृपा उतनी ही फलेगी
भावुक और संवेदनशील रहने के भले ही व्यावहारिक जगत में नुकसान हों, लेकिन आध्यात्मिक जगत के लिए ये एक तरह से गहने हैं, क्योंकि जिंदगी में हर बात शब्दों से प्रकट नहीं की जा सकती। सामने वाले के भाव और संकेत समझने के लिए संवेदनशील वृत्ति जरूरी है।
गुरु और शिष्य के रिश्ते में यही वृत्ति काम आती है। परमात्मा से पहले गुरु के प्रति शरणागति होनी चाहिए। लेकिन शरणागति का आधार निजी पसंद, भौतिक लाभ और चमत्कार न रहें। जब हम किसी के प्रति चमत्कार के भाव से नतमस्तक होते हैं तो उसमें हमारी कामना ही हावी होती है, सामने वाले की कृपा लेने की इच्छा कम। हम चमत्कार को नमस्कार कर रहे होते हैं। यह दुनियादारी का खेल है। शरणागति में हम सामने वाले के चमत्कार पर नहीं टिकते, हमारा मकसद समर्पण होता है।
हमारी श्रद्धा जितनी बलवती होगी, गुरु कृपा उतनी ही फलेगी। शरणागति का भाव अपने भीतर लाने के लिए हमें गुरु के संकेतों को समझना होगा। इन्हीं से हमारा संकोच और झिझक मिटेगी। गुरु के साथ हमारी कठिनाई और असुविधा शून्य होनी चाहिए। संसार में रहते हुए तो हम अपनी निजी गुत्थियों में उलझे ही रहते हैं। यहीं आकर हम तसल्ली से इन्हें सुलझा सकेंगे। इसलिए गुरु के सामने सारे संकोच तोड़ देने चाहिए। हमारी श्रद्धा के कारण गुरु की उदारता और सहनशीलता अपने आप प्रकट होगी। जब गुरु शरीर से हमारे साथ न हों तो गुरु मंत्र ही उनकी उपस्थिति है, यह शब्द शरीर और आत्मा दोनों है। इसलिए गुरु मंत्र का जप जितना अधिक होगा, हम संकेत की भाषा कहने और समझने में दक्ष हो जाएंगे।
अहंकारी रावण ने अपने बड़े बेटे को भी गलत मार्ग दिखाया
आदमी का अहंकार उसको दृष्टि से अंधा, मति से भ्रमपूर्ण और गति से रुकावट में डाल देता है। अच्छे-अच्छे सफल और समझदार लोग अहंकार के कारण गलत निर्णय ले लेते हैं। सुंदरकांड में हनुमानजी अशोकवाटिका उजाड़ते समय रावण के बेटे अक्षयकुमार को मार चुके थे। बहुत ही चतुराई से रावण तक इसकी सूचना भी भिजवा दी थी।
रावण के सामने दो रास्ते थे - पहला यह कि उसे सोचना चाहिए था कि मेरी लंका में ही विश्व विजेता होने के बाद कोई आकर मेरे पुत्र को मार डाले, इससे बड़ी घटना और क्या होगी। लिहाजा उसे उस तक पहुंचने में समझदारी से काम लेना चाहिए था। लेकिन रावण अहंकार में डूबा था। अहंकार चिंतन को प्रभावित करके क्रिया को दोषपूर्ण बना ही देता है। दूसरा, रावण ने तुरंत अपने बड़े बेटे को रवाना किया और उस निर्णय में भी वह अहंकार की भाषा बोल रहा था।
सुंदरकांड में तुलसीदासजी को लिखना पड़ा - सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना।। मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखअ कपिहि कहां कर आही।। पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र बलवान मेघनाद को भेजा। अपने पुत्र मेघनाद से रावण कहता है - उस बंदर को मारना मत, बांध कर ले आना। यह दया नहीं, अहंकार की भाषा है।
अहंकारी व्यक्ति हर वो काम करना चाहता है, जिससे उसके अहंकार को और बल मिले। उसकी स्थितियों से निपटने से ज्यादा रुचि अपनी अहंकारपूर्ण प्रतिष्ठा में रहती है। एक अहंकारी पिता एक बेटे की बलि तो ले ही चुका था, अब बड़े बेटे को भी गलत मार्ग पर भेज रहा था।
प्रकृति वो पगडंडी है जो हमें परमात्मा तक ले जाती है
सुबह से लेकर रात तक व्यस्त रहना आजकल मजबूरी और फैशन दोनों हो गया है। कुछ लोगों के जीवन में काम तो इस प्रकार हो गए हैं कि कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेते। फिर महानगरों में तो आवागमन में ही समय का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। शरीर की दौड़-भाग के कारण मनुष्य चिड़चिड़ा और उदास होने लगता है। बाहर से जो लोग उद्विग्न नजर आते हैं, दरअसल वे भीतर से उदास हैं।
ऐसे में शांतिदायक स्थितियां बाहर से जीवन में आ जाएं, ऐसी उम्मीद करनी बेकार है। तब क्या किया जाए? कामकाज छोड़ना नहीं है। चौबीस घंटे की अवधि को बढ़ाया नहीं जा सकता। नाम और दाम कमाना ही है। इसके लिए लगातार प्रकृति से जुड़ने का प्रयास करें। विश्व वानिकी दिवस इसलिए नहीं मनाया जाता कि केवल वन को बचाया जाए।
दरअसल मनुष्य को बचाने के लिए भी इस दिन संकल्प लिया जाना चाहिए। सूरज को उगता हुआ देखें। उसके ढलने पर चंद्रमा के आगमन पर नजर रखें। परिंदों की हलचल पर नजर डालें। पशुओं में खासकर गाय की गतिविधि को नोटिस करें। नदी को बहता हुआ देखें और रुके हुए पहाड़ पर थोड़ा अपने चित्त को टिकाएं।
तब आप पाएंगे कि प्रकृति वो पगडंडी है, जो परमात्मा तक ले जाती है। प्रतिदिन प्रकृति से जुड़ने का अर्थ है, उस मार्ग की साफ-सफाई करना, जो उस दिव्य शक्ति तक पहुंचने का राजमार्ग है। यह रास्ता ही ऐसा है कि हमारी सुविधा की दृष्टि से पगडंडी में बदल जाएगा, कभी फुटपाथ में बदल जाएगा और कभी राजमार्ग-सा दिखेगा। इसलिए आदत बना लें कि थोड़ी देर पशु-पक्षी, नदी, पहाड़, पेड़-पौधे इत्यादि पर भी टिकें।
जल की तरलता हमारी संवेदना को भी नम रखती है
कमजोरी लंबे समय तक टिक जाए तो कायरता बन जाएगी। आप अपने और संसार के प्रति कितने ईमानदार हैं यह सबसे बड़ी बहादुरी है। अपराधी को हिम्मतवाला मानना भूल होगी। जुनून जब चढ़ता है तो दोनों मार्ग उसके लिए खुले रहते हैं।
सही पर जाए तो हिम्मत का काम, गलत राह पकड़ ले तो कायरता समझें। इसलिए खूब काम करते हुए भी अपनी निरोगता में पूरी दिलचस्पी लें। स्वस्थ रहने के लिए बाहरी प्रयास तो करें ही, भीतरी कोशिशें भी जारी रखें। भीतर से सदैव अपने को सद्भाव से भरा रखें। इसके लिए एक काम करें, दिनभर में खूब जल पीएं।
शरीर में जल की कमी न रहने दें। जल सद्भाव को बढ़ाता भी है और बाहर के वातावरण में तरंगों के माध्यम से फैलाता भी है। मंगल विचार जल से मिलकर पूरे वातावरण को शीतल और शुभ बनाते हैं। बाहर के वातावरण को बदलने के लिए हमारे शरीर का जलमग्न भाग बड़े काम का है।
आज जब संसार ‘विश्व जल दिवस’ मना रहा है, तब जल के इस आत्मिक महत्व को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। जल बाहर और भीतर दोनों जगह सम्मान की दृष्टि से उपयोग में आना चाहिए। पानी का लगातार कम होना पूरी मानवता के लिए खतरा है। जल की तरलता मनुष्यता में संवेदना को बनाए रखती है। बिना जल के हम और अशांत होते जाएंगे।
अपने मनोरथों को मनोबल से जोड़ने के ये दिव्य नौ दिन
मनुष्य होने पर मनोरथ होंगे ही। इसका सामान्य अर्थ है इच्छाएं, लेकिन मनोरथ शब्द में मन जुड़ा है। रथ का संबंध गति से है और मन जैसी गति संसार में किसकी हो सकती है। इसलिए इस मनुष्य शरीर में मनोरथ जरूर होंगे। मन के रथ को दुनिया की ओर दौड़ाएंगे तो नाम, दाम, कार, बंगला इत्यादि की चाहत बढ़ेगी।
मन केवल धन पर ही नहीं टिकता। धन से आगे जाकर तन और तन में भी पतन के कार्यक्रम करा देता है। इसलिए मनोरथ की दिशा पूरी तरह संसार न हो। यह जब संसार बनाने वाले की ओर मुड़ेगा तो दृश्य बदल जाएगा। बाहर से हम मशीन की तरह जी-तोड़ परिश्रम करते नजर आएंगे, लेकिन भीतर से बिल्कुल शीतल और शांत रहेंगे। आज से नवरात्र आरंभ हो रहे हैं।
अपने मनोरथों को मनोबल से जोड़ने के ये दिव्य नौ दिन हैं। हमारी लगन सही दिशा में लग जाए, इसके लिए ये तप आराधना के क्षण रहेंगे। मनोरथ को परमात्मा की ओर मोड़ने के लिए मंत्र बहुत काम आते हैं। हर धर्म के पास कुछ मंत्र होते हैं। वाणी मंत्र से जुड़ी नहीं कि मन के रथ को मोड़ना आसान हो जाता है।
मंत्र से एक विशेष प्रकार की ध्वनि पैदा होती है। इस ध्वनि का गुंजन जब भीतर सुनाई दे तो आप भरपूर शांति का अनुभव करेंगे। इसलिए नवरात्र में संकल्प लिया जाए कि नौ दिन खूब शांति से बिताएंगे। मंत्र से क्या फल मिलेगा, नवरात्र में क्या परिणाम आएंगे, इस पर ज्यादा न टिकें। अपने आप को क्रिया से जोड़े रखें। यह शक्ति मनोबल के काम आएगी और मनोबल जीवन की एक बड़ी उपलब्धि है। तो आज पहला संकल्प यही लें कि नौ दिनों में अपना मनोबल बढ़ाने के लिए सक्रिय हो जाएंगे।
भजन-पूजन के इन नौ दिनों में मौन साधने का भी संकल्प लें
शक्ति अर्जन के इन नौ दिनों में उपवास करते हुए केवल शरीर को न साधें। जब उपवास मात्र शरीर केंद्रित होगा तो परिणाम भी सतही रहेंगे। नवरात्र के उपवास और संयम आत्मिक भी होने चाहिए। भजन-पूजन के इन दिनों में दूसरा संकल्प यह लें कि थोड़ा मौन साधेंगे। जितना हो, दूसरों को सुनेंगे और बेहद जरूरी होने पर ही दूसरों को सुनाएंगे।
नवरात्र को वाणी विश्राम के दिन बना दें। इतना ध्यान रखें कि जब बाहर से चुप हों तो भीतर से बोलते न रहें। जैसे मृत्यु के बाद भी तीन दिनों तक जीवन बना रहता है, वैसे ही मौन के बाद वाणी बच जाती है। एक ऐसा शून्य मौन से उत्पन्न होता है, जिसे सुनकर शांति प्राप्त की जा सकती है।
भारतीय संस्कृति में मृत्यु के बाद के जीवन की बड़ी सुंदर कल्पना कर रखी है। मौत के पश्चात किए जाने वाले कर्मकांड में कुछ विधान बड़े अद्भुत हैं। पुरोहित कर्म के अनुसार कर्मकांड में भेद हो सकते हैं, लेकिन इसके पीछे के विचार बड़े तार्किक और वैज्ञानिक हैं।
हम तीन दिनों तक तो शोक मनाते ही हैं, क्योंकि शरीर की मृत्यु के बाद वास्तविक मृत्यु तीन दिन बाद घटती है। कहीं न कहीं जीवन बिखरा हुआ रहता है और उसी की विदाई के लिए सारे उत्तरकर्म किए जाते हैं। देह जलाने से जीवन नहीं जलता। जीवन की एक विधानपूर्ण विदाई का नाम उत्तरकर्म है।
इसलिए नवरात्र में इस मौन को वैसा ही समझें, जैसा किसी की मृत्यु के बाद माहौल में शून्य छा जाता है, लेकिन संवेदनाओं से जुड़े रहें तो जाने वाले के जीवन पर पकड़ की जा सकती है। इसी तरह मौन साधिए। इस शून्य में भी शब्द गरिमा के साथ बचे रहेंगे और हमारी शांति व आनंद का कारण बन जाएंगे।
जब अकेलापन बढ़े तो अपने आप से जुड़ने का प्रयास करें
कुछ काम ऐसे हो ही जाते हैं कि बाद में पछताना पड़ता है। जीवन में उम्र का एक ऐसा पड़ाव आता है, जब अपने पछतावे को प्रायश्चित में बदलने की तैयारी रखें और प्रायश्चित को प्रसन्नता में तब्दील करें। पिछले दिनों संयोग से मेरा दो स्थितियों से सामना हुआ।
कुछ बुजुर्गो के साथ यात्रा की और एक दिन गांव में बिताया। मेरा ज्यादातर समय युवा, व्यस्त और महानगर के लोगों के बीच गुजरता है। वृद्ध और ग्रामीणों के साथ दिन बिताने पर मैंने महसूस किया कि वृद्ध अपने अकेलेपन को कोस रहे थे।
अपनी ही गलती मान रहे थे तथा गांव के मूल निवासी उतने ही दुखी नजर आए, जितने शहर वाले थे। महानगर का आदमी अपनी अतिव्यस्तता और अस्त-व्यस्त जीवनशैली के कारण हैरान हो जाए यह समझ में आता है, लेकिन गांव वाला इसी स्तर पर दुखी रहे तो आश्चर्य होता है।
बुजुर्ग इसलिए परेशान थे कि उन्होंने जीवनभर संघर्ष करते हुए अपने बच्चों को खूब पढ़ाया और अब वे इतनी दूर चले गए कि ये वृद्ध अकेले रह गए। गांव में ऐसा ही हो रहा है। माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए अपने से दूर भेजते हैं और पढ़ाई का पान करने के बाद इन बच्चों का स्वाद बदल जाता है, फिर वे गांव की ओर नहीं लौटते। आज के माता-पिता लगातार अकेले होते जा रहे हैं।
चूंकि निर्णय हमारे रहे, इसलिए अब पछताने से दुख और बढ़ेगा। इस पछतावे को प्रसन्नता में बदलने का प्रयास किया जाए। उम्र बढ़ने पर जब अकेलापन बढ़े तो अपने आप से जुड़ने का प्रयास जरूर करें। जीवनभर जिनसे जुड़े रहे, थोड़ा उन्हें छोड़कर अपने भीतर उतरकर स्वयं से जुड़ें। अत: कुछ समय ध्यान जरूर करें।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
जरा-सी गलतफहमी जीवनभर के संबंधों को खराब कर देती है। लोगों के बीच संघर्षपूर्ण स्थिति में भी संबंध मधुर बने रहें, ऐसा प्रयास भी एक बड़ी सेवा है। कुछ लोग दूसरों के संबंधों में बिगाड़ लाने में ही रुचि रखते हैं। पीठ पीछे एक-दूसरे को एक-दूसरे की गलत जानकारी देकर यह काम आसानी से किया जाता है।
दूसरों के संबंध सुधारने या मधुर बनाए रखने में हमारी भूमिका कैसी हो, यह हनुमानजी से सीखा जा सकता है। सुंदरकांड के 13वें दोहे की 3-4 चौपाइयों में तुलसीदासजी ने सीता-हनुमानजी की बड़ी सुंदर बातचीत बताई है। पहली ही भेंट में दुखी सीताजी ने हनुमानजी के सामने श्रीरामजी की शिकायत रख दी थी।
श्रीरघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? आज ज्यादातर जीवन साथी आपस में यही शिकायत करते पाए जाते हैं कि व्यस्तता में हमें भुला दिया गया है।
बड़े दुख से सीताजी बोलीं - नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया। तब हनुमानजी ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने दावा कर दिया कि श्रीराम के मन में आप से ज्यादा प्रेम है। मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।। जनि जननी मानहु जियं ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।। हे माता! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित कुशल हैं, परंतु आपके दुख से दुखी हैं। आप दुख न कीजिए। श्रीरामचंद्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है।
विचार की यह अति प्रस्तुति दोनों के बीच गलतफहमी दूर करने की भूमिका ही थी। हनुमत भक्तों को आज अशांत समाज में यही भूमिका निभानी होगी।
गीता के याद रखने योग्य सिद्धांत
भगवान कृष्ण के उपदेशों को ‘भगवद्गीता’ नामक लोकप्रिय किताब में लिखा गया है। हिंदुओं के लिए यह किताब उतना ही महत्व रखती है जितनी कि ईसाइयों के लिए बाइबिल और मुस्लिमों के लिए कुरान। चूंकि यह किताब काफी विस्तृत है इसलिए इसे एक बार में पढ़ पाना काफी मुश्किल होता है। गीता सार भगवान कृष्ण के द्वारा दिए गए उपदेशों का निचोड़ है। यह पवित्र गीता का सारांश है।
>>> भगवान प्रत्येक इंसान से विभिन्न मुद्दों पर सवाल करते हैं और उन्हें मायावी संसार को त्यागने को कहते हैं। उनका कहना है कि पूरी जिंदगी सुख पाने का एक और केवल एक ही रास्ता है और वह है उनके प्रति पूरा समर्पण।
>>> तुम क्यों व्यर्थ चिंता करते हो? तुम क्यों भयभीत होते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा का न कभी जन्म होता है और न ही यह कभी मरता है।
>>> जो हुआ वह अच्छे के लिए हुआ, जो हो रहा है वह अच्छे के लिए हो रहा है और जो होगा वह भी अच्छे के लिए ही होगा। भूत के लिए पश्चाताप मत करो, भविष्य के लिए चिंतित मत हो, केवल अपने वर्तमान पर ध्यान लगाओ।
>>> तुम्हारे पास अपना क्या है जिसे तुम खो दोगे? तुम क्या साथ लाए थे जिसका तुम्हें खोने का डर है? तुमने क्या जन्म दिया जिसके विनाश का डर तुम्हें सता रहा है? तुम अपने साथ कुछ भी नहीं लाए थे। हर कोई खाली हाथ ही आया है और मरने के बाद खाली हाथ ही जाएगा।
>>> जो कुछ भी आज तुम्हारा है, कल किसी और का था और परसों किसी और का हो जाएगा। इसलिए माया के चकाचौंध में मत पड़ो। माया ही सारे दु:ख, दर्द का मूल कारण है।
>>> परिवर्तन संसार का नियम है। एक पल में आप करोड़ों के स्वामी हो जाते हो और दूसरे पल ही आपको ऐसा लगता है कि आपके पास कुछ भी नहीं है।
>>> न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- आग, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।
>>> अपने आप को भगवान के हवाले कर दो। यही सर्वोत्तम सहारा है। जो कोई भी इस सहारे को पहचान गया है वह डर, चिंता और दु:खों से आजाद रहता है।
पवित्र गीता के बारे में कुछ विद्वानों की राय:-
अल्बर्ट आइंस्टीन>>>>जब भी मैं भगवद्गीता पढ़ता हूं तो पता चलता है कि भगवान ने किस प्रकार संसार की रचना की है। इसके सामने सब कुछ फीका लगता है।
महात्मा गांधी>>>>जब भी मैं भ्रम की स्थिति में रहता हूं, जब भी मुझे निराशा का अनुभव होता है और मुझे लगता है कि कहीं से भी कोई उम्मीद नहीं है तब मं भगवद्गीता की शरण में चला जाता हूं। ऐसा करते ही मैं अथाह दु:खों के बीच भी मुस्कराने लग जाया करता हूं। वे लोग जो गीता का अध्ययन और मनन करते हैं उन्हें हमेशा शुद्ध विचार और खुशियां मिला करती हैं और प्रत्येक दिन वे गीता के नए अर्थ को प्राप्त करते हैं।
हर्मन हीज>>>>भगवद्गीता का सबसे बड़ा आश्चर्य जीवन की बुद्धिमानी के बारे में रहस्योद्घाटन करना है जिसकी मदद से मनोविज्ञान धर्म के रूप में फलता फूलता है।
आदि शंकर >>>>भगवद्गीता के स्पष्ट ज्ञान को प्राप्त करने के बाद मानव अस्तित्व के सारे उद्देश्यों की पूर्ति हो जाती है। यह सारे वैदिक ग्रंथों का सार तत्व है।
रुडोल्फ स्टेनर>>>>भगवद्गीता को पूरी तरह समझने के लिए अपनी आत्मा को इस काम में लगाना होगा।
संसार में आए हैं तो हमें अपनी उपयोगिता साबित करनी होगी
हमें मनुष्य जीवन मिला है। यह मजबूरी नहीं, गौरव की बात है। बहुत सारे लोगों का जीवन बीत जाता है और वे अपने इंसान होने की गरिमा को स्पर्श ही नहीं कर पाते। उनकी क्रिया ही नहीं, विचार और वाणी भी नपुंसक रह जाते हैं। उनकी भूमिका स्थापित होना तो दूर, वे धरती पर बोझ ही रह जाते हैं। अभी ऐसा कोई राष्ट्रीय परिदृश्य नहीं है कि आपको सामान्य रूप से स्वयं का बलिदान देना पड़े, लेकिन कम-से-कम योगदान तो तय किया जाए।
परिवार, समाज, राष्ट्र व निजी जीवन में हमारी सक्रियता हो और वह भी जीवंत अस्तित्व के साथ हो। इसके लिए जीवन में चार बातों का संतुलन जरूरी होगा - शिक्षा, स्वास्थ्य, धन और सहयोग। ये चारों संतुलित होकर जीवन में उतरने पर इच्छाशक्ति को जन्म देते हैं।
इच्छाशक्ति केवल लक्ष्यपूर्ति के ही काम नहीं आती है, उसकी भूमिका विवशता, चिंता और शिकायत चित्त को समाप्त करने की रहती है। हमारे योगदान में इच्छाशक्ति न हो तो हम स्वयं के भीतर निकम्मापन ही पैदा करेंगे। आलस्य और काम न करने की वृत्ति भ्रष्टाचार जैसा ही अपराध है।
इसलिए हरेक को अपने योगदान की भूमिका तय करनी होगी। निजहित और परिवार पालन के दायरे से बाहर आकर योगदान को स्थापित करना भी एक पूजा है। हमारे योगदान की स्थिति ऐसी हो कि गलत व्यवस्था भयभीत हो तथा सही लोग सुरक्षित महसूस करें।
खाना-पीना तो जानवर भी कर लेते हैं, संसार में आए हैं तो हमें अपनी उपयोगिता को हर क्षेत्र में साबित करना होगा। परिवार में यदि हम पालक हैं तो दायित्वबोध सिद्ध किया जाए। यदि संतान की भूमिका में हैं तो से
धन का अमर्यादित उपयोग हमारे स्वास्थ्य को बिगाड़ता है
धन जीवन में आने पर जो भी चीजें लाता है, दो बातें जरूर कर जाता है। दौलत बाहर की भीड़ और भीतर का अकेलापन भी देती है। धनवान लोग अपने बाहरी जीवन में अकेले कम ही रहते हैं। धन कमाने के लिए दूसरे जरूर चाहिए। यही दृश्य खर्च के साथ भी है। अत्यधिक खर्च की वृत्ति भी अपने आसपास भीड़ बढ़ाने का ही कार्यक्रम है। रुपया-पैसा तीन बातों पर असर करता ही है। स्वास्थ्य, तृष्णा और दुगरुण।
अधिक धन का अमर्यादित उपभोग स्वास्थ्य को बिगाड़ता है और कमाने की भूख पाशविक बना देती है। धन कमाने की होड़ में आदमी अपने शरीर से खिलवाड़ करने लगता है और एक दिन जब शरीर इतना बीमार हो जाए कि धन भी काम न दे, तब पछतावा होता है। दौलत और दुगरुण का नाता तो पुराना है ही।
इसलिए कमाने से ज्यादा उपभोग में सावधानी रखी जाए। ज्यादातर मामलों में पर्याप्त से अधिक धन आने पर लोग भीतर से अशांत पाए गए। बाहरी शांति का काम तो मुखौटों से चल जाता है, लेकिन भीतर के विचलन का निदान हमें स्वयं निकालना पड़ेगा।
रुपया बचाए रखने का भी एक भय होता है। बाहर यह डर बना ही रहता है कि कहीं गंवाना न पड़े। इसी भय के कारण आदमी भीतर भी नहीं झांकता। जब-जब धन अधिक आने लगे, बाहर की भीड़ तो बढ़ेगी। ऐसे में अपने भीतर झांकें, उतरें और रुकें भी।
थोड़ा उस मौन को महसूस करें, जो सिर्फ भीतर होता है। वहां दौलत के सिक्के की कोई खनक नहीं होगी। मनुष्य होने का एक फायदा यह है कि आपको अपने भीतर अकेले जाने की सुविधा प्राप्त है। इसलिए बाहर धन का मजा भीतर के मौन से उठाया जाए।
आज का काम आज किया जाए यही संपूर्ण जीवन दर्शन है
समय के साथ दो बातें हमेशा ध्यान रखी जाएं, उसका आना और जाना। आते हुए समय की चुनौती को समझा जाए और गुजरते हुए वक्त के नुकसान को पकड़ा जाए। भारतीय संस्कृति ने तो समय को भी काल रूप में देव माना है। उसमें प्राण जैसी अनुभूति दी है। समय को जीवनरूप में स्वीकार कर मान दिया है। आज का काम आज किया जाए, यह सिर्फ कहावत नहीं है, पूरा जीवन दर्शन है। कबीर ने अपनी एक पंक्ति में ‘पल में परलय’ शब्द का बहुत सही उपयोग किया है।
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब? आज की चूक एक बहुत बड़ा धक्का है। इसकी चोट जीवन के अंतिम समय तक असर करती है। यूं तो समय बहुत हल्का होता है, हौले-हौले गुजरता है। शीतल और सुगंधित पवन की तरह समय भी आनंद देता बीत जाता है, लेकिन विलंब और टालने की वृत्ति आते ही अपने आप को भारी बना देता है और हर अगले दिन वह अपने भार को मल्टीपल कर लेता है। इसीलिए टाले हुए काम बोझ बनकर अशांत बनाते हैं। साथ ही हमारे व्यक्तित्व को अप्रिय व आलोचनापूर्ण बना देते हैं।
भारी समय अपने साथ अंधकार भी लाता है। वक्त की बर्बादी अपराध है। ऐसे लोग खुद का समय भी नष्ट करते हैं और दूसरे के समय का महत्व भी नहीं समझ पाते। यदि समय के मामले में स्फूर्त रहना है तो हर कार्य करने के पूर्व थोड़ा शांत होकर, विश्राम मुद्रा में अपने भीतर उतरें, एक गहरे प्रकाश को पकड़ने का प्रयास करें, जो हमारे भीतर होता ही है, फिर काम करें। भीतर उतरकर मौन साधना समय का सम्मान ही होता है।
हर गलती एक सबक है और उसे दुबारा न करना समझदारी
गलती हर इंसान से होती है। शायद ही किसी का दावा सच हो कि उसने कभी कोई गलती नहीं की। गलती के साथ दो बातें हैं, एक की जाती है जानते हुए भी और दूसरी हो जाती है। जानकर की हुई गलती लापरवाही है और अनजाने में हुई गलती एक भूल। दुनिया में समझदार बनने के जितने तरीके हैं, उनमें से एक है गलती करना। बड़े से बड़े समझदार गलती करके ही अक्लमंद बने हैं।
हर गलती एक सबक है और दुबारा गलती न करना समझदारी। गलती का एक आध्यात्मिक अर्थ है भटक जाना। अध्यात्म में भटकने को अंधेरे की यात्रा कहा है। इसलिए धर्मशास्त्रों ने प्रकाश के महत्व को खूब बखान किया है। लगातार गलती करने वालों के साथ दो परिणाम होते हैं, वे या तो अपराधी बन जाएंगे या फिर पराश्रित। उनका आत्मविश्वास इतना गिर जाता है कि वे सिर्फ अनुसरण करने वाले ही रह जाते हैं।
यहीं से मानसिक दासता का जन्म होता है। हम अपने ही हाथों अपने रोम-रोम को विकलांग बना लेते हैं। और तो और, जहां हमें अपने मन को निष्क्रिय करना है, वहां हम उसे अपाहिज बना देते हैं। मन जितना सक्रिय है, गलती करने के लिए उतना ही प्रेरित करेगा। मन को अपाहिज करने से पूरा व्यक्तित्व आहत हो जाएगा।
वो शक्ति का केंद्र भी है। उसे निष्क्रिय करने से उसके शक्ति के सदुपयोग करने की संभावना बढ़ जाती है। जब हम पराश्रित होते हैं, तब हमारा जीवन पूर्णत: दूसरों से संचालित होने लगता है। मानसिक दासता का अगला चरण मानसिक रोग है। इसलिए गलतियों को सीखने का साधन बनाएं। उन्हें लगातार करते हुए निराशा, हतोत्साह, भ्रमपूर्ण स्थिति के लिए आमंत्रण न बनाएं।
समझ के साथ धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया जाना चाहिए
दूसरों के रोजी-रोटी कमाने के साधनों को देखकर किसी के भी मन में प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक है। अपने जॉब से संतुष्टि न होना एक अंतरराष्ट्रीय कायदा-सा बन गया है।
इसीलिए लोग दूसरे की कमाई के साधन पर नजर रखते हैं। उसे मिल रहा है तो हमें क्यों नहीं? यह दृश्य तब और दुखी करने वाला बन जाता है, जब लोगों की निगाह धर्म तंत्र से जुड़े हुए लोगों की आमदनी पर पड़ती है। हमारे देश में यह भी एक बहुत बड़ा व्यवसाय है। धर्म के नाम पर और उसकी आड़ में लोग बेतहाशा कमा रहे हैं।
सामान्य आदमी को लगता है कि ये पंडित-पुरोहित, साधु-बाबा समाज पर बोझ हैं। देश में लोग खूब मेहनत करके भी उतना अर्जित नहीं कर पाते, जितना ये हाथ और मुंह हिलाकर कर लेते हैं। इस विचार में अर्धसत्य है। धर्म के क्षेत्र में तीन तरह के लोग हैं, पहले वे जो शुद्ध धंधा करने इसमें उतर आए हैं। दूसरे, पुण्य कमाने के उद्देश्य से तथा तीसरे, स्वांत: सुखाय के लिए इस क्षेत्र में आ चुके हैं।
इसीलिए इस क्षेत्र में जितने रचनात्मक कार्य होने चाहिए, उससे अधिक नकारात्मक व विध्वंसक काम हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र की कोई आचार-संहिता नहीं है। धर्मशास्त्र इस क्षेत्र की आचार-संहिता हंै। चूंकि धर्मशास्त्र का भी कुछ लोगों ने ठेका ले लिया, इसलिए इसकी गलत व्याख्या प्रस्तुत कर दी जाती है।
जिन्हें थोड़ा भी पढ़ना-लिखना आता हो, वे समझ के साथ शास्त्रों का अध्ययन जरूर करें। पाठ यदि सही तरीके से हो जाए तो अर्थ गलत नहीं निकलेंगे। पढ़ने और पाठ में फर्क है। पढ़ने में सिर्फ बुद्धि काम करती है और पाठ में हृदय भी जुड़ जाता है।
मन को साधने के लिए प्राणायाम और ध्यान एक माध्यम है
परिवारों में आपसी तनाव का एक बड़ा कारण यह है कि सदस्य एक-दूसरे को उनके अधिकार का समय नहीं दे पा रहे हैं। पति-पत्नी के बीच मतभेद का मनोवैनिक कारण भी यही है कि ये दोनों जब एकांत में साथ में होते हैं, तब भी साथ नहीं होते। दोनों के बीच तन होता है, धन होता है और जन भी होते हैं यानी दूसरे लोग भी, लेकिन मन नहीं होता।
दोनों साथ होते हैं, लेकिन दोनों के ही मन कहीं दूर भाग रहे होते हैं। मन वहीं उपस्थित रहे तो दोनों के बीच का प्रेम दिव्य रूप ले लेगा। सुंदरकांड में श्रीराम का विरह-संदेश सीताजी को देते समय हनुमानजी ने रामजी की ओर से जो पंक्तियां कही थीं, उसमें श्रीरामजी ने तीन बार मन शब्द का प्रयोग किया है।
इसे इस बात से समझ लें कि जब भी हम अपने निकट के व्यक्तियों के साथ परिवार में हों तो मन को साथ ही रखें। मन का भटकाव रिश्तों के तनाव का एक बड़ा कारण है। रामजी ने सीताजी के लिए संदेश भेजा था - कहेहु तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनि मोरा।। अर्थात मन का दुख कह देने से भी बहुत कुछ घट जाता है। पर कहूं किससे? यह दुख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का रहस्य मेरा मन ही जानता है। और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है।
बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। यहां श्रीराम ने पति-पत्नी के बीच मन को स्थापित किया है। मन को साधने के लिए प्राणायाम व ध्यान ही एक माध्यम है। पति-पत्नी यदि साथ में मेडिटेशन करें तो वैकुंठ ढूंढ़ने कहीं और नहीं जाना पड़ेगा।
जीवन में हर समस्या अपने साथ एक स्वाद लेकर आती है
जीवन में कुछ चीजें कभी खत्म नहीं होतीं, बल्कि नई-नई शक्लों में सामने आती रहती हैं। इनमें से एक है - समस्या। इसके छोटे-बड़े दो रूप होते हैं। दरअसल यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो व्यक्ति की समझ, सहनशीलता के अनुसार समस्या छोटी या बड़ी होती है।
किसी एक व्यक्ति के लिए जो समस्या जीवनभर का बोझ बने, वही समस्या दूसरे के लिए चुटकी में निपटाए जाने वाली हो सकती है। समस्याओं को शक्ल बदलने में भी महारत हासिल होती है। इसलिए उपाय, निदान भी वैसे ही जुटाने चाहिए। प्यास कई लोगों की हो तो केवल एक नल से आ रहा जल पर्याप्त नहीं होगा, फिर निदान जलाशय ही रहेगा।
इसलिए समस्या निपटाने में सूझबूझ का बड़ा महत्व है। समस्या को अपने मनुष्य होने के स्तर पर निपटाएंगे तो तनाव तो होगा ही, परिश्रम भी ज्यादा लगेगा। इसमें किसी सहारे और मददगार की जरूरत को समझें। इसलिए ईश्वर को अपने साथ रखें। परमात्मा ने अपने स्वरूप में भी विभिन्नता रखी है।
वह अपने भक्तों की परीक्षा इसी रूप और रुचि से लेता है। इसीलिए समस्याओं के भी अनेक रूप होते है। हर समस्या अपने साथ एक स्वाद लेकर आती है। हम उससे निपटने में थकते नहीं हैं, बल्कि अपने परमात्मा से यह कहने की इच्छा होती है - तू सितम पर सितम किए जा, हम तैयार हैं।
हम रहम पर रहम मांगेंगे, तू भी तैयार रह। समस्या का मूल क्या है, इसमें समझ काम आती है। समस्या का रूप क्या है, इसके लिए निगाह काम आती है। समस्या दोबारा न आए, इसके लिए दूरदर्शिता होनी चहिए और किसका सहयोग लिया जाए, इस हेतु संपर्क होना चाहिए।
बुद्धिमान व्यक्ति के लिए समझ एक द्वारपाल की तरह है
बुद्धिमान व्यक्ति जब ऊंचा उठता है, अपनी बुद्धि को परिष्कृत करता है, तब वह प्रज्ञावान कहलाता है। प्रज्ञा बुद्धि का परिष्कृत रूप है। लेकिन संसार में रहते हुए इन दोनों के बीच एक और स्थिति है, जिसे समझ कहा गया है। आध्यात्मिक भाषा में विवेक शब्द इसके आसपास है।
बुद्धिमान व्यक्ति में समझ न हो तो वह एक ही भूल को बार-बार करता है, लेकिन यदि समझ है तो पहली बात यह होगी कि वह भूल ही नहीं करेगा और यदि करेगा तो कोई नई भूल करेगा। इसलिए इन दोनों के बीच समझ बचाए रखना बहुत जरूरी है। बुद्धिमान के लिए समझ एक द्वारपाल की तरह है, वरना दुगरुणों का प्रवेश आसानी से हो जाता है।
इसीलिए हम पाते हैं कि अच्छे-अच्छे बुद्धिमान चिड़चिड़े स्वभाव के होते हैं। चिड़चिड़ापन यदि लंबे समय तक टिक जाए तो मनुष्य के भीतर दो मानसिक बीमारियों का जन्म होता है। एक, सदैव चिंता में डूबे रहना और दूसरी, दूसरों पर शक करना। चिंता और संदेह धीरे-धीरे गहरी निराशा की ओर ले जाते हैं।
एक अजीब-सा अव्यक्त और अदृश्य मानसिक उद्वेग, उफान ऐसे लोगों के भीतर अपना आकार लेने लगता है। तत्काल प्रतिक्रिया करना, धर्य से किसी बात को न पचाना रिएक्शनरी नेचर कहलाएगा। यह व्यवहार धीरे-धीरे हमें रूखेपन की ओर ले जाता है।
ऐसे लोग दूसरों की अच्छाइयां देखना बंद कर देते हैं। इसलिए कहा गया है भक्ति करिए। सच्ची भक्ति कभी नीरस नहीं होती और रस में डूबे हुए लोग दूसरों के अनुभव से सीखने के लिए तैयार रहते हैं। हरेक के पास एक अनुभव है, चिड़चिड़े और रिएक्शनरी स्वभाव के लोग इसका लाभ नहीं उठा सकते।
मनुष्यों के भीतर नारीनरेश्वर का ईश्वरीय रूप है
सामान्य रूप से माना जाता है कि स्त्री कोमल होती है और पुरुष खुरदुरा रहकर सख्त बना रहता है। सारी कोमलता स्त्रियों के खाते में दर्ज की जाती है। पुरुष अपने शरीर की कोमलता को दोष मानता है। दोनों में असमानताओं के अनेक लक्षण समाज ने स्थापित कर रखे हैं। इसीलिए नेतृत्व का झगड़ा भी शुरू होता है।
दुनियादारी में तो फिर भी स्त्री-पुरुष के नेतृत्व की स्थितियां विवाद के बाद भी बर्दाश्त कर ली जाती हैं, लेकिन परिवारों में नेतृत्व कौन करे, इसके झगड़े अब जमकर होने लगे हैं। पुरुष गृहस्थी में स्त्री को अब भी कोरी स्लेट मानकर चलता है। जिस पर जो वह लिखना चाहता है लिख देता है और उसे ही पढ़ता है।
जब चाहे पोंछ दे, इसी में वह अपना नेतृत्व देखता है। इधर स्त्री अपने ही घर में, अपने ही हक के लिए छटपटा रही है। इसी संघर्ष में वह पुरुष की फोटोकॉपी बन जाती है। दोनों की प्रतिस्पर्धा का परिणाम बच्चों की परवरिश पर पड़ रहा है।
विवाह की परंपरा में पुरुष की उम्र अधिक व स्त्री की कम जिन कारणों से रखी गई थी, वे कारण ही अब खत्म हो गए। शिक्षा व घर-बाहर का फर्क जब नए अर्थ में आ गया हो, तब उम्र भी आड़े नहीं आती। ऐसा माना जाता था कि औरतों के शरीर की उम्र पुरुषों की देह से कुछ अधिक होती है।
इसलिए दोनों के विवाह की उम्र में फर्क रखा गया है। लेकिन अब जीवनशैली बदल गई है और बुद्धिमानी इसी में है कि उम्र का अंतर भले ही हो, लेकिन अधिकार, निर्णय व भावनाओं का अंतर न रहे। भारतीय संस्कृति में अर्धनारीश्वर की कल्पना की गई है, लेकिन वह ईश्वर की कल्पना है। मनुष्यों के भीतर नारीनरेश्वर का ईश्वरीय रूप है।
यदि परमात्मा हमारे साथ है तो हम यहीं स्वर्ग बना लेंगे
हम प्रकृति के पर्वितन पर लगातार नजर रखते हैं। जब अधिक ठंड पड़ती है तो हमारे पास उसके आंकड़े होते हैं। ठंड से बचने के साधन भी हम अपना लेते हैं। इसी तरह धूप का भी हिसाब-किताब है। कितना पानी गिरा, वर्षा ने कितना फायदा-नुकसान किया, यह सब प्राकृतिक परिणाम हमारी चर्चा का विषय रहता है।
इन मामलों में हम जागरूक रहते हैं। अधिक धूप, ठंड और वर्षा से कैसे बचा जाए, इसके उपाय भी करते हैं। आइए, आध्यात्मिक दृष्टि से इस पूरे दृश्य पर नजर डालें। एक भक्त की नजर से प्रकृति को देखें, तब आप पाएंगे कि प्रकृति अमृत भी बरसाती है।
जिस वातावरण को पाकर वृक्ष अपने भीतर प्राण महसूस करते हैं, पक्षी पवन के जिस झोंके से और प्रकृति के स्पर्श से चहचहाने लगते हैं, वैसा हमारे भीतर क्यों नहीं हो पाता? प्रकृति से हमारा रिश्ता, परमात्मा से रिश्ता बनाने जैसा होना चाहिए। प्रकृति परमात्मा और हमारे बीच एक माध्यम है।
हम जितना उसके निकट जाएंगे, वह उतनी ही तेजी से हमें परमात्मा के निकट भेजेगी। एक तरह से प्रकृति का हर झोंका हमे टटोलता है कि हम कहां हैं, ताकि वह हमे परमात्मा तक ले जाए। इसी से हमारे भीतर एक बोध जागता हैकि कोई है, जो इस दुनिया को चला रहा है।
समर्थ रामदास ने शिवाजी से एक चट्टान तुड़वाकर उसमें से एक छोटा-सा जीवित कीड़ा दिखाकर यह कहा था कि देखो इसकी भी रक्षा कोई कर रहा है। इसलिए समझ लें कोई है, जो हमसे ऊपर है। यदि वह हमारे साथ है तो हम और प्रकृति जुड़कर यहीं स्वर्ग बना लेंगे और जितना हम उस भगवान से अलग रहेंगे, उतना ही नर्क बना लेंगे।
काम को करने से पहले समझें कि वह क्यों किया जा रहा है
कोई भी काम सिर्फ करने के लिए न करें। आरंभ में ही उसे समझें कि यह कर्म क्यों किया जा रहा है। पशु और मनुष्य का फर्क यहीं से शुरू होता है। मनुष्य के पास यह गुंजाइश होती है कि वह करने के पहले जान ले कि आखिर इसे करने से होगा क्या? जब आप जानकर, समझकर कर्म करते हैं तो सद्कर्म ही करेंगे। सद्कर्म का परिणाम होता है रूपांतरण।
सद्कर्म हमारे भीतर बदलाव लाता ही है। जैसे ही हम कर्म को अपनी समझ से जोड़ते हैं, उसके परिणाम व्यक्तित्व में उतरने लगते हैं। इसीलिए कहा गया है कि धार्मिक व्यक्ति धर्म को इसलिए स्वीकार नहीं करता कि वह उस धर्म में पैदा हुआ है, बल्कि उसकी स्वीकृति इसलिए होनी चाहिए कि वह धर्म उसको रूपांतरित कर रहा होता है।
हम किसी भी धर्म के हों, लेकिन उसके माध्यम से यदि हमारे भीतर रूपांतरण नहीं होता, जीवन ऊंचा नहीं उठता तो धर्म सिर्फ एक चोला है। कोई-सा भी चोला ओढ़ लो, फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए धर्म का अगला चरण भक्ति बताया है। हम भक्ति में उतरते ही किसी ऐसी परमशक्ति से जुड़ जाते हैं, जो हमारे रूपांतरण में सहायक होती है।
ज्ञान और कर्म के अर्थ भी भक्त को समझ में आने लगते हैं। रूपांतरण का अर्थ है एक ऐसा बदलाव, जो हमें परमात्मा की ओर ले जाए। जो सांसारिक जीवन हम जी रहे हैं, केवल उसे ही मान्य न करें। इसे जीते हुए भी उसे जान लें, जो दिखता नहीं है।
बिना दुनिया छोड़े उसे पा लें, जिसने दुनिया बनाई है। पहले नींव मजबूत करें, फिर भवन खड़ा करें। यदि रूपांतरण की तैयारी न हो और भक्ति में उतर गए तो जीवन में पाखंड उतरेगा और पाखंड अशांति लेकर आता है।
जीवन में बड़े से बड़ा संकट आया है तो जाएगा भी
जिंदगी में संकट किसी भी रूप में आ जाता है। कभी-कभी तो हम थक जाते हैं कि आखिर हम इससे कैसे निपटें? कुछ लोगों ने महसूस किया होगा कि हमारा अनुभव भी ऐसे समय काम नहीं आता। हम कितनी ही ऊंची कक्षा के व्यक्ति हों, कुछ संकट ऐसे होते हैं, जो हमें विचलित कर ही जाते हैं। सुंदरकांड में सीताजी के साथ ऐसा ही हुआ था। वे परमज्ञानी विदेहराज जनक की बेटी थीं।
स्वयं बहुत सुलझी हुई स्त्री थीं और श्रीरामजी की धर्मपत्नी थीं। इसके बावजूद जब हनुमानजी उनसे पहली बार मिले तो वे अत्यधिक विचलित थीं। तुलसीदासजी ने लिखा है - कह कपि हृदयं धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।। उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई।। हनुमानजी ने कहा - हे माता! हृदय में धर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्रीरामजी का स्मरण करो।
उनकी प्रभुता को हृदय में लाओ और कायरता छोड़ दो। हनुमानजी के सामने दो जिम्मेदारियां थीं - पहली, श्रीराम का विरह संदेश देना और दूसरी सीताजी को सांत्वना देकर शोक से बाहर निकालना। तब हनुमानजी सीताजी को समझाते हैं - चार बातों को स्मरण रखें तो बड़े से बड़े संकट से पार हो जाएंगे।
पहली बात, धर्य न छोड़ें; दूसरी, भगवान का स्मरण करें। स्मरण धर्य का काम करता है। तीसरी बात, भगवान सर्वशक्तिमान हैं, उनकी ताकत को प्रभुता कहा है। उसे अपने हृदय में रखें। चौथी बात, कायरता छोड़ दें। ये दिन भी बीत जाएंगे, ऐसा भाव बनाए रखें। दुनिया का बड़े से बड़ा संकट आया है तो जाएगा भी।
जीवन में अधीरता मनुष्य को उच्छृंखल बना देती है
नुकसान का दुख होता ही है। कोई चीज खो जाए तो पीड़ा देने वाली बात है। जैसे खोए का दुख होता है, वैसे ही पाए का भी दुख होता है। विज्ञान के इस दौर में उपलब्धियां सदैव सुख पहुंचा दें, ऐसा जरूरी नहीं है। विज्ञान ने जो-जो हमें दिया इसमें एक भावना और भी है कि जो कुछ भी मिले, जल्दी मिले। इसीलिए बदहवासी आजकल सामान्य जीवनशैली बन गई है।
कोई भी इंतजार नहीं करना चाहता। यह अधीरता विक्षिप्तता में बदलकर आदमी को उच्छृंखल बना देती है। आदमी के दिमाग में एक सनक चढ़ जाती है कि मुझे यह मिलना ही चाहिए और यदि जल्दी नहीं मिला तो मैं कुछ भी कर सकता हूं।
इसीलिए कुछ लोग अपने जीवन की श्रेष्ठतम बातों को चुन-चुनकर चकनाचूर कर देते हैं, क्योंकि उन्हें तो बस चाहिए। आदमी सबकुछ अपनी मुट्ठी में करना चाहता है। इसलिए पकड़ने के लिए बेताब है। बेताबी पकड़ने के लिए हो या छोड़ने के लिए, दोनों ही स्थितियों में खतरनाक है।
जब आदमी जो चाहता है, उसे नहीं मिलता तो वह धर्म की दुनिया में चला जाता है। उसे लगता है कि भोग में दुख है तो त्याग में सुख होगा। लेकिन यदि भीतर की बेताबी खत्म नहीं हुई तो त्याग भी दुख ही देगा। इसे अध्यात्म में भटकाव कहा गया है।
जो लोग बहुत तेजी से दौड़ते हैं, वे भटक जाते हैं। संसार में लोग दुखी हैं तो कोई नई बात नहीं है, लेकिन संसार छोड़ने के बाद भी दुख नहीं जाता। त्याग और भोग क्रीड़ा बन जाते हैं। आदमी इसी खेल में उलझ जाता है। अच्छा यह हो कि न हम ज्यादा पकड़ने के लिए बेताब हों और न ही छोड़ने के लिए। एक संतुलन के साथ दोनों को स्वीकार करें।
बच्चों को परिवार से जोड़ने की शिक्षा अवश्य दी जाए
पढ़े-लिखे होने का अर्थ है, केवल एक क्षेत्र में अपनी भूमिका को केंद्रित न किया जाए। शिक्षा हमारे व्यक्तित्व को हर क्षेत्र में विस्तार दे, तब ही इसका कोई अर्थ होगा। आजकल पढ़े-लिखे व्यक्ति का पहला लक्ष्य धन कमाना हो गया है और इसीलिए वह इतना केंद्रित हो गया है कि अपने अन्य दायित्वों को भूल गया।
भारत में शिक्षा संस्थानों को इस बात पर विचार करना होगा कि शिक्षा अच्छे कॅरियर के साथ ही परिवार बचाने के सूत्र भी दे। बच्चों के पढ़ने की उम्र में उन्हें पारिवारिक दायित्व कम रहते हैं। जवानी की संवेदनाएं घर से ज्यादा बाहर बह रही होती हैं। घर उनके लिए महज छत होता है और माता-पिता कभी खलनायक, तो कभी पालन करने वाली मशीनें भर रह जाते हैं।
ऐसे में जब अधिकांश समय शिक्षा संस्थानों में बीत रहा हो, तब बच्चों को परिवार से जोड़ने की शिक्षा जरूर दी जानी चाहिए। वहां का वातावरण पारिवारिक हो, अन्यथा ये बच्चे इतनी दूर दौड़ जाएंगे कि परिवार की ओर मुड़ना ही भूल जाएंगे। ये घर बसाएंगे, पर गृहस्थी नहीं चला पाएंगे। पति-पत्नी के रूप में साथ जी लेंगे, लेकिन एक-दूसरे के लिए नहीं जिएंगे। आज की शिक्षा-व्यवस्था तीन तरह के बच्चे तैयार कर सकती है - पहले, पत्थर की तरह।
इनके भीतर आवेश है, कुछ करने का जज्बा है, लेकिन ये पाषाण जैसे हैं। अत: इनके व्यक्तित्व को पत्थर बनने से बचाना होगा। दूसरे, जल की तरह। कितने ही बड़े व्यक्ति हो जाएं इनके भीतर बच्चों की सरलता खत्म न हो। तीसरे, ये वायु की तरह गतिमान हों। आज की शिक्षा परिवार बचाएगी भी और बिगाड़ेगी भी। इसलिए जितनी हो सके, सावधानी जरूर रखी जाए।
झूठ से जुड़ा धन जीवन में अशांति, बीमारी व दुगरुण लाता है
आजकल अमीरी जताना भी फैशन हो गया है। थोड़ा-सा धन आया कि प्रदर्शन की इच्छा बलवती हो जाती है। इसके मूल में अहंकार होता है। अहंकार से बड़ा कोई झूठ नहीं। चूंकि आजकल आदमी झूठ और सच की ज्यादा चिंता नहीं पालता, इसलिए वह अमीरी जताने में फिक्र भी नहीं करता। मनोवैज्ञानिकोंने कहा है कि धन यदि सही तरीके से उपयोग में न लिया जाए तो वह जीवन को सत्य से दूर ले जाता है।
झूठ धन के आसपास मंडराता है। झूठ में पैदा करने की अद्भुत क्षमता होती है, जबकि सत्य को बांझ कहा है। सत्य स्वयं होता है और उसके बाद वही रहता है, लेकिन एक झूठ कई झूठों को जन्म देता है। सत्य अपने आप में परिवार नियोजन है और झूठ अपने परिवार का विस्तार जमकर करता है। धन कमाने में लोग झूठ का उपयोग करते हैं, क्योंकि झूठ का स्वभाव है फैलना।
इसीलिए झूठ बोलने वाला व्यक्ति अपनी याद्दाश्त को मजबूत रखना चाहता है, वरना पकड़ा जाएगा। यही झूठ का फैलाव है। लेकिन सत्य बेफिक्र होता है, जब भी बोला होगा, सत्य ही बोला होगा। इसलिए धन जब सत्य के निकट हो तो भले ही उसमें फैलाव न हो, लेकिन शांति रहेगी। झूठ से जुड़ा हुआ धन हमेशा अशांति, बीमारी, दुगरुण लेकर आएगा।
पहले बड़े लोग अपने श्रंगार और ठाट-बाट से जाने जाते थे, लेकिन अब कई तरह के धनवान पैदा हो गए हैं और उन्हीं में प्रदर्शन की होड़ लगी हुई है। अमीर बढ़ गए, पर गरीब कम नहीं हुए, क्योंकि धन झूठ से जुड़ा है। जैसे ही धन सत्य के निकट आएगा, यह खाई भी मिटेगी।
बीते वर्ष के अनुभवों से सबक लेकर बेहतर बनाएं भविष्य
जीवन एक किताब है। कुछ लोगों ने इसे डायरी भी कहा है और कुछ लोग कैलेंडर की तरह भी मानते हैं। एक-एक करके पन्ने उतरते जाते हैं, उम्र अपनी संख्या घटाती जाती है। हर आने वाला नया समय जीवन को फिर चार्ज करता है। मौजूदा वर्ष बीत रहा है तो नया साल आ रहा है। जो बीत गया, उससे हम कुछ सीखें। अब जो आ रहा है, उस वर्ष में सीखे हुए का उपयोग करें। घटनाएं केवल बीतने के लिए नहीं होतीं, सिखाने के लिए भी होती हैं।
जो अच्छा रहा, उसका उत्साह अपने भीतर रखें और जो बुरा था, उसे विस्मृत करें। आदमी यहीं चूक जाता है। बुरे को बोझ बनाकर दिमाग में रखता है और आने वाले नए समय के उत्साह को उससे जोड़ लेता है। इसीलिए हम देखते हैं कि नए वर्ष की तैयारी में लोग जमकर नशा करते हैं। नशा कैसा भी हो, जागरूकता को खा जाता है।
नशे में आदमी अंधा हो जाता है, चरित्र तो दूर, उसकी शालीनता तक चली जाती है। नशा आत्म-विस्मृति की एक ऐसी क्षणिक स्थिति में डाल देता है कि आदमी होश में आने पर समझ नहीं पाता कि क्या खोया, क्या पाया। पुराने वर्ष को शरीर की तरह समझें, शरीर का क्षरण होता है।
जैसी देह आज है, वैसी कल नहीं रहेगी और नए वर्ष को आत्मा से जोड़ें। आत्मा सदैव जैसी है, वैसी ही है। नया वर्ष एकदम शुद्ध है, कोरी स्लेट की तरह कई पवित्र संभावनाएं लिए। उसमें जो चाहे भर लें। इसीलिए नए वर्ष की तैयारी में जागरूक रहें, मदहोश न हों, वरना लड़खड़ाते कदमों से प्रवेश करने वाले लोग पूरे वर्ष भटकते ही रहेंगे।
नए माता-पिता पूजा-पाठ के अलावा योग व ध्यान भी करें
बढ़ती जनसंख्या एक बड़ी समस्या है, लेकिन उससे भी बड़ी समस्या यह है कि जो संतानें जन्म ले रही हैं, क्या वे संस्कारजन्य हैं? अधिक जनसंख्या भुखमरी, बेरोजगारी, अपराध जैसी समस्याएं पैदा करेगी, लेकिन ऐसे संस्कार की नई पीढ़ी पूरे परिवार और समाज में अशांति पैदा कर देगी।
बढ़ती जनसंख्या को रोका जाए, लेकिन साथ ही जो बढ़ चुके हैं या सीमित संख्या में आ रहे हैं, उन्हें भी बचाया जाए। समझदार लोगों के घरों में एक या दो बच्चे होते हैं, लेकिन उपद्रव देख लगता है कि कई गुना संख्या वाले भी इन पर कम पड़ेंगे। संस्कारशून्य सीमित परिवारों के बच्चे भी बढ़ती जनसंख्या जैसे घातक परिणाम देंगे।
केवल प्रजनन रोकने से काम नहीं चलेगा, कामुकता की दुष्प्रवृत्ति को भी रोकना होगा। इसके लिए नए माता-पिताओं को चाहिए कि वे पूजा-पाठ के अलावा थोड़ा समय योग-ध्यान पर जरूर दें। कर्मकांड से आचरण बदलता है और ध्यान से प्रवृत्ति। थोड़ा ध्यान लगाने का प्रयास हमें चीजों का सही मूल्य समझाएगा। हम कई ऐसी बातों पर टिके रहते हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं होता।
दुनिया की जगमगाहट में डूबकर भी अंधेरा महसूस करते हैं। बाहर की रोशनी तो जला लेते हैं, पर भीतर अंधेरा ही रहता है। ध्यान करते ही हमें हमारे भीतर एक दीपक-सा जलता नजर आएगा। उस रोशनी में अपने ही भीतर एक कोना ऐसा दिखेगा, जहां बैठकर हम असली जागरण प्राप्त कर सकेंगे। थोड़ा प्रकाश प्राप्त करने के बाद ही संतान पैदा करें। वरना इसका असर लालन-पालन पर भी पड़ेगा। हम अपने बच्चों के शरीर को तो बड़ा कर देंगे, पर आत्मा जीवन भर अछूती रह जाएगी।
चिंता हमें बर्बाद भी कर सकती है और आबाद भी
चिंताग्रस्त रहना एक आदत भी है और मजबूरी भी। चिंता से आप बर्बाद भी हो सकते हैं और आबाद भी। जब हम इतने लाचार हो जाएं कि दूसरे का सहारा जरूरी हो, तब परमात्मा का प्रवेश आसान हो जाता है। हम मदद के लिए हाथ उठा रहे होते हैं और ईश्वर हाथ बढ़ा देता है। इस स्थिति को समझने के लिए गुरु, संत और उनके शब्द काम आते हैं।
सुंदरकांड के एक प्रसंग में रावण की कैद में सीताजी इसी स्थिति में आ चुकी थीं। तब हनुमानजी उन्हें शब्दों के माध्यम से सहारा देते हैं। निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु। जननी हृदयं धीर धरु जरे निसाचर जानु।। राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्रीरघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं। हे माता! हृदय में धर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो। श्रीराम के बाणों को अग्नि कहा है। राक्षसों का जलना अर्थात दुगरुणों का समाप्त होना। चिंता भी एक दुगरुण है। आगे हनुमानजी आश्वस्त करते हैं कि भगवान विलंब नहीं करेंगे।
विलंब शब्द का भक्ति में बड़ा महत्व है। जिनके भीतर विलंब की वृत्ति होगी, वे एक दिन अपने को आलस्य में डुबो लेंगे और आलस्य एक अपराध ही है। श्रीरामचंद्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे विलंब न करते। हे जानकीजी! रामबाणरूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों का सेनारूपी अंधकार कहां रह सकता है? श्रीराम सूर्य हैं और उनके आने पर राक्षसों का अंधकार मिटना ही है। अंधकार का उल्टा प्रकाश नहीं होता। प्रकाश के प्रभाव में अंधकार को जाना ही पड़ता है। हमारे जीवन में सद्कर्म का, प्रभु स्मरण का प्रकाश आएगा तो व्यर्थ का अंधेरा जाएगा ही सही।
साक्षी भाव से अपने शरीर का मूल्यांकन करें
प्रदर्शन और विज्ञापनों के इस युग में अब तो लगता है कोई बात तब ही प्रभावशाली होगी तथा समझ में आएगी, जब उसका प्रेजेंटेशन बेहतर रहेगा। सीधे-सादे का जमाना ही चला गया। हर चीज में सजावट, दिखावट और जमावट हावी हो रही है। प्रदर्शन करते-करते हम वस्तुओं से हटकर अपने खुद का प्रदर्शन भी करने लगते हैं। आदमी ने अपनी देह को इस प्रवृत्ति के कारण वस्तु जैसा बना लिया है।
यह सच है कि हजारों वर्षो से शरीर बेचा और खरीदा जा रहा है, लेकिन इस समय तो लगता है शरीर ही बाजार के केंद्र में आ गया है। शरीर की उत्तेजना पूरे वातावरण में फैल गई। हम समाज में हों या परिवार में, हमारे सुख और दुख शरीर के आसपास घूमने लगे हैं।
ऐसे हालात से बचा भी नहीं जा सकता। इसलिए अब जो है, उसमें से रास्ता निकाला जाए। अपने शरीर को देखना शुरू करें, दर्पण में नहीं खुद ही की निगाहों से। इसको साक्षी भाव कहा है। सुख और दुख को राहगीर की तरह समझें। जीवन के राजपथ पर हमारा शरीर चल रहा है और साथ में सुख-दुख के रूप में अन्य लोग। हम इनसे अलग हैं।
बस यहीं से बाहर जो घटनाएं घटेंगी, वो हमारे भीतर घट नहीं पाएंगी। अभी हम और घटना एक हो जाते हैं। इसीलिए हम बाहर इन्हें विदा न करके अपने भीतर ले आते हैं। जिंदगी में सुख आते ही हमारे तौर-तरीके बदल जाते हैं, क्योंकि हम खुद सुख हो जाते हैं। दुख आते ही हमारी हरकतें एकदम बदली रहती हैं। हम मान लेते हैं - मैं ही दुख हूं, लेकिन अभ्यास करें, सुख और दुख हमसे अलग बाहर हैं। आज हैं, कल नहीं रहेंगे और यहीं से जीवन में शांति आएगी।
एक की उपलब्धि दूसरे के लिए अशांति का कारण न बने
हमें कुछ प्राप्त हो और उसके कारण दूसरे का कुछ कम न हो, ऐसी जीवनशैली परमात्मा को पसंद है। दुनिया का कायदा यह है कि जब हमें कुछ मिलेगा तो दूसरे का कुछ घटेगा। सारा हिसाब-किताब ऐसे ही चलता है। स्वास्थ्य घटता है, तब दौलत कमाई जाती है। शांति भंग होती है, तब दाम मिलता है। अपनों से संबंध बिगड़ते हैं और दुनियाभर का जनसंपर्क तैयार हो जाता है।
मेहनत कोई और करता है, तिजोरी किसी और की भरती है। जैसे ही हम अध्यात्म के क्षेत्र में उतरेंगे, हमें महसूस होगा कि यहां कुछ ऐसा धन है, जो हमें तो मिलता है, पर दूसरे का कम नहीं होता। भक्ति करने से हमारे भीतर प्रेम बढ़ता है, बल्कि हमसे जुड़े लोगों का प्रेम और बढ़ जाता है। हमारी बढ़त किसी के लिए कमी नहीं बनती। अगर हमारे भीतर प्रकाश जागा है तो दूसरों का अंधकार मिटेगा।
हमारे भीतर एक फूल खिला तो समझ लीजिए दूसरों के लिए पूरी बगिया की तैयारी हो गई। इस भाव से जब हम संसार में काम करेंगे तो हम समझ जाएंगे कि सुख हमें अर्जित करना है, पर दूसरों को दुख देकर नहीं। हमारे सुख में किसी का दुख भीतर ही भीतर न हो, क्योंकि ऐसा सुख आगे जाकर हमें उसी दुख में डाल देगा, जो हमने दूसरे को दिया है।
आज कई लोग जब धन-दौलत कमाते हैं तो उनके घरवाले उनसे कहते हैं, हमारे लिए क्या किया? एक की उपलब्धि दूसरे के लिए अशांति का कारण बन रही है। इसलिए कोशिश की जाए, यदि मामला परिवार का हो तो हर सदस्य को यह लगे कि आपके उत्थान में उसका भी उत्थान है। आपकी बढ़ोतरी में उसका कुछ कम नहीं हुआ है।
ध्यान करने से बनेगा विचारों और वाणी में संतुलन
अधिक जानकारियां भी जब मस्तिष्क में ओवर फ्लो होने लगती हैं तो इसका असर जुबान पर पड़ता है। हम देखते हैं कि कई बार कुछ लोग, जो बोल रहे हैं, उसे वे खुद ही नहीं समझ पाते। आज की शिक्षा में ज्ञान से ज्यादा जानकारियों पर दबाव है।
यदि जानकारियों का बहीखाता कोई ईमानदारी से लिखे तो वह पाएगा कि निजी जीवन के उत्थान के लिए इनमें से कुछ ही काम की होंगी, बाकी तो ‘व्यर्थ का भराव’ हैं। इसके लिए जानकारी एकत्रित करने की पद्धति को खत्म भी नहीं करना है, पर प्रतिदिन इसकी सफाई करनी जरूरी है। इसका एक तरीका है मेडिटेशन। जैसे ही हम मेडिटेशन में उतरते हैं, बाढ़ की तरह विचार हमारी ओर बहने लगते हैं।
विचारों का यही सैलाब बिल्कुल चौबीस घंटे हमारी ओर ऐसे ही चलता है। उस समय हम कहीं और व्यस्त रहते हैं, इसलिए इनकी ओर ध्यान नहीं दे पाते। खाना खाते समय, कंप्यूटर पर काम करते समय और तो और किसी से जरूरी मीटिंग करते हुए भी यही सब चलता है। चूंकि ध्यान के समय हम थोड़ा शरीर के साथ एकांत में होते हैं, इसलिए हमारी नजर इन पर आसानी से पड़ जाती है।
उस समय हम अपने एकांत को जीने की कोशिश कर रहे होते हैं, बाकी समय हम दूसरों के साथ होते हैं। इस कारण लगता है कि ध्यान नहीं हो पाएगा। लेकिन इसे भूल जाएं और क्रिया जारी रखें। इसका बड़ा फायदा यह होगा कि दिनभर एकत्रित की गई जानकारियां ओवर फ्लो होकर आपकी वाणी को गलत रूप से प्रभावित नहीं करेंगी। विचार और वाणी का संतुलन अपने आप बनने लगेगा।
अपनी आमदनी का एक हिस्सा गरीबों तक भी पहुंचे
कमाए हुए धन का सामाजिक व व्यावसायिक स्वरूप अलग होता है, परंतु पारिवारिक स्वरूप आते ही इसमें उत्तराधिकार महत्वपूर्ण हो जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी संपत्ति का स्थानांतरण भारत की परंपरा है। कभी नई पीढ़ी उस संपत्ति को बढ़ा देती है तो कभी उसे खत्म ही कर देती है। कमाए हुए धन का हिस्सा घरवालों को मिलना ही है, लेकिन समय आ गया है इस पर नई दृष्टि रखी जाए।
कुटुंब की परिभाषा को विस्तृत किया जाना चाहिए और संपत्ति का अधिकार भी थोड़ा विस्तार लेगा। हम जो कमा रहे हैं, उसमें उन लोगों का भी अधिकार है, जिनके पास इतना भी धन नहीं है कि दो वक्त की रोटी जुटा सकें। कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मजबूरी में उपचार नहीं करा पा रहे या योग्य किसी अभाव के कारण अच्छी शिक्षा नहीं ले पाते।
ये सब भी हमारे कुटुंब का हिस्सा हैं। इसलिए अपनी आमदनी का एक भाग इन तक भी पहुंचना चाहिए। तभी धन का औचित्य सिद्ध हो पाएगा। धन के बंटवारे के समय बुद्धि यह समझाती है कि हमने इसे कमाया है तो हम किसको कितना दें, इस पर विचार करेंगे। धन कमाया तो बुद्धि से ही जाता है, लेकिन खर्च करते समय इसे हृदय से जोड़ दें।
धर्म केवल बुद्धि से जुड़ने पर खतरनाक हो जाता है और हृदय से जुड़ने पर भक्ति बन जाता है। वैसा ही धन का भी है। धन जब हृदय से जुड़ेगा तो उसका व्यय भी सद्कार्यो में होगा। सद्कर्म की परछाई प्रतिष्ठा व भक्ति की परछाई प्रेम है, ऐसे ही धन की परछाई सेवा हो जाएगी। जब हम सेवा की दृष्टि से अपने कुटुंब का विस्तार करेंगे, तब हमारा मूल कुटुंब भी उसके परिणाम में सुख व शांति पाएगा।
हर क्षेत्र में अपनी आध्यात्मिक वृत्ति जाग्रत रखना जरूरी है
चाहे भौतिकता की दुनिया में चल रहे हों या भक्ति के संसार में भ्रमण कर रहे हों, कोई भी कदम बढ़ाने से पहले अपने यात्रा के तरीके और पहुंचने वाले स्थान की जानकारी स्पष्ट होना जरूरी है। सभी समझदार पथिक यात्रा पूर्व भरपूर तैयारी करते हैं, अन्यथा भटकने पर धन, समय, ऊर्जा तीनों नष्ट होते हैं।
जो भौतिकता के क्षेत्र में हैं, उन्हें धन, पद, प्रतिष्ठा और सुखी परिवार चाहिए। ये कामनाएं इस क्षेत्र के प्राण हैं। जो भक्ति की दुनिया के लोग हैं, उनको परलोक का सुख, ईश्वर की प्राप्ति और मुक्ति चाहिए। इनके बिना भक्ति भी बेकार है। भौतिकता के क्षेत्र में कर्तव्य एक धर्म है और भक्ति के क्षेत्र में सेवा धर्म है। केवल धर्म पर टिकते हैं तो कई भ्रम पैदा हो जाते हैं। इसलिए अध्यात्म से संबंध होना जरूरी है।
आप किसी भी क्षेत्र में रहें, अपनी आध्यात्मिक वृत्ति को जरूर जाग्रत रखें। दृढ़ता, उत्साह और विश्वास अध्यात्म से आता है और बिल्कुल स्पष्ट आता है। ये तीनों ही दोनों क्षेत्र में काम आते हैं। इनके बिना जो यात्रा हम करेंगे, वो बिल्कुल ऐसी होगी, जैसे किसी समुद्र या नदी के किनारे दौड़ने वाले लोग। सफलता का अर्थ है सागर के पार जाना। इसलिए तैयारी ऐसी हो कि केवल किनारे पर चलने वाले ही न रह जाएं।
थोड़ा अतिक्रमण करके पार जाना ही पड़ेगा। जो लोग ऊंचे उठे हैं, उन्होंने पार जाने की तैयारी की ही है। अब जिन्हें बाहर लंबी छलांग लगानी हो, उन्हें भीतर गहरे उतरने की तैयारी भी करनी होगी। आप अपने ही भीतर जितना नीचे उतरेंगे, बाहर उतने ही ऊंचे जाने पर अशांत नहीं होंगे, थकेंगे नहीं। अपने भीतर उतरने के लिए मेडिटेशन सीढ़ी का काम करता है।
श्रीराम की लीला का मान करने वाला उनकी कृपा पाता ही है
एक सवाल सबके मन में रहता है कि जो काम हमने किया है, उसमें हमारा योगदान कितना है और दूसरों की मदद कैसी है? उदार लोग दूसरों को क्रेडिट देने में पीछे नहीं हटते और संकुचित मानसिकता वाले दूसरों का क्रेडिट भी खुद ले लेते हैं। यह तय है कि कोई भी काम मनुष्य अकेला नहीं कर सकता। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मदद दूसरों की लेनी ही पड़ती है।
यदि ध्यान से देखें तो पाएंगे कि किसी की मदद न भी लें, तो भी अपने आप कुछ मदद हमारी होने लगती है और हमें ऎसी स्थितियों को, व्यक्तियों को ध्यान में रखना चाहिए। दूसरों के श्रेय के मामले में हनुमानजी बहुत जागरूक और उदार थे। सीताजी को आश्वस्त करते समय उन्होंने सुंदरकांड में यह पंक्ति कही थी - अबहिं मातु मैं जाउं लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।। हे माता! मैं आपको अभी यहां से लिवा जाऊं, पर मुझे श्रीरामचंद्रजी की आज्ञा नहीं है। अत: हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो। श्रीरामचंद्रजी वानरों सहित यहां आएंगे। हनुमानजी सक्षम थे, लंका में राक्षसों को मारकर सीताजी को ले जा सकते थे। लेकिन उन्होंने कहा भगवान श्रीराम की आज्ञा नहीं है, इसलिए मैं आपको नहीं ले जा रहा।
सबके पीछे परमात्मा की शक्ति काम कर रही होती है। बीज में वृक्ष है, पर स्थितियां अनुकूल होने पर ही अंकुरण होता है। ऐसे ही हनुमानजी ने सोचा कि सीताजी को श्रीराम ही ले जाएंगे, इसके पीछे उनका कोई न कोई विचार होगा, जिसको भक्तों ने लीला कहा है। जो उसकी लीला का मान करता है, उसे अपने काम में सहायता ही मिलती है।
बुरा काम करने से पहले हमारा अंत:करण हमें रोकता है
जब भी हम कोई गलत काम कर रहे होते हैं, हमारे भीतर कुछ ऐसा होता है, जो एक बार हमें जरूर टोकता है। जब तमो गुण हावी होते हैं, पाप प्रिय लगने लगता है, आचरण में पशुता उतरती है तो भीतर भी हलचल होती है।
हमारे अंत:करण में आग्रह का एक भाव जागता है कि रुक जाओ, गलत काम न करो। कुछ लहरें चलती हैं जिसमें दया, सेवा, दान, ज्ञान, त्याग, उदारता और विवेक एक बार शरीर के रग-रग में बहता जरूर है। गलत काम के ठीक पहले यदि हम इन्हें महसूस करें तो निश्चित ही हम अपने आप को रोक लेंगे। कबीरदासजी ने कहा है कि ईश्वर हमसे चौबीस अंगुल दूरी पर है।
कबीर बात पते की कहते थे, लेकिन तरीका तिरछा ही रहता था। यदि सचमुच परमात्मा इतने निकट हैं तो हर किसी को मिल जाएगा। लेकिन कबीर जिस भाव से कह रहे हैं, उसे समझा जाए। आत्मा का स्थान हृदय होता है और मन का स्थान मस्तिष्क। हृदय से मस्तिष्क की दूरी चौबीस अंगुल है। आत्मा का ही अगला रूप परमात्मा है। बुरे विचार या गलत काम का केंद्र मन होता है। जैसे ही यह सक्रिय हुआ, वैसे ही हृदय हमें अवसर देता है कि रुक सकें तो रुक जाएं।
हृदय से आवाज भी आती है सत्य पर टिको, ये दुष्कर्म अस्थायी हैं। यदि हम हृदय की भाषा सुनने से चूक जाएं तो मन वहां ले जाकर पटकता है, जिसे गलत दुनिया कहते हैं। इसलिए भीतर की सत्ता से जुड़े रहें तो बाहर की सत्ताएं हमसे गलत काम नहीं करवाएंगी। गलत में एक आकर्षण होता है और सही में सहज आमंत्रण। हृदय पुकारता है और मन खींचता है।
आप सिर्फ क्रिया करिए, अपने आप वह मिलेगा जो सही है
कहना आसान है कि कर्म करते रहो, फल की चिंता मत करो। पहले तो इसी पंक्ति में संशोधन कर लें। फल की चिंता जरूर करें, क्योंकि बिना चिंता पाले कर्म की योजना, कर्म में परिश्रम नहीं हो पाएगा। इतना जरूर ध्यान रखें कि फल में आसक्ति न हो। दिक्कत आसक्ति से शुरू होती है, लेकिन ऐसा करना भी कठिन मालूम पड़ता है।
आजकल तो पहले फल निर्धारित किया जाता है, फिर आदमी कर्म करता है। इसीलिए जब उसे वांछित फल नहीं मिलता, तब वह परेशान होता है। फल की आसक्ति से मुक्त होने के लिए हमें अपने मनुष्य होने की रचना को समझना होगा। हम दो बातों से मिलकर बने हैं, दैवीय तत्व और भौतिक तत्व।
हमारी आत्मा दैवीय तत्व का हिस्सा है, मन भौतिक तत्व से जुड़ा है और तन इन दोनों का मिश्रण है। मन का स्वभाव है कि उसे सबकुछ चाहिए, बेलगाम चाहिए। इसीलिए मन या तो भविष्य की सोचता है या भूतकाल की, उसे वर्तमान में रुचि नहीं है। यह तमोगुणी स्वभाव है। आत्मा के भी तीन गुण होते हैं, जिन्हें सत्, चित् और आनंद कहा गया है।
जैसे मछली को जल में रहना ही प्रिय है, वैसे ही आत्मा आनंद में ही रहती है। जो आनंद में रहता है, वह भविष्य में फल की आसक्ति नहीं करता। इसलिए कर्म करते समय शरीर पूरा परिश्रम करे, लेकिन हम आत्मा की ओर मुड़े रहें, केवल मन पर न टिकें। और इसीलिए योगियों ने ध्यान को महत्व दिया है। ध्यान का अर्थ है वर्तमान पर टिकना। कई लोग पूछते हैं - क्या ध्यान करने से शांति मिलेगी? यह प्रश्न ही ध्यान में बाधा है। आप सिर्फ क्रिया करिए और अपने आप वह मिलेगा, जो सही है।
संपूर्ण जीवन को समझने के लिए आत्मज्ञान जरूरी है
इस समय अधिकांश समय लोग शरीर की परिधि पर ही टिक गए हैं। अपने शरीर से बाहर आए तो दूसरे के शरीर में टिक गए। बस इतनी ही यात्राएं मनुष्य के जीवन में चल रही हैं। सारे उद्देश्य, लक्ष्य शरीर की पूर्ति के आसपास घूम रहे हैं। मजेदार बात यह है कि जिस शरीर के लिए सब किया जा रहा है, सबसे ज्यादा नुकसान भी उसी का हो रहा है।
‘निज तन ही निज तन को खाए’ जैसी जीवनशैली हो गई है। बहुत कम लोग जान पाते हैं कि आत्मा भी कोई अंग है। वास्तव में हमारी शिक्षाप्रणाली को चाहिए कि वह हर विषय के साथ कहीं न कहीं आत्मा को अवश्य जोड़े, क्योंकि बिना आत्मा को स्पर्श किए शांति नहीं मिलती। आने वाले समय में भारत जब भौतिक ऊंचाइयां छुएगा तो यहां अशांति के वे सब आयाम होंगे, जो पश्चिम में हैं।
ऐसे समय यदि आत्मबोध हमारे पास हुआ तो हम कामयाब भी रहेंगे और शांत भी। शिक्षा हमें सभ्य बना रही है और सभ्यता का संबंध शरीर से है, लेकिन संस्कार मन को प्रभावित करेंगे, तब आत्मा की यात्रा आसान होगी। केवल शरीर पर टिकने से छोटी मानसिक बीमारियां आसानी से प्रवेश करती हैं और बाद में विकराल रूप ले लेती हैं।
जैसे ज्यादातर क्रोध करने वाले लोग जानते हैं कि यह गलत हो रहा है। पछताते भी हैं, छोड़ना भी चाहते हैं, फिर भी क्रोध नहीं छूटता। अब जानकर भी यदि बुराई न छूटे तो समझ लें कुछ नहीं जाना गया। केवल शरीर पर टिककर समूचा जीवन नहीं जाना जा सकता, आत्मज्ञान जरूरी है। जैसे ही आत्मज्ञान प्राप्त होगा, उसके बाद हम जो भी करेंगे तो ऐसा लगेगा जैसे स्वत: हो रहा है और दुगरुण अपने आप छूटेंगे।
जीवन अति का नहीं, संतुलन का नाम होना चाहिए
दबाव में रहकर कोई काम न किया जाए, क्योंकि दबाव लंबे समय बाद तनाव का कारण बन जाता है। आजकल तो लोग भक्ति भी दबाव में करते हैं। पूजा दबाव में नहीं, अनुशासन से की जानी चाहिए, क्योंकि दबाव अपने आप मंे एक अति है। जीवन अति का नहीं, संतुलन का नाम होना चाहिए।
हमारे यहां हर चीज का संतुलन है, दिन है तो रात है, गर्मी है तो सर्दी का मौसम भी है, जन्म है तो मृत्यु भी है, बुराई है तो अच्छाई भी है। अच्छाई को अपने भीतर बनाने के लिए बहुत अधिक दबाव बनाना भी एक नई बुराई को जन्म देता है। बुराई का स्वभाव है नीचे की ओर गिरना।
इसका केंद्र मन होता है। मन का स्वभाव है पतन की ओर जाना। जैसे पानी को नीचे फेंकने में ताकत नहीं लगती, लेकिन ऊपर ले जाने में शक्ति लगती है, ऐसे ही अच्छाई तक पहुंचने में ताकत लगेगी और इसी ताकत के नाम पर लोग अति करने लगते हैं।
कोई इतने उपवास करता है कि वो शारीरिक दोष बन जाता है। अपने को बहुत अधिक सताने पर सद्गुण मिल जाएं, जरूरी नहीं है। सारा जीवन संतुलन का नाम है। जीवन का सृजन करना पड़ता है और सृजन दबाव मुक्त होकर ही किया जाता है। शरीर, मन व आत्मा तीनों हमसे कुछ मांगते हैं।
शरीर की अपनी भाषा और शब्द हैं, उसकी अपनी मांग है, जो संतुलन के साथ पूरी की जाए। फिर मन की चाहतों का तो कहना ही क्या। इसे सावधानी के साथ हैंडल किया जाए और आत्मा तो आनंद देने को तैयार है। हम जाग्रत होकर उस आनंद को झेल लें। इतनी समझ आते ही हमारा जीवन दबाव मुक्त हो जाएगा। हम अनुशासन में रहेंगे, लेकिन अपने आपको सताएंगे नहीं।
शिष्टाचार बाहर से और संस्कार हमारे भीतर से जुड़ा हुआ है
शिष्टाचार और संस्कार में फर्क है। शिष्टाचार का संबंध सिर्फ बाहर से और संस्कार का भीतर से जुड़ा हुआ है। इस समय ये दोनों ही बातें मानवीय जीवन में या तो कम हो रही हैं या फिर इनका स्वरूप बदलता जा रहा है। सारा शिष्टाचार धंधे का गुर बन गया है। हम उन्हीं के प्रति सभ्य हैं, जिनसे हमें कुछ मिलना है।
अकारण सहज होना, शिष्ट होना कमजोरी की निशानी है। शिष्टाचार सिर्फ इसलिए है कि व्यावसायिक संबंध बिगड़ न जाएं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि शिष्टाचार का संबंध शरीर से है और संस्कार का भीतर से। इसीलिए आज के समय में लोग शरीर क्या कर रहा है, इसकी चिंता अधिक पालते हैं। भीतर जो हो रहा है, उसे कैसे ठीक किया जाए, इसकी फिक्र कम है।
खाते समय हम गिरा न दें, किसी से बात करते समय बॉडी लैंग्वेज ठीक रहे, किसी से वस्तु आदान-प्रदान करते समय आभार-धन्यवाद जरूर बोलें, भोजन का आमंत्रण दें, भोजन करवाएं, थाली कैसी सजी हो, खान-पान की वैरायटी, ऊपरी साफ-सफाई, मौके-दर-मौके उपहार भेंट करना, उपहारों की शानदार पैकिंग, ये सब शिष्टाचार हैं। एक दिन इनसे जुड़कर मनुष्य केवल शरीर पर ही टिका रहता है।
चूंकि वह जान जाता है कि शरीर जो कर रहा है, भीतर वैसा नहीं हो रहा और धीरे-धीरे इसी का आदी हो जाता है। यहीं से आदमी में बाहर कुछ, भीतर कुछ का भेद चलने लगता है। एक दिन हम दोनों को ही धोखा देने लगते हैं, शरीर को भी और आत्मा को भी। हमारी विनम्रता अहंकार का मुखौटा बन जाती है। हमारा क्रोध हमारे सिद्धांतों की प्रतिक्रिया हो जाती है और कुल मिलाकर हम अशांत बन जाते हैं।
संदेह होना स्वाभाविक है, पर हमें विश्वास जीतना आना चाहिए
जीवन में संदेह और विश्वास का खेल चलता ही रहता है। जब अपने पर ही संदेह होने लगे तो उसका निराकरण आत्मविश्वास से होता है, लेकिन जब दूसरों पर संदेह हो तो या तो हमें उदारता से उन पर विश्वास करना पड़ेगा या सामने वाले को अपनी निष्ठा, ईमानदारी व योग्यता से संदेह का निवारण करना पड़ेगा।
फिर आज के दौर में विश्वास करना भी कठिन काम है। देखा जाता है कि मनुष्य, मनुष्य से बात कर रहा होता है, लेकिन भीतर ही भीतर हर शब्द को संदेह की दृष्टि से तौल ही रहा होता है। भरोसा ही नहीं होता कि आदमी की उपस्थिति, शब्दों और निर्णयों में कितनी सच्चई है।
सुंदरकांड में हनुमानजी और सीताजी की बातचीत हो रही थी। हनुमानजी सीताजी के सामने अपने आप को रामजी का दूत साबित कर चुके थे, लेकिन फिर भी सीताजी को उनकी क्षमता पर संदेह था। हे सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।। हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हे-नन्हे) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान योद्धा हैं।
अत: मेरे हृदय में भारी संदेह है कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे मारोगे? हनुमानजी समझ गए कि संदेह का निवारण अब शब्दों से नहीं होगा। यह सुनकर हनुमानजी ने अपने शरीर को विशालकाय बना लिया। तब उन्होंने बताया कि हम आचरण से ही दूसरों के प्रति विश्वसनीय हो सकते हैं।
तुलसीदासजी ने लिखा - सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।। तब सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमानजी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया। इसलिए संदेह होना स्वाभाविक है, लेकिन हमें विश्वास जीतना भी आना चाहिए।
हम और हमारा शरीर भी आपस में एक-दूसरे से वार्ता करते हैं
जब हम दूसरों से बात कर रहे होते हैं, भाषा और शब्द उसमें माध्यम बनते हैं, लेकिन जब संबंधों में अत्यधिक पवित्रता आ जाती है, प्रेम आ जाता है तो संकेत की भाषा में भी बातचीत होने लगती है। ऐसी ही वार्ता हम हमारे शरीर से भी कर सकते हैं। इसके लिए थोड़ी-सी कला आनी चाहिए। हम और हमारा शरीर भी एक-दूसरे से वार्ता करते हैं, लेकिन तरीका थोड़ा अलग होता है।
इसमें कोई ध्वनि नहीं होती, शब्द नहीं होते। यह सिर्फ अनुभूति की भाषा है। जिस दिन हम अपने शरीर की और हमारा शरीर हमारी भाषा समझने लगते हैं, उस दिन फिर शरीर और हम मिलकर एक-दूसरे के पतन का कारण नहीं बनते। इस वार्तालाप के लिए इंद्रियों को समझना जरूरी है। हमारी दस इंद्रियां हैं- पांच कर्मेन्द्रियां, पांच ज्ञानेन्द्रियां। जैसे केवल आंख की बात लें। यह एक ज्ञानेन्द्री है। खराबी आंख में नहीं होती, खराबी इसके विषय यानी दृश्य में होती है।
इंद्रियों को अश्लील दृश्य देखना प्रिय होता है और इसलिए वह प्रेरित करती है। फिर वह शरीर को उस दृश्य में खींचकर ले जाती है। चूंकि हमारा और हमारे शरीर के बीच वार्तालाप नहीं होता, इसलिए हम भी खिंचे चले जाते हैं। लेकिन हमारे और शरीर के बीच समझ है, संवाद है तो इंद्रियां ऐसा प्रभाव नहीं छोड़ पाएंगी और शरीर हमारी आज्ञा मानेगा।
इस संगठन से एक शक्ति पैदा होती है, जो हमें निर्भय बनाती है, आत्मविश्वास जगाती और सद्भाव पैदा करती है। हम हमेशा चिंतित रहते हैं कि अच्छा काम करने जाएं और हाथ से बुरा न हो जाए, इसलिए सावधान रहना जरूरी है। यह काम हमारे और शरीर के बीच एक-दूसरे की भाषा समझने से हो सकेगा।
हम हर हाल में परमपिता परमेश्वर से जुड़े रहें
भारतीय संस्कृति में ऋषि-मुनियों ने नर से नारायण बनने का एक सुंदर विचार दिया है। यह विचार ही बहुत प्रगतिशील है। आज का भौतिक युग लगातार परिवर्तन में विश्वास रखता है। आगे बढ़ने के लिए बदलाव को समझना जरूरी है। यही बात अध्यात्म कहता है। पुरुष से पुरुषोत्तम बनने की संभावना हर एक के भीतर छिपी हुई है।
आप पाएंगे कि इस समय जब चारों ओर प्रगति और विकास के नारे लग रहे हैं, सफलताओं के नए-नए मापदंड गढ़े जा रहे हैं, उसी समय अवसाद और आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। योग्य लोग भी मृत्यु के इस स्वरूप को जीवन से जोड़ रहे हैं।
दरअसल संसार और हमारे बीच जो रिश्ता है, उसको गलत समझने से आदमी के भीतर आत्महत्या करने की इच्छा होती है। वैसे जिंदगी की ओर मुंह करके चलने का नाम सुखी जीवन है और जीवन से पीठ करके भागने का नाम आत्महत्या है। हमें जो मानवीय सत्ता मिली है, वह परम सत्ता का अंश है।
अंश और अंशी का संबंध जब-जब हम भुला देंगे, जीवन में हम आत्महत्या का विचार करेंगे। इसीलिए भारतीय परिवारों में देखा गया है कि कई गृहस्थ अपने दांपत्य जीवन में कुछ मौकों पर घर छोड़कर भागना या जिंदगी से मुक्ति पाने का विचार करते हैं।
असल में यह विचार उनको वर्तमान की परेशानी से राहत देता है। थोड़ी देर बाद आवेग बह जाता है और विचार भी निकल जाते हैं। यदि यह आवेग हमारे और परम सत्ता में अलगाव करा दें, तब आदमी आत्महत्या कर लेता है। इसलिए कैसी भी स्थिति हो, परमपिता परमेश्वर से जुड़े रहें, स्वयं को उससे काटें नहीं।
आत्मा के सशक्त क्रिया रूप को ही भगवान कहते हैं
भगवान कहां हैं, किस रूप में हैं और क्या करते हैं? ये सवाल आज के किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति के मन में आना स्वाभाविक हैं। जब सभी कुछ हमें करना है तो भगवान नाम की सत्ता को बीच में लाने का क्या अर्थ? आचार्य ने एक स्थान पर भगवान की सुंदर व्याख्या की है। उन्होंने कहा है कि आत्मा के सशक्त क्रिया रूप को भगवान कहते हैं।
आत्मा अनंत शक्तियों का पुंज है। यही शक्ति बलवान देवता के रूप में प्रकट होती है और कार्य करती है। हमने अपनी भक्ति को संगठित करके और उसके सात्विक भाव को क्रियाशील करके एक रूप बनाया है, जो भगवान है। सबने अपनी-अपनी शक्ल के अनुसार इसके रूप तैयार कर दिए। कुल मिलाकर हमारी ही शक्ति हमारे सामने नए रूप में आ गई है। मनुष्य का स्वभाव होता है - खुद पर अविश्वास करना, खुद को शक्तिहीन मानना और अपनी योग्यता को भूल जाना।
जब ऐसा जीवन में होता है, तब यह भगवान रूपी शक्ति हमारे काम आती है। रहा सवाल इसके दिखने और न दिखने का, तो सारा मामला ऐसा है कि जब हम किसी वाहन में सफर करते हैं तो मार्ग सीधा हो, तब तो आने वाला दृश्य स्पष्ट रहता है, लेकिन यदि मोड़ हो तो दृश्य मोड़ने पर ही दिखता है और मुड़ने के बाद वो दृश्य नहीं दिखता, जो पहले दिख रहा था। जबकि होता सबकुछ वहीं है।
हवाई जहाज धरती से उड़ता है, कुछ देर तक जमीन दिखती है, फिर दिखना बंद हो जाती है और हम आसमान में होते हैं। जबकि आसमान और धरती अपनी-अपनी जगह होते ही हैं। इसी तरह परमात्मा होता ही है, हमारी स्थिति से उसका दिखना और नहीं दिखना बनता है।
थोड़ी देर रुक जाओ और ध्यान पर टिक जाओ, तभी पाप गलेंगे
परमात्मा की दुनिया में निष्पक्ष न्याय होता है, क्योंकि भगवान ने सारी व्यवस्था एक नियम के तहत बना दी है। इसीलिए साधु-संतों ने उपासना का बड़ा महत्व बताया है। उपासना परमात्मा के द्वारा बनाया गया एक नियम है। इसका सामान्य-सा अर्थ है पास में बैठना।
जैसे ही हम ईश्वर के पास बैठते हैं, उसके भीतर जो-जो भी अद्भुत गुण हैं, उनका असर हमारे ऊपर होने लगता है। उपासना जितनी गहरी होगी, हमारा रूपांतरण उतना ही मजबूत होगा। हमें उसके जैसा होने में अधिक ताकत नहीं लगेगी, लेकिन लोगों ने उपासना को सिर्फ कर्मकांड से जोड़ दिया है।
मंदिर बनाकर दक्षिणा देते हुए, तीर्थ यात्राएं करके, कथाएं सुनकर उपासना नहीं हो सकती। ये परमात्मा जैसी होने की जगह परमात्मा को अपने जैसा बनाने के काम हैं। इसीलिए बहुत बारीकी से देखिए कि सारे कर्मकांड या तो इस पर आधारित हैं कि जो जीवन बीत गया है, उन पापों का निराकरण करें या फिर पुण्य अर्जित करके आने वाले समय को बचाएं। जीवन में जब पाप आता है तो वह या तो पुरानी किसी घटना से जुड़कर आता है या भविष्य से अपने को जोड़कर चलता है। जो लोग वर्तमान पर टिकना जानते हैं, वे शायद कम पाप करेंगे।
अध्यात्म की भाषा में वर्तमान और ध्यान एक है। केवल कर्मकांड हमारे भूतकाल और भविष्य का खेल है, लेकिन ध्यान कहता है कि थोड़ी देर रुक जाओ और वर्तमान पर टिक जाओ। यहीं से पाप गलेंगे और पुण्य सही रूप लेंगे। ध्यान में प्राप्त वर्तमान भी इतना सूक्ष्म होता है कि यह वर्तमान है सोचते ही वह बीता हुआ हो जाता है। इस सूक्ष्म को जितना पकड़ेंगे, हम उतने निर्दोष, शांत और आनंदित रहेंगे।
प्रदर्शन का नहीं हार्दिक भावना का विषय है सेवा
जीवन प्रेमपूर्ण हो जाना एक बड़ी उपलब्धि है। स्त्री-पुरुष ही नहीं, कुछ और रिश्ते भी हैं, जो प्रेम को समझाते हैं। मनुष्य अपनी साधना-भक्ति से प्रेम प्राप्त नहीं कर सकता। प्रेम जिस पर कृपा करता है, उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। हमारी संस्कृति में गुरु का बहुत महत्व बताया गया है।
कर्म में सेवा का भाव गुरुचरण सेवा ही है। यदि उदार दृष्टि से विचार किया जाए तो सेवाभाव की सर्वव्यापकता स्पष्ट हो जाती है। शक्तिपात के संन्यासी शिवोमतीर्थजी कहा करते थे - व्यावहारिक स्तर पर, निम्न बातें सेवक को अपने मन में स्पष्ट समझ लेनी चाहिए - गुरुसेवा का अभिमान नहीं हो, अन्यथा वह सेवा नहीं रह जाएगी।
अन्य गुरु सेवकों से वैमनस्य पैदा न हो जाए, अन्यथा सेवा अशांति का कारण बन जाएगी। यदि कोई दूसरा आ जाए तथा सेवा करना चाहे तो सेवक को हट जाना चाहिए तथा सेवा कार्य उसे सौंप देना चाहिए। कई बार सेवा से हट जाना भी सेवा होती है। इससे परस्पर प्रेम का वातावरण बनाने में सहायता मिलती है।
सेवा प्रदर्शन का नहीं, हार्दिक भावना का विषय है। गुरुसेवा के बदले कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। सेवा साधन से अलग नहीं है। जितनी सामथ्र्य, शक्ति, समय तथा श्रद्धा हो, उतनी ही सेवा का प्रयत्न करना चाहिए। सामथ्र्य-समय से अधिक करने पर आसक्त हो जाने का भय है।
सेवा का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक कई प्रकार की सेवाएं हैं। यदि कोई आपके समान सेवा नहीं कर पाता, किंतु किसी अन्य क्षेत्र में सेवा करता है तो उसका आदर करना चाहिए। ऐसी गुरुसेवा जीवन में प्रेम उतारेगी।
यदि हम चाहें कि सब हमारे जैसे हो जाएं तो यह संभव नहीं है
दुखी होने के लिए अब बड़ी घटनाओं की जरूरत नहीं है। छोटी-सी बात भी आपको बड़े से बड़ा दुख दे जाएगी और बड़ी से बड़ी घटनाएं भी छोटा-सा सुख नहीं दे पाएंगी, क्योंकि सारा मामला भीतरी समझ का है।, जरा भीतर उतरिए, तो समझ में आ जाएगा कि यह जगत परिवर्तनशील है। दिमाग में, मन में, अनुभव में जाकर हम देख लें, तब हम छोटी-छोटी बातों को लेकर दुखी नहीं होंगे। नहीं तो मन में लगातार एक अफसोस बना रहता है कि उसने ऐसा किया, इसने ऐसा क्यों कहा, इसे ऐसा नहीं करना चाहिए।
सारा समय तर्क में लगे रहते हैं। यह तर्क एक माया है। हर आदमी आपके जैसा नहीं हो सकता। फिर भी हम चाहते हैं कि सब हमारे जैसे हो जाएं। यह संभव नहीं है। असंभावनाओं और अनहोनी बातों को लेकर हम बैठ जाते हैं, इसलिए दुखी हो जाते हैं।
जो घटना हो चुकी है, उसको लेकर हम बैठ जाते हैं और एक कल्पना जगत में घूम आते हैं। लेकिन इससे क्या पाएंगे हम? फिर जीवन में हम कब खुश रहेंगे? अब देखो, आप विदेश में रहते हैं। हिंदुस्तान में किसी से पूछो, उनका सपना है कि विदेश में जाकर बस जाऊं।
जैसे स्वर्ग में चले जाएंगे। वहां भी चले गए तो क्या होगा? कुछ आराम मिलेगा। उसके आगे क्या? इन बातों को विवेकपूर्ण ढंग से हमें देखना चाहिए। जब विवेक से देखते हैं तो ये मन पर छाए हुए बादल छंटकर दूर हो जाएंगे। फिर एकदम जागृति, प्रसन्नता, प्रेम। जीवन ऐसा प्रेम से चमक जाएगा, फिर देखिए आनंद ही आनंद है। इसलिए मन पर काम किया जाए।
सत्संग जिस भी तरीके से मिले जीवन को उससे जरूर जोड़ें
निराशा आने पर हम आशा की किरण दूसरों में ढूंढ़ते हैं। वैसे तो सबसे अच्छा समाधान हमारे भीतर होता है, लेकिन फिर भी यदि बाहर ढूंढ़ रहे हों तो एक स्थान पर जरूर जाएं जिसे सत्संग कहते हैं। यहां कुछ ऐसा मिल जाता है, जो जीवन के नैराश्य को मिटा सकता है। निवृत्तमान शंकराचार्य सत्यमित्रानंदगिरिजी कहते हैं - सत्संग करते-करते विचार जागेगा, मन में करुणा जागेगी।
सत्संग आपको संसार में रहते हुए उलझने नहीं देगा। साधक को जब भी, जिस क्षण परमात्मा के प्रति भावोद्वेग होगा, जीवन धन्य हो जाएगा। यह क्षण तभी उपस्थित होता है, जब आपका मन संवेदनशील हो। संवेदना के रहते ही हृदय भाव विगलित हो जाता है। आज हम देख रहे हैं कि संवेदना समाप्त होती जा रही है।
निष्ठुरता और नैराश्य में जीने की आदत-सी पड़ गई है। यदि कुछ मंत्र गुनगुनाए जाएं तो उनके साथ एकाकार के क्षण उपस्थित होते ही हृदय गद्गद् हो जाता है। परंतु धीरे-धीरे अब यह सब लोप होता जा रहा है। किसी संत की वाणी, ग्रंथ, स्तोत्र से हृदय द्रवित होता है। संत का जीवन अत्यंत निर्मल होता है।
वे आत्मा के साथ एकाकार होकर अपनी वाणी प्रवाहित करते हैं। बाह्य जगत से उबरने की हम बहुत बार चेष्टा करते हैं। कभी छूटते हुए भी अनुभव करते हैं। परंतु अंतर्द्वद्वों से उबरने की चेष्टा करनी चाहिए। बाहरी जगत में यदि छूट भी गए तो अंतर्जगत के द्वंद्वों में जकड़ जाते हैं। अंतर्द्वद्वों से छुटकारा पाने के लिए अपने अंतर में अंतरयामी का दर्शन करने का पूरा प्रयास करना चाहिए। सत्संग एक श्रेष्ठ माध्यम है। जिस भी तरीके से मिले, जीवन को जरूर इससे जोड़ें।
भगवान अच्छे और बुरे कार्यो का प्रतिफल अवश्य देते हैं
यह सवाल ज्यादातर लोगों के मन में उठता है कि क्या भगवान हमारा भला चाहते हैं? क्योंकि कई बार जब हमारी पसंद का काम नहीं होता तो हमें भगवान की भूमिका पर संदेह होने लगता है। स्वामी अवधेशानंदगिरिजी कहते हैं - मनुष्य नहीं समझ पाता है कि भगवान उसका हर पग पर भला चाहते हैं और भला करते हैं।
यदि मनुष्य अपने समस्त कर्म भगवान को समर्पित कर दे तो उसकी आत्मा कभी गलत काम नहीं होने देगी और उसे यह आभास हो जाएगा कि गलत काम नहीं करना चाहिए। भगवान सत्कर्मी और भक्त को प्रेरणा देते हैं कि यह मत करना, वह करना। अर्थात भगवान हमारा भला चाहते हैं। अनचाहे कार्य करने वाले को भगवान की कृपा इसलिए समझ में नहीं आती क्योंकि उसकी आत्मा में भगवान द्वारा की गई भलाई का भान ही नहीं होता।
सभी प्राणियों से प्रेम करने वाले और सबकी सहायता करने वाले व्यक्ति ही यह समझ पाते हैं कि ईश्वर एक शक्ति है, जो सबमें विद्यमान है। ऐसा व्यक्ति इस धारणा के विपरीत कार्य नहीं कर सकता। वह हर समय डरता रहता है कि भगवान मुझे क्या कहेंगे क्योंकि भगवान मनुष्य के हर कार्यो पर दृष्टि रखते हैं, चाहे हम कितना भी छिपकर कार्य करें।
इसलिए कहा जाता है कि भगवान से डरो। यह सत्य है कि भगवान के यहां देर है, अंधेर नहीं। अर्थात वे अच्छे और बुरे कार्यो का फल अवश्य ही देते हैं। सत्कर्मी को अनायास यह आभास होने लगता है कि ईश्वर मुझे इस कार्य में मदद कर रहे हैं, मुझे उनकी कृपा मिल रही है। इनमें से लोग भी हैं, जो जानने लगते हैं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ही हमारा भला कर रहे हैं।
हम भीतर से जितने शांत होंगे दूसरों पर अच्छा प्रभाव डालेंगे
हमारे भीतर दो बातों का संघर्ष चलता ही रहता है - हिंसा और अहिंसा। बाहर भले ही हम प्रदर्शित न करें, लेकिन भीतर ही भीतर कभी-कभी हम इतने हिंसक हो जाते हैं कि यदि उसे क्रियान्वित कर दें तो शायद कानून के दायरे में आ जाएं और दंड भोगना पड़े। अहिंसा और हिंसा की यही वृत्ति हमें शांति और अशांति की ओर ले जाती है। आजकल आसानी से कोई भी काम होना कठिन है। ऐसे में भीतर से हमारे हिंसक होने की संभावना बनी रहती है और यदि जीवन के उद्देश्य पाना हों तो अपने भीतर की हिंसा को निमरूल करना पड़ेगा। जब हम भीतर से हिंसक होते हैं तो हमारी बाहरी क्रियाएं भी प्रभावित होती हैं। हमारा व्यवहार रूखा हो जाता है, जोर से बोलने लगते हैं और ऐसे में हमसे संबंधित लोगों से या तो हमारे रिश्ते खराब हो जाते हैं या वे भी इसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते हैं। कुल मिलाकर सारी ऊर्जा जिस रचनात्मक कार्य में लगनी चाहिए, वहां से हटकर उलझनों में ही लग जाती है। हम भीतर से जितना अहिंसक होंगे, शांत होंगे, उतना ही अच्छा प्रभाव आसपास के लोगों पर डालेंगे। हमारी अशांति दूसरों के शरीर पर अपना प्रभाव रखती है और हमारी शांति दूसरों की चेतना पर अपना असर डालती है। अशांति समय, ऊर्जा और संबंध तीनों को नष्ट करती है तथा शांति इन तीनों को मजबूत करती है, क्योंकि प्रकृति का मूल स्वभाव है शांत रहना। इसलिए कोई भी काम करें, प्रकृति से जुड़े रहें, पेड़-पौधों से ऊर्जा प्राप्त करते रहें और अपने आसपास के वातावरण में उस शांति को फैलाते रहें। आपके लिए प्रत्येक कार्य करना सरल हो जाएगा।
चुनौतियों पर विजय
शारीरिक समस्याओं का असर यदि हमारे मन पर पड़ने लगा, तो हमारा जीवन दुष्कर हो जाता है। इसलिए शारीरिक चुनौतियों का सामना डटकर करें और मन को विकार रहित रखें..एक युवक कॉलेज में पढ़ता था। वह अन्य विद्यार्थियों से थोड़ा अलग था। उसे ह्वीलचेयर पर बैठकर कॉलेज जाना पड़ता था। विकलांगता के बावजूद उसके सहपाठी और शिक्षक उसे बहुत पसंद करते थे। क्योंकि वह मिलनसार और आशावादी युवक था। एक दिन उसके सहपाठी ने उससे पूछा- तुम्हारी इस विकलांगता का कारण क्या है? युवक ने उत्तर दिया- मुझे बचपन में ही लकवा मार गया था। मित्र ने पूछा- इतने बड़े दुर्भाग्य के बावजूद तुम इतनी मुस्कराहट और आत्मविश्वास के साथ संसार का सामना कैसे करते हो? लड़के ने मुस्कराकर जवाब दिया- उस रोग ने सिर्फ मेरे शरीर को छुआ है, मेरे मन और आत्मा को नहीं।
कितनी ही बार हम स्वयं को या अपने परिवार के सदस्यों को छोटी-मोटी तकलीफों की शिकायत करते देखते हैं। हम आमतौर पर मुश्किलों से परेशान होकर शिकायत करते रहते हैं। लेकिन अगर हम आसपास नजर दौड़ाएं, तो देखेंगे कि कितने ही लोग गंभीर रोगों से ग्रस्त हैं। किसी का कोई अंग नहीं है, तो किसी को जानलेवा बीमारी है। इनमें से कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो इन चुनौतियों के बावजूद जिंदगी को भरपूर जीते हैं। क्योंकि वे उस विद्यार्थी की तरह उसका असर अपने मन और आत्मा पर नहीं पड़ने देते।
कई बार कार खराब हो जाती है और उसे मरम्मत के लिए भेजना पड़ता है। इससे हमें चाहे थोड़े दिनों के लिए असुविधा हो, लेकिन हमें ऐसा नहीं लगना चाहिए कि हमारी जिंदगी ही खत्म हो गई है। हम जानते हैं कि कार तो सिर्फ एक भौतिक साधन है, जिसका इस्तेमाल हम खुद को एक स्थान से दूसरी जगह ले जाने के लिए प्रयोग करते हैं। इसी तरह हमारा शरीर भी हमारी आत्मा के लिए एक भौतिक साधन है। कभी-कभी इसमें खराबी भी आ सकती है, लेकिन इससे हमारे मन और आत्मा पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। हम अपने जीवन को भरपूर जी सकते हैं, चाहे हमारे पास भौतिक साधन हों या न हों।
जीवन के किसी न किसी मोड़ पर हमारे शरीर में बढ़ती आयु के चिन्ह दिखने लगते हैं। हमारा शरीर उतना अच्छा काम नहीं करता, जितना युवावस्था में करता था। लेकिन हमें इससे निराश नहीं होना चाहिए। मन और आत्मा की गहराई में शांति और प्रसन्नता है, जिसे हम खोज सकते हैं।
हमारी शारीरिक स्थिति कैसी भी हो, लेकिन हम लोगों के बीच प्रेम और प्रसन्नता बांट सकते हैं। यदि बीमारी के कारण हम घर में हैं, तो परिवार के सदस्यों को प्रेम दे सकते हैं। बीमार तो सिर्फ हमारा शरीर ही रहता है, मन और आत्मा तो सदैव पूर्ण रूप से स्वस्थ रहते हैं। आशावादी और सकारात्मक रवैया अपनाकर हम हर विपरीत चुनौती पर विजय पा सकेंगे और दूसरों के जीवन में खुशी ला सकेंगे।
मधुर वाणी द्वारा बड़ी से बड़ी उपलब्धि पाई जा सकती है
जीवन में विपरीत परिस्थितियों में शब्दों का उपयोग बड़े काम का होता है। स्वयं को समझाना हो या दूसरों को, शब्दों का उपयोग करते समय उसमें चार बातों का समावेश करिए। सुंदरकांड में सीताजी से बातचीत करते हुए जब हनुमानजी ने भगवान के प्रताप का वर्णन किया तो सीताजी आश्वस्त हो गईं। हालांकि उन्हें लग रहा था कि रावण के राक्षस विशाल हैं और रामजी के बंदर बहुत छोटे, लेकिन हनुमानजी के शब्दों ने सीताजी के भीतर विजय के प्रति आश्वासन भर दिया। मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी।। आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना।।
भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमानजी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ। उन्होंने हनुमानजी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ। हनुमानजी की वाणी में तुलसीदासजी ने चार बातें बताईं। जीवन में जब संकट की स्थिति हो तब हमारे शब्दों में भक्ति, प्रताप, तेज और बल होना चाहिए। भक्ति हमारे शब्द और आचरण में मेल बनाती है। प्रताप का अर्थ है जबर्दस्त पुरुषार्थ। यह बोलता ही नहीं, करता भी है। तेज हमारे शब्दों में पवित्रता लाता है और बल का अर्थ है अन्याय के विरुद्ध संघर्ष की वृत्ति। चूंकि हनुमानजी स्वयं भी बहुत अच्छे वक्ता थे, इसलिए वे वाणी का उपयोग किस जगह कैसा करना है, इसमें दक्ष रहे। परिणाम यह हुआ कि सीताजी के मन में संतोष पैदा हो गया और हनुमानजी को बल और शील का वरदान मिला। वाणी के माध्यम से कितनी बड़ी उपलब्धि प्राप्त की जा सकती है, यह इसका उदाहरण है।
गृहस्थी में रहते हुए भी थोड़ा-सा तपस्वी जीवन अवश्य जिएं
दुनिया में अनेक तरह के लोग होते हैं। किसे आपका कौन-सा काम पसंद या नापसंद है, इसका ठीक से आप हिसाब-किताब नहीं लगा पाते।चूंकि हम अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा दूसरों से प्रभावित रखते हैं, इसलिए हम भी चिंतित रहते हैं कि किसे क्या पसंद आएगा? कुछ लोग तो आपकी प्रशंसा करके अहंकार को बढ़ाएंगे और आप समझ नहीं पाएंगे कि आप अपना कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं। हमारे जीवन में वन का बड़ा महत्व है।
इसलिए नहीं कि जंगलों में पर्यावरण बसता है, बल्कि इसलिए कि सभी महान लोगों ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा वन से जोड़कर रखा है। दरअसल वन और तप एक-दूसरे के पर्याय हैं। जीवन में तप जरूर होना चाहिए। हमारे यहां आज भी उपवास और तप को लोगों ने प्रशंसा का विषय बनाया है।
कई लोग तो इसीलिए साधु-महात्मा बन गए कि उन्होंने जरा शरीर पर काम किया और लोगों ने जय-जयकार कर दी। संसार में लोगों को इसी में मजा आने लगता है कि कोई अपना शरीर सुखा रहा है, कोई भूखा रह रहा है, कोई आग पर बैठा है तो कोई धरती पर उल्टा हो रहा है।
ऐसा ही जीवन में होने लगता है। विचित्र को प्रशंसा मिल ही जाती है। हमारे यहां वन में जाकर तप इसीलिए किया जाता था कि एकांत में जो आपको उपलब्ध होगा, वह आपके अहंकार को नहीं बढ़ाएगा। वन में चुप्पी, मौन और दृष्टि तीनों रहती थी। जंगल भगवान की अभिव्यक्ति होती है और परमात्मा मिले तो दूसरों की प्रशंसा, आलोचना की चिंता नहीं करनी चाहिए। इसलिए घर में रहते हुए भी थोड़ा-सा तपस्वी जीवन अवश्य जिएं।
अहंकार को समझ लेना ही अहंकार मिटाने जैसा है
पूजा-पाठ, साधना-तपस्या के बाद भी एक दुगरुण ऐसा है जिसके बचे रहने की संभावना बनी रहती है और वह है अहंकार। चूंकि अहंकार बचा रहता है, इसलिए संसार भी बचा रहता है। संसार बचा रहे पूजा के बाद भी, इसमें कोई दिक्कत नहीं है। संसार छोड़ने की जरूरत है ही नहीं, लेकिन परेशानी यह है कि पूजा के समय भी संसार साथ में चलता है।
इसके मूल में अहंकार भी होता है। अहंकार इतना बारीक है कि वह त्याग में उतर जाता है, क्षमा में प्रवेश कर जाता है। कहा जाता है कि अहंकार मिटा दिया जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। दरअसल अहंकार को समझ लेना ही अहंकार को मिटाने जैसा है।
अहंकार को समझने के लिए जीवन में क्षमावृत्ति को बढ़ाया जाए। हमारे अपने लोग जब भूल करते हैं तो हम उनकी बड़ी से बड़ी भूलों को माफ कर देते हैं और दूसरों की छोटी से छोटी भूल पर भी उनके विरुद्ध निर्णय ले लेते हैं। हम क्षमाभाव को भी दो हिस्सों में बांट देते हैं - अपना और पराया। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिनके भीतर क्षमाभाव अधिक होता है, वे कम बीमार पड़ते हैं। ऐसा कहा जाता है कि क्रोध आए तो क्षमा से जीतो, पर कभी-कभी ऐसा करने के बाद भीतर असंतोष का जन्म हो जाता है।
अपनी ही क्षमावृत्ति पर, स्वयं पर क्रोध आने लगता है। यह असंतोष है और इसके पीछे अहंकार है। कई बार तो लोग क्षमा भी अहंकार की तुष्टि के लिए करते हैं। लोग तारीफ करेंगे, इसीलिए क्षमा कर दो। जबकि क्षमा में नि:स्वार्थभाव होना चाहिए और नि:स्वार्थभाव से जो क्षमाभाव पैदा होगा, उसमें वह समझ होगी, जो हमें अहंकार को गलाने में मदद देगी।
बर्तनों से परिवार की शांति व अशांति तय की जाती है
लोग शांति की खोज में हों, उनके लिए फकीरों ने एक प्रयोग बताया है कि चेतन के साथ जड़ वस्तुओं के प्रति जीवंत व्यवहार करें। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यदि घर में शांति चाहते हों तो बर्तनों से इस तरह पेश आएं, जैसे वे बेजान चीजें नहीं, प्राणवान वस्तुएं हैं। गृहस्थी के केंद्र में बर्तनों की महत्वपूर्ण भूमिका है। कहावत भी इसीलिए बनी - ‘घर-घर में बर्तन बज रहे हैं।’
बर्तनों से परिवार की शांति और अशांति तय की जाती है। आवेश में पटके हुए बर्तन गृहिणी की मानसिकता बता देते हैं। शास्त्रों में इन्हें ‘पात्र’ कहा गया है। इसलिए मनुष्यों को भी सुपात्र और कुपात्र का संबोधन दिया गया है। पात्र यानी जो कुछ ग्रहण कर सकता हो। जैसे ही बर्तनों से हम जीवित वस्तुओं की तरह व्यवहार करेंगे, हमारी अपनी पात्रता भी दिव्य होती जाएगी।
शास्त्रों में तो पात्रों को नारियों से जोड़ा गया है, क्योंकि स्त्रियों की जिंदगी का लंबा हिस्सा बर्तनों के साथ गुजरता है। महाभारत में द्रौपदी को एक अक्षय पात्र मिला था। उसकी विशेषता यह थी कि जब तक द्रौपदी भोजन करके इसे धो नहीं लेगी, तब तक इसमें से भोजन निकलेगा। यह प्रतीकात्मक घटना है। माताओं के हाथ में अन्न का नियंत्रण रहना पूरे परिवार की शांति का नियंत्रण है। पात्र के गर्भ में जल या खाद्य सामग्री होना ही पात्र का महत्व है।
स्त्रियों के साथ भी यही है। वे पुरुष से इस बात के लिए मूल्यवान हैं कि उनमें गर्भधारण की क्षमता है। इसीलिए परिवार में शांति के लिए यदि बेजान वस्तुओं का प्रयोग करना हो तो बर्तनों के प्रति यही भाव लाएं। पात्र जितने महत्वपूर्ण होंगे, परिवार में शांति और संस्कार उतनी ही आसानी से प्रवेश कर जाएंगे।
ज्ञान का गोदाम नहीं, समझ का उपकरण हैं शास्त्र
जीवन में अनेक बार प्रश्नों का समाधान ऐसे स्थानों से मिलता है, जहां की हम उम्मीद भी नहीं करते। इसीलिए जो लोग साधना के पथ पर रहते हैं, वे लगातार अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए शास्त्रों का सहारा लेते हैं। ये सही है कि कुछ शास्त्र समाधान कर देते हैं तो कुछ उलझा भी देते हैं। बहुत अधिक अध्ययन से ज्ञान प्राप्त हो जाए, यह जरूरी नहीं होता।
खासतौर पर धार्मिक शास्त्रों में दिए गए पात्रों के आचरण में संदेह होना स्वाभाविक है। उनके जीवन में जो चुनौतियां आती हैं, शास्त्रों के लेखक उस पर केंद्रित होकर संदेश देते हैं। शास्त्रों की कथाओं की सामग्री इसी तरह चुनी जाती है कि जीवन के प्रश्नों के उत्तर ठीक से मिल जाएं।
इसीलिए पढ़ते समय जो अनावश्यक हो, उसे अस्वीकार करने का विवेक धार्मिक पाठक को रखना होगा, क्योंकि जरूरी नहीं कि लेखक के भाव से जुड़कर पढ़ने वाले को समाधान मिल जाए। इसलिए पंक्तियों को परीक्षण के माध्यम से पढ़ना चाहिए। कई पंक्तियां परिपक्व व विकसित मन से लिखी गई होती हैं, इसलिए पढ़ते समय संतुलित और आशावादी दृष्टिकोण रखना होगा।
ऋषि-मुनियों ने अच्छाई और बुराई के संघर्ष को बताने के लिए अपने साहित्य का जो खलनायक रचा, कई बार वह एक नैतिक चुनौती भक्तों के सामने खड़ी कर देता है। पाठक को दुविधा होने लगती है कि जिसे परमात्मा कहा है, वो सही हैं या नहीं या ईश्वर मनमानी पर उतर आया है। चूंकि मनुष्य का मन प्रतिस्पर्धी होता है, इसलिए अवतारों की लीलाओं पर भी प्रश्नचिह्न् खड़ा करता है। अत: शास्त्रों को ज्ञान का गोदाम न मानकर समझ का उपकरण भी स्वीकार करना पड़ेगा।
श्रीराम की कृपा यदि है तो जीवन जैसा भी है सुंदर है
यह सवाल सबके मन में उठता है कि भगवान से जब हम रिश्ता रखें तो उनसे कुछ मांग की जाए या नहीं। कुछ भक्त कहते हैं कि जब भगवान भक्तों के मन की बात जानते ही हैं तो फिर मांगने से क्या मतलब। लेकिन कुछ का कहना है कि यह हमारा अधिकार है। वो परमपिता हैं, हम उनकी संतान हैं। दरअसल परमात्मा को देखने की हमारी दृष्टि शुद्ध नहीं होने के कारण हम परमात्मा को वैसा देखते हैं, जैसा हम देखना चाहते हैं।
हमारी धारणा हावी हो जाती है और परमात्मा के मूल स्वरूप पर एक परदा पड़ जाता है। हम छोटे हैं और वह विराट। इसलिए यह बहस भक्तों में चलती रहती है कि भगवान से मांगा जाए या नहीं। भगवान से मांगा भी जाए तो ऐसा मांगा जाए कि मांग भी लगे और न भी लगे। इस मामले में हनुमानजी का दृष्टिकोण बिल्कुल साफ है।
सुंदरकांड में जब वे अपनी बातों से मां सीता को संतुष्ट कर रहे होते हैं, उस समय इस बात को लेकर बहुत प्रसन्न हो जाते हैं कि भगवान उन पर कृपा करेंगे। अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुं बहुत रघुनायक छोहू।। करहुं कृपा प्रभु सुनि काना। निर्भय प्रेम मगन हनुमाना।। हे पुत्र! तुम अजर बुढ़ापे से रहित, अमर और गुणों के खजाने होओ। श्रीरघुनाथजी तुम पर कृपा करें। ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमानजी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए। हनुमानजी ने भक्तों को एक शब्द दिया है ‘कृपा’। यदि परमात्मा से मांगना ही है तो कृपा मांगना। इस कृपा में सबकुछ शामिल है, हमारी याचना और देने का उसका अधिकार। उसकी कृपा यदि जीवन में है तो जीवन जैसा भी है, उसी की देन है। सुंदर जीने की यही परिभाषा है।
मन को नयापन भीतर ही मिल जाए तो वह बाहर नहीं कूदेगा
मन को जो-जो चीजें पसंद हैं, उनमें से एक है बेईमानी करना। उसे नई-नई किस्म की बेईमानियां ढूंढ़ने में बड़ा मजा आता है। मनुष्य के भीतर गलत के प्रति जो प्रोत्साहन होता है, वह मन द्वारा ही फेंका गया होता है। मन की आकांक्षाएं मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं बन जाती हैं और अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति अनुचित का चुनाव करने में संकोच नहीं करता। मन को नवीनता में भी रुचि है।
जैसे कुछ लोगों का स्वभाव होता है कि वे वस्तु की उपयोगिता से ज्यादा उसके नए होने में रुचि रखते हैं। फिजूलखर्ची इसी का नाम है। हम उदाहरण ले सकते हैं आज के जीवन में मोबाइल रखना और लगातार बदलना उपयोगिता से ज्यादा लेटेस्ट का मामला है। मन इसी शैली में रिश्तों पर, सिद्धांतों पर काम करता है। जो लोग मन की रुचि से चलते हैं, वे संसार पर टिक जाते हैं। संसार की दौड़ तेजी से परिवर्तन का मामला है।
इसीलिए मन की रुचि सांसारिक कार्यो में ज्यादा होती है। अब जैसे ही हम भीतर उतरते हैं, मन को अध्यात्म से जोड़ने का क्रम आरंभ हो जाता है। अब मन छटपटाता है। इसलिए समझदार भक्त लोग मन की नवीनप्रियता को जानकर उसे भीतर ही नई-नई वस्तुएं उपलब्ध कराते हैं। भीतर जाकर जैसे ही आप अपने पुराने को काटने लगते हैं, बस वहीं से चेतना जाग्रत होती है। नई-नई कथाएं सुनना, लगातार ध्यान करते रहना हमारे भीतर हमारे अतीत के बोझ से हमको मुक्त कराता है। अब मन को नया चाहिए। यदि वो उसे भीतर ही मिल जाए तो फिर वह बाहर नहीं कूदेगा। ईश्वर के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि वो नित-नया होता जाता है। इसी का नाम जिंदगी की ताजगी है।
काम की अपनी मदहोशी होती है और सफलता का अपना नशा
आजकल व्यावसायिक जीवन में सफल लोगों के बीच इस बात की लगातार बहस छिड़ी होती है कि सफल होना हो तो समय देना पड़ेगा और किस-किस का समय चुराकर अपनी सफलता को तैयार किया जाए। यह सवाल जब अध्यात्म के सामने खड़ा किया गया तो अध्यात्म कहता है कि सवाल सफल होने का नहीं है, होश में सफल होने का है।
अत्यधिक काम की अपनी मदहोशी होती है और सफलता का अपना नशा है। दोनों ही समय आदमी अपने होश से बाहर चला जाता है। संसार को आपके पद से लेना-देना है और अध्यात्म का आपके होश से संबंध है। अवेयरनेस यदि पूरी तरह है तो किसी भी तरह की सफलता और असफलता परेशान नहीं करेगी। यह होश किस बात का नाम है। सीधी-सी बात है अपने बारे में जानकारी होना, अपने क्रियाकलाप के प्रति सजग रहना और इस शरीर के भीतर ऐसा कुछ है, जिसको चेतना कहते हैं उससे जुड़ने का नाम होश है। जिस तरह इत्र में सुगंध, अगरबत्ती के धुएं में खुशबू और चंदन में महक होती है, उसी प्रकार आप फूलों के राजा गुलाब को देखिए, किसी भी स्थिति में उसकी महक और खूबसूरती अलग ही अंदाज में होती है।
शायद इसीलिए उसको फूलों का राजा कहा गया है। उसमें गुलाबीपन होता है। अलग-अलग रंग के गुलाब हों तो भी आप गुलाबीपन पकड़ सकते हैं। इसी तरह आदमी में होश जाग जाए तो वो किसी भी पद पर हो, किसी भी क्षेत्र में हो, कोई-सा भी काम कर रहा हो, एक अलग अंदाज में, अलग सुगंध के साथ करेगा। लोगों को महसूस होगा कि इसमें कुछ बात है और वही बात हमें भीतर से शांत और बाहर से सफल रखेगी।
विपरीत परिस्थिति में भी कीचड़ में कमल की तरह खिले रहें
नवजात शिशुओं की इंद्रियों की स्थिति एक जैसी होती है। आधि-व्याधि के कारण कुछ अपवाद को छोड़ दें तो जन्म के समय और मौत के वक्त सभी देह एक जैसी रही है। पैदा होने के बाद धीरे-धीरे हालात बदलते हैं, लालन-पालन, माता-पिता, समाज-खानदान के द्वारा दिए गए सुख-दुख, सुविधा-दुविधा, अभाव और सहयोग से मनुष्य का व्यक्तित्व बदलने लगता है।
धीरे-धीरे जैसे ही समझ बढ़ती है, पहली चुनौती यह सामने आती है कि यदि जीवन में सुविधाएं हैं और आप बन गए तो यह एक सामान्य प्रक्रिया होगी, लेकिन यदि अभाव हो, संघर्ष हो, विपरीत परिस्थिति हो और उसके बाद भी हम कुछ बन जाएं, तब लगेगा जीवन जिया। भारतीय संस्कृति ने कमल के फूल को बड़ा महत्व दिया है।
इसके पीछे एक बहुत अच्छा दर्शन है। कमल का फूल विपरीत परिस्थितियों में खिलता है। कीचड़ में रहकर भी उसकी प्रतिष्ठा है। खूबसूरती उसकी भी निर्दोष है। कमल का फूल एक संदेश देता है कि आपको जीवन में कितना और क्या मिला, इससे ज्यादा जरूरी यह है कि उस मिलने की क्रिया में आप कितने प्रसन्न और सहमत रहे।
जिंदगी में कितना ही उल्टा-सीधा घट जाए, आपको खिलना ही है। हर सफलता आपका सृजन है। कीचड़, जल और सूर्य की किरणों अलग-अलग शक्लों में हमारे सामने आएंगी ही, लेकिन हमें हर हाल मंे कमल बनकर न सिर्फ खिलना है, बल्कि परमात्मा के लिए पुष्पांजलि का गौरव भी प्राप्त करना है। एक और बात, कमल के फूल की नाल बड़ी लंबी होती है। खिले हुए व्यक्तित्व अगर गहरे हो जाएं तो उन्हें परमात्मा तक पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता।
दृढ़ व्यक्ति बाधाओं के निदान में शॉर्टकट नहीं ढूंढ़ता
दृढ़ रहना एक तपस्या है। संसार में जिसको अनुशासन का नाम दिया गया है, धर्म ने उसे दृढ़ता कहा है। धर्म हमेशा संसार के मामलों में गहराई से उतरकर सोचने का नाम है। अनुशासन में यदि दृढ़ता आएगी तो ही अनुशासन का पालन हो सकेगा, वरना अनुशासन भी एक आवरण बनकर जाएगा।
जिन्हें भक्ति करनी हो, जो अपने व्यक्तित्व में भलाई उतारना चाहते हों, जो लोग तनाव-असफलता के बाद भी गलत रास्ते पर नहीं जाना चाहते, उन्हें दृढ़ता का मतलब समझना होगा। जब मनुष्य धर्म के मार्ग पर दृढ़ होता है, तब वह केवल धार्मिक नहीं होता, वह परंपरा और मूल्यों में भेद समझ जाता है। बाधाओं के आने पर उसे भ्रम नहीं होता।
वह उनके निदान में शॉर्टकट नहीं ढूंढ़ता। उसके व्यक्तित्व की दृढ़ता उसके कदमों में भी होती है। इसीलिए ऐसे लोगों के पैर गलत मार्ग की ओर उठते ही नहीं हैं। यदि कभी मार्ग ही गलत हो जाए तो फिर चलते नहीं हैं। दार्शनिकों ने कहा है कि धर्म का निर्वहन दृढ़ता से ही होता है। यहां धर्म का अर्थ सांप्रदायिकता न लिया जाए।
दरअसल बिना दृढ़ हुए आप धार्मिक हो ही नहीं सकते। दृढ़ व्यक्ति आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति के अर्थ जल्दी समझ लेगा। दृढ़ व्यक्ति वासनाओं से टकराने में थकेगा नहीं। उसकी दृढ़ता उसके निर्णयों को गलत होने से रोकेगी। जो लोग एक क्षेत्र में सफल हैं, जरूरी नहीं कि दूसरे क्षेत्र में भी सफल ही हों। शिक्षा के क्षेत्र में सफल लोग चरित्र में असफल हो जाते हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में सफल लोग परिवार पालन में चूक जाते हैं। ये दृढ़ता की कमी के उदाहरण हैं। कहीं न कहीं समझौता करने के फलस्वरूप जीवन में चूक हो जाती है।
जैसे ही मन के प्रति होश जागा शांति का जन्म होने लगेगा
शांति की खोज करना आजकल फैशन-सा हो गया है, लेकिन यदि प्रक्रिया गलत हो तो परिणाम सही कैसे निकलेंगे? शांति कहां और कैसे मिलती है, इसके लिए सभी धर्मो के फकीरों ने जो रास्ता बताया है, वो लगभग एक जैसा है। हम लोग चाल बदलने से रास्ते को भी बदला हुआ मानते हैं। सारे रास्ते वहीं जा रहे हैं, लेकिन हमारी चाल-ढाल के बदलाव के कारण लोगों ने हानि-लाभ को मार्ग से जोड़ दिया है। शांति ऐसे खोजी जा रही है, जैसे बाजार में सामान ढूंढ़ा जाता है। फिर सौदा किया जाता है। अगर जम गया तो बढ़िया पैकिंग के साथ घर लाया जाता है। कुछ लोग सामान उपहार की तरह खरीदते हैं जो दूसरों को भेंट कर देते हैं।
शांति के साथ ऐसा ही किया जा रहा है। लोग समझते हैं, क्रोध व हिंसा के अभाव का नाम शांति है। कुछ लोग मानते हैं कि मोक्ष की तरफ चल देने में शांति है। कुछ लोग समझ रहे हैं कि बाहर निकलने के सारे दरवाजे बंद कर दिए जाएं तो शांति मिल जाएगी। दरअसल पता लग जाए कि शांति कहां हो सकती है तो भी उपलब्धि आसान रहेगी। थोड़ा उल्टा समझें। अशांति का केंद्र पकड़ लें और वह मन होता है। मन तक पहुंचने की कोशिश की जाए और जैसे ही मन के प्रति होश जागा कि अपने आप शांति का जन्म होने लगेगा। इसलिए शरीर पर टिकेंगे तो भूतकाल में रुचि बढ़ेगी। अगर भविष्य पर टिकेंगे तो मस्तिष्क सक्रिय हो जाएगा। लेकिन यदि वर्तमान में टिकेंगे तो मन पर काम करना पड़ेगा। मन चूंकि भीतर और बाहर के बीच में एक सेतु की तरह है। यदि आपने पुल को ठीक से समझ लिया तो दोनों किनारों का सही उपयोग करना सीख जाएंगे और इसी के परिणाम में शांति मिलेगी।
अचूक, अतुलनीय और अद्भुत होता है मां का आशीर्वाद
अपने प्रयासों को करते समय यदि अन्य कोई सहारा मिलने लगे तो थोड़ी राहत हो जाती है। करना हमें ही है, लेकिन कुछ बातें सहायक हो जाती हैं। हमारे यहां आशीर्वाद और वरदान की परंपरा है। रावण को खूब वरदान मिले, लेकिन अहंकार के कारण उसके सारे वरदान शाप में बदलते गए। एक दौर ऐसा भी आया कि रावण सिर्फ शाप का ही संग्रह कर रहा था।
सामान्यत: वरदान तप से या किसी सक्षम व्यक्ति को प्रसन्न करके पाया जाता है। श्रीराम ने वरदानों से अधिक आशीर्वाद को प्राथमिकता दी। बड़े-बड़े जब आशीर्वाद देते हैं तो वे किसी दबाव में नहीं होते। वरदान कई बार अपने तप से दूसरे पर दबाव डालकर लिया जाता है, जबकि आशीर्वाद स्वेच्छा के साथ दिया जाता है।हनुमानजी के पास वरदान और आशीर्वाद दोनों भरपूर थे। सीताजी ने प्रसन्न होकर हनुमानजी को भरपूर आशीर्वाद दिया। तब हनुमानजी ने कहा - बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।। अब कृतकृत्य भयउं मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता।।
हनुमानजी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा - हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है। आशीर्वाद को लेकर हनुमानजी ने कृतकृत्य शब्द का उपयोग किया है।कृतकृत्य का अर्थ है इसके बाद करने के लिए, पाने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया। मां का आशीर्वाद अपने आप में परिपूर्ण होता है और हनुमानजी ने घोषणा कर दी कि मां का आशीर्वाद अचूक, अतुलनीय और अद्भुत है। हर हालत में इसे अपने जीवन में बनाए रखना चाहिए।
विनम्र होने के लिए हमें प्रकृति से सीखना चाहिए
जिसने इस संसार को बनाया है, उस परमशक्ति के सारे गुण यदि हम देखना चाहें तो हमें प्रकृति को देख लेना चाहिए। प्रकृति में अस्तित्व है, लेकिन ‘मैं’ का बोध नहीं है। वह अहंकाररहित है, इसलिए अत्यधिक विनम्र है। वह परमात्मा के सृजन की अभिव्यक्ति है। संतुष्ट होकर विनम्र होने और असंतुष्ट रहकर विनम्र रहने में अंतर है।
हम प्रकृति के तत्वों को देखें तो उनका मूल स्वभाव हितकारी होता है। जो लोग अपने भीतर विनम्रता का भाव लाना चाहते हों, उन्हें प्रकृति से सीखना चाहिए। हमें क्या मिल रहा है और हम क्या दे रहे हैं। इसमें अहंकार व स्वार्थ को दूर रखकर निर्णय लिया जाए, क्योंकि यदि हम मैं और निजहित की भावना से भरे हुए हैं तो हम अपने हक के बारे में जागरूक रहेंगे, लेकिन दूसरों के हित के प्रति अनजान बने रहेंगे।
इसलिए थोड़े समय प्रकृति के पंच तत्वों से इर्मानदारी से जुड़ा जाए। हम पृथ्वी से जुड़ने पर धर्य की शक्ति पाएंगे। जल के संपर्क में आते ही सरलता का भाव जागेगा। अग्नि से हमें दृढ़ता व निष्पक्षता जैसे गुण मिलेंगे। वायु हमें सक्रिय रखेगी और आकाश विशालता का बोध देगा। इसलिए थोड़ा समय प्रकृति के आसपास एकांत में रहकर गुजारा जाए।
इसका एहसास जितना गहरा होगा, परमसत्ता की अनुभूति उतनी ही सरल हो जाएगी। हम सब परमेश्वर का हिस्सा हैं, लेकिन प्रकृति के माध्यम से। भगवान के उन्मुक्त होने के लिए ये प्रकृति हमारा सहारा है। लगातार संसार में रहते हुए हम एक अजीब से प्रदूषण और दरुगध के शिकार हो जाते हैं। हमारी नाक दरुगध को ही सुगंध समझने लगती है, लेकिन प्रकृति से जुड़ते ही हमें सुगंध का सही स्वरूप पता लगेगा।
कर्म की आध्यात्मिक प्रक्रिया के प्रति थोड़ा जागरूक हो जाएं
अध्यात्म के क्षेत्र में तीन शब्द प्राय: आते हैं - ज्ञान, कर्म और उपासना। जैसे-जैसे इनसे परिचय बढ़ाएं इनके रूप सामने आने लगते हैं। आजकल कर्मप्रधान विश्व है। जिसे देखो वह अपने कामकाज में लगा है, इसलिए कर्म की आध्यात्मिक प्रक्रिया के प्रति थोड़ा जागरूक हो जाएं।
शक्तिपात के गुरु विष्णुतीर्थजी कहा करते थे कि कर्म दो श्रेणी में रखे जाते हैं - काम्य और नित्य कर्म। किसी फल प्राप्ति की इच्छा से, उस फल को निमित्त बनाकर जिस किसी कर्म का अनुष्ठान किया जाता है, ऐसे सब कर्म काम्य कर्मो की श्रेणी में आते हैं।
नित्य कर्म जैसे संध्यावंदन, पूजा-प्रार्थना आदि हमारे धार्मिक कर्तव्य हैं। इनमें कर्ता फल की कामना नहीं करता व कर्म आम दिनचर्या के अंग होते हैं। मनुष्य के पूर्व-संचित संस्कार मन में विभिन्न कामनाएं जाग्रत करते रहते हैं। इन पर विजय प्राप्त करने के लिए वह परमशक्ति के प्रति समर्पित बुद्धि से काम्य कर्म करता है।
इस विषय पर दो मत हैं - पहला, सब कर्म दोषयुक्त हैं, सभी का त्याग उचित है। दूसरा है यज्ञ, दान और तप ये ऐसे कर्म हैं, जो त्याज्य नहीं हैं। त्याग भी सात्विक, रजोगुणी और तमोगुणी होता है। मोह से कर्मो का त्याग तमोगुणी, भय व कष्ट कठिन मान, दुख रूप त्याग रजोगुणी और कर्तव्य समझकर जो नित्य कर्म फल की इच्छा न रखकर किया जाता है, उसे सात्विक त्याग कहा जाता है। कर्म की इस भूमिका को समझकर हम अपने जीवन में इसके प्रयोग करें। रोजी-रोटी कमाना है, लेकिन इस काम को हम रज, तम या सत किस भाव से जोड़कर कमाते हैं, उसी से उसका परिणाम शांति और अशांति देगा।
शांति चाहिए तो अपने श्रवण, रुचि और क्षमता पर ध्यान दें
बोलना और सुनना हमारी फितरत में शामिल है। कुछ लोगों को बोलने की बीमारी-सी हो जाती है। इसी तरह सुनने का भी नशा होता है। जब सुनने की इच्छा खूब होने लगती है तो आदमी दूसरों की बातों में रुचि लेने लगता है। क्या सुना जाए, भक्ति के क्षेत्र में यह भी आवश्यक है, क्योंकि हमारे जीवन में और इस ब्रहांड में बहुत कुछ अनसुना भी मौजूद है। भजन, कीर्तन आध्यात्मिक प्रतिध्वनि होते हैं। इनके बोल जागरूकता के लिए प्रेरक बन जाते हैं। जिन्हें शांति की तलाश हो, वे अपने श्रवण, रुचि और क्षमता पर थोड़ा ध्यान दें।
ऐसा न सुनें, जो आवश्यक न हो और ऐसा जरूर सुनें, जो हमें और गहराई में ले जाए। इसलिए मेडिटेशन के समय शास्त्रीय संगीत की कुछ धुनें बड़ी काम आती हैं। कभी-कभी तो हमें ऐसा लगता है, जैसे ये स्वर हमें हौले-हौले हमारे ही भीतर गहरे ले जा रहे हों।
अंदर जाते समय जरा भी लड़खड़ाहट हो तो संगीत हमें संभाल लेता है। इसे ही साउंड ऑफ साइलेंस कहेंगे। थोड़ा समय इसे सुनने का प्रयास करें, क्योंकि हम सब शून्य से घबराते हैं। थोड़ा समय आंखें बंद करके जब बैठेंगे तो जो मौन, शून्य भीतर घटता है, उससे घबराहट होगी, क्योंकि आंखें बंद करते ही अंधेरा छा जाता है और अंधेरे में जैसे हम चलते समय किसी भी चीज से टकराते हैं, वैसे ही भीतर के अंधेरे में भी हड़बड़ाहट शुरू होती है।
थोड़ा-थोड़ा अभ्यास रोज करें। थोड़ी देर अधिक अंधेरे में रहो तो उस स्थान पर चलने का अभ्यास हो जाता है। आंखें बंद हों और कानों से कुछ ऐसा सुनें, जो हमें अपने ही भीतर उस अनसुने की ओर ले जाएगा, जिसे सुनकर गहरी शांति मिलेगी।
शिवरात्रि का संदेश है कल्याण की भावना अपने भीतर उतारना
शिवरात्रि पर देश में शायद ही कोई शिव मंदिर बचता हो, जहां लोग जलाभिषेक न करते हों। शिवरात्रि की कथाआंे में जितने संदेश हैं, उनका सार है कल्याण की भावना अपने भीतर उतारना। कल्याण करना आसान नहीं होता, दो चीजें आड़े आती हैं - निजहित की भावना और अहंकार का ख्याल।
अहंकारी यदि कल्याण भी करेगा तो परहित के लिए नहीं, अहंकार के पोषण के लिए। शिवलिंग को जल से जब अभिषेक कराते हैं तो भावना यह होती है कि भगवान भोलेनाथ संतुष्ट हो रहे हैं, लेकिन उसी समय यह भी कल्पना करनी चाहिए कि हम अपने अंतर्मन को धो रहे हैं और हमारा अहंकार गल रहा है, क्योंकि भगवान भोलेनाथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे बहुत सरल हैं। सरलता अहंकार मिटाने में सहयोगी होती है। आजकल कोई भी सरल रहना पसंद नहीं करता।
शिवपूजा हमारे भीतर के अहंकार को हमसे छीनने की क्रिया है। जीवन में अहंकार का भराव जितना अधिक होगा, परमात्मा के लिए रिक्त स्थान उतना कम होगा। इसीलिए हम भगवान को आमंत्रित तो करते हैं, लेकिन उन्हें जीवन में बैठाएं कहां, इसके लिए स्थान नहीं दे पाते।
जिस परमात्मा ने हमें इस संसार में जीवन नाम का स्थान दिया है, उसी के लिए हम जगह नहीं दे पा रहे हैं। शिवलिंग पर जल चढ़ाने का अर्थ है, हो रहा है तो होने दो। जिस दिन जीवन को इस दृष्टि से देखेंगे कि घटनाएं जल की तरह हमारे ऊपर आ और जा रही हैं, हम शिव की तरह अपनी सरलता को बचाए रखें, तो अहंकार भी गलेगा, पूजा भी सार्थक होगी और शिवरात्रि की एक रात आने वाले पूरे ३६५ दिन संवार देगी।
मां के हाथों से बना हुआ भोजन अमृत बन जाता है
अब विज्ञान भी मानता है कि भोजन का असर मानसिक शांति पर पड़ता है। आप कैसा भोजन कर रहे हैं, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है किसके हाथों का भोजन कर रहे हैं। इसलिए हर दिन के भोजन को एक अवसर मानकर सावधानी से उसका लाभ उठाना चाहिए। भोजन के महत्व पर तुलसीदासजी ने लिखा है।
सुंदरकांड में अशोक वाटिका में हनुमानजी और सीताजी की बातचीत चल रही थी - सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।। हे माता! सुनो, सुंदर फलवाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है। सारा संदेश देने के बाद जब हनुमानजी को मां सीताजी से आशीर्वाद मिल गया, तब हनुमानजी ने सीताजी के सामने एक विचित्र मांग रख दी।
वे सीताजी से भोजन मांगते हैं। सीताजी को भी दुखमिश्रित आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा भी कि बेटा यदि अयोध्या होती तो मैं तुझे छप्पन भोग खिला देती। अब यहां लंका में तेरे लिए भोजन की व्यवस्था मैं कैसे करूं? दरअसल हनुमानजी का मानना था कि वे जबसे लंका की ओर चले हैं, जो मिल रहा है, वो खाने की बात करता है।
सुरसा, सिंहिका, लंकिनी तीनों ने ही हनुमानजी को खाने के लिए अपना आक्रोश दिखाया था। हनुमानजी का मानना है कि सभी मुझे खाने की कोशिश में थे, किंतु यदि भोजन कोई करा सकता है तो मां ही करा सकती हैं। सीताजी और हनुमानजी के इस संवाद में मां के हाथों के भोजन को स्थापित किया गया है। परमात्मा ने यह नियामत सिर्फ मां को दी है कि उसके हाथ का भोजन अमृत बन जाता है। संभवत: हनुमानजी इसी की ओर संकेत कर रहे थे।
कोई भी बीमारी होने पर सबसे पहले कारण का पता लगाएं
जिसे देखो, उसे कोई न कोई बीमारी चिपकी हुई है। किसी ने कोशिश करके यदि शरीर को स्वस्थ रख भी लिया है तो कहीं भीतर से परेशानी पाल रखी होगी। हमारे शरीर की रचना इस तरह से है कि यदि एक भी हिस्सा परेशानी में होगा, अस्वस्थ होगा तो भीतर ही भीतर तुरंत शरीर के दूसरे हिस्सों पर उसका प्रभाव पड़ेगा ही। सिर दुखेगा तो पूरा शरीर असहज हो जाएगा। दुखते सिर से हाथ उठाकर काम करने में भी कष्ट होगा।
इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने बीमारी होने पर उसके संबंधों के प्रति जागरूक रहने के लिए कहा है। कोई भी व्याधि आए तो सबसे पहले ध्यान दिया जाए कि इसके पीछे कारण क्या हो सकता है। हमारा खान-पान, नींद, परिश्रम, विश्राम, काम-धंधा, लोगों से संबंध ये सब बीमारियों के आने के रास्ते हैं। इसलिए जब बीमारी आए तो बाहर से इन रास्तों पर नियंत्रण रखा जाए। साथ ही भीतर की व्यवस्था को भी समझ लिया जाए, क्योंकि जब हम इलाज कर रहे होते हैं तो सामान्य रूप से हम औषधि पर ही आश्रित हो जाते हैं।
वह औषधि हमारे भीतर शरीर में जैसे विचरण करके अपना प्रभाव डालती है, उस समय उसकी मदद के लिए हमें हमारे भीतर चल रहे जीवन ऊर्जा के प्रभाव को सहज बनाना होगा। जीवन ऊर्जा सात केंद्रों से होकर बह रही है। हमें इसके बहाव को बिना रुकावट के सक्रिय रखना होगा, क्योंकि प्रत्येक केंद्र एक चिकित्सा परामर्श केंद्र जैसा है। स्वास्थ्य की अभिव्यक्ति हमेशा भीतर ही होगी और बीमारी की घोषणा हमेशा बाहर से होती है। जितना हम इनके आवागमन से स्वयं को जोड़ लेंगे, उतना स्वास्थ्य के निकट होंगे।
मुक्त रहने का भाव हमारे मन को शांति पहुंचाएगा
आवश्यकता और इच्छा का भेद लंबे समय से हमें समझाया जाता है। भारतीय संस्कृति में घोषणा की गई है कि साधु आवश्यकता में जीता है और संसार इच्छा में। दोनों का संबंध भीतर इंद्रियों से होता है। इंद्रियों की मांग आवश्यकता से शुरू होती है और इच्छा में बदल जाती है।
इसमें मन की बड़ी भूमिका होती है। जब हम भीतर के सिस्टम को जान नहीं पाते और बाहर ही बाहर टिक जाते हैं, तब इच्छाएं एक दिन प्रबल होकर हमें पूर्ति के लिए गलत मार्ग पर ले जाती हैं। आज के समय में लोगों ने इच्छाएं इतनी प्रबल कर ली हैं कि उन्हें जो पाना है, एक तो जल्दी पाना है और दूसरा येन केन प्रकारेण प्राप्त करना ही है।
जिसकी इच्छा की जा रही है, वह सही है या गलत, इसकी भी फिक्र नहीं की जाती। जो इंद्रियों से बाहर इच्छा के रूप में सक्रिय हो जाती है। यहीं से आदमी कुछ चीजों में बंध जाता है। बंधन अशांति का कारण है, मुक्त रहने का भाव शांति पहुंचाएगा। मन सक्रिय हुआ कि मनुष्य इच्छाओं में बंध गया। फिर इच्छाएं काम, क्रोध, मद, लोभ की शक्ल में हमारे आसपास मंडराती हैं।
मोटे तौर पर हमें समझा दिया जाता है कि यह सब बुरे हैं, तो लोग इनकी उल्टी यात्रा पर चल देते हैं। क्रोध दबाने के लिए करुणामय हो जाते हैं, लोभ मिटाने के लिए दान करने लग जाते हैं। मन तब भी सक्रिय होता है। मन चलायमान है और करुणा प्रदर्शित हो रही है तो वह भी क्रोध के आसपास अहंकार को जन्म देगी। इसलिए जिन्हें अपनी इच्छाओं के प्रति नियंत्रण की भावना हो, वे भीतर जाकर मन पर काम करें। निष्क्रिय मन आवश्यकता और इच्छा दोनों में शांति प्रदान करेगा।
पसंद और नापसंद का काम भी आपकी मेहनत से जुड़ा है
जब हम मेहनत से धन कमा रहे होते हैं तो जितना संतोष मिलता है, उतना ही इस बात का आग्रह बढ़ता जाता है कि और कमाया जाए। इस और की मांग में आदमी मेहनत की वो सीमारेखाएं लांघ जाता है, जहां के बाद मेहनत भी दोष बनने लगती है। हरेक के अपने परिश्रम की सीमा है। कोई एक घंटे काम करके थक जाता है तो कोई २ घंटे काम करके भी तरोताजा रहता है।
आपकी पसंद-नापसंद का काम भी आपकी मेहनत से जुड़ा है, लेकिन मेहनत व्यवहार से नहीं, स्वभाव से की जाए। आज संसार में अधिकांश लोग अपने परिश्रम को व्यवहार से जोड़कर चल रहे हैं। पैसा कमाना व्यवहार का विषय हो गया है, इसीलिए कुछ लोग जमकर मेहनत करते हैं और कुछ भरपूर कामचोरी करते हैं।
केवल व्यवहार से करने पर दोनों ही स्थितियों में दोष सामने आएंगे। इसीलिए परिश्रम को सेवा से जोड़ दें। सेवा व्यवहार नहीं, स्वभाव का विषय है। शास्त्रों में स्वभाव से जीने का अर्थ है अपनी आत्मा के निकट रहकर जीना। स्वभाव से जो परिश्रम किया जाएगा, उसके भीतर क्रोध का अभाव होगा, इसमें शांति सहज हो जाएगी।
आप व्यक्तियों से वैसा व्यवहार करेंगे, जैसा परमात्मा से किया जाता है। आप संबंधों को सतह पर नहीं देखेंगे, लोगों के भीतर झांकने की कला आ जाएगी। स्वभाव में जीते हुए भीतर ब्रह्म का अनुभव होता है और बाहर ब्रह्मचर्य का। सैकड़ों लोगों की बेचैनी आप अपनी शांत स्थिति से दूर कर पाएंगे। जब आप किसी को दे रहे होंगे या ले रहे होंगे, दोनों में निष्काम रहेंगे और परिश्रम आपको कभी थकाएगा नहीं।
पूरी दुनिया जादू जैसी है और परमात्मा सबसे बड़ा जादूगर
जब भी हम जादू देखते हैं, हर्षित भी होते हैं और विस्मित भी। हमें अच्छा भी लगता है और उसके भीतर झांकने की इच्छा भी होती है। इस रहस्य को यदि जीवन से जोड़ें तो समझ में आएगा कि पूरी दुनिया एक जादू जैसी है और परमात्मा सबसे बड़ा जादूगर है। इंद्रजाल में कल्पना का बड़ा महत्व होता है।
जादूगर आपको एक अलग कल्पनालोक में ले जाता है और वहीं से हमें जादू का अहसास होता है। अच्छे जादूगर जादू दिखाएं या न दिखाएं, लोग कल्पना जरूर बदल लेते हैं। भगवान ने इसी फिलॉसफी से दुनिया बना दी। लोगों ने इस व्यवस्था में अपना कल्पनालोक जोड़ दिया।
बस इसीलिए यह संसार है तो एक जैसा, लेकिन सबको अलग-अलग लगता है। लोग कल्पना में ही भोग कर रहे हैं और उसी से त्याग हो रहा है। जब तक यह कल्पना है, आप सत्य से दूर हैं और अशांत रहेंगे। इसीलिए संसारी लोग सोचते हैं कि दुनिया को जमकर भोग लो तो सुख मिल जाएगा। कल्पना की उनकी अपनी दुनिया है और आखिर में वे दुख पाते हैं।
जो भक्त हो जाते हैं, साधु-संत की वृत्ति में उतरने की कोशिश करते हैं, वे भोग जैसी तीव्रता से ही त्याग करने लगते हैं, कल्पनालोक से बाहर तब भी नहीं आते।
इसलिए जितना दुखी भोगी होता है, उतना ही दुखी त्यागी भी हो जाता है। लेकिन परमात्मा कहता है कि संसार वैसा ही है, तुम अपने आप में स्वयं को पहचान लो। जैसे ही आपको अपने होने का बोध होगा, आप समझ जाएंगे कि मेरा होना ही मेरा संसार है। लेकिन बोध से हटकर कल्पना में उतरें तो संसार तो वही रहता है, पर हम कल्पना का संसार बना लेते हैं और इस टकराहट से अशांति पैदा होती है।
वस्तुएं उपयोग के लिए हैं पर हम उन्हें आत्मा से चिपका लेते हैं
हम जिंदगी में विकास करना चाहते हैं। इसीलिए हमारे प्रयासों में फैलाव होता है। जो भक्ति कर रहे हैं, वे भक्ति का विस्तार करते हैं। शक्ति वाले शक्ति को बढ़ा रहे हैं। धन वाले धन के फैलाव में लगे हैं। इन सबमें कोई दिक्कत नहीं है। विकास और प्रगति होनी ही चाहिए, अन्यथा योग्यता का क्या मतलब रहेगा? फिर खतरे कहां हैं, इस पर विचार किया जाए। दरअसल, जब इन प्रयासों में ‘मैं’ प्रवेश कर जाता है, तब ये सारे विस्तार मेरे का विस्तार हो जाता है और ये ‘मेरा’ बहुत खतरनाक है, अशांति लाता है। इसीलिए हमारे यहां योग का एक लक्षण अपरिग्रह बताया गया है।
परिग्रह मतलब चीजों को समेटना, इकट्ठा करना, मैं के भाव से। महावीर स्वामी का एक वचन है - परिग्रह अपने आप में एक हिंसा है। बात बड़े पते की है, क्योंकि चीजों को इकट्ठा करते-करते हम भूल ही जाते हैं कि वस्तुएं हमारे उपयोग के लिए हैं, पर हम उन्हें आत्मा से चिपका लेते हैं। फिर हम और वस्तु एक हो जाते हैं, यहीं से दुख शुरू हो जाता है। अब जब मेरी वस्तु, मेरे अधिकार का भाव जागता है तो इस बात की चिंता भी शुरू हो जाती है कि कहीं दूसरा इस पर अधिकार न जमा ले। पहले झगड़ा था अब युद्ध शुरू हो जाता है। पहले बैर था, अब शस्त्र बीच में आ जाते हैं और आदमी हिंसक हो जाता है।
महावीर स्वामी ने हिंसा की बात इसीलिए कही है। चीजें कभी किसी को नहीं जानती हैं। उदाहरण के तौर पर यदि हम मकान के लिए झगड़ रहे हैं तो मजेदार बात यह है कि मकान वहीं रहता है और हम झगड़ रहे होते हैं। यही बात जमीन पर भी लागू होती है। परिग्रह का अर्थ ही यह है कि हम हमारे और वस्तुओं के बीच के भेद को समझ सकें।
जीवन तभी सुंदर है जब हमारे पास बुद्धि और बल दोनों हों
आज के युग में बुद्धि और बल में निपुणता का नाम ही योग्यता है। सुंदरकांड में हनुमानजी ने मां सीता से भोजन मांगा था। तब सीताजी ने हनुमानजी से कहा - अशोक वाटिका में जाकर फल खा लो, लेकिन वहां बड़े-बड़े योद्धा हैं। इस पर हनुमानजी ने तत्काल टिप्पणी कर दी कि मुझे उनका डर नहीं है।
भक्त निर्भय होता है, क्योंकि उसे परमात्मा पर भरोसा होता है। सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी।। सीताजी ने कहा - हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं। हनुमानजी का जवाब था - तिन कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।। हे माता! यदि आप मन में सुख मानें, प्रसन्न होकर आज्ञा दें तो मुझे उनका भय बिल्कुल नहीं है। जिस आत्मविश्वास से हनुमानजी सीताजी को कह रहे थे, एक क्षण के लिए सीताजी को लगा कि कहीं यह अतिशयोक्ति तो नहीं है।
फिर हनुमानजी से किया हुआ वार्तालाप याद आया। सीताजी जानती थीं कि अशोक वाटिका में प्रवेश करने का अर्थ है सीधे रावण तक पहुंचना और रावण के सामने केवल बल से काम नहीं चलेगा, बल के साथ-साथ बुद्धि भी चाहिए। वे हनुमानजी के भीतर दोनों को संयुक्त रूप से देख चुकी थीं। देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।। हनुमानजी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा - जाओ। हे तात! श्रीरघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ। हनुमानजी के माध्यम से हमें यह संदेश मिलता है कि जीवन तभी सुंदर है, जब हमारे पास बुद्धि और बल दोनों हों।
हमारे मूड का कंट्रोल दूसरों के हाथों में रहता है
सबसे बड़ी विजय है अपने स्वभाव का स्वामी बनना। इसका अर्थ है जीवन पर स्वयं का नियंत्रण। अभी हमारा जीवन दूसरों से संचालित है। दूसरों की टिप्पणियों और राय से हमारा दिनभर तय होता है। हमारे मूड का कंट्रोल दूसरों के हाथों में रहता है। इसका कारण है मन पर हमारा ज्यादा टिकना। मन को दूसरों में रुचि होती है। बुद्धि को व्यवस्थित रखना हो तो ज्ञान काम आता है।
भक्ति से भावनाएं संभाली जाती हैं, लेकिन मन को नियंत्रित करना हो तो साधना करनी पड़ेगी। केवल साधना से भी काम नहीं चलेगा। दरअसल मन का सबसे अच्छा नियंत्रण ध्यान या मेडिटेशन द्वारा ही होगा। इंद्रियों और मन को प्रशिक्षित करने की क्रिया ध्यान है।
हमारी आंतरिक बेचैनी का केंद्र मन ही होता है। भारतीय संस्कृति ने साधना के जितने रूप बताए हैं, उनमें एक है जागरण। यह भी एक तरह की साधना है, जिसमें श्रवण द्वारा मन को नियंत्रित किया जाता है। आजकल भक्ति की दुनिया में जागरण का बहुत जोर है। जागरण को केवल एक रतजगा न मानें। ये तो परमपिता और जगद्माता की गोद में समय बिताने जैसा है।
जागरण एक तरह का उपवास है। इसका शाब्दिक अर्थ है परमात्मा के पास बैठना। उपवास में हम इंद्रियों पर अपने नियंत्रण के प्रयोग करते हैं। उपवास का साधारण अर्थ समझा जाता है कि अन्न का भोजन नहीं करना, यानी पेट भरने के मामले में नियंत्रण। लेकिन मामला केवल उस उदर का नहीं है, जहां भोजन भरा जाता है। सच तो यह है कि हर इंद्रिय का अपना पेट होता है, जो उसके विषय से भरता है। जागरण करें या उपवास, अभ्यास यह करें कि मन पर नियंत्रण सधे। यहीं से शांति व सुकून मिलेगा।
बाहरी रिश्तों के समान ही हमें स्वयं से भी रिश्ता बनाना चाहिए
संसार में रहते हुए हम अनेक लोगों से रिश्ते बनाते हैं। हर रिश्ता एक दायित्व होता है। दायित्व बोध आध्यात्मिक जागृति के लिए भी आवश्यक है। जिस तरह हम बाहरी रिश्ते बनाते हैं, हमें स्वयं से भी अपना रिश्ता बनाना चाहिए। इस बात पर बराबर नजर रखनी चाहिए कि हमारे स्वयं से रिश्ते कैसे हैं। क्या हम उसका निर्वहन ठीक से कर रहे हैं? दरअसल स्वयं से रिश्ता बनाने के लिए अपने भीतर उतरना पड़ता है।
अध्यात्म कहता है - मनुष्य भविष्य में झांकने में रुचि रखता है। भविष्य में चुनौतियां हो सकती हैं, लेकिन अनुभव नहीं होता। अतीत में स्मृतियां होती हैं, इसलिए अपने अतीत से अनुभव प्राप्त करना चाहिए। अतीत का अनुभव हमें न सिर्फ पीछे ले जाता है, बल्कि अपने भीतर उतरने में भी मदद करता है।
मनुष्य अपने भीतर जाकर ही जान सकता है कि यहां हमारा रिश्ता अपनी चेतना से हो जाता है। ध्यान रखें, भीतर उतरते समय अहंकार एक बाधा है, इसे जरूर दूर किया जाए। बाहरी रिश्ते निवेश के लिए होते हैं और भीतर का रिश्ता बोध के लिए बनता है। जैसे ही हम स्वयं से रिश्ता बनाते हैं, हमारे आसपास एक दैवीय शक्ति सुरक्षा के लिए सक्रिय हो जाती है।
ध्यान हमारे लिए सरल होने लगता है। हमें बाहर की स्थितियों से विराम मिलने लगता है, हमारी आत्मा को उसकी खुराक प्राप्त हो जाती है। भीतर उतरते ही हमें अपने जीवन में कुछ परिवर्तन महसूस होंगे। कुछ लोग इन परिवर्तनों से घबरा जाते हैं, लेकिन ये परिवर्तन एक उपलब्धि है। यह हमारे विश्वास को बढ़ाएंगे। हमारे आसपास सौंदर्य, शांति और सुख की वृद्धि करेंगे। इसलिए इस रिश्ते को जीवन में जरूर पैदा करें।
जीवन में जब तनाव आए तो उसे चुनौती मानकर स्वीकार करें
कोई काम करते हुए दबाव बन जाना स्वाभाविक है, लेकिन तनाव में आ जाना ठीक नहीं। प्रेशर और टेंशन के बीच की लक्ष्मण रेखा को हमें समझना चाहिए। तनाव को सांसारिक दृष्टिकोण से देखेंगे तो हम पाएंगे कि हमारे आसपास नेगेटिव ऊर्जा एकत्रित हो गई है, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि हमें सकारात्मक संकेत देगी। यह दृष्टि हमें बताएगी कि तनाव हमारी क्षमता को बढ़ा देगा।
दरअसल तनाव सकारात्मक घटना का नकारात्मक नाम है। जीवन में जब तनाव आए, तब इसे चुनौती मानकर स्वीकार करेंगे तो तनाव दबाव में बदलेगा और दबाव की कार्यशैली हमारी योग्यता को बढ़ा देगी। एक प्रयोग किया जा सकता है। जब तनाव आए तो अपनी इंद्रियों पर लौट जाइए।
उदाहरण के तौर पर जैसे आंख हमारी एक इंद्रिय है। हम आंखें बंद करें और पूरी तरह से उसी पर एकाग्र हो जाएं। एक आध्यात्मिक व्यवस्था है कि सभी इंद्रियां भीतर से अपने परिणामों को लेकर इंटरकनेक्टेट हैं। जिस दिन हम आंख नाम की इंद्रिय पर नियंत्रण करेंगे, हम पाएंगे कान पर भी हमारा नियंत्रण शुरू हो गया। आंख से जो हम भीतर दर्शन कर रहे होंगे, कान से भी दिव्य श्रवण होने लगेगा। यह एक नया अनुभव रहेगा। यह भीतरी अनुभव हमें बाहरी तनाव से मुक्त करेगा।
बाहर काम तो होना ही है, आप नहीं करेंगे तो कोई दूसरा करेगा, पर तनाव से परेशान होकर आप उस दौड़ में या तो बाहर हो जाएंगे या लड़खड़ाकर गिर जाएंगे। अंतिम सफलता या तो असफलता में बदल जाएगी या अशांति में। अत: तनावमुक्त होने के लिए अपनी इंद्रियों पर लौटने का यह छोटा-सा प्रयोग करते रहें।
जीवन के प्रति आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाएं
हम जैसे होते हैं, वैसे ही लोग जीवन में हमें मिल जाते हैं। यह एक सामान्य धारणा है। हमारा व्यवहार जैसा होगा आगे-पीछे वैसा ही व्यवहार दूसरों से हमें मिलने लगेगा। सांसारिक रूप से देखें तो इस विचार में भेद नजर आएगा। समाज में जो लोग प्रभावशाली होते हैं, वे दूसरों से र्दुव्योवहार करते हैं, पर मजबूरीवश दूसरे उनसे विनम्रता से ही पेश आते हैं, लेकिन यह सब बाहर ही बाहर होता है।
इसीलिए प्रभावशाली लोग भीतर से अशांत पाए जाएंगे, क्योंकि उनसे बात करने वाले लोग भी भीतर से उनके प्रति सदाशय नहीं होंगे। जब जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण आध्यात्मिक हो जाता है, तब हम अपनी हर क्रिया को व्यवहार की जगह स्वभाव से जोड़कर चलते हैं। इसलिए यदि हम भीतर से शांत हैं तो हमारे आसपास का वातावरण और उसमें आने वाले लोग भी शांत हो जाएंगे। हम शॉर्ट टेंपर्ड हैं तो दूसरों से धर्यपूर्ण, विनम्र व्यवहार की भीतर से कल्पना न करें। वो लोग भी हमारे प्रति भीतर से ऐसे ही होंगे।
दुनियादारी में रहते हुए जब हम इस प्रकार के व्यवहार के आदी हो जाते हैं तो इसका असर हमारे वैवाहिक जीवन पर भी पड़ता है। विवाह के पहले हम जो भी हों, लेकिन विवाह के पश्चात हम और हमारे जीवनसाथी का भी भीतरी संसार, स्वभाव आपस में मिलता है। यदि जीवनसाथी में से कोई एक नेगेटिव है तो वह दूसरे को भी उसी ऊर्जा से प्रभावित करेगा। दो दुखी आपस में मिलकर दुख का एक और बड़ा संसार बनाने लगते हैं। इसलिए भीतर से ईमानदार, क्षमाशील, मृदुभाषी, विनम्र और गैरअहंकारी आदमी स्वयं खुश रहकर अपने आसपास आने वाले हर व्यक्ति को खुश रख सकेगा।
कर्म की मूल भावना पर ही टिका होता है परिणाम
किस नजरिए से और किस इरादे से हम काम कर रहे हैं, उस पर परिणाम टिका होता है, लेकिन कई बार ऐसा भी हो जाता है कि काम हम सही कर रहे होते हैं और तरीका हमारा गलत होता है। इस बात की भी संभावना रहती है कि काम हम गलत कर रहे होते हैं और तरीका हमारा सही होता है। मूल भावना क्या है, इस पर परिणाम टिका रहता है।
सुंदरकांड में अशोक वाटिका में हनुमानजी की मुठभेड़ रावण के सैनिकों से हुई। रावण के बेटे अक्षयकुमार को हनुमानजी ने मार डाला था। हनुमानजी जानते थे कि रावण की नगरी में उसी के बेटे को मार डालना कितनी बड़ी घटना होगी। जबकि जाम्वंतजी ने हनुमानजी से कहा था - कोई ऐसा काम मत करना, जिसमें बड़े पैमाने पर हिंसा हो जाए, लेकिन हनुमानजी ने अपनी दृष्टि में परिणाम को रखा। देखने में लगता है, रावण के बेटे को मारना गलत था, क्योंकि हनुमानजी दूत बनकर गए थे।
पर हनुमानजी जानते थे कि मुझे रावण तक संदेश पहुंचाना है और रावण जैसा अहंकारी आदमी छोटी-मोटी घटना से न तो प्रभावित होगा और न ही हनुमानजी को ठीक से नोटिस में लेगा। प्रबंधन में दक्ष हनुमानजी ने अक्षयकुमार के माध्यम से एक ऐसा संदेश तैयार किया कि रावण सारे काम छोड़कर हनुमानजी से बात करने पर मजबूर हो गया।
वह जान चुका था कि जो व्यक्ति मात्र वाटिका उजाड़ने में मेरे पुत्र को संसार से विदा कर सकता है, वह सामान्य नहीं होगा। इसकी बात मुझे विशिष्ट शैली में सुननी और समझनी होगी। यहीं से हनुमानजी ने रावण पर अपना प्रभाव जमाया था और अपने दूत कर्म को स्थापित किया था।
स्त्रियों की मौजूदगी वातावरण को प्रेमपूर्ण बनाती है
एक समय था जब रिश्ते दूसरों को लाभ पहुंचाने के लिए होते थे। फिर वक्त बदला, रिश्ते साझा लाभ के लिए होने लगे और अब वक्त आ गया है, जब निज हित रिश्तों पर हावी हो गया है। सार्वजनिक स्थान पर जब किसी काम के लिए कतार लगती है तो कुछ लोग बीच में घुसने की कोशिश कर रहे होते हैं और जो नियम से खड़े रहते हैं, वे आक्रोश व्यक्त करते हैं।
यह एक सामान्य दृश्य है। कतार में न लगना या पंक्ति तोड़कर आगे जाना कुछ लोगों के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन जाता है। आजकल घरों में भी ऐसे कतार वाले दृश्य देखने को मिलते हैं। हर सदस्य दूसरे से जल्दी में है। वक्त आने पर धक्का भी दे रहा है।
परंपराओं की पंक्ति अहंकार के धक्के से तोड़ी जा रही है। लोगों ने घर के बाहर और घर के भीतर के शिष्टाचार की परिभाषा बदल दी है। घर के भीतर अपने ही लोगों के प्रति और उनकी जरूरतों के लिए न तो संवेदनशीलता बचाई जा रही है और न ही जिम्मेदारी निभाई जा रही है।
हमें एक बात समझनी चाहिए कि सार्वजनिक जीवन और पारिवारिक जीवन में एक फर्क होता है माताओं, बहनों की उपस्थिति। कुल मिलाकर यह स्त्री की उपस्थिति का आभास है, चाहे वह पत्नी के रूप में हो या और कोई रिश्ते से। उन्हीं की मौजूदगी में घर में शिष्टाचार के अर्थ बदल जाते हैं। हमने देखा होगा सार्वजनिक स्थल पर यदि स्त्री मौजूद हो तो लोगों के तौर-तरीके और नीयत बदल जाती है। वैसा ही घर में होता है। इनकी मौजूदगी घर में प्रेमपूर्ण वातावरण बनाती है। इसलिए परिवारों में शिष्टाचार रिश्तों की दृष्टि से निभाए जाने चाहिए।
जब अच्छे-अच्छे हों परेशान तो आम आदमी की क्या बिसात!
केवल दुख का दुश्चक्र नहीं होता, सुख का भी चक्रव्यूह होता है। बहुत सारे लोग मानते हैं कि दुख आए तो उलझनें बढ़ जाती हैं। यदि दुख में संघर्ष है तो सुख में भी कोई कम संघर्ष नहीं रहता। इसलिए आप देखें कि जितने सुखी लोग हैं, वे संघर्ष करते ही मिलेंगे। कामयाब आदमी की परेशानियां खत्म ही नहीं होतीं।
जिनकी लोकप्रियता चरम पर है, ऐसे लोग भी कोर्ट-कचहरी, कानून-व्यवस्था, धंधा-पानी, योग और भक्ति इन सबमें उलझे हुए दिखाई पड़ते हैं। जब अच्छे-अच्छे परेशान हैं तो आम आदमी की क्या बिसात? दरअसल हमें समझना होगा कि यदि कोई संघर्ष कर रहा है तो वो संघर्ष से किस रूप में जुड़ा है।
जैसे संन्यासी अपने गुजरे वक्त से मुक्त होता है, पूरी तरह वर्तमान पर टिका होता है और भविष्य उसके लिए भगवान के साथ जुड़ने जैसा है। उसी का उल्टा एक गृहस्थ जीवनभर अपने अतीत में उलझा रहता है, वर्तमान को तनाव का कारण मानता है और भविष्य के लिए बावले जैसा रहता है। ऋषि-मुनियों ने एक नाम दिया है वैराग्य। यह एक तरह की वृत्ति है, जो ऐसी स्थितियों में काम आती है।
हमें जो साधु-संत या महान व्यक्ति परेशान नजर आते हैं, हम उनके व्यक्तित्व को चार हिस्सों में बांटकर देखें। शरीर से वे शूद्र लगेंगे, मन में उनके वैश्य वृत्ति हो सकती है, कर्म में वे क्षत्रिय नजर आएंगे और उनकी आत्मा को देखें तो वहां ब्राह्मण बैठा दिखेगा। मनुष्य के ये चार रूप उससे अलग-अलग समय, अलग-अलग कार्य करवाते हैं, लेकिन उसकी मूल वृत्ति संन्यासी की होती है और फिर कैसा भी कार्य करते हुए वैराग्य के साथ सुख-शांति को उपलब्ध होगा ही।
रंग खेलने में जल का क्या काम मन की तरंगें ही काफी हैं
भारत में त्योहारों की रचना बड़े शानदार ढंग से की गई है। हमने रंगों को भी त्योहार से जोड़ दिया है। जिंदगी रंगीन होनी चाहिए, इस पंक्ति का अर्थ है जीवन में सुख और शांति दोनों एक साथ हो। होली के बाद रंगपंचमी पर जलविहीन रंग एक-दूसरे को लगाने का बड़ा आध्यात्मिक अर्थ है।
हम अपने हाथों से किसी को रंग लगा रहे हों और कोई दूसरा जब हमें रंग लगा रहा हो, तब उस अबीर-गुलाल के ‘कलर’ पर मत टिक जाइए, क्योंकि कलर केवल एक शरीर है। इस शरीर के भीतर की आत्मा को समझते हुए रंग लगाएं और लगवाएं। इसे यूं समझ लें कि हमारे यहां भोजन की शुद्धि पर बड़ा जोर दिया गया है। इसीलिए कहा जाता है हर किसी के हाथ का बना हुआ भोजन न करें। घर की माता-बहन जब भोजन बनाकर खिलाती है तो उनके हाथों की संवेदना और प्रेम तरंगों के रूप में भोजन में उतरते हैं।
थोड़े भी संवेदनशील व्यक्ति इसका असर महसूस भी कर सकेंगे। आप बाहर अच्छे से अच्छे महंगे स्थान का भोजन कर लें, लेकिन गहराई से महसूस करें तो पाएंगे कि इसमें कोई न कोई कमी है। यह भोजन कुछ इस तरह का होता है, जैसे निष्प्राण देह को सोलह श्रंगार करा दिया गया है। इसीलिए बाहर का भोजन केवल शरीर का भोजन बनकर रह जाता है, आत्मा अतृप्त ही रहती है। होली हो या रंगपंचमी, इस दिन रंगों को हाथ में लेते समय यही भाव रखिए कि आपकी आत्मा से होती हुई तरंगें हथेलियों से गुजरकर रंग के कणों में उतर रही हैं और प्रेम का सेतु एक-दूसरे के बीच बना रहे। फिर इसमें जल का क्या काम, मन की तरंगें ही काफी हैं।
सुंदरकांड की सीख है काम के दबाव में सजगता बनाए रखें
भीतर से ललक हो तो हम काम करने पर ज्यादा टिकेंगे, परिणाम पर कम। हमारे लिए प्रयास ही परिणाम जैसा होगा। प्रयास केंद्रित होने पर परिणाम अनुकूल होने की संभावना बढ़ जाती है। हनुमानजी के जीवन में हर कृत्य पर योग का प्रभाव रहता है। योगी होकर जब कोई काम किया जाता है तो मन और भावनाएं रचनात्मक दिशा में रहती हैं।
सुंदरकांड में हनुमानजी रावण के बेटे को मारने के बाद राक्षसों पर प्रहार करते हैं। उनकी इस क्रिया में दो पक्ष हैं। पहला तो यह कि वे गलत को समाप्त करने के लिए भी भीतर से पूर्णत: शांत थे। दूसरा पक्ष यह है कि वे जो भी काम करते हैं, शत-प्रतिशत करते हैं।
आज के युग में शतक ही आंकड़ों में दर्ज होता है। निन्यानवे का महत्व नहीं होता। यहां दोहे में तुलसीदासजी ने व्यक्त किया है - कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि। कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।। उन्होंने सेना में कुछ को मार डाला, कुछ को मसल डाला तथा कुछ को पकड़-पकड़कर धूल में मिला दिया।
कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बंदर बहुत ही बलवान है। यहां चार बार ‘कछु’ शब्द का प्रयोग किया गया है। हर कछु में पच्चीस प्रतिशत की संख्या छिपी है। यानी पचहत्तर प्रतिशत का तो उन्होंने यह हश्र कर दिया, लेकिन वे शत-प्रतिशत परिणाम में विश्वास करते हैं।
इसलिए शेष पच्चीस प्रतिशत को इस लायक बनाकर छोड़ा कि वे रावण को जाकर सूचना दे सकें। वे हिंसा करते हुए भी पूरी तरह से जागरूक थे। इस तरह काम के दबाव में सजगता बनाए रखते हैं हनुमानजी। सुंदरकांड सिखा रहा है प्रेशर में टेंशन न लें, वरना अटेंशन भी चला जाता है।
गुरु हमारे मनोरथ को सुफल करने का आशीर्वाद देते हैं
प्रत्येक आस्थावान व्यक्ति ईशकृपा और गुरुकृपा की आकांक्षा रखता है। लेकिन ‘कृपा’ की परिभाषा हर व्यक्ति अपने-अपने अनुसार करता है। एक बार भगवान गौतम बुद्ध ने अपने प्रवचन के अंत में कहा - आज का वचन पूर्ण हुआ, अब आप अपने-अपने काम पर जाएं और सफल हों। सुनने वालों ने इसका अर्थ अपनी-अपनी वृत्ति के अनुसार लिया।
मजदूर ने सोचा कि मजदूरी का समय हो गया है। व्यापारी ने व्यापार के लिए, चोर ने चोरी के लिए, किसान ने खेती के लिए और ठगों ने ठगी के धंधे के लिए इसे बुद्ध का आशीर्वाद समझा। इसे हमें ठीक से समझना होगा। श्री रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार कहते हैं - गुरुकृपा आपके मनोरथ के अनुसार नहीं चलती, अन्यथा कृपा का दुरुपयोग हो जाएगा।
गुरु और परमात्मा हमारे मनोरथ को सुफल करने का आशीर्वाद देते हैं। सुफल और सफलता में फर्क है। मनोरथ अर्थात ऐसी कामना, जो मन के रथ पर सवार है और मन का कोई भरोसा नहीं है। किसी का मनोरथ समाज विरोधी, धर्म या आत्मविरोधी भी हो सकता है। ऐसा है तो भी उसका परिणाम सुखद होना चाहिए अर्थात मनोरथ करने वाले को इतनी बुद्धि आ जाए कि उसे अपनी कामना की व्यर्थता का पता चल जाए और मनोवृत्ति सुधार ले, यही सुफल है।
कृपा का आभास भी पुरुषार्थ व परिश्रम की पूर्णता पर होता है। कृपा से पूछें तो उसका उत्तर होगा कि मैं तो कब से इनके पीछे-पीछे फिर रही हूं, लेकिन लोगों के पास वह पात्र तो हो, जिसमें मैं प्रवेश करूं। यह पात्र या बर्तन आपका परिश्रम, प्रयास, बुद्धि, विज्ञान और विवेक है। तब ही कृपा का आभास होता है।
जीवन में चार क्रियाएं महत्वपूर्ण हैं - शयन, भजन, भोजन, श्वसन
हर आदमी अभ्यास के द्वारा इच्छित कार्य में दक्ष हो जाता है। बिना अभ्यास के कोई भी काम अधूरा होगा और परिणाम में हमेशा संदेह बना रहेगा। अभ्यास से जो-जो चीजें नियंत्रित होती हैं, उनमें से एक है मन। समझदार लोग अपने मन को एक विशेष अवस्था का पालन करने के लिए बाध्य करते हैं।
तन और मन संतुलन के अभ्यास से साधने पर समूचे जीवन में समझदारी आती है। कुछ लोग अपनी प्रवृत्ति के अनुसार अभ्यास के केंद्र चुन लेते हैं। चार क्रियाएं हमारे जीवन में महत्वपूर्ण हैं - शयन यानी नींद, भोजन, भजन और श्वसन यानी सांस लेना।
इनमें दो क्रियाएं आवश्यक हैं और दो ऐच्छिक। नींद और सांस, इन पर हमारा पूरा नियंत्रण नहीं हो सकता। ये होती हैं और हम मानकर चलते हैं कि हम करते हैं। आप लाख न चाहें, नींद को जब आना हो तभी आएगी। इसी प्रकार सांस की क्रिया होकर रहती है।
ये हमारे वश के बाहर है। यदि इन्हें वश में करना है तो कठिन साधना करनी पड़ेगी। इसलिए शेष दो क्रियाएं सरल हैं, वे हैं भोजन तथा भजन। भजन से तात्पर्य आपकी पूजा पद्धति से है। आप किसी भी धर्म के हों, आपका इबादत का तरीका अपनी जीवनशैली से जोड़ लीजिए तो पूजा-पाठ भी सहयोग का तत्व बन जाएगी। रहा सवाल भोजन का तो इस पर नियंत्रण पूजन से भी सरल है।
पूजन में तो फिर भी विधि-विधान है, पर आप भोजन की शुद्धि पर आसानी से काम कर सकते हैं। भोजन से भजन, नींद और सांस तीनों प्रभावित होती हैं। इसलिए समय पर और सीमित मात्रा में भोजन करें और पूरी शुद्धता बनाए रखें। यह एक क्रिया कई क्रियाओं को नियंत्रित कर देगी।
जीवन में जो कुछ भी श्रेष्ठ है उन सबका इकट्ठा नाम धर्म है
एक समय था जब धर्म को रोजगार से जोड़ा गया था। ब्राह्मण लोग इस काम में सीधे जुड़े थे। इसका यह अर्थ नहीं है कि धर्म आजीविका का साधन बन जाए। सही अर्थ यह है कि हमारी आजीविका का साधन हमारे धर्म से जुड़ा होना चाहिए। धर्म का अर्थ जाति विशेष न ले लिया जाए। जीवन में जो कुछ भी श्रेष्ठ है, उन सबका इकट्ठा नाम धर्म है।
जब हमारी आजीविका का साधन इस प्रवृत्ति से जुड़ता है तो निश्चित ही हम भ्रष्टाचार और अपराधमुक्त जीवन जी रहे होते हैं। देवस्थान और मूर्तियां केवल इसलिए नहीं बनाई गईं कि वे किसी विशेष धर्म के प्रतीक बन जाएं, बल्कि यह दोनों हमारे रोजगार और व्यक्तित्व विकास के केंद्र हैं।
मूर्ति प्राण प्रतिष्ठित या अभिमंत्रित होते ही हमसे एक पवित्र रिश्ता बना लेती है। उसकी मौजूदगी हमारे विचार, कर्म को प्रभावित करती है। हम अपने दुख और दर्द को अज्ञात से बांटने की स्थिति में आ जाते हैं। हमें तीन तरह के सुख चाहिए - भावनात्मक, बाहरी और अंदरूनी।
हम इन तीनों का विपरीत दुख मान लेते हैं। इसीलिए हम अधिकांश मौकों पर दुखी रहते हैं। सुख और दुख के बीच एक संतुलन होना चाहिए। संतुलन आते ही हम समझ जाते हैं कि न तो कभी सुख अकेले आएगा और न दुख। हमें इन्हें समझने के लिए कोई व्यक्ति, कोई संस्थान और कोई सिद्धांत चाहिए।
देवस्थान, प्रभु प्रतिमाएं और शास्त्र सुख-दुख के संतुलन में हमारा मार्गदर्शन करते हैं। जैसे ही हम सुख-दुख का मतलब समझ जाते हैं, हमारे रोजगार के तरीके में भी फर्क आ जाता है। अधिक कमाने के लिए हम अशांत नहीं होंगे और जो है, उसका उपयोग पूरी शांति से कर सकेंगे।
जब भी हम निराश हों तो अपने ही भीतर छलांग लगाएं
जब कभी हम परेशान होते हैं तो परेशानी दूर करने का निदान ढूंढ़ते हैं। ऐसा करना भी चाहिए। ऐसा करते हुए एक काम और किया जाए। उस परेशानी के कारण को भी पकड़ें। यहां यह ध्यान रखें कि कारण दूसरों में न ढूंढे़।
जब भी हम निराश हों, परेशान हों, दुखी हों तो सीधे अपने भीतर छलांग लगाएं और टटोलें कि इसके पीछे हम कहां हैं। अब जैसे-जैसे हम गहराई में उतरकर अपने पर ही काम करेंगे, हमारी मुलाकात हमारी इंद्रियों से होगी। इंद्रियां भी चूंकि एक नहीं हैं, इसलिए उनमें से उस एक को पकड़ो, जो सबसे ज्यादा ताकतवर है और विषयों से जुड़कर हमें परेशान कर रही है। लेकिन उससे झगड़ा न किया जाए, क्योंकि उसकी शक्ति हमारी कमजोरी बनती है। उसका अनियंत्रण ही हमारी परेशानी का कारण है। जीवन में गुरु अपने शिष्यों की कमजोरियों को इंद्रियों के माध्यम से पकड़ते हैं और उसी कमजोरी को शक्ति में रूपांतरित कर देते हैं।
इंद्रियों को हमारा दुश्मन बनाने की जगह दोस्त बनाने की कला एक सच्चा गुरु जानता है। इंद्रियों से जितना अधिक झगड़ा करेंगे, उतनी ही परेशानी हम और बढ़ा लेंगे। हम भीतर ही भीतर खुद से उलझने लग जाएंगे। इंद्रियां हमारी खुशी और परेशानी के लिए एक पुल की तरह हैं। वे एक रास्ते के माफिक हैं। हम उनसे झगड़ा करके पुल को ध्वस्त कर लेते हैं और रास्ते को ऊबड़-खाबड़ बना लेते हैं। कोई कभी उनसे भी झगड़ा करता है, जो काम आने वाले लोग हों। इंद्रियां जितना काम बिगाड़ती हैं, उससे ज्यादा काम बना भी सकती हैं। इसलिए इंद्रियों को समझें तो सुख और दुख के कारण समझ में आ जाएंगे तथा निदान भी सही हो जाएगा।
श्रद्धा जितनी बलवती होगी गुरु कृपा उतनी ही फलेगी
भावुक और संवेदनशील रहने के भले ही व्यावहारिक जगत में नुकसान हों, लेकिन आध्यात्मिक जगत के लिए ये एक तरह से गहने हैं, क्योंकि जिंदगी में हर बात शब्दों से प्रकट नहीं की जा सकती। सामने वाले के भाव और संकेत समझने के लिए संवेदनशील वृत्ति जरूरी है।
गुरु और शिष्य के रिश्ते में यही वृत्ति काम आती है। परमात्मा से पहले गुरु के प्रति शरणागति होनी चाहिए। लेकिन शरणागति का आधार निजी पसंद, भौतिक लाभ और चमत्कार न रहें। जब हम किसी के प्रति चमत्कार के भाव से नतमस्तक होते हैं तो उसमें हमारी कामना ही हावी होती है, सामने वाले की कृपा लेने की इच्छा कम। हम चमत्कार को नमस्कार कर रहे होते हैं। यह दुनियादारी का खेल है। शरणागति में हम सामने वाले के चमत्कार पर नहीं टिकते, हमारा मकसद समर्पण होता है।
हमारी श्रद्धा जितनी बलवती होगी, गुरु कृपा उतनी ही फलेगी। शरणागति का भाव अपने भीतर लाने के लिए हमें गुरु के संकेतों को समझना होगा। इन्हीं से हमारा संकोच और झिझक मिटेगी। गुरु के साथ हमारी कठिनाई और असुविधा शून्य होनी चाहिए। संसार में रहते हुए तो हम अपनी निजी गुत्थियों में उलझे ही रहते हैं। यहीं आकर हम तसल्ली से इन्हें सुलझा सकेंगे। इसलिए गुरु के सामने सारे संकोच तोड़ देने चाहिए। हमारी श्रद्धा के कारण गुरु की उदारता और सहनशीलता अपने आप प्रकट होगी। जब गुरु शरीर से हमारे साथ न हों तो गुरु मंत्र ही उनकी उपस्थिति है, यह शब्द शरीर और आत्मा दोनों है। इसलिए गुरु मंत्र का जप जितना अधिक होगा, हम संकेत की भाषा कहने और समझने में दक्ष हो जाएंगे।
अहंकारी रावण ने अपने बड़े बेटे को भी गलत मार्ग दिखाया
आदमी का अहंकार उसको दृष्टि से अंधा, मति से भ्रमपूर्ण और गति से रुकावट में डाल देता है। अच्छे-अच्छे सफल और समझदार लोग अहंकार के कारण गलत निर्णय ले लेते हैं। सुंदरकांड में हनुमानजी अशोकवाटिका उजाड़ते समय रावण के बेटे अक्षयकुमार को मार चुके थे। बहुत ही चतुराई से रावण तक इसकी सूचना भी भिजवा दी थी।
रावण के सामने दो रास्ते थे - पहला यह कि उसे सोचना चाहिए था कि मेरी लंका में ही विश्व विजेता होने के बाद कोई आकर मेरे पुत्र को मार डाले, इससे बड़ी घटना और क्या होगी। लिहाजा उसे उस तक पहुंचने में समझदारी से काम लेना चाहिए था। लेकिन रावण अहंकार में डूबा था। अहंकार चिंतन को प्रभावित करके क्रिया को दोषपूर्ण बना ही देता है। दूसरा, रावण ने तुरंत अपने बड़े बेटे को रवाना किया और उस निर्णय में भी वह अहंकार की भाषा बोल रहा था।
सुंदरकांड में तुलसीदासजी को लिखना पड़ा - सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना।। मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखअ कपिहि कहां कर आही।। पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र बलवान मेघनाद को भेजा। अपने पुत्र मेघनाद से रावण कहता है - उस बंदर को मारना मत, बांध कर ले आना। यह दया नहीं, अहंकार की भाषा है।
अहंकारी व्यक्ति हर वो काम करना चाहता है, जिससे उसके अहंकार को और बल मिले। उसकी स्थितियों से निपटने से ज्यादा रुचि अपनी अहंकारपूर्ण प्रतिष्ठा में रहती है। एक अहंकारी पिता एक बेटे की बलि तो ले ही चुका था, अब बड़े बेटे को भी गलत मार्ग पर भेज रहा था।
प्रकृति वो पगडंडी है जो हमें परमात्मा तक ले जाती है
सुबह से लेकर रात तक व्यस्त रहना आजकल मजबूरी और फैशन दोनों हो गया है। कुछ लोगों के जीवन में काम तो इस प्रकार हो गए हैं कि कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेते। फिर महानगरों में तो आवागमन में ही समय का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। शरीर की दौड़-भाग के कारण मनुष्य चिड़चिड़ा और उदास होने लगता है। बाहर से जो लोग उद्विग्न नजर आते हैं, दरअसल वे भीतर से उदास हैं।
ऐसे में शांतिदायक स्थितियां बाहर से जीवन में आ जाएं, ऐसी उम्मीद करनी बेकार है। तब क्या किया जाए? कामकाज छोड़ना नहीं है। चौबीस घंटे की अवधि को बढ़ाया नहीं जा सकता। नाम और दाम कमाना ही है। इसके लिए लगातार प्रकृति से जुड़ने का प्रयास करें। विश्व वानिकी दिवस इसलिए नहीं मनाया जाता कि केवल वन को बचाया जाए।
दरअसल मनुष्य को बचाने के लिए भी इस दिन संकल्प लिया जाना चाहिए। सूरज को उगता हुआ देखें। उसके ढलने पर चंद्रमा के आगमन पर नजर रखें। परिंदों की हलचल पर नजर डालें। पशुओं में खासकर गाय की गतिविधि को नोटिस करें। नदी को बहता हुआ देखें और रुके हुए पहाड़ पर थोड़ा अपने चित्त को टिकाएं।
तब आप पाएंगे कि प्रकृति वो पगडंडी है, जो परमात्मा तक ले जाती है। प्रतिदिन प्रकृति से जुड़ने का अर्थ है, उस मार्ग की साफ-सफाई करना, जो उस दिव्य शक्ति तक पहुंचने का राजमार्ग है। यह रास्ता ही ऐसा है कि हमारी सुविधा की दृष्टि से पगडंडी में बदल जाएगा, कभी फुटपाथ में बदल जाएगा और कभी राजमार्ग-सा दिखेगा। इसलिए आदत बना लें कि थोड़ी देर पशु-पक्षी, नदी, पहाड़, पेड़-पौधे इत्यादि पर भी टिकें।
जल की तरलता हमारी संवेदना को भी नम रखती है
कमजोरी लंबे समय तक टिक जाए तो कायरता बन जाएगी। आप अपने और संसार के प्रति कितने ईमानदार हैं यह सबसे बड़ी बहादुरी है। अपराधी को हिम्मतवाला मानना भूल होगी। जुनून जब चढ़ता है तो दोनों मार्ग उसके लिए खुले रहते हैं।
सही पर जाए तो हिम्मत का काम, गलत राह पकड़ ले तो कायरता समझें। इसलिए खूब काम करते हुए भी अपनी निरोगता में पूरी दिलचस्पी लें। स्वस्थ रहने के लिए बाहरी प्रयास तो करें ही, भीतरी कोशिशें भी जारी रखें। भीतर से सदैव अपने को सद्भाव से भरा रखें। इसके लिए एक काम करें, दिनभर में खूब जल पीएं।
शरीर में जल की कमी न रहने दें। जल सद्भाव को बढ़ाता भी है और बाहर के वातावरण में तरंगों के माध्यम से फैलाता भी है। मंगल विचार जल से मिलकर पूरे वातावरण को शीतल और शुभ बनाते हैं। बाहर के वातावरण को बदलने के लिए हमारे शरीर का जलमग्न भाग बड़े काम का है।
आज जब संसार ‘विश्व जल दिवस’ मना रहा है, तब जल के इस आत्मिक महत्व को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। जल बाहर और भीतर दोनों जगह सम्मान की दृष्टि से उपयोग में आना चाहिए। पानी का लगातार कम होना पूरी मानवता के लिए खतरा है। जल की तरलता मनुष्यता में संवेदना को बनाए रखती है। बिना जल के हम और अशांत होते जाएंगे।
अपने मनोरथों को मनोबल से जोड़ने के ये दिव्य नौ दिन
मनुष्य होने पर मनोरथ होंगे ही। इसका सामान्य अर्थ है इच्छाएं, लेकिन मनोरथ शब्द में मन जुड़ा है। रथ का संबंध गति से है और मन जैसी गति संसार में किसकी हो सकती है। इसलिए इस मनुष्य शरीर में मनोरथ जरूर होंगे। मन के रथ को दुनिया की ओर दौड़ाएंगे तो नाम, दाम, कार, बंगला इत्यादि की चाहत बढ़ेगी।
मन केवल धन पर ही नहीं टिकता। धन से आगे जाकर तन और तन में भी पतन के कार्यक्रम करा देता है। इसलिए मनोरथ की दिशा पूरी तरह संसार न हो। यह जब संसार बनाने वाले की ओर मुड़ेगा तो दृश्य बदल जाएगा। बाहर से हम मशीन की तरह जी-तोड़ परिश्रम करते नजर आएंगे, लेकिन भीतर से बिल्कुल शीतल और शांत रहेंगे। आज से नवरात्र आरंभ हो रहे हैं।
अपने मनोरथों को मनोबल से जोड़ने के ये दिव्य नौ दिन हैं। हमारी लगन सही दिशा में लग जाए, इसके लिए ये तप आराधना के क्षण रहेंगे। मनोरथ को परमात्मा की ओर मोड़ने के लिए मंत्र बहुत काम आते हैं। हर धर्म के पास कुछ मंत्र होते हैं। वाणी मंत्र से जुड़ी नहीं कि मन के रथ को मोड़ना आसान हो जाता है।
मंत्र से एक विशेष प्रकार की ध्वनि पैदा होती है। इस ध्वनि का गुंजन जब भीतर सुनाई दे तो आप भरपूर शांति का अनुभव करेंगे। इसलिए नवरात्र में संकल्प लिया जाए कि नौ दिन खूब शांति से बिताएंगे। मंत्र से क्या फल मिलेगा, नवरात्र में क्या परिणाम आएंगे, इस पर ज्यादा न टिकें। अपने आप को क्रिया से जोड़े रखें। यह शक्ति मनोबल के काम आएगी और मनोबल जीवन की एक बड़ी उपलब्धि है। तो आज पहला संकल्प यही लें कि नौ दिनों में अपना मनोबल बढ़ाने के लिए सक्रिय हो जाएंगे।
भजन-पूजन के इन नौ दिनों में मौन साधने का भी संकल्प लें
शक्ति अर्जन के इन नौ दिनों में उपवास करते हुए केवल शरीर को न साधें। जब उपवास मात्र शरीर केंद्रित होगा तो परिणाम भी सतही रहेंगे। नवरात्र के उपवास और संयम आत्मिक भी होने चाहिए। भजन-पूजन के इन दिनों में दूसरा संकल्प यह लें कि थोड़ा मौन साधेंगे। जितना हो, दूसरों को सुनेंगे और बेहद जरूरी होने पर ही दूसरों को सुनाएंगे।
नवरात्र को वाणी विश्राम के दिन बना दें। इतना ध्यान रखें कि जब बाहर से चुप हों तो भीतर से बोलते न रहें। जैसे मृत्यु के बाद भी तीन दिनों तक जीवन बना रहता है, वैसे ही मौन के बाद वाणी बच जाती है। एक ऐसा शून्य मौन से उत्पन्न होता है, जिसे सुनकर शांति प्राप्त की जा सकती है।
भारतीय संस्कृति में मृत्यु के बाद के जीवन की बड़ी सुंदर कल्पना कर रखी है। मौत के पश्चात किए जाने वाले कर्मकांड में कुछ विधान बड़े अद्भुत हैं। पुरोहित कर्म के अनुसार कर्मकांड में भेद हो सकते हैं, लेकिन इसके पीछे के विचार बड़े तार्किक और वैज्ञानिक हैं।
हम तीन दिनों तक तो शोक मनाते ही हैं, क्योंकि शरीर की मृत्यु के बाद वास्तविक मृत्यु तीन दिन बाद घटती है। कहीं न कहीं जीवन बिखरा हुआ रहता है और उसी की विदाई के लिए सारे उत्तरकर्म किए जाते हैं। देह जलाने से जीवन नहीं जलता। जीवन की एक विधानपूर्ण विदाई का नाम उत्तरकर्म है।
इसलिए नवरात्र में इस मौन को वैसा ही समझें, जैसा किसी की मृत्यु के बाद माहौल में शून्य छा जाता है, लेकिन संवेदनाओं से जुड़े रहें तो जाने वाले के जीवन पर पकड़ की जा सकती है। इसी तरह मौन साधिए। इस शून्य में भी शब्द गरिमा के साथ बचे रहेंगे और हमारी शांति व आनंद का कारण बन जाएंगे।
जब अकेलापन बढ़े तो अपने आप से जुड़ने का प्रयास करें
कुछ काम ऐसे हो ही जाते हैं कि बाद में पछताना पड़ता है। जीवन में उम्र का एक ऐसा पड़ाव आता है, जब अपने पछतावे को प्रायश्चित में बदलने की तैयारी रखें और प्रायश्चित को प्रसन्नता में तब्दील करें। पिछले दिनों संयोग से मेरा दो स्थितियों से सामना हुआ।
कुछ बुजुर्गो के साथ यात्रा की और एक दिन गांव में बिताया। मेरा ज्यादातर समय युवा, व्यस्त और महानगर के लोगों के बीच गुजरता है। वृद्ध और ग्रामीणों के साथ दिन बिताने पर मैंने महसूस किया कि वृद्ध अपने अकेलेपन को कोस रहे थे।
अपनी ही गलती मान रहे थे तथा गांव के मूल निवासी उतने ही दुखी नजर आए, जितने शहर वाले थे। महानगर का आदमी अपनी अतिव्यस्तता और अस्त-व्यस्त जीवनशैली के कारण हैरान हो जाए यह समझ में आता है, लेकिन गांव वाला इसी स्तर पर दुखी रहे तो आश्चर्य होता है।
बुजुर्ग इसलिए परेशान थे कि उन्होंने जीवनभर संघर्ष करते हुए अपने बच्चों को खूब पढ़ाया और अब वे इतनी दूर चले गए कि ये वृद्ध अकेले रह गए। गांव में ऐसा ही हो रहा है। माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए अपने से दूर भेजते हैं और पढ़ाई का पान करने के बाद इन बच्चों का स्वाद बदल जाता है, फिर वे गांव की ओर नहीं लौटते। आज के माता-पिता लगातार अकेले होते जा रहे हैं।
चूंकि निर्णय हमारे रहे, इसलिए अब पछताने से दुख और बढ़ेगा। इस पछतावे को प्रसन्नता में बदलने का प्रयास किया जाए। उम्र बढ़ने पर जब अकेलापन बढ़े तो अपने आप से जुड़ने का प्रयास जरूर करें। जीवनभर जिनसे जुड़े रहे, थोड़ा उन्हें छोड़कर अपने भीतर उतरकर स्वयं से जुड़ें। अत: कुछ समय ध्यान जरूर करें।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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