ब्रह्म मुहूर्त का विशेष महत्व क्यों?
रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने इस मुहूर्त का विशेष महत्व बताया है। उनके अनुसार यह समय निद्रा त्याग के लिए सर्वोत्तम है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
ब्रह्म मुहूर्त का विशेष महत्व बताने के पीछे हमारे विद्वानों की वैज्ञानिक सोच निहित थी। वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि ब्रह्म मुहुर्त में वायु मंडल प्रदूषण रहित होता है। इसी समय वायु मंडल में ऑक्सीजन (प्राण वायु) की मात्रा सबसे अधिक (41 प्रतिशत) होती है, जो फेफड़ों की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण होती है। शुद्ध वायु मिलने से मन, मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है।
आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है। इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल दिए जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है।
क्यों करते हैं शिव का अभिषेक?
अभिषेक शब्द का अर्थ है स्नान करना या कराना। यह स्नान भगवान मृत्युंजय शिव को कराया जाता है। अभिषेक को आजकल रुद्राभिषेक के रुप में ही ज्यादातर पहचाना जाता है। अभिषेक के कई प्रकार तथा रुप होते हैं। किंतु आजकल विशेष रूप से रुद्राभिषेक ही कराया जाता है। रुद्राभिषेक का मतलब है भगवान रुद्र का अभिषेक यानि कि शिवलिंग पर रुद्रमंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। शास्त्रों में भगवान शिव को जलधाराप्रिय:, माना जाता है। भगवान रुद्र से सम्बंधित मंत्रों का वर्णन बहुत ही पुराने समय से मिलता है। रुद्रमंत्रों का विधान ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में दिये गए मंत्रों से किया जाता है। रुद्राष्टाध्यायी में अन्य मंत्रों के साथ इस मंत्र का भी उल्लेख मिलता है।
अभिषेक में उपयोगी वस्तुएं: अभिषेक साधारण रूप से तो जल से ही होता है। विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में गोदुग्ध या अन्य दूध मिला कर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहदऔर चीनी से अलग-अलग अथवा सब को मिला कर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है।
क्यों पहनते थे खड़ाऊ ?
पुरातन समय में हमारे पूर्वज पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ (चप्पल) पहनते थे। पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ पहनने के पीछे भी हमारे पूर्वजों की सोच पूर्णत: वैज्ञानिक थी। गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद में प्रतिपादित किया उसे हमारे ऋषि-मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था।
उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं । यह प्रक्रिया अगर निरंतर चले तो शरीर की जैविक शक्ति(वाइटल्टी फोर्स) समाप्त हो जाती है। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने पैरों में खड़ाऊ पहनने की प्रथा प्रारंभ की ताकि शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके।
इसी सिद्धांत के आधार पर खड़ाऊ पहनी जाने लगी। उस समय चमड़े का जूता कई धार्मिक, सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य न था और कपड़े के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया। जबकि लकड़ी के खड़ाऊ पहनने से किसी धर्म व समाज के लोगों के आपत्ति नहीं थी इसीलिए यह अधिक प्रचलन में आए। कालांतर में यही खड़ाऊ ऋषि-मुनियों के स्वरूप के साथ जुड़ गए ।
खड़ाऊ के सिद्धांत का एक और सरलीकृत स्वरूप हमारे जीवन का अंग बना वह है पाटा। डाइनिंग टेबल ने हमारे भारतीय समाज में बहुत बाद में स्थान पाया है। पहले भोजन लकड़ी की चौकी पर रखकर तथा लकड़ी के पाटे पर बैठकर ग्रहण किया जाता था। भोजन करते समय हमारे शरीर में सबसे अधिक रासायनिक क्रियाएं होती हैं। इन परिस्थिति में शरीरिक ऊर्जा के संरक्षण का सबसे उत्तम उपाय है चौकियों पर बैठकर भोजन करना।
हाथ मिलाना क्यों उचित नहीं?
पुरातन समय में हाथ जोड़कर तथा साष्टांग प्रणाम कर अभिवादन करने की परंपरा हमारे समाज में थी जबकि वर्तमान समय में अभिवादन का प्रचलित स्वरूप हाथ मिलाना है जो कि पाश्चात्य संस्कृति की देन है। हाथ जोड़कर तथा साष्टांग प्रणाम कर अभिवादन करने से पीछे हमारे मनीषियों का तर्क था कि यथासंभव अपने शरीर का दूसरे के शरीर से स्पर्श किए बिना ही अभिवादन की प्रक्रिया पूरी हो जाए। नमस्कार करते समय दायां हाथ बाएं हाथ से जुड़ता है। शरीर में दाईं ओर झड़ा और बांईं ओर पिंगला नाड़ी होती है तथा मस्तिष्क पर त्रिकुटि के स्थान पर शुष्मना का होना पाया जाता है। अत: नमस्कार करते समय झड़ा, पिंगला के पास पहुंचती है तथा सिर श्रृद्धा से झुका हुआ होता है। इससे शरीर में आध्यात्मिकता का विकास होता है।
जबकि हाथ मिलाने से हम अपने शरीर की ऊर्जा के परिमंडल में अनावश्यक रूप से दूसरे को घुसपैठ करने का अवसर प्रदान करते हैं। हाथ मिलाने से दो शरीरों की ऊर्जा आपस टकराती है जिसका विपरीत प्रभाव न सिर्फ शरीर बल्कि मस्तिष्क पर भी पड़ता है। भारतीय समाज में स्त्रियों से हाथ मिलाकर अभिवादन करना वर्जित है। इसके पीछे और कोई कारण हो न हो पर शरीर की विद्युतीय तरंगता का प्रभाव निश्चित रूप से कार्य करता है। अत: स्पर्श से बचते हुए नमस्कार करना ही अभिवादन का उचित माध्यम है।
शुभ कार्य में कलश का उपयोग क्यों?
हिंदू धर्म में विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में कलश स्थापना की जाती है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार कलश में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा मातृ शक्तियों का निवास होता है। सीताजी की उत्पत्ति के विषय में धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख है कि राजा जनक के राज्य में जब सूखा पड़ा और देवर्षि नारद के कहने पर राजा जनक ने हल चलाया तो हल चलाते समय उसका फाल(धार) भूमि में गड़े हुए घड़े(कलश) से टकराया जिससे तेज ध्वनि उत्पन्न हुई और फूटे हुए कलश के अंदर से बालरूप सीता प्राप्त हुई।समुद्र मंथन के समय प्राप्त अमृत भी कलश में ही था।
प्राचीन मंदिरों या तस्वीरों में भी भगवती लक्ष्मी को दो हाथियों द्वारा कलश जल से स्नान कराते हुए चित्रित किया गया है। यही कारण है कि कलश को हिंदू धर्म में पवित्र तथा मंगल का प्रतीक माना गया है। जब किसी भी पूजन में कलश स्थापित किया जाता है तो यह माना जाता है कि कलश रूप में त्रिदेव तथा मातृशक्ति विराजमान है। शुभ कार्यों जैसे- गृह प्रवेश, गृह निर्माण, विवाह पूजा, अनुष्ठान आदि में कलश की स्थापना इसीलिए की जाती है। कलश को लाल वस्त्र, नारियल, आम के पत्तों, कुशा आदि से अलंकृत करने का विधान भी है।
श्राद्ध कर्म क्यों किये जाते हैं?पूर्वजन्म की वैज्ञानिक मान्यता के आधार पर ही कर्मकांड में श्राद्ध कर्म का विधान निर्मित किया गया है। अपने पूर्वजों के निमित्त दी गई वस्तुएं/पदार्थ सचमुच उन्हें प्राप्त हो जाते हैं. इस विषय में अधिकतर लोगों को संदेह है। हमारे पूर्वज अपने कर्मानुसार किस योनि में उत्पन हुए हैं, जब हमें इतना ही नहीं मालूम तो फिर उनके लिए दिए गये पदार्थ उन तक कैसे पहुच सकते हैं ? क्या एक ब्राह्मण को भोजन खिलाने से हमारे पूर्वजों का पेट भर सकता है? वैसे इन प्रश्नों का सीधे सीधे उत्तर देना तो शायद किसी के लिए भी संभव न होगा, क्योंकि वैज्ञानिक मापदंडों को इस सृष्टि की प्रत्येक विषयवस्तु पर लागू नहीं किया जा सकता। दुनिया में कईं बातें ऐसी हैं जिनका कोई प्रमाण न मिलते हुए भी उन पर विश्वास करना पडता है।
इस विषय में शास्त्रों का कथन है कि,जिस प्रकार मानव शरीर पंचतत्वों से निर्मित है, उसी प्रकार से जो देव और पितर इत्यादि योनियां हैं; प्रकृति द्वारा उनकी रचना नौ तत्वों द्वारा की गई है। जो कि गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं, शब्द तत्व में निवास करते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार घांस-फूंस एवं वनस्पति है, ठीक उसी प्रकार इन योनियों का आहार अन्न का सार-त्तत्व है। वे सिर्फ अन्न और जल का सार-त्तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तुएं/पदार्थ हैं, वह तो यहीं स्थित रह जाते हैं।
आरती में कर्पूर का उपयोग क्यों?
हिंदू धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्मकांडों तथा पूजन में उपयोग की जाने वाली सामग्री के पीछे सिर्फ धार्मिक कारण ही नहीं है इन सभी के पीछे कहीं न कहीं हमारे ऋषि-मुनियों की वैज्ञानिक सोच भी निहित है।
प्राचीन समय से ही हमारे देश में विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में कर्पूर का उपयोग किया जाता है। कर्पूर का सबसे अधिक उपयोग आरती में किया जाता है। प्राचीन काल से ही हमारे देश में देशी घी के दीपक व कर्पूर के देवी-देवताओं की आरती करने की परंपरा चली आ रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान आरती करने के प्रसन्न होते हैं व साधक की मनोकामना पूर्ण करते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि कर्पूर जलाने से देवदोष व पितृदोष का शमन होता है। कर्पूर अति सुगंधित पदार्थ होता है। इसके दहन से वातावरण सुगंधित हो जाता है।वैज्ञानिक शोधों से यह भी ज्ञात हुआ है कि इसकी सुगंध से जीवाणु, विषाणु आदि बीमारी फैलाने वाले जीव नष्ट हो जाते हैं जिससे वातावरण शुद्ध हो जाता है तथा बीमारी होने का भय भी नहीं रहता।यही कारण है कि पूजन, आरती आदि धार्मिक कर्मकांडों में कर्पूर का विशेष महत्व बताया गया है।
नारी का कन्या रूप पूजनीय क्यों?
भारत त्योहारों का देश है। यहां वर्ष भर त्योहार मनाए जाते हैं। नवरात्र पर्व का हमारे यहां बहुत ज्यादा महत्व माना जाता है। नवरात्र में कन्या-पूजन का बडा महत्व है। सच तो यह है कि छोटी बालिकाओं में देवी दुर्गा का रूप देखने के कारण श्रद्धालु उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। हमारे धर्मग्रन्थों में कन्या-पूजन को नवरात्र-व्रतका अनिवार्य अंग बताया गया है।
ऐसा माना जाता है कि दो से दस वर्ष तक की कन्या देवी के शक्ति स्वरूप की प्रतीक होती हैं। हिंदु धर्म में दो वर्ष की कन्या को कुमारी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसके पूजन से दुख और दरिद्रता समाप्त हो जाती है।
तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति मानी जाती है। त्रिमूर्ति के पूजन से धन-धान्य का आगमन और संपूर्ण परिवार का कल्याण होता है। चार वर्ष की कन्या कल्याणी के नाम से संबोधित की जाती है। कल्याणी की पूजा से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कही जाती है। रोहिणी के पूजन से व्यक्ति रोग-मुक्त होता है। छ:वर्ष की कन्या कालिका की अर्चना से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है। सात वर्ष की कन्या चण्डिका के पूजन से ऐश्वर्य मिलता है। आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी की पूजा से वाद-विवाद में विजय तथा लोकप्रियता प्राप्त होती है। नौ वर्ष की कन्या दुर्गा की अर्चना से शत्रु का संहार होता है तथा असाध्य कार्य सिद्ध होते हैं। दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कही जाती है। सुभद्रा के पूजन से मनोरथ पूर्ण होता है तथा लोक-परलोक में सब सुख प्राप्त होते हैं।
ग्रहण काल में भोजन क्यों वर्जित?
हमारे धर्म शास्त्रों में सूर्य व चंद्र ग्रहण के दौरान कई बातों का ध्यान रखने के लिए कहा गया है। ग्रहण के दौरान विशेष तौर पर भोजन करना निषिद्ध माना गया है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ग्रहण के दौरान खाद्य वस्तुओं, जल आदि में सुक्ष्म जीवाणु एकत्रित हो जाते हैं जिनसे वह दूषित हो जाते हैं इसीलिए इनमें कुश(एक विशेष प्रकार की घास) डाल दी जाती है ताकि कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएं और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। कुश के अलावा तुलसी पत्र भी डालने की परंपरा हिंदू धर्म में है। चूंकि ग्रहण से हमारी जीवन शक्ति का ह्रास होता है और तुलसी पत्र में विद्युत शक्ति व प्राण शक्ति सबसे अधिक होती है इसलिए भोजन पर ग्रहण का प्रभाव समाप्त करने के लिए भोजन तथा पेय पदार्थों में तुलसी के पत्र डालते हैं।
शास्त्रों के अनुसार ग्रहण के समय भोजन करने से सुक्ष्म जीव पेट में जाने से रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। वैज्ञानिक शोधों से भी यह ज्ञात हुआ है कि ग्रहण काल के दौरान मनुष्य की पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है जिसके कारण अपच, अजीर्ण आदि शिकायतें हो सकती हैं। भारतीय धर्म विज्ञानियों का मानना है कि सूर्य व चंद्र ग्रहण लगने के 10 घंटे पूर्व ही उसका कुप्रभाव शुरू हो जाता है, जिसे सूतक काल कहते हैं।
मुस्लिम क्यों करते हैं हज यात्रा?
दुनिया के हर मुसलमान की ख्वाहिश होती है कि वह अपने जीवन काल में एक बार हज की यात्रा अवश्य करे। हज यात्रियों के सपनों में काबा पहुंचना, जन्नत पहुंचने के ही समान है। काबा शरीफ़ मक्का में है। असल में हज यात्रा मुस्लिमों के लिये सर्वोच्च इबादत है। इबादत भी ऐसी जो आम इबादतों से कुछ अलग तरह की होती है। यह ऐसी इबादत है जिसमें काफ़ी चलना-फि रना पड़ता है। सऊदी अरब के पवित्र शहर मक्का और उसके आसपास स्थित अलग-अलग जगहों पर हज की इबादतें अदा की जाती हैं। इनके लिए पहले से तैयारी करना ज़रूरी होता है, ताकि हज ठीक से किया जा सके। इसीलिए हज पर जाने वालों के लिए तरबियती कैंप मतलब कि प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं।
एहराम: हज यात्रा वास्तव में पक्का इरादा यानि कि संकल्प करके 'काबा' की जिय़ारत यानी दर्शन करने और उन इबादतों को एक विशेष तरीक़े से अदा करने को कहा जाता है। इनके बारे में किताबों में बताया गया है। हज के लिए विशेष लिबास पहना जाता है, जिसे एहराम कहते हैं। यह एक फकीराना लिबास है। ऐसा लिबास जो हर तरह के भेदभाव मिटा देता है। छोटे-बड़े का, अमीर-गऱीब, गोरे-काले का। इस दरवेशाना लिबास को धारण करते ही तमाम इंसान बराबर हो जाते हैं और हर तरह की ऊंच-नीच ख़त्म हो जाती है।जुंबा पर एक ही नाम: पूरी हज यात्रा के दरमियान हज यात्रियों की ज़बान पर 'हाजिऱ हूँ अल्लाह, मैं हाजिऱ हूँ। हाजिऱ हूँ। तेरा कोई शरीक नहीं, हाजिऱ हूँ। तमाम तारीफ़ात अल्लाह ही के लिए है और नेमतें भी तेरी हैं। मुल्क भी तेरा है और तेरा कोई शरीक नहीं है़,...जैसे शब्द कायम रहते हैं। कहने का मतलब यह है कि इस पूरी यात्रा के दोरान हर पल हज यात्रियों को यह बात याद रहती है कि वह कायनात के सृष्टा, उस दयालु-करीम के समक्ष हाजिऱ है, जिसका कोई संगी-साथी नहीं है। इसके अलावा यह भी कि मुल्को-माल सब अल्लाह तआला का है। इसलिए हमें इस दुनिया में फ़ क़ीरों की तरह रहना चाहिए।
चरणामृत सेवन का महत्व क्यों?
हिंदू धर्म में भगवान की आरती के पश्चात भगवान का चरणामृत दिया जाता है। इस शब्द का अर्थ है भगवान के चरणों से प्राप्त अमृत। हिंदू धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है। चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचरितमानस में लिखा है-
पद पखारि जलुपान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।।
अर्थात भगवान श्रीराम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है। आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते। इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। ऐसा माना जाता है कि चरणामृत मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है। रणवीर भक्तिरत्नाकर में चरणामृत की महत्ता प्रतिपादित की गई है-
पापव्याधिविनाशार्थं विष्णुपादोदकौषधम्।
तुलसीदलसम्मिश्रं जलं सर्षपमात्रकम्।।
अर्थात पाप और रोग दूर करने के लिए भगवान का चरणामृत औषधि के समान है। यदि उसमें तुलसीपत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधिय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है।
चरणामृत सेवन करते समय निम्न श्लोक पढऩे का विधान है-
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णुपादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।
अर्थात चरणामृत अकाल मृत्यु को दूर रखता है। सभी प्रकार की बीमारियों का नाश करता है। इसके सेवन से पुनर्जन्म नहीं होता।
मृतक के मुख पर चंदन की लकड़ी क्यों?
हिंदू परंपरा में मृतक का दाह संस्कार करते समय उसके मुख पर चंदन रख कर जलाने की परंपरा है। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। इस परंपरा के पीछे सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी निहित है। चंदन की लकड़ी अत्यंत शीतल मानी जाती है। उसकी ठंडक के कारण लोग चंदन को घिसकर मस्तक पर तिलक लगाते हैं, जिससे मस्तिष्क को ठंडक मिलती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार मृतक के मुख पर चंदन की लकड़ी रख कर दाह संस्कार करने से उसकी आत्मा को शांति मिलती है तथा मृतक को स्वर्ग में भी चंदन की शीतलता प्राप्त होती है।
इसका वैज्ञानिक कारण अगर देखा जाए तो मृतक का दाह संस्कार करते समय मांस और हड्डियों के जलने से अत्यंत तीव्र दुर्गंध फैलती है। उसके साथ चंदन की लकड़ी के जलने से दुर्गंध पूरी तरह समाप्त तो नहीं होती लेकिन कुछ कम जरुर हो जाती है।
क्यों की जाती है कपाल क्रिया?
हिंदू धर्म में मृत्यु के उपरांत मृतक का दाह संस्कार किया जाता है अर्थात मृत देह को अग्नि को समर्पित किया जाता है। दाह संस्कार के समय कपाल क्रिया भी की जाती है। दाह संस्कार के समय कपाल क्रिया क्यों की जाती है? इसका वर्णन गरुड़पुराण में मिलता है।उसके अनुसार जब शवदाह के समय मृतक के सिर पर घी की आहुति दी जाती है तथा तीन बार डंडे से प्रहार कर खोपड़ी फोड़ी जाती है इसी प्रक्रिया को कपाल क्रिया कहते हैं। इस क्रिया के पीछे अलग-अलग मान्यताए हैं। एक मान्यता के अनुसार कपाल क्रिया के पश्चात ही प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं और नए जन्म की प्रक्रिया आगे बढ़ती है।
दूसरी मान्यता है कि खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इसलिए जलाया जाता है ताकि वह अधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न देवताओं का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्ध चंद्रिका में मिलता है। चूंकि सिर में ब्रह्मा का वास माना गया है इसलिए शरीर को पूर्ण रूप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपाल क्रिया द्वारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है।खोपड़ी की हड्डी इतनी मजबूत होती है कि उसे अग्नि में भस्म होने में भी समय लगता है। वह फूट जाए और मस्तिष्क में स्थित ब्रह्मरंध्र पंचतत्व में पूर्ण रूप से विलीन हो जाए।
क्यों किया जाता है सुंदरकांड?
अक्सर शुभ अवसरों पर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरितमानस के सुंदरकांड का पाठ करने का महत्व माना गया है। ज्यादा परेशानी हो, कोई काम नहीं बन रहा हो, आत्मविश्वास की कमी हो या कोई और समस्या कई ज्योतिषी और संत भी लोगों को ऐसी स्थिति में सुंदरकांड का पाठ करने की राय देते हैं। आखिर रामचरितमानस के सारे छह कांड छोड़कर केवल सुंदरकांड का ही पाठ क्यों किया जाता है?
वास्तव में रामचरितमानस के सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है। संपूर्ण रामचरितमानस भगवान राम के गुणों और उनकी पुरुषार्थ से भरे हैं। सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है जो भक्त की विजय का कांड है। मनोवैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो यह आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति बढ़ाने वाला कांड है।
हनुमान जो कि जाति से वानर थे, वे समुद्र को लांघकर लंका पहुंच गए और वहां सीता की खोज की। लंका को जलाया और सीता का संदेश लेकर लौट आए। यह एक आम आदमी की जीत का कांड है, जो अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है। इसमें जीवन में सफलता के महत्वपूर्ण सूत्र भी हैं। इसलिए पूरी रामायण में सुंदरकांड को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि यह व्यक्ति में आत्मविश्वास बढ़ाता है।
क्यों की जाती है मंदिरों में प्राण-प्रतिष्ठा?
मंदिरों के निर्माण के बाद देवताओं की प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। क्या पत्थर की प्रतिमाओं में कुछ धार्मिक रस्में पूरी करने से उनमें प्राणों का संचार हो जाता है? क्या पत्थरों में जान फूंकना संभव है? आखिर क्यों प्रतिमाओं की स्थापना प्राण प्रतिष्ठा से की जाती है?
वास्तव में यह पूर्णत: वैज्ञानिक प्रक्रिया है। विज्ञान मानता है कि धार्मिक अनुष्ठानों और मंत्रों से किसी पत्थर में प्राण नहीं डाले जा सकते हैं लेकिन यह भी आश्चर्य का विषय है कि प्राण-प्रतिष्ठा का अनुष्ठान पत्थर की प्रतिमाओं को जागृत करने के लिए ही किया जाता है। दरअसल इस प्रक्रिया से पत्थरों में प्राण नहीं आते हैं लेकिन उसके जागृत होने, सिद्ध होने का अनुभव किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में कई विद्वानों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा किए जाने वाले स्थान पर वैदिक मंत्रों और ध्वनियों का नाद किया जाता है। प्रतिमा का कई तरह से अभिषेक कर उसके दोषों का शमन किया जाता है।
यह वास्तु आधारित होता है। इससे प्रतिमा के आसपास और जिस स्थान पर उसकी स्थापना की जा रही है, मंत्रों और शंख-घंटियों की ध्वनि से वातावरण का दूषित रूप खत्म हो जाता है और वहां सकारात्मक ऊर्जा का संचार शुरू हो जाता है। जिससे उस जगह के पवित्र होने का एहसास बढ़ता है। इसे हम अनुभव भी कर सकते हैं। मंदिर में जिस शांति का अनुभव होता है वह वैदिक मंत्रों और शंख आदि की ध्वनि से ही उत्पन्न होती है। इसे ही प्राण प्रतिष्ठा कहते हैं। इसके बाद यह मान लिया जाता है कि प्रतिमा में खुद देवता स्थापित हो गए हैं, इससे हमारे मन में उसके प्रति श्रद्धा और आस्था का भाव जागता है। जिसमें यह वातावरण सहायक होता है।
अंक-786 इस्लाम में खास क्यों ?
सैकड़ों या उससे भी ज्यादा धर्म हैं पृथ्वी पर। हर धर्म की कुछ विशिष्टताएं या खासियतें होती है। हिन्दुओं में ऊँ, स्वास्तिक और कार्य के प्रारंभ में श्री गणेशाय नम: का विशेष महत्व माना जाता है। सिक्खों मे अरदास, गुरुवाणी, सत श्रीअकाल और पगड़ी का खास महत्व होता है। वहीं ईसाई धर्म के मानने वालों का जीजस का्रइस्ट, क्रास का चिन्ह, माता मरियम और बाइबिल आदि के प्रति बड़ा आत्मीय सम्मान होता है।
जिस तरह किसी भी नए या शुभ कार्य की शुरुआत करने से पूर्व हिन्दुओं में गणेश को पूजा जाता है, क्योंकि गणेश को विघ्नहर्ता और सद्बुद्धि का देवता माना जाता है। उसी प्रकार इस्लाम धर्म में अंक-786 को सुभ अंक या शुभ प्रतीक माना जाता है। अरब से जन्में इस्लाल धर्म में अंक-786 का बड़ा ही धार्मिक महत्व माना गया है। प्राचीन काल में अंक ज्योतिष और नक्षत्र ज्योतिष दोनों एक भविष्य विज्ञान के ही अंग थे। प्राचीन समय में अंक ज्योतिष के क्षेत्र में अरब देशों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई थी। अरब देशों में ही इस्लाम का जन्म और प्रारंभिक संस्कारीकरण हुआ है। अंक-786 को अरबी ज्योतिष में बड़ा ही शुभकारक अंक माना गया है।
अंक ज्योतिष के अनुसार जब ७+८+६ का योग २१ आता है, तथा २+१ का योग करने पर ३ का आंकड़ा मिलता है, जो कि लगभग सभी धर्मों में अत्यंत शुभ एवं पवित्र अंक माना जाता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की संख्या तीन, अल्लाह, पैगम्बर और नुमाइंदे की संख्या भी तीन तथा सारी सृष्टि के मूल में समाए प्रमुख गुण- सत् रज व तम भी तीन ही हैं।
मासिक धर्म में धार्मिक कार्य वर्जित क्यों?
परमात्मा द्वारा स्त्री और पुरुषों में कई भिन्नताएं रखी गई हैं। इन भिन्नताओं के कारण स्त्री और पुरुषों में कई शारीरिक और स्वास्थ्य संबंधी अनेक विषमताएं रहती हैं। इन्हीं विषमताओं में से एक हैं स्त्रियों में मासिक धर्म। वैदिक धर्म के अनुसार मासिकधर्म के दिनों में महिलाओं के लिए सभी धार्मिक कार्य वर्जित किए गए हैं। साथ ही इस दौरान महिलाओं को अन्य लोगों से अलग रहने का नियम भी बनाया गया है। ऐसे में स्त्रियों को धार्मिक कार्यों से दूर रहना होता है क्योंकि सनातन धर्म के अनुसार इन दिनों स्त्रियों को अपवित्र माना गया है।
यह व्यवस्था प्राचीन काल से ही चली आ रही है। पुराने समय में ऐसे दिनों में महिलाओं को कोप भवन में रहना होता था। उस दौरान वे महिलाएं कहीं बाहर आना-जाना नहीं करती थीं। इस अवस्था में उन्हें एक वस्त्र पहनना होता था और वे अपना खाना आदि कार्य स्वयं ही करती थीं।मासिक धर्म के दिनों के लिए ऐसी व्यवस्था करने के पीछे स्वास्थ्य संबंधी कारण हैं।
आज का विज्ञान भी इस बात को मानता है कि उन दिनों में स्त्रियों के शरीर से रक्त के साथ शरीर की गंदगी निकलती है जिससे महिलाओं के आसपास का वातावरण अन्य लोगों के स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हो जाता है, संक्रमण फैलने का डर रहता है। साथ ही उनके शरीर से विशेष प्रकार की तरंगे निकलती हैं, वह भी अन्य लोगों के लिए हानिकारक होती है। बस अन्य लोगों को इन्हीं बुरे प्रभावों से बचाने के लिए महिलाओं को अलग रखने की प्रथा शुरू की गई।माहवारी के दिनों में महिलाओं में अत्यधिक कमजोरी भी आ जाती है तो इन दिनों अन्य कार्यों से उन्हें दूर रखने के पीछे यही कारण है कि उन्हें पर्याप्त आराम मिल सके। इन दिनों महिलाओं को बाहर घुमना भी नहीं चाहिए क्योंकि ऐसी अवस्था में उन्हें बुरी नजर और अन्य बुरे प्रभाव जल्द ही प्रभावित कर लेते हैं।
देवी मां के मंदिर पहाड़ों पर ही क्यों?
ऊंचे पहाड़ों पर बसी मां वैष्णौदेवी, हिमाचल के ऊंचे पहाड़ों पर माता ज्वाला देवी, माता मैहरवाली मां शारदा, पावागड़ वाली माता....,ऐसे कितने ही प्रसिद्ध मंदिर हैं जो ऊंचे पहाड़ों पर बने हैं।भारत ही नहीं विश्वभर में जितने भी देवी मां के मंदिर हैं, अधिकांस किसी न किसी ऊंचे और प्रसिद्ध पहाड़ पर ही स्थापित हैं। ध्यान न दिया जाए तो यह एक सामान्य बात है किन्तु हर सामान्य में कुछ खास अवश्य होता है। मिट्टी या पत्थर के पहाड़ों में ऐसा क्या है, जो समतल भूमि पर नहीं? जब इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिये गहराई और बारीकी से शोध किया गया तो कई रौचक और महत्वपूर्ण जानकारी सामने आती है।
तो आइये जाने देवी मां के पहाड़ों पर बसने के खास कारणों के बारे में- एकांत साधना: यह बात सभी जानते हैं कि पहाड़ों पर एकांत होता है। सारी धरती पर इंसान ज्यादातर समतल भूमि पर ही बसे होते हैं। असुविधा की दृष्टि से लोगों ने घर बनाने के लिये पहाड़ी इलाकों की बजाय मेदानी क्षेत्रों को ही प्राथमिकता से चुना है। एकांत की खासियत ने ही देवी मंदिरों के लिये पहाड़ों को महत्व प्रदान किया है। कार्य चाहे सांसारिक हो या आध्यात्मिक उसकी सफलता का दारोमदार करने वाले की एकाग्रता पर ही निर्भर होता है। इस एकाग्रता की उपलब्धता पहाड़ों पर आसानी से होती है। मौन, ध्यान एवं जप आदि कार्यों के लिये एकांत की अनिवार्य आवश्यकता होती है।
प्राकृतिक सौन्दर्य: पहाड़ी क्षेत्रों पर इंसानों का आना-जाना कम ही रहता है, जिससे वहां का प्राकृतिक सौन्दर्य अपने असली रुप में जीवित रह पाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि सौन्दर्य इंसान को स्फूर्ति और ताजगी प्रदान करता है। प्राकृतिक सौन्दर्य तो कृतिम सौन्दर्य से भी ज्यादा लाभदायक होता है।
ऊंचाई का प्रभाव: वैज्ञानिक विश्लेषणों में पाया गया है कि निचले स्थानों की बजाय अधिक ऊंचाई पर मानवी स्वास्थ्य अधिक उत्तम रहता है। कुछ दिनों तक लगातार ऊंचे स्थानों पर कई रोगों को नष्ट होते हुए देखा गया है। पहाड़ी स्थानों पर इंसान की धार्मिक और आध्यात्मिक भावनाओं का तीव्र विकास होते हुए देखा गया है।
धार्मिक कर्म में मौलि क्यों बांधते हैं?
हिंदू धर्म में कई रीति-रिवाज तथा मान्यताएं हैं। इन रीति-रिवाजों तथा मान्यताओं का सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक पक्ष भी है, जो वर्तमान समय में भी एकदम सटीक बैठता है।हिंदू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानि पूजा-पाठ, यज्ञ, हवन आदि के पूर्व ब्राह्मण द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली(एक विशेष धार्मिक धागा) बांधी जाती है।शास्त्रों का ऐसा मत है कि मौलि बांधने से त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की अनुकंपा से रक्षा बल मिलता है तथा शिव दुर्गुणों का विनाश करते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त होती है।
शरीर विज्ञान की दृष्टि से अगर देखा जाए तो मौलि बांधना उत्तम स्वास्थ्य भी प्रदान करती है। चूंकि मौलि बांधने से त्रिदोष- वात, पित्त तथा कफ का शरीर में सामंजस्य बना रहता है। मौलि का शाब्दिक अर्थ है सबसे ऊपर, जिसका तात्पर्य सिर से भी है।
शंकर भगवान के सिर पर चंद्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौलि भी कहा जाता है। मौलि बांधने की प्रथा तब से चली आ रही है जब दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए वामन भगवान ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था। शास्त्रों में भी इसका इस श्लोक के माध्यम से मिलता है -
येन बद्धो बलीराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे माचल माचल।।
मुस्लिम लड़कियों का मॉडलिंग करना वर्जित क्यों?
इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो अपने धार्मिक नियम-कायदों का कड़ाई से पालन करने में विश्वास रखता है। इस्लाम धर्म के अनुयाई यानि कि इस्लाम को मानने वाले शरई या शरियत के नियम कायदों को अटल एवं अंतिम मानते हैं। शरियत एक ऐसा कायदानामा है जिसमें प्रत्येक मुस्लिम मर्द और औरत के लिए अनियार्य नियम- कानून होते हैं।शरियत में इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी प्रमुख घटनाओं में जो नियम पालने होते हैं, उनका विस्तार से वर्णन किया गया है।
इस्लाम धर्म की प्रमुख संस्थाएं दारूल उलूम देवबंद , आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और वक्फ दारूल उलूम...आदि सभी ने कुछ कार्यों को मुस्लिम पुरुषों और स्त्रियों के लिये हराम बताया है। गैर मर्दों के साथ आफिसों में काम करना, बुर्का छोड़कर मार्डन कपड़े पहनना तथा लड़कियों का माड़लिंग करना ऐसे ही कुछ वर्जित कार्य हैं।
स्लामी शिक्षण संस्था दारुल उलूम देवबंद ने एक फ तवा जारी कर कहा है कि मुस्लिम लड़कियों का मॉडलिंग करना हराम है क्योंकि यह इस्लामिक शरई कानूनों के खिलाफ है। इनके अनुसार इस्लामी कानून में ऐसा करना हराम है।इसमें उन्होंने कहा कि महिलाओं के मॉडलिंग करने तथा उस दौरान भौंड़ेपन और बदन का प्रदर्शन करने वाले लिबास पहनना शरियत कानून के खिलाफ है। इस्लामी कानून में ऐसा करना हराम है।
क्यों करते हैं मंत्रोच्चार?
हिंदू धर्म में मंत्रों को महिमा बताई गई है। निश्चित क्रम में संगृहीत विशेष वर्ण जिनका विशेष प्रकार से उच्चारण करने पर एक निश्चित अर्थ निकलता है, मंत्र कहलाते हैं। शास्त्रकार कहते हैं-मननात् त्रायते इति मंत्र:। अर्थात मनन करने पर जो त्राण दे, या रक्षा करे वही मंत्र है।
मंत्र एक ऐसा साधन है, जो मनुष्य की सोई हुई सुषुप्त शक्तियों को सक्रिय कर देता है। मंत्रों में अनेक प्रकार की शक्तियां निहित होती है, जिसके प्रभाव से देवी-देवताओं की शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। रामचरित मानस में मंत्र जप को भक्ति का पांचवा प्रकार माना गया है। मंत्र जप से उत्पन्न शब्द शक्ति संकल्प बल तथा श्रद्धा बल से और अधिक शक्तिशाली होकर अंतरिक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना के संपर्क में आती है जिसके फलस्वरूप मंत्र का चमत्कारिक प्रभाव साधक को सिद्धियों के रूप में मिलता है।
शाप और वरदान इसी मंत्र शक्ति और शब्द शक्ति के मिश्रित परिणाम हैं। साधक का मंत्र उच्चारण जितना अधिक स्पष्ट होगा, मंत्र बल उतना ही प्रचंड होता जाएगा।वैज्ञानिकों का भी मानना है कि ध्वनि तरंगें ऊर्जा का ही एक रूप है। मंत्र में निहित बीजाक्षरों में उच्चारित ध्वनियों से शक्तिशाली विद्युत तरंगें उत्पन्न होती है जो चमत्कारी प्रभाव डालती हैं।
शादी, पत्नी-बच्चे अपार दौलत फिर भी योगी?
जिन परमयोगी जनक की बात हम कर रहे हैं वे सार्वकालिक भारतीय हीरो श्री राम की पत्नी देवी सीता के पिता थे। मिथिला प्रदेश के राजा जनक एक ऐतिहासिक राजा हैं। जनक का ही एक दूसरा नाम विदेह भी है। विदेह का अर्थ है जो शरीर के होते हुए भी शरीर से प्रथक हो। राजा जनक की महानता इस बात में है कि वे गृहस्थ होकर भी परम योगी माने जाते हैं। विशाल देश के राजा, अक्षय धन संपत्ति, एकाधिक पत्नियां, पुत्र-पुत्रियां होने के बावजूद किसी का परम योगी माना जाना आश्चर्यजनक लगता है।
योगी कौन?- योगी के विषय में आम धारणा यही है कि, योगी आजीवन ब्रह्मचारी रहने वाला कोई सन्यासी ही हो सकता है। लोग सोचते हैं कि जो घर परिवार छोड़कर पहाड़ों पर, जंगलों में या गुफाओं में एकांतवास करते हैं वे ही योगी हैं। किन्तु ऐसा सोचना अधूरे ज्ञान की पहचान है। योग का असली अर्थ है, उस परम चेतना परमात्मा से जुडऩा। यह जोड़ चेतना या आत्मा के स्तर पर होता है। कोई साधक तभी योगी बन पाता है जब वह भीतर से इस क्षणिक संसार का त्याग कर देता है। बाहरी रूप में भले ही वह जगत में रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहे।
बाहर नहीं भीतर से- योगी को संसार त्यागना होता है, जगत नहीं। संसार और जगत में बड़ा सूक्ष्म किन्तु महत्वपूर्ण अंतर होता है। जगत वो है जिसमे रहकर इंसान अनासक्त रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करता है। जबकि संसार वह है जिसमें इंसान मैं और मेरे की भावना से बंघ कर कार्य करता है। इसीलिये निस्वार्थ रूप से अनासक्त होकर जीवन के सभी कर्तव्यों का पालन करने वाले राजा जनक परम योगी बन सके।
रतिक्रिया: रात्रि का प्रथम प्रहर ही श्रेष्ठ क्यों?
सनातन धर्म में रतिक्रिया के संबंध में भी कई आवश्यक निर्देश दिए हैं। विवाह उपरांत रतिक्रिया को महत्वपूर्ण माना गया है। रतिक्रिया के माध्यम से ही संतान की उत्पत्ति होती है। आपकी संतान कैसी होगी? यह रतिक्रिया का समय निर्धारित करता है। इस संबंध में धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि रात्रि का प्रथम प्रहर रतिक्रिया के लिए सर्वश्रेष्ठ है। ऐसा माना जाता है कि रात्रि के प्रथम पहर में कि गई रतिक्रिया से उत्पन्न होने वाली संतान को शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है और वह संतान पूर्णत: धार्मिक, माता-पिता की आज्ञा का पालन करने वाली, भाग्यवान, दीर्घायु होती है।
मान्यता है कि प्रथम प्रहर के पश्चात राक्षस गण पृथ्वी भ्रमण पर निकलते हैं और उस दौरान की गई रतिक्रिया से उत्पन्न होने वाली संतान राक्षसों के समान ही गुण वाली होती है। वे संतान अति कामी, बुरे गुणों वाली, माता-पिता का अनादर करने वाली, भाग्यहीन और बुरे व्यसनों में फंसने वाली होती हैं।
रात्रि का प्रथम प्रहर रात 12 बजे तक माना जाता है। वैदिक धर्म के अनुसार इसी समय को रतिक्रिया के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसके अतिरिक्त किसी अन्य समय में रतिक्रिया करने वाले युगल कई प्रकार के शारीरिक, मानसिक और आर्थिक दुख भोगते हैं। रात्रि 12 बजे के बाद रतिक्रिया करने से कई प्रकार की बीमारियां घेर लेती हैं। जैसे अनिंद्रा, मानसिक तनाव, थकान अन्य शारीरिक बीमारियां आदि। साथ ही उन्हें देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त नहीं होती।
तीर्थ यात्रा क्या और क्यों ?
इंसानी जिंदगी को चार प्रमुख हिस्सों में बांटा गया है। इन्हीं चार भागों में इंसान की पूरी जिंदगी सिमटी हुई है। धर्म की जुबान में कहें तो इन चार हिस्सों को पुरुषार्थ कहा गया है। प्राचीन ऋषि-मुनि लिबास से भले ही साधु -संत थे किन्तु सोच और कार्यशैली से पूरी तरह से वैज्ञानिक थे। इंसानी मनोविज्ञान के कुशल मर्मज्ञ यानि कि जानकार होते थे ये ऋषि-मुनि। इन्हीं मानस मर्मज्ञों ने धर्म का वैज्ञानिक विधि-विधान निर्मित किया है। धर्म में उन कार्यों या क्रियाओं को शामिल किया गया है, जो इंसान को उसके वास्तविक लक्ष्य तक पहुंचा सकते हैं।
दुनिया के किसी भी धर्म की अंतिम मान्यता यही है कि आत्मज्ञान या पूर्णता की प्राप्ति ही इंसानी जिंदगी का एकमात्र अंतिम ध्यैय यानि कि मकसद है। पूर्णता की प्राप्ति के लिये धर्म तथा धर्म की सफलता के लिये कुछ कायदे-कानून होते हैं। इन्हीं नियमों में तीर्थ यात्रा भी एक है। तीर्थ यात्रा की परम्परा जितनी महान और वैज्ञानिक थी, उसका वह असली स्वरूप आज कहीं खो सा गया है। तीर्थयात्रा के लक्ष्य, उद्देश्य और परिणाम क्या थे?
ज्ञान का विस्तार: एक सीमित दायरे में रहने वाले इंसान को कूप मंडूक यानि कि कूए का मेढ़क कहकर नवाजा जाता है। इंसान जब तक दायरे से बाहर निकलकर बाहर की दुनिया से रूबरू नहीं होता, उसकी सोच, समझ और मानसिक क्षमता विकसित नहीं हो सकती। अत: तीर्थ यात्रा का महत्वपूर्ण मकसद अपने ज्ञान को व्यापक बनाना है।
कुछ वक्त ओरों के लिये: तीर्थयात्रा का मकसद मात्र धार्मिक कर्मकांड और मनोरंजन ही नहीं है। अपने प्रारंभिक काल में तीर्थयात्रा का प्रमुख मकसद समाज की उन्नती या भलाई करना भी होता था। यात्रा के मार्ग में आने वाले गावों में तीर्थयात्री संध्या के समय कई ज्ञानवर्धक और रौचक कार्यक्र मों का आयोजन करते थे। इससे लोगों को धर्म, विज्ञान और संस्कृति को जानने का मौका मिलता था।
स्वास्थ्य है सर्वोपरि: उत्तम यानि कि अच्छा स्वास्थ्य जिंदगी की पहली जरूरत होती है। अच्छे स्वास्थ्य के दम पर ही कोई इंसान कुछ नया और महान कार्य कर सकता है। तीर्थ के लिये चुने गए अधिकांश स्थान ऐसी जगहों पर हैं जो स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद फायदेमंद होते हैं। अत: तीर्थयात्रा के दौरान धार्मिक उद्देश्य की प्राप्ति के साथ ही अच्छे स्वास्थ्य का अतिरिक्त लाभ होता है।
मंदिर में घंटी क्यों लगाते हैं?
हिंदू धर्म में देवालयों व मंदिरों के बाहर घंटियां या घडिय़ाल पुरातन काल से लगाए जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि जिस मंदिर से घंटी या घडिय़ाल बजने की आवाज नियमित आती है, उसे जाग्रत देव मंदिर कहते हैं। उल्लेखनीय है कि सुबह-शाम मंदिरों में जब पूजा-आरती की जाती है तो छोटी घंटियों, घंटों के अलाव घडिय़ाल भी बजाए जाते हैं। इन्हें विशेष ताल और गति से बजाया जाता है।ऐसा माना जाता है कि घंटी बजाने से मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति के देवता भी चैतन्य हो जाते हैं, जिससे उनकी पूजा प्रभावशाली तथा शीघ्र फल देने वाली होती है। स्कंद पुराण के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से मानव के सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद(आवाज) था, घंटी या घडिय़ाल की ध्वनि से वही नाद निकलता है। यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जाग्रत होता है।
घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है। धर्म शास्त्रियों के अनुसार जब प्रलय काल आएगा तब भी इसी प्रकार का नाद प्रकट होगा। मंदिरों में घंटी या घडिय़ाल लगाने का वैज्ञानिक कारण भी है। जब घंटी बजाई जाती है तो उससे वातावरण में कंपन उत्पन्न होता है जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है। इस कंपन की सीमा में आने वाले जीवाणु, विषाणु आदि सुक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं तथा मंदिर का तथा उसके आस-पास का वातावरण शुद्ध बना रहता है।
इस्लाम में आतंकवाद वर्जित क्यों?
आंतकवाद यानि ऐसा वाद जिसे दिल और दिमाग से नहीं बल्कि बम और बंदूकों के दम पर फेलाया जाता है। धर्म कोई भी क्यों न हो वह आतंकवाद यानि कि दहशतगर्दी को इजाजत नहीं देता। किसी धर्म विशेष से आतंकवाद जैसे घिनोने कार्य को जोडऩा उचित नहीं है। इस्लाम धर्म की प्रमुख संस्थाएं दारूल उलूम देवबंद, आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और वक्फ दारूल उलूम...आदि सभी ने उत्तर प्रदेश के देवबंद शहर में आयोजित देश के सर्वोच्च इस्लामिक सम्मेलन में 'आतंकवाद' की सभी कार्रवाइयों को गैर धार्मिक होने के साथ ही ग़ैर इस्लामी भी कहा गया है।
ऐलाने इस्लाम: इस सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण घोषणापत्र भी पारित किया गया। दारुल-उलूम के आतंकवाद विरोधी सम्मेलन में भी सभी तरह की हिंसा और आतंकवाद की आलोचना करते हुए सर्वसम्मति से एक घोषणापत्र पारित किया गया। इस सम्मेलन में अनेक मुस्लिम विद्वानों, धार्मिक नेताओं और मौलवियों ने हिस्सा लिया। घोषणापत्र में कहा गया है-
'इस्लाम ऐसा धर्म है, जिसमें सभी के प्रति दया-दृष्टि रखी जाती है। इस्लाम सभी तरह की हिंसा, आतंकवाद और अत्याचार की कड़ी आलोचना करता है। इस्लाम में अत्याचार, धोखा, दंगा और हत्या को सबसे बड़ा पाप माना गया है।'
असली इस्लाम: घोषणापत्र को पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि इस्लाम भी हर तरह के हिंसात्मक कार्यों और दहशतगर्दी को पूरी तरह से इंकार करता है। घोषणापत्र में मुस्लिम विद्वानों से अपील की गई है कि वे इस्लाम को बदनाम करने वाले किसी भी कार्य का हिस्सा न बने और राष्ट्र विरोधी शक्तियों के प्रभाव में न आए। ख्यात मुस्लिम विद्वानों ने कहा कि इस्लाम प्यार और शांति का धर्म है और इसकी शिक्षाओं में आतंकवाद की कोई जगह नहीं है। क़ुरान की आयतों का हवाला देते हुए मुस्लिम विद्वानों ने कहा कि इस्लाम सभी लोगों के बीच समानता और करुणा की शिक्षा देता है।
स्नान के बाद ही भोजन क्यों ?
हमारे शास्त्रों में बिना स्नान किए भोजन करना वर्जित बताया गया है। शास्त्रों में लिखा है- अस्नायी समलं भुक्ते। अर्थात स्नान किए बिना भोजन करना मल खाने के समान है। हालांकि वर्तमान समय में इन बातों पर गौर नहीं किया जाता लेकिन इस तथ्य के पीछे न सिर्फ धार्मिक बल्कि वैज्ञानिक कारण भी हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार स्नान से शरीर के प्रत्येक भाग को नया जीवन प्राप्त होता है।
शरीर में पिछले दिन का एकत्र सभी प्रकार का मैल स्नान व मंजन से साफ हो जाता है तथा शरीर में एक नई ताजगी व स्फूर्ति आ जाती है, जिससे स्वाभाविक रूप से भूख लगती है। उस समय किए गए भोजन का रस हमारे शरीर के लिए पुष्टिवर्धक होता है।
जबकि स्नान के पूर्व कुछ भी खाने से हमारी जठराग्नि उसे पचाने में लग जाती है। स्नान करने पर शरीर शीतल हो जाता है जिससे पेट की पाचन शक्ति मंद हो जाती है। इसके कारण हमारा आंत्रशोध कमजोर होता है, कब्ज की शिकायत रहती है तथा अन्य कई प्रकार के रोग हो जाते हैं। इसलिए स्नान से पूर्व भोजन करना वर्जित माना गया है।
आवश्यक हो तो गन्ने का रस, पानी, दूध, फल व औषधि स्नान से पूर्व ली जा सकती है क्योंकि इनमें जल की मात्रा अधिक होती है जिससे यह जल्दी पच जाते हैं।
दिन में सोना क्यों वर्जित?
हमारे धर्म शास्त्रों में दिन में सोना वर्जित माना गया है। शास्त्रों में लिखा है- दिवास्वापं च वर्जयेत्।अर्थात दिन में सोना उचित नहीं है।देखने में आता है कि अधिकांश घरेलू महिलाएं तथा दो पारियों में काम करने वाले पुरूष दिन में सोते हैं। दिन में सोना सिर्फ शास्त्रों में ही वर्जित नहीं माना गया अपितु आयुर्वेद भी इस बात की पुष्टि करता है कि दिन में सोने से कई प्रकार के रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
आयुर्वेद के अनुसार दिन में सोने से प्रतिश्याय जुकाम हो जाता है। यह जुकाम जब स्थायी हो जाता है तो कास रोग हो जाता है। कास रोग ही आगे जाकर श्वास रोग में बदल जाता है। श्वास रोगी के फेफड़े धीरे-धीरे खराब हो जाते हैं और यह स्थिति क्षय अर्थात तपेदिक जैसे असाध्य रोग में बदल जाती है।वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी रात में पूरी नींद लेकर दिन में कार्य करना ही उत्तम माना गया है।
रात की नींद से शरीर को पर्याप्त आराम मिलता है। जिससे सुबह उठकर शरीर में नवीन ऊर्जा का संचार होता है जो दिनभर के कार्यों के लिए पर्याप्त होती है। दिन में सोकर हम अनावश्यक रूप से शरीर को आलस्य का घर बनाते हैं। अत: रात में भरपूर गहरी नींद लेकर दिन में कार्य करना ही उचित माना गया है।
क्यों मानते हैं अतिथि को भगवान ?
क्या कारण है कि गृहस्थ जीवन को सन्यास से भी अधिक श्रेष्ठ व कठिन माना गया है? एक गृहस्थ व्यक्ति की जिंदगी में अनायास ही सारी तप साधना शामिल है। इसीलिये तो गृहस्थ इंसान बगैर घर-परिवार छोड़े ही जीवन के असली मकसद यानि कि पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। जिंदगी के जिस मकसद को पाने की खातिर कोई साधक घर-परिवार ही नहीं पूरा संसार ही छोड़कर सन्यासी बन जाता है। आखिर इतनी अनमोल उपलब्धि दुनियादारी में डूबा हुआ सामान्य व्यक्ति कैसे प्राप्त कर लेता है?
सारा रहस्य गृहस्थ इंसान के कर्तव्यों में छुपा है। इंसानी जिंदगी को जिन चार अनिवार्य और अति महत्वपूर्ण भागों में बांटा गया है, उनमें से दूसरा है- गृहस्थ आश्रम। गृहस्थ में रहकर कुछ कर्तव्यों को करना अनिवार्य बताया गया है। किसी विवाहित या परिवार वाले गृहस्थ इंसान के लिये जिन कार्यों करना निहायत ही जरूरी है वे इस प्रकार हैं-
जीव ऋण: यानि घर आए अतिथि, याचक तथा पशु-पक्षियों का उचित सेवा- सत्कार करना ।
देव ऋण: यानि यज्ञ आदि कार्यों द्वारा देवताओं को प्रशन्न एवं पुष्ट करना।
शास्त्र ऋण: जिन शास्त्रों या ग्रंथों से हमने ज्ञान-विज्ञान सीखकर जीवन को श्रेष्ठ बनाया है, उनका सम्मान, हिफाजत एवं प्रचार प्रसार करना।
पितृ ऋण: यानि कि अपने पूर्वजों और पित्रों की सुख-शांति के लिये शास्त्रोक्त तरीके से श्राद्ध-कर्म का करना।
ग्राम ऋण: यानि कि जिस गांव समाज और देश में पल-बढ़कर हम बड़े हुए हैं, उसकी भलाई की खातिर अपनी क्षमता के अनुसार प्रयास करना।
ऊपर दी गई जानकारी से स्पष्ट हे कि अतिथि को भगवान मानकर सेवा करना इंसान को उस ऋण से छुटकारा दिलाता है जिससे मुक्ति पाकर ही गृहस्थ जीवन सफल हो सकता है।
गंगा स्नान इतना खास क्यों?
नहाना स्वास्थ्य के लिये फायदेमंद है, यह स्वीकारने में सायद ही किसी को आपत्ति हो। किन्तु कहीं का पानी बाकी सब जगहों से बहुत ज्यादा ही फायदेमंद होता है, यह स्वीकारने में आज के इंसान को असुविधा अवश्य होती है। ऐसी क्या खासियत है कि कोई नदी अपनी विशेषताओं के कारण देवी-देवताओं की तरह से पूजी जाने लगे।
हम यह भूल जाएं कि हिन्दू धर्म क्या कहता है और धार्मिक ग्रंथों में क्या लिखा है, तो ही बेहतर होगा। क्योंकि धर्म का नाम सुनते ही आधुनिक इंसान कतराने लगता है। आधुनिक विज्ञान पढ़ा लिखा मानव वही बात स्वीकार करता जो उसकी बुद्धि और तर्क की कसौटी पर खरी उतरे। तो आइये जाने उन खासियतों को जो दिव्य गंगा नदी को अन्य नदियों से अधिक महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट बनाती हैं:-
- गंगा ही एक मात्र ऐसी नदी है जिसका पानी हिमालय की दुर्लभ औषधीय वनस्पतियों के गुणों से संपन्न हैं।
- वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि बर्फ के जिनग्लेशियर के पिघलने से गंगा नदी बनती है, वे दुनिया के सर्वाधिक शुद्ध जल के स्रोत हैं।
- गंगा नदी ही दुनिया की एकमात्र ऐसी नदी है, जिसका पानी कई साल तक बगैर संक्रमित हुए सुरक्षित रह सकता है।
- गंगा ही एकमात्र ऐसी नदी है, जिसके पानी में बीमारी फैलाने वाले हानिकारक जीवाणुओं, वायरस और जहरीले केमीकल्स को नष्ट करने की क्षमता है।
- गंगा नदी ही एकमात्र ऐसी नदी है जो हिमालय के दिव्य आध्यात्मिक गुणों से सम्पन्न है।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में ऐसे और भी अनेक कारण हैं, जो गंगा नदी को माता के समान पूज्यनीय बनाते हैं। इसका पानी अनेक रोगों से छुटाकारा दिलाने के साथ-साथ बेहतर स्वास्थ्य भी प्रदान करता है।
गलती से भी बाल-नाखून न काटें, क्यों व किस दिन ?
परंपराएं, नियम-कायदे और अनुशासन आखिर क्या और क्यों हैं। आज के इस वैज्ञानिक युग में इन बातों का कोई महत्व या औचित्य है भी या नहीं, कहीं ये बातें अंध विश्वास ही तो नहीं हैं? दूसरे पहलू से सोचें तो क्या इन परंपराओं का इंसानी जिंदगी में कोई महत्वपूर्ण योगदान है? जब गहराई और बारीकी से अध्ययन और विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि, अधिकांस परंपराओं और रीति-रिवाजों के पीछे एक सुनिश्वित वैज्ञानिक कारण होता है। किसी बात को पूरा का पूरा समाज यूं ही नहीं मानने लग जाता। अनुभव, उदाहरण, आंकड़े और परिणामों के आधार पर ही कोई नियम या परंपरा परे समाज में स्थान और मान्यता प्राप्त करते हैं।
प्रात:जल्दी उठना, सूर्य व तुलसी को जल चढ़ाना, माता-पिता व गुरुजनों के चरण स्पर्श करना या तिलक लगाना , शिखा-जनेऊ धारण करना आदि अनेक परंपराओं का बड़ा ही पुख्ता वैज्ञानिक आधार होता है।
बेहद महत्वपूर्ण और अनिवार्य परंपराओं व नियमों में बाल और नाखून काटने के विषय में भी स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं। आज भी हम घर के बड़े और बुजुर्गों को यह कहते हुए सुनते हैं कि, शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन बाल और नाखून भूल कर भी नहीं काटना चाहिये। पर आखिर ऐसा क्यों?
जब हम अंतरिक्ष विज्ञान और ज्योतिष की प्राचीन और प्रामाणिक पुस्तकों का अध्ययन करते तो इन प्रश्रों का बड़ा ही स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान प्राप्त होता है। वह यह कि शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन ग्रह-नक्षत्रों की दशाएं तथा अंनत ब्रह्माण्ड में से आने वाली अनेकानेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म किरणें मानवीय मस्तिष्क पर अत्यंत संवेदनशील प्रभाव डालती हैं। यह स्पष्ट है कि इंसानी शरीर में उंगलियों के अग्र भाग तथा सिर अत्यंत संवेदनशील होते हैं। कठोर नाखूनों और बालों से इनकी सुरक्षा होती है। इसीलिये ऐसे प्रतिकूल समय में इनका काटना शास्त्रों में वर्जित, निंदनीय और अधार्मिक कार्य माना गया है।
ऊँ खास क्यों? जाने विज्ञान की प्रयोगशाला में...
धर्म की जड़ें बहुत गहरी और मजबूत होती हैं। तभी तो मानव इतिहास के हजारों वर्ष बीत जाने के बावजूद धर्म की इमारत आज भी उसी बुलंदी के साथ तन कर खड़ी है। कुछ विद्वानों और विचारकों को डर था कि वैज्ञानिक प्रगति और आधुनिकता के साथ-साथ धर्म का प्रभाव और पहुंच घटने लगेगी, किन्त ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। भले ही इंसान चांद-तारों पर पहुंच गया हो पर अपनी जड़ों से कटकर ऊंचा उठना उसके लिये कभी भी संभव नहीं हो पाएगा।
' ऊँ' शब्द तीन अक्षरों अ, उ और म से मिलकर बना है। पर इसमें ऐसा क्या खास है कि इसे हिन्दुओं ने अपना पवित्र धार्मिक प्रतीक मान लिया है। ईसाइयों में क्रास का चिह्न तथा मुस्लिमों में 786 की तरह ही हिन्दुओं में स्वास्तिक और ऊँ का विशेष महत्व माना जाता है। असंख्य शब्दों और चिह्नों में से ऊँ और स्वास्तिक को ही क्यों चुना गया। आइये ऊँ की खासियत जाने विज्ञान की प्रयोगशाला में चलकर...
चिकित्साशास्त्री, शरीर विज्ञानी, ध्वनि विज्ञानी और अन्य भौतिक विज्ञानी ओम को लेकर आज बड़े आश्चर्यचकित हैं। इंसानी जिंदगी पर किसी शब्द का इतना अधिक प्रभाव सभी के आश्चर्य का विषय है। एक तरफ ध्वनिप्रदूषण बड़ी भारी समस्या बन चुका है, वहीं दूसरी तरफ एक ऐसी ध्वनि है जो हर तरह के प्रदूषण को दूर करती है। वो ध्वनि है ओम के उच्चारण से उत्पन्न ध्वनि। जरा देखें ओम के उच्चारण से क्या घटित और परिवर्तित होता है:-
- ओम की ध्वनि मानव शरीर के लिये प्रतिकूल डेसीबल की सभी ध्वनियों को वातावरण से निष्प्रभावी बना देती है।
- विभिन्न ग्रहों से आनेवाली अत्यंत घातक अल्ट्रावायलेट किरणें ओम उच्चारित वातारण में निष्प्रभावी हो जाती हैं।
- ओम का उच्चारण करने वाले के शरीर का विद्युत प्रवाह आदर्श स्तर पर पहुंच जाता है।
- इसके उच्चारण से इंसान को वाक्सिद्धि प्राप्त होती है।
- अनिद्रा के साथ ही सभी मानसिक रोगों का स्थाई निवारण हो जाता है।
- चित्त एवं मन शांत एवं नियंत्रित हो जाते हैं।
ब्राह्मणों को क्यों कहते हैं द्विज?
ब्राह्मणों का एक नाम द्विज भी है। पुरातन काल में इन्हें द्विज कहकर भी संबोधित किया जाता था। द्विज का अर्थ है दो बार जन्म लेने वाला। सवाल यह है कि क्या वाकई ब्राह्मणों का दो बार जन्म होता है या यह केवल एक परंपरा है।
दरअसल ब्राह्मण परिवार में बालक जब जन्म लेता है तो वह केवल जन्म से ही ब्राह्मण होता है। उसके कर्म सामान्य इंसानों जैसे ही होते हैं। यह उसका पहला जन्म माना गया है। दूसरा जन्म तब होता है जब बालक का यज्ञोपवित किया जाता है। तब उसे वेदाध्ययन और यज्ञ का अधिकार भी मिल जाता है। यज्ञोपवित के बाद ही बालक ब्राह्मण को यज्ञ करने का अधिकार होता है, तब वह वास्तव में कर्म से भी ब्राह्मण हो जाता है। इस तरह ब्राह्मण के दो जन्म माने गए हैं, इसलिए उन्हें द्विज कहा जाता है।
विवाह में सात फेरे ही क्यों?
इंसानी जिंदगी में विवाह एक बेहद महत्वपूर्ण घटना है। जब दो इंसान जीवन भर साथ में मिलकर धर्म के रास्ते से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करते हैं। हर परिस्थिति में एक - दूसरे का साथ निभाने का संकल्प लिया जाता है। संकल्प या वचन सदैव देव स्थानों या देवताओं की उपस्थिति में लेने का प्रावधान होता है।
इसीलिये विवाह के साथ फेरे और वचन अग्रि के सामने लिये जाते हैं। फेरे सात ही क्यों लिये जाते हैं इसका कारण सात अंक की महत्ता के कारण होता है। शास्त्रों में सात की बजाय चार फेरों का वर्णन भी मिलता है। तथा चार फेरों में से तीन में दुल्हन तथा एक में दुल्हा आगे रहता है। किन्तु फिर भी आजकल विवाह में सात फेरों का ही अधिक प्रचलन है। हमारी संस्कृति में, हमारे जीवन में, हमारे जगत में इस अंक विशेष का कितना महत्व है आइये जाने.....
- सूर्य प्रकाश में रंगों की संख्या भी सात।
- संगीत में स्वरों की संख्या की संख्या भी सात: सा, रे, गा, मा, प , ध, नि।
- पृथ्वी के समान ही लोकों की संख्या भी सात: भू, भु:, स्व: मह:, जन, तप और सत्य।
- सात ही तरह के पाताल: अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल।
- द्वीपों तथा समुद्रों की संख्या भी सात ही है।
- प्रमुख पदार्थ भी सात ही हैं: गोरोचन, चंदन, स्वर्ण, शंख, मृदंग, दर्पण और मणि जो कि शुद्ध माने जाते हैं।
- प्रमुख क्रियाएं भी सात ही हैं: शौच, मुखशुद्धी, स्नान, ध्यान, भोजन, भजन तथा निद्रा।
- पूज्यनीय जनों की संख्या भी सात ही है: ईश्वर, गुरु, माता, पिता, सूर्य, अग्रि तथा अतिथि।
- इंसानी बुराइयों की संख्या भी सात: ईष्र्या, का्रोध, मोह, द्वेष, लोभ, घृणा तथा कुविचार।
- वेदों के अनुसार सात तरह के स्नान: मंत्र स्नान, भौम स्नान, अग्रि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, करुण स्नान, और मानसिक स्नान।
7- अंक की इस रहस्यात्मक महत्ता के कारण ही प्राचीन ऋषि-मुनियों, विद्वानों या नीति-निर्माताओं ने विवाह में सात फेरों तथा सात वचनों को शामिल किया है। अपने परिजनों, संबधियों और मित्रों की उपस्थिति में वर-वधु देवतुल्य अग्नि की सात परिक्रमा करते हुए सात वचनों को निभाने का प्रण करते हैं यानि कि संकल्प करते हैं। मन ही मन ईश्वर से कामना करते हैं कि हमारा प्रेम सात समुद्रों जितना गहरा हो। हर दिन उसमें संगीत के सातों स्वरों का माधुर्य हो। जीवन में सातों रंगों का प्रकाश फै ले। दोनों एक होकर इतने सद्कर्म करें कि हमारी ख्याती सातों लोकों में सदैव बनी रहे।
विधवा स्त्री सफेद कपड़े ही क्यों पहने?
विवाह के बंधन में बंधते समय सभी की कामना होती है कि वर और वधु सात जन्मों तक प्रेम पूर्वक साथ रहें। दोनों की जोड़ी सदा बनी रहे तथा घर परिवार में सदा सुख-समृद्धि की परिस्थितियां कायम रहें। लेकिन भविष्य के गर्भ में कितने कटु सत्य पल रहे हैं, इसका किसी को अंदाजा भी नहीं हो पाता। स्त्री का धन उसका पति होता है।नियति या दुर्भाग्य के कारण जब किसी स्त्री का पति इस दुनिया को छोड़ देता है, तो उस स्त्री को जीवन में असंख्य चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। विधवा या विडो के रुप में उसे कड़े संघर्षों से होकर गुजरना पड़ता है।
भारतीय संस्कृति में दुनिया से अलग अपनी अनोखी ही सोच व मान्यताएं हैं। भारतीय नारियों का गहना प्रेम सारी दुनिया में विख्यात है। इतना होने पर भी यह भारत ही है, जहां की नारियां यह सोचती हैं कि स्त्री के लिये उसका पति ही सर्वश्रेष्ठ गहना या आभूषण है। महिलाओं का सजना-धजना सबकुछ सिर्फ अपने पति के लिये। विवाहिता स्त्री का अपने पति के प्रति यह अटूट और एकनिष्ठ प्रेम ही उसे दुनिया से अलग पहचान और गौरव दिलाता है। जीवन के हर क्षेत्र में धर्म और अध्यात्म का गहराई से शामिल होना किसी समाज की महान परंपराओं को दर्शाता है।
सफेद की खासियत : रंगों के विज्ञान की अलग ही दुनिया और अहमियत है। प्रमुख सात रंगों में से हर एक रंग का अपना खास प्रभाव और महत्व होता है। सूर्य के सात रंगों का आज चिकित्सा के रुप में प्रयोग होने लगा है। सफेद रंग सर्वाधिक पवित्र और सात्विक रंग है। विधवा या विडो स्त्री का पति विहीन जीवन कई संघर्षों से भरा होता है। ऐसे में विधवा स्त्री को ईश्वर की कृपा और सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। सफेद रंग का लिबास उसे मनोबल और सात्विकता प्रदान करता है। जीवन की सभी जिम्मेदारियों और चुनौतियों का सफलता से सामना करने में सफेद रंग के पहनावे की बड़ी अहम् भूमिका होती है। यही कारण रहा है कि विधवा स्त्रिया स्वयं की मरजी से ही सफेद रंग का लिबास पहनने लगती हैं।
शरीर से ब्रूसली व माइंड से आइंस्टीन, तो भोग लगाएं
क्या आपको चाहिये मजबूत शरीर व तेज दिमाग ? खुद खाने से पहले क्यों लगाएं भगवान को भोग ? दुनिया में रहते हुए यह शरीर जितना कीमती है, उतना ही महत्वपूर्ण है भोजन। जिंदगी के असली मकसद को पाने के लिये यह शरीर ही इंसान का प्रमुख साधन या हथियार है। शरीर नाम के इस साधन को आखिरी मंजिल पाने तक किस प्रकार सही- सलामत और दुरुस्त रखा जा सकता है, यह बहुत कुछ भोजन पर निर्भर रहता है।
जो बात आज से हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनि कह गए थे, वही बात आज आधुनिक वैज्ञानिक रिसर्च भी कह रहे हैं। हजारों साल पुराने शास्त्रों यानि कि प्राचीन पुस्तकों में यह स्पष्ट लिखा है कि, व्यक्ति का मन और मस्तिष्क वैसा ही बनता है जैसा कि उसका भोजन होता है। तभी से यह कहावत भी प्रचलित हो गई कि-' जैसा अन्न वैसा ही मन' ।
इंसान की जिंदगी में भोजन की इस महत्वपूर्ण भूमिका और उपयोगिता के कारण ही आध्यात्मिक या धार्मिक पुस्तकों में भोजन को प्रसाद के रूप में ही ग्रहण करने की बात कही गई है। ईश्वर, भगवान या परमात्मा को अर्पित करने चढ़ाने या भोग लगाने के बाद ही स्वयं तथा परिवार को भोजन करना, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये बेहद ही फायदेमंद होता है। ईश्वर को भोग लगाने के बाद भोजन प्रसाद बन जाता है, तथा उसके सारे सद्गुण खाने वाले को प्राप्त होते हैं। ऐसा करने से सकारात्मक मानसिकता का वातावरण बनता है, जिससे भोजन स्वास्थ्य को बढ़ाने वाला तथा बीमारियों को दूर करने वाला बन जाता है।
तलाक के 3 महीने तक दोबारा निकाह पर बंदिश क्यों ?
इस्लाम को मानने वाले मुस्लिम भाई अपने धार्मिक नियम-कायदों का पालन पूरे समर्पण और निष्ठा से करते हैं।हर एक मुस्लिम चाहे वह दुनिया में कहीं भी रहता हो, इन नियमों का कड़ाई से पालन करने में विश्वास रखता है। इस्लाम धर्म के अनुयाई यानि कि इस्लाम को मानने वाले शरियत के नियम कायदों को अटल एवं अंतिम मानते हैं।
शरियत एक ऐसा कायदानामा (धार्मिक संविधान) है, जिसमें प्रत्येक मुस्लिम मर्द और औरत के लिए अनियार्य नियम- कानून होते हैं। शरियत में इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी प्रमुख घटनाओं में जो नियम पालने होते हैं, उनका विस्तार से वर्णन किया गया है।
शरियत में विवाह को लेकर भी स्पष्ट दिशा-निर्देश दिये गए हैं। विवाह के विषय में शरियत में नियम है, कि जब किसी भी जायज कारण से पति-पत्नी के बीच तलाक हो जाए, तो अगले तीन महीने तक औरत को दूसरा विवाह नहीं करना चाहिये। 3 महीने तक किसी स्त्री के निकाह न करने के पीछे एक प्रमुख कारण है, जो कि परेशानी से बचाने के लिये ही होता है। तलाकशुदा स्त्री से तीन महीने तक दोबारा निकाह इसलिये नहीं हो सकता, क्योंकि 3 महीने में यह खुलासा हो जाएगा कि वह स्त्री गर्भवती है या नहीं ?
क्यों बजाते हैं ढ़ोल, शादी-विवाह और त्योहारों पर?
जीवन भर इंसान आनंद या खुशी के लिये ही हर तरह की कोशिसें करता है। इंसान की सुख और आनंद की इस अंतिम और असली प्यास, को ध्यान में रखकर ही ऋषि-मुनियों या विद्वान महापुरुषों ने इंसानी जिंदगी में त्योहारों और शादीविवाह जैसे उत्सवों को शामिल किया है। जीवन के संघर्षों और दुखों से परेशान होकर इंसान निराश और हताश न हो जाए यही सोचकर जीवन को त्योहारों और उत्सवों सजाया, संवारा और संभाला गया है।
खुशी और ढ़ोल- संगीत और आंनद के गहरे ताल्लुकात से सभी वाकिफ हैं। संगीत के बगैर किसी भी प्रकार के सेलीबे्रशन की सफलता अधूरी ही मानी जाती है। ढ़ोल, नगाड़े और सहनाई संगीत के पारंपरिक साधन हैं। इनका प्रयोग हमारे यहां बड़े प्राचीन समय से होता आ रहा है। धीरे-धीरे इस क्रिया को परंपरा के रूप में शामिल कर लिया गया। हम देखते हैं कि भगवान शिव के पास भी अपना डमरु था, जो कि तांडव करते समय वे स्वयं ही बजाते भी थे।
जीवन युद्ध और ढ़ोल- संगीत के अन्य वाद्य यंत्रों की बजाय ढ़ोल की अपनी अलग ही खासियतें होती हैं। मन में उत्साह, साहस और जोश जगाने में ढ़ोल का बड़ा ही आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। तभी तो पुराने समय में युद्ध का प्रारंभ भी ढ़ोल-नगाड़ों से ही होता था। ढ़ोल से निकलने वाली ध्वनि तरंगें योद्धओं को जोश और साहस से भर देती थीं।
किसी की मौत पर क्यों मुड़वाते हैं सिर!
परम्पराएं, मान्यताएं तथा रीति-रिवाज किसने कब और क्यों बनाए? इन मान्यताओं के पीछे वास्तव में कुछ तथ्य, आंकड़े और वैज्ञानिक आधार हैं भी या सिर्फ अंधविश्वास की उपज है। तुलसी और पीपल की पूजा, सूर्य और चंद्र को जल चढ़ाना या शिखा और यज्ञोपवीत धारण करना...ऐसे कितने ही कार्य हैं जो परम्परा के रूप में सैकड़ों-हजारों सालों से किये और करवाए जा रहे हैं।किसी परिवारी सदस्य या संबंधी की मौत हो जाने पर कई तरह की मान्यताओं या परंपराओं का पालन किया जाता है। श्मशान जाकर सामुहिक रूप से शव का दाह संस्कार करना, शव की परिक्रमा कर प्रणाम करना तथा श्मशान से लौटकर घर पहुंचने से पूर्व अनिवार्य रूप से नहाना ही घर में प्रवेश करना, जैसे कितने ही कार्य हैं जो आज परम्परा का रूप ले चुके हैं। मृत व्यक्ति के संबंधियों का सिर मुड़वाना ही ऐसी ही एक अनोखी परम्परा है।
बाल ही क्यों- मृत व्यक्ति के पारिवारिक सदस्य तथा सगे संबंधी दाह संस्कार के पश्चात अनिवार्य रूप से सिर के बाल मुड़वाकर या पूरी तरह से कटवाक र तथा नहाकर ही घर लौटते हैं। इस धार्मिक या सामाजिक मान्यता का वैज्ञानिक कारण यह है कि, मृत व्यक्ति के परिवारी सदस्य शव के निकट संपर्क में होते हैं जिससे कई तरह के हानिकारक संक्रमण का खतरा रहता है। सिर और सिर के बालों कासंक्रमण से ग्रसित होने का खतरा सर्वाधिक होता है। क्योंकि सिर तथा सिर के बाल किसी भी प्रकार के संक्रमण के लिये सबसे ज्यादा संवेदनशील होते हैं।
सिर पर चोटी यानि कमाल का एंटिना
एक सुप्रीप साइंस जो इंसान के लिये सुविधाएं जुटाने का ही नहीं, बल्कि उसे शक्तिमान बनाने का कार्य करता है। ऐसा परम विज्ञान जो व्यक्ति को प्रकृति के ऊपर नियंत्रण करना सिखाता है। ऐसा विज्ञान जो प्रकृति को अपने अधीन बनाकर मनचाहा प्रयोग ले सकता है। इस अद्भुत विज्ञान की प्रयोगशाला भी बड़ी विलक्षण होती है। एक से बढ़कर एक आधुनिकतम मशीनों से सम्पंन प्रयोगशालाएं दुनिया में बहुतेरी हैं, किन्तु ऐसी सायद ही कोई हो जिसमें कोई यंत्र ही नहीं यहां तक कि खुद प्रयोगशाला भी आंखों से नजर नहीं आती। इसके अदृश्य होने का कारण है- इसका निराकार स्वरूप। असल में यह प्रयोगशाला इंसान के मन-मस्तिष्क में अंदर होती है।
सुप्रीम सांइस- विश्व की प्राचीनतम संस्कृति जो कि वैदिक संस्कृति के नाम से विश्य विख्यात है। अध्यात्म के परम विज्ञान पर टिकी यह विश्व की दुर्लभ संस्कृति है। इसी की एक महत्वपूर्ण मान्यता के तहत परम्परा है कि प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को अपने सिर पर चोंटी यानि कि बालों का समूह अनिवार्य रूप से रखना चाहिये।
सिर पर चोंटी रखने की परंपरा को इतना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है कि , इस कार्य को हिन्दुत्व की पहचान तक माना लिया गया। योग और अध्यात्म को सुप्रीम सांइस मानकर जब आधुनिक प्रयोगशालाओं में रिसर्च किया गया तो, चोंटी के विषय में बड़े ही महत्वपूर्ण ओर रौचक वैज्ञानिक तथ्य सामने आए।
चमत्कारी रिसीवर- असल में जिस स्थान पर शिखा यानि कि चोंटी रखने की परंपरा है, वहा पर सिर के बीचों-बीच सुषुम्ना नाड़ी का स्थान होता है। तथा शरीर विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि सुषुम्रा नाड़ी इंसान के हर तरह के विकास में बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। चोटी सुषुम्रा नाड़ी को हानिकारक प्रभावों से तो बचाती ही है, साथ में ब्रह्माण्ड से आने वाले सकारात्मक तथा आध्यात्मिक विचारों को केच यानि कि ग्रहण भी करती है।
धन की कमी या मन की अशांति? तो करें गौदान...
एक समय था जबकि सदियों से चली आ रहीं धार्मिक परम्पराओं को अंध विश्वास और पिछड़ेपन की निशानी माना जाता था। किन्तु आज तस्वीर कु छ दूसरी ही है। सूर्य को जल चढ़ाने या तुलसी और पीपल की पूजा करने के पीछे जब पुख्ता वैज्ञानिक सुराग हाथ लगे तो इन कार्यों को अंधविश्वास की बजाय सुप्रीम साइंस कहा जाने लगा।
पिण्ड दान करना, तीर्थ यात्रा करना, दुनिया की सर्वाधिक पवित्र गंगा नदी में स्नान करना, ब्राह्मणों को भोजन करवाना, गरीबों को दान दक्षिणा देना आदि के जैसी ही एक क्रिया है- गाय का दान करना। धार्मिक, ज्योतिष और आध्यात्मिक पुस्तकों में गाय के दान को बहुत बड़ा पुण्य का कार्य बताया गया है।
आइये जाने उन कारणों को जिनके कारण गाय का दान करना इतना महत्व का कार्य बताया गया है:-
- जो व्यक्ति मृत्यु के बाद अपनी आत्मा या चेतना का अच्छी गति चाहता हो उसे पूरे नियम कायदों से योग्य व्यक्ति को गाय का दान अवश्य ही करना चाहिये।
- आर्थिक , शारीरिक या मानसिक किसी भी तरह की समस्या या परेशानी से छुटकारा पाने में, योग्य व्यक्ति को दिया गया गाय का दान अहम् भूमिका निभाता है।
- पूरे नियम कायदों से उचित समय पर किया गया गाय का दान इंसान के दैहिक, दैविक और भौतिक पापों को नष्ट करता है।
- पुराण आदि पुराने शास्त्रों में ऐसी निश्चित मान्यता है कि, गाय का दान इंसान को बैकुण्ठ ले जाता है।
- गाय के दान से पितरों को शांति एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है।
गुनाह हो जाए तो जरूर करें प्राश्चित?
जानकर हो या अनजाने में, पर गलती तो गलती ही है। गलती, अपराध या गुनाह की सजा से दुनिया का कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह से बच नहीं सकता है। यह बड़ा ही दिलचस्प सिस्टम है कि यहां गलती की सजा इंसान के रूप में जन्में भगवान को भी भुगतना पड़ती है। दुनिया के कानून से भले ही इंसान चालाकी से बच निकले किन्तु कार्य और उसके परिणाम की जो वैज्ञानिक व्यवस्था है, वह किसी भी झांसे या जालसाजी में आने वाली नहीं है। कर्म और उसके फल की व्यवस्था ऐसी है, जिसमें किसी गवाह या दलील की जरूरत नहीं पड़ती।
लेकिन सवाल उठता है कि जब हर कार्य का परिणाम भुगतना ही है, तो फिर प्राश्चित करने की जरूरत ही क्या है? आखिर क्या कारण है कि धर्म-अध्यात्म की पुस्तकों में प्राश्चित करना इतना आवश्यक और महत्वपूर्ण बताया गया है? आख्रिर क्यों इसाई धर्म में किसी से कोई गुनाह होने पर चर्च के फादर के समाने अपना अपराध कबूल करने की मान्यता प्रचलित है?
प्राश्चित के विषय में जब मनोवैज्ञानिक शोध किया गया तो कई रौचक तथ्य सामने आए। ये कुछ ऐसी बातें हैं, जो हर व्यक्ति के लिये बड़े ही काम की हैं:-
- प्राश्चित की मान्यता आज की नहीं बल्कि हजारों साल पुरानी है।
- हिन्दु धर्म ही नहीं बल्कि अधिकतर प्रमुख धर्मों में, गलती होने पर प्राश्चित करना बड़ा ही फायदेमंद बताया गया है।
- किसी योग्य गुरु को अपना अपराध या गलती बताकर उसी के अनुसार प्राश्चित करने से इंसान मानसिक रोगों और अशांति से बच जाता है।
- प्राश्चित करने से मन की सारी हानिकारक ग्रंथियां मिट जाती हैं।
- व्यक्ति जब प्राश्चित कर लेता है तो उसकी सजा कम तो होती है, साथ ही उस कम हो चुकी सजा को भुगतने की शक्ति भी मिल जाती है।
राहु और केतु क्यों हैं, खलनायक ग्रह?
वैसे तो ज्योतिष पूरी तरह से अंतरिक्ष विज्ञान पर आधारित विषय है। किन्तु फिर भी समय के साथ-साथ इसमें कई भा्रंतियां भी शामिल हो गई हैं। जिस प्रकार हमारे सौर परिवार के बहुत्व ही महत्वपूर्ण ग्रह 'शनि' की एक खलनायक के रूप में एकदम नकारात्मक क्षवि प्रस्तुत की गई, बिल्कुल उसी तरह से राहु-केतु को भी खलनायक यानि कि बुरी क्षवि वाले नकारात्मक ग्रह के रूप में प्रचारित किया गया है।
क्या वाकई शनि के साथ ही राहु और केतु भी इंसानों की दुनिया और जिंदगी पर कोई बुरा असर डालते हैं? क्या सिर्फ पुरानी पौराणिक दंत कथाओं के आधार पर ही शनि और राहु-केतु की नकारात्मक क्षवि बना दी गई? जब जहन में उठने वाले ऐसे पश्रों का हल खोजने के लिये अंतरिक्ष विज्ञान और ज्योतिष की प्रामाणिक पुस्तकों का सहारा लेते हैं, तो कुछ इस तरह के रौचक तथ्य सामने आते हैं:-
- दुनिया की सबसे पुरानी, कीमती और रहस्यमयी वैज्ञानिक पुस्तकऋग्वेद में राहु को 'स्वभानु' के नाम से बताया गया है।
- क्योंकि राहु-केतु सुर्य और चंद्रमा के प्रकाश को धरती पर पहुंचने से रोकता है, सायद इसीलिये इन्हैं विलन के रूप में प्रचारित किया गया है।
- केतु का वर्णन अथर्ववेद में विस्तार से मिलता है।
- ज्योतिष विज्ञान में अपने सौर मंडल के सात ग्रहों के बाद आठवें ग्रह के रूप में राहु तथा नवें ग्रह के रूप में केतु का वर्णन किया गया है।
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि धरती और धरती पर बसने वालेइंसानों के साथ ही अन्य जीवजंतुओं की जिंदगी पूरी तरह से सूर्य के प्रकाश पर निर्भर है। जबकि राहु और केतु जब सूर्य की जीवनदाई किरणों को पृथ्वी पर आने से रोकते हैं, इसीलिये इन दोनों ग्रहों को शनि के समान ही नकारात्मक या बुरी क्षवी वाला ग्रह बताया गया है।
उठते ही बिस्तर पर चाय-नाश्ता कितना घातक?
समय की कमी, देर रात तक काम करना, नई लाइफ स्टाइल, थकान, कमजोरी और आदत की गुलामी... इन तमाम बातों ने मिलकर 21 वीं सदी के आधुनिक इंसान की जीवनशैली यानि कि लाइफ स्टाइल को पूरी तरह से प्रकृति का विरोधी बना कर रख दिया है। नेचर के विपरीत लाइफ स्टाइल ने आज के इंसान के स्वास्थ्य और मानसिक क्षमता को बुरी तरह से प्र्रभावित किया है।
इस नई महानगरीय जीवनशैली को अपनाकर इंसान ने पुरानी सारी अच्छी आदतों और परम्पराओं को छोड़कर हानिकारक और गलत आदतों को अपना लिया है। ऐसी ही गलत आदतों में से एक आदत है- उठते ही बिस्तर पर चाय पीना या नाश्ता करना।
बेड-टी पीने से क्या और कितना बुरा प्रभाव पड़ता है, आइये उसे जाने:-
- रात भर सोने से शरीर में जो गर्मी बनती है वह चाय कॉफी पीने से और भी अधिक बढ़ जाती है, जिससे एसिडिटी और पेट की कई बीमारियां पैदा होती हैं।
- बगैर ब्रश किये और पानी पीये चाय-कॉफी जैसे धीमे जहर पीना शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर बड़ा ही घातक प्रभाव डालता है।
- जागते समय इंसान का दिमाग और मन पूरी तरह से नया होता है, ऐसे समय में यदि सबसे पहले चाय-कॉफी पीकर दिन की शुरुआत होती है तो सारा दिन थकान और कमजोरी का सामना करना पड़ता है।
- दिन की शुरुवात जैसी होगी सारा दिन भी वैसा ही गुजरता है, चाय-कॉफी जैसे नशे से दिन का प्रारंभ करने की बजाय पानी पीकर मोर्निंग वाक करने से आप पूरे दिन के लिये ऊर्जावान, कान्फीडेंट तथा सकारात्मक बने रह सकते हैं।
दीपक बुझाने वाले रहते हैं हमेशा गरीब?
कहते हैं कि समय के साथ ही इंसान को बदलते रहना चाहिये, तथा पुरानी और अनावश्यक बातों को छोड़ देना चाहिये। किन्तु यहां ऐसा करते समय इंसान को बड़ी सावधानी तथा चौकन्ना रहने की जरूरत होती है।
आंख मीचकर हर नई चीज को गले लगा लेना और पुराना कहकर हर बात को ठुकरा देना, दोनों ही बातों में बराबर का खतरा है। पुरानी परंपराओं या मान्यताओं में हो सकता है कुछ समय के साथ अनावश्यक और बेकार हो गई हों, किन्तु कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो सैकड़ों हजारों साल गुजरने के बावजूद आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और कारगर हैं।
इन परंपराओं और मान्यताओं के पीछे गहरा विज्ञान छुपा होता है। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण परंपरा है कि, व्यक्ति को कभी भी देव स्थान पर जलते हुए दीपक को नहीं बुझाना चाहिये। आखिर क्या कारण है कि जलते हुए दीपक को बुझाने से इंसान को सदा दरिद्री यानि कि गरीब ही रहना पड़ता है? आइये जाने उन कारणों को:-
- धन की देवी लक्ष्मी और धन के राजा देवता कुबेर दोनों की ही आराधना में दीपक का प्रमुख स्थान होता है। बगैर दीपक के दोनों की ही पूजा- आराधना अधूरी मानी जाती है।
- ज्योतिष मे भी ऐसी मान्यता है कि जलते हुए दीपक को बुझाने से सारे ग्रह-नक्षत्र इंसान के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। खासकर देवता सूर्य सबसे ज्यादा असर डालते हैं।
यदि अपनी भलाई चाहते हों तो नहाएं जरूर....
पश्चिमी देशों में ग्रहण को मात्र एक प्राकृतिक घटना माना जाता है। प्राकृतिक घटना माना जाता है, वहां तक तो ठीक है किन्तु इससे जुड़ी कई बेहद अहम् बातों को नजरअंदाज करना ठीक नहीं है। अंतरिक्ष से जुड़ी हुई कोई भी घटना क्यों न हो, उसकी तह तक जाकर पूरी छानबीन करने में भारत के प्राचीन ऋषि-मुनि और योगी दुनिया में सबसे आगे रहे हैं।
प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा अंतरिक्षीय घटनाओं के आधार पर जो नियम और मान्यताएं बनाईं हैं, उन्हीं में से एक है, ग्रहण के बाद अनिवार्य रुप से स्नान करने की। ग्रहण के बाद अनिवार्य रूप में नहाने के पीछे क्या खास वजह है? आइये वही जानने की कोशिस करते हैं:-
- ग्रहण काल में पडऩे वाली राहु की अशुभ छाया के बुरे प्रभाव से छुटकारा पाने के लिये यह आवश्यक है कि ग्रहण की समाप्ति पर तुरंत स्नान किया जाय।
- सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय पडऩे वाली अल्ट्रावायलेट किरणे इंसानी शरीर और त्वचा पर बहुत ही बुरा प्रभाव डालती हैं, इसीलिये ग्रहण के तुरंत बाद व्यक्ति को नहाना अवश्य ही चाहिये।
पूजा सुबह या शाम को ही क्यों करें?
यह जिज्ञासा कई लोगों के मन में रहती है कि भगवान का पूजन सुबह या फिर शाम को ही क्यों किया जाता है? क्या पूरे दिन ऐसा कोई मुहूर्त नहीं होता है जिसमें हम पूजा कर सकें? कई लोग सुबह 10-11 बजे ही पूजा करते हैं, हालांकि ऐसे समय की गई पूजा व्यर्थ मानी जाती है। पूजा के लिए हमारे धर्म शास्त्रों ने दो ही समय नियत किए हैं। पहला ब्रह्म मुहूर्त यानी सूर्योदय से पहले या फिर शाम को सूर्यास्त के समय। ऐसा समय निश्चित करने के पीछे केवल धार्मिक मान्यताएं या परंपराएं नहीं हैं बल्कि यह पूरी तरह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है।
सुबह और शाम पूजन, भजन या मंत्रोच्चारण करने के पीछे सबसे बड़ा कारण हमारे भीतर शांति और आनंद पैदा करने को लेकर है। इन दोनों समय को बहुत ही वैज्ञानिक और व्यवहारिक तरीके से तय किया गया है। सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जागकर पूजा करने, मंत्रोच्चारण से हमारा दिनभर ठीक गुजरता है। काम का तनाव नहीं रहता। मंत्रों के उच्चारण से पैदा हुई सकारात्मक ऊर्जा दिनभर हमारे इर्द-गिर्द रहती है। इस कारण किसी भी काम का तनाव हमारे ऊपर नहीं पड़ता। लोगों पर हमारी बात का भी सकारात्मक असर पड़ता है। वहीं शाम को सूर्यास्त के समय पूजा करने से हमारे भीतर दिनभर के काम से हुई थकान और तनाव दूर हो जाते हैं। दिनभर में कम हुई सकारात्मक ऊर्जा फिर तैयार हो जाती है। इससे रात को तनावमुक्त और गहरी नींद आती है। बुरे सपने नहीं दिखाई देते। मन में शांति रहती है।
इसके पीछे एक और भी कारण है सुबह सूर्योदय और शाम को सूर्यास्त के समय सूर्य की किरणों का तेज कम हो जाता है। इससे उससे आने वाली धूप भी अच्छी लगती है, शरीर पर कोई दुष्रभाव नहीं छोड़ती। शरीर को आवश्यक विटामिन डी भी मिलता है।
लहसून-प्याज से क्यों किया जाता है परहेज?
अक्सर कई संप्रदायों में देखा जाता है कि कई लोग लहसून-प्याज को भोजन में इस्तेमाल नहीं करते। जैन समाज, वैष्णव संप्रदाय इन दोनों तरह के समाजों में यह अधिकतर पाया जाता है। आखिर क्या कारण है कि लहसून और प्याज से परहेज किया जाता है? क्यों इसे खाने में उपयोग करने से बचा जाता है? क्यों इन्हें सन्यासियों के भोजन में भी जगह नहीं मिलती?
वास्तव में लहसून और प्याज कोई शापित या धर्म के विरुद्ध नहीं है। इनकी तासीर या गुणों के कारण ही इनका त्याग किया गया है। लहसून और प्याज दोनों ही गर्म तासीर के होते हैं। ये शरीर में गरमी पैदा करते हैं। इसलिए इन्हें तामसिक भोजन की श्रेणी में रखा गया है। दोनों ही अपना असर गरमी के रूप में दिखाते हैं, शरीर को गरमी देते हैं जिससे व्यक्ति की काम वासना में बढ़ोतरी होते है। ऐसे में उसका मन अध्यात्म से भटक जाता है।
अध्यात्म में मन को एकाग्र करने के लिए, भक्ति के लिए वासना से दूर होना जरूरी होता है। केवल लहसून प्याज ही नहीं वैष्णव और जैन समाज ऐसी सभी चीजों से परहेज करते हैं जिससे की शरीर या मन में किसी तरह की तामसिक प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले।
क्यों पहनते हैं कृष्ण मोर-मुकुट?
सारे देवताओं में सबसे ज्यादा शृंगार प्रिय है भगवान कृष्ण। उनके भक्त हमेशा उन्हें नए कपड़ों और आभूषणों से लादे रखते हैं। कृष्ण गृहस्थी और संसार के देवता हैं। कई बार मन में सवाल उठता है कि तरह-तरह के आभूषण पहनने वाले कृष्ण मोर-मुकुट क्यों धारण करते हैं? उनके मुकुट में हमेशा मोर का ही पंख क्यों लगाया जाता है? क्या मोर और श्रीकृष्ण का कोई रिश्ता है? या केवल किवदंतियों के आधार पर ही उनके मुकुट में मोर का पंख जड़ दिया गया।
वास्तव में श्री कृष्ण का मोर मुकुट कई बातों का प्रतिनिधित्व करता है, यह कई तरह के संकेत हमारे जीवन में लाता है। अगर इसे ठीक से समझा जाए तो कृष्ण का मोर-मुकुट ही हमें जीवन की कई सच्चाइयों से अवगत कराता है। दरअसल मोर का पंख अपनी सुंदरता के कारण प्रसिद्ध है। उस काल में अधिकांश ग्रामीण लोग मोर पंख का विभिन्न सजावटों में उपयोग करते थे। सो श्री कृष्ण ने इसे अपने मुकुट में स्थान दिया, ताकि आम आदमी उन्हें अपना समझ सके। मोर मुकुट के जरिए श्रीकृष्ण यह संदेश देते हैं कि जीवन में भी वैसे ही रंग है जैसे मोर के पंख में है। कभी बहुत गहरे रंग होते हैं यानी दुख और मुसीबत होती है तो कभी एकदम हल्के रंग यानी सुख और समृद्धि भी होती है। जीवन से जो मिले उसे सिर से लगा लें यानी सहर्ष स्वीकार कर लें।
तीसरा कारण भी है, दरअसल इस मोर-मुकुट से श्रीकृष्ण शत्रु और मित्र के प्रति समभाव का संदेश भी देते हैं। बलराम जो कि शेषनाग के अवतार माने जाते हैं, वे श्रीकृष्ण के बड़े भाई हैं। वहीं मोर जो नागों का शत्रु है वह भी श्रीकृष्ण के सिर पर विराजित है। यही विरोधाभास ही श्रीकृष्ण के भगवान होने का प्रमाण भी है कि वे शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रखते हैं।
राम नीले और कृष्ण काले क्यों?
अक्सर मन में यह सवाल गूंजता है कि हमारे भगवानों के रंग-रूप इतने अलग क्यों हैं। भगवान कृष्ण का काला रंग तो फिर भी समझ में आता है लेकिन भगवान राम को नील वर्ण भी कहा जाता है। क्या वाकई भगवान राम नीले रंग के थे, किसी इंसान का नीला रंग कैसे हो सकता है? वहीं काले रंग के कृष्ण इतने आकर्षक कैसे थे? इन भगवानों के रंग-रूप के पीछे क्या रहस्य है।
राम के नीले वर्ण और कृष्ण के काले रंग के पीछे एक दार्शनिक रहस्य है। भगवानों का यह रंग उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। दरअसल इसके पीछे भाव है कि भगवान का व्यक्तित्व अनंत है। उसकी कोई सीमा नहीं है, वे अनंत है। ये अनंतता का भाव हमें आकाश से मिलता है। आकाश की कोई सीमा नहीं है। वह अंतहीन है। राम और कृष्ण के रंग इसी आकाश की अनंतता के प्रतीक हैं। राम का जन्म दिन में हुआ था। दिन के समय का आकाश का रंग नीला होता है।
इसी तरह कृष्ण का जन्म आधी रात के समय हुआ था और रात के समय आकाश का रंग काला प्रतीत होता है। दोनों ही परिस्थितियों में भगवान को हमारे ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने आकाश के रंग से प्रतीकात्मक तरीके से दर्शाने के लिए है काले और नीले रंग का बताया है।
25 वर्ष की उम्र तक ब्रह्मचर्य क्यों?
हिंदू धर्म जीवन पद्धति में आदमी की आयु को 100 वर्ष की माना गया है। इन सौ सालों को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है। इसमें सबसे पहला आश्रम है ब्रह्मचर्य आश्रम, जिसे जीवन के पहले 25 साल तक माना गया है। मान्यता है कि 25 वर्ष की आयु तक हर व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
ब्रह्मचर्य का मतलब केवल सेक्स से दूर रहना ही नहीं है। इसका अर्थ बहुत ही गहरा है। ब्रह्मचर्य यानी ब्रह्म की राह पर चलना। इस आयु में शिक्षा और भक्ति दो ही प्रमुख कार्य होने चाहिए। ब्रह्मचर्य का एक अर्थ शक्ति संचय भी है। इस उम्र तक व्यक्ति को अपने शरीर की शक्ति को संचित कर उसे बढ़ाना चाहिए। व्यक्ति के शरीर में अधिकांश बदलाव और विकास 25 वर्ष की आयु तक हो जाता है। अगर इसके पहले ही हम अपनी शक्ति को बरबाद करने लगे तो हमारे व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास नहीं हो पाता।
इससे शरीर में कई बीमारियां घर कर लेती हैं और व्यक्ति उम्र के पहले ही बूढ़ों जैसा दिखाई देने लगता है। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक शरीर में 25 वर्ष तक की उम्र में वीर्य और रक्तकणों का विकास बहुत तेजी से होता है, उस समय अगर इसे शरीर में संचित किया जाए तो यह काफी स्वास्थ्यप्रद होता है। शरीर को पुष्ट रखता है और कमजोरी नहीं आती। 25 वर्ष की उम्र के पहले ही ब्रह्मचर्य तोडऩे से भविष्य में नपुंसकता या संतान उत्पत्ति में परेशानी की आशंका होती है। इससे हमारा मन भी भटकता है, जिससे शिक्षा और कैरियर दोनों पर असर पड़ता है।
हाथ में पानी लेकर क्यों करते हैं संकल्प?
कई बार आपने देखा होगा कई लोग संकल्प लेते समय, कोई कसम उठाते समय हाथ में पानी लेते हैं। कई बार सच उगलवाने के लिए हाथ में गंगाजल का पात्र भी थमा दिया जाता है। पूजापाठ, कर्म कांड में तो सारे संकल्प ही हाथ में जल लेकर किए जाते हैं। आखिर पानी में ऐसा क्या होता है कि उसे उठाए बगैर सारे संकल्प अधूरे माने जाते हैं? आखिर क्यों गंगा जल उठाकर कसमें खिलवाई जाती हैं? पानी में ऐसा क्या है जिससे उसका इस सब में इतना महत्व है? ऐसे कई सवाल आपके दिमाग में भी कौंधते होंगे।
वास्तव में पानी को सारे ही धर्मों में सबसे पवित्र माना गया है। जल को सभी धर्मों ने देवता माना है। वेदों में जल के देवता वरूण को ही ब्रह्म माना गया है। जल से ही सारी सृष्टि का जन्म हुआ है। इस कारण जल को सबसे ज्यादा पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है। हमारे दिमाग में करीब 80 प्रतिशत पानी ही है, यह इस बात का प्रतीक है कि हम जब भी कोई कार्य करेंगे हमारी बुद्धि को जागृत और स्थिर रखकर ही करेंगे। हमारे शरीर में लगभग 70 प्रतिशत तरल पदार्थ होते हैं। पानी को हाथ में उठाने का अर्थ है एक तरह से स्वयं की कसम उठाना, या स्वयं को साक्षी मानकर कोई संकल्प लेना।
जल को इस कारण भी उठाया जाता है क्योंकि इस पूरी सृष्टि के पंचमहाभूतों (अग्रि, पृथ्वी, आकाश, वायु और जल) में भगवान गणपति जल तत्व के अधिपति हैं, उन्हें आगे रखकर संकल्प लेना यानी संकल्प में सभी शुभ हो ऐसी प्रार्थना भी शामिल होती है। इस कारण जल को हाथ में रखकर संकल्प लिया जाता है।
क्यों करते हैं पूजा से पहले आचमन?
पूजा-पाठ, कर्मकांड में पूजन शुरू करते समय सबसे पहले पानी से आचमन किया जाता है और उसके बाद खुद पर जल छिड़क कर शुद्ध किया जाता है। यह कर्मकांड की सबसे जरूरी विधि मानी जाती है। आचमन का अर्थ क्या है? यह क्यों किया जाता है? क्या यह शुद्धिकरण की कोई प्रक्रिया है या केवल एक विधि का हिस्सा है? क्यों खुद पर जल छिड़का जाता है, जबकि हम नहाकर ही पूजन करते हैं?
वास्तव में आचमन केवल कोई प्रक्रिया नहीं है। यह हमारी बाहरी और भीतरी शुद्धता का प्रतीक है। जब हम हाथ में जल लेकर उसका आचमन करते हैं तो वह हमारे मुंह से गले की ओर जाता है, यह पानी इतना थोड़ा होता है कि सीधे आंतों तक नहीं पहुंचता। हमारे हृदय के पास स्थित ज्ञान चक्र तक ही पहुंच पाता है और फिर इसकी गति धीमी पड़ जाती है। यह इस बात का प्रतीक है कि हम वचन और विचार दोनों से शुद्ध हो गए हैं तथा हमारी मन:स्थिति पूजा के लायक हो गई है। फिर खुद के ऊपर जल छिड़का जाता है जो इस बात का प्रतीक है कि हम पूजा के लिए दैहिक और काम दोनों रूपों में भी शुद्ध हो गए हैं। जल से ही आचमन इसलिए किया जाता है क्योंकि जल ही पृथ्वी पर सबसे पवित्र पदार्थ माना गया है।
जल कभी अशुद्ध नहीं माना जाता। जल प्रथम पूज्य भी है। पूजा के लिए हमें मन, वचन और कर्म से शुद्ध होना होता है ताकि हम पूरी एकाग्रता से पूजन कर सकें और हमारा आध्यात्मिक उत्थान हो। इसलिए कर्मकांड में आचमन को प्रमुखता से रखा गया है तथा पूजन शुरू होने और संकल्प के पहले ही आचमन से शुद्धि की जाती है।
मंदिर में क्यों नहीं लगाते मृतात्माओं के चित्र?
हमारे रिश्तेदार जो अब इस दुनिया में नहीं रहे, वे हमारे लिए पूजनीय होते हैं। उनकी तस्वीर पर हार और धूप-बत्ती चढ़ाई जाती है। उन्हें पितृ मान कर पूजा भी जाता है लेकिन फिर भी मरे हुए लोगों की तस्वीरें घर के मंदिर में लगाने की मनाही है। वास्तु शास्त्र भी इस बात पर जोर देता है कि आपके घर के मंदिर में भगवान की ही मूर्तियां और तस्वीरें हों, उनके साथ किसी मृतात्मा का चित्र न लगाया जाए।
इसके पीछे कारण है सकारात्मक-नकारात्मक ऊर्जा और अध्यात्म में हमारी एकाग्रता का। मृतात्माओं से हम भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं। उनके चले जाने से हमें एक खालीपन का एहसास होता है। मंदिर में इनकी तस्वीर होने से हमारी एकाग्रता भंग हो सकती है और भगवान की पूजा के समय यह भी संभव है कि हमारा सारा ध्यान उन्हीं मृत रिश्तेदारों की ओर हो। इस बात का घर के वातावरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। हम पूजा में बैठते समय पूरी एकाग्रता लाने की कोशिश करते हैं ताकि पूजा का अधिकतम प्रभाव हो। ऐसे में मृतात्माओं की ओर ध्यान जाने से हम उस दु:खद घड़ी में खो जाते हैं जिसमें हमने अपने प्रियजनों को खोया था। हमारी मन:स्थिति नकारात्मक भावों से भर जाती है।
जिसका हमारे स्वास्थ्य और घर की सकारात्मक ऊर्जा पर पड़ सकता है। इससे घर का माहौल हमेशा बोझिल रहता है। इसी नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने के लिए वास्तु शास्त्र भी यह सुझाव देता है कि मंदिर में मृतात्माओं के चित्र नहीं होने चाहिए।
मूर्तियों को पानी में क्यों करते हैं विसर्जित?
अब गणपति की विदाई में कुछ ही घंटे शेष रह गए हैं। घर-घर में विराजे गणपति कल विदा होकर फिर अपने धाम चले जाएंगे। पीछे रह जाएगा एक सूनापन। लोग पूजन-अर्चनकर भगवान गणपति की प्रतिमा को नदी-तालाब और समंदर में विसर्जित कर देंगे। इस दौरान एक सवाल मन में उठता है कि प्रतिमाओं को पानी में ही क्यों बहाया जाता है? क्या इनकी विदाई का कोई और मार्ग नहीं है?
भगवान बारह दिन और माता दुर्गा नौ दिन हमारे घर में रहती हैं। उत्सव के आखिरी दिन हम इनकी प्रतिमाओं को नदी, तालाब या किसी अन्य जलस्रोत में विसर्जित कर देते हैं। दरअसल यह एक परंपरा ही नहीं है, इसके पीछे बहुत बड़ी वैज्ञानिकता और दर्शन छिपा है। वास्तव में जल से सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और जल ही पूरी सृष्टि का मूल है। जल बुद्धि का प्रतीक है और गणपति इसके अधिपति हैं। प्रतिमाएं नदियों की मिट्टी से बनती है। हम अपनी शुद्ध बुद्धि से यह कल्पना करते हैं कि इसमें भगवान विराजित हैं। अंतिम दिन हम प्रतिमाओं को जल में इसी लिए विसर्जित कर देते हैं क्योंकि वे जल के किनारे की मिट्टी से बने हैं और हमारी श्रद्धा से ही उसमें परमात्मा विराजित है।
पानी को इस सृष्टि में सबसे पवित्र तत्व माना गया है क्योंकि उससे ही सबकी उत्पत्ति हुई है। पानी को ही ब्रह्मा भी कहा जाता है। प्रतिमाओं को हम विसर्जित करते समय यही सोचते हैं कि भगवान अपने धाम को वापस को जा रहे हैं यानी प्रतिमा अपने वास्तविक स्थान परमात्मा से मिलने जा रही है।
बेडरूम में क्यों नहीं रखते भगवान की तस्वीर?
हमारी धार्मिक मान्यताओं में एक यह भी है कि अपने शयनकक्ष यानी बेडरूम में भगवान की कोई प्रतिमा या तस्वीर नहीं लगाई जाती। केवल स्त्री के गर्भवती होने पर बालगोपाल की तस्वीर लगाने की छूट दी गई है। आखिर क्यों भगवान की तस्वीर अपने शयनकक्ष में नहीं लगाई जा सकती है? इन तस्वीरों से ऐसा क्या प्रभाव होता है कि इन्हें लगाने की मनाही की गई है?
वास्तव में यह हमारी मानसिकता को प्रभावित कर सकता है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही लगाने को कहा गया है, बेडरूम में नहीं। चूंकि बेडरूम हमारी नितांत निजी जिंदगी का हिस्सा है जहां हम हमारे जीवनसाथी के साथ वक्त बिताते हैं। बेडरूम से ही हमारी सेक्स लाइफ भी जुड़ी होती है। अगर यहां भगवान की तस्वीर लगाई जाए तो हमारे मनोभावों में परिवर्तन आने की आशंका रहती है। यह भी संभव है कि हमारे भीतर वैराग्य जैसे भाव जाग जाएं और हम हमारे दाम्पत्य से विमुख हो जाएं। इससे हमारी सेक्स लाइफ भी प्रभावित हो सकती है और गृहस्थी में अशांति उत्पन्न हो सकती है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही रखने की सलाह दी जाती है।
जब स्त्री गर्भवती होते है तो गर्भ में पल रहे बच्चे में अच्छे संस्कारों के लिए बेडरूम में बाल गोपाल की तस्वीर लगाई जाती है। ताकि उसे देखकर गर्भवती महिला के मन में अच्छे विचार आएं और वह किसी भी दुर्भावना, चिंता या परेशानी से दूर रहे। मां की अच्छी मानसिकता का असर बच्चे के विकास पर पड़ता है।
क्यों जरूरी हैं सूर्यास्त से पहले भोजन?
जैन समाज में नियमों का बड़ा महत्व है। पूरी दिनचर्या के लिए कई नियम तय कर दिए गए हैं। सुबह से लेकर शाम तक के लिए तरह-तरह के नियम और सिद्धांत निश्चित हैं। ये सिद्धांत न केवल धार्मिक रूप से आवश्यक हैं बल्कि पूरी तरह से वैज्ञानिक भी हैं। ऐसा ही एक नियम शाम का भोजन सूर्यास्त के पहले करना। कई लोग इस बात को अभी तक पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं कि आखिर इस नियम के पीछे क्या कारण है।
दरअसल यह नियम व्यक्ति के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर बनाया गया है। सूर्यास्त के पहले भोजन करने से न केवल पाचन तंत्र ठीक रहता है बल्कि हम कई तरह की बीमारियों से भी बच जाते हैं। कई तरह के बैक्टिरिया और अन्य जीव हमारे भोजन के साथ शरीर में प्रवेश नहीं कर पाते।
इस नियम के पीछे सबसे बड़ा कारण है कि सूर्यास्त के बाद मौसम में नमी बढ़ जाती है और इस नमी के कारण कई तरह के सूक्ष्म जीव और बैक्टिरिया उत्पन्न हो जाते है। सूर्य की रोशनी में ये गरमी के कारण पनप नहीं पाते हैं और सूर्यास्त के साथ ही जैसे ही नमी बढ़ती है ये जीव सक्रिय हो जाते हैं। रात को भोजन करने में इन सूक्ष्म जीवों का हमारे शरीर में प्रवेश हो जाता है। जिससे कई तरह की बीमारियों की आशंका रहती है। इसलिए जैन समाज के विद्वानों ने रात के समय भोजन करने को निषेध माना है।
तीर्थों में क्यों है स्नान का महत्व?
हम किसी भी तीर्थ पर जाएं वहां एक व्यवस्था समान होगी, उस तीर्थ का कोई जलस्रोत बहुत प्रसिद्ध होगा और वहां स्नान का महत्व भी होगा। कई तार्थों में तो कुंडों में ही स्नान कराया जाता है। आखिर तीर्थों में स्नान को इतना महत्व क्यों दिया गया है? कई तीर्थों में तो यह तक व्यवस्था तय है कि आप भले ही होटल या घर से नहाकर ही दर्शन करने गए हों, फिर भी वहां नहाए बिना दर्शन नहीं हो सकते।
वास्तव में इस व्यवस्था को समझने के लिए हमें तीर्थ शब्द को समझना पड़ेगा। संस्कृत में तीर्थ कहते हैं उन सीढिय़ों को जल तक जाती हैं। यानी नदी, तालाब या कुंडों के किनारे बने घाट। तीर्थ किसी मंदिर से जुड़ा शब्द नहीं है, यह वहां के जलस्रोतों से जुड़ा है। वास्तव में पानी का ही महत्व है। पानी को इस सृष्टि का सबसे शुद्ध तत्व माना गया है। बिना पानी शरीर पर डाले शुद्धिकरण नहीं हो सकता। जल को ही परमब्रह्म भी माना है, वेदों ने। हम तीर्थों के जल में स्नान करते हैं, इसका संकेत यह है कि हम उस परमात्मा में विलीन होना चाहमे हैं, उसी के रंग में रंगना चाहते हैं। बाहर और भीतर दोनों ओर से हम उसके बनना चाहते हैं।
दूसरा एक महत्वपूर्ण कारण विभिन्न जगहों की भूमि और वहां के पानी में मौजूद खनिजों, औषधीय गुणों का लाभ भी हमारे शरीर को मिले। तीर्थ या तो पहाड़ों पर या फिर किसी नदी-समुद्र के किनारे मौजूद होते हैं। यहां के पानी में विशेष औषधीय गुण होते हैं क्योंकि पहाड़ों और नमी वाली जगहों पर उगने वाली वनस्पति के गुण इसमें होते हैं, जो हमारे शरीर के लिए लाभकारी होते हैं।
क्यों किया जाता है अस्थि संचय?
हिंदू धर्म के 16 संस्कारों में से एक अंतिम संस्कार के समय मृत व्यक्ति की अस्थियों का संचय किया जाता है। इन अस्थियों को पूरे दस दिन सुरक्षित रख ग्यारहवें दिन से इनका श्राद्ध व तर्पण किया जाता है। आखिर किसी की अस्थियों का संचय क्यों किया जाता है? हड्डियों में ऐसी कौन सी विशेष बात होती है जो शरीर के सारे अंग और हिस्से छोड़कर उनका ही संचय किया जाता है?
वास्तव में अस्थि संय का जितना धार्मिक महत्व है उतना ही वैज्ञानिक भी। हिंदू धर्म में मान्यता है कि मृत्यु के बाद भी व्यक्ति की सूक्ष्म आत्मा उसी स्थान पर रहती है जहां उस व्यक्ति की मृत्यु हुई। आत्मा पूरे तेरह दिन अपने घर में ही रहती है। उसी की तृप्ति और मुक्ति के लिए तेरह दिन तक श्राद्ध औ भोज आदि कार्यक्रम किए जाते हैं। अस्थियों का संख्य प्रतीकात्मक रूप माना गया है। जो व्यक्ति मरा है उसके दैहिक प्रमाण के तौर पर अस्थियों संचय किया जाता है।
अंतिम संस्कार के बाद देह के अंगों में केवल हड्डियों के अवशेष ही बचते हैं। जो लगभग जल चुके होते हैं। इन्हीं को अस्थियां कहते हैं। इन अस्थियों में ही व्यक्ति की आत्मा का वास भी माना जाता है। जलाने के बाद ही चिता से अस्थियां इसलिए ली जाती हैं क्योंकि मृत शरीर में कई तरह के रोगाणु पैदा हो जाते हैं। जिनसे बीमारियों की आशंका होती है। जलने के बाद शरीर के ये सारे जीवाणु और रोगाणु खत्म हो जाते हैं और बची हुई हड्डियां भी जीवाणु मुक्त होती हैं। इनको छूने या इन्हें घर लाने से किसी प्रकार की हानि का डर नहीं होता है। इन अस्थियों को श्राद्ध कर्म आदि क्रियाओं बाद किसी नदी में विसर्जित कर दिया जाता है।
वैष्णवों में भगवान का बाल रूप ही क्यों पूजा जाता है?
हर पंथ और मत के अपने आराध्य देवता होते हैं। वैष्णवों में भगवान कृष्ण के बाल रूप को पूजा जाता है। घर के बच्चे जैसी उनकी देखभाल की जाती है।। उन्हें वे सारी सेवाएं दी जाती हैं, जैसी देखभाल कोई इंसान अपने बच्चे के लिए करता है। आखिर वैष्णवों में भगवान का बाल रूप ही क्यों सबसे ज्यादा पूजा जाता है? बालक कृष्ण के स्वरूप में ऐसी कौन-सी खास बात है जो इतने बड़े संप्रदाय में पूजनीय है?
इस सवाल का सारा आधार बहुत दार्शनिक है। यह पूरी तरह मानवीय संवेदना और मनोदशा पर आधारित है। दरअसल भगवान का बाल रूप मन में हर तरह इंसान के मन में प्रेम और वात्सल्य जगाता है। जब हम भगवान की प्रतिमा की सेवा एक जीवित बालक की तरह करते हैं तो मन में हमेशा प्रेम, सद्भाव, दया, करूणा और आदर जैसे भाव पैदा होते हैं, जो हमारे आध्यात्मिक और वैयक्तिक विकास के लिए जरूरी है। इससे हमारे भीतर किसी के प्रति दुर्भावना नहीं आती है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इससे हमारे जीवन में व्यवहारिक और आध्यात्मिक अनुशासन भी आता है। भगवान का बाल रूप जीवित मानकर पूजा करने से हमारी दिनचर्या में नियमितता आती है।
हर काम समय पर, सावधानी से करने की आदत भी पड़ जाती है। भगवान का यह स्वरूप मन में प्रेम जगाता है, जिससे वैष्णव किसी छोटे का भी अपमान नहीं करते, उससे बड़े प्रेम से ही पेश आते हैं।
सुबह ही क्यों पढ़े जाते हैं धर्म ग्रंथ?
हिंदू दिनचर्या हो या मुस्लिम, हर धर्म में सुबह ईश्वर की आराधना के साथ ही धर्म ग्रंथों को पढ़ने का भी नियम बनाया गया है। हिंदू गीता, रामायण या कोई अन्य धर्म ग्रंथ पढ़ते हैं तो मुस्लिम कुरान-शरीफ, ईसाई बाइबिल आदि पढ़ते हैं। अधिकतर नियमबद्ध धार्मिक लोगों की दिनचर्या इसी से शुरू होती है। आखिर धर्म ग्रंथ सुबह ही क्यों पढ़े जाते हैं? क्या सुबह के समय इनको पढ़ने से कोई विशेष फल मिलता है या फिर यह केवल एक रूढ़ी मात्र है?
दरअसल यह हमारी विचारधारा, मानसिकता और स्वास्थ्य के लिए तय किया गया है कि धर्म ग्रंथ सुबह ही पढ़े जाएं। हालांकि धर्म ग्रंथ कभी भी पढ़े जा सकते हैं लेकिन सुबह पढ़ने से इसके स्वास्थ्य संबंधी लाभ होते हैं। सुबह के समय हमारा शरीर और मन दोनों स्फूर्ति भरे होते हैं। ताजगी का एहसास होता है और दिमाग में किसी प्रकार का दबाव नहीं होता। सुबह धर्म ग्रंथ पढ़ने से इनकी बातें और विचार हमारे दिमाग में दिनभर चलते हैं, जिससे हमारे स्वास्थ्य और व्यवहार दोनों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। सुबह पढ़ी गई चीजें हमें लंबे अरसे तक याद रहती हैं और हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बनती हैं।
वहीं अगर हम दिन या शाम के वक्त धर्म ग्रंथों को पढ़ते हैं तो उनकी बातें वैसा प्रभाव नहीं बना पाती, इसका मुख्य कारण है कि दिन में हम कामकाज में व्यस्त रहते हैं और इसी चिंता और कई तरह की बातें हमारे दिमाग में चलती रहती हैं, इस कारण ये वैसा प्रभाव नहीं बना पाती।
श्राद्ध में क्यों बनाते हैं खीर-पूड़ी?
जिस प्रकार मनुष्य के जीवन में जिन्दगी का महत्व है उसी प्रकार मौत को भी महत्वपूर्ण माना गया है। हिन्दू धर्म मान्यताओं के अनुसार मौत के बाद ही आत्मा दूसरा शरीर धारण करती है। इन्हीं मान्यताओं के तहत अंतिम संस्कारों के पश्चात मृत आत्मा के प्रति अपने प्रेम और विश्वास को प्रदर्शित करते हुए उन्हें खीर-पूड़ी का भोग लगाया जाता है।
क्या कभी ऐसा सोचा है कि श्राद्ध पक्ष में खीर-पूड़ी का ही भोग क्यों लगाया जाता है? सभी प्रकार के व्यंजनों के होते हुए भी खीर-पूड़ी को ही प्रमुखता क्यों? दरअसल श्राद्ध पक्ष मनाने के पीछे धार्मिक कारण तो है ही इससे हमारा स्वास्थ्य भी जुड़ा हुआ है। हिंदू उत्सव परंपरा में रक्षा बंधन से उत्सवों की शृंखला शुरू होती है, फिर हम इन उत्सवों में गणपति को आमंत्रित करते हैं, गणेश उत्सव मनाते हैं।
इसके बाद पितरों को इन उत्सवों में बुलाया जाता है। श्राद्ध पक्ष को पितरों का उत्सव कहा जाता है। इसमें पितरों को मेहमान मानकर उनका आदर सत्कार किया जाता है।
हमारी संस्कृति के अनुसार मेहमानों का स्वागत हमेशा मिष्ठान से होता है और ये खाद्य पदार्थ मिष्ठान की श्रेणी में आते हैं इसलिए श्राद्ध पक्ष में खीर-पूड़ी बनाकर पितरों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित की जाती है।
श्राद्ध पक्ष हमेशा चार्तुमास के दौरान आता है। इसमें सावन और भादौं महीने बारिश के होते हैं। पहले के जमाने में लगातार बारिश के कारण लोग अधिकांश समय घरों में ही व्रत उपवास करके बिताते थे।
अत्यधिक व्रत-उपवास के कारण शरीर कमजोर हो जाता है। इसलिए श्राद्ध पक्ष के पंद्रह दिनों तक खीर-पूड़ी खाकर व्रती अपने आप को पुष्ट करते हैं। इसलिए श्राद्ध में खीर-पूड़ी बनाने की मान्यता है।
श्राद्ध में कौऐ को भोजन क्यों कराते हैं?
श्राद्ध पक्ष में पितरों की पसंद का भोजन बनाकर उसका भोग लगाया जाता है। जैसा की सभी जानते हैं कि श्राद्ध पक्ष पितरों का उत्सव है इसलिए कई प्रकार के मिष्ठान बनाकर पितरों को उसका भोग लगाया जाता है। पर क्या आप जानते हैं कि पितरों को भोजन अर्पित करने से पहले कौऐ को उसका भोग क्यों लगाया जाता है?
क्या कारण है कि श्राद्ध पक्ष शुरू होते ही एकायक कौऐ की खोजबीन शुरू हो जाती है?
हिन्दू पुराणों ने कौऐ को देवपुत्र माना है। यह मान्यता है कि इन्द्र के पुत्र जयंत ने ही सबसे पहले कौऐ का रूप धारण किया था। यह कथा त्रेता युग की है जब राम ने अवतार लिया और जयंत ने कौऐ का रूप धर कर सीता को घायल कर दिया था।
तब राम ने तिनके से ब्रह्मास्त्र चलाकर जयंत की आंख फोड़ दी थी। जब उसने अपने किए की माफी मांगी तब राम ने उसे यह वरदान दिया की कि तुम्हें अर्पित किया गया भोजन पितरों को मिलेगा। बस तभी से श्राद्ध में कौओं को भोजन कराने की परंपरा चल पड़ी है। दरअसल आपने गौर किया होगा कि कौआ काना यानि एक आंख वाला होता है। मतलब उसे एक ही आंख से दिखाई देता है। यहां हिन्दू मान्यताओं में पितरों की तुलना कौऐ से की गई है।
जिस प्रकार कौआ एक आंख से ही सभी को निष्पक्ष व सम भाव से देखता है उसी प्रकार हम यह आशा करते हैं कि हमारे पितर भी हमें समभाव से देखते हुए हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखें। वे हमारी बुराईयों को भी उसी तरह स्वीकार करें जिस प्रकार अच्छाईयों को स्वीकारते हैं। यही कारण है कि श्राद्ध पक्ष में कौऐ को ही पहले भोजन कराया जाता है।
पितरों का तर्पण नदी किनारे ही क्यों?
श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण मुख्य कर्म माना गया है। हर किसी की यह कामना होती है कि उसके मरने के बाद उसका पुत्र विधि-विधान से श्राद्ध तर्पण करे ताकि संसार में दोबारा जन्म न लेना पड़े।
यह प्रथा पुरातनकालीन भारतीय हिन्दू परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग रही है। तर्पण भी हमेशा नदी के किनारे ही किया जाता है। कभी सोचा है कि तर्पण हमेशा ही नदी किनारे क्यों किये जाते हैं? क्या और कोई भी स्थान है जहां तर्पण दिए जा सकते हों? इतिहास गवाह है कि संसार की सभी सभ्यताएं नदी किनारे ही फली-फूली हैं।
इसलिए नदियों को प्राचीन काल से ही पवित्र माना गया है।हर पावन कार्य इनके किनारों पर ही पूरा होते हैं और चूंकि तर्पण को भी पवित्र माना जाता है इसलिए तर्पण हमेशा नदी के किनारों पर ही संपन्न होते हैं। ऐसी मान्यता है कि जल में तर्पण करने से उसका आहार सीधे हमारे पितरों को मिलता है। प्राणी की उत्पत्ति भी जल से होती है और मरने के पश्चात उसकी अस्थियों को भी जल में ही विसर्जित किया जाता है।
जल को बड़ा ही पवित्र माना गया है। जल ही जीवन है- के कारण भी जल की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। जल को ही बह्म मानते हुए उसे अन्तिम स्थान माना गया है। वेदों व पुराणों ने भी जल को ही सबसे श्रेष्ठ माना है। जल से ही शुद्धि और पूर्ण तृप्ति होती है, इसलिए तर्पण हमेशा नदी के किनारे ही होते हैं।
क्यों किया जाता है पूर्णिमा पर दान?
हिंदू रीति-रिवाजों और मान्यताओं के अनुसार हर कार्य के लिए कुछ दिन तय किए गए हैं। दान के लिए पूर्णिमा को महत्वपूर्ण माना गया है। कहते हैं किसी भी माह की पूर्णिमा को दान करने से इसका बहुत ज्यादा फल मिलता है। आखिर पूर्णिमा को ही दान क्यों किया जाए? इसके पीछे क्या कारण और दर्शन है? कौन सी बात है जो पूर्णिमा को इतना खास बनाती है? पूर्णिमा पर नदियों में स्नान के बाद दान का महत्व क्यों है?
इस परंपरा के पीछे दार्शनिक कारण भी और वैज्ञानिक भी। पूर्णिमा पर नदियों में स्नान और फिर उसके बाद दान, दोनों अलग-अलग विषय है। स्नान सीधे हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा और दान हमारे व्यवहार से। पूर्णिमा पर चंद्रमा की रोशनी सबसे ज्यादा होती है। इससे कई ऐसी किरणें निकलती हैं जो नदियों के पानी, वनस्पति और भूमि पर औषधीय प्रभाव डालती हैं। इसलिए पूर्णिमा पर नदियों में स्नान करने से उस औषधीय जल का प्रभाव हम पर भी होता है, जिससे हमें स्वास्थ्यगत फायदा होता है।
नदी में स्नान के बाद दान का महत्व इसलिए है कि चंद्रमा मन का अधिपति होता है। चंद्रमा की किरणों से युक्त जल में स्नान करने से मन को शांति और निर्मलता आती है। दान का महत्व इसीलिए रखा गया है क्योंकि जब हम शांत और निर्मल होते हैं तो ऐसे समय अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का विकास हो। दान करने से मन पर सद्भाव और प्रेम जैसी भावनाओं का प्रभाव बढ़ता है। इससे हमारे व्यक्तित्व का सकारात्मक विकास होता है।
नवरात्रि में पूजा के नौ दिन ही क्यों?
हर साल में दो बार पडऩे वाली नवरात्रि को मां शक्ति की आराधना के लिए सबसे उपयुक्त समय माना जाता है। शक्ति के साधक इस समय का बेसब्री से इंतजार करते हैं। इन दिनों तांत्रिक साधनाओं में भी अद्भुत वृद्धि हो जाती है। कहते हैं कि ये समय तंत्र-साधनाओं के लिए भी एकदम उपयुक्त होता है।
पर क्या कभी सोचा है कि नवरात्रि में पूजा-अर्चना के मात्र 9 दिन ही क्यों होते हैं? जब नवरात्रि में पूजा पाठ का इतना ही महत्व है तो 9 दिन से अधिक की नवरात्रि क्यों नहीं मनाते? नवरात्रि मूलत देवी यानि शक्ति की आराधना का पर्व है। यह पर्व प्रकृति में स्थित शक्ति को समझने और उसकी आराधना करने का है।
शक्ति के नौ रूपों को ही मुख्य रूप से पूजा जाता है। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा देवी, कूष्मांडा देवी, स्कंद माता, कात्यायनी, मां काली, महागौरी और सिद्धिदात्री- ये देवी के नौ रूप हैं जिनको नवरात्रि के नौ दिनों में पूजा जाता है। जिस प्रकार नवरात्रि के नौ दिन पूजनीय होते हैं उसी तरह नौ अंक भी प्राकृत होते हैं। शून्य से लेकर नौ तक की अंकावली में नौ अंक सबसे बड़ा है। फिर साधना भी नौ दिन की ही उपयुक्त मानी गई है। किसी भी मनुष्य के शरीर में सात चक्र होते हैं जो जागृत होने पर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
नवरात्रि के नौ दिनों में से 7 दिन तो चक्रों को जागृत करने की साधना की जाती है। 8वें दिन शक्ति को पूजा जाता है। नौंवा दिन शक्ति की सिद्धि का होता है। शक्ति की सिद्धि यानि हमारे भीतर शक्ति जागृत होती है।
अगर सप्तचक्रों के अनुसार देखा जाए तो यह दिन कुंडलिनी जागरण का माना जाता है।
इसलिए नवरात्रि नौ दिन की ही मनाई जाती है।
क्यों पवित्र माना जाता है गो-मूत्र?
गो-सामान्य बोलचाल की भाषा में गाय। गाय को हिन्दू संस्कृति में पवित्र माना जाता है। गाय को माता भी कहा गया है। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार गाय में 33 करोड़ देवताओं का वास माना गया है। गाय के पूरे शरीर को ही पवित्र माना गया है लेकिन गाय का मूत्र सर्वाधिक पवित्र माना जाता है। ऐसा क्यों होता है? जिस चीज को अपवित्र कहा जाता हो वही मूत्र जब गाय का होता है तो उसे पवित्र मान लिया जाता है। क्या इसके पीछे भी कोई कारण है?
गोमूत्र में पारद और गन्धक के तात्विक गुण अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। गोमूत्र का सेवन करने पर प्लीहा और यकृत के रोग नष्ट हो जाते हैं। गोमूत्र कैंसर जैसे भयानक रोगों को भी ठीक करने में सहायक है। दरअसल गाय का लीवर चार भागों में बंटा होता है। इसके अन्तिम हिस्से में एक प्रकार एसिड होता है जो कैंसर जैसे भयानक रोग को जड़ से मिटाने की क्षमता रखता है। इसके बैक्टिरिया अन्य कई जटिल रोगों में भी फायदेमंद होते हैं। गो-मूत्र अपने आस-पास के वातावरण को भी शुद्ध रखता है।
क्यों जरूरी है जीवन में मौन?
मौन- सुनने में बड़ा भारी सा लगने वाला शब्द पर वास्तव में बड़ा ही अचूक शस्त्र। शस्त्र इसलिए की इससे बड़े से बड़ा दुश्मन भी नतमस्तक हो जाता है। मौन एक तरह का व्रत है साधना है। मौन-व्रत का सीधा सा मतलब होता है- अपनी जुबान को लगाम देना अर्थात अपने मन को नियंत्रित करते हुए चुप रहना।
मौन का एक अर्थ यह भी होता है अपनी भाषा शैली को ऐसा बनाएं जो दूसरों को उचित लगे। पर क्या मौन इतना ही जरूरी है? क्या मौन के बिना जीवन नहीं चल सकता? मौन की आदत डालने से व्यक्ति कम बोलता है और जब वह कम बोलता है तो निश्चित रूप से सोच समझकर ही बोलता है। इस तरह से वह अपनी जुबान को अपने वश में कर सकता है।
यह बात तो प्रामाणित भी हो चुकी है कि सप्ताह में कम से कम एक दिन मौन रखने से कई आश्चर्यजनक परिणाम मिले हैं। फिर भी यदि मौन पूरे दिन नहीं रख सकते तो आधे दिन का जरूर रखना चाहिए।
बोलने से व्यक्ति के शरीर की शक्ति खत्म होती है। जो जितना ज्यादा बोलता है उसका एनर्जी लेबल, जिसे आन्तरिक शक्ति भी कहते हैं, का नाश होता है। यह आन्तरिक शक्ति शरीर में बची रहे इसलिए भी मौन व्रत जरूरी है।
आकाश में इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है?
बरसात के मौसम में जब कभी आकाश में काले-काले बादल छाए होते हैं तो मन बड़ा प्रफुल्लित होता है। उस पर भी यदि हल्की-फुल्की बारिश के छींटें पड़ जाएं जो ऐसा लगता है मानो प्रकृति आज हम पर दिल खोलकर प्यार बरसा रही है।
ऐसे सुंदर मौसम में आकाश में इन्द्रधनुष उभर आना प्रकृति-प्रेमियों के लिए सोने में सुहागा वाली कहावत सच होने जैसा है। पर आकाश में इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है? क्या इसकी कोई धार्मिक मान्यता भी है?
हिन्दू धर्म ग्रंथों में इन्द्र को वर्षा का देवता माना जाता है। आकाश में इन्द्रधनुष प्रकट होने का अर्थ यह है कि वर्षा के देवता इन्द्र अपने धनुष सहित नभ मण्डल में वर्षा करने के लिए उपस्थित हैं।
सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। बादल जल वाष्प होते हैं मतलब उनमें वर्षा करने के लिए जल भरा होता है। जैसे ही सूर्य की किरणें बादलों की सतह से टकराती हैं तो वे परावर्तित होती हैं और इन्द्रधनुष यानि सप्तरंगी के रूप में दिखाई देती हैं। बादलों से टकराकर जब सप्तरंगी इन्द्रधनुष बनता है तो लोग आसानी से ये अनुमान लगा लेते हैं कि अभी बादल छाये हुए हैं और बारिश होगी। इन्द्रधनुष के निकलते ही मोर नाचने लगते हैं और हर तरफ खुशी का माहौल बन जाता है।
शनिदेव लंगड़े क्यों हैं?
शनि को ज्योतिष शास्त्र का सबसे कू्र ग्रह माना जाता है। कहते हैं कि जिसकी कुण्डली में शनि नकारात्मक भाव में बैठा हो उसका तो भगवान ही मालिक है। शनि सूर्यदेव के पुत्र हैं ओर इनकी माता का नाम संज्ञा है। कहते हैं शनिदेव लंगड़े हैं। क्या वास्तव में ऐसा है? और यदि ऐसा है तो क्यों शनिदेव लंगड़े हैं?
शनिदेव के लंगड़े होने की एक पौराणिक कथा है। एक बार सूर्यदेव का तेज सहन न कर पाने से संज्ञा ने अपने शरीर से अपनी प्रतिमूर्ति छाया को प्रकट किया और उन्हें पुत्र और पति की जिम्मेदारी सौंप कर तपस्या करने लगीं। उधर छाया भी सूर्यदेव के साथ रहने लगीं। इस बीच छाया से सूर्यदेव को पांच पुत्र उत्पन्न हुए पर वे भी छाया का रहस्य नहीं जान सके। छाया भी अपने बच्चों का ज्यादा ध्यान रखती थीं।
एक बार शनिदेव भूख से व्याकुल होकर छाया के पास गए और उन्होंने उनसे भोजन मांगा। पर छाया ने उनकी बात अनसुनी करते हुए अपने बच्चों को भोजन देना शुरू कर दिया। यह देखते ही शनिदेव को गुस्सा आ गया और अपने क्रोधी स्वभाव के अनुरूप उन्होंने छाया को मारने के लिए अपना पैर उठाया। उसी समय छाया ने शनिदेव को शाप देते हुए कहा कि तेरा यह पैर अभी टूट जाए। बस तभी से शनिदेव लंगड़े हो गए।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनिग्रह बहुत धीमी गति से चलते वाला ग्रह है। यह एक राशि को ढ़ाई वर्ष में पार करता है। इस कारण भी ज्योतिष शास्त्रीय इसे लंगड़ा ग्रह कहते हैं।
क्यों जरूरी है कभी-कभी एकांत?
एकांत का मतलब होता है-अकेलापन। एकांत शब्द का अर्थ ही है एक के बाद अंत अर्थात अकेला। जब भी मनुष्य ने जीवन के अनसुलझे प्रश्रों के उत्तर ढ़ूंढऩे का प्रयास किया है उसने एंकात की तलाश की है। क्या एकांत हमारे जीवन में इतनी बड़ी भूमिका निभाता है? क्यों जरूरी है कभी-कभी एकांत में रहना? जब भी हम अकेले होते हैं तब हमारी गति बाह्य न होकर आंतरिक होती है। एकांत के क्षणों में मैं से सामना अपने आप हो जाता है।
वैसे भी सभी सभ्यताएं इस बात पर जोर देती हैं कि कैसे भी मैं से साक्षात्कार हो जाए। आत्म-साक्षात्कार के लिए एकांत सहायक तत्व है इसीलिए अंतर्मुखी व्यक्ति हमेशा एकांत की तलाश में रहता है।
अनगिनत महान आत्माओं ने एकांत में ही अपने आप को पहचान पाया है।
यह तो सर्वविदित है कि भीड़ हमेशा ही निर्माण की भूमिका निभाने की बजाय विनाश ज्यादा करती है, इसलिए भीड़ को मूर्खता का प्रतीक माना जाता है। एकांत के कारण फैसले लेना काफी सुविधाजनक होता है।
एकांत जीवन के लिए बहुत आवश्यक होता है। इससे हमें अपने अंर्तमन में झांकने का मौका मिलता है और हम अपना मूल्यांकन खुद ही कर सकते हैं।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष
रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने इस मुहूर्त का विशेष महत्व बताया है। उनके अनुसार यह समय निद्रा त्याग के लिए सर्वोत्तम है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
ब्रह्म मुहूर्त का विशेष महत्व बताने के पीछे हमारे विद्वानों की वैज्ञानिक सोच निहित थी। वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि ब्रह्म मुहुर्त में वायु मंडल प्रदूषण रहित होता है। इसी समय वायु मंडल में ऑक्सीजन (प्राण वायु) की मात्रा सबसे अधिक (41 प्रतिशत) होती है, जो फेफड़ों की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण होती है। शुद्ध वायु मिलने से मन, मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है।
आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य कहा गया है। इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल दिए जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है।
क्यों करते हैं शिव का अभिषेक?
अभिषेक शब्द का अर्थ है स्नान करना या कराना। यह स्नान भगवान मृत्युंजय शिव को कराया जाता है। अभिषेक को आजकल रुद्राभिषेक के रुप में ही ज्यादातर पहचाना जाता है। अभिषेक के कई प्रकार तथा रुप होते हैं। किंतु आजकल विशेष रूप से रुद्राभिषेक ही कराया जाता है। रुद्राभिषेक का मतलब है भगवान रुद्र का अभिषेक यानि कि शिवलिंग पर रुद्रमंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। शास्त्रों में भगवान शिव को जलधाराप्रिय:, माना जाता है। भगवान रुद्र से सम्बंधित मंत्रों का वर्णन बहुत ही पुराने समय से मिलता है। रुद्रमंत्रों का विधान ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में दिये गए मंत्रों से किया जाता है। रुद्राष्टाध्यायी में अन्य मंत्रों के साथ इस मंत्र का भी उल्लेख मिलता है।
अभिषेक में उपयोगी वस्तुएं: अभिषेक साधारण रूप से तो जल से ही होता है। विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में गोदुग्ध या अन्य दूध मिला कर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहदऔर चीनी से अलग-अलग अथवा सब को मिला कर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है।
क्यों पहनते थे खड़ाऊ ?
पुरातन समय में हमारे पूर्वज पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ (चप्पल) पहनते थे। पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ पहनने के पीछे भी हमारे पूर्वजों की सोच पूर्णत: वैज्ञानिक थी। गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद में प्रतिपादित किया उसे हमारे ऋषि-मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था।
उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं । यह प्रक्रिया अगर निरंतर चले तो शरीर की जैविक शक्ति(वाइटल्टी फोर्स) समाप्त हो जाती है। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने पैरों में खड़ाऊ पहनने की प्रथा प्रारंभ की ताकि शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके।
इसी सिद्धांत के आधार पर खड़ाऊ पहनी जाने लगी। उस समय चमड़े का जूता कई धार्मिक, सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य न था और कपड़े के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया। जबकि लकड़ी के खड़ाऊ पहनने से किसी धर्म व समाज के लोगों के आपत्ति नहीं थी इसीलिए यह अधिक प्रचलन में आए। कालांतर में यही खड़ाऊ ऋषि-मुनियों के स्वरूप के साथ जुड़ गए ।
खड़ाऊ के सिद्धांत का एक और सरलीकृत स्वरूप हमारे जीवन का अंग बना वह है पाटा। डाइनिंग टेबल ने हमारे भारतीय समाज में बहुत बाद में स्थान पाया है। पहले भोजन लकड़ी की चौकी पर रखकर तथा लकड़ी के पाटे पर बैठकर ग्रहण किया जाता था। भोजन करते समय हमारे शरीर में सबसे अधिक रासायनिक क्रियाएं होती हैं। इन परिस्थिति में शरीरिक ऊर्जा के संरक्षण का सबसे उत्तम उपाय है चौकियों पर बैठकर भोजन करना।
हाथ मिलाना क्यों उचित नहीं?
पुरातन समय में हाथ जोड़कर तथा साष्टांग प्रणाम कर अभिवादन करने की परंपरा हमारे समाज में थी जबकि वर्तमान समय में अभिवादन का प्रचलित स्वरूप हाथ मिलाना है जो कि पाश्चात्य संस्कृति की देन है। हाथ जोड़कर तथा साष्टांग प्रणाम कर अभिवादन करने से पीछे हमारे मनीषियों का तर्क था कि यथासंभव अपने शरीर का दूसरे के शरीर से स्पर्श किए बिना ही अभिवादन की प्रक्रिया पूरी हो जाए। नमस्कार करते समय दायां हाथ बाएं हाथ से जुड़ता है। शरीर में दाईं ओर झड़ा और बांईं ओर पिंगला नाड़ी होती है तथा मस्तिष्क पर त्रिकुटि के स्थान पर शुष्मना का होना पाया जाता है। अत: नमस्कार करते समय झड़ा, पिंगला के पास पहुंचती है तथा सिर श्रृद्धा से झुका हुआ होता है। इससे शरीर में आध्यात्मिकता का विकास होता है।
जबकि हाथ मिलाने से हम अपने शरीर की ऊर्जा के परिमंडल में अनावश्यक रूप से दूसरे को घुसपैठ करने का अवसर प्रदान करते हैं। हाथ मिलाने से दो शरीरों की ऊर्जा आपस टकराती है जिसका विपरीत प्रभाव न सिर्फ शरीर बल्कि मस्तिष्क पर भी पड़ता है। भारतीय समाज में स्त्रियों से हाथ मिलाकर अभिवादन करना वर्जित है। इसके पीछे और कोई कारण हो न हो पर शरीर की विद्युतीय तरंगता का प्रभाव निश्चित रूप से कार्य करता है। अत: स्पर्श से बचते हुए नमस्कार करना ही अभिवादन का उचित माध्यम है।
शुभ कार्य में कलश का उपयोग क्यों?
हिंदू धर्म में विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में कलश स्थापना की जाती है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार कलश में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा मातृ शक्तियों का निवास होता है। सीताजी की उत्पत्ति के विषय में धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख है कि राजा जनक के राज्य में जब सूखा पड़ा और देवर्षि नारद के कहने पर राजा जनक ने हल चलाया तो हल चलाते समय उसका फाल(धार) भूमि में गड़े हुए घड़े(कलश) से टकराया जिससे तेज ध्वनि उत्पन्न हुई और फूटे हुए कलश के अंदर से बालरूप सीता प्राप्त हुई।समुद्र मंथन के समय प्राप्त अमृत भी कलश में ही था।
प्राचीन मंदिरों या तस्वीरों में भी भगवती लक्ष्मी को दो हाथियों द्वारा कलश जल से स्नान कराते हुए चित्रित किया गया है। यही कारण है कि कलश को हिंदू धर्म में पवित्र तथा मंगल का प्रतीक माना गया है। जब किसी भी पूजन में कलश स्थापित किया जाता है तो यह माना जाता है कि कलश रूप में त्रिदेव तथा मातृशक्ति विराजमान है। शुभ कार्यों जैसे- गृह प्रवेश, गृह निर्माण, विवाह पूजा, अनुष्ठान आदि में कलश की स्थापना इसीलिए की जाती है। कलश को लाल वस्त्र, नारियल, आम के पत्तों, कुशा आदि से अलंकृत करने का विधान भी है।
श्राद्ध कर्म क्यों किये जाते हैं?पूर्वजन्म की वैज्ञानिक मान्यता के आधार पर ही कर्मकांड में श्राद्ध कर्म का विधान निर्मित किया गया है। अपने पूर्वजों के निमित्त दी गई वस्तुएं/पदार्थ सचमुच उन्हें प्राप्त हो जाते हैं. इस विषय में अधिकतर लोगों को संदेह है। हमारे पूर्वज अपने कर्मानुसार किस योनि में उत्पन हुए हैं, जब हमें इतना ही नहीं मालूम तो फिर उनके लिए दिए गये पदार्थ उन तक कैसे पहुच सकते हैं ? क्या एक ब्राह्मण को भोजन खिलाने से हमारे पूर्वजों का पेट भर सकता है? वैसे इन प्रश्नों का सीधे सीधे उत्तर देना तो शायद किसी के लिए भी संभव न होगा, क्योंकि वैज्ञानिक मापदंडों को इस सृष्टि की प्रत्येक विषयवस्तु पर लागू नहीं किया जा सकता। दुनिया में कईं बातें ऐसी हैं जिनका कोई प्रमाण न मिलते हुए भी उन पर विश्वास करना पडता है।
इस विषय में शास्त्रों का कथन है कि,जिस प्रकार मानव शरीर पंचतत्वों से निर्मित है, उसी प्रकार से जो देव और पितर इत्यादि योनियां हैं; प्रकृति द्वारा उनकी रचना नौ तत्वों द्वारा की गई है। जो कि गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं, शब्द तत्व में निवास करते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार घांस-फूंस एवं वनस्पति है, ठीक उसी प्रकार इन योनियों का आहार अन्न का सार-त्तत्व है। वे सिर्फ अन्न और जल का सार-त्तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तुएं/पदार्थ हैं, वह तो यहीं स्थित रह जाते हैं।
आरती में कर्पूर का उपयोग क्यों?
हिंदू धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्मकांडों तथा पूजन में उपयोग की जाने वाली सामग्री के पीछे सिर्फ धार्मिक कारण ही नहीं है इन सभी के पीछे कहीं न कहीं हमारे ऋषि-मुनियों की वैज्ञानिक सोच भी निहित है।
प्राचीन समय से ही हमारे देश में विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में कर्पूर का उपयोग किया जाता है। कर्पूर का सबसे अधिक उपयोग आरती में किया जाता है। प्राचीन काल से ही हमारे देश में देशी घी के दीपक व कर्पूर के देवी-देवताओं की आरती करने की परंपरा चली आ रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान आरती करने के प्रसन्न होते हैं व साधक की मनोकामना पूर्ण करते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि कर्पूर जलाने से देवदोष व पितृदोष का शमन होता है। कर्पूर अति सुगंधित पदार्थ होता है। इसके दहन से वातावरण सुगंधित हो जाता है।वैज्ञानिक शोधों से यह भी ज्ञात हुआ है कि इसकी सुगंध से जीवाणु, विषाणु आदि बीमारी फैलाने वाले जीव नष्ट हो जाते हैं जिससे वातावरण शुद्ध हो जाता है तथा बीमारी होने का भय भी नहीं रहता।यही कारण है कि पूजन, आरती आदि धार्मिक कर्मकांडों में कर्पूर का विशेष महत्व बताया गया है।
नारी का कन्या रूप पूजनीय क्यों?
भारत त्योहारों का देश है। यहां वर्ष भर त्योहार मनाए जाते हैं। नवरात्र पर्व का हमारे यहां बहुत ज्यादा महत्व माना जाता है। नवरात्र में कन्या-पूजन का बडा महत्व है। सच तो यह है कि छोटी बालिकाओं में देवी दुर्गा का रूप देखने के कारण श्रद्धालु उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। हमारे धर्मग्रन्थों में कन्या-पूजन को नवरात्र-व्रतका अनिवार्य अंग बताया गया है।
ऐसा माना जाता है कि दो से दस वर्ष तक की कन्या देवी के शक्ति स्वरूप की प्रतीक होती हैं। हिंदु धर्म में दो वर्ष की कन्या को कुमारी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसके पूजन से दुख और दरिद्रता समाप्त हो जाती है।
तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति मानी जाती है। त्रिमूर्ति के पूजन से धन-धान्य का आगमन और संपूर्ण परिवार का कल्याण होता है। चार वर्ष की कन्या कल्याणी के नाम से संबोधित की जाती है। कल्याणी की पूजा से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कही जाती है। रोहिणी के पूजन से व्यक्ति रोग-मुक्त होता है। छ:वर्ष की कन्या कालिका की अर्चना से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है। सात वर्ष की कन्या चण्डिका के पूजन से ऐश्वर्य मिलता है। आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी की पूजा से वाद-विवाद में विजय तथा लोकप्रियता प्राप्त होती है। नौ वर्ष की कन्या दुर्गा की अर्चना से शत्रु का संहार होता है तथा असाध्य कार्य सिद्ध होते हैं। दस वर्ष की कन्या सुभद्रा कही जाती है। सुभद्रा के पूजन से मनोरथ पूर्ण होता है तथा लोक-परलोक में सब सुख प्राप्त होते हैं।
ग्रहण काल में भोजन क्यों वर्जित?
हमारे धर्म शास्त्रों में सूर्य व चंद्र ग्रहण के दौरान कई बातों का ध्यान रखने के लिए कहा गया है। ग्रहण के दौरान विशेष तौर पर भोजन करना निषिद्ध माना गया है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ग्रहण के दौरान खाद्य वस्तुओं, जल आदि में सुक्ष्म जीवाणु एकत्रित हो जाते हैं जिनसे वह दूषित हो जाते हैं इसीलिए इनमें कुश(एक विशेष प्रकार की घास) डाल दी जाती है ताकि कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएं और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। कुश के अलावा तुलसी पत्र भी डालने की परंपरा हिंदू धर्म में है। चूंकि ग्रहण से हमारी जीवन शक्ति का ह्रास होता है और तुलसी पत्र में विद्युत शक्ति व प्राण शक्ति सबसे अधिक होती है इसलिए भोजन पर ग्रहण का प्रभाव समाप्त करने के लिए भोजन तथा पेय पदार्थों में तुलसी के पत्र डालते हैं।
शास्त्रों के अनुसार ग्रहण के समय भोजन करने से सुक्ष्म जीव पेट में जाने से रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। वैज्ञानिक शोधों से भी यह ज्ञात हुआ है कि ग्रहण काल के दौरान मनुष्य की पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है जिसके कारण अपच, अजीर्ण आदि शिकायतें हो सकती हैं। भारतीय धर्म विज्ञानियों का मानना है कि सूर्य व चंद्र ग्रहण लगने के 10 घंटे पूर्व ही उसका कुप्रभाव शुरू हो जाता है, जिसे सूतक काल कहते हैं।
मुस्लिम क्यों करते हैं हज यात्रा?
दुनिया के हर मुसलमान की ख्वाहिश होती है कि वह अपने जीवन काल में एक बार हज की यात्रा अवश्य करे। हज यात्रियों के सपनों में काबा पहुंचना, जन्नत पहुंचने के ही समान है। काबा शरीफ़ मक्का में है। असल में हज यात्रा मुस्लिमों के लिये सर्वोच्च इबादत है। इबादत भी ऐसी जो आम इबादतों से कुछ अलग तरह की होती है। यह ऐसी इबादत है जिसमें काफ़ी चलना-फि रना पड़ता है। सऊदी अरब के पवित्र शहर मक्का और उसके आसपास स्थित अलग-अलग जगहों पर हज की इबादतें अदा की जाती हैं। इनके लिए पहले से तैयारी करना ज़रूरी होता है, ताकि हज ठीक से किया जा सके। इसीलिए हज पर जाने वालों के लिए तरबियती कैंप मतलब कि प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं।
एहराम: हज यात्रा वास्तव में पक्का इरादा यानि कि संकल्प करके 'काबा' की जिय़ारत यानी दर्शन करने और उन इबादतों को एक विशेष तरीक़े से अदा करने को कहा जाता है। इनके बारे में किताबों में बताया गया है। हज के लिए विशेष लिबास पहना जाता है, जिसे एहराम कहते हैं। यह एक फकीराना लिबास है। ऐसा लिबास जो हर तरह के भेदभाव मिटा देता है। छोटे-बड़े का, अमीर-गऱीब, गोरे-काले का। इस दरवेशाना लिबास को धारण करते ही तमाम इंसान बराबर हो जाते हैं और हर तरह की ऊंच-नीच ख़त्म हो जाती है।जुंबा पर एक ही नाम: पूरी हज यात्रा के दरमियान हज यात्रियों की ज़बान पर 'हाजिऱ हूँ अल्लाह, मैं हाजिऱ हूँ। हाजिऱ हूँ। तेरा कोई शरीक नहीं, हाजिऱ हूँ। तमाम तारीफ़ात अल्लाह ही के लिए है और नेमतें भी तेरी हैं। मुल्क भी तेरा है और तेरा कोई शरीक नहीं है़,...जैसे शब्द कायम रहते हैं। कहने का मतलब यह है कि इस पूरी यात्रा के दोरान हर पल हज यात्रियों को यह बात याद रहती है कि वह कायनात के सृष्टा, उस दयालु-करीम के समक्ष हाजिऱ है, जिसका कोई संगी-साथी नहीं है। इसके अलावा यह भी कि मुल्को-माल सब अल्लाह तआला का है। इसलिए हमें इस दुनिया में फ़ क़ीरों की तरह रहना चाहिए।
चरणामृत सेवन का महत्व क्यों?
हिंदू धर्म में भगवान की आरती के पश्चात भगवान का चरणामृत दिया जाता है। इस शब्द का अर्थ है भगवान के चरणों से प्राप्त अमृत। हिंदू धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है। चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्री रामचरितमानस में लिखा है-
पद पखारि जलुपान करि आपु सहित परिवार।
पितर पारु प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार।।
अर्थात भगवान श्रीराम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।
चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है। आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते। इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। ऐसा माना जाता है कि चरणामृत मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है। रणवीर भक्तिरत्नाकर में चरणामृत की महत्ता प्रतिपादित की गई है-
पापव्याधिविनाशार्थं विष्णुपादोदकौषधम्।
तुलसीदलसम्मिश्रं जलं सर्षपमात्रकम्।।
अर्थात पाप और रोग दूर करने के लिए भगवान का चरणामृत औषधि के समान है। यदि उसमें तुलसीपत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधिय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है।
चरणामृत सेवन करते समय निम्न श्लोक पढऩे का विधान है-
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णुपादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।
अर्थात चरणामृत अकाल मृत्यु को दूर रखता है। सभी प्रकार की बीमारियों का नाश करता है। इसके सेवन से पुनर्जन्म नहीं होता।
मृतक के मुख पर चंदन की लकड़ी क्यों?
हिंदू परंपरा में मृतक का दाह संस्कार करते समय उसके मुख पर चंदन रख कर जलाने की परंपरा है। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। इस परंपरा के पीछे सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी निहित है। चंदन की लकड़ी अत्यंत शीतल मानी जाती है। उसकी ठंडक के कारण लोग चंदन को घिसकर मस्तक पर तिलक लगाते हैं, जिससे मस्तिष्क को ठंडक मिलती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार मृतक के मुख पर चंदन की लकड़ी रख कर दाह संस्कार करने से उसकी आत्मा को शांति मिलती है तथा मृतक को स्वर्ग में भी चंदन की शीतलता प्राप्त होती है।
इसका वैज्ञानिक कारण अगर देखा जाए तो मृतक का दाह संस्कार करते समय मांस और हड्डियों के जलने से अत्यंत तीव्र दुर्गंध फैलती है। उसके साथ चंदन की लकड़ी के जलने से दुर्गंध पूरी तरह समाप्त तो नहीं होती लेकिन कुछ कम जरुर हो जाती है।
क्यों की जाती है कपाल क्रिया?
हिंदू धर्म में मृत्यु के उपरांत मृतक का दाह संस्कार किया जाता है अर्थात मृत देह को अग्नि को समर्पित किया जाता है। दाह संस्कार के समय कपाल क्रिया भी की जाती है। दाह संस्कार के समय कपाल क्रिया क्यों की जाती है? इसका वर्णन गरुड़पुराण में मिलता है।उसके अनुसार जब शवदाह के समय मृतक के सिर पर घी की आहुति दी जाती है तथा तीन बार डंडे से प्रहार कर खोपड़ी फोड़ी जाती है इसी प्रक्रिया को कपाल क्रिया कहते हैं। इस क्रिया के पीछे अलग-अलग मान्यताए हैं। एक मान्यता के अनुसार कपाल क्रिया के पश्चात ही प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं और नए जन्म की प्रक्रिया आगे बढ़ती है।
दूसरी मान्यता है कि खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इसलिए जलाया जाता है ताकि वह अधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न देवताओं का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्ध चंद्रिका में मिलता है। चूंकि सिर में ब्रह्मा का वास माना गया है इसलिए शरीर को पूर्ण रूप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपाल क्रिया द्वारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है।खोपड़ी की हड्डी इतनी मजबूत होती है कि उसे अग्नि में भस्म होने में भी समय लगता है। वह फूट जाए और मस्तिष्क में स्थित ब्रह्मरंध्र पंचतत्व में पूर्ण रूप से विलीन हो जाए।
क्यों किया जाता है सुंदरकांड?
अक्सर शुभ अवसरों पर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरितमानस के सुंदरकांड का पाठ करने का महत्व माना गया है। ज्यादा परेशानी हो, कोई काम नहीं बन रहा हो, आत्मविश्वास की कमी हो या कोई और समस्या कई ज्योतिषी और संत भी लोगों को ऐसी स्थिति में सुंदरकांड का पाठ करने की राय देते हैं। आखिर रामचरितमानस के सारे छह कांड छोड़कर केवल सुंदरकांड का ही पाठ क्यों किया जाता है?
वास्तव में रामचरितमानस के सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है। संपूर्ण रामचरितमानस भगवान राम के गुणों और उनकी पुरुषार्थ से भरे हैं। सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है जो भक्त की विजय का कांड है। मनोवैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो यह आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति बढ़ाने वाला कांड है।
हनुमान जो कि जाति से वानर थे, वे समुद्र को लांघकर लंका पहुंच गए और वहां सीता की खोज की। लंका को जलाया और सीता का संदेश लेकर लौट आए। यह एक आम आदमी की जीत का कांड है, जो अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है। इसमें जीवन में सफलता के महत्वपूर्ण सूत्र भी हैं। इसलिए पूरी रामायण में सुंदरकांड को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि यह व्यक्ति में आत्मविश्वास बढ़ाता है।
क्यों की जाती है मंदिरों में प्राण-प्रतिष्ठा?
मंदिरों के निर्माण के बाद देवताओं की प्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। क्या पत्थर की प्रतिमाओं में कुछ धार्मिक रस्में पूरी करने से उनमें प्राणों का संचार हो जाता है? क्या पत्थरों में जान फूंकना संभव है? आखिर क्यों प्रतिमाओं की स्थापना प्राण प्रतिष्ठा से की जाती है?
वास्तव में यह पूर्णत: वैज्ञानिक प्रक्रिया है। विज्ञान मानता है कि धार्मिक अनुष्ठानों और मंत्रों से किसी पत्थर में प्राण नहीं डाले जा सकते हैं लेकिन यह भी आश्चर्य का विषय है कि प्राण-प्रतिष्ठा का अनुष्ठान पत्थर की प्रतिमाओं को जागृत करने के लिए ही किया जाता है। दरअसल इस प्रक्रिया से पत्थरों में प्राण नहीं आते हैं लेकिन उसके जागृत होने, सिद्ध होने का अनुभव किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में कई विद्वानों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा किए जाने वाले स्थान पर वैदिक मंत्रों और ध्वनियों का नाद किया जाता है। प्रतिमा का कई तरह से अभिषेक कर उसके दोषों का शमन किया जाता है।
यह वास्तु आधारित होता है। इससे प्रतिमा के आसपास और जिस स्थान पर उसकी स्थापना की जा रही है, मंत्रों और शंख-घंटियों की ध्वनि से वातावरण का दूषित रूप खत्म हो जाता है और वहां सकारात्मक ऊर्जा का संचार शुरू हो जाता है। जिससे उस जगह के पवित्र होने का एहसास बढ़ता है। इसे हम अनुभव भी कर सकते हैं। मंदिर में जिस शांति का अनुभव होता है वह वैदिक मंत्रों और शंख आदि की ध्वनि से ही उत्पन्न होती है। इसे ही प्राण प्रतिष्ठा कहते हैं। इसके बाद यह मान लिया जाता है कि प्रतिमा में खुद देवता स्थापित हो गए हैं, इससे हमारे मन में उसके प्रति श्रद्धा और आस्था का भाव जागता है। जिसमें यह वातावरण सहायक होता है।
अंक-786 इस्लाम में खास क्यों ?
सैकड़ों या उससे भी ज्यादा धर्म हैं पृथ्वी पर। हर धर्म की कुछ विशिष्टताएं या खासियतें होती है। हिन्दुओं में ऊँ, स्वास्तिक और कार्य के प्रारंभ में श्री गणेशाय नम: का विशेष महत्व माना जाता है। सिक्खों मे अरदास, गुरुवाणी, सत श्रीअकाल और पगड़ी का खास महत्व होता है। वहीं ईसाई धर्म के मानने वालों का जीजस का्रइस्ट, क्रास का चिन्ह, माता मरियम और बाइबिल आदि के प्रति बड़ा आत्मीय सम्मान होता है।
जिस तरह किसी भी नए या शुभ कार्य की शुरुआत करने से पूर्व हिन्दुओं में गणेश को पूजा जाता है, क्योंकि गणेश को विघ्नहर्ता और सद्बुद्धि का देवता माना जाता है। उसी प्रकार इस्लाम धर्म में अंक-786 को सुभ अंक या शुभ प्रतीक माना जाता है। अरब से जन्में इस्लाल धर्म में अंक-786 का बड़ा ही धार्मिक महत्व माना गया है। प्राचीन काल में अंक ज्योतिष और नक्षत्र ज्योतिष दोनों एक भविष्य विज्ञान के ही अंग थे। प्राचीन समय में अंक ज्योतिष के क्षेत्र में अरब देशों में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई थी। अरब देशों में ही इस्लाम का जन्म और प्रारंभिक संस्कारीकरण हुआ है। अंक-786 को अरबी ज्योतिष में बड़ा ही शुभकारक अंक माना गया है।
अंक ज्योतिष के अनुसार जब ७+८+६ का योग २१ आता है, तथा २+१ का योग करने पर ३ का आंकड़ा मिलता है, जो कि लगभग सभी धर्मों में अत्यंत शुभ एवं पवित्र अंक माना जाता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की संख्या तीन, अल्लाह, पैगम्बर और नुमाइंदे की संख्या भी तीन तथा सारी सृष्टि के मूल में समाए प्रमुख गुण- सत् रज व तम भी तीन ही हैं।
मासिक धर्म में धार्मिक कार्य वर्जित क्यों?
परमात्मा द्वारा स्त्री और पुरुषों में कई भिन्नताएं रखी गई हैं। इन भिन्नताओं के कारण स्त्री और पुरुषों में कई शारीरिक और स्वास्थ्य संबंधी अनेक विषमताएं रहती हैं। इन्हीं विषमताओं में से एक हैं स्त्रियों में मासिक धर्म। वैदिक धर्म के अनुसार मासिकधर्म के दिनों में महिलाओं के लिए सभी धार्मिक कार्य वर्जित किए गए हैं। साथ ही इस दौरान महिलाओं को अन्य लोगों से अलग रहने का नियम भी बनाया गया है। ऐसे में स्त्रियों को धार्मिक कार्यों से दूर रहना होता है क्योंकि सनातन धर्म के अनुसार इन दिनों स्त्रियों को अपवित्र माना गया है।
यह व्यवस्था प्राचीन काल से ही चली आ रही है। पुराने समय में ऐसे दिनों में महिलाओं को कोप भवन में रहना होता था। उस दौरान वे महिलाएं कहीं बाहर आना-जाना नहीं करती थीं। इस अवस्था में उन्हें एक वस्त्र पहनना होता था और वे अपना खाना आदि कार्य स्वयं ही करती थीं।मासिक धर्म के दिनों के लिए ऐसी व्यवस्था करने के पीछे स्वास्थ्य संबंधी कारण हैं।
आज का विज्ञान भी इस बात को मानता है कि उन दिनों में स्त्रियों के शरीर से रक्त के साथ शरीर की गंदगी निकलती है जिससे महिलाओं के आसपास का वातावरण अन्य लोगों के स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हो जाता है, संक्रमण फैलने का डर रहता है। साथ ही उनके शरीर से विशेष प्रकार की तरंगे निकलती हैं, वह भी अन्य लोगों के लिए हानिकारक होती है। बस अन्य लोगों को इन्हीं बुरे प्रभावों से बचाने के लिए महिलाओं को अलग रखने की प्रथा शुरू की गई।माहवारी के दिनों में महिलाओं में अत्यधिक कमजोरी भी आ जाती है तो इन दिनों अन्य कार्यों से उन्हें दूर रखने के पीछे यही कारण है कि उन्हें पर्याप्त आराम मिल सके। इन दिनों महिलाओं को बाहर घुमना भी नहीं चाहिए क्योंकि ऐसी अवस्था में उन्हें बुरी नजर और अन्य बुरे प्रभाव जल्द ही प्रभावित कर लेते हैं।
देवी मां के मंदिर पहाड़ों पर ही क्यों?
ऊंचे पहाड़ों पर बसी मां वैष्णौदेवी, हिमाचल के ऊंचे पहाड़ों पर माता ज्वाला देवी, माता मैहरवाली मां शारदा, पावागड़ वाली माता....,ऐसे कितने ही प्रसिद्ध मंदिर हैं जो ऊंचे पहाड़ों पर बने हैं।भारत ही नहीं विश्वभर में जितने भी देवी मां के मंदिर हैं, अधिकांस किसी न किसी ऊंचे और प्रसिद्ध पहाड़ पर ही स्थापित हैं। ध्यान न दिया जाए तो यह एक सामान्य बात है किन्तु हर सामान्य में कुछ खास अवश्य होता है। मिट्टी या पत्थर के पहाड़ों में ऐसा क्या है, जो समतल भूमि पर नहीं? जब इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिये गहराई और बारीकी से शोध किया गया तो कई रौचक और महत्वपूर्ण जानकारी सामने आती है।
तो आइये जाने देवी मां के पहाड़ों पर बसने के खास कारणों के बारे में- एकांत साधना: यह बात सभी जानते हैं कि पहाड़ों पर एकांत होता है। सारी धरती पर इंसान ज्यादातर समतल भूमि पर ही बसे होते हैं। असुविधा की दृष्टि से लोगों ने घर बनाने के लिये पहाड़ी इलाकों की बजाय मेदानी क्षेत्रों को ही प्राथमिकता से चुना है। एकांत की खासियत ने ही देवी मंदिरों के लिये पहाड़ों को महत्व प्रदान किया है। कार्य चाहे सांसारिक हो या आध्यात्मिक उसकी सफलता का दारोमदार करने वाले की एकाग्रता पर ही निर्भर होता है। इस एकाग्रता की उपलब्धता पहाड़ों पर आसानी से होती है। मौन, ध्यान एवं जप आदि कार्यों के लिये एकांत की अनिवार्य आवश्यकता होती है।
प्राकृतिक सौन्दर्य: पहाड़ी क्षेत्रों पर इंसानों का आना-जाना कम ही रहता है, जिससे वहां का प्राकृतिक सौन्दर्य अपने असली रुप में जीवित रह पाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि सौन्दर्य इंसान को स्फूर्ति और ताजगी प्रदान करता है। प्राकृतिक सौन्दर्य तो कृतिम सौन्दर्य से भी ज्यादा लाभदायक होता है।
ऊंचाई का प्रभाव: वैज्ञानिक विश्लेषणों में पाया गया है कि निचले स्थानों की बजाय अधिक ऊंचाई पर मानवी स्वास्थ्य अधिक उत्तम रहता है। कुछ दिनों तक लगातार ऊंचे स्थानों पर कई रोगों को नष्ट होते हुए देखा गया है। पहाड़ी स्थानों पर इंसान की धार्मिक और आध्यात्मिक भावनाओं का तीव्र विकास होते हुए देखा गया है।
धार्मिक कर्म में मौलि क्यों बांधते हैं?
हिंदू धर्म में कई रीति-रिवाज तथा मान्यताएं हैं। इन रीति-रिवाजों तथा मान्यताओं का सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक पक्ष भी है, जो वर्तमान समय में भी एकदम सटीक बैठता है।हिंदू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म यानि पूजा-पाठ, यज्ञ, हवन आदि के पूर्व ब्राह्मण द्वारा यजमान के दाएं हाथ में मौली(एक विशेष धार्मिक धागा) बांधी जाती है।शास्त्रों का ऐसा मत है कि मौलि बांधने से त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु व महेश तथा तीनों देवियों- लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ब्रह्मा की कृपा से कीर्ति, विष्णु की अनुकंपा से रक्षा बल मिलता है तथा शिव दुर्गुणों का विनाश करते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी से धन, दुर्गा से शक्ति एवं सरस्वती की कृपा से बुद्धि प्राप्त होती है।
शरीर विज्ञान की दृष्टि से अगर देखा जाए तो मौलि बांधना उत्तम स्वास्थ्य भी प्रदान करती है। चूंकि मौलि बांधने से त्रिदोष- वात, पित्त तथा कफ का शरीर में सामंजस्य बना रहता है। मौलि का शाब्दिक अर्थ है सबसे ऊपर, जिसका तात्पर्य सिर से भी है।
शंकर भगवान के सिर पर चंद्रमा विराजमान है इसीलिए उन्हें चंद्रमौलि भी कहा जाता है। मौलि बांधने की प्रथा तब से चली आ रही है जब दानवीर राजा बलि की अमरता के लिए वामन भगवान ने उनकी कलाई पर रक्षा सूत्र बांधा था। शास्त्रों में भी इसका इस श्लोक के माध्यम से मिलता है -
येन बद्धो बलीराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे माचल माचल।।
मुस्लिम लड़कियों का मॉडलिंग करना वर्जित क्यों?
इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो अपने धार्मिक नियम-कायदों का कड़ाई से पालन करने में विश्वास रखता है। इस्लाम धर्म के अनुयाई यानि कि इस्लाम को मानने वाले शरई या शरियत के नियम कायदों को अटल एवं अंतिम मानते हैं। शरियत एक ऐसा कायदानामा है जिसमें प्रत्येक मुस्लिम मर्द और औरत के लिए अनियार्य नियम- कानून होते हैं।शरियत में इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी प्रमुख घटनाओं में जो नियम पालने होते हैं, उनका विस्तार से वर्णन किया गया है।
इस्लाम धर्म की प्रमुख संस्थाएं दारूल उलूम देवबंद , आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और वक्फ दारूल उलूम...आदि सभी ने कुछ कार्यों को मुस्लिम पुरुषों और स्त्रियों के लिये हराम बताया है। गैर मर्दों के साथ आफिसों में काम करना, बुर्का छोड़कर मार्डन कपड़े पहनना तथा लड़कियों का माड़लिंग करना ऐसे ही कुछ वर्जित कार्य हैं।
स्लामी शिक्षण संस्था दारुल उलूम देवबंद ने एक फ तवा जारी कर कहा है कि मुस्लिम लड़कियों का मॉडलिंग करना हराम है क्योंकि यह इस्लामिक शरई कानूनों के खिलाफ है। इनके अनुसार इस्लामी कानून में ऐसा करना हराम है।इसमें उन्होंने कहा कि महिलाओं के मॉडलिंग करने तथा उस दौरान भौंड़ेपन और बदन का प्रदर्शन करने वाले लिबास पहनना शरियत कानून के खिलाफ है। इस्लामी कानून में ऐसा करना हराम है।
क्यों करते हैं मंत्रोच्चार?
हिंदू धर्म में मंत्रों को महिमा बताई गई है। निश्चित क्रम में संगृहीत विशेष वर्ण जिनका विशेष प्रकार से उच्चारण करने पर एक निश्चित अर्थ निकलता है, मंत्र कहलाते हैं। शास्त्रकार कहते हैं-मननात् त्रायते इति मंत्र:। अर्थात मनन करने पर जो त्राण दे, या रक्षा करे वही मंत्र है।
मंत्र एक ऐसा साधन है, जो मनुष्य की सोई हुई सुषुप्त शक्तियों को सक्रिय कर देता है। मंत्रों में अनेक प्रकार की शक्तियां निहित होती है, जिसके प्रभाव से देवी-देवताओं की शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। रामचरित मानस में मंत्र जप को भक्ति का पांचवा प्रकार माना गया है। मंत्र जप से उत्पन्न शब्द शक्ति संकल्प बल तथा श्रद्धा बल से और अधिक शक्तिशाली होकर अंतरिक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना के संपर्क में आती है जिसके फलस्वरूप मंत्र का चमत्कारिक प्रभाव साधक को सिद्धियों के रूप में मिलता है।
शाप और वरदान इसी मंत्र शक्ति और शब्द शक्ति के मिश्रित परिणाम हैं। साधक का मंत्र उच्चारण जितना अधिक स्पष्ट होगा, मंत्र बल उतना ही प्रचंड होता जाएगा।वैज्ञानिकों का भी मानना है कि ध्वनि तरंगें ऊर्जा का ही एक रूप है। मंत्र में निहित बीजाक्षरों में उच्चारित ध्वनियों से शक्तिशाली विद्युत तरंगें उत्पन्न होती है जो चमत्कारी प्रभाव डालती हैं।
शादी, पत्नी-बच्चे अपार दौलत फिर भी योगी?
जिन परमयोगी जनक की बात हम कर रहे हैं वे सार्वकालिक भारतीय हीरो श्री राम की पत्नी देवी सीता के पिता थे। मिथिला प्रदेश के राजा जनक एक ऐतिहासिक राजा हैं। जनक का ही एक दूसरा नाम विदेह भी है। विदेह का अर्थ है जो शरीर के होते हुए भी शरीर से प्रथक हो। राजा जनक की महानता इस बात में है कि वे गृहस्थ होकर भी परम योगी माने जाते हैं। विशाल देश के राजा, अक्षय धन संपत्ति, एकाधिक पत्नियां, पुत्र-पुत्रियां होने के बावजूद किसी का परम योगी माना जाना आश्चर्यजनक लगता है।
योगी कौन?- योगी के विषय में आम धारणा यही है कि, योगी आजीवन ब्रह्मचारी रहने वाला कोई सन्यासी ही हो सकता है। लोग सोचते हैं कि जो घर परिवार छोड़कर पहाड़ों पर, जंगलों में या गुफाओं में एकांतवास करते हैं वे ही योगी हैं। किन्तु ऐसा सोचना अधूरे ज्ञान की पहचान है। योग का असली अर्थ है, उस परम चेतना परमात्मा से जुडऩा। यह जोड़ चेतना या आत्मा के स्तर पर होता है। कोई साधक तभी योगी बन पाता है जब वह भीतर से इस क्षणिक संसार का त्याग कर देता है। बाहरी रूप में भले ही वह जगत में रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहे।
बाहर नहीं भीतर से- योगी को संसार त्यागना होता है, जगत नहीं। संसार और जगत में बड़ा सूक्ष्म किन्तु महत्वपूर्ण अंतर होता है। जगत वो है जिसमे रहकर इंसान अनासक्त रूप से अपने कर्तव्यों का पालन करता है। जबकि संसार वह है जिसमें इंसान मैं और मेरे की भावना से बंघ कर कार्य करता है। इसीलिये निस्वार्थ रूप से अनासक्त होकर जीवन के सभी कर्तव्यों का पालन करने वाले राजा जनक परम योगी बन सके।
रतिक्रिया: रात्रि का प्रथम प्रहर ही श्रेष्ठ क्यों?
सनातन धर्म में रतिक्रिया के संबंध में भी कई आवश्यक निर्देश दिए हैं। विवाह उपरांत रतिक्रिया को महत्वपूर्ण माना गया है। रतिक्रिया के माध्यम से ही संतान की उत्पत्ति होती है। आपकी संतान कैसी होगी? यह रतिक्रिया का समय निर्धारित करता है। इस संबंध में धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि रात्रि का प्रथम प्रहर रतिक्रिया के लिए सर्वश्रेष्ठ है। ऐसा माना जाता है कि रात्रि के प्रथम पहर में कि गई रतिक्रिया से उत्पन्न होने वाली संतान को शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है और वह संतान पूर्णत: धार्मिक, माता-पिता की आज्ञा का पालन करने वाली, भाग्यवान, दीर्घायु होती है।
मान्यता है कि प्रथम प्रहर के पश्चात राक्षस गण पृथ्वी भ्रमण पर निकलते हैं और उस दौरान की गई रतिक्रिया से उत्पन्न होने वाली संतान राक्षसों के समान ही गुण वाली होती है। वे संतान अति कामी, बुरे गुणों वाली, माता-पिता का अनादर करने वाली, भाग्यहीन और बुरे व्यसनों में फंसने वाली होती हैं।
रात्रि का प्रथम प्रहर रात 12 बजे तक माना जाता है। वैदिक धर्म के अनुसार इसी समय को रतिक्रिया के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसके अतिरिक्त किसी अन्य समय में रतिक्रिया करने वाले युगल कई प्रकार के शारीरिक, मानसिक और आर्थिक दुख भोगते हैं। रात्रि 12 बजे के बाद रतिक्रिया करने से कई प्रकार की बीमारियां घेर लेती हैं। जैसे अनिंद्रा, मानसिक तनाव, थकान अन्य शारीरिक बीमारियां आदि। साथ ही उन्हें देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त नहीं होती।
तीर्थ यात्रा क्या और क्यों ?
इंसानी जिंदगी को चार प्रमुख हिस्सों में बांटा गया है। इन्हीं चार भागों में इंसान की पूरी जिंदगी सिमटी हुई है। धर्म की जुबान में कहें तो इन चार हिस्सों को पुरुषार्थ कहा गया है। प्राचीन ऋषि-मुनि लिबास से भले ही साधु -संत थे किन्तु सोच और कार्यशैली से पूरी तरह से वैज्ञानिक थे। इंसानी मनोविज्ञान के कुशल मर्मज्ञ यानि कि जानकार होते थे ये ऋषि-मुनि। इन्हीं मानस मर्मज्ञों ने धर्म का वैज्ञानिक विधि-विधान निर्मित किया है। धर्म में उन कार्यों या क्रियाओं को शामिल किया गया है, जो इंसान को उसके वास्तविक लक्ष्य तक पहुंचा सकते हैं।
दुनिया के किसी भी धर्म की अंतिम मान्यता यही है कि आत्मज्ञान या पूर्णता की प्राप्ति ही इंसानी जिंदगी का एकमात्र अंतिम ध्यैय यानि कि मकसद है। पूर्णता की प्राप्ति के लिये धर्म तथा धर्म की सफलता के लिये कुछ कायदे-कानून होते हैं। इन्हीं नियमों में तीर्थ यात्रा भी एक है। तीर्थ यात्रा की परम्परा जितनी महान और वैज्ञानिक थी, उसका वह असली स्वरूप आज कहीं खो सा गया है। तीर्थयात्रा के लक्ष्य, उद्देश्य और परिणाम क्या थे?
ज्ञान का विस्तार: एक सीमित दायरे में रहने वाले इंसान को कूप मंडूक यानि कि कूए का मेढ़क कहकर नवाजा जाता है। इंसान जब तक दायरे से बाहर निकलकर बाहर की दुनिया से रूबरू नहीं होता, उसकी सोच, समझ और मानसिक क्षमता विकसित नहीं हो सकती। अत: तीर्थ यात्रा का महत्वपूर्ण मकसद अपने ज्ञान को व्यापक बनाना है।
कुछ वक्त ओरों के लिये: तीर्थयात्रा का मकसद मात्र धार्मिक कर्मकांड और मनोरंजन ही नहीं है। अपने प्रारंभिक काल में तीर्थयात्रा का प्रमुख मकसद समाज की उन्नती या भलाई करना भी होता था। यात्रा के मार्ग में आने वाले गावों में तीर्थयात्री संध्या के समय कई ज्ञानवर्धक और रौचक कार्यक्र मों का आयोजन करते थे। इससे लोगों को धर्म, विज्ञान और संस्कृति को जानने का मौका मिलता था।
स्वास्थ्य है सर्वोपरि: उत्तम यानि कि अच्छा स्वास्थ्य जिंदगी की पहली जरूरत होती है। अच्छे स्वास्थ्य के दम पर ही कोई इंसान कुछ नया और महान कार्य कर सकता है। तीर्थ के लिये चुने गए अधिकांश स्थान ऐसी जगहों पर हैं जो स्वास्थ्य के लिहाज से बेहद फायदेमंद होते हैं। अत: तीर्थयात्रा के दौरान धार्मिक उद्देश्य की प्राप्ति के साथ ही अच्छे स्वास्थ्य का अतिरिक्त लाभ होता है।
मंदिर में घंटी क्यों लगाते हैं?
हिंदू धर्म में देवालयों व मंदिरों के बाहर घंटियां या घडिय़ाल पुरातन काल से लगाए जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि जिस मंदिर से घंटी या घडिय़ाल बजने की आवाज नियमित आती है, उसे जाग्रत देव मंदिर कहते हैं। उल्लेखनीय है कि सुबह-शाम मंदिरों में जब पूजा-आरती की जाती है तो छोटी घंटियों, घंटों के अलाव घडिय़ाल भी बजाए जाते हैं। इन्हें विशेष ताल और गति से बजाया जाता है।ऐसा माना जाता है कि घंटी बजाने से मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति के देवता भी चैतन्य हो जाते हैं, जिससे उनकी पूजा प्रभावशाली तथा शीघ्र फल देने वाली होती है। स्कंद पुराण के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से मानव के सौ जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद(आवाज) था, घंटी या घडिय़ाल की ध्वनि से वही नाद निकलता है। यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जाग्रत होता है।
घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है। धर्म शास्त्रियों के अनुसार जब प्रलय काल आएगा तब भी इसी प्रकार का नाद प्रकट होगा। मंदिरों में घंटी या घडिय़ाल लगाने का वैज्ञानिक कारण भी है। जब घंटी बजाई जाती है तो उससे वातावरण में कंपन उत्पन्न होता है जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है। इस कंपन की सीमा में आने वाले जीवाणु, विषाणु आदि सुक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं तथा मंदिर का तथा उसके आस-पास का वातावरण शुद्ध बना रहता है।
इस्लाम में आतंकवाद वर्जित क्यों?
आंतकवाद यानि ऐसा वाद जिसे दिल और दिमाग से नहीं बल्कि बम और बंदूकों के दम पर फेलाया जाता है। धर्म कोई भी क्यों न हो वह आतंकवाद यानि कि दहशतगर्दी को इजाजत नहीं देता। किसी धर्म विशेष से आतंकवाद जैसे घिनोने कार्य को जोडऩा उचित नहीं है। इस्लाम धर्म की प्रमुख संस्थाएं दारूल उलूम देवबंद, आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और वक्फ दारूल उलूम...आदि सभी ने उत्तर प्रदेश के देवबंद शहर में आयोजित देश के सर्वोच्च इस्लामिक सम्मेलन में 'आतंकवाद' की सभी कार्रवाइयों को गैर धार्मिक होने के साथ ही ग़ैर इस्लामी भी कहा गया है।
ऐलाने इस्लाम: इस सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण घोषणापत्र भी पारित किया गया। दारुल-उलूम के आतंकवाद विरोधी सम्मेलन में भी सभी तरह की हिंसा और आतंकवाद की आलोचना करते हुए सर्वसम्मति से एक घोषणापत्र पारित किया गया। इस सम्मेलन में अनेक मुस्लिम विद्वानों, धार्मिक नेताओं और मौलवियों ने हिस्सा लिया। घोषणापत्र में कहा गया है-
'इस्लाम ऐसा धर्म है, जिसमें सभी के प्रति दया-दृष्टि रखी जाती है। इस्लाम सभी तरह की हिंसा, आतंकवाद और अत्याचार की कड़ी आलोचना करता है। इस्लाम में अत्याचार, धोखा, दंगा और हत्या को सबसे बड़ा पाप माना गया है।'
असली इस्लाम: घोषणापत्र को पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि इस्लाम भी हर तरह के हिंसात्मक कार्यों और दहशतगर्दी को पूरी तरह से इंकार करता है। घोषणापत्र में मुस्लिम विद्वानों से अपील की गई है कि वे इस्लाम को बदनाम करने वाले किसी भी कार्य का हिस्सा न बने और राष्ट्र विरोधी शक्तियों के प्रभाव में न आए। ख्यात मुस्लिम विद्वानों ने कहा कि इस्लाम प्यार और शांति का धर्म है और इसकी शिक्षाओं में आतंकवाद की कोई जगह नहीं है। क़ुरान की आयतों का हवाला देते हुए मुस्लिम विद्वानों ने कहा कि इस्लाम सभी लोगों के बीच समानता और करुणा की शिक्षा देता है।
स्नान के बाद ही भोजन क्यों ?
हमारे शास्त्रों में बिना स्नान किए भोजन करना वर्जित बताया गया है। शास्त्रों में लिखा है- अस्नायी समलं भुक्ते। अर्थात स्नान किए बिना भोजन करना मल खाने के समान है। हालांकि वर्तमान समय में इन बातों पर गौर नहीं किया जाता लेकिन इस तथ्य के पीछे न सिर्फ धार्मिक बल्कि वैज्ञानिक कारण भी हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार स्नान से शरीर के प्रत्येक भाग को नया जीवन प्राप्त होता है।
शरीर में पिछले दिन का एकत्र सभी प्रकार का मैल स्नान व मंजन से साफ हो जाता है तथा शरीर में एक नई ताजगी व स्फूर्ति आ जाती है, जिससे स्वाभाविक रूप से भूख लगती है। उस समय किए गए भोजन का रस हमारे शरीर के लिए पुष्टिवर्धक होता है।
जबकि स्नान के पूर्व कुछ भी खाने से हमारी जठराग्नि उसे पचाने में लग जाती है। स्नान करने पर शरीर शीतल हो जाता है जिससे पेट की पाचन शक्ति मंद हो जाती है। इसके कारण हमारा आंत्रशोध कमजोर होता है, कब्ज की शिकायत रहती है तथा अन्य कई प्रकार के रोग हो जाते हैं। इसलिए स्नान से पूर्व भोजन करना वर्जित माना गया है।
आवश्यक हो तो गन्ने का रस, पानी, दूध, फल व औषधि स्नान से पूर्व ली जा सकती है क्योंकि इनमें जल की मात्रा अधिक होती है जिससे यह जल्दी पच जाते हैं।
दिन में सोना क्यों वर्जित?
हमारे धर्म शास्त्रों में दिन में सोना वर्जित माना गया है। शास्त्रों में लिखा है- दिवास्वापं च वर्जयेत्।अर्थात दिन में सोना उचित नहीं है।देखने में आता है कि अधिकांश घरेलू महिलाएं तथा दो पारियों में काम करने वाले पुरूष दिन में सोते हैं। दिन में सोना सिर्फ शास्त्रों में ही वर्जित नहीं माना गया अपितु आयुर्वेद भी इस बात की पुष्टि करता है कि दिन में सोने से कई प्रकार के रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
आयुर्वेद के अनुसार दिन में सोने से प्रतिश्याय जुकाम हो जाता है। यह जुकाम जब स्थायी हो जाता है तो कास रोग हो जाता है। कास रोग ही आगे जाकर श्वास रोग में बदल जाता है। श्वास रोगी के फेफड़े धीरे-धीरे खराब हो जाते हैं और यह स्थिति क्षय अर्थात तपेदिक जैसे असाध्य रोग में बदल जाती है।वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी रात में पूरी नींद लेकर दिन में कार्य करना ही उत्तम माना गया है।
रात की नींद से शरीर को पर्याप्त आराम मिलता है। जिससे सुबह उठकर शरीर में नवीन ऊर्जा का संचार होता है जो दिनभर के कार्यों के लिए पर्याप्त होती है। दिन में सोकर हम अनावश्यक रूप से शरीर को आलस्य का घर बनाते हैं। अत: रात में भरपूर गहरी नींद लेकर दिन में कार्य करना ही उचित माना गया है।
क्यों मानते हैं अतिथि को भगवान ?
क्या कारण है कि गृहस्थ जीवन को सन्यास से भी अधिक श्रेष्ठ व कठिन माना गया है? एक गृहस्थ व्यक्ति की जिंदगी में अनायास ही सारी तप साधना शामिल है। इसीलिये तो गृहस्थ इंसान बगैर घर-परिवार छोड़े ही जीवन के असली मकसद यानि कि पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। जिंदगी के जिस मकसद को पाने की खातिर कोई साधक घर-परिवार ही नहीं पूरा संसार ही छोड़कर सन्यासी बन जाता है। आखिर इतनी अनमोल उपलब्धि दुनियादारी में डूबा हुआ सामान्य व्यक्ति कैसे प्राप्त कर लेता है?
सारा रहस्य गृहस्थ इंसान के कर्तव्यों में छुपा है। इंसानी जिंदगी को जिन चार अनिवार्य और अति महत्वपूर्ण भागों में बांटा गया है, उनमें से दूसरा है- गृहस्थ आश्रम। गृहस्थ में रहकर कुछ कर्तव्यों को करना अनिवार्य बताया गया है। किसी विवाहित या परिवार वाले गृहस्थ इंसान के लिये जिन कार्यों करना निहायत ही जरूरी है वे इस प्रकार हैं-
जीव ऋण: यानि घर आए अतिथि, याचक तथा पशु-पक्षियों का उचित सेवा- सत्कार करना ।
देव ऋण: यानि यज्ञ आदि कार्यों द्वारा देवताओं को प्रशन्न एवं पुष्ट करना।
शास्त्र ऋण: जिन शास्त्रों या ग्रंथों से हमने ज्ञान-विज्ञान सीखकर जीवन को श्रेष्ठ बनाया है, उनका सम्मान, हिफाजत एवं प्रचार प्रसार करना।
पितृ ऋण: यानि कि अपने पूर्वजों और पित्रों की सुख-शांति के लिये शास्त्रोक्त तरीके से श्राद्ध-कर्म का करना।
ग्राम ऋण: यानि कि जिस गांव समाज और देश में पल-बढ़कर हम बड़े हुए हैं, उसकी भलाई की खातिर अपनी क्षमता के अनुसार प्रयास करना।
ऊपर दी गई जानकारी से स्पष्ट हे कि अतिथि को भगवान मानकर सेवा करना इंसान को उस ऋण से छुटकारा दिलाता है जिससे मुक्ति पाकर ही गृहस्थ जीवन सफल हो सकता है।
गंगा स्नान इतना खास क्यों?
नहाना स्वास्थ्य के लिये फायदेमंद है, यह स्वीकारने में सायद ही किसी को आपत्ति हो। किन्तु कहीं का पानी बाकी सब जगहों से बहुत ज्यादा ही फायदेमंद होता है, यह स्वीकारने में आज के इंसान को असुविधा अवश्य होती है। ऐसी क्या खासियत है कि कोई नदी अपनी विशेषताओं के कारण देवी-देवताओं की तरह से पूजी जाने लगे।
हम यह भूल जाएं कि हिन्दू धर्म क्या कहता है और धार्मिक ग्रंथों में क्या लिखा है, तो ही बेहतर होगा। क्योंकि धर्म का नाम सुनते ही आधुनिक इंसान कतराने लगता है। आधुनिक विज्ञान पढ़ा लिखा मानव वही बात स्वीकार करता जो उसकी बुद्धि और तर्क की कसौटी पर खरी उतरे। तो आइये जाने उन खासियतों को जो दिव्य गंगा नदी को अन्य नदियों से अधिक महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट बनाती हैं:-
- गंगा ही एक मात्र ऐसी नदी है जिसका पानी हिमालय की दुर्लभ औषधीय वनस्पतियों के गुणों से संपन्न हैं।
- वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि बर्फ के जिनग्लेशियर के पिघलने से गंगा नदी बनती है, वे दुनिया के सर्वाधिक शुद्ध जल के स्रोत हैं।
- गंगा नदी ही दुनिया की एकमात्र ऐसी नदी है, जिसका पानी कई साल तक बगैर संक्रमित हुए सुरक्षित रह सकता है।
- गंगा ही एकमात्र ऐसी नदी है, जिसके पानी में बीमारी फैलाने वाले हानिकारक जीवाणुओं, वायरस और जहरीले केमीकल्स को नष्ट करने की क्षमता है।
- गंगा नदी ही एकमात्र ऐसी नदी है जो हिमालय के दिव्य आध्यात्मिक गुणों से सम्पन्न है।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में ऐसे और भी अनेक कारण हैं, जो गंगा नदी को माता के समान पूज्यनीय बनाते हैं। इसका पानी अनेक रोगों से छुटाकारा दिलाने के साथ-साथ बेहतर स्वास्थ्य भी प्रदान करता है।
गलती से भी बाल-नाखून न काटें, क्यों व किस दिन ?
परंपराएं, नियम-कायदे और अनुशासन आखिर क्या और क्यों हैं। आज के इस वैज्ञानिक युग में इन बातों का कोई महत्व या औचित्य है भी या नहीं, कहीं ये बातें अंध विश्वास ही तो नहीं हैं? दूसरे पहलू से सोचें तो क्या इन परंपराओं का इंसानी जिंदगी में कोई महत्वपूर्ण योगदान है? जब गहराई और बारीकी से अध्ययन और विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि, अधिकांस परंपराओं और रीति-रिवाजों के पीछे एक सुनिश्वित वैज्ञानिक कारण होता है। किसी बात को पूरा का पूरा समाज यूं ही नहीं मानने लग जाता। अनुभव, उदाहरण, आंकड़े और परिणामों के आधार पर ही कोई नियम या परंपरा परे समाज में स्थान और मान्यता प्राप्त करते हैं।
प्रात:जल्दी उठना, सूर्य व तुलसी को जल चढ़ाना, माता-पिता व गुरुजनों के चरण स्पर्श करना या तिलक लगाना , शिखा-जनेऊ धारण करना आदि अनेक परंपराओं का बड़ा ही पुख्ता वैज्ञानिक आधार होता है।
बेहद महत्वपूर्ण और अनिवार्य परंपराओं व नियमों में बाल और नाखून काटने के विषय में भी स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं। आज भी हम घर के बड़े और बुजुर्गों को यह कहते हुए सुनते हैं कि, शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन बाल और नाखून भूल कर भी नहीं काटना चाहिये। पर आखिर ऐसा क्यों?
जब हम अंतरिक्ष विज्ञान और ज्योतिष की प्राचीन और प्रामाणिक पुस्तकों का अध्ययन करते तो इन प्रश्रों का बड़ा ही स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान प्राप्त होता है। वह यह कि शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन ग्रह-नक्षत्रों की दशाएं तथा अंनत ब्रह्माण्ड में से आने वाली अनेकानेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म किरणें मानवीय मस्तिष्क पर अत्यंत संवेदनशील प्रभाव डालती हैं। यह स्पष्ट है कि इंसानी शरीर में उंगलियों के अग्र भाग तथा सिर अत्यंत संवेदनशील होते हैं। कठोर नाखूनों और बालों से इनकी सुरक्षा होती है। इसीलिये ऐसे प्रतिकूल समय में इनका काटना शास्त्रों में वर्जित, निंदनीय और अधार्मिक कार्य माना गया है।
ऊँ खास क्यों? जाने विज्ञान की प्रयोगशाला में...
धर्म की जड़ें बहुत गहरी और मजबूत होती हैं। तभी तो मानव इतिहास के हजारों वर्ष बीत जाने के बावजूद धर्म की इमारत आज भी उसी बुलंदी के साथ तन कर खड़ी है। कुछ विद्वानों और विचारकों को डर था कि वैज्ञानिक प्रगति और आधुनिकता के साथ-साथ धर्म का प्रभाव और पहुंच घटने लगेगी, किन्त ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। भले ही इंसान चांद-तारों पर पहुंच गया हो पर अपनी जड़ों से कटकर ऊंचा उठना उसके लिये कभी भी संभव नहीं हो पाएगा।
' ऊँ' शब्द तीन अक्षरों अ, उ और म से मिलकर बना है। पर इसमें ऐसा क्या खास है कि इसे हिन्दुओं ने अपना पवित्र धार्मिक प्रतीक मान लिया है। ईसाइयों में क्रास का चिह्न तथा मुस्लिमों में 786 की तरह ही हिन्दुओं में स्वास्तिक और ऊँ का विशेष महत्व माना जाता है। असंख्य शब्दों और चिह्नों में से ऊँ और स्वास्तिक को ही क्यों चुना गया। आइये ऊँ की खासियत जाने विज्ञान की प्रयोगशाला में चलकर...
चिकित्साशास्त्री, शरीर विज्ञानी, ध्वनि विज्ञानी और अन्य भौतिक विज्ञानी ओम को लेकर आज बड़े आश्चर्यचकित हैं। इंसानी जिंदगी पर किसी शब्द का इतना अधिक प्रभाव सभी के आश्चर्य का विषय है। एक तरफ ध्वनिप्रदूषण बड़ी भारी समस्या बन चुका है, वहीं दूसरी तरफ एक ऐसी ध्वनि है जो हर तरह के प्रदूषण को दूर करती है। वो ध्वनि है ओम के उच्चारण से उत्पन्न ध्वनि। जरा देखें ओम के उच्चारण से क्या घटित और परिवर्तित होता है:-
- ओम की ध्वनि मानव शरीर के लिये प्रतिकूल डेसीबल की सभी ध्वनियों को वातावरण से निष्प्रभावी बना देती है।
- विभिन्न ग्रहों से आनेवाली अत्यंत घातक अल्ट्रावायलेट किरणें ओम उच्चारित वातारण में निष्प्रभावी हो जाती हैं।
- ओम का उच्चारण करने वाले के शरीर का विद्युत प्रवाह आदर्श स्तर पर पहुंच जाता है।
- इसके उच्चारण से इंसान को वाक्सिद्धि प्राप्त होती है।
- अनिद्रा के साथ ही सभी मानसिक रोगों का स्थाई निवारण हो जाता है।
- चित्त एवं मन शांत एवं नियंत्रित हो जाते हैं।
ब्राह्मणों को क्यों कहते हैं द्विज?
ब्राह्मणों का एक नाम द्विज भी है। पुरातन काल में इन्हें द्विज कहकर भी संबोधित किया जाता था। द्विज का अर्थ है दो बार जन्म लेने वाला। सवाल यह है कि क्या वाकई ब्राह्मणों का दो बार जन्म होता है या यह केवल एक परंपरा है।
दरअसल ब्राह्मण परिवार में बालक जब जन्म लेता है तो वह केवल जन्म से ही ब्राह्मण होता है। उसके कर्म सामान्य इंसानों जैसे ही होते हैं। यह उसका पहला जन्म माना गया है। दूसरा जन्म तब होता है जब बालक का यज्ञोपवित किया जाता है। तब उसे वेदाध्ययन और यज्ञ का अधिकार भी मिल जाता है। यज्ञोपवित के बाद ही बालक ब्राह्मण को यज्ञ करने का अधिकार होता है, तब वह वास्तव में कर्म से भी ब्राह्मण हो जाता है। इस तरह ब्राह्मण के दो जन्म माने गए हैं, इसलिए उन्हें द्विज कहा जाता है।
विवाह में सात फेरे ही क्यों?
इंसानी जिंदगी में विवाह एक बेहद महत्वपूर्ण घटना है। जब दो इंसान जीवन भर साथ में मिलकर धर्म के रास्ते से जीवन लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करते हैं। हर परिस्थिति में एक - दूसरे का साथ निभाने का संकल्प लिया जाता है। संकल्प या वचन सदैव देव स्थानों या देवताओं की उपस्थिति में लेने का प्रावधान होता है।
इसीलिये विवाह के साथ फेरे और वचन अग्रि के सामने लिये जाते हैं। फेरे सात ही क्यों लिये जाते हैं इसका कारण सात अंक की महत्ता के कारण होता है। शास्त्रों में सात की बजाय चार फेरों का वर्णन भी मिलता है। तथा चार फेरों में से तीन में दुल्हन तथा एक में दुल्हा आगे रहता है। किन्तु फिर भी आजकल विवाह में सात फेरों का ही अधिक प्रचलन है। हमारी संस्कृति में, हमारे जीवन में, हमारे जगत में इस अंक विशेष का कितना महत्व है आइये जाने.....
- सूर्य प्रकाश में रंगों की संख्या भी सात।
- संगीत में स्वरों की संख्या की संख्या भी सात: सा, रे, गा, मा, प , ध, नि।
- पृथ्वी के समान ही लोकों की संख्या भी सात: भू, भु:, स्व: मह:, जन, तप और सत्य।
- सात ही तरह के पाताल: अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल।
- द्वीपों तथा समुद्रों की संख्या भी सात ही है।
- प्रमुख पदार्थ भी सात ही हैं: गोरोचन, चंदन, स्वर्ण, शंख, मृदंग, दर्पण और मणि जो कि शुद्ध माने जाते हैं।
- प्रमुख क्रियाएं भी सात ही हैं: शौच, मुखशुद्धी, स्नान, ध्यान, भोजन, भजन तथा निद्रा।
- पूज्यनीय जनों की संख्या भी सात ही है: ईश्वर, गुरु, माता, पिता, सूर्य, अग्रि तथा अतिथि।
- इंसानी बुराइयों की संख्या भी सात: ईष्र्या, का्रोध, मोह, द्वेष, लोभ, घृणा तथा कुविचार।
- वेदों के अनुसार सात तरह के स्नान: मंत्र स्नान, भौम स्नान, अग्रि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्य स्नान, करुण स्नान, और मानसिक स्नान।
7- अंक की इस रहस्यात्मक महत्ता के कारण ही प्राचीन ऋषि-मुनियों, विद्वानों या नीति-निर्माताओं ने विवाह में सात फेरों तथा सात वचनों को शामिल किया है। अपने परिजनों, संबधियों और मित्रों की उपस्थिति में वर-वधु देवतुल्य अग्नि की सात परिक्रमा करते हुए सात वचनों को निभाने का प्रण करते हैं यानि कि संकल्प करते हैं। मन ही मन ईश्वर से कामना करते हैं कि हमारा प्रेम सात समुद्रों जितना गहरा हो। हर दिन उसमें संगीत के सातों स्वरों का माधुर्य हो। जीवन में सातों रंगों का प्रकाश फै ले। दोनों एक होकर इतने सद्कर्म करें कि हमारी ख्याती सातों लोकों में सदैव बनी रहे।
विधवा स्त्री सफेद कपड़े ही क्यों पहने?
विवाह के बंधन में बंधते समय सभी की कामना होती है कि वर और वधु सात जन्मों तक प्रेम पूर्वक साथ रहें। दोनों की जोड़ी सदा बनी रहे तथा घर परिवार में सदा सुख-समृद्धि की परिस्थितियां कायम रहें। लेकिन भविष्य के गर्भ में कितने कटु सत्य पल रहे हैं, इसका किसी को अंदाजा भी नहीं हो पाता। स्त्री का धन उसका पति होता है।नियति या दुर्भाग्य के कारण जब किसी स्त्री का पति इस दुनिया को छोड़ देता है, तो उस स्त्री को जीवन में असंख्य चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। विधवा या विडो के रुप में उसे कड़े संघर्षों से होकर गुजरना पड़ता है।
भारतीय संस्कृति में दुनिया से अलग अपनी अनोखी ही सोच व मान्यताएं हैं। भारतीय नारियों का गहना प्रेम सारी दुनिया में विख्यात है। इतना होने पर भी यह भारत ही है, जहां की नारियां यह सोचती हैं कि स्त्री के लिये उसका पति ही सर्वश्रेष्ठ गहना या आभूषण है। महिलाओं का सजना-धजना सबकुछ सिर्फ अपने पति के लिये। विवाहिता स्त्री का अपने पति के प्रति यह अटूट और एकनिष्ठ प्रेम ही उसे दुनिया से अलग पहचान और गौरव दिलाता है। जीवन के हर क्षेत्र में धर्म और अध्यात्म का गहराई से शामिल होना किसी समाज की महान परंपराओं को दर्शाता है।
सफेद की खासियत : रंगों के विज्ञान की अलग ही दुनिया और अहमियत है। प्रमुख सात रंगों में से हर एक रंग का अपना खास प्रभाव और महत्व होता है। सूर्य के सात रंगों का आज चिकित्सा के रुप में प्रयोग होने लगा है। सफेद रंग सर्वाधिक पवित्र और सात्विक रंग है। विधवा या विडो स्त्री का पति विहीन जीवन कई संघर्षों से भरा होता है। ऐसे में विधवा स्त्री को ईश्वर की कृपा और सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। सफेद रंग का लिबास उसे मनोबल और सात्विकता प्रदान करता है। जीवन की सभी जिम्मेदारियों और चुनौतियों का सफलता से सामना करने में सफेद रंग के पहनावे की बड़ी अहम् भूमिका होती है। यही कारण रहा है कि विधवा स्त्रिया स्वयं की मरजी से ही सफेद रंग का लिबास पहनने लगती हैं।
शरीर से ब्रूसली व माइंड से आइंस्टीन, तो भोग लगाएं
क्या आपको चाहिये मजबूत शरीर व तेज दिमाग ? खुद खाने से पहले क्यों लगाएं भगवान को भोग ? दुनिया में रहते हुए यह शरीर जितना कीमती है, उतना ही महत्वपूर्ण है भोजन। जिंदगी के असली मकसद को पाने के लिये यह शरीर ही इंसान का प्रमुख साधन या हथियार है। शरीर नाम के इस साधन को आखिरी मंजिल पाने तक किस प्रकार सही- सलामत और दुरुस्त रखा जा सकता है, यह बहुत कुछ भोजन पर निर्भर रहता है।
जो बात आज से हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनि कह गए थे, वही बात आज आधुनिक वैज्ञानिक रिसर्च भी कह रहे हैं। हजारों साल पुराने शास्त्रों यानि कि प्राचीन पुस्तकों में यह स्पष्ट लिखा है कि, व्यक्ति का मन और मस्तिष्क वैसा ही बनता है जैसा कि उसका भोजन होता है। तभी से यह कहावत भी प्रचलित हो गई कि-' जैसा अन्न वैसा ही मन' ।
इंसान की जिंदगी में भोजन की इस महत्वपूर्ण भूमिका और उपयोगिता के कारण ही आध्यात्मिक या धार्मिक पुस्तकों में भोजन को प्रसाद के रूप में ही ग्रहण करने की बात कही गई है। ईश्वर, भगवान या परमात्मा को अर्पित करने चढ़ाने या भोग लगाने के बाद ही स्वयं तथा परिवार को भोजन करना, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये बेहद ही फायदेमंद होता है। ईश्वर को भोग लगाने के बाद भोजन प्रसाद बन जाता है, तथा उसके सारे सद्गुण खाने वाले को प्राप्त होते हैं। ऐसा करने से सकारात्मक मानसिकता का वातावरण बनता है, जिससे भोजन स्वास्थ्य को बढ़ाने वाला तथा बीमारियों को दूर करने वाला बन जाता है।
तलाक के 3 महीने तक दोबारा निकाह पर बंदिश क्यों ?
इस्लाम को मानने वाले मुस्लिम भाई अपने धार्मिक नियम-कायदों का पालन पूरे समर्पण और निष्ठा से करते हैं।हर एक मुस्लिम चाहे वह दुनिया में कहीं भी रहता हो, इन नियमों का कड़ाई से पालन करने में विश्वास रखता है। इस्लाम धर्म के अनुयाई यानि कि इस्लाम को मानने वाले शरियत के नियम कायदों को अटल एवं अंतिम मानते हैं।
शरियत एक ऐसा कायदानामा (धार्मिक संविधान) है, जिसमें प्रत्येक मुस्लिम मर्द और औरत के लिए अनियार्य नियम- कानून होते हैं। शरियत में इंसान के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी प्रमुख घटनाओं में जो नियम पालने होते हैं, उनका विस्तार से वर्णन किया गया है।
शरियत में विवाह को लेकर भी स्पष्ट दिशा-निर्देश दिये गए हैं। विवाह के विषय में शरियत में नियम है, कि जब किसी भी जायज कारण से पति-पत्नी के बीच तलाक हो जाए, तो अगले तीन महीने तक औरत को दूसरा विवाह नहीं करना चाहिये। 3 महीने तक किसी स्त्री के निकाह न करने के पीछे एक प्रमुख कारण है, जो कि परेशानी से बचाने के लिये ही होता है। तलाकशुदा स्त्री से तीन महीने तक दोबारा निकाह इसलिये नहीं हो सकता, क्योंकि 3 महीने में यह खुलासा हो जाएगा कि वह स्त्री गर्भवती है या नहीं ?
क्यों बजाते हैं ढ़ोल, शादी-विवाह और त्योहारों पर?
जीवन भर इंसान आनंद या खुशी के लिये ही हर तरह की कोशिसें करता है। इंसान की सुख और आनंद की इस अंतिम और असली प्यास, को ध्यान में रखकर ही ऋषि-मुनियों या विद्वान महापुरुषों ने इंसानी जिंदगी में त्योहारों और शादीविवाह जैसे उत्सवों को शामिल किया है। जीवन के संघर्षों और दुखों से परेशान होकर इंसान निराश और हताश न हो जाए यही सोचकर जीवन को त्योहारों और उत्सवों सजाया, संवारा और संभाला गया है।
खुशी और ढ़ोल- संगीत और आंनद के गहरे ताल्लुकात से सभी वाकिफ हैं। संगीत के बगैर किसी भी प्रकार के सेलीबे्रशन की सफलता अधूरी ही मानी जाती है। ढ़ोल, नगाड़े और सहनाई संगीत के पारंपरिक साधन हैं। इनका प्रयोग हमारे यहां बड़े प्राचीन समय से होता आ रहा है। धीरे-धीरे इस क्रिया को परंपरा के रूप में शामिल कर लिया गया। हम देखते हैं कि भगवान शिव के पास भी अपना डमरु था, जो कि तांडव करते समय वे स्वयं ही बजाते भी थे।
जीवन युद्ध और ढ़ोल- संगीत के अन्य वाद्य यंत्रों की बजाय ढ़ोल की अपनी अलग ही खासियतें होती हैं। मन में उत्साह, साहस और जोश जगाने में ढ़ोल का बड़ा ही आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता है। तभी तो पुराने समय में युद्ध का प्रारंभ भी ढ़ोल-नगाड़ों से ही होता था। ढ़ोल से निकलने वाली ध्वनि तरंगें योद्धओं को जोश और साहस से भर देती थीं।
किसी की मौत पर क्यों मुड़वाते हैं सिर!
परम्पराएं, मान्यताएं तथा रीति-रिवाज किसने कब और क्यों बनाए? इन मान्यताओं के पीछे वास्तव में कुछ तथ्य, आंकड़े और वैज्ञानिक आधार हैं भी या सिर्फ अंधविश्वास की उपज है। तुलसी और पीपल की पूजा, सूर्य और चंद्र को जल चढ़ाना या शिखा और यज्ञोपवीत धारण करना...ऐसे कितने ही कार्य हैं जो परम्परा के रूप में सैकड़ों-हजारों सालों से किये और करवाए जा रहे हैं।किसी परिवारी सदस्य या संबंधी की मौत हो जाने पर कई तरह की मान्यताओं या परंपराओं का पालन किया जाता है। श्मशान जाकर सामुहिक रूप से शव का दाह संस्कार करना, शव की परिक्रमा कर प्रणाम करना तथा श्मशान से लौटकर घर पहुंचने से पूर्व अनिवार्य रूप से नहाना ही घर में प्रवेश करना, जैसे कितने ही कार्य हैं जो आज परम्परा का रूप ले चुके हैं। मृत व्यक्ति के संबंधियों का सिर मुड़वाना ही ऐसी ही एक अनोखी परम्परा है।
बाल ही क्यों- मृत व्यक्ति के पारिवारिक सदस्य तथा सगे संबंधी दाह संस्कार के पश्चात अनिवार्य रूप से सिर के बाल मुड़वाकर या पूरी तरह से कटवाक र तथा नहाकर ही घर लौटते हैं। इस धार्मिक या सामाजिक मान्यता का वैज्ञानिक कारण यह है कि, मृत व्यक्ति के परिवारी सदस्य शव के निकट संपर्क में होते हैं जिससे कई तरह के हानिकारक संक्रमण का खतरा रहता है। सिर और सिर के बालों कासंक्रमण से ग्रसित होने का खतरा सर्वाधिक होता है। क्योंकि सिर तथा सिर के बाल किसी भी प्रकार के संक्रमण के लिये सबसे ज्यादा संवेदनशील होते हैं।
सिर पर चोटी यानि कमाल का एंटिना
एक सुप्रीप साइंस जो इंसान के लिये सुविधाएं जुटाने का ही नहीं, बल्कि उसे शक्तिमान बनाने का कार्य करता है। ऐसा परम विज्ञान जो व्यक्ति को प्रकृति के ऊपर नियंत्रण करना सिखाता है। ऐसा विज्ञान जो प्रकृति को अपने अधीन बनाकर मनचाहा प्रयोग ले सकता है। इस अद्भुत विज्ञान की प्रयोगशाला भी बड़ी विलक्षण होती है। एक से बढ़कर एक आधुनिकतम मशीनों से सम्पंन प्रयोगशालाएं दुनिया में बहुतेरी हैं, किन्तु ऐसी सायद ही कोई हो जिसमें कोई यंत्र ही नहीं यहां तक कि खुद प्रयोगशाला भी आंखों से नजर नहीं आती। इसके अदृश्य होने का कारण है- इसका निराकार स्वरूप। असल में यह प्रयोगशाला इंसान के मन-मस्तिष्क में अंदर होती है।
सुप्रीम सांइस- विश्व की प्राचीनतम संस्कृति जो कि वैदिक संस्कृति के नाम से विश्य विख्यात है। अध्यात्म के परम विज्ञान पर टिकी यह विश्व की दुर्लभ संस्कृति है। इसी की एक महत्वपूर्ण मान्यता के तहत परम्परा है कि प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को अपने सिर पर चोंटी यानि कि बालों का समूह अनिवार्य रूप से रखना चाहिये।
सिर पर चोंटी रखने की परंपरा को इतना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है कि , इस कार्य को हिन्दुत्व की पहचान तक माना लिया गया। योग और अध्यात्म को सुप्रीम सांइस मानकर जब आधुनिक प्रयोगशालाओं में रिसर्च किया गया तो, चोंटी के विषय में बड़े ही महत्वपूर्ण ओर रौचक वैज्ञानिक तथ्य सामने आए।
चमत्कारी रिसीवर- असल में जिस स्थान पर शिखा यानि कि चोंटी रखने की परंपरा है, वहा पर सिर के बीचों-बीच सुषुम्ना नाड़ी का स्थान होता है। तथा शरीर विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि सुषुम्रा नाड़ी इंसान के हर तरह के विकास में बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। चोटी सुषुम्रा नाड़ी को हानिकारक प्रभावों से तो बचाती ही है, साथ में ब्रह्माण्ड से आने वाले सकारात्मक तथा आध्यात्मिक विचारों को केच यानि कि ग्रहण भी करती है।
धन की कमी या मन की अशांति? तो करें गौदान...
एक समय था जबकि सदियों से चली आ रहीं धार्मिक परम्पराओं को अंध विश्वास और पिछड़ेपन की निशानी माना जाता था। किन्तु आज तस्वीर कु छ दूसरी ही है। सूर्य को जल चढ़ाने या तुलसी और पीपल की पूजा करने के पीछे जब पुख्ता वैज्ञानिक सुराग हाथ लगे तो इन कार्यों को अंधविश्वास की बजाय सुप्रीम साइंस कहा जाने लगा।
पिण्ड दान करना, तीर्थ यात्रा करना, दुनिया की सर्वाधिक पवित्र गंगा नदी में स्नान करना, ब्राह्मणों को भोजन करवाना, गरीबों को दान दक्षिणा देना आदि के जैसी ही एक क्रिया है- गाय का दान करना। धार्मिक, ज्योतिष और आध्यात्मिक पुस्तकों में गाय के दान को बहुत बड़ा पुण्य का कार्य बताया गया है।
आइये जाने उन कारणों को जिनके कारण गाय का दान करना इतना महत्व का कार्य बताया गया है:-
- जो व्यक्ति मृत्यु के बाद अपनी आत्मा या चेतना का अच्छी गति चाहता हो उसे पूरे नियम कायदों से योग्य व्यक्ति को गाय का दान अवश्य ही करना चाहिये।
- आर्थिक , शारीरिक या मानसिक किसी भी तरह की समस्या या परेशानी से छुटकारा पाने में, योग्य व्यक्ति को दिया गया गाय का दान अहम् भूमिका निभाता है।
- पूरे नियम कायदों से उचित समय पर किया गया गाय का दान इंसान के दैहिक, दैविक और भौतिक पापों को नष्ट करता है।
- पुराण आदि पुराने शास्त्रों में ऐसी निश्चित मान्यता है कि, गाय का दान इंसान को बैकुण्ठ ले जाता है।
- गाय के दान से पितरों को शांति एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है।
गुनाह हो जाए तो जरूर करें प्राश्चित?
जानकर हो या अनजाने में, पर गलती तो गलती ही है। गलती, अपराध या गुनाह की सजा से दुनिया का कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह से बच नहीं सकता है। यह बड़ा ही दिलचस्प सिस्टम है कि यहां गलती की सजा इंसान के रूप में जन्में भगवान को भी भुगतना पड़ती है। दुनिया के कानून से भले ही इंसान चालाकी से बच निकले किन्तु कार्य और उसके परिणाम की जो वैज्ञानिक व्यवस्था है, वह किसी भी झांसे या जालसाजी में आने वाली नहीं है। कर्म और उसके फल की व्यवस्था ऐसी है, जिसमें किसी गवाह या दलील की जरूरत नहीं पड़ती।
लेकिन सवाल उठता है कि जब हर कार्य का परिणाम भुगतना ही है, तो फिर प्राश्चित करने की जरूरत ही क्या है? आखिर क्या कारण है कि धर्म-अध्यात्म की पुस्तकों में प्राश्चित करना इतना आवश्यक और महत्वपूर्ण बताया गया है? आख्रिर क्यों इसाई धर्म में किसी से कोई गुनाह होने पर चर्च के फादर के समाने अपना अपराध कबूल करने की मान्यता प्रचलित है?
प्राश्चित के विषय में जब मनोवैज्ञानिक शोध किया गया तो कई रौचक तथ्य सामने आए। ये कुछ ऐसी बातें हैं, जो हर व्यक्ति के लिये बड़े ही काम की हैं:-
- प्राश्चित की मान्यता आज की नहीं बल्कि हजारों साल पुरानी है।
- हिन्दु धर्म ही नहीं बल्कि अधिकतर प्रमुख धर्मों में, गलती होने पर प्राश्चित करना बड़ा ही फायदेमंद बताया गया है।
- किसी योग्य गुरु को अपना अपराध या गलती बताकर उसी के अनुसार प्राश्चित करने से इंसान मानसिक रोगों और अशांति से बच जाता है।
- प्राश्चित करने से मन की सारी हानिकारक ग्रंथियां मिट जाती हैं।
- व्यक्ति जब प्राश्चित कर लेता है तो उसकी सजा कम तो होती है, साथ ही उस कम हो चुकी सजा को भुगतने की शक्ति भी मिल जाती है।
राहु और केतु क्यों हैं, खलनायक ग्रह?
वैसे तो ज्योतिष पूरी तरह से अंतरिक्ष विज्ञान पर आधारित विषय है। किन्तु फिर भी समय के साथ-साथ इसमें कई भा्रंतियां भी शामिल हो गई हैं। जिस प्रकार हमारे सौर परिवार के बहुत्व ही महत्वपूर्ण ग्रह 'शनि' की एक खलनायक के रूप में एकदम नकारात्मक क्षवि प्रस्तुत की गई, बिल्कुल उसी तरह से राहु-केतु को भी खलनायक यानि कि बुरी क्षवि वाले नकारात्मक ग्रह के रूप में प्रचारित किया गया है।
क्या वाकई शनि के साथ ही राहु और केतु भी इंसानों की दुनिया और जिंदगी पर कोई बुरा असर डालते हैं? क्या सिर्फ पुरानी पौराणिक दंत कथाओं के आधार पर ही शनि और राहु-केतु की नकारात्मक क्षवि बना दी गई? जब जहन में उठने वाले ऐसे पश्रों का हल खोजने के लिये अंतरिक्ष विज्ञान और ज्योतिष की प्रामाणिक पुस्तकों का सहारा लेते हैं, तो कुछ इस तरह के रौचक तथ्य सामने आते हैं:-
- दुनिया की सबसे पुरानी, कीमती और रहस्यमयी वैज्ञानिक पुस्तकऋग्वेद में राहु को 'स्वभानु' के नाम से बताया गया है।
- क्योंकि राहु-केतु सुर्य और चंद्रमा के प्रकाश को धरती पर पहुंचने से रोकता है, सायद इसीलिये इन्हैं विलन के रूप में प्रचारित किया गया है।
- केतु का वर्णन अथर्ववेद में विस्तार से मिलता है।
- ज्योतिष विज्ञान में अपने सौर मंडल के सात ग्रहों के बाद आठवें ग्रह के रूप में राहु तथा नवें ग्रह के रूप में केतु का वर्णन किया गया है।
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि धरती और धरती पर बसने वालेइंसानों के साथ ही अन्य जीवजंतुओं की जिंदगी पूरी तरह से सूर्य के प्रकाश पर निर्भर है। जबकि राहु और केतु जब सूर्य की जीवनदाई किरणों को पृथ्वी पर आने से रोकते हैं, इसीलिये इन दोनों ग्रहों को शनि के समान ही नकारात्मक या बुरी क्षवी वाला ग्रह बताया गया है।
उठते ही बिस्तर पर चाय-नाश्ता कितना घातक?
समय की कमी, देर रात तक काम करना, नई लाइफ स्टाइल, थकान, कमजोरी और आदत की गुलामी... इन तमाम बातों ने मिलकर 21 वीं सदी के आधुनिक इंसान की जीवनशैली यानि कि लाइफ स्टाइल को पूरी तरह से प्रकृति का विरोधी बना कर रख दिया है। नेचर के विपरीत लाइफ स्टाइल ने आज के इंसान के स्वास्थ्य और मानसिक क्षमता को बुरी तरह से प्र्रभावित किया है।
इस नई महानगरीय जीवनशैली को अपनाकर इंसान ने पुरानी सारी अच्छी आदतों और परम्पराओं को छोड़कर हानिकारक और गलत आदतों को अपना लिया है। ऐसी ही गलत आदतों में से एक आदत है- उठते ही बिस्तर पर चाय पीना या नाश्ता करना।
बेड-टी पीने से क्या और कितना बुरा प्रभाव पड़ता है, आइये उसे जाने:-
- रात भर सोने से शरीर में जो गर्मी बनती है वह चाय कॉफी पीने से और भी अधिक बढ़ जाती है, जिससे एसिडिटी और पेट की कई बीमारियां पैदा होती हैं।
- बगैर ब्रश किये और पानी पीये चाय-कॉफी जैसे धीमे जहर पीना शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर बड़ा ही घातक प्रभाव डालता है।
- जागते समय इंसान का दिमाग और मन पूरी तरह से नया होता है, ऐसे समय में यदि सबसे पहले चाय-कॉफी पीकर दिन की शुरुआत होती है तो सारा दिन थकान और कमजोरी का सामना करना पड़ता है।
- दिन की शुरुवात जैसी होगी सारा दिन भी वैसा ही गुजरता है, चाय-कॉफी जैसे नशे से दिन का प्रारंभ करने की बजाय पानी पीकर मोर्निंग वाक करने से आप पूरे दिन के लिये ऊर्जावान, कान्फीडेंट तथा सकारात्मक बने रह सकते हैं।
दीपक बुझाने वाले रहते हैं हमेशा गरीब?
कहते हैं कि समय के साथ ही इंसान को बदलते रहना चाहिये, तथा पुरानी और अनावश्यक बातों को छोड़ देना चाहिये। किन्तु यहां ऐसा करते समय इंसान को बड़ी सावधानी तथा चौकन्ना रहने की जरूरत होती है।
आंख मीचकर हर नई चीज को गले लगा लेना और पुराना कहकर हर बात को ठुकरा देना, दोनों ही बातों में बराबर का खतरा है। पुरानी परंपराओं या मान्यताओं में हो सकता है कुछ समय के साथ अनावश्यक और बेकार हो गई हों, किन्तु कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो सैकड़ों हजारों साल गुजरने के बावजूद आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और कारगर हैं।
इन परंपराओं और मान्यताओं के पीछे गहरा विज्ञान छुपा होता है। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण परंपरा है कि, व्यक्ति को कभी भी देव स्थान पर जलते हुए दीपक को नहीं बुझाना चाहिये। आखिर क्या कारण है कि जलते हुए दीपक को बुझाने से इंसान को सदा दरिद्री यानि कि गरीब ही रहना पड़ता है? आइये जाने उन कारणों को:-
- धन की देवी लक्ष्मी और धन के राजा देवता कुबेर दोनों की ही आराधना में दीपक का प्रमुख स्थान होता है। बगैर दीपक के दोनों की ही पूजा- आराधना अधूरी मानी जाती है।
- ज्योतिष मे भी ऐसी मान्यता है कि जलते हुए दीपक को बुझाने से सारे ग्रह-नक्षत्र इंसान के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। खासकर देवता सूर्य सबसे ज्यादा असर डालते हैं।
यदि अपनी भलाई चाहते हों तो नहाएं जरूर....
पश्चिमी देशों में ग्रहण को मात्र एक प्राकृतिक घटना माना जाता है। प्राकृतिक घटना माना जाता है, वहां तक तो ठीक है किन्तु इससे जुड़ी कई बेहद अहम् बातों को नजरअंदाज करना ठीक नहीं है। अंतरिक्ष से जुड़ी हुई कोई भी घटना क्यों न हो, उसकी तह तक जाकर पूरी छानबीन करने में भारत के प्राचीन ऋषि-मुनि और योगी दुनिया में सबसे आगे रहे हैं।
प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा अंतरिक्षीय घटनाओं के आधार पर जो नियम और मान्यताएं बनाईं हैं, उन्हीं में से एक है, ग्रहण के बाद अनिवार्य रुप से स्नान करने की। ग्रहण के बाद अनिवार्य रूप में नहाने के पीछे क्या खास वजह है? आइये वही जानने की कोशिस करते हैं:-
- ग्रहण काल में पडऩे वाली राहु की अशुभ छाया के बुरे प्रभाव से छुटकारा पाने के लिये यह आवश्यक है कि ग्रहण की समाप्ति पर तुरंत स्नान किया जाय।
- सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय पडऩे वाली अल्ट्रावायलेट किरणे इंसानी शरीर और त्वचा पर बहुत ही बुरा प्रभाव डालती हैं, इसीलिये ग्रहण के तुरंत बाद व्यक्ति को नहाना अवश्य ही चाहिये।
पूजा सुबह या शाम को ही क्यों करें?
यह जिज्ञासा कई लोगों के मन में रहती है कि भगवान का पूजन सुबह या फिर शाम को ही क्यों किया जाता है? क्या पूरे दिन ऐसा कोई मुहूर्त नहीं होता है जिसमें हम पूजा कर सकें? कई लोग सुबह 10-11 बजे ही पूजा करते हैं, हालांकि ऐसे समय की गई पूजा व्यर्थ मानी जाती है। पूजा के लिए हमारे धर्म शास्त्रों ने दो ही समय नियत किए हैं। पहला ब्रह्म मुहूर्त यानी सूर्योदय से पहले या फिर शाम को सूर्यास्त के समय। ऐसा समय निश्चित करने के पीछे केवल धार्मिक मान्यताएं या परंपराएं नहीं हैं बल्कि यह पूरी तरह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है।
सुबह और शाम पूजन, भजन या मंत्रोच्चारण करने के पीछे सबसे बड़ा कारण हमारे भीतर शांति और आनंद पैदा करने को लेकर है। इन दोनों समय को बहुत ही वैज्ञानिक और व्यवहारिक तरीके से तय किया गया है। सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जागकर पूजा करने, मंत्रोच्चारण से हमारा दिनभर ठीक गुजरता है। काम का तनाव नहीं रहता। मंत्रों के उच्चारण से पैदा हुई सकारात्मक ऊर्जा दिनभर हमारे इर्द-गिर्द रहती है। इस कारण किसी भी काम का तनाव हमारे ऊपर नहीं पड़ता। लोगों पर हमारी बात का भी सकारात्मक असर पड़ता है। वहीं शाम को सूर्यास्त के समय पूजा करने से हमारे भीतर दिनभर के काम से हुई थकान और तनाव दूर हो जाते हैं। दिनभर में कम हुई सकारात्मक ऊर्जा फिर तैयार हो जाती है। इससे रात को तनावमुक्त और गहरी नींद आती है। बुरे सपने नहीं दिखाई देते। मन में शांति रहती है।
इसके पीछे एक और भी कारण है सुबह सूर्योदय और शाम को सूर्यास्त के समय सूर्य की किरणों का तेज कम हो जाता है। इससे उससे आने वाली धूप भी अच्छी लगती है, शरीर पर कोई दुष्रभाव नहीं छोड़ती। शरीर को आवश्यक विटामिन डी भी मिलता है।
लहसून-प्याज से क्यों किया जाता है परहेज?
अक्सर कई संप्रदायों में देखा जाता है कि कई लोग लहसून-प्याज को भोजन में इस्तेमाल नहीं करते। जैन समाज, वैष्णव संप्रदाय इन दोनों तरह के समाजों में यह अधिकतर पाया जाता है। आखिर क्या कारण है कि लहसून और प्याज से परहेज किया जाता है? क्यों इसे खाने में उपयोग करने से बचा जाता है? क्यों इन्हें सन्यासियों के भोजन में भी जगह नहीं मिलती?
वास्तव में लहसून और प्याज कोई शापित या धर्म के विरुद्ध नहीं है। इनकी तासीर या गुणों के कारण ही इनका त्याग किया गया है। लहसून और प्याज दोनों ही गर्म तासीर के होते हैं। ये शरीर में गरमी पैदा करते हैं। इसलिए इन्हें तामसिक भोजन की श्रेणी में रखा गया है। दोनों ही अपना असर गरमी के रूप में दिखाते हैं, शरीर को गरमी देते हैं जिससे व्यक्ति की काम वासना में बढ़ोतरी होते है। ऐसे में उसका मन अध्यात्म से भटक जाता है।
अध्यात्म में मन को एकाग्र करने के लिए, भक्ति के लिए वासना से दूर होना जरूरी होता है। केवल लहसून प्याज ही नहीं वैष्णव और जैन समाज ऐसी सभी चीजों से परहेज करते हैं जिससे की शरीर या मन में किसी तरह की तामसिक प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले।
क्यों पहनते हैं कृष्ण मोर-मुकुट?
सारे देवताओं में सबसे ज्यादा शृंगार प्रिय है भगवान कृष्ण। उनके भक्त हमेशा उन्हें नए कपड़ों और आभूषणों से लादे रखते हैं। कृष्ण गृहस्थी और संसार के देवता हैं। कई बार मन में सवाल उठता है कि तरह-तरह के आभूषण पहनने वाले कृष्ण मोर-मुकुट क्यों धारण करते हैं? उनके मुकुट में हमेशा मोर का ही पंख क्यों लगाया जाता है? क्या मोर और श्रीकृष्ण का कोई रिश्ता है? या केवल किवदंतियों के आधार पर ही उनके मुकुट में मोर का पंख जड़ दिया गया।
वास्तव में श्री कृष्ण का मोर मुकुट कई बातों का प्रतिनिधित्व करता है, यह कई तरह के संकेत हमारे जीवन में लाता है। अगर इसे ठीक से समझा जाए तो कृष्ण का मोर-मुकुट ही हमें जीवन की कई सच्चाइयों से अवगत कराता है। दरअसल मोर का पंख अपनी सुंदरता के कारण प्रसिद्ध है। उस काल में अधिकांश ग्रामीण लोग मोर पंख का विभिन्न सजावटों में उपयोग करते थे। सो श्री कृष्ण ने इसे अपने मुकुट में स्थान दिया, ताकि आम आदमी उन्हें अपना समझ सके। मोर मुकुट के जरिए श्रीकृष्ण यह संदेश देते हैं कि जीवन में भी वैसे ही रंग है जैसे मोर के पंख में है। कभी बहुत गहरे रंग होते हैं यानी दुख और मुसीबत होती है तो कभी एकदम हल्के रंग यानी सुख और समृद्धि भी होती है। जीवन से जो मिले उसे सिर से लगा लें यानी सहर्ष स्वीकार कर लें।
तीसरा कारण भी है, दरअसल इस मोर-मुकुट से श्रीकृष्ण शत्रु और मित्र के प्रति समभाव का संदेश भी देते हैं। बलराम जो कि शेषनाग के अवतार माने जाते हैं, वे श्रीकृष्ण के बड़े भाई हैं। वहीं मोर जो नागों का शत्रु है वह भी श्रीकृष्ण के सिर पर विराजित है। यही विरोधाभास ही श्रीकृष्ण के भगवान होने का प्रमाण भी है कि वे शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रखते हैं।
राम नीले और कृष्ण काले क्यों?
अक्सर मन में यह सवाल गूंजता है कि हमारे भगवानों के रंग-रूप इतने अलग क्यों हैं। भगवान कृष्ण का काला रंग तो फिर भी समझ में आता है लेकिन भगवान राम को नील वर्ण भी कहा जाता है। क्या वाकई भगवान राम नीले रंग के थे, किसी इंसान का नीला रंग कैसे हो सकता है? वहीं काले रंग के कृष्ण इतने आकर्षक कैसे थे? इन भगवानों के रंग-रूप के पीछे क्या रहस्य है।
राम के नीले वर्ण और कृष्ण के काले रंग के पीछे एक दार्शनिक रहस्य है। भगवानों का यह रंग उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। दरअसल इसके पीछे भाव है कि भगवान का व्यक्तित्व अनंत है। उसकी कोई सीमा नहीं है, वे अनंत है। ये अनंतता का भाव हमें आकाश से मिलता है। आकाश की कोई सीमा नहीं है। वह अंतहीन है। राम और कृष्ण के रंग इसी आकाश की अनंतता के प्रतीक हैं। राम का जन्म दिन में हुआ था। दिन के समय का आकाश का रंग नीला होता है।
इसी तरह कृष्ण का जन्म आधी रात के समय हुआ था और रात के समय आकाश का रंग काला प्रतीत होता है। दोनों ही परिस्थितियों में भगवान को हमारे ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने आकाश के रंग से प्रतीकात्मक तरीके से दर्शाने के लिए है काले और नीले रंग का बताया है।
25 वर्ष की उम्र तक ब्रह्मचर्य क्यों?
हिंदू धर्म जीवन पद्धति में आदमी की आयु को 100 वर्ष की माना गया है। इन सौ सालों को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है। इसमें सबसे पहला आश्रम है ब्रह्मचर्य आश्रम, जिसे जीवन के पहले 25 साल तक माना गया है। मान्यता है कि 25 वर्ष की आयु तक हर व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
ब्रह्मचर्य का मतलब केवल सेक्स से दूर रहना ही नहीं है। इसका अर्थ बहुत ही गहरा है। ब्रह्मचर्य यानी ब्रह्म की राह पर चलना। इस आयु में शिक्षा और भक्ति दो ही प्रमुख कार्य होने चाहिए। ब्रह्मचर्य का एक अर्थ शक्ति संचय भी है। इस उम्र तक व्यक्ति को अपने शरीर की शक्ति को संचित कर उसे बढ़ाना चाहिए। व्यक्ति के शरीर में अधिकांश बदलाव और विकास 25 वर्ष की आयु तक हो जाता है। अगर इसके पहले ही हम अपनी शक्ति को बरबाद करने लगे तो हमारे व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास नहीं हो पाता।
इससे शरीर में कई बीमारियां घर कर लेती हैं और व्यक्ति उम्र के पहले ही बूढ़ों जैसा दिखाई देने लगता है। चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक शरीर में 25 वर्ष तक की उम्र में वीर्य और रक्तकणों का विकास बहुत तेजी से होता है, उस समय अगर इसे शरीर में संचित किया जाए तो यह काफी स्वास्थ्यप्रद होता है। शरीर को पुष्ट रखता है और कमजोरी नहीं आती। 25 वर्ष की उम्र के पहले ही ब्रह्मचर्य तोडऩे से भविष्य में नपुंसकता या संतान उत्पत्ति में परेशानी की आशंका होती है। इससे हमारा मन भी भटकता है, जिससे शिक्षा और कैरियर दोनों पर असर पड़ता है।
हाथ में पानी लेकर क्यों करते हैं संकल्प?
कई बार आपने देखा होगा कई लोग संकल्प लेते समय, कोई कसम उठाते समय हाथ में पानी लेते हैं। कई बार सच उगलवाने के लिए हाथ में गंगाजल का पात्र भी थमा दिया जाता है। पूजापाठ, कर्म कांड में तो सारे संकल्प ही हाथ में जल लेकर किए जाते हैं। आखिर पानी में ऐसा क्या होता है कि उसे उठाए बगैर सारे संकल्प अधूरे माने जाते हैं? आखिर क्यों गंगा जल उठाकर कसमें खिलवाई जाती हैं? पानी में ऐसा क्या है जिससे उसका इस सब में इतना महत्व है? ऐसे कई सवाल आपके दिमाग में भी कौंधते होंगे।
वास्तव में पानी को सारे ही धर्मों में सबसे पवित्र माना गया है। जल को सभी धर्मों ने देवता माना है। वेदों में जल के देवता वरूण को ही ब्रह्म माना गया है। जल से ही सारी सृष्टि का जन्म हुआ है। इस कारण जल को सबसे ज्यादा पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है। हमारे दिमाग में करीब 80 प्रतिशत पानी ही है, यह इस बात का प्रतीक है कि हम जब भी कोई कार्य करेंगे हमारी बुद्धि को जागृत और स्थिर रखकर ही करेंगे। हमारे शरीर में लगभग 70 प्रतिशत तरल पदार्थ होते हैं। पानी को हाथ में उठाने का अर्थ है एक तरह से स्वयं की कसम उठाना, या स्वयं को साक्षी मानकर कोई संकल्प लेना।
जल को इस कारण भी उठाया जाता है क्योंकि इस पूरी सृष्टि के पंचमहाभूतों (अग्रि, पृथ्वी, आकाश, वायु और जल) में भगवान गणपति जल तत्व के अधिपति हैं, उन्हें आगे रखकर संकल्प लेना यानी संकल्प में सभी शुभ हो ऐसी प्रार्थना भी शामिल होती है। इस कारण जल को हाथ में रखकर संकल्प लिया जाता है।
क्यों करते हैं पूजा से पहले आचमन?
पूजा-पाठ, कर्मकांड में पूजन शुरू करते समय सबसे पहले पानी से आचमन किया जाता है और उसके बाद खुद पर जल छिड़क कर शुद्ध किया जाता है। यह कर्मकांड की सबसे जरूरी विधि मानी जाती है। आचमन का अर्थ क्या है? यह क्यों किया जाता है? क्या यह शुद्धिकरण की कोई प्रक्रिया है या केवल एक विधि का हिस्सा है? क्यों खुद पर जल छिड़का जाता है, जबकि हम नहाकर ही पूजन करते हैं?
वास्तव में आचमन केवल कोई प्रक्रिया नहीं है। यह हमारी बाहरी और भीतरी शुद्धता का प्रतीक है। जब हम हाथ में जल लेकर उसका आचमन करते हैं तो वह हमारे मुंह से गले की ओर जाता है, यह पानी इतना थोड़ा होता है कि सीधे आंतों तक नहीं पहुंचता। हमारे हृदय के पास स्थित ज्ञान चक्र तक ही पहुंच पाता है और फिर इसकी गति धीमी पड़ जाती है। यह इस बात का प्रतीक है कि हम वचन और विचार दोनों से शुद्ध हो गए हैं तथा हमारी मन:स्थिति पूजा के लायक हो गई है। फिर खुद के ऊपर जल छिड़का जाता है जो इस बात का प्रतीक है कि हम पूजा के लिए दैहिक और काम दोनों रूपों में भी शुद्ध हो गए हैं। जल से ही आचमन इसलिए किया जाता है क्योंकि जल ही पृथ्वी पर सबसे पवित्र पदार्थ माना गया है।
जल कभी अशुद्ध नहीं माना जाता। जल प्रथम पूज्य भी है। पूजा के लिए हमें मन, वचन और कर्म से शुद्ध होना होता है ताकि हम पूरी एकाग्रता से पूजन कर सकें और हमारा आध्यात्मिक उत्थान हो। इसलिए कर्मकांड में आचमन को प्रमुखता से रखा गया है तथा पूजन शुरू होने और संकल्प के पहले ही आचमन से शुद्धि की जाती है।
मंदिर में क्यों नहीं लगाते मृतात्माओं के चित्र?
हमारे रिश्तेदार जो अब इस दुनिया में नहीं रहे, वे हमारे लिए पूजनीय होते हैं। उनकी तस्वीर पर हार और धूप-बत्ती चढ़ाई जाती है। उन्हें पितृ मान कर पूजा भी जाता है लेकिन फिर भी मरे हुए लोगों की तस्वीरें घर के मंदिर में लगाने की मनाही है। वास्तु शास्त्र भी इस बात पर जोर देता है कि आपके घर के मंदिर में भगवान की ही मूर्तियां और तस्वीरें हों, उनके साथ किसी मृतात्मा का चित्र न लगाया जाए।
इसके पीछे कारण है सकारात्मक-नकारात्मक ऊर्जा और अध्यात्म में हमारी एकाग्रता का। मृतात्माओं से हम भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं। उनके चले जाने से हमें एक खालीपन का एहसास होता है। मंदिर में इनकी तस्वीर होने से हमारी एकाग्रता भंग हो सकती है और भगवान की पूजा के समय यह भी संभव है कि हमारा सारा ध्यान उन्हीं मृत रिश्तेदारों की ओर हो। इस बात का घर के वातावरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। हम पूजा में बैठते समय पूरी एकाग्रता लाने की कोशिश करते हैं ताकि पूजा का अधिकतम प्रभाव हो। ऐसे में मृतात्माओं की ओर ध्यान जाने से हम उस दु:खद घड़ी में खो जाते हैं जिसमें हमने अपने प्रियजनों को खोया था। हमारी मन:स्थिति नकारात्मक भावों से भर जाती है।
जिसका हमारे स्वास्थ्य और घर की सकारात्मक ऊर्जा पर पड़ सकता है। इससे घर का माहौल हमेशा बोझिल रहता है। इसी नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने के लिए वास्तु शास्त्र भी यह सुझाव देता है कि मंदिर में मृतात्माओं के चित्र नहीं होने चाहिए।
मूर्तियों को पानी में क्यों करते हैं विसर्जित?
अब गणपति की विदाई में कुछ ही घंटे शेष रह गए हैं। घर-घर में विराजे गणपति कल विदा होकर फिर अपने धाम चले जाएंगे। पीछे रह जाएगा एक सूनापन। लोग पूजन-अर्चनकर भगवान गणपति की प्रतिमा को नदी-तालाब और समंदर में विसर्जित कर देंगे। इस दौरान एक सवाल मन में उठता है कि प्रतिमाओं को पानी में ही क्यों बहाया जाता है? क्या इनकी विदाई का कोई और मार्ग नहीं है?
भगवान बारह दिन और माता दुर्गा नौ दिन हमारे घर में रहती हैं। उत्सव के आखिरी दिन हम इनकी प्रतिमाओं को नदी, तालाब या किसी अन्य जलस्रोत में विसर्जित कर देते हैं। दरअसल यह एक परंपरा ही नहीं है, इसके पीछे बहुत बड़ी वैज्ञानिकता और दर्शन छिपा है। वास्तव में जल से सारी सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और जल ही पूरी सृष्टि का मूल है। जल बुद्धि का प्रतीक है और गणपति इसके अधिपति हैं। प्रतिमाएं नदियों की मिट्टी से बनती है। हम अपनी शुद्ध बुद्धि से यह कल्पना करते हैं कि इसमें भगवान विराजित हैं। अंतिम दिन हम प्रतिमाओं को जल में इसी लिए विसर्जित कर देते हैं क्योंकि वे जल के किनारे की मिट्टी से बने हैं और हमारी श्रद्धा से ही उसमें परमात्मा विराजित है।
पानी को इस सृष्टि में सबसे पवित्र तत्व माना गया है क्योंकि उससे ही सबकी उत्पत्ति हुई है। पानी को ही ब्रह्मा भी कहा जाता है। प्रतिमाओं को हम विसर्जित करते समय यही सोचते हैं कि भगवान अपने धाम को वापस को जा रहे हैं यानी प्रतिमा अपने वास्तविक स्थान परमात्मा से मिलने जा रही है।
बेडरूम में क्यों नहीं रखते भगवान की तस्वीर?
हमारी धार्मिक मान्यताओं में एक यह भी है कि अपने शयनकक्ष यानी बेडरूम में भगवान की कोई प्रतिमा या तस्वीर नहीं लगाई जाती। केवल स्त्री के गर्भवती होने पर बालगोपाल की तस्वीर लगाने की छूट दी गई है। आखिर क्यों भगवान की तस्वीर अपने शयनकक्ष में नहीं लगाई जा सकती है? इन तस्वीरों से ऐसा क्या प्रभाव होता है कि इन्हें लगाने की मनाही की गई है?
वास्तव में यह हमारी मानसिकता को प्रभावित कर सकता है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही लगाने को कहा गया है, बेडरूम में नहीं। चूंकि बेडरूम हमारी नितांत निजी जिंदगी का हिस्सा है जहां हम हमारे जीवनसाथी के साथ वक्त बिताते हैं। बेडरूम से ही हमारी सेक्स लाइफ भी जुड़ी होती है। अगर यहां भगवान की तस्वीर लगाई जाए तो हमारे मनोभावों में परिवर्तन आने की आशंका रहती है। यह भी संभव है कि हमारे भीतर वैराग्य जैसे भाव जाग जाएं और हम हमारे दाम्पत्य से विमुख हो जाएं। इससे हमारी सेक्स लाइफ भी प्रभावित हो सकती है और गृहस्थी में अशांति उत्पन्न हो सकती है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही रखने की सलाह दी जाती है।
जब स्त्री गर्भवती होते है तो गर्भ में पल रहे बच्चे में अच्छे संस्कारों के लिए बेडरूम में बाल गोपाल की तस्वीर लगाई जाती है। ताकि उसे देखकर गर्भवती महिला के मन में अच्छे विचार आएं और वह किसी भी दुर्भावना, चिंता या परेशानी से दूर रहे। मां की अच्छी मानसिकता का असर बच्चे के विकास पर पड़ता है।
क्यों जरूरी हैं सूर्यास्त से पहले भोजन?
जैन समाज में नियमों का बड़ा महत्व है। पूरी दिनचर्या के लिए कई नियम तय कर दिए गए हैं। सुबह से लेकर शाम तक के लिए तरह-तरह के नियम और सिद्धांत निश्चित हैं। ये सिद्धांत न केवल धार्मिक रूप से आवश्यक हैं बल्कि पूरी तरह से वैज्ञानिक भी हैं। ऐसा ही एक नियम शाम का भोजन सूर्यास्त के पहले करना। कई लोग इस बात को अभी तक पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं कि आखिर इस नियम के पीछे क्या कारण है।
दरअसल यह नियम व्यक्ति के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर बनाया गया है। सूर्यास्त के पहले भोजन करने से न केवल पाचन तंत्र ठीक रहता है बल्कि हम कई तरह की बीमारियों से भी बच जाते हैं। कई तरह के बैक्टिरिया और अन्य जीव हमारे भोजन के साथ शरीर में प्रवेश नहीं कर पाते।
इस नियम के पीछे सबसे बड़ा कारण है कि सूर्यास्त के बाद मौसम में नमी बढ़ जाती है और इस नमी के कारण कई तरह के सूक्ष्म जीव और बैक्टिरिया उत्पन्न हो जाते है। सूर्य की रोशनी में ये गरमी के कारण पनप नहीं पाते हैं और सूर्यास्त के साथ ही जैसे ही नमी बढ़ती है ये जीव सक्रिय हो जाते हैं। रात को भोजन करने में इन सूक्ष्म जीवों का हमारे शरीर में प्रवेश हो जाता है। जिससे कई तरह की बीमारियों की आशंका रहती है। इसलिए जैन समाज के विद्वानों ने रात के समय भोजन करने को निषेध माना है।
तीर्थों में क्यों है स्नान का महत्व?
हम किसी भी तीर्थ पर जाएं वहां एक व्यवस्था समान होगी, उस तीर्थ का कोई जलस्रोत बहुत प्रसिद्ध होगा और वहां स्नान का महत्व भी होगा। कई तार्थों में तो कुंडों में ही स्नान कराया जाता है। आखिर तीर्थों में स्नान को इतना महत्व क्यों दिया गया है? कई तीर्थों में तो यह तक व्यवस्था तय है कि आप भले ही होटल या घर से नहाकर ही दर्शन करने गए हों, फिर भी वहां नहाए बिना दर्शन नहीं हो सकते।
वास्तव में इस व्यवस्था को समझने के लिए हमें तीर्थ शब्द को समझना पड़ेगा। संस्कृत में तीर्थ कहते हैं उन सीढिय़ों को जल तक जाती हैं। यानी नदी, तालाब या कुंडों के किनारे बने घाट। तीर्थ किसी मंदिर से जुड़ा शब्द नहीं है, यह वहां के जलस्रोतों से जुड़ा है। वास्तव में पानी का ही महत्व है। पानी को इस सृष्टि का सबसे शुद्ध तत्व माना गया है। बिना पानी शरीर पर डाले शुद्धिकरण नहीं हो सकता। जल को ही परमब्रह्म भी माना है, वेदों ने। हम तीर्थों के जल में स्नान करते हैं, इसका संकेत यह है कि हम उस परमात्मा में विलीन होना चाहमे हैं, उसी के रंग में रंगना चाहते हैं। बाहर और भीतर दोनों ओर से हम उसके बनना चाहते हैं।
दूसरा एक महत्वपूर्ण कारण विभिन्न जगहों की भूमि और वहां के पानी में मौजूद खनिजों, औषधीय गुणों का लाभ भी हमारे शरीर को मिले। तीर्थ या तो पहाड़ों पर या फिर किसी नदी-समुद्र के किनारे मौजूद होते हैं। यहां के पानी में विशेष औषधीय गुण होते हैं क्योंकि पहाड़ों और नमी वाली जगहों पर उगने वाली वनस्पति के गुण इसमें होते हैं, जो हमारे शरीर के लिए लाभकारी होते हैं।
क्यों किया जाता है अस्थि संचय?
हिंदू धर्म के 16 संस्कारों में से एक अंतिम संस्कार के समय मृत व्यक्ति की अस्थियों का संचय किया जाता है। इन अस्थियों को पूरे दस दिन सुरक्षित रख ग्यारहवें दिन से इनका श्राद्ध व तर्पण किया जाता है। आखिर किसी की अस्थियों का संचय क्यों किया जाता है? हड्डियों में ऐसी कौन सी विशेष बात होती है जो शरीर के सारे अंग और हिस्से छोड़कर उनका ही संचय किया जाता है?
वास्तव में अस्थि संय का जितना धार्मिक महत्व है उतना ही वैज्ञानिक भी। हिंदू धर्म में मान्यता है कि मृत्यु के बाद भी व्यक्ति की सूक्ष्म आत्मा उसी स्थान पर रहती है जहां उस व्यक्ति की मृत्यु हुई। आत्मा पूरे तेरह दिन अपने घर में ही रहती है। उसी की तृप्ति और मुक्ति के लिए तेरह दिन तक श्राद्ध औ भोज आदि कार्यक्रम किए जाते हैं। अस्थियों का संख्य प्रतीकात्मक रूप माना गया है। जो व्यक्ति मरा है उसके दैहिक प्रमाण के तौर पर अस्थियों संचय किया जाता है।
अंतिम संस्कार के बाद देह के अंगों में केवल हड्डियों के अवशेष ही बचते हैं। जो लगभग जल चुके होते हैं। इन्हीं को अस्थियां कहते हैं। इन अस्थियों में ही व्यक्ति की आत्मा का वास भी माना जाता है। जलाने के बाद ही चिता से अस्थियां इसलिए ली जाती हैं क्योंकि मृत शरीर में कई तरह के रोगाणु पैदा हो जाते हैं। जिनसे बीमारियों की आशंका होती है। जलने के बाद शरीर के ये सारे जीवाणु और रोगाणु खत्म हो जाते हैं और बची हुई हड्डियां भी जीवाणु मुक्त होती हैं। इनको छूने या इन्हें घर लाने से किसी प्रकार की हानि का डर नहीं होता है। इन अस्थियों को श्राद्ध कर्म आदि क्रियाओं बाद किसी नदी में विसर्जित कर दिया जाता है।
वैष्णवों में भगवान का बाल रूप ही क्यों पूजा जाता है?
हर पंथ और मत के अपने आराध्य देवता होते हैं। वैष्णवों में भगवान कृष्ण के बाल रूप को पूजा जाता है। घर के बच्चे जैसी उनकी देखभाल की जाती है।। उन्हें वे सारी सेवाएं दी जाती हैं, जैसी देखभाल कोई इंसान अपने बच्चे के लिए करता है। आखिर वैष्णवों में भगवान का बाल रूप ही क्यों सबसे ज्यादा पूजा जाता है? बालक कृष्ण के स्वरूप में ऐसी कौन-सी खास बात है जो इतने बड़े संप्रदाय में पूजनीय है?
इस सवाल का सारा आधार बहुत दार्शनिक है। यह पूरी तरह मानवीय संवेदना और मनोदशा पर आधारित है। दरअसल भगवान का बाल रूप मन में हर तरह इंसान के मन में प्रेम और वात्सल्य जगाता है। जब हम भगवान की प्रतिमा की सेवा एक जीवित बालक की तरह करते हैं तो मन में हमेशा प्रेम, सद्भाव, दया, करूणा और आदर जैसे भाव पैदा होते हैं, जो हमारे आध्यात्मिक और वैयक्तिक विकास के लिए जरूरी है। इससे हमारे भीतर किसी के प्रति दुर्भावना नहीं आती है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इससे हमारे जीवन में व्यवहारिक और आध्यात्मिक अनुशासन भी आता है। भगवान का बाल रूप जीवित मानकर पूजा करने से हमारी दिनचर्या में नियमितता आती है।
हर काम समय पर, सावधानी से करने की आदत भी पड़ जाती है। भगवान का यह स्वरूप मन में प्रेम जगाता है, जिससे वैष्णव किसी छोटे का भी अपमान नहीं करते, उससे बड़े प्रेम से ही पेश आते हैं।
सुबह ही क्यों पढ़े जाते हैं धर्म ग्रंथ?
हिंदू दिनचर्या हो या मुस्लिम, हर धर्म में सुबह ईश्वर की आराधना के साथ ही धर्म ग्रंथों को पढ़ने का भी नियम बनाया गया है। हिंदू गीता, रामायण या कोई अन्य धर्म ग्रंथ पढ़ते हैं तो मुस्लिम कुरान-शरीफ, ईसाई बाइबिल आदि पढ़ते हैं। अधिकतर नियमबद्ध धार्मिक लोगों की दिनचर्या इसी से शुरू होती है। आखिर धर्म ग्रंथ सुबह ही क्यों पढ़े जाते हैं? क्या सुबह के समय इनको पढ़ने से कोई विशेष फल मिलता है या फिर यह केवल एक रूढ़ी मात्र है?
दरअसल यह हमारी विचारधारा, मानसिकता और स्वास्थ्य के लिए तय किया गया है कि धर्म ग्रंथ सुबह ही पढ़े जाएं। हालांकि धर्म ग्रंथ कभी भी पढ़े जा सकते हैं लेकिन सुबह पढ़ने से इसके स्वास्थ्य संबंधी लाभ होते हैं। सुबह के समय हमारा शरीर और मन दोनों स्फूर्ति भरे होते हैं। ताजगी का एहसास होता है और दिमाग में किसी प्रकार का दबाव नहीं होता। सुबह धर्म ग्रंथ पढ़ने से इनकी बातें और विचार हमारे दिमाग में दिनभर चलते हैं, जिससे हमारे स्वास्थ्य और व्यवहार दोनों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। सुबह पढ़ी गई चीजें हमें लंबे अरसे तक याद रहती हैं और हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बनती हैं।
वहीं अगर हम दिन या शाम के वक्त धर्म ग्रंथों को पढ़ते हैं तो उनकी बातें वैसा प्रभाव नहीं बना पाती, इसका मुख्य कारण है कि दिन में हम कामकाज में व्यस्त रहते हैं और इसी चिंता और कई तरह की बातें हमारे दिमाग में चलती रहती हैं, इस कारण ये वैसा प्रभाव नहीं बना पाती।
श्राद्ध में क्यों बनाते हैं खीर-पूड़ी?
जिस प्रकार मनुष्य के जीवन में जिन्दगी का महत्व है उसी प्रकार मौत को भी महत्वपूर्ण माना गया है। हिन्दू धर्म मान्यताओं के अनुसार मौत के बाद ही आत्मा दूसरा शरीर धारण करती है। इन्हीं मान्यताओं के तहत अंतिम संस्कारों के पश्चात मृत आत्मा के प्रति अपने प्रेम और विश्वास को प्रदर्शित करते हुए उन्हें खीर-पूड़ी का भोग लगाया जाता है।
क्या कभी ऐसा सोचा है कि श्राद्ध पक्ष में खीर-पूड़ी का ही भोग क्यों लगाया जाता है? सभी प्रकार के व्यंजनों के होते हुए भी खीर-पूड़ी को ही प्रमुखता क्यों? दरअसल श्राद्ध पक्ष मनाने के पीछे धार्मिक कारण तो है ही इससे हमारा स्वास्थ्य भी जुड़ा हुआ है। हिंदू उत्सव परंपरा में रक्षा बंधन से उत्सवों की शृंखला शुरू होती है, फिर हम इन उत्सवों में गणपति को आमंत्रित करते हैं, गणेश उत्सव मनाते हैं।
इसके बाद पितरों को इन उत्सवों में बुलाया जाता है। श्राद्ध पक्ष को पितरों का उत्सव कहा जाता है। इसमें पितरों को मेहमान मानकर उनका आदर सत्कार किया जाता है।
हमारी संस्कृति के अनुसार मेहमानों का स्वागत हमेशा मिष्ठान से होता है और ये खाद्य पदार्थ मिष्ठान की श्रेणी में आते हैं इसलिए श्राद्ध पक्ष में खीर-पूड़ी बनाकर पितरों के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित की जाती है।
श्राद्ध पक्ष हमेशा चार्तुमास के दौरान आता है। इसमें सावन और भादौं महीने बारिश के होते हैं। पहले के जमाने में लगातार बारिश के कारण लोग अधिकांश समय घरों में ही व्रत उपवास करके बिताते थे।
अत्यधिक व्रत-उपवास के कारण शरीर कमजोर हो जाता है। इसलिए श्राद्ध पक्ष के पंद्रह दिनों तक खीर-पूड़ी खाकर व्रती अपने आप को पुष्ट करते हैं। इसलिए श्राद्ध में खीर-पूड़ी बनाने की मान्यता है।
श्राद्ध में कौऐ को भोजन क्यों कराते हैं?
श्राद्ध पक्ष में पितरों की पसंद का भोजन बनाकर उसका भोग लगाया जाता है। जैसा की सभी जानते हैं कि श्राद्ध पक्ष पितरों का उत्सव है इसलिए कई प्रकार के मिष्ठान बनाकर पितरों को उसका भोग लगाया जाता है। पर क्या आप जानते हैं कि पितरों को भोजन अर्पित करने से पहले कौऐ को उसका भोग क्यों लगाया जाता है?
क्या कारण है कि श्राद्ध पक्ष शुरू होते ही एकायक कौऐ की खोजबीन शुरू हो जाती है?
हिन्दू पुराणों ने कौऐ को देवपुत्र माना है। यह मान्यता है कि इन्द्र के पुत्र जयंत ने ही सबसे पहले कौऐ का रूप धारण किया था। यह कथा त्रेता युग की है जब राम ने अवतार लिया और जयंत ने कौऐ का रूप धर कर सीता को घायल कर दिया था।
तब राम ने तिनके से ब्रह्मास्त्र चलाकर जयंत की आंख फोड़ दी थी। जब उसने अपने किए की माफी मांगी तब राम ने उसे यह वरदान दिया की कि तुम्हें अर्पित किया गया भोजन पितरों को मिलेगा। बस तभी से श्राद्ध में कौओं को भोजन कराने की परंपरा चल पड़ी है। दरअसल आपने गौर किया होगा कि कौआ काना यानि एक आंख वाला होता है। मतलब उसे एक ही आंख से दिखाई देता है। यहां हिन्दू मान्यताओं में पितरों की तुलना कौऐ से की गई है।
जिस प्रकार कौआ एक आंख से ही सभी को निष्पक्ष व सम भाव से देखता है उसी प्रकार हम यह आशा करते हैं कि हमारे पितर भी हमें समभाव से देखते हुए हम पर अपनी कृपादृष्टि बनाए रखें। वे हमारी बुराईयों को भी उसी तरह स्वीकार करें जिस प्रकार अच्छाईयों को स्वीकारते हैं। यही कारण है कि श्राद्ध पक्ष में कौऐ को ही पहले भोजन कराया जाता है।
पितरों का तर्पण नदी किनारे ही क्यों?
श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण मुख्य कर्म माना गया है। हर किसी की यह कामना होती है कि उसके मरने के बाद उसका पुत्र विधि-विधान से श्राद्ध तर्पण करे ताकि संसार में दोबारा जन्म न लेना पड़े।
यह प्रथा पुरातनकालीन भारतीय हिन्दू परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग रही है। तर्पण भी हमेशा नदी के किनारे ही किया जाता है। कभी सोचा है कि तर्पण हमेशा ही नदी किनारे क्यों किये जाते हैं? क्या और कोई भी स्थान है जहां तर्पण दिए जा सकते हों? इतिहास गवाह है कि संसार की सभी सभ्यताएं नदी किनारे ही फली-फूली हैं।
इसलिए नदियों को प्राचीन काल से ही पवित्र माना गया है।हर पावन कार्य इनके किनारों पर ही पूरा होते हैं और चूंकि तर्पण को भी पवित्र माना जाता है इसलिए तर्पण हमेशा नदी के किनारों पर ही संपन्न होते हैं। ऐसी मान्यता है कि जल में तर्पण करने से उसका आहार सीधे हमारे पितरों को मिलता है। प्राणी की उत्पत्ति भी जल से होती है और मरने के पश्चात उसकी अस्थियों को भी जल में ही विसर्जित किया जाता है।
जल को बड़ा ही पवित्र माना गया है। जल ही जीवन है- के कारण भी जल की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। जल को ही बह्म मानते हुए उसे अन्तिम स्थान माना गया है। वेदों व पुराणों ने भी जल को ही सबसे श्रेष्ठ माना है। जल से ही शुद्धि और पूर्ण तृप्ति होती है, इसलिए तर्पण हमेशा नदी के किनारे ही होते हैं।
क्यों किया जाता है पूर्णिमा पर दान?
हिंदू रीति-रिवाजों और मान्यताओं के अनुसार हर कार्य के लिए कुछ दिन तय किए गए हैं। दान के लिए पूर्णिमा को महत्वपूर्ण माना गया है। कहते हैं किसी भी माह की पूर्णिमा को दान करने से इसका बहुत ज्यादा फल मिलता है। आखिर पूर्णिमा को ही दान क्यों किया जाए? इसके पीछे क्या कारण और दर्शन है? कौन सी बात है जो पूर्णिमा को इतना खास बनाती है? पूर्णिमा पर नदियों में स्नान के बाद दान का महत्व क्यों है?
इस परंपरा के पीछे दार्शनिक कारण भी और वैज्ञानिक भी। पूर्णिमा पर नदियों में स्नान और फिर उसके बाद दान, दोनों अलग-अलग विषय है। स्नान सीधे हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा और दान हमारे व्यवहार से। पूर्णिमा पर चंद्रमा की रोशनी सबसे ज्यादा होती है। इससे कई ऐसी किरणें निकलती हैं जो नदियों के पानी, वनस्पति और भूमि पर औषधीय प्रभाव डालती हैं। इसलिए पूर्णिमा पर नदियों में स्नान करने से उस औषधीय जल का प्रभाव हम पर भी होता है, जिससे हमें स्वास्थ्यगत फायदा होता है।
नदी में स्नान के बाद दान का महत्व इसलिए है कि चंद्रमा मन का अधिपति होता है। चंद्रमा की किरणों से युक्त जल में स्नान करने से मन को शांति और निर्मलता आती है। दान का महत्व इसीलिए रखा गया है क्योंकि जब हम शांत और निर्मल होते हैं तो ऐसे समय अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का विकास हो। दान करने से मन पर सद्भाव और प्रेम जैसी भावनाओं का प्रभाव बढ़ता है। इससे हमारे व्यक्तित्व का सकारात्मक विकास होता है।
नवरात्रि में पूजा के नौ दिन ही क्यों?
हर साल में दो बार पडऩे वाली नवरात्रि को मां शक्ति की आराधना के लिए सबसे उपयुक्त समय माना जाता है। शक्ति के साधक इस समय का बेसब्री से इंतजार करते हैं। इन दिनों तांत्रिक साधनाओं में भी अद्भुत वृद्धि हो जाती है। कहते हैं कि ये समय तंत्र-साधनाओं के लिए भी एकदम उपयुक्त होता है।
पर क्या कभी सोचा है कि नवरात्रि में पूजा-अर्चना के मात्र 9 दिन ही क्यों होते हैं? जब नवरात्रि में पूजा पाठ का इतना ही महत्व है तो 9 दिन से अधिक की नवरात्रि क्यों नहीं मनाते? नवरात्रि मूलत देवी यानि शक्ति की आराधना का पर्व है। यह पर्व प्रकृति में स्थित शक्ति को समझने और उसकी आराधना करने का है।
शक्ति के नौ रूपों को ही मुख्य रूप से पूजा जाता है। शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा देवी, कूष्मांडा देवी, स्कंद माता, कात्यायनी, मां काली, महागौरी और सिद्धिदात्री- ये देवी के नौ रूप हैं जिनको नवरात्रि के नौ दिनों में पूजा जाता है। जिस प्रकार नवरात्रि के नौ दिन पूजनीय होते हैं उसी तरह नौ अंक भी प्राकृत होते हैं। शून्य से लेकर नौ तक की अंकावली में नौ अंक सबसे बड़ा है। फिर साधना भी नौ दिन की ही उपयुक्त मानी गई है। किसी भी मनुष्य के शरीर में सात चक्र होते हैं जो जागृत होने पर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
नवरात्रि के नौ दिनों में से 7 दिन तो चक्रों को जागृत करने की साधना की जाती है। 8वें दिन शक्ति को पूजा जाता है। नौंवा दिन शक्ति की सिद्धि का होता है। शक्ति की सिद्धि यानि हमारे भीतर शक्ति जागृत होती है।
अगर सप्तचक्रों के अनुसार देखा जाए तो यह दिन कुंडलिनी जागरण का माना जाता है।
इसलिए नवरात्रि नौ दिन की ही मनाई जाती है।
क्यों पवित्र माना जाता है गो-मूत्र?
गो-सामान्य बोलचाल की भाषा में गाय। गाय को हिन्दू संस्कृति में पवित्र माना जाता है। गाय को माता भी कहा गया है। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार गाय में 33 करोड़ देवताओं का वास माना गया है। गाय के पूरे शरीर को ही पवित्र माना गया है लेकिन गाय का मूत्र सर्वाधिक पवित्र माना जाता है। ऐसा क्यों होता है? जिस चीज को अपवित्र कहा जाता हो वही मूत्र जब गाय का होता है तो उसे पवित्र मान लिया जाता है। क्या इसके पीछे भी कोई कारण है?
गोमूत्र में पारद और गन्धक के तात्विक गुण अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। गोमूत्र का सेवन करने पर प्लीहा और यकृत के रोग नष्ट हो जाते हैं। गोमूत्र कैंसर जैसे भयानक रोगों को भी ठीक करने में सहायक है। दरअसल गाय का लीवर चार भागों में बंटा होता है। इसके अन्तिम हिस्से में एक प्रकार एसिड होता है जो कैंसर जैसे भयानक रोग को जड़ से मिटाने की क्षमता रखता है। इसके बैक्टिरिया अन्य कई जटिल रोगों में भी फायदेमंद होते हैं। गो-मूत्र अपने आस-पास के वातावरण को भी शुद्ध रखता है।
क्यों जरूरी है जीवन में मौन?
मौन- सुनने में बड़ा भारी सा लगने वाला शब्द पर वास्तव में बड़ा ही अचूक शस्त्र। शस्त्र इसलिए की इससे बड़े से बड़ा दुश्मन भी नतमस्तक हो जाता है। मौन एक तरह का व्रत है साधना है। मौन-व्रत का सीधा सा मतलब होता है- अपनी जुबान को लगाम देना अर्थात अपने मन को नियंत्रित करते हुए चुप रहना।
मौन का एक अर्थ यह भी होता है अपनी भाषा शैली को ऐसा बनाएं जो दूसरों को उचित लगे। पर क्या मौन इतना ही जरूरी है? क्या मौन के बिना जीवन नहीं चल सकता? मौन की आदत डालने से व्यक्ति कम बोलता है और जब वह कम बोलता है तो निश्चित रूप से सोच समझकर ही बोलता है। इस तरह से वह अपनी जुबान को अपने वश में कर सकता है।
यह बात तो प्रामाणित भी हो चुकी है कि सप्ताह में कम से कम एक दिन मौन रखने से कई आश्चर्यजनक परिणाम मिले हैं। फिर भी यदि मौन पूरे दिन नहीं रख सकते तो आधे दिन का जरूर रखना चाहिए।
बोलने से व्यक्ति के शरीर की शक्ति खत्म होती है। जो जितना ज्यादा बोलता है उसका एनर्जी लेबल, जिसे आन्तरिक शक्ति भी कहते हैं, का नाश होता है। यह आन्तरिक शक्ति शरीर में बची रहे इसलिए भी मौन व्रत जरूरी है।
आकाश में इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है?
बरसात के मौसम में जब कभी आकाश में काले-काले बादल छाए होते हैं तो मन बड़ा प्रफुल्लित होता है। उस पर भी यदि हल्की-फुल्की बारिश के छींटें पड़ जाएं जो ऐसा लगता है मानो प्रकृति आज हम पर दिल खोलकर प्यार बरसा रही है।
ऐसे सुंदर मौसम में आकाश में इन्द्रधनुष उभर आना प्रकृति-प्रेमियों के लिए सोने में सुहागा वाली कहावत सच होने जैसा है। पर आकाश में इन्द्रधनुष क्यों दिखाई देता है? क्या इसकी कोई धार्मिक मान्यता भी है?
हिन्दू धर्म ग्रंथों में इन्द्र को वर्षा का देवता माना जाता है। आकाश में इन्द्रधनुष प्रकट होने का अर्थ यह है कि वर्षा के देवता इन्द्र अपने धनुष सहित नभ मण्डल में वर्षा करने के लिए उपस्थित हैं।
सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। बादल जल वाष्प होते हैं मतलब उनमें वर्षा करने के लिए जल भरा होता है। जैसे ही सूर्य की किरणें बादलों की सतह से टकराती हैं तो वे परावर्तित होती हैं और इन्द्रधनुष यानि सप्तरंगी के रूप में दिखाई देती हैं। बादलों से टकराकर जब सप्तरंगी इन्द्रधनुष बनता है तो लोग आसानी से ये अनुमान लगा लेते हैं कि अभी बादल छाये हुए हैं और बारिश होगी। इन्द्रधनुष के निकलते ही मोर नाचने लगते हैं और हर तरफ खुशी का माहौल बन जाता है।
शनिदेव लंगड़े क्यों हैं?
शनि को ज्योतिष शास्त्र का सबसे कू्र ग्रह माना जाता है। कहते हैं कि जिसकी कुण्डली में शनि नकारात्मक भाव में बैठा हो उसका तो भगवान ही मालिक है। शनि सूर्यदेव के पुत्र हैं ओर इनकी माता का नाम संज्ञा है। कहते हैं शनिदेव लंगड़े हैं। क्या वास्तव में ऐसा है? और यदि ऐसा है तो क्यों शनिदेव लंगड़े हैं?
शनिदेव के लंगड़े होने की एक पौराणिक कथा है। एक बार सूर्यदेव का तेज सहन न कर पाने से संज्ञा ने अपने शरीर से अपनी प्रतिमूर्ति छाया को प्रकट किया और उन्हें पुत्र और पति की जिम्मेदारी सौंप कर तपस्या करने लगीं। उधर छाया भी सूर्यदेव के साथ रहने लगीं। इस बीच छाया से सूर्यदेव को पांच पुत्र उत्पन्न हुए पर वे भी छाया का रहस्य नहीं जान सके। छाया भी अपने बच्चों का ज्यादा ध्यान रखती थीं।
एक बार शनिदेव भूख से व्याकुल होकर छाया के पास गए और उन्होंने उनसे भोजन मांगा। पर छाया ने उनकी बात अनसुनी करते हुए अपने बच्चों को भोजन देना शुरू कर दिया। यह देखते ही शनिदेव को गुस्सा आ गया और अपने क्रोधी स्वभाव के अनुरूप उन्होंने छाया को मारने के लिए अपना पैर उठाया। उसी समय छाया ने शनिदेव को शाप देते हुए कहा कि तेरा यह पैर अभी टूट जाए। बस तभी से शनिदेव लंगड़े हो गए।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनिग्रह बहुत धीमी गति से चलते वाला ग्रह है। यह एक राशि को ढ़ाई वर्ष में पार करता है। इस कारण भी ज्योतिष शास्त्रीय इसे लंगड़ा ग्रह कहते हैं।
क्यों जरूरी है कभी-कभी एकांत?
एकांत का मतलब होता है-अकेलापन। एकांत शब्द का अर्थ ही है एक के बाद अंत अर्थात अकेला। जब भी मनुष्य ने जीवन के अनसुलझे प्रश्रों के उत्तर ढ़ूंढऩे का प्रयास किया है उसने एंकात की तलाश की है। क्या एकांत हमारे जीवन में इतनी बड़ी भूमिका निभाता है? क्यों जरूरी है कभी-कभी एकांत में रहना? जब भी हम अकेले होते हैं तब हमारी गति बाह्य न होकर आंतरिक होती है। एकांत के क्षणों में मैं से सामना अपने आप हो जाता है।
वैसे भी सभी सभ्यताएं इस बात पर जोर देती हैं कि कैसे भी मैं से साक्षात्कार हो जाए। आत्म-साक्षात्कार के लिए एकांत सहायक तत्व है इसीलिए अंतर्मुखी व्यक्ति हमेशा एकांत की तलाश में रहता है।
अनगिनत महान आत्माओं ने एकांत में ही अपने आप को पहचान पाया है।
यह तो सर्वविदित है कि भीड़ हमेशा ही निर्माण की भूमिका निभाने की बजाय विनाश ज्यादा करती है, इसलिए भीड़ को मूर्खता का प्रतीक माना जाता है। एकांत के कारण फैसले लेना काफी सुविधाजनक होता है।
एकांत जीवन के लिए बहुत आवश्यक होता है। इससे हमें अपने अंर्तमन में झांकने का मौका मिलता है और हम अपना मूल्यांकन खुद ही कर सकते हैं।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष
बहुत अच्छी जानकारी मिली धन्यवाद
ReplyDeleteआपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार...
Deleteमनीष जी,जानकारी उपयोगी है पर,अभी विज्ञान इतनी तरक्की नहीं की है कि वेद की बराबरी कर सके इसलिये हर परम्परा को विज्ञान की कसोटी पे तोलना उचित नहीं है।जिसे हिन्दू परम्परा पे विश्वास है वो श्रद्धा से पालन करें और जिसे नहीं है वो ना करें।जैसे ISIS वालों को परमाणु बम का थ्योरी समझाना उचित नहीं, वैसे ही हिन्दू परम्परा की रहस्य सभी को समझाना उचित नहीं।
ReplyDeleteआपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार.
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