गांधीजी ने किया बेगारी का विरोध
गांधीजी की दांडी यात्रा चल रही थी।
यात्रा दिन में भी चलती थी और रात में रोशनी के लिए एक मजदूर गैस की भारी बत्ती
लेकर चलता था। चूंकि गांधीजी की चाल बहुत तेज थी, अत: उस मजदूर को यह भारी बोझ लेकर तेज गति से चलना पड़ता था। कभी-कभी तो
यह स्थिति हो जाती थी कि मजदूर को गैस बत्ती लेकर दौडऩा पड़ता था। जब गांधीजी ने
यह दृश्य देखा तो वे बहुत दुखी हुए।
उनका यह दुख एक दिन किसी गांव में
भाषण देते हुए इन शब्दों में व्यक्त हुआ, ‘मैंने
देखा है कि आप लोगों ने रात के सफर के लिए एक भारी गैस बत्ती का प्रबंध किया है।
उसे एक गरीब मजदूर अपने सिर पर एक तिपाई के ऊपर रखकर चलता है। उसे तेज चलने के लिए
मजबूर किया जा रहा है।
मैंने जब यह दृश्य देखा, तो मुझे बहुत कष्ट हुआ, इसलिए एक रात मैंने अपनी चाल तेज कर ली और सारी टोली से आगे निकल गया,
किंतु मेरा ऐसा करना व्यर्थ रहा। उस गरीब को मेरे
पीछे-पीछे दौडऩे के लिए विवश किया गया। उचित तो यह था कि हममें से कोई वह बोझ लेकर
चलता। आज से कोई मजदूर ऐसा बोझ अपने सिर पर उठाकर नहीं ले जाएगा। हम बेगार का
विरोध करते हैं, जबकि दूसरी ओर हम गरीबों से बेगार
करवा रहे हैं।
ऐसा करने से वह स्वराज मिलना संभव
नहीं होगा, जिसका सपना हम देखते हैं।’ उस यात्रा में तो यह बेगार बंद हो गई, किंतु देश की स्वतंत्रता के 6६ वर्ष बाद भी यह
हमारे यहां जारी है। इसका निश्चित रूप से विरोध होना चाहिए। समाज के कमजोर तबके के
प्रति संवेदना परक सोच रखने पर ही उसका विकास संभव है, क्योंकि यही सोच इस वर्ग के लिए कुछ करने का जज्बा पैदा करती है।
बिना मेहनत का धन संतोष नहीं देता
एक सेठ ने अपने जीवन में खूब
धन-संपत्ति अर्जित की। वृद्ध होने पर वह अपने बेटों को व्यापार सौंपकर भगवद् भजन
में रम गया। धार्मिक कार्यों में उसने स्वयं को जब समर्पित किया तो परिजनों ने भी
उसकी इस भावना का आदर किया। एक दिन सेठ सुबह की पूजा से निवृत्त हो मौन में बैठा
था तभी एक व्यक्ति उसके पास आया और नमस्कार कर बोला, क्रमेरे पिता
रमणीक लालजी और आपके पिता के मध्य प्रगाढ़ मित्रता थी। संकट के दिनों में आपके
पिता ने मेरे पिता की बहुत सहायता की। इस कारण मेरे पिता का व्यापार ठीक से जम गया
और हमारी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई।
आपके पिता का यह ऋण तो हम सात जन्मों
में भी नहीं उतार सकते, किंतु मैं श्रद्धावश ये एक हजार
स्वर्ण मुद्राएं आपके लिए लाया हूं। कृपया इन्हें स्वीकार कीजिए। चूंकि सेठ उस समय
मौन में था, अत: कुछ नहीं बोला। वह व्यक्ति
स्वर्ण मुद्राओं की थैली उसके सामने रख हाथ जोड़कर चला गया। मौन समाप्त होने के
बाद सेठ ने अपने बेटों को बुलाया और थैली उस व्यक्ति को वापस करने के लिए कहा।
बेटे स्वर्ण मुद्राएं लौटाने के पक्ष
में नहीं थे। यह देख सेठ भरे गले से बोला, बेटा! जिस
माया-मोह से मैं विरक्त हो गया हूं, उसे फिर से अपनाना
नहीं चाहता। न तुम्हें बिना परिश्रम के प्राप्त ऐसे धन को स्वीकार करने की सलाह
दूंगा। मैं चाहता हूं कि तुम लोग अपनी मेहनत की कमाई के बल पर प्रगति करो। बेटों
ने पिता की भावना को समझा और थैली उस व्यक्ति को लौटा दी। परिश्रम की कमाई में
अवर्णनीय सुख होता है। बिना मेहनत के प्राप्त धन आलस्य को बढ़ाता है और मन को
संतोष भी नहीं देता।
गांधीजी ने महादेव भाई को दंडित किया
वर्ष 1933 की घटना है। गांधीजी उस समय दलितों के लिए संपूर्ण देश का दौरा कर उनके
विकास के लिए पैसा एकत्रित करते और उसे दलित कोष में जमा कर देते। गांधीजी लोगों
से अपील करते व उनकी बातों से प्रभावित होकर लोग दान करते। गांधीजी उस पैसे को
दलितों के विकास संबंधी योजनाओं में व्यय करते थे।
इस कार्य के लिए जो भी रकम आती उसका
हिसाब उनके निजी सचिव महादेव भाई रखते थे। वे दिनभर में जो पैसा जमा होता, उसे बही में लिखते जाते और रात को बैठकर हिसाब करते थे। एक
दिन जब महादेव भाई हिसाब करने बैठे तो देखा कि एक हजार दो (१००२) रुपए कम हैं।
उन्होंने बार-बार जोड़कर देखा किंतु पैसे कम ही निकले। हुआ यह था कि उन्हें दिन
में पांच सौ एक, पांच सौ एक की दो थैलियां दान में
मिली थीं, जिन्हें किसी ने चुरा लिया था। चोरी किसने
की यह पता लगाना असंभव था। महादेव भाई बहुत दुखी हुए। इस बीच किसी ने जाकर गांधीजी
को चोरी की सूचना दे दी।
गांधीजी ने सुनते ही कहा, 'यह रुपया महादेव को अपनी जेब से भरना होगा।' सूचना देने वाले व्यक्ति ने कहा, 'बापू! महादेव भाई ने वह रुपया नहीं लिया, फिर वे क्यों भरेंगे?' तब गांधीजी बोले,
'महादेव ने रुपया भले ही न लिया हो, किंतु जिम्मेदारी तो उसी की है। यह जनता का पैसा है और इसकी
भरपाई महादेव को करनी होगी। उससे अपने कर्तव्य निर्वाह में चूक हुई है।' आखिर महादेव भाई ने अपनी जेब से वह रकम चुकाई। सच्चा लोक सेवक
वही होता है जो जनहित के प्रत्येक पक्ष पर आत्मसमर्पित रहे और जिसे स्वयं से अधिक
दूसरों की चिंता हो।
राष्ट्र भाषा होती है राष्ट्र की
रीढ़
बाइबिल में एक अत्यंत प्रेरणास्पद
कहानी आती है। किसी नगर के राजा ने अपनी राजधानी में एक सुंदर मीनार बनवाने का
निश्चय किया। उसकी यह इच्छा थी कि मीनार पर भले ही खूब धन खर्च हो जाए, किंतु वह ऐसी शानदार बने कि उसकी चर्चा सारी दुनिया में हो।
उसे देखने के लिए विदेशों तक से लोग आएं। राजा को स्थानीय कारीगरों से यह उम्मीद
नहीं थी कि वे ऐसी उम्दा मीनार बना पाएंगे। इसलिए उसने अलग-अलग देशों के उत्कृष्ट
कारीगरों को बुलाया। जब वे सभी आ गए तो राजा ने एक दिन मीनार के स्थान का भूमिपूजन
करवाया।
अगले दिन से काम शुरू हुआ, लेकिन शीघ्र ही एक बहुत बड़ी कठिनाई आ गई। बाहर से आए कारीगर
अलग-अलग देशों के थे इसलिए वे एक-दूसरे की भाषा नहीं समझते थे। परिणाम यह हुआ कि
कारीगर जब ईंट मांगता तो मजदूर मसाला देता था और जब कारीगर मसाला मांगता तो मजदूर
ईंट पहुंचा देता। ऐसा काफी समय तक चलता रहा। राजा भी इस बात से बहुत परेशान हुआ।
इस असामंजस्य के कारण मीनार नहीं बन
सकी और राजा ने सभी कारीगरों को धन्यवाद सहित उनके देश लौटा दिया। बाइबिल की यह
कहानी प्रतीकात्मक है। यहां संकेत यह है कि जब भाषा के अभाव में एक मीनार नहीं बन
सकी तो बिना राष्ट्रभाषा के किसी राष्ट्र का निर्माण कैसे संभव है? हम सभी को इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि राष्ट्रभाषा किसी
राष्ट्र की रीढ़ होती है। इसलिए हिंदी के अधिकाधिक उपयोग के द्वारा हमें भारत को
एकता की डोर में बांधकर उसके विकास को सुनिश्चित करना चाहिए।
जब संतों ने लिया विपरीत का सहारा
किसी वन में दो संत रहते थे। वे
एकांत में अपनी ध्यान-साधना में लीन रहते। उन्हें दुनिया से कोई सरोकार रखना पसंद
नहीं था। कभी-कभार यात्रियों का कोई दल वहां से गुजरता था तो अवश्य उनसे ये संत
बातचीत कर लेते। इन्हीं यात्रियों के द्वारा वहां के राजा को उनके विषय में ज्ञात
हुआ। वह इन दोनों से मिलने रवाना हुआ। जब संतों को पता चला तो उन्होंने सोचा कि
यदि राजा ने हमसे मिलकर हमारी भलाई देखी तो वह बार-बार हमसे मिलने आएगा। इस कारण
हमारी ध्यान-साधना में बाधा पड़ेगी।
अत: ऐसा कोई तरीका अपनाना चाहिए,
जिससे राजा हमें सामान्य व्यक्ति ही समझे। दोनों ने एक
उपाय सोचा। जब राजा का लाव-लश्कर कुटिया के पास पहुंचा तो दोनों संत बाहर निकलकर
लडऩे लगे। दोनों ने अपने हाथों में एक-एक डंडा ले रखा था। एक संत ने कहा, तू स्वयं को क्या समझता है? मैंने इतना ज्ञान अर्जित किया, जितना तू
सात जन्मों में भी नहीं कर सकता।
तब दूसरे संत ने चिढ़कर अपनी आवाज
ऊंची की- अपने ज्ञान की डींग मत हांक। तुझसे ज्यादा तो मेरे शिष्यों ने ज्ञानार्जन
किया है।ञ्ज पहले ने हाथ का डंडा ऊंचा कर कहा- तू काहे का संत। दिन भर खाता रहता
है। दूसरे ने तत्काल जवाब दिया- तू कौन सा महात्मा है? खाने और सोने से तुझे फुर्सत मिले, तो साधना करेगा न!
राजा ने जब यह दृश्य देखा, तो वह निराश हुआ और उन्हें सर्वथा सामान्य व्यक्ति समझकर वहां
से चला गया। राजा के जाने पर संतों ने राहत महसूस की और पूर्ववत अपनी-अपनी साधना
में रम गए। वृहत्तर उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कई बार विपरीत मार्ग का अवलंबन
लेना पड़ता है, जो दिखता गलत है, किंतु अंतत: वह कल्याण की राह ही प्रशस्त करता है।
मोह के कारण गई लड़के की जान
दोनों पढ़ाई-लिखाई, घूमना-फिरना साथ ही करते थे। एक बार दोनों नदी किनारे घूमने
गए। दोनों ही बड़े अच्छे तैराक थे। नदी में दोनों ने काफी देर मस्ती की। तभी वहां
स्थानीय प्रशासन की ओर से सूचना दी गई कि नदी से बाहर निकल आएं, क्योंकि बांध से पानी
छोड़ा जा रहा है। दोनों मित्र पानी से बाहर निकल आए। जब बांध से पानी नदी में
छोड़ा गया तो बाढ़ जैसा दृश्य निर्मित हो गया। जय और विजय सुरक्षित स्थान पर बैठकर
यह नजारा देखने लगे।
तभी दोनों ने देखा कि नदी की धारा के
मध्य में एक कंबल बहता हुआ आ रहा है। विजय को कंबल का लालच हो आया। जय ने उसे बहुत
रोका, किंतु विजय पानी में कूद गया। लेकिन कंबल के
पास पहुंचकर उसने जैसे ही उसे खींचकर ले जाने की कोशिश की, उसका संतुलन गड़बड़ा गया।
कंबल पानी में भीगकर बहुत भारी हो
गया था। पानी का बहाव भी बहुत तेज था। ऐसे में कंबल लेकर तैरना असंभव था। विजय
जितना जोर लगाकर किनारे की ओर आने का प्रयास करता, बड़ी-बड़ी लहरें उसे पीछे की ओर फेंक देतीं। अपने मित्र की ऐसी दुर्दशा
देखकर जय चिल्लाया, क्रविजय! कंबल फेंक दो और लौट आओ।
किंतु विजय ने कहा, मैं तो कंबल को छोड़ रहा हूं,
किंतु यह कंबल मुझे नहीं छोड़ रहा है।
जय समझ गया कि विजय के मन में कंबल
के प्रति मोह जागृत हो गया है। विजय ने कंबल सहित किनारे पर आने की बहुत कोशिश की,
किंतु वह नाकाम रहा और अंतत: वह पानी में डूब गया। मोह
सदैव संकट का कारण बनता है। इसलिए अपने मन को संयम की डोर से बांधे रखना चाहिए।
नीति का मार्ग छोडऩे पर तय है पतन
रामायण में एक अत्यंत प्रेरणास्पद
प्रसंग आता है। जब श्रीराम यह जान गए कि सीता को लंका का अधिपति-रावण हरण कर ले
गया है तो उन्होंने सीता को मुक्त कराने के लिए पहले रावण को हनुमान और अंगद के
माध्यम से समझाने का प्रयास किया। इसके बाद भी जब वह नहीं माना तो राम के पास
युद्ध के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचा। उन्होंने अपनी वानर-सेना लेकर लंका की ओर
प्रस्थान किया।
जब देखा कि बीच में विशाल समुद्र है
तो समुद्र को पार करने के लिए सेतु निर्माण का निर्णय लिया गया। पूरी वानर-सेना इस
काम में मुस्तैदी के साथ जुट गई। राम नाम लिखकर जब पत्थर समुद्र में डाले जाते तो
वे डूबते नहीं और पुल तैयार होता जाता था। हनुमान भी तत्परता से पत्थर उठाकर लाते
और राम का नाम लिखकर उसे पानी में डाल देते। जब श्रीराम ने सभी को स्फूर्ति से काम
करते देखा तो उन्हें भी इस कार्य में सहयोग करने की इच्छा हुई। उन्होंने एक पत्थर
उठाया और पानी में डाला। वे यह देखकर चकित रह गए कि पत्थर पानी में टिकने के स्थान
पर डूब गया। फिर क्या था? उन्होंने कई
पत्थर पानी में डाले किंतु सभी डूब गए। उन्होंने हनुमान से पूछा, हनुमान! मुझे छोड़कर सभी के पत्थर पानी पर तैर रहे हैं! मेरे
पत्थर पानी में क्यों डूब रहे हैं?
हनुमान, श्रीराम की ओर देखकर मुस्कराए और बोले, क्रप्रभु! इसका एक ही अर्थ है जो आपके हाथ से छूटेगा, वह बिना डूबे नहीं रहेगा और जो राम नाम के साथ रहेगा, वह तर जाएगा। यह प्रसंग प्रतीकात्मक है। यहां श्रीराम नीति के
पर्याय हैं। आशय यह है कि जो व्यक्ति नीति के मार्ग का त्याग करता है, उसका पतन सुनिश्चित है। अत: नीति का पालन हमेशा करें।
राजकुमार ने जानी कर्म की महत्ता
एक राजा ने अपने पुरुषार्थ से राज्य
को समृद्ध बना दिया था। राज्य में प्रजा बड़ी सुखी थी, क्योंकि वह प्रत्येक वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर काम करता था। जब
राजा वृद्ध हुआ तो उसे योग्य उत्तराधिकारी की चिंता सताने लगी। क्योंकि उसे लगता
कि योग्य उत्तराधिकारी के बिना सुव्यवस्था, अव्यवस्था में बदल जाएगी और प्रजा की परेशानी बढ़ जाएगी। हालांकि राजा का
एक बेटा था, किंतु वह अत्यधिक आलसी और कर्महीन
था। वह स्वयं को मालिक समझता और शेष सभी को अपना गुलाम। यह अहंकार उसके आचरण में
सदैव झलकता था।
राजा उसे सुधारने के उद्देश्य से एक
साधु के आश्रम में छोड़ आया। साधु ने अगले ही दिन राजकुमार को आदेश दिया, वत्स! यहां से पांच कोस पर एक जंगल है। तुम वहां जाकर फूलों
के कुछ पौधे ले आओ और उन्हें आश्रम के अहाते में लगा दो। यह सुनते ही राजकुमार को
बड़ा क्रोध आया, क्योंकि उसने तो आदेश देना ही सीखा
था। चूंकि उसके पिता ने साधु की बात मानने को कहा था इसलिए वह मन मारकर जंगल गया
और फूलों के पौधे लाकर आश्रम में लगा दिए। राजकुमार ने उन्हें सींचा और जानवरों से
बचाने के लिए उनकी रात-दिन रखवाली की।
कुछ महीनों में सारा आश्रम
भांति-भांति के सुंदर फूलों से खिल उठा। राजकुमार अपनी मेहनत का ऐसा फल देखकर बहुत
प्रसन्न हुआ। साधु ने उसे शाबाशी देते हुए समझाया, वत्स! याद रखो, जो सोता है, उसका भाग्य भी सो जाता है और जो चलता है, उसका भाग्य निरंतर उसके साथ चलता है। अब राजकुमार कर्मठ बन चुका था। राजा
को अपना योग्य उत्तराधिकारी मिल गया था। कर्म, सफलता की कुंजी है। अत: सदैव कर्मरत रहना चाहिए।
प्रकृति में निहित शांति पाने के
उपाय
एक महात्मा नदी किनारे एकांत में
अपनी कुटिया में रहते थे। उन्होंने कुटिया
के चारों ओर हरे-भरे वृक्ष लगा रखे थे, जिन पर
सुबह-शाम पक्षियों का कलरव गूंजता रहता था। प्रकृति का यह मधुर सान्निध्य महात्मा
को सदैव आनंदित रखता था। पक्षी और पेड़-पौधे तो मानो उनका परिवार ही बन गए थे। एक
दिन महात्मा प्रात:कालीन पूजन कर उठे ही थे कि द्वार पर उन्हें एक सेठजी खड़े नजर
आए। उन्हें चिंताग्रस्त देख महात्मा ने उनसे समस्या जाननी चाही। सेठजी बोले,
क्रमहाराज! मेरे पास विशाल संपदा है, भरा-पूरा परिवार है और मुझे कोई रोग भी नहीं है।
फिर भी मुझे नींद नहीं आती, रातभर करवटें ही बदलता रहता हूं। महात्मा आत्मीयता से सेठजी
के सिर पर हाथ फेरकर बोले, क्रसेठ! तुम्हारे
पास सब कुछ भले ही हो, किंतु वह नहीं है, जो नींद के लिए आवश्यक है। सेठ ने पूछा, क्रवह क्या है, महाराज? महात्मा बोले, क्रतुम चारों ओर
चिंताओं से घिरे हो। धन-संपत्ति की चिंता, व्यापार-व्यवसाय
की चिंता, परिवार की चिंता। स्मरण रखो कि चिंता और चैन
में शत्रुता है।
सेठ ने इससे बचने का उपाय पूछा तो
उन्होंने कहा, क्रतुम प्रकृति से शिक्षा ग्रहण करो।
पेड़, पौधे, फल, पानी और प्रकाश के रूप में उसकी अनंत
संपदा चारों ओर बिखरी हुई है, किंतु वह
चिंतामुक्त है। अपनी इस दौलत को पूरी दुनिया पर दोनों हाथों से सतत लुटाती रहती
है। तुम यदि उससे प्रेरणा लेकर अपना जीवन भी उसके अनुरूप बना लोगे तो तुम्हें न
केवल नींद आएगी बल्कि अतीव शांति महसूस होगी। सेठ ने महात्मा की बात का मर्म समझा
और लोक कल्याण की राह पर चल पड़ा। धन और ज्ञान देने से बढ़ते ही हैं। इसलिए इनके
संग्रह के साथ-साथ इनके दान की वृत्ति भी रखनी चाहिए।
संकट में मिली सहायता ही प्रभु दर्शन
परमात्मा से मिलने का मार्ग दिखाया
संत सादिक ने एक बहुत बड़े सूफी संत थे सादिक। एक दिन एक आदमी आकर कहने लगा,
'मैंने सुना है कि आप अल्लाहताला से एकाकार हो चुके हैं।
मुझे भी उनसे मिलवा दीजिए। यह सुनकर सादिक मुस्कुराए और बोले, ' क्या तुम्हें मालूम नहीं कि मूसा से कहा गया था कि तू मुझे
नहीं देख सकता? यह ईश्वरीय वचन था जो सभी समझदार
जानते हैं। इस पर उस आदमी ने कहा, 'यह बात तो मैं
जानता हूं, किंतु एक शख्स यह भी तो कहता है कि
मेरे दिल ने परवरदिगार को देखा। कोई यह भी कहता है, 'मैं उस भगवान की आराधना करूंगा, जिसके मैं
दर्शन कर सकूं। यह सुनकर सादिक ने कहा,
'इसके हाथ-पैर बांधकर नदी में डाल दो।
ऐसा ही किया गया। वह पानी में
डूबने-उतराने लगा। उसने चिल्ला-चिल्लाकर सहायता मांगी, किंतु कोई आगे नहीं आया। अंत में निराश होकर उसने कहा, 'या अल्लाह! उसके इतना कहते ही संत सादिक ने उसे बाहर निकलवा
लिया। फिर उससे प्रश्न किया, 'क्या तूने अल्लाह
को देखा? वह बोला, 'जब तक मैं दूसरों को पुकारता रहा, तब तक मैं
परदे मंश रहा, किंतु जब अल्लाह से फरियाद की तो
मेरे दिल में एक सुराख खुला। तब संत ने उसे समझाया, 'जब तक तू दूसरों को पुकारता रहा, झूठा था।
जब मूल अर्थात परमात्मा को पुकारा तो
जान बच गई। अब तू इसी सुराख की हिफाजत कर जिससे तुझे ईश्वर का दर्शन होगा। वस्तुत:
संकट में मिली सहायता ही प्रभु दर्शन है। यदि ऐसा मानकर हर अच्छे-बुरे क्षण में
परमात्मा का स्मरण किया जाए तो अंतर्मन में पैदा हुआ विश्वास आत्म साक्षात्कार की
स्थिति लाकर अहं ब्रह्मास्मि का परम बोध करा देता है।
शुकदेव ने पाया जनक से आत्मज्ञान
मुनि शुकदेव महाभारत के रचयिता
वेदव्यास के पुत्र थे। परम ज्ञानी होने के बावजूद उन्हें स्वयं में कोई अभाव
निरंतर महसूस होता था। उन्होंने अपने पिता को यह बात बताई। वेदव्यास पुत्र को
व्यावहारिक धरातल पर इस समस्या से मुक्त कराना चाहते थे। इसलिए उन्होंने शुकदेव को
मिथिला नरेश जनक के पास जाने के लिए कहा। शुकदेव मिथिला पहुंचे तो शानदार
अट्टालिकाएं, भव्य राजमहल, आभूषणों से सज्जित महिलाएं व हरे-भरे उपवनों से सज्जित मिथिला का वैभव
देखकर भी वे इनके प्रति आकर्षित नहीं हुए। महल के द्वार पर द्वारपालों ने उन्हें
कड़ी धूप में देर तक खड़ा रखा किंतु वे जरा भी रुष्ट नहीं हुए, न उन्हें कष्ट हुआ।
महल के भीतर प्रवेश मिला तो उन्हें
एक उपवन में ले जाया गया। वहां मनोहारी
नृत्य चल रहा था, किंतु शुकदेव निरासक्त बैठे रहे। फिर
छप्पन प्रकार के व्यंजनों का भोजन कराया गया किंतु उन्होंने कोई प्रशंसा नहीं की।
रात्रि में सोने के लिए उन्हें आरामदायक पलंग दिया गया, किंतु वे तटस्थ भाव से सो गए। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर ध्यान करने लगे।
महल के वैभव में शुकदेव जल में कमलवत रहे। अगले दिन उन्हें राजा जनक से मिलवाया
गया।
उनसे प्रभावित जनक ने शुकदेव को चरण
स्पर्श कर ऊंचे आसन पर बैठाया। स्वयं उनके समक्ष धरती पर बैठे और बोले, मुनिवर! आप मोह-माया से सर्वथा मुक्त हैं और परम ज्ञानी हैं,
लेकिन आपको अपने इस ज्ञान का भान नहीं है। इसी कारण आप
अपने भीतर अभाव देखते हैं। इतना सुनते ही शुकदेव को आत्मज्ञान हो गया। अपनी
निर्लिप्तता का अहसास हो जाना ही परम सुख व शांति की उपलब्धि है। यही सच्चा संतत्व
है और मनुष्य की श्रेष्ठता का अंतिम बिंदु है।
लाचार की मदद करना सबसे बड़ा धर्म
एक व्यक्ति अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति
का था। वह पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, तीर्थयात्रा को बहुत महत्व देता था। उसने अपने घर में मंदिर बना रखा था,
जिसमें उसने सभी देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा की थी। सुबह
दो घंटे और शाम को दो घंटे पूजा करना उसका नियम था। उसके घर लोग उसकी धार्मिक
भावना का सम्मान करते थे। इसलिए उसके धार्मिक क्रिया-कलापों में सहयोग भी करते थे।
एक दिन उसने अपने पुत्र को कुछ पैसे
देते हुए कहा, बाजार से हवन और पूजन सामग्री ले आ।
आज मुझे मां दुर्गा की पूजा कर हवन करना है। पुत्र बाजार की ओर चला तो रास्ते में
उसने एक वृद्ध और अशक्त भिखारी को देखा। वह चिथड़ों में लिपटा सड़क के किनारे पड़ा
था और कई दिनों से भूखा था। कोई उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहा था। भूख और वृद्धावस्था
ने उसे हर प्रकार से लाचार बना दिया था। लड़के के मन में दया उमड़ आई। वह पास के
भोजनालय मंन गया और खाना खरीदकर भिखारी को खिलाया।
वृद्ध भिखारी की हालत में सुधार नजर
आने लगा था, जिससे लड़का बहुत खुश हुआ। जब लड़का
खाली हाथ घर पहुंचा तो पिता ने सामग्री के बारे में पूछा। लड़का बोला, पिताजी! मुझे क्षमा कीजिएगा। आप जिस पूजन सामग्री से हवन-पूजन
करते, वह हमें मात्र सुख देता, किंतु मैं उन पैसों से किसी को भोजन खिलाकर जीवन देकर आया
हूं।'
यह कहते हुए उसने पिता को सारी घटना
कह सुनाई। पिता ने भावविह्वल हो पुत्र को सीने से लगा लिया और उसके काम पर गर्व
महसूस करते हुए उसे शाबाशी दी। किसी असहाय की सहायता सबसे बड़ा धर्म है और इस धर्म
का पालन करने वाला सच्चा ईश्वर भक्त होता है।
ईश्वरीय वचन ने बदली युवक की राह
सूफी संत मालिक बिन दीदार के पड़ोस
में एक युवक रहता था। वह लोगों को बहुत परेशान करता था। लोगों ने मालिक से शिकायत
की तो वे युवक के पास गए और पूछा, भाई! तू दूसरों
को क्यों सताता है? युवक ने अकड़कर जवाब दिया, मैं यहां का शाही
कर्मचारी हूं। आपको दखल देने का हक नहीं है। मैं जो चाहूं, करूंगा। संत चुपचाप लौट आए।
इसके बाद युवक का दुस्साहस और बढ़
गया। उसने लोगों के साथ अधिक दुव्र्यवहार करना शुरू कर दिया। लोग फिर शिकायत लेकर
पहुंचे तो मालिक ने कहा, वह मेरी सुनता ही
नहीं है। अब तुम्हीं बताओ कि उसे कैसे समझाया जाए? लोगों ने कहा, 'एक बार फिर समझाकर देखिए'।
वे अभी चले ही थे कि उन्हें एक आवाज
सुनाई दी, मेरे दोस्त के घर पर आजार (अनिष्ट) न हो।
संत हैरान रह गए। युवक ने उन्हें देखते ही कहा तुम फिर आ गए! संत ने कहा, तुम्हें समझाने नहीं, एक बात
बताने आया हूं। फिर संत ने उस आवाज के बारे में युवक को बताया। यह बात सुनते ही
युवक भीतर तक कांप गया। उसकी रूह ने मानो कहा, तू कितना भाग्यशाली है, जो ईश्वर ने तुझे
अपना दोस्त कहा।
उस दिन से युवक की दिशा ही बदल गई।
उसने तय कर लिया कि ईश्वर का सच्चा दोस्त बनकर दिखाना है। उसने अपना सब कुछ दान कर
दिया और चला गया। वर्षों बाद मालिक ने उसे मक्का में फटे कपड़ों के साथ बड़ी मस्ती
में देखा। वह उनसे बोला, मैं तो खुदा का
बंदा हूं। वह जो कहेगा, वही करूंगा। ईश्वर से जिसकी लौ लग
जाए वह सभी दुनियावी बुराइयों से दूर हो जाता है। यही आध्यात्मिक ऊंचाई आत्मा में
परमात्मा का साक्षात्कार कराती है।
समय रहते सुधार लें बुरी आदतें
एक व्यापारी था। वह जितना कर्मठ,
मिलनसार, विनम्र और
व्यवहार कुशल था, उसका बेटा उतना ही अकर्मण्य, अहंकारी और जड़ बुद्धि था। उसे सुधारने के व्यापारी के सारे
प्रयत्न विफल रहे। उसने इसका जिक्र उससे मिलने आए अपने मित्र से किया तो वह बोला,
क्रअपने बेटे को कुछ दिन मेरे साथ रहने के लिए भेज दो।
मुझे विश्वास है कि मैं उसे ठीक राह पर अवश्य ला पाऊंगा।
व्यापारी पुत्र पहुंचा तो मित्र ने
अच्छे व्यवहार से उसे अपने विश्वास में ले लिया। फिर एक दिन उसे अपने बगीचे में ले
गया। वहां उसने लड़के से एक फुट के एक पौधे को उखाडऩे के लिए कहा। लड़के ने आसानी
से उसे उखाड़ दिया। इसी प्रकार उसने पिता के मित्र के कहने पर थोड़ा जोर लगाकर तीन
फुट के पौधे को उखाड़ा। छह फुट के पौधे को उखाडऩे के लिए उसे काफी जोर आजमाइश करनी
पड़ी। अंत में वह लड़के को दस फुट के पौधे के पास ले गया और उसे उखाडऩे को कहा,
किंतु लड़के की सारी ताकत विफल हो गई और वह पौधा नहीं
उखाड़ पाया।
तब उसने लड़के को समझाया, बेटे! जब हम किसी बुरी आदत में पड़ जाते हैं तो आरंभ में उसे
दूर कर लेना आसान होता है, जैसे तुमने
शुरुआत के दो पौधे सरलता से उखाड़ लिए। लेकिन जब हम उस आदत को नहीं छोड़ते तो उसकी
जड़ें शेष दो पौधों के समान गहरी हो जाती हैं और फिर उसे छोडऩा कठिन हो जाता है।
लड़का बात का मर्म समझ गया और उसने स्वयं को सुधार लिया। कुप्रवृत्तियों को आचरण का अंग बनने से पूर्व
दूर कर लेना चाहिए, अन्यथा ये व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक क्षति का कारण बनती हैं।
चाणक्य ने दिखाई अनुपम मातृभक्ति
लोकनीति के महान आचार्य चाणक्य के
बचपन की घटना है। चाणक्य अपनी मां का कहा नहीं टालते थे। वे ऐसा कोई काम नहीं करते
थे जिससे उनकी मां का मन दुखी हो।एक दिन चाणक्य की अनुपस्थिति में उनके घर कोई
ज्योतिषी आए। मां ने उन्हें चाणक्य की जन्म पत्रिका दिखाई। पत्रिका देखकर ज्योतिषी
ने कहा, मां! तेरे पुत्र के ग्रह अतीव प्रबल हैं।
तेरा बेटा चक्रवर्ती सम्राट बनेगा। यदि तुझे मेरी बात पर विश्वास न हो तो देखना कि
उसके सामने के दांत पर नागराज का निशान है, जो उसके सम्राट बनने को इंगित कर रहा है।
ज्योतिषी की भविष्यवाणी से मां को
दुखी हो गईं। वे अत्यधिक स्नेह के कारण चाणक्य को सदा अपने पास रखना चाहती थीं।
सम्राट बनने के बाद तो पुत्र राजकाज में इतना व्यस्त हो जाएगा कि उसे मेरा ख्याल
ही नहीं रहेगा। ऐसा सोचकर मां उदास हो गईं। जब चाणक्य लौटे तो मां ने नम आंखों से
सारी बात कह डाली। चाणक्य ने आइने में अपने सामने के दांत पर बना नागराज का चिह्न
देखा और मन में कुछ तय कर घर से निकल गए।
बाहर एकांत में जाकर चाणक्य ने पत्थर
से वह दांत तोड़ दिया। फिर घर आकर मां के समक्ष उसे रखते हुए बोले, यह ले मां! तेरे सामने मेरे लिए चक्रवर्ती सम्राट होने का कोई
मूल्य नहीं है। बेटे का यह त्याग देख मां निहाल हो गईं। मातृभक्ति का यह अनुपम
उदाहरण आज के उन कपूतों के लिए जो अपने अभिभावकों पर हाथ उठाने और उन्हें घर से
निकालने जैसा घोर निंदनीय कृत्य करते हैं। वस्तुत: माता-पिता इस धरती पर प्रत्यक्ष
ईश्वर हैं, जिनकी सेवा कर असीम पुण्य मिलता है।
विश्वास के साथ छल महापाप
एक अरबी लोककथा के मुताबिक अली नामक
एक व्यक्ति के पास बहुत सुंदर व बलिष्ठ घोड़ा था। वह घोड़े की बहुत देखभाल करता था
इसलिए दोनों का एक-दूसरे से गहरा लगाव हो गया था। एक दिन ऊंट के एक व्यापारी जुबेर
ने यह घोड़ा देखा तो वह उस पर मुग्ध हो गया। उसने अली के समक्ष प्रस्ताव रखा,
क्रभाई! तुम मुझसे दो ऊंट ले लो और अपना घोड़ा मुझे दे
दो। किंतु अली ने किसी भी कीमत पर घोड़ा
देने से इनकार कर दिया। जुबेर ने कुटिलता से घोड़ा हासिल करने की साजिश रची।
अगले दिन जुबेर अली के आने-जाने के
रास्ते पर फटेहाल कपड़ों में गरीब व बीमार आदमी का वेश बनाकर बैठ गया। अली जब अपने
घोड़े पर सवार होकर उधर से निकला तो जुबेर ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, मैं बहुत कमजोर हूं। क्या आप मुझे अपने घोड़े पर बैठाकर अगले
गांव तक छोड़ देंगे? दयालु अली ने जुबेर को घोड़े पर बैठा
दिया और स्वयं पैदल चलने लगा। थोड़े आगे जाने पर जुबेर ने लगाम अली से छीनी और
घोड़ा लेकर भाग गया। अली दुखी होकर घर लौट आया। अगले दिन जुबेर ने उसके घर आकर
उसका मखौल उड़ाया, तुमने मेरी विनती नहीं मानी तो मैंने
इस तरह तुम्हारा घोड़ा ले लिया।
अली ने तनिक भी क्रोध न करते हुए कहा,
कोई बात नहीं, मित्र!
किंतु इस बात की चर्चा किसी से मत करना, क्योंकि
यह सुनकर कभी कोई किसी पर दया नहीं करेगा और तब बेचारे गरीब व असहाय लोग मदद को
तरस जाएंगे। अली की बात ने जुबेर की आत्मा को जगा दिया। उसने माफी मांगी और अली को
घोड़ा वापस कर दिया। किसी के विश्वास के साथ छल ऐसा पाप है, जिसका दंड निर्दोष लोग भी भोगते हैं, क्योंकि भरोसे के काबिल होकर भी लोग उन पर भरोसा नहीं करते।
बापू ने दिया संवेदना का संदेश
महात्मा गांधी के आश्रम में कुछ
निर्धन लड़के बाहर से आते थे। वे आश्रमवासी विजया बहन पंचोली से कताई-बुनाई सीखते
थे। चूंकि वे दिन भर आश्रम में रहते थे इसलिए अपना खाना साथ लेकर आते थे। जब दोपहर
में काम से अवकाश मिलता तो वे लोग कुएं के पास बैठकर साथ में लाया खाना खा लेते
थे। तब कुएं पर कपड़े धो रहीं विजया बहन उनसे चर्चा करती थीं।
एक रात को जब विजया बहन बापू के
पैरों में घी की मालिश कर रही थी तो बापू ने पूछा, 'विजया बहन! क्या
अपने पास छाछ रहती है।' जवाब मिला हां, हमेशा रहती है।' यह सुनकर बापू ने
कहा, 'तुम इन बच्चों को खाने के साथ थोड़ी छाछ दे
दिया करो। वे सूखी रोटी खाते हैं, मुझे अच्छा नहीं
लगता।' दो-तीन दिन बाद बापू ने विजया बेन से पूछा,
'तुम उन लड़कों को छाछ दे रही हो?'
विजया बहन ने शर्मिंदा होते हुए कहा,
'बापू! क्षमा कीजिए, मैं तो भूल ही गईं।' बापू बोले, 'नहीं, तुम भूल नहीं सकती। तुम्हारा भूलने का स्वभाव नहीं है।'
विजया बहन ने कहा, 'बापू! विश्वास कीजिए, मैं वास्तव में
भूल गई।' तब बापू बोले, 'तुम भूली नहीं, तुम उन गरीब बच्चों के प्रति लापरवाह
हो गई, क्योंकि यह हमारे संपूर्ण राष्ट्र का स्वभाव
है कि हम गरीबों के प्रति उपेक्षा एवं लापरवाही का भाव रखते हैं।'
विजया बहन ने तो बापू से क्षमा
मांगते हुए अपनी गलती सुधार ली, किंतु आजादी के 66 वर्षों बाद भी गरीबों के प्रति हमारा रवैया वैसा ही उपेक्षा
से भरा हुआ है। इसमें बदलाव लाकर ही हम अपने राष्ट्र को विकास की नई दिशा दे सकते
हैं। वस्तुत: गरीबों के प्रति संवेदना, मानवीयता
की निशानी है। यही संवेदना जब सहायता में बदलेगी तो गरीबों की हालत में सुधार
होगा।
महात्मा ने धैर्य से जीता दुष्टता को
एक महात्मा को कभी किसी ने क्रोधित
नहीं देखा। वे सदैव मुस्कराकर मिलते और प्रत्येक स्थिति में शांत रहते। उनकी
कुटिया के पास एक क्रोधी आदमी रहता था। जब वह महात्मा को सदैव शांतचित्त देखता तो
उन पर उसे बहुत गुस्सा आता। शांति के अपने गुण के कारण महात्मा को मिलने वाले
सम्मान से भी उसे ईष्र्या होती।
एक दिन उसके कुटिल दिमाग में महात्मा
की परीक्षा लेने का विचार आया। उसने अगले दिन महात्मा को भोजन के लिए आमंत्रित
किया। जब महात्मा उसके घर पहुंचे तो वह बोला, क्रखाना तो खत्म हो गया। महात्मा ने सहजता से कहा, कोई बात नहीं, मैं फिर आ जाऊंगा। जब वे जाने लगे तो
उस आदमी ने उन्हें फिर बुलाया और बोला, असली बात
तो यह है कि आपके जैसे पेटू साधुओं को मैं भोजन नहीं कराता।
लोग मूर्ख हैं, जो आपको आदर देते हैं, मगर मैं आपकी असलियत जानता हूं। महात्मा ने शांत भाव से कहा, तुम ठीक कहते हो भाई! अब मुझे आज्ञा दो। यह कहकर वे घर से
बाहर आ गए। उस आदमी ने उन्हें फिर पुकारा। वे जब लौटकर आए तो इस बार वह बोला,
मेरे घर में भोजन तो नहीं है, कुछ पत्थर रखे हैं। यदि खाना चाहो तो तुम उन्हें खा लो। महात्मा ने हंसकर
कहा, भाई! यह तो तुम भी जानते हो कि पत्थर खाने
की वस्तु नहीं है। इतना कहकर वे उसी शांत
भाव के साथ जाने लगे।
महात्मा के धैर्य के समक्ष आदमी की
दुष्टता हार गई। उसने महात्मा के चरणों में गिरकर अपने गलत व्यवहार के लिए क्षमा
मांगी। तब महात्मा ने उसे हृदय से क्षमा कर दिया। कई बार शूल के बदले फूल देने से
बुराई का अंत हो जाता है। इसलिए प्रयास करना चाहिए कि उत्तेजना के क्षणों में
धैर्य रखा जाए और शांति से स्थिति को संभाला जाए।
संकटग्रस्त लोगों की मदद परम मानव
धर्म
एक साधु ने घने जंगल में स्थित किसी
गुफा में बैठकर कई वर्षों तक तपस्या की, किंतु
प्रभु दर्शन की उनकी इ'छा पूर्ण नहीं हुई। एक दिन हिमालय से
एक बुजुर्ग संत आए। साधु ने उन्हें अपनी इच्छा बताई। वे बोले, पास के गांव में एक भिक्षुक रहता है। इस परम आनंदित भिक्षुक
को देखकर लगता है कि भगवान उससे बहुत प्रसन्न हैं। तुम उससे मिलो। साधु अगले दिन
भिक्षुक से मिलने पहुंचे तो वह मस्ती में झूमता एक चबूतरे पर बैठा भजन गा रहा था।
साधु ने उससे पूछा, ‘भाई! तूने ऐसे कौन से सत्कर्म किए हैं कि भगवान तुझ पर इतने
प्रसन्न हैं और तू इतने आनंद में है? भिक्षुक बोला,
‘मैंने तो कोई सत्कर्म नहीं किए। न मैं मंदिरों में गया,
न दान-पुण्य किया। न कभी व्रत-उपवास व पूजा-पाठ किया।
साधु ने जब पूछा कि वह भिक्षुक कैसे बना तो उसने बताया, ‘मैंने एक दिन रास्ते में एक महिला को रोते हुए देखा। पूछा तो पता चला कि
उसके पति और पुत्र को महाजन ने कर्ज न चुकाने पर बंधक बना लिया और घर भी छीन लिया
है। युवा होने के कारण दुष्ट लोग उस पर गलत दृष्टि रखते थे।
उसका कष्ट मुझसे देखा न गया। उन्हें
छुड़ाने के लिए मैंने अपनी सारी संपत्ति लगा दी, लेकिन वह भी कम पड़ गई। फिर मैंने अपना घर भी बेच दिया और उन्हें छुड़ा
लिया। इस परिवार को सुखी देखकर मुझे बहुत संतोष मिला। तभी से मैं भिक्षुक हूं।
भगवद् भजन करते हुए जो मिल जाता है, उसे खाकर परम सुखी
रहता हूं। मैंने उस महिला की मदद कर इंसानी फर्ज निभाया, यही मेरे आनंद की वजह है। साधु ने उस भिक्षुक में ईश्वर के दर्शन कर लिए
और उन्हें भी अपने जीवन का सही लक्ष्य मिल गया। संकटग्रस्तों की सहायता परम मानव
धर्म है। ऐसा करने पर ही समाज नैतिक रूप से संपन्न बनता है।
सच्ची प्रार्थना से श्रद्धालु ने
पाया जीवन
एक संत नि:स्वार्थ और पवित्र भाव से
सादा जीवन व्यतीत करते थे। उनका सिद्धांत था, न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।
सभी से प्रेम से बोलते और कोई स्नेह से बुलाता तो सहज भाव से चले जाते। किंतु
दान-दक्षिणा कभी ग्रहण न करते। एक बार एक श्रद्धालु बहुत बीमार हो गया। उसने काफी
चिकित्सा कराई किंतु स्वस्थ नहीं हुआ। जब उसे यह अहसास हुआ कि उसका अंतिम समय किसी
भी क्षण आ सकता है, तो उसने संत को स्मरण किया, जिन्हें वह गुरु मानता था।
उसके परिजन संत को ले आए। संत ने
स्नेहपूर्वक उसके सिर पर हाथ फेरा तो वह बोला, महाराज! जीवन के इस अंतिम समय में आप मुझे दुआ दें ताकि मेरे सभी पाप धुल
जाएं और मैं शांति से मर सकूं। संत ने कहा, वत्स! पहले तुम परमेश्वर से अपने उन अपराधों के लिए क्षमा मांगो, जो तुमने जाने-अनजाने किए हैं। श्रद्धालु ने अपने हाथ जोड़कर
भगवान से अपने गुनाहों की माफी मांगी। तत्पश्चात संत ने ईश्वर से प्रार्थना की,
हे प्रभु! जिस प्रकार तूने इसे इसके अपराधों का भान
कराया, उसी प्रकार मेरी प्रार्थना स्वीकार कर और
इसे चंगा कर दे।
संत की प्रार्थना ईश्वर के दरबार में
स्वीकृत हुई और आश्चर्यजनक रूप से श्रद्धालु कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गया।
स्वस्थ होने पर श्रद्धालु ने एक बड़ी धनराशि संत को भेंट करनी चाही, किंतु उन्होंने यह कहते हुए लेने से इंकार कर दिया कि जिसे
ईश्वर ने अपनी शरण प्रदान की है, उसके लिए धन-दौलत
की कोई कीमत नहीं है। मैं अपनी निष्कामता में ही परम सुख पाता हूं। सच्चे हृदय से
की गई प्रार्थना में बड़ा बल होता है। अत: ईश्वर के समक्ष सदैव निष्पाप भाव से
जाना चाहिए।
पुत्र ने पिता को कराया गलती का
अहसास
एक सेठ ने अपने व्यापार के लिए किसी
व्यक्ति से कुछ रकम उधार ली। जब लौटाने की बारी आई तो कन्नी काटने लगा। उसने अपने
पुत्र से कह दिया कि जब वह व्यक्ति पैसे मांगने आए तो कह देना कि पिताजी घर पर
नहीं हैं। बेचारा कर्ज देने वाला रकम मांगने आता तो सेठ के घर में होने के बावजूद
लड़का इंकार कर देता। कई दिन तक वह व्यक्ति आता और खाली हाथ लौटता रहा।
एक दिन सेठ ने पाया कि उसकी जेब से
सौ रुपए गायब हैं। उसने बार-बार गिनकर देखा, लेकिन पैसे कम ही निकले। उसे हैरानी हुई, क्योंकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। उन्होंने घर के सभी लोगों से पूछा,
किंतु सभी ने अनभिज्ञता जाहिर की। सेठ ने बहुत विचार
किया कि बाहर से कोई आदमी घर में नहीं आया, फिर पैसे कहां चले गए? अंतत: उसे अपने
पुत्र पर शंका हुई। उसने प्रेम से पूछताछ करने पर लड़के ने इंकार किया, लेकिन जब सख्ती बरती तो लड़के ने मान लिया कि रुपए उसने ही
लिए थे। सेठ बहुत नाराज हुआ।
उन्होंने लड़के को तमाचा मारा और
डांटने लगा, झूठे! मक्कार! अपने पिता से झूठ
बोलते हुए तुझे शर्म नहीं आई? लड़के ने बिना
देर किए जवाब दिया, पिताजी! आप भी तो इतने दिन से उस
आदमी से झूठ ही बोल रहे हैं। वह आता है और मैं कह देता हूं कि आप घर में नहीं हैं,
जबकि आप घर में ही मौजूद रहते हैं। तो फिर मैंने झूठ
बोलकर क्या गलत किया? झूठ बोलना आपने ही तो सिखाया है। सेठ
को अपनी गंभीर भूल का अहसास हुआ। उसने पुत्र से क्षमा मांगी और अपना कर्ज उसी दिन
चुका दिया। संस्काररूपी नींव पर बच्चों का व्यक्तित्व विकसित होता है और यह नींव
बड़ों द्वारा ही डाली जाती है। बेहतर यही है कि बड़े, सदाचरण के द्वारा बच्चों को सही शिक्षा दें।
बेहतर वर्तमान में है जीवन की
सार्थकता
दो राहगीर साथ-साथ जा रहे थे। दोनों
के बीच किसी विषय पर चल रही बातचीत विवाद में बदल गई। एक राहगीर कह रहा था,
मेरे सामने तुम्हारी कोई हस्ती नहीं है। मेरे पास ऐसी
निधियां हैं, जो अनमोल हैं। दूसरा मुंह बिचकाते
हुए बोला, तुम्हारे पास जो अनमोल निधियां हैं, वे कोई मूल्य नहीं रखतीं, क्योंकि मुर्दों की कोई कीमत नहीं होती। पहले ने फिर तर्क रखा, मेरी तिजोरी में जो बंद है, उसकी कीमत तुम क्या समझोगे?
वास्तव में व्यक्ति उसी पर जीता है।
दूसरा व्यंग्य से हंसते हुए बोला, व्यक्ति को
मुर्दे नहीं, सपने जिंदा रखते हैं। यदि आदमी के
पास सपने न हों, आशा न हो, तो वह मर ही जाएगा। यही तो उसके जिंदा रहने का आधार है, जो मैं उसे देता हूं। इन दोनों राहगीरों में पहला, बीता हुआ कल, अर्थात अतीत था
और दूसरा आने वाला कल अर्थात भविष्य। दोनों में से कोई हार मानने को तैयार नहीं
था। तभी एक तीसरा राहगीर उधर से निकला।
दोनों की बात सुनने के बाद तीसरा
राहगीर पहले राहगीर से बोला, भाई! जो बीत गया,
वह आने वाला नहीं है। अत: उसकी स्मृति में समय गंवाना
ठीक नहीं है। फिर उसने दूसरे राहगीर से कहा, भाई! तुम्हारा भी कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि जो भविष्य के विचारों में डूबा रहता है, वह कभी, कहीं नहीं पहुंच सकता। असली हस्ती तो
मेरी है। मेरा नाम वर्तमान है अर्थात सामने का क्षण।
जो सामने के क्षण को अतीत या भविष्य
के चक्कर में खो देता है, वह कहीं का नहीं
रहता। इसलिए जीवन उन्हीं का सार्थक है, जो
वर्तमान में जीते हैं। दोनों राहगीर विवाद समाप्त कर अपनी-अपनी राह चल दिए।
वर्तमान को बेहतर बनाने की कोशिश करनी चाहिए। यदि वर्तमान श्रेष्ठ होगा तो वही बाद
में उत्तम अतीत कहलाएगा और अच्छे भविष्य की नींव भी रखेगा।
वृद्धा ने खोली राजा की आंखें
एक शौकीन मिजाज राजा था और ऐशो आराम
की चीजों पर काफी व्यय करता था। उसने एक महल का निर्माण करवाया जिसकी सुंदरता
देखते ही बनती थी। राजा ने महल में खूबसूरत सरोवर बनवाए, जिनमें रंग-बिरंगी मछलियां तैरतीं, कमल के फूल खिलते। बाग-बगीचे लगवाए जिनमें सुंदर फूलों की छटा सभी को
मुग्ध कर देती थी। राजा इस महल में आकर अतीव प्रसन्न था। एक दिन राजा ने देखा कि
महल की बगल से धुंआ उठकर आ रहा है।
यह देखते हुए राजा की त्यौरियां चढ़
गईं। उसने पहरेदारों से पूछा, क्रयह धुंआ कहां
से आ रहा है? पहरेदार बोले, महाराज! पास में ही एक वृद्धा की झोपड़ी है। धुंआ वहीं से आ रहा है। राजा
ने नाराजी से कहा- जाकर उस वृद्धा से कहो कि वह अपनी झोपड़ी यहां से हटा ले।
पहरेदारों ने वृद्धा को राजा का आदेश सुनाया, तो वह बोली, अपने राजा से कह दो कि मैं अपनी
झोपड़ी नहीं हटाऊंगी। पहरेदारों से वृद्धा का इंकार जानकर राजा बहुत कुपित हुआ।
उसने वृद्धा को पेश होने का हुक्म दिया।
जब वह आई तो राजा बोला, ऐ बुढिय़ा! तू अपनी झोपड़ी क्यों नहीं हटाती? मेरी आज्ञा नहीं मानेगी तो दंड भुगतना होगा। तब वृद्धा ने
विनम्रता से कहा, महाराज! आपका हुक्म सिर-आंखों पर,
किंतु मेरी एक बात का उत्तर दीजिए। आप समर्थ हैं। आपकी
दृष्टि कभी मेरी झोपड़ी पर नहीं गई। कभी आपने विचार नहीं किया कि महल और झोपड़ी के
फासले को कम किया जाए। वृद्धा की बात ने राजा की आंखें खोल दीं। उस दिन से उसने
वृद्धा सहित सभी निर्धनों की सहायता के लिए अपना खजाना खोल दिया। गरीबी और अमीरी
के बीच की खाई तभी पाटना संभव होता है जब अमीर, गरीबों के प्रति संवेदनशील हों और सहयोग का भाव रखते हों।
बच्चों ने बुद्ध में देखा सच्चा
संतत्व
एक बार भगवान बुद्ध कहीं जा रहे थे।
मार्ग में कुछ देर विश्राम के लिए वे आम के एक पेड़ के नीचे रुक गए। वहीं पास में
बच्चे खेल रहे थे। अचानक बच्चों की दृष्टि आम के पेड़ पर लगे रसीले आमों पर गई।
उन्होंने पत्थर मारकर आम तोडऩा शुरू कर दिया। आम नीचे गिरने लगे तो बच्चे प्रसन्न
हो गए। वे बच्चे आम खाने लगे। बुद्ध भी आनंदित होकर यह सब देख रहे थे।
बच्चों की बाल-सुलभता उन्हें सुख दे
रही थी। अचानक बच्चों द्वारा आम पर फेंका एक पत्थर भगवान बुद्ध को आ लगा। उनके सिर
से खून निकलने लगा। यह देखकर बच्चे घबरा गए। उनका खेल बंद हो गया और उनकी
प्रसन्नता गायब हो गई। वे बुद्ध के पास जाकर बोले, हम लोगों से बड़ी भूल हो गई। आप हमें क्षमा कर दीजिए। बुद्ध की आंखों में
आंसू नजर आ रहे थे। उन्होंने कहा, तुम मेरे लिए
बिल्कुल परेशान मत हो। मैं ठीक हूं। तुम लोग जाकर खेलो। किंतु बच्चों ने बुद्ध की
आंखों में आंसू देखकर समझा कि उन्हें बहुत कष्ट हो रहा है। वे लोग बोले, आपको सचमुच बहुत चोट लगी है। उसी दर्द के कारण आपकी आंखों में
आंसू आ गए हैं।
तब बुद्ध ने कहा, बच्चो! मुझे चोट का दर्द नहीं है, किंतु एक दुख अवश्य है। बच्चों के पूछने पर वे बोले, तुमने पेड़ को पत्थर मारे तो बदले में उसने तुम्हें आम दिए।
मुझे दु:ख इस बात का है कि पत्थर मारने के बदले मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दे सका।
बुद्ध की इस महानता को देखकर बच्चे उनके प्रति श्रद्धा-भाव से भर गए। सच्चा संत
वही होता है, जिसकी दृष्टि में लेना नहीं, देना अहम होता है। वस्तुत: जो समाज को नैतिक दृष्टि से संपन्न
बनाकर कल्याण की राह पर ले जाए, वही संत कहलाने
के योग्य होता है।
ज्ञान से संभव है विकार मुक्त होना
कुछ युवक परस्पर अच्छे मित्र थे। एक
दिन वे प्रसन्न मन से भ्रमण पर निकले, किंतु साथ
में पानी रखना भूल गए। आरंभिक दो घंटे तो युवक बड़ी मौज-मस्ती व हंसी मजाक करते
हुए चले, किंतु फिर सभी थक गए। गर्मी की तीखी धूप में
सभी पसीने में नहा गए। प्यास भी लग रही थी। अब सभी को इस भूल का अहसास हुआ कि पानी
साथ में नहीं रखा। चूंकि रहवासी इलाका काफी पीछे छूट चुका था, अत: पानी का कोई स्रोत भी नहीं था।
प्यास के मारे सभी की हालत खराब होने
लगी। नदी, झरने की तलाश में उनकी आंखें भटकने लगीं। एक
युवक तो जमीन पर यह कहते हुए बैठ गया, अब मुझसे
नहीं चला जाएगा। प्राण कंठ में आ गए हैं। बाकी सभी उसे हिम्मत बंधाने लगे। तभी
उनकी दृष्टि कुछ दूरी पर फैली हरियाली पर गई। उनमें से एक ने कहा, वहां पानी अवश्य होगा, अन्यथा इतनी हरियाली नहीं होती। आशा ने उनके पैरों को गति दी। वे सभी वहां
आए, तो देखा कि पेड़ों के झुरमुट के बीच एक कुआं
है। प्यासे युवक की जान में जान आई।
पास में ही पानी निकालने के लिए एक
डोल और रस्सी भी मिल गई। कुआं गहरा था, किंतु
रस्सी लंबी होने के कारण डोल पानी तक पहुंच गया। उन्होंने डोल में पानी भरकर उसे
ऊपर खींचा, किंतु आश्चर्य, डोल में पानी नहीं आया। जब ध्यान से उन्होंने डोल को देखा तो
पाया कि उसके तले में कई छेद थे।
अंतत: सभी पानी होते हुए भी प्यासे
रह गए। कथा में संकेत यह है कि हमारे पास भी ज्ञान रूपी घट है, किंतु काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे
बड़े-बड़े छेद होने के कारण हमें शांति व संतोष नहीं मिल पाते और सदैव दुखी व
असंतुष्ट बने रहते हैं। वस्तुत: ज्ञान के आलोक में विकार मुक्तता की अवस्था को
पाया जा सकता है।
व्यापारी ने संत से समझा धर्म का
मर्म
एक व्यापारी बड़ा ही धार्मिक
प्रवृत्ति का था। निरंतर दान-पुण्य करता रहता और गरीबों की मदद करता। असहायों व
नि:शक्तों के लिए वह देवता के समान था। उसके पास जो भी आता, खाली हाथ कभी नहीं लौटता था। उसने अनेक धर्मशालाएं, अनाथालय तथा वृद्धाश्रम बनवाए।
अनाथ बच्चों और बेसहारा लोगों को
मुक्त हस्त से दान दिया, किंतु उसके मन को
शांति नहीं मिली। वह सदैव इसी चिंता में रहता था कि अब तक जो भी काम किए, वे अपर्याप्त हैं। अभी तो और भी बहुत सारे काम करने हैं। इसी
चिंता और तनाव में वह प्राय: अस्वस्थ भी हो जाता था।
एक दिन उसके शहर में किसी संत का
आगमन हुआ। व्यापारी यह सोचकर संत के पास गया कि वे उसे इस बारे में कुछ दिशाबोध दे
पाएंगे। वह जैसे ही संत के समक्ष बैठा, वे उसकी
चिंता और अवसाद को समझ गए। उन्होंने पूछा- किस चिंता में घुले जा रहे हो बंधु?
व्यापारी ने अपने सभी धर्म-कर्म का विवरण देते हुए अंत
में कहा, महाराज!
मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि धर्म के
इतने काम करने के बावजूद मुझे सच्ची शांति क्यों नहीं मिलती? संत मुस्कराकर बोले, तुम्हारे
इस कथन में ही तुम्हारी चिंता का रहस्य छिपा है कि तुम धर्म करते हो। वस्तुत: धर्म
करना नहीं, यह अपने आप होना चाहिए। जिस प्रकार
मनुष्य अनायास सांस लेता, उसी प्रकार
अनायास उसका प्रत्येक कर्म होना चाहिए। जब तक तुम्हारे अंदर कर्तापन की भावना
रहेगी, तुम चिंताग्रस्त ही रहोगे।
गांधीजी ने अंग्रेजी बोलने पर फटकारा
वर्षों पहले की बात है। काशी हिंदू
विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह हो रहा था। कुलपति थे डॉ. सर्वपल्ली
राधाकृष्णन। दीक्षांत भाषण देने के लिए देश की एक महान हस्ती को आमंत्रित किया गया
था। हिंदू विश्वविद्यालय राष्ट्रीय विश्वविद्यालय था और उसके अधिष्ठाता भारतीय
संस्कृति के परम उपासक थे, किंतु समारोह की
सारी कार्यवाही अंग्रेजी में हुई। यह देखकर मुख्य अतिथि को बहुत दुख हुआ। उन्होंने
अपने विचार इन शदों में व्यक्त किए।
हम हिंदुस्तानी अंग्रेजों को यह कहकर
गालियां देते हैं कि उन्होंने हिंदुस्तान को गुलाम बनाकर रखा, किंतु यह नहीं देखते कि अंग्रेजी के तो हम स्वयं गुलाम बन गए
हैं। मैं इस गुलामी के लिए अंग्रेजों को जिम्मेदार नहीं समझता। हम अपने बच्चों को
अंग्रेजी सीखने के लिए प्रेरित करते हैं और स्वयं भी इसके लिए बड़ा परिश्रम करते
हैं। बेहतर अंग्रेजी बोलने पर मिली प्रशंसा पर हम गर्वित हो जाते हैं।
अभी यहां जो भी कार्यवाही हुई,
जो कुछ पढ़ा या कहा गया, उसे आम जनता तो समझ ही नहीं सकी। फिर भी हमारी जनता कुछ भी न समझ में आने
पर भी यह सोचकर संतोष कर लेती है कि हमारे नेता कुछ अच्छा ही कह रहे होंगे,
लेकिन इससे उसे कोई लाभ नहीं होता। हम जो ज्ञान अंग्रेजी
में बघार रहे होते हैं, उसका एक अंश भी जनता तक नहीं
पहुंचता।
ये मुख्य अतिथि थे- महात्मा गांधी,
जिनकी खरी बात सुनकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के
अधिकारियों के सिर लज्जा से झुक गए। अपनी बोलचाल व कामकाज की भाषा के रूप में
हिंदी को दृढ़ संकल्प के साथ अपनाएं, तो यह सही मायनों
में राष्ट्रभाषा बनेगी और भारत को एकता का एक मजबूत आधार देगी।
विवेक लाता है विचार व कार्य में
संतुलन
किसी नगर की अदालत में दो आदमियों के
बीच विवाद का मामला आया। पहला आदमी बोला, क्रइसने
मेरा सिर फोड़ दिया। देखिए, इतना खून निकला
कि मरहम पट्टी करवाना पड़ी। दूसरे ने चिढ़कर कहा, हुजूर! देखिए, मेरा भी सिर इसने जख्मी कर दिया है।
न्यायाधीश ने पूछा, तुम्हारे बीच झगड़े की वजह क्या है?
पहला आदमी बोला, ‘इसे मैंने बताया कि मैं खेत खरीद रहा हूं, तो इसने कहा कि मैं एक भैंस खरीद रहा हूं। तब मैंने समझाया कि
भैंस मत खरीद, किंतु यह नहीं माना। दूसरे ने तत्काल
कहा, मैंने भी इसे कहा था कि खेत मत खरीद,
किंतु इसने मेरी उपेक्षा कर दी। तब न्यायाधीश ने पहले से
प्रश्न किया, तुमने इसे भैंस खरीदने से क्यों रोका?
वह बोला माई बाप! मेरे खेत में जब फसल आती तो भैंस खेत
में आकर उसे खा जाती। दूसरे आदमी ने भी दलील दी, फसल को देखकर मेरी भैंस लालच में आकर उसे खाने चली जाती। हुजूर।
मैं हर वक्त तो उसे रोकने के लिए
मौजूद नहीं रह सकता। न्यायाधीश ने पूछा, तुम्हारा
खेत कहां है और तुम्हारी भैंस कहां है? दोनों ने
बताया कि अभी न खेत खरीदा गया है और न भैंस। जब न्यायाधीश ने दोनों को समझाया एक
दूसरे के सिर उन चीजों के लिए फोड़ डाले, जो थीं ही
नहीं।
आवेश में बुद्धिमानी का त्याग करके
तुम लोगों ने जो किया, वह अंतत: तुम्हारी हानि का कारण बना।
अब बेकार की बातों में लडऩा छोड़कर प्रेम से रहो। दोनों ने गलती महसूस की और पुन:
मित्र बन गए। अविवेकी, काल्पनिक और व्यर्थ बातों पर बहस
करते हैं, जो कई बार बड़ी हानि का कारण बन जाती है।
बेहतर तो यह है कि अपनी विचारधारा को विवेक सम्मत बनाकर कार्य करें, जिससे व्यवहार और निर्णय की दिशा ठीक हो।
न्यायाधीश ने युवराज को सजा सुनाई
ब्रिटेन में तब राजा हेनरी चतुर्थ का
राज्य था। उसके पुत्र युवराज हेनरी पंचम के प्रिय नौकर को किसी अपराध में अदालत ने
सजा सुना दी। युवराज गुस्से में उबलता हुआ अदालत पहुंचा और न्यायाधीश को नौकर को
छोडऩे का हुक्म दिया। न्यायाधीश ने कहा, ‘इसका
अपराध साबित हो चुका है, मैं इसे नहीं
छोड़ सकता। फिर भी आप इसे छुड़ाना चाहते हैं तो सम्राट से क्षमा-प्रार्थना कीजिए।
इस पर युवराज आपे से बाहर हो गया,
क्योंकि उसकी दृष्टि में वह भावी राजा था इसलिए
न्यायाधीश को उसका आदेश मान लेना था। वह नौकर को बलपूर्वक छुड़वाने के लिए आगे
बढ़ा। इस पर न्यायाधीश ने उसे अदालत से बाहर निकल जाने का आदेश दिया। अब तो उसे
इतना गुस्सा आया कि वह न्यायाधीश को मारने के लिए लपका, किंतु उनकी कठोर मुद्रा देखकर रुक गया। तब न्यायाधीश ने कहा, युवराज! न्याय की रक्षा करना मेरा दायित्व है। आपको भविष्य
में जिस प्रजा पर शासन करना है, वह कानून का
सम्मान करे, इसके लिए आपको स्वयं वैसा आचरण करना
चाहिए। आपने कानून तोड़ा और अदालत का अपमान किया इसलिए मैं आपको कैद की सजा देता
हूं।
युवराज को अपनी गलती पर पश्चाताप हुआ
और वह बिना विरोध किए जेल चला गया। जब उसके पिता सम्राट को इस घटना के विषय में
पता चला तो उन्होंने यह कहते हुए प्रसन्नता प्रकट की, जिस राज्य में कानून की रक्षा करने वाला ऐसा न्यायाधीश है, वह सच में सुखी है। वह राजा भी सुखी है, जिनका बेटा कानून का उल्लंघन करने पर सहर्ष जेल चला जाता है।
पक्षपातरहित होकर किया गया निर्णय ही सही अर्थों में न्याय कहलाता है। अत:
न्यायाधीश के पद पर आसीन व्यक्ति की दृष्टि में सभी समान होने चाहिए।
प्रमाणों से सिद्ध सत्य ही विश्वास
योग्य
जंगल के एकांत में स्थित एक साधु की
कुटिया की ओर एक युवक और युवती का आना
हुआ। दोनों कुटिया के पास मौजूद नदी किनारे जाकर बैठकर बात करने लगे। साधु ने उन
दोनों को एकांत में बैठे देखकर सोचा कि दोनों कितने चरित्रहीन हैं, जो अपने माता-पिता से छिपकर मिल रहे हैं। युवती किसी बात पर
रो रही थी और युवक उसके आंसू पोंछ रहा था। साधु दोनों के विषय में बहुत कुछ अनर्गल
सोच लिया।
साधु की तंद्रा अचानक मची चीख-पुकार
से टूटी। उन्होंने देखा कि नदी की तीव्र धारा के बीच में एक नाव पलट गई है और
उसमें सवार पांच लोग डूबने लगे हैं। साधु यह दृश्य देखकर कांप गए। तभी वह युवक
छलांग लगाकर नदी में कूद पड़ा और चार लोगों को बचाकर पानी से बाहर निकाल लाया।
युवक बुरी तरह से थक गया था। उसने साधु से कहा, महाराज! चार की जान भगवान की कृपा से बचा लाया। अब एक के प्राण आप बचा
लीजिए।
मगर साधु हिम्मत नहीं जुटा पाए,
क्योंकि उन्हें तो तैरना ठीक से आता नहीं था। यह देखकर
युवक ने कहा, क्रमहाराज! इंसान के लिए इंसानियत से
बढ़कर और कुछ नहीं है। उसने पूरी ताकत से फिर छलांग लगाई और अंतिम व्यक्ति को भी
बाहर ले आया। फिर युवती से बोला, दीदी! जरा इन
लोगों के पेट से पानी निकालने में मेरी मदद करो।
दोनों ने मिलकर उन पांचों को स्वस्थ
किया। साधु ने अब जाना कि दोनों भाई-बहन हैं। उन्हें अपनी गलत सोच पर बहुत ग्लानि
हुई। उन्होंने दोनों को श्रद्धापूर्वक नमन किया। आंखों से देखा गया सत्य हमेशा
पूर्ण सत्य नहीं होता। अत: देखे गए या सुने गए सत्य का पहले प्रमाणों से परीक्षण
कर लेना चाहिए तदुपरांत उस पर विश्वास करना चाहिए।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू
का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता
है... मनीष
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