रिश्तों में मिठास अहं से मुक्त रहने
में है
अरब देश का एक व्यक्ति हाफिज भ्रमण
के उद्देश्य से निकला। उसकी इच्छा थी कि दूरस्थ स्थानों को नजदीक से देखे, उनके बारे में गहराई से जाने। इसलिए उसने साथ में किसी परिजन
या मित्र को नहीं लिया। कई दिनों तक वह सफर करता रहा। वह रात में धर्मशाला या
मंदिरों में रुक जाता और अगले दिन फिर निकल पड़ता। एक दिन उसे समय का ख्याल नहीं
रहा और चलते-चलते रात हो गई। अब उसे होश आया कि गांव तो पीछे छूट गया और यह जंगल
था।
वह परेशान हो गया। इधर-उधर आश्रय
खोजने लगा। अंतत: उसे एक झोपड़ी मिल गई। झोपड़ी का द्वार बंद था। उसने धीरे-से
द्वार पर दस्तक दी। भीतर से आवाज आई- कौन है? व्यक्ति ने कहा - मैं हूं। उसका जवाब सुनने के बाद किसी ने द्वार नहीं
खोला। उसने थोड़ी देर इंतजार करने के बाद फिर द्वार खटखटाया। फिर आवाज आई- कौन है?
उसने थके हुए स्वर में कहा- मैं हूं- हाफिज। लेकिन अब भी
द्वार नहीं खोला गया। हाफिज हैरान रह गया कि भीतर से कोई परिचय पूछता भी है और
जवाब सुनने के बाद भी द्वार नहीं खोलता।
उसने अंतिम बार दस्तक दी। फिर वही
आवाज आई- कौन? इस बार हाफिज ने कहा- एक थका हुआ
मुसाफिर। रातभर रहने की जगह दे दीजिए। सवेरे ही चला जाऊंगा। इस बार भीतर से किसी
ने कहा- भाई! इस कुटिया में मैं के लिए स्थान नहीं है, मुसाफिर के लिए है। आ जाओ और मजे से रात बिताओ। इतना कहने के बाद द्वार
खुल गया। हाफिज समझ गया कि मैं के लिए किसी भी घर में कोई स्थान नहीं होता।
कथा का संकेतार्थ यह है कि उचित
निर्वाह में अहं सदैव बाधक होता है- चाहे वह लौकिक रिश्ता हो या पारलौकिक। अहं से
स्वयं को मुक्त रखने पर ही रिश्तों की सहजता और अपनापन बना रहता है।
प्रमाणों से सिद्ध सत्य ही विश्वास
योग्य
जंगल के एकांत में स्थित एक साधु की
कुटिया की ओर एक युवक और युवती का आना
हुआ। दोनों कुटिया के पास मौजूद नदी किनारे जाकर बैठकर बात करने लगे। साधु ने उन
दोनों को एकांत में बैठे देखकर सोचा कि दोनों कितने चरित्रहीन हैं, जो अपने माता-पिता से छिपकर मिल रहे हैं। युवती किसी बात पर
रो रही थी और युवक उसके आंसू पोंछ रहा था। साधु दोनों के विषय में बहुत कुछ अनर्गल
सोच लिया।
साधु की तंद्रा अचानक मची चीख-पुकार
से टूटी। उन्होंने देखा कि नदी की तीव्र धारा के बीच में एक नाव पलट गई है और
उसमें सवार पांच लोग डूबने लगे हैं। साधु यह दृश्य देखकर कांप गए। तभी वह युवक छलांग
लगाकर नदी में कूद पड़ा और चार लोगों को बचाकर पानी से बाहर निकाल लाया। युवक बुरी
तरह से थक गया था। उसने साधु से कहा, क्रमहाराज! चार
की जान भगवान की कृपा से बचा लाया। अब एक के प्राण आप बचा लीजिए।
मगर साधु हिम्मत नहीं जुटा पाए,
क्योंकि उन्हें तो तैरना ठीक से आता नहीं था। यह देखकर
युवक ने कहा, क्रमहाराज! इंसान के लिए इंसानियत से
बढ़कर और कुछ नहीं है।ञ्ज उसने पूरी ताकत से फिर छलांग लगाई और अंतिम व्यक्ति को
भी बाहर ले आया। फिर युवती से बोला, दीदी! जरा इन
लोगों के पेट से पानी निकालने में मेरी मदद करो।
दोनों ने मिलकर उन पांचों को स्वस्थ
किया। साधु ने अब जाना कि दोनों भाई-बहन हैं। उन्हें अपनी गलत सोच पर बहुत ग्लानि
हुई। उन्होंने दोनों को श्रद्धापूर्वक नमन किया। आंखों से देखा गया सत्य हमेशा
पूर्ण सत्य नहीं होता। अत: देखे गए या सुने गए सत्य का पहले प्रमाणों से परीक्षण
कर लेना चाहिए तदुपरांत उस पर विश्वास करना चाहिए।
अपयश ही लाता है विश्वासघात
एक जातक कथा के मुताबिक किसी समय
बनारस में एक संपन्न व्यापारी रहता था। उसका एकमात्र बेटा महाधनक निकम्मा और
बिगड़ैल था। वह हमेशा मौज-शौक पर पैसा उड़ाता रहता था। परेशान पिता ने यह सोचकर
उसका विवाह कर दिया पर यह जिम्मेदारी भी उसे सुधार नहीं सकी। कुछ दिनों बाद
व्यापारी की असामयिक मृत्यु हो गई। महाधनक को तो व्यापार के गुर आते नहीं थे,
इसलिए व्यापार चौपट हो गया। पत्नी तंग आकर मायके चली गई।
एक दिन लेनदारों ने उसे घेर लिया। वह उन्हें नदी किनारे ले गया और फिर नदी में कूद
गया। लेनदार हाथ मलते वापस लौट गए।
उनके जाने के बाद महाधनक तैरता हुआ
किनारा खोजने लगा, किंतु नदी इतनी लंबी-चौड़ी व गहरी थी
कि किनारा कहीं नजर ही नहीं आ रहा था। वह
तैरते-तैरते थक गया और उसे ऐसा लगा कि वह पानी में डूब जाएगा। उसने सहायता
के लिए चिल्लाना शुरू किया। उसकी आवाज सुनकर एक स्वर्ण मृग रूरू आया। वह एक शापित
यक्ष था। उसने मानव वाणी में महाधनक से कहा, क्रघबरा मत! मैं तुझे अपनी पीठ पर लादकर ले चलूंगा।
वह महाधनक को तट पर ले आया। उसने वचन
लिया कि वह किसी को उसके बारे में नहीं बताएगा। महाधनक अब नदी पार के दूसरे राज्य
में रहने लगा। एक दिन राजा ने स्वर्ण मृग का पता देने वाले को पुरस्कार देने की
घोषणा की। महाधनक ने रूरू का पता बता दिया। सैनिक उसे पकड़ लाए। तब रूरू ने अपना
असली परिचय दिया और महाधनक की धोखेबाजी के विषय में बताया। यह सुनकर राजा ने रूरू
को मुक्त कर दिया और महाधनक को जेल में डाल दिया। विश्वासघात सदा अपयश का कारण
बनता है। वस्तुत: प्रतिष्ठा वही अर्जित करता है, जो प्रत्येक परिस्थिति में ही विश्वास की रक्षा करता है।
अतिआत्मविश्वास में हारे गपोड़ी
एक गांव में तीन गप्पी रहते थे। वहां
से एक राजकुमार गुजरा तो उन्होंने गप्पें हांककर से उसे लूटने की योजना बनाई।
उन्होंने राजकुमार से कहा हममें से जो गप्प पर भरोसा नहीं करेगा वह हार जाएगा और
जीतने वाले की गुलामी करेगा। पहला गपोड़ी बोला, एक बार मैं सौ मील ऊंचे ताड़ के पेड़ पर चढ़कर सो गया। जागने पर देखा कि
पेड़ पचास मील और बढ़ चुका था। तभी उधर से गुजरते बादल से पानी बरसा, तो मैं पानी की धार को पकड़कर नीचे उतरा। यह सुनकर राजकुमार
मुस्करा दिया। दूसरा गपोड़ी बोला- एक बार मेरी गेंद चूहे के बिल में चली गई। मैं
भी बिल में घुसा। वहां कई हाथी उस चूहे की कैद में थे। मैंने हाथियों को अपनी
जेबों में भर लिया। तभी चूहा तलवार लेकर मुझे मारने दौड़ा, तो मैं बिल से बाहर आकर एक टिड्डे की पीठ पर सवार हो गया।
टिड्डे ने तेजी से भागकर चूहे से
मेरी जान बचाई। राजकुमार बोला- हां! मैंने भी तुम्हें टिड्डे पर जाते देखा था।
अब तीसरा गपोड़ी बोला, क्रएक बार मैंने नदी किनारे मछुआरों
को रोते देखा। पता चला कि नदी में एक भी मछली नहीं रही। मैंने पता किया कि एक
व्हेल, मछलियों को खा रही थी। मुझे बहुत गुस्सा आया
तो उसकी गर्मी से नदी का पानी गर्म हो गया। छटपटाकर व्हेल पानी से बाहर आकर हवा
में उड़ गई। मैंने उसकी पूंछ पकड़ ली। हम दोनों हवा में उडऩे लगे। बाद में मैंने
उसे एक चट्टान पर पटककर मार डाला।
राजकुमार ने उसकी बहादुरी की सराहना
की। अब राजकुमार बोला- क्रमेरे तीन गुलाम मुझे धोखा देकर भाग गए। तुम तीनों ही तो
वे गुलाम हो। अब गपोड़ी फंस गए कि यदि राजकुमार की गप्प नहीं मानते, तो शर्त हारकर गुलाम बनना पड़ेगा और मानने पर तो गुलाम हैं
ही। अंतत: उन्होंने राजकुमार से क्षमा मांगी। अति आत्म विश्वास में आकर कोई ऐसा
काम नहीं करना चाहिए, जिससे दूसरों को कष्ट हो।
खाली हाथ लौटा शिष्य रहा सर्वश्रेष्ठ
आयुर्वेद के महान ज्ञाता महर्षि चरक
के आश्रम के पास स्थित जंगल में सैकड़ों वनस्पतियां थीं। वे शिष्यों को लेकर हर
पूर्णिमा की रात जंगल में निकल जाते। वहां वे शिष्यों को विविध प्रकार की
जड़ी-बूटियों का ज्ञान कराते। रात में जंगली जानवरों की भयावह आवाजों से डरकर
कुछ विद्यार्थी भाग जाते। तब चरक कहते,
अच्छा हुआ कायर भाग गए। जो मृत्यु से डर जाए वह क्या
वैद्य बनेगा? वैद्य का तो काम ही मृत्यु से लडऩा
है।चरक की परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी। उनके हजारों शिष्यों में से कुछ ही
उत्तीर्ण हो पाते थे।
एक बार चरक ने परीक्षा लेते हुए कहा,
तुम सभी को 30 दिनों
में सारे जंगल में घूमकर उन वनस्पतियों को लाना होगा, जिनका आयुर्वेद में उपयोग नहीं होता अर्थात जो व्यर्थ हैं। कुछ
विद्यार्थियों को कंटीली झाडिय़ां और घास-फूस व्यर्थ लगे। कुछ ने पत्तियों व वृक्ष
की छालों को इकट्ठा किया। कुछ अन्य ने अधिक परिश्रम कर जहरीली फलियां व जड़ें खोज
निकालीं। उनतीसवें दिन सभी ने अपनी-अपनी वनस्पतियां चरक को दिखाईं। चरक ने कुछ
वनस्पतियों से बनने वाली दवा बताई तो कुछ के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त
की।
तीसवें दिन उनका अंतिम शिष्य खाली
हाथ लौटा और बोला, गुरुदेव! मुझे एक भी ऐसी वनस्पति
नहीं मिली जो आयुर्वेद के काम न आती हो। इस पर सभी शिष्य हंस पड़े, किंतु चरक ने घोषणा की, क्रइस वर्ष यही छात्र उत्तीर्ण हुआ। वास्तव में जंगल में ऐसी कोई वनस्पति
नहीं है, जो व्यर्थ हो। यदि किसी का हम उपयोग नहीं कर
पा रहे हैं तो इसका मतलब यह है कि हम उसके गुणों को अभी पहचान नहीं पाए हैं।'
कथासार यह है कि गहराई से खोज करने पर प्रत्येक वस्तु का
कोई न कोई उपयोग मिल ही जाता है।
लुहार ने बनाया यमराज को कैदी
एक बार महान तपोबल वाले एक महात्मा किसी लुहार के घर रुके। निर्धन
लुहार ने उनका खूब सत्कार किया। महात्मा उसके आतिथ्य-सत्कार से बहुत प्रसन्न हुए।
जाते समय उन्होंने लुहार से तीन वर मांगने को कहा। लुहार बोला, महाराज! मुझे जीवन में किसी वस्तु का अभाव न रहे और मैं सौ
वर्ष की आयु तक जीवित रहूं। महात्मा ने तथास्तु कहकर तीसरा वर मांगने को कहा।
लुहार को कुछ समझ में नहीं आया तो उसके मुंह से यह निकल गया, मेरे यहां जो लोहे की कुर्सी है उस पर जो बैठे वह मेरी मर्जी
के बिना न उठ पाए।
महात्मा वर देकर चले गए। लुहार ने
प्रथम दो वरदानों की बदौलत बड़े ऐश्वर्य के साथ सौ वर्ष का जीवन पूर्ण किया। सौ
वर्ष पूर्ण होने के बाद जब यमराज उसे लेने आए तो वह घबरा गया। उसने चतुराई दिखाते
हुए यमराज से कहा, महाराज! आप इस लोहे की कुर्सी पर
विराजें। मैं अपने जीवन का अंतिम कार्य निपटा लूं। यमराज उस कुर्सी पर बैठकर लुहार
के कैदी हो गए। लुहार ने खुश होकर मुर्गा खाने की सोची। किंतु जैसे ही उसने मुर्गे
की गर्दन काटी वह तुरंत जुड़ गई, क्योंकि बिना
यमराज के मौत कैसे आती?
लुहार ने मन मारकर दाल-रोटी खाई। एक
वर्ष होते-होते तो अनर्थ हो गया। मृत्यु के अभाव में हवा में कीट, पतंगे, मक्खी, मच्छरों की इतनी भरमार हो गई कि सांस लेना दूभर हो गया। चूहों
ने सारी फसलें तबाह कर दीं। पानी में जलीय जीव इतने हो गए कि इंसानों के लिए पीने
का पानी ही न बचा। अब लुहार को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने यमराज को मुक्तकर
क्षमा मांगी। जीवन के साथ मृत्यु भी अनिवार्य आवश्यकता है। मृत्यु के अभाव में
धरती नर्क बन जाएगी। इसलिए प्रकृति के नियमों का आदर करना चाहिए।
राजा ने जाना जीवन का रहस्य
एक राजा हमेशा तनावग्रस्त रहता था।
कभी वह पड़ोसी राज्यों के आक्रमण की आशंका से भयभीत रहता, तो कभी अपने ही लोगों द्वारा षड्यंत्र रचे जाने के अंदेशे से तनावग्रस्त
रहता। उसे न नींद आती और न वह भोजन ठीक से कर पाता था। जब वह शाही बाग के माली को
देखता तो उसे बड़ी ईष्र्या होती थी, क्योंकि वह बड़ी
शांति तथा आनंद से प्याज व चटनी के साथ रोटी खाता और रात को भरपूर नींद सोता था।
एक दिन राजा ने अपनी समस्या राजगुरु
के समक्ष रखी। उन्होंने कहा, राजन! तुम
राजपाट अपने पुत्र को सौंप दो राजा बोला, किंतु वह
तो चार वर्ष का बच्चा है। राजगुरु ने समाधान दिया, तो फिर मुझे राजपाट सौंपकर निश्चिंत हो जाओ। राजा ने ऐसा ही किया। राजा ने
राजकोष से धन लेकर व्यापार की इच्छा जताई तो राजगुरु ने कहा, अब यह राजकोष मेरा है। तुम इसमें से धन नहीं ले सकते।
अन्य राज्य में नौकरी करने की तैयारी
दिखाई तो राजगुरु बोले, मेरे ही राज्य में नौकरी कर लो। मैं
तो आश्रम में ही रहूंगा। तुम मेरे कर्मचारी के रूप में राज-काज करो और महल में ही
रहो। राजा पहले की तरह राज चलाने लगा। कुछ समय बाद राजगुरु आए तो उन्होंने
कर्मचारी की तरह नीचे खड़े राजा से पूछा, तुम्हारी
भूख व नींद के क्या हाल हैं? राजा ने कहा,
अब भूख भी लगती है और नींद भी खूब आती है।
तब राजगुरु ने समझाया, देखो, सब कुछ पहले जैसा
है। फर्क यह है कि पहले तुमने काम को स्वयं पर लाद रखा था और अब इसे अपना कर्तव्य
समझकर कर रहे हो। याद रखो, जीवन को सही ढंग
से जीने के लिए काम को बोझ नहीं कर्तव्य समझकर करना चाहिए। राजा को नई दृष्टि मिल
गई। प्रत्येक काम को कर्तव्य समझकर करने पर चिंता व तनाव से मुक्ति पाई जा सकती
है।
बेहतर सोच ने सुधारा चोर को
एक चोर किसी सेठ के घर चोरी करने के
लिए रात में घुसा तो उसे तब तक जाग रहे सेठ-सेठानी की बातचीत सुनाई दी। सेठ कह रहा
था, हमारे पास जो धन-दौलत है, उसने हमें दुख ही दिया है। राजा, मंत्री, सेनापति सभी मुझसे धन छीनने के नए-नए
तरीके निकालते रहते हैं। दिन-रात भय सताता है कि कहीं किसी झूठे आरोप में न फंसा
दें। फिर चोर-डाकुओं का भी डर हर वक्त बना रहता है। हमारे रिश्तेदार भी संपत्ति
हड़पने के लिए षड्यंत्रों में लगे रहते हैं। संपत्ति ने मानसिक शांति हर ली है।
सेठानी ने सहमति जताते हुए कहा,
क्र मेरी तो इच्छा है कि शेष जीवन काशी जाकर भजन-पूजन
में बिताएं। सेठ ने प्रश्न खड़ा किया, मगर इस
दौलत का क्या करें? सेठानी बोली, कल गुरुकुल में सबसे पहले जो विद्यार्थी मिले, उसी को अपनी संपत्ति दान कर देंगे। चोर ने सोचा कि ये अपनी संपत्ति दान कर
ही रहे हैं, फिर चोरी क्यों करूं? कल गुरुकुल में पहला विद्यार्थी बनकर खड़ा हो जाऊंगा। अगले
दिन वह गुरुकुल के द्वार पर सबसे पहले खड़ा हो गया। उसके पीछे अन्य विद्यार्थी
खड़े हो गए। किंतु सेठ-सेठानी ने उल्टी ओर से (अर्थात अंतिम छात्र) से पूछना शुरू
किया। पहले विद्यार्थी ने उनसे संपत्ति दान करने का कारण पूछा। सेठ ने कहा,
हमें महसूस हो गया है कि धन-संपत्ति मुसीबतों की जड़ है।'
तब विद्यार्थी चिढ़कर बोला, तो यह मुसीबत आप मेरे गले में क्यों डालना चाहते हैं? मुझे आपकी धन-संपत्ति नहीं चाहिए। हर विद्यार्थी ने यही जवाब
दिया। विद्यार्थियों की इस गहराई को देख चोर को स्वयं के लोभ पर ग्लानि हुई और
उसने भी संपत्ति लेने से इनकार कर दिया। चोरी करना छोड़कर वह उसी दिन से गुरुकुल
का विद्यार्थी बन गया। आवश्यकतानुसार धन-दौलत होने पर संतोष जरूरी है अन्यथा उसकी
अति का लोभ जीवन में कभी सुकून नहीं आने देता।
बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय
एक दानशील व गरीबों के मददगार
व्यापारी को व्यापार में घाटा हुआ। उसका मकान व दुकान बिक गए। मित्रों व परिजनों
ने साथ छोड़ दिया। निराश होकर जिस दिन उसने नगर छोडऩे का फैसला किया, उसी रात उसने स्वप्न में एक भिक्षु को देखा, जो कह रहा था, मैं तेरा
भाग्य हूं। तू नगर छोड़कर मत जा। कल मैं तेरे घर आऊंगा। मुझे देखते ही मेरे सिर पर
डंडा मारना, तेरा भाग्य चमक जाएगा। सुबह जब
व्यापारी घर पर ही नाई से बाल बनवाने बैठा था कि द्वार पर दस्तक हुई।
व्यापारी ने द्वार खोला तो सामने वही
भिक्षु था। व्यापारी ने डंडा उठाकर उसके सिर पर मार दिया। ऐसा करते ही भिक्षु सोने
की अशर्फियों के ढेर में बदल गया। नाई यह देख हैरान तो हुआ पर व्यापारी से कुछ पूछ
न सका। उसके मन में लोभ जाग्रत हो गया। वह बौद्ध भिक्षुओं के मठ में जाकर भिक्षुओं
को भोजन का निमंत्रण दे आया। नाई कई भिक्षुओं को डंडा मारकर अधिकाधिक अशर्फियां
पाना चाहता था। उसके जाने के बाद भिक्षुओं के गुरु ने कहा, इस नाई ने कभी हमें भिक्षा देना तो दूर, एक लोटा पानी तक नहीं पिलाया।
फिर यह हमें भोज क्यों दे रहा है, अवश्य कुछ गड़बड़ है। हम लोग इसके घर नहीं जाएंगे। अधिकांश शिष्य मान गए,
किंतु तीन भिक्षु अच्छे व्यंजनों के लोभ में नाई के घर
पहुंचे। घर में प्रवेश करते ही नाई उनके सिर पर डंडे बरसाने लगा। तीनों लहूलुहान
होकर जमीन पर गिरे, किंतु वे अशर्फियों में न बदले। यह
देख नाई ने भिक्षुओं के सिर पर और डंडे मारे। ऐसा करने पर तीनों की मृत्यु हो गई
और नाई को राजा ने मृत्युदंड दिया। किसी
अद्भुत या असामान्य बात के भेद को पूर्णतया जाने बगैर उस पर काम करना आत्मघातक
सिद्ध हो सकता है। इसलिए पहले भली-भांति पड़ताल कर तत्पश्चात उचित निर्णय लेना
चाहिए।
रानी के भक्ति भाव ने शेर को जीता
उत्तर भारत में आंबेरगढ़ के राजा थे
माधवसिंह। उनकी पत्नी रत्नावली भले स्वभाव की थी। एक दिन उसने अपनी प्रिय दासी को
रोते हुए देखा। कारण पूछने पर बोली, क्रये तो भगवान
की भक्ति से मिले अपार सुख के कारण उपजे प्रेमाश्रु हैं। दासी की बातों ने रानी
में भक्ति-भाव जाग्रत कर दिया। वह सादे वस्त्र पहनकर भगवान श्रीकृष्ण की उपासना
में लीन रहने लगी। राजा माधवसिंह उस समय उज्जैन गए हुए थे। इस बीच, आंबेरगढ़ में कुछ संत-महात्माओं का आगमन हुआ। रत्नावली ने
उनके साथ सत्संग किया और लंबी आध्यात्मिक चर्चा भी की। यह जनचर्चा का विषय बना।
माधवसिंह को वजीर ने पत्र लिखा कि
रानी महल छोड़कर साधु-संतों के साथ घंटों तक बैठी रहती हैं। यह पत्र पढ़कर
माधवसिंह क्रोधित हुआ। जब वह आंबेरगढ़ लौटा तो पहले रानी को मृत्युदंड देना चाहा,
किंतु उसके मंत्रियों ने राज्य में आक्रोश फैलने की
आशंका जताई। फिर तय हुआ कि भूखे शेर को रानी के महल के द्वार पर छोड़ देंगे। भूखा
शेर रानी का शिकार कर लेगा और हम इसे दुर्घटना बता देंगे।
जब शेर भावमग्न रानी की ओर दौड़ा तो
दासी शेर-शेर कहकर चिल्लाई पर रत्नावली उसे देखकर बोलीं, क्रनहीं, ये तो नृसिंह भगवान हैं। मेरे गिरधर
आज यह वेश लेकर आए हैं। रानी ने सिंह की आरती उतारी। शेर चुपचाप खड़ा रहा और फिर
पलटकर चला गया। राजा अटारी से देख रहा था। माधवसिंह ने हाथ जोड़कर क्षमा मांगी। तब
रानी बोलीं- क्षमा मैं नहीं, मेरे गिरधर गोपाल
ही कर सकते हैं। मैं आपके लिए उनसे प्रार्थना करूंगी। माधवसिंह ने रानी के भक्ति
भाव के मुताबिक महल की सारी व्यवस्थाएं बदल दीं। सच्चा भक्त निडर और पवित्र हृदय
वाला होता है। ऐसे ही लोग ईश्वरीय साक्षात्कार को उपलब्ध होते हैं।
बुद्धि चातुर्य से बची ज्योतिषी की
जान
प्राचीनकाल में किसी राज्य में जगदीश
नाम का मशहूर ज्योतिषी रहता था। एक बार ज्योतिषी की ख्याति सुनकर सेनापति ने उसे
अपने महल में बुलाया और अपना हाथ दिखाया। जगदीश ने हाथ देखते ही कहा, सेनापतिजी! आप महत्वपूर्ण काम शीघ्रता से निपटा लीजिए,
आपकी मात्र एक सप्ताह की आयु शेष है। घबराए सेनापति ने
अपना हाथ राज ज्योतिषी अचलानंद को बताया।
अचलानंद को ज्योतिष का पर्याप्त
ज्ञान नहीं था। उस पाखंडी ने हाथ देखकर
कहा, जगदीश की भविष्यवाणी तो ठीक है, किंतु मैं एक विशेष अनुष्ठान कर आपकी मृत्यु टाल दूंगा। बस तब
तक किसी से यह बात मत कहना। अचलानंद ने सोचा कि यदि सेनापति की मृत्यु हो गई तो
भविष्यवाणी की बात गुप्त रहेगी। यदि नहीं मरा तो मेरी प्रशंसा होगी और जगदीश को
दंड मिलेगा। सातवें ही दिन सेनापति शिकार के दौरान शेर के हमले में मारा गया। अब
अचलानंद डर गया कि कहीं जगदीश राज ज्योतिषी
न बन जाए। उसने राजा से कहा, महाराज!
सेनापति की मृत्यु आई नहीं, बुलाई गई थी।
जगदीश नामक दुष्ट जो भी अशुभ बात
बोलता है, वह सच हो जाती है। सेनापतिजी की मृत्यु की
भविष्यवाणी भी उसने की थी। यह सुनते ही राजा ने क्रोधित होकर जगदीश को बुलाया और
कहा, पापी ज्योतिषी! तू अब अपना हाथ देखकर बता
कि तेरी मृत्यु कब लिखी है? वह समझ गया कि
यदि वह अपनी मृत्यु भविष्य में बताएगा तो राजा अभी मार डालेगा। इसलिए वह बोला,
मेरी मृत्यु आपकी मृत्यु से एक दिन पहले होगी। यह सुनते
ही राजा का क्रोध ठंडा हो गया, क्योंकि अपनी
मृत्यु कौन चाहता है? इस तरह चतुराई से जगदीश ने प्राण बचा
लिए। किसी विद्या के साथ बुद्धि चातुर्य भी होना चाहिए, जो संकटकाल में रक्षा कर सके।
दुष्ट सियार ने पाया करनी का फल
जातक कथाओं में एक कथा है। एक ऊंट
जंगल में घास चरने जाता था। वहां रहने वाला दुष्ट सियार ऊंट को देखकर रोज सोचता कि
इसे कैसे मुसीबत में डाला जाए? एक दिन वह ऊंट से
बोला, चाचा! तुम रोज घास खा-खाकर ऊब नहीं जाते?
ऊंट ने उत्तर दिया, भतीजे! मेरे भाग्य में यह घास ही लिखी है। इस जंगल में और कुछ तो उगता
नहीं है। सियार ने कहा, मैं पास के खेतों में जाकर गाजर,
मूली, टमाटर खाता हूं।
वहां खीरे, लौकी आदि भी हैं, जो तुम्हें बहुत भाएंगी।
ऊंट सियार के साथ खेत में चला गया।
सियार ने शीघ्रता से टमाटर, गाजर आदि खाए और
फिर हू-हू की आवाज निकालता हुआ वहां से भाग गया। किसान ने खेत में ऊंट को देखा तो
उसे खूब पीटा। सियार को मजा आ गया। दूसरे दिन सियार ने बनावटी अफसोस जाहिर किया,
चाचा! खाने के बाद हू-हू करना मेरी आदत है। मुझे ध्यान
ही नहीं रहा कि तुम मेरे साथ हो।
वह फिर ऊंट को खेत में ले गया और इस
बार भी उसकी पिटाई करवा दी। अगले दिन सियार ने सांप के काटने से उठे दर्द को हू-हू
की आवाज करने की वजह बताया। इसी प्रकार तीसरी बार हुई पिटाई से अधमरे हो चुके ऊंट
ने सियार को धोखेबाज कहा तो वह बोला, धोखा तो तुम्हारी अक्ल ने दिया। क्या तुम्हें नहीं पता कि खाने के बाद हम
सियारों को हू-हू करने की जन्मजात आदत होती है? कुछ दिनों बाद जब जंगल में घनघोर वर्षा से बाढ़ आई तो सियार ने ऊंट से
जंगल से बाहर छोडऩे की प्रार्थना की। तब ऊंट ने उसे अपनी पीठ पर बैठाया और गहरे
पानी में जाकर यह कहकर लोट लगाई कि हम ऊंटों में पानी में जाकर लोटने की जन्मजात
आदत होती है। सियार पानी में डूबकर मर गया। इस प्रकार उसे अपनी करनी का फल मिल
गया।
पिप्पलाद ने देवताओं को किया क्षमा
स्वर्ग पर कब्जा जमाए वृत्तासुर को
मारने के लिए जब इंद्र ने दधीचि ऋषि से उनकी हड्डियां मांगीं तो वे बोले, 'यह शरीर एक दिन मृत्यु को प्राप्त होगा। अच्छा है किसी भले
कार्य में इसका उपयोग हो। मैं योगबल से शरीर छोड़ देता हूं। तब मेरी हड्डियां लेकर
वज्र बना लें। दधीचि की हड्डियों से विश्वकर्मा ने वज्र बनाया, जिसका उपयोग कर इंद्र ने वृत्तासुर का संहार किया। महर्षि
दधीचि के पुत्र महान तपस्वी पिप्पलाद को यह पता चला तो उन्हें देवताओं पर बड़ा
क्रोध आया। पिप्पलाद ने भगवान शंकर की तपस्या कर पिता की हत्या करने वालों के
संहार के लिए शक्ति मांगी।
शंकरजी ने भयावह राक्षसी उत्पन्न कर
पिप्पलाद को दी। पिप्पलाद ने राक्षसी से सभी देवताओं को खा जाने को कहा। इस पर जब
वह पिप्पलाद को ही खाने के लिए आगे बढ़ी तो उन्होंने इसका कारण पूछा। राक्षसी बोली,'सब जीवों के अंगों में उन अंगों के देवता रहते हैं। जैसे
नेत्रों में सूर्य, हाथों में इंद्र, जीभ में वरुण। स्वर्ग के देवता दूर हैं, अत: जो पास में है, पहले
उन्हें खा लूं। तब पिप्पलाद भयभीत होकर शंकरजी की शरण में पहुंचे। शंकरजी ने समझाया,
'मैं यदि राक्षसी को तुम्हें खाने से रोक दूं तो यह
स्वर्ग के देवताओं को मारेगी, जिससे संसार नष्ट
हो जाएगा।
यदि सूर्य नारायण नहीं रहेंगे तो सभी
लोग अंधे हो जाएंगे। हाथ के देवता इंद्र के न रहने पर कोई हाथ भी न हिला सकेगा। इस
प्रकार जिस अंग के जो देवता हैं, उनके न रहने पर
वे अंग काम करना बंद कर देंगे। अत: तुम देवताओं को क्षमा करो। तुम्हारे पिता का
दान महान था। तुम्हें उसका आदर करना चाहिए। पिप्पलाद ने देवताओं को क्षमा किया और
भगवान शंकर ने उन्हें राक्षसी से मुक्त किया। क्षमा से कल्याण घटता है, जो स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी सुख पहुंचाता है।
वृक्ष की सेवा से मिली समृद्धि
किसी गांव में एक विधवा महिला और
उसका पुत्र जगत रहते थे। उनके घर के पास पीपल का एक पेड़ था, जिसे जगत मां के कहने पर रोज पानी दिया करता था। एक बार जगत
बीमार हो गया, किंतु बीमारी में भी उसने पेड़ को
पानी देना नहीं छोड़ा। एक दिन जब वह खाट से उठकर पेड़ को पानी देने गया तो पेड़
में स्थित देवता का स्वर गूंजा, मैं तेरी सेवा से
बहुत खुश हूं। तू कोई वर मांग।
जगत ने कहा, क्रहे वृक्ष देवता! आपसे तो हमें शुद्ध वायु, छाया, लकड़ी आदि अनेक चीजें प्राप्त होती
हैं और हमारे जीवन का आधार भी आप ही हैं। मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए। बस, आप मुझे आपके नीचे गिरे पत्ते ले जाने की अनुमति दीजिए ताकि
यहां सफाई रहे। पीपल ने अनुमति दे दी। जगत पत्ते एकत्रित कर ले गया और घर के एक
कोने में रख दिए। दोनों मां-बेटे अगले दिन यह देखकर हैरान रह गए कि पत्ते पीली
धातु में बदल गए थे। दोनों को लगा कि कहीं ये सोने के तो नहीं बन गए। जब मां
उन्हें लेकर साहूकार के यहां गई तो उसने सोना होने के बावजूद उन्हें पीतल बताया और
कुछ राशन उनके बदले दे दिया। अब नित्य यही होने लगा।
एक दिन लोभी साहूकार ने जगत की
निगरानी कर पत्तों का राज जान लिया। उसने भी पत्ते इकट्ठे किए, किंतु अगले दिन वे बिच्छुओं में बदल गए। बिच्छुओं की फौज
काटने दौड़ी तो वह वृक्ष देवता के पास पहुंचा और क्षमा मांगी। देवता के कहने पर
साहूकार ने अब तक लिए सोने के सारे पत्तों का पैसा चुकाया। अब निर्धन जगत के दिन
बदल गए। कथासार यह है कि वृक्ष हमारे जीवन दाता हैं, क्योंकि ये हमारी सांसों के आधार हैं और हमारे जीवन के उचित संचालन में
अनेक वस्तुओं को प्रदान कर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अत: वृक्षों की रक्षा
करना हमारा नैतिक दायित्व है।
भौतिकता से मुक्त होने पर ही मोक्ष
एक व्यापारी धार्मिक क्रिया-कलापों
में काफी समय व्यतीत करता था। वह प्रतिदिन स्नान करके मंदिर जाता, वहां विधि-विधान से पूजा करता। फिर अपनी दुकान जाता। शाम को
फिर दो घंटे मंदिर में बैठकर पूजा-अनुष्ठान करता। वह प्रतिदिन एक ही प्रार्थना
करता, क्रहे भगवान! मुझे मोक्ष प्रदान करें। एक
दिन भगवान व्यापारी के सामने प्रकट हुए और बोले, तूने मोक्ष पाने की जिद ही ठान ली है।
चल, मैं तुझे आज मोक्ष दे ही देता हूं। यह सुनकर व्यापारी घबरा गया, क्योंकि वह अभी मरना नहीं चाहता था। इसलिए वह बोला, हे भगवान! अभी मैं मोक्ष कैसे ले सकता हूं? अभी मेरा बेटा छोटा है। वह पढ़-लिखकर कमाने लगे, उसके हाथों में अपना व्यापार सौंपकर निश्चिंत हो जाऊं,
तब आप मुझे मोक्ष देना। भगवान ने पूछा, फिर तू रोज मोक्ष की प्रार्थना क्यों करता है? व्यापारी ने कहा, मोक्ष
तो चाहिए, किंतु अभी नहीं। अभी तो आप मुझे मोक्ष का
आश्वासन दे दीजिए। भगवान आश्वासन देकर चले गए।
कुछ साल बाद व्यापारी के पुत्र ने
व्यापार संभाल लिया। भगवान मोक्ष देने फिर आए, किंतु व्यापारी ने बहू का मुख देखने की इच्छा प्रकट कर उन्हें फिर टाल
दिया। पुत्र की शादी के बाद भगवान आए तो व्यापारी ने पोता देखने की लालसा जताई।
पोता होने के बाद भगवान आए तो व्यापारी ने कहा, जरा पोता बड़ा हो जाए और बहू अकेली घर संभालने में सक्षम हो जाए फिर आपके
साथ चलता हूं। अब भगवान बोले, लालसा अनंत होती
है। पोते के बड़े होने पर उसके विवाह और तत्पश्चात पड़पोता देखने की इच्छा होगी।
अत: बेहतर यही है कि तुम मोक्ष की प्रार्थना बंद कर दो। वह तुम्हें नहीं मिल सकता।
भौतिक जगत से पूर्णत: संबंध विच्छेद करने पर ही आत्मिक जगत से नाता जुड़ता है और
मोक्ष की प्राप्ति तभी संभव हो पाती है।
मदर टेरेसा ने पड़ोसी धर्म निर्वाह
को सराहा
मदर टेरेसा सदैव मानव सेवा में लगी
रहती थीं। दूसरों के लिए अपना स्नेह, सहयोग और संवेदना
उनकी रग-रग में बसे हुए थे। जहां भी पीडि़त मानवता की पुकार होती वे दौड़ी चली
जातीं। एक बार मदर टेरेसा कोलकाता की निर्धन बस्तियों में गईं। वहां के लोगों के
पास दो वक्त की रोटी नहीं थी, तन ढंकने को
पर्याप्त वस्त्र नहीं थे, बच्चे भूखों मर
रहे थे। मदर ने तत्काल अपना मानव धर्म निभाया। उन्होंने यथाशक्ति भोजन, वस्त्र वहां के लोगों को उपलब्ध कराए। कुछ दिनों के लिए मदर
ने वहीं अपना घर बना लिया ताकि उन लोगों के निकट रहकर उनकी आवश्यकताओं और समस्याओं
को जान सकें। वहां रहते हुए मदर को एक दिन किसी ने बताया कि उनके पड़ोस में रह रहा
एक हिंदू परिवार सात-आठ दिनों से भूखा है।
यह सुनते ही मदर थोड़े से चावल लेकर
वहां पहुंचीं। हिंदू परिवार की महिला ने मदर से चावल लिए और चावल को दो बराबर
हिस्सों में बांटकर एक हिस्सा लेकर बाहर चली गई। जब वह वापस लौटी तो मदर की
जिज्ञासा भरी दृष्टि को भांपकर बोली, मदर! हमारे पड़ोस
में जो मुस्लिम परिवार रहता है, वह भी कई दिनों
से भूखा है। इसलिए मैंने आधे चावल उन्हें दे दिए। उसकी बात सुनकर मदर भावविह्वल हो
गईं। अपने इस अनुभव के विषय में उन्होंने कहा कि उस महिला ने थोड़े से चावल को भी
अपने भूखे पड़ोसी के साथ बांटकर ईश्वर का असीम प्रेम दूसरे के साथ बांटा है। यही
असली मानव धर्म है। अपने पड़ोसी का परिजन की भांति ध्यान रखना सच्ची मानवता है।
इसके निर्वाह पर स्नेह और सहयोग का सुखद वातावरण निर्मित होता है, जो समाज को नैतिक रूप से बलवान बनाता है।
जब प्रेमचंद ने खिताब ठुकराया
सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार
प्रेमचंद ने विविध कालजयी कृतियों के बल पर काफी लोकप्रियता अर्जित की। इतने
जनप्रिय लेखक होकर भी अहंकार उन्हें छू भी नहीं गया था। अंग्रेज सरकार ने उनकी
लोकप्रियता को अपने हित में भुनाने के मकसद से उन्हें रायसाहब की उपाधि देने का
निश्चय किया।
तत्कालीन गवर्नर सर हेली ने प्रेमचंद
को संदेश भेजा कि सरकार उन्हें रायसाहब की उपाधि से नवाजकर उन्हें सम्मानित करना
चाहती है। प्रेमचंद ने इस संदेश को पाकर विशेष प्रसन्नता जाहिर नहीं की, किंतु उनकी पत्नी बड़ी खुश हुईं और उन्होंने पूछा, उपाधि के साथ कुछ और भी देंगे या नहीं? प्रेमचंद बोले, हां! कुछ और भी देंगे। संभवत: पत्नी
का संकेत धनराशि से था। प्रेमचंद का उत्तर सुनकर पत्नी ने कहा, तो फिर सोच क्या रहे हैं? आप तत्काल गवर्नर साहब को हां कहलवा दीजिए।
प्रेमचंद तत्क्षण पत्नी का विरोध
करते हुए बोले, मैं यह उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता।
कारण यह है कि अभी मैंने जितना लिखा है, वह जनता
के लिए लिखा है, किंतु रायसाहब बनने के बाद मुझे
सरकार के लिए लिखना पड़ेगा। यह गुलामी मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। तत्पश्चात
प्रेमचंद ने गवर्नर को उत्तर भेजते हुए लिखा, 'मैं जनता की रायसाहबी ले सकता हूं, किंतु सरकार की नहीं। प्रेमचंद के उत्तर से गवर्नर हेली हैरान रह गए। कुछ
समय बाद किसी समारोह में जब वे प्रेमचंद से मिले तो उन्होंने सिर झुकाकर इस
स्वाभिमानी साहित्यकार का सम्मान किया। सच्चा देशभक्त व्यक्तिगत लाभ को तुच्छ
समझकर देश के सम्मान को सर्वोपरि रखता है। ऐसे स्वाभिमान से ही शेष विश्व के समक्ष
संबंधित राष्ट्र की छवि उज्ज्वल बनती है।
आइंस्टीन की सादगी से प्रभावित हुईं
महारानी
जर्मनी के महान वैज्ञानिक अलबर्ट
आइंस्टीन को अपनी महती उपलब्धियों का तनिक भी अहंकार नहीं था। अपनी चमकीली सफलताओं
के पूर्व वे जितनी सहजता और सादगी से रहते थे उन्हें पाने के बाद भी वे वैसे ही
बने रहे। संपूर्ण विश्व के आदर के पात्र आइंस्टीन से बड़ी-बड़ी हस्तियां मिलने के
लिए लालायित रहती थीं और आइंस्टीन भी किसी से भेंट करने के लिए इंकार नहीं करते
थे। ऐसे ही एक बार बेल्जियम की महारानी ने उन्हें राजधानी ब्रुसेल्स में आमंत्रित
किया। आइंस्टीन ने आमंत्रण स्वीकार कर अपने आने की सूचना उन्हें भिजवा दी।
तय दिन और समय पर महारानी ने
आइंस्टीन के स्वागत हेतु कई उच्च
अधिकारियों को रेलवे स्टेशन भेजा, किंतु अपनी सामान्य वेशभूषा के कारण आइंस्टीन को अधिकारी
पहचान नहीं पाए और उन्हें लिए बिना लौट आए। उधर आइंस्टीन ने थोड़ी देर प्रतीक्षा
की, फिर अपना बैग उठाकर पैदल चलते हुए राजमहल
पहुंच गए और महारानी को अपने आने की सूचना भिजवाई। महारानी को दुख और हैरानी हुई।
दुख इसलिए हुआ कि उनके अधिकारी आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिक को पहचान नहीं पाए,
जिसके कारण आइंस्टीन को अकेले अपना बैग उठाकर पैदल आना
पड़ा और हैरानी उनके सरल व्यक्तित्व पर हुई।
आइंस्टीन ने महारानी के खेद जताने पर
हंसते हुए कहा, आप इतनी छोटी-सी बात के लिए परेशान न
हों, क्योंकि मुझे पैदल चलना बहुत पसंद है। मुझे
जहां मौका मिलता है, मैं अपने इस शौक को पूरा कर लेता
हूं। महारानी उनकी इस सादगी पर नतमस्तक हो गईं। महानता सदैव सादगी पसंद होती है।
वस्तुत: सहजता में ही बड़प्पन बसता है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष
अंधविश्वास ने गधे को बनाया देवता
एक बुजुर्ग फकीर अपने गधे के साथ
किसी गांव में आकर ठहरा। उसकी सादगी और ज्ञान से प्रभावित होकर एक युवक ने उसे
अपनी झोपड़ी में रहने के लिए निमंत्रण दिया। युवक ने फकीर की बहुत सेवा की। कुछ
समय बाद जब फकीर गांव छोड़कर जाने लगा तो अपना गधा युवक को भेंट कर गया। वह युवक
अब फकीरी बाने में झोपड़ी में रहने लगा। फकीर के साथ सत्संग करते हुए उसने भी
ज्ञान की कुछ बातें सीख ली थीं, अत: वह लोगों को
उपदेश देने लगा। कुछ ही समय में युवक की झोपड़ी क्रफकीर की झोपड़ीञ्ज के नाम से
विख्यात हो गई। भक्तों की भीड़ लगने लगी, भंडारों
का आयोजन होने लगा।
युवक महंत की पदवी पाकर अंध
श्रद्धा का केंद्र हो गया। कुछ वर्षों बाद जब फकीर उस गांव में आया तो यह नजारा
देख अचंभित हुआ। उसने कारण पूछा तो युवक बोला, आप भेंट में जो गधा दे गए थे, वह एक दिन
मर गया। मैंने रातोंरात उसे दफनाकर एक चबूतरा बना दिया। लोगों ने सुबह जब पूछा कि
चबूतरा किसका है तो मुझे लगा कि गधे का कहने पर ये मेरा उपहास करेंगे, इसलिए मैंने कह दिया, यह
चबूतरा मुक्ति देव का है।तभी से लोग यहां फूल-फल व पैसे चढ़ाने लगे। फिर मंदिर
बन गया। किसी ने कभी सच जानने की कोशिश नहीं की।
सुनकर फकीर हंसने लगा और बताया,
मैं इसलिए हंसा क्योंकि मैं जिस गांव में रहता हूं,
वहां इसी गधे के पिता का मंदिर है। वहां भी वास्तविकता
जानने में किसी की रुचि नहीं थी। कथा देश में फैले अंधविश्वास की ओर संकेत करती
है, जिसके कारण लोग विवेकसम्मत ढंग से विचार
नहीं करते और हर अगली पीढ़ी को उसे जस का तस मानने पर विवश करते हैं।
नि:स्वार्थ दानी की मिसाल थे कवि
रहीम
कवि रहीम और कवि गंग के मध्य गहरी
मित्रता थी। दोनों अपनी रचनाएं एक-दूसरे को सुनाते और उन पर गहन चर्चा करते। अपने
जीवन की बातों को भी दोनों परस्पर साझा करते थे। दोनों संत प्रकृति के थे इसलिए
दोनों की खूब जमती थी। रहीम की एक आदत बहुत अच्छी थी कि वे जरूरतमंदों को दान दिया
करते थे। उनके पास जो भी आता, वह खाली हाथ नहीं
लौटता था। रहीम यथाशक्ति सभी को दान देते थे। कवि गंग उनकी दान वृत्ति पर प्रसन्न
होते थे और उन्होंने कभी इस बात पर उन्हें कुछ नहीं कहा। किंतु कवि गंग को एक बात
बड़ी अजीब लगती थी और वह यह थी कि जब भी रहीम लोगों को दान देते तो अपनी दृष्टि
नीचे झुका लेते थे। वे कभी दान लेने वाले की ओर नहीं देखते थे। उनके ऐसा करने से
कई बार कुछ लोभी लोग दोबारा दान ले लेते थे और रहीम को पता ही नहीं चलता था।
जब कवि गंग ने कई बार यह दृश्य देखा
तो उनसे रहा नहीं गया। एक दिन उन्होंने रहीम से पूछ ही लिया, दान देने का आपका यह कैसा अजीब तरीका है? जब दान देने के लिए हाथ ऊपर करते हैं तो आंखें नीचे क्यों कर
लेते हैं? लालची लोग इसका गलत फायदा उठा लेते हैं। रहीम ने गंग को जो उत्तर दिया वह एक मिसाल है। उन्होंने
कहा, 'देनहार कोऊ और है, देवत है दिन-रैन। लोग भरम हम पर करे, ताते नीचे नैन। अर्थात देने वाला कोई और (यानी ईश्वर) है, जो दिन-रात देता रहता है, किंतु जो यहां लेने आते हैं उन्हें ऐसा भ्रम होता है कि मैं दे रहा हूं।
बस, यही सोचकर मैं अपनी दृष्टि नीचे झुका लेता
हूं। रहीम की इस निरहंकारी वृत्ति पर गंग उनके प्रति श्रद्धावनत हो गए। दान की सार्थकता तभी है जब वह नि:स्वार्थ भाव
से किया जाए। वस्तुत: दान का पुण्य स्वार्थरहित होने पर ही बढ़ता है।
हेनरी फोर्ड की सादगी ने दिल छू लिया
विश्व के सबसे बड़े कार कारखाने के
मालिक और अमेरिका के अरबपति हेनरी फोर्ड अत्यंत सादगी पसंद थे। धन-संपन्नता की अति
के बावजूद उन्हें अहंकार छू भी नहीं पाया था। वे अपने कारखाने के छोटे-से-छोटे
कर्मचारी से भी स्नेहपूर्वक मिलते थे। अपने घर के नौकरों से भी उनका व्यवहार मधुर
था। सभी से सहजता से मिलना, सभी की समस्याएं
सुनना, सभी का पक्ष समझना, उनके स्वभाव का अभिन्न अंग था।
एक दिन किसी भारतीय उद्योगपति को
फोर्ड से किसी व्यापारिक सौदे के विषय में बात करनी थी। उसने पहले से समय लिया और
निश्चित दिन फोर्ड के घर पहुंच गया। जब वह फोर्ड से मिला तो देखा कि वे अपने भोजन
के बर्तन साफ कर रहे थे। भारतीय उद्योगपति यह देखकर हैरान रह गया। उसने सकुचाते
हुए उनसे पूछा, आपके पास तो कई नौकर होंगे। फिर
झूठे बर्तनों की सफाई आप खुद क्यों कर रहे हैं? आपको ऐसा करते देखकर मुझे बहुत संकोच हो रहा है और शर्म महसूस हो रही
है।
भारतीय उद्योगपति के ऐसा कहने पर फोर्ड ने उसकी ओर देखते हुए मुस्कराकर कहा, क्रदेखो भाई! प्रत्येक सुबह हर व्यक्ति अपने नित्य कर्मों के
लिए अपना सफाईकर्मी बनता ही है। यह ऐसा सच है जो पूरी दुनिया में देखा जा सकता है।
फिर अपने झूठे बर्तन साफ करने में क्या बुराई है और न ही इसमें शर्म महसूस करने की
बात है।ञ्ज करोड़पति हेनरी की यह सादगी और बड़प्पन देखकर भारतीय उद्योगपति का दिल
उनके प्रति आदर भाव से भर गया। अपना काम स्वयं करने से परनिर्भरता नहीं रहती। यही
आत्मनिर्भरता दृढ़ आत्मविश्वास को जन्म देती है, जो जीवन में सफलता पाने का आधार बनती है।
एकनाथ ने बताए भक्ति के मायने
महाराष्ट्र के संत एकनाथ की प्रभु
निष्ठा अनुकरणीय थी। उनके अनेक शिष्य थे, जिन्होंने
उनसे दीक्षा लेकर स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित किया था। संत एकनाथ उन्हीं
लोगों को दीक्षा देते थे, जो हर प्रकार से
अपने पारिवारिक दायित्वों को पूर्ण कर चुके हों अथवा जिन्होंने सांसारिक बंधनों को
स्वीकार ही नहीं किया था। एक बार एकनाथ के पास एक गृहस्थ बड़ा ही उत्साहित होकर
पहुंचा। उसने उनके चरण स्पर्श कर कहा, भगवन!
मैं आपके भक्ति भाव से बहुत प्रभावित हूं। मैंने भी आपका अनुकरण करने का निश्चय
किया है। आज अपनी घर-गृहस्थी छोड़कर आपकी शरण में आया हूं। मैंने यही तय किया है
कि अपना शेष जीवन ईश्वर के भजन पूजन में बिताऊंगा। कृपा कर मेरे कल्याणार्थ मुझे
दीक्षा प्रदान करें।
संत एकनाथ ने उससे पूछा, क्या तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें संन्यास लेने की अनुमति
प्रदान की है? गृहस्थ ने उत्तर दिया, नहीं भगवन! जब
पत्नी और बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे, तब मैंने
इसे अच्छा अवसर समझकर घर छोड़ दिया। मेरे संन्यास ग्रहण करने में पत्नी की अनुमति
की क्या आवश्यकता है? उसका उत्तर सुनकर एकनाथ ने उसे
डांटते हुए कहा, मूर्ख, अज्ञानी! यहां तू कौने से भगवान की सेवा करेगा? वह तो तेरे परिवार के रूप में तेरे घर में ही है और तू उसे त्याग आया। जब
तक तू घर के भगवान की सेवा नहीं करेगा, तेरा
संन्यास विफल रहेगा। वास्तव में त्याग घर-गृहस्थी का नहीं, मन के विकारों का करना होता है। तभी भगवान भी प्रसन्न होंगे, क्योंकि निर्विकार हृदय में ही सच्ची भक्ति का उदय होता
है। गृहस्थ को अपनी भूल का अहसास हुआ और वह अपने घर लौट गया। अपने दायित्वों से
मुंह मोड़कर वैराग्य लेने से मुक्ति संभव नहीं है। सांसारिक जिम्मेदारियों को
पूर्ण करने के बाद संन्यास लेना उचित भी है और फलदायी भी।
गुरु से जाना प्रेम व परिश्रम का
महत्व
गुर्जर नरेश सम्राट कुमार पटल के
गुरु-आचार्य हेमचंद्र किसी यात्रा को संपूर्ण कर राजधानी पाटण लौट रहे थे। रास्ते
में उन्होंने एक गांव में रात बिताई। वहां वे एक निर्धन विधवा महिला के घर ठहरे।
उस महिला ने अत्यंत श्रद्धापूर्वक आचार्य का सत्कार किया। उससे जो बन पड़ा,
वह प्रेम से खिलाया। उस रात आचार्य को महिला की
टूटी-फूटी कुटिया में महल जैसा आनंद महसूस हुआ। अगले दिन जब आचार्य रवाना होने लगे
तो उस महिला ने अपने हाथ के कते सूत की एक चादर उन्हें भेंट की।
आचार्य वही चादर ओढ़कर पाटण पहुंचे।
सम्राट कुमार पटल ने गुरु का स्वागत किया, किंतु
मोटे सूत की चादर आचार्य के शरीर पर देखकर उन्हें बुरा लगा। उन्होंने कहा,
'गुरुवर! यह चादर आपके शरीर पर शोभा नहीं देती। आचार्य बोले, राजन! यह शरीर
अस्थि और मांस-मज्जा का संग्रह मात्र है। इसे कुछ भी ओढ़ाएं, क्या फर्क पड़ता है? सम्राट ने आवेश में कहा, 'गुरुवर! आप तो
शरीर की शोभा और सुख से परे हैं, किंतु मुझे अपने
गुरु के तन पर मूल्यवान उत्तरीय न होकर यह मोटी चादर देख शर्म आती है।
राजा का अहंकार देख आचार्य ने समझाया,
राजन! इस चादर के पीछे कई निर्धनों का परिश्रम छिपा
है। वे दिन-रात परिश्रम कर सूत कातते हैं। मुझे परिश्रम की इस भेंट को ग्रहणकर
गर्व की अनुभूति होती है। फिर जिस गरीब बहन ने मुझे यह भेंट दी है, उसके परिश्रम के साथ उसका निर्मल स्नेह भी इसमें शामिल है,
जो मेरे लिए तुम्हारे मूल्यवान उत्तरीय से अधिक कीमती
है। गुरु की बातों ने सम्राट का अहंकार नष्ट कर दिया और उन्होंने अपने शब्दों
के लिए उनसे क्षमा मांगी। प्रेम से दी गई छोटी-सी भेंट भी बड़ी होती है, क्योंकि उसका आत्मीय भाव उसे मूल्यवान बना देता है। आखिर
प्रेम ही तो वह है, जो आत्मा को शांति देता है और आत्मिक
शांति से बढ़कर कुछ नहीं है।
ऐसे हुए पवनदेव अहंकार मुक्त
एक बार पवन देव को अपनी शक्ति पर
अहंकार हो गया। वे सूर्यदेव के पास पहुंचे और बोले, क्रआपसे अधिक शक्तिवान तो मैं हूं। आप चाहें तो इसे आजमाकर देख सकते
हैं। सूर्यदेव, पवन के अहंकार को समझ गए। उन्होंने
प्रस्ताव रखा, तुम्हें यदि अपनी शक्ति दिखानी है
तो एक गरीब आदमी के वस्त्र उतारकर दिखाओ। पवन देव व्यंग्यात्मक लहजे में हंसते
हुए बोले, यह तो अत्यंत आसान है। मैं अपनी शक्ति से
विशालकाय वृक्षों को उखाड़ फेंकता हूं तो फिर एक आदमी के वस्त्र उतारना क्या चीज
है।
तब सूर्यदेव ने पवन देव को भीषण ठंड
में ठिठुरता एक गरीब आदमी दिखाया और उसके कपड़े उतरवाने को कहा। अब पवन देव ने
धीरे-धीरे हवा की गति बढ़ानी शुरू की। जैसे-जैसे हवा की गति बढ़ती जाती, वह आदमी ठिठुरता हुआ अपने कपड़ों में और सिमटता जाता। पवन देव
हवा की गति को अंतिम सीमा तक ले गए, किंतु आदमी के
कपड़े नहीं उतरवा पाए क्योंकि ठंड की अधिकता ने उसे और अधिक कपड़ों में सिमटते
रहने को विवश कर दिया। तब सूर्यदेव बोले, तुम उस
आदमी के कपड़े नहीं उतार सकते, किंतु मैं यह काम
कर सकता हूं। यह कहकर उन्होंने अपना ताप बढ़ाना आरंभ किया।
जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती गई, वह व्यक्ति एक-एक कर अपने कपड़े उतारने लगा। अंत में उसके
शरीर पर मात्र अधोवस्त्र रह गया। पवन देव ने पराजय स्वीकार कर ली। फिर सूर्यदेव ने
उन्हें समझाया, तुम्हारे पास शक्ति है, किंतु अहंकार इसे कम कर देता है क्योंकि अहंकार बुद्धि को
नष्ट कर देता है। अत: पहले अहंकार से मुक्त होना सीखो। पवन देव ने अपनी गलती के
लिए सूर्यदेव से क्षमा मांगी। अहंकार, विवेक को
हर लेता है, जिसकी वजह से उपलब्धियों का महत्व घट
जाता है और आगे की प्रगति बाधित हो जाती है। अत: हर स्थिति में अहंकार मुक्त रहना
चाहिए।
हैदर अली ने दिया समभाव का संदेश
सुल्तान हैदर अली के विषय में कहा
जाता था कि वह अधिक पढ़ा-लिखा नहीं था, किंतु
विचारधारा से अत्यंत उन्नत था। उसे संप्रदायवादी विवादों से नफरत थी और वह राज्य
में अमन-चैन के लिए विभिन्न वर्गों के मध्य स्नेह तथा भाईचारा देखना चाहता था।
उसका प्रयास रहता था कि सभी लोग परस्पर मिल-जुलकर रहे और एक-दूसरे के धर्म,
विचार और मान्यताओं का आदर करें। एक बार राज्य में शिया
और सुन्नी संप्रदायों के मध्य किसी बात पर विवाद हो गया। कोई पक्ष झुकने को तैयार
नहीं था। दोनों ही अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे। दोनों ने बात को प्रतिष्ठा का
बिंदु बना लिया था। विवाद इतना बढ़ा कि दंगा होने की संभावना प्रबल हो गई।
राज्य के अधिकारी वर्ग में बेचैनी
फैल गई, क्योंकि सुल्तान को यह सब बिलकुल पसंद नहीं
था। आखिर जब मामला शांत होता नहीं दिखा तो हैदर अली तक बात पहुंचाई गई। उन्होंने
शिया और सुन्नी नेताओं को मिलने के लिए बुलाया। जब वे लोग सुल्तान के सामने पहुंचे
तो उसने पूछा, तुम लोग परस्पर पशुओं की भांति क्यों
लड़ रहे हो और राज्य में अशांति क्यों फैला रहे हो? दोनों संप्रदाय के नेताओं ने अपना-अपना पक्ष रखा। तब उसने पूछा, जिनके लिए तुम लोग लड़ रहे हो, क्या वे हमारे बीच मौजूद हैं? उत्तर
मिला, नहीं।
हैदर अली ने समझाते हुए कहा, जो गुजर चुके हैं, उनके नाम
को लेकर लडऩा और दंगा-फसाद करना बेवकूफी है। यदि भविष्य में तुम लोगों ने धर्म को
लेकर लड़ाई की तो कठोरतम सजा दी जाएगी। हैदर अली की बातों ने गहरा असर दिखाया और धार्मिक
विवाद बंद हो गए। ईश्वर ने सभी मनुष्यों
को शारीरिक रूप से समान बनाकर यही संदेश दिया है कि उनके बीच कोई भेद नहीं है। अत:
धर्म-जाति को लेकर परस्पर विवाद न व्यक्तिगत हित में ठीक है और न समाज हित में।
जनता है शासक की सच्ची ताकत
जब सादिक राज्य की प्रजा ने राजा के
महल को घेरा तो राजा मुकुट और राजदंड लिए
हुए प्रजा के बीच आकर बोला, दोस्तो! अब तुम
मेरी प्रजा नहीं हो। मैं अपना मुकुट व राजदंड तुम्हें सौंपता हूं। अब मैं आम आदमी
की तरह तुम्हारे साथ, तुम्हारा हाथ पकड़कर खेतों में,
बागों में, सड़कों पर काम
करूंगा। प्रजा हैरान। जिस राजा को वह अपनी समस्याओं की जड़ मान रही थी, उसने तो शासन उसे ही सौंप दिया। इसके बाद भी राज्य की
व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ। तब प्रजा ने राजा से पूरी शक्ति व न्याय सहित
शासन करने का आग्रह किया। जब वह पुन: सिंहासन पर बैठा तो जनता के एक वर्ग ने
शिकायत की- सामंत हमारे साथ दुव्र्यहार करता है। सभी को दास समझता है।
राजा ने सामंत को बुलाकर कहा- ईश्वर
के तराजू में सभी इंसान बराबर हैं, फिर तुम उनमें
क्यों भेदभाव करते हो? तुम्हें मैं पदमुक्त करता हूं। दूसरे
लोगों ने एक अन्य सामंत के अत्याचार गिनाए तो राजा ने उसे भी कार्यमुक्त कर दिया।
पादरी के बारे में शिकायत मिली कि वह पैसा न देकर काम करवाता है जबकि अपनी तिजोरी
धन से भर रखी है। राजा ने उसे देश निकाला दे दिया। इस प्रकार रोज अत्याचारियों को
दंड मिलता। तब एक दिन फिर प्रजा ने राजा का महल घेरा। राजा फिर मुकुट व राजदंड
सौंपने आया, किंतु प्रजा ने उसे सच्चा राजा घोषित
किया।
तब राजा ने समझाया, मैं नहीं, तुम सभी राजा हो।
जब तुमने मुझे दुर्बल व अयोग्य समझा, तब तुम स्वयं
दुर्बल व अयोग्य थे। जब तुम समर्थ हुए तो वह शक्ति शासन में भी दिखाई देने लगी।
मेरा अस्तित्व तुमसे है, तुम्हारी इच्छा
और कर्म से है। किसी भी राष्ट्र की जनता जितनी अधिक विचारवान और कर्मशील होगी,
वहां का शासन उतना ही बेहतर होगा। वस्तुत: जनता की
प्रकृति और अंतर्बाह्य स्तर शासन का स्वरूप और स्वभाव तय करता है।
कविता की लंबाई नहीं मर्म महत्वपूर्ण
एक ग्रीक कथा के मुताबिक दो कवि
मित्र थे। कविता लिखने की दोनों की अपनी अलग-अलग दृष्टि थी। जब भी दोनों मिलते
अपनी रचनाओं के विषय में चर्चा करते और समय पलक झपकते गुजर जाता। एक बार दोनों
काफी समय तक अपने कार्यों में उलझे रहे और काफी दिनों तक मिल नहीं सके। फिर एक दिन
कहीं दोनों की भेंट हुई तो एक ने दूसरे से पूछा, मित्र! तुमसे मुलाकात हुए लंबा अर्सा बीत गया। इधर तुम्हारी कोई कविता भी
कहीं पढऩे में नहीं आई। बताओ तो पिछले दिनों क्या लिखते रहे?
दूसरे कवि ने उत्तर दिया, भाई! मैं एक खंडकाव्य रचने में व्यस्त था। जीवन की
क्षणभंगुरता को केंद्र में रखकर लिखा गया आठ सौ पृष्ठों का यह खंडकाव्य मेरे जीवन
की श्रेष्ठतम रचना है। मुझे विश्वास है कि यह बेहद लोकप्रिय होगी। चलो, मैं इसे सर्वप्रथम तुम्हें सुनाता हूं। आठ सौ पृष्ठों को
सुनाने में उसे बारह दिन लग गए। जब उसका रचना पाठ समाप्त हुआ तो उसने पहले कवि से
पूछा, क्रअब तुम बताओ कि पिछले दिनों तुमने क्या
लिखा? पहले कवि ने कहा, मैंने पिछले दिनों अधिकांश समय बच्चों के साथ खेलने में बिताया और उसी
दौरान बच्चों के लिए आठ पंक्तियां लिखी हैं। वही तुम्हें सुना देता हूं।
उसने दो मिनट में अपनी आठ पंक्तियां
अपने मित्र को सुना दीं। दूसरा कवि व्यंग्य और उपहास से मुस्कराता रहा। आज इस घटना
को दो हजार वर्ष व्यतीत हो गए। आठ सौ पृष्ठों का वह खंडकाव्य पुस्तकालयों की शोभा
है, जिसे कभी-कभार कोई विद्वान देख जाता है।
किंतु बच्चों पर लिखी वे आठ पंक्तियां ग्रीस के बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ी हुई
हैं। काव्य रचना अपनी लंबाई से नहीं, बल्कि मर्म से
महत्वपूर्ण बनती है। जो कविता मन को छू ले, भावनाओं की सूक्ष्मता जिसमें गूंथी हो और जिसमें मानवीय हृदय प्रतिबिंबित
हो, वही श्रेष्ठ होती है।
अबू हसन ने बताया संन्यास का अर्थ
अबू हसन प्रसिद्ध सूफी संत थे। ऐसा
कहा जाता था कि उन्होंने इश्वर को प्राप्त कर लिया है। उनके निकट जाते ही शांति
मिलती थी। उनका शिष्य बनने के लिए लोग लालायित रहते थे। वे किसी को निराश नहीं
करते थे। उनका कृपा भाव सभी को समान रूप से मिलता था। उनके पास जो भी आता, प्रसन्न और संतुष्ट होकर ही जाता। एक बार अबू हसन के पास एक
आदमी आया। वह बड़ा परेशान दिखाई दे रहा था। उन्होंने स्नेह से उसे अपने पास बैठाया
और उसकी समस्या पूछी।
वह बोला, ओ मेरे प्यारे दरवेश। मैं अपने जीवन की अपवित्रता से तंग आ गया हूं। मुझे
लगता है कि मेरे चारों ओर गलत विचारों और कुकर्मों की भरमार है। मेरा सांस लेना
दूभर हो गया है। मैं स्वयं को इस माहौल से दूर ले जाना चाहता हूं। मैं संन्यासी
होना चाहता हूं। क्या आप अपने पहने हुए पवित्र वस्त्र मुझे दे सकते हैं? मैं इनके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हूं। मैं इन्हें
पहनकर पवित्र होना चाहता हूं।ञ्ज उसकी बात सुनकर अबू हसन मुस्कुराए और बोले,
पहले मुझे एक बात बताओ कि क्या पुरुष, स्त्री के वस्त्र पहनकर स्त्री हो सकता है या कोई स्त्री,
पुरुष के वस्त्र पहनकर पुरुष हो सकती है?
उस आदमी के नहीं कहने पर अबू हसन ने
उसे समझाया, तुम मेरे वस्त्र क्या शरीर को भी ओढ़
लो तो भी संन्यास का सुख नहीं प्राप्त होगा। संन्यासी के वस्त्र पहनकर कभी कोई
संन्यासी हुआ है? जब तक आदमी का चित्त और उसकी
वृत्तियां परिकृष्त न हो जाएं, तब तक बाहरी
वस्त्र धारण करने से वह संन्यासी नहीं हो सकता। जाओ, पहले अपना मन शुद्ध करो, फिर मेरे पास
आना। आदमी ने अपनी भूल महसूस की और अबू हसन की बताई राह पर चल पड़ा। स्वयं को सभी
आंतरिक व बाह्य विकारों से मुक्त करने के बाद संन्यास लेना चाहिए। वस्तुत: विकारों
से मुक्त ह्दय में ही संन्यास घटता है।
राजा ने लकड़हारे से सीखा कर्म का
मर्म
किसी समय एक प्रजा हितैषी राजा था।
वह नियमित रूप से वेश बदलकर निकलता और प्रजा के हालचाल जानता। प्रजा भी राजा के
प्रति बहुत स्नेह व सम्मान रखती थी। प्रजा का कोई संकट, कोई समस्या या आवश्यकता राजा से न छिपी रहती। एक दिन राजा ने विचार किया कि सीमा से सटे
गांवों की स्थिति को देखा जाए। वह अपने एक सहायक को लेकर घोड़े पर रवाना हुआ।
दो-चार गांवों में राजा ने भ्रमण किया, वहां की
समस्याओं को समझकर सहायक को समाधान हेतु दिशा-निर्देश दिए। फिर वह अगले गांव की ओर
चला। रास्ते में राजा ने देखा कि एक बुजुर्ग व दुबला-पतला लकड़हारा पसीने में
नहाया हुआ लकडिय़ां काट रहा था। राजा को उस पर दया आ गई।
राजा उससे बात करने जा ही रहा था कि
अचानक उसे पास की चट्टान में कुछ चमकता नजर आया। पास जाने पर पाया कि चट्टान की
दीवारों में कई कीमती हीरे धंसे हुए थे। राजा यह सोचकर हैरान हुआ कि पास ही लकड़ी
काट रहे लकड़हारे की दृष्टि इन हीरों पर क्यों नहीं पड़ी? वह लकड़हारे के पास गया और उससे प्रश्न किया, बाबा! आपके सामने इतने हीरे पड़े हैं। यदि इनमें से एक हीरा भी आप बेच
देंगे तो जिंदगीभर काम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आपने इन हीरों को नहीं
देखा?
लकड़हारे ने बिना अपना हाथ रोके कहा,
बेटा! ये हीरे तो वर्षों से देख रहा हूं किंतु मैं सोचता
हूं कि ईश्वर ने मुझे हाथ-पैर परिश्रम करने के लिए दिए हैं न कि बैठकर खाने-पीने
के लिए। हीरों की आवश्यकता उन्हें होगी, जिनका
पुरुषार्थ समाप्त हो गया हो। मैं तो भगवान की दया से स्वस्थ हूं और अपना काम कर
सकता हूं। राजा ने लकड़हारे की कर्मशीलता
को नमन किया और आगे की राह ली। मेहनत की कमाई सच्चा सुकून देती है। अत: यथाशक्ति
पुरुषार्थ से ही आजीविका कमानी चाहिए।
यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में जीवन की
कुंजी
महाभारत कथा में युधिष्ठिर और यक्ष
के बीच हुए सवाल-जवाब जीवन के अनमोल मार्गदर्शक हैं। यक्ष का पहला प्रश्न था,
वह कौन है, जो सोया होने पर
भी आंखें नहीं मूंदता, कौन जन्म लेकर भी चलने का प्रयास
नहीं करता, किसके भीतर हृदय नहीं होता और वेग से
कौन बढ़ता है? युधिष्ठिर ने कहा, मछली सोने पर पलक
नहीं मूंदती, अंडा जन्म लेने पर भी चलने का प्रयास
नहीं करता, पत्थर में हृदय नहीं होता और नदी वेग
से बढ़ती है।
फिर यक्ष ने पूछा, पृथ्वी से अधिक धारण करने वाला, आकाश से ऊंचा और वायु से अधिक गतिमान कौन? युधिष्ठिर बोले, मां, पृथ्वी से अधिक धारण करने वाली, आकाश से ऊंचा पिता और मन, वायु से अधिक
गतिमान होता है। तीसरा प्रश्न, घर में, विदेश में, बीमारी में और
मृत्यु के समय मित्र कौन? उत्तर था,
पत्नी घर में, सहयात्री
विदेश में, वैद्य बीमारी में व सत्कर्म मृत्यु
के समय सच्चे मित्र होते हैं। चौथा प्रश्न, मानव का सबसे बड़ा शत्रु कौन, कभी न
खत्म होने वाली व्याधि क्या तथा साधु-असाधु कौन? उत्तर दिया गया, क्रोध मानव का
सबसे बड़ा शत्रु, लोभ अनंत व्याधि, परोपकारी साधु तथा निर्दयी असाधु। पांचवां प्रश्न, श्रेष्ठ धर्म क्या है और किसे वश में करने से शोक नहीं होता?
जवाब मिला, दया सर्वश्रेष्ठ
धर्म है और मन वश में करने से शोक नहीं होता। छठा प्रश्न, धर्म, यश, स्वर्ग व सुख कैसे प्राप्त होता है? जवाब, दक्षता से धर्म, दान से यश, सत्य से स्वर्ग
तथा शील से सुख मिलता है। अंतिम प्रश्न, देवत्व
क्या है? सत्पुरुषों का धर्म क्या ? इनमें मानुषी भाव क्या है।? उत्तर था- वेदों का स्वाध्याय देवत्व है, तप सत्पुरुषों का धर्म है और मृत्यु मानुषी भाव है।ञ्ज यक्ष ने संतुष्ट
होकर चारों पांडवों को जीवन दान दिया। यदि युधिष्ठिर के उत्तरों को गांठ बांध लें
तो सार्थक जीवन जीया जा सकता है।
जब स्वामी रामतीर्थ बने इंद्रजीत
स्वामी रामतीर्थ कॉलेज से घर जा रहे
थे। मार्ग में एक नींबू वाला दिखाई दिया। नींबू बहुत रसीले और एकदम ताजे थे।
रामतीर्थ के मुंह में पानी आ गया। सोचा कि नींबू खरीद लेने चाहिए। उन्होंने
नींबुओं को हाथ लगाकर देखा और उनके स्वादिष्ट होने को परखा। फिर जिह्वा के इस
आमंत्रण को मन ने धिक्कारा, नींबू देखकर
विचलित होना ठीक नहीं। यह भी एक तरह का लोभ है, जो साधना के मार्ग में बाधक है।
रामतीर्थ आगे बढ़ गए, किंतु जिह्वा का शौक इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं था।
जिह्वा ने उन्हें नींबुओं का स्वाद लेने के लिए उकसाया। वे फिर नींबू वाले के पास
लौटे। लौटकर नींबुओं को देखते रहे। वीतरागी मन ने फिर पैरों को आगे बढ़ाया। चार
कदम चलकर जिह्वा ने फिर लौटाया। नींबू वाला हैरान हो गया कि ये सज्जन बार-बार
आना-जाना कर रहे हैं, किंतु नींबू खरीद नहीं रहे हैं।
अंतत: उसने कह ही दिया, साहब! लेना है तो ले लीजिए। बार-बार
क्यों आ-जा रहे हैं?
स्वामी रामतीर्थ ने दो नींबू खरीद
लिए। घर आते ही पत्नी से चाकू मांगा और एक नींबू काट लिया। मगर जैसे ही वे एक फांक
चूसने के लिए मुंह तक लाए कि मन ने ताना दिया, वाह रे रामतीर्थ! तू इस अदनी-सी जिह्वा का गुलाम हो गया। वह तुझे जैसा
आदेश दे रही है, तू बिना विचारे उसे मान रहा है। तभी
पत्नी वहां आई। उसने पति को हाथ रोकते देखकर कहा, नींबू चूसते-चूसते रुक क्यों गए? खाओ न।
लेकिन रामतीर्थ ने तत्काल कटे और साबुत दोनों नींबू पत्नी को देते हुए प्रसन्नता
से कहा, मैं नहीं खाऊंगा। आज मैंने जिह्वा पर जीत
हासिल कर ली। अब मुझे विश्वास है कि इंद्रियों को मैं भी वश में कर सकता हूं।
जिन्हें ईश्वर से लौ लगानी हो, उन्हें भौतिक
आसक्तियों से मुक्त होना चाहिए। यही मुक्ति उनके लिए मोक्ष का द्वार खोलती है।
अति हर चीज की बुरी होती है
एक व्यक्ति अपनी पत्नी की कंजूस
प्रवृत्ति से बहुत परेशान था। वह जब कभी किसी असहाय की मदद के लिए थोड़ा-सा भी दान
देना चाहता तो पत्नी रोक देती। उनके घर से कभी भिक्षुकों को अन्न का एक दाना नसीब
न हुआ और न कभी किसी गरीब के बच्चे को कुछ मिला। उस व्यक्ति का मानना था कि अपनी
आय का एक अंश दान में देना चाहिए और यह अंश उन्हें दिया जाना चाहिए जिन्हें दान
देने की वास्तविक आवश्यकता हो। किंतु पत्नी उसकी राय से इत्तफाक नहीं रखती थी।
उसका विचार था कि दुनिया में बड़े-बड़े सेठ-व्यापारी दान देने के लिए हैं, फिर हम सामान्य लोगों को यह काम कर स्वयं को गरीब बनाने की
कोई जरूरत नहीं है। बहरहाल, वह व्यक्ति पत्नी
की इस सोच से तंग आकर एक संत के पास पहुंचा और उन्हें पूरी बात बताकर इस समस्या का
समाधान करने का आग्रह किया। संत ने उसकी पत्नी को अगले दिन बुलाया।
जब वह आई तो उन्होंने उसे मुट्ठी बंद
करके दिखाई। यह देखकर उस महिला ने इसका अर्थ पूछा। संत बोले, मान लो कि मेरी मुट्ठी सदा इसी तरह बंद रहे तो तुम क्या
कहोगी? महिला ने कहा, यही कि आपका हाथ विकृति का शिकार हो गया है। तब संत ने अपनी बंधी मुट्ठी
खोलकर पूछा, यदि यह सदैव ऐसा खुला रहे तो क्या
मानोगी? महिला बोली, यह दूसरे प्रकार की विकृति होगी।
उसका उत्तर सुनकर संत ने कहा,
इसका आशय यह है कि तुम जानती हो कि अति हर चीज की बुरी
होती है, तुम्हें अपने स्वभाव पर ध्यान देकर उसे
सुधारना चाहिए। महिला ने समझ लिया कि संत का संकेत उसकी अति कृपणता की ओर है। उसी
दिन से उसने अपनी इस प्रवृत्ति का त्याग कर दिया। सार यह है कि हमें अपने स्वभाव
में अति से परहेज करते हुए संतुलित रवैया अपनाना चाहिए। तभी जीवन में सुख-शांति
संभव है।
श्रद्धा के सहारे लक्ष्मण को मिला
ज्ञान
गुरु से ज्ञान हासिल करने के लिए
शिष्य में श्रद्धा भाव का होना बहुत आवश्यक है और यह श्रद्धा शिष्य में विनय के
रूप में प्रकट होती है। इस संदर्भ में रामायण में एक अच्छा प्रसंग दिया गया है।
लंका नरेश रावण अपने दुराचार के लिए कुख्यात था और इस वजह से लोगों की अश्रद्धा
एवं घृणा का पात्र बन गया था। किंतु यह भी सत्य है कि वह परम ज्ञानी भी था। रावण
वेद-शास्त्रों का महान ज्ञाता था। उसने ज्ञान की पराकाष्ठा को छू लिया था। बस,
व्यवहार में उसने अपने इस ज्ञान का कभी सही उपयोग नहीं
किया। श्रीराम इस बात को भलीभांति समझते थे। वे रावण के ज्ञान को आदर की दृष्टि से
देखते थे।
ज्ञानवान होने के कारण उनके मन में
रावण के लिए सम्मान था। इसलिए जब युद्धभूमि में रावण से उनका युद्ध हुआ और अंतत:
वह उनके बाणों से घायल होकर गिर पड़ा तो श्रीराम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण से कहा,
जाओ लक्ष्मण! रावण से उपदेश ग्रहण करो। वे ज्ञान की
प्रतिमूर्ति हैं। तुम्हें उनसे वह दुर्लभ
मार्गदर्शन मिलेगा, जो जीवन में सदैव काम आएगा। रावण की
मृत्यु निकट थी और वह बुरी तरह से घायल हो
गया था। लक्ष्मण उसी अवस्था में रावण के पास पहुंचे और काफी देर तक उनके पास खड़े
रहे, लेकिन रावण ने मार्गदर्शन देना तो दूर एक
शब्द भी नहीं कहा। लक्ष्मण ने श्रीराम के पास आकर अपना यह अनुभव सुनाया।
तब राम ने उन्हें समझाया, तुम विनयपूर्वक एक विद्यार्थी की भांति महापंडित, परम ज्ञानी रावण के पास जाओ तो वे तुम्हें निराश नहीं करेंगे।
इस बार लक्ष्मण, श्रीराम के बताए हुए भाव को ग्रहण कर
रावण के पास गए तो रावण ने उन्हें राजनीति का महत्वपूर्ण उपदेश दिया। वस्तुत:
श्रद्धा के माध्यम से गुरु, विद्यार्थी की
जिज्ञासा और पात्रता की परीक्षा लेता है। अपेक्षित श्रद्धा भाव से ही विद्यार्थी,
शिष्य बनकर गुरु से ज्ञान पाता है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष
sukun ka safar
ReplyDeleteRomantic Shayari in hindi
ReplyDeleteSad Shayari for friends in hindi - sukun ka safar
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