चंद्रशेखर आजाद का संकल्प
गांधीजी ने 1921 में अंग्रेजों के विरुद्ध ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ चलाया। अंग्रेजों और उनकी
वस्तुओं का बहिष्कार किया गया। आंदोलन देश भर में फैल गया था। बनारस की घटना है।
आंदोलन से विद्यार्थी भी अछूते न रहे। एक दिन बनारस में कुछ विद्यार्थी ‘भारत माता की जय’
का नारा लगाते हुए
जुलूस की शक्ल में जा रहे थे। उनका नेतृत्व एक पंद्रह वर्षीय छात्र चंद्रशेखर कर
रहा था।
देशभक्ति के जोश से भरे इन युवकों के सामने अचानक पुलिस आ गई और सभी को हथकड़ी
लगाकर अदालत ले गई। चूंकि नेता चंद्रशेखर था, इसलिए सर्वप्रथम पूछताछ भी उसी
से हुई। चंद्रशेखर से जज ने पूछा-‘तुम्हारा नाम क्या है?’ चंद्रशेखर ने निर्भीकता से जवाब
दिया-‘आजाद।’
अगला प्रश्न जज ने किया-‘तुम्हारे पिता का नाम क्या है?’ चंद्रशेखर ने गर्व से सिर उठाकर
कहा- ‘स्वतंत्र।’
जज ने झुंझलाकर इस
बार पूछा- ‘तुम्हारा घर कहां है?’ चंद्रशेखर ने बिना डरे कहा- ‘जेल।’ अब तो जज आपे से बाहर हो गया।
उसने चंद्रशेखर को बेंत लगाने का आदेश दिया। पुलिस ने बेंत मार-मारकर चंद्रशेखर को
लहूलुहान कर दिया, किंतु वह ‘भारत माता की जय’ बोलता रहा। अंतिम बेंत के बाद वह बेहोश हो गया।
जब होश आया, तो चोट की कोई परवाह किए बगैर ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाकर घर की ओर चल दिया। उसके साहस और देश
भक्ति के जज्बे की सराहना स्वरूप उसका नागरिक अभिनंदन किया गया। आगे चलकर उसी
चंद्रशेखर आजाद ने देश को स्वतंत्र कराने में अप्रतिम योगदान दिया। जब मन में
अच्छे उद्देश्यों के लिए समर्पण भाव प्रबल हो, तो तन हर कष्ट सह जाता है।
राष्ट्र के संदर्भ में यह आत्म बलिदान की अंतिम सीमा तक जाता है।
फूट डालकर फायदा उठाया
जातक कथाओं में इस कथा का उल्लेख है। एक ग्वाला प्रतिदिन अपनी गायों को चराने
के लिए जंगल ले जाता था। उस झुंड में से एक गर्भवती गाय जंगल में ही छूट गई। अगले
दिन जब ग्वाले ने उसे जंगल में खोजा, तो वह नहीं मिली। वास्तव में वह गाय एक शेरनी की
मांद में रुक गई थी। शेरनी भी गर्भवती थी। दोनों साथ-साथ मित्रवत् रहने लगीं। कुछ
दिनों बाद गाय ने बछड़े को और शेरनी ने शावक को जन्म दिया। बछड़ा और शावक साथ रहने
के कारण मित्र बन गए। एक दिन किसी सैनिक ने शेर और बैल को साथ देखा।
उसने यह बात राजा को बताई। राजा ने कहा - ‘जब इनके साथ कोई तीसरा आ मिले,
तब बताना।’
कुछ दिन बाद एक
गीदड़ ने शेर और बैल से मित्रता की। राजा ने कहा - ‘यही तीसरा इन दोनों में फूट
डालेगा और ये दोनों आपस में लड़कर मर जाएंगे।’ उधर गीदड़ ने सोचा कि मैंने सिंह
और बैल के मांस को छोड़कर सभी जानवरों का मांस खाया है। अब इन दोनों को लड़वाकर
मैं इनका मांस खाऊंगा। उसने दोनों को भड़काना शुरू किया। अंतत: बैल और शेर की
लड़ाई हुई। दोनों मृत्यु को प्राप्त हुए। गीदड़ ने दोनों का मांस खाया और चलता
बना।
राजा भी कुछ देर बाद वहां पहुंचा और अपने सैनिक से बोला - ‘चुगली करने वालों के वचन
पर विश्वास करने से यही गति प्राप्त होती है।’ राजा के कहने पर सैनिक ने शेर के
मूल्यवान चर्म, नख और दांतों को निकाल लिया। इस प्रतीकात्मक कथा का सार यह है कि किसी के कथन
पर बिना प्रमाण विश्वास कर लेना घातक होता है। अत: जब भी कोई किसी के विषय में कुछ
कहे, तो
पहले उसकी प्रामाणिकता परखें।
घृणा पर करुणा की विजय
द्वितीय विश्वयुद्ध की बात है। जर्मनी ने बेल्जियम को पराजित कर दिया था। इसके
बाद जर्मन सैनिकों ने बेल्जियम के सैनिकों के साथ अत्यंत क्रूरतापूर्ण व्यवहार
किया। यह सब देखकर बेल्जियम के लोगों में जर्मनों के प्रति घोर घृणा का भाव आ गया।
बेल्जियम की प्रसिद्ध समाजसेविका श्रीमती माग्दा यूरस भी इन लोगों में से एक थीं।
वे युद्ध की प्रबल विरोधी और शांति की समर्थक थीं।
अपने देशवासियों पर जर्मनों के अत्याचार देखकर वे बहुत दु:खी होती थीं। घायल
सैनिकों के लिए वे यथाशक्ति मदद पहुंचाती थीं। एक दिन उन्होंने एक घायल जर्मन
सैनिक को देखा। श्रीमती यूरस को उस पर दया आई, किंतु वे यह सोचते हुए आगे बढ़
गईं- ‘यह
नाजी है। इसे ऐसे ही मरना चाहिए।’
श्रीमती यूरस आगे तो बढ़ गईं, किंतु उनका मन उस घायल सिपाही में अटक गया। उन्हें ऐसा लगा
मानो उनकी आत्मा उन्हें धिक्कार रही है। उस घायल मनुष्य की मदद इंसानियत की दृष्टि
से करनी चाहिए। तभी उस घायल सिपाही का आर्त स्वर फिर उनके कानों से टकराया। अंतत:
करुणा ने घृणा पर विजय प्राप्त कर ली।
वे उस सैनिक के पास लौटीं और वहीं बैठकर उसे देखने लगीं कि उसे कैसी मदद की
आवश्यकता है? जर्मन सैनिक उनकी सहानुभूति देखकर चकित हो उठा। वह बोला- ‘आप यहां? मेरे पास?’ उन्होंने उसका सिर स्नेह
से सहलाते हुए कहा- मैं तुम्हें अभी अस्पताल पहुंचाने की व्यवस्था करती हूं। तब तक
आओ, जरा तुम्हें
पट्टी बांध दूं।’ यह कहते हुए श्रीमती यूरस उसके उपचार में लग गईं। पीड़ित मानवता की सेवा के
लिए मित्र-शत्रु, अपना-पराया, जाति-विजातीय का भेद नहीं करना चाहिए। समदृष्टि रखने वाला ही सच्च समाजसेवक
होता है।
गुलामी से बेहतर है संघर्षपूर्ण मुक्ति
अमेरिका में किसी समय दास प्रथा का प्रचलन था। नीग्रो जाति के लोग
भेड़-बकरियों की तरह खरीदे व बेचे जाते थे। उनका जीवन मालिक की इच्छा व आदेश से
संचालित होता था। अन्य अनेक लोगों के साथ अब्राहम लिंकन के प्रयासों से अमेरिका
में दास प्रथा का अंत हुआ और नीग्रो जाति मुक्त हुई। मुक्त होने के बाद नीग्रो
लोगों ने रोजगार खोजना शुरू किया। एक वृद्ध और अशक्त नीग्रो काम की तलाश में घूम
रहा था।
घूमते-घूमते वह थक गया, किंतु काम नहीं मिला। वह एक स्थान पर बैठ गया। वहीं उसकी
भेंट मालिक जाति के एक परिचित व्यक्ति से हुई। बूढ़े नीग्रो की दयनीय दशा देख वह
व्यक्ति बोला- तुम्हारी यह क्या हालत हो गई। क्या किसी परेशानी में हो? नीग्रो ने कहा- काम नहीं
मिल रहा है। वह व्यक्ति बोला- पिछले दिनों तो तुम्हारी स्थिति ठीक थी। नीग्रो
बोला- उन दिनों मुझे बड़ा आराम था क्योंकि मेरा मालिक दयालु था।
वह मुझ पर कोई अत्याचार नहीं करता था और कठिन काम नहीं देता था। सहानुभूति
जताते हुए उस व्यक्ति ने कहा- फिर तो तुम उन गुलामी के दिनों में ही बेहतर थे। यह
मुक्ति तुम्हें महंगी पड़ गई। यह तुम्हारे किस काम की? यह सुनते ही उस बूढ़े नीग्रो में
न जाने कहां से ताकत आ गई।
वह तनकर खड़ा हो गया और दृढ़ स्वर में बोला- जी नहीं, महोदय! दासता के जीवन से मुक्ति
हजार गुना बेहतर है, क्योंकि हमारे जीवन पर अब सिर्फ और सिर्फ हमारा अधिकार है। उसे संवारने के लिए
हम पूर्णत: मुक्त हैं। यह कहते हुए वह काम की तलाश में दोगुनी ताकत से चल दिया। मुक्ति
मनुष्य के सर्वागीण विकास की पहली शर्त है। वस्तुत: पराधीनता पतन का द्वार है,
जबकि मुक्ति
प्रगति का।
गुलामी से बेहतर है संघर्षपूर्ण मुक्ति
अमेरिका में किसी समय दास प्रथा का प्रचलन था। नीग्रो जाति के लोग
भेड़-बकरियों की तरह खरीदे व बेचे जाते थे। उनका जीवन मालिक की इच्छा व आदेश से
संचालित होता था। अन्य अनेक लोगों के साथ अब्राहम लिंकन के प्रयासों से अमेरिका
में दास प्रथा का अंत हुआ और नीग्रो जाति मुक्त हुई। मुक्त होने के बाद नीग्रो
लोगों ने रोजगार खोजना शुरू किया। एक वृद्ध और अशक्त नीग्रो काम की तलाश में घूम
रहा था।
घूमते-घूमते वह थक गया, किंतु काम नहीं मिला। वह एक स्थान पर बैठ गया। वहीं उसकी
भेंट मालिक जाति के एक परिचित व्यक्ति से हुई। बूढ़े नीग्रो की दयनीय दशा देख वह
व्यक्ति बोला- तुम्हारी यह क्या हालत हो गई। क्या किसी परेशानी में हो? नीग्रो ने कहा- काम नहीं
मिल रहा है। वह व्यक्ति बोला- पिछले दिनों तो तुम्हारी स्थिति ठीक थी। नीग्रो
बोला- उन दिनों मुझे बड़ा आराम था क्योंकि मेरा मालिक दयालु था।
वह मुझ पर कोई अत्याचार नहीं करता था और कठिन काम नहीं देता था। सहानुभूति
जताते हुए उस व्यक्ति ने कहा- फिर तो तुम उन गुलामी के दिनों में ही बेहतर थे। यह
मुक्ति तुम्हें महंगी पड़ गई। यह तुम्हारे किस काम की? यह सुनते ही उस बूढ़े नीग्रो में
न जाने कहां से ताकत आ गई।
वह तनकर खड़ा हो गया और दृढ़ स्वर में बोला- जी नहीं, महोदय! दासता के जीवन से मुक्ति
हजार गुना बेहतर है, क्योंकि हमारे जीवन पर अब सिर्फ और सिर्फ हमारा अधिकार है। उसे संवारने के लिए
हम पूर्णत: मुक्त हैं। यह कहते हुए वह काम की तलाश में दोगुनी ताकत से चल दिया।
मुक्ति मनुष्य के सर्वागीण विकास की पहली शर्त है। वस्तुत: पराधीनता पतन का द्वार
है, जबकि
मुक्ति प्रगति का।
कागावा बना जापान का गांधी
जापान के एक युवक कागावा के मन में बचपन से ही दीन-दुखियों के प्रति बहुत
संवेदना थी। उसने यह तय कर लिया था कि बड़ा होकर वह समाजसेवा करेगा। जब पढ़ाई
समाप्त हो गई तो उसने अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य पीड़ितों की सेवा को माना। वह अशक्त,
बूढ़े, बीमार, पिछड़े या रोगग्रस्त
लोगों की यथासंभव सेवा और सहायता करता। कागावा ने अपनी आजीविका चलाने के लिए दो
घंटे का एक काम हाथ में लिया।
इस नौकरी से वह अपनी आवश्यकताएं पूरी कर लेता। अपने सेवाकार्यो के कारण
धीरे-धीरे कागावा लोकप्रिय होता गया। एक सुशिक्षित युवती ने कागावा के समक्ष विवाह
का प्रस्ताव रख दिया। कागावा यह सोचकर पहले तो तैयार नहीं हुआ कि विवाह कर लेने से
गृहस्थी की जिम्मेदारियों को पूरा करने में उसका सेवा संकल्प पिछड़ जाएगा, किंतु युवती ने उससे
वादा किया कि वह भी उसके साथ मिलकर सेवा कार्य करेगी।
युवती ने भी अपनी गृहस्थी ठीक से चलाने के लिए दो घंटे का एक काम खोज लिया।
शेष समय वह पति के साथ समाज के कमजोर वर्ग के लिए कार्य करती। दोनों के समन्वित
प्रयासों से सेवा क्षेत्र का दायरा बढ़ा और सरकार तथा संपन्न वर्ग भी उनकी मदद के
लिए आगे आए। कागावा और उसकी पत्नी ने इस मदद को समाज के कमजोर तबके के लिए
विवेकपूर्ण ढंग से उपयोग किया।
इस प्रकार जापान को विकसित राष्ट्र बनाने में कागावा का महत् योगदान रहा।
इसलिए उन्हें जापान का गांधी कहा गया। सार यह है कि चाह से ही राह खुलती है। निजी
दायित्वों के साथ कुछ समय व साधन समाजहित पर भी व्यय करें, तो समग्र विकास के लक्ष्य को
पाना आसान हो जाता है।
जब मालिक ने नौकर की सेवा की
उन दिनों कानपुर में प्लेग फैला हुआ था। जिस घर में एक भी सदस्य प्लेगग्रस्त
होता, समाज
उसका बहिष्कार कर देता, क्योंकि लोग उसे संक्रामक रोग मानते थे। यहां तक कि परिवार
के लोग ही अपने परिजन को त्यागने लगे। स्थिति यह हो गई थी कि प्लेग से मरने वालों
का अंतिम संस्कार करने के लिए भी कोई तैयार नहीं होता था। कानपुर में एक वकील रहते
थे। रामदेव उनका पुराना नौकर था।
एक दिन रामदेव ने वकील साहब से कहा कि उसे बुखार आ रहा है। सुनकर वकील साहब
समझ गए कि यह प्लेग का संकेत है। उनकी एक विवाहित पुत्री उस समय मायके आई हुई थी।
उन्होंने अंदर जाकर पुत्री से कहा- तुम अभी अपने दूसरे घर चली जाओ। पुत्री ने कारण
पूछा तो उन्होंने बताया कि रामदेव को प्लेग हुआ है। कहीं बच्चों को भी न हो जाए,
इसलिए दूसरे घर
चले जाना बेहतर है। यह कहकर वे रामदेव के पास वापस लौटे।
वह घर के बरामदे में लेटा कराह रहा था। वे तत्काल चिकित्सक को लेकर आए। उसने
रामदेव का परीक्षण कर दवा दी। जब रामदेव को कुछ आराम हुआ तो वकील साहब भी आराम
करने अपने कमरे में पहुंचे। वहां देखा कि बेटी गई ही नहीं है। उन्होंने न जाने का
कारण पूछा तो वह बोली- पिताजी! आपको छोड़कर कैसे जाती? आप भी चलिये। वकील साहब ने कहा-
बेटी! रामदेव ने मेरी और पूरे परिवार की जीवनभर सेवा की है।
अब जब वह मृत्यु के निकट है, तब उसे छोड़कर जाना उचित नहीं है। तब पुत्री भी दृढ़ स्वर
में बोली- तब मैं भी आपके साथ यहीं रहूंगी और रामदेव काका की देखभाल करूंगी। सार
यह है कि सेवाभावी सहायकों का उनके संकट में साथ देना चाहिए। उनके द्वारा की गई
सेवा का यही उचित प्रतिफल होता है।
पश्चाताप से सुधरा छात्र का जीवन
किसी विद्यालय की घटना है। विज्ञान के छात्रों को प्रतिदिन प्रयोगशाला में
प्रयोग करने होते थे। कुछ छात्रों को घर पर भी इन प्रयोगों को दोहराना अच्छा लगता
था।
ऐसे छात्रों की इच्छा रहती थी कि विद्यालय की प्रयोगशाला से उन्हें प्रयोग की
सामग्री दी जाए, किंतु प्राचार्य सख्त थे, इसलिए उन्हें कोई सामग्री नहीं दी जाती थी। एक दिन एक छात्र
रसायन की प्रयोगशाला से किसी रसायन की एक शीशी चुराकर घर ले गया।
विद्यालय में खोजबीन हुई, किंतु चोर पकड़ा नहीं गया। एक माह बाद एक छात्र प्राचार्य
के पास आया और वह शीशी उनके सामने मेज पर रख दी। प्राचार्य ने प्रश्न सूचक मुद्रा
में उसे देखा, तो उसने अपने द्वारा की गई चोरी के बारे में सबकुछ बता दिया। प्राचार्य ने
उससे प्रश्न किया- यदि तुम्हें इसकी जरूरत थी तो अब तक इसका प्रयोग क्यों नहीं
किया? छात्र
बोला- मैं जब भी इसे इस्तेमाल करने का सोचता, मेरी रूह कांप जाती। मुझे लगता
कि मैंने चोरी कर बहुत बुरा काम किया है।
इसलिए मैं इसे निकालता और फिर वापस रख देता। अंतत: मेरी आत्मा ने मुझे इसे
वापस करने के लिए विवश कर दिया। यह सुनकर प्राचार्य ने कहा- इसे तुम मेरे पास
क्यों लाए? तुम इसे चुपचाप वहीं रख सकते थे, जहां से इसे चुराया था। इस पर छात्र तत्काल बोल उठा-
सर! यह तो एक बार फिर चोरी करना होता। उसके जवाब पर प्राचार्य ने खुश होकर उसे
अपनी कक्षा में जाने को कहा, लेकिन उसने अपने लिए सजा की मांग की। तब प्राचार्य बोले-
तुम एक माह तक पश्चाताप की अग्नि में जलते रहे, यही तुम्हारी सजा थी। अब जाओ और
पढ़ाई में ध्यान लगाओ। वस्तुत: पश्चाताप से पाप का बोझ हल्का हो जाता है और भविष्य
केलिए सही राह खुल जाती है।
राजा के जीवन की दिशा बदल गई
किसी राज्य में एक महिला संत थीं गौरीबाई। वे गांव के एक मंदिर में रहती थीं।
उनका जीवन-लक्ष्य था- जनहित के काम करना। लोग उनके पास अपने दुख-दर्द लेकर आते और
वे उनकी भरपूर मदद कर उन्हें सुखी बनाती थीं। धीरे-धीरे उनकी ख्याति राजा तकभी
पहुंची। राजा ने उनसे मिलने का विचार किया। गौरीबाई को भेंट करने के लिए राजा ने
पचास हजार स्वर्ण-मुद्राएं साथ में रखीं और उनके पास पहुंचा। गौरीबाई की सीधी-सरल
बातों और उच्च कोटि की भावना देख राजा बहुत प्रसन्न हुआ।
उसने बड़े आदर से संत से आग्रह किया - ‘माई! मैं आपके लिए यह तुच्छ भेंट
लाया हूं। आप स्वीकार करेंगी, तो बड़ी कृपा होगी।’ गौरीबाई तो भौतिकता से कोसों दूर
थीं, अत:
उन्होंने स्वर्ण-मुद्राएं लेने से इनकार कर दिया। राजा ने अधिक आग्रह किया,
तो उन्होंने वहीं
मौजूद अपने कुछ भक्तों से वे मुद्राएं गरीबों में बांट देने को कहा। राजा
आश्चर्यचकित होकर बोला- ‘ये मुद्राएं मैं आपकी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए लाया
हूं। इन पर आपका अधिकार है।’ संत गौरीबाई ने उत्तर दिया- ‘राजन! मैं इन ग्रामवासियों का
ध्यान रखती हूं और बदले में ये मेरा खयाल रखते हैं।
फिर भला बताइए कि इन हजारों ग्रामवासियों के रहते मेरी कौन-सी आवश्यकता होगी,
जो पूर्ण न होती
होगी? इन
मुद्राओं पर मेरा अधिकार है, किंतु मुझ पर ग्रामवासियों का अधिकार है। इस नाते मुद्राएं
सभी की हैं। आप चिंता न करें, आपकी मुद्राएं सही स्थान पर जा रही हैं।’ संत की बातों से
प्रभावित हो राजा ने उसी दिन से निर्धनों की मदद का संकल्प ले लिया। सार यह है कि
दान वही सार्थक होता है, जो अधिकाधिक लोगों के हित में हो। अत: जनकल्याणार्थ किया
गया दान ही श्रेष्ठ होता है।
नींव के पत्थरों का सम्मान कीजिए
एक बादशाह का सपना था कि वह एक भव्य मंदिर का निर्माण कराए। उसने अपने
मंत्रियों के सहयोग से दक्ष कारीगरों को जुटाया। मंदिर की छत सोने की थी और उसकी
दीवारों पर सुंदर नक्काशी की गई थी। मंदिर का निर्माण पूर्ण हो जाने पर बादशाह ने
अपने दक्ष कारीगरों के लिए एक भोज का आयोजन किया। तय दिन सभी कारीगर आए और
निर्धारित स्थान पर बैठ गए। सभी ने देखा कि बादशाह के बायीं ओर की विशेष रूप से
सज्जित कुर्सी खाली है। वास्तव में वह स्थान सबसे बड़े शिल्पी के लिए सुरक्षित रखा
गया था।
सोने की छत बनाने वाले ने सोचा कियह स्थान तो मेरे ही लिए होगा। बेजान पत्थरों
को नक्काशी से जीवंत कर देने वाले संगतराश तथा मनमोहक दीवार बनाने वाले कारीगर ने
कुर्सी पर बैठने के लिए स्वयं को सही पात्र माना, तो हीरे-जवाहरात जड़ने वाले को
खुद से योग्य कोई और नजर नहीं आया। तभी दरबार में फटे वस्त्र पहने एक व्यक्ति ने
प्रवेश किया। सभी की आंखों में तिरस्कार और विस्मय के भाव उभर आए। आगंतुक बोला- ‘महाराज! मैंने सुना कि
आप सबसे बड़े शिल्पी की तलाश में हैं।
मैं स्वयं को आपके समक्ष इस रूप में प्रस्तुत करता हूं।’ बादशाह ने उसे अपनी
योग्यता साबित करने को कहा। वह बोला- ‘मैं वह लुहार हूं, जिसने उन औजारों का निर्माण किया
है, जिनसे
आपके कारीगरों ने यह सुंदर मंदिर बनाया है।’ लुहार की महानता सभी ने मानी और
बादशाह ने उसे सबसे बड़ा शिल्पी घोषित कर ससम्मान अपने पास वाली कुर्सी पर बैठाया।
कथा का सार यह है कि सबसे महान नींव के पत्थर होते हैं, जिन पर संपूर्ण निर्माण अवलंबित
होता है, इसलिए
उनका यथोचित सम्मान किया जाना चाहिए।
पिता की मदद पुत्र के काम आई
पंडित रामप्रसाद निर्धन थे, किंतु अतिथि-सत्कार में बहुत अव्वल थे। पंडितजी जो भी कमाते,
स्वयं पर कम खर्च
करते और अतिथियों पर अधिक व्यय करते। एक दिन पंडितजी के घर कुछ मेहमान आए। भोजन के
उपरांत उन लोगों ने पंडितजी से शाम की गाड़ी का टिकट कटाने को कहा। संयोग से उस
दिन पंडितजी की भी जेब खाली थी। उन्होंने यह बात मेहमानों को नहीं बताई, क्योंकि अतिथि को कष्ट
पहुंचाना नहीं चाहते थे। उन्होंने अपने कुछ मित्रों को टटोला, किंतु पैसों का प्रबंध
नहीं हो पाया।
वे चिंतित बैठे थे कितभी एक ग्रामीण दिखने वाला बुजुर्ग उनके घर आया। उसने
पूछा- ‘रामप्रसादजी
से मुलाकात होगी क्या?’ पंडितजी ने उसे नमस्कार कर अपना परिचय दिया। उसने फिर
प्रश्न किया- ‘क्या तुम पंडित हरिप्रसाद के बेटे हो?’ पंडितजी की हां सुनकर उसकी आंखें
भर आईं। वह बोला- ‘बेटा! बीस साल पहले तुम्हारे पिताजी और मैं एक ही गाड़ी में सफर कर रहे थे।
मुझे पता चला कि मेरी जेब कट गई है। मैं घबरा गया। तब तुम्हारे पिताजी ने मुझे
सांत्वना दी और मेरे टिकट के पैसे चुकाए।
उनका वह ऋण मैं हर साल चुकाने की सोचता, किंतु कोई न कोई समस्या आ जाती।
अब जब मैं पैसे इकट्ठे कर उन्हें देने तुम्हारे पैतृक गांव पहुंचा, तो पता चला कि उनका
देहांत हो चुका है। इसलिए मैं तुम्हें पैसे लौटाने यहां आया हूं।’ यह कहते हुए बुजुर्ग ने
पैसे पंडितजी को दे दिए और चला गया। पंडितजी ने उन पैसों से अपने मेहमानों के जाने
की व्यवस्था की और ईश्वर को उसकी दयालुता के लिए हजार-हजार धन्यवाद दिए। वस्तुत:
आभार मानकर ऋण चुकाने की ईमानदार कोशिश उच्च नैतिकता दर्शाती है। यह समाज के चेहरे
को कुछ हद तक मानवीय बनाए रखती है।
युवती को बुद्ध ने दिखाई राह
एक दिन भगवान बुद्ध का प्रिय शिष्य
आनंद भिक्षाटन हेतु नगर पहुंचा। वहां किसी नदी पर पानी पीने के लिए रुका, तो देखा कि प्रकृति नाम
की एक लड़की घड़े से पानी भर रही थी। आनंद ने उससे पानी मांगा, तो उसने अपनी निम्न जाति
का हवाला देकर पानी पिलाने से मना किया। तब आनंद ने स्वयं को ऐसे भेदभाव से परे
होने की बात कहकर प्रकृति का दिया पानी पी लिया। आनंद तो वापस लौट गया, किंतु प्रकृति उससे
प्रभावित हो गई।
उसने आनंद से विवाह का निश्चय कर लिया। अपनी मां से जब प्रकृति ने यह बात कही,
तो मां ने आनंद के
ब्रह्मचर्य व्रत के बारे में उसे बताया। फिर भी वह अड़ गई। तब मां ने आनंद को
बुलाकर प्रकृति के निश्चय के विषय में बताया। वह अपने अखंड ब्रह्मचर्य व्रत का
पालन करने की बात कहकर लौट आया। अगले दिन प्रकृति आनंद को खोजती हुई विहार पहुंची।
तब आनंद ने भगवान बुद्ध से उसकी शिकायत की।
बुद्ध ने उसे बुलवाकर पहले उसका निश्चय जाना, फिर पूछा- ‘आनंद के शरीर के कौन से
हिस्से से तुम्हें प्रेम है?’ प्रकृति ने उत्तर दिया- ‘मैं उसकी आंखों से प्यार करती
हूं। मैं उसकी नाक से प्यार करती हूं। मैं उसके मुंह से, कानों से प्यार करती हूं। उसका
पूरा शरीर मेरे प्रेम का केन्द्र है।’ यह सुनकर बुद्ध ने उसे समझाया- ‘आंखें, अश्रुओं का स्थान है और
अश्रु एक प्रकार से आंखों की गंदगी ही निकालते हैं। नाकव कान में भी मैल भरा होता
है। मुंह में थूक के रूप में गंदगी होती है। इस प्रकार सारा शरीर गंदगी का घर होता
है।
विवाह के पश्चात बच्चों का जन्म होता है। जहां जन्म है, वहां मृत्यु है और जहां मृत्यु
है, वहां
दुख है। फिर तुम सोचो कि आनंद से विवाह कर क्या पाओगी?’ बुद्ध की बातों ने प्रकृति के
अज्ञान को दूर कर दिया। उसने बुद्ध और आनंद से क्षमा मांगी और भिक्षुणी संघ में
उसे लेने की प्रार्थना की, जिसे बुद्ध ने स्वीकार कर लिया। सार यह है कि मोह अज्ञान से
उपजता है, जो पतन की ओर ले जाता है। इसलिए सदा ज्ञान के मार्ग पर चलना चाहिए।
सेवा के लिए संपूर्ण समर्पण जरूरी
यूरोप के किसी द्वीप पर एक समय कोढ़
का रोग फैल गया था। वह द्वीप ‘कोढ़ियों के द्वीप’ के नाम से जाना जाने लगा था। स्वस्थ लोग वहां जाते
ही नहीं थे, क्योंकि यह रोग संक्रामक माना जाता है। नतीजतन कोढ़ियों की स्थिति बहुत दयनीय
हो गई थी। वे लोग जैसे-तैसे अपने दिन गुजार रहे थे। उनकी इस दुर्दशा को जब एक
दयालु पादरी ने देखा, तो वह उनके बीच रहकर उनकी सेवा करने चला आया।
उसने अपनी दिनचर्या में कोढ़ियों से संबंधित सभी कार्य शामिल कर लिए। वह उनके
घाव धोता, दवा लगाता, नहलाता, खाना खिलाता। कोढ़ियों के आत्मिक बल को बढ़ाने के लिए वह उन्हें धार्मिक
पुस्तकें पढ़कर सुनाता। कोढ़ियों के लिए पादरी सभी रिश्तों का पर्याय बन गया था।
इस प्रकार सेवा-कार्य करते-करते उसे अठारह वर्ष बीत गए। एक दिन जब वह किसी कोढ़ी
के घाव धोने के लिए गर्म पानी ले जा रहा था, तो कुछ पानी उसके पैरों पर गिर
गया।
आश्चर्य की बात कि गर्म पानी का उसके पैरों पर कोई असर नहीं हुआ। यह देखकर वह
हर्षित हो उठा। उसने अनेक बार अपने पैरों पर गर्म पानी डालकर देखा फिर वह खुशी से
चिल्लाया - ‘मुझे भी कोढ़ हो गया है। अब मैं तुम्हारा सच्च मित्र बन गया हूं।’ जब चिकित्सकों को पता
लगा, तो वे
जल्दी से उसके पास पहुंचे और उसके पैरों का परीक्षण कर कोढ़ होने की पुष्टि की।
उन्होंने उसे अपने घर चले जाने को कहा, किंतु पादरी ने यह कहकर उन्हें
लौटा दिया - ‘अब मैं उनकी पीड़ा को अपनी संपूर्णता में महसूस कर सकूंगा। वास्तव में अब जाकर
मैं उन लोगों की सेवा करने के काबिल बन पाया हूं।’ सार यह है कि पीड़ित मानवता की
सेवा से बढ़कर कोई परमार्थ नहीं होता, क्योंकि इसके लिए संपूर्ण आत्मसमर्पण जरूरी है।
छलकपट से विश्वास जीतना असंभव
एक चोर चोरी करने में इतना सिद्धहस्त था कि कभी उसे कोई पकड़ ही नहीं पाता था।
जब उस नगर के लोग निरंतर हो रही चोरियों से तंग आ गए, तो वे राजा के पास पहुंचे। राजा
ने उनकी समस्या सुनकर नगर कोतवाल को तलब किया। राजा ने कोतवाल को सात दिन के भीतर
चोर को पकड़ने का आदेश दिया। आखिर सातवें दिन चोर पकड़ा गया। राजा ने उसे
मृत्युदंड की सजा सुना दी। उसे वधस्थल की ओर ले जाया गया। मार्ग में लोग चोर को
देखने के लिए जमा थे।
उनमें एक मल्लिका नामक वेश्या भी थी। चोर अत्यंत रूपवान था। मल्लिका उस पर
मोहित हो गई। उसने कोतवाल से चोर को छोड़ने का आग्रह किया और एक हजार स्वर्ण
मुद्राएं कोतवाल को दीं। कोतवाल ने चोर को छोड़ना स्वीकार किया, किंतु उसके स्थान पर एक
व्यक्ति को फांसी हेतु भेजने की शर्त रखी। मल्लिका पर नगर सेठ का पुत्र आसक्त था।
मल्लिका उससे बोली- ‘यह चोर मेरा निकट संबंधी है।
कोतवाल ने उसे छोड़ने के एवज में एक हजार स्वर्ण मुद्राएं मांगी हैं। क्या आप
जाकर उन्हें ये मुद्राएं दे आएंगे?’ मल्लिका के प्रेम में पागल नगर सेठ का पुत्र कोतवाल
के पास पहुंचा। कोतवाल ने मल्लिका द्वारा फांसी के लिए भेजा गया आदमी समझ उसे
फांसी पर चढ़ा दिया और चोर को छोड़ दिया।
मल्लिका चोर के साथ रहने लगी, किंतु कुछ ही दिन बाद चोर यह सोचकर कि मेरे जैसे अनजान
व्यक्ति के लिए यह अपने प्रेमी को मरवा सकती है, तो किसी और के लिए मेरी भी बलि
ले सकती है, उसे छोड़कर चला गया। मल्लिका का जीवन फिर सूना हो गया। वस्तुत: छल का परिणाम
छल के ही रूप में सामने आता है। विश्वासभंजक कभी विश्वासपात्र नहीं बन सकता।
मुखिया को मुख के समान होना चाहिए
एक बादशाह था। उसके राज्य में पर्याप्त संपन्नता थी। प्रजाहित का वह बहुत
ध्यान रखता था। दुर्भाग्यवश एक बार उसके राज्य में बारिश नहीं हुई। फसलें सूखने
लगीं, नदी-तालाब
रीते हो गए और अन्न-जल का भीषण संकट खड़ा हो गया। संपन्न लोगों का काम तो फिर भी
चलता रहा, किंतु निर्धनों की आफत हो गई।
बादशाह के मन में अपार दया थी। उसने अपने खजाने का मुंह गरीब जनता के लिए खोल
दिया। इससे कुछ समय स्थिति ठीक रही, किंतु एक दिन खजाना भी खाली हो गया। अब बादशाह सोच
में पड़ गया कि क्या करे? उसके पास अब एक कीमती अंगूठी ही बची थी, जिसमें काफी महंगा नगीना
जड़ा था। बादशाह ने अपने नौकरों से उसे भी बेच देने को कहा और उससे प्राप्त पैसों
को गरीबों में बांट देने की आज्ञा दी। नौकरों ने ऐसा ही किया।
जब बादशाह के मंत्री को यह बात पता चली तो उसने बादशाह से कहा- 'आपकी अंगूठी का नगीना
बहुत कीमती था। वैसा नगीना मिलना बहुत मुश्किल है। आपने उसे क्यों बेचा?' मंत्री की बात सुनकर
बादशाह ने रुंधे गले से कहा- 'जब मेरी प्रजा भूखों मर रही हो, तो मुझे कीमती नगीना पहनना शोभा
नहीं देता। मेरा पहला दायित्व प्रजा के प्रति है। मेरी दृष्टि में राजा वही बेहतर
है, जो
अपनी रियाया का दुख-दर्द पहले देखे।
रियाया के सुख-दुख के सामने मेरी अंगूठी के नगीने की कोई कीमत नहीं है।'
राजा के वचन सुनकर
मंत्री उसके प्रति श्रद्धा से भर गया। तुलसीदासजी का कहना है- 'मुखिया मुख सो चाहिए,
खान-पान को एक।
पालई पोसई सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।।' सार यह है कि राजा का प्रथम कर्तव्य अपनी प्रजा के हितों की
रक्षा करना है, शेष सब उसके बाद है।
किसान परिवार को इंद्र का वरदान
किसी समय काशी में एक किसान रहता था। उसके परिवार में पत्नी के अलावा एक पुत्र
व एक पुत्री थे। किसान अपने दैनिक कार्य निपटाकर धर्म-समागमों में जाता और वहां से
प्राप्त ज्ञान को घर आकर सभी सदस्यों में बांटता था।
एक दिन किसान खेत पर हल चला रहा था। उसका बेटा भी वहीं काम कर रहा था। अचानक
एक सांप ने लड़के को डस लिया। किसान ने जब अपने बेटे को मृत अवस्था में देखा,
तो वह तनिक भी
नहीं रोया। उसने पास के खेत में काम कर रहे एक आदमी को बुलाकर कहा- ‘मेरे घर जाकर मेरी पत्नी
से कहना कि आज एक ही व्यक्ति का भोजन लाए और पुत्री को भी ले आए। साथ में थोड़े
फूल भी लाने को कह देना।’
किसान की पत्नी यह संदेश पाकर समझ गई कि पुत्र नहीं रहा, किंतु उसने भी इसका शोक
नहीं मनाया। वह पति के कहे अनुसार पुत्री को लेकर पहुंची। पहले किसान ने भोजन किया,
फिर उन्होंने
मिलकर लड़के का दाह-संस्कार किया। किसान-परिवार की इस निस्पृहता ने इंद्र का आसन
हिला दिया। तब इंद्र स्वयं किसान के पास आए और पुत्र की मृत्यु पर शोक न करने का
कारण पूछा। किसान ने कहा- ‘सर्प जिस प्रकार अपनी केंचुली छोड़ देता है, उसी प्रकार प्राणी भी
शरीर छोड़ते हैं।
आत्मा अमर है, फिर शरीर का दुख क्यों मनाना?’ किसान की पत्नी व पुत्री से भी इंद्र ने यही प्रश्न किया।
उन्होंने भी किसान की बात दोहराई। तब इंद्र ने पूरे परिवार को सदा सुखी रहने और
मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त करने का वरदान दिया। सार यह है कि अपनों की मृत्यु पर
दुख स्वाभाविक है, किंतु यथासंभव उससे शीघ्र मुक्ति दिवंगत आत्मा को भी शांति पहुंचाती है और
संतप्त परिजनों को सहज जीवन की ओर लौटाती है।
तपस्वी की अनुकरणीय विनम्रता
एक तपस्वी ने हिमालय पर वर्षो तपस्या
की। फिर कुछ समय के लिए पांचाल नामक राजा के राज्य में आकर रहने लगे। तपस्वी के
ज्ञान और सादगी ने राजा को बहुत प्रभावित किया। राजा ने तपस्वी के पास जाकर आग्रह
किया कि वे नित्य राजमहल में आकर ज्ञानोपदेश करें और भोजन भी उनके साथ ही करें।
तपस्वी ने राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। अब तपस्वी प्रतिदिन राजमहल में जाकर
संपूर्ण राज परिवार को ज्ञान की बातें बताते और भोजन कर कुटिया में लौट आते। उस
समय वर्षाकाल चल रहा थ।
तपस्वी ने हिमालय लौटने का विचार किया उन्हें रास्ते के लिए जूतों की एक जोड़ी
और छाते की आवश्यकता थी। उन्होंने सोचा कि राजा से मांगूंगा, तो वे सहज ही उपलब्ध करा
देंगे। अगले दिन जब तपस्वी ने राजमहल में अपना उपदेश समाप्त किया, तो राजा से एकांत में
कुछ निवेदन करने का आग्रह किया। जब एकांत हो गया, तो तपस्वी ने यह सोचकर कि याचना
करने पर यदि राजा ने ये दो वस्तुएं नहीं दीं, तो मेरी उनसे मैत्री समाप्त हो
जाएगी, कुछ
नहीं कहा। इस तरह ग्यारह वर्ष बीत गए।
आखिर एक दिन राजा ने कहा- ‘पूज्यवर! आप निर्भय होकर मांगें।’ तब तपस्वी ने जूते और छाते की
इच्छा व्यक्त की और मैत्री टूटने के भय से इतने वर्ष न मांग पाने की बात भी कही।
राजा ने प्रसन्न होकर उन्हें अनेक कीमती वस्तुएं और गाय-बैल आदि दान में देना चाहा,
किंतु तपस्वी ने
एक जोड़ी जूते व छाता लेकर राजा का आभार माना और हिमालय की ओर प्रस्थान किया।
वस्तुत: किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर यदि उसे विनम्रता से मांगा जाए, तो दाता प्रसन्न होकर
उसे सहज ही उपलब्ध करा देता है। अत: अपने स्वभाव में यह गुण हमेशा बनाए रखना
चाहिए।
ईमानदार छात्र को मिली प्रतिष्ठा
मगध में एक विद्वान आचार्य थे। वे बच्चों को शिक्षा देने के लिए गुरुकुल चलाते
थे। उनकी विद्वत्ता की धाक दूर-दूर तक फैली थी। आचार्य की एक बड़ी ही गुणी पुत्री
थी। उसके वयस्क होने पर उन्होंने विचार किया कि अपने विद्यार्थियों के शील की
परीक्षा लूं और जो सदाचारी सिद्ध हो, उससे अपनी बेटी का विवाह करूं। अगले दिन आचार्य ने
अपने विद्यार्थियों को बुलाकर कहा- ‘मेरी पुत्री विवाह योग्य हो गई है।
उसके विवाह हेतु मुझे वस्त्र और आभूषणों की जरूरत है। तुम लोग अपने रिश्तेदार
व परिचितों केघर से उनकी नजर बचाकर वस्त्र और आभूषण लाओ। जिन वस्त्राभूषणों को
लाते तुम्हें कोई देख न पाए, उन्हें ही मैं लूंगा।’ विद्यार्थियों ने गुरु की बात को
मानकर वस्त्राभूषण चुराना शुरू कर दिया। वे लोग आचार्य को चीजें लाकर देते और
आचार्य उन्हें अलग रखते जाते। एक विद्यार्थी ऐसा था, जो कुछ नहीं लाया। आचार्य ने
उससे इसका कारण पूछा, तो वह बोला- ‘आप किसी के देखते लाई हुई वस्तु ग्रहण नहीं करते।
किंतु यह तो असंभव है कि हम कुछ चुराएं और कोई देखे नहीं, क्योंकि ईश्वर तो
सर्वत्र व्याप्त है। इसलिए मैं चोरी नहीं कर सकता।’ उसका उत्तर सुनकर आचार्य प्रसन्न
हो गए और कहा- ‘मेरे पास पुत्री के विवाह हेतु पर्याप्त धन है। वास्तव में सदाचारी से पुत्री
का ब्याह करने की इच्छा के कारण तुम लोगों की ऐसी परीक्षा ली।
तुम एकमात्र हो, जो मेरी पुत्री के योग्य हो।’ आचार्य ने शेष छात्रों को उनके चुराए वस्त्रा भूषण वापस कर
ऐसा कभी न करने की सीख दी और पुत्री का विवाह ईमानदार छात्र से कर दिया। सार यह है
कि नैतिक सदाचरण श्रद्धास्पद प्रतिष्ठा दिलाता है। यही वह ठोस आधार है, जिस पर दृढ़ व्यक्तित्व
का निर्माण होता है।
वृद्ध ने कछुए को बनाया अपना गुरु
किसी नगर में नदी के किनारे एक वृद्ध
आदमी अकेले ही रहता था। छोटी-सी झोपड़ी
में वह रहता था और आसपास के खेतों में छोटा-मोटा काम कर अपनी आजीविका कमाता था।
उसने अपनी आवश्यकताएं सीमित कर रखी थीं। उसने एक कछुआ पाल रखा था, जिसे वह बहुत स्नेह करता
था। दोपहर में जब वह अपनी रोटी बनाता, तो साथ में कछुए के लिए चने भिगो देता। वह रोटी खाता
और कछुए को चने खिलाता। आसपास के लोग उसके कछुआ-प्रेम को देखकर हंसते, किंतु वह उसका बुरा नहीं
मानता और कछुए के साथ प्रेम से रहता।
एक दिन वृद्ध का कोई परिचित उससे मिलने आया। थोड़ी देर बातचीत के बाद कछुए को
देखकर परिचित ने वृद्ध से कहा- ‘आपने यह कैसा गंदा जीव पाल रखा है! इसे यहां से हटाओ।’
यह सुनकर वृद्ध को
बड़ा बुरा लगा। वह बोला- ‘आप ऐसा कहकर मेरे गुरु का अपमान कर रहे हैं।’ परिचित ने आश्चर्य से
पूछा- ‘यह
आपका गुरु कैसे हुआ?’ तब वृद्ध ने उसे समझाया- ‘देखो, जरा-सी आहट होते ही यह कछुआ अपने सारे अंग सिकोड़ लेता है।
इसका ऐसा करना मुझे हर क्षण यह सिखाता है कि दुनिया में फैली कितनी ही
बुराइयां आपके पास आकर आपको अपनी गिरफ्त में लेने की कोशिश करें, किंतु इस कछुए की तरह
अपने हाथ-पैर सिकोड़कर उससे दूर रहो। इतनी बड़ी शिक्षा देने के कारण यह मेरा गुरु
ही तो हुआ।’ वस्तुत: ईश्वर ने इस दुनिया को ऐसे रचा है कि हर एक प्राणी हर दूसरे प्राणी से
किसी प्रकार की प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। सार यह है कि यदि सकारात्मक नजरिया रखकर
ऐसी प्रेरणा ली जाए, तो जीवन को सुखी बनाया जा सकता है।
पाप का मूल जाना युवा ज्ञानी ने
रतन नामक ग्रामीण युवा शहर से शास्त्रों का ज्ञान अर्जित कर गांव लौटा। एक
बुजुर्ग ने उससे कहा- ‘तू शहर से पंडित बनकर आया है। यह बता कि पाप का बाप कौन है?’
रतन को प्रश्न
अटपटा लगा। वह जवाब नहीं दे पाया। थोड़ी देर बाद कुछ लोग उसकेपास पहुंचे और बोले- ‘तुम इस टूटे-फूटे घर में
मत रहो। हमारे साथ चलो।’ रतन उनके साथ चल दिया। वे एक हवेली केसामने रुके। द्वार एक
सजी-धजी युवती ने खोला और रतन का स्वागत किया। रतन समझ गया कि यह वेश्यालय है। वह
बोला- ‘यह
तो पाप का घर है। मैं यहां रहने की बजाय पेड़ केनीचे रहना पसंद करूंगा।’
तब ग्रामीणों ने रतन केरहने की व्यवस्था मंदिर में कर दी और पंद्रह दिनों में
मकान केप्रबंध का आश्वासन दिया। अगले दिन वही गणिका मंदिर आई और सोलह फीट की दूरी
से एक स्वर्ण मुद्रा देवमूर्ति पर चढ़ा दी। वह नित्य आती और एक-एक फीट की दूरी कम
करकेएक स्वर्ण मुद्रा चढ़ाती। पंद्रहवें दिन वह एक थाल भरकर स्वर्णमुद्राएं लाई।
रोज एक-एक फीट दूरी कम करने पर रतन ने भी आपत्ति नहीं की थी, इसलिए आज वह देवमूर्ति
केएकदम पास थी, जहां रतन पूजा कर रहा था।
गणिका स्वर्ण मुद्राओं का थाल भगवान को समर्पित करने ही वाली थी कि रतन ने
उसके हाथ से वह थाल ले लिया। यह दृश्य मंदिर केएक कोने में खड़े उस बुजुर्ग ने
अन्य लोगों को दिखाया और फिर रतन से स्वर्ण मुद्राओं की ओर संकेत कर कहा- ‘बेटा! उस दिन तुम मेरे
जिस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके, वह आज मिल गया। यही तो पाप का बाप है।’ रतन बेहद लज्जित हुआ।
वस्तुत: धन का मोह पतन की ओर ले जाता है। इसलिए इससे मुक्त रहकर संतोषी बनना
चाहिए।
संस्कारित बच्चे अधिक सफल होते हैं
नैतिक शिक्षा पढ़ाने वाले एकअध्यापक ने बच्चों के लिए चॉकलेट मंगाई। उन्होंने
सभी बच्चों को पंक्ति बनाकर आने के लिए कहा। बच्चों ने पंक्ति बना ली। जैसे ही
अध्यापक चॉकलेट बांटने को हुए चपरासी ने आकर कहा-‘प्राचार्यजी आपको अभी बुला रहे
हैं।’ अध्यापक
ने चॉकलेट का डिब्बा वैसा ही छोड़ा और बच्चों से बोले- ‘मैं चाहता था कि तुम्हें अपने
हाथों से चॉकलेट दूं, किंतु अभी तो जाना पड़ेगा। यदि तुम लोग चाहो तो अपने हाथ से चॉकलेट ले सकते हो,
अन्यथा मैं आकर
दूंगा।’ यह
कहकर अध्यापक चले गए।
कुछ छात्रों ने सोचा कि अवसर अच्छा है। उन्होंने चॉकलेट उठाकर खा ली। वहीं कुछ
छात्रों ने यह विचार किया कि अध्यापक की इच्छा स्वयं अपने हाथ से चॉकलेट देने की
है, तो फिर
कुछ देर रुककर उनकी प्रतीक्षा कर लेना अच्छा होगा। सो उन्होंने चॉकलेट को हाथ नहीं
लगाया। जब अध्यापक लौटकर आए तो उन्होंने पूछा- ‘अरे! ये चॉकलेट आप लोगों ने खाई
नहीं?’ जिन
बच्चों ने चॉकलेट खाई थी, उन्होंने तत्काल कहा - ‘हमने खा ली, सर।’ शेष बच्चों को अध्यापक
ने बड़े स्नेह से चॉकलेट बांटी।
फिर उन्होंने अपनी स्मृति में दोनों प्रकार के बच्चों के नाम अंकित कर लिए।
वयस्क होने पर अध्यापक ने खोजबीन की तो पाया कि उनके बिना चॉकलेट न खाने वाले
बच्चे उच्च पदों पर पहुंच गए और पहले ही चॉकलेट खा लेने वाले बच्चे सामान्य ओहदे
पर थे। भावी पीढ़ी को अध्यापक ने यह घटना संस्कारों की महत्ता के उदाहरण स्वरूप
बताई। संस्कारवान सदा प्रशंसा पाते और सफलता हासिल करते हैं, जबकि असंस्कारी इनसे या
तो वंचित रहते हैं या अल्प समय के लिए प्राप्त कर पुन: खो देते हैं।
अहंकार ने हार का रास्ता दिखाया
एक जातक कथा है। गंधर्व कुल में गुत्तिलकुमार नामक गंधर्व वीणा वादन में
सिद्धहस्त था। सारे वाराणसी राज्य में उसकी ख्याति थी। उसी समय उज्जयिनी में मूसिल
नामक एक वरिष्ठ गंधर्व था। एक बार उज्जयिनी के राज दरबार में मूसिल को वीणा वादन
हेतु बुलाया गया। जब मूसिल ने वीणा वादन किया तो किसी को भी पसंद नहीं आया। जब
उसने कारण पूछा तो लोगों ने उसे गुत्तिल गंधर्व के बारे में बताया।
उज्जयिनी का समस्त श्रेष्ठि वर्ग गुत्तिल गंधर्व का वीणा वादन सुन चुका था। तब
मूसिल ने तय किया कि वह वाराणसी जाकर गुत्तिल से वीणा वादन सीखेगा। जब मूसिल
वाराणसी में गुत्तिल के घर पहुंचा तो थोड़ी देर की बातचीत में ही गुत्तिल ने जान
लिया कि मूसिल अहंकारी है, किंतु मूसिल के अत्यधिक आग्रह पर गुत्तिल ने उसे अपनी कला
सिखा दी। अब मूसिल ने सोचा कि गुत्तिल बुजुर्ग हो गया है, अत: यहां के राज दरबार में इसका
जो प्रतिष्ठित स्थान है, वह हथियाना चाहिए।
उसने गुत्तिल से दरबार में काम करने की इच्छा प्रकट की। गुत्तिल ने मूसिल की
भेंट राजा से करवा दी। राजा ने गुत्तिल के वेतन से आधे वेतन पर मूसिल को काम पर
रखने के लिए कहा, किंतु मूसिल का तर्क था कि वह गुत्तिल के बराबर वेतन पर काम करेगा, क्योंकि वह गुत्तिल के
समकक्ष ही कला का जानकार है। राजा ने उसे यह सिद्ध करने के लिए कहा और एक प्रतिस्पर्धा
आयोजित की।
गुत्तिल ने ऐसी कठिन तानें छेड़ीं जिनका जवाब मूसिल के पास नहीं था। आखिरकार
मूसिल हार गया और राजा ने उसे वाराणसी से निकाल दिया। वस्तुत: गुरु के समकक्ष या
उनसे अधिक कला सीख लेने के बावजूद गुरु का सम्मान करते हुए उन्हें अपने हुनर का
घमंड नहीं दिखाना चाहिए।
झूठ बोलने का नतीजा बुरा ही होगा
काशी में उन दिनों सालाना महोत्सव चल
रहा था। महोत्सव में आम जनता और ऋषि-मुनियों के अलावा देवलोकसे देव पुत्र भी आए
हुए थे। उन्होंने अत्यंत मनोहर सुगंध वाले फूलों के गजरे पहने हुए थे। राजा ने
उनसे पूछा- 'महानुभाव! आप किस देवलोक से आए हैं? देवपुत्रों ने जवाब दिया- 'त्रयस्रिश देवलोक से हम आए हैं।'
राजा ने अगला
प्रश्न किया- 'ये फूलों के गजरे आपने धारण किए हैं। क्या आप इन फूलों के नाम बता सकते हैं?'
देवपुत्रों ने
बताया- 'ये
दिव्य कक्कारू फूल हैं, जो देवलोक में ही मिलते हैं।' राजा ने देवपुत्रों से उन्हें
देने का आग्रह किया, तो वे बोले- 'ये फूल देवताओं के ही योग्य हैं अथवा वे लोग इन्हें रख सकते हैं, जो मूर्ख, दुश्चरित्र, कर्महीन, अधर्मी, प्रमादी न हों, जो धर्म से धन कमाते हों,
जो अहंकारी न हों,
जो सभी का कल्याण
चाहते हों और जो गुरुजनों व संतों का आदर करने वाले हों।'
राजपुरोहित के मन में यह लालसा जाग्रत हुई कि मैं झूठ बोलकर इन फूलों को ले
लूं, तो
जनता और राजा मुझे इन गुणों से युक्त मानकर मेरा आदर करेंगे। यह सोचकर उसने
राजपुत्रों को स्वयं को इन गुणों से युक्त बताकर वे फूलों के गजरे ले लिए।
देवपुत्रों के जाते ही राजपुरोहित के सिर में तेज दर्द उठा। उसने वे गजरे निकालने
का यत्न किया, किंतु वे लौह-शृंखलाओं की तरह दृढ़ हो गए। अंतत: उसने राजा के समक्ष अपना झूठ
स्वीकार किया। राजा ने देवपुत्रों को फिर बुलाया और उनसे पुरोहित की जीवन-रक्षा का
आग्रह किया। तब देवपुत्रों ने उन गजरों से राजपुरोहित को मुक्त किया और जीवन में
कभी झूठ न बोलने का वचन लिया। वस्तुत: झूठ बोलने से तात्कालिक लाभ भले ही मिले,
किंतु अंतत:
प्रतिष्ठा को नुकसान ही पहुंचता है।
ईश्वर का अमूल्य वरदान है मां
एक स्त्री का पति युवावस्था में ही
मृत्यु को प्राप्त हो गया। स्त्री का एक ही पुत्र था। उसने मजदूरी करके पुत्र को
शिक्षित किया। जिस दिन पुत्र ने उसे नौकरी पाने की सूचना दी, उसकी खुशी का ठिकाना
नहीं रहा। उसे लगा कि वर्षो का परिश्रम सफल हो गया। लेकिन शीघ्र ही उसके ये सपने
चूर-चूर हो गए, क्योंकि पुत्र ने उसके साथ र्दुव्यघवहार शुरू कर दिया, क्योंकि अब मां उसे बोझ लगने लगी
थी।
एक दिन किसी बात पर उसकी मां से कहासुनी हुई, तो उसने मां के सिर पर पत्थर से
वार किया। मां बेहोश होकर गिर पड़ी। पड़ोसी उसे उठाकर अस्पताल ले जाने लगे। रास्ते
से गुजरते किसी मुसाफिर ने पूछा- ‘इस वृद्धा को क्या हो गया?’ पड़ोसियों में से एक ने उत्तर
दिया- ‘इसके
बेटे ने किसी बात पर क्रोध में आकर इसे मार दिया। इसका सिर फट गया है।’ यह सुनकर मुसाफिर को
बेटे पर गुस्सा आया।
वह बोला- ‘कितना दुष्ट लड़का है। इससे तो बेहतर होता कि वह पैदा ही न हुआ होता।’ दर्द से कराहती मां ने
ये शब्द सुनकर कहा- ‘भैया! मेरे बेटे के लिए ऐसा मत कहो। गुस्सा तो सभी को आता है। आज उसने हाथ उठा
दिया, कल
गुस्सा शांत होने पर अपनी भूल भी समझ लेगा। फिर ऐसा नहीं करेगा। यदि वह पैदा न हुआ
होता तो मुझे मां कौन कहता? मेरी तो जिंदगी ही श्मशान हो जाती।’
उसकी बात सुनकर मुसाफिर ने महसूस किया कि मां की ममता की बराबरी दुनिया में
कोई नहीं कर सकता। मां के रूप में मानव को ईश्वर का सर्वाधिकअमूल्य वरदान मिला है,
क्योंकि मां हर
दुख-दर्द को अपने आंचल में समेटकर सदा बरगद की ऐसी छांव बनी रहती है, जहां पहुंचकर व्यक्ति को
असीम शांति अनुभव होती है। इसलिए मां का सदैव सम्मान करना चाहिए।
संतोष ही सुखी जीवन का आधार है
एक लोककथा है। कहा जाता है कि एक समय
बोधिसत्व बटेर की योनि में पैदा हुए। यह बटेर जंगल में घास के तिनके व अन्न-कण
खाकर अपना पेट भरता था। अधिक अच्छे भोजन की कामना उसके मन में नहीं थी, इसलिए अपने घोंसले के
आसपास के वृक्षों व पौधों से जो मिल जाए, उसी में संतुष्ट रहता था। कुछ दिनों बाद उस क्षेत्र
में एक कौआ आया। वह मध्यप्रांत से आया था।
वहां उसे अन्न आदि के अतिरिक्त कभी-कभी हाथी-घोड़े आदि का मांस भी मिल जाया
करता था, किंतु
यह तभी होता था, जबकिराजा के महल में किसी हाथी या घोड़े की मृत्यु हो और उसे ठीक से दफनाया न
गया हो। ऐसा प्राय: कम ही होता था। अत: अधिक और अच्छे भोजन की तलाश में कौआ जंगल
में आया था। जब उसने बटेर को देखा तो मन में विचार किया कि यह बटेर तो बहुत स्वस्थ
दिखाई देता है।
अवश्य ही इसे उत्तम भोजन मिलता होगा। उसने बटेर से पूछा- भाई! तुम कौन-सा
श्रेष्ठ भोजन करते हो, जो इतने हट्टे-कट्टे हो? बटेर ने हंसते हुए पहले उससे
पूछा- तुम तो मांस आदि का सेवन करते हो, फिर ऐसे दुबले क्यों हो? कौए ने उत्तर दिया- मुझे अपना
भोजन चुराकर खाना पड़ता है। मांस हो या अन्न हमें कौन खाने को देगा? जो भोजन संघर्ष के बाद
मिले, वह
अच्छा होने पर भी शरीर को नहीं लगता।
किंतु तुम तो घास-तिनके ही खाते हो, फिर बलिष्ठ कैसे हो? बटेर ने कौए की जिज्ञासा का
समाधान इन शब्दों में किया- मैं कम से कम भोजन की इच्छा रखता हूं और जो मिल जाए,
उसी से गुजारा कर
लेता हूं। इसलिए स्वस्थ हूं। कहानी का निहितार्थ यह है कि जहां संतोष होगा,
वहां सुख अवश्य
होगा क्योंकि संतोष इच्छाओं का अंत है और इच्छा दुख का मूल है।
समझदारी से मजबूत होगा दांपत्य
किसी शहर में एकदंपती रहते थे। पति का बड़ा कारोबार था। बड़े कारोबार की सौ
झंझटें थीं। आए दिन वह मीटिंग में व्यस्त रहता, तो कभी अदालत के चक्कर काटता। वह
भोजन भी ठीक से नहीं कर पाता था। उसकी व्यस्तता ने पत्नी को बिल्कुल तन्हा कर
दिया। वह अकेलेपन के कारण अक्सर अस्वस्थ रहती। अपने मन की बात किससे कहती? पति को कुछ कहने जाती तो
वह अतिव्यस्त मिलता या फिर Rकल बतानाञ्ज कहकर टाल जाता। नतीजतन पत्नी दवाइयों के सहारे
जीने लगी। एक दिन किसी बात पर पति-पत्नी में झगड़ा हो गया।
पति ने चिढ़कर कहा- तुम्हारा तो मेरे कारोबार को संभालने में कोई सहयोग ही
नहीं है। इसलिए मैं अपने बेटे को वकील बनाऊंगा ताकि वह मुझे मेरे काम में मदद कर
सके। यह सुनते ही पत्नी भड़ककर बोली- तुम्हें मेरा हाल पूछने की फुरसत नहीं है।
ऐसा कारोबार किस काम का? मैं अपने लड़के को डॉक्टर बनाऊंगी, ताकि वह मेरा इलाज कर सके। दोनों
अपनी-अपनी बात पर अड़ गए। विवाद बढ़ा तो लोग इकट्ठा हो गए।
दोनों की बात सुनकर भीड़ में से किसी ने कहा- पहले अपने बेटे से तो पूछ लो कि
वह क्या बनना चाहता है? तुम लोग उसे बुलाओ। कहां है वह? यह सुनते ही पति-पत्नी दोनों
शांत हो गए क्योंकि बेटा अभी था ही नहीं। उसका जन्म तो अभी होना बाकी था। लोगों ने
यह जानकर उनका उपहास किया। दोनों अपने आप पर लज्जित हुए। वस्तुत: व्यर्थ और
आधारहीन बातों पर विवाद करने या अहं को बीच में लाने से वैवाहिक रिश्ते में दरार
आती है और पति-पत्नी में से कोई सुखी नहीं रह पाता। अत: दोनों को स्नेहभरी समझदारी
से अपने संबंध को दृढ़ बनाना चाहिए।
हुसैनी को मिली चुगलखोरी की सजा
नसीरुद्दीन हैदर अवध के नवाब थे। वे अत्यंत उदार थे। किंतु एक कमी उनमें थी कि
वे आसानी से लोगों के बहकावे में आ जाते थे। उनकी इस कमजोरी का फायदा अक्सर हुसैनी
नामक उनका नौकर उठाता था। वह रात में उनकेपैर दबाता जाता और उन राज कर्मचारियों की
झूठी शिकायतें करता, जिनसे वह नाराज रहता था। हुसैनी के ऐसे कारनामों से दीवान सहित सभी राज
कर्मचारी नाराज थे।
नवाब केदीवान का नाम फजल अली खां था। उन्होंने बहुत सोच-विचार कर हुसैनी को कानपुर
में भेजकर वहीं कैद करा दिया और अगले दिन नवाब साहब को हैजे से हुसैनी के मरने की
सूचना दी। जब नवाब ने हुसैनी केअंतिम दर्शन की बात कही, तो दीवान ने हैजे को छूत की
बीमारी बताकर दूर रहने के लिए कहा। नवाब ने दीवान की बात मान ली। कुछ माह बाद ही
हुसैनी कानपुर की जेल से भागकर आ गया और नवाब को असलियत बयान की।
उधर दीवान को उसकेआने का पता चला, तो उसने सभी कर्मचारियों को नवाब साहब केगुस्से से
बचने की युक्ति समझा दी। जब नवाब साहब ने पहरेदार से पूछा- जानते हो, यह कौन है? पहरेदार ने कहा- हुजूर न
दिखने वाली चीजों को भी देखने की ताकत रखते हैं। मुझे तो कुछ नहीं दिखाई देता।
नवाब ने दीवान सहित कई लोगों को हुसैनी दिखाया, किंतु सभी ने कहा हुसैनी नहीं
बल्कि उसका भूत है। वे हुसैनी को वहीं छोड़ महल में चले गए। तब दीवान ने हुसैनी को
फिर गिरफ्तार कर कानपुर भिजवा दिया। हुसैनी ताउम्र कानपुर में ही रहा और वहीं
मृत्यु को प्राप्त हुआ। वस्तुत: दूसरों का बुरा चाहने वाले का भी बुरा ही होता है।
इसलिए ईष्र्या-भाव को दूर रखते हुए सभी केभले की बात सोचनी चाहिए।
सच्चे मन से दान कर पाई आग से मुक्ति
हजरत उमर अपनी रियाया का बहुत ख्याल रखते थे। वे स्वयं की या अपने परिवार की
चिंता से बेखबर रियाया के दुख-दर्द मिटाने में ही लगे रहते थे। एक बार की बात है।
किसी कारणवश राजधानी में आग लग गई। आग इतनी तेजी से फैली कि उसने शहर का लगभग आधा
हिस्सा अपनी चपेट में ले लिया। लोगों ने खूब पानी डाला, किंतु वह नाकाफी रहा। लोगों के
घर-बार, खेत-खलिहान
जल गए। जनहानि भी बड़े पैमाने पर हुई। जब आग किसी भी तरह से न बुझी तो लोगों ने
हजरत उमर से उपाय पूछा। हालांकि वे भी उनके साथ आग बुझाने में जी-जान से जुटे थे।
उमर ने लोगों से कहा- Rमुझे लगता है कि यह आग खुदा की नाराजगी को प्रकट कर रही है।
तुम लोग पानी डालना छोड़कर गरीबों को भोजन बांटना शुरू कर दो। शायद इस दान से
खुदा खुश होकर इस आग से हमें मुक्त कर देगा। जनता ने उत्तर दिया- हजरत साहब! हमने
तो पहले से ही खैरातखाने के दरवाजे सभी के लिए खोल रखे हैं। जो भी गरीब हमारे पास
आता है, हम
बड़ी उदारता से उसे दान देते हैं। फिर खुदा हमसे क्यों नाराज हैं? तब हजरत उमर ने उन्हें
समझाया- तुम जो दान करते हो, वह निष्काम भावना से नहीं करते।
तुम चाहते हो कि दान के प्रतिफल में तुम्हें प्रशंसा मिले, सम्मान मिले। इस प्रकार
दिखावे के लिए दिया जाने वाला दान पुण्य कार्य नहीं कहलाता। हजरत उमर की इस समझाइश
ने जनता पर असर किया। उसने अपनी भूल सुधारी और आश्चर्य कि आग अपने आप बुझ गई। सार
यह है कि हृदय की नि:स्वार्थ पवित्र भावना से किया गया दान दाता के लिए आत्मिक
शांति का सृजक होता है और लेने वाले की सच्ची दुआ भी उसे मिलती है।
लेखनी की शक्ति ने बचाई जान
हिंदी के महान साहित्यकार प्रेमचंद उन
दिनों दिल्ली आए हुए थे। नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से उनका अभिनंदन करने का अवसर
था। अत्यंत गरिमामय आयोजन था और कई बड़े साहित्यकार इस अवसर पर मौजूद थे। अभिनंदन
समारोह संपन्न होने के बाद प्रेमचंद को उपस्थित सज्जनों ने हार्दिक बधाई दी और कई
ने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया, किंतु प्रेमचंद ने समयाभाव के कारण उन सभी से क्षमायाचना
की। सभी को इनकार करने के बाद प्रेमचंद ने जाने की अनुमति मांगी।
तभी एक सज्जन आगे आकर बोले- महोदय! मेरा निमंत्रण तो आपको स्वीकार करना ही
पड़ेगा। मैं एक जौहरी हूं। मैं लाखों का मालिक था, किंतु दुर्भाग्यवश मेरी समस्त
संपत्ति दिवाले में निकल गई। इतनी दुर्दशा हुई कि घर में अन्न का एक दाना भी नहीं
बचा। अपने परिवार को भूखों मरते नहीं देख सकता था, इसलिए एक अंतिम चवन्नी जो बची थी,
उससे जहर खरीदने
निकला। फिर यह करने की भी हिम्मत नहीं हुई, तो मन को स्थिर करने के लिए
रेलवे स्टेशन पर जाकर बैठ गया।
वहीं उर्दू का एक अखबार उसी चवन्नी से खरीदा। उसमें प्रेमचंदजी की एक कहानी
छपी थी। उसे पढ़कर मन में साहस आया और आत्महत्या का विचार त्यागकर फिर व्यवसाय में
जुट गया। कठिन परिश्रम किया, जिससे आज मैंने फिर बड़ी संपत्ति खड़ी कर ली। अत:
प्रेमचंदजी मेरे लिए अत्यंत श्रद्धेय हैं।
उन्हें मेरे साथ मेरे घर चलकर भोजन करना ही होगा। जौहरी की मार्मिक कथा सुनकर
प्रेमचंद भावुक हो गए और उन्होंने उसके घर भोजन कर उसे धन्य कर दिया। सार यह है कि
जो अपनी लेखनी की शक्ति से किसी प्रकार की सत्प्रेरणा का संचार कर सके, वही सच्च साहित्यकार है।
सत्य के आगे पराजित हुआ असत्य
बंगाल के एक शहर में संभ्रांत परिवार
का बालक था- बिधानचंद्र राय। उसका पूरा परिवार नैतिक मूल्यों और सदाचरण में गहरा
विश्वास रखता था। बिधानचंद्र ने संस्कारी वातावरण में जन्म लिया और पालन-पोषण पाया
था, इसलिए
वह भी सद्मार्ग का अनुगामी था। बिधान अपने विद्यालय में सत्यपालन और आज्ञाकारिता
के लिए विख्यात था। किशोर होने पर उसने अपने पिता से चिकित्सक बनने की इच्छा
व्यक्त की। पिता ने सहर्ष अनुमति दे दी और कड़े परिश्रम की सलाह दी।
बिधानचंद्र ने पिता की बात मानकर खूब मेहनत की और प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर
ली। अब वह प्रतिष्ठित चिकित्सा महाविद्यालय का छात्र था। यहां भी उसने अपनी
प्रतिभा और संस्कारों के बल पर खासी प्रतिष्ठा अर्जित की। एक बार महाविद्यालय के
किसी प्राध्यापक के हाथों कार दुर्घटना हो गई। बिधानचंद्र इस घटना का प्रत्यक्ष
गवाह था। प्राध्यापक ने स्वयं को अदालत में निर्दोष साबित होने के लिए बिधान से
आग्रह किया कि वह झूठी गवाही देकर उन्हें बचा ले, किंतु वह नहीं माना।
प्राध्यापक ने उसे अनुत्तीर्ण करने की धमकी दी, इससे भी बिधानचंद्र नहीं डिगा और
उसने न्यायालय में वही कहा, जो देखा था। नतीजतन प्राध्यापक को दंड भुगतना पड़ा। इस घटना
के कारण प्राध्यापक के मन में बिधानचंद्र के प्रति द्वेष आ गया और उन्होंने उसे
अपने विषय में अनुत्तीर्ण कर दिया। इस कारण बिधानचंद्र का चिकित्सा विज्ञान में एक
वर्ष खराब हो गया, किंतु वह दुखी नहीं हुआ, क्योंकि अपने सत्य के लिए यह कीमत चुकाना उसे झूठ बोलने की
तुलना में अधिक उचित लगा। इन्हीं बिधानचंद्र राय ने आगे चलकर बंगाल के मुख्यमंत्री
पद को अलंकृत किया।
ईश्वर का अंश लेकर जन्मे रामकृष्ण
उन्नीसवीं शताब्दी का आरंभ था। उन दिनों यातायात के साधन इतने सुलभ नहीं थे।
फिर भी भारतवर्ष के धार्मिक लोगों में तीर्थ यात्रा का उत्साह चरम पर रहता था।
साधन संपन्न लोग तो गाड़ी का इंतजाम कर लेते थे, किंतु साधनहीन पैदल ही यात्रा
करते थे। ऐसे ही एक निर्धन किंतु उत्साही व्यक्ति थे- खुदीराम चटर्जी। बंगाल के
कुमारपुकुर के रहने वाले खुदीराम को जमींदार ने किसी बात पर नाराज होकर गांव से
निकाल दिया।
खुदीराम ने इसे पितरों का कोप माना और उन्हें संतुष्ट करने के लिए गया की ओर
पैदल चल पड़े। महीनों तक पदयात्रा कर गया पहुंचे और पितरों का तर्पण किया। वहां
विष्णुपद मंदिर में भगवान के दर्शन करने पहुंचे। खुदीराम ने आंखें बंद कर श्रद्धा
के साथ जैसे ही हाथ जोड़े, उन्हें महसूस हुआ मानो साक्षात विष्णु भगवान प्रकट होकर कह
रहे हैं- आज तुम्हारे पितरों को मैंने मुक्ति दी है।
तुम इतना कष्ट उठाकर यहां आए, मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं। क्या तुम मुझे अपने घर ले
चलोगे? खुदीराम
बोले- प्रभु! मेरे पास आपको अर्पित करने के लिए कुछ नहीं है। किंतु भगवान का आग्रह
बना रहा। आखिर खुदीराम बोले- ठीक है, आप मेरे साथ चलिए, पर मेरे घर आपको खिचड़ी ही खाने
को मिलेगी। कहा जाता है कि ठीक उसी समय खुदीराम की पत्नी को कुमारपुकुर में ऐसा
महसूस हुआ कि कोई दिव्य-शक्ति उनके शरीर में प्रविष्ट हो रही है।
इस घटना के विषय में उन्होंने मात्र अपनी एक पड़ोसन धनी लुहारिन को बताया। इस
घटना के ठीक नौ माह बाद गोदई का जन्म हुआ, जो बाद में रामकृष्ण परमहंस के नाम से विश्वविख्यात
संत हुए। निहितार्थ यह है कि दिव्यता का अवतरण सच्चे और पवित्र हृदय में ही होता
है।
बुद्ध ने दिखाया तथागत होने का मार्ग
एक बार भगवान बुद्ध किसी नगर के मार्ग
पर पैदल जा रहे थे। उसी मार्ग पर दोण नामक ब्राह्मण सामने से आ रहा था। अचानक
बुद्ध को उसी समय बैठकर ध्यान लगाने की इच्छा हुई। वे सड़क के एक ओर उतरकर एक पेड़
के नीचे पद्मासन लगाकर ध्यान मुद्रा में बैठ गए। दोण उन्हें जानता नहीं था,
किंतु उनके
तेजस्वी व्यक्तित्व ने उसे प्रभावित किया। इसलिए वह बुद्ध से भेंट करने के लिए
उनके पास आया।
जब उसने बुद्ध को एकाग्रचित देखा, तो वह एक ओर चुपचाप बैठ गया। जब बुद्ध ने आंखें
खोलीं तो दोण की ओर प्रश्न सूचक मुद्रा में देखा। दोण ने बुद्ध को प्रणाम कर
प्रश्न किया- आर्य! क्या आप देवता हैं? बुद्ध ने धीर गंभीर स्वर में कहा- ब्राह्मण। मैं
देवता नहीं हूं। ब्राह्मण ने पूछा- क्या आप गंधर्व हैं? बुद्ध ने इंकार में सिर हिलाया। ब्राह्मण
ने जिज्ञासा व्यक्त की- फिर आप यक्ष होंगे? बुद्ध ने इस बार भी हां नहीं की।
ब्राह्मण का अगला सवाल था- आप सामान्य आदमी तो हैं? बुद्ध ने कहा- नहीं। ब्राह्मण चकरा गया।
उसने पूछा- फिर आप क्या हैं? बुद्ध बोले- मैं पहले निश्चित रूप से देव, गंधर्व, यक्ष व मानव सब कुछ था
क्योंकि तब मैंने अपने मोह का त्याग नहीं किया था। अब मैं सभी प्रकार के मोह से
मुक्त हूं। जिस प्रकार एक कमल कीचड़ में ही उत्पन्न होता है, उसी में खिलता हूं,
किंतु उससे अलग
रहता है। उसी प्रकार मैं भी इस संसार में पैदा हुआ, इसी में बड़ा हुआ, किंतु अब इस संसार को
जीतकर इससे असंपृक्त हो गया हूं। अत: अब तुम मुझे तथागत अर्थात ज्ञानी व्यक्ति के
रूप में जानो। निहितार्थ यह है कि ज्ञान, मोह से मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है और यही
आत्मिक शांति का उत्तम साधन है।
भगवान ने साधु का घमंड तोड़ दिया
किसी वन में एक साधु रहते थे। बहुत सारी सिद्धियां उन्हें प्राप्त थीं। इस
कारण वे लोगों के बीच लोकप्रिय थे। परंतु अपनी ख्याति को लेकर साधु में अहंकार भी
पर्याप्त मात्रा में था। उनके इस अहंकार को दूर करने के लिए एक दिन भगवान स्वयं
महात्मा का रूप धारण कर आए। साधु ने महात्मा को प्रणाम कर उनका सत्कार किया। फिर
उनके आगमन का प्रयोजन पूछा। महात्मा बोले- महाराज! मैंने लोगों से सुना है कि आपने
अपने तपोबल से काफी सिद्धियां अर्जित की हैं।
क्या आप मुझे उनका प्रदर्शन कर दिखा सकते हैं? साधु सगर्व बोले- हां, आपने ठीक ही सुना है।
महात्मा ने प्रश्न किया- क्या आपके पास ऐसी सिद्धि है, जिससे आप किसी को मार सकते हैं?
साधु ने कहा- हां!
देखिए, मेरे
आश्रम के सामने से वह हाथी जा रहा है। मैं इसे अभी मारकर दिखाता हूं। यह कहते हुए
साधु ने जमीन से थोड़ी मिट्टी लेकर कोई मंत्र पढ़ा और हाथी पर वह मिट्टी फेंकी।
हाथी तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो गया। महात्मा ने अब हाथी को पुन: जीवित करने का
आग्रह किया।
साधु ने दूसरा मंत्र पढ़कर हाथी को फिर जिंदा कर दिया। यह देखकर महात्मा
वेषधारी भगवान ने साधु को समझाया- मैं मानता हूं कि आपमें विलक्षण शक्ति है। आपमें
मारने और जिंदा कर देने की ताकत है, किंतु इससे स्वयं आपको क्या हासिल हुआ? आपने भगवान को पाने के
लिए वैराग्य धारण किया था, किंतु उन्हें तो नहीं पा सके।
फिर इन चमत्कारों का क्या प्रयोजन है? सिद्धि तो ईश्वर से मिलन में है।ञ्ज साधु को अपनी
गलती का अहसास हुआ और उस दिन से उसने अपनी जीवन-दिशा बदल ली। वस्तुत: चमत्कार में
सिद्धि नहीं बसती। सच्च सिद्ध पुरुष वह होता है, जिसने ईश्वर को प्राप्त कर लिया
हो।
गांधीजी हर भाषा का सम्मान करते थे
उन दिनों गांधीजी अपने वर्धा आश्रम में थे। उनसे मिलने के लिए देशभर से लोगों
का आना-जाना लगा रहता था। देश में स्वतंत्रता के लिए गांधीजी ने अहिंसक लड़ाई छेड़
रखी थी। लाखों लोग गांधीजी के मार्ग के अनुयायी थे। उनकी विचारधारा से प्रभावित
होने वालों में मात्र भारतीय ही नहीं, बल्कि अंग्रेज भी शामिल थे। एक अकेले गांधीजी के
आह्वान पर संपूर्ण देश का उनके पीछे चल पड़ना अंग्रेजों के लिए किसी चमत्कार से कम
नहीं था।
एक दिन गांधीजी से मिलने कोई अंग्रेज आया। वह हिंदी भाषा का भी जानकार था।
उसने सोचा कि हिंदुस्तान के इस महानायक से हिंदी में बात करना उचित होगा। उसने
गांधीजी से हिंदी में वार्तालाप आरंभ किया। उसे यह देखकर हैरानी हुई कि गांधीजी ने
उसके प्रश्नों का उत्तर अंग्रेजी में दिया। जब दोनों की बातचीत समाप्त हो गई,
तो अंग्रेज अपनी
जिज्ञासा रोक न पाया। उसने गांधीजी से पूछा- महात्माजी! मैं आपकी राष्ट्रभाषा
हिंदी में आपसे बात करता, किंतु आपने अंग्रेजी का उपयोग किया।
इसका क्या कारण है? गांधीजी सस्नेह स्वर में बोले- जब आपको अंग्रेज होकर मेरी
राष्ट्रभाषा से इतना प्रेम है, तो मैं आपकी भाषा क्यों न बोलूं? फिर भाषाएं तो सभी की सम्मानीय
होती हैं। गांधीजी के ये विचार सुनकर अंग्रेज के मन में उनके प्रति श्रद्धा और बढ़
गई। अपनी भाषा के प्रति सर्वोच्च सम्मान और प्रेम रखने के साथ-साथ अन्य भाषाओं के
प्रति भी आदर भाव रखना चाहिए। यह हमारी समभाव की उस उच्च भावना को दर्शाता है,
जो भारतीय
संस्कृति की विशिष्ट पहचान है।
एक स्त्री ने बुद्ध की दुविधा को दूर किया
उन दिनों गौतम बुद्ध के समक्ष जब प्रथम बार महिलाओं को दीक्षा देने का
प्रस्ताव आया तो उन्होंने इंकार कर दिया। उन्हें महिलाओं से कोई संकोच नहीं था,
उन्हें आपत्ति यह
थी कि अधिकांश लोगों के आकर्षण का कारण बुद्ध है, बुद्धत्व नहीं। जबकि वे चाहते थे
कि उन्हें नहीं बल्कि उनकी विचारधारा का अनुसरण किया जाए। फिर पुरुषों का उनके
प्रति आकर्षण तो सहनीय है, किंतु महिलाओं का आकर्षित होना बुद्ध के चरित्र पर शंका का
कारण खड़ा कर सकता था, इसलिए उन्होंने महिलाओं को संघ में प्रवेश नहीं दिया।
हालांकि उनकी समदृष्टि महिला-पुरुष में यह भेद सहन नहीं कर पा रही थी। ऐसी ही
ऊहापोह में बुद्ध से एक दिन कृशा गौतमी नामक महिला ने कहा- प्रभु! जब आप कठोर
उपवास कर दुर्बल हो गए थे और बुद्धत्व को प्राप्त कर उठे ही थे, तब आपको खीर की भेंट
चढ़ाने वाली भी एक महिला ही थी। उसका भाव आपके प्रति भक्त और भगवान वाला था। इस
भाव को तो दुनिया में कभी, कहीं संदेह की नजरों से नहीं देखा जाता। मैं आपको बताना
चाहती हूं कि हम बुद्ध के लिए नहीं, बुद्धत्व को उपलब्ध होने के लिए ही आए हैं।
कृपया हमारे भाव को देखिए। बुद्ध का असमंजस गौतमी की बातों से दूर हो गया और
उन्होंने महिलाओं के लिए संघ के द्वार खोल दिए। प्रसन्नता की बात यह रही कि बुद्ध
ने जिस उच्च और पवित्र भावना के वशीभूत होकर महिलाओं को दीक्षा दी, बदले में उन्होंने भी
उसका पूर्ण सम्मान किया और संघ का नाम ऊंचा किया। वस्तुत: नारी मां, पत्नी, बहन आदि सभी रूपों में
स्नेह और संरक्षण की पवित्र गंगा प्रवाहित करती हैं। इसलिए कहा गया है- यत्र
नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:।
विनम्रता की मूर्ति थे शिष्य अमरदास
गुरुनानक के उत्तराधिकारी थे गुरु अंगददेव।
गुरु अंगददेव ने जब उचित समय आने पर अपने उत्तराधिकारी की खोज की, तो उन्हें अपने पुत्रों
में वह समर्पण और निष्ठा भाव नजर नहीं आया, जो उनके शिष्य अमरदास में था।
अंगददेव ने अमरदास को हर प्रकार से परखा और फिर तय किया कि गुरु गादी उन्हें ही
सौंपी जाए। जब अंगददेव ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में अमरदास के नाम की घोषणा की
तो सारा सिख समाज हर्षित हो उठा। सभी अमरदास की योग्यता से परिचित थे।
और अंगददेव के निर्णय पर भी सभी को विश्वास था। किंतु गुरु अंगददेव के पुत्रों
को उनके इस फैसले पर बहुत क्रोध आया क्योंकि गुरु गादी पर वे लोग अपना स्वाभाविक
अधिकार मानते थे। वे प्रतिशोध की ज्वाला में जलने लगे और उचित अवसर की प्रतीक्षा
करने लगे। एक बार गुरु अंगददेव की आज्ञा से गुरु अमरदास गोयंदवाल में रहकर उपदेश
दे रहे थे। तभी वहां अंगददेव के पुत्र दातू और दासू पहुंचे और उपस्थित लोगों की
अनदेखी करते हुए गुरु अमरदास को बुरा-भला कहने लगे।
तुम इस गद्दी से उतरो, क्योंकि इसका सही उत्तराधिकारी मैं हूं। गुरु अमरदास ने
गुरु-पुत्रों के अपशब्दों व र्दुव्य्वहार पर कोई ध्यान न देते हुए दातू के पैर
दबाने शुरू कर दिए। वे कहने लगे- मैं वृद्ध हूं, अत: मेरी हड्डियां कठोर हैं।
आपके पैरों में उनसे चोट पहुंची होगी। लाइए, मैं उन्हें दबा दूं। गुरु अमरदास
की इस विनम्रता पर सारी सभा उनकी जय-जयकार करने लगी और दोनों गुरु-पुत्र घोर
लज्जित हुए। सार यह है कि विनम्रता व्यक्ति को बड़ा बनाती है और इसके लिए सहनशीलता
को व्यक्तित्व का अनिवार्य अंग बनाना प्रथम शर्त है।
अजनबी पर भरोसा करने से मिला धोखा
एक किसान के बैलों की जोड़ी में से एक
बैल रोगी होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। किसान को खेती संबंधी कार्यो में परेशानी
होने लगी, क्योंकि एक बैल दो के बराबर काम नहीं कर सकता था। इसलिए उसने पशु हाट से ऊंचे
दामों में एक बैल खरीदा। बड़ी ही प्रसन्नता से भरा किसान बैल को लेकर अपने घर लौट
रहा था। मार्ग में उसने एक स्थान पर रुककर पानी पिया। वहां तीन चोर बैठे हुए थे।
उनमें से एक चोर किसान के साथ-साथ चलने लगा और उसे बातों में उलझा लिया। शेष दोनों
चोर बैल के पीछे चलने लगे। किसान चोर की बातों में ऐसा खो गया कि अपने बैल का
बिल्कुल ही ध्यान न रहा।
उधर, पीछे
चल रहे दोनों चोरों में से एकने बैल के गले से रस्सी निकालकर अपने गले में डाल ली
और किसान के पीछे चलने लगा। दूसरा चोर बैल लेकर चंपत हो गया। काफी देर बाद जब
किसान ने पीछे पलटकर देखा, तो बैल के स्थान पर आदमी को देखकर हैरान रह गया। उसने चोर
से पूछा- मेरा बैल कहां गया? चोर ने कहा- मैं ही आपका बैल हूं। एक जादूगर ने मुझे कुछ
समय के लिए बैल बना दिया था।
अब मैं अपने असली रूप में आ गया हूं। यह कहते हुए उसने अपने गले में से रस्सी
निकाली और चलता बना। किसान ने थोड़े दिनों बाद कर्ज लेकर पैसा जुटाया और फिर बैल खरीदने
पशु मेले में गया। उसे अपने साथ हुई ठगी याद थी, इसलिए उसने तय किया कि बैल
जान-पहचान वाले से खरीदेगा और रास्ते में किसी से मेल-जोल नहीं बढ़ाएगा। किसान ने
यही किया और इस बार वह बैल लाने में सफल रहा। वस्तुत: अनजान व्यक्ति पर भरोसा करने
का गलत परिणाम निकल सकता है। इसलिए विश्वास उसी पर करें, जिसकी परख कर चुके हों।
भय ने ली स्वस्थ व्यक्तियों की जान
एक गांव से चार मित्र व्यापार करने के
लिए शहर की ओर रवाना हुए। मार्ग में जंगल था, जो काफी लंबा था। चलते-चलते जब
चारों थक गए, तो कहीं रुकने का आसरा देखने लगे। आगे ही एक गांव था। चारों गांव की सीमा तक
पहुंचे। वहां एक झोपड़ी देख यह सोचकर उन्होंने द्वार खटखटाया कि यहां जो भी रहता
होगा, वह
उन्हें दो रोटी और पानी केलिए मना नहीं करेगा। द्वार एक वृद्धा ने खोला।
उन्हें भूखा जानकर वृद्धा ने बड़े स्नेह से उन्हें छाछ के साथ रोटी खिलाई।
वृद्धा को धन्यवाद देकर चारों चले गए। उनके जाने के बाद वृद्धा ने स्वयं के खाने
के लिए छाछ उठाई तो उसका रंग लाल नजर आया। उसने दही बिलोने वाले बर्तन को देखा तो
उसमें मृत सांप नजर आया। वृद्धा को यह देखकर बहुत दुख हुआ। उसने सोचा, अतिथियों की जान मेरे
कारण चली गई होगी। अनजाने में मुझसे पाप हो गया। रात-दिन वृद्धा इस गम में घुलती
रही।
उधर वे चारों मित्र सकुशल थे। पर्याप्त धनार्जन के बाद चारों ने वापस अपने
गांव लौटना तय किया। मार्ग में वे उसी वृद्धा के घर भोजन के लिए रुके। भोजन करने
के बाद उन्होंने वृद्धा से कहा- मां! तू हमें भूल गई! हम वे ही हैं, जो शहर जाते समय तेरे घर
भोजन के लिए रुके थे। वृद्धा बोली- तुम लोगों को सकुशल देखकर बहुत खुशी हुई। मैं
तो इतने दिन तुम्हारी चिंता में घुले जा रही थी।
चारों ने कारणा पूछा तो वृद्धा ने कहा- मेरी असावधानी से उस दिन तुम्हारी छाछ
में सांप मथा गया था। वृद्धा के इतना कहते ही चारों की घबराहट चरम पर पहुंच गई और
चारों एक साथ भूमि पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुए। वस्तुत: जीवन के सही दिशा में
संचालन हेतु निर्भीकता जरूरी है।
जब राजा हुआ अहंकार से मुक्त
एक राजा केदो पुत्र थे। बड़ा पुत्र
अहंकारी और लोभी था, जबकि छोटा परोपकारी। राजा की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र राजा बना। वह
प्रजा पर खूब अत्याचार करता, किंतु छोटा सहृदय था। वह छिपकर प्रजा की यथासंभव सहायता
करता था। इस कारण जनता उसे अत्यधिक पसंद करती थी। यह बात जब राजा तक पहुंची तो
उसने उसे बुलाकर कहा- मैं राजा हूं। मेरी अनुमति के बिना तुम किसी की सहायता नहीं
करोगे।
बड़े भाई की बात सुनकर छोटे ने कहा- भैया! जनता की सेवा को मैं अपना दायित्व
मानता हूं। उसकी इस बात पर राजा ने क्रोधित होकर उसे जमीन का एक छोटा-सा टुकड़ा
देकर महल से जाने का आदेश दिया। छोटे भाई ने इसे मान लिया। उसने जमीन के उस
छोटे-से टुकड़े पर एक कमरा बनवाया और आम का एक बगीचा लगाया। बगीचे को परिश्रम से
सींचा। जल्दी ही पेड़ों पर आम आ गए। जब भी कोई उस मार्ग से गुजरता, वह आम खिलाकर उसका
सत्कार करता।
भूखे मुसाफिरों की यह उदार व नि:स्वार्थ सेवा छोटे भाई की लोकप्रियता में
वृद्धि करती गई। अहंकारी राजा को यह रास नहीं आया। उसने भी आम के पेड़ लगवाए। उनकी
देख-रेख के लिए कई माली रखे, किंतु आम नहीं आए। तब एक संत ने राजा को समझाया- इन पेड़ों
पर आपके अहंकार के भूत की छाया पड़ी हुई है, इसलिए जब तक आप उसे दूर नहीं
करेंगे, आम
नहीं आएंगे। संत की बात का मर्म जानकर राजा ने स्वयं को अहंकार से मुक्त कर छोटे
भाई के साथ-साथ संपूर्ण प्रजा से क्षमा मांगी। वस्तुत: कर्म में भाव जुड़ने से वह
सफल होता है, जबकि मात्र अहं की तुष्टि के लिए किया गया कर्म, अकर्म की श्रेणी में खड़ा होकर
लक्ष्य पाने में विफल रहता है।
पंडितजी ने सिखाई भारतीय संस्कृति
कई वर्ष बीत गए, काशी के एक विद्वान
पंडित लंदन की यात्रा पर गए। पंडितजी सादगी की प्रतिमूर्ति थे। सफेद कुर्ता-धोती,
गले में एक
रुद्राक्ष की माला और पैरों में सामान्य चप्पलें। कई दिनों तक वे लंदन में रहे और
वहां के विद्वानों से भेंट की। वहां का विद्वत समाज उनसे बहुत प्रभावित हुआ।
एक दिन पंडितजी लंदन की एक सड़क पर पैदल जा रहे थे। उनका साधारण पहनावा देखकर
कुछ शरारती बच्चों ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। वे उन्हें यह सोचकर
अंग्रेजी में अपशब्द कहने लगे कि वे अंग्रेजी नहीं जानते होंगे। पंडितजी उन बच्चों
पर ध्यान दिए बिना चलते रहे। जब वे लगातार उन्हें परेशान करते रहे, तो पंडितजी खड़े हो गए
और धाराप्रवाह अंग्रेजी में उन्हें भारत और भारतीय संस्कृति की महानता के विषय में
समझाया। यह देख वे अंग्रेज बच्चे दंग रह गए।
पंडितजी ने अंत में उनसे कहा- तुम्हारे ऐसे व्यवहार के लिए तुम दोषी नहीं हो,
क्योंकि तुम्हें
हमारी संस्कृति के विषय में सदैव गलत जानकारी दी गई है। उसे तुम्हारे समक्ष हेय
संस्कृति के रूप में लाया गया है। इसलिए तुम उपहास की दृष्टि से देखते हो। फिर
पंडितजी उन बच्चों को कॉफी पिलाने के लिए ले गए। सभी बच्चे अपने व्यवहार पर लज्जित
थे। उन्होंने पंडितजी से क्षमा मांगी।
वहीं बैठे एक अन्य भारतीय ने पंडितजी से पूछा- इन बच्चों ने आपको इतना अपमानित
किया। फिर भी आपको क्रोध नहीं आया, ऐसा क्यों? तब पंडितजी बोले- इसमें बच्चों का कोई दोष नहीं, क्योंकि उन्हें भारत के
विषय में प्रतिकूल ही बताया गया। यदि मैं क्रोध करता तो इनकी वह सोच पुख्ता ही
होती। वस्तुत: अपनी महान संस्कृति के अनुरूप आचरण करने से राष्ट्र की छवि उज्ज्वल
होती है।
गुरु से बढ़कर कोई मार्गदर्शक नहीं
एक फकीर से जब भी कोई प्रणाम करता तो
वे कहते- जाओ, तुम्हारी पैरवी हम कर देंगे। एक बार किसी युवकने उनसे इस आशीर्वाद का अर्थ
जानने की जिज्ञासा व्यक्त की, तो वे बोले- मैं परमात्मा की अदालत में अपने भक्तों और
ईश्वर के मध्य वकील का काम करता हूं। पहले मैं परमेश्वर के कानूनों को पढ़ता-समझता
हूं, फिर
ठोस दलीलें तैयार करता हूं और फिर भक्तों की ओर से मुकदमा जीत जाता हूं। वहां
उपस्थित लोगों ने युवक को अपने अनुभव बताए, जिनका सार यही था कि फकीर ने
जिसे अपना शिष्य मान लिया, उसके काम बड़ी सरलता से हो जाते थे। फकीर ने युवक को पूर्ण
संतुष्टि देने के लिए एक किस्सा सुनाया- एक बार एक व्यक्ति किसी वकील के पास अपने
मुकदमे के कागज लेकर गया।
वकील ने सारे कागज पढ़ने के बाद कहा- तुम सौ प्रतिशत जीतोगे। यह सुनकर वह जाने
लगा। वकील ने कारण पूछा तो वह बोला- ये कागज मेरे विरोधी के हैं। अत: आपके अनुसार
वह ही जीतेगा। तब वकील ने उसे रोका और अपने कागज दिखाने को कहा। कागज देखने के बाद
वकील ने फिर वही दोहराया- तुम सौ प्रतिशत जीतोगे। व्यक्ति को हैरान देख वकील ने
कहा- जिसका वकील समझदार हो, वह मुकदमा जीतने की सामथ्र्य रखता है। उस व्यक्ति ने मुकदमा
वकील को सौंपा और वह जीत गया।
यह किस्सा सुनाने के बाद फकीर ने कहा- इसी प्रकार मैं अपने अच्छे-बुरे दोनों
प्रकार के भक्तों की परमात्मा की अदालत में पैरवी करता हूं ताकिउन सभी को उसकी
कृपा मिले। युवक संतुष्ट हुआ और फकीर का भक्त बन गया। सार यह है कि गुरु के उचित
मार्गदर्शन से जीवन के महत्वपूर्ण लक्ष्यों को पूर्ण किया जा सकता है।
परमार्थ घोषित हुआ सर्वश्रेष्ठ उपहार
एक दिन ईश्वर ने अपने सेवकों को
बुलाया और धरती से एक-एक उपहार लाने का आदेश दिया। उन्होंने कहा कि जिसका उपहार
सर्वश्रेष्ठ होगा, उसे प्रधान सेवक के पद पर नियुक्त किया जाएगा। यह सुनकर सेवकों में पद पाने की
होड़ लग गई। सेवकों ने पृथ्वी पर जाकर जी-तोड़ मेहनत की और लगभग सभी कुछ न कुछ
अच्छा लाने में सफल रहे। सभी प्रसन्न व संतुष्ट थे और मन में पदोन्नति की आशा थी।
ईश्वर जब अपने आसन पर विराजमान हुए तो सेवकों ने एक से बढ़कर एक कीमती उपहार
उनके समक्ष रखे, किंतु उनके चेहरे पर संतोष या हर्ष का भाव नहीं नजर आया। सभी सेवक हैरान थे कि
किस प्रकार के उपहार को ईश्वर की प्रशंसा मिलेगी। एक सेवक ही आना बाकी था। जब वह
आया, तो
कागज की एक पुड़िया ईश्वर को दी और एक तरफ बैठ गया। उसे विलंब हो गया, इसलिए वह भयभीत था। जब
ईश्वर ने पुड़िया खोली तो उसमें मिट्टी थी। सभी सेवक मिट्टी देखकर हंसने लगे।
ईश्वर ने मिट्टी लाने का कारण पूछा, तो वह बोला- भगवन! मैंने धरती का कोना-कोना देखा,
किंतु ऐसा कोई
उपहार नहीं दिखाई दिया, जो आपको पसंद आए। फिर अंतत: मैं यह मिट्टी लाया, क्योंकि यह किसी साधारण
स्थान की मिट्टी नहीं है, बल्कियह वहां की मिट्टी हैं, जहां लोगों ने मानवता की रक्षा
के लिए हंसते-हंसते अपना बलिदान दे दिया। उसका उत्तर सुनकर ईश्वर ने उस मिट्टी को
अत्यंत श्रद्धापूर्वकअपने मस्तक पर लगाया और उसे प्रधान सेवक घोषित करते हुए कहा-
जब तक धरती पर ऐसे सत्पुरुष होंगे, वहां सुख-शांति की कमी नहीं होगी। वस्तुत: परमार्थ को
परमात्मा भी नमन करता है, जबकि स्वार्थ सदा हेय दृष्टि से देखा जाता है।
साधु ने बताया जीवन का सही अर्थ
एक साधु सांसारिकता से कोसों दूर
भगवान के ध्यान में डूबा रहता। अपने आश्रम में आने वालों का सत्कार करता और जाने
वालों के प्रति कोई मोह नहीं दर्शाता। कोई आ जाता तो भी वह प्रसन्न रहता और
अकेलापन भी उसे नहीं खलता था। साधु सभी स्थितियों को ईश्वर की देन मानकर सुखी रहता
था। एक दिन उसके आश्रम में तीन युवकआए। वे कुछ दिन वहां रहना चाहते थे।
उनका इरादा जान साधु ने उनसे प्रश्न किया- तुम यहां क्यों आए हो? पहले ने कहा- बस रहने
आया हूं। साधु बोला- रहने में तो कोई परेशानी नहीं है। दूसरे का उत्तर था- कुछ
जानने आया हूं। साधु ने उसे समझाया- कुछ जानने के लिए बुद्धि को शुद्ध और मन को
समर्पण योग्य बनाना पड़ेगा। जिसे हम जानना कहते हैं, अधिकांश अवसरों पर वह मात्र
जानकारी होती है। यह हमारा भ्रम होता है कि हमने जान लिया। चित्त को एकाग्र किए
बिना जो जाना जाए, वह परमात्मा न होकर हमारा अहंकार या पूर्वग्रह होता है।
इससे ऊपर उठकर ही हम परमात्मा को देख सकते हैं। आश्रम में रहो या दुनिया में,
चित्त की एकाग्रता
और मन के समर्पण के बिना कुछ नहीं जान सकोगे। फिर साधु ने तीसरे युवक की ओर प्रश्न
सूचक दृष्टि से देखा, तो वह बोला- मैं जीने के लिए यहां रहने आया हूं। तब साधु ने कहा- रहना और
जानना इन दोनों से ऊपर की स्थिति है- जीना। जीवन बिताना सरल है, किंतु जीना कठिन है।
जीवन को जीने के लिए परमात्मा की अनुभूति होना, उससे एकलय होना आवश्यक है। तीनों
युवक साधु की बातों का मर्म जान गए और उनकी बताई राह पर चल पड़े। वस्तुत: स्वयं को
परमात्मा का अंश मानकर प्रत्येक कर्म का उसी को समर्पण जीवन को सही अर्थो में जीने
योग्य बनाता है।
राजा ने जाना परोपकार का अर्थ
एक राजा अत्यंत प्रजा हितैषी था।
निर्धनों को वह मुक्त हस्त से दान देता था। गर्मियों में प्याऊ लगवाता, तो सर्दियों में कंबल और
ऊनी वस्त्र बांटता। परंतु अपनी इस जनसेवा पर राजा को अभिमान भी था। एक दिन किसी
संत का राजमहल में आगमन हुआ। राजा ने उनका स्वागत किया और फिर बढ़-चढ़कर अपने सेवा
कार्यो को बताने लगा। उसे लगा कि संत उसके
कार्यो की प्रशंसा कर उसका उत्साह बढ़ाएंगे। संत उसकी बातें चुपचाप सुनते
रहे।
अंत में राजा ने कहा- स्वामीजी मैंने बहुत सारे मंदिर, वृद्धाश्रम, अनाथालय, चिकित्सालय और विद्यालय
बनवाए हैं। अब मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि ये सब करने पर मुझे कितना पुण्य
मिलेगा? संत
बोले- पाप-पुण्य का तो प्रश्न ही नहीं उठता और रहा सवाल स्वर्ग का तो तुम्हें
स्वर्ग नहीं, नर्क ही मिलेगा। ऐसा जवाब सुनकर राजा क्रोधित होकर बोला- जब आपको पाप-पुण्य की
परिभाषा तक नहीं पता तो अपना यह उल्टा ज्ञान अपने ही पास रखिए। संत राजा का क्रोध
देखकर मुस्कराए और फिर उसे समझाया- तुम्हारा यही अहंकार तुम्हें नर्क ले जाएगा।
तुम्हारे अहंकार को तनिक-सी चोट लगी और तुम्हारा स्वर बदल गया। अपनी प्रशंसा
सुनकर कोई ईश्वर तक नहीं पहुंच सकता। इससे यह सिद्ध होता है कियह जनसेवा तुमने
दूसरों के कल्याण के लिए नहीं की, बल्कि स्वयं के लाभ के
लिए की। सेवा के पीछे की इस अहंकार
वृत्ति को हटाओगे, तब वह फलेगी। संत की बातों की गहनता ने राजा को सही मार्ग दिखा दिया। सार यह
है कि अहंकार और कल्याण साथ-साथ नहीं चल सकते। इसलिए जब भी हम दूसरों के लिए कुछ करें, तो मन में मात्र लोक कल्याण का
भाव होना चाहिए।
व्यापारी ने जाना सफलता का अर्थ
एक महात्मा के आश्रम में कई लोगों के साथ एक व्यापारी भी आता था। व्यापारी
महात्मा से इसलिए प्रभावित था, क्योंकि उसका प्रत्येक कार्य उनके आशीर्वाद से फलता था। जब
दो-तीन बार ऐसा हो गया, तो व्यापारी महात्मा से आशीर्वाद लेते समय कोई न कोई
सांसारिक इच्छा उनके समक्ष रख देता। महात्मा भी कह देते- ईश्वर सब इच्छा पूर्ण
करेगा। संयोग से व्यापारी की सभी इच्छाएं पूर्ण होती थीं।
परिणामस्वरूप वह यह मानने लगा कि मेरे पास जो भी है, वह महात्मा की कृपा से है। उसने
अपनी भौतिक उपलब्धियों को महात्मा के आशीर्वाद से जोड़ लिया था। एक बार ऐसा हुआ कि
महात्मा का आशीर्वाद मिलने के बाद भी व्यापारी का काम नहीं हुआ। वह बहुत दुखी हो
गया। उसने महात्मा को यह बात बताई तो उन्होंने उसे समझाया- मेरे आशीर्वाद से तुमने
अपनी सफलता जोड़ी, यह गलत किया, क्योंकि दोनों दो अलग-अलग चीजें हैं। तुम बात को समझने के लिए जीवन को तीन
भागों में बांट सकते हो- आध्यात्मिक, शारीरिक और सामाजिक जीवन।
आध्यात्मिक जीवन में संतोष और शांति प्रमुख हैं, शारीरिक जीवन में अच्छा
स्वास्थ्य महत्वपूर्ण है और पारिवारिक जीवन में स्नेह और विश्वास की भूमिका अहम
होती है। इसलिए सफलता को आशीर्वाद की हार्दिकता से न जोड़कर इन तीन स्तरों की
व्यावहारिकता पर तौलो। यह बात सुनकर व्यापारी का भ्रम दूर हो गया। उसने संपूर्ण
सफलता का सही अर्थ और संतों के आशीर्वाद का मर्म जान लिया। वस्तुत: सफलता स्वस्थ
शरीर, स्नेहिल
परिवार और शांत मन पर निर्भर करती है। परिजनों व संतों का आशीर्वाद नैतिक बल
बढ़ाता है, जबकि उपर्युक्त त्रयी सफलता को व्यवहार के धरातल पर लाती है।
दुनिया के अंत से परमेश्वर का आरंभ
एक युवा एक फकीर के पास पहुंचा और शिष्य बनने की इच्छा व्यक्त की। फकीर ने उसे
अपने पास रख लिया। युवा ने कुछ दिन बाद पूछा मैं सत्य की खोज में हूं। वह कहां
मिलेगा? फकीर
बोला सत्य तुम्हें वहां मिलेगा, जहां दुनिया का अंत होता है। युवा फकीर से अनुमति लेकर
दुनिया का अंत खोजने के लिए निकल गया। वर्षों तक सफर करने के बाद वह उस गांव तक
पहुंच गया, जिसे दुनिया का अंतिम गांव माना जाता था।
उसने गांव के लोगों से पूछा कि दुनिया का अंत कितनी दूर है? लोगों ने कहा थोड़ा आगे
जाने पर वहां एक पत्थर लगा है, जिस पर लिखा है यहां दुनिया समाप्त होती है। किंतु तुम वहां
मत जाओ। जिस भयावह गड्ढे पर दुनिया समाप्त होती है, वह तुम देख नहीं पाओगे, डर जाओगे। वह बोला मुझे
उस सत्य को पाना है। अत: मैं वहां जाऊंगा। जब युवा उस स्थान पर पहुंचा तो वहां
भयावह शून्य था और गहरे खड्ड की कोई तलहटी ही नजर नहीं आ रही थी।
वह इतना भयभीत हो गया कि मुंह से बोल ही नहीं निकले और फिर जो भागना शुरू किया
तो सीधा फकीर के पास ही आकर रुका। फकीर ने उसकी दशा देखकर उससे पूछा तख्ती के
दूसरी ओर क्या लिखा था? वह बोला दूसरी ओर तो मैंने देखा ही नहीं, क्योंकि इस तरफ भीषण
दृश्य था।
मैं डर कर भागा। तब फकीर ने उसे समझाया तख्ती के दूसरी ओर लिखा था यहां
परमात्मा का आरंभ होता है। दुनिया खत्म
होने से अभिप्राय उसके राग रंग समाप्त होने से है। जहां हम दुनिया के आकर्षणों से
दूर होते हैं, वहीं परमात्मा की उपलब्धि हो जाती है, जो परम सत्य है और जिसे तुम पाना चाहते हो।
साधना में बाधक हैं भौतिक विचार
एक विख्यात संत के आश्रम में जब शिष्यों की भीड़ बढऩे लगी तो साधना से अधिक
आश्रम की व्यवस्था देखने में उनका समय बीतने लगा। अत: उन्होंने एक कठोर निर्णय के
तहत अपने सभी शिष्यों को वापस उनके मूल स्थानों पर भेज दिया और स्वयं भी आश्रम
छोड़कर अज्ञातवास में चले गए। कुछ वर्षों
बाद उनके एक शिष्य ने देखा कि संत भिखारियों के साथ एक टूटी-फूटी झोपड़ी में रह
रहे हैं।
वह तत्काल उनके पास श्रद्धावश पहुंचा और अपने साथ रखकर ज्ञान देने की
प्रार्थना की। संत बोले, क्रयदि तुम एक वर्ष मेरे साथ रहकर मेरी ही तरह रहो तो
तुम्हें स्वयं ही ज्ञान प्राप्त हो जाएगा। शिष्य ने उनकी बात मान ली। दिनभर
गुरु-शिष्य भीख मांगते और सुबह-शाम ध्यान करते। शिष्य को भीख मांगने में बड़ी शर्म
आती, किंतु
ज्ञान पाने की ललक में वह विरोध नहीं करता था।
एक दिन शाम को लौटने पर उन्होंने देखा कि उनके साथ रहने वाले एक भिखारी की
मृत्यु हो गई थी। संत ने शिष्य की सहायता से उसकी मृत देह का अंतिम संस्कार कर
दिया। श्मशान से लौटकर संत ने दिनभर मांगी हुई भीख में मिला खाना खाया और गहरी
नींद में सो गए। शिष्य साथी भिखारी की मृत्यु से इतना विचलित था कि न कुछ खा पाया
और न सो पाया।
सुबह संत ने उससे कहा- आज हम भीख मांगने नहीं चलेंगे,क्योंकि कल तुमने अपना हिस्सा
नहीं खाया और मृत भिखारी की भीख भी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। उससे हमारा काम चल
जाएगा। शिष्य को मृत भिखारी का खाना खाने की बात सुनकर ही उल्टी आने लगी। यह देख
संत ने उसे कहा - तुम्हारा मन अभी ज्ञान पाने के लिए तैयार नहीं है। तुम वापस लौट
जाओ। शिष्य उसी दिन वापस लौट गया।
खुद पर एकाग्रता से सत्य मिलता है
महर्षि रमण के पास कई जिज्ञासु आते और महर्षि उन्हें सही राह दिखलाते थे। कभी
कोई उनके पास से असंतुष्ट होकर नहीं जाता था। एक दिन महर्षि रमण के आश्रम में एक
व्यक्ति आया। वह काफी देर तक उनके पास बैठा रहा और दोनों के मध्य ज्ञानपरक चर्चा
हुई। फिर वह बोला, 'महात्मन्! मैं इन दिनों एक विषय पर बहुत असमंजस में हूं। मैं तय नहीं कर पा
रहा हूं कि क्या सही है और क्या गलत। महर्षि ने उसे अपनी समस्या स्पष्ट करने को
कहा तो वह कहने लगा, 'हमारे देश में प्राचीनकाल से आज तक अनेक संत-महात्मा हुए। आत्मा-परमात्मा और
जगत को लेकर उनके विचार भिन्न-भिन्न हैं।
कोई कहता है कि आत्मा-परमात्मा में कोई भेद नहीं है और वे एक हैं। किसी का मत
है कि वे एक-दूसरे से पृथक हैं। कोई इस विचार का समर्थक है कि परमात्मा से अलग कोई
सत्ता नहीं है। कोई यह मानता है कि मैं ही ब्रह्म हूं। ये सब पढ़-सुनकर मैं भ्रमित
हो जाता हूं कि इनमें से कौन-सा विचार सही है, जिसका अनुसरण करना सर्वाधिक
योग्य होगा? मैं आपसे इस विषय में मार्गदर्शन पाना चाहता हूं। महर्षि रमण ने उसकी बातें
सुनकर स्नेहपूर्वक उसे उत्तर दिया, 'कहीं और जाकर तुम्हें सही मार्ग नहीं मिलेगा।
तुम अपने ही भीतर खोजो कि तुम कौन हो? स्वयं पर एकाग्रता से एक दिन तुम्हें सत्य का
साक्षात्कार हो जाएगा। महर्षि के उत्तर से उस व्यक्ति के भ्रम का निवारण हुआ और
यथार्थ का बोध हो गया। सत्य की अनुभूति सभी की व्यक्तिगत होती है, जो संस्कार, परिस्थिति व वातावरण की
भिन्नता के कारण पृथक-पृथक होती है।
ज्ञान से गणितज्ञ बने रामानुजन
कई वर्षों पूर्व एक विद्यालय में गणित
के शिक्षकने श्यामपट पर केले के तीन चित्र बनाकर पूछा - क्रयदि हम इन्हें तीन
बच्चों में समान रूप से बांटें तो एक बच्चे को कितना केला मिलेगा? जवाब आया- क्रसर! एक
बच्चे को एक केला मिलेगा। शिक्षक ने फिर पूछा, 'अब बताओ कि १००० केले हों और
बच्चे भी १००० हों तो हर बच्चे को कितना केला मिलेगा? सभी ने कहा- एक केला।
तभी एक बच्चे ने पूछा- क्रसर! यदि शून्य केले को शून्य लड़कों में बांटा जाएं
तो क्या तब भी एक ही केला मिलेगा? यह प्रश्न सुनकर बाकी बच्चे हंसने लगे। किंतु शिक्षक उसके
प्रश्न की गहराई समझकर बोले, यह पूछना चाहता है कि शून्य से शून्य को भाग देने पर भागफल
क्या एक आएगा? इसका जवाब है कि नहीं, यह एक नहीं, अनंत होगा।
इस जिज्ञासु विद्यार्थी में गणित की अद्भुत समझ थी। कॉलेज में उत्तीर्ण न हो
पाने के बावजूद मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के तब के निदेशक फ्रांसिस स्प्रिंग ने उसकी
प्रतिभा से प्रभावित होकर उसे २५ रुपए प्रतिमाह की नौकरी पर रखा। अंतत: उसके गणित
ज्ञान ने उसे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में अनुसंधान के लिए पहुंचाया। यह परम
मेधावी युवक था श्रीनिवास रामानुजन। कैम्ब्रिज में उसने गणित के श्रेष्ठ
सिद्धांतों की खोज की।
हालांकि मद्रास में सन् १९२० में ३३ वर्ष की अल्पायु में ही इस युवक का निधन
हो गया, किंतु
उसके गणितीय सूत्र व सिद्धांत आज भी गणित के विद्यार्थियों व अनुसंधानकर्ताओं के
लिए मार्गदर्शक बने हुए हैं। मेधावी के लिए कठिन राहें भी आसान हो जाती हैं और
सफलता उसकी चेरी हो जाती है।
महावीर ने ठुकराई इंद्र की सहायता
एक बार भगवान महावीर किसी गांव की सीमा पर प्रात:काल ध्यान कर रहे थे। तभी एक
चरवाहा उनके पास आया और ध्यानस्थ महावीर से बोला- 'साधु महाराज! आपके सामने मेरे
पशु चर रहे हैं, आप उनका ध्यान रखना। मैं थोड़ी देर में आता हूं। ध्यान में लीन महावीर ने कुछ सुना नहीं। चरवाहा
लौटा तो पशु वहां नहीं थे। क्रोध में आकर उसने महावीर को अपशब्द कहे। फिर वह पशुओं
की रस्सी से महावीर पर प्रहार करने ही वाला था कि देवराज इंद्र वहां प्रकट हुए और
चरवाहे को रोकते हुए कहा, 'मूर्ख चरवाहे! यह क्या अनर्थ कर रहा है।
ये महावीर हैं। यह सुनकर चरवाहा अपने
व्यवहार पर बहुत लज्जित हुआ। वह महावीर से क्षमा मांगकर वहां से चला गया। उसके
जाने के बाद जब महावीर का ध्यान समाप्त हुआ तो इंद्र ने उनसे कहा, 'भगवन्! आपका साधना काल
लंबा है। ऐसी और भी बाधाएं आ सकती हैं। यदि आज्ञा दें तो मैं आपकी सेवा में रहना
चाहता हूं, ताकि ऐसी समस्याओं का समाधान कर सकूं और आपकी साधना में विघ्न उपस्थित न
हो। इंद्र की यह बात सुनकर महावीर ने उनकी
भावना के प्रति आभार जताया और बोले,'देवराज!
आत्मसाधकों के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि कैवल्य या मोक्ष दूसरे की
सहायता या श्रम से प्राप्त किया गया हो। अत: भविष्य में यह परंपरा जारी रहे। मैं
आपका हृदय से आभारी हूं, किंतु साधना पथ पर मुझे अकेले ही चलना होगा। त्यागी महावीर की महानता से इंद्र अभिभूत हुए।
उपलब्धि वही प्रशंसनीय है, जो आत्मबल पर हासिल की गई हो। दूसरों के सहारे से प्राप्त
उपलब्धि अपनी नहीं हो सकती।
भाग्य और कर्म परस्पर पूरक
संत ज्ञानेश्वर का एक शिष्य तनय भाग्य को महत्व देता था जबकि दूसरा शिष्य मनय
कर्म को अहम मानता था। दोनों में बहस छिड़ गई। निर्णय के लिए ज्ञानेश्वर के पास
पहुंचे तो उन्होंने कहा, मैं तुम्हारे इस विवाद का समाधान करूंगा, किंतु मेरी एक शर्त है।
तुम दोनों को कल सुबह तक बिना कुछ खाए-पीये अंधेरी कोठरी में बंद रहना होगा। दोनों
शिष्य मान गए। ज्ञानेश्वर ने उन्हें रात को एक अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया। काफी
रात बीतने पर दोनों भूख से व्याकुल हो गए। मनय ने कहा, बहुत भूख लगी है। आओ, इस कोठरी में खाने के
लिए कुछ खोजें।
यह सुनकर तनय बोला, क्रजो भाग्य में है, वही होगा। यहां खाने को कुछ नहीं
है। किंतु मनय ने खोज की तो उसे एक छोटी-सी मटकी में रखे हुए भुने चने मिल गए।
उसने तनय से कहा, देखो, मैंने कर्म किया, तो ये चने मिले। तनय बोला, ये तो तुम्हारे भाग्य से मिले हैं। तब मनय ने कहा, ठीक है तो चनों के साथ
कुछ कंकड़ भी मिले हैं। इन्हें अपना भाग्य समझकर अपने पास रख लो।
तनय ने वे कंकड़ लिए और भूखा सो गया। सुबह मनय ने ज्ञानेश्वर को सारी बात
सुनाई। तब वे बोले - क्रतुमने कर्म किया, तो तुम्हें चने मिले। किंतु तनय भाग्यशाली है कि उसे
बिना कोई कर्म किए हीरे मिले। जिन्हें तुमने कंकड़ समझकर उसे दिया, वे वास्तव में हीरे हैं।
मैंने उन्हें चनों में मिलवाकर रखा था। उन्होंने कहा, 'दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।
कर्म, भाग्य
के बिना अधूरा है और भाग्य कर्म के बिना। उनके उत्तर से दोनों का समाधान हो गया।
भाग्य ईश्वर के हाथों में है और कर्म मनुष्य के। इसलिए सदैव कर्मरत रहना चाहिए
ताकि भाग्य खुलने की संभावना बने।
लोभ के कारण धन और यश खोया
एक पहलवान किसी गांव में पहुंचा। उसने वहां के विख्यात पहलवान के बारे में
अनेक किस्से सुन रखे थे। उसने सोचा कि आज इस पहलवान से कुश्ती लड़ी जाए। वह उसके
पास पहुंचा और कुश्ती के लिए ललकारा। गांव का पहलवान कुछ प्रौढ़ हो गया था,
अत: उसने सोचा कि
यह जवान है। यदि मैं इससे हार गया तो अब तक कमाई प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी। वह
उसे न कहने ही वाला था कि गांव के सरपंच सहित कई लोग वहां आ गए और उससे कुश्ती
लडऩे का आग्रह किया। वे चाहते थे कि दूसरे गांव के सामने अपने गांव का मान बना
रहे। तब गांव का पहलवान कुश्ती लडऩे के लिए राजी हो गया। विजेता के लिए ग्रामीणों
ने एक हजार रुपए का इनाम घोषित किया। कुश्ती आरंभ हो गई।
कुश्ती में गांव के पहलवान को अपनी जीत कठिन लगने लगी। उसने एक उपाय सोच युवा
पहलवान के कान में कहा - देखो मित्र! यदि तुम मुझे जीतने दोगे तो मैं तुम्हें दो
हजार रुपए दूंगा। यह सुनते ही युवा पहलवान के मन में लोभ जाग्रत हो गया। उसने सोचा,
'यदि मैं इन अपरिचित लोगों के सामने हार भी गया तो
प्रतिष्ठा प्रभावित नहीं होगी।
मुझे पैसे कमाने पर ध्यान देना चाहिए। वह गांव के पहलवान से पराजित हो गया,
किंतु जब वह गांव
के पहलवान से दो हजार रुपए लेने पहुंचा तो वह बोला - कुश्ती में सभी अपना-अपना
दांव लगाते हैं। मैंने भी अपना दांव लगाया। इसमें रुपए-पैसे का तो कोई प्रश्न ही
नहीं है।ञ्ज इस प्रकार युवा पहलवान ने लालच के कारण धन तो खोया ही, ख्याति भी गंवा दी। छोटी
उपलब्धि के लिए बड़ी उपलब्धि को नहीं छोडऩा चाहिए क्योंकि स्थायी यश वही दिलाती
है।
भौतिक उपलब्धियों का द्वार है परिश्रम
एक राजा के दरबार में रत्नों के तीन व्यापारी आए और निवेदन किया- महाराज! हम
आपके राज्य में कीमती रत्न बेचने आ रहे थे, किंतु रास्ते में डाकुओं ने हमें
लूट लिया। अब हमारे पास भोजन केभी पैसे नहीं हैं। आपसे सहायता चाहते हैं। राजा ने
तीनों को एक-एक बोरी गेहूं देते हुए कहा, 'आप लोगों को इस राज्य की सीमा के अंदर लूटा गया है
इसलिए आपका भरण-पोषण हमारा दायित्व है। ध्यान रखना कि यह गेहूं आप लोग स्वयं ही
साफ करना और खाना। हमसे एक महीने के बाद मिलना। ऐसी मदद से व्यापारी हैरान हुए,
किंतु राजा से
क्या शिकायत करते?
उनमें से दो व्यापारी आलसी थे। उन्होंने बोरी में से थोड़ा गेहूं निकालकर उस
दिन के भोजन का प्रबंध कर लिया। शेष गेहूं उन्होंने बोरी सहित चक्की वाले को बेच
दिया। तीसरा व्यापारी परिश्रमी था। उसने गेहूं निकालकर साफ किए। जब बोरी खाली हो
गई तो उसमें से एक कीमती हीरा निकला। उसने उसे तराशने दे दिया। एक महीने बाद तीनों
राजा से मिलने पहुंचे तो दोनों आलसी व्यापारियों ने उदर पूर्ति के लिए और गेहूं
मांगा जबकि तीसरे व्यापारी ने राजा को तराशा हुआ हीरा भेंट किया। तब राजा ने कहा,
'यह हीरा अब
तुम्हारा है।
इसे जौहरी को बेचकर जो धन मिले, उससे अपना व्यापार शुरू करो। फिर दूसरे दोनों व्यापारियों से राजा बोला,
'ऐसा ही एक-एक
हीरा तुम दोनों की बोरियों में भी था, लेकिन अपने आलस्य के कारण तुमने उसे गंवा दिया। अब
तुम्हें हमारी ओर से कुछ नहीं मिलेगा। तुम मजदूरी कर अपना पेट पालो। परिश्रम भौतिक
उपलब्धियों का द्वार खोलता है और आत्मिक संतुष्टि का वाहक भी है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK
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