Friday, August 2, 2013

Jeene Ki Rah2 (जीने की राह )



वर्तमान में जीने के लिए भूत को क्षमा करें
इसी क्षण जाग कर देखो कि आप कौन है। क्या आप अपने आप को अपनी दिखावट के आधार पर, या जो काम आप करते है, उसके आधार पर या लोगों के साथ जो संबंध है उसके आधार पर अपना परिचय देंगेआप अपने शरीर से कहीं ज्यादा हैं, अपने विचारों और भावों से कहीं ज्यादा है। ये सब कुछ बदल रहा है, लेकिन आप वे हैं जो बदल नही रहा है, जो श्वाश्वत है। आप अनंत आत्मा हैं।

आत्मा की प्रकृति क्या है? आत्मा अनुभव करती है और मूल्यों को बताती है। अनुभव और भावनाओं का मूल्य समझ में तो आता है, लेकिन उन्हें शब्दों में न तो व्यक्त किया जा सकता है और न ही शब्दों में समझा जा सकता है। वे मूल्य जो जीवन शक्ति देते हैं, वे है- आत्मविश्वास, सहयोग, श्रद्घा और ज्ञान।

ये मूल्य आत्मा से ही प्राप्त होते हैं। हम सोचते हैं कि हम भौतिक पदार्थो में सुविधा प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन हमारे अनुभव में यह भी है कि मात्र भौतिकता ही पूर्ण नही है। प्रसन्नता चेतना का गुण है।

यह भौतिक पदार्थ पर निर्भर तो है, लेकिन यह एक स्थान के बाद समझ पर निर्भर करती है। जैसे ही हम आत्मिक मूल्यों को जीते हैं, जीवन अपनी प्रचूरता को प्राप्त हो जाता है। इनके बिना तो जीवन बहुत ही हल्का है और हम अप्रसन्नता को अनुभव करते हैं।

यह आत्मा का धर्म है कि यह जीवन को थामे रहती है। आध्यात्मिक मूल्यों को जीने से आपका व्यक्तित्व शक्तिशाली होता है। आध्यात्मिक जीवन का समाज पर क्या प्रभाव होता है? यह अपनेपन का भाव, जिम्मेदारी, करुणा और विश्व की देखभाल का भाव लाती है, पूरी मानव जाति के लिये सोच देती है।

आध्यात्मिकता ही सही अर्थों में जाति, वर्ण, धर्म और राष्ट्रीयता की सीमाओं को तोड़ सकती है और हमें बताती है कि जीवन सब जगह व्याप्त है। जब मन विश्राम करता है, तो बुध्दि तीक्ष्ण हो जाती है। जब मन आकांक्षाओं, ज्वर और इच्छाओं से भरा हुआ होता है तो बुद्घि अपनी तीक्ष्णता खो देती है।

और जब बुद्घि तीक्ष्ण नही होती, तो जीवन पूरा अभिव्यक्त नही होता। विचारों का प्रवाह रुक जाता है और योग्यता धीरे धीरे समाप्त होने लगती है। इस समझ के साथ आपको अपने छोटे मन से बाहर निकलना है और यही कदम आपके जीवन की परेशानियों को समाप्त कर सकता है।

आपको अपने लोभ, घृणा, ईर्ष्या और अन्य अपूर्णताओं से मुक्त होने की इच्छा रखनी होगी। जब तक मन इन नकारात्मकताओं में उलझा रहेगा, यह शांत और प्रसन्न नही हो सकता- आप अपने जीवन को प्रसन्नता से जी नही पाएंगे।

तो सबसे पहले आप यह जान लें कि यह सब नकारात्मकता भूतकाल का प्रभाव है और अपने भूतकाल को वर्तमान में प्रभाव डालने से रोकें। भूतकाल को क्षमा कर दें। यदि आप अपने भूतकाल को क्षमा नही कर सकते तो आपका भविष्य दयनीय हो जाएगा। भूतकाल को छोड़कर एक ताजा जीवन जीने का संकल्प लें।

वर्तमान क्षण में पूर्णरुप से रहने के लिये आपको अपनी परेशानियों को संभालने की योग्यता की आवश्यकता होती है। वह क्या है जो आपको परेशान कर रहा है? जो कुछ भी आपकी भावना है, उसमें जकड़े बिना उसे जिएं। बच्चे कभी चिंतित नही होते।

वे किसी भी भावना को अनुभव करते हैं और उसे पूरी तरह अभिव्यक्त करते हैं, और अगले ही क्षण प्रसन्न हो जाते हैं। जो कुछ भावनाएं इस क्षण में  आप में उठ रही है, बस 100 प्रतिशत उसके साथ रहें।

उन्हें दिव्यता के साथ बांटे। उन्हें समर्पित कर दें। इसका अभ्यास करें। तब आप चिंतित नही होंगे।
आध्यात्मिकता के पथ पर आप के पास प्रचूरता होगी। इसका संतुलन बनाएं - इतना विश्वास रखें कि जो भी आपको मिलेगा उसे आगे देना है, आलसी ना बनें।

आध्यात्मिक जीवन आपको प्रभावशाली बनाता है और शक्तिशाली कर्मों में लगाता है। यह कठोर श्रम से मुक्ति नही बल्कि गंभीर कार्य करने के लिये प्रेरित करता है।

क्यों खुश नहीं रहते पाते हम
आज, हर प्राणी प्रसन्न रहना चाहता है। चाहे धन, शक्ति और सेक्स जो कुछ भी आपको चाहिये वह प्रसन्नता के लिये ही चाहिये। हमें प्रसन्न रहने के लिये कुछ ना कुछ खोजना होता है। लेकिन उसे प्राप्त करने के बाद भी हम प्रसन्न नही होते।

एक विद्यालय जाने वाला विद्यार्थी सोचता है कि जब वह कालेज जाएगा तो प्रसन्न हो जायेगा, वह स्वतंत्र हो जाएगा। अब आप एक कालेज जाने वाले छात्र से पूछो कि क्या वह प्रसन्न है, वह सोचता है कि जब उसे कोई नौकरी मिल जायेगी तब वह प्रसन्न हो जायेगा।

एक ऐसे व्यक्ति से बात करो जो कि नौकरी में लगा हुआ है, आप देखेंगे कि वह एक जीवनसाथी की तलाश में है। जिसके पास जीवनसाथी है वह बच्चों के लिये सोच रहा है। जिनके पास संतान हैं उन से पूछो कि क्या वह प्रसन्न हैं तो वह कहेंगे कि जब तक बच्चे व्यवस्थित नही हो जाते वे कैसे प्रसन्न रह सकते हैं।
अब ऐसे किसी व्यक्ति से पूछो जो कि रिटायर हो चुका है और अपनी सभी जिम्मेदारियों को पूरा कर चुका है। अब वह उन दिनों की चाहत में खोया होगा जब वह जवान था। तनाव हर किसी के जीवन में अपना स्थान बना चुका है।

सभी का जीवन भविष्य में किसी तरह की प्रसन्नता की तैयारी कर रहा है। यह उसी तरह है कि पूरी रात सोने की तैयारी करते रहे लेकिन सो नही पाएं। जीवन कभी-कभी बहुत जटिल लगने लगती है। यहां पर प्रसन्नता है, दुख है, पीड़ा है, उदारता है, लोभ, राग और वैराग्य है। जब इतने सारे विपरीत मूल्य हो तो मस्तिष्क इन सबको संभाल नही पाता है और टूट जाता है।

ऐसे समय में गुरू काम आते हैं
जब व्यक्ति टूटने लगता है तब उसे ऐसी बुद्घिमता की आवश्यकता होती है जो उसे विपरीत समय में मार्गदर्शन दे सके। गुरु ही वह बुध्दिमता है। आप ने ध्यान दिया होगा कि जब आप किसी भी प्रकार की परेशानी में नही हो तब आप बहुत गहरी राय प्रकट करते हैं लेकिन यदि वही स्थिति आपके साथ हो तब वह सही नही लगती।
आपको पता है बुद्घि तभी प्रकट होती है जब कठिनाइयों से बाहर होते हैं। गुरु वही है जो किसी भी कठिनाई में नही है। वह कठिनाइयों को देखते है, उनके बीच में रहकर। गुरु एक सर्किट ब्रेकर की तरह है। जब आप जीवन को संभाल नही सकते, आपके गुरु आते हैं और आपकी रक्षा करते हैं ताकि आप संतुलित रह सको।

यदि कोई आपके साथ हो और लगातार इच्छाओं के लिये मजबूर कर रहा हो तो गुरु आपको शांति प्रदान करते हैं। आप अपनी सभी इच्छाएं और पीड़ा गुरु को समर्पित कर दें। गुरु प्राप्ति का अर्थ है सदैव विश्राम में रहना और मुस्कुराना, आत्मविश्वास से चलना, निर्भय होकर रहना और एक दृष्टि का होना, यही बुध्दिमता है।

खुद को और अपनी क्षमताओं को जानें
जीवन यात्रा है और सब से सुन्दर मांगलिक यात्रा है। जिन्दगी भर व्यक्ति भीड़ के पीछे भागता रहता है और एक दिन जीवन यात्रा समाप्त हो जाती है। जरा सोचिए इस जीवन यात्रा में, क्या पाया-क्या खोया? कौन अपना- कौन पराया? क्या कर रहे हैं-कहां जा रहे हैं? क्या जोड़ा और क्या साथ जाएगा? जिन्दगी में जिम्मेदारियां निभाएं, लेकिन जीवन का महत्व भी समझें।

भेड़-बकरियों की तरह जीवन न जीएं, जीवन जीने की कला भी सीखें। व्यक्ति का स्वभाव बदला जा सकता है, क्षमताएं विकसित की जा सकती हैं। आयु आपके लिए, आपके कार्य के लिए बाधक नहीं है। जैसे यात्री अपना रास्ता खोजता चला जाता है, आप भी आगे बढ़ते जाओ तो रास्ता दिखाई देता जाएगा। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाएंगे, सीखते जाएंगे आपकी क्षमता बढ़ती जाएगी। व्यक्ति में समस्या से पार जाने की कला स्वतः आती है। सीखने से आप बड़े होते हैं, जीवन में संतुलन आता है।

जिस व्यक्ति का मस्तिष्क सन्तुलित हो वह स्वयं पर नियंत्रण लगा लेता है, ऐसा व्यक्ति दुःख की घडि़यों में भी घबराता नहीं। विपरीत समय में भी दिल पर पत्थर रखकर आगे बढ़ने के बारे में विचार कर सकता है, विचार ही ज्ञान है। ज्ञान जब होश बनता है, उस स्थिति में विचार ही काम करते हैं। विचार आपको करना है कि जीवन क्या है, मैं कौन हूं, मेरी शक्ति क्या है?

स्वयं से बार-बार प्रश्न करो मैं कौन हूं? मेरी शक्ति क्या है? क्या शक्ति लेकर दुनिया में आया हूं? बन्द मुठ्ठी में हमारा भाग्य है, शक्ति है, हौसला है, हिम्मत है। जिन्दगी की यात्रा में विवेक का सहारा ही काम करेगा। यह यात्रा पंछी की उड़ान की तरह है, आसमान में कोई पगडंडी नहीं होती, हर पंछी अपने विवेक से उड़ता है।

अपनी महिमा को जानो, अपनी कद्र करना सीखो। अपनी तस्वीर खुद ही सजाओ, कोई दूसरा आपको संवारेगा ऐसा नहीं। स्वयं को स्वयं प्रशिक्षित करो, अपने व्यक्तित्व का निर्माण करो। तुम परमात्मा के हस्ताक्षर हो, तुम्हारे जैसा परमात्मा ने किसी अन्य को नहीं बनाया। अपने पर मान करो, अपने होने का आनन्द लो।
बच्चों को दबाव से मुक्त रखें

इस समय माता-पिता या तो अपने बच्चों को समय दे नहीं रहे होते हैं, या फिर जो समय दिया जा रहा है उसकी गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देते। बहुत सारे माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए इस कदर बेताब हो गए कि वे भूल ही गए कि शिक्षा के साथ कुछ और भी इस समय दिया जाना चाहिए। महानगरों में पेरेंट्स भूल गए कि बड़े लोग अपने व्यावसायिक कार्यो के कारण परिवार से कट गए और बच्चे पढ़ाई के कारण परिवार से दूर हो गए।

दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं। शिक्षा बोझ बन जाए तो आप पढ़ा-लिखा मजदूर ही तैयार कर रहे हैं। शिक्षा केवल बुद्धि से होकर न गुजरे। शिक्षित होते समय हृदय की भूमिका बनी रहनी चाहिए। अपनापन, संवेदनाएं ये सब हृदय का विषय हैं। केवल बुद्धि से गुजरकर बच्चे बहुत जल्दी व्यावसायिक हो जाते हैं। शिक्षा का बंधन उन्हें कभी मुक्त नहीं होने देगा। जिस दिन वे शिक्षा पूरी करके दो पैसे कमाने निकलेंगे, वे अजीब सा अकेलापन और दबाव महसूस करेंगे।

बच्चों को अच्छी शिक्षा देते समय मां-बाप केवल इनके प्रोग्रेस कार्ड ही न पढ़ें, उनके मन को भी पढ़ें। बच्च मां-बाप के लिहाज में बाहर से कुछ और कर रहा होता है तथा भीतर से वो कुछ और सोच रहा होता है। कई बार तो मां-बाप को दु:खी देखकर बच्चे मन ही मन प्रसन्न होने लगते हैं। इस मनोविज्ञान को यदि माता-पिता नहीं समझेंगे, तो वे बच्चों को कर्मचारी और खुद को प्रबंधक के रूप में स्थापित कर रहे होंगे। बच्च इस दबाव से मुक्त होने के लिए या तो विस्फोट करेगा या फिर और दबाव में आ जाएगा।

मन की आध्यात्मिक मांग पूरी करें
हमारे शरीर में दस इंद्रियां होती हैं। मेडिकल साइंस भले ही इन्हें महत्व न दे, उसके पास शरीर की लगभग हर बीमारी का इलाज भी हो सकता है, लेकिन रोग की एक सीमा के बाद चिकित्सा विज्ञान कह देता है कि अब हम कुछ नहीं कर सकेंगे। इसी लाचारी में अध्यात्म एक झलक दिखाता है और वह यह है कि हम अपनी इंद्रियों के प्रति जागरूक रहें।

इन इंद्रियों से पैदा होने वाली बीमारियों का इलाज चिकित्सा विज्ञान से कराएं, लेकिन फिर भी इतनी जानकारी तो रखें कि ये बीमारियां आई कहां से। दस इंद्रियों का एक राजा है मन। विज्ञान की दृष्टि से ढूंढें तो शरीर में इसका कहीं पता नहीं लगेगा, लेकिन अध्यात्म की दृष्टि से इसे पाया जा सकता है। इस मन की चाहत कभी खत्म नहीं होती। कबीर ने टिप्पणी की है- मन राजा नायक भया, टांडा लादा जाय।

है है है है है रही, पूंजी गयी बिलाय।। इंद्रियों का राजा मन व्यापारी बन गया और वह अपने विषय-भोग की सामग्री-सम्पत्ति गाड़ी में लादकर चल दिया। लोग उसे देखकर कह रहे हैं कि वाह! लाभ है, बहुत लाभ है और इससे मन बहुत खुश हो रहा है।

परंतु वह मूढ़ है, इन विषय-भोग-ऐश्वर्यो के चक्कर में पड़कर, उसने मानव जीवन के सत्कर्मो की पूंजी तथा साधन-भजन खो दिया। मन नियंत्रित हो सकता है साधन-भजन से। असल में उसे कुछ न कुछ तो चाहिए। उसकी मांग पूरी भी हमें ही करनी है। यदि उसे शून्य भी कर दें, तो भी वह खुश हो जाएगा। सक्रियता और निष्क्रियता उसकी मांग है। आप जो भी उसे देंगे, वैसा ही परिणाम आपको मिलेगा।

परिवार को प्रेम, स्नेह से जोड़ें
भारत में जब भी परिवार की बात आती है, संयुक्त परिवार और एकल परिवार की चर्चा जरूर होती है। मेरा लगभग रोज ही कुछ ऐसे लोगों से मिलना होता है, जो या तो संयुक्त परिवार के सदस्य हैं, या सिंगल यूनिट के मेंबर हैं। दोनों ही अपनी-अपनी स्थिति के खुशी या गम मुझे बताते हैं। अब समय आ गया है कि हम किसी एक में सुख की घोषणा नहीं कर सकते।

एक छत के नीचे 10 से 15 लोग रहें और घुटन महसूस करें तो फिर बेकार है। और एक छत के नीचे उसी घुटन के कारण बाहर निकलकर 2-4 लोग रहें, जैसा कि आज-कल रह रहे हैं और फिर भी प्रेमपूर्ण न हों, तो किस मतलब का। हर परिवार में एक सुख छुपा है और हर सुख में दु:ख छुपा है। इसलिए दोष संख्या को न दिया जाए। कारण ढूंढ़ा जाए रहन-सहन के तरीके में।

परिवारों में रहते हुए सुख-दु:ख के इतने खतरे नहीं हैं, जितने खतरे हैं प्रेम के अभाव के और ईष्र्या की मौजूदगी के। सुख-दु:ख के खतरे उतने नहीं हैं, जितना संकट उदासी का है। अधिक लोग हों, या कम लोग। परिवार में उदासी बिलकुल न आने दें। उदासी मिटाने का सरल तरीका है कि एक-दूसरे में प्रेमपूर्ण रुचि लें।
यदि आप बड़े हों तो आपका प्रत्येक व्यवहार स्नेहपूर्ण रहना चाहिए और यदि छोटे हों तो हर गतिविधि में आदर का भाव बनाए रखें। आपके द्वारा ली जा रही रुचि दूसरों में ऊर्जा भरे इसका ध्यान रखिए। उसे हस्तक्षेप न बना लें। घर में लीडर बनने की कोशिश बिलकुल न की जाए, बल्कि हर व्यक्ति महत्वपूर्ण है इस भाव को लगातार जगाया जाए।

संबंधों में शांति और प्रेम अक्षय रहे
आज भी अनेक लोग विवाह के पूर्व लड़के लड़की की पत्रिका मिलवाते हैं और विवाह तिथि के लिए मुहूर्त निकलवाते हैं। दोनों का उद्देश्य एक ही है कि बाद का दांपत्य सुखी रहे। तो इतना करने भर से क्या पति-पत्नी के बीच स्वर्ग उतर आएगा। ये शुभ के प्रति सावधानी है, जो रखनी भी चाहिए, परंतु अशुभ के प्रति असावधानी भी न रखें। परिवार अपने आप में एक अलग संसार है।

इसमें पति-पत्नी के रिश्ते अलग ही धारा में बहते हैं। आज अक्षय तृतीया है। विवाह के लिए यह बिना देखे का शुभ मुहूर्त है। आप भले ही पत्रिका मिलाकर या मुहूर्त देखकर विवाह कर रहे हों, इसमें तो कुदरत अपना काम करेगी, परंतु एक काम पति-पत्नी को स्वयं करना होगा और वह है अपनी-अपनी इच्छा को विलीन कर संयुक्त इच्छा को जन्म दें। अपने लिए  जीना छोड़ दें तो यहीं से दूसरे के लिए जीना आरंभ हो जाएगा।

यह रिश्ता अपने लिए अपेक्षा करने से अधिक दूसरे की अपेक्षाएं पूरी करने से सजता है। इसका श्रंगार है मांग-मुक्त हो जाना। इस संबंध के सारे फसाद ही मांग के कारण हैं। दोनों की अपनी-अपनी भावनाएं और विचार हैं। पढ़े-लिखे लोग विचार प्रधान होते हैं।

इस कारण इस रिश्ते में विचार मैंके भाव को प्रबल करता है। बुद्धि अपने प्रवाह में दूसरे से टकराती जरूर है। भावना के स्तर पर इस रिश्ते में टकराहट से बचा जा सकता है। इच्छा मुक्ति के लिए भावना सहयोगी तत्व है। अक्षय तृतीया के दिन यह भावना जरूर रखी जाए कि इस दिन बन रहे रिश्ते में दोनों के बीच शांति और प्रेम अक्षय रहे।

महान लोगों के सान्निध्य का लाभ ले
महान व्यक्तियों के सान्निध्य का जब भी अवसर मिले, वहां से खाली हाथ न लौटें और बिना उद्देश्य वहां जाएं भी नहीं। जो उन्होंने पाया है, उस जीवन के सत्य को टटोलने का प्रयास करें। अपनी कमजोरियों की पूरी जानकारी रखें और उनकी श्रेष्ठताओं से परिचित हो जाएं। श्रेष्ठों से मिलने का यह विधान है। सुंदरकांड में तुलसीदासजी विभीषण और श्रीराम को पहली बार मिलवा रहे हैं। इस अवसर पर लिखा गया है-नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचिर बंस जनम सुरत्राता।। सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा।।

हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूं। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षसकुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है। मैं आपका सुयश सुनकर आया हूं कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुख दूर करने वाले श्रीरघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए। पहले तो विभीषण ने अपनी कमजोरी बताई। इस जानकारी के बिना हम अपनी कमी की भरपाई कैसे कर पाएंगे। विभीषण ने श्री राम की दो विशेषताओं को व्यक्त किया है। ‘‘आरति हरन’’ दुख दूर करते हैं और ‘‘सरन सुखद’’ सुख देने वाले हैं। इन्हीं दो बातों को यश कहा है। हम दूसरों के दुख दूर करें और उन्हें सुख भी दें, इसी में हमारा यश है। विभीषण समझते थे कि श्रीराम जैसे महान व्यक्ति से क्या लिया जा सकता है, लंका में रहने का दुख यहां आकर मिटेगा। श्रीराम के सान्निध्य से बड़ा सुख और क्या हो सकता है।

सुख-दुख का अहसास मनुष्यता है
जानवर और इंसान में केवल यही फर्क नहीं है कि मनुष्य दो पैरों से चलता है। एक बड़ा फर्क है सुख-दुख के अहसास का। पशुता का एक अर्थ है अपने दुख से दुखी हो जाएं और अपने सुख से सुखी। लेकिन दूसरे के दुख से दुखी हो जाना और दूसरे के सुख से सुखी हो जाना मनुष्यता है। सुख दुख के कारण जब हम स्वयं पर केन्द्रित हो जाते हैं तो हम अपने सुख के लिए दूसरों की हानि करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं।

हमारे द्वारा किसी को जरा-सा भी दुख न हो, इस भाव से मनुष्यता आरंभ हो जाती है। दूसरों को दुख न हो इससे आगे का कदम है, दूसरों का हित कैसे हो। गीता में एक श्रेष्ठ संवाद है - सर्व भूतहिते रता:। प्राणीमात्र के हित में रति हो। जब दूसरों के हित में ही प्रियता हो जाए तब मनुष्यता कहलाएगी। कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि किस सीमा तक दूसरों का हित किया जाए। दरअसल, हमारी जितनी सामथ्र्य है, वह परहित में लगनी चाहिए।

परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाकर हमारे ऊपर यह जिम्मेदारी डाली है कि दूसरों को अपनी सीमा तक सुख पहुंचाया जाए। वैसे यह ध्यान रखें कि किसी को पूरी तरह से सुखी कर दें, यह असंभव है। देने वालों की उदारता ही नहीं, बल्कि ग्रहणकर्ता की पात्रता भी अहम भूमिका निभाती है। इसलिए हमारा ध्यान अपनी क्रिया पर रहे कि हम सुख पहुंचाने में गतिशील रहें। हमें अपने भीतर की मनुष्यता को जीवित रखना है, कम से कम इससे हम तो दुख से मुक्त हो ही सकेंगे।

सब संपत्तियों से बढ़कर है योग
हम तीन तरह की दौलत कमा सकते हैं। ये संपत्ति होती है जन, तन और धन की। धन वाली संपत्ति तो आसानी से समझ में आ जाएगी। तन की संपत्ति का अर्थ है स्वास्थ्य सुदर्शन होगा। और जन की संपत्ति का अर्थ है लोग हमारे जीवन में रहें और विपरीत समय आने पर हमारे काम आ जाएं। इन्हीं संपत्तियों की अपनी विपत्तियां भी हैं। इन्हें कमाने के बाद यदि बचाए रखने की कला नहीं आई तो ये ही विपत्तियां हैं।

सांसारिक जीवन में इन तीनों का यही सीधा-सा गणित है। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़े, थोड़ा आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न हो जाएं। वही संपत्ति असली है, जो विपत्ति के समय काम आए, खुद विपत्ति न बन जाए। मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी विपत्ति है मृत्यु। हम अन्य सारी विपत्तियों से निपट सकते हैं उन्हें टाल सकते हैं, पर मौत नहीं टलती। इससे निपटने का एक ही तरीका है इसका होशपूर्वक स्वागत किया जाए।

हमने जो जीवन भर कमाया है वह मौत रूपी विपत्ति में काम नहीं आएगा। सारा धन यहीं पड़ा रह जाएगा। एक व्यक्ति साथ नहीं जा सकता यानी संगी-साथी भी यहीं धरे रह जाएंगे। और बड़े जतन से संभाला हुआ शरीर भी यहीं छूट जाएगा। बल्कि सबसे ज्यादा दुर्गति इसी की होने वाली है।

जब सबसे बड़ी विपत्ति मौत में यह संपत्ति काम नहीं आएगी तो फिर ये असली संपत्ति कैसे हुई? फिर वो कौन-सी संपत्ति हो जो मौत के बाद भी हमारे साथ जा सके। और ऐसी संपत्ति मिलेगी अध्यात्म जगत में। इसे योग कहें, योग के जरिये इसे कमाया जाएगा और इसे हम मौत के आगे ले जा सकेंगे।

धर्म को पथ प्रदर्शक मानकर चलें
विज्ञान का उपयोग करते समय अपने भीतर के दुख को जरूर मिटा दें। दुखी व्यक्ति विज्ञान का दुरुपयोग घातक रूप से करता है। वह दूसरों को भी दुखी देखना चाहता है। विज्ञान ऐसे में उसके लिए हथियार बन जाता है। युद्धों में शस्त्रों का उपयोग इसका उदाहरण है।

दूषित चित्त के लोग दूसरों के जीवन से ही खिलवाड़ शुरू कर देते हैं। जब हम विज्ञान को धर्म से अलग करते हैं, तब ऐसे खतरे बढ़ते हैं। धर्म सिखाता है कि प्रकृति परमात्मा की प्रतिनिधि है और हम सब उसका अंशमात्र हैं। यह भाव आते ही विज्ञान का आक्रामक भाव नियंत्रित हो जाता है। हम सब किसी एक परमशक्ति का अंश हैं तो फिर विज्ञान का सहारा लेकर स्वयं पर प्रहार कैसे कर सकते हैं? सभी धर्मो ने एक परिभाषा स्वीकार की है कि सबके भीतर परमतत्व एक ही है।

जो सबको परमात्मा का अंश मानता है, उसके लिए एक प्यारा आध्यात्मिक शब्द है समदर्शी। सबके अंदर भगवान है यह मानना थोड़ा ऊंचा विचार है। इस विचार को थोड़ा परिवर्तित कर स्वीकार करें। ऐसा मानें कि भगवान सबके हैं। यानी सब परमात्मा के हैं। जब सब परमात्मा के हैं तो फिर भेद कैसा? इस भाव के साथ विज्ञान का उपयोग होने पर उसकी हितैषिता बढ़ जाएगी।

धर्म को अपना पथ प्रदर्शक मानकर चलें तो विज्ञान अपने ऊपर लगे आरोपों से सहज ही बच सकता है। धर्म भी इस सिद्धांत से परे होगा तो उतना ही घातक होगा, जितना अनियंत्रित विज्ञान। दूसरों के भीतर परमात्मा देखने पर आप खुद का भी सम्मान बढ़ा रहे होते हैं।

परनिंदा और शंका को त्याग दें
दो दुगरुण ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य सद्गुण मान लेता है। पहला है निंदा करना और दूसरा है किसी पर शंका करना। हमें ध्यान रखना चाहिए कि दो काम एक साथ न करें, होंठ हिलाना और कान लगाना। एक का संबंध निंदा से है दूसरे का शंका से। ज्यादातर अवसरों पर निंदा करते समय हमारा अहंकार पीछे काम कर रहा होता है। ध्यान रखें, जिसकी निंदा की जा रही होती है उसे ज्ञात या आभास हो जाता है, क्योंकि निंदा पीठ पीछे ही की जाती है।

जिसकी निंदा होती है, वह यह बात दिल में जरूर रखेगा। आप तो अहंकारवश निंदा कर गए, पर सामने वाला भी अपना बहीखाता खोल चुका होता है। वह इस आक्रमण का जवाब जरूर देगा। अपनी निंदा सुनकर वह बदले में आपकी निंदा ही नहीं करेगा, बल्कि इससे भी घातक प्रहार करने की तैयारी कर चुका होगा। यदि वह सक्षम नहीं हुआ तो कुतर-कुतरकर आपको नुकसान पहुंचाने की शुरुआत कर चुका होगा। अपनी शिकायत या असहमति को स्पष्ट रूप से मुंह पर व्यक्त कर दें, पर निंदा के प्रहार नुकसानदायक ही होंगे।

निंदा की वृत्ति जब बढ़ने लगती है तो शंकालु बना देती है। शंका में व्यक्ति दूसरों में वही देखने लग जाता है, जो वह देखना चाहता है। सामने वाले के सत्य से उसे लेना-देना नहीं रहता। संदेह की वृत्ति को सजगता से समाप्त करना चाहिए। जैसे निंदा करके हम स्वयं निंदित हो जाते हैं, वैसे ही शंका करके हम अपना भी विश्वास खोने लगते हैं। इन दोनों दुगरुणों से छुटकारा पाने का सरल तरीका है निष्कामता।

हमारे पूरे परिवार के हैं श्रीराम
हर परिस्थिति में मनुष्य अपनी तीन स्थितियों से गुजरता है; कर्ता, भोक्ता और साक्षी। पहली दो स्थितियों में रहते हुए तनाव होगा। उदासी, प्रसन्नता के अस्थायी आवेग भी इसी में आएंगे। पहले दो चरण भी आवश्यक हैं। लेकिन इन दोनों को तनावरहित बनाने के लिए साक्षी भाव रखें। साक्षी यानी स्वयं के जीवन को किसी फिल्म या नाटक की तरह देखना। श्रीराम और हनुमान यह कला जानते थे।

सुंदरकांड में श्रीराम की विभीषण से पहली भेंट हो रही थी। हनुमान साक्षी की तरह दृश्य देख रहे थे। विभीषण से उन्होंने पांच तरीके से प्रथम भेंट की है-अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।। दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयं लगावा।। प्रभु ने उन्हें दंडवत करते देखा तो वे हर्षित होकर तुरंत उठे। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया।

लक्ष्मण को पास बैठाकर श्रीराम ने भक्तों के भय को हरने वाले वचन बोले- हे लंकेश! परिवारसहित अपनी कुशल कहो। पहली बात तो श्रीराम अत्यंत हर्षित हुए। किसी से भी मिलें तो भेंट में प्रसन्न भी हों। दूसरी बात सामने वाले की बातों का सहानुभूतिपूर्वक श्रवण करें। तीसरी बात विभीषण को हृदय से लगाया।

यानी निकटता का आभास करें। चौथी बात भय को हरने वाले वचन बोले। और पांचवीं बात परिवार की कुशल पूछी। श्रीराम परिवार की चिंता करते थे। जो राम कभी ऋषि-मुनियों, साधु-संतों के थे; तुलसीदासजी ने हमारे ऊपर एक बड़ा उपकार यह किया कि उन्हें परिवार के राम भी बना दिया।

हम खुद के मालिक हो जाएं
इस संसार में हमें कई बातों की रक्षा करनी पड़ती है। आजकल आदमी सबसे ज्यादा चिंता धन की रक्षा की करता है। धनवान बनने की फिक्र से माया शुरू होती है और धनी बने रहने की चिंता पर खत्म भी नहीं होती। आपको धन बचाने की चिंता इसलिए भी करनी पड़ती है कि दूसरे भी तेजी से यही काम कर रहे हैं। आजकल सभी काम गति और संघर्ष मांगते हैं। सफलता परिवर्तनशील है, आप से छिनकर यह किसी समय दूसरे के पास भी जाएगी।

ऐसे ही धन गतिशील है; आपका ठिकाना छोड़ दूसरे के डेरे में जाने में देर नहीं करेगा। इसीलिए लोग धन रक्षा में बावले हो जाते हैं। उनकी चिंता दुख में बदल जाती है। यही कारण है कि धनी लोग भी पर्याप्त दुखी पाए जाते हैं। फिर कुछ लोगों का पेशा या आदत ही होती है दुखी लोगों पर नजर रखकर उनका फायदा उठाना। धन बचाने की अतिरिक्त फिक्र कहीं आपको ऐसे लोगों की चपेट में न ले ले। अत: धन तो बचाएं पर खुद को दुखी न करें। धन के साथ-साथ स्वयं की भी रक्षा करें।

हम धन पर अपना स्वामित्व जताते हैं, जबकि गहरे में सत्य यह है कि हम उसके पहरेदार हैं मालिक तो हो ही नहीं सकते। मालिकाना हमारा अपने पर हो सकता है। हम खुद के मालिक हो जाएं तो दुखी होने के अवसर कम होते जाएंगे। जैसे ही हम खुद के मालिक बनते हैं, मन हमारे नियंत्रण में आ जाता है और हम काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह जैसे अदृश्य लुटेरों के आक्रमण से बच जाएंगे। तो खुद के मालिक बनकर धन की पहरेदारी करें, तब धन आपको दुखी नहीं सुखी करेगा।

सुगंध या दरुगध हम पर ही निर्भर
कहा जाता है कि किसी को ठीक से पहचानना हो तो उसके व्यवहार पर ध्यान दो। मनोविज्ञान की एक विधि बॉडी लैंग्वेज से भी मनुष्य को पहचानने का दावा करती है। अध्यात्म विज्ञान मनुष्य के शरीर की सुगंध से उसे पहचानने की बात करता है। हर प्राणी के शरीर से एक गंध निकलती है। केवल नाक से सूंघने की बात करें तो गंध और दरुगध पकड़ में आएगी। इसी सुगंध विज्ञान के आधार पर श्वान द्वारा अपराधियों तक पहुंचा जाता है।

गंध के परमाणु पकड़े जा सकते हैं। गंध के मामले में हम अपनी स्थूल देह पर टिक जाते हैं। शरीर को स्नान कराकर इत्र-सुगंध से ओत-प्रोत कर लोग सुगंध की क्रिया पूरी कर लेते हैं। हम भूल जाते हैं कि इस स्थूल शरीर के भीतर जो सूक्ष्म शरीर है, उससे भी गंध के परमाणु निकल रहे हैं। अपने स्वरूप की तरह ही उससे निकलने वाली गंध भी सूक्ष्म स्तर की होती है। सांस लेना और निकालना इसी सूक्ष्म शरीर द्वारा नियंत्रित होता है।

इन्द्रियों की शक्ति भी इसी में समाहित है। स्थूल देह से निकल रही गंध को तो आज का विज्ञान पकड़ सकता है, पर ये कहां से, क्यों आ रही है इसके लिए अध्यात्म काम आएगा। मेडिटेशन का परिणाम हमारे सूक्ष्म शरीर से निकलने वाली गंध पर पड़ता है। हमारे भीतर ध्यान से एक शून्य का निर्माण होता है और इस शून्य से जो गंध विसर्जित होती है, वह सुगंध बन जाती है।

इस सुगंध का परिणाम शांति है, जो दूसरे भी महसूस कर सकेंगे। इसके विपरीत यदि हम ध्यान नहीं करते हैं तो हमारे भीतर शून्य की जगह भरपूर संसार होगा। यहीं से हमारी गंध में दरुगध का प्रवेश होगा। इसलिए ध्यान रखें कि हमारे भीतर जिस मात्रा में जो होगा, हम उतने ही सुगंध या दरुगध से भरे हुए होंगे।
मन का कंपन ध्यान करने से मिटेगा

चलते हुए जब शरीर लड़खड़ाता है तो हम सावधान हो जाते हैं। लड़खड़ाने के तीन कारण हो सकते हैं, या तो जमीन में गड़बड़ हो, धक्का लग जाए या फिर शरीर में दोष आ जाए। लड़खड़ाने का परिणाम शारीरिक हानि पहुंचाएगा। जब हम भीतर से लड़खड़ाते हैं तो इसे कंपन कहते हैं। मन के कंपन को मिटाने का नाम ध्यान है। मन घड़ी के पेंडुलम की तरह डोलता ही रहता है। कभी स्थिर नहीं रहता।

इसका अकंपन ही शांति है। मन में स्थिरता आते ही सुख-दुख से परे हटकर उन्हें भोगने की कला आ जाती है। जो लोग जीवन में शांति की खोज में हैं, उन्हें सुख-दुख के मामले में तटस्थ रहना ही होगा। सुख-दुख की सीधी-सी परिभाषा है-अपना, प्रिय, पसंद का, परिणाम हमें सुख पहुंचाता है और इसका विपरीत हमें दुख देता है। इनके अनुभव की एक नई मानसिकता हमें अपने भीतर पैदा करनी होगी।

मन का कंपन जब समाप्त होता है तो हम और हमारे भीतर कोई और है, ये दोनों अलग-अलग नजर आने लगते हैं। हम दृष्टा हो जाते हैं, अपनी ही गतिविधियों के। यह कोई बहुत कठिन बात नहीं है। शरीर का लड़खड़ाना जब हम रोक सकते हैं तो मन का कंपन क्यों नहीं रोका जा सकता। इसे ही समाधि कहा गया है। समाधि का अर्थ लोग लगा लेते हैं कि बाहर से शरीर  शांत, भीतर क्या हो रहा लेना-देना नहीं। जबकि सही समाधि अवस्था है कि भीतर सब शांत, बाहर भले ही शरीर सक्रिय रहे।

हमेशा ही नहीं रहता संयोग या वियोग
मिलना और बिछुड़ना, संयोग और वियोग संसार में चलते ही रहते हैं। अपने प्रिय का संयोग सदैव नहीं रहता; अप्रिय भी हमेशा आपके साथ नहीं रहेगा। ऐसे ही वियोग भी होता है। प्रिय का वियोग होता है तो लोग पीड़ा महसूस करते हैं। कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसे सदैव प्रिय का संयोग मिला या हमेशा वियोग ही वियोग मिला। चाहा हुआ सदैव जीवन में आता नहीं और अनचाहा आ ही जाता है।

प्रिय, अनुकूल, मनमाफिक की चाह और इसके विपरीत की प्राप्ति दुख या क्लेश पैदा करती है। इस तरह से उत्पन्न सुख-दुख को समझना होगा, वरना हर संयोग-वियोग परिणाम में दुख दे जाएगा। संयोग-वियोग होते ही हमारी भावनाएं सक्रिय हो जाती हैं। उनमें आवेश आ जाता है। धीरे-धीरे यह आवेश तनाव में बदल जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि भावनाओं को हम स्वयं पर तथा दूसरे पर आरोपित करने लगते हैं। भावनाएं, ‘मैंकी हवा से फैलाव लेती हैं।

मैं यानी अहंकार। परिवार में अनेक रिश्ते होते हैं, हमें उनके कारण सदस्यों से संयोग होता है। कुछ लोग इस संयोग में भी दुखी हो जाते हैं। वियोग तो दुख देगा ही। दरअसल हमारी भावनाएं रिश्तों में अहंकार के साथ उतरती हैं। मेरी पत्नी, मेरा पति, मेरे बच्चे यह भाव हमारे अहंकार का विस्तार है। इसमें मैंऔर मेरा प्रधान है, जबकि इसमें प्रधानता प्रेम की होनी चाहिए। हम अहं को विस्तार देकर अपने रिश्ते बनाते हैं, इसे बदलें, प्रेम को विस्तार देकर संबंध रखें। फिर कोई भी रिश्ता हो, उसके संयोग और वियोग के परिणाम के अर्थ बदल जाएंगे।

काम के आधार पर अपनी छवि बनने दें
समाज में रहते हुए कई बार हमारी गतिविधियों से हमारी एक निश्चित छवि लोगों के मन में बन जाती है। हो सकता है आप बहुत ईमानदार हों, लेकिन आपकी कार्यशैली ऐसी होगी, व्यक्तित्व का प्रदर्शन इस प्रकार होगा कि लोग आपको गलत व्यक्ति मान लें। सारा झंझट छवि का है। जैसे राजनेता की पूंजी उसकी छवि है।

वे छवि पर ही चुनाव जीतते और हारते हैं। ऐसे ही अनेक लोग छवि को बनाए और बचाए रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। कई बार तो छवि का अति आग्रह कफन बनकर आपको ही ओढ़ लेता है। इसलिए छवि के आधार पर काम न करें। काम के आधार पर छवि बनने दें। अगर देखा जाए तो हम अपने आसपास के एक रंगमंच के अभिनेता हैं।

निर्देशन और पटकथा लेखन अज्ञात शक्ति ने कर रखा है। हम उस परमात्मा का चयन हैं। इसलिए स्वयं को अभिनेता मानें। अभिनेता दृश्य से ऐसा जुड़ जाता है, जैसे जीवन से जुड़ गया हो, लेकिन समय आने पर वो भूमिका से बाहर भी हो जाता है। गीता में इसी को निष्कामता कहा है। जमकर जुड़ना और पलभर में छिटककर दूर हो जाना, यह अभिनय की कला है।

अभिनय करते समय अभिनेता अपने सहअभिनेताओं की गतिविधि के प्रति सावधान रहता है। नाटक में एक अभिनेता यदि गलत चहलकदमी करे, तो दृश्य बिगड़ भी जाता है और निर्देशक निराश होता है। बस ऐसे ही जिंदगी की पटकथा ऊपर वाले ने लिखी है। प्रतिदिन उसकी निर्देशकीय अंगुलियां हमें इशारा कर रही हैं और हमें श्रेष्ठ अभिनय करते जाना है।

बच्चों में सद्गुण धीरे-धीरे उतारें
इस समय कम धन हो या अधिक, लोगों की रुचि प्रदर्शन में खूब बढ़ गई है। जिसके पास है और वह दिखावा करे तो समझ में आता है, लेकिन जिनके पास नहीं है, वे भी हैसियत के बाहर जाकर जमकर प्रदर्शन करते हैं। इन दोनों ही तरह के लोगों को ध्यान रखना चाहिए कि जब कभी वे अपने मौज-शौक का प्रदर्शन कर रहे हों, तो अपने सामने वालों की हैसियत पर जरूर ध्यान दें।

कहीं आपसे जुड़े लोगों को आपकी शो-बाजी से चोट तो नहीं पहुंच रही। यह आपके अहंकार द्वारा की गई एक हिंसा होगी। इस पाप का संताप किसी न किसी शक्ल में लौटकर हमारे ऊपर जरूर आएगा। खासतौर पर जब आप मां-बाप हों, तो अपने प्रदर्शन के शौक को अपने बच्चों के सामने जरूर नियंत्रित रखें। आपका तो शौक होगा, लेकिन बच्चे के लिए पतन का रास्ता बन जाएगा। कहते हैं दुर्गुण बहुत संक्रामक होते हैं।

आपकी यह गलत आदत तुरंत उनके हृदय में उतर जाएगी। जैसे दुर्गुण बहुत जल्दी ट्रांसमिट होते हैं, वैसे ही सद्गुण भी आरपार जाते हैं। बस सद्गुण में शोर नहीं होता और वे दुर्गुण की अपेक्षा किसी व्यक्ति में उतरने में समय अधिक लेते हैं। इसलिए कई बार निराशा होने लगती है। लेकिन यदि अपने बच्चों पर दीर्घ और स्थायी प्रभाव छोडऩा है तो सद्गुण धीरे-धीरे उनमें उतारें। कपूर में आग जल्दी लगती है, लेकिन बुझ भी शीघ्रता से जाती है। रूई और तेल या घी की बाती भले ही तुरंत न सुलगे, लेकिन देर तक जलती है। इसी प्रकार सद्गुगुणों का ट्रांसफर शीघ्रता से भले ही न हो, वह परिश्रम मांगेगा, लेकिन धैर्य न छोड़ें।

पति और पत्नी अच्छे श्रोता बनें
पति और पत्नी के बीच शिकायतों की जो सूची है, उसमें से एक शिकायत यह है कि या तो सुनते नहीं, या सुनने लायक बात को अनसुनी कर देते हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति अच्छा श्रोता होता है। पति-पत्नी के बीच रिश्तों का व्यापक संसार होता है। इस संसार में थोड़ा-सा आध्यात्मिक स्वाद उतर आए तो यह रिश्ता अलग अर्थ ले सकेगा। खासतौर पर शांति और तृप्ति के साथ। आज इस रिश्ते में अधिकांश जोड़ों के बीच अतृप्ति और अशांति बह रही है। इन दोनों को ही अच्छा श्रोता बनना पड़ेगा।

अध्यात्म कहता है अच्छे श्रोता शब्द से अधिक उसके पीछे के अर्थ को सुनते हैं। बाहर से शब्द पकड़ेंगे तो समझ लीजिए अखाड़े की मिट्टी पकड़ रहे हैं और सिवाय पहलवानी के कुछ नहीं कर पाएंगे। जब ये एक-दूसरे को सलाह दें या लें तो उसमें हित देखें। जब एक-दूसरे को डांट रहे हों तो उसमें भूल को पकड़ें। जब एक-दूसरे को कोस रहे हों, तो उसमें भावना को समझें।

पति-पत्नी के बीच कुछ स्वर ऐसे चलते हैं जिन्हें कानों से सुना ही नहीं जा सकता। इनके लिए हृदय को कान का काम करना पड़ता है। ये बहुत सूक्ष्म होते हैं। चूंकि संसार का मामला स्थूल है, बाहरी दिखावे पर टिका है और पति-पत्नी के बीच का संसार ही उनके लिए सब कुछ होता है, इसलिए दोनों ही उलझे हुए होते हैं। उनका शरीर और मन लगातार कोलाहल करते हुए दोनों की ऊर्जा को खा जाते हैं और ये थकान बाद में चिड़चिड़ेपन में बदल जाती है। इसलिए कुछ समय अपने बीच एक मौन को भी घटने दें।

दुर्गुणों की खरपतवार से बचें
गृहस्थी एक खेत की तरह है और हम सब अपने को किसान की भूमिका में रख लें तो एक सुंदर सबक हाथ लगता है। किसान और माली खरपतवार के मामले में बड़े सावधान रहते हैं। नई पीढ़ी के बच्चे खेत तक पहुंच ही नहीं पाते, इसलिए शायद खरपतवार का मतलब समझ भी नहीं सकते। लेकिन सर्वाधिक जरूरत उन्हीं को समझने की है।

ये वो छोटे-छोटे पौधे होते हैं, जो मूल फसल के लिए नुकसानदेह होते हैं। इनकी अपनी कोई उपयोगिता नहीं होती। समझदार किसान जानता है कि फसल को पानी देते समय फायदा खरपतवार न उठा ले, इसीलिए समय-समय पर वह उन्हें उखाड़कर फेंकता रहता है। यहां उखाड़ना एक बहुत महत्वपूर्ण क्रिया है। गृहस्थी के खेत में आप क्या-क्या बो रहे हैं, जितना महत्वपूर्ण यह है उससे ज्यादा जरूरी है क्या-क्या उखाड़ना है, इसे समझना होगा।

एक ही परिवार के सदस्यों के बीच सफलता की फसल में ईष्र्या की खरपतवार उग आती है। सुख की फसल के साथ अहंकार फैलने लगता है। इसलिए उन्हें उखाड़ने की समझ होनी चाहिए। घरों में ईष्र्या और अहंकार की खरपतवार त्याग और प्रेम से उखड़ेगी। इनकी जड़ तक जाइए। ईष्र्या की जड़ में जाएंगे तो पाएंगे कि वहां अगली ईष्र्या तैयार बैठी थी। जरा-सा हिस्सा जड़ का छोड़ देंगे तो ऊपरी सफाई के बाद तुरंत नया पनप जाएगा। इसलिए अच्छे किसान और समझदार माली की तरह खरपतवार को उखाड़ते रहें। अपने परिवार के खेत की फसल को हर हाल में दुगरुणों की खरपतवार से बचाना है।

जिम्मेदारी को जीवन से जोड़ लें
अपनी जिम्मेदारी का अहसास करना बहुत बड़ी समझदारी है। कुछ लोग जिम्मेदारी आते ही तनाव में डूब जाते हैं। जिम्मेदार लोग जब तनाव में डूबते हैं, तो उनसे जुड़ी पूरी व्यवस्था को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। जैसे ही कोई दायित्व मिले, अपने आपको चार बातों से जोड़ लें। पहली बात इस जिम्मेदारी को जीवन से जोड़ लें। जीवन से अधिक महत्वपूर्ण कुछ नहीं होता, यह अहसास होते ही जिम्मेदारी भी महत्वपूर्ण हो जाएगी। दूसरी बात इसे स्थायी मानें। स्थायी मानते ही दायित्वबोध और गहरा हो जाएगा।

तीसरी बात, आपका चयन इस कार्य के लिए हुआ है। अत: आप श्रेष्ठ हैं और यदि आप चूक गए तो अवसर की प्रतीक्षा दूसरे कर ही रहे हैं। चौथी बात, आपका चयन किसी के द्वारा किया गया है। वह अज्ञात शक्ति इसे पूरा करने में आपके साथ है। यहां से थोड़ा आध्यात्मिक होते जाएं। काम में आनंद लेना यहीं से शुरू होगा। इस दायित्व पथ पर अच्छा और बुरा दोनों से सामना होगा। अत: अच्छी से अच्छी चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी निभाने वाले भी माता-पिता का दायित्व निभाते समय थक जाते हैं, तनाव में डूब जाते हैं।

संतान अपने आप में चुनौती बन जाती है। परेशान न करने वाली संतान जिंदगी में मलमल के वस्त्र की तरह है। मुलायम वस्त्र आरामदायक और सुखदायक हैं, लेकिन सख्त औलाद टाट के खुरदुरेपन की माफिक हैं। कष्ट तो देगा यह वस्त्र, पर चमड़ी की मजबूती की परीक्षा भी यहीं होगी। रेशमी वस्त्र के अपने चर्मरोग हैं। इसलिए दायित्वबोध में अज्ञात शक्ति की उपस्थिति को बनाए रखें।

राम जप नर्क से मुक्ति का द्वार है
क्या आपको इस बात का ज्ञान है कि ज्ञानी होने के बाद भी आप अज्ञानी की तरह कोई गलत काम कर रहे हैं। ज्ञान का खतरा अहंकार है और इसी कारण अच्छे-अच्छे ज्ञानी अज्ञानी से अधिक अनुचित कर जाते हैं। ज्ञान में भक्ति का मिश्रण आवश्यक हो जाता है। भक्ति से जुड़ते ही ज्ञान अपनी सीमाओं का विस्तार कर लेता है। ज्ञानी स्वयं को जानता है, पर भक्ति आते ही वह समस्त को जानने में सक्षम हो जाता है।

ज्ञान मनुष्य को आत्मा तक ले जाता है और भक्ति परमात्मा तक। विभीषण ज्ञानवान थे। क्या गलत हो रहा है जीवन में उससे परिचित भी थे। हनुमानजी ने उनके ज्ञान में भक्ति का स्पर्श करा दिया था। परिणामस्वरूप वे श्रीराम तक पहुंच गए थे। श्रीराम ने एक भक्त क्या होता है, इसकी परिभाषा विभीषण के समक्ष प्रस्तुत की। उन्होंने दुष्ट के संग को नर्क से भी अधिक कष्टकारी बताया। बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।। अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया।

यानी, हे तात! नरक में रहना अच्छा है, परंतु विधाता दुष्ट का संग कभी न दे। विभीषणजी ने कहा- हे! रघुनाथजी अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूं, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है। कुसंग चलित नर्क है। जवाब में विभीषण कहते हैं- जीव को तब तक स्वप्न में भी शांति नहीं है, जब तक कि वह शोक का घर विषय-वासना को छोड़कर श्रीरामजी को नहीं भजता। इस नर्क से बचने का उपाय भी वे बताते हैं कि राम नाम जपा जाए। राम जप नर्क से मुक्ति का द्वार है।

जी भर कर जीने का नाम ही भक्ति है
माहिर लोगों को भी लगातार का फॉमरूला अपनाना पड़ता है। भक्ति की दुनिया में निरंतरता का बड़ा महत्व है। रोज नए-नए योग्य संसाधनों पर काम करते रहें। उपलब्धि पर चुप न बैठ जाएं, उसे भी रोज मांजना पड़ता है, क्योंकि उपलब्धि तो भोजन से भी जल्दी बासी और बेकार हो जाती है। भोजन के साथ ऐसा ही है या तो सही समय पर खा लो या ठीक ढंग से बचा लो। वरना दूषित भोजन और विष में क्या फर्क है।

पहला काम करें, नए संसाधन टटोलते रहें। अपनी कल्पनाशीलता को अच्छे लोगों से शेयर करें। अपने विजन को क्रिएटिविटी में बदलने में देर न करें। सुधार की गुंजाइश ढूंढ़ते रहें। हर सुधार हमें एक पायदान ऊंचा खड़ा करेगा और अंत में सबसे महत्वपूर्ण चाहे जो करें, पर अपनी मौलिकता न खोएं। लोग जितने मौलिक रहेंगे, उतना ही नीरसता से मुक्त रहेंगे। भक्ति को जीवन में इसलिए उतारें कि भक्ति के परिणाम में कड़ी मेहनत, समर्पण, लगन और सरलता आती ही है। भक्ति आलसियों का विषय हो भी नहीं सकती।

जमकर और जी भर कर जीने का नाम ही भक्ति है। इसलिए चाहे जिस क्षेत्र में आप हों, अपने भीतर का भक्त जिंदा रखिएगा। संसार या गृहस्थ जीवन को छोड़कर भागने या पलायन करने का नाम भक्ति नहीं है, बल्कि संसार में रहकर ही रूहानी, आध्यात्मिक, अलौकिक मस्ती को उतारने का अभिनव प्रयोग है। भक्त बादलों की तरह होता है। अथाह सागर परम परमात्मा से लेकर पूरी प्रकृति पर जल लुटाता है। हमें मिला तो सबको मिलेयह भक्त का नारा है।

बच्चों को विचारों से जीता जाए
बचपन तीन बातों के आसपास घूमता है। माता-पिता, वस्तुएं और शिक्षा। यहां तक तो माता-पिता नियंत्रण कर लेते हैं। फिर चौथी बात का प्रवेश होता है मित्रों का। इस दौर की मित्रता में मध्यस्थता वस्तुओं की होती है। खेल-खिलौनों के सेतु से बचपन की मित्रता एक-दूसरे तक पहुंचती है। यहीं से माता-पिता के सिरदर्द की घोषणाएं भी शुरू हो जाती हैं। अगर अपना बच्च शैतान हो, तो मां-बाप के क्रोध, नफरत, कोसने के पहले शिकार बच्चे के मित्र बनते हैं।

इसके साथ रहो, इसके साथ मत रहो, की नसीहत बच्चों पर पारायण की तरह शुरू हो जाती है। वह व्यक्तिगत पसंद में जीता है और माता-पिता नीतिगत नसीहतों में। मां-बाप और बच्चों की खुलकर टकराहट के शिकार मित्र बनते हैं। यहीं सावधानी रखनी होगी। मित्र वह आवश्यक बुराई है जो आए बिना मानती नहीं और आ जाए तो जाती नहीं। अध्यात्म में कहा गया है संसार को वस्तु नहीं, विचार मानें।

संसार यदि विचार है, तो हम संसार में रहेंगे, पर यदि केवल वस्तु है, तो संसार हमारे भीतर रहेगा। बच्चे के मित्रों से संबंध भले ही वस्तु से शुरू हों, पर समझदार मां-बाप उनमें विचार डाल देते हैं। बच्चों की दुनिया जानने का सही तरीका वस्तुएं नहीं, विचार हैं। विचारों में प्रोत्साहन, प्रेरणा, प्रेम, परंपरा, पूजा और पारदर्शिता बनाए रखें। बच्चों को विचारों से जीता जाए। इसमें बच्चों के मित्रों के मां-बाप से मिलना भी शामिल है। उनसे सही जान-पहचान, बच्चे के मित्र का भी सही परिचय होगा।

पसंद और उपयोगिता पर ध्यान दें
सभी चाहते हैं घर में शांति बनी रहे। कई बार तो लोग शांति प्राप्त करने के दबाव में ही ज्यादा अशांत हो जाते हैं। सफलता और यश कमाने में लगे व्यस्त लोग अपने घरों में पीछे छूटे सदस्यों में शांति के लिए कई किस्म के हथकंडे अपनाते हैं। व्यस्त पुरुष ज्यादातर यह करते हैं कि अपने घर की स्त्रियों को कोई ऐसा काम थमा देते हैं, जिसमें वे उलझ जाती हैं। उनके इस डाईवर्जन को लोगों ने शांति मान लिया है, लेकिन यह शांति की परछाई हो सकती है। लोगों ने इसे ही मूल काया मान लिया है। प्रेम और शांति की भरपाई लोग वस्तुओं से भी करते हैं।

आज की जिंदगी में तो बाजार खुला है और वस्तुएं बिखरी पड़ी हैं। लोग इसी बाजार में शांति की खरीदारी के लिए भी निकल जाते हैं। जो चीज भीतर उतरकर मिलती है लोग बाहर जेसीबी चलाकर खोदने के चक्कर में रहते हैं। जैसे सस्ती वस्तु जरूरी नहीं कि संतुष्टि प्रदान कर दे। खरीदारी में पसंद और उपयोग का महत्व है। आज खरीद में उत्तेजना से काम लिया जाता है। वस्तुओं के विज्ञापन इसी मनोविज्ञान पर तैयार किए जाते हैं। ऐसे में शांति खरीदना हो, तो बाजार की किस टेक्निक का उपयोग करें।

इस सवाल का उत्तर मालूम करना बेहतर होगा। पसंद और उपयोगिता पर ध्यान दें। जिसे आप किसी के लिए शांति मान रहे हों, वो कहीं अशांति का कारण तो नहीं है। जिस किसी को और जहां कहीं भी आप शांति देना चाहें, पसंद और उपयोगिता को भीतर, दिल में टटोलें, अपने और दूसरे के भी। इसे दिखावा, जल्दबाजी और सौदेबाजी से बचाएं।

ध्यान-एकाग्रता का दीपक जलाएं
शरीर   को बाहर से शक्ति मिलने के कुछ तयशुदा केन्द्र होते हैं। ये खान-पान, रहन-सहन और मेल-जोल के दायरे में आते हैं। बाहर की शक्ति भी आवश्यक है, लेकिन यह अर्धसत्य है। शक्ति के केन्द्रों का एक छोटा संसार हमारे भीतर भी बसा है। इन्हें पहचानना एक निजी मामला है। योग विज्ञान की दृष्टि में इन्हें आकाशीय शक्ति का क्षेत्र कहा गया है। यहां ईश्वर सर्वाधिक शक्तिशाली रूप में रहता है।

जब हम भीतर के इन केन्द्रों पर टिकते हैं, तो बाहर जीवन शव की तरह हो जाता है, अहंकाररहित, अशांतिरहित। हर जिम्मेदारी को निभाने में सक्रिय व सक्षम, परंतु परेशानी से दूर। इसे मृतवत स्थिति भी कहा गया है। इसी स्थिति को अपने प्रिय शिष्य अजरुन को समझाते हुए श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जब सारा संसार सोता है तो योगी जागता है और जब सारा संसार जागता है तो योगी सोता है यानी इन सांसारिक प्रपंचों से अलिप्त रहता है। आप मरे नहीं हैं, मरे जैसे हैं। अप्रभावित हैं दूसरों से, संचालित हैं स्वयं से।

हमारा अस्तित्व हमारा है, इसमें दूसरों की धक्का-मुक्की शामिल नहीं है। हमारी गति अपनी है, इसे दूसरों के झोंके प्रभावित नहीं कर सकते। हमारी निजी सत्ता इतनी प्रकाशमान होगी कि बाहर की जीने की राह में कभी अंधकार नहीं आएगा। इन भीतरी केन्द्रों पर ध्यान का, एकाग्रता का छोटा-सा दीपक जलाएं और सारे जगत को जगमगाता देखें। बाहर के शक्ति केन्द्रों पर अधिक टिक जाने को भटकाव और भीतर के केन्द्रों पर रुकने को सुलझाव कहेंगे।

हर समस्या पैसे से दूर नहीं होगी
कुछ लोग यह मानकर चलते हैं कि रुपए, पैसे से हर समस्या का समाधान होता है; पैसा फेंको और समाधान निकालो। लेकिन कुछ समस्याएं धन के दायरे से बाहर होती हैं। वहां व्यक्तिगत स्पर्श, भावनात्मक ध्यान और सही समय से ही काम चलेगा। पैसा मददगार हो सकेगा, पर पूरी तरह से समाधानकारी नहीं हो पाएगा। पैसे की अपनी ताकत होती है, लेकिन कुछ समस्याओं के समाधान में आपकी शक्ति से ज्यादा आपकी उपस्थिति काम आएगी। समस्याओं के कुछ देसी तरीके हैं, उन्हें भी आजमाना चाहिए।

भारतीय संस्कृति ने जीवन को बड़ी सूझ-बूझ से चार हिस्सों में बांटा है। ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। कुछ धार्मिक लोगों ने इसे केवल आयु और पहनावे से जोड़ लिया और कुछ भौतिक रुचि वालों ने धन से इसका संबंध बना लिया। लेकिन ऋषि-मुनियों ने इन चारों जीवन स्थितियों को रुचि प्रधान कहा। जीवन के इन चार कालखंडों में रुचि पर ध्यान दिया जाए। ब्रह्मचर्य अवस्था का सीधा संबंध विद्यार्थी जीवन से है। यहां की समस्याओं का निदान रुचि से पकड़ा जाए, जबकि लोग धन से निकालने की कोशिश करते हैं। इस काल में पालकों के सान्निध्य से संस्कार द्वारा समस्याओं का समाधान सही होगा। केवल धन से इस दौर की समस्याओं का हल खोजना उल्टा असमय ही इनमें भोग-विलास भर देगा। इसलिए भारतीय संस्कृति के तरीकों से रुचि पर काम करिए, हर बार पैसा लेकर निदान ढूंढऩे न निकलें।

जरूरी है सदस्यों की रुचि जानना
समस्या अपने साथ समाधान लेकर आती है। इस बात को ठीक से समझने वाले लोग अपने जीवन में कम परेशान होंगे। इसी स्तंभ में हम चर्चा कर चुके हैं कि हर समस्या का समाधान धन से नहीं हो सकता। ऋषि-मुनियों ने भारतीय जीवन को चार हिस्सों में बांटकर समस्या सुलझाने के अवसर दिए हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।

पिछली बार हमने ब्रह्मचर्य पर चर्चा की थी। इस बार सोचें कि गृहस्थ जीवन में यदि समस्याएं आएं, तो धन कितना महत्वपूर्ण है। गृहस्थी में धन हो तो संसाधनों के मामले में बहुत अच्छी चलती है, लेकिन गृहस्थी में यदि शांति लानी हो, तो जरूरी नहीं कि धन मदद करे। गृहस्थी में धन से अधिक रुचि से निदान निकालना चाहिए और रुचि में भी नीति देखी जाए। गृहस्थी में परिवार के सदस्यों की रुचि की सही जानकारी होना धन से भी अधिक महत्वपूर्ण है।

जैसे धर्म के लिए कहा जाता है कि इसकी यात्रा मनुष्य को अकेले करनी पड़ती है। भीड़ धर्म को संप्रदाय में बदल देगी, लेकिन गृहस्थ धर्म में अकेले यात्रा नहीं चलेगी। इसमें अन्य सदस्य भी हमारे साथ रहेंगे। अत: उनकी रुचि को ठीक से समझें, उसको नीति से जोड़ें और फिर धन से ऊपर रखकर उसका निदान निकालें। रुचि की पूर्ति करने के लिए सहयोग की वृत्ति रखें। लोगों को गृहस्थी में रुचि रहती है, लेकिन गृहस्थी के सदस्यों में रुचि नहीं रहती। धन से घर के सदस्यों का मुंह बंद करना चाहते हैं और इसीलिए उनके हृदय खाली रह जाते हैं।

अपने वानप्रस्थ को बर्फ जैसा बना लें
मनुष्य की उम्र और जीवन की स्थितियों के साथ समस्याएं भी रूप बदलती हैं। इस स्तंभ में हम विचार कर रहे हैं कि हर समस्या का समाधान केवल धन नहीं होता। इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने बड़ी बुद्धिमानी से जीवन को चार भागों में बांटा है। इनमें जब समस्या आए तो धन से अधिक रुचि से समाधान निकाले जाएं। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ये आयु के चार कालखंड बड़े योजनाबद्ध तरीके से बनाए गए हैं। इन्हें वर्णाश्रम भी कहा गया है। आज वानप्रस्थ की दृष्टि से समस्या के निदान पर विचार करेंगे।

उम्र की दृष्टि से यह संवेदनशील काल है। अपना गृहस्थ जीवन जीने के बाद अपनी संतानों की संतानें देखते हुए यह काल शुरू हो जाता है। जीवनभर की सक्रियता और निष्क्रियता यहां परिणाम देने लगती है। चूंकि आसपास की स्थितियां तो गतिशील होती हैं और शरीर शिथिल होने लगता है, ऐसे में एक उदासी माथे चढ़ने लगती है। वानप्रस्थ की आयु में अन्य तीनों आश्रम का भी स्वाद रहता है।

बच्चों के बीच रहते हुए ब्रह्मचर्य आश्रम याद आता है। अपनी संतानों की गृहस्थी देख अपना बीता दांपत्य स्मरण होता है और संन्यास की चाहत भी अंगड़ाई लेने लगती है। वानप्रस्थ की रुचि में भ्रम बहुत हो जाता है। इसलिए लोग सक्रियता त्यागने का नाम वानप्रस्थ मान लेते हैं। इसमें संसार छोड़ना नहीं है। संसार पकड़ने का तरीका बदलना है। अपने वानप्रस्थ जीवन को बर्फ जैसा बना लें। बर्फ का भूतकाल भी जल है और भविष्य भी पानी है।

असली संन्यास है विचार संन्यास
यदि हम पशु नहीं हैं तो इसका मतलब यह न समझ लिया जाए कि हम पूरी तरह मनुष्य हो गए हैं। हमारी श्रेष्ठता केवल इसमें नहीं है कि हम चार पैर से नहीं चलते। जन्म भले ही मनुष्य के शरीर में ले लिया हो, लेकिन मनुष्य के जीवन को जीने के लिए एक विशिष्ट परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। ऋषि-मुनियों ने भारतीय संस्कृति में जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास में इसीलिए बदला है।

इस स्तंभ में पिछले तीन जीवन खंड की चर्चा करते आए हैं। यहां धन से अधिक रुचि काम करती है और धीरे-धीरे रुचि को नीति में बदलना पड़ता है। मनुष्यता का सर्वश्रेष्ठ रूप संन्यास बन जाता है। संन्यास लेने के लिए गेरुए वस्त्र की ही जरूरत नहीं होती। अगर केवल वस्त्र पर टिकें तो यह व्यवहार संन्यास होगा। असली संन्यास विचार संन्यास होता है। एक संन्यासी की घोषणा होती है - मेरे भरोसे का जीवन।

फिर वह अपने जीवन को परमात्मा के भरोसे जीता नहीं, बहाता है। खासतौर पर बुढ़ापे में संन्यासी जीवन को जरूर उतारा जाए। इस समय मनुष्य जब अपनी यात्रा का समापन कर रहा होता है, तो उसे संन्यासी की उपलब्धि हासिल कर लेनी चाहिए। न जंगल भागना है, न कपड़े बदलने हैं, एक आंतरिक अंगड़ाई लेनी है और चारों आश्रम इसमें समा जाएंगे। इसके लिए वृद्धावस्था को धनवान होना जरूरी नहीं, जीवनभर खूब धन कमाया और संन्यास का भाव नहीं जागा, तो भी जिंदगी नर्क बन जाएगी और इसका उल्टा तो स्वर्ग है ही।

जब भी अवसर मिले साधुता को देखें
साधु कौन होता है, इस बात पर समाज में हमेशा टिप्पणियां उछलती रहती हैं। सच तो यह है कि साधु वह नहीं है जो चीजों को छोड़ता है, बल्कि वह है जिससे अपने आप चीजें छूट जाती हैं। जो भी जीवन में बेकार है, वह धीरे-धीरे स्वत: उससे छूट जाता है। उसका त्याग भी सहज है। साधु के त्याग में पुण्य कमाने की कामना नहीं रहती, वह केवल चेतना में जीता है। हम ऊपर से साधु को देखेंगे वह भी भोग-विलास में दिखेगा, लेकिन उसके भीतर दुगरुण छूट चुके होते हैं।

इसलिए जब भी अवसर आए हमें साधुता देखनी चाहिए। विभीषण के भीतर की साधुता उन्हीं के शब्दों में श्रीराम के सामने व्यक्त हो रही थी। तब लगि हृदयं बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना।। जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा।। लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेक दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकश धारण किए हुए श्रीरघुनाथजी हृदय में नहीं बसते। ममता तरुन तमी अंधियारी। राग द्वेष उलूक सुखकारी।

ममता पूर्ण अंधेरी रात है, जो राग-द्वेष रूपी उल्लुओं को सुख देने वाली है। वह तभी तक जीव के मन में बसती है,जब तक प्रभु का प्रताप रूपी सूर्य उदय नहीं होता। इन पंक्तियों में विभीषण कह रहे थे- परमात्मा की उपस्थिति एक प्रकाश है। साधु इसी आंतरिक प्रकाश में जीता है। बाहर से भले ही वह दुनियादारी में घिरा नजर आए, लेकिन भीतर भगवान उसके निकट रहते हैं और विभीषण सुंदरकांड में उसी निकटता को प्राप्त कर रहे थे।

जो वक्त पर काम आए वही अच्छा दोस्त
मनुष्य का आंतरिक गठन तीन तत्वों से होता है; सत्व, रज और तम। जब किसी को दोस्त बनाने जा रहे हों या किसी के दोस्त बन रहे हों तो इन तीनों का स्तर अपने और उसके भीतर जरूर जांच लें। आजकल मित्रता में अपनापन नजर नहीं आता। प्रलोभन और भय ये दोनों दोस्ती के तत्व बन गए हैं। गलत रास्ते पर ले जाने में ये दोनों बड़ा काम करते हैं। फिर नई पीढ़ी अभी चाहिएमें जीती है और मित्रता के परिणाम दूरगामी होते हैं। इसमें धर्य से काम लेना पड़ता है। कहते हैं कि अच्छा दोस्त वह होता है जो वक्त पर काम आए।

लेकिन अब लोगों के पास वक्त ही नहीं है तो कोई काम कैसे आएगा? लेन-देन की प्रवृत्ति वाले इस दौर में मित्रता के सहयोग, समर्थन और सहानुभूति वाले तत्व खत्म हो गए हैं। अध्यात्म कहता है सतोगुण का अर्थ है जीवन को सही करने की लालसा का बढ़ना। मित्रता में जितना सतोगुण होगा, दोस्ती उतनी हितकारी होगी। मित्रता में सद्गुणों के साथ सहानुभूति रखें। रजोगुण का मतलब है व्यावहारिकता।

काम-धंधा, कमाई, व्यवसाय रजोगुण से संचालित होते हैं। इसमें मित्रता सहयोगपूर्ण रहे। तमोगुण को मित्रता में स्थान न दें। जब हमारे व्यक्तित्व में तमोगुण बढ़ेगा, हम गलत बातों की ओर चलेंगे। वासनाएं यहीं से प्रबल होती हैं। दोस्तों को दोस्ती से बर्बाद यही गुण कराता है। आज स्त्री-पुरुष की मित्रता के खुल्लम-खुल्ला दौर में तमोगुण सारी मर्यादाएं तोड़ने को प्रेरित करता है। अत: मित्रता जैसी महत्वपूर्ण उपलब्धि इन तीन गुणों के आधार पर रखी जाए।

जैसा ईश्वर ने बनाया वैसे ही रहें
गंभीर व्यक्ति परिपक्व भी हो ऐसा जरूरी नहीं होता और परिपक्व लोग भी कभी-कभी गंभीरता का आवरण ओढ़ लेते हैं। ये दोनों गुण एक-दूसरे का मुखौटा बनने में काम आने लगे हैं। इन दोनों का मिला-जुला परिणाम है शांत होना। हम किसी भी स्थिति में हों, पर शांत जरूर रहें। गंभीर और परिपक्व लोग दूसरे से कटकर जीने में रुचि लेने लगते हैं। वे एकाकी रहने में शान समझते हैं, जबकि भीतर से शांत व्यक्ति सबसे घुलने-मिलने में संकोच नहीं करता। हम भीतर से जितना शांत होंगे, हमें अपने ही आकलन के लिए अधिक समय और अवसर मिलेगा।

बाहर की आपाधापी में हम यह जान ही नहीं पाते कि हम स्वयं क्या होने जा रहे हैं। हमें बचपन से सिखाया जाता है कि ऐसे बन जाओ, उनके जैसे हो जाओ। हम भी नकल करने में लग जाते हैं। यदि सफल नहीं हो पाते तो स्वांग रच लेते हैं। मुखौटा ओढ़कर मूल व्यक्तित्व को समाप्त कर देना आसान लगने लगता है। एक काम जीवन में जरूर करें और वह है अपनी निजता को प्राप्त हो जाना।

हमारे भीतर परमात्मा ने जन्म से कोई ऐसी बात जरूर डाली है, जो सिर्फ हम ही में है। उसे जीवन रहते जरूर प्राप्त करें। दूसरे उसकी ओर सिर्फ इशारा करेंगे, पर निरालीबात केवल हम ही अपने भीतर ढूंढ़ पाएंगे। न राम जैसा बनें, न कृष्ण जैसा बनना है, न केवल महावीर को पकड़ें, न केवल अन्य किसी व्यक्तित्व को ही, इन्होंने जो प्रक्रिया अपनाई उसे पकड़ें, उनके जैसा बनने की कोशिश न करें। जैसा ईश्वर ने हमें भेजा है, वैसे ही बनें।

धर्य और विवेक से हल होंगी समस्याएं
जब भी कोई समस्या आपके सामने आए उसे दो भागों में बांटकर देखें - इस समस्या में कितना व्यक्ति है और कितनी वस्तु है। व्यक्ति यदि समस्या के पीछे है, तो समाधान व्यवहारप्रधान होगा, क्योंकि मनुष्यों की हैंडलिंग उसका और आपका व्यवहार आड़े आएगा या सहयोगकारी रहेगा। अपने व्यवहार पर तो आप नियंत्रण कर लेंगे, पर सामने वाले के लिए आपका वश नहीं होगा। यहीं से आपके विवेक और धर्य की परीक्षा होगी। समस्या यदि वस्तु से संबंधित है तो उसमें कीमत, उपयोगिता और उसके प्रति आपकी जानकारी का मामला आएगा।

जब समस्या सामने आए तो यह भी ध्यान रखें कि क्या आपके पास उसका समाधान है। समस्या में समाधान छिपा होगा, पर क्या आप उसे ढूंढ़ने में सक्षम हैं। व्यक्ति के मामले में महत्वपूर्ण बात यह भी होगी कि वह आपसे समाधान चाहता भी नहीं है, वह सिर्फ आपको सुनाना चाहता है। आपको श्रोता बनाकर वह हल्का होकर खुद ही उसका समाधान ढूंढ़ने का मौका निकाल रहा होता है, लेकिन हममें से कइयों की आदत होती है समस्या सुनते ही व्यक्तियों के डॉक्टर या वस्तुओं के इंजीनियर बन बैठते हैं।

धार्मिक लोगों में एक बात देखी जाती है कि वे हर किसी की समस्या को धर्म से जोड़ लेते हैं। अपनी अयोग्यता या लापरवाही में भी भगवान को अटका देते हैं, जबकि धर्म यह सिखाता है कि आपके पास ऐसा विवेक होना चाहिए, जिसमें यह तय करें कि आपसे समाधान की अपेक्षा भी की जा रही है या नहीं।

गुस्से के मूल में सिर्फ मैंहोता है
कोई नहीं चाहता कि जिंदगी में कभी जहर-से संबंध बनें। जहरीले जीव-जन्तु, सड़ा-गला भोजन, कुछ बीमारियां या गलत दवाएं ये सब सामान्य रूप से विष के स्रोत माने जाते हैं। हम इनके प्रति सावधानी भी रखते हैं। लेकिन एक विष ऐसा है जिसे हम जाने-अनजाने रोज पी जाते हैं। इस विषपान के पीछे कोई कर्तव्य की दुहाई देता है, तो कोई स्वभाव का मामला बताता है। अधिकांशत: इसे लेकर दूसरों को दोषी बताते हैं। इस जहर का नाम है क्रोध। टुकड़े-टुकड़े आत्महत्या करने का नाम क्रोध है। हर क्रोधी व्यक्ति यह दावा करता है कि वैसे तो मैं शांत रहता हूं, पर जब कोई दूसरा गड़बड़ करता है तो मुझसे सहन नहीं होता।

दरअसल, ये सारे तर्क बेबुनियाद हैं। क्रोध का संबंध दूसरे से है ही नहीं, इसका पूरा लेन-देन मैंसे है। गुस्से के मूल में सिर्फ मैंहोता है। अब तो विज्ञान ने घोषणा की है कि क्रोधी मनुष्य के रक्त की जांच करवाएं तो इसमें विष के लक्षण पाए जाते हैं। यह तय है कि क्रोध खून को विषाक्त कर देता है और तीन बड़े नुकसान कर जाता है। बुद्धि कमजोर हो जाती है, शरीर की बीमारियों के सहने की क्षमता क्षीण होती है तथा हमारे लोगों से संबंध बिगड़ने लगते हैं।

क्रोध करके हम खुद को जहरीला बनाने की तैयारी कर रहे होते हैं। लाख कसमें खा लो, प्रण ले लो, प्रतिज्ञाएं कर लो कि अब कभी क्रोध नहीं करेंगे, पर ये कमबख्त जब आता है तो बस आ ही जाता है। इसलिए रोज थोड़ा-थोड़ा अपने मैंको गलाएं। ध्यान इसी मैंके विसर्जन की क्रिया है। मेडिटेशन करने वाले कम विषैले पाए जाएंगे।

बस थोड़ी देर विचार-शून्य हो जाएं
शरीर,   मन और आत्मा में से मनुष्य जितना अधिक आत्मा के निकट होता है, यह संसार उतना ही अधिक उसके लिए सरल हो जाता है। जो अपनी आत्मा को जान लेगा, उसके लिए दुनिया प्रकाशमान हो जाती है। आत्मा को जानने का अर्थ क्या होता है, इसमें बड़े-बड़े उलझ जाते हैं। सीधी-सी परिभाषा यह है कि जिन क्षणों में हम विचारशून्य होते हैं, उतने समय हम आत्मा के निकट होते हैं। विचार संसार लेकर आते हैं, संसार उलझन लेकर चलता है और इसी उलझन में अशांति बसी है।

लोग शांति की खोज में हैं, लेकिन आत्मा की निकटता नहीं करते। जब हम विचारशून्य होते हैं, तब हम परमात्मा के भी सही दर्शन कर पाते हैं। सुंदरकांड में श्रीराम के सामने खड़े होकर विभीषण ने कहा था - मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे।। तुम्ह कृपाल जा अनुकूला ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।। यानी, हे रामजी! आपके चरणारविन्द के दर्शन कर अब मैं कुशल से हूं, मेरे भारी भय मिट गए हैं।
हे कृपालु! आप जिस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते। यहां विभीषण ने दो बातें कही हैं - पहली तो यह कि आपके दर्शन हुए और दूसरा यह कि मुझे तीन प्रकार की तकलीफों से मुक्ति हुई। दरअसल वे विचारशून्य हुए, जो उन्हें हनुमानजी ने किया, तो वे लंका से मुक्त हुए और श्रीराम के दर्शन कर पाए। परम शक्ति के दर्शन हमें भी होंगे, बस थोड़ी देर विचारशून्य हो जाएं।

अपने बच्चों के श्रेष्ठ माता-पिता बनें
सभी माता-पिता अपनी संतानों से अपेक्षा करते हैं कि वे अच्छे बच्चे बनें, लेकिन लालन-पालन के दबाव में वे भूल ही जाते हैं कि ऐसी ही उम्मीद बच्चे भी कर रहे होते हैं। जिंदगीभर बच्चे यह न कहें, पर हमारे माता-पिता भी अच्छे बनें यह ख्याल उनके दिमाग में आते रहते हैं। बच्चों का अपरिपक्व मन आपसे जो चाहता है, वह सही रूप में व्यक्त नहीं कर पाता। वे झल्लाकर भले ही अपनी मांग रख दें, पर इसमें भी जो वे कहना चाहते हैं, कह नहीं पाते। समझना माता-पिता को ही पड़ेगा।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चों के साथ २४ घंटे में एक बार मिलकर भोजन करना चाहिए। कई घरों में सदस्य डिनर एक टेबल पर लेते हैं। इसी प्रयोग को ऋषि-मुनियों ने धार्मिक तरीके से बताया है। अपने घर में एक बार बच्चों के साथ सामूहिक प्रार्थना जरूर करें और उस प्रार्थना का एक हिस्सा ध्यान भी होना चाहिए। जब हम प्रार्थना करते हैं तो परमात्मा से उसका श्रेष्ठ ले रहे होते हैं और सामूहिक करने का फायदा यह होता है कि उस श्रेष्ठ का फिर हम आपस में बंटवारा कर लेते हैं।

माता-पिता बच्चों के लिए वह घाट हैं, जहां कभी भी बच्चे घुमा-फिराकर वापस लौटकर अपनी नाव बांध सकते हैं। बच्चे चाहते भी ऐसा ही हैं। पक्षी भी अपने बच्चों को जब पहली बार उड़ने के लिए घोंसले से रवाना करते हैं तो तैयारी कराते हैं। माता-पिता भी जब बच्चे को इस संसार में पहली बार उड़ान के लिए फेंकें तो उनके साजो-सामान की पूरी तैयारी करें। इसलिए श्रेष्ठ माता-पिता होने के लिए श्रेष्ठ ही करना पड़ेगा। सामान्य बनकर समझौता न करें।

सपने टकराएं पर लक्ष्य में भिड़ंत न हो
पति-पत्नी पर अनेक आदर्श वाक्य कहे गए हैं। किसी ने कहा है, एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं। ऐसा तो हो सकता है, लेकिन ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू तो नहीं हैं। दोनों अलग-अलग सिक्के ही हैं और हर सिक्के का दूसरा पहलू संतान है। स्त्री-पुरुष दांपत्य बंधन में बंधते ही एक मंजिल की ओर साथ चल पड़ते हैं, लेकिन यह साथ बहुत दिनों तक नहीं रह पाता। इसके साझेपन में कई दरारें आनी शुरू हो जाती हैं। मजेदार बात यह है कि मंजिल एक ही होती है, मसलन दोनों चाहते हैं परिवार अच्छे से रहे, संतान श्रेष्ठ बने।

एक-दूसरे को सुखी रखें। इन सबके बाद भी दोनों एक-दूसरे से पर्याप्त दुखी रहते हैं। मंजिल पर पहुंचने के नक्शे दोनों के हाथ में एक जैसे हैं, लेकिन उनके डायग्राम में फर्क है। चूंकि एक लक्ष्य पर पहुंचने के लिए दोनों सपने अलग-अलग देखते हैं और सपने से सपना टकरा जाता है। पति सोचे कि जैसा स्वप्न मेरा है, वैसा ही पत्नी का हो जाए। पत्नी विचार करे कि मेरे जैसे ख्याल मेरे जीवनसाथी के हो जाएं, तो यह कैसे संभव है और खासतौर पर पढ़े-लिखे पति-पत्नी के बीच।

इसलिए अपने-अपने सपनों को देखने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए, लेकिन अपनी मंजिल में साझेदारी जरूर करें। सपने टकराएं, पर लक्ष्य में भिड़ंत न हो। सड़क पर चलते हुए, पानी में तैरते हुए, पहाड़ पर चढ़ते हुए यात्रा एक जैसी होती है, पर तरीके तीनों के अलग-अलग होते हैं। लेकिन फिर भी लोग मंजिल पर पहुंच ही जाते हैं। पति-पत्नी की यात्रा भी इसी तरह होनी चाहिए।

अपनी मौलिकता को बनाए रखें
जब  भी हम किसी को सफल होने का ज्ञान बांटते हैं तो यह भी कहते हैं कि मौलिकता बनाए रखें। जो भी करें भीतर की मौलिकता खत्म न हो। जबकि इस समय नकल करना ही सफलता का लक्षण माना जाता है। कई बार नई पीढ़ी के बच्चे पूछते हैं- ये मौलिकता होती क्या है? मौजूदा समय में मौलिकता जैसी बातों की सोच ही खत्म होती जा रही है। मौलिकता का अर्थ है दूसरों की नजरों से अपना मूल्यांकन न करना।

हम जितने मौलिक होंगे, उतना ही दूसरों से विचलित कम होंगे। यदि आप भीतर से अधिक सुरक्षित हैं तो समझ लीजिए मौलिक हैं, पर यदि खुश रहने के लिए दूसरों की स्वीकृति ढूंढ़ रहे हैं तो हमारी मौलिकता खत्म हो रही है। यदि मौलिक बनना चाहते हैं तो चार काम करते रहिए- पहली बात, आपके जीवन में जानकारी के स्रोत कौन-कौन से हैं, इनके प्रति जागरूक रहना। दूसरी बात, कुछ आदर्श व्यक्ति जीवन में जरूर होने चाहिए। तीसरी बात, भविष्य का भय न रखें और चौथी बात, विनम्रता कभी न खोएं।

ये चार बातें हमें मौलिक बनने में मदद करेंगी। जब भी यह विचार उठे कि हम कौन हैं? तो इसके सारे उत्तर हमारे अपने हों। जितना हम दूसरों पर आधारित उत्तर ढूंढेंगे, उतनी ही अपनी मौलिकता खत्म करेंगे। अपने प्रति निष्पक्ष विचार रखने में जो साहस लगता है उस साहस का नाम मौलिकता है। संसार हमारे बारे में कोई राय व्यक्त करे, इससे पहले हम स्वयं तय कर लें तो मौलिकता शुरू होती है और इसे विनम्रता से इसलिए जोड़े रखें कि कई बार मौलिकता अहंकार में बदल जाती है।

परिवार का मतलब है सदस्यों का समूह
परिवारों में कुछ इस तरह की विपत्तियां आती हैं, जिन्हें आप दूसरों से व्यक्त नहीं कर सकते। काम-धंधे की परेशानी तो लोगों से छुपती नहीं है। लेकिन परिवार की झंझटें हर किसी से नहीं कही जा सकतीं। लोग अंदाज लगाने में भी कसर नहीं छोड़ते। कई लोगों की जिंदगी तो इसी में बीत जाती है कि दूसरों के घरों में क्या चल रहा है। जब परिवार पर विपत्ति आए तो ऐसे समय कभी भी अकेले निपटने की कोशिश न करें। परिवार का मतलब ही है सदस्यों का समूह। यदि विपत्ति को मिलजुलकर नहीं निपटा रहे हैं, तो समझ लें आप परेशानी को और बढ़ा रहे हैं।

परिवार की विपत्ति चूहे की तरह नहीं, चींटी की तरह प्रवेश करती है। सब मिलकर समाधान खोजेंगे, तो अलग-अलग दिशा में पहुंचकर उसे पकड़ सकेंगे। फिर परिवार में रहते हुए अकेले क्यों परेशान हों। घुटन से मुक्ति का नाम ही तो परिवार की सामूहिकता है। फिर भारत के परिवारों में तो एक और सुविधा है एक परमशक्ति-परमात्मा सदैव हमारे साथ है। ये गृहस्थी उसी का दिया प्रसाद है। ऊपर भगवान और नीचे घर के इंसान।
दोनों यदि आपके साथ हैं तो फिर क्यों अकेले ऊर्जा नष्ट करके परेशान हो रहे हैं। यदि समस्या आप पर आए तो सबकी मदद लें और यदि किसी दूसरे पर आए तो आप सबमें शामिल होकर उसकी सहायता करें। वे परिवार कभी नहीं टूटते और बिखरते जिनमें सब मिलकर समस्याएं निपटाते हैं। अपना हक मानें कि अपनी परेशानी में अपने ही परिवार के सदस्यों की मदद मांगें। बस, परमात्मा साथ में रखें।

ईश्वर का सबसे बड़ा मंदिर प्रकृति है
कुछ लोग मनुष्य से मनुष्य को अलग करने में माहिर होते हैं। जिन्हें शोषण करना होता है, वे मनुष्यता में अवश्य भेद करा देते हैं। रावण ने भी अपनी शक्ति का दुरुपयोग प्रकृति, मनुष्य और देवताओं को विभाजित करने में किया। उसके सामने जब श्रीराम आए तो उन्होंने इसका उल्टा किया। विभीषण ने श्रीराम की इसी विशेषता को देखा और सुन्दरकांड में टिप्पणी कर दी- मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।। जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयं मोहि लावा।।

मैं अत्यंत नीच स्वभाव का राक्षस हूं। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया। जिनका रूप मुनियों के भी ध्यान में नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया। इन पंक्तियों में पहले तो विभीषण ने अपने लिए दो बातें कहीं, एक तो मैं नीच हूं और दूसरा कभी शुभ आचरण नहीं किया। अब सवाल उठता है कि क्या ऐसे लोगों को भी परमात्मा मिल सकता है? क्योंकि विभीषण कहते हैं कि घोर तप करने के बाद भी ऋषि-मुनि आसानी से श्रीराम को नहीं पा सकते और वही श्रीराम विभीषण को सरलता से मिल गए। इसमें बहुत
अच्छा संदेश छिपा है कि परमात्मा अच्छे-बुरे का भेद नहीं रखते।

हम उन्हें मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर और गुरुद्वारे में भी बांधकर नहीं रख सकते। ईश्वर का कहना है कि मेरा सबसे बड़ा मंदिर प्रकृति है और प्रकृति भेद नहीं करती। अच्छे व्यक्ति में यदि संभावना नहीं है तो वह ईश्वर को नहीं पा सकता और बुरे में यदि संभावना है तो उसे भी परमात्मा मिल सकता है। 

धनदोष से मुक्ति के लिए जागरूक रहें
म अपनी उस आमदनी का हिसाब बारीकी से रखते हैं, जो धन में नापी जाती है। अपनी मेहनत और उससे मिल रही दौलत का हिसाब-किताब जरूर रखना चाहिए। हम इसे तो प्राथमिकता देते हैं कि धन आ कितना रहा है, पर यह भूल जाते हैं कि आ कहां से और कैसे रहा है। रोज रात को एक केश -बुक इस बात की जरूर तैयार की जाए कि कितना धन अच्छे उपायों से हासिल हुआ और कितनी राशि बुरे तरीके से कमाई गई। इस बात का हिसाब-किताब दैनिक रखें। भले से भले मनुष्य में भी धन पिशाच वृत्ति डाल देता है।

छोटी-मोटी हेराफेरी के लालच में धन अच्छे-अच्छे भक्तों को भी लपेट लेता है। आदमी यह भूल जाता है कि दो रुपए की हेराफेरी भी सूक्ष्म दृष्टि से उतनी ही बुरी है जितनी कि दो करोड़ की। इसलिए अपने भीतर के अच्छे और बुरे आदमी की एक केश-बुक मैंटेन करें। रोज इसका हिसाब जरूर लगाएं कि धन का कितना हिस्सा गलत तरीके से आया है। इसके कुप्रभाव पर जरूर नजर रखें।

जैसे किया हुआ भोजन अगले ८- घंटे तक अपना प्रभाव रखता है। ऐसे ही गलत विचार आगे ८- घंटे क्रियान्वयन के लिए सक्रिय रहते हैं। इसलिए आय के स्रोत गलत विचारों से न हों, रोज आकलन इसका भी करिए। इसीलिए हमारी संस्कृति में भोजन के पहले जैसे प्रार्थना का विधान रखा गया है। हम उस प्रार्थना में अन्न दोष से मुक्ति की भी कामना करते हैं। ऐसे ही धन दोष से मुक्ति के लिए भी जागरूक रहें, क्योंकि अन्नदोष की बजाय धन दोष के परिणाम ज्यादा घातक और दूरगामी होंगे।

अहंकार दूर करने के तरीके खोजें
सफलता  बड़ी मादक होती है। इसका नशा मनुष्य को आत्म विस्मृति में ले जाता है। सफल व्यक्ति के भीतर जब अहंकार बैठता है तो वह दूसरों के साथ-साथ खुद को भी भूलने लगता है। अहंकार इस नशे को और स्थायी बना देता है। अहंकारी व्यक्ति धीरे-धीरे अपनी सफल स्थिति से ऊबने लगता है। तब वह नए-नए केन्द्र खोजने लगता है। जैसे संसार में सफल व्यक्ति थोड़े समय बाद अपनी सांसारिक उपलब्धियों से ऊबने लगता है।

इसी कारण उसे अपनी लाइफ में मोनोटोनी नज़र आने लगती है। तब वह अहंकार का धार्मिक केन्द्र पकड़ लेता है। धार्मिक व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ होना चाहिए, लेकिन अहंकार इन्हें भी बीमार बनाता है। संसार का अहंकार दूसरों पर आक्रमण कराता है और धार्मिक क्षेत्र का अहंकार स्वयं पर प्रहार कराता है। सफलता अर्जित करने की राह नहीं छोड़नी है, संसार में आए हैं तो उपलब्धियां भी हासिल करनी चाहिए।

झंझट होती है अहंकार से। अहंकार गलाने के नए-नए तरीके खोजते रहने चाहिए। जीवन के साथ मृत्यु का विचार भी अहंकार गलाने में सहयोगी है। हम मौत के प्रति जितने सहज होंगे, हमारा अहंकार उतना कम होता जाएगा। मरना सबको है। मौत अच्छे-अच्छों की अकड़ निकाल देती है। आदमी में जीने के साथ मरने की चाहत भी छुपी रहती है। बुढ़ापे में लोग कहते भी हैं, इससे तो अच्छा मौत आ जाए। पर तब तक बहुत देर हो जाती है। यह तैयारी शुरू से सफलता के साथ रखी जाए। 

भीतरी सफाई से मिलेंगे परमात्मा
पानी  हमेशा ऊपर से नीचे बहता है। ऐसे ही अच्छी बातें हो या बुरी, पानी की तरह ही ऊपर से नीचे बहती हैं। अगर बुरा आदमी ऊंचाई पर खड़ा है, तो वह नीचे वालों में बुरी बातें आसानी से प्रवाहित कर देगा और यदि योग्य व्यक्ति ऊंचाई पर है, तो वह अच्छी बातें ऊपर से नीचे डाल सकेगा। इसलिए ऊंचाइयों पर अच्छे लोगों को पहुंचना होगा। श्रीराम ने साधु बनने का एक सरल उपाय विभीषण को बताया था।

सुनहु सखा निज कहउं सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करऊं सद्य तेहि साधु समाना।।

श्रीरामजी ने कहा- हे सखा!  सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूं, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य संपूर्ण जड़-चेतन जगत का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण में आ जाए और मद, मोह तथा छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे शीघ्र ही साधु के समान कर देता हूं।

पहली बात श्रीराम ने कही थी कि मेरी शरण में आने की तैयारी रखनी होगी। फिर श्रीराम कहते हैं- लोभ, मोह, छल तथा कपट त्याग दें। जैसे ही ये दुर्गुण हटे, श्रीराम कहते हैं, मैं ऐसे व्यक्ति को तुरंत साधु के समान बना देता हूं। यह घटना हमें सिखाती है कि परमात्मा की निकटता प्राप्त करने के लिए भीतरी सफाई बहुत आवश्यक है। यदि आप स्वयं यह कार्य न कर सकें, तो इतना भर कर लें कि भगवान की शरण में चले जाएं। शरणागत की जिम्मेदारी परमात्मा उठाते हैं।

शब्द फूलहैं और उनके अर्थ फल
असीम संभावना वाले अद्भुत वक्ता भी कई बार वाणी के मामले में चूक जाते हैं। सफलता इसमें नहीं है कि बोलते समय केवल शब्दों का उच्चरण कर दिया जाए। सफलता इसमें है कि वे शब्द जब लौटकर हमारे ऊपर आएं, तो हमें अशांत न करें। लोग जीवनभर जान ही नहीं पाते हैं कि अपनी अशांति का एक कारण अपने शब्दों का लौटकर आना है। बोलते समय शब्दों के मामले में चार बातों का ध्यान जरूर रखिए - पहला, अकारण न बोलें।

दूसरा, अप्रिय वाणी से बचें। तीसरा, अधिक न बोलें और चौथा, असमय वार्तालाप न करें। यदि ध्यान दें तो चौबीस घंटे में हम कुछ बातें अकारण ही करते हैं। अधिक बोलना तो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ही। जितना कम बोलेंगे, उतना अधिक सुने जाएंगे और असमय पर बिल्कुल ही न बोलें। आज की व्यावसायिक दुनिया में कब, कितना बोलना है यह भी एक प्रबंधन है।

गलत समय बोली गई सही बात भी उल्टी पड़ सकती है। इन चार स्थितियों में बोले गए शब्द जब पलटकर आते हैं, तब परिणाम में बोलने वाले को अशांत करते हैं। यदि हम अपने को एक वृक्ष की तरह मानें और वाणी के आधार पर चर्चा करें, तो शब्द हमारे फूल हैं और शब्दों के पीछे का अर्थ फल है। विचार जड़ों के रूप में काम करते हैं। जड़ें जितनी गहरी होंगी, वृक्ष उतनी ही ऊंचाई प्राप्त करेगा और उसके फूल व फल सूखेंगे नहीं। इसलिए शब्दों को विचार के स्तर पर ही परिष्कृत करें और संसार में उनके फूल और फल को ठीक रूप से आने दें।

गुणों के साथ दोषों को भी स्वीकार करें
ऐसा माना जाता है कि जिस भूमि पर लंबे समय तक फसल न उगाई गई हो और उस पर यदि फसल उगाई जाए, तो खूब पैदावार होती है। जहां पहले कई बार फसल ली जा चुकी हो, वहां उसके मुकाबले कम पैदावार होती है। परिवार के मामले में भी यह सूत्र लागू होता है। परिवार की जमीन पर हर सदस्य एक खेत की तरह है। कोई उपजाऊ तो कोई बंजर, कोई ऐसा उपजाऊ है, जहां फसल ली ही नहीं गई है।

यानी वहां संभावनाओं का और दोहन हो सकता है, लेकिन बंजर भूमि पर भी उसके अपने उपयोग किए जा सकते हैं। जो लोग परिवार के मुखिया हैं उन्हें ध्यान रखना होगा कि घर में धरती के हर हिस्से का उपयोग करते हुए उसकी फसल परिवार के काम में ली जाए। जैसे कि माता-पिता अपने बच्चों को उनकी तमाम खूबियों और खामियों के साथ स्वीकार करते हैं। खूबियों का वे उपयोग भी करते हैं। बच्चों की खूबियों में मां-बाप अपने भविष्य की सुरक्षा देखते हैं, लेकिन खामियों को वे नकारते नहीं। उसे परिष्कृत करने में लगे रहते हैं।

बड़ी से बड़ी दोषपूर्ण संतानें मां-बाप द्वारा जीवनभर स्वीकार की गईं, लेकिन जब संतान की बारी आती है तो वे इस तथ्य को भूल जाते हैं। वे मां-बाप की खूबियों का उपयोग तो करना चाहते हैं और अपने जीवन में करते भी आ रहे होते हैं, लेकिन जैसे ही मां-बाप की कमियों का मामला आता है, वे फिर स्वीकार नहीं करते, इसे स्वार्थ कहते हैं, क्योंकि अच्छाई और बुराई हर मनुष्य में है। गृहस्थी का सिद्धांत होना चाहिए कि इसमें जैसे भी स्वीकार करें गुण और दोष दोनों के साथ हो।

बच्चों को वंश परंपरा से परिचित कराएं
हमारे घर में जब संतान का जन्म होता है, तो परिवार के अधिकांश लोग प्रसन्न होते हैं। परिवार के कुछ सदस्य उस नई संतान में अपना भविष्य देखने लगते हैं। इसे बड़ा होकर ऐसा बनना है। अपने-अपने व्यवसाय के उत्तराधिकारी बनाने के लिए भी उस बच्चे की तैयारी शुरू कर दी जाती है। यदि वह योग्य न हो तो दबाव डालकर जबर्दस्ती उसे वैसा बनाने में माता-पिता जान लगा देते हैं। बच्चों को ऐसा लगने लगता है जैसे किसी कैदी का रूपांतरण किया जा रहा हो। यह सही है कि एक नवजात शिशु के पास केवल भविष्य होता है। जब बच्च जन्म लेता है, तो हम उसे केवल भविष्य से जोड़ते हैं।

जब वह जवान होता है तो उसके पास भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों होते हैं और बूढ़े के पास केवल भूत होता है, क्योंकि वर्तमान उसका खंडखंड होता है और भविष्य में उसे शून्य नजर आता है। इसलिए सब बच्चे पर टूट पड़ते हैं। उसे भविष्य में बहुत जोर से फेंकने की तैयारी की जाने लगती है। एक मासूम और अपरिचित को कुटिल और अनुभवी बनाने की शीघ्रता की जाती है। भारतीय संस्कृति संतुलन में विश्वास करती है। ऋषि-मुनियों का कहना है बच्चे का अतीत भले ही न हो, लेकिन वह भी माता-पिता का अंश है। उसको जन्म देते समय जो माता-पिता का वर्तमान रहा होगा, वही उस बच्चे का अतीत है और उससे उस बच्चे का जुड़े रहना जरूरी है। इसी को संस्कार कहा गया है। घर के पुराने दिवंगत सदस्य, बड़े-बूढ़े और वंश की परंपराओं से बच्चों को जरूर परिचित कराया जाए।

जीवन को व्यवसाय की तरह न देखें
परमात्मा ने जीवन के निर्माण में एक चीज बड़े कमाल की की है और वह है इसमें व्यर्थ कुछ भी नहीं दिया। व्यर्थ दिखने जैसी बातों में भी उसने एक सार्थकता भर दी है और एक संभावना छोड़ दी है कि देखने वाला हर व्यर्थ में कोई न कोई काम की बात देख सकता है। जो लोग इसमें चूक जाते हैं, वे फिर अपनी योग्यता का अधूरा उपयोग कर पाते हैं, बल्कि कई बार तो उनकी योग्यता उनके लिए परेशानी का सबब बन जाती है। इसीलिए ऐसा होता है कि जो कलाकार दूसरों को प्रसन्नता दे रहे होते हैं, एक दिन वे खुद उदास पाए जाते हैं।
दूसरों की बीमारी ठीक करने वाले डॉक्टर खुद तनाव की बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं। धर्म का उपदेश देने वाले साधु-महात्मा कभी-कभी खुद को अधर में पाते हैं। कई माता-पिता बच्चों से भी अधिक बचकाने काम करते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि ये सब जीवन के एक पक्ष पर टिक जाते हैं और अपने जीवन को व्यवसाय की तरह देखने लगते हैं। व्यावसायिक दृष्टिकोण केवल हित देखता है।

भले ही उस हित में उसका अहित चल रहा हो। लेकिन परमात्मा कहता है एकांगी चिंतन न करें, भौतिकता को स्वीकार करें, आध्यात्मिकता न छोड़ें। आध्यात्मिकता से जुड़ने पर भौतिकता न छोड़ें। मनुष्य जितना आत्मा है, उतना ही शरीर भी है, केवल किसी एक पर न टिकें। इससे हमारी योग्यता ही हमारी कमजोरी बन जाती है और तब हम दूसरों के गुलाम बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में सबसे बड़ा आक्रमण क्रोध, अहंकार और अशांति द्वारा किया जाता है।

दोषों को स्वीकार कर लेना समझदारी
अपने दोषों को स्वीकार कर लेना और उन्हें दूर करने में दूसरे की मदद लेना समझदारी है। जब हम घर के बाहर की दुनिया में होते हैं, तो सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण अपने दोष-प्रदर्शन को रोकते हैं। लोग क्या कहेंगे इसकी हमें बड़ी चिंता होती है, लेकिन ऐसी भावना जब हम घर में हों, तब न रखें।

घर के सदस्यों के सामने अपनी कमजोरियों को अकारण न बढ़ाएं। परिवार में ईष्र्या का पनपना सामान्य घटना है। मनुष्य के मन का स्वभाव है कि वह अपनों से ईष्र्या करने लगता है। अच्छाइयां आत्ममुग्ध करती ही हैं और मन उसमें अहंकार बढ़ाने का काम शुरू कर देता है। होना यह चाहिए कि घर में रहते हुए हम अपनी कमजोरियों को दूसरे सदस्यों के लिए हानिरहित बनाएं। परिवार में अपने दोषों के प्रदर्शन को न रोकें, उन्हें दूसरे सदस्यों के सामने आने दें। मन ऐसा करने से रोकता है। इसलिए वह दोषों को छुपाने के कई तरीके ढूंढ़ लेता है।

अपने ही लोगों की आलोचना करने के आधार बनाने लगता है। वह स्वयं को निर्दोष और दूसरों को दोषी बनाने में बड़ा माहिर होता है। किसी के पीठ पीछे चिंतन करना और उसमें उलझाकर मन हमें कहीं का नहीं छोड़ता है। ऐसे में घर परिवार में रहते हुए हम अपने दोषों के कारण हीन भावना में आ जाते हैं। इसलिए जब भी दोष निवारण के लिए मन बाधा पहुंचाए तो अपने परिवार के किसी वरिष्ठ सदस्य से जरूर जुड़ जाएं। उनका मार्गदर्शन हमें इससे मुक्त करने में काम आएगा। जरूरी नहीं है कि बाहर हमें इस तरह के अपने लोग मिल जाएंघर में तो इस अपनेपन का लाभ उठाया जा सकता है।

शुभ करने के लिए साहस की जरूरत
मित्रता का एक लक्षण है शुभ मित्र होना। आप व्यक्तिगत मित्र होते हैं। व्यवसायिक मित्र होते हैं। पारिवारिक मित्र होते हैं, लेकिन इन सबके ऊपर शुभ मित्र होने का प्रयास करें। शुभ मित्र का अर्थ है दूसरे के कल्याण की सोचना। मित्रता का एक दायित्व है और दायित्व बोध में यदि कल्याण का भाव न हो तो यह भी एक धंधा बन जाएगा। बचपन की दोस्ती निश्चल होती है। जब हम बड़े हो जाते हैं तो अपनी मित्रता के पीछे का बचपन टटोलते रहें, क्योंकि एक मचलता हुआ बच्चा हर उम्र में हमारे भीतर रहता है। वह अपनी जिद भी दिखाता है।

अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हमारे भीतर का यह बच्चा हमसे वैसे काम करा लेता है, जैसे किसी बड़े व्यक्ति से उम्मीद नहीं की जाती। जो व्यवहार हमें बचपन में छोड़ देना चाहिए, वह व्यवहार यह भीतरी बच्चा हमसे बड़े होने पर कराता है और हमें शुभ मित्र होने में बाधा लगती है। जब हम शुभ मित्र होकर दूसरों के लिए खतरे तक उठाने को तैयार हो जाते हैं, तब यह भीतरी बच्चा हमें डराने लगता है।

जब हम भौतिक संसार की उपलब्धियां हांसिल करने के लिए एक-दूसरे की मदद करने के लिए उतरते हैं तब यह हानि-लाभ के मामले में हमें बेकार की जिद में घसीटता है। यहीं से हम अशुभ मित्र बनने लगते हैं। हमें यह डरपोक भी बना देता है। किसी का शुभ करने के लिए बड़े साहस की जरूरत होती है। परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है तो शुभ मित्र बनना ही चाहिए। हमारे पीछे पूरी ऋषि परंपरा है। इसलिए शुभ मित्र बनने में देर न करें।

अपने प्रयासों को साहस से जोड़ें
गलती करने वालों को एक शब्द अपने जीवन में उतारना चाहिए और वह है साहसिक गलती। यदि आपको ऐसा लगता है कि आप कोई भी काम करने जाते हैं तो उसमें लाख सावधानी के बाद भी गलती हो ही जाती है। पर यहीं से एक परेशानी शुरू हो जाती है करें या न करें। किसी काम में उतरने के पहले ही हम सोच-विचारकर खुद को इतना थका लेते हैं कि उत्साह ही खत्म हो जाता है। फिर मरे-मरे से इस काम में उतरने पर गलतियां होनी ही हैं। अपने प्रयासों को जितना साहस से जोड़ेंगे, उतनी ही गलती कम होगी। जब भी कोई कार्य हाथ में लेते हैं, तो बाहरी रूप से हम संसाधन इकट्ठे कर लेते हैं। उससे संबंधित व्यक्तियों को जोड़ते हैं और तब काम में उतरते हैं।

उसी समय एक तैयारी अपने भीतर भी शुरू कर दें। बहुत कम लोग जान पाते हैं कि भीतर हिम्मत बिखरी-बिखरी रहती है। कभी-कभी हम कहते हैं अब पैरों में चलने की हिम्मत नहीं रही है। हाथों में ताकत नहीं रही है। यह बिखरी हुई हिम्मत है जो विभिन्न अंगों में फैली हुई है। इसे एकत्रित करें और पूरे साहस के साथ उस काम में कूद जाएं। यही साहस धीरे-धीरे आत्मविश्वास में बदल जाता है।

प्रतिबद्धता इसी हिम्मत से आती है। सफलता के फल केवल किनारे पर खड़े होकर हासिल नहीं हो सकते। जीवन की धारा में कूदना ही पड़ेगा और इस धारा के बहाव में साहस ही काम आता है। संसार के थपेड़े आपको ओंधा गिरा देंगे यदि भीतरी हिम्मत का सहारा नहीं होगा। इसलिए काम की शुरुआत में उत्साह जरूर बनाएं।

ईष्र्या को उदारता से समाप्त करें
जीवन में बुरे लोगों का संग और सामना नहीं करना चाहिए। यह एक आदर्श स्थिति है, लेकिन जीवन में जब बुरे लोगों का संग हो ही जाए या उनका सामना करना पड़े तो अपने भीतर के सदाशयी व्यक्तित्व को उजागर करें। बुरे लोगों का सामना दो तरीके से किया जा सकता है। या तो उन्हीं की तरह बुरा बनकर या फिर अपनी अच्छाई को और बढ़ाकर। कभी-कभी बुराई ऐसी शक्ल में आती है कि हम उसे पहचान ही नहीं पाते।

जैसे एक बुराई है ईष्र्या करना। हमारी जिंदगी में ईष्र्यालु लोग आ ही जाएंगे। आपकी प्रगति से उन्हें कोई लेना-देना न हो। आप उनके लिए हानिकारक भी नहीं होंगे, फिर भी उनके भीतर की ईष्र्या सक्रिय हो जाती है। ईष्र्या  की प्रवृत्ति वालों के प्रति खूब उदार हो जाएं। उनसे बचना मुश्किल हो तो बेकार में स्वयं को परेशानी में न डालें, क्योंकि हमारे भाग्य में अपयश और ईष्र्या लिखी ही होती है।

ऐसे लोगों के नेत्रों में हम ईष्र्या का भाव पढ़ भी लेंगे, पर अपनी उदारता का भाव न खोएं। वरना हम अपनी ही यात्रा में बाधा बन जाएंगे। थोड़ा भाग्य पर भरोसा रखें। इस बहस में न पड़ें कि कितना कर्म और कितनी किस्मत। ईष्र्या करने वालों को करने दें। हम अपने सौभाग्य के प्रति आगे बढ़ते रहें। उनके प्रति शत्रुता और वैर न पालें। वरना हमारे व्यक्तित्व में कुटिलता आ जाएगी। यदि हम चूकें तो ईष्र्यालु व्यक्ति कुछ समय बाद हमें उनके ही जैसा बना लेंगे और यह उनकी जीत हो न हो, हमारी हार जरूर बन जाएगी। इसलिए उनकी ईष्र्या को अपनी उदारता से समाप्त करें।

दुख में सहानुभूति ताकत होती है
संसार  में आपसी संबंध निभाते समय कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इनमें से वह वक्त बहुत कठिन होता है जब हमें किसी को कोई दुखभरी सूचना देनी होती है। बहुत सारे लोग तो इन स्थितियों से बचना ही चाहते हैं। वे हिम्मत ही नहीं जुटा पाते कि किसी को बुरी खबर सुनाएं। इसमें भी यदि किसी प्रियजन की असमय मृत्यु का समाचार देना हो तो शब्द ही नहीं निकलते। जीवन में जब कभी ऐसा समय आए तो घबराइए मत। उस सूचना को देने के पहले अपनी भूमिका तय कर लें। क्या हम इसमें केवल संदेश वाहक हैं या उस अप्रिय स्थिति के हिस्सेदार भी।

सहानुभूति, सहयोग और समाधान इन तीन बातों से हमारी भूमिका तय होनी चाहिए। खुद को समाचार पाने वाले की स्थिति में रखकर देखें। भले ही समाचार दुखभरा हो पर इसके पहले हमें स्वयं को भरपूर प्रेमपूर्ण कर लेना चाहिए। जब हम प्रेम में डूबे होते हैं तो दूसरों को अपने से ज्यादा मूल्यवान समझते हैं। दुख में सहानुभूति एक ताकत बन जाती है। जब हम केवल सूचना देने वाले होते हैं तो भले ही धैर्य रख लें, पर ऐसी घटना हमारे साथ हो तो हम धैर्य छोड़ देते हैं। इसीलिए भले ही हमारे साथ न बीती हो, पर जिसके साथ बीती है वह धैर्य छोड़ चुका है।

तब हम उसके लिए समाधानकारी बन जाएं। हो सकता है एक दिन जब हमारे ऊपर यह दुख टूटे, तो हम भी अपना धैर्य छोड़ चुके होंगे और दूसरे हमें वैसे ही धैर्य से समझा रहे होंगे। इसलिए दुख भरी घटनाओं को सुनाते समय पूरी तरह योजनाबद्ध होकर जाएं।

सारे संबंधों को परमात्मा से जोड़ दें
संसार के सारे संबंधों को परमात्मा से जोड़ देने पर हमें एक सुविधा मिल जाती है। उनके निर्वहन में उस परमशक्ति की भूमिका भी शुरू हो जाती है। विभीषण जब श्रीराम से मिले तो श्रीराम ने विभीषण से दस संबंधों को स्वयं से जोडऩे की बात कही थी- माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र, पत्नी, पति, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार। इन दस में सारी दुनिया सिमट जाती है। हमारा राग इन दसों में होता है। श्रीराम ने कहा संसार में रहते हुए इन सबसे रिश्ता तोडऩे की जरूरत नहीं है। इन्हें निभाएं पर साथ में पांच काम करें - सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम। ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।

पहला, जो सगुण भगवान के उपासक हैं। दूसरा, जो दूसरे के हित में लगे रहते हैं। तीसरा, नीति और चौथा नियमों में दृढ़ हैं तथा पांचवां जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं। विभीषण को श्रीराम तक पहुंचाया था हनुमानजी ने। इसलिए हनुमानजी के गुणों की अपेक्षा श्रीराम अन्य भक्तों से भी कर रहे हैं। भगवान के साकार रूप के उपासक का अर्थ है मनुष्य में भी परमात्मा देखना और तभी कोई दूसरों का हित कर पाएगा। यहां भगवान ने 'दृढ़शब्द का प्रयोग किया है। दृढ़ अनुशासन श्रीराम को बहुत पसंद है।
पांचवीं अपेक्षा उन्होंने की है ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम हो। इसका अर्थ है जो ब्रह्म के आचरण में जीते हों उनके प्रति लगाव अवश्य रखा जाए। श्रीराम विभीषण से  कह रहे हैं जिन हनुमान के आमंत्रण पर आप यहां आए हैं उनके जैसा आचरण भी आपको करना चाहिए।

अहंकार छोड़ कर्म करना श्रेष्ठ
आजकल हर कार्य में सफलता की घोर उम्मीद की जाती है और इसीलिए लोग तनाव में हैं। आधुनिक प्रबंधन रिजल्ट पर जोर देता है। हमारे ऋषि-मुनियों के प्रबंधन में मूल के प्रति आग्रह था। आज आपके मूल में क्या है इसकी चिंता नहीं पाली जाती। कार्यालयों में आपके निजी जीवन में किसी की रुचि नहीं है। रात आप कहीं भी काली करें, दिन में सफलता पाने में दक्ष होने चाहिए। चरित्र से किसी को लेना-देना नहीं है। सब प्रतिष्ठा के चक्कर में हैं। अध्यात्म प्रबंधन में भी अंत की बात कही गई है, लेकिन बड़ी सावधानी से। इसीलिए अध्यात्म प्रबंधन में हर प्रयास को समय से जोड़ा है। काल को परमात्मा का दर्जा दिया गया है।

इसमें समझाया जाता है कि जो भी काम करो उसका अंत क्या होगा इस पर जरूर निगाह रखना । इससे यह बात समझ में आ जाएगी कि सफल हो जाना अंत नहीं है। हर सफलता का भी एक अंत है। समय को कुछ लोग चक्र मानते हैं जो घूमता है, लेकिन ऐसा है नहीं। यदि गोल होता तो समय लौटकर आता। समय लंबाई में चलता है। जो छूट गया वह लौटकर नहीं आएगा और जो आने वाला है वह आकर रहेगा।

इसलिए कोई भी काम करें उसके अंत पर जरूर विचार करें। भारतीय संस्कृति ने तो जीवन के अंत पर इतना काम किया कि हमने मृत्यु को भी उत्सव बना दिया। भागवत  तो इसी पर केंद्रित है। यदि हर बात का अंत होना है, तो आरंभ में ही अहंकार छोड़ दें। कर्म पूरा करें और उस अंत को प्रसन्नता के साथ विदा करें। यहां से तनावमुक्त जीवन प्राप्त होगा।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

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