सिद्ध गोरक्षनाथ को
प्रणाम
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना
की प्रतिक्रिया के
रूप में आदिकाल
में नाथपंथियों की
हठयोग साधना आरम्भ
हुई। इस पंथ
को चलाने वाले
मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ
(गोरक्षनाथ) माने जाते
हैं। इस पंथ
के साधक लोगों
को योगी, अवधूत,
सिद्ध, औघड़ कहा
जाता है। कहा
यह भी जाता
है कि सिद्धमत
और नाथमत एक
ही हैं।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल
पर विद्वानों में
मतभेद हैं। राहुल
सांकृत्यायन इनका जन्मकाल
845 ई. की 13वीं
सदी का मानते
हैं। नाथ परम्परा
की शुरुआत बहुत
प्राचीन रही है,
किंतु गोरखनाथ से
इस परम्परा को
सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ
के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ
थे। दोनों को
चौरासी सिद्धों में प्रमुख
माना जाता है।
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ
भी कहा जाता
है। इनके नाम
पर एक नगर
का नाम गोरखपुर
है। गोरखनाथ नाथ
साहित्य के आरम्भकर्ता
माने जाते हैं।
गोरखपंथी साहित्य के अनुसार
आदिनाथ स्वयं भगवान शिव
को माना जाता
है। शिव की
परम्परा को सही
रूप में आगे
बढ़ाने वाले गुरु
मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा
नाथ सम्प्रदाय में
माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले
अनेक सम्प्रदाय थे,
जिनका नाथ सम्प्रदाय
में विलय हो
गया। शैव एवं
शाक्तों के अतिरिक्त
बौद्ध, जैन तथा
वैष्णव योग मार्गी
भी उनके सम्प्रदाय
में आ मिले
थे।
गोरखनाथ ने अपनी
रचनाओं तथा साधना
में योग के
अंग क्रिया-योग
अर्थात तप, स्वाध्याय
और ईश्वर प्रणीधान
को अधिक महत्व
दिया है। इनके
माध्यम से
ही उन्होंने हठयोग
का उपदेश दिया।
गोरखनाथ शरीर और
मन के साथ
नए-नए प्रयोग
करते थे।
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों
का आविष्कार भी
किया। उनके अजूबे
आसनों को देख
लोग अचम्भित
हो जाते थे।
आगे चलकर कई
कहावतें प्रचलन में आईं।
जब भी कोई
उल्टे-सीधे कार्य
करता है तो
कहा जाता है
कि 'यह क्या
गोरखधंधा लगा रखा
है।'
गोरखनाथ का मानना
था कि सिद्धियों
के पार जाकर
शून्य समाधि में
स्थित होना ही
योगी का परम
लक्ष्य होना चाहिए।
शून्य समाधि अर्थात
समाधि से मुक्त
हो जाना और
उस परम शिव
के समान स्वयं
को स्थापित कर
ब्रह्मलीन हो जाना,
जहाँ पर परम
शक्ति का अनुभव
होता है। हठयोगी
कुदरत को चुनौती
देकर कुदरत के
सारे नियमों से
मुक्त हो जाता
है और जो
अदृश्य कुदरत है, उसे
भी लाँघकर परम
शुद्ध प्रकाश हो
जाता है।
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के
हठयोग की परम्परा
को आगे बढ़ाने
वाले सिद्ध योगियों
में प्रमुख हैं
:- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि,
जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी
में इन्होंने गोरख
वाणी का प्रचार-प्रसार किया था।
यह एकेश्वरवाद पर
बल देते थे,
ब्रह्मवादी थे तथा
ईश्वर के साकार
रूप के सिवाय
शिव के अतिरिक्त
कुछ भी सत्य
नहीं मानते थे।
नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ
से भी पुराना
है। गोरखनाथ ने
इस सम्प्रदाय के
बिखराव और इस
सम्प्रदाय की योग
विद्याओं का एकत्रीकरण
किया। पूर्व में
इस समप्रदाय का
विस्तार असम और
उसके आसपास के
इलाकों में ही
ज्यादा रहा, बाद
में समूचे प्राचीन
भारत में इनके
योग मठ स्थापित
हुए। आगे चलकर
यह सम्प्रदाय भी
कई भागों में
विभक्त होता चला
गया।
महायोगी गुरु गोरखनाथ
महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं
शताब्दी अनुमानित) के एक
विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ
के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ
(मछंदरनाथ) थे। इन
दोनों ने नाथ
सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित
कर इसका विस्तार
किया। इस सम्प्रदाय
के साधक लोगों
को योगी, अवधूत,
सिद्ध, औघड़ कहा
जाता है।
गुरु गोरखनाथ हठयोग के
आचार्य थे। कहा
जाता है कि
एक बार गोरखनाथ
समाधि में लीन
थे। इन्हें गहन
समाधि में देखकर
माँ पार्वती ने
भगवान शिव से
उनके बारे में
पूछा। शिवजी बोले,
लोगों को योग
शिक्षा देने के
लिए ही उन्होंने
गोरखनाथ के रूप
में अवतार लिया
है। इसलिए गोरखनाथ
को शिव का
अवतार भी माना
जाता है। इन्हें
चौरासी सिद्धों में प्रमुख
माना जाता है।
इनके उपदेशों में
योग और शैव
तंत्रों का सामंजस्य
है। ये नाथ
साहित्य के आरम्भकर्ता
माने जाते हैं।
गोरखनाथ की लिखी
गद्य-पद्य की
चालीस रचनाओं का
परिचय प्राप्त है।
इनकी रचनाओं तथा
साधना में योग
के अंग क्रिया-योग अर्थात्
तप, स्वाध्याय और
ईश्वर प्रणिधान को
अधिक महत्व दिया
है। गोरखनाथ का
मानना था कि
सिद्धियों के पार
जाकर शून्य समाधि
में स्थित होना
ही योगी का
परम लक्ष्य होना
चाहिए। शून्य समाधि अर्थात्
समाधि से मुक्त
हो जाना और
उस परम शिव
के समान स्वयं
को स्थापित कर
ब्रह्मलीन हो जाना,
जहाँ पर परम
शक्ति का अनुभव
होता है। हठयोगी
कुदरत को चुनौती
देकर कुदरत के
सारे नियमों से
मुक्त हो जाता
है और जो
अदृश्य कुदरत है, उसे
भी लाँघकर परम
शुद्ध प्रकाश हो
जाता है।
गोरखनाथ के जीवन
से सम्बंधित एक
रोचक कथा इस
प्रकार है- एक
राजा की प्रिय
रानी का स्वर्गवास
हो गया। शोक
के मारे राजा
का बुरा हाल
था। जीने की
उसकी इच्छा ही
समाप्त हो गई।
वह भी रानी
की चिता में
जलने की तैयारी
करने लगा। लोग
समझा-बुझाकर थक
गए पर वह
किसी की बात
सुनने को तैयार
नहीं था।
इतने में वहां
गुरु गोरखनाथ आए।
आते ही उन्होंने
अपनी हांडी नीचे
पटक दी और
जोर-जोर से
रोने लग गए।
राजा को बहुत
आश्चर्य हुआ। उसने
सोचा कि वह
तो अपनी रानी
के लिए रो
रहा है, पर
गोरखनाथ जी क्यों
रो रहे हैं।
उसने गोरखनाथ के
पास आकर पूछा,
'महाराज, आप क्यों
रो रहे हैं?'
गोरखनाथ ने उसी
तरह रोते हुए
कहा, 'क्या करूं?
मेरा सर्वनाश हो
गया। मेरी हांडी
टूट गई है।
मैं इसी में
भिक्षा मांगकर खाता था।
हांडी रे हांडी।'
इस पर राजा
ने कहा, 'हांडी
टूट गई तो
इसमें रोने की
क्या बात है?
ये तो मिट्टी
के बर्तन हैं।
साधु होकर आप
इसकी इतनी चिंता
करते हैं।' गोरखनाथ
बोले, 'तुम मुझे
समझा रहे हो।
मैं तो रोकर
काम चला रहा
हूं तुम तो
मरने के लिए
तैयार बैठे हो।'
गोरखनाथ की बात
का आशय समझकर
राजा ने जान
देने का विचार
त्याग दिया।
कहा जाता है
कि राजकुमार बप्पा
रावल जब किशोर
अवस्था में अपने
साथियों के साथ
राजस्थान के जंगलों
में शिकार करने
के लिए गए
थे, तब उन्होंने
जंगल में संत
गुरू गोरखनाथ को
ध्यान में बैठे
हुए पाया। बप्पा
रावल ने संत
के नजदीक ही
रहना शुरू कर
दिया और उनकी
सेवा करते रहे।
गोरखनाथ जी जब
ध्यान से जागे
तो बप्पा की
सेवा से खुश
होकर उन्हें एक
तलवार दी जिसके
बल पर ही
चित्तौड़ राज्य की स्थापना
हुई।
गोरखनाथ जी ने
नेपाल और पाकिस्तान
में भी योग
साधना की। पाकिस्तान
के सिंध प्रान्त
में स्थित गोरख
पर्वत का विकास
एक पर्यटन स्थल
के रूप में
किया जा रहा
है। इसके निकट
ही झेलम नदी
के किनारे राँझा
ने गोरखनाथ से
योग दीक्षा ली
थी। नेपाल में
भी गोरखनाथ से
सम्बंधित कई तीर्थ
स्थल हैं। उत्तरप्रदेश
के गोरखपुर शहर
का नाम गोरखनाथ
जी के नाम
पर ही पड़ा
है। यहाँ पर
स्थित गोरखनाथ जी
का मंदिर दर्शनीय
है।
गोरखनाथ जी से
सम्बंधित एक कथा
राजस्थान में बहुत
प्रचलित है। राजस्थान
के महापुरूष गोगाजी
का जन्म गुरू
गोरखनाथ के वरदान
से हुआ था।
गोगाजी की माँ
बाछल देवी निःसंतान
थी। संतान प्राप्ति
के सभी यत्न
करने के बाद
भी संतान सुख
नहीं मिला। गुरू
गोरखनाथ 'गोगामेडी' के टीले
पर तपस्या कर
रहे थे। बाछल
देवी उनकी शरण
मे गईं तथा
गुरू गोरखनाथ ने
उन्हें पुत्र प्राप्ति का
वरदान दिया और
एक गुगल नामक
फल प्रसाद के
रूप में दिया।
प्रसाद खाकर बाछल
देवी गर्भवती हो
गई और तदुपरांत
गोगाजी का जन्म
हुआ। गुगल फल
के नाम से
इनका नाम गोगाजी
पड़ा। गोगाजी वीर
और ख्याति प्राप्त
राजा बने।
गोगामेडी में गोगाजी
का मंदिर एक
ऊंचे टीले पर
मस्जिदनुमा बना हुआ
है, इसकी मीनारें
मुस्लिम स्थापत्य कला का
बोध कराती हैं।
कहा जाता है
कि फिरोजशाह तुगलक
सिंध प्रदेश को
विजयी करने जाते
समय गोगामेडी में
ठहरे थे। रात
के समय बादशाह
तुगलक व उसकी
सेना ने एक
चमत्कारी दृश्य देखा कि
मशालें लिए घोड़ों
पर सेना आ
रही है। तुगलक
की सेना में
हाहाकार मच गया।
तुगलक की सेना
के साथ आए
धार्मिक विद्वानों ने बताया
कि यहां कोई
महान सिद्ध है
जो प्रकट होना
चाहता है। फिरोज
तुगलक ने लड़ाई
के बाद आते
समय गोगामेडी में
मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण
करवाया। यहाँ सभी
धर्मो के भक्तगण
गोगा मजार के
दर्शनों हेतु भादौं
(भाद्रपद) मास में
उमड़ पडते हैं।
नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक
गोरक्षनाथ जी के
बारे में लिखित
उल्लेख हमारे पुराणों में
भी मिलते है।
विभिन्न पुराणों में इससे
संबंधित कथाएँ मिलती हैं।
इसके साथ ही
साथ बहुत सी
पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ
भी समाज में
प्रसारित है। उत्तरप्रदेश,
उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत,
सिंध तथा पंजाब
में और भारत
के बाहर नेपाल
में भी ये
कथाएँ प्रचलित हैं।
ऐसे ही कुछ
आख्यानों का वर्णन
यहाँ किया जा
रहा हैं।
1. गोरक्षनाथ
जी के आध्यात्मिक
जीवन की शुरूआत
से संबंधित कथाएँ
विभिन्न स्थानों में पाई
जाती हैं। इनके
गुरू के संबंध
में विभिन्न मान्यताएँ
हैं। परंतु सभी
मान्यताएँ उनके दो
गुरूऑ के होने
के बारे में
एकमत हैं। ये
थे-आदिनाथ और
मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी
के अनुयायी इन्हें
एक दैवी पुरूष
मानते थे, इसीलिये
उन्होनें इनके जन्म
स्थान तथा समय
के बारे में
जानकारी देने से
हमेशा इन्कार किया।
किंतु गोरक्षनाथ जी
के भ्रमण से
संबंधित बहुत से
कथन उपलब्ध हैं।
नेपालवासियों का मानना
हैं कि काठमांडु
में गोरक्षनाथ का
आगमन पंजाब से
या कम से
कम नेपाल की
सीमा के बाहर
से ही हुआ
था। ऐसी भी
मान्यता है कि
काठमांडु में पशुपतिनाथ
के मंदिर के
पास ही उनका
निवास था। कहीं-कहीं इन्हें
अवध का संत
भी माना गया
है।
2. नाथ संप्रदाय के कुछ
संतो का ये
भी मानना है
कि संसार के
अस्तित्व में आने
से पहले उनका
संप्रदाय अस्तित्व में था।इस
मान्यता के अनुसार
संसार की उत्पत्ति
होते समय जब
विष्णु कमल से
प्रकट हुए थे,
तब गोरक्षनाथ जी
पटल में थे।
भगवान विष्णु जम
के विनाश से
भयभीत हुए और
पटल पर गये
और गोरक्षनाथ जी
से सहायता मांगी।
गोरक्षनाथ जी ने
कृपा की और
अपनी धूनी में
से मुट्ठी भर
भभूत देते हुए
कहा कि जल
के ऊपर इस
भभूति का छिड़काव
करें, इससे वह
संसार की रचना
करने में समर्थ
होंगे। गोरक्षनाथ जी ने
जैसा कहा, वैस
ही हुआ और
इसके बाद ब्रह्मा,
विष्णु और महेश
श्री गोर-नाथ
जी के प्रथम
शिष्य बने।
3. एक मानव-उपदेशक
से भी ज्यादा
श्री गोरक्षनाथ जी
को काल के
साधारण नियमों से परे
एक ऐसे अवतार
के रूप में
देखा गया जो
विभिन्न कालों में धरती
के विभिन्न स्थानों
पर प्रकट हुए।
सतयुग में वो
लाहौर पार पंजाब
के पेशावर में
रहे, त्रेतायुग में
गोरखपुर में निवास
किया, द्वापरयुग में
द्वारिका के पार
हरभुज में और
कलियुग में गोरखपुर
के पश्चिमी काठियावाड़
के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी)
में तीन महीने
तक यात्रा की।
4.वर्तमान मान्यता के अनुसार
मत्स्येंद्रनाथ को श्री
गोरक्षनाथ जी का
गुरू कहा जाता
है। कबीर गोरक्षनाथ
की 'गोरक्षनाथ जी
की गोष्ठी ' में
उन्होनें अपने आपको
मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती
योगी थे, किन्तु
अब उन्हें और
शिव को एक
ही माना जाता
है और इस
नाम का प्रयोग
भगवान शिव अर्थात्
सर्वश्रेष्ठ योगी के
संप्रदाय को उद्गम
के संधान की
कोशिश के अंतर्गत
किया जाता है।
5. गोरक्षनाथ
के करीबी माने
जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ
में मनुष्यों की
दिलचस्पी ज्यादा रही हैं।
उन्हें नेपाल के शासकों
का अधिष्ठाता कुल
गुरू माना जाता
हैं। उन्हें बौद्ध
संत (भिक्षु) भी
माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के
नाम से पदमपवाणि
का अवतार लिया।
उनके कुछ लीला
स्थल नेपाल राज्य
से बाहर के
भी है और
कहा जाता है
लि भगवान बुद्ध
के निर्देश पर
वो नेपाल आये
थे। ऐसा माना
जाता है कि
आर्यावलिकिटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने
शिव को योग
की शिक्षा दी
थी। उनकी आज्ञानुसार
घर वापस लौटते
समय समुद्र के
तट पर शिव
पार्वती को इसका
ज्ञान दिया था।
शिव के कथन
के बीच पार्वती
को नींद आ
गयी, परन्तु मछली
(मत्स्य) रूप धारण
किये हुये लोकेश्वर
ने इसे सुना।
बाद में वहीं
मत्स्येंद्रनाथ के नाम
से जाने गये।
6. एक अन्य मान्यता
के अनुसार श्री
गोरक्षनाथ के द्वारा
आरोपित बारह वर्ष
से चले आ
रहे सूखे से
नेपाल की रक्षा
करने के लिये
मत्स्येंद्रनाथ को असम
के कपोतल पर्वत
से बुलाया गया
था।
7.एक मान्यता के अनुसार
मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू
परंपरा का अंग
माना गया है।
सतयुग में उधोधर
नामक एक परम
सात्विक राजा थे।
उनकी मृत्यु के
पश्चात् उनका दाह
संस्कार किया गया
परंतु उनकी नाभि
अक्षत रही। उनके
शरीर के उस
अनजले अंग को
नदी में प्रवाहित
कर दिया गया,
जिसे एक मछली
ने अपना आहार
बना लिया। तदोपरांत
उसी मछ्ली के
उदर से मत्स्येंद्रनाथ
का जन्म हुआ।
अपने पूर्व जन्म
के पुण्य के
फल के अनुसार
वो इस जन्म
में एक महान
संत बने।
8.एक और मान्यता
के अनुसार एक
बार मत्स्येंद्रनाथ लंका
गये और वहां
की महारानी के
प्रति आसक्त हो
गये। जब गोरक्षनाथ
जी ने अपने
गुरु के इस
अधोपतन के बारे
में सुना तो
वह उसकी तलाश
मे लंका पहुँचे।
उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज
दरबार में पाया
और उनसे जवाब
मांगा । मत्स्येंद्रनाथ
ने रानी को
त्याग दिया,परंतु
रानी से उत्पन्न
अपने दोनों पुत्रों
को साथ ले
लिया। वही पुत्र
आगे चलकर पारसनाथ
और नीमनाथ के
नाम से जाने
गये,जिन्होंने जैन
धर्म की स्थापना
की।
9.एक नेपाली मान्यता के
अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी
योग शक्ति के
बल पर अपने
शरीर का त्याग
कर उसे अपने
शिष्य गोरक्षनाथ की
देखरेख में छोड़
दिया और तुरंत
ही मृत्यु को
प्राप्त हुए और
एक राजा के
शरीर में प्रवेश
किया। इस अवस्था
में मत्स्येंद्रनाथ को
लोभ हो आया।
भाग्यवश अपने गुरु
के शरीर को
देखरेख कर रहे
गोरक्षनाथ जी उन्हें
चेतन अवस्था में
वापस लाये और
उनके गुरु अपने
शरीर में वापस
लौट आयें।
10. संत कबीर पंद्रहवीं
शताब्दी के भक्त
कवि थे। इनके
उपदेशों से गुरुनानक
भी लाभान्वित हुए
थे। संत कबीर
को भी गोरक्षनाथ
जी का समकालीन
माना जाता हैं।
"गोरक्षनाथ जी की
गोष्ठी " में कबीर
और गोरक्षनाथ के
शास्त्रार्थ का भी
वर्णन है। इस
आधार पर इतिहासकर
विल्सन गोरक्षनाथ जी को
पंद्रहवीं शताब्दी का मानते
हैं।
11. पंजाब में चली
आ रही एक
मान्यता के अनुसार
राजा रसालु और
उनके सौतेले भाई
पुरान भगत भी
गोरक्षनाथ से संबंधित
थे। रसालु का
यश अफगानिस्तान से
लेकर बंगाल तक
फैला हुआ था
और पुरान पंजाब
के एक प्रसिद्ध
संत थे। ये
दोनों ही गोरक्षनाथ
जी के शिष्य
बने और पुरान
तो एक प्रसिद्ध
योगी बने। जिस
कुँए के पास
पुरान वर्षो तक
रहे, वह आज
भी सियालकोट में
विराजमान है। रसालु
सियालकोट के प्रसिद्ध
सालवाहन के पुत्र
थे।
12. बंगाल से लेकर
पश्चिमी भारत तक
और सिंध से
पंजाब में गोपीचंद,
रानी पिंगला और
भर्तृहरि से जुड़ी
एक और मान्यता
भी है। इसके
अनुसार गोपीचंद की माता
मानवती को भर्तृहरि
की बहन माना
जाता है। भर्तृहरि
ने अपनी पत्नी
रानी पिंगला की
मृत्यु के पश्चात्
अपनी राजगद्दी अपने
भाई उज्जैन के
विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम
कर दी थी।
भर्तृहरि बाद में
गोरक्षनाथी बन गये
थे।
13. गोरखनाथ
जी से सम्बंधित
एक कथा राजस्थान
में बहुत प्रचलित
है। राजस्थान के
महापुरूष गोगाजी का जन्म
गुरू गोरखनाथ के
वरदान से हुआ
था।
जो भी इसमें
अच्छा लगे वो
मेरे गुरू का
प्रसाद है,
और जो भी
बुरा लगे वो
मेरी न्यूनता है....
मनीष
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