नव-वर्ष में शांति से उठाएं पहला कदम
यहां जानिए उन लक्षणों को, जो अध्यात्म से जुड़े हुए व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। जिसे सही मायनों में उदारता और सांसारिक जीवन के नजरिए से ऐसा इंसान जिंदादिल भी कहा जाता है -
- दु:ख हो या सुख उसका व्यवहार और विचार संतुलित होते हैं। वह विपरीत हालात में घबराता नहीं है और नहीं सुख में अति उत्साहित होता है।
- वह दूसरों की गलतियां देखने, बुराई या ओछे विचारों से दूर रहता है और केवल गुणों और अच्छाईयों को ढूंढता और अपनाने की कोशिश करता है।
- व्यक्ति इतना सरल, सहज और निस्वार्थ हो जाता है कि वह अधिकारों के स्थान पर सिर्फ कर्तव्यों को याद रखता है।
- वह निर्भय होता है। वह मानसिक रुप से इतना जुझारू होता है कि इच्छाशक्ति से अपने लक्ष्य को पा लेता है।
- ऐसा व्यक्ति बहुत ही धैर्य और संयम रखने वाला होता है, जिसकी वजह से वह बुरी लतों और गलत कामों से स्वयं को भटकाता नहीं है।
आनंद आनंद सब कोई कहे, आनंद गुरु ते जानेयां।
नया वर्ष, नया समय, नए निर्णय, नए सपने और उन्हें पूरा करने के लिए नया उत्साह। इस एक तारीख के गर्भ में आने
वाले तीन सौ चौसठ दिन की कहानियां छिपी हैं। इसलिए नए के उत्साह का मतलब केवल
सक्रियता ही न समझी जाए।
यह पहली तारीख केवल दिमाग और शरीर को दौड़ाने में ही खर्च न कर दी जाए। आज
थोड़ा समय रुकने को भी दीजिए। मेडिटेशन करके, निर्विचार होकर शांति के साथ
पहला कदम उठाइए। वरना चाहत तो हमारी जीतने की होगी, पर पराजय विश्व विजेता रावण की
तरह हो जाएगी। सुंदरकांड का दृश्य है। हनुमान बीते वर्ष की तरह लंका का माहौल पूरी
तरह बदलकर जा चुके थे।
आज रावण अपनी सभा में पहुंचा था, नई शुरुआत करनी थी उसे निर्णयों की। तुलसीदासजी ने
दृश्य लिखा है-अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभां ममता अधिकाई।। मंदोदरी हृदयं
कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।। यानी रावण ने ऐसा कहकर हंसकर उसे हृदय से लगा
लिया और अधिक स्नेह जताते हुए वह सभा में चला गया।
बीते वक्त और आने वाले के साथ चिंता एवं खुशी का माहौल रहता है। भविष्य की
चिंता में थी मंदोदरी, क्योंकि वह अपने पति का कमजोर पक्ष जानती थी। ज्यों ही रावण
सभा में जाकर बैठा, उसे खबर मिली कि शत्रु की सारी सेना समुद्र के उस पार आ गई है। उसने मंत्रियों
से सलाह मांगी कि अब क्या करना चाहिए। तब वे सब हंसकर बोले कि इसमें सलाह की कौनसी
बात है? रावण
को गलत सलाह मिलने लगी। अभिप्राय यह कि जब गलत सलाह मिलने लगे, तभी असफलता का जन्म होता
है। हमें नए वर्ष में सावधान रहकर सात्विकता से सफलता का आलिंगन करना है।
नए साल में शान्ति और समृद्धि पाने के सात उपाय
नववर्ष पर सब के होठों पर खुशी, शांति और समृद्धि पाने की कामना रहती है, लेकिन शांति का मतलब
क्या हमें सच में पता है? शांति हमारे भीतर है। बीते साल से गुजरकर नए साल में प्रवेश
करते हुए, चलो हम सब इस आतंरिक शांति के प्रति सजग रहने का संकल्प लें और अपनी मुस्कान
को अपने अंदर की सच्ची समृद्धि की पहचान बना लें। ऐसा करने के सात उपाय हैं-
1. दिव्यता पर भरोसा रखो
इस वर्ष, अपनी भक्ति को पूरी तरह खिलने दो और उसे अपने काम आने का मौका दो।हमारे प्यार,
विश्वास, और आस्था की जड़ों को
गहरा होना चाहिए, और फिर सब कुछ अपने आप होने लगता है। "मैं धन्य हूँ" की भावना तुमको
किसी भी असफलता से उबरने में मदद कर सकती है। जब तुमको समझ में आ जाएगा कि तुम
वाकई में धन्य हो तो तुम्हारी सभी शिकायतें और असंतोष खत्म हो जायेगा, और तुम असुरक्षित न
महसूस करते हुए आभारी, तृप्त और शांतिपूर्ण बन जाओगे।
2. खुद के लिए समय निकालो
तुम रोज़ केवल जानकारी जुटाने में लगे रहते हो और अपने लिए सोचने और चिंतन
करने के लिए समय नहीं निकालते। उसके बाद तुम्हें सुस्ती और थकान महसूस होती है।
मौन के कुछ क्षण तुम्हारी रचनात्मकता के स्रोत हैं। मौन तुमको स्वस्थ और
पुनर्जागृत कर देता है और तुमको गहराई और स्थिरता देता है। कुछ समय दिन में अपने
साथ बैठो, अपने दिल की गहराइयों में झाँको, आँखें बंद कर के दुनिया को एक गेंद की तरह लात मार
दो।अपने लिए कुछ समय देने से तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता में सुधार आएगा।
3. जीवन की नश्वरता को जानो
इस जीवन की नश्वरता को देखो। लाखों साल निकल गए हैं और लाखों आयेंगे और चले
जायेंगे। कुछ भी स्थायी नहीं है। तुम्हारा जीवन क्या है? सागर की एक बूंद जितना भी नहीं। जाग जाओ और पूछो, मैं कौन हूँ? मैं इस ग्रह पर कैसे हूँ?
मेरा जीवन अंतराल
कितना है? सजगता आ जायेगी और तुम छोटी छोटी चीज़ों के बारे में चिंता करना बंद कर दोगे।
छोटेपन को छोड़कर तुम अपने जीवन के हर पल को जीने में सक्षम हो जाओगे। जब तुम अपने
जीवन के संदर्भ की समीक्षा करते हो तो तुम्हारे जीवन की गुणवत्ता में सुधार आता
है।
4. परोपकार के कार्य करो
दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने के लिए प्रतिबद्ध हो जाओ।परोपकार के कुछ ऐसे
कृत्य करो जिनके बदले में तुम्हें कुछ भी पाने की चाह न हो।केवल सेवा से ही जीवन
में संतोष आता है। इससे अपनेपन की भावना पैदा होता है। जब अपनी नि: स्वार्थ सेवा
से तुम किसी को राहत देते हो, तो उनकी शुभ कामनाओं का स्पंदन तुमको मिलता है। अपने दयालु
स्वभाव को अभिव्यक्त करने से तुम्हारा प्रेम स्वरुप और शान्ति स्वरुप उजागर होता
है।
5. अपनी मुस्कान को सस्ता बनाओ
हर दिन, हर सुबह, आईने में देखो और अपने आप को एक सुन्दर सी मुस्कान दो। कोई भी तुम्हारी
मुस्कान को छीन न पाए। आमतौर पर, तुम अपने गुस्से को मुफ्त में बाँटते रहते हो और बड़ी
मुश्किल से शायद कभी ही मुस्कान देते हो जैसे वह कोई बड़ी कीमती अमानत हो। अपनी
मुस्कान को सस्ता करो और क्रोध को महंगा! मुस्कुराने से तुम्हारे चेहरे की सभी
मांसपेशियों को आराम मिलता है। तुम्हारे दिमाग की नसों को आराम मिलता है और तुम
भीतर से शांत हो जाते हो। यह तुमको जीवन में आगे बढ़ने के लिए आत्मविश्वास,
साहस, और ऊर्जा देता है।
6. ध्यान को अपने जीवन का एक अंग बनाओ
जब हम जीवन में ऊंची महत्वाकांक्षाएं रखते हैं तो उनसे तनाव और बेचैनी आती है
जो केवल ध्यान और आत्मनिरीक्षण के कुछ मिनटों के माध्यम से समाप्त किया जा सकता
है। ध्यान से हमें गहरा विश्राम मिलता है। तुम जितना गहरा विश्राम कर पाओगे,
तुम उतना ही
गतिशील गतिविधियों को कर पाओगे। ध्यान क्या है? खलबली के बिना मन ध्यान है।
वर्तमान क्षण में ठहरा हुआ मन ध्यान है। बिना किसी हिचक और बिना किसी चाह का मन
ध्यान है। अपने आनंदमयी और शांतिमय स्रोत की ओर घर लौट चला हुआ मन ध्यान है।
7. हमेशा एक शिष्य रहो
यह जान लो कि तुम हमेशा एक शिष्य रहोगे। किसी को भी कम मत समझना।तुम्हें किसी
भी कोने से ज्ञान मिल सकता है। प्रत्येक अवसर तुमको सिखाता है और प्रत्येक व्यक्ति
तुमको कुछ सिखाता है।यह पूरी दुनिया तुम्हारी शिक्षक है। जब तुम हमेशा जानने के
लिए तत्पर रहोगे, तो तुम दूसरों को कम समझना बंद कर
दोगे। विनम्रता तुम्हारे जीवन में आ जायेगी।
अगर ध्यान रखेंगे ये बात तो कभी उदास नहीं होंगे....
उदासी किस को नहीं घेरती। बड़े से बड़े महात्मा को और सामान्य से सामान्य
व्यक्ति को भी उदासी घेर लेती है। दुख, शोक, निराशा ये सब कभी-कभी अकारण भी आ जाते हैं। जिंदगी में
सबकुछ अच्छा चल रहा होता है, फिर भी कुछ लोगों को लगता है कि मजा नहीं आ रहा है।
दरअसल हमारे शरीर में एक केंद्र है, जो इन सब उपद्रवों का अड्डा है। इसका नाम है मन।
विज्ञान की दृष्टि में यह कोई अंग नहीं है, जिसको पकड़ा या देखा जा सके,
वरना विज्ञान इसकी
सर्जरी की विधि निकाल चुका होता। सचमुच मन कोई पृथक अंग नहीं है। यह तो एक मेमोरी
बैंक है। इसमें विचार उठते ही रहते हैं। मन इन विचारों के निर्माण का केंद्र है।
मन में विचार भी व्यवस्थित नहीं रहते, बिखरे-बिखरे आंधी-तूफान की तरह होते हैं। मन पर काम
करने के लिए सात्विक बुद्धि, विवेक और योग का सहारा लेना होगा।
ये तीन मन से संकल्प को हटाकर मन को शून्य करेंगे। शून्य मन ही व्यक्तित्व को
शांत बनाएगा। इन संकल्पों को मारना नहीं है, ये शिफ्ट होंगे आत्मा में। वहां
जुड़ते ही जो सत्य होगा वही रहेगा, असत्य, भ्रांति, बेकार यहां गिरना ही है। मन को झूठ प्रिय है और आत्मा सत्य
है। झूठ है इसलिए इसे मरना होगा। सत्य सदैव रहेगा।
आत्मा तक पहुंचने के बाद सत्य ही बचेगा। सत्य के साथ जीवन कभी दुखमय हो ही
नहीं सकता। सत्य का डिस्चार्ज ही आनंद है, उसका वाईब्रेशन ही प्रसन्नता है, इसलिए मन से संकल्पों की
शिफ्टिंग आत्मा तक कराने के तीनों तरीके अपनाते रहें।
अपनी इच्छआओं को नियंत्रण में रखना सीखें
इंद्रियां हैं तो उनके संबंधित भोग भोगने की इच्छा होना बिलकुल स्वाभाविक है।
सवाल यह उठता है कि क्या हम अपनी इंद्रियों की इन नैसर्गिक इच्छाओं को अपनी गुलामी
का कारण बनाएंगे या हम इंद्रियों के गुलाम हुए बगैर अपनी प्राकृतिक जरूरतों की
पूर्ति करेंगे। मन में उठने वाली इच्छाओं के जाल से मुक्त रहते हुए अपनी जरूरतों
की पूर्ति करने में समझदारी है।
जब तक आप गहनता से इस विषय का चिंतन नहीं करेंगे, तक तक समय-समय पर दुख और सुख के
कुठाराघात मन को घायल करते ही रहेंगे। तो इन आघातों से मन को बचाने के लिए अलग से
कुछ समय निकाला करें, ताकि मन की वृत्तियों की धारा इंद्रियों के द्वारा बाहर न जाकर अंदर मुड़ सके।
अर्थात जब आंखें बंद करो, तो कुछ देखने की मन की चाह को थोड़ी देर के लिए बंद कर लें।
कान से कुछ सुनने की चाह को बंद कर लें। उस समय न कोई संगीत चलता हो और न ही
आस-पास लोग बातें करते हों। मुंह बंद रखें। खाने या बोलने की जीभ की चाह को बंद
करें। अस्था यी रूप से ही सही, थोड़ी देर के लिए अपनी पांचों ज्ञानेंद्रियों के द्वारों को
बंद कर लें। वृत्ति की धारा बाहर न जाने पाये।
जो हो रहा है उसके जिम्मेदार हम खुद हैं
हम मनुष्यों की एक सामान्य सी आदत है कि दुःख की घड़ी में विचलित हो उठते हैं
और परिस्थितियों का कसूरवार भगवान को मान लेते हैं। भगवान को कोसते रहते हैं कि 'हे भगवान हमने आपका क्या
बिगाड़ा जो हमें यह दिन देखना पड़ रहा है।' गीता में श्री कृष्ण ने कहा है
कि जीव बार-बार अपने कर्मों के अनुसार अलग-अलग योनी और शरीर प्राप्त करता है।
यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक जीवात्मा परमात्मा से साक्षात्कार नहीं कर
लेता। इसलिए जो कुछ भी संसार में होता है या व्यक्ति के साथ घटित होता है उसका
जिम्मेदार जीव खुद होता है। संसार में कुछ भी अपने आप नहीं होता है। हमें जो कुछ
भी प्राप्त होता है वह कर्मों का फल है। इश्वर तो कमल के फूल के समान है जो संसार
में होते हुए भी संसार में लिप्त नहीं होता है। ईश्वर न तो किसी को दुःख देता है
और न सुख।
इस संदर्भ में एक कथा प्रस्तुत हैः गौतमी नामक एक वृद्धा ब्राह्मणी थी। जिसका
एक मात्र सहारा उसका पुत्र था। ब्राह्मणी अपने पुत्र से अत्यंत स्नेह करती थी। एक
दिन एक सर्प ने ब्राह्मणी के पुत्र को डंस लिया। पुत्र की मृत्यु से ब्रह्मणी
व्याकुल होकर विलाप करने लगी। पुत्र को डंसने वाले सांप के ऊपर उसे बहुत क्रोध आ
रहा था। सर्प को सजा देने के लिए ब्राह्मणी ने एक सपेरे को बुलाया। सपेरे ने सांप
को पकड़ कर ब्राह्मणी के सामने लाकर कहा कि इसी सांप ने तुम्हारे पुत्र को डंसा है,
इसे मार दो।
ब्राह्मणी ने संपरे से कहा कि इसे मारने से मेरा पुत्र जीवित नहीं होगा। सांप
को तुम्ही ले जाओ और जो उचित समझो सो करो। संपेरा सांप को जंगल में ले आया। सांप
को मारने के लिए संपेरे ने जैसे ही पत्थर उठाया, सांप ने कहा मुझे क्यों मारते हो,
मैंने तो वही किया
जो काल ने कहा था। संपेरे ने काल को ढूंढा और बोला तुमने सर्प को ब्राह्मणी के
बच्चे को डंसने के लिए क्यों कहा। काल ने कहा 'ब्राह्मणी के पुत्र का कर्म फल
यही था।' मेरा
कोई कसूर नहीं है।
सपेरा कर्म के पहुंचा और पूछा तुमने ऐसा बुरा कर्म क्यों किया। कर्म ने कहा 'मुझ से क्यों पूछते हो,
यह तो मरने वाले
से पूछो' मैं
तो जड़ हूं। इसके बाद संपेरा ब्राह्मणी के पुत्र की आत्मा के पास पहुंचा। आत्मा ने
कहा सभी ठीक कहते हैं। मैंने ही वह कर्म किया था जिसकी वजह से मुझे सर्प ने डंसा,
इसके लिए कोई अन्य
दोषी नहीं है।
महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने भीष्म को बाणों से छलनी कर दिया और भीष्म
पितामह को बाणों की शैय्या पर सोना पड़ा। इसके पीछे भी भीष्म पितामह के कर्म का फल
ही था। बाणों की शैय्या पर लेटे हुए भीष्म ने जब श्री कृष्ण से पूछा, किस अपराध के कारण मुझे
इसे तरह बाणों की शैय्या पर सोना पड़ रहा है। इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने कहा था
कि, आपने
कई जन्म पहले एक सर्प को नागफनी के कांटों पर फेंक दिया था। इसी अपराध के कारण
आपको बाणों की शैय्या मिली है।
इसलिए कभी भी जाने-अनजाने किसी भी जीव को नहीं सताना चाहिए। हम जैसा कर्म करते
हैं उसका फल हमें कभी न कभी जरूर मिलता है।
जिससे प्रेम करो उसके प्रति समर्पित हो जाओ
जब तक विकार है, विश्राम संभव ही नहीं। अविकार की भूमिका विश्राम का स्वरूप या कहें कि विश्राम
की पहचान है। प्रेम ही इस भवसागर से पार उतारने वाला एकमात्र उपाय है। प्रेमी
बैरागी होता है, जिससे आप प्रेम करते हैं, उस पर न्यौछावर हो जाते हैं। त्याग और वैराग्य सिखाना नहीं
पड़ता। प्रेम की उपलब्धि ही वैराग्य है। जिन लोगों ने प्रेम किया है, उन्हें वैराग्य लाना
नहीं पड़ा।
जिन लोगों ने केवल ज्ञान की चर्चा की, उनको वैराग्य ग्रहण करना पड़ा, त्यागी होना पड़ा,
वैराग्य के सोपान
चढ़ने पड़े। कभी गिरे, कभी चढ़े लेकिन पहुंच गए। जैसे जब कृष्ण ब्रज से गए तो क्या
ब्रजांगनाएं घर छोड़कर चली गईं। क्या गोप भागे? नहीं, वे सब वहीं रहे। वही गायें,
वही बछड़े,
वही गोशालाएं,
वही खेत, वही घर, सब वहीं थे लेकिन वे सभी
परम वैराग्य को उपलब्ध हो गए। प्रेम में वैराग्य निर्माण करने की शक्ति है।
भक्ति का अर्थ है जिसको तुम प्रेम करते हो उसके इच्छानुकूल रहो, यही भक्ति है। अपना सब
कुछ भूल कर सिर्फ साध्य के लिए ही समर्पित होना भक्ति है। सच्ची भक्ति व्यक्ति और
ईश्वर को इस तरह एक दूसरे में समाहित कर देती है कि आपमें ईश्वर की छाया दिखाई
देने लगती है। ये भक्ति का ही असर था कि मीरा ने हंसते-हंसते सब कुछ सह लिया।
सच्चा भक्त ईश्वर में सबको और सबमें ईश्वर को देखता है।
प्रभु भक्ति करनी हो तो मीरा की तरह करो या प्रभु से प्रेम करना हो तो ब्रज गोपिका
की तरह करो। मीरा की ईश्वर भक्ति सबसे श्रेष्ठ है। उस काल के भक्त कवियों नरसिंह
मेहता, ज्ञानदेव,
नामदेव, कबीर, तुलसी व मीरा में
संवादों का आदान-प्रदान होता रहता था। राजस्थान को रंग रंगीले राजस्थान की संज्ञा
सर्वप्रथम मीराबाई ने ही दी थी। किसी भी भक्त के लिए मीरा के भजन बहुत महत्वपूर्ण
हो सकते हैं। भक्ति में गायन का अपना अलग मनोविज्ञान है। यदि गम में भी मीरा के
भक्ति गीत गाये जाए तो दर्द कम हो जाता है।
दिखावा करने वाले खुद को ही ठगते हैं
व्यक्ति सुख कामी होता है और हमेशा सुख में रहना चाहता है। भोग विलास के कारण
वह परमात्मा के बताए नियमों से दूर होता जाता है। जबकि मनुष्य को ईश्वर को सर्वस्व
सौंपकर जीवन के सभी कार्य करने चाहिए।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि संसार में आयु ऐसी चीज है जो निरन्तर घटती जाती है
लेकिन तृष्णा ऐसी चीज है तो निरंतर बढ़ती जाती है। बस एक शाश्वत चीज है जो न तो
कभी घटती है और न कभी बढ़ती है वह है ईश्वर का विधान।
तो ईश्वर के विधान को समझना चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य अच्छे कामों
को एक दिखावे में बदल देता है। मगर इस दिखावे का वास्तव में कोई लाभ नहीं मिलता।
जो दिखावा करता है वह वास्तव में अपने आपको ठगता है।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि रोज मंदिर जाने से हर व्यक्ति संत-महात्मा नहीं
होता है। महात्मा होने के लिए मन का शांत होना परमआवश्यक है। अशांत मन से ईश्वर का
ध्यान करने से ईश्वर नहीं मिलता है।
आज का मनुष्य नकली जीवन जी रहा है। उनकी कथनी एवं करनी में समानता नहीं होती
है। लोग प्याज-लहसुन खाने से परहेज करते हैं लेकिन रिश्वत का धन खाने से उन्हें
कोई परहेज नहीं है। रिश्वत लेकर कोई व्यक्ति धन नहीं बल्कि पाप कमाता है।
बड़ा बनना है तो स्वाद का त्याग करना सीखो
भगवान बुद्ध कहा करते थे कि भिक्षु को सबसे पहले स्वाद का त्याग करना चाहिए।
यदि जिह्वा बस में नहीं है, तो संतत्व नष्ट हो जाता है। एक बार भिक्षु बुद्धप्रिय ने
अपने दो शिष्यों को आदेश दिया, अब तुम भगवान बुद्ध के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के कार्य
में समर्पित भाव से जुट जाओ।
जगह-जगह पहुंचकर लोगों को आडंबर और अंधविश्वास त्यागकर सदाचारी जीवन बिताने की
प्रेरणा दो। अहंकार और क्रोध को पास न फटकने देना। तभी तुम्हारा भिक्षु जीवन
सार्थक बनेगा। दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े।
इनमें से छोटा भिक्षु किसी राजघराने का बेटा था। उसे सुस्वादु भोजन करने की आदत
थी।
भिक्षा में उसे दाल-रोटी मिली। उसने रोटी का पहला कौर मुंह में दिया, तो दाल में नमक न होने
के कारण उसे निगल नहीं पाया। उसने एक दुकान से नमक मांगा और भोजन स्वाद लेकर खाया।
बड़े भिक्षु ने जब उसे भिक्षा में मिले खाने में नमक छिड़कते देखा, तो क्रोधित होकर बोला,
यदि तू स्वाद नहीं
त्याग सका, तो भिक्षु क्यों बना है।
छोटे ने भी क्रोधित होकर कहा, किसने आपको अनुशासन का पाठ पढ़ाने का अधिकार दिया है। बड़े
भिक्षु को याद आया कि गुरुदेव ने कहा था कि क्रोध को पास न आने देना। बड़े भिक्षु
ने तुरंत विनम्र होकर कहा, प्रियवर, मुझे कोई सीख देनी थी, तो प्रेम से कहना चाहिए था।
छोटे भिक्षु को भी अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने कहा, वास्तव में मुझे भी स्वाद का
त्याग करना चाहिए। इस तरह दोनों का विवेक जागृत हो उठा, और वे क्रोध त्यागकर सच्चे साधु
बनने की दिशा में अग्रसर हो उठे।
मानसिक तनाव से मुक्ति पाने का आसान तरीका
डिप्रेशन या मनो अवसाद आधुनिक समाज के एक बहुप्रचलित मानसिक रोग है। इसे
सभ्यता का रोग भी कहते हैं। इसके कई के कारण हैं। समय के साथ बढ़ते घरेलू विवाद,
अत्यधिक व्यस्तता,
आगे निकलने की
होड़, मनमुताबिक
काम न होना, अधिकारी द्वारा अपमानित किया जाना, या अपनी क्षमता पर संदेह।
योगशास्त्र का मानना है कि इस तरह की कोई भी मनोबाधा अपने आप में विश्वास की
कमी के कारण जन्म लेती है। चिकित्सा शास्त्र डिप्रेशन का कारण मस्तिष्क में
सिरोटोनीन, नार-एड्रीनलीन तथा डोपामिन आदि न्यूरो ट्रांसमीटर की कमी मानता है। इसे दूर
करने के लिए दवाएं भी इसी स्तर की दी जाती हैं।
योगशास्त्र ने इस तरह की समस्याओं के लिए ध्यान और प्रार्थना पर जोर दिया है।
नई दिल्ली स्थित ऋषि चैतन्य फाउंडेशन के स्वामी अनूप योगी के अनुसार नियमित ध्यान
और स्वाध्याय अवसाद से मुक्ति दिलाने के आसान उपाय हैं। संस्थान में किए प्रयोगों
के अनुसार एक महीने तक किया गया अभ्यास एक वर्ष तक किए गए औषध उपचार की तुलना में
ज्यादा उपयोगी है।
जहां तक आयुर्वेदिक दृष्टिकोण की बात है, डिप्रेशन मुख्य रूप से वात दोष
की अधिकता से होने वाला रोग है। इसके लिए शास्त्र में विभिन्न चिकित्सा विकल्प
उपलब्ध हैं, जो प्रभावी होने के साथ निरापद हैं। औषधियों के अंतर्गत ऐंद्री, शंखपुष्पी, वचा, जटामासी, सर्पगंधा, तगर, अश्वगंधा, अभ्रक भस्म, सारस्वतारिष्ट, ब्राह्मी घृत, सारस्वत चूर्ण, बृहतवान चिंतामणि रस आदि
प्रमुख हैं।
इसके अलावा शिरोधारा व नस्य का भी विधान है जिसके अंतर्गत औषधि क्वाथ को सिर
पर तथा नासा में क्रमशः डाला जाता है। साथ ही साथ मरीज से निम्न बातों का भी पालन
कराएं। खाली रहने की स्थिति में फालतू नहीं बैठें, अपितु उस समय में अपनी रुचि का
कोई कार्य या किसी पत्रिका, पुस्तक आदि का वाचन करें अथवा अपने मित्रों के साथ किसी
बौद्धिक विषय पर वार्तालाप करें।
बैड लक को गुड लक में बदलने के आसान उपाय
कहा जाता है कि धरती पर आने वाले सभी व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भोगना
पड़ता है। लेकिन ऐसे उपाय अवश्य हैं, जिनके बल पर अनहोनी या असंभव को भी संभव बनाया जा
सकता है। उसे बदलने की तकनीक पर काम करते हुए चेन्नई के वैदिक इस्टीट्यूट ऑफ
स्पिरिचुअलिज्म ने कुछ ऐसे उपाय सुझाए हैं, जिनके जरिए अपने भाग्य और भविष्य
को काफी हद तक बदला सकते है। उन उपायों के बारे में बताते हुए इंस्टीट्यूट के
प्रो. सोमदेव शर्मा ने कुछ टिप्स लिखे हैं। उन बिंदुओं में तीन उपाय इस प्रकार
हैं।
टिप्स नंबर एक- अभी तक आपका जो भी रुटीन रहा हो उसे भूल जाइए लेकिन कल से ही
सूर्योदय से पहले हर हाल में बिस्तर छोड़ कर उठ जाएं। नित्य कर्मों से निपट कर साफ
और धुले हुए वस्त्र पहनकर पूर्व दिशा की और मुंह करके बैठें। सुबह उगते हुए सूरज
के सिंदूरी रंग को देखें। 15 से 20 मिनट तक सुबह की अरुणिम आभा का ध्यान करें और सुख-समृद्धि
के साथ मन में प्रसन्नता का ध्यान करें।
दूसरी टिप्स में कुंडलिनी शक्ति के जागरण पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा
गया है। अध्यात्मविदों के अनुसार कुंडलिनी शक्ति शरीर में मेरूदंड में स्थित है।
इसे जगाकर साधक का दुर्भाग्य मिटाया जा सकता है। शुरुआती तौर पर इसका अभ्यास कमर
सीधी कर बैठने के रूप में किया जाता है। जिन्हें अपने भाग्य भविष्य को बदलना है
उन्हें तुरंत इसकी शुरुआत अवश्य कर देनी चाहिये।
जब भी जहां भी बैठें अपनी रीढ़ को यानी मेरुदंड को हर हाल में सीधा रखे। कमर
झुकाकर बैठने से कुंडलिनी शक्ति कुंद होने लगती है, जिससे इंसान दुर्भाग्य से जल्दी
प्रभावित हो जता है। इष्ट मंत्र की शक्ति के महत्व से सभी परिचित हैं। यह कामयाबी
का तीसरा गुर हैं। इष्ट मंत्र अर्थात इष्टदेवता की आराधना के लिए जपा जाने वाला
मंत्र।
अध्यात्मविदों की मान्यता है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन सूर्योदय के समय निश्चित
समय, निश्वित
स्थान पर विशुद्ध आसन पर बैठकर बीस मिनट भी जप करता है उसके जीवन में अपने वाली
अशुभ घटनाओं का नाश होने लगता है। पहले दिन से ही उसका सौभाग्य उदय होने लगता है।
भाग्य थोड़ा सच भी थोड़ा झूठ भी
सभी जानते हैं कि कल के बारे में छोडिए आने वाले पल के बारे किसी को पता नहीं पर सभी कोई भविष्य के बारे
में जानने के लिए उतावले, आतुर और व्यग्र रहते हैं। इस उत्सुकता और ललक को भुनाने के
लिए ज्योतिषियों और भाग्य बांचने वालों की अच्छी खासी संख्या समाज में मौजूद है।
ऐसे लोग अंगुलियों पर गिने जाने लायक हैं जो कह सकें कि उनकी पचीस तीस प्रतिशत
भविष्यवाणियां भी सही निकली हों। वजह बताते हुए शरीर शास्त्री एल. सोफी कहते हैं
कि जिंदगी की रफ्तार तय है। उस रफ्तार और उसके मिजाज को भुनाने चलेंगे तो गड़बड़ी
होगी ही।
एल. सोफी ने अपनी पुस्तक ‘द रिद्म ऑफ लाइफ’ में लिखा है कि उतार चढ़ाव एक निश्चित क्रम से आते
हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि विज्ञान इन्हे ग्रह नक्षत्रों के बजाय बायोरिद्म का
नाम दे रहा है यानी जिंदगी की लय-ताल। इन नतीजों के अनुसार शरीर की सामान्य
गतिविधियां भी लयताल के अनुसार एक निश्चित अन्तराल के बाद अपने आपको दोहराती हैं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक एफ.ए ब्राउन के अनुसार तो कोशिका विभाजन की प्रक्रिया
लयबद्ध तरीके से चलती हैं। उनके अनुसार ग्रह-नक्षत्रों के वार्षिक चक्र से मनुष्य
स्वाभाविक ही संचालित होता है। इस प्रक्रिया के अनुसार 21 दिन अथवा 25 दिन के एक चक्र में
मनुष्य शरीर में एक पूर्ण परिवर्तन होता रहता है जिसमें जीवन-शक्ति का नवीनीकरण
होता और नई चेतना, नई स्फूर्ति का उदय होता है।
इसे अधिक स्पष्ट करते हुए ब्रिटिश वैज्ञानिक गेगिर ल्यूस अपनी पुस्तक ‘बाडी टाइम’ में बताया है कि वस्तुतः
यह हारमोन परिवर्तन के कारण होता है जिसका परिवर्तन चक्र लयबद्ध तरीके से चलता
रहता है। बत्तीस दिन के हिसाब से यह क्रम आता जाता रहता है।
कभी अपनी इच्छा शक्ति को भुलाकर देखिए
तरक्की या कामयाबी के लिए इच्छाशक्ति का मजबूत होना जरूरी है पर कभी कभी उसका
कमजोर होना भी फायदेमंद होता है। कैथरीन रॉन और कैथलीन वोस नामक दो मनोविज्ञानियों
ने हाल ही में एक शोधपत्र पढ़ा और कहा कि वाकई कभी कभी इच्छा शक्ति के कारण
मुश्किल हो सकती है। जरा उस वक्त के बारे में सोचें जब आपने पहली बार बियर का सिप
लिया था। कितना बुरा स्वाद था।
कोई भी पहली सिगरेट का लुत्फ नहीं ले पाता- बड़ा अजीब सा स्वाद आता है,
गला जलता हुआ
महसूस होता है, खांसी आ जाती है और कभी कभी मतली भी आने लगती है। हलांकि सिगरेट, शराब या कॉफी आपको ललचा
सकते हैं। इनके स्वाद को झेलने और पहली बार के बाद जारी रखने के लिए कुछ समय तो मन
मारने या इच्छा शक्ति के इस्तेमाल की जरूरत पड़ती है।
हम इच्छा शक्ति को एक संसाधन के तौर पर इस्तेमाल करते हैं ताकि हम वे चीजें कर
सकें जो हम जानते हैं कि करनी चाहिए- वे चीजें तो हमारे लिए अच्छी हैं। ऐसा क्यों
होता है कि कोई इच्छा शक्ति का इस्तेमाल ऐसे काम में करे जो उसके लिए अच्छी नहीं
है जब हम अपनी स्वस्थ इच्छा से उबरने के लिए इच्छा शक्ति का प्रयोग करते हैं तो हम
पारस्परिक फायदे हासिल करने के लिए ऐसा करते हैं जैसे कि दोस्ती गांठना और नकार
दिए जाने से बचना; ऐसा करते हुए हम अपने भले को दरकिनार कर देते हैं।
याद रहे आत्मनियंत्रण या संयम या इच्छाशक्ति मात्र एक औजार है जो हमारे लिए
मददगार भी हो सकता है और हमें हानि भी पहुंचा सकता है। प्रसन्नता के साथ उत्पादक
जीवन जीने के लिए हमें सिर्फ आत्मनियंत्रण का विकास या इच्छाशक्ति की ताकत ही
जरूरी नहीं है बल्कि ज्ञान भी विकसित करना चाहिए ताकि हम सही निर्णय कर सकें कब और
कहां इस शक्ति को अमल में लाना है।
प्रवचन सिर्फ सुनें नहीं, जीवन में शामिल करें
हम अक्सर कहते है कि हम वेद, उपनिषद पढ़ते है, मनीषियों और सन्तों के प्रवचन सुनते है, लेकिन उनका हमारे जीवन
पर सकारात्मक प्रभाव क्यों नही पड़ता? इसका एकमात्र कारण यह है कि हमारे जीवन का लेंस इतना
संवेदनशील है कि हमारे सामने जो भी दृश्य आते है, वह तुरन्त उसे ग्रहण कर लेता है।
यह लेंस अपने पास एकत्रित सभी पुराने चित्रों को मिटा देता है। इसका परिणाम यह
होता है कि हमारे मस्तिष्क पर बनने वाला वर्तमान चित्र तो स्थाई हो जाता है,
लेकिन उसके पहले के
सभी चित्र गौण हो जाते है।
यही कारण है कि सन्त-महात्माओं के प्रवचनों का प्रभाव हमारे जीवन पर स्थिर नही
हो पाता है। जब हम ग्रन्थों को पढ़ते है और प्रवचन सुनते है, तो उस क्षण तो हम उन सभी
बातों को अपने जीवन में उतार लेते है, लेकिन जैसे ही उस जगह से हटते है, इस संसार के विकार,
इसकी दृष्प्रवृत्तियां,
सांसारिक मोह,
ममता और अहंकार-ये
सभी चीजें फिर से हमारे चारों ओर खड़ी हो जाती है।
हम अनेक सन्तों के प्रवचन सुनते है, उनका आशीर्वाद ग्रहण करते है, ग्रन्थों का अध्ययन करते है,
धार्मिक, अनुष्ठान तथा अन्य पूजा
पाठ करते है। लेकिन इन त्योहारों अथवा किसी धार्मिक आयोजन से बाहर आते ही हमारा
जीवन पर पुनः उसी ढर्रे पर आ जाता है, जैसा हमारे उस आयोजन में जाने से पहले था। हम जैसे
पहले थे, वैसे
ही दोबारा हो जाते है।
ऐसा इसलिए होता है कि हम सत्संग केवल सुनते हैं। मेरे ख्याल से ऐसा करने से
कोई फायदा नहीं अपितु समय की बर्बादी ही है। इसलिए अगर आप सत्संग का सही उपयोग
करना चाहते हैं तो सत्संग को सिर्फ सुनें नहीं उसकी साधें। सत्संग सुनते समय उसे
अपने जीवन से जोड़ कर देखें।
दूसरों के भीतर गुण देखिए, दुर्गुण नहीं
कबीरदास जी ने कहा है, 'बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय। जो दिल ढूंढ़ा
आपना, मुझसे
बुरा न कोय।।' कबीरदास जी अपने इस दोहे से जीवन के उस आर्दश को व्यक्त करते हैं जिसकी आज के
मनुष्य को बड़ी जरूरत है।
ध्यान कीजिए पूरे दिन में आप दूसरों के कितने गुणों को पहचानते हैं। शायद दो
या एक अथवा एक भी नहीं। लेकिन बुराई पर ढेरों गिन लेंगे। यही व्यक्तित्व की सबसे
बड़ी कमी है। हम सभी को दूसरों के गुण देखने चाहिए न कि अवगुण। जो मनुष्य यह कला
सीख लेता है उसके लिए न कोई शत्रु होता है न नफरत का पात्र। ऐसे व्यक्ति के सभी
मित्र होते हैं और लोक-परलोक में उनकी कीर्ति बनी रहती है।
ऐसे ही एक गुणवान व्यक्ति थे संत उड़िया बाबा। यह असहायों, गरीबों और बीमार व्यक्ति
की सहायता को ही सबसे बड़ा धर्म बताया करते थे। दुनियादारी, लोभ-मोह से इनका कोई वास्ता नहीं
था। आज के संतों की भांति यह सिर्फ उपदेश नहीं देते थे बल्कि, व्यवहारिक जीवन में खुद
भी अपने उपदेश के अनुसार चलने की कोशिश करते थे। इनका कहना था प्रत्येक प्राणी में
ईश्वर है। इसलिए किसी के दोष को नहीं देखना चाहिए। दूसरों में दोष ढूंढना ईश्वर
में कमी निकालना है।
एक समय उड़िया बाबा बदायूं स्थित गंगा के किनारे कुटिया बनाकर उसमें रह रहे थे।
इनके आश्रम में एक बीमार व्यक्ति आया। बाबा ने इस व्यक्ति के लिए दूध एवं फल की
व्यवस्था करवा दी। एक दिन आश्रम का सदस्य बाबा के पास आकर बोला 'बाबा, आप जिस बीमार व्यक्ति को
दूध और फल दिलवा रहे हैं, वह तो कई दुर्गुणों से भरा है। हम चाहते हैं कि आप उस
व्यक्ति को आश्रम से निकाल दें।
उड़िया बाबा ने आश्रम के सदस्य की ओर गौर से देखा और मुस्कुराकर बोले,
'जब सृष्टि के
मालिक भगवान ने दुर्गुण से भरे उस व्यक्ति को संसार से नहीं निकाला तो हम उसे इस
छोटे से आश्रम से निकालने वाले कौन होते हैं। बाबा ने कहा, 'भैया, संसार में ऐसा कौन प्राणी है,
जिसमें तमाम गुण
ही हैं, दुर्गुण
एक भी नहीं है। क्या तुम यह समझते हो कि तुममें और मुझमें कोई दुर्गुण नहीं है।
सत्संग से दुर्गुण कम करने का प्रयास करना चाहिए, न कि तिरस्कार करके दुख पहुंचाना
चाहिए।
बुढ़ापा जीवन का सुनहरा अध्याय है
बूढा आदमी दुनिया का सबसे बडा विश्वविद्यालय है। बूढे की एक एक झुर्रियों में
जीवन के हजार-हजार अनुभव लिखे होते हैं। बूढे की कांपती हुई गर्दन कहती है कि
दुनिया में कुछ भी सार नही है उसके कांपते हुए हाथ कहते हैं कि परोपकार और दान
करना हो तो आज ही कर लो, वर्ना कल कुछ न कर पाओगे। उसके लड़खडाते पैर कहते हैं कि
तीर्थ यात्रा आज ही कर डालो, वर्ना हम लाचार हो जाएंगे।
दुनिया में ऐसा कोई भी नही है जो सदैव युवा रहे। राम, कृष्ण, महावीर सभी को बुढापा आया। लेकिन
यह मत समझो कि बुढापा जीवन का अन्तिम सफर है। बुढापा तो जीवन का एक सुनहरा अध्याय
है। किसी भी बूढे को निराश और हताश नही होना चाहिए। 20 साल का जवान भी निराशवादी है तो
वह बूढा है और यदि 80 साल बूढा भी आशवादी है तो वह जवान है।
यह मत सोचना कि बुढापे में कुछ नही कर सकते, 70 साल की उम्र में सुकरात साहित्य
की रचना करते थे। 80 साल की उम्र में कीरो ने ग्रीक भाषा सीखी थी और 90 वर्ष की उम्र तक पिकासो चित्र
बनाते रहे। जब 70 साल की उम्र में महात्मा गांधी देश की आजादी के लिए लड़ सकते हैं तो हम
बुढापे से क्यों नही लड़ सकते। बुढापे में कभी खाली मत बैठना, कुछ न कुछ करते रहना।
जो लोग जवानी में ज्यादा इतराते हैं उन्हे बुढापे में आंसू बहाने पड़ते हैं
इसलिए जवानी ढंग से गुजारें, बुढापे में रोना नही पडेगा। घड़ी के तीन कांटे देखना,
सेकेण्ड का कांटा
बचपन का प्रतीक है जो बहुत तेज भागता है। मिनट का कांटा जवानी का प्रतीक है जो
बचपन से थोडा धीरे चलता है लेकिन काम करता दिखता है। घंटे का कांटा बुढ़ापे का
प्रतीक है जो चलता हुआ दिखता तो नही, लेकिन फिर भी चलता है।
बचपन और जवानी तो जल्दी भागती है बुढापा धीरे धीरे खिसकता है। जवानी को लाख
बचाना चाहो पर वह बचती नही, लाख दवाएं खा लो कि, बुढापा ना आए लेकिन बुढापा तो
आता ही है। सफेद बाल काले कर सकते हो फिर भी बुढापा नही रूकता। प्लास्टिक सर्जरी
भी करा लो तो भी बुढापा निश्चित आएगा।
परिवार में सुखी रहना है तो बुढ़ापे में बहू और बेटों के बीच ज्यादा हस्तक्षेप
मत करो। ज्यादा हस्तक्षेप करने से परिवार के लोग टूटने लगते हैं और मन भी अशांत
होने लगता है। बुढापा यदि सुख से गुजारना है तो अपने घर को अपना घर न समझकर पड़ोसी
का घर समझो। जो व्यवहार अपने पड़ोसी से करते हैं वही अपने बेटे-बहू से करो,
समय पर भोजन मिले
चुपचाप भोजन कर लो, बाकी समय हरि का भजन करो।
जैसा सोचेंगे वैसा ही परिणाम मिलेगा आपको
अगर आप दुःखी हैं तो इसका जिम्मेदार कोई और नहीं है बल्कि आप खुद हैं। इसी
प्रकार अगर आप सुखी है तो यह भी आपको अपने ही कारण प्राप्त हुआ है। ईश्वर का आपके
सुख-दुःख से कोई लेना देना नहीं है। ईश्वर तो मात्र कर्म का फल प्रदान करने वाला
है। यूं समझ लीजिए कि ईश्वर कमल का पुष्प है। कमल पुष्प जैसे कीचड़ में रहकर भी
कीचड़ के गुण दोष से प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार ईश्वर सब में और सब के बीच में रहकर भी
किस से न तो मित्रता करता है और न शत्रुता। आप जैसा करेंगे और जैसा चाहेंगे वैसे
ही आपके आस-पास का वातावरण तैयार कर देगा।
हस्तरेखा विज्ञान भी भविष्य को जानने का एक माध्यम है। लेकिन अगर आप अपने
हाथों को गौर से देखें तो पाएंगे कि समय-समय पर हाथों की रेखाओं में परिर्वतन हो
रहा है। यह परिर्वतन आपके कर्म और व्यवहार के अनुरूप होता है। इसलिए अगर आप सोचते
हैं कि एक बार जो किस्मत में लिखकर आ गया है ऐसा होना तय है तो मन से इस धारणा को
निकाल दीजिए। अगर ऐसा होता है तो ज्योतिषशास्त्र से सिर्फ भविष्य देखा जा सकता था।
लेकिन ज्योतिषशास्त्र में भविष्य देखने के साथ ही साथ उपाय भी बताये जाते हैं ताकि
घटना में बदलाव किया जा सके।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि उद्धारेदात्मनात्मानं नात्मानवसादयेत।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। अर्थात मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु
और मित्र है। मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं को पतन से बचाये और संसार रूपी समुद्र
से उद्धार के लिए प्रयास करे। जो मनुष्य स्वयं का मित्र होता है वह सकरात्मक सोच
रखता है और ईश्वर ने जो भी साधन प्रदान किये हैं उसी से संतुष्ट होकर उन्नति के
लिए प्रयास करता है। इसके विपरीत जो लोग साधन हीनता का रोना रोते रहते हैं और
उन्नति के प्रयास नहीं करते हैं वह स्वयं ही अपने शत्रु हैं।
वेद में कहा गया है कि उद्यानं ते पुरूष नावयनम्अ। यानी हे पुरूष! तुझे ऊपर
उठना है न कि नीचे गिरना। इसलिए मनुष्य को हमेशा उन्नति के लिए ऊपर उठने के लिए
प्रयास करना चाहिए। नकारात्मक सोच रखने से मन दुःखी होता है और क्रोध बढ़ता है।
वाणी में प्रेम और मधुरता नहीं रह जाती है। अनायास ही कोई गलत कार्य कर बैठते हैं।
इसलिए सोच बदलिए और उन्नति के लिए प्रयास कीजिए। जैसा आप सोचेंगे वैसा हो जाएगा।
जीवन का आधार है सूर्य
हमारा शरीर ब्रह्मांड का एक अंश है। शास्त्रों में कहा गया है कि यत पिंडेतत
ब्रह्मांडे। यह शरीर पांच तत्वों से बना हुआ है। जिन तत्वों से शरीर बना है,
उन्हीं तत्वों से
पशु-पक्षी, पेड-पौधे, ग्रह-नक्षत्र भी बने हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में पृथ्वी, चंद्रमा, सूर्य, सौरमंडल, सैकडों सूर्यों से बनी
नीहारिकाएं और नीहारिकाओं से बनी आकाशगंगा भी आती है। सौरमंडल अनेक ग्रहों से बना
है। हमारी पृथ्वी सौरमंडल का एक छोटा अंश है। पृथ्वी सौर मंडल के एक कोने में है
और सूर्य की परिक्रमा कर शक्ति संग्रह करती है। इसलिए इस पृथ्वी पर रहने वाले
प्रत्येक जीव पर स्वभाविक रूप से ग्रह-नक्षत्र का गहरा प्रभाव पड़ता है।
प्राय: ऐसा कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति को शनिचरा ग्रह लगा हुआ है या शनि की
साढेसाती लगी हुई है। इसका अर्थ है कि सौर मंडल का एक प्रभावशाली ग्रह शनि पृथ्वी
के मनुष्य को प्रभावित कर रहा है। यह खोज हमारे ऋषि-मुनियों की है। विज्ञान कहता
है कि पृथ्वी के केंद्र में मैग्नेटिक और फेरस ऑक्साइड है, जिसके कारण उसमें गुरुत्वाकर्षण
है।
इसका सीधा अर्थ यह है कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति की वजह से मनुष्य का शरीर
प्रतिक्षण प्रभावित होता रहता है। इस दृष्टि से मनुष्य सीधे सूर्य से प्रभाव ग्रहण
करता है। हम जो सांस लेते हैं, वह ऑक्सीजन हमें परोक्ष रूप से सूर्य से ही प्राप्त होती है,
क्योंकि सूर्य से
ऊर्जा लेकर ही पेड़-पौधे ऑक्सीजन का निर्माण करते हैं।
वर्तमान में जीने की कला सिखाता है ध्यान
क्या आप ने निरीक्षण किया है आप के मन में हर पल क्या चलता रहता है? ये भूतकाल और भविष्य के
बीच में डोलता रहता है| ये या तो भूतकाल में जो बीत गया है उस में व्यस्त है और या
तो भविष्य के बारे में अब क्या करना है ये सोचता रहता है|
ज्ञान मन के इस तथ्य से जागरूक होना है - इस बात से कि जब आप ये लेख पढ़ रहे
हैं तब मन में क्या चल रहा है| जानकारी तो पुस्तकें पढने या इन्टरनेट को देख कर भी प्राप्त
की जा सकती है| आप किसी भी विषय पर पुस्तक खोल सकते हैं जैसे वज़न कैसे कम किया जाए, इंटरव्यू के लिए कैसे
तैयारी की जाए, सफलता के 101 तरीके इत्यादि| ऐसे कितने ही अनगिनत विषयों पर असंख्य खंड मिलते हैं, लेकिन मन की जागरूकता पुस्तक से
नहीं सीखी जा सकती|
मन की एक और प्रकृति है - ये नकारात्मक विचारों से जकड़ा रहता है| यदि 10 सकारात्मक घटनाओं के
बाद एक नकारात्मक घटना हो, तो मन नकारात्मकता को चिपकाए रखेगा। वह 10 सकारात्मक घटनाओं को
भूल जाएगा| ध्यान द्वारा, आप मन की इन दोनों प्रकृतियों से सजग हो जाएंगे और उसे वर्तमान में ले आएंगे|
ख़ुशी, आनंद, उत्साह, कार्यक्षमता ये सब
वर्तमान में हैं|
मानव मन बहुत जटिल है| इसके नाज़ुक और कठोर दो पहलु हैं| यदि किसी मित्र या ऑफिस के
सहकर्मी के साथ आपकी कोई गलतफहमी हो गई है तो आप भीतर से कठोर हो जाते हैं और ये
आपकी भावनाओं को विकृत करके आपको नकारात्मक बना देता है और आप जहां जाते हैं,
इस नकारात्मकता को
साथ लेकर चलते हैं|
जब आप ध्यान द्वारा मन को उन्नत करते हैं तो मन की नकारात्मकता को पकड़े रखने
की प्रवृति अदृश्य हो जाती है| आप वर्तमान क्षण में जीने की योग्यता और क्षमता प्राप्त कर
लेते हैं। भूतकाल को छोड़ने में सक्षम हो जाते हैं|
अहंकार ही माया है
अधिकतर लोग ईश्वर की सत्ता को मानते हैं, फिर क्या वजह है कि लोग यह मानते
हुए भी उसे देख नहींपाते? इसका जवाब यह है कि उन लोगों को ईश्वर इसलिए दिखाई नहीं
देता, क्योंकि
माया का आवरण मनुष्य के ऊपर पड़ा होता है। जैसे सूर्य सबको प्रकाश और ऊष्मा देता
है, लेकिन
यदि वह बादलों से घिर जाए, तो अपना काम नहीं कर पाता। माया का पर्दा भी इसी प्रकार है।
अब प्रश्न यह है कि यह माया है क्या? माया है हमारा अहंकार।
अहंकार के रूप में यह माया बिल्कुल सूर्य के सामने आ गए मेघ की तरह ही है। इसी
के कारण हम ईश्वर को नहीं देख पाते। इसे इस तरह समझो कि अगर मैं अपने अंगोछे की ओट
कर लूं, तो
तुम मुझे नहीं देख सकते, लेकिन सच्चाई यह है कि मैं तुम्हारे बिल्कुल नजदीक हूं। इसी
तरह ईश्वर भी हमारे बहुत निकट है, किंतु अहंकार रूपी आवरण के कारण हम उसे नहीं देख पाते।
क्योंकि जब अहंकार रहता है, तब न ज्ञान होता है, न मुक्ति मिलती है।
अहंकार के कारण घमंड आता है। हांडी में रखे दाल, चावल, पानी या आलू को हम तभी छू सकते
हैं, जब तक
उसे आग पर न रखा जाए। जीव की देह भी हांडी की तरह है। धन, मान-सम्मान, विद्या-बुद्धि, जाति-कुल आदि उन दाल,
चावल और आलुओं की
तरह हैं। अहंकार वह आग है, जो इनमें शामिल होकर उन्हें तप्त कर देती है। अहंकार रूपी
अग्नि के कारण जीव गर्म (गर्वीला या घमंडी) होता है।
मैं (स्वयं को महत्वपूर्ण समझने) का भाव जब तक पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता,
मनुष्य को मुक्ति
नहीं मिलती। उसकी गति बछड़े जैसी हो जाती है। जन्मते ही वह हम्बा (हम) करके बोलता
है। उसे हल में जोता जाता है, तो कभी वह कसाई का शिकार बन जाता है, उसकी खाल से जूते और ढोल बनाए
जाते हैं। तब भी उसका अहंकार नहीं जाता। ढोल को पीटा जाता है, तब भी वह हम-हम करके ही
बजता है। जब तांत बनती है, तब धुनिया उससे रूई धुनता है, तब वह तुम-तुम करके बजती है। वह
हम से तुम पर आ जाता है। मैं से तुम पर आ जाने से ही अहंकार से मुक्ति मिलती है।
अहंकार या मैं दो तरह का होता है। एक कच्चा मैं और दूसरा पक्का मैं। मैं जो
कुछ देखता, सुनता या महसूस करता हूं, उसमें कुछ भी मेरा नहीं है, यहां तक कि यह शरीर भी मेरा नहीं
है। मैं नित्यमुक्त हूं, ज्ञान-स्वरूप हूं। यह विचार पक्का मैं है, यह भक्ति और ज्ञान का
मैं है, जो
सकारात्मक है। वहीं यह मेरा मकान है, यह मेरी पत्नी है, यह मेरा शरीर है, यह कच्चा मैं है। यही
माया है। जो अहंकार मनुष्य को कामिनी-कंचन में आबद्ध करता है, वह नकारात्मक है।
दरअसल, मैं और मेरा, यह अज्ञान का भाव है। तुम और तुम्हारा- यही ज्ञान है। जो सच्चा भक्त होता है,
वह कहता है- जो
कुछ भी कर रहे हो, वह तुम्हीं कर रहे हो, मेरा तो कुछ भी नहीं है। मैं तो तुम्हारे लिए कर्म कर रहा
हूं।
मैं सिर्फ एक छोटा-सा शब्द है, इसे दूर करना अत्यंत कठिन है, लेकिन असंभव भी नहीं। शंकराचार्य
का एक शिष्य था। वह कई दिनों से उनकी सेवा में था, लेकिन आचार्य ने उसे कोई उपदेश
नहीं दिया था। एक दिन शंकराचार्य अपने आसन पर बैठे थे। किसी के आने की आहट हुई।
आचार्य ने पूछा - कौन है? शिष्य बोला- मैं। तब आचार्य ने कहा- यदि तुझे मैं इतना ही
प्रिय है, तो तू इसे और भी बढ़ा ले। अर्थात सारा जगत मैं ही हूं, यह धारणा कर ले। या फिर इसे पूरी
तरह त्याग दे।
यदि कोशिश करने से मैं नहीं जाता, तो उसे दास बना लो। इस भाव में रहो कि मैं दास हूं।
ईश्वर का दास हूं, भक्त हूं। ऐसे मैं में कोई दोष नहीं। मिठाई खाने से अम्लदोष होता है, पर मिश्री इसका अपवाद
है। इसी तरह यह मैं बुरा नहीं। दास का मैं, भक्त का मैं और बालक का मैं
जलराशि पर खींची हुई रेखा के समान हैं, जो ज्यादा देर नहीं टिकते।
जीव और बहृम में भेद बस इसीलिए है कि उनके बीच मैं खड़ा हुआ है। पानी में लाठी
डाल दी जाए, तो पानी दो भागों में बंटा हुआ दिखाई देता है। अहं या मैं ही वह लाठी है। इसे
उठा लो, तो
पानी एक हो जाएगा। जीव और ब्रहृम् आपस में मिल जाएंगे।
सुखी रहने के लिए व्यवहार की कला सीखें
(1) अपने साथ पुरुषवत् व्यवहार करो। जैसे पुरुष का हृदय अनुशासनवाला, विवेकवाला होता है,
ऐसे अपने प्रति
तटस्थ व्यवहार करो। कहीं गलती हो गयी तो अपने मन को अनुशासित करो।
(2) दूसरों के साथ मातृवत् व्यवहार करो। जैसे माँ बालक के प्रति उदार होती है,
उसी तरह दूसरों के
साथ उदार व्यवहार करो। पूत कपूत हो जाय लेकिन माता कुमाता नहीं होती। इसी प्रकार
दूसरों के साथ मातृवत् व्यवहार करें।
(3) भगवान के साथ शिशुवत् व्यवहार करो। जीवन सरल, स्वाभाविक, निर्दोष होगा तो
भगवत्प्राप्ति सहज है और जीवन जितना अड़ा-कड़ा-जटिल होगा, छल-छिद्र-कपटयुक्त होगा, उतना भगवान हमसे दूर
होंगे। भगवान राम कहते हैं : मोहि कपट छल छिद्र न भावा। अतः इनसे बचो। जैसे
निर्दोष चित्त शिशु मां की गोद में अपने को डाल देता है, ऐसे ही आप भी कभी-कभी उस नारायण
रूपी मां की गोद में उसी का ध्यान-चिंतन करते हुए निश्चिंत होकर लेट जाओ कि ‘मैं उस परमात्मा में,
ईश्वरीय सुख में
विश्रांति पा रहा हूँ... मैं निश्चिंत हूँ... जो होगा प्रभु जानें।’
इसी प्रकार पतंजलि ऋषि ने ‘पातंजल योग-दर्शन’ में सफल व्यवहार के चार सिद्धांत बताये हैं:
मैत्री:
जो श्रेष्ठ लोग हैं, सत्संगी हैं, भगवान के रास्ते जाते हैं व दूसरों को ले जाते हैं,
उनसे मित्रवत
व्यवहार करो। उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर उनके दैवी कार्य में भागीदार हों।
श्रेष्ठजनों से, अपने से ऊंचे पुरुषों से, शुद्धात्मा-पवित्रात्मा व्यक्तियों से प्रयत्नपूर्वक संबंध
जोड़ें। चाहे मित्रता का संबंध जोड़ें, चाहे कोई और जोड़ें, चाहे गुरु का जोड़ें किंतु अपने
से श्रेष्ठ के साथ संबंध जोड़ना यह मैत्री है।
करुणा:
आपसे जो छोटे हैं, नासमझ हैं, नौकर हैं, बच्चे हैं, कम योग्यतावाले हैं उनसे करुणाभरा व्यवहार करो।
पुत्र-परिवार जो अपने अधीन हैं, जो दीन-दुःखी हैं, आप से आध्यात्मिकता में पीछे हैं, उनके प्रति करुणा रखकर
व्यवहार किया जाना चाहिए। उनसे गलतियां होगी, उनका अपना स्वार्थ, अपनी आवश्यकताएं होगी
फिर भी वे आप से छोटे हैं, इसलिए उनके प्रति करुणा रखकर उन्हें ऊपर उठायें। ऊपर उठाने
के लिए प्यार-पुचकार व डांट-फटकार भी करुणा का ही रूप है।
मुदिता:
जो अच्छे कार्य में, दैवी कार्य में लगे हैं उनका अनुमोदन करो। जिनसे आपका संबंध
नहीं है किंतु वे अच्छा काम करते हैं। उन्हें ‘भाई ! अच्छा किया। यह काम हम तो
नहीं कर पाये। आपने कर दिया, बहुत अच्छा है।’ ऐसा कहकर उनका अनुमोदन करें तो अच्छाई बढ़ाने का
पुण्य आपको भी मिलेगा। यह है मुदिता।
उपेक्षा:
जो निपट निराले हैं, उनको छोड़ो। उनको ठीक करने का ठेका आप लोगे तो आप परेशान हो
जाओगे। ऐसे लोगों को समझो, आपके लिए पैदा ही नहीं हुए। उनकी उपेक्षा कर दो। घर,
ऑफिस या दुकान में
ही मान लें, दो, चार,
दस, सौ या हजार सदस्य हैं।
उनमें से कुछ तो ऐसे ही होंगे जो आपकी बात सुनी-अनसुनी करते रहेंगे, टाल देंगे। उनसे सावधान
होकर आप धीरे-धीरे उनकी उपेक्षा कर दीजिये। उनसे लड़-झगड़कर अपना समय खराब न करें।
जैसे - इंदिरा गांधी की गुरु आनंदमयी मां करती थीं।
उनके आश्रम में कुछ लोग उलटा-सीधा करते तो वे पहले एक-दो बार उन्हें संकेत करके
समझातीं, किंतु
यदि वे लोग सुना-अनसुना कर देते तो बाद में वे उनकी तरफ ध्यान ही नहीं देती थीं।
जैसे - कुत्ता रोटी का टुकड़ा खाता है तो खाये, आपने उसकी उपेक्षा कर दी। जो
महापुरुषों द्वारा उपेक्षित हो जाते हैं, उन्हें फिर शांति और आनंद से हाथ धोना पड़ता है। जो
नहीं मानें उनकी उपेक्षा, जो बराबरी के हैं उनसे मुदिता, जो छोटे हैं उन पर करुणा और जो
श्रेष्ठ हैं उनसे मैत्री करें। जो व्यक्ति मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा - इन चार बातों के
अनुसार जीवन में व्यवहार करेगा, वह सुखी और शांत रहेगा।
सच्ची हँसी ही सच्ची प्रार्थना है
यदि आपका कभी ईश्वर से मिलना हो तो जानते हैं आप उन्हें क्या कहेंगे? अरे! मैं तो अपने भीतर आप से मिल चुका हूं। ईश्वर आप में नृत्य करते हैं, उस दिन जिस दिन आप हँसते
और प्रेम में होते हो। सुबह हँसना ही सच्ची प्रार्थना है। ऊपरी हँसना नही बल्कि अंदर
की गहराई से हँसना। वास्तविक हँसी आपके भीतर से आपके हृदय से आती है।
सच्ची हँसी ही सच्ची प्रार्थना है। जब आप हँसते हो तो सारी प्रकृति आपके साथ
हँसती है। यही हँसी प्रतिध्वनि होती है और गूंजती है, यही वास्तविक जीवन है। जब सब कुछ
आपके अनुसार हो रहा हो तो कोई भी हँस सकता है, लेकिन जब सब कुछ आपके विपरीत हो
रहा हो और आप हँस सके तो समझो विकास हो रहा है।
तो आपके जीवन में आपकी हँसी से मूल्यवान और कुछ नही। चाहे जो हो जाये इसे किसी
के लिये खोना नही है। घटनाएं आती हैं और जाती हैं। कुछ तो सुखद होगी और कुछ दुखद,
लेकिन जो कुछ भी
हो आपको वे छू न पाये। आपके अस्तित्व के भीतर ऐसा कुछ है जो कि अनछुआ है। उस पर ही
रहे जो अपरिवर्तनशील है। तभी आप हँसने के योग्य होंगे।
हँसने में भी भेद है। कभी कभी आप अपने आपको नही देखने के लिये या कुछ सोचने से
बचने के लिये हँसते हो। लेकिन जब आप हर क्षण यह देखते हो और अनुभव करते हो कि जीवन
हर क्षण है और जीवन का हर क्षण अपराजेय है तो आपको कोई परेशान नही कर सकता। आपने
एक नवजात हो देखा होगा, छ माह का या एक वर्ष का। जब वे हँसते हैं तो उनका पूरा शरीर
हिलता और कूदता है। उनकी हँसी उनके मुंह से ही नही आती, उनके शरीर का हर एक कण हँसता है।
यह समाधि है। यह हँसी अबोध है, शुद्ध है, बिना किसी तनाव की है। हँसी हमें खोलती है, हमारे दिल को खोलती है।
ध्यान की अवस्था के साथ ही जन्म लेते हैं हम।
ध्यान चेतना की विशुद्ध अवस्था है-जहां कोई विचार नहीं होते, कोई विषय नहीं होता।
साधारणतया हमारी चेतना विचारों से, विषयों से, कामनाओं से आच्छादित रहती है। जैसे कि कोई दर्पण धूल से
ढंका हो। हमारा मन एक सतत प्रवाह का है- विचार चल रहे हैं, कामनाएं चल रही हैं, पुरानी स्मृतियां सरक
रही हैं- रात-दिन एक अनवरत सिलसिला है। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है,
स्वप्न चलते रहते
हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है। ठीक इससे उलटी अवस्था ध्यान की है।
जब कोई विचार नहीं चलते और कोई कामनाएं सिर नहीं उठातीं, सारा ऊहापोह शांत हो
जाता है और हम परिपूर्ण मौन में होते हैं-वह परिपूर्ण मौन ध्यान है। और उसी परिपूर्ण
मौन में सत्य का साक्षात्कार होता है। जब मन नहीं होता, तब जो होता है वह ध्यान है।
इसलिए मन के माध्यम से कभी ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात का बोध है
कि मैं मन नहीं हूं। जैसे-जैसे हमारा बोध गहरा होता है, कुछ झलकें मिलनी शुरू होती
हैं-मौन की, शांति की-जब सब थम सा जाता है और मन में कुछ भी चलता नहीं। उन मौन, शांत क्षणों में ही हमें
स्वयं की सत्ता की अनुभूति होती है और इस अस्तित्व के रहस्य का स्पर्श होता है।
धीरे-धीरे एक दिन आता है, एक बड़े सौभाग्य का दिन आता है, जब ध्यान हमारी सहज अवस्था हो
जाता है। मन असहज अवस्था है। यह हमारी सहज-स्वाभाविक अवस्था कभी नहीं बन सकता।
ध्यान हमारी सहज अवस्था है, लेकिन हमने उसे खो दिया है। हम उस स्वर्ग से बाहर आ गए हैं।
लेकिन यह स्वर्ग पुनः पाया जा सकता है। किसी बच्चे की आंखों में झांकें-और वहां
आपको अदभुत मौन दिखेगा, अदभुत निर्दोषता दिखेगी।
हर बच्चा ध्यान को लिए हुए ही पैदा होता है- लेकिन उसे समाज के रंग-ढंग सीखने
ही होंगे। उसे विचार करना, तर्क करना, हिसाब-किताब, सब सीखना ही होगा। उसे शब्द, भाषा, व्याकरण सीखना ही होगा। और,
धीरे-धीरे वह अपनी
निर्दोषता, सरलता से दूर हटता जाएगा। उसकी कोरी स्लेट समाज की लिखावट से गंदी होती जाएगी।
वह समाज के ढांचे में एक कुशल यंत्र हो जाएगा-एक जीवंत, सहज मनुष्य नहीं।
बस उस निर्दोष सहजता को पुनः उपलब्ध करने की जरूरत है। उसे हमने पहले जाना है।
इसलिए जब हमें ध्यान की पहली झलक मिलती है तो एक बड़ा आश्चर्य होता है कि इसे तो
हम जानते हैं! और यह प्रत्यभिज्ञा बिलकुल सही है-हमने इसे पहले जाना है। लेकिन हम
भूल गए हैं। हीरा कूड़े-कचरे में दब गया है। लेकिन अगर हम जरा ही खोदें तो हीरा
पुनः हाथ आ सकता है- वह हमारा स्वभाव है। उसे हम खो नहीं सकते; उसे हम केवल भूल सकते
हैं।
हम ध्यान में ही पैदा होते हैं। फिर हम मन के रंग-ढंग सीख लेते हैं। लेकिन
हमारा वास्तविक स्वभाव अंतर्धारा की तरह भीतर गहरे में बना ही रहता है। किसी भी
दिन, थोड़ी
सी खुदाई, और हम पाएंगे कि वह धारा अभी भी बह रही है, जीवन-स्रोत के झरने ताजा जल अभी
भी ला रहे हैं। और उसे पा लेना जीवन का सबसे बड़ा आनंद है।
'अचल' असलियत
है और 'चल'
माया है
संत कबीरजी ने बहुत पते की बात कही थी-
संत कबीरजी ने बहुत पते की बात कही थी-
चलती चक्की देखके दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबित बचा ना कोय॥
चक्की चले तो चालन दे तू काहे को रोय। लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय॥
चक्की में गेहूँ डालो, बाजरा डालो तो पीस देती है लेकिन वह दाना पिसने से बच जाता
है जो कील के साथ सटा रह जाता है, अबदल को छुए रहता है। यह बदलनेवाला जो चल रहा है, वह अचल के सहारे चल रहा
है। जैसे बीच में कील होती है उसके आधार पर चक्की घूमती है, साइकिल या मोटर साइकिल का पहिया
एक्सल पर घूमता है। एक्सल ज्यों-का-त्यों रहता है।
पहिया जिस पर घूमता है, वह घूमने की क्रिया से रहित है। न घूमनेवाले पर ही
घूमनेवाला घूमता है । ऐसे ही अचल पर ही चल चल रहा है, जैसे - अचल आत्मा के बल से बचपन
बदल गया, दुःख
बदल गया, सुख
बदल गया, मन
बदल गया, बुद्धि
बदल गयी, अहं
भी बदलता रहता है - कभी छोटा होता है, कभी बढ़ता है ।
जो अचल है वह असलियत है और जो चल है वह माया है। कोई दुःख आये तो समझ लेना यह
चल है, सुख
आये तो समझ लेना यह चल है, चिंता आये तो समझ लेना चल है, खुशी आये तो समझ लेना चल है। जो
आया है वह सब चल है। तो दो तत्त्व हैं - प्रकृति ‘चल’ है और परमेश्वर आत्मा ‘अचल’ है। अचल में जो सुख है,
ज्ञान है, सामर्थ्य है उसी से चल
चल रहा है।
जो दिखता है वह चल है, अचल दिखता नहीं। जैसे मन दिखता है बुद्धि से, बुद्धि दिखती है विवेक
से और विवेक दिखता है अचल आत्मा से। मेरा विवेक विकसित है कि अविकसित है यह भी
दिखता है अचल आत्मा से। अचल से ही सब चल दिखेगा, सारे चल मिलकर अचल को नहीं देख
सकते। अचल को बोलते हैं: 1ओंकार सतिनामु करता पुरखु... कर्ता-धर्ता वही है अचल। वह
अजूनी सैभं... अयोनिज (अजन्मा) और स्वयंभू है। चल योनि (जन्म) में आता है, अचल नहीं आता। तो मिले
कैसे? बोले:
गुर प्रसादि। गुरुकृपा से मिलता है। चल के आदि में जो था, चल के समय में भी है, चल मर जाय फिर भी जो
रहता है वह सचु जुगादि... युगों से अचल है।
आप हरि ओ... म्... इस प्रकार लम्बा उच्चारण करके थोड़ी देर शांत होते हैं तो
आपका मन उतनी देर अचल में रहता है। थोड़े ही समय में लगता है कि तनावमुक्त हो गये,
चिंतारहित हो गये
- यह ध्यान का तरीका है। ज्ञान का तरीका है कि चल कितना ही बदल गया, देखा अचल ने। सुख-दुःख
को जाननेवाला भी अचल है। अगर इस अचल में प्रीति हो जाय, अगर अचल का ज्ञान पाने में लग
जायें अथवा ‘मैं कौन हूँ?’ यह खोजने में लग जायें तो यह अचल परमात्मा दिख जायेगा अथवा ‘परमात्मा कैसे मिलें?’
इसमें लगोगे तो
अपने ‘मैं’
का पता चल जायेगा।
क्योंकि जो मैं हूँ वही आत्मा है और जो आत्मा है वही अचल परमात्मा है। जो
बुलबुला है वही पानी है और पानी ही सागर के रूप में लहरा रहा है। बोले : ‘‘बुलबुला सागर कैसे हो
सकता है ?’’ बुलबुला सागर नहीं है लेकिन पानी सागर है । ऐसे ही जो अचल आत्मा है वह
परमात्मा का अविभाज्य अंग है । घड़े का जो आकाश है, थोड़ा दिखता है लेकिन है यह
महाकाश ही।
जो अचल है उसमें आ जाओ तो चल का प्रभाव दुःख नहीं देगा। नहीं तो चल कितना भी
ठीक करो, शरीर
को कभी कुछ-कभी कुछ होता ही रहता है। ‘यह होता है तो शरीर को होता है, मुझे नहीं होता’
- ऐसा समझकर शरीर
का इलाज करो लेकिन शरीर की पीड़ा अपने में मत मिलाओ, मन की गड़बड़ी अपने अचल आत्मा
में मत मिलाओ तो जल्दी मंगल होगा।
अपने-आप में भी तलाशें ईश्वरत्व
अच्छे, बुरे, सही, गलत,
ऐसा करना चाहिये,
ऐसा नही करना
चाहिए ये सब आपको बांध लेता हैं। हर विचार किसी ना किसी स्पंदन या भावना से जुड़ा
है। स्पंदनों को देखे और शरीर में अनुभव को देखे। भावना की लय को देखे - यदि आप
देखेंगे तो आप कोई गलती नही करेंगे। आपके पास एक ही तरह की भावनाओं का पथ है,
लेकिन आप इन
भावनाओं को अलग कारणों से, अलग अलग वस्तुओं से , अलग अलग लोगों से, स्थिति-परिस्थितियों से
जोड़ लेते हो।
एक विचार को विचार के रुप में ही देखें, एक भावना को भावना के रुप में ही
देखे तब आप खुल जायेगें अपने आप में ईश्वरत्व को देख पायेंगे। देखना इन्हें
अलग-अलग परिणाम देता है। जब आप नकारात्मकता को देखते हैं तो ये तुरंत समाप्त हो
जाती है और जब आप सकारात्मकता को देखते हैं तो वे बढ़ने लगती हैं। जब आप क्रोध को
देखेंगे तो यह समाप्त हो जायेगा और जब आप प्रेम को देखेंगे तो यह बढ़ जायेगा।
यही सर्वोत्तम और एकमात्र उपाय है। आने वाले हर विचार को देखें और उन्हें जाते
हुये देखें। नकारात्मक विचारों के आने का एकमात्र कारण तनाव है। यदि आप किसी दिन
बहुत तनाव में हों तो उसके अगले दिन या उस से अगले दिन आप में नकारात्मक विचार आने
लगेंगे और आप परेशान हो जायेंगे।
इन विचारों से, जिनका कोई अर्थ नही है, पीछा छुड़ाने के स्थान पर आप उन बिंदुओं को, कारणों को खोजें जिनके
कारण ये विचार आ रहें हैं। यदि स्रोत स्वच्छ है तो मात्र सकारात्मक विचार ही
आएंगे। यदि नकारात्मक विचार आते है तो आप ये मान ले, ‘‘तो क्या। ‘‘वे आयेंगे और तुरंत गायब
हो जायेगें। हमें जो जैसा है उसे वैसा ही देखने की आवश्यकता है, विषय और पूर्णता के साथ।
यह जीवन के लिये सारभूत है।
भगवान का सबसे प्रिय आहार अहंकार
अहंकार शब्द बना है अहं से, जिसका अर्थ है 'मैं'। जब व्यक्ति में यह भावना आ जाती है कि 'जो हूं सो मैं, मुझसे बड़ा कोई दूसरा
नहीं है' तभी
व्यक्ति का पतन शुरू हो जाता है। द्वापर युग में सहस्रबाहु नाम का राजा हुआ। इसे
बल का इतना अभिमान हो गया कि शिव से ही युद्घ करने पहुंच गया। भगवान शिव ने
सहस्रबाहु से कह दिया कि तुम्हारा पतन नजदीक आ गया है। परिणाम यह हुआ कि भगवान
श्री कृष्ण से एक युद्घ में सहस्रबाहु को पराजित होना पड़ा।
रावण विद्वान होने के साथ ही महापराक्रमी था। उसे अपने बल और मायावी विद्या का
अहंकार हो गया और उसने सीता का हरण कर लिया। इसका फल रावण को यह मिला कि रावण का
वंश सहित सर्वनाश हो गया। अंत काल में उसका सिर भगवान राम के चरणों में पड़ा था।
भगवान कहते हैं 'मेरा सबसे प्रिय आहार अहंकार है' अर्थात अहंकारियों का सिर नीचा करना भगवान को सबसे
अधिक पसंद है।
अहंकारी का सिर किस प्रकार भगवान नीच करते हैं इस संदर्भ में एक कथा है कि,
नदी किनारे एक
सुन्दर सा फूल खिला। इसने नदी के एक पत्थर को देखकर उसकी हंसी उड़ायी कि, तुम किस प्रकार से नदी
में पड़े रहते हो। नदी की धारा तुम्हें दिन रात ठोकर मारती रहती है। मुझे देखो मैं
कितना सुन्दर हूं। हवाओं में झूमता रहता हूं। पत्थर फूल की बात को चुपचाप सुनता
रहा।
पानी में घिसकर पत्थर ने शालिग्राम का रूप ले लिया था। किसी व्यक्ति ने उसे
उठाकर अपने पूजा घर में स्थापित किया और उसकी पूजा की। पूजा के समय उस व्यक्ति ने
फूल को शालिग्राम के चरणों में रख दिया। फूल ने जब खुद को पत्थर के चरणों में पाया
तो उसे एहसास हो गया कि उसे अपने अहंकार की सजा मिली है। पत्थर ने अब भी कुछ नहीं
कहा वह फूल की मनःस्थिति को देखकर मुस्कुराता रहा।
मौन मूल है और शोर सतह
वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध को जब बोध प्राप्त हुआ, तो ऐसा कहा जाता है कि वे एक
सप्ताह तक मौन रहे। उन्होनें एक भी शब्द नहीं बोला। पौराणिक कथायें कहती हैं कि
स्वर्ग के सभी देवता चिंता में पड़ गये। वे जानते थे कि करोड़ों वर्षों में कोई
विरला ही बुद्ध के समान ज्ञान प्राप्त कर पाता है। और वे अब चुप हैं!
देवताओं नें उनसे बोलने की विनती की। महात्मा बुद्ध ने कहा, ''जो जानते हैं, वे मेरे कहने के बिना भी
जानते हैं और जो नहीं जानते है, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे। एक अंधे आदमी को प्रकाश
का वर्णन करना बेकार है। जिन्होनें जीवन का अमृत ही नहीं चखा है उनसे बात करना
व्यर्थ है, इसलिए मैनें मौन धारण किया है। जो बहुत ही आत्मीय और व्यक्तिगत हो उसे कैसे
व्यक्त किया जा सकता है? शब्द उसे व्यक्त नहीं कर सकते। शास्त्रों में कहा गया है कि,
"जहाँ शब्दों
का अंत होता है वहाँ सत्य की शुरुआत होती है''।
देवताओं ने उनसे कहा, ''जो आप कह रहे हैं वह सत्य है परन्तु उनके बारे में सोचें जो
सीमारेखा पर हैं, जिनको पूरी तरह से बोध भी नहीं हुआ है और पूरी तरह से अज्ञानी भी नहीं हैं।
उनके लिए आपके थोड़े से शब्द भी प्रेरणादायक होंगे, उनके लाभार्थ आप कुछ बोलें और
आपके द्वारा बोला गया हर एक शब्द मौन का सृजन करेगा''।
शब्दों का उद्देश्य मौन बनाना है। यदि शब्दों के द्वारा और शोर होने लगे तो
समझना चाहिए, वे अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। बुद्ध के शब्द निश्चित ही मौन
का सृजन करेंगे, क्योंकि बुद्ध मौन की प्रतिमूर्ति हैं। मौन जीवन का स्त्रोत है और रोगों का
उपचार है। जब लोग क्रोधित होते हैं तो वे मौन धारण करते है। पहले वे चिल्लाते हैं
और फिर मौन उदय होता है। जब कोई दुखी होता है, तब वह अकेला रहना चाहता है और
मौन की शरण में चला जाता है। उसी तरह जब कोई शर्मिंदा होता है तो भी वह मौन का
आश्रय लेता है। जब कोई ज्ञानी होता है, तो वहाँ पर भी मौन होता है।
अपने मन के शोर को देखें। वह किसके लिए है? धन? यश? पहचान? तृप्ति? सम्बन्धों के लिये? शोर किसी चीज़ के लिए
होता है; और
मौन किसी भी चीज़ के लिए नहीं होता है। मौन मूल है; और शोर सतह है।
जीवन का अर्थ बताती है अर्थी
जीवन भर व्यक्ति इसी सोच में उलझा रहता है कि उसका परिवार है, बीबी बच्चे हैं। इनके
लिए धन जुटाने और सुख-सुविधाओं के इंतजाम में हर वह काम करने के लिए तैयार रहता है
जिससे अधिक से अधिक धन और वैभव अर्जित कर सके। अपने स्वार्थ के लिए व्यक्ति दूसरों
को नुकसान पहुंचाने के लिए भी तैयार रहता है। जबकि हर व्यक्ति के शरीर में आत्मा
रूप में बसा ईश्वर गलत तरीके से, दूसरों को अहित पहुंचाकर लाभ पाने के लिए मना करता है।
लेकिन जब व्यक्ति आत्मा की बात नहीं सुनता है तो आत्मा मौन धारण कर लेती है।
आत्मा को उस दिन का इंतजार रहता है जब व्यक्ति अर्थी पर पहुंचता है। इस समय
व्यक्ति को जीवन का अर्थ और आत्मा की कही बातें याद आती है। लेकिन इस समय पश्चाताप
के अलावा कुछ और नहीं बचता है। सब कुछ मिट्टी में मिल चुका होता है।
आपने मृत व्यक्ति को बांस की फट्ठियों पर लेकर जाते हुए कभी न कभी जरूर देखा
होगा। बांस की फट्ठियों पर जिस पर शव को लिटाया जाता है इसे अर्थी कहते हैं। अर्थी
को उठाने के लिए चार कंधों की जरूरत पड़ती है। जब व्यक्ति की अर्थी उठायी जाती है
उस समय आत्मा मृत व्यक्ति से कहती है देखो, तुम्हारी यही औकात है।
तुम्हें खुद सहारे की जरूरत है, तुम झूठा अहंकार करते रहे कि तुम लोगों को आश्रय दे
रहे हो। जिन लोगों के लिए तुम दिन रात धन-वैभव जुटाने में लगे रहे। आज वह संगी
साथी परिवार तुम्हें विराने में ले जाकर अग्नि में समर्पित कर देगा। जीवन का मात्र
यही अर्थ है। इसलिए अर्थी को जीवन का अर्थ बताने वाला कहा गया है।
अर्थी ले जाते समय लोग जोर-जोर से नारे लगाते हैं 'राम नाम सत्य है, सब की यही गत्य है।'
नारे लगाने वाले
लोग मृत व्यक्ति को और दुनियां को यह बताता है कि वास्तविक सत्य 'राम का नाम है। अंत में
सभी की यही गति होनी है।' इसलिए प्रभु का नाम भजते हुए ईमानदारी और सहृदयता के साथ
जीवन जीना चाहिए।
जरूरतमंदों की सहायता से कभी पीछे नहीं हटना चाहिए। गीता के ग्यारहवें अध्याय
का महात्म्य बताते हुए भगवान शिव ने कहा है कि जो व्यक्ति जरूरत के समय व्यक्ति से
नज़र फेर लेता है वह नीच योनियों में जन्म लेता है। जरूरत के समय दूसरों की सहायता
करने वाला व्यक्ति कई पापों से मुक्त हो जाता है। इसलिए व्यक्ति को परमार्थी होना
चाहिए। मनुष्य का जन्म ही इस उद्देश्य के लिए हुआ। जो व्यक्ति इस अर्थ को नहीं
समझता उसे अर्थी पर जाकर ही जीवन का अर्थ ज्ञात होता है।
जीवन की बाधाओं में भी छुपी होती है अच्छाई
जीवन में सब कुछ सामान्य चल रहा हो और अचानक कुछ समस्या आते ही हम कहने लगते
हैं 'हे
भगवान ये क्या कर रहे हो' जीवन में स्पीड ब्रेकर को हम स्वीकार ही नहीं करना चाहते।
जबकि स्पीड ब्रेकर खुद हमारे लिए और दूसरों की सुरक्षा के लिए बनाए जाते हैं। अगर
अपनी सोच सकारात्मक रखेंगे और जीवन में आने वाली बाधा का विश्लेषण करेंगे तो
पाएंगे कि इसमें भी कहीं न कहीं हमारे लिए अच्छाई छुपी हुई है।
ज्योतिषशास्त्र का नियम है कि व्यक्ति के जीवन में हर तीस साल के बाद
साढ़ेसाती आती है। साढ़ेसाती लोगों को भक्ति और परिश्रम के लिए प्रेरित करती है।
जो व्यक्ति साढ़ेसाती के दौरान भक्ति और परिश्रम करता है शनि की उतरती साढ़ेसाती
में उसे अपनी मेहनत का संपूर्ण लाभ मिलता था। यही कारण था कि प्राचीन काल में लोग
अधीरतापूर्वक साढ़ेसाती का इंतजार करते करते थे।
आज का मनुष्य साढ़ेसाती के नाम से घबराता है। मनुष्य इसे अपनी रफ्तार के बीच
में स्पीड ब्रेकर मानता है। जबकि ईश्वर ने जान-बूझकर ऐसी व्यवस्था की है कि मनुष्य
जीवन का अर्थ समझे, अपनी मुक्ति के लिए प्रयास करे और मेहनत के फल का महत्व समझे। वास्तव में
ईश्वर की हर बात में मनुष्य की भलाई छुपी होती है।
संदर्भ में कथा
इस संदर्भ में बहुत ही रोचक कथा है। एक राजा थे, उनका मंत्री बहुत ही समझदार था।
मंत्री अक्सर यह कहता था कि जो होता है अच्छा होता है। एक बार राजा अपने मंत्री के
साथ शिकार करने गया। रास्ता भटक जाने के कारण राजा और मंत्री बिछड़ गये। शिकार के दौरान
एक शेर ने राजा को दबोच लिया। राजा ने अपने आपको बहुत बचाने की कोशिश की लेकिन शेर
ने राजा की एक उंगली खा ली। इसी बीच मंत्री वहां पहुंच गया और उसने राजा की जान
बचाई। राजा की कटी हुई उंगली देखकर मंत्री ने कहा कि चलो भगवान जो करता है अच्छे
के लिए करता है।
राजा को मंत्री की बात पर बहुत क्रोध आया और उसने मंत्री को एक पेड़ से बांध
दिया। इसके बाद जंगल में आगे चल पड़ा। राजा को कुछ आदिवासियों ने पकड़ लिया और
बंदी बना लिया। अदिवासियों ने कहा कि कुल देवी की प्रसन्नता के लिए तुम्हारी बलि
देंगे। रात में बलि देने की तैयारी हुई। जब राजा की बलि दी जाने वाली थी उसी समय
आदिवासियों के पुरोहित ने देखा कि राजा की एक उंगली नहीं। पुरोहित ने कहा कि राजा
एक अंग कटा हुआ है, यह संपूर्ण नहीं है इसलिए देवी इसकी बलि स्वीकार नहीं करेगी। राजा को
आदिवासियों ने मुक्त कर दिया।
राजा लौटकर मंत्री के पास आया और सारी घटना बतायी। मंत्री ने कहा कि मैंने कहा
था न 'भगवान
जो करता है भले के लिए'। राजा ने कहा, लेकिन मैंने जो तुम्हें पेड़ से बांध दिया यह तो
उचित नहीं किया।' मंत्री ने कहा यह भी उचित था महाराज अगर आप मुझे साथ ले जाते तो आदिवासी मेरी
बलि चढ़ा देते। इसलिए भगवान जो करता है अच्छा करता है।
चाहो तो देवताओं को प्रकट कर सकते हो
हाथी बाबा, हरि बाबा, उड़िया बाबा, आनंदमयी माँ - ये चार समकालीन संत वृन्दावन में रहते थे। एक बार किसी ने हरि
बाबा से पूछा कि: ‘‘बाबा! आप ऐसे महान संत कैसे बने?’’
हरि बाबा ने कहा: ‘‘बचपन में जब हम खेल खेलते थे तो एक साधु भिक्षा लेकर आते और
हमारे साथ खेल खेलते। एक दिन साधु भिक्षा लाये और उनके पीछे वह कुत्ता लग गया,
जिसे वह रोज
टुकड़ा देते थे। पर उस दिन टुकड़ा दिया नहीं और झोले को एक ओर टांगकर हमारे साथ
खेलने लगे किंतु कुत्ता झोले की ओर देखकर पूँछ हिलाये जा रहा था। तब बाबा ने
कुत्ते से कहा: ‘चला जा, आज मुझे कम भिक्षा मिली है। तू अपनी भिक्षा माँग ले।’
फिर भी कुत्ता खड़ा रहा। तब पुनः बाबा ने कहा: ‘जा, यहां क्यों खड़ा है? क्यों पूँछ हिला रहा है?’
तीन-चार बार बाबा
ने कुत्ते से कहा, किंतु कुत्ता गया नहीं। तब बाबा आ गये अपने बाबापने में और बोले: ‘जा, उलटे पैर लौट जा।’
तब वह कुत्ता उलटे
पैर लौटने लगा। यह देखकर हम लोग दंग रह गये। हमने खेल बंद कर दिया और बाबा के पैर
छुए। बाबा से पूछा: ‘बाबा! यह क्या, कुत्ता उलटे पैर जा रहा है! आपके पास ऐसा कौन-सा मंत्र है कि वह ऐसे चल रहा है?’
बोले: ‘बेटा! वह बड़ा सरल मंत्र
है- सब में एक-एक में सब। तू उसमें टिक जा बस!’ तब से हम साधु बन गये।’’
मैं कहता हूं तुम्हारे आत्मदेव में इतनी शक्ति है, तुम्हारे चित्त में चैतन्य वपु
का ऐसा सामर्थ्य है कि तुम चाहो तो भगवान को साकार रूप में प्रकट कर सकते हो,
तुम चाहो तो भगवान
को सखा बना सकते हो, तुम चाहो तो दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति को सज्जन बना सकते हो, तुम चाहो तो देवताओं को
प्रकट कर सकते हो। देवता अपने लोक में हों चाहे नहीं हों, तुम मनचाहा देवता पैदा कर सकते
हो और मनचाहे देवता से मनचाहा वरदान प्राप्त कर सकते हो, ऐसी आपकी चेतना में ताकत है।
अगर देवता कहीं है तो वह आ जायेगा, अगर नहीं है तो तुम्हारे आत्मदेव उस देवता को पैदा
कर देंगे। उसी के द्वारा वरदान और काम करा देंगे। ऐसी तुममें शक्तियाँ छुपी हैं।
सुन्या सखना कोई नहीं सबके भीतर लाल। मूरख ग्रंथि खोले नहीं कर्मी भयो कंगाल॥
तो ‘सब
में एक- एक में सब’ इसमें जो संत टिके होते हैं, वे तो ऐसी हस्ती होते हैं कि जहाँ आस्तिक भी झुक जाता है,
नास्तिक भी झुक
जाता है, कुत्ता
तो क्या देवता भी जिनकी बात मानते हैं, दैत्य भी मानते हैं और देवताओं के देव भगवान भी
जिनकी बात रखते हैं। सब-के-सब लोग ऐसे ब्रह्मनिष्ठ सत्पुरुष को चाहते हैं एवं उनकी
बात मानते हैं।
गुरू की कृपा से अज्ञानता का पर्दा हटता है
प्रत्येक मनुष्य इस संसार में सुंदर व महान है। परंतु सही मायने में वह किना
सुंदर है, कितना सुंदर खजाना उसके ही अंदर छिपा है, इसका बोध उसे नहीं है। इस धरती
पर जब-जब महापुरुषों का आगमन हुआ तथा उनका सान्निध्य जिन लोगों को मिला, उन्होंने ही जीवन की
सुंदरता का सही मायने में एहसास किया। इसलिये शास्त्रों में गुरु की महिमा अनंत
बताई गई है।
हर मनुष्य के अंदर सुखी होने की जन्मजात इच्छा होती है। इस इच्छा की पूर्ति के
लिये वह जीवन भर मनसा, वाचा, कर्मणा प्रयास करता रहता है। परंतु यह खोज वह बाहर करता है।
प्रयास करते-करते जीवन का अंत हो जाता है। परंतु हृदय प्यासा ही रहता है। भूत व
भविष्य की चिंताओं में ही वह रहता है, जब कुछ भी हाथ नहीं लगता तो मनुष्य बेचैन होता है।
क्योंकि वह सच्चा सुखद एहसास जिससे सचमुच में हृदय तृप्त होता है वह न तो भूत में
है और न ही भविष्य में।
सच्चा सुखद एहसास तो वर्तमान में है, स्वयं अपने आप में विद्यमान है। अपने मन व इंद्रियों
के वशीभूत होकर मनुष्य इतना बहिर्मुख हो जाता है कि, वह अपने हृदय की पुकार नहीं सुन
पाता, उसे
यह आभास तक नहीं हो पाता कि वह इस संसार में आखिर क्यों हैं?
गुरु की कृपा से उस सच्चे प्रेम को, उस सुखद एहसास को अनुभव करना प्रत्येक व्यक्ति के
जीवन में सांसारिक कर्तव्यों को निभाते हुये संभव है। चाहे वह किसी भी जाति,
वर्ग, धर्म संस्कृति, रूप, रंग का क्यों न हो। बस
जरूरत है खुले हृदय से, दीन-भाव से, जिज्ञासु भाव से ज्ञानदाता के समक्ष अपनी हार्दिक इच्छा
जाहिर करने की।
इस प्रकार जब किसी व्यक्ति के जीवन में अज्ञानता का पर्दा हटता है और
ज्ञानदाता की कृपा हो जाती है तो वह अपने जीवन में, सही मायने में इस जीवन के प्रति,
ज्ञान के प्रति,
ज्ञानदाता के
प्रति कृतज्ञ होता है और वास्तव में यही जीवन की सच्ची उपलब्धि है।
विश्वास मन की चीज है
श्रद्धा और विश्वास के अलग-अलग ध्रुव हैं। विश्वास मन की चीज है, विचार द्वारा नियमित और
पोषित है, महज ज्ञात के क्षेत्र में परिचालित हैं। यहीं पर उसकी अर्थवत्ता भी है। अपनी
सीमा का उल्लंघन करते ही वह अंधविश्वास का रूप धारण कर लेता है। श्रद्धा विचार का
उत्पाद नहीं है। यह स्वत:स्फूर्त है। यह हृदय में तब प्रकट होती है जब ज्ञात के
सारे क्षेत्र को नकार दिया जाता है। श्रद्धा अंत:चेतना में अज्ञात (सत्य) का
स्पर्श है, जो ज्ञात के सारे विषयों से विवस्त्र हो गई है। श्रीअरविंद की दृष्टि में,
श्रद्धा अंतरात्मा
में एक निश्चिति है, जो मानसिक या बाह्य परिस्थिति पर निर्भर नहीं है। निश्चिति निर्द्वद्व की
अवस्था है, जहां विरोध ठहर जाते हैं-शांत हो जाते हैं। यह अज्ञात के रूप में ज्ञात है और
अनिर्धार्य के रूप में निर्धार्य है भवन की नींव की तरह। मन की सीमा विश्वास है,
जो विरोधों के खेल
में उछल-कूद करता रहता है और कभी भी निश्चिति के धरातल पर नहीं पहुंचता है। मन
विश्वास के आधार पर एक धारणा बना लेता है, जो कृत्रिम इमारत की तरह है और तनिक से झटके में ढह
जाता है।
ज्ञात के क्षेत्र में मनुष्य अनेक विकल्पों से घिरा रहता है। परंतु जब वह महान
अज्ञात के सामने होता है तो मानसिक अशांति खत्म हो जाती है। विश्वासों के बोझ से
दबा मनुष्य श्रद्धा की दिव्य अनुभूति से वंचित रह जाता है। श्रद्धा तब प्रकट होती
है जब विश्वास द्वारा अर्जित सारी अवधारणाएं अवकाश पर चली जाती हैं। जब ज्ञात की
निरर्थकता महसूस होने लगती है तो मनुष्य को अपने भीतर अज्ञात की फुसफुसाहट सुनाई
देने लगती है। इस अनहदनाद को कबीर ने सुना तभी तो कहा, बिनु बाजा झनकार उठे जहुं समुझि
परे जब ध्यान धरे। जब व्यक्ति अज्ञात की नि:शब्द ध्वनि सुनने में मस्त हो जाता है
तभी उसके प्रति श्रद्धा आविभूर्त होती है। व्यक्ति एक रहस्यमयी निश्चिति से संपन्न
हो जाता है। तर्कबुद्धि से न तो इसे सिद्ध किया जा सकता है और न ही असिद्ध। यह
केवल श्रद्धा की चीज है।
जानिए कौन सी हैं हनुमानजी की 4 करिश्माई शक्तियां
किसी भी लक्ष्य को भेदना शक्ति के बिना मुमकिन नहीं है। इंसानी जिंदगी से
जुड़े भी कई मकसद होते हैं, जिनको पूरा करने के लिए किसी न किसी रूप में शक्ति का सही
उपयोग जरूरी होता है। कई तरह की गुण और शक्तियों के बूते ही इंसान सफलता की
ऊंचाईयों को छूता भी है।
हिन्दू धर्म में शक्ति साधना के उपायों में ही शक्ति व पुरुषार्थ के साक्षात
स्वरूप श्रीहनुमान का स्मरण अचूक माना जाता है। समुद्र लांघना, माता सीता की खोज,
लंका दहन, रावण व मेघनाथ जैसे
महावीरों से सामना और अद्भुत युद्ध कौशल में उजागर जुझारु और शूरता के साथ राम
भक्ति व सेवा से भरा व्यक्तित्व व चरित्र ही उन्हें रामायण रूपी महामाला का रत्न
बनाती है।
श्रीहनुमान चरित्र व नाम स्मरण बच्चों से लेकर बुजुर्गों को भी ऊर्जावान व जाग्रत
बना देता है। किंतु खासतौर पर आज के दौर में ऊर्जा व जोश से भरे सफलता के आकांक्षी
युवा अपनी शक्तियों को किसी तरह सकारात्मक दिशा में मोड़े, इस संबंध में श्रीहनुमान का
चरित्र खासतौर पर चार शक्तियों को उजागर करता है।
आस्था है कि हनुमान भक्ति से हनुमान चरित्र की ये 4 शक्तियां बटोरने की प्रेरणा हर
भक्त को मिलती हैं। खासतौर पर ये शक्तियां युवाओं को फौलाद सा मजबूत बनाने वाली
साबित होती है-
देह बल - निरोगी, ऊर्जावान, तेजस्वी शरीर सफल जीवन की पहली जरूरत है। यह खान-पान, रहन-सहन के संयम और अनुशासन के
द्वारा ही संभव है। श्री हनुमान की व्रज के समान मजबूत, तेजस्वी देह, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन
व पावनता, इंद्रिय संयम व पुरुषार्थ तन को हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ रखने की अहमियत बताता
है।
बुद्धि बल - बुद्धि बल व कौशल सफल, सुखी और शांत जीवन के लिए सबसे बड़ी ताकत बन जाता
है। क्योंकि बुद्धि के अभाव में शरीर से बलवान और धनवान भी दुर्बल हो जाता है।
संदेश है कि ज्ञानवान व दक्ष बनें। श्रीहनुमान भी ज्ञानियों में अग्रणी पुकारे गए
हैं। शास्त्र हनुमान के बुद्धि चातुर्य से बाधाओं को दूर करने के अनेक प्रसंग
उजागर करते हैं।
देव बल - ईश्वर का स्मरण एक ऐसी शक्ति है, जो अदृश्य रूप में भी शक्ति, ऊर्जा, एकाग्रता और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाली होती है। शास्त्रों
में भगवान के मात्र नाम का ध्यान भी देवकृपा करने वाला माना गया है। श्री हनुमान
की श्रीराम भक्ति, नाम स्मरण और सेवा इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। इस तरह जागते और सोते वक्त देव
स्मरण व उपासना आस्था से ऊर्जावान व शक्ति संपन्न बने रहे।
धन बल - शास्त्र पुरुषार्थ के रूप में
सुखी जीवन के लिए अर्थ या धन की अहमियत बताते हैं। जहां धन का अभाव व्यक्ति को तन,
मन और विचारों से
कमजोर बनाता है। वहीं सेवा, कर्म और समर्पण से धन संपन्नता व्यक्ति के आत्मविश्वास और
सोच को मजबूत बनाती है। श्रीहनुमान चरित्र में माता सीता के आशीर्वाद से अष्ट
सिद्धियों व नो निधियों को प्राप्त करना इसी बात की ओर संकेत भी करता है।
इन 4 तरीकों
से पहचानें किसी का प्रेम
प्रेम केवल इंसान ही महसूस नहीं करता, बल्कि प्रेम का एहसास कुदरत की हर रचना और मानवीय
ज़िंदगी में अलग-अलग रूपों में उजागर होता है। सच, भलाई, सेवा, त्याग की तरह जिंदगी में
वास्तविक सुखों को पाने के लिए प्रेम बहुत जरूरी है। हर धर्म में प्रेम को ईश्वर
से साक्षात्कार के लिए अहम माना गया है। व्यावहारिक नजरिए से भी प्रेम अहम जीवन
मूल्य है।
असल में प्रेम ऐसा एहसास है, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है क्योंकि यह कोई सोच
नहीं है। अलग-अलग व्यक्ति में और उम्र के हर पड़ाव पर प्रेम का अहसास भी अलग-अलग
होता है। सरल शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि प्रेम करने वाले या प्रेम
पाने वाले दोनों आत्मा में सुकून पाते हैं। लेकिन प्रेम कितना सच्चा है, धर्मशास्त्रों में
उजागर जीवन में उजागर होने वाले प्रेम के
4 रूपों से
पहचाना जा सकता है -
लौकिक प्रेम - प्रेम का यह रूप दौलत, प्रतिष्ठा, सौंदर्य, स्वाद के प्रति आसक्ति या लगाव के रूप में प्रेम
दिखाई देता है। यह लौकिक प्रेम कहलाता है। इसमें कई अवसरों पर मानव हित और स्वार्थ
के चलते भी संबंध बनाता है। इसे स्वार्थ पर आधारित प्रेम कहते हैं।
अलौकिक प्रेम - अध्यात्म में डूबकर ईश्वरीय सत्ता पर भरोसा, पूरी प्रकृति को ईश्वर
की रचना मान प्रेम, ईश्वर को जेहन में रख आदर्श और मर्यादा पालन अलौकिक प्रेम कहलाता है।
मोहजन्य प्रेम - माता-पिता और संतान, पति-पत्नी या अन्य मानवीय रिश्तें में एक-दूसरे से
लिए प्रेम मोहजन्य प्रेम कहलाता है।
नि:स्वार्थ प्रेम - प्रेम का यह रूप सेवा भावना में दिखाई देता है, जिसमें व्यक्ति कुछ देने
के बदले लेने का भाव नहीं रखता। बिना किसी हितपूर्ति के वह समर्पण भाव से दूसरों
के लिए हरसंभव मदद करता है। ऐसा प्रेम पावन-पवित्र और श्रेष्ठ माना जाता है।
क्योंकि यह प्रेम करने और पाने वाले दोनों को आत्मिक सुख देता है।
गीता के इस उपाय से काबू में रखें वासना..आबरू व नजरों में प्रेम भी रहेगा
कायम
अक्सर धार्मिक या आध्यात्मिक होने का अर्थ धार्मिक क्षेत्र, ज्ञान या विषयों से
जुड़े किसी खास इंसान से जोड़ा जाता है। जबकि शास्त्रों के मुताबिक सांसारिक जीवन
में जब कोई व्यक्ति अध्यात्म की ओर बढ़ता है, तब उसे किसी ऊपरी दिखावे या
बनावटी बातों की जरूरत नहीं होती क्योंकि अध्यात्म का संबंध आत्मा से होता है।
इसलिए वह भलाई, भद्रता और विनम्रता के रूप में बाहर झलकता है। जरूरी नहीं कि ऐसा इंसान
धार्मिक कर्मकांड या पाठ-पूजा में रमा हो।
सरल शब्दों में समझें तो व्यावहारिक तौर पर अध्यात्म ऐसा रास्ता है जो आदर,
मान और नजरों में
प्रेम बरकरार रखने का नायाब तरीका है। कैसे अध्यात्म जीवन में सुखद बदलाव लाता है,
श्रीमद्भगवद्गीता
में उजागर सूत्रों से बेहतर ढंग से समझा जा सकता है -
श्रीमद्भगवद्गीता में भी अर्जुन के पूछने पर अध्यात्म के बारे में पूछने पर
श्रीकृष्ण ने कहा है कि -
स्वभावोध्यात्ममुच्यते यानी अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा ही अध्यात्म है।
इसलिए जरूरी है कि आत्मा से नाता जोडऩे या खुद से पहचान के लिए शरीर, मन व कर्म शुद्धि पर भी
दृष्टि जरूरी है।
यहां जानिए उन लक्षणों को, जो अध्यात्म से जुड़े हुए व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। जिसे सही मायनों में उदारता और सांसारिक जीवन के नजरिए से ऐसा इंसान जिंदादिल भी कहा जाता है -
- व्यक्ति किसी भी तरह की हानि या नुकसान होने पर भी आवेश, बदले की भावना से दूर
होता है और उल्टे ऐसी हालात में स्नेह और क्षमा को महत्व देता है।
- दु:ख हो या सुख उसका व्यवहार और विचार संतुलित होते हैं। वह विपरीत हालात में घबराता नहीं है और नहीं सुख में अति उत्साहित होता है।
- वह दूसरों की गलतियां देखने, बुराई या ओछे विचारों से दूर रहता है और केवल गुणों और अच्छाईयों को ढूंढता और अपनाने की कोशिश करता है।
- व्यक्ति इतना सरल, सहज और निस्वार्थ हो जाता है कि वह अधिकारों के स्थान पर सिर्फ कर्तव्यों को याद रखता है।
- वह निर्भय होता है। वह मानसिक रुप से इतना जुझारू होता है कि इच्छाशक्ति से अपने लक्ष्य को पा लेता है।
- ऐसा व्यक्ति बहुत ही धैर्य और संयम रखने वाला होता है, जिसकी वजह से वह बुरी लतों और गलत कामों से स्वयं को भटकाता नहीं है।
- कर्तव्यों की ही सोच होने से वह हर तरह की इच्छाओं यानी वासनाओं पर काबू कर
लेता है। इससे वह अपनी मानसिक शक्तियों का उपयोग भजन, संगीत, रचनात्मक कामों जैसे चित्रकारी,
लेखन, साहित्य के पठन-पाठन में
लगाता है।
अगर आपकी या किसी नजदीकी व्यक्ति की जिंदगी में कुछ ऐसे ही बदलाव नजर आ रहे है
तो समझे ऐसे कदम वास्तविक सुख और शांति की ओर बढ़ रहे हैं।
भगवान की भक्ति ही शरीर का सदुपयोग है
हर जीव परमात्मा का ही अंश है जो परमात्मा से बिछड़ गया है। इसलिए हर जीव
परमात्मा को प्राप्त करने के लिए छटपटा रहा है। परामात्मा से मिलने का आनंद जीव सांसारिक
पदार्थों में ढूंढ़ा करता है। किन्तु क्षणभंगुर संसार में वह शाश्वत परम आनंद मिल
ही नहीं पाता, क्षणभंगुर विषयों के आनंद में मस्त होकर जीव अपना परम लक्ष्य भुला देता है।
इस प्रकार बार-बार जन्म लेने व मरने के चक्र में फंसकर जीव दुःखी होता रहता
है। लेकिन सामान्य तौर पर जीव ऐसा सोचता है कि यदि परमानंद न मिले तो सांसारिक
आनंद तो मिले, लेना आनंद ही है क्योंकि यह आनंद से बिछड़ा हुआ उस परमआनंद को ढूंढता फिरता
हैं-
आनंद आनंद सब कोई कहे, आनंद गुरु ते जानेयां।
आनंद पाने के लिए तो आज सारी दुनिया दौड़ रही है। खाने-पीने व मौज-मस्ती में
लोग आनंद पाने के लिए ही संलग्न होते हैं। किंतु संसार के सभी सुखों का अंत दुख के
रूप में होता है। अंत में मनुष्य को खाली हाथ ही इस दुनिया से कूच करना पड़ता है।
वास्तव में शाश्वत आनंद पाने की युक्ति तो सद्गुरु की अनुकंपा से ही हासिल होती
है। संसार के आनंद तो एक अवधि के बाद निश्चित रूप से समाप्त हो जाते हैं और जीव
दुखी होकर हाथ मलता रह जाता है।
जीव मन की कल्पनाओं में खोया-खोया संसारिक सुखों को ही शाश्वत समझ उसी में लीन
हो जाता है। एक दिन ऐसा आता है कि संसार का सारा ऐश्वर्य छोडक़र उसे सदा के लिए इस
संसार से विदा हो जाना पड़ता है। लेकिन उल्टे-सीधे विचारों में खोकर मनुष्य परम
सत्य सिद्घांत को भूल जाता है और सांसारिकता की बेड़ी में जकड़ा रहता है। इस बात
को इस दृष्टांत से समझा जा सकता है।
एक समय की बात है कि सांसारिकता में पूरी तरह से डूबे एक सेठ को देखकर एक
महात्मा को दया आ गयी। वे सेठ के पास परलोक सुधारने का उपदेश देने के लिए पहुंचे।
काफी दिनों तक वे सेठ को नाना प्रकार के
दृष्टांत देते हुए यह समझाने का प्रयत्न करते रहे कि यह संसार सपने की तरह
है। इसका मोह त्याग कर भगवान की भक्ति करने में ही भलाई है। महात्मा के उपदेश को
सेठ ढंग से समझ नहीं पाया और सोचा कि ये तो खुद विरक्त संन्यासी हैं और चाहते हैं
कि मैं भी घर-बार त्याग दूं।
उसने महात्मा से प्रार्थना की - महाराज! आप की बात पूरी तरह सही है। मैं भी
चाहता हूं कि भगवान की भक्ति करना। किंतु अभी बच्चे अबोध हैं, बड़े होने पर जब उनकी
शादी कर लूंगा तब परलोक सुधारने का यत्न करूं। तब महात्मा बोले - ये सांसारिक काम
तो तेरे न रहने पर भी होते रहेंगे। यह तो तुम्हें अपने घर की चौकीदारी मिली है
भगवान द्वारा। लेकिन तुम खुद मालिक बन बैठ गये। ठीक है, तुम अभी अपनी घर-गृहस्थी संभालो।
बाद में भगवान की भक्ति कर लेना। लेकिन याद रहे, भवसागर से मुक्ति तो भगवान की
भक्ति करने से ही मिलेगी।
सेठ के सभी बच्चे बड़े हुए और शादी होने के बाद अलग हो गये। फिर वह महात्मा
सेठ के पास आए और बोले- सेठ जी! अब ईश्वर की कृपा से सब कार्य सिद्घ हो गए हैं,
कुछ समय निकाल कर
भगवान का भजन-सुमिरन करो। बेड़ा पार हो जाएगा। सेठ बोला- महाराज! अभी तो पोते भी
नहीं हुए। पोतों का मुंह तो देख लेने दीजिए। तब महात्मा बोले- मैं तुझे त्यागी
बनने के लिए नहीं कहता। तू मूर्खतावश मेरे भाव को नहीं समझ पा रहा है। मेरे कहने
का भाव तो यह है कि संसार के मोह और अज्ञानता के चंगुल से मन को हटाकर प्रभु की
भक्ति में लगाओ।
तब सेठ बोला- यदि मन प्रभु की भक्ति में लग गया तो संसार के धंधे कौन करेगा?
वह मन कहां से
लाऊंगा? बिना
मन लगाये दुनिया के काम-धंधे और सांसारिक कर्तव्य पूरे नहीं हो पाते। महात्मा
बोले- मैं तुम्हारे ही उद्घार के लिए कह रहा हूं कि बिना भगवान की भक्ति किए
कल्याण नहीं होगा। सेठ बोला- पहले संसार के काम-धंधों से मुक्त तो हो लेने दो।
परिवार का कल्याण पहले कर लूं, फिर आपकी सुनूंगा।
समय गुजरता गया और एक दिन सेठ का स्वर्गवास हो गया। प्रारब्धवश वह सेठ छोटा
पिल्ला के रूप में पैदा होकर पुन: उसी घर में आ गया। तब उसके पोते ने रसोई में उसे
घुसा देखकर जोर से डंडा मारा। डंडा लगते ही वह मर गया और फिर सांप का जन्म लेकर
उसी घर में रहने लगा। एक दिन घर वाले सांप देखकर डरे और उसे मार दिया। फिर मोहपाश
में बंधकर पुन: उसी घर की गंदी नाली में एक मोटे कीड़े के रूप में पैदा हुआ।
उस कीड़े को देखकर सब घर वाले बड़े विस्मित थे। उन्हीं दिनों वे महात्मा भी घर
में पधारे। सबने महात्मा जी को वह मोटा कीड़ा दिखाया। तब अन्तर्दृष्टि से उस महात्मा
ने देखा तो पाया कि यह तो वही सेठ है। उसकी ऐसी दुर्गति देखकर उस महात्मा ने अपने
जूते से उस पर प्रहार किया जिससे वह कीड़ा वहीं मर गया और सद्गति पाकर अगले जन्म
में मानव शरीर पाया और फिर उसी महात्मा का सेवक बना जो उस समय के सद्गुरु भी थे।
यह दृष्टांत कोई ऐसी कथा नहीं जिसके सत्य होने का दावा किया जाए। किंतु इसे
असत्य भी नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टांत के माध्यम से लोगों को जीवन के वास्तविक
उद्देश्य को पाने के लिए प्रेरणा दी गई है जिससे मनुष्य क्षणभंगुर संसार के मोहपाश
में न फंसे और अविनाशी सत्य से जुडऩे की चेष्टा आज और अभी से प्रारंभ कर दें।
अंतत: मनुष्य को परमात्मा की भक्ति करके ही अपना जीवन कृतार्थ करना चाहिए। इसी वजह
से सभी महापुरुषों ने मानव शरीर का सदुपयोग भगवान की भक्ति करने में ही बताया है।
गुरुवाणी भी कहती है -
कहु नानक भजु राम नाम नित जाने होत उधार।
अर्थात भगवान के नाम का भजन सुमिरण करने में ही जीवन का अधिकांश समय बिताना
चाहिए। ऐसा करने से ही भवसागर से जीव का उद्घार होता है।
वास्तव में संसार के काम धंधे जिनसे पेट भरता है और सांसारिक वैभव व
सुख-समृद्घि की अभिवृद्घि होती है किंतु अंत समय में उन्हें यहीं छोडक़र जाना
पड़ता है। कोई भी चीज साथ नहीं जाती। अविनाशी प्रभु की भक्ति से जो आनंद मिलता है,
वही शरीर छूटने के
बाद भी काम आता है। मानव तन के रूप में जीव को एक सुअवसर मिला हुआ है, कभी भी इस मौके से नहीं
चूकना चाहिए।
क्रमश:...
इस तरह दुःख के सागर को पार कर सकते हैं
शुरुआत से ही बुद्ध ने संतुष्ट जीवन का निर्वाह किया। कोई भी सुख-सुविधा किसी
भी समय उनकी इच्छानुसार उनके सामने हाज़िर हो जाती थी। एक दिन उन्होंने कहा कि मुझे
बाहर जाकर दुनिया क्या है यह देखना है।
जब उन्होंने एक बीमार व्यक्ति, एक बूढ़े व्यक्ति, और एक मरते व्यक्ति को देखा तो उन्होने जीवन के बारे
में विचार करना शुरु किया। यह तीन दृश्य उनको यह ज्ञान देने के लिए पर्याप्त थे कि
जीवन में दुःख है। रोगी को देखने के बाद बुद्ध ने कहा कि यह काफी है! मैने इसका
अनुभव कर लिया है। एक बूढ़े व्यक्ति और शव की झलक बुद्ध को यह कहने के लिए पर्याप्त
थी कि असल में जीवन में कोई आनंद नहीं है, मैं पहले ही मर चुका हूँ! जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
मुझे वापस जाना होगा।
बुद्ध ने अकेले सत्य की तलाश शुरु की और इसके लिए उन्होनें अपना महल, पत्नी और बेटे को छोड़
दिया। जितना गहरा मौन होगा उतने ही गहरे प्रश्न उस मौन में उत्पन्न होंगे। उन्हे
कुछ भी रोक नहीं सकता था। वे जानते थे कि दिन के समय वे निकल नहीं पाएंगे इसलिए वे
एक रात चुपचाप निकल गये। उनकी खोज कई वर्षो तक चलती रही। उन्होनें वह सब कुछ किया जो
लोगों ने उन्हे बताया, वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर गये, उपवास किया और कई धार्मिक पंथों
पर चले इसके बाद वे चार सत्य जान पाये।
पहला सत्य है कि, दुनिया में दुःख है। जीवन में सिर्फ दो संभावनाएं हैं। पहला यह कि अपने आस-पास
के संसार में औरों के दुःख के अनुभव को देख कर समझ जाना। दूसरा यह कि स्वयं उसका
अनुभव करके समझना कि संसार दुःख है। दूसरा सत्य यह है कि दुःख के लिए कोई कारण
होता है। जबकि बिना किसी कारण के भी सुखी रह सकते हैं। तीसरा सत्य यह है कि दुःख
का निवारण संभव है। चौथा सत्य यह है कि दुःख से बाहर निकलने के लिए एक पथ है।
उस समय में इतनी अधिक समृद्धि थी कि बुद्ध ने अपने मुख्य शिष्यों को भिक्षा का
पात्र पकड़ा दिया और उनसे भिक्षा मांगने को कहा। उन्होनें राजाओं के शाही वस्त्र
उतरवाकर उनके हाथ में भिक्षा का कटोरा दे दिया। यह इसलिए नहीं था कि उन्हें भोजन
की आवश्यकता थी परंतु वे उन्हें कुछ होने से कुछ नहीं होने के पाठ की सीख देना
चाहते थे। यह बताना चाहते थे कि आप कुछ नहीं हैं, आप इस विश्व में निरर्थक हैं। जब
उस समय के राजाओं और ज्ञानियों को भिक्षा मांगने को कहा गया तो वे करुणा के मूर्ति
बन गये।
अपने सच्चे स्वभाव को देखें। आपका सच्चा स्वभाव क्या है, वह शांति, करुणा, प्रेम, मित्रता, और आनंद है। मौन में इन
सबका उदय होता है। दुःख, पछतावा और कष्ट को मौन निगल लेता है और आनंद, करुणा एवं प्रेम को जन्म
देता है। इस तरह से, सभी आनंदित रह सकते हैं और दुःख के सागर को पार कर सकते हैं।
सफला एकादशी 8 को, भगवान
श्रीकृष्ण को प्रिय है यह व्रत
पौष मास के कृष्णपक्ष की एकादशी को सफला एकादशी कहते हैं। इस बार यह एकादशी 8 जनवरी, मंगलवार को है। इस
एकादशी के महत्व का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर को बताया
है। पद्मपुराण के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि- बड़े-बड़े यज्ञों से भी
मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना सफला एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है।
सफला एकादशी का व्रत अपने नाम के अनुसार सभी कार्यों में मनोवांछित सफलता
प्रदान करता है। इस एकादशी के व्रत से व्यक्ति को जीवन में उत्तम फल की प्राप्ति
होती है और वह जीवन का सुख भोगकर मृत्यु पश्चात विष्णु लोक को प्राप्त होता है। यह
व्रत अति मंगलकारी और पुण्यदायी है। जो भक्त सफला एकादशी का व्रत रखते हैं व
रात्रि में जागरण एवं भजन कीर्तन करते हैं उन्हें श्रेष्ठ यज्ञों से जो पुण्य
मिलता उससे कहीं बढ़कर फल की प्राप्ति होती है। ऐसा पुराणों में वर्णित है।
सफला एकादशी: जानिए कथा, महत्व व संपूर्ण पूजन विधि
पौष मास के कृष्णपक्ष की एकादशी को सफला एकादशी कहते हैं। इस बार यह एकादशी आज
यानी 8
जनवरी, मंगलवार
को है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस व्रत से जुड़ी कथा इस प्रकार है-
चम्पावती नगर का राजा महिष्मत था। उसके पाँच पुत्र थे। महिष्मत का बड़ा बेटा
लुम्भक हमेशा बुरे कामों में लगा रहता था। उसकी इस प्रकार की हरकतें देख महिष्मत
ने उसे अपने राज्य से बाहर निकाल दिया। लुम्भक वन में चला गया और चोरी करने लगा।
एक दिन जब वह रात में चोरी करने के लिए नगर में आया तो सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया
किन्तु जब उसने अपने को राजा महिष्मत का पुत्र बतलाया तो सिपाहियों ने उसे छोड़
दिया। फिर वह वन में लौट आया और वृक्षों के फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा।
वह एक पुराने पीपल के वृक्ष के नीचे रहता था। एक बार अंजाने में ही उसने पौष
मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत कर लिया। उसने पौष मास में कृष्णपक्ष की दशमी
के दिन वृक्षों के फल खाये और वस्त्रहीन होने के कारण रातभर जाड़े का कष्ट भोगा।
सूर्योदय होने पर भी उसको होश नहीं आया। एकादशी के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा ।
दोपहर होने पर उसे होश आया। उठकर वह वन में गया और बहुत से फल लेकर जब तक विश्राम
स्थल पर लौटा, तब तक सूर्य अस्त हो चुका था। तब उसने पीपल के वृक्ष की जड़ में बहुत से फल
निवेदन करते हुए कहा- इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों। ऐसा कहकर
लुम्भक रातभर सोया नहीं।
इस प्रकार अनायास ही उसने सफला एकादशी व्रत का पालन कर लिया। उसी समय आकाशवाणी
हुई -राजकुमार लुम्भक! सफला एकादशी व्रत के प्रभाव से तुम राज्य और पुत्र प्राप्त
करोगे। आकाशवाणी के बाद लुम्भक का रूप दिव्य हो गया। तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान
विष्णु के भजन में लग गयी । उसने पंद्रह वर्षों तक सफलतापूर्वक राज्य का संचालन
किया। उसको मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह बड़ा हुआ तो लुम्भक ने राज्य
अपने पुत्र को सौंप दिया और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में रम गया। अंत
में सफला एकादशी के व्रत के प्रभाव से उसने विष्णुलोक को प्राप्त किया।
पौष मास के कृष्णपक्ष की एकादशी को सफला एकादशी कहते हैं। इस एकादशी के महत्व
का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर को बताया है। पद्मपुराण के
अनुसार भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि- बड़े-बड़े यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं
होता, जितना
सफला एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है।
सफला एकादशी का व्रत अपने नाम के अनुसार सभी कार्यों में मनोवांछित सफलता
प्रदान करता है। इस एकादशी के व्रत से व्यक्ति को जीवन में उत्तम फल की प्राप्ति
होती है और वह जीवन का सुख भोगकर मृत्यु पश्चात विष्णु लोक को प्राप्त होता है। यह
व्रत अति मंगलकारी और पुण्यदायी है। जो भक्त सफला एकादशी का व्रत रखते हैं व
रात्रि में जागरण एवं भजन कीर्तन करते हैं उन्हें श्रेष्ठ यज्ञों से जो पुण्य
मिलता उससे कहीं बढ़कर फल की प्राप्ति होती है। ऐसा पुराणों में वर्णित है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार सफला एकादशी व्रत की विधि इस प्रकार है-
सफला एकादशी के दिन सुबह स्नान कर साफ वस्त्र पहन कर माथे पर चंदन लगाकर कमल
अथवा वैजयन्ती फूल, फल, गंगा
जल, पंचामृत,
धूप, दीप, सहित लक्ष्मी नारायण की
पूजा एवं आरती करें। भगवान श्रीहरि के विभिन्न नाम-मंत्रों का उच्चारण करते हुए
फलों के द्वारा उनका पूजन करें। शाम को दीप दान के बाद फलाहार कर सकते हैं।
सफला एकादशी के दिन दीप-दान करने की परंपरा भी है। इस रात्रि को वैष्णव
संप्रदाय के लोग भगवान श्रीहरि का नाम-संकीर्तन करते हुए जागते हैं। एकादशी का
रात्रि में जागरण करने से जो फल प्राप्त होता है, वह हजारों वर्ष तक तपस्या करने
पर भी नहीं मिलता, ऐसा धर्मग्रंथों में लिखा है। द्वादशी के दिन भगवान की पूजा के पश्चात
कर्मकाण्डी ब्राह्मण को भोजन करवा कर जनेऊ एवं दक्षिणा देकर विदा करने के पश्चात
भोजन करें।
इस प्रकार सफला एकादशी का व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
शिवमहिम्रस्तोत्र के इस मंत्र से गूंजी थी शिकागो की धर्मसभा
हम स्वामी विवेकानंद का 150वां जन्मोत्सव मना रहे हैं। युगपुरुष स्वामी विवेकानंद विलक्षण आध्यात्मिक व रचनात्मक शक्ति के धनी थे, जिसके पीछे गुरु, शास्त्र व मातृभूमि से गहरा जुड़ाव था। उनकी अद्भुत ज्ञान व विचार शक्ति ने ही देश ही नहीं दुनिया का धर्म और मानवता को लेकर नजरिया बदल दिया। साथ ही भारत को विश्वगुरु होने का गौरव भी दिलाया।
ऐसा ही गौरवशाली दिन था शिकागो की धर्म महासभा। जहां स्वामी विवेकानंद ने हिन्दुस्तान व हिन्दू धर्म ही नहीं बल्कि सारे धर्मों में फैली धर्म से जुड़ी संकीर्णताओं पर प्रहार कर दुनिया से आए धर्माधिकारियों व अनुयायियों की आंखे खोल दी। इस धर्म महासभा में 11 सितम्बर, 1893 को रखे गए उनके विचार हिन्दू धर्म ग्रंथ, जिनमें गीता, वेद, उपनिषद व अन्य शास्त्रों के अद्भुत ज्ञान से ओत-प्रोत थे।
खासतौर पर कई लोग नहीं जानते कि विश्वप्रसिद्ध शिकागो अभिभाषण की शुरुआत में ही स्वामी विवेकानंद ने शिवमहिम्रस्तोत्र के मंत्र के जरिए धर्म की गहराई को उजागर किया, बल्कि हर धर्म को सहजता से अपनाने पर जोर दिया। जानिए क्या कहकर स्वामी विवेकानंद ने बोला था शिवमहिम्रस्तोत्र का कौन सा खास मंत्र और उसका अर्थ –
स्वामी विवेकानंद ने कहा कि - भाइयों, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं, जिसकी आवृत्ति में बचपन से कर रहा हूं और हर रोज लाखों लोग भी किया करते हैं(यह शिवमहिम्रस्तोत्र का 7वे मंत्र की पंक्तियां है ) -
रुचीनां वैचित्र्या दजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्य स्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥
अर्थ है - जैसे अलग-अलग नदियां कई स्त्रोतों से निकलकर सागर में मिल जाती हैं, उसी तरह हे ईश्वर, अलग-अलग रुचि के मुताबिक कई टेढ़े-मेढ़े या सीधे रास्ते से जानेवाले लोग आखिर में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
जानिए, क्यों है मकर संक्रांति पर गंगा स्नान का विशेष महत्व
भारत में समय-समय पर हर पर्व को श्रृद्धा व आस्था के साथ मनाया जाता है। मकर
संक्रांति पर्व का हमारे देश में विशेष महत्व है। मकर संक्रांति पर्व के संबंध में
गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में लिखा है-
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।
(रा.च.मा. 1/44/3)
ऐसा कहा जाता है कि गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर प्रयाग में मकर संक्रांति पर्व
के दिन सभी देवी-देवता अपना स्वरूप बदलकर स्नान के लिए आते हैं। इसलिए वहां
मकर-संक्रांति पर्व के दिन स्नान करना बहुत पुण्यदायी माना जाता है।
उत्तर भारत में गंगा-यमुना के किनारे बसे गांवों व नगरों में मेलों का अयोजन
होता है। भारत में मकर संक्रांति के पर्व पर सबसे प्रसिद्ध मेला बंगाल में
गंगासागर में लगता है। गंगासागर के मेले के पीछे पौराणिक कथा है कि मकर संक्रांति
के दिन गंगाजी स्वर्ग के उतरकर भगीरथ के पीछे -पीछे चलकर कपिलमुनि के आश्रम में
जाकर सागर में मिल गई। गंगा के पावन जल से ही राजा सगर के साठ हजार श्रापित
पुत्रों का उद्धार हुआ था।
14 जनवरी से उत्तरायण होगा सूर्य, शुरु होगा देवताओं का दिन
मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरायण होगा। शास्त्रों के अनुसार उत्तरायण को
देवताओं का दिन अर्थात सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप,
तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक
क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य सभी राशियों को
प्रभावित करता है किंतु कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से
अत्यंत शुभ माना गया है। यह प्रवेश क्रिया छ:-छ: माह के अंतराल पर होती है।
भारत उत्तरी गोलाद्र्ध में स्थित है।
मकर संक्रांति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलाद्र्ध में होता है अर्थात भारत से दूर
होता है। इसी कारण यहां रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता
है, किंतु
मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरी गोलाद्र्ध की ओर आना शुरू हो जाता है। अत: इस दिन
से रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा गरमी का मौसम शुरू हो जाता है। दिन
बड़ा होने से प्रकाश अधिक होता है तथा रात्रि छोटी होने से अंधकार।
अत: मकर संक्रांति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की
ओर अग्रसर होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं
कार्यशक्ति में वृद्धि होती है। ऐसा जानकर संपूर्ण भारतवर्ष में लोगों द्वारा विविध
रूपों में सूर्यदेव की उपासना, आराधना एवं पूजन कर, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट
की जाती है।
कलियुग में यह है श्रीहरि के विराट स्वरूप के दर्शन का तरीका
हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विराट स्वरूप का वर्णन है।
द्वापर युग में महाप्रतापी अर्जुन को इस दिव्य स्वरूप के दर्शन कराकर कर्मयोगी
भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के महामंत्र द्वारा अर्जुन के साथ संसार के लिए भी सफल
जीवन का रहस्य उजागर किया।
भगवान का विराट स्वरूप ज्ञान शक्ति और ईश्वर की प्रकृति के कण-कण में बसे
ईश्वर की महिमा ही बताता है। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन, नर-नारायण के अवतार थे और महायोगी, साधक या भक्त ही इस दिव्य स्वरूप के दर्शन पा सकता
है। किंतु गीता में लिखी एक बात यह भी संकेत करती है सांसारिक जीवन में साधारण
इंसान के लिए ऐसा तप करना कठिन हो तो उसे हर रोज पवित्र गीता से जुड़ा क्या उपाय
करना चाहिए, जिसका शुभ प्रभाव
ज़िंदगी के लिए फायदेमंद हो। दूसरे शब्दों में गीता में ही लिखी एक विशेष बात
कलियुग में भगवान जगदीश की विराटता देखने का तरीका भी उजागर करती है।
श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय में ही देवी लक्ष्मी द्वारा भगवान विष्णु के
सामने यह संदेह किया जाता है कि आपका स्वरूप मन-वाणी की पहुंच से दूर है तो गीता
कैसे आपके दर्शन कराती है? तब जगत पालक श्री हरि
विष्णु गीता में अपने स्वरूप को उजागर करते हैं, जिसके मुताबिक -
पहले पांच अध्याय मेरे पांच मुख, उसके बाद दस अध्याय दस भुजाएं,
अगला एक
अध्याय पेट और अंतिम दो अध्याय श्रीहरि के चरणकमल हैं।
इस तरह गीता के अट्ठारह अध्याय भगवान की ही ज्ञानस्वरूप मूर्ति है, जो पढ़, समझ और अपनाने से पापों का नाश कर देती है। इस संबंध में लिखा भी गया है कि
कोई इंसान अगर हर रोज गीता के अध्याय या श्लोक
के एक, आधे या चौथे हिस्से का
भी पाठ करता है, तो उसके सभी पापों का
नाश हो जाता है।
इतना ज्यादा शुभ होता है मकर संक्रांति का दान! जानकर शुरू कर देंगे तैयारी
ज़िंदगी में सही समय, सही मकसद से किया गया अच्छा काम ही वास्तविक रूप से धर्म
पालन है। क्योंकि ऐसे काम ही हमेशा सुख-शांति और यश की कामना को पूरी करने वाले
होते हैं। शास्त्रों के मुताबिक दैहिक, मानसिक और आत्मिक सुख देने वाला ऐसा ही कर्म है-दान।
व्यावहारिक तौर पर दान में देने का भाव ही अहं व स्वार्थ जैसी बुराइयों को
घटाता है। इसलिए दान के लिए त्याग, निस्वार्थ और विनम्रता के भाव ही सार्थक व सुख देने वाले
माने गए है। यही वजह है कि जन्म से लेकर मृत्यु कर्मों तक में धार्मिक नजरिए से
दान परंपराएं जुड़ी है। चाहे वह अन्न, वस्त्र, जल,धन, पशु दान हो या कन्यादान।
दान के लिए वैसे तो हिन्दू पंचांग के सभी बारह माह शुभ है, लेकिन इनमें भी कुछ
विशेष घडिय़ां बहुत अचूक व शुभ मानी गई हैं। इसी कड़ी में शिवपुराण में लिखा है कि जिसे जिस वस्तु की जरूरत हो, उसे बिना मांगे ही दे दी
जाए तो ऐसा दान बहुत फलीभूत होता है। ऐसे दान के लिए सूर्य संक्रांति का योग बड़ा
ही शुभ माना जाता है। इन खास दिनों पर किया दान धर्म दीनता व दु:खों से बचाने वाला
बताया गया है। जानिए मकर संक्रांति सहित किस दिन दान करना कितना ज्यादा शुभ होता
है-
- किसी भी माह की सूर्य संक्रांति के दिन किया गया दान अन्य शुभ दिनों की तुलना
में दस गुना पुण्य देता है।
- सूर्य संक्रांति से भी दस गुना पुण्यदायी सूर्य के विषुव योग यानी सूर्य की
विषुवत् रेखा पर स्थिति, जो हिन्दू पंचांग के मुताबिक चैत्र नवमी और आश्विन माह की
नवमी पर बनता है।
- विषुव योग से दस गुना फल कर्क संक्रांति यानी दक्षिणायन शुरू होने के दिन।
- कर्क संक्रांति से भी दस गुना मकर संक्रांति यानी उत्तरायन शुरू होने के दिन।
- इनसे भी अधिक पुण्य चन्द्रग्रहण और सबसे श्रेष्ठ समय सूर्यग्रहण के दौरान व
बाद माना गया है।
भगवान कृष्ण की तरह सदैव 'अकर्ता' बने रहें
अपने आस-पास आपको बहुत से ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी छोटी-छोटी उपलब्धियों का
ढ़िढ़ोरा पिटते नज़र आएंगे। आप सुनना न भी चाहें तब भी आपको बताए बिना नहीं
छोड़ेंगे कि मैंने ऐसा किया, मैने वैसा किया। अगर मैं नहीं होता तो उस व्यक्ति का जाने
क्या हो जाता।
वहीं आपको कुछ ऐसे व्यक्ति भी मिलेंगे जो लोगों की सहायता करके, बड़ी से बड़ी उपलब्धियां
हासिल करके भी मौन रहते हैं। वास्तव में अपनी उपलब्धियों पर भी मौन रहने वाले संत
और देवतुल्य होते हैं।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि मैं संसार का कर्ता होकर भी सदैव अकर्ता
बना रहता हूं। कर्ता होकर भी अकर्ता बने रहने के कारण ही भगवान का मान है। अगर
भगवान भी मनुष्य की तरह अपने कार्य का ढ़िंढ़ोरा पिटने लगें तो उनका सम्मान भी
खत्म हो जाएगा।
हम मनुष्य को भी गीता के इस ज्ञान को अपने अंदर समाहित करना चाहिए और सदैव
कर्म करते हुए आगे बढ़ते रहना चाहिए। जो लोग अपने किये कर्म की कथा बांचने में लगे
रहते हैं उनकी प्रगति वहीं रूक जाती है क्योंकि वह अपनी छोटी सी उपलब्धि से
प्रसन्न होकर उसी में मस्त हो जाते हैं। भगवान के अकर्ता बने रहने के कारण ही यह
संसार युगों-युगों तक अनवरत चलता रहता है।
सारे तीरथ बार-बार, गंगा सागर एक बार
सारे तीरथ बार-बार, गंगा सागर एक बार
मकर संक्रांति के दिन किसी भी पवित्र नदी एवं तालाब में स्नान करने से पुण्य
की प्राप्ति होती है। विशेष तौर पर इस दिन गंगा स्नान का खास महत्व है। इसलिए हर
वर्ष गंगा तटों पर खासतौर पर हरिद्वार एवं प्रयाग में मकर संक्रांति के दिन मेला
लगता है। इस वर्ष प्रयाग में महाकुंभ लगा है इसलिए इस वर्ष प्रयाग तट का महत्व और
भी बढ़ गया है। लेकिन इससे कोलकाता स्थित गंगा सागर का महत्व कमतर नहीं हुआ है।
शास्त्रों में कहा गया है कि मकर संक्रांति के दिन गंगासागर में स्नान और दान
का जो महत्व है वह कहीं अन्यत्र नहीं है। इसलिए कहा जाता है सारे तीरथ बार-बार
गंगा सागर एक बार। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी तीर्थों में कई बार यात्रा का जो
पुण्य होता है वह मात्र एक बार गंगा सागर में स्नान और दान करने से प्राप्त हो
जाता है। शास्त्रों के अनुसार गंगा सागर में एक डुबकी लगाने से 10 अश्वमेघ यज्ञ एवं एक
हजार गाय दान करने का पुण्य मिलता है।
मकर संक्रांति के मौके पर गंगा सागर का महत्व इसलिए है क्योंकि शास्त्रों में
वर्णित है कि मकर संक्रांति के दिन ही गंगा शिव की जटा से निकलकर चलकर ऋषि कपिल
मुनि के आश्रम में पहुंची थी। यहां गंगा कपिल मुनि के श्राप के कारण मृत्यु को
प्राप्त राजा सगर के 60 हजार पुत्रों को सद्गति प्रदान करके सागर मिल गयी।
इसलिए इस स्थान को गंगा सागर संगम भी कहा जाता है। जहां प्राचीन काल में कपिल
मुनि का आश्रम था उस स्थान पर कपिल मुनि का एक मंदिर भी है। यहां की जमीन का एक
बड़ा हिस्सा चार साल में एक बार नज़र आता है अन्य दिनों में यह सागर में लीन रहता
है।
क्यों शिव कहलाते हैं रुद्र?
भगवान शिव के अनगिनत रूप हैं। क्योंकि सारी प्रकृति को ही शिव स्वरूप माना गया
है। इन रूपों में ही एक है रुद्र। रुद्र का शाब्दिक अर्थ होता है - रुत यानि
दु:खों को अंत करने वाला। यही कारण है कि शिव को दु:खों को नाश करने वाले देवता के
रुप में पूजा जाता है। व्यावहारिक जीवन में कोई दु:खों को तभी भोगता है, जब तन, मन या कर्म किसी न किसी
रूप में अपवित्र होते हैं।
शिव के रुद्र रूप की आराधना का महत्व यही है कि इससे व्यक्ति का चित्त पवित्र
रहता है और वह ऐसे कर्म और विचारों से दूर होता है, जो मन में बुरे भाव पैदा करे।
शास्त्रों के मुताबिक शिव ग्यारह अलग-अलग रुद्र रूपों में दु:खों का नाश करते हैं।
यह ग्यारह रूप एकादश रुद्र के नाम से जाने जाते हैं। जानते हैं ऐसे ही ग्यारह
रूद्र रूपों को –
- शम्भू - शास्त्रों के मुताबिक यह रुद्र रूप साक्षात ब्रह्म है। इस रूप में ही
वह जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं।
- पिनाकी - ज्ञान शक्ति रुपी चारों वेदों के के स्वरुप माने जाने वाले पिनाकी
रुद्र दु:खों का अंत करते हैं।
- गिरीश - कैलाशवासी होने से रुद्र का तीसरा रुप गिरीश कहलाता है। इस रुप में
रुद्र सुख और आनंद देने वाले माने गए हैं।
- स्थाणु - समाधि, तप और आत्मलीन होने से रुद्र का चौथा अवतार स्थाणु कहलाता है। इस रुप में
पार्वती रूप शक्ति बाएं भाग में विराजित होती है।
- भर्ग - भगवान रुद्र का यह रुप बहुत तेजोमयी है। इस रुप में रुद्र हर भय और
पीड़ा का नाश करने वाले होते हैं।
- भव - रुद्र का भव रुप ज्ञान बल, योग बल और भगवत प्रेम के रुप में सुख देने वाला माना
जाता है।
- सदाशिव - रुद्र का यह स्वरुप निराकार ब्रह्म का साकार रूप माना जाता है। जो
सभी वैभव, सुख और आनंद देने वाला माना जाता है।
- शिव - यह रुद्र रूप अंतहीन सुख देने वाला यानि कल्याण करने वाला माना जाता है।
मोक्ष प्राप्ति के लिए शिव आराधना महत्वपूर्ण मानी जाती है।
- हर - इस रुप में नाग धारण करने वाले रुद्र शारीरिक, मानसिक और सांसारिक दु:खों को हर
लेते हैं। नाग रूपी काल पर इन का नियंत्रण होता है।
- शर्व - काल को भी काबू में रखने वाला यह रुद्र रूप शर्व कहलाता है।
- कपाली - कपाल रखने के कारण रुद्र का यह रूप कपाली कहलाता है। इस रुप में ही
दक्ष का दंभ नष्ट किया। किंतु प्राणीमात्र के लिए रुद्र का यही रूप समस्त सुख देने
वाला माना जाता है।
कब व कितना सही या गलत है ब्याज पर पैसे का लेन-देन?
हिन्दू धर्मग्रंथों के मुताबिक जीवन के चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ,
काम व
मोक्ष में व्यावहारिक तौर पर 'अर्थ' की बड़ी अहमियत है। असल में, 'अर्थ' उसे पुकारा गया है जो सभी कामों में सफलता, समृद्धि व फायदा देने में उपयोगी साबित होता है। इस
नजरिए से केवल धन ही नहीं बल्कि रत्नों की खान पृथ्वी, अन्न,
पशु यहां
तक कि स्त्री भी 'अर्थ' में शामिल है।
यही वजह है कि अर्थ को ज्यादा से ज्यादा बटोरना व बढ़ाना जरूरी माना गया है
किंतु संयम के साथ। जानिए गरुड़ पुराण में उजागर 'अर्थ' या धन से जुड़े कुछ रोचक
पहलू, जिनके मुताबिक कौन सा व्यक्ति
किस तरह पैसा कमाए? व खासतौर पर जानिए कि
ब्याज से पैसे का लेन-देन कब और कितना सही या गलत है ? -
असल में, सभी लोगों को धन तीन तरह
से मिलता है -
- बंटवारे के तहत वंश
परंपराओं में अधिकार से मिला धन।
- प्रेम व विश्वास की वजह
से किसी के जरिए मिला धन ।
- विवाह में पत्नी के जरिए
मिला धन।
वहीं, वर्ण के मुताबिक
ब्राह्मण के तीन तरह से धन कमाने के जरिए हैं - याजन यानी यज्ञ करने, पढ़ाने व दान से मिला धन। क्षत्रिय कर से, विजय से और सजा देकर धन कमाता है। वैश्य खेती से, गाय या पशु पालन और कारोबार से धन बटोरता है। वहीं
शूद्र के लिए धन का जरिया इन तीनों की मदद या सहायता से मिला धन बताया गया है।
सामान्य स्थिति में धन कमाने के इन तरीकों के अलावा संकटकाल में ब्राह्मण व
क्षत्रिय के लिए खेती व कारोबार से धन बटारेने के रास्ते भी बताए गए हैं। यही नहीं, आपत्ति में कुसीद यानी ब्याज से धन कमाना भी पाप
नहीं माना गया है।
खासतौर पर सभी के लिए बताए गए धन
कमाने के जरियों के मुकाबले ब्याज से पैसा कमाने के बड़े फायदे बताए गए हैं। इनके
मुताबिक भारी बारिश, राजकोप या फिर चूहों आदि
की वजह से खेती में आने वाली दिक्कतें कुसीद यानी ब्याज के धंधे में नहीं आती।
किसी भी दशा जैसे रात हो या दिन, ठंड, गर्मी हो बारिश, शुक्लपक्ष हो या कृष्णपक्ष ब्याज से होने वाली आमदनी
नहीं रुकती यानी सूद का पैसा बढ़ता ही रहता है।
कारोबारियों का, जो धन देश-विदेश में
जाने या कारोबार में लगाने से बढ़ता है, कुसीद यानी ब्याज के धंधे से वहीं पैसा घर बैठे ही बढ़ता रहता है।
अपने जीवन में स्वाभाविकता बनाए रखें
स्वाभाविक रहने का अर्थ है कि, स्वयं को, दूसरों को और आपके आस-पास की सभी वस्तुओं को वे जैसे हैं
वैसा ही स्वीकार किया जाना। आपने उसे बोझ के जैसे नहीं परन्तु समझ के साथ स्वीकार
किया है कि, वह ऐसा है। जब आप यह सोचते हैं या महसूस करते हैं कि, यह ऐसा होना चाहिए या वैसा होना चाहिए, तो फिर आप अपने सही स्वभाव में
नहीं रहते, फिर आप अपनी सीमाओं के सम्पर्क में आ जाते हैं। वह सीमा है, स्वाभाविक और सुखी नहीं
रहने की सीमा।
गलतियों का ज्ञान आपको तब मिलता है जब आप मासूम होते हैं। जो भी गलती हो जाये
उसके लिए आप अपने आप को पापी न समझें क्योंकि उस वर्तमान क्षण में आप फिर से नवीन,
शुद्ध और स्पष्ट
हो जाते हैं। भूतकाल की गलतियां भूतकाल हैं। जब यह ज्ञान मिल जाता है तो आप फिर से
परिपूर्ण हो जाते हैं। कई बार मां अपने बच्चों पर नाज करती हैं और उसके उपरांत
अपने आप को दोषी समझती है। क्रोध सजगता की कमी के कारण आता है। स्वयं, सत्य और कौशल का ज्ञान
आप में उत्तमता को उभार देता है। इसलिए गलती करने से न डरें परन्तु वही गलती
दोबारा न करें। आपको अपनी गलतियों में नवीनता रखनी चाहिए।
कई बार आप अपनी गलतियों को सुधारना चाहते हैं। आप उसे कितना सुधार पाते हैं?
जब आप दूसरों की
गलतियां सुधारते हैं तो दो स्थिति होती है। पहली जब आप किसी की गलती सुधारते हो
क्योंकि वह आपकी परेशानी का कारण होती है। दूसरी जब आप किसी की गलती सुधारते हो तो
वह सिर्फ उनके लिए होता है इसलिए नहीं कि वह आपको परेशान करती है परन्तु इसलिए
ताकि उनका विकास हो सके।
गलतियों को सुधारने के लिए आपको अधिकार और प्रेम की आवश्यकता होती है। अधिकार
और प्रेम एक दूसरे के विरोधाभासी हैं परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। अधिकार के
बिना प्रेम घुटन जैसा है। प्रेम के बिना अधिकार उथला है। एक मित्र के पास अधिकार
और प्रेम दोनों होना चाहिए परन्तु वह सही मेल में होना चाहिए। यह सिर्फ तब हो सकता
है जब आप पूर्णतः आवेगहीन और केन्द्रित होंगे।
जब आप गलतियों के लिए जगह देंगे तो आप दोनों अधिकारपूर्ण और एक दूजे के प्यारे
हो जाएंगे। दैवीय गुण इसी तरह के होते हैं। दोनों का सही संतुलन। कृष्ण और ईसा
मसीह में दोनों थे। दूसरों की तरफ उंगली उठाकर गलतियां मत करो। किसी व्यक्ति को उस
गलती के बारे में मत बताओ जो उसे पता है, उसने की है। ऐसा करके आप उसे और अधिक अपराधी बना
देंगे। एक महान व्यक्ति दूसरों की गलतियों को नहीं पकड़ता है और उन्हें अपराधी
महसूस होने नहीं होने देता है, वह उन्हें आवेग और देखरेख के साथ ठीक करता है।
जब आप दया दिखाते हैं तब आपका वास्तविक स्वभाव सामने आता है। क्या आपने कभी
किसी की सहायता की है? किसी से बिना कुछ
अपेक्षा किये हुए? हमारी सेवा बुद्धिहीन नहीं होनी
चाहिए। आपको सहायता करने के लिए योजना नहीं बनानी चाहिए। जब आप बिना किसी सोच
विचार के स्वतः ही सहायता करते हैं तब आप अपने वास्तविक स्वभाव में आ जाते हैं।
अनायास में कुछ करे और स्वाभाविक रहें।
इन 3
मंत्रों से बच्चों का दिमाग दौड़ेगा कम्प्यूटर से भी तेज
हर माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतान सेहतमंद व सुंदर होने के साथ ही काबिल
और सफल बनकर खुद के साथ परिवार का भी गौरव बढ़ाए। किंतु ऐसी चाहत तभी मुमकिन है जब
घर का माहौल भी संस्कार व पारिवारिक मूल्यों से भरा हो। इनके साये में ही संतान
चाहे वह पुत्र हो या पुत्री, के विचार व व्यवहार नियत होते हैं।
बचपन से ही संतान के व्यक्तित्त्व व चरित्र को मजबूत बनाने वाली संस्कारों की
यह कड़ी धर्म-कर्म से जुड़ी है। इसमें खासतौर पर बच्चों के लिए प्रथम पूज्य देवता
भगवान गणेश की उपासना बुद्धि, विवेक, विद्या व ज्ञान व सफलता देने में बड़ी मंगलकारी मानी गई है।
शास्त्रों में भगवान गणेश के ऐसे 3 आसान किंतु असरदार मंत्र बताए गए हैं, जिनको माता-पिता हर रोज
बच्चों को साथ रखकर बोलें तो यह कुशल, योग्य, बुद्धिमान, संस्कारी व सफल संतान की चाहत को पूरा कर देगा।
जानिए ये 3 आसान गणेश मंत्र –
सबीज गणपति मंत्र - ऊँ गं गणपतये नम:।
बारह अक्षरों का गणेश नाम मंत्र - ऊँ नमो भगवते गजाननाय।
आठ अक्षरों का गणेश नाम मंत्र - ऊँ श्री गणेशाय नम:।
सिलसिलेवार जानिए ध्यान करने का आसान तरीका, टेंशन दूर रहेंगे
भगवान का नाम स्मरण, प्रार्थना या मंत्र जप
उपासना के ही हिस्से हैं। अक्सर कई लोग इस बात से बेचैन रहते हैं कि जब भी वे
पूजा-पाठ, नाम-स्मरण या जप करने
बैठते हैं तो उनका मन भटकता है। असल में, ध्यान या साधना को की गहराई से जानने के लिए उन्हें खुद से ही पहले यह सवाल
पूछना चाहिए कि जहां उनका ध्यान जाता है, उसका अभ्यास तो उन्होंने पहले नहीं किया, फिर भी आसानी से उनका मन बार-बार उस ओर क्यों चला जाता है।
जवाब में हल छुपा है कि जप,
ध्यान या
साधना के दौरान भी मन को बाहर के बजाए भीतर की ओर टिकाना जरूरी है। ध्यान के दौरान
जब मंत्र के तालमेल से साधना में लीन होते ही साधक को साध्य यानी इष्ट की शक्ति
महसूस होगी, जो यह भरोसा देती है कि
जिस अनदेखे को वह पाने की कोशिश कर रहा है, वह हकीकत है, कल्पना नहीं। यानी सत्य
से साक्षात्कार मन व आत्मा की बेचैनी खत्म होती है। ध्यानी व साधक सहजता व शांति
महसूस करता है।
ध्यान लगाने के लिए सिलसिलेवार,
आसान, छोटी और बुनियादी जानकारी -
- साफ
और समतल जमीन पर आसन बिछाकर बैठें। हिले-डुले नहीं।
- सांस
को इस तरह काबू करें कि श्वास लेते वक्त पेट फूले और सांस छोड़ते समय पेट पीठ से
चिपक जाए।
- इस
तरीके से सांस पहले धीरे-धीरे लें, फिर उसमें थोड़ी तेजी लाएं। थकान या कमजोरी लगे तो विश्राम
का भी ध्यान रखें।
- सांसों
को बाहर निकाल किसी रूप या बिंदु पर ध्यान टिकाएं।
- अब
सांस लेते वक्त आती-जाती सांसों को देखने पर ध्यान दें।
- मंत्र
को सांसों के साथ जोड़ें। यथासंभव गुरु मंत्र का जप करें। पहले होंठो से, फिर जीभ, कण्ठ, हृदय और नाभि से।
- मंत्र
की ध्वनि जितनी लय में होगी, सिद्धि उतनी जल्द मिलेगी।
- शुरू
में मन इधर-उधर जाए तो उसे जाने दें। रोकने की जद्दोजहद में ज्यादा भटकेंगे। जहां
जाए उसे देखें फिर मन के साक्षी ईश्वर के साथ जो खुद को करने वाला कहता है यानी
मैं को महसूस करें।
- जब
सोच या भाव की स्थिति में हों, तो भी यह जानने की कोशिश करें कि कौन इन सबसे प्रभावित हो
रहा है।
- इनके
अलावा ध्यान के साथ किए जाने वाले पूजा और कर्मकांडों को करते समय उसके बाहरी
तौर-तरीकों में ही न उलझें रहे, उनकी आत्मा को, जिसे तत्व कहा जाता है, जानने की कोशिश करें।
-इस
तरह आप जितना खुद को संतुलित और ध्यानी या भीतर की ओर गौर करने वाला बनाने की
कोशिश करेंगे। आप उतने ही शांत और सहज होते जाएंगे। आध्यात्मिक नजरिए से रग-रग में
मौजूद भगवान आपकी भावना की सच्चाई को जानने-समझने के बाद आपको खुद राह बताएंगे
यानी सिद्ध बना देंगे।
क्या है 'संसार' और 'जगत'
शब्दों में फर्क?
आम बोलचाल में हम जगत और संसार का एक ही अर्थ में उपयोग करते हैं। लेकिन धर्म
की भाषा में इन दोनों का मतलब बदल जाता है। जानिए इन दोनों शब्दों के फर्क से जुड़ी
कुछ दिलचस्प बातें -
धर्म के नजरिए में जगत वह है जो जगदीश द्वारा रचा गया है। जगदीश का शाब्दिक
अर्थ है - जगत का ईश यानी ईश्वर। जगत का दायरा अपार, अनदेखा, अनछुआ, अनजाना होता है। वहीं, संसार वही है जो एक
सामान्य इंसान अपनी नजरों से ज्यादा से ज्यादा देख या जान पाता है।
जगत में होने वाली हर क्रिया या गतिविधि स्वार्थ से परे होती है और
प्रकृति-प्राणी मात्र को सुख, सुकून ही देती है। जैसे सूर्य के उदय होने या फूलों के
खिलने पर कोई शोर नहीं होता। फिर भी बेहद सुंदर और मनोरम दृश्य दिल को खुशी और
उम्मीद देते हैं। अगर कुछ बुरे नतीजे सामने भी आते हैं तो वह कहीं न कहीं प्रकृति
नियमों में इंसानी छेड़छाड़ के कारण मिलते हैं।
वहीं, संसार की बात करें तो यहां होने वाली घटनाएं कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में
कलह, कोलाहल
का कारण बन जाती है। इससे बाहरी तौर पर दिखाई देने वाली सुख-सुविधाओं के बावजूद भी
इंसान मानसिक, आत्मिक, सांसारिक कष्टों से दु:खी होता है। यहां तक कि यह जगत की व्यवस्थाओं पर भी असर
डालती है। इस तरह तमाम सुखों के बीच भी संसार में रहने वाले व्यक्ति में सुकून की
आस बनी रहती है।
यही वजह है कि सांसारिक कष्टों से छुटकारे के लिए धार्मिक मान्यताओं में जगदीश
की उपासना का महत्व बताया गया है। संदेश है कि हम जगत का ध्यान कर जीवन बिताएं
यानि छोटी सोच से नहीं बल्कि सोच का दायरा इतना बड़ा रखें कि जहां स्वार्थ और हित
का भाव ही न रह जाए।
खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मानकर अहंकार न करें
ईश्वर ने जब संसार की रचना की तब उसने सभी जीवों में एक समान रक्त का संचार
किया। इसलिए मनुष्य हो अथवा पशु सभी के शरीर में बह रहा खून का रंग लाल है।
विभिन्न योनियों की रचना भी इसलिए की ताकि मनुष्य कभी इस बात का अहंकार न करें कि
वह दूसरों से श्रेष्ठ है क्योंकि जीवन और मरण के चक्र में कौन कब किस योनि में
जाएगा यह किसी को पता नहीं।
समानता के पीछे ईश्वर की यही इच्छा थी कि संसार में आपसी प्रेम और सद्भाव बना
रहे, लोगों
में छोटे अथवा बड़े का भेद पैदा नहीं हो। लेकिन समय के साथ मनुष्य की बौद्धिक
क्षमता बढ़ती गयी किन्तु व्यवहारिक ज्ञान का लोप होता चला गया। मनुष्य ईश्वर की
इच्छा को समझ नहीं पाया और आपस में भेद-भाव करने लगा। शास्त्रों में लिखा है कि जो
ईश्वर की इच्छा का सम्मान नहीं करता है ईश्वर उससे नाराज होते हैं परिणामस्वरूप
व्यक्ति का पतन हो जाता है।
एक कथा इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। महाभारत युद्ध के बाद काफी समय तक पांचों
पाण्डवों ने कुशलता पूर्वक शासन करते हुए राज सुख का आनंद लिया। इसके बाद अपने
उत्तराधिकारी को शासन का कार्य भार सौंप कर सभी ने सशरीर स्वर्ग की ओर प्रस्थान
करने की योजना बनायी। निश्चित समय पर द्रौपदी समेत पांचों पाण्डव स्वर्ग की यात्रा
पर निकल पड़े। मार्ग में उन्हें एक काला कुत्ता मिला। कुत्ता भी इनके पीछे-पीछे चल
पड़ा। युधिष्ठिर को छोड़कर सभी भाई एवं द्रौपदी को यह अच्छा नहीं लगा कि कुत्ता
उनके साथ सशरीर स्वर्ग प्राप्त करे।
सभी भाईयों ने कुत्ते को धक्का देकर पर्वत से नीचे गिराना चाहा। लेकिन,
कुत्ता पर्वत से
नहीं गिरा बल्कि बारी-बारी से सभी भाई और द्रौपदी पर्वत से गिर पड़े और सशरीर
स्वर्ग नहीं पहुंच पाये। युधिष्ठिर के पीछे-पीछे कुत्ता चलता रहा लेकिन युधिष्ठिर
ने इसका एतराज नहीं किया। स्वर्ग के पास पहुंचने पर एक विमान सामने नज़र आया।
युधिष्ठिर इसमें बैठ गये तो कुत्ता भी साथ में आकर बैठ गया, इस पर भी युधिष्ठिर ने
एतराज नहीं किया। युधिष्ठिर की दयालुता और समानता के भाव को देखकर कुत्ता बनकर साथ
में चल रहे धर्मराज अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गये और युधिष्ठिर से कहा कि
वास्तव में तुम धर्म के प्रतीक हो और तुम सशरीर स्वर्ग में प्रवेश करने की योग्यता
रखते हुए। इस तरह समानता के भाव की वजह से युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग में स्थान
प्राप्त करने में सफल हुए और असमानता का भाव रखने वाले शेष पाण्डव अपने उद्देश्य
में असफल हुए।
पाण्डवों के स्वर्गारोहन की कथा का उल्लेख शास्त्रों में किया गया है।
बद्रीनाथ धाम से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी पर माणा गांव है। इस गांव में सरस्वती
नदी के बीच एक विशाल शिलाखंड है जो दो पर्वतों को मिलाता है। माना जाता है कि यह
विशाल शिलाखंड भीम द्वारा इस स्थान पर रखा गया ताकि द्रौपदी सरस्वती नदी को पार कर
सके। इसे भीम पुल के नाम से जाना है।
जैसा उद्देश्य होता है फल भी वैसा ही प्राप्त होता है
संसार को अनित्य, बदलनेवाला जानो और भगवान को नित्य, सदा रहनेवाला मानो। संसार दुःखालय है। संसार शत्रु
देकर तपाता है और मित्र देकर भी दुःख देता है। मित्र मिला और वह बीमार हो तो दुःख
देगा। मित्र चिढ़ गया तो दुःख देगा। वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया तो दुःख देगा। उसको
कोई दुःख आया, मुसीबत आयी तो अपने को दुःख होगा। मित्र शत्रु बन गया तो दुःख देगा। मित्र मर
गया तो दुःख देगा। मर जाने के बाद उसकी याद दुःख देगी ।
संसार मित्र बनकर दुःख देता है और संसारी चीजें अपनी बनकर मजदूरी करवाती हैं।
सँभालो, सँभालो,
सँभालो गहने
सँभालो, गाड़ी
सँभालो, बैंक
बैलेन्स सँभालो यह सँभालो, वह सँभालो। सँभाल-सँभाल के वे चीजें तो यहीं रह जाती हैं,
आखिर सँभालने वाला
ही मर जाता है। संसार को सँभाल-सँभाल के छोड़ना है लेकिन अपने स्वार्थ के लिए
सँभालते हैं तो बंधन होता है और भगवान की प्रीति के लिए, परोपकार के लिए सँभालते हैं तो
मोक्षदायी हो जाता है क्योंकि उद्देश्य और आश्रय परमात्मा है। हम भी तो आश्रम
सँभालते हैं, यह सँभालते हैं, वह सँभालते हैं लेकिन बंधन नहीं रहता। जब आप अपने स्वार्थ के लिए कर्म करते
हैं, तब वह
कर्म आपको विक्षेप देगा, चिंता देगा, पाप देगा, बंधन देगा और जन्म-मरण की खाई में धकेल देगा।
अगर आप अपनी योग्यता को ‘वासुदेवः सर्वम्’ की भावना से सबकी भलाई में लगा देते हैं और अपने
कर्म का फल ईश्वर-अर्पण करके ईश्वर के आश्रित हो जाते हैं तो आपका अंतःकरण विशाल
होता जाता है, बुद्धि में भगवान की दिव्य प्रेरणा आने लगती है। फिर आपको बड़ी-बड़ी किताबें
पढ़के, बड़ी-बड़ी
परीक्षाएं पास करके मैनेजमेंट नहीं करना पड़ेगा, बड़े-बड़े ग्रंथ, पोथे रट-रटके फिर सत्संग
नहीं करना पड़ेगा।
आप यदि अहंकार का आश्रय छोड़कर भगवान का आश्रय लेके बोलते हैं, सर्वात्मा श्रीहरि के
निमित्त बोलते हैं तो आपका बोलना सत्संग हो जायेगा, आपका करना सत्कर्म हो जायेगा,
आपका जीवन चिन्मय
जीवन होने लगेगा। परमात्मा की प्रीति के लिए, परमात्मा के आश्रय के लिए लोग
भक्ति तो करते हैं लेकिन हृदय में महत्त्व भगवान का नहीं रखते, महत्त्व रखते हैं कि ‘बेटा ठीक हो जाय,
पैसा मिल जाय,
मेरा यश हो
जाय।’ तो
आप परमात्मा का आश्रय नहीं ले रहे हैं, आप नश्वर चीजों के आश्रय में फँस रहे हैं।
यदि आप नौकरी करते हैं, धंधा करते हैं, पत्नी के साथ बाजार में खरीददारी करते हैं या यात्रा
करते हैं और आपके हृदय में भगवान का महत्त्व है तो आप भगवान के आश्रित हैं। मुख्य
उद्देश्य और महत्त्व भगवान का है, कर्म को योग बनाने का है, धर्म के अनुसार चलने का है तो
आपका उद्देश्य और आश्रय भगवान हो गये।
अगर आपका उद्देश्य मजा लेने का है और आश्रय चोरी का है तो आपका उद्देश्य और
आश्रय नीच हो गया। किसी का उद्देश्य ऊँचा होता है, आश्रय छोटा होता है तो भी चल
जाता है। जैसे- एक सेठ-सेठानी की श्रद्धालु बेटी थी। उसका उद्देश्य था भगवान के
दर्शन करने का। तीन-चार ठग साधुवेश में उसके घर आये।
सेठ-सेठानी की अनुपस्थिति में उन्होंने उस युवती को कहा कि "तू सब गहने
आदि पहनकर हमारे साथ चल, हम तुझको भगवान के दर्शन करा देंगे।’’ वह उनके साथ गयी तो ठगों
ने उसके सारे गहने उतरवा लिये और कहा: ‘‘इस कुएँ में देख, भगवान के दर्शन हो रहे हैं।’’
वह ज्यों ही कुएँ
में देखने के लिए झुकी, उसको धक्का मार दिया और भाग चले। तो हुआ क्या कि भगवान
प्रकट हो गये और उस युवती को बचा लिया! अब उसका आश्रय तो छोटा था लेकिन उद्देश्य
भगवान थे तो कुछ भी नुकसान नहीं हुआ। यह घटना ‘भक्तमाल’ में विस्तार से आती है।
किसी का उद्देश्य और आश्रय दोनों ऊँचे होते हैं। जैसे-हनुमानजी लंका में गये
तो उनका उद्देश्य रामजी की सेवा था और आश्रय रामनाम था, कर्मयोग था। हनुमानजी ने
श्रीरामजी की दुहाई देकर रावण को समझाने की कोशिश की लेकिन रावण ने हेकड़ी नहीं
छोड़ी, तब
हनुमानजी ने लंका जला दी। उनका उद्देश्य था कि रावण अभी समझ जाय कि ‘मैं तो रामजी का छोटा-सा
दूत हूँ। जब मैं ऐसा हूँ तो मेरे स्वामीजी कैसे होंगे?’ तो हनुमानजी का उद्देश्य अपने
स्वामी का यश फैलाना था।
उनके हृदय में रावण के प्रति द्वेष नहीं था और लंका को जलाकर ‘मैं कुछ बड़ा हूँ’
ऐसा दिखाने का भाव
नहीं था। रावण भगवान रामजी की महिमा जाने और उसका भला हो ऐसा उद्देश्य था। भगवान
भी दूत को भेजते समय ऐसा बोलते हैं: ‘‘जाओ, काम तो हमारा हो सीताजी को लाने का, लेकिन हित रावण का हो।
"काजु हमार तासु हित होई।" तो अपने कर्म में, अपनी बातचीत में, अपने लेन-देन में आप
उद्देश्य और आश्रय ईश्वर का रख दो तो आपका जीवन सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा से
मिलाने वाला हो जायेगा।
पुत्रदा एकादशी , चाहते हैं योग्य पुत्र तो जरुर करें ये व्रत
पौष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पुत्रदा एकादशी कहते हैं। इस एकादशी का
महत्व पुराणों में वर्णित है। इस बार यह एकादशी 22 जनवरी, मंगलवार को है। इस व्रत को करने
से योग्य पुत्र की प्राप्ति होती है। पुत्रदा एकादशी का महत्व स्वयं भगवान
श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को बताया था। इस व्रत की विधि इस प्रकार है-
इस चर और अचर संसार में पुत्रदा एकादशी के व्रत के समान दूसरा कोई व्रत नहीं
है। इस एकादशी पर भगवान नारायण की पूजा की जाती है। पुत्रदा एकादशी के दिन
नाम-मंत्रों का उच्चारण करके फलों के द्वारा भगवान नारायण का पूजन करें। नारियल के
फल, सुपारी,
नींबू, अनार, आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के
फलों से भगवान नारायण की पूजा करें। इसी प्रकार धूप दीप से भी भगवान की अर्चना
करें।
पुत्रदा एकादशी की रात्रि को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए। जागरण
करने वाले को जिस फल की प्राप्ति होति है, वह हजारों वर्ष तक तपस्या करने से भी नहीं मिलता। जो
पुत्रदा एकादशी का व्रत करते हैं, वे इस लोक में योग्य पुत्र पाकर मृत्यु के पश्चात्
स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्य को पढऩे और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल
मिलता है।
ये हैं मुसीबतों का पुलिंदा बांधने वाले करिश्माई हनुमान मंत्र व चौपाई
शक्ति, समर्पण और जिम्मेदारी उठाने के कई सबक से सराबोर रुद्र अवतार श्रीहनुमान
चरित्र का स्मरण सारे संकट और भय चुटकियों में दूर करने वाला माना गया है। यहीं
नहीं, साहसी
व मेहनती बनने की सीखों के साथ श्रीहनुमान भक्ति ताकत बन हर मुश्किल और कठिन हालात
से बाहर निकाल देती है। धार्मिक मान्यताओं में श्रीहनुमान शिव अवतार हैं। यह भी
वजह है कि शिव की तरह थोड़ी सी भक्ति से ही आसानी से प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए
उनकी प्रसन्नता के लिए यहां बताई जा रही गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रची गई
श्रीहनुमान चालीसा की चमत्कारी चौपाई व शास्त्रों का मंत्र विशेष सारी मुसीबतों से
निजात देने का आसान व असरदार उपाय साबित होगा जानिए ये चौपाई व मंत्र –
श्रीहनुमान चालीसा चौपाई - "दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह
तुम्हरे तेते।।" इस चौपाई का सरल शब्दों में यही सार है कि जब भी कोई परेशानी,
कष्ट, अभाव हो श्रीहनुमान के
स्मरण से सभी भय, बाधा, चिंता, क्षोभ नष्ट हो जाते हैं।
हनुमान साधना के लिए बताए गए कई मंत्रों में से एक मंत्र भय, परेशानियों और दु:खों को काटने वाला बताया गया है।
यह सरल किंतु दिव्य मंत्र है हनुमान गायत्री मंत्र –
"ऊँ आञ्जनेयाय विद्महे,
वायुपुत्राय धीमहि।
तन्नो हनुमत् प्रचोदयात्।"
ये चौपाई व मंत्र किन 3 खास दिनों और तरीके से
बोलें जानिए-
ये चौपाई व मंत्र रविवार, मंगलवार और शनिवार को बोलना बड़ा ही शुभ माना गया है
क्योंकि जहां मंगलवार श्रीहनुमान की भक्ति, रविवार हनुमान के गुरु सूर्य की
भक्ति व शनिवार शनिदेव, जिन्होंने स्वयं इस दिन श्रीहनुमान भक्ति करने वाले पर कृपा
करने का वचन श्रीहनुमान को दिया था, की उपासना की शुभ घड़ी है। इन दिनों में सुबह स्नान
कर लाल वस्त्र पहनकर श्रीहनुमान की मूर्ति या तस्वीर की पूजा करें। खासतौर पर
श्रीहनुमान को कुंकुम, अक्षत, लाल फूल के अलावा खासतौर पर सिंदूर चढ़ाएं। बाद इस हनुमान
गायत्री मंत्र या चौपाई को पूरी श्रद्धा और भक्ति से करें। भोग में श्रीहनुमान को
गुड़, चने
या गेहूं के आटे और घी से बना चूरमा चढ़ाएं। पूजा संभव न हो तो इनका मन ही मन
स्मरण भी संकट मोचक माना गया है।
हजारों साल पहले कही गईं इनकी बातें आज भी हैं संकटों का अचूक इलाज
इस संसार में उसी व्यक्ति का जन्म सार्थक होता है, जिसके द्वारा समाज तथा देश की
उन्नति हुई हो। वैसे तो इस दुनिया में न जाने कितने महान व्यक्तियों ने जन्म लिया,
लेकिन इनमें से
कुछ ऐसे थे जिन्हें हम आज भी याद करते हैं। सिर्फ उनके कर्मों की वजह से ही नहीं,
बल्कि उनके द्वारा
दिए गए समाधानों और सिद्धांतों के लिए भी।
ऐसे सिद्धांत एवं समाधान जो उनके काल में तो प्रासंगिक थे ही, साथ ही हमारी आज की
जीवनशैली में भी उतना ही महत्व रखते हैं। ऐसे बुद्धिमानों की बात करें तो महात्मा
विदुर का नाम शीर्षस्थ है। वे धृतराष्ट्र सहित पांडवों एवं कौरवों को भी ऐसे उपदेश
देते थे, जो
उनके लिए लाभकारी होते थे।
महात्मा विदुर महाभारत के काल में एक बहुत ही नीति-कुशल एवं सैद्धांतिक संपदा
से धनी व्यक्ति थे और उनके बताए हुए मार्ग आज भी हमारे जीवन को आसान बनाते हैं तथा
संकटों को दूर रखते हैँ। आज के समय में ज़िंदगी कितनी भी उलझ चुकी हो, पर विदुर की नीतियां
इसका सटीक जवाब देती है।
जानिए राजनीति, व्यक्तित्व, ईमानदारी, कर्म, शिक्षा तथा युद्ध के विषय में कौन सी शिक्षाएं दी हैं महात्मा विदुर ने...
विश्वास योग्य पर भी अधिक विश्वास ना करें-
जो विश्वास का पात्र नहीं है उसका तो कभी विश्वास किया ही नहीं जाना चाहिये पर
जो विश्वास योग्य है उस पर भी अधिक विश्वास नहीं किया जाना चाहिये। विश्वास से जो
भय उत्पन्न होता है वह मूल उद्देश्य का भी नाश कर डालता है।
बुद्धिमान व्यक्ति से बैर लेकर शांत ना हों-
बुद्धिमान व्यक्ति के प्रति अपराध कर कोई दूर भी चला जाये तो चैन से न बैठें
क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति की बाहें लंबी होती है और समय आने पर वह अपना बदला लेता
है।
सामर्थ्य ना होने पर कामना नहीं करना चाहिए-
अल्पमात्रा में धन होते हुए भी कीमती वस्तु को पाने की कामना और शक्तिहीन होते
हुए भी क्रोध करना मनुष्य की देह के लिये कष्टदायक और कांटों के समान है।
स्वभाव के विपरीत कार्य ना करें-
जो अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करते हैं वह कभी नहीं शोभा पाते। गृहस्थ होकर
अकर्मण्यता और सन्यासी होते हुए विषयासक्ति का प्रदर्शन करना ठीक नहीं है।
शत्रु, मित्र और नर्तक को अपना गवाह ना बनाएं-
हस्तरेखा विशेषज्ञ, चोरी का व्यापार करने वाला, जुआरी, चिकित्सक, शत्रु, मित्र और नर्तक को कभी अपना गवाह
नहीं बनायें।
विनय धारण करने से अपयश स्वयं नष्ट होता है-
जो मनुष्य अपने अंदर विनय भाव धारण करता है उसके अपयश का स्वयमेव ही नाश हो
जाता है। पराक्रम से अनर्थ तथा क्षमा से क्रोध का नाश होता है। सदाचार से कुलक्षण
से बचा जा सकता है।
हमेशा चमत्कारपूर्ण वाणी अधिक नहीं बोली जा सकती-
मुख से वाक्य बोलने पर संयम रखना तो कठिन है पर हमेशा ही अर्थयुक्त तथा
चमत्कारपूर्ण वाणी भी अधिक नहीं बोली जा सकती।
अधिक कटु वाक्यों से महान अनर्थ होता है-
अच्छे और मधुर ढंग से कही हुई बात से सभी का कल्याण होता है पर यदि कटु वाक्य
बोले जायें तो महान अनर्थ हो जाता है।
जिसका इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं उसका ज्ञान व्यर्थ है-
जैसे समुद्र में गिरी हुई वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह दूसरे की अनुसनी करने
वाले को कही गयी उचित बात भी व्यर्थ हो जाती है। जिस मनुष्य ने अपनी इंद्रियों पर
नियंत्रण नहीं कर दिखाया उसका शास्त्र ज्ञान भी उसी तरह व्यर्थ है जैसे राख में
किया गया हवन।
दूसरे के घर में झगड़ा नहीं कराना चाहिए-
शराब पीना, कलह करना, अपने समूह के साथ शत्रुता, पति पत्नी और परिवार में भेद उत्पन्न करना, राजा के साथ क्लेश करने
तथा किसी स्त्री पुरुष में झगड़ा करने सहित सभी बुरे रास्तों का त्याग करना ही
श्रेयस्कर है।
धनी से अधिक दरिद्र स्वाद चखता है-
निर्धन आदमी भोजन का जितना स्वाद लेता है उतना धनियों के लिये संभव नहीं है।
धनियों के लिये यह स्वाद दुर्लभ है। इस संसार में धनियों के भोग करने की शक्ति
अत्यंत क्षीण होती है जबकि दरिद्र मनुष्य काष्ठ की लकड़ी को भी पचा जाता है।
गुरू की कृपा से ही कल्याण संभव है
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्। गुरु की कृपा ही शिष्य का परम मंगल कर
सकती है, दूसरा
कोई नहीं कर सकता है यह प्रमाण वचन है। प्रमाण वचन को जो पकड़ता है वह तरता है। जो
मन के अनुसार, वासना के अनुसार ही गुरु को देखना चाहता है वह भटक जाता है। ‘शास्त्रानुसारी’ प्रमाण के अनुरूप करेगा।
‘वासना
अनुसारी’ मन
के अनुरूप करेगा।
वासना अनुसारी कर्म बंधन है, संसार है, जन्म-मरण का कारण है और शास्त्रानुसारी कर्म उन्नति व
ईश्वरप्राप्ति का साधन है। तो पुरुषार्थ क्या करना है ? जैसा मन में आये ऐसा पुरुषार्थ
करना चाहिए कि जैसा शास्त्र और गुरु कहते हैं वैसा करना चाहिए ? मान्यता अनुसारी कर्म
कितने भी कर लो और उनका फल कितना भी दिख जाय लेकिन होगा वह संसारी।
जैसे सूर्य पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है - यह प्रमाणभूत बात है। आँखों को नहीं
दिखता है फिर भी मानना पड़ेगा। आकाश में नीलिमा आँख को दिखती है लेकिन प्रमाणित है
कि नीलिमा नहीं है तो मानना पड़ेगा नीलिमा नहीं है, हमारी आँख की कमजोरी से दिखती
है। जो प्रमाणित बात है वह माननी पड़ती है। शास्त्र कहते हैं: गुरुकृपा हि केवलं
शिष्यस्य परं मंगलम्। यह प्रमाणित बात है। नानकजी कहते हैं: घर विच आनंद रह्या
भरपूर, मनमुख
स्वाद न पाया। अपने घर में ही ब्रह्म परमात्मा का आनंद है लेकिन जो मन के अनुसार
ही करना चाहते हैं, वे उसको नहीं पा सकते। यह प्रमाणित बात है।
कर्म किये बिना ईश्वर मिलता तो यूँ तो सबको मिल जाय ईश्वर! आस्तिक तो बहुत लोग
हैं, श्रद्धालु
तो बहुत लोग हैं, फिर उनको अल्लाह, गॉड या ईश्वर क्यों नहीं मिलता? गुरु के द्वार पर कई लोग आते हैं परंतु उनमें से
जिनमें ईश्वरप्राप्ति की सच्ची लगन होती है वे गुरु के दैवी कार्यों में, शास्त्रानुसारी कर्मों
में तत्परता से लगे रहते हैं और परम लक्ष्य को पा लेते हैं।
अपने मन में जैसा आया वैसा निर्णय करके जीव संसार-सागर में बह जाता है। अतः
वासना अनुसारी कर्म संसार में भटकाता है और प्रमाण अनुसारी कर्म मोक्ष का हेतु है।
अच्छा तो वही लगेगा जो अपने अनुकूल मिल जाय। व्यक्ति अपने विचारों के अनुसार करने
लग जाय तो गिरेगा, पतन होगा और गुरु के अनुरूप छलाँग मारी तो उत्थान होगा। अपनी मान्यता के
अनुसार एक जन्म नहीं हजार जन्म जियो, कर-करके गिर जाते हैं इसीलिए बोलते हैं शास्त्र के
अनुसार कर्म करो।
रामकृष्णदेव ने अपनी मान्यता के अनुसार काली माता को तो प्रकट कर लिया लेकिन
काली माता ने कहा : ‘ब्रह्मज्ञानी गुरु की शरण जाओ ।’
नामदेवजी ने अपनी मान्यतानुसार भगवान विट्ठल को प्रकट कर लिया लेकिन विट्ठल ने
कहाः ‘विसोबा
खेचर के पास जाओ।’ भगवान शिव को पार्वतीजी ने अपनी मान्यता के अनुसार पति के रूप में पा लिया
लेकिन शिवजी ने कहा: ‘गुरु वामदेवजी की शरण जाओ।’ यह क्या रहस्य है ? प्रमाणभूत है कि गुरुकृपा हि केवलं... प्रमाणभूत बात
माननी पड़ेगी!
मेरी हो सो जल जाय, तेरी हो सो रह जाय। हमारी जो अहंता, ममता और वासना है वह जल जाय।
गुरुजी! आपकी जो करुणा और ज्ञानप्रसाद है वही रह जाय। तत्परता से सेवा करते हैं तो
आदमी की वासनाएँ नियंत्रित हो जाती हैं और ईश्वरप्राप्ति की भूख लगती है।
प्रमाणभूत है कि जगत नष्ट हो रहा है। संसार का कितना भी कुछ मिल जाय लेकिन
परमात्म-पद को पाये बिना इस जीवात्मा का जन्म-मरण का दुःख जायेगा नहीं। बिनु
रघुवीर पद जिय की जरनी न जाई। जो प्रमाणभूत बात है उसको पकड़ लेना चाहिए और जीवन
सफल बनाना चाहिए।
साल का 11 वां महीना आज से, जानिए क्यों खास है ये महीना
हिंदू पंचांग के अनुसार साल का 11 वां महीना माघ कहलाता है। इस महीने में मघा
नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा होने से इसका नाम माघ पड़ा। इस बार माघ मास का प्रारंभ 28 जनवरी, सोमवार से हो रहा है।
धार्मिक दृष्टिकोण से इस मास का बहुत अधिक महत्व है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस
महीने में पवित्र नदी में स्नान करने से मनुष्य पापमुक्त हो स्वर्गलोक में स्थान
पाता है-
माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति।।
माघ मास में प्रयाग में स्नान, दान, भगवान विष्णु के पूजन व हरिकीर्तन के महत्व का वर्णन करते
हुए गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है-
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरतपतिहिं आव सब कोई।।
देव दनुज किन्नर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं।।
पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता।
पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में माघ मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया
है-
व्रतैर्दानैस्तपोभिश्च न तथा प्रीयते हरि:।
माघमज्जनमात्रेण यथा प्रीणाति केशव:।।
प्रीतये वासुदेवस्य सर्वपापापनुक्तये।
माघस्नानं प्रकुर्वीत स्वर्गलाभाय मानव:।।
अर्थात व्रत, दान और तपस्या से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में
स्नानमात्र से होती है, इसलिए स्वर्गलाभ, सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति
प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान अवश्य करना चाहिए।
धर्म शास्त्रों में भी लिखा है माघ महीने का महत्व
हिंदू पंचांग के अनुसार साल का 11वां महीना माघ होता है। धर्म शास्त्रों में माघ मास
को बहुत ही पवित्र माना गया है। मत्स्यपुराण, महाभारत आदि धर्म ग्रंथों में
मास मास का महत्व विस्तार से बताया गया है। इस मास में भगवान माधव की पूजा करने
तथा नदी स्नान करने से मनुष्य स्वर्गलोक में स्थान पाता है। धर्मग्रंथों के अनुसार
-
स्वर्गलोके चिरं वासो येषां मनसि वर्तते।
यत्र क्वापि जले तैस्तु स्नातव्यं मृगभास्करे।।
अर्थात जिन मनुष्यों को चिरकाल तक स्वर्गलोक में रहने की इच्छा हो, उन्हें माघ मास में
सूर्य के मकर राशि में स्थित होने पर पवित्र नदी में प्रात:काल स्नान करना चाहिए।
माघं तु नियतो मासमेकभक्तेन य: क्षिपेत्।
श्रीमत्कुले ज्ञातिमध्ये स महत्त्वं प्रपद्यते।।
(महाभारत अनु. 106/5)
अर्थात जो माघमास में नियमपूर्वक एक समय भोजन करता है, वह धनवान कुल में जन्म लेकर अपने
कुटुम्बीजनों में महत्व को प्राप्त होता है।
अहोरात्रेण द्वादश्यां माघमासे तु माधवम्।
राजसूयमवाप्रोति कुलं चैव समुद्धरेत्।।
(महाभारत अनु. 109/5)
अर्थात माघ मास की द्वादशी तिथि को दिन-रात उपवास करके भगवान माधव की पूजा
करने से उपासक को राजसूययज्ञ का फल प्राप्त होता है और वह अपने कुल का उद्धार कर
देता है।
तिल चतुर्थी और बुधवार का शुभ योग, जानिए महत्व व कथा
हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को तिल चतुर्थी का
व्रत किया जाता है। इसे संकटा गणेश चतुर्थी भी कहते हैं। इस बार तिल चतुर्थी और
बुधवार का शुभ योग 30 जनवरी को बन रहा है। इस दिन विशेष रूप से भगवान श्रीगणेश व चंद्रमा की पूजा
की जाती है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार इस व्रत को करने से सुख तथा समृद्धि की प्राप्ति होती
है साथ ही भगवान गणेश की कृपा अपने भक्तों पर बनी रहती है। व्यक्ति को अपने
व्यवसाय में बरकत मिलती है, मानसिक शांति प्राप्त होती है व घर में खुशहाली का वातावरण
बना रहता है।
दान का विशेष महत्व
इस दिन दान का भी विशेष महत्व धर्म ग्रंथों में लिखा है। उसके अनुसार जो व्यक्ति
व्रत के साथ-साथ दान भी करता है उसकी हर मनोकामना पूरी होती है और जो व्यक्ति व्रत
न रखकर केवल दान ही करता है उसका भी कल्याण होता है। इस दिन गरीब लोगों को गर्म
वस्त्र, कम्बल,
कपड़े आदि दान कर
सकते हैं। भगवान गणेश को तिल तथा गुड़ के लड्डुओं का भोग लगाने के बाद प्रसाद को
गरीब लोगों में बांटना चाहिए। लड्डुओं के अतिरिक्त अन्य खाद्य पदार्थ भी बांट सकते
हैं।
तिल चतुर्थी व्रत की कथा इस प्रकार है-
एक बार देवता अनेक विपदाओं में घिरे थे। तब वे मदद के लिए भगवान शिव के पास
आए। उस समय भगवान शिव के साथ कार्तिकेय तथा गणेशजी भी थे। देवताओं की बात सुनकर
शिवजी ने कार्तिकेय व गणेशजी से पूछा कि तुम में से कौन देवताओं के कष्टों का
निवारण कर सकता है। तब कार्तिकेय व गणेशजी दोनों ने ही स्वयं को इस कार्य के लिए
सक्षम बताया। इस पर भगवान शिव ने दोनों की परीक्षा लेते हुए कहा कि तुम दोनों में
से जो सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके आएगा वही देवताओं की मदद करने जाएगा।
यह सुनते ही कार्तिकेय तुरंत अपने वाहन मोर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा के
लिए निकल गये। गणेशजी सोच में पड़ गये कि वह चूहे के ऊपर चढ़कर सारी पृथ्वी की
परिक्रमा करेंगे तो उन्हें बहुत समय लग जायेगा। तभी उन्हें एक उपाय सुझा वे अपने
स्थान से उठकर सात बार अपने माता-पिता की परिक्रमा करके बैठ गए। परिक्रमा करके
लौटने पर कार्तिकेय स्वयं को विजेता बताने लगे। तब शिवजी ने श्रीगणेश से पृथ्वी की
परिक्रमा ना करने का कारण पूछा।
तब गणेश जी बोले कि माता-पिता के चरणों में ही समस्त लोक हैं। यह सुनकर भगवान
शिव ने गणेशजी को देवताओं के संकट दूर करने की आज्ञा दी। इस प्रकार भगवान शिव ने
गणेशजी को आशीर्वाद दिया कि चतुर्थी के दिन जो तुम्हारा पूजन करेगा और रात्रि में
चन्द्रमा को अध्र्य देगा उसके तीनों ताप - दैहिक ताप, दैविक ताप तथा भौतिक ताप दूर
होगें। उस व्यक्ति को सभी प्रकार के दु:खों से मुक्ति मिलेगी। उसे सभी प्रकार के
भौतिक सुखों की प्राप्ति होगी व सुख तथा समृद्धि में वृद्धि होगी।
इस विधि से करें श्रीगणेश का पूजन
हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को तिल चतुर्थी का
व्रत किया जाता है। इसे संकटा गणेश चतुर्थी भी कहते हैं। इस बार तिल चतुर्थी और
बुधवार का शुभ योग 30 जनवरी को बन रहा है। इस दिन विशेष रूप से भगवान श्रीगणेश व चंद्रमा की पूजा
की जाती है। इस व्रत की पूजन विधि इस प्रकार है-
तिल चतुर्थी के दिन सुबह स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
इसके बाद एक स्वच्छ आसन पर बैठकर भगवान गणेश की पूजा करें। पूजा के दौरान भगवान
गणेश को धूप व दीप दिखाएं। तत्पश्चात फल, फूल, चावल, रौली, मौली, पंचामृत से स्नान आदि कराने के पश्चात भगवान गणेश को तिल से
बनी वस्तुओं या तिल तथा गुड़ से बने लड्डुओं का भोग लगाएं।
इस दिन व्रत रखने वाले व्यक्ति को लाल वस्त्र धारण करने चाहिए। पूजा करते समय
पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठें। भगवान गणेश की पूजा करने के बाद उसी
समय गणेशजी के मंत्र ऊँ श्रीगणेशाय नम: का जाप 108 बार करें। शाम को कथा सुनने के
बाद गणेश जी की आरती उतारें। चंद्रमा के उदय होने पर उनका भी पंचोपचार से पूजन
करें।
इस प्रकार विधिवत भगवान श्रीगणेश का पूजन करने से मानसिक शान्ति मिलने के साथ
आपके घर-परिवार के सुख व समृद्धि में वृद्धि होती है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार इस व्रत को करने से सुख तथा समृद्धि की प्राप्ति होती
है साथ ही भगवान गणेश की कृपा अपने भक्तों पर बनी रहती है। व्यक्ति को अपने
व्यवसाय में बरकत मिलती है, मानसिक शांति प्राप्त होती है व घर में खुशहाली का वातावरण
बना रहता है।
षटतिला एकादशी 6 को, जानिए
इस व्रत का महत्व व कथा
माघ मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को षटतिला एकादशी कहते हैं। इस बार यह एकादशी
6 फरवरी,
बुधवार को है।
षटतिला एकादशी का महात्मय पुराणों में वर्णित है। इससे संबंधित एक कथा भी है जो इस
प्रकार है-
एक बार नारद मुनि भगवान विष्णु के धाम वैकुण्ठ पहुंचे। वहां उन्होंने भगवान
विष्णु से षटतिला एकादशी की क्या कथा तथा उसके महत्व के बारे में पूछा। तब भगवान
विष्णु ने उन्हें बताया कि- प्राचीन काल में पृथ्वी पर एक ब्राह्मण की पत्नी रहती
थी। उसके पति की मृत्यु हो चुकी थी। वह मुझमें बहुत ही श्रद्धा एवं भक्ति रखती थी।
एक बार उसने एक महीने तक व्रत रखकर मेरी आराधना की। व्रत के प्रभाव से उसका शरीर
तो शुद्ध तो हो गया परंतु वह कभी ब्राह्मण एवं देवताओं के निमित्त अन्न दान नहीं
करती थी अत: मैंने सोचा कि यह स्त्री वैकुण्ठ में रहकर भी अतृप्त रहेगी अत: मैं
स्वयं एक दिन उसके पास भिक्षा लेने गया।
ब्राह्मण की पत्नी से जब मैंने भिक्षा की याचना की तब उसने एक मिट्टी का पिण्ड
उठाकर मेरे हाथों पर रख दिया। मैं वह पिण्ड लेकर अपने धाम लौट आया। कुछ दिनों
पश्चात वह देह त्याग कर मेरे लोक में आ गई। यहां उसे एक कुटिया और आम का पेड़
मिला। खाली कुटिया को देखकर वह घबराकर मेरे पास आई और बोली की मैं तो धर्मपरायण
हूं फिर मुझे खाली कुटिया क्यों मिली?
तब मैंने
उसे बताया कि यह अन्नदान नहीं करने तथा मुझे मिट्टी का पिण्ड देने से हुआ है।
मैंने फिर उसे बताया कि जब देव कन्याएं आपसे मिलने आएं तब आप अपना द्वार तभी खोलना
जब तक वे आपको षटतिला एकादशी के व्रत का विधान न बताएं।
स्त्री ने ऐसा ही किया और जिन विधियों को देवकन्या ने कहा था उस विधि से
षटतिला एकादशी का व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उसकी कुटिया अन्न धन से भर गई।
इसलिए हे नारद इस बात को सत्य मानों कि जो व्यक्ति इस एकादशी का व्रत करता है और
तिल एवं अन्नदान करता है उसे मुक्ति और वैभव की प्राप्ति होती है।
गुप्त नवरात्रि 11 से, जानिए क्यों खास हैं ये नौ दिन
हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है लेकिन आमजन केवल दो
नवरात्रि (चैत्र व शारदीय नवरात्रि) के बारे में ही जानते हैं। आषाढ़ तथा माघ मास
की नवरात्रि को गुप्त नवरात्रि कहा जाता है। इस बार माघ मास की गुप्त नवरात्रि का
प्रारंभ माघ शुक्ल प्रतिपदा (11 फरवरी, सोमवार) से प्रारंभ हो रहा है। जानिए गुप्त नवरात्रि से
जुड़ी खास बातें-
माघ मास की नवरात्रि को गुप्त नवरात्रि कहते हैं लेकिन आषाढ़ मास व माघ मास की
नवरात्रियों में काफी भिन्नताएं हैं। आषाढ़ मास की नवरात्रि में जहां वामाचार
उपासना की जाती है वहीं माघ मास की नवरात्रि में वामाचार पद्धति को अधिक मान्यता
नहीं दी गई है। ग्रंथों के अनुसार माघ मास के शुक्ल पक्ष का विशेष महत्व है। शुक्ल
पक्ष की पंचमी को ही देवी सरस्वती प्रकट हुई थीं। इन्हीं कारणों से माघ मास की
नवरात्रि में सनातन, वैदिक रीति के अनुसार देवी साधना करने का विधान निश्चित किया गया है।
आषाढ़ मास की गुप्त नवरात्रि का समय शाक्य एवं शैव धर्मावलंबियों के लिए
पैशाचिक, वामाचारी
क्रियाओं के लिए अधिक शुभ एवं उपयुक्त होता है। इसमें प्रलय एवं संहार के देवता
महाकाल एवं महाकाली की पूजा की जाती है। इन्हीं संहारकर्ता देवी-देवताओं के गणों
एवं गणिकाओं अर्थात भूत-प्रेत, पिशाच, बैताल, डाकिनी, शाकिनी, खण्डगी, शूलनी, शववाहनी, शवरूढ़ा आदि की साधना की जाती है। ऐसी साधनाएं शाक्त मतानुसार
शीघ्र ही सफल होती है। दक्षिणी साधना, योगिनी साधना, भैरवी साधना के साथ पंचमकार की
साधना इसी नवरात्रि में की जाती है।
हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। वर्ष के प्रथम मास
अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती
है। इसके बाद अश्विन मास में प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के
ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में भी गुप्त नवरात्रि मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी
भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है।
अश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस दौरान गरबों के माध्यम
से माता की आराधना की जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन
दोनों नवरात्रियों को क्रमश: शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है।
इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक
लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। गुप्त नवरात्रि
विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है। साधक इन दोनों गुप्त नवरात्रि में
विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं।
गुरु प्रदोष व्रत: जानिए इस व्रत का
महत्व, संपूर्ण
विधि व कथा
धर्म ग्रंथों के अनुसार प्रत्येक मास की त्रयोदशी तिथि को भगवान शिव के
निमित्त प्रदोष व्रत किया जाता है। यह तिथि जिस दिन पड़ती है उस वार के साथ संयोग
कर इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। पंचांग के अनुसार इस बार 7 फरवरी, गुरुवार के दिन प्रदोष
होने से गुरु प्रदोष का योग बन रहा है। धर्म ग्रंथों के अनुसार गुरु प्रदोष व्रत
करने से शत्रुओं का विनाश हो जाता है। इस व्रत की विधि इस प्रकार है-
- प्रदोष
व्रत में बिना जल पीए व्रत रखना होता है। सुबह स्नान करके भगवान शंकर, पार्वती और नंदी को
पंचामृत व गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, चावल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची भगवान को चढ़ाएं।
- शाम
के समय पुन: स्नान करके इसी तरह शिवजी की पूजा करें। शिवजी की षोडशोपचार पूजा
करें। जिसमें भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजा करें।
- भगवान
शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं।
- आठ
दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। आठ बार दीपक रखते समय प्रणाम करें। शिव आरती करें। शिव
स्त्रोत, मंत्र जप करें ।
- रात्रि
में जागरण करें।
एक बार देवताओं के राजा इन्द्र और राक्षस वृत्रासुर की सेना में घनघोर युद्ध
हुआ। देवताओं ने दैत्य सेना को पराजित कर दिया। यह देख वृत्रासुर क्रोधित होकर
स्वयं युद्ध करने आया। उसने अपनी माया से देवताओं को भयभीत कर दिया। तब सभी देवता
गुरुदेव बृहस्पति की शरण में गए। गुरु बृहस्पति ने इंद्र को बताया कि वृत्रासुर
बड़ा तपस्वी और कर्मनिष्ठ है। उसने तपस्या कर शिवजी को प्रसन्न किया है। पूर्व समय
में वह चित्ररथ नाम का राजा था। एक बार वह अपने विमान से कैलाश पर्वत चला गया।
वहां शिवजी के साथ माता पार्वती को देखकर उसने शिव-पार्वती का उपहास किया।
जिससे माता पार्वती क्रोधित हो गई और उन्होंने चित्ररथ को श्राप दिया कि तू दैत्य
स्वरूप धारण कर विमान से नीचे गिर जाएगा और राक्षस योनि प्राप्त करेगा। राक्षस
होने के बाद भी वृत्तासुर बाल्यकाल से ही शिवभक्त रहा इसलिए इंद्र तुम गुरु प्रदोष
व्रत कर शंकर भगवान को प्रसन्न करो। इंद्र ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन कर ये व्रत
किया। गुरु प्रदोष व्रत के प्रताप से इन्द्र ने शीघ्र ही वृत्रासुर पर विजय
प्राप्त की।
मौनी अमावस्या से जुड़ी ये खास बातें
10 फरवरी, रविवार को जब चंद्रमा एवं सूर्य दोनों मकर राशि में होगें इस दिन मौनी
अमावस्या होगी। धर्म शास्त्रों के अनुसार इस तिथि पर मौन रहकर अथवा मुनियों के
समान आचरण करने का विशेष महत्व है।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार इस बार मौनी अमावस्या रविवार को आ रही है। रविवार
को इस अमावस्या के आने से अर्धोदययोग होता है। इस तिथि पर सुबह स्नान कर तिल,
तिल के लड्डू,
तिल का तेल,
आंवला, व वस्त्र का दान करना
चाहिए। काले तिल के लड्डू बनाकर उसे लाल वस्त्र में बांधकर ब्राह्मण को दान देने
एवं भोजन कराने से पितरों को शांति प्राप्त होती है। श्राद्ध तर्पणादि करने का भी
इस दिन बड़ा महत्व माना गया है।
मौन रहने का महत्व
अमा का अर्थ है करीब तथा वस्य का अर्थ है रहना। अमावस्या का पूर्ण अर्थ है
करीब रहना। इस दिन चंद्रमा दिखाई नही देता तथा तिथियों में इस तिथि के स्वामी पितर
होते हैं। चंद्रमा दिखाई नही देने से शरीर में एक महत्वपूर्ण तत्व जल का संतुलन
ठीक नही रहता जिससे निर्णय सही नही हो पाते नकारात्मकता अधिक होती है। इस अमावस्य
तिथि पर मौन रहने का बड़ा महत्व माना गया है तथा संयम पूर्वक रहने का विधान है।
अमावस्य तिथि होने से चंद्रमा सूर्य के साथ मकर राशि में होगे जो शनि के
स्वामित्व वाली राशि है। सूर्य एवं चंद्रमा दोनो से शनि शत्रु का भाव रखते है।
चंद्रमा मन का स्वामी है उसके शत्रु राशि मे होने से मन चंचल होने के संभावना रहती
है एवं स्वयं का अहित करने वाले विचार मन में आ सकते है इसलिए इस दिन संयम पूर्वक
बिताने की सलाह एवं मुनियों जैसा जीवन बिताने की सलाह हमारे धर्म ग्रंथों में दी
गई है।
अमावस्या को सूर्य चंद्रमा की युति वाणी संयम के लिए भी आवश्यक मानी गई अर्थात
मौन रहें। यह नही हो सके तो किसी के भी प्रति कटु शब्दों को प्रयोग नही करें एवं
असत्य भाषा से बचने का प्रयास करें। वाणी के इस संयम को भी मौन की संज्ञा की दी गई
है।
तिल का महत्व
मौनी अमावस्या पर तिल का महत्व भी बढ़कर बताया गया है। सफेद तिल भगवान विष्णु
को अतिप्रिय एवं काला तिल पितरों के तर्पण में प्रयोग होता है। अत: इस दिन देवों
की तृप्ति के लिए सफेद तिल का एवं पितरों के लिए काले तिल का दान करना चाहिए। इसके
साथ ही कपास एवं छत्री का दान करना भी शुभ फल देने वाला होता है।
ऊनी वस्त्र का दान
इस अमावस्या पर शीत ऋतु अपने चरम पर होती है इसलिए इस दिन जरुरतमंदों को
कंबलादि ऊनी वस्त्र दान देना चाहिए। किसी गरीब को यदि स्वेटर, कंबलादि का दान दिया
जाता है तो राहु एवं शनि की महादशा का अशुभ प्रभावको कम किया जा सकता है। इसी दिन
दूसरों के लिए अलाव जलाने से अग्रि देवता प्रसन्न होते हैं एवं सूर्य, मंगल एवं गुरु की कृपा
प्राप्त होती है।
जानिए, शिवजी ने कब और किससे सुनी थी रामायण
रामचरितमानस में मिले वर्णन के अनुसार शिवजी ने पार्वतीजी से कहा हे उमा मैं
वह सब आदरसहित कहूंगा। तुम मन लगाकर सुनो मैंने जिस तरह ये जन्म-मृत्यु से
छुड़वाने वाली यह कथा तुम्हे सुनाई। अब तुम यह प्रसंग सुनो। पहले तुम्हारा अवतार
दक्ष के घर में हुआ था। तब तुम्हारा नाम सती था।। दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान
हुआ तब तुमने क्रोध से अपने प्राण त्याग दिए और फिर मेरे सेवकों ने यज्ञ विध्वंस
कर डाला। वह सारा प्रसंग तो तुम जानती ही हो।
तब मेरे मन में बड़ा सोच हुआ और मैं तुम्हारे वियोग से दुखी हो गया। मैं
विरक्तभाव से सुंदर वन, पर्वत, नदी और तालाबों का दृश्य देखता फिरता था। सुमेरु पर्वत की
उत्तर दिशा में, और भी दूर एक बहुत ही सुंदर नील पर्वत है। उसके सुंदर स्वर्णमय शिखर हैं मैं
वहां पहुंचा। चार सुंदर शिखर मेरे मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन शिखरों में एक-एक
पर बरगद, पीपल
पाकर और आम के बहुत विशाल पेड़ हैं। पर्वत के ऊपर बहुत सुंदर तालाब सुशोभित है।
जिसकी मणियों की सिढिय़ां देखकर मन मोहित हो जाता है। उसका जल शीतल और निर्मल मीठा
है।
उसमें रंग बिरंगे बहुत से कमल खिले हुए हैं। उस सुंदर पर्वत पर वही पक्षी यानी
काकाभशुण्डी बसता है। उसका नाश कल्प के अन्त में भी नहीं होता। आम की छाया में
मानसिक पूजा करता है। बरगद के नीचे हरि की कथाओं के प्रसंग करता है। वहां अनेकों
पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वहां मैंने हंस का शरीर धारण किया। कुछ समय के लिए
वहां निवास किया और रामजी के गुणों को सुनकर आदर सहित वहां लौट आया।
संसारी वस्तु से नहीं भगवान से करें प्यार
हमारा मन माया की ओर स्वतः जाता है। अगर हम अपना मन सही दिशा में यानी माया के विपरीत दिशा में नहीं ले जाएंगे तो दुनियादारी के बारे में सोचेंगे। ईश्वर के विषय के प्रति हमारी आस्था गहरी नहीं होगी। हम अपने सांसारिक रिश्तों में उलझे रहेंगे। तरह-तरह के विचार आएंगे। मन में राग-द्वोष आएंगे। आप अपनी बुद्धि से पूछेंगे कि सांसरिक प्रेम करना गलत है। मन से निर्णय के लिए कहेंगे कि आप आप माता से, पिता से, पत्नी से अपने बच्चों से प्यार करते हैं तो क्या यह गलत है। मन वही कहेगा हो आपकी आंतरिक इच्छा है। लेकिन ऐसा प्यार पाप है।
भगवान ने संसार में हमें भेजा है सिर्फ कर्म करने के लिए और हमारा कर्म है केवल भगवान से प्रेम करना। अगर ऐसा नहीं करेंगे और दुनियादारी में उलझे रहेंगे। जैसी भावना और जिससे आपका लगाव होगा। अंत काल में भी आप उसी भाव से भावित रहेंगे, फलतः फिर से गर्भ में आना होगा। जिस व्यक्ति से आपका लगाव होगा, वह जिस योनी में होगा उसी योनी में आपका जाना होगा। यानी अगर वह व्यक्ति कुत्ता के रूप में जन्म लेगा तो आपको भी कुत्ता बनना पड़ेगा।
महाराज भरत बड़े ही ज्ञानी व्यक्ति थे। एक बार नदी में स्नान कर रहे थे तभी एक गर्भिनी हिरणी सिंह के डर से भागते हुए नदी में कूद पड़ी। नदी में ही हिरणी ने बच्चे को जन्म दिया और उसी समय उसकी मृत्यु हो गयी। महाराज भरत को हिरणी के बच्चे पर दया आ गयी क्योंकि उसकी माता मर चुकी थी और उसकी देख भाल करने वाला कोई नहीं था। महाराज हिरण के बच्चे को उठाकर अपने साथ महल ले आये।
महाराज स्वयं उसकी देखभाल करने लगे। हिरण का बच्चा महाराज के आगे-पीछे घूमता क्योंकि उसका स्वार्थ था। महाराज का लगाव हिरण के बच्चे से बढ़ता गया। अंत काल जब आया तब उन्होंने अपने सामने हिरण के बच्चे को बुलाया और उसके सिर पर हाथ रखकर सेवकों से कहा कि मेरे बाद इसका ध्यान रखना, इसे कोई कष्ट न हो। यह कहते हुए महाराज भरत ने प्राण त्याग दिये। हिरण के बच्चे से मोह का परिणाम यह हुआ कि महाराज भरत को हिरण की योनी में जन्म लेना पड़ा।
जानिए शिवपुराण में बताईं 'ॐ' के चमत्कारी होने की ये खास बातें
सनातन धर्म और ईश्वर में आस्था रखने वाला हर व्यक्ति देव उपासना के दौरान
शास्त्रों, ग्रंथों में या भजन और कीर्तन के दौरान 'ॐ' महामंत्र को कई बार पढ़ता,
सुनता या बोलता
है। धर्मशास्त्रों में यही 'ॐ' प्रणव नाम से भी पुकारा गया है। असल में इस नाम से जुड़े
गहरे अर्थ हैं, जो अलग-अलग पुराणों और शास्त्रों में कई तरह से बताए गए हैं। खासतौर पर
शिवपुराण में 'ॐ' के
प्रणव नाम से जुड़ी शक्तियों, स्वरूप व प्रभाव के गहरे रहस्य उजागर हैं।
शिवपुराण में प्रणव यानी 'ॐ' के अलग-अलग शाब्दिक मतलब
और भाव बताए गए हैं। इनके मुताबिक-
- प्र यानी प्रपंच, न यानी नहीं और व: यानी तुम लोगों के लिए। सार यही है कि प्रणव मंत्र सांसारिक
जीवन में प्रपंच यानी कलह और दु:ख दूर कर जीवन के सबसे अहम लक्ष्य यानी मोक्ष तक
पहुंचा देता है। यही वजह है कि ॐ को प्रणव नाम से जाना जाता है।
- दूसरे अर्थों में प्रनव को 'प्र' यानी यानी प्रकृति से बने संसार रूपी सागर को पार कराने
वाली 'नव'
यानी नाव बताया
गया है।
- इसी तरह ऋषि-मुनियों की दृष्टि से 'प्र' - प्रकर्षेण, 'न' - नयेत् और 'व:' युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणव: बताया गया है। इसका सरल
शब्दों में मतलब है हर भक्त को शक्ति देकर जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने वाला
होने से यह प्रणव है।
- धार्मिक दृष्टि से परब्रह्म या महेश्वर स्वरूप भी नव या नया और पवित्र माना
जाता है। प्रणव मंत्र से उपासक नया ज्ञान
और शिव स्वरूप पा लेता है। इसलिए भी यह प्रणव कहा गया है।
15 को करें यह करिश्माई सरस्वती मंत्र उपाय, बच्चों की बुद्धि होगी तेज
हिन्दू धर्म पंचांग के माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी यानी बसंत पंचमी (15 फरवरी) पर जीवन से
जुड़ी कई तरह की इच्छाएं पूरी करने के लिए ज्ञान व बुद्धि की देवी सरस्वती की
प्रसन्नता के तरह-तरह के उपाय किए जाते हैं। इनमें ही एक कामना है - सुखी दाम्पत्य
जीवन। खुशहाल दाम्पत्य को संतान सुख भी नियत करता है। हर माता-पिता की चाहत होती
है संतान बेहतर शिक्षा, गुण, संस्कार और चरित्र से कामयाब बने।
इन बातों के लिए जरूरी होता है - माता-पिता के साथ बच्चों के मन व बुद्धि की
पावनता। इसके लिए व्यावहारिक तौर पर पारिवारिक मूल्य व वातावरण के अलावा धर्म
मान्यताओं में माता सरस्वती की पूजा व उपासना प्रभावी मानी गई है।
जानिए बसंत पचंमी पर किया जाने वाला ऐसा ही सरस्वती मंत्र का एक चमत्कारी उपाय,
जो न केवल बच्चों
की बुद्धि को तीक्ष्ण करने बल्कि उनकी बोली को भी मीठी बनाकर पढ़ाई में रुचि
बढ़ाने वाला माना गया है। खासतौर पर उन बच्चों के लिए यह उपाय बड़ा ही असरदार शुभ
माना गया है, जिनको जन्म के बाद पहली बार अन्न ग्रहण कराया जाता है। जानिए इस उपाय का तरीका
व सरस्वती मंत्र –
- बसंत पंचमी के दिन स्नान के बाद माता-पिता व परिजन पीले वस्त्र पहन देवालय में
माता सरस्वती की मूर्ति या तस्वीर के सामने बैठें। पीला रंग शुभ व ज्ञान का प्रतीक
है।
- माता सरस्वती की सफेद या पीली पूजा सामग्रियों चंदन, अक्षत, फूल, वस्त्र चढ़ाकर व मिठाइयों का भोग
लगाकर पूजा करें। 'ऊं ऐं सरस्वती ऐं नम:' इस मंत्र का स्मरण 108 बार करें।
- बच्चे को भी माता सरस्वती को चढाई पीले या सफेद पीले फूल की माला पहनाएं और
केसर का तिलक लगाएं। साथ ही उसकी जीभ पर सावधानी के साथ ही एक चांदी की सलाई से
केसर से माता सरस्वती का बीज मंत्र 'ऐं' लिखें।
- बाद माता सरस्वती की आरती सुगंधित धूप व घी के दीप से करें। बच्चे को माता
सरस्वती का चढ़ाया थोड़ा सा प्रसाद भी खिलाएं।
माना जाता है कि इस पूजा व मंत्र उपाय का प्रभाव ताउम्र कुशाग्र बुद्धि के
जरिए संतान को तरक्की व सफलता देता है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
प्रभावशाली ,
ReplyDeleteजारी रहें।
शुभकामना !!!
आर्यावर्त (समृद्ध भारत की आवाज़)
आर्यावर्त में समाचार और आलेख प्रकाशन के लिए सीधे संपादक को editor.aaryaavart@gmail.com पर मेल करें।
हार्दिक धन्यवाद..स्नेह बनाये रखे....
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