Thursday, January 10, 2013

Hinduism (हिंदू धर्म)

हिंदू धर्म
हिंदू शब्द की उत्पत्ति एवं अर्थवास्तव में यह 'हिंदू' शब्द भौगोलिक (स्थान, देश से संबंधित) है। मुसलमानों को यह शब्द फारस अथवा ईरान में मिला था। फारसी कोषों में 'हिंद' और इससे व्युत्पन्न अनेक शब्द पाए जाते हैं। जैसे हिंदू, हिंदी, हिंदुवी, हिंदुवानी, हिंदुकुश आदि। इन शब्दों के अस्तित्व से स्पष्ट होता है 'हिंद' शब्द मूलत: फारसी है और उसका अर्थ 'भारतवर्ष' है। फारसी व्याकरण के अनुसार संस्कृत का 'स' अक्षर 'ह' में परिवर्तित हो जाता है। इस कारण 'सिंधु' (सिंधु नदी) शब्द 'हिंदू' हो गया। पहले हिंद के रहने वाले 'हिंदू' कहलाए। धीरे-धीरे संपूर्ण भारत के लिए इसका प्रयोग होने लगा। इसी प्रकार व्यापक रूप में भारत में रहने वाले लोगों का धर्म हिंदू धर्म कहलाया।

हिंदू और हिंदुत्व की एक परिभाषा लोकमान्य तिलक ने प्रस्तुत की थी। जो इस प्रकार है:'सिंधु नदी के उद्गम स्थान (जहां से यह निकलती है) से लेकर हिंदमहासागर तक संपूर्ण भारत भूमि जिसकी मातृभूमि तथा पवित्र भूमि है वह हिंदू कहलाता है और उसका धर्म हिंदुत्व।'विश्वविख्यात महात्मा श्री विनोबाजी भावे ने हिंदू शब्द की परिभाषा एवं लक्षण इस प्रकार बताए हैं:जो वर्णों और आश्रमों की व्यवस्था में निष्ठा रखनेवाला, गो-सेवक, श्रुतियों (धार्मिक ग्रंथों) को माता की भांति पूज्य मानने वाला तथा सब धर्मों का आदर करने वाला है,देवमूर्ति की जो अवज्ञा नही करता, पुनर्जन्म को मानता और उससे मुक्त होने की चेष्टा करता है तथा जो सदा सब जीवों के अनुकूल बर्ताव को अपनाता है। वही 'हिंदू' माना गया है। हिंसा से उसका चित्त दु:खी होता है, इसलिए उसे 'हिंदू' कहा गया है।

सनातन धर्म का अमिट स्वरूप प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय तक अनेक जातियों, संप्रदायों, मतों, पंथों एवं वादों का भारत में आगमन होता रहा है। भारत में आदिकाल (प्रारंभ) से निवास करने वाली 'हिंदू' जाति ने अपने मूल सनातन धर्म जिसे बाद में 'हिंदू' धर्म कहा जाने लगा को सदैव सुरक्षित एवं परिपूर्ण बनाए रखा। विश्व के विभिन्न देशों में जन्मे एवं पनपे अनेक धर्मों एवं संस्कृतियों का अस्तित्व वर्तमान में लगभग समाप्त हो चुका है। जबकि हिंदू धर्म और संस्कृति उसी मूल स्वरूप में आज तक जीवित एवं नित-नवीन रूप मे विस्तारमान है।

वैदिक धर्महिंदू जाति ने अपना धर्म श्रुति-वेदों से प्राप्त किया है। उनकी धारणा है कि वेद अनादि और अनंत हैं। वेदों का अर्थ है, भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविस्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष। वेदों की घोषणा है- 'मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूं, मैं शरीर नहीं हूं। शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूंगा। मैं इसमें विद्यमान (रहने वाला) हूं और जब यह शरीर नहीं रहेगा तब भी मेरा अस्तित्व बना रहेगा।

मेरा एक अतीत (पिछला जन्म) भी है।'आत्मा का अमर स्वरूप हिंदू धर्म में शरीर को नश्वर तथा आत्मा का निवास स्थान बताया गया है। आत्मा को ही मनुष्य का मूल स्वरूप मानते हुए, उसे अजर-अमर अर्थात् अनश्वर माना गया है। आत्मा की अमरता के बाद, कर्मफल की मान्यता भी हिंदू धर्म की प्रधान विशेषता है। प्रत्येक कर्म का फल या परिणाम मिलना निश्चित माना गया है। मनुष्य को उसके जीवन में मिलने वाले दु:ख, सुख, अमीरी-गरीबी एवं मान-अपमान स्वयं उसके ही पिछले और वर्तमान के कर्मों का परिणाम है। हिंदू धर्म की मान्यता है कि मनुष्य की वर्तमान अवस्था उसके ही पूर्व कर्मों का परिणाम है और भविष्य में उसकी जो भी अवस्था होगी वह उसके वर्तमान कर्मों द्वार निर्धारित होगी।

हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि मनुष्य का मूल स्वरूप उसकी 'आत्मा है न कि शरीर। उसको (आत्मा) शस्त्र काट नहीं सकते। अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, और वायु सुखा नहीं सकती। हिंदुओं की ऐसी मान्यता है कि आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किंतु जिसका केंद्र शरीर में अवस्थित है, और मृत्यु का अर्थ है इस केंद्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरित हो जाना।सर्वव्यापी ईश्वरईश्वर के स्वरूप और गुणधर्मों के विषय में 'हिंदू' धर्म की मान्यता है कि वह परमात्मा सर्वत्र (सभी जगह रहने वाला) है।

शुद्ध व पूर्ण पवित्र है, निराकार (जिसका आकार न हो), सर्व शक्तिमान है, सब पर उसकी पूर्ण दया है, वही सबका पिता है, सबकी माता है, वही सबका परमप्रिय सखा है, वही सभी शक्तियों का मूल है, वह हमें इस जीवन के उत्तरदायित्वों, कत्र्तव्यों को वहन करने की शक्ति दे क्योंकि वह इस संपूर्ण ब्रह्मांड का भार वहन करता है। जीवन का लक्ष्य मोक्ष हिंदू धर्म के आधार स्तंभ वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्य स्वरूप है, वह केवल पंच तत्वों (पृथ्वी, अग्रि, जल, वायु व आकाश) या पंचमहाभूतों के बंधनों में बंध गई है और उन बंधनों के टूटने पर वह अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर लेगी। इसी अवस्था का नाम मुक्ति या मोक्ष है। जिसका अर्थ है स्वाधीनता, अपूर्णता के बंधनों से छुटकारा, जन्म-मृत्यु से छुटकारा। इस प्रकार हिंदुओं की सारी साधना, प्रणाली का लक्ष्य है - बिना रुके, बिना थके, लगातार के प्रयास द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना या साक्षात्कार करना।

प्रमुख सिद्धांतबड़े-बड़े विद्वान ऋषियों के हजारों वर्षों के प्रयास के बल पर इस हिंदू धर्म का विकास किया है। हिंदू धर्म के प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार हैं।
1. वेद हिंदू धर्म के प्रामाणिक धर्म ग्रंथ।
2. ईश्वर में विश्वास और नाना रूपों में उसकी उपासना।
3. जीवन में नैतिक एंव मर्यादित आचरण पर अडिग रहना।
4. ऋषि-मुनियों द्वारा बनाई गई आश्रम व्यवस्था को मानना। जो कि पूर्णत: वैज्ञानिक प्रणाली है।
5. कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष के सिद्धांत पर पूर्ण विश्वास।

हिंदू धर्म के आधार ग्रंथहिंदू धर्म में वेदों को ज्ञान का भंडार एवं ईश्वरीय पुस्तक के रूप में मान्यता एवं सम्मान प्राप्त है। इनकी संख्या चार है जो कि इस प्रकार हैं :
1. ऋग्वेद
2. यजुर्वेद
3. सामवेद
4. अथर्ववेद

धर्मग्रंथ हिंदुओं के धर्म शास्त्रों को दो भागों में बांटा गया है : श्रुति और स्मृति। श्रुति अर्थात् सुनी गई यानि ईश्वर के पास से साक्षात् सुनी गई वाणी। वेद से लेकर उपनिषद् तक श्रुतियों में आते हैं। स्मृति अर्थात् स्मरण की गई, स्मरण में रखकर याद करके और उसके बताए विषयों पर विचार करके जो शास्त्र रचे गए उनका नाम स्मृति है। स्मृतियों में छ: वेदांग, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण और नीति के ग्रंथ आते हैं। धर्म शास्त्रों में धर्म सूत्र, स्मृतियों और निबंधकारों का साहित्य आता है।

वेदांगों में कल्प का बहुत अधिक महत्व है। कल्प सूत्रों में यज्ञ भाग के संस्कारों की विधियां दी गई है। कल्प सूत्र के तीन भाग हैं: श्रौत, ग्रह्य सूत्र और धर्म सूत्र। श्रौत सूत्र में वैदिक यज्ञों का कर्मकाण्ड (पूजा पद्धति) है। ग्रह्य सूत्र में जन्म से लेकर मृत्यु तक किए जाने वाले पारिवारिक जीवन संबंधी कर्मों का विधान है, इसमें पाक यज्ञ भी है और पंच महायज्ञ भी। श्राद्ध तथा अन्य संस्कार भी धर्म सूत्रों में हैं। मुख्य धर्म सूत्र हैं : आपस्तंब,बौधायन, गौतमीय, हिरण्याकेशन। स्मृतियों की रचना भी आगे चलकर धर्मसूत्रों में से ही हुई है।

स्मृतियां :हिंदू धर्म शास्त्रों में स्मृतियों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। स्मृतियों की संख्या 18 से लेकर 56 तक बताई जाती है। मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, विष्णु, हारीत, उशनस, अंगिरा, कात्यायन, बृहस्पति, व्यास, गौतम, वशिष्ठ और पाराशर की मुख्य स्मृतियां मानी गई हैं। मनुस्मृति या मानव धर्म शास्त्र सबसे पुरानी स्मृति मानी जाती है। मनु स्मृति में 12 अध्याय है। इसके 12 अध्यायों में व्यक्ति, परिवार एवं समाज के लिए नियम कायदे दिए गए हैं।

धर्म निबंधस्मृतियों की प्रामाणिक संख्या को लेकर जब मत-भिन्नता (मतभेद, अलग-अलग राय) उत्पन्न हो गई और स्मृतियों की संख्या बहुत बढ़ गई तब धर्म निबंधों की रचना हुई। उस समय के राजाओं ने स्मृतियों का सारांश धर्म निबंधों के रूप में तैयार करवाया। स्मृति कल्पतरू, सबसे पुराना धर्म निबंध है। मुख्य धर्म निबंध है- स्मृति चंद्रीका, चतुर्वर्ग चिंतामणि, स्मृति रत्नाकर, धर्म रत्न, निर्णय सिंधु।

हिंदू इतिहास में दो ग्रंथ माने जाते हैं रामायण और महाभारत। आदिकवि वाल्मीकि ने अयोध्या के राजा एवं विष्णु के दशावतारों में सातवें अवतार भगवान राम की पूरी कथा का वर्णन किया है। वाल्मीकि द्वारा रची गई रामायण की भाषा संस्कृत होने के कारण आधुनिक लोगों के लिए कठिन प्रतीत होती थी। तुलसीदास ने इसी रामायण को वर्तमान भाषा में रचकर सबके लिए सुलभ एवं सहज बना दिया। तुलसीकृत रामायण का नाम रामचरितमानस है। हिंदू धर्म में रामायण (भगवान राम की कथा) की अत्यधिक महत्ता है।

महाभारत महर्षि वेदव्यास की रचना है। इसमें कोरवों और पाण्डवों के युद्ध का विस्तार से वर्णन है। यह संपूर्ण ग्रंथ बहुत बड़ा है। जिसे 18 पर्वों में विभाजित किया गया है। युद्ध वर्णन के साथ-साथ महाभारत में कई अन्य कथाएं एंव प्रेरणास्पद उपदेश दिए गए हैं।

पुराणपुराण शब्द का अर्थ प्राचीन या पुराना होता है। प्राचीनता के कारण ही उक्त ग्रंथों का नाम पुराण पड़ा। वेदों, उपनिषदें, स्मृतियों आदि धर्म शास्त्रों के गूढ़ (कठिन) गंभीर तत्वज्ञान को, सरल भाषा में कथा कहानियों के रूप में जिन ग्रंथों में वर्णित किया गया उन्हीं को पुराण कहते हैं। महाभारत और श्रीमद्भागवत के रचनाकार महर्षि वेदव्यास ही पुराणों के भी रचनाकार (लेखक)माने गए हैं। प्रमुख पुराणों की संख्या 18 मानी गई है। जो कि इस प्रकार हैं : ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णु पुराण, शिव पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, हरिवंश पुराण, मार्कण्डेय पुराण, अग्नि पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, लिंग पुराण, वाराह पुराण,स्कंद पुराण,वामन पुराण, कूर्म पुराण मत्स्य पुराण, गरुड़ पुराण, ब्रह्मांड पुराण।यदि समस्त पुराणों का अध्ययन करने पर इनका मूलभाव निकाला जाए तो वह है - परोपकार ही पुण्य है और स्वार्थ में किसी को कष्ट देना या हानि पहुंचाना ही सबसे बड़ा पाप है।

दर्शनशास्त्र जीवन और जीवन के उद्देश्य के विषय में एक विशेष दृष्टिकोण रखने वाले शास्त्र दर्शनशास्त्र कहलाते हैं। मूलत: भारतीय हिंदू दर्शन आस्तिक दर्शन है। किंतु अत्यंत कम प्रभाव व प्रसार वाले नास्तिक दर्शनों का भी अस्तित्व भारत में रहा है। अत: सुविधा की दृष्टि से हम दर्शन को दो भागों में बांटते हैं।

आस्तिक दर्शनवेदों का प्रमाण मानने वाले छ: दर्शन आस्तिक दर्शन कहलाते हैं जो इसप्रकार हैं:
1. न्याय दर्शन
2. वैशेषिक दर्शन
3. सांख्य दर्शन
4. योग दर्शन
5. मीमांसा दर्शन
6. वेदांत दर्शन

नास्तिक दर्शन तीन माने गए हैं :
1. चार्वाक
2. जैन दर्शन
3. बौद्ध दर्शन

इन दर्शनों में बहुत गहरा तत्वज्ञान समाया हुआ है। मानव जीवन का उद्देश्य, जीवन का अर्थ, जीवन की सार्थकता, परमज्ञान की प्राप्ति, परमानंद एवं चिरशांति का मार्ग आदि मनुष्य जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण विषयों का बड़ा महत्वपूर्ण एवं गहन विवेचन व विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। सभी की यह मान्यता एवं अनुभव है कि आनंद प्राप्ति के लिए, मुक्ति के लिए, मोक्ष के लिए, निश्चित रूप से शुद्ध, पवित्र एवं नि:स्वार्थ जीवन जीना अनिवार्य आवश्यकता है।

नैतिक आचरण
हिंदू धर्म के भिन्न-भिन्न उपासना मार्गों में चाहे वह भक्ति मार्ग हो, ज्ञान मार्ग हो, योग मार्ग हो, चाहे तंत्र मार्ग हो सब में पवित्र नैतिक आचरण पर बल दिया गया है। पवित्र आचरण और नैतिकता हिंदू धर्म की आधार-शिला है। इसलिए हिंदू धर्म की प्रत्येक साधना का प्रारंभ यम और नियम से ही होता है। यम और नियम के बिना कोई भी साधना और धर्म कार्य सफल नहीं हो सकता। यम के भी कुछ अंग हैं:

ब्रह्मचर्य, दया, क्षमा, ध्यान, सत्य, नम्रता, अहिंसा, चोरी न करना, मधुर स्वभाव, इंद्रियों पर नियंत्रण।
यम की तरह नियम के भी कुछ अंग बताए गए हैं,जो कि इस प्रकार हैं: स्नान, मौन, उपवास, यज्ञ, स्वाध्याय, इंद्रियनिग्रह, गुरु सेवा, शौच, क्रोध न करना, प्रमाद न करना।

हिंदू धर्म में नारियों का सम्मान
हिंदू धर्म में नारियों का स्थान अत्यंत उच्च एवं पूजनीय है। नारियों के लिए हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि: ''यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता'' हिंदू धर्म में मान्यता है कि जहां पर नारियों की पूजा एवं आदर-सम्मान होता है,वहां देवताओं (दैवीय शक्तियों) का वास होता है। जहां पर उनका सम्मान, सत्कार व सुख-सुविधा की व्यवस्था और परंपरा नहीं होती वहां दु:ख, दरिद्रता(गरीबी) अशांति, रोग-शोक एवं संकटों का वातावरण बना रहता है। जिस घर में दु:खी होकर नारियों के आंसू गिरते हैं। वहां से सुख, समृद्धि एवं शांति नष्ट हो जाते हैं।

हिंदू धर्म के प्रमुख ग्रंथ
यद्यपि हिंदू धर्म में अनेक ग्रंथ और शास्त्र हैं। जिनकी संख्या बहुत बड़ी है, किंतु जो सर्वाधिक प्रचलित एवं उपलब्ध हैं, वे इस प्रकार हैं:

1. गीता
2. महाभारत
3. रामायण
4. वेद (चार)
5. पुराण
6. उपनिषद्(१०८)
7. मनुस्मृति
8. सत्यार्थ प्रकाश (आर्य समाज)

ईश्वर, (भगवान,परमात्मा) के विभिन्न रूप
वैदिक संस्कृति ही सच्ची भारतीय हिंदू संस्कृति है। वैदिक काल में, ब्रह्म, इंद्र, वरुण आदि रूप में एक ही परमेश्वर की उपासना चलती थी। बाद में जगत की सृष्टि, स्थिति और तप को लेकर भगवान के ब्रह्मा, विष्णु और महेश रूप की उपासना चल पड़ी। पुराण काल में इन तीनों देवों को मुख्य माना गया है। ब्रह्मा की अपेक्षा विष्णु और शिव की उपासना हिंदू धर्म में अधिक व्यापक रूप से प्रचलित है। हिंदू धर्म में ईश्वर को साकार और निराकार दोनों ही रूपों की मान्यता एवं उपासना प्रचलित है। मनुष्यों के बौद्धिक स्तर एवं रुचियों में भिन्नता के कारण ही ईश्वर को साकार एवं निराकार दोनों रूपों में परिभाषित किया गया है। ईश्वर के सगुण एवं साकार रूप की उपासना अधिक सरल, सहज एवं रुचिकर होने के कारण सुविधाजनक होती है। उच्च बुद्धि प्रधान मनुष्यों के लिए निराकार ईश्वर के प्रकाश स्वरूप परब्रह्म स्वरूप का विवेचन भी हिंदू धर्म में किया गया है।

हिंदू धर्म में अवतार परंपरा
हिंदू धर्म में ईश्वर के पृथ्वी पर मनुष्य रूप में अवतरित होने की मान्यता है। धरती पर अधर्म, अत्याचार, एवं अव्यवस्था बढऩे पर ईश्वर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं। हिंदू धर्म में विष्णु पर(परमात्मा)के दस अवतार माने गए हैं ये दस अवतार इस प्रकार हैं:
1. मत्स्य अवतार
2. कूर्म अवतार
3. वराह अवतार
4. नरसिंह अवतार
5. वामन अवतार
6. परशुराम अवतार
7. राम अवतार
8. कृष्ण अवतार
9. बुद्ध अवतार
10. कल्कि अवतार

विष्णु के उपासक वैष्णव एवं शिव के उपासक शैव कहलाते हैं। कुछ लोग शिव, विष्णु, सूर्य, गणपति और अंबिका के संयुक्त पंचदेव स्वरूप की उपासना करते हैं। स्मार्त लोग किसी भी विशेष संप्रदाय की दीक्षा नहीं लेते वे केवल स्मृति में बताए धर्म का पालन करते हैं। इनके अलावा भी हिंदू धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजन उपासना प्रचलित है।शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निंबार्काचार आदि धर्माचार्यों ने अद्वैव, विशिष्टता द्वेत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि कई संप्रदाय चलाए, जिसे जो संप्रदाय पसंद है वह उसके अनुसार उपासना करता है।

हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था
हिंदू धर्म में चार वर्ण माने गए हैं: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र।
1. ब्राह्मण का धर्म है: यज्ञ करना-कराना, दान लेना-देना, विद्या पढऩा-पढ़ाना।
2. क्षत्रिय का धर्म: प्रजा की रक्षा करना, यज्ञ करना, दान करना, विद्या अध्ययन करना।
3. वैश्य का धर्म: व्यापार, वाणिज्य व्यवसाय, गौ-सेवा, पशु रक्षा, दान करना।
4. शुद्र का काम: सेवा करना, स्वच्छता एवं व्यवस्था बनाए रखना।

पहले यह व्यवस्था व्यक्ति के गुण-कर्म और स्वभाव के आधार पर निर्मित हुई थी। अर्थात् व्यक्ति अपने गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर किसी भी वर्ण में शामिल हो सकता था। एक ही पिता के चार पुत्र भिन्न-भिन्न गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर चार भिन्न-भिन्न वर्ण के सदस्य हो सकते थे। किंतु बाद में इस वर्ण व्यवस्था में कुछ विकृति आ गई। गुण की बजाय इस व्यवस्था को जन्ममूलक बना दिया। वर्ण व्यवस्था मे आई इस विकृति (बुराई,खराबी)के कारण ही यह व्यवस्था जन्मजात हो गई तथा समाज कई जातियों में बंट गया।

आश्रम व्यवस्था
सुचारू रूप से समाज के संचालन के लिए आश्रम व्यवस्था बनाई गई। जिस प्रकार वर्ण व्यवस्था बनाकर समाज का विकास एवं संचालन किया गया ठीक उसी प्रकार आश्रम व्यवस्था का निर्माण किया गया। इस व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्य के जीवन को चार भागों में विभक्त कर दिया गया -
१.ब्रह्मचर्य
२.गृहस्थ
३.वानप्रस्थ
४. सन्यास

ब्रह्मचर्य आश्रमजन्म से लेकर 25 वर्षों तक की अवस्था को ब्रह्मचर्य आश्रम के अंतर्गत रखा गया है। ब्रह्मचर्य आश्रम के अंतर्गत यह नियम है कि सादगी से रहते हुए बालक गुरु आश्रम में जाकर अध्ययन करे। ब्रह्मचारी को शराब, मांस, सुंगध, माला, रस, स्त्री, मीण प्रयोग वर्जित था तथा प्राणी की हिंसा करना भी निषेध था। शरीर पर तेल मलना, काजल लगाना, खड़ाऊ पहनना, छाता लगाना, काम क्रोध के चक्कर में पडऩा, नाचना, गाना, संगीत, जुआ, लड़ाई-झगड़ा, निंदा, असत्य बोलना, स्त्री देखना या संग करना इस ब्रह्मचर्य आश्रम में पूर्णत: वर्जित है।

गृहस्थ आश्रमब्रह्मचर्य आश्रम की सफलतापूर्वक पूर्णता पर जब व्यक्ति समस्त ज्ञान, विद्या, कुशलता, गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों की पूर्ति की शक्ति आदि प्राप्त कर गुरु आश्रम से घर लोटकर विवाह करने के बाद गृहस्थ धर्म का पालन करे। ईश्वर को अपना लक्ष्य मानकर धर्म पर चलते हुए सांसारिक सुख भोगना, अतिथि और प्राणी मात्र की सेवा, पवित्र जीवन बिताना, सदाचरण करना, सत्य, न्याय, परोपकार आदि का पालन करना एवं अपने आश्रितों, परिवारजनों, बच्चों, बूढ़ों का पालन पोषण करना गृहस्थ धर्म है।

आयु: 25- 50 वर्षवानप्रस्थ आश्रमधर्म पर चलते हुए, सांसारिक सुख भोगकर एवं समस्त कर्तव्यों एवं जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के बाद व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम का त्याग कर वन में चले जाना चाहिए। अर्थात् बच्चों के होने एवं आत्मनिर्भर हो जाने पर मनुष्य को घर त्यागकर वानप्रस्थ आश्रम में चले जाना चाहिए। अध्ययन, तप, त्याग एवं तितीक्षा के माध्यम से आत्म-ज्ञान की प्राप्ति का प्रयास, समाज में धर्म एवं सद्ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना भी वानप्रस्थी के लिए अनिवार्य कर्तव्य है। आयु: 50 से 75 वर्ष।

सन्यास आश्रमवानप्रस्थ आश्रम की सफलतापूर्वक पूर्णता पर चौथे आश्रम सन्यास आश्रम का क्रम आता है। इसमें 75 वर्ष से लेकर 100 वर्ष तक की आयु वर्ग के लोग आते हैं। सन्यास आश्रम में प्रतिज्ञा करनी होती है कि आज से मैंने पुत्र की, धन की, प्रसिद्धि की कामना छोड़ दी है। मेरे द्वारा सभी प्राणियों को अभय प्राप्त हो। सब कुछ त्यागकर निकल पडऩा सन्यासी का कर्तव्य बताया गया है। सन्यासी वह है जो सब कर्मों का त्याग कर दे। भिक्षा मांग कर खाए, एक जगह न रहे, ब्रह्म का सदा चिंतन करता रहे।

कर्म और पुनर्जन्म
हिंदू धर्म में कर्मफल का सिद्धांत अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। कर्मफल का सिद्धांत अत्यंत तर्क पूर्ण एवं वैज्ञानिक सिद्धांत है। कर्मफल का सिद्धांत यह कहता है कि जैसा कर्म होता है उसका फल वैसा ही होता है। मनुष्य को अपने पूर्व कर्मों के आधार पर ही वर्तमान जन्म, परिवार एवं परिस्थितियां प्राप्त होती है। हिंदू धर्म की यह अटल मान्यता है कि मनुष्य को उसके कर्मों के आधार पर अगला जन्म मिलता है। आत्म-ज्ञान या मोक्ष की प्राप्ति तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। मनुष्य अपने भविष्य का निर्माता स्वयं है। उसके ही पूर्व कर्मों ने उसके वर्तमान जीवन को गढ़ा(तैयार किया) है, और उसके वर्तमान कर्म ही उसके भविष्य के जीवन का निर्माण करेंगे।

चार पुरुषार्थ हिंदू धर्म शास्त्रों में भारतीय ऋषियों-मुनियों ने मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ करना अनिवार्य बताया गया है। ये चार पुरुषार्थ इस प्रकार है:1. धर्म2. अर्थ3. काम4. मोक्षजिन कर्मों से समाज उन्नति करता है, समाज टिकता है, उन कर्मों का नाम धर्म है। काम यानी कामना का विषय सुख के लिए मनुष्य नाना प्रकार के काम करता है। किंतु ये सारे काम धर्मानुकूल होने चाहिए। अर्थ, अर्थात् धन, सुख पाने के लिए भी धन चाहिए पर यह धन भी धर्म के रास्ते से ही आना चाहिए। मोक्ष अर्थात् बंधन से छुटकारा। स्वार्थ एवं मोह रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करना एवं अनासक्त भाव से कर्म करते हुए कर्म के फल से मुक्त होना ही मोक्ष है।

हिंदू धर्म के लक्षण
सभी को धारण करने वाला स्वयं धारण करने योग्य तथा समस्त प्राणियों को पूर्णता की ओर अग्रसर करने वाला अतिमहत्वपूर्ण कारक धर्म है। विद्वानों ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं:धृति, क्षमा, यम, नियम, चोरी न करना, मन, वाणी और शरीर की पवित्रता, इंद्रियों का संयम, सद्बुद्धि, विद्या, सत्य बोलना और क्रोध न करना।

दया, क्षमा, सत्यता, दान, अहिंसा, नम्रता, प्रीति, प्रसन्नता, प्रेम वचन और कोमलता ये दस नियम हैं। पवित्रता, यज्ञ, तप, दान, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य, व्रत, मौन, उपवास और स्नान ये दस नियम है।अपना हो या पराया, भाई हो या बैरी, शत्रु हो या मित्र, चाहे जो भी हो यदि वह मुसीबत और कष्ट में हो तो उसकी सहायता और रक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। मनुष्य की इसी उदार भावना को दया और करुणा कहा जाता है।

हिंदू धर्म की मान्यता है कि पाप करने वाले के साथ-साथ उसकी सहायता करने वाला और साथ देने वाला भी पाप का भागीदार बनता है। उदाहरण के लिए मांस खाने वाला ही नहीं, खाने की राय देने वाला, जीव की हत्या करने वाला,उसको लाने वाला, बचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला आदि सभी व्यक्ति पाप के समान भागीदार है।

हिंदू धर्म की मान्यता है कि ग्रहस्थ के घर चूल्हा, चक्की, ओखली, पानी के घड़े, से जीवों की हिंसा होती है। ये पांच स्थान हिंसा के हैं। इनसे मनुष्य पाप में बंधता है। गृहस्थ को इन दोषों से मुक्त करने के लिए ऋषि-मुनियों ने पंच महायज्ञ करने को कहा है। विद्या का प्रसार करना ब्रह्म यज्ञ है, माता-पिता की सेवा करना एवं पितरों का तर्पण करना पितृ यज्ञ है, हवन करना देव यज्ञ है। बलिवैश्वदेव भूत यज्ञ है, अतिथि सत्कार मनुष्य यज्ञ है। ये ही पांच महायज्ञ हैं।

गुरुजनों, माता-पिता एवं बड़ों की सेवाअज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाली गुरु सत्ता, जन्म से लेकर बड़े होने तक तप, त्याग और कष्टपूर्वक पालन-पोषण करने वाले माता-पिता तथा बड़े भाई, चाचा, ताऊ, बुजुर्ग एवं अन्य वरिष्ठ जन अत्यंत आदर एवं सम्मान के पात्र हैं। गुरु एवं माता-पिता के उपकारों से ऋण मुक्त होना तो संभव नहीं हैं किंतु इनकी सेवा, आज्ञा का पालन एवं सम्मान करना प्रत्येक हिंदू का धर्म कर्तव्य है।गुरु, माता-पिता, बड़ों, बुर्जुगों आदि का सम्मान एवं सेवा करने वालों की आयु, विद्या, यश और बल चारों बढ़ते हैं।

यह सिखाता है हिंदू धर्म
1. ईश्वर एक है, सर्वशक्तिमान है एवं सर्वसमर्थ है।
2. एक ही ईश्वर को संसार में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। कोई भगवान, कोई अल्लाह, कोई परमात्मा, कोई वाहे गुरु आदि भिन्न-भिन्न नामों से ईश्वर को पुकारता है।
3. सत्य, दया, अहिंसा, प्रेम, सेवा, परोपकार, त्याग, सादगी आदि उच्चतम मानवीय आदर्शों को जीवन में अपनाना ही हिंदू धर्म की पहचान है।
4. सभी मनुष्यों एवं अन्य जीवों में भी अपना ही रूप देखना एवं प्रेम व भाईचारे से जीवन यापन करना ही मनुष्य का धर्म है।
5. सांसारिक सुख-वैभव एवं भोग विलास को क्षणिक, नष्ट होने वाला और अस्थाई मानकर उसमें मन को न लगाना।
6. आत्मा को ही अपना वास्तविक स्वरूप मानकर शारीरिक सुख-भोग में जीवन को व्यर्थ न गवाना।
7. दूसरों में दोष न देखकर अपने ही अवगुणों को खोजना एवं दूर करना।
8. आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। आत्मा अजन्मा एवं अमर है। मृत्यु में सिर्फ शरीर बदलता है, आत्मा अजर, अमर एवं अविनाशी है।
9. सेवा, परोपकार एवं सद्कर्मों के द्वारा मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य जिसे पूर्णता, मोक्ष, निर्वाण एवं आत्मज्ञान कहा जाना, को प्राप्त किया जाता है।
10. पूर्ण पवित्रता, नैतिकता, एवं सादगीपूर्ण जीवन जीते हुए जीवन के अंतिम लक्ष्य को खोजना और प्राप्त करना ही जीवन की सार्थकता एवं उपयोगिता है।
11. अपने निजी लाभ एवं स्वार्थ को भूलकर परोपकार एवं विश्व कल्याण के लिए प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है।
12. गाय, गंगा, गीता, गायत्री, वेद एवं रामायण अत्यंत पवित्र एवं हर हिंदू के लिए पूज्य हैं।
13. माता-पिता, गुरु, बड़ों, विद्वानों, संतों, महापुरुषों, ब्राह्मणों एवं आचार्यों की सेवा एवं सम्मान करना हर हिंदू का कर्तव्य है।
14. व्रत, उपवास, तप, तयाग, प्रेम, योग आदि के माध्यम से शारीरिक एवं मानसिक पवित्रता प्राप्त करना चाहिए।
15. सांसारिक जीवन अस्थाई है। शरीर की मृत्यु निश्चित है। अत: आत्मा एवं आत्मज्ञान की खोज प्रत्येक मनुष्य के लिए परम आवश्यक है।

हिंदुओं के इष्टदेव राम
हिंदू धर्म में ईश्वर के जिन 10 अवतारों की मान्यता है उनमें से भगवान राम सातवें एवं अत्यंत लोकप्रिय अवतार हैं। संपूर्ण भारत में समान रूप से लोकप्रिय अवतार भगवान श्रीराम अयोध्या के राजा थे।श्रीराम पूर्ण धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, प्रजाहितरत, यशस्वी, ज्ञान संपन्न, सूरवीर, दूरदृष्टा, भक्ति-तत्पर, शरणागति रक्षक, परम दयालू, प्रजापति, प्रजापालक, तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ गुणधारक, रिपु विनाशक, जीव रक्षा करने वाले, धर्म के रक्षक शास्त्र तत्ववेत्ता, परम प्रतिभावान, सर्वप्रति, परम साधु (सज्जन) सदैव प्रसन्नचित्त, महापंडित, परमज्ञानी एवं विज्ञानी तथा निर्धनों के रक्षक, सज्जनों के सहायक विद्वानों का आदर करने वाले, परमश्रेष्ठ हंसमुख, सुख-दु:ख के सहकर्ता, प्रियदर्शन, सर्वगुणयुक्त व सच्चे पुरुष थे।

हिंदू धर्म के प्रमुख तीर्थ
1. गंगोत्री
2. जमनोत्री
3. केदारनाथ
4. ब्रदीनाथ
5. जगन्नाथ
6. रामेश्वरम्
7. द्वारिका
8. अमरनाथ

सप्तपुरी
1. अयोध्यापुरी
2. मथुरापुरी
3. मायापुरी
4. काशीपुरी
5. कांचीपुरी
6. अवंतिकापुरी
7. जगन्नाथपुरी

हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहार
हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारहिंदू धर्म में मानव जीवन को एक उत्सव के रूप में आनंद स्वरूप माना गया है। यही कारण है कि हिंदू धर्म में वर्ष भर व्रत, त्योहार, एवं उत्सव मनाए जाते हैं। हिंदुओं में प्रचलित उत्सव और त्योहार मात्र आनंद प्राप्ति के लिए ही नहीं अपितु धर्म और अध्यात्म को जीवन मे सम्मिलित करने के उद्देश्य से भी मनाए जाते हैं। हिंदुओं में प्रचलित त्योहारों एवं उत्सवों के सार्थक उद्देश्य एवं वैज्ञानिक आधार होते हैं। जो व्यक्ति और समाज को सुख, शांति, धर्म एवं भाईचारे की ओर जाते हैं। हिंदुओं के प्रमुख त्योहार इस प्रकार है:रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, विश्वकर्मा पूजा, दुर्गाअष्टमी, दशहरा, नवरात्र पूजन, वाल्मीकि जयंती, दीपावली, अन्नकूट-गोवर्धन पूजा, भाई दूज, मकर संक्रांति, नाग पंचमी, रविदास जयंती, महाशिवरात्रि, होली, दुलहंडी (फाग), रामनवमी।

हिंदू संस्कृति का संक्षिप्त रूप
हिंदू धर्म की दृष्टि में धर्म, संस्कृति, जीवन तीनों का विस्तार समान है। तीनों एक दूसरे में समाहित (घुले-मिले) है। हिंदू संस्कृति समन्वय प्रधान है। इसीलिए वसुदेव कुटुम्बकम हिंदू संस्कृति का मूल भाव माना गया है। विश्व के साथ समभाव प्राप्त करने की पद्धति समन्यव है। विश्व के अन्य प्राचीन धर्म एवं संस्कृतियां आज लुप्त हो चुके हैं, किंतु हिंदू धर्म अपनी सहिष्णुता की प्राण वायु से आज तक जीवित है। बहुलता मे एकत्व की पहचान हिंदू संस्कृति का प्रयत्न रहा है। जड़ व चेतन का अपेक्षित मुल्यांकन हिंदू धर्म व संस्कृति की विशेषता है। भौतिक जीवन की नश्वरतासांसारिक सुख-भोग क्षणिक व नश्वर है, तथा ये त्यागने योग्य है ऐसी दृढ़ मान्यता हिंदू धर्म की अपनी विशिष्ट पहचान है। लोक और परलोक का समन्वय प्राप्त करने की प्रवृति हिंदू धर्म की मूल भावना है। हिंदू धर्म व संस्कृति में साहित्य, कला, सौदंर्य और संयमित जीवन के अनेक वरदानों को प्रतिष्ठित स्थान दिया गया है।

धर्म और जीवन का मेल हिंदू संस्कृति के आग्रह का विषय है। अध्यात्म की साधना, त्याग और सच्चरित्रता हिंदू संस्कृति के आग्रह का विषय है। हिंदू धर्म और संस्कृति में कर्म पर विशेष जोर दिया गया है। गीता में स्वयं भगवान कृष्ण ने बहुत सुंदर व उत्तम उपदेश दिया है जिसे मानना हर हिंदू का धर्म कत्र्तव्य है।

आध्यात्मिक जीवनहिंदू धर्म व संस्कृति लौकिक विजय से इतनी तृप्त नहीं होती जितनी आध्यात्मिकता से प्रफुल्लित, तृप्त एवं संतुष्ट होती है। सांसारिक विजय और उपलब्धि के भीतर लोभ, स्वार्थ और ङ्क्षहसा छिपे हैं। जबकि आध्यात्मिकता केवल धर्म और आत्म ज्ञान पर आधारित है। हिंदू धर्म में निहित उपासना, साधना एवं संस्कार मनुष्य को जन्म से लेकर देहांत तक आध्यात्मिक जीवन के लिए तैयार करते हैं। हिंदू धर्म परोपकार, त्याग, संयम, क्षमा, दया, करुणा, अहिंसा, सत्य, प्रेम, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, सेवा, नि:स्वार्थता आदि सदुगुणों की संयुक्त मूर्ति है। जिसमें उपरोक्त सभी गुण निहित हैं। वही सच्चा हिंदू कहलाने का अधिकारी है।

हिंदू धर्म के आधार ग्रंथ वेद
हिंदू धर्म के प्रामाणिक व मूल धर्म ग्रंथ वेद है। वेद का अर्थ है ज्ञान अथवा विवेक। वेद मानव रचित नहीं, अपितु ईश्वर के द्वारा सुपात्र, योग्य ऋषि-मुनियों को नि:शब्द वाणी में प्रदान की गई अनुभूतियों का लिपिबद्ध संग्रह है। वेदों की संख्या चार है। जिनके नाम इस प्रकार है: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद। इनमें ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन है। ऋग्वेद सर्वकल्याणकारी प्रार्थनाओं का संग्रह है। यजुर्वेद में यज्ञ के विधानों और कर्मकाण्ड का विवरण है। सामवेद में ऋग्वेद की चुनी हुई ऋचाओं को संगीतबद्ध किया गया है।

जिसका विशेष यज्ञों के अवसर पर सस्वर संगीतमय पाठ किया जाता है। सामवेद विभिन्न राग-रागनियों का भी उद्गम है। अथर्ववेद नीति संबंधी सिद्धांतों का संकलन है। उसमें आयुर्वेद विज्ञान, स्वास्थ्य, आयु एवं वृद्धि संबंधी तथ्यों का विस्तृत विवरण है।

हिंदू धर्म का विश्व विख्यात महान ग्रंथ गीता
भारतीय संस्कृति एवं हिंदू धर्म का विश्व को प्रदान किया गया अनुपम उपहार है -गीता। सारे विश्व में निर्विवाद रूप से 'गीता नामक ग्रंथ को सर्वोत्तम कृति माना जाता है। एकमात्र गीता में ही समस्त धर्मों एवं मानव जीवन का सार समाया हुआ है। इतने छोटे आकार में इतना विशाल, व्यापक एवं गंभीर शाश्वत ज्ञान प्रदान करने वाला दूसरा ग्रंथ जग में दूसरा नहीं है। गीता में संपूर्ण धर्मों एवं संपूर्ण ग्रंथों का निचोड़ समाया हुआ है। गीता से तुलना की जाए तो इसके समक्ष समस्त संसार का ज्ञान तुच्छ है।

गीता में जीवन प्रबंधनगीता एक उच्चकोटि का दर्शनशास्त्र है। मानव जीवन के सर्वोत्तम सदुपयोग को बताने वाला गीता जैसा दूसरा कोई ग्रंथ दुनिया भर में नहीं है। मानव जीवन के समस्त दु:खों, अभावों, भयों, आशंकाओं एवं जिज्ञासाओं का संपूर्ण समाधान गीता में समाया हुआ है। आज जीवन प्रबंधन, समय प्रबंधन एवं जीवन जीने की कला सीखने के लिए विश्वभर में गीता का सहारा लिया जा रहा है।

चाहे किसी भी धर्म अथवा संप्रदाय को मानने वाला व्यक्ति हो, उसे जीवन में एक बार अवश्य गीता को पूरे मनोयोग से अध्ययन करना चाहिए। गीता में निश्चित रूप से मानव जीवन की समस्त समस्याओं का अंतिम व स्थायी समाधान निहित है।

उपनिषदः वेदों का मस्तक
संस्कृत साहित्य में उपनिषद नाम के ग्रंथों (पुस्तकों) का बड़ा ही महत्वपूर्ण दर्जा है। उपनिषदों में समाए हुए बहुमूल्य व उपयोगी ज्ञान के कारण ही इन्हें वेदों का सार या वेदों का मस्तक भी कहा जाता है। अध्यात्म के विषय में सर्वोच्च स्तर का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करने का एक मात्र प्रामाणिक साधन उपनिषद ग्रंथ हैं।

उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में एक से अधिक मत प्रचलित हैं। वैदिक साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं ज्योतिष गणित के जानकार लोकमान्य तिलक ने उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में उल्लेख किया है। तिलक ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक गीता रहस्य (पृष्ठ 552) में उपनिषदों का रचनाकाल 1500 से 2000 वर्ष ई.पू. अर्थात् आज से 3510 से 4010 साल पहले के आसपास माना है। जबकि संस्कृत साहित्य के अन्य उद्भट विद्वानों एवं इतिहासकारों का मानना है कि इन महानतम व दुर्लभ पुस्तकों को चार हजार वर्षों से भी बहुत पूर्व लिखा गया था। विद्वानों ने अपनी बात की सच्चाई के प्रमाण में ऐतिहासिक तथ्य भी प्रस्तुत किए हैं। जो कि काफी पुख्ता हैं। अत: निष्कर्ष के रूप में हमें यही कहना चाहिए कि हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए उपनिषद ग्रंथ अद्भुत एवं अमूल्य ज्ञान के अथाह भंडार हैं।

उपनिषदों से सीखें जीवन जीने की कला
आधुनिक मनुष्य के पास पहले की अपेक्षा अधिक सुविधा एवं सम्पन्नता है, इसके बावजूद आज का मनुष्य तनावग्रस्त, अभावग्रस्त एवं भयग्रस्त बना हुआ है। ऐसे में हमें ज्ञान के उस अद्भुत, अमूल्य एवं असीम भंडार के दरवाजे खोलना चाहिए, जिसमें सफल, सुखद एवं समृद्ध जीवन के सूत्र दिए गए हैं। उपनिषदों के ऐसे ही कुछ अनमोल सूत्र इस प्रकार हैं:

1. सदैव सच बोलो, इससे तुम्हारी अधिकांश समस्याएं स्वत: ही मिट जाएगी।
2. धर्म के मार्ग पर चलो। अर्थात् यदि तुम अपने कर्तव्य का पालन और धर्म की रक्षा करोगे तो धर्म निश्चित रूप से तुम्हारी रक्षा करेगा।
3. स्वाध्याय को जीवन का अनिवार्य अंग बनाओ अर्थात् उत्तम साहित्य का नियमित अध्ययन तथा अपने जीवन के विषय में गहन चिंतन करो।
4. पूर्ण ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए पूरी एकाग्रता से ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त करो तथा ज्ञान प्राप्ति के पश्चात ग्रहस्थ में प्रवेश कर कर्तव्यों का पालन करो।
5. जीवन में जब भी कोई शुभ कार्य का अवसर आए तो अवश्य करो। बाद के लिए नहीं टालो।
6. जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति एवं प्रगति करने के लिए हर उचित प्रयास करो।
7. वेद, उपनिषद आदि उच्च स्तर के साहित्य का अध्ययन एवं अनुकरण अवश्य करो।
8. नियमित ईश्वर की उपासना एवं माता-पिता की सेवा में कभी भी आलस्य न करो।
9. माता-पिता एवं गुरु में ईश्वर का स्वरूप समझो।
10. अतिथि की उचित सेवा एवं सम्मान करो।
11. कोई अनैतिक, अमर्यादित अथवा अधार्मिक कर्म गलती से भी न करो।
12. अपनी कमाई का एक हिस्सा जरूरतमंद और समाज की भलाई के लिए अवश्य निकालो।
13. ज्ञानी और शक्तिशाली बनो। कमजोर रहना बड़ा भारी पाप है।
14. क्षणिक इंद्रिय सुखों के लिए आत्मसम्मान और आत्मज्ञान को मत ठुकराओ।
15. जीवन के लक्ष्य को खोजो और समय के हर एक अंश का सर्वोत्तम सदुपयोग करो।
16. सभी में एक ही आत्मा समाया हुआ है। अत: सभी के साथ समान एवं उत्तम व्यवहार ही करना चाहिए।
17. अपने प्रति कठोर और दूसरों के प्रति उदार व सहनशील रहना चाहिए। अर्थात् स्वयं की गलतियों के प्रति कठोरता एवं दूसरों की गलतियों के प्रति क्षमा भावना होना चाहिए।
18. आत्मतत्व की प्राप्ति के लिए तप और अहिंसा अनिवार्य है।
19. इंद्रियां ओर मन हमें कभी भी जीवन के उद्देश्य से परिचय नहीं करा सकते।
20. जब तक सच्चा आत्म ज्ञान जागृत नहीं होता। तब तक जीवन में दुख, अभाव एवं अशांति बने ही रहेंगे।

सबसे पुरानी किताबों में जीवन का सार
वेद दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ माने गए हैं। चार वेदों में जीवन के गूढ़ रहस्य छिपे हैं। ये मूलत: विचारों के ग्रंथ है, इस कारण इन्हें सारी संस्कृति विशेष रूप से आर्य संस्कृति का प्रारंभिक ग्रंथ माना गया है। वेद ज्ञान का भंडार है, विज्ञान हो या खगोलशास्त्र, यज्ञ विधि या देवताओं की स्तुति सभी चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) में है। वेद का शाब्दिक अर्थ है ज्ञान या जानना। वेदों को पूरे विश्व में सबसे पुराने ग्रंथों के रूप में मान्यता मिल चुकी है। वेदों को श्रुति भी कहा जाता है, श्रुति यानी सुनकर लिखा गया। माना जाता है ऋषि-मुनियों ने इन ग्रंथों को खुद ब्रह्मा से सुनकर लिखा था। वेदों की ऋचाओं (मंत्रों) में कई प्रयोग और सूत्र हैं।

खगोल, विज्ञान, आयुर्वेद, तकनीकी हर क्षेत्र के लिए विभिन्न मंत्र हैं। नासा ने भी वेदों में छिपे ज्ञान को प्रामाणिक माना है। उपनिषदों का रचना काल करीब 4000 साल पुराना है, इस आधार पर यह माना जाता है कि वेदों का रचना काल 5000 हजार वर्ष से भी पूर्व का है।

ऋग्वेद : ऋग्वेद सबसे पहला वेद है। इसमें धरती की भौगोलिक स्थिति, देवताओं के आवाहन के मंत्र हैं। इस वेद में 1028 ऋचाएं (मंत्र) और 10 मंडल (अध्याय) हैं।

यजुर्वेद : यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण। 40 अध्यायों में 1975 मंत्र हैं।

सामवेद : इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं (मंत्रों) का संगीतमय रूप है।
इसमें मूलत: संगीत की उपासना है। इसमें 1875 मंत्र हैं।

अथर्ववेद : इस वेद में रहस्यमय विद्याओं के मंत्र हैं, जैसे जादू, चमत्कार, आयुर्वेद आदि। यह वेद सबसे बड़ा है, इसमें 20 अध्यायों में 5687 मंत्र हैं।

पहले एक ही थे वेद
ऐसा प्रचलित है कि पहले वेद चार भागों में नहीं थे। ये एक ही थे। विद्वानों का मानना है कि महाभारत काल के बाद श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास (वेद व्यास) ने इन्हें चार भागों में बांटा। उनके चार शिष्य जो अपने समय के महान संत हुए, पैल, वैश्यंपायन, जैमिनि और सुमंतु ने उनसे इनकी शिक्षा पाई थी। इसके बाद इन चार वेदों का ही प्रचलन हुआ। कई विद्वानों का यह भी मानना है कि वेद ब्रह्मा की मानस पुत्री गायत्री से उत्पन्न हुए हैं। गायत्री ही इन वेदों की रचनाकार भी मानी गई हैं।

स्वास्थ्य और भाग्य दोनों पर सीधा प्रभाव डालता है सूर्य
सूर्य ऊर्जा का केंद्र है। मानव जीवन को सीधे-सीधे प्रभावित करता है। एक छोटे से पौधे को भी पेड़ बनने के लिए जल के साथ-साथ सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है। सूर्य के प्रकाश में विटामीन ई प्रचुरता से विद्यमान होता है। जो त्वचा के लिए उत्तम होता है। प्रात: काल सूर्योदय के समय सूर्य की जो रश्मियां निकलती है। वह स्वास्थ्यवर्धक होती है। उनसे त्वचा, सांस, कफ, पित्त, वात, अनिद्रा, हृदय आदि रोगों में रक्षा होती है।

धर्म शास्त्रों में इसलिए ही प्रात: सूर्य को जल चढ़ाने का विधान किया गया है। उसमें यह भी बताया गया है कि सूर्य से कभी सीधे नजरें नहीं मिलाना चाहिए। इससे आंखे की रेटिना पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है तथा ज्यादा देर तक सूर्य की ओर देखने से भी नेत्र भी खो सकता है। सूर्यास्त के समय भी सूर्य के दर्शन नहीं करने चाहिए।

वह भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। सूर्य अपनी प्रचण्ड गर्मी से समुद्र, तालाब, झीलों के पानी को वाष्प बनाकर उड़ाता है जो बादल का रूप धकर जीवनदायिनी वर्षा करते हैं। जिससे सभी प्राणियों को अन्न एवं जल मिलता है। यही जल नदियों के द्वारा कई प्राणियों का पोषण करता है। इसी से सूर्य को प्रत्यक्ष देवता माना गया है। जो समुद्र के खारे जल को भी मीठे में परिणीत कर सभी का पोषण करता है। अपने स्वयं के प्रकाश एवं प्रभाव से भी जगत को संचारित करता है।

चौवीस अवतारों में प्रथम
सष्टि के रचनाकार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करने से पूर्व कठोर तप किया। ब्रह्म देव की इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ,सम्पूर्ण विश्व के आधार यानि कि ईश्वर ने सनक,सनन्दन,सनातन और सनत्कुमार के रूप में प्रथम अवतार ग्रहण किया।

एक बार सनकादि ऋषि वैकुण्ठनाथ श्री हरि के दर्शन करने हेतु उनके धाम पहुंचे। किन्तु जब उन्होंने जैसे ही मुख्य द्वार में प्रवेश करना चाहा तो जय-विजय नामक पार्षदों ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया। वैकुण्ठनाथ के दर्शनों में आई इस रुकावट से दु:खी होकर सनकादि कुमारों ने जय-विजय नाम के उन द्वारपालों को देत्यों के वंश में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब वैकुण्ठनाथ श्रीहरि को सनकादि ऋषि के आगमन और अपमान का पता चला तो वे तत्काल वहां पंहुचे एवं सनकादि कुमारों के प्रति पे्रम एवं स्नेह प्रकट किया। वैकुण्ठनाथ श्रीहरि के अद्भुत,अनुपम एवं अलौकिक सौन्दर्य को देखकर सनकादि कुमार अत्यंत चकित एवं प्रसन्न हुए।

सनकादि ऋषियों के श्राप के कारण ही वैकुण्ठ धाम के पार्षद जय-विजय अगले तीन जन्मों में हिरण्यकश्यपु-हिरण्याक्ष,रावण-कुम्भकरण और शिशुपाल-दन्तवक्र के रूप में जन्मे। एक बार सनकादि कुमार भगवान के अंशावतार महाराज पृथु के पास पहुंचे। महाराज प्रथु ने सनकादि ऋषियों के आगमन को अपना सौभाग्य समझा तथा अत्यंत आदर सत्कार के साथ उनका स्वागत किया। जाते समय सनकादि ऋषियों ने महाराज पृथु को महत्वपूर्ण उपदेश दिया जो कि इस प्रकार है: हे महाराज पृथु सांसारिक सुख-वैभव,धन-ऐश्वर्य,भोग-विलास आदि चीजें इंसान को झूंठी और नकली जिंदगी की और घसीट ले जाती हैं। मनुष्य को हर स्थिति एवं परिस्थिति में हर प्रकार से ईश्वर की समीपता का प्रयास करना चाहिये।मन और इन्द्रियां यदि नियंत्रित एवं प्रशिक्षित नहीं हैं तो ये मनुष्य को बर्बादी के ही रास्ते पर धकेलते हैं।

चिर बालपन: सनकादि ऋषि, < हरि शरणम > मंत्र के जप प्रभाव से सदा पांच वर्ष के कुमार ही बने रहते हैं। सनकादि कुमार कहते हैं कि विद्या के समान कोई नैत्र नहीं है। सत्य के समान कोई तप नहीं है। राग के समान कोई दु:ख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। त्याग से प्राप्त सुख सच्चा एवं एवं स्थाई होता।

जानें, क्या है शिव का तृतीय नेत्र ?
भगवान शिव जितना अपने कर्मों से अद्भुत हैं उतने ही अपने स्वरूप में भी रहस्यमयी हैं। भक्ति से प्रसन्न हो जाएं तो उनसे ज्यादा कोई भोला नहीं। अधर्म और अनीति देख कर यदि चिढ़ जाएं तो उनसे बढ़कर कोई क्रोधी और महाकाल नहीं। जाने कितनी ही विचित्रताएं और अनोखापन देखने को मिलता है भगवान शिव में । ऐसी ही एक विचित्रता है- भगवान शिव की तीसरी आंख। दो आंखें तो सभी देवताओं की हैं। तो फिर भगवान शिव के तीसरे नेत्र का रहस्य क्या है? यहां हमे गहराई और बारीकी से चिंतन करने की जरूरत है। भगवान के चित्रों में हम जो तीसरी आंख देखते हैं वास्तव में वह एक प्रतीकात्मक नेत्र है। नेत्र का कार्य होता है रास्ता दिखाना तथा मार्ग में आने वाले संकटों और अवरोधों से हमें सावधान करना। किन्तु जीवन में कई बार कुछ ऐसे संकट भी आते जिन्हें देख पाना इन स्थूल दो नेत्रों के वश में नहीं होता। ऐसे समय में विवेक ही होता है जो एक सच्चे मार्गदर्शक की तरह हमें आने वाले अदृष्य संकटों से आगाह करता है। यह विवेक ही चित्रों में शिव के तीसरे नेत्र के रूप में दिखाया जाता है। जिसे अन्त:प्रेरणा या इन्ट्यूशन कहा जाता है वह और कुछ नहीं विवेक ही है। अब क्योंकि भगवान शिव तो विवेक के साक्षात विग्रह ही हैं इसलिए चित्रों में उन्हैं त्रिनेत्र धारी बताया जाता है । भगवान शिव के चित्रों में जहां पर तीसरा नेत्र दर्शाया जाता है वह स्थान आज्ञाचक्र का केन्दस्थान है। यह आज्ञाचक्र ही विवेकबुद्धि का स्रोत भी है।

भारतीय सनातन धर्म के संवाहक
भारतीय सनातन धर्म और संस्कृति को आज निर्विवाद रूप से प्राचीनतम माना जाता है। सनातन धर्म और संस्कृति को विश्व में सर्वाधिक प्राचीन होने का गौरव और प्रमाण दिलाते हैं ये बहुमूल्य ग्र्रंथ। इन ग्रंथों में समाया हुआ अनमोल और अद्वितीय ज्ञान विश्व भर में अनूठा है और अपनी अलग पहचान रखता है। वास्तव में ये ग्रंथ ही भारतीय सनातन धर्म के संवाहक हैं। इन अद्भुत और विलक्षण ग्रंथों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं-

वेद- इसका अर्थ है ज्ञान। ये प्राचीनतम् भारतीय ग्रंथ हैं। रचनाकाल 7000 साल पुराना है। संख्या चार हैं।

उपनिषद- वेदों के ज्ञान की विस्तृत चर्चा (डिटेलिंग) उपनिषदों में है। इनकी संख्या 108 मानी जाती है।

पुराण- पुराणों का संपादन महर्षि वेद व्यास ने किया। प्रमुख पुराण 18 हैं।

रामायण- महर्षि वाल्मीकि ने लिखी। उपलब्ध कई रामकथाओं में रामायण एकमात्र ऐसा ग्रंथ है, जिसके लिखने वाले भगवान राम के समकालीन माने जाते हैं।

भागवत- महापुराण है। इसमें भगवान विष्णु के 24 अवतारों की कथा है। मुख्य रूप से कृष्ण चरित्र का वर्णन है।

गीता- गीता महाभारत का हिस्सा है। 18 अध्यायों वाली गीता भगवान कृष्ण की वाणी है।

महाभारत-कौरवों और पांडवों की कथा है। इसे वेद व्यास ने लिखा। इसमें एक लाख श्लोक माने गए हैं।
रामचरितमानस- इसकी रचना करीब 500 साल पहले गोस्वामी तुलसीदासजी ने की। इसमें भगवान राम का जीवन चरित्र है।

असीम आत्मबल पाएं त्रिकाल संध्या से
एक समय ऐसा भी था जब संध्या पूजा को दैनिक जीवन का अभिन्न एवं अनिवार्य हिस्सा माना जाता था। संध्या पूजा के प्रति इस समर्पण भाव का ही यह परिणाम था कि मनुष्य सौ वर्षों तक तन, मन और धन से सम्पन्न होकर जीवन जीता था। नियमपूर्वक संध्या करने से इंसान पाप रहित हो जाता है। पापरहित होने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

नियमित संध्या पूजा करने वाले साधक को अटूट आत्मविश्वास और असीम आत्मबल की प्राप्ति होती है। रात या दिन में जो बुरे कर्म हो जाते हैं,वे त्रिकाल संध्या से नष्ट हो जाते हैं। संध्या नहीं करने से पुण्यकर्म का फल नहीं मिलता। समय पर की गई संध्या इच्छानुसार फल देती है।

प्रात:काल संध्या पूजन, मध्यान्ह संध्या पूजन व सायं संध्या पूजन एवं विनियोग के मंत्र अलग हैं। सूर्य उपस्थान की मुद्रा बदल जाती है। प्रात:काल ब्रह्मरूपा गायत्री, मध्यान्ह में विष्णुरूपा गायत्री तथा सायंकाल शिवरूपा गायत्री का ध्यान किया जाता है। सायं सांध्य पूजन में दीप-अर्चना और आरती का भी विशेष महत्व बताया जाता है। आरती से पूजन में हुई भूल की पूर्ति हो जाती है।

कौन व क्या हैं भगवान कालभैरव ?
भैरव शब्द का अर्थ ही होता है- भीषण, भयानक, डरावना। भैरव को शिव के द्वारा उत्पन्न हुआ या शिवपुत्र माना जाता है। भगवान शिव के आठ विभिन्न रूपों में से भैरव एक है। वह भगवान शिव का प्रमुख योद्धा है। भैरव के आठ स्वरूप पाए जाते हैं। जिनमे प्रमुखत: काला और गोरा भैरव अतिप्रसिद्ध हैं।

'रुद्रमाला से सुशोभित, जिनकी आंखों में से आग की लपटें निकलती हैं, जिनके हाथ में कपाल है, जो अति उग्र हैं, ऐसे कालभैरव को मैं वंदन करता हूं।'- भगवान कालभैरव की इस वंदनात्मक प्रार्थना से ही उनके भयंकर एवं उग्ररूप का परिचय हमें मिलता है।

कालभैरव की उत्पत्ति की कथा शिवपुराण में इस तरह प्राप्त होती है-
एक बार मेरु पर्वत के सुदूर शिखर पर ब्रह्मा विराजमान थे, तब सब देव और ऋषिगण उत्तम तत्व के बारे में जानने के लिए उनके पास गए। तब ब्रह्मा ने कहा वे स्वयं ही उत्तम तत्व हैं यानि कि सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च हैं। किंतु भगवान विष्णु इस बात से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि वे ही समस्त सृष्टि से सर्जक और परमपुरुष परमात्मा हैं। तभी उनके बीच एक महान ज्योतिप्रकट हुई। उस ज्योति के मंडल में उन्होंने पुरुष का एक आकार देखा। तब तीन नेत्र वाले महान पुरुष शिवस्वरूप में दिखाई दिए। उनके हाथ में त्रिशूल था, सर्प और चंद्र के अलंकार धारण किए हुए थे। तब ब्रह्मा ने अहंकार से कहा कि आप पहले मेरे ही ललाट से रुद्ररूप में प्रकट हुए हैं। उनके इस अनावश्यक अहंकार को देखकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और उस क्रोध से भैरव नामक पुरुष को उत्पन्न किया। यह भैरव बड़े तेज से प्रज्जवलित हो उठा और साक्षात काल की भांति दिखने लगा। इसलिए वह कालराज से प्रसिद्ध हुआ और भयंकर होने से भैरव कहलाने लगा। काल भी उनसे भयभीत होगा इसलिए वह कालभैरव कहलाने लगे। दुष्ट आत्माओं का नाश करने वाला यह आमर्दक भी कहा गया। काशी नगरी का अधिपति भी उन्हें बनाया गया। उनके इस भयंकर रूप को देखकर बह्मा और विष्णु शिव की आराधना करने लगे और गर्वरहित हो गए।

देवी-देवता, कल्पना या हकीकत?
देवता शब्द का अर्थ होता है देनेवाला। देवी-देवता संबधी मान्यता भारत में हजारों साल पहले से प्रचलित रही है। ऐसा करके प्राचीन मनुष्य ने अपनी सूक्ष्म और वैज्ञानिक बुद्धि का ही परिचय दिया है। सूक्ष्म और न दिखने वाली प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओं का प्रतीकात्मक रूप प्रदान किया गया। देवता मुख्यत: तीन प्रकार के होते हैं- वैदिक, पौराणिक और लोकदेवता। मोटे तौर पर लोकदेवताओं का वेद-पुराणों में या अन्य शास्त्रों में उल्लेख नहीं हुआ है। लेकिन किन्हीं का मूल वेद-पुराणों में ढूढा जा सकता है।

प्राचीनकाल में भारत में आदिवासी-अनार्य भी रहते थे। उनका धर्म आर्यों से कुछ भिन्न था। अनार्य लोग प्राय: भूत-पिशाच, यक्ष, पशु, सर्प (नाग), लिंग इत्यादि को देव मानकर उनकी उपासना करते थे। अनार्यों के ऐसे भयंकर एवं कुछ मलिन देवों का प्रभाव आर्य-देवों पर भी पड़ा। इसके उपरांत सतीप्रथा, वीर पूजा, नारीशक्ति प्रभाव,कुदरत के रहस्य समझने की अशक्ति, भय इत्यादि कारणों से सती,वीर, पीर, क्षेत्रपाल, नाग, देव-देवियों के विभिन्न ग्राम्य-स्वरूप, स्थान-देवता, ग्राम देवता, कुल देवता आदि का ख्याल अस्तित्व में आया। इसतरह ऐसे असंख्य लोक देव-देवियां भारत के सभी भूभागों में विभिन्न नामों से बहुधा सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी जातियों में, लोक समाज में व्याप्त हो गए, लोक समुदाय श्रद्धापूर्वक उनकी सीधी-सादी उपासना करने लगा। आज भी लोगों में लोकदेवताओं के प्रति प्रबल श्रद्धा है

क्यों लड़ते हैं देवता और असुर ?
परमात्मा ने सुख प्राप्ति के लिए इन्द्रियाँ बनायी हैं। इन्द्रियों के माध्यम से मन ही सुख भोगता है। स्मरण-शक्ति के कारण मन पूर्व में भोगे गये सुख को याद रखता है। इस सुख को पाने के लिए मन अनुचित साधन भी अपना लेता है। ईश्वर ने मन को देवत्व प्रदान किया है। किन्तु इन्द्रिय सुख की प्रबल कामना मन को असुर बना देती है। असुर का अर्थ है बुराई को गति देने वाला। अच्छे संस्कारमन को अच्छाई या देवत्व के गुण अपनाने को प्रेरित करते हैं। इन्द्रिय सुख का लोभ मन को बुराई की ओर ढकेल देता है जिससे कोई इंसान बलात्कार, छल, कपट आदि में संलग्न हो जाता है। दो विपरीत धाराओं में मन का जाना ही देवासुर संग्राम है। मन ही देवता है, मन ही राक्षस है। मानसिक द्वन्द्व को ही देवासुर संग्राम की प्रतीकात्मक भाषा में बताया गया है।

आखिर कहां है पाताल लोक?
जितना व्यापक और विस्तृत हिन्दू धर्म है, उसमें उतनी ही अद्भुत और विलक्षण बातें भी हैं। स्वर्ग-नर्क, आकाश-पाताल, इन्द्रलोक, देवी -देवता ये ऐसी बाते हें, जिनपर सहसा विश्वास तो नहीं होता किन्तु आश्चर्य अवश्य होता है। यदि पाताल लोक की ही बात करें तो हम देखते हैं कि हिन्दू धर्म के अनुसार पृथ्वी के नीचे सात प्रकार के पाताल होते हैं। विष्णु पुराण में भी सात प्रकार के पाताल लोक बताए गए हैं। विष्णु पुराण की मान्यता है कि यह समस्त भूमण्डल पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है। इसकी ऊंचाई सत्तर सहस्र योजन है। इसके नीचे सात पाताल प्रकार के पाताल नगर हैं। ये पाताल लोक इस प्रकार से हैं:-
अतल, वितल ,नितल ,गभस्तिमान ,महातल ,सुतल ,पाताल

क्या सिखाता है महाभारत का  चित्र......
'गीतोपदेश' विहंगम दृश्य और झिंझोड़ता सबक दोनों तरफ लाखों-करोड़ों की सेना। दोनों ही पक्षों में ऐसे सेकड़ों योद्धा जो अकेले ही युद्ध का परिणाम बदल दें। युद्ध के अंतिम निर्णायक तो श्री कृष्ण ही थे। किन्तु कृष्ण के अतिरिक्त पांडव पक्ष का सारा का सारा दारोमदार अर्जुन पर ही था। वही अर्जुन अचानक मोह और कायरता से ग्रसित यानि कि संक्रमित हो गया। ऐसे में श्री कृष्ण, जो कि अधर्म का विनाश करने ही अवतरित हुए थे को सक्रीय होना पड़ा। लगभग पूरी तरह हताश हो चुके अर्जुन को विष्णु अवतार गोविंद ने इंसानी जिंदगी के जो सूत्र दिये वे आज भी कालजई हैं। महाभारत के उस अद्भुत और अद्वितीय दृश्य से जो अनमोल सबक मिलते हैं, वो इंसान को जिंदगी का महाभारत जीतने का रहस्य दे जाते है:-

- स्वयं श्री कृष्ण इंसान को विश्वास दिलाते हैं कि यदि हम न्याय और कर्तव्य के रास्ते पर हैं, तो वो खुद हमारे जीवन रथ की लगाम अपने हाथ मे ले लेंगे।

- जीवन है तो संघर्ष भी है। धर्म, न्याय और कर्तव्य की रक्षा के लिये यदि युद्ध भी करना पड़े तो जरूर करना चाहिये।

- इंसान को ईश्वर ने संघर्ष करने और शक्तिवान बनने ही भेजा है। संघर्षों से मुक्त सीधी सरल और आसान जिंदगी कोरी कल्पना के सिवाय कुछ भी नहीं।

- मोह इंसान को कायर और कमजोर बनाता है अत: इस पर सदैव नियंत्रण रखें।

- धर्म, न्याय और कर्तव्यों के लिये जो इंसान, अपनी जान हथेली पर रख कर लडऩे को तैयार हो जाता है उसे धन, मान-सम्मान और प्रसिद्धि अपने आप ही मिल जाती है।

- किस्मत हमेशा संघर्ष करने वालों का ही साथ देती हैं। यह सौ फीसदी सत्य है कि भगवान भी उसी की सहायता करता हैं जो स्वयं अपनी मदद करता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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