ऐसे जन्मा सिक्ख धर्म
अर्थ एंव स्वरूप एवं इतिहासशब्दकोश में दिए दिए अर्थ के अनुसार सिक्ख शब्द का अर्थ है- शिष्य, चेला, गुरुनानक के पंथ का अनुयायी, नानकदेव के अनुयायियों का एक वर्ग (जैस- सिक्ख समूह) सिक्ख धर्म भी जैन धर्म के अनुसार हिंदू धर्म के समीपस्थ धर्मों में से से एक है, अर्थात् हिंदू धर्म से समानता या एकरूपता रखने वाला है। वास्तविकता में सिक्ख धर्म गुरुओं पर आधारित धर्म है। इस धर्म के प्रणेता गुरुनानक देव हैं गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रथम गुरु अवतार हुए है। सिक्ख धर्म में बहुदेवता वाद की मान्यता नहीं है।
अकाल पुरुष सिक्ख धर्म केवल एक अकाल पुरुष को मानता है। यह 'एक ईश्वर तथा गुरुद्वारों पर आधारित धर्म है। इस धर्म में गुरु महिमा मुख्य पूज्यनीय व दर्शनीय मानी गई है। गुरु के माध्यम ही हम अकाल पुरुष तक पहुंचते है। गुरुनानक देव जी ने अकाल पुरुष का जैसा स्वरूप प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार - अकाल पुरुष एक है, उस जैसा कोई नहीं है। वह सबमें एक समान रूप से एकरस रूप में बसा हुआ है। उस अकाल पुरुष का नाम अटल है।
सृष्टि निर्मातावह अकाल पुरुष ही संसार की हर छोटी और बड़ी वस्तु को बनाने वाला है। वह अकाल पुरुष ही सब कुछ बनाता है तथा बनाई हुई हर एक चीज में उसका वास भी रहता है। अर्थात् वह हर कण-कण में अदृश्य रूप से निवास करता है। वह सर्वशक्तिमान है। तथा उसे किसी का डर नहीं है। उसका किसी के साथ विरोध, मनमुटाव एवं शत्रुता नहीं है।
कालजयी उस अकाल पुरुष का अस्तित्व समय के बंधन से मुक्त है। भूतकाल, वर्तमान काल एवं भविष्य काल जैसा काल विभाजन उसके लिए कोई मायने नहीं रखता। बचपन, यौवन, बुढ़ापा और मृत्यु का उसपर कोई प्रभाव नहीं होता । उस अकाल पुरुष को विभिन्न योनियों में भटकने की आवश्यकता नहीं है अर्थात् वह अजन्मा (जन्म-मरण से परे)है। उसको किसी ने नहीं बनाया। न उसे किसी ने जन्म दिया, वह स्वयं प्रकाशित है। ऐसा प्रभु गुरु की कृपा से ही मिलता है।
सिक्ख धर्म के संस्थापक: गुरु नानकदेवसिक्ख धर्म के प्रवर्तक आदि गुरुनानकदेव है। इनका समय सन् 1469 से 1538 रहा। इन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन में खेती, दुकानदारी, व्यापार व भंडारण आदि सभी कार्य किए। जैसे-जैसे धर्म एवं भक्ति भाव में उनका मन रमने लगा। वे धार्मिक यात्राओं पर जाने लगे। उन्होंने ग्रह त्यागकर विश्वभ्रमण किया।
गुरुनानक देव का जन्म 15 अप्रैल 1469 को पंजाब के शेखपुरा जिले के तलवंडी में हुआ था। इनके पिता का नाम कल्याणदास (कालू महता) था तथा माता का नाम तृप्ताजी था। नानक बचपन से ही शांत एवं तेज बुद्धि के थे। उन्होंने हिंदी के साथ संस्कृत और फारसी भी पढ़ी। उन्हें छोटी उम्र में भी भगवान के प्रति लगन लग गई। गुरुनानक ही सिक्ख धर्म के प्रणेता व आधार है। प्रमुख रचना जपुजीगुरुनानक की प्रसिद्ध रचना का नाम जपुजी है। जिस प्रकार मुस्लिम कुरान पर, हिंदू गीता और भागवत पर, पारसी गाथा पर, तथा बौद्ध धम्मपद पर श्रद्धा रखते हैं, उसी प्रकार सिख धर्म अनुयायी 'जपुजी पर श्रद्धा करते हैं। गुरुग्रंथ साहब का आरंभ जपुजी से होता है। सिक्ख धर्म के पहले गुरुनानक देवजी के सारे उपदेशों का सार इस लघु गंरथ में समाया है। सिक्ख धर्मानुयायी प्रतिदिन जपुजी का पाठ करते हैं।
सिक्ख धर्म के प्रमुख ग्रंथगुरुनानक देव के वचनों को, पहले पहल, गुरु अंगद देव ने 'गुरुमुखी लिपि में लिखा। तभी से यह लिपि प्रचलन में आई है। सिक्खों के मुख्य धर्म 'ग्रंथ साहिब का संकलन और संपादन सन् 1604 ई. में पांचवें गुरु अर्जुनदेव ने किया। इस ग्रंथ में आदि के पांच गुरु और नवें गुरु तेगबहादुर जी के वचन और पद संग्रहित हैं। सिक्ख धर्म के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह जी साहित्य के बहुत बड़े विद्वान, कवियों के प्रबल सहायक एवं संरक्षक तथा स्वयं भी हिंदी के अच्छे कवि थे। उनकी सभी रचनाओं को सिक्ख, 'दशम ग्रंथ के नाम से पुकारते हैं। गुरु गोविंदसिंह जी के मन में हिंदू धर्म एवं देवी देवताओं के प्रति भी गहरी श्रद्धा थी। उन्होंने 'रामायण ग्रंथ की रचना भी की जो कुछ ही समय पूर्व 'गोविंद-रामायण के नाम प्रकाशित हुई।
सिक्ख धर्म का प्रभाव क्षेत्र एवं अनुयायी सिक्ख धर्म मुख्य रूप से भारतीय धर्म है। इसका जन्म एवं प्रवर्तन भारत में ही हुआ है। सिक्ख धर्म के सर्वाधिक अनुयायी भारत में ही पाए जाते हैं। विश्वभर में लगभग 3 करोड़ अनुयायी हैं। भारत के अलावा यह धर्म आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण-पूर्वी एशिया, युनाइटेड किंग्डम एवं यूरोप में सिक्ख धर्म के अनुयायी है।
भगवान सत्य स्वरूप हैं अर्थात् 'सत् श्री अकाल'
गुरुनानक देव का आध्यात्मिक जीवननानकदेव की दृष्टि में सारा संसार एक पवित्र स्थान है। वे इस पवित्र संसार में रहने वाले सभी निवासियों को एक समान दर्जा दिया करते थे। उनके अनुसार जो सत्य से प्रेम करता है। वही पवित्र है। भगवान स्वयं भी सत्य स्वरूप हैं अर्थात् 'सत् श्री अकाल'। सत्य और शुभ आचरण से अपने आप को पवित्र बनाकर कोई भी भगवान तक पहुंच सकता है। नानकदेव अनावश्यक आडंबर और भाव रहित कर्मकांड को व्यर्थ मानते थे।
व्यापक लोकप्रियताहिंदू और मुसलमान दोनों ही वर्गों के लोग नानकदेव जी को समान रूप से चाहते एवं सम्मान देते थे। दोनों वर्गों के लोग उन्हें प्यार करते एवं संत मानते थे। मुस्लिमों से नानकदेव ने कहा कि दया को मस्जिद जानों उसमें सच्चाई का फर्श बिछाओ, न्याय और ईमानदारी को कुरान जानों, नम्रता को सुन्नत जानो, सौजन्य को रोजा मानों तभी तुम सच्चे मुसलमान कहलाने के लायक हो पाओगे। इतना ही नहीं नानक देव जी ने पांच वक्त की नमाज का वास्तविक अर्थ मुसलमानों को समझाते हुए कहा कि पहली नमाज सच्चाई है, दूसरी इंसाफ, तीसरी दया, चौथी नेक नियती और पांचवीं ईश्वर (अल्लाह) की पूजा (इबादत) है।
धर्म का मर्महिंदूओं को भी धर्म का मर्म (सच्चाई) समझाते हुए नानक देव ने कहा कि मैंने चारों वेद पढ़े हैं, अड़सठ तीर्थों का स्नान किया है। वनों में जंगलों में रहा हूं। सातों ऊपरी व नीचे की दुनिया का ध्यान मनन किया है। तब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि वही अपने धर्म के प्रति सच्चा है जो भगवान से डरता है, बुरे काम नहीं करता, नेक काम करता है। गुरु नानक ने भेदभाव भुलाकर ईमानदारी, नेकनियती, वफादारी एवं समर्पण भाव से काम करने की शिक्षा दी। गुरुनानक का दार्शनिक सिद्धांत वेदों पर आधारित था। वे एक ओंकार, अकालपुरुष और प्रकृति को सत्य मानते थे। उन्होंने अहंकार को पाप की जड़ माना है। गुरु नानक ने कहा है कि मन कागज है, हमारे कर्म स्याही है। पुण्य और पाप इस पर लिखे लेख है, हमें मन के कागज पर लिखे पुण्य के लेख को बढ़ाना और पाप वाले लेख को मिटाना है।
यह सिखाता है सिक्ख धर्म
सिक्ख धर्म: मान्यताएं एवं सिद्धांतसिक्ख धर्म गुरु परंपरा पर आधारित धर्म है। जिसके पहले महान् गुरु आदि गुरु नानक देव जी हुए हैं। सिक्ख धर्म में दस अवतारी गुरु माने गए हैं। दश गुरुओं की सूची-
१. आदि गुरु नानकदेव जी
2. गुरु अंगददेव जी
3. गुरु अमरदास जी
4. गुरु रामदास जी
5. गुरु अर्जुनदेवी जी
6. गुरु हरगोविंद जी
7. गुरु हरिराय जी
8. गुरु हरिकृष्ण जी
9. गुरु तेजबहादुर जी
10. गुरु गोविंदसिंह जी स्थाई गुरु सिक्ख धर्म में गुरु नानक देव से लेकर गुरु गोविंदसिंह जी तक 10 गुरु हुए हैं। प्रत्येक गुरु अन्त समय में अपने योग्य उत्तराधिकारी को अपना पद सौंप कर उसे सिक्ख पंथ का अगला गुरु घोषित कर दिया करते थे।
गुरु गोविंदसिंह जब स्वर्गवासी होने लगे, तब उन्होंने 'गुरु-ग्रंथ साहिब को ही सिक्ख पंथ का स्थायी गुरु घोषित कर दिया और समस्त सिक्ख अनुयायियों को आज्ञा दे दी कि आगे से कोई व्यक्ति गुरु नहीं होगा।सिक्ख किसको कहते हैं?
१. जो केवल एक अकालपुरुष को मानता हैं, वह सिक्ख है।
२. जो दस गुरु साहिबान (गुरुनानक देव से गुरु गोविंद सिंह तक) और गुरु ग्रंथ साहब वाणी व शिक्षा के अनुसार जीवन व्यतीत करता है, वह सिक्ख है।
३. जो दशम पिता के प्रदान किए खंडे बांटे का अमृत पान करता है, वह सिक्ख है।
४. जो पांचककार केश, कंघा, कड़ा, कछिहरा और कृपाण इन पांचों को धारण करता है, वह सिक्ख है।सिक्खों के लिए वर्जित कार्य
सिक्ख धर्म चार बुराइयों से सिक्खों को दूर करने का उपदेश देता है-
१. केशों को अपमानित करना।
२. तंबाकु सेवन करना।
३. मुसलमानों द्वारा कुंठा (हलाल) मांस खाना।
४. पराई स्त्री या पराए पुरुष का संग करना।
सिक्ख धर्म: उपासना पद्धतियां एवं प्रथाएं
नित्य नियम : सिक्ख धर्म में मान्यता है कि नितनेम का रोज पाठ करना चाहिए। ये पाठ हैं- जपु, जाप और दस सवैये। इन वाणियों का पाठ प्रात: काल करना चाहिए।सोदर रहिरास: सूर्यास्त के बाद पढ़े।सोहिला: ये वाणी रात को सोते समय पढ़े।ओम्: ये पारब्रह्म वाचक शब्द है। गुरुग्रंथ साहब में ओम् के पूर्व 1 अंक का प्रयोग किया गया है इससे तात्पर्य यह है कि वह अस्तित्व जो एक है जिसके समान दूसरा कोई नहीं है।
जपु: ''आदि सचु जुगादि सचुहै भी सचु नानक होसी भी सचु।''ये गुरुमत का मूलमंत्र है। इसमें गुरुनानक देव ने परमात्मा के शाब्दिक संकल्प को प्रस्तुत किया है।सोहिला: सोहिला वाणी का नाम है। इस वाणी का पाठ सिक्ख मतानुसार रात को सोते समय किया जाता है। सोहिला का शाब्दिक अर्थ है- यश। अर्थात् वाणी से परमात्मा का यशोगान किया जाना।
अरदास: सिक्ख धर्म में अरदास का बड़ा महत्व है। अरदास का नियम है कि गुरु सिक्ख जब भी वाणी का पाठ करें, प्रवचन करें, सबसे पहले ईश्वर के चरणों में समर्पण भाव से प्रार्थना करें कि सुख शांति का व्यवहार बना रहे, एवं परमेश्वर प्रार्थी के सिर पर अपना हाथ रखे। मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह कोई भी व्यवधान हो, यात्रा हो या शुभ कार्य करना हो, या कोई मंगल कार्य करना हो तो पहले अरदास (प्रार्थना) करें, तब आरंभ करें। परमात्मा अरदास करने वालों की प्रार्थना पूरी करते हैं।
अकाल तख्त: सिक्ख धर्म में पांच अकाल तख्त हैं। जिनको पूजा जाता है तथा जिन पर बैठकर सिक्खों को आदेश, करमान, सजा, न्यायिक आदेश दिए जाते हैं जो इस प्रकार हैं -
1. श्री अकाल तख्त साहब, अमृतसर (पंजाब)
2. श्री हरमंदिर साहब, पटना (बिहार)
3. श्री केसगढ़ साहिब, आनंदपुर (पंजाब)
4. श्री दमदमा साहिब, तलवंडी (पंजाब)
5. श्री हजूर साहब, नांदेड़ (महाराष्ट्र)ये पांचों तख्त सिक्खों के ऐतिहासिक तख्त हैं, जिनकी बड़ी मान्यता है।
फतह- जब कभी दो सिक्ख व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो फतह बुलवाते हैं। जो कि इस प्रकार है- ''वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतह जयकार- सिक्ख धर्म में जयकार भी होती है। जो इस प्रकार है - ''बोले सो निहाल सत् श्री अकाल । सिक्ख सैनिक युद्धों के समय भी यही जयकारा बोलते हैं।मत्था टेकना- सिक्ख जब गुरुद्वारे आता है तो गुरुग्रंथ साहब को मत्था टेकता है, सिर झुकाता है। मस्तक झुकाने का अर्थ यह है कि हम गुरुग्रंथ साहब का हुक्म मानेंगे।
एक परिवार- सिक्ख धर्म कहता है कि सभी सिक्ख एक परिवार है। खालसा पंथ ही हमारा सांझा परिवार है। गुरु गोविंद सिंह पिता व साहब कौरजी माता है।वाहे गुरु: परमात्मा के भिन्न-भिन्न नामों - ईश्वर, खुदा, यीशू, भगवान आदि के समान ही सिक्ख धर्म में परमात्मा को वाहे गुरु (अकाल पुरुष) के नाम से पुकारा जाता है।केश: सिक्ख धर्म में केशों का बहुत महत्व है। सिक्खों का विश्वास है कि केश गुरु की निशानी है। केश सच्चे सिक्ख की पहचान है।
गुरुद्वारा: वाहेगुरु (परमात्मा) का गुणगान करने को सिक्ख लोग गुरुद्वारे जाते हैं। हिंदूओं के मंदिर और मुस्लिमों की मस्जिद के समान ही सिक्खों का सामुहिक धर्म स्थल गुरुद्वारा कहलाता है। गुरुद्वारे में 'गुरुग्रंथ साहिब को मूर्ति के स्थान पर अत्यंत आदर एवं सम्मान के साथ रखा जाता है। सिक्ख धर्म में अनुशासन की बड़ी महत्ता है। गुरु तख्त के आदेश का पालन व सजा काटना, सिक्ख अपना धर्म समझते हैं। सिक्खों का बड़े से बड़ा आदमी भी तख्त के आदेश का पालन करके गंदे जूते एवं झूठे बर्तन साफ करता है।
सिक्ख धर्म के प्रमुख उपदेश
सिक्ख धर्म के प्रमुख उपदेशसिक्ख धर्म में जिन 10 गुरुओं को मान्यता प्राप्त है, उनके द्वारा दी गई शिक्षाएं एवं उपदेशों में से प्रमुख इस प्रकार है:
1. मनुष्य स्वयं कर्म रूपी बीज बोता है तथा स्वयं ही फल खाता है।
2. जो दुष्ट कर्म हैं वो पेट के कीड़े बनते हैं। शुभ कर्म शुभ गुणों के रूप में परिवर्तित होते हैं।
3. जो परमात्मा को नहीं भजते वे आवागमन (जन्म-मृत्यु) के चक्र में पड़े रहते हैं।
4. जो तीर्थ ईश्वर की आज्ञानुसार है, उसमें स्नान करना चाहिए।
5. महात्माओं के सत्संग से जन्म -मरण की जंजीर टूटती है। सत्संग और भजन कभी भी नहीं भूलना चाहिए। 6. अहंकार से सदा दूर रहना चाहिए।
7. अपने को छोटा मानकर चलना चाहिए। किसी को दु:ख नहीं देना चाहिए।
8. जैसे मछली जाल में फंसकर पकड़ी जाती है, उसी प्रकार मनुष्य भी लोभ के जाल में फंसता है।
9. परमात्मा ही मनुष्यों को शक्ति एवं महत्व प्रदान करता है।
10. जब ज्ञान नेत्रों से प्रभु के दर्शन होते हैं। तो जन्म-जन्म के मेल (पाप) कट जाते हैं।
11. फिरत-फिरत में हारियों, फिरियो तब शरणाई। नानक की प्रभु विनती, अपनी भक्ति लाई।।
अर्थात् हे परमात्मा मैं अनेक जन्मों में फिरता-फिरता हार गया अन्त में थककर तोरी शरण आया हूं। मेरी प्रार्थना है अब तेरी भक्ति छोड़कर कहीं न जाऊं।
12. प्रभु प्राप्ति के मार्ग में सुख भोग, रोग के समान है और दु:ख प्रभु कृपा के समान। सुख में प्रभु की याद नहीं आती, दुख में ही भगवान याद आते हैं।
13. सत्संग मनुष्य का अहंकार मिटा देता है।
14. यदि कोई मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चाहता है तो गुरुमुखों की सेवा करें।
15. यदि कोई मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होना चाहता है तो संतों के चरणों में जाएं।
16. हे जीव। सुंदर राम की याद कर तुझे उसने सुंदर बनाकर दिखाया।
17. जब तक मन में झूठ, निंदा, लोभ लालच, दूर नहीं होते शांति नहीं मिलेगी।
18. गुरुभक्ति और सत्य बोलने से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।
19. जिसने व्यापक प्रभु को पहचान लिया वो ही सतगुरु है।
20. सतगुरु सिक्ख की रक्षा करता है, सेवक पर कृपा करता है।
21. गुरु दर्शन कल देने वाला है, गुरु चरण छूने से पवित्रता प्राप्त होती है।
22. अभिमानी नकर को प्राप्त होता है।
23. संत की निंदा करने वाला ऐसे तड़पता है जैसे बिना जल के मछली।
24. सत्संग में प्रभु प्यार के अनमोल मोती है।
25. कंगाल के लिए प्रभुनाम धन तथा निराश्रित के लिए सहारे के समान है।
सिक्ख मत और हिंदुत्वसिक्ख धर्म और हिंदुत्व, ये दो नहीं, एक ही धर्म है। हिंदुत्व का यह स्वभाव है कि उस पर जब जैसी विपत्ति आती है। तब वह वैसा ही रूप अपने भीतर से प्रकट करता है। इस्लामी हमलों से बचने के लिए अथवा उसका माकूल जवाब देने के लिए ही हिंदूत्व ने इस्लाम के अखाड़े में अपना जो रूप प्रकट किया, वही सिक्ख या खालसा धर्म है। सिक्ख गुरुओं ने हिंदू धर्म की रक्षा और सेवा के लिए अपनी गरदनें कटाई। अपने जीवन का बलिदान दिया तथा उन्होंने अपना जो सैनिक संगठन खड़ा किया, उसका लक्ष्य भी हिंदू धर्म को जीवित एवं जागरूक रखना था। इसी कारण सिक्ख सारे भारत वर्ष में हिंदूओं के प्रिय है।
गुरु नानक की जिंदगी का यह सच नहीं होगा आपको पता
पंजाब की भूमि वीर योद्धाओं के शौर्य गाथाओं और मानवता के लिए सर्वस्व त्याग देने वाले लोगों की कहानियों से भरी है। इसी प्रांत में सिख धर्म का उदय हुआ और यह देश- दुनिया तक फैला। इन कहानियों के स्वर्णभंडार से हम आपके लिए कुछ ऐसी कहानियां लेकर आए हैं जो सिख धर्म गुरुओं से संबंधित है। पेश है गुरु नानक के जीवन की कुछ बातें-
नानक एक असाधारण रूप से विकसित शक्तियों वाले बालक थे। बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह बटाला के मूलचंद चोना की बेटी सुलखनी से हो गया। नानक की उम्र उन्नीस साल की थी, जब उनकी पत्नी उनके साथ रहने आ गई। कुछ समय के लिए तो वह उनका ध्यान अपनी तरफ करने में कामयाब हो गई और उसने दो पुत्रों को जन्म दिया, श्रीचंद को वर्ष 1494 में और लखमीदास को तीन साल बाद। उनकी शायद कोई बेटी या बेटियां भी हुईं, जो बचपन में ही मर गईं।
उसके बाद नानक का मन पुन: आध्यात्मिक समस्याओं की ओर मुड़ गया और फिर वे दर-दर भटकते साधुओं का साथ खोजने लगे। उनके पिता ने उन्हें अपने पशुओं की देखभाल करने में लगाने और उनके लिए व्यवसाय-धंधा खोलने की बड़ी कोशिश की, लेकिन कुछ भी काम न आया। उनकी बहन उन्हें अपने घर सुल्तानपुर ले आई और अपने पति के प्रभाव से उनकी नौकरी बतौर खजांची नवाब दौलत खान लोदी के यहां लगवा दी, जो कि दिल्ली के सुल्तान के कोई दूर के रिश्तेदार थे। यद्यपि नानक ने बेमन से ही यह नौकरी करना स्वीकार किया, लेकिन अपना फर्ज उन्होंने बाकायदा भली-भांति निभाया और अपने मालिकों का दिल जीत लिया।
सुल्तानपुर में एक मुस्लिम भांड मरदाना नानक के साथ हो लिया और दोनों मिलकर शहर में सबद गाने का आयोजन करने लगे। जन्मसाखी में सुल्तानपुर में बिताए उनके जीवन का ब्यौरा है, हर रात वे गुरुबानी गाते थे, जो भी आता, वे उसे भोजन कराते, सूर्योदय से सवा घंटे पहले उठ वे नदी में नहाने जाते और दिन निकलने तक दरबार में जाकर अपने काम में जुट जाते।नदी पर सुबह-सुबह ऐसे ही एक स्नान के दौरान, नानक को अपना प्रथम रहस्यवादी अनुभव हुआ। जन्मसाखी में इसे ईश्वर के साथ आध्यात्मिक संवाद कहा गया है। ईश्वर ने उन्हें पीने के लिए अमृत का भरा प्याला दिया और धर्मोपदेश देने का जिम्मा सौंपते हुए कहा नानक, मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम्हारे जरिए मेरा नाम बढ़ेगा। जो भी तुम्हारा अनुसरण करेगा, मैं उसकी रक्षा करूंगा। प्रार्थना करने के लिए दुनिया में जाओ और लोगों को प्रार्थना का ढंग सिखाओ। दुनिया के ढंग देखकर घबराना नहीं। अपने जीवन को नाम की स्तुति में, दान, स्नान, सेवा और सिमरन में समर्पित कर दो। नानक, मैं तुम्हें अपना वायदा देता हूं। इसे अपने जीवन का लक्ष्य बन जाने दो।
रहस्यमय वाणी ने फिर कहा नानक, जिसे तुम आशीष दोगे, वह मेरे द्वारा आशीषा जाएगा, जिस पर तुम अनुग्रह करोगे, वह मेरा अनुग्रह प्राप्त करेगा। मैं परमात्मा हूं, परम- सर्जक। तुम गुरु हो, परमात्मा के परम गुरु। कहते हैं नानक को ईश्वर ने अपने हाथों से दिव्य सिरोपा दिया। नानक तीन दिन और तीन रातों तक गुम रहे और यह समझ लिया गया था कि वे नदी में डूब गए। वे चौथे दिन पुन: प्रकट हुए। जन्मसाखी में इस नाटकीय वापसी का वर्णन इस प्रकार है लोग बोले, मित्रों, ये नदी में खो गए थे, कहां से पुन: प्रकट हुए हैं? नानक घर लौटे और जो भी उनके पास था, सब लोगों में बांट दिया। उनके तन पर केवल उनकी लंगोटी बची थी, बाकी कुछ नहीं। उनके गिर्द भीड़ जुटनी शुरू हो गई। खान भी आया और पूछने लगा, नानक, तुमको हुआ क्या है? नानक मूक बने रहे। जवाब लोगों ने दिया, यह नदी में रहा है और इसका दिमाग खराब हो गया है। खान बोला, मित्रो, यह तो बड़ी परेशानी की बात है, और दुखी होकर वापस चला गया।
नानक फकीरों के साथ जा मिले। उनके साथ भाट मरदाना भी गया। एक दिन बीत गया। अगले दिन वे उठे और बोले, कोई हिंदू नहीं है, न ही कोई मुसलमान। इसके बाद तो जब भी बोलते, यही करते, कोई न हिंदू है, न ही कोई मुसलमान है। यह घटना संभवत: सन् 1499 में घटी, जब नानक अपनी उम्र के तीसवें वर्ष में थे। यह उनके जीवन के प्रथम अध्याय को चिह्न्ति करता है-सच की खोज हो चुकी थी, वे दुनिया को इसकी घोषणा करने के लिए तैयार हो चुके थे।
अन्याय के खिलाफ लडऩा भी धर्म है....
मुगल शासनकाल में लोगों को कई तरह के कष्ट देकर परेशान किया जा रहा था। उस समय धर्म-परिवर्तन के लिए सनातन धर्मियों पर अत्याचार चरम सीमा पर पहुंच गए थे। ऐसे समय में साहस और एकता के प्रतीक गुरुनानक ने लोगों का मनोबल बढ़ाया। उन्होंने अन्याय का डटकर विरोध ही नहीं किया बल्कि आक्रमणकारियों और शासकों की निंदा भी की। इसी विरोध के कारण बाबर ने उन्हें बंदी बनाया लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग रहे। राम नाम का जप करना और लोगों को सही रास्ता दिखाना ही उनके जीवन का उद्देश्य था।
राम सुमिर, राम सुमिर .........
गुरु नानकदेव का उपदेश इसी बात पर केंद्रित है कि मानव जीवन परमात्मा की भक्ति के लिए मिला है। यह संसार, मान-सम्मान और प्रतिष्ठा सब झूठे हैं। मतलब यह कि इन सांसारिक उपलब्धियों से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। ये सब चीजें तो मौत छीन लेगी। इसीलिए वे गाते थे- राम सुमिर, राम सुमिर, एही तरो काज है॥ माया कौ संग त्याग, हरिजूकी सरन लाग।
और गुरु अर्जुनदेव का दुश्मन हो गया जहांगीर
मुगलकाल का सबसे अच्छा बादशाह अकबर जिसे भारतीयों ने बहुत सम्मान दिया। अकबर बहुत रहम दिल और धर्म के मार्ग पर चलने वाला बादशाह था परंतु उसी का पुत्र जहांगीर अपने पिता से पूरी तरह विपरित स्वभाव वाला था। इसी वजह से बादशाह अकबर और गुरु अर्जुनदेवजी के बहुत अच्छे संबंध होने के बाद भी जहांगीर गुरुदेव को शत्रु मानता था।
बादशाह अकबर की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी जहांगीर बादशाह की गद्दी पर बैठा। जहांगीर कट्टर पंथी था और अपने धर्म के अतिरिक्त किसी और धर्म को बिल्कुल सम्मान नहीं देता था। इसी के चलते गुरु अर्जुनदेव को अपना शत्रु समझने वाले लोगों ने बादशाह जहांगीर को उनके खिलाफ भड़काने का कार्य शुरू कर दिया। भड़काने वाले लोगों में गुरुजी के बड़े भाई पृथीचंद भी शामिल थे। जहांगीर अब अर्जुनदेवजी के खिलाफ पूरी तरह भड़क चुका था। जहांगीर की तुजुक जहांगीरी में इस बात की पुष्टि होती है कि गुरुदेव के खिलाफ उसमें कितना क्रोध भरा था। सिक्ख धर्म की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता से जहांगीर का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया और उसने गुरुदेव को लाहौर बुलवा लिया।
गुरुदेव समझ गए थे कि अब जहांगीर कुछ भी कर सकता है फिर भी वे लाहौर पहुंच गए। जहांगीर लाहौर से कहीं और निकल गया था परंतु जाते-जाते चंदूशाह को हुक्म दिया कि गुरु अर्जुनदेव को मार दिया जाए। चंदूशाह भी गुरुदेव से बहुत नफरत करता था इसी वजह से उसने गुरुजी को कई यातनाएं दी। इन कष्टों के झेलने पर भी गुरुदेव ने किसी से कोई शिकायत नहीं की और फिर संवत १६६३ में ज्येष्ठ सुदी के दूसरे दिन धर्म और इंसानियत की रक्षा करते-करते देह त्याग दी।
शांत और गंभीर थे गुरु अर्जुनदेवजी
ब्रह्मज्ञानी, परम विद्वान, शहीदों के सरताज गुरु अर्जुनदेवजी का जन्म गोइंदवाल साहिब में 15 अप्रैल 1563 को हुआ। उनके पिता का नाम गुरु रामदास एवं माता का नाम बीवी भानीजी था। गुरु अर्जुनदेवजी का विवाह 1579 ईस्वी में हुआ। उनके पुत्र का नाम हरगोविंदसिंह था।
वैसे तो गुरुदेव का पूरा जीवन ही लोगों की भलाई करने में व्यतीत हुआ परंतु इसके अलावा भी उन्होंने कई ऐसे कार्य किए जो आज भी एक मिसाल है। उन्होंने ग्रंथ साहिब का संकलन किया। ग्रंथ साहिब पढ़कर बादशाह अकबर बहुत प्रसन्न हुआ था।
गुरुदेव शांत स्वभाव और गंभीर व्यक्तित्व वाले थे। मानव कल्याण उनके जीवन का ध्येय था। वे हमेशा प्राणियों की सेवा करना और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा सभी को दिया करते थे। उनकी वजह से सिक्ख धर्म बहुत लोकप्रिय हुआ जिसे देखकर बादशाह जहांगीर उनसे ईष्र्या करने लगा। जहांगीर की ईष्र्या इतनी बढ़ गई कि उसने गुरुदेव को मारने का षडय़ंत्र रच डाला और गुरुजी को कई यातनाएं दी। गुरुदेव उन यातयाओं को झेलते रहे परंतु किसी से कोई बैर भाव मन में नहीं लाए और देह त्याग दी।
गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित वाणी ने संतप्त मानवता को शांति का संदेश दिया। सुखमनी साहिब उनकी अमर-वाणी है। सिक्ख धर्म को मानने वाले लोग रोज सुखमनी साहिब का पाठ कर शांति प्राप्त करते हैं। सुखमनी साहिब चौबीस अष्टपदी हैं। सुखमनी साहिब राग गाउडी और सूत्रात्मक शैली की रचना है। इसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा और त्याग, मानसिक दु:ख-सुख एवं मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है। सरल ब्रजभाषा एवं शैली से जुड़ी गुरु अर्जुनदेवजी यह रचना पूजनीय है।
सिक्खों के पांचवें गुरु अर्जुनदेवजी
सिक्ख धर्म के पांचवें गुरु हुए श्री अर्जुनदेवजी। जिन्होंने सिक्ख धर्म को एक नए शिखर तक पहुंचाया। सिक्ख धर्म की आस्था, श्रद्धा और भक्ति का केंद्र पवित्र श्रीगुरु ग्रंथ साहिब का संकलन किया, स्वर्ण मंदिर की नींव रखी और सभी सिक्खों से अपनी कमाई का दसवां हिस्सा निकाल कर धर्म के नाम लगाने की बात कही। इन्हीं कार्यों की वजह से सिक्ख धर्म के इतिहास में गुरु अर्जुन देवजी का स्थान सबसे अलग और सबसे खास है। सिक्खों के प्रति समर्पण की वजह से ही इन्हें पांचवें नानक के रूप में देखा जाता है।
कौन हैं सिक्ख धर्म के पंच प्यारे...?
मुगल शासनकाल में जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय गुरु गोविंद सिंह ने बैसाखी पर्व पर आनंदपुर साहिब के विशाल मैदान में सिक्ख समुदाय को आमंत्रित किया। मैदान में बड़ा सा पंडाल लगाया गया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। जब मैदान में बड़ी संख्या में सिक्ख समाज एकत्रित हो गया तब गुरु गोविंदसिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी।
गोविंदसिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहां मौजूद सभी सिक्ख हतप्रभ रह गए। परंतु उस भीड़ से लाहौर निवासी दयाराम खड़ा हुआ और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया।
गुरु गोविंदसिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है। इस बार सहारनपुर के जटवाडा गांव का युवक धर्मदास खड़ा हुआ। गुरुदेव उसे भी तम्बू में ले गए। फिर थोड़ी देर खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गोविंदसिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय खड़े हो गए।
गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तंबू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव फिर बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका निवासी मोहकम चंद सामने आ गए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चंद सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने सिक्खों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तंबू से गुरु गोविंदसिंह केसरिया बाना पहने पांच सिक्ख नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गोविंदसिंह तंबू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तंबू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पांचों मेरे पंच प्यारे हैं। इनकी निष्ठा और समर्पण से खालसा पंथ का जन्म हुआ है।
मानवता के पक्षधर थे गुरु गोविंद सिंह
गुरु गोविंद सिंह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु थे। गुरु गोविंद सिंह जी का मूल नाम गोविंद राय था। गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। इसी दौरान गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गुजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को बाला प्रीतम कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर गोविंद कहते थे। बार-बार गोविंद कहने से बाला प्रीतम का नाम गोविंद राय पड़ गया।
गुरु गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद सिंह से मिला था और उन्हें बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह अनेक भाषाओं जैसे फारसी, अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को मजबूत किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ दसम ग्रंथ (दसवां खंड) लिखा। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। खिलौनों से खेलने की उम्र में गुरु गोविंद सिंह कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे।
9 वर्ष की उम्र में गुरु बने गोविंद सिंह
जब औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का कत्ल करवा दिया तो उनकी शहादत के बाद उनकी गद्दी पर गुरु गोविंद सिंह को बैठाया गया। उस समय उनकी उम्र मात्र 9 वर्ष थी। गुरु की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गुरु गोविंद सिंह ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया।
पंच प्यारे भी गुरु गोविंद सिंह की ही देन है। केशगढ़साहिब में आयोजित सभा में गुरु गोविंद सिंह ने ही पहली बार पंच प्यारों को अमृत छकाया था।इस घटना को देश के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि उस समय देश में धर्म, जाति जैसी चीजों का बहुत ज्यादा बोलबाला था। इस सभा में मौजूद सभी लोगों ने न सिर्फ सिख धर्म को अपनाया, बल्कि सभी ने अपने नाम के आगे सिंह भी लगाया। गुरु गोविंद सिंह भी पहले गोविंद राय थे। इस सभा के बाद ही वे गुरु गोविंद सिंह कहलाए। तभी से यह दिन खालसा पंथ की स्थापना के उपलक्ष्य में बैसाखी के तौर पर मनाया जाता है।
गुरु गोविंद सिंह की देन है पंच प्यारे
गुरु तेग बहादुर सिंह जी की हत्या के बाद उनके बेटे गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरु कहलाए। इन्होंने लोगों में बलिदान देने और संघर्ष की भावना बढ़ाने के लिए 3 मार्च, 1699 को वैशाख के दिन केशगढ़ साहिब के पास आनंदपुर में एक सभा बुलाई। इस सभा में हजारों लोग इकट्ठा हुए। गुरु गोविंद सिंह ने यहां पर लोगों के मन में साहस पैदा करने के लिए लोगों से जोश और हिम्मत की बातें कीं। उन्होंने लोगों से कहा कि जो लोग इस कार्य के लिए अपना जीवन बलिदान करने के लिए तैयार हैं, वे ही आगे आएं।
इस सभा में गुरु गोविंद जी अपने हाथ में एक तलवार लेकर आए थे। उनके बार-बार आह्वान करने पर भीड़ में से एक जवान लड़का बाहर आया। गुरु जी उसे अपने साथ तंबू के अंदर ले गए और खून से सनी तलवार लेकर बाहर आए। उन्होंने लोगों से कहा कि जो बलिदान के लिए तैयार है, वह आगे आए। एक लड़का फिर आगे बढ़ा। गुरु उसे भी अंदर ले गए और खून से सनी तलवार के साथ बाहर आए। उन्होंने ऐसा पांच बार किया।
आखिर में वे उन पांचों को लेकर बाहर आए। उन्होंने सफेद पगड़ी और केसरिया रंग के कपड़े पहने हुए थे। यही पांच युवक उस दिन से पंच प्यारे कहलाए। इन पंच प्यारों को गुरु जी ने अमृत (अमृत यानि पवित्र जल जो सिख धर्म धारण करने के लिए लिया जाता है) चखाया। इसके बाद इसे बाकी सभी लोगों को भी पिलाया गया। इस सभा में मौजूद हर धर्म के अनुयायी ने अमृत चखा और खालसा पंथ का सदस्य बन गया।
सिख धर्म का चमत्कारिक सबद
इस भागदोड़ भरी जिंदगी में इंसान एक धर्म को ही ठीक प्रकार से नहीं जान पाता है। जबकि हर धर्म में ऐसी कई बातें हैं जो हमारे लिये बडी़ मददगार शाबित हो सकती हैं। कोई पूजा-अनुष्ठान, मंत्र-तंत्र या टोने-टोटके ऐसे होते हैं जो कठिन से कठिन समस्या को आश्चर्यजनक रूप से बहुत सीघ्र ही दूर कर देते हैं। सिक्ख धर्म में सबद के रूप में कुछ ऐसे मंत्र हैं जिनका नियम पूर्वक जप करने से वर्षों पुरानी बीमारी भी हमैशा के लिये दूर हो जाती है। किसी भी प्रकार के रोग को दूर करने के लिए निम्नलिखित सबद का 41 दिन तक नित्य 108 बार जप करना चाहिए:-
सेवी सतिगुरु आपणा हरि सिमरी दिन सभी रैणि।
आपु तिआगि सरणि पवां मुखि बोली मिठड़े वैण।
जनम जनम का विछुडि़आ हरि मेलहु सजणु सैण।
जो जीअ हरि ते विछुड़े से सुखि न वसनि भैण।
हरि पिर बिनु चैन न पाईए खोजि डिठे सभि गैण।
आप कामणै विछुडी दोसु न काहू देण।
करि किरपा प्रभ राखि लेहु होरू नाही करण करेण।
हरि तुध विणु खाकू रूलणा कहीए किथै वैण।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK
अर्थ एंव स्वरूप एवं इतिहासशब्दकोश में दिए दिए अर्थ के अनुसार सिक्ख शब्द का अर्थ है- शिष्य, चेला, गुरुनानक के पंथ का अनुयायी, नानकदेव के अनुयायियों का एक वर्ग (जैस- सिक्ख समूह) सिक्ख धर्म भी जैन धर्म के अनुसार हिंदू धर्म के समीपस्थ धर्मों में से से एक है, अर्थात् हिंदू धर्म से समानता या एकरूपता रखने वाला है। वास्तविकता में सिक्ख धर्म गुरुओं पर आधारित धर्म है। इस धर्म के प्रणेता गुरुनानक देव हैं गुरुनानक देव सिख धर्म के प्रथम गुरु अवतार हुए है। सिक्ख धर्म में बहुदेवता वाद की मान्यता नहीं है।
अकाल पुरुष सिक्ख धर्म केवल एक अकाल पुरुष को मानता है। यह 'एक ईश्वर तथा गुरुद्वारों पर आधारित धर्म है। इस धर्म में गुरु महिमा मुख्य पूज्यनीय व दर्शनीय मानी गई है। गुरु के माध्यम ही हम अकाल पुरुष तक पहुंचते है। गुरुनानक देव जी ने अकाल पुरुष का जैसा स्वरूप प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार - अकाल पुरुष एक है, उस जैसा कोई नहीं है। वह सबमें एक समान रूप से एकरस रूप में बसा हुआ है। उस अकाल पुरुष का नाम अटल है।
सृष्टि निर्मातावह अकाल पुरुष ही संसार की हर छोटी और बड़ी वस्तु को बनाने वाला है। वह अकाल पुरुष ही सब कुछ बनाता है तथा बनाई हुई हर एक चीज में उसका वास भी रहता है। अर्थात् वह हर कण-कण में अदृश्य रूप से निवास करता है। वह सर्वशक्तिमान है। तथा उसे किसी का डर नहीं है। उसका किसी के साथ विरोध, मनमुटाव एवं शत्रुता नहीं है।
कालजयी उस अकाल पुरुष का अस्तित्व समय के बंधन से मुक्त है। भूतकाल, वर्तमान काल एवं भविष्य काल जैसा काल विभाजन उसके लिए कोई मायने नहीं रखता। बचपन, यौवन, बुढ़ापा और मृत्यु का उसपर कोई प्रभाव नहीं होता । उस अकाल पुरुष को विभिन्न योनियों में भटकने की आवश्यकता नहीं है अर्थात् वह अजन्मा (जन्म-मरण से परे)है। उसको किसी ने नहीं बनाया। न उसे किसी ने जन्म दिया, वह स्वयं प्रकाशित है। ऐसा प्रभु गुरु की कृपा से ही मिलता है।
सिक्ख धर्म के संस्थापक: गुरु नानकदेवसिक्ख धर्म के प्रवर्तक आदि गुरुनानकदेव है। इनका समय सन् 1469 से 1538 रहा। इन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन में खेती, दुकानदारी, व्यापार व भंडारण आदि सभी कार्य किए। जैसे-जैसे धर्म एवं भक्ति भाव में उनका मन रमने लगा। वे धार्मिक यात्राओं पर जाने लगे। उन्होंने ग्रह त्यागकर विश्वभ्रमण किया।
गुरुनानक देव का जन्म 15 अप्रैल 1469 को पंजाब के शेखपुरा जिले के तलवंडी में हुआ था। इनके पिता का नाम कल्याणदास (कालू महता) था तथा माता का नाम तृप्ताजी था। नानक बचपन से ही शांत एवं तेज बुद्धि के थे। उन्होंने हिंदी के साथ संस्कृत और फारसी भी पढ़ी। उन्हें छोटी उम्र में भी भगवान के प्रति लगन लग गई। गुरुनानक ही सिक्ख धर्म के प्रणेता व आधार है। प्रमुख रचना जपुजीगुरुनानक की प्रसिद्ध रचना का नाम जपुजी है। जिस प्रकार मुस्लिम कुरान पर, हिंदू गीता और भागवत पर, पारसी गाथा पर, तथा बौद्ध धम्मपद पर श्रद्धा रखते हैं, उसी प्रकार सिख धर्म अनुयायी 'जपुजी पर श्रद्धा करते हैं। गुरुग्रंथ साहब का आरंभ जपुजी से होता है। सिक्ख धर्म के पहले गुरुनानक देवजी के सारे उपदेशों का सार इस लघु गंरथ में समाया है। सिक्ख धर्मानुयायी प्रतिदिन जपुजी का पाठ करते हैं।
सिक्ख धर्म के प्रमुख ग्रंथगुरुनानक देव के वचनों को, पहले पहल, गुरु अंगद देव ने 'गुरुमुखी लिपि में लिखा। तभी से यह लिपि प्रचलन में आई है। सिक्खों के मुख्य धर्म 'ग्रंथ साहिब का संकलन और संपादन सन् 1604 ई. में पांचवें गुरु अर्जुनदेव ने किया। इस ग्रंथ में आदि के पांच गुरु और नवें गुरु तेगबहादुर जी के वचन और पद संग्रहित हैं। सिक्ख धर्म के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह जी साहित्य के बहुत बड़े विद्वान, कवियों के प्रबल सहायक एवं संरक्षक तथा स्वयं भी हिंदी के अच्छे कवि थे। उनकी सभी रचनाओं को सिक्ख, 'दशम ग्रंथ के नाम से पुकारते हैं। गुरु गोविंदसिंह जी के मन में हिंदू धर्म एवं देवी देवताओं के प्रति भी गहरी श्रद्धा थी। उन्होंने 'रामायण ग्रंथ की रचना भी की जो कुछ ही समय पूर्व 'गोविंद-रामायण के नाम प्रकाशित हुई।
सिक्ख धर्म का प्रभाव क्षेत्र एवं अनुयायी सिक्ख धर्म मुख्य रूप से भारतीय धर्म है। इसका जन्म एवं प्रवर्तन भारत में ही हुआ है। सिक्ख धर्म के सर्वाधिक अनुयायी भारत में ही पाए जाते हैं। विश्वभर में लगभग 3 करोड़ अनुयायी हैं। भारत के अलावा यह धर्म आस्ट्रेलिया, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण-पूर्वी एशिया, युनाइटेड किंग्डम एवं यूरोप में सिक्ख धर्म के अनुयायी है।
भगवान सत्य स्वरूप हैं अर्थात् 'सत् श्री अकाल'
गुरुनानक देव का आध्यात्मिक जीवननानकदेव की दृष्टि में सारा संसार एक पवित्र स्थान है। वे इस पवित्र संसार में रहने वाले सभी निवासियों को एक समान दर्जा दिया करते थे। उनके अनुसार जो सत्य से प्रेम करता है। वही पवित्र है। भगवान स्वयं भी सत्य स्वरूप हैं अर्थात् 'सत् श्री अकाल'। सत्य और शुभ आचरण से अपने आप को पवित्र बनाकर कोई भी भगवान तक पहुंच सकता है। नानकदेव अनावश्यक आडंबर और भाव रहित कर्मकांड को व्यर्थ मानते थे।
व्यापक लोकप्रियताहिंदू और मुसलमान दोनों ही वर्गों के लोग नानकदेव जी को समान रूप से चाहते एवं सम्मान देते थे। दोनों वर्गों के लोग उन्हें प्यार करते एवं संत मानते थे। मुस्लिमों से नानकदेव ने कहा कि दया को मस्जिद जानों उसमें सच्चाई का फर्श बिछाओ, न्याय और ईमानदारी को कुरान जानों, नम्रता को सुन्नत जानो, सौजन्य को रोजा मानों तभी तुम सच्चे मुसलमान कहलाने के लायक हो पाओगे। इतना ही नहीं नानक देव जी ने पांच वक्त की नमाज का वास्तविक अर्थ मुसलमानों को समझाते हुए कहा कि पहली नमाज सच्चाई है, दूसरी इंसाफ, तीसरी दया, चौथी नेक नियती और पांचवीं ईश्वर (अल्लाह) की पूजा (इबादत) है।
धर्म का मर्महिंदूओं को भी धर्म का मर्म (सच्चाई) समझाते हुए नानक देव ने कहा कि मैंने चारों वेद पढ़े हैं, अड़सठ तीर्थों का स्नान किया है। वनों में जंगलों में रहा हूं। सातों ऊपरी व नीचे की दुनिया का ध्यान मनन किया है। तब मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि वही अपने धर्म के प्रति सच्चा है जो भगवान से डरता है, बुरे काम नहीं करता, नेक काम करता है। गुरु नानक ने भेदभाव भुलाकर ईमानदारी, नेकनियती, वफादारी एवं समर्पण भाव से काम करने की शिक्षा दी। गुरुनानक का दार्शनिक सिद्धांत वेदों पर आधारित था। वे एक ओंकार, अकालपुरुष और प्रकृति को सत्य मानते थे। उन्होंने अहंकार को पाप की जड़ माना है। गुरु नानक ने कहा है कि मन कागज है, हमारे कर्म स्याही है। पुण्य और पाप इस पर लिखे लेख है, हमें मन के कागज पर लिखे पुण्य के लेख को बढ़ाना और पाप वाले लेख को मिटाना है।
यह सिखाता है सिक्ख धर्म
सिक्ख धर्म: मान्यताएं एवं सिद्धांतसिक्ख धर्म गुरु परंपरा पर आधारित धर्म है। जिसके पहले महान् गुरु आदि गुरु नानक देव जी हुए हैं। सिक्ख धर्म में दस अवतारी गुरु माने गए हैं। दश गुरुओं की सूची-
१. आदि गुरु नानकदेव जी
2. गुरु अंगददेव जी
3. गुरु अमरदास जी
4. गुरु रामदास जी
5. गुरु अर्जुनदेवी जी
6. गुरु हरगोविंद जी
7. गुरु हरिराय जी
8. गुरु हरिकृष्ण जी
9. गुरु तेजबहादुर जी
10. गुरु गोविंदसिंह जी स्थाई गुरु सिक्ख धर्म में गुरु नानक देव से लेकर गुरु गोविंदसिंह जी तक 10 गुरु हुए हैं। प्रत्येक गुरु अन्त समय में अपने योग्य उत्तराधिकारी को अपना पद सौंप कर उसे सिक्ख पंथ का अगला गुरु घोषित कर दिया करते थे।
गुरु गोविंदसिंह जब स्वर्गवासी होने लगे, तब उन्होंने 'गुरु-ग्रंथ साहिब को ही सिक्ख पंथ का स्थायी गुरु घोषित कर दिया और समस्त सिक्ख अनुयायियों को आज्ञा दे दी कि आगे से कोई व्यक्ति गुरु नहीं होगा।सिक्ख किसको कहते हैं?
१. जो केवल एक अकालपुरुष को मानता हैं, वह सिक्ख है।
२. जो दस गुरु साहिबान (गुरुनानक देव से गुरु गोविंद सिंह तक) और गुरु ग्रंथ साहब वाणी व शिक्षा के अनुसार जीवन व्यतीत करता है, वह सिक्ख है।
३. जो दशम पिता के प्रदान किए खंडे बांटे का अमृत पान करता है, वह सिक्ख है।
४. जो पांचककार केश, कंघा, कड़ा, कछिहरा और कृपाण इन पांचों को धारण करता है, वह सिक्ख है।सिक्खों के लिए वर्जित कार्य
सिक्ख धर्म चार बुराइयों से सिक्खों को दूर करने का उपदेश देता है-
१. केशों को अपमानित करना।
२. तंबाकु सेवन करना।
३. मुसलमानों द्वारा कुंठा (हलाल) मांस खाना।
४. पराई स्त्री या पराए पुरुष का संग करना।
सिक्ख धर्म: उपासना पद्धतियां एवं प्रथाएं
नित्य नियम : सिक्ख धर्म में मान्यता है कि नितनेम का रोज पाठ करना चाहिए। ये पाठ हैं- जपु, जाप और दस सवैये। इन वाणियों का पाठ प्रात: काल करना चाहिए।सोदर रहिरास: सूर्यास्त के बाद पढ़े।सोहिला: ये वाणी रात को सोते समय पढ़े।ओम्: ये पारब्रह्म वाचक शब्द है। गुरुग्रंथ साहब में ओम् के पूर्व 1 अंक का प्रयोग किया गया है इससे तात्पर्य यह है कि वह अस्तित्व जो एक है जिसके समान दूसरा कोई नहीं है।
जपु: ''आदि सचु जुगादि सचुहै भी सचु नानक होसी भी सचु।''ये गुरुमत का मूलमंत्र है। इसमें गुरुनानक देव ने परमात्मा के शाब्दिक संकल्प को प्रस्तुत किया है।सोहिला: सोहिला वाणी का नाम है। इस वाणी का पाठ सिक्ख मतानुसार रात को सोते समय किया जाता है। सोहिला का शाब्दिक अर्थ है- यश। अर्थात् वाणी से परमात्मा का यशोगान किया जाना।
अरदास: सिक्ख धर्म में अरदास का बड़ा महत्व है। अरदास का नियम है कि गुरु सिक्ख जब भी वाणी का पाठ करें, प्रवचन करें, सबसे पहले ईश्वर के चरणों में समर्पण भाव से प्रार्थना करें कि सुख शांति का व्यवहार बना रहे, एवं परमेश्वर प्रार्थी के सिर पर अपना हाथ रखे। मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह कोई भी व्यवधान हो, यात्रा हो या शुभ कार्य करना हो, या कोई मंगल कार्य करना हो तो पहले अरदास (प्रार्थना) करें, तब आरंभ करें। परमात्मा अरदास करने वालों की प्रार्थना पूरी करते हैं।
अकाल तख्त: सिक्ख धर्म में पांच अकाल तख्त हैं। जिनको पूजा जाता है तथा जिन पर बैठकर सिक्खों को आदेश, करमान, सजा, न्यायिक आदेश दिए जाते हैं जो इस प्रकार हैं -
1. श्री अकाल तख्त साहब, अमृतसर (पंजाब)
2. श्री हरमंदिर साहब, पटना (बिहार)
3. श्री केसगढ़ साहिब, आनंदपुर (पंजाब)
4. श्री दमदमा साहिब, तलवंडी (पंजाब)
5. श्री हजूर साहब, नांदेड़ (महाराष्ट्र)ये पांचों तख्त सिक्खों के ऐतिहासिक तख्त हैं, जिनकी बड़ी मान्यता है।
फतह- जब कभी दो सिक्ख व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो फतह बुलवाते हैं। जो कि इस प्रकार है- ''वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतह जयकार- सिक्ख धर्म में जयकार भी होती है। जो इस प्रकार है - ''बोले सो निहाल सत् श्री अकाल । सिक्ख सैनिक युद्धों के समय भी यही जयकारा बोलते हैं।मत्था टेकना- सिक्ख जब गुरुद्वारे आता है तो गुरुग्रंथ साहब को मत्था टेकता है, सिर झुकाता है। मस्तक झुकाने का अर्थ यह है कि हम गुरुग्रंथ साहब का हुक्म मानेंगे।
एक परिवार- सिक्ख धर्म कहता है कि सभी सिक्ख एक परिवार है। खालसा पंथ ही हमारा सांझा परिवार है। गुरु गोविंद सिंह पिता व साहब कौरजी माता है।वाहे गुरु: परमात्मा के भिन्न-भिन्न नामों - ईश्वर, खुदा, यीशू, भगवान आदि के समान ही सिक्ख धर्म में परमात्मा को वाहे गुरु (अकाल पुरुष) के नाम से पुकारा जाता है।केश: सिक्ख धर्म में केशों का बहुत महत्व है। सिक्खों का विश्वास है कि केश गुरु की निशानी है। केश सच्चे सिक्ख की पहचान है।
गुरुद्वारा: वाहेगुरु (परमात्मा) का गुणगान करने को सिक्ख लोग गुरुद्वारे जाते हैं। हिंदूओं के मंदिर और मुस्लिमों की मस्जिद के समान ही सिक्खों का सामुहिक धर्म स्थल गुरुद्वारा कहलाता है। गुरुद्वारे में 'गुरुग्रंथ साहिब को मूर्ति के स्थान पर अत्यंत आदर एवं सम्मान के साथ रखा जाता है। सिक्ख धर्म में अनुशासन की बड़ी महत्ता है। गुरु तख्त के आदेश का पालन व सजा काटना, सिक्ख अपना धर्म समझते हैं। सिक्खों का बड़े से बड़ा आदमी भी तख्त के आदेश का पालन करके गंदे जूते एवं झूठे बर्तन साफ करता है।
सिक्ख धर्म के प्रमुख उपदेश
सिक्ख धर्म के प्रमुख उपदेशसिक्ख धर्म में जिन 10 गुरुओं को मान्यता प्राप्त है, उनके द्वारा दी गई शिक्षाएं एवं उपदेशों में से प्रमुख इस प्रकार है:
1. मनुष्य स्वयं कर्म रूपी बीज बोता है तथा स्वयं ही फल खाता है।
2. जो दुष्ट कर्म हैं वो पेट के कीड़े बनते हैं। शुभ कर्म शुभ गुणों के रूप में परिवर्तित होते हैं।
3. जो परमात्मा को नहीं भजते वे आवागमन (जन्म-मृत्यु) के चक्र में पड़े रहते हैं।
4. जो तीर्थ ईश्वर की आज्ञानुसार है, उसमें स्नान करना चाहिए।
5. महात्माओं के सत्संग से जन्म -मरण की जंजीर टूटती है। सत्संग और भजन कभी भी नहीं भूलना चाहिए। 6. अहंकार से सदा दूर रहना चाहिए।
7. अपने को छोटा मानकर चलना चाहिए। किसी को दु:ख नहीं देना चाहिए।
8. जैसे मछली जाल में फंसकर पकड़ी जाती है, उसी प्रकार मनुष्य भी लोभ के जाल में फंसता है।
9. परमात्मा ही मनुष्यों को शक्ति एवं महत्व प्रदान करता है।
10. जब ज्ञान नेत्रों से प्रभु के दर्शन होते हैं। तो जन्म-जन्म के मेल (पाप) कट जाते हैं।
11. फिरत-फिरत में हारियों, फिरियो तब शरणाई। नानक की प्रभु विनती, अपनी भक्ति लाई।।
अर्थात् हे परमात्मा मैं अनेक जन्मों में फिरता-फिरता हार गया अन्त में थककर तोरी शरण आया हूं। मेरी प्रार्थना है अब तेरी भक्ति छोड़कर कहीं न जाऊं।
12. प्रभु प्राप्ति के मार्ग में सुख भोग, रोग के समान है और दु:ख प्रभु कृपा के समान। सुख में प्रभु की याद नहीं आती, दुख में ही भगवान याद आते हैं।
13. सत्संग मनुष्य का अहंकार मिटा देता है।
14. यदि कोई मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चाहता है तो गुरुमुखों की सेवा करें।
15. यदि कोई मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होना चाहता है तो संतों के चरणों में जाएं।
16. हे जीव। सुंदर राम की याद कर तुझे उसने सुंदर बनाकर दिखाया।
17. जब तक मन में झूठ, निंदा, लोभ लालच, दूर नहीं होते शांति नहीं मिलेगी।
18. गुरुभक्ति और सत्य बोलने से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।
19. जिसने व्यापक प्रभु को पहचान लिया वो ही सतगुरु है।
20. सतगुरु सिक्ख की रक्षा करता है, सेवक पर कृपा करता है।
21. गुरु दर्शन कल देने वाला है, गुरु चरण छूने से पवित्रता प्राप्त होती है।
22. अभिमानी नकर को प्राप्त होता है।
23. संत की निंदा करने वाला ऐसे तड़पता है जैसे बिना जल के मछली।
24. सत्संग में प्रभु प्यार के अनमोल मोती है।
25. कंगाल के लिए प्रभुनाम धन तथा निराश्रित के लिए सहारे के समान है।
सिक्ख मत और हिंदुत्वसिक्ख धर्म और हिंदुत्व, ये दो नहीं, एक ही धर्म है। हिंदुत्व का यह स्वभाव है कि उस पर जब जैसी विपत्ति आती है। तब वह वैसा ही रूप अपने भीतर से प्रकट करता है। इस्लामी हमलों से बचने के लिए अथवा उसका माकूल जवाब देने के लिए ही हिंदूत्व ने इस्लाम के अखाड़े में अपना जो रूप प्रकट किया, वही सिक्ख या खालसा धर्म है। सिक्ख गुरुओं ने हिंदू धर्म की रक्षा और सेवा के लिए अपनी गरदनें कटाई। अपने जीवन का बलिदान दिया तथा उन्होंने अपना जो सैनिक संगठन खड़ा किया, उसका लक्ष्य भी हिंदू धर्म को जीवित एवं जागरूक रखना था। इसी कारण सिक्ख सारे भारत वर्ष में हिंदूओं के प्रिय है।
गुरु नानक की जिंदगी का यह सच नहीं होगा आपको पता
पंजाब की भूमि वीर योद्धाओं के शौर्य गाथाओं और मानवता के लिए सर्वस्व त्याग देने वाले लोगों की कहानियों से भरी है। इसी प्रांत में सिख धर्म का उदय हुआ और यह देश- दुनिया तक फैला। इन कहानियों के स्वर्णभंडार से हम आपके लिए कुछ ऐसी कहानियां लेकर आए हैं जो सिख धर्म गुरुओं से संबंधित है। पेश है गुरु नानक के जीवन की कुछ बातें-
नानक एक असाधारण रूप से विकसित शक्तियों वाले बालक थे। बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह बटाला के मूलचंद चोना की बेटी सुलखनी से हो गया। नानक की उम्र उन्नीस साल की थी, जब उनकी पत्नी उनके साथ रहने आ गई। कुछ समय के लिए तो वह उनका ध्यान अपनी तरफ करने में कामयाब हो गई और उसने दो पुत्रों को जन्म दिया, श्रीचंद को वर्ष 1494 में और लखमीदास को तीन साल बाद। उनकी शायद कोई बेटी या बेटियां भी हुईं, जो बचपन में ही मर गईं।
उसके बाद नानक का मन पुन: आध्यात्मिक समस्याओं की ओर मुड़ गया और फिर वे दर-दर भटकते साधुओं का साथ खोजने लगे। उनके पिता ने उन्हें अपने पशुओं की देखभाल करने में लगाने और उनके लिए व्यवसाय-धंधा खोलने की बड़ी कोशिश की, लेकिन कुछ भी काम न आया। उनकी बहन उन्हें अपने घर सुल्तानपुर ले आई और अपने पति के प्रभाव से उनकी नौकरी बतौर खजांची नवाब दौलत खान लोदी के यहां लगवा दी, जो कि दिल्ली के सुल्तान के कोई दूर के रिश्तेदार थे। यद्यपि नानक ने बेमन से ही यह नौकरी करना स्वीकार किया, लेकिन अपना फर्ज उन्होंने बाकायदा भली-भांति निभाया और अपने मालिकों का दिल जीत लिया।
सुल्तानपुर में एक मुस्लिम भांड मरदाना नानक के साथ हो लिया और दोनों मिलकर शहर में सबद गाने का आयोजन करने लगे। जन्मसाखी में सुल्तानपुर में बिताए उनके जीवन का ब्यौरा है, हर रात वे गुरुबानी गाते थे, जो भी आता, वे उसे भोजन कराते, सूर्योदय से सवा घंटे पहले उठ वे नदी में नहाने जाते और दिन निकलने तक दरबार में जाकर अपने काम में जुट जाते।नदी पर सुबह-सुबह ऐसे ही एक स्नान के दौरान, नानक को अपना प्रथम रहस्यवादी अनुभव हुआ। जन्मसाखी में इसे ईश्वर के साथ आध्यात्मिक संवाद कहा गया है। ईश्वर ने उन्हें पीने के लिए अमृत का भरा प्याला दिया और धर्मोपदेश देने का जिम्मा सौंपते हुए कहा नानक, मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम्हारे जरिए मेरा नाम बढ़ेगा। जो भी तुम्हारा अनुसरण करेगा, मैं उसकी रक्षा करूंगा। प्रार्थना करने के लिए दुनिया में जाओ और लोगों को प्रार्थना का ढंग सिखाओ। दुनिया के ढंग देखकर घबराना नहीं। अपने जीवन को नाम की स्तुति में, दान, स्नान, सेवा और सिमरन में समर्पित कर दो। नानक, मैं तुम्हें अपना वायदा देता हूं। इसे अपने जीवन का लक्ष्य बन जाने दो।
रहस्यमय वाणी ने फिर कहा नानक, जिसे तुम आशीष दोगे, वह मेरे द्वारा आशीषा जाएगा, जिस पर तुम अनुग्रह करोगे, वह मेरा अनुग्रह प्राप्त करेगा। मैं परमात्मा हूं, परम- सर्जक। तुम गुरु हो, परमात्मा के परम गुरु। कहते हैं नानक को ईश्वर ने अपने हाथों से दिव्य सिरोपा दिया। नानक तीन दिन और तीन रातों तक गुम रहे और यह समझ लिया गया था कि वे नदी में डूब गए। वे चौथे दिन पुन: प्रकट हुए। जन्मसाखी में इस नाटकीय वापसी का वर्णन इस प्रकार है लोग बोले, मित्रों, ये नदी में खो गए थे, कहां से पुन: प्रकट हुए हैं? नानक घर लौटे और जो भी उनके पास था, सब लोगों में बांट दिया। उनके तन पर केवल उनकी लंगोटी बची थी, बाकी कुछ नहीं। उनके गिर्द भीड़ जुटनी शुरू हो गई। खान भी आया और पूछने लगा, नानक, तुमको हुआ क्या है? नानक मूक बने रहे। जवाब लोगों ने दिया, यह नदी में रहा है और इसका दिमाग खराब हो गया है। खान बोला, मित्रो, यह तो बड़ी परेशानी की बात है, और दुखी होकर वापस चला गया।
नानक फकीरों के साथ जा मिले। उनके साथ भाट मरदाना भी गया। एक दिन बीत गया। अगले दिन वे उठे और बोले, कोई हिंदू नहीं है, न ही कोई मुसलमान। इसके बाद तो जब भी बोलते, यही करते, कोई न हिंदू है, न ही कोई मुसलमान है। यह घटना संभवत: सन् 1499 में घटी, जब नानक अपनी उम्र के तीसवें वर्ष में थे। यह उनके जीवन के प्रथम अध्याय को चिह्न्ति करता है-सच की खोज हो चुकी थी, वे दुनिया को इसकी घोषणा करने के लिए तैयार हो चुके थे।
अन्याय के खिलाफ लडऩा भी धर्म है....
मुगल शासनकाल में लोगों को कई तरह के कष्ट देकर परेशान किया जा रहा था। उस समय धर्म-परिवर्तन के लिए सनातन धर्मियों पर अत्याचार चरम सीमा पर पहुंच गए थे। ऐसे समय में साहस और एकता के प्रतीक गुरुनानक ने लोगों का मनोबल बढ़ाया। उन्होंने अन्याय का डटकर विरोध ही नहीं किया बल्कि आक्रमणकारियों और शासकों की निंदा भी की। इसी विरोध के कारण बाबर ने उन्हें बंदी बनाया लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग रहे। राम नाम का जप करना और लोगों को सही रास्ता दिखाना ही उनके जीवन का उद्देश्य था।
राम सुमिर, राम सुमिर .........
गुरु नानकदेव का उपदेश इसी बात पर केंद्रित है कि मानव जीवन परमात्मा की भक्ति के लिए मिला है। यह संसार, मान-सम्मान और प्रतिष्ठा सब झूठे हैं। मतलब यह कि इन सांसारिक उपलब्धियों से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। ये सब चीजें तो मौत छीन लेगी। इसीलिए वे गाते थे- राम सुमिर, राम सुमिर, एही तरो काज है॥ माया कौ संग त्याग, हरिजूकी सरन लाग।
और गुरु अर्जुनदेव का दुश्मन हो गया जहांगीर
मुगलकाल का सबसे अच्छा बादशाह अकबर जिसे भारतीयों ने बहुत सम्मान दिया। अकबर बहुत रहम दिल और धर्म के मार्ग पर चलने वाला बादशाह था परंतु उसी का पुत्र जहांगीर अपने पिता से पूरी तरह विपरित स्वभाव वाला था। इसी वजह से बादशाह अकबर और गुरु अर्जुनदेवजी के बहुत अच्छे संबंध होने के बाद भी जहांगीर गुरुदेव को शत्रु मानता था।
बादशाह अकबर की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी जहांगीर बादशाह की गद्दी पर बैठा। जहांगीर कट्टर पंथी था और अपने धर्म के अतिरिक्त किसी और धर्म को बिल्कुल सम्मान नहीं देता था। इसी के चलते गुरु अर्जुनदेव को अपना शत्रु समझने वाले लोगों ने बादशाह जहांगीर को उनके खिलाफ भड़काने का कार्य शुरू कर दिया। भड़काने वाले लोगों में गुरुजी के बड़े भाई पृथीचंद भी शामिल थे। जहांगीर अब अर्जुनदेवजी के खिलाफ पूरी तरह भड़क चुका था। जहांगीर की तुजुक जहांगीरी में इस बात की पुष्टि होती है कि गुरुदेव के खिलाफ उसमें कितना क्रोध भरा था। सिक्ख धर्म की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता से जहांगीर का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया और उसने गुरुदेव को लाहौर बुलवा लिया।
गुरुदेव समझ गए थे कि अब जहांगीर कुछ भी कर सकता है फिर भी वे लाहौर पहुंच गए। जहांगीर लाहौर से कहीं और निकल गया था परंतु जाते-जाते चंदूशाह को हुक्म दिया कि गुरु अर्जुनदेव को मार दिया जाए। चंदूशाह भी गुरुदेव से बहुत नफरत करता था इसी वजह से उसने गुरुजी को कई यातनाएं दी। इन कष्टों के झेलने पर भी गुरुदेव ने किसी से कोई शिकायत नहीं की और फिर संवत १६६३ में ज्येष्ठ सुदी के दूसरे दिन धर्म और इंसानियत की रक्षा करते-करते देह त्याग दी।
शांत और गंभीर थे गुरु अर्जुनदेवजी
ब्रह्मज्ञानी, परम विद्वान, शहीदों के सरताज गुरु अर्जुनदेवजी का जन्म गोइंदवाल साहिब में 15 अप्रैल 1563 को हुआ। उनके पिता का नाम गुरु रामदास एवं माता का नाम बीवी भानीजी था। गुरु अर्जुनदेवजी का विवाह 1579 ईस्वी में हुआ। उनके पुत्र का नाम हरगोविंदसिंह था।
वैसे तो गुरुदेव का पूरा जीवन ही लोगों की भलाई करने में व्यतीत हुआ परंतु इसके अलावा भी उन्होंने कई ऐसे कार्य किए जो आज भी एक मिसाल है। उन्होंने ग्रंथ साहिब का संकलन किया। ग्रंथ साहिब पढ़कर बादशाह अकबर बहुत प्रसन्न हुआ था।
गुरुदेव शांत स्वभाव और गंभीर व्यक्तित्व वाले थे। मानव कल्याण उनके जीवन का ध्येय था। वे हमेशा प्राणियों की सेवा करना और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा सभी को दिया करते थे। उनकी वजह से सिक्ख धर्म बहुत लोकप्रिय हुआ जिसे देखकर बादशाह जहांगीर उनसे ईष्र्या करने लगा। जहांगीर की ईष्र्या इतनी बढ़ गई कि उसने गुरुदेव को मारने का षडय़ंत्र रच डाला और गुरुजी को कई यातनाएं दी। गुरुदेव उन यातयाओं को झेलते रहे परंतु किसी से कोई बैर भाव मन में नहीं लाए और देह त्याग दी।
गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित वाणी ने संतप्त मानवता को शांति का संदेश दिया। सुखमनी साहिब उनकी अमर-वाणी है। सिक्ख धर्म को मानने वाले लोग रोज सुखमनी साहिब का पाठ कर शांति प्राप्त करते हैं। सुखमनी साहिब चौबीस अष्टपदी हैं। सुखमनी साहिब राग गाउडी और सूत्रात्मक शैली की रचना है। इसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा और त्याग, मानसिक दु:ख-सुख एवं मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है। सरल ब्रजभाषा एवं शैली से जुड़ी गुरु अर्जुनदेवजी यह रचना पूजनीय है।
सिक्खों के पांचवें गुरु अर्जुनदेवजी
सिक्ख धर्म के पांचवें गुरु हुए श्री अर्जुनदेवजी। जिन्होंने सिक्ख धर्म को एक नए शिखर तक पहुंचाया। सिक्ख धर्म की आस्था, श्रद्धा और भक्ति का केंद्र पवित्र श्रीगुरु ग्रंथ साहिब का संकलन किया, स्वर्ण मंदिर की नींव रखी और सभी सिक्खों से अपनी कमाई का दसवां हिस्सा निकाल कर धर्म के नाम लगाने की बात कही। इन्हीं कार्यों की वजह से सिक्ख धर्म के इतिहास में गुरु अर्जुन देवजी का स्थान सबसे अलग और सबसे खास है। सिक्खों के प्रति समर्पण की वजह से ही इन्हें पांचवें नानक के रूप में देखा जाता है।
कौन हैं सिक्ख धर्म के पंच प्यारे...?
मुगल शासनकाल में जब बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। उस समय गुरु गोविंद सिंह ने बैसाखी पर्व पर आनंदपुर साहिब के विशाल मैदान में सिक्ख समुदाय को आमंत्रित किया। मैदान में बड़ा सा पंडाल लगाया गया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। जब मैदान में बड़ी संख्या में सिक्ख समाज एकत्रित हो गया तब गुरु गोविंदसिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी।
गोविंदसिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहां मौजूद सभी सिक्ख हतप्रभ रह गए। परंतु उस भीड़ से लाहौर निवासी दयाराम खड़ा हुआ और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया।
गुरु गोविंदसिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है। इस बार सहारनपुर के जटवाडा गांव का युवक धर्मदास खड़ा हुआ। गुरुदेव उसे भी तम्बू में ले गए। फिर थोड़ी देर खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गोविंदसिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय खड़े हो गए।
गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तंबू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव फिर बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका निवासी मोहकम चंद सामने आ गए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चंद सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने सिक्खों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तंबू से गुरु गोविंदसिंह केसरिया बाना पहने पांच सिक्ख नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गोविंदसिंह तंबू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तंबू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पांचों मेरे पंच प्यारे हैं। इनकी निष्ठा और समर्पण से खालसा पंथ का जन्म हुआ है।
मानवता के पक्षधर थे गुरु गोविंद सिंह
गुरु गोविंद सिंह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु थे। गुरु गोविंद सिंह जी का मूल नाम गोविंद राय था। गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। इसी दौरान गुरु तेगबहादुर की धर्मपत्नी गुजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोविंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। बचपन में सभी लोग गोविंद जी को बाला प्रीतम कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर गोविंद कहते थे। बार-बार गोविंद कहने से बाला प्रीतम का नाम गोविंद राय पड़ गया।
गुरु गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद सिंह से मिला था और उन्हें बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह अनेक भाषाओं जैसे फारसी, अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को मजबूत किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ दसम ग्रंथ (दसवां खंड) लिखा। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। खिलौनों से खेलने की उम्र में गुरु गोविंद सिंह कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे।
9 वर्ष की उम्र में गुरु बने गोविंद सिंह
जब औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का कत्ल करवा दिया तो उनकी शहादत के बाद उनकी गद्दी पर गुरु गोविंद सिंह को बैठाया गया। उस समय उनकी उम्र मात्र 9 वर्ष थी। गुरु की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गुरु गोविंद सिंह ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया।
पंच प्यारे भी गुरु गोविंद सिंह की ही देन है। केशगढ़साहिब में आयोजित सभा में गुरु गोविंद सिंह ने ही पहली बार पंच प्यारों को अमृत छकाया था।इस घटना को देश के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि उस समय देश में धर्म, जाति जैसी चीजों का बहुत ज्यादा बोलबाला था। इस सभा में मौजूद सभी लोगों ने न सिर्फ सिख धर्म को अपनाया, बल्कि सभी ने अपने नाम के आगे सिंह भी लगाया। गुरु गोविंद सिंह भी पहले गोविंद राय थे। इस सभा के बाद ही वे गुरु गोविंद सिंह कहलाए। तभी से यह दिन खालसा पंथ की स्थापना के उपलक्ष्य में बैसाखी के तौर पर मनाया जाता है।
गुरु गोविंद सिंह की देन है पंच प्यारे
गुरु तेग बहादुर सिंह जी की हत्या के बाद उनके बेटे गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरु कहलाए। इन्होंने लोगों में बलिदान देने और संघर्ष की भावना बढ़ाने के लिए 3 मार्च, 1699 को वैशाख के दिन केशगढ़ साहिब के पास आनंदपुर में एक सभा बुलाई। इस सभा में हजारों लोग इकट्ठा हुए। गुरु गोविंद सिंह ने यहां पर लोगों के मन में साहस पैदा करने के लिए लोगों से जोश और हिम्मत की बातें कीं। उन्होंने लोगों से कहा कि जो लोग इस कार्य के लिए अपना जीवन बलिदान करने के लिए तैयार हैं, वे ही आगे आएं।
इस सभा में गुरु गोविंद जी अपने हाथ में एक तलवार लेकर आए थे। उनके बार-बार आह्वान करने पर भीड़ में से एक जवान लड़का बाहर आया। गुरु जी उसे अपने साथ तंबू के अंदर ले गए और खून से सनी तलवार लेकर बाहर आए। उन्होंने लोगों से कहा कि जो बलिदान के लिए तैयार है, वह आगे आए। एक लड़का फिर आगे बढ़ा। गुरु उसे भी अंदर ले गए और खून से सनी तलवार के साथ बाहर आए। उन्होंने ऐसा पांच बार किया।
आखिर में वे उन पांचों को लेकर बाहर आए। उन्होंने सफेद पगड़ी और केसरिया रंग के कपड़े पहने हुए थे। यही पांच युवक उस दिन से पंच प्यारे कहलाए। इन पंच प्यारों को गुरु जी ने अमृत (अमृत यानि पवित्र जल जो सिख धर्म धारण करने के लिए लिया जाता है) चखाया। इसके बाद इसे बाकी सभी लोगों को भी पिलाया गया। इस सभा में मौजूद हर धर्म के अनुयायी ने अमृत चखा और खालसा पंथ का सदस्य बन गया।
सिख धर्म का चमत्कारिक सबद
इस भागदोड़ भरी जिंदगी में इंसान एक धर्म को ही ठीक प्रकार से नहीं जान पाता है। जबकि हर धर्म में ऐसी कई बातें हैं जो हमारे लिये बडी़ मददगार शाबित हो सकती हैं। कोई पूजा-अनुष्ठान, मंत्र-तंत्र या टोने-टोटके ऐसे होते हैं जो कठिन से कठिन समस्या को आश्चर्यजनक रूप से बहुत सीघ्र ही दूर कर देते हैं। सिक्ख धर्म में सबद के रूप में कुछ ऐसे मंत्र हैं जिनका नियम पूर्वक जप करने से वर्षों पुरानी बीमारी भी हमैशा के लिये दूर हो जाती है। किसी भी प्रकार के रोग को दूर करने के लिए निम्नलिखित सबद का 41 दिन तक नित्य 108 बार जप करना चाहिए:-
सेवी सतिगुरु आपणा हरि सिमरी दिन सभी रैणि।
आपु तिआगि सरणि पवां मुखि बोली मिठड़े वैण।
जनम जनम का विछुडि़आ हरि मेलहु सजणु सैण।
जो जीअ हरि ते विछुड़े से सुखि न वसनि भैण।
हरि पिर बिनु चैन न पाईए खोजि डिठे सभि गैण।
आप कामणै विछुडी दोसु न काहू देण।
करि किरपा प्रभ राखि लेहु होरू नाही करण करेण।
हरि तुध विणु खाकू रूलणा कहीए किथै वैण।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK
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