पोद्दारजी के धर्य ने आखिर चोर को नेक बना ही दिया
पहले तो वह टालता रहा, फिर अधिक दबाव देने पर बोला - ‘सर! उस छात्र ने मुझे अपने घर की
दयनीय दशा के विषय में बताया था। उसकी विधवा, बीमार मां के पास दवा के पैसे
नहीं थे और छोटे भाई-बहन भूखों मर रहे थे। उसकी नकद सहायता के लिए मैं उससे
जान-बूझकर पराजित हो गया।’ प्राचार्य ने यह सुनकर संजय को गले लगाते हुए कहा - ‘किसी मजबूर की सहायता के
लिए तुमने अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा दिया। धन्य हो तुम।’ सार यह है कि पीड़ित
मानवता के भले के लिए अपने हितों से समझौता करने वाला सच्चे अर्थो में मानवतावादी
होता है।
मेरे हाथ में यह मिट्टी है, जो हमें अन्न देती है। यह जल है, जो अमूल्य है और इसके बिना जीवन
संभव ही नहीं है। तीसरी वस्तु पुस्तक है। पुस्तकें ज्ञान का आधार हैं और ज्ञान के
बिना सृष्टि का संचालन असंभव है।’ रघु का सटीक उत्तर सुनकर राजा सूर्यसेन ने भानुमति का विवाह
उससे किया और राज्य के लिए योग्य उत्तराधिकारी पा लिया। सार यह है कि बुद्धिमान
व्यक्ति दुनिया के कठिन से कठिन प्रश्नों का समाधान कर सकता है।
मखमल और टाट का मुकाबला भला कैसे संभव है? आपने अच्छा किया, जो मेरा अहं तोड़ दिया।'
वस्तुत: भौतिक
उपलब्धि की चाह में किए गए कर्म से सदैव वह कर्म श्रेष्ठ होता है, जो विशुद्ध रूप से
परमात्मा को समर्पित हो।
आखिर पुत्र के साथ माता का भी निधन हो गया। ऐलिस की समाधि पर लिखा गया - ‘क्योंकि मैं मां हूं।’
कथा का सार यह है
कि मां इस धरती पर साक्षात ईश्वर का रूप है, जो अपने बच्चे के सुख के लिए
किसी भी सीमा तक जाकर त्याग कर सकती है। वास्तव में मां से बढ़कर पूजनीय और कोई
नहीं होता।
इस पर दोनों ने नाराजगी व्यक्त की और गुरु से आकर विवाद करने लगे। तब संत ने
उन्हें अनमोल जीवन-दर्शन इन शब्दों में दिया - ‘वत्स! मैंने तो तुम्हें
व्यक्ति-सेवा के लिए बुलाया था। पूजा-प्रार्थना तो देवता भी कर लेते हैं, किंतु सेवा मनुष्य ही कर
सकता है। सेवा हमेशा प्रार्थना से ऊंची होती है, क्योंकि वह स्वार्थ से परे
परोपकार से जुड़ी होती है।’ दोनों शिष्यों की आंखें खुल गईं।
एक दिन कुदाली अवश्य सोना बरसाएगी और वह अमीर बनेगा।
यह सोचकर वह खेत में रोज कुदाली चलाता। समय आने पर खेत में अनाज बोया, फसल उगी और उसने देखा कि
पूरे गांव में सबसे अच्छी फसल उसके ही खेत में हुई। इस प्रकार कुदाली ने वास्तव
में ही सोना उगला था। वह अमीर बन गया। सार यह है कि संपन्नता की सही कुंजी परिश्रम
है। जो परिश्रम करता है, उसके घर समृद्धि अवश्य आती है।
सेठ का छोटा बेटा बना सच्चा आत्मज्ञानी
किसी नगर में एक सेठ रहता था। उसके तीन लड़के थे। सेठ ने एक दिन विचार किया कि ज्ञानार्जन के लिए उन्हें नगर के बाहर किसी योग्य शिक्षास्थली पर भेजा जाए। उसने अनुभवी लोगों से विचार-विमर्श कर तीनों को एक अच्छे शिक्षक के पास भेज दिया। कई सालों बाद जब तीनों अध्ययन कर लौटे, तो सेठ ने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया। वह देखना चाहता था कि उसके पुत्र क्या सीखकर आए हैं?
उसने सर्वप्रथम बड़े पुत्र को बुलाकर पूछा - ‘बेटा! तुम क्या पढ़कर आए हो?’ उसने उत्तर दिया - ‘आत्म-विद्या।’ सेठ ने प्रश्न किया - ‘आत्म-विद्या का रहस्य क्या है?’ लड़के ने वेद और उपनिषदों के मंत्र सुनाकर आत्म-विद्या का रहस्य समझाने की कोशिश की। अब सेठ ने मंझले लड़के से यही प्रश्न किया। उसने जवाब में संत-महात्माओं की शिक्षा व अनुभव बताते हुए अंत में कहा - ‘उनका सारा जीवन ही आत्म-विद्या से भरा है।’ छोटे बेटे की बारी आने पर वह चुप रहा। सेठ ने कहा - ‘बोलते क्यों नहीं? आखिर इतने वर्षो में कुछ न कुछ तो सीखा होगा?’ तब वह धीरे से बोला - ‘पिताजी! मैंने जो आत्म-ज्ञान पाया है, उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। सच्च आत्म-ज्ञान तो जीवन में, व्यवहार में जिया जाता है और वहां शब्द काम नहीं आते।’ सेठ ने उसे गले लगाते हुए अन्य दोनों पुत्रों को उसे गुरु बनाने की सलाह दी। वस्तुत: आत्म-ज्ञान अनुभूति का विषय है, अभिव्यक्ति का नहीं। सच्च आत्म-ज्ञानी अपने ज्ञान को वाणी से नहीं, अच्छे आचरण से व्यक्त करता है।
उस समय गीता प्रेस गोरखपुर के संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार थे। वे किसी कार्य
से कलकत्ता गए। लौटते समय एक किशोर उनसे भीख मांगने लगा। उसने भूखे होने का हवाला
दिया, तो
पोद्दारजी को दया आ गई। उन्होंने कुछ रुपए उसे दिए और शेष बचे रुपए जेब में रख
लिए। जब वे कुछ आगे बढ़े, तो उन्हें लगा कि कोई उनकी जेब छू रहा है। उन्होंने तत्काल
उस हाथ को पकड़ा और देखा कि यह तो वही किशोर है। किशोर डर से कांपने लगा, किंतु पोद्दारजी ने उससे
कहा कि तुम्हें और रुपए चाहिए थे, तो पहले ही मांग लेते।
यह कहते हुए उन्होंने बाकी रुपए भी उसे दे दिए। फिर उसे समझाया कि भूखा कहकर
जेब काटने से लोगों का विश्वास भूखों पर से उठ जाएगा। पोद्दारजी के इस दयालु
व्यवहार से किशोर को ग्लानि हुई। उसने अपने घर की दयनीय दशा के बारे में बताया और
काम देने की प्रार्थना की। पोद्दारजी उसे अपने साथ गोरखपुर ले आए और काम पर रख
लिया। उसकी आदत के विषय में उन्होंने किसी को नहीं बताया। कुछ दिन बाद किशोर ने
अपने किसी साथी के रुपए चुरा लिए।
चोरी का पता लगने पर सभी की तलाशी ली जाने लगी। पोद्दारजी समझ गए कि यह काम
उसी किशोर का है। उन्होंने उसकी तलाशी लेने के पहले ही उसे वहां से कोई काम देकर
रवाना कर दिया। वह पोद्दारजी की महानता देखकर बहुत शर्मसार हुआ और उसने उनसे क्षमा
मांगी। इस प्रकार पोद्दारजी की विशाल हृदयता ने किशोर को सदा के लिए नेक बना दिया।
सार यह है कि धर्य से कई बार असंभव लगने वाले कार्य भी संभव हो जाते हैं।
जान की परवाह न कर राजेंद्र प्रसाद ने की पीड़ितों की मदद
बात उन दिनों की है जब हमारा देश परतंत्र था। बारिश का मौसम था और गंगा में
बाढ़ आई थी। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। अनेक लोग बाढ़ में फंस गए थे और
रोटी-कपड़े को तरस रहे थे। ब्रिटिश सरकार की सहायता अपर्याप्त थी। वैसे भी भारतीय
जनता की उसे चिंता क्यों होती? अंतत: स्वतंत्रता सेनानियों ने बाढ़ग्रस्तों की मदद करना तय
किया। सभी ने मिलकर रुपए इकट्ठे किए तथा राजेंद्र प्रसाद और अब्दुल बारी को ये
रुपए बाढ़ग्रस्तों को देने के लिए भेजा।
साथ में खाने-पीने का सामान भी था। जब ये दोनों कोइलवर के पुल पर पहुंचे,
तो वहां
व्यक्तियों के गुजरने के लिए स्थान नहीं था, केवल रेल की पटरियां ही थीं।
राहत के रुपए व खाद्य सामग्री कमर और कंधों पर लादे राजेंद्र प्रसाद सोच रहे थे कि
पुल कैसे पार करें क्योंकि नीचे नदी की धारा तीव्र है, तैरकर जाना असंभव है। अब्दुल
बारी भी कोई निर्णय नहीं कर पा रहे थे। राजेंद्र बाबू ने पूछा - ‘अभी कितने बजे हैं?’
बारी साहब ने
बताया - ‘दस।’
राजेंद्र बाबू
बोले - ‘तब
तो ट्रेन का खतरा नहीं है।
हम दोनों पटरी पर रेंगते हुए नदी पार कर लेते हैं।’ दोनों पीठ पर गट्ठर बांधे रेल की
पटरी के सहारे रेंगते हुए नदी पार कर गए और बाढ़ग्रस्तों तक राहत सामग्री पहुंचा दी।
आपदाग्रस्तों की जान पर खेलकर मदद करने वाले राजेंद्र प्रसाद आगे चलकर भारत के
प्रथम राष्ट्रपति बने। पीड़ित मानवता की यथाशक्ति सहायता करना एक मानव द्वारा
दूसरे मानव के प्रति किया जाने वाला सबसे बड़ा पुण्य है।
अपने ही विद्यालय में तिलक ने लिया मामूली वेतन
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक सदैव ऐसे कार्य करते थे, जो लोकहित से प्रेरित हों। इसके
लिए वह कभी अपना भला-बुरा नहीं सोचते थे। यदि उनके हितैषी किसी कार्य से उन्हें
होने वाले नुकसान के विषय में आगाह करते, तो वह हंसकर टाल जाते और वही काम करते, जो ज्यादातर के हितों को
साधने वाला हो। तिलक शिक्षादान के बहुत बड़े पक्षधर थे।
इसके लिए उन्होंने अपनी युवावस्था में ही पुणो शहर में एक विद्यालय आरंभ किया।
इस कार्य में बहुतों ने उन्हें हतोत्साहित किया, कई प्रकार की आर्थिक व नियमगत
अड़चनें उनके मार्ग में डाली गईं, किंतु तिलक घबराए नहीं और अपने दम पर विद्यालय आरंभ किया।
वह स्वयं भी पूर्ण उत्साह से वहां पढ़ाने का कार्य करते थे। इसके लिए वह मात्र तीस
रुपए मासिक लेते थे। उनके एक मित्र को जब इस विषय में ज्ञात हुआ, तो उन्होंने कहा- ‘इतनी छोटी धनराशि से तो
आप देहावसान के बाद अपने शरीर के दाह संस्कार के लिए भी कुछ नहीं बचा सकेंगे।’
यह बात सुनकर तिलक बोले- ‘भाई! इसकी चिंता मुझे नहीं करनी चाहिए। यदि समाज को ठीक
लगेगा, तो
लोग मेरी देह का अग्नि-संस्कार कर देंगे। यदि लोगों के मन में मेरे प्रति सम्मान
नहीं होगा, तो भी दरुगध से बचने के लिए उन्हें अंत में मेरे शव की कोई उचित व्यवस्था करनी
ही होगी। अत: मैं अपने लिए देश के हित से समझौता नहीं करूंगा।’ सार यह है कि महत्वपूर्ण
लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए क्षुद्र स्वार्थो की बलि देनी पड़ती है। ऐसा करने
वाले सच्चे अर्थो में महान होते हैं।
संत ने बदल दी गणिकाओं के जीवन की राह
संत सोलोमन अत्यंत उदार हृदय थे। उनके पास जो भी दीन-दुखी आता, वे उसकी हर संभव सहायता
करते थे। उनकी सहृदयता सभी पर समान रूप से बरसती थी। संत सोलोमन एक स्थान पर नहीं
टिकते थे, सदा भ्रमण करते रहते।
ऐसे ही एक बार वह घूमते हुए ऐसे स्थान पर पहुंच गए, जो गणिकाओं का निवास स्थान था।
चूंकि गणिकाओं के पास व्यक्ति अपनी वासना पूर्ति के लिए ही जाता है, अत: वे समझीं कि संत का
भी यही उद्देश्य है। उनमें से कुछ ने संत का उपहास किया कि वह साधु के वेश में
विलासी हैं, तो किसी ने संत सोलोमन को संकेत से अपने पास बुलाया। चूंकि संत का हृदय
निष्कपट था, इसलिए वह निर्विकार भाव से उसके पास चले गए।
संत ने अपना परिचय दिया और गणिका ने अपना। तब सोलोमन उसके विषय में जानकर रो
पड़े और बोले- ‘हे भगवान! तेरी इतनी सुंदर सृष्टि में यह कैसा अनर्थ हो रहा है? इन्हें भी तेरा प्रेम और
दया मिलनी चाहिए।’ संत का ऐसा निष्पाप भाव देख गणिका इतनी प्रभावित हुई कि वह साध्वी बन गई। उसका
अनुगमन करते हुए सारी गणिकाएं साधना के मार्ग पर चल पड़ीं। संत की प्रेरणा से उन
लोगों ने वेश्यावृत्ति द्वारा अर्जित धन से एक मठ और नारी निकेतन का निर्माण
करवाया और परोपकार को सदा के लिए अपना लिया। वस्तुत: विवशतावश या अविवेक के कारण
जिनका पतन हुआ है, उन्हें निर्विकार भाव से विकास की मुख्यधारा में लाना महान परमार्थ होता है,
जिसे करने वाला
सच्चा संत और समाज सुधारक होता है।
पत्थरों की मार झेल गए लेकिन फूल की मार पर रो दिए
एक पहुंचे हुए फकीर थे मंसूर। वे सदैव अल्लाह के ध्यान में डूबे रहते और अनहलक
का नारा लगाते। अनहलक का आशय होता है - अहं ब्रह्मास्मि (मैं ही ब्रह्म हूं)।
समकालीन शासक को मंसूर का यह नारा बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने मंसूर को अनहलक का नारा
लगाने से मना किया, किंतु ऊपरवाले की भक्ति में डूबे मंसूर को यह मंजूर नहीं हुआ। फैसला किया गया
कि यह कुफ्र है और इसके लिए मंसूर को सार्वजनिक रूप से सूली पर चढ़ा दिया जाए।
सूली वाले दिन तमाशबीन इकट्ठे हो गए और जैसे ही मंसूर को वहां लाया गया,
लोग उन्हें पत्थर
मारने लगे। मंसूर के शरीर से रक्त की धाराएं फूट पड़ीं, किंतु वह बिना उफ किए मार खाते
रहे। उस भीड़ में मंसूर का प्रिय शिष्य जुन्नेद भी खड़ा था। यह सब देखकर वह बहुत
दुखी हुआ, किंतु विरोध करने का साहस नहीं था। उसने सोचा कि यदि मैंने मंसूर को नहीं मारा,
तो भीड़ कहीं मुझे
ही न मारने लगे। किंतु अपने गुरु को पत्थर मारने की क्रूरता भी वह नहीं कर पाया।
इसलिए उसने मंसूर को एक बड़ा-सा फूल फेंककर मारा।
सूली पर चढ़ने के लिए जा रहे मंसूर की खामोशी अब टूट गई और वह दहाड़ें मारकर
रोने लगे। जुन्नेद अपराधी भाव से यह सोचता रहा कि पत्थर खाकर जो गुरु चुप रहे,
वह फूल की मार से
रोने क्यों लगे? मंसूर रोते हुए सूली पर चढ़ गए। दरअसल मंसूर के रुदन का कारण यह था कि परायों
के दिए हुए बड़े-बड़े जख्म झेले जा सकते हैं, किंतु अपनों का छोटा-सा
र्दुव्यदवहार भी असहनीय होता है, क्योंकि उनसे मन के तार भावना की गहराइयों तक जुड़े होते
हैं।
जब दृष्टिहीन ने सारे व्यक्तियों को सही पहचाना
शाही सवारी आ रही थी। लोग कतारबद्ध खड़े थे। राजा के प्रति प्रजा में सम्मान
था, क्योंकि
वह प्रजा-हितैषी था। राजा की सवारी के आगे मंत्री, सेनापति आदि वरिष्ठ अधिकारियों
के रथ थे और सबसे आगे पैदल सैनिक भीड़ को नियंत्रित कर रहे थे। इस भारी जनसमूह के
बीच एक दृष्टिहीन संन्यासी भी खड़ा था। वह भी इस अद्भुत दृश्य का अनुभव करना चाहता
था। चूंकि वह देख नहीं सकता था, इसलिए कतार से हटकर एक ओर खड़ा हो गया।
जब बैंड-बाजे की आवाज निकट आई, तो एक सिपाही ने भीड़ से ‘दूर हटो, दूर हटो’ कहा। यह सुनकर संन्यासी जोर से
बोला- ‘समझ
गया।’ फिर
मंत्री का रथ आने पर उसने भी संन्यासी सहित सभी को सख्त लहजे में दूर हटने का आदेश
दिया। संन्यासी फिर बोला- ‘समझ गया।’ यही सब सेनापति का रथ आने पर भी हुआ। अंत में शाही सवारी
आई। जैसे ही राजा ने संन्यासी को देखा, वह तत्काल रथ से उतरा और उसके चरण छूते हुए बोला- ‘आपने इस भीड़ में आने का
कष्ट क्यों किया?
आप आदेश देते, तो मैं स्वयं आपकी सेवा में हाजिर हो जाता।’ संन्यासी ने इस बार भी कहा- ‘समझ गया।’ राजा ने पूछा- ‘आप क्या समझ गए?’
तब संन्यासी बोला-
‘पहला
व्यक्ति आपका सिपाही था, दूसरा मंत्री, तीसरा सेनापति और चौथे स्वयं आप। यह मैं समझ गया।’
वस्तुत: विनम्रता
से महानता प्रकट होती है, इसलिए ऊंचे से ऊंचा मुकाम हासिल कर लेने के बाद भी अहंकार
से दूर रहकर विनम्र बने रहना चाहिए।
बुद्ध से मिली अनूठी सीख
भगवान बुद्ध अपने सभी शिष्यों को बहुत स्नेह करते थे। एक बार उनका वक्कलि नामक
शिष्य बीमार पड़ गया। कुछ दिन तक अन्य साथी भिक्षु उसकी तीमारदारी करते रहे,
लेकिन उसे
स्वास्थ्यलाभ नहीं हुआ। एक दिन वक्कलि ने अपने एक भिक्षु मित्र से कहा कि वह भगवान
बुद्ध के दर्शन करना चाहता है। इससे उसके मन को बड़ी शांति व तृप्ति मिलेगी और जब
मन सुखी होगा, तो शरीर को भी स्वस्थ होने में देर नहीं लगेगी। बुद्ध तक जैसे ही वक्कलि की
अस्वस्थता और इच्छा का समाचार पहुंचा, तो वह तुरंत उससे मिलने चल दिए।
दूर से उन्हें आता देखकर वक्कलि उनके सम्मान में उन्हें आसन देने के लिए
चारपाई से उठने की कोशिश करने लगा। बुद्ध ने उसे बहुत स्नेह से रोकते हुए कहा कि
नीचे आसन बिछा है, उसे बिल्कुल कष्ट करने की जरूरत नहीं है। वक्कलि ने गद्गद होकर कहा कि उसे
उनके दर्शन की बड़ी इच्छा थी, जिसे कृपापूर्वक उन्होंने पूर्ण कर दिया। तब बुद्ध ने उसे
समझाया- ‘वक्कलि!
जैसी तुम्हारी विभिन्न प्रकार की अशुद्धियों से भरी काया है, वैसी ही अशुद्ध मेरी भी
काया है। काया का मोह मत रखो, धर्म पर दृष्टि केंद्रित करो।’ बुद्ध के इन शब्दों में यह
जीवन-दर्शन समाहित है कि व्यक्ति-पूजा से अहम सिद्धांत पूजा है। अर्थात व्यक्ति के
महिमामंडन से बचना चाहिए और उसके विचारों को अपने आचरण में उतारना चाहिए।
बालक गोबिंद की विरक्ति
सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह बचपन से ही वैराग्य भाव रखते थे। आम बच्चों
के उलट वे किसी भी वस्तु की मांग नहीं करते थे। अध्ययन और ईश स्मरण में ही उनका
पूरा दिन व्यतीत होता था।
बालकों का नटखट स्वभाव भी उनमें नहीं था और न ही उनकी तरह प्रतिस्पर्धा करने
की ललक थी। उनकी माता उनका यह आचरण देखकर बड़ी हैरान होती थीं, किंतु उन्हें स्वाभाविक रूप से बहुत स्नेह भी करती
थीं। एक दिन उनकी मां के मन में उन्हें सोने के कंगन पहनाने का विचार आया।
उन्होंने अति सुंदर कंगन बनवाए और गोबिंद सिंह को बड़े लाड़ से पहना दिए। कुछ देर
बाद मां ने देखा कि बालक गोबिंद के एक हाथ का कंगन गायब है। मां परेशान हो गई।
बालक गोबिंद से पूछा तो वह उन्हें नदी किनारे ले गए और दूसरा कंगन भी नदी में
डाल दिया यह कहकर कि पहला भी मैंने नदी में डाला है। जब मां ने ऐसा करने का कारण
पूछा तो बालक गोबिंद बोले- मां मुझे गुरुनानक के बताए रास्ते पर चलना है। आपने यदि
मुझे मोह-माया की बेड़ियों में बांध दिया तो मैं यह कैसे कर पाऊंगा? बालक गोबिंद सिंह के ये उद्गार उनके महान विरक्त
जीवन का संकेत कर रहे थे। सार यह है कि आसक्ति भौतिकता की ओर खींचती है, जिससे आध्यात्मिक लक्ष्य पूर्ण नहीं हो पाते। अत:
जिनकी प्रवृत्ति शरीर से अधिक आत्मा के संतोष की ओर है, वे मोह-माया से दूर ही रहते हैं।
तिलक आखिर नहीं झुके
बाल गंगाधर तिलक पर ब्रिटिश सरकार ने आरोप लगाया था कि उन्होंने अंग्रेजों के
विरुद्ध खूनी क्रांति के लिए जनता का आह्वान किया है। उन्हें 24 जून,
1908 को
गिरफ्तार किया गया। न्यायालय में उन्होंने पूरे साहस से अपना पक्ष रखा- ‘जब तक आप हमें आजादी नहीं देते, हम इसी तरह बम फेंकते रहेंगे। मैं निर्दोष हूं। शायद
परमात्मा की यही इच्छा है कि मैं जेल जाऊं, ताकि अपने घोषित लक्ष्य को प्राप्त कर सकूं।’ उन्हें मांडले जेल भेज दिया गया। जेल में बंद तिलक से उनकी पत्नी मिलने आईं तो
यह देखकर बेहद दुखी हुईं कि दिसंबर की ठंड में उनके पति लकड़ी के एक कैबिन में हैं, जहां सर्दी से बचाव की कोई व्यवस्था नहीं है।
घर लौटने के बाद वह निरंतर भगवान से पति के स्वास्थ्य और सुरक्षा की याचना
करती रहतीं। इसी तरह एक वर्ष बीत गया। तिलक का स्वास्थ्य गिरने लगा। उनके मित्र ने
उनसे कहा- ‘तुम्हें छह साल की सजा
हुई है और एक साल में ही तुम्हारी हालत गिरने लगी है। यदि तुम सरकार की शर्ते मान
लो तो मैं तुम्हें जेल से छुड़ा सकता हूं।’ तिलक स्वाभिमान से बोले- ‘नवयुवक हमारे त्याग से
ही प्रेरणा ग्रहण करते हैं। यदि मैं अंग्रेज सरकार की शर्ते मान लूं तो उन
नवयुवकों को कौन प्रेरणा देगा! मुझे अपनी कुर्बानी देने दो।’ तिलक की महानता देख मित्र की आंखें भर आईं। सार यह
है कि उच्च लक्ष्य हासिल करने के लिए त्याग अपेक्षित है।
गांधीजी की प्रभु निष्ठा
उन दिनों गांधीजी दक्षिण भारत की यात्रा पर थे। उनकी पूरी दिनचर्या नियमित थी
और अपना प्रत्येक कार्य समय पर करते थे। प्रात: जल्दी उठकर आवश्यक काम निपटाने के
बाद कुछ समय अध्ययन व पत्र व्यवहार में व्यतीत होता, फिर भेंट के लिए आने वाले लोगों से मिलते। भोजन, प्रार्थना आदि सभी कार्य गांधीजी बिना भूले समय पर करते थे। एक बार वे किसी
कार्यक्रम में गए। कार्यक्रम देर तक चला और गांधीजी को लौटने में अधिक रात हो गई।
लंबे कार्यक्रम से उन्हें थकान भी अत्यधिक हो गई थी। इसलिए वे आते ही चारपाई
पर लेट गए और तत्काल उन्हें नींद आ गई। मध्यरात्रि के बाद जब उनकी आंखें खुलीं तो
ध्यान आया कि रोज रात में सोने के पहले वे जो ध्यान करते हैं, उसे आज करना भूल गए। इस भूल का अहसास होने पर
गांधीजी रातभर नहीं सो पाए। उन्हें रह-रहकर स्वयं पर ग्लानि होने लगी और सारा बदन
पसीने से नहा गया। सुबह जब उनकी व्यग्रता को अन्य लोगों ने देखा, तो कारण पूछा।
तब गांधीजी ने अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहा- जिस ईश्वर की कृपा से मैं जीता
हूं, उसी ईश्वर का स्मरण करना भूल गया, इससे बढ़कर बड़ी गलती और क्या होगी? सभी लोग गांधीजी की प्रभु निष्ठा देख गदगद हो गए।
सार यह है कि यदि हम आस्तिक हैं,
तो ईश्वर
हमारे प्रत्येक कार्य, सोच और आचरण में होना
चाहिए। इससे हमारा नैतिक बल बढ़ता है, जो सकारात्मक कार्यो का प्रेरक है।
मानव सेवा बनाती है महान
कटक में जानकीनाथ बोस नामक एक संपन्न वकील रहते थे। एक रात वकील साहब सो रहे
थे। उनकी पत्नी व पुत्र सुभाष भी वहीं सोए थे। थोड़ी देर बाद उनकी पत्नी ने देखा
कि सुभाष जमीन पर सोया है। मां को चिंता हुई कि बेटे को ठंड न लग जाए। उन्होंने
उसे जगाकर पूछा - ‘बेटा! जमीन पर क्यों सो रहे हो?’ सुभाष ने उत्तर दिया - ‘मां! हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि भी
तो जमीन पर ही सोया करते थे।’ मां बोलीं- ‘बेटा! वे महान थे और उम्र में बड़े भी। तुम्हारी उम्र जमीन
की कठोरता नहीं सह सकेगी। आजा बेटा पलंग पर सो जा।’ मां-बेटे की बातचीत से जानकीनाथ
बोस भी जाग गए।
उन्होंने भी सुभाष से पूछा - ‘जमीन पर सोना किसने सिखाया, बेटा?’ सुभाष बोला ‘- पिताजी! गुरुजी कह रहे
थे कि हमारे ऋषि-मुनि महापुरुष थे और वे जमीन पर ही सोते थे। मैं भी महान बनूंगा,
इसलिए जमीन पर सो
रहा हूं।’ तब पिता ने उसे समझाया - ‘जमीन पर सोने से महान नहीं बना जा सकता। कठोर तप-साधना और
पीड़ित मानवता की सेवा से व्यक्ति महान बनता है।’ यही बालक आगे चलकर सुभाषचंद्र
बोस के नाम से ख्यात हुआ। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित कर
पिता की शिक्षा को साकार किया और विश्व को यह महत्वपूर्ण संदेश दिया कि त्याग और
समर्पण से देशहित की शानदार इबारत लिखी जा सकती है।
पाई-पाई जोड़ बनवाया कुआं
प्राचीन भारत में बाल विवाह का प्रचलन बहुत अधिक था। इसका सबसे बड़ा
दुष्परिणाम लड़कियों की अशिक्षा के रूप में सामने आता था और यदि दुर्भाग्यवश किसी
लड़की के पति का असमय देहांत हो जाता, तो उसका जीवन दूभर हो जाता था।
मेहनत-मजदूरी के अलावा उसके पास कोई मार्ग नहीं होता था। समाज के ताने उसका
जीवन और जटिल बना देते थे। ऐसे ही अनेक वर्ष पूर्व मथुरा के समीप एक गांव में एक बाल
विधवा रहती थी। वह अकेली थी और अपना पेट पालने के लिए सुबह से शाम तक चक्की पीसती
थी। एक दिन उसके मन में गांव से सटे शहर के रास्ते पर एक कुआं बनवाने का विचार आया,
क्योंकि उस मार्ग
पर पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी। किंतु उस बेचारी के पास इतना धन नहीं
था।
आखिर उसने तय किया कि दिनभर वह जो दो आने कमाती है, उसमें से दो पैसे इस कार्य के
लिए बचाएगी। उसने आजीवन नियम से पैसे बचाए। वृद्धावस्था तक उसके पास एक हजार रुपए
इकट्ठे हो गए। तब उसने उस मार्ग पर, जो आज दिल्ली-आगरा मार्ग के नाम से जाना जाता है,
एक पक्का कुआं
बनवाया। आज भी वह कुआं उसके नाम (पिसन हारी का कुआं) से प्रसिद्ध है। यात्री वहां
रुककर अपनी प्यास बुझाते हैं और उसे दिल से दुआ देते हैं। सार यह है कि साधन सीमित
हों, किंतु
संकल्प-शक्ति दृढ़ हो, तो असंभव दिखाई देने वाले कार्य भी संभव हो जाते हैं।
बेटी ने सीखा सादगी का पाठ
हजरत मोहम्मद साहब ने सदैव परिवार से
अधिक समाज कल्याण को महत्व दिया। परमार्थ के ऐसे ही संस्कार हजरत साहब ने अपने
बच्चों को भी दिए थे और उनसे यही अपेक्षा रखते थे कि वे भी परोपकार को अपना जीवन
लक्ष्य बनाएं। एक बार हजरत मोहम्मद अपनी विवाहित पुत्री के घर उससे मिलने पहुंचे।
पुत्री अपने पिता को देखकर बड़ी खुश हुई और भव्य तरीके से उनका स्वागत किया।
नौकरों की एक पूरी फौज मोहम्मद साहब के सत्कार के लिए खड़ी हो गई।
विविध व्यंजन उनके समक्ष रखे गए और
कीमती गहनों से सजी उनकी पुत्री उनसे खाने के लिए मनुहार करने लगी। यह
वैभव-प्रदर्शन मोहम्मद साहब को रास नहीं आया और वह बिना कुछ बोले वहां से जाने
लगे। यह देखकर पुत्री ने दुखी होकर उनसे जाने का कारण पूछा, तो वे बोले - ‘बेटी! मैंने तुम्हें सदा यह सिखाया
है कि हमें सादगी से रहते हुए अपने धन को भलाई के कार्यो में लगाना चाहिए, किंतु शायद तुम उस शिक्षा को भूल गईं।
इसलिए मैं यहां से जा रहा हूं।’
पुत्री को तत्काल अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने पिता
से माफी मांगते हुए अपना सबकुछ जनहितार्थ दान कर दिया। सार यह है कि अपने धन का
अपनी जरूरतों के लिए उपभोग उचित है, किंतु विलासिता
पर व्यय ठीक नहीं है। अपने अतिरिक्त धन का उपयोग लोगों की भलाई में करने से हमें
ढेरों दुआएं मिलती हैं।
और नास्तिक की दिशा बदल गई
दो मित्र थे। एक बहुत धार्मिक प्रवृत्ति का था और सदैव प्रभु चिंतन में लगा
रहता था, किंतु
दूसरा घोर नास्तिक था। वह न कभी मंदिर जाता और न ही घर में पूजा-पाठ करता।
दान-पुण्य में उसका कोई विश्वास नहीं था। उसने अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य अधिक
से अधिक धन अर्जित करना बना रखा था।
वह दिन-रात पैसे कमाने में लगा रहता और भौतिक सुख-सुविधाओं से उसने अपना जीवन
ऐश्वर्य व भोग-विलास का पर्याय बना लिया था। किंतु सुख व संतोष उसके जीवन में नहीं
थे। इसके विपरीत आस्तिक मित्र अपनी निर्धनता में ही परम सुखी था। वह कम साधनों में
संतुष्ट रहता और हमेशा ईश्वर की भक्ति में रमा रहता। एक दिन नास्तिक मित्र उसके घर
मिलने आया और उसका साधारण-सा घर देखकर बोला - ‘तुम्हारे त्याग की जितनी प्रशंसा
की जाए, कम
है।
तुमने तो भगवान की भक्ति में सारी दुनियादारी छोड़ दी। फिर भी खुश कैसे रह
लेते हो?’ यह सुनकर वह बोला - ‘मित्र! मैं अपनी निर्धनता में बहुत प्रसन्न और संतुष्ट हूं,
किंतु त्याग तो
तुम्हारा मुझसे भी बड़ा है क्योंकि तुमने तो दुनिया के लिए ईश्वर को ही छोड़ दिया।
तुम कहो, प्रसन्न
तो हो न?’ अपने मित्र की बात सुनकर नास्तिक को गहरा झटका लगा और उसे अपने असंतोष का कारण
भी समझ में आ गया। उसी दिन से उसके जीवन की दिशा बदल गई और उसका हृदय ईश्वर की ओर
उन्मुख हो गया। कथा का सार यह है कि ईश्वर ही परम सत्ता है, जिसे अनुकूल और प्रतिकूल दोनों
ही स्थितियों में याद रखा जाना चाहिए। उसकी कृपा से सदैव कल्याण ही होता है।
सत्य के आग्रह से नहीं डिगे गांधीजी
महात्मा गांधी के बचपन की एक घटना है। वे जिस विद्यालय में पढ़ते थे, वहां एक जांच दल आने
वाला था। विद्यालय के प्रधानाचार्य सहित सभी शिक्षक हर उस बिंदु की बारीकी से जांच
व तत्संबंधी सुधार कर रहे थे, जिनके निरीक्षण की संभावना थी। सभी विद्यार्थियों को भी
सचेत रहने के लिए कहा गया था। उद्देश्य एक ही था कि जांच दल के सामने विद्यालय की
हर क्षेत्र में पूर्णता दिखाई दे। तय दिन व तय समय पर जांच दल विद्यालय पहुंचा और
अनेक बिंदुओं पर उसमें मौजूद लोगों ने जांच की।
इसी निरीक्षण के चलते जब गांधीजी की कक्षा में एक निरीक्षक आए, तो उस समय एक शिक्षक
अंग्रेजी विषय पढ़ा रहे थे। निरीक्षक ने छात्रों से प्रश्न पूछना शुरू किया। इस
क्रम में गांधीजी से उन्होंने ‘केटल’ शब्द के हिज्जे लिखने को कहा। गांधीजी को यह नहीं आता था।
उनके शिक्षक ने उन्हें संकेत से हिज्जे बताने की कोशिश की, किंतु गांधीजी को यह उचित नहीं
लगा। उन्हें जो आता था, वही लिख दिया, जो गलत था।
निरीक्षक के जाने के बाद शिक्षक ने उन्हें कड़ी डांट लगाई, जो उन्होंने मौन रहकर
सुनी, किंतु
मन ही मन उन्हें शिक्षक का असत्य आचरण उचित नहीं लगा। इस घटना के बाद उन्होंने मन
में ठान लिया कि वे आजीवन सत्य की राह पर ही चलेंगे और वे चले भी। कथा का सार यह
है कि सत्य के आग्रही को अनेक बार जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है,
किंतु इस नैतिकता
को बरकरार रखने पर व्यक्तिगत प्रतिष्ठा में वृद्धि होने के साथ-साथ सामाजिक
वातावरण भी शुद्ध होता है।
बर्नार्ड शॉ ने राजा को दिखाया आईना
इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय में औसत काव्य-प्रतिभा थी, किंतु वे स्वयं को बहुत
महान कवि समझते थे। अत्यंत साधारण कविताएं लिखकर वे अपने दरबारीजनों को सुनाते और
स्वयं ही अपनी प्रशंसा करते। दरबारीजन बेचारे उनकी हां में हां मिलाते हुए उनकी
कविताओं की खूब सराहना करते, क्योंकि राजा का गुस्सा वे मोल लेना नहीं चाहते थे। जब भी
चाल्र्स द्वितीय का राजकार्य समाप्त होता, वे कविताएं सुनाना शुरू कर देते और सारी अनिच्छा व
ऊब के बावजूद दरबारीजन उन्हें झेलते।
एक बार राजा ने जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, जो सुविख्यात साहित्यकार थे, को अपने दरबार में निमंत्रित
किया। जब शॉ आए, तो राजा ने उनका यथोचित सत्कार करने के पश्चात अपनी कुछ कविताएं उन्हें दिखाकर
उनसे राय मांगी। शॉ बहुत स्पष्टवादी थे, किंतु वे यह भी जानते थे कि राजा की कविताओं को बुरा
कहने से वे उनके कोपभाजन बन जाएंगे।
इसलिए शॉ बहुत देर तक उन कविताओं को पढ़ते रहे और फिर प्रशंसा के शब्दों में
सत्य को कुछ यूं राजा के सामने रखा - ‘मैं यही कहूंगा कि आपके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं
है। यदि आप एक बुरी-सी कविता लिखना चाहते हैं, तो उसमें भी सफल हो जाते हैं।’
शॉ की बात राजा की
समझ में भी आ गई और अप्रिय भी नहीं लगी। सार यह है कि अनेक प्रतिकूल अवसरों पर
स्वयं की रक्षार्थ सत्य को सीधे न कहते हुए आवरण में प्रस्तुत करना पड़ता है,
जिसे शास्त्र ‘आपद्धर्म’ कहते हैं और इसे
नीति-सम्मत ही मानते हैं।
जब देवताओं का घमंड चूर-चूर हुआ
उपनिषद का एक प्रसंग है। परमेश्वर ने देवों पर कृपा की और वे शक्तिशाली असुरों
पर विजयी हो गए। विजय पाने के बाद हर देवता अहंकार से भर गया। उनमें से प्रत्येक
इस विजय का श्रेय स्वयं को देता और दूसरों के योगदान को तुच्छ मानता। इससे देवताओं
के मध्य अनावश्यक विवाद होने लगे और उनमें परस्पर कटुता पनपने लगी। यह देखकर
परमेश्वर ने सोचा कि यदि यही सब होता रहा, तो असुर फिर देवताओं पर चढ़ाई कर देंगे और इनका आपसी
वैमनस्य इन्हें पराजित करवा देगा।
इस समस्या के हल के लिए ईश्वर ने एक विशालकाय यक्ष के रूप में स्वयं को प्रकट
किया और देवताओं के सामने पहुंचे। देवताओं ने आश्चर्य से उन्हें देखा और उनका
परिचय जानने के लिए सबसे पहले अग्नि देवता पहुंचे। यक्ष ने उनसे पूछा - ‘आप कौन हैं?’ अग्नि देवता ने साभिमान
उत्तर दिया - ‘आप मुझे नहीं जानते? मैं परम तेजस्वी अग्नि हूं। मैं चाहूं तो सारी धरती को
जलाकर राख कर दूं।’ यक्ष ने उन्हें एक सूखा तिनका देकर उसे जलाने को कहा, किंतु अग्नि देवता नहीं जला सके।
फिर पवन देवता यक्ष का परिचय जानने पहुंचे।
तब यक्ष ने उनसे परिचय पूछा, तो वे बोले - ‘मैं पवन हूं। मैं चाहूं, तो पूरे ब्रह्मांड को उड़ा दूं।’
यक्ष ने वही सूखा
तिनका इन्हें उड़ाने को कहा, किंतु पूरा जोर लगाने के बाद भी पवन देवता उसे न उड़ा सके।
फिर इंद्र गए, किंतु तब तक यक्ष जा चुके थे। अब वहां पार्वतीजी प्रकट हुईं और इंद्र को यक्ष
रूपी परमेश्वर का परिचय दिया। अब देवताओं को परमेश्वर की शक्ति का ज्ञान हुआ और
उनका अहंकार नष्ट हो गया। सार यह है कि अहंकार और अहंकारी का पतन सुनिश्चित होता
है। अपनी शक्ति को सद्कार्यो में लगाने से वह सार्थक होती है।
बिड़लाजी ने कर्ज लेकर वादा निभाया
व्यापारिक जगत की नामचीन हस्तियों में घनश्यामदास बिड़ला का नाम बड़े सम्मान
के साथ लिया जाता है। बॉम्बे में उनके परिवार की सोने-चांदी की दुकान थी। जब
बिड़लाजी ने मैट्रिक पास कर लिया, तो उनके अभिभावकों ने सोचा कि वे अब अपना खानदानी व्यवसाय
ही संभालेंगे, किंतु बिड़लाजी की रुचि कुछ अलग तरह के काम में थी।
उन्होंने देखा कि कलकत्ता से जूट बॉम्बे भेजा जाता है, जिसे व्यापारी यहां के बाजार में
बेचते हैं। उन्होंने कलकत्ता के एक व्यापारी से संपर्क किया और उसे कुछ रुपए भेजे।
व्यापारी ने कुछ रुपयों की एवज में पूरा सामान बिड़लाजी को भेज दिया। बिड़लाजी ने
उसे जूट बेचकर एक सप्ताह में पूरा पैसा चुकाने का वादा किया था। एक सप्ताह बीत गया,
किंतु व्यापारी के
पास पैसा नहीं आया। वह घबरा गया। उसे बिड़लाजी की ओर से कुछ धोखाधड़ी की आशंका हुई।
वास्तविकता यह थी कि जूट के दाम थोड़े दिनों में बढ़ने वाले थे, इसलिए उन्होंने माल नहीं
बेचा। थोड़े दिन रुककर अधिक लाभ पाने की आशा थी। तब तक उस व्यापारी ने पैसा भेजने
का संदेश दे दिया। चूंकि बिड़लाजी ने माल बेचा नहीं था, इसलिए पैसा उनके पास नहीं था,
किंतु व्यापारी का
विश्वास बनाए रखने के लिए दूसरे से कर्ज लेकर उन्होंने पैसा भेज दिया। जब व्यापारी
को यह सब ज्ञात हुआ, तो वह बिड़लाजी के प्रति सम्मान से भर गया और फिर आजीवन बिड़लाजी का आग्रह
पाते ही सामान भेजता रहा। एक उक्ति प्रचलित है - ‘विश्वासं फलदायकम्।’ अर्थात विश्वास फलता है।
एक बार विश्वास अर्जित कर लेने पर वह सदैव अच्छे परिणाम देता है।
जापानी छात्रों की अनुकरणीय देशभक्ति
एक बार की बात है स्वामी रामतीर्थ
अमेरिका जा रहे थे। वे जिस जहाज पर सवार थे, उसी में लगभग डेढ़ सौ जापानी छात्र भी अमेरिका जाने के लिए सवार थे।
स्वामीजी का उनसे परिचय हुआ और वे छात्र स्वामीजी के ज्ञान से बहुत प्रभावित हुए।
उन छात्रों में से कई अत्यंत धनी परिवारों से ताल्लुक रखते थे। स्वामीजी ने
बातों-बातों में उनसे पूछा - ‘आप लोग अमेरिका
पढ़ने के लिए जा रहे हैं?’ सभी ने स्वामीजी
को बताया कि वे विशेष अध्ययन के लिए अमेरिका जा रहे हैं।
तब स्वामीजी ने उन लोगों से सहज ही
प्रश्न किया - ‘अच्छा यह बताइए आप काफी दिनों तक
अमेरिका में रहेंगे, तो उसके लिए धन की व्यवस्था आप सभी
के पास है?’ स्वामीजी के प्रश्न का उन छात्रों ने
उत्तर दिया - ‘स्वामीजी! हम तो जहाज का किराया भी
घर से लेकर नहीं चले हैं। जहाज में कुछ काम करके उसका किराया दे देंगे और अमेरिका
में भी अपनी पढ़ाई का खर्च कोई नौकरी करके उठाएंगे। अपने राष्ट्र का धन व्यर्थ
विदेशों में क्यों खर्च करें?’
स्वामी रामतीर्थ ने देखा कि वे सभी
छात्र जहाज में सफाई आदि छोटे-मोटे काम करके जहाज का किराया जुटा रहे थे। उनका
देशप्रेम देखकर स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए और मन में सोचा कि काश विदेशों में पढ़ने
वाले भारतीय छात्र भी ऐसी सोच रखें, तो भारत को
संपन्न राष्ट्र बनते देर नहीं लगेगी। कथा का सार यह है कि देश के संसाधनों का
विवेकसम्मत उपयोग ऐसी राष्ट्रसेवा है, जिससे
राष्ट्र शीघ्रगामी प्रगति की ओर उन्मुख होता है।
सदाशयता से जननेता बने चर्चिल
इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल न केवल एक बेहतर राजनेता थे,
बल्कि एक
मानवतावादी देशभक्त भी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनका यह स्वरूप उस समय और
उभरकर सामने आया, जब जर्मनी इंग्लैंड पर बमवर्षा कर रहा था।
युद्ध अपने चरम पर था और सभी ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। रात का समय थोड़ा
शांति का होता था, क्योंकि तब बमबारी रुक जाती थी। ऐसे समय चर्चिल अपनी खुली जीप लेकर निकल पड़ते
और घायलों से मिलकर उनका उत्साह बढ़ाते। उनके दुख-दर्द सुनते और उन्हें सांत्वना
देते।
चर्चिल चूंकि प्रधानमंत्री थे, इसलिए उनके लिए इस तरह खुली जीप में घूमना बेहद खतरनाक था।
ऐसा करने पर उनके फौजी अफसर उन्हें बहुत रोकते, किंतु चर्चिल किसी की नहीं
सुनते। चर्चिल एक बार फ्रांस पहुंचे, क्योंकि वहां जान-माल की बहुत क्षति हुई थी।
उन्होंने वहां एक महिला को बहुत जोर-जोर से रोते हुए देखा, क्योंकि उसका पूरा परिवार युद्ध
में मारा जा चुका था।
जब चर्चिल उसके पास पहुंचे और उसे यह बताया गया कि चर्चिल आए हैं, तो वह शांत हो गई और
बोली - ‘अब
मुझे घबराने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि चर्चिल यहां मौजूद हैं।’ चर्चिल की मौजूदगी उस महिला के
लिए सबसे बड़ी सांत्वना सिद्ध हुई। सार यह है कि अपनी दृष्टि में जनहित को सदा
सर्वोपरि रखने वाला ही देश का सच्च नेता होता है और जनता उसके संरक्षण में स्वयं
को सुरक्षित महसूस करती है। चूंकि चर्चिल सदा जनता का ध्यान रखते थे और उनके दुख
और दर्द को अपना समझते थे, तो जनता भी उनका सम्मान करती थी।
संकल्प से नहीं डिगीं एनी बेसेंट
एनी बेसेंट वर्ष 1893 में मद्रास पहुंचीं और थियोसॉफी के प्रचार में जुट गईं।
यहीं उन्हें उपनिषदों के अध्ययन का अवसर मिला और तब उन्होंने यह जाना कि थियोसॉफी
तो उपनिषदों का ही अनुसरण है। फिर तो वे भारत-भूमि के प्रति श्रद्धाभाव से भर गईं
और उन्होंने कांग्रेस के कार्यो में स्वयं को समर्पित कर दिया। अंग्रेजों के
विरुद्ध कांग्रेस के संघर्ष में एनी बेसेंट भी शामिल हो गईं। मन में बस एक ही
इच्छा थी कि भारत का विगत गौरव पुन: उसे दिलाया जाए और फिर वह अपने ज्ञान से विश्व
को आलोकित करे।
एनी बेसेंट ने ‘न्यू इंडिया’ नामक पत्र निकालना शुरू किया, जो अंग्रेजों के विरुद्ध आग उगलने लगा। तब मद्रास के गवर्नर
ने उन्हें बुलाया और चेतावनी देते हुए कहा - ‘श्रीमती बेसेंट! हम लोग आपको
अंग्रेज जानकर छोड़ नहीं सकते। यदि आपने यह सब बंद नहीं किया, तो आपकी हर गतिविधि पर
अंकुश लगा दिया जाएगा।’ यह सुनकर एनी बेसेंट ने प्रभावी शब्दों में कहा - ‘आप समर्थ हैं और मैं
लाचार। आप जो उचित समझें करें, किंतु इतना अवश्य कहूंगी कि ऐसा करके आप अपनी ही सरकार पर
प्रहार करेंगे।’ आखिर उन्हें नजरबंद कर दिया गया।
तत्कालीन भारत के सचिव मौंटेग्यू की एनी बेसेंट के बारे में प्रतिक्रिया थी - ‘केवल इस वृद्ध महिला को
यदि हम अपने साथ मिलाने में सफल हो जाते, तो हमारा काम आसान हो जाता।’ सार रूप में कहा जा सकता है कि
सत्कार्य दृढ़ संकल्प से ही साकार होते हैं, फिर चाहे मार्ग में कितने ही
संकट आएं।
मौसमी प्रकोप और एकाग्र बुद्ध
एक बार भगवान बुद्ध एक गांव के समीप एक शाला में निवास कर रहे थे। दिन का समय
था। घटाएं आकाश में घिर रही थीं। थोड़ी ही देर में मूसलधार बारिश होने लगी। आसपास
के लोगों में अपने बाहर रखे सामानों को हटाने की हड़बड़ी मच गई।
इसी आपाधापी में कुछ लोग गिर भी गए और उन्हें चोट आई। तभी जोर से बिजली कड़की
और वहीं काम कर रहे दो किसानों और चार बैलों को अपनी चपेट में ले लिया। इन सभी की
तत्काल मृत्यु हो गई। इस हादसे के कारण वहां भारी भीड़ एकत्रित हो गई। उस समय
भगवान बुद्ध वहीं शाला के बरामदे में टहल रहे थे। लोगों ने उन्हें घटना के विषय
में बताया, तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर की।
ग्रामीणों से उनका वार्तालाप कुछ ऐसे चला- ‘भंते! आप उस समय कहां थे?’
बुद्ध बोले - ‘आयुष्मान! यहीं था।’
‘आपने बादलों को
घुमड़ते और बिजली को चमकते देखा?’ ‘नहीं देखा।’ ‘आपने बिजली का किसी पर गिरना नहीं देखा?’ ‘नहीं देखा।’ ‘भंते! आप सो गए थे?’
‘नहीं, मैं जाग रहा था।’
‘भंते! आप होश में
थे?’ ‘हां,
आयुष्मान! मैं होश
में था।’ ‘तो भंते! आपने होश में, जागते हुए, न गरजते बादलों को सुना, न बिजली की कड़क सुनी और न उसके
गिरने को देखा?’ ‘हां,
आयुष्मान!’ गौतम बुद्ध की ऐसी एकाग्रता देख उपस्थित लोग उनके प्रति श्रद्धावनत हो गए। सार
यह है कि लक्ष्य के प्रति एकाग्रता उसकी शीघ्र उपलब्धि का अच्छा साधन है। आज की
युवा पीढ़ी एकाग्रता के जरिए अपने बड़े सपनों को जल्दी पूरा कर सकती है।
जाग गया गुरु का अहंकार
एक ज्ञानी पुरुष थे। वह गांव में ही अपनी छोटी-सी एक कुटिया में रहा करते थे।
उनके अनेक शिष्य थे, जो उनसे ज्ञान लाभ प्राप्त करते थे। धीरे-धीरे उनकी ख्याति गांव के बाहर भी
फैलने लगी। अब दूर-दूर के स्थानों से भी लोग उनसे ज्ञान ग्रहण करने आने लगे।
एक दिन एक युवक दूरदराज के गांव से उनकी लोकप्रियता सुनकर उनके पास आया और कुछ
ही समय में उनकी ज्ञानपूर्ण बातों से प्रभावित होकर उनका शिष्य बन गया। वह
प्रतिदिन उनके चरणों में बैठकर बड़ी ही श्रद्धा से उनके उपदेश सुनता और साथ-साथ
अपने भाग्य को सराहते हुए ईश्वर को धन्यवाद देता।
गुरु के उपदेशों तथा गहन अध्ययन ने उसे परम ज्ञानी बना दिया। किंतु कुछ वर्षों
बाद उसने महसूस किया कि उसका गुरु शास्त्रों के शब्दार्थ भर का जानकार है, गूढ़ार्थ तक उसकी पहुंच
नहीं है। यह देख उसे गुरु-ऋण का दायित्वबोध हुआ और उसने सोचा कि जिस गुरु से उसने
शास्त्रों की इतनी बातें सीखीं, उनके मर्म से वह उन्हें भी परिचित कराए।
यह विचार कर वह अपने गुरु के पास बड़ी ही विनम्रता से अपना ज्ञान लेकर पहुंचा
तो गुरु का अहंकार जाग गया। उन्होंने यह कहकर कि 'जिसने मेरे चरणों में बैठकर
ज्ञान ग्रहण किया, वह मुझसे बड़ा पंडित नहीं हो सकता' अहंकारी गुरु ने ज्ञानी शिष्य का शिष्यत्व स्वीकार
नहीं किया। कथा का सार यह है कि ज्ञान की पूर्णता सुपात्र से विनम्रतापूर्वक ज्ञान
लेने में निहित है। छोटे-बड़े का विचार ज्ञान को अधूरा रखता है और अधूरा ज्ञान
सदैव कष्टकारी होता है।
आइंस्टीन की मानवीयता
कहा जाता है कि 1945 में न्यू मेक्सिको में
हुए परमाणु बम के विस्फोट से पहाड़ ढहने लगे, नदियां सूख गईं और पेड़-पौधे
मुरझा गए।
आइंस्टीन ने जब परमाणु शक्ति का यह विनाशकारी नजारा देखा, तो कहा - ‘हमारी आधुनिक पीढ़ी ने
सारी दुनिया के लिए शक्ति का अजस्र द्वार खोल दिया है। शायद मानव-सभ्यता के इतिहास
में यह सबसे क्रांतिकारी उपलब्धि है।’ मगर साथ ही उन्होंने अमेरिका के सेनाध्यक्ष को,
जिसने हिरोशिमा
में बम विस्फोट की योजना उनके सामने रखी थी, सख्त लहजे में समझाया। आखिर
अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम का प्रयोग कर ही दिया।
जब अमेरिकी इस जीत पर जश्न मना रहे थे, तब आइंस्टीन का मन घोर पीड़ा से
भरा हुआ था। उन्हें लगा कि उनकी खोज यदि मंगलकारी होती, तो कितना अच्छा होता। अपनी खोज
उन्हें बेमानी लगने लगी। अपनी ग्लानि को कम करने के लिए आइंस्टीन ने इस खोज के
रचनात्मक उपयोगों पर लेख लिखना शुरू किए।
यही नहीं परमाणु-अस्त्रों पर रोक लगाने के लिए वे विश्वभर के नेताओं से मिले।
यूएनओ की स्थापना के लिए प्रयास किया। अपनी मृत्यु के दो दिन पूर्व रसेल के शांति
प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करते हुए उन्होंने लिखा - ‘केवल मानवता को याद करो और बाकी
सब व्यर्थ है, भूल जाओ। यदि तुम लोग ऐसा करोगे, तो धरती पर नया स्वर्ग उतर आएगा। अन्यथा विश्व का
नाश निश्चित है।’
एक विवेकशील रचनाकार को अपने सृजन का रचनात्मक उपयोग ही सुकून देता है और
विनाशकारी उपयोग दुखी करता है। सार यह है कि जब भी कोई आविष्कार या खोज हो,
उसका उपयोग मानवता
के हित में ही किया जाना चाहिए।
ऋषि ने बताया प्रकृति का महत्व
एक बार राजा यदु ने ऋषि दत्तात्रेय से
पूछा - 'महात्मन!
संसार में अधिकांश लोग काम-क्रोध के वशीभूत होकर दुखी रहते हैं।
मैं जानना चाहता हूं कि आपने आत्मा में ही परमानंद का अनुभव कैसे प्राप्त किया
और कौन से गुरु ने आपको ब्रह्म विद्या का ज्ञान दिया? 'दत्तात्रेय बोले - 'राजन! मैंने अपने
अंत:करण से अनेक गुरुओं द्वारा मूक उपदेश प्राप्त किए हैं। 'यदु ने उन गुरुओं के विषय में
जानना चाहा, तो दत्तात्रेय ने कहा - 'ये गुरु हैं - पृथ्वी, प्राणवायु, आकाश, जल, अग्नि, समुद्र, चंद्रमा, सूर्य, मधुमक्खी आदि।
'यह सुनकर यदु बोले - 'ये सब या तो जड़ हैं अथवा निर्बुद्धि। इनसे आपको क्या उपदेश
मिला? 'तब
दत्तात्रेय ने कहा - 'यदि हम अपने अंत:करण को निर्मल बना लें, तो इस विशाल प्रकृति से काफी कुछ
सीख सकते हैं। मैंने पृथ्वी से धैर्य और क्षमा की शिक्षा ली।
प्राणवायु यह सिखाती है कि जैसे अनेक स्थानों पर जाने पर भी वह कहीं आसक्त
नहीं होती, वैसे ही हम भी आसक्ति, गुण-दोष से परे रहें। आकाश हर परिस्थिति में अखंड रहता है,
वैसे ही हम भी
अखंड रहें। जल स्वच्छता, पवित्रता और मधुरता का उपदेश देता है, तो अग्नि इंद्रियों से
अपराजित रहते हुए तेजस्वी बनने की सीख देती है।
समुद्र वर्षा ऋतु में न तो बढ़ता है और न ही ग्रीष्म में नदियों के सूखने पर
सूखता है। इससे प्रेरणा मिलती है कि सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति पर न खुश होएं
और न उनके नष्ट होने पर दुख मनाएं। मधुमक्खी के परिश्रमपूर्वक संचित रस को कोई और
ही भोगता है। अत: इससे हम यह जानें कि अनावश्यक संग्रह नहीं करना चाहिए। इसी
प्रकार सूर्य और चंद्र अपनी उष्णता व शीतलता से इस सृष्टि के संचालन में महती
भूमिका निभाकर हमें भी समाज के लिए कुछ बेहतर करने की शिक्षा देते हैं।
किसान के धैर्य ने महिला को सुधारा
किसी गांव में एक किसान रहता था। खेती करने के अलावा उसने कुछ गायें भी पाल
रखी थीं, जिनके
दूध का वह विक्रय करता था। चूंकि किसान बहुत ईमानदार था, इसलिए वह दूध में मिलावट नहीं
करता था।
उसका दूध इस कारण श्रेष्ठतम कोटि का होता था। गांव के अधिकांश लोग उसकी
ईमानदारी के कारण उसके ग्राहक थे। इन्हीं ग्राहकों में एक महिला भी थी, जो क्रोधी प्रकृति की
थी। किसान उसके स्वभाव से परिचित था, इसलिए किसी भी तरह सबसे पहले उसके घर दूध देता था।
एक दिन उस महिला के घर कोई पूजा-अनुष्ठान रखा गया। बहुत सारे मेहमान आने वाले थे,
लेकिन उसी दिन
किसान दूध देने नहीं आया।
उस महिला को किसान के इस व्यवहार पर बहुत क्रोध आया। जैसे-तैसे कहीं और से
व्यवस्था कर उसने अपना आयोजन निबटाया। अगले दिन जब किसान दूध लेकर आया, तो उसने उसे बहुत
बुरा-भला कहा। जब काफी देर बाद वह चुप हुई, तो किसान ने धीरे से कहा - 'आपको हुई असुविधा के लिए
मैं क्षमा चाहता हूं, किंतु कल मेरी माताजी का देहांत हो गया था और मुझे उनका दाह संस्कार करना था,
इसलिए नहीं आ
पाया।
'यह सुनते ही महिला शर्म व ग्लानि से पानी-पानी हो गई और भविष्य में बिना
सोचे-समझे ऐसा दुव्र्यवहार न करने की शपथ ली। सार यह है कि आवेश और शीघ्रता में
दूसरों की परिस्थिति जाने बगैर उन्हें दोषी मानकर अनुचित व्यवहार करना ठीक नहीं है,
क्योंकि वैसी ही
परिस्थिति स्वयं के साथ भी निर्मित हो सकती है। अत: किसी से हुई असुविधा के लिए
पहले कारण खोजें, फिर निष्कर्ष पर पहुंचकर प्रतिक्रिया दें।
ऐसे बनाया आदमी ने बंदर को गुलाम
एक आदमी को किसी काम के सिलसिले में अपने गांव से
शहर जाना था। चूंकि वह बेरोजगार था और गांव में उसे कोई काम उपलब्ध नहीं था,
इसलिए उसने शहर
जाकर काम ढूंढ़ने का निश्चय किया। गांव से शहर की यात्रा करने के लिए कोई साधन
करने लायक पैसे उसके पास नहीं थे, इसलिए वह पैदल ही निकल पड़ा। मार्ग में घना जंगल था। उसे
जंगली जानवरों का भय लगा, किंतु कोई चारा न देख वह जंगल में प्रवेश कर गया।
कुछ आगे जाने पर अचानक एक पेड़ से एक बड़ा बंदर उसके
सामने कूदा। आदमी भय के मारे जहां का तहां खड़ा रह गया। किंतु बंदर ने उसे कोई
नुकसान नहीं पहुंचाया, बल्कि उसने आदमी से उसके विषय में पूछा। इस पर आदमी पूरी
राम कहानी बंदर को सुना गया। तब बंदर ने उसकी हर प्रकार से मदद करने का आश्वासन
दिया, किंतु
यह शर्त रखी कि तुम मुझे एक क्षण के लिए भी बिना काम के मत रखना अन्यथा मैं
तुम्हें मार डालूंगा। आदमी ने उसकी शर्त मान ली। बंदर उस दिन से आदमी के सभी काम
करने लगा।
जब कोई काम नहीं होता, तो आदमी उसे सीढ़ी लाने को कहता
और उस पर ऊपर-नीचे चढ़ने का आदेश देता। इस प्रकार बंदर आदमी का गुलाम हो गया।
उपयरुक्त कथा में बंदर मानव-मस्तिष्क का प्रतीक है। यदि हम अपने मस्तिष्क को सदैव
विभिन्न कार्यो में लगाए रखेंगे, तो वह सदैव रचनात्मक ऊर्जा से भरा रहकर सकारात्मक परिणाम
देगा, किंतु
उसे निष्क्रिय रखते हुए कोई काम नहीं करेंगे, तो वह ध्वंसात्मक प्रकृति का हो
जाएगा। इसीलिए कहा गया है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है।
अकबर को मिला वीरता का सबूत
बादशाह अकबर का दरबार लगा था। तभी
द्वारपाल ने आकर बताया कि दो राजपूत नवयुवक बादशाह से कुछ निवेदन करना चाहते हैं।
अकबर की आज्ञा पाकर वे दोनों दरबार में उपस्थित हुए।
दोनों का व्यक्तित्व अत्यंत भव्य था - लंबा कद, गठीला बदन, हाथों में ढाल और तलवार।
अकबर ने उन्हें जब बोलने की अनुमति दी, तो उन्होंने कहा - 'बादशाह सलामत! हम राजपूत हैं।
हमारा यही निवेदन है कि हमें सेना में रख लिया जाए और असंभव वीरता के काम सौंपे
जाएं।
'अकबर ने पूछा - 'हमें कैसे विश्वास हो कि तुम वास्तव में वीर हो? कोई सबूत दो। 'दोनों ने कहा - 'हमें तो मालूम नहीं कि
सबूत क्या होता है? बस, हम
तो काम करना जानते हैं। 'यह सुनते ही बादशाह आगबबूला होकर बोले - 'तो फिर तुम वीर नहीं हो।
ऐसे तो हर आदमी अपनी वीरता का ढोंग रच सकता है। यह दरबार डींग हांकने वालों के लिए
नहीं है। 'बादशाह के ऐसे विचार जानकर उन नवयुवकों ने मां भवानी का नाम स्मरण कर
अपनी-अपनी तलवारें निकाल लीं और तलवारबाजी के अद्भुत करतब दिखाए।
दोनों की तलवारें आग बरसा रही थीं। तभी 'जय भवानी' कहते हुए एक युवक ने दूसरे
नवयुवक की गर्दन पर घातक वार किया और दूसरे ने गिरते-गिरते ऐसा ही वार पहले पर
किया। बादशाह अपनी गद्दी छोड़कर दौड़े। दोनों ने प्राण त्यागते हुए कहा - 'हम जिंदगी और मौत में
कोई फासला नहीं मानते। आपने सबूत मांगा। वीरों के पास वीरता का सबूत कैसा? हम तो हर समय मौत को
तलवार की नोंक पर टांगे चलते हैं। 'अकबर ने दोनों वीरों की पार्थिव देह को क्षमा सहित सलाम
किया। सार यह है कि वीरता कर्मों से बाद में, वाणी, विचार व आचरण से पहले पहचानी
जाती है।
मूर्ख राजा को बुद्धिमान ऋषि की मार
प्राचीनकाल की बात है। एक राज्य में
मूर्ख राजा का शासन था। उसके मंत्री, सेनापति और सभी सभासद मूर्ख व चापलूस थे।
उस राजा के राज्य में बुद्धिमान व ज्ञानीजनों का निरादर किया जाता था। जैसे ही
किसी व्यक्ति का ज्ञानी होना सिद्ध होता, राजा के सभासद उसे अपमानित करने का कोई अवसर नहीं
छोड़ते थे। इस कारण उस राज्य में अन्य राज्यों के पंडित व ज्ञानी जाते ही नहीं थे
और वहां किसी प्रकार की बौद्धिक चर्चाएं नहीं होती थीं।
एक बार राजा को पता चला कि एक ऋषि उसके राज्य से होकर अन्यत्र तीर्थाटन पर जा
रहे हैं। मंत्री ने सलाह दी कि ऋषि को राजधानी में आमंत्रित करना चाहिए। यदि ऋषि
विद्वान हुए, तो उनका अपमान कर आनंदित होंगे। मूर्ख होने पर उनका सम्मान करेंगे, ताकि प्रजा को यह
विश्वास हो जाए कि राजा अन्य मूर्खों का सम्मान करना भी जानता है।
राजा ने आज्ञा प्रदान कर दी। मंत्री और राजा नगर के द्वार पर खड़े हो गए। ऋषि
जब आए, तो
नगर द्वार के बाहर कुछ जीर्ण-शीर्ण झोपडिय़ां देखकर ठहर गए और पूछा कि ये किनकी हैं?
राजा ने उत्तर
दिया - 'ये
बुद्धिमानों के लिए बनाई गई हैं। जो यह समझते हैं कि बिना बुद्धि के शासन नहीं किया
जा सकता, उन्हें
मैंने उनके पदों से हटाकर नगर के बाहर निकाल दिया है।
'यह सुनते ही ऋषि यह कहते हुए वहां से चले गए - 'राजन! तुम्हारी राजधानी में
प्रवेश करके मैं अपवित्र नहीं होना चाहता। जिस राज्य में विद्वानों का आदर नहीं
होता, उसका
पतन सुनिश्चित है। 'बुद्धि बल सभी प्रकार के बलों
में श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि बुद्धि ही जटिल समस्याओं का समाधान करती है,
इसलिए बुद्धिमानों
का आदर समाज को विकसित बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
बेटे ने जब मां को क्षमा नहीं किया
आज से कई हजार साल पहले बकुमार नामक
एक दुर्दांत दस्यु था। सिंधुराज के राज्य में उसने लोगों का जीना मुश्किल कर दिया
था।
धनी व्यक्तियों को तो वह लूटता ही था, किंतु निर्धनों को भी नहीं छोड़ता था। बेचारे गरीब
किसानों और मजदूरों की जीवनभर की जमापूंजी हड़पने में उसे तनिक भी संकोच नहीं होता
था। वे लोग हाथ जोड़-जोड़कर गुहार लगाते, किंतु उसका दिल नहीं पसीजता था।
हजारों निर्दोष लोगों की उसने हत्या की, क्योंकि जो उसका विरोध करता,
वह उसे कभी क्षमा
नहीं करता था। सिंधुराज के समक्ष प्रजा ने बकुमार की शिकायत की, तो उन्होंने अपनी पूरी
सेना को उसके पीछे लगा दिया। कई महीनों तक बकुमार सेना को छकाता रहा, किंतु अंत में पकड़ा
गया। राजा ने उसे फांसी की सजा सुनाई।
यह सजा सुनकर बकुमार से मिलने उसकी माता सहित अनेक रिश्तेदार आए। वह माता को
छोड़कर सभी से मिला। कारण पूछे जाने पर वह बोला - 'बचपन में मैंने स्वर्ण मुद्रा की
सबसे पहली चोरी की थी। जब वह स्वर्ण मुद्रा मैंने मां को लाकर दी, तो उसने मेरी प्रशंसा की
और पीठ थपथपाई। यदि उस दिन मां मुझे डांटती, तो आज मुझे यह दिन नहीं देखना
पड़ता।'
कथा का सार यह है कि नींव की दृढ़ता या दुर्बलता पर ही भवन की मजबूती अथवा
कमजोरी टिकी होती है। इसी प्रकार बच्चों में बाल्यावस्था से डाले गए सुसंस्कार ही
उनके सद्चरित्र की नींव होते हैं, जो उन्हें जीवन में एक अच्छा इंसान बनाते हैं। दूसरी ओर
कुसंस्कार उन्हें पतन के रास्ते पर ले जाते हैं।
मंत्री ने सनकी राजा की आंखें खोलीं
रामगढ़ का राजा सनकी स्वभाव का था। एक शाम राजा को सनक
सवार हुई और वह अपने मंत्री से बोला- 'मंत्रीजी!
हम जानना चाहते हैं कि हमारे राज्य में ईमानदार लोग हैं भी या नहीं? आइए, चलकर देखते हैं।
'पूरे दिन घूमने के बाद नगर के बाहर
एक झोपड़ी दिखाई दी। राजा ने अपने पास रखी सौ स्वर्ण मुद्राओं की एक थैली उस
झोपड़ी के अंदर फेंक दी और मंत्री के साथ महल की ओर लौट चला। रास्ते में उसने अपनी
योजना मंत्री को बताई - 'यदि उस झोपड़ी
में रहने वाला ईमानदार होगा, तो वह हमें
स्वर्ण मुद्राएं देने आएगा। तब हम उसे इनाम देंगे, अन्यथा उसे बंदी बना लेंगे। '
वह झोपड़ी श्याम नामक एक निर्धन
व्यक्ति की थी। उसने राजा और मंत्री को देख लिया। वह जानता था कि राजा सनकी है,
इसलिए अगले दिन दरबार में जाकर उसने राजा को वे स्वर्ण
मुद्राएं वापस कर दीं और कहा - 'न जाने कौन मेरे
घर में इन्हें रख गया था? इन पर मेरा
अधिकार नहीं है।
'राजा ने प्रसन्न होकर उसे दो सौ
स्वर्ण मुद्राएं इनाम में दीं। फिर तो यह क्रम शुरू हो गया। हर पांचवें दिन कोई
स्वर्ण मुद्राएं लेकर आता और राजा उसकी ईमानदारी से खुश होकर दोगुनी स्वर्ण
मुद्राएं उसे उपहार में देता। मंत्री के मना करने के बावजूद राजा यही करता रहा।
आखिर मंत्री एक दिन राजा को श्याम के घर ले गया, जहां श्याम सहित उपहार पाने वाला हर एक व्यक्ति मौजूद था और श्याम की
झोपड़ी आलीशान हवेली में तब्दील हो चुकी थी।
वे सभी वहां जश्न मना रहे थे। तब
राजा की आंखें खुलीं। उसने श्याम को सारी मुद्राएं राजकोष में जमा करने का आदेश
देते हुए अपने सनकी स्वभाव से तौबा कर ली। सार यह है कि जिम्मेदार पदों पर आसीन
व्यक्तियों को सभी पक्षों पर गंभीरता से विचार कर निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए।
स्वप्न में जाना जीवन जीने का अर्थ
एक आदमी अपनी पत्नी व पुत्र के साथ सुखी जीवन बिता रहा था। अचानक एक दिन उसकी
पत्नी अस्वस्थ हो गई और बहुत इलाज कराने के बाद भी स्वस्थ नहीं हुई। चिकित्सक पर
चिकित्सक बदले, पैसा पानी की तरह बहाया, किंतु सब कुछ व्यर्थ रहा और एक दिन उसकी पत्नी की मृत्यु हो
गई। आदमी भीतर से टूट गया।
अब एकमात्र पुत्र का ही उसे सहारा था। लेकिन दुर्भाग्यवश थोड़े दिनों बाद
पुत्र को भी किसी रोग ने आ घेरा और उसे भी लाख उपचार के बाद बचाया नहीं जा सका। अब
तो उस आदमी पर वज्रपात ही हो गया। वह दिन-रात रोता रहता। संसार से सर्वथा विरक्त
होकर वह एकांतवासी बन गया। न किसी से कुछ बात करता और न मिलता-जुलता।
एक दिन अपने पुत्र का स्मरण कर वह देर रात तक रोता रहा, फिर उसकी आंख लग गई। स्वप्न में
वह देवलोक जा पहुंचा। वहां उसने देखा कि छोटे बच्चों का एक जुलूस निकल रहा है। उन
सभी के हाथों में जलती हुई मोमबत्तियां हैं। उस जुलूस में उसका पुत्र भी चल रहा था,
किंतु उसके हाथ की
मोमबत्ती बुझी हुई थी।
आदमी पहले तो पुत्र से लिपटकर खूब रोया, फिर मोमबत्ती बुझने का कारण पूछा,
तो पुत्र बोला - 'पिताजी! आप मुझे याद
करके बार-बार रोते हैं, इसलिए आपके आंसुओं से मेरी मोमबत्ती बुझ जाती है। 'यह सुनते ही आदमी की
नींद खुल गई और उस दिन से उसने बच्चे के लिए रोना बंद कर उसकी स्मृति में अनाथ
बच्चों की मदद करना शुरू कर दिया। सार यह है कि रिश्तों से मोहासक्ति स्वाभाविक है,
किंतु मृत्यु के
रूप में उनकी समाप्ति पर शोक में डूबने के स्थान पर उनकी स्मृति में रचनात्मक कर्म
करने चाहिए, ताकि कुछ बेहतर करने के उल्लास से वे अधिक याद आएं।
घर का भेदी सेनापति पकड़ा गया
कुशलगढ़ के राजा वीरभद्र को एक दिन
सेनापति ने सूचना दी- 'महाराज! कल रात राजमहल में हमारे एक सैनिक की हत्या हो गई
है और उसके शव के पास से यह पत्र मिला है।
'राजा ने वह पत्र पढ़ा, जिसमें राजा को धमकी दी गई थी कि यदि वे शीघ्र ही कुशलगढ़
का सिंहासन खाली नहीं करेंगे, तो रोज एक सैनिक मारा जाएगा। राजा ने हत्यारे को खोजने का
आदेश दिया। इसी बीच वीरभद्र के सुपुत्र बलभद्र का शिक्षा पूर्ण कर राज्य में आगमन
हुआ।
राजकुमार बलभद्र ने महल की सुरक्षा-व्यवस्था का भार स्वयं पर ले लिया। उसने
सैनिकों को आज्ञा दी कि वे 4-4 सैनिकों का समूह बनाकर पहरा दें। परिणामस्वरूप उस रात किसी
भी सैनिक की हत्या नहीं हुई। इसी योजना के अनुसार चले और चार दिन कहीं कोई हत्या
नहीं हुई। तब राजकुमार ने सेनापति से कहा - 'लगता है कि हत्यारा डर गया है।
अब यह व्यवस्था भंग कर दीजिए। 'सेनापति ने विरोध किया, किंतु राजकुमार ने अपनी बात को
सिद्ध करने के लिए राजमहल के पिछले बुर्ज पर एक ही सैनिक को तैनात करने को कहा। जब
ऐसा किया गया, तो हत्यारा उसे मारने पहुंच गया, किंतु जैसे ही उसने सैनिक पर वार किया, छिपकर बैठे राजकुमार ने
उसे पकड़ लिया।
वह हत्यारा सेनापति निकला, जिसने कबूल किया कि पड़ोसी राजा ने उसे कुशलगढ़ को जीतकर
आधे राज्य का राजा बनाने का लालच दिया था। राजा वीरभद्र ने अपने इतने विश्वस्त
सेनापति के इस छल को देखकर उसे बंदी बनाने का आदेश दिया। वस्तुत: कोई भी समस्या
सामने आने पर बाहर वालों के साथ घर वालों की भूमिका की पड़ताल भी करनी चाहिए,
क्योंकि कभी-कभी
लोभ या विवशतावश अति विश्वासपात्र भी धोखा कर बैठते हैं।
श्रीराम ने राज्य से बड़ा सत्य को माना
भगवान श्रीराम सदैव सदाचरण के पक्षधर
रहे। उन्होंने अपने जीवन से नैतिकता के पालन का संदेश दिया। सत्यपालन उनके ऐसे ही
आचरण का अभिन्न अंग था। असत्य-भाषण से श्रीराम को सदा विरोध रहा और उन्होंने सत्य
की प्रतिष्ठा पर बल दिया।
वस्तुत: वे मन-वचन-कर्म की एकरूपता में अटूट निष्ठा रखते थे। पिता दशरथ की
आज्ञानुसार उन्होंने वनवास ग्रहण किया और एक बार भी उसका विरोध नहीं किया। जब वे
चित्रकूट में थे, तो एक दिन जाबालि उनसे मिलने आए। जाबालि ने उनसे अयोध्या चलकर राज्य संभालने
का आग्रह किया, क्योंकि दशरथ का अवसान हो गया था।
किंतु राम ने पिता को दिए वचन से मुकरने के लिए इनकार कर दिया। तब जाबालि ने
यह कहते हुए उन्हें समझाने का प्रयास किया- 'आप बुद्धिमान होकर भी साधारण
लोगों जैसी बात कर रहे हैं। आप अयोध्या लौटकर अपना राज्य संभालिए, क्योंकि इस लोक की
मान्यता परलोक से कम नहीं है।'
तब श्रीराम बोले - 'आपके तर्क बुद्धियुक्त प्रतीत होते हैं, किंतु वस्तुत: वे
विवेक-विरोधी हैं। यदि मैं स्वेच्छाधारी होऊंगा, तो क्या प्रजा बाद में
स्वेच्छाचारिणी न होगी? ऐसे आचरण से तो समस्त प्रजा में असत्य पालन को बढ़ावा
मिलेगा, जबकि
राजा का प्रमुख धर्म सत्य का पालन करना है। सत्य में ही संपूर्ण लोक प्रतिष्ठित
हैं।' जाबालि
ने श्रीराम के वचन सुन श्रद्धासहित उन्हें नमन किया। सार यह है कि नेतृत्वकर्ता
प्रेरणास्तंभ होता है, इसलिए उसे सदैव सत्यमार्गी होना चाहिए।
चाचा ने जगाई पढ़ाई में रुचि
अल्बर्ट आइंस्टीन अपने बचपन में पढ़ाई के प्रति सर्वथा विरक्त थे। उन्हें
स्कूल जाना और पढऩा बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था।
जब स्कूल के शिक्षक अल्बर्ट को रटकर किसी विषय को याद करने के लिए कहते,
तो उन्हें उस विषय
से और अरुचि हो जाती। उन्हें तो चिंतन-मनन करना प्रिय था। एक विषय पर विचार करते,
तो घंटों उसी पर
सोचते रहते। फलत: शिक्षकों की डांट सुननी पड़ती।
एक दिन अल्बर्ट ने अपने माता-पिता से कहा कि अब वे स्कूल नहीं जाएंगे। मां ने
कारण पूछा तो वे बोले- क्रमां! वहां शिक्षक नहीं, पुलिस पढ़ाती है। बात-बात में वे
डांटते हैं और पाठ रटने को कहते हैं। मैं पाठ नहीं रट सकता और यह गणित तो मुझे
काटने दौड़ता है।
वहीं अल्बर्ट के चाचा जैकब भी बैठे थे। वे इनकी बात सुनकर बोले- बेटा यह क्या
कह रहे हो कि तुम्हारा मन गणित में नहीं लगता है? तो क्या तुम्हारा खेल में भी मन
नहीं लगता? अल्बर्ट तत्काल बोले- खेल में तो खूब मन लगता है, चाचा।
जैकब ने हंसकर कहा- तो आओ, चोर-सिपाही खेलते हैं। जैकब ने कुछ रेखाएं खींचीं और
गोटियां सरकाने लगे। अल्बर्ट की रुचि खेल में देख, जैकब बोले- यही तो बीजगणित है,
जिसमें एक खास जगह
संख्या का पता लगाना है। अल्बर्ट ने कहा- धत्! क्या यही गणित है? इसमें तो कुछ भी नहीं
रखा।
मैं जरूर इसे पढ़ूंगा और स्कूल जाऊंगा। आगे चलकर वह महान विज्ञानी अल्बर्ट
आइंस्टीन के नाम से विख्यात हुए। सार यह है कि छात्रों में अध्ययन के प्रति रुचि
जाग्रत करने के लिए कई बार अध्यापन का पारंपरिक तरीका छोड़कर अभिनव मार्ग खोजना
पड़ता है। इसलिए अध्यापक को बेहतर परिणाम पाने के लिए नए व सकारात्मक प्रयोगों को
अपनाना चाहिए।
शिवाजी ने देवलजी को गले लगा लिया
शिवाजी की सेना में एक वीर सैनिक था- देवलजी। बीजापुर के नवाब को देवलजी
द्वारा युद्ध में परास्त कर देने के बाद से शिवाजी देवलजी को बहुत मान देते थे। एक
दिन देवलजी अपने दो साथियों- आपाजी व मालेराव के साथ कोई गुप्त समाचार शिवाजी को
देने के लिए छावनी जा रहे थे। रात का समय था, अत: तीनों जंगल में रास्ता भटक
गए। आखिर तीनों ने जंगल में ही रात काटने का निश्चय किया। अपने घोड़ों को एक पेड़
से बांधकर तीनों ने लकडिय़ां इकट्ठा कर आग जलाई और बारी-बारी से पहरा देना तय किया। पहले
देवलजी ने पहरा दिया। कुछ रात बीतने पर देवलजी को भेडिय़ों की आवाजें सुनाई दीं।
उन्होंने दोनों साथियों को जगाया। तीनों ने तुरंत अपने चारों ओर आग का घेरा
बना लिया। थोड़ी ही देर में भेडिय़ों का झुंड वहां आया और तीनों घोड़ों को अपना
शिकार बना लिया। फिर वे आग के चारों ओर इन तीनों पर हमला करने के लिए बैठ गए। ये
तीनों लकडिय़ां डाल-डालकर आग तेज करते रहे, किंतु लकडिय़ां खत्म हो गईं। तब तीनों ने जलती लकड़ी
हाथ में लेकर पेड़ पर चढऩे के लिए दौड़ लगाई, किंतु मालेराव और आपाजी भेडिय़ों
द्वारा मारे गए। देवलजी पेड़ पर चढ़ गए। उन्होंने अपनी कमर में बंधे कपड़े को
खोलकर फंदा बनाया और एक भेडिय़े के गले पर गिराकर कसा और उसे ऊपर खींच लिया। फिर
कटार से उसे मारकर पेड़ पर लटका दिया। पांच-छह भेडिय़ों को भी इसी तरह मारकर फेंक
दिया। शेष बचे भेडिय़े इन्हें खाने के लिए टूट पड़े। तब देवलजी भाग निकले और शिवाजी
के पास पहुंचकर पूरी घटना सुनाई। सुनकर शिवाजी ने उन्हें गले लगाते हुए कहा-
विपत्ति के समय जो व्यक्ति धैर्य, बुद्धि और साहस से काम लेता है, वही वास्तव में वीर कहलाने का
अधिकारी होता है।
रक्षामंत्री ने सैनिकों को दी उचित
सीख
कुछ वर्ष पूर्व की घटना है। अमेरिका
के तत्कालीन रक्षामंत्री कॉलिन पावेल एक दिन अमेरिकी सेना के एक हवाई जहाज में
निरीक्षण हेतु गए। यह हवाई जहाज अपने सैनिकों को लेकर अफगानिस्तान के किसी युद्ध
स्थल पर रवाना होने की तैयारी में था। महीनों पूर्व से सभी सैनिकों को युद्ध से
संबंधित सारा प्रशिक्षण दिया जा चुका था। सभी सैनिक अपने-अपने हथियारों से लैस और
उत्साह से भरपूर थे। सभी के पास एक-एक पैराशूट भी था। पावेल उन्हें कुछ आवश्यक
हिदायतें दे रहे थे, जिन्हें ध्यान में रखना अपने मकसद
में कामयाब होने के लिए बेहद जरूरी था।
पावेल ने सूक्ष्मता से अपने सैनिकों
की विविध तैयारियों का जायजा लिया और अंत में सभी सैनिकों से पूछा- क्र आप लोग
वायुयान में अपने मिशन पर जा रहे हैं, क्या आपने
अपना-अपना पैराशूट जांच लिया है? सभी जवानों ने एक स्वर में उत्तर दिया - हां। तभी पावेल ने एक
जवान से कहा- क्र अपना पैराशूट खोलकर दिखाओ। जवान ने तत्काल बटन दबाया, किंतु पैराशूट नहीं खुला। सभी हैरान रह गए, क्योंकि यह उनके मिशन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपकरण था और
इसके न खुलने पर सैनिक की जान भी जा सकती थी। तब पावेल ने समझाया- क्र देखा अपनी
तैयारी की जांच करना कितना महत्वपूर्ण है। यदि इन्हें कूदना पड़ता तो इनकी क्या
स्थिति होती? सभी सैनिकों ने पावेल की सलाह को
सदैव याद रखने का वचन दिया।
कथा का सार यह है कि किसी भी कार्य
की सफलता के लिए उसकी पूर्व तैयारी और तैयारी की जांच करना अत्यंत आवश्यक है।
कलाम को स्वामीजी से मिली अनूठी सीख
भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के जीवन से जुड़ी एक घटना है।
वायुसेना में चयन न होने की वजह से वे काफी दुखी थे। मानसिक शांति की खोज में वे
स्वामी शिवानंद के आश्रम पहुंचे।
स्वामीजी का भव्य व्यक्तित्व देखकर कलाम बहुत प्रभावित हुए। जब उन्होंने
स्वामीजी को अपना परिचय दिया, तो वे बड़े स्नेह से उनसे मिले। कलाम ने उस भेंट के विषय
में एक जगह लिखा है- मेरे मुस्लिम नाम की उनमें जरा भी प्रतिक्रिया नहीं हुई।
मैंने उन्हें वायुसेना में अपने नहीं चुने जाने की असफलता के विषय में बताया
तो वे बोले- इच्छा, जो तुम्हारे हृदय और अंतरात्मा से उत्पन्न होती है, जो शुद्ध मन से की गई हो,
एक विस्मित कर
देने वाली विद्युत चुंबकीय ऊर्जा होती है। यही ऊर्जा हर रात को आकाश में चली जाती
है और हर सुबह ब्रह्मांडीय चेतना लिए वापस शरीर में प्रवेश करती है। अपनी इस दिव्य
ऊर्जा पर विश्वास रखो और अपनी नियति को स्वीकार कर इस असफलता को भूल जाओ। नियति को
तुम्हारा पायलट बनना मंजूर नहीं था।
अत: असमंजस और दुख से निकलकर अपने लिए सही उद्देश्य की तलाश करो। स्वामी
शिवानंद के शब्दों ने जादू-सा असर दिखाया और कलाम ने दिल्ली आकर डीटीडीएंडपी जाकर
अपने साक्षात्कार का नतीजा पता किया। नतीजा उनके पक्ष में था और वे वरिष्ठ
वैज्ञानिक सहायक के पद पर नियुक्त हुए। आगे चलकर वे देश के सर्वोच्च पद पर आसीन
हुए।
कथा का सार यह है कि कभी इच्छा, संकल्प और प्रयत्न के बावजूद भाग्य साथ नहीं देता है,
किंतु इससे निराश
होने के स्थान पर स्थिर चित्त से विचार कर कार्य-दिशा कुछ परिवर्तित करते हुए
दोगुने उत्साह से प्रयत्नशील होना चाहिए। अंतत: सफलता अवश्य मिलती है।
गुप्तजी ने सिखाया अच्छा श्रोता बनना
मैथिलीशरण गुप्त आधुनिक हिंदी के महान कवियों में थे। उनकी रचनाएं कालजयी हैं,
जिन पर उन्हें
अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए।
इतनी उपलब्धियों के बावजूद गुप्तजी अत्यंत विनम्र और निरभिमानी थे। वे अपने से
छोटे व कम अनुभवी साहित्यकारों को भी पर्याप्त सम्मान देते थे और सदैव उनका हौसला
बढ़ाते थे।
एक बार की बात है। पटना विश्वविद्यालय के प्रांगण में एक कवि सम्मेलन आयोजित
किया जा रहा था। मैथिलीशरण गुप्तजी को भी उसमें आमंत्रित किया गया था। भारतवर्ष के
अन्य अनेक मूर्धन्य विद्वान व कवि इस सम्मेलन में उपस्थित थे। मंच से काव्य-रस की
अद्भुत वर्षा हो रही थी और विश्वविद्यालय के शिक्षक व छात्र इसका आनंद ले रहे थे।
अनेक उत्तम कोटि की रचनाओं के बाद एक नए कवि को मंच पर बुलाया गया। जैसे ही
उसने काव्य-पाठ आरंभ किया, छात्र शोर मचाकर उसका विरोध करने लगे। यह देख गुप्तजी उठे
और छात्रों को संबोधित करते हुए कहा- 'आप सभी ने सदियों तक अंग्रेजों की गुलामी सही। क्या
आज अपने ही राष्ट्र की काव्य-प्रतिभा की एक रचना आप सहन नहीं कर सकते?'
यह सुनते ही सभी छात्र लज्जित हो शांत हो गए और काव्य-पाठ पुन: आरंभ हो गया।
कथा का सार यह है कि अन्यों की सुनना न केवल उनके प्रति सम्मान प्रकट करना है,
बल्कि कई बार यह
श्रवण ज्ञान, अनुभव, सीख या प्रेरणा का माध्यम भी बनता है। वस्तुत: अच्छा श्रोता होना भी एक गुण
है।
गौतम बुद्ध की शिष्य-वत्सलता
भगवान बुद्ध प्रेम, क्षमा और करुणा के अवतार
होने के साथ-साथ एक और गुण से विभूषित थे और वह गुण था- शिष्य-वत्सलता।
बुद्ध अपने शिष्यों के प्रति स्नेह के साथ-साथ सम्मान प्रकट करना भी नहीं भूलते
थे। एक बार वे किसी यात्रा पर थे और मार्ग में पुक्कुस मल्लपुत्र नामक व्यापारी से
उनकी भेंट हुई। पुक्कुस उनके प्रति अत्यंत श्रद्धाभाव रखता था। उसने उन्हें एक
बहुत सुंदर दुशाला भेंट किया।
किंतु बुद्ध ने अकेले उसे ग्रहण नहीं किया। उन्होंने पुक्कुस से कहा - 'भाई! दुशाले का एक भाग
मुझे ओढ़ा दो और दूसरा आनंद को।' पुक्कुस ने ऐसा ही किया और आनंद हर्ष-विभोर हो गया। इसी
प्रकार एक बार अपने शिष्य महाकाश्यप का चीवर बुद्ध को बहुत पसंद आया।
उन्होंने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा - 'महाकाश्यप! तुम्हारा चीवर बहुत
मुलायम है।' महाकाश्यप ने तत्काल अपना चीवर बुद्ध से लेने की प्रार्थना की। बुद्ध ने उससे
पूछा - 'फिर
तुम क्या पहनोगे?' महाकाश्यप ने कहा - 'मैं आपका वस्त्र पहनूंगा।' बुद्ध बोले - 'मेरा वस्त्र तो कई जगह
से फट चुका है।' किंतु महाकाश्यप अड़े रहे, क्योंकि गुरु-वस्त्र पहनना शिष्य के लिए गर्व की बात थी।
आखिर महाकाश्यप की इच्छा बुद्ध ने पूर्ण की और वस्त्रों का अदल-बदल किया। उस
दिन से महाकाश्यप को भिक्षु-संघ में और अधिक सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा।
सार यह है कि योग्य शिष्यों के लिए गुरु द्वारा प्रकट किया गया स्नेह व सम्मान न
केवल शिष्यों के लिए गौरव का विषय होता है, बल्कि यह उनके आत्मबल को बढ़ाने
वाला भी सिद्ध होता है।
अकबर ने माना रूह से रूह बात करती है
एक दिन बीरबल ने अकबर से कहा - ‘हुजूर! रूह, रूह से बात करती है।’
अकबर ने पूछा - ‘यह कैसे संभव है?’
तब बीरबल बोले - ‘हुजूर! आप मेरे साथ आइए।’
अकबर ने ग्रामीण वेष धारण किया और नौकर वेषधारी बीरबल के साथ चल दिए। कुछ दूर
एक जंगल आया। वे उसमें प्रवेश कर गए। सामने ही एक लकड़हारा पेड़ों को काटता नजर
आया। बीरबल ने पूछा - ‘हुजूर! इस लकड़हारे के प्रति आपका क्या ख्याल है?’ अकबर बोले - ‘इसे कोड़े लगाने की
इच्छा हो रही है, क्योंकि यह हरे-भरे पेड़ काट रहा है।’ बीरबल ने कहा - ‘अब उसके निकट चलिए।’ उसके पास पहुंचकर बीरबल
ने पूछा - ‘भाई! यह क्या कर रहे हो?’ उसने कहा - ‘पेड़ काट रहा हूं, क्योंकि यही मेरी आजीविका का आधार है।’
बीरबल बोले - ‘क्या तुम्हें पता है कि बादशाह अकबर इस दुनिया में नहीं रहे?’ वह खुश होते हुए बोला- ‘अच्छा हुआ, बहुत बदमाश था।’ अकबर हैरान थे कि मेरी
जो इसके प्रति धारणा है, वही इसकी मेरे प्रति है। थोड़ा आगे बढ़ने पर एक वृद्धा बकरी
चराते हुए मिली। बीरबल ने उसके विचार जानना चाहे तो वे बोले - ‘इस पर श्रद्धा होती है,
क्योंकि इस उम्र
में भी काम करके अपने परिवार का पेट पाल रही है।’ बीरबल ने उससे पूछा - ‘तुम बकरियां क्यों चराती
हो?’ उसने
कहा - ‘परिवार
के पालन-पोषण हेतु।’ फिर बीरबल ने उसे भी बादशाह की मृत्यु की सूचना दी। सुनकर वह जोर-जोर से रोने
लगी।
तब बीरबल ने अकबर से कहा - ‘आपने इसके प्रति श्रद्धा की, तो उसने भी आपसे स्नेह किया। अब
तो आप मानेंगे कि रूह, रूह से बात करती है।’ अकबर ने इस तथ्य को स्वीकार
किया। वस्तुत: सद्भाव से सद्भाव बढ़ता है और दुर्भाव से दुर्भाव। इसलिए सभी के
प्रति अच्छा सोचें।
हैदर अली ने किया सही न्याय
मैसूर के नवाब हैदर अली अत्यंत
न्यायप्रिय बादशाह थे। उनके राज्य में कभी किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता
था।
एक दिन नवाब सुबह के समय अपने खास दरबारियों के साथ घूमने निकले। वसंत का मौसम
था। नवाब साहब बड़े प्रसन्न थे। घूमते हुए अचानक उन्हें एक वृद्धा दिखाई दी,
जो सड़क के किनारे
लेटकर ‘इंसाफ-इंसाफ’
चिल्ला रही थी।
हैदर अली ने उसके पास पहुंचकर पूछा- ‘तुम्हें कैसा इंसाफ चाहिए?’ वह बोली- ‘हुजूर! मैं एक गरीब औरत हूं। आगा
मोहम्मद मेरी इकलौती बेटी को भगाकर ले गया।’ आगा मोहम्मद नवाब का खास जमादार
रह चुका था।
उसने पच्चीस वर्षो तक नवाब की बहुत सेवा की थी। इसलिए नवाब उसे बहुत मानते थे।
इनामस्वरूप उन्होंने उसे एक छोटी-सी जागीर तथा मासिक पेंशन देकर एक माह पूर्व ही
विदा किया था। नवाब ने कहा- ‘आगा मोहम्मद तो एक माह पहले ही यहां से चले गए और तुम आज
शिकायत कर रही हो?’ वृद्धा ने वर्तमान जमादार हैदर शा के हाथों नवाब के पास कई शिकायत अर्जियां
भेजने की बात कही, तो नवाब को हैरानी हुई, क्योंकि हैदर शा ने उन तक कोई अर्जी पहुंचने ही नहीं दी थी।
वृद्धा की शिकायत सही पाए जाने पर उन्होंने हैदर शा को दो सौ कोड़े लगवाए और
नौकरी से निकाल दिया। फिर सैनिकों को आगा मोहम्मद का सिर काटकर लाने और वृद्धा की
लड़की को उसके कब्जे से मुक्त कराने का आदेश दिया। आगा मोहम्मद ने लड़की को वृद्धा
के हवाले कर उससे और नवाब से खूब माफी मांगी, किंतु नवाब का आदेश अटल रहा। आगा
मोहम्मद का सिर काट दिया गया। अपराधियों को उचित दंड नहीं मिलने से ही अपराध बढ़ते
हैं - प्रशासक को यह बात स्मरण रखते हुए सटीक न्याय करना चाहिए।
पुत्र की राष्ट्रभक्ति के आगे नतमस्तक हुए पिता
सुभाषचंद्र बोस बचपन से ही अत्यंत मेधावी थे। उनके वकील पिता की हार्दिक इच्छा
थी कि वे एक आईसीएस अधिकारी बनें। पिता की इच्छा को पूर्ण करने के लिए सुभाष
इंग्लैंड गए और आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन उनका मन अंग्रेजों की
गुलामी का विरोधी था।
उनके भीतर राष्ट्रसेवा की प्रबल भावना थी। एक ओर आईसीएस का उच्च गौरवपूर्ण पद
तथा दूसरी ओर सेवा का कठिन त्यागमय पथ। उनके मन में अंतर्द्वद्व चल रहा था। अंतत:
सेवा का भाव जीत गया और उन्होंने निर्णय लिया कि आईसीएस की नौकरी नहीं करेंगे।
उन्होंने अपना त्यागपत्र भारत मंत्री मांटेग्यू को सौंप दिया। भारतीय कार्यालय
में उनके पिता के मित्र सर विलियम ड्यूक ने उनका इस्तीफा अपने पास रखकर उनके पिता
को यह सूचना भेजी। पिता ने उत्तर भेजा - ‘मैं अपने पुत्र के इस कार्य को गौरव की दृष्टि से
देखता हूं। मैंने उसकी इस शर्त को मंजूर करके ही उसे विलायत भेजा था।’ विलियम ड्यूक इस उत्तर
से हैरान हो गए।
उन्होंने सुभाष से पूछा - ‘नौजवान! तुम अपने भोजन का क्या प्रबंध करोगे?’ सुभाष ने कहा - ‘मैंने बचपन से दो आने
रोज में गुजारा करने की आदत डाली है और दो आने मैं पैदा कर लूंगा।’ सर विलियम अवाक होकर
सुभाष का मुंह देखने लगे। सुभाषचंद्र को उनके पिता ने पत्र लिखा - ‘तुमने देशसेवा का संकल्प
ले लिया है, ईश्वर तुम्हें सफलता प्रदान करे।’ सुभाष ने प्रत्युत्तर में लिखा - ‘पिताजी! आज मुझे आप पर
जितना गर्व हो रहा है, इससे पहले कभी नहीं हुआ।’ सार यह है कि राष्ट्रसेवा का
जज्बा रखने वाले हर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में इसे निभाते हैं और परिवार का
सहयोग व समर्थन इस जज्बे को शत-प्रतिशत योगदान में बदल देता है।
डकैत गुरुदेव के चरणों में झुक गया
गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर जब भी
रचना-कर्म में जुटते थे, तो पूरे मन-प्राण से तन्मय होकर लिखते थे। उस समय उन्हें
कतई यह भान नहीं होता था कि आसपास क्या हो रहा है? बाहर कितना भी शोरगुल हो अथवा घर
में कैसी भी चहल-पहल हो, वे इन सभी से बेखबर रहते और उनकी लेखनी अपना काम करती रहती।
एक बार शांति निकेतन के अपने कमरे में गुरुदेव बैठे थे और कविता लिख रहे थे।
तभी कमरे की शांति को भंग करती हुई एक आवाज आई - ‘सुनो! आज मैं तुम्हें खत्म करने
आया हूं।’ चूंकि यह बोलने वाला उनके निकट ही आकर जोर से बोला था, इसलिए गुरुदेव ने दृष्टि उठाकर
उसकी ओर देखा। वह एक डकैत था, जो चाकू से उन पर वार करने के लिए तत्पर था।
गुरुदेव ने पुन: दृष्टि झुकाकर कविता लिखना आरंभ कर दिया और धीरे से बोले- ‘भाई! मारना ही चाहते हा
तो मार लेना, किंतु तनिक रुक जाओ। मन में एक बहुत ही सुंदर भाव आ गया है, उसे कविता के माध्यम से
पूर्ण कर लेने दो।’ डकैत रुक गया और गुरुदेव उस भाव की साधना में ऐसे डूबे कि याद ही नहीं रहा कि
उनकी हत्या करने वाला उनके इतना निकट है।
उधर हत्यारा चकित था कि यह कैसा व्यक्ति है, जो अपनी मृत्यु से जरा भी न डरकर
कविता लिख रहा है। जब गुरुदेव की कविता समाप्त हुई, तो उन्होंने डकैत को ऐसे संतुष्ट
भाव से देखा मानो कह रहे हों कि अब मैं खुशी से मर सकता हूं। यह देख डकैत ने चाकू
फेंक दिया और पश्चाताप करते हुए उनके चरणों में झुककर रोने लगा। गुरुदेव ने उसे
क्षमा कर दिया। सार यह है कि डूबकर किया जाने वाला काम उत्कृष्ट कोटि का होने के
साथ-साथ अनेक विपरीतताओं को अनुकूलता में बदल देता है।
पद्म सिंह बनकर पद्मा ने चुकाया कर्ज
पद्मा का जन्म साधारण राजपूत घराने में हुआ था। जब वह ढाई वर्ष की थी, तभी उसके माता-पिता की
मृत्यु हो गई। पद्मा का एकमात्र भाई जोरावर सिंह सोलह वर्ष का था। पिता द्वारा
संचित धन से वह पद्मा का पालन-पोषण करने लगा।
उसने पद्मा को घुड़सवारी, तीरंदाजी तथा तलवारबाजी की शिक्षा दी। पद्मा सदैव पुरुष
सैनिकों के समान कपड़े पहनती और युद्धकला में अत्यधिक प्रवीण हो गई। जब जोरावर
सिंह के पास पिता का धन समाप्त हो गया, तो उसने काम पाने के प्रयास किए, किंतु हर जगह निराशा ही
हाथ लगी। मजबूर होकर जोरावर सिंह को महाजन से कर्ज लेना पड़ा।
उसने महाजन से वायदा किया कि काम मिलते ही वह पैसा लौटा देगा, किंतु समय पर कर्ज न
चुका पाने के अपराध में जोरावर कैद कर लिया गया। ऐसी कठिन परिस्थिति में पद्मा ने
साहसपूर्ण निर्णय लेते हुए राजपूत सैनिक के रूप में अपना युद्ध कौशल ग्वालियर के
तत्कालीन महाराजा के समक्ष प्रदर्शित किया। प्रभावित हो महाराजा ने उसे सैनिक के
रूप में नौकरी दे दी।
पद्म सिंह के रूप में उसने युद्ध में इतनी वीरता का परिचय दिया कि उसे हवलदार
बना दिया गया। वह अपने अधिकांश वेतन को महाजन का कर्ज चुकाने के लिए जमा करने लगी,
किंतु एक दिन
सेनापति ने उसका राज जान लिया और महाराज को बता दिया।
महाराज द्वारा कारण पूछने पर पद्मा ने अपनी कथा उन्हें कह सुनाई। महाराज ने
सहृदयता का परिचय देते हुए जोरावर को कैद से मुक्त करवाया और उसे अपनी सेना में रख
लिया तथा पद्मा का विवाह अपनी सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी से कर दिया। कथा का सार
यह है कि विपरीत स्थितियों में भी अपनी पूरी ताकत लगाकर संघर्ष करना चाहिए।
जब अचूक निशानेबाज तीनों दांव हार गया
किसी विद्यालय में संजय नाम का अत्यंत
मेधावी छात्र पढ़ता था। वह अचूक निशानेबाज भी था। अपनी अनेक योग्यताओं के कारण वह
शिक्षकों का चहेता छात्र था। एक बार विद्यालय में वार्षिकोत्सव चल रहा था, जिसमें निशानेबाजी की
प्रतियोगिता भी रखी गई थी। इसमें राज्य के अन्य विद्यालयों के छात्र भी हिस्सा ले
रहे थे।
जब प्राचार्य सभी प्रतिभागियों से परिचय प्राप्त कर रहे थे, तो किसी अन्य विद्यालय
के एक छात्र ने उनसे कहा - ‘सर! मेरा विश्वास है कि निशानेबाजी में मैं संजय को हरा
दूंगा।’ प्राचार्य
मुस्करा दिए। वे संजय की अचूक निशानेबाजी को देखते हुए उसकी जीत के प्रति पूर्ण
आश्वस्त थे। प्रतियोगिता का लक्ष्य था - एक धागे से लटके फल को लगातार तीन बार
गिराना।
पहले उस छात्र की बारी थी। उसका पहला निशाना कामयाब रहा, किंतु दूसरा चूक गया और
तीसरे में फिर वह सफल हुआ। सभी लोग तब हैरान रह गए, जब संजय के तीनों ही निशाने असफल
रहे। प्राचार्य ने भारी मन से उस छात्र को पुरस्कृत किया, किंतु अकेले में संजय से उसकी
पराजय का कारण पूछा।
खुद बना लिया सपनों का किला
उत्तरी स्पेन में बर्गोस प्रांत के सेबोलेरोस में स्थित यह है ‘कैस्टीलो डे लास क्यूवास’। इसे कैसेल ऑफ कव्र्स के नाम से भी जाना जाता है।
इसे बनाने का सपना देखा था सेराफिन विलारन ने।
1935 में जन्मे सेराफिन स्थानीय फैक्ट्री में वेल्डिंग का काम करते थे। 1977 में उन्होंने परियों की कहानियों जैसा किला बनाने का सपना देखा। मगर, तब तक उन्हें कंस्ट्रक्शन के काम का खास अनुभव नहीं था। इस किले को बनाने के लिए उन्होंने नील और ट्रूबा नदी से अधिकांश गोल पत्थरों को जमा किया।
1935 में जन्मे सेराफिन स्थानीय फैक्ट्री में वेल्डिंग का काम करते थे। 1977 में उन्होंने परियों की कहानियों जैसा किला बनाने का सपना देखा। मगर, तब तक उन्हें कंस्ट्रक्शन के काम का खास अनुभव नहीं था। इस किले को बनाने के लिए उन्होंने नील और ट्रूबा नदी से अधिकांश गोल पत्थरों को जमा किया।
सेराफिन ने इन पत्थरों को बिना किसी पूर्व योजना के कंक्रीट के साथ जमाना शुरू
कर दिया। इसके लिए उन्होंने अपनी कल्पना और स्पेनिश किले पर छपी किताबों की मदद
ली।
कृषक पुत्र ने बुद्धि से जीता राजा का दिल
सदियों पहले की बात है। राजा सूर्यसेन
का राज्य प्रतापगढ़ तक ही सीमित नहीं था। और भी कई राज्य उसके अधीन थे। राजा की एक
पुत्री थी - भानुमति। वह अत्यंत सुंदर और बुद्धिमती थी।
विवाह योग्य होने पर सूर्यसेन ने तय किया कि अपनी पुत्री का विवाह ऐसे वीर और
बुद्धिमान युवक से करेंगे, जो उनके बाद राज्य का संचालन सही ढंग से कर सके। राजकुमारी
तथा राज्य पर अनेक राजकुमारों की नजर थी, किंतु राजा सूर्यसेन ने एक कठिन शर्त रख दी।
जब भी कोई राजकुमारी से विवाह का प्रस्ताव रखता, तो राजा उससे कहते कि पहले जाकर
संसार की सबसे मूल्यवान वस्तु लेकर आओ। यदि तुम मेरी शर्त पूर्ण न कर सके, तो पूरा जीवन कैदखाने
में बिताना पड़ेगा। अनेक राजकुमार कई प्रकार की मूल्यवान वस्तुएं लेकर आए, किंतु राजा ने उनसे
असहमति जताकर उन्हें कारागार में डाल दिया।
राजा को यकीन था कि एक न एक दिन कोई योग्य युवक अवश्य इस शर्त को पूरा करेगा।
एक दिन उसी राज्य के एक छोटे-से गांव में रहने वाले किसी गरीब किसान का बेटा रघु
तीन वस्तुएं लेकर राजा के पास आया और शर्त पूर्ण करने की इच्छा प्रकट की। राजा से
अनुमति पाकर वह बोला - ‘मैं दुनिया की तीन सबसे मूल्यवान वस्तुएं लाया हूं।
भय को जीतकर सच्चे नेता बने श्रद्धानंद
वर्ष 1919 की घटना है। अंग्रेजों के खिलाफ
संपूर्ण दिल्ली में हड़ताल की घोषणा की गई। लोग घरों में बंद थे और सड़कें सूनी
पड़ी थीं। पुलिस की गाड़ियां यह देखने के लिए चारों ओर घूम रही थीं कि कहीं कोई
दुकान या संस्थान खुला तो नहीं है।
लगभग पूरा बाजार बंद था, किंतु एक ठेकेदार ने अपना प्रतिष्ठान खुला रखा था। जब पुलिस
ने उसे बंद करने को कहा तो वह नहीं माना। इस कारण विवाद हुआ और पुलिस ने दो
स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी से जनता में क्रोध की लहर फैल गई
और लगभग बीस हजार लोग चांदनी चौक पर इकट्ठा हो गए। तभी स्वामी श्रद्धानंद ने वहां
आकर स्थिति को संभाला।
उन्होंने उस अपार जनसमूह को शांत करने के लिए ओजस्वी भाषण दिया, जिससे जनसमूह सकारात्मक
ऊर्जा से भर गया। जब स्वामीजी लौटने लगे, तभी चांदनी चौक में गोली चल गई। इससे जनता में फिर
गुस्सा फूट पड़ा। स्वामीजी ने पुन: जनता को शांत किया और पुलिस के सिपाहियों से
पूछा - ‘तुमने
गोली क्यों चलाई?’ सिपाहियों ने उनकी ओर बंदूकें तानकर कहा - ‘हट जाओ, वरना तुम्हें छेद देंगे।’
स्वामीजी ने ऊंचे
स्वर में कहा - ‘मार दो।’ वे दो कदम और आगे बढ़ आए।
उनका साहस देखकर एक अंग्रेज अफसर आगे आया। उसने स्वामीजी से कहा - ‘गोली भूल से चल गई।’
इतना कहकर वह
सिपाहियों को लेकर मार्ग से हट गया और स्वामीजी जनता को लेकर शांति से आगे बढ़ गए।
गांधीजी ने स्वामीजी के विषय में कहा - ‘भय के सामने उन्होंने कभी सिर नहीं झुकाया।’ सार यह है कि जनता भी
नेता उसी को मानती है, जो प्रत्येक क्षण उनके लिए त्याग करने को तत्पर हो और साहस
व आत्मविश्वास से भरा हो।
जब तानसेन का चूर हुआ अहंकार
सम्राट अकबर कलाप्रेमी थे, इसलिए उनके दरबार में
कलाकारों को पर्याप्त सम्मान मिलता था। तानसेन जैसे महान संगीतकार अकबर के दरबार
की शोभा थे। उस समय तानसेन के मुकाबले में अन्य कोई संगीतकार नहीं था। इस वजह से
तानसेन में थोड़ा अहंकार आ गया था।
उस समय कुछ संगीत-साधक ऐसे थे, जिन्होंने अपनी संगीत-साधना का लक्ष्य ईश्वर को बनाया था।
ये लोग संगीत के माध्यम से ईश-उपासना में लीन रहते थे। इनमें अष्टछाप के कवि तथा
वल्लभ संप्रदाय के कुछ आचार्य थे। एक दिन तानसेन आचार्य वि_लनाथ से मिलने गए।
कुछ देर वार्तालाप के बाद तानसेन ने वि_लनाथ के कहने पर अपना गायन
प्रस्तुत किया। वि_लनाथ ने गायन की तारीफ करते हुए उन्हें दस हजार रुपए व दो कौड़ी इनाम के रूप
में दिए। तानसेन ने कौडिय़ां देने का कारण पूछा, तो वि_लनाथ बोले - 'आप मुगल दरबार के प्रमुख
गायक हैं।
इसलिए दस हजार का इनाम आपकी हैसियत को ध्यान में रखकर दिया है और ये दो कौड़ी
मेरी व्यक्तिगत दृष्टि में आपके गायन की कीमत है।' तानसेन को बहुत बुरा लगा। वे
जाने ही वाले थे कि श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त गोविंदस्वामी आ गए।
वि_लनाथ
के आग्रह पर गोविंदस्वामी ने एक पद गाया, जिसे सुनकर तानसेन की गलतफहमी दूर हो गई और वे बोले-
'वि_लनाथजी महाराज! मेरे
गायन की कीमत वास्तव में दो कौड़ी ही है, क्योंकि मैं सम्राट को खुश करने के लिए गाता हूं और
आप ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए गाते हैं।
गुरु ने बताया मन के दीप का महत्व
प्रसंग महाभारत का है। गुरु द्रोण जब
गुरुकुल की कक्षा में कौरव-पांडव विद्यार्थियों को पढ़ाने पहुंचे, तो अत्यंत प्रसन्न थे।
द्रोण स्वयं परम गुरु थे, लेकिन उस दिन उन्होंने एक दिव्य ज्ञान का अनुभव किया था और
वही प्रकाश उनके समूचे अस्तित्व से अभिव्यक्त हो रहा था।
कक्षा में गुरुदेव ने विद्यार्थियों से वह अनुभव संदेश के साथ बांटा। उन्होंने
बताया कि बीती रात्रि में एक घटना हुई। अर्जुन बीती संध्या आश्रम में भोजन कर रहा
था। वह थोड़ा विलंब से भोजन करने बैठा था, अत: बाकी विद्यार्थी भोजन कर चुके थे। संध्या गहरा
चुकी थी। अर्जुन एक दीपक की रोशनी में भोजन कर रहा था।
अचानक हवा का एक झोंका आया और दीपक बुझ गया। बावजूद इसके अर्जुन भोजन करता
रहा। अंधकार के बाद भी उसे भक्षण करने में कोई असुविधा नहीं हुई। तभी अर्जुन उठा
और धनुर्अभ्यास करने लगा।
गुरु ने आगे कहा- बाण की ध्वनि सुन जब मैं बाहर पहुंचा, तब अर्जुन ने बताया कि भोजन के
दौरान दीपक बुझने के बावजूद जब मुझे भोजन में परेशानी नहीं हुई तो मैंने अंधकार
में ही बाण चलाने की दक्षता प्राप्त करने का निश्चय किया। और देखिए आपकी कृपा से
इस सघन अंधकार में भी मेरे बाण लक्ष्य तक पहुंच रहे हैं।
तब गुरु ने अर्जुन को गले लगा लिया। कक्षा में गुरु ने अर्जुन की प्रशंसा करते
हुए कहा- अर्जुन का यह प्रयास अनुकरणीय है। यह सच है कि दीपक अंधकार को चीरकर आलोक
का प्रसार करता है। लेकिन सच्चा दीपक तो मन का है।
यदि वह प्रज्ज्वलित है तो हम सघन अंधकार में भी अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकते
हैं। अत: सदा मन के प्रकाश, हृदय के दीप को आलोकित रखें। ऊंचाई पर जाने, सच्ची सफलता पाने और सभी
से अलग कुछ विशिष्ट करने के लिए यह महत्वपूर्ण है।
विवेक को छोड़कर शेष तीनों मुखिया के घर ठहरे। जब दयाशील गांव घूमने निकला, तो यह देखकर बेहद दुखी हुआ कि डाकुओं के अत्याचार से गांव तहस-नहस हो गया है। उसने मुखिया से कहकर एक घर को आश्रम का रूप दिया और सभी त्रस्तों को वहां बुलाकर उनकी सेवा करने लगा। एक दिन डाकुओं ने वह आश्रम भी नष्ट कर दिया।
मां के शब्दों ने भरा बिस्मिल में जोश
रामप्रसाद बिस्मिल को काकोरी मामले में अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी। फांसी
के दो दिन पूर्व बिस्मिल की मां उनसे अंतिम बार मिलने जेल आईं। जब बिस्मिल को मां
के सामने लाया गया, तो अचानक इस मजबूत हृदय क्रांतिकारी की आंखों में आंसू आ गए।
उनके मानस में मां से जुड़ी अनेक सुखद स्मृतियां साकार हो उठीं। मां के स्नेह
और वात्सल्य को याद कर बिस्मिल का मन भर आया। मां ने बिस्मिल को रोते देखा,
तो वे मन ही मन
इसका कारण समझ गईं, किंतु बिस्मिल को वे किसी भी दशा में कमजोर नहीं बनाना चाहती थीं। इसलिए स्वयं
की भावनाओं को नियंत्रण में रखकर बोलीं- ‘मैं तो समझती थी कि तुमने अपने पर विजय पा ली है,
किंतु यहां तो
तुम्हारी कुछ और ही दशा है।
जीवन र्पयत देश के लिए आंसू बहाकर अब अंतिम समय तुम मेरे लिए रोने बैठे हो?
यह कायरता ठीक नहीं।
तुम्हें वीर की भांति हंसते हुए प्राण देते देखकर मैं स्वयं को धन्य समझूंगी। मुझे
गर्व है कि इस गए-बीते जमाने में मेरा पुत्र देश के लिए स्वयं को बलिदान कर रहा
है। मेरा काम तुम्हें पालकर बड़ा करना था। उसके बाद तुम देश के लिए ही थे और उसी
के काम आ गए। मुझे इसका तनिक भी दुख नहीं है।’ मां की बात सुनकर बिस्मिल ने
स्वयं के आंसुओं पर नियंत्रण पाते हुए जोश में भरकर कहा - ‘मां! मुझे अपनी मृत्यु पर कतई
दुख नहीं है। विश्वास रखिए, मैं अपनी मृत्यु पर बहुत संतुष्ट हूं।’ फांसी पर चढ़ते वक्त
बिस्मिल के शब्द थे - ‘मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे। बाकी न मैं रहूं न
मेरी आरजू रहे। जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे। तेरा ही जिक्र या तेरी जुस्तजू
रहे।’ सार
यह है कि बलिदान महान आदर्श है, जिसे आचरण में जीने वाला इतिहास में अमर हो जाता है।
राजा ने पुत्र से जानी विवेक की महत्ता
विजयगढ़ के महाराज सत्यशील को योग्य उत्तराधिकारी की तलाश थी। महामंत्री से
विचार-विमर्श किया, तो उन्होंने कहा - ‘आपके पुत्र दयाशील, धर्यशील, कर्मशील और विवेकशील
काफी योग्य हैं। फिर आप क्यों चिंता करते हैं?’ राजा ने कहा- ‘हमारे कुल में राजा केवल
योग्यता के आधार पर चुना जाता है।’
तब
महामंत्री ने उनकी योग्यता परखने का आग्रह किया। राजा को बात जंच गई। उन्होंने
चारों को एक ऐसे गांव में भेजा,
जहां के
लोग डाकुओं से त्रस्त थे। चारों वहां पहुंचे।विवेक को छोड़कर शेष तीनों मुखिया के घर ठहरे। जब दयाशील गांव घूमने निकला, तो यह देखकर बेहद दुखी हुआ कि डाकुओं के अत्याचार से गांव तहस-नहस हो गया है। उसने मुखिया से कहकर एक घर को आश्रम का रूप दिया और सभी त्रस्तों को वहां बुलाकर उनकी सेवा करने लगा। एक दिन डाकुओं ने वह आश्रम भी नष्ट कर दिया।
तब ग्रामीणों ने वहां से जाने का फैसला कर लिया। तब धर्यशील ने उन्हें धर्य
बंधाया और आश्रम का पुनर्निर्माण किया। एक रात फिर डाकू आए। तब कर्मशील के नेतृत्व
में ग्रामीणों ने डाकुओं को मार भगाया। अब मुखिया ने यह शुभ सूचना महाराज को देने
का आग्रह राजकुमारों से किया, किंतु विवेकशील का कहीं
पता न था। तभी विवेकशील वहां आया और बोला - ‘मेरा
उद्देश्य समस्या की जड़ तक पहुंचना था।
डाकुओं के सरदार के माता-पिता की हत्या मुखिया ने की थी, इसीलिए यह बागी हो गया था।’ राजा ने मुखिया को कारागार में डाल दिया। इसके साथ
ही विवेकशील को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वस्तुत: विवेक सद्गुणों के उचित उपयोग का
ज्ञान देता है। अत: यह अन्य गुणों से सर्वथा श्रेष्ठ है।
दृढ़ इच्छाशक्ति से बने सफल
उद्योगपति
घनश्यामदास बिड़ला कोलकाता की जकारिया स्ट्रीट में एक
साधारण मकान में रहते थे। वे जूट मिल खोलना चाहते थे। लेकिन अंग्रेज नहीं चाहते थे
कि कोई भारतीय इस व्यवसाय में उनसे प्रतिस्पर्धा करे।
इस कारण वे भारतीयों को इस व्यवसाय
की अनुमति नहीं देते थे और यदि कोई भारतीय अनुमति प्राप्त करने का प्रयास करता,
तो वे इतनी बाधाएं डालते कि वह अपना प्रस्ताव वापस लेने
पर विवश हो जाता। एक बार घनश्यामदास अनुमति प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों के
कार्यालय गए।
कार्यालय ऊपर था, जहां पहुंचने के लिए लिफ्ट लगी थी, किंतु लिफ्ट का प्रयोग भारतीयों के लिए वर्जित था। घनश्यामदास यह बात
जानते थे, किंतु अपने ही देश में यह प्रतिबंध उन्हें
मंजूर नहीं था। जैसे ही वे लिफ्ट में घुसे, एक अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें बाहर निकाल दिया और खूब बुरा-भला कहा। उस
समय तो घनश्यामदास घर आ गए, किंतु जूट मिल का
विचार मन में जमा रहा।
उनके मन का द्वंद्व जान बड़े भाई ने
कारण पूछा, तो वे बोले - ‘मैं जूट मिल खोलना चाहता हूं, किंतु एक
तो पर्याप्त पैसा नहीं है और दूसरा, ये अंग्रेज किसी
भारतीय को इस क्षेत्र में प्रतिद्वंद्वी नहीं बनाना चाहते।’ बड़े भाई ने कहा - ‘क्या यह तेरा
दृढ़ निश्चय है?’ घनश्यामदास की हां सुनकर बड़े भाई ने
अपनी सारी संपत्ति बेचकर धन जुटाया। घनश्यामदास ने घोर परिश्रम किया।
उस धन से इस व्यवसाय की बारीक से
बारीक तकनीक सीखी और अंतत: अंग्रेजों से अनुमति प्राप्त करने में सफल रहे।
उन्होंने अपनी पहली जूट मिल कोलकाता में खोली और आगे चलकर भारत के सफलतम उद्योगपति
बने। वस्तुत: दृढ़ इच्छाशक्ति सफलता की कुंजी है। यदि मन में किसी लक्ष्य को पाने
की ठान लें, तो राह के शूल भी फूल हो जाते हैं।
मेजर ने नेहरूजी से पाई सराहना
पंडित जवाहरलाल नेहरू हिमालय घाटी में
स्थित चुशूल का निरीक्षण करने हेतु जाने वाले थे। मेजर शर्मा उनके जनसंपर्क
अधिकारी थे और यात्रा की तैयारियां देख रहे थे। वे पंडितजी का स्वभाव जानते थे।
भारत में कहीं भी पं. नेहरू जाते, तो जनता को उपहार देना नहीं भूलते थे।
मेजर शर्मा ने अपने अधिकारी के समक्ष प्रस्ताव रखा कि सेब व टॉफियों की
पेटियां साथ में रख लें, किंतु अधिकारी ने यह कहते हुए प्रस्ताव ठुकरा दिया- ‘इसकी क्या जरूरत है?
उन्हें वहां कौन
से ग्रामीण लोग मिलेंगे, जो उपहार की आवश्यकता पड़ेगी?’ मेजर शर्मा कुछ निराश हुए,
क्योंकि पंडितजी
की आदत उन्हें भलीभांति पता थी।
आखिर उनका मन नहीं माना और उन्होंने सेब व टॉफियों की दो पेटियां हवाई जहाज
में बिना अधिकारी को बताए चुपके से चढ़ा दीं। सुबह 4 बजे हवाई जहाज रवाना हुआ और
सूर्योदय होते-होते पूरी टीम चुशूल पहुंच गई। चुशूल के सुंदर प्राकृतिक दृश्यों ने
पंडितजी का मन मोह लिया।
पंडितजी के उतरते ही स्थानीय लोगों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया, जिनमें कुछ नन्हे व
मासूम बच्चे भी थे। बच्चे तो नेहरूजी की कमजोरी थे। उन्हें देखते ही वे कह उठे- ‘क्या इन बच्चों को देने
के लिए हमारे पास कुछ है?’ फौज के अधिकारी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। तभी मेजर शर्मा
ने सेब और टॉफियों की पेटियां नेहरूजी के सामने रख दीं।
नेहरूजी की प्रसन्नता की सीमा न रही। वे दोनों हाथों से बच्चों को टॉफियां और
सेब लुटाने लगे। बच्चे भी चाचा नेहरू के हाथों यह उपहार पाकर अत्यधिक प्रसन्न हुए।
पंडितजी ने मेजर शर्मा की सूझबूझ की सराहना की। वस्तुत: जो लोग भविष्य को ध्यान
में रखकर वर्तमान में योजनाएं बनाते
हैं, वे सदैव सुखी रहते हैं तथा प्रशंसा भी पाते हैं।
यह नई बात सोचकर पेड़ खुश हो गया और मन की इस खुशी से उसके तन पर पुन: हरियाली
आ गई और उसकी रौनक पूर्ववत हो गई। कथा का सार यह है कि यदि सोचने का नजरिया बदल
लिया जाए, तो न केवल समस्या निराकृत होती है, बल्कि कई बार प्रतिकूलता अनुकूलता में बदल जाती है।
पत्नी ने उत्तर जानना चाहा, तो वह बोला - देखो, पंद्रह तिथियों में से पांच ऐसी होती हैं, जिनके आगे ‘मी’ लगता है, पंचमी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी। पांच ऐसी होती हैं,
जिनमें ‘शी’ लगता है- एकादशी,
द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णमाशी और शेष पांच
में न ‘मी’
लगता है, न ‘शी’, जैसे एकम, दूज, तीज, चौथ, छठ।’ बाहर बैठे राजपुरोहित ने
यह उत्तर अगले दिन राजसभा में ज्यों का त्यों सुना दिया। इस तरह उसके प्राण बच गए
और दूसरे का बुरा सोचने वाला ब्राह्मण स्वयं दंडित हुआ।
हिटलर की ओर से उन्हें कई प्रकार के प्रलोभन दिए गए। जब वे नहीं माने, तो घोर यंत्रणा दी गई। किंतु नील्स नहीं डिगे। अंतत:
मछुआरों की मदद से वे भागकर स्वीडन जा पहुंचे। ऐसा कहा जाता है कि उनके अंतिम दिन
बड़े कष्टमय थे, किंतु उन्होंने झुकना
स्वीकार नहीं किया। वस्तुत: व्यापक हितों के लिए व्यक्तिगत हितों की उपेक्षा करने
वाला तात्कालिक समय में भले ही इस त्याग के कारण कष्ट पाए, किंतु भविष्य की सभी पीढ़ियों के लिए प्रशंसा, श्रद्धा व अनुसरण का पात्र हो जाता है।
राजवीर ने उनसे कहा - ‘मां! छह हजार लकड़ियां मिलकर भी लोहा नहीं तोड़ सकतीं।’
तब राजमाता बोलीं
- ‘सही
कहा। संख्या से मजबूती को पराजित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार हमारे वीर सैनिक
और तुम लोहे की तरह मजबूत हो। दुश्मन की अधिक सैनिक-संख्या इसी मजबूती के सामने घुटने
टेकेगी।’ राजवीर
ने मां की बातों से प्रेरणा ग्रहण कर अगले ही दिन युद्ध में विजय हासिल की। सार यह
है कि दृढ़ मनोबल से हारी हुई जंग भी फतह की जा सकती है। इसलिए प्रतिकूलताओं में
भी मनोबल ऊंचा बनाए रखें।
बुद्ध ने अपनी बात समाप्त करते हुए उसे सीख दी - ‘सदैव अपनी आंखें खुली रखो। जो
जैसा है, उसे
वैसा ही महत्व दो। किसी से उसकी तुलना मत करो।’ कथा का सार यह है कि किसी भी
क्षेत्र के अधिकारी विद्वान की स्वतंत्र रूप से प्रशंसा करना उचित है, किंतु सर्वश्रेष्ठ बताना
अनुचित, क्योंकि
श्रेष्ठता को व्यक्ति, समय व स्थान की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता।
अन्न- वस्त्र दान कर कर्ण ने पाया सुख
महारानी कुंती के ज्येष्ठ पुत्र
अंगराज कर्ण प्रतिदिन सोने का दान करते थे। इसी कारण उनकी ख्याति दानवीर के रूप
में थी। महाभारत के युद्ध में जब वीरगति पाकर कर्ण स्वर्ग में पहुंचे तो वहां उनका
भव्य स्वागत किया गया। देवराज इंद्र ने उनकी अगवानी की।
स्वर्ण निर्मित महल में उनके रहने की व्यवस्था की गई। उस महल की सभी चीजें
स्वर्ण की बनी हुई थीं। यह देख राजा कर्ण को अपने जीवनकाल में किए स्वर्ण-दान पर
गर्व हुआ। कुछ देर अपने सोने से बने पलंग पर विश्राम करने के बाद कर्ण को प्यास
लगी। उन्होंने सेवक से पानी मांगा। सेवक ने ससम्मान सोने के पात्र में उन्हें
पिघला हुआ सोना लाकर दे दिया।
कर्ण को मन ही मन गुस्सा आया, किंतु वे यह सोचकर कुछ नहीं बोले। वे प्यासे ही पुन: लेट
गए। शाम को भोजन का समय होने पर सेवक सोने के थाल में सोने से बनी रोटी व तरकारी
लेकर आया। कर्ण ने परेशान होकर इंद्र से शिकायत की।
इंद्र ने सविनय निवेदन किया - ‘अंगराज! स्वर्ग-लोक में प्राणी उन्हीं वस्तुओं का उपयोग कर
सकता है, जिनसे
उसने अपने जीवनकाल में किसी को सुख-संतोष दिया हो। चूंकि आपने अन्न व जल का दान न
करते हुए स्वर्ण दान ही किया है, इसलिए वही आपको यहां मिलेगा।’ कर्ण ने अपनी भूल स्वीकार करते
हुए माना - ‘अन्न व जल को मैं तुच्छ समझता था, इसलिए कभी उनके दान का सोचा ही नहीं। अब आप मेरे
जीवनभर के पुण्य के बदले सोलह दिनों के लिए मुझे पृथ्वीलोक में भेज दीजिए।’
इंद्र ने कर्ण की
बात मान ली।
कर्ण ने सोलह दिनों तक पृथ्वी पर रहकर अन्न, जल व वस्त्र का दान किया। पुन:
स्वर्गस्थ हुए कर्ण को अब स्वर्ग में कोई कष्ट नहीं था। वस्तुत: सुख से बड़ा संतोष
होता है और धन से बड़ी शांति।
नजरिया बदलकर वृक्ष ने पाया नवजीवन
एक हरे-भरे पेड़ पर बहुत सुंदर फूल और फल लगते थे। उसकी सुंदरता और संपन्नता
के कारण बहुत सारे पक्षी उस वृक्ष पर घोंसला बनाकर रहते थे।
वृक्ष भी खुशी-खुशी उन्हें आश्रय और भोजन देता था। आते-जाते मुसाफिरों को वह
शीतल छाया देता, जिसमें दो घड़ी रुककर वे अपनी थकान दूर कर लेते थे। पेड़ के आसपास हमेशा रौनक
रहती थी और पेड़ को सभी की मदद करके गर्व भरा अहसास होता था। लेकिन समय गुजरने के
साथ-साथ पेड़ पर नए पत्ते और फल-फूल आना कम हो गए।
ऐसा होने पर पक्षियों ने पेड़ पर आना बंद कर दिया। उन्हें लगा कि पेड़ पर अब
हरियाली नहीं है और शाखाएं भी सूख गई हैं। छाया न रहने पर मुसाफिरों ने भी वहां
रुकना बंद कर दिया। पेड़ दुखी हो गया। वह सोचता कि उम्रभर मैं सभी की मदद करता रहा,
किंतु मेरी
वृद्धावस्था में सभी ने मुझे छोड़ दिया। एक दिन एक संत उधर से गुजरे। वे सिद्धिप्राप्त
थे।
उन्हें पेड़ के दुख का अहसास हुआ। उनके द्वारा पूछने पर पेड़ ने अपनी पीड़ा
बयान की - ‘आजीवन मुझसे पशु-पक्षी और मनुष्य लाभान्वित हुए, किंतु बुढ़ापे में सभी ने नजरें
फेर लीं और कुछ लोग तो मुझे काटने की बात कर रहे हैं।’ तब संत बोले - ‘तुम अपने सोचने का तरीका
बदल लो। जीवनभर सभी की सहायता करने वाले तुम मृत्यु के बाद भी लकड़ी के रूप में
अनेक कार्यो में काम आओगे।’
अजय को हुआ भूल का अहसास
विनोद और अजय नाम के दो मित्र थे। दोनों में गहरी मित्रता थी और दोनों एक ही
कक्षा में पढ़ते थे। विनोद के स्वभाव की यह विशेषता थी कि वह कक्षा में बहुत लगन
से पढ़ता था, किंतु अजय का ध्यान सदा इधर-उधर की बातों में ही रहता था।
स्कूल में शिक्षक जब भी पढ़ाते तो अजय को उसके अस्थिर स्वभाव के लिए निरंतर
टोकते, जबकि
विनोद अपनी लगन के लिए सदैव प्रशंसा पाता। एक दिन विज्ञान के शिक्षक कक्षा में
पढ़ा रहे थे। उन्होंने छात्रों को अपनी अभ्यास पुस्तिका में लिखने का तरीका समझाते
हुए कुछ निर्देश दिए, जिन्हें अजय ने अपनी आदत के अनुसार ठीक से नहीं सुना।
जब सभी छात्रों ने अपनी अभ्यास पुस्तिका को पूर्ण कर लिया, तो शिक्षक ने उन्हें
अपने पास जमा कराने को कहा। जब अजय की बारी आई, तो उसकी पुस्तिका देखकर शिक्षक
ने क्रोधित होकर कहा - ‘यह तुमने क्या किया? पृष्ठ के दोनों ओर लिख दिया?
मैंने तो एक ही
तरफ लिखने का निर्देश दिया था।’ अजय घबरा गया, क्योंकि शिक्षक ने उसी दिन स्कूल की समयावधि के भीतर
पुस्तिका जमा करने को कहा था और अब छुट्टी होने में मात्र दो घंटे ही शेष थे।
अजय को घबराया हुआ देखकर विनोद ने उसे उसकी लापरवाही के लिए समझाया और शिक्षक
से अनुमति लेकर बाजार से नई पुस्तिका खरीदी। यही नहीं विनोद ने अजय के साथ बैठकर
उसका कार्य पूर्ण करवाया और शिक्षक के पास पुस्तिका जमा करवाई। उस दिन से अजय ने
अपनी अस्थिरचित्तता से तौबा कर ली। कथा का निहितार्थ यह है कि यदि विवेक-बुद्धि
स्थिर रहे, तो उलझनें तो सुलझती ही हैं, साथ ही उपलब्धियों के अनेक मार्ग भी खुल जाते हैं।
स्वामी विवेकानंद के भक्ति के ये तरीके देते हैं यश व सफलता
भगवान पर भरोसा या पनाह, दु:ख से छुटकारे और सुखों को कायम रखने की ऐसी राह है,
जिस पर चलकर कोई
भी इंसान हमेशा दु:ख से परे और सुख-शांति से जीवन गुजार सकता है।
भक्ति रूपी इस मार्ग पर भक्त अलग-अलग तरीकों से ईश्वर और दैवीय भावों के निकट
पहुंचता है। इससे अच्छे भावों के विचार और व्यवहार में आते ही जीवन में सुखद नतीजे
भी यश व सफलता के रूप में दिखाई देते हैं।
सनातन धर्म के ऐसे ही ज्ञान के रहस्यों से जुड़े मन-मस्तिष्क में चेतना भरने
वाले विचारों को उजागर किया क्रांतिकारी संत पुकारे जाने वाले स्वामी विवेकानंद
ने। अगर उनके बताए भक्त व भगवान से जुड़े कई व्यावहारिक सूत्र अपनाएं तो प्रत्यक्ष
रूप से भगवान को देखना भी संभव बनाया जा सकता है। जानिए किस तरह की भक्ति के जरिए
भगवान से साक्षात्कार करने के साथ यशस्वी व सफल भी बना जा सकता है –
जिस क्षण मैंने यह जान लिया कि भगवान हर एक मानव शरीर रूपी मंदिर में विराजमान हैं , जिस क्षण मैं हर व्यक्ति के सामने श्रद्धा से खड़ा हो गया और उसके भीतर भगवान को देखने लगा - उसी क्षण मैं बन्धनों से मुक्त हूँ, हर वो चीज जो बांधती है नष्ट हो गयी और मैं स्वतंत्र हूं। भला हम भगवान को खोजने कहां जा सकते हैं, अगर उसे अपने ह्रदय और हर एक जीवित प्राणी में नहीं देख सकते।
भगवान् की एक परम प्रिय के रूप में पूजा की जानी चाहिए, इस या अगले जीवन की सभी चीजों से बढ़कर। भगवान से प्रेम का बंधन वास्तव में ऐसा है, जो आत्मा को बांधता नहीं है बल्कि प्रभावी ढंग से उसके सारे बंधन तोड़ देता है।
जब अहंकारी का चूर हुआ घमंड
एक अहंकारी ब्राह्मण स्वयं को बड़ा विद्वान मानता था। उसने विचार किया कि राजा
के समक्ष राजपुरोहित से शास्त्रार्थ करना चाहिए। उसे यकीन था कि उसे कोई हरा नहीं
सकता। इस तरह राजा उसकी विद्वत्ता को मानेंगे और उसे ढेर सारा पुरस्कार भी प्राप्त
होगा।
एक दिन वह राजसभा में पहुंचा और वहां राजपुरोहित को शास्त्रार्थ की चुनौती दे
डाली। राजसभा में जब राजपुरोहित ने उसका प्रश्न पूछा, तो वह बोला - ‘पांच मी, पांच शी पांच न मी और न
शी। इसका अर्थ समझाओ।’ राजपुरोहित को प्रश्न समझ में नहीं आया। उसने उत्तर देने के
लिए समय मांगा।
राजा की भी प्रतिष्ठा का सवाल था। इसलिए राजा ने उसे सात दिन का समय इस
चेतावनी के साथ दिया कि यदि वह उत्तर न दे सका, तो मृत्युदंड का भागी होगा वरना
दंड ब्राह्मण को मिलेगा। राजपुरोहित ने खूब सोच-विचार किया, किंतु प्रश्न का उत्तर न खोज
पाया।
मृत्यु के भय से उसने नगर छोड़ दिया। चलते-चलते जब वह थक गया, तो एक वृक्ष की छाया में
बैठ गया। संयोगवश वृक्ष के दूसरी ओर उसी ब्राह्मण की कुटिया थी और वह अपनी पत्नी
से बोल रहा था - ‘धर्य रखो, मेरे प्रश्न का उत्तर राजपुरोहित नहीं दे पाएगा और सूली पर लटक जाएगा।
हिटलर के आगे नहीं झुके नील्स
जर्मनी के महान वैज्ञानिक थे - नील्स
बोर। नील्स अत्यंत प्रतिभाशाली और तत्कालीन शासक हिटलर के प्रिय थे। अपने सटीक
शोध-परिणामों के लिए नील्स सर्वत्र प्रशंसा पाते थे। नील्स जो भी शोध-कार्य करते, मानवता के हित में ही करते।
उनकी दृष्टि अपने लाभ पर न होकर मानव जाति के कल्याण पर रहती थी। एक बार
उन्होंने अणु-विज्ञान का शोधकार्य अपने हाथों में लिया। वे बहुत प्रसन्न होकर लगन
के साथ इसे कर रहे थे, क्योंकि उनका विश्वास था
कि इससे वे व्यापक रूप से जनहित को साकार कर पाएंगे।
वे अणु-विज्ञान के रचनात्मक उपयोग को देख रहे थे, किंतु हिटलर की दृष्टि उसके घातक उपयोग पर थी और वह
इसी कारण बहुत प्रसन्न था। जब नील्स को यह बात पता लगी, तो वे बहुत दुखी हुए। अपने शोधकार्य के विनाशकारी
उपयोग की कल्पना मात्र से उनके रोंगटे खड़े हो गए।
कई रात वे सो नहीं पाए। फिर एक दिन रात में चुपके से उठे और गैलीलियो की समाधि
पर सिर रखकर शपथ ली कि वे ऐसे किसी भी कार्य को नहीं करेंगे, जो मानवता के लिए घातक हो। उन्होंने दूसरे दिन से ही
अपना शोधकार्य बंद कर दिया।
मां की प्रेरणा से राजवीर ने जीती जंग
श्रीपुर के राजा दिलीप सिंह की असमय मृत्यु के बाद उनके इकलौते पुत्र राजवीर
सिंह को गद्दी पर बैठाया गया। राजवीर पिता की ही तरह साहसी थे, किंतु अनुभव की कमी होने
के कारण अनेक बार संकट की स्थिति में घबरा जाते थे। ऐसे में राजमाता उन्हें हिम्मत
देतीं और उचित मार्गदर्शन द्वारा संकट से उबारतीं।
पड़ोसी राज्य गंगानगर के राजा भीमसेन की निगाह श्रीपुर पर थी। आखिर एक दिन
भीमसेन ने श्रीपुर पर आक्रमण कर ही दिया। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध होने लगा।
भीमसेन की सेना बड़ी थी। अब तक दिलीप ¨सह सेना छोटी होने के बावजूद अपने साहस और हौसले से
सेना का मनोबल ऊंचा रख जीतते आए थे, किंतु राजवीर सिंह इसे कायम नहीं रख पाए।
दो ही दिन में भीमसेन ने चार मील हिस्से पर अधिकार कर लिया। जब राजमाता ने
राजवीर के मुख से छोटी सेना के कारण पराजित होने की बात सुनी, तो उन्होंने मन ही मन
कुछ तय किया। जब रात को राजवीर सोने से पहले उन्हें प्रणाम करने आए, तो उन्होंने देखा कि
राजमाता छह पतली लकड़ियों के गट्ठर से फर्श पर पड़े लोहे के बड़े टुकड़े को तोड़ने
का प्रयास कर रही हैं।
बुद्ध की बातें सुन लज्जित हुआ युवक
तथागत बुद्ध मगध में उन दिनों प्रवास पर थे। साथ में शिष्यों का बड़ा समूह भी
था। प्रतिदिन बुद्ध के प्रवचन होते, जिनका लाभ लेने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते। इन
लोगों में साधारणजन के साथ विशिष्ट हस्तियां भी शामिल रहती थीं।
हालांकि बुद्ध सभी के प्रति समान रूप से प्रेम व आत्मीयता का व्यवहार रखते थे।
इन लोगों में नगरसेठ का पुत्र भी था, जो बड़े ध्यान से बुद्ध के प्रवचन सुनता था। वह
नित्य ही बुद्ध के शिष्यों के समक्ष बुद्ध की तारीफों के पुल बांधता और धन्य-धन्य
भाव से घर जाता।
एक दिन प्रवचन समाप्त होने के बाद उसने किसी शिष्य से कहकर बुद्ध से मिलने की
हार्दिक इच्छा प्रकट की। जब उसे बुद्ध के सामने ले जाया गया, तो उसने उन्हें साष्टांग
प्रणाम कर कहा - ‘भगवन! आप जैसा तपस्वी और ज्ञानी व्यक्ति पहले न कभी हुआ था और न भविष्य में
होगा।’ यह
सुनते ही बुद्ध ने उसकी बात बीच में ही रोककर कहा - ‘वत्स!
क्या तुमने इतना अध्ययन कर लिया है कि अब तक कितने संत-महापुरुष हुए हैं?
और क्या भविष्य भी
जान चुके हो कि आगे और कोई नहीं होगा?’ युवक लज्जित भाव से चुप खड़ा रहा, क्योंकि इस बात का उसके
पास कोई जवाब नहीं था।
जब राजा ने मुखिया को सख्त सजा दी
वीरगढ़ के राजा सूर्यप्रताप दयालु व
परोपकारी थे। उनके राज्य के एक गांव में एक वर्ष बारिश नहीं हुई। अत: अकाल की
स्थिति निर्मित हो गई। उसी गांव में रामचरण नाम का गरीब किसान रहता था। अकाल के
कारण उसके घर में खाने के लाले पड़ गए।
राजा ने सहायता भिजवाई, किंतु मुखिया ने मात्र अपने चापलूसों को राजसहायता की राशि
प्रदान की थी। जब रामचरण मुखिया से सहायता मांगने गया, तो मुखिया ने उसे डांटकर भगा
दिया। रामचरण की पत्नी और नवजात बच्चे ने भूख से तड़पकर दम तोड़ दिया।
रामचरण ने वैराग्य लेने की ठान ली और साधुओं के एक दल के साथ चल पड़ा। साधु
दिनभर भिक्षा मांगते और रात में चरस-गांजा पीकर चोरी करते। गलत संगति के चलते
रामचरण ने भी नकली ज्योतिषी बनकर पैसा कमाना शुरू कर दिया। वह दिन में घूम-घूमकर
लोगों के विषय में जानकारियां एकत्रित करता और शाम को ज्योतिषी का वेश बनाकर
उन्हें, उनके
विषय में वे ही बातें बता देता।
जब इस रूप में उसकी ख्याति फैली, तो एक दिन राजा सूर्यप्रताप उससे मिलने आए, किंतु पहले उन्होंने
उसकी सत्यता स्वयं ज्ञात की। रामचरण का कपट उन्होंने जान लिया। जब सैनिकों ने उसे
गिरफ्तार कर राजा के सामने पेश किया, तो राजा ने ऐसा करने का कारण पूछा।
तब वह बोला - ‘यदि आपकी दी गई सहायता से मेरी झोली में दो रोटी भी मुखिया डाल देता, तो मेरी पत्नी व बच्चा
आज जीवित होते और मैं यह पाखंडी जीवन कभी न जीता।’
राजा ने मुखिया को सख्त सजा दी और रामचरण को गांव का मुखिया नियुक्त किया।
वस्तुत: संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना पुण्य कार्य है, किंतु सहायता का वास्तविक
व्यक्ति तक पहुंचना जरूरी है।
अपने गुरु से आगे निकल गए फैराडे
बिजली के आविष्कर्ता माइकल फैराडे का
जन्म एक गरीब लुहार के घर हुआ था। जैसे-तैसे उन्होंने मैट्रिक पास किया और फिर
आजीविका की तलाश में निकल पड़े। इंग्लैंड की सड़कों पर अखबार बेचने का काम फैराडे
को मिला, जिसे उन्होंने खुशी-खुशी स्वीकार
किया।
अखबार बेचने के बाद जो समय बचता, उसमें अध्ययन करते। इस काम में पैसे कम मिलते थे, इसलिए उन्होंने पुस्तकें छापने की फर्म में नौकरी कर
ली। फर्म का मालिक इनकी प्रतिभा से प्रभावित था। वह अपने सभी ग्राहकों से फैराडे
की प्रशंसा करता। इनमें से किसी एक ग्राहक ने फैराडे को दर्शनशास्त्र का अध्ययन
नि:शुल्क कराना शुरू किया। फिर अचानक फैराडे की रुचि विज्ञान की ओर हुई।
एक बार वे मशहूर वैज्ञानिक हम्फ्रे डेवी का विज्ञान-अनुसंधान विषयक भाषण सुनने
गए। इसके बाद तो उन्होंने डेवी को अनेक बार सुना। फिर उनके चार भाषणों को लिखकर
रॉयल सोसायटी को भेजा, किंतु इसका कोई जवाब
नहीं आया। एक दिन उन्होंने इन्हीं भाषणों को हम्फ्रे डेवी को भेज दिया। हम्फ्रे
डेवी ने उनके लेखों से प्रभावित होकर रॉयल सोसायटी में लेबोरेटरी असिस्टेंट का
नियुक्ति पत्र उन्हें भिजवाया। फिर क्या था, फैराडे डेवी के सहयोगी बन गए और विद्युत धारा के प्रवाह का आविष्कार कर डेवी
से भी आगे निकल गए।
स्वयं हम्फ्रे डेवी ने उनकी प्रशंसा में ये शब्द कहे - ‘मेरी अनेक खोजों में सबसे महत्वपूर्ण खोज माइकल
फैराडे हैं।’ कथा का सार यह है कि
प्रतिभा अपनी राह खोज लेती है। एक अवसर और तनिक सहयोग उसका मार्ग आसान कर देते
हैं।
अपने लक्ष्य से नहीं भटके आजाद
चंद्रशेखर आजाद ने भारत को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराना अपने जीवन का एकमात्र
लक्ष्य बना लिया था। इसके लिए उन्होंने घर-परिवार भी छोड़ दिया था।
पारिवारिक दायित्वों से वे मुक्त थे और पूरा समय राष्ट्रसेवा के लिए समर्पित
थे। अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में जो पैसा लगता, उसे आजाद अपने साथियों के सहयोग से एकत्रित करते थे। इस कारण कई बार उनके पास
काफी धन होता था, जिसे वे विवेकपूर्ण
तरीके से विविध मदों पर व्यय करते और उसका पूरा हिसाब भी रखते थे, ताकि उन पर कोई संदेह न करे।
आजाद के माता-पिता बुजुर्ग हो चले थे और उनकी आर्थिक स्थिति भी अत्यंत दयनीय
थी। चूंकि आजाद ने स्वयं को देश के काम में झोंक दिया था, इसलिए वे माता-पिता की विशेष मदद व देखभाल नहीं कर
पाते थे। एक बार किसी ने उनसे कहा कि तुम्हारे पास देश के कामों के लिए इतना पैसा
आता है। उसमें से कुछ सहायता माता-पिता की भी कर दिया करो।
यह सुनते ही आजाद ने क्रोध में आकर कहा - ‘इतनी
कठिनाई से क्या मैं माता-पिता के लिए पैसे जमा करता हूं? अगर उन्हें दे भी दूं, तो कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ेगा, किंतु मैं ऐसा नहीं कर सकता,
क्योंकि
पैसे मैं भारत माता के लिए एकत्र करता हूं। इसलिए कृपया मुझे भारत माता की सेवा के
मार्ग से विचलित न करें और उनके विषय में कुछ कह या लिखकर मुझे प्रभावित करने का
प्रयास न करें।’ सार यह है कि अपने पद, प्रतिष्ठा या अवसरों का उपयोग निजी स्वार्थो के लिए
न करते हुए राष्ट्रहित में करना राष्ट्रभक्ति है और यह बड़े व व्यापक लाभों को
साकार करता है।
परहेज तोड़कर वैद्य ने किया इलाज
रामगढ़ रियासत के महाराज हरिसिंह का एकमात्र पुत्र था अभय। उसकी उम्र थी सोलह
वर्ष। अचानक उसे किसी ऐसी बीमारी ने आ घेरा कि वह दिनोंदिन दुर्बल होने लगा।
राजवैद्य सहित राज्य के सभी वैद्यों ने उसका उपचार किया, किंतु वह स्वस्थ नहीं हुआ।
राजकुमार के ठीक न होने का कारण यह था कि वैद्य की दी हुई दवा तो वह खाता था, किंतु परहेज नहीं करता था। सभी वैद्य उसे दही खाने
को मना करते थे, किंतु दही खाना वह नहीं
छोड़ता था, क्योंकि दही उसे अत्यधिक
प्रिय था। महाराज परेशान हो गए। एक दिन महामंत्री किसी अन्य राज्य के एक वैद्य को
लेकर आए और महाराज से आग्रह किया कि राजकुमार का उपचार उनसे करवाएं।
जब महाराज ने वैद्य से राजकुमार की दही खाने की आदत का जिक्र किया, तो वह बोले- ‘महाराज!
आप मुझे पंद्रह दिन का समय दीजिए।’
महाराज ने
मंजूर किया। वैद्य ने इलाज के पहले दिन गाय का दूध मंगवाकर दही जमाया और राजकुमार
के भोजन में काफी मात्रा में दही रखा। राजकुमार प्रसन्न हो गया। अगले दिन वैद्य ने
भैंस के दूध से दही जमाया और राजकुमार को खुश कर दिया।
तीसरे दिन बकरी के दूध से जमाया दही राजकुमार की थाली में था। इस प्रकार दस
दिन तक वैद्य ने तरह-तरह से दही जमाकर राजकुमार को खूब दही खिलाया। ग्यारहवें दिन
से राजकुमार दही से ऊबने लगा, बारहवें दिन से उसने दही
का सर्वथा बहिष्कार कर दिया। तब वैद्य ने उसके रोग का उपचार आरंभ किया और कुछ ही
दिन में उसे चंगा कर राजा से इनाम पाया। व्यवहार के तरीके बदलकर समाधान पाया जा
सकता है, क्योंकि एक व्यक्ति की प्रकृति, दूसरे से अलग होती है। इसलिए सभी को एक लकड़ी से
नहीं हांका जा सकता।
जब मां ने पुत्र के लिए मौत स्वीकारी
महारानी विक्टोरिया की पुत्री थी
ऐलिस। ऐलिस को विवाहोपरांत एक पुत्र हुआ। ऐलिस अपने नन्हें पुत्र का हर प्रकार से
ख्याल रखतीं और निरंतर उसके साथ ही बनी रहती थीं। हालांकि बच्चे का ध्यान रखने के
लिए घर में नौकर-चाकरों की कमी नहीं थी, किंतु ऐलिस अपनी संपूर्णता में बस ‘मां’ ही थीं। उन्हें अपने
बच्चे से अत्यधिक लगाव था और इसी कारण वे सदैव उसे अपनी आंखों के सामने रखती थीं।
जब उसकी उम्र 10 वर्ष की हुई, तब वह किसी संक्रामक रोग से ग्रस्त हो गया। योग्य चिकित्सकों की देखरेख में
उसका उपचार शुरू हुआ। चिकित्सकों का कहना था कि बच्चे की सांस से दूर रहा जाए,
अन्यथा संपर्क में
आने वालों को भी यह बीमारी लग सकती है। महल के सभी लोग बच्चे से दूर रहते, किंतु ऐलिस उसे अपनी गोद
में ही रखतीं। सभी उन्हें मना करते, किंतु मां का दिल कैसे मानता?
एक दिन बच्चे ने उनसे कहा कि उन्होंने उसे बहुत दिनों से प्यार नहीं किया है।
यह सुनते ही ऐलिस ने स्नेहवश उसका चुंबन ले लिया। ऐसा करने से ऐलिस भी उसी
संक्रामक रोग की चपेट में आ गईं। जब भी कोई उनसे पूछता कि सब कुछ पता होने पर भी
उन्होंने ऐसा क्यों किया? तो उनका उत्तर होता - ‘क्योंकि मैं मां हूं।’
शिष्यों ने जाना मानव सेवा का महत्व
एक विख्यात संत थे। दूर-दूर से शिक्षा
प्राप्त करने शिष्यगण उनके पास आते थे। उनके अनेक शिष्यों में दो उन्हें अति प्रिय
थे, क्योंकि
दोनों बहुत धार्मिक वृत्ति के थे। दोनों नित्य प्रात:काल जल्दी उठकर स्नान करने के
बाद पूजा-पाठ में लग जाते।
चार घंटे की पूजा के बाद वे लोग सीधे अपने गुरु के पास पहुंचते और आश्रम में
आए रोगियों की सेवा करने में उनकी सहायता करते। चूंकि संत ने पीड़ित मानवता की
सेवा का व्रत लिया था, इसलिए वे स्वयं आगे बढ़कर दीन-दुखियों की मदद करते।
निर्धन बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देते, गरीब परिवारों को अन्न व वस्त्र
उपलब्ध कराते और असहाय-अनाथों व अस्वस्थ बुजुर्गो के लिए आसरा तथा चिकित्सा की
व्यवस्था करते। एक दिन दोनों शिष्य अपनी लंबी पूजा में व्यस्त थे। तभी संत का
बुलावा आया, क्योंकि उस दिन आश्रम में मरीजों की भीड़ अधिक थी। किंतु दोनों शिष्य पूजा
अधूरी छोड़कर नहीं गए। संत ने थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद फिर बुलावा भेजा।
जब नेहरूजी ने दोष को खूबी में बदला
चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाउ एन लाइ भारत आए हुए थे। पंडित जवाहरलाल
नेहरू खासे उत्साहित थे। चीनी प्रधानमंत्री के सत्कार में कोई कमी न रह जाए,
इसके लिए नेहरूजी
स्वयं सभी व्यवस्थाओं पर निगरानी रख रहे थे।
विशिष्ट अधिकारियों की पूरी टीम चाउ एन लाइ के आतिथ्य में जुटी हुई थी। हर
व्यक्ति चाहता था कि चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा यादगार बन जाए। पंडित नेहरू
का आधिकारिक प्रधानमंत्री निवास विशेष रूप से सजाया गया था। दोनों प्रधानमंत्रियों
की वार्ता की मेज पर मुलाकात हो चुकी थी। अब पंडितजी चाउ एन लाइ को रात्रिभोज देने
जा रहे थे।
प्रधानमंत्री निवास में सभी तैयारियां हो चुकी थीं। पंडित नेहरू ने चाउ एन लाइ
के आने के दस मिनट पूर्व स्वयं आकर सारी व्यवस्था का जायजा लिया। जब अतिथि के आगमन
में दो मिनट बाकी थे, तभी बिजली गुल हो गई। गहन अंधकार चारों ओर छा गया। सभी चिंतामग्न हो गए कि अब
विदेशी अतिथि के सामने हमारी प्रतिष्ठा प्रभावित होगी। लोग विद्युत विभाग को दोष
देने लगे। तभी अंधेरे में पं. नेहरू की आवाज गूंजी - ‘बड़ी मोमबत्तियां ला सकते हो?’
तत्काल
मोमबत्तियां आ गईं और पूरा हॉल उनसे जगमगा उठा।
तभी चाउ एन लाइ आए और इस कैंडल लाइट डिनर की व्यवस्था पर अभिभूत हो गए। बिजली
गुल होने का उन्हें अहसास तक न हुआ और
उन्होंने मेजबान की खूब प्रशंसा की। सार यह है कि व्यवस्थापक को विपरीत स्थितियों
में भी धर्य रखकर सही निर्णय लेना चाहिए। तभी प्रत्येक अवसर सफलता के साथ घटित
होता है।
गांधीजी ने समझाया हर वस्तु का महत्व
एक दिन गांधीजी सेवाग्राम में घूमने निकले। साथ में उनके कुछ सहयोगी भी थे।
स्वराज को लेकर चर्चा हो रही थी और गांधीजी सभी के विचार सुन रहे थे। साथ ही अपनी
राय भी व्यक्त कर रहे थे।
इस भ्रमण के दौरान गांधीजी की दृष्टि मार्ग में पड़े पूनी के एक छोटे-से
टुकड़े पर गई। उन्होंने साथ चल रही एक बहन को उसे उठा लेने का संकेत किया। उसने
गांधीजी की आज्ञा का पालन करते हुए उस टुकड़े को उठा लिया। जब गांधीजी वापस आश्रम
लौटे, तो
उन्हें पूनी के उस टुकड़े की याद हो आई।
उन्होंने उस बहन को बुलाया और कहा - ‘पूनी के जिस टुकड़े को तुमने उठाया था, वह ले आओ।’ यह सुनते ही वह हैरानी
से बोली - ‘बापू! मैंने तो उसे कचरा समझकर कूड़ेदान में डाल दिया।’ गांधीजी ने दुखी होकर उससे पूछा
- ‘यदि
वहां रुपया या पैसा पड़ा होता, तो भी क्या तुम उसे कचरा समझकर कूड़ेदान में फेंक आतीं?’
उसने उत्तर दिया -
‘नहीं,
बापू!’ तब गांधीजी ने उसे
समझाया- ‘वह
भी पैसा ही था।
तुम्हें आश्रम में रहकर इस बात की पहचान होनी चाहिए कि वास्तव में असली धन
क्या है? जिसने
उस पूनी को बिना पूरा काते छोड़ा, उसने तो धन फेंका ही, मैंने तुमसे उठाने को कहा,
किंतु तुम भी उस
धन को नहीं पहचान सकीं। जाओ, तुमने उसे जहां भी फेंका है, वहां से उसे उठा लाओ और याद रखो
कि मेहनत से ही धन बनता है और उस धन का सही उपयोग करना हमारा कर्तव्य है।’
कथा का सार यह है कि हर छोटी से छोटी वस्तु तथा परिश्रम से अर्जित धन की कद्र
की जानी चाहिए। चूंकि वह सद्मार्ग के द्वारा हासिल किया जाता है, इसलिए प्रणम्य भी है और
ग्रहणीय भी।
वजीर ने दिखाई बादशाह को सही राह
एक विलासी बादशाह था। वह सभी प्रकार
के व्यसन और दुराचार करता तथा अपने वजीर से कहता- ‘मनुष्य का जन्म बार-बार नहीं
मिलता है, इसलिए खूब भोग करो और आनंद लो।’ वजीर बहुत भला था। उसे बादशाह की आदतों व आचरण से
बड़ा कष्ट होता।
कभी-कभी अवसर देखकर वह बादशाह को समझाने का प्रयास भी करता, किंतु परिणाम कुछ नहीं
निकलता। बादशाह अपने मौज-शौक में इतना डूबा रहता कि अपनी प्रजा का उसे ख्याल ही
नहीं रहता। प्रजा में उसे लेकर घोर असंतोष था, किंतु वह इतना बेरहम था कि कोई
उसके विरोध का साहस नहीं जुटा पाता। एक दिन बादशाह वजीर के किसी काम से बहुत
प्रसन्न हुआ।
उसने उसे एक अत्यंत कीमती दुशाला भेंट किया। लेकिन वजीर ने दरबार से बाहर
निकलते ही उस दुशाले से अपनी नाक पोंछ ली। यह बात वजीर से ईष्र्या रखने वाले एक
दरबारी ने बादशाह को बता दी। बादशाह ने वजीर को बुलाकर इस गुस्ताखी का कारण पूछा,
तो वजीर बोला - ‘बादशाह सलामत! मैंने वही
किया, जिसकी
तालीम मुझे आपने दी है।’
बादशाह ने हैरानी से पूछा- ‘मेरे दिए हुए कीमती दुशाले को गंदा करने की बेजा तालीम
मैंने तुम्हें कब दी?’ तब वजीर ने कहा - ‘खुदा ने आपको इस दुशाले से हजार गुना कीमती शरीर
दिया है, किंतु
आपने उसका जो इस्तेमाल किया है, उसी से मुझे यह तालीम मिली है।’ वजीर की बात सुनकर बादशाह को
अपनी भूल का अहसास हुआ और उस दिन से उसके व्यवहार में अंतर आ गया। वस्तुत: ईश्वर
की बनाई इस सृष्टि में मानव सर्वोत्कृष्ट कृति है, क्योंकि बुद्धि, विवेक और ज्ञान का वरदान
मात्र उसे ही मिला है, जिनका सही ढंग से उपयोग कर वह अपने जीवन को सार्थक बना सकता
है।
जीवन को ऊर्जा से भर देती है कृतज्ञता
हम जब पूजा-पाठ करते हैं, किसी परमशक्ति से जुड़े होते हैं, तो भीतर से बिल्कुल साफ-सुथरे
होने लगते हैं। जीवन को देखने की हमारी दृष्टि बदल जाती है, लेकिन जैसे ही हम अहंकार से
जुड़ते हैं भीतर का साफ-सुथरापन खत्म हो जाता है। उसमें कई चीजों का मिश्रण होने
लगता है।
हमारे सोचने की शक्ति, बोलने का भाव, करने का तरीका सब दूषित होने लगता है। अहंकार गिराने
का एक तरीका है - कृतज्ञता व्यक्त करते रहें। हनुमानभक्त श्रीरविशंकरजी रावतपुरा
सरकार सरल भाषा में व्यक्त करते हैं- व्यक्ति के लिए धन्यवाद देने से ज्यादा
महत्वपूर्ण कोई दूसरा कर्तव्य नहीं है। जो व्यक्ति अपने वर्तमान उपहारों के प्रति
कृतज्ञ नहीं है, वह भविष्य में प्राप्त होने वाली उपलब्धियों के प्रति आभारी नहीं होगा।
जो दृष्टिकोण, जो विचार कृतज्ञता का द्वार बंद कर देता है, वह जीवन को कड़वा और निर्थक बना
देता है। ऐसी स्थिति में स्वार्थपरक दृष्टिकोण शीघ्र ही जीवन पर प्रभावी हो जाता
है और जीवन के उस द्वार को बंद कर देता है, जिसमें से अच्छाइयां प्रवेश करती
हैं। कृतज्ञता एक ऐसी शक्ति है, जो जीवन को ऊर्जा से भर देती है। व्यक्ति की अपनी शांति के
तीन शत्रु होते हैं - अतीत की गलतियों पर पछतावा करना, भविष्य की समस्याओं और संकटों पर
चिंता करना तथा वर्तमान में प्राप्त उपहारों के प्रति कृतज्ञ न होना।
अहंकार और कृतघ्नता का आपस में गहरा संबंध है। यदि आप गर्व करते हैं तो
निश्चित है कि आप कृतज्ञ हो ही नहीं सकते। हमारे द्वारा बोले गए सहानुभूतिपूर्ण
शब्दों में कुछ भी खर्च नहीं होता, लेकिन उनसे हासिल बहुत कुछ होता है। हमें ईश्वर से
प्रार्थना करनी चाहिए कि हे ईश्वर! मुझे एक कृतज्ञ हृदय और प्रदान करें।
श्रीराम ने बताया जन्मभूमि का महत्व
वाल्मीकि रामायण में एक बड़ा ही
प्रेरक प्रसंग आता है। जब श्रीराम ने रावण का वध करके लंका विजय कर ली, तब उन्हें सर्वप्रथम
विभीषण का राजतिलक कर उसे लंका के सिंहासन पर आसीन करना था। इस कार्य के लिए
उन्होंने लक्ष्मण को चुना।
लक्ष्मण से श्रीराम ने कहा - 'लक्ष्मण! तुम लंका जाकर विभीषण का विधिपूर्वक राजतिलक करो
और फिर लौट आना।' श्रीराम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण लंका गए। उन्होंने जैसे ही राजधानी में प्रवेश
किया, वे
मंत्रमुग्ध रह गए।
वहां के हरे-भरे वृक्ष, सुंदर पुष्पों व लताओं से आच्छादित बगीचे, कल-कल बहते जल प्रपात,
पक्षियों का
मनमोहक कलरव और ऊंचे-सुंदर भवनों को देखकर लक्ष्मण का मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने
विभीषण का राज्याभिषेक किया और फिर लौटकर राम से बोले - 'भैया! लंका ने मेरा मन चुरा लिया
है।
यह नगरी स्वर्ग जैसी है। आपकी आज्ञा हो, तो मैं यहीं रह जाऊं।' श्रीराम ने उनकी बात
सुनकर कहा - 'लक्ष्मण! इसमें कोई संदेह नहीं कि लंका का सौंदर्य निराला है। यह सचमुच स्वर्ग
जैसी नगरी है। यहां चारों ओर अपार प्राकृतिक सौंदर्य हैं, समृद्धि है।
किंतु याद रखो, सौंदर्य, समृद्धि व वैभव से परिपूर्ण होने के बावजूद लंका, अयोध्या की बराबरी नहीं कर सकती,
क्योंकि वह हमारी
जन्मभूमि है। जहां व्यक्ति जन्म लेता है, वहां की मिट्टी जैसा आनंद कोई अन्य भूमि नहीं दे
सकती, इसलिए
हमारी अयोध्या तीनों लोकों से बढ़कर है।'
यह सुनते ही लक्ष्मण की आंखों से लंका का मायाजाल हट गया। वस्तुत: जन्म देकर
पालन-पोषण करने वाली जन्मभूमि की अनुभूति दिव्य होती है। अत: उसके प्रति मन में
सदा श्रद्धा-भाव रहना चाहिए।
सत्संग से चोर बन गया सदाचारी
एक साधु किसी बस्ती के किनारे अपनी
कुटिया में रहता था। सुबह-शाम उसकी कुटिया के आंगन में भजन-कीर्तन होता। उसके बाद
वह सभी को उपदेश देता था। अपने उपदेशों के माध्यम से वह सदाचरण की शिक्षा देता था।
अमीर हो या गरीब, साधु की कुटिया के द्वार सभी के लिए खुले थे। लोग साधु के पवित्र जीवन से
प्रभावित होकर बड़ी संख्या में वहां आते थे। एक दिन एक सेठ ने साधु के
कीर्तन-प्रवचन में हिस्सा लिया। वह सेठ अति धनवान था। शहर में उसकी किराने की बहुत
बड़ी दुकान थी।
सेठ ने कीर्तन के बाद साधु के ये उपदेश भी सुने - ‘धर्म व्रत-उपवास, ध्यान या लंबी पूजा-पाठ
में नहीं, बल्कि जीवन के हर एक काम में सच्चई व ईमानदारी बरतना है। अंत समय में आदमी के
साथ उसके भले-बुरे कर्म ही जाते हैं।’ सेठ साधु के प्रवचन बड़े भक्ति-भाव से सुन रहा था और
मग्न होकर सिर हिला रहा था। उससे कुछ ही दूरी पर एक चोर बैठा था, जिसकी आंखें सेठ को
लूटने के लिए उसी पर लगी थीं, किंतु साधु के प्रवचन सुनकर चोर इतना प्रभावित हुआ कि उसने
सभी के जाने के बाद साधु के समक्ष चोरी छोड़ने का संकल्प लिया।
संयोग से अगले दिन वह उसी सेठ की दुकान पर कुछ सामान लेने गया। उसने देखा कि
तौल में सेठ ने डंडी मार दी। उसने सेठ से कहा - ‘कल तो आप साधु महाराज की बातें
सुनकर बड़ा भक्ति-भाव जता रहे थे और आज उन्हें भूल गए?’ सेठ त्यौरी चढ़ाकर बोला - ‘तुम सामान खरीदने आए हो
या उपदेश देने।’ तब चोर ने कहा - ‘जो दुनिया को धोखा देता है, वह स्वयं को धोखा देता है। अच्छी बातें सुनो ही नहीं,
गुनो भी।’ अब सेठ निरुत्तर था। सार
यह है कि सद्गुणों को आचरण में उतारने वाला ही श्रेष्ठ मानव होता है।
जब नौकरानी ने की रानी की बराबरी
एक राजा और रानी की एक ही पुत्री थी।
उसके बड़े होने पर रानी को उसके विवाह की चिंता हुई। राजा और रानी ने अनेक
राजकुमार देखे, किंतु अपनी बेटी के अनुकूल किसी को नहीं पाया। एक दिन रानी उदास बैठी हुई थी।
तभी महल में सफाई का काम करने वाली एक नौकरानी वहां आई। उसने रानी से उदासी का
कारण पूछा, तो वह बोली- ‘बेटी बड़ी हो गई है।
उसके विवाह की चिंता मुझे परेशान कर रही है। अब तक कोई योग्य लड़का हमें नहीं
मिला।’ यह
सुनते ही वह बोली - ‘रानीजी! आप नाहक ही परेशान हो रही हैं। मेरा लड़का है तो सही।’ उसकी बात पर रानी को
बहुत गुस्सा आया। वह बोली - ‘खबरदार! जो अब कभी ऐसी बात कही, तो ठीक न होगा।’ अगले दिन उस नौकरानी ने
आते ही रानी से पूछा - ‘रानीजी! कोई लड़का मिला।’ रानी की ‘ना’ सुनते ही उसने फिर अपने लड़के का
प्रस्ताव रखा।
इस बार रानी आपे से बाहर हो गई और उसे महल से निकलवाकर राजा को उसकी शिकायत
की। राजा ने कहा - ‘यह ये नौकरानी नहीं, कोई और बोल रहा है।’ अगले दिन राजा ने उस स्थान को
खुदवाया, जहां
खड़े होकर उस नौकरानी ने ये बातें कही थीं।
खुदाई करने पर वहां से अशर्फियों से भरे कई कलश निकले। राजा ने उन्हें खजाने
में जमा कर रानी से पुन: नौकरानी से वही बात करने को कहा। दूसरे दिन जब रानी ने
राजकुमारी के लिए नौकरानी के लड़के के बारे में बात की, तो उसने गिड़गिड़ाकर कहा - ‘रानीजी! कहां आप और कहां
हम। आपकी कृपा से दो रोटी मिलती हैं। हम उसी में खुश हैं।’ संकेत यह है कि धन से शक्ति आती
है, जो
अहंकार का कारण बनती है। अत: कोशिश की जानी चाहिए कि धन के साथ मद न आए और स्वभाव
में नम्रता बनी रहे।
चतुर व्यक्ति ने वृद्धा का तनाव दूर किया
किसी गांव में एक वृद्धा रहती थी। वह
चरखे पर सूत कातकर अपने परिवार का पालन-पोषण करती थी। वृद्धा के खेत में कपास होता
था। वह अपने घर के सभी लोगों के वस्त्र इस कपास के सूत को कातकर तैयार कर देती थी
और अतिरिक्त कपास या रूई दूसरे गांवों में बैलगाड़ियों के माध्यम से पहुंचवा देती
थी।
एक दिन जब वह कताई कर रही थी, तो उसने देखा कि घर के सामने से कई गाड़ियां गुजरीं। उनमें
कपास भरी हुई थी। उन्हें देखकर वृद्धा हैरान रह गई। उसने सोचा कि इतनी रूई कौन
कातेगा? थोड़ी
देर तक उसने इस बात पर विचार किया, फिर अपना ध्यान काम पर लगाने की कोशिश की, किंतु वह असफल रही। उसके
दिमाग से यह बात हट ही नहीं रही थी।
उसकी भूख, प्यास, नींद सब गायब हो गई और सूत कातना भी बंद हो गया। यह देखकर घर के लोगों ने
परेशान होकर गांव के एक चतुर आदमी को बुलाया। उसने सारी समस्या समझने के बाद
वृद्धा को ठीक करने का आश्वासन दिया। वह वृद्धा के पास जाकर बोला - ‘माई, तुमने कुछ सुना?’
वृद्धा ने पूछा - ‘क्या?’ उसने कहा - ‘अरे, क्या बताऊं। कुछ दिनों
पहले यहां से रूई लदी बैलगाड़ियां निकली थीं।
उन गाड़ियों में आग लग गई।’ वृद्धा ने उत्सुकता से पूछा - ‘फिर क्या हुआ?’ वह आदमी बोला - ‘सारी रूई जलकर खाक हो
गई।’ यह
सुनते ही वृद्धा ने चैन की सांस लेकर कहा - ‘अच्छा हुआ। आखिर इतनी रूई को कोई
कब तक कातता?’ अब वृद्धा के मन का भार हल्का हो गया और वह पुन: सूत कातने लगी। सार यह है कि
कभी-कभी विचार-प्रवाह किसी एक बात पर ही टिककर तनाव पैदा कर देता है, जिसे दूर करने के लिए
चतुराई भरी समझ की जरूरत होती है।
संत राबिया ने बताए भक्ति के मायने
एक दिन महिला संत राबिया कुछ जिज्ञासुओं के साथ धर्म-चर्चा कर रही थीं। यह
उनकी दिनचर्या का एक अभिन्न हिस्सा था।
उपस्थितजन राबिया से अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासाओं व शंकाओं का समाधान कर रहे
थे। अचानक राबिया ने उनमें से एक व्यक्ति से प्रश्न किया- ‘तुम ईश्वर की भक्ति क्यों करते
हो?’ पहले
तो वह व्यक्ति सकपकाया, फिर सोचकर बोला- ‘मुझे नर्क से बड़ा भय लगता है। मृत्यु के बाद उस
नर्क की यातना से बचने के लिए ही मैं ईश्वर की भक्ति करता हूं।’
फिर संत राबिया ने यही प्रश्न एक अन्य व्यक्ति से किया, तो उसने जवाब दिया - ‘मुझे स्वर्ग बड़ा अच्छा
लगता है। वहां का वर्णन मैंने अनेक ग्रंथों में और महापुरुषों के द्वारा पढ़ा-सुना
है। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि स्वर्ग में भांति-भांति के सुख हैं। मैं तो उन्हें
ही पाने के लिए ईश्वर की भक्ति करता हूं।’
राबिया ने उपस्थित जनसमुदाय से अगला प्रश्न किया- ‘यह बताओ कि यदि स्वर्ग या नर्क
नहीं होता, तो क्या तुम लोग ईश्वर की भक्ति करते?’ इसका उत्तर कोई नहीं दे सका। तब
संत राबिया ने उन्हें समझाया- ‘सच्चे भक्त न नर्क की चिंता करते हैं और न स्वर्ग का मोह
पालते हैं। उनकी भक्ति किसी मतलब से नहीं होती। उसके पीछे कोई कारण नहीं होता।’
संत राबिया की बातें सुनकर उन सभी को भक्ति के असली मायने समझ में आ गए।
वस्तुत: नि:स्वार्थ भक्ति श्रेष्ठतम है। ईश्वर भक्त को निर्मल व आत्मिक आनंद की
प्राप्ति के लिए प्रतिफल की इच्छा से रहित पूर्ण समर्पण जरूरी है।
साधु ने समझाया धर्म का महत्व
एक साधु अपनी कुटिया में परम आनंद से रहते थे। सभी वर्गो के लोग उनकी सहजता
तथा ज्ञान देखकर उनके पास आते और उनका सान्निध्य पाकर अपनी कठिनाइयों का सरल हल पा
जाते।
एक दिन एक धनी उनके पास कुछ दिन रहने के लिए आया। उसने अपने मन की ऊहापोह इस
रूप में साधु के समक्ष रखी - ‘महाराज! जीवन के हर कदम पर धन की आवश्यकता होती है। बिना धन
के जीवन चल ही नहीं सकता, किंतु धर्म के बिना तो कोई काम नहीं रुकता। फिर भी उसकी
दुहाई दी जाती है। यह बात मुझे परेशान कर रही है।
मैंने तो धन को प्रमुख मानकर उससे मेरी तिजोरियां भर रखी हैं।’ साधु ने उसकी शंका का
समाधान उस समय नहीं किया। धनी ने सोचा कि शायद किसी और दिन साधु महाराज उसके
प्रश्न का उत्तर देंगे। वह तो वहां कुछ दिन रुकने ही आया था। रात होने पर साधु ने
उसे अपने ही कक्ष में सोने के लिए कहा। जब धनी सोने आया, तो देखा कि कक्ष में दीपक जल रहा
है।
थोड़ी देर तो धनी ने कुछ नहीं कहा। फिर रात बढ़ने पर उसने साधु से पूछा - ‘महाराज! दीपक क्यों जल
रहा है?’ साधु
ने उत्तर दिया - ‘इसलिए कि अंधेरा है।’ धनी को दीपक के कारण नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी देर बाद
उसने फिर पूछा - ‘महाराज! दीपक कब तक जलता रहेगा?’ साधु बोला - ‘जब तक अंधेरा रहेगा।’ यह सुनते ही धनी को सहसा
अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया। कथा का निहितार्थ यह है कि धर्म की दुहाई अधर्म के
विरोध के लिए दी जाती है। जब तक अधर्म रहेगा, धर्म की आवश्यकता बनी रहेगी।
जब बुजुर्ग महिला धोखे से बच गई
एक गरीब बुजुर्ग महिला अपने गांव से दूसरे गांव जाने के लिए निकली। उसके सिर
पर एक भारी पोटली रखी थी। चलते-चलते वह थक गई।
सोचने लगी कि किसी का थोड़ा सहारा मिल जाए, तो अच्छा हो। तभी उधर से एक
घुड़सवार गुजरा। बुजुर्ग महिला उसे रोकते हुए बोली - ‘बेटा! मैं बहुत थक गई हूं। तुम
दया कर मेरी यह पोटली अपने घोड़े पर रख लो और अगले गांव पहुंचा दो। मैं भी पीछे से
आ रही हूं। तुमसे पोटली वहीं ले लूंगी।’
घुड़सवार युवक जल्दी में था। उसने बेरुखी से कहा - ‘मुझे इतना समय नहीं है कि किसी
और का बोझ ढोता फिरूं।’ इतना कहकर वह आगे बढ़ गया। महिला को बड़ा बुरा लगा और वह
युवक को कोसने लगी। फिर अचानक मानो किसी ने उससे कहा - ‘जो हुआ, अच्छा हुआ। तू तो उस आदमी को
जानती भी नहीं थी। तेरी पोटली लेकर वह भाग जाता, तो तू क्या कर लेती?’ यह विचार मन में आते ही
उसने चैन की सांस ली, क्योंकि पोटली में उसके जीवनभर की कमाई चांदी के गहनों के रूप में थी।
उधर घुड़सवार को कुछ दूर जाकर विचार आया कि मैंने हाथ आया धन खो दिया, पोटली लेकर चलता बनता।
वह पीछे लौटा और महिला से बोला - ‘माफ करना माई! मैंने गलती की। तुम्हारी पोटली मुझे कौन-सी
अपने सिर पर रखनी थी? लाओ, दे
दो। अगले पड़ाव पर ले लेना।’ किंतु अब बुजुर्ग महिला सावधान हो चुकी थी। घुड़सवार की
नीयत भांपकर बोली - ‘बेटा! अब यह पोटली तुम्हें नहीं दूंगी। जिसने तुम्हें यह अक्ल दी, उसने मुझे भी अक्ल दे
दी।’ घुड़सवार
हाथ मलता हुआ अपने रास्ते चला गया। वस्तुत: अनजान पर विश्वास करने से धोखे की आशंका
रहती है। अत: विश्वास उसी पर करना चाहिए, जिसे परख चुके हों।
बुद्ध ने सिखाया सेवा का महत्व
बौद्ध संघ के एक भिक्षु को कोई गंभीर रोग हो गया। उसकी हालत इतनी खराब हो गई
कि वह चल-फिर भी नहीं सकता था और मल-मूत्र में लिपटा पड़ा रहता था। उसकी यह हालत
देख उसके साथी भिक्षु भी उसके पास नहीं आते और घृणा से मुंह फेरकर आसपास से निकल
जाते थे।
कुछ दिनों बाद बुद्ध को यह बात पता चली तो वे तत्काल अपने प्रिय शिष्य आनंद के
साथ उस भिक्षु के पास पहुंचे। उसकी दयनीय दशा से उन्हें घोर कष्ट हुआ। उन्होंने
भिक्षु से पूछा- तुम्हें क्या रोग हुआ है? भिक्षु बोला- भगवन! मुझे पेट की बीमारी है।
बुद्ध ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए प्रश्न किया- क्या तुम्हारी
परिचर्या करने वाला कोई नहीं है? भिक्षु की ना सुनते ही बुद्ध ने आनंद से कहा- पानी लेकर आओ।
हम लोग पहले इसका शरीर स्वच्छ करेंगे। आनंद पानी लेकर आए।
फिर बुद्ध ने भिक्षु के शरीर पर पानी डाला और आनंद ने उसके मल-मूत्र को साफ
किया। अच्छी तरह धो-पोंछकर बुद्ध ने भिक्षु के सिर को पकड़ा और आनंद ने पैरों को।
इस प्रकार उसे उठाकर चारपाई पर लिटा दिया।
फिर बुद्ध ने सारे भिक्षुओं को एकत्रित कर उन्हें समझाया- भिक्षुओ! तुम्हारे
माता नहीं, पिता नहीं, भाई नहीं, बहन नहीं जो तुम्हारी सेवा करेंगे। यदि तुम परस्पर एक-दूसरे की सेवा और देखभाल
नहीं करोगे तो फिर कौन करेगा।
याद रखो, जो रोगी की सेवा करता है, वह ईश्वर की सेवा करता है। दीन-हीन के प्रति करुणा व सेवा
का भाव इस जगत को बुद्ध का सबसे बड़ा संदेश है, जो प्रत्येक देश, काल, परिस्थिति में प्रासंगिक
है।
और कुदाली उगलने लगी सोना
एक आदमी के दो बेटे थे। जब वह वृद्ध
हुआ, तो
उसने अपने दोनों बेटों को अपने पास बुलाया और कहा - ‘अब मैं बूढ़ा हो गया हूं। पता
नहीं, जीवन
कब खत्म हो जाए? इसलिए शेष जीवन मैं हरिद्वार में गंगा किनारे भगवान के भजन में बिताना चाहता
हूं।
चूंकि पैसा झगड़े की जड़ है, इसलिए मैं अपने सामने ही तुम्हारे बीच उचित बंटवारा करना
चाहता हूं। मेरे पास एक करामाती कुदाली है। उसे जितना चलाओ, उतना ही वह सोना उगलती है। एक ओर
यह कुदाली है, दूसरी ओर सारी धन-संपत्ति।
तुम लोग बताओ कि कौन क्या लेगा?’ बड़े लड़के ने सोचा कि कुदाली को यदि कोई चुरा ले
गया, तो
अपने पास कुछ नहीं रहेगा, इसलिए धन-संपत्ति लेना चाहिए। छोटे ने सोचा कि सदा सोना
उगलने वाली कुदाली लेनी चाहिए। इस प्रकार बड़े बेटे ने धन-संपत्ति और छोटे ने
कुदाली ले ली।
पिताजी हरिद्वार चले गए। उनका नियंत्रण हटते ही बड़े बेटे ने पैसा पानी की तरह
बहाना शुरू कर दिया और कुछ ही समय बाद वह निर्धन हो गया। उधर छोटे बेटे ने खेत में
पहुंचकर कुदाली चलानी शुरू की, किंतु उससे तो मिट्टी ही निकली, सोना नहीं। वह हैरानी में पड़
गया कि पिता ने झूठ क्यों बोला? फिर उसकी आत्मा ने कहा - नहीं, पिताजी झूठ नहीं बोल सकते।
काका कालेलकर की अनूठी पैथी
काका साहब कालेलकर उच्च कोटि के चिंतक, लेखक व शिक्षाविद होने के साथ ही गांधी विचार के
प्रमुख व्याख्याता थे। उनकी सोच प्रत्येक विषय पर बहुत गहन और व्यापक होती थी। एक
बार काका अस्वस्थ हो गए।
यह बहुत स्वाभाविक ही था कि उनकी अस्वस्थता के विषय में खबर लगते ही बड़ी
संख्या में उनके मित्र व शुभचिंतक उनसे मिलने आए। काका सभी से बड़ी आत्मीयता से
भेंट करते थे। एक दिन काका से मिलने उनके कुछ मित्र आए। बातचीत के बीच में किसी
अन्य मित्र का फोन काका के पास आया। उन्होंने काका से पूछा - ‘मैंने आपकी बीमारी के बारे में सुना। बहुत चिंता
हुई। अब कैसे हैं?’ काका बोले - ‘हां,
स्वास्थ्य
कुछ खराब हुआ था, किंतु जबसे मैंने नई
पैथी (चिकित्सा) की है, मुझे बहुत लाभ हुआ है।’
मित्र ने उत्सुकतावश उस नई पैथी के विषय में जानना चाहा, तो काका बोले- ‘मैंने
रोग के विषय में सोचना ही छोड़ दिया और यही पैथी मेरे लिए कारगर सिद्ध हुई। किसी
की मेहमाननवाजी करो, तो वह प्रसन्न होकर अधिक
दिन तक घर में टिकता है। इसके ठीक विपरीत उसे घर का मान लो, तो मेहमान जैसा सत्कार उसे नहीं मिलता। तब वह उस घर
को छोड़कर किसी ऐसे घर की तलाश में चला जाता है, जहां उसका स्वागत मेहमान जैसा हो। रोग के विषय में भी यही बात लागू होती है।’
काका की नई पैथी पर उन मित्र सहित सभी उपस्थित जन सहमत हुए बिना न रह सके।
वस्तुत: रोग से अधिक उसकी चिंता तनाव बढ़ाती है। अत: किसी भी प्रकार की शारीरिक
अस्वस्थता में सकारात्मक सोच बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।
जब गांधीजी ने किया चोर का सत्कार
उन दिनों गांधीजी साबरमती आश्रम में
थे। एक दिन जब आश्रम में सभी लोग सो गए, तभी वहां एक चोर घुस आया। हालांकि आश्रम में चुराने
के लिए ऐसा कोई भी सामान नहीं था, किंतु चोर नासमझ था। चोर के घुसने से हुई आवाज से आश्रम के
कुछ लोगों की नींद खुल गई और चोर पकड़ लिया गया। सभी ने मिलकर उसे कोठरी में बंद
कर दिया। गांधीजी भी उस समय सो रहे थे और गहरी नींद में थे, इसलिए उन्हें इस घटना के विषय
में रात को पता नहीं चला।
सुबह जब वे उठे, तो आश्रम के प्रबंधक ने उन्हें घटना की जानकारी दी। चोर को गांधीजी के सामने
लाया गया। चोर उनके सामने डरा हुआ, सिर झुकाए खड़ा रहा। दरअसल उसे पुलिस को सौंपे जाने का डर
सता रहा था, किंतु गांधीजी ने उसकी आशा के विपरीत उससे पूछा - 'तुमने नाश्ता किया?' वह हैरानी से उन्हें
देखने लगा और कुछ नहीं बोल पाया। तब गांधीजी ने प्रबंधक से पूछा, तो वह बोला - 'बापू! यह तो चोर है।
नाश्ते का सवाल ही कहां उठता है? यह सुनते ही गांधीजी ने
दुखी होकर कहा - 'क्यों, क्या यह इंसान नहीं है? इसे ले जाओ और नाश्ता कराओ।
गांधीजी की हृदय से दी गई इस क्षमा को देखकर चोर की आंखों से प्रायश्चित के
आंसू बहने लगे। वह सदा के लिए सुधर गया और उसने भविष्य में कभी चोरी न करने की कसम
खाई। सार यह है कि क्षमाशील व्यक्ति प्रणम्य और अनुकरणीय होता है, क्योंकि क्षमा उसे
बड़प्पन देती है और क्षमा पाने वाले को सुधार का मार्ग दिखाती है।
ईसा मसीह से मिली अनूठी सीख
ईसा मसीह का व्यक्तित्व उच्च कोटि के
मानवीय गुणों से भरा था। प्रेम, करुणा, सेवा, सादगी, विनम्रता, क्षमा की वे साक्षात मूरत थे।
एक प्रमुख विशेषता उनके स्वभाव में यह थी कि उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर
नहीं था। वे जो कहते, उस पर अटल रहते थे। अपने पास आने वाले सभी लोगों से वे यही कहते - ‘मैं जो कुछ कहता हूं,
उसे मात्र सुनो मत,
उसे जीवन में भी
उतारो। तभी तुम सच्चे इंसान बनोगे।’
जब एक दिन वे यही बात लोगों के समक्ष दोहरा रहे थे, तो किसी ने उनसे इसे दृष्टांत के
माध्यम से समझाने का आग्रह किया। तब ईसा मसीह बोले - ‘एक आदमी था। उसने अपना घर चट्टान
के ऊपर बनवाया। एक दिन बड़े जोर की आंधी चली और मूसलधार बारिश होने लगी। उसके घर
से आंधी-तूफान टकराए, किंतु घर का बाल भी बांका नहीं हुआ। एक दूसरा आदमी था, जिसने अपना घर बालू पर बनवाया।
आंधी-तूफान में उसका घर ढह गया। इसी प्रकार जो व्यक्ति मेरी बातों को सुनकर
उन्हें आचरण का हिस्सा बनाता है, वह चट्टान की तरह दृढ़ हो जाता है और तमाम दुनिया की
तकलीफें उसे तोड़ नहीं पातीं। जबकि मेरी बातों को मात्र सुनने वाला तनिक कष्ट आने
पर भी धर्य न रखते हुए बिखर जाता है।’
सार यह है कि कहे हुए पर अटल रहना चारित्रिक दृढ़ता को इंगित करता है, जो संबंधित के प्रति
समाज का विश्वास अर्जित करता है। इसके विपरीत विचलित स्वभाव कमजोर चरित्र की
निशानी है, जो अनेक प्रकार की हानियों का कारण बनता है।
पुत्र को पिता से मिली स्नेह भरी सीख
कई वर्ष पूर्व एक युवक विदेश में अध्ययन के लिए गया। उसके पिता भारत में थे और
काफी संपन्न थे। अपने पुत्र को बैरिस्टर बनाने की चाह में उन्होंने उसे विदेश
पढ़ने के लिए भेजा था। पुत्र के हृदय में अपने पिता के लिए बहुत आदर था और पिता भी
पुत्र को अत्यधिक स्नेह करते थे।
एक दिन उस युवक के पास पिता का पत्र आया। उसमें लिखा था कि तुम्हें मैं जो
पैसा भेजता हूं, उसे किन-किन मदों पर व्यय करते हो। इसका पूरा हिसाब मुझे भेजा करो। यह बात
पढ़कर युवक को ठेस लगी। उसने सोचा कि पिता मुझ पर विश्वास नहीं करते हैं, इसी कारण हिसाब मांग रहे
हैं।
वह काफी देर तक इस बात पर विचार करता रहा और अंत में उसने तय किया कि पिताजी
को लिख दूं कि यदि आपको मुझ पर विश्वास नहीं है तो भविष्य में मुझे पैसा न भेजें।
मैं अपनी कुछ व्यवस्था कर लूंगा, अन्यथा भारत लौट आऊंगा।
हालांकि वह जानता था कि इससे पिता को दुख पहुंचेगा, किंतु स्वाभिमान के वशीभूत हो
उसने पिता को पत्र लिख दिया। पिता बड़े समझदार थे। उन्होंने दुखी होने के स्थान पर
अपने स्वाभिमानी पुत्र पर गर्व किया और अगले पत्र में लिखा कि उनका इरादा उसके
स्वाभिमान को ठेस पहुंचाने का नहीं था। केवल यह जानना था कि इतना व्यय कैसे हो
जाता है, ताकि
पुत्र के लिए हमेशा उसकी व्यवस्था करें। पिता की वात्सल्य भरी चिट्ठी ने पुत्र के
मन का क्षोभ दूर कर दिया।
ये युवक थे- पं. जवाहरलाल नेहरू और पिता पं. मोतीलाल नेहरू। दरअसल युवावस्था
आवेशी होती है। अत: निर्णय में विवेक कम, व्यग्रता अधिक दिखाई देती है। ऐसे में अभिभावकों का
परिपक्व और स्नेह से भरा मार्गदर्शन आवश्यक होता है।
अष्टावक्र ने सुधारी जनक की गलती
राजा जनक राजा होने के बावजूद राजपाट में आसक्ति नहीं रखते थे। लोभ-मोह से वे
कोसों दूर रहते थे। विनम्रता उनके स्वभाव में थी। इस कारण वे सदैव अपने दोषों को
देखकर उन्हें दूर करने की कोशिश करते थे। आत्मशोधन व आत्मालोचन उनकी प्रकृति में
था।
एक बार वे नदी के किनारे एकांत में बैठकर 'सोsहम' का जाप कर रहे थे। बड़े ऊंचे
स्वरों में उनका जाप चल रहा था। तभी उधर से अष्टावक्र निकले, जो परम ज्ञानी थे। राजा
जनक को ऊंचे स्वर में 'सोsहम' का जाप करते देखकर वे रुके और एक हाथ में छड़ी लेकर थोड़ी
दूर खड़े हो गए। फिर तेज आवाज में निरंतर बोलने लगे- 'मेरे हाथ में पानी का कटोरा है,
छड़ी है।' राजा जनक के कानों में
उनकी आवाज पहुंची, किंतु उन्होंने जाप नहीं छोड़ा। अष्टावक्र भी लगातार यही बात जोर-जोर से
दोहराते रहे। आखिर जनक ने जाप रोककर उनसे पूछा- 'यह तुम क्या कह रहे हो?' अष्टावक्र ने कहा- 'मेरे हाथ में पानी का
कटोरा है, छड़ी है।'
जनक बोले- 'वह तो दिखाई दे रहा है। इसे बोलने की क्या जरूरत है?' तब अष्टावक्र ने जनक को समझाया-
"फिर तुम क्यों 'सोsहम'
ऊंची आवाज में बोल
रहे हो?" तुम ही ब्रह्म हो, यह क्या तुम्हें नहीं दिख रहा है? मंत्र को रटने से कुछ नहीं होता।
उसे अंतर की चेतना के साथ जोड़ने पर ही उसका फल मिलता है। जनक ने अपनी गलती के लिए
क्षमा मांगी। सार यह है कि भाव के साथ मन का तादात्म्य होने पर ही तत्संबंधी दिव्य
अनुभूति होती है, अन्यथा कोरे शब्दों से तो यह असंभव है।
सेठ का छोटा बेटा बना सच्चा आत्मज्ञानी
किसी नगर में एक सेठ रहता था। उसके तीन लड़के थे। सेठ ने एक दिन विचार किया कि ज्ञानार्जन के लिए उन्हें नगर के बाहर किसी योग्य शिक्षास्थली पर भेजा जाए। उसने अनुभवी लोगों से विचार-विमर्श कर तीनों को एक अच्छे शिक्षक के पास भेज दिया। कई सालों बाद जब तीनों अध्ययन कर लौटे, तो सेठ ने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया। वह देखना चाहता था कि उसके पुत्र क्या सीखकर आए हैं?
उसने सर्वप्रथम बड़े पुत्र को बुलाकर पूछा - ‘बेटा! तुम क्या पढ़कर आए हो?’ उसने उत्तर दिया - ‘आत्म-विद्या।’ सेठ ने प्रश्न किया - ‘आत्म-विद्या का रहस्य क्या है?’ लड़के ने वेद और उपनिषदों के मंत्र सुनाकर आत्म-विद्या का रहस्य समझाने की कोशिश की। अब सेठ ने मंझले लड़के से यही प्रश्न किया। उसने जवाब में संत-महात्माओं की शिक्षा व अनुभव बताते हुए अंत में कहा - ‘उनका सारा जीवन ही आत्म-विद्या से भरा है।’ छोटे बेटे की बारी आने पर वह चुप रहा। सेठ ने कहा - ‘बोलते क्यों नहीं? आखिर इतने वर्षो में कुछ न कुछ तो सीखा होगा?’ तब वह धीरे से बोला - ‘पिताजी! मैंने जो आत्म-ज्ञान पाया है, उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। सच्च आत्म-ज्ञान तो जीवन में, व्यवहार में जिया जाता है और वहां शब्द काम नहीं आते।’ सेठ ने उसे गले लगाते हुए अन्य दोनों पुत्रों को उसे गुरु बनाने की सलाह दी। वस्तुत: आत्म-ज्ञान अनुभूति का विषय है, अभिव्यक्ति का नहीं। सच्च आत्म-ज्ञानी अपने ज्ञान को वाणी से नहीं, अच्छे आचरण से व्यक्त करता है।
साधु कनकदास ने बताई सही राह
दक्षिण भारत में एक संत हुए हैं जिनका नाम था मध्वाचार्य। मध्वाचार्य के अनेक
शिष्य थे। उन शिष्यों में एक का नाम था - कनकदास। साधु कनकदास आला दर्जे के संत
थे। ज्ञान और विनम्रता की वे प्रतिमूर्ति थे।
एक दिन मध्वाचार्य के कुछ शिष्य इस विषय पर परस्पर चर्चा कर रहे थे कि ईश्वर
को कौन प्राप्त कर सकता है। सभी के अलग-अलग मत थे और किसी भी एक मत पर सहमति नहीं
हो पा रही थी। अंततोगत्वा सभी ने साधु कनकदास से पूछने का निश्चय किया।
शिष्यों में से एक साधु ने सर्वप्रथम कनकदास से प्रश्न किया - ‘क्या मैं परमात्मा को पा
सकता हूं?’ कनकदास ने उत्तर दिया- ‘अवश्य, किंतु यह तब होगा जब ‘मैं’ जाएगा।’ इसके बाद सभी शिष्यों ने
बारी-बारी से यही सवाल किया और सभी को कनकदास ने यही उत्तर दिया। हैरान शिष्यों
में से एक ने उनसे पूछा- ‘स्वामीजी आप भी तो भगवान के पास जाएंगे न?’ कनकदास बोले- ‘अवश्य जाऊंगा, किंतु तभी, जब ‘मैं’ जाएगा।’
शिष्य ने अगला प्रश्न किया - ‘स्वामीजी! यह ‘मैं’ कौन है और यह किस-किस के साथ जाएगा?’ तब कनकदास ने स्पष्ट किया- ‘मैं’ का अर्थ है मोह, अहंकार। जब तक ‘मैं’ और ‘मेरा’ तथा ‘मैं हूं’ का अहंकार नहीं मिटेगा,
तब तक हम ईश्वर को
नहीं पा सकते। वस्तुत: प्रभु प्राप्ति के मार्ग की यही सबसे बड़ी रुकावट है।’
सभी शिष्यों के मन
की उलझन कनकदास के उत्तर से दूर हो गई। सार यह है कि अहंकार द्वैतभाव को लाता है,
जो अद्वैत की राह
की सर्वप्रमुख बाधा है। अहंकार का विसर्जन ही ईश्वर से एकाकार होने की दिव्य
उपलब्धि कराता है।
प्यासे रहकर वे योद्धा अमर हो गए
उर्दू की किसी पाठच्यपुस्तक में
गांधीजी ने इस कहानी का उल्लेख किया था - पैगंबर साहब के निधन के कुछ वर्षो बाद
अरबी और रूमियों में जोरदार लड़ाई हुई। दोनों ओर के कई योद्धा मारे गए। बहुत से
घायल हुए।
शाम होने पर दोनों ओर के लोग अपने साथियों व परिजनों की खोज-खबर लेते थे। एक
दिन अरब सेना का एक जवान अपने चचेरे भाई को देखने निकला। उसने सोचा कि यदि भाई
घायल होगा, तो उसका इलाज कराएगा और यदि मृत्यु को प्राप्त हो गया होगा, तो दफना देगा।
फिर उसे विचार आया कि संभव है कि घायल भाई प्यासा तड़प रहा हो। यह सोचकर उसने
एक लोटा पानी भी साथ ले लिया। युद्ध के मैदान में कुछ देर खोजने के बाद उसे अपना
भाई गंभीर घायलावस्था में मिला। वह कराहता हुआ पानी मांग रहा था। उसके बचने की
उम्मीद नहीं थी।
अरब जैसे ही अपने भाई को पानी पिलाने झुका कि किसी दूसरे घायल सिपाही ने पानी
की पुकार लगाई। अरब के भाई ने पहले उसे पानी पिलाने का आग्रह किया। जब अरब उस घायल
सैनिक के पास पानी पिलाने पहुंचा, तो तीसरे घायल सैनिक ने पानी मांगा। इस बार इस घायल सैनिक
ने अरब से उस तीसरे को पानी पिलाने को कहा।
जैसे ही अरब उस तीसरे सैनिक के पास पहुंचा, वह पानी पीने के पहले ही मर गया।
अरब दौड़कर दूसरे घायल सैनिक को पानी पिलाने के लिए गया, किंतु उसका भी अवसान हो गया था।
इस कहानी का उल्लेख करते हुए गांधीजी ने लिखा - ‘यों तीन घायलों में से किसी ने
भी पानी न पाया, पर पहले दो मानवता के इतिहास में अपने नाम अमर करके चले गए।’ सार यह है कि स्वयं से
अधिक दूसरों का ध्यान रखने वाला महान परोपकारी होता है, क्योंकि वह स्वार्थ पर परमार्थ
को तरजीह देता है।
पति से दुखी महिला को मिला उपाय
भूदान आंदोलन के प्रणोता आचार्य
विनोबा भावे से एक महिला मिलने आई। वह बोली- मैं बहुत दुखी हूं, मेरा पति शराबी है। रोज
शराब पीकर मुझे अपशब्द कहता है और कभी-कभी मारपीट भी करता है। मेरा जीवन उसने नर्क
बना दिया है।
विनोबाजी ने उससे पूछा- जब वह शराब पीता है, तब तुम क्या करती हो? वह बोली- तब मुझे उस पर
बहुत गुस्सा आता है। पहले तो मैं उसे खूब खरी-खोटी सुनाती थी, किंतु उस पर जब इसका कोई
असर नहीं होते देखा, तो अब मैंने उपवास करना शुरू कर दिया। विनोबा ने प्रश्न किया कि उपवास में
खाना-पीना सब छोड़ देती हो? महिला बोली - नहीं फल खाती हूं।
तब विनोबा ने कहा -तब तो तुम्हारा पति और नाराज होता होगा, क्योंकि तुम्हारे फल
खाने से घर का खर्च बढ़ जाता होगा। यह सुनकर महिला रोने लगी। तब विनोबा बोले -
गुस्से से या भोजन छोड़ देने से किसी को गलत मार्ग से नहीं हटाया जा सकता। प्रेम
वही असरकारी होता है, जो भीतर से उठकर आता है। दिल में दुर्भावना हो और दिखावे के लिए प्रेम के वचन
कहो तो प्रभाव उल्टा होता है। महिला ने कहा - मैं क्या करूं? उन्हें शराब के नशे में
देखकर मेरा मन बेकाबू हो जाता है।
विनोबा ने समझाया - यही तो गलत है। तुम अपने पति को बुराई से तभी रोक सकोगी,
जब स्वयं अपनी
बुराई को जीत लोगी। उसका प्रयास पहले करो। महिला को अपनी भूल समझ में आ गई कि
क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता। उस पर प्रेम से ही विजय पाई जा सकती है। सही
राह पाने की खुशी उसके चेहरे पर झलकने लगी। सार यह है कि बुरे व्यक्ति से घृणा
करने या रोष जाहिर करने के स्थान पर बुराई को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। और
यह कार्य दृढ़ इच्छशक्ति से ही संभव है।
उदास व्यक्ति ने जाना जीने का राज
एक व्यक्ति अपने जीवन से बहुत निराश हो गया था। उसे ऐसा लगता था कि वह इतनी
बड़ी इस दुनिया में बिल्कुल अकेला है।
उसे कोई नहीं चाहता, वह किसी से प्यार पाने के काबिल नहीं है। ऐसा सोच-सोचकर वह
सदैव दुखी रहता था। जब वसंत का मौसम आया और चारों ओर फूल खिल गए। तरह-तरह के फूलों
के खिलने से वातावरण सुंदर और सुगंधित हो गया।
हर ओर आनंद बिखर गया, किंतु वह व्यक्ति अपने घर में ही बंद रहा। एक दिन पड़ोस में
रहने वाली एक लड़की अचानक उसके घर के द्वार खोलकर अंदर आई। उस व्यक्ति को गुमसुम
देखकर उसने पूछा- आप इतने उदास क्यों हैं? वह व्यक्ति बोला- 'मुझे कोई प्यार नहीं करता,
मैं बिल्कुल अकेला
हूं। लड़की ने कहा-यह तो बहुत बुरी बात है कि आपको कोई प्यार नहीं करता,
किंतु यह तो बताइए
कि आप किस-किसको प्यार करते हैं? व्यक्ति के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था।
तब लड़की बोली- 'आप बाहर आइए और देखिए कि आपके द्वार पर ही कितना प्यार बिखरा पड़ा है।
यह कहते हुए उसने व्यक्ति का हाथ पकड़ा और बाहर लाकर खिले हुए फूलों के बीच
खड़ा कर दिया। फिर कहा- 'आप जितना प्यार चाहते हैं, इन फूलों से लीजिए। ये खुशी-खुशी
आपको अटूट स्नेह देंगे। लड़की की बात सुनकर फूलों के बीच खड़े उस व्यक्ति के मन
की गांठें खुल गईं और उसका जीवन आनंदमय हो गया। कथा प्रतीकात्मक है। सार यह है कि
अधिकाधिक मेलजोल और संवाद प्रसन्नता को बढ़ाते हैं, जबकि इनका अभाव एकाकीपन और
निराशा को जन्म देता है।
राजा ने फकीर से जाना त्याग का महत्व
सदियों पहले एक राजा था, जो बहुत अभिमानी था। वह
एक विशाल राज्य का अधिपति था। उसका खजाना धन से भरा था। उसके पास स्वर्ण निर्मित
महल थे और एकबहुत बड़ी सेना थी।
नौकर-चाकर सदैव उसकी सेवा में तैनात रहते और चापलूस सभासद उसके घमंड को हवा
देते रहते। एक दिन राजा के दरबार में एक फकीर आया। उसका चेहरा तेजस्वी था और आंखों
में प्रेम भरा था। वह राजा को देखते ही समझ गया कि राजा अपनी शक्ति के घमंड में
चूर है और उसके मन की आंखें बंद हैं। राजा ने अभिमानी स्वर में फकीर से पूछा- 'फकीर! तुझे क्या चाहिए?'
फकीर बोला- 'राजन! मैं आपसे कुछ लेने
नहीं, बल्कि
आपको कुछ देने आया हूं।
राजा का अभिमान यह सुनकर आहत हुआ। उसने चिल्लाकर कहा- 'तुम्हें छोटे मुंह बड़ी बात करते
शर्म नहीं आती? जिसके पास फूटी कौड़ी नहीं, वह किसी को क्या देगा? फकीर हंसकर बोला- 'अकिंचन के पास भी कुछ
होता है, जो
दुनिया की माया से अधिक महत्व रखता है। राजा ने उसे बकवास बंद करने को कहा तो वह बड़े
स्नेह से बोला- 'राजन! बिना त्याग के भोग बेस्वाद है। वैभव में जब त्याग जुड़ जाता है, तो वह आदरणीय व
प्रशंसनीय हो जाता है। त्याग के आते ही अहंकार मिट जाता है। आसक्ति दूर हो जाती है
और भीतर की आंखें खुल जाती हैं। फकीर के शब्दों ने राजा की आंखें खोल दीं और वह
निरभिमानी हो गया।
सार यह है कि भोग यदि अहंकार से परे रहकर निरासक्त भाव से किया जाए, तो वह निंदनीय नहीं
होता।
जब गांधीजी ने शारीरिक श्रम की पैरवी की
बात उन दिनों की है, जब महात्मा गांधी
नौआखाली में थे। चूंकि देश के स्वातंत्र्य आंदोलन के वे प्रणेता थे, इसलिए समाज के हर वर्ग
से लोग उनसे मिलने आया करते थे। इन्हीं में एक वर्ग था- प्रेस। गांधीजी जहां भी
जाते, अखबार
वाले वहां पहुंच ही जाते थे।
जब पत्रकार उनसे भिन्न-भिन्न मुद्दों पर कई तरह के सवाल पूछते तो गांधीजी बिना
नाराज हुए बड़े प्रेम से उनका जवाब देते थे। एक बार गांधीजी विभिन्न समाचार-पत्रों
के प्रतिनिधियों के साथ बैठे थे। उन प्रतिनिधियों में से किसी एक ने उनसे पूछा-
क्रगांधीजी! आपने सन् १९२५ में कहा था कि मैं शासन-विधान में यह धारा रखूंगा कि
स्वतंत्र भारत में मत देने का अधिकार उसी को होगा, जो शारीरिक परिश्रम से राज्य की
कुछ न कुछ सेवा कर सके। क्या आप अब भी इस बात पर कायम हैं?
गांधीजी ने दृढ़ता से उत्तर दिया- क्रमैं मरते दम तक अपनी इस बात पर कायम
रहूंगा। भगवान ने मनुष्य को हाथ और पैर इसीलिए दिए हैं कि वह उनसे मेहनत करके खाए
और स्वयं पर निर्भर परिवार के सदस्यों का भी पालन-पोषण सही ढंग से करे। बुद्धि से
धन कमाकर महज भोग-विलास के साधन पैदा करना और ऐशो-आराम से जीवन बिताना पाप है।ञ्ज
गांधीजी की यह बात वर्तमान मौजूदा परिस्थितियों में भी सार्थक प्रतीत होती है।
कथा का सार यह है कि शारीरिक परिश्रम एक ओर जहां हमारे शरीर को स्वस्थ रखने का
साधन है, वहीं
दूसरी ओर समाज की प्रगति का श्रेष्ठ मार्ग भी है। परिश्रम के माध्यम से ही लोग
यथेष्ट सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
बुद्ध ने समझाया शांति का महत्व
गौतम बुद्ध अपने भ्रमण के दौरान किसी गांव में ठहरे थे। एक आदमी बहुत दिनों से
उनसे मिलना चाह रहा था। एक दिन उसे बुद्ध से मिलने का मौका मिल गया। वह उन्हें
प्रणाम कर बोला- 'भंते! आप तीस साल से लोगों को शांति, सत्य और मोक्ष की बात समझा रहे हैं, किंतु यह बताइए कि ऐसे
कितने लोग हैं, जिन्हें मोक्ष प्राप्त हो गया? बुद्ध ने उससे कहा- 'तुम इस गांव का एक चक्कर लगाकर
लोगों से लिखवा लाना कि कितने लोग शांति चाहते हैं, कितने सत्य और कितने मोक्ष।
वह आदमी बोला- 'भंते! इन चीजों को तो सभी पाना चाहेंगे बुद्ध ने कहा- 'फिर भी मेरे कहने पर एक
बार स्वयं जाकर पता लगाओ कि कौन व्यक्ति किस चीज की इच्छा रखता है? वह आदमी पूरा दिन गांव
में घूमता रहा, लेकिन शांति, सत्य और मोक्ष चाहने वाला एक भी व्यक्ति नहीं मिला।
किसी ने कहा कि मुझे धन चाहिए, किसी ने यश चाहा, कोई रोग से मुक्ति चाहता था, तो किसी को नौकरी की दरकार थी,
कोई संतान की
इच्छा रखता था, तो कोई लंबी उम्र की कामना करता था। हैरान-परेशान आदमी शाम को बुद्ध के पास
लौटा और बोला- 'यह बड़ा अजीब गांव है। कोई कुछ चाहता है, तो कोई कुछ। शांति, सत्य व मोक्ष का
आकांक्षी कोई नहीं है।
तब बुद्ध ने उसे समझाया- 'इसमें अजीब कुछ नहीं है। हममें से अधिकांश लोग सुख चाहते
हैं, शांति
नहीं। सुख पाने के लिए वे शांति के विपरीत मार्ग पर चलते हैं। सुख का मार्ग,
शांति का मार्ग
नहीं है। सार यह है कि सुख भौतिक अनुभूति है, जबकि शांति आत्मिक अनुभूति है और
भौतिकता से अधिक आत्मिकता सुकून देती है।
जब धनी को भिखारी से मिली शिक्षा
एक समय की बात है। कानपुर में गंगा के
किनारे बैठकर एक भिखारी भीख मांगा करता था। भिक्षा में उसे जो कुछ भी मिलता,
उससे ही वह अपने
परिवार का भरण-पोषण करता था। उसके हाथ में एक कटोरा होता था, जिसे वह हर आने-जाने
वाले के सामने बढ़ा देता।
जिसे जो डालना होता, वह डाल देता, किंतु भिखारी अपने मुंह से कुछ नहीं मांगता था। वह
सुबह वहां आता और शाम तक जो कुछ मिलता, उसे लेकर चुपचाप चला जाता। अन्य भिखारियों की तरह न
वह दीनता दिखाता और न अपनी ओर से कोई याचना ही करता था। एक दिन उधर से एक धनी आदमी
गुजरा। भिखारी ने देखा कि वह काफी कीमती कपड़े पहने हुए है और गले व हाथों में
स्वर्णाभूषण भी हैं।
उसे धनी जानकर भिखारी ने अपना कटोरा उसके आगे बढ़ा दिया। यह देखकर उस धनी आदमी
के चेहरे पर बहुत ही घृणास्पद भाव उभरा और उसने जेब से एक रुपए का सिक्का निकालकर
जमीन पर उसकी ओर उछाल दिया। उसका गुरूर और अपने प्रति नफरत का भाव देखकर भिखारी ने
उस सिक्के को उस आदमी की ओर वापस फेंकते हुए कहा- 'यह संभाल अपनी दौलत। मुझे तुझ
जैसे गरीब का पैसा नहीं चाहिए।ञ्ज यह सुनते ही उस आदमी को अपनी गलती समझ में आई और
उसने तत्काल उस भिखारी से क्षमा मांगी।
कहानी का निहितार्थ यह है कि घमंड और अहसान समझकर किए जाने वाले दान का कोई
मूल्य नहीं रहता। ऐसे पुण्य का फल समाप्त हो जाता है। सच्च दान स्नेह और
नि:स्वार्थ भाव से किया जाता है।
महावीर के ध्यान के आगे हारा यक्ष
महावीर स्वामी अपने साधना-काल में एक
निर्जन स्थान पर ध्यानमग्न बैठे थे। उसी स्थान पर एक यक्ष का वास था। यह बात
महावीर को ज्ञात नहीं थी। वे तो वहां पहुंचे और शांत वातावरण देखकर ध्यानमग्न हो
गए।
उस समय यक्ष वहां नहीं था। रात होने पर जब वह आया, तो अपने स्थान पर एक अनजान
व्यक्ति को देखकर आग-बबूला हो गया। बड़े जोरों से वह दहाड़ा, किंतु महावीर का ध्यान
भंग नहीं हुआ। यक्ष ने उन्हें हाथी का रूप धारण कर डराना चाहा, किंतु महावीर यथावत
ध्यानमग्न बैठे रहे।
उसने महावीर को डराने के लिए क्रमश: शेर, चीता, बाघ आदि का रूप धारण किया,
किंतु महावीर
अविचलित ही बने रहे। अंत में उसने भयंकर विषधर का रूप धारण कर उनके पैर के अंगूठे
को डस लिया। किंतु महावीर पर उसके विष का भी कोई असर नहीं हुआ। वे अब भी अप्रभावित
रहे। विषधर उनके शरीर पर चढ़ गया और उनके गले पर लिपटकर उन्हें जोरों से काट लिया।
इतने प्रयासों के बावजूद वह महावीर की साधना को भंग नहीं कर पाया।
थक-हारकर वह नीचे उतर आया और उनसे कुछ कदमों की दूरी पर लेटकर अपनी थकान
उतारने लगा। ध्यान पूर्ण होने पर महावीर स्वामी ने उसकी तरफ देखा और उसे बहुत
स्नेह से दुलारा। उनका निश्छल प्रेम देखकर सर्प का विष अमृत बन गया और यक्ष ने
श्रद्धापूर्वक महावीर को नमन किया। कहानी का सार यह है कि मन की कलुषता पर
एकाग्रता, स्नेह और समभाव से ही विजय प्राप्त की जा सकती है।
अपनी सूझ-बूझ से सुखी हुआ व्यापारी
एक परोपकारी व्यापारी था। वह अपने द्वार से कभी किसी को खाली हाथ नहीं लौटाता
था। एक दिन उसकी हवेली पर एक आदमी आया।
उसके पास एक पर्चा था, जिसे वह बेचना चाहता था। उस पर्चे पर लिखा था- 'सदा न रहे। अब तक वह जिन
भी लोगों के पास गया था, उन्होंने उसे 'मूर्ख' कहकर वह पर्चा खरीदने से इनकार कर दिया था। स्वयं
उसका दावा था कि यह अमूल्य वचन है, जिससे गंभीर संकट टल सकता है।
चूंकि व्यापारी सहृदय था, अत: उसने वह पर्चा खरीद लिया और अपनी पगड़ी के छोर में बांध
लिया। कुछ दिनों बाद व्यापारी से ईष्र्या रखने वाले कुछ लोगों ने उसे किसी झूठे
मामले में फंसा दिया और राजा से उसकी शिकायत कर दी। राजा ने व्यापारी को जेल में डलवा दिया। व्यापारी बहुत दुखी हुआ। जेल में रहते
हुए कुछ दिन बीते कि अचानक व्यापारी को वह पर्चा याद आया।
उसने पगड़ी में से निकालकर उसे पढ़ा और मन ही मन कहा- 'जब सुख के दिन सदा न रहे,
तो दुख के ये दिन
भी सदा नहीं रहेंगे। यह सोचकर वह हंसने लगा। सिपाहियों ने समझा कि वह पागल हो गया
है। उन लोगों ने राजा को सूचना दी। राजा आया और व्यापारी से हंसने का कारण पूछा,
तो उसने पर्चा
खरीदने से लेकर अब तक की कथा सुनाकर कहा- 'राजन! सुख-दुख के दिन सदा नहीं रहते हैं। फिर कष्ट
में दुख कैसा! यही सोचकर मैं हंसा।
उसकी बात सुनकर राजा ने जांच के आदेश दिए। उसने व्यापारी को जेल से मुक्त कर
दिया और झूठी शिकायत करने वालों को सजा दी। सार यह है कि सुख-दुख स्थायी नहीं होता,
दोनों के बदलाव से
ही जीवन संचालित होता है। अत: प्रत्येक परिस्थिति में समभाव बनाए रखने की कोशिश
करनी चाहिए।
जब साधु को समझ आया कर्म का महत्व
नदी किनारे एक साधु कुटिया बनाकर रहता
था। वह बड़ा कर्मशील था। उसे भिक्षावृत्ति पसंद नहीं थी। आजीविका के लिए वह गांव
के बच्चों को पढ़ाया करता था। एक दिन जब वह आत्मचिंतन कर रहा था, तो उसे विचार आया कि जब
भगवान सभी का कर्ता है, तो आदमी को कर्म क्यों करना चाहिए? कर्म करने से उसके मन में
कर्तापन का अहंकार आ जाता है और अहंकार से उसका पतन होता है। यह विचार आते ही साधु
ने अपने दोनों हाथों की मुट्ठियां बंद कर लीं और प्रभु-स्मरण में लीन हो गया। इसी
प्रकार कुछ दिन बीत गए। जब ग्रामीणों ने देखा कि साधु ने इतने दिनों से न कुछ खाया
है, न पिया
है, तो वे
उसके लिए भोजन ले आए, किंतु साधु खाता कैसे, उसकी तो मुट्ठियां बंधी थीं। कुछ लोगों ने उसे अपने हाथों
से खाना खिला दिया। कुछ देर बाद साधु को प्यास लगी। वह नदी के पास गया। मुट्ठियां
बंद होने की वजह से जानवरों की तरह पानी पीने के लिए वह झुका, लेकिन उसका संतुलन बिगड़
गया और वह पानी में जा गिरा। पानी के तेज बहाव में साधु बहने लगा, किंतु मुट्ठियां उसने तब
भी नहीं खोलीं। पत्थरों से टकरा-टकराकर वह लहुलूहान हो गया। अंतत: वह बेहोश हो
गया। होश आने में घंटों लगे। आंख खोलने पर साधु ने पाया कि वह बहुत घायल व कमजोर
अवस्था में पहुंच गया है। उसे घेरकर खड़ी भीड़ में से एक बुजुर्ग ने उसे समझाया - ‘ईश्वर को नियंता मानकर
कर्म से मुंह मोड़ना तुम्हारी सबसे बड़ी अज्ञानता है। यदि ईश्वर आदमी को अकर्मण्य
रखना चाहता, तो उसे दो हाथ क्यों देता?’ यह सुनकर साधु को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने तत्काल अपनी
मुट्ठियां खोलीं और पूर्ववत कर्ममय जीवन में लौट आया। इसलिए सदैव कर्मशील बने
रहें।
राबिया की भक्ति देख सुधर गया चोर
संत राबिया की प्रभु-भक्ति विख्यात
है। वे मन, आत्मा व प्राण से ईश्वर का स्मरण करती रहतीं और प्राणिमात्र को प्रभु की रचना
मानकर सेवा कार्यो में लगी रहतीं। एक रात जब राबिया सो रही थीं, तभी उनके घर में एकचोर
घुस आया।
उसे राबिया के घर कोई धन-संपत्ति तो मिलनी नहीं थी। उसे बहुत खोजने पर भी जब
कुछ नहीं मिला, तो उसने सामने रखी एक चादर उठा ली। चादर लेकर वह जैसे ही जाने लगा, उसे चक्कर आने लगे,
शरीर कांपने लगा
और आंखों के सामने अंधकार छा गया।
वहां से जाने के लिए दिखाई देने वाला रास्ता उसे दिखना बंद हो गया। उसने आंखों
को जोर-जोर से मला, किंतु कोई फायदा नहीं हुआ। वह वहीं बैठ गया और चादर एक ओर रखकर जैसे ही अपना
सिर थपथपाया तो वह एकदम स्वस्थ हो गया। सामने दरवाजा भी दिखाई देने लगा। उसने चादर
उठाई और ज्यों ही जाने के लिए उठा कि फिर वैसी ही हालत हो गई।
चादर नीचे रखते ही पुन: स्वस्थ हो गया। वह हैरान हो गया। तभी उसे ऐसा लगा,
मानो कोई उससे कह
रहा है- ‘तू
स्वयं को क्यों परेशानी में डाल रहा है? मुद्दत से राबिया ने अपने आप को मेरे सुपुर्द कर
दिया है। जब एक मित्र सोता है, तो दूसरा जागता है। फिर यह कैसे संभव है किउसकी चीज कोई
चुरा ले जाए?’ चोर ने समीप ही सो रहीं संत राबिया को नमन किया और चादर वहीं छोड़कर चला गया।
वास्तव में वह जान गया था कि ईश्वर के प्रति अटूट व एकनिष्ठ समर्पण ऐसे
आत्मविश्वास के रूप में फलता है, जो हर संकट से रक्षा करता है।
संत-कृपा से बीमार को मिला जीवन
शहर में एक अमीर आदमी रहता था। उसके
पास करोड़ों की संपत्ति थी। आलीशान हवेली में वह रहता था। एक दिन उसके किसी परिचित
ने बातचीत में बताया कि उसके अपने शहर के सबसे बड़े सेठ की अचानक मृत्यु हो गई है।
उसकी अपार दौलत भी उसके प्राण बचाने में काम न आ सकी। यह सुनते ही उस अमीर
आदमी के मन में भी मृत्यु का भय बैठ गया। उसे बार-बार यह लगने लगा कि पता नहीं
मृत्यु कब आ जाए और सबकुछ यहीं छूट जाए। मृत्यु की चिंता में वह बीमार हो गया।
बहुत इलाज कराने के बाद भी स्वस्थ नहीं हुआ। एक दिन उसके शहर में किसी संत का
आगमन हुआ। उस आदमी के परिजन संत को आग्रहपूर्वक घर लाए और उन्हें उससे मिलवाया।
आदमी ने अपने मन का भय संत के सामने व्यक्त किया।
वे मुस्कराकर बोले- ‘तुम्हारे रोग का इलाज तो बहुत आसान है।’ यह सुनते ही उस आदमी ने
खुश होकर इलाज पूछा, तो वे बोले- ‘जब भी मृत्यु का विचार तुम्हारे मन में आए, जोर से बोलो- जब तक मौत नहीं
आएगी, मैं
जीऊंगा। इस नुस्खे को सात दिन आजमाओ। मैं अगले सप्ताह फिर आऊंगा।’ सात दिन बाद जब संत आए,
तो देखा कि वह
आदमी पूरी तरह स्वस्थ हो गया है।
संत के चरण छूकर उसने कहा- ‘महाराज! आपने मुझे बचा लिया। आपकी दवा ने मुझ पर जादू-सा
असर किया। मैं समझ गया हूं कि जिस दिन मृत्यु आएगी, मैं उसी दिन मरूंगा। उससे पहले
नहीं।’ कथा
का सार यह है कि मृत्यु से बड़ा मृत्यु का भय है, जो हर दिन व्यक्ति को मारता है।
मृत्यु निश्चित है, किंतु उसका समय अनिश्चित, इसलिए जीवन से मृत्यु के बीच के फासले को निर्भय होकर
आनंदपूर्वक व्यतीत करना चाहिए।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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