Wednesday, September 19, 2012

Jeene Ki Rah जीने की राह (1)

काम करते समय तन, मन और आत्मा के प्रति सजग रहें
जब भी कोई काम करें, तो शरीर, मन और आत्मा की भूमिका दिमाग में जरूर रखें। हम बाहरी सांसारिक वस्तुओं के प्रति व्यक्तियों को लेकर जागरूक रहते हैं, लेकिन हमारी हर गतिविधि में इन तीनों का बड़ा योगदान है, खासतौर पर मन का, क्योंकि किसी भी कर्म में मन कामना भर देता है। मन की क्षमता अद्भुत होती है। यदि उसका ठीक से उपयोग नहीं हुआ है तो वह कामनाओं की आंधी चला देता है।

जब हम कोई कर्म करते हैं और उसमें मन यदि सक्रिय रहे तो पहला परिणाम फल पर आता है। दूसरा परिणाम उस फल से मिलने वाली खुशी या गम का होता है और तीसरा सामने वाले व्यक्ति पर पड़ता है। जैसे ही मन कर्म में कामना डालता है, आपके कर्तव्य एक सीमा में बंध जाते हैं। आप शुरुआत ही अपेक्षा से करते हैं। उसमें सेवा की जगह सौदा काम करने लगता है। जो फल अनमोल हो सकता था, उसका पहले ही मोल लगा लिया गया। दूसरी बात यह होती है कि आपको मनमाफिक परिणाम मिलेगा तो आप खुश हो जाएंगे और यदि जैसा चाहें वैसा न मिला तो दुखी होना निश्चित है।

ये खुशी अहंकार में भी आ जाती है और यह दुख डिप्रेशन में डुबो जाता है, क्योंकि दोनों के पीछे मन अपना काम कर रहा होता है और तीसरा खतरा होता है सामने जो लोग हमारे कर्म से प्रभावित हैं, उनके और हमारे बीच सद्भावना का वातावरण समाप्त हो जाता है। कटुता और स्वार्थ बढ़ जाते हैं। मन में यह ताकत होती है कि वह अच्छे से अच्छा भी सोच सकता है और गलत से गलत तो उसका प्रिय काम है। इसलिए किसी भी काम को करते समय शरीर, मन और आत्मा की भूमिका के प्रति सजग तथा सावधान रहें।

संसार में सबसे अधिक मूल्यवान है स्वयं को जानना
यूं तो वासना सिर्फ वासना ही होती है, लेकिन अलग-अलग मनुष्यों में जाकर यह भिन्न रूप ले लेती है। अपनी-अपनी वासना के कारण लोग आचरण भी अलग-अलग करने लगते हैं। जानवरों के माध्यम से यह बात ज्यादा आसानी से समझ में आएगी।

गधे, घोड़े व गाय आदि को घास अच्छी लगती है। उनके लिए यह छप्पन भोग से कम नहीं है। लेकिन कुत्ते के लिए घास का उपयोग ही दूसरा है। कुत्ते का जब पेट खराब हो जाए, तब वह घास खाकर उल्टी करता है। वह घास सूंघकर गंदगी फैलाता है। मनुष्य भी अपनी-अपनी वासना के कारण चीजों को अच्छा या बुरा मानता है। हो सकता है कि किसी को किसी चीज से नफरत हो, लेकिन दूसरे को वही प्यारी लग सकती है। अध्यात्म कहता है कि चीजों  का मूल्य वासना से हटाकर देखा जाए।

वासना के हटते ही यह बात समझ में आएगी कि संसार में सबसे मूल्यवान है स्वयं को जानना। वासना का स्पर्श लिए लोग जीवन भर स्वयं को नहीं जान पाएंगे। जो स्वयं को जान गया, वह वास्तव में धनवान होगा। हम वासना से जुड़कर धन-भोग को प्राथमिकता देने लगते हैं। वासना हर सौदा महंगा ही कराती है। जिसे वासना जितना जमकर जकड़ लेती है, उसे विवाद करने में उतना ही अधिक आनंद आने लगता है। एक की वासना, दूसरे की वासना से टकराती ही है। विलास पैदा करने वाली अनावश्यक चीजों के प्रति अति आग्रह ही वासना है। वासना मनुष्य को उसके होने से दूर कर देती है। हम क्या हैं, यह समझ होनी जरूरी है, इसलिए वासना से मुक्ति पाई जाए।

घर में किसी पर विपत्ति आए तो सभी प्रेमपूर्ण हो उससे निपटें
किसी को भी देखने के दो तरीके होते हैं। एक : उसे बाहर से, सतह पर, केवल शरीर की आकृति से देखा जाता है। ऐसा हम तब करते हैं, जब हम भी स्वयं के मामले में इसी पर टिके रहते हैं। पर यदि हमने अपने भीतर जल रही ज्योति को देखा, आत्मा को जाना, निजता को निहारा तो हम दूसरों में भी वही महसूस करेंगे। यहीं से हमारा व्यवहार बदल जाएगा। तब हम हर इंसान को उसके बाहरी खोल से नहीं, भीतर के व्यक्तित्व से भी जानेंगे।

परिवार में यह प्रयोग हमें एक-दूसरे के प्रति प्रेमपूर्ण बनाएगा। सुंदरकांड में हनुमानजी लंका से लौटकर श्रीराम को सीताजी द्वारा दी गई चूड़ामणि देते हैं और उनका मार्मिक संदेश सुनाते हैं। श्रीराम की प्रतिक्रिया ऐसी ही है कि मनुष्य केवल बाहर से न देखा जाए। तुलसीदासजी ने लिखा है- सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना, भरि आए जल राजिव नयनायानी सीताजी का दुख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया। यहां तीनों पात्र प्रेम, करुणा और अपनेपन से भरे हुए हैं।

सीताजी तो परेशान थी हीं, पर हनुमान ने संदेश के प्रत्येक शब्द में भाव भर दिया था। श्रीराम तो संवेदनशीलता की चरम सीमा पर जीते हैं। इसलिए हमारे परिवारों में जब भी किसी पर विपत्ति आए तो सभी को प्रेमपूर्ण होकर उसे निपटाना चाहिए। इसीलिए श्रीराम ने आगे आश्वासन दे दिया-बचन कांय मन मम गति जाही। सपनेहुं बूझिअ बिपति की ताही।मन, वचन, शरीर से जिसे मेरी ही गति, आश्रय है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है!

लोक-देवता से संबंधित अनूठा प्रयोग है गणेश पर्व
केवल मनुष्य ही ऐसा होता है जिसके पास श्रेष्ठ से श्रेष्ठ और तुच्छ से तुच्छ दोनों एक समान होता है। उसके पास विचारों की चरम ऊंचाई है, तो आचरण की निम्नतम गति भी है। उठेगा तो इतना ऊंचा उठ जाएगा कि देवत्व लांघ ले और गिरेगा तो इतना नीचे गिर जाएगा कि पशु भी शर्मिदा हो जाएं।

भारत के पास श्रेष्ठतम शास्त्र रहे हैं, एक से बढ़कर एक महापुरुष आए इस धरती पर, अवतारों ने जीवन जीने की कला सिखा दी, फिर भी लोग चूकते गए। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह रहा कि हमने विवेक-शून्य होकर इनका उपयोग किया। जिस दिन हम विवेकहीन हो जाते हैं, हमारा आधार ही खिसक जाता है। हम धार्मिक भावनाओं में इतने बह गए कि सही-गलत ही भूल गए। भावुकता उत्तेजना बन गई।

यथार्थ का धरातल विवेक मांगता है। बड़े लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कल्पनाशक्ति और दूरदर्शिता जरूरी है। पर बिना विवेक के ये भी घातक हैं। विचार जब ओवरफ्लो होते हैं, तो भाव बन जाते हैं। यह भावना का बहाव ही बहा ले जाता है। कोई बांध चाहिए जो इस बहाव का सदुपयोग कर ले। इसीलिए हिंदुओं ने गणोशजी को खूब पूजा है। वह विवेक के देवता हैं। स्पष्ट है कि उन्हें अकारण ही प्रथम पूज्य नहीं बनाया गया है। उनका विवेक शुभ से जुड़ा है और जब भी कोई कार्य शुभ से आरंभ होगा, विवेक से गुजरेगा तो उसे शत-प्रतिशत सफल होना ही है। इसलिए हर कार्य से पहले गणपति की आराधना होती है। गणोश उत्सव इस धरती पर लोक-देवताओं से जुड़े कई अद्भुत प्रयोगों में से एक है।

पीड़ा से भी ढूंढ़ा जा सकता है आनंद का मार्ग
हर बीमारी का कोई न कोई इलाज है। जो बीमारी लाइलाज मानी गई, उसका इलाज अध्यात्म के पास है। और वह है सहनशक्ति। सहनशक्ति आती है सद्गुणों के संग्रहण से। थोड़ी-सी अक्ल से काम लिया जाए, तो हम अपनी बीमारी से अध्यात्म के मार्ग पर जा सकेंगे। लोगों ने अपनी व्याधि से भगवान ढूंढ़ लिए। पीड़ा से भी आनंद का मार्ग ढूंढ़ा जा सकता है। नर्क से भी स्वर्ग प्राप्त हो सकता है। भारत में तो भूख से लोगों ने आत्मा स्पर्श कर ली।

जहां मेडिकल साइंस की सीमा समाप्त हो जाए, वह हाथ ऊंचे कर दे, वहां से तपश्चर्या और उपवास मददगार साबित होंगे। इन दोनों की शुरुआत शरीर से होती है और समापन आत्मा पर होता है।हम जब जीवित होते हैं, तो हमारे पास दो तरह की रोशनी होती है।एक शरीर का प्रकाश है और दूसरी आत्मा की ज्योति है। सामान्य तौर पर हम इन दोनों में फर्कनहीं कर पाते। बल्कि यूं कहें कि पहचान नहीं पाते।

जब हम उपवास और तपश्चर्या से शरीर को सुखाते हैं, उसके दोष दूर कर गुण पकड़ते हैं, तब उसका प्रकाश कम होने लगता है। यह प्रकाश जितना मद्धम होगा, उतनी ही दूसरी ज्योति हमें ज्यादा दिखेगी। उस आत्मा की ज्योति का सहारा लें उस समय और वहीं से बीमारी के प्रति एक सहनशक्ति जागेगी। हमको लगने लगेगा कि हमारे भीतर कुछ ऐसा है, जो शरीर से हटकर है। वही हमारी असली ताकत है। इसके लिए सतत अभ्यास करते रहें। अच्छे विचार लगातार इकट्ठा करें। इन्हें बीज मानकर बीजांकुर का कोई मौका न चूकें।सद्गुण हमें शरीर के प्रकाश से गुजारकर आत्मा की ज्योति तक ले जाने में सेतु साबित होंगे।

जीवन को हमेशा महकाती है कृतज्ञता की सुगंध
जीवन आंधी-तूफान, झोंके और बयार की तरह है। ये सब हवा की शक्लें हैं। हवा में प्रवाह हो तो फायदे, नुकसान दोनों हैं, लेकिन सुगंध हो तो फायदे ही फायदे हैं। अगरबत्ती जलेगी तो धुआं देगी ही, लेकिन सुगंध न हो तो बेकार है। इसी प्रकार जीवन के झोंकों में दूसरों के प्रति आभार, धन्यवाद, कृतज्ञता व्यक्त करना सुगंध के मानिंद है। जिंदगी को महकाना हो तो दूसरों को धन्यवाद देने के अवसर मत चूकिए।

आप जितना अधिक कृतज्ञता से भरे रहेंगे, आपका शिकायती चिंता उतना ही विराम लेगा। आज हमारे जीवन में जरा भी विपरीत होता है तो शिकायती चिंता फौरन सक्रिय हो जाता है। या तो हम दूसरों से शिकायत करते हैं या खुद से ही शुरू हो जाते हैं। ध्यान रखें, अपने जीवन के हर निर्माण कार्य में हम अकेले नहीं हैं, अनेक लोग शामिल होंगे इसमें। हमारे विकास, प्रगति और सुरक्षा में बहुतों का सहयोग है। दूसरों के सहयोग को अपने जीवन में इस प्रकार अंकित करें, जैसे पत्थर पर इबारत खोदी गई हो, जो अमिट रहती है।

दूसरी तरफ, औरों से मिले असहयोग, अपमान, र्दुव्‍यवहार को ऐसे जीवन में रखें, जैसे पानी पर लकीर खींची गई हो। जीवन के कार्य सहयोग से आरंभ हों और आभार पर अंत हों। जैसे छड़ी या डंडे के दो उपयोग हैं- यदि प्रहार करें तो शस्त्र है और यदि सहारा लें तो उपयोग ही बदल जाएगा। छड़ी अपने दो सिरों के कारण ही छड़ी है। एक छोर पर हम हैं, दूसरे पर अन्य लोग। आभार रखेंगे तो छड़ी सेतु बन जाएगी, वरना लोग कृतज्ञता को भी हथियार की तरह इस्तेमाल कर ही लेते हैं।


बाल-विकास के लिए ध्यान
आजकल परिवारों में बच्चों के सर्वागीण विकास के लिए खूब प्रयास किए जाते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें भौतिक सफलता पाने के तरीके ही सिखाए जाएं। उन्हें अभी से यह सिखाया जाए कि भविष्य में जब चारों तरफ सफलता हो, तब भीतर शांति भी कैसे बनी रहे। आज स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे होमवर्क के दबाव के कारण घबराए, चिड़चिड़े और डिप्रेशन में नजर आ रहे हैं। कई योग्य, लगनशील बच्चे परीक्षा के समय अपनी शांति व चैन खो बैठते हैं। नतीजा आने तक तो उनमें आत्महत्या के विचार घुसपैठ कर चुके होते हैं।

ऐसी संतानों के माता-पिता भी घबराकर अवसाद को आमंत्रित करने लगते हैं। इसके निवारण के लिए घरों में ध्यान के संयुक्त प्रयास किए जाएं। वैसे तो मेडिटेशन सबसे कटकर खुद के साथ रहने की कला है, लेकिन परिवारों में प्रयोग के समय इसके स्वरूप को थोड़ा बदल लेना चाहिए। सदस्य एक-दूसरे के साथ बैठकर ध्यान करें। इससे बच्चों में अरुचि व घबराहट कम होगी। ध्यान और परिवार का साथ मिलने से उनके भीतर के क्रोध व बेचैनी का निष्कासन आसानी से हो जाएगा। बच्चों के सर्वागीण विकास के लिए माता-पिता इस गतिविधि को ध्यानपूर्वक और ज्ञानपूर्वक परिवार के जीवन में अवश्य जोड़ लें।

दांपत्य में कारगर अध्यात्म
गृहस्थी में स्वप्न और यथार्थ एक साथ चलते हैं। जब ये टकराते हैं तो गृहस्थ जीवन में तनाव आता है। इस जीवन यात्रा की यह भी खूबी है कि हर मोड़ पर एक नई आशा बनी रहती है।जिंदगी का रेगिस्तान भी यहीं दिख जाता है, तो हरियाली भी नजर आती है।

पति-पत्नी के रिश्ते में ताजगी लाने के लिए अपने जीवनसाथी में रोज एक नई खूबी ढूंढ़ने का अभ्यास करें। इस रिश्ते में प्रेम और अपनापन सामने आ जाना ही काफी नहीं होगा। सुरक्षा का भाव प्रदर्शित होना भी जरूरी है।आज अधिकांश जोड़े एक-दूसरे के प्रति असुरक्षा के भाव से भयभीत हैं।

अपने-अपने अहंकार के कारण कोमल और उदार भावनाओं का ये राजमार्ग गड्ढेदार सड़क बन गया है। इस रिश्ते में तनाव दूर करने के व्यावहारिक उपाय ज्यादा किए जाते हैं। समझौता और मजबूरी एक सांसारिक उपाय है।इसका आध्यात्मिक उपचार अधिक कारगर है। हम जितना आध्यात्मिक होंगे, उतने ही इस रिश्ते के प्रति श्रद्धा और विश्वास में डूबते जाएंगे। यही भाव हम परमात्मा के प्रति भी रखते हैं। परमात्मा तक की यात्रा की शुरुआत भले ही बुद्धि से हो, लेकिन समापन हृदय पर होता है। संभवत: यह भाव इस रिश्ते में भी काम आएगा।

तो दुख काहे को होय!
संसार में परमात्मा दो निगाहों से निहारा जाता है- पहली दिमाग की निगाह से, दूसरी दिल की। दिल हमेशा धन्यवाद की मुद्रा में रहता है, जबकि दिमाग को संदेह, शिकायत, तर्क और खोजबीन में रुचि है। जब हृदयप्रधान वाणी हो तो वार्तालाप भक्ति के अद्भुत दृष्टांतों में बदल जाता है। सुंदरकांड में हनुमानजी श्रीराम से चर्चा कर रहे थे। सीताजी लंका में किस परेशानी से रह रही हैं, इसका विवरण वह जानना चाहते थे। यहीं हनुमानजी ने एक प्यारा सिद्धांत दे दिया। तुलसीदासजी ने लिखा है-कह हनुमंत विपत्ति प्रभु सोई, जब तब सुमिरन भजन न होई।

हनुमान कहते हैं, प्रभु! जीवन में विपत्ति ही तब है, जब आपका भजन और सुमिरन न हो। जिस दिन भक्त भगवान को भूलता है, उसी दिन वह कई परेशानियों को आमंत्रित कर लेता है। यहां हनुमानजी दो शब्दों का प्रयोग करते हैं- भजन और सुमिरन। भजनसे जुड़ने में बुद्धिमानों को भी कम कठिनाई होती है। इसमें शब्द, सुर और ताल की रुचि भी काम करती है, लेकिन सुमिरनपूरी तरह दिल का मामला है। भजन में स्वाद आता है, सुमिरन अपने आप में स्वाद है। इन दोनों के अभाव में विपत्तियों का आगमन होता है। ये दो छोटे काम हमें कई दिक्कतों, परेशानियों से मुक्त करा सकते हैं।

तीन पायों की खटिया
घर बसाने में जो चीजें लगती हैं, घर चलाने में वो बदल जाती हैं। गृहस्थी चलाने में तन, मन और धन तीनों का संतुलन चाहिए। गृहस्थी इन तीन पायों की खटिया है। एक भी कमजोर हुआ कि पलंग चरमराया। केवल धन से घर चलाने वाले पर्याप्त दुखी पाए जाते हैं। धन का सुख आता तो है, पर वह शांति को धक्का देकर प्रवेश करता है। केवल तन का सुख धीरे-धीरे भोग बनकर एक दिन रोग में बदल जाता है। मन को गहराई से समझने पर घर-परिवार में स्वर्ग उतर सकता है। दरअसल मन एक रास्ता है, जहां से परिवार की आत्मा तक पहुंचा जाता है।

जैसे शांत वे ही लोग हो सकेंगे, जो शरीर के अलावा आत्मा की अनुभूति कर पाएंगे। जब हम रोगी होते हैं तो ऋषियों ने कहा है - इसी समय विचार करो कि इस शरीर के अलावा भी हमारे भीतर कोई है, जो अलग-सा है। वह प्रकाशमान है। जैसे ही उसकी अनुभूति हमें होगी, हम हर स्थिति में सुखी ही रहेंगे। यही फॉमरूला पारिवारिक जीवन पर लागू कर लें। घर के सदस्य एक-दूसरे को तनाव और घाव देते ही रहते हैं। कई बार जानकर और कई बार अनजाने में। घाव देकर मरहम भी खुद लगाते हैं, वह भी सुई की नोक से। ऐसे में यदि हम परिवार की आत्मा पर टिक गए तो पूरे घर को तनावमुक्त बना सकेंगे।


संकल्प-शक्ति बड़ा वरदान
सफलता में वरदानों का एक समय बड़ा योगदान रहा है, लेकिन आज के युग में वरदान पुरानी किताबों के किस्से हो गए हैं। किसी की दिव्य वाणी विशेष प्रयोजन के लिए सत्य हो जाए, इसे वरदान माना गया था। अब इंसान की जुबान प्रभावशाली नहीं रही। वरदान जैसे शब्द प्रसव ले सकें, इस मामले में जिह्वा बांझ हो गई है। हां आशीर्वाद अभी भी गूंज रहे हैं। समझदारी से आशीर्वाद दिया और लिया जा सके, तो ये वरदान का विकल्प बन सकते हैं। सफलता अर्जित करने के लिए जिस संकल्प-शक्ति की जरूरत होती है, उसका निर्माण आशीर्वाद, प्राण और मन के मिलन से होता है। 

इन तीनों का उपयोग संकल्प को क्रिया में बदलता है। जो तीन बातें असफलता लाती हैं- असहाय होना, स्वयं को असमर्थ मानना और अशक्त बन जाना; इन पर संकल्प-शक्ति से ही पार पाया जा सकता है। अपने भीतर संकल्प पैदा करने के लिए बड़ों के आशीर्वाद के अलावा प्राण की आवश्यकता है। इसका अर्थ है योग से जीवनचर्या को जोड़ें। प्राणायाम को प्रबंधन का महत्वपूर्ण आधार बनाएं। इसके बाद आता है मन। मन की रुकावटें अनेक शक्लें लेकर आएंगी। इसे निष्क्रिय किए बिना संकल्प सक्रिय नहीं हो पाएगा। प्राणायाम ही इसका इलाज है। वर्तमान में संकल्प-शक्ति आ जाना सबसे बड़ा वरदान साबित होगा।


ईमानदारी को बनाएं हथियार
जानकारी और ज्ञान में वही फर्क है, जो आंख और प्रकाश में है। प्रकाश यानी दृष्टि। दृष्टि न हो तो आंख किस काम की और ज्ञान न हो तो जानकारियों का वजन भी मनुष्य की चाल को बिगाड़ देगा। इन बातों का असर हमारे दो अभियानों पर भी पड़ा। भ्रष्टाचार और अपराध, देश के ये दो कलंक बिंदिया बनकर चिपक गए। जब दुगरुण ही श्रंगार बन जाए, तब चेहरे को विकृत होना ही है। भ्रष्टाचार मिटेगा ईमानदारी से।

हमारे पास ईमानदारी जानकारी की शक्ल में है, ज्ञान के रूप में नहीं। इसलिए ईमानदारी को समझदारी से जोड़ना होगा। एक गहरी समझ के साथ इसे शस्त्र बनाकर बेईमानों पर प्रहार करना होगा। लोगों ने ईमानदारी को ढाल बना लिया, अब हथियार बनाना होगा। इसी तरह अपराध के मुकाबले के लिए जिम्मेदारी को बहादुरी से जोड़ना होगा। कर्तव्यनिष्ठ लोग साहस दिखाने के मामले में रिजर्व हो जाते हैं। यह बिल्कुल ऐसा है कि हमारे पास जिम्मेदारी की आंख है, पर बहादुरी की दृष्टि नहीं।

अंधे होकर आखिर कितनी लंबी यात्राएं कर पाएंगे। इसीलिए बेईमानों की जानकारी भी ईमानदारों के ज्ञान पर भारी पड़ जाती है और अपराधियों की दृष्टि जिम्मेदारों की आंख पर हावी हो जाती है। आध्यात्मिकता ही इस गड़बड़ाए तालमेल को ठीक कर पाएगी।


आस्तिकता और नास्तिकता

बच्चों के कुछ खिलौने ऐसे होते हैं, जिनमें विभिन्न अंगों को अलग कर फिर उन्हें जोड़ा भी जा सकता है। इसी तरह मनुष्यों के बीच आस्तिकता और नास्तिकता का सिद्धांत चलता है। नास्तिकों ने इंसान को चीजों का जोड़ना बताया। जिन बातों को मिलाकर मनुष्य बना है, उन्हें हटा दो तो वह मनुष्य खत्म।



हिंदुओं ने इसे और सरल बनाकर परमात्मा को आत्मा से जोड़ दिया। वहीं आस्तिकों का मानना है कि हम एक नहीं, दो हैं। वह दूसरा हमसे अधिक महत्वपूर्ण है। जीवन रहते उसे जरूर पाना है। नास्तिक मानते हैं कि चीजों के जोड़ से बना मनुष्य इच्छाओं में जीता है और चीजें हटीं कि इच्छा भी हटी लेकिन आस्तिक ने इच्छा को एक शक्ति से जोड़ा। खाली इच्छा जीवन को स्वच्छंद, उच्छृंखल, स्वेच्छाचारी बना देगी। आस्तिकों ने इच्छा को शक्ति से जोड़कर जीवन में कुछ धार्मिक अनुशासन पैदा किए।



परमात्मा को भी इसीलिए एक अनुशासन माना गया है। इच्छाशक्ति बिना हिंसा का शस्त्र है। इसकी पहरेदारी में आस्तिक स्वयं को सुरक्षित मानता है। परमात्मा हैयह विचार उसे पाने की इच्छा पैदा करता है। इच्छा की अगली पायदान कामना है। परमात्मा के प्रति आग्रह हमारी कामना को परिष्कृत कर उसे संकल्प में बदलता है। यही संकल्प भक्ति के साथ भौतिकता में भी सफलता दिलाता है।

अन्नदान से मन की शुद्धि

कुछ लोगों ने यह साबित कर दिया है कि श्रद्धा और धर्य भी ठगने के हथियार बनाए जा सकते हैं। वर्तमान में ऐसा ही हो रहा है। धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा की आड़ में लोगों को खूब ठगा जा रहा है। धर्य का दुरुपयोग राजनीति में भी जमकर किया गया है। जिन्हें योग, ज्ञान, तप आदि नहीं आया, वे भी श्रद्धा के मार्ग से परमात्मा तक पहुंच गए।



हिंदुओं ने श्रद्धा और धर्य को जोड़कर श्राद्ध परंपरा का खूब निर्वाह किया है। श्राद्ध पक्ष शुरू हो गए हैं। यह पितरों के प्रति आभार का पर्व पक्ष है। जिनके कारण हम इस संसार में आए हैं, उन्हें स्मृतियों से धन्यवाद दिया जाना चाहिए। बड़े-बुजुर्गो के साथ व्यवहार करने में धर्य की जरूरत होती है। उन्हें देह-दिमाग से स्मृति-दोष हो जाता है। अनेक विषयों को बार-बार दोहराकर पूछने की आदत भी हो जाती है।


नई पीढ़ी इस वार्तालाप में धर्य खो बैठती है। बड़े-बुजुर्गो से बात करने में शब्द खर्च करने के मामले में ऐसा लगता है, जैसे उनकी जेब पर असर पड़ रहा हो। श्राद्ध को केवल पंडिताई का कर्मकांड न मान लें। इस पक्ष में भोजन कराकर हम अन्न से अपने मन को शुद्ध करते हैं। जिस मन में पूर्वजों की स्मृति धरोहर के रूप में सुरक्षित है। श्रद्धा और धर्य इस पक्ष में अपने नए स्वरूप से बलवान होंगे। जब हम पूरी श्रद्धा और धर्य से कोई काम करते हैं तो वही श्रेष्ठ कार्य परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग बन जाता है। श्राद्ध के ये दिन पितरों के पड़ाव से गुजरकर परमात्मा की मंजिल तक पहुंचाएंगे।



मंगल आएगा तो कल्याण होगा
अपनी तो सफलता हो ही जाए, लेकिन दूसरे का भी अहित न हो, इस भावना को हम भारतीयों ने मंगल भावना कहा है। इसके साथ यह भी मत है कि एक के हित में दूसरे का अहित समाया होगा। प्रतिस्पर्धा के युग में क्रिया का दोष दूर करने के लिए भाव की शुद्धि रखी जाए। मंगल कामना एक भाव है। तुलसीदासजी ने श्रीराम के लिए एक जग प्रसिद्ध चौपाई उनके इसी क्रिया-भाव को बताने में व्यक्त की है। मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवहु सो दशरथ अजिर बिहारी।

श्रीराम मंगल को प्रदान कर अमंगल को हरते हैं। साथ ही राजा दशरथ के आंगन में विचरते हैं। तुलसीदासजी ने राम को आंगन से जोड़कर एक बड़ा संदेश दिया है। इस समय हमारे घरों के आंगन में सफलता ने प्रवेश तो किया है, पर साथ में अशांति को भी लेकर आई है। घरों में श्रीराम के होने का अर्थ है परिवार के मंगल की रक्षा। मनुष्य के मन में जब मंगल का भाव आता है, तब वह तनावमुक्त भी रहता है, छोटे-बड़े का भेद मिट जाता है। उसकी वाणी अहंकारशून्य हो जाती है।

इसका उदाहरण सुंदरकांड में तब आया है, जब श्रीराम हनुमान के प्रति आभार व्यक्त कर रहे थे। सुनु कपि तोहि समान उपकारी, नहि कोउ सुर नर मुनि धारी। प्रति उपकार करौं का तोरा, सनमुख होइ न सकत मन मोरा।श्रीराम कहते हैं- हनुमान तुम्हारे समान कौन मेरा उपकारी हो सकता है। मेरा मन तुम्हारे सामने खड़ा नहीं रह सकता। जब जीवन में मंगल का भाव आता है, तब आभार-आदेश, निर्णय-विचार, क्रिया-प्रतिस्पर्धा सबमें शुभ और कल्याण आ ही जाएगा।

दृष्टि के मुताबिक होगा दर्शन
हमारे घर-परिवार में व्यक्त से ज्यादा अव्यक्त का महत्व होता है। जीवन बीत जाता है और घर के सदस्य जान ही नहीं पाते कि बहुत कुछ अनकहा और अनसुना ही रह गया। जीवनसाथी के रिश्तों में भी तन, मन, धन से हटकर कुछ ऐसा सुख होता है, जिसकी मांग पूरी ही नहीं हो पाती। पति या पत्नी दोनों ही कभी-कभी धन कमाने की दौड़ में इतने आगे निकल जाते हैं कि जीवन से दूर ही हो जाते हैं। धन से उस सुख की पूर्ति नहीं हो पाती।

धीरे-धीरे यह असंतुष्टि भविष्य में आवेश में बदल जाती है, जो घर के दूसरे सदस्यों पर निकलता है। इस अभाव को कलह में बदलते देर नहीं लगती। यह सांसारिक रहन-सहन है। इसका निदान आध्यात्मिक हो सकता है। दरअसल हर एक के पास दो तरह की दृष्टि होती है। बाहरी जीवन बाहर की आंख से देखा जाता है। इसीलिए परिवार के सदस्यों को जिस सुख की चाहत होती है, वह अनदेखा रह जाता है। बाहरी आंख दूर से दूर भले ही देख ले, पर निकटता के मामले में चूक जाती है।

यही आंख जब भीतर मुड़ जाए तो अंतर्दृष्टि काम करने लगती है। आत्मा की निकटता प्राप्त होते ही शरीर से ऐसी तरंगें निकलती हैं, जिसमें घर के सदस्यों की उस सुख की तलाश पूरी होती है। जैसी दृष्टि होती है, दर्शन भी वैसा ही होगा। सागर को देखना हो तो केवल लहरों को देख लेने से बात पूरी नहीं होती। लहरें तो पलभर को रहती हैं और सागर केवल लहरों का जोड़ नहीं है। उसकी थाह पाना ही सागर देखना है। परिवार सागर की तरह है। भीतर की दृष्टि से देखें तो हर सदस्य संतुष्ट हो सकेगा।

सफलता पर अहंकार से बचें
जब लोग संसार में सफल होते हैं तो माना जाता है कि बहुत कुछ नया जीवित हो गया, लेकिन कम लोग जान पाते हैं कि बहुत कुछ मर भी जाता है। लेकिन मरण चूंकि भीतर होता है, इसलिए लोग जान नहीं पाते। जैसे सफलता कई बार संवेदनाओं को मार डालती है, सरलता भी इसके कत्ल के दायरे में आ जाती है। संबंधों को भी यह लील जाती है। चलिए, बाहरी सफलता यदि भीतर कुछ मारती है तो मृत्यु का केंद्र बदला जाए। जब कोई व्यक्ति संन्यास लेता है तो कहते हैं पुराने व्यक्ति की मृत्यु हो गई। 

संन्यास पुनर्जन्म है। शरीर का आवरण ही नहीं बदलता, भीतर का आदमी भी परिवर्तित हो जाता है। एक ऐसे व्यक्ति का जन्म संन्यासी के रूप में होता है, जो ईश्वर के भरोसे ही जीता है। उसका अतीत मिट जाता है, जीवन में स्मृतियों की श्रंखला टूट जाती है। संन्यास के पहले वह राजा हो या रंक, पर बाद में सिर्फ राजा ही रह जाता है। सांसारिक सफलता में संन्यास के प्रयोग जोड़े जाएं। जब कभी आप सफल हों तो अपने भीतर के संन्यासी को जीवित करें, जो हरेक के भीतर होता ही है। 

जितना आप अपने संन्यस्त व्यक्ति को पकड़ेंगे, अहंकार से दूर होते जाएंगे। अहंकार सफलता की आंख में पड़े हुए कंकड़ के समान है, थोड़े समय बाद तकलीफ देगा ही। सफलता आज के समय में फंदे की तरह बना दी गई है। अपने गले में डालकर हार की तरह प्रयोग की जाती है और दूसरे के गले में रस्सी की तरह कसकर घोटने का काम लिया जाता है। फंदा तो आखिर फंदा ही है, हार का हो, रस्सी का हो या बाहों का, जरा-सी असावधानी गला घोंट सकती है। इसलिए सफलता पर अहंकार से बचने के लिए अपने संन्यस्त रूप को स्पर्श करते रहें।

भीतर से खुद को मिटाकर देखें

पृथ्वी से हम खूब धन-धान्य लेते रहते हैं। एक महत्वपूर्ण ज्ञान और देती है पृथ्वी। उसका गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत हमें ठीक से समझ लेना चाहिए। जो लोग शिखर पर हों, उनके लिए धरती का यह नियम बड़े काम का है। धरती अपनी ओर नीचे खींचती ही है। आपको शिखर पर चढ़ता देख लोग दुआ-बद्दुआ दोनों से आपके वापस आने का इंतजार कर रहे होते हैं। शीर्ष पर रहकर आपकी अपनी असावधानी का दबाव धक्का बन जाता है।



दूसरे उसी समय अपनी-अपनी सफलता अर्जित करने का खिंचाव बनाते हैं। तब आपकी अपनी ताकत के अलावा किसी और शक्ति की जरूरत पड़ती है। परमात्मा कई कथा-किस्सों की शक्ल में हमारे जीवन में आता है। इनकी प्रेरक कथाओं में तथ्य, तर्क और सत्य में मत उलझ जाना। ऐसी कहानियों में सच होता भी है और नहीं भी होता। यहां प्रतीकों में आपको सच्चई की सूचना दी जाती है।



प्रतीकों को पकड़ने के लिए गहरा उतरना पड़ता है, क्योंकि हर गहरी बात प्रतीकों में ही ज्यादा अच्छे से कही गई है। संसार में सफल होने के बाद खुद को बचाना और दिखाना पड़ता है। यही संसार की रीति है। इसीलिए कामयाबी से अधिक उसके दिखावे का जोर है। लेकिन अध्यात्म कहता है कि जब आप सफल हो जाएं, भीतर से खुद को थोड़ा मिटाकर देखें तो पाएंगे आपका परमात्मा प्रकट हो रहा होगा। बाहर के माहौल में जब तक आप दिखोगे नहीं, लोग जानेंगे कैसे? लेकिन भीतर के मामले में जब तक आप मिटोगे नहीं भगवान को कैसे मिलोगे? परमात्मा भीतर जैसे और जितना प्रकट होता है, बाहर से आप उतने ही आकर्षक, दिव्य, मान्य और शिखर पर खड़े रहने के लिए दृढ़ रहेंगे।


दुर्गति से पहले ही सावधान हो जाएं

विदेश यात्रा के दौरान मुझे एक बात का अनुभव गहराई से हुआ कि यहां जिंदगी का बेहतर स्तर और पक्ष होने के बाद भी निजी जीवन की समस्याएं भारत से कम नहीं हैं। कुछ मामलों में लोग निजी रूप से परेशान हैं, पर समाधान नहीं होने के कारण मजबूरी में जी रहे हैं या अवसाद में मर रहे हैं।



मेरे संपर्क में आने वाले कुछ गोरे लोगों की समस्याएं हमें बहुत कुछ समझा देंगी। ये 5-10 लोग एक ही स्थान पर नौकरी करते हैं। एक की समस्या है, पति-पत्नी में बनती नहीं। बेहतर विकल्प की लगातार तलाश ही इनकी समस्या है। दूसरों की समस्या तो समझ से ही परे है। इन तीन-चार स्त्रियों के बच्चे हैं, पर ये शादीशुदा नहीं हैं। जब ये हाईस्कूल में थीं, तब ही मां बन चुकी थीं। इनकी समस्या यह है कि बच्चों के लालन-पालन में और जॉब में तालमेल कैसे बैठाएं।



इसमें सोचने वाली बात यह है कि जिन हालात में ये मां बन गईं, ये उसे समस्या नहीं मानतीं। तीसरी समस्या वाली कुछ तलाकशुदा प्रौढ़ महिलाएं मुझसे योग में शांति का समाधान जानना चाह रही थीं। तलाक हुआ क्यों, यह उनके लिए मुद्दा नहीं है। वे तो अकेलेपन का समाधान चाहती थीं। चौथा वर्ग मुझे उन लोगों का मिला, जो 80 वर्ष के आसपास होने के बाद भी जीवनसाथी ढूंढ़ रहे थे और शांति-संतोष की तलाश भी इन्हें है।



दरअसल केवल देह पर टिककर ऐसा ही जीवन हाथ आता है। योग आत्मा का स्पर्श कराता है। मुझसे लोगों ने यही अपेक्षा की कि शांति कैसे मिले। इनकी परेशानियों में भारतवासियों के चेहरे दिखना स्वाभाविक है, क्योंकि हम इसी मॉडल को अपना चुके हैं, लेकिन वहां जैसी दुर्गति तक पहुंचने से पहले सावधान हो सकते हैं।

अध्यात्म में काम आती है अनुभूति
जीवन  में कुछ मार्ग ऐसे होते हैं, जिन पर पुराने लोगों के  पदचिन्हों को देखकर चलना होता है। उसे अनुसरण कहा जाएगा। संसार की यात्रा चूंकि अनुभव से लाभकारी होती है, इसलिए सांसारिक मार्ग में पदचिन्ह काम के हैं, लेकिन अध्यात्म के मार्ग में अनुभूति काम आती है। इसमें पदचिन्ह से मुक्त होना पड़ेगा।

बिना  पदचिन्हों का सहारा लेकर चलने में अपनी अनुभूति और गहरी होगी। ऐसा कहा जाता है कि यात्री को मार्ग से आसक्ति हो जाए तो वह पदचिन्ह छोड़ने में रुचि लेता है। ये चिह्न् कहीं न कहीं अहंकार की ध्वनि लेकर आते हैं। रास्ता तो सिर्फ चलने के लिए होता है। उससे मोह रखना, उसे अपना मान लेना अहंकार को जन्म देगा। सिर्फ चलना है, जैसे हम गुजर गए वैसे दूसरे भी गुजरेंगे।

लोग आएंगे और जाएंगे पर रास्ता वहीं रह जाएगा। दुनियादारी में रास्ते को ही लोग मंजिल मानने की भूल कर जाते हैं, क्योंकि अध्यात्म के मार्ग पर तो जिन्होंने जाना, वे अभिव्यक्त नहीं कर पाएंगे। वे खुद समझ चुके होंगे, पर संभवत: दूसरों को नहीं समझा पाएंगे।

भौतिकता में लोग अपने अनुभव को दूसरों में बांट सकते हैं, लेकिन अध्यात्म के मार्ग में अभिव्यक्ति बड़ी निजी होती है। इसकी महक दूसरे महसूस कर सकते हैं, कहने की जरूरत नहीं पड़ती। यहां का संसार इशारे पर चलता है, यहां के मार्ग चलते-चलते बन जाते हैं, इस पर चलने वाले इस बात की फिक्र नहीं करते कि हमारे  पदचिन्हों को लोग देखें, उस पर चलें। उनकी यात्रा बिना अहंकार के पूरी होती है।


विनम्रता है मनुष्य का गहना

प्रयासों से सफलता मिलती है। सफलता मिल जाने पर अपने भीतर विनम्रता बढ़ाने के लिए एक प्रयोग करते रहना चाहिए। विनम्रता सफल और बड़े आदमी का गहना होती है। सुंदरकांड में हनुमानजी इसका उदाहरण अपने चरित्र से देते हैं। जब श्रीराम ने उनकी बहुत प्रशंसा की, तो वे उनके चरणों में गिर गए। चरन परेउ प्रेमाकुल, त्राहि त्राहि भगवंत। रक्षा करिए, रक्षा करिए, शब्द कहे। हनुमानजी किस बात से सुरक्षा मांग रहे थे। 



श्रीराम से उनका कहना था कि मुझे अहंकार से बचाएं। जब हम सफल होते हैं तो संसार हमारी प्रशंसा करेगा ही, हमारी जय-जयकार होगी, हमारी ख्याति को लोग अतिरिक्त मान देंगे। ऐसे में अपनी सफलता के श्रेय को हमें चार लोगों को अर्पित कर देना चाहिए। श्रीराम के चरणों में गिरकर हनुमानजी बता रहे हैं कि सफलता का श्रेय सबसे पहले परमात्मा के चरणों में अर्पित करें, दूसरा गुरु को, तीसरा माता-पिता को और चौथा समाज को। 



कोई भी मनुष्य कभी भी अकेला सफल नहीं हो सकता। अनेक लोग अपना समय, सद्भाव और सहयोग देते हैं, तब मनुष्य सफल होता है। इसीलिए अपनी सफलता में मिले श्रेय में से सबका हिस्सा उन्हें वापस लौटाएं। इसके दो फायदे होंगे। पहला, अहंकार नहीं आएगा और दूसरा, समाज के लोगों में एक-दूसरे के प्रति सहयोग व सद्भाव का वातावरण बनेगा। यहां सुंदरकांड में हनुमानजी बता रहे हैं कि पराक्रम और विनम्रता का मणिकांचन योग जीवन को सुंदर बना देता है।

कर्म को जोड़ें भक्तियोग से

कर्म और फल को कभी आप एक साथ नहीं पाएंगे। कर्म आरंभ है और फल अंत। लेकिन दोनों जुड़े हुए हैं। सांसारिक दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि कर्म शुरुआत है और परिणाम के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। 




इस अवधि में ही मनुष्य की परीक्षा होती है। इसे कर्मयोग कहा गया है। जब हम केवल कर्मयोग पर टिकते हैं, तो आरंभ और अंत का तनाव आएगा ही। कुछ लोग तो फल को सामने रखकर ही कर्म की यात्रा का आरंभ करते हैं। ज्यादातर लोग इसी कारण परेशान रहते हैं। 




काम तो करना है, परिणाम भी आना है, इस बीच तनावमुक्त कैसे रहें। कर्म को भक्तियोग से जोड़ दें। जैसे ही कर्म-भक्ति मिले, पहली समझ यह आ जाएगी कि कर्म करने को मिला है, यही सबसे बड़ा फल है। यहां आरंभ और अंत की दूरी ही मिट जाती है। 




फल कर्म में ही समा जाता है। हम कर्म करने के लिए चिंतित होंगे, लेकिन फल के प्रति तनावमुक्त हो जाएंगे। भक्तियोग जीवन में कैसे आए, यदि यह सवाल खड़ा हो जाए, तो गुरु और गुरुमंत्र का सहारा लीजिए। जब हम किसी गुरु के प्रति जुड़ते हैं, तो हमें समर्पण की मुद्रा में आना पड़ता है। यहीं से भक्ति जागती है। भक्ति समर्पण मांगती है। फिर गुरु कई तरीके से अहंकार गला देता है।



गुरु केवल जीवन का विपरीत ही नहीं दिखाता, बल्कि हमें लगेगा वह गिरा रहा है, घसीट रहा है, खींचकर उस दर्पण के सामने ले जा रहा है, जहां हम अपना असली चेहरा देख सकें। यहीं से हम जागते हैं। जागे हुए व्यक्ति के लिए कर्म और फल के बीच का तनाव समाप्त हो जाता है।




शिक्षा के साथ जरूरी हैं संस्कार


शिक्षा  का कोई विकल्प नहीं है। सही तरीके से धन कमाने के लिए शिक्षित होना जरूरी है। आने वाले समय में संपत्ति पढ़ाई-लिखाई से ही सुरक्षित रहेगी। व्यावसायिक जीवन में शिक्षा के लाभ ही लाभ हैं। इस समय भारत में पढ़े-लिखे युवा वर्ग का लक्ष्य विदेश ही है। खासतौर पर विदेश में अध्ययन और फिर वहां नौकरी मिल जाए, यह सपना युवाओं के रोम-रोम में रच-बस गया है। वहां पहुंचने का सेतु शिक्षा ही है, लेकिन साथ ही एक खतरा भी है। 






अपनी अमेरिका यात्रा में मैं खूब पढ़े-लिखे कई युवाओं से मिला। शिक्षा से प्राप्त सुख से वे भरपूर भी नजर आए, लेकिन एक दर्द अब यहां भी लोग छुपा नहीं पा रहे हैं। परिवार में पति-पत्नी का शिक्षित होना ही काफी नहीं है। कुछ और भी तत्व हैं, जिन्हें इसमें शामिल करना होगा। कम पढ़े-लिखे या अशिक्षित दांपत्य में भी सुख देखा गया है। 




दूसरी ओर ज्यादा शिक्षित जोड़ों में तनाव-दुख की संभावना यहां ज्यादा देखी जा रही है। इस मामले में अब भारत में भी अमेरिका जैसे ही दृश्य बन रहे हैं। शिक्षा से जो अपनापन प्रकट होना चाहिए, उसकी बजाय परिवारों में प्रतिस्पद्र्धा बढ़ती जा रही है। रिश्ते आपसी प्रतिद्वंद्विता की भेंट चढ़ रहे हैं। इसलिए शिक्षा के साथ संस्कार बेहद जरूरी हैं। परिवारों में शिक्षा और संस्कार का समन्वय सफलता के साथ सुख भी लाएगा। बाहर आप कितने ही शिक्षित हों, पर घर में थोड़े अज्ञानी बने रहना अपनेपन के लिए बेहद जरूरी है।


अंतरात्मा की वाणी गलत नहीं होती

वर्तमान  में शरीर की सक्रियता का मूल्य अधिक है, लेकिन लोग भूल जाते हैं कि मन की निष्क्रियता उससे भी अधिक मूल्यवान है। शरीर की दौड़-भाग हमको और सबको दिखती है। 




कभी-कभी हम शरीर की अतिसक्रियता को ही सफलता का कारण मान लेते हैं। जब हम केवल बाहरी सक्रियता पर ही टिक जाते हैं, तब भीतर से मन भी सक्रिय हो जाता है। सक्रिय मन अशांति का तूफान लेकर आएगा। हमारी तन की सक्रियता को दूसरे लोग देख सकते हैं, पर मन की सक्रियता को केवल हम ही देख पाएंगे। इसी को कहते हैं स्वयं को देखना। 




हम सारी दुनिया को देखने में माहिर होते हैं, पर खुद को देखने में चूक जाते हैं। शरीर और आत्मा की भिन्नता को जानना जरूरी है। भीतरी निष्क्रियता की समझ आते ही शांति का मतलब पकड़ में आएगा। आत्मा और मन को देखने के लिए सांस ही माध्यम है।



हम जितनी एकाग्रता से अपनी सांस को देखेंगे, मन की चंचलता उतनी कम होगी और शरीर पूरे स्वास्थ्य के साथ सक्रिय रहेगा। आपको बोलने के साथ-साथ सुनने की कला भी आएगी। हमारी दृष्टि में विचारों से वासना नहीं उतरेगी। सांस पर ध्यान देने से सुनने की कला आ जाती है और हम अपने भीतर उस दिव्य ध्वनि को सुन सकते हैं, जिसे अंतरात्मा की वाणी कहा गया है। जो कभी गलत नहीं होती। बस यहीं से शरीर सक्रिय होगा, आपकी वाणी प्रभावशाली रहेगी, मन शांत होगा और पूरे व्यक्तित्व से एक महक प्रसारित होगी।



समय प्रबंधन को साधना जरूरी

समय  प्रबंधन में रुचि रखने वाले लोग कालखंड को कामकाज से जोड़ लेते हैं। किस समय क्या काम करना है और कितने समय में पूरा करना है, इसे समय प्रबंधन कहा गया है। इसे जब बाहर से साधा जाता है, तो टाइम-टेबल बनता है।



अनुशासन लादा जाता है, नियमों की सख्ती बरती जाती है, लेकिन देखा गया है कि यदि समय की पकड़ केवल बाहर से की जाए तो भी तनाव पैदा हो जाता है। टाइम की डेडलाइन या समय का बंधन प्राय: मनुष्य को और तनावग्रस्त कर देता है। यदि समय अवधि तथा कार्य अव्यावहारिक हो जाए, तो कई लोग अवसाद में डूब जाते हैं।



आइए, एक प्रयोग करें। बाहरी समय प्रबंधन बिना तनाव के सध जाए, इसके लिए एक प्रयोग किया जा सकता है। चौबीस घंटे में कुछ समय भीतर से शून्यकाल बना लें। उस समय मन को मानवमुक्त कर दें, एक दम खाली, शून्य। जैसे ही मन मानवमुक्त होता है, वह महामानवयुक्त हो जाता है। इस महामानव को ही ईश्वर कहा गया है। अध्यात्म में स्वयं को जान लेना परमात्मा से मिलन होना कहा गया है। आप और आपका परमात्मा जितने समय साथ होंगे, उतने ही तनावमुक्त होते जाएंगे। आप यहां खाली आए होंगे तो भरकर वापस लौटेंगे और भरकर आएंगे तो खाली होकर लौटेंगे।



इसके बाद संसार में उतरकर अपना समय प्रबंधन साधने में परेशान नहीं होंगे। कुछ समय का खालीपन बाकी समय के प्रबंधन के लिए श्रेष्ठ उपाय है।



आपसी समझ का नाम है आत्मीयता

दांपत्य  में पति-पत्नी की निजी रुचियां अलग रहती हैं और रहनी भी चाहिए, लेकिन इन पृथक रुचियों को समझ के साथ स्वीकार करना होगा। जब मजबूरी के साथ रुचियां स्वीकार की जाएंगी तो आगे चलकर कलह होना स्वाभाविक है। पति-पत्नी के बीच समझ का नाम है आत्मीयता, अपनापन। 




ये कोई अचानक पैदा हुई आदत नहीं होगी। इसके संस्कार बचपन से ही पड़ते हैं। इसीलिए भारतीय परिवारों ने बालपन में सद्गुणों का बड़ा महत्व बताया है। यदि जीवन में सद्गुण शुरू से ही हों तो आत्मीयता जल्दी पनपती है। आत्मीयता की वृत्ति धैर्य को जन्म देती है। अधीरता पारिवारिक जीवन का एक बड़ा दोष है। धैर्य के साथ केवल रिश्ते ही नहीं निभाने हैं, बल्कि रिश्तों के आसपास बीत रहे समय के परिवर्तन को भी जानना है। 




वर्षों पहले रिश्तों के बीच की व्यावहारिकता जैसी निभाई गई, आज भी वैसी की वैसी नहीं रह सकती। सालों पहले सास-बहू की आपसी जीवनशैली आज भी वैसी रखना भूल होगी। जीवन प्रतिपल नया हो रहा है। इसलिए परिवार में सुख की खोज भी सावधानी से करते रहना होगा। इस समय परिवार में सुख के तीन सत्य हैं। पहला है, संसार से मिलने वाला सुख। इसमें सुविधाएं, साधन आते हैं। दूसरा, शिक्षा से प्राप्त सुख। लेकिन ध्यान रहे योग्यता अहंकार में न बदल जाए।


परिवार में तीसरा सुख मिलेगा निजी रूप से खोजने पर। स्वयं खोजा गया सुख अधिक स्थायी, स्वयंसिद्ध और आत्मनिर्भर होगा। इसलिए थोड़ा एकांत बिताकर योग के माध्यम से स्वयं से जुड़ें। सच्चा सुख यहीं मिलेगा। सर्वपितृमोक्ष अमावस्या पर पितरों को याद करने का एक अच्छा माध्यम योग भी है।



तब शक्तिपर्व बन जाएगा शांतिपर्व
विचारों का प्रवाह कभी-कभी विद्युत की गति से भी ज्यादा तेज होता है। विचार जब अधिक आने लगें, तो सबसे पहले उनका अध्ययन करें। उन्हें भीतर देखें और तुरंत किसी संकल्प से जोड़ दें। अन्यथा या तो विचार बह जाएंगे या भंवर बनकर हमें डुबो देंगे। फिर विचार जब किसी संकल्प से जुड़ जाएं, तब उन्हें शक्ति से जोड़ा जाए। शक्ति ही उन्हें मूर्तरूप देगी। हम भारतीयों ने शक्ति को पूजने के लिए, समझने के लिए पूरा पर्व ही बना दिया है। 

शारदीय नवरात्र बाहर से जितना नृत्यमय है, भीतर से उतना ही स्थिर होने का अवसर है। इसे ही कहें शरीर से सक्रिय और मन से विश्राम, यहीं से यह शक्तिपर्व शांतिपर्व बन जाएगा। बाहर से गतिशील और भीतर से शांत, ऐसे दो पात्र हमने देखे भी हैं। अग्रवाल समाज के पितृपुरुष अग्रसेन महाराज कृष्ण के समकालीन थे और इसी तपस्या के प्रतीक थे। सुंदरकांड में हनुमानजी पग-पग पर अपने भीतर की स्थिरता और बाहर की सक्रियता को दर्शाते थे। 

सुंदरकांड में दृश्य आया है - लंका के समाचार देने पर श्रीराम हनुमानजी की खूब प्रशंसा करते हैं। तुलसीदासजी लिखते हैं- प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा, सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा। श्रीराम का हाथ हनुमानजी के सिर पर है। उस स्थिति का स्मरण करके शिवजी प्रेममग्न हो गए। 

शंकरजी कैलाश पर पार्वतीजी को रामकथा सुना रहे थे। घटना यहां श्रीराम-हनुमानजी के बीच घटी और आनंद वहां दूर शिवजी को आया। यह होता है भावना का भीतरी संबंध। इसलिए थोड़ा समय भीतर से शांत होकर बिताया जाए। इस नवरात्र में यही संकल्प-शक्ति के झोंके लेकर आएगा।


भाषा में भाव की समझें महत्ता

भाषा  केवल शब्दों पर टिकी होती, तो एक व्यक्ति को कई-कई भाषाएं सीखने में अधिक दिक्कतें नहीं आतीं। लेकिन किसी भी भाषा में शब्दों से अधिक भाव के प्राण होते हैं। एक-दूसरे की भाषा नहीं जानने के कारण दूरियां बढ़ जाती हैं यह तो समझ में आता है, लेकिन कभी-कभी भाषा समझने के बाद भी नजदीकी नहीं बन पाती। 




भाषा के भीतर का भाव लोगों को जोड़ता है, इसलिए केवल बोलने के लिए न बोलें। व्यावसायिक जगत में शब्द, अर्थ यानी धन से जुड़े रहते हैं। उसमें भाव से अधिक काम निकालने की वृत्ति रहती है। हमारे यहां भक्ति या इबादत से जुड़े लोगों को जल्दी समझ में आएगा कि भाषा में भाव क्या होता है।



सुना जाता है कि अल्जीरिया में एक राजा था हजअहमल, जिसकी लगभग 385 रानियां थीं और पूरे जीवन वह उनसे बात नहीं कर पाया था, क्योंकि वह इन अलग-अलग जगह से लाई गईं औरतों की भाषा नहीं जानता था। लेकिन अब तो एक छत के नीचे पति-पत्नी दो प्राणी रहते हैं और भाव न होने के कारण उनकी भाषा भी दम तोड़ जाती है। 




हम लोग शब्दों के पीछे के भाव न समझने के कारण उसकी गरिमा कैसे खो देते हैं, इसका उदाहरण 'भगवान' शब्द से ही लें। उस परमशक्ति को याद करने के लिए हर भाषा-धर्म में अलग-अलग शब्द हैं, पर भाव खो देने के कारण हमने इनका भी अनर्थ कर दिया। ईश्वर को याद करने के लिए जो शब्द हैं, उन्हें बोलने पर जो अनुभूति होनी चाहिए, वर्तमान में वह खत्म हो गई है। उस शब्द का रस ही चला गया है। ऐसा लगता है जैसे बिना भाव के ये शब्द कूटे हुए, निचोड़े हुए कपड़े की तरह हैं।


अपने दोषों को निष्पक्षता से देखें
दूसरों  पर राज करने में मनुष्य मन को बड़ा मजा आता है। जिस देह में मन रहता है, उस देहधारी मनुष्य पर भी मन अपनी हुकूमत चलाता है।

वह जैसा चाहे, वैसा काम अपने ही मालिक से करवा लेता है। जीवन बीत जाता है और लोग समझ ही नहीं पाते हैं कि मन हमारा मालिक है या हम इसके। मन को अपने कब्जे में करने के लिए स्वयं को प्रशिक्षण देना पड़ेगा। जिस तरह व्यावसायिक जीवन में हम प्रशिक्षण से गुजरते हैं, इसी तरह निजी जीवन में भी तैयारी रखें।

स्वयं का प्रशिक्षण एक आध्यात्मिक प्रक्रिया होगी। सबसे पहले अपने दोषों को निष्पक्षता से देखें। बुरी आदतों से लगातार लड़ाई करें, उन्हें पराजित करने का कोई मौका न छोड़ें और इस खाली स्थान को तुरंत अच्छी आदतों की स्थापना से भरें। पुरानी खराब आदतों को मिटाने में ही अपनी सारी शक्ति न लगाएं, बल्कि नई और अच्छी आदतों से उन्हें प्रतिस्थापित कर दें।

अपने को प्रशिक्षित करने में समझाएं कि संसार बनाने वाली परमशक्ति ने हमारे निर्माण में पर्याप्त रुचि ली है और समय लगाया है। हमें हमारे मामले में क्रिएशन का मान रखना चाहिए। हमें परमात्मा को सहयोग देना चाहिए, स्वयं को दिया जा रहा प्रशिक्षण यही होगा। बच्चों का जन्म एक कामऊर्जा का परिणाम है। यह कामऊर्जा सदैव से मानव शरीर में है। इस ऊर्जा को प्रशिक्षण से एक और मानव को जन्म देने के लिए तैयार करें। यह मानव बाहर संसार में जन्म नहीं लेगा।

यह इंसान हमारे ही भीतर हम रोज पैदा कर सकेंगे और हम खुद को एक नवजात शिशु की तरह पवित्र, सहज, सरल और दोषमुक्त बना पाएंगे।  


अगर किया इनका अपमान तो भुगतना पड़ सकता है अंजाम
कई लोग अक्सर एक गलती अपने जीवन में करते हैं। अपने से छोटे, कम योग्य या फिर कमजोर की आलोचना में कभी नहीं चूकते। यहीं से किसी भी इसांन के पतन की यात्रा शुरू हो जाती है।

जब भी हम ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा बड़े पद पर या ज्यादा सामर्थ्यशाली होते हैं तो समाज और संसार के प्रति हमारी जिम्मेदारी भी अधिक होती है। सफलता का पहला सूत्र यही है कि हमें कभी भी अपने से छोटे, कमजोर और कम योग्य व्यक्ति को कम नहीं आंकना चाहिए। कभी उनकी बुराई या अपमान भी नहीं करना चाहिए।

जो लोग ऐसा करते हैं, वे भविष्य में पछताते हैं। कारण है कि जो आज कमजोर है, वो हमेशा ऐसा ही रहेगा, इसकी भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता। अगर वो भविष्य में भी वैसा ही रहे तो भी किसी समय वो हमारे लिए नुकसानदायक हो सकता है। जैसे धूल के साथ जमीन पर सैकड़ों छोटे-छोटे तिनके भी होते हैं, हम भले ही उन्हें किसी गिनती में ना लेते हों लेकिन जब हवा के झोंके से ये तिनके उड़कर आंखों में गिर जाएं तो भयंकर पीड़ा भी देते हैं।

संत कबीर ने अपने एक दोहे में इसी बात को समझाया है कि

तिनका कबहुं ना निंदये, जो पांव तले होय।
कबहुं उड़ आंखों पड़े, पीर घानेरी होय॥

मतलब, पैरों के नीचे दबे हुए तिनके की भी कभी आलोचना, अपमान या निंदा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जब वो ही तिनका उड़ कर आंखों में गिरता है तो बहुत ज्यादा तकलीफ और दर्द देता है।

अतः सफलता के लिए जरूरी है कि हम सभी से समान व्यवहार करें। छोटे-बड़े, ताकतवर-कमजोर या योग्य-अयोग्य का अंतर ना करें। ना ही कभी किसी का अपमान करें, क्योंकि अपमानित व्यक्ति कभी-कभी भविष्य में परेशानी खड़ी कर सकता है।


समय को स्वाध्याय से जोड़ा जाए
हर व्यक्ति के जीवन में परमात्मा एक बार तो कम से कम परिवर्तनकारी समय लाता ही है। इस समय को समझ लेने का अर्थ ही स्वाध्याय है। ऋषि-मुनियों ने कहा है कि जब हम समय में स्थित हैं तो वह स्वाध्याय है और हम स्वयं में स्थित हों, तब वह स्वास्थ्य होगा।

परमात्मा और प्रकृति ने मनुष्य को स्वाध्याय और स्वास्थ्य दोनों के लिए पर्याप्त अवसर दिए हैं। पहले समय की बात की जाए। ईश्वर का सबसे महत्वपूर्ण नियम है समय। हमने तो काल को ईश्वर का रूप ही माना है। समय का संबंध गुजरने से है, इसलिए उसको स्वाध्याय से जोड़ा जाए। स्वयं का अध्ययन करने वाले समय का सही उपयोग कर सकेंगे।

विज्ञान और तकनीक के समय में हमारे लिए सबकुछ संभव होगा, लेकिन बीता हुआ वक्त कोई नहीं लौटा पाएगा। इसलिए समय को बारीकी से देखें। यदि परिवर्तन हो रहा है तो लाभ उठाएं। यदि अच्छा बुरे में बदल रहा हो तो सावधान हो जाएं और बुरा अच्छे में बदल रहा हो तो चूकें नहीं।

इसी प्रकार परमात्मा हमें स्वयं में स्थित रहने का भी मौका देता है। इसका अर्थ है थोड़ा योग-ध्यान करें। स्वास्थ्य का सही अर्थ योग में समाया है। स्वास्थ्य और बीमारी में फर्क है, बीमारी बाहरी अवस्था है। स्वास्थ्य हमारा मूल स्वभाव है। स्वास्थ्य बाहर से नहीं आता है।

बीमारी बाहर से आती है, इसलिए स्वयं में स्थित रहकर स्वास्थ्य को जानें और समय में स्थित रहकर स्वाध्याय को समझें। ये दोनों कार्य परमात्मा और प्रकृति के नियमों को पालने जैसे हैं। इतना सम्मान हमें इन दोनों का करना ही चाहिए।   


जीवन ईश्वर का दिया उपहार है

कपट दिमाग से निकलकर जिन-जिन चीजों में समाता है, उनमें से एक है उपहार। इसमें प्रेम, सौजन्य, सौदा और कपट एक साथ समाए जा सकते हैं। जिन्हें छल-कपट पसंद है, वे उपहार को भी हथियार बना लेते हैं। लोगों को छलते-छलते ये लोग एक दिन फिर स्वयं को तथा आगे जाकर परमात्मा को भी छलने लगते हैं।



ऊपर वाली ताकत और हमारे बीच एक रिश्ता उपहार का भी है। जिंदगी उसके द्वारा दिया गया खूबसूरत उपहार है। उसने तो देने में कोई छल-कपट नहीं किया, पर हमने लेने में कर दिया। कुछ लोग परमात्मा के दिए इस उपहार का सही उपयोग करने में इसलिए चूक जाते हैं क्योंकि वे इसे ढंग से खोल नहीं पाते।



जीवन के उपहार को सही ढंग से खोलने के लिए पांच बातें जरूरी हैं- परिश्रम, सुमिरन, सेवा, सरलता और स्वास्थ्य। भोग, विलास, स्वार्थ परमात्मा के साथ किया गया छल है। इन पांचों बातों के साथ परमात्मा का दिया उपहार रोज खोलें। परिश्रम के बिना जीवन धरती पर बोझ है। आज के दौर में तो आलस्य अपराध ही है। सुमिरन का अर्थ है स्मरण में शुद्धि। गंदे विचार कब प्रवेश कर जाते हैं, पता ही नहीं चलता। सेवाभाव परमात्मा और प्रकृति को खूब पसंद है।



दिनभर में कुछ समय ऐसे काम के साथ बिताया जाए, जिसमें किए हुए के एवज में कुछ पाने की अपेक्षा न हो। नि:स्वार्थ सेवा आनंद और मस्ती को बढ़ाती है। सरलता अपनी हर उम्र में बचाकर रखें। शांति और सरलता दो बहनों के समान हैं और जब हम स्वयं को स्वस्थ रखते हैं, तब भगवान कहता है कि इसने ठीक ढंग से खोला मेरा उपहार और उपयोग भी किया।   



रास्ते अलग-अलग पर मंजिल एक

अपने परिवार के लिए सुख की तलाश में आदमी दूर-दूर तक भटकता है। वैसे भी सुख बाह्य उपकरणों से तलाशा जाता है। फिर मनुष्य का सारा आग्रह रहता है कि जो सुख मिले, वह दुखरहित हो। यहीं से समीकरण बिगड़ते हैं।



संसार का कोई भी सुख दुखरहित नहीं हुआ है। दुख न आए, इसके लिए हम जितनी ताकत लगाते हैं, उसकी जगह ऊर्जा इस बात में लगाएं कि शांति आए। सुख आए दुख न आए, इसकी जगह सुख आए पर साथ में शांति भी आए, ऐसे प्रयास किए जाएं।



शांति का प्रवेश कराने के लिए हमें अपने भीतर मामूली फेरबदल करना होगा। व्यवहार में सुधार लाने पर सुख मिल जाता है और स्वभाव में परिष्कार लाने से शांति प्राप्त हो जाती है। शांति मानव अंत:करण की आंतरिक भाव-दशा है। हम बाहरी स्थिति को भीतर किस रूप में ले जाकर स्वीकार करते हैं, शांति का जन्म यहीं से होता है।



जब हमारे भीतर शांति की खोज की तड़प गहरी होती जाती है तो हम आगे जाकर प्रेम को पा लेते हैं। जीवन में प्रेम के अभाव का दूसरा नाम ही कलह है। पारिवारिक जीवन में हमारे घर में जितने सदस्य हैं, रिश्तेदार हैं, उतने ही मार्ग हैं शांति और प्रेम के।



जिस भी सदस्य से आप जुड़ेंगे, समझ लें एक नए मार्ग पर चल रहे हैं। याद रखें रास्ते अलग-अलग होते हैं, पर मंजिल एक ही है प्रेम और शांति। इसलिए हर रिश्ते में सुख मत तलाशना, प्रेम और शांति की खोज करना। खासतौर पर पति-पत्नी एक-दूसरे में सुख ही तलाशते हैं। इसी कारण अशांति हावी हो जाती है। नवरात्र के शेष दिनों में उस शक्ति को बचा लें जो शांति तक पहुंचाने में काम आएगी।     




भीतर से दुर्गुणरहित बनें हम
परमशक्तिपरमात्मा के स्वरूप को लेकर सबके अपने-अपने विचार हैं। स्थूल रूप से टिकेंगे तो अलग-अलग धर्म बनेंगे। सूक्ष्म रूप में सब एक हो जाएंगे। यह सर्वधर्म विचार है। जिस दिन आप भीतर से दुर्गुणरहित होंगे, आप और परमात्मा एक हो जाएंगे।

इतिहास में श्रीराम एक ऐसे व्यक्ति हुए, जिन्होंने बुराइयों के विनाश को बड़े सुलझे तरीके से पूरा किया था। उन्होंने रावण को मारकर किसी राजा का ही वध नहीं किया था, बल्कि जनमानस का आत्मविश्वास जगाया था। दुर्गुणरहित रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन रावण भी कम नहीं था। उसने योजनाबद्ध तरीके से बुराई को जनजीवन में लंबे समय के लिए फेंका और टिका दिया।

श्रीराम ने रावण के इस दूरगामी दुष्कृत्य को समाप्त करने के लिए हनुमानजी का चयन किया था। हनुमान वह व्यक्तित्व हैं, जो भीतर से पूर्णत: दुर्गुणरहित हैं। इसीलिए जब वे लंका से लौटे तो श्रीराम ने उन्हें गले लगाया था। सुंदरकांड में वर्णन आता है- कपि उठाइ प्रभु हृदय लगावा, कर गहि परम निकट बैठावा। हनुमानजी को हृदय से लगाकर अपने पास बैठाया। यह होती है दुर्गुणरहित व्यक्तित्व की स्थिति। उसे परमात्मा की इतनी निकटता मिल जाती है। यह उस दिन हनुमानजी की 'एक शाम जीत के नाम' थी।

श्रीहनुमानचालीसा हनुमानजी का यशगान है, इसे सांस के साथ जपने पर दुर्गुणरहित मन तैयार होगा ही। इसलिए आज शाम सात से आठ बजे हम जहां भी हों, अपने भीतर श्रीहनुमानचालीसा के मानसिक जप से स्वयं को दुर्गुणरहित करें, तो यह हमारी एक शाम जीत के नाम होगी।


दायित्वबोध बहुत वजनदार मामला है

दुनिया  में कई तरह के अहसास हैं- रिश्तों का, देह का, धन का तथा रोग आदि का। इन ज्यादातर अहसास का संबंध बाहर से है, दूसरों से है। लेकिन एक अहसास और है जिसका संबंध निजता से है। यह है जिम्मेदारी का अहसास।



दायित्वबोध सांसारिक घटना नहीं है। परिणाम भले ही सांसारिक हैं, लेकिन है यह आध्यात्मिक घटना। दायित्वबोध बहुत वजनदार मामला है। इसे निभाने में तन, मन और धन तीनों से मजबूत होना पड़ता है, लेकिन सबसे अधिक मजबूती चाहिए मन के स्तर पर और मन पकड़ में आता है अध्यात्म से।



आध्यात्मिक व्यक्ति दायित्व का दिखावा नहीं करता। उसके लिए यह औपचारिकता या मजबूरी नहीं है। उसकी दृष्टि में यह जीवन है। उसका हर कृत्य परमात्मा से जुड़ा हुआ होता है। वह अपने सांसारिक कार्यों में भी पूजा और सेवा का स्वाद डाल देता है।



वह अपने दायित्वबोध को सुमिरन से जोड़कर चलता है। जैसे सुमिरन का अर्थ है स्मरण। परमात्मा को खोजना नहीं है, बस स्मरण रखना है कि वह है और हम कहीं रखकर भूल गए थे। सुमिरन हमें उसकी याद दिलाता है। अधिकांश लोग विस्मृति के कारण दायित्वबोध से चूक जाते हैं।



अध्यात्म का अर्थ है स्वयं में स्थित होना, इसलिए केवल कर्मकांड वाले लोग दायित्वबोध में भटक सकेंगे। निजहित, परहित के समीकरण काम करने लगेंगे, लेकिन जो योग से जुड़ेंगे, उनके लिए दायित्वबोध निष्काम कृत्य होगा। काम हमें करना है, करवा कोई और रहा है। हम निमित्त हैं, यह भाव आते ही दायित्वबोध के अर्थ बदल जाएंगे।


प्राणायाम से विचारों का ट्रैफिक कंट्रोल
मानव मस्तिष्क को समझने में विज्ञान आज तक प्रयासरत है। इसमें अनगिनत नाडिय़ां और आपस में उनका ऐसा गठबंधन है कि चिकित्सा विज्ञान के लिए रोज नए शोध की चुनौती पैदा होती है। कुछ लोग कहते हैं कि संसार भर के लोगों को यदि एक-एक टेलीफोन दे दिया जाए और उनके कनेक्शन का जो जाल बिछे, उससे भी ज्यादा जटिल जाल मनुष्य के मस्तिष्क में रहेंगे। सामान्य मनुष्य के लिए ब्रेन का लेना-देना विचारों से है। चूंकि मस्तिष्क में रक्त-प्रवाह ठीक रहे यह भूमिका हृदय से रहती है, अत: प्राणायाम द्वारा सांस की क्रिया दिमाग को तरोताजा रखने में बड़ी काम आती है। यह क्रिया विचारों के प्रवाह को नियंत्रित करती है।


विचार कैसे भागते हैं, इसे व्यस्त यातायात के दृश्य से समझें। किसी मार्ग पर ध्यान से देखें, जहां बहुत गाडिय़ां आती-जाती हों। जब कहीं गाडिय़ों का जाम लग जाए, तब अध्ययन करिएगा कि जाम लगता क्यों है और खुला कैसे है। इस अव्यवस्था और व्यवस्था को अपने विचारों से जोडि़एगा। ट्रैफिक जाम ठीक करने वाले लोग यह देखते हैं कि कौन-सी गाड़ी कहां से गलत लगी है और किसे हटाया जाए, तो बाकी सब वाहन निकल सकें। इसी तरह विचारों को पकड़ें। यदि ये कुंठा, निराशा, क्रोध, अहंकार से आ रहे हैं, तो इन्हें सहारा और सुविधा न दें, तरीके से विलीन होने दें। सरलता, प्रेम, पवित्रता से आ रहे विचारों को मुख्यधारा में लाएं, उन पर टिकें, उन्हें अवसर दें। विचारों का ट्रैफिक कंट्रोल प्राणायाम से होगा। यही विचार कर्म में बदलकर सफलता की कहानी लिखते हैं।


चरित्र के वृक्ष को लगातार सींचते रहें

भौतिक संसार में जो वस्तु दिखे नहीं, लोग उसे मानते नहीं। सारा खेल दृश्य का है। अदृश्य को अस्वीकार किया जाता है। विज्ञान लगातार अदृश्य को खोजता है। विज्ञान की सफलता ही अरूप को रूप बनाने में है, इसीलिए इसमें खोज और शोध एक साथ चलता है। अध्यात्म थोड़ा भिन्न है। यहां अनुभूति को प्राथमिकता है। अरूप को रूप बनाने का आग्रह है, परंतु रूप को अनुभूति से जोड़ना यहां शोध से अधिक खोज है। अध्यात्म के क्षेत्र में एक शब्द है चरित्र। आज के भौतिक और वैज्ञानिक युग में खासतौर पर नई पीढ़ी चरित्र को कम प्राथमिकता देती है। उनके लिए लक्ष्य और परिणाम ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।



इस समय जो दिखता है, वही सत्य माना जाता है। इसलिए कई बार युवा वर्ग पूछता है कि चरित्र होता क्या है? जीवन में जब सद्विचार और सद्कर्म में एकरूपता आ जाए, यानी मनुष्य अपने ही कृत्य में मन, वचन और कर्म की एकरूपता ले आए, उसे ही चरित्र कहते हैं। इच्छाओं को, कामनाओं को नियंत्रित करके काम किया जाता है, तब चरित्र सामने आता है। जीवन में कमाई गई संपत्ति में से चरित्र महत्वपूर्ण दौलत है। चरित्र दो स्तर पर काम करता है। भीतरी स्तर है योग, चिंतन, उपवास; और बाहरी स्तर है सेवा, करुणा, शिष्टाचार और त्याग। चरित्र के वृक्ष को लगातार सत्संग, साहित्य और संस्कारों के जल से सींचना पड़ता है। अगर इस रूप में चरित्र को समझा जाए तो यह भीतर और बाहर का संतुलन बना देता है। जीवन में सुख और शांति संतुलन से मिलती है। चरित्र कर्म को कुकर्म बनने से रोकने का इशारा होता है।



प्रेमपूर्ण व्यक्ति करता भावनात्मक शृंगार

हमें कई चीजों से लगाव होता है और होना भी चाहिए। जब आप किसी के प्रति अत्यधिक लगाव रखने लगें तो थोड़ा बारीकी से ध्यान रखें। इसके दो हिस्से होते हैं- एक मोह, दूसरा प्रेम। जब भी हमें किसी के प्रति लगाव हो तो इस बात पर ध्यान दें कि इस लगाव में देना छुपा हुआ है या लेना।



यदि आप देने को तैयार हैं तो यहां से प्रेम शुरू होगा और यदि लेने की उम्मीद रखते हैं तो यहां से मोह आरंभ होगा। कुल मिलाकर इसके पीछे चल रहा होगा अहंकार। मनुष्य लोगों से लगाव भी अहंकार के कारण पालता है। जहां अहंकार आया, वहीं हम सौदेबाजी पर उतर आते हैं और बिना अहंकार के जब आप किसी से लगाव रखते हैं तो वह भी आपके व्यक्तित्व के लिए गहना बन जाता है।



उदाहरण के तौर पर हमें सजने-संवरने की वस्तुओं से लगाव है। अब इसमें अहंकार है तो आप सज तो लेंगे, पर शोभायमान नहीं होंगे। आप सुदर्शन हो सकते हैं, पर सौंदर्य नहीं झलकेगा। जैसे ही आप अहंकारशून्य होकर प्रेमपूर्ण होते हैं, तो प्रसाधनों के बिना भी गजब के आकर्षक हो सकेंगे। प्रेमपूर्ण व्यक्ति भावनात्मक शृंगार करता है।



उसके नेत्रों में कजरा हो या न हो, पर गहराई होती है। उसका चेहरा सत्य वचन के साथ तेजस्वी होता है। उसकी भुजाएं पराक्रम के कारण आकर्षण का केंद्र होती हैं। उसके हृदय पर मालाएं न हों, पर निर्मल भावनाएं अपनी ओर खींचने लगती हैं। उसका मस्तक किसी मुकुट से सजा हुआ न हो, पर विनम्रता के कारण झुककर सबसे ऊंचा नजर आएगा। उसके हाथों की अंगुलियों में मणि-मुद्रिका न हो, लेकिन दान देते-देते बहुत ही सुंदर हो जाएंगे। इसलिए ऐसा लगाव रखें, जो मोह से मुक्त और प्रेम से युक्त हो।


अभिमानरहित वचन बोलना एक कला है

किसी  काम को करने के बाद सफलता मिले या असफलता, लेकिन आनंद भंग न हो ऐसा कम लोग कर पाते हैं। हर बार हरेक को सफलता नहीं मिलती। चलिए, हनुमानजी से सीखते हैं।



सुंदरकांड में लंका से लौटने के बाद श्रीराम उनसे कहते हैं कि लंका के हालचाल सुनाओ। अब हनुमानजी के सामने दो स्थितियां हो सकती थीं। एक तो लंका का वर्णन सपाट करते और जो जानकारी राम लेना चाहते थे, केवल वही देते।



दूसरी स्थिति यह होती कि उसमें अपने किए हुए की प्रशंसा जोड़ देते। हनुमान जैसे सावधान व्यक्तित्व घटना की क्रिया और प्रस्तुति में अपने 'मैं' को अलग रखते हैं। तुलसीदासजी ने इस वार्तालाप पर लिखा- प्रभु प्रसन्न जान हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना।। हनुमानजी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले। यहां हनुमानजी सिखा रहे हैं कि अपनी सफलता और असफलता के बाद विषय की प्रस्तुति में न तो अभिमान झलकना चाहिए और न ही उदासी।



अभिमानरहित वचन बोलना एक कला है। अच्छे-अच्छे विनम्र व्यक्तियों के शब्द भी अहंकार का स्वाद लेकर निकलते हैं। राम चाहते भी थे कि थोड़ी हनुमान की परीक्षा ली जाए। इसलिए बार-बार वे उनके पराक्रम की चर्चा करते। हनुमान जानते थे कि जरा-सी चूक हुई और अभिमान आलिंगन में ले लेगा। परमात्मा अपने भक्तों की परीक्षा अहंकार के प्रश्न-पत्र से ही लेते हैं। काम, क्रोध और लोभ की स्थितियां थोड़ी कठिनाई से निर्मित होती हैं। इसमें बाहरी योगदान की जरूरत पड़ती है, लेकिन अहंकार का खेल अंदर से चलता है। हनुमानजी अभिमानरहित वचन बोलना सिखा रहे हैं।  


कभी क्षीण न हो हमारी क्रियाशक्ति
गलत और सही काम करने का ही संबंध पाप-पुण्य से नहीं है। निकम्मापन अपने आप में बहुत बड़ा पाप है। यह आलस्य का बायप्रोडक्ट है। ज्ञान खतरे में आएगा अहंकार से और भक्ति को नुकसान होता है आलस्य से। निकम्मेपन से बचने के लिए पांच काम करते रहिए।

पहली बात, जब भी समय लगाना हो, तो श्रेष्ठ काम में लगाइए। ध्यान रखें कि हमारा थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ कार्यों में न लगे। दूसरी बात, काम को सुचारु रूप से करें। सुचारु का अर्थ है- अत्यधिक व्यवस्थित। ऐसा करने से स्वयं को और सामने वाले को संतोष मिलता है। सुचारु रूप से काम करने की इच्छा वाले लोग अपने कर्म में दूसरों के हित और संतोष की बात ध्यान में रखते हैं।

तीसरी बात, किसी दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण न करें और दूसरे के हिस्से की वस्तु को अपने अधिकार में कभी न लें। अपना हक भले ही छोड़ दें, पर दूसरे के हक को कभी न लूटें। इससे भी निकम्मापन जाएगा और चौथी बात, अपने निजी जीवन पर भोग-विलास हेतु कम खर्च करें। मितव्ययी लोग बारीक दृष्टि रखना सीख जाते हैं, जो काम की गहराई में पहुंचने में मदद करती है।

पांचवीं बात, काम करते समय कम से कम बोलें। जो लोग गहरे डूबकर काम करते हैं, उनकी चुप्पी में भी वाणी निकलने लगती है। उनका मौन बोलने का ढंग बन जाता है। शब्दों की शक्ति जब बचती है तो वह क्रियाशक्ति में काम आती है।

निकम्मे लोगों के साथ क्रियाशक्ति की दरिद्रता रहती है। इसलिए क्रियाशक्ति को कभी क्षीण न होने दें, अन्यथा निकम्मापन घेर लेगा। मनुष्य का शरीर सबसे बड़ी उपलब्धि है। यह एक बार बीमार हो जाए तो चलेगा, पर इसे निकम्मा न होने दें।



हमारी बुद्धि को नष्ट कर देती है चिंता

चिंता  करना, चिंतन करना, विचार करना - तीनों में बारीक भेद है। विचारों में भविष्य के प्रति जब संदेह होने लगे, तब चिंता का जन्म होता है।



अगर आत्मविश्वास न हो तो भी चिंता जन्म ले लेती है। दूसरे पर जब अधिक संदेह होने लगे, तब चिंता शुरू हो जाती है। क्षणिक चिंता होना स्वाभाविक है, पर यदि यह लंबे समय तक टिके तो इसका सीधा असर बुद्धि पर पड़ता है। शास्त्रों में तो कहा गया है कि चिंता बुद्धि को नष्ट कर देती है, जबकि विपरीत परिस्थिति में बुद्धि को विकसित कर देना चाहिए।



चलिए, अब एक कदम आगे चलें। निश्चित ही चुनौती के अवसरों में शुरुआत चिंता से होगी, लेकिन तत्काल चिंता से मुक्ति पाकर चिंतन में प्रवेश कर जाएं। चिंतन इस बात का होता है कि प्रक्रिया क्या अपनाई जाए। कौन-सी रीति हाथ में ली जाए, जो उस चुनौती का सामना करने में काम आए। क्या करें, इससे अधिक जोर कैसे करें पर रहेगा। चिंता में चित्त अत्यधिक कंपन करने लगता है और चिंतन में चित्त को शांत रखना पड़ता है। चिंतन के परिणाम में विचार स्पष्ट होकर आने लगते हैं।



चिंतन में हम विषय को खंड में बांटते हैं। फिर हर विषय से संबंधित विचारों का जन्म होने लगता है। अब मस्तिष्क में सबकुछ योजनाबद्ध हो जाता है। चीजें एक-दूसरे से उलझी नहीं रहतीं। शरीर भी उत्साह में आ जाता है। आपको ऐसा लगता है, जैसे समूची प्रकृति आपकी मदद कर रही हो। चिंतन से निकले हुए विचार आपको नए-नए रास्ते बताने लगते हैं। अचानक आप पाते हैं कि कोई मार्ग मिल गया। बड़ी से बड़ी चुनौती भी सही रास्ते पर चलकर सफलता में बदली जा सकती है। इसलिए कम चिंता, अधिक चिंतन और पर्याप्त विचार बनाए रखें।

नींद सभी चीजों का वियोग करा देती है

दुनिया और हमारे संबंधों को लेकर लगभग सभी धर्मो के शास्त्रों में खूब लिखा गया। संसार से कैसे संबंध रखे जाएं, इसकी जानकारी यदि ठीक से न हो तो यही संसार बहुत बड़े दुख का कारण बन जाता है।



संसार में कुछ बातों के संयोग से सुख मिलता है, तो कुछ के वियोग से सुख मिलता है। जैसे नींद के समय हम दुनिया भूल जाते हैं। यह वियोग का सुख है। यदि सोते समय भी संसार ख्याल में रहे, तो नींद का नुकसान है। इसीलिए नींद से एक शिक्षा ली जाए कि संसार में कुछ समय भूलना भी उपयोगी होता है। दुनिया में चीजें हमेशा ताजगी और स्फूर्ति नहीं देतीं।



जैसे जब हम छोटे होते हैं तो खिलौने अच्छे लगते हैं। बड़े हुए तो धन अच्छा लगता है। और बड़े हुए तो दूसरे साधन अच्छे लगते हैं। बूढ़े हुए तो वो अच्छा नहीं लगता, जो पहले की उम्र में सुहाता था। पर पूरी जिंदगी नींद जो है, वो एक जैसी चलती है। उम्र कोई-सी भी हो, नींद अच्छी ही लगेगी। ये जब आती है तो आदमी सबकुछ भूल जाता है।



दुनिया की प्रिय से प्रिय वस्तु भी नींद आने पर परे हटानी पड़ती है। नींद सब चीजों का वियोग करा देती है। इंसान कभी यह नहीं सोचता कि नींद न आए तो अच्छा है। आइए, अब नींद की जरूरत और उसके लगाव को समझ लें। या तो चिंता में नींद नहीं आती या भक्ति में उड़ जाती है। जिस बात के लिए नींद का त्याग किया जा सकता है, वह है भक्तिभाव।



इसीलिए योगियों की नींद नियंत्रित होती है। जब योग में रस आने लगता है, तब नींद के प्रति अतिआग्रह बंद हो जाता है। इसलिए नींद के उपयोग और दुरुपयोग पर सावधान रहें। इसमें जो स्वाद है, उसका आनंद लेने के लिए नींद को योग से जरूर जोड़ें।





दूसरे पर आधारित न हो जीवन

दूसरों पर आधारित जीवन बोझ बन जाता है। इसलिए सांसारिक संबंधों के भरोसे ही जीवन न बिताएं। जब हम दुनियादारी में अधिक भरोसा करने लगते हैं तो दूसरों पर आधारित जीवन जीने लगते हैं।



पति-पत्नी के संबंधों में झंझट का एक कारण यह भी होता है कि ये दोनों एक-दूसरे के साथ न जीकर एक-दूसरे पर आधारित जीवन जीने लगते हैं और यहीं से मांग और शिकायत का सिलसिला शुरू हो जाता है। स्त्रियों ने अपने शोषण की जो एक बहुत बड़ी कीमत चुकाई है, उसका एक बड़ा कारण था दूसरे पर आधारित जीवन।



वे पुरुषों पर इतनी आधारित हो गईं कि एक दिन उन्हें अपने स्त्री होने पर या तो घुटन होने लगी या विद्रोह। गृहस्थी के शिखर पर चढ़ने के लिए वे एक-दूसरे की मदद करें, न कि एक-दूसरे पर आधारित रहें। जब हम अत्यधिक आधारित हो जाते हैं तो हमारे भीतर की मानवता का विकास रुक जाता है। दोनों को आत्मनिर्भर होकर एक-दूसरे के लिए जीना होगा।



चूंकि इस रिश्ते में निकटता अत्यधिक होती है, इसलिए अहंकार की टकराहट स्वाभाविक है। स्त्री और पुरुष पति-पत्नी के रूप में अपने मानवीय भाव से एक-दूसरे के सामने होना चाहिए, लेकिन वे अहंकार के भाव में एक-दूसरे को चुनौती देते हुए आमने-सामने हो जाते हैं। ये रिश्ता सिद्धांतत: नहीं चलता। ये संबंध व्यवहारत: चलता है।



पति-पत्नी की बातचीत वार्तालाप न होकर एकालाप बन जाती है। दूर से ऐसा लगता है कि जैसे बात कर रहे हैं, निकट जाकर देखें तो पता लगता है कि हरेक अपनी ही बात कह रहा है। वार्तालाप में दोनों के अवसर समान होते हैं, इसलिए आत्मनिर्भर जीवन बनाया जाए, न कि आधारित जीवन।

बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार रखें

बच्चों  के लालन-पालन में अनुभव, बड़प्पन के साथ-साथ मित्रभाव होना बहुत जरूरी है। जैसे व्यावसायिक क्षेत्र में अपने प्रतिस्पर्धी के बारे में सारी जानकारी रखना बुद्धिमानी मानी जाती है, ऐसे ही अपने बच्चों के जीवन में क्या चल रहा है, इसकी जानकारी रखना समझदारी होगी।



वे जो भी पढ़ाई-लिखाई कर रहे हों, हो सकता है उसमें आप उनसे पीछे हों, लेकिन उनके जीवन में क्या चल रहा है, इस मामले में सदैव एक कदम आगे रहिए, वरना आज के समय में घर की देहरी पार करते ही दुष्कर्मो की आंधियां चल रही हैं और उसमें अच्छे-अच्छे योग्य बच्चे तिनके की तरह उड़ जाते हैं। कभी-कभी बच्चे से अप्रत्याशित सवाल पूछ लें।



बातचीत में कोशिश करते रहें कि वे अपने इरादे और कमजोरियों को हमारे सामने उगलते रहें। उन्हें महसूस नहीं होना चाहिए कि उनकी जासूसी की जा रही है। पर यह अहसास कि उन पर नजर रखी जा रही है, उनके लिए फायदेमंद ही रहेगा। वे कितने ही सक्षम हों, पर उनको यह लगना चाहिए कि वे माता-पिता पर आश्रित हैं।



अध्यात्म में एक शब्द चलता है आश्रय। माता-पिता के प्रति यह भाव जितना जागेगा, बच्चे संसार के भोग-विलास के प्रति उतने ही विरक्त होंगे। विद्यार्थी जीवन में आठ प्रकार से मौज-मस्ती खींचती है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, मान, प्रशंसा और आराम। ये शिक्षा प्राप्त करने में बाधाएं बन जाती हैं। जब माता-पिता के आश्रय की अनुभूति बढ़ती है तो बच्चे मानकर चलते हैं कि उनकी योग्यता के अलावा किसी और के आशीर्वाद में बड़ी ताकत है। यहीं से उनके भीतर सद्गुण और सदाचार उतरने की संभावना बढ़ जाती है।


आशीर्वाद से आसान होती है सफलता

विनम्रता  दूसरों को प्रभावित ही नहीं करती, बल्कि कई बार स्वयं को अहंकार में भी डुबो सकती है। विनम्रता से पैदा हुआ अहंकार बहुत ही सूक्ष्म होता है।



इसलिए जब कभी हम विनम्रता का व्यवहार कर रहे हों, इस बात में सावधान रहें कि जब दूसरे हमारी विनम्रता पर हमारी प्रशंसा करें तो हम प्रशंसा को कानों से हृदय में उतरने न दें। अपनी योग्यता को कहीं न कहीं परमात्मा की शक्ति से जोड़े रखें, तो अहंकार के खतरे कम हो जाते हैं।



सुंदरकांड में श्रीराम हनुमानजी की प्रशंसा कर रहे थे, तब हनुमानजी ने कहा- मेरा लंका जाना, उसे जलाना, लौटकर आना यह सब मेरे वश में नहीं है। सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।। यह सब तो श्रीरघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ भी नहीं है। संत बताते हैं कि श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा था- फिर समुद्र किस शक्ति से लांघा।



हनुमानजी का जवाब था आपके द्वारा दी गई अंगूठी से। श्रीराम समझ गए, ये एक बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तर है। इसमें भक्त ने स्वयं को बचाया है और श्रेय परमात्मा को दे दिया है। तब श्रीराम ने याद दिलाया कि अंगूठी तो सीताजी को दे दी थी, फिर लौटकर कैसे आए? हनुमानजी समझ गए कि इस समय भगवान जमकर परीक्षा ले रहे हैं। उन्होंने तुरंत उत्तर दिया- आते समय माता सीता ने उनकी चूड़ामणि दी थी। उसी के सहारे लौटा हूं। इस प्रताप में मेरा स्वयं का कोई योगदान नहीं है। बड़ी सुंदर बात हनुमानजी बताते हैं कि जब गया तो पिता की कृपा थी और जब लौटा तो मां का आशीर्वाद साथ था। जिनके साथ जीवन के संघर्ष में माता-पिता के आशीर्वाद होते हैं उनकी सफलताएं सरल हो जाती हैं।


उदार हृदय के लिए संसार ही कुटुंब है

कोशिश  करिए कि आप अजातशत्रु बन जाएं। इसके दो अर्थ हैं - पहला यह कि आप हमेशा शत्रुओं को पराजित करते हैं, ये सांसारिक अर्थ है।



आध्यात्मिक अर्थ है कि आपका कोई शत्रु ही नहीं होता। लेकिन फिर संसार कहता है जिसका कोई शत्रु नहीं होता, उसका कोई मित्र भी नहीं होता। दरअसल शत्रुता और मित्रता का संबंध यदि उद्योग, कर्म से जोड़ें तो अर्थ दूसरे होंगे। यदि इसमें भावना की बात करें तो मतलब बदल जाएंगे।



चलिए, एक रूपक पर विचार करते हैं। हमारे शरीर के कई हिस्से हैं जैसे हाथ-पैर, मन-मस्तिष्क आदि इंद्रियां। ऊपर से देखें तो इन सबके काम अलग-अलग हैं, लेकिन सब मिलकर परिणाम शरीर को देते हैं। कहीं न कहीं एक-दूसरे के हित में लगे हैं। यदि शरीर के अलग-अलग भाग एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने की वृत्ति में सक्रिय हो जाएं तो शरीर के लिए अहितकारी होता है।


इसी बात को संसार से जोड़ा जाए। जब हम अपने कार्यस्थल पर हों, तो साथियों के बीच ऐसा ही भाव रखें। आपके जितने भी वरिष्ठ व अधीनस्थ लोग हैं, उन्हें अपने शरीर के अंग मानकर व्यवस्था का हिस्सा बन जाएं। हमारे शास्त्रों में लिखा गया है कि जिनका हृदय उदार है, उनके लिए सारा संसार ही कुटुंब है। हममें और जानवरों में यही फर्क है। वे भी मिल-जुलकर रहते हैं, पर उसे झुंड कहते हैं। हम जब मिल-जुलकर रहते हैं तो हमने इसे कुटुंब कहा है। अपने कार्यालय को कुटुंब मानकर कार्य करें, तब आप अजातशत्रु हो जाएंगे। जैसे हमारे एक घर में कई घर शामिल होते हैं, हर सदस्य का अपना-अपना घर है, फिर भी कुटुंब का भाव सबको एक कर देता है। ऐसे ही अपने कार्यस्थल पर सबको एक मानकर चलें।


अपनी ही आंख को देखने का अभ्यास
आंख  से दुनिया देखी जाती है। बाहर के संसार में जीने के लिए आंख काम आती है, लेकिन यदि आंख को ही देखना हो तो फिर कुछ आध्यात्मिक क्रियाएं करनी होंगी।

अपनी ही आंख को देखने वालों को परमात्मा की अनुभूति होना सरल हो जाती है। यहां परमात्मा का व्यापक अर्थ है शांतिमय जीवन। बाहर की आंख का संबंध प्रतीति से है। प्रतीति यानी संसार। यह प्रतीत होता है, पर सदैव रहता नहीं है। अपनी आंख को देखना यानी भीतर की आंख। इसका संबंध प्राप्त से है। प्राप्त यानी परमात्मा।



प्राप्त की सत्ता सदैव रहती है। शरीर और संसार दिखते हैं, इनकी प्रतीति होती है, पर इनकी स्थायी सत्ता नहीं है। ये प्रतिपल बदल रहे हैं। जिसमें बदलाव है, उसे नाशवान मानना ही होगा। शरीर और संसार प्रतीति हैं,तो जीवात्मा-परमात्मा प्राप्त हैं। ये नित्य हैं, इन्हें देखा जा सकता है। लेकिन अपनी ही आंख को देखने का अभ्यास करना होगा। इसी से हम स्वयं में स्थित हो जाएंगे।



हमारी बाहरी सक्रियता जारी रहेगी, पर भीतर से स्थिर, शांत, विश्राम में रहेंगे। बाहर की आंखें हमें ईश्वर के विश्वास में उतारती हैं। विश्वास बढ़ने पर वासना गिरती है और भीतर की आंख हमें श्रद्धा में टिकाती है। श्रद्धा विचार गिरा देती है और विचार गिरते ही हम ध्यान में उतर जाते हैं। अत: थोड़ा अपनी आंख को आप ही देखने का प्रयास करें। यह ऐसा होगा कि बिना मरे चिता जली, बिना गढ़े कब्र बनी, खुद ही खत्म करके खुद ही को पा लेना। इसलिए चौबीस घंटे में नींद के अलावा भी थोड़ी देर आंखें बंद करने का अभ्यास करें।


गरीबी को जीवन में कभी न भुलाएं

जिंदगी  में उम्र बढ़ने पर भीतर का व्यक्ति कहीं दब जाता है और नया व्यक्ति उभरकर आता है। उम्र बढ़ी हम जवान हुए। पर बचपन खत्म नहीं हुआ। हमारे भीतर कहीं दुबका है।



जवानी के बाद बुढ़ापा आया, तो जवानी भीतर कहीं अंगड़ाई ले रही होती है। हर उम्र परत बनकर ढंक जाती है। ऐसे ही परिस्थितियों के साथ होता है। हर बदले हुए हालात के पीछे पुराने हालात रहते ही हैं। यह दिवाली का दौर है। इस समय इस विचार को जीवन में उतारा जाए।



उदासीन पंथ के संत महामंडलेश्वर स्वामी शांतानंदजी ने एक जगह बहुत अच्छा वर्णन किया है। वे अपने गुरु हरिदासजी के हवाले से कहते हैं- सब में जोत-जोत है सोए, तिसकै चानण सभ मैं चानण होए। एक ही ज्योति सबके भीतर जगमगा रही है। घटना बड़ी प्यारी है। लक्ष्मीजी रात को मृत्युलोक आईं। एक घर के बाहर दीपक जलता दिखा तो उन्होंने खटखटाकर कहा- मुझे भीतर आना है, द्वार खोलो। इसी समय अंदर से आवाज आई- खोलो द्वार, मुझे बाहर जाना है।



दरवाजे का खुलना एक घटना है, पर परिणाम अलग हैं। एक में समृद्धि भीतर आना चाहती है, वहीं दीपक के प्रकाश से घबराकर गरीबी बाहर भागना चाहती है। जैसे जवानी की परत के नीचे बचपन और बुढ़ापे के नीचे जवानी है, वैसे ही हर अमीरी के पीछे गरीबी है, हर गरीबी के नीचे अमीरी की संभावना जिंदा है। उम्र और हालात के मामलों में जीवन प्याज के छिलकों की तरह है।



इसे ही शांतानंदजी ने हरकत में बरकत कहा है। योग यही पलटी हुई यात्रा है। यहां इस दिवाली के समय अमीरी-गरीबी के दिखने और न दिखने को समझ लिया जाए। अब अमीरी को अपनाया जाए और गरीबी को भूला न जाए।


आत्मा पर टिकते हुए रहें आश्वस्त
पूरे जीवन हम कई वस्तुओं का उपयोग करते हैं। कुछ हमारे अधिकार की होती हैं और कुछ पर दूसरों का अधिकार रहता है। सामाजिक जीवन वस्तुओं के परस्पर उपयोग से चलता है। इसीलिए कभी-कभी हम यह भूल कर जाते हैं कि कुछ वस्तुओं के बिना मेरा काम चलेगा ही नहीं। सांसारिक वस्तुएं परिवर्तनशील हैं।


इन पर जिद के साथ टिक जाना हमको भीतर और बाहर से व्यथित कर देता है। इन्हें अध्यात्म की भाषा में असत् कहा है। इनकी सत्ता दिखते हुए भी होती नहीं है। परमात्मा को सत् कहा है। असत् की कोई सत्ता नहीं होती और सत् का कोई अभाव नहीं होता। हमारे भीतर एक आत्मा है, जो कभी नहीं बदलती।



यदि अपने भीतर एक ध्वनि सुनना चाहें तो सुनी जा सकती है और वह है- मैं वही हूं। यानी आप बचपन में वही थे, जवानी में वही थे और बुढ़ापे में भी वही रहेंगे। यहां बात की जा रही है हमारी आत्मा की, जो कि सत् है। लेकिन हमारे बचपन, जवानी और बढ़ापे में असत् यानी बाहर की चीजें बदलती रहीं।



मित्र, खिलौने, वस्तुएं, शरीर का रूप-रंग इत्यादि लगातार बदला है। उसके बावजूद आप गहराई में महसूस कर सकते हैं- मैं वही हूं। सांसारिक चीजें समय रहते हुए उपयोगी और अनुपयोगी हो जाती हैं। हमें मिल जाती हैं तो हम खुश हो जाते हैं, नहीं मिलती हैं तो दुखी हो जाते हैं।



अब जितना हम अपनी आत्मा पर टिकेंगे, उतना ही आश्वस्त रहेंगे कि वस्तु मिले या न मिले, हमारा होना तय है और उस होने का जो आनंद है, उससे हम बाहरी चीजों को नहीं जोड़ें। इससे हमारा रक्षातंत्र मजबूत होगा और संसार में रहते हुए बाहरी भोग, विलास के आक्रमणों से हम सुरक्षित रहेंगे।



लक्ष्मी को अपनी चेतना से जोड़ें
दीपावली का पर्व दो भागों में बंटा है। इसमें अमावस्या का मौन है तो पटाखों का शोर भी है। यह समृद्धि को केवल भौतिकता से जोडऩे का त्योहार नहीं है। इस समय लक्ष्मी को अपनी चेतना से जोडऩे की पूरी संभावना है। यही एक त्योहार ऐसा है, जो जीवन के दो हिस्सों को स्पष्ट करता है, प्रकाश और अंधकार सबके जीवन में हैं।




हिंदुओं के अवतारों ने दोनों स्थितियों को बड़ी खूबसूरती से मान्यता दी है। श्रीराम भरी दोपहर में आकर सूचना देते हैं कि जीवन में सद्कर्मों का प्रकाश हो तो मैं आता हूं। आधी रात को जन्म लेकर श्रीकृष्ण कहते हैं- तुम्हारे जीवन में दुर्गुणों का अंधकार छाया हो, तो भी मैं आता हूं।



जैसे दिवाली दो भागों में बंटी है, वैसे ही सुंदरकांड दो भागों में विभाजित है। 60 दोहों के इस साहित्य में आरंभ के 33 दोहों में हनुमानजी की लीला है और बाद के 27 दोहों में श्रीराम का चरित्र है। हनुमानजी ने सीताजी को संदेश दिया, विभीषण से मैत्री की, लंका दहन किया।



इतना पराक्रम करने के बाद 33 दोहे पश्चात वे मौन हो गए। हमें आज दिवाली और सुंदरकांड यही सिखाते हैं कि शोर और मौन, प्रकाश और अंधकार; सबका महत्व है। इसलिए 33 वें दोहे में तुलसीदासजी ने एक फलश्रुति लिख दी, जबकि फलश्रुति समापन पर लिखी जाती है। फलश्रुति यानी इसका फल क्या मिलेगा।



यह संवाद जासु उर आवा, रघुपति चरन भगति सोइ पावा। स्वामी सेवक का यह संवाद जिसके हृदय में आ गया, वही रामजी के चरणों में भक्ति पा गया। दिवाली का सुंदरकांड जैसा यही संदेश है। लक्ष्मी को अपनी चेतना से जोडऩे का मतलब है शोर में भी मौन साधें। तब धन सुख के साथ शांति भी देगा।



धर्म हमें दान करना सिखाता है

मौसम  बदलते रहते हैं, लेकिन सूरज और चांद वही रहते हैं। इनमें आकार-प्रकार की लुका-छिपी हो सकती है, लेकिन इनका मूल अस्तित्व खंडित नहीं होता। हमारे पारिवारिक जीवन में रिश्ते मौसम की तरह न बनाएं। हां व्यावसायिक जीवन में जरूर रिश्ते मौसम की तरह होते हैं।


परिवार में रिश्ते सूर्य-चंद्र की तरह हैं। रोशनी, अंधेरा, गर्मी-ठंडक एक का जाना, दूसरे का आना बना रहता है। सूर्य-चंद्र मौसम बनाते हैं। मौसम सूर्य-चंद्र को प्रभावित करता है, ऐसा भ्रम हमें होता है। दरअसल ऐसा है नहीं। सूर्य-चंद्र की विशेषता है नियमितता, निष्पक्षता और लेने से ज्यादा देने का भाव। जब परिवार सूर्य-चंद्र की जगह केवल मौसम के रूप में रिश्तों को देखने लगते हैं, तभी से सदस्यों में स्वार्थ और स्वेच्छाचारिता आ जाती है।


यहीं से हम मनुष्य होते हुए भी जानवर बनने की तैयारी करने लगते हैं। जानवरों के परिवार नहीं, झुंड हुआ करते हैं। किसी जानवर से उसके पिता का पता नहीं पूछा जा सकता। गाय जरूर एक ऐसा पशुधन है, जो मां के रिश्ते को बचा ले जाती है। मनुष्य परिवार में रिश्तों को जीते हुए अपने को जानवरों से अलग साबित करता है।


परिवार में धार्मिक वृत्ति केवल कर्मकांड के लिए नहीं होती। धर्म एक और संस्कार सिखाता है और वह है दान। दान का विचार धर्म से जोड़कर परिवारों में त्याग की जीवन शैली लाने के लिए है। त्याग आते ही रिश्ते सुगंध देने लगते हैं। ऋषि-मुनि कह गए हैं कि ऐसा और इतना दान करो कि हमारे भीतर निर्वासना आ जाए। वासनारहित होकर ही रिश्ते निभाने का मजा है।



संसार की हर वस्तु में बसा है ईश्वर

उद्योग करने से दुनियाभर की वस्तुएं मिल जाती हैं। परिश्रम, उद्यम, क्रिया-कलाप ये सब जरूरी हैं संसार पाने के लिए, लेकिन परमात्मा पाना हो तो थोड़ा अंदाज बदलना होगा। ईश्वर सब में है।


संसार की प्रत्येक वस्तु में, व्यक्ति में, काल में, स्थान में वह बसा है। इसलिए उसे पाने के लिए उद्योग से ज्यादा लालसा करनी पड़ेगी। ईश्वर का निर्माण नहीं करना है। उन्हें कहीं से लाना नहीं है। उन्हें बदलना नहीं है। वे सब जगह हैं। अत: लालसा होना ही पर्याप्त है। दुनिया की भौतिक वस्तुओं को पाना हो तो क्रम इस प्रकार होगा- पहले लालसा करें, फिर उद्योग-परिश्रम करें। फिर भी भाग्य अपना काम करेगा, तब वह वस्तु मिलती है। इधर ऊपर वाले की चाहत ही काफी है।


उद्योग तो करना पड़ेगा, लेकिन इसमें ईश्वर स्वयं सक्रिय हो जाता है। परमात्मा उद्योगजन्य नहीं है। जो भी वस्तु उद्योगजन्य होगी, वह नाशवान भी होगी। लेकिन वह परम सत्ता सदैव से है, अविनाशी है। इसलिए संसार में रहते खूब उद्योग करें, पर यह बाहर की गतिविधि होगी, भीतर लालसा बनाएं।


भीतर और बाहर का संतुलन हमें सुख के साथ शांति प्रदान करेगा। केवल उद्योग ऐसा है, जैसे हथेली पर जलता दीया रखकर चलना। कितना बचाएंगे इसे दुनिया के झोंको से। ईश्वर की लालसा ऐसी है, जैसे भीतर दीया जलाना। यह लौ नहीं बुझती, बल्कि इसकी रोशनी से बाहर का दीया बुझने पर भी प्रकाशमान रहेगा। इसे ही कहेंगे- बुझे दीए में बिन बाती बिन तेल के भी रोशनी। परिश्रम संसार के लिए और लालसा रखें संसार बनाने वाले के हेतु।


योग से मिट सकेगी भेद की वृत्ति

लगातार सुख-सुविधाएं प्राप्त होने वाले इस युग में जिन-जिन चीजों की बढ़ोतरी हुई, उसमें एक है भेदभाव। सुख के साथ शांति नहीं मिलने का एक कारण होता है कि मनुष्य, मनुष्य से अत्यधिक भेद करने लगता है। प्रतिस्पर्धा हो इसमें कोई दिक्कत नहीं।



महत्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्धा कभी-कभी मनुष्य के पुरुषार्थ में और मदद करती हैं। आलस्य पर प्रहार भी इन दोनों के कारण हो जाता है, लेकिन जब लंबे समय महत्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्धा की वृत्ति मनुष्य के भीतर रहती है तो वह हर बात में भेद करने लगता है। योग्यता और अयोग्यता में भेद, शिक्षा और अशिक्षा में भेद, अमीर और गरीब में भेद, ईमानदार और बेईमान में भेद, और तो और रिश्तों में भी भेद शुरू हो जाते हैं।



पति-पत्नी का भेद, भाई-भाई का भेद अशांति का बहुत बड़ा कारण बन जाता है। भेद आखिर में ईष्र्या लेकर आता है। परमात्मा ने संसार बनाया तो प्रतिस्पर्धा के लिए छूट दी है, लेकिन भेद उन्हें भी पसंद नहीं है। हम जो भी काम करेंगे, उस पर हर व्यक्ति की अलग-अलग टिप्पणी हो सकती है। कहीं प्रोत्साहन होगा, कहीं तटस्थता, कहीं चालबाजी तो कहीं मूर्खता। अगर हमारे भीतर हर बात का भेद बनाने की वृत्ति है तो हम इनके सही अर्थ नहीं पकड़ पाएंगे।



हां, प्रतिस्पर्धा से आकलन करेंगे, तो सत्य के अत्यधिक निकट जाएंगे। भेद की वृत्ति समाज और परिवार में कुरीतियां पैदा करती है तथा व्यावसायिक जगत में षड्यंत्र और बेईमानी। भेद की दृष्टि मिटती है योग से। हम यदि थोड़ा समय योग को दे सकें तो हमारे भीतर की भेद की वृत्ति मिट जाएगी और जो भी प्रतिस्पर्धा हम करेंगे, वह स्वस्थ होगी तथा निजहित-परहित में परिणाम देने वाली होगी।



सद्कर्मों से लबालब हो जीवन की किताब

पूरी प्रकृति की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि जैसे परमात्मा ने मनुष्य और जानवरों के मामले में पक्षपात किया है, लेकिन परमात्मा के पास इस बात का पर्याप्त जवाब है।



मनुष्य अपने शरीर से यदि केवल भोग-विलास करे, इसे मौज-मस्ती में खर्च कर दे तो निश्चित ही यह पक्षपात होगा। यह सब जानवर भी करते हैं, पर मनुष्य को भगवान ने बुद्धि और विवेक देकर कुछ विशेष अधिकार दे दिए, जिनसे उन्हें निजी जीवन में लाभ उठाने के बाद परमात्मा के बनाए हुए संसार की सेवा करनी है।



इसीलिए मनुष्यों को अपने जीवन के आरंभ और अंत में मूल्यांकन करते रहना चाहिए। हमारा जीवन कोरे कागज जैसा शुरू हुआ और जब समापन होगा तो इसके सारे पृष्ठ लगभग चितेरे जा चुके होंगे। इसलिए हर रात सोते समय, सप्ताहांत में, महीने के आखिरी में और साल खत्म होने पर इस बात का चिंतन जरूर किया जाए कि अंत के वक्त हम क्या होंगे।



बीते समय में हमने क्या कुछ ऐसा श्रेष्ठ किया, जिसके लिए परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है। ऋषियों ने कहा है कि हमारे साथ हमारा भगवान भी जन्म लेता है। काफी समय तक वह हमारे साथ रहता भी है। यूं कहें कि पूरा बचपन वह हमारा साथ नहीं छोड़ता। फिर जैसे-जैसे हम दुगरुणों को आमंत्रित करते हैं, उसकी विदाई होने लगती है।


याद रखिए हमारे अंत के बाद उस प्रारंभ वाले परमात्मा से मिलना जरूर होगा और उस दिन हमें उसे जवाब भी देना होगा। उसका सवाल यह होगा कि जो धरोहर मैंने तुम्हें दी थी, उसका सदुपयोग किया या नहीं? उस दिन हमारे जीवन की किताब सद्कर्मो से इतनी लबालब होनी चाहिए कि ईश्वर को अपनी कृति पर संतोष हो सके।




शुभ का विलंब अशुभ को आमंत्रण है

आप अच्छा काम कर रहे हों या गलत, लोगों का स्वभाव होता है इसके पीछे का असली मकसद जानना। जो लोग आपका समर्थन करना चाहेंगे, वे भी एक बार संदेह से आपके छिपे हुए उद्देश्य को जानना चाहते हैं और जो आपके विरोध में हैं, उनका भी मकसद यही होगा कि आपके असली इरादे को पकड़ें, उसमें कमजोरी ढूंढ़ें और आपको पराजित कर सकें।



किसी भी बड़े काम को हाथ में लेने पर दो बातों का ध्यान जरूर रखें - शुभ कार्य में विलंब न करें और अशुभ को लगातार टालें। जो लोग आप पर नजर गड़ाए बैठे हैं, उन्हें इससे संतोष और भ्रम दोनों होगा। इसके बाद जो लोग समर्थन करेंगे वे ठोस होंगे और जो विरोध कर रहे होंगे, वे समझ जाएंगे कि आप साफ नीयत के आदमी हैं।



सुंदरकांड में हनुमानजी से सारी सूचनाएं मिलने के बाद श्रीराम अपने जीवन के सबसे बड़े अभियान की ओर बढ़ने वाले थे। वे इस नीति को जानते थे कि अच्छे काम में देर नहीं करनी चाहिए। उन्होंने सुग्रीव से कहा और तुलसीदासजी ने लिखा - अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुं आयसु दीजे।। कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी।। अब विलंब किस कारण किया जाए? वानरों को तुरंत आज्ञा दो।



भगवान की यह लीला देखकर देवतागण फूल बरसाकर और हर्षित होकर आकाश से अपने लोक को चले। इस घटना में श्रीराम ने स्पष्ट किया कि विलंब न किया जाए, क्योंकि शुभ का विलंब अशुभ को आमंत्रण है और श्रीराम के समर्थन में देवता तत्काल तत्पर हो गए। पुष्प-वर्षा एक तरह का समर्थन थी। जो लोग अपने विरोध और समर्थन के प्रति सजग होते हैं, वे आधी बाजी पहले ही जीत जाते हैं।


हर व्यक्ति के भीतर देवत्व होता है

जब हम परिवार में रहते हैं तो अनेक सदस्यों से हमारी निकटता बन जाती है। निकटता का फायदा और नुकसान दोनों है। जैसे आंख का नियम है कि एक निश्चित दूरी न रहे तो दृश्य धुंधला हो जाता है, ऐसे ही बहुत निकटता होने पर हम उस व्यक्ति के आंतरिक गुण ठीक से नहीं देख पाते और नुकसान यह होता है कि हम फिर बाहरी गुणों पर टिकने लग जाते हैं।



यही घटना हमारे कार्यस्थल पर भी होती है। अपने बॉस या अपने अधीनस्थ के प्रति निकटता होने पर हम उनके आंतरिक गुणों को देखने में चूक जाते हैं। इसलिए एक निश्चित दूरी जरूर बनाकर रखें। हर बाहरी गुण के पीछे की जड़ तलाशें। जितना हम आंतरिक गुणों को जान सकेंगे, संबंध हमारे लिए उतने ही लाभकारी होंगे।



हर व्यक्ति के भीतर एक देवत्व होता है। इसीलिए जब भी उसका समर्थन या विरोध करना पड़े, देवत्व से जोड़कर करें। जब भी किसी घटना में निर्णय लेना हो तो उसके आंतरिक पक्ष को जरूर स्पर्श करें। ईश्वर अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए योग्य लोगों की तलाश में रहता है और हो सकता है कि उसकी तलाश हम तक आकर पूरी हो जाए, क्योंकि वह देख लेता है कि इस व्यक्ति ने उन बातों को अपने से जोड़ा है, जिन्हें मैं लीला कहता हूं। इसलिए भगवान की लीला कहा गया है।



लीला का अर्थ ही यह है कि जिसमें जीवन के देवत्व के पक्ष को पकड़कर कर्म किया जाता है। जैसे ही आप व्यक्ति या घटनाओं के भीतर देवत्व के पक्षधर होते हैं, वहीं से आप ईश्वर की शरण में जाते हैं। काम तब भी हमें ही करना है। शरण में जाने का मतलब यह नहीं है कि अकर्मण्य हो जाएं। करना हमें ही है, लेकिन सहारा एक परमशक्ति का मिल जाएगा।


जीने की अनूठी सीख देता अध्यात्म

विज्ञान शोध व खोज दोनों को समान महत्व देता है। वह निरंतर होने वाले परिवर्तनों को पकड़ता है। अध्यात्म वैज्ञानिक शैली में जीना सिखाता है।



इसलिए आध्यात्मिक या धार्मिक व्यक्ति को विज्ञान से वैर नहीं रखना चाहिए। क्षेत्र दोनों के अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन इरादे वही हैं। खोज दोनों में ही है। परिणाम को लेकर अंतर आ जाता है। निवर्तमान शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरिजी एक जगह धर्म और विज्ञान की बड़ी सुंदर कल्पना करते हैं और मार्ग बताते हैं कि कैसे इनका उपयोग किया जाए। आज विज्ञान का बोलबाला है।



मनुष्य को उसने बहुत-सी सुविधाएं दी हैं, परंतु यह भी विचारणीय है कि विज्ञान के सिद्धांत सदैव एक से नहीं रहते। उनमें परिवर्तन होता रहता है। वह एक-एक बात का खंडन करता है। उसका लौकिक लाभ समाज को सतत और सर्वत्र मिल पाएगा, यह कहना कठिन है। पश्चिमी देशों में आधुनिक विज्ञान की बहुत उन्नति दिखाई देती है।



परंतु हम देखते हैं, सुनते हैं कि पश्चिमी देशों में लोग मानसिक पीड़ा से त्रस्त हैं। शास्त्रों ने उसके परिष्करण की बात कही। विज्ञान भी कहता है कि वस्तुओं का प्रयोग रिफाइंड करके करना चाहिए। यह प्रक्रिया चल पड़ी है। अध्यात्म भी हमें परिमार्जन की बात कहता है।



मोह तथा काम का परिमार्जन प्रेम और सहिष्णुता में है। जब लोगों का परिष्कार होता है, तब वह उदार और दाता बनकर सामने आता है। इससे सेवा का क्षेत्र बढ़ता है। मद का परिष्कार दमन की शक्ति देता है। समर्पण की वृत्ति जागती है। ईष्र्या करुणा में परिष्कृत हो सकती है। इसलिए अध्यात्म-विज्ञान सिखाता है कि जो भी करो, परिष्कृत करके करो।



अपनापन परिवार को स्वर्ग बनाता है

परमशक्ति  ने इस संसार में जिन-जिन बातों का गठन किया है, उनमें एक महत्वपूर्ण रचना है परिवार की। स्नेह, सेवा, सद्भाव, सौजन्य से घर का वातावरण बनता है।



हर बड़े-छोटे सदस्य का परिवार में अपना महत्व होता है। यदि उसकी उपस्थिति को बराबर सम्मान मिल जाए, तो अपनापन परिवार को स्वर्ग बना देता है। संत-फकीरों से एक बात सीखी जा सकती है। चूंकि अपना एक घर छूट चुका होता है, इसलिए दुनिया के सारे घर उनके हो जाते हैं। ये महात्मा लोग जिससे भी मिलते हैं, उससे अपने परिवार के सदस्य की तरह बात करते हैं।



संयोग से स्वामी अवधेशानंदगिरिजी को एक दिन कई जाने और अनजाने लोगों से बात करते देखा। संतत्व सबको अपने भीतर कैसे समेट लेता है, हर संत इसके अनेक दृश्य दिखा जाते हैं। अवधेशानंदजी उस दिन लॉयल्टी पर बोल रहे थे। निष्ठा अभ्यासगत संस्कार है। इसे प्रतिदिन साधना पड़ता है। इसके लिए सबसे अच्छे दो मौके होते हैं।



पहला, जब हम भगवान के सामने हों तथा दूसरा, तब जब हम गुरु के सान्निध्य में रहें। इनके द्वार जाएं तो शिकायत, छीनने या आक्रमण की मुद्रा में न रहें। कई लोग मंदिर या आश्रम भी इसी तेवर से जाते हैं। इन दो स्थानों पर तो आभार से भरकर जाएं। उनसे हमारी अभिव्यक्ति ऐसी होनी चाहिए कि जो योग्यता से अधिक मिल रहा है, वह आपका दिया है। हमारी पात्रता का अतिक्रमण करके आप कृपा की वर्षा किए चले जाते हैं। यह अहोभाव हमारे ईश्वर और गुरु के संबंधों को नई ऊर्जा देता है। जैसे ही मांग खत्म होकर आभार शुरू होता है, हमारी निष्ठा हमारी ही भरपूर दौलत का रूप ले लेती है।




मित्रता में बाधक होता है अहंकार


कई लोगों को आदत पड़ जाती है कि वे हर गतिविधि के केंद्र बन जाएं, सबकुछ उनके आसपास घूमे। परिधि पर वे जाना ही नहीं चाहते। धीरे-धीरे यह केंद्र उनका अहंकार बन जाता है। जब कभी ऐसा अवसर आता है कि लोग उन्हें नोटिस नहीं करते, बस यहीं से उनकी पीड़ा शुरू हो जाती है।






आप अपने आपको हर गतिविधि के केंद्र में रखने का प्रयास न करें। कुछ घटनाओं को दूर खड़े होकर देखें। जितना आप स्वयं को केंद्र में रखेंगे, आपके मित्रगण आपसे दूर हो जाएंगे, रिश्तेदारियां टूटने लगेंगी। आप केंद्र से हटने के लिए एक तो अपने पुराने साथियों को खोजें। उनसे संपर्क करें। बालसखा, पुराने मित्र आपको केंद्र से खींच लेंगे। अपने लोग हमारा अहंकार गिराने में सहायक बन जाते हैं। दूसरा, नए मित्र बनाएं। मित्रता करते समय स्वयं को थोड़ा-सा झुकाना पड़ता है।



अहंकार मित्रता में बाधक होता है और मित्र भावना अहंकार के लिए घातक रहती है। हमारे जीवन में हर उम्र में ऊर्जा की एक सीमा होती है। बालक अपनी सारी ऊर्जा खेल में खर्च कर देता है, जवानी की ऊर्जा दूसरों पर टिककर नष्ट होती है, लेकिन बुढ़ापे की ऊर्जा इन दोनों से जो शिक्षा मिली है, उसके उपयोग में आनी चाहिए। इसलिए जो लोग बुढ़ापे में भी स्वयं को घटनाओं के केंद्र में रखना चाहेंगे, वे बहुत अशांत होंगे।



बूढ़े आदमी को तत्काल अपने को हर बात के केंद्र में रखने की वृत्ति छोड़ देनी चाहिए और अपनी ऊर्जा परमशक्ति में लगानी चाहिए। बहुत जीवन जी लिया, अब उससे जुड़ें, जो हम सबके लिए, हम सबसे ऊपर है। सीमित ऊर्जा है वृद्धावस्था के पास। इसे संसार में खर्च करेंगे तो धुएं के समान है और इसे फिर ईश्वर से जोड़ेंगे तो वेग तथा सुगंध दोनों प्राप्त होंगे।



जीने का सही तरीका सीखना होगा

कठिनाइयों से घिरे मनुष्य जीवन में अधिकांश लोग तीन बातों को लेकर परेशान हैं। संपत्ति कमाना चाहते हैं और जितना चाहते हैं, उतनी मिलती नहीं।



कुछ लोग मान लेते हैं कि दौलत का आना-जाना चलता रहता है, लेकिन ऐसे लोग कभी-कभी स्वास्थ्य को लेकर परेशान हो जाते हैं। कुछ बीमारियां इलाज होने के बाद भी चैन नहीं लेने देतीं। इन दोनों से भी आदमी निपट लेता है। लेकिन सबसे ज्यादा परेशान होता है संतान के मामले में। यहां आते-आते अच्छे-अच्छों की कमर टूट जाती है।



औलाद एक ऐसा बिना दिखने वाला हथौड़ा है, जो पालकों के फौलाद को तोड़ देता है। जब आदमी इन सबसे घिरता है, तब वह शांति की तलाश करता है। एक वक्त तो ऐसा भी आता है कि उसके पास सारे साधन होने के बाद भी शांति नहीं मिल पाती।



मेरा निजी अनुभव रहा है कि सब शांति तो चाहते हैं, लेकिन जिन बातों से शांति मिल सकती है उनको अपनाते नहीं हैं। जैसे परमात्मा एकदम जीवंत है। यदि कोई भगवान को पाना चाहता है तो सरल तरीका यही है कि उसे जीना चाहिए। किसी सिद्धांत, प्रमाण या सबूत से भगवान नहीं मिलता। ऐसे ही जिन्हें शांति प्राप्त करनी हो, उन्हें शांति को जीना पड़ेगा।



यदि आप भक्ति करते हैं तो एक बार फिर भी अशांत रह सकते है, लेकिन भक्ति को जीने लगते हैं तो अशांत होने का कोई कारण ही नहीं है। हम दौलत को जीते हैं, भोजन को जीते हैं, नींद को जीते हैं और अहंकार को भी जीते हैं। बस थोड़ा-सा अंदाज बदलना है। जीने का तरीका हमें आता है, बस केंद्र गलत पकड़ लिए हैं। केंद्र बदले तो स्थिति बदलते देर नहीं लगती।



प्रसन्नता अपने साथ शुभ लाती है

जीवन में सफलता कई चीजों के जोड़ से आती है। साथ ही बहुत-सी बातों को घटाना भी पड़ता है। प्रबंधकीय कौशल के अलावा प्रसन्नता एक बहुत बड़ा फैक्टर है, जो हम लोगों की सफलता में स्थायी योगदान देती है।



काम का कितना ही दबाव हो प्रसन्नता न छोड़ें, क्योंकि प्रसन्नता अपने साथ शुभ लेकर आती है। घटाना है तो तनाव घटाइए। एक प्रसंग हमें इस बात के लिए समझाइश देता है, चलिए उसे देखते हैं। हनुमानजी से सूचना प्राप्त होने के बाद श्रीराम सुग्रीव को निर्देश देते हैं कि लंका की ओर कूच किया जाए।



श्रीराम एक विश्वविजेता से टकराने जा रहे हैं, इसलिए उनको अपने साथ के हर व्यक्ति को आत्मविश्वास से भरकर प्रसन्न रखना था। राम के पास एक सुंदर तरीका था, जिसे तुलसीदासजी ने सुंदरकांड में इस तरह से व्यक्त किया है। देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना।



श्रीरामजी ने वानरों की सारी सेना देखी। तब कमल नेत्रों से कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली। राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुं गिरिंदा।। हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना।। राम कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पंखवाले बड़े पर्वत हो गए। तब श्रीरामजी ने हर्षित होकर प्रस्थान किया। अनेक सुंदर और शुभ शकुन हुए।



श्रीराम की निगाहों में गजब का अपनापन था और इसीलिए सारे बलशाली हुए, प्रसन्न हुए और इस घटना में अपने आप शुभ घटने लगा। जैसे ही हम जीवन की हर क्रिया से एक परमशक्ति को जोड़ लेते हैं, वैसे ही वह परमशक्ति ऐसी स्थितियों का निर्माण कर देती है कि हमारे लिए सबकुछ अनुकूल हो जाता है।


आत्मा का स्पर्श कराते थे नानक
कुछ लोगों को देखकर जीवनभर तय नहीं हो पाता कि आखिर ये कह क्या रहे हैं और कर क्या रहे हैं। हमारे यहां संत-फकीरों की परंपरा में अनेक फकीरों का आचरण ऐसा रहा है कि जिनको यदि बाहरी तौर पर देखें तो संदेह होने लगता है कि वे जानबूझकर कुछ ऐसा काम करते हैं, जिसकी आपको अपेक्षा नहीं होती।

कभी-कभी तो लगता है कि इनकी गतिविधियां निरुद्देश्य हैं। उनके बोलने और करने में तारतम्य नहीं बैठता, लेकिन जरा गहराई में उतरकर देखें तो फकीरी क्या है,यह समझ में आ जाता है। गुरु नानक को जिन्होंने समझा, वे जान गए कि उन्होंने बिना जीए कोई शब्द नहीं कहा। लेकिन उनके शब्द हम अपने जीवन से जोड़ना चाहें तो हमें उन्हें गहराई से छूना पड़ेगा। हम केवल शरीर पर नहीं टिक सकते।

नानक वो फकीर थे, जो अपने शिष्यों को केवल शरीर से परिचय नहीं देते थे, वे आत्मा का स्पर्श कराते थे। उनके शब्द बीज बनकर जैसे ही हमारे दिलों में बैठते हैं, एक अदृश्य अंकुरण हो जाता है। उसके बाद तो गुरुकृपा परछाई की तरह हमारे पीछे-पीछे चलती है।

नानक जैसे फकीर जानते हैं कि गुरु वृक्ष तो बन जाता है, लेकिन ऐसा वृक्ष नहीं बनता, जिसके नीचे दूसरे का विकास न हो सके। इसलिए गुरु अपनी छत्र-छाया के बाद भी दूसरे को उसकी आध्यात्मिक और भौतिक ऊंचाई तक पहुंचने में मदद कर जाते हैं।

नानक के पुत्र श्रीचंद्रजी इस बात का प्रमाण हैं। इसलिए जब भी किसी गुरु के संपर्क में आएं या किसी फकीर के जीवन से गुजरें तो ध्यान रखना कि ये लोग कभी भी लीक छोड़ देते हैं। इनकी दिनचर्या और कार्य को ऊपर-ऊपर से न पकड़ें। इनके भीतर के संगीत और तारतम्य को जानें।

सबके साथ घुल-मिलकर रहें
जिंदगी दो तरीके से गुजारी जा सकती है- एक कुएं में रहते हुए और दूसरा आसमान में उड़कर। ये दोनों ही बातें प्रतीकात्मक हैं। चाहे आप घर में हों या अपने कार्यस्थल पर। जो व्यक्ति आपके जीवन में आएंगे, उनके साथ आपको इन दोनों में से किसी एक स्थिति में रहना है। ज्यादातर मौकों पर हम अपने-अपने कुएं में पड़े रहते हैं। घरों में तो आजकल ये आम बात हो गई है। इसीलिए साथ होते हुए भी अकेले हैं। सबने अपना-अपना संसार बना लिया है।

यही स्थिति व्यावसायिक क्षेत्र में है। मैं ऐसे अनेक अधीनस्थ लोगों को जानता हूं, जो हमेशा सख्त बॉस का रोना रोते हैं। साथ ही मेरा ऐसे अनेक बॉस लोगों से भी परिचय है, जो अकर्मण्य और अयोग्य अधीनस्थों से दुखी हैं। संकट तब और बढ़ जाता है, जब दोनों के पास कोई विकल्प नहीं होता। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि सब अपने-अपने कुएं में पड़े हैं।

आइए इसे समझें, अध्यात्म यानी अपने भीतर उतरना और जैसे ही आप अपनी ही गहराइयों में गए, देखते ही देखते कुएं से निकलकर आसमान में पहुंच जाएंगे। इस जीवन का अर्थ है एक-दूसरे से मिलने-जुलने की संभावना बढ़ जाना।

तब आपकी किसी से टक्कर भी होगी तो कम से कम कुछ देख सकेंगे। कुएं के जीवन में तो टक्कर होती है, पर अपने ही शरीर की अपनी ही दीवारों से। यहां आसमान में आपके पास एक-दूसरे से घुलने-मिलने की संभावना होगी। आकाश विशालता का प्रतीक है। इसका प्रतीकात्मक संदेश है कि कुंठित होकर न जिएं, सबके साथ घुल-मिलकर रहें। चाहे घर में हों या बाहर, अपने लक्ष्य की ओर चलते रहें। ऐसे में बाहरी सहयोगी तो बहुत होंगे, पर भीतरी साथी परमात्मा बन जाता है।

कानून से डरें नहीं उसका सम्मान करें
बाहर की दुनिया में कामयाब लोगों के पीछे जिन-जिन लोगों और स्थितियों का हाथ होता है, उनमें एक है कानून अथवा न्याय व्यवस्था। लोग भूल ही जाते हैं कि यदि व्यवस्था में नियम-कायदे, अनुशासन, संविधान, पॉलिसी न हो तो संभवत: वे कुछ गलत काम अवश्य कर जाते। कई लोग तो गलत करते हुए पकड़े जाने के डर के कारण ही सही को थामे रखते हैं। असत्य उजागर न हो जाए, यह संदेह ही सत्य से जोड़े रखता है।

भीतर का बेईमान व्यक्तित्व बाहर के कानून के डंडे से सहमा रहता है। चूंकि बाहर गलत करने का मौका नहीं मिल पाता, इसलिए भीतर अनुचित करने के कोई भी अवसर फिर वह नहीं चूकता है। इसलिए सांसारिक सफलता में यदि आप भीतर से तैयार न भी हों तो बाहर की स्थितियां आपको मजबूर कर देंगी और आप अच्छे होने का आवरण ओढ़कर भी सफल हो जाएंगे। लेकिन अध्यात्म के क्षेत्र में हमारी भीतरी सहमति जरूरी है।

यहां सजा के डर से कुछ नहीं होगा। यहां तो होश में रहने की खुद ही की तीव्र आकांक्षा काम करेगी। यदि हमारी खुद की तैयारी नहीं होगी तो सिद्ध से सिद्ध गुरु भी शायद कुछ नहीं कर पाएगा। यदि हमारी जागने की तैयारी नहीं है तो कोई कितनी भी आवाज लगा ले, हम करवट भी नहीं बदलते। जो नियम बाहर की सजा तय करते हैं, वे भीतर लागू नहीं होंगे। लेकिन विधान भीतर भी काम करेगा। सजा यहां भी होगी।

शायद यहां का दंड बाहर नजर न आए। इसलिए स्वयं पूरी स्वीकृति के साथ भीतर से तैयार रहें रूपांतरण के लिए। यह स्वभाव दुनियादारी में भी काम आएगा, हम बाहर के कानून से डरकर नहीं उसका सम्मान कर, उसे स्वीकार करते हुए सफलता अर्जित कर सकेंगे।

परमात्मा पेड़ और हम लता बन जाएं
प्रसन्नतादायक  परिस्थितियां किसी से उधार न ली जाएं। ये शत-प्रतिशत स्वयं का क्रिएशन होना चाहिए। इनके निर्माण में हमारी ही भागीदारी हो। इस गलतफहमी को उतार फेंकें कि हमको कोई दूसरा खुश रख सकेगा।

हमारी प्रसन्नता एकदम निजी प्रयास हो। अपने होने का योगदान ही अपनी सबसे बड़ी प्रसन्नता में बदल जाएगा। इसमें न किसी से टक्कर रखें और न ही कलह। हमें खुश रहना ही है, यह हमारा अपना निर्णय हो। जिस दिन हम इस तैयारी में होते हैं एक बड़ी बात यह भी होती है कि हमारी खुशी किसी के दुख, परेशानी या असुविधा से निर्मित नहीं होती, बल्कि हमारी मौज का संक्रमण दूसरों में हो सकेगा।

क्या हमें मिला, इससे ज्यादा जरूरी हो जाएगा कि क्या हम दे रहे हैं। बिना कुछ लिए, लुटाने का आनंद इसी को कहते हैं। लेकिन ऐसा किया कैसे जाए? खुद को खुद ही कैसे खुश रखें? चलिए, एक प्रयोग करिए। किसी पेड़ पर लिपटी हुई लता को देखिए। प्रकृति अपने हर दृश्य में एक सीख लेकर चलती है। लता भरोसे और बेफिक्री का दूसरा नाम है। किसी लता को परजीवी, आलसी मत मान लेना।

इसे और समझने के लिए थोड़ा अपने बचपन में चले जाएं। पिता का कंधा और मां का आंचल, कितनी ही बार हम लता बनकर इनसे लिपटे हैं। यह सहारे से ज्यादा भरोसे का दृश्य है। बस इसे याद रखते हुए परमात्मा को पेड़ और स्वयं उसकी लता बन जाएं। यहीं से शुरुआत होगी खुद को खुश रखने की। अब हम अपनी सांसों के माध्यम से उस परमशक्ति से कह सकेंगे, तू उठाएगा तो तेरी मर्जी, तू गिराएगा तो तेरी इच्छा। हम लता हैं और तुझे सब पता है। हम करेंगे, पर तू ही कराएगा।


अपने घर को ही तपोवन बनाइए
अगर आपको अध्यात्म सीखना हो, तो जंगलों में तप करने, तपोवन बनाने मत जाइए। अपने घर को ही तपोवन बनाइए, उसे ठीक कीजिए। परिवार एक प्रयोगशाला है। आपके अंदर जो श्रेष्ठ गुण हैं, उसे आप कहां से सीखेंगे और परखेंगे? गायत्री परिवार के आचार्य पं. श्रीराम शर्माजी ने कहा था- कौन-सा योगाभ्यास करेंगे? परिवार जैसी प्रयोगशाला संसार में कहीं भी नहीं। हर परिवार का शरीर, मन और आत्मा भी होती है। जो लोग चाहते हों कि परिवार में शांति रहे, पारलौकिक माहौल बना रहे, घर आएं तो बैकुंठ का स्वाद आए, उन्हें अपने परिवार को तीन भागों में बांटकर देखना होगा। जिस तरह शरीर की अपनी जरूरतें होती हैं, वैसे ही जब परिवार के शरीर को देखें तो उसकी भी कुछ आवश्यकताएं होती हैं। जब-जब हम शरीर की मांग को दबाएंगे तो शरीर में बीमारियां होंगी। ऐसे ही परिवार की कुछ मांग होती है उसे दबाना नहीं चाहिए। वरना रिश्ते विकृत हो सकते हैं। कुछ आवश्यकताओं की पूर्ति सांसारिक रूप से परिवार में करनी ही होगी।

आवश्यकताओं से जुड़ना पड़ता है, तब परिवार का शरीर शांत होगा। अब परिवार के मन को देखें। जिस प्रकार मन में आवश्यकताएं नहीं होतीं, इच्छाएं होती हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति करना खतरनाक नहीं है, लेकिन इच्छाओं की पूर्ति घातक है। इसीलिए परिवार के मन को इच्छाओं से मुक्त रखा जाए। इसकी आदत डालनी होगी। इसको बारीकी से ढूंढ़ना पड़ता है। हर गृहस्थी की एक मानसिक आवश्यकता है, लेकिन उसे शरीर की तरह पूरा नहीं किया जा सकता। इसके बाद हमें आत्मा पर आना है और जिसने परिवार की आत्मा को स्पर्श कर लिया, उसे बैकुंठ मिलना ही है।

अनुशासित लोग ईश्वर की कृपा पाते हैं
पाप और पुण्य के इस संसार में सबने अपनी-अपनी परिभाषाएं बना ली हैं, लेकिन यदि गहराई से देखा जाए तो आज की जीवनशैली में यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि पाप क्या है और पुण्य क्या है।

इसलिए इस समय शुभ और अशुभ पर अधिक जोर देना चाहिए। जीवन में शुभ लाने के लिए एक अनुशासित जीवनशैली अपनानी पड़ती है। जिस दिन हम अपने होने की ताकत को जान लेते हैं, उस दिन जीवन में अनुशासन का महत्व समझ लेते हैं।

अनुशासन का अर्थ ही यह है कि हम क्या हैं, क्यों इस संसार में आए हैं, इसको ठीक से समझ लेना। सुंदरकांड में रावण की अशोक वाटिका में सीताजी ने बहुत अनुशासन साधा था। उन्हें कष्ट जरूर भुगतना पड़ा, लेकिन थोड़े समय बाद उस लंका में भी उन्हें शुभ प्राप्त हुआ।

तुलसीदासजी ने सुंदरकांड में लिखा है कि जैसे ही श्रीराम ने निर्णय लिया कि अब लंका की ओर कूच किया जाए, सीताजी को शुभ संकेत मिलने लगे। परमात्मा जब हमारी ओर चलता है तो शुभ का आगमन स्वयं होने लगता है। जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती।। प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अंग जनु कहि देहीं।। जिनकी कीर्ति सब मंगलों से पूर्ण है, उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीति है। प्रभु का प्रस्थान जानकीजी ने भी जान लिया।

उनके बाएं अंग फड़क-फड़ककर मानो कह देते थे कि श्रीरामजी आ रहे हैं। जानकीजी को जो-जो शकुन होते थे, वही रावण के लिए अपशकुन हुए। इसी तरह हम अपने जीवन में जितना अधिक अनुशासन रखेंगे, उतने ही अधिक शुभ की संभावना बढ़ जाएगी। परमात्मा उन लोगों की ओर गति करता है, जो अनुशासन में जीते हैं।


अपने आनंद को फैलाना भी कर्मयोग है

अपने आनंद को सबके बीच फैलाना भी एक कर्मयोग है। कर्मयोग के मामले में अध्यात्म एक संकेत करता है। जैसे ही आप कर्म से जुड़ते हैं, वह क्रिया आपको बाहर खींचती है और आप अपनी आत्मा के केंद्र से थोड़ा दूर जाने लगते हैं।



इसलिए जब भी कोई कर्म करें, अपने आप से जुड़े रहने का अभ्यास जरूर कर लें। थोड़ी देर बिना विचार के आंख बंद करके बैठना इसमें बहुत काम आता है। श्रीश्री रविशंकरजी ने इसको सुंदर ढंग से समझाया है- स्वाभाविक आनंद वही होता है, जिसे हम जितना फैलाते हैं, वह उतना ही बढ़ता जाता है। अब कैसे इस आनंद को फैलाना है, इसके लिए भी निपुणता की आवश्यकता है। मन में निश्चय कर लें कि कम से कम मुझे दस-पंद्रह लोगों के जीवन में परिवर्तन लाना है।



यदि यह आनंद आप पंद्रह लोगों में भी फैला देंगे, तो वह आपको अच्छी तरह समझने लगेंगे और आपका परिवार बढ़ने लगेगा। दिमाग का खोल इतना मोटा है कि उसे तोड़ने के लिए आपको निपुणता की जरूरत है। यदि आपके मन में विश्वास होगा कि मैं लोगों को समझा पाऊंगा, लोगों को इस ज्ञान की जरूरत है, यह हर व्यक्ति की आत्मा का भोजन है।



यदि यह धारणा आपके मन में होगी, तो लोगों को समझाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उन्हें जरूरत तो है, वे अपने आप ही आएंगे। इस तरह आनंद फैलाओ और स्वयं भी पाओ। संतोष से यह मतलब नहीं है कि सब-कुछ मिल गया, बस चुपचाप बैठ जाओ। अपना काम करते वक्त पूरी तरह उसमें लीन रहो। यह एक तरह का संतोष है, जिसमें उत्साह है, शक्ति है। यहीं पर ही सच्चा सुख है। इसी को कर्मयोग कहते हैं।

लक्ष्य तक पहुंचने के लिए ध्यान करें
सांसारिक जीवन में हम जो भी काम करते हैं, उसके पीछे एक बड़ी भावना रहती है कि सुख मिल जाए। हमारे भीतर की नैतिकता हमें सिखाती है कि जब स्वयं को सुख मिल जाए, तो फिर दूसरों को सुखी रखना आरंभ करें।

कुछ समय तो हर मनुष्य इस नियम का पालन करता है, लेकिन सुख की चाहत इतनी प्रबल होने लगती है कि फिर वह दूसरों को दुख देकर सुख उठाने में मजा लेने लगता है। अचानक हम मानते हैं कि हम दुखी हो गए। सुख की चाहत में जो कर्म हम करते हैं, उसे देखकर ऐसा लगता है कि यह सारी घटना वर्तमान में हो रही है, लेकिन भीतर ही भीतर हम भूतकाल से जुड़े रहते हैं या अपना संबंध भविष्य से बना लेते हैं। यहीं से दुख शुरू होता है।

इसीलिए प्रतिदिन मेडिटेशन(ध्यान) जरूर करिए। आचार्य जी ने इस संबंध में बड़ी सुंदर व्याख्या की है। उनका एक शब्द बड़ा प्यारा है कि सांस विचार है। हम इसी के द्वारा मन से जुड़ते हैं। मन या तो भूतकाल पर टिकता है या भविष्य पर। उसकी रुचि वर्तमान में बिल्कुल नहीं होती। उदाहरण के लिए हम कुछ कार्य कर रहे होते हैं और कोई हमारा अपमान कर दे। अब या तो हम अपना काम करते रहें और अपने लक्ष्य की ओर चलें या फिर अपने अपमान का निपटारा करें। 

यदि हम भीतर से स्थिर रहे तो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जाएंगे, पर यदि हमारा मन भूतकाल और भविष्यकाल से जुड़कर सक्रिय होता है, तो वह अपमान को मुद्दा बना लेगा, हमारे अहंकार को सक्रिय करेगा और हम वर्तमान के लक्ष्य को छोड़कर मान-अपमान में उलझ जाएंगे। मेडिटेशन इसलिए किया जाना चाहिए कि हम जो भी काम करें, बिना तनाव या उलझन के लक्ष्य तक पहुंच जाएं।


साधु आरंभ हैं और संत अंत

इस वक्त हर क्षेत्र के बाजार में वस्तुओं की भरमार है। भरपूर सामग्रियां उपलब्ध हैं। ऐसा ही धर्म के क्षेत्र में भी हो गया है। साधु समाज में तो बाढ़ आ गई है। सुपात्र, पात्र और अपात्र का भेद करना मुश्किल हो गया है। भगवा वस्त्र को आवरण बना लिया गया है।



लगभग सभी धर्मो में फकीरों के कपड़ों का रंग सौदेबाजी के काम आ रहा है। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा में एक पंक्ति लिखी है- साधु संत के तुम रखवारे, तब किसी ने उनसे पूछा ही होगा कि आपने ये दो शब्द अलग-अलग क्यों लिख दिए? तुलसीदासजी ने कोई न कोई उत्तर जरूर दिया होगा। इसी उत्तर को मोरारी बापू बड़े सुंदर ढंग से बताते हैं।



साधु आरंभ है, संत अंत है। साधुता से यात्रा आरंभ होती है और संतत्व पर समाप्त होती है। बहुत सीधी-सी समझने की बात यह है कि जो परमात्मा को  चाहता है, वह साधु होता है, लेकिन जिसे परमात्मा चाहने लगता है, उसे संत कहा जाएगा।



भारत के फकीरों ने इन दोनों से ऊपर एक नई स्थिति को भी बयान किया है और वह है संन्यास। संतत्व जब समाधि की चरम सीमा पर आ जाए, तब संन्यास घटता है। साधु आसक्त भी हो सकता है, संत अनासक्त ही होता है। लेकिन संन्यासी न आसक्त है, न अनासक्त। उसमें सिर्फ  एकबहाव होता है। किसी एक के भी प्रति उसका आग्रह नहीं है। वह अपने जीवन को प्रवहमान करा देता है।



परमात्मा ने जीवन की जो धारा दी है, संन्यासी उसके विपरीत नहीं चलता। उसे कोई मोह नहीं होता अपनी चाल का। उसे कोई आग्रह नहीं होता अपनी किसी गति का और संन्यासी किसी भी वस्त्र में बना जा सकता है। आचरण के स्तर पर इसे जिएं, न कि आवरण के स्तर पर।




जब सिकंदर को हुआ शक्तिहीनता का बोध
सिकंदर  की विश्व विजय से सभी परिचित हैं। उसने अपने इस विजय-अभियान से अपार धन-दौलत कमाई। तत्कालीन समय में वह सर्वाधिक अमीर बादशाह था। इस अपार धन-संग्रह से उपजी ताकत ने उसे अहंकारी बना दिया था। उसे लगता था कि उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता और वह सर्वशक्तिमान है।


उम्र की सांध्य-बेला में सिकंदर बीमार हुआ। उसकी चिकित्सा के लिए राज्य के बड़े से बड़े वैद्य-हकीम आए और उन्होंने अपना बेहतर से बेहतर उपचार सिकंदर को दिया, किंतु वह स्वस्थ नहीं हो पाया। उसके मंत्रियों ने दूर देशों के चिकित्सकों को भी बुलवाकर उसका इलाज करवाया, किंतु सिकंदर का मर्ज लाइलाज ही रहा। सभी चिकित्सकों ने कह दिया कि अब वह नहीं बचेगा, किंतु सिकंदर को बचने की आशा थी।



इसलिए उसने अपने सभी खास लोगों को बुलाकर कहा- जैसे भी हो, मेरी जान बचाओ।उन लोगों ने बड़े दुख के साथ सिकंदर से निवेदन किया - बादशाह सलामत! इलाज मर्ज का हो सकता है, मौत का नहीं।यह सुनकर सिकंदर का अहंकार चूर-चूर हो गया। उसने महसूस किया कि उसका यह मानना कि वह दुनिया में सबसे ताकतवर है, कितना मिथ्या था।



उसने अपने वजीर को बुलाकर कहा - मेरा जनाजा निकालते वक्त मेरे दोनों हाथ बाहर कर देना।सिकंदर की मृत्यु के बाद उसकी इस अंतिम इच्छा को पूर्ण किया गया। सार यह है कि जन्म और मृत्यु खाली हाथों के साथ घटते हैं। इसलिए बीच की यात्रा अहंकार, लोभ और द्वेष से परे रहकर विनम्रता, संतोष व प्रेम के साथ पूर्ण करनी चाहिए।



गुरु परहित की पाठशाला होते हैं

संसार  में रहना आना चाहिए बजाय संसार को छोडऩे की जिद के। अभी भी कुछ लोगों को यह गलतफहमी है कि परमात्मा को पाने के लिए संसार छोडऩा पड़ेगा। स्वामी रामसुखदासजी कहा करते थे- जैसे कोई रसोई बनाता है, पर उसे रसोई बनानी नहीं आती, तो रसोई नहीं बनती। अगर उसे रसोई बनानी आती है, पर वह रसोई बनाता ही नहीं, तो भी रसोई नहीं बनती। इसलिए किसी भी कार्य में ज्ञान और कर्म दोनों की आवश्यकता है। 



एक पुराना सिद्धांत है, जैसे ही हम किसी से कुछ चाहते हैं, बस उसी समय हम उसके पराधीन होने लगते हैं। इसलिए अपनी चाहत को नियंत्रण में रखें और दूसरों की चाहत पूरा करने के लिए प्रयासरत रहें। ये दो बातें आने पर संसार में जीने की कला आ जाती है।



दूसरे की चाहत पूरा करने के लिए खुद के भीतर अपना कुछ छोडऩे की हिम्मत जागती है। यह भाव हमारे भीतर जागता है कि हम इस संसार में अपने लिए ही नहीं रह रहे हैं, बल्कि संसार के लिए संसार में हैं। यहीं से संसार द्वारा दिए जाने वाले कष्ट कम हो जाते हैं।

  

दूसरों को कैसे दिया जाता है, यह तरीका सीखना हो तो गुरु से सीखा जाए। गुरु परहित की पाठशाला होते हैं। जब हम किसी गुरु से यह पूछेंगे कि संसार में कैसे रहें? तो वे कोई चमत्कारी आशीर्वाद या मंत्र नहीं देंगे, वे एक विधि देंगे। हो सकता है वह मंत्र भी हो।

  

और यहीं से शिष्य, गुरु-शिष्य के नाते में पारंगत हो जाता है, संसार में रहते हुए परम शक्ति को पाने के लिए। गुरु कृपा से शिष्य ऐसा बर्फीला व्यक्तित्व बन जाता है, जो बाहरी गर्मी से नहीं पिघलता, बल्कि संसार रूपी सागर में बिना पिघले हुए सहज रूप से तैरता रहता है। पानी में रहकर भी पानी से अलग रहना, यही जीने की कला है।



मन पर काबू पाने के लिए अभ्यास जरूरी

दुर्गुणों  का प्रमुख केंद्र मन होता है और यदि मन पर नियंत्रण पाना है तो सतत अभ्यास और वैराग्य जरूरी है। सुंदरकांड में जैसे-जसे रामजी लंका की ओर बढ़ते हैं, घटनाओं के अद्भुत संकेत आने लगते हैं। यह कांड दो भागों में बंटा है।



60 दोहों में से प्रथम 33 दोहों में हनुमानजी की लीला है और फिर हनुमानजी मौन हो गए। बाद के 27 दोहों में श्रीराम का चरित्र है। लेकिन सारी घटनाएं वैसी ही हो रही हैं, जैसी हनुमानजी चाहते थे। आत्मसंयमी व्यक्तियों के संकल्प इसी प्रकार पूरे होते हैं।



श्रीराम का लंका की ओर बढ़ने का अर्थ है दुर्गुणों के विनाश की तैयारी। हमारे जीवन में  भी ऐसा ही घटता है। जब हम अपने दुगरुणों को मिटाने के लिए परमात्मा का सहारा लेते हैं तो दो बातें होती हैं। जैसी कि उस समय लंका में हो रही थीं। पहली तो यह कि लंका दहन की चर्चा राक्षस भयभीत होकर कर रहे थे। यह वैराग्य की घटना है।



लंका के भोग-विलास वाले वातावरण में हनुमानजी ने वैराग्य के माध्यम से ही उसे जलाया था। आज भी हम ऐसे ही वातावरण में जी रहे हैं। सेना का समुद्र तट पर पहुंचने का अर्थ है-अभ्यास, सतत परिश्रम। इसीलिए तुलसीदासजीने लिखा- उहां निसाचर रहहिं संसका। जब तें जारि गयउ कपि लंका।। निज निज गृहं सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।।



यानी जबसे हनुमानजी लंका को जलाकर गए हैं, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षसकुल की रक्षा का कोई उपाय नहीं है। दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी।। यानी दूतियों से नगर निवासियों के वचन सुनकर मंदोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई।


12-12-12  जैसी एकता हो परिवार में
परिवार  में रहने का एक सुंदर तरीका है या तो किसी के हो जाओ या किसी को अपना बना लो। हम सब एक हैंयह हर परिवार का आदर्श वाक्य होना चाहिए और एक होने के लिए खुद को मिटना होता है।

आज कैलेंडर की तिथियों का एक अद्भुत संयोग है कि दिन, माह और वर्ष एक जैसे अंकों में दर्ज हैं। यह समानता परिवार प्रबंधन के लिए भी प्यारा संकेत करती है। रिश्तों में भी जब आज की तारीख जैसी एकता और समानता हो जाए, उस दिन परिवार बैकुंठ हो जाएगा।

दरअसल न तो परिवार एक गुफा है, जिसमें पशु रहते हैं, न कोई बिल है जिसमें से चूहे या सांप निकलते हैं। इसे बागड़ भी न बनाया जाए, जिसमें भेड़ों के झुंड रहते हैं। छत और चारदीवारी होने के बाद भी एक खुला आसमान होना चाहिए। जहां सबकी अपनी उड़ान हो। ऐसी उड़ान जो अहंकार से नहीं प्रेम के पंखों से भरी जाए। इसीलिए भारतीय संस्कृति ने परिवार को कुटुंब नाम दिया है।

यह परमात्मा का प्रसाद है, जिसमें स्वाद भी है और मूल्य भी। इसलिए जब दो पीढ़ियां आमने-सामने हों और सबको आज के कैलेंडर की अद्भुत तारीख जैसा बनाना हो तो एक प्रयोग करें। नई पीढ़ी के लोग अपने बुजुर्गो को वृक्ष मानें। अपने पितरों को बीज समझें और यह मानकर चलें कि वृक्ष के पास देने के लिए केवल फल ही नहीं सहारा, छांव और प्रकृति की शीतलता भी है। इसी प्रकार बड़े-बूढ़े लोग नई पीढ़ी के अपने बच्चों को समझें कि हमारी संतानें हमारे ही वृक्ष का फल हैं। अब कोई वृक्ष अपने फलों से कैसे शिकायत कर सकता है। एक-दूसरे के प्रति इतनी तैयारी पूरे परिवार को एक बना देगी। फिर किसी में कोई भेद नहीं होगा। जैसे 12-12-12 की तारीख।


अपने मैंको नियंत्रण में रखें
मनुष्य  के भीतर का मैंकेवल अहंकार को प्रकट नहीं करता, लोभ को भी जाग़्रत करता है। मैंजितना बलवान होता है, उतनी इस बात की इच्छा भी जाग जाती है कि संसार की बहुत सारी चीजें मुझे मिल जाएं।

संग्रह की भावना यहीं से शुरू होती है। मैंको त्याग में रुचि नहीं होती। मनुष्य के भीतर का मैंरूई में लपेटी हुई आग की तरह है। कभी न कभी यह भड़केगी जरूर और इसमें पूरा व्यक्तित्व झुलस जाता है। मैंबहुत छोटा होता है। जैसे संसार में हम कुछ ही लोगों से गहराई से जुड़े होते हैं। अधिकांश दुनिया से हमारा सीधा संपर्क नहीं है।

कुछ रिश्ते, कुछ मित्र, कुछ परिवार बस इतना ही। इसी कुछ में पूरी दुनिया हमारे भीतर उतर आती है। इन थोड़े-से रिश्तों को ही अगर हम ठीक से समझ लें तो पूरी दुनिया पर विजय पा सकते हैं। भारतीय संस्कृति में दैनिक जीवनशैली के दौरान दो समय ऐसे बताए गए हैं, जब आप अपने मैं’  को आसानी से नियंत्रित कर सकते हैं।

पहला समय वह है, जब हम दिनभर जागने के बाद सोने जा रहे होते हैं। ठीक नींद आने के पहले हमारा मैंलगभग गिरने की स्थिति में होता है। जागे हुए और सोने के बीच एक अल्प समय है। उस समय थोड़ा-सा होश बना लें। नींद के ठीक पहले किसी मंत्र द्वारा उस दिव्य-शक्ति से जुड़ें और फिर सोएं। इसी तरह जब सुबह उठते हैं तो नींद छूट रही होती है और जागना जीवन में आ रहा होता है। इस संधिकाल में न आप पूरी तरह सोए हुए हैं, न जागे हुए।

यहां भी मैंपकड़ में आ सकता है। इस समय भी दिव्य-शक्ति से जुड़े रहें। यह दो समय आपके 24 घंटों को शुद्ध कर जाएंगे।

ध्यान करने से जागता है विवेक
नए  संसार में भौतिक उपलब्धियों के लिए जो संघर्ष करना पड़ता है, उसकी गति बहुत तेज होती है और बुद्धि के स्तर पर भ्रमपूर्ण स्थितियों के बैरियर आते रहते हैं।

महत्वाकांक्षी व्यक्ति अपने ध्यान को अनेक दिशाओं में दौड़ाता है। वह जीवन को खंड-खंड करके देखता है। इसमें एक व्यवसाय का खंड है, दूसरा समाज का, तीसरा परिवार का, फिर मित्रों का और निजी मित्रों का। इन सबमें एक ब्लॉक जीवनसाथी का भी होता है।

एक तरह से जीवन की पूरी व्यवस्था विभाजित कर ली जाती है और इसीलिए आदमी की खोपड़ी एक जगह न टिककर चारों तरफ दौड़ती रहती है। कभी उलझ जाती है तो कभी चलती ही चली जाती है और बुद्धि हमेशा समाधान बाहर से उठाती है। एक बुद्धि को दूसरी से टकराने में मजा भी आता है। उसकी नियति भी यही है।

विचारों का प्रवाह दाएं-बाएं हटकर नहीं बहता। एक विचार का सैलाब दूसरे से टकराने में रुचि रखता है। फिर आधुनिक प्रबंधन इन्हीं से निपटने के तरीके बताता है। कुछ सफल हो जाते हैं, कुछ नहीं हो पाते। जिन्हें सफलता मिल जाए, वे बधाई के पात्र हैं और जो असफल रहें, उन्हें फिर अपनी यात्रा को थोड़ा-सा भीतर मोड़ लेना चाहिए। दुनियादारी से हटते ही पहला काम यह करें कि कोई एक पात्र, स्थिति ऐसी ढूंढ़ लें जिस पर हमें संदेह न हो, पूरा भरोसा रखते हुए इसकी शुरुआत करें।

जैसे ही हम अपने भीतर उतरें, अपने केंद्र पर ध्यान लगाएं और अपनी खूबियों को गहराई से देखें। लेकिन यह काम भीतर उतरने के बाद ही करें। भीतर से ही यथार्थ नजर आएगा। जब हम ध्यान से केंद्रित हो जाते हैं तो यह विवेक जाग जाता है कि किसे पकड़ेंऔर किसे छोड़ें।

अपनी इच्छा को ईश्वर से जोड़ें

ईश्वर  जिन-जिन बातों को लेकर आश्चर्यचकित है, उनमें से एक है आदमी का भीतर और बाहर से अलग-अलग व्यक्तित्व का होना। परमात्मा यह लगातार सोच रहा है कि मैंने इसे यह नहीं सिखाया था, पर यह इंसान कहां से सीख गया; मन, वचन और कर्म में भेद करना। इंसान सोचता कुछ और है, बोलता कुछ और है और करते समय कुछ और ही हो जाता है। देखा जाता है कि जो लोग विचारों से पवित्र हैं, वे कर्म से दूषित हैं। उनमें हिम्मत ही नहीं है कि सद्विचारों का क्रियान्वयन भी कर सकें।




अगर ऐसे लोग तटस्थ हैं तो भी यह कर्मदोष है। कुछ लोग विचारों से अपवित्र हैं तो कर्म बहुत अच्छा कर रहे हैं, ऐसा दर्शाने का प्रयास करते हैं। उनका आचरण देखकर लगता है कि इनके जैसा सिद्ध, सभ्य और भला व्यक्ति दूसरा नहीं होगा। लेकिन उनके भीतर हर वह बुराई चल रही होती है, जो मनुष्य समाज ने पशुओं के नाम जड़ रखी है।




मन, वचन और कर्म में भेद कराने का काम इच्छा करती है। यह भी समझ लें कि इच्छा होती क्या है। यदि हमें संसार की चीजें पाना हो तो कर्म करना पड़ेगा। कर्मो और सांसारिक पदार्थो का गहरा संबंध है। बिना उसके वे नहीं मिलते। शुरुआत भले ही इच्छा से हो, पर प्राप्ति कर्म से ही होगी। लेकिन यदि परमात्मा को पाना हो तो इच्छा काफी है। एक उत्कट अभिलाषा उसको दिया जाने वाला आमंत्रण है।



जीवन में इच्छा जब परमात्मा से जुड़ जाए तो वह सांसारिक मामलों में मन, वचन और कर्म का भेद खत्म करा देगी। इसलिए इच्छा को ईश्वर से जोड़ें और सांसारिक पदार्थो को कर्म से। इतना हमारे भीतर आते ही परमात्मा को अपनी कृति इंसान के प्रति संतोष होने लगेगा।



शब्दों के भीतरी अर्थ को समझें
जीवन  में कई महत्वपूर्ण शब्द हमें दूसरों से ही मिलते हैं। यदि इनके पीछे का अर्थ हम ठीक से पकड़ और समझ लें तो यह भविष्यवाणी की तरह साबित हो जाते हैं। कई बार तो इन शब्दों में जीवन-मृत्यु तक के संकेत होते हैं।

तुलसीदासजी मनोवैज्ञानिक ऋषि थे। सुंदरकांड में उन्होंने रावण की चूक का एक जगह सुंदर प्रसंग के साथ वर्णन किया है। रावण की पत्नी मंदोदरी हनुमानजी के जाने के बाद अपने पति को समझा रही थी। रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी।। कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियं धरहू।।

मंदोदरी एकांत में हाथ जोड़कर पति रावण के चरण लगी और नीति रस में पगी हुई वाणी बोली- हे प्रियतम! श्रीहरि से विरोध छोड़ दीजिए। मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए। यहां मंदोदरी के व्यवहार में दो बातें आ रही थीं - विनम्रता और नीति। उसे इसका अनुभव रावण के दरबार में हनुमानजी के वार्तालाप से हुआ था। हनुमानजी ने इसी शैली में रावण को समझाया था। रावण तब भी नहीं समझा था और अब मंदोदरी के सामने भी मान नहीं रहा था।

तुलसीदासजी यही समझा रहे हैं कि विश्वविजेता सम्राट होकर भी रावण मूर्खता कर रहा था। जबकि सफल राजा शब्दों के सुनने व कहने के मामले में स्वयं को रहस्यमय रखते हैं। वे अपनी चुप्पी से सामने वाले के मुंह से बड़ी-बड़ी बातें उगलवा लेते हैं। हमारा मौन हमें मदद करेगा कि सुने जा रहे शब्द के भीतर के अर्थ को समझ लें। रावण चूक रहा था मंदोदरी के अर्थपूर्ण शब्दों को पकड़ने में। कई बार हमारे भीतर का रावण हमसे यही भूल करा जाता है।


तन-मन दोनों के लिए करें विश्राम

कई  लोग चलने से पहले थक जाते हैं, सोने से पहले सपने देखने लगते हैं, बोलने से पहले बोल जाते हैं और मारने से पहले ही मर जाते हैं। जो पूरी तरह भौतिकता में जीते हैं, उनकी जिंदगी इसी प्रकार की हो जाती है। जबकि जिंदगी हर गतिविधि के साथ विश्राम की भी घोषणा करती है। एक विश्राम होता है जो शरीर को फिर से सक्रिय होने के लिए तैयार करता है। दुनिया में ज्यादातर लोग ऐसा ही विश्राम करते हैं। लेकिन बहुत कम लोग होते हैं, जो शरीर से हटकर मन के लिए विश्राम करते हैं।




गुजरात के संत नरसिंह मेहता उन्हीं में से एक थे। गांधीजी ने इन्हीं की पंक्तियों को खूब गाया और जीया है। श्रीकृष्ण के प्रति इनकी आस्था का परिणाम नानीबाई का मायरा, पिता पक्ष की ओर से बेटी को दिया जाने वाला दहेज की खूब प्रस्तुतियां देशभर में होती हैं। लेकिन नरसिंह मेहता का जीवन परमात्मा के प्रति भरोसे की पराकाष्ठा का प्रतीक है। ऐसे संत हमें आश्वासन दे जाते हैं कि कोई ईश्वरीय शक्ति होती है और हमारे भीतर पात्रता आते ही वह जीवन में आती ही है।



इस दिव्य शक्ति का ज्ञान केवल शिक्षा से नहीं हो सकता। आज के पढ़े-लिखे लोग न तो इसे समझ पाते हैं और न ही स्वीकार कर पाते हैं। शिक्षित व्यक्ति प्रभु कृपा को तर्क से स्वीकार करे इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन विश्राम से नियंत्रित मन बुद्धि को भ्रम में नहीं डालता है, बल्कि मन के अभाव में बुद्धि सही रूप से बातों को समझ लेती है। इसी कारण नरसिंह मेहता बुद्धिमान होते हुए भी भक्त थे। मन और बुद्धि का यह कॉम्बिनेशन आज के युग में बड़ा जरूरी है।




नजदीकी में भी रह जाता है परायापन
अपना और पराया होना या मानना संसार की रीति है। रिश्तों और स्वार्थ के कारण यह भाव सभी में आ जाता है। आप किसी को कितना ही निकट ले आएं या स्वयं  को उसके बहुत करीब रख दें, फिर भी एक परायापन मौजूद रह ही जाता है।

दूर से बहुत पास-पास दिखने वाले लोग भी कहीं न कहीं पराए से हैं। संसार में अपनापन लिए जितने भी रिश्ते हैं, उनमें भी दूरी बनी ही रहती है। बहुत कम लोग जान पाते हैं कि इस दूरी का कारण होता है मन।

हरेक मन एक पूरा संसार होता है। इसीलिए बाहर से बहुत निकट नजर आ रहे लोग भी भीतर अपना-अपना संसार लिए चल रहे होते हैं। हां, एक स्थिति है, जो इस पराएपन को मिटा देती है। मां बनने पर यह दूरी मिट जाती है।

संतान के लिए मां की निकटता सदैव निर्दोष है। स्त्री-पुरुष की प्रगति के समानता वाले इस युग में एक खतरे से बचना होगा। औरत आदमी के बराबर हो या आगे निकल जाए; स्वागत और सम्मानयोग्य स्थिति होनी चाहिए।

लेकिन स्त्रियों को एक तैयारी और सावधानी सदैव रखनी होगी कि कहीं उनके भीतर की मां न मर जाए। मां बनने से ज्यादा मां बने रहना जरूरी है। आज शिक्षा का प्रभाव मनुष्य के मस्तिष्क की भीतरी स्थितियों को समाप्त कर रहा है।

उनमें से एक है मां होने की संवेदना। इसकी सावधानी रखनी होगी कि शिक्षा और प्रगति की चाह मां के सृजन वाले भाव को पोषित करे, दूषित न करे।

अन्य उद्देश्यों की पूर्ति की दौड़ में कहीं ये चरम लक्ष्य-'मां' दम न तोड़ जाए। मातृत्व का भाव न सिर्फ परिवार, बल्कि समूचे विश्व को पराएपन से दूर कर अपनेपन में डुबो देगा।


अपने भीतर जगाएं समर्पण का भाव

सक्षम व्यक्ति को भी संघर्ष करना पड़ता है। पहले सुनने में आता था कि संघर्ष का परिणाम सफलता है। परंतु अब तो लगता है कि ख्याति के बोनस में संघर्ष मिल जाता है।



छोटे का संघर्ष इस बात का है कि बड़ा कैसे बने। बड़े का संघर्ष इसलिए है कि बड़ा ही बना रहे। सफल, ख्यात और सक्षम लोगों को भी संघर्ष करता देख, तनाव में ग्रस्त पाकर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर संघर्ष है क्यों? संघर्ष बना रहे पर तनाव चला जाए, संघर्ष होता रहे पर शांति बनी रहे, ऐसा कैसे हो? इसका एक बड़ा कारण है कि मनुष्य का चिंतन, चरित्र और व्यवहार बिखर गया है।



दूसरे शब्दों में कहें तो मन, वचन और कर्म में एकरूपता नहीं बच पाई है। इन तीनों की समानता में संघर्ष के साथ शांति समाई है। जो सोचा जा रहा है, वही कहा और किया जाए तो तनाव और अशांति को पैदा होने का अवसर ही नहीं मिल पाएगा।



ख्यात हो या सामान्य, दोनों को भीतरी उन्माद ने अशांत बना दिया है। चलिए एक प्रयोग करें, संघर्ष के साथ एक स्थिति को जोड़ दें, और वह है समर्पण की। जीवन में मेरी मर्जी का भाव जितना ज्यादा होगा, संघर्ष में अशांति उतनी अधिक होगी। समर्पण का अर्थ है उस दिव्यशक्ति की मर्जी, जो पूरे संसार को संचालित कर रही है। एक विराट है, हमसे अलग है और हम करेंगे खुद पर उसकी मर्जी मानकर। करना हमें ही है, पर कोई करा रहा है, इस भाव को समर्पण कहेंगे।



समर्पण का भाव आते ही हम एकदम से हल्के हो जाते हैं। लगता है हमारा वजन कोई और उठा रहा है। संघर्ष अब भी रहेगा, लेकिन तनावरहित। संभवत: बिना पंख की उड़ान इसी को कहेंगे।


परमात्मा को बनाएं अपना पार्टनर
कुछ  काम अकेले हो ही नहीं सकते। सहयोगी की जरूरत पड़ती ही है। सहयोग जब महत्वपूर्ण हो जाए तो पार्टनरशिप शुरू हो जाती है। लोग व्यवसाय में भागीदारी इसलिए करते हैं कि योग्यता, परिश्रम व धन का बंटवारा एक-दूसरे को लाभ पहुंचा सके।

यह सारा मामला विश्वास पर टिका होता है। संदेह को संयम में रहकर भरोसे का आवरण ओढ़कर फायदे-नुकसान की मजबूरी से कई लोग जिंदगीभर पार्टनरशिप में धंधा कर जाते हैं। परिवारों में रिश्ते प्रेम में भले ही न बदलें, पर पार्टनरशिप में जरूर तब्दील होते देखे गए। जिंदगी के मामले में सबसे महत्वपूर्ण है लाइफ पार्टनर।

जीवनसाथी का चयन भले ही सौदे की तरह शुरू हो, लेकिन सौदे के साथ इसे जीवन भर चला नहीं सकते। यह पार्टनरशिप एक-दूसरे के आंतरिक सौंदर्य व विशिष्ट गुणों के साथ जीने पर टिकी है। लेकिन यहां भी संदेह और अहंकार होने के कारण यह रिश्ता भी अपनी विश्वसनीयता खो रहा है। जीवन में पार्टनरशिप करनी ही पड़ती है। इसलिए एक पार्टनरशिप ऐसी की जाए, जहां संदेह, विश्वासघात का मौका ही न रहे। यदि गड़बड़ की संभावना रहे तो हमारी ही ओर से होगी, सामने वाले की ओर से सदैव विश्वास, कृपा ही मिलेगी। यह पार्टनरशिप रहेगी हमारे और परमात्मा के बीच। भगवान को अपना पार्टनर बनाना चाहिए, जीवन के हर क्षेत्र में इनकी भागीदारी फायदे और भरोसेमंद ही रहेगी।

परमात्मा हमारा पार्टनर बनकर बाहर के अंधकार से हमें बचाएगा तथा भीतर के दीये की लौ को भी नहीं बुझने देगा। हमारी सेवा के हिस्से से ज्यादा उसकी नियामत और रहमत की हिस्सेदारी होगी। एक बार ऐसा भी आजमाकर देख लें।


त्याग और आत्मीयता सिखाता है दांपत्य
किसी  भी जीवनशैली की सबसे ऊंची स्थिति है फकीराना अंदाज। हर धर्म के पास ऐसे फकीर-मिजाज लोग रहे हैं। बल्कि इस संत वृत्ति ने ही कुछ धर्मों को बचाकर रखा है। भारत ने इस प्रवृत्ति को सुंदर प्रबंधकीय तरीके से जोड़कर एक नाम दिया है, वह है संन्यास। तीन तरीके से यहां पहुंचा गया है। पहला, ब्रह्मचारी रहते हुए लोगों ने सीधे संन्यास में छलांग लगा दी।

दूसरे वे हैं, जो गृहस्थ रहे और परिस्थितिवश गृहस्थी से मुक्त होकर संन्यासी बन गए। तीसरी स्थिति यह है कि गृहस्थी में हैं और यहां रहकर संन्यासी की तरह जी रहे हैं। एक चौथा वर्ग ऐसा भी है, जो नाम को कहला तो संन्यासी रहे हैं, लेकिन वस्त्रों के पीछे, आवरण के नीचे पूरी तरह से दुनियादारी में उलझे हैं। संन्यास का एक और अर्थ है कि मनुष्य पूरी तरह पशुत्व से देवत्व की ओर चला जाए। भारत ने इसके लिए एक और सुंदर व्यवस्था दी है। वैवाहिक जीवन, इसमें रहकर मनुष्य त्याग और आत्मीयता का पाठ पढ़ता है।

स्त्री-पुरुष जब गृहस्थी बसाते हैं, तब संतान भी पैदा करते हैं। जीवन में संतान आते ही त्याग, प्रेम, साहचर्य के सही अर्थ समझ में आने लगते हैं। माता-पिता बनने के बाद आत्म विलीकरण जैसी स्थिति समझ में आने लगती है। जिन्हें सीधे छलांग लगाकर संन्यास जैसी स्थिति का अवसर न मिला हो, वे गृहस्थी से गुजरकर इसका लाभ उठाएं। विरक्ति और योग की लक्ष्मण-रेखा दांपत्य जीवन में सरलता से देखी जा सकती है। आकांक्षाएं कैसे सत् की ओर मोड़ी जाएं, यहां समझ में आएगा। लहरों पर रहते हुए उसकी उमंग तथा समुद्र की गहराई का स्पर्श दोनों गृहस्थी में हैं और फिर संन्यास अपनाना अलग ही आनंद का विषय होगा।


पाने की ललक हो तो मिलेगा परमात्मा
हमें  इस बात के प्रति जागरूक रहना चाहिए कि हमारे पास कितनी स्मरणशक्ति है। विज्ञान ने शरीर को सुख-सुविधा व रक्षा भले ही दी है, लेकिन कुछ नैसर्गिक क्षमताओं को समाप्त भी कर दिया। साथ ही मनुष्य की चिंतन व स्मरण शक्ति भी कुंद कर दी।

सुंदरकांड में रावण इसी विज्ञान की मार का शिकार हुआ। रावण और हनुमानजी दोनों विज्ञान के जानकार थे। मंदोदरी ने जब अपने पति रावण को समझाया तो उसकी प्रतिक्रिया बड़ी विकृत थी। यथा- श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी।। सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुं भय मन अति काचा।।

यानी, अभिमानी रावण मंदोदरी की वाणी सुनकर खूब हंसा और बोला- स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत डरपोक होता है। मंगल में भी भय करती हो! तुम्हारा मन बहुत कमजोर है। यहां रावण ने पूरी नारी जाति पर प्रतिकूल टिप्पणी कर दी। हर कामयाब आदमी की स्मरणशक्ति इतनी कमजोर हो जाती है कि वह भूल जाता है कि जिन लोगों ने उसे चरम पर पहुंचाया है, उन्हें यूं अपमानित न किया जाए। आंतरिक रूप से तीन काम होते हैं, तब मैमोरी काम करती है।

पहले तो हम ज्ञान ग्रहण करते हैं, दूसरा उसे अपने अंतस में रखते हैं और फिर उसे मन के सामने लाते हैं। रावण यही गलती कर गया। ईसा मसीह के अनुसार जिसके पास है उसे दिया जाएगा और जिसके पास नहीं है, उससे वह छीन लिया जाएगा। यह उलटबासी है। जिसके भीतर परमात्मा को पाने की ललक है उसे परमात्मा मिलेगा और जिसके पास नहीं है, उससे वह छीन लिया जाएगा, जो रुकावट है परमशक्ति तक पहुंचने में। रावण जैसे लोगों से इसीलिए इसे छीन लिया जाता है।

दूसरों के केवल गुण ही देखिए
सुख चाहने वाले लोगों को सुख के बारे में एक गहरी बात हृदय में उतारनी होगी। हम सुख को जितना चाहेंगे, सुख हमसे उतना दूर भागेगा। चाहत और सुख एक-दूसरे के विपरीत हैं। इसे पाने के प्रयास में ही हमने इसे अधिक खोया है। जो पहले से ही है, उसे हम पाने का प्रयास करते हैं, यह गलत है।

जैसे शरीर में आंख, कान, हाथ, पैर आदि जब पहले से ही हैं तो इन्हें और क्या, कैसे पाया जा सकेगा? इनका उपयोग हो सकता है। ऐसे ही सुख हमारा स्वभाव है। हर मनुष्य के लिए आसान नहीं है कि वह स्वयं के स्वभाव पर केंद्रित हो जाए, दूसरों पर न टिके। घर-परिवार, दुनियादारी में दूसरों पर टिकना ही पड़ता है। तब एक प्रयोग करते रहिए।

दूसरों पर टिकने का अवसर आए या मजबूरी हो जाए तो उनके सिर्फ गुण ही देखिए। इस विचार को मन में रखिए कि हमारे आसपास के लोग बड़े उपकारी, सेवाभावी, प्रसन्न मन, निर्दोष और स्वर्गीय प्रकृति के हैं। दूसरों में से चुन-चुनकर गुण उठाइए।

भीतर जब दूसरों के अवगुणों का चिंतन शुरू हो तो उसे तत्काल विराम दें। इससे हमारी आंतरिक मलिनता दूर होगी। दूसरे के भीतर का अच्छा सोचते-सोचते अचानक वह खूबियां हमारे भीतर भी आने लगती हैं। यह एक प्रकार का विचार संक्रमण है, जो हममें सकारात्मक बदलाव लाता है।

प्रज्ज्वलित दीपक की समीपता और साहचर्य हमारे अंतरदीप के भी प्रकाशित होने की संभावना को प्रबल करेगा। यहीं से हमें अपने स्वभाव पर लौटने में सुविधा मिलेगी, हमारा वास्तविक सुख क्या है, यह हम जान जाएंगे। यह आवागमन देखते ही देखते एक दिन आनंद में बदल जाएगा।


भीतर की आस्तिकता को जीवित रखें
मनुष्य के मन में निराशा और चिंताजनक लहरें उठना स्वाभाविक हैं। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय अव्यवस्था के दृश्य कभी-कभी हताश कर जाते हैं। क्या होगा भविष्य में? क्या ऐसे ही चलता रहेगा? जैसे प्रश्न अच्छे-अच्छों को बीमार बना देते हैं। इस तरह का लगातार चिंतन मनुष्य को या तो तटस्थ बना देता है, निष्ठुर कर देता है या फिर वह गलत करने पर मजबूर हो जाता है; अनुचित में अनचाही भागीदारी के लिए। ऐसे समय आस्तिकता बहुत काम आती है। आस्तिक होने का अर्थ है अपने अतिरिक्त कोई परमशक्ति है, उस पर भरोसा करना। सृजन का देवता और उसकी शक्तियां निष्क्रिय नहीं हैं। उसने मरने वालों से ज्यादा संख्या जन्म लेने वालों की बना रखी है। इंसानियत जब करवट लेती है तो देवमानव संसार में आते हैं। उनका देव प्रवाह इस वातावरण को फिर शुरू करेगा। आवेश की ऋतु एक ऐसी भी आएगी, जब सत्य सम्मान के साथ सर्वस्वीकृत होगा। अपने भीतर की आस्तिकता को जीवित रखें और योग्य गुरु का सान्निध्य खोज लें। निराश वातावरण में आशा की किरण जिस विचार से आती है, उसके पांच चरण होते हैं। पहले चरण में हम आंतरिक चित्त में विचार शुरू करते हैं। दूसरे में वह धुंधला-सा हमें दिखता है। तीसरे में हम उसी विचार को भीतर बोलने लगते हैं। चौथे चरण में भीतर बोला जा रहा बाहर प्रकट हो जाता है। पांचवां चरण होता है जो बोल दिया गया है, उसकी प्रतिक्रिया को सुना जाना। आस्तिकता से भरे लोगों के पहले चरण में ही यदि गुरु जीवन में है तो वह वहीं से विचार को पकड़ लेता है और पांचवें चरण पर असर दिखा देता है। इसलिए हम आशान्वित रहें कि भविष्य में शुभ जरूर आएगा।


बीता साल असफलताओं की सीख हो

समय जब बदलता है तो वह अपने साथ हमें एक घटना से दूसरी घटना में ले चलता है। हम पिछली और बदली घटनाओं में इतने रम जाते हैं कि समय को भूल ही जाते हैं।



हम जीवन में जो पाना चाहते हैं, उसमें स्वयं की और दूसरों की भूमिका पर ही ध्यान देते हैं। जबकि वक्त भी इसमें अपना पूरा दखल रखता है। भारत की संस्कृति ने समय को परमात्मा से जोड़कर बड़ा मान दिया है। समय को यदि किसी ने पार किया है तो वह है मनुष्य का मन। इसकी गति समय से ज्यादा तेज है। यदि हम इसको रोकने की कला सीख जाएं तो समय में से जीवन को समझ पाएंगे और जीवन को जी भी लेंगे।



अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक आज की शाम वह संधिकाल है, जहां से विदाई और स्वागत का समय गुजरेगा। विदाई में भारीपन न हो और स्वागत में उथलापन न रहे। स्वागत में सात्विकता उसका गहना है। पर कहीं-कहीं तो भारत में लगता है कि नया वर्ष शराब की नालियों में ही बहकर आएगा।


मनुष्य के शरीर के भद्दे नाच-गानों से धक्का खाकर ही पुराना साल जाएगा और नया आएगा। क्या यह पूरी तरह से ठीक है? होना यह चाहिए कि बीता साल असफलताओं की सीख हो और नए साल में सफलता की खोज की तैयारी रहे। हनुमान सफलता का प्रतीक हैं। उनका सुंदरकांड, नए समय के स्वागत का सही संदेश है।
यह संधिकाल में कुछ समय अपने अंतर्मन में रुकने के प्रयोग का समय रहेगा। अपनी ही गहराई में डुबकी लगाने के बाद नव-वर्ष के लिए हम तरोताजा होंगे।


रिश्तों में लगाएं दोस्तीका तड़का
संसार में बाहर से पकड़ने की समझ आ जाए तो भी काम चल जाता है। यहां के रिश्ते भी ऊपरी होते हैं और वैसे ही निभाए जाते हैं। संसार में रहकर हम पूरी उम्र सतह पर गुजार सकते हैं। लेकिन यह तरीका परिवार में नहीं चलता।

गृहस्थी में तो गहराई ही उसकी सतह है। यहां जीवन अलग-अलग मिजाज के लोगों के साथ बिताना है। यहां आप बड़े हैं तो हर बार हुक्म नहीं चला सकते। छोटे हैं तो बार-बार कहना भी नहीं मान पाएंगे। रिश्तों की, पद की अदला-बदली परिवार में चलती ही रहती है।

परिवार के सदस्यों से जो भी आपके रिश्ते हों, उसमें दोस्ती का तड़का जरूर लगाएं। बाप-बेटे हों, पति-पत्नी हों, भाई-भाई या भाई-बहन हों, यारी का मिजाज फायदा ही पहुंचाएगा। मित्रता वह तीर है, जो बिना चुभे आपको अपने ऊपर बैठाकर दूसरे के भीतर उतार देता है। घर-परिवार में इससे खुलेपन का माहौल बनेगा। भीतर भेद रखकर घर में जीना पाप ही है।

पारदर्शिता परिवार में प्रेम के लिए खाद-बीज की तरह है। रिश्तों का सौंदर्य ऊपर कम नजर आता है। परत हटाकर भीतर झांकना पड़ेगा। जैसे मनुष्य के शरीर को लेकर सामान्यत: यह माना जाता है कि कुरूप देह वाले भीतर से सुंदर होते हैं और सुंदर शरीर वाले भीतर से कर्कश हो सकते हैं। कुरूपता सद्व्यवहार से भरपाई कर देती है। सौंदर्य गुमान के कारण सरलता खो देता है। इसलिए रिश्तों में झांकना उसे मजबूत करने की पायदान है। हर धर्म में पूजा की एक पद्धति है।

उसमें परत-दर-परत क्रिया की जाती है। जब परिवारों में धार्मिक माहौल होता है, तो सदस्य उसी शैली में अन्य सदस्यों से व्यवहार करते हैं। परत-दर-परत खोलने पर रिश्तेदारी मजबूत होती जाती है।

अपने दुगरुणों को दूर करते रहें
जैसे भौतिक दुनिया में हमें अपने शत्रुओं और प्रतिद्वंद्वियों का परिचय रहता है, उनसे खतरे का आभास होता है, उसी तरह आध्यात्मिक संसार में हमें दुर्गुणों से सावधान रहना होगा। जागरूक लोग दुगरुणों को प्रतिदिन मिटाते रहते हैं।

इनके सफाये के लिए वे लगातार सावधान रहते हैं। दुगरुणों पर जरा भी भरोसा न रखें। इन्हें पूरा साफ करें। दुगरुणों के छोटे से छोटे अवशेष भी चिंगारी हैं। इन्हें आग बनने में देर नहीं लगेगी। इन्हें सुविधा यह है कि इनके लिए प्रवेशद्वार खूब हैं। ये तयशुदा रास्ते से अपनी यात्रा पूरी नहीं करते।

कई बार तो मनुष्य को पता ही नहीं चल पाता और ये सद्गुणों की आड़ में ही प्रवेश कर जाते हैं। आक्रमण करने के लिए वक्त का इंतजार करना भी इन्हें बहुत अच्छे से आता है। जब हम अपने सद्कर्मो से, सदाचरण से ऊपर चढ़ रहे होते हैं, तब ये हमें पीछे घसीटने में कमी नहीं छोड़ते।

एकांत इनकी कर्मस्थली होती है। बड़े-बड़े संयमी एकांत में इनकी मार से धराशायी हो गए। पहाड़ी पर चढ़ रही या उतरने वाली गाड़ी के सारे कलपुर्जे ठीक होना बहुत जरूरी है, समतल जमीन पर तो गड़बड़ी होने से एक बार बचा जा सकता है। दुर्गुणों के साथ जीवन पहाड़ी यात्रा जैसा है। इस दौरान इनके पास नुकसान करने के अवसर ज्यादा होते हैं।

इनसे निपटा कैसे जाए? ये संत और भगवंत की उपस्थिति में बेचैन और बाद में निष्क्रिय हो जाते हैं। गुरु इनके लिए बैरियर बन जाते हैं। गुरु के पास एक कला होती है गुरुमंत्र की। उसके कारण हम जीवन को  स्थितियों से समरस बना लेते हैं। हम प्रतिपल एक परमशक्ति से जुड़ जाते हैं और एक वर्जित क्षेत्र हमारे आसपास बन जाता है, जहां दुगरुण हमें देख तो सकते हैं पर निकट आ नहीं सकते।

शत्रुता का त्याग स्थितियां अनुकूल करेगा
एक उम्र के बाद, एक ओहदे के बाद और एक दौर के बाद जीवन में इस बात की फिक्र छोड़ दें कि कोई आपका दुश्मन है। अपने विचारों को वहां से हटा लें, जहां हम सोचते हैं कि ऐसा करने से कोई मेरा शत्रु बन जाएगा।

शत्रु और शत्रुता का भाव खत्म होते ही मित्रता जन्म ले लेती है। अभी हमारे जीवन में ज्यादातर उठापटक शत्रु-मित्र भाव के कारण रहती है। कवियों और शायरों को उनके सृजन के दौरान कभी बारीकी से देखिए। शब्द से अर्थ, पंक्ति से पंक्ति, छंद से छंद मिलाने में कितनी मेहनत करते हैं।

कुछ समय के लिए अपने जीवन के स्वयं ही कवि हो जाएं। शायरी के अंदाज में  जिंदगी की इबारत लिखें। तब हर गतिविधि लयबद्ध होगी। प्रकृति की हर घटना में लयबद्धता होती है। इस तरह हमें भी उस सर्वशक्तिमान की प्रकृति का हिस्सा बनने में सुविधा होगी। जब हम उसका हिस्सा बनते हैं, तो हमें इच्छा-अनिच्छा और स्वेच्छा का अंतर समझ में आने लगता है।

अनिच्छा हो तो शत्रु पैदा होंगे ही। इच्छा में अहंकार निहित है, लेकिन इच्छा जब सात्विक हो, स्व से जुड़ी हो तो स्वेच्छा। स्वयानी स्वयं का केंद्र, जहां परमात्मा बैठा है। अत: स्वेच्छा का अर्थ निरंकुशता नहीं, परमात्मा की स्वीकृति वाला कृत्य है।

यहीं पवित्रता आएगी और पवित्र व्यक्ति शत्रु नहीं पालता। वह शत्रु को जीतकर अजातशत्रु नहीं होता, बल्कि उसका कोई शत्रु नहीं होता, इसलिए अजातशत्रु होता है। जीवन के एक दौर में अजातशत्रु बन जाइए, यहीं से अशांति का विसर्जन हो जाएगा। हालात के प्रति संघर्ष और शत्रुता को त्याग दें। शत्रुता का पूर्ण त्याग इंसानों और स्थितियों दोनों को आपके अनुकूल बना देगा।

सांप-सीढ़ी की तरह है संतान को पालना
सभी अपनी संतानों को योग्य बनाना चाहते हैं। इसके लिए माता-पिता को बच्चों को रत्न की तरह तराशने की कला आनी चाहिए। आसपास के पत्थर हटाने आने चाहिए। खदान के पत्थर रत्न को छिपाए बैठे हैं। पत्थर हटे, रत्न निकला। लेकिन रत्न हाथ लग जाना ही काफी नहीं, उसकी कीमत तराशे जाने के बाद है। बाल मन तो मुठ्ठी भरना जानता है और युवा हृदय बांहों में समेटने को बेताब रहता है। ऐसे में वे सिर्फ  रुचि देखते हैं, अच्छाई या बुराई से उनको कोई लेना-देना नहीं रहता। दूसरों की राय इन्हें रुकावट लगती है। ऐसे में इनके जीवन में सावधानी से प्रवेश करना होगा। बेहद धैर्य और आत्मीयता की क्षमता से संपन्न माता-पिता ही अपनी संतानों के जीवन में दखल रख पाएंगे।

अधिकार, हक और पद को लेकर चले तो निराशा ही हाथ लगेगी। बचपन उतना सरल रहा नहीं; जवानी और रहस्यमयी हो गई, ऐसे में ये इनकी गुफाओं में हमें और भटका देंगे। संतान का लालन-पालन सांप-सीढ़ी के खेल की तरह है। इसमें बच्चों को माता-पिता कभी सीढ़ी नजर आते हैं तो कभी सांप। ऐसे ही बच्चे भी मां-बाप की नजर में हो जाते हैं। आजकल देखा जा रहा है कि बच्चों को पालने में मां-बाप थके जा रहे हैं। मध्य आयु के अधिकांश माता-पिता की बीमारियों का कारण और केंद्र उनके बच्चे बन गए हैं। अनेक बार वे उदास, हताश और थके हुए नजर आते हैं। पहली बात तो यह कि लालन-पालन की यह यात्रा कभी बंद न करें और थकान आए तो थोड़ा आराम कर लें और फिर चल पड़ें। शायद ऐसा दौर आएगा कि इस नई पीढ़ी को उनके जन्म से और आपके अंत तक आपको पालना-पोसना पड़ेगा।

जोश को अध्यात्म का होश जरूरी
संसार में रहते हुए कुछ व्यावहारिक नियम-कायदे और कानूनों का पालन करना पड़ता है। समाज में उसके संविधान के अनुसार जीना पड़ता है। यहां भावावेश से काम नहीं चलता। लेकिन अध्यात्म जगत में नियम बहुत बंधे हुए नहीं होते।

यहां का सारा मामला चलता है जागरूकता और होश से। कभी-कभी सिद्धांत और नीतियां यहां काम नहीं आतीं। यहां बोध की प्रमुखता है। सिद्धांत बाहर से आते हैं, बोध भीतर से आता है। बाहर कामयाब होने के लिए जोश की जरूरत होती है और जैसे ही हम अध्यात्म से जुड़ते हैं, जोश के साथ होश भी काम करने लगता है।

संसार में जिसे जोश कहा जाता है, अध्यात्म में उसकी बड़ी सावधानी से परिभाषा की गई है। हर इंसान के भीतर एक भाव तत्व होता है। जब इसका संतुलन बिगड़ता है तब आदमी जोश में काम करने लगता है। भाव तत्व संतुलित रहें तो मनुष्य सरल, सहज और सरस होता है। इसे ही होश कहेंगे। इसके असंतुलित होते ही जोश होता है, वह बिना होश का होता है।

एक तरह से यूं समझ लें कि जो लोग अपनी शक्ति को संतुलित रखकर संभाल नहीं पाते, उनकी शक्ति ऐसे जोश में बदल जाती है और फिर किए हुए काम पर उन्हें पछताना पड़ता है। जिनका भावावेश संतुलित होता है, उनका मनोबल बढ़ा हुआ रहता है।

जब किसी को बुखार आता है तो उसका शरीर गर्म हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि शरीर की गर्मी बाहर निकल रही है, बल्कि सही अर्थ यह है कि शरीर की गर्मी असंतुलित हो गई है। स्वस्थ व्यक्ति की गर्मी भीतर रहकर स्वास्थ्य को संतुलित बनाती है। ऐसे ही असंतुलित भाव, भावावेश बन जाता है। इसलिए संसार के जोश को अध्यात्म का होश जरूरी है।


बात में हो दिल-दिमाग का संतुलन
कुछ समझना हो तो दिमाग का उपयोग करना पड़ता है, सुनना हो तो कान लगाने पड़ते हैं और देखने के लिए आंखों से काम लेना पड़ता है। लेकिन समाज में कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं, जहां इन तीनों के अभाव में काम लेना पड़ता है और वह है दिल से काम लेना।

कुछ लोगों की बातें दिल से ही समझ में आएंगी, क्योंकि ऐसे लोग दिल से ही कहते हैं। लेकिन यदि कहने वाला भी केवल दिमाग से काम करे तो भी सामने वाले का नुकसान होगा। रावण के साथ भी यही होने जा रहा था। हनुमानजी के लंका से जाने के बाद रावण की पत्नी मंदोदरी ने उसे खूब समझाया था कि श्रीराम समुद्र तट पर पहुंच चुके हैं।

रावण ने न तो मंदोदरी की बात ठीक से सुनी और न ही इस सूचना पर ध्यान दिया, बल्कि जब वह अपनी सभा में आकर बैठा तो उसके मंत्रियों ने इस सूचना पर रावण को हंसते हुए कहा था, आपने देवताओं को जीत लिया, अब मनुष्य की क्या औकात।

तुलसीदासजी ने पंक्ति लिखी है - सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।। मंत्री, वैद्य और गुरु ये तीनों यदि भय या लाभ की आशा से हित की बात न कहकर प्रिय बोलते हैं; तो क्रमश: राज्य, शरीर और धर्म- तीनों का शीघ्र ही नाश हो जाता है। तुलसीदासजी कह रहे हैं- अपने सचिव यानी सलाहकार, वैद्य मतलब डॉक्टर और गुरु इन तीनों को केवल दिमाग से नहीं बोलना चाहिए। इन्हें दिल को जोड़कर अपनी बात रखनी चाहिए।

आदमी जब अपने निर्णय से थक जाता है, तब वह इनका सहारा लेता है। इसलिए दोनों ही पक्षों को चाहिए कि दिल-दिमाग के संतुलन के साथ हितकारी बात कहें और सुनें।


मौन से सधता है हमारा मन

यह बाजार में वस्तुओं और हमारे शरीर में बीमारियों का युग है। जेब में पैसा हो तो बाजार आपका। इसी तरह यदि शरीर स्वस्थ हो तो जीवन आपका है, वरना अस्वस्थ शरीर दूसरों का होकर रह जाएगा।



कभी यह डॉक्टरों के हवाले होगा, तो कभी देख-रेख करने वालों के। चलिए आज थोड़ी बात करें बीमारी से हमारे रिश्ते की। जीवन में जैसे ही बीमारी आए, पहला काम यह करें कि तुरंत अपने व्यक्तित्व के तीन हिस्से करें- शरीर, मन और आत्मा। सामान्य रूप से बीमारी में हम शरीर पर टिकते हैं। लेकिन अंत यहां नहीं करना है।

यदि हम केवल इलाज का संबंध शरीर से रखेंगे तो या तो बीमारी ठीक नहीं होगी या फिर ठीक होने में लंबा समय लेगी। ध्यान रखें कि हर बीमारी का संबंध कहीं न कहीं शुरुआत में मन से होता है। उसका असंयम, उसकी अत्यधिक मांग मनुष्य के शरीर को बीमारियों के आमंत्रण के लिए तैयार करती है। और जब बीमारियां आ जाएं तो मन उन्हें जाने भी नहीं देता।

इसीलिए शरीर के साथ तुरंत मन का भी इलाज शुरू करें। बीमारी का उपचार तो दवा और बाहरी नियमों से चल जाएगा, लेकिन संयम और वैराग्य मन के लिए जरूरी हैं। मन का इलाज विचारों और तन का इलाज आचरण के संयम से संभव हो जाता है। अब प्रश्न यह उठता है कि मन का इलाज कैसे किया जाए? आज के समय में तन के इलाज के लिए जो भी पद्धति आपको ठीक लगे, जरूर अपनाइए। लेकिन मन सधता है मौन से। बीमार शरीर भीतर बहुत बात करता है। मन को विचार शून्य करेंगे तो एक मौन घटेगा। जैसे ही शब्द कम होंगे, हम आत्मा से जुड़ेंगे और भीतरी स्वास्थ्य को प्राप्त हो जाएंगे। यहीं से शरीर को सुविधा मिलेगी जल्दी स्वस्थ होने की।


इंसान में तीसरी आंख भी होती है

कहते हैं कि ऊपर वाले ने जब इंसान को बनाया तो देखने के लिए दो आखें दीं। पर उसी के शरीर में तीसरी आंख से परमात्मा खुद देखता है। साथ में अवसर भी देता है कि यदि इंसान चाहे तो वह भी इस तीसरी आंख से देख सकता है।


बिना ज्योतिष शास्त्र पढ़े आप ज्योतिषी हो सकते हैं। बिना शब्दों के आप अपनी बात दूसरों तक पहुंचा सकते हैं। इतना ही नहीं, आप बिना चले ही बहुत दूर तक जा सकते हैं। इस तीसरी आंख तक पहुंचने के लिए मनुष्य को अपने भीतर गहरे और बहुत गहरे जाना पड़ेगा।

तीसरी आंख की दृष्टि विराट और सूक्ष्म होती है। जब यह जागती है तो उपलब्धियां कतार बनकर खड़ी रहती हैं। वैसे तो तीसरी आंख पर बहुत कम लोग पहुंचे हैं, लेकिन यदि कुछ थोड़े लोग भी इसको उपलब्ध हुए हैं तो उनमें से हम क्यों नहीं हो सकते? वहां तक पहुंचने के मार्ग का नाम है ध्यान। दोनों भौंहों के बीच में इसका स्थान है। बाहर से देखें तो यह शरीर का ऊपरी हिस्सा है। लेकिन यदि भीतर से जाना चाहें तो बहुत गहरे होकर गुजरना पड़ेगा।

जिन्हें इस तीसरी आंख की अनुभूति होती है, वे इस आनंद को दूसरों में जरूर बांटना चाहते हैं। सबके तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन बांटना जरूर पड़ेगा। यह आनंद, जागृति दूसरों के काम जरूर आए, ऐसा ऋषि-मुनि बता गए हैं।

रहस्य की बात यह है कि दूसरों के लिए उपयोगी बनाते समय ऐसे लोग शोर भी नहीं करते, बल्कि कई बार तो पता ही नहीं लगता कि परोपकार का इतना बड़ा अनुष्ठान हो गया। वे साधारण जीवन जीते हुए असाधारण कृत्य कर जाते हैं। इसलिए जब सारी दुनिया दो आंखों से काम करे, तब हमें तीसरी आंख पर थोड़ा काम जरूर करना चाहिए।


परिवार को जोड़ता है समर्पण का भाव

आजकल  लोग बाहर से समीप होकर भी भीतर से बहुत दूर रहते हैं। परिवारों में सदस्यों के बीच शिकायत ही इस बात को लेकर है कि निकटता या तो मजबूरी है या दिखावा। इसीलिए एक-दूसरे के प्रति अपनापन कम होता जा रहा है। ऋषि-मुनियों ने घर-परिवार में जो पूजा-पाठ की पद्धति बनाई है, वह काफी सोच-समझकर बनाई है। पूजा में एक स्थिति को उपासना नाम दिया गया है। उप+आसन, यानी पास में बैठना। यह एक अभ्यास है, अपने ईष्ट के पास बैठने का। इस निकटता में भीतर और बाहर दोनों से बैठना है। यह अभ्यास घर में परस्पर प्रेम बढ़ाने के काम आएगा। उपासना जब संपूर्णता से होगी, तो समर्पण कहलाएगी। समर्पण से पूरा वातावरण बदल जाता है। रिश्ते अलग ही जीवन पा लेते हैं। समर्पण में हमें अपने वजूद को मिटाना होता है। मैंके गलते ही पूरा माहौल प्रेममय हो जाता है। दरअसल अहंकार प्रेम के पनपने में रुकावट पैदा करता है। अहंकार गिरा, समझो बीच की दीवार गिर गई। उपासना भी परमात्मा से हमें ऐसे ही जोड़ती है, जैसे बूंद समुद्र में मिलती है। बूंद मिटकर समुद्र बन जाती है। सागर होने के लिए बूंद को अपनी सीमित पहचान को छोड़ना ही पड़ता है। ऐसे ही समर्पण हमें परमात्मा से मिला देता है। यही भाव घर-परिवार में सदस्यों को एक-दूसरे से जोड़ता है। उपासना में सत्य का साक्षात्कार हो जाता है। सत्य परमात्मा का हो या परिवार का, एक जैसा ही है। इसीलिए यदि उपासना सध जाए, तो परमात्मा को पाने के लिए फिर न जंगल में जाना है, न ही हिमालय पर। यहीं घर-परिवार में स्वर्ग उतरेगा। हर सदस्य में हम उस परमशक्ति के दर्शन कर सकेंगे। फिर उपासना के परिणाम में प्रेम ही रिसेगा


अपने सद्गुणों पर मोहित न हों

कई  भले लोगों के साथ भी यह दिक्कत हो जाती है कि वे अपने ही सद्गुणों पर मोहित हो जाते हैं। अपनी ही अच्छाइयों के प्रति यह अतिरिक्त आकर्षण धीरे-धीरे अहंकार में बदल जाता है।

ऐसे लोग बाहर से बहुत विनीत, सुशील, नम्र दिख सकते हैं, पर भीतर से वे असहज होंगे। जब वे मोहित मुद्रा में रहते हैं, तब उनमें अपने दुगरुणों से निपटने की क्षमता समाप्त होने लगती है। हमारे जीवन में सद्गुण आना ही चाहिए। लेकिन हमें सावधान रहना होगा कि हम इन पर मोहित होने की भूल न करें। इसमें बाहर के कायदे-कानून काम नहीं आएंगे, भीतर ही अनुशासन लाना होगा।

जैसे ही सद्गुण हमारे भीतर उतरते हैं, मन चौकन्ना हो जाता है। उसके लिए सद्गुण अवांछित तत्व की तरह हैं। अत: मोहित होने का कार्यक्रम मन ही शुरू करवाता है। उसकी भीतरी वाचालता और सक्रिय हो जाती है। इसलिए मन को मौन से नियंत्रित करें।

मौन का अर्थ बाहर से बोलना बंद कर देना न समझा जाए। यह तो चुप्पी है। दरअसल हमें भीतर से विचार-वाणी शून्य होना पड़ेगा। कुछ लोग भीतर से मौन होते ही ठंडे, ढीले और गंभीर हो जाते हैं। जबकि अध्यात्म कहता है कि मौन की अभिव्यक्ति मुस्कान से हो। इसे बोलता हुआ मौन कहेंगे। भीतर मौन घटा है, एकदम शांति है, पर व्यक्तित्व बोल रहा है, प्रसन्नता प्रकट कर रहा है।

मन मौन रहे, पर शरीर की मस्ती कायम रहे। हम मन से मौन रहें, पर हमारे पास बैठे व्यक्ति में स्फूर्ति भर दें। हमारी मौन की ऊर्जा सिर्फ हमारे भीतर ही नहीं, दूसरों में भी प्रवाहित हो। तब हम सद्गुण तो भीतर ले जा चुके होंगे, पर उन पर मोहित न होकर दूसरों को हमारे ऊपर मोहित कराने के दौर से गुजर रहे होंगे।


साधना को पाखंड न बनाएं
साधना  करेंगे तो सिद्धि मिलेगी ही, यह एक अखंड वाक्य है। शर्त यह है कि साधना, साधना की तरह की जाए, इसे केवल कर्मकांड का पाखंड न बनाएं।

सिद्धि का अर्थ जादू या चमत्कार न मान लें। यह भी एक सिद्धि है कि हम अपने आप को परमात्मा का एक अंश मान लें। वह राजा है तो हम उसके युवराज तो बन ही जाएं। साधना का मतलब केवल तप न माना जाए। साधना में हम उस परमशक्ति से सीधी बातचीत करते हैं।

जैसे ईको पॉइंट पर जाकर कुछ बोलें तो हमारी ही आवाज लौटकर आती है, वैसे ही जब हम परमात्मा से चर्चा करते हैं तो वह हमारा ही संवाद हमें लौटा देता है। इसमें केवल शब्द ही काम नहीं करते, भाव भी काम आते हैं। जब हम साधना में उससे कहते हैं- हमारा सब आपका है, तो वह लौटाता है कि मेरा भी सब तुम्हारा है।

यह भाव का आदान-प्रदान है। इस वार्तालाप में शब्द प्रमुख नहीं हैं, यहां भावना की ही प्रधानता होती है। भक्त और भगवान के बीच वाणी होते हुए भी एक रहस्यमय मौन घटता है। भक्त को ऐसी सिद्धि प्राप्त हो जाती है कि वह मौन को सुन लेता है। अदृश्य को देख लेता है। यह इतना सरल भी नहीं होता है।

इसीलिए साधना को सिद्धि में बदलने के लिए एक साधन, माध्यम की आवश्यकता पड़ती है। यह साधन गुरुमंत्र है। गुरुमंत्र होते तो शब्द ही हैं, लेकिन उनके अर्थ अदृश्य होते हैं। उसमें परमात्मा उड़ेला हुआ रहता है। जब साधक गुरुमंत्र के द्वारा साधना से गुजरता है तो सिद्ध होना ही है। गुरुमंत्र के शब्दों में परमात्मा की अनुभूति की संभावना छुपी होती है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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