जल ही अमृत है, इसे व्यर्थ न बहाएं
जल अमृत ही है। अमृत का अर्थ है जिसे पी कर व्यक्ति मृत न हो। आशय है वह जीवित रहे। अर्थात् जल होगा तो हम मृत न होंगे। सनातन धर्म के शास्त्रों में समुद्र मंथन की कथा विस्तार से आती है। यह मंथन देवों और दानवों ने मिलकर किया था। उद्देश्य था अमृत को पाना। यह अमृत जल से ही और जल रूप में ही आया। सागर अर्थात् गहन जल राशि को जब मथा गया तो अमृत से पहले कई रत्न निकले। इनकी संख्या कुल 14 थी। इनमें लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, पारिजात पुष्प, वारुणी, धन्वंतरि, चंद्रमा, विष, सारंग धनुष, पांचजन्य शंख, कामधेनु गाय, रंभा, उच्चै:श्रवा अश्व, ऐरावत हाथी और अंत में अमृत शामिल था।
जल था तो लक्ष्मी है। लक्ष्मी है तो जगत् का सारा वैभव है। जल न होता तो शायद लक्ष्मी न होती। लक्ष्मी न होती तो संसार की श्री न होती। न सारा कार्य-व्यापार सुगम हो पाता। धन्वंतरि भी जल से प्रकटे अर्थात सभी का आरोग्य जल से व्यक्त हुआ। जल न होता तो औषधियां भी न होतीं। रोग होते तो उनके निदान के साधन सुलभ न होते। इन रत्नों का दाता होने के कारण ही सागर का एक नाम रत्नाकर भी है। जल रत्नदाता है, अमृतदाता है और अमृत तो है ही। इसीलिए जल व्यर्थ बहाना अमृत बहाने के समान है। होली पर हम इस बात का विशेष ध्यान रखें कि एक बूंद भी अमृत (जल) व्यर्थ न बहे।
आपो ज्योती: रसोमृतंब्रह्म भूर्भुव: स्वरोम्।
जल ऊर्जा है, रस है, अमृत है तथा ब्रह्मांड में व्याप्त पृथ्वी, अंतरिक्ष और आकाश है।
शुक्ल यजुर्वेद
जल नहीं होता तो तीर्थ नहीं होते
जल नहीं होता तो तीर्थ नहीं होते। वे तीर्थ जहां पर हम जाकर अपना लोक और परलोक दोनों संवारते हैं। तीर्थ ही हैं जहां मौजूद जल में स्नान कर हम अपने पापों का शमन करते हैं और संसार सागर को पार करने की ऊर्जा ग्रहण करते हैं। जल नहीं होता तो शायद तीर्थ की अवधारणा ही विकसित नहीं हुई होती। तीर्थ शब्द का आशय ही है जल की ओर जाने वाली सीढिय़ां। अर्थात जल था तो सीढिय़ां बनीं, घाट बने और बाद में उन घाटों पर मंदिरों, देवालयों का निर्माण हुआ।
यह जाना-माना तथ्य है कि पूरी दुनिया में मानव संस्कृति का विकास जलस्रोतों के निकट हुआ है। नदियों, तालाबों या समुद्र के किनारे बड़े-बड़े नगर बसे और मानव संस्कृति विकास की ओर अग्रसर होती गई। पुराने लोग सयाने थे, वे जानते थे कि यदि जल नहीं होगा तो कल नहीं होगा। इसीलिए उन्होंने जल को धर्म से जोड़ा। जल के किनारे नगर बसे और लोग जलस्रोतों पर एकत्र होने लगे तो जल की शुद्धता, पवित्रता की रक्षा तथा उसके संरक्षण और संवर्धन के उद्देश्य से पुराने लोगों ने वहां देवालय बनाए। इसी भाव से कि जो लोग इन जलतीर्थों पर आएं, वे जल की महत्ता को समझें। देवताओं की साक्षी में जल संरक्षण का संकल्प लें।
यही कारण है कि भारत की प्राय: सभी नदियों और जलस्रोतों पर स्थित तीर्थ भूमियों में पर्यटन के निमित्त आने वाले लोगों को इन नदियों के घाटों पर बैठने वाले पंडे-पुरोहित सदियों से संकल्प दिला रहे हैं। यह संकल्प भी जल से दिलाया जाता है। यदि जल नहीं होता तो लोग नहीं आते, संकल्प नहीं होते। आज हम भी एक संकल्प लें कि सूखी होली खेलकर जल का संरक्षण करेंगे।
यासु राजा वरुणो यासु सोमो, विश्वेदेवा यासूर्जं मदन्ति।
वैश्वानरो यास्वग्नि: प्रविष्टस्ता आपो देवीरिह मामवन्तु॥
ऋग्वेद- 7.49.4
जिन जलधाराओं में राजा वरुण, सोम, सभी देवगण भरपूर आनंदित होते हैं, जिनके अंतर में वैश्वानर अग्नि समाया है वे जल देवता इस धरती पर हमारी रक्षा करें।
सूखी होली खेलें, जल और प्रकृति को बचाएं
जल के बिना जीवन असंभव है। यह हम सभी जानते हैं इसके बाद भी जल का जमकर दुरुपयोग करते हैं। होली भी ऐसा ही मौका है जब सबसे ज्यादा जल की बर्बादी होती है। होली त्योहार प्रतीक है श्रृंगारित प्रकृति के स्वागत करने का। जल का दुरुपयोग कर हम इस पवित्र त्योहार का अर्थ ही बदल देते हैं क्योंकि जल के अभाव में प्रकृति का श्रृंगार ही अधूर होगा। इस होली पर हम संकल्प लें कि सूखी होली खेलकर अपने नैतिक कर्तव्यों का पालन करेंगे तथा जल के दुरुपयोग पर रोक लगाएंगे। हमारे धर्मग्रंथों में भी जल के महत्व का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में वर्णित जल के महत्व का वर्णन इस प्रकार है-
जीवन का दूसरा नाम जल है। जल नहीं होगा तो जीवन समाप्त हो जाएगा। यह सृष्टि और इस सृष्टि के सबसे सुंदर रूप अर्थात मनुष्य का निर्माण भी जल के सम्मिश्रण से हुआ है। पंचमहाभूत जिनसे सृष्टि और हम बने हैं, उनमें जल प्रमुख है। धरती, आकाश, वायु, अग्नि और जल में केवल जल को ही जीवन की संज्ञा दी गई है। धरती पर भी पचहत्तर फीसदी से ज्यादा जल है और मनुष्य के शरीर में भी सत्तर फीसदी से ज्यादा जल की ही सत्ता है। हम भोजन के बगैर जीवित रह सकते हैं किंतु जल के बगैर जीवन की परिकल्पना संभव नहीं है।
जल ही है जिसकी सत्ता धरती से लेकर आकाश तक है। धरती के भीतर भी जल है और आकाश से भी वह अमृत के रूप में बरसता है। समुद्र मंथन की कथा जिसका लक्ष्य अमृत पाना था, जल से ही जुड़ी है। यही कारण है हमारे धर्मग्रंथ एक कुएं के निर्माण का फल सौ अश्वमेध यज्ञों पर भारी बताते हैं। आइए इस होली पर जल का संरक्षण करें और सूखी होली खेलकर दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करें।
या आपो दिव्या उत वा स्रवन्तिखनित्रिमा उत वा या: स्वयंजा:।
समुद्रार्था या: शुचय: पावका-स्ता आपो देवी रिह मामवंतु॥
ऋग्वेद- 7.49.2
जो जल आकाश से आता है जो जल धरती पर बहता है, जो जल खोदने से मिलता है। अथवा वह जो स्वयं फूट पड़ा (झरना) है। समुद्र के लिए प्रस्थान करने वाली पवित्र जल की देवी इस धरती पर हमारी रक्षा करें।
जल अनमोल है, यह परिश्रम से ही मिलता है
जल उन्हें ही सुलभ होता है जो पुरुषार्थ में विश्वास रखते हैं, जिनका लक्ष्य लोक कल्याण होता है। भगीरथ इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। पुराणों में कथा है कपिल मुनि की क्रोधाग्नि से भस्म हुए अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए भगीरथ ने गंगा को धरती पर लाने के लिए तप किया। गंगा प्रसन्न हुई तो उसके वेग को संभालने की समस्या आ गई। भगीरथ विचलित नहीं हुए। उन्होंने शिव की आराधना कर उन्हें इस पर सहमत किया।
तब गंगा शिव की जटाओं से धरती को धन्य करने के लिए निकली। भगीरथ का उद्देश्य पवित्र व लोक कल्याणकारी था, इसलिए बाधाएं आईं लेकिन जल सुलभ हुआ। गंगा के रूप में पावन जल मुक्ति की कामना में वर्षों से प्रतिक्षारत भगीरथ के पूर्वजों तक पहुंचा और वे मोक्ष को प्राप्त हुए। जल मुक्तिदाता है। संकट में पड़े जीवन को संकट से मुक्त करने वाला भी और मोक्ष की कामना में भगीरथ के पूर्वजों की तरह राख बन अनाम पड़े जीवों का मोक्षदाता भी। सोचें जल न होगा तो ये मुक्ति, ये मोक्ष कैसे संभव होगा।
गंग सकल मुद मंगल मूला।
सब सुख करनि हरनि सब सूला।।
अर्थात गंगा समस्त आनंद मंगलों की मूल है। वे सब सुखों को करने वाली और पीड़ाओं को हरने वाली हैं।
- श्रीरामचरितमानस, अयोध्याकांड में गंगा जल वंदना
भगवान को पाना है तो जल को सहेजें
जल जीवन रूपी अमृत ही नहीं इससे आगे परमात्मा ही है। वह जगत् का पालक है और पोषक भी। इसीलिए जल को विष्णु कहा गया है। विष्णु का अर्थ है जो सर्वव्यापी हो जिसकी व्यापकता धरती से आसमान तक हो। उनका निवास क्षीरसागर है। नार अर्थात् पानी में अयन अर्थात् घर (निवास) करने के कारण ही विष्णु का एक नाम नारायण है।
भगवान विष्णु का स्वरूप मेघवर्णी माना गया है। इसका यही अर्थ है कि जल में रहने वाले विष्णु वाष्प रूप में जब अपनी व्यापकता का विस्तार आकाश तक करते हैं, बादलों का रूप धारण कर लेते हैं। यही बादल जब बरसते हैं तो अमृत के रूप में जलधाराएं धरती पर गिरती हैं। आशय यही है कि विष्णु ही अमृत रूपी जल का प्रसार करते हैं। विष्णु की शक्ति उनकी अर्धांगिनी लक्ष्मी हैं जो समुद्र से अर्थात् जल से ही प्रकटी हैं। विष्णु के हृदय पर कौस्तुभ मणि शोभित है। वह भी समुद्र मंथन में जल से एक रत्न के रूप में निकली है।
जल की शक्तियां, जल के रत्न, जल-सा निर्मल स्वभाव और जल-सी जीवनदायिनी कृपा ही विष्णु को सर्वप्रिय, सर्वपूज्य बनाती है। अत: जल का दुरुपयोग भगवान का अपमान करने जैसा ही है। सिर्फ होली ही नहीं अन्य अवसरों पर भी हम जल का संचय करें, तभी हम भगवान की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
कुमुद: कुन्दर: कुन्द: पर्जन्य: पावनोऽनिल:।
अमृताशोऽमृतवपु: सर्वज्ञ: सर्वतोमुख:॥
अर्थात् जल में डूबी पृथ्वी को बाहर लाकर सभी को प्रसन्न करने वाले मेघ के समान सुंदर, पवित्र अंगों के स्वामी, जलरूपी अमृत का देवताओं को पान कराकर स्वयं पान करने वाले सर्वज्ञ और सभी ओर नयनों और मुख से देखने वाले भगवान विष्णु को नमन है।
विष्णु सहस्रनाम, 100
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK
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