Saturday, March 12, 2011

Jeevan Darshan(जीवन दर्शन) Part 1

जब पीतांबर में उलझकर रह गया जोगा का मन
जोगा परमानंद नामक हरिभक्त नित्य गीता का एक-एक श्लोक कहकर पंढरीनाथ को ७क्क् बार साष्टांग नमस्कार करता था। एक बार रात में पानी बरसने से कीचड़ हो गया। जोगा ने रोज की तरह नमस्कार शुरू किए। उसका शरीर कीचड़ से सन गया। एक व्यापारी ने यह देख पास की दुकान से एक बहुमूल्य पीतांबर खरीदकर जोगा को दिया। जोगा ने कहा - भाई, देना ही हो तो कोई फटा-पुराना वस्त्र दे दो। यह बहुमूल्य वस्त्र तो भगवान पर ही फबता है। व्यापारी नहीं माना। उसका अति आग्रह देख जोगा ने पीतांबर स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन जोगा पीतांबर पहनकर नमस्कार करने लगा। पर उसका मन रह-रहकर पीतांबर को कीचड़ से बचाने में ही लग जाता। दोपहर हो गई, किंतु उसके नमस्कार पूरे नहीं हुए।
पीतांबर के कारण नियम में विघ्न पड़ते देख वह बड़ा दुखी हुआ। तभी एक किसान दो बैलों को लेकर जाता दिखा। जोगा ने प्रायश्चित करने के उद्देश्य से उससे कहा - भैया, यह पीतांबर ले लो और बैलों की यह जोड़ी मुझे दे दो। ये मुझे घसीटते हुए दूर ले जाएं। फिर तुम आकर बैलों को ले जाना। लोभवश किसान सब कुछ करता गया। बैल बहुत दूर जंगल में जाकर रुके। तब तक जोगा का शरीर खून से लथपथ हो चुका था। मृत्यु के पूर्व उसने भगवान की अंतिम स्तुति आरंभ की। उसकी भक्ति देख भगवान पीतांबर प्रकट हुए। उनके स्पर्श से जोगा के सभी घाव दूर हो गए। सार यह है कि मौजूदा उपलब्धियों से अधिक की चाह करने पर कभी वास्तविक शांति नहीं मिलती

सत्कार्यो पर अहंकार करने से नष्ट होता है पुण्य

हनुमानजी जब लंका दहन कर लौट रहे थे, तब उन्हें कुछ अहंकार हो गया। श्रीराम ने इसे ताड़ लिया। रास्ते में हनुमानजी को प्यास लगी। उनकी दृष्टि शांत बैठे एक मुनि पर गई। उनके पास जाकर हनुमानजी ने कहा - मुनिश्री, मैं श्रीरामचंद्रजी का सीतान्वेषण कार्य करके लौट रहा हूं। मुझे बड़ी प्यास लगी है। थोड़ा जल दीजिए या किसी जलाशय का पता बताइए। मुनि ने उन्हें जलाशय का पता बता दिया। हनुमान सीता की दी हुई चूड़ामणि, अंगूठी और ब्रह्माजी का दिया हुआ पत्र, मुनिश्री के आगे रखकर जल पीने चले गए। इतने में एक बंदर वहां आया और उसने इन सभी वस्तुओं को उठाकर मुनि के कमंडल में डाल दिया।
जब हनुमान जल पीकर लौटे और अपनी वस्तुओं के विषय में पूछा, तो उन्हें राम नाम अंकित हजारों अंगूठियां दिखाई पड़ीं। उन्होंने पूछा - ये सब अंगूठियां आपको कहां से मिलीं तथा इनमें मेरी अंगूठी कौन-सी है? मुनि ने उत्तर दिया - जब श्रीराम अवतार होता है और सीता हरण के पश्चात हनुमानजी पता लगाकर लौटते हैं, तब शोध मुद्रिका यहीं छोड़ जाते हैं। वे ही सब मुद्रिकाएं इसमें पड़ी हैं। तब हनुमानजी का अहंकार यह सोचकर नष्ट हो गया कि न जाने कितने राघव यहां आए और मुझ जैसे कितने लोगों ने उनके कार्य किए हैं। उन्होंने श्रीराम के पास जाकर क्षमा मांगी। तब श्रीराम बोले - मैंने ही मुनि का रूप धारण कर तुम्हारे अहंकार को दूर करने के लिए नाटक रचा था। अपने सत्कार्यो पर अहंकार करने से उनका पुण्य नष्ट हो जाता है।

भीतर से हम सब समान हैं

जानकारियों का अधिक बोझ भी जिंदगी की चाल को लड़खड़ा देता है। हर बात की जानकारी होना बाहर की दुनिया में बहुत उपयोगी है, लेकिन अपने भीतर उतरते ही जानकारियां वहां गायब हो जाएंगी और सिर्फ जानने वाला रह जाएगा। यह जो जानने वाला है यही हमारा होना है। इसे ही होश में जीना कहते हैं। मुझसे कई लोगों ने कहा कि यह जानकारी तो हमें भी है कि क्रोध हमारा मालिक नहीं गुलाम हो, लेकिन जब क्रोध आता है, तो सारी समझ, जानकारी धरी रह जाती है। तमाम कसमें, वादे टूट जाते हैं और आदमी न चाहते हुए भी क्रोध कर जाता है। इस जानकारी को जीवन में सही तरीके से उतारने की क्रिया क्या होगी। तो चलिए, आज थोड़ा भीतर उतरें। जानकारी बाहर परिणाम देगी और यह क्रिया भीतर से पूरी होगी।
जब भी क्रोध आए थोड़ा मौन होकर अपने भीतर उतरें। केवल मौन न रह जाएं, वरना भीतर और ज्यादा उपद्रव हो जाएगा। मौन की सीढ़ियों से अपने भीतर जरूर उतरें। वहां आप अपने क्रोध के कारण के दो तल पाएंगे। पहला तल है, जहां आप किसी कार्य या उसके परिणाम के प्रति असंतुष्ट, असहमत होंगे, फिर चाहे आप गलत हों या सही। यह क्रोध के कारण का पहला तल होगा। इसे सिर्फ भीतर देखना है, यहीं पर रुकना नहीं है। और गहरे उतरें, तो दूसरा तल मिलेगा, यह महत्वपूर्ण है। यहां आप अपना ‘मैं’ पाएंगे। बाहरी क्रोध का दूसरा सिरा हमारे भीतर हमारा ‘मैं’ होता है। भीतर सब समान हैं, भेद बाहर है। भीतर का ‘मैं’ गिरा और क्रोध अहंकार की अंगड़ाई न रहकर अनुशासन की आवश्यकता बन जाएगा। आप क्रोध के साक्षी हो जाएंगे, कर्ता और भोक्ता नहीं। अपने भीतर उतरने के लिए थोड़ा अभ्यास कीजिए और समय दीजिए अपनी निजी जिंदगी को।

वेंकटनाथ ने जूतों की माला भी खुशी-खुशी स्वीकार की
बहुत बड़े विद्वान, महान भक्त और अत्यंत धर्यवान महात्मा थे श्री वेंकटनाथ। उन्हें न अपने ज्ञान का घमंड था और न भक्ति का। उन्हें मानने वालों की संख्या बहुतायत में थी, जिनके समक्ष भी वे सहज एवं सादगी भाव से रहते थे। श्रद्धालुओं के साथ ईष्र्यालुओं की संख्या भी कम न थी।
वेंकटनाथ की प्रतिष्ठा से जलने वाले कुछ लोगों ने एक दिन विचार किया कि ऐसा कुछ करें, जिससे वेंकटनाथ का अपमान हो और वे नाराज होकर कुछ ऐसा करें, जिससे उनकी प्रतिष्ठा भंग हो जाए। इन लोगों ने योजना बनाकर वेंकटनाथ के द्वार पर रात को जूतों की माला लटका दी। वह इतनी नीची थी कि बाहर निकलते ही उसका सिर में लगना बिल्कुल निश्चित था।
सुबह जब वेंकटनाथ अपनी कुटिया से बाहर निकले, तो उनका सिर जूतों से टकराया, किंतु वे शांतिपूर्वक बाहर निकल आए और संस्कृत में दो पंक्तियां कहीं, जिनका तात्पर्य यह था कि कोई कर्म मार्ग का अनुसरण करते हैं और कोई ज्ञान मार्ग का। किंतु हम तो हरिदासों अर्थात भगवद् भक्तों के जूतों के अनुयायी हैं।
इन शब्दों को सुनकर आसपास के लोग न केवल बहुत प्रभावित हुए, बल्कि यह कुकृत्य करने वालों को स्वयं पर लज्जा महसूस हुई और उन्होंने वेंकटनाथ से क्षमा मांगी। वस्तुत: समाज-सुधार का कार्य सहनशीनलता से ही संभव है। कई अवसरों पर सहनशीलता वह काम बना देती है, जो क्रोध बिगाड़ देता है।

अधिकार की सही परिभाषा समझाई ऋषि शंख ने
शंख और लिखित दो भाई थे। दोनों अलग-अलग आश्रमों में रहते थे। एक बार लिखित शंख के आश्रम पर आए। शंख आश्रम में नहीं थे। लिखित को भूख लगी, तो वे आश्रम में लगे वृक्षों से फल तोड़कर खाने लगे। इतने में ही शंख आ गए। उन्होंने लिखित से पूछा - भैया, तुम्हें ये फल कहां से मिले? लिखित ने कहा - ये इसी पेड़ से तोड़े हैं। शंख बोले - तब तो तुमने चोरी की। अब तुम राजा के पास जाकर कहो - मुझे वह दंड दें, जो एक चोर को दिया जाता है। लिखित ने राजा सुद्युम्न के पास जाकर वैसा ही कहा। तब राजा बोले - यदि मुझे दंड देने का अधिकार है, तो क्षमा करने का भी है। मैं आपको क्षमा करता हूं। किंतु लिखित ने दंड देने का अपना आग्रह जारी रखा। अंत में राजा ने नियमानुसार उनके दोनों हाथ कटवा दिए। अब लिखित ने पुन: शंख से क्षमा मांगी।
शंख ने लिखित को नदी पर जाकर देवता व पितरों का विधिवत तर्पण करने को कहा। लिखित द्वारा कार्य संपन्न होते ही उनके कटे हाथ पुन: जुड़ गए। उन्होंने शंख को जाकर यह बात बताई, तो शंख बोले, मैंने अपने तप के प्रभाव से ये हाथ उत्पन्न किए हैं। लिखित ने पूछा - यदि आपके तप का ऐसा प्रभाव है तो आपने पहले ही मेरी शुद्धि क्यों नहीं कर दी? शंख ने जवाब दिया - किंतु तुम्हें दंड देने का अधिकार मुझे नहीं, राजा को ही था। इससे राजा के अधिकार का पालन हुआ और तुम भी दोषमुक्त हो गए। वस्तुत: अधिकारों का संबंधित व्यक्ति द्वारा उपयोग करना उचित न्याय है। दंड भोगने पर ही उसका सही पश्चाताप होता है।

समय पालन की सीख दी जॉर्ज वॉशिंगटन ने
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन समय के बहुत पाबंद थे। वे ठीक समय पर भोजन करते और निश्चित समय पर सोते थे। उनकी दिनचर्या का हरेक काम निर्धारित समय पर ही पूर्ण होता था। उनके नौकर-चाकर भी उनके इस स्वभाव से परिचित थे, इसलिए वे भी ठीक समय पर कार्य करने के आदी थे। वॉशिंगटन अपने इस नियम के पालन में काफी सख्त थे। एक बार की घटना है। अमेरिकी कांग्रेस के चुनाव हुए। चुने गए नए कांग्रेसी सदस्यों को वॉशिंगटन ने भोज हेतु आमंत्रित किया। उद्देश्य यह था कि सभी का परस्पर परिचय भी हो जाए और कर्तव्यों का निर्धारण भी कर दिया जाए। लेकिन तयशुदा समय पर सदस्य नहीं पहुंचे। वे लोग कुछ विलंब से पहुंचे। उन्होंने आकर देखा कि वॉशिंगटन भोजन कर रहे थे। सदस्य बड़े आश्चर्यचकित हुए कि उन्हें छोड़कर राष्ट्रपति पहले कैसे भोजन कर रहे हैं।
उनके आश्चर्य को देखकर वॉशिंगटन बोले - भाइयो, इसमें आश्चर्य की क्या बात है? मैं सभी कार्य वक्त पर करता हूं। इसलिए मेरा रसोइया कभी यह नहीं देखता कि सब के सब निमंत्रित अतिथि आ गए हैं या नहीं। वह तो पूर्वनिर्धारित समय पर भोजन सामने रख दिया करता है। सदस्यों ने अपनी गलती जान राष्ट्रपति से क्षमा मांगी। ऐसा कर वॉशिंगटन ने अमेरिकी कांग्रेस के नए सदस्यों को समय पालन की महत्वपूर्ण सीख दी। गया हुआ समय लौटकर नहीं आता। जीवन का प्रत्येक क्षण अमूल्य है, इसलिए प्रत्येक कार्य समय पर करें ताकि अच्छे परिणामों की प्राप्ति हो।

बीमार पुत्र के बजाय कर्म को वरीयता दी तिलक ने
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के जीवन का एक प्रसंग है जो उल्लेखनीय होने के साथ प्रेरणास्पद भी है। एक बार लोकमान्य तिलक अपने कार्यालय में किसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार कर रहे थे। प्रश्न बड़ा ही जटिल और राजनीतिक था। दूसरे शब्दों में कहें, तो यह कि प्रश्न राष्ट्र की स्वाधीनता से जुड़ा था। तिलक अपने खास सहयोगियों के साथ बैठकर विचार-विमर्श कर रहे थे। तभी चपरासी ने धीरे से दरवाजा बजाया। अनुमति मिलने पर वह अंदर आया और तिलक से बोला - बड़े भैया की तबियत बहुत खराब है। तिलक ने सुन लिया, किंतु उठकर नहीं गए। वास्तव में तिलक के बड़े पुत्र का स्वास्थ्य कई दिनों से खराब चल रहा था। उस दिन तबियत अधिक बिगड़ गई। तिलक अपने काम में लगे रहे।
थोड़ी देर बाद उनके एक सहयोगी ने आकर कहा, पुत्र इतना अस्वस्थ है कि कब क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता। फिर भी आप अपने काम में ही उलझे हैं। तिलक ने इस बार-बार की कार्यबाधा से परेशान होकर कहा - उसके लिए चिकित्सकों को कह दिया है। वे देख ही लेंगे। मैं जाकर क्या करूंगा। यह काम मुझे तो करना नहीं है। सहयोगी चला गया। काम पूरा कर तिलक घर लौटे तो पुत्र का देहांत हो चुका था। तिलक तत्काल उसकी महायात्रा की तैयारी में जुट पड़े। यह घटना कर्मनिष्ठा व स्थितप्रज्ञता का आदर्श उदाहरण है। जो लोग अपने कर्म को प्रथम वरीयता देते हैं, वे निजी दुख के अवसरों को निरपेक्ष भाव से ग्रहण करते हैं और यही उन्हें महान बनाता है।

परोपकार से हमारा जीवन हो जाता है सुखमय
घटना गांव तोरुर की है। वहां एक धनी साहूकार रहते थे। उन्होंने एक हाथी भी पाल रखा था। एक दिन वह उन्मत्त हो उठा। उसने अपने महावत नारायण नायर को सूंड से पकड़कर धरती पर पटक दिया। नारायण ने उसे काबू में करने की बहुत कोशिश की, किंतु वह तो जैसे पागल हो उठा था। उसने नारायण को फिर धरती पर गिराया और उनकी पीठ पर दांत से वार किया। शोरगुल सुन आसपास के लोग भी दौड़े आए और अंतत: सभी ने मिलकर हाथी को काबू में कर लिया। नारायण नायर बेहोश हो गए थे। लोग उन्हें अस्पताल ले गए। हाथी का दांत पीठ में भीतर तक घुस गया था। घाव बड़ा गहरा था, वह टांके से बंद नहीं हो सकता था। उससे लगातार खून बह रहा था।
डॉक्टर ने कहा - रोगी का जीवन संकट में है। किसी जीवित मनुष्य का लगभग डेढ़ पौंड मांस मिले तो उसे घाव में भरकर घाव पर टांका लगाया जा सकता है। रोगी के परिवार, मित्रों व परिचितों में से किसी ने भी यह त्याग करने का साहस नहीं दिखाया। किंतु यह समाचार पाकर पानावली ग्राम के एक संपन्न व्यक्ति श्रीकन्नड़कृष्ण नायर डॉक्टर के पास पहुंचे और अपना मांस लेने को कहा। डॉक्टर ने मांस लेकर रोगी के घाव में टांका लगाया। तब जाकर नारायण के प्राण बचे। मनुष्यता का ही दूसरा नाम परोपकार है। यदि हम अपने तन, मन और धन का थोड़ा हिस्सा भी दूसरों के भले के लिए व्यय करें, तो उनके दिलों से निकली दुआएं हमारा जीवन परम सुखमय बना देंगी।

पार्वतीजी की दृढ़ निष्ठा ने जीत लिया शिवजी का मन
पार्वतीजी ने शिव को पति रूप में पाने के लिए तपस्या आरंभ की। लेकिन शिव को सांसारिक बंधनों में कदापि रुचि नहीं थी, इसलिए पार्वतीजी ने अत्यंत कठोर तपस्या की ताकि शिव प्रसन्न होकर उनसे विवाह कर लें। वर्षो तपस्या करने के बाद एक दिन पार्वतीजी के पास एक ब्रह्मचारी आया। वह ब्रह्मचारी तपस्विनी पार्वती का अघ्र्य स्वीकार करने से पूर्व बोल उठा - तुम्हारे जैसी सुकुमारी क्या तपस्या के योग्य है? मैंने दीर्घकाल तक तप किया है। चाहो तो मेरा आधा या पूरा तप ले लो, किंतु तुम इतनी कठिन तपस्या मत करो। तुम चाहो तो त्रिभुवन के स्वामी भगवान विष्णु भी..। किंतु पार्वती ने ऐसा उपेक्षा का भाव दिखाया कि ब्रह्मचारी दो क्षण को रुक गया।
फिर बोला - योग्य वर में तीन गुण देखे जाते हैं - सौंदर्य, कुलीनता और संपत्ति। इन तीनों में से शिव के पास एक भी नहीं है। नीलकंठ, त्रिलोचन, जटाधारी, विभूति पोते, सांप लपेटे शिव में तुम्हें कहीं सौंदर्य दिखता है? उनकी संपत्ति का तो कहना ही क्या, नग्न रहते हैं। बहुत हुआ तो चर्म(चमड़ा) लपेट लिया। कोई नहीं जानता कि उनकी उत्पत्ति कैसे हुई। ब्रह्मचारी पता नहीं क्या-क्या कहता रहा, किंतु अपने आराध्य की निंदा पार्वती को अच्छी नहीं लगी। अत: वे अन्यत्र जाने को उठ खड़ी हुईं। तब शिव उनकी निष्ठा देख ब्रह्मचारी रूप त्याग प्रकट हुए और उनसे विवाह किया। जहां दृढ़ लगन, कष्ट सहने का साहस और अटूट आत्मविश्वास हो, वहां लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है।

दुनिया स्वयं में विशिष्ट है
दुनियादारी की सफलताएं, उपलब्धियां प्राप्त होने के बाद मनुष्य को विशिष्ट बना देती हैं। इसके बाद कुछ लोग सफल होने की जगह विशिष्ट होने के चक्कर में लग जाते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि सफलता परिश्रम का परिणाम है, किए हुए का फल है और विशिष्टता की चाहत अहंकार की शुरुआत है। इस बात को थोड़ा ध्यान रखें कि यह दुनिया परमात्मा ने बनाई है, इसलिए यहां सबकुछ विशिष्ट है, असामान्य है, अनूठा है, अद्वितीय है और खास है। इसके बीच हम अपने आपको और विशिष्ट बनाएं, यहां से अहंकार का पागलपन शुरू हो जाता है। आज की प्रोफेशनल लाइफ में सफलता की कामना और विशिष्ट होने की इच्छा का अंतर समझ में आना चाहिए। जिनके पास उच्च पद है, अधिक धन है, सफलताओं के तमगे हैं, उन्हें समझना चाहिए।
जैसे-जैसे अपने करियर में ऊंचे जाएंगे, निश्चित ही आपको अपने कामकाज की सम्पूर्ण जानकारी होगी, बिना उसके कामयाबी मिलती भी नहीं। इसी के साथ एक प्रयोग और करते चलना चाहिए। जब आप अपने काम को पूरा जानने लगते हैं, तब स्वयं को भी जानने का प्रयास करें। हमें हमारा पता नहीं चल पाता और दुनियाभर की जानकारी प्राप्त कर चुके होते हैं। यहीं से खतरे शुरू हो जाते हैं। फिर हमारी कोशिश होती है कि दुनिया हमें जान ले कि हम कौन हैं और परिश्रम का सारा तानाबाना इसी के आसपास बुना जाता है। हम अपने कर्तव्य को भूलकर इसी में जुट जाते हैं कि लोग हमें जुदा मानें। हम अपने व्यक्तित्व को विशिष्ट बनाने में जुट जाते हैं, हमारा पूरा श्रम अहंकार के लेपन से अलग रूप लेने लगता है। इसीलिए थोड़ी देर कोशिश करें, स्वयं को जानने की। जब कि हम सामान्य रहकर भी असामान्य कार्य कर सकते हैं। बस, यहीं से सफलता अशांति नहीं देगी।

विद्यासागर ने सिखाया वस्तु का शत-प्रतिशत उपयोग
ईश्वरचंद्र विद्यासागर और खुदीराम बोस के बीच मित्रता थी। दोनों की अक्सर मुलाकात होती और अनेक विषयों पर वे चर्चा करते थे। एक दिन विद्यासागरजी के घर खुदीराम बोस आए। बड़े प्रेम से दोनों घंटों बातचीत करते रहे। उस दिन विद्यासागरजी ने खुदीराम बोस के सत्कार में नारंगियां खिलाईं। खुदीरामजी नारंगियों के स्वाद की प्रशंसा करते हुए उन्हें खाने लगे।
जब ईश्वरचंद्र विद्यासागरजी ने उन्हें नारंगियों को छीलकर उनकी फांके चूस-चूसकर नीचे फेंकते देखा, तो बोले - देखो भाई, इन्हें फेंको मत, ये भी किसी काम आ जाएंगी। खुदीरामजी ने आश्चर्यचकित हो पूछा - इन्हें आप किसे देंगे। अब इनका क्या उपयोग हो सकता है? विद्यासागरजी बोले - आप इन्हें खिड़की के बाहर रख दें और वहां से हट जाएं तो अभी पता लग जाएगा। खुदीरामजी ने खिड़की के बाहर उन चूसी हुई फांकों को रख दिया और वहां से हट गए। थोड़ी ही देर में कुछ कौए उन फांकों को लेने आ गए। तब विद्यासागरजी ने कहा - देखा आपने, जब कोई पदार्थ किसी भी प्राणी के काम में आने योग्य हो, तब तक उसे व्यर्थ नहीं फेंकना चाहिए। उसे इस प्रकार रखना चाहिए कि धूल, मिट्टी लगकर वह नष्ट न हो और दूसरे प्राणी उसका उपयोग कर सकें।
वस्तुत: किसी भी चीज के निर्माण की उपयोगिता तभी है, जबकि उसका शत-प्रतिशत उपयोग हो। अत: कोई वस्तु फेंकने के पूर्व उसके अन्य संभावित उपयोगों पर भी विचार कर लेना चाहिए।

शास्त्र ज्ञान ने गरीब ब्राह्मण को चोरी करने से रोका
महाराज भोज के नगर में एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। गरीबी से परेशान हो उन्होंने राजभवन में चोरी करने का निश्चय किया। रात के समय वे राजभवन पहुंचे। सभी लोग सो रहे थे। स्वर्ण, रत्न, बहुमूल्य पात्र इधर-उधर पड़े थे। किंतु वे जो भी वस्तु उठाने का विचार करते, उनका शास्त्र ज्ञान उन्हें रोक देता। ब्राह्मण ने जैसे ही स्वर्ण राशि उठाने का विचार किया, बुद्धि में स्थित शास्त्र ने कहा - स्वर्ण चोर नर्कगामी होता है। जो भी वे लेना चाहते, उसी की चोरी को पाप बताने वाले शास्त्रीय वाक्य उनकी स्मृति में जाग उठते। वे फिर रुक जाते। पूरी रात बीत गई पर वे चोरी नहीं कर पाए। जब सेवक जागने लगे तो पकड़े जाने के भय से ब्राह्मण राजा के पलंग के नीचे छिप गए।
महाराज के जागने पर रानियां व दासियां उनके अभिवादन हेतु प्रस्तुत हुईं। सजे हुए हाथी-घोड़े भी राजद्वार के बाहर खड़े थे। यह देख आनंद से भरे राजा भोज के मुंह से किसी श्लोक की तीन पंक्तियां निकलीं। फिर अचानक वे रुक गए। शायद चौथी पंक्ति उन्हें याद नहीं आ रही थी। विद्वान ब्राह्मण से रहा नहीं गया। चौथी पंक्ति उन्होंने पूर्ण की। महाराज चौंके और ब्राह्मण को बाहर निकलने को कहा। जब ब्राह्मण से भोज ने चोरी न करने का कारण पूछा तो वे बोले - राजन, मेरा शास्त्र ज्ञान मुझे रोकता रहा। उसी ने मेरी धर्म रक्षा की। भोज ने ब्राह्मण को प्रचुर धन देकर सदा के लिए उनकी निर्धनता दूर कर दी। ज्ञान उचित-अनुचित का बोध कराता है, जिसका धर्म संकट के क्षणों में उपयोग कर उचित राह पाई जा सकती है।

धर्म रक्षा के लिए विद्यार्थियों ने अपने प्राण त्याग दिए

चीन से भारत आने वाले यात्री ह्वेनसांग मात्र घुमक्कड़ नहीं थे, वे धर्म के परम जिज्ञासु थे। धर्म को जानने की गहरी ललक ही उन्हें दुर्गम हिमालय के इस पार ले आई थी। भारत के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालय नालंदा ने उनका स्वागत किया। ह्वेनसांग नालंदा के छात्र रहे और अध्यापक भी। बौद्ध धर्म का पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर उन्होंने चीन जाने का विचार किया। उन्होंने सोचा कि चीन में बौद्ध धर्म की व्यवस्थित शिक्षा का प्रचार करेंगे। इस कार्य के लिए उन्होंने बहुत सारे धर्मग्रंथ अपने साथ रख लिए। नालंदा के कुछ भारतीय विद्यार्थी भी उनके साथ थे। सिंधु नदी के मुहाने तक इस यात्री दल की यात्रा निर्विघ्न पूर्ण हुई, किंतु जब वे नाव से सिंधु नदी पार करने लगे तो आंधी आ गई। नाव डूबने का खतरा पैदा हो गया।
ह्वेनसांग यह सोचकर दुखी थे कि अब धर्मग्रंथ डूब जाएंगे और उनकी योजना ध्वस्त हो जाएगी। तभी भारतीय विद्यार्थियों में से एक ने कहा - भार कम हो जाए तो नाव को डूबने से बचाया जा सकता है। क्या धर्मग्रंथों की रक्षा से होने वाले धर्मप्रचार की अपेक्षा हमारा जीवन अधिक मूल्यवान है? उस विद्यार्थी का इतना कहना था कि उसके सभी साथी नदी के अथाह जल में कूद गए और सबसे अंत में वह भी कूद गया। उन सभी ने एक अच्छे कार्य के लिए अपना जीवन होम करने में एक क्षण भी नहीं गंवाया। जिस कार्य से समाज के एक बड़े हिस्से को लाभ होता हो, उसके लिए अंतिम सीमा तक त्याग करने हेतु तत्पर रहना मानवीयता का चरम है जो मनुष्य को ईश्वर के समक्ष ला देता है।

महावीर के उपदेश सुनकर संत बन गया अर्जुन

अर्जुन बड़ी श्रद्धा से एक यक्ष की नित्य पूजा करता था। एक दिन उसने जैसे ही पूजा खत्म की, छह डाकू आ गए। उन्होंने अर्जुन को रस्सियों से बांधा और उसके घर को लूट लिया। अर्जुन मन ही मन कहने लगा - मैंने व्यर्थ ही इतने दिनों इस यक्ष की पूजा की। मैं जानता कि यह इतना असमर्थ है तो इसकी प्रतिमा उठाकर फेंक देता। अर्जुन क्रोध में भी सच्चे भाव से मान रहा था कि प्रतिमा जड़ नहीं है, उसमें सचमुच यक्ष है। उसके इस भाव से यक्ष प्रसन्न हो अर्जुन के शरीर में प्रवेश कर गया। यक्ष के बल से अर्जुन ने अपने बंधन तोड़ दिए और लोहे के मुगदर से डाकुओं को मार गिराया। किंतु इसके बाद यक्ष के आवेश में उन्मत हो वह प्रतिदिन सात मनुष्यों को मारने लगा। राजगृह में हाहाकार मच गया।
उन्हीं दिनों भगवान महावीर राजगृह पधारे। उनके आगमन का समाचार उनके परम भक्त सेठ सुदर्शन को मिला तो वे उपदेश सुनने हेतु जाने लगे। घर के लोगों ने अर्जुन का हवाला देकर रोका तो वे बोले - मैं उसे समझाऊंगा। जब सुदर्शन के सामने अर्जुन आया, तो प्रहार नहीं कर सका और भूमि पर गिर पड़ा। उसके शरीर में प्रविष्ट यक्ष एक आचारवान अहिंसक का तेज सहन नहीं कर सका, इसलिए वह भाग गया। सेठ ने उसे उठाया और महावीर के उपदेश सुनाने ले गए। महावीर के उपदेश सुनने के बाद तो अजरुन संत हो गया। संत सान्निध्य जीवन में सकारात्मकता भर देता है, जिससे उपजे सदाचरण से व्यक्ति का अंत:करण पवित्र हो जाता है।

परोपकार कर विक्रमादित्य ने पाई कामधेनु गाय
महाराजा विक्रमादित्य प्रजा के कष्टों का पता लगाने के लिए प्राय: अकेले घूमा करते थे। एक बार वे घोड़े पर बैठकर एक जंगल से जा रहे थे। शाम हो चुकी थी। महाराज शीघ्रता से वन से निकल जाना चाहते थे। तभी उन्हें गाय के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। वे उसी ओर दौड़े। वहां जाकर देखा कि एक गाय दलदल में धंस गई थी। उसके चारों पैर पेट तक दलदल में डूबे थे। महाराज ने उसे निकालने का प्रयत्न किया, किंतु सफल नहीं हुए। उधर गाय का चिल्लाना सुनकर एक सिंह वहां आ पहुंचा। अंधेरा होने के कारण महाराज अब कुछ कर नहीं सकते थे, इसलिए तलवार लेकर गाय की रक्षा करने लगे जिससे सिंह उस पर आक्रमण न कर दे।
नाले के पास एक वटवृक्ष था, जिस पर बैठे तोते ने उनसे मनुष्य वाणी में कहा - राजन गाय तो मरेगी ही, अभी नहीं तो कल तक दलदल में डूबकर मर जाएगी। उसके लिए तुम क्यों प्राण दे रहे हो। सिंहनी या दूसरे वन्य पशु आ गए तो तुम भी नहीं बचोगे। महाराज बोले - पक्षी श्रेष्ठ, मुझे अधर्म का मार्ग मत दिखाओ। अपनी रक्षा तो सभी जीव करते हैं किंतु दूसरों की रक्षा में जो प्राण देते हैं वे ही धन्य होते हैं। अपने प्राण देकर भी मैं इस गाय को बचाने का प्रयास करूंगा। पूरी रात महाराज गाय की रक्षा करते रहे। सुबह उन्होंने देखा कि वहां गाय, सिंह व तोते में से कोई नहीं था बल्कि इंद्र, धर्म और भूदेवी खड़ी थीं। तब इंद्र ने प्रसन्न होकर विक्रमादित्य को कामधेनु गाय प्रदान की। प्राणिमात्र की रक्षा व सेवा में असीम पुण्य बसता है।

गांधीजी की सहनशीलता ने विरोधियों को झुका दिया
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दिए जाने का समाचार मिलते ही देश में तीव्र रोष फैल गया। जगह-जगह प्रदर्शनकारियों की पुलिस से झड़पें हुईं। बड़ी संख्या में लोग मारे गए। उन्हीं दिनों कराची में कांग्रेस अधिवेशन के लिए सदस्य एकत्रित हो रहे थे। गांधीजी भी आए। वे जैसे ही स्टेशन पर उतरे, नवजीवन सभा के सदस्यों ने गांधी विरोधी नारों के साथ काले झंडे उन्हें दिखाए। किंतु इन सबसे गांधीजी जरा भी नाराज नहीं हुए, बल्कि उन्होंने एक वक्तव्य प्रकाशित कराया कि यद्यपि वे अत्यंत क्रुद्ध थे और वे चाहते तो मुझे शारीरिक क्षति पहुंचा सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। केवल काले फूल तथा झंडे से मेरा स्वागत किया। जहां तक मैं समझता हूं, इससे उन्होंने उन तीनों स्वर्गीय देशभक्तों के फूल (भस्म) का अभिप्राय व्यक्त किया है।
मैं उनसे इसी शिष्टता की आशा करता हूं, क्योंकि वे मानते हैं कि मैं भी उसी लक्ष्य के लिए प्रयत्नशील हूं जिसके लिए वे प्रयत्न कर रहे हैं। अंतर केवल हमारे मार्ग का है। भगतसिंह की वीरता और त्याग के सामने किसका सिर न झुकेगा, किंतु मेरा यह अनुमान गलत नहीं है कि हम लोग जिस देशकाल में रह रहे हैं, यह वीरता कम मिलेगी। फिर पूर्ण अहिंसा का पालन तो शायद इससे भी बड़ी वीरता है। गांधीजी के इन विनम्र शब्दों का विरोधियों पर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा और फिर उन्होंने गांधीजी का विरोध नहीं किया। जब किसी महत्वपूर्ण लक्ष्य को प्राप्त करना अभीष्ट हो तो विरोध सहन करने का धर्य भी रखना चाहिए।

जब फकीर ने अकबर को भिखारी साबित किया
बादशाह अकबर विद्वानों, साधुओं और फकीरों का बहुत सम्मान करते थे। उनके दरबार में प्राय: देश के विभिन्न भागों से ऐसे लोग आया करते थे और बहुत सत्कार पाकर जाते थे। ऐसे किसी भी व्यक्ति को बादशाह तक पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। एक बार की बात है बड़ी दूर से एक फकीर अकबर की उदारता की बात सुनकर उनके पास पहुंचे। बादशाह ने उनकी बड़ी आवभगत की। थोड़ी ही देर में नमाज का समय हो गया।
अकबर फकीर से अनुमति लेकर वहीं पास ही में नमाज पढ़ने लगे। फकीर शांतिपूर्वक वहीं बैठे रहे। नमाज पूरी हो जाने पर अकबर ने प्रार्थना की - पाक परवरदिगार, मुझ पर अपने रहम का साया कर। मेरी फौज को कामयाबी दे। मेरा खजाना तेरी मेहरबानी से बढ़ता रहे। मेरे शरीर को तंदुरुस्त रख और मेरे परिवार को सुखी रख। फकीर बादशाह की प्रार्थना सुनकर उठा और चल दिया।
बादशाह नमाज तो पढ़ ही चुके थे, शीघ्रता से फकीर के पास आकर बोले - आप क्यों जा रहे हैं? मेरे लायक कोई खिदमत हो तो फरमाएं। फकीर ने कहा - मैं तुझसे कुछ मांगने आया था, किंतु देखता हूं कि तू तो खुद ही कंगाल है। तू भी किसी से मांगता ही है, इसलिए जिससे तू मांगता है, उसी से मैं भी मांग लूंगा। वस्तुत: जब भी ईश्वर के समक्ष जाएं, नि:स्वार्थ भाव से प्रार्थना करें। सभी का कल्याण चाहने पर ईश्वर संबंधित को भी सुखी कर देता

मलबाई की वीरता के सामने शिवाजी भी झुक गए
दक्षिण भारत का बहुत छोटा-सा राज्य था बल्लारी। उसका शासक कोई पुरुष न होकर एक विधवा नारी थी मलबाई देसाई। वह शौर्य की साक्षात प्रतिमा थी। एक बार छत्रपति शिवाजी महाराज ने बल्लारी पर चढ़ाई की। जिन मराठों की सेना ने दिल्ली के बादशाह औरंगजेब की भी नाक में दम कर रखा था, उसका सामना बल्लारी के मुट्ठीभर सैनिक कैसे करते, किंतु वे बड़ी वीरता से लड़े। शिवाजी ने बल्लारी के शूरवीरों का शौर्य देखा तो वाह-वाह कर उठे। बल्लारी के सैनिकों का एक बड़ा भाग खेत रहा। शेष बंदी बना लिए गए। पराजय तो पहले से ही निश्चित थी किंतु मलबाई बंदिनी होकर भी सम्मानपूर्वक ही छत्रपति के सामने उपस्थित की गई।
यद्यपि मलबाई अपने सम्मान से प्रसन्न नहीं थी। वह शिवाजी से बोली ‘एक नारी होने के कारण मेरा यह परिहास क्यों किया जा रहा है? छत्रपति तुम्हारा राज्य बड़ा है हमारा छोटा। तुम स्वतंत्र हो, थोड़ी देर पहले मैं भी स्वतंत्र थी। मैंने स्वतंत्रता के लिए लड़ाई की है। तुम्हारे लोगों का यह आदरदान मेरा अपमान है।’ तब शिवाजी उठे और हाथ जोड़कर बोले ‘बल्लारी स्वतंत्र था और स्वतंत्र है। मैं आपका शत्रु नहीं, पुत्र हूं। अपनी माता की मृत्यु के बाद मैं मातृहीन हो गया हूं। मेरे अपराध क्षमा कर मुझे पुत्र स्वीकारें।’ यह कहकर उन्होंने माता मलबाई की जय का उद्घोष किया और मलबाई ने भी शिवाजी को अपना पुत्र स्वीकार लिया।

मां की सेवा कर असीम पुण्य पाया बायजीद ने
प्रभु, मेरे दुखी पुत्र पर सुख-शांति की वष्र करना। उसका जीवन प्रभु प्रेममय रहे। संत बायजीद देहरी से माता की यह प्रार्थना सुन रहे थे। वर्षो बाहर रहकर उन्होंने कठोरतम साधना की थी और माता के दर्शन करने के लिए बहुत दिनों बाद वे अपने घर के द्वार पर पहुंचे थे। बायजीद ने आवाज लगाई - मां, तेरा दुखी पुत्र आ गया। पुत्र की आवाज सुनकर मां ने तुरंत दरवाजा खोला और बायजीद को हृदय से लगा लिया। रोते हुए माता ने बायजीद से कहा - बेटा, बहुत दिनों बाद तूने मेरी सुध ली। संत बोले - मां, मैं बहुत मूर्ख हूं। जिस कार्य को गौण समझकर मैं यहां से चला गया था, उसका महत्व अब समझ में आया है। कठोर तप करके मैंने जो लाभ उठाया है, यदि तुम्हारी सेवा करता रहता, तो वह लाभ अब तक कभी का सरलता से मिल गया होता। अब मैं तुम्हारी सेवा के अतिरिक्त और कुछ नहीं करूंगा।
बायजीद माता का निरंतर ध्यान रखने लगे। एक रात माता ने पानी मांगा। बायजीद ने देखा कि घर में पानी नहीं है, तो वे नदी से पानी लेकर आए। आकर देखा कि मां को नींद आ गई है। वे बर्तन लिए पूरी रात खड़े रहे कि कब मां की नींद खुलेगी और वे पानी मांगेंगी। सर्दी से अंगुलियां ठिठुर रही थीं, किंतु सुबह तक वे पानी हाथ में लिए खड़े रहे। सुबह मां के जागने पर मां को पानी पिलाया। मां ने उनका सेवाभाव देख आत्मा से आशीर्वाद दिया। जिसे पाकर संत धन्य हो गए। वस्तुत: मां अपने स्नेह, समर्पण और त्याग के कारण ईश्वर के समकक्ष है और इसीलिए उसकी सेवा महानतम पुण्य है।

जीवन में धर्म बेशकीमती हीरे की तरह है
हमारे देश में बात-बात पर धर्म की दुहाई दी जाती है। धर्म पर बात करना आसान है, धर्म को समझना सरल नहीं है, धर्म को समझकर पचा लेना उससे भी अधिक मुश्किल है, लेकिन सबसे कठिन है धर्म में जी लेना। धर्म में जी लेना जितना कठिन है, जीने के बाद उतना ही आसान भी है। बिल्कुल इसी तरह है कि जब कोई पहली बार साइकिल सीखने जाता है, तब उसे ऐसा लगता है कि दुनिया में इससे असंभव काम कोई नहीं, क्योंकि जैसे ही वह दोपहिया वाहन पर बैठता है, वह लड़खड़ाता है, गिर जाता है। सीखने वाला आदमी जब दूसरे को साइकिल मस्ती में चलाते हुए देखता है तो उसे बड़ा अजीब लगता है। यह कैसे मुमकिन है। लेकिन जब एक बार आदमी साइकिल चलाना सीख जाता है तो वह भी मस्ती से साइकिल चला लेता है।
धर्म का मामला कुछ इसी तरह का है, जब तक इसे जिया न जाए यह बहुत खतरनाक, परेशानी में डालने वाला, लड़खड़ाकर गिर जाने वाला लगता है। लेकिन एक बार यदि धर्म को हम जी लें तो फिर उस मस्त साइकिल सवार की तरह हो जाते हैं, जो लहराते हुए साइकिल चलाता है। जीवन में धर्म बेशकीमती हीरे की तरह है। जिसे हीरे का पता नहीं, वो जिंदगीभर कंकर-पत्थर ही बीनेगा। पहले तो हमारी तैयारी यह हो कि हम जौहरी की तरह ऐसी नजर बना लें कि धर्म को हीरे की तरह तराश लें। वरना हम हीरे को भी कंकर-पत्थर बनाकर छोड़ेंगे।

बड़प्पन के मायने समझाए सम्राट नेपोलियन ने
सम्राट नेपोलियन इंग्लैंड से युद्ध में पराजित हो गए थे। अंग्रेजों ने उन्हें बंदी बना लिया था। थोड़े दिनों तक उन्हें एक जेल में रखा गया। फिर सेंट हेलेना द्वीप भेजा जाना तय हुआ। इसके लिए अंग्रेजों ने एक जहाज की व्यवस्था की। उस जहाज के छोटे स्तर के कर्मचारी और नाविक फ्रांसीसी भाषा बोल-समझ लेते थे। नेपोलियन उन लोगों से कई बार दुभाषिये का काम लेते थे, क्योंकि अंग्रेज अधिकारियों को फ्रांसीसी भाषा समझ नहीं आती थी और नेपोलियन को अंग्रेजी नहीं आती थी। एक बार नेपोलियन ने जहाज के एक नाविक से फ्रांसीसी भाषा में बातचीत की। नेपोलियन को उस कर्मचारी की बातें बहुत अच्छी लगीं। वे बोले - कल तुम मेरे साथ भोजन करना।
नाविक के लिए यह अकल्पनीय था कि फ्रांस का सम्राट उसके साथ भोजन करे, जबकि जहाज के ही कप्तान आदि कर्मचारी उसके साथ भोजन नहीं करते थे। उसने कहा - आपकी उदारता के लिए धन्यवाद, किंतु जहाज के अधिकारी ऐसा होने नहीं देंगे। तब नेपोलियन बोले - मैं स्वयं पूछता हूं। नेपोलियन के पूछने पर जहाज के कप्तान ने कहा - जब आप स्वयं उसके साथ भोजन करना चाहते हैं, तब इसमें बाधा नहीं होगी। अगले दिन नेपोलियन ने नाविक को अपने साथ भोजन कराया। अपनी वीरता के अतिरिक्त सभी के साथ विनम्रता के व्यवहार ने नेपोलियन को महान बनाया। बड़प्पन इसी में है कि पद, अर्थ, उपलब्धि आदि किसी भी दृष्टि से ऊंचाई पर पहुंचने के बावजूद दृष्टि जमीन पर टिकी रहे।

संत अफ्ररायत ने दिया अपरिग्रह का संदेश

संत अफ्ररायत का जीवन अत्यंत सादगी संपन्न था। वे अपनी जन्मभूमि फारस को छोड़कर सीरिया चले आए थे। नगर के बाहर एक छोटी-सी गुफा में निवास करते थे और सदैव भगवान के स्मरण में लगे रहते। सूर्यास्त के बाद वे मात्र एक छोटी-सी रोटी खाते और चटाई पर सोते थे। उनका पहनावा केवल एक मोटा- सा कपड़ा था। अपने इस जीवन से संत बड़े प्रसन्न व संतुष्ट थे। एक दिन वे अपनी गुफा के बाहर बैठे हुए थे कि अन्थेमियस उनसे मिलने आया, जो फारस में राजदूत रह चुका था। संत को भेंट देने के लिए वह अपने साथ फारस से एक सुंदर वस्त्र लाया था। अन्थेमियस ने संत से निवेदन किया कि यह आपके देश की बनी हुई वस्तु है, इसे सहर्ष ग्रहण कीजिए।
संत ने अन्थेमियस से प्रश्न किया - क्या आप इसे ठीक समझते हैं कि एक पुराने स्वामिभक्त नौकर या सेवक को इसलिए निकाल दिया जाए कि दूसरा नया आदमी अपने देश से आ गया है? राजदूत ने गंभीरतापूर्वक उत्तर दिया - नहीं, ऐसा करना कदापि उचित नहीं है। तब संत बोले - तो फिर अपना वस्त्र वापस लीजिए। मैंने जिस वस्त्र को सोलह सालों से अनवरत धारण किया है, उसके रहते दूसरा नहीं रख सकता। मेरी आवश्यकता इसी से पूरी हो जाएगी। यह कहकर वे अपनी गुफा के भीतर चले गए। संत अफ्ररायत की यह अपरिग्रह वृत्ति संदेश देती है कि आवश्यकता से अधिक संग्रह उचित नहीं है, क्योंकि वह अधिकाधिक का लोभ जाग्रत करता है। अत: उतना ही रखें, जितने की जरूरत है।

राजा हमीर ने प्राण देकर भी शरणागत की रक्षा की

बादशाह अलाउद्दीन के दरबार में एक मंगोल सरदार था। बादशाह उसकी शूरता व ईमानदारी से बहुत खुश थे, परंतु एक दिन उससे कोई साधारण भूल हो गई। बादशाह ने क्रोध में आकर उसे प्राणदंड की सजा सुना दी। सरदार किसी प्रकार दिल्ली से बचकर निकल गया। अनेक स्थानों पर भटकने के बाद सरदार को रणथंभौर में शरण मिली। राजा हमीर उस समय सिंहासन पर थे। उन्होंने कहा - शरणागत की रक्षा राजपूत का प्रथम कर्तव्य है। आप हमारे यहां सुखपूर्वक निवास करें। खबर बादशाह तक पहुंची। उसने हमीर को धमकी दी कि यदि वे सरदार को नहीं छोड़ेंगे, तो युद्ध के लिए तैयार रहें। हमीर ने चुनौती स्वीकार की।
कुछ लोगों ने उन्हें बादशाह से शत्रुता न करने की सलाह दी और मंगोल सरदार के मुस्लिम होने का हवाला देते हुए उसको दफा करने की सलाह दी। किंतु हमीर का जवाब था - शरणागत किसी धर्म या जाति का नहीं होता। हमीर और बादशाह के बीच लड़ाई शुरू हो गई। पूरे पांच वर्ष तक घोर युद्ध चला। शाही सेना इतने समय तक रणथंभौर को घेरे खड़ी रही। जब दुर्ग में भोजन समाप्त हो गया, तो सरदार ने हमीर से कहा - आपने मेरे लिए बहुत कष्ट सहा। अब मुझसे पूरे राज्य का विनाश नहीं देखा जाता। मैं स्वयं बादशाह के पास चला जाता हूं। किंतु राजा हमीर ने उसे नहीं जाने दिया और मृत्यु के अंतिम क्षण तक सरदार की रक्षा की। वस्तुत: शरणागत की हर कीमत पर मदद करनी चाहिए। यही मनुष्य धर्म है और नैतिकता का तकाजा भी।

अच्छे कर्म सद्गति, बुरे कर्म दुर्गति की ओर ले जाते हैं
राजा ने मंत्री के ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए उससे चार वस्तुएं मांगीं। पहली - ‘है और है’, दूसरी - ‘है और नहीं है’, तीसरी- ‘नहीं है पर है’, चौथी- ‘नहीं है नहीं है’। मंत्री ने पूरी रात सोच-विचार किया और सुबह दरबार में राजा के सामने चार व्यक्ति उपस्थित किए - धर्मात्मा सेठ, वेश्या, साधु और बहेलिया। राजा सहित सभी सभासद कुछ समझ नहीं पाए। आखिर राजा ने मंत्री से पूछा - मंत्रीजी, ये लोग यहां क्यों लाए गए हैं? मंत्री ने उत्तर दिया - आपने जो चार वस्तुएं मांगी थीं, उनका जवाब ये चारों हैं। राजा ने कहा - समझाकर बताओ। तब मंत्री ने बताया कि पहली वस्तु जो आपने मांगी थी ‘है और है’ ये सेठजी हैं। इनके पास अपार संपत्ति है, सुख है और ये धर्मात्मा हैं, जो पुण्य कर्म करते हैं।
इससे परलोक में भी इन्हें पुण्य के फल से सुख मिलेगा। दूसरी वस्तु ‘है और नहीं है’ यह वेश्या है। इसके पास भी धन है, सुख है किंतु यह पाप से अर्जित होने के कारण परलोक में इसे कष्ट ही भोगना है। तीसरी वस्तु ‘नहीं है पर है’ ये साधु हैं। यहां तो इनके पास कुछ नहीं है किंतु इनके पास पुण्य की अपार संपत्ति है, जो परलोक में इन्हें असीम सुख देगी। चौथी वस्तु ‘नहीं है नहीं है’ यह व्याध है। यह प्राणियों को मारकर पेट भरता है। इस पाप से परलोक में भी इसकी अधोगति होनी है। राजा और सभासदों ने मंत्री की बुद्धिमानी की प्रशंसा की और राजा ने उन्हें पुरस्कृत भी किया। वस्तुत: व्यक्ति के कर्मो से ही उसका भविष्य तय होता है। अच्छे कर्म सद्गति और बुरे कर्म दुर्गति की ओर ले जाते हैं।

जब पिता के लिए अमरफल लेकर आया पुत्र
एक पिता-पुत्र थे। पिता अपने नन्हे से पुत्र को कभी-कभी बाजार का कुछ काम सौंप देता था ताकि पुत्र सीख सके। पुत्र भी खुशी-खुशी ऐसे काम करता था। एक दिन पिता ने देखा कि घर में फल खत्म हो गए हैं। अत: उसने अपने पुत्र को बुलाया और पैसे देकर फल लाने को कहा। बालक बाजार के लिए रवाना हुआ, तो उसे रास्ते में कुछ ऐसे लोग दिखे, जो अत्यंत निर्धन थे। उनके शरीर पर कपड़े भी पूरे नहीं थे। वे भूख के मारे छटपटा रहे थे। बालक को उन पर दया आ गई। उसने फल लाने के लिए रखे सारे पैसे उन लोगों को दे दिए। वे गरीब लोग खुश हो गए और उन्होंने तत्काल उन पैसों से खाने-पीने का सामान खरीदा। बालक को इससे बड़ी खुशी हुई। वह मन ही मन हर्षित होता हुआ खाली हाथ घर लौट आया।
पिता ने पूछा - बेटा, फल नहीं लाए? बालक ने उत्तर दिया - आपके लिए अमरफल लाया हूं, पिताजी। पिता ने जानना चाहा कि वह कौन-सा फल है। पुत्र ने कहा - पिताजी, मैंने रास्ते में कुछ भूखे लोगों को देखा तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने सारे पैसे उनको दे दिए। उनकी आज भर की भूख मिट गई। हम लोग फल खाते, कुछ क्षण के लिए हमारे मुंह मीठे हो जाते, किंतु इसका फल तो अमर है न पिताजी? पिता ने पुत्र की दया वृत्ति पर उसे शाबासी दी। यही बालक आगे चलकर संत रंगदास कहलाया। जरूरतमंदों की सहायता नैतिक धर्म है, जो पुण्य का भागी बनाता है। अत: जब भी और जैसे भी सहायता करने की स्थिति में हों, उदार मन से करें।

मूल्य चुकाकर बादशाह ने नीति पालन का संदेश दिया
ईरान के न्यायनिष्ठ बादशाह नौशेरवां को एक बार शिकार पर जाने की इच्छा हुई। उन्होंने अपने मंत्री, सेनापति आदि को बुलाकर शिकार हेतु व्यवस्था करने के निर्देश दिए। बादशाह के आदेश के पालन में सभी जुट गए। निश्चित दिन बादशाह का काफिला शिकार पर रवाना हुआ। घने जंगलों में पहुंचकर एक अच्छे स्थान पर बादशाह ने डेरा डाला। शिकार की पूरी योजना बनाकर आला अधिकारियों ने बादशाह के समक्ष प्रस्तुत की, जिसे उन्होंने स्वीकार कर आदेश दिया कि पहले भोजन कर लिया जाए, फिर शिकार पर निकला जाए। बादशाह के रसोइए भोजन बनाने लगे, तभी पता लगा कि नमक लाना भूल गए हैं।
अब नमक के बिना तो हर चीज बेस्वाद होती है। इसलिए एक सेवक को पास के गांव नमक लाने भेजा। वह किसी घर से नमक मांग लाया। बादशाह ने उससे पूछा - नमक का मूल्य दिया या नहीं? सेवक ने आश्चर्य से कहा- जहांपनाह, इतने नमक का मूल्य देने की क्या आवश्यकता है? तब बादशाह उसे झिड़कते हुए बोले - ऐसी भूल फिर कभी मत करना। पहले नमक का मूल्य देकर आओ। बादशाह यदि प्रजा के बाग से बिना मूल्य दिए एक फल ले ले तो उसके कर्मचारी बाग को उजाड़कर रख देंगे। या शायद बाग के पेड़ कटवाकर लकड़ियां भी जला डालें। वस्तुत: यह सभी के लिए अनुकरणीय है। पद पर रहकर नीति का पालन आम जनता को भी वैसा ही करने की प्रेरणा देता है, जिससे समाज में सुव्यवस्था स्थापित होती है।

नियमबद्ध दिनचर्या देती है जीवन को सही दिशा
नीति ग्रंथों में नियम पालन के महत्व पर केंद्रित एक कथा है। एक विद्वान थे। उन्होंने अनेक ग्रंथ लिखे थे और सतत् लेखन-पठन में लगे रहते थे। उनके पास अनेक विद्यार्थी भी ज्ञानार्जन की इच्छा से आते थे और वे कभी उन्हें निराश भी नहीं करते थे। अत: जो भी उनके पास आता, कुछ प्राप्त करके ही जाता। उनके पास आने वाले विद्यार्थियों में एक विद्यार्थी अत्यंत निर्धन था। विद्वान पुरुष ने उसकी सहायता करने के उद्देश्य से उसे अपना लेखक बना रखा था। वह प्रतिदिन एक निश्चित समय पर आता और उनके सामने कलम-कागज लेकर बैठ जाता।
वे दो घंटे बोलते जाते और वह विद्यार्थी लिखता जाता था। एक दिन उन्होंने उस विद्यार्थी से कहा - कल कुछ रात रहते ही आ जाना, ग्रंथ लिखवाकर मुझे बाहर जाना है। बेचारे विद्यार्थी को आधी रात ही उठना पड़ा और अंधेरे में चलकर वह उनके पास आया। किंतु केवल एक पंक्ति लिखवाकर वे बोले - आज का काम हो गया, अब तुम जा सकते हो। विद्यार्थी झुंझलाया, किंतु कुछ बोला नहीं। उसके मुख का भाव समझकर विद्वान बोले - असंतुष्ट मत हो। आज तुम्हें ऐसी शिक्षा मिली है, जिस पर यदि चलोगे तो जीवन में सफलता प्राप्त करोगे। वह शिक्षा यह थी कि जो नियम बनाओ, उसे टूटने मत दो। चाहे जैसी स्थिति आए, नियम का नित्य निर्वाह करो। नियमबद्ध दिनचर्या जीवन को न सिर्फ व्यवस्थित करती है, बल्कि उसे सही व सकारात्मक दिशा भी प्रदान करती है।

संयमराय ने जान देकर भी दिखाई स्वामिभक्ति
नरेश पृथ्वीराज युद्धभूमि में घायल पड़े थे। उन्हें इतने घाव लगे कि अपने स्थान से वे न खिसक सकते थे, न हाथ उठा सकते थे। सच तो यह था कि वे लगभग मूच्र्छित थे। उन्हें अपने शरीर का भान ही नहीं था। पृथ्वीराज के सैनिक पीछे हट गए थे। युद्धभूमि में केवल आहत सैनिकों का कंद्रन ही गूंज रहा था। वहां सैकड़ों गिद्ध उतर आए थे। वे मृत या मृतप्राय सैनिकों को नोंच-नोंचकर अपना पेट भर रहे थे। गिद्धों का एक समूह पृथ्वीराज की ओर भी बढ़ा आ रहा था। चूंकि वे मृतप्राय ही थे अत: गिद्ध उन्हें भोजन बनाने के लिए आ रहे थे। पृथ्वीराज से थोड़ी दूर उनके अंगरक्षक सामंत संयमराय घायल पड़े थे।
संयमराय मूच्र्छित नहीं थे, किंतु इतने घायल थे कि उठना तो दूर खिसकना भी उनके लिए असंभव था। उन्होंने पृथ्वीराज की ओर गिद्धों को बढ़ते देखा, तो मन में सोचा कि जिसकी रक्षा का भार मुझ पर है, मेरे सामने उसे गिद्ध नोंचकर खाएं तो मुझे धिक्कार है। संयमराय ने तत्काल बगल में पड़ी तलवार उठा ली और अपने शरीर का मांस टुकड़े-टुकड़े करके गिद्धों की ओर फेंकने लगे। गिद्ध पृथ्वीराज की ओर न जाते हुए इन मांस के टुकड़ों को खाने में जुट गए। पृथ्वीराज के सैनिक उनकी खोज में जब तक यहां पहुंचे, तब तक संयमराय मृत्यु के निकट पहुंच चुके थे। उनके पार्थिव शरीर की रक्षा नहीं हो सकी, किंतु काल भी उनकी उज्ज्वल कीर्ति को नष्ट करने में असमर्थ हो गया। यह उच्च स्वामिभक्ति अनुकरणीय है। जिसका नमक खाएं, उसके प्रति पूर्ण निष्ठावान रहें।

धैर्य और परिश्रम से ठूंठ भी फल-फूल उठा

एक संपन्न व्यापारी था। वह अनेक भवनों का स्वामी था और एक विशाल क्षेत्र में उसने बाग-बगीचे लगा रखे थे। जब भी उसे समय मिलता, वह अपने बगीचे देखने जाता और माली से प्रत्येक पेड़-पौधे के विषय में जानकारी लेता। माली बड़ा निष्ठावान था। वह अपना काम पूरी ईमानदारी व मनोयोग से करता था। बगीचे के हर छोटे-बड़े पौधे व पेड़ पर उसकी सतर्क दृष्टि रहती थी और अत्यंत तन्मयता से वह उनकी देखभाल करता था। एक दिन व्यापारी ने माली को अंजीर का पौधा लगाने को कहा। माली ने तत्काल पौधा लाकर रोप दिया। काफी लंबा समय व्यतीत हो गया। अंजीर का पौधा पेड़ बन गया, किंतु उसमें फल नहीं लगे।
व्यापारी बहुत परेशान हुआ। उसने माली से कहा - यह पेड़ निर्थक सिद्ध हुआ। इसने इतनी जमीन व्यर्थ ही घेर रखी है। तीन साल हो गए, किंतु इस ठूंठ में एक फल भी नहीं लगा। इसे काट डालो। माली बोला - मालिक, एक साल का समय दीजिए, मैं इसके चारों ओर थाला बनाऊंगा, पानी और खाद दूंगा। हो सकता है कि हमारी एक साल की प्रतीक्षा फलवती हो जाए और इस ठूंठ में नए प्राण आ जाएं। यदि फिर भी फूल न लगे तो इसे काट दूंगा। व्यापारी ने सहमति दे दी और सचमुच अगले साल उसमें फल आ गए। सार यह है कि असफलता से हार न मानते हुए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। दृढ़ आत्मविश्वास, कठोर परिश्रम और लगनशीलता से एक दिन अवश्य सफलता प्राप्त होती है।

कर्तव्यनिष्ठा ने दंड को भी पुरस्कार में बदल दिया
ईरान के शाह अब्बास को उनके एक पदाधिकारी ने अपने यहां आमंत्रित किया। निमंत्रण में पहुंचकर शाह ने इतना मद्यपान किया कि वे उन्मत्त हो उठे। नशे में झूमते हुए शाह उस पदाधिकारी के अंत:पुर के द्वार पर पहुंच गए, किंतु द्वारपाल मार्ग रोककर खड़ा हो गया। शाह को गुस्सा आ गया। उन्होंने तलवार खींच ली और कहा - हट सामने से, नहीं तो अभी तेरा सिर उड़ा दूंगा। द्वारपाल ने नम्रतापूर्वक कहा - मैं अपना कर्तव्यपालन कर रहा हूं। आप मेरे देश के स्वामी हैं, इसलिए आप पर हाथ नहीं उठा सकता, किंतु जब तक मैं जीवित हूं, आप भीतर नहीं जा सकते। मेरा वध कर दीजिए। फिर मेरी लाश पर पैर रखकर ही आप भीतर जा सकते हैं।
लेकिन जहांपनाह, मैं अपने स्वामी की मर्यादा की रक्षा के साथ आपकी रक्षा के लिए खड़ा हूं। आप मुझे मारकर भीतर चले गए तो मेरे स्वामी की बेगमें हथियार उठा लेंगी। शाह अब्बास का नशा अपने प्राणों की चिंता में ठंडा पड़ गया और वे लौट गए। दूसरे दिन दरबार में इस पदाधिकारी ने कहा - हुजूर, मेरे द्वारपाल ने आपसे जो बेअदबी की, उसके लिए माफी चाहता हूं। मैंने उसे आज से अपने यहां से निकाल दिया है। तब शाह बोले - चलो अच्छा हुआ, अब मुझे तुमसे उस कर्तव्यनिष्ठ सेवक को मांगना नहीं पड़ेगा। मैं उसे अपने अंगरक्षक सैनिकों का सरदार बना रहा हूं। वस्तुत: अपने कर्तव्यों का पालन हर परिस्थिति में करना चाहिए। सच्ची कर्तव्यनिष्ठा अपनी आत्मा में ईमानदार बने रहने का उत्तम मार्ग है और सदैव परिणाम भी अच्छे देती है।

दान देकर राजा साइरस ने पाई अपार धन-संपत्ति
फारस के राजा साइरस ने राजा क्रोशियस को बंदी बना लिया। साइरस दानी और उदार थे। एक दिन बंदी क्रोशियस ने राजा साइरस से उनकी दानवृत्ति देखकर कहा - यदि आप दान देने में इस तरह अपना खजाना खाली करते रहेंगे तो कुछ दिनों में ही कंगाल हो जाएंगे। क्रोशियस बहुत धनी थे और दान में विश्वास नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने साइरस को भी यही राय दी। साइरस ने प्रश्न किया - यदि मैंने राजसिंहासन पर बैठने के समय से आज तक किसी को कुछ भी दान नहीं दिया हो तो मेरे पास कितनी संपत्ति होने का आप अनुमान लगा सकते हैं।
क्रोशियस ने कहा - अपार संपत्ति। तब साइरस बोले - तो मैं अभी अपनी प्रजा के पास सूचना भेजता हूं कि मुझे अपार संपत्ति की आवश्यकता एक बहुत बड़े काम के लिए है और फिर आप इसका परिणाम देखिएगा। साइरस की इस सूचना के परिणामस्वरूप राजमहल के सामने सोने के ढेर लग गए। प्रजा ने बड़ी प्रसन्नता से राजा की आज्ञा के अनुरूप आचरण किया। क्रोशियस आश्चर्यचकित हो बोले - मैंने तो इससे कम संपत्ति का ही अनुमान लगाया था। तब साइरस ने कहा - यदि मैंने अपने धन का दान तथा प्रजा के हित में उसका उपयोग नहीं किया होता तो प्रजा मुझसे घृणा करती। मैंने ऐसा न कर खूब दान किया। इसीलिए प्रजा मुझे प्यार करती है। साइरस के उत्तर से क्रोशियस की आंखें खुल गईं। वस्तुत: देने से धन में वृद्धि ही होती है क्योंकि यह उदारता उन दुआओं को हजार गुना करके देती है, जो जरूरतमंदों की आत्मा से निकलती है।

परोपकार की राह में इडिथ ने दिए अपने प्राण
इडिथ कवेल एक अंग्रेज परिचारिका थी। वह प्रथम विश्वयुद्ध के समय घायलों की सेवा-सुश्रूषा करने के लिए बेल्जियम आई हुई थी। वह शत्रु हो या मित्र, सभी की समान रूप से सेवा करती थी। उसे इस बात पर आपत्ति थी कि जर्मन सैनिक बेल्जियम के नागरिकों को अपने देश के विरुद्ध काम करने के लिए मजबूर करते थे। जर्मन विजेताओं द्वारा नागरिकों को दास बनाया जाना भी उसे असहज था। ऐसी स्थिति में वह पीड़ित लोगों को अपने शिविर में शरण देती थी और उन्हें हॉलैंड या फ्रांस भाग जाने के लिए प्रोत्साहन और सहायता देती थी। एक दिन जर्मन सैनिकों ने उसको ऐसा करते देख लिया। वह बंदी बना ली गई। दोनों ओर की सेनाओं में हाहाकार मच गया। उसके मृत्युदंड की घोषणा हुई।
अनेक देशों के राजदूतों ने मानवता और नैतिकता के नाम पर इस दंड का विरोध किया, किंतु जर्मन न्यायालय ने उन सभी की उपेक्षा कर दी। मरते समय इडिथ के अंतिम शब्द थे - ‘ईश्वर और सत्य साक्षी हैं कि केवल देशभक्ति ही मनुष्य के लिए पर्याप्त नहीं है। देशभक्ति का अर्थ यह नहीं कि अपने देश के सम्मान वृद्धि के लिए दूसरे देश के नागरिकों को सताया जाए। किसी भी प्राणी के प्रति मेरे मन में घृणा और कटुता का भाव नहीं है।’ सार यह है कि सच्चा परोपकारी वही है जो धर्म, जाति, वर्ग और देश आदि की संकीर्ण सीमाओं से परे मानव को मात्र मानव की दृष्टि से देखकर उसके कल्याण के लिए कार्य करे।

और गांधीजी ने केवल लंगोटी पहनने का संकल्प लिया
लखनऊ में कांग्रेस का महाधिवेशन था। गांधीजी उसमें सम्मिलित होने आए थे। वहीं किसानों की कष्ट-कथा सुनकर वे उन्हें देखने चंपारन पहुंचे। कस्तूरबा भी साथ थीं। एक दिन कस्तूरबा व गांधीजी तिहरवा गांव गए। वहां कस्तूरबा ने देखा कि किसान महिलाओं के कपड़े बहुत गंदे थे। कस्तूरबा ने तत्काल गांव की औरतों की एक सभा की और उन्हें समझाया कि गंदगी से बीमारियां होती हैं, अत: उन्हें साफ-सुथरा रहना चाहिए। कस्तूरबा की बात सुनकर एक गरीब किसान की पत्नी, जिसके कपड़े अत्यंत मैले थे, कस्तूरबा से बोली - माताजी, मेरी देह पर बस यही एक धोती है। आप ही बताइए कि मैं क्या पहनकर धोती साफ करूं। आप गांधीजी से कहकर मुझे एक धोती दिलवा दें।
कस्तूरबा ने जब गांधीजी को यह बात बताई, तो उन्होंने उस स्त्री सहित सभी गरीबों के लिए वस्त्रों की व्यवस्था तो कर दी, किंतु साथ ही यह भी सोचा कि इसकी तरह देश में और भी बहनें होंगी। जब उन सभी को तन ढंकने के कपड़े नहीं है तो फिर मैं क्यों कुर्ता, धोती और चादर पहनने लगा। जब मेरी लाखों बहनों को गरीबी के कारण कपड़े नहीं मिलते, तो मुझे भी इतने कपड़े पहनने का क्या हक है। बस, उसी दिन से गांधीजी ने केवल लंगोटी पहनकर तन ढकने की प्रतिज्ञा कर ली। यह परदुख कातरता ऐसी रिश्ताविहीन मानवता का सृजन करती है, जहां परस्पर एक-दूसरे के कल्याण के लिए कार्य करने में ही जीवन का सबसे बड़ा सुख माना जाता है। गांधीजी का जीवन इसकी एक मिसाल है।

मेहनत की कमाई से आती है घर में शांति और बरकत
प्राचीनकाल में एक राजा राज्य करता था। राजधानी के पास ही एक ब्राह्मण रहता था, जो अत्यंत निर्धन था। उसकी एक बेटी थी, जो विवाह के योग्य हो गई थी। अपनी पत्नी की सलाह पर ब्राह्मण बेटी के विवाह के लिए राजा के पास धन मांगने पहुंचा। राजा ने उसे दस हजार रुपए दिए। ब्राह्मण ने कहा - महाराज, यह तो बहुत थोड़ा है। राजा ने उसे और दस हजार रुपए दिए। ब्राह्मण ने उसे भी कम बताया। राजा लगातार धनराशि बढ़ाता रहा, किंतु ब्राह्मण असंतुष्ट बना रहा। विवश होकर राजा ने पूछा - आखिर आप मुझे क्या देने को कह रहे हैं।
ब्राह्मण बोला - आपने अपने परिश्रम द्वारा जो शुद्ध धन अर्जित किया हो, वह चाहे बहुत थोड़ा हो, मेरे लिए बहुत होगा। मुझे वही चाहिए। राजा ने उसे अगली सुबह आने को कहा। इसके बाद रात में राजा वेष बदलकर निकला और एक लोहार के पास पहुंचा, जो सभी के सो जाने पर भी काम कर रहा था। राजा ने स्वयं को अत्यंत निर्धन बताकर उससे काम मांगा। लोहार ने उसे अपने हाथ का काम दे दिया। इस तरह रातभर में राजा ने चार पैसे कमाए और सुबह ब्राह्मण को दे दिए।
ब्राह्मण की पत्नी चार पैसे देख झुंझला गई और उसने उन्हें जमीन पर फेंक दिया। दूसरे दिन उस जमीन पर रत्न लगे चार वृक्ष उग आए और ब्राह्मण संसार का सबसे धनी व्यक्ति बन गया। कथा का निहितार्थ यह है कि नेकी की कमाई भले ही थोड़ी दिखे, किंतु अंतत: वही मनुष्य को सुखी व संपन्न बनाती है और उसका जीवन अद्भुत शांति से भर देती है।

अतिव्यस्त लोग भक्ति बढ़ा दें
बहुत तेज गति रखना पड़ती है, तब दुनिया पकड़ में आती है। दुनिया के लिए दौड़ रहे लोगों को रिश्ते बोझ लगने लगते हैं। तब आदमी कहता है रिश्ते निभाने के लिए भी समय नहीं मिलता। परिवार के रिश्ते तो कुदरत के लिए होते हैं, आदमी उनसे भी बचने के चक्कर में रहता है। अपने कामकाज में जैसे लक्ष्य के लिए हम बहुत सावधान रहते हैं, ऐसे ही रिश्तों के प्रति भी सजग रहें। रिश्तों में झुकना आ जाए, तो रिश्ते भी ताकत बन जाते हैं। रिश्तों में सबसे घातक पहलू है अकड़। इसे जितना गलाएंगे रिश्ते उतने निखरेंगे।
सोना गलाने पर आभूषण बनता है और अकड़ गलाने पर रिश्ता गहना बन जाता है। हमारी व्यावसायिक यात्रा में रिश्तों के दायित्व बाधा भी बन जाते हैं। यह अर्धसत्य है कि अच्छे-खासे सक्षम व्यावसायिक लोग भी रिश्तों के कारण दबाव में आ जाते हैं। एक प्रयोग करें, आपसी रिश्तों में कुछ चीजें जब हमारे हिसाब से न हों, तो भी उन्हें होने दें, घटने दें। थोड़ा सोचें, जब हम पैदा हुए, तो उस पर हमारा कोई अधिकार नहीं था। यही हाल मृत्यु के वक्त भी रहेगा, चाहने से नहीं, वह अपनी इच्छा से ही आएगी और हमें ले जाएगी।
जैसे हम इन घटनाओं को जीवन में देखते हैं, वैसे ही रिश्तों से जुड़ी घटनाएं होने दें, इनके भीतर के सच के स्वीकार्य में कई झंझटें खुद ब खुद खत्म हो जाएंगी। ज्यादा व्यस्त लोगों को रिश्ते निभाना ज्यादा कष्ट देता है। व्यस्त लोग अपनी दिनचर्या में भक्ति जरूर करें, उसे खूब बढ़ा दें। अपनी व्यस्तता कम न करें, भक्ति और अधिक करें। भक्त को झुकना अच्छा लगता है। जितना झुकना आएगा, रिश्ते उतने ही ज्यादा मजे देने लगंगे। व्यस्तता के कारण एक रिश्ता खूब आहत होता है, वह है पति-पत्नी का रिश्ता। इसमें पति तो आवेश में चिल्ला लेता है और पत्नी उदास हो जाती है। उदासी अव्यक्त क्रोध होता है।
क्रोध अंगारा है रिश्तों को झुलसाने के लिए। संसार राग से चलता है इसलिए उसमें द्वेष भी होगा। इस राग को किसी भी रिश्ते से जोड़ दें, तो यह अनुराग बन जाएगा। जैसे भक्त, परमात्मा से अनुराग रखता है, वैसे ही हम अपने परिवार में, रिश्तों में अनुराग लाते ही प्रेम को आमंत्रण दे देंगे। हमारी संस्कृति में कुछ संबोधन बड़े अच्छे व्यक्त हैं- नमस्कार, जय रामजी, जय श्रीकृष्ण, जय मातादी, पांव लागी। अंग्रेजी में गुडमॉर्निग कहने का अर्थ है, आपकी सुबह शुभ हो। हम भारतीय जब जय रामजी की कहेंगे, यानी आप स्वयं ही शुभ हो। आपको देख ईश्वर का नाम लिया, उन्हें याद किया। यह संबोधन कहता है कि आपको देख परमात्मा याद आया, सोचिए आप कितने शुभ हैं। रिश्तों में प्रेमपूर्ण संबोधनों का खूब उपयोग करें। व्यस्तता से भरी और भारी जिंदगी में भी रिश्ते, सहयोगी बन जाएंगे।

गुलाम ने सिखाया बादशाह को समानता का पाठ
हजरत इब्राहीम तब बलख के बादशाह थे। उस समय गरीब इंसानों को गुलामों के रूप में खरीदा व बेचा जाता था। चंद रुपयों की खातिर बेचारे गरीब आजीवन अमीरों के घर गुलामी करते थे। उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती थी। वे सदा मालिकों के हुक्म के अनुसार चलते थे। एक बार ऐसा ही एक गुलामों को बेचने वाला हाट लगा। हजरत इब्राहीम भी वहां गए। बहुत सारे लड़कों में से एक लड़का उन्हें बड़ा विनम्र लगा। उन्होंने उसे खरीद लिया। उसे लेकर वे अपने महल में आ गए। चूंकि इब्राहीम स्वभाव से बहुत उदार थे, अत: उन्होंने उस गुलाम से पूछा - तेरा नाम क्या है? गुलाम ने उत्तर दिया - जिस नाम से आप मुझे पुकारें। बादशाह ने प्रश्न किया - तू क्या खाएगा? गुलाम बोला - जो आप खिलाएं। बादशाह ने फिर पूछा - तुझे कैसे कपड़े पसंद हैं? गुलाम बोला - जो आप पहनने को दें। बादशाह ने अगला सवाल किया - तू काम क्या करेगा? गुलाम ने जवाब दिया - जो आप कराएं। बादशाह ने हैरान होकर पूछा - आखिर तू चाहता क्या है? गुलाम ने शांति से उत्तर दिया - हुजूर, गुलाम की अपनी क्या चाह? बादशाह अपने सिंहासन से उठे और उसे गले लगाकर बोले - तुम मेरे उस्ताद हो। तुमने मुझे सिखाया कि परमात्मा के सेवक को कैसा होना चाहिए। उन्होंने गुलाम को मुक्त कर दिया। वस्तुत: हम सभी उस परमपिता परमेश्वर की संतानें हैं। इस नाते कोई मनुष्य दूसरे से बड़ा न होकर समान रूप से बंधु है और इसीलिए सभी को सभी से स्नेहपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

बुद्धिमान ग्रीजेल ने सूझबूझ से पिता के बचाए प्राण
ब्रिटेन का शासक जेम्स द्वितीय अत्याचार व अन्याय के लिए कुख्यात था। उसके समय में जिसे फांसी की सजा सुनाई जाती थी, उसे परिवार के किसी भी सदस्य से मिलने नहीं दिया जाता था। एक बार कांकरेल नामक एक व्यक्ति को फांसी की सजा सुनाई गई। उसकी बेटी ग्रीजेल ने अपने पिता से मिलने की सोची। लड़के का रूप धारण कर उसने किसी तरह पिता से मुलाकात की। उसे पता चला कि उनके बचने का एकमात्र उपाय जेम्स का क्षमादान है। किंतु समय बहुत कम था। फिर भी ग्रीजेल ने धर्य न खोते हुए अपने भाई को प्रार्थना पत्र देकर लंदन विदा किया।
भाई के लौटने से पहले ही पिता की फांसी का दिन निकट आ गया। ग्रीजेल ने तय किया कि डाकिये के हाथ से फांसी का फरमान लेकर फाड़ दिया जाए। वह डाकिये के मार्ग में पुरुष वेश में हाथ में पिस्तौल लिए खड़ी हो गई। डाकिया आया तो ग्रीजेल ने उससे डाक झपट ली और पिता की फांसी का फरमान निकाल लिया। डाकिये ने भी ग्रीजेल पर गोलियां चलाईं, किंतु वह बच गई। अब डाकिया डर गया। डाकिया अपनी जान की सलामती पर खुश होता हुआ चला गया। फरमान न मिलने से कांकरेल को फांसी नहीं हुई और अवधि आगे बढ़ गई। उधर, जेम्स, ग्रीजेल के भाई की करुण प्रार्थना पर पिघल गया और क्षमादान का पत्र उसे दे दिया। इस प्रकार ग्रीजेल ने अपार धर्य, बुद्धिकौशल व साहस के बलबूते अपने पिता के प्राण बचा लिए। वस्तुत: प्रतिकूलताओं में घबराएं नहीं, शांत रहकर विचारपूर्वक कार्य करें।

रेलवे के पॉइंटमैन ने बचाई हजारों लोगों की जान
मद्रास प्रांत में रेलवे का एक पॉइंटमैन था, जो प्रतिदिन अपना कार्य बड़ी ही ईमानदारी से करता था। वह अपने मित्रों को भी ऐसा ही करने की सलाह देता था। एक दिन वह सुबह काम के लिए निकला और अपने पॉइंट पर जाकर खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद ऐसी स्थिति बनी कि दोनों ओर से दो गाड़ियां पूरी तेजी के साथ एक ही ट्रैक पर आ रही थीं। पॉइंटमैन उन गाड़ियों को उचित सिग्नल देने के बारे में सोच ही रहा था कि तभी एक भयानक काला सर्प आकर उसके पैर से लिपट गया। पॉइंटमैन ने सोचा कि यदि सांप को हटाने के लिए पॉइंट छोड़ता हूं तो गाड़ियां टकरा जाएंगी और हजारों लोगों के प्राण चले जाएंगे।
पॉइंट नहीं छोड़ता तो सांप के काटने से मेरे प्राण जाएंगे। आखिर उसकी कर्तव्य भावना जीत गई और उसने क्षणभर में ही तय कर लिया कि सर्प चाहे डस ले, किंतु वह पॉइंट छोड़कर हजारों लोगों की मृत्यु का कारण नहीं बनेगा। वह अपने स्थान से तनिक भी नहीं हिला। उसकी कर्तव्यनिष्ठा ने ही उसके प्राण बचाए। गाड़ियों की तेज आवाज से डरकर सांप उसका पैर छोड़कर भाग गया। साथ ही हजारों मनुष्यों की जान बच गई। जब अधिकारियों को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने पॉइंटमैन को पुरस्कृत किया। सार यह है कि मनुष्य को प्रत्येक स्थिति में अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करना चाहिए। कर्तव्यनिष्ठा वह नैतिकता है, जो समाज के सुसंचालन हेतु अनिवार्य है

किसान ने समझाई बेटों को सफलता की राह

किसान का अंतिम समय आ गया था। उसे लगा कि अपने दोनों पुत्रों को बुलाकर सभी जरूरी बातें समझा देनी चाहिए। उसने दोनों को बुलाया। वे अपने पिता के पास बैठ गए और उन्हें वचन दिया कि जो वे कहेंगे, उसका जीवन भर पालन करेंगे। किसान बोला - मेरे बच्चो! मुझे यकीन है कि तुम मेरी कही बात आजीवन ध्यान रखोगे। मेरे पास जो कुछ भी तुम्हें देने के लिए है, उसे मैं दोनों को बराबर-बराबर देता हूं। मेरी सारी संपत्ति इन खेतों में ही है। इनमें पर्याप्त अन्न पैदा कर तुम लोग अपने परिवार का पालन-पोषण भलीभांति कर सकते हो। यह भी याद रखना कि इन्हीं खेतों में मैंने अपनी पूंजी भी छिपाकर रखी है। यह कहने के बाद किसान की मृत्यु हो गई।
उसके मरते ही दोनों पुत्रों ने खेतों में छिपाकर रखी गई पूंजी पर विचार किया। उन्होंने खेत की सारी जमीन खोद डाली। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि पिताजी ने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला और मरते समय तो वे झूठ बोल ही नहीं सकते। हालांकि दोनों ने खेत में गड़ा धन न मिलने का दुख नहीं मनाया, बल्कि संतोषपूर्वक खेतों में बीज बो दिए। खेत में अकूत अन्न पैदा हुआ। तब दोनों ने पिताजी के कथन का सही आशय जानकर कहा - हम लोगों ने उनकी बात का अर्थ पहले समझा नहीं। उन्होंने खेत से अच्छी तरह कमाने की शिक्षा दी थी और उन्हीं के आशीर्वाद से हमने इतना अन्न प्राप्त किया। उन्नति का मार्ग श्रम है। जीवन के किसी भी कार्य में श्रम करने पर ही सफलता प्राप्त होती है।

भक्ति के लिए चुनी संत ने बदनामी की राह
एक सौदागर के यहां एक अत्यंत सुंदर दासी थी। एक दिन व्यापारी को व्यापार के सिलसिले में गांव से बाहर जाना था। उसके सामने समस्या यह थी कि इतनी सुंदर दासी को कहां रखे। उसे संत अबू उस्मान की याद आई। वह उनके पास गया और दासी को अपने पास रखने की प्रार्थना की। पहले तो उन्होंने अस्वीकार किया, किंतु संयोग से एक दिन उस्मान की दृष्टि दासी पर पड़ गई। उनका चित्त अस्थिर रहने लगा। परेशान हो वे धर्माचार्य अबु हाफिज के पास गए और उन्हें अपनी समस्या बताई। हाफिज ने उन्हें संत यूसुफ के पास भेजा। यूसुफ के नगर में उस्मान को लोगों ने कहा - आप फकीर हैं, फिर आप चरित्रहीन यूसुफ के पास क्यों जाना चाहते हैं?
निराश होकर उस्मान वापस लौट आए। अबु हाफिज ने उन्हें समझा-बुझाकर पुन: यूसुफ के पास भेजा। अबकी बार उस्मान ने यूसुफ की और अधिक निंदा सुनी, किंतु वे संत से मिलने का निश्चय कर चुके थे। यूसुफ की झोपड़ी में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि द्वार पर एक वृद्ध पुरुष बैठा है और उसके पास एक बोतल और प्याला है। उन्होंने यूसुफ से बोतल व प्याले के बारे में पूछा तो वे बोले - मेरे पास पानी के लिए कोई बर्तन नहीं है। इसलिए बोतल में पानी भर रहा हूं और पानी पीने के लिए यह प्याला है। उस्मान ने उन्हें फेंकने को कहा। यूसुफ बोले - इसलिए तो मैंने इन्हें रखा है। चरित्रहीन समझकर कोई मेरे पास नहीं आता और मैं भगवद् भजन में लगा रहता हूं। वस्तुत: भगवान के सच्चे भक्त प्रभु स्मरण में लगे रहना पसंद करते हैं।

लालच में जमींदार ने किया स्वयं का ही अहित
एक किसान के बगीचे में अंगूर की बेल थी। उसमें हर साल बड़े मीठे-मीठे अंगूर फलते थे। किसान था भी अत्यंत परिश्रमी। वह दिन-रात मेहनत करता और उतना ही अच्छा फल पाता। परिश्रमी होने के साथ-साथ किसान परम सत्यवादी और त्यागी भी था। अपने इसी स्वभाव के कारण उसने एक दिन विचार किया कि बगीचा तो है मेरे श्रम की देन, किंतु भूमि जमींदार की है। अत: इन मीठे अंगूरों में से उसे भी कुछ भाग मिलना चाहिए अन्यथा यह मेरा उसके प्रति अन्याय होगा और मैं ईश्वर के सामने मुंह दिखाने योग्य नहीं रहूंगा। ऐसा सोचकर किसान ने प्रतिवर्ष जमींदार के घर कुछ मीठे अंगूर भेजने शुरू कर दिए।
उधर, जमींदार ने सोचा कि अंगूर की बेल मेरी जमीन पर है, इसलिए उस पर मेरा पूर्ण अधिकार है। मैं उसे अपने बगीचे में लगा सकता हूं। लोभ के अंधकार में उसे सत्कर्तव्य का ध्यान न रहा। उसने अपने नौकरों को आदेश दिया कि बेल उखाड़कर मेरे बगीचे में लगा दो। नौकरों ने मालिक की आज्ञा का पालन किया। बेचारा किसान असहाय था। वह सिवाय पछताने के क्या कर सकता था। अंगूर की बेल जमींदार के बगीचे में लगा दी गई, किंतु फल देने की बात तो दूर रही बेल कुछ ही दिनों में सूख गई। लोभ के कीड़े ने उसे सदा के लिए फलहीन कर दिया। वस्तुत: लालच दूसरों के साथ-साथ स्वयं को भी नुकसान पहुंचाता है। चूंकि इसकी नींव में अन्यों का अकल्याण होता है, इसलिए यह अपनी समग्रता में अकल्याणकारी परिणाम देता है।

चैतन्य महाप्रभु ने ब्राह्मण से सीखी सच्ची भक्ति
चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी से दक्षिण भारत की यात्रा करने निकले थे। भ्रमण के दौरान वे एक सरोवर के किनारे पहुंचे। सरोवर के किनारे एक ब्राह्मण बैठा हुआ था, जो गीता का पाठ कर रहा था। चैतन्य महाप्रभु उसके समीप जाकर बैठ गए, किंतु ब्राह्मण गीता पाठ में इतना तल्लीन था कि उसे उनकी उपस्थिति का तनिक भी भान नहीं हुआ। उसका शरीर रोमांचित हो रहा था और नेत्रों से आंसू बह रहे थे। महाप्रभु भी शांत भाव से चुपचाप बैठे रहे। जब पाठ समाप्त हुआ तो महाप्रभु उससे बोले - ब्राह्मण देवता, लगता है कि आप संस्कृत नहीं जानते क्योंकि श्लोकों का उच्चरण शुद्ध नहीं हो रहा था। किंतु गीता का ऐसा कौन-सा अर्थ आप समझते हैं कि जिससे आनंद में आप इतने भावविभोर हो रहे थे? ब्राह्मण ने उन्हें दंडवत प्रणाम कर कहा - भगवन, मैं संस्कृत क्या जानूं और गीता के अर्थ का मुझे क्या पता। मैं जब इस ग्रंथ को पढ़ने बैठता हूं, तब मुझे कुरुक्षेत्र में खड़ी दोनों सेनाएं साक्षात दिखती हैं। दोनों सेनाओं के बीच एक रथ खड़ा दिखाई देता है। रथ के भीतर अर्जुन दोनों हाथ जोड़े और रथ के आगे घोड़ों की लगाम पकड़े भगवान श्रीकृष्ण बैठे हैं। मुझे तो भगवान और अर्जुन की ओर देख-देखकर प्रेम से रुलाई आ रही है। महाप्रभु ने यह कहकर ब्राह्मण को हृदय से लगा लिया कि तुम्हीं ने गीता का सच्च अर्थ जाना है। वस्तुत: जहां भक्ति प्रकट करने के औपचारिक उपादान भले ही त्रुटिपूर्ण हों, किंतु आराध्य के प्रति संपूर्ण हार्दिक समर्पण हो, वहां सच्ची भक्ति प्रकट होती है।

हर वक्त किसी की मदद का मोहताज क्यों होना?

एक घुड़सवार कहीं जा रहा था। अचानक उसके हाथ से चाबुक गिर पड़ा। उसके साथ उस समय बहुत से मुसाफिर पैदल चल रहे थे, किंतु उसने किसी से चाबुक उठाकर देने के लिए नहीं कहा। वह स्वयं घोड़े से उतरा और चाबुक उठाकर फिर सवार हो गया। यह देखकर साथ चलने वाले मुसाफिरों ने कहा - भाई साहब, आपने इतनी तकलीफ क्यों की? चाबुक हम लोग उठाकर दे देते। घुड़सवार बोला - भाइयो, आपका कहना तो अत्यंत सज्जनतापूर्ण है, किंतु मैं आपसे ऐसी मदद कैसे ले सकता हूं? प्रभु की यही आज्ञा है कि जिससे उपकार प्राप्त हो, बदले में उसका भी उपकार करना चाहिए। मैं आप लोगों को नहीं पहचानता, न आप मुझे जानते हैं। ऐसी स्थिति में मैं उपकार का भार कैसे उठाऊं?
यह सुनकर मुसाफिरों ने कहा - अरे भाई साहब, इसमें उपकार क्या है। आपके हाथ से चाबुक गिर पड़ा, हम उठाकर दे देते। इसमें मेहनत क्या हुई? घुड़सवार बोला - छोटे-छोटे कामों में मदद लेते ही बड़े कामों में भी मदद लेने की आदत पड़ जाती है। इससे स्वभाव में सुस्ती आ जाती है और फिर हर काम में दूसरों का मुंह ताकने की आदत पड़ जाती है। इसलिए जब तक कोई विपत्ति न आए या आत्मा की उन्नति के लिए आवश्यक न हो, तब तक केवल आराम के लिए किसी से किसी भी तरह की मदद नहीं लेनी चाहिए। अनावश्यक मदद लेने से व्यक्ति अपने स्वावलंबी स्वभाव को खोकर पराधीन बन जाता है, जिससे आत्मविकास रुक जाता है। अत: यथासंभव अपना काम स्वयं करना चाहिए।

और सदगृहस्थ ने सोने की मोहरें लौटा दीं
एक सदगृहस्थ थे। अपनी घरेलू जिम्मेदारियों का समुचित निर्वहन करते हुए वे प्रभु स्मरण भी संपूर्ण निष्ठा व तन्मयता से करते थे। एक दिन वे पूजा कर उठे ही थे कि एक व्यक्ति उनके पास आकर बोला - मेरे स्वर्गीय पिताजी आपके मित्र थे। उन्होंने धर्मपूर्वक अर्थोपार्जन किया था। मैं उनकी इच्छानुसार उसी में से दो हजार सोने की मोहरें लेकर आपकी सेवा में आया हूं। कृपया इन्हें स्वीकार कर हमें कृतार्थ करें। इतना कहकर वह थैली उन सदगृहस्थ के चरणों में रखकर चला गया। सदगृहस्थ उस समय मौनव्रत में थे, इसलिए कुछ बोले नहीं। बाद में उन्होंने अपने पुत्र को बुलाकर पूरी घटना सुनाई और कहा - बेटा, मोहरों की यह थैली उन सज्जन को वापस दे आओ।
उनसे कहना, तुम्हारे पिता के साथ मेरे पिता का पारमार्थिक प्रेम संबंध था, सांसारिक नहीं। यह सुनकर पुत्र बोला - पिताजी, आपका हृदय क्या पत्थर का बना है? आप जानते हैं कि अपना कुटुंब बड़ा है और घर में आर्थिक तंगी है। इस भले आदमी ने बिना मांगे मोहरें दी हैं तो आप अपने निर्धन परिवार पर दया करके ही उन्हें स्वीकार कर लीजिए। सदगृहस्थ ने कहा - बेटा, क्या तेरी यह इच्छा है कि अपने कुटुंबी धन को लेकर मौज करें और मैं सोने की मोहरें लेकर अपराध का भागी बनूं? बेटे ने तत्काल अपनी भूल समझ पिता से क्षमा मांग ली। वस्तुत: परमार्थ या परोपकार की भावना से किया गया प्रेम क्रय-विक्रय की वस्तु नहीं होता। वह नि:स्वार्थ श्रद्धा भाव से उपजता है और प्रतिफल में कोई इच्छा नहीं रखता।

नि:स्वार्थ भाव से दिया गया दान ही सर्वश्रेष्ठ है
स्वर्ग के देवदूतों ने भगवान से एक दिन प्रश्न किया - हे प्रभु, क्या संसार में ऐसी कोई वस्तु है, जो चट्टानों से अधिक कठोर हो? भगवान ने उत्तर दिया - हां, लोहा चट्टान से अधिक कठोर है क्योंकि यह उन्हें तोड़ डालता है। देवदूतों ने पुन: पूछा -आपकी बात सत्य है किंतु क्या ऐसी भी कोई वस्तु है, जो लोहे से भी कठोर और मजबूत हो। भगवान ने जवाब दिया - नि:संदेह है। वह वस्तु अग्नि है क्योंकि यह लोहे को पिघला देती है। देवदूतों की जिज्ञासा फिर बलवती हुई - प्रभु अग्नि से भी कठोर क्या वस्तु है?
भगवान बोले - अग्नि से कठोर वस्तु पानी है, क्योंकि तीव्र से तीव्रतम अग्नि को भी पानी बुझा देता है। देवदूतों ने प्रश्न क्रम को आगे बढ़ाते हुए पूछा - भगवान, पानी को भी मात करने वाली चीज कौन-सी है? भगवान ने उत्तर दिया - हवा, जो जल के प्रभाव को तरंग के रूप में बदल देती है। उसके उत्पत्ति स्थान मेघों को भी जब चाहे एकत्र या तितर-बितर कर सकती है। देवदूत पुन: मुखर हुए - प्रभु। अब भी कोई चीज ऐसी है, जो इनकी अपेक्षा अधिक बलवान हो। भगवान बोले - हां, वह दयालु हृदय जो इतनी गुप्त रीति से इस तरह दान देता है कि उसका बायां हाथ भी नहीं जान पाता कि दाहिना हाथ क्या कर रहा है। वह इन सबसे बलवान और महान है। प्रचार रहित नि:स्वार्थता से किया गया दान सर्वोत्तम होता है, जो देने वाले को सच्च सुख पहुंचाकर लोकयश का भागी बनाता है।

जौहरी का मोहभंग हुआ और वह प्रभु स्मरण में लग गया
एक जौहरी ने रोम नगर में प्रवेश किया। वहां के मंत्री ने उसका स्वागत किया। मंत्री के आग्रह पर जौहरी घोड़े पर सवार हो नगर के बाहर गया। वह एक सघन वन में पहुंचा। उसने देखा कि मूल्यवान रत्नों से सजे एक मंडप के आगे सुसज्जित सैनिक दल चारों ओर घूमकर प्रदक्षिणा कर रहा है।
इसके बाद सैनिक दल ने रोमन भाषा में कुछ कहा और चला गया। फिर वृद्धों के एक समूह और उसके बाद चार सौ पंडितों ने वही प्रक्रिया दोहराई। फिर रूपवती युवतियां मणिमुक्ताओं से भरे थाल लिए आईं और प्रदक्षिणा कर कुछ बोलकर चली गईं। इसके बाद मुख्यमंत्री के साथ सम्राट ने भी वही किया। जौहरी ने मंत्री से इसका रहस्य पूछा तो उसने बताया - सम्राट का एकमात्र पुत्र युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। यहां उसकी कब्र है। प्रतिवर्ष उसके मृत्यु दिवस पर सैनिक आकर कहते हैं - हे राजकुमार, भूतल पर कोई भी अमिट शक्ति होती तो हम उसे ध्वंस कर तुम्हें बचा लेते, किंतु मृत्यु पर हमारा वश नहीं।
वृद्ध समुदाय कहता है - यदि हमारे आशीष में इतनी शक्ति होती तो हम तुम्हें ले आते। युवतियां कहती हैं - हम अपने सौंदर्य से तुम्हारी रक्षा कर सकतीं तो अपनी बलि दे देतीं। सम्राट ने कहा कि संसार की किसी भी शक्ति में काल जीतने का सामथ्र्य नहीं। तेरे पिता में भी नहीं। यह सुनकर जौहरी का जीवन से मोहभंग हो गया और वह प्रभु स्मरण में लग गया। वस्तुत: जीवन नाशवान है, अत: इसका हर पल सद्कार्यो में लगाएं।

और अपनी आदत के कारण वकील मुकदमा हार गए

एक वकील साहब थे। उनका अनुभव इतना प्रगाढ़ था कि वे अपने किसी भी मुकदमे को हारते नहीं थे। लेकिन उनकी एक विचित्र आदत थी। जब भी वे अदालत में जज के सामने बहस करते, अपने एक हाथ से अपने पहने हुए कोट का बटन हिलाते-डुलाते या घुमाते रहते थे। संभव है कि इससे उन्हें आत्मबल मिलता होगा। प्रत्येक मुकदमें में मिलती जीत से उनके विरोधी खेमे के लोग काफी चिंतित रहते थे। एक दिन विरोधियों को किसी मनोवैज्ञानिक ने बताया कि आप लोग ध्यान दें, उनकी कोई न कोई आदत या कमजोरी अवश्य होगी, जिससे वे आत्मसंतुष्टि और आत्मविश्वास महसूस करते होंगे।
विरोधियों ने कोर्ट में जाकर उन पर ध्यान रखना आरंभ कर दिया। वह आदत उन लोगों को मिल गई। वे जान गए कि वकील साहब बहस करते समय अपने हाथों से अपने कोट का बटन हिलाते-डुलाते रहते हैं। एक दिन की बात है, एक बहुत बड़े मामले पर बहस होनी थी। उस दिन विरोधी खेमे वालों ने वकील साहब के नौकर को बहला-फुसलाकर और पैसे का लालच देकर उनके कोट का बटन तुड़वा दिया। वकील साहब कोर्ट पहुंचे, बहस आरंभ हुई। आदतन जैसे ही उनके हाथ अपने कोट के बटन पर पहुंचे, बटन टूटा पाया। वकील साहब तुरंत दबाव में आ गए और मुकदमा हार गए। वस्तुत: यही आदतों का दास हो जाना कहलाता है। हमें अपने शरीर का दास नहीं, बल्कि उसका मालिक बनकर दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना चाहिए।

उपकार ने बना दिया शत्रुओं को अच्छा मित्र
एक राजा के पास दो शिकारी कुत्ते थे। उनमें प्राय: लड़ाई हुआ करती थी। जब भी वे मिलते, एक-दूसरे पर भौंकते और परस्पर आक्रमण का प्रयास करते। राजा के सैनिक परेशान हो गए। वे कोशिश करते कि दोनों कुत्तों को अलग-अलग रखा जाए। किंतु जब राजा शिकार पर जाते तो दोनों को साथ रखना अनिवार्य होता और तब उन्हें संभालने में बड़ी परेशानी होती थी। स्वयं राजा को भी इस समस्या का कोई समाधान नहीं सूझ रहा था। एक दिन उन्होंने अपने बुद्धिमान परामर्शदाता को बुलाकर पूछा कि ऐसा कौन-सा उपाय हो सकता है, जिससे दोनों कुत्ते मित्र की तरह एक साथ रहने लगें। परामर्शदाता ने सलाह दी कि आप इन्हें जंगल में ले जाइए, जब कोई भेड़िया दिखाई दे तो इनमें से एक को उस पर छोड़ दीजिए। जब एक कुत्ता लड़ते-लड़ते थकने लगे, तब उसकी सहायता के लिए दूसरे को छोड़ दीजिएगा। दोनों मिलकर भेड़िये को समाप्त कर देंगे और एक-दूसरे के कृतज्ञ हो जाएंगे। राजा ने यही किया। भेड़िया आया और एक कुत्ता जब उससे लड़कर थकने लगा तो दूसरे कुत्ते को उसकी सहायता के लिए भेज दिया। दोनों ने मिलकर भेड़िये को मार डाला। पहले कुत्ते ने दूसरे कुत्ते का बड़ा आभार माना क्योंकि उसकी कृपा से प्राण रक्षा हुई थी। दोनों कुत्ते परस्पर मित्र बन गए और बड़ी आत्मीयता से साथ रहने लगे। सार यह है कि उपकार का बदला उपकार से ही मिलता है। यदि दुश्मन के प्रति भी सद्व्यवहार किया जाए तो उसे मित्र बनते देर नहीं लगती।

आखिर बादशाह को मिल ही गया ईमानदार व्यक्ति
एक बादशाह के कर्मचारी राज्य कर वसूल करके उसमें से कुछ हिस्सा अपने पास रख लेते थे और बादशाह से कहते थे कि जनता कर नहीं देती। इसलिए बादशाह को एक सच्चे आदमी की तलाश थी। बादशाह के मंत्री ने राय दी कि आप राज्य में ढिंढोरा पिटवा दीजिए कि आपको राज्य कर वसूल करने के लिए एक योग्य अधिकारी की आवश्यकता है। जब इस विषय में लोग आपसे मिलने आएं तो उनसे आप नाचने के लिए कहिएगा। बादशाह ने सारे राज्य में यह मुनादी करवा दी। जब आवेदक निश्चित समय पर राजमहल के सामने एकत्र हो गए तो बादशाह एक कमरे में जाकर बैठ गए। उस कमरे का रास्ता एक गलियारे से होकर जाता था, जिसमें घना अंधेरा था। मंत्री ने एक-एक करके लोगों को उस गलियारे में से बादशाह के सामने भेजना शुरू किया। बादशाह ने उनमें से हर एक को नाचने के लिए कहा, किंतु एक व्यक्ति को छोड़कर शेष सभी झिझक गए और बिना नाचे ही बाहर चले गए। शेष बचा व्यक्ति बादशाह के सामने जमकर नाचा। तब मंत्री ने कहा - मैंने अंधेरे गलियारे में सोने के सिक्के बोरे में भरकर रखवा दिए थे। जो बेईमान थे, उन्होंने अपनी जेब मोहरों से भर ली थीं। यदि वे नाचते तो उनकी जेब से मोहरे गिरतीं और उनकी चोरी पकड़ी जाती। एक इसी व्यक्ति ने मोहरे नहीं ली थीं, इसलिए वह निर्भयतापूर्वक नाचा। बादशाह को इस प्रकार सच्च आदमी मिल गया। जिसका मन मोह-माया के जाल में न फंसकर बस स्वयं पर भरोसा करना जानता है, वास्तव में वही सच्चा इंसान है।

अभयदान मिला तो अपराधी ने प्रेम से खाई रोटी
एक राजा की चार रानियां थीं। एक दिन प्रसन्न हो राजा ने उन्हें वर मांगने को कहा। रानियों ने कहा - समय आने पर वे वर मांग लेंगी। कुछ समय बाद राजा ने किसी अपराधी को मृत्युदंड दिया। बड़ी रानी ने सोचा कि इस मरणासन्न मनुष्य को एक दिन का जीवनदान देकर उसे उत्तम भोगों से प्रसन्न करना चाहिए। उन्होंने राजा से प्रार्थना की - मेरे वरदान में आप इस अपराधी को एक दिन का जीवनदान दें और उसका एक दिन आतिथ्य मुझे करने दें। रानी की प्रार्थना स्वीकार ली गई। रानी ने अपराधी को उत्तम भोजन कराया। किंतु अगले दिन मिलने वाली मौत की सजा को याद कर अपराधी को भोजन अप्रिय लगा। दूसरे दिन दूसरी रानी ने उत्तम भोजन के साथ अपराधी को वस्त्र भी दिए। इस बार भी अपराधी असंतुष्ट रहा। तीसरे दिन तीसरी रानी ने अपराधी को भोजन, वस्त्र के साथ नृत्य-संगीत की व्यवस्था भी की। किंतु अपराधी का मन तनिक भी नहीं लगा। चौथे दिन सबसे छोटी रानी ने प्रार्थना की कि मैं वरदान में चाहती हूं कि इस अपराधी को क्षमादान दिया जाए। प्रार्थना स्वीकार हो गई और उन्होंने अपराधी को सूखी रोटियां व दाल खिलाई, जिन्हें उसने बड़े आनंद से खाया। अब रानियों में होड़ लगी कि अपराधी की सर्वाधिक सेवा किसने की। निर्णय न हो पाया तो बात राजा तक पहुंची। राजा ने अपराधी से पूछा तो वह बोला - राजन, मुझे तो छोटी रानी की रूखी-सूखी रोटियां सबसे स्वादिष्ट लगीं, क्योंकि तब मुझे मृत्यु का भय नहीं था। वस्तुत: सभी दानों में अभयदान सबसे बड़ा होता है।

स्वयं पर शासन करके स्वामी बन गए बादशाह

एक स्वामी स्वयं को बादशाह कहा करते थे। ऐसे ही विश्व भ्रमण के दौरान वे किसी देश पहुंचे, तो वहां के राष्ट्रपति उनसे मिलने आए। लेकिन स्वामीजी को देखकर वे बोले कि आपके पास तो ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे यह लगे कि आप बादशाह हैं। बादशाह तो वह होता है, जिसके पास आठ-दस देश हों, अपार धन व संपत्ति हो। इस पर स्वामीजी ने कहा कि बस थोड़ा-सा फासला अभी बाकी है मुझमें और मेरे बादशाह बनने में। वह फासला है मेरी लंगोटी। जिस दिन मैं अपनी इस लंगोटी का भी परित्याग कर दूंगा, उसी दिन मैं पूर्णरूप से बादशाह बन जाऊंगा। बादशाह तो उसे कहते हैं, जिसे किसी भी चीज की जरूरत न हो। जो संपूर्णता से भरा हुआ हो, वही तो बादशाह है और मैं संपूर्ण रूप से भरा हुआ हूं। मुझे इस संसार में किसी चीज की कामना नहीं है, मेरी कोई भी इच्छा नहीं है। इसलिए ही तो मैं बादशाह हूं। बादशाह का मतलब यह नहीं होता कि मेरे पास एक राज्य है और मैं दूसरा राज्य भी चाहता हूं। दस अरब की संपत्ति मिल गई है तो अब बीस अरब की संपत्ति मुझे और मिल जाए। यह कामना बादशाहत की नहीं, बल्कि भिखारीपन की निशानी है। मेरे पास जितना है, उससे मुझे संतुष्टि नहीं मिलती, बल्कि और चाहिए की कामना रहती है। जिसका सारा जहान अपना बन जाए, उससे बड़ा बादशाह और कौन हो सकता है? वस्तुत: जिस व्यक्ति ने अपने ऊपर शासन कर लिया, उससे बड़ा बादशाह कोई और नहीं।

और राजा ब्राह्मणी के आगे नतमस्तक हो गए
पंडित श्रीरामनाथ कृष्णनगर के बाहर एक कुटिया में अपनी पत्नी के साथ रहते थे। एक दिन जब वे विद्यार्थियों को पढ़ाने जा रहे थे, उनकी पत्नी ने उनसे कहा - भोजन क्या बनेगा? घर में एक मुट्ठी चावल ही हैं। पंडितजी ने पत्नी की ओर देखा और बिना कोई उत्तर दिए चले गए। भोजन के समय जब उन्होंने थाली में थोड़े-से चावल और उबली हुई कुछ पत्तियां देखीं तो पत्नी से पूछा - भद्रे, यह स्वादिष्ट शाक किसका है? पत्नी बोली - मेरे पूछने पर आपकी दृष्टि इमली के वृक्ष की ओर गई थी। मैंने उसी के पत्तों का शाक बनाया है। पंडितजी ने बड़ी ही निश्चिंतता से कहा - इमली के पत्तों का शाक इतना स्वादिष्ट होता है। तब तो हमें भोजन की कोई चिंता ही नहीं रही। जब कृष्णनगर के राजा शिवचंद्र को पंडितजी की गरीबी का पता चला तो उन्होंने पंडितजी के सामने नगर में आकर रहने का प्रस्ताव रखा, किंतु उन्होंने इनकार कर दिया। तब महाराज ने स्वयं उनकी कुटिया में जाकर उनसे पूछा - आपको किसी चीज का अभाव तो नहीं? पंडित बोले - यह तो घरवाली ही जाने। तब महाराज ने कुटिया में जाकर ब्राह्मण की पत्नी से पूछा। वह बोली - राजन! मेरी कुटिया में कोई अभाव नहीं। मेरे पहनने का वस्त्र अभी इतना नहीं फटा कि उपयोग में न आ सके। जल का मटका अभी तनिक भी फूटा नहीं है और फिर मेरे हाथ में जब तक चूड़ियां बनी हुई हैं, मुझे क्या अभाव। राजा उस देवी के समक्ष श्रद्धा से झुक गए। वस्तुत: सीमित साधनों में ही संतोष की अनुभूति हो तो जीवन आनंदमय हो जाता है।

चांडाल ने दी संन्यासी को महत्वपूर्ण सीख
एक समय की बात है। काशी में कोई संन्यासी रहते थे। रोज प्रात: जल्दी उठना, स्नानादि से निवृत्त होकर मंदिर जाना, पूजा-पाठ करना, धर्म ग्रंथों का पठन-पाठन करना उनकी दिनचर्या में शामिल था। वे साफ-सफाई और पवित्रता का भी बड़ा ध्यान रखते थे। गंगा स्नान से लौटते हुए कोई अपवित्र व्यक्ति, वस्तु या प्राणी उन्हें छू ले तो दोबारा स्नान करने के बाद ही मंदिर जाते थे। एक दिन संन्यासी गंगा स्नान कर घाट से ऊपर जा रहे थे। भीड़ तो काशी में सदा ही रहती है, बचने का प्रयास करते हुए भी एक चांडाल का वस्त्र उनसे छू गया। संन्यासी का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। उन्होंने तत्काल एक छोटा पत्थर उठाकर चांडाल को मारा और डांटा - अंधा हो गया है, देखकर नहीं चलता। अब मुझे फिर स्नान करना पड़ेगा। चांडाल ने हाथ जोड़कर कहा - अपराध हो गया, क्षमा करें, रही स्नान करने की बात सो आप स्नान करें या न करें, मुझे तो अवश्य स्नान करना पड़ेगा। संन्यासी ने आश्चर्य से पूछा- तुझे क्यों स्नान करना पड़ेगा? चांडाल बोला- सबसे अपवित्र महाचांडाल तो क्रोध है और उसने आपमें प्रवेश कर मुझे छू लिया है। मुझे उसके मलिन स्पर्श से पवित्र होना है। चांडाल की बात सुनकर संन्यासी का सिर लज्जा से झुक गया और वे उससे क्षमा मांगकर चल दिए। क्रोध ऐसा महाविकार है, जो बुद्धि और विवेक दोनों को नष्ट कर देता है, जिससे व्यक्ति निरंतर पतन की ओर ही जाता है। अत: क्रोध पर सदैव नियंत्रण रख धर्य से काम लेना चाहिए।

सूबेदार की सेवा भावना देख सिकंदर का सिर झुक गया

सिकंदर की सेना का सेनापति योग्य व निष्ठावान था। सिकंदर वैसे उससे सदा प्रसन्न रहता था, लेकिन एक बार किसी छोटी-सी बात पर वह सेनापति से नाराज हो गया और उसे सेनापति पद से हटाकर सूबेदार बना दिया। सेनापति ने अपनी पदावनति को सहजता से स्वीकार कर लिया। सूबेदार के रूप में भी वह उसी निष्ठा व समर्पण से कार्य करने लगा। कुछ समय पश्चात किसी कार्य से उसे सिकंदर के सम्मुख उपस्थित होना पड़ा। सिकंदर ने उससे पूछा - तुम सेनापति से सूबेदार हो गए, किंतु मैं तुम्हें पहले के ही समान प्रसन्न देखता हूं, बात क्या है? सूबेदार बोला - श्रीमान, मैं पहले की अपेक्षा अधिक सुखी हूं। पहले तो सैनिक और सेना के छोटे अधिकारी मुझसे डरते थे, किंतु अब वे मुझसे स्नेह करते हैं और हर बात में मुझसे राय लेते हैं। उनकी सेवा का अवसर तो मुझे अब मिला है। सिकंदर ने प्रश्न किया - पदच्युत होने में तुम्हें अपमान नहीं लगता? सूबेदार ने कहा - सम्मान पद में है या मानवता में? उच्च पद पाकर कोई प्रमाद करे, दूसरों को सताए, अहंकार में चूर हो जाए तो वह निंदा के योग्य ही है। सम्मान तो दूसरों की सेवा करने, कर्तव्यनिष्ठ रहकर सबसे नम्र व्यवहार करने और ईमानदारी में है। भले वह व्यक्ति सैनिक हो या उससे भी छोटे गांव का चौकीदार। सिकंदर ने उससे क्षमा मांगते हुए उसे पुन: सेनापति बना दिया। वस्तुत: प्रशंसनीय व आदरणीय पद नहीं, गुण और व्यवहार होता है।

भोगों में आसक्त व्यक्ति वन में रहकर भी संसारी है
एक राजा संत-महात्माओं का बहुत आदर करते थे। एक दिन उनकी राजधानी में एक नामी संत पधारे। राजा ने संत सेवा का बड़ा माहात्म्य सुन रखा था। राजा ने संत के लिए अपने राजभवन जैसा भवन बनवा दिया। अपने शाही उद्यान जैसा उद्यान लगवा दिया।
अपनी जैसी सवारियां हाथी, घोड़े आदि रख दिए। चूंकि संत ब्रह्मचारी थे, इसलिए राजा ने उनके लिए एक रानी की व्यवस्था नहीं की, किंतु भवन, वस्त्र, सेवक, शय्या और दूसरी सब सुख-सामग्री उन्होंने संत के लिए वैसी ही जुटा दी, जैसी उनके पास थी। एक दिन राजा संत के साथ घूमने निकले। उन्होंने मार्ग में संत से पूछा - भगवन्, अब आपमें और मुझमें क्या अंतर रहा है?
संत राजा का आशय समझ गए। उन्होंने कहा - थोड़ा आगे चलो, फिर बताऊंगा। राजा ने प्रार्थना की कि कितनी दूर चलेंगे, अब लौटना चाहिए। हम लोग नगर से दूर निकल आए हैं। किंतु महात्मा चलते ही गए। राजा थक गए और उन्हें अपना राजकार्य याद आने लगा, जिसमें विलंब उन्हें हानिकर लगता था।
काफी दूर आकर संत बोले - अब मेरी इच्छा तो लौटने की नहीं है। चलो वन में चलकर भगवान का भजन करेंगे। राजा घबराकर बोले - भगवन, मेरी पत्नी व बच्चे हैं। मैं नहीं चल सकता। तब संत ने कहा - मुझमें और तुममें यही अंतर है। बाहर से एक जैसा व्यवहार रहते हुए भी हृदय का अंतर मुख्य होता है। भोगों में जो आसक्त है, वह वन में रहकर भी संसारी है और जो उनमें आसक्त नहीं, वह घर में रहकर भी विरक्त है।

अपशब्द सुनकर भी क्रोधित नहीं हुए महात्मा
एक महात्मा जंगल में कुटिया बनाकर रहते थे। उनकी शांति भंग कर क्रोध कैसे दिलाया जाए, दो लोगों में इसकी होड़ लगी। वे महात्मा की कुटिया पहुंचे। एक ने कहा - महाराज, जरा गांजे की चिलम तो लाइए। महात्मा बोले - भाई, मैं गांजा नहीं पीता। उसने फिर कहा - अच्छा तो तंबाकू लाओ। महात्मा ने उत्तर दिया - मैंने कभी तंबाकू नहीं पी, इसलिए वह मेरे पास नहीं है। दूसरा बोला - तब बाबा बनकर जंगल में क्यों बैठा है, धूर्त कहीं का। इतने में बहुत सारे लोग वहां जमा हो गए। उस दूसरे आदमी ने सभी को सुनाकर कहा - यह तो पूरा ठग है। चार बार जेल की हवा खा चुका है। दिन में संत बन जाता है और रात में काले कारनामे करता है।
इस प्रकार वे दोनों महात्मा पर झूठे आरोप लगाते रहे, ताकि उन्हें क्रोध आ जाए। जब वे थककर चुप हो गए तो महात्मा ने हंसकर कहा - भैया, ये लो शक्कर, इसे पानी में डालकर पी लो। तुम लोग थक गए होगे। दोनों महात्मा के चरणों में गिरकर बोले - क्षमा करें महाराज, पर आपको क्रोध क्यों नहीं आया? महात्मा ने कहा - जिसके पास जो माल होता है, वह वही दिखाता है। लेना न लेना तो ग्राहक की इच्छा पर है। तुमने अपना माल दिखाया, किंतु मुझे यह पसंद नहीं, इसलिए मैंने ग्रहण नहीं किया। दोनों ने महात्मा से क्षमा मांगी। दुर्व्यवहार का जवाब सद्व्यवहार से देने पर सुधार की संभावना बनी रहती है। इसलिए यथासंभव उत्तेजना के स्थान पर सहनशीलता से काम लेना चाहिए।

आवर्न ने अकेले दुर्ग रक्षा कर दिखाई देशभक्ति
फ्रांस और ऑस्ट्रिया में युद्ध चल रहा था। लाटूर आवर्न फ्रांस की ग्रेनेडियर सेना का सैनिक था। छुट्टियां खत्म करके जब वह लौट रहा था तो मार्ग में पता चला कि ऑस्ट्रिया की एक सैनिक टुकड़ी फ्रांस के छोटे-से पर्वतीय दुर्ग की ओर बढ़ी चली आ रही है। सैनिक ने सोचा कि शत्रु से पहले पहुंचकर दुर्ग रक्षकों को सावधान कर दिया जाए। वह दौड़ता हुआ पहाड़ी किले में पहुंचा, किंतु उसे यह देखकर दुख हुआ कि दुर्गरक्षक शत्रु के आक्रमण का समाचार पाकर भाग गए थे। वे अपनी बंदूकें भी छोड़ गए थे। आवर्न ने तत्काल दुर्ग का द्वार बंद कर दिया और बंदूकों में गोलियां भरकर स्थान-स्थान पर उन्हें लगा दिया। प्रत्येक बंदूक के पास बारूद और गोलियां रखीं।
जैसे ही ऑस्ट्रियन सैनिकों ने दुर्ग पर चढ़ने की कोशिश की, आवर्न ने गोली चलाकर उन्हें मार गिराया। वह कभी इधर से गोली मारता, कभी उधर से। ऑस्ट्रियन सेना के सैकड़ों सैनिक मारे गए और कई घायल हुए। रात होने तक आवर्न थककर चूर हो गया। वह जानता था कि अगले दिन वह किला नहीं बचा पाएगा। अंत में उसने ऑस्ट्रियन सेनानायक से कहा - यदि दुर्गवासियों को फ्रांस के झंडे व हथियारों को लेकर निकल जाने का वचन दो, तो कल सुबह किला आपको सौंप देंगे। सेनानायक ने स्वीकार कर लिया। अगले दिन अकेले आवर्न को देख उसके शौर्य से सेनानायक बहुत प्रभावित हुआ। नेपोलियन ने उसे महान ग्रेनेडियर की उपाधि दी। वस्तुत: हर परिस्थिति में देश की रक्षा करने वाला ही सच्च राष्ट्रभक्त होता है।

तप को भूलकर पाप चिंतन में लगा रहा साधु

एक साधु थे। जहां मन लगता, वहीं धूनी रमा देते। एक दिन घूमते हुए वे श्रावस्ती जा पहुंचे। वहां एक नीम का घना वृक्ष उन्हें अच्छा लगा। साधु ने वहीं धूनी रमा दी। वृक्ष के ठीक सामने एक वेश्या का मकान था। वहां लोगों का आना-जाना लगा रहता था। साधु को पता नहीं क्या सूझी, जब वेश्या के घर कोई जाता, तब वे एक कंकर अपनी धूनी के एक ओर रख देते। कुछ ही दिनों में वहां कंकरों का बड़ा ढेर लग गया।
एक दिन जब वह वेश्या अपने मकान से बाहर निकली तो साधु ने उसे बुलाकर कहा - पापिनी, तूने इतने लोगों को भ्रष्ट किया है, जितने इस कंकर के पहाड़ में हैं। तू अनंत-अनंत वर्षो तक नर्क भोगेगी। वेश्या भय व ग्लानि से रोने लगी और साधु को अपने उद्धार का मार्ग बताने का आग्रह किया। किंतु साधु ने उसे दुत्कार कर भगा दिया। वेश्या पश्चाताप की अग्नि में जलकर सोचने लगी - हे, भगवान! मुझ अधम नारी को तो तेरा नाम भी लेने का अधिकार नहीं। तू पतित पावन है। मुझ पर दया कर। उसी क्षण वह मृत्यु को प्राप्त हुई और मृत्यु के समय प्रभु नाम लेने के कारण वैकुंठ को गई। ठीक उसी समय यमदूत साधु को लेने पहुंचे ।
साधु ने अपनी आजीवन तपस्या का हवाला देकर विरोध किया तो वे बोले - वेश्या के पाप की गणना करते हुए आप निरंतर पाप चिंतन ही कर रहे थे और मृत्यु के समय भी आप पाप चिंतन ही कर रहे हैं। आपके पाप-पुण्य का निर्णय धर्मराज करेंगे। दूसरों के दोष देखते रहना एक ऐसा अवगुण है, जिससे आत्म-सुधार की प्रक्रिया रुक जाती है।

निष्काम सेवा से विक्रम को प्राप्त हुआ आत्मानंद

एक महात्मा के प्रवचन सुनने के लिए बड़ी संख्या में श्रोता एकत्रित होते थे। उनमें गरीब विक्रम भी था, जो आश्रम के निकट एक कुएं के पास खोमचा लगाकर उबले हुए चने बेचता था। वह बड़े ध्यान से कथा सुनता। एक दिन उसने महात्माजी से कहा - महाराज, मैं इतने दिनों से मन लगाकर कथा सुनता हूं। मैंने आत्मा के स्वरूप को भी समझ लिया, किंतु मुझे अब तक आत्मानंद प्राप्त नहीं हुआ। इसका क्या कारण है? महात्मा बोले - कोई प्रतिबंध होगा, उसके हटने पर आत्मानंद की प्राप्ति होगी। खोमचे वाला चुप हो गया। एक दिन वह कुएं के पास छाया में खोमचा लगाए बैठा था। गर्मी के दिन थे। लू चल रही थी। इतने में एक लकड़हारा लकड़ियों का गट्ठर उठाए वहां आया।
कुएं के पास आते ही थकान के कारण वह बेहोश होकर गिर पड़ा। विक्रम ने तुरंत उसे उठाकर छाया में सुलाया। कुछ देर अपनी चादर से हवा की, फिर शरबत बनाकर थोड़ा-थोड़ा उसके मुंह में डालना शुरू किया। उसे दो मुट्ठी चने खिलाकर ठंडा पानी पिलाया। एक घंटे तक वह इसी प्रकार लकड़हारे की सेवा करता रहा। तब उसने आंखें खोलीं। वह बिल्कुल अच्छा हो गया। लकड़हारा विक्रम को ढेर सारा आशीर्वाद देकर अपनी राह चला गया। उसी समय विक्रम को जैसे आत्मसंतोष प्राप्त हुआ। उसने महात्मा को यह बताया तो वे बोले - तुमने निष्काम भाव से एक प्राणी की सेवा की, इससे तुम्हारा प्रतिबंध कट गया। सार यह है कि सभी का कल्याण चाहने पर परमात्मा की असीम कृपा बरसती है और वह परमानंद को प्राप्त कर लेता है।

गरीब किसान से खुश रहने का गुर जाना राजा ने
एक राजा जंगल के रास्ते कहीं जा रहा था। उसने देखा कि खेत में एक किसान हल जोत रहा है और मस्ती में झूमता हुआ ऊंचे स्वर में गीत गा रहा है। वह अत्यधिक प्रसन्न दिखाई दे रहा था। राजा अपने घोड़े से उतरकर वहीं खड़ा होकर उसका गाना सुनने लगा। राजा के मन में आया कि निर्धन से दिखाई दे रहे इस किसान की प्रसन्नता का राज इससे पूछना चाहिए। यह सोचकर राजा किसान के पास जाकर बोला - भाई, तुम बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे हो। रोजाना कितना कमा लेते हो?
किसान ने हंसते हुए कहा- मैं खूब मेहनत कर रोजाना आठ आने कमाता हूं। राजा ने हैरानी से पूछा - इतनी कम कमाई में इतना खुश कैसे रह लेते हो? किसान बड़े संतोष से बोला - मैं अपने आठ आने की कमाई को चार हिस्सों में बांट देता हूं। मेरे माता-पिता ने मुझे पाला-पोसा, उनका ऋण मेरे सिर पर है। अत: दो आना उन्हें देकर उनका ऋण उतारता हूं। बच्चे बड़े होकर मेरी सेवा करेंगे, इसके लिए दो आने रोज उनके पालन-पोषण में लगाता हूं या मानो कर्ज देता हूं।
मैं किसान होने के नाते जानता हूं कि दूसरों को पहले देने पर ही किसी को कुछ मिला करता है, यह सोचकर चौथे हिस्से के दो आने मैं रोज दान करता हूं और शेष बचे हुए दो आने में अपना पेट भरता हूं। कथा का सार यह है कि परिश्रम से कमाया पैसा और उसका उचित मदों में न्यायपूर्ण व्यय ही व्यक्ति को आत्मिक संतोष प्रदान करता है।

पत्नी से जाना पंडितजी ने संन्यास का सच्चा अर्थ
किसी गांव में एक विद्वान पंडितजी रहते थे। घर में उनकी विदुषी पत्नी थी। पंडितजी एक बार बीमार पड़े। बीमारी धीरे-धीरे इतनी बढ़ी कि वे मरणासन्न हो गए। उन्हें सन्निपात हो गया और वाणी बंद हो गई।

पत्नी बुद्धिमती थी, अत: उसने चाहा कि मृत्यु के पूर्व इन्हें संन्यास ग्रहण कर लेना चाहिए। ब्राह्मण के लिए यही शास्त्र विधान है। अगले ही दिन उसने एक वृद्ध संन्यासी को बुलाकर सारी स्थिति समझाई और पति को संन्यास की दीक्षा दिलवा दी। भाग्य से पंडितजी थोड़े दिनों में स्वस्थ हो गए।

पत्नी उनके सभी कार्य करती, किंतु उनसे दूर ही रहती। उन्होंने कारण पूछा तो उन्हें उनके संन्यासी होने की पूरी घटना सुना दी। सुनकर पंडितजी बोले - फिर संन्यासी को घर में नहीं रहना चाहिए। धर्मशीला पत्नी ने सहमति दी। उसी समय पंडितजी साधु वेश धारण कर घर से निकल गए। वे ऋषिकेश में त्यागी जीवन बिताने लगे। अपने पांडित्य व निर्मोही स्वभाव के कारण उनकी बड़ी ख्याति हो गई।

एक दिन गांव के कई लोग और पत्नी भी उनके दर्शन को आई। उसे पता नहीं था। जैसे ही पंडितजी की दृष्टि उस पर पड़ी, वे बोल उठे - तू कब आई। कैसी है? पत्नी बोली - स्वामीजी, अब भी आपको मेरा स्मरण है। यह सुनते ही पंडितजी को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने आजीवन किसी को आंख उठाकर न देखने तथा मौन रहने का प्रण कर लिया। वस्तुत: संन्यास तभी सार्थक है, जबकि परिवार की संकुचित परिधि से ध्यान पूर्णत: हटकर वसुधव कुटुंबकम के भाव को उपलब्ध हो जाए।

और पशुवध छोड़ बहेलिये बन गए सच्चे साधु
एक राजा को कोढ़ हो गया था। कई जाने-माने वैद्यों के उपचार से भी यह बीमारी ठीक नहीं हो पा रही थी। एक दिन मंत्री की सलाह पर किसी दूसरे राज्य के विख्यात वैद्य को राजा के उपचार हेतु बुलवाया गया। उन्होंने आकर राजा का परीक्षण किया और बताया कि मानसरोवर से हंस पकड़वाकर मंगाए जाएं और उनके पित्त से दवा बने तो राजा का रोग मिट जाएगा।

बहेलिये मानसरोवर भेजे गए, किंतु हंस बहेलियों को देखते ही उड़ गए क्योंकि वे उन्हें जानते थे। तब बहेलियों ने एक युक्ति निकाली। उन्होंने गेरुए वस्त्र पहन लिए, नकली जटा लगा ली, कमंडल हाथ में लेकर गले में माला पहन ली। उनके इस संन्यासी वेष को देखकर हंस नहीं उड़े और बहेलिये उन्हें पकड़कर राजा के पास ले आए। राजा ने जब हंसों के पकड़े जाने का तरीका सुना, तो उनके मन में ग्लानि पैदा हुई। राजा सोचने लगे कि हंसों ने संन्यासी वेष का विश्वास किया। लेकिन धोखा देकर उन्हें पकड़ना और मारना सर्वथा अनुचित है।

अत: राजा ने हंसों को छोड़ दिया। इस पुण्य के कारण राजा रोगमुक्त हो गया। उधर, बहेलियों ने भी सोचा कि जब कपटी साधु के वेष पर वन के पशु-पक्षी तक विश्वास कर लेते हैं, तब असली साधु होने पर तो सभी विश्वास और सम्मान करेंगे। अत: वे भी पशु-पक्षीवध का नृशंस काम छोड़कर सच्चे साधु बन गए। वस्तुत: छल से प्राप्त उपलब्धि सुख भी नहीं देती और विश्वास भी खंडित करती है। अत: यदि हम छल से बचकर अपने व्यवहार को स्नेहपूर्ण बनाएंगे तो लक्ष्य प्राप्ति आसान हो जाएगी।

हजारों साल पहले जन्मा था, वो वैज्ञानिक सन्यासी
लोगों को यह भ्रम रहता है कि विज्ञान और धर्म एक दूसरे के विपरीत और विरोधी होते हैं। जबकि इस तरह की भ्रांति के पीछे कोई भी वास्तविकता नहीं होती। यहां हम बात करेंगे एक ऐसे महान व्यक्ति के विषय में जो परम वैज्ञानिक होने के साथ ही एक महान धार्मिक वैज्ञानिक था। उन महापुरुष को दुनिया योग के जनक के रूप में जानती है।

योग की खोज योग पुरुष पतंजली ने सालों पहले की थी। वे अत्यंत विरल व्यक्ति थे। उन्होंने मानव मन और उसकी सरंचना को बिलकुल बदल दिया। पतंजली सबसे बड़े वैज्ञानिक हैं अंतर्जगत के। उनकी पहुंच एक वैज्ञानिक मन की है। वे कोई कवि नहीं है। और इस कारण वे सबसे विरले है, क्योंकि अंतर्जगत यानी मन और आत्मा के संसार में जो लोग प्रवेश करते है, वे बहुधा कवि ही होते हैं। जबकि जो बाहरी दुनिया में प्रवेश करते और खोजबीन करते हैं, वे वैज्ञानिक कहलाते हैं।

पतंजली इन सबसे अलग थे। क्योंकि उनमें एक साथ दोनों की खूबियां थी। उनके पास वैज्ञानिक मस्तिष्क था लेकिन उनकी यात्रा भीतर की थी। वे एक गणितज्ञ, एक तर्कशास्त्री की भाँति बात करते है, और वे है हेराक्लत जैसे रहस्यदर्शी। उनके एक-एक शब्द को समझना पड़ेगा। उनकी शब्दावली तार्किक है, विवेचनात्मक है। परन्तु उनका संकेत प्रेम, मस्ती और परमात्मा की ओर है। उनकी शब्दावली उस व्यक्ति की है जो प्रयोगशाला में काम करता है, लेकिन उनकी खोज आंतरिक अस्तित्व की है।

ध्येय परम सत्य तक पहुँचना लेकिन मार्ग है वैज्ञानिक का इसलिए मार्ग देख दिग्भ्रमित मत होना। वैज्ञानिक दृष्टि के कारण उन्होंने पश्चिमी मन को ज्यादा प्रभावित किया। वे सदैव एक प्रभाव बने रहे जहाँ तक उनका नाम पहुँचा। हम उन्हें आसानी से समझ सकते हैं क्योंकि वे बातें बुद्धि से करते है ध्यान हृदय पर रखते हैं।

जब साधक को महात्मा ने कराया आत्म-साक्षात्कार
एक साधक ने महात्मा से आत्म-साक्षात्कार का उपाय पूछा। महात्मा ने कहा कि एकांत में रहकर एक साल तक इस मंत्र का जाप करो और जिस दिन वर्ष पूरा हो, नहाकर मेरे पास आना।

वर्ष पूर्ण होने पर महात्मा ने अपने आश्रम में सफाई करने वाली महिला से कहा कि जब साधक मेरे पास आए, तब झाड़ू से धूल उड़ाकर उसे अस्वच्छ कर देना। महिला ने वैसा ही किया। साधक क्रोधित हो उसे मारने दौड़ा। वह फिर से नहाकर महात्मा के पास आया। महात्मा बोले - अभी तो तुम सांप की तरह काटने दौड़ते हो, सालभर और मंत्र जाप करो। साधक को बुरा लगा, किंतु गुरु की आज्ञा मान वह चला गया।

दूसरे वर्ष की समाप्ति पर महात्मा ने फिर उस महिला को आदेश दिया कि आज साधक के पैरों से झाड़ू छू देना। उसने वैसा ही किया। इस बार साधक मारने नहीं दौड़ा, किंतु कुछ कठोर शब्द अवश्य कहे। वह फिर नहाकर महात्मा के पास गया। वे बोले - अब तुम काटते नहीं, किंतु सांप की तरह फुफकार तो मारते ही हो। एक वर्ष और जप करो।

अगले वर्ष वह आया तो महिला ने महात्मा की आज्ञानुसार कूड़े की टोकरी उस पर उड़ेल दी, किंतु वह क्रोधित होने की बजाय बोला - माता, तुम्हारा मुझ पर बड़ा उपकार है, जो तुम मेरे भारी दोष को दूर करने के लिए तीन साल से प्रयास कर रही हो। यह सुन महात्मा ने पूर्ण संतुष्ट हो साधक को ब्रह्मस्वरुप का उपदेश दिया। वस्तुत: जब स्वभाव में सहजता, दृष्टि में समत्व भाव व आचरण में सदाचार आ जाए, तब आत्म-साक्षात्कार की स्थिति बन जाती है।

दुष्टबुद्धि को मिला अन्याय से लाभ कमाने का कुफल
एक व्यापारी के धर्मबुद्धि और दुष्टबुद्धि नामक दो पुत्र थे। वे दोनों विदेश से दो हजार अशर्फियां कमाकर लाए। अपने नगर आकर उन्होंने एक वृक्ष के नीचे इन्हें गाड़ दिया और उनमें से सौ अशर्फियों को बांटकर अपना काम चलाने लगे। एक बार दुष्टबुद्धि ने उस वृक्ष के नीचे से सारी अशर्फियां निकालकर खर्च कर दीं।

एक माह बीतने पर वह धर्मबुद्धि से बोला - भैया, चलो हम अशर्फियां बांट लें। जब जमीन खोदने पर धर्मबुद्धि को अशर्फियां नहीं मिलीं, तब दुष्टबुद्धि ने धर्मबुद्धि पर चोरी का आरोप लगा दिया। बात राजा तक पहुंची। राजा के सामने दुष्टबुद्धि बोला - चोरी धर्मबुद्धि ने ही की है। राजा ने जांच के आदेश दिए। इधर, दुष्टबुद्धि ने अपनी सारी स्थिति पिता को समझाई और उन्हें वृक्ष के कोटर में छिपकर झूठ बोलने के लिए राजी कर लिया।

पिता रात में जाकर वृक्ष के कोटर में बैठ गया। सुबह जब दोनों भाई राज्याधिकारियों के साथ वहां आए और वृक्ष से पूछा कि अशर्फियां कौन ले गया तो कोटर में बैठे पिता ने धर्मबुद्धि का नाम लिया। किंतु चतुर अधिकारी ताड़ गए कि दुष्टबुद्धि ने यहां किसी को छिपाया है। उन लोगों ने कोटर में आग लगा दी। जब आग से बचने के लिए पिता कूदा तो गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ।

अधिकारियों ने सच जान लिया था। तब राजा ने धर्मबुद्धि को पांच सौ अशर्फियां दिलाईं और दुष्टबुद्धि को राज्य से निर्वासित कर दिया। वस्तुत: जब अन्यायपूर्वक लाभ कमाने का प्रयास किया जाता है तो वह कुफल ही देता है, इसलिए सदैव नीतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

बहुत चंचल होती हैं मन की आकांक्षाएं
एक कवि महोदय थे, जिनका नाम था बैरन। उन्हें जहां कहीं सुंदर नारी दिखती, वे लोलुप निगाहों से उसे घूरने लगते। एक बार की बात है, बैरन एक सुंदर लड़की का बहुत दिनों से पीछा कर रहे थे। उनकी हरकतें कुछ इस प्रकार की थीं कि वह लड़की परेशान हो गई। फिर वह लड़की इन परेशानियों से निजात पाने के लिए बैरन से शादी करने को तैयार हो गई। लेकिन एक शर्त रखी कि इन हरकतों की पुनरावृत्ति मत करना।

बैरन ने कहा, मैंने इतने सारे यत्न तुम्हें पाने के लिए किए थे, अब जब मैं तुम्हें पा चुका हूं तो फिर मेरे पास और कोई आशा शेष नहीं बची। दोनों चर्च गए और पादरी के समक्ष विवाह कर लिया। जिस समय वे शादी करके चर्च की सीढ़ियां उतर रहे थे, उसी समय एक दूसरी सुंदर-सी लड़की चर्च के अंदर जा रही थी।

बैरन अपनी नई नवेली पत्नी का हाथ छोड़कर तुरंत उस नई लड़की की ओर मुखातिब हो गए। उनकी पत्नी ने बैरन को उनकी शपथ की याद दिलाई। बैरन ने जवाब दिया - देखो प्रेयसी, यह तो तुम जानती ही हो कि मनुष्य का मन बहुत ही चंचल होता है। उसे जो नहीं मिला रहता है, उसके लिए बड़ी आशा लगी रहती है। इंतजार और पीछा करने में जो आनंद था, उसकी सफलता यह रही कि तुम मुझे प्राप्त हो गईं। अब मैं इस ओर से निश्चिंत हो गया, क्योंकि तुम अब मेरी हो चुकी हो। कथा का निहितार्थ यह है कि जो वस्तु हमें मिल जाती है, उसकी ओर से हम निश्चिंत हो जाते हैं और जो चीज पहुंच से दूर रहती है, उसे पाना चाहते हैं।

आकाशवाणी सुन साधु को भूल का अहसास हुआ
एक साधु नदी किनारे एक धोबी के कपड़े धोने के पत्थर पर खड़े-खड़े ध्यान करने लगे। इतने में धोबी गधे पर कपड़े लादे वहां आया। उसने साधु को देखा तो वह प्रतीक्षा करने लगा कि उसके पत्थर से साधु हटें तो वह अपना काम शुरू करे। कुछ देर प्रतीक्षा करने पर भी जब साधु नहीं हटे तो उसने प्रार्थना की- महात्माजी, आप पत्थर से उतरकर किनारे खड़े हो जाएं तो मैं अपने काम में लगूं।

साधु ने धोबी की बात अनसुनी कर दी। धोबी ने फिर प्रार्थना की, किंतु साधु ने इस बार भी ध्यान नहीं दिया। अब धोबी ने धीरे से साधु का हाथ पकड़कर उन्हें पत्थर से उतारने की कोशिश की। एक धोबी के हाथ पकड़ने में साधु को अपना अपमान नजर आया। उन्होंने धोबी को धक्का दे दिया। साधु का क्रोध देखकर धोबी की श्रद्धा भी समाप्त हो गई। उसने भी साधु को धक्का देकर पत्थर से हटा दिया। अब तो साधु धोबी से भिड़ गए। धोबी बलवान था, अत: उसने साधु को उठाकर पटक दिया।

साधु भगवान से प्रार्थना करने लगा- हे भगवान, मैं इतने भक्तिभाव से रोज आपकी पूजा करता हूं, फिर भी आप मुझे इस धोबी से छुड़ाते क्यों नहीं? जवाब में साधु ने आकाशवाणी सुनी, तुम्हें हम छुड़ाना चाहते हैं किंतु समझ नहीं आता कि दोनों में साधु कौन है और धोबी कौन? यह सुन साधु का घमंड चूर हो गया। उसने धोबी से क्षमा मांगी और वह सच्च साधु बन गया। दरअसल, वेष धारण करने से नहीं, बल्कि सद्गुणों को आचरण में उतारने से साधुता आती है। अत: गेरुए वस्त्र पहनने के पूर्व अपना मन निर्मल गुणों से युक्त करें।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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