Friday, March 11, 2011

Shradha(श्रद्धा)

श्रद्धा से मिलता है अटूट आत्मिक बल’
प्रभु यीशु के अनेक शिष्य थे। यीशु उन्हें नित्य ही धर्मोपदेश देते थे। कई बार वे उनके साथ भ्रमण भी करते थे और इसी दौरान घटने वाली स्थितियों के माध्यम से वे उन्हें जीवनोपयोगी शिक्षा देते थे। एक बार यीशु अपने शिष्यों के साथ तिनेरियस झील पार कर रहे थे। शाम का शांत वातावरण था। ठंडी-ठंडी बयार बह रही थी। ऐसे सुहाने मौसम में यीशु नाव के पिछले हिस्से में आराम कर रहे थे। शिष्य अपनी सामान्य चर्चा में मशगूल थे। नाव गंतव्य की ओर धीरे-धीरे बढ़ रही थी। एकाएक मौसम ने पलटी खाई। आसमान पर घने बादल छा गए और तेज हवाएं चलने लगीं।नाव हिचकोले खाने लगी और इसी क्रम में उसमें पानी भरने लगा। यीशु को छोड़कर सभी शिष्य भयभीत हो गए, मगर उन्होंने इसे प्रकट नहीं किया। वे लोग इस घटना में कुछ रहस्य की आशा रख शांत बने रहे, किंतु ज्यों-ज्यों डूबने का खतरा बढ़ता दिखने लगा, उन्होंने यीशु को जगाते हुए कहा- प्रभु! हम डूब रहे हैं। क्या आपको इसकी चिंता नहीं है। यीशु जागे और सहज भाव से वायु और झील को डांटते हुए बोले शांत हो जाओ, थम जाओ। उनके ऐसा कहते ही वायु मंद हो गई और जल का ज्वार थम गया। सभी शिष्य खुश होकर तालियां बजाने लगे। तब यीशु ने मुस्कुराकर कहा-‘‘तुम लोग इस तरह डरते क्यों हो? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं है? विश्वास करना सीखो। विश्वास के साथ जीवन में एक प्रशांति उपलब्ध होती है और अलौकिक शक्ति का विकास होता है। विश्वास रखने वाला मन निर्भय होता है और उसके संकल्प का सम्मान प्रकृति की शक्तियां भी करती हैं।’’सभी शिष्य यीशु से सहमत हुए और भविष्य में ऐसे ही दृढ़ विश्वास पथ पर चलने का संकल्प लिया।वस्तुत: यह विश्वास ही उस श्रद्धा को जन्म देता है, जो अखूट आत्मिक बल की सृजनकर्ता होती है और इस बल से संपन्न व्यक्ति को वह दृढ़ता प्राप्त होती है, जिससे उसके मार्ग में आनेवाली हर बाधा पराजित हो जाती है और सफलता के द्वार खुल जाते हैं।

सच्ची श्रद्धा से प्रतिकूलताओं पर विजय संभव है
उमर खैयाम अपने साथियों और शिष्यों के साथ देशाटन किया करते थे। एक दिन वे अपने एक शिष्य के साथ घने जंगल से होते जा रहे थे। चलते-चलते नमाज़ का वक्त हो गया। दोनों नमाज़ अदा करने बैठ गए। तभी शेर की जोरदार दहाड़ सुनाई दी। शिष्य घबरा गया और नमाज़ अधूरी छोड़कर एक पेड़ पर चढ़कर बैठ गया। किंतु उमर बिना विचलित हुए अपनी नमाज़ अदा करते रहे।कुछ देर बाद शेर वहां आया। उसने उमर को देखा और सिर झुकाकर हट गया। थोड़ी दूर जाने पर उसने पेड़ पर चढ़े हुए शिष्य को देखा, तो जोर से दहाड़ा, जिससे वह और भी डर गया। उसे डराकर शेर वापस जंगल में चला गया। शिष्य काफी देर तक पेड़ पर ही चढ़ा रहा। जब उसे विश्वास हो गया कि शेर चला गया है, तब वह पेड़ से उतरा। उमर ने बड़े आराम से अपनी नमाज़ खत्म की और दोनों पुन: अपनी यात्रा पर चल दिए।शिष्य के मन में कई सवाल उठ रहे थे, मगर वह खामोश रहा। थोड़ी देर बाद शिष्य को जोरदार थप्पड़ मारने की आवाज आई। उसने पलटकर उमर को देखा और पूछा- ‘‘आपने अपने ही गाल पर थप्पड़ क्यों मारा?’’ उमर ने जवाब दिया- ‘‘मेरे गाल पर एक मच्छर बैठा था, जिसने मुझे काट लिया। उसे मारने के लिए मैंने चांटा मारा।’’ शिष्य ने पूछा- जब शेर आया, तो आप बगैर डरे नमाज़ पढ़ते रहे और जब आपके साथ मैं भी हूं, तब एक मच्छर से आपको इतनी परेशानी हो गई? तब उमर हंसकर बोले- ‘‘उस वक्त मैं खुदा के साथ था और इस वक्त बंदे के साथ। खुदा के साथ होने पर सच्चे भक्त को उसकी श्रद्धा के कारण किसी बात की न खबर होती है और न चिंता।’’सच ही है कि यदि ईश्वर के प्रति समर्पित भक्ति भाव हो अर्थात् सच्ची श्रद्धा हो, तो व्यक्ति निर्भय हो जाता है और संकट अपने आप दूर हो जाता है। श्रद्धा की अनन्यता सदैव सद्परिणाम मूलक होती है।

इसलिए कहते हैं मन चंगा तो कठौती में गंगा
कहते हैं मन में श्रद्धा हो तो अपने भीतर ही भगवान के दर्शन किये जा सकते है। फिर न तो आपको मंदिर जाने की जरूरत है न मस्जिद और न ही किसी तीर्थ यात्रा पर।श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रभु के प्रति समर्पण भाव से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।संत रैदास जूते गांठने का काम किया करते थे। जिस रास्ते पर रैदास बैठा करते थे वहां से कई ब्राह्मण गंगा स्नान के लिए जाते थे। किसी विशेष पर्व के समय एक पंडित ने रैदास से गंगा स्नान को चलने के लिए कहा तब रैदास जूते गांठते हुए बोले कि पंडि़त जी मेरे पास समय नहीं है। जब पंडि़त पैसे देने लगा तो रैदास बोले कि पंडि़त जी आप मुझे पैसे मत दीजिए पर मेरा एक काम कर दीजिए, फिर अपनी जेब में से चार सुपारी निकालते हुए कहा कि ये सुपारियां मेरी ओर से गंगा मइया को दे देना।

पंडित जी ने स्नान के बाद सोचा कि बड़े-बड़े संतों के लिए गंगा मइया को फुरसत नहीं और ये रैदास कितना घमंड़ी है फिर भी रैदास का सच जानने के पंडि़त जी ने गंगा में सुपारी ड़ालते हुए कहा कि रैदास ने आपके लिए भेजी हैं। जैसे ही पंडितजी वापस आने लगे तभी गंगा मां प्रकट हुईं और पंडित को एक कंगन देते हुए कहा कि यह कंगन मेरी ओर से रैदास को दे देना। हीरे जड़े कंगन को देख कर पंडित के मन में लालच आ गया और उसने कंगन को अपने पास ही रख लिया।

कुछ समय बाद पंडित ने वह कंगन राजा को भेंट में दे दिया। रानी ने जब उस कंगन को देखा तो प्रसन्न होकर दूसरे कंगन की मांग करने लगीं। राजा ने पंडित को बुलाकर दूसरा कंगन लाने को कहा। पंडित घबरा गया क्योंकि उसने रैदास के लिए दिया गया कंगन खुद रख लिया था और उपहार के लालच में राजा को भेंट कर दिया था। वह रैदास के पास पहुंचा। रैदास ने जब पंडित को मुसीबत में देखा तो दया आ गयी। तब रैदास ने अपनी कठौती (पत्थर का बर्तन जिसमें पानी भरा जाता है) में जल भर कर भक्ति के साथ मां गंगा का आवाहन किया। गंगा मइया प्रसन्न होकर कठौती में प्रकट हुईं और रैदास की विनती पर उसे दूसरा कंगन भी भेंट किया। रैदास ने कंगन पंडित को देते हुए राजा को दे आने के लिए कहा। रैदास ने पंडित को समझाया कि भक्ति के लिए स्नान, तीर्थ और पूजापाठ का प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं होती, अगर आपका मन साफ हो तो भगवान आप पर यूं ही प्रसन्न रहता है। आप उसे अपने भीतर ही महसूस कर सकते हैं।

भक्ति ऐसी हो कि भगवान खुद आ जाएं
गांव के बाहर पुरातन भगवान लक्ष्मीनारायण का एक सुंदर मंदिर था। एक ज्ञानी और एक भक्त वहां प्रतिदिन नियमित सेवा-पूजा करते थे।ज्ञानी अपने ज्ञान के अनुसार भगवान का सागोपांग पूजन करता तथा भक्त जिसको ज्ञान तो कुछ न था परंतु वह भगवान की मूर्तियों की सेवा बड़ी तन्मयता से करता था। वह मंदिर जाकर बासी फूल उतारकर भगवान को चंदन युक्त जल से स्नान कराकर इत्र लगाता भगवान के अंगों पर इत्र की मालिश करता उनको नवीन पुष्पों की माला पहनाता। एक सेवक की तरह वह उनका ध्यान रखता था।

नियति के अनुसार ज्ञानी और भक्त दोनों के यहां एक साथ एक रात चोरी होने वाली थी और उसी सुबह वह ज्ञानी भगवान के पूजन के लिए गया। तब भगवान ने उसको संकेत दिया कि, आज रात तुम्हारे यहां चोरी होने वाली है। अत: सावधान रहना। ज्ञानी ने कहा, ठीक है। प्रभु मैं अपने ज्ञान के सहारे इस घटना से बच जाऊंगा। भगवान को अपना सहायक मान, प्रसन्न मन से वह घर जाकर चोरी से बचने का मार्ग खोजने लगा। उसके पश्चात् भक्त मंदिर पहुंचा। बड़ी तन्मयता से वह प्रभु लक्ष्मीनारायण की सेवा करने लगा तथा अपना पूजन कर वह घर चला गया। उसके जाते ही माता-लक्ष्मी ने भगवान नारायण से कहा, हे प्रभु यह दोनों ज्ञानी और भक्त आपकी सेवा पूजन करते हैं। आज इन दोनों के यहां चोर चोरी के लिए हमला करने वाले हैं। आपने ज्ञानी को संकेत करके तो बता दिया कि तेरे यहां चोरी का आक्रमण होगा। वह सावधान भी हो गया। परंतु आपने अपने भक्त को चोरी के हमले के बारे में कुछ संकेत नहीं दिया। वह बेचारा अभी भी इस खतरे से अंजान है। माता लक्ष्मी के इस प्रकार पूछने पर भगवान नारायण बोले, हे भगवती यह ज्ञानी और भक्त दोनों मेरी सेवा करते हैं। इनमें से ज्ञानी को तो अपने ज्ञान का भरोसा है। इसलिए मैंने उसे खतरे का संकेत दिया वह अपने ज्ञान से अपनी रक्षा करे। परंतु जो यह मेरा भक्त है इसको तो केवल मेरा सहारा है। यह तो रात्रि में आराम से विश्राम करेगा और मैं रातभर इसके घर के बाहर खड़ा होकर चोरों से इसकी रक्षा करुंगा। इसलिए मैंने उसे बताया नहीं।

मानव सेवा ही भगवान की पूजा है
बद्रीनाथ आओ और मुझे भोग लगाओ। मैं भुखा हूं। बद्रीनाथ धाम मंदिर के पट बंद होने के मात्र कुछ दिन पहले ही यह स्वप्र श्रीमती शोभना को आया। घबराहट में नींद खुली। अपने पति को स्वप्न के संबंध में बताया और बद्रीनाथ धाम चलने की जिद पतिदेव से की। पतिदेव ने कहा पट बंद होने में मात्र कुछ ही दिन बचे है तथा रिजर्वेशन आदि भी अचानक नहीं मिलेगा।

साथ मेरी छुट्टियां भी समाप्त हो गई है। अभी हम नहीं जा सकते। परंतु श्रीमती शोभना ने जिद पकड़ ली। अंतत: व्यवस्था बनाकर उन लोगों ने बद्रीनाथ धाम की यात्रा प्रारंभ की। इस व्यवस्था में कुछ दिन और बीत गए और पट बंद होने में मात्र एक दिन का समय शेष रह गया था। श्रीमती शोभना की घबराहट बढ़ती जा रही थी कि यदि समय पर मंदिर नहीं पहुंचे तो भगवान को कैसे भोग लगाएंगे। भोग की सारी सामग्री मिष्ठान्न आदि वह स्वयं तैयार कर अपने साथ लाई थी। समय तेजी से गुजर रहा था। श्रीमती शोभना की घबराहट भी बढ़ती जा रही थी। रास्ते में वे लोग एक होटल में खाना खाना रुके। सभी भोजन करने लगे लेकिन श्रीमती शोभना को यही चिंता थी कि कही पट बंद न हो जाए। उनके सामने भोजन की थाली थी परंतु उनके गले से भोजन नहीं उतर रहा था। अचानक
एक 7 वर्ष का गरीब बालक वहां आया और उनसे बोला मां मैं बहुत भुखा हूं।

श्रीमती शोभना ने पूरी थाली उस बालक को दे दी। बालक प्रसन्न हो भोजन लेकर चला गया। भोजन के पश्चात उन लोगों ने फिर आगे की यात्रा प्रारंभ की और उसी समय अकस्मात मौसम खराब हुआ और जोरदार बारिश होने लगी। उन्हें फिर रास्तें में रुकना पड़ा। अब तो अवश्य ही पट बंद हो जाएंगे। यह सोचकर श्रीमती शोभना अत्यधिक व्याकुल हो गई। भगवान का अपमान हो जाएगा। हमारी सेवा का अपराध हो जाएगा। यही सोचकर उस धार्मिक महिला का कलेजा बैठा जा रहा था। किसी तरह उनके पति ने उनका ढांढस बंधाया और उन्हें चाय तथा बिस्कुट खाने को दिया। लेकिन उनके गले तो कुछ उतर ही नहीं रहा था। ईश्वर ना जाने क्या चाहता है? यह सोचते हुए उनकी दृष्टि टापरी के नीचे ठंड से ठिठुरते हुए एक कुत्ते के पिल्ले पर पड़ी। उन्होंने अपना बिस्कीट उसको खाने को दे दिया तथा चाय वाले से एक टाट लेकर उसको औढ़ा दिया कुछ घंटों बाद वर्षा रुकी यात्रा फिर शुरू हुई तथा वे लोग बद्रीनाथ धाम पहुंचे। परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मंदिर के पट छह माह के लिए बंद हो चुके थे।

श्रीमती शोभना को अत्यंत दुख एवं ग्लानी हुई। उनके पति ने उनको धैर्य बंधाया तथा एक धर्मशाला में रुकने की व्यवस्था की। अत्यंत थकावट एवं दुख से रोते हुए उन्हें नींद आ गई। उन्होंने फिर स्वप्र देखा भगवान बद्रीनाथ अपने संपूर्ण वैभव के परम प्रकाशमान उनके समक्ष आए तथा गंभीरवाणी में बोले मां मैं भूखा था। होटल में उसस बालके के रूप में तूने मुझे भोजन दिया। वह मेरा ही स्वरूप था। मैं ठंड से कंपकपा रहा था। उस पिल्ले के रूप में तूने मुझे भोजन और राहत दी। वह भी मेरा ही स्वरूप था। मां दुख मत कर मैंने तेरी सेवा को स्वीकार किया और तेरे इस उपकार से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता।इतना कहकर भगवान की स्वप्र वाणी मौन हो गई। श्रीमती शोभना अचनाक उठकर बैठ गई। उन्होंने जो कुछ सुना वह स्तब्ध रह गई। उनकी आंखों से झर-झर अश्रू बहने लगे। उनके पूरे शरीर में रोमांच हो आया। भगवान की इस असीम कृपा का उन्हें सहसा यकीन ना हुआ। गला रुंध गया और उनके हर्ष का पारावार न रहा। इस कथा से यह शिक्षा मिलती है। कि समस्त प्राणियों में ईश्वर दर्शन करों। पुराणों-वेदों एवं समस्त धार्मिक ग्रंथों में यही उपदेश है। सब प्राणियों में ईश्वर वास करता है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव करों।

जहां दुख हैं वहीं श्रीकृष्ण हैं
अब तक इतिहास में सर्वश्रेष्ठ मानव हैं श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण संपूर्ण कलाओं और विद्याओं के साथ अवतरित हुए एकमात्र भगवान हैं। श्रीकृष्ण के जीवन पर असंख्य ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। हर ग्रंथ में श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व के नए-नए पहलु पर प्रकाश डाला गया है। श्रीकृष्ण भगवान थे फिर भी उन्होंने मनुष्य की तरह कई लीलाएं की। जैसे कंस से छुपकर वे गोकुल में रहे, गोकुल के ग्वालों के साथ खेलें, माता यशोदा से डांटा और मार खाई, माखन चुराया, गोपियों के साथ रास किया, वे जन्म से ही सारी विद्याओं और कलाओं के ज्ञाता थे फिर भी महर्षि सांदीपनि से शिक्षा प्राप्त की वो मात्र 64 दिनों में। उन्होंने वे सारी लीलाएं की जो मनुष्य अपने जीवन में करता है। श्रीकृष्ण से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित हैं जो हमें जीवन जीने की कला सिखाती हैं।

जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया और पांडव को राज मिलने के बाद श्रीकृष्ण द्वारका लौट रहे थे तब सभी से श्रीकृष्ण से सुख, शांति और धन आदि की मांग की। श्रीकृष्ण ने सभी की इच्छाओं को से पूर्ण कर सभी तृप्त कर दिया, परंतु कुंती ने अब तक श्रीकृष्ण से कुछ नहीं मांगा था।यह देख श्रीकृष्ण ने कुंती से कहा बुआ आप कुछ नहीं मांगेगी?तब कुंती ने आप मुझे दुख दे दीजिए।
यह सुनकर श्रीकृष्ण को आश्चर्य हुआ कि सभी सुख मांगते हैं आप दुख मांग रही हैं?कुंती ने कहा कि जब-जब हम पर दुख आया आप वहां साक्षात् उपस्थित थे और हमें संकट से मुक्ति दिलाई। परंतु सुख के समय आप नहीं रहते वही बात मुझे विचलित कर देती है। आपके दर्शन तो सिर्फ दुख में ही हो सकते हैं अत: आप मुझे दुख दे दीजिए।

इस संवाद से यही शिक्षा मिलती है कि जहां दुख हैं वही ईश्वर हैं, अत: दुख के समय हमें घबराना नहीं चाहिए और प्रभु का स्मरण करते रहने से सारे दुख दूर हो जाते हैं।

श्रद्धा से मिलता है भगवान
एक विधवा अपने इकलौते पुत्र के साथ गांव में रहती थी। बड़े कष्टों से अपने व अपने बच्चे का पालन करती थी। उसने अपने बालक को पढऩे के लिए दूसरे गांव के स्कूल में भेजा था। दोनों गांवों के मध्य एक निर्जन वन पड़ता था। बालक को उस वन से गुजरने में बड़ा भय लगता था। उसने अपनी मां से कहां- मां मैं स्कूल नहीं जाऊंगा। मुझे वन से गुजरने में बड़ा भय लगता है। मां उसकी इस बात से बड़ी परेशान थी। वह खुद भी उसे छोडऩे नहीं जा सकती थी।

एक दिन उसने एक उपाय किया और बेटे से कहा बेटा जब भी तुझे डर लगे तो तेरा बड़ा भाई वन में रहता है। उसे पुकार लेना। पुत्र ने पूछा मां उनका नाम क्या है? मां ने कहां 'गोपाल।' यह सुनकर बेटा स्कूल की ओर चल दिया। रास्ते में फिर वहीं वन आया। लड़का भयभीत तो था ही डर के मारे चिख निकल गई गोपाल भइया बचाओ। उसी समय वहां एक ग्वाला आया और उसने बालक को हाथ पकड़कर स्कूल तक छोड़ दिया, तथा ले भी आया। अब रोजाना यही सिलसिला चलता रहा। मां ने एक दिन पूछा बेटा अब डर तो नहीं लगता। बेटे ने कहा नहीं मां गोपाल भइया बचा लेते हैं। मां ने समझा बच्चा बहल गया है। और अपने काम में लग गई।

एक बार स्कूल में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें सभी बच्चों को एक रुपया और एक लोटा दूध ले जाना था। बालक ने अपनी मां से कहां, मां ने कहा बेटा हम गरीब है। एक रुपया, एक लोटा दूध हम नहीं दे सकते। ऐसा कर तु अपने गोपाल भइया से मांग लेना। बालक ने कहा ठीक है। वह बालक उठकर विद्यालय की ओर चल दिया। रास्ते में उसने अपने गोपाल भइया को बुलाया और कहा आज स्कूल में एक रुपया और दूध ले जाना है। गोपाल ने कहा रुपया तो मेरे पास नहीं है। दूध ले जाओ यह कहकर गोपाल ने एक लौटा दूध बालक को दे दिया। बालक खुशी-खुशी स्कूल आया। जब उसके लोटे का दूध बड़े बरतन में डाला गया तो वह पूरा भर गया। पर लोटा खाली नहीं हुआ। सब आश्चर्यचकित हो गए। ऐसे ही एक के बाद एक कई बरतन भर गए पर लोटे का दूध समाप्त नहीं हुआ। स्कूल के प्रिंसीपल ने बालक से पूछा यह कहां से लाए हो? वह बालक बोला गोपाल भइयां ने दिया है। किसी को विश्वास नहीं हुआ। सभी उसकी मां के पास गए। मां ने भी कहां मैं किसी गोपाल को नहीं जानती हूं। बच्चे ने कहा अरे मां वो वन में रहने वाले गोपाल भइया ने दिया है। तब सभी वन में गए और बालक ने बहुत आवाज लगाई। पर कोई गोपाल नहीं आया।

सभी ने सोचा यह बालक झूठ बोल रहा है। या कोई जादु-टोना है। बालक की बात कोई सुनने को राजी ना था। सभी उस पर नाराज हो रहे थे तथा उस दूध को अन्य कोई पदार्थ जान रहे थे। सभी बालक को संदेह की नजर से देख रहे थे। तब बालक ने करुण पुकार की हे गोपाल भइया... सुनो आप आओ नहीं तो यह सब मुझे और मेरी मां को मार देंगे। बालक की करुण पुकार सुनकर सभी को एक गंभीर वाणी सुनाई दी- पुत्र मैं तो इन सभी के सामने ही हूं। किंतु इनको दिखाई नहीं देता, क्योंकि इनकी आंखों पर मान, मद, मोह और संदेह का पर्दा पड़ा हुआ है। केवल तु मुझे इसलिए देख पाता है कि तेरा मन पवित्र है। अब इस लोटे का मधुर दुध कभी खाली नहीं होगा। तुम इसी से अपनी आजीविका चलाओ इतना कहकर वाणी मौन हो गई। सभी स्तब्ध रह गए कि यह साक्षात परमेश्वर की कृपा है। सभी एक साथ बोल उठे गोपाल भइया की जय। कथा का सार है कि भगवान को पाना है तो खुद उनके जैसे निर्मल बनों।

परमार्थ हेतु दिया गया दान श्रेष्ठ होता है
जैन धर्म साहित्य में दान के महत्व को दर्शाती एक कथा है। एक अति संपन्न व्यक्ति था, लेकिन जितना पैसा उसके पास था, उतना धैय नहीं था। यदि किसी को वह एक पैसा देता, तो सैकड़ों हजारों के गीत गाता। हर जगह, हर व्यक्ति से अपनी दानशीलता और संपन्नता का गुणगान करना उसका प्रिय कार्य था।एक दिन उसे ज्ञात हुआ कि शहर में एक बड़े महात्मा आए हैं। उसने सोचा कि इनसे मिलकर इन्हें भी कुछ भेंट करना चाहिए। वह उनके पास पहुंचा। अभिवादन के पश्चात महात्मा ने उससे आने का प्रयोजन पूछा, तो पहले तो उसने अपनी अमीरी का बखान किया, फिर अपनी दानशीलता की प्रशंसा की। महात्मा समझ गए कि यह आदमी कितने पानी में है। स्वप्रंशसा के लंबे आख्यान के बाद उस आदमी ने एक थैली निकालकर महात्मा के सामने रखी और बोला- ''मैंने सोचा कि आपको पैसे की तंगी रहती होगी। इसलिए यह लेता आया हूं। पूरे एक हजार दीनार हैं।'' ऐसा कहते-कहते उस धनिक की आंखों में उसका अभिमान उभर आया। महात्मा ने थैली को एक और हटाते हुए कहा- ''मुझे तुम्हारे पैसे की नहीं बल्कि तुम्हारी जरूरत है अमीर मर्माहत हो गया। आखिर महात्मा की हिम्मत कैसे हुई जो उसकी दी हुई भेंट को ठुकरा दिया? आज तक यह साहस किसी ने नहीं किया। उसका अभिमान और तीव्र हो गया। महात्मा उसकी यह अवस्था देखकर बोले- ''क्या तुम्हें बुरा लगा?'' धनिक ने कहा- ''बुरा लगने की बात ही है। इतनी बड़ी रकम को आपने ऐसे ठोकर मार दी, जैसे वह मिट्टी हो।'' तब महात्मा बोले- ''सेठ, याद रखो, जिन दान के साथ दाता अपने को नहीं देता, वह दान मिट्टी के बराबर होता है। दान का अर्थ है- सम विभाजन। दूसरे का जो हिस्सा तुमने लिया है उसे लौटाते हो तो इसमें अभिमान का अवसर कहां रहता है? यह तो चोरी का प्रायश्चित है।'' यह सुनकर धनिक का अहंकार चूर-चूर हो गया और उसके जीवन की दिशा बदल गई। वस्तुत: परमार्थ के लिए दिया गया दान ही श्रेष्ठ होता है। यदि परमार्थ में स्वार्थ शामिल हो जाए तो ऐसा दान मात्र स्वप्रशंसा बटोरने का माध्यम बन कर रह जाता है। दाता याचक दोनों को कोई सुख नहीं पहुंचता।

नि:स्वार्थ दान मोक्ष की उपलब्धि कराता है
महाभारत में एक कथा है जो सच्ची दानवीरता की मिसाल है।एक बार कुरु युवराज दुर्योधन के महल के द्वारा एक भिक्षुक आया और दुर्योधन से बोला- ''राजन, मैं अपनी वृद्धावस्था से बहुत परेशान हूं। चारों धाम की यात्रा करने का प्रबल इच्छुक हूं, जो युवावस्था के ऊर्जावान शरीर के बिना संभव नहीं है। इसलिए आप यदि मुझे दान की इच्छा रखते हैं, तो अपना यौवन मुझे दान कर दीजिए।''दुर्योधन ने कहा- ''महाराज, मेरे यौवन पर मेरी पत्नी का अधिकार है। आपकी अनुमति हो तो उससे पूछ आऊं?'' भिक्षुक ने सहमति दे दी।दुर्योधन अंत:पुर में गया और पत्नी को भिक्षुक की इच्छा बताई। उसकी पत्नी ने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया।

दुर्योधन उदास मुख लेकर बाहर लौटा, तो भिक्षुक उसके बगैर बोले ही उसकी पत्नी का नकारात्मक जवाब समझकर चला गया।फिर वह महादानी कर्ण के पास पहुंचा। कर्ण के समक्ष भी उसने वही मांग रखी। कर्ण ने उससे प्रतीक्षा करने के लिए कहा और अपनी पत्नी से अनुमति मांगने अंत:पुर में गया। यथा भर्ता तथा भार्या कर्ण की पत्नी ने संहर्ष भिक्षुक को यौवन दान कर देने को कहा। कर्ण ने बाहर आकर यौवन दान की घोषणा कर दी। तभी भिक्षुक अदृश्य हो गया और उसके स्थान पर भगवान विष्णु वहां प्रकट हुए जो दरअसल कर्ण व कर्ण पत्नी की परीक्षा लेने आए थे। दोनों ही इस परीक्षा में खरे उतरे। भगवान विष्णु ने गदगद होकर दोनों को मंगल आशीष दिए। वास्तव में दान वही श्रेष्ठ है, जो नि:स्वार्थ भाव से लेने वाले की इच्छा और आवश्यकता के अनुरूप प्रसन्न तथा उदार मन से किया जाए। इस तरह से किया गया दान ही पुण्य का मीठा फल देता है। ऐसे दानी मनुष्य को सांसारिक माया-मोह से मुक्ति मिल जाती है और वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।

पुरुषार्थ से मिलती है देव कृपा
एक किसान के चार पुत्र थे। सबसे छोटा ईश्वरवादी था। वह अपनी मेहनत एवं भगवान के कर्मफल के बारे में जानता था। छोटा बेटा किसी कार्य से बाहर गया था। उसी दौरान उसके पिता की मृत्यु हो गई। तीनों बड़े भाइयों ने संपत्ति का आपस में बंटवारा कर लिया। जब छोटा भाई आया तो उसे बताया कि टीले के ऊपर जो पथरीली जमीन है पिता ने वही तेरे लिए छोड़ी है। छोटे पुत्र को अपनी मेहनत और ईश्वर पर भरोसा था। अत: वह अपनी पत्नी सहित वहां के लिए रवाना हो गया। उसकी पत्नी ने कुछ विरोध किया परंतु उसने उसे रोक दिया। दोनों पति-पत्नी ने जी तोड़ मेहनत कर उस पथरीली जमीन को खेती लायक बना लिया। टीले के नीचे से पानी ला-लाकर उसे उपजाऊ बनाया। बीज बोए। फिर वर्षा का इंतजार करने लगे। पति-पत्नी काम-काज के साथ ईश्वर आराधना भी पूर्ण मन से करते थे। उनकी निष्काम भक्ति देखकर भगवान प्रसन्न हुए। इंद्र को आदेश दिया कि जाओ हमारे इस भक्त पर कृपा रुपी वर्षा करो और इसके जिन भाइयों ने एवं गांव वालों ने इसके साथ अन्याय किया है उन्हें जल से डूबो दो। इंद्र ने भगवान की इच्छा का अक्षरश: पालन किया। जोरदार वर्षा ने पूरे गांव को जल मग्न कर दिया। सभी रक्षा के लिए टीले के ऊपर भागे। ऊपर जाकर सभी ने देखा कि छोट पुत्र और उसकी पत्नी ने वहां का काया कल्प ही कर दिया था। जहां पत्थर ही पत्थर थे, वहां हरियाली लहलहा रही थी। बाढ़ का पानी भी टीले के ऊपर नहीं आ पा रहा था। उन दोनों की ऐसी मेहनत और लगन देखकर तथा ईश्वर की उन पर असीम कृपा देखकर सभी गांव वाले एवं उसके भाई लज्जित हुए और ईश्वर से क्षमा मांगने लगे। छोटे पुत्र और उसकी पत्नी ने भी सभी को आश्रय दिया। उनके लिए जलपान की व्यवस्था की। बड़े भाइयों ने जिस संपत्ति के लालच में अपने छोटे भाई को कष्ट दिया। वह जल मग्न हो चुकी थी। उन्होंने अपने छोटे भाई से क्षमा मांगी तथा उसको पूरा हक देने की बात कही। गांव वालों ने भी क्षमा मांगी। परंतु छोटा भाई बोला आप लोगों को शर्मिंदा होने की आवश्यकता नहीं है। आपने तो अच्छा ही करा जो आप लोग ऐसा नहीं करते तो यहां हमेशा पत्थर ही रहते। अब यह जगह सभी के लिए उपयोगी हो गई है। ऐसे भी भगवान के भक्त होते हैं। जो ईश्वर से कुछ अपेक्षा नहीं करते। वे केवल अपना कर्म करते हैं, और फल देना भगवान की मर्जी पर छोड़ देते हैं। उनको हर कार्य में सार्थकता ही नजर आती है। भगवान भी अपने प्रति किए गए अपराध को क्षमा कर देते हैं। परंतु अपने भक्त के प्रति किए अपराध को वह कतई क्षमा नहीं करते। कहानी का संदेश यही है कि अपने कार्य को पूरी निष्ठा, ईमानदारी से करो जो भी जिम्मेदारी मिले उसे पूर्ण करो तथा फल देना न देना ईश्वर पर छोड़ दे। उसकी दृष्टि सभी पर होती है।

जहां भगवान हैं, स्वर्ग वहीं है
द्वारका में एक बार कृष्ण अस्वस्थ हो गए। वैद्य ने कहा- किसी की चरणरज चाहिए, तभी उपचार होगा। चरणरज लाने की जिम्मेदारी नारद को सौंपी गई। वे रुक्मणि, सत्यभामा सहित ऋषिमुनियों के पास पहुंचे। किसी ने भी रज नहीं दी। डर था कृष्ण को अपनी चरणरज देकर नर्क कौन जाएं। थके हारे नारद कृष्ण के पास लौटे और आप बीती सुनाई। कृष्ण मुस्कुराए और कहा एक बार ब्रज जाकर देख लें, वहां किसी की रज मिल जाए। नारद ब्रज पहुंचे तो कृष्ण के अस्वस्थ होने की सूचना से सभी चिंतित हो गए। राधा और गोपियां बहुत दु:खी थीं। जब पता चला चरणरज से कृष्ण स्वस्थ हो सकते हैं तो सभी अपनी रज देने को उतावली हुईं। नारद ने पूछा- तुम्हें नर्क का डर नहीं है। जवाब मिला- यदि कृष्ण स्वस्थ हुए तो उनके साथ नर्क भी स्वर्ग बन जाएगा। नारद की खुशी और आश्चर्य का ठिकाना न रहा। राधा की चरणरज ली और कृष्ण स्वस्थ हो गए। नारद को भी पता चला भगवान का सुख बड़ा है। यदि भगवान स्वस्थ और सुखी हैं तो नर्क भी स्वर्ग बन जाता है।

सिर्फ भक्ति ही नहीं पहचनना भी जरूरी
किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था नाम था उसका देवधर। देवधर ईश्वर की बहुत भक्ति करता था। दिनभर बस भगवान का नाम ही जपते रहता। इसी वजह से गांव में उसका बहुत मान-सम्मान था। सभी गांववाले उसकी भक्ति की ही बात किया करते थे।
बारिश के दिन थे... बारिश शुरू हुई... इतनी वर्षा हुई कि गांव में बाढ़ आ गई, चारों ओर पानी ही पानी था, सभी के घर के घर पानी में बह गए और सभी जैसे-तैसे अपनी जान बचा रहे थे। देवधर को तैरना नहीं आता था। वह एक पेड़ पर चढ़ गया और भगवान का नाम जपने लगा। धीरे-धीरे जल स्तर और बढऩे लगा, जब देवधर के पैर तक पानी आ पहुंचा तब उसने भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभु अब मेरे प्राणों का संकट आन पड़ा है, आज आपको ही मेरे जीवन की रक्षा करनी है। इसी समय एक अनजान आदमी नाव लेकर उधर से निकला और उसने देवधर को पेड़ पर देखा। उस आदमी ने देवधर बिसे कहा भाई मेरी नाव में आ जाओ मैं तुम्हें सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दूंगा, यहां जल स्तर बढ़ते ही जा रहा है। देवधर उस आदमी से बोला नहीं... मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकता, आज मुझे बचाने के लिए स्वयं भगवान को ही आना पड़ेगा। यह सुनकर वह आदमी नाव चलाते हुए वहां से चले गया। देवधर फिर से भगवान का स्मरण करने लगा। थोड़ी देर बार उसके सामने एक गाय आई। गाय उसके सामने रुक गई। देवधर ने सोचा गाय की पूंछ पकड़कर प्राण बचा लू। परंतु उसे अपना प्रण याद आया कि आज तो मेरे प्राण स्वयं भगवान को ही बचाना होंगे। कुछ देर में वह गाय भी वहां से चले गई। अब तक जल स्तर देवधर की कमर से ऊपर तक पहुंच गया था। इतने में कहीं से एक लकड़ी बड़ा लट्ठा तैरते हुए उसके पास आ गया, परंतु देवधर ने उस लकड़ी के लट्ठे की भी मदद नहीं ली और उसे दूर धकेल दिया। कुछ ही देर में जल स्तर और अधिक बढ़ गया, जिससे देवधर पानी में बह गया और उसकी जीवन लीला समाप्त हो गई।
देवधर के समक्ष बार-बार भगवान ही अलग-अलग रूप में पहुंचे परंतु वह उन्हें पहचान नहीं सका। कोरी भक्ति से भी हमारा कल्याण नहीं हो सकता। अत: भगवान की भक्ति के साथ-साथ उन्हें पहचानना और समझना भी जरूरी है। सभी प्राणी भगवान का ही अंश है यह सोचकर सभी के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए।

जब अर्जुन हो गया अहंकारी...
अर्जुन, श्रीकृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे। धीरे-धीरे उनमें यह गर्व का भाव पनपने लगा कि वे ही श्रीकृष्ण के सबसे बड़े भक्त हैं। उन्हें लगता कि जो निष्ठा व समर्पण भाव उनमें है, वैसा किसी और में होना संभव नहीं है। जब श्रीकृष्ण को यह अहसास हुआ कि अर्जुन में अहंकार आ गया है तो उन्होंने उसे निर्मल करने की ठानी।एक दिन वे अर्जुन को लेकर भ्रमण हेतु निकले। चलते-चलते श्रीकृष्ण एक स्थान पर रुक गए। वहां एक ब्राह्मण बैठा सूखी घास खा रहा था। सहसा अर्जुन की दृष्टि ब्राह्मण की कमर में लटकती तलवार पर गई।

अर्जुन ने ब्राह्मण से इसका कारण जानना चाहा। तब उस ब्राह्मण ने कहा- इससे मुझे चार लोगों को समाप्त करना है। सर्वप्रथम उस नारद को, जो जब चाहे गाते-बजाते आए और मेरे भगवान श्रीकृष्ण को जगा दे। दूसरा है प्रह्लाद, उस धूर्त ने मेरे भगवान की मक्खन जैसी कोमल देह को कठोर स्तंभ के भीतर से निकलने पर बाध्य कर दिया। तीसरी वह द्रोपदी है, जिसकी इतनी हिम्मत कि जब मेरे भगवान भोजन करने बैठे, तभी उनको बुलाकर भोजन नहीं करने दिया और चौथा है अर्जुन, जिसका इतना दुस्साहस कि त्रैलोक्य के स्वामी, जगतपालक, मेरे प्रभु को अपना सारथी बना डाला। उसे तो मैं किसी हाल में नहीं छोड़ूंगा। ब्राह्मण के भक्तिभाव की गहराई देख अर्जुन का अहंकार समाप्त हो गया।

कथा का मर्म यह है कि अहंकार से योग्यता उस तरह फलदायी नहीं रह पाती जैसी कि निरभिमान स्थिति में होती है। बड़ी से बड़ी उपलब्धि पर भी अहंकाररहित होकर सहज बने रहना ही सच्चे अर्थ में बड़ा बनना होता है ।

किसी भी परिस्थिति में घबराना नहीं
ईरान के सुलतान एक बार किसी कारणवश ईरान के एक कबीले कबूदजामा के सरदार नसीरुद्दीन से नाराज हो गए। उन्होंने अपने एक अन्य सरदार को हुक्म दिया कि जाकर नसीरुद्दीन का सिर काटकर ले आओ।अपने एक रिश्तेदार से नसीरद्दीन को यह समाचार मालूम पड़ा। नसीरुद्दीन को सभी ने भाग जाने की सलाह दी। किंतु वह बोला- अगर मेरी मौत मेरे पास आ रही है, तो यहां से जाने के बाद भी हर जगत मेरा पीछा करेगी। इसलिए भागने से कुछ नहीं होगा। मैं यहीं रहकर इस परिस्थिति का सामना करुंगा।

सुल्तान का भेजा सरदार नसीरुद्दीन के घर जा पहुंचा और सुल्तान का हुक्म सुनाया। नसीरुद्दीन ने हंसते हुए कहा- मेरा सिर हाजिर है लेकिन उसे यहां से काटकर दरबार तक ले जाने में परेशानी होगी। बेहतर होगा कि मैं आपके साथ दरबार तक चलूं, वहां सुल्तान के सामने आप मेरा सिर काट देना। सरदार राजी हो गया। जब दोनों दरबार पहुंचे तो सुल्तान नसीरुद्दीन को जीवित देखकर बहुत नाराज हुआ। हुक्म की तामील न करने के कारण उसने सरदार को भी मौत की सजा सुना दी। तब नसीरुद्दीन ने एक रुबाई पढ़ी, जिसका अर्थ था मैं अपनी बुद्धि के नेत्रों में तेरे द्वार के रजकणों को भरे हुए अकेला नहीं बल्कि सैकड़ों प्रार्थनाओं के साथ आया हूं। तुमने मेरा सिर मांगा था, तो मैं यह सिर दूसरे किसी को क्यों देता। इसीलिए मैं अपना सिर अपनी गर्दन पर डालकर तुम्हारे लिए ला रहा हूं। नसीरुद्दीन का यह निर्भय उत्तर सुनकर सुल्तान खुश हुआ हो गया और दोनों को छोड़ दिया।

कथा संदेश देती है कि विकट परिस्थितियों में घबराने के स्थान पर साहस से काम लिया जाए, तो सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं। अत: भय को छोड़े साहस से काम लें।

प्रसन्नता से ईश्वर की प्राप्ति होती है
दो संयासी थे एक वृद्ध और एक युवा। दोनों साथ रहते थे। एक दिन महिनों बाद वे अपने मूल स्थान पर पहुंचे, जो एक साधारण सी झोपड़ी थी। जब दोनों झोपड़ी में पहुंचे। तो देखा कि वह छप्पर भी आंधी और हवा ने उड़ाकर न जाने कहां पटक दिया। यह देख युवा संयासी बड़बड़ाने लगा- अब हम प्रभु पर क्या विश्वास करें? जो लोग सदैव छल-फरेब में लगे रहते हैं, उनके मकान सुरक्षित रहते हैं। एक हम हैं कि रात-दिन प्रभु के नाम की माला जपते हैं और उसने हमारा छप्पर ही उड़ा दिया।
वृद्ध संयासी ने कहा- दुखी क्यों हो रहे हों? छप्पर उड़ जाने पर भी आधी झोपड़ी पर तो छत है ही। भगवान को धन्यवाद दो कि उसने आधी झोपड़ी को ढंक रखा है। आंधी इसे भी नष्ट कर सकती थी किंतु भगवान ने हमारी भक्ति-भाव के कारण ही आधा भाग बचा लिया।

युवा संयासी वृद्ध संयासी की बात नहीं समझ सका। वृद्ध संयासी तो लेटते ही निंद्रामग्न हो गया किंतु युवा संयासी को नींद नहीं आई।
सुबह हो गई और वृद्ध संयासी जाग उठा। उसने प्रभु को नमस्कार करते हुए कहा- वाह प्रभु, आज खुले आकाश के नीचे सुखद नींद आई। काश यह छप्पर बहुत पहले ही उड़ गया होता।यह सुनकर युवा संयासी झुंझला कर बोला- एक तो उसने दुख दिया, ऊपर से धन्यवाद। वृद्ध संयासी ने हंसकर कहा- तुम निराश हो गए। इसलिए रातभर दुखी रहे। मैं प्रसन्न ही रहा। इसलिए सुख की नींद सोया।

कथा का संकेत यही है कि निराशा दुखदायी होती है। हर परिस्थिति में प्रसन्न रहकर ही हम ईश्वर के समीप पहुंच सकते हैं और शांति को उपलब्ध हो सकते हैं। यह काम किसी भी प्रार्थना से अधिक शक्तिशाली है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है..MMK

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