मानवता के रक्षक दयानंद
19वींशताब्दी में पैदा हुए महापुरुषों में स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम उल्लेखनीय है। जब दयानंद वेदों के प्रचार-प्रसार हेतु निकले, तब देश कुरीतियों, अज्ञान, जडता, ढोंग, पाखंड, अंधविश्वासों, छुआछूत, ऊंच-नीच जैसे भ्रमजालोंमें फंसा हुआ था। दयानंद ने संपूर्ण जीवन इन भ्रम-जालों को दूर करने में बिताया। 59वर्ष की अवस्था में उन्होंने महाप्रयाण किया।
महर्षि दयानंद की रचना सत्यार्थ प्रकाश सत्य को स्वीकार करने और असत्य का त्याग करने का आग्रह करती है। उन्होंने जीवन भर गलत बातों, ढोंग, पाखंड आदि से समझौता नहीं किया। सदा साधारण मानव बनकर जीवन जिया। उन्होंने अंधविश्वासियोंको फटकारा, जडत्व भरे धर्मों को ललकारा। धर्मांध लोगों ने दयानंद पर पत्थर फेंके, तलवारें चलाई, विष प्रयोग किए, पर उन्होंने किसी को भी सजा नहीं दी।
उनका कहना था, मैं लोगों को बंधन से छुडाने आया हूं, बांधने नहीं। उन्होंने अपने पीछे मठ, मंदिर, गद्दी, आश्रम और गुरु-शिष्य परंपरा नहीं बनाई। वे जानते थे कि मानव में मानवता न हो तो वह मनुष्य नहीं कहलाएगा।
स्वामी जी ने जो कुछ बताया, उसका आधार वेद, मनुस्मृति, रामायण आदि ग्रंथ थे। वैदिक धर्म में परमात्मा, वेद ज्ञान, मानव धर्म औश्रसृष्टि धर्म का चिंतन मनन है। इसमें प्राणिमात्र के कल्याण और उनके सुख-शांति की मंगलकामनाएंहैं। वैदिक धर्म के सिद्धांत, मान्यताएं, आदर्श, सभी वैज्ञानिक, सृष्टिक्रमके अनुकूल, तर्क एवं प्रमाणयुक्तव्यावहारिक, उपयोगी तथा आधुनिकता से परिपूर्ण है। जो सिद्धांत, विचारधारा जीवनमूल्यसत्य पर आधारित, विज्ञान-सम्मत, तर्क आदि से युक्त होते हैं, वही स्थायी रहते हैं।
दयानंद भारतीय थे परंतु उनकी सोच सार्वभौम थी। दार्शनिक दयानंद ने त्रेतवादकी स्थापना की।
दयानंद ने गृहस्थ आश्रम को ज्येष्ठ आश्रम कहा है। जो व्यक्ति संसार के सुख की इच्छा करता है, प्रसन्न रहना चाहता है, वह गृहस्थाश्रम को धारण करे। अगर गृहास्थाश्रमनहीं होता, तो संतानोत्पत्ति न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम भी नहीं हो सकते थे। जब स्त्री-पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, पुरुषार्थी और व्यवहार कुशल होंगे, तो प्रसन्नता का वातावरण रहेगा। दाम्पत्य विश्वास होगा, तो जीवन में प्रसन्नता बनी रहेगी। परिवार बिखरेंगे नहीं। इसीलिए जीवन को संतुलित, व्यवस्थित, नियमित तथा आत्मोन्नतिकी ओर चलाने के लिए ऋषियों ने आश्रम व्यवस्था बनाई। इससे मनुष्य लोक और परलोक के सभी कर्त्तव्यों को नियमानुसार निभा सके। इसमें भोग व मोक्ष, भौतिकता और आध्यात्मिकता का सुंदर समन्वय है।
स्वामी जी ने आर्यसमाज की स्थापना की। यह संस्था वैदिक धर्म की उद्धारक, प्रचारक एवं प्रसारक संस्था है। इसकी विचारधारा वेद पर आधारित, सत्य पर प्रतिष्ठित और विज्ञानसम्मतहै। इसका उद्देश्य तथा संदेश है, संसार का उपकार करना। इस समाज का मुख्य उद्देश्य है शारीरिक, आत्मिक विश्वबंधुत्व व मानवता।
पांच पूजनीय देवता
देवताओं में दिव्य गुण होते हैं। जो अपने गुणों से दूसरों को लाभ पहुंचाते हैं उनका उपकार करते हैं वही देवता हैं। देवता दो प्रकार के होते हैं- जड देवता और चेतन देवता। जड देवताओं में अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, प्राण, विद्युत, यज्ञ आदि प्रमुख हैं। चेतन देवताओं में जीवात्मा और परमात्मा की गणना होती है। परमात्मा तो सभी देवों के देव महादेव हैं, क्योंकि सभी जड-चेतन देव परमात्मा में ही स्थित है। वही सब जगत के कर्ता, धर्ता और संहर्ता, अधिष्ठाता हैं।
अपने देश में पंचदेव पूजा की परंपरा बहुत प्राचीन है। पूजा का अर्थ है सत्कार और सत्कार यानी यथोचित व्यवहार। अब जिन पांच चेतन देवताओं की पूजा करना सबके लिए उपयोगी और हितकारी है उनकी चर्चा करते हुए महर्षि दयानंद सरस्वती अपने बहुचर्चित ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं कि प्रथम माता मूर्तिमतीपूजनीय देवता अर्थात् संतानों द्वारा तन, मन, धन से सेवा करके माता को प्रसन्न रखना, हिंसा कभी न करना।
दूसरा पिता सत्कर्तव्यदेव, उसकी भी माता के समान सेवा करना। तीसरा आचार्य जो विद्या का देने वाला है, उसकी तन, मन, धन से सेवा करना। चौथा अतिथि जो विद्वान, धार्मिक, निष्कपटीहो, उसकी सेवा करें। पांचवां स्त्री के लिए पति और पुरुष के लिए स्वपत्नीपूजनीय है। ये पांच मूर्तिमान देव जिनके संग से मनुष्य देह की उत्पत्ति, पालन, सत्य शिक्षा, विद्या और सत्योपदेशकी प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर की प्राप्ति की सीढियां हैं। इन पांचों चेतन देवताओं को ढूंढनेके लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। ये सभी हमारे बहुत निकट हैं।
स्वर्ग और नरक हमारे घर में ही हैं। पति परमेश्वर की बात तो प्राय: कही जाती है, परंतु पत्नी को पति के लिए पूजनीय देव बताकर दयानंद ने नारी के सम्मान को जिस ऊंचाई पर पहुंचा दिया है वह अकल्पनीय है। यदि इस पंचदेव पूजा को गृहस्थ जीवन का फिर से अंग बनाने का प्रयास किया जाए तो निश्चय ही हमारा जीवन श्रेष्ठ, आदर्शमयऔर सुख-शांति से परिपूर्ण हो जाएंगे।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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