भगवान का अनमोल तोहफा है जीवन
भगवान ने मनुष्य जीवन के रूप में हमें अनमोल तोहफा दिया है। सो इसका लुत्फ उठाएं, इसे नुकसान न पहुंचाएं। प्रतिस्पर्धी दौर में सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि हमारी युवा पीढ़ी का आत्मबल कमजोर पढ़ गया। किताबी ज्ञान की होड़ में दौड़ रहे लोग अध्यात्म से दूर हो गए। यहीं से सिलसिला शुरू हुआ है हमारे आत्मबल के पतन का।
असली त्याग तब होता है जब आप ये जान लेते हैं कि हमारा कुछ भी नहीं है और जब इस भाव से छोड़ते हैं तब त्याग घटता है। लोग संसार छोड़ने की बात करते हैं लेकिन गहराई में देखा जाए तो संसार हमारा है ही कहां जिसे हम छोड़ेंगे। इसे समझ लेंगे तो संसार में रहने का मजा ही बदल जाएगा। गौतम बुद्ध ने एक बड़ी सुंदर बात कही है। जैसे भंवरा फूल और उसकी गंध को बिना नुकसान पहुंचाए उसका रस ले लेता है वैसे ही हमारे मुनिगण गांव में भिक्षाटन करें। बात बहुत बढ़िया है। जैसे भंवरा बिना कोई नुकसान किए रस लेकर चल दिया वैसे ही हम जिंदगी को बिना कोई हानि पहुंचाए जीवन को जी लें। यह अहिंसा का उदाहरण है। हम रस तो ले सकते हैं पर किसी को नुकसान पहुंचाने के अधिकारी नहीं हैं। अहिंसा का ऐसा भाव जीवन में आते ही अशांति चली जाएगी। बुद्ध समझा रहे हैं जीवन हमें जो भी रस दे उस रस को ले लिया जाए और धन्यवाद दे दिया जाए। कहीं ऐसे भंवरे न बन जाएं जो रस चूसने में इतने मशगूल हो जाते हैं कि फिर उड़ना ही भूल जाते हैं और शाम को जब कमल के फूल की पंखूड़ियां बंद हो जाती है तो उसमें कैद हो जाते हैं। बस दुनिया में यही हमारी जिंदगी का उसूल हो जाए। यह दुनिया हमारे लिए कारागृह न बन जाए। रस लें आभार दें और बिना कोई नुकसान पहुंचाए मुक्त हो जाएं। प्रकृति से जो संबंध बुद्ध ने जोड़ा है उसके लिए भारतीय पद्धति का आश्विन मास बड़ा अनुकूल है। इसी माह में नवरात्रि आरंभ होती है। नवरात्र का अर्थ है नई रातें। यहीं से दिन छोटे और रात बड़ी होने लगेंगी। इस ऋतु परिवर्तन काल में नौ दिन शक्ति आराधना से हम भंवरे की तरह फूल को बिना नुकसान पहुंचाए रसानुभूति कर सकते हैं।
सिर्फ बड़े होने से नहीं आता बड़प्पन
कई लोगों को यह शिकायत होती है कि वे घर, परिवार या समाज के बड़े हैं लेकिन उन्हें वैसा सम्मान नहीं मिलता। छोटे उनकी राय को नहीं मानते, कभी-कभी तो ऐसे में घर के बड़े-बुजुर्ग डिप्रेशन में भी चले जाते हैं। सम्मान का अधिकार हमारा है लेकिन जो बड़े हैं उन्हें भी एक बार यह सोचना चाहिए कि क्या वे व्यवहार, सोच और चिंतन में बड़े हैं।
हमारे व्यवहार और विचारों में भी बड़प्पन झलकना चाहिए। जो लोग घर में या किसी व्यवस्था में उम्र में बड़े हों, शीर्ष पद पर हों उन्हें निर्णय लेने में गहराई और दूरदर्शिता बनाए रखना चाहिए। श्रीराम के एक निर्णय से संकेत मिलता है। जब विभीषण ने श्रीराम की शरण ली। श्रीराम ने शरणागत वत्सलता की रघुकुल रीत निभाई और विभीषण के सिर पर कृपा का हाथ रख दिया। श्रीराम के मित्र और वानरराज सुग्रीव इस निर्णय से सहमत नहीं थे। उन्होंने राय दी थी - भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बांधि मोहि अस भावा।। कहा- ‘‘हे रघुवीर! विभीषण पर विश्वास करना ठीक नहीं है। आखिर वह शत्रु का भाई है। संभव है, हमारा भेद लेने आया हो। इसे बांधकर रखना उचित होगा।’’ सुग्रीव अपनी असहमति की स्पष्ट राय दे चुके थे। श्रीराम ने उनका भी मान रखने के लिए कहा था - मित्र सुग्रीव, तुमने नीति तो अच्छी बताई है लेकिन मेरा प्रण है शरणागत के भय को दूर करने का। फिर श्रीराम ने विभीषण को स्वीकार किया। न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि समुद्र से जल मंगाकर विभीषण का राज्याभिषेक भी कर दिया। यहां श्रीराम का निर्णय सवरेपरि रहा।जब जीवन सामूहिक स्थितियों में हो तब शीर्ष पुरुषों को निर्णय लेने में कई एंगल पर अपना ध्यान टिकाना पड़ता है। विभीषण से सुग्रीव सहमत नहीं थे और लक्ष्मण, सुग्रीव तथा विभीषण दोनों से ही असहमत रहे किन्तु श्रीराम के लिए यह तीनों महत्वपूर्ण थे। इन तीनों से श्रीराम के जो सम्बन्ध थे उनमें हनुमान एक महत्वपूर्ण कड़ी थे। हनुमान सेवा और प्रेम का पर्याय है। श्रीराम जानते थे मुझे निर्णय मेरी दृष्टि से लेना है किन्तु सहमत और प्रसन्न सबको रखना है। बड़प्पन इसी का नाम है।
प्रेम बदल सकता है जीवन की दिशा अगर अपने दम पर कोई कुछ परिवर्तन ला सकता है तो वह है प्रेम। प्रेम की शक्ति कुछ भी बदल सकती है। हमारे अवतारों ने, संतों-महात्माओं ने, विद्वानों ने प्रेम पर ही सबसे ज्यादा जोर दिया है। केवल हिंदू धर्म ही नहीं, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध हर धर्म का एक ही संदेश है कि निष्काम प्रेम जीवन में होना ही चाहिए। इसमें बड़ी शक्ति है। यह जीवन की दिशा बदल सकता है।
परमात्मा के निकट जाने का एक सबसे आसान रास्ता है प्रेम।
फकीरों की सोहबत में क्या मिलता है यह तो तय नहीं हो पाता है लेकिन कुछ चाहने की चाहत जरूर खत्म हो जाती है। सूफियाना अन्दाज में रहने वाले लोग दूसरों से उम्मीद छोड़ देते हैं। अपेक्षा रहित जीवन में प्रेम आसानी से जागता है। प्रेम में दूसरों को स्वयं अपने जैसा बनाने की मीठी ताकत होती है। प्रेम की प्रतिनिधि है फकीरी। अहमद खिजरविया नाम के फकीर बहुत अच्छे लेखक भी थे। रहते तो फौजियों के लिबास में थे लेकिन पूरी तरह प्रेम से लबालब थे। एक दफा उनके घर चोर ने सेंध लगा दी। चोर काफी देर तक ढूंढता रहा कुछ माल हाथ नहीं लगा। घर तो प्रेम से भरा था अहमद का मन भी पूरी तरह से प्रेम निमग्न था। चोर को वापस जाता देख उन्होंने रोका। कहा हम तुम्हे मोहब्बत तो दे ही सकते हैं बाकी तो घर खाली है। बैठो और बस एक काम करो सारी रात इबादत करो। फकीर जानते थे कि जिन्दगी का केन्द्र यदि ढूंढना हो तो प्रेम के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। जिनके जीवन के केन्द्र में प्रेम है ऊपर वाला उनकी परीधि पर दरबान बनकर खड़े रहने को तैयार होगा। दुनिया में जिन शब्दों का जमकर दुरुपयोग हुआ है उनमें से एक है प्रेम। इसके बहुत गलत मायने निकाले हैं लोगों ने। आइए देखें प्रेम कैसा आचरण करवाता है, यहीं हमें सही अर्थ पता चलेगा। चोर ने सारी रात इबादत की। सुबह किसी अमीर भक्त ने फकीर अहमद खिजरविया को कुछ दीनारें भेजी। फकीर ने दीनारे चोर को दी और कहा यह है तुम्हारी इबादत के एवज में कुबुल करो। चोर प्रेम की पकड़ में था। आंखों में आंसू आ गए और बोला, मैं उस खुदा को भूले बैठा था जो एक रात की इबादत में इतना दे देता है। चोर ने दीनारे नहीं ली और कह गया यहां प्रेम और पैसा दोनों मिले, पर अब प्रेम हासिल हो गया तो बाकी खुद ब खुद आ जाएगा। जिन्दगी में जब प्रेम का प्रवेश रुक जाता तो अशांति को आने की जगह मिल ही जाती है।
रिश्ता कोई भी हो, उसमें पवित्रता जरूरी है
आधुनिकता से एक नुकसान यह हुआ है कि हमारी निजता अपवित्र हो रही है। सामाजिक जीवन में पारदर्शिता नहीं बची। रिश्तों के सहेजना और उनकी गरिमा को बरकरार रखना जरूरी है। अगर हमारा निजत्व ही पवित्र नहीं है तो फिर हम परमात्मा के पथ से काफी दूर हो जाएंगे। कोशिश करें अपने रिश्ते दुनिया और दुनिया बनाने वाले दोनों से ही पवित्र हों।
इस समय रिश्तों की व्यवहारिकता पर जोर दिया जाता है जबकि ध्यान दिया जाना चाहिए पवित्रता पर। आपसी संबंध उपहारों की तरह बना दिए गए हैं। इस हाथ दो, उस हाथ लो। रिश्तों में जब लेने-देने की नीयत आ जाए तब जीवन में लोभ, स्वार्थ, षडयंत्र और अशांति आना ही है। जैसे हम दुनिया में इस तरह से रिश्ते निभा रहे हैं वैसे ही दुनिया बनाने वाले भी निभाने लगते हैं और यहीं से गड़बड़ शुरु हो जाती है। भगवान से हमारा रिश्ता कैसे हो यह सवाल हर भक्त के मन में आता रहता है। क्या हम करें और क्या वो करेगा सवाल के इस झूले में हमारी भक्ति झूलती रहती है। श्रीकृष्ण अवतार में सुदामा प्रसंग इस प्रoA का उत्तर देता है। सांदीपनि आश्रम में बचपन में श्रीकृष्ण-सुदामा साथ पढ़े थे। बाद में श्रीकृष्ण राजमहल में पहुंच गए और सुदामा गरीब ही रह गए। सुदामा की पत्नी ने दबाव बनाया और सुदामा श्रीकृष्ण से कुछ सहायता लेने के लिहाज से द्वारिका आए। एक मित्र दूसरे मित्र से कैसे व्यवहार करे इसका आदर्श प्रस्तुत किया श्रीकृष्ण ने। खूब सम्मान दिया सुदामा को लेकिन विदा करते समय खाली हाथ भेज दिया। वह तो बाद में अपने गांव जाकर सुदामा को पता लगा श्रीकृष्ण ने उनकी सारी दुनिया ही बदल दी। भगवान के लेने और देने के अपने अलग ही तरीके होते हैं। बस हमें इन्हे समझना पड़ता है। वह दिखाकर नहीं देता पर खुलकर देता है। इस प्रसंग का खास पहलू यह है कि सुदामा ने पूछा था कृष्ण मैं गरीब क्यों रह गया। आपका भक्त होकर भी? श्रीकृष्ण बोले थे बचपन की याद करो, गुरु माता ने एक बार तुम्हे चने दिए थे कि जब जंगल में लकड़ी लेने जाओ तो कृष्ण के साथ बांटकर खा लेना। तुमने वो चने अकेले खा लिए, मेरे हिस्से के भी। जब मैंने पूछा था तो तुम्हारा जवाब था, कुछ खा नहीं रहा हूं बस ठंड से दांत बज रहे हैं। भगवान की घोषणा है जो मेरे हिस्से का खाता है और मुझसे झूठ बोलता है उसे दरिद्र होना पड़ेगा।
भरोसा रखिए, आप सुरक्षित महसूस करेंगे
हमारी भक्ति एक तरह की सौदेबाजी हो गई है। मंदिर जा रहे हैं तो भगवान से यह अपेक्षा रखते हैं कि हम आर्थिक, सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से सुरक्षित रहेंगे। अगर थोड़ी भी गड़बड़ होती है तो हमारी भक्ति डगमगा जाती है। भक्ति का सबसे बड़ा सूत्र है भरोसा, अगर आप को परमात्मा पर ही भरोसा नहीं है तो फिर आप उससे सुरक्षा की ग्यारंटी कैसे मांग सकते हैं। वास्तव में हमें उससे कुछ मांगने की जरूरत भी नहीं है, हम सिर्फ उसकी व्यवस्था पर, शक्ति पर भरोसा रखें तो बाकी वो खुद ही आपका ध्यान रखेंगे।
भक्त भगवान पर भरोसा करते हैं और सुरक्षा की ग्यारंटी भी चाहते हैं। हम जितना संसार से अपने आपको सुरक्षित रखना चाहेंगे हमें परमात्मा के प्रति विश्वास पैदा करने में उतनी ही बाधा आएगी। संसार में रहकर हम प्रयास करते हैं सुरक्षा का एक घेरा हमारे आसपास बन जाए। हमारे लिए कभी-कभी परमात्मा भी सुरक्षा करने की वस्तु हो जाता है जबकि होना चाहिए विश्वास। आप परमात्मा पर भरोसा रखिए उसके बाद भूल जाइए कि आप सुरक्षित हैं या असुरक्षित, बाकि काम ईश्वर देखेंगे। परमात्मा पर विश्वास होना अपने आपमें ही एक बहुत बड़ी सुरक्षा है।भगवान हमेशा अपने भक्तों से कहते हैं तुम लोग सुखद संभावना के पात्र हो। इसलिए असंतोष और असमंजस से बाहर निकलो। भगवान तीन तरह के भक्तों को सावधान करते हुए कहते हैं मैं उन लोगों से नाराज रहता हूं जो अन्याय करते हैं, सीधे-सीधे अन्याय सहते हैं और तीसरे वो लोग जो इन दोनों स्थितियों को देखते हैं। इस मामले में मुझे मूकदर्शक और गैर जिम्मेदार लोग पसंद नहीं हैं। मैं अपने भक्तों का अंतिम समय तक और पुन: आरंभ तक साथ देता हूं। मेरे पास सुधार की संभावना है और दुलार के अनेक अवसर हैं जो मैं भक्तों के लिए सुरक्षित रखता हूं। फिर भी भक्त हैं कि वे मुझे ही धोखा देने को तैयार रहते हैं। हम भक्तों को यह समझना होगा कि अभी वह धूल ही नहीं बनी है जो भगवान की आंख में झोंकी जा सके।इसलिए सांसारिक सुरक्षाओं पर अधिक मत टिकिए। धन, भवन, रिश्ते, पद ये सब सांसारिक सुरक्षा के दृश्य हैं जो माया की तरह हैं। आज है कल नहीं रहेंगे। भवन में रहो, भवन को अपने भीतर मत रखो। धन आपके खाते में हो आपके दिल में न हो। हृदय में भगवान के प्रति विश्वास हो तो देह को भले ही संसार में उतार दें फिर खतरा नहीं रहेगा।
अपने भीतर की योग्यता और संभावनाओं को जगाएं
दुनिया उसके पीछे भाग रही है जिसके पास पॉवर है, जो बड़ी हस्ती है, कुछ परिवर्तन का माद्दा रखता है। उगते सूरज को सभी नमस्कार करते हैं। हमारे मन में हमेशा लालसा रहती है कि कोई बड़ा आदमी हमें अपना नजदीकी बना ले। नजदीकियां बनाना है तो पहले खुद के भीतर इतनी योग्यता और संभावनाओं को जगाना पड़ेगा। आध्यात्मिक जीवन में भी परमात्मा की निकटता पाने के लिए अपने भीतर की संभावनाओं को जगाना पड़ेगा।दुनिया में रहते हुए अनेक लोगों को कई बार ऐसा लगता है कि किसी बड़ी हस्ती की निकटता प्राप्त हो जाए। कोई दिव्यात्मा हमें स्पर्श कर ले और यदि ऐसा होता है तो कभी-कभी हमें एक नई ऊर्जा प्राप्त होती है। इसे अध्यात्म ने सान्निध्य ऊर्जा कहा है एनर्जी ऑफ प्रॉक्सीमिटी और जब ऐसी ऊर्जा मिले तो उसका उपयोग करना हमें आना चाहिए।
श्री हनुमानजी के जीवन में एक अवसर ऐसा आया था। राजा सुग्रीव के आदेश पर जब वानर चारों दिशाओं में सीताजी की खोज के लिए भेजे गए तो कहते हैं हनुमानजी सबसे पीछे थे। श्रीराम सबको बिदाई दे रहे थे तो लिखा गया है च्च्पाछें पवन तनय सिरु नावा, जानि काज प्रभु निकट बोलावाज्ज जो व्यक्ति सबसे पीछे आया है राम ने उन्हें काम का विचार कर अपने निकट बुलाया। श्रीराम को सीताजी के पास दूत के रूप में भेजने के लिए किसी का तो चयन करना ही था। ये सारी संभावना उन्हें हनुमानजी महाराज में दिख गई। हर बीज वृक्ष नहीं बनता लेकिन चैतन्य लोग उस एक बीज को पकड़ लेते हैं जिसमें वृक्ष बनने की संभावना है।राम चैतन्य थे और हनुमान, बीज में भरी हुई संभावना थे। बात यहीं समाप्त नहीं हुई च्च्परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी।।ज्ज अपने हाथों से श्रीरामजी ने हनुमानजी को स्पर्श किया और अंगुठी सौंप दी। यहां हनुमानजी को एक दिव्य सत्ता की निकटता और स्पर्श दोनों मिल गए। इस सान्निध्य ऊर्जा का उपयोग उन्होंने लंका में जाकर किया। हमें यही सीखना है। अच्छे, समझदार सक्षम और बड़े लोगों का साथ मिले ऐसा प्रयास करें किंतु उस संग से जो ऊर्जा मिले उसका भरपूर सद्उपयोग किया जाए। साथ देने के लिए इस समय सर्वाधिक सुलभ देवता हनुमानजी महाराज हैं। वे आपके पास कभी भी आ जाएंगे।
योग्यता के साथ चाहिए निष्ठा भी
आधुनिक दौर में प्रतिभाशाली लोग तो तैयार हो रहे हैं, लेकिन उनमें नहीं है तो निष्ठा। बिना निष्ठा के हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। प्रतिभा कितनी ही ऊंची क्यों न हो लेकिन अगर उसमें निष्ठा नहीं है तो फिर वह किसी काम की नहीं। बिना निष्ठा के आने वाली प्रतिभा केवल भ्रष्टाचार लेकर आती है।मालिक या स्वामी के प्रति निष्ठावान होना एक अच्छी व्यवस्था के लिए आदर्श स्थिति है। अपने गुण, योग्यता और परिश्रम के कारण ही कोई व्यक्ति शीर्ष पर होता है और स्वामी या मालिक की भूमिका में रहता है। बॉस इज ऑलवेज करेक्ट का एक अर्थ यह होता है कि अपनी शीर्ष व्यवस्था के प्रति हमारी प्रतिबद्घता। हस्तिनापुर की राजगादी के प्रति भीष्म की निष्ठा इसी का प्रतीक है। उन्होंने प्रतिज्ञा ली थी कि आजीवन विवाह नहीं करेंगे। इच्छामृत्यु के वरदान से विभूषित भीष्म का यह भी संकल्प था कि हस्तिनापुर की गादी पर बैठने वाले हर राजा में अपने पिता की छवि देखेंगे। धृतराष्ट्र राजा बने और उन्होंने भीष्म की इच्छा के प्रतिकूल कई निर्णय भी लिए। राज्य का बंटवारा हो या द्रौपदी चीरहरण का प्रसंग या फिर युद्ध का निर्णय। न चाहते हुए भी भीष्म राजगादी के निर्णयों का सम्मान करते रहे। दुर्योधन से भीष्म सभी प्रकार से असहमत रहते थे। किंतु चूंकि वह राजा था अत: उसके पक्ष में युद्ध के लिए वे संकल्पित भी थे। जब युद्ध में भीष्म ने पांडव सेना को परेशान कर दिया था तब पांडवों ने भीष्म के पास जाकर सलाह लेने का विचार किया था। उस समय युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को एक प्रसंग सुनाया था। समयस्तु कृत: कश्चिन्मम भीष्णोम संयुगे। मन्त्रायिष्ये तवार्थाय न तु तोत्स्ये कथश्चन। दुर्योधनार्थ योत्स्यामि सत्यमेवदिति प्रभो॥ मेरी भीष्मजी के साथ एक शर्त हो चुकी है। उन्होंने कहा है कि मैं युद्ध में तुम्हारे हित के लिए सलाह दे सकता हूं परंतु तुम्हारी ओर से किसी प्रकार का युद्ध नहीं करूंगा। युद्ध तो मैं केवल दुर्योधन के लिए ही करूंगा। भीष्म का यह सिद्धांत संपूर्ण रूप से सही न होते हुए भी इतना संदेश तो देता है कि लॉयल्टी बनाए रखना चाहिए। निष्ठा भी एक योग्यता बन जाती है किन्तु योग्यता में यदि निष्ठा न हो तो वह भ्रष्टाचार को जन्म दे देती है।
सफलता अकेली ठीक नहीं, शांति भी हो
युवाओं को सफलता तो खुब मिल रही है, सारे सुख-सुविधाएं भी जुटाई जा रही हैं, मल्टीनेशनल्स में अच्छे पैकेज के साथ नौकरी भी है लेकिन गहराई से देखने पर पता चलता है कि अभी कुछ चूक हो रही है। हम भीतर से अशांत हैं क्योंकि हमारी जो जड़ें हैं, वे कमजोर होती जा रही हैं, आध्यात्मिक रूप से हम खोखले हैं।आज जितनी भी शिक्षा, ज्ञान, समझ दी जा रही है, पाठ पढ़ाया जा रहा है और अक्ल बांटी जा रही है, उसमें यह शर्त के साथ शपथ के रूप में बताया जा रहा है कि हर काम में, हर हाल में सफल होना ही है। असफल लोग जितने हताश और परेशानी में हैं सफल लोग उससे भी ज्यादा परेशानी और तनाव में हैं। सफल हो जाएं और फिर लगातार सफल बने रहें, यह इरादा एक दिन दुराग्रह में बदल जाता है और इससे भी आगे जाकर नशे का रूप ले लेता है। हर बार सफल होने की इच्छा धीरे-धीरे सदैव जीत की आकांक्षा में बदल जाती है। सफलता और जीत के बारीक फर्क को समझ लें। सफलता में स्वहित का भाव रहता है परन्तु परहित की कामना भी बनी रहती है। सफल लोग अपनी सफलता में दूसरों का नुकसान नहीं करना चाहते, किन्तु जीत, पराजय के बिना हासिल होती ही नहीं। दूसरों को पराजित करने में हम जाने अनजाने में कब हिंसा, ईष्र्या, द्वेष, षडयंत्र पाल लेते हैं पता ही नहीं चलता।जीत एक काल कोठरी की तरह है और सफलता खुले काराग्रह की तरह। दुनिया में दो तरह की जेल है। पहली जो दूसरों के लिए बनाई गई है और दूसरी वह जो हमने अपने लिए बना ली है। जो अधार्मिक लोग हैं वे हमेशा दूसरों के हारने के चक्कर में रहते हैं और जीत उनके लिए नशा है। ऐसे लोग केवल जीत ही हासिल नहीं करते वे बहुत सारी अशांति भी प्राप्त कर लेते हैं। जो धार्मिक हैं वे जीत की जगह सफलता पर टिकते हैं लेकिन पूर्ण शांति से ऐसे लोग भी वंचित रह जाते हैं। इन दोनों से ऊंची स्थिति है आध्यात्मिक होने की। आध्यात्मिक व्यक्ति कभी भी असफल नहीं होता। इसे मिले तो भी वो जीतता है, यदि हारे तो भी जीतता है। उसकी घोषणा होती है कि मुझे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि मैं जीतना नहीं चाहता, मैं कभी असफल नहीं होता क्योंकि सफलता के प्रति मेरा दुराग्रह नहीं है। मेरी रुचि कर्म करने में है। पूरी निष्ठा और ईमानदारी से सफलता असफलता तो ऊपर वाले पर छोड़ देता हूं तभी तो आध्यात्मिक हूं। इसलिए कर्म और परिणाम को आध्यात्मिक दृष्टि से लिया जाए। केवल सांसारिक नजरिए से न लें।
अगर सीधे पहुंचना हो परमात्मा तक
परमात्मा यानी उस परम शक्ति तक हम सीधे भी पहुंच सकते हैं। इसके लिए भक्ति नहीं हमें प्रयास करना होगा खुद को साधने का। खुद के स्वाभाव को फकीराना बनाना होगा। हम तीर्थो में जाते हैं तो मंदिर और प्रतिमाओं तक ही सीमित रह जाते हैं, कभी उसके भीतर यानी परमात्मा को समझने की कोशिश भी नहीं करते।सीधे ईश्वर तक पहुंचने की तड़प आदमी के भीतर फकीरी ला देती है। मुस्लिम फकीरों की परंपरा में शिबली का नाम अदब से लिया जाता है। उनका आग्रह रहता था कि सीधे अल्लाह तक पहुंचो। अपनी इस बात को कहने के उनके ढंग निराले होते थे। धर्मस्थलों का लोगों ने उपयोग केवल दिखावे के लिए किया है इस पर शिबली को आवेश भी रहता था। एक बार वे हाथ में जलते हुए अंगारे लेकर घूम रहे थे। लोगों ने सवाल पूछा तो शिबली का जवाब था इससे खान-ए-काबा को जलाने की तैयारी है। लोगों को नाराजी आना स्वाभाविक थी। ये मुसलमान होकर काबा यानी मुसलमानों के सर्वश्रेष्ठ पवित्र स्थान के लिए ऐसा कह रहे हैं, लेकिन जब शिबली फकीर ने अपनी बात को और साफ करके जवाब दिया तो लोग चौंके, शर्मिन्दा भी हुए और खुश भी। बात इशारे में की गई थी। उनका कहना था इसलिए ऐसा करना चाहता हूं लोग केवल वहीं की इबादत पर टिक जाते हैं और सीधे खुदा की ओर नहीं चलते। शिबली का इशारा था लोग केवल काबा की जगह पर न टिकें बल्कि साहबे काबा (परमात्मा, उस स्थान के मालिक) पर टिकें।सचमुच हम लोगों का जीवन ऐसा ही हो जाता है कि हम खुदा को सुनते हैं खुदा की नहीं सुनते। एक दफा शिबली के हाथ जलती लकड़ियां देख फिर सवाल पूछा गया, अब किसे जलाने का इरादा है। जवाब बेमिसाल ही आया। जन्नत (स्वर्ग) और दोजख (नर्क) दोनों को जला दूंगा। अभिव्यक्ति की निराले तौर तरीके के साथ फकीर बोले जन्नत और दोजख के डर से लोग उस ऊपर वाले की इबादत करें यह गलत है। व्यक्ति निलरेभ, निर्भय और निर्दोष होना चाहिए। हमें समझना होगा कि जीवन एक सतत् प्रशिक्षण है। संत फकीर अपने-अपने अन्दाज से हमें सिखाते जाते हैं।
तो गृहस्थी वैकुंठ होगी, जंजाल नहीं
आधुनिक दौर में नैतिक मूल्यों का जितना पतन हुआ है, उतना किसी का नहीं। रिश्तों की मजबूत डोर कमजोर पड़ती जा रही है, रिश्तों के बंधन अब बोझ हो गए हैं। युवाओं को दाम्पत्य अब भारी और भविष्य में रुकावट लगने लगा है। जबकि विवाह केवल एक रस्म नहीं, संस्कार है जो जीवन के लिए आवश्यक ही नहीं, कई मायनों में लाभदायक भी है।विवाह शौक, मजबूरी, जरूरत नहीं एक दिव्य परंपरा है। ऐसी जीवन शैली है जो आध्यात्मिक और सांसारिक लक्ष्य में साधक बनती है बाधक नहीं। आज अगहन शुक्ल पंचमी, श्रीराम विवाहोत्सव को, उनके पावन प्रसंग को याद करें। नया कुछ नहीं है सभी का विवाह होता है, लेकिन यहां जो अनूठा घटा उसे जीवन से जोड़ा जा सकता है। जनकराजा की सभा में रखा धनुष टूटा था उसके पश्चात ही विवाह हो पाया था। धनुष का पूरा गठन और क्रिया अहंकार का प्रतीक है। श्रीराम ने पहले अहंकार तोड़ा फिर दाम्पत्य में प्रवेश किया था। यदि अपने-अपने अहंकार के साथ गृहस्थी आरंभ होगी तो घर को अशांति का अड्डा और उपद्रव का अखाड़ा बनने से कौन रोक सकेगा।हमारे यहां परिवारों में विवाह पूर्व वर-वधु की खूब तैयारी की जाती है। घर बाजार एक कर दिए जाते हैं। पता ही नहीं चलता कि शादी हो रही है या धंधा हो रहा है। हर रीति रीवाज पर दिखावा इतना हावी हो जाता है कि हम भूल ही जाते हैं कि परिवार प्रदर्शन पर नहीं, प्रेम पर टिका होना चाहिए।भरपूर शारीरिक और सांसारिक तैयारी के साथ युवक-युवती, पति-पत्नी बना दिए जाते हैं। पति-पत्नी बनने के पूर्व अहंकार का गलना और प्रेम के पनपने की ओर कोई ध्यान ही नहीं दे पाता। परिणाम होता है विवाह पश्चात पति-पत्नी के रूप में दो महत्वाकांक्षाएं टकरा जाती है, दो आस्तित्व भिड़ जाते हैं। अपने-अपने सपने चूर हो जाते हैं और दोषारोपण, लंबा सिलसिला शुरू होता है, संभवत: आजीवन ही।पुन: चलें श्रीराम-सीता विवाह की ओर। पहले अहंकार तोड़ा फिर वरमाला डाली, यानि एक-दूसरे की प्रत्येक गतिविधि की पूर्ण स्वीकृति प्रसन्नता के साथ। फिर गठबंधन यानि जुड़ाव। यही क्रम है भगवान से भक्ति के मिलने का। श्रीराम-सीता विवाह भक्ति के भगवान से मिलने का पर्व है। हम भी अपनी भक्ति को भगवान से जोड़ने का ऐसा प्रयास करें और इसी प्रयास को दाम्पत्य में उतारें, फिर गृहस्थी वैकुंठ होगी जंजाल नहीं।
अंतर है उसकी व्यवस्था और हमारे सिस्टम में
सिस्टम और व्यवस्था में बहुत अंतर है फिर बात अगर भगवान की व्यवस्था और हमारे सिस्टम की हो तो अंतर वैसा ही है जैसा हममें और भगवान में है। भगवान की व्यवस्था की खासियत यह है कि उसमें कभी किसी के लिए कोई अतिक्रमण नहीं है, नियम सबके लिए बराबर हैं, जबकि हम सिस्टम बनाते हैं और फिर उसे तोड़ भी देते हैं कुछ हितों के लिए। भगवान की व्यवस्था को समझने के लिए आध्यात्मिक विचार शक्ति की जरूरत है।संसार में रहते हुए हम लोग राष्ट्र, समाज, परिवार की व्यवस्था बनाते हैं और फिर स्वयं इस सिस्टम को तोड़ते भी हैं। इसी जोड़-तोड़ में जिन्दगी बीत जाती है। जब अपने ही बनाए संसार से परेशान हो जाते हैं तो भक्ति के मार्ग में ऊतर जाते हैं। भक्ति के संसार में हम अपनी इच्छा के अनुसार भगवान से मांग शुरु करते हैं। हम ईश्वर की व्यवस्था में अपनी व्यवस्था का अतिक्रमण करते हैं। परमात्मा के साफ-सुथरे, हरे-भरे कृपा के क्षेत्र में हम अपनी निज हित की मांगों की झुग्गी-झोपड़ी, ठेले, गुमठी, भवन अट्टालिकाओं के अतिक्रमण को ठूंस देते हैं।भगवान के विधान को लेकर हम कुछ भ्रम पाल लेते हैं। भगवान् जितना नियंता है उतना ही नियम भी है। पृथ्वी का एक नियम है कि इसमें गुरुत्वाकर्षण शक्ति होती है। जब कोई वस्तु ऊपर से नीचे गिरती है तब पृथ्वी उसे खींचती है और इसी कारण से वह वस्तु पृथ्वी पर गिर जाती है। यह एक सामान्य सा नियम है, लेकिन हम अगर चल रहे हों तथा हमारी ही भूल से यदि ठोकर लग जाए परिणामस्वरूप हम गिर जाएं तो हम यह नहीं कह सकते कि यह तो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का नियम था इसलिए हम गिर गए। हम अपनी ही भूल से गिरे हैं, पृथ्वी का नियम अपनी जगह है।इस प्रकार भगवान् ने सारी व्यवस्था कर रखी है। उन्होंने अपने कुछ नियम बना रखे हैं परंतु धर्म तथा, संस्कृति की जो आचार संहिता है उसका पालन हमें करना होगा। परमात्मा के नियम अपनी जगह हैं।परमात्मा के नियमों को समझने के लिए एक आध्यात्मिक समझ होना जरूरी है। इसी समझ को कहीं-कहीं समाधि भी कहा गया। ऊहापोह और भ्रम के विचारों का वेग जब शांत हो जाए तब समझ या समाधि घटती है। परमात्मा की व्यवस्था में जब जीने लगो तो समझ है और उसके अंग ही बन जाओ तो समाधि है। निर्विरोध और निर्विकल्प होकर ही ईश्वर के नियम का पालन किया जा सकता है।
हड़बड़ाहट में न बदल जाए शार्टकट
ये दौर जल्दबाजी का है, हर कोई थोड़े प्रयास में बहुत कुछ पाना चाहता है। दरअसल कलयुग का व्यवहार ही है, थोड़ी मेहनत और अधिक फल। कलयुग में भक्ति भी ऐसी ही है लेकिन भक्ति के शार्टकट में बहुत एकाग्रता की जरूरत है। अगर ज्यादा जल्दबाजी में हड़बड़ा गए तो सारे समीकरण उलटे हो जाते हैं।समय के सद्पयोग का एक तरीका यह भी है कि कम समय में दक्षता के साथ काम पूरा हो जाए। यदि हम हमारे समय का आंकलन करें तो पाएंगे हर पल बिखरा हुआ है। ऐसा कोई धागा नहीं होता जो इन्हें जोड़ दे। इसलिए बहुत सारे लोग अपने जीवन में समय के छोटे-छोटे टुकड़ों का ढेर बना लेते हैं, वक्त को बिखरे-बिखरे क्षण, बेतरतीब समय के खंड में बांट देते हैं। जो संत होते हैं उनके जीवन का हर पल एक-दूसरे से जीवनधारा से जुड़ा होता है, गुथा रहता है। हर क्षण इन्टर-कनेक्टेड है, एक-दूसरे से पृथक नहीं। जन्म से मृत्यु तक ऐसी महान हस्तियों ने अपने समय को पूरा जीया है।
श्रीसत्यनारायण कथा में नारद ने विष्णुजी से जो उपाय पूछा था उसमें आग्रह किया था कि छोटा उपाय बताएं। तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्वदा-(किस लघु उपाय से कष्टों का निवारण होगा) नारद जानते थे, आगे आने वाला युग संक्षेप का समय होगा। यह शार्टकट नहीं कट टू कट का दौर है।नारद ने भगवान से लघु उपाय पूछा था। विष्णुजी भी सावधान थे। उन्होंने घोषणा कर दी कि विशेषत: कलियुगे लघुपायोस्ति भूतले-(विशेष रूप से कलयुग में पृथ्वी लोक में यह सबसे छोटा सा उपाय है) आज के युग में सफलता का एक फंडा है शॉर्ट, क्विक और परफैक्ट। इस कथा ने इसकी घोषणा प्राचीनकाल में ही कर दी थी, लेकिन ऐसा करते समय ध्यान रखा जाए कि यह शीघ्रता कहीं हड़बड़ाहट में न बदल जाए। वरना फिर समय के छोटे-छोटे क्षण बिखर जाएंगे। समय का सद्पयोग फूलों की माला की तरह है और दुरुपयोग फूल के बिखरे हुए ढेर की तरह हैं। फूलों का जब संयोजन होता है तब माला बनती है। बस, समय का भी ऐसे ही संयोजन किया जाए।
जिसकी आंखों का पानी सूख जाए, वह भक्त नहीं
भक्ति संवेदना और प्रेम का मामला है, इसमें कठोरता का कोई स्थान नहीं है। भक्ति अगर कठोर हो जाए तो फिर परमात्मा की प्राप्ति संभव नहीं है। भक्ति भी एक तरह की योग्यता है, गुण है, भक्ति उसी को मिल सकती है जिसके मन में संवेदनाएं जीवित हों, जिसकी आंखों में पानी हो। अगर आंखें सूख गई हैं तो फिर भक्ति भी चली जाती है।
आप जीवन के किसी भी क्षेत्र में हों भक्त बनने की तैयारी जारी रखें। भक्त हो जाना कोई एक दिन की घटना नहीं है यह सतत् प्रयास है। भक्त होना कठिन नहीं है लेकिन सरल भी न मान लिया जाए। भक्त शिरोमणी नारद ने नारद-भक्ति सूत्र नाम रचना में विस्तार से वर्णन किया है।पहली बात है भक्त की आंखों में नमी बनी रहे। जिनकी आंखों की नमी सूख गई फिर वे भक्त नहीं हो सकते। जीवन की गहराई को केवल आंखें नहीं इसके भीतर के आंसू देख पाते हैं। इसका सीधा अर्थ है व्यक्तित्व में संवेदनशीलता हो। दूसरी बात है, थोड़ा असहाय बने रहें। सब कुछ मैं ही कर लूंगा यह भाव न रखें, कुछ उस ऊपर वाले को भी करने दें। यह अहसास बना रहे कि जीवन भगवान भरोसे भी चलता है। तीसरी बात है भक्त होने के लिए थोड़ी मतवाली हिम्मत भी हो। जब आप भक्त होने की तैयारी कर रहे होंगे तब दुनिया आपका उपहास भी कर सकती है। बिना मतवाले हुई भक्त की मस्ती नहीं पाई जा सकती। कुछ लोग संसारी होकर भक्ति को कमजोर लोगों का कर्म मानते हैं। दरअसल भक्ति है हिम्मत का काम। यह दिल का सौदा दमदारी से होता है।
भक्त होने के लिए चौथी और अंतिम बात जरा दार्शनिक है। भक्ति बुद्धि का नहीं, हृदय का विषय है। भक्त अपनी बुद्धि को विश्राम देना जानता है। संसारी लोगों की बुद्धि की जब मृत्यु हो जाती है तो वे पागल माने जाते हैं, लेकिन भक्त की बुद्धि की मृत्यु नहीं होती। भक्त द्वारा उसे विशिष्ट विश्राम दे दिया जाता है। वह अपनी बुद्धि को सेवानिवृत्त भी नहीं करता है बस विश्राम दे देता है। जैसे हम पुन: तरोताजा होने के लिए विश्राम करते हैं वैसे ही भक्त अपनी बुद्धि को विश्राम करा देते हैं और बुद्धि के इस विश्राम में ही परमात्मा का प्रवेश होता है।
भक्ति है बुद्धि को प्रज्ञा तक ले जाने का सफर
केवल बुद्धिमान होना हमें प्रतियोगी दुनिया की ओर ले जाता है जबकि बुद्धि को अगर भक्ति अपनी ओर खींचती है तो व्यक्ति धीरे-धीरे प्रज्ञावान होता है। यह बुद्धिमान होने का परिष्कृत रूप है। बुद्धिमान की बुद्धि भी कभी न कभी, कहीं न कहीं धोखा खा सकती है लेकिन प्रज्ञावान इस धोखे के फेर में नहीं आ सकता। बुद्धि को बहुत मांजा जाए तो वह प्रज्ञा की स्थिति में आती है और इसके लिए अध्यात्म की राह पकड़नी होगी।
धर्म के अनेक नाम रख दिए जाएं परन्तु उसके भीतर का सत्य एक ही रहेगा। इस सत्य को केवल बुद्धिमान होकर नहीं पाया जा सकता। हां संसार को आसानी से पाया जा सकता है, यदि हम बुद्धिमान हैं तो। अफसोस है कि आज के दौर में बुद्धिमानी का उपयोग स्वयं को आगे बढ़ाने और दूसरों को पछाड़ने में ही किया जा रहा है। इस काल में बुद्धिमान लोग षडयंत्र, भ्रष्टाचार, शौषण, दमन और सांप्रदायिकता की ओर बढ़े पर सत्य की ओर नहीं चले। वास्तव में सत्य की खोज तब शुरू होती है तब बुद्धि प्रज्ञा में बदलती है। बुद्धि जब परिष्कृत रिफाइन्ड हो जाए तब प्रज्ञा कहलाती है। आत्म ज्ञान की ओर बढ़ती हुई बुद्धि को प्रज्ञा कहते हैं। इसलिए प्रयास हो कि बुद्धि से प्रज्ञा और प्रज्ञा से सत्य हाथ में आए। हिन्दू शास्त्रों ने इस घोषणा को बार-बार किया है। इसी बात को इस्लाम ने भी कबूल किया है।हजरत मुहम्मद पर रोशन किताब कुरान में यह आयत उतरी है। जरा इस अजीम दुआ को पढ़ें-व कुरब्बी जिदनी इल्मन-ऐ-परवर दिगार मेरा इल्म और बढ़ा। इल्म बढ़ाने की बात वही है कि बुद्धि से प्रज्ञा की ओर जाना। वरना सत्य हाथ कैसे लगेगा। इबादत के दूसरे मायने यही है कि सच को पकड़ लेना। सत्य पाने के दो तरीके हैं। शास्त्र पढ़े या सत्संग सुनें।
बात केवल पढ़ने पर ही खत्म नहीं होती। जब सुने तो भी गहराई से सुनें। बौद्ध और जैन धर्म ने एक शब्द दिया है श्रावक। इसका सीधा सा अर्थ है जिन्होंने संतों को श्रवण किया है। ध्यान रखें श्रोता और श्रावक होने में फर्क है जिन्होंने कान से सुना वे श्रोता और जो प्राण से सुनते है वे श्रावक। इस स्थिति में बुद्धि प्रज्ञा की ओर बढ़ती है।
जीवन को जीएं उत्सव की तरह
हमारे जीने के तरीके में खुशी कम और निराशा अधिक है। छोटी-छोटी बातों को हम बड़ा बना लेते हैं, जहां खुश रहा जा सकता है वहां भी दु:खी हो जाया करते हैं। खासतौर पर युवा पीढ़ी के मन में नैराश्य का भाव गहरा उतरा है। जीवन जीने का तरीका बदलें, इसे ऐसे जीएं जैसे कोई उत्सव है। जीवन को एक विशेष अवसर की तरह ही जीएं क्योंकि यहां हर पल ही विशेष है, इसी का नाम उत्सव है।यह काम करने का समय है लेकिन कर्मयोग को उत्सव बनाया जाए नशा नहीं। विचार करें हमारा जीवन काम है या उत्सव। जीवन का आनंद उत्सव में है काम में नहीं। जो लोग कर्म को केवल काम की तरह करते हैं वे एक दिन जीवन को तनाव से भर लेते हैं। यदि कर्म को उत्सव की तरह किया जाए तो उत्साह आनंद बना रहेगा। पशु-पक्षियों को देखें वे जो भी काम करते हैं उत्सव की तरह करते हैं। केवल मनुष्य ही ऐसा है जो अपने कर्म को काम की तरह करता है। इस समय एक और बीमारी यह फैल गई है कि हर आदमी जल्दी में है। धन और सफलता के लिए धर्य और प्रतीक्षा मूर्खता लगने लगी है। जिस देश में हरि बोल की गूंज थी वहां हरि-अप का शोर गूंज रहा है। राम बोल को रन-अप में बदल दिया गया है। कृष्ण बोल कम-अप और शिव बोल शट-अप के रूप में सुनाई देते हैं।अपने काम को उत्सव में बदलना बहुत आवश्यक है। यह अत्यधिक कर्म करने का समय है तो तनाव और दबाव स्वभाविक है। मीरा नाचती थीं उत्सव के रूप में, कृष्ण बंसी बजाते थे या हनुमान लंका जला रहे थे सभी स्थिति में उनके भीतर उत्सव का भाव था। उत्सव में मनुष्य स्वयं प्रसन्न रहना चाहता है और दूसरों को भी खुश रखना चाहता है। जब हम उत्सव में जीते हैं तब हमारे लक्ष्य बड़े शुद्ध होते हैं। उत्सव का अर्थ ही अपने अंदर की उदासी को विदाई दे देना। उत्सव की पूर्णता पर थकान की जगह और उत्साह बना रहता है। उत्सव आदमी को सबसे जुड़े रहने के लिए प्रेरणा देता है। सबके साथ सबकी इच्छा को रखते हुए जीना या कुछ करना चुनौती का काम है लेकिन उत्सव वृत्ति इसे सरल बना देती है।
अगर मिटाना हो कामना और वासना को
परमात्मा तक जाने वाली राह में दो रोड़े बड़े हैं। कामना और वासना। इनसे ऊपर उठने की जद्दोजहद में कइयों की जिंदगी निकल जाती है। यहीं पर गुरु का भी महत्व साबित होता है, जिसके पास सच्च मार्गदर्शक है वह आसानी से इन पर विजय पा लेता है। कामना और वासना एकदम पीछा छुड़ाना मुश्किल है, ज्यादा अच्छा यह है कि हम इनका रूप बदल दें।
आध्यात्मिक जीवन में निष्कामता का बड़ा महत्व है। सभी के मन में यह प्रo. उठता है आखिर कामनाओं का त्याग कैसे हो। गीता में चार प्रकार बताए हैं कामना त्याग के। एक विस्तारक प्रक्रिया, दो एकाग्र प्रक्रिया, तीन सूक्ष्म प्रक्रिया तथा चौथी है विशुद्ध प्रक्रिया। विस्तारक प्रक्रिया का अर्थ है हमारी जो कामना व्यक्तिगत हो उसे हम सामाजिक रूप दे दें। जैसे हम अपने बच्चे को पढ़ाना चाहें तो पूरे गांव में ही स्कूल खोल लें। इससे हमारी वासना शुद्ध रूप से विस्तृत होकर विलीन हो जाएगी। दूसरी प्रक्रिया है एकाग्र। इसमें जो भी हमारी प्रबल वासना हो केवल उस पर ही अपने चित्त को टिका दें और अन्य वासनाओं को छोड़ दें। यह ध्यान योग जैसा है। जैसे-जैसे एकाग्रता सधेगी, साधक उस एकमात्र वासना से मुक्त होने लगता है। तीसरी विधि है सूक्ष्म प्रक्रिया। इसमें स्थूल वासनाओं को त्यागकर सूक्ष्म वासनाओं पर टिक जाएं। शरीर या बुद्धि को सजाना हो तो उसके स्थान पर मन और हृदय को सजाएं। इससे हम अंतर्मुखी होंगे और बाहरी वासनाएं गिर जाएंगी। इसे संतों ने ज्ञानयोग की युक्ति कहा है। चौथी प्रक्रिया है विशुद्ध। इसमें वासना को न व्यक्तिगत, न सामाजिक, न स्थूल, न सूक्ष्म मानें। दो ही तरह की वासना होगी, शुभ या अशुभ वासना। अच्छी वासना को रखें और बुरी वासना को त्याग दें। विनोबाजी एक उदाहरण देते थे यदि मीठा खाना हो तो मिठाई के स्थान पर आम खा लें। इस तरीके से इस प्रक्रिया में वासना को मारने का दबाव नहीं है बल्कि अशुभ को शुभ में परिवर्तित करने का आग्रह है। अशुभ वासनाओं का त्याग और शुभ वासनाओं की पूर्ति करते-करते मन एक दिन शुद्ध होकर वासनाहीन हो जाता है। इसीलिए यह चौथी पद्धति अधिक मान्य है। अन्य में थोड़े खतरे हैं।
कब, कैसा दिखना है, यह भी कला है
यह व्यवसायिकता और मैनेजमेंट का दौर है, हमें हर क्षेत्र में परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करना होता है। अपना अलग-अलग रूप दिखाना होता है। कई बार हम परिस्थिति के अनुसार खुद को प्रस्तुत नहीं कर पाते, असफलता की कहानी यहीं से शुरू होती है। आपके भीतर अगर बहुत संभावनाएं भी भरी हों तो उन्हें आवश्यकता पड़ने पर ही प्रदर्शित कीजिए। इस बात को हनुमानजी के जीवन से सीखा जा सकता है।वर्तमान समय में आदमी यह भूल गया है कि कहां बड़ा होना और कहां छोटा होना है। समाज में कई लोग प्रतिष्ठित, मान्य और ख्यात होते हैं। घर आते हैं तो इसकी अकड़ और ऐंठ लेकर आ जाते हैं। यहीं से घर के सदस्यों से उनका झगड़ा शुरू हो जाता है। घर में आपस में समानता का व्यवहार होना चाहिए। पर आदमी बड़ा का बड़ा ही बना रहता है। कहां बड़ा होना और कहां छोटा होना यह एक कला है। हमारे हनुमानजी महाराज इसमें बहुत दक्ष हैं। सुंदरकांड के एक प्रसंग से हम सीख सकते हैं। अशोक वाटिका में हनुमानजी और सीताजी की चर्चा चल रही थी। वे सीताजी को धर्य बंधा रहे थे किंतु सीताजी का आत्मविश्वास लौट नहीं रहा था। हनुमानजी ने कहा मां भरोसा रखें प्रभु श्रीराम आएंगे और आपको ले जाएंगे। वैसे तो मैं आपको यहां से ले जा सकता हूं किंतु श्रीराम की ऐसी आज्ञा नहीं है।वे वानरों के सहित आएंगे और राक्षसों का नाश करके आपको ले जाएंगे। तब सीताजी ने कहा था राक्षस बहुत बलवान हैं और वानर तुम्हारी तरह छोटे-छोटे होंगे, मुझे संदेह है। इतना सुनते ही हनुमानजी ने अपने शरीर को पर्वत के समान विशाल कर दिया। सीताजी के मन में विश्वास हो गया। हनुमानजी तत्काल छोटे हो गए। उन्हें लगा कहीं सीताजी यह न समझ लें कि मैं अपनी बढ़ाई कर रहा हूं। अगली ही पंक्ति में हनुमानजी ने स्पष्ट किया
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।
यानि हे माता सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती। परंतु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है।
इस तरह अपनी बढ़ाई, श्रेष्ठता को जो लोग परमात्मा से जोड़ते हैं उन्हें अहंकार नहीं आता है।
समझिए इस रिश्ते की गहराई को
हमारी संस्कृति में रिश्ते का महत्व है। रिश्ता कोई भी हो उसे पूरे समर्पण से निभाना चाहिए। और अगर बात गुरु-शिष्य के रिश्ते की हो तो फिर समर्पण का भाव सबसे आगे रहे। आधुनिक काल में इस रिश्ते के मायने बदल गए हैं, अब पहले जैसे गुरु-शिष्य नहीं रहे लेकिन अगर जीवन में सफलता चाहते हैं तो अच्छे शिष्य बनने का प्रयास कीजिए, परमात्मा अच्छा गुरु खुद ही उपलब्ध कराएगा।हर सच्चा गुरु चाहता है उसका शिष्य उससे अधिक शोहरत हासिल करे और ऐसा होने पर गुरु दिल ही दिल में खुश भी होते हैं। इस रिश्ते में ईष्र्या नहीं होती। मुस्लिम संत हसन बसरी के शिष्य थे हबीब अज़्ामी। हबीब गुरु से जितना भी सीखते उसे जिंदगी मंे अमल में ले आते। एक बार दोनों को दरिया पार करना था। वे किश्ती का इंतजार कर रहे थे। तब हबीब ने अपने गुरु हसन से कहा पानी पर पैर रखकर निकल चलते हैं। गुरु हसन बसरी ने कहा यह कैसे मुमकिन है। हबीब ने कहा खुदा और उस्ताद पर यकीन करें और पार निकल जाएं। गुरु ने तो ऐसा नहीं किया लेकिन शिष्य हबीब अज़्ामी पानी पर पैर रखकर दूसरी ओर चले गए। गुरु हसन बसरी सोचने लगे हबीब ने मुझसे इल्म सीखा और मुझे ही नसीहत देकर पानी पर चल दिया। थोड़ी देर बाद उन्होंने अपने शिष्य हबीब से पूछा ऐसे कैसे कर लिया। मेरे इल्म का फायदा मुझे नहीं मिला और तुम्हे कैसे मिल गया। हबीब बोले मैं दिल साफ करता रहा और आप कागज स्याह करते रहे। उनका मकसद गुरु का अपमान करना नहीं था बल्कि वे कहना चाहते थे कि गुरु की सच्ची श्रृद्धा ऐसे परिणाम देती है। गुरु और शिष्य की एक ऐसी ही बेमिसाल हस्ती हैं गुरु गोविंदसिंह। उन्होंने अपने पूर्व की नौ पीढ़ियों के सिख समुदाय को खालसा में परिवर्तित किया था। उन्होंने परिभाषा दी थी कि जो सत्य की ज्योति को प्रज्वलित रखता है, जिसके भीतर प्रेम, विश्वास और पवित्रता है, वह व्यक्ति खालसा है। अपने जीवन के अंतिम समय में उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब का यथाविधि प्रकाश किया था और तभी से गुरु की गादी पर ग्रंथ च्च्साहिबज्ज बनकर विराजित किए गए। आध्यात्मिक दुनिया का यह अद्भुत प्रयोग है। गुरु शिष्य के रिश्ते अपनी गरिमा के लिए जाने जाते रहे हैं। वे भाग्यशाली हैं जिनके पास गुरु होते हैं और वे शौभाग्यशाली हैं जिनको ऐसे शिष्य मिल जाते हैं।
बोलिए दो बोल प्यार से
मानव व्यवहार है कि पढ़े हुए से सुना हुआ ज्यादा याद रहता है। हम जो कह रहे हैं कहीं-न-कहीं वह गहरा प्रभाव पैदा कर रहा है। हमेशा यह ध्यान में रखकर बोलें कि मुंह से निकले शब्द वापस नहीं आते। जब भी बोले प्यार से, विनम्रता से बोलिए। इससे आप विवादों से तो बचेंगे ही, लोकप्रिय भी होंगे। ऊर्जा और समय दोनों को नष्ट करने का एक कारण वाद विवाद भी होता है। जो लोग वाद विवाद से बचे रहे हैं वे जीवन में अधिक सुखी और शांत पाए गए हैं। द्वेष-दृष्टि से स्वयं को मुक्त किया जाए। उदासीनाचार्य श्रीचन्द्र ने जो उपदेश दिए हैं उन्हें च्च्मात्रा वाणीज्ज कहा गया है। बड़े प्रतिकात्मक शब्द हैं ये मात्रा वाणी। मा का अर्थ है माया और त्रा का सांकेतिक अर्थ है त्राण यानी रक्षा। माया से रक्षा। भक्तों की यात्रा में माया बड़ी बाधा बन कर आती है। बहुत साधारण शब्दों में माया को जादू कहा जा सकता है। जादू यानी जो है नहीं उसे दिखा देना, भ्रम जाल। बड़े-बड़े उलझ गए माया के चक्कर में। इसीलिए श्रीचन्द्रजी ने अपने उपदेशों का प्यारा नाम दिया मात्रा वाणी।मात्रा को अलंकार भी कहा गया है। शब्दों के अलंकार, मनुष्य के सजावट के सारे गहने आभूषण उतर जाते हैं लेकिन वाणी का आभूषण सदैव रहता है। मात्रा वाणी वो शब्द श्रृंगार बन जाती है जिससे सारा जीवन सौंदर्य पा सकता है।मात्रा वाणी में श्रीचन्द्र एक जगह कहते हैं च्च्निर्वैर संध्या दर्शन छापा, वाद विवाद मिटावो आपाज्ज भक्त रहें, निर्वैर रहें यानी किसी से शत्रुता न रखें और अपने सारे वाद विवाद मिटा लें। विवाद होता क्यों है, एक ही कारण है अज्ञान। सबसे बड़ा अज्ञान है अपने आप के मूल को भूल जाना। दुनियाभर की जानकारी हो और यदि खुद को न जाना तो समझ लें हम अज्ञानी ही हैं।श्रीचन्द्रजी ने एक जगह बड़ी बारीक बात कही है। च्च्मन तो जोति सरूप है, अपना मूल पछाणाज्ज अपने मूल को पहचानते ही अज्ञान का पर्दा हटेगा। ज्ञान अपने आप प्रकाशित होगा, क्योंकि मन भी ज्योति स्वरूप है। जो मन पतन का कारण होता है वही उत्थान का माध्यम भी बन सकता है।
काम सौंपे तो निर्णय लेने की आजादी भी दें
आमतौर पर यह होता है कि दफ्तर के सारे निर्णय बॉस लेता है, कर्मचारी केवल उसकी प्लानिंग पर काम करते हैं। ऐसे में वे न तो कोई जिम्मेदारी लेते हैं और अगर काम नहीं हो रहा है या बिगड़ रहा है तो भी सलाह नहीं देते। अच्छा मैनेजर वह होता है जो अपने कर्मचारियों को काम के साथ निर्णय लेने की आजादी भी दे, तभी कर्मचारी ज्यादा जिम्मेदारी से काम करेंगे।
अपने सहयोगियों, मित्रों, रिश्तेदारों पर भरोसा करते हुए जब उन्हें कोई कार्य करने की स्वतंत्रता दी जाती है तो परिणाम निश्चित ही अच्छे मिलते हैं। दूसरों पर भरोसा करें इसके लिए जरूरी है पहले भगवान पर भरोसा करें। श्रीराम ने सुग्रीव पर सीताजी की खोज की जिम्मेदारी सौंपी थी। सुग्रीव को प्रत्येक निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र छोड़ा था और शब्द कहे थे
अब सोइ जतनु करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई॥
अब मन लगाकर वही उपाय करो जिससे सीता की खबर मिले। सुग्रीव ने अपने स्वतंत्र निर्णय से चार खोजी दल बनाए थे। सबसे योग्य दल में नील, अंगद, जामवंत और हनुमानजी थे, उन्हें दक्षिण दिशा में भेजा था। जामवंत, हनुमानजी आदि की अगुवाई में गए दल ने लंका तो ढूंढ़ निकाली, लेकिन सीता की खोज के लिए अकेले हनुमानजी को भेजा गया। जाने के पूर्व हनुमानजी ने जामवंत से इस बात की शिक्षा ली थी कि लंका में जाकर करना क्या है?
जामवंत मैं पूंछउं तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही॥
मैं आपसे पूछता हूं, मुझे उचित सीख देना कि मुझे क्या करना चाहिए? जामवंत ने कहा - हे तात। तुम जाकर इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनको रामजी की खबर कह दो। तब तक शेष वानर नहीं जानते थे कि श्रीहनुमान लंका जाकर आग लगा देंगे। संयोग से कुछ ऐसा ही हुआ। रावण के दरबार में बहस के बाद जब उनकी पूंछ में आग लगाई गई तब हनुमानजी ने ही संपूर्ण लंका दहन का निर्णय लिया। श्रीहनुमान को निर्णय लेने की आजादी देने का परिणाम यह हुआ कि सारे राक्षस श्रीराम के पहुंचने के पहले ही उनके पराक्रम का एक बड़ा झटका सह चुके थे। उन्हें अनुमान लग चुका था कि श्रीराम की सेना का एक ही योद्धा यदि लंका जला सकता है तो पूरी सेना क्या करेगी। अपने साथियों को निर्णय का अधिकार देकर कार्य लेने की श्रीराम की यह विशिष्ट शैली थी। श्रीराम ने अपनी इस शैली का कई बार हनुमानजी के माध्यम से सफल प्रयोग किया था।
प्रशंसा का भोग पहले भगवान को लगाएं
प्रशंसा सभी को प्रिय होती है लेकिन प्रशंसा का नुकसान यह होता है कि वह आपके भीतर कहीं-न-कहीं अहंकार का बीजारोपण कर देती है। बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जो प्रशंसा को पचा पाते हैं, वरना अधिकांश समय ऐसा ही होता है तारीफ की बहुत ज्यादा खुराक आदमी में अभिनाम के रोग को जन्म दे देती है। हनुमानजी ने इससे बचने का सबसे अच्छा तरीका बताया है, हम प्रशंसा भी पा सकते हैं और अहंकार से दूर भी रह सकते हैं।
अनेक परिवारों में भोजन के पूर्व भगवान को भोग लगाने की परंपरा है। शास्त्र कहते हैं धान-दोष (अन्न का कुप्रभाव) दूर करने के लिए भोजन करने से पूर्व उसे परमात्मा को समर्पित करना चाहिए। सीधे भोजन न किया जाए उसे भोग बनाया जाए। भोजन भगवान को अर्पित होने के बाद प्रसाद बन जाता है। जीभ के भोजन को तो देव-अर्पित किया जाता है लेकिन जब हमें अपने कर्म का भोजन यानी प्रशंसा परोसी जाती है तब हम भगवान को भोग लगाना भूल जाते हैं। अपने प्रति हुई प्रशंसा का भोग भी परमात्मा को लगाना चाहिए। एक भक्त की घटना है। उसे समाज से प्रशंसा मिली तो उसने भगवान को परोस दी। भगवान भी ठिठोली के भाव में आ गए और पूछा इस भोजन को मुझे कुपथ्य मानकर परोस रहे हो या सुपथ्य मानकर? भक्त का जवाब था मेरे लिए तो कुपथ्य (परहेज) ही है, प्रशंसा पचाना विष से भी अधिक कठिन है लेकिन आप तो वष्रो से प्रशंसा ही सुन रहे हैं आप आसानी से पचा जाएंगे। मैं यदि सीधे प्रशंसा का भोजन कर लूंगा तो अहंकार की बीमारी से घिर जाऊंगा। आप पचाने में समर्थ हैं।
हमारे समझने की बात यह है कि जीवन में विजय और सफलता मिले तो पहले प्रभु के सामने परोसें उसके बाद जो प्रसादी हमें मिलेगी उससे अहंकार के अपच होने की संभावना खत्म हो जाएगी। यहां यह भी समझ लें कि हमारे यहां प्रसादी के भी कुछ कायदे हैं। सबसे पहले भगवान को चढ़ाएं फिर समाज को बांटें उसके बाद स्वयं लें। शास्त्रों में तो यहां तक कहा है कि प्रसाद के मामले में हाथ में जितना लगा रह जाए उतने को ही अपना हिस्सा मानो। भोजन के संदर्भ हो सकता है यह कठिन लगे लेकिन प्रशंसा के भोजन में भोग लगाकर, प्रसाद बनाकर, बंटवारा कर, स्वयं प्राप्त करें।
गहराई तक उतरने का अवसर देते हैं शब्द
शब्द केवल भाषा का मामला नहीं है, यह भावों तक पहुंचने का मार्ग भी हैं। शब्दों से ही भाषा का संसार रचा-बसा है । हम केवल शब्दों की बनावट पर ठहरें बल्कि उनके गहरे भावों में भी उतरने का प्रयास करें। सृष्टि की रचना भी एक शब्द से हुई है, इस शब्द के नाद में ही सृष्टि के निर्माण का सार है। इसलिए शब्दों को केवल बोलचाल का साधन न मानें, इनके गहरे अर्थो को भी समझें।
शब्दों से हमारा परिचय बहुत ही व्यवहारिक रहता है और हम इन्हें बोलचाल का साधन ही मानते हैं। शब्दों को केवल भाषा और व्याकरण से जोड़ने की भूल न करें। सूफी संतों ने भक्ति के क्षेत्र में शब्दों को च्च्नामज्ज से जोड़ा है। नाम की बड़ी महिमा रही है। नाम यानी उस परमसत्ता का जो भी नाम आप दे दें इसे अध्यात्म में पूंजी माना गया है। नानक कह गए हैं-च्च्नानक नामु न वीसरै छूटै सबदु कमाइज्ज यानी नाम को भी भूलें ना, हमेशा शब्द की कमाई करते रहें, क्योंकि जिस दिन इस शरीर का मकसद पूरा होगा उस दिन यह केवल नाम कमाई से ही होगा।जिन्हें ध्यान में उतरना हो, परमात्मा पाने की ललक हो वे मन को विचारों से मुक्त करने के लिए नाम या शब्द से मन को जोड़ दें। नाम जप जितना अंदर उतरता है, गहरा होता जाता है तब मनुष्य उस शब्द की ध्वनि में सारंगी जैसा मधुर स्वर सुन सकेगा। हम बाहर से कोई संगीत, स्वर, तर्ज सुनकर ही थिरक उठते हैं रोमांचित हो जाते हैं तो कल्पना करिए ऐसा मधुर स्वर जब भीतर से सुनाई देने लगेगा तब साधक को जो तरंग उठेगी उसी का नाम आनंद होगा। नानक ने इसी के लिए कहा है च्च्घटि घटि वाजै किंगुरी अनदिनु सबदि सुभाइज्ज यह सारंगी की आवाज जब हमारे भीतर से आने लगेगी तो हमें यही सुरीला स्वर दूसरों के भीतर भी सुनाई देने लगेगा। हरेक के भीतर वही धुन। यहीं से अनुभूति होगी च्च्सिया राम मय सब जग जानीज्ज के भाव की। फिर नानक लिखते हैं च्च्विरले कउ सोझी पई गुरमुखि मनु समझाइज्ज जो इस आवाज को सुनते हैं उन्हें नानक गुरुमुख कहते हैं और ये वो लोग होते हैं जो च्च्मनु समझाएज्ज की क्रिया करते रहते हैं। सीधी बात यह है कि जो अपने मन को समझा लेते हैं वे गुरुमुख होते हैं। वे इस कला को जानते हैं कि कैसे मन से शब्द या नाम को जोड़कर परमात्मा से मिलने की तैयारी की जाए।
हर सुख के पीछे से आता है दु:ख
सुख कभी अकेला नहीं आता, उसके पीछे से चुपके-चुपके दु:ख भी आ जाता है। हमें समझना चाहिए कि दु:ख भी जीवन के लिए उतना ही जरूरी है जितना सुख। हम लाख चाहें, दु:ख को आने से नहीं रोक सकते, न सुख को जाने से रोक सकते हैं। हां, तरीका बदला जा सकता है, हम तलाश करें ऐसे सुख की जो स्थायी हो, दु:ख रहे या चला जाए, सुख चिरस्थायी हमारे साथ ही बना रहे।
स्नान करके तन तो शुद्ध किया जाता है लेकिन मन को शुद्ध करने के लिए ध्यान ही करना पड़ेगा। ध्यान की प्रत्येक विधि शुद्ध होने की प्रक्रिया है। यूं भी कहा जा सकता है कि शुद्धता की शोध का नाम ही ध्यान है। आत्मा का सुख पाने के लिए मन और शरीर को भूलना होगा। इन दोनों के विस्मरण में ही आत्मा का स्मरण है और यहीं परमात्मा की अनुभूति है जिसे सामान्य भाषा में आस्तित्व का आनंद कहा गया है।हम दोनों ओर देखने की कोशिश करते हैं बाहर भी भीतर भी। वह भी एक साथ, यह असंभव है। जब अपने भीतर भी उतर रहे हों तो पूरा भीतर उतरें, बाहर को उन क्षणों में भूल ही जाएं। इस भीतर उतरने की क्रिया में ज्यादा अक्ल भी नहीं लगाना पड़ती है। हमारे सामने कबीर और बुद्ध का उदाहरण है। कबीर अनपढ़ थे कुछ तो उन्हें बुद्धु भी मानते रहे। बुद्ध परम विद्वान थे। लेकिन दोनों गहरे में जहां पहुचे वहां जाकर फर्क समाप्त हो गया। नतीजा यह है कि परमात्मा की निकटता को, ध्यान की अवस्था को बुद्धु भी पा सकते हैं बुद्धिमान भी। इसलिए ध्यान लगाने के लिए बुद्धिमान होना जरूरी नहीं है, हां समर्पित होना जरूरी है।समर्पित होने का लाभ यह भी है कि हम सुख-दुख से परे आनंद की स्थिति में जीने लगते हैं। हम जीवनभर सुख की तलाश में रहते हैं। सफलता, महत्वाकांक्षा के लिए अपना सबकुछ झोंक देने को तैयार रहते हैं। इस दौरान हमें जो सुख मिल भी जाते हैं वे दुख मिश्रित होते हैं। सफलता के लगे-लगे दुख भी होते हैं। कभी-कभी दुख इतने भारी होते हैं कि हमें पूरी तरह से तोड़ जाते हैं और हमारी सफलता का मजा खत्म ही हो जाता है। दुख मिश्रित सुख की जगह शुद्ध सुख चाहते हैं तो स्व की ओर चलना होगा, मुड़िए भीतर। वहां जो समाधि सुख मिलेगा उसमें दुख का कोई मिश्रण नहीं होगा।
नजरिया बदलें, नजर अपनेआप बदल जाएगी
यह मानवीय व्यवहार है कि हम जिसके बारे में जैसा सुनते हैं, उसी के अनुसार अपना मानस भी तैयार कर लेते हैं। किसी के बारे में गलत सुना है तो फिर हम उसके भीतर हमेशा ही गलतियां ढूंढ़ने लगते हैं। अपना नजरिया बदलें, अच्छा देखने का भी प्रयास करें, आपको अच्छाई भी अपनेआप दिखाई देने लगेगी।अपनी उपलब्धियों के पीछे उपयोग किए गए साधनों की शुद्धता के प्रति अत्यधिक सावधान रहें। आपके किए जा रहे काम की नीयत परिणाम पर उसर रखेगी। शहंशाह अकबर की तारीफ में स्वामी रामतीर्थ कहते थे जहां चाहे जिस गोद को चाहे अपना सरहाना बनाकर बेफिक्री से जो नींद निकाल सकता था, आईने अकबरी के लेखक अबुल फजल, पुर्तगाल के पादरी, बड़े बड़े हिन्दू पंडितों के दिल में जो राज करता था वो शाहंशाह अकबर था। उनकी नजर में अकबर एक आध्यात्मिक आदमी था। अकबर की दिनचर्या थी च्च्नमाजोरोजा ओ तसवीही-तोबा इस्तगफारज्ज यानी नमाज, रोजा तसबीह (माला) तोबा (पश्चाताप) और इस्तगफार (क्षमा-प्रार्थना)।दरअसल रामतीर्थ जिस ओर इशारा कर रहे हैं वह हमारे काम की बात है। अकबर के जीवन में लगातार जीत हांसिल हो रही थी। अकेले में अकबर को ख्याल आता था धन मेरा सेवक, वैभव मेरा अनुचर हो गया है आखिर इतनी ताकत मेरे दिल दिमाग में कहां से आती है, कौन देता है? इसी कारण सूफी संतों की संगत उन्हें खूब लुभाती थी। ऐसी कामयाबी पर रामतीर्थ की टिप्पणी थी कि क्या भोग विलास और कामयाबी एक साथ चल सकते हैं। चिमगादड़ भले ही दोपहर के वक्त शिकार करने आ जाए लेकिन सियाह दिली (हृदय की मालिकता) सफलता के तेज को नहीं सह सकती है।
रामतीर्थ का संकेत है कि सफल आदमी के जीवन का शुभ पक्ष देखा जाए तो हम भी अपने सफल होने के इरादे को मजबूत बनाए रख सकेंगे। हर राजा की आलोचना की जा सकती है और की भी गई है। अकबर के आसपास भी आरोपों का घेरा रहा है। रामतीर्थ अकबर के बहाने यह कह गए हैं कि योग्यता और सफलता को केवल आलोचनाओं से मत नवाजो, परखो। खूबियों को जाति-पाति, देश, काल, परीस्थिति के मुताबिक खुले दिल से कबूल किया जाए।
मन का हो तो अच्छा, नहीं हो तो ज्यादा अच्छा
हम अपने मन की नहीं हो तो निराश हो जाते हैं। हमेशा याद रखें कि उसके फैसले में हमारी जरूरतें भी छिपी हैं। अगर थोड़ा कुछ भी हमारे खिलाफ जाता है तो हम परमात्मा को कोसने लग जाते हैं, किस्मत की दुहाई देते हैं। परमात्मा कभी किसी का बुरा नहीं चाहता, अगर हमारे मन का हो तो अच्छा, नहीं हो तो और अच्छा क्योंकि फिर वो भगवान का चाहा होता है और भगवान कभी गलत फैसले नहीं करता है। इस कारण अपनी जरूरतों को भी कभी-कभी उसके फैसले के अनुसार ढाल लेना ठीक है।
ईश्वर और हमारे बीच एक अघोषित समझौता काम कर रहा होता है। भक्त भगवान से कभी-कभी शिकायत करता है कि हमने इतनी मारा-मारी मचा रखी है फिर भी हमारे चाहे काम नहीं हो रहे? अब आइए परमात्मा क्या कह रहे हैं यह भी समझ लें। उनका हमसे कहना है कि तू वो करता है जो तू चाहता है, पर होता वह है जो मैं चाहता हूं। तो सुन अब तू वो कर जो मैं चाहता हूं तो फिर होगा वही जो तू चाहता है। इस वाक्य को एक-दो बार मन में दोहरा लें तो हनुमानजी का सिद्धान्त समझ में आ जाएगा। वे सदैव चुस्त और मस्त रहते हैं। हर नाजुक मौके पर श्रीराम ने हनुमानजी महाराज का उपयोग किया था। एक विचित्र उदाहरण तो यह है कि जब उन्हें अपनी पत्नी सीता को विरह सन्देश भेजना था तो दूत हनुमानजी को बनाया। पति-पत्नी के विरह, अनुभूति का सन्देश एक ब्रम्हचारी द्वारा भेजा गया था।कई लोग इस निर्णय को श्रीराम की असावधानी मानते हैं और बिना मांगे सलाह देने वाले तो यहां तक कहते हैं कि श्रीराम को ऐसी रिस्क नहीं लेना थी। किन्तु राम सावधानी से अधिक समर्पण पर टिके हुए थे। वे हनुमान की इस योग्यता को जानते थे कि ये करता वही है जो मैं चाहता हूं। इसीलिए इसके साथ जीवन भर मुझे वही करना पड़ेगा जो ये चाहता है। इसी कारण हनुमान ऐसे चरित्र बन गए कि जिनमें असफलताएं ढूंढे नहीं मिलती और जिनकी सफलताओं का कोई हिसाब नहीं रखा जा सकता।इसलिए हमारी चाहत और भगवान को फैसलों का तालमेल, समझ तथा समर्पण के साथ बैठाए रखना चाहिए। यहीं से हमारे मनपसंद परिणामों के मायने बदल जाएंगे और हम हमेशा खुश रह सकेंगे।
तो आसान होगा कामयाबी तक पहुंचना
भागदौड़ की जिंदगी में धीरे-धीरे हमसे कुछ छुटता जा रहा है, कुछ है जो हमसे दूर छिटक रहा है। भौतिक सफलता और संसाधन हमारे जितने पास आ रहे हैं, मानसिक सुख और शांति दूर हो रहे हैं। परिवार भी बिखर रहे हैं और लगभग निचोड़कर रख देने वाली जीवनशैली में हमारे लिए कई खतरे पैदा हो गए हैं।अब लगभग यह मान ही लिया गया है कि जो 10 से 15 घण्टे परिश्रम करने की तैयारी रखेंगे वे ही कामयाब हो सकेंगे। महानगरों में तो ये घण्टे और बढ़ जाते हैं। काम का दबाव और तनाव इस कदर बढ़ जाता है कि नींद एक सपना तथा घर धर्मशाला बन जाता है। आए और गए की जिन्दगी के बीच परिवार उपेक्षित होने लगता है। इन सबमें एक बड़ा खतरा अब यह दिख रहा है कि जो युवा पीढ़ी इस समय घण्टों को मुट्ठी में पीस कर अपनी बन्द मुट्ठी को ऊर्जा उत्साह का प्रतीक बनाकर भिड़ी हुई है यदि वो अपनी जीवनशैली नहीं बदलती है तो इसे सामूहिक आत्महत्या की तैयारी मान लेना चाहिए। 40 साल तक काम करने वाले लोग अपने शरीर को 20 साल में ही चुका देंगे। ढलती उम्र के जिस पड़ाव में शरीर को जिस तरह आराम दिया जाता है उस समय शरीर बीमारियों का अड्डा बन चुका होगा लेकिन व्यवसायिकता के इस युग में खूब काम करना होगा और इसका एक ही तोड़ है कि जीवनशैली को आध्यात्मिक बनाया जाए। अध्यात्म में शरीर को महत्वपूर्ण माना है, बल्कि साधना में तो सबसे पहले सहायक ही शरीर होता है। शरीर बाधक तब बनता है जब केवल उसे ही सबकुछ मान लिया जाता है और मन ब्रिज के रूप में शरीर को आत्मा से चिपका देता है। यहीं से बीमारी और अशांति का जन्म होता है। महावीर स्वामी ने कहा है-
आरूहवि अंतरप्पा, बहिरप्पा छंहिऊण तिविहेण।
झाइज्जइ परमप्पा, उवइट्ठं जिणवरिंहेहिं।।
अर्थात् तन, मन, वचन, काया से बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करो। संक्षेप में इसका अर्थ यह है कि शरीर को भीतर उतारा जाए और मन:स्थिति के अनुसार शरीर से बाहर के काम लिए जाएं। इस प्रक्रिया का नाम ध्यान है और सभी धर्मो ने ध्यान को माना है क्योंकि बिना ध्यान के केवल शरीर से की गई यात्रा सफलता को एक दिन असफलता में बदल देगी।
धन आए तो मन को जरूर संभाल लें
आजकल धन कमाना आसान है लेकिन उसका सही निवेश मुश्किल। अधिकतर लोगों के साथ होता यह है कि वे धन तो खुब कमा लेते हैं लेकिन उसका सही विनियोजन नहीं कर पाते, नतीजतन वे फिर से धन खो देते हैं। जब धन आए तो अपने मन-बुद्धि को जागृत कर लें। अन्यथा सारा पुरुषार्थ निष्फल रह जाएगा।धन कमाने में जितनी अक्ल लगती है उससे ज्यादा इसके निवेश और बचत में बुद्धि लगाना पड़ती है। ऐसा माना जाता है कि धन के व्यावहारिक पक्ष पर तो आजकल सभी समझदार हो गए हैं। इस समय तो ऐसा माना जाता है कि इस दौर में तो बच्च पैदा होते समय ही धन-दौलत के मामले में सिखा-सिखाया आता है। लेकिन यदि धन का आध्यात्मिक पक्ष नहीं समझा गया तो ये धन सुख से अधिक दुख का कारण बन जाता है। अमीरी और दौलत अपने साथ प्रदर्शन और दिखावे की आदत लेकर आती है। यहीं से जीवन में आलस्य और अपव्यय का आरंभ भी हो जाता है। र्दुव्यसन दूर खड़े होकर इन दोनों बातों की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं कि कब आदमी आलस्य, अपव्यय के गहने पहने और हम प्रवेश कर जाएं।
जब जीवन में बाहर से धन आ रहा हो तो समय रहते हम भीतर के धन की पहचान कर लें। जब हम धन के बाहरी इन्तजाम जुटा रहे हों उसी समय मन की भीतरी व्यवस्थाओं के प्रति सजग हो जाएं। मन की चार अवस्था मानी गई है। स्वप्न, सुषुप्ति, जागृत और तुरीय। इनमें तुरीय अवस्था यानी हमारे भीतर किसी साक्षी का उपस्थित होना। हम हैं इसका होश रहना। बहुत गहरे में हम पाते हैं कि चाहे हम सो रहे हों या जागते हुए कोई काम कर रहे हैं, हमारे भीतर कोई होता है जो इन स्थितियों से अलग होकर हमें देख रहा होता है। थोड़ा होश और अभ्यास से देखें तो हमें पता लग जाता है कि यह साक्षी हम ही हैं। इसे ही हमारा होना कहते हैं। धन के मामले में जितने हम तुरीय अवस्था के निकट हैं उतने ही प्रदर्शन, अपव्यय, आलस्य, दुगरुणों से दूर रह पाएंगे। यह धन का निजी प्रबंधन है तथा तब दौलत आपको सुख के साथ शान्ति भी देगी।
शरीर से धर्म अलग है, आत्मा से एक
हर धर्म का अपना विज्ञान और विचारधारा है लेकिन कोई भी विचार दूसरों को तकलीफ देने या अन्य धर्मो को नीचा दिखाने का नहीं है। धर्म हमेशा शांति और सौहार्द का पक्षधर रहा है। हम इसे शरीर रूप में देखते हैं इसलिए अलग-अलग दिखते हैं, जब आत्मा रूप में देखेंगे तो किसी भी धर्म में कुछ भी अलग नहीं होगा, सब एक ही होंगे।मजहब कोई सा भी हो, वह बेताबी और दाकियानूसी खयालात नहीं देता। धर्म का दूसरा नाम ही धर्य है और प्रगतिशीलता उसकी विशिष्ट शैली होती है। हजरत मुहम्मद ने जिस तरह से इस्लाम को स्थापित किया था उसमें ये दोनों बातें बड़ी बारीकी से कायम रखी गई थीं। मुहम्मद पर तेईस सालों तक कुरान की आयतें उतरी थीं। एक लम्बे समय तक तो उनके घरवाले ही उनकी बात सुनते थे, बाहर के लोग तो यकीन करते ही नहीं थे। उनके एक चाचा अबू लहब और चाची उम्मे जमील न सिर्फ उन्हें बददुआ देते थे बल्कि रात को जिस रास्ते से मुहम्मद गुजरा करते वहां कांटे बिछा देते थे। भक्ति के मार्ग में पहला विरोध अपनों से ही शुरु हो जाता है। यह परीक्षा ऊपर वाला इसलिए लेता है कि वह हमारा धर्य बढ़ाना चाहता है। मजहब का गहना होता है सब्र।मुहम्मद की दिनचर्या आम लोगों की तरह थी इसलिए उस वक्त अरब के लोग उन्हें पैगम्बरी का फर्जी दावेदार बताते थे। उन्हें जादू गिरफ्त इन्सान भी कहा गया। लेकिन मुहम्मद का मानना था आदमी घर-गृहस्थी, व्यापार, दुनियादारी में रहकर भी परवरदिगार को हासिल कर सकता है। उन्होंने अपने इस सब्र को प्रगतिशीलता से जोड़ा और उन दिनों मक्का तथा ताइफ में जो समझदार, जानकार लोग थे उनसे लगातार ताल्लुकात बनाए रखे, विचारों का आदान-प्रदान किया। उनके ऊपर कुरान की एक आयत उतरी थी जो उनके प्रगतिशील विचारों का प्रतीक है।
ऐ परवरदिगार मुझे ज्ञान (इल्म) और सूझबूझ अता फरमा और नेक लोगों में शामिल कर (सुर : २६ आ. ८३)
पिछले दिनों पाकिस्तान की यात्रा के दौरान प्रवचन करते हुए मुझे इस्लाम को मानने वाले जितने लोग मिले, हम सब एक बात पर सहमत होते दिखे कि मजहब जब तक जिस्मानी हैं तब भेदभाव, छल, हिंसा है लेकिन रूहानी होते ही सब एक हैं।
शांति के लिए एकांत भी जरूरी है
हम दुनिया की भागदौड़ में शांति खोज रहे है, अध्यात्म कहता है कि शांति चाहिए तो थोड़ी देर एकांत भी तलाशिए। हमेशा दुनिया की भीड़ और सुखों के बीच ही शांति नहीं होती, कभी-कभी इनके न रहने से भी शांति का एहसास होता है, कोशिश करें कि आपके जीवन में भी थोड़ा समय एकांत का हो, जिसमें आप खुद को समय दे सकें।परमात्मा ने घोषणा की है कि संसार में मैंने एक, दो, तीन, चार और कहीं-कहीं इससे भी अधिक पैर वाले तथा बिना पैर वाले शरीरों का निर्माण किया है लेकिन सबसे अधिक मुझे प्रिय मनुष्य का शरीर है क्योंकि इसमें बुद्धि होती है और उस बुद्धि में यह संभावना होती है कि वह परमात्मा को पहचान सके। मनुष्य बुद्धि से क्या-क्या सद्उपयोग कर सकता है इसका एक उदाहरण है अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदु का संवाद। दत्तात्रेयजी ने राजा को कहा था कि मैंने अपनी बुद्धि से कई गुरुओं का आश्रय लिया है। उन्होंने जो अलग-अलग गुरु बताए थे उसमें एक गुरु एक कुंवारी कन्या और उसकी चूड़ी को भी बताया था। बात बड़ी रोचक और गहरी है। एक कुंवारी कन्या को विवाह हेतु देखने के लिए कुछ लोग उसके घर में आते हैं। कन्या के माता-पिता कहीं बाहर गए हुए थे तो अतिथियों के सत्कार के लिए कन्या स्वयं काम में जुट गई। भोजन कराने के लिए वह एकान्त में धान कूटने लगी। उसकी कलाईयों की चूड़ियां आपस में टकराकर आवाज कर रहीं थीं। कन्या को लगा कि चूड़ियांे की आवाज से अतिथि समझ जाएंगे कि यह धान कूट रही है और इसके घर में कोई काम करने वाला नहीं है जो दरिद्रता की श्रेणी में आ जाएगा। उसने सारी चूड़ियां तोड़ दीं और एक चूड़ी रहने दी। तब कोई आवाज नहीं हुई। दत्तात्रेयजी कहते हैं मैं उस समय वहां से गुजर रहा था। मैंने यह प्रसंग देखा तथा इससे यह शिक्षा ली कि जब बहुत लोग एकसाथ रहते हैं तो कलह होता ही है। दो आदमी भी होंगे तो बातचीत होकर रहेगी लेकिन अकेली चूड़ी में कोई आवाज नहीं हुई। इस अकेला होने को अध्यात्म ने एकान्त कहा है। आदमी जब एकान्त में होगा तब वह बिल्कुल अपने साथ होगा और परमात्मा की निकटता मिलने की सम्भावना बन जाएगी।संतों का या यूं कहें महापुरुषों का स्वभाव एक सा होता है, हम केवल बाहरी आवरण पर टिक जाते हैं इसलिए उनके भीतर तक नहीं उतर पाते। संतों को, महापुरुषों को जानना है तो उनके भीतर झांकने का प्रयास करें। कोई भी धर्म हो, कोई भी पंथ हो, कोई भी संप्रदाय हो, सभी का एक ही उद्देश्य है मानवता का उत्थान, समाज का कल्याण और राष्ट्र की सेवा। इसके आगे कोई नया उद्देश्य नहीं है।
वो भीतर से एक जैसे हैं
सभी महापुरुष भीतर से एक जैसे होते हैं। उनके भक्त, शिष्य, सम्प्रदाय के लोग उन्हें जो बाहरी जामा पहनाते हैं इस कारण वे अलग-अलग नजर आते हैं। लेकिन जिसके भी भीतर परमात्मा घटा वो सब फिर अन्दर एक जैसे हो जाते हैं। इसको साधना की भाषा में वासना शून्य कहा गया है। यहां वासना का अर्थ है अपना अहंकार। व्यक्ति के भीतर का मैं उसको दूसरे से पृथक करता है। श्रीकृष्ण ने एक जगह बड़ी सुन्दर बात कही है कि जो लोग मानवता के उत्थान के लिए जुटे हुए हैं, जो अध्यात्म को सही अर्थ में जीने की कला सिखा रहे हों ऐसे सारे लोग भीतर से एक जैसे होंगे क्योंकि उनके भीतर उस समय च्च्मैं ही वह काम कर रहा हूंज्ज। इसीलिए नानक, बुद्ध, महावीर, जीसस, कृष्ण और राम भीतर से लगभग एक जैसे हैं। इनके मकसद एक हैं, इनकी क्रियाएं भी एक हैं, पर चूंकि हम बाहर से देखेंगे तो अलग-अलग नजर आएंगे।ये महापुरुष दरअसल में एक ऊर्जा हैं जो करुणा के कारण किसी के भी भीतर जन्म ले लेती है। इसलिए हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारे भीतर जब ऐसी ऊर्जा आए उसका जन्म हो तो हम सावधान रहें और इसे पकड़ लें। कई बार हम जान ही नहीं पाते कि हमारे भीतर भी ऐसी हस्तियों का जन्म हो चुका है। बाहरी जीवनशैली इतनी हावी हो जाती है कि हमारे भीतर हमारा धर्म, परमात्मा, गुरु उतरता है और हमें पता ही नहीं चल पाता। ऊर्जा अवतरण के इन क्षणों में जितना सावधान रहेंगे उतना जीवन का आनन्द उठा लेंगे। इसलिए रोज सोते समय एक बार दिनभर के हिसाब में इस बात का चिन्तन करें कि वे कौन से क्षण थे कि आपने स्वयं को इस ऊर्जा के निकट पाया और उन क्षणों का लगातार चिन्तन आरंभ कर दीजिए। एक दिन यह चिन्तन क्रिया में बदल जाएगा।
क्यों हो जाते हैं हम भीतर से अशांत..
दुनिया के साथ दौड़ने की होड़ ने हमारे भीतर एक अशांति भर दी है। कई सफल और बाहर से सुखी दिखने वाले युवाओं की पीड़ा होती है कि उनके भीतर ही भीतर घोर अशांति ने कब्जा कर रखा है। कहीं भी चैन नहीं मिलता, किसी बात में मन नहीं लगता, कई लोग तो थोड़ी देर भी एकांत में रहने से घबराते हैं।बाहर से मजबूत, सक्षम और ऊर्जावान लोग कभी-कभी भीतर से कमजोर हो जाते हैं। संसार कहता है खूब सक्रिय बनो लेकिन संसार केवल बाहर की सक्रियता पर टिक जाता है। अध्यात्म कहता है बाहर जितने अधिक सक्रिय हों भीतर उतने ही निष्क्रिय हो जाएं। जीवन की शुभ संभावनाएं एक ऐसे वृक्ष की तरह होती है जो जितना बाहर होता है उतना ही गहरा भीतर होता है। हमें अपने ही लिए एक बार फिर भागीरथ बनना पड़ेगा। खुद ही के लिए खुद के भीतर शांति की गंगा का अवतरण करना होगा। सवाल उठता है हम भीतर कमजोर और अशांत क्यों हो जाते हैं। आइए इसको समझ लें। हम उतना बड़ा काम नहीं करते जितना बड़ा कर्ता अपने भीतर खड़ा कर लेते हैं। हमारा कर्ता भाव हमारे किए जा रहे कर्म से कहीं अधिक बड़ा बना दिया जाता है और इसीलिए हम परेशान होना शुरु हो जाते हैं। क्योंकि मैं कर रहा हूं इस विचार में अहंकार जन्म लेता है। अहंकार का स्वभाव है संघर्ष करवाना। स्वयं का स्वयं से और दूसरों से भी। इसलिए जब कर्म बाहर हो रहा हो तो अपने भीतर एक शांति, स्थिरता और मौन होना चाहिए। सीधी सी बात है हमारा मन निष्क्रिय हो, तन सक्रिय हो। विज्ञान के एक उदाहरण से समझें। बैलगाड़ी, सायकिल का पहिया या घूमता हुआ पंखा, ये सब एक कील पर घूमते हैं वह कील मध्य में होती है जिसे चाक भी कहा गया है। यह कील स्थिर है और पहिया घूम रहा है। तभी गति होती है। यदि कील भी घूमने लगे तो सायकिल, रेलगाड़ी और पंखा लड़खड़ाने लगंेगे। इसी प्रकार हमारा मन उस कील की तरह स्थिर हो और दुनियादारी के काम पहिए की तरह उस पर घूमते रहें। हमारा केन्द्र मौन हो और परिधि सक्रिय रहे। यहीं कर्म पूरा होगा और शांति भी बनी रहेगी। संतों के जीवन में ऐसा ही होता है।
ये हैं सफलता के तीन सूत्र..
अधिकांश लोग बिना मार्गदर्शन के ही लक्ष्य सिद्धि के लिए निकल पड़ते हैं। ऐसे में असफलता ही मिलनी है। जब भी कोई लक्ष्य साधने निकले तो आपको तरीका पता हो। जीवन की सफलता के तीन सूत्र हैं अगर इन्हें ध्यान में रखा जाए तो कुछ भी पाना असंभव नहीं।जीवन में परिश्रम, प्रार्थना और प्रतीक्षा का बड़ा महत्व है। परिश्रम में सक्रियता, प्रार्थना में समर्पण और प्रतीक्षा में धर्य छुपा है। इन तीनों के मेल से आदमी पूर्ण कर्मयोगी बनता है। माना जाता है हनुमानजी महाराज भक्त शिरोमणि हैं लेकिन उनका कर्मयोगी स्वरूप भी अद्भुत है। श्रीराम से मिलने के पहले हनुमानजी केवल किष्किंधा के राजा सुग्रीव के सचिव मात्र थे। उनकी विलक्षण प्रतिभा लगभग सोई हुई थी। एक दिन श्रीराम उनके जीवन में आ गए। राम ने उन्हें स्पर्श किया और हनुमानजी के भीतर की सोई हुई शक्ति जाग गई। यह घटना बड़ी प्रतिकात्मक है। सभी के जीवन में ऐसा होता रहता है। हम अपनी ही ऊर्जा को पहचान नहीं पाते लेकिन एक काम करते रहें। हनुमानजी महाराज की तरह प्रार्थना और प्रतीक्षा न छोड़ें। हनुमानजी की मां अंजनि ने उन्हें बचपन से ही आश्वस्त कर रखा था कि तुम्हारे जीवन में एक दिन श्रीराम अवश्य आएंगे और तुम्हारा जीवन पूरी तरह से बदल जाएगा। मां के इन शब्दों को बालक हनुमान ने अपने कलेजे पर लिख लिया था। परिश्रम वे करना चाहते थे किंतु ऊर्जा सोई हुई थी लेकिन प्रार्थना और प्रतीक्षा उनके स्वभाव में उतर गई थी। वे परमात्मा से प्रार्थना करते थे एक न एक दिन मेरे जीवन में जरूर आएं और उसके बाद पूरे धर्य से उन्होंने प्रतीक्षा की। एक दिन श्रीराम उनके जीवन में आ ही गए। यहां दो बातें हैं जिसके संग आप रहते हैं उसके जैसे हो जाते हैं। सुग्रीव भयभीत व्यक्तित्व का व्यक्ति था तो हनुमानजी भी भीतर से थके-थके से हो गए थे। फिर मिला श्रीराम का संग और उनकी ऊर्जा जाग गई। एक ऐसी ऊर्जा जिससे आज तक संसार चार्ज हो रहा है। यह था राम के संग का प्रभाव। इसलिए संग अच्छा रखें, परिश्रम की सदैव तैयारी हो, प्रार्थना सुबह-शाम करें और प्रतीक्षा करें तो बस परमात्मा की।
लीडरशिप के लिए जरूरी है ज्ञान
कारपोरेट संस्थानों में लीडरशिप के लिए बड़े-बड़े पैकेज पर लोग रखे जा रहे हैं। कई टीम लीडर ऐसे होते हैं जिनकी नींव ही खोखली होती है, वे अगर भाग्य से कोई चीज हासिल भी कर लेते हैं तो उसे अपनी अज्ञानता से खो देते हैं। असली लीडर वह होता है जिसके पास ज्ञान भी हो, ऐसा व्यक्ति न केवल संस्था का भला करता है बल्कि उसके सानिध्य में कई और लीडर पैदा हो सकते हैं। आइए इस बात को समझें।
महाभारत युद्ध के असली लीडर श्रीकृष्ण ही थे। उन्होंने अपने ज्ञान का परिचय गीता सुनाकर दिया था। आरंभ में ही साबित किया कि बिना ज्ञान के लीडर नहीं बना जा सकता। उन्होंने बताया उनका ज्ञान गीता का ज्ञान है, संपूर्ण जीवन के लिए खरा ज्ञान। पूरे युद्ध की योजना, क्रियान्वयन और परिणाम में गीता ही अपनाई गई। अजरुन को निमित्त बनाकर श्रीकृष्ण ने पूरे मानव समाज के कल्याण के लिए पंक्तियां कही थीं। गीता में यह व्यक्त हुआ है कि कैसी भी परिस्थिति आए, उसका केवल सदुपयोग करना है। 18 अध्यायों में श्रीकृष्ण ने जीवन के हर क्षेत्र में उपयोगी सिद्धांतों की व्याख्या की है।
युद्ध के मैदान से गीता ने एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त दिया निष्काम कर्मयोग का। निष्कामता यदि है तो सफल होने पर अहंकार नहीं आएगा और असफल होने पर अवसाद, डिप्रेशन नहीं होगा। निष्कामता का अर्थ है कर्म करते समय कर्ताभाव का अभाव। जिस क्रिया में च्च्मैंज्ज शून्य हो वह निष्कामता है।
महाभारत के कुल 18 अध्याय (पर्व) हैं। इनमें भी अनेक उपपर्व हैं। ऐसे ही एक उपपर्व भीष्म पर्व के अंतर्गत 13वें अध्याय से 42वें अध्याय तक गीता का वर्णन है। संपूर्ण महाभारत में गीता की अपनी अलग-अलग चमक है। इसी प्रकार जीवन में, व्यक्तित्व में ‘ज्ञान’ का अपना अलग-अलग महत्व है। श्रीकृष्ण ने पांडवों की हर संकट से रक्षा की और अपने ज्ञान के बूते पर सत्य की विजय के पक्ष में अपनी भूमिका निभाई। कौरवों के पक्ष में एक से बढ़कर एक यौद्घा और पराक्रमी थे जिनमें भीष्म तो सर्वश्रेष्ठ थे ही। चाहे कर्ण हो या द्रौण सबके सब इस बात के प्रति नतमस्तक थे कि कृष्ण के ज्ञान के आगे वे कुछ भी नहीं हैं। युद्घ में शस्त्र न उठाने का तो निर्णय कृष्ण ले ही चुके थे, अत: वीरता प्रदर्शन का तो कोई अवसर था ही नहीं। ऐसे में कृष्ण का सारा पराक्रम उनके ज्ञान पर ही आधारित था और सबने उनके इसी बुद्घि-कौशल का लोहा माना। गीता उसी का प्रमाण है।
इस दर्द में भी एक आनंद है
भगवान की ओर जाने वाला मार्ग बहुत आसान नहीं है। हम दुनिया में भटकते रहते हैं लेकिन खुद के भीतर नहीं झांकते है। परमात्मा को पाना है तो भीतर की दुनिया को खंगालना होगा। हम परमात्मा को पाने के लिए जितनी पीड़ा महसूस करेंगे, परमात्मा उतना ही निकट होगा। उसे पाने के लिए ऐसी ही पीड़ा महसूस करनी होगी जैसे कोई बच्च भीड़ में मां-बाप से बिछड़ कर करता है। यह पीड़ा भी आपको आनंद देगी, क्योंकि इसमें परमात्मा की निकटता का एहसास होगा।
परमात्मा को पाने की जो पीड़ा होती है अध्यात्म जगत में उसे पीड़ा का सुख कहा गया है। सूफी संतों ने इसे दुनिया का सबसे बड़ा दर्द माना है। परमात्मा को पाने की आकांक्षा में भीतर जो तड़प होती है जिसे जलना कहते हैं, उसे फकीरों ने सौभाग्यपूर्ण स्थिति कहा है। इस पीड़ा से जो सुख मिलता है वही सुख सूक्ष्म रूप में परमात्मा होता है और जब यह सूक्ष्म रूप विस्तारित होता है तो इसे परमात्मा की कृपा कहा गया है। बात विरोधाभासी है लेकिन सोचने जैसी है। जितनी सूक्ष्म पीड़ा होगी उतना ही विस्तार कृपा का हो जाएगा। जब हम दुनिया में प्रवेश करते हैं तो सुख की पीड़ा होती है और जब हम दुनिया बनाने वाले में प्रवेश करते हैं तो पीड़ा का सुख होता है। जो आंसू दुनिया के लिए गिराए गए वह जहर हैं और जो ईश्वर के लिए बहाए गए वे अमृत बन जाते हैं। पीड़ा दोनों ही स्थिति में मिलना है जगत में भी और जगदीश में भी। फर्क होगा दुख और सुख का। मीरा ने इसे च्च्हेरी मैं तो दरद दीवानीज्ज कहा है। संतों की आंख से आंसुओं का निकलना, दिगम्बर जैन संतों के कपड़े छूट जाना, वे वस्त्र छोड़ते नहीं हैं छूट जाते हैं, ऐसे ही मुस्लिम फकीरों का जिस्म सिजदा करते समय वे झुकाते नहीं हैं बल्कि खुद-ब-खुद झुक जाता है। इसे कहते हैं पीड़ा का सुख। परमात्मा को पाने की पीड़ा मनुष्य से खुद ब खुद कुछ ऐसे काम करवा लेती है जो चाहते हुए नहीं होते, बस हो जाते हैं। ये जो उस मालिक को पाने की पीड़ा है इसके एक कदम नीचे ही वह बैठा हुआ है। अगला कदम उठाया और परमात्मा मिला। जैसे-जैसे यह पीड़ा बढ़ती है वैसे-वैसे हमारे जीवन में परमात्मा की उपस्थिति बढ़ जाती है। भक्ति के मामले में कहा गया है दर्द जितना अधिक होगा भगवान उतना ही निकट होगा। यदि ये दर्द कम है तो समझ लें भगवान दूर है। इसलिए इस पीड़ा को जीवन में बढ़ाते जाएं।
ऐसा सुख भी दु:ख ही देगा
हम दोनों हाथों से सुख बटोरने में लगे हैं लेकिन इस जद्दोजहद में यह भूल जाते हैं कि सुख जो बटोरा है वह कैसे मिला। बिना विचारे, बिना विवेक के पाया गया सुख भी अंतत: दुखद ही होता है। जब भी सुख की तलाश में निकलें तो आपका मन चैतन्य रहे।
सुख की तलाश में सभी लोग लगे हैं और लगना भी चाहिए लेकिन सुख मिल जाने के बाद अशांति जीवन में नहीं होना चाहिए। बिना सोचे समझे जो लोग सुख हासिल कर लेंगे उन्हें वह सुख भी एक दिन दुख देता नजर आएगा। सुख ऐसा गहरा मामला है कि यह जब किसी को शांति के साथ उपलब्ध होता है तो वह इस अनुभूति को दूसरे को बयान नहीं कर पाता। इसीलिए जिनके जीवन में सुख और शांति का कॉम्बिनेशन हो जाता है वे लोग अधिकांश मौकों पर मौन पाए जाते हैं। जैन धर्म ने ऐसे ही लोगों को जिन कहा है, जिन्होंने परम् अवस्था को जान लिया है और फिर मौन हो गए। यहीं दूसरी अवस्था को जैनियों ने र्तीथकर कहा है। तीर्थ का मतलब होता है घाट। इस प्रकार र्तीथकर का अर्थ हुआ जिसने स्वयं घाट पा लिया और दूसरों के लिए भी उसकी स्थापना की तैयारी कर ली। हमने उस पार जाने का मार्ग पा लिया अब हम आपको भी ले चलेंगे। इस भाव से मनुष्य के भीतर र्तीथकर का जन्म होता है।
बौद्ध भी कहते हैं जिसने उस दिव्य अवस्था को पा लिया और मौन हो गया वह अरिहंत है। लेकिन जिन्होंने पाया और संसार को बांटा वह बोधिसत्व हैं। इन महापुरुषों का यह स्वभाव बन जाता है कि हमने उस परमात्मा को पा लिया है, हम उसकी ओर जा रहे हैं लेकिन अकेले नहीं जाएंगे, आपको भी लेकर जाना चाहेंगे। उनके इस परोपकार, करूणा के भाव में संतत्व छुपा है। इसी को सामान्य भाषा में कहते हैं कि इन्हें सुख मिला है जो संसार के अन्य लोगों को भी मिला है लेकिन इन लोगों को सुख के साथ शांति मिली है और संसार अभी शांति की खोज में लगा है। सुख-शांति एकसाथ मिले इसके लिए मन से सत्संग करिए।
हर जगह सुख तलाशें, पीड़ा को भुलाएं
इसे संसार का नियम कहें या मानव का स्वभाव, हर सुख में भी दु:ख, दर्द और पीड़ा खोज लेना हमारे व्यक्तित्व में शामिल है। हम बहुत खुश होते हैं तो भी या तो अतीत के दु:ख को याद करके दु:खी हो जाते हैं या फिर भविष्य की पीड़ाओं की कल्पना से सिहरते हैं। वर्तमान में रहिए, भीतर से अध्यात्म को जगाइए, कभी-कभी पीड़ा में भी सुख मिलता है। हर जगह सुख की तलाश करें।
दु:ख कोई नहीं चाहता इसीलिए सुख के पीछे हर कोई भाग रहा है। दु:ख मिलता है तो पीड़ा होती है लेकिन सुख मिलने पर सुकून मिल जाए यह जरूरी नहीं होता। सुख की भी अपनी पीड़ा होती है और अध्यात्म समझाता है पीड़ा का भी अपना सुख होता है। आज महाभारत के एक पात्र से मुलाकात की जाए जिनका नाम है भीष्म। इनका सारा जीवन सुख की पीड़ा और पीड़ा के सुख के बीच में बीता। दोनों ही स्थितियों में इस व्यक्तित्व ने भगवान की भक्ति नहीं छोड़ी। ऊपर से भीष्म जितने सांसारिक दिखते थे भीतर से उतने ही आध्यात्मिक थे। वे राजगादी से जुड़े हुए नजर आते थे लेकिन उनकी दृष्टि परम् पद पर टिकी हुई थी। स्वयं राजा थे, कई राजाओं को बनाने और बिगाड़ने वाले थे। वे यह जानते थे कि च्च्वो एक शख्स जो तुझसे पहले तख्त नशीं था उसको भी अपने खुदा होने का उतना ही यकीं थाज्ज् न तख्त रहते हैं न ताज, बड़े-बड़े राजा आम आदमी की तरह दुनिया से चले जाते हैं। भीष्म के पास सारे सुख थे पर उतनी ही पीड़ा भी थी। वे दुर्योधन को नियंत्रण में नहीं रख पाए। कुरुवंश की नई पीढ़ी उन्हीं के सामने अमर्यादित हो गई। यह सुख की पीड़ा है। इसी में से उन्होंने पीड़ा का सुख भी उठाया। भीष्म ने हमें अपने चरित्र से बताया है कि मनुष्य छिपा हुआ परमात्मा है। एक तरह से परमात्मा का बीज है मनुष्य। परमात्मा खिला हुआ परमात्मा है और मनुष्य अधखिला हुआ परमात्मा है। हर एक के भीतर परमात्मा है बस च्च्मैंज्ज् हटाओ और ईश्वर प्रकट हो जाएगा। सुख की पीड़ा तो उन्होंने बहुत देखी थी। जब अंतिम समय वे शरशैया पर थे तो उनकी मृत्यु की गवाही देने श्रीकृष्ण स्वयं उपस्थित हुए थे। यह पीड़ा का सुख था। चाहें तो हम भी इस सुख को उठा सकते हैं।
चंचल चित्त में नहीं बनता परमात्मा का चित्र
अक्सर हमारे लाख ध्यान लगाने के बावजूद मन में भगवान नहीं आ पाते। दरअसल हमारा मन भौतिक संसार में इतना रम गया है कि एक पल भी कहीं ठहरता नहीं। मन हमेशा इधर-उधर दौड़ता रहता है। ऐसे चंचल मन में हम परमात्मा का चित्र रेखांकित करना भी चाहें तो नहीं कर सकते।चित्त की चंचलता पूरे जीवन में हलचल मचाती रहती है। चंचल चित्त अनेक परिणाम देता है उनमें से एक है स्वप्न। स्वप्न हमें बताते हैं हमारे जीवन में कहां कमी हो गई है। जो-जो चीज अपर्याप्त हो गई, जिनका अभाव बन गया हम उन चीजों का सपना देखने लगते हैं। हमने जो दुनिया से छुपाया है सपने हमें उन्हें बता देते हैं। गांधीजी कहा करते थे दिनभर तो मैं ब्रrाचर्य साध लेता हूं, कोई परेशानी नहीं होती, संयम मेरी मुट्ठी में रहता है किंतु रात को मैं सपनों में नहीं संभाल पाता। संयम फिसल जाता है। गांधी सच्चे आदमी थे तो उन्होंने बयां भी कर दिया लेकिन हम सपनों पर भी आवरण ढंक देते हैं। हमें जागते हुए तो झूठ की कला आती ही है सोते हुए भी सच से दूर हो जाते हैं। गौतम बुद्ध ने इसीलिए चित्त पर बहुत काम किया है। उन्होंने कहा है चित्त चंचल है, मुश्किल है इसे रोकना। इससे मुक्ति भी नहीं पा सकते। समझदार लोग चित्त को ऐसा सरल बना लेते हैं जैसे धनुष-बाण बनाने वाला बाण को सीधा बनाता है। बाण जितना सीधा होगा लक्ष्य पर उतनी ही तीव्रता और सही ढंग से पहुंचेगा। चित्त को मिटाना नहीं है, चित्त को समझ लेना है। लोग अपनी सारी ऊर्जा चित्त को मिटाने में, उससे झगड़ा करने में लगा देते हैं। इसीलिए चंचल चित्त को लेकर परमात्मा तक नहीं पहुंच पाते। परमात्मा सदैव से है। भगवान की विशेषता यह है कि वह हमेशा रहता है। जो शाश्वत है उसे ढूंढने में चंचल चित्त बाधा पहुंचाता है। जैसे जमे हुए पानी में पत्थर फैंक दें तो दिखती हुई परछाईं टूटने लगती है। ऐसे परमात्मा का चित्र चंचल चित्त में बन नहीं पाता लेकिन वह है जरूर। चित्त की चंचलता विचार शून्य होकर रोकी जा सकती है और उसका एक तरीका है ध्यान।
पैसा नीति से कमाएं, रीति से खर्च करें
कहते हैं जिस नीति से धन कमाया जाता है उस धन की गति भी वैसी ही होती है। अनैतिक कार्यो से कमाया गया धन हमेशा पीड़ा देता है, मानसिक त्रास देता है और अंत में वह भी ऐसे कामों में खर्च होता है, जो अनावश्यक होते हैं। धन अच्छे कर्मो से कमाया जाए और सही जगह निवेश किया जाए तो ही वह फल देता है। इसी में लक्ष्मी का वास भी माना गया है।आज पुरुषार्थ का 90 प्रतिशत भाग धन कमाने में लग गया है। सारे प्रयास धन के पीछे हैं। आदमी को धनवान भी होना है और भगवान भी मिलना है। दोनों की चाहत समानांतर चलती है। पैसा और परमात्मा एक साथ मिले इस मणिकांचन योग के लिए पूरी जिंदगी कई लोगों ने दांव पर लगा दी। शास्त्र कहते हैं न्याय और नीति लक्ष्मी के खिलौने हैं। वह जैसा चाहती है वैसा नचाती है। वेदव्यास में लक्ष्मी के सात साधन बताए हैं-धर्य धारण करना, क्रोध न करना, इन्द्रियों को वश में रखना, पवित्रता, दया, सरल वचन और मित्रों से द्वेष न रखना।कोई भी धर्म यह नहीं कहता कि धन न कमाया जाए। भगवान को हमारी निर्धनता से अधिक हमारी वैराग्य वृत्ति प्रिय है। बड़े से बड़ा धनवान बैरागी हो सकता है और गरीब से गरीब के भीतर भी इस वृत्ति का अभाव हो सकता है। अत: धन कमाना बुरा नहीं है, आप किस तरह से कमा रहे हैं और धन अर्जन के कृत्य को किस प्रकार पूरा कर रहे हैं यह महत्वपूर्ण है। परिणाम उसी में छिपा है। धन दुख नहीं देता और न ही सुख बरसाता है। उसके तरीके का सारा खेल है।जैन धर्म में महावीर स्वामी ने एक सूत्र कहा है- कर्म, कर्ता का ही अनुगमन करते हैं। जो व्यक्ति जिस तरह से धन कमा रहा है, परिणाम उसे ही भुगतना है। उस धन से जो दूसरे लाभ ले रहे हैं उन्हें उसका परिणाम वैसा नहीं भुगतना होगा। महावीर का सूत्र है-न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्त वग्गा न सुया न बंधवा। एक्को सयं पच्चणु होई दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं।। जाति, मित्र, संतानें इस दुख का विभाजन नहीं कर सकते। ऐसा दुख अकेले ही भुगतना पड़ता है। इसलिए नीति से कमाएं और रीति से खर्च करें। क्योंकि जिम्मेदारी आपकी अकेले की होगी।
अपने स्वभाव को समझें, आनंद आपके पास रहेगा
जब भी कोई निर्णय लें, तय करें कि उसे पूरा करने में हम कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। कई बार हम कसमें खा कर भी अपना प्रण पूरा नहीं कर पाते, हमारा स्वाभाव ही खुद के लिए रियायती रहा है। कभी कड़े प्रण लेकर भी हम उसमें खुद के लिए छूट भी तय कर लेते हैं, एक बार प्रण टूटा तो फिर जल्द ही हम पुराने र्ढे पर लौट आते हैं। अपने स्वभाव को समझें, उसकी कमियों को पकड़ें तो जीवन का सच्चा आनंद आपके पास ही है।
हम निर्णय लेते हैं आज से ऐसा गलत काम नहीं करेंगे और सही काम करके ही रहेंगे। फिर हम ही पाते हैं कि हमारे निर्णय हमारे ही कारण पूरे नहीं होते। समझ लीजिए केवल निर्णय लेने से कुछ होने वाला नहीं है। सवाल निर्णय लेने का नहीं है सवाल है हमारी प्रकृति के रूपांतरण का। हमारी प्रकृति के सामने निर्णय छोटे पड़ जाते हैं।
निर्णय लेने के पूर्व अपनी प्रकृति को समझें। स्वयं से पूछें मेरी प्रकृति क्या है? आप अपने चित्त की प्रकृति को जितना समझते जाएंगे उतने ही जागरुक होते जाएंगे। जैसे-जैसे अपनी प्रकृति समझ में आती जाएगी वैसे-वैसे विषयों से बचना आता जाएगा और असली आनंद यहीं बसा है।
फकीरों ने ढाई प्रकार का आनंद बताया है। परमानंद या ब्रम्हानंद, जब जीवात्मा, परमात्मा में लीन होता है तो यह परमानंद है, यह पूर्ण इकाई है। काव्यानंद आनंद का दूसरा भाग है जो पूर्ण है। तीसरा है विषयानंद जो सांसारिक आनंद है। इसमें इन्द्रियां मन को क्षणिक तृप्ति पहुंचाती हैं। इसे आधा माना गया है।
इस ढाई प्रकार के आनंद में विषयानंद का सीधा परिणाम है रोगी हो जाना। विषयानंद और अस्वस्थता एक-दूसरे का पर्याय हैं। चिकित्सक कहते हैं स्वस्थ शरीर हो, संत कहते हैं स्ववश शरीर हो। वैसे ही मन स्वस्थ हो, इससे ज्यादा जरूरी है स्ववश हो। स्ववश मन का अर्थ है कोई भी काम करते हुए उद्वेग, हड़बड़ाहट, हलचल, बेचैनी न हो। विचारों का प्रवाह कम से कम हो और जितना भी हो नियंत्रित हो।
क्योंकि मन में जो हलचल होती है वह इन्द्रियों से प्रकट होती है, सारे अंग सक्रिय होने लगते हैं। मनुष्य के व्यवहार में गड़बड़ होना शुरु हो जाती है और इसी कारण लिए हुए निर्णय अपूर्ण रह जाते हैं।
मातृभूमि से प्रेम का अर्थ है खुद का अस्तित्व
हर कोई अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा रखता है लेकिन इस रिश्ते की गहराई को समझ नहीं पाता। कई बार हम इस रिश्ते को निभाने में चूक कर जाते हैं। मातृभूमि से हमारे रिश्ते को समझने के लिए हमें खुद के भीतर झांकना पड़ेगा, हम क्या हैं, इस धरती ने हमें क्या दिया, हम इसे क्या दे रहे हैं, यह हमारे लिए क्या-क्या सहन कर रही है, ऐसी बातों को जिस दिन सोचेंगे, आप अपनी जन्मभूमि से सच्चा प्रेम करने लगेंगे।
हर मनुष्य के दो जन्म हुए हैं एक शरीर के तल पर दूसरा आत्मा के तल पर। हमने जन्म देने वाली स्त्री को मां कहा है और जिस धरती के खंड पर जन्म लिया गया उसे मातृभूमि कहा है। अपने मूल पर टिके रहना अपनी जड़ों से न कटना यह एक नैतिक दायित्व, मूल्य है। इसीलिए वर्षो में सबकुछ बदल जाता है मूल्य नहीं बदलते। अपनी मातृभूमि से प्रेम करने के भाव का अर्थ है जहां हमारा जन्म हुआ उससे जुड़े रहना। आध्यात्मिक भाषा में यूं कहा जाए कि आत्मा के तल पर जन्म हुआ है तो आत्मा से जुड़े रहें, अपने भीतर उतरें, थोड़ा स्वयं के निकट बैठें। जैसे सारी दुनिया घूमें परंतु अपनी मातृभूमि को न भूलें। वैसे ही शरीर पर टिकें संसार में घूमें पर अपनी आत्मा को विस्मृत न करें। अमीर खुसरो ने फारसी में नुह सिपिहर नामक मस्नवी में लिखा है कि हिन्दुस्तान मेरी मातृभूमि है। इसलिए इससे मुझे बहुत प्रेम है। हजरत पैगंबर ने भी फरमाया है देशप्रेम धार्मिक निष्ठा का ही अंग है। अमीर खुसरो तो यहां तक लिख गए कि दिल्ली हजरते देहली है। देहली की खूबसूरती यदि मक्का शरीफ सुन ले तो वह भी आदरपूर्वक हिन्दूस्तान की तरफ अपना रूख मोड़ ले। इस्लामी दीन में मक्का शरीफ का रुतबा दुनिया जानती है। इसकी तुलना दिल्ली से करने की हिम्मत अमीर खुसरो ने इसलिए की थी कि वे मातृभूमि के प्रेम को दर्शाना चाहते थे। भारत में इस्लाम की नींव मोहम्मद गौरी ने डाली थी। कई मुसलमान शासकों ने भारत के सांस्कृतिक, धार्मिक दृश्य को तहस, नहस किया तो कई मुस्लिम बादशाहों ने इसे संवारा भी। इसीलिए बहुत कुछ गुजर जाता है पर जो रह जाता है वह है मूल्य। खुसरों जैसे लोग उन्हीं मूल्यों पर अपनी कलम चलाते हैं और मातृभूमि से प्रेम का एक ऐसा भी अर्थ है कि अपने भीतर उतरो यहीं खुदा है, ईश्वर है और वह सबकुछ है जैसा हम होना चाहते हैं।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK
बहुत शानदार ब्लॉग हर शब्द कीमती है ...अमूल्य कृति ...मैं बहुत प्रबावित हुआ ...
ReplyDeleteमनीष जायसवाल