Tuesday, October 23, 2012

Sanskaar (संस्कार)

हनुमान से सीखें ये सबसे महत्वपूर्ण संस्कार...
दूसरे का मान रखते हुए हम सम्मान अर्जित कर लें, इसमें गहरी समझ की जरूरत है। होता यह है कि जब हम अपनी सफलता, सम्मान या प्रतिष्ठा की यात्रा पर होते हैं, उस समय हम इसके बीच में आने वाले हर व्यक्ति को अपना शत्रु ही मानते हैं।

महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए मनुष्य सारे संबंध दांव पर लगा देता है। आज के युग में महत्वाकांक्षी व्यक्ति का न कोई मित्र होता है, न कोई शत्रु। उसे तो सिर्फ अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति करनी होती है। हर संबंध उसके लिए शस्त्र की तरह हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो दूसरे की भावनाओं, रिश्ते की गरिमा और सबके मान-सम्मान को ध्यान में रखकर अपनी यात्रा पर चलते हैं। हनुमानजी उनमें से एक हैं। सुंदरकांड में एक प्रसंग है।

हनुमानजी और मेघनाद का युद्ध हो रहा था। मेघनाद बार-बार हनुमानजी पर प्रहार कर रहा था, लेकिन उसका नियंत्रण बन नहीं रहा था। तब उसने हनुमानजी पर ब्रह्मास्त्र का प्रहार किया। हनुमानजी को भी वरदान था कि वह किसी अस्त्र-शस्त्र से पराजित नहीं होंगे। उनका नाम बजरंगी इसीलिए है कि वे वज्रांग हैं। जिसे कह सकते हैं स्टील बॉडी।

जैसे ही शस्त्र चला, हनुमानजी ने विचार किया और तुलसीदासजी ने लिखा -

ब्रह्मा अस्त्र तेहि सांधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मासर मानउं महिमा मिटइ अपार।।

अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, तब हनुमानजी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूं तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी। यहां हनुमानजी ने अपने पराक्रम का ध्यान न रखते हुए, ब्रह्माजी के मान को टिकाया। दूसरों का सम्मान बचाते हुए अपना कार्य करना कोई हनुमानजी से सीखें।

पिछले जन्मों के संस्कारों का भी हो सकता है ये परिणाम...
अक्सर पूछा जाता है कि दुख दूर करने के सरल उपाय क्या हैं? इसका उत्तर ढूंढ़ने में ही कुछ लोगों ने अपने आसपास और बड़े-बड़े दुख खड़े कर लिए हैं। हमारे शास्त्रों में भी आत्म-साक्षात्कार के जो साधन बताए गए हैं, वे दुख से मुक्ति के ही तरीके हैं। दुख की समझ ही दुख से मुक्ति है। इस समझदारी से आगमन होता है सुख, शांति और प्रसन्नता का।

भारत की संस्कृति ने दुख को समझने के लिए उसे प्रारब्ध से जोड़ा है। प्रारब्ध यानी पूर्व संचित कर्म एवं संस्कारों का परिणाम। ये भोगकर ही पूरे होते हैं। इसी को दुख माना गया है। जीवन में समझ आने पर इनके भोगने की सहनशक्ति आ जाती है। दूसरे हमारे व्यवहार से पैदा होने वाले दुख हैं। इन्हीं में बीमारियां आती हैं। रोगी काया बहुत बड़ा दुख है। तीसरे तरीके से जीवन में दुख मनुष्य द्वारा स्वनिर्मित दुख होते हैं।

डिप्रेशन इसी का परिणाम है। जीवन से दुख मिटाने के लिए अपने व्यक्तित्व को दो भागों में बांटकर देखिए। हमारा एक हिस्सा संसारी होता है और दूसरा संन्यासी। हम संसारी हिस्से पर ही ज्यादा टिके रहते हैं। संसार छोड़ना नहीं है, साथ ही संन्यास को भी पकड़ना है। संन्यास उस समझ का नाम है, जिसमें हम जान जाते हैं कि जीवन में कई ऐसी बातों से हमने स्वयं को जोड़ रखा है जो मरण धर्मा हैं, व्यर्थ हैं, छोड़ने लायक हैं।

तो कुछ ऐसी बातों से स्वयं को जोड़ा जाए जो मृत नहीं, अमृत हैं। जैसे ही हम अमृत से जुड़ेंगे, हमारा हर कार्य अमृत हो जाएगा। हमारा परिश्रम नशा नहीं, पूजा बनकर हमें दुख मुक्त कर देगा। इसलिए अपने व्यक्तित्व के संन्यासी हिस्से को जानने के लिए कुछ समय दीजिए।

अगर परिवार को सुखी रखना है तो इस संस्कार की सफलता जरूरी है....
जीवन की जिन-जिन गतिविधियों पर हमें भविष्य का संदेह बना रहता है, उनमें से एक है विवाह। वर्तमान में विवाह एक संस्कार न होकर दबाव बन गया है।विवाह करने और कराने वाले सभी इस बात को लेकर आशंकित रहते हैं कि भविष्य में शांति मिलेगी या नहीं। अब जो शादियां हो रही हैं, उनमें समूचे परिवार की जिम्मेदारी केंद्र में नहीं है। अब केंद्र में दो व्यक्तियों की महत्वाकांक्षाएं हैं। सबकी अपनी-अपनी दिशाएं हैं।

इसलिए सहयोग समन्वय से ज्यादा समझ का कारक वैवाहिक जीवन में जरूरी हो गया है। आपसी समझ का उदाहरण शिव-पार्वती के दांपत्य में आया है। आज एक बड़ा समाज महेश जयंती मना रहा है। इस दिन का संदेश यह होना चाहिए कि शिव से सीख लें कि परिवार कैसे बचाया जाता है।

परिवार के तीन कोण हैं - पहला है भोग, जिसका संबंध शरीर से है। दूसरा है संतानउत्पत्ति, जो परिवार से जुड़ता है और तीसरा है भावना, जिससे परिवार में अध्यात्म जगता है। भोग दांपत्य जीवन की आवश्यक बुराई है।

इसलिए रास्ता यह निकाला जाए कि भोग भावना और अध्यात्म से जुड़ जाए। इससे यह हानिकारक नहीं रहेगा। इसलिए शादी और समझ का गठबंधन पहले होना चाहिए, फिर फेरे लगाते समय गठबंधन की बात की जाए। स्त्री और पुरुष का जुड़ाव निरपेक्ष भाव से होगा तो शादी का आनंद ही अलग होगा। पर हमारे यहां विवाह मांग से शुरू होते हैं, मांग से ही चलते हैं और मांगते-मांगते ही खत्म हो जाते हैं। जिसने वैवाहिक जीवन दान से चलाया, जो अपने जीवनसाथी को देने को तयार हो, बस वहीं से सुगंध उठेगी और वहीं से बैकुंठ जागेगा।

परिवार का निर्माण ऐसे संस्कारों की नींव पर करें...
हमने अपने विकास का ढांचा पूरी तरह से पश्चिम देशों से उठा लिया है। 15-20 साल बाद हमारे देश के पास विकास की वही स्थिति होगी, जो आज किसी भी विकसित पश्चिमी देश की है। कामयाबी के सारे शिखर हम छू चुके होंगे, पर सावधान रहना होगा। जो नुकसान पश्चिम ने उठाया, खासतौर पर पारिवारिक जीवनशैली में, कहीं वो हमें न उठाना पड़े।

हमारे पास परिवार और संस्कार ये दो बातें आज भी ऐसी हैं कि हम इनका ध्यान रखते हुए विकास करें। पश्चिम ने विकास किया और नुकसान दिखने के बाद देर हो गई। हमारे पास संभावना है कि हम उस नुकसान के प्रति अभी से सचेत हो जाएं।

हमारे यहां परिवार के केंद्र में माताएं और बहनें हैं। इनका आत्मविश्वास ही हमारे परिवार को बचाएगा। माताओं और बहनों से जुड़ा एक त्योहार है रक्षाबंधन। वे राखी का एक धागा बांधकर अपना प्रेम प्रदर्शित करती हैं, लेकिन हम उन्हें इसके एवज में न तो पूरा सम्मान दे पा रहे हैं और न ही संरक्षण।

अज्ञात भय, अकेलेपन और अवसाद में डूबी हमारी कतिपय माताएं-बहनें घर व बाहर दोनों जगह संघर्ष कर रही हैं। महिलाएं भी अपना रिश्ता भगवान हनुमान से जोड़ें। प्रेम, सेवा, बुद्धि, विवेक और बल के देवता हनुमानजी हैं। जब वे स्त्रियों से भाई, पिता, पुत्र या गुरु के रूप में जुड़ेंगे तो उनके जीवन की गरिमा ही बदल जाएगी।

ये संस्कार आपको सम्मान दिलाता है...
आप अपने ही घर में बुजुर्ग लोगों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वे विश्वास से अधिक जिए हैं और नई पीढ़ी पर दृष्टि रखें तो पाएंगे कि ये लोग विचार से जीते हैं। विश्वास से जीने वालों के पास संतोष, धर्य और शांति होती है। वे तर्क के सामने निरुत्तर होते हैं।

गुजरती पीढ़ी से यदि पूछा जाए कि वे आज भी कुछ काम ऐसे कर रहे हैं, जिनका उनके पास जवाब नहीं है तो वे यही कहेंगे कि सारा मामला विश्वास का है। उन्होंने रिश्तों में विश्वास किया है, प्रकृति पर विश्वास किया है और सबसे बड़ा विश्वास उनके लिए परमात्मा है।

नई पीढ़ी विचार को प्रधानता देती है। विचार और विश्वास सही तरीके से मिल जाएं तो आनंद और बढ़ जाएगा। खाली विश्वास एक दिन आदमी को पंगु बना देगा। उसकी सक्रियता आलस्य में बदल सकती है। इस बदलते युग में वह लाचार हो जाएगा और शायद बेकार भी।

खाली विचार से चलने वाले लोग घोर अशांत पाए जाते हैं। श्रीश्री रविशंकर एक जगह कहते हैं - उदारता इसमें है कि जीवन में दोनों का संतुलन हो। विश्वास का अर्थ है स्वयं के प्रति आदरपूर्ण होना। विश्वास और विचार जुड़ते ही हम समग्र के प्रति आदरपूर्ण हो सकते हैं। जब हम कहते हैं कि परमात्मा महान है तो इसका विश्वास में अर्थ है कि सचमुच वो महान है और विचार का अर्थ होगा कि वो महान है इसलिए उसकी कृति के रूप में हम भी महान हैं। हमें उस महानता को याद रखना है और वैसे ही कार्य करने हैं।

किसी को आदर देकर हम स्वयं भी सम्मान पाते हैं। जैसे-जैसे विचार और विश्वास जीवन में मिलते जाएंगे, वैसे-वैसे विज्ञान और धर्म का भी संतुलन जिंदगी में होता रहेगा।

काम को भी सृजन से जोड़िए...संतानें संस्कारी होंगी
भारतीय संस्कृति ने जीवन की कुछ सामान्य क्रियाओं को बड़े ही अद्भुत दर्शन से जोड़ा है। हमने जीवन के हर प्रमुख कृत्य को संस्कार नाम दिया है। जिस इरादे से आप काम कर रहे हैं, वह महत्वपूर्ण है।

परिणाम क्या होगा, इसमें हमारे प्रयास और ईश्वरीय शक्ति को जोड़कर देखा गया है। मनुष्य के शरीर में जो जीवन ऊर्जा होती है, उससे सांसारिक कर्म तो पूरे होते ही हैं, लेकिन संतान उत्पत्ति भी इसी जीवन ऊर्जा का परिणाम है।

इसीलिए इसे काम ऊर्जा भी कहा गया है। जब यह काम ऊर्जा अमर्यादित हो जाती है, तो इसके भीतर की अग्नि मनुष्य के शरीर पर विपरीत असर डालती है। जीवनशक्ति का प्रवाह बड़े से बड़ा पराक्रम करा सकता है और इसी के भीतर की अग्नि काम क्रीड़ा में भी पटक देती है। काम ऊर्जा से जो दहक शरीर में आती है, उसके कारण कई आवश्यक शारीरिक धातुएं जलने और पिघलने लगती हैं।

शरीर में जो आवश्यक तत्व हैं, उनका संतुलन कामाग्नि के कारण बिगड़ने लगता है। इसके संतुलित उपयोग से बुद्धि, विचार, हृदय तीनों ही अद्भुत परिणाम देते हैं, लेकिन इसका असंयमित आचरण देह को खोखला भी बना देता है। इसलिए ऋषि-मुनियों ने काम को भी अध्यात्म से जोड़कर समझाया है।

अतिरिक्त कामाग्नि सबसे अधिक घातक असर मस्तिष्क पर करती है। आदमी की स्मरण शक्ति चली जाती है और उसके विचारों में विस्फोट होने लगता है। उसके संकल्प क्षीण होने लगते हैं। कामुक आदमी किसी भी समय अपने-पराए का बोध छोड़ देता है। इसलिए काम ऊर्जा को जीवन ऊर्जा से जोड़कर सृजन की ओर मोड़ना चाहिए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK


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