प्रकृति से सीखें जीने की ये कला...
प्रकृति हमें कई चीजें सिखाती हैं। ये हमें उपहार देती भी है और लेती भी। हर
मौसम, हर
ऋतु, हमें
जीवन का कोई अनमोल सूत्र देती है। प्रकृति से हम सबसे पहले देने की कला सीखें।
बिना भेदभाव, बिना किसी पूर्वाग्रह के सबको समान रूप से बांटने का तरीका प्रकृति से सीखा जा
सकता है।
जीवन में सबके अपने-अपने लक्ष्य होते हैं। लक्ष्य की पूर्ति के लिए खूब
परिश्रम भी करना पड़ेगा। ऐसा करते भी हैं, लेकिन इस तेजी और दबाव में हम कुछ चीजें खोने लगते
हैं। जिसका महत्व शायद आज पता न लगे, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा कि पछताना पड़ेगा।
चरम पर पहुंचने की गति इस वक्त हर कोई चाहता है, पर अध्यात्म में एक परमगति भी
कही गई है। यह एक ऐसी अनुभूति है, जिसमें सारी दुनिया खूबसूरत लगती है और हम खुश रहने लगते
हैं।
आज इसलिए भी इसकी चर्चा की जा रही है कि सावन माह आरंभ हो चुका है। अब प्रकृति
हमें देने की तैयारी में है। चारों ओर हरियाली है। अब पूरे सावन माह सराबोर होने
की तैयारी कर लीजिए। संतों ने कहा है केवल शुद्ध चित्त से ईश्वर नहीं मिलेगा,
उसके लिए साधना भी
करनी पड़ेगी।
शरीर विज्ञानियों का कहना है कि जब हम आवेग और आवेश में होते हैं तो हमारे
भीतर एड्रिनल ग्रंथि को ज्यादा काम करना पड़ता है। क्रोध, कलह, भय इस पर दबाव डालते हैं।
हमारी यह ग्रंथियां डिस्टर्ब होती हैं और इनसे जो डिस्चार्ज होता है, वह हमारे भीतर विकृति
पैदा कर देता है। डिप्रेशन का यह साइंस है, लेकिन सावन वह अवसर है, जब बाहर की हरियाली भीतर
उतर सकती है। इस समय प्रकृति अपने शुद्ध और श्रेष्ठ डिस्चार्ज में रहती है और इसे
हम अपने भीतर उतार लें तब पाएंगे कि एक सावन भीतर भी होता है। जल से शिव अभिषेक
केवल एक कर्मकांड नहीं है। सावन माह यह संकेत दे रहा है कि ऐसा ही जलाभिषेक अपने
व्यक्तित्व का करिए। प्रफुल्लित, प्रसन्न रहिए। सावन को जमकर जिएं और पिएं।
यह है भगवान तक जाने का सीधा और सरल रास्ता...
सुबह से लेकर रात तक व्यस्त रहना आजकल मजबूरी और फैशन दोनों हो गया है। कुछ
लोगों के जीवन में काम तो इस प्रकार हो गए हैं कि कभी खत्म होने का नाम ही नहीं
लेते। फिर महानगरों में तो आवागमन में ही समय का एक बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है।
शरीर की दौड़-भाग के कारण मनुष्य चिड़चिड़ा और उदास होने लगता है। बाहर से जो लोग
उद्विग्न नजर आते हैं, दरअसल वे भीतर से उदास हैं।
ऐसे में शांतिदायक स्थितियां बाहर से जीवन में आ जाएं, ऐसी उम्मीद करनी बेकार है। तब
क्या किया जाए? कामकाज छोड़ना नहीं है। चौबीस घंटे की अवधि को बढ़ाया नहीं जा सकता। नाम और
दाम कमाना ही है। इसके लिए लगातार प्रकृति से जुड़ने का प्रयास करें।
सूरज को उगता हुआ देखें। उसके ढलने पर चंद्रमा के आगमन पर नजर रखें। परिंदों
की हलचल पर नजर डालें। पशुओं में खासकर गाय की गतिविधि को नोटिस करें। नदी को बहता
हुआ देखें और रुके हुए पहाड़ पर थोड़ा अपने चित्त को टिकाएं।
तब आप पाएंगे कि प्रकृति वो पगडंडी है, जो परमात्मा तक ले जाती है।
प्रतिदिन प्रकृति से जुड़ने का अर्थ है, उस मार्ग की साफ-सफाई करना, जो उस दिव्य शक्ति तक पहुंचने का
राजमार्ग है। यह रास्ता ही ऐसा है कि हमारी सुविधा की दृष्टि से पगडंडी में बदल
जाएगा, कभी
फुटपाथ में बदल जाएगा और कभी राजमार्ग-सा दिखेगा। इसलिए आदत बना लें कि थोड़ी देर
पशु-पक्षी, नदी, पहाड़,
पेड़-पौधे इत्यादि
पर भी टिकें।
संसार में रोज ही नए-नए संकट पैदा होते रहते हैं। कोई एक क्षेत्र इसके लिए तय
नहीं होता। इसके समाधान के लिए हमें लगातार प्रयत्न करने होंगे। जब हम एक समस्या
से छुटकारा पा रहे होते हैं, तब दूसरी समस्या दस्तक देने के लिए आ रही होती है। लेकिन कई
बार हम निराश हो जाते हैं।
विशाल दृष्टि रखकर सोचें। परमात्मा ने इतना बड़ा संसार बनाया, उसमें कोई न कोई संकट
आता ही रहता है। इसीलिए वह परमशक्ति लगातार प्रयत्नशील रहती है। धर्मो में अवतारों
की कल्पना उसी क्रियाशील शक्ति का प्रतीक है।
अपनी उस शक्ति को सूर्य के रूप में स्थापित करके हमें यह शिक्षा दी है कि अपने
तेज प्रकाश को लगातार परिभ्रमण करते हुए सबमें बांटें। धरती न सिर्फ देती है, बल्कि क्रियाशील भी रहती है। धरती सूर्य का चक्कर लगाती है,
बादल अपने वेग से
चलते हैं। वायु कभी विश्राम नहीं करती। नदियां बाधाओं को पार कर अपने मुकाम समुद्र
तक पहुंच जाती हैं।
समुद्र अपनी गहराई तक क्रियाशील है। प्रकृति के ये सारे रूप हमें संदेश दे रहे
हैं कि लगे रहो, रुको मत। धर्म और अध्यात्म ने कर्म को इसीलिए तप से जोड़ा है। केवल करने के लिए काम न करें। हमारे यहां साधु-संतों ने भी तप को दो भागों में
बांटा है - एक बाहरी तप और दूसरा भीतरी तप। जो कमर्कांड हम करते हैं, धार्मिक रूप से सक्रिय
रहते हैं, यह बाहरी तप है, इसमें शरीर जुड़ा हुआ है। लेकिन यह कर्म नहीं, तप कहलाएगा। इसलिए आध्यात्मिक
लोग अपना प्रत्येक कर्म तप में बदल देते हैं। यही तप जब भीतर उतर जाता है तो योग
हो जाता है।
प्रकृति के इस रूप से सीखें विपरित परिस्थितियों में जीना..
संसार वह दलदल है, जिसमें उतरने पर आप डूबने की तैयारी रखें। जिनके पास आत्मबल
होगा, वे
आकंठ डूबे होंगे, लेकिन सांस लेने के लिए नाक के छिद्र बचे रहेंगे और दुनिया देखने के लिए आंखें
सलामत होंगी। जो पूरे डूब जाते हैं, वे संसार का आनंद नहीं ले पाते और संसार को कोसते
रहते हैं।
जब कभी आपको दुनिया काटने लगे, कमल के फूल को हाथ में लीजिए और विचार करिए इसके उगने और
खिलने की क्रिया पर। जो खूबसूरत चीज आपके हाथ में है, वह सौंदर्य कीचड़ से निकलकर आया
है। कीचड़ यानी संसार की विपरीत परिस्थितियां।
कीचड़ में कोई नहीं रहना चाहता, लेकिन जीवन का सौंदर्य पकड़ना हो तो विपरीत
स्थितियों में जीना आना चाहिए। हमारी केंद्रीय सामथ्र्य ऐसी रहे कि हम संसार में
रहकर भी संसार को अपने भीतर न आने दें। चूक यहां हो जाती है कि हम समझते हैं धन,
भौतिक सफलताएं,
सुख ही संसार है।
हमें यह गलतफहमी हो जाती है कि यह सब संसार में ही मिलते हैं या इन्हीं से
संसार प्राप्त होता है, जबकि ऐसा है नहीं। आत्मबल का अर्थ है विवेक से ली जाने वाली
क्षमता। संसार के भोग और अध्यात्म के योग में एक संतुलन के साथ जीवन में उतरना
चाहिए। साधु-संतों की संगत में जब जाएं तो लगातार इस बात पर निगाह रहे कि वे संसार
का उपयोग किस प्रकार कर रहे हैं।
अगर सतही तौर पर देखेंगे तो पाएंगे कि वे भी भोग रहे हैं और यहीं से चूक हो
जाएगी। थोड़ा गहराई में उतरकर पूर्वग्रह से हटकर देखिए तो आप पाएंगे कि वे संसार
में हैं, संसार
उनमें नहीं है। इसीलिए उनके भोग में भी योग होगा और हमारे योग में भी भोग रहेगा।
प्रकृति ने यह विशेषता सिर्फ महिलाओं को ही दी है...
एक समय था जब रिश्ते दूसरों को लाभ पहुंचाने के लिए होते थे। फिर वक्त बदला,
रिश्ते साझा लाभ
के लिए होने लगे और अब वक्त आ गया है, जब निज हित रिश्तों पर हावी हो गया है। सार्वजनिक
स्थान पर जब किसी काम के लिए कतार लगती है तो कुछ लोग बीच में घुसने की कोशिश कर
रहे होते हैं और जो नियम से खड़े रहते हैं, वे आक्रोश व्यक्त करते हैं।
यह एक सामान्य दृश्य है। कतार में न लगना या पंक्ति तोड़कर आगे जाना कुछ लोगों
के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन जाता है। आजकल घरों में भी ऐसे कतार वाले दृश्य देखने
को मिलते हैं। हर सदस्य दूसरे से जल्दी में है। वक्त आने पर धक्का भी दे रहा है।
परंपराओं की पंक्ति अहंकार के धक्के से तोड़ी जा रही है। लोगों ने घर के बाहर
और घर के भीतर के शिष्टाचार की परिभाषा बदल दी है। घर के भीतर अपने ही लोगों के
प्रति और उनकी जरूरतों के लिए न तो संवेदनशीलता बचाई जा रही है और न ही जिम्मेदारी
निभाई जा रही है।
हमें एक बात समझनी चाहिए कि सार्वजनिक जीवन और पारिवारिक जीवन में एक फर्क
होता है माताओं, बहनों की उपस्थिति। प्रकृति ने महिलाओं में ऐसे गुण और आकर्षण को मिलाया है कि
उनकी मौजूदगी मात्र से ही वातावरण और हमारे आसपास एक अनदेखा सा अनुशासन आ जाता है।
कुल मिलाकर यह स्त्री की उपस्थिति का आभास है, चाहे वह पत्नी के रूप में हो या
और कोई रिश्ते से। उन्हीं की मौजूदगी में घर में शिष्टाचार के अर्थ बदल जाते हैं।
यह नियामत प्रकृति ने पुरुषों को नहीं दी है। हमने देखा होगा सार्वजनिक स्थल पर
यदि स्त्री मौजूद हो तो लोगों के तौर-तरीके और नीयत बदल जाती है। वैसा ही घर में
होता है। इनकी मौजूदगी घर में प्रेमपूर्ण वातावरण बनाती है। इसलिए परिवारों में
शिष्टाचार रिश्तों की दृष्टि से निभाए जाने चाहिए।
प्रकृति से भी पाई जा सकती है सिद्धि और शांति..जानिए कैसे?
अवर्षा और अतिवर्षा, असमय वर्षा ने वायु का स्वाद भी बदल दिया। सावन-भादौ माह के
दौरान प्रकृति जिस रूप में होती है, उसको जीवन से जोड़कर देखिए। इस वर्षाकाल से एक सबक
लें कि जब हम गुरुमंत्र प्राप्त करते हैं तो उस मंत्र के साथ भी ऐसा ही करते हैं।
या तो मंत्र की अतिवर्षा करते हैं या अवर्षा होती है या असमय वर्षा में उलझ जाते
हैं। कई लोग तो गुरुमंत्र इसीलिए लेते हैं कि गुरु बनाने का काम निपट जाए।
उन्हें लगता है अब उनके जीवन के दायित्व संभालने वाला कोई और आ गया और वे गुरु
के प्रति इस तरह से अवलंबित हो जाते हैं, जैसे हम प्रकृति पर। हम प्रकृति का उपयोग भी करते
हैं और दुरुपयोग भी। गुरुमंत्र भी हमारे लिए ऐसा ही हो जाता है। बहरहाल, प्रकृति के जितने टुकड़े
से हम संबंधित हैं, उसके प्रति ईमानदार रहें। भूगर्भ के वैभव को अपने जीवन का हिस्सा मानें।
पेड़ों को कटने से बचाएं, जल को बर्बाद होने से रोकें और वायु को विषमय न होने दें।
आइए, पुन:
इन्हें गुरुमंत्र से जोड़ें। गुरुमंत्र सबसे अच्छा सधता है प्राणायाम से। हर सांस
के साथ अपने गुरुमंत्र को भीतर लाएं। सांस जब बाहर जाए तो गुरुमंत्र मानसिक जप के
साथ बाहर निकले। जब आप सघन प्राणायाम करेंगे तब महसूस होगा कि प्रकृति के साथ
छेड़छाड़ करने पर वायु कितनी प्रदूषित हो गई है। उसके भीतर का प्राण तत्व हम ही
नष्ट कर गए हैं और इसीलिए गुरुमंत्र का प्रभाव भी हम पर नहीं पड़ पाता। प्रकृति को
नाराज करके गुरु को कैसे खुश रखा जा सकता है? गुरु की प्रसन्नता उसके मंत्र के
सही जप में है। इसलिए वर्षा के इस काल में प्रकृति के रक्षण का संकल्प लिया जाए।
भगवान की कृपा पानी हो तो इस बात को समझें...
उल्टे घड़े पर पानी डालने का मतलब है व्यर्थ प्रयास और जल का अपमान। परमात्मा,
प्रकृति के माध्यम
से लगातार अपनी कृपा बरसा रहा है, जिसे लेने के हमारे पास तीन तरीके हो सकते हैं।
पहला और सही तरीका यह होगा कि हम स्वयं को खाली रखें, तभी कृपा भर सकेगी। दूसरी बात,
हम पहले से भरे
हुए हों तो कुछ भरेगा, कुछ छलक जाएगा। तीसरी स्थिति है, उल्टे घड़े की तरह कुछ लेने को
तैयार ही न हों।
ज्यादातर मौकों पर हम तीसरी स्थिति से गुजरते हैं। इसी कारण जीवन में जो
श्रेष्ठ संग्रहणीय है, उसे बहा रहे हैं। हमारी अति महत्वाकांक्षाएं इस कृपा-जल के
लिए नालियों का काम करती हैं। गंदगी नाली का स्थायी भाग्य है। हम जीवन में इस
दुर्भाग्य को समझ ही नहीं पाते। परमात्मा की कृपा का हम जितना सम्मान करेंगे,
अहंकार से उतनी
जल्दी मुक्ति मिलेगी। उसकी कृपा हमारे व्यक्तित्व में सहज विनम्रता ला देती है।
विनम्र लोग कभी-कभी शुष्क, उदास, बोझिल भी हो जाते हैं, पर ईश्वर की कृपा से जुड़कर
विनम्रता भी दिलचस्प हो जाती है। हमारी विनम्रता ऐसे में दूसरों को प्रभावित ही
नहीं, संतुष्ट
भी करेगी। इसलिए उस बरसती कृपा का संग्रहण करते रहें। लोग तो इतना चूक रहे हैं कि
घड़े को उल्टा ही नहीं किया, फोड़ ही डाला है।
कइयों के व्यक्तित्व के घड़े में तो इतने छिद्र हो गए हैं कि प्रभु-कृपा के
अलावा उनकी अपनी योग्यता भी रिस-रिसकर फिंक गई है। विनम्र व्यक्ति सब स्वीकार करता
है। इसलिए प्रभु कृपा स्वीकार करने पर जगत के इनकार की भी सही समझ आ जाएगी।
भगवान कृष्ण से सीखें प्रकृति की बेजान चीजों में भी आनंद के सुर खोजना...
यदि दृष्टि कलात्मक हो, तो निर्जीव वस्तु से भी सौंदर्य पैदा किया जा सकता है।
दरअसल हम अपने समूचे जीवन में जड़ वस्तुओं के प्रति अत्यधिक लापरवाह और निष्ठुर
होते जाते हैं। हम उनका रख-रखाव या उनसे संबंध स्वार्थ भाव के कारण ही रखते हैं।
हमारा सारा लगाव यूटीलिटी के लिए है, इमोशन से नहीं। धीरे-धीरे यह आदत सजीव लोगों के साथ
भी पड़ जाती है। इसीलिए घर-परिवार में भी लोग एक-दूसरे को यूज करने लगते हैं।
कृष्ण ने बांसुरी का उपयोग कर एक बड़ा संदेश यह दिया था कि संवेदनाओं की फूंक से
लकड़ी की खोखली पोंगरी भी मधुर ध्वनि दे देती है। हमें अपने आसपास पसरी रोजमर्रा
की उपयोगी वस्तुओं के साथ न सिर्फ स्वच्छता वरन संवेदना के साथ व्यवहार करना
चाहिए।
इनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाए, जैसे ये जीवित वस्तुएं हैं। इसके परिणाम में उनकी
उम्र, सौंदर्य
एवं गुणवत्ता बढ़ जाएगी। इसके लिए लगातार प्रयोग करने होंगे। एक काम एक ही समय में
करें। दरअसल हम भीतर से बंटे हुए रहते हैं। भोजन करें तो सिर्फ भोजन ही करें,
हो सके तो उस समय
सोच-विचार भी बंद कर दें।
अधिकांश लोग भोजन करते समय वो सारे काम कर लेते हैं, जो पेंडिंग हैं। कहने का आशय यह
नहीं कि मौन धारण कर लें, लेकिन फिर भी भोजन और उसकी क्रिया के प्रति ईमानदार रहें।
हम भोजन के साथ जिस तरह से कामचलाऊ व्यवहार करते हैं, वैसा ही मनुष्यों के साथ करने
लगते हैं। जितना हम जड़ वस्तुओं के प्रति जागरूक रहेंगे, उतने ही हम सजीव वस्तुओं के
प्रति प्रेमपूर्ण होते जाएंगे।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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