Sunday, February 26, 2012

Srimdbhagwat Part(9)

जिंदगी सुखी हो जाएगी अगर काम को करें इस तरह
आज तो आदमी ही आदमी का विश्वास नहीं कर पा रहा है। परिवारों में भी हर रिश्ता संदेह और ईष्र्या पर टिका है तो समाज के संबंधों पर क्या कहा जाए।कर्म करने में अत्यधिक मेरा-तेरा होने के कारण निष्कामता तो जाती रहती है उसकी जगह ईष्र्या और राह वृत्ति ले लेती है।''हानि-लाभ जीवन-मरण, यश अपयश विधि एवं या जब कर्म के फल को ईश्वरीय शक्ति पर छोड़कर निर्लिप्त भाव से अपने कर्तव्य को निभाते जाया जाए तो न केवल सुख होता है बल्कि ऐसी वृत्ति बन जाती है कि खिन्नता, विक्षोभ या दु:ख का अनुभव नहीं होता। कार्य करते हुए कुछ प्राप्ति या फल आकांक्षा रही तो दु:ख है ही योगी के लक्षण अपने में उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है-''सर्वारंभ-परित्यागी गुणातीत: स उच्यते।। किसी कार्य का संकल्परूपी आरम्भ नहीं करता अर्थात् व्यक्ति या साधक बस कर्म करता जाता है।

कोई आकांक्षा नहीं रखता। अपने सम-भव निर्मित करने में निन्दा स्तुति, मान-अपमान, मित्र-शत्रु के प्रति समान भाव रखने की स्थिति अपने को गुणातीत बनाने की है। यदि गुणातीत बनने का प्रयास किया नहीं जाता है, तो तीनों गुण, सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार न्यूनाधिकार होते हुए बन्धन के कारण होते हैं। गुणों के अनुसार कर्म होते जाते हैं। किन्तु, यदि भावना हो कि ''मैं करता हूं अहंकार भाव नहीं होना चाहिए तब ही कर्म सहज होते हैं। फिर वह कर्म भौतिक हो या अतिभौतिक (आध्यात्मिक) अहमन्यता आई कि मनुष्य लिप्त हुआ। लिप्तता ही तो बांधती है।

इसलिए अच्छा नहीं है ज्यादा इकट्ठा करना
श्रुति में कहा गया है - पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पाप: पापेन।। अर्थात-निश्चय ही यह जीव पुण्य कर्म से पुण्यशील होता है-पुण्ययोनि में जन्म पाता है और पाप कर्म से पापषील होता-पाप योनि में जन्म ग्रहण करता है।

जीव, कर्म और जगत अनादि हैं। इनमें जीवात्मा नित्य, शाश्वत व पुरातन है। शरीर के नाश होने से इसका नाश नहीं होता। स्मृति में स्पष्ट उल्लेख है कि पुरुष (जीव समुदाय) और प्रकृति स्वभाव, जिसमें जीवों के कर्म भी संस्कार रूप में रहते हैं-दोनों ही अनादि हैं। इसलिए कर्मों के फल भोगने तक जन्म-जन्मांतर में सक्रिय होते रहते हैं। यह भी उल्लेख स्मृतियों में है कि जीव को अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार सुख-दु:ख की प्राप्ति होती है।गीता के इस श्लोक-''कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्विकं निर्मलं फलम्। रजसस्तु फल दु:खमज्ञान तमस: फलम्।। 14।।16।।अच्छे पुण्य कर्मों का सात्विक निर्मल फल, रजोगुणी कर्म का फल दु:ख है और तमोगुणी कर्म का फल अज्ञान है। स्मरण रखना होगा कि अज्ञान दु:ख भोगने से भी अधिक कष्टप्रद होता है।

कर्म की गति बड़ी गहन है। महाभारतकार ने कर्म के स्वरूप को प्रज्वलित अग्नि के समान बताया है। उसकी रक्षा काल (समय) करता है। इस संदर्भ में जातक कथा (बौद्धधर्म) में दिए गए उदाहरण समुचित लगता है। कर्म जाज्ज्ल्यमान खम्बे की भांति है। इससे व्यक्ति जितना चिपकेगा उतना ही जलेगा किन्तु उससे अनजाने में चिपकेगा या संपर्क में आने पर पूरा ही झुलस सकता है। यह उदाहरण पाप कर्म के संबंध में अधिक ठीक बैठता है। अग्नि प्रकाश देती है। शुभकर्म वाला प्रकाशित हो जीवन के अंधेपथ में मार्ग (मुक्ति पथ) को पाया जा सकता है।

ग्यारहवें स्कंध में इसी चर्चा का अब नवां अध्याय आरम्भ होता है। अवधूत दत्तात्रेयजी और राजा यदु की बातचीत चल रही है। दत्तात्रेयजी अपने चौबीस गुरुओं का वर्णन कर रहे हैं।

अवधूत दत्तात्रेयजी बोले-राजा! मनुष्य को जो वस्तुएं अत्यंत प्रिय लगती हैं, उन्हें संग्रह करना ही उनके दु:ख का कारण है। बुद्धिमान पुरुष यह बात समझकर अकिंचन भाव से रहता है। शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता। उसे परमात्मा की प्राप्ति होती है। एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिए हुए था। उस समय दूसरे बलवान पक्षी जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीनने के लिए उसे घेरकर चोंचें मारने लगे। जब कुरर पक्षी ने अपनी चोंच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला। यहां संग्रह से मतलब है लोभ की अति। इसलिए ज्यादा संग्रह अच्छा नहीं होता।

ऐसे लें निर्णय तो ही समझदारी है
दतात्रेय जी आगे कहते हैं। एक बार किसी अविवाहित कन्या के घर उसके विवाह की वार्ता करने के लिए कई लोग आए हुए थे। उस दिन उसके घर के लोग बाहर गए हुए थे। इसलिए उसने स्वयं ही उनका सत्कार किया। राजन् सुनिए! उनको भोजन कराने के लिए वह घर के भीतर एकान्त में धान कूटने लगी। उस समय उसकी कलाई में शंख की चूडिय़ां जोर-जोर से बज रही थीं।

इस शब्द को निन्दित समझकर कुमारी को बड़ी लज्जा मालूम हुई और उसने एक-एक करके सब चूडिय़ां तोड़ डाली और दोनों हाथों में केवल दो-दो चूडिय़ां रहने दीं। क्योंकि उससे उसका स्वयं धान कूटना सूचित होता था, जो कि उसकी दरिद्रता का द्योतक बता रहा था। अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूडिय़ां भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाइयों में केवल एक-एक चूड़ी रह गई, तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई। उस समय लोगों का आचार-विचार निरखने-परखने के लिए इधर-उधर घूमता हुआ मैं भी वहां पहुंच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एकसाथ रहते हैं, तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है।

इसलिए कुमारी कन्या की चूड़ी के समान अकेले ही विचरना चाहिए। यहां एकांत साधने की बात की गई है यानी थोड़ा भीतर से मौन साधा जाए। जब हम भीतर से बहुत बोल रहे होते हैं तब हम बाहर भी शब्दों की मार्यादा चूकते हैं।

शब्द के आक्रमण कलह को जन्म देते हैं। मौन एक यौगिक क्रिया है इसे साधा जाए। महात्माओं ने शक्ति या भक्ति-जागरण के कतिपय लक्षण बताए हैं, जिन्हें यौगिक भाषा में क्रियाएं और भक्ति में आनंदानुभूति कहा जाता है। नाचना, गाना, ईश्वरीय भावपूर्ण कविताएं करना, भजनों का गाना, ध्यान लगाना, समाधिस्थ करना आदि क्रियाएं अपने आप व्यक्ति में होने लगती हैं। ये लक्षण उत्साह बढ़ाने वाले होते हैं।

ऐसे करें काम तो कुछ भी नहीं होगा नामुमकिन
इन सबके लिए व्यक्ति को स्वयं ही चेष्टा करना है। कुछ नियम वह बनाए और उनका दृढ़तापूर्वक पालन करे ताकि वे नियम उसके लिए सहज हो जाएं। नियमों के सहज हो जाने से साधन भी सहज होने लगते हैं और व्यक्ति अपने लक्ष्य को सरलता से पा सकता है। अंतत: ईश्वर कृपा और महात्माओं के आशीर्वाद इसके लिए चाहिए। इसके लिए हमारे हाथ में प्रभु प्रार्थना अवश्य है।

इसके बाद शक्ति प्रकट हो हमें ऊध्र्व गमन करती हुई तब तक मार्गदर्र्शन कराती रहेगी जब तक मुक्त न हो जाए। यह साधन का अटल सिद्धांत है। अत: गृहस्थी में मौन का उपयोग मीठी के लिए किया जाए। एकाग्रता पर बड़ी सुंदर टिप्पणी की गई है भागवत में। बाण बनाने में एकाग्रता हो तो बाण चलाने में भी बाण परिणाम देगा यही जीवन में लागू होगा। निर्माण की योजना की एकाग्रता परिणाम में सहयोगी होगी। इसे आज के प्रबंधन की भाषा में टोटल इन्वाल्वमेंट कहा जाएगा।राजन मैंने बाण बनाने वाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर ले और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगा दे। जब परमानन्द स्वरूप परमात्मा में मन स्थिर हो जाता है, तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओं की धूल को धो देता है।

सत्वगुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों का त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे ईंधन के बिना अग्नि।

मैंने देखा था कि एक बाण बनाने वाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पास से ही दलबल के साथ राजा की सवारी निकल गई और उसे पता तक न चला। मैंने सांप से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भांति अकेले ही विचरण करना चाहिए, उसे मण्डली नहीं बांधनी चाहिए।

मठ तो बनाना ही नहीं चाहिए। वह एक स्थान में न रहे, बाहरी आचारों से पहचाना न जाए।केवल वस्त्र संन्यास न हो, व्यवहार संन्यास हो। व्यवहार भी परमात्मा के साथ वाला। संत के जीवन की एक रूपता ही परमात्मा को प्रिय है। संसारी ड्अल लाईफ योग्यता मानते हैं पर ये साधुता के दोष हैं। किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले।

अगर खुश रहना है तो याद रखे जिंदगी में कृष्ण के ये तीन फंडे
यदि साधन भगवत प्राप्ति के उद्देश्य से भगवान की प्रीति के हेतु की जाए तो भगवान की कृपा विशेष रूप से प्राप्त होती है। साधन से भक्त की आस्था, श्रद्धा तथा भक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। इससे शरणागति की प्राप्ति होती है।शरणागति प्राप्त होने पर कुछ शेष नहीं रहता। हमें यहां स्मरण रखना होगा कि शरणागति की स्थिति लाने के लिए श्रीशुकदेवजी-जैसा केवल जप नहीं, प्रत्युत ज्ञानपूर्वक जप करना होगा। इसमें निदाघ (ऋषि पुत्र) की भांति जल में कमल पत्र के तुल्य असमपृक्तता प्राप्त करनी होगी अर्थात् ज्ञान तथा वैराग्य के युगल स्वरूप के साथ भक्ति माता को हृदयंगम करना होगा।

किन्तु यह जितना सरल दिखता है, है नहीं। तप-त्याग के धरातल पर विराट गंगा को धारण करने के लिए जिस प्रकार भगवान शिव ने साधन किया वह करना होगा, तब कहीं भगवती शक्ति, कुण्डलिनी-स्वरूपा आल्हादिनी भक्ति सहस्रार में आकर समाहित होगी। उसका वह परम समावेश आनन्मयी मुक्ति का स्वरूप है। फिर, मैं भक्ति हूं, मैं उपासना हूं और मैं मुक्ति हूं यह सतत् चलता रहेगा। उस स्थिति में तो पता ही नहीं चलेगा कि कब प्रात: हुआ और कब संध्या हुई तथा कब दिन-रात हुए। ऋतुएं बीतीं और वर्ष के वर्ष बीत गए।

इस प्रकार की भक्ति एवं शरणागति के उस परम शिखर पर पदारूढ़ हो मनुष्य इहलीला समाप्त कर परम अविनाशी से मिलने के लिए प्रयास करेगा, क्योंकि जीव उसी का अंश है। फिर तो अंश की अंशी में मिलना ही चाहिए। यह अनुभूति गुरु करवाते हैं। इसलिए जीवन में गुरु का महत्व है। आगे भगवान उद्धव से कहते हैं- सदा परमार्थ के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा बनाए रखें। किसी के गुणों में दोष न निकालें और व्यर्थ की बात न करें। सचमुच हम जीवन का बड़ा हिस्सा व्यर्थ की बातों में निकाल देते हैं। इतना ज्यादा व्यर्थ हो जाता है कि जिन्दगी का सार्थक खो ही जाता है। कुल मिलाकर फालतू बातों से बचें।

भगवान अपने जीवन का निचोड़ उद्धव को बता रहे हैं। भगवान अपने जीवन में सदैव व्यर्थ से बचते रहे हैं। श्रीकृष्ण हमें जीवन में पल-पल का आनंद उठाने, कर्म में लगे रहने और जीवन में समय को व्यर्थ गवाने से बचने का संदेश देते हैं। कृष्ण से बड़ा कोई और कर्मयोगी नहीं हुआ है। कृष्ण कहते हैं हम जो समय व्यर्थ के क्रोध, अभिमान, झगड़े और वाद-विवाद में बिगाड़ते हैं उसे कर्म में लगाना चाहिए। विवाद, अभिमान, क्रोध ये सब क्षणिक आवेश होते हैं इस आवेग के गुजर जाने के बाद पछतावा ही होता है।

हमारे धर्मग्रंथों में गंगा स्नान को जरूरी क्यों माना गया है?
गुरु ज्ञान होता है और ज्ञान ही गुरु होता है। गुरु सब कर्म करता हुआ इस अहंकार से शून्य होता है कि ''मैं कर्म कर रहा हूं। वह यह भली प्रकार जानता है कि मैं जो कर रहा हूं उसका नियन्ता अथवा कराने वाला कोई और है जिसने इस देह को माध्यम बना दिया है। जिससे वह कोई नियति-विरुद्ध कार्य में संलग्न नहीं होता। महाराज जनक इसके प्रतीक थे। महाराज जनक ने ज्ञान की व्याख्या आरंभ की-परिपक्व ज्ञान से निर्वाण रूपी परम शान्ति प्राप्त होती है। वासनाओं का सम्पूर्ण त्याग ही श्रेष्ठ है, वहीं विशुद्ध अवस्था है और वही मोक्ष है। इस तत्व का ज्ञान जीवन्मुख बनाता है। उसके लक्षण हैं- सुखों तथा दु:खों से अनासक्त और हर्ष-क्रोध, काम एवं शोक आदि से अन्त:करण का मुक्त होना। दृष्टि का अनायास ही अन्तर्मुखी हो जाना। आकांक्षारहित तथा अपेक्षारहित मान-अभिमान सभी स्थितियों में एक समान न तो मैं का भाव होना और न ही पराया भाव। इन गुणों से युक्त तुम बाहर और अन्त:करण में उसे परब्रह्म को देखते हुए पूर्ण मुक्तावस्था में साक्षी भर रहते हो, तुम मुक्त हो।

तात्पर्य यह है कि स्व-स्वरूप को जानने वाला स्वयं का साक्षी होता है, किन्तु इस सोपान तक पहुंचने के लिए आधार हैं शम, आत्मचिंतन और सत्संग आदि। इन्द्रियों का दमन करना शम, आत्मचिंतन और सत्संग आदि। इन्द्रियों का दमन करना शम है। आत्मानुभव, सदग्रंथ (शास्त्र) तथा गुरु के वचनों में श्रद्धा और ऐक्यभाव से अभ्यास द्वारा आत्मचिंतन होता है। आत्मचिंतन में यह दृढ़ विश्वास होता है कि यह दृश्य-अदृश्य उस विराट की समग्र क्रिया है, चित्त की धड़कन उसका अंश मात्र है। यह आत्मदृष्टि है।

इसकी प्राप्ति गुरु कृपा या सत्संग से होती है। अन्त:करण की शुद्धि-सत्संग की गंगा में स्नान करने से ही होती है। वास्तव में गंगा स्नान का अर्थ है परमात्मा में डूबना, शरीर व मन को पवित्र करना। जब तन पवित्र होगा तो मन में पवित्र विचार आएंगे। जब मन में विचार अच्छे होंगे तो हमारे भीतर ज्ञान का उदय होगा। ज्ञान किसी भी व्यक्ति को कभी भी मिल सकता है। शर्त यह है कि हम इनके लिए तैयार रहें। अगर तैयार न रहें तो ज्ञान के कई अवसर हमारे हाथों से निकल जाएंगे। गंगा शिव के मस्तक से शुरू होकर सागर तक जाती है। वह निरंतर बहती है, कहीं ठहरी नहीं है। इसलिए उसका स्नान सबसे ज्यादा पुण्यकारी है। बहती नदी, प्रतीक है कि ज्ञान भी हमेशा प्रवाह मान होना चाहिए। अगर ज्ञान ठहर जाए तो हमारी तरक्की रुक जाती है। इसलिए परमात्मा चाहिए तो अपने भीतर ज्ञान का उदय करें, फिर उस ज्ञान को प्रवाह मान बनाएं।

इसे पढऩे के बाद खत्म हो जाएगा मन से मौत का डर
सही है उच्च कुल और कथित उच्च जाति का कोई सम्पन्न व्यक्ति व्यभिचार करें, चोरी करें, भ्रष्ट आचरण में लिप्त हो, मिथ्याचारी हो तो उसका कर्म अविहित कर्म ही होगा और कोई गरीब व्यक्ति किसी भी कथित जाति का हो, सत्यवादी हो, ईमानदार हो, अव्यभिचारी हो, चरित्रवान हो तो वह सत्व प्रधान व्यक्ति कहा जाएगा और ईश्वर को प्रिय होगा। उसके कर्म विहित कर्म होंगे। यदि कोई मनुष्य दुष्टों की संगति में पड़कर अधर्म परायण हो जाए, अपनी इन्द्रियों के वश में होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दाने में कृपणता करने लगे, लम्पट हो जाए अथवा प्राणियों को सताने लगे और विधि-विरूद्ध पशुओं की बलि देकर भूत और प्रेतों की उपासना में लग जाए, तब वह पशुओं से भी गया-बीता हो जाता है। जितने भी सकाम और बहिर्मुख करने वाले कर्म हैं, उनका फल दु:ख ही है। ऐसी स्थिति में मृत्युधर्मा जीव को क्या सुख हो सकता है।

मृत्यु के बोध में ही उसका सुख है। थोड़ा समझ लें। मृत्यु एक ऐसा शब्द है जो भय उत्पन्न करता है लेकिन यह सबसे दृढ़ सत्य है जीवन का। जीवन के शेष सारे सत्य इसी के पीछे चलते हैं। मृत्यु तय है, इसे टाला नहीं जा सकता केवल इसकी गति को सुधारा जा सकता है। जीवन का एक-एक पल जो बीत रहा है यह हमारा मृत्यु की ओर बढ़ता कदम ही तो है। हम केवल इतना ही कर सकते हैं कि अपना कर्तव्य पूरी तरह से निभाएं फिर कोई भी स्थिति बने उससे डिगे नहीं। कर्तव्य स्वयं के प्रति हो, समाज के प्रति हो, परिवार के प्रति हो, राष्ट्र के प्रति हो या परमात्मा के प्रति, बस अपने कर्तव्य को निष्ठा और सत्य के साथ निभाते चलें। मृत्यु का भय दूर होता जाएगा। भागवत हमें यही सिखाती है।

जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु होती ही है। कोई दीर्घ आयु वाला है और कोई अल्प आयु वाला होता है। किसी की सुसमय मृत्यु होती है और किसी की अकाल मृत्यु। मृत्यु कैसे होगी, क्यों होगी, कहां होगी, कब होगी आदि प्रश्नों का उठना सहज है। मृत्यु का भय सब जीवों को होता है कारण यह कि मृत्यु सहज हो या असहज, यह होती बड़ी कष्टप्रद है। प्रत्येक जीव को इसका जन्म-जन्मात से कष्ट का अनुभव रहता आया है। इस पीड़ा को स्मरण कर भयातुर होना स्वाभाविक है।

जीव सनातन है, ईश्वर का अंश है किन्तु रूप, रस, गंध आदि के संसर्ग के कारण अपने अन्दर बसे प्राण तत्व से अनिभिज्ञ रहता है। प्राण तत्व से विलग हुआ जीव मृत्यु प्राप्त करता है। शरीर से अलग होता है। वह अपने किए हुए पुण्य अथवा पाप कर्मों से घिरा कर्मानुसार तीन स्थानों मृत्यु लोक, स्वर्ग लोक और नरक लोक में प्रवेश करता है।दिव्य प्रकाशयुक्त जो चन्द्रमण्डल, तारागण, सूर्य मण्डल है, वे पुण्य के स्थान हैं। लेकिन वहां भी संतोष नहीं होता। कारण यह कि अपने से अधिक तेज और ऐश्वर्य देखकर जीव भटकता है और वह आवागमन की लगी रहने वाली परम्परा में फिर जन्म ग्रहण करता है।

मोक्ष पाना है तो जरूरी है ये सीढिय़ां चढऩा

ज्ञान और भक्ति दोनों ही मोक्ष की सीढिय़ां हैं। ज्ञान के बिना भक्ति और धर्म का लोप होता है। व्यक्ति को व्यावहारिक ज्ञान हो न हो, परम्तत्व के प्रति उसका ज्ञान होना चाहिए। तभी तो भक्ति जागृत होती है। इसलिए भगवान ज्ञान योग और भक्ति योग दोनों पर ही जोर दे रहे हैं। कई लोग यह मानते हैं कि अनपढ़ आदमी भी भक्ति करे तो उसे मोक्ष नहीं मिल सकता, तो यह बात सिरे से खारिज की जानी चाहिए कि जो अनपढ़ है और भक्ति कर रहा है तो वह अनपढ़ हो ही नहीं सकता क्योंकि वह तो ब्रम्हतत्व को जानता है। उस परमात्मा को मानता है, उसकी शक्ति से परिचित है। ऐसा आदमी भले ही अक्षर-ज्ञान का ज्ञाता न हो लेकिन उसे अनपढ़ कभी नहीं कहा जा सकता।

रामकथा के प्रसंगों से सीखें। भक्ति का अभ्युदय स्वत: ईश्वर की कृपा से, गुरुकृपा से, आत्म-अभ्यास से होता है। भक्तिमति शबरी इसका उदाहरण है। शबरी एक तो स्त्री, दूसरी वनवासिनी-संतों का संग से ईश्वरीय अनुभूति कर सकी और इस योग्य बन गई कि ईश उससे शक्ति का पता पूछते हैं ''जनक सुता कई सुधि भामिनी। जानहि कहु करिवर गामिनी और वह आगे का पथ बताती है। ''पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहं होइहि सुग्रीव मिताई।। सो सब कहिहि देव रघुवीरा। जानत हूं पूछहु मति धीरा।। 16।।35 (अरण्य) यहां की भक्ति योग के पष्चात ज्ञान-योग में रामकथा के माध्यम से प्रवेश करने का प्रयास करते हैं। शबरी भक्ति योग और सुग्रीव के सचिव श्री हनुमत महाराज जो ''अतुलित बल धामं हेमशैलाम देहं, दनुजवन कृषानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्, सकल गुण निधानं वानराणामधीषं, रघुपति प्रिय भक्तं वातजात नमानि।।3।।अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत समान कान्ति युक्त देह वाले दैत्यरूपी वन के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के निधान वानरों के स्वामी श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी को मैं प्रणाम करता हूं।

ज्ञानियों में अग्रमान्य वही हो सकता है जो रघुनाथ के प्रिय भक्त हों। अर्थात् ज्ञान और भक्ति अनन्योन्यपरक है। एक-दूसरे के पूर्णरूपेण है तथा श्री हनुमत मिलन के पूर्व नारद मुनि ने अपने पूर्व इतिहास पर खेद प्रकाशित किया तो श्रीराम ने उत्पन्न मोह के अवगुणों का वर्णन करते हुए गुणों के घर संतों के लक्षण इस प्रकार प्रकाशित किए-संत काम, क्रोध, मोह, लोभ और मस्तर इन छ: विकारों को जीते हुए पाप रहित, कामना रहित, निष्चल, अकिंचन (सर्वत्यागी) बाहर भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान, इच्छारहित, मिताहारी, योगी, सावधान, दूसरों को मान देने वाले, अभिमान रहित, धैर्यवान, धर्म व ज्ञान के आचरण में निपुण संसार के दु:खों से रहित, संदेहों से रहित, न देह से, न घर से मोह, वे अपने कानों से गुण सुनने में संकोच करते हैं।

कबीर का ये फंडा अपनाकर जीएं तो जिंदगी का मजा हो जाएगा दोगुना
संत कबीर का यह दोहा याद आता है कि यह सब जीवन्त अवस्था में पाना है, मरने पर किसने देखा है, विवेक स्थिति में-जेहि मरने से जग डरे, मेने मन आनंद। कब मरिहों कब पाइहौं, परम परमानंद।।

साधक मृत्युसु भय से मुक्त परमानंद का अनुभव करता हुआ अपने हृदय में ईश्वरीय शक्ति के दर्शन बना अनुभव करता हुआ सदैव मगन रहता है। जगत की गति नहीं व्यापती-जेहि न व्यापे जगति गति....बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच ले और मन को बुद्धिरूप सारथी की सहायता से मुझमें ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अंग में क्यों न लगे। जब सारे शरीर का ध्यान होने लगे, तब अपने चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और अन्य अंगों का चिंतन न करके केवल मन्द-मन्द मुसकान की छटा से युक्त मेरे मुख का ही ध्यान करे।

यहां भगवान ने ध्यान को मुस्कान से जोड़ा है। इसलिए जीवन में कैसा भी अवसर हो जरा मुस्कुराइए...। मुस्कुराना अपने आपमें योग है। जो साधक इस प्रकार तीव्र ध्यान योग के द्वारा मुझमें ही अपने चित्त का संयम करता है, उसके चित्त से वस्तु की अनेकता, तत्संबंधी ज्ञान और उनकी प्राप्ति के लिए होने वाले कर्मों का भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है।

महाभारत में ध्यान योग के संदर्भ में पितामह ने कुण्डलिनी शक्ति जागरण की विधि का वर्णन इस प्रकार किया-जापक ब्राम्हण और राजा इक्ष्वाकु दोनों ने एक ही साथ अपने मन को सब विषयों से हटा लिया। मूलाधार चक्र से कुण्डलिनी को उठाकर (जाग्रत कर) प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान- इन पांच वायुओं को हृदय चक्र (अनाहृत चक्र) में स्थापित किया। फिर मन को प्राण और अपान के साथ मिलाकर नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि रखते हुए दोनों भौंहों के बीच आज्ञा चक्र में स्थापित किया। इस प्रकार मन को जीतकर दृष्टि को एकाग्र करके प्राण सहित मन को मूर्धा में स्थापित कर दिया और दोनों समाधि में स्थित हो गए। दोनों के ब्रम्हरन्ध्र से ज्योतिर्मय प्रकाश निकला और सीधा स्वर्ग की ओर चल दिया।

जब वह तेज ब्रम्हलोक में ब्रम्हाजी के पास पहुंचा तो ब्रम्हाजी ने कहा-ब्राम्हण देव योगियों को जो फल मिलता है वह जप करने वालों को भी मिलता है। बल्कि जप करने वालों को योगियों से भी उत्तम फल की प्राप्ति होती है।जप के महत्व को इसी से आंका जा सकता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत् गीता में कहा-यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि कि यज्ञों में, जप यज्ञ में मैं ही हूं। जप करते-करते जब एकाग्रता स्थापित होती है, तब ध्यान लगाने की प्रक्रिया स्वत: आरंभ हो जाती है, किंतु इस हेतु किसी महापुरुष या सद्गुरु की कृपा किवां अनुग्रह की आवश्यकता मार्गदर्शक के रूप में आवश्यक होती है।

ये एक आदत इंसान को राक्षस बना देती है क्योंकि...
वरदान आते ही अभिमान जाग्रत होता है। अभिमान असुर बना देता है फिर कितना ही बड़ा साधक क्यों न हो। अभिमान मायिक हो महामाया (सीता) का अपहरण करता है। फिर उसके परिवार के जन प्रमाद (कुंभकर्ण), क्रोध (मेघनाद) सकोप बोला घननादा मोह आदि अपने आप पनप जाते हैं

साधक को इनके साथ युद्ध करना पड़ता है। यह संघर्ष ही अध्यात्म पथ में बाधक तत्व हैं, जिनके साथ जूझते हुए आगे बढ़ते जाने पर ही विजय संभव है।इस पथ में जरा सी चूक भी बहुत भारी पड़ जाती है। व्यक्ति कई बार अच्छे कर्म करते-करते भी मोह में फंस जाता है। भक्त होकर भी सांसारिक मोह में उलझ जाता है। ऐसा करते समय वो खुद को फि र संसार से बांध लेता है। संसार से फिर बंधना यानी फिर से जन्म-मरण के चक्र में उलझना। एक बार फिर उसी पथ पर, उसी संघर्ष के लिए निकल पडऩा। जो अभी हम कर रहे हैं। बस अध्यात्म के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट ही यही है। हम मोक्ष के मार्ग से हट जाते हैं एक जरा सी चूक से। और हम जब इस राह पर होते हैं तो समस्याएं ज्यादा होती हैं। किसी के साथ इम्तिहान ज्यादा हो जाते हैं। जैसे परीक्षा में एक चूक पूरे साल की मेहनत पर पानी फेर देती है। ऐसे ही अध्यात्म के मार्ग पर चूक हमारी जीवनभर की मेहनत पर पानी फेर देती है।
रावण वध- मोह-मद का हनन है। आत्म तत्व के साथ शक्ति का जाग्रत हो मिलन होता है किंतु रामायण प्रसंग में सीता त्याग एक अद्भुत घटना है। आत्म तत्व एकमात्र रह जाता है। जीवनलीला समाप्त हो जाती है। क्या इससे कर्म पथ का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है कहें या जन्म जन्मांतर तक पुनरादि जन्मम्, पुनरादि मरणम् का अनन्त क्रम चलता रहता है। यह एक ऐसा विषद एवं महत्वपूर्ण विचार मंथन का विषय है कि कर्मों बंधन से साधक कब और कैसे मुक्त हो।

कर्म करते हुए साधक भक्त हो सकता है। तनिक भी चूक हो जाने पर भक्त को भी बार-बार जन्म लेने को बाध्य होना पड़ सकता है। वर्तमान जन्म से श्रेष्ठ जन्म मिल सकता है।भारतीय मनीषियों ने भागवत के माध्यम से जीवन दर्शन कराया कि ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न मनुष्य को कर्म करना है और कर्म के अनुसार उसके अच्छे व बुरे फलों को भोगना है। मनुष्य जीवन ही कर्म काटने के लिए होता है।

इसमें कर्म कटते हैं, कर्म संग्रह होते है और नए-नए कर्म नित्य उत्पन्न होते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने कि कर्म की व्याख्या की है। अर्जुन ने पूछा था ''किं तद्ब्रम्ह कि मध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। अर्थात हे पुरुषोत्तम! ब्रम्ह का स्वरूप क्या है? अध्यात्म क्या है और कर्म क्या है।विषय प्रतिपादन करना आसान नहीं अति दुष्कर है। अनुभव की सान पर चढ़े बिना व्यक्त नहीं किया जा सकता। कृपा साध्य विषय है।

ये करते जाएं तो सबकुछ अपने आप मिलता जाएगा
ब्रम्ह ने रावण का निर्माण किया, रावण से कर्म कराकर उसे शक्तिशाली बनाया। उसने शक्ति का गलत उपयोग किया, अभिमान युक्त हो उसने कर्म किए, फलत: निर्माता ब्रम्ह ने रावण का संहार करने के लिए राम का अवतार लिया। यह कर्म करने का ही प्रतिरूप है। जिसे भक्तों ने प्रभु की लीला कहा। विशाल दृष्टिकोण से देखा जाए तो राम भी वही, रावण भी वही, देव भी वही, दानव भी वही, मनुष्य भी वही, राक्षस भी वही किन्तु भेदात्मकता के आधार पर कर्म अलग-अलग हैं और उनकी फलाश्ऱुति भी एक नहीं होती है। यही सृष्टि के आधार पर कर्म अलग-अलग है और उनकी फलाश्रुति भी एक नहीं होती है। यही सृष्टि है, यही विश्व है-कर्म प्रधान विश्व करि रखा... कर्म प्रधान है। प्रधान के अनुसार सबकुछ निर्देशित होता है, क्रम चलता है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा- नमो पार्थास्ति कर्मकां निशु लोकेशु किंचन। नानव्याप्तवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।22।।13।।

अर्थात् - हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में कुछ भी करने को नहीं है। पाने योग्य कोई वस्तु पाई न हो ऐसी नहीं है तो भी मैं कर्म में लगा रहता हूं।

सूर्य, चंद्र, पृथ्वी इत्यादि की अविराम और अचूक गति ईश्वर के कर्म सूचित करती है। वे कर्म मानसिक नहीं किंतु शारीरिक गिने जा सकते हैं। ईश्वर निराकार होते हुए भी शारीरिक कर्म कैसे करता है, ऐसी शंका की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि अशरीर होने पर भी शरीर की तरह ही आचरण करता हुआ दिखाई देता है। इसलिए वह कर्म करते हुए भी अकर्म और अलिप्त है।

मनुष्य को समझना तो यह है कि जैसे ईश्वर की प्रत्येक कृति यंत्रवत कार्य करती है, वैसे ही मनुष्य को भी बुद्धिपूर्वक किन्तु यंत्र की भांति ही नियम से काम करना चाहिए। मनुष्य की विशेषता इसमें नहीं कि वह यंत्र की गति का अनादर करके स्वेच्छाचारी हो जाए, उसे चाहिए कि सूझबूझ से उस गति का अनुसरण करे। अलिप्त और असंग रहकर यंत्र की तरह कार्य करने से घिसता नहीं। वह मरने तक ताजा रहता है। देह के नियम के अनुसार देह समय पर नष्ट होती है, परन्तु अंदर का आत्मा ज्यों का त्यों ही रहता है।

इसीलिए कहते हैं ''संतोषी सदा सुखी''
सम्पूर्ण वेद वांग्मय को 121 अध्यायों या उपखण्डों में विभाजित किया- इनमें राजा से लेकर दारिद्रय भोग रहे लोगों के लिए उपदेशों का संग्रह है। राजा प्रजा का प्राण रक्षक हो, उसकी आर्थिक उन्नति में सहायक हो, दुष्टों का दमन करे तथा मित्रों का संवर्धन करे।

यह राजधर्म की स्पष्ट व्याख्या है, जिसे वेद से ग्रहण करने का श्रीराम को संकेत चार बटुकों के साथ दान-पथ-गमन से लिया जाना युक्ति संगत लगता है।ग्रंथ में संकेत है-दरिद्रता कर्म-सा हिंसा, अदानी, लाक्षणिक रूप में लेकर समुद्र पार जाने को कहा गया है। ईष्र्या निरसन, क्रोध-शमन, जुआ के दुष्परिणाम, पाप युक्त लक्ष्मी का त्याग आदि पालनीय है। सकारात्मक पक्षों में आत्म रक्षा, दीर्घ आयु की कामना, प्राण-प्रशंसा में प्राणतत्व की स्तुति की गई है।

''नमस्ते अस्त्वायते नमो अस्तु परायते, नमस्ते प्राणतिष्ठत आसीनायोत ते नम:।। -अर्थवेद 11/4/7 राम चूंकि वनवासी बन अपने वंश की प्रतिज्ञा पूरी करने तथा आततायियों के मुक्ति दिलाने की ओर अग्रसर है - सहज ही प्रकृति विभिन्न अंगों की देववत उपासना करना है, यह श्रेष्ठ कर्म है। वेदों में वायु, सूर्य, वरूण आदि की स्तुति है, स्पष्ट किया गया है।

एक रहस्य प्रगट होता है कि जिसने यह जगत बनाया, वह भी इसे नहीं जानता। यह रहस्य आज तक विद्यमान है।प्रिय, अप्रिय, स्वप्न, सुपुष्टि, बाधा, थकान, आनंद, हर्ष ये बहुत प्रपंच यह उग्र पुरुष क्यों ढोते हैं? पीड़ा, दरिद्रता, रोग, कुबुद्धि मनुष्य में कहां से आते हैं? रिद्धि, समृद्धि, हीनता और उत्थान कहां से आते हैं। अथर्व वेद- 10/2/9 और 10/12/10

मृत्यु कहां से आती है? अमरता कहां है?-''क:अस्मिन् सत्यम् क: अमृतम् कुत: मृत्युकृत: अमृत''इसको शरीर रूपी वस्त्र पहनाए, इसकी आयु की कल्पना किसने की? इसका निर्धारण किसने किया? इसमें शक्ति की स्थापना किसने की और इसमें वेग किसने किया? आदि रहस्य हमारे सामने इस भरद्वाज के संकेत से स्पष्ट होते हैं।जगत में जो कुछ भी है, सब में ईश्वर बसाने योग्य है। जगत की वस्तुओं को त्यागपूर्वक उपयोग करो, लोभ न करो। यह धन (सम्पदा) किसका है।

''ईश्वरास्यमिदं सर्वंयत्किं च जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुन्जी था मा गृथ: कस्य सिद्धनम।। -यजुर्वेद-40 यह मंत्र उपनिषद के ऋषियों का भी मूल मंत्र है। इसे गांधीजी ने अपनी प्रार्थना में प्रथम स्थान दिया। वास्तव में जगत में जो कुछ भी है वह किसी का नहीं, सिर्फ है तो ईश्वर का। यह उदात्त भावना, विशालता हृदय और मस्तिष्क की है। जिसने अपने को इसमें रचा-बसा दिया, उसने परम सुख, संतोष पा लिया - कहा भी गया है ''संतोषी सदा सुखी''।

जानिए, क्या है कृष्ण का मेडिटेशन फंडा?
भक्ति को समझाने के बाद अब भगवान ध्यान यानी मेडिटेशन पर अपने गहरे विचार व्यक्त करते हैं। इन दिनों ध्यान फैशन का विषय हो गया है। वैष्णव लोगों ने कर्मकाण्ड पर खूब ध्यान दिया है लेकिन वे ध्यान को केवल योगियों का विषय मानते रहे। देखिए भगवान ध्यान को भी भक्तों के लिए महत्वपूर्ण बता रहे हैं।उद्धवजी ने प्रभु से पूछा- हे भगवन! आप यह बतलाइए कि आपका किस रूप से, किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करें हम लोग।

भगवान कृष्ण बोले- भाई उद्धव! पहले आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाएं। हाथों को अपनी गोद में रख ले और दृष्टि अपनी नासिका के अग्र भाग पर जमावे। इसके बाद पूरक, कुंभक और रेचक तथा रेचक, कुंभक और पूरक- इन प्राणायामों के द्वारा नाडिय़ों का शोधन करे। प्रणायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए और उसके साथ-साथ इन्द्रियों को जीतने का भी अभ्यास करना चाहिए।

हृदय में कमल नालगत पतले सूत के समान ऊँकार का चिंतन करे, प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाए। प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ऊँकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे। ऐसा करने से एक महीने के अंदर ही प्राणवायु वश में हो जाता है। मेरा ऐसा स्वरूप ध्यान के लिए बड़ा ही मंगलमय है। मेरे अवयवों की गठन बड़ी ही सुडोल है। रोम-रोम से शांति टपकती है। मुखकमल अत्यंत प्रफुल्लित और सुंदर है। घुटनों तक लम्बी मनोहर चार भुजाएं हैं। बड़ी ही सुंदर और मनोहर गर्दन है। मरकतमणि के समान सुन्न्ग्धि कपोल है। मुख पर मंद-मंद मुसकान की अनोखी ही छटा है। दोनों ओर के कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं।

वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर तीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजी का चिन्ह वक्ष:स्थल पर दायें-बायें विराजमान है। हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा एवं पंख धारण किए हुए हैं। गले में कौस्तुभ मणि, अपने-अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद हैं। मेरा एक-एक अंग अत्यंत सुंदर एवं हृदयहारी है। मेरे इस रूप का ध्यान करना चाहिए और अपने मन को एक-एक अंग में लगाना चाहिए।इस चैतन्य अवस्था में साधक को शरीर और आत्मा के बीच भेदात्मक दृष्टि बनाए रखने में सहायता मिलती है। शरीर नष्ट होता है। आत्मा अमर है। वह चेतना बदलती रहती है। शरीर एक चोला है इसका वह जीवित अवस्था में अनुभव करता है।

इसलिए कहते हैं जैसा देखोगे वैसा ही सोचोगे...
शरीर को नौ द्वारों का पिंजरा कहा गया है। तामे पंछी मौन। जीव आत्मा उसमें पंछी है। प्रकाश दिखने से तात्पर्य है कि साधक की चेतनशक्ति क्रियाशील होती है। उस प्रकाष में वह जगत को ब्रम्हमय देखने लगता है। ज्ञान से तात्पर्य है ब्रम्ह विषयक ज्ञान। ब्रम्ह को जानना अत्यंत कठिन है। क्वचित ही कोई उसकी कृपा से उसको जानकर ज्ञानी बन पाता है। इस पथ पर चलने के लिए करुणामय ब्रम्ह या भगवान की अक्षुण्य कृपा चाहिए। वह अप्रकट है, दिखता नहीं, सुनाई नहीं देता किंतु प्रकृति-शक्ति के विभिन्न क्रिया कलापों के माध्यम से अपने को वह आभास करा देता है।

प्रकृति-शक्ति से वह कैसे आभासित हो? यह अनुभव सिद्ध महात्मा या संत गुरु रूप में जब अनुग्रह कर देते हैं तब संभव हो पाता है। जिससे साधक प्रकृति किंवा ईश्वरीय शक्ति का आभास करने में समर्थ हो सके।दूसरे, लोभ व चित्त की किसी विषय के लिए प्रवृत्ति, कर्मों का आरंभ, शांत न होने वाली तीव्र इच्छा- ये रजोगुण बढऩे के लक्षण हैं।। 12।।लोभ कई प्रकार का होता है। धन-सम्पत्ति, पद-वैभव, नाम-प्रशंसा आदि इसके ब्रह्य रूप हैं। इनके विषय में मन का चिंतन मनन भी परोक्ष लोभ है। कहा गया है-''लोभ पाप कर मूल...'' इस राजसिक वृत्ति को पाप से हटाना आवश्यक है, क्योंकि पाप करते हुए अध्यात्म पथ या ब्रम्ह मार्ग पर नहीं चला जा सकता।

वे कौन से कर्म हो सकते हैं कि लोभ सात्विकगुण में रूपांतरित हो जाए? संत तुलसीदासजी ने संकेत दिया है- कामहिं नारि पियारि जिमि, लोभी प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर हि: प्रिय लागहु मोहि राम।।अर्थात् भौतिक व सांसारिक लोभ को रामाभिमुख कर दिया जाए तो लोभ सात्विकता में परिणत हो जाएगा। दूसरे चित्त की विषय प्रवृत्ति मन द्वारा प्रेरित हो राग में प्रगट होने लगती है। जहां राग होता है वहा द्वेष अपने आप आ जाता है। चित्त को निर्विषय बनाना एक साधना है। निर्विषयी चित्त वालों का मन अभटकाव वाला हो जाता है, बुद्धि स्थिर हो जाती है। चित्त इन्द्रियों के माध्यम से विषयी होता है। इन्द्रियों के अपने विषय होते हैं।

आंखें अच्छा व सुंदर देखना चाहती हैं। वे कुत्सित दृश्य भी देखती हैं। तब तामसिक भाव मन में आता है। कान अच्छा-मधुर सुनना चाहते हैं किंतु उन्हें भी निंदा- स्तुति में आनंद आता है। कानों में हरिगुण, संत वचन यदि पहुंचे तो मन की वृत्ति में शुद्धता आ जाती है। मुख मधुर बोले, मधुर खान-पान करें, सात्विक उसका आहार हो तो वृत्ति को निर्विषयी बनाने में सहायता मिलती है। लेकिन रसना को संयम चाहिए, मुख से सत्य बोलना तप है। ''सांच बराबर तप नहीं... ''कहा गया है। हरि गुणगान भक्ति रूपी साधना है।

ऐसे पता चलेगा, कौन सा रास्ता सही है और कौन सा गलत?
ऋषि विश्वामित्र से संबंधित वर्णन श्रीराम के अठारहवीं पीढ़ी के पूर्वज सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र ऐतिहासिक आख्यायिकों में भी मिलता है। उन्होंने श्रीराम व लक्ष्मण को अनेक प्रकार की विद्या दी।

विद्या ऐसी दी जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो।चर्चाओं में ''कहते कथा इतिहास पुरानी... इतिहास के अनुभव से शिक्षा मिलती है कि भूलों को दोहराया न जावे और पालनीय कर्मों को करके आगे बढ़ा जावे। पूर्व अनुभवों की पुनरावृत्ति करने में समय न लगाया जाए, अगर उसमें उलझ गए तो आगे कैसे बढ़ा जावे।

तत्कालीन महान उद्देश्य था- अभिमानी असुरों को समाप्त करना। श्रीराम में इस दक्षता का अवलोकन किया गया। यह काम वृद्ध दशरथ व ज्ञानी जनक के बूते का नहीं था। फिर भी इन दोनों के बीच शक्ति-संचय के लिए सामंजस्य आवश्यक था। राम की भक्ति और विदेह कौशल जोड़कर महती कार्य संपादन की भूमिका तैयार की गई। सीता-राम विवाह करवाकर ऋषि विश्वामित्र ने बहुत बड़ा सामाजिक उपकार किया था।विद्या अध्ययन के दौरान राम के माध्यम से एक महत्वपूर्ण घटना घटित कराने में विश्वामित्र की बुद्धि-कौशल की जितनी सराहना की जाए उतनी कम है। गौतम ऋ षि वेद सूक्तों के दृष्टा थे। उन्होंने अपनी सती पत्नी अहिल्या को शाप देकर त्याग दिया था।

वे युगों से पत्थर मूर्ति हो उद्धार की प्रतीक्षा में साधना रत थीं। श्रीराम से चरण रज देकर ऋषि पत्नी के उद्धार की कामना की।'परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपकुंज सहीं।शोकनाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहिल्या प्रकट हो गई।''एहि भांति सिधारी गौतम नारी बार बार हरिचरन परी। जो अति मन भावा सो बरू पावा गै पति लोक आनंद भरी।। अर्थात्- बार-बार हरि चरणों में गिरकर वर को पाकर आनंद में भरी हुई पति लोक (गौतम के लोक) को चली गई।

श्रीराम का स्पर्ष अर्थात् सामाजिक मान्यता है कि बेकसूर नारी इन्द्र के छल के कारण क्यों प्रताडि़त होती रहे? पुन: पति द्वारा स्वीकार करने से बड़ा आनंददायक क्षण नारी के जीवन में दूसरा नहीं हो सकता। गौतम परम विद्वान ऋषि थे, किंतु सामाजिक स्वीकृति अर्थ-शून्य नहीं होती।इस प्रसंग में राम जितने महत्वपूर्ण हैं, विश्वामित्र भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। विश्वामित्र ही राम को इस नारी हित के कार्य की प्रेरणा दे रहे हैं। राजा के लिए एक गुरु का होना बहुत ही आवश्यक होता है। ऐसा गुरु न केवल आपको मार्गदर्शन देगा बल्कि वह यह भी जानता है कि किस कार्य से आपकी कीर्ति फैलेगी। वह आपको ऐसे ही कार्य करने के लिए प्रेरित करेगा। यह कार्य गुरु ही कर सकते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि आपकी कीर्ति किस काम से फैलेगी।

जानिए, हमारे सारे धर्मग्रंथ कहानियों के रूप में ही क्यों लिखे गए?
तीन प्रकार की शंका- ईश्वर है कि नहीं, जबकि स्वयं ईश्वर का अंश जीव होता है। दूसरे गुरु प्रदत्त शक्ति हैं कि नहीं और तीसरे, साधन सफल हो रहा है कि नहीं- है और नहीं के बीच अटका साधक सिद्ध गुरुओं के रहने के बाद भी त्रिशंकु वाली स्थिति में बना रहता है। भारतीय दर्शन की खूबी है कि अध्यात्म के गूढ़ तत्वों की कथाओं के माध्यम से व्याख्या की जाती है।

कथाओं के माध्यम से तत्व दर्शन स्थाई भाव वाला हो जाता है। कभी पुराना नहीं पड़ता।भारतीय ऋ षियों और मनीषियों ने बहुत चिंतन के बाद हमारे साहित्य में यह रूप दिया है। कथाएं कभी अप्रासंगिक नहीं होती हैं। कथाएं हमारे मन में जल्दी उतरती हैं। कभी-कभी कथाएं ही सारी बातें कह देती हैं। जीवन में कथाएं बहुत महत्व रखती हैं। शिक्षा को सीधे याद रखना मुश्किल होता है, लेकिन अगर उसी शिक्षा के सार को किसी कथा में बदल दिया जाए तो ज्यादा सरल और उसकी याद रखने की अवधि बढ़ जाती है।

इसलिए कहते हैं तब तक जीना तब तक सीना
भगवान हर किसी वस्तु में उपस्थित हैं। भगवान ऐसा इसलिए भी कहते हैं कि इस सृष्टि की हर चीज में उसी का अंश है। हम हर चीज का सम्मान करें। उसका संरक्षण करें। अगर संरक्षण का भाव, सम्मान का भाव होगा तो हमारी प्रकृति भी सुरक्षित रहेगी। हमारे मन में भी संवेदना का भाव रहेगा।

हमारे दिल में जब संवेदना होगी तो हमारे भीतर भक्ति, प्रेम, दया, करुणा, स्नेह, ममता जैसे मानवीय भाव मौजूद रहेंगे। भगवान इसलिए कहते हैं कि हर जगह मैं मौजूद हूं। हर किसी में मेरा अंश मौजूद है। इस भाव से ही हम भगवान को हर किसी प्राणी में रखेंगे। हर जगह भगवान का दर्शन करेंगे, हर किसी को आदर देंगे।

ज्ञानी परमात्मा अंतर्गुरु दृष्टा है। संसार में पाप कर्म करते हुए पापाचारी और शुभ कार्यों युक्त शुभाचारी कहलाने वाला, कामनाओं द्वारा इन्द्रिय सुख में परायण (आहुति न देने वाला अर्थात् त्याग न करने वाला) कामाचारी और इन्द्रिय संयम में प्रवृत रहने वाला ब्रम्हचारी कहलाता है। जो व्रत और कर्मों का त्याग करके ब्रम्ह में स्थित है और ब्रम्ह स्वरूप हो संसार में विचरता है वही ब्रम्हचारी है। ब्रम्ह ही उसकी समिधा, ब्रम्ह ही अग्नि (ज्ञानाग्नि) ब्रम्हमय हो उसमें लीन होने तक यज्ञ करता रहता है, फिर उस यज्ञ की पूर्णाहुति इस जन्म में हो या अगले जन्मों में यह हृदय स्थित आचार्य जाने।

यह जीवन यज्ञ ही आत्म-यज्ञ है। जिसमें चिन्मय ज्योतियां, प्रकाशित होती है। उत्कृष्ट आनंद प्रदान करती है। यश, प्रभा, ऐश्वर्य, विजय, सिद्धियां, तेज आत्मारूपी सूर्य की रश्मियां बन जीवन आलोकित करती है। गुरु के पथ- में इन रश्मियां में साधक उलझता नहीं सूर्य की भांति जीवात्मा अपनी अनन्त यात्रा अनन्त के साथ करता जाता है कि परमात्मा (आचार्य) का काम परमात्मा जाने। उसे तो शम (मनोनिग्रह) के अनुशासन या विधान का जीवन यज्ञ में पालन करते जाना है, जिसमें बुद्धि स्थिर रहे, उनकी स्थित प्रज्ञता की स्थिति बनी रहे और वह विचलित न हो।

चिंतन चलता रहे- मैं स्वयं न तो गंध सूंघता हूं, न रसों का स्वाद लेता हूं, न रूप देखता हूं, न स्पर्श करता हूं, न नाना प्रकार के शब्दों को सुनता हूं और न किसी प्रकार के संकल्प ही करता हूं। मेरे मन में न तो कामनाओं के प्रति राग है और न दोशों के प्रति द्वेष। यह चिंतन मनोविज्ञान की दृष्टि से यदि बार-बार किया जाए तो साधक का मन या चित्त निर्वकार बन सकता है। इसे इन्द्रियों के कर्म यज्ञ की संकल्प संज्ञा दी जा सकती है। किंतु इस संसार में जब तक मनुष्य जिंदा रहता है, उसे कर्म करते जाना है।

कहावत प्रसिद्ध है- तब तक जीना तब तक सीना। वह पूर्वज जैसा सदा से करते आए हैं, वैसा करते जाना अधिक सुविधाजनक समझता है। क्वचित् ही कोई नेत्र खोल पथ पर चलता है। सामान्यत: जो पूर्वजों, आचार्यों, मनीषियों आदि के बने बनाए पथ पर अंधे (विवेकशून्यता) की भांति पैर रगड़-रगड़ कर चलता है, वह मोह से मुक्त नहीं हो पाता। वह कर्म करता है लेकिन जानता नहीं कि कर्म क्या है। वह ही नहीं ज्ञानवान् लोग भी इस विषय में मोहित हैं, भ्रम में पड़े हुए हैं।

जब आस्था डगमगा जाए तो समझ जाओ कि....

हमारी आस्था जितनी गहरी होगी, मंत्रजप का फल भी उतना ही अधिक होगा। किसी भी परिस्थिति में हमारी आस्था को कोई हानि नहीं होनी चाहिए। अगर आस्था और विश्वास डगमगाने लगे तो फिर मंत्र का वो प्रभाव हम देख ही नहीं पाएंगे, न ही उसका कोई लाभ हमें नजर आएगा। इसलिए हमेशा सतर्क रहकर जप करें। किसी भी परिस्थिति से निपटने में मंत्र सहायक हो सकते हैं, लेकिन हमें इसके विश्वास को कायम रखना होगा। परमात्मा भी हमारी आस्था पर ही टिका है। जब तक आस्था है परमात्मा का अस्तित्व है, जिस दिन आस्था डगमगाई परमात्मा भी दिखाई देना, महसूस होना और उसका हमारे इर्द-गिर्द होने का आभास होना भी खत्म हो जाएगा। सारा संसार जड़वत, पत्थर हो जाएगा। भगवान इसलिए तंत्र जप केवल उच्चारण मात्र नहीं यह एक विशेष ज्ञानमय वैज्ञानिक है। मंत्रों में ऊँ को बीज स्वीकार किया जाता है। ''प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रम्हवारिनाम्।।

विधानोक्त सब क्रियाओं का सदा 'ऊँ कहकर ब्रम्हवादी आरंभ करते हैं। ऊँ तत्सत् कहकर ब्रम्हाजी ने वेद पुराण और ब्राम्हण ग्रंथ रचे। ऊँ से सब मंत्रों का आरंभ होता है, ब्रम्ह भावमय हो साधक उस सत् का मनन करते हुए मंत्र का मनन करे, चिंतन करे तब ही मंत्र पूर्णता को प्राप्त होता है।

महात्मा लोग सामान्यत: व्यक्त करते हैं कि मंत्र जितना छोटा हो उतना अधिक साधक के जपने में सरल होता है, यह एक व्यावहारिक तथ्य है। बड़े मंत्र में अर्थ की उलझन सामान्यत: हो जाया करती है और मन का भटकना गतिमान हो जाता है। मन को मंत्र बांधे रखे उतनी साधना उच्च स्तर की होती है। जप के लिए संभवत: ''माला''का विधान रचा गया है। माला के मन के मन में लगा रहे और यदि वह उड़े तो जहाज के पंछी के मानिन्द पुनि जहाज पर आ जावे।

जो ऐसे काम करते हैं उन्हें दुखों का सामना करना पड़ता है
शम, दम, तपस्या, पवित्रता, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, दया और सत्य ये ब्राम्हण वर्ण के स्वभाव हैं। तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राम्हणभक्ति और ऐश्वर्य ये क्षत्रिय वर्ण के स्वभाव हैं। आस्तिकता दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राम्हणों की सेवा करना और धनसंचय से संतुष्ट न होना ये वैश्य वर्ण के स्वभाव हैं।ब्राम्हण, गौ और देवताओं की निष्कपट भाव से सेवा करना और उसी से जो कुछ मिल जाए, उसमें संतुष्ट रहना ये शुद्र वर्ण के स्वभाव हैं।

अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोक की परवा न करना, झूठमूठ झगडऩा और काम, क्रोध एवं तृष्णा के वश में रहना ये अन्त्यजों के स्वभाव हैं।उद्धवजी! चारों वर्णों और चारों आश्रमों के लिए साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीर से किसी की हिंसा न करें, सत्य पर दृढ़ रहें, चोरी न करें, काम, क्रोध तथा लोभ से बचें और जिन कामों के करने से समस्त प्राणियों की प्रसन्नता और उनका भला हो, वही करें।यहां भगवान सभी वर्णों की पहचान उसे कर्म ही बता रहे हैं।योग दर्शन में भी कर्म को सूत्ररूप में वर्णित किया गया है - 'कर्माशुक्लाकृश्णं योगिनर-त्रिविधमितेशाम।। ''कैवल्यवाद-7

योगी के कर्म न शुक्ल होते हैं न ही कृष्ण जबकि अन्यों के तीन प्रकार के होते हैं। योगी की चित्त स्थिति अस्मिता में स्थित होती है। अस्मिता अहम् की शुद्धावस्था है जिसमें चित्त पर आत्म-प्रकाश स्पष्टतया प्रतिबिम्बित होता है।सभी कर्म केवल कर्म भावना से संपादित होते हैं। उनके संस्कार शुभ व अशुभ चित्त में संचित नहीं होते। यह सिद्ध अवस्था है- योगी जगत में रहते हुए भी सर्वबंधन मुक्त होता है। सामान्य संसारी जीवों की दशा इससे विपरीत होती है।

उनकी अस्मिता पहले अहंकार की सीमा तक नीचे उतर आती है तथा उसमें राग-द्वेष उत्पन्न हो जाता है। अस्मिता जब अभिमान का रूप ग्रहण करती है तब उसमें अशुभ, बुरे परहित विरोधी भाव उदय होते हैं। कभी शुभ, अच्छे तथा परहित, अनुकूल संकल्प उठते हैं तो कभी मिश्रित।कृष्ण कर्म- हिंसा, क्रोध, लोभादि से अभिभूत जितना अधिक कर्म करता जाता है उतना ही निम्न योनियों में जन्म ले दु:खों का अंबार ढोकर अनजान असीम स्थिति तक चलता रहता है। आजकल काले कारनामों की बड़ी महाभारत तैयार होती जा रही है। अशांति इसका फल है।

शुक्ल कर्म- अच्छे कर्मों की प्रवृत्ति से प्रेरित अहिंसा, परहित, जप-तप पुण्य कर्मों आदि का संचय करता है तथा उच्च योनियों में जन्म लेकर सुख भोगता है। किंतु आवागमन का चक्र नहीं टूटता क्योंकि अच्छे कर्म भी अभिमान और मोहयुक्त होते हैं।मिश्रित-कृष्ण-युक्त - कर्म कभी पुण्य कर्म कभी अशुभ कर्म करते व्यक्ति अपने कालक्रम को पूरा करता है। कभी सुख, कभी दु:ख जीवन का अंग बने रहते हैं।आगे व्याख्या में स्पष्ट किया गया है कि कर्मों के फल देने योग्य व्यवस्था के अनुसार ही, वैसी ही गुणवाली वासना उदय होती है।

भगवान भी कहते हैं गृहस्थी बसाओ और मुझे पाओ
यहां भागवत शिक्षा की व्यवस्था पर प्रकाश डाल रही है। गहराई से देखें तो शिक्षा और विद्या में यही फर्क है। आज शिक्षा बढ़ी है, विद्या नहीं। शिक्षक खूब मिल जाएंगे, गुरु नहीं मिलते।

मन, वाणी और शरीर का संयम- यह ब्रम्हचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी सभी के लिए एक सा नियम है।भाई उद्धव! यदि नैष्ठिक ब्रम्हचर्य ग्रहण करने की इच्छा न हो, गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता हो तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्य को दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन संस्कार करावे।

स्नातक बनकर ब्रम्हचर्याश्रम छोड़ दे। ब्रम्हचारी को चाहिए कि ब्रम्हचर्य आश्रम के बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करे। भगवान भी कहते हैं गृहस्थी बसाओ और मुझे पाओ।भगवान कहते हैं- प्रिय उद्धवजी! यदि ब्रम्हचर्याश्रम के बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रम्हचारी को चाहिए कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणों से सम्पन्न कुलीन कन्या से विवाह करे। राजा पिता के समान सारी प्रजा का कष्ट से उद्धार करे, उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजों की रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने आप से अपना उद्धार करे।

यदि ब्राम्हण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादि से अपनी जीविका न चला सके तो वैश्यवृत्ति का आश्रय ले ले और जब तक विपत्ति दूर न हो जाए, जब तक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्ति का सामना करना हो तो तलवार उठाकर क्षत्रियों की वृत्ति से भी अपना काम चला ले। इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदि के द्वारा अपने जीवन का निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापार आदि कर ले।

बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकार के द्वारा अथवा विद्यार्थियों को पढ़ाकर अपनी आपत्ति के दिन काट दे। वैश्य भी आपत्ति के समय शूद्रों की वृत्ति सेवा से अपना जीवन निर्वाह कर ले। गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीति से उपार्जित अपने शुद्ध धन से अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजन को किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाते हुए न्याय और विधि के साथ ही यज्ञ करें।

इस कहानी से समझे जीवन का सही अर्थ...
प्रभु दर्शन की दृष्टि चाहिए। हम उसके अणु से छोटे अंश सूर्य को देख नहीं सकते तो फिर उसे कैसे देख सकते हैं। अर्जुन ने दर्शन करने चाहे, भगवान ने भी दर्शन देने की तैयारी की, लेकिन वह दर्शन नहीं कर सका, जब तक कि भगवान ने कृपा करके उसको अपनी दृष्टि नहीं दी। इसीलिए भक्त भगवान से कुछ नहीं मांगता, उसकी कृपा उसे वह अहेतु हितैषी अपने आप दे देता है। यह अपने आप मिलने वाली कृपा के लिए भक्त क्या करे, बस समर्पण कर दे। तन्मय हो जाए साधना में।

साधना किस प्रकार करें? नारद भक्ति सूत्र, शाण्डिल्य भक्ति सूत्र, रामायण में भगवान के द्वारा शबरी को दिए गए नवभक्ति सूत्र भागवतीय सूत्र हैं जो साधना का स्वरूप बताते हैं। ये अपने आप में विषद विषय है। कोई एक आधार ले लिया जाए और चल पड़ा जाए। इन सबमें सरलतम लगता है, नि निरंतर हरिनाम लेना राम नाम लेना। शिव नाम लेना। अपने प्रिय भगवान को सदैव याद करना और याद रखना भक्ति है। इसका फल ही भगवत् दर्शन है। प्रिय को जानने का और तरीका नहीं शास्त्रों की व्याख्या पण्डितों का काम है।

श्रद्धा और विश्वास का आधार लिए बिना भक्ति अवतरित नहीं होती। पार्वती और शंकर ही भक्ति सुरसरि धारा को धारण कर सकते हैं। जो भागीरथ तपस्या के बाद ही प्राप्त हो सकती है। जो परम ब्रम्ह की चरणामृत है।अर्थात् भक्ति प्राप्त करके भक्त बनने के लिए पहले श्रद्धा-विश्वास जगाएं। यही शक्ति जागरण है। कुण्डलिनी जागरण, फिर इन्द्रिय निग्रह यम नियम द्वारा तप करके निश्चल निर्विकार बने भक्ति अवतरित होगी और तब भक्त बन भगवान के प्रिय बन उसकी कृपा पाई जा सकेगी और दु:ख का सागर उस कल्याणमय की कृपा से सहज ही पार किया जा सकेगा।

भागवत गृहस्थी का ग्रंथ है। इसमें लगभग जीवन के हर पक्ष को स्पर्श किया गया है। भगवान उद्धव को गृहस्थी के साथ-साथ वानप्रस्थ और संन्यास के भी धर्म बता रहे हैं। इसी के साथ कथा ग्यारहवें स्कंध के 18वें अध्याय में प्रवेश कर रही है। इन चर्चाओं में भागवत का ही नहीं, जीवन का भी सार सामने आ रहा है।भगवान कहते हैं-उद्धव! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में जाना चाहें तो अपनी पत्नी को पुत्रों के हाथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शांत चित्त से अपनी आयु का तीसरा भाग वन में ही रहकर व्यतीत करे।

भागवत में जो आचरण बताए हैं वे बहुत कठिन हैं, लेकिन देशकाल परिस्थिति के बदलाव के साथ एक बात समझ लें इसका सीधा अर्थ है संयम। वानप्रस्थ को चाहिए कि कौन सा पदार्थ कहां से लाना चाहिए, किस समय लाना चाहिए,कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं- इन बातों को जानकर अपने जीवन-निर्वाह के लिए स्वयं ही सब प्रकार के कन्दमूल फल आदि ले आवे। देशकाल आदि से अनभिज्ञ लोगों से लाएं हुए अथवा दूसरे समय के संचित पदार्थों को अपने काम में न ले। इसका अर्थ है भोजन संयम बनाए रखें।

अगर सुखी रहना चाहते हैं तो इससे बचकर रहें
उद्धव! आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक- इन तीन विकारों की समष्टिही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है। यह पहले नहीं था और अन्त में नहीं रहेगा, केवल बीच में ही दिख रहा है। इसलिए इसे जादू के खेल के समान माया ही समझनी चाहिए। इसके जो जन्मना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और नष्ट होना ये छ: भावविकार हैं। इनसे तुम्हारा कोई सम्बंध नहीं है। यहीं नहीं, ये विकार उसके भी नहीं हैं, क्योंकि वह स्वयं असत् है। असत् वस्तु तो पहले नहीं थी, बाद में भी नहीं रहेगी, इसलिए बीच में भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।

माया को समझना बहुत मुश्किल है। माया नित्य होकर भी न होने वाली वस्तु को कहते हैं। शरीर है भी और नहीं भी, जीवन है भी और नहीं भी। धन-सम्पत्ति है भी और नहीं भी। ऐसी हर वस्तु जो होकर भी नहीं है लेकिन उसके होने का एहसास हमें उससे जोड़ता है, उसके प्रति हमारा मोह बढ़ाता है और उसके न होने का एहसास हमें दुखी करता है, यही माया है। जिस व्यक्ति के मन पर किसी वस्तु के होने और न होने का कोई फर्क नहीं पड़ता वही माया से रहित और माया से मुक्त है।

भगवान को माया से रहित इसीलिए माना गया है कि वे न तो किसी के होने पर बहुत अधिक प्रसन्न होते हैं और कुछ न मिलने पर दुखी भी नहीं होते। हम हर तरफ से माया से घिरे हैं, घर, परिवार, बच्चे, बीवी, धन, सम्पत्ति, दुकानदारी, व्यवसाय। ये सब माया की तरह ही हैं, जो मौजूद भी हैं लेकिन नित्य नहीं है।माया बांधने का काम करती है। माया का अर्थ है माया, मा का अर्थ है नहीं है, या का अर्थ है यह। यानी माया का पूर्ण अर्थ हुआ यह नहीं है। माया में आदमी इस तरह बंध जाता है कि उसे कुछ भी भान नहीं रहता। बड़े-बड़े विद्वान और ऋ षि भी माया के जाल में फंस गए हैं। माया से बचकर रहने से ही जीवन सुखी रह सकता है।

क्यों नहीं लेना चाहते थे शुकदेवजी जन्म, क्या हुआ उनके जन्म के बाद?
महाभारत में कथा है कि भगवान वेद व्यास की पत्नी गर्भवती थी और शुकदेवजी ही उनके गर्भ में पल रहे थे। शुकदेवजी गर्भ से ही माया रहित थे, वे संसार के मोह में फंसना नहीं चाहते थे, सो बरसों तक गर्भ में पलते रहे। ऋषियों ने बहुत प्रयास किया कि वे संसार में आ जाएं लेकिन वे नहीं माने। उन्होंने कहा जब विष्णु अपनी माया को रोक दें तो ही वे संसार में आएंगे। एक पल से भी कम समय के लिए भगवान विष्णु ने अपनी माया को रोक लिया और शुकदेवजी गर्भ से निकलकर सीधे वन की ओर भागे। जैसे ही माया सक्रिय हुई, वेद व्यासजी पुत्र वियोग से व्यथित होकर उनके पीछे भागने लगे। वे ब्रह्मज्ञान के ज्ञाता होकर भी वे माया से मोहित होकर पुत्र के पीछे दौड़ पड़े।

दौड़ते-दौड़ते शुकदेवजी एक तालाब के किनारे से गुजरे, वहां कुछ युवतियां नहा रही थीं, शुकदेव को देखकर भी वे विचलित नहीं हुईं और नहाने में लगी रहीं। तभी थोड़ी देर बाद वहीं से वेद व्यास भी गुजरे, तो युवतियां अपने कपड़े संभालने लगीं। वेद व्यास ने आश्चर्य से पूछा कि तुम ये कैसा व्यवहार कर रही हो, एक युवक गुजरा तो तुम्हें कोई लाज महसूस नहीं हुई और मैं वृद्ध हूं, तुम्हारे पिता जैसा हूं, तुम मुझसे लाज कर रही हो, भाग रही हो।

युवतियों ने जवाब दिया महर्षि आपका पुत्र माया से मुक्त है, उसे संसार से कोई मोह नहीं है, हमें देखकर भी वो अनदेखा कर गया लेकिन आप उसके विपरित हैं, आपमें अभी भी मोह और माया है। आप अपने ब्रह्म तत्व के ज्ञाता पुत्र के पीछे भाग रहे हैं। आप खुद भी परमतत्व के ज्ञाता हैं। वेद व्यास को युवतियों की बात समझ में आ गई। उन्होंने शुकदेव का पीछा करना छोड़ दिया।कथा बताती है कि हम भले ही कितने ही धीर-गंभीर और ज्ञानी क्यों न हों, माया से कब घिर जाएंगे, पता नहीं चलेगा। सबसे पहले माया को समझना जरूरी है।

जिंदगी को समझने के लिए प्रेम करना जरूरी है क्योंकि...
भगवान ने अपनी माया से वृक्ष, रेंगने वाले जन्तु, पशु, पक्षी, डॉस और मछली आदि अनेक प्रकार की योनियों की रचना की, परंतु उनसे संतोष न हुआ, तब उन्होंने मनुष्य के शरीर की रचना की। उसमें ऐसी बुद्धि है कि वह ब्रम्ह साक्षात्कार कर सकता है। अन्य योनियों में यह संभव नहीं। यद्यपि मनुष्य शरीर है तो अनित्य ही, मृत्यु उसके पीछे लगी रहती है। परन्तु इससे परम पुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। पुरुषार्थ चार प्रकार के हैं-अर्थ, धर्म, काम व मोक्ष। इनमें परम पुरुषार्थ मोक्ष है।

अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि मृत्यु से पहले ही मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न कर ले। इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। अन्य पुरुषार्थ या योग तो अन्य योनियों में प्राप्त हो सकते हैं, किंतु मोक्ष नहीं।भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को यह उपदेश तो दिया ही उसी के साथ उन्होंने साधक के परम कर्तव्य की पद्धति भी समझाई। ''निष्काम भाव से अपने वर्ण, आश्रम और कुल के अनुसार सदाचार का अनुष्ठान करे तात्पर्य यह है कि वर्ण, आश्रम और कुल मनुष्य को पूर्व जन्मों के कर्मों के फल के रूप में मिलते हैं। इनके अनुसार कर्म करते रहने में सद्कर्मों में सतत्ता बनी रहती है। पूर्व जन्म की साधना इससे चलाए रखने में सहायता मिलती है और साधक की साधना आगे बढ़ती रहती है।

स्वधर्मों का पालन करने से शुद्ध हुए चित्त में यह विचार करे कि जगत के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श रूप आदि विषयों को सत्य समझकर उनकी प्राप्ति के लिए जो प्रयत्न करते हैं, उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले परन्तु मिलता है दु:ख। इससे यह विचार करना चाहिए कि सब स्वप्नवत है। अपने जीवन की पूर्णता पर भगवान उद्धव को अनेक सुंदर बातें समझा रहे हैं। इसी के साथ हम ग्यारहवें स्कंध के उन्नीसवें अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं।

श्रीकृष्ण कहते हैं- भाई उद्धव! ज्ञानी पुरुष का अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूं। उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूं। मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थ से वह प्रेम नहीं करता।

भागवत का संदेश ही है प्रेम करो। जिसने प्रेम का सही अर्थ जान लिया वह वासनाओं से आसानी से मुक्त हो जाएगा। जो परमात्मा से प्रेम करने का सही अर्थ जान जाएगा वह फिर परिवार के सदस्यों से भी प्रेम करेगा और यहीं से परिवारों में शांति आएगी। आज परिवारों से प्रेम खत्म होने के कारण ही परिवार बिखर रहे हैं। इसलिए मेरे प्यारे उद्धव! तुम ज्ञान सहित अपने आत्मस्वरूप को जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होकर भक्तिभाव से मेरा भजन करो।

क्यों दे दिया नारद ने अपने ही भगवान को शाप?
संसार सत्य भी है और असत्य भी। सत्य को हमें आध्यात्मिक दृष्टि से देखना होगा। सत्य क्या होता है। परिस्थितियों का वास्तविक दृश्य ही सत्य नहीं होता, हम जो देख रहे, सुन रहे, बोल रहे हैं वह सब सत्य है, ऐसा नहीं है। सत्य एक ऐसा पथ है जिस पर चलना न केवल मुश्किल है, बल्कि आम संसारी जीव के लिए तो कई बार नामुमकीन सा हो जाता है। केवल एक बार सत्य बोलने से कुछ नहीं होता, इसे दैनिक जीवन में उतारना पड़ता है।

जब बात संसार की हो तो यह तय करना और मुश्किल हो जाता है कि संसार सत्य है या असत्य। हमें यह सत्य दिखाई पड़ता है लेकिन अध्यात्म कहता है कि यह असत्य है।संसार माया है। इस माया में हम सब खोए हैं। जब तक इस संसार में रहेंगे, इस माया में बंधे रहेंगे, देह से संसार को देखेंगे। दैहिक नेत्रों पर विश्वास करेंगे तो संसार सत्य ही नजर आएगा। जब देह के नेत्र बंद होते हैं और आत्म के नेत्र खुलते हैं, अंतर्मन जागता है तो फिर संसार से बड़ा झूठ कोई भी नहीं लगता।रामायण की एक कथा संसार के सत्य और झूठ होने का सबसे बड़ा उदाहरण है। कथा है नारदऋषि ने कामदेव को हरा दिया तो उन्हें यह अभिमान हो गया कि मैंने हरि यानी विष्णुजी की माया को जीत लिया।

वे सारे लोगों में अपनी ही बढ़ाई करते फिर रहे थे। हकीकत यह थी कि विष्णुजी ने नारद के प्रेमवश उन्हें अपनी माया से दूर ही रखा था। नारद ने जब यह बात खुद विष्णु को बता दी। विष्णुजी को यह अनुभव हो गया कि नारद को अहंकार ने छू लिया है। उन्होंने थोड़ी देर के लिए नारद को भी अपनी माया में मोहित कर दिया। अब नारद की दशा बदल गई, जिस कामदेव को उन्होंने हरा दिया था, क्योंकि उस समय वे उसे अपनी ब्रम्हज्ञान वाले नेत्रों से देख रहे थे, आत्मा के नेत्रों से देख रहे थे।इसलिए उन्हें कामदेव के बाण भी मिथ्या लग रहे थे। अब उनके संसारी नेत्र खुले क्योंकि संसारी माया ने उन्हें अपने वश में कर लिया। एक नगर की राजकुमारी उन्हें भा गई।

ब्रम्हचारी ने गृहस्थी बसाने का निर्णय कर लिया। राजकुमारी को मोहित करने के लिए विष्णुजी से ही उनका स्वरूप भी मांग लिया। भगवान सिर्फ नारद का भ्रम दूर करना चाहते थे इसलिए वानर का वेष उन्हें दे दिया। नारद को राजकुमारी ने अस्वीकार कर दिया। नारद क्रोध से भर गए जिस नारायण को वे दिनरात जपते थे उसे ही शाप भी दे दिया। फिर विष्णु ने उन्हें अपनी माया से मुक्त किया तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया। जब व्यक्ति माया से, मोह से बंधा होता है तो वह संसार को ही सत्य मानता है। जब माया से छूटता है तो फिर परमात्मा के अलावा कोई भी सत्य नहीं लगता।

रावण क्यों नहीं समझ पाया कि राम भगवान हैं?
भगवान श्रीराम ने दोहरी लीला की। सीताजी को अग्नि में समाने को कहा- यदि ऐसा नहीं किया जाता तो रावण उन्हें छू भी नहीं सकता, पास आते ही भस्म हो जाता। रावण की मति को उसके अंतिम क्षण तक नहीं फेरा। वह किसी के समझाए नहीं समझा। अपने उद्देश्य भव तरऊँ तक लड़ा। तात्पर्य यह कि या तो भक्ति की शरण में सीधा जाया जाए, जैसे श्री हनुमानजी गए या रावण के समान छाया भक्ति को प्राप्त किया जाए। श्री हनुमानजी ने भी पहले पहल छाया भक्ति के ही दर्शन किए थे। शुद्ध निरामय भक्ति विरक्त जनकजी को प्राप्त हुई थी। हल चलाते हुए भूमि से प्रकट हो जानकी ने जनक को पिता रूप में वरण किया था। आध्यात्मिक दर्शन का यह बहुत ही सुंदर रूपक है।

निश्चल प्रेम स्वरूपा माँ की इससे महती कृपा क्या हो सकती है कि पिता रूप में स्वीकार करें। पिता पालन करते हैं और पति को सौंप देते हैं। यह विरक्त विदेह के द्वारा ही संभव है।सत्य (ब्रम्ह) प्रेम-अहिंसा का अद्भुत विवाह ही योग है। इसे अपने अंतर में साधक को अनुभव करते जाना है। इसे हम आनंद की संज्ञा दें तो साधक को सोपान पर चढऩे में सहायता मिलती जाती है। ऋषि पातंजल ने योग-सिद्धि के लिए यम-नियम का जो महत्व निरूपित किया, उसमें प्रथम युगल-'सत्य अहिंसा का ही है।

अहिंसक पद्धति से चलते हुए सत्य का अनुभव किया जा सकता है। अर्थात् ब्रम्ह-तत्व अनुभव किया जा सकता है। कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि क्या ब्रम्ह-ईश्वर के दर्शन किए जा सकते हैं? एक सिद्ध महात्मा का चर्चा में कथन था कि कलियुग में ईश्वर सीधे दर्शन नहीं देते, अपनी शक्ति या अस्तित्व का निश्चित आभास करा देते हैं। भगवत् गीता में भी इसकी पुष्टि होती है। अर्जुन भगवतीय स्वरूप को नहीं देख पाया, जब तक कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दृष्टि नहीं दी।

मीरा, सूर, तुलसी आदि भक्तों को प्रत्यक्ष ईश्वरीय शक्ति ने अपना आभास कराया। आज भी ऐसे महात्मा विद्यमान हैं किंतु जिन्हें खोज पाना कठिन है। हम कर्म-पथ पर चलते जाएं और मानते जाएं कि कभी तो दयामय की दया दृष्टि होगी।सियाराम मय संसार दिखे, तो वृत्ति परिवर्तन सहज और अवश्य है। इसका अनुभव ही क्रमश: आगे बढऩे का प्रमाण माना जा सकता है।

इन सब प्रक्रियाओं में दिशा-निर्देश का कार्य गुरु तत्व करता है। तत्व बाह्य हो या अंतर कोई फर्क नहीं पड़ता। सामान्यत: बाहरी गुरु तत्व का महत्व होता है, क्योंकि अंतर के गुरु तत्व का अनुभव एक बहुत ऊंची स्थिति है।गुरु निर्देश का एक दार्शनिक उदाहरण यहां लेना ठीक प्रतीत होता है। साधन तथा प्रसन्नचित्त सेवाकार्य करने के लिए चित्त की प्रसन्नता तथा संतुलित अवस्था आवश्यक है।

पैसा आता है तो दो चीजों को साथ लाता है जिनसे बचना जरूरी है
ईसा मसीह ने अपने पड़ौसी को प्यार करो का उपदेश करके और अपनी हत्या करने वालों को 'प्रभु इन्हें क्षमा करना, ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।अपने निर्मल चित्त की छबि जगत के सामने रखी। श्रीराम की छबि तो हमारे सामने आदर्श रूप में है ही। श्रीराम ने सत्य-पथ पर चलकर पितृ-वचन का पालन करके राज्य-त्याग का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया, स्वेच्छा से त्याग और तपस्या स्वीकार की।

चौदह वर्षीय त्याग और तपस्या की अवधि के अनुभवों में निशाद, गुह, शबरी आदि वनवासियों से अद्भुत आत्मिक प्रेम, वनचर वानरों- सुग्रीव मित्रता करके हनुमानजी से प्रति। उपकार न करने पर कृतज्ञता ज्ञापन देते हुए रिच्छराज जामवंत के अनुभवों का लाभ उठाते हुए, आसुरी अत्याचार युक्त हिंसक प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त की और रक्ष-श्रेष्ठ-सात्विक वृत्ति प्रधान विभीषण को लंका का राज्य प्रबंध सौंपा, स्वयं नहीं लिया।

श्रीराम के इस क्रियाकलाप से साधक को प्रेम, मैत्रीभाव, कृतज्ञता, अनुभव लाभ की प्रवृत्तियों को अपनाने की शिक्षा मिलती है।यही ऋषि भरद्वाज, वाल्मिकी, अत्री और अगस्त्य से ज्ञान प्राप्त करने से सीख मिलती है कि संत-संग की प्रक्रिया साथ-साथ चलती रहनी चाहिए, ताकि सत्य पथ पर सुचारू रूप से चला जा सके। पग-पग पर हम श्रीराम का त्याग पाते हैं। त्यागी ही सही अर्थ में योगी या साधक हो सकता है। श्रीमद्भगवत गीता में निषिद्ध कर्मों का त्याग तो बताया ही है।

(निषिद्ध कर्म होते हैं-चोरी, झूठ, छल-कपट, हिंसा, प्रमाद आदि) वहीं काम्य कर्म यथा यज्ञ, दान, तप उपासना आदि का सकाम भावना से न करने के त्यागने का निर्देश दिया गया है। प्रमादिक क्रियाकलापों का त्याग, अहं भावना का त्याग, वासना का त्याग आदि के लिए श्रीराम का जीवन चरित्र तथा उनसे जुड़े हुए पात्रों के चरित्रों में साधक अपने लिए उदाहरण स्थापित करते हुए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में अन्य साधकों सहित आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है।

एक और महत्वपूर्ण बात आज के युग के हिसाब से अर्थ का त्याग, इसके अभाव में भूल-दर-भूल होती जाती है। अर्थ कमाने में कई तरीके (सही या गलत दोनों) अपनाए जाते हैं। इससे दो परिवर्तन हुए हैं- मनुष्य संकुचित हो गया (लक्ष्मीपति विष्णु की विशालता मनुष्य में नहीं रही) दूसरे, मैं तथा मेरेपन का भाव गहरा घर कर गया है। सम्पन्नता आई नहीं कि प्रतिस्पर्धा, विरोध व शत्रुता का और प्रीत की रीत खो गई। संग्रह वृत्ति ने मेरेपन की मन:स्थिति को बहुत अधिक बलवान बनाकर लक्ष्य से भटकाने का उपक्रम किया है।

अगर सोच ली ये एक बात तो समस्याएं कभी नहीं सुलझेंगी
चंचलता का अर्थ है एकाग्रता का समय कम हो जाना। यह समय इतना कम हो जाता है कि हम उस एकाग्रता को एकाग्रता कहने में संकोच करने लगते हैं तथा चंचलता कहते हैं। वस्तुत: चंचलता में भी एकाग्रता तो होती ही है। हर वृत्ति किसी न किसी विषय पर एकाग्रता धारण करती है, किंतु वृत्ति बदल जाने पर, अगले ही क्षण उछल कर दूसरे विषय पर चली जाती है।मूलत: वृत्ति सत्वगुण प्रधान होने से स्वभावत: एकाग्रता है किंतु रजतम के आवरण से चंचल हो गई है, किंतु चंचलता में भी अपना स्वाभाविक एकाग्रता का स्वभाव का त्याग नहीं करती।

किसी न किसी विषय पर चाहे क्षण मात्र के लिए ही क्यों न हो, एकाग्र बनी ही रहती है। तो चंचलता का अर्थ है एकाग्रता का कम हो जाना। जैसे सर्दी क्या है? गर्मी का कम हो जाना। गर्मी तत्व है, ठण्डक तो कोई तत्व नहीं अथवा प्रकाश का न होना ही अंधकार है। जितना वृत्ति शीघ्रतापूर्वक विषय परिवर्तन करती है उतना ही वृत्ति अधिक चंचल गिनी जाती है।जैसे-जैसे हम भक्त उद्धवजी के साथ प्रश्न का उत्तर पाते-पाते परिपक्व हो रहे हैं वैसे-वैसे नए और गहरे प्रश्न सामने आते जा रहे हैं।

जीवन में प्रश्न और उनके उत्तर, समस्याएं और उनके समाधान होते रहना चाहिए।प्रश्न जिसे हम जिज्ञासा भी कहते हैं मानव जीवन से हमेशा ही जुड़ी रही है। हम प्रश्नों और समस्याओं से घिरे हैं। जो लोग जिज्ञासु हैं वे इनके समाधान खोजने में लगे रहते हैं। संसार की हर घटना में उन्हें जिज्ञासा महसूस होती है। वे जानना चाहते हैं, समाधान चाहते हैं। जिनके मन में हमेशा जिज्ञासाएं रहती हैं वे समाधान भी खोज ही लेते हैं। जैसे उद्धवजी भगवान की हर बात पर कोई जिज्ञासा खड़ी करते हैं और भगवान भी उनकी हर जिज्ञासा का समाधान भी करते हैं।

विद्वानों ने कहा है कि जिन लोगों के मन में जिज्ञासा का भाव नहीं है वे कभी ब्रम्हतत्व को नहीं समझ पाएंगे। संसार में रहेंगे और यहीं जन्म-मरण के बंधन में फंसे रहेंगे। अगर जिज्ञासा है तो ही ब्रम्हज्ञान और मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ा जा सकता है।जिज्ञासा को शांत करके ही मोक्ष के मार्ग पर बढ़ा जा सकता है। समस्याएं हैं तो समाधान भी होंगे। कोई समस्या बिना समाधान की नहीं हो सकती। समस्याएं जब भी आपको घेर लें तो सबसे पहले उसके सकारात्मक पक्ष को देखिए समस्या का समाधान आपको वहीं से मिलेगा। अगर समस्या को लेकर बैठ गए, यह मान लिया कि इसका निदान मुश्किल है तो फिर समस्या कभी सुलझेगी भी नहीं।

जानिए, जब न हो पूजा-पाठ के लिए टाइम तो क्या करें?
उद्धव! जब पुरुष दोषदर्शन के कारण कर्मों से उद्विग्न और विरक्त हो जाए, तब जितेन्द्रिय होकर वह योग में स्थित हो जाए और अभ्यास- आत्मानुसंधान के द्वारा अपना मन मुझ परमात्मा में निश्चल रूप से धारण करे। जब स्थिर करते समय मन चंचल होकर इधर-उधर भटकने लगे, तब झटपट बड़ी सावधानी से उसे मनाकर, समझा-बुझाकर, फुसलाकर अपने वष में कर ले। जैसे सवार घोड़े को अपने वष में करते समय उसे अपने मनोभाव की पहचान कराना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वष में कर लेता है, वैसे ही मन को फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुनाकर वष में कर लेना भी परम योग है। यह क्रम तब तक जारी रखना चाहिए, जब तक मन शान्त-स्थिर न हो जाए।

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योग मार्गों से, वस्तुतत्व का निरीक्षण-परीक्षण करने वाली आत्मविद्या से तथा मेरी प्रतिमा की उपासना से अर्थात कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग से मन परमात्मा का चिन्तन करने लगता है और कोई उपाय नहीं है। मन पर तो भागवत खूब बोली है। मन पर काबू ध्यान से ही होगा। लोग मेडिटेशन को योगियों का काम मानते हैं, परन्तु भागवत तो ग्रंथ ही ध्यान-योग का है। इसे पढऩा, सुनना अपने आप में एक ध्यान शिविर है। इस प्रकार मेरे बतलाए भक्ति योग के द्वारा निरन्तर मेरा भजन करने से मैं उस साधक के हृदय में आकर बैठ जाता है और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदय की सारी वासनाएं अपने संस्कारों के साथ नष्ट हो जाती हैं।

भगवान के इस संदेश में बड़ा गूढ़ संदेश छुपा है। जो आज की जीवनशैली में बड़ा काम आता है। भगवान कहते हैं मैं भक्त के हृदय में आ बैठता हूं। आज लोग अपने काम-काज में बहुत व्यस्त हैं, न मंदिर जाने का समय है, न कर्मकाण्ड का, परन्तु सारे काम करते हुए भी एक काम यह किया जा सकता है कि भगवान को हृदय में स्थान दें यह तो ऑफिस में, कामकाज पर, यात्रा करते हुए भी किया जा सकता है। संसार में रहते हुए संसार बनाने वाले से संबंध रखना इसी प्रकार संभव है। इसी का नाम जीवन प्रबंधन है।

जानिए, धर्मग्रंथों के अनुसार क्या धर्म है और क्या अधर्म?
उद्धवजी! इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मंत्र और कर्म- इन छहों के शुद्ध होने से धर्म और अशुद्ध होने से अधर्म होता है। क्या धर्म है क्या अधर्म, यह सवाल महाभारत युद्ध में कई बार उठा था। चलिए थोड़ा उस पर विचार करें। महाभारत का विकट विशाल युद्ध समाप्त हो चुका था। उस युद्ध में एक अरब, छियासठ करोड़ बीस हजार योद्धा (महाभारत स्त्री पर्व) मारे जा चुके थे और अनगिनत अज्ञात हो गए थे। महाराज ध्रतराष्ट्र दु:खियों में अति दु:खी थे। वृद्धावस्था में सौ पुत्रों को खोकर कौन धैर्य नहीं खो देगा।

महाभारत के पात्रों में महात्मा विदुर एक ऐसे पात्र थे जिनकी ज्ञान की गहराई को भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर कोई नहीं जान पाया था। धृतराष्ट्र को विपरीत मानसिक स्थिति में उन्होंने समझाते हुए कहा था- कुरुक्षेत्र! काल का न तो कोई प्रिय है और न अप्रिय और न उसका किसी के प्रति उदासीन भाव है। वह सभी को मृत्यु के पास खीचं कर ले जाता है। काल प्राणियों को बालक से युवा, युवा से बूढ़ा करता है। और वह ही उन्हें नष्ट कर देता है। जब सब जीव सो जाते हैं उस समय भी काल जागता रहता है।

यौवन, रूप, जीवन, धन, संग्रह, आरोग्य, प्रियजन का सहवास- ये सभी अनित्य हैं....।मनुष्य को चाहिए कि मानसिक दु:ख को विचार से और शारीरिक कष्ट को औषधियों से दूर करें। इसे ही विज्ञान बल कहते हैं...।मनुष्य का पूर्वकृत कर्म उसके सोने पर सो जाता है, उठने पर उठ बैठता है और भागने पर भी साथ लगा रहता है। वह जिस-जिस अवस्था में जैसा-जैसा शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसी-उसी अवस्था में उसका फल भी पा लेता है। वह स्वयं अपना बंधु व अपना शत्रु है। अपने कर्म का साक्षी है। शुभ कर्म से सुख पाता है और पाप कर्म से दु:ख भोगता है।

किन्तु ज्ञानवान मनुष्य भी संस्कारवश तद्नुसार कर्म करता रहता है, वह दैव-वश, प्रारब्ध-वश, परिस्थितिवश और लुप्त-ज्ञान वश काल प्रवाह में सही व गलत कार्य करता हुआ स्वयं दु:खी होता है और अपने स्नेहियों को दु:खी करता है। महान दु:ख धृतराष्ट्र को दुर्याधन के कारण उठ पड़ा। दुर्योधन ज्ञानी था वह जानता था कि कर्म फल से वह भी मुक्त नहीं। उसने व्यक्त किया था-मैं धर्म को जानता हूं परन्तु धर्मानुकूल पवित्र जीवन व्यतीत करना मेरे लिए संभव नहीं। मैं अधर्म को पहचानता हूं, परन्तु मैं पाप छोड़ नहीं सकता। मेरे अन्दर कोई बैठा है, वही सब कराता है। तो प्रश्न यह है कि क्या अन्तर्यामी सही या गलत कर्म कराता है? इस प्रश्न का उत्तर हम इस उदाहरण से पा सकते हैं-प्रकाश का काम दिखाना है-बुद्धि का काम विवेक का अच्छे बुरे का निर्णय करना है, विपरीत बुद्धि हमें विनाश की ओर ले जाएगी, गलत कार्य कराएगी, अन्तर्यामी प्रकाशस्वरूप है।

अपनी बुद्धि अर्थात मति-सुमति हो या कुमति यह निर्भर करता है कि हमारा संग क्या है? संग यदि कुसंग है तो सुबुद्धि होगी और कुसंग है तो कुबुद्धि होगी, काली होगी, बुद्धि प्रकाश में भी श्यामल दिखेगी।दुर्योधन का संग शकुनि का था और ज्ञानी के होने के बाद भी वह दुर्बुद्धि हुआ और वह विनाश की ओर सदैव बढ़ता गया।ईष्र्या उसकी सदैव संगिनी रही। विषम उसका साथी रहा। हम दुर्योधन वाली स्थिति में न पहुंचें और युधिष्ठिर वाली स्थिति में संघर्ष करते हुए जीवन के उतार-चढ़ाव में विजय पाएं तो आवश्यक है कि प्रेम को साथी बनाएं, आनंद को मित्र बनाएं अर्थात् सात्विक गुणों का विकास अपने अन्दर करें- फिर अन्तर्यामी हमें सही, धार्मिक, सदकर्म ही कराएगा।

अब अन्तर्यामी को अनुकूल कैसे बनाएं? प्रश्न सरल नहीं है। भगवत गीता में ईश्वर में मन लगाने की ओर स्पष्ट संकेत हैं, जिसके लिए निरन्तर वैराग्यवान अभ्यास करना होगा।मन की शुद्धि ध्यान से होती है, ध्यानावस्था में पहुंचने के लिए सतत् नाम लेना होता है अर्थात् जप करना होता है- भगवान जप स्वरूप है। मन बिना शद्ध हुए अन्तर्यामी के प्रकाश को देखने नहीं देता और बुद्धि को भ्रमित बनाए रखता है। ''कबिरा मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर। पाछे पाछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर।।

संगत ही तय करती है भविष्य क्योंकि....
महान दु:ख धृतराष्ट्र को दुर्याधन के कारण उठ पड़ा। दुर्योधन ज्ञानी था वह जानता था कि कर्म फल से वह भी मुक्त नहीं। उसने व्यक्त किया था-मैं धर्म को जानता हूं परन्तु धर्मानुकूल पवित्र जीवन व्यतीत करना मेरे लिए संभव नहीं। मैं अधर्म को पहचानता हूं, परन्तु मैं पाप छोड़ नहीं सकता। मेरे अन्दर कोई बैठा है, वही सब कराता है।तो प्रश्न यह है कि क्या अन्तर्यामी सही या गलत कर्म कराता है? इस प्रश्न का उत्तर हम इस उदाहरण से पा सकते हैं-प्रकाश का काम दिखाना है-बुद्धि का काम विवेक का अच्छे बुरे का निर्णय करना है, विपरीत बुद्धि हमें विनाष की ओर ले जाएगी, गलत कार्य कराएगी, अन्तर्यामी प्रकाश स्वरूप है।

अपनी बुद्धि अर्थात मति-सुमति हो या कुमति यह निर्भर करता है कि हमारा संग क्या है? संग यदि कुसंग है तो सुबुद्धि होगी और कुसंग है तो कुबुद्धि होगी, काली होगी, बुद्धि प्रकाश में भी श्यामल दिखेगी। दुर्योधन का संग शकुनि का था और ज्ञानी के होने के बाद भी वह दुर्बुद्धि हुआ और वह विनाश की ओर सदैव बढ़ता गया। ईष्र्या उसकी सदैव संगिनी रही। विषम उसका साथी रहा।हम दुर्योधन वाली स्थिति में न पहुंचें और युधिष्ठिर वाली स्थिति में संघर्ष करते हुए जीवन के उतार-चढ़ाव में विजय पाएं तो आवश्यक है कि प्रेम को साथी बनाएं, आनंद को मित्र बनाएं अर्थात् सात्विक गुणों का विकास अपने अन्दर करें- फिर अन्तर्यामी हमें सही, धार्मिक, सदकर्म ही कराएगा।

अब अन्तर्यामी को अनुकूल कैसे बनाएं? प्रश्न सरल नहीं है।भगवत गीता में ईश्वर में मन लगाने की ओर स्पष्ट संकेत हैं, जिसके लिए निरन्तर वैराग्यवान अभ्यास करना होगा। मन की षुद्धि ध्यान से होती है, ध्यानावस्था में पहुंचने के लिए सतत् नाम लेना होता है अर्थात् जप करना होता है- भगवान जप स्वरूप है। मन बिना शुद्ध हुए अन्तर्यामी के प्रकाश को देखने नहीं देता और बुद्धि को भ्रमित बनाए रखता है।''कबिरा मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर। पाछे पाछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर।।''निर्मल मन को हमें कई चरणों से गुजारना पड़ेगा, निर्मल मन वह नहीं होता जो कभी बुरा न सोचे, इसके भी कई गुण होते हैं। ऐसा मन जिसमें समभाव हो। जो न कभी दु:खी होता हो और न किसी को दु:खी करता हो। जिसमें न कोई अपेक्षा और न ही कोई उपेक्षा हो। किसी भी बात पर भ्रमित न रहे, न किसी को भ्रमित करे।

जिस मन में चिंतन संसार का न हो, संसार बनाने वाले का हो। ऐसा मन जो अपने कुछ हो उसमें ही संतुष्ट रहे, न कि लोभ और मोह में पड़े। ऐसा मन जिसमें अपनों के प्रति सांसारिक जिम्मेदारियों का बोध हो लेकिन वह केवल उन सांसारिक कर्मों में ही लिप्त न रहे। ऐसा मन निर्मल कहलाता है, जब उसमें आठों पहर परमात्मा का चिंतन हो फिर भले ही परमात्मा की बजाय व संसारी कर्मों में लिप्त रहे, अपनी जिम्मेदारी निभाता रहे, भगवान उसके पीछे ही दौडेंगे। जीवन भौतिक जीवन से अलग करना कठिन होता है।

हम तन को स्वस्थ रखना चाहते हैं-धन को कमाना चाहते हैं। दैनिक जीवन की आवश्यकता पूरी करने के लिए पराक्रमी होना चाहते हैं, बन्धु-बान्धवों के साथ मानसिक शान्ति चाहते हैं मातृवत-बुद्धि चाहते हैं, संतान सुख के साथ-साथ विग्रह विहीन जीवन जीने की आनन्द की चाह रहती है, स्त्री लाभ की सुखद कामना रहती है। इन सबके लिए पर्याप्त आयु चाहिए, भाग्य के बिना आयु कैसी और बिना पुण्य कार्य के भाग्य नहीं, पिता तुल्य कर्म करना पड़ता है तब कर्म प्रधान होता है, सद्कर्म से सुलभ-सुलाभ से सुफल है , आनन्द, मोह आदि ये जीवन के बारह पक्ष हैं जो भौतिकता से अति भौतिक या आध्यात्मिकता की ओर ले जाते हैं।

जब कोई आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार करें तो....
उद्धव! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु ये नौ अवस्थाएं शरीर की ही हैं। जैसे जौ-गेहूं आदि की फसल बोने पर उग आती है और पक जाने पर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटने का जानने वाला साक्षी है, वह उनसे सर्वथा पृथक है, वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओं का साक्षी है, वह शरीर से सर्वथा पृथक है। अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति और शरीर से आत्मा का विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्वत: अलग अनुभव नहीं करते और विषय भोग में सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसी में मोहित हो जाते हैं। इसी से उन्हें जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकना पड़ता है।

जब मनष्य किसी को नाचते-गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने- तान तोडऩे लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धि के गुणों को देखता है, तब स्वयं निष्क्रिय होने पर भी उसका अनुकरण करने के लिए बाध्य हो जाता है।भाई उद्धव! इसलिए इन दुष्ट (कभी तृप्त न होने वाली) इन्द्रियों से विषयों को मत भोगो। आत्मा के अज्ञान से प्रतीत होने वाला सांसारिक भेदभाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो।

असाधु पुरुष गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दें, वाणी द्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारें-पीटें, बांधें, आजीविका छीन लें, ऊपर थूक दे, लघुशंका कर दें अथवा तरह-तरह से विचलित करें, निष्ठा से डिगाने की चेष्टा करें, उनके किसी भी उपद्रव से क्षुब्ध न होना चाहिए, क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थ का तो पता ही नहीं है। अत: जो अपने कल्याण का इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयों से अपनी विवेकबुद्धि द्वारा ही किसी बाह्य साधन से नहीं, अपने को बचा लेना चाहिए। वस्तुत: आत्मदृष्टि ही समस्त विपत्तियों से बचने का एकमात्र साधन है।

यहां भगवान शरीर पर बड़ा सुंदर बोले हैं। आज शरीर पर टिकने का ही समय है। लोग देह से ही शुरू होते हैं और उसी पर अंत करते हैं। थोड़ा गहरा जाकर हम भी समझें।भगवान कृष्ण को 5085 वर्ष से अधिक वर्ष बीत गए। कौरव व पाण्डव कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर थे। एक जाति और एक वंश के वैमनस्य का दुष्परिणाम सारा समाज भुगतने जा रहा है। ऐसे में अर्जुन को दिया गया ज्ञानोपदेश आज भी हमारे लिए वह दीप-स्तम्भ है, जिसके कारण में हम भटककर चट्टानों से अपने जीवन रूपी जहाज को टकराकर नष्ट होने से बचा सकते हैं।

यही कारण है जल्दी परिवार और रिश्तों के बिखरने का?
इन्हीं विभक्ति तत्वों से मनुष्य का यह बाहरी और भीतरी (स्थूल व सूक्ष्म) देह बना है। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि गणित-शास्त्र की दृष्टि नौ का अंक पूर्ण होता है तथा आठ का अंक घटता जाता है।इसी प्रकार हमारे निर्माता आठ तत्व न स्वयं कालान्तर में महाकाल में विलीन हो जाएंगे, बल्कि हमारी काया को घटाते हुए उसी महाकाल को हमेशा-हमेशा के लिए सौंप देंगे। समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है और सबसे बड़ी इकाई सरकार या राज्य। इस छोटी इकाई का प्रमुख वृद्ध होता है। सम्भवत: उसका महत्व ऊपरी तौर पर बढ़ता जाता है और प्रमुखता माँ या दादी के हिस्से परिस्थितिवश आ जाए तो पारिवारिक जटिलता भौतिक दृष्टिकोण के कारण पैदा हो जाती है। यह विवेचन का प्रश्न इसलिए पैदा हुआ कि आज हम कलि-प्रभाव में आध्यात्मिक आचार-विचार से दूर होते जा रहे हैं।

वैसे कलि-प्रभाव अभी प्रारंभिक अवस्था में है-कलियुग और द्वापरयुग की सन्धि अभी चल रही है, फिर भी जो पारिवारिक विघटन, विग्रह और विनिमय दिखाई दे रहा है यह हमारे जीवन को न केवल विशाक्त बना रहे हैं बल्कि हमें अपने सुख से तेजी से जा रहे हैं और हम स्वयं के शत्रु बन बैठे हैं-''आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।। गीता 6/5जीवात्मा आप ही (तो) अपना मित्र है और आप ही आत्मा शत्रु है अर्थात् अन्य शत्रु या मित्र नहीं होता।

हम अपने व्यवहार से ऐसी स्थिति का निर्माण कर लेते हैं कि ''सियाराम मय सब जग के स्थान पर ''पराये मय सब जग बन जाता है और यदि पूछा जाए तो हमारा उत्तर होता है- 'हम क्या करें, हम तो हर प्रकार से झुकते हैं, समायोजन करते हैं, परन्तु सामने वाला इतना स्वार्थी है कि वह अपना ही अपना सोचता है और अपने ही अपने लिए कार्य करता है, जबकि हमने जीवनपर्यन्त उसके लिए या उनके लिए सर्वाधिक त्याग किया। यह उत्तर कई स्थितियों में सही होता है और यह स्थिति अनेक परिवारों में पाई जाती है, जिसमें वृद्ध या वृद्धा का महत्व या उपयोगिता शारीरिक, आर्थिक या स्वभावगत कारणों से क्षीण होता जा रहा है।

पैसों का सही उपयोग नहीं करोगे तो यही होगा हाल
जब लड़का किशोरावस्था में होता है तो माता-पिता की रोकटोक उसे बुरी लगती है। वह झल्ला जाता है। कई बच्चे तो घर तक छोड़ देते हैं। माता-पिता उसे दुश्मन लगते हैं। क्योंकि उसका मन आजाद पक्षी की तरह उडऩा चाहता है और मां-बाप की बातें उसे प्रतिबंध सी लगती हैं। वहीं बच्चा जब पालक की भूमिका में आता है तो खुद के बच्चे पर भी वही बातें लादता है जिसका कभी खुद उसी ने विरोध किया था। वाणी का यही प्रभाव होता है उसका असर एक सा होता है लेकिन मनोभाव बदलते ही वह मारक क्षमता वाला हो जाता है।

यहां भगवान ने उज्जैन को याद किया है। उज्जैन में प्रभु पढऩे भी गए थे। एक विवाह भी वहां की राजकुमारी से किया था। अब उदाहरण में भी उज्जैन को याद कर रहे हैं। भगवान भी कहते हैं कि अपने ससुराल को हमेशा याद करते रहना चाहिए। भागवत में गृहस्थी के अनेक सूत्र आते रहते हैं।

प्राचीन समय की बात है उज्जैन में एक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण ने खेती-व्यापार आदि करके बहुत सी धन, सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बात में आ जाया करता था।

उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियों को कभी मीठी बात से भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलाने की तो बात ही क्या है। उसकी कृपणता और बुरे स्वभाव के कारण उसके बेटे-बेटी, भाईबन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुखी रहते और मन ही मन उसका अनिष्ट चिंतन किया करते थे। कोई भी उसके मन को प्रिय लगने वाला काम नहीं करता था। अब तक धन टिका हुआ था- जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रम से इकट्ठा किया था, वह धन उसकी आंखों के सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया। उस नीच ब्राह्मण का कुछ धन तो उसके कुटुम्बियों ने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गए।

समझ लें इसे क्योंकि बस यही असली आध्यात्म है...
एक क्षण ऐसा आता है जब सारे भार को कम करने ईश्वर स्वयं आ उपस्थित हो साधक को अपने में विलीन कर लेते हैं। यह स्थिति तब बनती है जब सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रजं वाली आज्ञा का सही अर्थ में साधक, भक्त, ज्ञानी या और कोई सतत् पालन करने का प्रयत्न करके अपने जीवन का गंतव्य समझ सोपान दर सोपान चढऩे लगता है। इसे ईश्वर प्रणिधान की संज्ञा ऋषि-मुनियों, योगियों, तत्वदर्शियों आदि ने दी है।भगवान श्रीकृष्ण अपने देवलोकगमन के पूर्व उद्धवजी को अद्भुत ज्ञान दे रहे हैं।

वे अब सांख्य योग पर चर्चा करते हैं। हमें अपने भीतर की स्थितियों का भी ज्ञान होना चाहिए। हमारा व्यक्तित्व जिन तत्व से संचालित होता है। उसको सूक्ष्म तरीके से समझाया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-भाई उद्धव! अब तुम्हें सांख्य शास्त्र का निर्णय सुनाता हूं। इसमें संदेह नहीं कि ब्रम्ह में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल अद्वितीय सत्य है, मन और वाणी की उसमें गति नहीं है।वह ब्रम्ह ही माया और उसमें प्रतिबिम्ब जीव के रूप में दृश्य और द्रष्टा के रूप में, दो भागों में विभक्त सा हो गया। उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत् में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं। मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया। तब उससे सत्व, रज और तम - ये तीन गुण प्रकट हुए।

उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्ति प्रधान महत्तत्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्व में विकार होने पर अहंकार व्यक्त हुआ। यह अहंकार ही जीवों को मोह में डालने वाला है। वह तीन प्रकार का है-सात्विक, राजस और तामस। अहंकार पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और मन का कारण है, इसलिए वह जड़-चेतन-उभयात्मक है। अहंकार को केवल घमण्ड न मान लिया जाए। इसको सूक्ष्मता से समझना चाहिए।अहंकार का उद्घोश शब्द मैं प्रयुक्त हो सकता है। सोऽहं के उच्चारण को इस अक्षर मैं को यदि लिया जाए तो यह ब्रम्ह बोधक होगा, अक्षर ब्रम्ह ही है। जिसका क्षरण न हो व अक्षर, शेष सारे जीवन वैभव क्षर है। सृष्टि क्षर है। सृष्टि क्रम में अहंकार निहित है। इसकी रचना के पूर्व समस्त आत्माओं की आत्मा एक पूर्ण परमात्मा थे, तब न दृष्टा थे और दृश्य था। माया का प्रादुर्भाव हुआ।

माया की व्याख्या इस प्रकार है-मा नहीं या जो अर्थात् ब्रम्ह नहीं है अथवा जिसकी स्वत: कोई सत्ता नहीं है। यह अर्थ ठीक है कि जो ईश्वर से तो आई है, परंतु ईश्वर से भिन्न गुण वाली है, अर्थात् ईश्वर का ज्ञान बंधन मुक्त करता है और माया बंधन युक्त करती है। ईश्वर से अद्भुत उसकी माया चेतन प्रकाशमयी होनी चाहिए। तस्य भासा सर्वमिदं विभाती है - यह सबकुछ उस परमात्मा से प्रकाशित हो रहा है, परंतु वह अपने स्वामी के मुख पर पर्दा डाल देती है।माया का काल, कला, नियति, इनके ज्ञान और राग इन पंच विध सीमाओं से सिमित होकर अंशी जीव का रूप धारण कर लेता है। भगवान की यह माया उन्हीं के शब्दों में ''दैवी ह्येशा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपधन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। 14/7

मेरी यह तीन गुणों वाली माया से तरना कठिन है पर जो मेरी ही शरण लेते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं। सारी सृष्टि माया का रूप है, इसमें तरने के लिए शरणागति उपाय है। हम इसे अध्यात्म का सार कहें तो उपयुक्त होगा। इसी क्रम में गीताकार ने स्पष्ट किया है कि जो शरण में नहीं जाते या जा सकते हैं वे आसुरी भाव वाले मूढ़ हैं- भजन शरणागति का व्यावहारिक स्वरूप माना जाना ठीक लगता है। चार प्रकार के भजनार्थी श्रीकृष्ण भगवान ने बताए-दु:खी, जिज्ञासु, कुछ प्राप्त करने वाले (अर्थाथी) और ज्ञानी। इनमें समभाव से भजने वाले ज्ञानी श्रेष्ठ को माना गया है। ज्ञानी कई जन्मों के अंत में भगवान को पाता है, सब वासुदेवमय है, ऐसा जानने वाला ज्ञानी महात्मा सुदुर्लभ होता है।

अगर ऐसे जिंदगी बिता रहे हैं तो आप भ्रम में हैं क्योंकि....
संसार और माया, दोनों शब्द कभी एक-दूसरे से बिलकुल अलग तो कभी एक दूसरे के विकल्प नजर आते हैं। कुछ विद्वान इस संसार को ही माया कहते हैं, तो कुछ कहते हैं कि यह संसार पूरी तरह परमात्मा की माया से घिरा हुआ है। संसारी जीव के लिए यह तय करना कठिन है कि वह इस दुनिया को समझे कैसे। उसके लिए तो यही सत्य भी है, यही माया भी। संसार और माया के बीच बहुत बारिक सी लकीर है जो इन दोनों को पूरी तरह अलग भी करती है और अगर गौर से न देखा जाए तो दोनों को एक भी दिखाती है। इस लकीर का नाम है ज्ञान, विवेक। अगर हमारे भीतर ज्ञान और विवेक जागृत है तो फिर हम संसार और माया में फर्क भी कर सकते हैं और परमात्मा को पाने के जतन भी कर सकते हैं। जिनके भीतर ज्ञान का प्रकाश नहीं होता वे लोग अक्सर अपना जीवन भ्रम में ही गुजार देते हैं।

वास्तव में देखा जाए तो संसार भ्रम और माया भी है, संसार सत्य भी है। इसके अंतर को अच्छे से समझा जाए। जब हम संसार में जीते हैं, परिवार में रहते हैं, समाज में समय बिताते हैं तो ये सब सत्य लगता है। आदमी पारिवारिक और सामाजिक जीवन में इतना उलझ जाता है कि वह परमात्मा, परमशक्ति से दूर हो जाता है। जो लोग इस संसार को ही पूरी तरह अपना मान लेते हैं, उनके लिए संसार सारी उम्र सत्य जैसा ही लगता है लेकिन जब अंतिम समय पास आता है तो फिर यह संसार मिथ्या लगने लगता है। ऐसे समय कुछ लोग कुछ सवाल उठाते हैं कि क्या पारिवारिक जिम्मेदारियां न उठाई जाएं, समाज से दूर हो जाएं, काम करना बंद कर दें, कहीं जंगल में चले जाएं? ये सब विवेकशून्यता की निशानियां हैं, व्यक्ति अपने कर्तव्य को समझ ही नहीं पाया यह साफ हो जाता है।

जो ज्ञानी है, जिसके भीतर विवेक जागृत है वो कभी ऐसी बातें नहीं करता। उसके लिए संसार और माया का फर्क हमेशा रहता है। इसे कैसे समझें। सीधा तरीका है संसार में रहें, समाज में रहें, परिवार की जिम्मेदारियां भी उठाएं, सामाजिक भूमिका का निर्वाह भी करें लेकिन इसके केंद्र में संसार नहीं हो, इन सब कामों के केंद्र में भगवान हो, परमात्मा हो, तो फिर संसार कभी भी माया नहीं लगेगा। हर काम को यह सोचकर करें कि इसे परमात्मा की प्राप्ति के लिए कर रहे हैं। जो मिल रहा है, वह परमात्मा का दिया हुआ है, जो छिन रहा है वह भी परमात्मा ही वापस ले रहा है। लेकिन यह सब व्यवहार में लाना आसान नहीं है। इसके लिए बहुत कोशिशें लगती हैं। अभ्यास करना पड़ता है। तभी संसार और माया दोनों को समझा जा सकता है।

बस ये एक बात समझ लें सफल जिंदगी का राज इसी में है...
नानक देवजी की उक्ति के अनुसार सारे संसार में राम को रमते देख कर्म करते हुए जीवन यापन करना कर्म की कुशलता है। एक उदाहरण हमें इस दिशा मेंनिदेशन देता है-जाजालि एक ऋषि था। उसने समुद्र तट पर बड़ी तपस्या की। उसकी जटा में पक्षियों ने घोंसला बनाया। उसे सिद्धियां प्राप्त हुईं। वह वरदान देने तथा श्राप देने में समर्थ हो गया।

एक दिन एक चिडिय़ा ने उसके ऊपर कीट कर दी, उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिडिय़ा को देखा, चिडिय़ा जल गई। उसे प्रसन्नता हुई लेकिन आकाशवाणी अन्तर्मन की ध्वनि हुई मेरी तपस्या निरर्थक है। काशी निवासी तुलाधार का तप ही सच्चा तप है। उसके पास जा और उससे शिक्षा प्राप्त कर। जाजालि काशी पहुंचा। तुलाधार के घर गया। तुलाधार अपने व्यापारिक कार्य में लगा हुआ था। जाजालि को देखते ही परिचित की भांति बोला- आइए! पधारिए, जाजालि ऋषि आपका स्वागत है और जो कुछ जाजालि के साथ व्यतीत हुआ सम्पूर्ण वृतान्त ऐसे सुनाया मानो वह स्वयं उस घटना के समय उपस्थित हो।

ऋषि को अद्भुत लगा। बड़ा आश्चर्य हुआ कि सम्पूर्ण भौतिक कर्म करते हुए यह सर्वज्ञाता कैसे हो गया। जाजालि के भ्रम को दूर करने की दृष्टि से तुलाधार ने प्रेम से कहा-महात्मा! मैं केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए अपने प्रभु-प्रदत्त कत्र्तव्य कर्म का पालन करता हूं, उनकी इच्छा में प्रसन्न रहता हूं। मैं तो उनका आज्ञाकारी माली बनकर उनके उपवन में काम करता हूं। मेरे जीवन का व्रत है सबका हित करना व चाहना। अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करता हूं।

माता-पिता की भक्तिपूर्वक सेवा करता हूं। सदाचार, सद्विचार, संतोष व शांति ही मेरा जीवन है, यही मेरा तप है। इसलिए भगवान की कृपा है। तुलाधार के यहां एक पिंजरे में दो पक्षी के बच्चे थे, उनकी ओर संकेत करके वह बोले-महात्मन! ये वे ही पक्षी के बच्चे हैं जो आपकी जटा में समुद्र तट पैदा हुए थे। भगवत् कृपा से इन्हें ज्ञान हो गया है। पक्षी ऋषि जाजालि से प्रसन्न होकर कहने लगे-रागी-अज्ञानियों को वन में भी अनेक प्रकार के अहंकार, क्रोध आदि दोष उत्पन्न हो जाता है। परंतु गृह में रहता हुआ जो व्यक्ति विषयों के राग का निवारण कर इन्द्रियों का निग्रह करता है-इन्द्रियों को विषय की ओर नहीं जाने देता, यही उसका भारी तप है और जो भगवान की प्रसन्नता के लिए निमित्त हो कर्म करता है, उसके सभी कर्म पवित्र रहते हैं और उसका राग रहित घर ही तपोवन बन जाता है।

वनेपि दोशा: प्रभवन्ति रागिणां, गृहेपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तप:।

अकुत्सिते कमर्णि य: प्रवर्तते, निवृत्त रागास्य गृहं तपोवनम्।।

इस सद्वृत्ति के लिए मन: स्थिति को महाकाल के आधीन करके आनन्दमय जीवन बिताना शक्य होता है। महाकाल और सदाशिव एक ही है। संसार के उतार-चढ़ाव में सम बुद्धि प्राप्ति का एकमात्र उपाय भवगत समर्पण है। यह समर्पण उसकी कृपा के बिना संभव नहीं, उसकी कृपा के लिए उसी को पुकारें।

धर्म की नजर से: कैसा होना चाहिए परिवार का महौल?
व्यावहारिक रूप में जिस व्यक्ति के माध्यम से शक्ति कार्य करती है, उसे गुरु कहा जाता है, किन्तु वास्तव में गुरु व्यक्ति नहीं ईश्वर है। या ईश्वर द्वारा प्रदत्त शक्ति सम्पन्न अवतार है। रामावतार में श्रीराम ने लक्ष्मण को, हनुमानजी को, शबरी को गुरु रूप में उपदेश दिया, वही शिव ने किया। कृष्णावतार में अर्जुन, उद्धव गुरु उपदेशों से लाभान्वित हुए। भगवान कृष्ण की स्तुति में 'कृष्णं वन्दे जगत् गुरुम कहकर उन्हें सम्बोधित किया ही जाता है। अत: गुरु रूप में व्यक्ति ईश्वरावतार कहा जा सकता है। साधक अपनी साधना तथा ईश्वर (गुरु) कृपा से नाम जपते-जपते उसके अर्थ तक गहरा उतर जाता है।

'तस्य वाचक प्रणव.... प्रणव है नाम जिसका तथा नाम है प्रणव जिसका। प्रणव के अलावा राम, कृष्ण, विष्णु, हरि, शिव, गॉड, अल्लाह या जो भी नाम संस्कारवश मिल जाए उसका जप सतत तेल धारावत् होने लगता है। प्राणशक्ति का चित्त से व मन से तादात्म्य त्यागकर आत्मा में लय हो जाता है। नाम जप व हरि स्मरण मुक्ति का माध्यम बन जाता है और साधक मुक्ति की सिद्धावस्था में स्थित हो आगे और आगे या ऊपर और ऊपर बढ़ता हुआ, उठता हुआ अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होने लगता है। यह वर्तमान जन्म में या आगे के जन्मों में सम्भव होता है। निर्भर करता है कि साधना की गति कितनी तीव्र है। गृहस्थी में परिवार के सदस्यों को साधक वृत्ति रखना चाहिए।

परिवार के साथ भी परमात्मा में लीन रहा जा सकता है। परिवार भी एक तरह की तपोस्थली ही है। हमें केवल इसे व्यवहार में लाना होगा। परिवार के केंद्र में परमात्मा को रख लें, हर काम यह मानकर किया जाए कि परमात्मा का दिया काम है, परमात्मा की प्राप्ति के लिए किया जा रहा काम है। परिवार में बातचीत का आधार भी धन, सम्पत्ति या रिश्ते न होकर ज्ञान, गुण, वैराग्य और भक्ति होना चाहिए। रामायण में इसका एक सुंदर उदाहरण भी है, जब परिवार के सदस्य आपस में बातचीत करें तो उनका आधार क्या हो, उनके बीच बातचीत कैसी हो, किस विषय पर बात हो। राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में ऐसी ही बात कर रहे हैं। राम, सीता और लक्ष्मण को ज्ञान, भक्ति, गुण और वैराग्य का महत्व समझा रहे हैं। ऐसे माहौल में परिवार स्वत: परमात्मामय हो जाएगा। आपको कभी इसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयास भी नहीं करना होंगे।

बरबादी से बचना है तो ये एक बात हमेशा याद रखें
अब भगवान और उद्धव का वार्तालाप ग्यारहवें स्कंध के छब्बीसवें अध्याय में प्रवेश कर रहा है। मनुष्य शरीर का महत्व और उद्देश्य बताते हुए भगवान प्रश्नों के उत्तरों का सिलसिला आरंभ करते हैं।भगवान कहते हैं- उद्धवजी! यह मनुष्य शरीर मेरे स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति का मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है, वह अन्त:करण में स्थित मुझ आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। सत्व-रज आदि गुण जो दिख रहे हैं वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं।

ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष उनके बीच में रहने पर भी उनके द्वारा व्यवहार करने पर भी उनसे बंधता नहीं।इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग विषयों के सेवन और उदरपोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषों का संग कभी न करें, क्योंकि उनका अनुगमन करने वाले पुरुष की वैसी ही दुर्दुशा होती है, जैसे अंधे के सहारे चलने वाले अंधे की। उसे तो घोर अंधकार में ही भटकना पड़ता है।इसलिए आज के जमाने में आप अपने संग को लेकर बहुत सावधान रहें। हम अपने पहनावे, खानपान को लेकर तो विचार करते हैं, पर हम किन लोगों के साथ उठ-बैठ रहे हैं इस पर ध्यान नहीं देते। जो लोग हमारे जीवन में हैं उनके आचरण का सीधा असर हम पर पड़ेगा ही। इसलिए अपने संग के प्रति अतिरिक्त रूप से जागरूक रहें।

आज प्रबंधन के युग में चौबीस घण्टे हमें अच्छे और बुरे लोगों से मिलना पड़ता है। कई लोग अपना स्वार्थ साधने के लिए हमसे संबंध बना लेते हैं। हो सकता है हम भी अपना स्वार्थ साधने के लिए उनसे संपर्क रखते हों। लेकिन भागवत का भक्त इस बात के लिए सचेत रहे कि व्यावहारिक और सांसारिक संपर्कों से कहीं कुसंग न हो जाए। यहां आकर भगवान उद्धवजी को एक दृष्टांत सुनाते हैं। राजा पुरूरवा उर्वशी पर मोहित हो गए थे। कुसंग मोह पैदा करता है और आदमी का पतन हो जाता है।

इस मामले में विवेक से काम न लिया तो बचना है मुश्किल क्योंकि....
उद्धवजी! पहले तो सम्राट पुरूरवा उर्वशी के विरह से अत्यंत बेसुध हो गया था। बाद में शोक हट जाने पर उसे बड़ा वैराग्य हुआ। उर्वशी ने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयों के सेवन में इतने डूब गए थे कि उन्हें वर्षों की रात्रियां न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं।पुरूरवा ने बाद में पश्चाताप के साथ कहा मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासना ने मेरे चित्त को कितना कलुषित कर दिया। मैं प्रजा को मर्यादा में रखने वाला सम्राट हूं।

वह मुझे और मेरे राजपाट को तिनके की तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल होकर रोता-बिलखता उस स्त्री के पीछे दौड़ पड़ा। स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं। भगवान को छोड़कर और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदे से निकाल सके।काम हमारे मन को ढंक लेता है। शरीर को वश में कर लेता है।

इसीलिए कहा जाता है कि काम का बाण सीधे हमारे मन को बेधता है। वह सीधे मन में उतरता है और मन को वश में करके, उससे शरीर पर शासन करता है। हम में से अधिकतर लोगों के साथ यही समस्या है कि हम मन के मत से चलते हैं। मन हमारी सवारी करता है, वो जिधर ले जाता है उधर ही हम चल पड़ते हैं। मन को समझाना, साधना बहुत मुश्किल हो जाता है। मन से सीधे वो बुद्धि पर प्रहार करता है। मन काम के वश में हो जाए तो फिर बुद्धि को वश में करना कोई बड़ी बात नहीं है।

इसीलिए कहा गया है कि कई बारबुद्धिमान, ज्ञानी, तत्वज्ञानी लोग भी काम के जाल में ऐसे उलझ जाते हैं कि अच्छे बुरे के सारे भेद की समझ ही मिट जाती है। सो, काम से बचने का एक ही तरीका है, वह है ध्यान। थोड़ा मेडिटेशन हमें मन के प्रभाव से बचाता है। हम मन के अधीन नहीं होते, मन हमारे अधीन हो जाता है। जब मन सध जाए तो बुद्धि कभी पराभाव में नहीं जाएगी। मन को नहीं साधा तो काम का बाण लगना तय है। इस बाण से कोई नहीं बच सकता।

इसलिए अपनी भलाई समझने वाले विवेकी मनुष्य को चाहिए कि विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है, अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है। जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गई है, उसके लिए मन में विकार नहीं होता। जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपनेआप निश्चल होकर शांत हो जाता है।

जब हो कोई भी शुभ काम तो इस एक बात का ध्यान जरुर रखें क्योंकि....

कुसंग, व्यसन हमारे जीवन में अमंगल लाते हैं। यह प्रसंग सभी को सीखने के लिए है कि कभी मांगलिक कार्यों में व्यसनों का उपयोग मत कीजिए। कृष्ण के जीवन की यह एक महत्वपूर्ण घटना है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगर में पधारे।

जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंग नरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि तुम बलरामजी को पासों के खेल में जीत लो। बलरामजी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने में बड़ी रूचि है। उन लोगों के बहकावे से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा।बलरामजी खुद सज्जन थे लेकिन कुसंग में पड़ गए।

हम ध्यान रखें कि किसी के दुर्गुण हम पर हावी न हों। रुक्मी रिश्तेदार थे सो उनके लिहाज में बलराम जुआ खेलने बैठ गए। भोले थे सो जल्दी हार भी गए।बलरामजी की हंसी उड़ाते हुए रुक्मी ने कहा-बलरामजी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे। आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं, आप जैसे नहीं? रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलरामजी क्रोध से आगबबूला हो उठे।

उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला। इतनी बड़ी घटना घट गई। विवाह के मंगल मौके पर हत्या हो गई। भगवान असमंजस में पड़ गए, किसका साथ दें। मरने वाला उनकी पत्नी का भाई और मारने वाला उनका भाई। जब हम मांगलिक कार्यों में व्यसनों को खुद ही आमंत्रित करते हैं तो अब परमात्मा क्या कह सकते हैं। वे तो मौन ही रहेंगे। इसलिए ध्यान रखें जब भी मंगल उत्सव हों, व्यसनों को दूर रखें।

कैसे पाएं किसी संत का आर्शीवाद?
संत के पास जब उनके दर्शनार्थ जाया जाए तो अहंकार रहित नम्र बन कर जाना चाहिए। संत पुरुष इस बात को तोड़ जाते हैं कि यह नम्रता ओढ़ी हुई है अथवा स्वाभाविक। अत: नम्रता को स्वाभाविक बनाने का, साधक को प्रयत्न करते रहना चाहिए। यदि साधक विद्वान है तो विद्वत्ता का अभिमान नहीं होना चाहिए। पाण्डित्य का प्रदर्शन करने, संत की परीक्षा लेने संत के पास जाओगे तो रिक्तहस्त ही वापस आओगे।

अत्युत्तम तो यही है कि जीव में प्रभु-प्रेम की सच्ची लगन हो। बाकी सभी नम्रता, सौम्यता, निरहंकारता इत्यादि स्वाभाविक लक्षण अपनेआप प्रकट होते जाएंगे। ऐसे जीव को ही अधिकारी कहा गया है।ऐसे अधिकारी, भक्त-साधक के लिए संत अगम्य नहीं रहते। वह उनकी कृपा प्राप्त करने में, प्रभु कृपा से सफल होता है तथा परिणाम स्वरूप परम-प्रेम-रूपा भक्ति फल को प्राप्त करता है।

अब तनिक संतों की कृपा की अमोघता पर विचार करते हैं। जिस प्रकार सूर्य के सामने बैठने पर शरीर को गरमी मिलेगी, जल ग्रहण करने पर पिपासा निवृत्ति होगी ही, इसी प्रकार संत की कृपा का फल परम-प्रेम-रूपा भक्ति प्राप्त होगी ही, किन्तु रात को सोया हुआ व्यक्ति सूर्योदय हो जाने के उपरांत भी सोता ही रहे तो उसे सूर्योदय का ज्ञान ही नहीं होगा। इसी प्रकार जब तक मनुष्य को संत की कृपा तथा उससे प्राप्त होने वाले फल का ज्ञान नहीं होता, उसका पता नहीं चलता।

भक्ति-शक्ति का अन्तुर्मुखी जाग्रत होना तथा क्रियाशीलता, यह दोनों एक दूसरे से भिन्न बातें हैं। संत कृपा होने पर मनुष्य को तत्काल उसका फल प्राप्त हो जाता है, किन्तु किन्हीं अवस्थाओं में उसके क्रियाशील होने में कुछ देर लग जाती है। जाग्रति का ज्ञान, उसके क्रियाशील होने पर ही होता है। तब तक भक्त पूर्ववत् निद्रावस्था में ही रहता है। इसमें उसके प्रबल विपरीत संस्कार ही कारण होते हैं। शक्ति को प्रथम, इन संस्कारों को हटाकर, चित्त को क्रिया योग्य बनाना होता है। यह भी क्रिया ही होती है जिसे सूक्ष्म दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है।

संतों और महापुरूषों के सान्निध्य के लिए सबसे बड़ा सूत्र यह है कि वे क्या कर रहे हैं इस पर ध्यान न दें, वो क्या कह रहे हैं अपना मन वहां लगाएं। आजकल लोग संतों का वैभव ही देखते रहते हैं उनके शब्दों पर ध्यान नहीं देते। शब्दों को समझेंगे तो ही ज्ञान आएगा। जो वैभव है, संत उसके बिना भी रह सकते हैं, लेकिन अगर हम वैभव पर टिक गए तो फिर इसी के मोह में उलझकर रह जाएंगे। हम माया में फंसकर इसी को सबकुछ मान बैठेंगे। संतों का साथ अमोघ तभी होगा जब हम उनके रहन-सहन की बजाय उनके उपदेशों पर ध्यान देंगे।

भाव यह है कि महापुरुषों की कृपा प्राप्ति का मार्ग कहीं अधिक सरल तथा निश्चित है, किन्तु इतना सरल भी नहीं कि कोई कैसा भी हो जब चाहे, जहां चाहे उसे प्राप्त कर सकता है। यदि यह कृपा कहीं एक बार प्राप्त हो जाए तो उसका फल निश्चित है, क्योंकि वह अमोघ है। इतने पर भी भक्त कभी निराश नहीं होता। उसे प्रभु पर विश्वास होता है कि वह एक न एक दिन उसे संत दर्शन भी अवश्य कराएंगे तथा उस पर कृपा भी करेंगे।

कभी भी वक्त का इंतजार नहीं करना चाहिए क्योंकि....
नारदजी कहते हैं कि उसे एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए। भक्त के जीवन में एक-एक क्षण का भी महत्व होता है। भक्त समय की कीमत जानता है। यह उसके भौतिक सुविधाओं की बहुमूल्य निधि है, जिसका उपयोग वह भक्ति के प्रति करता है। वह यह भी समझता है कि जो क्षण बीत गया, उसे कोई भी कीमत देकर भी वापस नहीं लाया जा सकता। इसलिए वह एक-एक क्षण का उपयोग भजन करने के प्रति ही करता है। यदि कोई भक्त ऐसा नहीं करता है तो उसे करना चाहिए, क्योंकि शुभ समय की केवल बाट ही देखते रहना, कुछ साधन नहीं करना यह कोई प्रतीक्षा नहीं है।

मनुष्य का जीवन अत्यंत अनिश्चित है, कितना समय उसके पास है, कहा नहीं जा सकता। अत: उसका एक-एक पल महत्वपूर्ण है। कार्य बहुत बड़ा है। इतना बड़ा कि अनेकों जन्मों की तपस्या एवं निरंतर साधना से भी पूर्ण हो पाएगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। फिर भी यह सोचते रहना कि अमुक काम पूर्ण हो जाए, अमुक परिस्थिति आ जाए तो भजन करूंगा। अपने आप को धोखा देना तथा समय नष्ट करना है।

एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि आज हम अच्छे सात्विक भगवद् भक्तों की संगत में हैं जिससे हमारे मन में भी प्रभु को प्राप्त करने के लिए परम-प्रेम-रूपा भक्ति जाग्रत करने की शुभ इच्छा जाग्रत है। किन्तु, यदि हम विचार ही करते रह गए, भजन कुछ किया नहीं, केवल अनुकूल समय का रास्ता ही देखा। जब अनुकूल समय प्राप्त हुआ तो हमारे मन का विचार ही बदल गया। इसलिए उत्तम यही है कि जो भी परिस्थितियां प्राप्त हों तथा जो भी समय उपलब्ध हो एवं जो कुछ आपके पास सुविधाएं हों, उनमें जैसा भी, जितना भी भजन सम्भव हो आरंभ कर दो। यह नियम जाग्रति से पूर्व एवं पश्चात दोनों अवस्थाओं में लागू होता है।

विशेषकर भजन का स्वभाव तथा भक्ति जाग्रति का उपर्युक्त समय युवावस्था ही होता है। बुढ़ापे में जब मन का स्वभाव पक जाता है, इन्द्रियों में शिथिलता आ जाती है, उठा-बैठा भी नहीं जाता, तब क्या साधन-भजन होगा। हां, यदि युवावस्था में ही ऐसा स्वभाव तथा परिस्थितियां बन जाएं तो बुढ़ापे में भी क्रम चलता रह सकता है। अत: आधा क्षण बिगाड़े बिना भी साधन में जुट जाओ। आयु तो देखते ही देखते निकली जा रही है। दिन पर दिन तथा रातों पर रातें व्यतीत होती जा रही हैं। सूर्य उदय होता है, सायं को ढल जाता है। यह क्रम घड़ीभर के लिए भी नहीं ठहरता। इसी के साथ व्यतीत हो जाता है मनुष्य का जीवन भी। सुविधा पूर्वक तथा अनुकूल समय का भजन जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए प्रतीक्षा करना उचित नहीं।

महाभारत के बाद, ऐसा क्या किया धृतराष्ट्र ने कि पांडव डर गए?
भगवान को विचार आता है मुझे शाप मिला था। आज शाप को पूर्ण करने का अवसर आया है। जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था और जब पांडव विजय हो गए थे, राजतिलक हुआ और हस्तिनापुर में प्रवेश कराने के लिए भगवान स्वयं गए। भगवान कृष्ण ने पांडवों से कहा- देखो, हम जीत तो गए हैं लेकिन कौरवों के माता-पिता धृतराष्ट्र और गांधारी अब अकेले हैं, सारा महल सुनसान हो चुका है। हम वहां चलकर उनको प्रणाम करें। पांडवों को लेकर भगवान हस्तिनापुर पहुंचे। महल जिसमें आदमी ही आदमी होते थे, सेवक-सेविकाएं होती थीं।

किसी माता-पिता के सौ बच्चे हों, क्या आनंद रहा होगा। सारा हस्तिनापुर सुनसान, सब लोग मारे गए युद्ध में। केवल विधवाओं की चित्कार सुनाई दे रही थी। बच्चे किलकारी मार रहे हैं, याद कर रहे हैं अपने लोगों को। भगवान जैसे ही पहुंचे हैं धृतराष्ट्र पूछ रहा था कहां हैं पांडव। जैसे ही उनके कक्ष में पहुंचे तो वहां भीम की एक लोहे की मूर्ति रखी हुई थी। दुर्योधन भीम को मारने के लिए उस मूर्ति पर गदा अभ्यास किया करता था, उस पर प्रहार करता था। इसलिए बहुत बलवान था। पांचों पांडव आए,

भगवान आगे थे। धृतराष्ट्र खड़े हैं। भगवान कहते हैं राजा धृतराष्ट्र को प्रणाम। युधिष्ठिर जैसे ही धृतराष्ट्र को प्रणाम करते हैं धृतराष्ट्र कहता है भीम कहां है, भीम कहां है। मुझे भीम को अपनी बाहों में भरना है, हृदय से लगाना है। भीम बांवरा था एकदम दौड़ा। भगवान ने भीम को रोका और लोहे की प्रतिमा को आगे कर दिया और जैसे ही लोहे की प्रतिमा धृतराष्ट्र की बाहों में आई उसने मूर्ति को इतनी जोर से दबाया कि वह चकनाचूर हो गई। पांडव घबरा गए, कांपने लगे।

इसलिए धृतराष्ट्र पूछ रहा था, आज भीम को बाहों में भर लूं और सब समाप्त कर दूं। भगवान बोलते हैं यह जीवन है सबकुछ लुट गया इस नेत्रहीन का, फिर भी इच्छा बची है कि भीम को मार डालूं। हमारा सबकुछ चला जाता है जीवन में सारी इंद्रियां शिथिल हो गईं, सारे राज चले गए। फिर आदमी को ऐसा लगता है कि संसार को बाहों में भर लूं एक बार।

गांधारी ने भगवान कृष्ण को क्यों और क्या शाप दिया?
कृष्णजी ने गांधारी के पैर को स्पर्श किया गांधारी बोलीं दूर हटो तुम्हारे कारण आज मेरा वंश समाप्त हो गया। कृष्ण मैं तुमसे बहुत क्रोधित हूं, मैं तुम्हें शाप देना चाहती हूं। मैं जानती हूं तुम्हारी प्रतिभा और प्रभाव को। तुम चाहते तो यह युद्ध रोक सकते थे। यह युद्ध तुमने करवाया। मेरे बेटों ने नहीं लड़ा, तुमने लड़वाया है। तुमने मेरा वंश नाश कर दिया। तुम चाहते तो अपने तर्क से, अपने ज्ञान से, अपनी समझाईश, अपनी प्रभाव से, अपने पौरूष से इस युद्ध को रोक सकते थे। तुमने अच्छा नहीं किया, एक मां से सौ बेटे छीने हैं। गांधारी रोते-रोते कहती है- कृष्ण सुनो! जैसा मेरा भरापूरा कुल समाप्त हो गया, ऐसे ही तुम्हारा वंश तुम्हारे ही सामने समाप्त होगाऔर तुम देखोगे इसे।

इसके बाद गांधारी यहीं नहीं रूकती, बड़े क्रोध और आवेश में बोलती है कि आज हम दोनों कितने अकेले हो गए हैं। देखो तो इस महल में कोई नहीं है। जिस महल में इंसान ही इंसान हुआ करते थे, मेरे बच्चे, मेरे परिवार के सदस्य मेरे पास थे कितने अकेले हो गए हैं आज हम। तुम्हारे जीवन का जब अंतकाल आएगा तुम संसार में सबसे अकेले पड़ जाओगे। तुम्हे मरता हुआ कोई देख भी नहीं पाएगा जो शाप है तुमको।भगवान तो भगवान हैं, प्रणाम किया और कहते हैं मां गांधारी मुझे आपसे इसी आशीर्वाद की प्रतीक्षा थी। मैं आपके शाप को ग्रहण करता हूं मस्तक पर।

आपका शुभ हो, आपने बड़ी दया की है। कृष्ण पलटे तब तक गांधारी को ग्लानि हुई। कृष्ण पलटे और पांडवों ने देखा कृष्णजी के चेहरे पर शापित होने का कोई भाव ही नहीं था। भगवान मुस्कुराए और पांडवों से कहा- चलो। बड़ा अजीब लगा। भगवान अर्जुन के कंधे पर हाथ रखकर कहते हैं अर्जुन लीला तो देखो मेरे यदुवंश को यह वरदान था कि उन्हें कोई दूसरा नहीं मार सकेगा, मरेंगे तो आपस में ही मरेंगे। देखो इस वृद्धा ने शाप दे दिया तो यह व्यवस्था भी हो गई।

कृष्ण का है ये फंडा, जीना है तो जीओ ऐसे
भगवान ने कहा अर्जुन मेरी मृत्यु के लिए जो कुछ भी उसने कहा है मुझे स्वीकार है। कोई तो माध्यम होगा और भगवान मुस्कुराते हुए पांडव से कहते है चलो आज वही भगवान अपने दाएं पैर को बाएं पैर पर रखकर अपनी गर्दन को वृक्ष से टिकाकर बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे अपनी मृत्यु की।जिसने मृत्यु का इतना बड़ा महायज्ञ किया था महाभारत वह ऋषि देखते ही देखते इस संसार से चला गया। यूं चले जाएंगे ऐसा भरोसा नहीं था। एक महान अभियान का महानायक यूं छोड़कर चला गया कृष्ण एक बात कहा करते थे कि जब मैं संसार से जाऊं तो कोई रोना मत।

कृष्ण को रोना पसंद नही। कृष्ण कहते हैं रूदन मत करिए आंसू बड़ी कीमती चीज है। मुझे आंसू का अभिषेक तो अच्छा लगता है पर रोना हो तो मेरे लिए रोओ, मुझे पाने के लिए रोओ। मेरी देह पर मत रोओ, यह निष्प्राण देह पर भगवान ने कहा था कि मेरे अंतिम समय में रोना मत, क्योंकि कृष्ण का एक सिद्धांत था मैं जीवनभर खुश रहा हूं और मैंने जीवनभर लोगों को खुश रखा है। इसलिए रोना मत, दु:खी मत होना।

कृष्ण तो भगवान थे, फिर गांधारी का शाप उन्हें क्यों लग गया?
पीताम्बर वो था, जिसने अनेक लोगों की लज्जा बचाई, जिनसे इतने लोग सुरक्षित हुए, जो पीताम्बर द्रौपदी के ऊपर ओढ़ाया गया था, जिस पीताम्बर ने लोगों को ममता का आश्वासन दिया, जिस पीताम्बर में लोगों ने छिप-छिपकर पता नहीं क्या-क्या कर लिया था वह पीताम्बर आज रक्त रंजित हो गया था।

उसका रंग पहचान में नहीं आ रहा था। चारों ओर रक्त बिखरा पड़ा है। भगवान कहते हैं यहां का रक्त यहीं छोड़कर जा रहा हूं।भगवान ने अपने स्वधाम गमन से संदेश दिया कि जाना सभी को है। जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु होगी ही। जन्म और मृत्यु तय है। सारा खेल बीच का है। हम इस बात को समझ लें कि जिसकी मृत्यु दिव्य है समझ लो उसी ने जीवन का अर्थ समझा है।

शुकदेवजी परीक्षित को समझा रहे हैं और अब धीरे-धीरे कथा ग्यारहवें स्कंध के समापन की ओर जा रही है।शुकदेवजी कहते हैं-राजा परीक्षित्! दारुक के चले जाने पर ब्रह्माजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर-अप्सराएं तथा गरुडलोक के विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम प्रस्थान को देखने के लिए बड़ी उत्सुकता से वहां आए थे।

ऐसे व्यक्ति से कभी मदद लेने की न सोचें क्योंकि....
भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार और समस्त लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है।इसलिए तय कर लें, आश्रय किसका रखें। प्रभु ने सृष्टि की संरचना बड़े सुन्दर ढंग से की है। उसने जीवन के दु:खों-क्लेशों की पृष्ठभूमि में आनन्द एवं प्रेम का अथाह एवं अनन्त समुद्र छुपा कर रखा है।

यह मनुष्य के ऊपर ही छोड़ दिया है कि चाहे तो वह जगत विषयों के पीछे लग कर, जीवन में दु:ख एवं अशांति को भोगता रहे तथा चाहे तो आनन्द समुद्र में गोते लगाकर परम शान्ति को प्राप्त करे। भक्ति जगत विषयों की गंदी नालियों से निकालकर, अन्दर में ही विद्यमान प्रेम एवं आनन्द समुद्र की ओर अग्रसर करने का मार्ग है।

आवश्यकता है केवल मनुष्य के चेत जाने की। पहले तो उसे इस बात का आभास होना चाहिए कि वह विषय के दलदल में फंसकर रह गया है, उसे इसमें से बाहर निकलना है। वह निकलने का प्रयत्न भी करता है, मन को नियंत्रित करने का यत्न करता है, जप तप करता है तथा शास्त्रों में शान्ति को खोजता है, परन्तु सफल हो पाना कठिन है। दलदल से निकलने के लिए ऐसे व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता है जो स्वयं दलदल से बाहर खड़ा हो। दलदल में फंसा दूसरा व्यक्ति भी सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि वह तो स्वयं धंसता चला जा रहा है। मुख्यस्तु महत्कृपैव महापुरुषों, महानुभावों की कृपा प्राप्त करो, क्योंकि वह स्वयं जगत में रहकर भी जगत के बाहर हैं।

परम-प्रेम के निरन्तर प्रवाह का नाम ही भक्ति है। कभी भक्ति की, कभी उधर से उदासीन होकर जगत व्यवहार में लग गए। यह तो भक्ति नहीं, जिस प्रकार नदी की स्वाभाविक जल धारा रात-दिन, प्रतिक्षण बहती रहती है, उसी प्रकार हृदय भी परम-प्रेम से हरदम ढका रहे। वासना, कामना तथा जगत विषयों को हृदय में प्रवेश का अवसर ही प्राप्त न हो। प्रियतम प्रभु हर दम अभिमुख बना रहे। उसकी रासलीला चौबीसों घण्टे चलती रहे तथा भक्त उसके आनन्द तथा मधुरता में ही डूबा रहे, यही परम-प्रेम-रूपा भक्ति का स्वरूप है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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