दिव्य होता है संतों का जीवन
वरदान देकर जैसे ही भगवान गए तो ध्रुव को याद आया अरे ये मैंने क्या किया। भगवान मुझको मिले और मैंने ये मांग लिया और वो दे भी गए मुझे तो मांगना था आप मिलो। मुझे नहीं चाहिए धन-दौलत ये वैभव-संपत्ति, राज-राजतिलक, दास-दासी ये तो बहुत थे मेरे पास और ज्यादा दे गए। मुझे ये चाहिए ही नहीं। फिर ध्रुव ने सोचा जो मिला वही प्रसाद सही।
जैसे ही ध्रुव लौटे और ध्रुव के माता-पिता को सूचना मिली, नारदजी ने उन्हें बताया कि ध्रुव को परमात्मा प्राप्त हो गए हैं। आपका बेटा चैतन्य हो गया है तो पिता उत्तानपाद मां सुनीति, मां सुरुचि सब के सब दौड़ पड़े कि हमारे बेटे को भगवान मिल गए। बहुत दिव्यता आ गई। जिसके जीवन में परमात्मा उतर आएं फिर उसके जीवन में दिव्यता आ जाती है। लोग दौड़ते हैं ध्रुव के पीछे। छ: महीने पहले जिसको राजसिंहासन पर नहीं चढऩे दे रहे थे, जिसको पिता की गोद में बैठने से वंचित कर दिया गया। छह महीने बाद वो लौटा तो सारा राजनगर, सारा राजमहल, सारे रिश्तेदार आगे-पीछे घूम रहे हैं।
इसलिए तो आपने देखा होगा इस देश में हमारे अध्यात्म, धर्म, संस्कृति में लोग साधु-संतों के पीछे बहुत पागल हैं। बावरी हो जाती है लोगों की श्रद्धा और आस्था। कोई साधु आ जाए, कोई संन्यासी आ जाए दौड़ता फिरता है जमाना। ध्रुव के पीछे भी भागने लगे लोग। ध्रुव से कहा आओ सिंहासन पर बैठो। सब ने बड़ा सम्मान दिया। ध्रुव सोच रहे हैं कल तक मुझे कोई पूछता नहीं था आज सारा संसार आ गया। सब के सब आए ध्रुव बैठे और यहां ध्रुव प्रसंग की समाप्ति करते हुए शुकदेवजी परीक्षित से कह रहे हैं बहुत काल तक ध्रुव ने राज्य किया। ध्रुव के राज्य में अच्छा शासन रहा, सबकुछ अच्छा था।
सफलता परिश्रम से ही मिलती है
अब हम धर्म व अर्थ के बाद काम में प्रवेश कर रहे हैं यानि पुरुषार्थ में प्रवेश कर रहे हैं। ग्रंथ में आगे ध्रुव की संतानों का वर्णन किया गया है। ध्रुव का पहला बेटा था उत्कल, दूसरा बेटा था वत्सल। उसके बाद वेन पैदा हुआ और वेन के बाद उसके यहां पृथु नाम का राजा पैदा हुआ। ये संक्षेप में वंशावली है। पृथु अवतार हैं। पृथु ध्रुव के वंश में पैदा हुए, चार-पांच पीढ़ी बाद। पृथु का पृथ्वी से बड़ा संबंध रहा। आपने कथा सुनी होगी कि जब पृथु राजा बने तो उनके राज में अकाल पड़ा। पृथ्वी ने धन-धान्य, संपत्ति और औषधि देने से मना कर दिया तो त्राही-त्राही मच गई। जनता अपने राजा के पास पहुंची कि पृथ्वी हमें धन-धान्य आदि कुछ दे नहीं रही है आप कुछ करिए।
पृथु को बड़ा क्रोध आया कि पृथ्वी अपनी संपदा क्यों नहीं दे रही? राजा तीर कमान लेकर पृथ्वी के पीछे दौड़े, पृथ्वी गाय बनकर भागी। पृथ्वी भागते-भागते थक गई तो वापस पृथु की शरण में आई और कहा आप मुझे क्षमा कर दीजिए। आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं, पृथु ने कहा तुमने सारी संपत्ति, सारी प्रकृति, सारी औषधियां, सारी वस्तुएं अपने गर्भ में छुपा रखी है। प्रजा को कुछ भी नहीं दे रही इसलिए मैं तेरा वध करूंगा। पृथ्वी ने कहा मैं देने को तैयार हूं। आप ले लीजिए लेकिन दुहना पड़ेगा मुझे।
पृथ्वी कहती है मुझे दुहे बिना, उद्यम किए बिना, मेरा मंथन किए बिना कुछ प्राप्त नहीं कर पाओगे।कहते हैं पृथु राजा ने पृथ्वी का दोहन किया और ये सारी संपत्ति फिर निकलकर आई। जब ये सब हो गया तो एक दिन पृथ्वी ने पृथु से पूछा राजा आप मेरे पीछे धनुष लेकर दौड़े मुझे मारने के लिए, मैं एक प्रश्न आपसे पुछूं। पृथ्वी ने जो प्रश्न पृथु से पूछा वो आज भी हमसे पूछा जा रहा है। पृथ्वी पृथु से पूछ रही है ''आपने मुझे मारने की तैयारी कर ली, मुझ पर आरोप लगाया कि मैंने गर्भ में सब वस्तु छिपा ली, कभी पूछा मैं ऐसा क्यों कर रही हूं? आप तो राजा हैं आप तो प्रजा का हाल जानते हैं मैं आपकी प्रजा हूं और प्रजा संतान समान होती है।
पृथु ने दिया पृथ्वी को रक्षा का वचन
पृथ्वी की बात सुनकर पृथु ने प्रसन्न होकर पृथ्वी को पुत्री बना लिया। पृथ्वी पूछ रही है- आपने जानने की कोशिश नहीं की मैंने ये सब क्यों किया? मेरे ऊपर अत्याचार बढ़ गए, दुराचार बढ़ गए, मेरा दुरुपयोग किया जा रहा है। लोग मेरे प्राण काट रहे हैं, वृक्ष को छिन्न-भिन्न कर दिया। नदियां सुखा दी गईं। और मुझसे कह रहे हैं तुमने सभी संपदा छुपा ली। आप राजा है पृथ्वी सुरक्षित रहेगी तो पृथ्वी देती रहेगी।
पृथु को ये बात ठीक लगी। पृथु ने कहा पृथ्वीदेवी मैं सचमुच इस कृत्य के लिए क्षमा मांगता हूं, इसलिए आज से आप मुझसे रक्षित हैं। पृथ्वी को रक्षा का आश्वासन दिया गया । शुकदेवजी कह रहे हैं परीक्षित से। राजा पृथु ने पृथ्वी को मथा। राजा पृथु के पहाड़ समतल किए, जमीन बनाई, जल के स्थान पर जल लाया , नदी के स्थान पर नदी प्रवाहित की और पृथु राजा ने पृथ्वी को व्यवस्थित करके भवन बनाने की परंपरा आरंभ की। पृथु ने पृथ्वी से कहा कि आज से तू सुरक्षित है। ये पृथु और पृथ्वी की कथा है। इसी के बाद इसी वंश में प्रचेता आए, पुरंजन आए।
अब चौथा भाग मोक्ष आरंभ हो रहा है। हमने राजा पृथु का पुरुषार्थ देखा और अब मोक्ष की ओर बढ़ रहे हैं। ये हमारा चौथा पुरुषार्थ है ये प्रकृति हमें मोक्ष का प्रतीक बताएगी। इस प्रकृति को देखकर आप समझ लीजिए ये भगवान की है ये भगवान में ही लीन होना है। कोई इससे बाहर नहीं है तो मोक्ष की कामना का अर्थ मरना परम आनंद है। मोक्ष का अर्थ है बस उससे मिल जाना, उससे जुड़ाव हो जाना हमारा। बस यहीं परम आनंद घट जाएगा।
हमें अपना चरित्र स्वयं बनाना पड़ेगा
हमने पृथु का प्रकृति प्रेम पढ़ा। प्रकृति प्रेम भी एक पूजा है, उपासना है। आपको एक कथा याद होगी। एक बार एक बिल्ली चूहे के पीछे दौड़ रही थी। चूहा सरपट भागा, बिल्ली भी भागी। चूहा और भागा, बिल्ली और भागी। जब बिल्ली थक गई तो बैठ गई तभी पीछे से कुत्ता आया और उसने बिल्ली को देखकर जैसे ही भौंका और झपटा तो बिल्ली तुरंत भागी। एक सेकंड पहले जिसको लग रहा था मर जाऊंगी लेकिन अपने प्राण दाव पर लगे तो एकदम भागी सब भूल गई।
प्राण दाव पर लगे तो आदमी की गति तेज हो जाती है। भक्ति की गति तभी बनी रहेगी जब प्राणों का सौदा भगवान से करेंगे। ये याद रखिए बिना प्राण का सौदा किए भगवान नहीं मिलेंगे। जैसे पृथ्वी को पृथु ने तराशा वैसे ही हमें हमें अपने व्यक्तित्व को तराशना पड़ेगा। पृथु के जीवन से यही सीखिए, कैसे उसने पृथ्वी को इस योग्य बना दिया बस ऐसे ही हमें अपने व्यक्तित्व को, अपने चरित्र को गढऩा पड़ेगा, तैयार करना पड़ेगा।ये पृथु के प्रसंग से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के माध्यम से हमने सीखा। जिन भगवान श्रीकृष्ण की कथा में हम पढ़ रहे हैं। उनसे एक बात सीख लीजिए। यहां संकेत आता है भागवत में कि श्रीकृष्ण ने अपने व्यक्तित्व को तैयार करके समर्पित कर दिया था।
इसीलिए श्रीकृष्ण अपने व्यक्तित्व की मौलिकता बनाए रखने के लिए कभी राजा नहीं बने। आपको ये जानकारी होनी चाहिए कि श्रीकृष्ण ने कभी कोई राजगादी स्वीकार नहीं की। बिना सत्ता के भी लोग कृष्ण को द्वारकाधीश कहते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा पीछे रहकर, लोप्रोफाइल में रहकर बहुत सारे काम किए जा सकते हैं। इसीलिए श्रीराम भी 14 वर्ष तक राजा नहीं बने और बिना राजा बने वो दुनिया के राजा बन गए।
चरित्र तराशने की कला है अध्यात्म
अध्यात्म व्यक्तित्व को तराशने की कला है, यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से हमने सीखा। चतुर्थ स्कंध में जो चार कथाएं आई हैं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की इसे अपने जीवन में संभालकर रखिए। धर्म बचाकर रखें, अर्थ के तरीके बचे रहें, काम पुरुषार्थ बचा रहे और मोक्ष की कामना को समझ लें ये चौथा स्कंध है।लेकिन हमारे जीवन से एक-एक करके सबसे पहले धर्म जाता है फिर अर्थ गलत तरीके से आने लगता है। अत: अर्थ जाता है तो हम कब इन चीजों को छोड़ देते हैं हमें खुद ही ध्यान नहीं रहता।
आइए पांचवें स्कंध में प्रवेश करते हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कैसे हमसे छूट जाते हैं, कहां चले जाते हैं जरा विचार तो करिए। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को बचाना पड़ेगा। हमारी भागवत बताती है कि हमारे जीवन के चार व्यवहार हैं। उस व्यवहार को बचाने के लिए ही ये चार भाग कहे गए हैं। हम चौथे और पांचवें स्कंध की कथा पढ़ रहे हैं ये हमारे जीवन को बचाने के लिए, चार हिस्सों को बचाने के लिए कही गई कथा है।
इसीलिए सामाजिक जीवन में पारदर्शिता बनाए रखिएगा। आपके व्यवसायिक जीवन में परिश्रम बनाए रखिएगा। आपके पारिवारिक जीवन में प्रेम बनाए रखिएगा और आपके निजी जीवन में पवित्रता बनाए रखिएगा बस यहीं से मोक्ष घट जाएगा।धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार जीवन को पूरा कर देंगे इसलिए निजी जीवन में पवित्रता का बड़ा महत्व है।
भगवान को पाना है तो दुर्गुण छोडऩा होंगे
अब हम पांचवें स्कंध में प्रवेश करने जा रहे हैं। शुकदेवजी कह रहे हैं परीक्षित ध्यान से सुनिएगा। जो-जो प्रश्न आप करते जा रहे हैं मैं आपको उत्तर देता जा रहा हूं। पांचवां स्कंध स्थितिलीला का स्कंध हैं। इसमें भूगोल का विस्तार से वर्णन किया है। शुकदेवजी ने राजा को बार-बार परिचित कराया है कि परीक्षित प्रकृति का सम्मान करो। ज्ञान और भक्ति जीवन में आ जाए तो जीवन में स्थायी कैसे रहेगी, पंचम स्कंध के माध्यम से भागवत बताने जा रही है कि ये स्थायी कैसे रहेगी ।
भगवान को पाना पड़ता है। भगवान को रोकना पड़ता है, भगवान को बुलाना पड़ता है। ऐसे आसान काम नहीं होगा। इसे स्थायी बनाना है तो कीमत चुकाना पड़ेगी। परमात्मा आपसे कुछ और नहीं बस आपके दुर्गुण मांग रहे हैं, इतना बढिय़ा सौदा। एक तराजू में अपने दुर्गुण रख लीजिए और भगवान को तौलकर ले जाइए घर पर। ये सिर्फ भगवान करते हैं दुनिया में और कोई नहीं कर सकता। भगवान मांग कर रहे हैं मैं आने को तैयार हूं और देखिए एक बात याद रखिए जिस-जिस के जीवन में भगवान आए। उसको ऊंची कीमत चुकानी पड़ी।
भगवान जिसकी संतान बनें वो दशरथ और वो यशोदा-नंद भगवान को अपने पास में नहीं रख पाए। तो आइए भगवान को बुलाते हैं अपने जीवन में। हम प्रवेश कर रहे हैं मनु और शतरूपा के छोटे पुत्र प्रियव्रत के जीवन में। परीक्षितजी ने शुकदेवजी से एक प्रश्न पूछा कि ये प्रियव्रत नाम का राजा जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं सुना है ये अपनी गृहस्थी में बहुत सुखी रहता था। आदमी गृहस्थी में भक्त भी रहे, राजकाज भी चलाए इतना व्यस्त राजा और फिर भी गृहस्थी चलाता था तो मेरा आपसे प्रश्न है प्रियव्रत इतना प्रिय कैसे हो गया?
काम को ईश्वर की भक्ति मानकर करें
मनु महाराज का छोटा पुत्र प्रियव्रत वो राजा था जिसने सूर्य के साथ अपने रथ पर बैठकर सात परिक्रमाएं की थीं। शुकदेवजी परीक्षित से बोले प्रियवत अपने नाम के अनुसार था तथा सदैव आनंद से रहता था। एक कथा के अनुसार एक मंदिर का निर्माण हो रहा था। निमार्ण में तीन मजदूर बाहर काम कर रहे थे। एक व्यक्ति आया और उसने जो महात्मा मंदिर का निर्माण करा रहे थे उनसे पूछा ''महात्माजी एक बात बताओ ये अध्यात्म क्या होता है और ये हमारे जीवन में क्या प्रभाव डालता है।
महात्माजी बोले पहले तू ये तीन मजदूर बाहर बैठे हैं इनसे पूछकर आ कि तुम क्या कर रहे हो? बस तेरी बात का उत्तर मिल जाएगा। वह आदमी गया और उसने पहले मजदूर से पूछा जो पत्थर तोड़ रहा था कि भैया तुम क्या कर रहे हो तो उसने गुस्से में बोला दिखता नहीं पत्थर तोड़ रहा हूं। दूसरे से पूछा, उसने कहा भैया नौकरी कर रहा हूं । पापी पेट के लिए, बच्चों को पालने के लिए काम करना ही पड़ता है। तीसरे से जाकर पूछा तो उसने बड़ा सुंदर उत्तर दिया ''पूजा कर रहा हूं, आनंद मना रहा हूं। ये पत्थर मंदिर में लगेंगे यह जानकर मुझे बड़ी मस्ती आ रही है।
तीनों का उत्तर लेकर वो उस महात्मा के पास गया। महात्मा ने कहा जीवन का यही फर्क है। तुम अपनी गृहस्थी, अपना कामकाज उस पहले मजदूर की तरह बना सकते हो, चिढ़चिढ़ करके, गुस्से में आकर या तुम उस आदमी की तरह कर सकते हो जो मजबूर होकर पापी पेट के लिए या तुम उस व्यक्ति की तरह कर सकते हो जो मजा ले रहा है, आनंद लेकर पत्थर तोड़ रहा है। बस जीवन के पत्थर को ऐसे ही तराशिए। मजा आएगा। शुकदेवजी समझाते हैं प्रियव्रत की सारी जीवनशैली ऐसी थी, इसलिए प्रियव्रत आनंद में रहा।
भगवान विष्णु के अवतार हैं ऋषभदेव
प्रियव्रत के आगे के राजाओं का वर्णन पढ़ते हैं। प्रियव्रत के बेटे का नाम था आगनिंद्र, आगनिंद्र के बेटे का नाम था नाभि और नाभि के बेटे का नाम हुआ ऋषभदेव। ऋषभदेव भी अवतार माने गए हैं। ऋषभदेव वे अवतार थे जो वैरागी और फकीरी में रहते थे। उनके पिता नाभि राजा थे और ये राजकुमार। यहां अब दो राजाओं की कथा आएगी। ऋषभदेव और भरत की और विधान के अनुसार दूसरे दिन का प्रसंग समाप्त होता है।
पांचवां स्कंध इन्हीं के साथ समाप्त होगा। तो ऋषभदेव और भरत से क्या गड़बड़ हो गई कि वो चूक गए। अभी हम आगे के प्रसंग में पढ़ेंगे।प्रियव्रत का दाम्पत्य क्या था? ऋषभदेव ने जीवन को कैसे मोड़ दिया और भरत के साथ क्या घटना घटी? ये परीक्षित ने प्रश्न पूछा। आइए ऋषभदेव की चर्चा कर रहे हैं हम। ऋषभदेव ने विचार किया कि मेरे पिता नाभि के राज में जलवृष्टि नहीं हो रही है। उन्होंने शपथ ली फिर उन्होंने कहा मैं अपने संकल्प से बारिश कराऊंगा और वर्षा करा दी। यह बात इंद्र को पता लगी तो इंद्र ने कहा मेरे अधिकार का काम कोई दूसरा कैसे कर सकता है?
बड़ा क्रोध आया ऋषभदेव पर, लेकिन जब ऋषभदेव के बारे में जाना, देखा कि ऋषभ तो बहुत तपस्वी हैं। इन्द्र ने अपनी पुत्री जयंती का विवाह ऋषभदेव से करा दिया। ऋषभदेव इंद्र के दामाद हो गए। बाद में ऋषभदेव अपने पुत्रों को सबकुछ सौंपकर चले गए वन में। ऐसा कहते हैं कि ये वे ही ऋषभदेव हैं जिनसे जैन धर्म का आरंभ हुआ। ऋषभदेव जंगल में चले गए।
उन्होंने अपने जीवन को नई दिशा दी और वहीं से जैन धर्म का आरंभ हुआ। ऋषभदेव ने अपने पुत्र भरत को राजपाठ सौंप दिया। भरत बड़े पराक्रमी थे। भरत ने अपने पराक्रम, पुरूषार्थ, भक्ति और निष्ठा से राज किया। यह वही भरत हैं जिनके नाम से भारतवर्ष जाना जाता है।
भागवत बताती है माया का रहस्य
ऋषभदेव अपने पुत्र भरत को राज-पाट सौंपकर वन को चले गए। भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा। भरत ने इसको इतना व्यवस्थित किया और सोने की चिडिय़ा बनाया। किसी राष्ट्र के विकास के लिए जो कुछ भी किया जा सकता था वो भरत ने किया। वे हमें ये सीखा गए कि देश को कैसे योग्य बनाएं।
भरत ने एक बड़ा संदेश यह दिया कि मैं सुपात्र था तो मैंने अजनाभ वर्ष(भारत वर्ष का पूर्व नाम) ऐसा बना दिया कि ये आगे तक भारतवर्ष जाना जाएगा। इसीलिए हम उस भरत राजा को प्रणाम करते हैं जिन्होंने भारतवर्ष हमको सौंपा। हमारी तैयारी भी ऐसी ही हो कि आज से 50-100 साल बाद कोई दिव्य भारतवर्ष आने वाली पीढ़ी को सौंपकर जाएं। नहीं तो यह पीढ़ी कभी हमें क्षमा नहीं करेगी, लोग कहेंगे ऐसा देश छोड़ा? एक बार और हम सबको स्वर्णिम भारत बनना है। ये भागवत की मांग है।इसलिए भागवत में शुकदेवजी परीक्षित से कह रहे हैं भरत से सीखो। कैसे अपने देश को, अपने राष्ट्र को योग्य बनाया कि आज वो भारतवर्ष के नाम से जाना जाता है।
इसलिए मौलिकता व्यक्तित्व की बनाए रखिएगा।आइए हम भागवत कथा के विधान में दूसरे दिन के समापन की ओर प्रवेश करें। भरतजी के जीवन में जो गड़बड़ अब होने वाली है बस उसको पढ़कर दूसरे दिन की कथा का समापन होता है। भरतजी राजपाठ सब छोड़कर वन में जाकर अपना भजन-पूजन करने लग गए लेकिन भरतजी की माया छुटी नहीं। उनकी माया का मोह छुटा नहीं और राज छोड़कर आ गए वन में।देखिए एक बात का ध्यान रखिए छह जगह से माया का प्रवेश होता है। माया भोजन से, द्रव्य से मतलब दौलत से, वस्त्र से, स्त्री से, घर से और पुस्तक से आती है।
पुस्तक से भी माया का जन्म होता है। माया इतनी जगह से आएगी तो लोग पूछते हैं ये माया क्या है? भगवान जब सृष्टि का निर्माण करते हैं तो जिस शक्ति का उपयोग करते हैं उसका नाम है माया। वो माया से इसको रचते हैं। माया को साधारण भाषा में कहते हैं जादू। सबसे बड़ा जादूगर वो दुनिया का परमात्मा है। वो माया हमारे साथ करता है।
मोक्ष चाहिए तो माया को छोडऩा होगा
हमने पढ़ा भरतजी राजपाठ छोड़कर वन की ओर चल दिए। वन में पहुंचने के बाद भी उनकी माया छूटी नहीं। एक दिन भरत ध्यान लगा रहे थे। गंडकी नदी के सामने उनका आश्रम था। एक हिरणी आई, गर्भवती थी। पानी पीने आई और उसी समय शेर ने दहाड़ मारी तो डर के मारे नदी में कूद गई, गर्भपात हो गया। छोटा हिरण का बच्चा नदी में डूबने लगा। भरत ने देखा, कूद गए। बच्चे को निकाल लाए। देखा इसकी मां तो मर गई, बह गई। बड़ा प्यारा बच्चा, उनको मोह जाग गया। उससे मोह जाग गया तो बच्चे का लालन-पालन करने लगे।
एक मृगबाल में माया जाकर टिक गई तो भक्तिभाव छूट गया। एक दिन मृगबाल बड़ा हुआ, झुण्ड जा रहा था हिरणों का तो उस झुंड में चला गया। मृगबाल चला गया तो भरतजी बहुत दु:खी हुए। वह कहां चला गया रोने लग गए और रोते-रोते मर गए। अंतिम समय में उस मृग को याद कर रहे थे तो पुनर्जन्म भरत का मृग के रूप में हुआ। पर उन्हें अपनी पूर्व स्मृति थी। उन्होंने विचार किया मैंने मृग का ध्यान किया तो मैं मृग बन गया। चलते-चलते एक दिन मृगस्यी भरतजी अपने उसी आश्रम में आ गए जहां पहले रहते थे और विचार करने लग गए कि मुझे अब देह त्याग देना चाहिए।
अगले जीवन में मैं जो कुछ भी बनूं सावधान रहूं। मैंने मोह पाला तो मेरी ये स्थिति हो गई और यहीं भरतजी सोचते हैं कि मैं अपनी देह त्यागता हूं। इस देह को छोड़ देता हूं और यही आकर पांचवें स्कंध का समापन हो रहा है
जीवन में अनुशासन होना आवश्यक है
एक बात आप ध्यान में रखें कि हम सात दिन में सात सूत्र दाम्पत्य के देख रहे हैं। हमने पहले दिन संयम देखा। दूसरे दिन संतुष्टि देखी। अब हम अपने दाम्पत्य के प्रमुख सूत्र संतान से परिचित होंगे। फिर हम आगे बढ़ेंगे। आइए अब हम प्रवेश कर रहे हैं भागवत के साथ तीसरे दिन के प्रसंगों में। भागवत तीसरे दिन के प्रसंगों में बताएगी कि जो भी करना होश में करना। याद रखिए ये दाम्पत्य के तीसरे सूत्र संतान का दिन है और सबसे पहला काम करना संतान पैदा करना तो होश में करना। जिनकी संतानें उनकी बेहोशी में पैदा हुईं जीवनभर पछताएंगे ।
आइए आपको छोटा सा उदाहरण दे दूं, होश में कैसे जिया जाता है। अगर आपके पास ये पात्र हो तो आप इनसे समझ सकते हैं कि कुंती पांडवों की मां थी जीवनभर होश में रही। कुंती के जीवन में इतना विपरीत समय आया कि उनके पति का देहांत हो गया। पांच छोटे-छोटे बच्चे उनके हवाले थे। तीन उनके युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और दो पांडु की सहपत्नी माद्री के नकुल और सहदेव। जब पांडु का निधन हुआ तब प्रश्न उठा कि पांडु के साथ किसको सती होना है। कुंती ने कहा मैं ही हो जाती हूं सती, तो माद्री ने कहा -कुंती बहन। सती तो होना है किसी को, तो मैं होऊंगी। मेरे दो बच्चे हैं और आपके तीन। मैं जीवित रही तो आपके बच्चों को वैसे नहीं पाल पाऊंगी जैसे आप मेरे दो बच्चों को पालेंगी, मैं आपको जानती हूं। इसलिए आप ही रहिए। मेरे बच्चे पल जाएंगे।
कुंती ने जंगल में उन छोटे-छोटे बच्चों को पाला और वो बच्चे पांडव बने। जंगल में, सारे अभाव में, उनके पास कुछ नहीं था। जबकि राजमहल में सारी सुविधाएं थीं कौरवों के पास और फिर भी कौरव, कौरव रह गए तो सुविधा का लालन-पालन से कोई लेना-देना नहीं है। लालन-पालन का सीधा संबंध अनुशासन से है। आत्मानुशासन, परिवार का अनुशासन, समाज का अनुशासन और विद्या का अनुशासन।
जो भी काम करें, होश में करें
सुविधाएं होना बहुत अच्छी बात है, लेकिन सुविधाओं पर टिक कर काम नहीं चलेगा। पांडवों को पांडव बनाया क्योंकि होश में थीं माता कुंती।अब भागवत में तीसरे दिन के प्रसंगों में प्रवेश करें जो प्रसंग इसमें आएंगे वो प्रसंग बार-बार हमसे कह रहे हैं कि जो भी काम करना, होश में करना। आइए अब हम प्रवेश कर रहे हैं पांचवें स्कंध में। हमने पढ़ा था कि भरतजी की माया टिकी रही, भरतजी जंगल में गए, भरतजी को मृगबाल से मोह हुआ। भरतजी मृग बने और मृगयोनी को भी उन्होंने त्यागा और वो एक ब्राह्मण के घर में जड़भरत के रूप में जन्में।
भरतजी को अपना पूर्व जन्म याद था तो उन्होंने सोचा कि पिछले जन्म में मैं एक हिरण में उलझ गया, तो मुझे हिरण बनना पड़ा। इस जन्म में मैं इतना सावधान रहूंगा कि मनुष्यों में भी नहीं उलझूंगा तो पूरा ही वैराग्य लेकर पैदा हो गए और जिस घर में पैदा हुए उसमें भाइयों में सबसे छोटे थे। पिता ने बहुत प्रयास किया कि ये बच्चा पढ़ जाए पर वो कुछ नहीं करते, बैठे रहते। भरतजी कुछ भी काम इच्छा से नहीं करते इसलिए उनका नाम पड़ा जड़भरत। उन्हें काम न करते देख उनके भाइयों ने कहा या तो आप काम करिए या हमारे घर से विदा हो जाइए।
जड़भरत तो इतने निर्लिप्त हो गए कि उन्होंने कहा कि यहां रह ही कौन रहा है। वह चल दिए और जाकर एक मंदिर के बाहर बैठ गए। उसी समय वहां एक भील राजा के यहां संतान नहीं हो रही थी। उसको नरबलि देना था तो उन्होंने अपने लोगों से कहा कि पकड़कर लाओ किसी को। वो लोग निकले, जड़भरत से उन्होंने कहा चलते हो। जड़भरत ने कहा चलते हैं। उन्होंने कहा नरबलि देना है। उन्होंने कहा चल चलेंगे। आश्चर्य हुआ सैनिकों को। किसी से बोलो नरबलि देना है तो उल्टा भाग जाए और ये कह रहा है चलो। जड़भरत चले गए भीलों के साथ।
भगवान अपने भक्तों का ध्यान रखते हैं
हमने पढ़ा जड़भरत को भील नरबलि देने ले गए। जड़भरत भीलों के साथ चले और जैसे ही भीलों के राजा ने जड़भरत की बलि देने की कोशिश की तो वहां भद्रकाली प्रकट हुई और भद्रकाली ने उन लोगों का वध किया। यह प्रसंग हमको बता रहा है कि जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता ही है। इस घटना के बाद भी जड़भरत वैसे के वैसे ही रहे।
एक बार सौवीर देश का राजा रघुगण पालकी में बैठकर कपिल मुनि के यहां आत्मज्ञान प्राप्त करने जा रहा था। कहार उसकी पालकी उठाए हुए थे। एक कहार कुछ डगमगा रहा था, कमजोर था तो जो कहारों का प्रमुख था उसने विचार किया कि कोई अच्छा सा कहार मिल जाए। जड़भरत दिख गए बैठे हुए थे। इसको जोत लेते हैं। इनको कहा भई पालकी उठाओगे तो ये पालकी उठाने लगे।राजा को मालूम नहीं था कि आदमी बदल गया है और जड़भरत बार-बार ये सोच रहे थे कि मेरे पैर के नीचे छोटा कोई जंतु या जानवर दब न जाए। यदि कोई चींटी दिखती तो जड़भरत छलांग लगा लेते।
कभी एक पैर इधर रखते, कभी एक पैर उधर रखते। उस चक्कर में पालकी हिलने लगी और पालकी हिली तो राजा को लगा ये कैसी पालकी चल रही है। राजा ने वहीं से डांट लगाई कौन है ये? ठीक से चल भई कहार, नहीं तो दंड दूंगा।जड़भरत तो वैसे ही चलते रहे और राजा बहुत क्रोधित हुआ। पालकी रुकवाई, नीचे उतरकर आए कहा कौन मूर्ख है ये? इसको कहां से लाए, तो बताया गया कोई आदमी नहीं था, यह बैठा था जोत लिया। राजा ने उस जड़भरत को डांट लगाई। तू जानता नहीं मैं राजा हूं और तुझे इतनी अक्ल नहीं पालकी ऐसे चलाते हैं कूद-फांदकर। जड़भरत ने उत्तर दिया कि पालकी चलाना देह का काम है मेरी आत्मा को इससे कोई लेना-देना नहीं है कि आप राजा हो या कोई और।
ज्ञान प्राप्ति के पहले उसके योग्य बनना पड़ता है
अब तक आपने पढ़ा कि जड़भरत राजा रघुगण की पालकी कहार बनकर उठाते हैं और राजा उनसे सवाल करता है। तो जड़भरत उत्तर देते हैं कि देह अपना काम कर रही है, आत्मा अपना काम कर रही है। ये उत्तर सुनकर राजा सोच में पड़ गए। एक कहार ऐसी बात कर रहा है। राजा ने कहा अच्छा इतने मन की बात करता है तो तू जानता है मन क्या है। जड़भरत बोले मन, मन तो भगवान ने दिया है भीतर है। झांककर देखो और मन को सुला दो परमात्मा सामने होगा।
अब राजा चौंक गए कि मैं जिससे बात कर रहा हूं ये कुछ विचित्र सा आदमी है। उन्होंने पूछा तू जानता है मैं कौन हूं? तो जड़भरत पूछते हैं कि आप कौन हो ये तो मुझे नहीं मालूम पर आप जानते हैं मैं कौन हूं? न मैं जानता हूं, न तुम जानते हो, हम दोनों कौन हैं? अगर यह जान जाओगे तो एक-दूसरे से पूछोगे ही नहीं कि तू कौन, मैं कौन? अब राजा समझ गया। जड़भरत के पैरों में प्रणाम किया। कहा या तो आप कपिल मुनि हैं जिनके पास मैं जा रहा हूं या आप भगवान हैं। आप कौन हैं?
जड़भरत को तो तब भी कुछ लेना-देना नहीं था उन्होंने कहा कि तुम वेदांत का ज्ञान लेने जा रहे हो तो जरा विचार तो करो, इसके योग्य तो बनो। संकेत यह था कि राजा पालकी में सज-धजकर, सेना के साथ, कहारों के साथ सत्संग सुनने जाओगे तो फिर कभी कुछ हाथ नहीं लगेगा। राजा बनकर कभी सत्संग में नहीं जाया जा सकता। सत्संग तो समानता से हो सकता है। रघुगण को बात समझ में आई। जड़भरत ने हमें ये बताया कि हम कितने ही बुद्धिमान हो जाएं जड़भरत बने रहना। जड़ का मतलब मूर्ख होना नहीं है। जड़ का मतलब है निष्कामता। भागवत में चर्चा करते-करते निष्कामता, मन, भक्ति, भगवान ये कुछ शब्द आते ही रहेंगे।
स्वर्ग -नर्क का भेद बताती है भागवत
परीक्षितजी ने शुकदेव भगवान से प्रश्न पूछा कि आप मुझे बताइए कि स्वर्ग-नर्क क्या होता है? पृथ्वी का खगोल-भूगोल क्या होता है? ये सब आप मुझे बताइए। अचानक उन्होंने ये प्रश्न पूछा। उसके पीछे भी एक तर्क था परीक्षित का। मैंने मनुष्य के मन को, मनोविज्ञान को कई पात्रों से सुना आगे भी सुनूंगा पर अब मैं प्रकृति और मनुष्य को जोडऩा चाहता हूं।हम लोग हिल स्टेशन क्यों जाते हैं अच्छा दृश्य दिखे। प्रकृति हमारी मनोवृत्ति को क्यों बदल देती है क्योंकि ये शरीर पंचतत्व से बना है जिससे प्रकृति बनी है।
हमारी देह में पांच तत्व हैं और वही तत्व बाहर हैं और उसका और हमारा संतुलन बना रहा तब तक हम स्वस्थ भी हैं और शांत भी हैं और उसका और हमारा संतुलन बिगड़ा कि हम गए काम से।शुकदेवजी परीक्षित को बता रहे हैं और यहीं से शुकदेवजी छठवें स्कंध में प्रवेश कर रहे हैं। पांचवां स्कंध यहां आकर समाप्त होता है।आइए यहीं से छठे स्कंध में ले चल रहे हैं। शुकदेवजी ने परीक्षित से कहा कि नर्क से कैसे बचें? ये बड़ा ज्वलंत प्रश्न है। नर्क देखा किसी ने नहीं है, पर नर्क का नाम सुनकर आदमी को बड़ा कष्ट होता है। अगर किसी को ये आस्था है कि मरने के बाद स्वर्ग और नर्क मिलता है और नर्क में मनुष्य को दंड मिलता है तो हम भारतीय लोग तो मानकर ही चलते हैं कि भैया अच्छे काम करो नहीं तो नर्क में जाओगे बोलते हैं ऐसा। कभी-कभी उपद्रव हो जाए तो बोलते हैं क्या नर्क बना दिया है।
नर्क का मतलब है नकरात्मक स्थितियां। वो जो स्वर्ग है ऊपर है और नर्क नीचे है। आपको तो ज्ञात ही होगा कि स्वर्ग की भौगोलिक स्थिति ऊपर है और नर्क नीचे है पाताल में। ये तो भौगोलिक स्थिति है भागवत कह रही है, शास्त्र कह रहे हैं, पुराण कह रहे हैं। पर समझने की बात यह है कि जब-जब भी आप ऐसा काम करें कि आप नीचे गिर जाएं, समझ लीजिए कि आप नर्क में हैं और कहीं ऊपर उठ जाएं तो समझ लीजिए कि स्वर्ग में है बस यही स्वर्ग-नर्क है।
ऐसे बचें नर्क जाने से
शुकदेवजी राजा परीक्षित को स्वर्ग-नर्क का भेद बता रहे हैं। उन्होंने कहा- यदि आप पतित हो गए आचरण से तो आप नर्क में टपक गए और उठ गए सदाचरण से ऊपर तो यही स्वर्ग है। परीक्षित ने पूछा शुकदेवजी से- आप तो इस बात का उत्तर दो कि नर्क जाने से कैसे बचें ? उन्होंने बताया कि नर्क जाने से बचना हो तो तीन काम करो ध्यान करो, अर्चन करो और नाम लो। ये तीन काम करिए। थोड़ा सा ध्यान लगाइएगा, ध्यान लगाते ही आपकी ऊर्जा उपर उठने लगती है। ऊर्जा ऊपर उठी तो आपका चरित्र ऊपर उठेगा। यदि आप नाम, स्मरण, ध्यान ठीक से नहीं कर रहे हैं तो आप नीचे जा रहे हैं। आचरण से, क्रोध कर रहे हैं, काम कर रहे हैं, छल कर रहे हैं लोगों से तो आप नर्क में जा रहे हैं।
अब शुकदेवजी अजामिल की कथा सुना रहे हैं। अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था, 80 वर्ष का। उसने अपना जीवन कैसे जिया अब ये बता रहे हैं।परीक्षित ने पूछा शुकदेवजी आपने साधक पुरूषों की मुक्ति और निवृत्ति का मार्ग मुझे बताया जिससे स्वर्ग मिलता है। स्वर्ग पाने पर फिर जन्म मरणमय संसार में आना पड़ता है। अब मुझे वे साधन बताइये कि जिससे मनुष्य नर्क जाने से बच जाए।शुकदेवजी बोले- हे राजन। जो पुरूष मन, वाणी और कर्म से किए इस जन्म में मनु आदि शास्त्रों में कहे अनुसार प्रायश्चित नहीं करेगा वह तो नर्क में जाएगा।
इसलिए मानव को चाहिए कि वह इस जन्म में किए पापों का प्रायश्चित इसी जन्म में कर ले।प्रायश्चित का अभिप्राय है पथ्य विचार। जिस प्रकार पथ्य करने वाले को रोग नहीं घेर पाता उसी प्रकार धर्मज्ञ, श्रद्धावान, धीर पुरुष अपनी तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय दमन, मन की स्थिरता, दान, सत्य, भीतर-बाहर की पवित्रता तथा यम, नियम इन नौ साधनों से मन, वाणी और शरीर द्वारा किए गए बड़े से बड़े पापों को भी नष्ट कर देते हैं।
नेत्रों से प्रवेश करता है काम
भागवत के छठे स्कंध में तीन प्रकरण हैं। पहला है ध्यान प्रकरण, यह 14 अध्यायों में वर्णित है। 5 कर्ममेंद्रियां, 5 ज्ञानेंद्रियां, मन, बुद्धि चित्त और अहंकार। दूसरा प्रकरण है अर्चन प्रकरण। दो अध्यायों में सूक्ष्म, अर्चन, स्थूल अर्चन का वर्णन किया गया है। तीसरा प्रकरण है नाम। गुण संकीर्तन और नाम संकीर्तन का तीन अध्यायों में वर्णन किया गया है।
भागवत में शुकदेवजी अब अजामिल की कथा सुना रहे हैं। एक ब्राह्मण था अजामिल नाम का। जाति का ब्राह्मण पर कर्मों से दुष्ट था। लूटपाट करता, साधु-संतों को लूट लेता। एक दिन घूमने गया वो। एक जंगल में जाकर देखा कि एक कुंड में एक व्यक्ति, एक वैश्या के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। इसने उस वैश्या को भीगा हुआ देखा तो इसकी आंख में काम आ गया और कामांध हो गया। उसने सोचा ये वैश्या मुझे प्राप्त हो जाए और उसने उसको प्राप्त कर लिया और घर ले आया। फिर उससे उसकी संतानें हुईं और जो सबसे छोटी संतान थी उसका नाम उसने नारायण रखा।
देखिए हमें समझने की यह बात है कि अजामिल वन में गया उसने किसी को नहाते देखा और उसको काम जाग गया। काम जीवन में जब भी आएगा नेत्रों से आएगा। काम नेत्रों से प्रवेश करता है। इसलिए क्या देखा जाए ये जीवन में बड़ा महत्वपूर्ण है। क्या देखा जाए, कितना देखा, कब देखा जाए और कैसे देखा जाए आदमी इस मामले को लेकर बिल्कुल ध्यान ही नहीं देता।
जो भक्त हैं, जो साधक हैं वो इस बात को साधना के रूप में लें कि क्या देखा जाए? कितना देखा जाए? क्योंकि दृष्टि से जब दृश्य का प्रवेश होता है तो वो दृश्य अपना प्रभाव लेकर आता ही है आप उससे वंचित नहीं हो सकते हैं।
जो भी देखें सोच-समझ कर देखें
हमारे यहां एक कथावाचक हुए हैं डोंगरे महाराजजी। बड़े सिद्ध संत थे। जब वे भागवत कहा करते थे तो आंखे बंद रखते थे। लोग उनसे पूछते कि आप आंख बंद करके क्यों बोलते हैं तो वह कहते थे कि जब मैं भागवत बोलता हूं तो मैं परमात्मा के साथ, भागवत के प्रसंगों के साथ जीता हूं। डोंगरेजी कहते हैं मैं तो देख नहीं पाता। बालकृष्ण का जन्म हुआ मुझे लगता है मैं वहीं था। तुलसीदास ने रामकथा ऐसे ही लिखी थी। सामने दृश्य घट रहा है और लिख ली।
हमें ये समझना चाहिए कि क्या देखना है और कितना। दृष्टि को विश्राम दीजिए अकारण न देखें। पहले भारत में संयुक्त परिवार हुआ करते थे तो बच्चे लालन-पालन में माता-पिता के अलावा दादा-दादी, नाना-नानी के साथ सोते थे। बूढ़े नाना-नानी, दादा-दादी अपने नाती-पोतों को महाभारत की कोई रामायण की कहानी सुनाते और बच्चे सो जाते। अब हो गए छोटे-छोटे परिवार तो बच्चों को कौन कहानी सुनाए। इसलिए सावधान रहिए। क्या देख रहे हैं और क्या दिखा रहे हैं। यह दृश्य कहीं न कहीं आपके मानस पटल पर प्रभाव डालेंगे। इसीलिए तो कहते थे बच्चों को हिंसात्मक फिल्म न दिखाएं क्यों, क्योंकि वह कहीं न कहीं मानस पटल पर आकर क्रिया में आ जाती है।
इसलिए सावधान रहिए क्या देखा जाए?अजामिल की कथा हमको ये समझा रही है कि क्या देखें? कितना देखें और जरूरत नही है तो न देखें। हमने पिछले अंक में पढ़ा कि अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था जो अत्यंत दुष्ट प्रवृत्ति का था। उसने एक वैश्या के साथ संबंध बनाए और जो संतान उत्पन्न हुई उनमें से सबसे छोटे पुत्र का नाम नारायण रखा।
भवसागर से पार करता है भगवान का नाम
भागवत में हम अजामिल की कथा सुन रहे हैं। अजामिल ने वैश्या से संबंध रखे, बच्चे पैदा किए। एक दिन अजामिल बाहर बैठा था। उसके गांव में साधु-संत आए। गांव के युवकों से पूछा भैया हमें भोजन प्राप्त करना है। तो कोई भला घर है उसके घर जाकर हम अन्न प्राप्त कर लें।जो लड़के थे उन्होंने सोचा मजाक करते हैं साधु से, अजामिल के भी मजे ले लेंगे इस बहाने। उन्होंने कहा एक बहुत अच्छा ब्राह्मण है, बड़ा शुद्ध है, बड़ा आचरणशील है। आप लोग उसके घर चले जाइए वो भोजन करा देगा।
अजामिल तो अव्वल दर्जे का भ्रष्ट था लेकिन लड़कों ने साधुओं को उसके घर भेज दिया। साधु-संत गए और साधु-संत ने अजामिल से बोला- आपके घर से भोजन चाहते हैं। अजामिल ने कहा भोजन तो मिल जाएगा पर मैं तो अव्वल दर्जे का भ्रष्ट हूं। उन्होंने कहा हम बना लेंगे, तुम सामग्री दे दो बस। उसने भोजन बनाने की सामग्री दी।उन्होंने भोजन बनाया और उनको लगा जाते-जाते कुछ भला कर जाएं इसका। उन्होंने कहा तुम्हारी पत्नी गर्भवती है तो तुम्हारे यहां अब जो संतान हो उसका नाम तुम नारायण रख देना। साधु उनको बोल गए। अजामिल को कोई लेना-देना ही नहीं था उसने कहा कुछ तो नाम रखना ही है, चिंकू-पींकू तो नारायण ही रख देंगे।
नारायण नाम रख दिया। सबसे छोटा पुत्र था तो अजामिल को बड़ा प्यार था उससे। 24 घंटे उसको बुलाए नारायण-नारायण। नारायण पानी ला, नारायण ये कर नारायण-नारायण। 80 साल की उम्र हो गई अजामिल की। मृत्यु का दिन आया। यमदूत लेने आए।
अजामिल को लगा कोई लेने आए हैं। उसने सोचा क्या करूं-क्या करूं तो चिल्लाया नारायण-नारायण। आवाज लगा रहा है अपने बेटे को। नारायण जल्दी आ, अब नारायण-नारायण चिल्लाया तो भगवान विष्णु के देवदूत दौड़े आए।
जीवन में नाम का बड़ा महत्व है
भागवत कह रही है कि संतान का लालन-पालन करें तो होश में करें। होश में रहने की जो बात यहां कही जा रही है, वो यही है कि बच्चों कों कहीं न कहीं परमात्मा से जोड़े रखिए। भक्त बनाएइ। भक्त में सारे गुण होते हैं। भक्त एक आचरण है संपूर्ण आचरण। कंप्लीट केरेक्टर का नाम भक्त है। परमात्मा पूरा भक्त चाहता है। नाम का बड़ा महत्व है इसलिए नाम लेते रहिए।
आपको यह घटना याद होगी कि हनुमानजी जब भगवान राम के पास से विरह संदेश लेकर मां सीता के पास पहुंचे और उन्होंने मां सीता को सारा संदेश दिया तो सीता मां ने मुंह मोड़ लिया। सोचा ये भी कोई रावण की माया है। हनुमानजी बहुत दु:खी हो गए। अब कैसे मनाएं? कथा सुनाई और रामजी की अंगुठी भी डाल दी फिर भी सीताजी विश्वास नहीं कर रही हैं। तब हनुमानजी को याद आया कि भगवान ने मुझे एक बात कही थी कि यदि सीता न पहचाने और कोई परेशानी खड़ी हो जाए तो मैं तुम्हें कान में एक बात कह रहा हूं यह है कोडवर्ड मेरे और सीता के बीच का। हनुमानजी को याद आया कि भगवान ने कह रखा है वह बोल दो।
उन्होंने तत्काल कहा- रामदूत मैं मातु जानकी और रामजी और सीताजी जब एक-दूसरे से बात करते थे, एकांत में तो सीताजी भगवान को करूणानिधान कहती थीं। यह बात सीताजी को मालूम थी, रामजी को मालूम थी और जैसे ही हनुमानजी ने बोला सत्य शपथ करूणानिधान की। सीताजी ने कहा ये कोई निकट का व्यक्ति है। एकदम पलटीं, बेटे को स्वीकार किया। नाम का ऐसा महत्व है। करूणानिधान नाम था प्रभु राम का। इसलिए नाम को जीवन में बनाए रखिए ये नाम आपको परमात्मा तक पहुंचा देगा।
जब चंद्रमा ने वनस्पतियों को भस्म होने से बचाया
परीक्षितजी ने शुकदेव महाराज से कहा- हे महामुनि। मुझे परमपुरूष परमात्मा द्वारा देवता, मनुष्य, नाग और पक्षी आदि की सृष्टि का विवरण विस्तार से समझने की कृपा कीजिए। तब शुकदेवजी कहने लगे कि राजा प्राचीनबर्हि के दस पुत्र जिनका नाम प्रचेता था, समुद्र में तपस्या करके बाहर निकले। उन्होंने देखा कि सारी पृथ्वी लता, वृक्ष आदि से हरी-भरी हो गई है। उनके लिए उस धरा पर कहीं स्थान ही शेष नहीं है। इससे उनको बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उस वृक्षावली को अपने क्रोध से भस्म कर देना चाहा।
चंद्रमा वनस्पतियों के स्वामी हैं। जब चंद्रमा को यह विदित हुआ तोवे प्रचेताओं को वनस्पति का लाभ समझाकर उन्हें कुमार्ग से विरक्त करने का प्रयास करने लगा और वह उसमें सफल भी रहे। चंद्रमा ने वृक्षों के अधिपति की कन्या को प्रचेताओं की पत्नी के रूप में दिलवा दिया। प्रचेतागण शांत हो गए। उससे उन्होंने दक्ष को उत्पन्न किया। दक्ष क्योंकि प्रचेताओं से उत्पन्न थे इस कारण उनका नाम प्राचेतस हुआ और उन्हीं की संतान से ये सारा संसार भर गया। दक्ष ने मानसी सृष्टि उत्पन्न की उसमें देव, दानव, मानव सभी थे। किंतु इस सृष्टि में बल का अभाव था और इसी कारण वह पनप नहीं सकी।
प्रजापति दक्ष निराश हुए और घोर तप किया। भगवान प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि तुम प्रजापति पंचजन की पुत्री आसिन्की से विवाह कर लो । उसी से सृष्टि की वृद्धि होगी। ऐसा कहकर भगवान अंतध्र्यान हो गए। आदेश के अनुसार दक्ष ने आसिन्की से विवाह किया। उनके यहां दस हजार पुत्र उत्पन्न हुए। उन्हें सृष्टि की वृद्धि का आदेश दिया। पिता का आदेश मानकर दक्ष पुत्र तपस्या के लिए निकल गए।
जब दक्ष ने श्राप दिया नारदजी को
हमने पढ़ा भगवान के आदेशानुसार दक्ष ने आसिन्की से विवाह किया और उनसे दस हजार पुत्र उत्पन्न हुए। दक्ष ने उन्हें सृष्टि की वृद्धि का आदेश दिया। पिता का आदेश मानकर दक्ष पुत्र तपस्या के लिए निकल गए।जब नारदजी को यह विदित हुआ तो उन्होंने उन पुत्रों से कहा कि बिना पृथ्वी का अंत देखे वो लोग किस प्रकार सृष्टि कर पाएंगे। ये सुनकर दक्ष पुत्र सोच में पड़ गए और उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति का विचार त्याग दिया और वे आत्मकल्याणर्थ मोक्ष प्राप्ति के लिए तप करने लगे। जब यह दक्ष को विदित हुआ तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ।
दक्ष ने पुन: पुत्र उत्पन्न किए और आज्ञा दी कि वे सृष्टि का सृजन करें। नारदजी को फिर विदित हुआ तो उन्होंने उनको फिर वही ज्ञान दिया और फिर वो पुत्र अपने पूर्वजों के अनुसार वापस तपरत हो गए और स्वर्गलोक में चले गए। यह समाचार दक्ष को मिला तो इससे उनका नारदजी के प्रति क्रोध बढ़ गया। दक्ष ने क्रोध में नारदजी को अपनी वंश परंपरा उच्छेद के अपराध में लोकलोकांतर में निरंतर भ्रमण करते रहने का शाप दे दिया। नारदजी को यह श्राप मिला और नारदजी ने ऐसा क्यों किया?
यह कथा बड़े संकेत की है। हम मनुष्य को दो प्रकार में बांट सकते हैं एक तो वे जो समाधि चाहते हैं, समाधान चाहते हैं और दूसरे वे जो सम्मान चाहते हैं समादर चाहते हैं।जो समाधि चाहता है, उसे भीतर की यात्रा पर जाना पड़ेगा और जो सम्मान और समादर चाहते हैं उसे दूसरों की आंखों के इशारों को समझना होगा। जो व्यक्ति चाहता है कि मेरे भीतर एक अपूर्व शांति हो, आनंद की वर्षा हो वह व्यक्ति यात्रा करता है समाधि, समाधान की। ऐसा व्यक्ति धार्मिक होता है। नारदजी का संतत्व ऐसा ही है। हम इसको अच्छी तरह समझ लें। नारदजी किसी से कोई सम्मान कोई समादर नहीं चाहते। उनकी यात्रा भीतर की थी।
नारदजी के चरित्र को जीवन में उतारें
शुकदेवजी राजा परीक्षित से बोले- हे राजन। दक्ष की दशा पर चिंतित होकर ब्रह्माजी ने उसको बहुत समझाया और कहा कि वह पुन: सृष्टि की उत्पत्ति करे। इस बार आसिन्की से दक्ष की साठ कन्याएं उत्पन्न हुई। उसने दस धर्मराज को, तेरह कश्यप को, 27 चंद्रमा को, दो भूत को, दो अंगिरा को, दो कृषाश्व को और शेष बची ताक्ष्र्यनाम धारी कश्यप को ब्याह दी। इन कन्याओं की इतनी संतति हुई की उनसे सारी त्रिलोकी भर गई।
आइए एक बार पुन: नारदजी को याद कर लें। शाप लगा तो नारदजी का अपना कोई घर ही नहीं रहा। जब जो जैसी भी स्थिति हो परमात्मा का प्रसाद मानकर ऐसा काम करिए कि उसमें भी आदर्श स्थापित हो जाए। नारद चल दिए और नारद सबको समझाते रहे, सुनाते रहे। नारदजी यही काम करते थे। नारदजी का काम यही था तो नारदजी के पास संभावना थी। उन्होंने अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाया। हम भी नारदजी से ये सीखें कि उनके पास भगवान की कृपा थी।
नारदजी तीन काम करते हैं कंधे पर रखते हैं वीणा, बजाते रहते हैं। मुंह से बोलते हैं नारायण-नारायण। वीणा के तार यदि ठीक से न कसे हुए हों तो उसमें से स्वर नहीं निकलेगा और हमारा ये शरीर वीणा है। ढीला छोड़ देंगे तो भी सुर नहीं निकलेगा और ज्यादा कस देंगे तो भी सुर बिगड़ जाएगा। संतुलन बनाए रखिए फिर देखिए क्या बढिय़ा संगीत आएगा अपनी देह से। तो नारदजी तीन काम कर रहे हैं पहला वीणा बजा रहे हैं संयम के साथ, दूसरा नारायण-नारायण बोल रहे हैं और तीसरा नारद वो काम करते हैं जो हमें हमेशा करते रहना चाहिए। जरा मुस्कुराइए।
गुरु ही जीवन को सफल बनाता है
अब आगे राजा परीक्षित ने प्रश्न किया कि देवताओं के किस अपराध के कारण बृहस्पति ने अपना पुरोहित पद छोड़ा। तब शुकदेवजी ने बताया कि त्रिलोक की संपदा प्राप्त कर इंद्र को प्रमाद हो गया था। एक बार इंद्र अपनी सभा में इंद्राणी के साथ उच्चासन पर विराजमान थे। उनका यशोगान हो रहा था और उसी समय देवगुरु बृहस्पतिजी सभा में पधारे।किंतु इंद्र ने उनका उचित आदर-सत्कार नहीं किया। बृहस्पतिजी ने इस अपमान का अनुभव किया और वे चुपचाप वहां से चले गए।
इंद्र को जब अपनी भूल का ज्ञान हुआ तो वे बृहस्पतिजी से क्षमायाचना की योजना बनाने लगे लेकिन बृहस्पति अपने स्थान से विलुप्त हो गए। दैत्यों को जब यह सूचना मिली कि देवगुरु बृहस्पति अपने स्थान से विलुप्त हो गए हैं तो उन्होंने तुरंत अपने गुरु शुक्राचार्य की अनुमति से देवताओं पर आक्रमण कर दिया और उन्हें पराजित कर दिया। इंद्र ने बृहस्पति का अपमान किया यह तो अनुचित हुआ लेकिन बृहस्पति उस बात को हृदय में रखकर अपना स्थान छोड़ गए, विलुप्त हो गए। उनके जाने से देवताओं पर आक्रमण हो गया। क्या बृहस्पति जी ने यह उचित किया ?
बृहस्पतिजी का यह सोचना कि इंद्र ने मुझे प्रणाम नहीं किया। इंद्र और देवता मुझे गुरु मानते हैं, तो उन्होंने अपने सम्मान की अपनी स्थिति की जैसी तुलना की ऐसी हम न कर बैठें। वो युग देवताओं का था। वह तो दुनिया उनकी निराली है लेकिन उनकी कथा से हम अपने लिए कुछ समझ हासिल कर सकते हैं। इंद्र की दृष्टि से बृहस्पति ने अपने को देखा। बृहस्पति गुरू हैं वो लीला कर रहे हैं, लेकिन कम से कम हम को यह संकेत मिले। सभी देवगण इंद्र के नेतृत्व में ब्रह्माजी के पास पहुंचे क्योंकि बृहस्पतिजी लुप्त हो गए थे और दैत्यों ने आक्रमण कर दिया था। तब ब्रह्माजी ने समझाया कि गुरु का अपमान किया है तो फल तो भुगतना होगा।
जब देवताओं ने विश्वरूप को बनाया गुरु
हमने पढ़ा इंद्र द्वारा अपमान करने पर बृहस्पतिजी अपने स्थान से विलुप्त हो गए। तब सभी देवता ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने उन्हें एक उपाय बताया कि त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास जाकर उसको गुरु बनाने का निवेदन किया जाए। देवतागण विश्वरूप के पास गए। विश्वरूप ने कहा कि वह तो उनसे आयु में बहुत छोटा है देवताओं का गुरु किस प्रकार बन सकता है। तब इंद्र ने समझाया बड़प्पन केवल आयु से नहीं होता आप देवज्ञ हैं अत: पुरोहित बनकर हमारा मार्गदर्शन कीजिए।
जब विश्वरूप ने देवताओं का पुरोहित बनना स्वीकार किया तो उसने अपनी वैष्णवी विद्या के बल पर असुरों से नारायण कवच आदि छीनकर इंद्र को प्रदान कर दिया। इंद्र ने असुरों पर विजय प्राप्त कर ली। यहां एक कथा और आती है। ये जो विश्वरूप है इसके तीन मुख थे एक मुख से वह सोमपान करता था, दूसरे से सुरापान व तीसरे से भोजन करता था। देवता उसके पिता के पक्ष के थे और दैत्य माता के पक्ष के थे। इसीलिए देवता विश्वरूप में विश्वास थोड़ा कम करते थे। सतर्क रहते थे।यहां एक बात और विचारणीय है वह यह कि जीवन में गुरु का बड़ा महत्व है। देवताओं के जीवन से गुरु लुप्त हो गए तो देवताओं की पराजय हो गई। जिसके जीवन में गुरु आ जाए वो सौभाग्यशाली है।
जब भी अवसर आए गुरु बना लीजिएगा ये अवसर जीवन में दोबारा नहीं आते। आपके जीवन में कब, कौन आएगा आपको मालूम नहीं पड़ेगा। अचानक आएंगे गुरु, आएंगे जरूर। गुरु आपको तीन बात देते हैं मंत्र देंगे, माला देंगे और मन देंगे। गुरु का मंत्र जिस क्षण आपके जीवन में उतरता है, जिस क्षण आप दीक्षित होते हैं। जिस क्षण आप पर शक्तिपात किया जाता है गुरु द्वारा। आप उस क्षण दिव्य हो जाते हैं। कई लोग ऐसे हैं कि जीवन में एक बार दीक्षा के समय गुरु से मिले और जीवनभर नहीं मिले क्योंकि उसके बाद आपकी पूंजी गुरु नहीं है वो तो गुरु मंत्र ही पूंजी है। जो उस मंत्र पर टिक गया वो गुरु होने का आनंद उठा लेगा।
जब इंद्र ने अपने गुरु विश्वरूप का सिर काटा
हमने पढ़ा देवगुरु बृहस्पति के विलुप्त होने पर विश्वरूप को देवताओं ने अपना गुरु बनाया। विश्वरूप के तीन सिर थे। एक बार कोई ऐसा अवसर आया कि इंद्र में और विश्वरूप में विवाद हो गया। इंद्र उस पर क्रुद्ध हो गए और उसका सिर काट डाला। तब जो सोमरस पीने वाला उसका सिर था वह पपीहा, सुरा पीने वाला गोरैया और अन्न खाने वाला तीतर हो गया।इंद्र को ब्रह्महत्या का दोष लग गया। उसने कुछ समय तक तो इस दोष को स्वीकार किया किंतु संवत्सर के अंत में उसने पृथ्वी पर वृक्ष और स्त्रियों, जल में इस ब्रह्म दोष को बांट दिया।
भूमि ने यह मांग की, उसके ऊपर के गड्ढे स्वयं भर जाएं। हत्या का चतुर्थ अंश उसने अपने ऊपर ले लिया । यही कारण है कि ऊसर भूमि पर पूजा आदि निषेध है। काटने पर फिर अंकुर निकल आए यह वर मांगकर वृक्षों ने हत्या का दूसरा भाग अपने सिर ले लिया। वह हत्या उनमें गोंद के रूप में विद्यमान है। इसलिए गोंद खाना निषेध बताया गया है। गर्भ की पीड़ा न हो और प्रसूतिकाल के पश्चात भी स्त्री-पुरूष मिलन कामना बनी रहे। यह वर मांगा स्त्रियों ने और इसी के साथ हत्या का तीसरा भाग उन्होंने लिया। वह स्त्रियों में मासिक धर्म के रूप में आज भी विद्यमान है। दूध आदि में जल को मिलाने पर भी उन पदार्थों की वृद्धि हो यह मांगकर जल ने शेष दोष स्वीकार कर लिया जो बुलबुले के रूप में है इसीलिए बुलबुले वाले जल में स्थान करना वर्जित बताया गया है।
तब शुकदेव बोलते हैं- देखो उस इंद्र को इतने बड़े सिंहासन पर बैठने के बाद भी दुर्गुण छोडऩे की इच्छा नहीं होती, इसलिए परीक्षित मैं बार-बार तुम्हारी प्रशंसा भी कर रहा हूं। तुम बहुत अच्छे व्यक्ति हो। राजगादी पर, राजमद से तुमसे यदि भूल हुई तो तुमने भगवान का नाम लेने का प्रयास किया। अब तुम अपने भीतर बैठे परमात्मा को पहचानते हो। यही परमात्मा तुम्हारा उद्धार करेंगे। यहां छटा स्कंद समाप्त होता है। अब भागवत का सातवां स्कंध प्रारंभ करेंगे।
क्या भगवान भी पक्षपात करते हैं?
अब सातवां स्कंध आरंभ होता है। छठवें स्कंध में हमने भगवान की पुष्टि लीला देखी। पुष्टि मतलब दया कृपा। अब सातवां स्कंध जब आरंभ हो रहा है तो इसमें तीन तरह की वासनाएं बताई गई हैं। परीक्षित प्रश्न पूछ रहे हैं - शुकदेवजी एक बात बताइए भगवान पक्षपात क्यों करते हैं? किसी को बहुत ऊंचा खड़ा कर देते हैं और किसी को नीचे गिरा देते हैं। किसी को मुक्त कर देते हैं, किसी को नर्क, किसी को स्वर्ग तो भगवान ऐसा पक्षपात क्यों करते हैं?
शिशुपाल को तो मुक्त कर दिया और वेन नाम के राजा को नर्क में पटक दिया। (वेन की कथा हम पहले पढ़ चुके हैं)। शिशुपाल ने भगवान को इतनी गालियां दी कि भगवान ने उसको सुदर्शन से मारा और मुक्त कर दिया। उसको मुक्ति प्रदान की जो भगवान को गाली दे रहा है। अब शुकदेवजी परीक्षितजी को कह रहे हैं कि परीक्षित आपने जो प्रश्न पूछा ऐसा ही एक प्रश्न युधिष्ठिर ने नारदजी से भी पूछा था। शुकदेवजी समझा रहे हैं। देखो एक बात समझ लो भगवान सिर्फ भाव के भूखे हैं। भगवान से यदि संबंध रखना है तो जिस भाव से आप रख रहे हैं उस भाव से आपको परिणाम मिलेगा। शिशुपाल ने शत्रु भाव रखा लेकिन वेन ने भगवान के प्रति कोई भाव ही नहीं रखा तो फिर भगवान ने कहा मैं इसे कैसे मुक्त करूं?
ये बहुत महत्वपूर्ण है किस भाव से भगवान को पूज रहे हैं। अब प्रह्लाद प्रसंग आ रहा है। हिरण्यकषिपु अहंकार का रूप है। और दूसरे जन्म में ये ही हिरण्यकष्यपु तथा असुर हिरण्याक्ष, विश्रवा पत्नी के उदर से रावण और कुंभकरण के रूप में उत्पन्न हुए और तृतीय जन्म में शिशुपाल और दंतवक्र बने। इस प्रकार इनके ये तीन जन्म थे और भगवान ने इनका वध किया। युधिष्ठिर ने पूछा कि हिरण्यकषिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद से द्वेष क्यों किया और राक्षस कुल में उत्पन्न होने पर भी प्रह्लाद का मन भगवान में किस प्रकार लग गया?
ब्रह्माजी ने हिरण्यकषिपु को दिया अमरता का वरदान
भक्त प्रह्लाद की कथा पढ़ेंगे। भगवान नारायण ने देवताओं का पक्ष लेकर वाराह रूप धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला। हिरण्यकषिपु क्रोध से आग बबूला हो गया। भगवान विष्णु से बदला लेने का सोचने लगा। नारदजी ने कहा कि युधिष्ठिर हिरण्यकषिपु के मन में यह आया कि मैं ऐसी तपस्या करूं कि अजर अमर हो जाऊं। मदरांचल पर्वत पर चला गया, कठोर तप किया। 'विष्णु हैं बलवान तो मुझे क्या करना चाहिए? उसने सोचा मैं तप से विष्णु से बदला लूंगा। तप करूंगा। तप किया जाता है भगवान को पाने के लिए और ये तप कर रहा है भगवान को पराजित करने के लिए ।
ब्रह्माजी प्रसन्न हुए तो हिरण्यकषिपु ने ब्रह्मा को देखकर कहा कि आपके द्वारा रचित प्राणियों द्वारा मेरी मृत्यु न हो। मैं न भवन के बाहर मरूं और न भीतर मरूं । न पृथ्वी पर, न आकाश में। मानव, दानव व देवता, पशु, पक्षी, सर्प आदि मुझे कोई न मार सके। युद्ध में मैं अजय बनूं और संसार का ऐश्वर्य मुझे प्राप्त हो। तप के पूर्व क्षेपक कथा संत सुनाते हैं। हिरण्यकषिपु के बारे में कहते हैं बड़ा अहंकारी व्यक्ति था। उसे अपनी प्रशंसा सुनना प्रिय लगता था। उसने अपनी पत्नी कयाधु से कहा कि मैं तप करने जा रहा हूं और कब आऊंगा मुझे नहीं मालूम। पर कुछ ऐसा हांसिल करके आऊंगा कि विष्णु का नामो-निशान मिटा दूंगा।
जैसे ही तप करने गया तो देवता को पता लगा कि हिरण्यकषिपु तप कर लेगा तो उन्होंने अपने गुरु बृहस्पति से कहा गुरुदेव कोई तरीका निकालिए इसके तप में विघ्न डालिए। तो बृहस्पति उस पेड़ के नीचे जहां हिरण्यकषिपु बैठा था, के ऊपर बैठ गए और जैसे ही इसने ध्यान लगाया और आंख बंद की और तोता बोला नारायण-नारायण। हिरण्युकषिपु का ध्यान भंग हुआ कि ये नारायण-नारायण कौन बोल रहा है ? उसने इधर-उधर देखा फिर आंख बंद करके शुरू हुआ और जैसे ही उसने मंत्रोच्चार किया तो तोता बोला नारायण-नारायण। हिरण्यकषिपु को लगा ये तोता तप करने नहीं देगा। जिस शब्द से मुझे इतनी घृणा है ये बार-बार बोल रहा है तो संध्या को घर लौट आया।
प्रह्लाद क्यों बना भगवान का भक्त?
हमने पढ़ा कि हिरण्यकषिपु तप करने मदरांचल पर्वत पर गया। वहां देवगुरु बृहस्पति ने तोता बनकर उसकी तपस्या भंग कर दी। तब हिरण्यकषिपु घर लौटा तो पत्नी ने देखा कि ये तो तप करने गए थे, लौट क्यों आए? उसने पूछा आप आ गए। हो गई तपस्या। तो हिरण्यकषिपु ने पूरी बात बताई- तप कर तो रहा था मैं, पर एक परेशानी आ गई। ''क्या हुआ'' कयाधु ने पूछा। हिरण्यकषिपु बोला जैसे ही तप के लिए आंख बंद की तो पेड़ के ऊपर तोता बैठा था वह कहने लगा नारायण-नारायण।
कयाधु ने सोचा ये तो कमाल हो गया। इनके मुंह से नारायण-नारायण दो बार निकला। कयाधु बोली अरे ये क्या बोल रहे हैं आप?
उसने बोला नारायण-नारायण? कयाधु ने बोला 108 बार यदि इनके मुंह से नारायण कहलवा दूं तो ये पवित्र हो जाएंगे। तो बार-बार कयाधु उससे पूछ रही है क्यों जी वो आप क्या बता रहे थे? हिरण्यकषिपु ने पुन: बोला। बता तो दिया नारायण-नारायण कर रहा था। रात को कयाधु ने सोचा कि पूरे 108 पाठ करा ही लूंगी। उसने पूछा सोने के पहले एक बात तो बताओ आपको मैंने इतना विचलित नहीं देखा आखिर वो था क्या जिसने आपको इतना विचलित कर दिया। बोला नारायण था।
परेशान हो गया नारायण से नारायण, नारायण 108 बार उसने नारायण बुलवाया और कयाधु ने कहा अब मेरा काम हुआ और उस
रात को प्रह्लाद की गर्भ में स्थापना हो गई। नारायण बोलते ही प्रह्लाद गर्भ में आए। बीजारोपण करते समय भगवान का स्मरण करने से ही प्रह्लाद भगवान नारायण का भक्त हुआ। ये कथा सिर्फ ये संकेत दे रही है कि प्रसूता स्त्री के भीतर जो भी चलेगा उसका सीधा प्रभाव संतान पर पड़ता है। संतान का बीजारोपण जब करने जाएं तो देशकाल, परिस्थिति, चिंतन, मनन, आचरण, चरित्र, परंपरा, कुल, वंश, सिद्धांत और अपने पितरों को याद किए बिना कभी भी संतान का बीजारोपण मत करिए।
भक्ति करें तो प्रह्लाद की तरह
हमने पढ़ा जब हिरण्यकषिपु भगवान नारायण का नाम ले रहा था तभी प्रह्लाद कयाधु के गर्भ में आए। प्रह्लाद का जन्म हुआ। प्रह्लाद जब आए सारा वातावरण दिव्य हो गया। प्रह्लाद पांच साल के हो गए। एक दिन हिरण्यकषिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि तू क्या बनना चाहता है ? प्रह्लाद ने कहा मैं भगवान नारायण का भक्त बनना चाहता हूं। यह सुनकर एकदम हिल गया हिरण्यकषिपु। दैत्यों के गुरु थे शुक्राचार्य। उन्होंने हिरण्यकषिपु से कहा भेजिए प्रह्लाद को हम सब संभाल लेंगे।
गुरु शुक्राचार्य के दो पुत्र थे षड और अमर्क उनको पीछे लगा दिया प्रह्लाद के। वे पढ़ाने लगे प्रह्लाद को। लेकिन फिर भी प्रह्लाद की भगवान के प्रति भक्ति कम नहीं हुई। एक दिन शुक्राचार्य के दोनों पुत्रों ने प्रह्लाद को नारायण-नारायण का जाप करते सुन लिया तो उन्होंने सोचा कि अगर इसके पिता को सूचना मिल गई कि ये आश्रम में भी नारायण-नारायण बोलता है तो हमारी भी नौकरी जाएगी इसका जो होगा सो होगा। उन्होंने बोला तू नारायण-नारायण मत बोलना बाकी सब करना। प्रह्लाद ने कहा मन में बोलने लग जाऊंगा और क्या। एक दिन हिरण्यकषिपु ने कहा प्रह्लाद से कितना पढ़ा हैं। मैं जानना चाहता हूं। पिता ने गोद में बैठाया राजसिंहासन पर और प्रह्लाद से एक प्रश्न पूछा - बेटा, तूने क्या सीखा।
प्रह्लाद ने बोला जो मुझे गुरुजी ने सिखाया वो मैंने सीखा। उन्होंने बोला शस्त्र संचालन, हां। राजनीति, हां। शासन, हां। मंत्रियों का नियंत्रण वो भी सीखा। इधर गुरु ने कहा मैंने तो इसे इन सबके बारे में कुछ बताया ही नहीं तो इसने कहां से सीखा?प्रह्लाद ने बोला- भगवान नारायण ने सीखाया। हिरण्यकषिपु को गुस्सा आ गया। फिर भी प्यार से समझाया प्रह्लाद को कि तुझे ये नारायण का नाम लेना बंद करना पड़ेगा अन्यथा दंड मिलेगा। काफी समझाने के बाद भी जब प्रह्लाद भगवान का स्मरण करता रहा तो हिरण्यकषिपु के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। प्रहलाद को दंड देने की घोषणा की गई।
नृसिंह रूप में हिरण्यकषिपु का वध किया भगवान ने
हमने पढ़ा कि हिरण्यकषिपु द्वारा मना करने पर भी प्रह्लाद भगवान की भक्ति करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकषिपु ने प्रह्लाद को मृत्युदंड दे दिया। हाथी के पैर के नीचे ले गए प्रह्लाद को। पहाड़ से पटका, अग्नि में जलाया लेकिन प्रह्लाद को प्रभु की भक्ति कर रहा था इसलिए उसे कुछ भी नहीं हुआ।
एक दिन हिरण्यकषिपु ने प्रह्लाद से कहा कि तेरा कोई भगवान है तो इस खंबे में क्यों नहीं दिखाई पड़ता? प्रह्लाद ने दृढ़ता से कहा कि खंबे में भी भगवान हैं। तब हिरण्यकषिपु ने कहा कि यदि इस खंबे से भगवान न निकला तो इसी समय मैं अपनी तलवार से तेरा सिर धड़ से अलग कर दूंगा। इतना कहकर उसने ज्यों ही खंबे पर हाथ मारा। तभी भयंकर गर्जना हुई। ऐसा लगा मानो प्रलय आने वाली है। हिरण्यकषिपु ने तलवार उठाई और अपने पुत्र का सिर काटने लगा तभी खंबे को फाड़कर भगवान नृसिंह प्रकट हो गए। हिरण्यकषिपु ने नृसिंह भगवान पर प्रहार करना चाहा जैसे ही वह नृसिंह की ओर बढ़ा उन्होंने उसे पकड़ लिया। भगवान नृसिंह वहां से कूदे हिरण्यकषिपु के सिंहासन पर जाकर विराजमान हो गए। और वहां बैठकर उन्होंने हिरण्यकषिपु को अपनी जंघा पर लेटाया और अपने तीव्र नाखूनों से उसको चीर दिया।
इतना विकराल रूप था भगवान का कि किसी को उनकी ओर देखने का साहस नहीं हुआ। हिरण्यकषिपु के वध का समाचार चारों ओर तीव्रगति से फैल गया। देवताओं ने सुना तो वे हर्ष निनाद करने लगे। अपने भक्त प्रह्लाद के वचनों को कृतार्थ करने और अपनी सर्वव्यापकता सिद्ध करने हेतु नृसिंह के स्वरूप में वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के दिन खंबे में से प्रकट हुए। भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकषिपु का वध कर दिया। उसके बाद प्रह्लाद ने भगवान से कहा-प्रभु मैं आपके मांगलिक सद्गुणों का वर्णन कैसे करूं? आपकी लीला अपरमपार है। आप शांत हो जाइए। आपके इस भंयकर स्वरूप को देखकर देवों को डर लग रहा है, मुझे तो कोई भय नहीं भगवान।
भगवान ने प्रह्लाद को अपने हाथों से उठाया। भगवान ने प्रह्लाद से वर मांगने को कहा। प्रह्लाद ने कहा कोई इच्छा नहीं है आप प्रसन्न हो गए बस इतना बहुत है मेरे लिए। लेकिन भगवान ने प्रह्लाद को वरदान दिया कि भक्ति भावना के साथ अनासक्त भाव में रहते हुए वह ऐश्वर्य का उपभोग करेंगा। जीवन के अंत में वह भगवान को प्राप्त होगा और भक्ति के फलस्वरूप प्रह्लाद की इक्कीस पीढिय़ों का उद्धार होगा।अनन्य भक्ति के यह साधन हैं- 1. प्रार्थना 2. सेवा-पूजा, 3. स्तुति 4. स्वीर्हन वंदन और 5. श्रवण हस्याण। व्यवहारिक कामकाज करते हुए प्रभु का स्मरण और कथा श्रवण इन साधनों से परमहंस गति मिलती है। जो इन साधनों को क्रियांवित करता है उसे परमात्मा के चरणों में अनन्य भक्ति प्राप्त होती है।
भागवत में नारदजी-युधिष्ठिर वार्ता का प्रसंग चल रहा है। तब नारदजी बोले कि- हे युधिष्ठिर। इस प्रकार जय-विजय नामक विष्णु के दो पार्षद ब्रह्मशाप से दैत्य हुए और भगवान ने वराह व नृसिंह अवतार में उनका वध किया। द्वितीय जन्म में यही रावण और कुंभकरण बने। रामजी ने उनका उद्धार किया। तृतीय जन्म में यही शिशुपाल और दंतवक्र बने। कृष्णजी ने उनका वध किया।
जय-विजय का उद्धार किया भगवान विष्णु ने
भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकषिपु का वध कर दिया। उसके बाद प्रह्लाद ने भगवान से कहा- प्रभु मैं आपके मांगलिक सद्गुणों का वर्णन कैसे करूं? आपकी लीला अपरमपार है। आप शांत हो जाइए। आपके इस भंयकर स्वरूप को देखकर देवों को डर लग रहा है, मुझे तो कोई भय नहीं भगवान।
भगवान ने प्रह्लाद को अपने हाथों से उठाया। भगवान ने प्रह्लाद से वर मांगने को कहा। प्रह्लाद ने कहा कोई इच्छा नहीं है आप प्रसन्न हो गए बस इतना बहुत है मेरे लिए। लेकिन भगवान ने प्रह्लाद को वरदान दिया कि भक्ति भावना के साथ अनासक्त भाव में रहते हुए वह ऐश्वर्य का उपभोग करेंगा। जीवन के अंत में वह भगवान को प्राप्त होगा और भक्ति के फलस्वरूप प्रह्लाद की इक्कीस पीढिय़ों का उद्धार होगा।अनन्य भक्ति के यह साधन हैं- 1. प्रार्थना 2. सेवा-पूजा, 3. स्तुति 4. स्वीर्हन वंदन और 5. श्रवण हस्याण। व्यवहारिक कामकाज करते हुए प्रभु का स्मरण और कथा श्रवण इन साधनों से परमहंस गति मिलती है। जो इन साधनों को क्रियांवित करता है उसे परमात्मा के चरणों में अनन्य भक्ति प्राप्त होती है।
भागवत में नारदजी-युधिष्ठिर वार्ता का प्रसंग चल रहा है। तब नारदजी बोले कि- हे युधिष्ठिर। इस प्रकार जय-विजय नामक विष्णु के दो पार्षद ब्रह्मशाप से दैत्य हुए और भगवान ने वराह व नृसिंह अवतार में उनका वध किया। द्वितीय जन्म में यही रावण और कुंभकरण बने। रामजी ने उनका उद्धार किया। तृतीय जन्म में यही शिशुपाल और दंतवक्र बने। कृष्णजी ने उनका वध किया।
दैत्यों को कैसे पुनर्जीवित किया मायासुर ने?
भागवत में अभी नारद-युधिष्ठिर प्रसंग चल रहा है। युधिष्ठिर ने नारदजी से राक्षस मायासुर की कथा पूछी। नारदजी ने सारी कथा बताई कि किस प्रकार देवताओं से पराजित होकर असुरगण मायासुर के पास गए और मायासुर ने लोहे, चांदी और सोने की नगरी बनाई। दैत्यों को मुक्त निवास मिला। उन्होंने पुन: देवताओं पर हमला किया। देवताओं को सताया तो शंकर भगवान ने पशुपास्त्र अस्त्र से मायापुरी को नष्ट किया। जितने राक्षस थे सब नष्ट हो गए उस मायापुरी में। जब मायासुर को विदित हुआ तो उसने सब दैत्यों को उठाकर अमृत कुंड में डाल दिया। वह पुन: जीवित हो गए। शिवजी को बड़ा विषाद हुआ।
भगवान विष्णु को देवों पर दया आई। ब्रह्मा को बछड़ा बनाकर व स्वयं गाय बनकर उस अमृत कुंड के पास गए और उस अमृत को पीने लगे। दैत्यों ने गाय व बछड़ा समझकर पीने दिया और देखते ही देखते सारा अमृत उन्होंने समाप्त कर दिया। फिर युद्ध हुआ। अंत में देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त की।तब युधिष्ठिर ने नारदजी से प्रश्न किया कि धर्माचरण से मानव को ज्ञान और भक्ति मिलती है। इसका कारण वर्ण और आश्रम के पवित्र आचरणों से युक्त सनातन धर्म को सुनने की मेरी प्रबल आकांक्षा है। कृपया सुनाइए। सातवें स्कंध के 11-15 अध्याय में मिश्रवासना के प्रसंग हैं।
नारदजी ने कहा कि श्रद्धा और प्रीति के अतिरिक्त धर्म के जो 30 लक्षण हैं। प्रथम सत्य और अंतिम आत्म समर्पण वे इस प्रकार हैं।- 1. सत्य, 2. दया, 4. तप, 3. शोच, योग्य-अयोग्य, विचार, चित्त, वशीकरण, इंद्रिय, निग्रह, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, दान, वेदाध्ययन, सरलता, संतोष, समदर्शिता, विरक्ति, मौन, सब जीवों को दान, सबमें देवदृष्टि, कथा श्रवण, कथावाचन, स्मरण, पूजन, सेवा, आराधना, अर्चना और नमस्कार, दास्य सख्याभाव, आत्मनिवेदन और समर्पण। ऊपर लिखित तीस धर्मों को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को अवश्य पालन करना चहिए।
ऐसा होना चाहिए संन्यासी का जीवन
हम यहां जान लें कि शुकदेवजी महाराज राजा परीक्षित को भागवत की कथा सुना रहे हैं और उसी के अंतर्गत नारद-युधिष्ठिर का प्रसंग चल रहा है। भक्त प्रहलाद और अजगरमुनि के बीच संन्यास जीवन से संबंधित जो संवाद हुआ था उसे भी नारदजी ने युधिष्ठिर को सुनाया।
एक बार प्रह्लाद अपने मंत्रियों सहित कावेरी नदी के तट पर पहुंचे। वहां उन्होंने एक अजगर वृत्तिधारी धूल धुसरित मुनि को देखा। प्रणाम किया और पूछा कि आप ऐसे क्यों पड़े हैं? तो मुनि ने कहा कि नाना योनियों में विचरण करने के उपरांत कर्म के फलस्वरूप मुझे यह मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है। मैं अब सभी प्रकार के कर्मों से विलग हो गया हूं। आत्मा तो आनंद स्वरूप है यदि इच्छाएं न रहे तो आनंद स्वमेह ही प्राप्त हो जाता है।
मुनि कहने लगे कि- हे दानवराज प्रह्लाद। संसार में मधुमक्खी और अजगर ये दोनों ही मेरे गुरु हैं। जिस प्रकार मधुमक्खी द्वारा संचित मधु को कोई अन्य भी ले जा सकता है उसी प्रकार किसी व्यक्ति द्वारा संचित धन-सम्पत्ति को भी उसके बंधु-बांधव भोगते हैं और इसीलिए मैंने संचय वृत्ति का त्याग कर दिया। उसी प्रकार अजगर बिना किसी अपेक्षा के एक स्थान पर पड़ा रहा रहता है तथा जो आसानी से मिल जाता है उसी से संतोष कर लेता है। उसी से मैंने धैर्य धारण करना सीखा है। संक्षेप में उन्होंनें सार की बात कह दी। प्रह्लाद ने उनकी पूजा की और अपने गंतव्य को चले गए।
गृहस्थी के केंद्र में भगवान को रखें
भागवत में हम युधिष्ठिर-नारद का संवाद पढ़ रहे हैं। नारद मुनि युधिष्ठिर के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं। धर्मराज युधिष्ठिर नारद मुनि से पूछ रहे हैं- जिसका मन गृहस्थी में लगा हुआ हो, ऐसे पुरूष को सहज ही वैराग्य की प्राप्ति कैसे हो सकती है? कृपया ये बताइये? तब नारदजी ने कहा कि गृहस्थ को चाहिए वह भगवान श्रीकृष्ण की उपासना में तल्लीन रहे। उसे अपने सब कार्य श्रीकृष्ण को अर्पण कर देना चाहिए।
गृहस्थ में रहने पर भी उसको चाहिए कि स्त्री, पुत्र, धन, संपत्ति आदि का अधिक मोह न रखें।गृहस्थी चले कैसे, गृहस्थी बसे कैसे, गृहस्थी दिव्य कैसे हो? ये छोटी-मोटी परेशानियों में कैसे भगवान की भक्ति बची रहे। अब युधिष्ठिर प्रश्न पूछ रहे हैं। उत्तर मिला- पहले भरोसा रखें। गृहस्थी भगवान के भरोसे चलेगी। भगवान को केंद्र में रखो गृहस्थी में कोई परेशानी नहीं आएगी।प्रश्न पूछा तो युधिष्ठिर को उत्तर दे रहे हैं नारद- देखो गृहस्थी को चलाना है तो चार तरह के आश्रम होते हैं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और उसके बाद संन्यास आश्रम । प्रयास करना कि इस आश्रम में भगवान हमारे घर आएं।
याद रखिएगा भगवान को बुलाना पड़ता है, भगवान को याद करिए जैसे भी करिए।ये बात नारदजी ने युधिष्ठिर को समझाई। शुकदेवजी बोले हे- राजा परीक्षित। इस प्रकार महर्षि नारद से धर्म का रहस्य श्रवण करके महाराज युधिष्ठिर अत्यंत प्रसन्न हुए तदं्तर उन्होंनें बड़ी श्रद्धा भक्ति से भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की और फिर नारदजी महाराज की भी पूजा अर्चन कर उनके प्रति आभार व्यक्त करते हुए विदा किया।
भागवत को सुनें ही नहीं, जीवन में भी उतारें
नारदजी व युधिष्ठिर का प्रसंग सुनाने के बाद शुकदेवजी महाराज ने परीक्षित से कहा कि- हे राजा परीक्षित। देवता, असुर और मनुष्य आदि समस्त प्राणी जिन दक्षकन्याओं के वंश में उत्पन्न हुए, उनकी वंशावली मैंने आपको सुनाई। वर्णाश्रम धर्म का विवरण भी मैंने आपको सुनाया। इसका सुनना, सुनाना और पढऩा, पढ़ाना। सबको सुख शांति देने वाला है और इसी के साथ सातवां स्कंध समाप्त होता है।इस प्रकार विधान के अनुसार तीसरा दिन समाप्त होने जा रहा है। हम आज से भागवत पारायण के विश्राम स्थल के अनुसार चौथे दिन में प्रवेश कर रहे हैं। तो भगवान को साथ जोड़ते हुए प्रवेश करते हैं।
आज भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण का प्रवेश होने वाला है। ये मणिकांचन योग है। भगवान हमारी कथा में नहीं आ रहे हैं, बल्कि हमारे जीवन में आ रहे हैं। किसी का सौभाग्य होता है कि वसुदेव और देवकी बनते हैं और भगवान उनके घर जन्म लेते हैं। बड़ा परम सौभाग्य है कि कोई दशरथ बने, कौशल्या बने और भगवान जन्म लें। आज भगवान हमारे आंगन में जन्म ले रहे हैं। हमारे जो पुण्य रहे हैं, हमारे पितरों की कृपा रही है कि आज हमें ये दिन देखने को मिला है। इस आनंद का भरपूर लाभ उठाएं। भगवान अब पृष्ठ से निकलकर हमको पालने में नजर आएंगे तो तैयार रहिएगा।
परिश्रम व पुरुषार्थ के प्रतीक हैं श्रीराम व श्रीकृष्ण
जीवन को सार्थक बनाने के लिए चार बातों का ध्यान रखना अतिआवश्यक है। यह लिखा है भागवत में। सबसे प्रमुख है पारदर्शिता। महाभारत की एक छोटी सी घटना यदि आप याद करें कि कुंती ने इस बात को छिपाया था कि कर्ण मेरा सबसे बड़ा बेटा है। कुंती ने बात छिपाई और कुंती ने कीमत चुकाई और कर्ण ने भी चुकाई। तो पारदर्शिता बनाए रखिए जीवन में। दूसरा हमारा जो व्यावसायिक जीवन होता है उसमें परिश्रम के बिना कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
भगवान विष्णु के 24 अवतार हुए हैं जिनमें दो पूर्णावतार हैं-श्रीराम और श्रीकृष्ण। यदि आप इन दोनों अवतारों को देखें तो इन्होंने संदेश दिया है कि जीवन में परिश्रम बनाए रखिएगा। श्रीराम की कथा में और श्रीकृष्ण की कथा में जब आप इनके जीवन को टटोलेंगे तो आपको आश्चर्य होगा के कोई इतना भी परिश्रम कर सकता है और जो परिश्रमी होंगे, जो पुरुषार्थी होंगे, जो अपने परिश्रम से अर्जित यश, कीर्ति, धन को अपने घर में लाएंगे वो शांत भी होंगे। तीसरी बात है हमारे परिवार में प्रेम बना रहे। परिवार प्रेम से चलता है और राम और कृष्ण प्रेम के देवता हैं। चौथी बात हमारे निजी जीवन में पवित्रता बनाए रखिएगा। हमारे निजी जीवन में पवित्रता है तो परमात्मा बहुत जल्दी उतरकर आएंगे।
अब तक के सात स्कंधों में हमने प्रतीक रूप से क्या पाया? प्रथम स्कंध में शिष्यों का अधिकार बताया गया था। अधिकार के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता। अनाधिकारी मनुष्य ज्ञान का दुरुपयोग करता है। दूसरे स्कंध में ज्ञान का उपदेश दिया है। तृतीय स्कंध में ज्ञान को जीवन में किस प्रकार उतारना है यह कथा सुनाई गई है। चौथे स्कन्ध में चार पुरुषार्थ की कथा बताई गई है। पांचवें स्कन्ध में ज्ञानी परमहंसों के और भागवत परमहंसों के लक्षण बताए गए हैं। इसके बाद छठे स्कंध में पुष्टि की कथा आई है। सातवें स्कंध में वासना की कथा सुनाई है और बताया कि प्रह्लाद की सद्वासना है, मनुष्य की मिश्र वासना है और हिरण्यकष्यपु की असत् वासना है। अष्टम स्कंध में मन्वन्तर लीला का वर्णन है।
ऐसे बचें वासनाओं के जाल से
हम भागवत के आठवें स्कंध में प्रवेश कर रहे हैं। वासना के विनाश के क्या मार्ग हो सकते हैं? ये प्रश्न परीक्षित शुकदेवजी महाराज से पूछ रहे हैं। शुकदेवजी कहते हैं- चार काम करिए वासनाओं से बच जाएंगे। पहला काम सतत स्मरण करिए, दूसरा काम है ईश्वर का ध्यान करें। तीसरी बात कि स्ववचन का पालन करें। आपने जो भी कहा है वो किया जाए। इसका गूढ़ अर्थ है कि मन, वचन और कर्म में एकरूपता हो और चौथी बात कि वासना से बचना चाहें तो शरणागति भगवान की करें। ये चार तरीके वासना से बचने के बताए।
शुकदेवजी ने कहा कि परीक्षित मै आपको मनु की कथा सुनाने जा रहा हूं। पांचवें मनु तामस के सहोदर रेवत की कथा सुन लीजिए। इस मनवंतर में शुभ ऋषि की पत्नी त्रुकुण्टा के गर्भ से भगवान ने वैकुण्ठ अवतार धारण किया और उन्होंने वैकुण्ठ लोक की रचना की। चक्षु के पुत्र से चाक्षुस छठें मनु हुए। इस मनवंतर ने वराज की भार्या के गर्भ से भगवान ने अजिति नाम का अवतार धारण किया जिसने क्षीरसागर का मंथन कर देवताओं को अमृतपान कराया। आठवें स्कंध का एक प्रसंग आरम्भ होता है। हाथियों का राजा गजेंद्र था। बड़ा मदमस्त रहता था। एक दिन अपने परिवार के साथ सरोवर में स्नान करने गया। तभी पानी के भीतर बैठे मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। उसके बाद गजेंद्र का क्या हुआ? तथा गजेंद्र के पूर्व जन्म की कथा हम पढ़ेंगे।
जब भगवान हरि ने बचाए गजेंद्र के प्राण
हमने पढ़ा कि हाथियों का राजा गजेंद्र एक दिन परिवार के साथ सरोवर में स्नान के लिए गया जहां मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। ये जो गजेंद्र था ये पूर्व जन्म में इन्द्रद्युम्न नाम का राजा था। मगर ने जैसे ही उसका पैर पकड़ा तो उसने पैर छुड़ाने की कोशिश की और वो जो मगर था वो हूहू नाम का एक गंधर्व था। इन दोनों को शाप मिला था तो इस योनि में आए थे। मगर ने पैर पकड़ लिया तो घबराया हाथी और चिल्लाया, उसकी पत्नियां थीं हथनियां और रिश्तेदारों ने उसको हाथ पकड़कर खींचना शुरू किया। मगर उसको और भीतर ले जा रहा था।
सबने बोला कि हमने इतनी ताकत लगाई पर तुम अंदर ही जा रहे हो, हम तुम्हारे साथ अंदर नहीं जाएंगे। हाथी ने देखा मेरी पत्नियां, मेरे बच्चे, वो मेरे मित्र जो मेरे साथ नहा रहे थे सब खड़े होकर तमाशा देखने लग गए। तो उसकी समझ में जो आया वो हम भी समझ जाएं। ये गजेंद्र हम हैं, हमारी मस्ती, हमारा मद है। हम संसार में ऐसे ही कूद-फान मचाते हैं। अचानक काल नीचे से आकर पकड़ लेता है और जैसे ही आपका काल आएगा आपको अकेले ही जाना है। थोड़ी बहुत खींचातानी सब कर लेंगे, पर जाना आपको अकेले ही है। तो गजेंद्र को समझ में आया। उसने भगवान की स्तुति की। एक कमल का फूल भगवान को अर्पित किया। हरि अवतार में भगवान आए सुदर्शन चक्र से मगर का वध किया। उसको मुक्त कराया। ये गजेंद्र मोक्ष की कथा है।
इसलिए भगवान शंकर कहलाते हैं नीलकंठ
भागवत में आगे समुद्रमंथन की कथा आ रही है। एक बार ऐसा हुआ कि दैत्यों ने देवताओं को हराकर स्वर्ग पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। देवता परेशान होकर भगवान के पास गए। भगवान ने कहा -ऐसा करो कि समुद्र को मथो। जब उसे मथोगे तो उसमें से अमृत निकलेगा और वो अमृत तुम पी लेना तो तुम अमर हो जाओगे उसके बाद लड़ते रहना दैत्यों से। पर इसमें दैत्यों की भी जरूरत पड़ेगी। दैत्यों के पास जाकर प्रस्ताव रखा। दैत्यराज बलि को भी प्रस्ताव ठीक लगा।
मंदराचल पर्वत की मथनी बनाई वासुकीनाग की रस्सी बनाई और चले सब मथने के लिए। जैसे ही मंथना आरंभ किया और 14 रत्न निकलना शुरू हुए तो सबसे पहले निकला कालकूट नाम का विष। सब देवता और दैत्य भागे कि इसका क्या करेंगे, त्राहि-त्राहि मच गई, देवताओं ने भगवान विष्णु से कहा-ये आपने क्या कर दिया। आपने तो कहा था कि मथेंगे तो अमृत निकलेगा, अमृत का तो पता नहीं ये तो विष निकल आया। भगवान ने कहा अमृत पाने के लिए विषपान करना पड़ता है। अमृत यदि आप जीवन में पाना चाहें, चरम पाना चाहें तो कुछ न कुछ प्रतिकूलता से गुजरना पड़ेगा, संघर्ष करना पड़ेगा।
सब देवता शंकरजी के पास पहुंचे। देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि मंथन में विष निकल आया है। आप पान कर लें इसका। भगवान शंकर ने अपने चुल्लू में विष लिया और जैसे ही चुल्लू में लेकर विष पीना आरंभ किया तो उन्होंने विचार किया कि बाहर निकला तो दुनिया परेशान और भीतर गया तो मेरा स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा अत: उसको कण्ठ में रोक लिया, तब से वह नीलकंठ कहलाए
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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