Tuesday, October 11, 2011

Jeene Ki Rah(जीने की राह) Part 3

गुरु के जीवन में आने पर प्रेम जागेगा व श्रद्धा उत्पन्न होगी
जब भी हम किसी को गुरु बनाने जाएंगे, हमारा मन हमें टोकेगा, रोकेगा और हो सकता है बाधा पहुंचाए, क्योंकि गुरु बनाते ही हम किसी के प्रति समर्पित हो जाते हैं। उसके शब्द हमारे शब्द बन जाते हैं। गुरु की हां और ना में हमारी भी स्वीकृति, अस्वीकृति जुड़ जाती है। यदि हम मन का कहना नहीं मानते तो वह अड़चनें पैदा करता है।

गुरु के जीवन में आते ही प्रेम और भक्ति का अभ्यास सरल होने लगता है। हम कर्मकांड से थोड़ा ऊपर उठकर भक्तियोग की ओर चलने लगते हैं। गुरु बनाना अपने आप में एक कर्मकांड है, लेकिन इसकी प्रतिछाया में योग बसा है। हम तीर बन जाते हैं और गुरु धनुष। बिना धनुष के तीर का कोई महत्व नहीं है, लेकिन जब गुरु रूपी खिंचे हुए धनुष पर शिष्य रूपी तीर चढ़ता है तो उसकी यात्रा फिर परमात्मा ही होती है। जैसे ही हम गुरु के प्रति समर्पित हुए, हमारी समग्र शक्ति गुरु की शक्ति से मिल जाती है और उनकी हमसे। यह सही है कि गुरु के जीवन में आने पर पहले प्रेम जागेगा और फिर श्रद्धा उत्पन्न होगी।

प्रेम और श्रद्धा में फर्क है। प्रेमी-प्रेमिका सिर्फ प्रेम करते हैं, उनके बीच श्रद्धा नहीं रहती। इसलिए एक दिन आप उनको अलग-अलग भी पाएंगे। लेकिन जैसे ही प्रेम में श्रद्धा जुड़ी, तब हमारी प्राण ऊर्जा ऊपर उठेगी और सीधे आत्मा से मिल जाएगी। इसीलिए प्राणायाम करते समय श्रद्धा बहुत जरूरी है। जिस गुरु मंत्र के साथ प्राणायाम किया जाए, उसमें श्रद्धा हो तो ऊर्जा मूलाधार चक्र से सहस्रार तक आसानी से उठ जाएगी। इसमें संसार से कुछ भी नहीं छूटेगा, लेकिन परमात्मा से जुड़ाव जरूर हो जाएगा।

अपने घर में आध्यात्मिक आकर्षण बनाए रखें
एक समय था जब लोग घर में अधिक समय गुजारते थे। उसके मुकाबले अपने दफ्तर, व्यवसाय के स्थल पर कम समय देते थे। फिर एक समय आया, जितना समय परिवार को, उतना ही व्यवसाय को मिलने लगा।

लेकिन अब ज्यादा से ज्यादा समय नौकरी-व्यवसाय में जाने लगा और बचा हुआ समय घर में दिया जाने लगा है। ताज्जुब नहीं कि आने वाले समय में दफ्तर ही घर में आ जाए। कुल मिलाकर वक्त की हर कटौती घरवालों के खाते में से ही होती है।

जो भी थोड़ा-बहुत समय घर में है, वह मतभेद और विवाद में निकल जाता है। इसलिए भी लोगों की रुचि घर की तरफ से कम होने लगी है। ऐसे में समझदार लोगों को चाहिए कि घर में कोई आध्यात्मिक आकर्षण बनाए रखें।

जब हम अपने कार्य को परमात्मा की लगन से जोड़ेंगे तो हमें घर की ओर मुड़ना मुश्किल नहीं लगेगा। भगवान से जुड़ने का एक अर्थ है- ईश्वर ने जो अवतार लिए हैं और उनके माध्यम से जो संदेश दिए हैं, उन्हें जन-जन तक पहुंचाना।

इससे भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी, काम में ईमानदारी आएगी और ऐसे लोग जब परिवार की ओर मुड़ेंगे तो वहां थोड़ा विश्राम कर सकेंगे। कामकाज की अंधी दौड़ में भाग रहे लोग अपने परिवारों में प्रेम भरा विकल्प पाएंगे तो हो सकता है कि वे और अच्छे परिणाम दें।

दुनिया दिलाती है और तनाव में उलझाती भी है। घर खिलाता है और परेशानियों को भुलाता है। यह एक आध्यात्मिक भाव है। इसे जीवन में उतारना ही होगा।

जब आपको कोई बार-बार चिढ़ाएं, आप पर हंसे, तो आपको क्या करना चाहिए?
काफी लोगों के जीवन में ऐसे पल आते हैं जब उन्हें आसपास के लोग नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। कुछ लोग खुद को श्रेष्ठ मानते हुए अन्य लोगों को तुच्छ या नीचा समझते हैं। ऐसे में वे कुछ न कुछ ऐसा करते रहते हैं जिससे दूसरे लोग हंसी का पात्र बने या उनका अपमान हो।
जिन लोगों के साथ इस प्रकार की बातें होती हैं उन्हें क्या करना चाहिए? इस संबंध में महात्मा गांधी एक सटीक उपाय बताया है कि जब भी कोई व्यक्ति खुद को श्रेष्ठ बताते हुए आपकी ओर ध्यान न दे फिर आपका मजाक बनाए तब आप चुप ही रहे। उस समय वे आप हसंगे। इसके बाद जब वे बार-बार आपको नीचा दिखाने का प्रयास करेंगे और आपकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी तब वे आप पर गुस्सा करेंगे, आपसे लड़ाई करेंगे। जब वे इस हद तक पहुंच जाए तो समझ लीजिए कि आप बिना कुछ करे ही जीत गए।

महात्मा गांधी के अनुसार ऐसे लोगों के व्यवहार की वजह से हमें अपना स्वभाव नहीं छोडऩा चाहिए, हमारी शांति और एकाग्रता को बनाए रखना चाहिए। इस प्रकार की किसी भी परिस्थिति में हमें सामने वाले को पलटकर जवाब नहीं देना चाहिए। कुछ समय बाद उसे स्वयं ही अपनी हरकतों पर पछतावा होगा।

व्यक्ति की कुलीनता को निगल जाता है कुसंग
आजकल माता-पिता की एक बड़ी चिंता यह है कि बच्चे जिन लोगों के साथ उठ-बैठ रहे हैं, क्या वह संगति ठीक है? कुसंग कॅरियर के लिए बड़ा खतरा है। वैसे माना तो यह जाता है कि बच्चों को कुसंग से बचाया जाए, लेकिन सच तो यह है कि बड़े-बड़े भी कुसंग में फंस जाते हैं।

हालांकि उम्र ज्यादा होने की वजह से वे अपने कुसंग को छुपा लेते हैं। कुसंग से हर उम्र में बचना चाहिए। कुसंग का यह अर्थ न समझा जाए कि बुरे, अपराधी, गलत आचरण वाले लोगों का संग। कुसंग का अर्थ अनुचित गतिविधियां ही नहीं, अनर्गल और निकृष्ट बातचीत भी कुसंग है।

इसका संबंध केवल साहचर्य, संलग्नता और दुष्ट साथियों से नहीं है। कुसंग एक कुचक्र है। कुसंग किसी की भी कुलीनता को आसानी से खा जाता है। जिन बातों में दुनियादारी का आवेश हो, वासनाओं का आमंत्रण हो और सही उद्देश्य से भटकाव हो, वे सब कुसंग हैं।

घंटों फिजूल की रायशुमारी करना भी एक तरह का कुसंग है। ऐसे लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि वे इतने परिपक्व हो गए हैं कि देश के जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग इतना नहीं जानते जितना ये जानते हैं। संसार की क्षुद्र बातें कुसंग हैं और ईश्वर का गहरा चिंतन सत्संग है।

कुसंग से बचने के लिए अच्छी मित्रता उपयोगी साबित होगी। मित्रता भी ऐसी हो, जैसी कृष्ण और अजरुन तथा कृष्ण व द्रौपदी की रही। अच्छे मित्र का संग कुसंग से मुक्त रखता है।

हमारे शरीर के भीतर की शक्ति ईश्वर का ही दूसरा रूप है
अधिक लाभ का लोभ स्थूल वस्तुओं में रस पैदा कर देता है। बेकार की वस्तुओं का संचय करने की आदत पड़ जाती है। बेशक यह काम इंद्रियों की चतुरता से होता है, लेकिन इंद्रियों की कामुकता भी बढ़ती जाती है। हमारे शरीर में शक्ति के कई बिंदु होते हैं।

भोग और विलास इन बिंदुओं पर प्रहार करके वहीं से शक्ति को सोखने लगते हैं। इसलिए कोशिश की जाए कि पहले तो शक्ति को समझें, फिर शक्ति के केंद्रों को जानें और वहां से शक्ति का क्षय न होने दें। आज व्यस्तता के दौर में थोड़ी विश्राम की चाहत हमें विलास से जोड़ देती है।

विश्राम और विलास अलग-अलग बातें हैं। विश्राम में शक्ति का पुन: निर्माण होना चाहिए और विलास तो हर हालत में शक्ति को ही भोग लेता है। इसलिए जिन साधनों से शक्ति का संचय हो, उन पर तो गहरी नजर रखनी ही होगी, लेकिन इस बात के लिए सावधान रहना पड़ेगा कि शक्ति व्यर्थ के कामों में खर्च न हो।

हमारे भीतर शक्ति या ऊर्जा ईश्वर का ही दूसरा रूप है। जैसे ईश्वर से मिलने के लिए भीतर उतरना होगा, वैसे ही शक्ति को बचाने के लिए थोड़ी अंतर्यात्रा की जाए। एक प्रयोग करिए, आंखें बंद करके अपनी नाभि में भीतर ही भीतर देखें। वहां हमें शक्ति की हल्की-सी अनुभूति होगी।

जैसे दूसरों की सामथ्र्य देखने के लिए आंखें खुली रखनी पड़ती है, वैसे ही अपनी शक्ति पर दृष्टि डालने के लिए आंखें बंद करनी पड़ेगी। खुली आंखें स्वयं को निहारने में बाधा बन जाएगी। बंद आंखों से ही हम अपनी शक्ति का गहन स्पर्श कर पाएंगे।

परिवार में प्रेम लाने के लिए अहंकार पर नियंत्रण रखें
परिवार का निर्माण यदि केवल समाज और कुल-धर्म निभाने के लिए किया जाए तो उसमें कर्तव्य की भावना अधिक रहेगी, लेकिन प्रेम और हार्दिकता का अभाव होगा। ऐसे परिवारों में पति-पत्नी के रिश्ते जब केवल फर्ज के नाम पर होते हैं धर्म की आज्ञा मानकर पूरे किए जाते हैं, वंश की प्रतिष्ठा का विचार रहता है तो उसमें से फिर स्नेह चला जाता है और मजबूरी हावी हो जाती है।

यदि परिवारों में सदस्य एक-दूसरे के लिए जीने की तैयारी करना चाहते हों, सहजीवन को प्रेमपूर्ण बनाना चाहते हों तो उन्हें अपने अहंकार को नियंत्रित करना होगा। अहंकार की जड़ ‘मैं’ में होती है। परिवारों में जब तक ‘मैं’ रहेगा, लोग एक-दूसरे के नहीं हो पाएंगे। मैं इतने बारीक तरीके से अपने रूप बदलता है कि पता लगाना मुश्किल हो जाता है।

अगर उसे अपनी पसंद की चीज न मिले तो वह गैर पसंद को भी अपना लेता है। जैसे पति यह कहता है पत्नी मेरी बात माने। इसमें उसका मैं हावी है। अब यदि ऐसा नहीं होता है और पति पत्नी को समानता देने लगे, तब भी उसके भीतर का मैं कहता है देखो, मैं भेद नहीं करता, समान व्यवहार करता हूं।

मैं परिवार की शांति में बहुत बड़ी अड़चन है। बड़े-बूढ़ों ने इसीलिए सिखाया है कि मैं खत्म करने का आसान तरीका है, जीवन को परमात्मा के हवाले करो। गृहस्थी के केंद्र में ईश्वर को रखो। इससे मैं को गलने में सुविधा होगी। गृहस्थी को आश्रम कहा गया है, लेकिन मैं के प्रवेश होते ही इसे श्मशान बनने में देर नहीं लगती।

गृहस्थी के केंद्र में भगवान होगा तो प्रेम का वातावरण रहेगा
आजकल सारे संबंध लेन-देन पर ही आधारित हो गए हैं। मुफ्त में कोई किसी से बात भी नहीं करता। बाहर की दुनिया में आदमी खूब प्रोफेशनल हो जाए, यह बात तो समझ में आती है, लेकिन आजकल तो लोग घरों में भी रिश्ते तोल-मोलकर बनाने लगे हैं।

बाप-बेटे, भाई-भाई, पति-पत्नी, सौदे की तरह रिश्ते निभा रहे हैं, बोझ की तरह ढो रहे हैं, जबकि अध्यात्म कहता है कि कम से कम घर-परिवार में तो जब दो लोग मिलें तो प्रेम और आनंद मौजूद रहना चाहिए। चलिए, ऐसा कैसे हो सकता है, इसे हनुमानजी के सुंदरकांड के व्यक्तित्व से सीख सकते हैं। वे विभीषण के सामने खड़े थे, पहला परिचय हो रहा था।

हनुमानजी मन में विचार कर रहे थे कि यह व्यक्ति कोई साधु आचरण का है और तुलसीदासजी ने लिखा - साधु ते होइ न कारज हानी। साधु से कार्य की हानि नहीं होती, बल्कि लाभ ही होता है। साधुता एक महक है, एक शैली है। जब परिवार के सदस्य एक-दूसरे के प्रति साधु भाव रखेंगे तो मिलने पर वैसा ही होगा, जैसा हनुमान और विभीषण के बीच हुआ था।

हनुमानजी ने श्रीराम की संपूर्ण कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और श्रीराम का स्मरण कर दोनों के मन प्रेम व आनंद से भर गए। गृहस्थी में ईश्वर की उपस्थिति रहनी चाहिए। गृहस्थी के केंद्र में यदि भगवान होगा तो प्रेम व आनंद का वातावरण उतना ही सहज होगा। आजकल घर में लोग बोझ इसलिए महसूस करते हैं कि सब है, एक ऊपर वाले के सिवाय। फिर जीवन सुंदर कैसे हो सकता है?

मैं ही श्रेष्ठ हूं यह भावना घर में घुटन व विघटन पैदा करती है
समझ का संबंध केवल शिक्षा से नहीं है। अशिक्षित लोग भी बहुत समझदार होते हैं और अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे भी नासमझ रह जाते हैं। योग की भाषा में बात करें तो समझ मन के लिए एक जहर है। मन को समझ के द्वारा ही नियंत्रित किया जाता है।

मन जानता है मेरे प्रति जिस दिन मेरे मालिक को समझ आ गई, मेरा उस पर से नियंत्रण चला जाएगा। समझ हमारे लिए जितनी लाभदायी है, हमारे मन के लिए उतनी ही नुकसानदायक। इसलिए मन हर समझ का विरोध करता है। इसका एक परिणाम गृहस्थी पर भी पड़ता है।

जीवन बीत जाता है, लोग अपने जीवनसाथी को समझ नहीं पाते, क्योंकि मन इसमें बाधा होता है। इसीलिए लोगों की गृहस्थी संघर्षपूर्ण कायस्थल बन जाती है। जीवनसाथी की कमजोरियों को संवेदना व सहानुभूति के साथ निपटाने में मन बाधा पैदा करता है।

एक-दूसरे की दुर्बलताओं पर कलह करने के कई तरीके मन में आते हैं। असंतोष नाम की दरुगध फैलाने में मन माहिर होता है। होना यह चाहिए कि जीवनसाथी एक-दूसरे की अपूर्णता को पूर्ण करें। गृह प्रबंधन का अर्थ है सब समान रहकर एक-दूसरे का नेतृत्व करें।

जिस दिन घर का कोई सदस्य यह दावा करने लगे कि मैं ही श्रेष्ठ हूंञ्ज और बाकी सब मेरा अनुसरण करें, समझ लीजिए घर में घुटन और विघटन शुरू हो गई। यह उद्घोषणा भी मन ही कराता है। इसलिए घर-गृहस्थी में मन पर काम गंभीरता से किया जाए। लोग एक-दूसरे के मन को जानें और उनके समाधान भी निकालें, क्योंकि व्यक्त करने से अहंकार आ सकता है।

थोड़ा धैर्य रखें और अपमान सह लें तो आसान होगा लक्ष्य
दो बातों को पचाने में बड़ी ताकत लगती है - मान और अपमान। मान अगर ठीक से न पचे तो अहंकार की डकारें आने लगती हैं। मान का अपच दूरगामी बीमारी लाता है, लेकिन अपमान पचाना उससे भी कठिन है।

मान को तो लोग विनम्रता से संभाल लेते हैं। बड़े होकर विनम्र बनने में भी अहं को संतुष्टि मिल जाती है, परंतु अपमान सहने में बड़ी हिम्मत लगती है। पिछले दिनों अन्ना हजारे ने जीवन के जो सूत्र दिए थे, उनमें अंतिम था - अपमान सहना सीखें।

थोड़ा धर्य रखें और अपमान सह लें तो अहंकार और क्रोध स्वत: गलने लगेंगे। जब आप गलत का विरोध कर रहे होते हैं, तब अनुचित आचरण वाले लोग आपको बाधा पहुंचाने के लिए अपमान करने की विधि अपनाते हैं। यदि आपका अहं सक्रिय है तो आप भी आक्रामक हो जाएंगे और गलत के विरोध के सही लक्ष्य से भटक जाएंगे।

उद्योगपति गोयल ने मुझे बताया था कि उन्होंने अन्नाजी के इस सूत्र को फौरन स्वीकार कर आजमाया भी। इस सूत्र से एक सत्य घटना ने उन्हें नई दृष्टि दी। अपमान सहकर आप अपनी ऊर्जा भी बचाते हैं, लक्ष्य भी हासिल कर लेते हैं।

रावण ने लंका की भरी सभा में हनुमानजी का जमकर अपमान किया था। लेकिन उन्होंने इसे सहन किया और लंका दहन, दुगरुण विनाश का अपना लक्ष्य भी प्राप्त किया। बुद्ध, महावीर, विवेकानंद, गांधी और अब अन्ना तक यह परंपरा अनेक रूप में आती रही है। अपमान सहते हुए भी गलत का पुरजोर विरोध हो सकता है।


हमारे आंतरिक अस्तित्व का गणित है योग
समाज और परिवार में रहते हुए हमारे हित में दूसरों के हित भी शामिल रहते हैं। कुछ लोगों का जीवन हमारे भरोसे चल रहा होगा। उनके हितों का ध्यान रखना भी हमारा कर्तव्य है। इसलिए नि:स्वार्थ भाव का अर्थ ठीक से समझना होगा।

निष्काम कर्मयोग व निष्काम कर्म, इन दो स्थितियों को समझने पर नि:स्वार्थ भाव क्या होता है, समझ में आ जाएगा। निष्कामता यानी निर्लिप्त रहना, काम कर रहे हैं लेकिन मैं कर रहा हूं इसका अभाव। अपना मैं हटाने से कर्म में निष्कामता आ जाएगी।

कर्मयोग जुड़ा है कर्तव्य पालन से, ईमानदार कृत्य, वह कर्म जिसमें सत्य रचा-बसा हो। इन दोनों का अर्थ समझ में आने पर अपनी आत्मीयता को दूसरे तक बढ़ाना। अपने हित में दूसरों के हित को जोड़ना, इससे हमारी ऊर्जा व शक्ति दूसरों की सेवा करने में बहेगी।

इतना आसान भी नहीं होगा, दूसरे के हित में अपना हित जोड़ना। केवल बाहर ही रहकर ऐसा करेंगे तो हित आपस में टकराने भी लगेंगे। इसके लिए अपनी ही ओर भीतर मुड़ना होगा, जिसे कहेंगे थोड़ी विपरीत की यात्रा।

हम जितने अपने अंतस के निकट होंगे, हमारे हित उतने ही नि:स्वार्थ भाव से दूसरों के हित से जुड़ेंगे। उस समय न हम ज्यादा अतीत से जुड़ रहे होंगे और न भविष्य से वर्तमान पर टिकेंगे, तो कार्य में निष्कामता आएगी।

दुनियादारी के समीकरणों में कम उलझेंगे और भीतरी अस्तित्व के गणित को ज्यादा समझेंगे। ऋषियों का तो कहना है कि योग आंतरिक अस्तित्व का गणित है। प्रतिदिन योग करने से आत्मीयता का विस्तार सही ढंग से हो सकेगा।

हमारे अंतस के आनंद में ही परिवार की खुशियां बसी हैं
केंद्रस्थ व्यक्ति के लिए प्रसन्न रहना आसान है। अपने आप का केंद्रीकरण किया जाए। थोड़ा भीतर उतरकर खुद पर टिकें, असली आनंद यही है। आनंद हमारा मूल स्वभाव है। उसे बाहर ढूंढ़ने की भूल हम करते ही रहते हैं।

न कोई हमें खुश रख सकता है और न ही दुखी, अगर हम भीतर स्वयं पर टिकना जान लेंगे। अभी हम हर बात के लिए बाहर ही टिके हैं। दूसरों से शुरू होते हैं और दूसरों पर ही खत्म हो जाते हैं। अपने पर जाने का तो न होश है, न समय।

योग का नियमित आचरण इसमें मददगार होगा। नियमित योग हमें रिदम में ला देता है। इस काम के लिए हमें अपने घर को ही तपस्थली बनाना चाहिए। घर में अनेक सदस्य रहते हैं। गुण, कर्म और स्वभाव के स्तर पर सदस्यों में जितनी समानता होगी, घर में उतनी ही शांति होगी।

इस समानता को साधना पड़ता है। इसलिए अपने केंद्र पर जाकर प्रसन्नता पाने का अभ्यास करें। जो भीतर से आनंद में होगा, वह बाहर इसकी सुगंध से दूसरों को भी महका देगा। परिवार में शांति लाने के लिए प्रयत्नशील रहना होगा।

यह एक दिन का काम नहीं है। धर्य, दृढ़ता और चतुरता से लगे रहें। इसलिए भीतर की यात्रा के क्रम को न तोड़ें। हमारे अंतस के आनंद में ही परिवार की खुशियां बसी हैं। योग को आवृत्तिमूलक अभ्यास भी कह सकते हैं, लगातार दोहराए जाने वाली क्रिया।

तन के साथ मन को रोज धोना, पोंछना पड़ेगा। वरना सारे प्रयास ऐसे होंगे कि गंदा मुंह पोंछने की जगह केवल दर्पण को साफ किया जाए।

मन पर जीत पाना है असली वीरता
मानवता की जो असाधारण विशेषताएं हैं, उनमें से एक है खूब परिश्रमी होना। परिश्रम के लिए स्वाथ्य तथा समझ, दोनों जरूरी हैं। यह समय खूब परिश्रम करने का है। आजकल लोग 14 से 16 घंटे सामान्य रूप से काम करते हैं, लेकिन ऐसा देखा गया है कि परिश्रमी दुर्बल भी हो जाते हैं।

उनमें करुणा की जगह व्याकुलता आ जाती है। उन्हें देखकर कभी-कभी लगता है काम के नशे में इनका दिल सो गया है। शरीर को कपड़े की तरह निचोड़ा और कूटा जा रहा है। फटे कपड़े में जिस तरह से रफू की कारीगरी होती है, आज के सफल परिश्रमियों के शरीर को भी ऐसा देखा जा सकता है। आध्यात्मिक दृष्टि यदि जीवन में हो, तो परिश्रम के साथ वीरता भी आ जाएगी।

अध्यात्म कहता है वीरता आने से सहृदयता और व्यवहार में खूबसूरती आ जाती है। यह जरूरी नहीं कि परिश्रमी व्यक्ति अपने लक्ष्य और शक्ति के प्रति सही हो। कई बार मेहनतकश इंसान जान ही नहीं पाता कि वह क्या और क्यों कर रहा है।

मेहनत उसकी मजबूरी हो जाती है, लेकिन परिश्रम के साथ व्यक्तित्व में जब वीरता जुड़ जाए, तो साहस, धर्य, लक्ष्य और संकल्प निखर कर आ जाता है। जब हम अपने कामकाज की दुनिया में रहते हैं, तो मन अपने तरीके से सक्रिय रहता है।

हमें कई तरह की भूमिकाएं निभाना पड़ती हैं। कभी हम ब्राह्मण की तरह ज्ञान का कर्म कर रहे हैं तो कभी शूद्र की तरह सेवारत हैं, कभी क्षत्रिय की तरह पराक्रम में डूबे हैं, तो कभी वैश्य की तरह सौदे निबटा रहे होते हैं।

इस परिवर्तन से हमें सीखना चाहिए कि हमें ही हर भूमिका में अपना नेतृत्व करना है। ऐसे में केवल परिश्रम से काम नहीं चलेगा, वीरता की जरूरत है, लेकिन यह भी ध्यान रखें वीरता किसके लिए? हमेशा हमको युद्ध नहीं लड़ना है, दरअसल सबसे बड़ी वीरता है अपने मन पर जीत हासिल करना।

यह मन भीतर से हमें हमारी बाहरी भूमिकाओं में परेशान करता है। यह हम पर हावी होने की कोशिश में रहता है और इसीलिए न चाहते हुए भी कुछ ऐसे काम करवा लेता है कि बाद में हमें पछतावा होता है।

मेहनतकश इंसान का मन जरूरी नहीं है कि उसके वश में हो, लेकिन वीर व्यक्ति मन पर नियंत्रण पा लेता है और जीवन के हर क्षण पर सवार हो जाता है, सदुपयोग कर लेता है।

अहंकार आएगा जरूर, इसके रूपांतरण की तैयारी रखें
जीवन में प्रसन्नता एक लयबद्धता से आती है। स्थितियों का बहाव यदि ठीक तरह से जिंदगी मंे हो रहा हो तो आदमी मस्त रहता है। इस लयबद्धता को अहंकार बिखरा देता है। मन अपने अहंकार की पूर्ति के लिए हमें बार-बार प्रेरित करता है, क्योंकि वह जानता है कि जब तक मनुष्य अहंकार की पूर्ति करता रहेगा, मन की सक्रियता बनी रहेगी। आदमी अपने अहंकार की पूर्ति में इतना जुट जाता है कि कहीं बाधा आती है, तो वह विचलित हो जाता है, निराश हो जाता है।

कई अहंकारियों को देखा है कि जब तक उनकी जवानी की उम्र होती है, वे इसकी पूर्ति आसानी से कर लेते हैं, लेकिन बुढ़ापे में अहंकारी मुसीबत में आ जाता है। अहंकार को वृद्धावस्था एक सबक देती है। लेकिन चूंकि जवानी में मुसीबत झेलने की ताकत थी इसलिए सबकुछ चल गया। हमारे शास्त्रों ने इसीलिए संसार को असार बताया है। यानी संसार है भी और नहीं भी। ऐसा इसलिए कहा गया है कि अहंकार मत रखो क्योंकि दुनिया की जिन बातों के कारण हम अहंकार रखते हैं, ये दुनिया ही एक दिन नहीं रहेगी।

अहंकाररहित व्यक्ति को भी प्रतिकूलता का सामना करना पड़ता है, लेकिन तब उसकी समझदारी और सहनशीलता बढ़ी रहती है, इसलिए वह आसानी से पार लग जाता है। लेकिन अध्यात्म ने एक महत्वपूर्ण बात कही है। निरहंकार स्थिति आती ही अहंकार के बाद है। अहंकार आएगा जरूर, बस हमें सावधानी रखनी पड़ेगी कि इसके आते ही इसके रूपांतरण की तैयारी रखें। गुरु परंपरा इसीलिए बनी है। आदमी गुरु के प्रति समर्पित होता है और इसी समर्पण में उसका अहंकार गलता है।

अपने सेवक से सदा प्रेम रखना ही प्रभु की रीति रही है
संसार सही और गलत का जोड़ है। न चाहते हुए भी हम कई बार ऐसे लोगों से मिलते हैं, जो पूरी तरह अनुचित होते हैं। हनुमानजी लंका में विभीषणजी के सामने थे। दोनों की बातचीत हो रही थी।

सुंदरकांड में तुलसीदासजी ने इन दोनों की चर्चा के दौरान विभीषण के मुंह से सामाजिक मजबूरी पर एक सुंदर पंक्ति व्यक्त कराई है। सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।। विभीषण ने कहा- हे पवनसुत! मेरी रहनी सुनो।

मैं यहां वैसे ही रहता हूं, जैसे दांतों के बीच में बेचारी जीभ। ठीक ऐसी स्थिति इस लंका रूपी दुनिया में हमारी होती है। हम सत्य और सदाचरण के साथ रहते हैं और आसपास का वातावरण हमको उल्टा नजर आता है। हनुमानजी समझ गए कि विभीषणजी अपनी कमजोर संकल्प शक्ति के कारण ऐसा उदाहरण दे रहे हैं।

आप खुद ही रहने को तैयार हो तो कोई आपको कैसे ऐसी स्थितियों से बाहर निकालेगा। हनुमानजी ने उनको मानसिक बल देने के लिए सुंदर पंक्तियों में उत्तर दिया - सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।

हनुमानजी ने कहा - हे विभीषणजी! सुनिए, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक से सदा ही प्रेम करते हैं। यहां हनुमानजी ने कहा है भगवान प्रीति करते हैं यानी प्रेम का रिश्ता रखते हैं। कृपा और दया नहीं करते, क्योंकि जिस पर ऐसा किया जाता है उसमें हीन भावना आ जाती है, लेकिन प्रेम समानता के स्तर पर होता है।

विभीषण को हीन भावना से निकालने के लिए यह हनुमानजी का मनोवैज्ञानिक तरीका था।

जितने हम प्रेमपूर्ण होंगे परमार्थ व वैराग्य के लिए स्थान बनेगा

बीमारियों का एक इलाज यह भी है कि उनके प्रति सतर्कता बरती जाए। शारीरिक बीमारियों के प्रति हम लगातार चेकिंग रखते भी हैं। जैसे बीपी, शुगर का लेवल बढ़ने पर फौरन इलाज किया जाता है। इसी प्रकार सावधानी मानसिक बीमारियों के साथ भी रखी जाए। इनका भी लेवल चेक करते रहना चाहिए।

लोभ, तृष्णा, काम, क्रोध मानसिक व्याधियां हैं। ये जैसे ही हमारे भीतर बढ़ने लगें, तत्काल इनके निदान में जुट जाएं। परमार्थ और वैराग्य, इन शब्दों का जीवन से सीधा संबंध रखें। इनका लेवल जब भी नीचे हो, सक्रिय हो जाएं। या तो सत्संग करें या गुरुकृपा बनी रहे, इसका प्रयास करें।

ये दोनों हमें भक्ति के मार्ग पर ले जाते हैं। आप जितना भक्ति में उतरेंगे, उतना ही अपने अस्तित्व को पिघलाने लगंेगे। अभी हम और हमारा अस्तित्व अलग-अलग हो जाता है। भक्ति हमें एक बनाती है। धीरे-धीरे हम उस परमशक्ति की ओर चलने लगते हैं।

हमें लगने लगता है कि जो कुछ हमारे भीतर नाशवान था, उसे हमने हटा दिया और अब जो बचा है, वह अमर है, वही ईश्वर है। यहीं से जीवन में प्रेम उतरने लगता है। जितना हम प्रेमपूर्ण होंगे, परमार्थ और वैराग्य के लिए स्थान बनेगा और यहीं से हमारी मानसिक बीमारियां स्वत: समाप्त होने लगेंगी।

फिर चाहे शरीर थका हो, बीमार हो, बाहरी स्थितियां प्रतिकूल हों, कभी निराश नहीं होंगे। भक्त बनने के लिए बहुत अधिक कर्मकांड की जरूरत नहीं होती। कर्मकांड एक सीढ़ी हो सकता है, लेकिन भक्त होने के लिए स्वयं से जुड़ना जरूरी है।

स्त्री-पुरुष दोनों के लिए एक आंतरिक अनुशासन है ब्रह्मचर्य
सामान्यत: ब्रह्मचर्य पुरुषों के लिए आरक्षित स्थिति मानी जाती है। दरअसल ब्रह्मचर्य एक ऐसा आचरण है, जो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही समान है। ब्रब्रह्मचर्य एक शक्ति का नाम है, जो ब्रह्म के आचरण से आती है।

एक आंतरिक अनुशासन ब्रह्मचर्य का रूप है। इसका संबंध केवल शारीरिक नहीं है। शरीर के स्तर पर तो ब्रह्मचर्य स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अलग-अलग होगा, लेकिन जब इसे आंतरिक शक्ति के रूप में लेंगे, तो यह स्त्री के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण होगा, जितना पुरुष के लिए है।

स्त्री का ब्रह्मचर्य उसे रूप-धन की स्थिति से भी मुक्त कराएगा। जैसे-जैसे वह अपनी आंतरिक शक्ति को पहचानेगी, मां बनना उसके लिए विवशता नहीं, विशेष अधिकार बन जाएगा। स्त्री का ब्रह्मचर्य उसके मातृत्व के लिए एक वरदान है।

जो स्त्रियां अपनी आंतरिक शक्ति पर बखूबी टिकीं, उन्हें पुरुष से बराबरी का रुतबा पाने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। बिना आंतरिक शक्ति के पुरुष से जो बाहरी संघर्ष होगा, वह ऊर्जा को नष्ट करने वाला, वातावरण को दूषित करने वाला और जीवन को संकट में डालने वाला ही रहेगा।

माताओं, बहनों को योग, प्राणायाम और ध्यान से गुजरते समय अधिक सरलता रहेगी। माताओं, बहनों को अपने व्यक्तित्व की प्रस्तुति करने में आज भी कई परेशानियां हैं, लेकिन ब्रह्मचर्य यानी आंतरिक शक्ति पर टिकते ही उनके लिए सारा वातावरण मित्रवत हो जाएगा।

इसका अर्थ है सम्मान और सदाचार के साथ उन्हें सहयोग मिलेगा और वे भी सान्निध्य दे सकेंगी।

हमारे पाप या पुण्य ही हमें स्वर्ग या नर्क में ले जाते हैं
सत्य का संबंध केवल शब्दों से नहीं है। शब्दों में सत्य ढूंढ़ना साधारण आदत है, लेकिन स्थितियों में सच ढूंढ़ना मुश्किल बात है। इसके लिए अपने भीतर गहरा उतरना पड़ता है और बाहर के हालात के लिए दूरदृष्टि रखनी पड़ती है।

चूंकि सत्य इतना मजबूत होता है जिसे किसी हथियार से काटा नहीं जा सकता, इसलिए इसे देखना चाहें या जानना चाहें तो जरूर जान सकेंगे। सद्कर्म, सद्विचार, सद्भाव व अच्छे उद्देश्य सत्य के प्रतिरूप हैं। हमारे यहां स्वर्ग और नर्क की एक प्राचीन धारणा है।

कुछ लोगों ने तो यह समझा ही दिया है कि स्वर्ग और नर्क मृत्यु के बाद की स्थिति है। हो भी सकती है। लेकिन जहां तक जीवन का सवाल है, इसे सत्य से जोड़कर देखना चाहिए। कौन नर्क जाता है? दरअसल जो गलत काम करेगा, वह नर्क जाता है, लेकिन सत्य तो यह है कि जो अनुचित कर्म करेगा, वो नर्क में जीता है।

जाता है या नहीं, यह तो भविष्य के गर्त में है, लेकिन जीता जरूर है और जीना यहीं पड़ता है। इसलिए जितना हम असत्य पर टिकेंगे, गलत बात करेंगे, उतना हमारा पतन होगा। पतन की पीड़ा ही नर्क है। इसलिए हम कहते भी हैं जिंदगी नर्क हो गई। हो नहीं गई, बना दी गई।

पाप और पुण्य आपको स्वर्ग और नर्क ले जाएंगे, इस विषय में बौद्धिक विवाद हो सकता है, लेकिन एक बात पर सभी को सहमत होना पड़ेगा कि आपके पाप का ताप नर्क है और पुण्य यानी अच्छे कर्मो का परिणाम स्वर्ग है। इसलिए जीवन को जितना हो सके, सत्य के निकट रखिए।

जिसने जीवन को जान लिया वही सचमुच सफल है
जब हम बाहर कामयाब होने लगें, हमारे विकास और प्रगति की दर हमारे भौतिक मापदंडों के अनुकूल रहे तो निश्चित ही इसे सफलता कहेंगे, पर समझदार लोग उसी समय अपने भीतर की प्रगति पर भी दृष्टि डालते हैं।

बाहर की यात्रा में तो कई लोग आपके सहयोगी होंगे और उन्हीं की मदद से आप कामयाब बनेंगे, लेकिन जब अपने भीतर की प्रगति को टटोलेंगे तो यह यात्रा बिल्कुल एकाकी होती है। इसीलिए कहा गया है मानसिक क्षमता का हम केवल 7 प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं।

हमारी 93 प्रतिशत सामथ्र्य कहीं सोई पड़ी रहती है तो कहीं खोई रहती है। इसी कारण भीतर जाने का आग्रह किया जा रहा है कि स्वयं की अंतर्यात्रा में उस शक्ति को ढूंढ़ें और जगाएं। यहीं से आत्मनिर्माण आरंभ होता है।

बाहर की दुनिया में तो हम बड़े-बड़े निर्माण करते हैं, हमारी जय-जयकार होती है, लेकिन अपने भीतर उसी समय हाहाकार भी शुरू हो जाता है। हम बिल्कुल वैसे हो जाते हैं, जैसे लोग भीतर से नास्तिक रहते हैं और ऊपर से आस्तिक। ईश्वर है, इसके बाहर प्रमाण मिल सकते हैं। लेकिन परमात्मा है, इसके प्रमाण भीतर ही मिलेंगे।

आप अपने भीतर उतरते ही बाहर के कर्मो के प्रति एक ऐसा नजरिया प्राप्त कर लेते हैं, जो शुद्ध होता है और इसीलिए जब भीतर से बाहर आते हैं तो गलत काम कर ही नहीं पाते, क्योंकि आप जीवन के बारे में जान चुके होते हैं और जिसने जाना, वही सचमुच सफल है, वरना सफलता भी एक मुखौटा है।

रिश्तों में शरीर नहीं भावनाएं प्रमुख रहें
परिवारों में रिश्ते बनते भले ही शरीर से हैं, लेकिन रिश्तों को निभाने के लिए शरीर से अलग हटना पड़ता है। भारतीय परिवारों में भी बदलते दौर में एक बड़ा परिवर्तन आया है। हमारे यहां पहले रिश्तों को महत्व दिया गया, शरीर को गौण रखा गया।

इसीलिए भारत के परिवार के सदस्य एक-दूसरे से भावनात्मक रूप में रहते हैं। धीरे-धीरे घर-गृहस्थी का विस्तार हुआ। बाहर की दुनिया में लोगों का समय अधिक बीतने लगा। लक्ष्य परिवार से हटकर संसार हो गया और यहीं से शरीर का महत्व बढ़ गया।

जैसे ही हम रिश्तों में शरीर पर टिकते हैं, हमारा आदमी या औरत होना भारी पड़ने लगता है, उनका अहं टकराने लगता है। बाप और बेटे का एक रिश्ता है। जब तक इसमें केवल रिश्ता काम कर रहा होता है, प्रेम और सम्मान भरपूर रहेगा, लेकिन जैसे ही दोनों अपने शरीर पर टिकेंगे, तो भीतर का पुरुष जाग जाता है और यहीं से फिर बाप-बेटे नहीं, दो पुरुष नजर आने लगते हैं।

ठीक यही स्थिति पति-पत्नी के बीच बन जाती है। स्त्री हो या पुरुष, जब तक रिश्ते की डोर से बंधे हैं, दोनों एक-दूसरे के प्रति अत्यधिक सम्मानपूर्वक रहेंगे, लेकिन इनके भीतर का आदमी, औरत जागते ही रिश्ते बोझ बन जाते हैं।

यही स्थिति हर संबंध में काम करती है। पत्नी के रूप में रिश्ता एक दायित्व, एक स्नेह का होता है, लेकिन यदि वह स्वयं भी अपने भीतर की स्त्री को ही जाग्रत कर ले, पुरुष भी केवल शरीर ही देखने लगे, तो फिर सारी अनुभूतियां कामुकता, अपेक्षा, महत्वाकांक्षा और लेन-देन पर टिक जाती हैं।

जिन रिश्तों में शरीर गौण हों और भावनाएं प्रमुख हों, वहां जिंदगी मीठी होने लगती है। यह सही है कि शरीर के बीज से ही रिश्ते अंकुरित होते हैं, लेकिन जो लोग वापस शरीर की ओर लौटेंगे, वे रिश्तों का वृक्ष नहीं बना पाएंगे।

रिश्तों से जुड़ने पर ऐसा लगता है, जैसे पत्थर में से मूर्ति संवारी गई। छुपा हुआ निखरकर आता है। हमें आज के दौर में यह ध्यान रखना होगा कि रिश्ते शुरू तो शरीर से हों, पर धीरे-धीरे शरीर से हटकर भावना, संवेदना, ममता, सम्मान और प्रेम पर जाकर टिकें।

विचार अस्थायी होते हैं उन्हें लेकर विवाद न किया जाए
साधना के मार्ग में निर्विचार स्थिति का बड़ा महत्व है। विचार हमेशा अस्थायी होते हैं। मन इनका केंद्र होता है। इसलिए यदि विचार गतिशील रहें तो मन सक्रिय रहेगा और साधना में बाधा पड़ेगी। यूं तो विचार क्षणभंगुर और अनित्य हैं, लेकिन जितने भी समय वे रहते हैं, प्रभावशाली जरूर होते हैं।

इसलिए विचारों को लेकर झगड़ा न किया जाए। लोग विचारों के प्रति इतने आग्रही हो जाते हैं कि उनके विचार आवेश का रूप ले लेते हैं। मन को अहंकार प्रिय है। ऐसे में अहंकार का प्रदर्शन विचारों में होने लगता है और सारी दृष्टि एकतरफा हो जाती है। भगवान महावीर एक कहानी सुनाया करते थे। चार दृष्टिहीन व्यक्ति कहीं जा रहे थे, विचार हुआ कि हाथी देखा जाए। संयोग से हाथी मिल भी गया। चारों ने उसे छुआ और बाद में एक-दूसरे से पूछा कि बताओ हाथी कैसा होता है?

पहले ने कहा - हाथी या तो हवा करने वाले पंखे जैसा है या सूपड़े जैसा, क्योंकि उसने केवल कान छुए थे। दूसरे ने कहा - नहीं, हाथी रस्सी की तरह है, उसने पूंछ पकड़ी थी। तीसरे ने कहा - हाथी खंभे की तरह है, क्योंकि उसके हाथ हाथी का पैर लगा था और चौथा बोला - तुम तीनों गलत हो।

हाथी अजगर के समान है, क्योंकि उसने हाथी की सूंड को छुआ था। इनकी बातें सुनकर एक समझदार ने बताया आप चारों के पास सत्य है, लेकिन अपूर्ण। दृष्टि नहीं होने के कारण सत्य खंड-खंड हो गया। साधना के मार्ग में विचारों का अति आग्रह हमें दृष्टिहीन बना देता है और हम परम सत्य को भी टुकड़े-टुकड़े करके देखने लगते हैं।

भीतर व बाहर की शांति हमारे भोजन की शुद्धता पर निर्भर है
भोजन की शुद्धि बाहरी स्वास्थ्य के लिए ही जरूरी नहीं, बल्कि भीतर की शांति भी उससे प्रभावित होती है। हमारा भोजन जितना हल्का व शुद्ध होगा, हम उतने ही प्रसन्न रहेंगे। पौष्टिकता का अर्थ शरीर से ही नहीं जुड़ा है।

क्या और कितना खाया जाए, इस पर सुंदरकांड में हनुमानजी ने विभीषण के सामने बड़ी अच्छी टिप्पणी की है। जब विभीषण अपनी दुखभरी स्थिति का वर्णन करते हैं और संदेह जताते हैं कि क्या मुझ जैसे को श्रीराम स्वीकार करेंगे?

तब हनुमानजी कहते हैं- कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।। प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।। मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूं। चंचल वानर हूं और सब प्रकार से हीन हूं।

प्रात:काल जो हम लोगों का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन नहीं मिलता। इसके गूढ़ अर्थ को समझना होगा। हम दिनभर में जितना भोजन करते हैं, उससे अधिक काम, क्रोध, लोभ जैसे दुगरुणों को खाते हैं।

यही हमारा भोजन रहते हैं। हनुमानजी जब लंका की ओर उड़े थे, तब उन्हें सुरसा, सिंहका और लंकिनी मिली थीं और सबने कहा था- हम तुम्हें खाएंगे, लेकिन हनुमानजी किसी का भोजन नहीं बने। हनुमानजी कहते हैं, जो सुबह-सुबह मेरा नाम लेगा, वह दुगरुणों के भोजन से वंचित रहेगा।

इसीलिए सुबह उनका नाम लें, यानी प्राणायाम करें, तो दिनभर गलत चीजों को अपने भीतर उतारने की आदत से मुक्त हो जाएंगे। दुगरुण खाकर हम अशांत भीतर होते हैं और शांति के कारणों को बाहर ढूंढ़ते हैं।

गरबा मां को आमंत्रण है कि आप आएं और इसमें विराजें
हमारे जीवन में कुछ सांस्कृतिक परंपराएं इतनी मजबूत और प्रभावशाली हैं कि वे सामूहिक रूप से संपन्न होती हैं, लेकिन निजी प्रतिभा को परिष्कृत कर जाती हैं। इन्हीं में से गरबोत्सव एक परंपरा है। नवरात्रि आरंभ हो रही है और गरबे सिर चढ़कर बोलेंगे।

इसे केवल नृत्य न समझा जाए। गरबे के दौरान सौजन्य, सहयोग और सेवा साधना शक्ति पर्व में अद्भुत रूप में सामने आएगी। ऊर्जा की अधिकता प्रकट जरूर होती है। फिर यदि सात्विक ऊर्जा से नृत्य किया जाए तो नृत्य भी पूजा ही होगा।

आज से जीवन में देवी का आह्वान किया जाएगा। परमात्मा को जब हम प्रतिस्थापित करते हैं, देवी की घटस्थापना करते हैं तो यह एक तरह की पूजा है। मां को आमंत्रण है कि आप आएं और इसमें विराज जाएं।

हम सीमित हैं और आप असीम, इसीलिए गरबे के दौरान यह ध्यान रखें कि मनुष्य, मनुष्य के साथ और मनुष्य के सामने ही नृत्य नहीं कर रहा। ये सारा नृत्य उस परमशक्ति के सामने है, उसी के हेतु है, जिसको देखने के लिए एक विशिष्ट आंख की जरूरत होती है और इस आंख को भक्ति कहा गया है।

ये भक्ति के नौ दिन एक गहरी निगाह के दिन हैं। जैसे पत्थर में सबको पत्थर ही दिखेगा। इसीलिए पत्थर वर्षो रोते हैं कि कोई ऐसी निगाह नहीं मिल रही, जो हमारे भीतर कुछ और देख ले, लेकिन मूर्तिकार पत्थर में मूर्ति देख लेता है।

ऐसे ही भक्त नौ दिन उस घट में उस दिव्य शक्ति को देख लेगा और इसके बाद नवरात्रि में नृत्य हो या कर्म, बस पूजा ही पूजा का रूप ले लेंगे।

अपनी कमी बाहर से छुपा लें पर भीतर विचलित जरूर होंगे
संसार में लंबे समय रहते हुए हम भूल ही जाते हैं कि हमारे भीतर एक देवमानव भी बसा है। जैसे शेर का बच्च लंबे समय भेड़ों के समूह में रहता है तो वह अपने आप को भेड़ ही समझने लगता है। हमारी भी यही हालत है।

दुनियादारी में उलझकर भूल ही गए कि इस सुख के अलावा और इससे ऊपर भी कुछ है, जो हमारे भीतर मिलेगा, लेकिन जानकारी के अभाव में हम स्वयं चूकते हैं और दोष दूसरों को देते हैं। हमारा यह अनजानापन हमारे लिए दुर्भाग्य बन जाता है।

बाहरी रूप से ऐसा करके भले हम अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएं, लेकिन भीतर विचलित जरूर होंगे। हमारी कमी बाहर छुपाई जा सकती है, लेकिन हमारी कमजोरी भीतर जरूर प्रकट होगी। बाहर छल किया जा सकता है, लेकिन भीतर धोखा नहीं होता। वहां तो जो होता है, वह घटता जरूर है। भीतर उतरने के लिए प्रार्थना एक सीढ़ी की तरह है।

ईसा मसीह ने कहा है कि प्रार्थना में विरह ही नहीं, प्रेम का रस भी भरा हुआ है। इन दोनों के मेल से आदमी आसानी से अपने भीतर उतर सकता है। भक्ति एक तरह का रस है और फिर यह रस कई रूपों में बाहर आता है। जैसे ही हम अपने भीतर उतरते हैं, हर स्थिति में स्वयं के दायित्व से भी जुड़ जाते हैं।

बाहर यदि असफलता या अशांति हुई तो हम दोष दूसरों पर नहीं मढ़ेंगे, खुद का मूल्यांकन करेंगे। भक्ति रस में डूबे लोग दूसरों के दोष देखना व निंदा करना अपराध ही मानते हैं। वे स्वयं को परिमार्जित करके दूसरों को बदलने में विश्वास रखते हैं।

जीवन में बुद्धत्व जागृत होता है तो हम भीतर से मर जाते हैं
जीवन में सुयोग व सहयोग का तालमेल जुट जाए तो कई चीजें आसान हो जाती हैं। सुयोग हमें बनाना होगा और सहयोग दूसरों से लेना पड़ेगा। सुयोग बनाने के लिए अपने भीतर की आध्यात्मिक ऊर्जा का उपयोग करना आना चाहिए और दूसरों से सहयोग लेने के लिए अपने आप को प्रामाणिक सिद्ध करना पड़ता है।

दोनों ही स्थितियों में हमारा मैं काम करता है। जीवन में जब सुयोग बनाना हो, तो अपने मैं को गलाना पड़ेगा और जब दूसरों से सहयोग लेना हो, तब अपने मैं को हटाना पड़ेगा। बौद्ध संप्रदाय में एक प्रतीकात्मक कथा है कि जब भी किसी बुद्ध का जन्म होता है तो जन्म देने के बाद ही उसकी मां मर जाती है।

इसके सांसारिक अर्थ निकालने जाएंगे तो हम भटक जाएंगे, लेकिन आध्यात्मिक अर्थ है कि जीवन में जब बुद्धत्व जागृत होता है, तब हम भीतर से मर जाते हैं। यह हमारा नया जीवन होता है। जैसे ही हम भीतर मरते हैं, हम ही नए जीवन के रूप में जीवित हो जाते हैं। जब काम मरता है, तब प्रेम जागता है। जब लोभ मरता है, तब वैराग्य का जन्म हो जाता है।

जब क्रोध गिरता है, तब क्षमा अस्तित्व में आती है। बुद्ध के जन्म का अर्थ है कि जब हम मिट जाते हैं, तब परमात्मा का जन्म होता है, होता हम ही से है। जैसे स्त्री गर्भवती होकर संतान को जन्म देती है, वैसे ही हमारी भक्ति हमारी गर्भावस्था है और उसी के परिणाम में परमात्मा जन्म लेता है। खुद को मारने का अर्थ यह है उन स्थितियों को मारना, जो अहंकार को बनाए रखती हैं, उन हालात को हटाना, जो हमें परमात्मा से दूर रखते हैं।

निरर्थक को परे हटाओ तो हमें काम की चीज मिल जाएगी
कई लोगों के मन में यह सवाल होता है कि जब सब कुछ ठीक चल रहा है तो भगवान की जरूरत ही क्या है और यदि ठीक नहीं भी चल रहा है, तब उसकी और क्या आवश्यकता है। यह बात काफी हद तक सच है कि परमात्मा की खोज बैठे-ठाले नहीं हो सकती और अकारण करना भी नहीं चाहिए।

दूसरों को देखकर यदि ईश्वर की खोज में जुट जाएंगे तो यह एक नकल, एक औपचारिकता होगी। खुद की तड़पजरूरी है। जिंदगी जब बेकार नजर आने लगे, जीवन व्यर्थ दिखने लगे, तब भगवान को ढूंढ़ना शुरू होता है। जीवन में खूब मजा आ रहा हो तो क्यों कोई भगवान को ढूंढ़ेगा?

इसलिए जीवन में जो व्यर्थ है, वह जब दिखने लगे तो रुककर मत बैठ जाइए, उसी व्यर्थ के साथ सार्थक को देखने की कोशिश कीजिए। यहीं से भगवान की खोज आरंभ होती है। गुरुनानक देव ने कहा था कि संसार में बहुत कुछ ऐसा है, जो काम का नहीं होता। उसे थोड़ा-सा परे हटाओ तो जो काम का है, वह हाथ लग जाएगा।

यदि दुनिया में ही सार्थकता ढूंढ़ोगे तो अंत में हाथ कुछ नहीं लगेगा। संसार जब संसार से मिलता है तो वैसे ही मिलता है, जैसे किसी बंदर को फोड़ा हो जाए तो दूसरे बंदर उसके हालचाल पूछने आते हैं।

बंदरों का यह मनोविज्ञान होता है कि जिसे फोड़ा हो गया हो, उसकी पूछताछ करने वाले उसके घाव को अपने पंजे से नोंचते हैं और वह बंदर कभी ठीक नहीं हो पाता, बल्कि मर ही जाता है। बस, संसार घाव देता है और ऐसे ही घाव को सहलाता है। तब लोगों की इस निर्थकता पर नजर पड़ती है और वे सार्थक यानी परमात्मा की खोज में उतरते हैं।

रिश्तों में शरीर नहीं भावनाएं प्रमुख रहें
हमेशा कहा जाता है परिवार में यदि प्रेम बचा रहा, तो परिवार बच जाएगा। बहुत सारे लोग अभी भी प्रेम का अर्थ नहीं समझ पाए हैं। केवल सतह पर लें, तो प्रेम का अर्थ वासना ही निकलता है। दरअसल बिना गहराई में उतरे प्रेम को नहीं जाना जा सकता।

प्रेम जानने के लिए जीवन में प्रार्थना उतारनी होगी। जो लोग प्रार्थनामय होते हैं, उन्हें प्रेम आसानी से समझ में आएगा। प्रार्थना का अगला चरण ही प्रेम है। इसलिए घर में प्रार्थनापूर्ण व्यवहार एक-दूसरे से किया जाए। अभी अधिकारपूर्ण व्यवहार होता है।

घर का हर सदस्य एक-दूसरे के प्रति अपने अधिकार को ही जताता है। उसकी यह अपेक्षा होती है कि मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाए या मैं दूसरों के साथ वही व्यवहार करूंगा, जो मेरे अधिकार में है। यह अधिकार की वृत्ति धीरे-धीरे अहंकार में बदल जाती है और जब तक अहंकार है, तो प्रेम नहीं उभर सकता। प्रार्थना में विरह का भी महत्व है। दूरी और विरह प्रार्थना को और आत्मीय बनाती है।

इसीलिए भारतीय परिवारों में यह व्यवस्था है कि बीच-बीच में कभी-कभी सदस्य एक-दूसरे से दूर हो जाएं। हमारे यहां ससुराल, ननिहाल जाने की परंपरा ही इसीलिए थी। मेल और विछोह का यह आवागमन प्रार्थना और प्रेम को मजबूत करता है। सदा पास में रहने से भी रिश्ते चुक जाते हैं।

जब सदस्य प्रेमपूर्ण होते हैं, तो वे एक-दूसरे से झगड़ें, क्रोध करें, तो भी प्रेम बना रहेगा। यह न समझा जाए कि प्रेमी लोग झगड़ते नहीं हैं। जमीन और आसमान में फर्क होता है, लेकिन फिर भी एक जगह जाकर दोनों मिल जाते हैं और वह है वर्षा।

आसमान जल को वापस पृथ्वी पर लाता है। इसी तरह प्रेम से बंधे हुए परिवार के सदस्य निकट होकर झगड़ें या दूर रहकर विरह में रहें, प्रेम बना ही रहेगा। कहते हैं पति-पत्नी एक-दूसरे के मित्र होना चाहिए।

इस सख्य भावना में यदि भक्ति-भावना जुड़ जाए, तो यह विचार स्थाई रहेगा, वरना विषय और विकार बीच में आकर इस संबंध को तनाव पूर्ण बनाते हैं। हमारे परिवारों में भक्ति बनी रहे, यह प्रयास इसीलिए किए जाते हैं क्योंकि भक्त प्रेमपूर्ण होता है।

जीत हो या हार, जीवन में सदैव संतुलन बनाए रखें
हार या जीत होती ही रहती है। हमेशा कोई जीतेगा ही, ऐसा दावा खतरनाक है। युद्ध और खेल में जो हार-जीत दिखती है, वैसी जीवन में भी होती रहती है। इसलिए भारतीय संस्कृति ने एक शब्द दिया है - समत्व। इसका अर्थ होता है संतुलन। गीता में श्रीकृष्ण ने अजरुन से कहा था - तुम समत्व में स्थापित होकर युद्ध लड़ो। वे कहना चाहते थे कि बात जीत और हार की नहीं है, लाभ और हानि की भी नहीं है, बात है तुम जीतो या हारो, तुम में समभाव होना चाहिए।

अजरुन को यह समझाया जा रहा था कि आज जीत सकते हो तो कल हार भी सकते हो। इसलिए महत्वपूर्ण यह है कि हर स्थिति में समत्व भाव बनाए रखना। जय और पराजय को व्यक्ति किस दृष्टि से लेता है, यह महत्वपूर्ण है। जो जीत के बाद हार को नहीं जानता, जीत उसको अहंकारी बनाकर कहीं न कहीं हार की ओर ही ढकेल रही होती है। केवल जीत जिंदगी का आधा दृश्य है। हमेशा मिल रही जीत संघर्ष की वृत्ति को समाप्त कर देती है और हमेशा मिल रही हार निराशा का घोर वातावरण बना देगी। हार न सिर्फ निराशा लाती है, बल्कि प्रतिहिंसा की वृत्ति भी जाग्रत कर देती है।

इसलिए चाहे जीत हो या हार, दोनों ही स्थितियों में जीवन में संतुलन न खोया जाए। आदमी जीतने के बाद भी विनम्र बना रहे। सफलता को चुनौती मान ले और हारने के बाद भी निराश न हो, उत्साह को फिर से जाग्रत कर ले, यही क्रम चलता रहेगा तो अशांति से मुक्त रहकर कोई भी काम किया जा सकता है।

आंखें व आंसू हमारे व्यक्तित्व को व्यक्त करते हैं
आदमी दुखी होने पर भी रोता है, संवेदनशील हो और खुशी जाहिर करनी हो, तब भी उसकी आंखें सजल हो उठती हैं। आंख और आंसू भीतरी व्यक्तित्व को व्यक्त करते हैं। इसीलिए पहुंचे हुए महात्मा की आंख में आंख डालने का मौका मिले तो तप के क्या परिणाम होते हैं, यह जानने की कोशिश की जाए। जैसे नवजात शिशु की आंख निर्दोष होती है, वैसे ही संत की आंखों में परमात्मा की गहराई होती है और आंसू होते तो आंख का हिस्स हैं, पर धोते हृदय को हैं।

विभीषण से बात करते हुए सुंदरकांड में हनुमानजी द्रवित हो गए। उन्होंने श्रीराम के कृपालु चरित्र का वर्णन किया और तुलसीदासजी ने लिखा - अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।। (सुंदरकांड दोहा-७) हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूं, पर श्रीराम ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान के गुणों का स्मरण करके हनुमानजी के नेत्रों में जल भर आया। लेकिन भगवान को याद करके जब आंसू निकलते हैं तो वह अमृत होते हैं और दुनिया की याद में जो बहाए जाते हैं, वो जहर होते हैं।

आंख के आंसू भक्ति में जरूर बहना चाहिए, क्योंकि जिनकी आंख के आंसू सूख गए, उनके लिए भक्ति कठिन होगी। आंसू हृदय को न सिर्फ धोते हैं, बल्कि उन बातों से ओतप्रोत रखते हैं, जो उन्हें परमात्मा तक ले जाती हैं, जो हमें प्रेमपूर्ण बनाती हैं। इसलिए अकारण आंसू न रोकें, लेकिन इतना आश्वासन जरूर अपनी आंखों को दें कि आंसू भगवान से जुड़ने के लिए सेतु का काम करेंगे, प्रेम का भाव प्रदर्शित करने की इबारत बनेंगे।

अहंकार मिटाने के लिए अपने मैं को खत्म करना होगा
आज के समय में निरहंकारिता भी एक उपलब्धि होगी। अहंकार और भ्रम हमें सही स्थितियों से दूर कर देते हैं। एक छोटी-सी धार्मिक घटना पर विचार करें। राम-रावण युद्ध में लक्ष्मण मूर्छित हो चुके थे। हनुमानजी उनकी मूच्र्छा दूर करने के लिए औषधि लेकर आ रहे थे। उसी समय अयोध्या के ऊपर से गुजरते हुए भरतजी ने उन्हें देखा और तीर चलाया। हनुमानजी नीचे गिर गए। इस घटना में तीन पात्र हैं - भरतजी, हनुमानजी और लक्ष्मणजी। हनुमानजी को यह सात्विक अहंकार आ गया था कि मैं स्वयं लंका पहुंच जाऊंगा।

भरतजी को यह भ्रम था कि यह कोई राक्षस है और लक्ष्मणजी मेघनाद यानी काम के बाण से मूर्छित हो चुके थे। मेघनाद से युद्ध करने के लिए जाते समय लक्ष्मणजी ने श्रीरामजी को स्मरण किया था, प्रणाम नहीं किया था। वे समझ रहे थे यह पराक्रम मैं अपने ही पुरुषार्थ से कर लूंगा। एक ही घटना में तीनों को समझ में आ गया कि हर एक के पीछे एक परम शक्ति होती है और उस परम शक्ति तक पहुंचने के लिए निरहंकारिता जरूरी है।

जीवन में निरहंकारिता लाना हो तो एक प्रयोग करिए - स्वयं को काटने की तैयारी रखिए, लेकिन जितना स्वयं को गलाएंगे, एक सूक्ष्म अहंकार रह जाएगा। एक तरीका यह है कि आदमी अपने अहंकार को इतना बड़ा कर ले कि उसे लगने लगे उसके अलावा कोई है ही नहीं, लेकिन तब भी मैं कायम रहेगा। ऐसे लोग आत्मा को उपलब्ध हो जाते हैं, पर परमात्मा से तब भी वंचित रह जाते हैं। इसलिए चाहे बड़े बनने की तैयारी रखें या छोटे होने की, दोनों ही स्थिति में मैं को जरूर गिराते रहिए।

रावण के पास निजबल, जनबल व बाहुबल था, आत्मबल नहीं
बहुत से लोग अपनी योग्यता, परिश्रम, निष्ठा से शिखर पर पहुंचते हैं। शीर्ष पर पहुंचना फिर भी संभव होता है, लेकिन वहां बने रहने में बड़ी ताकत लगती है और जो उसमें चूक गया, उसे नीचे आने में देर भी नहीं लगती। रावण के साथ यही हुआ था। योग्यता जब भ्रमित हो जाए, जानबूझकर अपना दुरुपयोग करने लगे तो रावण जैसे पात्र सामने आते हैं।

रावण इतना विद्वान था कि यदि उसने अपनी शक्ति का दुरुपयोग न किया होता तो वह किसी महाकाव्य का नायक होता। लेकिन अपनी योग्यताओं के दुरुपयोग से वह दुनिया का बड़ा खलनायक बन गया। उसने जो युद्ध लड़े थे, वे दुर्लभ थे। मृत्यु को नियंत्रित कर लिया था उसने। ऐसे में उस सर्वसंपन्न के सामने अपने ही राज्य से निष्कासित, अकेले, संघर्षरत श्रीराम थे।

फिर भी वे रावण को क्यों पराजित कर गए, इससे हम अपने जीवन की धारा बदल सकते हैं। रावण के पास सब था, निजबल, जनबल व बाहुबल, बस एक चीज की कमी थी और वह था आत्मबल। राम के पास ये सारे बल नहीं थे, पर आत्मबल गजब का था। रावण अपने वर्तमान पर इतना टिक गया कि भूल ही गया कि भविष्य भी कुछ होता है। जो लोग वर्तमान पर अधिक टिकते हैं, उनके जीवन में विलास आने में देर नहीं लगती। राम के पास दूरदृष्टि थी और उनका उद्देश्य रावण को मारना ही नहीं था। वे लोक शिक्षा, जनसामान्य के आत्मविश्वास को लौटाने के लिए आए थे। इसीलिए रावण आज भी मारा जा रहा है और राम आज भी पूजे जा रहे हैं।

हम भीतर जितने खाली रहेंगे जीवन में उतने ही शांत रहेंगे
सांसारिक जीवन में भराव की जितनी जरूरत है, आध्यात्मिक जीवन में खालीपन का उतना ही महत्व है। हम संसार में खाली रह ही नहीं सकते। दुनिया ऐसे ही चलती है। कोई किसी से छीनकर भर रहा है और जिसका छिन जाता है, वो दोबारा भरने की तैयारी करता है।

अध्यात्म में इसका उल्टा है। अध्यात्म कहता है थोड़ा खालीपन, थोड़ा कोरा होना भी जरूरी है। इसीलिए भीतर के शून्य की बात कही जाती है। हम भीतर जितना खाली रहेंगे, उतने शांत रहेंगे और भीतर जितने भरे हुए रहेंगे, अशांत रहेंगे।

जब संसार में उतरें तो खालीपन न रखें, भराव से झगड़ा न रखें। संसार, संसार की तरह ही चलेगा। उसमें ज्यादा उलझन पैदा न करें, लेकिन जैसे ही अपने भीतर उतरें, फौरन खालीपन के महत्व को समझें। लोग हमसे पूछते हैं - आखिर यह खालीपन होता क्या है और मिलेगा कैसे?

जिनके जीवन में गुरु आए हैं, वे खालीपन को समझ सकेंगे, क्योंकि गुरु का काम ही है भीतर जाकर सफाई कर देना और इसके लिए वह ध्यान सिखाता है। ध्यान सफाई की उस क्रिया का नाम है, जो भीतर खालीपन पैदा करता है।

शास्त्रों में लिखा है - आचार्यो मृत्यु: यानी आचार्य मृत्यु है। सीधी-सी बात है गुरु के पास गए और हमारी उस बात की मृत्यु हो जाएगी, जिस बात को संसार ने जीवन माना है। हम बाहर जहां-जहां जीवन ढूंढ़ते हैं, दरअसल वहां होता नहीं है, इसलिए लोग अपना जीवन जीने के लिए दूसरे का जीवन छीनने लगते हैं।

भीतर उतरते ही आप अपने जीवन से परिचित हो जाते हैं और जो अपनी जिंदगी को जान गया, वो दूसरे की जिंदगी का भी मान करेगा।

जब भी मौका मिले अच्छे लोगों के साथ समय बिताएं
हमारी प्रसन्नता या उदासी हमारे आसपास प्रवाहित होती है। जब हम भीतर खुश रहते हैं, तब बाहर भी एक सदाशय व्यक्तित्व की तरह फैलते हैं और जब भीतर दुखी या अप्रसन्न रहते हैं, तब हमारा व्यक्तित्व संकुचित, छोटा और दूसरों को भी बोझिल कर देने वाला बन जाता है।

कुल मिलाकर सारा मामला संचरण का है। इसलिए जब एक-दूसरे से मिलें तो अपना बेहतर उसको देने की कोशिश करें। हमारे यहां सत्संग की व्यवस्था इसीलिए है। सत्संग का अर्थ है किसी के अच्छे गुणों की चर्चा। सुंदरकांड में तुलसीदासजी ने विभीषण और हनुमानजी की बातचीत के दौरान एक चौपाई में लिखा है- एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।

इस प्रकार श्रीरामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय शांति प्राप्त की। यहां एक शब्द आया है दोनों को यानी हनुमानजी और विभीषण को शांति प्राप्त हुई। वे दोनों ही श्रीराम की चर्चा कर रहे थे। इसका सीधा-सा अर्थ है अच्छे व्यक्तियों के गुणगान के बाद, परमात्मा के स्मरण के बाद शांति प्राप्त होनी चाहिए।

इसलिए जब भी सत्संग करें तो इस तरह करें कि बाद में शांति प्राप्त हो। विश्राम की उपलब्धि के लिए परमात्मा का यशगान होना चाहिए। सुंदरकांड में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जो जीवन को सुंदर बनाएंगे।

दुनियाभर के काम करने के बाद शांति उपलब्ध हो जाए, तब जीवन सुंदर है और यहां शांति के लिए सूत्र दिया गया है कि जब भी अवसर मिले, अच्छे लोगों के साथ समय बिताएं और सत्संग करते रहें।

रिश्तों में नवीनता व दूरदर्शिता लाने की कला सीखें
जीवन में उत्तरदायित्व कई शक्लों में आता है। सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है शादी करके घर बसाना। गृहस्थ जीवन को कभी भी आवेश या अज्ञान में स्वीकार न करें, वरना इसकी मधुरता समाप्त हो जाएगी। आवेश में आकर गृहस्थी में प्रवेश करेंगे तो ऊर्जा के दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाएगी। हो सकता है रिश्तों में क्रोध अधिक बहे, प्रेम कम। यदि अज्ञान में आकर घर बसाएंगे, तब हमारे निर्णय परिपक्व व प्रेमपूर्ण नहीं रहेंगे।

दोनों स्थिति में गृहस्थी उपद्रव का अड्डा बन जाएगी। हम मनोवैज्ञानिक रूप से हमेशा ही नवीन की तलाश में रहते हैं। गृहस्थी में नवीनता का मनोविज्ञान काम करता है। लंबे समय साथ रहते हुए जीवनसाथी में लोग बासीपन महसूस करने लगते हैं। एक जैसा जीवन जीने के कारण आकर्षण समाप्त होने लगता है। इसलिए रिश्तों में नवीनता व दूरदर्शिता लाने की कला सीखें। दुनियाभर की जानकारी रखें, लेकिन परिवार के सदस्यों की मनोवृत्ति का ज्ञान जरूर रखें। घर-परिवार में कोई निश्चयी, तो कोई ढुलमुल रहता है। कोई संकुचित है तो किसी को उन्मुक्तता पसंद है। इन वृत्तियों में शुभ ढूंढें। जो परमात्मा में विश्वास रखता है, वह जीवन में शुभ ही ढूंढ़ता है।

मन को शुभ से भरें। हर सदस्य के भीतर मन अलग तरीके से सक्रिय है, किसी को किसी का पता नहीं चलता। जानने की कोशिश भी न करें, बस मन को शुभ से भरें। इसी भराव में खालीपन छुपा है। खाली मन ही शांत होगा। शांत मन के सदस्य पूरे घर में शांति लाएंगे।

अनासक्त भाव से काम करें और रिश्तों का निर्वहन करें
आत्मिक बल बढ़ाने के लिए आत्मसंतोष बहुत आवश्यक है। सही काम करने पर ही आत्मसंतोष मिलता है। अनुचित कृत्य अशांति ही देकर जाएगा। पाप अपने पीछे ताप छोड़ता ही है। इसलिए हमारे काम ऐसे होने चाहिए, जो हमें आत्मिक संतोष प्रदान करें। जैसे हम जो भी प्रधान कार्य करते हैं, उसमें से कुछ समय जरूर बचाएं और वह समय लोक सेवा में खर्च करें। नि:स्वार्थ सेवा आत्मसंतोष का एक बड़ा कारण है। हर चीज व्यक्तिगत लाभ-हानि से न देखी जाए। कुछ काम बिना अपेक्षा के किए जाने चाहिए, क्योंकि अपेक्षाएं हमारे दुखों का निर्माण कर जाती हैं।

इसके लिए अध्यात्म में एक शब्द है अनासक्त हो जाना। आसक्ति अपेक्षा को पैदा करती है। हम जितने अधिक अनासक्त रहेंगे, उतने अधिक प्रवहमान रहेंगे और जितने आसक्त रहेंगे, मोह में डूबे हुए होंगे, उतने ही जड़ बन जाएंगे। मोह में डूबा हुआ व्यक्ति नई बातों को स्वीकार नहीं करता। वह जीवन के परिवर्तन को भी बर्दाश्त नहीं कर पाता, क्योंकि उसका मोह यह चाहता है कि जैसा वह सोच रहा है, वैसा ही सबकुछ हो जाए। इसी का नाम जड़ता है। परिवारों में, रिश्तों में खटास इसी कारण आती है। मोह के कारण पति-पत्नी, बाप-बेटे, भाई-भाई जड़ हो जाते हैं। स्वयं की मनोदशा और दूसरों के इरादे मौसम की तरह बदलते हैं। इसलिए दूसरों से बहुत अपेक्षा न रखें। अनासक्त भाव से अपना काम करें और रिश्तों का निर्वहन करें, फिर हर हाल में शांत ही रहेंगे।

अधिक लोकप्रिय व्यक्ति एक चलती-फिरती जेल होता है
जरूरतों और इच्छाओं का संघर्ष हमेशा चला करता है। ईश्वर हमारी इच्छा होनी चाहिए, जरूरत नहीं। लेकिन सांसारिक चीजें हमारी जरूरत की श्रेणी में आनी चाहिए, इच्छाओं की नहीं। हम जितना इच्छाओं पर टिकेंगे, उतना स्वार्थी होंगे और जितना जरूरतों से जुड़े रहेंगे, उतने उदार हो जाएंगे। इच्छापूर्ति के लिए आदमी किसी भी हद तक जाता है।

इच्छा जब ईश्वर से जुड़ती है तो प्रत्येक कृत्य उपासना बन जाता है। परमात्मा के लिए हमारी इच्छा में जितनी तीव्रता होगी, परमात्मा की दृष्टि में हम उतने ही सुपात्र होंगे। अब इन्हीं बातों को संसार की दृष्टि से देखें। संसार में इच्छाओं को काटना चाहिए और आवश्यकताओं के अनुसार जीना चाहिए। आदमी की अनेक इच्छाओं में एक इच्छा होती है कि मैं लोकप्रिय हो जाऊं। अधिक लोकप्रिय व्यक्ति एक चलती-फिरती जेल होता है।

अपनी लोकप्रियता से वह खुद ही परेशान होने लगता है। फिर भी सब चाहते हैं नाम हो जाए। यह एक इच्छा है। गहराई में जाकर देखें तो इच्छा एक सपना है, इसमें यथार्थ कम रहता है। आवश्यकता सदैव यथार्थ पर टिकी है। इसीलिए आवश्यकता की पूर्ति में आप अशांत नहीं होंगे, लेकिन इच्छाओं के चक्कर में जरूर परेशान हो जाएंगे।

जिस दिन हम आवश्यकता और इच्छा का फर्क समझेंगे, उस दिन से हमारे परिवारों में बच्चों के लालन-पालन पर भी असर पड़ने लगेगा। जो बच्चे जरूरतों से पाले जाएंगे, वे बड़े होकर कुछ अलग मानसिकता के होंगे और जो इच्छाओं से पाले जाएंगे, वे अलग आचरण के होंगे।

बुद्धि से विज्ञान को स्वीकारें, सांसों से भीतर की यात्रा करें
संपत्ति के कई रूप हैं। शक्ति व पुण्य को भी संपत्ति माना गया है। इनको प्राप्त करने के कई तरीके हैं। तप से शक्ति और सेवा से पुण्य प्राप्त होते हैं। इनका दुरुपयोग दुर्भाग्य है और सदुपयोग सौभाग्य। शक्ति का प्रवाह नदी की भांति होता है। यदि सही रूप से इसे नहीं संभाला तो यह गलत दिशा में जाएगा। कुछ बातें इनका दुरुपयोग करने में सक्रिय होती हैं।

हमारी देह, इंद्रियां, मन, बुद्धि को इसका दुरुपयोग करने में देर नहीं लगती। इस प्रवाह को परमात्मा तक मोड़ना ही सच्च पुरुषार्थ है। यह प्रवाह अपने आप में एक मार्ग है। इस मार्ग को वैज्ञानिक रखिए और लक्ष्य परमात्मा रखिए। देखा गया है कि दिमाग यदि वैज्ञानिक हो तो आदमी बाहर की ही दुनिया में रहता है और तर्क के आधार पर फैसले लेता है।

भगवान की ओर चलने में ये बातें उल्टी हो जाती हैं, खारिज नहीं। बुद्धि से विज्ञान को स्वीकार करें और सांसों से भीतर की यात्रा करें। तर्क को नकारें न। बात अच्छी हो या बुरी, उसी के आधार पर स्वीकार करें, फिर तर्क को पकड़कर उसी के पार चले जाएं। विचारों से आमना-सामना कर उनसे झगड़ा नहीं करना है, बस छलांग लगाकर उनके पार ही चले जाना है।

इस पार जाने के लिए शक्ति की जरूरत है और विचारों का सामना करने के लिए पुण्य काम आते हैं। पुण्य का अर्थ है अच्छे कामों से जुड़े रहना। हम जितना भले कार्यो में संलग्न होंगे, उतने ही विचारों से पार जाने में सक्षम हो पाएंगे। आज दुनिया विज्ञान से चल रही है, इसलिए भक्त बनते समय प्रयास किया जाए कि हम आचरण में बुद्धिप्रधान हों, पर प्रवृत्ति में हृदय पर टिकें। तब शक्ति भी एक संतुलन का माध्यम बन जाएगी, जगत तथा जगदीश का।

गृहस्थी एक भूख है इसमें प्रेम है तो स्वाद है, वरना बेस्वाद
भूख दो तरह से पैदा होती है, एक पेट से और दूसरी मन या विचार से। जब भी जठराग्नि से उठी भूख के बाद भोजन करेंगे तो स्वाद आएगा, अन्यथा समझ लें पेट में ठूंसा जा रहा है। ऋषियों ने कहा है कि स्वाद भूख में है, भोजन में नहीं। वर्तमान में देखा जाए तो हमारी गृहस्थी से इन दिनों भोजन के मायने बदलते जा रहे हैं। लोग पकवानों की वैरायटी की फिक्र कर रहे हैं, भूख की नहीं।

सही भूख हो तो रूखी रोटी भी छप्पन भोग का मजा दे जाती है, वरना छप्पन भोग भी अपच कर जाएंगे। भूख और स्वाद का फर्क समझ में नहीं आने के कारण जीवन में बीमारी का प्रवेश होता है। पाचन शक्ति का मतलब लोग भूल ही गए हैं। वे मानकर चलते हैं कि खाया है तो पच ही जाएगा, पर हमेशा ऐसा होता नहीं है। भूख का अर्थ है जीवन के प्रति एक तीव्र आवश्यकता। गृहस्थी एक भूख है।

यदि इसमें प्रेम है तो स्वाद है, वरना यह बेस्वाद है। कुछ लोगों ने अपनी गृहस्थी को मन और विचार में उठी भूख की तरह बना लिया है। बिना स्वाद के खाए चले जा रहे हैं। आज भी घरों में अन्न का केंद्रीय नियंत्रण महिलाओं के हाथ में रहता है। वे चौके-चूल्हे ही नहीं, वहां से संस्कारों का संचालन भी करती हैं।

इसीलिए घर की स्त्री सम्मानित, संतुष्ट व स्वावलंबी होनी चाहिए, लेकिन उन्हें चौके तक ही सीमित कर दिया जाए, यह भी उचित नहीं। उनका यही ममता भरा भाव जब देहरी पार आकर सार्वजनिक जीवन में उतरेगा तो समाज में व्याप्त स्वार्थपरकता, निष्ठुरता, हिंसा और विलासिता का वातावरण भी नियंत्रित होगा।

हनुमानजी से सीखें दूसरों का दुख दूर करने का तरीका
भक्ति भी एक युक्ति है। युक्ति यानी उपाय। परमात्मा को पाने का तरीका, ढंग या रीति। भगवान विशेष प्रयास से मिलते हैं। सुंदरकांड में युक्ति का एक प्रसंग आता है। विभीषण और हनुमानजी की चर्चा हो रही थी। हनुमानजी ने विभीषण से सीताजी का पता पूछा। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी - जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।। विभीषण ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियां कह सुनाईं।

विभीषण को हनुमानजी समझा चुके थे कि आप राम-नाम तो लेते हैं, परंतु राम-काम नहीं करते। ज्यादातर लोग संसार में ऐसा ही करते हैं। राम-काम का अर्थ तिलक लगाना, मंदिर जाना, पूजा करना ही नहीं है, असली राम-काम है ईमानदारी, निष्ठा और परिश्रम से अपना कर्तव्य पूरा करना। सीताजी को भक्ति, शक्ति व शांति का प्रतीक बताया गया है।

विभीषण ने सीताजी की खोज की युक्ति बताई थी, इसका अर्थ है कि हम समाज की शांति, भक्ति व शक्ति की खोज में लगे रहें, यही राम-काम है। हनुमानजी ने अशोक वाटिका में जाकर सीताजी को देखा। वे कृशकाय हो चुकी थीं और राम-नाम का जप कर रही थीं। उनको देखकर हनुमानजी भी दुखी हो गए।

परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।। (दोहा-8) हनुमानजी हमें समझा रहे हैं कि दूसरों के दुख का ठीक से एहसास करें। भक्त दूसरों के दुख को समझता है और उसे दूर करने का प्रयास भी करता है। आज उल्टा है, हम दूसरों के दुख से दुखी नहीं, बल्कि उनके सुख से दुखी हैं। हनुमानजी से सीखें दूसरों का दुख समझकर कैसे दूर किया जाता है।

मार्गदर्शक ही नहीं हमारे लिए एक भरोसा भी हैं गुरु
कुआं,तालाब या समुद्र का जल किसी को नहीं डुबोता। जल में तो जीवन है। हम डूबते हैं अपने तैरने का ज्ञान न होने के कारण। जल तो हमें बाहर फेंकने को तैयार है, हम ही हाथ-पैर का संचालन नहीं जानते। तैयारी हमारी ही डूबने की रहती है, जल की हमें डुबोने की नहीं। यही कायदा इस संसार सागर में भी लागू होता है।

दिक्कत और दोष संसार में नहीं है, अगर होता तो भगवान इसे बनाते ही क्यों? इसमें भी डूबने की झंझटें और मुसीबतें हम ही पैदा कर लेते हैं। इसके लिए अपने भीतर पात्रता और साधना बनानी पड़ेगी। सद्गुणों का विकास करना भी एक कष्टसाध्य प्रक्रिया है। यह एक गहन साधना है। जैसे-जैसे हमारी पात्रता बढ़ेगी, हमारी साधना का स्तर बढ़ेगा।

इसी को कहा जाएगा कि तैरना सीख गए। जिन्होंने तैरना सीखा है, वे जानते हैं कि पहली बार पानी में किसी के भरोसे ही कूदा गया होगा। किसी ने कहा होगा - हम खड़े हैं। चिंता न करो, कूद जाओ। यह भरोसा ही तैरना सिखाता है। भारतीय संस्कृति ने इसी भरोसे को गुरु का नाम दिया है। हमारे यहां गुरु मार्गदर्शक ही नहीं, एक भरोसा भी हैं।

भगवान मिलेंगे या नहीं, इस भ्रम और भय को गुरु काट देते हैं। भ्रम और भय गया कि हम तैरना सीखे। जिसे तैरना आ गया, वह फिर छलांग लगाने में नहीं डरेगा। यह छलांग परमात्मा तक पहुंचने की रहती है। गुरु हमें तैरना सिखा देते हैं। गुरुमंत्र हमारे शरीर की ऊर्जा बन जाता है। जिन्हें जल में ठीक से हाथ-पैर चलाना आ गया, फिर पानी भी उनकी मदद ही करता है। परमात्मा की यात्रा में तैरना आने का यही मतलब है।


ऐंठ और अकड़ से व्यक्तित्व पत्थर बन जाता है
जिंदगी चट्टान की तरह ठोस नहीं, पानी की तरह तरल है। इसलिए जिंदगी को जीने वाले लोगों को भी तरल रहना पड़ेगा। मनुष्य को अपने भीतर एक प्रवहमान, एक बहने वाला भाव रखना ही होगा। उसकी तरलता से ही प्रेम का जन्म होता है। उसके इसी तारल्य से करुणा पैदा होगी। हमारे परिवारों में इसी तरलता, प्रवाहपूर्ण जीवन को समझना होगा।

ऐंठ, अकड़ से व्यक्तित्व पत्थर बन जाता है। जीवन में तरलता का जब अभाव हुआ तो स्त्री-पुरुष के संबंध जमकर बिगड़े। जीवन को इकट्ठा करके देखना पड़ता है, क्योंकि यहां सब कुछ संयुक्त है, गुंथा हुआ है। ऐसे में पुरुष बड़ा, स्त्री छोटी, स्त्री महान, पुरुष तुच्छ जैसे भेद घर, समाज, राष्ट्र, विश्व सभी को तोड़ते हैं। स्त्रियों ने इसकी ज्यादा कीमत चुकाई।

पुरुष ने अपनी अकड़ को शान बना लिया और स्त्री बेबसी को आभूषण मानकर पहनती रही। सर्वोदयी संत दादा धर्माधिकारी कहा करते थे - विनाश्रये न शोभंते पंडिता वनिता लता:। तगड़ा पेड़ तनकर खड़ा हो, सुकुमार लता उससे लिपटी रहे और जब आंधी आए तो लता उस पेड़ से और भी जकड़कर लिपटती है। यह लता का प्रेम नहीं, विवशता है।

आज भी स्त्री को पुरुष से सुरक्षित रहने के लिए पुरुष का ही सहारा लेना पड़ता है। यहीं से सहारा देने वाला अकड़ में आ जाता है। तरलता समाप्त होने लगती है और जीवन में लूट, शोषण का भाव बन जाता है। इस समय भीतर की जटिलता को योग्यता माना जाता है। यह जटिलता कब कुटिलता में बदल जाए, पता ही नहीं लगता। जिन्होंने भक्ति का अर्थ समझा, वे जीवन की तरलता को आसानी से समझ सकेंगे और ला भी सकेंगे।

केवल धर्म से अपराध नियंत्रण में नहीं आ सकता
एक समय ऋषि-मुनियों का काम था समाज की पशुता को नियंत्रित करना और देवत्व को जाग्रत करना। पहले ये ही प्रहरी हुआ करते थे। समय बदला, राज व्यवस्था में नैतिक परिवर्तन होते गए। कानून, दंड व्यवस्था कुछ जिम्मेदार हाथों में दे दी गई। रावण और कंस की अपराधभरी व्यवस्था को दंड देने के लिए राम-कृष्ण ने प्रहरी की भूमिका निभाई थी।

सभी धर्मो में अच्छे व्यक्ति और बुरे लोगों को आमने-सामने बताया है और कुछ व्यक्तियों को भले लोगों की रक्षा, बुरों को दंड देने का अधिकार दिया है। पुलिस स्मृति दिवस इसी व्यवस्था की समझ की घोषणा है। केवल धर्म से अपराध नियंत्रण में नहीं आ सकता। इसमें जब तक अध्यात्म नहीं उतरेगा, लोग अपराध को भी अधिकार मानते रहेंगे। सभी कहीं न कहीं, कभी न कभी अपराध कर रहे हैं, लेकिन जो पकड़ा गया, वही अपराधी है।

समाज ने न सिर्फ पुलिस को बल्कि साधु-संत, गुरु को भी अपनी रक्षा के लिए स्थापित किया। धीरे-धीरे समाज में बदलाव आया। लोगों ने अपनी सामान्य जिम्मेदारी भी उन्हीं के कंधे पर डाल दी। आजकल रोजमर्रा की व्यवस्थाएं बिना पुलिस के नहीं होतीं। देखने में आया कि एक शादी में बाराती-घराती में विवाद हो गया, पुलिस को खड़े रहकर विवाह करवाना पड़ा।

यदि समाज अपने विवाह संस्कार भी इनके हवाले करेगा तो फिर इनके हस्तक्षेप में उन्मुक्तता को रोकना भी कठिन होगा। वर्दी के भीतर का मानव भी अपनी अच्छाई व बुराई से रोज लड़ता है और भीतर उसकी अच्छाई या बुराई जो भी जीत जाएगी, वैसा व्यवहार वह बाहर करेगा।

परिवार में केवल सभ्यता नहीं संस्कार भी जरूरी हैं
परिवार में एक भी असभ्य व्यक्ति पूरे परिवार के लिए कमजोर कड़ी साबित होगा। शिक्षा का साइड इफेक्ट ही सभ्यता है। अब तो वे ही लोग सभ्य माने जाते हैं, जो दूसरों के श्रम और गुणों को अपने उपभोग का साधन बना लें। जब ऐसी सभ्यता घर में प्रवेश कर जाए तो विघटन, अशांति होगी ही। अब तो घरों में भी मनुष्य, मनुष्य का विषय बन गया है, इसी को शोषण कहा जाता है।

जो परिवार पोषण का केंद्र हुआ करते थे, वे शोषण के किस्से उगलने लगे। अलग-अलग घरों में एक ही वंश के लोग रहें और उनके बीच दूरी बन जाए, ऐसा तो समझ में आता है, लेकिन एक ही छत के नीचे रहते हुए लोग भी बहुत दूर चले गए हैं। हर आदमी अपने मैं का खूंटा लिए गाड़ने की जगह घर में ही ढूंढ़ रहा है। वाणी रिश्तों को कतरने के लिए कैंची बनती जा रही है।

जब रिश्ते विषय और भोग बन जाएं, तब मनुष्यता दम तोड़ती है। परिवारों में यदि मनुष्यता बचाना है तो सभ्यता से ही काम नहीं चलेगा, संस्कारों की जरूरत पड़ेगी। हिंदू संस्कृति ने बुद्धिमानी से १६ संस्कारों की व्यवस्था की है। हर संस्कार एक कमिटमेंट है, खुद से किया हुआ वादा। जब हम संस्कारों को स्वीकार करते हैं तो स्वयं को अपनी जड़ों से जोड़ते हैं। संस्कार जड़ भी हैं और पंख भी। जड़ें आपको मजबूत बनाती हैं, हराभरा रखती हैं और पंख विकास, प्रगति के आसमान में उड़ाते हैं। आप संस्कारों से जीवन की गहराई को भी छुएंगे और ऊंचाई भी स्पर्श करेंगे। संस्कारों की एक विशेषता यह है कि वे आसानी से स्थानांतरित किए जा सकते हैं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में।

प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग के बिना सफलता संभव नहीं
अपनी सफलता के श्रेय को दिल खोलकर बांटना चाहिए और असफलता की जिम्मेदारी भी स्वयं लेनी चाहिए। सभी धर्मो ने कर्म के सिद्धांत को स्वीकार किया है। बिना कर्म के जीवन नहीं चल सकता। कर्म है तो दूसरों का सहयोग भी रहेगा। यदि सफल हो जाएं तो सहयोगियों के प्रति आभारी जरूर रहें। यह दावा कोई नहीं कर सकता कि यह सफलता अकेले मैंने अर्जित की है।

किसी न किसी का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग अवश्य होगा। श्रीराम के साथ हनुमान थे। अजरुन के बिना श्रीकृष्ण की सफलता पूरी कैसे होती। बुद्ध की विचारधारा को हर्षवर्धन ने आगे बढ़ाया। समर्थ गुरु रामदास को शिवाजी मिले। रामकृष्ण जिन अनुभूतियों को जी रहे थे, विवेकानंद उन्हें आगे बढ़ाकर हमें दे गए। कर्म में सहयोग बड़ा महत्वपूर्ण है।

इस योगदान को थोड़ा गहरे से समझकर आगे बढ़ जाएं। संसार से मिल रहे इस योगदान को भगवान की साझेदारी बना दें। जो काम करें, उसमें परमात्मा से पार्टनरशिप की जा सकती है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने कहा था कि ईश्वर जैसा साझेदार साथ हो तो हम गलत काम करने से परहेज करेंगे। हम आय और व्यय के लिए उनके प्रति उत्तरदायी रहेंगे। यहीं से कर्म दिव्यता प्राप्त कर लेगा।

अब हम अपने ही कर्म को देखने लगेंगे, जिसे द्रष्टा भाव या साक्षी भाव कहा गया है। जब हम कर्म से खुद को अलग रख अपनी भूमिका के प्रति सजग हो जाते हैं, तब हम दूसरों पर दोषारोपण छोड़ देते हैं। हमें यह समझ आ जाती है कि यदि दुख आएगा तो हम ही जिम्मेदार होंगे और सुख का प्रवेश होगा तो भी हमारी ही भूमिका होगी। सूत्रधार हम हैं, अत: दूसरों को छोड़ स्वयं को संभालें।

अत्याचार का सामना करने में नैतिक बल काम आता है
गलत लोग दो तरह से दूसरों को अपने वश में करते हैं, प्रभाव से या दबाव से। ऐसे लोगों के सामने दो तरह से प्रतिक्रिया की जाती है - या व्यक्ति टूट जाता है या फिर अपना आक्रोश व्यक्त करता है। जब सामना अनुचित व्यवहार, अत्याचार से हो तो नैतिक बल काम आता है। सुंदरकांड के एक प्रसंग से सीखें। हनुमानजी अशोक वृक्ष पर बैठे विचार कर रहे थे कि सीताजी को संदेश कैसे दें, उसी समय रावण आया और उसने सीताजी से अपशब्द कहे। सीताजी ने जिस प्रकार उत्तर दिया, वह अनूठा था।

तुलसीदासजी ने लिखा - तृन धरि ओट कहति वैदेही, सुमिरि अवधपति परम सनेही। अपने परम स्नेही अवधपति श्रीराम का स्मरण करके जानकीजी एक तिनके की आड़ करके बोली थीं। यहां उनके द्वारा तिनके की ओट रखकर बोलना परमात्मा के प्रति हमारे भरोसे का अद्भुत दृश्य है।

विचार करें, यदि कोई आदमी नदी में डूब रहा हो तो स्वयं को बचाने के लिए किनारे के किसी तिनके को पकड़ेगा। अब यहां दो दृश्य बनने की संभावना होगी - एक तो यह कि वह तिनका उसे बचा लेगा या फिर उखड़कर बहते हुए आदमी के साथ प्रवाहित हो जाएगा।

सोचिए, यदि एक तिनका भी किसी के द्वारा पकड़े जाने पर उसकी जान बचाने में अपनी भूमिका निभाता है तो ईश्वर जिसकी बांह पकड़ ले, उसे भरोसा होना चाहिए कि रक्षा होगी। रावण के जीवन में अहंकार का अंधकार था, सीताजी ने तिनका उठाकर संकेत दिया था कि प्रभु तेरे जीवन में आएंगे, संभल जा। सीताजी ने रावण को संकेत दिया कि श्रीराम के सामने तेरा वैभव इस तिनके के समान है।

लक्ष्मीजी को प्रिय है प्रेम भाव से किया गया दान
धन हो तब मनुष्य धनवान कहलाता है, कुछ लोग दिवाली इसी विचार से मनाते हैं। यह संसार की साधारण परिभाषा है, लेकिन अध्यात्म बताता है बिना धन के धनवान कैसे बनें? दौलत को ही धन न समझा जाए। लक्ष्मी के अनेक स्वरूप हैं। लोग लक्ष्मी के संदर्भ में केवल संपत्ति पर टिक गए। स्वस्थ शरीर, पवित्र मन, प्रेमपूर्ण परिवार, ईमानदार आचरण व योग्य संतानें हों तो आदमी बिना रुपयों के भी अधिक दौलतमंद होगा। ऋषि-मुनियों और संतों की परंपरा में अनेक नाम ऐसे हैं, जिनके सिर पर छत, तन पर सामान्य वस्त्र और निर्धन से भी बीता व्यावहारिक रहन-सहन था, लेकिन बड़े-बड़े राजा उनके चरणों में नतमस्तक थे।

सदाचारी के पास लक्ष्मी अलग रूप में आती है। लोगों ने लक्ष्मी को अपने जीवन में लाने और जाने के कई तरीके ईजाद किए। आज उनमें से एक पर विचार करें। वह तरीका है दान। इससे पुण्य अर्जन का काम किया गया। दान लक्ष्मीजी को भी प्रिय है, लेकिन वे चाहती हैं, दया-भाव से दान मत करो, प्रेम-भाव से करो। जब तक कोई कमजोर न हो, दया शुरू कैसे होगी? दया करने के लिए सामने वाला दीन होना जरूरी है। धनवानों की एक रुचि यह भी रहती है कि लोग दीन बने रहें, वरना उनका दान कैसे चलेगा? यहीं से अमीरी-गरीबी की खाई गहरी बनाई जाती है। सब बराबर हों और यदि ऐसा न भी हो तो कम-से-कम दान प्रेम की उपस्थिति से अहंकार व शोषण से मुक्त रहेगा। लक्ष्मी का आचरण यही है कि मुझ पर दबाव मत बनाना, वरना मैं कब, कैसे विपरीत परिणाम दूंगी, आदमी समझ ही नहीं पाएगा। इनका जन्म समुद्र मंथन से हुआ था। यह इस बात का प्रतीक है कि मुझे पुरुषार्थ से प्राप्त करो और परमार्थ में खर्च करो।

शरीर पर ही टिके रहने से तनाव का निदान नहीं हो सकता
मानवीय सुख हमारे परिवारों की प्राचीन मांग है। अधिकांश लोगों की गृहस्थी की शुरुआत इसी से होती है। देह का भान, उसकी तृप्ति और अतृप्ति ही अशांति का कारण बनती है। कई रिश्ते तो घरों में देह से चलकर देह पर ही खत्म हो जाते हैं। शरीर से परे हो ही नहीं पाता परस्पर आत्म समर्पण। अधिक समय दांपत्य जब शरीर पर ही टिकता है तो त्याग की भावना जन्म नहीं ले पाती।

भोग, उसकी पूर्ति और अपेक्षा के आसपास जीवन मंडराने लगता है। फिर शुरू होता है तनाव। केवल शरीर पर टिके रहकर तनाव का निदान नहीं हो सकता। फिर तनाव अपना वंश बढ़ाता है, तब प्रवेश होता है अशांति का। एक-दूसरे के प्रति शंका होने लगती है। संदेह एक धीमा जहर है घर-परिवार के लिए। परिवार का हर व्यक्ति फिर अपने-अपने अधिकार में, अपने-अपने अधिकार के लिए ही जीने लगता है। दांपत्य में अपेक्षा, संदेह, देह, अधिकार जैसी वृत्तियों से बचने के लिए एक ही उपाय है और वह है प्रेम।

यह प्रेम न तो दहेज में मिलता है, न डिग्री से प्राप्त होता है, इसे कोई तिजोरी भी नहीं उगल पाती, न किसी दवा की शक्ल में बाजार में उपलब्ध है। इसे अपने भीतर जगाने का एक ही तरीका है अपनी सांसों से अपनी चेतना को जोड़कर थोड़ा भीतर उतरने का अभ्यास रोज करें। हृदय को जब सांसों से चेतना का पवित्र स्पंदन मिलता है तो आप स्वत: प्रेमपूर्ण हो जाते हैं। योग से योगी ही तैयार नहीं होते, प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व भी निर्मित होते हैं, इसीलिए अपने घर में किसी भी सदस्य को दया का पात्र न बनाएं, बल्कि प्रेम का भागीदार बनाएं।

प्रेम की महक ही है परिवार के संबंधों का निचोड़
गृहस्थ जीवन में तृप्ति व शांति दोनों फल की तरह हैं। परिवार के वृक्ष पर ये फल तब ही लगेंगे, जब जड़ें गहरी और मजबूत होंगी। जड़ों में जब पर्याप्त जल और खाद डाली जाती है, तब वृक्ष फलता-फूलता है। यही प्राकृतिक समीकरण गृहस्थी पर भी लागू होता है। जैसे वृक्ष हमसे मांगते कम हैं और हमें देते ज्यादा हैं, यही सिद्धांत जब परिवार के सदस्यों मंे उतरता है तो गृहस्थी यहीं वैकुंठ बन जाती है। समर्पण का भाव जितना अधिक होगा, देने की वृत्ति उतनी ही प्रबल होगी।

स्त्री और पुरुष दोनों के धर्म का मूल स्रोत समर्पण में है। इस प्रवृत्ति को अधिकार द्वारा लोग समाप्त कर लेते हैं। घर-परिवार में हम जितना अधिक अधिकार बताएंगे, विघटन उतना अधिक बढ़ जाएगा। प्रेम गायब हो जाएगा और भोग घरभर में फैल जाएगा। एक-दूसरे को सुख पहुंचाने, प्रसन्न रखने के इरादे खत्म होने लगते हैं और मेरे लिए ही सबकुछ किया जाए, यह विचार प्रधान बन जाता है। स्वच्छंदता यहीं से शुरू होती है, जो परिवार के अनुशासन को लील लेती है।

जैसे हर वृक्ष में महक होती है, वैसे ही परिवार की भी अपनी सुगंध होती है, बस शर्त है जड़ें मजबूत रहें। ऋषि-मुनियों ने कहा है कि परिवार में हमें खुद ही सुगंध बनना पड़ता है। यहां अन्य किसी साधन से सुगंध पैदा नहीं की जाती। स्वयं अपनी सुगंध बनो, यह भारतीय परिवारों का आधार है।

जैसे वृक्ष का निचोड़ उसकी सुगंध है, वैसे ही रिश्तों का निचोड़ प्रेम की महक है। जड़ जितनी मजबूत है, वृक्ष में उतनी महक है। ऐसे ही जिंदगी की जड़ें जितनी मजबूत होंगी, व्यक्तित्व उतना ही सुगंधित रहेगा।

आत्मा के प्रति विश्वास बढ़ाएंगे तो भविष्य के प्रति सुरक्षित रहेंगे
हम सब भविष्य के प्रति एक ऐसी दृष्टि रखते हैं, जिसमें सुरक्षा का भाव हो। भविष्य सुरक्षित तो आदमी को लगता है जीवन सुरक्षित। अध्यात्म में भविष्य के प्रति एक अलग दृष्टि दी गई है। ऋषि-मुनियों ने कहा है कि जितना आत्मा के प्रति विश्वास बढ़ाएंगे, भविष्य के प्रति हम सुरक्षित होते जाएंगे, क्योंकि आत्मा के प्रति जब विश्वास और जागरूकता बढ़ती है, तब हमें यह समझ में आने लगता है कि जो जीवन आज हम जी रहे हैं, यह तो इस संसार के आरंभ से ऐसा ही है। हमारी आत्मा यात्री की तरह है, शरीर के ठिकाने बदलती आ रही है, इसका कोई समापन नहीं होगा। आने वाले दिनों में यह किसी और शरीर में रहेगी। हमारा होना सदैव से सुरक्षित ही है। जो जीवन आज हम जी रहे हैं, यह तो छोटा-सा हिस्सा मात्र है। इसकी परेशानियां अपने आप कम होने लगती हैं।

केवल देह से जुड़कर हम अधिक अशांत रहते हैं, क्योंकि तब हमारा अतीत, वर्तमान व भविष्य अलग अर्थ लेने लगता है। शरीर और आत्मा का अंतर समझने के लिए अपने अहंकार को गलाना होगा, क्योंकि अहंकार जीवन में कुछ शर्तो के साथ चलता है। इसीलिए अहंकारियों को अपनी उपेक्षा से बहुत डर लगता है। उसकी हमेशा यही अपेक्षा होती है कि लोग उसे विशिष्ट मानें, संसारभर की निगाह उस पर टिकी रहे। कोई हमें देखे, माने और जब ऐसा नहीं होता है, तब हम परेशान होते हैं। इसके विपरीत आत्मा से जुड़ने पर अहंकार गायब होता है और हम दूसरों से संचालित नहीं होते। हमारे लिए वर्तमान के अर्थ बदल जाते हैं और भय भी चला जाता है।

जो लोग मेडिटेशन से गुजरते हैं उनके चेहरे पर तेज झलकता है
किसी काम को पूरा करने के लिए कुशल पुरुषार्थ, पराक्रम और परिश्रम जब पूरी सामथ्र्य से जुट जाए, तब जीवन में तेजस्विता आती है। तेज का अर्थ यह नहीं है कि चेहरा कांतिमान हो जाए। तेज का अर्थ है हर स्थिति में व्यक्तित्व के भीतर का फोर्स काम करे, चाहे आध्यात्मिक गतिविधियां हों या सांसारिक। आदमी के भीतर का आवेग अपना काम दिखाता है। यह आवेग जब श्रद्धा और भक्ति से जुड़ जाता है, तब तेजस्विता प्रकट होती है। तेज एक झरोखा बन जाता है और उसमें से व्यक्ति की महानता, उसकी श्रेष्ठता झरने लगती है।

हनुमान भक्त रविशंकरजी रावतपुरा सरकार कहते हैं कि तेजस्विता आयु में नहीं, वृत्ति और स्वभाव में होती है। उम्र का इससे लेना-देना नहीं है। बहुत-से लोग शरीर के मामले में बूढ़े हो जाते हैं, लेकिन बुद्धि और विवेक के मामले में उनका बचपन वहीं का वहीं रहता है। आज चूंकि हर आदमी चाहे पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, एक अजीब-सी चालाकी अपने भीतर लाने की तैयारी में है। ऐसे समय तेजस्विता हमारे लिए सबसे बड़ा सहारा यह बनेगी कि हम पर कोई अकारण और अनुचित आक्रमण नहीं कर पाएगा और न ही हमारा शोषण हो सकेगा, क्योंकि तेजस्विता हमें अन्याय के विरुद्ध हिंसा को भी सही अर्थ देकर प्रकट करती है। कृष्ण ने अजरुन की तेजस्विता को ही स्पर्श किया था, क्योंकि अजरुन अहिंसा के नाम पर अधर्म को बचाने के चक्कर में पड़ गए थे। तेजस्विता तन को सक्रिय रखती है और मन को विश्राम की मुद्रा में। इसलिए जो लोग मेडिटेशन से गुजरते हैं, उनके चेहरे पर तेज झलकता है।

और रावण ने पत्नी मंदोदरी का कहना मान लिया

जब हमारे भीतर की वासनाएं अलग-अलग हों, इरादे भिन्न-भिन्न और उनके भोग के विषय पृथक-पृथक हों, तब मतभेद व विवाद शुरू हो जाते हैं। संसार में कुछ रिश्तों में निरंतर विवाद रहता है, जैसे- पति-पत्नी, पड़ोसी, माता-पिता और संतान तथा भौगोलिक रूप से सटे हुए देश। औरत आदमी के साथ आज भी इसलिए जुड़ती है कि उसको सुरक्षा चाहिए और आदमी औरत में देह की नवीनता चाहता है। उसके भोग के केंद्र अलग होते हैं और इसीलिए दोनों टकरा जाते हैं।

रामचरितमानस के सुंदरकांड में एक घटना पढ़कर आश्चर्य होता है। रावण सीताजी को धमका रहा था। जब रावण की बात सीताजी ने नहीं मानी और उसे अपमानित किया। सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयां कहि नीति बुझावा।। सीताजी के ये वचन सुनते ही वह उन्हें मारने दौड़ा। तब मंदोदरी ने उसे समझाया। रावण ने तलवार म्यान में रख ली। हालांकि मंदोदरी के लिए रावण का सीता को उठा लाना सौत की दृष्टि से विपरीत घटना थी, लेकिन फिर भी मंदोदरी ने सीताजी की रक्षा कर ली। यहां रावण और मंदोदरी, दोनों की वासनाएं अलग-अलग थीं। रावण के लिए सौंदर्य और धन लूट का ही विषय था, लेकिन रावण अपनी पत्नी का कहना इस जगह मान लेता है। रावण जैसे विश्व विजेता को भी एक जगह झुकना ही पड़ा। यह समझ कई लोगों के दांपत्य में शांति ला सकती है। मंदोदरी यह कला जानती थी कि कहां अपने पति को झुकाना है। आज के दांपत्य में भी अधिकांश पति-पत्नी एक-दूसरे को एडजस्ट कर रहे हैं। यही राक्षस या रावण वृत्ति है।

मौका मिलते ही शराफत और बेईमानी साथ अंगड़ाई लेती हैं
कहते हैं पुराने लोग बड़े शरीफ और भोले हुआ करते थे। कालखंड की तुलना करना मनुष्य का स्वभाव है। समय लगातार बदल रहा है और आज के समय में दोष है तो गुण भी हैं। बीते हुए वक्त में गुण था तो दोष भी थे। पहले लोग ज्यादा ईमानदार इसलिए भी थे क्योंकि बेईमानी के अवसर कम थे। वे कम कुशल थे एेसी बात नहीं है, बल्कि उनके पास मौके कम थे।

जब आदमी को अवसर मिलता है तो उसके भीतर की शराफत या बेईमानी एक साथ अंगड़ाई लेती है, जब-जो हावी हो जाए। इसलिए भोलापन समय की मजबूरी भी बना था। अब आज वक्त ऐसा है कि आदमी चाहकर भी भला नहीं रह सकता, जबकि हमारे महापुरुषों के सिद्धांत तब भी और आज भी ऐसे ही हैं।

ऐसे समय आदिकाल से चली आ रही महापुरुषों की बातों को जीवन से अधिक जोड़ा जाए। जैन संत श्रीचंद्रप्रभ कहते हैं - भगवान महावीर के वचन किसी सद्ग्रंथ के उपदेश नहीं हैं, वरन जीवन की वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति हैं। वे न केवल अतीत में ही उपयोगी नहीं रहे हैं, बल्कि उनकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है।

धरती पर जब तक कोई भी मनुष्य बुद्धि और हृदय के द्वारा जीवन की राहों को पार करता रहेगा, तब तक महावीर के उपदेशों और सिद्धांतों की उपयोगिता निर्विवाद बनी रहेगी। दरअसल हमने महापुरुषों की बातों को अपने पूर्वग्रह और सांप्रदायिक भावना के कारण अलग अर्थ दे दिए। यदि तटस्थ होकर आवश्यकतानुसार उन्हें जीवन में उतारेंगे तो भलाई बचाने में बड़ी मदद होगी।

संसार की व्यापकता जानने के लिए ईश्वर से साक्षात्कार जरूरी
कुछ ग्रंथ ऐसे हैं, जो हमारे लिए सदियों पहले भी उपयोगी थे और आज भी प्रासंगिक हैं। ग्रंथ शब्द ही नहीं देते, परमात्मा से भी साक्षात्कार करवाते हैं। शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरिजी कहते हैं - जिनको मूर्ति से नहीं मिलता, उन्हें ग्रंथ से मिल जाता है। जिन्हें ग्रंथों से नहीं मिलता, उन्हें गुरुजनों से मिल जाता है।

यह सबसे बड़ी साधना है, जहां मनुष्य अपने भीतर से ही अपने परमात्मा को प्रकट करता है। हम सब परमात्मा के अंश हैं। संसाररूपी वृक्ष को देखें तो लगता है कि यह वैसा है नहीं। इसके लिए परमात्मा से जुड़ना जरूरी है। जैसे परमात्मा व्यापक है, वैसा ही यह जगत भी है। जगत किसके लिए कितना है, यह कहना कठिन है।

एक कुएं के पास ऊपर उड़ता हुआ राजहंस आ गया। कुएं की मुंडेर के ऊपर बैठकर विचार करने लगा कि कुएं के भीतर जो मेंढक रहता है, उसके लिए तो यह बहुत छोटा है। हमारा सरोवर तो बहुत बड़ा है। मेंढक ने उछलकर पूछा कि इतना बड़ा है? हंस ने कहा - यह भी छोटा है। फिर मेंढक ने और लंबी छलांग लगाई और आधे कुएं तक पहुंचा, फिर पूछा - इतना बड़ा? राजहंस ने कहा - यह भी छोटा है।

फिर मेंढक ने पूरी शक्ति से छलांग लगाई और कुएं के दूसरे किनारे तक पहुंचा, फिर पूछा - क्या इतना बड़ा है तुम्हारा सरोवर? राजहंस ने विचार किया कि कुएं को ही संसार मानने वाले मेंढक को समझा नहीं सकूंगा। यहां से उड़ चलना ही अच्छा है। हमारे लिए भी संसार की समझ मेंढक जैसी ही बन जाती है। इसकी व्यापकता को समझने के लिए परमेश्वर से जुड़ना जरूरी है।

भक्ति प्रभु के साथ ही संसार के प्रति भी सेवाभाव जगाती है
भक्त मूल रूप से सेवाभावी होता है। भक्ति प्रभु की सेवा करना ही नहीं सिखाती, बल्कि उससे जुड़े पूरे संसार के प्रति सेवा करना सिखाती है। लेकिन सेवा भी जब व्यवसाय बन जाए, तब आदमी भूल जाता है कि इसका स्वरूप क्या होना चाहिए। करने वाला सिर्फ अपने अहंकार पर टिककर करता है, सामने वाले के लिए नहीं सोचता।

जिसकी सेवा की जाती है वह क्या चाहता है, उसकी रुचि क्या है तथा की जा रही सेवा उसके अनुकूल भी है या नहीं, आदि बातों का निर्णय करके, सेवाभाव, श्रद्धा, आदर तथा सुंदर ढंग से सेवा की जाए, तभी सेव्य को संतोष होता है। अन्यथा सेवा कलह का कारण भी बन सकती है।

स्वामी शिवोम तीर्थजी कहा करते थे - सास-ससुर, माता-पिता तथा गुरु को ईश्वर का रूप समझकर सेवा करने का आदेश है, अर्थात सेवा में श्रद्धा का स्थान प्रमुख होता है। एक सेवा कर्तव्य समझकर की जाती है, दूसरी दया करके। उसमें श्रद्धा हो भी सकती है, नहीं भी। सास-ससुर, गुरु तथा माता-पिता की यदि श्रद्धारहित सेवा की भी जाए तो भार रूप हो जाती है तथा अधिक दिनों तक चल नहीं पाती।

सेवा करते हुए भी कई प्रकार की भ्रांतियां उदय हो जाती हैं, किंतु यदि कोई अपने मन की श्रद्धा की रक्षा करता रहे तो यथासमय भ्रांतियां दूर हो जाती हैं। जिसको स्वार्थ की चिंता रहती है, वह सेवा नहीं कर सकता। सेवा का दूसरा नाम ही श्रद्धापूर्ण श्रम है। सेवक अपने सेव्य के लिए प्रत्येक वस्तु का त्याग करने के लिए तत्पर रहता है। न तो उसे अपने आराम की चिंता होती है, न भोग-विनोद की। उसे अपने सेव्य की सेवा में ही सुख मिलता है।

काम यदि अनुशासन में है तो सृष्टिकारक होगा
जब चारों ओर भौतिक विकास की लहर चल रही हो, ऐसे में भोग-विलास का बढ़ना स्वाभाविक है। काम का सीधा अर्थ वासनाओं की गतिविधियों से लगाया जाता है, लेकिन जूनापीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरिजी ने काम की एक नई परिभाषा दी है- ‘काम’ शब्द न केवल वासना का प्रतीक है और न इंद्रिय भोग का, वास्तव में काम साक्षात ब्रम्हा का अंग है।

काम की सत्ता को ईश्वर की विभूति माना गया है। अव्यक्त परमब्रम्हा ने जब अपने को व्यक्त करने का निर्णय किया तो सबसे पहले उसने ‘काम’ का सृजन किया। काम की अपनी कोई आकृति नहीं। कभी यह धर्म है, कभी अर्थ, कभी मोक्ष। ‘लौकिक जीवन में जिस प्रकार धर्म और अर्थ पुरुषार्थ के साधन हैं, उसी प्रकार काम भी लोकयात्रा में सहायक है।

विकास, समृद्धि, ऐश्वर्य का मुख्य साधन काम है। यदि कामना ही नहीं होगी तो सृष्टि निर्माण भी नहीं होगा। यदि सृष्टि ही नहीं होगी तो धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता। वह तो विधाता के अधीन है। इसलिए जब तक काम अनुशासन में है, तब तक सृष्टिकारक और सृजनात्मक होता है, लेकिन जिस क्षण वह अनुशासनविहीन हो जाता है, उसी क्षण कामना वासना में परिवर्तित हो जाती है। ऐसी कामना ही दुखों का मूल है। कामना को सत्यरूपी अनुशासन से युक्त रखना ही पुरुषार्थ है। इसलिए काम एक शस्त्र है, जो बुराइयों को काटने के काम आएगा और गलत उपयोग पर हमको ही काट देगा।

स्त्री के कर्म, सफलता व स्थिति को हर परिवार में सम्मान मिले
आजादी सबको प्रिय है। लेकिन स्वतंत्र रहने के साथ स्वावलंबन भी जरूरी है। परिवार में स्त्री-पुरुष जब पति-पत्नी के रूप में होते हैं, तब स्वतंत्र तो हो जाते हैं, पर स्वावलंबन नहीं आ पाता। परमात्मा और प्रकृति ने स्त्रियों को मां बनने का अधिकार देकर उनकी विशेषता घोषित की है। इसलिए समाज में उनकी प्रतिष्ठा अधिक होनी चाहिए, लेकिन हो उल्टा गया।

उनके गुण को उनकी मजबूरी बता दिया गया, जबकि प्रकृति ऐसा विश्वास पुरुष के प्रति व्यक्त नहीं कर पाई। परमात्मा ने तो पुरुष के शरीर में इतना सत्व भी नहीं रखा कि वह किसी नवजात को दूध का पोषण करा सके। पुरुषप्रधान समाज ने तो यह घोषणा कर दी कि स्त्री का शरीर गर्भ धारण के लिए बना है, इसलिए वह स्वतंत्र व स्वावलंबी नहीं हो सकती।

ईश्वर ने जब स्त्री और पुरुष को बनाया तो दोनों के भीतर उनके लक्षण और गुण थोड़े-थोड़े डाल दिए। जैसे नेपोलियन जैसे योद्धा की शक्ल में स्त्रियों की झलक थी। परमात्मा ने सभी के भीतर स्त्री के भाव, लक्षण और गुण छोड़े हैं। इसलिए परिवारों में स्त्रियों द्वारा किए गए कर्म, सफलता और उनकी स्थिति को वही सम्मान मिलना चाहिए, जो पुरुष प्राप्त करना चाहता है।

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि यदि मेरे ही हाथों से मेरे लोग मारे गए तो मेरी विजय का मूल्य क्या है? भगवान ने इसे समझाने के लिए गीता कह दी, लेकिन वे अर्जुन को समझाते हैं कि तुम एक स्थिति हो। सारी क्रियाओं के पीछे मैं खड़ा हूं। जिस दिन हमारे परिवारों में सही रूप में भक्ति उतरती है, हम स्त्री-पुरुष का भेद इसी भाव से मिटा सकते हैं। हम एक स्थिति हैं और परमात्मा ने एक-दूसरे की पूर्ति करते हुए हमें बनाया है।

भक्त हर क्रिया भगवान से जोड़ता है इसलिए असफल नहीं होता
सफलता प्रयास का ही परिणाम नहीं होती। अधिकांश मौकों पर सफलता आरंभ में ही एक संकल्प-शक्ति होती है। रामचरितमानस के सुंदरकांड में हनुमानजी की सफलता की कहानी है। आरंभ से ही हनुमानजी यह मानकर चल रहे थे कि मैं एक सही अभियान पर निकला हूं, इसलिए जो भी होगा, मेरे अनुकूल होगा।

जैसे-जैसे उनका सामना राक्षसों से होता जाता है, उनके हाथ सफलता के सूत्र लगने लगते हैं। अशोक वाटिका में रावण सीताजी को धमकाकर जा चुका था। उसने राक्षसियों को आदेश दिया था कि सीता को प्रताड़ित किया जाए, लेकिन त्रिजटा नाम की एक राक्षसी ने सीताजी और अन्य राक्षसियों को अपना एक सपना सुनाया - सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।।

स्वप्न में मैंने देखा कि एक बंदर ने लंका जला दी। राक्षसों की सेना मार दी गई। त्रिजटा की बात सुनकर हनुमानजी सोचते हैं कि मैं लंका में आया हूं, यह बात इसे कैसे पता चली? और लंका जलाने का तो मेरा कोई विचार भी नहीं है।

त्रिजटा के स्वप्न को हनुमानजी ने भगवान का संकेत समझा। भक्त अपनी हर क्रिया भगवान से जोड़कर चलता है, इसीलिए वह असफल नहीं होता। भक्त कहता है - जो है, भगवान का दिया है। फिर उसे कोई कैसे असफल कर सकेगा? हनुमानजी की तो घोषणा रही है कोई मुझे हरा नहीं सकेगा। क्यों.. क्योंकि मैं जीतना ही नहीं चाहता। मेरे लिए हर क्रिया सिर्फ सेवा है। मेरी सेवा का निर्णय मेरे मालिक लेंगे। ऐसा भाव जिस दिन हमारे भीतर आ जाए तो जीवन को सुंदर होने से कौन रोक सकेगा?

जीवन में परमात्मा की अनुभूति से हमारे कर्म शुद्ध हो जाएंगे
इस वहम से जल्दी ही बाहर आना चाहिए कि यदि मैंने यह काम नहीं किया तो काम बिगड़ जाएगा या बड़ा भारी नुकसान हो जाएगा। जब हमें लगने लगता है कि हम ही करने वाले हैं, बस यहीं से अहंकार का प्रवेश होता है। अहंकार हमें यह भुला देता है कि संसार हम नहीं चला रहे, इसके पीछे कुछ स्थायी नियम हैं, जिससे संसार चल रहा है।

लेकिन आदमी की आदत होती है खुद को खास बनाने की और जैसे ही यह भाव आता है, हम अपने कर्तव्य से हटकर खुद ही के बारे में चिंता पालने लगते हैं। चिंता अपने साथ ढेरों विचार लाती है और इसी में हम उलझ जाते हैं। संसार में रहना है तो काम तो करना ही पड़ेगा, जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ेंगी, लेकिन इनमें हमारी जो भूमिका है, उसको अहंकारमुक्त रखना होगा, क्योंकि अहंकार हमारी इस समझ को समाप्त कर देता है कि हम जो भी गलत करेंगे, उसका नुकसान हम ही उठाएंगे। अहंकार को दूसरे में दोष ढूंढ़ने की आदत होती है। बस यहीं से हम फिर दूसरों के जीवन में आक्रमण शुरू करते हैं।

हम भूल जाते हैं कि यह सब पलटकर हमारे ऊपर ही आएगा। अध्यात्म कहता है कि दूसरा कोई होता ही नहीं है, सारी स्थितियां हमारा ही विस्तार हैं। बात गहरी और समझने लायक है। हमें दूरी दिखती है खुद में और दूसरे में, लेकिन ऐसा होता नहीं है।

परमात्मा ने संसार को सार्वभौम नियम से बनाया है। हर आदमी का कर्म उसी के लिए प्रभावशाली होगा, दिखेगा जरूर कि दूसरे प्रभावित हो रहे हैं। इसलिए जितना हम अपने जीवन में परमात्मा के होने की अनुभूति करेंगे, उतना ही हमारे कर्म शुद्ध हो जाएंगे और इसी में शांति बसी है।

जो प्रकृति के नियम को जान गया वह धर्म को जान गया
प्रकृति सामान्य रूप से अपने नियम नहीं तोड़ती। मौसम को शास्त्रों में ऋतु कहा है। इस शब्द का अर्थ होता है - कभी न बदलने वाला नियम। शास्त्रों में ऐसा इसलिए लिखा क्योंकि प्रकृति में हर चीज नियम से चलती है। फिर मनुष्य का हस्तक्षेप हुआ। मनुष्य को नियम तोड़ने में बड़ी रुचि होती है, जबकि संत-महात्मा कहते हैं कि जो प्रकृति के नियम को जान गया, समझ लो वह धर्म को जान गया।

अधार्मिक लोग किसी भी प्रकार का नियम नहीं मानते, लेकिन परमात्मा नियम से चलना पसंद करता है। गुरुनानक देव कहा करते थे - परमात्मा नियम भी है और प्रकृति भी। जितना हम नियमों को मानेंगे, उतने ही हम भक्त होंगे। फिर हम इन नियमों को साकार रूप देते हैं और यहीं से भगवान आकार ले लेता है। किसी के लिए वो राम हो जाते हैं, किसी के लिए कृष्ण, कोई इसे महावीर में देखता है तो कोई बुद्ध से गुजरता है।

एक अचेतन नियम है, जो सबका संचालन कर रहा है। धर्म से विज्ञान को जोड़ने का अर्थ ही है उस नियम की जानकारी होना, लेकिन जब विज्ञान हस्तक्षेप करने लगता है तो प्रकृति घातक हो जाती है। भक्त में वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना चाहिए, नहीं तो धर्म की समझ कैसे आएगी, लेकिन भक्त जानता है विज्ञान भी मेरे लिए मार्ग है क्योंकि वह नियम को समझने का माध्यम है।

एक जगह जाकर या तो विज्ञान छेड़छाड़ करता है या फिर असहाय हो जाता है। छेड़छाड़ शुरू हुई और जीवन गड़बड़ाया, लेकिन जैसे ही असहाय हुए कि परमात्मा समझ में आने लगता है। भक्त कहता है कि हे मालिक, तू एक नियम है और हम उसी से चल रहे हैं। नानक ने इसे ही ऊपर वाले का हुक्म माना है।

सत्य से हटेंगे तो दुख आपके आसपास मंडराने लगेंगे
अज्ञान और अनाचार हमारे जीवन में अंधकार की तरह हैं। ये सत्य के प्रकाश से ही दूर होते हैं। जीवन में सत्य आए और हम भीतर से प्रकाशित न हों तो जांच कर लीजिएगा कि जिसे हम सत्य मान रहे हैं वह है भी या नहीं। सत्य के आते ही दो काम होंगे, शरीर से ओज बरसेगा और मन में उथल-पुथल कम होगी।

क्योंकि सत्य प्रकाश भी है और शक्ति भी। जब कभी सत्य से हटेंगे, आप पाएंगे कि दुख आपके आसपास मंडराने लगे हैं। कई लोग यह कहते मिलते हैं कि हमने सत्य की कीमत चुकाई है, सच बोलने पर परेशानी उठानी पड़ती है। यह विचार इसलिए आता है कि सत्य को ठीक से समझा नहीं गया। सत्य भी एक नियम की तरह है।

हम जीवन जीते-जीते कई बार गलत मार्गो पर चले जाते हैं। गलत गए कि दुख आया, दुख आया कि परमात्मा याद आया। सुख में ईश्वर कम ही याद आता है और जब दुख में उसकी याद आए तो उसकी ओर चलने का सबसे सरल मार्ग है सत्य को पकड़ लेना। जीवन में सत्य आते ही आभास होगा कि हम क्यों गलत चले गए थे।

सत्य हमें ईश्वर की ओर लौटाता है। सत्य हमें बताता है कि हम किसी नियम से हट गए थे और इसीलिए परेशानी में पड़ गए हैं। जीवन में जब दुख आए तो समझ लीजिए कि कहीं हम सत्य से जरूर दूर हुए हैं। सत्य को केवल क्रिया मानेंगे, आचरण मानेंगे तो कष्ट महसूस होगा, लेकिन जिस दिन सत्य को ईश्वर का रूप मानेंगे, उस दिन तकलीफ का सवाल ही पैदा नहीं होगा। सत्य की खोज परमात्मा की खोज है। इसे पकड़ने पर ईश्वर जल्दी पकड़ में आता है।

पवित्रता हो तो सादगी भी गजब का श्रंगार बन जाती है
सुंदरता भगवान की विभूति है। सौंदर्य और श्रंगार परमात्मा को पसंद हैं। सामान्य तौर पर श्रंगार को शरीर से जोड़कर देखा और समझा गया है और इसीलिए श्रंगार वासना के लिए सेतु बन जाता है। सौंदर्य का संबंध जब तक शरीर से रहेगा, यह भोग का विषय होगा।

लेकिन सुंदरता ईश्वर से जुड़ते ही अनुभूति हो जाती है। सौंदर्य को केवल संसार से जोड़ेंगे तो श्रंगार केवल रूप संयोजन होगा और यदि यह भगवान से जुड़ता है तो इसमें पवित्रता आ जाती है। भगवान की दुनिया में पवित्रता सबसे अच्छा श्रंगार और सौंदर्य है। यदि पवित्रता हो तो सादगी भी गजब का श्रंगार बन जाएगी। श्रंगार में यदि स्वरूपता न हो तो वह भी अभद्रता ही है।

अब तो श्रंगार का अर्थ एक-दूसरे को आकर्षित करना ही रह गया है। श्रंगार को शस्त्र बनाकर शरीर के आक्रमण हो रहे हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने श्रंगार के लिए एक साधन बताया है, इसे संसार तप के नाम से जानता है। तप एकांत की घटना है, इसमें प्रदर्शन नहीं होता। तप से जो सौंदर्य प्राप्त होता है, वह ईश्वर का ही सौंदर्य है।

केवल शरीर को ही न संवारा जाए, संवारने के लिए जीवन में और भी कई उपाय हैं। बहुत कम लोग समझ पाते हैं कि समय को भी संवारा जाता है। समय का सदुपयोग करें, यह एक बड़ी शिक्षा है, लेकिन खाली समय में क्या करें, यह उससे भी अधिक समझ का मामला है। खाली समय का सदुपयोग कैसे करें, यह समय का श्रंगार है। अपने लोगों के साथ खाली समय प्रेम से बिताया जाए, यह भी एक श्रंगार है और पारिवारिक जीवन को सौंदर्य प्रदान करता है।

मधुर वचन सभी को शांति व प्रसन्नता देते हैं
आपकी उपस्थिति वातावरण को जिस प्रकार से प्रभावित करती है, आप अपना आकलन उस प्रकार से कर लें, क्योंकि हम अपने भीतर को ही बाहर विस्तारित करते हैं। हम मानें या न मानें, लेकिन हमारे भीतर की हलचल या हमारे भीतर का स्थिर रहना बाहर को प्रभावित करेगा। हनुमानजी अशोक वाटिका में वृक्ष पर बैठकर सोच रहे थे और उन्होंने सीताजी के सामने रामनाम की अंगूठी गिरा दी। तुलसीदासजी ने लिखा है - जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ।।

सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया। यूं तो सीताजी बहुत दुखी थीं, लेकिन हनुमानजी की उपस्थिति ने उनके भीतर हर्ष पैदा कर दिया। इसके बाद अंगूठी को देखा और खुशी के साथ-साथ विषाद भी हो गया। चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदय अकुलानी।। अंगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से अकुला उठीं। हनुमानजी भीतर से इतने सहज और सरल हैं, बाहर उसका प्रभाव पड़ता ही है।

सीताजी इसलिए हर्षित थीं क्योंकि हनुमानजी आ गए थे, लेकिन लंका का जो वातावरण था, उसके कारण विषाद जाता भी नहीं था। यह संसार लंका की तरह है। हमारे जीवन में हनुमानजी की उपस्थिति विपरीत वातावरण में भी प्रसन्नता का कारण बन जाएगी। आगे तुलसीदासजी ने लिखा है - सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।। सीताजी मन में विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमानजी मधुर वचन बोले। मीठे बोल सभी को शांति और प्रसन्नता देते हैं। वाणी की कर्कशता परमात्मा को पसंद नहीं।

जितना कम खाएंगे, उतना ही अधिक अच्छे से जिएंगे
जिन्हें स्फूर्त और श्रमशील बनना है, उन्हें आलस को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मान लेना चाहिए। आपकी प्रतिष्ठा, वरिष्ठता और सामथ्र्य आलस्य को बिल्कुल पसंद नहीं आएगी। आलसी होना मानवीय गरिमा के लिए दाग है। आलस का संबंध दो चीजों से है - नींद और भोजन। अकारण, असमय अधिक नींद आने लगे तो समझ लें जीवन में आलस्य उतर रहा है। नींद फिर भी नियंत्रण में की जा सकती है, लेकिन जब आलस भोजन से उतरता है तो और भी खतरनाक है।

अधिक भोजन करने वाले लोग कभी भी बुद्धिमान नहीं माने जा सकते। जिन्हें भौतिकता और भक्ति की सफलता चाहिए, उन्हें भोजन और उसके पचाने के आध्यात्मिक विज्ञान की जानकारी जरूरी है। कई लोग भोजन को भी नशे के लिए इस्तेमाल करते हैं। किसी शराबी से पूछो कि वह शराब क्यों पीता है? तो वह बताएगा कि एक मानसिक मूच्र्छा की जरूरत है।

शराब भी होश और सजगता से कुछ समय के लिए दूर हटा देती है। ऐसी ही बेहोशी अधिक भोजन करने के बाद आ जाती है और शरीर कहता है बस पड़े रहो। ऐसा इसलिए होता है कि जो शक्ति हमारे दिमाग को चैतन्य रखती है, वह पेट के केंद्र तक पहुंच जाती है, क्योंकि अधिक भोजन के लिए अधिक ऊर्जा चाहिए।

बाकी अंग ढीले हो जाते हैं। इसी बेहोशी को लोग नशा मान लेते हैं। भक्तों के लिए उपवास की व्यवस्था इसीलिए रखी गई है कि जितनी शक्ति शरीर में जहां भी चाहिए ठीक से पहुंच जाए और पेट उसको अधिक भोजन के कारण अपनी ओर न खींचे। इसलिए जितना कम खाएंगे, उतना अधिक अच्छे से जिएंगे।

जीवन का अंत नहीं होता, वह फिर नए में बदल जाता है
जीवन कभी भी रुकता नहीं है। वह अनंत है, सदैव गतिमान है। ऊपरी समझ से तो लगता है मृत्यु के बाद जीवन का अंत हुआ, लेकिन गहरी समझ कहती है कि जीवन का अंत कभी नहीं हुआ, वह फिर नए में परिवर्तित हो जाता है। हम जीवन में कुछ तयशुदा बातों का ज्ञान रखते हैं। यदि बहुत सारी चीजें इस जगत में, इस जीवन में हैं, जो नहीं हैं वो दिख नहीं रहीं, इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे हैं नहीं।

जीवन को मन तक ही सीमित न समझें, कुछ अलग हटकर ऐसा करें, जो सामान्य रूप से दिखता नहीं है। हम खूब मेहनत करते हैं, कामकाज में लगे रहते हैं। यह तो ऐसा है जैसे लोहार की धौंकनी सांस ले रही है, कोल्हू का बैल चक्कर काट रहा है और कुम्हार का गधा बोझा ढोए हुए है।

इतना तो सभी करते हैं। बाहरी रूप से देखें तो मनुष्य भी ऐसा ही करता नजर आता है, लेकिन हममें और पशुओं में भेद ही यह है कि हम ऐसा करते हुए भी कुछ इस प्रकार कर सकते हैं, जो बुद्धि से पकड़ में नहीं आता। हो सकता है संसार को समझ में न आए। इसको कहते हैं आध्यात्मिक जीवनशैली।

जब आप योग के माध्यम से ध्यान में उतरेंगे, तब आप पाएंगे कि बिना वायु के प्राण क्या हैं। आपको पता लगेगा कि बिना आंख के भी दृष्टि हो सकती है और तब आप जान पाएंगे कि बिना सांस के भी धड़कन चल सकती है। ज्ञान कारण को ढूंढ़ता है और ध्यान अकारण से गुजरता है। ज्ञान अंतिम छोर तक पहुंचता है, ध्यान स्रोत को भी पकड़ता है। इसलिए कुछ ऐसा करते रहें, जो भीतर उतरने पर ही किया जा सकता है।

व्यापक रूप में परमात्मा की सेवा ही है परमार्थ
लोग तीन भागों में बंटे हुए हैं। एक वे हैं, जो सदैव अनर्थ करते हैं। दूसरे वे, जो अनर्थ भले न करें, पर उनकी दृष्टि स्वार्थ की होती है। तीसरे वे होते हैं, जो अपना अहित सहकर भी परमार्थ करते हैं। लेकिन परमार्थ कोई सरल बात भी नहीं है। दूसरों का भला करते समय अपने हित की वृत्ति आड़े आती है। भगवान ने कभी नहीं कहा कि बर्बाद हो जाओ।

श्रीराम ने रावण के पास दूत के रूप में अंगद को भेजते हुए कहा था- ‘कुछ ऐसा करना कि हमारा भी काम हो और रावण का भी हित हो जाए।’ हम चाहें तो हमारा हर कृत्य परहितकारी हो सकता है। परमार्थ करने वाला कभी नुकसान में नहीं रहता। हां, नतीजा देर से जरूर मिल सकता है, लेकिन जब भी मिलेगा, शुभ ही मिलेगा। परमार्थ हमें इस बात की स्पष्ट सांत्वना भले न दे कि अच्छा करोगे तो अच्छा मिलेगा, लेकिन वह हमें एक सत्य से जरूर परिचित कराएगा। जैसे ही आप दूसरों का हित करते हैं, व्यापक रूप से आप परमात्मा की सेवा कर रहे होते हैं।

भारतीय संस्कृति में ईश्वर के अवतार को लीला कहा गया है। जब हम भक्त होते हैं तो ईश्वर की लीला को स्वीकार करते हैं और परमार्थ लीला का एक छोटा-सा अंश है। लीला को साधारण भाषा में खेल कह सकते हैं। खेल में हार-जीत से ज्यादा खेलना रस देता है। ऐसे ही परमार्थ में लीला जोड़ दें तो जो भी परिणाम आएगा, ईश्वर की अनुभूति ही कराएगा। परमार्थ की वृत्ति समाज में जैसे-जैसे बढ़ेगी, भ्रष्टाचार कम होता जाएगा। परमार्थ अपने आप में एक आध्यात्मिक क्रिया है, इसे इसी रूप में किया जाए।

सुख में इतराएं नहीं और दुख में जीवन से पलायन न करें
हम धार्मिक कृत्य करें या व्यावहारिक काम, हमारी दशा और नीयत सही होने चाहिए। जीने का भाव स्पष्ट रहना चाहिए। जैन मुनि प्रज्ञासागरजी के अनुसार - जीवन शैली इस प्रकार हो कि सुख के समय में हम अभिमान में इतराने न लगें और दुख आ पड़ने पर कातरभाव से जीवन से पलायन न करें।

आज के संदर्भ में, अब पर्वत भी लांघ लिए गए हैं, नदियां सुखा दी गई हैं, श्मशान विद्युतगृह में बदल गए हैं और जंगल समाप्त हो गए हैं। अत: इनके कारण होने वाले भय अब कहां हैं? परंतु पूरी मनुष्य जाति के सामने अणु बम और रेडियोधर्मी प्रदूषण का भयानक भय मुंह बाए खड़ा है।

आणविक युद्धों से मनुष्यता थर-थर कांप रही है। इससे निजात पाने के लिए न केवल एक व्यक्ति का दूसरे के प्रति, बल्कि एक समुदाय विशेष का दूसरे समुदाय विशेष के प्रति, एक संप्रदाय का दूसरे संप्रदाय के प्रति और एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र के प्रति एक सहिष्णु भाव पैदा होना चाहिए।

इष्टजनों के वियोग व विरह में दुखी होना और अनिष्टजनों के संयोग से क्षोभ में आ जाना सम्यक दृष्टि का स्वभाव नहीं है। वह तो हर स्थिति में सहनशीलता और सहिष्णुता का परिचय देता है। सहनशीलता के साथ भक्ति की जाए। यह एक महत्वपूर्ण सूत्र है। कई लोग भक्त भी होते हैं, लेकिन अधीर रहते हैं।

जब कभी भक्ति करें, अधीरता को छोड़ दें। दो तरह के अधीर लोग संसार में पाए जाते हैं - एक धार्मिक और दूसरे सांसारिक। दोनों को चाहिए और इसीलिए बेताब हैं। सम्यक दृष्टि कहती है बिना किसी चाहत के जब किया जाए, तब भक्ति है और परमात्मा को जीवन में उतरना ही पड़ता है।

परमात्मा का गुणगान करिए बड़े से बड़ा दुख भाग जाएगा
दुख किसके जीवन में नहीं आता। बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा व्यक्ति भी दुखी रहता है। पहुंचे हुए साधु से लेकर सामान्य व्यक्ति तक सभी के जीवन में दुख का समय आता ही है। कोई दुख से निपट लेता है और किसी को दुख निपटा देता है। दुख आए तो सांसारिक प्रयास जरूर करें, पर हनुमानजी एक शिक्षा देते हैं और वह है थोड़ा अकेले हो जाएं और परमात्मा के नाम का स्मरण करें।

सुंदरकांड में अशोक वाटिका में हनुमानजी ने सीताजी के सामने श्रीराम का गुणगान शुरू किया। वे अशोक वृक्ष पर बैठे थे और नीचे सीताजी उदास बैठीं हनुमानजी की पंक्तियों को सुन रही थीं। रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।

वे श्रीरामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, जिन्हें सुनते ही सीताजी का दुख भाग गया। तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ।। तब हनुमानजी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी मुख फेरकर बैठ गईं। हनुमानजी रामजी का गुणगान कर रहे थे। सुनते ही सीताजी का दुख भाग गया। दुख किसी के भी जीवन में आ सकता है।

जिंदगी में जब दुख आए तो संसार के सामने उसका रोना लेकर मत बैठ जाइए। परमात्मा का गुणगान सुनिए और करिए, बड़े से बड़ा दुख भाग जाएगा। आगे तुलसीदासजी ने लिखा है कि हनुमानजी को देखकर सीताजी मुंह फेरकर बैठ गईं। यह प्रतीकात्मक घटना बताती है कि हम भी कथाओं से मुंह फेरकर बैठ जाते हैं और यहीं से शब्द अपना प्रभाव बदल लेते हैं। शब्दों के सम्मुख होना पड़ेगा, शब्दों के भाव को उतारना पड़ेगा, तब परिणाम सही मिलेंगे। इसी को सत्संग कहते हैं।

डरपोक शेर को भय के कारण अंतत: चूहा बनना पड़ा
एक चूहा किसी महात्मा की कुटिया में रहता था। कभी-कभी बिल्ली वहां आती तो चूहा भय से कांपने लगता। महात्मा ने उससे भय का कारण और निवारण पूछा। चूहे ने कहा - बिल्ली का भय सताता है।

मुझे बिल्ली बना दीजिए, ताकि निर्भय रह सकूं। महात्मा ने वैसा ही किया। चूहा बिल्ली बनकर उस क्षेत्र में साहसपूर्वक घूमने लगा, किंतु कुछ दिनों बाद कुत्तों ने उसे देखा तो वे उसे मारने के लिए उसके पीछे लग गए। बिल्ली ने इस बार महात्मा से स्वयं को कुत्ता बना देने का आग्रह किया।

महात्मा ने उसे कुत्ता बना दिया। कुछ दिन सब ठीक चला, लेकिन फिर भेड़ियों ने उसे खाने के लिए चक्कर लगाने शुरू कर दिए। कुत्ते ने यह संकट देख महात्मा से स्वयं को भेड़िया बनाने की प्रार्थना की, जिसे उन्होंने स्वीकार लिया। भेड़िए को शेर अपना शत्रु मानते हैं, अत: इस बार शेर परिवार उसे मारने पर उतारू हो गया।

अब भेड़िए की इच्छा शेर बनने की थी, जिसे दयालु महात्मा ने पूर्ण कर दिया। कुछ समय बाद शेर की दहाड़ सुनकर शिकारियों का एक समूह उसका शिकार करने के लिए आ गया। शेर फिर डरकर महात्मा की शरण में पहुंचा, किंतु इस बार उनका रुख बदला हुआ था।

उन्होंने कमंडल से जल छिड़ककर शेर को फिर चूहा बना दिया और बोले - संकट का सामना करने का जिसमें साहस व पराक्रम नहीं, उसका दूसरों की सहायता से कब तक काम चल सकता है? कथा का सार यह है कि किसी भी संकट का सामना करने और उससे पार पाने का सर्वोत्तम साधन आत्मविश्वास होता है। आत्मविश्वास से असंभव कार्य को भी संभव किया जा सकता है।

धर्म के सही स्वरूप को समझा जाए तो परिणाम शुभ होंगे
धर्म, परिवार और राजनीति ये तीनों इस समय गलत दृष्टि से देखे जाने के कारण अपनी सही परिभाषा खो रहे हैं। इनके संबंध में जो नीतिवाक्य हैं, वो मुहावरों या चुटकुलों में तब्दील हो गए हैं। लोग राजनीति को गाली, धर्म को तमाशा और परिवार को उपद्रव का अड्डा मानते हैं। जबकि धर्म के सही स्वरूप को यदि समझा जाए और जीवन में उतारा जाए तो राजनीति और परिवार में बड़े शुभ परिणाम आएंगे।

स्वामी जी ने इसकी व्याख्या में कहा है कि जीवन का निर्माण बाल्यकाल से प्रारंभ हो जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए महत्वपूर्ण नहीं, शासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी बहुत जरूरी है।

साधारण व्यक्ति प्रवाह के पीछे चलता है। यथा राजा तथा प्रजाञ्ज कहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक व्यक्ति किसी भी उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर तथाकथित बड़ा आदमी बन जाता है, तब दूसरा व्यक्ति भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बड़ा आदमी बना जा सकता है।

राजनीति जीवन का अंग हो गई है, लेकिन यह जीवन कदापि नहीं है। सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो वह निरंकुश हो जाती है। सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार की, उस पर से जब-जब धर्म का अंकुश हटता है, तब-तब वह उन्मादी हो जाती है। प्रवाह को वही मोड़ सकता है, जो असाधारण हो, जो सत्ता और अर्थप्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले। -

गुरुमंत्र मन में प्रवेश करता है फिर उसकी सफाई करता है
शंका करना मन का स्वभाव होता है। किसी पर अविश्वास करके मन बड़ा प्रसन्न रहता है। इसीलिए लोग गुरु के शब्दों में भी संदेह ढूंढ़ते हैं। सिद्ध गुरु आरंभ में शब्द ऐसे बोलते हैं कि मन के द्वार बंद न हो जाएं। गुरुमंत्र में ऐसा प्रभाव होता है कि वह मन में प्रवेश करता है और फिर धीरे-धीरे उसकी सफाई करता है।

शक्तिपात गुरु स्वामी जी महाराज कहा करते थे कि मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा विकसित हो गया है कि वह हर बात में शंका करता है। उससे कोई कितनी भी सहानुभूति करे, वह उसमें भी संशय करता है। अध्यात्म के विषय में उसने केवल सुना ही सुना है, अनुभव नहीं किया। इसलिए इस संबंध में वह और भी अधिक शंकालु हो गया है।

जब तक उसके मन में गुरु वचनों पर दृढ़ श्रद्धा नहीं होती, अंतर की शंका नीचे नहीं दबती। गुरु इस बात से अच्छी तरह परिचित होते हैं। अत: वह अपनी कृपा से शिष्य को चेतना शक्ति की जागृति का प्रत्यक्ष अनुभव करा देते हैं। चित्त में एक चिंगारी सुलग उठती है, जो आध्यात्मिक जागृति के लिए बीज का काम करती है।

सूर्य के फैलने वाले प्रकाश के पूर्व किरण होती है, जिससे साधक को ज्ञात हो जाता है कि चित्त में चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश होने वाला है, जिससे उसके मन में गुरु के प्रति, साधन के प्रति, अनुभव के प्रति श्रद्धा पैदा हो उठती है। श्रद्धा ही साधन का आधार है तथा सभी शंकाओं को दूर करने में मददगार है। श्रद्धा को केवल कर्मकांड से बलवती नहीं बनाया जा सकता, इसके लिए ध्यान बहुत जरूरी है। लगातार ध्यान करने से जो अनुभव होते हैं, उससे श्रद्धा परिष्कृत होती है।

उपवास का अर्थ है देह और आत्मा के अंतर को बढ़ाना
जब-जब जीवन में कठिनाई आए, उसके बाहरी स्वरूप को देखते हुए उसके निदान जरूर निकाले जाएं। लेकिन उसी समय उसके भीतरी स्वरूप को भी पहचाना जाए। अध्यात्म कहता है कि भीतर की परेशानी की ही प्रतिछाया बाहर पड़ती है और इसीलिए हर मनुष्य भीतर और बाहर समान रूप से परेशान रहता है। या तो वह बाहर से चीजों को अंदर गिराता है या फिर भीतर की दिक्कतों को बाहर फेंकता है।

समझदार लोग इस अंतर को समझते हैं और वे इस अदला-बदली को रोक देते हैं। जैसे ही यह आवागमन नियंत्रित होता है, मनुष्य शांत होना शुरू हो जाता है। आंतरिक चिंतन मनुष्य के बल को बढ़ाता है। हमारे भीतर परमात्मा ने शक्ति का अपार भंडार भरा है। आप उस स्टोरेज से जितना मांगेंगे, उतना जरूर मिलेगा। कुछ लोग जीवनभर इस स्टोरेज का उपयोग भी नहीं कर पाते।

वे सतह पर जीकर ही गुजर जाते हैं। उपवास की व्यवस्था इस शक्ति को बढ़ाने के लिए ही की गई है। उपवास का अर्थ है, भीतर उतरने का अनुशासन। इसे अन्न व शरीर से न जोड़ा जाए। लोग उपवास का अर्थ समझते हैं, खुद को शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना। इसलिए कुछ लोग खान-पान के संयम को ही उपवास मानते हैं, लेकिन उपवास का अर्थ है देह और आत्मा के अंतर को बढ़ाना।

जो लोग इस भाव को समझकर उपवास करेंगे, वे उपवास के बाद खूब शांत पाए जाएंगे। वरना लोग उपवास भी करते हैं और दूसरों पर क्रोधित भी होते हैं। आश्चर्यजनक है दो बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं।

सत्संग करते समय हम वक्ता के शब्दों पर भरोसा रखें
शब्द जीवन के अर्थ बदल सकते हैं और बदल भी देते हैं, लेकिन इसमें दो बातें महत्वपूर्ण होती हैं कि बोलने वाला कौन है। और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है सुनने वाला किस तरीके से सुन रहा है। क्योंकि शब्द को सुनते ही मनुष्य उसे अपने भाव से जोड़ लेता है। जैसे पात्र में वस्तु डालो तो पात्र के आकार की हो जाती है, बर्तन में पानी डालो तो पानी भी बर्तन के आकार का हो जाता है।

इसीलिए कथाओं को सुनने से लोगों का जीवन नहीं बदलता, क्योंकि बोलने वाला सुपात्र हो तो भी सुनने वाला उसे अपने तरीके से ढालता है। रामचरितमानस के पांचवें सोपान सुंदरकांड में हनुमानजी और सीताजी के बीच पहले परिचय के दौरान सत्संग जैसी घटना घटी थी। हनुमानजी ने सीताजी से कहा था - राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की।।

हनुमानजी ने कहा - हे माता जानकी! मैं श्रीरामजी का दूत हूं। करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूं। यह अंगूठी मैं ही लाया हूं। श्रीरामजी ने मुझे आपके लिए यह निशानी दी है। वैसे तो यह सीधा-सीधा संदेश था, किंतु इसमें हनुमानजी ने श्रीराम की शपथ लेकर स्वयं को उनका दूत साबित किया था और शपथ लेते समय श्रीराम को करुणानिधान बताया था।

हनुमानजी उस समय अपने वक्तव्य को पूरी तरह प्रेमपूर्ण बना रहे थे, क्योंकि सीताजी के मन में संदेह था। सत्संग में श्रोता व वक्ता का रिश्ता ऐसा ही होता है। सीताजी ने पूछा - नर और वानर का संग कहो कैसे हुआ? तब हनुमानजी ने कथा कही। यहां वक्ता को प्रमाण देना पड़ा था। जब भी हम सत्संग करें, वक्ता के शब्दों पर भरोसा रखें।

बच्चों को थोड़ा सत्संग से भी गुजारा जाना चाहिए
शिक्षा को इस समय सत्संग से जोड़ा जाना चाहिए। आधुनिक शिक्षा और परंपरागत सत्संग का मेल असंतुष्ट, अशांत और असंयमित व्यक्तित्व के लिए जरूरी हो गया है। इस समय बच्चे इंटरनेट पर टिक गए हैं। सारी पढ़ाई परदे से खींची जा रही है। लैपटॉप और कंप्यूटर कितनी शिक्षा उगल रहे हैं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन बच्चे उसमें किस तरह से डूब रहे हैं, यह हमें मालूम कर लेना चाहिए।

एक अच्छा तरीका बुरे परिणाम दे रहा है। बच्चों को इसीलिए थोड़ा सत्संग से गुजारा जाना चाहिए। सत्संग के शब्दों में सुरक्षा है। सत्संग से गुजरने के बाद यह आत्मविश्वास प्रबल होता है कि संसार में जो यात्रा हम करेंगे, वह गलत नहीं होगी। हमारे देश में तो सत्संग के कई तरीके हैं। आदर्श वाक्यों के बैनर, दीवारों पर शुभ शब्द, पुस्तकों के स्लोगन, लेकिन अब इनमें धीरे-धीरे लोगों की रुचि कम हो रही है।

बोलती दीवारें, जगाती किताबें बच्चों की अंतिम प्राथमिकता हो गई हैं। इन्हें सबकुछ एक क्लिक में मिल रहा है। सत्संग में दो बातें महत्वपूर्ण हैं - एक गायन का हिस्सा, दूसरा प्रवचन का पक्ष। आजकल वक्ता यह मानकर चल रहा है कि जो हम कह रहे हैं, वही सही है या जो हमें अच्छा लग रहा है, वही दूसरों को भी लग रहा होगा। लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है।

सभी अपनी यूटिलिटी देखते हैं, सत्संग में भी। यदि वह उनको नहीं मिले तो इसे समय खराब करना माना जाता है। इसलिए ऐसी पीढ़ी जिसे सबसे ज्यादा शांति की जरूरत है, इसकी पूर्ति कहीं और से करने लगती है। सत्संग का महत्व उसके जीवन प्रबंधन से जुड़ते ही एकदम बढ़ जाएगा। श्रोता और वक्ता दोनों पक्ष इसकी तैयारी रखें।

धन कमाने के लिए धन से परे समझ विकसित की जाए
धन कमाने के लिए ऐसी समझ विकसित की जाए, जो धन से परे है। इसका यह अर्थ नहीं है कि निर्धन रहा जाए। इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि धन के अर्थ को ठीक से समझा जाए। धन-ऐश्वर्य कमाने के चक्कर में हम उसे बंधन बना लेते हैं। फिर व्यक्ति मुक्त होना भूल ही जाता है। वह संपत्ति कमाने के तरीकों में पुरुषार्थ से अधिक गुलामी से जुड़ जाता है।

खूब धन कमाया जाए, किसी धर्म ने इस बात के लिए नहीं रोका, लेकिन इस बंधन से मुक्त होने के लिए जिस मर्जी की जरूरत पड़ती है, उसे अपने भीतर जरूर पैदा किया जाए। ध्यान का उपयोग इसके लिए किया जा सकता है। ध्यान करने के बाद जब सामान्य जीवनचर्या में उतरते हैं तो हम जो भी कर रहे होते हैं, उसमें मुक्ति का भाव महसूस करने लगते हैं। वर्तमान का असंतोष कम होने लगता है, भविष्य का भय डराता नहीं है।

उस समय हम धन कमा भी रहे होते हैं और फकीरी में जीने भी लगते हैं। सांसारिक साधनों का उपयोग करते हुए भी उसमें लिप्त नहीं रहते। उच्च तकनीक के इस युग में भी यह समझ में आने लगता है कि जिंदगी में ऐसा भी कुछ होता है, जो विज्ञान से परे है। कोई मस्ती इस प्रकार भी है, जो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती और कुछ दुख इस तरह के होते हैं, जिन्हें धन रोक भी नहीं सकता। साथ में यह स्पष्टता भी रहती है कि धन कमाने में कोई बुराई नहीं है।

झंझट शुरू होती है उसके उपयोग में। ध्यानी उपयोग से ज्यादा सदुपयोग की कला सीख जाता है। वह समझ जाता है कि आखिर में घूम-फिरकर भीतर ही उतरना होगा। दुनियादारी का जीवन, बर्बादी का जीवन नहीं है। दुनियादारी का जीवन केवल परेशानी का कारण हो सकता है।

जो भी हमसे मिले वह कहे कुछ खोया पर बहुत कुछ पाया है
यह मेल-मुलाकात, पीआरशिप और जनसंपर्क का वक्त है। चूंकि इस दौर में संबंधों से सफलता अर्जित की जाती है इसलिए जब भी किसी से मिलें, व्यावहारिक दृष्टिकोण के अलावा आध्यात्मिक रुझान भी रखें। शिष्टाचार की आड़ में षड्यंत्र न करें। विनम्रता ओढ़ी हुई न रहे। अभिवादन में बहुत अधिक स्वार्थ न रखें और हर मुलाकात में समय का सम्मान करें। न अपने और न ही दूसरे के समय की बर्बादी करें।

हमारे ऋषि-मुनियों ने एक-दूसरे के प्रति प्रसन्नता के भाव में कल्याण की भावना को प्राथमिकता दी है। हम दूसरों से मिलकर न सिर्फ खुश रहें, बल्कि उनके कल्याण के प्रति भी सतर्क रहें। दरअसल लोग आजकल जब किसी से मिलते हैं तो बाहरी औपचारिकताओं की पूर्ति तो करते हैं, लेकिन एक सौंदर्यपूर्ण ढंग का अभाव होता है।

इसका कारण यह है कि हमने अपने भीतर के प्रेम को सीमित कर दिया है। जब भी किसी से मिलते हैं, गणित शुरू हो जाता है। काम का आदमी हो तो मुस्कराएंगे, वरना कन्नी काट लेंगे। होना यह चाहिए कि हमारी समूची पूजा-पाठ, धर्म-कर्म मेल-मुलाकात के समय हमारे आचरण में हो।

जब भी किसी व्यक्ति से मिलें, ऐसा लगे जैसे मंदिर में खड़े हों, पूजा कर रहे हों। हमारा वह मिलाप एक आध्यात्मिक कृत्य बन जाए। निवेदन कर रहे हों तो परमात्मा की प्रार्थना का स्वरूप ले आएं। आशीर्वाद दे रहे हों तो इर्श्वर के कृपा रूप को अपने भीतर उतारें। इसे कहते हैं - पूरे अस्तित्व से मिलना। अधूरा न रखें, न स्वयं को, न सामने वाले को। कोई हमसे मिलकर जाए तो वह कहे कि कुछ खोया-खोया सा है और बहुत कुछ पाया भी है।

जितना हम प्रकृति से जुड़ेंगे शांति पाना आसान होगा
दुनिया के सारे प्राणी जीने के मामले में एक दायरे में बंधे हैं और यह सीमा प्रकृति ने तैयार की है। सिर्फ मनुष्य ऐसा है, जो इसका अतिक्रमण कर सकता है।

उसने ऐसा किया भी है, लेकिन दिशा गलत पकड़ ली। उसने प्रकृति को नोंचा ज्यादा, लेकिन प्रकृति से सीखा कम। प्रकृति के पास कुछ ऐसा अद्भुत था, जो मनुष्य के जीवन को ऊंचा उठा सकता है, लेकिन मनुष्य ने उसे नीचे गिरने का साधन बना लिया। जीवन चलने और उन्नति करने का नाम है। प्रकृति इसमें हमारी मदद करती है। एक बात तय है कि जितना हम प्रकृति से जुड़ेंगे, उतना ही शांति प्राप्त करना सरल होगा।

प्रकृति संघर्ष करना सिखाती है। चूंकि हमारी रुचि सुविधाओं में होती है, इसलिए हम उससे भी दुश्मनी पाल लेते हैं। इस समय कई लोग सुविधाओं से सफलता चाहते हैं, जबकि यह संघर्ष का मामला है और संघर्ष से मिली सफलता भी कभी-कभी असंतोष जैसी स्थिति बना देती है। कहा गया है कि केवल तैरना आ जाने से जल पर विजय नहीं मानी जाएगी। तैरने के साथ-साथ बहना भी आना चाहिए। पूजा-पाठ तैरने जैसा है और मेडिटेशन बहने जैसा।

स्वीमिंग में केवल संघर्ष है, फ्लोटिंग में सहजता व सरलता है। दोनों ही सीखना चाहिए। प्रकृति हमें सिखाती है कि हमारे भीतर एक हिस्सा ऐसा है, जहां कुछ नहीं किया जाता, सिर्फ शांत रहा जाता है। जहां करने पर भी अकर्ता भाव है। इसलिए सक्रिय रहते हुए प्रकृति से जुड़े रहें। किसी वृक्ष से टिककर खड़े हो जाएं, किसी पौधे को प्राण की तरह पालें, फिर देखिए शांति का संचरण कोई रोक नहीं सकता।

आहार शुद्ध रखें, शरीर को संयम से जोड़ें और सत्संग जरूर करें
दुर्भाग्य क्या होता है, इसकी बहुत सारी व्याख्याएं हैं। अध्यात्म कहता है कि जब हम अपने भीतर की शक्ति का दुरुपयोग करते हैं, तो इसे दुर्भाग्य कहेंगे। दुर्भाग्य का निर्माण भी इस शक्ति के दुरुपयोग से शुरू होता है। हमारे पास जो शक्ति, ऊर्जा या योग्यता है, इसे जब हम सांसारिक स्वार्थ से जोड़ लेते हैं, तब दुरुपयोग की शुरुआत हो जाती है।

इसी से संसार में आसक्ति जाग जाती है। संसार में रुचि होना खतरनाक नहीं है, आसक्ति होना नुकसानदायक है। जो लोग शक्ति का सदुपयोग करना चाहते हों, उन्हें सबसे पहले अपने अहंकार को गलाना आना चाहिए। अहंकार कैसे गिरे, इसके लिए अपने स्वभाव में सरलता लाने का प्रयास करना होगा।

इसके लिए स्वयं का निरीक्षण करना जरूरी है। तीन काम करिए तो स्वयं का विश्लेषण, निरीक्षण व परीक्षण आसान हो जाएगा। पहला, आहार को शुद्ध और सात्विक रखें। दूसरा, शरीर को संयम से जोड़े रखें और तीसरा काम सत्संग जरूर करते रहें, क्योंकि जिस शक्ति की हम बात कर रहे हैं, मनुष्य के पास यह होने के बाद भी उसका भय नहीं जाता और भविष्य का भय सताने लगता है।

निर्भय होने के लिए शक्ति की दिशा सही रखनी पड़ेगी। आहार के मामले में लोग आजकल स्वाद पर टिक गए हैं, उपयोगिता पर नहीं। शक्ति का दुरुपयोग लोग बाहर तो करते ही हैं, घरों में भी करने लग गए हैं। हमारे घरों में अशांति का एक बड़ा कारण शक्ति का दुरुपयोग भी है। या तो शक्ति वासना की ओर मुड़ जाती है या फिर अहंकार को पोषित करने लगती है। हमारे यहां गुरु की परंपरा इसीलिए है कि गुरु हमारे भीतर की शक्ति को भटकने से रोक देते हैं।

एक-दूसरे के प्रति प्रेम बढ़ाने में सहायक है वाणी
इस समय हमारे परिवारों में जो-जो चीजें बदली हैं, उनमें से एक बातचीत के केंद्र भी बदल गए। निकट से निकट के लोग भी काम पूर्ति की बात करते हैं। अगर बातचीत थोड़ी लंबी हो जाए तो झगड़ा शुरू हो जाता है। सब अपनी-अपनी हांकना चाहते हैं, कोई दूसरे को सुनने को तैयार ही नहीं हैं।

बोलना भी एक कला है। चूंकि हम लगातार दिन भर बोलते हैं, इसलिए भूल ही जाते हैं कि कैसे बोला जाए। वाणी परिवारों में शांति और अशांति का एक बड़ा कारण है। सुंदरकांड में श्रीराम का विरह संदेश सीताजी तक पहुंचाना था, सीताजी दुखी भी थीं और रामजी के प्रति उन्हें थोड़ी शिकायत भी थी कि वे क्यों भूल गए मुझे।

हनुमानजी ने सीताजी को संदेश देते समय अपनी बात को कितने सुंदर ढंग से रखा - कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास। जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।। (सुंदरकांड दोहा-१३) हनुमानजी के प्रेमयुक्त वचन सुनकर सीताजी को विश्वास हो गया। उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्रीरघुनाथजी का दास है। भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई।

नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया। पहली बात हनुमानजी हमें यह सिखा रहे हैं कि उनके वचन प्रेमयुक्त थे, इसीलिए सीताजी के मन में विश्वास जागा। परिवारों में वाणी में कर्कशता स्वाभाविक रूप से उतर जाती है। मीठा और विनम्र बोला जाए, इसी को प्रेमयुक्त वचन कहेंगे। आज घरों में एक-दूसरे के प्रति विश्वास ही नहीं हो पाता। प्रसंग यह समझा रहा है कि वाणी एक-दूसरे के प्रति प्रेम बढ़ाने में सहायक है।

केवल शरीर को महत्व देना अशांति को आमंत्रण देना है
अपनी जिंदगी के मालिक हम खुद हैं, लेकिन ज्यादातर मौकों पर हम दूसरों से संचालित होते हैं। बहुत अधिक चिंता इस बात की न की जाए कि लोग हमारे बारे में क्या कह रहे हैं, लेकिन परिवार और समाज के जो सामान्य नियम हैं, हम उनका भी उल्लंघन न कर जाएं। दूसरों की परवाह न की जाए, इसका यह अर्थ नहीं है कि हम स्वच्छंद और स्वेच्छाचारी हो जाएं। जिस समय हम अपने भीतरी होश में जीते हैं, उस समय हम समझ जाते हैं कि इस होश को दूसरों से प्रभावित नहीं होने देना है। दूसरों के कारण हम अपनी शांति भंग न कर लें। समझें कि ऐसा क्यों होता है।

मनुष्य तीन बातों पर टिकता है। पहला शरीर, दूसरा मन और तीसरा आत्मा। जितना अधिक हम शरीर पर टिकेंगे, उतने ही दूसरों से ज्यादा संचालित रहेंगे। शरीर के महत्व को नकारा नहीं जाना चाहिए, लेकिन उसे ही सब कुछ न मान लिया जाए। आहार और औषधि, इस समय शरीर इन्हीं के आसपास घूम रहा है।

लोगों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा चिकित्सा पर खर्च हो जाता है। इसलिए केवल शरीर पर टिकना अशांति को आमंत्रण देना है। कुछ लोग शरीर से आगे बढ़कर केवल मन पर टिकते हैं, यह पहली स्थिति से भी ज्यादा खतरनाक है। मन की बीमारी का तो इलाज अच्छे अच्छों के पास भी नहीं है।

अब जो साधक हैं, उन्हें समझना होगा कि इन दोनों से थोड़ा-सा आगे चलकर आत्मा का संसार है और जैसे ही हम उस पर टिकते हैं, जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय हमारे अपने होने लगते हैं। न तो कोई दूसरा हमें सुखी कर पाता है न कोई दुखी। न कोई हमें बाधा पहुंचा पाता है और न ही हम किसी को दुख देते हैं।

ललक, लालसा और तीव्र इच्छा को तृष्णा बनने से रोकिए
ललक, लालसा और तीव्र इच्छा होने में कोई बुराई नहीं है। कभी-कभी उद्देश्य की पूर्ति और लक्ष्य पर पहुंचने के लिए ये ऊर्जा का काम करते हैं। धन, पद और देह के लिए ये तीन चीजें पीछे रहती हैं। खतरा तब शुरू होता है, जब ये बदलकर तृष्णा का रूप ले लेती हैं।

तृष्णा का सीधा अर्थ है अकारण और अनुचित भूख तथा उसकी पूर्ति के लिए भीतर से अशांत हो जाना। लगन हो, लालसा हो, फिर धन कमाया जाए तो कोई बुराई नहीं है। लेकिन तृष्णा में बदलते ही आदमी भ्रष्टाचार पर उतर आता है। फिर धन चाहे अपराध से मिले या दूसरों का शोषण करके। ऐसे लोगों के भीतर मनुष्यता के सहज गुणों का विकास रुक जाता है।

आदमी लालची बन जाता है और लालच की अगली पायदान दुराचरण है। इसलिए धन के साथ तृष्णा बिल्कुल न जोड़ी जाए। यह तृष्णा आदमी को या तो कंजूस बना देती है या फिजूलखर्ची में डुबो देती है। दोनों ही स्थितियों को बेईमानी कहा जाएगा। धन के बाद दूसरी स्थिति है पद की। पद के लिए भी ललक, लालसा और तीव्र इच्छा प्रेरणा का रूप है। लेकिन इनमें भी तृष्णा आते ही आदमी कर्तव्य से दूर चला जाता है।

आतंक व अत्याचार इसी के नतीजे हैं। तीसरी बात है धन और पद के दुरुपयोग उतने खतरनाक परिणाम नहीं देते, जितना देह के। तृष्णा सबसे अधिक दुष्परिणाम देह पर डालती है। शरीर जुड़ा है उम्र से। हर उम्र की तृष्णा सामाजिक और पारिवारिक अनुशासन के कारण नियंत्रित रहती है, लेकिन भीतर ही भीतर परेशान भी करती है। इसकी आदत एक बार लग जाए तो यह बुढ़ापे तक नहीं छूटती। इसलिए इन तीन बातों को तृष्णा में बदलने से रोकिए।

भगवान के नियमों की चलती-फिरती पाठशाला होते हैं संत
परमात्मा किस रूप में हैं, यह एक पुरानी बहस है। आदमी नास्तिक हो या आस्तिक, एक सीधा-सा जवाब है कि परमात्मा एक कायदा है, ईश्वर एक नियम है, भगवान एक अनुशासन है। जो इसके अनुसार चलेगा, उसे सत्परिणाम मिलेंगे और जो इसे तोड़ेगा, वो भुगतेगा भी। भगवान इतने व्यवस्थित हैं कि सही और गलत दोनों तरह के लोगों ने उनका भरपूर लाभ उठाया है।

कुछ लोग भगवान की आड़ में उनके कंधे पर चढ़कर या उनको ही अपने कंधे पर बठाकर संसार में कुछ ऐसा अस्थायी लाभ उठा लेते हैं और मान लेते हैं कि हमने जो किया, वो सही है। लेकिन हम समझ लें कि ऊपरवाला एक बहुत बड़ा कायदा है।

गलत के आज जो लाभकारी परिणाम दिख रहे हैं, लंबे समय में उसका नुकसान जरूर होगा, क्योंकि सही का फल सही और गलत का फल गलत ही रहेगा। परमात्मा ने अपने नियम का एक मॉडल भी तैयार किया है। लोग उन रोल मॉडलों को देखकर जिंदगी के नियम समझ सकते हैं। इन लोगों का नाम है संत।

संत भगवान के नियमों की चलती-फिरती पाठशाला होते हैं। जब हम किसी संत से मिलते हैं तो वह जीवन का सत्य हमारे भीतर उंडेल देता है। हम तैरना नहीं जानते हों, तो भी वह आनंद के अनंत सागर में डुबकी लगवा देगा और सकुशल बाहर निकलना भी सिखा देगा।

ईश्वर को देखने के लिए संत हमें ऐसी दृष्टि दे देंगे, जो हमारे पास मौजूद आंख में नहीं होगी, बल्कि हमारी धड़कनों में वह अपनी धड़कन मिला देगा। तब हमें महसूस होगा कि ईश्वर का नियम दबाव नहीं मुक्ति है, तनाव नहीं शांति है।

परिवार का आधार प्रेम हो और इसकी शुरुआत मित्रता से हो
आजकल दोस्त मिलना मुश्किल हो गया है और मित्रता भी एक धंधा बन गई है। जिस उम्र में मित्र बनते हैं, वह उम्र पढ़ाई-लिखाई और कॅरियर के इतने दबाव में है कि हर संबंध बस लेन-देन का जरिया हो गया है। एक प्रयोग करें, बाहर की दुनिया में अगर दोस्त नहीं बन पा रहे हों और जो पुराने थे, वे वक्त के बही-खाते में जमाखर्च हो गए हों या सब अपनी-अपनी दुनिया में उलझ गए हों तो अब दोस्ती घर में की जाए।

भारतीय परिवारों में रिश्तेदारी तो है, लेकिन दोस्ती नहीं है। हम नातेदारी को महत्व देते हैं, मित्रता को नहीं। इसीलिए पति-पत्नी एक नाता है, यह रिश्ता मित्रता नहीं बन पाता। दोनों एक-दूसरे के लिए जो भी कर रहे होते हैं, उसमें कुटुंब के संबंध रहते हैं, दोस्तों जैसी दोस्ती नहीं। यही हालत बाप-बेटे, मां-बेटी में भी चलती है।

इसी कारण लंबे समय चलते हुए रिश्ते बोझ बन जाते हैं। जबकि दोस्ती में हमेशा ताजगी रहती है। परिवार का आधार प्रेम होना चाहिए और परिवारों में प्रेम की शुरुआत मित्रता से की जाए, क्योंकि मित्रता में यह संभावना रहती है कि एक दिन वह प्रेम में बदल सकती है। और जैसे ही संबंधों में प्रेम जागा तो शुचिता व शांति अपने आप आ जाएगी।

अभी जब एक-दूसरे की मांग पूरी नहीं होती तो आवेश जागता है। लेकिन मैत्री और प्रेम आने के बाद एक-दूसरे के प्रति क्षमाभाव जागेगा। परिवारों में रिश्तों के बीच अपेक्षा ही प्रधान होती है। अपेक्षा अशांति का कारण है। प्रेम अपेक्षा के रूप को बदल देता है। अपेक्षा हटी कि एक-दूसरे पर दोषारोपण बंद हो जाएंगे, क्योंकि प्रेम बीच में आते ही हम हर रिश्ते में परमात्मा की झलक देखने लगेंगे। इसी को वैकुंठ कहते हैं।

ज्ञान देने से ज्यादा होश देने वाले होने चाहिए विचार और सिद्धांत
किताबें विचार देती हैं। शास्त्र बनते ही किताबें विचार और सिद्धांत दोनों देती हैं, लेकिन बिना परीक्षण के सिद्धांत स्वीकार न किए जाएं। सिद्धांत व विरोधाभास एक सिक्के के दो पहलू हैं। विचार अपने साथ मतभेद लाते हैं। शास्त्रों में प्रमाणों के अर्थ देश, काल, परिस्थिति में बदल भी जाते हैं। केवल मान्यताओं के आधार पर उन्हें उपयोगी नहीं माना जा सकता।

धर्म और शास्त्र का गहरा संबंध है। कुछ धर्म तो केवल शास्त्रों पर ही टिके हैं। इसी कारण सांप्रदायिक मतभेद में शास्त्रों को भी हथियार बनाया जाता है। शास्त्रों को लेकर बड़े-बड़े युद्ध हुए। किन्हीं के लिए शास्त्र बंधन का कारण बन गए और कुछ ऐसे भी हैं, जिन्हें शास्त्रों ने मुक्त भी कर दिया। किसी धर्म ने हिंसा को पूर्णत: निषेध बताया तो किसी धर्म में इसे कुर्बानी कहा गया। शास्त्रों के पन्नों पर एक का पाप दूसरे का पुण्य है। फिर आज की पीढ़ी तो हर विचार को परीक्षा और समीक्षा से गुजारती है।

वो दिमाग पर कम जोर देकर जीवन का समाधान चाहती है। नए दौर के युवा की वृत्ति ही विरोधी है। संघर्ष उसकी नियति है। उसके पास जितनी सुविधाएं हैं, उससे ज्यादा समस्याएं हैं। इसलिए विचार व सिद्धांत जानकारी तथा ज्ञान देने से ज्यादा होश देने वाले होने चाहिए।

बिना होश, आंतरिक जागृति के जो संघर्ष आज किया जा रहा है, वह आदमी की मनुष्यता को ही पशुता में बदल रहा है। संघर्ष जीवनशैली न बनकर एक प्रतिक्रिया बन जाता है। अच्छे और महान लोगों का वैसे ही टोटा है, उस पर शास्त्रों से भी यदि भ्रमित सिद्धांत उठा लिए जाएं तो जीवन के खतरे और बढ़ जाते हैं। इसलिए जागरूक दृष्टि के साथ विचार स्वीकारे जाएं।

हर कार्य के पीछे किसी न किसी का हाथ होगा ही
हमारे आसपास जो दृश्य बिखरे हुए होते हैं, उनमें हमें हर दृश्य के विपरीत की स्थिति देखने की पैनी दृष्टि तैयार करनी चाहिए। अव्यक्त का अवलोकन करना स्थितियों को सही रूप में समझने में मदद करेगा। जैसे अंधकार का अर्थ है प्रकाश का अभाव। जब हम अंधकार से सामना कर रहे हों तो हमें प्रकाश कहां से मिलेगा, इसकी जानकारी होनी चाहिए।

जब हम सुंदर फूलों को देख रहे हों तो हमें धरती, मिट्टी और वायु पर ही ध्यान नहीं रखना है, इस संभावना को भी टटोलें कि कोई न कोई इनके पीछे जरूर होगा। जमीन पर यदि पैरों के निशान नजर आएं तो जरूरी नहीं है कि वहां से कोई महापुरुष निकला हो, हो सकता है कि चोर भागे हों। इसलिए दृष्टि में संतुलन जरूरी है।

जो कुछ होता है, वह दिखता नहीं है और जो कुछ दिख रहा होता है, जरूरी नहीं वह होता हो। इसलिए फकीरों ने कहा है - न अच्छा है, न बुरा है। आप कैसे हो, इस पर मुद्दा टिका है। जैसे हमारे भीतर जीवन ऊर्जा की शक्ति जन्म से ही है। अब हम उस शक्ति से सक्रियता पैदा कर लें और बिना सोचे-समझे दुनिया में कूद जाएं तो यह सक्रियता भी दोष बन जाएगी।

शक्ति के पीछे संतुलन चाहिए। संतुलन आते ही एक ऐसी दृष्टि आएगी, जो जीवन के पीछे की मृत्यु देख लेगी। बचपन में जवानी की जिम्मेदारियां दिखने लगेंगी, जवानी में बुढ़ापे की मजबूरियां समझ आने लगेंगी और बुढ़ापे में समापन के अर्थ समर्पण से जोड़ने की समझ आ जाएगी। इसलिए अपनी शक्ति को इस बात से जोड़ें कि कुछ ऐसा है, जो दिखता नहीं। उन्हें एक अलग अंदाज में देखना पड़ता है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

No comments: