जीवन दर्शन..
एक कथावाचक पंडितजी थे। वे बड़ी ही भावपूर्ण कथा कहा करते थे। श्रोतागण रस लेकर उनकी कथा सुनते और उनके सदुपदेशों से अपना जीवन धन्य बनाते। पंडितजी की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। उनकी कथा में प्रतिदिन एक बहरा व्यक्ति भी आता था।
वह नियम से रोज आता और पूरी कथा के दौरान उतनी ही तन्मयता से बैठा रहता, जैसे दूसरे लोग बैठते थे। एक दिन पंडितजी को पता लगा कि वह बहरा है और कथा का एक शब्द भी नहीं सुन पाता। उन्हें आश्चर्य हुआ कि फिर वह कथा में क्यों आता है।
उन्होंने अगले दिन उस बहरे व्यक्ति के कान के नजदीक अपना मुंह ले जाकर जोर से पुकारकर पूछा - आपको तो कथा सुनाई नहीं पड़ती, फिर आप नित्य यहां क्यों आते हैं? वह बोला - यहां भगवान की कथा होती है। मैं उसे सुन पाऊं या नहीं, अन्यत्र बैठने से यहां पवित्र वातावरण में बैठने का लाभ तो मुझे होता ही है, किंतु उससे भी मुख्य बात तो यह है कि मेरा भी अनुकरण करने वाले कुछ लोग हैं।
मेरे बच्चे और सेवक। मेरे घर के अन्य सदस्य मेरे आचरण से ही प्रेरणा प्राप्त करते हैं। मैं कथा में नियमपूर्वक इसी वजह से आता हूं कि इससे उनके चित में भागवत कथा के प्रति रुचि, श्रद्धा, महत्वबुद्धि तथा जिज्ञासा हो। साथ ही कथा के शब्दों से मेरे अंगों का स्पर्श होने के कारण मुझे भी पुण्य प्राप्त होता है।
वस्तुत: सत्संग किसी भी स्वरूप, समय या अवस्था में किया जाए, लाभकारी ही होता है। अत: जहां भी और जैसे भी रहें, सत्संग अवश्य करें।
विश्वास से शिष्य बच गया और संदेह से गुरु डूब गए
एक गुरु और शिष्य थे। गुरु परम ज्ञानी थे और शिष्य परम आज्ञाकारी। सभी स्तरों पर शिष्य अपने गुरु से ज्ञान ग्रहण कर रहा था। गुरु जैसा कहते, शिष्य वैसा ही करता। एक दिन शिष्य को गुरु ने बुलाया और अपने किसी काम से पास के गांव जाने को कहा। शिष्य ने तत्काल जाने की तैयारी कर ली। जब वह आश्रम से निकला तो मौसम बिल्कुल साफ था, किंतु नदी किनारे पहुंचते ही जोरों की बारिश शुरू हो गई। शिष्य को नदी पार कर गांव पहुंचना था, लेकिन वह डूबने के भय से नाव में नहीं बैठा और वापस लौटकर अपने गुरु को पूरी बात कह सुनाई।
तब गुरु ने अपने शिष्य को हौसला बंधाते हुए कहा - तुम ईश्वर में विश्वास रखो। वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे और तुम्हें संकटों से बचाएंगे। शिष्य ने सदा की भांति गुरु की बात गांठ बांध ली। ईश्वर का नाम लेते हुए वह नदी पार कर गांव पहुंच गया। संयोग से अगले दिन गुरु को भी उसी गांव आना था। जब वे आश्रम से निकलकर नदी किनारे पहुंचे और नाव में बैठकर नदी पार करने लगे तो गहरे पानी को देखकर उनके मन में विचार आया कि कहीं ऐसा न हो कि मैं डूब जाऊं और ईश्वर मुझे न बचाए।
नतीजा यह हुआ कि बीच घाट में पहुंचकर वास्तव में नाव में छेद हो गया और उसमें पानी भर गया। गुरु पानी में डूबकर मृत्यु को प्राप्त हुए। सार यह है कि संदेह डुबाता है और विश्वास बचाता है। यदि हम शंका करते हैं तो परिणाम भी विपरीत होते हैं और विश्वास सदैव सकारात्मक फल देता है।
मौत की सजा सुन सेवक ने दूसरी मूर्तियां भी तोड़ दीं
एक राजा कलाकारों का अत्यधिक सम्मान करता था। उसके दरबार में दूर-दूर से चित्रकार, मूर्तिकार, लेखक और कवि आदि आते और अपनी रचनाओं पर भरपूर प्रशंसा व पुरस्कार पाते थे। एक दिन किसी दूरस्थ स्थान से एक ख्यात मूर्तिकार राजा के पास आया। उसने राजा को तीन मूर्तियां भेंट कीं और बोला - राजन, जब तक ये तीनों मूर्तियां आपके दरबार में रहेंगी, तब तक आपके राज्य में सुख-समृद्धि बनी रहेगी।
राजा ने प्रसन्न होकर मूर्तिकार को इनाम में सोने के सिक्कों से भरा एक थैला दिया। राजा ने अपने सेवकों को उन मूर्तियों का ध्यान से रख-रखाव करने का आदेश दिया, जिसका यथाविधि पालन होने लगा। एक दिन दुर्घटनावश एक सेवक के हाथ से सफाई करते वक्त एक मूर्ति गिरकर टूट गई। जब राजा को यह बात पता चली तो वह अत्यधिक नाराज हुआ और उसने सेवक को मौत की सजा सुनाई। राजा का आदेश सुनते ही उस सेवक ने बाकी दो मूर्तियां भी नीचे पटककर तोड़ डालीं।
जब राजा ने इसका कारण पूछा तो वह बोला - किसी न किसी के हाथ से तो ये मूर्तियां टूटनी ही थीं। ऐसा करके मैंने दो अन्य व्यक्तियों को मौत के मुंह में जाने से बचा लिया है। सेवक की बात सुनकर राजा को अपनी भूल का अहसास हुआ और उसने उसे क्षमा कर दिया। सार यह है कि दूसरों का हित चिंतन करने वाले का भगवान भी भला करते हैं। अत: सदैव स्वयं से पहले दूसरों का ध्यान रखें।
साधु ने कायम की उपकार की अनोखी मिसाल
एक गांव में एक धनी व्यापारी रहता था। अपने नौकरों के प्रति वह बड़ी सहृदयता से पेश आता था और उनकी जरूरतों का भी ख्याल रखता था। एक दिन जब वह घर लौटा तो देखा कि घर में आग लगी हुई है। वह घबराकर दौड़ा, यह देखने कि परिवार के सभी सदस्य कहां हैं? लेकिन उसे यह देखकर राहत महसूस हुई कि उसका पूरा परिवार घर से बाहर और सुरक्षित है। तभी व्यापारी का ध्यान नौकर रामू पर गया। वह दिखाई नहीं दे रहा था।
परिजनों ने बताया कि वह अंदर ही रह गया है। यह जानकर उस व्यापारी को बड़ा दुख हुआ और उसने उसी समय घोषणा की कि जो भी व्यक्ति नौकर को जलते घर से बाहर ले आएगा, वह उसे इनाम में एक हजार सोने के सिक्के देगा। किंतु इतनी भयावह आग में किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि अपनी जान जोखिम में डालकर उसके प्राण बचाए। तभी वहां एक साधु आया।
सारी बात पता लगते ही वह दौड़कर जलते हुए घर में घुसा और उस नौकर को अपने कंधे पर उठाकर सुरक्षित बाहर ले आया। लोगों ने देखा कि साधु के शरीर पर एक खरोंच तक नहीं आई थी। जब व्यापारी ने साधु को सोने के एक हजार सिक्के देना चाहे तो उसने मना करते हुए कहा - मुसीबत में फंसे लोगों की सहायता करना हमारा कर्तव्य है। इसके लिए इनाम लेने का कोई औचित्य नहीं। साधु के ये विचार सुनकर लोग समझ गए कि उसके आग से सुरक्षित निकल आने का क्या कारण था। वस्तुत: उपकार तब सहस्र पुण्यों का सृजन कर देता है, जब वह दूसरों पर किया गया हो।
गुरु ने बताया कि कर्मो से ही मिलता है स्वर्ग या नर्क
एक बार एक शिष्य को समझ नहीं आ रहा था कि स्वर्ग-नर्क मृत्यु के बाद प्राप्त होते हैं या जीते-जी मिलते हैं। इस प्रश्न के जवाब के लिए वह अपने गुरु के पास गया।
गुरुदेव समझाने की बजाय उसे साथ लेकर पहले एक शिकारी के पास पहुंचे। शिकारी कुछ पक्षियों को पकड़कर लाया और उन्हें काटने लगा। शिष्य शिकारी के इस कृत्य को देखकर घबरा गया। उसने गुरुदेव से कहा- गुरुजी, यहां से चलिए यहां तो नर्क है।
गुरुदेव ने कहा- इस शिकारी ने न जाने कितने जीवों को मारा होगा। इसके लिए तो यहां भी नर्क है और मृत्यु के बाद भी। फिर गुरुदेव शिष्य को एक वेश्या के यहां ले जाने लगे। यह देख शिष्य बोला- गुरुजी, आप मुझे ये कहां लेकर जा रहे हैं?
गुरुदेव बोले- यहां के वैभव को देखो। मनुष्य किस तरह अपना शरीर, शील व चरित्र बेचकर सुखी हो रहा है। पर शरीर का सौंदर्य नष्ट होते ही यहां कोई नहीं आता। इनके लिए संसार स्वर्ग की तरह है, पर अंत नर्क के समान। इसके पश्चात गुरु-शिष्य एक गृहस्थ के यहां गए।
गृहस्थ परिश्रमी, नेक व ईमानदार था। गुरुदेव ने कहा- यही वह व्यक्ति है, जिसके लिए जीवित रहते हुए इस पृथ्वी पर भी स्वर्ग है और मृत्यु के उपरांत भी स्वर्ग ही प्राप्त होगा। शिष्य को अच्छी तरह समझ आ गया कि स्वर्ग और नर्क अपने कर्मो का फल है और वह संसार में रहते हुए ही हमें भुगतना पड़ता है।
वस्तुत: कर्मो के आधार पर ही मनुष्य को स्वर्ग और नर्क की प्राप्ति होती है और मृत्यु के बाद ही नहीं, जीवित रहते हुए ही।
सौ प्याज, सौ कोड़े खाने या सौ रुपए जुर्माने की सजा
एक चोर था। वह छोटी-मोटी चोरियां कर अपना जीवन-यापन करता था। बोलने में एकदम मुंहफट था। बिना सोचे-समझे जो मुंह में आए, बोल देता था। उसके माता-पिता उसे इन बुरी आदतों को छोड़ने के लिए बहुत समझाते, किंतु वह बाज नहीं आता था।
एक दिन वह मां के कहने पर सब्जी खरीदने सब्जी मंडी गया। कुछ सब्जियां तो उसने पैसे देकर खरीद लीं, किंतु फिर उसके मन में लोभ आया कि पैसे वह रख ले और सब्जियां बिना पैसे दिए चुराकर ले जाए।
वह प्याज की दुकान पर गया और प्याजवाले की नजर बचाकर प्याज चुरा लिए, किंतु वहीं खड़े प्याज वाले के बेटे ने देख लिया। वह पकड़ा गया।
जब उसे न्यायाधीश के सामने ले जाया गया तो न्यायाधीश ने उसके सामने सजा के तीन विकल्प रखे- या तो सौ प्याज एक बार में खा ले या सौ कोड़े खाए या सौ रुपए जुर्माना भरे। उसने बिना सोचे-समझे प्याज खाने की सजा मान ली।
कुछ प्याज खाने के बाद उसकी आंखों व मुंह में जलन होने लगी और बेतहाशा आंसू बहने लगे। तब वह चिल्ला-चिल्लाकर कोड़े लगाने के लिए कहने लगा, लेकिन कुछ ही कोड़े खाने के बाद उसकी हिम्मत जवाब दे गई और वह जुर्माना भरने के लिए तैयार हो गया।
अब वह समझ गया था कि चोरी करने और बिना सोचे-समझे कोई बात कहने का नतीजा क्या होता है। उसी दिन से उसने सही राह पर चलने का प्रण ले लिया। कथा सार यह है कि बुरे कार्यो से दूर रहना चाहिए और सदैव भली-भांति विचारकर व तोलकर शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
आखिरकार भिखारी ही सच्चा साधु साबित हुआ
एक साधु छह वर्ष तक कठिन तप करते हुए एकांत गुफा में रहा और फिर प्रभु से प्रार्थना की: प्रभु, मुझे अपने आदर्श के समान ही ऐसा कोई उत्तम महापुरुष बताइए जिसका अनुकरण कर मैं अपने साधना पथ में आगे बढ़ सकूं।
उसी रात्रि को एक देवदूत ने आकर साधु से कहा- यदि तेरी इच्छा सद्गुणी और पवित्रता में सभी का मुकुटमणि बनने की हो तो उस मस्त भिखारी का अनुकरण कर, जो कविता गाते हुए भीख मांगता फिरता है।
देवदूत की बात सुनकर साधु भिखारी की खोज में चल पड़ा। जब वह मिला तो साधु ने उसके द्वारा किए सत्कर्म पूछे। भिखारी बोला- मुझसे मजाक मत कीजिए। मैंने न तो कोई सत्कर्म किया, न तपस्या की और न प्रार्थना।
मैं तो कविता गाकर लोगों का मनोरंजन करता हूं और जो रूखी-सूखी मिलती है, खा लेता हूं। तब साधु ने पूछा- तू भिखारी कैसे बना, तूने फिजूलखर्ची में पैसे उड़ा दिए या र्दुव्यसन में?
भिखारी ने कहा- नहीं, मुझे जब पता चला कि एक गरीब स्त्री के पति और पुत्र कर्ज के बदले गुलाम बनाकर बेच दिए गए तो मैंने अपनी सारी संपत्ति साहूकार को देकर उसके पति व पुत्र को छुड़वा लिया।
मेरी सारी संपत्ति चली जाने से मैं भिखारी हो गया। आजीविका का कोई साधन न रहने से मैं कविता गाकर अपना पेट पालता हूं और प्रसन्न रहता हूं।
भिखारी की कथा सुनकर साधु उससे बहुत प्रभावित हुआ और बोला- तू सचमुच आदर्श साधु है। वस्तुत: दूसरों के सुख व बेहतरी के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देने वाला ही श्रेष्ठ मानव है।
जब मदद न करने पर दंड मिला पालकी वालों को
एक जातक कथा है, जो सहायता के महत्व पर केंद्रित है। मोहन एक दयालु व्यक्ति था। खासतौर पर जानवरों के लिए तो उसके मन में बहुत दया थी। हालांकि आज के समय में जानवरों की सहायता व देख-रेख आमतौर पर कोई नहीं करता। मोहन ने एक गाय पाल रखी थी, जिसका नाम धेनु था। उसे वह बहुत चाहता था। वह और उसकी पत्नी धेनु और उसके बछड़े की बड़े प्यार से देखभाल करते थे। एक दिन शाम होने पर रोज की तरह धेनु और उसका बछड़ा चरकर घर वापस नहीं लौटे। मोहन और उसकी पत्नी परेशान हो गए। मोहन ने अपने दो नौकरों को गाय और बछड़े को ढूंढ़कर लाने को कहा। वे नौकर वास्तव में पालकी ढोने वाले थे।
उन्होंने मोहन की बात मानने से इंकार करते हुए कहा - हम पालकी वाले हैं, गड़रिए नहीं। इसलिए हम गाय ढूंढ़ने नहीं जाएंगे। मोहन को उनकी बात सुनकर बहुत गुस्सा आया और उसने उन्हें सबक सिखाने का फैसला किया। वह तत्काल बाहर जाकर अपनी पालकी में बैठ गया। फिर उसने उन दोनों को तब तक पालकी ढोते रहने को कहा, जब तक कि गाय और बछड़ा मिल न जाएं। इस तरह पालकी वालों को सहायता न करने का दंड मिल गया। सार यह है कि दूसरों की मदद करने से कतराने वालों को अवसर आने पर दोहरा कार्य करना पड़ता है और तब उनकी सहायता के लिए कोई आगे नहीं आता। इसलिए सदैव दूसरों की मदद के लिए तत्पर रहना चाहिए।
वृद्धा से राजा ने जाना हक की रोटी क्या होती है
एक राजा अत्यंत जिज्ञासु थे। वे प्राय: अपने दरबार में आने वाले विद्वानों, संत-महात्माओं आदि से विविध प्रकार के प्रश्न पूछते और संतोषजनक उत्तर मिलने पर हृदय से उनका आभार मानते थे। एक दिन दरबार में एक विद्वान का आगमन हुआ। राजा ने उनसे जीवन दर्शन पर चर्चा की। विद्वान महोदय ने बड़े ही तार्किक ढंग से राजा की जिज्ञासाओं का समाधान किया।
प्रसंगवश राजा ने पूछा - मैं जानना चाहता हूं कि हक की रोटी कैसी होती है? विद्वान ने राजा से कहा कि आपके नगर में एक वृद्धा रहती है। उसके पास जाकर पूछो और उससे हक की रोटी मांगो। राजा उस वृद्धा के पास पहुंचे और बोले - माता, मुझे हक की रोटी चाहिए। वृद्धा ने कहा - राजन, मेरे पास एक रोटी है, पर उसमें आधी हक की है और आधी बेहक की। राजा ने पूछा - आधी बेहक की कैसे? वृद्धा बोली - एक दिन मैं चरखा कात रही थी। शाम का समय था। अंधेरा हो चला था। इतने में इधर से एक जुलूस निकला। उसमें मशालें जल रही थीं।
मैं उन मशालों की रोशनी में चरखा कातती रही और मैंने आधी पूनी कात ली। आधी पूनी पहले की थी। उस पूनी को बेचकर, आटा लाकर रोटी बनाई। इसलिए आधी रोटी तो हक की है और आधी बेहक की। इस आधी पर उन जुलूसवालों का हक है। यह सुनकर राजा ने वृद्धा को श्रद्धापूर्वक नमन किया। हमें मिलने वाले अन्न, वस्त्र, मकान आदि सभी की पूर्ति भले हमारे धन से होती है, किंतु उनके निर्माण में अन्यों का श्रम लगा होता है, जिसका उपकार हमें मानना चाहिए।
क्रोध में राजा ने अपने ही हितैषी को खो दिया
एक राजा को पक्षी पालने का शौक था। अपने पाले पक्षियों में एक बाज उन्हें इतना प्रिय था कि उसे वे अपने हाथ पर बैठाए रहते और कहीं जाते तो साथ ही ले जाते थे। एक बार राजा वन में आखेट करने गए। उनका घोड़ा दूसरे साथियों से आगे निकल गया। राजा वन में भटक गए। उन्हें बहुत प्यास लगी थी। घूमते हुए उन्होंने देखा कि एक चट्टान की संधि से बूंद-बूंद करके पानी टपक रहा है।
राजा ने वहां एक प्याला जेब से निकाल कर रख दिया। कुछ देर में प्याला भर गया। राजा ने प्यास की व्यग्रता में प्याला उठाकर पीना चाहा, किंतु उसी समय उनके कंधे पर बैठा बाज उड़ा और उसने पंख मारकर प्याला लुढ़का दिया। राजा को बहुत क्रोध आया, किंतु उन्होंने प्याला फिर भरने के लिए रख दिया। बड़ी देर में प्याला फिर भरा। जब वे पीने को उद्यत हुए तो बाज ने फिर पंख मारकर उसे गिरा दिया। क्रोधित राजा ने बाज की गर्दन मरोड़कर उसे मार डाला।
जब बाज को नीचे फेंककर उन्होंने सिर उठाया तो उनकी दृष्टि चट्टान की संधि पर पड़ी। वहां एक मरा सर्प दबा था और उसके शरीर में से वह जल टपक रहा था। राजा समझ गए कि जल पीकर मैं मर न जाऊं, इसलिए बाज ने बार-बार जल गिराया। उन्हें बहुत दुख हुआ, किंतु अब अपने क्रोध पर पश्चाताप के सिवाय उनके पास कुछ नहीं बचा था। सार यह है कि क्रोध एक ऐसा दुर्गुण है, जो मनुष्य का विवेक हर लेता है और विवेकहीन मनुष्य अपने हितैषी का भी शत्रु हो जाता है। अत: क्रोध पर नियंत्रण रखना जरूरी है।
अपनी बुद्धिमत्ता से पाया रूपल ने राजा से पुरस्कार
रामगढ़ के राजा ने रूपल नामक व्यक्ति की बुद्धिमानी की चर्चा सुनकर उसे अपना मंत्री नियुक्त किया। रूपल निष्ठा व चतुराई से अपना कार्य करने लगा। एक दिन राजा के मन में विचार आया कि रूपल की बुद्धिमत्ता की परीक्षा लेनी चाहिए।
उन्होंने रूपल को राजभवन में बुलाया और उसके सामने भ्रमण का प्रस्ताव रखा। रूपल राजा की आज्ञा कैसे न मानता। दोनों रथ पर सवार हो घूमने निकल पड़े। घूमते-घूमते राजा को एक बगीचा दिखाई दिया। उन्होंने रथ रुकवाया। दोनों बगीचे में टहलने लगे।
तभी एक आदमी की ओर संकेत कर राजा ने रूपल से पूछा- क्या तुम बता सकते हो कि इस व्यक्ति का नाम और व्यवसाय क्या है? रूपल ने एक क्षण विचार कर कहा- महाराज, उस व्यक्ति का नाम रूपल है और वह बढ़ई का काम करता है। पता किया तो वास्तव में उस आदमी का नाम और व्यवसाय वही था।
राजा ने रूपल से इतनी जल्दी सही उत्तर देने का कारण पूछा तो वह बोला- महाराज, जब आपने मुझे मेरा नाम लेकर बुलाया तो वह चौंक पड़ा। मैं समझ गया कि मेरा नाम ही उसका भी नाम है। बगीचे के सुंदर फूलों पर उसकी दृष्टि न होकर पेड़ के तनों पर थी।
हर व्यक्ति का ध्यान अपने व्यवसाय से संबंधित चीजों पर होता है। इस तरह मुझे उसका व्यवसाय भी समझ आ गया। राजा ने रूपल की बुद्धिमानी से प्रसन्न हो उसे पुरस्कृत किया। सार यह है कि बुद्धिमानी से काम लिया जाए तो अपने कार्यक्षेत्र में सफलता और समाज में लोकप्रियता मिलते देर नहीं लगती।
जब बड़ी चतुराई से कौए ने शेर की सहायता की
एक दिन शिकार की तलाश में घूमते हुए आधा दिन बीत गया, किंतु शेर को कोई जानवर नहीं मिला। उसे प्यास भी लग रही थी। वह नदी के तट पर पहुंचा। वहां उसे एक हिरण पानी पीते हुए दिखाई दिया। बस फिर क्या था, शेर ने हिरण को दबोच लिया और उसे खाने लगा। भूख के मारे शेर के प्राण निकल रहे थे। इसलिए वह जल्दी-जल्दी हिरण को खाने लगा। इस शीघ्रता के कारण उसके गले में एक हड्डी फंस गई। उसने उसे निकालने की बहुत कोशिश की, किंतु कामयाब न हो सका। कई दिनों तक यही हाल रहा। शेर बहुत कमजोर हो गया। एक दिन एक कौए ने उससे उसकी गिरती दशा का कारण पूछा तो शेर बोला - मेरे गले में एक हड्डी फंसी हुई है, जो उसे निकाल देगा, मैं उसे इनाम दूंगा।
कौए ने सभी जानवरों को यह बात बताई, किंतु इनाम के लोभ में अपनी जान गंवाना किसी ने भी उचित नहीं समझा। आखिर शेर ने कौए से यह कार्य करने का आग्रह किया। कौए को शेर पर तनिक भी विश्वास नहीं था, किंतु उसके कष्ट को देखते हुए कौए ने उसकी सहायता करने की ठानी। पहले उसने दो लकड़ियां तोड़कर शेर के दांतों में फंसा दीं ताकि वो उसे खा न जाए। फिर हड्डी निकालकर दोनों लकड़ियां भी हटा दीं और उड़कर पेड़ पर बैठ गया। शेर ने उसे धन्यवाद दिया और चला गया। इस प्रकार कौए ने एक नेक काम भी किया और अपनी चतुराई से बच भी गया। सार यह है कि जब ताकतवर शत्रु की सहायता की जाए, तो स्वयं की रक्षा के उपाय अत्यंत विचारपूर्ण ढंग से करने चाहिए।
राजा ने खजांची से प्रभावित हो उसे पदोन्नत कर दिया
एक राजा ने किसी व्यक्तिकी ईमानदारी के विषय में सुन रखा था। राजा ने उसे अपना खजांची नियुक्त कर दिया। खजांची निष्ठा व ईमानदारी से अपना कार्य करने लगा। राजा की उसके प्रति प्रसन्नता व विश्वास देख कुछ दरबारी खजांची से ईष्र्या रखने लगे। उन्होंने खजांची के विरुद्ध एक षड्यंत्र रचा।
एक दिन जब खजांची अपने घर गया हुआ था तब उन दरबारियों ने राजा से उसकी शिकायत की कि वह शाही खजाने से धन चुराकर उसे अपने घर के गोदाम में छिपा देता है। राजा उसी समय इस शिकायत की जांच करने के लिए खजांची के घर गया।
खजांची राजा को अपने घर देखकर थोड़ा हैरान हुआ किंतु जब उसने कारण जाना तो वह तत्काल राजा को अपने गोदाम में ले गया। वहां एक बांसुरी के अलावा कुछ भी नहीं था। गोदाम में एक छोटी खिड़की थी जिससे सामने का चरागाह दिखाई देता था।
खजांची ने राजा से कहा- महाराज बचपन में मैं एक गड़रिया था और उस चरागाह में मवेशियों को चराता था। धीरे-धीरे मैंने प्रगति की। आपने मुझ पर भरोसा कर मुझे खजांची का पद सौंपा, लेकिन मैं अपना निर्धन बचपन नहीं भूला।
इसलिए खाली समय में यहां आकर बांसुरी बजाकर अपना बचपन याद करता हूं। राजा ने खजांची की सोच से प्रभावित हो तत्काल उसे पदोन्नत कर मंत्री बना दिया।
सार यह है कि जो अपने संपन्न वर्तमान में भी विपन्न अतीत को याद रख उसकी सहजता और सादगी में जीता है, वह आत्मिक रूप से सुखी व लोक की दृष्टि से यश का भागी बनता है।
जब धोखेबाज खरगोश को अपने किए की सजा मिली
किसी जंगल में एक भालू शहद का बेहद शौकीन था। वह प्रतिदिन मधुमक्खियों से शहद मांगकर खाता था। एक बार भालू शहद लेकर जा रहा था, तभी एक खरगोश की नजर उसकी शहद की थली पर पड़ी। उसने भालू को चकमा देकर शहद खाने की सोची। वह जमीन पर लेट गया और कराहने लगा। भालू को उस पर दया आ गई। उसने खरगोश की मदद करनी चाही। तब खरगोश ने कहा - ऐसा लगता है कि मेरे दिन पूरे हो गए हैं। आप मुझे अपनी पीठ पर बैठाकर मेरे घर तक छोड़ दीजिए। भालू मान गया।
खरगोश उसकी पीठ पर सवार होकर भालू की पीठ पर लदी शहद की थैली में से शहद खाने लगा। भालू को पता लगा तो उसने गुस्से में खरगोश की पूंछ पकड़ ली। खरगोश ने पूंछ छुड़ाने की कोशिश की तो उसकी पूंछ कट गई। वह भाग गया, किंतु उसे पता था कि भालू बदला जरूर लेगा। उसने तुरंत खरगोशों से कहा - इस जंगल में ऐसी बीमारी फैली है, जो पूंछ से धीरे-धीरे सारे शरीर में फैल जाती है। इसलिए जंगल के राजा ने खरगोशों से अपनी पूंछें कटवाने को कहा है। मैंने तो तत्काल पूंछ कटवा भी ली है।
अन्य खरगोशों ने भी पूंछें कटवा लीं। जब शेर ने धोखेबाज खरगोश की पहचान के लिए खरगोशों को बुलाया तो सभी की पूंछें कटी होने के कारण पहचान नहीं पाया, किंतु भालू की परिचित मधुमक्खियों ने सभी खरगोशों के मुंह सूंघकर उस खरगोश को ढूंढ़ निकाला और उसे डंक चुभा-चुभाकर मार दिया। वस्तुत: छल-कपट से पाया गया लाभ अंतत: बड़ी हानि देता है।
पिता ने पुत्र को छोटी वस्तु का बड़ा महत्व समझाया
एक पिता-पुत्र थे। पिता हमेशा अपने पुत्र को व्यावहारिक ज्ञान देते रहते थे। किंतु पुत्र को उनकी कई बातों में असहमति होती थी। जब वह किसी बात को मानने से इंकार करता तो पिता उसे समझाते कि तुम्हारा अनुभव इसे मानने के लिए कहेगा क्योंकि अनुभव से ही हम कई चीजें सीखते हैं।
एक दिन दोनों कहीं जा रहे थे। चलते-चलते अचानक पिता ने कहा- बेटा, देखो वहां मिट्टी में घोड़े की नाल पड़ी हुई है। उसे उठाकर अपनी जेब में रख लो। पुत्र ने मुंह बिचकाकर कहा - ओह पिताजी। मुझे मिट्टी में पड़ी चीजें उठाने से बड़ी चिढ़ है। फिर यह साधारण-सी नाल हमारे किस काम आएगी।
पिता ने कुछ न कहकर नाल खुद उठाकर अपनी जेब में रख ली और आगे चल दिए। अगले गांव में पहुंचकर पुत्र को जोरों की भूख लगी। उसने पिता से कुछ नहीं कहा, किंतु पिता समझ गए। उन्होंने उस नाल को बेचकर कुछ अमरूद खरीद लिए।
अमरूद देखकर पुत्र का मन उसे खाने को ललचाने लगा। तभी पिता ने एक अमरूद मिट्टी में जानबूझकर गिरा दिया। पुत्र ने दौड़कर उसे उठाया और धोकर खाने लगा। तब पिता बोले - बेटे, कई बार छोटी चीज भी बहुत कीमत रखती है।
ये अमरूद हमें उसी नाल के कारण मिल सके हैं, जिसे तुमने मिट्टी में से उठाने से इंकार कर दिया था। पुत्र ने अपनी भूल मानकर पिता से क्षमा मांगी। सार यह है कि हर छोटी-बड़ी वस्तु महत्वपूर्ण व उपयोगी होती है। अत: किसी भी वस्तु को उसके आकार, प्रकार या कम कीमत के आधार पर अनुपयोगी नहीं समझना चाहिए।
जब अकाल में भोजन की व्यवस्था की कछुए ने
एक बार भीषण अकाल पड़ा। इंसान ही नहीं, पशु-पक्षी भी भूख-प्यास से तड़पने लगे। जंगल में एक वृक्ष था, जिससे जो मांगो मिल जाता था। लेकिन उस वृक्ष को उसके असली नाम से पुकारने पर ही कुछ मिल सकता था।
जंगल के किसी भी जानवर को उस वृक्ष का असली नाम मालूम नहीं था। एक जानवर ने पर्वतराज को नाम पता होने की जानकारी दी। तय हुआ कि खरगोश पर्वत की चोटी पर जाएगा और पर्वतराज से वृक्ष का नाम पूछकर आएगा।
खरगोश चोटी पर पहुंचा और पर्वतराज से वृक्ष का नाम बताने की प्रार्थना की। पर्वतराज ने कहा ‘उवुंगलमा’। खरगोश खुशी से दौड़ पड़ा। उसे ठोकर लगी और वह गिर पड़ा। किसी तरह वह मित्रों के पास पहुंचा, किंतु उसे आधा ही नाम याद रहा ‘उवुंग’।
तब भैंसा पर्वतराज से नाम पूछने गया, किंतु वह भी खुशी से दौड़ने में गिरा और नाम भूल गया। शेर ने भी वही गलती दोहराई। तब कछुए ने जाने का प्रस्ताव रखा, किंतु उसकी धीमी चाल का सभी ने उपहास किया।
आखिर शेर की अनुमति पाकर वह गया और पर्वतराज से नाम जानकर उसे दोहराता हुआ चला। कुछ दूर जाने पर वह भी फिसला, लेकिन वह वृक्ष का नाम मन में दोहराता रहा। नीचे आकर वह उस वृक्ष के सामने आया और हाथ जोड़कर ‘उवुंगलमा’ कहा।
तत्काल वृक्ष से फलों की वर्षा होने लगी। सभी ने पेट भरकर फल खाए और कछुए के प्रति आभार प्रकट किया। वस्तुत: कार्य की प्रकृति जटिल होने के बावजूद यदि उसे धर्य और गंभीरतापूर्वक किया जाए तो सफलता अवश्य ही मिलती है।
बंदी को छोड़कर एक मां का आदर किया नेपोलियन ने
नेपोलियन के आदेशानुसार फ्रांसीसी सेना ने सभी ब्रिटिश जहाजों को पकड़ रखा था। उन्हीं जहाजों के बंदी नाविकों में एक नाविक लेनार्ड था, जो सत्रह वर्ष का था। दूसरे दिन इंग्लैंड से आया एक और लड़का पकड़ा गया। जब उसे लेनार्ड वाली जेल में बंद किया गया, तब उसने लेनार्ड को एक पत्र दिया, जिसमें लिखा था - ‘मां बहुत बीमार है। उसकी आखिरी तमन्ना तुम्हें देखने की है।’ लेनार्ड तड़प उठा।
उसी रात वह जेल के सींखचे तोड़कर भाग निकला, किंतु थोड़ी दूर जाने पर ही पकड़ा गया। इस बार उसके पैरों में बेड़ियां डाल दी गईं, किंतु इस बार उसने जोर लगाकर बेड़ियां भी काट डालीं। वह फिर भागा और फिर पकड़ा गया। लेनार्ड तीसरी बार हिम्मत करके फिर भागा, किंतु दुर्भाग्यवश पकड़ा गया। अगले ही दिन नेपोलियन जेल के दौरे पर आया। जेल अधिकारी ने नेपोलियन से लेनार्ड के बार-बार भागने की बात कही। नेपोलियन को उत्सुकता हुई। उसने लेनार्ड को बुलाकर पूछा - लड़के, ऐसी कौन-सी वजह है, जो तुझे बार-बार भागने की हिम्मत बंधाती है?
लेनार्ड आंखों में आंसू भरकर बोला - ‘श्रीमान, मेरी मां मर रही है, मरने से पहले वह मुझे देखना चाहती है।’ नेपोलियन ने जेब से सोने का एक सिक्का निकालकर लेनार्ड को दिया और जेल अधिकारी से बोला - इसे जाने दो। इसे मां की ममता खींच रही है। मेरे जैसे सौ नेपोलियन भी इसे नहीं रोक पाएंगे। सार यह है कि मां का स्थान ईश्वर के समकक्ष है। उसे मान देना, ईश्वर का सम्मान करना है।
लालच में आकर शिकारी को अपनी जान गंवानी पड़ी
एक शिकारी रोज जंगल जाकर पशु-पक्षियों का शिकार करता था। एक दिन उसे बहुत भटकने के बाद भी शिकार नहीं मिला। थककर वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया। पेड़ पर उसे एक चिड़िया बैठी दिखाई दी।
उसने खुश होकर चिड़िया पर निशाना साधा तो चिड़िया बोली- भाई, मुझे मत मारो। यदि तुम मुझे छोड़ दो तो मैं तुम्हें एक लाल दूंगी। उसे बेचकर तुम मालामाल हो जाओगे। शिकारी मान गया। चिड़िया ने अपने घोंसले में से एक लाल लाकर दे दिया।
उसने सोचा कि यदि चिड़िया एक लाल दे सकती है तो दूसरा भी उसके पास होगा। यदि वह मुझे मिल जाए तो फिर ऐश से जिंदगी बिताऊंगा। उसने चिड़िया पर फिर निशाना साधा। चिड़िया ने डरकर एक लाल उसे और दे दिया।
किंतु अब चिड़िया समझ गई कि शिकारी पर लोभ सवार हो गया है और उसके पास अब लाल भी नहीं हैं। वह अपने मित्र मगर के पास गई और अपनी समस्या उसे बताई। मगर बोला - अगली बार जब शिकारी आए तो उससे कहना कि मेरे पास बहुत से कीमती लाल हैं, जिन्हें मैंने नदी में छिपाकर रखा है। तुम उन्हें नदी में से निकाल लो।
जब वह नदी में घुसे तो तुम चीं-चीं करना। बस, आगे मैं देख लूंगा। जब लोभी शिकारी चिड़िया से लाल मांगने आया तो चिड़िया ने मगर की समझाई हुई बात उससे कही। शिकारी खुश होकर नदी में उतरा। चिड़िया ने चीं-चीं कर मगर को सूचना दी।
मगर ने शिकारी को अपना भोजन बना लिया। वस्तुत: लोभ की अति दुष्परिणाम देती है। इसलिए मन को नियंत्रण में रखना चाहिए।
जब सांप को मिली उपकार न मानने की सजा
एक लड़के को रास्ते में पत्थर के नीचे सांप दबा हुआ दिखाई दिया। लड़के को सांप पर दया आ गई। उसने पत्थर हटाया और सांप से पूछा - तुम पत्थर के नीचे कैसे दब गए? सांप बोला- मैं एक चूहे को पकड़ने के लिए इस पत्थर के नीचे घुसा था, तभी यह मुझ पर आ गिरा।
जब लड़का जाने लगा तो सांप ने कहा- मैं रातभर का भूखा हूं। तुम्हें खाऊंगा। लड़का बोला - मैंने तुम्हारी जान बचाई और तुम मुझे ही खाना चाहते हो। सांप ने कहा - मुझे बहुत तेज भूख लगी है। लड़का बोला - चलो हम किसी समझदार से न्याय करवा लेते हैं।
दोनों को एक भेड़िया आता दिखाई दिया। लड़के ने उसे सारी बात बताकर न्याय करने को कहा। भेड़िये ने सोचा कि सांप लड़के को मारेगा तो मेरा भी पेट भर जाएगा। उसने तुरंत सांप के पक्ष में फैसला किया। लड़के ने फैसला मानने से इंकार कर दिया।
तभी वहां नेवला आया। लड़के ने नेवले से न्याय करने को कहा। सांप का दुश्मन नेवला बोला - इस सांप को वही सजा दो, जो एक दगाबाज को दी जाती है। इस बार सांप ने फैसला मानने से मना कर दिया। फिर वहां एक आदमी आया।
उसने सारी बात सुनकर आश्चर्य से कहा - सांप पत्थर के नीचे कैसे दब सकता है? सांप बोला - मैं बताता हूं और सांप उसी जगह वैसे ही बैठ गया। लड़के ने तुरंत उस पर पत्थर रख दिया। आदमी ने लड़के से कहा - तुम जाओ, इसे यहीं दबकर मरने दो।
सार यह है कि जो किसी का उपकार नहीं मानते, उनका यही हाल होता है। अपकारी जीवों के प्रति उपकार की भावना व्यर्थ होती है।
जब सेठ ने शिक्षा व संस्कार का महत्व जाना
एक बार संत तिरुवल्लुर नगर में आए। वे अपने प्रवचनों से लोगों की समस्याएं हल करते थे। एक दिन प्रवचन के पश्चात नगर के एक धनी सेठ संत के पास आए। अभिवादन के बाद बोले - महाराज, मैं बहुत परेशान हूं।
मैंने पाई-पाई जोड़कर अपने इकलौते पुत्र के लिए अथाह संपत्ति एकत्रित की, किंतु मेरी गाढ़े पसीने की कमाई को वह र्दुव्यसनों में लुटा रहा है। मैं क्या करूं? संत ने पूछा - सेठजी, यह बताइए कि आपके पिताजी ने आपके लिए कितनी संपत्ति छोड़ी थी?
सेठजी बोले- वे तो अत्यंत निर्धन थे, उन्होंने कुछ भी नहीं छोड़ा। संत ने कहा- इसके बावजूद आप इतने धनवान हैं, जबकि इतना धन छोड़ने के बावजूद आप यह समझ ही गए होंगे कि आपका बेटा आपके बाद गरीबी में दिन काटेगा। सेठजी बोले- आप सच कह रहे हैं, किंतु मुझसे गलती कहां हुई?
संत ने कहा - आप यह समझकर धन कमाने में लगे कि अपनी संतान के लिए दौलत का अंबार लगा देना ही एक पिता का कर्तव्य है। इस कारण आपने अपने बेटे की सही पढ़ाई और व्यवस्थित संस्कारों के विकास पर ध्यान नहीं दिया। परिणाम आपके सामने है।
पिता का अपनी संतान के प्रति प्रथम कर्तव्य यह है कि वह उसे पहली पंक्ति में बैठने योग्य बना दे। बाकी तो वह अपनी योग्यता के बल पर हासिल कर लेगा। संत की बात सुन सेठ की आंखें खुल गईं।
वस्तुत: संतान के लिए धन जुटाने से पहले उसे अच्छे संस्कार व ज्ञान देना अधिक जरूरी है क्योंकि शिक्षित व संस्कारित व्यक्ति के लिए सफलता के सभी द्वार खुल जाते हैं।
मूर्खता पर ज्ञान की वरीयता सिद्ध की स्वामी विवेकानंद ने
एक समय की बात है। एक बार स्वामी विवेकानंद काशी गए। वहां के विद्वत समाज में उनके ज्ञान के कारण जल्दी ही चारों ओर उनकी बड़ी ख्याति फैल गई। प्रतिदिन उनसे मिलने दूर-दूर से बड़ी संख्या में ज्ञानीजन और सामान्यजन आने लगे।
अनेक बार ऐसा होता कि स्वामीजी से कुछ लोग बड़े जटिल प्रश्न करते, किंतु स्वामीजी उन प्रश्नों का इतना सटीक और संतुलित उत्तर देते कि सुनने वाले उनकी विद्वत्ता के कायल हो जाते। ऐसे ही एक बार की बात है स्वामी विवेकानंद लोगों से घिरे बैठे थे।
प्रश्न-उत्तर व गंभीर चर्चा का दौर चल रहा था। सहसा एक व्यक्ति के मन में आया कि स्वामीजी से ऐसा बेतुका प्रश्न पूछा जाए कि वे उत्तर न दे पाएं और उसमें उलझकर रह जाएं। उसने खड़े होकर प्रश्न पूछने की अनुमति मांगी। स्वामीजी ने सहमति दे दी।
तब वह बोला- स्वामीजी, यह बताइए कि संत कबीरदास ने दाढ़ी क्यों रखी थी? स्वामीजी उसका मंतव्य समझ गए। वे मुस्कराकर बोले- भाई, अगर वे दाढ़ी नहीं रखते तो आप पूछते कि कबीरदासजी ने दाढ़ी क्यों नहीं रखी?
यह जवाब सुनकर वह व्यक्ति लज्जित होकर चुपचाप वहां से चला गया। सार यह है कि ज्ञानी व्यक्ति से निर्थक प्रश्न पूछकर उसका उपहास करने की कोशिश करने वाला व्यक्ति स्वयं अपनी ही मूर्खता सिद्ध करता है। इसलिए ज्ञानियों का पर्याप्त आदर करते हुए उनसे सदा ज्ञान ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए।
और गांधीजी ने ट्रेन का डिब्बा बदलने से इंकार कर दिया
राष्ट्रहित में महात्मा गांधी समय-समय पर अनेक स्थानों की यात्रा करते रहते थे। उन्हें लोगों को अपने स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ना होता था। सभी वर्गो व धर्मो के लोगों से मिलने के लिए वे यात्राएं करते और लोग उनकी भावना की उच्चता समझकर उनके मिशन से जुड़ते जाते।
एक बार गांधीजी कश्मीर जा रहे थे। बारिश का मौसम था। वे हमेशा की तरह तृतीय श्रेणी के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे। बारिश का वेग इतना अधिक था कि डिब्बा लगभग पूरा गीला हो गया। उसमें बरसात का पानी भर गया। गार्ड को पता था कि उस डिब्बे में गांधीजी यात्रा कर रहे हैं।
अत: वह तत्काल उस डिब्बे में आया और गांधीजी से विनम्रतापूर्वक बोला- बापू, आप डिब्बा बदल लीजिए। मैं आपके लिए किसी दूसरे डिब्बे में अच्छी व्यवस्था कर देता हूं। गांधीजी ने सहज भाव से पूछा- फिर इस डिब्बे का क्या होगा?
गांधीजी का यह सवाल सुनकर गार्ड ने उत्तर दिया- इस डिब्बे में दूसरे यात्रियों को बैठा दिया जाएगा। गांधीजी ने यह सुनते ही कहा- अपने आराम के लिए दूसरे लोगों को यहां कष्ट में बैठाने की बात सोचना भी मेरे लिए कठिन है।
यह कहकर गांधीजी ने डिब्बा बदलने से इंकार कर दिया। सार यह है कि सच्च समाजसेवक अपने भले से पहले समाज का भला देखता है। उसे अपने कष्टों की परवाह नहीं होती। दूसरों का दुख उसे बड़ा और अपना दुख औरों से छोटा लगता है।
जीवन का एक पक्ष हो जंगल के माफिक
अधिकांश मौकों पर हम अपने व्यक्तित्व को दूसरों से संचालित करते हैं। होना यह चाहिए कि हम अपने व्यक्तित्व पर श्रद्धा रखें। कोई भी काम करें, इस बात पर अधिक ध्यान न दें कि लोग हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे। दूसरों की टिप्पणियों से जब हम संचालित होने लगते हैं तो हमारा आत्मविश्वास डगमगाने लगता है।
हम अपने व्यक्तित्व पर जितनी अधिक श्रद्धा रखेंगे, हमारे भीतर एक नई योग्यता का जन्म होगा और अच्छी और बुरी दोनों परिस्थितियों में जीने का निर्णय हम स्वयं लेने लगेंगे। जिंदगी को बगिया और जंगल दोनों की तरह जीना पड़ता है। बगीचे के पेड़-पौधे व्यवस्थित रूप से तैयार किए जाते हैं। वहां सजावट होती है और खिले हुए सुंदर फूल न सिर्फ आकर्षित करते हैं, बल्कि मन मोह लेते हैं।
हमारा जीवन भी बगीचे की तरह होता है, लेकिन जीवन का एक पक्ष जंगल के माफिक भी होना चाहिए। वहां सौंदर्य है, पर संघर्ष भी है। हमारा व्यक्तित्व जब जंगल की भांति होता है तो उसकी अभिव्यक्ति बिल्कुल अलग रहती है। इसलिए पुराने समय में वनवास का भी एक महत्व था। जीवन को वन और बाग दोनों से गुजारना चाहिए। सुविधा और संघर्ष दोनों अपनी-अपनी सीख देकर जाते हैं। जितना हम अपने व्यक्तित्व पर श्रद्धावान होंगे, उतना इन परिस्थितियों से परिचित हो जाएंगे। अपने व्यक्तित्व पर लौटने के लिए सत्संग एक सरल माध्यम है। जीवन में सत्संग के अवसर बनाए रखिए।
राजर्षि टंडन ने बताई सच्चे स्वयंसेवक की परिभाषा
उन दिनों दिल्ली में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन चल रहा था। चारों ओर काफी चहल-पहल थी। साहित्यिक महारथी साफ-सुथरे व चमकदार कपड़ों में अपनी साहित्यिक गतिविधियों में लगे थे। वे लोग स्वयंसेवकों को बुरा-भला कहते और व्यवस्था में खामियां निकालते हुए इधर-उधर घूम रहे थे।
कुछ ही देर में इन साहित्यकारों का जुलूस निकलने वाला था, जिसकी तैयारी जोर-शोर से हो रही थी। ऐसे समय सभी अध्यक्ष राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन को खोज रहे थे। जुलूस का समय हो रहा था और वे अब तक नहीं आए थे। कुछ साहित्यिक महारथी दौड़कर राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन के निवास स्थान पर पहुंचे।
वहां उन्होंने देखा कि राजर्षि अपने खादी के वस्त्र धो रहे हैं। एक सज्जन बोल उठे - बाबूजी, प्रतिनिधियों के कपड़े धोने के लिए धोबी की व्यवस्था है। आप स्वयं यह मामूली काम क्यों कर रहे हैं? उधर जुलूस में भी विलंब हो रहा है। राजर्षि ने सहजता से उत्तर दिया - क्या मेरे बिना जुलूस नहीं निकल सकता? और हां, जिसे तुम मामूली काम कह रहे हो, वह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मैं स्वयंसेवक हूं और दूसरों की सेवा लेकर जुलूस का स्वांग बनाने की अपेक्षा नियत समय पर अपना काम करना अधिक आवश्यक मानता हूं। सच्च स्वयंसेवक सेवा लेता नहीं है, बल्कि सेवा देता है। वह अपने कार्य स्वयं करते हुए दूसरों की सहायता हेतु सदैव तत्पर रहता है।
जब राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने अपने सेवक से मांगी क्षमा
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के जीवन की एक घटना है। एक बार उपहार में उन्हें हाथी दांत की एक कलम-दवात मिली। वह उन्हें इतनी प्रिय हो गई कि लिखते समय वे उसी का अधिक प्रयोग करते थे।
जिस कमरे में उन्होंने कलम-दवात रखी थी, उसकी सफाई का काम उनका सेवक तुलसी करता था। एक दिन मेज साफ करते समय कपड़े की फटकार से कलम-दवात नीचे गिरकर टूट गए। राजेंद्र बाबू को जब यह बात पता लगी तो उन्होंने नाराज होते हुए अपने सचिव से कहा- ऐसे आदमी को तुरंत बदल दो।
सचिव ने तुलसी को वहां से हटाकर दूसरा काम दे दिया। उस दिन राजेंद्र बाबू के मन में खलबली मची रही कि आखिर एक मामूली-सी गलती के लिए उन्होंने तुलसी को इतना बड़ा दंड क्यों दिया? लाख सावधानी बरतने पर भी ऐसी घटना किसी के साथ हो सकती है। शाम को उन्होंने तुलसी को बुलवाया।
उसके आते ही राजेंद्र बाबू कुर्सी से उठकर खड़े हो गए और बोले- तुलसी, मुझे माफ कर दो। तुलसी पहले तो सकपका गया, फिर राजेंद्र बाबू के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगा। तब राजेंद्र बाबू बोले कि तुम अपनी पहली वाली डच्यूटी पर जाओ, तब मुझे संतोष होगा। कृतज्ञता भरी आंखों से तुलसी ने अपना पुराना काम संभाल लिया।
सार यह है कि व्यक्ति को पद, स्तर, शिक्षा, जाति सभी से परे एक इंसान के रूप में देखने वाले की दृष्टि सम होती है और इसीलिए वह सभी से समान व स्नेहपूर्ण व्यवहार करता है। महानता ऐसे ही व्यवहार से प्राप्त होती है।
दृढ़ लगन ने बनाया यूरोपीय को भारतीय वेदज्ञ
मैक्स मूलर की मां ने उनकी पढ़ाई में कोई कमी नहीं रखी। वे अपनी कमाई का अधिकतम मैक्स मुलर की पढ़ाई पर लगातीं। लेकिन मैक्स मुलर को तो दूसरी ही धुन थी। वे कहते- मां, मुझे संस्कृत पढ़ना है। मां को आश्चर्य होता कि जर्मन होकर उसे संस्कृत में क्यों दिलचस्पी है? फिर भी उन्होंने मैक्स मुलर की बात मान ली।
मैक्स मुलर संस्कृत के अध्ययन में जुट गए। लिपजिग कॉलेज में अध्ययन के दौरान मैक्स मुलर को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि अंग्रेजी के अनेक शब्द संस्कृत से निकले हैं जैसे- डॉक्टर- दुहित्र से, फादर- पितर से, मदर- मातृ से, वाइफ- वधू से तथा ब्रदर- भातृ से।
मैक्स मुलर गुरु की खोज में पेरिस गए। वहां उन्हें बनरूफ मिले, जो बहुत बड़े वेदज्ञ थे। जब मैक्स मुलर ने उनसे वेद अध्ययन की इच्छा व्यक्त की, तो बनरूफ ने कहा- तुममें प्रतिभा व लगन है। तुम वेद अध्ययन को अपना जीवन अर्पित कर दो।
किंतु मेरी दो हिदायतों का पालन करना- एक, वेद का पाठ करते समय धूम्रपान नहीं करोगे। दूसरा, मूल और पाठ का एक शब्द तो क्या, एक अक्षर भी नहीं छोड़ोगे। मैक्स मुलर ने इन दोनों बातों का दृढ़ता से पालन किया और वर्षो के कठोर श्रम से ऋग्वेद का उद्धार किया, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के संग्रहालय में कैद थे।
इस यूरोपीय विद्वान ने अपना संपूर्ण जीवन भारतीय वांग्मय को समर्पित कर दिया। वस्तुत: सच्ची लगन सफलता की प्रथम व अंतिम शर्त है। साधन तो जुट जाते हैं, किंतु लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दृढ़ लगन होना आवश्यक है।
अपनी बुद्धिमानी से बकरे ने बाघ पर विजय प्राप्त की
किसी गांव में एक किसान के पास एक बकरी और मेमना थे। एक बार गांव के लोगों ने बलि चढ़ाने के लिए किसान से मेमना मांगा, जो अब बकरा बन चुका था। पहले तो उसने मना किया, किंतु अधिक रुपयों का लालच उसे मिला तो वह मान गया।
बकरी को जब यह बात पता चली तो उसने अपने मेमने से कहा- यहां से कहीं ओर भागकर चला जा। मेरे लिए तेरा जीवित रहना ज्यादा महत्वपूर्ण है। बकरा भारी मन से घने जंगल में चला गया। वहां की हरी-हरी घास खाकर वह काफी बलवान बन गया।
एक दिन जंगल में घूमते हुए उसके सामने एक बाघ आ गया। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। फिर बाघ ने पूछा - तुम मेरे क्षेत्र में कैसे आए? बकरे ने हिम्मत कर जवाब दिया - मैं रोज सात शेर और दस बाघ खाता हूं।
आज सात शेर और नौ बाघ तो खा लिए, अच्छा हुआ दसवें तुम मिल गए। यह सुनते ही बाघ भाग गया। उसने सियार को यह बात बताई तो उसने हंसकर कहा कि वो तो बकरा है। आप मेरे साथ चलो। बाघ ने सियार का एक पैर अपने पैर से बांध लिया, ताकि धोखा न दे सके।
बकरा दूर से देखते ही माजरा समझ गया और बोला - सियारभाई, मैंने तुमसे दो बाघ लाने को कहा था, तुम एक ही लाए। यह सुनते ही बाघ उल्टे पांव भाग गया। फिर बाघ ने यह समझकर कि सियार ने धोखा दिया है, बिना उसकी बात सुने उसे मार डाला।
बकरा अब निडर होकर जंगल में रहने लगा। वस्तुत: विपत्ति में यदि निर्भीकता व बुद्धि से काम लिया जाए तो उससे सहज ही मुक्ति पाई जा सकती है।
स्वामी विवेकानंद ने दिया राष्ट्रभक्ति का परिचय
स्वामी विवेकानंद के गुरु थे रामकृष्ण परमहंस। विवेकानंद की ज्ञान-पिपासा, आध्यात्मिक लगन और उच्च विचारों को देखकर ही परमहंस ने उन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया था। विवेकानंद नित्य अपने गुरु के पास आते और विभिन्न दार्शनिक विषयों पर चर्चा करते।
गुरु जो कहते, विवेकानंद उसको गांठ बांध लेते और गुरु जो पूछते, विवेकानंद बहुत सोच-विचार कर उसका उत्तर देते। इसलिए परमहंस उनसे बहुत प्रसन्न थे। एक दिन विवेकानंद परमहंस के पास आए तो उन्होंने चर्चा के दौरान विवेकानंद से पूछा - क्या तुम्हें मुक्ति चाहिए?
विवेकानंद ने उत्तर दिया - नहीं गुरुदेव, मुझे मुक्ति नहीं चाहिए। परमहंस को आश्चर्य हुआ, उन्होंने कहा - मुक्ति ऐसी चीज है, जिसकी कामना हर मनुष्य करता है। चाहे वह गृहस्थ हो या संन्यासी। फिर क्या कारण है कि तुम मुक्ति नहीं चाहते हो?
विवेकानंद बोले - गुरुदेव, जब तक मेरे करोड़ों भारतवासी भाई-बहनों को मुक्ति नहीं मिलती, तब तक मुझे मुक्ति नहीं चाहिए। जब भारत के नागरिकों की मुक्ति के लिए पंक्ति लगेगी तो विवेकानंद उस पंक्ति का अंतिम व्यक्ति होगा।
परमहंस ने विवेकानंद का उत्तर सुनकर उनकी उच्च भावना समझी और उन्हें गले लगा लिया। सार यह है कि स्वयं से अधिक अपने राष्ट्र और राष्ट्रवासियों का ध्यान रखना एक आदर्श नागरिक का परम दायित्व है, जिसका निर्वाह उसे स्वयं की दृष्टि में ईमानदार तथा समाज की दृष्टि में बड़ा बना देता है।
वासना से विरक्ति का मार्ग बताया महर्षि कण्व ने
शिष्य कौत्स अपने गुरु महर्षि कण्व के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त कर रहा था। कौत्स सुयोग्य व आज्ञाकारी शिष्य था। एक दिन गुरु और शिष्य दोनों ही जंगल में रात होने तक कार्य करते रहे। जब अधिक देर होने लगी तो गुरु ने कौत्स से कहा - वत्स, तुम आश्रम लौट जाओ। मैं बाद में आता हूं। कौत्स ने आज्ञा शिरोधार्य की।
जब कौत्स आश्रम की ओर जा रहा था तो रास्ते में उसने दर्द से कराहती एक सुंदर स्त्री को देखा। वह ठिठका, पर दूसरे ही क्षण आगे बढ़ गया। कौत्स के गुजरने के थोड़ी देर बाद कण्व भी उसी मार्ग से आए। उन्होंने भी उस सुंदरी को वैसे ही कराहते देखा, तो उन्हें अपने शिष्य पर बेहद क्रोध आया। वे तत्काल उस सुंदरी को अपने साथ आश्रम में ले आए और उसकी चिकित्सा व्यवस्था की। बाद में उन्होंने कौत्स को बुलाकर पूछा - तुमने मार्ग में इस स्त्री को पीड़ा से कराहते देखकर भी उसे क्यों नहीं उठाया?
कौत्स ने नतमस्तक होकर जवाब दिया - गुरुदेव, मुझे लगा कि कहीं मैं इस स्त्री के सौंदर्य से विचलित न हो जाऊं। तब कण्व बोले - वत्स, इससे क्या तुममें सौंदर्य के प्रति विरक्ति हो जाएगी? छिपा हुआ भाव कभी भी प्रकट हो सकता है। वासना से विरक्ति का एकमात्र उपाय है वैसे ही वातावरण में रहकर आत्म नियंत्रण का अभ्यास करना। कौत्स को अपनी भूल का अहसास हुआ। जिस प्रकार सूखे में तैरा नहीं जा सकता, ठीक उसी प्रकार आत्म-नियंत्रण का अभ्यास भी एकांत में नहीं किया जा सकता।
दृढ़ इच्छाशक्ति से अपंग धाविका ने जीते पदक
चार साल की उम्र में विल्मा रूडोल्फ निमोनिया और काला ज्वर की शिकार हो गईं। फलत: पैरों में लकवा मार गया। चिकित्सकों ने कहा कि वे अब कभी चल नहीं सकेंगी। विल्मा का जन्म टेनेसस के एक निर्धन परिवार में हुआ था।
आर्थिक तंगी के कारण बेहतर इलाज संभव नहीं था, किंतु विल्मा की मां मजबूत इरादों वाली महिला थीं। उन्होंने ढाढ़स बंधाया- विल्मा! यदि तुम चाहोगी तो अवश्य चल पाओगी। विल्मा की इच्छाशक्ति जाग्रत हो गई।
उन्होंने मां के ये शब्द सदा याद रखे - ‘यदि मनुष्य में ईश्वर में दृढ़ विश्वास के साथ मेहनत और लगन हो तो वह दुनिया में कुछ भी कर सकता है।’ उनका उत्साह देख चिकित्सकों ने भी जी तोड़ मेहनत की और नौ साल की उम्र में विल्मा उठ बैठीं।
13 साल की उम्र में पहली बार एक दौड़ प्रतियोगिता में शामिल हुईं, लेकिन हार गईं। फिर लगातार तीन प्रतियोगिताओं में असफल रहीं, किंतु हिम्मत नहीं हारी। 15 साल की उम्र में टेनेसी स्टेट यूनिवर्सिटी के एड टेम्पल नामक कोच से प्रशिक्षण देने का आग्रह किया।
टेम्पल उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति देख मदद के लिए तैयार हो गए। 1960 ओलिंपिक में विल्मा ने हिस्सा लिया। कोई सोच भी नहीं सकता था कि एक अपंग लड़की वायु वेग से दौड़ सकती है। वे दौड़ीं और 100 मीटर, 200 मीटर और 400 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीते।
विल्मा ने प्रमाणित कर दिया कि एक अपंग व्यक्ति भी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर सब कुछ कर सकता है। दरअसल, सफलता की राह कठिनाइयों के बीच से गुजरती है।
प्रणाम करने से बालक को मिला दीर्घायु का आशीर्वाद
प्राचीनकाल में मृकंडु नाम के विख्यात ऋषि थे। वे पत्नी के साथ वन में रहते थे। उनके यहां एक पुत्र हुआ। वह बालक पांच वर्ष की अल्पायु में ही गुणवान हो गया। एक दिन किसी सिद्ध ज्ञानी ने उस बालक की आयु मात्र पांच वर्ष छह माह बताई।
उनकी बात सुनकर मृकंडु ऋषि ने अपने पुत्र का उपनयन संस्कार कर दिया और उससे कहा- बेटा, तुम जिस किसी मुनि, सिद्ध पुरुष और अपने से बड़े को देखो, उन्हें प्रणाम करो। पुत्र ने मान लिया। धीरे-धीरे पांच महीने, पच्चीस दिन व्यतीत हो गए।
एक बार सप्तऋषि वहां से गुजरे। बालक ने उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने उसे दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया। आशीर्वाद देने के बाद जब उन्होंने बालक की आयु पर विचार किया, तब पांच ही दिन की आयु शेष जानकर उन्हें बड़ा दुख हुआ। वे उसे लेकर ब्रहाजी के पास गए।
बालक ने ब्रहाजी के चरणों में प्रणाम किया। ब्रहाजी ने भी उसे चिरायु होने का आशीर्वाद दिया। उनके वचन सुनकर सप्तऋषि को बड़ी प्रसन्नता हुई। तत्पश्चात ब्रहाजी ने उनसे पूछा- आप लोग किस काम से यहां आए हैं और यह बालक कौन है?
ऋषियों ने बालक की आयु के विषय में बताते हुए उसकी लंबी आयु करने का आग्रह किया। तब ब्रहाजी बोले- यह बालक मरकडेय नाम से प्रसिद्ध व आयु में मेरे समान होगा। इस प्रकार सप्त ऋषियों ने ब्रहा से वरदान दिलाकर बालक को पुन: पृथ्वी पर भेज दिया। सार यह है कि अपने से बड़ों व गुरुजनों का सम्मान करने से सदा अच्छे परिणाम मिलते हैं।
जब गणेश शंकर विद्यार्थी ने दिखाई व्यक्तित्व की उदारता
काकोरी ट्रेन डकैती कांड के एक अभियुक्त थे ठाकुर रोशनसिंह। अन्य अभियुक्तों के साथ उन्हें भी मृत्यदंड मिला। ठाकुर रोशनसिंह देशभक्त थे। उन्हें मौत की सजा सुनकर रंचमात्र भी चिंता या कष्ट नहीं हुआ। उनके परिवार में पत्नी, बच्चे सभी थे, किंतु वे इन सबसे ऊपर देश को मानते थे।
इसलिए वे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए। उनकी मृत्यु के दो वर्ष बाद उनकी पत्नी को अपनी युवा बेटी की शादी की चिंता हुई। उन्होंने काफी प्रयास किए। अनेक लड़के देखे। बहुत कोशिश के बाद एक जगह बात पक्की हुई।
लड़के वालों ने भी हां कर दी, किंतु उस इलाके के दरोगा ने उन्हें जाकर धमकाया कि एक क्रांतिकारी की लड़की से शादी करना राजद्रोह समझा जाएगा और तुम सभी पर मुकदमा चलेगा, सजा होगी। लड़के वाले भयभीत हो गए और रिश्ता टूटने की कगार पर पहुंच गया।
जब एक अखबार के संपादक को यह बात पता लगी तो वह 15 मील पैदल चलकर रोशनसिंह के गांव आया और दरोगा की खूब लानत-मलामत की। आखिरकार दरोगा ने क्षमा मांगी और लड़की के विवाह का खर्च उठाने के लिए भी तैयार हो गया।
कन्यादान के समय जब लड़की के पिता का प्रश्न उठा तो उसी संपादक ने आगे बढ़कर कहा कि रोशनसिंह के न होने पर मैं लड़की का पिता हूं। कन्यादान मैं करूंगा। यह सहृदय संपादक थे, स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी।
दरअसल सभी प्रकार से विवश लोगों की सहायता करना व्यक्तित्व की उदारता दर्शाता है। ऐसे लोग प्रणम्य व अनुकरणीय होते हैं।
राष्ट्रभाषा के सम्मान की एक अनोखी मिसाल
प्रसिद्ध गांधीवादी नेता और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर पट्टाभिसीतारमैया राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रबल समर्थक थे। वे हिंदी में ही पत्र व्यवहार करते थे। अंग्रेजी को अपने दैनंदिनी उपयोग की भाषा बनाने पर उन्हें एतराज था, क्योंकि यह उन्हें राष्ट्रभाषा हिंदी का अपमान लगता था।
वे अपने पत्रों पर हिंदी में ही पता लिखते थे। इस कारण दक्षिण भारत के डाकखाने वालों को बड़ी असुविधा होती थी। वहां के सभी लोग तमिल, तेलुगु अथवा अंग्रेजी जानते थे, इस कारण उन्हें डॉ पट्टाभिसीतारमैया के पत्र सही पते पर पहुंचाने में दिक्कत होती थी।
एक बार डाकखाने से डॉक्टर साहब को संदेश आया। आप अंग्रेजी में पते लिखा करें ताकि पहुंचाने में आसानी हो। उन्होंने उत्तर दिया- भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी है। अत: मैं अपने पत्र व्यवहार में उसी का प्रयोग करूंगा।
डाकघर वालों ने कहा- यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो हम आपके सारे पत्र डेड लेटर ऑफिस में भिजवा देंगे। पट्टाभिसीतारमैया इस धमकी के आगे नहीं झुके। दोनों पक्षों के बीच एक अर्से तक शीतयुद्ध-सा चलता रहा।
पट्टाभिसीतारमैया ने हिंदी में पत्र व्यवहार निरंतर जारी रहा। आखिर डाकखाने वालों को ही झुकना पड़ा। उन्होंने मछलीपट्टनम के डाकघर में हिंदी के जानकार एक आदमी को नौकरी पर रखा। राष्ट्रभाषा के सम्मान की रक्षा की यह अनोखी मिसाल है।
वस्तुत: अपने देश की भाषा को प्रत्येक स्थान पर अपनी वाणी व लेखन का अंग बनाए रखना चाहिए और विरोध की स्थिति में उसके मान की रक्षा के लिए संघर्ष भी करना चाहिए।
जब संत लीत्सु ने लौटाया राजा का भेजा हुआ दान
चीन में लीत्सु नामक एक संत रहते थे। वे इतने गरीब थे कि कई बार उन्हें तथा उनकी पत्नी को भूखे पेट सोना पड़ता था। फिर भी उन्होंने कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। मेहनत से वे जो कुछ कमाते, उसी से अपना गुजारा करते।
विद्वत्ता, सादगी, सरलता और ईमानदारी की वजह से उनका नाम दूर-दूर तक फैल गया था। लोग दूरस्थ स्थानों से उनके दर्शन करने तथा उपदेश सुनने आते थे। धीरे-धीरे शुंग प्रांत के राजा तक भी लीत्सु की खबर पहुंची।
उन्होंने अपने मंत्री से उनके बारे में जानना चाहा तो मंत्री ने कहा - राजन वे एक महान संत हैं और गरीबी में दिन गुजार रहे हैं। आपको उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करनी चाहिए। राजा ने तत्काल धन-धान्य से भरी एक गाड़ी लीत्सु की कुटिया पर पहुंचा दी।
गाड़ी के साथ आए दूत ने लीत्सु से विनम्रतापूर्वक राजा का दान स्वीकार करने का आग्रह किया, पर लीत्सु ने सहज भाव से जवाब दिया - राजा के साथ मेरा कोई परिचय नहीं है। मैंने आज तक उन्हें देखा भी नहीं और न ही उन्होंने मुझे देखा है।
फिर भी उन्होंने मेरे लिए दान भेजा, इसके लिए मैं उनका आभारी हूं, पर मैं यह दान ग्रहण नहीं कर सकता। फिर जो आनंद मेहनत की कमाई में मिलता है, वह दान में मिली वस्तु में कहां। इस प्रकार लीत्सु ने दान लौटाकर राजा की अक्षय श्रद्धा पा ली।
वस्तुत: अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति परिश्रम के बल पर करने से जिस आत्मिक संतोष की अनुभूति होती है, वह मुफ्त में मिली वस्तु की उपलब्धि पर नहीं होती।
जब विश्वेश्वरैया ने सिद्ध की विशिष्ट योग्यता
अंग्रेजों के शासनकाल की घटना है। यात्रियों से भरी हुई बंबई मेल अपने गंतव्य की ओर जा रही थी। यात्रियों में अधिकतर अंग्रेज थे। सभी यात्री बातों में मग्न थे। एक डिब्बे में एक यात्री चुपचाप बैठा था। सांवला रंग, मझोला कद।
यात्री सामान्य धोती-कुर्ता पहने था। वह किसी से बातचीत भी नहीं कर रहा था, इसलिए लोग उसे निपट देहाती समझकर उसकी खिल्ली उड़ा रहे थे। कुछ ही देर बाद अचानक वह उठा और उसने रेल की जंजीर खींच दी।
तूफान की गति से दौड़ती हुई बंबई मेल रुक गई। पास बैठे लोग उसे पागल, गंवार आदि कहने लगे। तभी गार्ड वहां पहुंचा और पूछा - जंजीर किसने खींची है? उस व्यक्ति ने कहा - मैंने खींची है, क्योंकि यहां से कुछ फर्लाग दूर रेल की पटरी उखड़ी हुई है।
गार्ड ने जानना चाहा कि उसे कैसे पता लगा। वह बोला- गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर आ गया था। इससे प्रतिध्वनित होने वाली गति से मुझे खतरे का आभास हुआ। गार्ड उसे लेकर कुछ फर्लाग आगे गया तो सच में वहां रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए थे।
गार्ड ने उससे परिचय पूछा तो वह बोला- मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम डॉ एम विश्वेश्वरैया है। नाम सुनते ही सब लोग सन्न रह गए। लोगों ने उनसे क्षमा मांगी। इस पर विश्वेश्वरैया का जवाब था - आप लोगों ने मुझे जो कुछ भी कहा, मुझे तो याद नहीं है।
सार यह है कि योग्यता ज्ञान से अर्जित होती है न कि वेशभूषा या रहन-सहन से। इसलिए व्यक्ति के बाहरी स्वरूप से उसका मूल्यांकन नहीं करना चाहिए।
महर्षि कपिल ने देखे गरीब के घर अमूल्य रत्न
एक गांव में एक विधवा रहती थी। महर्षि कपिल नित्य उसके घर के सामने से होकर गंगा स्नान के लिए जाया करते थे। जब भी वे वहां से गुजरते, वह कभी सूत कातते, कभी धान कूटते दिखाई देती।
महर्षि सोचने लगे कि यह अकेले इतनी मेहनत करते दिखाई देती है। क्या इसके परिवार में और कोई नहीं है? महर्षि ने गांव वालों से उसके विषय में पूछा तो लोगों ने बताया कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है। अत: वह अकेली है और विभिन्न कार्य कर अपनी आजीविका चलाती है।
महर्षि को उसकी इस स्थिति पर दया आई। अगले दिन उन्होंने उस महिला के घर जाकर कहा - देवी! मैं आश्रम का कुलपति हूं। यदि आप कहें तो राजपरिवार से कहकर आपकी आजीविका की स्थायी व्यवस्था करवा दूं।
महिला बोली - आपके इस दयाभाव के लिए धन्यवाद। मैं चाहूं तो राजाओं जैसा जीवन बिता सकती हूं। मेरे पास पांच श्रेष्ठ रत्न हैं। कपिल ने उन्हें देखने की इच्छा व्यक्त की तो उसने थोड़ी देर प्रतीक्षा करने को कहा। महर्षि बैठ गए।
कुछ देर बाद उसके पांच पुत्र पाठशाला से आए। उसके चरण स्पर्श कर बोले - मां! हमने किसी को कटु वचन नहीं कहे। गुरुदेव ने हमें जो पढ़ाया, उसे ध्यानपूर्वक पढ़ा है। कपिल मुनि ने श्रद्धापूर्वक महिला से हाथ जोड़कर कहा - वास्तव में आपके पास बहुमूल्य रत्न हैं।
ऐसे अनुशासित बच्चों के रहते आप कभी अभावग्रस्त नहीं हो सकतीं। वस्तुत: सुसंस्कार बच्चों को श्रेष्ठ मनुष्य बनाते हैं और उनके द्वारा परिवार के साथ-साथ समाज का भी कल्याण होता है।
सत्य बोलकर सुखलाल आर्य ने पाई दंड से मुक्ति
अंग्रेजों ने समस्त भारत में राज्य विस्तार करने के साथ ही इसे स्थायी बनाने के लिए ईसाई धर्म का प्रचार आरंभ किया। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर चर्च, स्कूल, अस्पताल आदि खोलकर अपने धर्म का विस्तार किया।
उनके इन प्रयासों के जवाब में भारत की प्राचीन गौरवमयी वैदिक चेतना भी जाग्रत हुई। इसी क्रम में आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा हुई और उन्होंने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। एक बार आर्य समाज के नेता कुंवर सुखलाल आर्य वैदिक धर्म के प्रचार के सिलसिले में पेशावर पहुंचे।
उन्होंने वहां ईसाई धर्म के विरुद्ध आवाज उठाते हुए स्वधर्म को सर्वश्रेष्ठ बताया। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें तत्काल बंदी बनाकर पेशावर की अदालत में पेश किया। वहां उन पर सरकार के विरुद्ध बोलने के लिए मुकदमा चला।
मुकदमे के दौरान अंग्रेज जज ने सुखलाल से पूछा- तुम कहां के रहने वाले हो? उन्होंने कड़ककर कहा- मैं उत्तरप्रदेश का निवासी हूं। जज ने पूछा- तो तुम यहां पेशावर में क्या करने आए हो? सुखलाल बोले- मैं यहां वैदिक धर्म का प्रचार करने आया हूं।
जज ने कहा- क्या उत्तरप्रदेश में प्रचार नहीं कर सकते थे? सुखलाल बोले- व्यापार करने के लिए सात समंदर पार कर तुम लोग यहां क्यों आए? क्या इंग्लैंड में व्यापार नहीं कर सकते थे?
जज ने उनकी निर्भीकता से प्रभावित हो उन्हें कोई दंड न देते हुए मात्र पेशावर छोड़ने का आदेश दिया। सार यह है कि विपरीत स्थितियों में भी निडरतापूर्वक बोला गया सत्य अंतत: सही परिणाम देता है।
अधिकारी के कहने पर नेहरू ने हिंदी में पढ़ा संदेश
वर्ष 1962 की बात है, भारत-चीन युद्ध चल रहा था। चीन ने पंचशील समझौते का उल्लंघन कर भारत पर अचानक आक्रमण कर दिया था। युद्ध को लेकर भारत की कोई तैयारी नहीं थी। अत: भारत कमजोर पड़ता जा रहा था। चारों ओर निराशा का माहौल था।
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देशवासियों को निराशा से उबारने के लिए आकाशवाणी से राष्ट्र के नाम संदेश देना तय किया। उस समय आकाशवाणी के प्रभारी अधिकारी मोहन सिंह सेंगर थे। वे प्रधानमंत्री के आवास पर रिकॉर्डिग के लिए गए।
कार्यक्रम के अनुसार प्रधानमंत्री को संदेश का मूल पहले अंग्रेजी में पढ़ना था, फिर उसका हिंदी अनुवाद पढ़ना था। सेंगर साहब को यह नहीं जंचा कि अंग्रेजी को अहमियत देकर उसे मूल पाठ के रूप में पढ़ा जाए और राष्ट्रभाषा हिंदी को अनुवाद की भाषा बनाकर उसके साथ सौतेला व्यवहार किया जाए।
वे नेहरूजी से बोले- सर! आपातकाल के इस समय में भारत का प्रधानमंत्री हिंदी संदेश अनुवाद के रूप में पढ़े, यह ठीक नहीं लगता। ऐसे समय में आप यदि मूल हिंदी में ही बोलें तो प्रभावी रहेगा। नेहरूजी ने तत्काल कहा- हां! तुम ठीक कहते हो।
मूल हिंदी में संबोधित करना ज्यादा ठीक रहेगा और नेहरूजी ने संदेश का मूल पाठ हिंदी में ही किया। वस्तुत: हमारी विचाराभिव्यक्ति में सर्वोपरि स्थान राष्ट्रभाषा का होना चाहिए। अन्य भाषाओं का ज्ञान रखकर उनका उपयोग करना बुरा नहीं है, किंतु महत्व सदा अपनी भाषा को देना चाहिए।
जब संत ने चोर को बताया ईश-दर्शन का उपाय
एक संत थे। उनके पास मन की शांति खोजने के लिए सभी प्रकार के लोग आते थे। इन्हीं में एक चोर भी था। उसने बड़ी ही ईमानदारी के साथ संत को बता दिया था कि उसका पेशा चोरी करना है।
संत ने यह सुनकर भी उसे अन्य लोगों की ही तरह सहजता से स्वीकार किया। चोर प्राय: संत से पूछा करता कि ईश्वर के दर्शन करने का उपाय क्या है। किंतु संत सदैव टाल देते। वे कहते कि समय आने दो, तब बताऊंगा।
एक दिन चोर ने काफी आग्रह किया तो संत बोले - सामने पहाड़ की जो ऊंची चोटी है, वहां तक तुम सिर पर छह पत्थर लेकर चढ़ो। तब मैं तुम्हें ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताऊंगा। चोर ने बात मान ली।
संत पहाड़ पर आगे-आगे चढ़ने लगे और चोर सिर पर छह पत्थर रखकर पीछे-पीछे चलने लगा। थोड़ी देर में चोर पत्थर के भार से थक गया। संत ने उससे एक पत्थर फेंक देने को कहा। जैसे-जैसे चोर अधिकाधिक थकता गया, संत उससे बारी-बारी से पत्थर फिंकवाते गए।
जब छह के छह पत्थर फिंकवा दिए, तब जाकर चोर चोटी पर पहुंच पाया। तब संत ने उसे समझाया- भाई! जिस प्रकार तुम सिर पर भारी पत्थर लेकर चढ़ने में असफल रहे, उसी प्रकार मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, आदि मनोविकारों का बोझ ढोकर ईश्वर दर्शन नहीं कर पाता।
ईश्वर दर्शन के लिए इन सभी मनोविकारों का बोझ उतारना जरूरी है। चोर ने बात का मर्म समझकर चोरी करना छोड़ दिया। वस्तुत: निर्मल चित्त में ही ईश्वर का वास होता है। इसलिए मन को सभी विकारों से मुक्त रखना चाहिए।
जब चूहों की समझदारी से दुम दबा के भागी बिल्ली
जातक कथाओं में एक कथा आती है। एक घर में कुछ चूहे रहते थे। उन्हें वहां खाने-पीने की पर्याप्त सामग्री मिल जाती थी और वे चैन से वहां रह रहे थे। एक दिन उस घर में एक बिल्ली आई और चूहों को देखकर उन्हें खाने के फेर में रोज ही आने लगी। चूहे अब भयभीत रहने लगे।
कुछ दिनों बाद उस बिल्ली ने अपने दो बच्चों सहित उसी घर के आंगन में डेरा जमा लिया। चूहों के लिए अब मुसीबत तीन गुना बढ़ गई। फलत: उन्होंने बिल से बाहर निकलना बंद कर दिया। किंतु ऐसा कितने दिनों तक चलता?
आखिर उन्होंने समस्या से निजात पाने के लिए विचार-विमर्श किया। सबसे बुजुर्ग चूहे ने सलाह दी कि हम कुत्तों की तरफ से बिल्ली और उसके बच्चों को एक निमंत्रण पत्र भिजवाएंगे और फिर इसका असर देखेंगे।
अगले दिन शाम को बिल्ली व उसके बच्चों ने एक कार्ड देखा, जिसमें लिखा था- प्यारी बिल्लियो! हमारा सलाम। हम कुत्ते व बिल्लियों की पुरानी दुश्मनी को भुलाकर मैत्री का हाथ बढ़ाना चाहते हैं। तुम सपरिवार रात्रि भोज के लिए गली के पीपल के नीचे आमंत्रित हो। यदि तुम नहीं आओगी तो हम तुमसे मिलने आएंगे।
यह पढ़कर बिल्ली का दिल धड़क उठा। वह युगों-युगों से अपने दुश्मन रहे कुत्तों पर विश्वास नहीं कर पाई और अपने बच्चों को लेकर उस घर से चली गई। चूहों की योजना सफल हो गई और वे निर्भयतापूर्वक रहने लगे। कथासार यह है कि संकट का मुकाबला डटकर करना चाहिए। दृढ़ संकल्प, एकता व धर्यपूर्ण समझदारी से विपत्ति पर विजय पाई जा सकती है।
मातृभूमि के प्रति सच्चा धर्म निभाया लक्ष्मीबाई ने
महारानी लक्ष्मीबाई के जीवन की एक घटना है, जो प्रत्येक नागरिक के लिए राष्ट्र की सर्वोपरिता को रेखांकित करती है। महारानी और अंग्रेजों के मध्य कट्टर शत्रुता थी। अंग्रेजों ने महारानी को झुकाने के अनेक प्रयास किए, किंतु देशभक्त महारानी को डिगा न सके।
महारानी लक्ष्मीबाई का संकल्प था कि राष्ट्र के लिए प्राण दे देंगी, किंतु अंग्रेजों के समक्ष समर्पण नहीं करेंगी। एक बार लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों की लड़ाई चल रही थी। अंग्रेज महारानी के हाथों पराजित होकर अपनी जान बचाते भाग रहे थे।
भागते-भागते अंग्रेजों को एक मंदिर व मस्जिद दिखाई दिए। अंग्रेज उसमें जा छिपे क्योंकि वे जानते थे कि मंदिर, मस्जिद हिंदुओं और मुस्लिमों के धर्मस्थल हैं, इसलिए वे इन्हें नष्ट नहीं करेंगे। किंतु रानी के एक मुस्लिम तोपची ने अल्लाह से प्रार्थना की- या अल्लाह!
मातृभूमि की रक्षा के लिए तेरे पवित्र स्थान को नष्ट कर रहा हूं। यह कहकर उसने मस्जिद पर तोप दाग दी और अंग्रेजों के साथ ही वह मस्जिद भी ढेर हो गई। अब तोपची ने तोप का मुंह मंदिर की ओर कर दिया। लेकिन मंदिर पर गोला दागने की उसकी हिम्मत नहीं हुई।
पास ही खड़ी लक्ष्मीबाई तोपची का मनोभाव भांप गईं। उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर मंदिर पर यह कहते हुए तोप दाग दी कि मातृभूमि धर्म से बढ़कर है। इस प्रकार मंदिर में छिपे अंग्रेज मृत्यु को प्राप्त हुए।
वस्तुत: राष्ट्र सदैव धर्म या संप्रदाय से ऊपर होता है। जिस राष्ट्र की मिट्टी से हमारा पालन-पोषण होता है, उसकी रक्षा करना हमारा सर्वोच्च दायित्व होता है।
गुरुनानक ने किया आडंबर का तर्कपूर्ण विरोध
गुरुनानक अत्यंत सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। उन्हें बाह्य आडंबरों से चिढ़ थी। ईश्वर के ध्यान व पूजा में भी उन्होंने सदैव हृदय के समर्पण व निष्ठा पर बल दिया, न कि विधि विधान पर। एक बार की बात है।
गुरुनानक गंगा नदी पर स्नान करने गए। संयोग से उसी समय वहां एक पंडा आया और अपने भक्तों से उनके पूर्वजों का तर्पण करवाने लगा। पंडे ने उन्हें दान करने के लिए वस्तुओं की लंबी-चौड़ी सूची व भारी धनराशि का आग्रह रखा।
पंडा उनके पूर्वजों की आत्माओं का भय दिखाकर उन्हें लूटे जा रहा था। वे अंजलि में जल भरकर छोड़ते जा रहे थे और पंडे की बातों से सहमति जताते जा रहे थे। गुरुनानक को इस व्यर्थ के पाखंड पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने विपरीत दिशा की ओर मुंह कर जल छोड़ना शुरू कर दिया।
यह देखकर पंडे से रहा नहीं गया। उसने चिढ़कर कहा- ये क्या कर रहे हो? नानक ने जवाब दिया- पंडितजी, मैं अपने खेत सींच रहा हूं। पंडे ने कहा- यहां जल छोड़ने से पानी खेत में कैसे पहुंच सकता है?
तब नानक हंसकर बोले- जब तुम्हारे अनुसार इन सीधे-सादे लोगों द्वारा धरती पर छोड़ा गया अंजलि जल इनके पूर्वजों तक पहुंच सकता है तो मेरे द्वारा विपरीत दिशा में छोड़ा गया अंजलि जल मेरे खेत में क्यों नहीं पहुंच सकता?
पंडा शर्म से पानी-पानी होकर वहां से चुपचाप चला गया। दरअसल तर्कहीन आडंबरों में समय व धन की बर्बादी निरी मूर्खता है, जिससे दूर रहना और सत्कार्यो में अपनी समग्र ऊर्जा का निवेश करना बुद्धिमानी है।
और बालक चर्चिल खेल-खेल में पानी में कूद गया
यह घटना इग्लैंड की महान हस्ती विंस्टन चर्चिल के बाल्यकाल की है। बालक चर्चिल नित्य ही अपने मित्रों के साथ नए-नए खेल खेलते थे। एक दिन यह बाल मंडली तय नहीं कर पा रही थी कि आज कौन-सा खेल खेला जाए।
काफी बहस और सोच-विचार के बाद सभी ने निश्चित किया कि भारतीय लुटेरा नामक खेल ही उचित रहेगा। चर्चिल भारतीय लुटेरा बने और उनके साथी पुलिस। यह तय हुआ कि चर्चिल पुलिस से बचने के लिए भागेंगे और पुलिस उन्हें पकड़ेगी।
खेल शुरू हुआ। चर्चिल भागने लगे। उन्होंने इस तरह भागना शुरू किया मानो वे सच में लुटेरे हों। भागते-भागते वे एक पुल पर पहुंच गए। वह पुल बहुत ऊंचा था। बाल पुलिस ने पुल को दोनों ओर से घेर लिया। चर्चिल दोनों ओर खड़ी पुलिस को देख रहे थे।
एक पुलिस अधिकारी बने बालक ने चिल्लाकर बालक चर्चिल को आत्मसमर्पण करने के लिए कहा। लेकिन चर्चिल ने ऐसा न करते हुए पुल पर से पानी में छलांग लगा दी। पानी कम गहरा था, इसलिए वे डूबे तो नहीं, किंतु बेहोश हो गए।
तीन दिन तक अचेत रहने के बाद जब वे होश में आए तो एक मित्र ने पूछा- तुमने पानी में कूदने का खतरा क्यों मोल लिया? आत्मसमर्पण कर देते। तब चर्चिल गर्व से बोले- सच्चा भारतीय लुटेरा ऐसा ही करता है।
सार यह है कि भारतीयों की संघर्ष क्षमता इस अंग्रेज बालक के विचारों से झलकती है, जो आत्म विकास के लिए विदेशों का मुंह ताकने वाली आज की भारतीय युवा पीढ़ी के लिए एक सबक है।
विश्वास का अच्छा नतीजा पाया सिकंदर ने
सिकंदर अपनी सेना लेकर फारस देश पर चढ़ाई करने जा रहा था कि रास्ते में अचानक बीमार हो गया। धीरे-धीरे उसकी दशा और अधिक खराब हो गई। सिकंदर के साथ अनेक नामी हकीम भी थे, किंतु यह सोचकर उनमें से किसी ने उसे दवा नहीं दी कि यदि दवा देने के बाद सिकंदर मर गया तो लोग उन पर शंका करेंगे।
किंतु एक यूनानी हकीम फिलिप से सिकंदर का कष्ट देखा नहीं गया। वह सिकंदर का विश्वासपात्र भी था। उसने सिकंदर से कहा- मैं अभी दवा तैयार करके लाता हूं। इस बीच सिकंदर को अपने एक उच्चधिकारी का गुप्त संदेश मिला कि फारस के बादशाह ने आपको दवा के बहाने विष देकर मारने का षड्यंत्र किया है और इस काम के लिए उसने फिलिप को आधा राज्य और अपनी राजकुमारी को ब्याहने का वचन दिया है।
जब थोड़ी देर बाद फिलिप दवा लेकर सिकंदर के पास आया तो सिकंदर ने बिना किसी शंका के एक हाथ से दवा का प्याला मुंह से लगा लिया और दूसरे हाथ से संदेश निकालकर फिलिप को दिया। पत्र पढ़कर फिलिप बोला- मालिक, मैंने तो अपनी ओर से आपको बेहतरीन दवा दी है।
थोड़ी ही देर में दवा के प्रभाव से सिकंदर की दशा सुधर गई। सिकंदर ने फिलिप को गले लगाकर कहा- मेरे प्राणदाता, तुम पर मुझे तनिक भी संदेह होता तो उस पत्र को पाकर तुम्हारी दवा न पीता। मैंने विश्वास किया और उसका अच्छा फल पाया।
सार यह है कि विश्वास से मन में स्नेह और अपनत्व स्थायित्व पाता है, जिसके सदैव अच्छे परिणाम होते हैं।
स्वावलंबन का पाठ पढ़ाया ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने
एक बार ईश्वरचंद्र विद्यासागर को इंग्लैंड में एक सभा की अध्यक्षता करनी थी। उनके बारे में मशहूर था कि उनका प्रत्येक कार्य घड़ी की सुई के साथ पूर्ण होता है अर्थात वे समय के पाबंद थे। वे लोगों से भी यही अपेक्षा रखते थे कि वे अपना कार्य समय पर करें।
विद्यासागरजी जब निश्चित समय पर सभा भवन पहुंचे तो उन्होंने देखा कि लोग सभा भवन के बाहर घूम रहे हैं और कोई भी अंदर नहीं बैठा है। जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो उन्हें बताया गया कि सफाई कर्मचारियों के न आने के कारण अभी भवन की सफाई नहीं हुई है।
यह सुनते ही विद्यासागरजी ने एक क्षण भी बिना गंवाए झाड़ू उठाकर सफाई करनी शुरू कर दी। उन्हें ऐसा करते देख उपस्थित लोगों ने भी कार्य शुरू कर दिया। देखते ही देखते सभा भवन की सफाई हो गई और सारा फर्नीचर यथास्थान लगा दिया गया।
जब सभा आरंभ हुई तो विद्या सागरजी बोले- कोई व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र, उसे स्वावलंबी होना चाहिए। अभी आप लोगों ने देखा कि एक-दो व्यक्तियों के न आने से हम सभी परेशान हो रहे थे। संभव है कि उन व्यक्तियों तक इस कार्य की सूचना न पहुंची हो या फिर किसी दिक्कत के कारण वे यहां न पहुंच सके हों।
क्या ऐसी दशा में आज का कार्यक्रम स्थगित कर दिया जाता? यदि ऐसा होता तो कितने व्यक्तियों का आज का श्रम और समय व्यर्थ हो जाता। सार यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वावलंबी होना चाहिए और वक्त पड़ने पर किसी भी कार्य को करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
गुरु ने दुर्बल व ताकतवर से व्यवहार का तरीका बताया
गुरु गोबिंद सिंह से मिलने व सलाह-मशविरा करने अनेक लोग आते थे। वे कई मुद्दों पर उनसे चर्चा करते और उचित मार्गदर्शन पाते थे। एक बार गुरु गोबिंद सिंह से मिलने एक व्यक्ति आया। प्रणाम करने के पश्चात बोला- गुरुदेव, आज एक कमजोर आदमी ने मेरा अपमान किया।
मुझे गुस्सा आ गया तो मैंने उसे ऐसा सबक सिखाया कि वह जीवन भर नहीं भूलेगा। गुरु गोबिंद सिंह यह सुनते ही तत्काल बोल उठे- यह तो तुमने बहुत ही गलत कार्य किया। तुम्हें उसके साथ ऐसा नहीं करना था।
कुछ दिन बीतने के बाद पुन: वह व्यक्ति आया और इस बार उसने बताया कि गुरुदेव, आज एक पहलवान से मेरा झगड़ा हुआ, किंतु मैं प्रतिकार किए बिना ही चुपचाप वहां से चला आया। गुरु गोबिंद सिंह बोले- यह तो तुमने ठीक नहीं किया।
वह व्यक्ति आश्चर्यचकित हो बोला- यह क्या गुरुदेव, पहले मैंने एक व्यक्ति से जब अपने अपमान का बदला लिया तो आपने इसे गलत ठहराया। अब जबकि मैंने अपमान सहन कर लिया तो आप इसे भी गलत कह रहे हैं। मैं इनमें से किस व्यवहार को ठीक समझूं?
तब गुरु गोबिंद सिंह ने उसे समझाया- यदि कोई दुर्बल मनुष्य तुम्हारा अपमान करे तो उसे क्षमा कर दो, क्योंकि वहां क्षमा करना ही वीरता है। किंतु अपमान करने वाला बलवान हो तो उसे दंड देना ही सच्ची वीरता है। वस्तुत: दुर्बल को क्षमा करना बड़प्पन है और उस पर बल प्रयोग करना कायरता। शक्तिशाली से लड़कर उससे न दबना साहस का प्रतीक है।
कार्यदक्षता व लगन ने हूवर को राष्ट्रपति पद पर पहुंचाया
संयुक्त राज्य अमेरिका के एक नौजवान ने परिश्रमपूर्वक इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उसने एक अच्छी नौकरी की तलाश आरंभ की। अनेक प्रस्तावों के साथ ही उसने एक ऐसी कंपनी में अपना आवेदन दिया, जहां उसे काम सीखने और नई चीजें जानने का अच्छा मौका मिलने की उम्मीद थी। जब वह उस कंपनी के कार्यालय में गया तो उसे बताया गया कि वहां तो मात्र एक टाइपिस्ट की जगह खाली है।
नौजवान के पास थी तो इंजीनियरिंग की डिग्री, किंतु उसने भविष्य में बेहतर अवसरों की आशा में टाइपिस्ट की नौकरी करने के लिए तत्काल हां कर दी। उसे उसी दिन से काम करने को कहा गया, किंतु वह चार दिन बाद आने का वादा कर चला गया। चार दिन बाद जब उसने काम संभाला तो कंपनी के मैनेजर ने पूछा - आप पहले तो तत्काल काम करने को आतुर थे, फिर चार दिन बाद क्यों आए? नौजवान ने उत्तर दिया - मुझे टाइप करना अच्छी तरह नहीं आता था।
अत: इन चार दिनों में मैंने टाइपिंग का अच्छा अभ्यास किया और मुझे विश्वास है कि अब मैं यह काम करने में पूरी तरह सक्षम हूं। अपने काम को पूरी तन्मयता व दक्षता से करने की इस आदत ने ही उस नौजवान को अंतत: संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर पहुंचाया। उसका नाम था - हर्बर्ट क्लार्क हूवर। सार यह है कि सौंपे गए कार्य को मन की संपूर्ण लगन से करने पर उसके बेहतर परिणाम सामने आते हैं। अत: जो भी काम हाथ में लें, उसे पूरी दक्षता के साथ करें।
और अंतत: शिष्य बांस की टोकरी में जल भर लाया
प्राचीनकाल में मगध में एक गुरुकुल था। वहां के योग्य एवं ज्ञानवान आचार्य अपने शिष्यों को सभी प्रकार की शिक्षा में पूर्ण बनाते थे। सैद्धांतिक के साथ व्यावहारिक ज्ञान देना आचार्य का नियम था, जिससे उनके छात्रों का व्यक्तित्व समग्र विकास पाता था।
गुरुकुल का एक सत्र पूर्ण होने के पश्चात आचार्य अपने शिष्यों की अंतिम परीक्षा लेते थे। ऐसे ही एक बार सत्र पूर्ण होने पर आचार्य ने शिष्यों को बांस की टोकरियां देते हुए कहा- इनमें नदी से जल भर लाओ।
उससे गुरुकुल की सफाई करनी है। शिष्य आचार्य की आज्ञा सुनकर चकरा गए कि बांस की टोकरी में जल भरकर लाना तो असंभव है। किंतु सभी ने नदी पर जाकर प्रयास किया। बांस की टोकरियों में जल भरने से वह छिद्रों में से रिस जाता।
एक शिष्य को छोड़कर सभी लौट आए। उस शिष्य के मन में गुरु के प्रति पूर्ण निष्ठा थी और वह यह सोचकर बार-बार जल भरता कि गुरुदेव ने कुछ सोच-समझकर ही ऐसी आज्ञा दी होगी। शाम तक वह जल भरने का प्रयास करता रहा।
बांस की टोकरी के सुबह से शाम तक जल में रहने के कारण बांस की तीलियां फूल गईं और छिद्र बंद हो गए। अत: शाम को वह टोकरी में जल भरकर आचार्य के पास लौटा।
तब आचार्य ने अन्य शिष्यों से कहा- कार्य तो मैंने तुम्हें दुरूह सौंपा था किंतु विवेक, धर्य, लगन व निरंतर प्रयास से यह संभव था। वस्तुत: कड़े परिश्रम और लगन से असंभव दिखाई देने वाला कार्य भी संभव हो जाता है, इसलिए कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।
जनरल के गले पर नहीं चल पाया हज्जाम का उस्तरा
घटना उन दिनों की है जब फ्रांस में विद्रोही काफी उत्पात मचा रहे थे। पूरे देश में उथल-पुथल मची हुई थी। सरकार अपने तरीकों से विद्रोहियों से निपटने में जुटी हुई थी। काफी हद तक सेना ने विद्रोह को कुचल दिया था, फिर भी कुछ शहरों में स्थिति विकट थी।
इन्हीं में से एक शहर था लिथोस। लिथोस में विद्रोह पूर्णत: दबाया नहीं जा सका था, लिहाजा जनरल कास्तलेन जैसे जांबाज अफसर को वहां निमंत्रण के लिए भेजा गया।
कास्तलेन विद्रोहियों के साथ काफी सख्ती से पेश आते थे। इसलिए विद्रोहियों के बीच उनका खौफ भी था और वे उनसे चिढ़ते भी थे। इन्हीं विद्रोहियों में एक हज्जाम भी था, जो प्राय: कहता फिरता ‘जनरल मेरे सामने आ जाए तो मैं उस्तरे से उसका सफाया कर दूं।
जब कास्तलेन ने यह बात सुनी तो वे अकेले ही एक दिन हज्जाम की दुकान पर पहुंच गए और अपनी हजामत बनाने के लिए कहा। हज्जाम उन्हें देखते ही बुरी तरह से घबरा गया और कांपते हाथों से उस्तरा उठाकर जैसे-तैसे हजामत बनाई। काम हो जाने के बाद जनरल कास्तलेन ने उसे पैसे दिए और कहा - मैंने तुम्हें अपना गला काटने का पूरा मौका दिया।
तुम्हारे हाथ में उस्तरा था, किंतु तुम उसका फायदा नहीं उठा सके। मेरी बात मानो अपने हाथ में अपनी जबान से ज्यादा ताकत लाओ, तभी अपनी कही बात पूरी कर सकते हो। सार यह है कि वाणी पर दृढ़ बने रहने के लिए साहसी हृदय की आवश्यकता होती है। भीतर की दृढ़ता से ही शारीरिक बल सक्रिय होता है।
डॉ राजेंद्र प्रसाद ने समझाया बच्चों को किताबों का महत्व
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को पुस्तकों से बड़ा प्रेम था। उनके घर में सभी प्रकार की पुस्तकें थीं। राजेंद्र बाबू रात को सोने से पहले पुस्तकें अवश्य पढ़ते थे। एक बार वे किसी कार्य से बाहर गए हुए थे। जब कई दिनों बाद घर वापस लौटे तो यह देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ कि उनकी पुस्तकें उल्टी -सीधी पड़ी हुई हैं और कई पुस्तकों के पन्ने भी फटे हैं। वे समझ गए कि यह काम घर के बच्चों का है।
उन्होंने सभी बच्चों को बुलाकर पूछा - किताबों की यह दशा किसने की है? बच्चे डांट के भय से कह गए कि उन्होंने तो किताबों को छुआ भी नहीं है और उन्हें पता नहीं कि किताबों को किसने अस्त-व्यस्त किया है। राजेंद्र बाबू बहुत बुद्धिमान थे और बच्चों के प्रति स्नेही भी।
उन्होंने सच्चई का पता लगाने के लिए बच्चों से बड़े प्रेम से कहा - देखो सब लोग सच बताओ। जिसने किताबों को नुकसान पहुंचाया है उसे मैं टॉफियां खिलाऊंगा। तब सभी बच्चों ने बढ़-चढ़कर अपने द्वारा की गई शरारतें बता दीं।
राजेंद्र बाबू ने उन्हें टॉफियां देते हुए समझाया - किताबें फाड़ना अच्छा नहीं है, क्योंकि उनसे हमें ज्ञान मिलता है। वे हमारी गुरु हैं। किताबों को नुकसान पहुंचाना गुरु को अपमानित करने जैसा है।
मुझे विश्वास है कि तुम भविष्य में ऐसा नहीं करोगे। सभी बच्चों ने क्षमा मांगते हुए आगे ऐसा न करने का वचन दिया। इस पुस्तक प्रेमी राष्ट्रपति ने ऐसा कर हमें यह सीख दी कि बच्चों से स्नेहपूर्ण व्यवहार उनमें विश्वास जागृत करता है और विश्वास से सत्य भाषण की हिम्मत पैदा होती है।
जब छात्र की निर्भीकता के आगे झुका अंग्रेज
उन दिनों हमारे देश पर अंग्रेजों का शासन था। गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के कुछ छात्र अपनी ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में धर्मशाला आए हुए थे। उस समय वहां गोरे फौजियों की छावनी रहती थी। एक सुबह छात्र घूमने के लिए जा रहे थे। सामने से कुछ अंग्रेज घुड़सवार आते दिखाई दिए।
छात्रों ने एक किनारे होकर उन्हें रास्ता दे दिया। एक गोरा सिपाही एक छात्र के सामने पहुंचा। घोड़ा इतना पास था कि छात्र के शरीर को छू रहा था। गोरा यह समझ गया था कि या तो छात्र डर के मारे भाग जाएगा या सलाम के लिए जमीन पर झुकेगा।
किंतु छात्र वैसे ही खड़ा रहा। तब गोरे ने कहा- सलाम करो। छात्र ने निर्भीकता से जवाब दिया- क्यों? इस उत्तर से गोरा सैनिक चिढ़ गया। उसने घोड़े को थोड़ा आगे बढ़ाते हुए कहा- तुम हम सभी को सलाम करो, पर छात्र अपने स्थान पर अविचल भाव से खड़ा रहा और बोला- ऐसा कोई कानून नहीं है जो हमसे जबरदस्ती सलाम करा सके।
गोरे सैनिक के पास अब दो ही मार्ग थे या तो वह घोड़े को विद्यार्थी पर चढ़ा दे या अपना रास्ता नापे। कुछ क्षण छात्र और घोड़ा उसी स्थिति में खड़े रहे। अंत में गोरा घोड़े की लगाम खींचकर यह कहता हुआ चल दिया कि तुम सलाम नहीं करता, अच्छा देखा जाएगा।
यही निर्भीक छात्र आगे जाकर आचार्य इंद्र विद्यावाचस्पति के नाम से निडर पत्रकार तथा साहित्यकार हुए। इस छोटी-सी घटना का बड़ा संदेश यह है कि विपत्ति से डरने के स्थान पर उसके सामने तनकर खड़े हो जाने से उसका निराकरण हो जाता है।
शत्रु की सेवा कर गुलाम ने पाई गुलामी से मुक्ति
उन दिनों अमेरिका में दास प्रथा का चलन था। वहां के एक संपन्न व्यक्ति ने बेंकर नाम के एक मेहनती गुलाम को खरीदा। बेंकर अत्यंत सेवाभावी था। मालिक बेंकर से बहुत प्रसन्न था और उसके प्रति स्नेहभाव रखता था।
एक दिन बेंकर अपने मालिक के साथ उस बाजार गया, जहां लोग जानवरों की तरह बिकते थे। तभी बेंकर ने वहां एक वृद्ध दास को देखा। उसने अपने मालिक से आग्रह किया कि उसे खरीद ले। मालिक ने बेंकर की बात मानकर उसे खरीद लिया और घर ले आया।
बेंकर उसके आने से बहुत प्रसन्न था। वह उस वृद्ध दास की खूब सेवा करता और उसके हिस्से का सारा काम भी स्वयं करता। एक दिन मालिक ने इस व्यवहार का कारण पूछा तो बेंकर ने बताया कि यह दास उसका न कोई रिश्तेदार है, न मित्र और न परिचित बल्कि उसका सबसे बड़ा दुश्मन है।
बचपन में मुझे इसी ने दास के रूप में बेचा था। बाद में यह खुद पकड़ा गया और दास बना लिया गया। मैंने उस दिन इसे पहचान लिया था। मेरी मां की शिक्षा है कि दुश्मन भूखा हो तो उसे खाना खिलाओ। प्यासा हो तो पानी पिलाओ। नग्न हो तो उसे कपड़े दो। इसी कारण मैं इसकी सेवा करता हूं।
यह सुनकर मालिक ने बेंकर को गले लगा लिया और उसे गुलामी से मुक्त कर उस वृद्ध दास के साथ पुत्र की भांति रहने के लिए स्वतंत्र कर दिया। वस्तुत: अपने शत्रु की सेवा कर व्यक्ति मनुष्य की सर्वोच्च कोटि को प्राप्त कर लेता है और उससे अंतत: शत्रुता समाप्त होकर एक दिव्य सौमनस्य की स्थापना होती है।
बड़ी बहन की सीख ने बनाया उन्हें महान साहित्यकार
वह स्कूल का मेधावी छात्र था। न केवल पढ़ाई में, बल्कि अन्य गतिविधियों में भी वह अव्वल रहता था। इस कारण वह प्राचार्य सहित सभी शिक्षकों का स्नेह पात्र था। एक बार स्कूल में कहानी प्रतियोगिता थी।
सभी छात्रों को कहानी लिखने के लिए एक महीने का समय दिया गया। केवल एक छात्र को ही नहीं, बल्कि उसके सहपाठियों तथा अध्यापकों को भी विश्वास था कि पुरस्कार उसी को मिलेगा। किंतु केवल एक कहानी लिखने के लिए महीने भर का समय देना उसे निरी मूर्खता प्रतीत हुई।
उसने पूरे महीने कुछ नहीं किया। जब दो दिन शेष रह गए तो आनन-फानन में एक कहानी लिखकर दे दी। पुरस्कार की घोषणा वाले दिन वह जीत के विश्वास के साथ स्कूल पहुंचा, किंतु प्रथम पुरस्कार किसी और को मिला।
घर आकर वह रोने लगा तो उसकी बड़ी बहन ने समझाया कि महीने भर का काम दो दिन में करोगे तो नतीजा यही होगा। ऐन वक्त पर भाग-दौड़ कर काम पूरा करने की अपनी इस आदत को अब मत दोहराना। यदि सचमुच तुम्हें पराजय का दुख है तो तुम इसे ऊपर चढ़ने की पहली सीढ़ी मान लो।
बड़ी बहन की सीख ने उसकी आंखें खोल दीं और उसने इसे आदर्श मानकर स्वयं को उसके अनुरूप ढालना शुरू किया। आगे चलकर यही छात्र अर्नेस्ट हेमिंग्वे के नाम से विश्वस्तरीय साहित्यकार हुआ और साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाया।
वस्तुत: जल्दबाजी व अनियोजित कार्यशैली अपेक्षित परिणाम नहीं देती और बनते काम बिगड़ जाते हैं। इसलिए धर्य से व सोच-विचारकर कार्य करना चाहिए।
जब गायिका ने मंच से लोरी गाकर बच्चे को सुला दिया
मार्लीन दीत्रिच अंग्रेजी और फ्रांसीसी फिल्मों की प्रख्यात पाश्र्वगायिका थीं। अनेक शहरों में उनके कार्यक्रम होते थे और उनके प्रशंसकों की लंबी फेहरिस्त थी। इतनी लोकप्रियता के बावजूद मार्लीन को अभिमान छू भी नहीं गया था। वे अत्यंत सरल एवं सहज स्वभाव की थीं। लोग उन्हें पसंद करने के साथ उनका बहुत आदर भी करते थे।
एक बार मार्लीन अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करने पेरिस गईं। एक हॉल में उनका कार्यक्रम था। संक्षिप्त भूमिका व स्वागत के पश्चात मार्लीन ने गाना प्रारंभ किया। तभी हाल में किसी बच्चे के रोने का स्वर गूंज उठा।
श्रोताओं को रसभंग होने के कारण बड़ी खीझ हुई। स्वयं मार्लीन ने भी गाना बंद कर दिया। बच्चे की मां ने उसे चुप कराने का असफल प्रयास किया, किंतु बच्च चुप नहीं हुआ। मारे शर्मिदगी के वह उठकर बाहर जाने लगी।
तभी माइक पर मार्लीन का मधुर स्वर गूंज उठा - कृपया बाहर मत जाइए, बच्चे को यों ही छोड़ दीजिए। महिला वहीं रुक गई। फिर मार्लीन ने माइक पर जो गीत गाया, वह एक अत्यंत भावपूर्ण व मधुर लोरी थी, जिसे सुनकर बच्च सो गया। तत्पश्चात मार्लीन ने उपस्थित श्रोताओं के लिए गायन किया।
कथा का सार यह है कि थोथे आडंबर की रक्षा के भय से बालसुलभ क्रियाकलापों पर रोक लगाना सर्वथा अनुचित है। बच्चों के साथ स्वयं भी उनका बचपन जीने से उनके व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास तो होता ही है, साथ ही अभिभावकों को भी दिव्य आनंद की प्राप्ति होती है।
माली की ईमानदारी के आगे नतमस्तक हो गया धनी
एक बार एक व्यक्ति को व्यर्थ घूमते-फिरते देख एक धनी व्यक्ति ने उसे अपने बाग की रखवाली करने का काम सौंप दिया। वह अनेक वर्षो तक मेहनत व ईमानदारी से यह कार्य करता रहा। धनी उससे बहुत प्रसन्न था। एक बार धनी के घर कुछ मेहमान आए। धनी ने अपने उस माली को बाग से कुछ मीठे आम लाने के लिए कहा। माली ने तत्काल बाग में जाकर कुछ आम तोड़े और उन्हें मेहमानों के समक्ष रख दिया। धनी ने अपने बाग के मीठे आमों की मेहमानों से खूब तारीफ की और उन्हें खाने का आग्रह किया। जब मेहमानों ने आम खाए तो सारे खट्टे निकले। तब वह धनी व्यक्ति माली पर बहुत नाराज हुआ और बोला - क्या तुम्हें खट्टे और मीठे आमों की पहचान नहीं है? माली ने कहा - मुझे इस विषय में कोई जानकारी नहीं है। धनी ने जब इसका कारण पूछा तो वह बोला - मैंने
आज तक एक भी आम नहीं चखा। तब धनी ने कहा - तुम सारा दिन बाग में रहते हो, तुम जब चाहते आम खा सकते थे। तब माली बोला - आपने मुझे आज तक आम खाने को नहीं कहा, फिर मैं अपनी मर्जी से कैसे खा लेता? बिना आपकी आज्ञा के यह चोरी कहलाती। आपने मुझे रखवाली के लिए रखा है। मैं दूसरों को बाग में चोरी नहीं करने देता तो स्वयं कैसे करता? धनी अपने माली की ईमानदारी देख श्रद्धावनत हो गया। यही माली आगे चलकर महात्मा इब्राहिम के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुआ। ईमानदार व्यक्ति को विश्वसनीयता प्रतिष्ठित करती है। यही कमाई जीवन की सबसे बड़ी पूंजी होती है ।
न्याय के लिए न्यायाधीश अपनी ही पत्नी के विरुद्ध खड़े हुए
यहूदी धर्मगुरु वूल्फ अत्यंत शांतिप्रय और न्यायशील व्यक्ति थे। उनके सामने जो भी मामला निपटाने के लिए लाया जाता, वे बड़ी शांति से दोनों पक्षों को सुनकर उचित निर्णय देते थे। इसलिए जनता के बीच वे लोकप्रिय थे और लोग उन्हें निष्पक्ष न्यायकर्ता के रूप में काफी सम्मान देते थे।
एक बार वूल्फ के घर से एक चांदी का बर्तन चोरी हो गया। वूल्फ की पत्नी ने यह बात वूल्फ को बताई। वूल्फ ने पत्नी से जानना चाहा कि उसे किस पर संदेह है? पत्नी ने अपने घर की नौकरानी पर शक जाहिर किया क्योंकि वही दिन भर उनके घर में रहकर सभी कार्य करती थी।
जब वूल्फ ने नौकरानी से सच्चई जाननी चाही तो उसने स्वयं को निर्दोष बताया। वूल्फ की पत्नी को नौकरानी की बातों पर विश्वास नहीं था, इसलिए वह धर्म न्यायालय से न्याय पाने के लिए घर से जाने लगी। तब वूल्फ भी अपना धर्माचार्य का चोगा पहनकर चलने के लिए तैयार होने लगे।
यह देख उनकी पत्नी बोली- आपको मेरे साथ चलने की आवश्यकता नहीं है। न्यायालय में क्या और कैसे बोला जाता है, यह मैं बखूबी जानती हूं। वूल्फ ने उत्तर दिया- तुम तो सब कुछ जानती हो, लेकिन यह अनपढ़ भोली-भाली नौकरानी कुछ नहीं जानती।
मैं इसके पक्ष में न्यायालय जा रहा हूं ताकि इसे न्याय मिल सके। सार यह है कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक न्याय निष्पक्ष व पूर्णरूप से पहुंचाना चाहिए, तभी दूध का दूध और पानी का पानी होता है। न्यायाधीशों का यह परम दायित्व है उन्हें यह हर स्थिति में निभाना चाहिए।
कार्ल लीनियस ने मेहनत व लगन से पाई सफलता
कार्ल लीनियस जंतुओं तथा पौधों के वर्गीकरण एवं नवीन नामकरण की पद्धति के जनक माने जाते हैं। उनका जीवन अत्यंत प्रेरणास्पद है। लीनियस अपने युवाकाल में एक प्रतिष्ठित चिकित्सक डॉ मेरियस की पुत्री से प्रेम करते थे।
एक दिन उन्होंने मेरियस से उनकी पुत्री का हाथ मांग लिया। मेरियस ने उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योंकि कार्ल के पास न कोई नौकरी थी और न व्यवसाय। इस अस्वीकृति को कार्ल ने चुनौती की तरह लिया। उन्होंने अपनी वैज्ञानिक प्रतिभा को विकसित करने के लिए प्रयास आरंभ किए।
उन्होंने एक विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू की। वे इतने निर्धन थे कि उनके पास मोमबत्ती खरीदने तक के पैसे नहीं थे। इसलिए सड़क की रोशनी में पढ़ाई करते थे। एक वनस्पति वैज्ञानिक ने उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उनका कार्य आगे बढ़ाया।
अंतत: सभी प्रकार से प्रयास कर लीनियस ने विज्ञान पद्धति को प्रस्तुत किया और चिकित्सा विज्ञान में भी उपाधि प्राप्त की। संपूर्ण विश्व में सम्मान और सराहना के साथ उन्हें अच्छा वेतन और पद भी मिला। तब मेरियस ने उन्हें स्वीडन आमंत्रित कर अपनी पुत्री सेरालिजा का विवाह उनके साथ कर दिया।
कार्ल लीनियस द्वारा किए गए पेड़-पौधों के वर्गीकरण व नामकरण की पद्धति को जीव विज्ञान में आधार मानकर अभी भी उसका अनुसरण होता है। वस्तुत: चुनौती स्वीकार कर उस पर विजय पाने के लिए लगन, मेहनत और मजबूत संकल्प की आवश्यकता होती है, जो सफलता को सुनिश्चित कर देती है।
महिला की बात सुन खलीफा को भूल का अहसास हुआ
खलीफा हजरत उमर प्रजा हितैषी थे। उनके शासनकाल में प्रजा सुखी व प्रसन्न थी। एक दिन खलीफा हजरत उमर वेश बदलकर प्रजा के दुख-सुख जानने के लिए घूमने निकले। एक छोटे-से मकान की बगल से जब वे गुजरे तो उन्हें उस मकान से बच्चों के रोने की आवाज सुनाई दी।
वे वहीं रुक गए और पूरी बात जानने की कोशिश करने लगे। उन्होंने खिड़की से देखा कि एक औरत के पास बैठे बच्चे रो रहे हैं। सामने चूल्हे पर हांडी चढ़ी है और वह औरत बच्चों से कह रही है कि अभी खाना दूंगी।
खलीफा काफी देर तक वहां रुके, किंतु औरत ने बच्चों को कुछ नहीं दिया। यह देख खलीफा ने घर में प्रवेश किया और औरत से पूछा- तुम इन्हें खाना क्यों नहीं देतीं? औरत रोते हुए बोली- मेरे पास है ही क्या, जो इन्हें दूं?
यदि कुछ होता तो क्या अब तक इन्हें भूखा रखती? खलीफा यह सुनकर चौंके और पूछा- तो इस हांडी में क्या पका रही हो? खलीफा ने ढक्कन हटवाकर देखा तो उसमें केवल पानी था।
उन्होंने औरत को खलीफा से सहायता मांगने को कहा तो वह बोली- यह खलीफा की जिम्मेदारी है कि वह लोगों के कष्टों की जानकारी रखे। अगर खलीफा मेरे पति को लड़ाई पर भेज सकते हैं तो हमारा ख्याल रखना भी उनकी जिम्मेदारी है।
खलीफा को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने तत्काल उस महिला के परिवार के भरण-पोषण की व्यवस्था की। वस्तुत: अपनी प्रजा के प्रत्येक वर्ग का हर स्थिति में समुचित ध्यान रखना राजा का परम कर्तव्य है।
असभ्यों से सीखी सभ्यता हकीम लुकमान ने
एक थे हकीम लुकमान, जो अपनी दवाओं के साथ-साथ अच्छी नसीहतों के लिए भी काफी प्रसिद्ध हुए। वे जितने कुशल हकीम थे, उतने ही नेकदिल इंसान भी।
इसी वजह से लोग उनके पास मात्र अपनी शारीरिक बीमारियों का इलाज कराने ही नहीं, बल्कि मन की उलझनों व विविध बौद्धिक जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करने भी आते थे।
एक दिन एक व्यक्ति लुकमान के पास आया और थोड़ी देर की बातचीत के बाद उसने प्रश्न किया - हकीम साहब, मैं यह जानना चाहता हूं कि आपने इतनी शिष्टता और सभ्यता कहां से सीखीं? हकीम साहब ने उत्तर दिया- अशिष्ट और असभ्य लोगों से।
उस व्यक्ति ने अचकचाकर पूछा- यह कैसे संभव है? भला अशिष्ट व असभ्य लोग किसी को क्या सिखा सकते हैं? तब लुकमान बोले- तुम गलत कह रहे हो। जरा सोचकर देखो। मुझे अशिष्ट और असभ्य लोगों की जो बातें बुरी लगीं, उन्हें मैंने तत्काल त्याग दिया।
उनके जिस व्यवहार ने मुझे कष्ट पहुंचाया, उसे मैंने भी करना छोड़ दिया। मैंने यह सोचा कि जो बात मुझे अप्रिय लगी, वह औरों को भी अप्रिय लगेगी। इस प्रकार मैंने अशिष्ट लोगों से ही शिष्टता सीखी है। वह व्यक्ति उनकी बात का मर्म समझ गया और उसने उसे एक सबक मानकर ग्रहण कर लिया।
जैसा सद्व्यवहार व्यक्ति स्वयं के प्रति दूसरों से चाहता है, वैसा ही अच्छा व्यवहार उसे भी दूसरों के साथ करना चाहिए। वस्तुत: सम्मान देने से ही सम्मान मिलता है।
मित्र को मित्रता के मायने समझाए ईश्वरचंद्र ने
ईश्वरचंद्र विद्यासागर दया, स्नेह और विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे। इसी कारण उनके मित्रों और चाहने वालों की संख्या विशाल थी। वे सभी से बड़े प्रेम से मिलते तथा लोगों की हरसंभव मदद भी करते थे। एक बार उनका एक धनवान मित्र उनसे मिलने आया।
वह उनका बहुत बड़ा प्रशंसक भी था। जब वह उनके घर की ओर जा रहा था तो रास्ते में उसे विद्यासागर का स्वर सुनाई दिया। उसने देखा कि विद्यासागर एक छोटी-सी दुकान के भीतर एक खाट पर बैठे बातें कर रहे हैं और उनके आसपास अत्यंत निर्धन दिखाई देने वाले व्यक्तियों का समूह बैठा है।
उसने गाड़ी रोककर विद्यासागर को पुकारा। वे अपने मित्र को देखते ही तत्काल बाहर आ गए और उसे गले लगाकर उसके हाल-चाल पूछने लगे। थोड़े दिनों बाद जब विद्यासागर की उसी मित्र से फिर भेंट हुईं तो उसने कहा- तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखना चाहिए। ऐसे छोटे लोगों के साथ क्यों बैठते हो?
विद्यासागर ने हंसते हुए कहा- तो फिर तुम क्यों मेरे साथ बैठते हो? मित्र ने उनकी बात पर चिढ़कर कहा- तुम तो मेरे मित्र हो और मित्रता में कोई अमीर या गरीब नहीं होता। तब विद्यासागर बोले- यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता हूं कि मित्रता में कोई छोटा-बड़ा, संपन्न-विपन्न नहीं होता।
उनकी बात सुनकर मित्र को अपनी भूल का अहसास हुआ और उसने क्षमा मांगी। दरअसल मित्रता संपन्नता नहीं, प्रेम और विश्वास का आधार होती है। अमीरी-गरीबी दिमाग का विषय है और मित्रता हृदय का।
अन्न के आदर का संदेश दिया डॉ जाकिर हुसैन ने
छात्रावास में छात्रों को भोजन परोसा गया तो कई छात्रों ने प्लेट में रखी सब्जी को देखकर नाक-भौं सिकोड़ ली। उस दिन बैंगन का भुर्ता बना था। छात्रों को भुर्ता पसंद नहीं था, इसलिए वे शोर मचाकर विरोध प्रकट करने लगे।
कुछ छात्रों ने जली हुई रोटी के किनारे तोड़े और प्लेट में पानी डालकर प्लेट दूर खिसका दी। जब भोजन कक्ष में यह हंगामा मच रहा था, तब बाहर एक व्यक्ति भोजन करने आए छात्रों के जूतों को उठाकर करीने से जमा रहा था। शोर बढ़ने पर वह अंदर आया।
वह कभी-कभी लड़कों के साथ खाना खाता था। आज उसने लड़कों द्वारा सरकाकर रखी गई जली रोटी के टुकड़े, पानी तथा भुर्ते वाली प्लेट उठाई और उसमें जैसा भी कुछ मिला, उसे मजे से खाने लगा। अब लड़कों से रहा नहीं गया।
उन्होंने दूसरी प्लेट सजाने के लिए कहा तो व्यक्ति के हाथ रुक गए और वह बोला- तुम लोगों को मालूम नहीं कि तुम्हारे आसपास की बस्तियों में ऐसे लोग भी रहते हैं, जिन्हें यह भी खाने को मिल जाए, जो तुमने फेंका है तो वे भूखे नहीं सोएंगे।
किंतु तुम लोगों ने इस खाने को इस लायक भी नहीं छोड़ा कि यह किसी को दिया जा सके। इसीलिए मैंने सोचा कि यदि मैं ही इसे खा लूं तो कम से कम मेरा खाना तो किसी भूखे को दिया ही जा सकता है। अन्न के आदर का संदेश देने वाला यह सामान्य व्यक्ति आगे चलकर भारत का राष्ट्रपति बना।
उसका नाम था- डॉ जाकिर हुसैन। वस्तुत: अन्न का आदर किया जाना चाहिए। धर्मग्रंथों में अन्न को भगवान का दर्जा दिया गया है।
मणिबेन ने बताया सद्गुण अच्छे व्यक्ति की पहचान हैं
मणिबेन लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की सुपुत्री थीं। वे अपने पिता की जी-जान से सेवा करती थीं और उन्हीं के समान बहुत निष्ठावान राष्ट्रभक्त थीं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में और आजादी मिलने के बाद विविध प्रांतों को एक कर राष्ट्र का एक सबल ढांचा खड़ा करने में सरदार पटेल की सशक्त भूमिका है।
एक बार की बात है। सरदार पटेल अस्वस्थ थे। मणिबेन उनकी दवा आदि का ध्यान रखती थीं। एक दिन वे अपने पिता को दवा पिला रही थीं कि तभी वरिष्ठ कांग्रेसी महावीर त्यागी अपने कुछ मित्रों के साथ वहां आए।
बातचीत के दौरान उन्होंने देखा कि मणिबेन की धोती में जगह-जगह पैबंद लगे हैं। वे बोल- मणिबेन! तुम एक ऐसे पिता की बेटी हो जिसने सालभर में इतना बड़ा चक्रवर्ती राज्य स्थापित किया है, जितना बड़ा न अकबर का और न अशोक का था।
ऐसे बड़े सरदार की बेटी होकर तुम्हें पैबंद लगी धोती पहनने में शर्म नहीं आती? मणिबेन ने कहा- शर्म आए उन लोगों को, जो झूठ बोलते, बेइमानी करते और शेखी बघारते हैं। मैं तो गरीब बाप की बेटी हूं। अच्छे कपड़े कहां से लाऊंगी।
और हां, नैतिक दृष्टि से स्वस्थ जीवन जी सकें इसके लिए जरूरत है सच्चई को पहचानकर अंगीकार करने की, जो मात्र सादगी रूपी परहेज से ही संभव है। मणिबेन के विचार जान महावीर त्यागी नतमस्तक हुए।
वस्तुत: अच्छे व्यक्ति की पहचान उसके कपड़ों से नहीं, बल्कि गुणों व व्यवहार से होती है। इसलिए रहन-सहन भले सादा हो, किंतु विचार व व्यवहार श्रेष्ठतम होना चाहिए।
आडंबर से दूर रहने के कारण विजयी हुआ नादिर शाह
करनाल के विशाल मैदान में मुहम्मद शाह की सेना नादिर शाह के हाथों परास्त हो चुकी थी। विजयी नादिर शाह जब दिल्ली पहुंचा तो उसका भव्य स्वागत किया गया। स्वयं मुहम्मद शाह ने उसकी अगवानी की।
उसके मंत्री, सेनापति सभी नादिर शाह के सम्मान में नतमस्तक खड़े थे। कुछ देर बाद नादिर शाह को प्यास लगी। उसने पानी पीने की इच्छा व्यक्त की तो मुहम्मद शाह ने अपने सेवकों को पानी लाने का संकेत किया।
नादिर शाह बहुत देर तक पानी की प्रतीक्षा करता रहा, किंतु पानी नहीं आया। वह सोचने लगा कि उसने कोई खाने की वस्तु तो नहीं मांगी थी, जिसे बनाने में इतनी देर लगे। तभी उसे नगाड़े और तुरही की आवाज सुनाई दी।
उसने सोचा कि शायद कोई उत्सव आरंभ हुआ होगा। देखा, तो अनुचरों की भीड़ सोने-चांदी के थालों में सजाए, चंवर डुलाते हुए पानी की सुराही, गिलास, पानदान और पीकदान लिए चली आ रही है। पानी पिलाने के लिए यह सारा आडंबर होते देख नादिर शाह बोला- मुहम्मद शाह!
अब मैं समझा कि इतनी विशाल सेना होने पर भी तुम क्यों हार गए। इतना कहकर उसने अपने भिश्ती को संकेत दिया तो वह मशक में पानी भरकर ले आया। नादिर शाह ने मशक से पानी गिलास में भरा और पी लिया।
इसके बाद वह मुहम्मद शाह से बोला- यदि हम भी तुम्हारी तरह विलासी होते तो कभी विजय प्राप्त नहीं कर पाते। वस्तुत: आडंबर से जितना दूर रहकर सादा और सरल जीवन जिएंगे, उन्नति के उतने ही नजदीक होंगे।
जब दिखावे के लिए नेहरूजी ने आयोजकों को फटकारा
पंडित जवाहरलाल नेहरू जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने सर्वप्रथम कृषि विकास पर ध्यान दिया, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी। नेहरूजी ने कृषकों के हित में कई योजनाएं बनाईं और कृषि वैज्ञानिकों से निरंतर विचार-विमर्श कर कृषि में आधुनिक तरीकों के उपयोग को बढ़ावा दिया।
प्रथम पंचवर्षीय योजना में भी कृषि विकास को सर्वोपरि रखा गया। इसी क्रम में विभिन्न सिंचाई परियोजनाओं का भी शुभारंभ किया गया। एक दिन जवाहरलाल नेहरू पंजाब में एक सिंचाई परियोजना का उद्घाटन करने पहुंचे। आयोजकों द्वारा पंडितजी का भव्य स्वागत किया गया।
नेहरूजी सहित विभिन्न वक्ताओं ने भारतीय कृषि और कृषकों पर अपने विचार रखे। तत्पश्चात सभी उद्घाटन स्थल पर पहुंचे। आयोजकों ने उद्घाटन के लिए पं. नेहरू को चांदी की कुदाल पकड़ा दी। चांदी की कुदाल देखकर पंडितजी नाराज होकर बोले- आप लोग जरा मुझे यह बताइए कि क्या भारतीय कृषक चांदी की कुदाल से काम करता है?
आयोजकों के सिर शर्म से झुक गए। फिर उन्होंने लोहे की कुदाल मंगवाई और नेहरूजी ने उससे परियोजना का उद्घाटन किया। साथ ही इस दिखावे के लिए आयोजकों को कड़ी फटकार भी लगाई। उक्त घटना का सार यह है कि व्यर्थ आडंबर से बचना चाहिए।
आडंबर से जहां धन का अपव्यय होता है वहीं समय का भी। अत: कार्य का संपन्न होना ही हमारा मूल लक्ष्य होना चाहिए, जो सहज-सरल तरीकों से भी किया जा सकता है। वस्तुत: यही श्रेयस्कर भी होता है।
परदुख कातरता का अद्भुत संदेश दिया बालक ने
एक बालक के मन में दूसरों के कष्ट देखकर बहुत पीड़ा होती थी। उसका संवेदनशील हृदय मदद के लिए सदैव आतुर रहता था। वह सोचता था कि कैसे वह सभी की परेशानियां हल कर दे और दुनिया में कोई दुखी न रहे।
एक दिन वह बालक स्कूल की छुट्टी होने पर जब घर जाने के लिए निकला तो उसने देखा कि एक हट्टा-कट्टा नौजवान एक दुबले-पतले मासूम-से लड़के को बेंत से मार रहा है। उस लड़के के लिए बेंत की मार असहनीय थी और वह लगातार रोए जा रहा था।
मारने वाला इतना निर्दयी था कि उसे लड़के पर तनिक भी दया नहीं आ रही थी। बालक से यह दृश्य देखा नहीं गया। वह उस नौजवान के पास गया और बोला- भाई साहब, आप इस लड़के को कितने बेंत मारना चाहते हैं?
नौजवान ने चिढ़कर कहा- तुम्हें इससे क्या मतलब है? बालक बोला- मैं इतना शक्तिशाली तो नहीं हूं कि इस लड़के के पक्ष में आपसे लड़ सकूं। किंतु मैं इतना अवश्य कर सकता हूं कि इसकी पिटाई में हिस्सेदार बन जाऊं।
मेरा मतलब है कि आप इस लड़के को जितनी बेंत मारना चाहते हैं उसके आधे मेरी पीठ पर मार लीजिए। नौजवान बालक की यह बात सुनकर अपने कृत्य पर शर्मिदा हुआ और उसने लड़के को पीटना बंद कर बेंत तोड़कर फेंक दी।
यही बालक आगे चलकर अंग्रेजी के ख्यात कवि लार्ड बायरन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरों के दर्द को अपना मानकर उसमें हिस्सेदारी करने वाला सच्च परोपकारी होता है। यह पर दुख कातरता उसे मनुष्य से देवत्व की श्रेणी में ला खड़ा करती है।
सरल उदाहरण से गहरी बात समझाई स्वामी रामतीर्थ ने
एक समय की बात है। उस वक्त स्वामी रामतीर्थ अध्यापन कार्य करते थे। छात्रों को वे किताबी ज्ञान के अलावा व्यावहारिक शिक्षा भी देते थे, जो उनके लिए अत्यंत प्रेरणास्पद होती थी। इसलिए छात्र स्वामी रामतीर्थ के पास बड़े मनोयोग से पढ़ने आते थे।
स्वामीजी छोटे व सरल उदाहरणों से उन्हें जीवन की महत्वपूर्ण चीजें समझा देते थे। एक बार स्वामीजी ने कक्षा शुरू होते ही श्यामपट पर एक लकीर खींची और फिर छात्रों से पूछा- क्या तुममें से कोई छात्र इस लकीर को छोटा कर सकता है?
एक छात्र तेजी से उठकर श्यामपट के पास आया और उसने लकीर को मिटाकर छोटा करने के लिए हाथ बढ़ाया। तभी स्वामीजी ने उसे रोक दिया और बोले- मैंने लकीर को मिटाने के लिए नहीं, बल्कि इसे छोटा करने के लिए कहा है।
यह सुनकर सभी छात्र सोच में पड़ गए कि आखिर बिना लकीर को मिटाए इसे छोटा कैसे किया जाए? तभी एक छात्र उठा और उसने उसी लकीर के पास एक उससे बड़ी लकीर खींच दी, जिससे वह लकीर अपने-आप छोटी नजर आने लगी।
तब स्वामीजी बोले- जानते हो, इसका क्या अर्थ है? देखने में यह बात अत्यंत साधारण है कि एक लकीर के पास उससे बड़ी लकीर खींच देने से वह छोटी हो जाती है।
किंतु इसका गहरा अर्थ यह है कि जीवन में महान बनने के लिए किसी व्यक्ति को मिटाना जरूरी नहीं है, बल्कि मनुष्य अपने गुणों से स्वयं को इतना महान बनाए कि सामने वाला खुद-ब-खुद छोटा पड़ जाए।
धर्म का सही स्वरूप बताया काका कालेलकर ने
एक बार काका साहब कालेलकर अपने कुछ मित्रों के साथ बैठे थे। समय अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त होने के बाद का था। राष्ट्र की दुर्दशा के ज्वलंत प्रश्न पर सभी के मध्य विचार-मंथन हो रहा था। हिंदू-मुस्लिम दंगों पर सभी चिंतित थे और सोच रहे थे कि समस्या का कैसे समाधान हो?
तभी वहां काका कालेलकर का छोटा पुत्र आया और उनसे बोला- पिताजी, ये मुसलमान लोग प्रतिदिन हिंदुओं को मार देते हैं। मुझे इन पर बड़ा गुस्सा आता है। क्यों न हम मिलकर इन्हें मार दें? बच्चे की बात सुनकर काका ने उसका समाधान करने के लिए पूछा- ठीक है, लेकिन हम शुरुआत कहां से करें?
चलो, इमाम से ही शुरू करते हैं। यह सुनते ही बच्चा बोला- नहीं पिताजी, वह तो हमारे बुजुर्ग हैं। भला उन्हें क्यों मारा जाए? तब काका ने कहा- अच्छा चलो फिर अमीना को मार देते हैं? यह सुनकर बच्च चिंतित होकर बोला- नहीं, नहीं अमीना दीदी को कोई नहीं मार सकता। वह तो मेरी बहन जैसी है।
काका ने अब कहा- अच्छा फिर पड़ोसी हमीद की हत्या कर दी जाए। बच्चा चिल्ला पड़ा- हमीद मेरा दोस्त है। मैं हमीद की हत्या नहीं होने दूंगा। तब काका उसे समझाते हुए बोले- बेटा, मुसलमान भी हमारे भाई हैं। जो लोग हिंसा करते हैं, वे न हिंदू हैं और न मुसलमान। और उनका कोई धर्म भी नहीं होता।
हम सबसे पहले इंसान हैं। जिस तरह तुम मुस्लिम भाई-बहनों की हत्या सहन नहीं कर सकते, उसी तरह मुस्लिम भी हिंदुओं की हत्या सहन नहीं कर सकते। अत: हमें सभी धर्मो का आदर करना चाहिए।
महामना मालवीय के आदर्श से राजा की छूटी शराब
पंडित मदनमोहन मालवीय ने जब कॉलेज की शिक्षा पूर्ण की, तब उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। उन्हें तत्काल अध्यापक की नौकरी करनी पड़ी। काला कांकर के राजा श्री रामपाल सिंह ने उनकी बहुत ख्याति सुन रखी थी।
उन्होंने उस समय ‘हिंदुस्तान’ नामक समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ किया था, जिसके लिए उन्हें एक सुयोग्य संपादक की जरूरत थी। उन्होंने मालवीयजी को बुलवाकर उनसे संपादक बनने का आग्रह किया। आर्थिक तंगी के चलते मालवीयजी ने यह प्रस्ताव स्वीकार तो कर लिया, किंतु शराब के आदी राजा के सामने शर्त रखी कि जब आप नशे में हों तो कृपया कार्यालय में मेरे पास न आएं।
राजा साहब ने मान लिया। इसके बाद मालवीयजी ने संपादन का कार्य अत्यंत तन्मयता से शुरू कर दिया। किंतु एक दिन राजा साहब नशे में अपनी शर्त भूल गए और मालवीयजी के कार्यालय जा पहुंचे।
मालवीय जी ने तुरंत त्याग पत्र दे दिया। नशा उतरने पर राजा साहब को बड़ी ग्लानि हुई और उन्होंने मालवीय जी से क्षमा याचना की, किंतु मालवीयजी बोले- मैं अपने आदर्शो को सर्वोपरि मानता हूं और उनके साथ कोई समझौता नहीं कर सकता।
आप मुझे क्षमा करें, मैं अब आपके यहां कार्य नहीं कर सकता। राजा साहब ने उस दिन से शराब छोड़ दी और मालवीयजी को वकालत पढ़ने के लिए 250 रुपए मासिक छात्रवृत्ति देते रहे। वस्तुत: नैतिक प्रतिमानों के पालन से जीवन आदर्श बनता है, जिससे दूसरों के सुधार की राह भी खुलती है।
ज्ञानप्राप्ति में सजगता की सीख दी गौतम बुद्ध ने
महात्मा गौतम बुद्ध के श्रावस्ती में प्रवचन चल रहे थे। प्रवचन में नित्य ही बड़ी संख्या में लोग आते और विविध महत्वपूर्ण व गंभीर विषयों पर बुद्ध से ज्ञान ग्रहण करते। बुद्ध का शिष्य वर्ग भी काफी विशाल था, जो प्रवचन स्थल की व्यवस्था संभालता और बुद्ध की सेवा में सदैव तत्पर रहता।
एक बार रात के समय महात्मा बुद्ध प्रवचन दे रहे थे। सदैव की भांति काफी लोग उनके प्रवचन सुन रहे थे। एक व्यक्ति जो बुद्ध के ठीक सामने बैठा था, बार-बार नींद के झोंके ले रहा था। बुद्ध थोड़ी देर तक तो प्रवचन देते रहे, फिर उससे बोले- वत्स, सो रहे हो?
उस व्यक्ति ने हड़बड़ाकर कहा- नहीं महात्मा। बुद्ध ने पुन: प्रवचन प्रारंभ किए। वह व्यक्ति फिर ऊंघने लगा। महात्मा ने फिर वही प्रश्न दोहराया और उसने फिर अचकचाकर नहीं महात्मा कहा। ऐसा लगभग आठ-दस बार हो गया। कुछ देर बाद बुद्ध ने उससे पूछा- वत्स जीवित हो?
हर बार की तरह इस बार भी उसने कहा- नहीं महात्मा। यह सुनकर उपस्थित श्रोताओं में हंसी की लहर दौड़ गई और वह व्यक्ति पूर्णत: चैतन्य हो गया। तब बुद्ध गंभीर होकर बोले- वत्स! निद्रा में तुम्हारे मुख से सही उत्तर निकल ही गया।
जो निद्रा में है, वह मृतक समान ही है। महात्मा बुद्ध का संकेत था कि गुरु से ज्ञान ग्रहण करते वक्त सजगता अत्यंत आवश्यक है। गाफिल रहने की स्थिति में ज्ञान की प्राप्ति पूर्ण नहीं होती और अधकचरा ज्ञान सदैव खतरनाक साबित होता है।
जब गांधीजी ने निर्धन के दान को सर्वोपरि माना
गांधीजी चरखा संघ के चंदे के लिए एक बार ओडिशा के एक गांव में गए। वहां उनका भाषण समाप्त हो जाने के उपरांत एक वृद्धा खड़ी हुई। उसके कपड़े फटे हुए थे और वह अत्यंत कमजोर दिखाई दे रही थी।
नि:संदेह वह बहुत निर्धन थी। स्वयं सेवकों के लाख रोकने के बावजूद वह गांधीजी के पास गई। उसने गांधीजी के पैर छुए और साड़ी के पल्ले से बंधा तांबे का एक सिक्का निकालकर गांधीजी के पैरों में रख दिया। गांधीजी ने उस सिक्के को उठाया और संभालकर रख लिया।
चरखा संघ के चंदे के रुपए जमनालाल बजाज के पास रहते थे। उन्होंने गांधीजी से उस सिक्के को मांगा तो गांधीजी ने सिक्का देने से मना कर दिया। जमनालालजी ने हंसते हुए गांधीजी से कहा- चरखा संघ के हजारों रुपए मेरे पास जमा हैं, फिर भी आपको मेरे ऊपर एक तांबे के सिक्के के लिए विश्वास नहीं है।
गांधीजी ने उत्तर दिया- यह तांबे का सिक्का उन हजारों रुपए से अधिक कीमती है। यदि किसी व्यक्ति के पास लाखों रुपए हों और वह उसमें से एक-दो हजार रुपए चंदे में दे देता है तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। किंतु यह तांबे का सिक्का तो उस वृद्धा का सब कुछ था।
इसलिए इस सिक्के की कीमत हजारों रुपए से भी अधिक है। वस्तुत: निर्धन द्वारा दिया गया दान भगवान के प्रसाद के समान पवित्र व श्रेष्ठ होता है, क्योंकि वह अपनी बुनियादी जरूरतों में कटौती कर इसे देने में सक्षम हो पाता है। इसलिए उसके दान को सदैव अधिक सम्मान देना चाहिए।
विपत्तियों को छोटा मान लेना उन पर विजय पाने जैसा ही है
हमारे व्यक्तित्व में जिस बात का रस भरा होगा, उसके छींटे हमसे मिलने वालों पर गिरेंगे ही। हनुमानजी तो भीतर से भक्ति रस से भरे हुए हैं, उनके रोम-रोम में राम हैं। इसी कारण जो उनसे मिलता है, उसे सान्निध्य सुख प्राप्त होता है।
उनकी मौजूदगी ही अपने आप में एक संरक्षण बन जाती है। सुंदरकांड में लंका प्रवेश पर हनुमानजी व लंकनी का वार्तालाप तुलसीदासजी ने बड़े गहन भाव के साथ लिखा है। वह हनुमानजी से हो रही अपनी इस वार्ता को सत्संग बताती है और आगे लंका प्रवेश के लिए हनुमानजी को एक विचार देती है।
इस विचार की चौपाई को तुलसीदासजी ने लंकनी जैसी राक्षसी के मुंह से कहलाया है- प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयं राखि कोसलपुर राजा।। अयोध्या पुरी के राजा श्रीरघुनाथजी को हृदय में रखकर नगर में प्रवेश करते हुए सब काम कीजिए।
मानस की यह चौपाई अपने प्रभाव के कारण ही मंत्र हो गई। विपत्तियों को छोटी मान लेना ही उन पर विजय जैसा है। हनुमानजी के हृदय में तो श्रीराम पूर्व से थे ही, क्योंकि लंका के लिए उड़ते समय उनके लिए लिखा गया है- यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा।।
उन्होंने दो काम किए थे- पहला श्रीराम हृदय में थे, दूसरा प्रसन्न थे। इसी कारण हनुमानजी की उपस्थिति मात्र से लंकनी के विचार भी दिव्य हो गए। हम अपनी भीतरी स्थिति को जितना पुनीत रखेंगे, बाहर का वातावरण उतना ही शुभ होगा।
जब फ्रेंकलिन ने खरीदार से समय की कीमत ली
एक पुस्तक प्रेमी हर विषय की पुस्तकों की खोज में रहता था। वह अनेक दुकानों पर जाता और पुस्तकों का बारीकी से अवलोकन करता। एक दिन वह पुस्तक प्रेमी बाजार से गुजर रहा था कि अचानक उसे पुस्तकों की एक ऐसी दुकान दिखी, जिस पर वह पहले कभी नहीं आया था।
वह तत्क्षण दुकान में प्रवेश कर गया और पुस्तकें देखने लगा। थोड़ी देर तक पुस्तकें देखने के बाद उसने दुकान के एक कर्मचारी से पूछा - इस पुस्तक की क्या कीमत है? कर्मचारी ने कहा - एक डॉलर। वह व्यक्ति बोला - कुछ कम नहीं हो सकता?
कर्मचारी ने स्पष्ट इंकार कर दिया। तब उस व्यक्ति ने दुकान के मालिक से मिलने की इच्छा व्यक्त की। मालिक के आने पर उसने पूछा - इस पुस्तक को आप कम से कम कितनी कीमत में दे सकते हैं? मालिक का उत्तर था - सवा डॉलर।
व्यक्ति चकित हो बोला - आपके कर्मचारी ने तो इसका मूल्य एक डॉलर बताया था। मालिक बोला - उसने ठीक बताया। बाकी मेरे समय की कीमत है। व्यक्ति ने अंतिम रूप से कीमत बताने को कहा तो मालिक बोला - अब डेढ़ डॉलर।
आप जितनी देर करेंगे, उतनी कीमत बढ़ेगी क्योंकि समय का मूल्य भी इसके साथ जुड़ जाएगा। आखिर उसने डेढ़ डॉलर में पुस्तक खरीदी। उसे समय का मूल्य बताने वाले थे - बेंजामिन फ्रेंकलिन जो बाद में अमेरिका के विख्यात राजनीतिज्ञ व दार्शनिक बने।
दरअसल समय पर काम करने वाला सदैव प्रगति करता है क्योंकि वह प्रत्येक कार्य को सफलतापूर्वक करने के सही समय से परिचित होता है।
और नेहरूजी ने बिना दाम दिए छड़ी नहीं ली
एक बार पंडित जवाहरलाल नेहरू किसी कार्य से मसूरी गए। वहां वे प्राय: लोगों से मेल-मुलाकात के विचार से बाजार घूमने चले जाते थे। एक दिन वे मसूरी के बाजार में लोगों से मिलते हुए घूम रहे थे कि एक वृद्ध मुसलमान की छड़ियों की दुकान के सामने रुक गए।
उनके मन में आया कि क्यों न एक छड़ी खरीदें। उन्होंने दुकानदार से एक बढ़िया-सी छड़ी दिखाने का आग्रह किया। उसने अनेक प्रकार की छड़ियां उन्हें दिखाईं। उनमें से उन्होंने एक छड़ी पसंद कर उसके दाम दुकानदार से पूछे, तो वह बोला- पंडितजी, आप तो इस देश के अमूल्य रत्न हैं। आपसे भला मैं क्या मांगूं?
नेहरूजी ने विनम्रता से कहा- बिना कीमत दिए तो यह छड़ी मैं नहीं ले पाऊंगा। नेहरूजी की बात सुनकर दुकानदार अत्यंत स्नेह से बोला- कीमत तो मैं आपसे नहीं ले पाऊंगा। बचपन में मैंने आपको गोद में खिलाया है।
आनंद भवन के प्रांगण में मैंने आपसे तोतली बोली में सैकड़ों बार बातचीत की है। आप पर मेरा हक है जनाब। नेहरूजी उसकी आत्मीयता देख अभिभूत हो उठे और बोले- मुझ पर तो आपका पूरा हक है, लेकिन मेरा भी तो आपके प्रति कोई कर्तव्य है।
ये रुपए रखिए और अपने बच्चों के लिए मिठाई ले जाइएगा। उन्होंने सौ रुपए दुकानदार को प्रेम से दिए और आगे बढ़ गए। सार यह है कि पद, यश आदि किसी भी दृष्टि से बड़ा बनने के बावजूद अपनी कर्तव्यनिष्ठा को स्मरण रखना ही सच्चे अर्थो में व्यक्ति के बड़प्पन को दर्शाता है।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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