Monday, May 2, 2011

Aisha-Kyun (ऐसा क्यूँ) Part (1)

कौन थे परशुराम, क्यों हुआ था इनका जन्म?
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक थे। शास्त्रों के अनुसार भगवान परशुराम का जन्म वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ था। प्रतिवर्ष भगवान परशुराम की जयंती हिंदू धर्मावलंबियों द्वारा बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है। इस बार परशुराम जयंती 6 मई, शुक्रवार को है।

भगवान परशुराम के जन्म के संबंध में दो कथाएं प्रचलित हैं। हरिवंशपुराण के अनुसार उन्हीं में से एक कथा इस प्रकार है-

प्राचीन समय में महिष्मती नगरी पर शक्तिशाली हैययवंशी क्षत्रिय कार्तवीर्य अर्जुन(सहस्त्रबाहु) का शासन था। वह बहुत अभिमानी था और अत्याचारी भी। एक बार अग्निदेव ने उससे भोजन कराने का आग्रह किया। तब सहस्त्रबाहु ने घमंड में आकर कहा कि आप जहां से चाहें, भोजन प्राप्त कर सकते हैं, सभी ओर मेरा ही राज है। तब अग्निदेव ने वनों को जलाना शुरु किया। एक वन में ऋषि आपव तपस्या कर रहे थे। अग्नि ने उनके आश्रम को भी जला डाला। इससे क्रोधित होकर ऋषि ने सहस्त्रबाहु को श्राप दिया कि एक दिन भगवान विष्णु, परशुराम के रूप में जन्म लेंगे और न सिर्फ सहस्त्रबाहु का नहीं बल्कि समस्त क्षत्रियों का सर्वनाश करेंगे। इसी श्राप के फलस्वरूप भगवान विष्णु ने भार्गव कुल में महर्षि जमदग्नि के पांचवें पुत्र के रूप में जन्म लिया।

एक अन्य कथा के अनुसार जब क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार बहुत बढ़ गया तो पृथ्वी माता गाय के रूप में भगवान विष्णु के पास गई और अत्याचारियों का नाश करने का आग्रह किया। तब भगवान विष्णु ने उन्हें पृथ्वी को वचन दिया कि वे धर्म की स्थापना के लिए महर्षि जमदग्नि के पुत्र में रूप में अवतार लेकर अत्याचारियों का सर्वनाश करेंगे।

इसलिए राम को कहते हैं परशुराम
परशुराम भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक थे। इनके पिता का नाम महर्षि जमदग्नि और माता का नाम रेणुका था। बाल्यावस्था में इनके माता-पिता इन्हें राम कहकर पुकारते थे।

जब राम कुछ बड़े हुए तो उन्होंने पिता से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया और पिता के सामने धनुर्विद्या सीखने की इच्छा प्रकट की। महर्षि जमदग्नि ने उन्हें हिमालय पर जाकर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। पिता की आज्ञा मानकर राम ने ऐसा ही किया। उस बीच असुरों से त्रस्त देवता शिवजी के पास पहुंचे और असुरों से मुक्ति दिलाने का निवेदन किया। तब शिवजी ने तपस्या कर रहे राम को असुरों को नाश करने के लिए कहा।

राम ने बिना किसी अस्त्र की सहायता से ही असुरों का नाश कर दिया। राम के इस पराक्रम को देखकर भगवान शिव ने उन्हें अनेक अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए। इन्हीं में से एक परशु(फरसा) भी था। यह अस्त्र राम को बहुत प्रिय था। इसे प्राप्त करते ही राम का नाम परशुराम हो गया। शिवजी ने परशुराम को अस्त्र-शस्त्र का ज्ञान दिया। परशुराम ने इसी परशु ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहिन कर दिया था।

अपनी माता का वध क्यों किया परशुराम ने?

परशुराम भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। उनके पिता का नाम जमदग्नि तथा माता का नाम रेणुका था। परशुराम के चार बड़े भाई थे लेकिन गुणों में यह सबसे बढ़े-चढ़े थे। एक दिन जब सब सब पुत्र फल लेने के लिए वन चले गए तब परशुराम की माता रेणुका स्नान करने को गई, जिस समय वह स्नान करके आश्रम को लौट रही थीं, उन्होंने राजा चित्ररथ को जलविहार करते देखा। यह देखकर उनका मन विचलित हो गया।

इस अवस्था में जब उन्होंने आश्रम में प्रवेश किया तो महर्षि जमदग्नि ने यह बात जान ली। इतने में ही वहां परशुराम के बड़े भाई रुक्मवान, सुषेणु, वसु और विश्वावसु भी आ गए। महर्षि जमदग्नि ने उन सभी से बारी-बारी अपनी मां का वध करने को कहा लेकिन मोहवश किसी ने ऐसा नहीं किया। तब मुनि ने उन्हें श्राप दे दिया और उनकी विचार शक्ति नष्ट हो गई।

तभी वहां परशुराम आ गए। उन्होंने पिता के आदेश पाकर तुरंत अपनी मां का वध कर दिया। यह देखकर महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और परशुराम को वर मांगने के लिए कहा। तब परशुराम ने अपने पिता से माता रेणुका को पुनर्जीवित करने और चारों भाइयों को ठीक करने का वरदान मांगा। साथ ही इस बात का किसी को याद न रहने और अजेय होने का वरदान भी मांगा। महर्षि जमदग्नि ने उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी कर दीं।

चमत्कारी है यह शिवलिंग! जहां चांद भी हुआ बेदाग
भगवान शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में पहला सोमनाथ ज्योर्तिलिंग गुजरात राज्य में वेरावल नगर के समीप स्थित है, जो प्रभास तीर्थ भी कहलाता है। भारत की पश्चिम दिशा में अरबसागर के किनारे स्थित इस शिव मंदिर का महत्व यह है कि यहां भगवान शिव के ज्योर्तिलिंग की पूजा और दर्शन से कोढ़ व क्षय रोग सहित सभी गंभीर रोगों से मुक्ति मिलती है।

पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक यहीं पर क्षय रोग से शापित चंद्रदेव ने तप कर शिव की कृपा से शाप से मुक्ति पाई। तब चंद्रदेव द्वारा यहां सोने का शिवमंदिर बनाया। इसलिए इस ज्योर्तिलिंग का नाम सोमनाथ कहलाया।

मंदिर में शिव के सोमेश्वर रुप की पूजा होती है। सोमेश्वर का अर्थ है - चंद्र को सिर पर धारण करने वाले देवता यानि शिव। चंद्र को मन का कारक और शिवलिंग आत्मलिंग माना जाता है। इस तरह सोमनाथ ज्योर्तिलिंग के मात्र दर्शन से ही शरीर के रोगों के साथ-साथ मानसिक और वैचारिक शुद्धि भी होती है।

इसी क्षेत्र मे भगवान श्रीकृष्ण ने पैरों में बाण लगने के बाद देहत्याग दी और उनके वंश का नाश हुआ। यहां श्रावण पूर्णिमा, शिवरात्रि, चंद्र ग्रहण और सूर्यग्रहण पर मेला लगता है।

सोमनाथ ज्योर्तिलिंग के दर्शन के लिए हेमंत, शिशिर और वसंत ऋतु (जनवरी से अप्रैल के बीच) का मौसम अच्छा माना जाता है। गुजरात का वेरावल शहर सोमनाथ जाने के लिए मुख्य सड़क मार्ग है।

कामवासना! दबाएं नहीं काबू में लाना सीखें
कामवासना का दमन नहीं काबू करना सिखाता है योग। योग और धर्म-अध्यात्म में अक्सर यह पढऩे और सुनने को मिलता कि मनुष्य को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। यानी काम-वासना और भोग-विलास से यथा संभव दूर रहना चाहिये। लेकिन कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि जबरन काम की भावना को दबा दिया जाए। योग के क्षेत्र में अष्टांग योग को सबसे ज्यादा प्रामाणिक माना जाता है। अष्टांग योग की सिद्धियां प्राप्त करने के लिए यह अति आवश्यक है कि यम में बताए गए सभी चरणों का कड़ा पालन करें। यम का चतुर्थ चरण है ब्रह्मचर्य का पालन करना।

अष्टांग योग में यह चरण काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं कर पाता वह कुण्डलिनी जागरण की अवस्था तक कतई नहीं पहुंच सकता।ब्रह्मचर्य का पालन करना सर्वाधिक कठिन माना गया है। काम भाव की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों का कहना है कि विपरित लिंग के आकर्षण की वजह से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं हो पाता।

कुण्डलिनी जागरण की अवस्था प्राप्त करने के लिए यह अतिआवश्यक है कि हम हमारे मन में विपरिंग लिंग का स्मरण तक ना लाएं। क्योंकि यदि पुरुष किसी स्त्री का स्मरण काम की दृष्टि से करेगा या स्त्री किसी पुरुष का वैसा ही स्मरण करती है तो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर पाना असंभव सा ही है। अष्टांग योग में यह सबसे अहम चरण है इसका पालन करना अति आवश्यक है।

बिस्तर पर बैठकर खाना क्यों नहीं खाना चाहिए?
आजकल तेजी से बढ़ती महानगरीय संस्कृति के कारण हमारी रोजमर्रा के जिंदगी में बहुत तेजी से कई परिवर्तन हुए हैं। कुछ आदते ऐसी है जो अब हमारी लाइफ का एक हिस्सा बनती जा रही हैं जैसे सुबह देर से उठना रात को देर से सोना, बेड पर चाय और खाना लेना आदि। ये आदते ऐसी हैं जो हमारे शरीर को प्रभावित करती हैं। आपने अक्सर बड़े-बुजूर्गों को कहते हुए सुना होगा कि बिस्तर पर खाना नहीं खाना चाहिए।

आजकल अधिकतर लोग ऐसी बातों को अंधविश्वास मानकर उन पर भरोसा नहीं करते हैं लेकिन यह कोई अंधविश्वास नहीं है बल्कि इसके पीछे स्वास्थ्य से जुड़ा कारण भी है। हमारी भारतीय संस्कृति में बिस्तर पर खाना-पीना निषेध है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि बिस्तर पर बैठकर खाने -पीने से घर में अलक्ष्मी का निवास होता है यानी घर में दरिद्रता आती है।

साथ ही बिस्तर पर खाने -पीने से स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि जब हमें कोई बीमारी होती है या हम अस्वस्थ्य होते है तब भी उसी बिस्तर पर आराम करते हैं साथ ही धुल व अन्य कई तरह की गंदगी रहती है। जिसके कारण बिस्तर में कई तरह के छोटे छोटे सुक्ष्मजीव रहते हैं। और जब हम बिस्तर पर बैठकर भोजन करते हैं तो ये सुक्ष्मजीव हमारे शरीर में भोजन के माध्यम से प्रवेश कर जाते हैं।जिसके कारण बिस्तर पर खाना खाने पर हमे एसिडिटी और पेट की कई बीमारियां पैदा होती हैं।

टूटी -फूटी क्रॉकरी घर में नहीं रखना चाहिए क्योंकि...
आपके घर में क्रॉकरी बता देती है कि आप किस स्तर का जीवन व्यापन कर रहे हैं। इसी वजह से आजकल डिजाइनर क्राकरी का क्रेज बढ़ रहा है। इसी क्रेज के चलते कई घरों में पुराने या टूटी -फूटी क्रॉकरी में संभालकर अलग रख दी जाती हैं, जो कि अशुभ माना जाता है। इससे घर में दरिद्रता बढ़ती है और कई तरह की हानि उठाना पड़ती है।
हमेशा से ही इस बात पर जोर दिया जाता है कि घरों में टूटी -फूटी क्रॉकरी नहीं रखनी चाहिए, ना ही कभी ऐसी क्राकरी में चाय नहीं पीनी चाहिए या खाना नहीं खाना चाहिए। इस संबंध में धार्मिक तथ्य यह है कि ऐसा करने से ईश्वर की कृपा प्राप्त नहीं होती। जो व्यक्ति टूटी -फूटी क्रॉकरीज में चाय या कॉफी पीने से या भोजन करने से उससे लक्ष्मी रूठ जाती है और उसके घर में दरिद्रता पैर पसार लेती है। ऐसा होने पर कई प्रकार के आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ता है।

ऐसी क्रॉकरी को वास्तुशास्त्र में भी अशुभ माना गया है। जिस घर में ऐसी क्राकरी रखी जाती है वहां वास्तुदोष रहता है। ऐसे में वास्तुदोष दूर करने के लिए बहुत से अन्य उपाय करने के बाद भी यह दोष दूर नहीं होता है। इससे घर में नकारात्मक ऊर्जा सक्रीय हो जाती है। घर से सभी टूटी -फूटी, बेकार क्रॉकरी को दूर कर देना चाहिए। इससे वास्तु दोष समाप्त होता है और घर में सब अच्छा होने लगता है।

बेकार क्रॉकरी में चाय या कॉफी लेने से या नाश्ता करने से हमारे विचार नकारात्मक बनते हैं। जैसे क्रॉकरी में हम चाय या कॉफी हैं हमारा स्वभाव भी वैसा ही बन जाता है। इसी वजह से अच्छे और साफ क्रॉकरी में चाय या कॉफी पीए या खाना खाएं। इससे आपके विचार भी शुद्ध होंगे और सकारात्मक ऊर्जा का शुभ प्रभाव आप पर पड़ेगा।

क्या और क्यों दान करें शनि के बुरे प्रभाव से बचने के लिए?
निवार के दिन इस ग्रह से संबंधित दान, पूजा व मंत्र जप से शनि की दशा, या साढ़ेसाती के समय शनि का अशुभ प्रभाव कम हो जाता है। अशुभ शनि को शुभ बनाने के लिए लोहे व काले उड़द के दान का ज्योतिष के अनुसार विशेष महत्व है।

लेकिन शनि को प्रसन्न करने के लिए काला उड़द ही क्यों चढ़ाते हैं कोई और धान क्यों नहीं?दरअसल इसका कारण यह है कि ज्योतिष में हर ग्रह के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए उस ग्रह की रंग, प्रकृति और स्वभाव के अनुसार एक धान बताया गया है। जिसके दान से उस ग्रह का दोष कम हो जाता है।

इसीलिए अशुभ शनि को शुभ बनाने के लिए काले उड़द का दान अच्छा माना गया है क्योंकि इस धान की प्रकृति शनि के अनुसार ही है। शनि काले हैं शनि की प्रकृति वायुकारक है और इस धान की प्रकृति भी ऐसी ही है।इसीलिए शनि के लिए इस धान को चुना गया है।

गर्भवती स्त्री को मृतव्यक्ति का मुंह नहीं देखना चाहिए क्योंकि...

हमारे यहां बच्चे के जन्म के पूर्व की भी अनेक परंपराएं हैं जिनका गर्भवती महिला को पालन करना होता है। ऐसी ही एक परंपरा है कि गर्भवती स्त्री को मृतव्यक्ति या लाश को नहीं देखना चाहिए यहां तक कि उस घर के आसपास भी नहीं जाना चाहिए जहां मौत हुई हो। आजकल के अधिकांश लोग इस परंपरा का पालन नहीं करते हैं क्योंकि वे इसे सिर्फ अंधविश्वास मानते हैंलेकिन ये मान्यता अंधविश्वास नहीं है दरअसल इसके पीछे कई कारण छुपे हैं।

इसका मुख्य कारण यह है कि जिस घर में मौत होती है वहां का माहौल बहुत ही दुखमय होता है। पूरा परिवार शोक में डूबा रहता है।उस घर के माहौल देखकर गर्भवती महिला के गर्भ में पल रहे बच्चे पर बहुत अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यदि उस महिला के किसी प्रियजन की मौत हुई हो तो उसे बहुत गहरा दुख पहुंचता है और इससे होने वाली शिशु को हानि पहुंच सकती है।

इसके अलावा इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि मृत व्यक्ति के शरीर में कई तरह के बैक्टिरिया होते हैं जो बहुत तेजी से संक्रमण फैलाते हैं। गर्भवती महिला शारीरिक रूप से अधिक मजबूत नहीं होती हैं इसलिए मृत शरीर से निकलने वाले बैक्टिरिया उसे बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। इससे होने वाले शिशु और मां दोनो संक्रमित हो सकते हैं इसलिए गर्भवती महिला को मृत व्यक्ति का मुंह नहीं देखने दिया जाता या उस घर में नहीं जाने दिया जाता जहां किसी की मौत हुई हो।

रात में घर से बाहर कचरा नहीं फेंकना चाहिए क्योंकि...
हमारी भारतीय संस्कृति में हर दैनिक कार्य से जुड़ी कोई न कोई मान्यता जरूर है। ऐसी ही एक परंपरा है रात के समय घर में झाड़ू और पौछा न लगाने की। साथ ही एक मान्यता और भी है वह यह कि रात के समय घर से बाहर कचरा नहीं फेंकना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार ऐसी ही मान्यता है क्योंकि कहा जाता है इससे घर में अलक्ष्मी का वास होता है या लक्ष्मी रूष्ट हो जाती है।

इसके पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि शाम या रात्रि के समय घर की साफ-सफाई निषेध की गई है। साथ ही रात को कचरा फेंकना भी वर्जित माना गया है ताकि लोग रात के समय घर की साफ-सफाई न करें। इसका मुख्य कारण यह है कि रात के समय धूल व कचरे से घर वालों को सर्दी-जुकाम जैसी परेशानियां होने की संभावना बढ़ जाती है।

साथ ही यदि सब लोग रात को सफाई करके घर के बाहर कचरा फेंकने लगे तो घर के चारों ओर कचरा ज्यादा जमा होने लगेगा। जिससे रातभर उस कचरे में कई तरह के जीवाणु तथा मच्छर-मक्खी तेजी से जन्म लेने लगेंगे। इसीलिए यह मान्यता बनाई गई है ताकि रात के समय लोग अपने घरों से बाहर कचरा ना फेंके।

मंदिर में दर्शन करने के बाद परिक्रमा करना जरूरी क्यों?
हम भगवान की परिक्रमा करते हैं? इससे लाभ क्या होता है और भगवान की कितनी परिक्रमा करनी चाहिए?दरअसल भगवान की परिक्रमा का धार्मिक महत्व तो है ही, विद्वानों का मत है भगवान की परिक्रमा से अक्षय पुण्य मिलता है, सुरक्षा प्राप्त होती है और पापों का नाश होता है। परिक्रमा करने का व्यवहारिक और वैज्ञानिक पक्ष वास्तु और वातावरण में फैली सकारात्मक ऊर्जा से जुड़ा है।

मंदिर में भगवान की प्रतिमा के चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का घेरा होता है, यह मंत्रों के उच्चरण, शंख, घंटाल आदि की ध्वनियों से निर्मित होता है। हम भगवान की प्रतिमा की परिक्रमा इसलिए करते हैं कि हम भी थोड़ी देर के लिए इस सकारात्मक ऊर्जा के बीच रहें और यह हम पर अपना असर डाले।इसका एक महत्व यह भी है कि भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली है।

नए मटके की पूजा क्यों करना चाहिए?
गर्मी का मौसम आ गया है। गर्मीयों की चिलचिलाती धूप में ठंडा पानी गर्मी से सबसे ज्यादा निजात दिलाता है। आजकल अधिकतर लोग गर्मी में ठंडे पानी के लिए फ्रिज पर निर्भर है लेकिन कुछ लोग गर्मीयों में ठंडे पानी के लिए मिट्टी से बने मटकों का उपयोग ही ज्यादा अच्छा मानते हैं। शास्त्रों के अनुसार घर में लाए गए मटके का पूजन करना चाहिए क्योंकि मटके को कलश मानते हैं।

कलश के मूल में ब्रह्म का, कंठ में रूद्र यानी शिव का और मुख में विष्णु का निवास माना जाता है। कलश पूर्णता का प्रतीक होता हे। जिस घर में कलश की पूजा होती है। उस घर में सुख-समृद्धि और शांति रहती है। साथ ही जल को वरूण देवता का रूप मानते हैं और जल को प्रत्यक्ष देवता भी कहा गया है। इन्हीं मान्यताओं के कारण गर्मीयों में पानी के मटके को कलश मानते हुए उसका पूजन किया जाता है ताकि उसका पानी पीने वाले के लिए अमृत के समान कार्य करें।

मटके के पानी के सेवन से गर्मी में कई तरह की बीमारियों से बचा जा सकता है। जबकि फ्रीज के पानी से गले से संबंधित परेशानियां होने लगती है। इसीलिए यह परंपरा बनी रहे और लोग मटके के पानी का उपयोग हमेशा करते रहे। इसी उद्देश्य से नए मटके की पूजा की जाती है।

घर पर नहीं पडऩा चाहिए मंदिर की छाया क्योंकि...
मंदिर में होने वाले नाद यानी शंख और घंटियों की आवाजें, ये आवाजें वातावरण को शुद्ध करती हैं। कहते हैं मंदिर जाने से आत्मिक शांति मिलती है। वहां लगाए जाने वाले धूप-बत्ती जिनकी सुगंध वातावरण को शुद्ध बनाती है। इस तरह मंदिर में लगभग सभी ऐसी चीजें होती हैं जो वातावरण की सकारात्मक ऊर्जा को संग्रहित करती हैं। हम जब मंदिर में जाते हैं तो इसी सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव हम पर पड़ता है और हमें भीतर तक शांति का अहसास होता है।

अक्सर लोग अपनी आस्था के कारण मंदिर के आसपास घर ढूंढते हैं लेकिन भविष्यपुराण में कहा गया है कि अपने घर में किए गए हवन, यज्ञ-अनुष्ठानों का फल निश्चित ही घर के मुखिया को मिलता है। इसके लिए कहा गया है कि देव-वेध से बचाना चाहिए यानी ऐसी जगह घर नहीं लेना चाहिए जिसके आसपास मंदिर हो।

मत्स्यपुराण में भी वेध को हर हाल में टालकर वास्तु निर्माण का निर्देश है। कहा जाता है कि जो लोग पुराने देवालय के सामने घर या व्यापारिक प्रतिष्ठान बनवाते हैं, वे धन तो पाते हैं किंतु शारीरिक आपदाओं से घिर जाते हैं। यदि शिवालय के सामने घर बना हो तो बीमारीयां पीछा नहीं छोड़ती।जैनालय के सामने बना हो तो घर शून्य रहेगा या वैभव से वैराग्य हो जाएगा।

भैरव, कार्तिकेय, बलदेव और देवी मंदिर के सामने घर बनाया गया तो क्रोध और कलह की आशंका रहेगी जबकि विष्णु मंदिर के सामने घर बनाने पर घर-परिवार को अज्ञात बीमारियां घेरे रहती हैं। इसी तरह मंदिर की जमीन या अन्य किसी हिस्से पर कब्जा नहीं करना चाहिए। मंदिर के किसी टूटे पत्थर को भी चिनाई के कार्य में नहीं लेना चाहिए।यह भी कहा गया है कि घर के आसपास मंदिर होने पर व्यक्ति इसीलिए पुराने प्राचीन काल में ऐसा दोष होने पर मंदिर की दूरी के बराबर बड़ा द्वार या पोल बनाकर नई बस्ती को बसाया जाता था।

उन दिनों लड़कियों को किचन में काम क्यों नहीं करना चाहिए?
वैदिक धर्म के अनुसार मासिकधर्म के दिनों में महिलाओं के लिए सभी धार्मिक कार्य वर्जित किए गए हैं। साथ ही इस दौरान महिलाओं को अन्य लोगों से अलग रहने का नियम भी बनाया गया है। ऐसे में स्त्रियों को धार्मिक कार्यों से दूर रहना होता है क्योंकि सनातन धर्म के अनुसार इन दिनों स्त्रियों को अपवित्र माना गया है।साथ ही इस दौरान महिलाओं को का रसोई घर में काम करना भी अच्छा नहीं माना जाता है।

लेकिन आजकल के अधिकांश युवा इसे अंधविश्वास मानकर उस पर विश्वास नहीं करते हैं। शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि मासिक धर्म के समय महिलाओं को रसोई में कार्य नहीं करना चाहिए यानी भोजन नहीं बनाना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा बनाया भोजन करने पर पुरुषों का मन काम में नहीं लगता है। साथ ही अग्रि को हमारे धर्म ग्रंथों में बहुत अधिक पवित्र माना गया है। इसलिए कहा जाता है कि उन दिनों रसोई घर में काम करने से घर में बरकत नहीं रहती।

इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि मासिक धर्म के समय महिलाओं को अनेक तरह के शारीरिक व्याधियां परेशान करती है। जिसके कारण वे आम दिनों की अपेक्षा अधिक कमजोर हो जाती हैं। महिलाओं के गर्भाशय का मुंह इन दिनों खुला रहता है इस कारण वे शारीरिक रूप से थोड़ा कमजोर महसूस करती है। ऐसे में थकान और चिड़चिड़ापन होना भी सामान्य बाज है। इसीलिए महिलाएं उन दिनों में अपने शरीर को पूरा आराम दें और अधिक काम ना करें। इसी सोच के साथ यह परंपरा बनाई गई है कि उन दिनों महिलाओं को किचन में काम करना चाहिए।

जब आत्मा कान में कह जाती है भविष्य
क्या आपने कभी किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में सुना है या आप किसी ऐसे व्यक्ति से मिले हैं जिसने आपको देखकर ही यह बता दिया हो कि आपके परिवार में कितने सदस्य हैं। आपके कितने दोस्त या दुश्मन हैं या आप उस व्यक्ति के पास पहुंचने से पहले कितने लोगों से उस दिन मिले, उनसे आपकी क्या बात हुई ?

इन सभी प्रश्नों के उत्तर उसने आपसे मिलते ही तुरंत बता दिए हो। उस व्यक्ति ने आपका भविष्य में क्या होगा? यह भी बता दिया हो। ऐसे में कोई भी सोचेगा कि वह व्यक्ति चमत्कारी है परंतु यह कोई चमत्कार नहीं है। दरअसल यह कार्य तंत्र साधना का कमाल है। यह एक तंत्र विद्या है जिसे कर्ण पिशाचनी साधना कहा जाता है। इस विद्या को पिशाच विद्या अर्थात नेक्रेमेंसी भी कहा जाता है। जिसमें पराशक्तियों को बुलाकर बात की जाती हैं।

कर्ण पिशाचनी सिद्धि के बाद मरे हुए पूर्वजों की आत्माओं को बुलाकर बात की जा सकती है। आत्मा किसी भी व्यक्ति के सबंध में और उसके भविष्य के बारे में बता सकती है। इस साधना में तंत्र शास्त्र की वाममार्गी शक्तियों की उपासना की जाती है। इन्हें प्रसन्न किया जाता है।

आत्माएं शुरुआत में साधना करने वाले की परीक्षा लेती हैं। यदि वे प्रसन्न हो जाती हैं, तो उसके आवाह्न पर आकर उसकी मनचाही इच्छा की पूर्ति करती हैं। ऐसी साधनाएं करने वाले ही आत्माओं को वश में करके लोगों के भविष्य के सबंध में जान लेते हैं।

क्यों और क्या जरूरी है गर्भवती स्त्री के लिए?
गर्भवती स्त्रियों को शास्त्र पढऩे की सलाह दी जाती है क्योंकि यह उनके गर्भ में पल शिशु के ज्ञान को बढ़ाता है। विज्ञान के अनुसार गर्भ में पल रहा शिशु भी सोचता-समझता और सभी आवाजों को सुनता भी है। इसीलिए नवजात शिशु में सुसंस्कार का विकास हो इस उद्देश्य से गर्भवती महिला को धर्म ग्रंथ पढऩा चाहिए।मां के गर्भ में शिशु बाहर हो रही सभी घटनाओं और आवाजों को मां के ही कान और दिमाग से भलीभांति समझता है।

इसका सबसे अच्छा उदाहरण महाभारत में देखने को मिलता है। महाभारत में पांडव पुत्र अर्जुन जब उनकी पत्नी सुभद्रा को युद्ध में चक्रव्यूह भेदने का रहस्य सुना रहा रहे थे, तब सुभद्रा के गर्भ में पल रहा शिशु अभिमन्यु यह सब बातें ध्यान से सुन रहा था। जब अर्जुन चक्रव्यूह भेदने की आधी नीति बता चुके थे, उस समय सुभद्रा को नींद आ गई। जिससे अभिमन्यु चक्रव्यूह को भेदने का रहस्य तो जान गया परंतु चक्रव्यूह से वापस लौटने का रहस्य नहीं सुन सका क्योंकि उसकी मां सुभद्रा सो गई थी।

यही वजह महाभारत युद्ध में द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में अभिमन्यु के वध का कारण बनी।इसी घटना से सिद्ध होता है कि यदि गर्भवती स्त्रियां अपनी संतान को सुसंस्कारी और गुणवान बनाना चाहती है तो उन्हें धर्म ग्रंथ पढऩे चाहिए और अच्छे बातें ही सोचना चाहिए।गर्भवती महिला जैसे विचार, जैसा खाना खाएगी, जैसा स्वभाव रखेगी, जो भी देखेगी-सुनेगी वैसे से ही सभी गुण उसकी संतान में आ जाते हैं।

क्यों नहीं रखना चाहिए बिस्तर पर झाड़ू?
हमारा देश विश्वभर में अपनी संस्कृति व मान्यताओं के कारण पहचाना जाता है। हमारे देश में सुबह से लेकर शाम तक हम जो भी काम करते हैं लगभग हर कार्य से जुड़ी कोई न कोई मान्यता जरूर है। जैसे सुबह जल्दी उठना, नहाने के बाद ही मंदिर जाना या पूजा करना, शाम के समय सफाई नहीं करना व रात को झूठे बर्तन नहीं छोडऩा आदि।

हमारे यहां ऐसे हर एक दैनिक कार्य से जुड़ी कई छोटी-छोटी मान्यताएं है। ऐसी हर एक मान्यता के पीछे हमारे पूर्वजों की कोई न कोई गहरी सोच और धार्मिक कारण तो है ही साथ ही वैज्ञानिक कारण भी है। आजकल अधिकतर युवा ऐसी परंपराओं को या मान्यताओं को अंधविश्वास मानकर उन पर विश्वास नहीं करते हैं। ऐसी ही एक मान्यता है कि बिस्तर पर झाड़ू नहीं रखना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार कहा जाता है कि झाड़ू को बिस्तर पर नहीं रखना चाहिए क्योंकि इससे घर में अलक्ष्मी का वास होता है या लक्ष्मी रूठ जाती है।

इसके पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि जिस झाड़ू से हम रूम साफ करते हैं उसमें धूल, कचरा व जीवाणु लगे होते हैं। उसे बिस्तर पर रखने से बिस्तर पर धूल व जीवाणु पहुंच जाते हैं। जिससे घर वालों को सर्दी-जुकाम और अन्य बीमारीयां होने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए कहा जाता है कि बिस्तर पर झाड़ू नहीं रखना चाहिए।

क्या और क्यों ध्यान रखे, जब जा रहे हों किसी खास काम के लिए?
जब भी हम घर से किसी खास कार्य को लक्ष्य बनाकर निकलते हैं उस वक्त सीधा पैर पहले बाहर रखने से निश्चित ही आपको कार्यों में सफलता प्राप्त होती है। यह परंपरा काफी पुरानी है जिसे हमारे घर के बुजूर्ग समय-समय पर बताते रहते हैं। इस प्रथा के पीछे मनोवैज्ञानिक और धार्मिक कारण दोनों ही हैं।

धर्म शास्त्रों के अनुसार सीधा पैर पहले बाहर रखना शुभ माना जाता है। सभी धर्मों में दाएं अंग को खास महत्व दिया गया है। सीधे हाथ से किए जाने वाले शुभ कार्य ही देवी-देवताओं द्वारा मान्य किए जाते हैं। देवी-देवताओं की कृपा के बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। इसी कारण सभी पूजन कार्य सीधे हाथ से ही किए जाते हैं।

जब भी घर से बाहर जाते हैं तो सीधा पैर ही पहले बाहर रखते हैं ताकि कार्य की ओर पहला कदम शुभ रहेगा तो सफलता अवश्य प्राप्त होगी।इस परंपरा के पीछे एक तथ्य और है कि इसका हम पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। सीधा पैर पहले बाहर रखने से हमें सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है और मन प्रसन्न रहता है। इस बात का हम पर दिनभर प्रभाव रहता है। बाएं पैर को पहले बाहर निकालने पर हमारे विचार नकारात्मक बनते हैं।

आरती के बाद जरूर लेना चाहिए चरणामृत क्योंकि....
हिंदू धर्म में भगवान की आरती के पश्चात भगवान का चरणामृत दिया जाता है। इस शब्द का अर्थ है भगवान के चरणों से प्राप्त अमृत। हिंदू धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है। चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है। कहते हैं

भगवान श्रीराम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया। चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।

आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते। इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। ऐसा माना जाता है कि चरणामृत मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है। रणवीर भक्तिरत्नाकर में चरणामृत की महत्ता प्रतिपादित की गई है-अर्थात पाप और रोग दूर करने के लिए भगवान का चरणामृत औषधि के समान है। यदि उसमें तुलसीपत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधिय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है।

दाह संस्कार के समय क्यों की जाती है कपाल क्रिया?
हिंदू धर्म में मृत्यु के उपरांत मृतक का दाह संस्कार किया जाता है अर्थात मृत देह को अग्नि को समर्पित किया जाता है। दाह संस्कार के समय कपाल क्रिया भी की जाती है। दाह संस्कार के समय कपाल क्रिया क्यों की जाती है? इसका वर्णन गरुड़पुराण में मिलता है।

उसके अनुसार जब शवदाह के समय मृतक के सिर पर घी की आहुति दी जाती है तथा तीन बार डंडे से प्रहार कर खोपड़ी फोड़ी जाती है इसी प्रक्रिया को कपाल क्रिया कहते हैं। इस क्रिया के पीछे अलग-अलग मान्यताएं हैं। एक मान्यता के अनुसार कपाल क्रिया के पश्चात ही प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते हैं और नए जन्म की प्रक्रिया आगे बढ़ती है। दूसरी मान्यता है कि खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इसलिए जलाया जाता है ताकि वह अधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न देवताओं का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्ध चंद्रिका में मिलता है। चूंकि सिर में ब्रह्मा का वास माना गया है इसलिए शरीर को पूर्ण रूप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपाल क्रिया द्वारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है। खोपड़ी की हड्डी इतनी मजबूत होती है कि उसे अग्नि में भस्म होने में भी समय लगता है। वह फूट जाए और मस्तिष्क में स्थित ब्रह्मरंध्र पंचतत्व में पूर्ण रूप से विलीन हो जाए इसलिए कपाल क्रिया करने का विधान है।

लड़कियों को शादी में नहीं देना चाहिए श्रीगणेश क्योंकि...
शादी यानी नाच-गाना उत्साह और उमंगो से भरा एक समारोह जिसमें दो दिल या दो लोग ही नहीं बल्कि दो परिवार रिश्तों के पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिन्दू परंपरा के अनुसार बेटियों की शादी में उसके मायके वालों की ओर से अनेक उपहार विवाह के उपलक्ष्य में बेटी को दिए जाते हैं। माता-पिता का यही सपना होता है कि उनकी बेटी ससुराल में हमेशा खुश रहे। उसे कभी किसी तरह की कोई कमी महसूस ना हो।

इसी सोच के कारण अधिकतर लोग शादी में अपनी बेटी को सोने, चांदी या अन्य तरह के भगवान की मुर्तियां भी देते हैं।

वर्तमान में गिफ्ट के रूप में सबसे ज्यादा चलन में है गणेशजी की मूर्ति क्योंकि गणेशजी को रिद्धि-सिद्धि के दाता माना जाता है। इसलिए गणेशजी की मूर्ति दी जाती है लेकिन हमारे बड़े-बुजूर्ग लोगों की इस बारे में मान्यता है कि बेटी को शादी में मायके वालों की तरफ से उपहार में कभी भी गणेशजी नहीं देने चाहिए क्योंकि बेटियां घर की लक्ष्मी होती है और उन्हे यदि गणेशजी भेंट किए जाते हैं तो घर की रिद्धि-सिद्धि उनके साथ चली जाती है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि जहां गणेशजी का निवास होता है वहीं लक्ष्मीजी का निवास होता है। इसलिए बेटियों को विवाह में उपहार में गणेशजी नहीं देने चाहिए।

मंदिर से लौटने के पहले वहां कुछ देर क्यों बैठना चाहिए?
माना जाता है कि मंदिरों में ईश्वर साक्षात् रूप में विराजित होते हैं। किसी भी मंदिर में भगवान के होने की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है। भगवान की प्रतिमा या उनके चित्र को देखकर हमारा मन शांत हो जाता है और हमें सुख प्राप्त होता है।हम इस मनोभाव से भगवान की शरण में जाते हैं कि हमारी सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी, जो बातें हम दुनिया से छिपाते हैं वो भगवान के आगे बता देते हैं, इससे भी मन को शांति मिलती है, बेचैनी खत्म होती है

दूसरा कारण है वास्तु, मंदिरों का निर्माण वास्तु को ध्यान में रखकर किया जाता है।हर एक चीज वास्तु के अनुरूप ही बनाई जाती है, इसलिए वहां सकारात्मक ऊर्जा ज्यादा मात्रा में होती है। तीसरा कारण है वहां जो भी लोग जाते हैं वे सकारात्मक और विश्वास भरे भावों से जाते हैं सो वहां सकारात्मक ऊर्जा ही अधिक मात्रा में होती है। चौथा कारण है मंदिर में होने वाले नाद यानी शंख और घंटियों की आवाजें, ये आवाजें वातावरण को शुद्ध करती हैं।

पांचवां कारण है वहां लगाए जाने वाले धूप-बत्ती जिनकी सुगंध वातावरण को शुद्ध बनाती है। इस तरह मंदिर में लगभग सभी ऐसी चीजें होती हैं जो वातावरण की सकारात्मक ऊर्जा को संग्रहित करती हैं। हम जब मंदिर में जाते हैं तो इसी सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव हम पर पड़ता है और हमें भीतर तक शांति का अहसास होता है। इसलिए मंदिर से लौटने से पहले वहां कुछ देर जरूर बैठना चाहिए।

शनिवार को ऐसा करना माना जाता है अशुभ क्योंकि...
शनि को क्रूर ग्रह माना जाता है और यह किसी भी दशा में गलत कार्य करने वालों को मॉफ नहीं करता। जिसका जैसा कार्य होगा उसे शनि वैसा ही फल प्रदान करता है।बुजूर्गों और विद्वानों द्वारा शनि के कोप से बचने के लिए ऐसे कई कार्य मना किए गए हैं जो शनिवार के दिन हमें नहीं करने चाहिए। इन्हीं कार्यों में से एक कार्य यह वर्जित है कि शनिवार को घर में नया लोहा लेकर नहीं आना चाहिए।

इस बात विशेष ध्यान रखना चाहिए कि शनिवार को किसी प्रकार की लोहा की कोई नई वस्तु घर में न लेकर आए। लोहा की वस्तु या जिसके निर्माण में लोहा का उपयोग होता है वे सभी शनिवार को घर नहीं लेकर आना चाहिए। लोहा शनि की धातु है और शनिवार को लोहा लेकर आने से हमारे घर पर शनि का प्रभाव बढ़ता है। यदि घर के किसी सदस्य पर शनि की अशुभ दृष्टि हो तो उसके लिए यह बुरा फल देने वाला सिद्ध होगा। ऐसे उस सदस्य को कई प्रकार की असफलताएं तथा मानसिक तनाव का सामना करना पड़ सकता है। इसी वजह से शनिवार को घर में लोहा के कोई भी नई वस्तु लेकर आना शुभ नहीं माना जाता।

क्यों और क्या करें पूर्वजों से आशीर्वाद पाने के लिए?
वेदों में पीपल के पेड़ को पूज्य माना गया है। पीपल की छाया तप, साधना के लिए ऋषियों का प्रिय स्थल माना जाता था।महात्मा बुद्ध का बोधक्त निर्वाण पीपल की घनी छाया से जुड़ा हुआ है। शास्त्रों के अनुसार पीपल में भगवान विष्णु का निवास माना गया है और विष्णु को पितृ के देवता माना गया है क्योंकि प्रसिद्ध ग्रन्थ व्रतराज की अश्वत्थोपासना में पीपल वृक्ष की महिमा का उल्लेख है।

इसमें अर्थवणऋषि पिप्पलादमुनि को बताते हैं कि प्राचीन काल में दैत्यों के अत्याचारों से पीडि़त समस्त देवता जब विष्णु के पास गए और उनसे कष्ट मुक्ति का उपाय पूछा, तब प्रभु ने उत्तर दिया-मैं अश्वत्थ के रूप में भूतल पर प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान हूं। इसलिए यह मान्यता हैं विष्णु भगवान के स्वरूप पीपल को पितृ निमित्त जो भी चढ़ाया जाता है। उससे हमारे पूर्वजों को तृप्ति मिलती है। इसलिए इस पूर्वजों की तृप्ति के लिए पीपल को दूध और जल चढ़ाया जाता है।

शाम के समय घर में दीपक जरूर लगाना चाहिए क्योंकि...

दीपक में अग्नि का वास होता है। जो पृथ्वी पर सूरज का रूप है। धर्म की लगभग हर एक प्रसिद्ध पुस्तक में संध्या पूजन का विशेष महत्व बताया गया है। साथ ही संध्या के समय घर में दीपक लगाना या प्रकाश करना भी आवश्यक माना जाता है। संध्या का शाब्दिक अर्थ संधि का समय है यानि जहां दिन का समापन और रात शुरू होती है, उसे संधिकाल कहा जाता है।

ज्योतिष के अनुसार दिनमान को तीन भागों में बांटा गया है- प्रात:काल, मध्याह्न और सायंकाल।संध्या पूजन के लिए प्रात:काल का समय सूर्योदय से छह घटी तक, मध्याह्न 12 घटी तक तथा सायंकाल 20 घटी तक जाना जाता है।

एक घटी में 24 मिनट होते हैं। प्रात:काल में तारों के रहते हुए, मध्याह्न में जब सूर्य मध्य में हो तथा सायं सूर्यास्त के पहले संध्या करना चाहिए। संध्या से तात्पर्य पूजा या भगवान को याद करने से हैं शास्त्रों की मान्यता है कि नियमपूर्वक संध्या करने से पापरहित होकर ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।

रात या दिन में हम से जाने अनजाने जो बुरे काम हो जाते हैं, वे त्रिकाल संध्या से नष्ट हो जाते है। घर में संध्या के दीपक जलाना या प्रकाश रखना आवश्यक माना गया है क्योंकि घर में शाम के समय अंधेरा रखने पर घर में नकारात्मक ऊर्जा का निवास होता है।

घर में बरकत नहीं रहती और घर में अलक्ष्मी का वास होता है। इसलिए शाम को घर में अंधेरा नहीं रखना चाहिए। साथ ही संध्या के समय घी का दीपक भी इसी उदेश्य से लगाया जाता है। कहते हैं इस समय घर में घी का दीपक लगाने से घर में उपस्थित नकारात्मक ऊर्जा तो दूर होती ही है। घर में सुख-समृद्धि बढ़ती हैऔर घर में लक्ष्मी का स्थाई निवास होता है।

शिव मंदिर के बाहर बैठे नंदी की मूर्ति क्यों होती है?

शिव परिवार के बारे में सबसे अद्भुत बात यह है कि शिवजी के परिवार के हर एक सदस्य का वाहन दुसरे के वाहन का भोजन है शिव को महाकाल माना जाता है लेकिन उनका वाहन बैल है। जिसे नंदी कहते हैं। इसीलिए हर शिव मंदिर में शिवजी के सामने नंदी बैठा होता है। दरअसल शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ यानी मेहनत का प्रतीक है। अब सवाल यह बनता है कि नंदी शिवलिंग की ओर ही मुख करके क्यों बैठा होता है? जानते हैं दरअसल नंदी का संदेश है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है।

जैसे नंदी की नजर शिव की ओर होती है, उसी तरह हमारी नजर भी आत्मा की ओर हो। हर व्यक्ति को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखना चाहिए। नंदी का इशारा यही होता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है। इसे ही आम भाषा में मन का साफ होना कहते हैं। जिससे शरीर भी स्वस्थ होता है और शरीर के निरोग रहने पर ही मन भी शांत, स्थिर और दृढ़ संकल्प से भरा होता है। इस प्रकार संतुलित शरीर और मन ही हर कार्य और लक्ष्य में सफलता के करीब ले जाता है।

पूजा घर में नहीं रखना चाहिए झाड़ू और डस्टबीन क्योंकि...
कहते हैं रोज नियमित रूप से भगवान की पूजा व आराधना से मानसिक शांति मिलती है। पूजा से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। पूजा से मिलने वाली इस ऊर्जा से व्यक्ति अपना काम और अधिक एकाग्रता से करने लगता है लेकिन पूजा का पूरा फल मिले इसके लिए यह आवश्यक है कि पूजन घर वास्तु के अनुरूप हो। पूजा घर का वास्तु सही होने पर घर में सुख व सम्पन्नता बढ़ती है।

वैसे वास्तु के अनुसार पूजा घर ईशान्य कोण में होना चाहिए क्योंकि ईशान कोण में बैठकर पूर्व दिशा की और मुंह करके पूजन करने से स्वर्ग में स्थान मिलता है क्योंकि उसी दिशा से सारी ऊर्जाएं घर में बरसती है। ईशान्य सात्विक ऊर्जाओं का प्रमुख स्त्रोत है। किसी भी भवन में ईशान्य कोण सबसे ठंडा क्षेत्र है।

वास्तु पुरुष का सिर ईशान्य में होता है। जिस घर में ईशान्य कोण में दोष होगा उसके निवासियों को दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है।

इसीलिए घर के इस कोने की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए ऐसी मान्यता है कि पूजा घर के ईशान कोण यानी उत्तर-पूर्वी कोने में झाडू व कूड़ेदान आदि नहीं रखना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से घर में नकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है और घर में बरकत नहीं रहती है इसलिए वास्तु के अनुसार अगर संभव हो तो पूजा घर को साफ करने के लिए एक अलग से साफ कपड़े को रखें।

माल्यवान और पुष्पवती पिशाच क्यों बनें?
जया एकादशी के संबंध में भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को एक कथा सुनाई थी। वह इस प्रकार है-नंदन वन में उत्सव चल रहा था। इस उत्सव में सभी देवता, सिद्ध संत और दिव्य पुरूष उपस्थित थे। उस समय गंधर्व गायन कर रहे थे और गंधर्व कन्याएं नृत्य कर रही थीं। सभा में माल्यवान नामक गंधर्व गा रहा था और पुष्पवती नामक गंधर्व कन्या नृत्य कर रही थी। नृत्य के दौरान ही पुष्पवती माल्यवान पर मोहित हो गई और सभा की मर्यादा को माल्यवान को आकर्षित करने के लिए नृत्य करने लगी। पुष्पवती का नृत्य देखकर माल्यवान सुध बुध खो बैठा और अपनी सुर-ताल से भटक गया।

यह देखकर इंद्र को बहुत क्रोध आया और उसने उन दोनों को स्वर्ग से वंचित होने व पृथ्वी पर पिशाच योनि में निवास करने का श्राप दे दिया। श्राप से तत्काल दोनों पिशाच बन गये और हिमालय पर्वत पर एक वृक्ष पर दोनों का निवास बन गया। एक बार माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन दोनों अत्यंत दु:खी थे उस दिन वे केवल फलाहार रहे। रात्रि के समय दोनों को बहुत ठंड लग रही थी अत: दोनों रात भर साथ बैठ कर जागते रहे। ठंड के कारण दोनों की मृत्यु हो गयी और अनजाने में जया एकादशी का व्रत हो जाने से दोनों को पिशाच योनि से मुक्ति भी मिल गयी। अब माल्यवान और पुष्पवती पहले से भी सुन्दर हो गए और स्वर्ग लोक में उन्हें स्थान मिल गया।

इंद्र ने जब दोनों को देखा तो चकित रह गया और पिशाच योनि से मुक्ति कैसी मिली यह पूछा? माल्यवान के कहा यह भगवान विष्णु की जया एकादशी का प्रभाव है। हम इस एकादशी के प्रभाव से पिशाच योनि से मुक्त हुए हैं। इन्द्र इससे अति प्रसन्न हुए और कहा कि आप भगवान विष्णु के भक्त हैं इसलिए आप अब से मेरे लिए भी आदरणीय है। आप दोनों स्वर्ग में आनन्द पूर्वक विहार करें।

मंदिर में लेदर के पर्स और बेल्ट क्यों नहीं ले जाना चाहिए?
हम जब भी मंदिर या किसी धर्मस्थल पर जाते हैं तो अपने जूते, बैल्ट, पर्स इत्यादि बाहर ही छोड़कर जाते हैं।ये सभी वस्तुएं अधिकतर चमड़े की बनी होती हैं। तो क्या कारण है कि मंदिरों व धर्मस्थलों में चमड़ा पहनकर नहीं जाना चाहिए?मंदिरों व धर्मस्थलों में चमड़ा वर्जित क्यों है?चमड़े को धार्मिक दृष्टि से अपवित्र माना जाता है। चमड़े की वस्तु पहनकर कोई भी पूजा-अनुष्ठान नहीं किया जा सकता।चूंकि चमड़ा जानवरों की खाल से बनाया जाता है इसलिए अपवित्र माना जाता है। इसलिए धर्म की दृष्टि से चमड़ा अपवित्र है।वैज्ञानिक दृष्टि से भी चमड़े की बनी वस्तुओं को अपवित्र माना जाता है। विज्ञान भी यह सिद्ध कर चुका है कि चमड़े में पशुओं की खाल का उपयोग किया जाता है।

मरे हुए जानवरों के शरीर से चमड़ा उतारकर आज फैशन की उच्चकोटि की वस्तुएं बनायी जा रही हैं। किसी की बलि लेकर उसके शरीर की खाल का यह इस्तेमाल कैसे पवित्र माना जा सकता है?इन वस्तुओं को दुर्गन्ध रहित बनाने के लिए केमिकल्स का प्रयोग करते हैं जो शरीर के लिए नुकसानदायक होता है। आप खुद ही इस बात को सच मानते हैं कि किसी भी वस्तु को साफ करने या अच्छा बनाने के लिए उसे पानी से धोया जाता है।पर चमड़ा पानी में खराब होने लगता है और सडऩे लगता है जो हमारे शरीर के लिए नुकसानदायक होता है। इसलिए जहां तक हो सके चमड़े के उपयोग से बचना चाहिए।

बेटियों के घर खाली हाथ क्यों नहीं जाना चाहिए?

बेटियां तो बाबुल की रानियां है। मीठी-मीठी प्यारी-प्यारी ये कहानियां है। सबके दिल की सारे घर की ये रानियां है ये चिडिय़ा एक दिन फुर्र से उड़ जानीयां है... जिस तरह इस फिल्मी गीत की ये पंक्तियां दिल को छू जाती है। ठीक उसी तरह बेटियों के चहकने से घर का हर त्यौहार खुशियों से भर जाता है लेकिन बेटियों को एक दिन अपने ससुराल जाना ही पड़ता है क्योंकि यही परंपरा है।।बेटियां एक ही कुल को नहीं बल्कि दो कुलों को रोशन करती हैं। आपने बढ़े-बुजूर्गों को अक्सर कहते सुना होगा कि बेटियों के ससुराल में माता-पिता या अन्य मायके वालों को कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।

दरअसल हर परंपरा के पीछे हमारे पूर्वजों की कोई गहरी सोच जरूर रही है। बेटियों की शादी में कई रस्में होती है। जिनके बिना शादी होती ही नहीं है। उन्हीं रस्मों में से एक है कन्यादान। कन्यादान शादी का मुख्य अंग माना गया है। शास्त्रों के अनुसार दान करना पुण्य कर्म है और इससे ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। दान के महत्व को ध्यान में रखते हुए इस संबंध में कई नियम बनाए गए हैं ताकि दान करने वाले को अधिक से अधिक धर्म लाभ प्राप्त हो सके।

इसी से जुड़ी एक परंपरा और भी है वह यह कि बेटियों के घर खाली हाथ नहीं जाना चाहिए यानी बिना किसी तरह की भेंट लिए बेटी के घर जाना शास्त्रों के अनुसार भी उचित नहीं माना जाता है। शास्त्रों में कहा गया है बेटी, वैद्य और ज्योतिष के घर कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए क्योंकि शास्त्रों के अनुसार इन्हें दान करने पर बहुत अधिक पुण्य फल की प्राप्ति होती है और क न्यादान के पुण्य फल में वृद्धि होती है। साथ ही यह ज्योतिषीय मान्यता या उपाय भी है कि घर की दरिद्रता मिटाने के लिए बेटियों को दान देना चाहिए कहते हैं इससे मायके में सुख व सम्पन्नता बढ़ती है। इसीलिए कहा जाता है कि बेटियों के घर कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।

किताबों की अलमारी खुली नहीं छोडऩी चाहिए क्योंकि...
कहते हैं किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त और तन्हाई की सबसे अच्छी साथी होती हैं। कुछ लोग अपना पूरा खाली वक्त किताबों के साथ ही बिताना पसंद करते हैं। जिन लोगों को किताबों से विशेष लगाव होता है वे लोग अक्सर अपने घरों में छोटी सी लाइब्रेरी या अलमारी में किताबें एकत्रित करके रखते हैं।

लेकिन वास्तु के अनुसार घर में किताबें रखने वाले को यह ध्यान रखना चाहिए कि किताबों को हमेशा बंद अलमारी में रखना चाहिए। कभी भी किताबों को खुली अलमारी में नहीं रखा जाना चाहिए क्योंकि वास्तु के अनुसार खुली अलमारी में पुस्तक रखने से पुस्तकें अशुभ ऊर्जा उत्पन्न करती हैं।

फेंगशुई के अनुसार घर में ची ऊर्जा का प्रवाह नहीं हो पाता है। विशेषकर जिस व्यक्ति के कमरे में खुली अलमारी में ये पुस्तके रखी जाती है उसे नकारात्मक विचार अधिक आते हैं। वास्तु के अनुसार पुस्तक की अलमारी खुली नहीं छोडऩी चाहिए व खुली अलमारी में किताबें नहीं रखना चाहिए।

क्यों और क्या करें ताकि होने वाला बच्चा और मां दोनों रहें स्वस्थ?
माता और उसके गर्भ में पल रहा शिशु दोनों की सुरक्षा और सेहत अच्छी बनी रहे, इसके लिए गर्भवती स्त्री के खाने-पीने का विशेष ध्यान रखा जाता है। सभी गर्भवती महिलाओं को अनिवार्य रूप से प्रतिदिन दूध में केसर घोलकर पीने को दिया जाता है।ऐसी मान्यता है कि केसर का दूध पीने से शिशु का रंग गोरा होता है परंतु इसके कई आयुर्वेदिक गुणों की वजह से यह परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है।केसर एक औषधि है इसका अंग्रेजी नाम सेफरन है। इस स्वभाव गर्मी देने वाला होता है।

आयुर्वेद के अनुसार इसके नियमित सेवन से पित्त, कफ, पेट संबंधित अनेक परेशानियों अपच, पेट में दर्द, वायु विकार आदि नहीं होते। गर्भवती स्त्री और उसके बच्चे को इन सभी बीमारियों के प्रभाव से बचाने के लिए उन्हें केसर का सेवन कराया जाता है। साथ ही केसर सामान्य महिलाओं के लिए भी बहुपयोगी है। इससे स्त्रियों में होने वाली अनियमित मासिक स्राव एवं इस दौरान होने वाले दर्द में लाभ मिलता है।यदि किसी स्त्री के गर्भाशय की सूजन है तो उसके लिए केसर का सेवन फायदेमंद रहता है।

इस दिन की जाती है बिना मुहूर्त की शादी क्योंकि...
मान्यता है कि किसी की शादी का मुहूर्त अगर नहीं निकल रहा हो तो उसकी शादी अक्षय तृतीया को बिना मुहूर्त देखे कि जा सकती है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, लेकिन वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है।

भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है, सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है। भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को लिया था।ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का जन्म भी इसी दिन हुआ था।

कहते हैं अक्षय तृतीया के दिन ऐसे विवाह भी मान्य होते हैं, जिनका मुहूर्त साल भर नहीं निकल पाता है। दूसरे शब्दों में ग्रहों की दशा के चलते अगर किसी व्यक्ति के विवाह का दिन नहीं निकल पा रहा है, तो अक्षय तृतीया के दिन बिना लग्न व मुहूर्त के विवाह होने से उसका दांपत्य जीवन सफल हो जाता है। यही कारण है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल आदि में आज भी अक्षय तृतीया के दिन हजारों की संख्या में विवाह होते हैं।

माना जाता है कि जिनके अटके हुए काम नहीं बन पाते हैं, व्रत उपवास करने के बावजूद जिनकी मनोकामना की पूर्ति नहीं हो पा रही हो और जिनके व्यापार में लगातार घाटा चल रहा हो तो ऐसे लोगों के काम की नई शुरुआत के लिए अक्षय तृतीया का दिन बेहद शुभ माना जाता है।

अक्षय तृतीया के दिन नया काम करना शुरू करना शुभ क्यों माना जाता है?
अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं। इस तिथि को आखातीज के नाम से भी पुकारा जाता है।पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है।इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है कि इस दिन शुरू किए जाने वाले काम का अक्षय फल मिलता है।

ऐसा माना जाता है कि आज के दिन जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सदगुण प्रदान करते हैं, अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिये अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान मांगना चाहिए।पौराणिक कहानियों के मुताबिक, इसी दिन महाभारत की लड़ाई खत्म हुई।

द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ। इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर के पूछने पर यह बताया था कि आज के दिन जो भी रचनात्मक या सांसारिक कार्य करोगे, उसका पुण्य मिलेगा। कोई भी नया काम, नया घर और नया कारोबार शुरू करने से उसमें बरकत और ख्याति मिलेगी। माना जाता है कि अक्षय तृतीया के दिन स्नान, ध्यान, जप तप करना, हवन करना, स्वाध्याय पितृ तर्पण करना और दान पुण्य करने से पुण्य मिलता है। देवताओं की पूजा करने को भी उन्होंने पुण्य बताया है। इसीलिए इस दिन कोई भी नया काम शुरू करना बहुत शुभ माना जाता है।

क्यों नहीं खरीदना चाहिए शनिवार को नई गाड़ी?
शनि को न्यायधीश माना गया है। यह काफी कठोर ग्रह है। इसकी क्रूरता से सभी भलीभांति परिचित हैं। इसी वजह से सभी का प्रयत्न रहता है कि शनि देव किसी भी प्रकार से रुष्ट ना हो।शनि को क्रूर ग्रह माना जाता है और यह किसी भी दशा में गलत कार्य करने वालों को मॉफ नहीं करता। जिसका जैसा कार्य होगा उसे शनि वैसा ही फल प्रदान करता है।बुजूर्गों और विद्वानों द्वारा शनि के कोप से बचने के लिए ऐसे कई कार्य मना किए गए हैं जो शनिवार के दिन हमें नहीं करने चाहिए। इन्हीं कार्यों में से एक कार्य यह वर्जित है कि शनिवार को घर में नया लोहा लेकर नहीं आना चाहिए।

इस बात विशेष ध्यान रखना चाहिए कि शनिवार को किसी प्रकार की लोहा की कोई नई वस्तु घर में न लेकर आए। लोहा की वस्तु या जिसके निर्माण में लोहा का उपयोग होता है जैसे: बिल्डिंग मटेरियल में उपयोग होने वाला सरिया, मोटर बाइक, कार, कम्प्यूटर आदि वस्तुएं जिनमें लोहा का प्रयोग होता है।वे सभी शनिवार को घर नहीं लेकर आना चाहिए। लोहा शनि की धातु है और शनिवार को लोहा लेकर आने से हमारे घर पर शनि का प्रभाव बढ़ता है।

यदि घर के किसी सदस्य पर शनि की अशुभ दृष्टि हो तो उसके लिए यह बुरा फल देने वाला सिद्ध होगा। ऐसे उस सदस्य को कई प्रकार की असफलताएं तथा मानसिक तनाव का सामना करना पड़ सकता है। इसी वजह से शनिवार को घर में लोहा के कोई भी नई वस्तु लेकर आना शुभ नहीं माना जाता है।

क्या होता है दुल्हन के सात वचनों में?
शादी एक ऐसा मौका होता है जब दो इंसानो के साथ-साथ दो परिवारों का जीवन भी पूरी तरह बदल जाता है। विवाह में सबसे मुख्य रस्म होती है फेरों की।हिन्दू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है सात फेरों के बाद सात वचन लिए जाते हैं कन्या द्वारा लिए जाने वाले सातवचन इस प्रकार है।

विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है।

1-तीर्थव्रतोद्यापनयज्ञ दानं मया सह त्वं यदि कान्तकुर्या:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद वाक्यं प्रथमं कुमारी।।

कन्या कहती है,स्वामिन् तीर्थ व्रत ,उद्यापन,यज्ञ,दान आदि सभी शुभ कार्य तुम मेरे साथ करो तो में तुम्हारे वाम अंग में आऊ।।

2-हव्यप्रदानैरमरान् पितृश्चं कव्यं प्रदानैर्यदि पूजयेथा:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं द्वितीयकम्।।

यदि तुम हव्य देकर देवताओं को और कव्य देकर पितरों की पूजा करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग मैं आऊॅ।

3-कुटुम्बरक्षाभरंणं यदि त्वं कुर्या: पशूनां परिपालनं च।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं तृतीयम्।।

यदि तुम मेरी तथा परिवार की रक्षा करो तथा पशुओं का पालन करो तो मै तुम्हारे वाम अंग मै आऊँ।यह तीसरी बात कन्या ने कही।

4-आयं व्ययं धान्यधनादिकानां पृष्टवा निवेशं प्रगृहं निदध्या:।।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं चतुर्थकम्।।

यदि तुम धन-धान्यादिकों का आय व्यय मेरी सम्मती से करो तो मै तुम्हारे वाग अंग में आऊँ।यह चौथा वचन है।

5-देवालयारामतडागकूपं वापी विदध्या:यदि पूजयेथा:।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं पंचमम्।।

यदि देवालय,बाग,कूप,तालाब,बावली बनवाकर पूजा करो तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आऊँ।

6-देशान्तरे वा स्वपुरान्तरे वा यदा विदध्या:क्रयविक्रये त्वम्।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं षष्ठम्।।

यदि तुम अपने नगर में या किसी विदेश में जाकर व्यापार या नौकरी करो तो मैं तुम्हारे वाग अंग में आऊँ।

7-न सेवनीया परिकी यजाया त्वया भवेभाविनि कामनीश्च।

वामांगमायामि तदा त्वदीयं जगाद कन्या वचनं सप्तम्।।

यदि तुम परायी स्त्री को स्पर्श न करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आऊँ।यह सातवां वचन है।

विधवाओं के लिए सुहागनों सा श्रृंगार वर्जित क्यों?
कहते हैं पत्नी-पति की अद्र्धांगिनी होती है अर्थात जब विवाह होता है तब दो लोग एक हो जाते हैं। मैं विवाह के बाद हम बन जाता है। स्त्री का धन उसका पति होता है। नियति या दुर्भाग्य के कारण जब किसी स्त्री का पति इस दुनिया को छोड़ देता है, तो उस स्त्री को जीवन में असंख्य चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। विधवा या विडो के रुप में उसे कड़े संघर्षों से होकर गुजरना पड़ता है।

भारतीय संस्कृति में दुनिया से अलग अपनी अनोखी ही सोच व मान्यताएं हैं। भारतीय नारियों का गहना प्रेम सारी दुनिया में विख्यात है। इतना होने पर भी यह भारत ही है, जहां की नारियां यह सोचती हैं कि स्त्री के लिये उसका पति ही सर्वश्रेष्ठ गहना या आभूषण है। महिलाओं का सजना-धजना सबकुछ सिर्फ अपने पति के लिए है। इसीलिए हमारे यहां सुहागन स्त्रियों के लिए श्रृंगार अनिवार्य माना जाता है। विवाहिता स्त्री का श्रृंगार अपने पति के प्रति अटूट और एकनिष्ठ प्रेम ही उसे दुनिया से अलग पहचान और गौरव दिलाता है। जीवन के हर क्षेत्र में धर्म और अध्यात्म का गहराई से शामिल होना किसी समाज की महान परंपराओं को दर्शाता है।

इसलिए सुहागनों के लिए श्रृंगार को जरूरी माना गया है जबकि विधवाओं के लिए सफेद लिबास को अधिक उपयुक्त माना गया है। रंगों के विज्ञान की अलग ही दुनिया और अहमियत है। प्रमुख सात रंगों में से हर एक रंग का अपना खास प्रभाव और महत्व होता है। सूर्य के सात रंगों का आज चिकित्सा के रुप में प्रयोग होने लगा है। सफेद रंग सर्वाधिक पवित्र और सात्विक रंग है।

विधवा या विडो स्त्री का पति विहीन जीवन कई संघर्षों से भरा होता है। ऐसे में विधवा स्त्री को ईश्वर की कृपा और सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। सफेद रंग का लिबास उसे मनोबल और सात्विकता प्रदान करता है। जीवन की सभी जिम्मेदारियों और चुनौतियों का सफलता से सामना करने में सफेद रंग के पहनावे की बड़ी अहम् भूमिका होती है। यही कारण रहा है कि विधवा स्त्रिया स्वयं की मरजी से ही सफेद रंग का लिबास पहनने लगती हैं।

दीपक हमेशा विषम संख्या में लगाने चाहिए क्योंकि...
दीपक ज्ञान और रोशनी का प्रतीक है। पूजा में दीपक का विशेष महत्व है। आमतौर पर विषम संख्या वाले दीप प्रज्जवलित करने की परंपरा चली आ रही है। दीप प्रज्जवलन का भाव है। हम अज्ञान का अंधकार मिटाकर अपने जीवन में ज्ञान के प्रकाश के लिए पुरुषार्थ करें। प्राय: दीपक एक, तीन, पांच और सात की विषम संख्या में ही जलाए जाते हैं ऐसा मानना है। विषम संख्या में दीपों से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है।

दीपक जलाने से वातावरण शुद्ध होता है। दीपक में गाय के दुध से बना घी प्रयोग हो तो अच्छा अथवा अन्य घी या तेल का प्रयोग भी किया जा सकता है। गाय के घी में रोगाणुओं को भगाने की क्षमता होती है। यह घी जब दीपक में अग्नि के संपर्क से वातावरण को पवित्र बना देता है। प्रदूषण दूर होता है। दीपक जलाने से पूरे घर को फायदा मिलता है। चाहे वह पूजा में सम्मिलित हो अथवा नहीं। दीप प्रज्जवलन घर को प्रदूषण मुक्त बनाने का एक क्रम है। दीपक में अग्नि का वास होता है। जो पृथ्वी पर सूरज का रूप है।

इस समय में नहीं करना चाहिए कोई भी शुभ काम क्योंकि...
ऐसा मानते हैं कि शुभ मुहूर्त में किया गया कार्य सफल व शुभ होता है। लेकिन भारतीय ज्योतिष के अनुसार दिन में एक समय ऐसा भी आता है जब कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। वह समय होता है राहुकाल।

राहुकाल के बारे में ऐसा कहते हैं कि इस दौरान यदि कोई शुभ कार्य, लेन-देन, यात्रा या कोई नया काम शुरू किया जाए तो वह अशुभ फल देता है। यह बात पुरातन काल से ज्योतिषाचार्य हमें बता रहे हैं। लेकिन राहुकाल में ऐसा क्या होता है कि इसमें किए गए कार्य अशुभ या असफल होते हैं?

इसका पीछे का तर्क यह है कि ज्योतिष के अनुसार राहु को पाप ग्रह माना गया है। दिन में एक समय ऐसा आता है जब राहु का प्रभाव काफी बढ़ जाता है और उस दौरान यदि कोई भी शुभ कार्य किया जाए तो उस पर राहु का प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण या तो वह कार्य अशुभ हो जाता है या उसमें असफलता हाथ लगती है। यही समय राहुकाल कहलाता है।

कब-कब होता है राहुकाल?
प्रत्येक दिन एक निश्चित समय राहुकाल होता है। यह डेढ़ घंटे का होता है। वारों के हिसाब से इसका समय इस प्रकार है-
सोमवार सुबह 7:&0 से 9:00

मंगलवार दोपहर &:00 से 4:&0

बुधवार दोपहर 12:00 से 1:&0

गुरुवार दोपहर 1:&0 से &:00

शुक्रवार सुबह 10:&0 से 12:00

शनिवार सुबह 9:00 से 10:&0

रविवार शाम 4:&0 से 6:00

भगवान के भोग में डाले जाते हैं तुलसी के पत्ते क्योंकि...
भगवान को भोग लगे और तुलसी दल न हो तो भोग अधूरा ही माना जाता है। तुलसी को परंपरा से भोग में रखा जाता है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार तुलसी को विष्णु जी की प्रिय मानी जाती है। शास्त्रों के अनुसार तुलसी डालकर भोग लगाने पर चार भार चांदी व एक भार सोने के दान के बराबर पुण्य मिलता है और बिना तुलसी के भगवान भोग ग्रहण नहीं करते उसे अस्वीकार कर देते हैं।

भोग में तुलसी डालने के पीछे सिर्फ धार्मिक कारण नहीं है बल्कि इसके पीछे अनेक वैज्ञानिक कारण भी है।तुलसी दल का औषधीय गुण है। एकमात्र तुलसी में यह खूबी है कि इसका पत्ता रोगप्रतिरोधक होता है। यानि कि एंटीबायोटिक। संभवत: भोग में तुलसी को अनिवार्य किया गया कि इस बहाने ही सही लोग दिन में कम से कम एक पत्ता ग्रहण करें ताकि उनका स्वास्थ्य ठीक रहे। इस तरह तुलसी स्वास्थ्य देने वाली है। तुलसी का पौधा मलेरिया के कीटाणु नष्ट करता है।

नई खोज से पता चला है इसमें कीनोल, एस्कार्बिक एसिड, केरोटिन और एल्केलाइड होते हैं। तुलसी पत्र मिला हुआ पानी पीने से कई रोग दूर हो जाते हैं। इसीलिए चरणामृत में तुलसी का पत्ता डाला जाता है। तुलसी के स्पर्श से भी रोग दूर होते हैं। तुलसी पर किए गए प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि रक्तचाप और पाचनतंत्र के नियमन में तथा मानसिक रोगों में यह लाभकारी है। इससे रक्तकणों की वृद्धि होती है। तुलसी ब्रह्मचर्य की रक्षा करने एवं यह त्रिदोषनाशक है। रक्तविकार, वायु, खांसी, कृमि आदि की निवारक है तथा हृदय के लिए हितकारी है।

बजरंग बाण का पाठ क्यों करना चाहिए?
हनुमानजी को अष्टचिरंजीवीयों में से एक है। यही कारण है कि हर युग और काल में श्री हनुमान का स्मरण सुखदायी और संकटनाशक माना गया है। श्री हनुमान के प्रति ऐसी आस्था और विश्वास के साथ हनुमानजी को मनाने के लिए सबसे सरल उपाय है हनुमान चालीसा का नित्य पाठ। इसके पाठ से भक्त को असीम आनंद की प्राप्ति होती है। तुलसीदास द्वारा रचित हनुमान चालीसा बहुत प्रभावकारी है। इसकी सभी चौपाइयां मंत्र ही हैं। जिनके निरंतर जप से ये सिद्ध हो जाती है और पवनपुत्र हनुमानजी की कृपा प्राप्त हो जाती है।

लेकिन हनुमान का एक और रूप बजरंगबली की आराधना भी कई दुखों को दूर करने वाली मानी गई है। इनके बजरंगबली नाम के पीछे भी वज्र शब्द का योगदान है। संस्कृत में एक शब्द है वज्र: या वज्रम् जिसका अर्थ है बिजली, इन्द्र का शस्त्र , हीरा अथवा इस्पात। इससे ही हिन्दी का वज्र शब्द बना है। इन्द्र के पास जो वज्र था वह महर्षि दधीचि की हड्डियों से बना था। हनुमान वानरराज केसरी और अंजनी के पुत्र थे।

केसरी को ऋषि-मुनियों ने अत्यंत बलशाली और सेवाभावी संतान होने का आशीर्वाद दिया। इसीलिए हनुमान का शरीर लोहे के समान कठोर था। इसीलिए उन्हें वज्रांग कहा जाने लगा। ऐसी मान्यता है कि बजरंग बाण का पाठ करने से आत्मविश्वास की कमी दूर होती है। बजरंगबली इसका पाठ करने वाले को विपरित परिस्थितयों में लडऩे की क्षमता देते है। कहते हैं यदि किसी पर कोर्ट केस चल रहा हो या बीमारियां परेशान कर रही हो तो बजरंगबाण का पाठ करना चाहिए।

मन की शांति के लिए दिनभर में जरूर करें ये पांच काम....
हिंदू धर्म में अनेक परंपराएं प्रचलित हैं। इन परंपराओं के पीछे सिर्फ धार्मिक कारण ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक कारण भी है। इनमें से कुछ परंपराएं ऐसी है जिनका निर्वाह करने से मानसिक शांति मिलती है। ये पंरपराएं इस प्रकार है।

ब्रह्म मुहूर्त में उठने की परंपरा काफी पुरानी है। इसका कारण इस प्रकार है-रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने इस मुहूर्त का विशेष महत्व बताया है। उनके अनुसार यह समय निद्रा त्याग के लिए सर्वोत्तम है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।

सुबह उठते ही सबसे पहले हमें हमारे हाथों का दर्शन करना चाहिए। शास्त्रों में कर्म को प्रधान बताया गया और हाथों से कर्म किए जाते हैं। साथ ही एक और भी मान्यता है कि हमारे हाथों में विष्णु, लक्ष्मी और सरस्वती का वास होता है। सुबह-सुबह इनके दर्शन से दिन अच्छा रहता है। इससे मन को शांति मिलती है।

मंदिर में होने वाले नाद यानी शंख और घंटियों की आवाजें, ये आवाजें वातावरण को शुद्ध करती हैं। कहते हैं मंदिर जाने से आत्मिक शांति मिलती है। वहां लगाए जाने वाले धूप-बत्ती जिनकी सुगंध वातावरण को शुद्ध बनाती है। इस तरह मंदिर में लगभग सभी ऐसी चीजें होती हैं जो वातावरण की सकारात्मक ऊर्जा को संग्रहित करती हैं। हम जब मंदिर में जाते हैं तो इसी सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव हम पर पड़ता है और हमें भीतर तक शांति का अहसास होता है।

अष्टांग योग के विद्वानों के अनुसार ध्यान से हम खुद को निखार सकते हैं। सुबह के समय हमारा शरीर और मन दोनों स्फूर्ति भरे होते हैं। ताजगी का एहसास होता है और दिमाग में किसी प्रकार का दबाव नहीं होता। सुबह ध्यान करने से किसी तरह की बातें और विचार हमारे दिमाग में दिनभर नहीं चलते हैं, जिससे हमारे स्वास्थ्य और व्यवहार दोनों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

रात को सोने से पहले भगवान का स्मरण या मंत्र जप करें इससे बहुत गहरी नींद आती है इससे मानसिक शांति मिलती है।

भगवान कृष्ण के हाथ में मुरली क्यों?
शास्त्रों के अनुसार जब कृष्ण बाँसुरी बजाते थे तो उसमें अलौकिक आकर्षण होता था। कृष्ण और मुरली एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। मुरली के बिना श्री कृष्ण की कल्पना भी नहीं की जा सकती । उनकी मुरली के नाद रूपी ब्रह्म ने सम्पूर्ण सृष्टि को आलोकित और सम्मोहित किया ।

दरअसल कृष्ण की बांसुरी उनके स्वभाव की मधुरता का प्रतीक है। कृष्ण के हाथ में बांसुरी का मतलब जीवन में कै सी भी घड़ी आए हमें घबराना नहीं चाहिए। भीतर से शांति हो तो संगीत जीवन में उतरता है।

ऐसे ही अगर भक्ति पाना है तो अपने भीतर शांति कायम करने का प्रयास करें। साथ ही शास्त्रों के अनुसार कृष्ण के बचपन के अलावा और कहीं उनके बांसुरी वादन का उल्लेख नहीं मिलता है। कृष्ण की बांसुरी प्रेम, कलात्मकता व रचनात्मकता का प्रतीक है। इसलिए कृष्ण का बांसुरी

वादन इस तरफ भी इशारा करता है कि बचपन में बच्चों की कलात्मकता व रचनात्मकता पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए क्योंकि इससे उनके मन में संवेदनाएं उत्पन्न होती है और उनका सर्वांगिण विकास होता है।

तिजोरी में जरूर रखना चाहिए पूजा की सुपारी क्योंकि....
कहते हैं पूजा से मन को शांति व एकाग्रता मिलती है। इसीलिए लोग अपने घर में अक्सर किसी त्यौहार या विशेष उपलक्ष्य पर पूजन का आयोजन करते हैं। पूजन के समय सर्वप्रथम श्री गणेश का पूजन किया जाता है। गणेशजी की मुर्ति की स्थापना के साथ ही पूजा की सुपारी में भी गणेश जी का आवाह्न किया जाता है क्योंकि पूजन के समय सबसे पहले गौरी व गणेश की स्थापना जरूरी मानी जाती है।

गणेशजी का आवाह्न पूजा की सुपारी में किया जाता है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार पूजा की सुपारी को पूर्ण फल माना जाता है। पूजा की सुपारी पूर्ण व अखंडित होती है। इसीलिए इसको पूजा के समय गौरी-गणेश का रूप मानकर उस पर जनेऊ चढ़ाई जाती है।

बाद में उस पूजा की सुपारी का क्या करें अधिकतर लोगों के मन में यही दुविधा रहती है? कहा जाता है कि पूजा सुपारी को पूजन के बाद तिजोरी में रखना चाहिए क्योंकि शास्त्रों के अनुसार यह मान्यता है कि जहां गणेशजी यानी बुद्धि के स्वामी का निवास होता है वहीं लक्ष्मी का निवास होता है। इसीलिए पूजा सुपारी को पूजन के बाद तिजोरी में रखना चाहिए क्योंकि इससे घर में सुख-समृद्धि बढऩे के साथ ही घर में लक्ष्मी का स्थाई निवास होता है।

ऐसी वस्तुओं को नदी में बहा देना ही शुभ है क्योंकि...
पूजा रूम से हटाया गया कोई भी सामान चाहे वह मूर्ति हो, पितृ को या भगवान को उपले पर लगाए गए भोग की राख हो या फूल घर के किसी और जगह पर ना रखें। ऐसी वस्तुओं को किसी नदी में प्रवाहित कर देना शुभ होता है लेकिन ये बहुत कम लोग जानते हैं कि इन सभी चीजों को पूजास्थल से हटाने के बाद घर में क्यों नहीं रखना चाहिए?

दरअसल ताजे फूलों को पूजा में हमेशा रखा जाता है। इसका कारण यह है कि फूल की खुश्बू और सुन्दरता पूजन करने वाले के मन को सुन्दरता और शांति का एहसास दिलावाती है। ऐसा माना जाता है कि जब पूजा में इनका उपयोग किया जाता है, तो फूल अद्भुत ऊर्जा का सृजन पूरे घर में करते है और इससे घर में खुशियों का आगमन होता है। जबकि इसके विपरित मुरझाये फूल मृत्यु के सुचक माने जाते हैं।

साथ ही हमेशा पूजन आदि कर्म करते समय यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि घर में किसी तरह की खंडित मूर्ति नहीं रखना चाहिए। वास्तु के अनुसार खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन माना गया है।शास्त्रों के अनुसार ऐसी मुर्ति के पूजन से अशुभ फल की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि प्रतिमा पूजा करते समय भक्त का पूर्ण ध्यान भगवान और उनके स्वरूप की ओर ही होता है। अत: ऐसे में यदि प्रतिमा खंडित होगी तो भक्त का सारा ध्यान उस मूर्ति के उस खंडित हिस्से पर चले जाएगा और वह पूजा में मन नहीं लगा सकेगा।

इसके अलावा पितृ या भगवान को उपले पर लगाए गए भोग की राख को भी घर में रखना शुभ नहीं माना जाता है।तीनों बातों के पीछे का कारण वास्तु से ही जुड़ा है। वास्तु के अनुसार इन तीनों ही चीजों का घर में रखने पर घर की सकारात्मक ऊर्जा का स्तर कम होने लगता है व नकारात्मक ऊर्जा बढऩे लगती है। इसलिए इन्हें तुरंत ही नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए।

बेडरूम में नहीं रखना चाहिए भगवान की तस्वीर या मूर्ति क्योंकि....
कहते हैं वास्तु के अनुसार बेडरूम में भगवान की प्रतिमा या फोटो नहीं लगाना चाहिए। साथ ही यह हमारी धार्मिक मान्यताओं में से भी एक मान्यता है कि अपने शयनकक्ष यानी बेडरूम में भगवान की कोई प्रतिमा या तस्वीर नहीं लगानी चाहिए लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि आखिर क्यों भगवान की तस्वीर अपने शयनकक्ष में नहीं लगाई जा सकती है? इन तस्वीरों से ऐसा क्या प्रभाव होता है कि इन्हें लगाने की मनाही की गई है?

वास्तव में यह हमारी मानसिकता को प्रभावित कर सकता है।

इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही लगाने को कहा गया है, बेडरूम में नहीं। चूंकि बेडरूम हमारी नितांत निजी जिंदगी का हिस्सा है जहां हम हमारे जीवनसाथी के साथ वक्त बिताते हैं।

बेडरूम से ही हमारी सेक्स लाइफ भी जुड़ी होती है। अगर यहां भगवान की तस्वीर लगाई जाए तो हमारे मनोभावों में परिवर्तन आने की आशंका रहती है। यह भी संभव है कि हमारे भीतर वैराग्य जैसे भाव जाग जाएं और हम हमारे दाम्पत्य से विमुख हो जाएं। इससे हमारी सेक्स लाइफ भी प्रभावित हो सकती है और गृहस्थी में अशांति उत्पन्न हो सकती है। इस कारण भगवान की तस्वीरों को मंदिर में ही रखने की सलाह दी जाती है। जब स्त्री गर्भवती हो तो बेडरूम में बाल गोपाल की तस्वीर लगाई जा सकती है।

क्यों करें गंगा सप्तमी को,गंगा स्नान
गंगा करोड़ों हिंदुओं की आस्था का केंद्र है। अनेक धर्म ग्रंथों में भी गंगा के महत्व का वर्णन मिलता है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को गंगा सप्तमी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि गंगा की उत्पत्ति इसी दिन हुई थी। इस दिन गंगा मे स्नान करने और पूजा का विशेष महत्व है। इस बार गंगा सप्तमी का पर्व 10 मई, मंगलवार को है।

धर्म ग्रंथों के अनुसार जब कपिल मुनि के श्राप से सूर्यवंशी राजा सगर के 60 हजार पुत्र भस्म हो गए तब उनके उद्धार के लिए राजा सगर के वंशज भगीरथ ने घोर तपस्या कर माता गंगा को प्रसन्न किया और धरती पर लेकर आए। गंगा के स्पर्श से ही सगर के 60 हजार पुत्रों का उद्धार हो सका। गंगा को मोक्षदायिनी कहा जाता है। विभिन्न अवसरों पर गंगा तट पर मेले और गंगा स्नान के आयोजन होते हैं। इनमें कुंभ पर्व, गंगा दशहरा, पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा, माघी पूर्णिमा, मकर संक्रांति, गंगा सप्तमी आदि प्रमुख हैं।

क्या वाकई होता है पुनर्जन्म?
पुनर्जन्म एक अबूझ पहेली है। विज्ञान कहता है कि इस सृष्टि में पुनर्जन्म जैसी कोई व्यवस्था नहीं है और चिकित्सा विज्ञान कहता है कि पुनर्जन्म होता है। अधिकांश धर्मों में भी पुनर्जन्म की व्यवस्था को स्वीकार किया गया है। लेकिन कुल मिलाकर यह अभी भी समझना मुश्किल है कि कोई व्यक्ति मरने के बाद फिर से जन्म ले सकता है या नहीं?

हिंदू मान्यताओं के मुताबिक पुनर्जन्म होता है लेकिन कोई भी व्यक्ति मरने के तुरंत बाद ही दूसरा जन्म ले यह संभव नहीं है। अगर हिंदू मान्यताओं पर विश्वास किया जाए तो मृत्यु के बाद आत्मा इस वायु मंडल में ही चलायमान होती है। स्वर्ग-नर्क जैसे स्थानों पर घूमती है। लेकिन उसे एक न एक दिन शरीर जरूर लेना पड़ता है। ज्योतिष शास्त्र इस बात को ज्यादा मजबूती से रखता है। धर्म में जिसे प्रारब्ध कहा जाता है, यानी पूर्व कर्मों का फल, वह ज्योतिष का ही एक हिस्सा है। इसलिए ज्योतिष की लगभग सारी विधाएं ही पुनर्जन्म को स्वीकार करती हैं। इस विद्या का मानना है कि हम अपने जीवन में जो भी कर्म करते हैं उनमें से कुछ का फल तो जीवन के दौरान ही मिल जाता है और कुछ हमारे प्रारब्ध से जुड़ जाता है। इन्हीं कर्मों के फल के मुताबिक जब ब्रह्मांड में ग्रह दशाएं बनती हैं, तब वह आत्मा फिर से जन्म लेती है। इस प्रक्रिया में कई साल भी लग सकते हैं और कई दशक भी।

चिकित्सा विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि हमारी कई आदतें और परेशानियां पिछले जन्मों से जुड़ी होती हैं। कई बार हमारे सामने ऐसी चीजें आती है या ऐसी घटनाएं घटती हैं, जो होती तो पहली बार हैं लेकिन हमें महसूस होता है कि इस तरह की परिस्थिति से हम पहले भी गुजर चुके हैं। चिकित्सा विज्ञान इसे हमारे अवचेतन मन की यात्रा मानता है, ऐसी स्मृतियां जो पूर्व जन्मों से जुड़ी हैं। बहरहाल पुनर्जन्म अभी भी एक अबूझ पहेली की तरह ही हमारे सामने है। ज्योतिष, धर्म और चिकित्सा विज्ञान ने इसे खुले रूप से या दबी जुबान से स्वीकारा तो है लेकिन इसे अभी पूरी तरह मान्यता नहीं दी है।

सफलता के लिए किन्नरों को क्या और क्यों दान करें?
पौराणिक ग्रन्थों, वेदों-पुराणों और साहित्य तक में किन्नर हिमालय क्षेत्र में बसने वाली महत्वपूर्ण आदिम जाति है जिसके वंशज वर्तमान जनजातीय जिला किन्नौर के निवासी माने जाते हैं। किन्नरों का जीवन बहुत ही संघर्षों से भरा है क्योंकि समाज में सामान्य मनुष्यों की तरह इन्हेंआदर सम्मान नहीं मिल पाता है लेकिन कहते हैं कर्मों के अनुसार स्त्री-पुरुष या नपुंसक योनि में जन्म लेना पड़ता है। इन्हें दान देने को शास्त्रों में बहुत महत्व दिया गया है।
ज्योतिष के अनुसार बुध को नपुंसक ग्रह माना गया है। माना जाता है कि किन्नरों पर बुध का विशेष प्रभाव होता है। इसीलिए किन्नरों को दान देने से बुध प्रसन्न होते हैं।
इसीलिए बुध यानी व्यापार और कार्यक्षेत्र के कारक ग्रह को बलवान बनाने के लिए और सफलता प्राप्त करने के लिए किन्नरों को पैसों के साथ ही पूजा सुपारी का दान देना चाहिए क्योंकि पूजा सुपारी को शास्त्रों के अनुसार गणपतिजी का रूप माना जाता है। इसीलिए किसी भी पूजन के शुरूआत में गौरी व गणेश का आवाह्न पूजा सुपारी पर किया जाता है। बुध को धन, बुद्धि तर्क व कर्म का कारक ग्रह माना गया है। ऐसी मान्यता है कि बुध से संबंधित दान करने से संचित कर्मों का नाश होता है और अगले जन्म में किन्नर के रूप में जन्म नहीं लेना पड़ता है। इसीलिए किन्नरों को पैसों के साथ ही सुपारी के दान करने को विशेष महत्व दिया गया है।

क्यों और क्या ध्यान रखें दान करते समय?
दान करने के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि दान हमेशा सीधे हाथ से ही किया जाना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि सीधे हाथ से किए गए दान से परमात्मा तुरंत ही प्रसन्न होते हैं और दानी की मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान के लिए किए जाने वाले सभी पूजा कर्म सीधे हाथ से ही किए जाना चाहिए।

दान करने से हमारे मोह और अहम का त्याग होता है। दान से हमारे मन का मोह दूर होता है। यदि किसी व्यक्ति के पास बहुत सारा धन है तब भी जब तक धन के प्रति मोह का त्याग नहीं करेगा तब तक वह दान नहीं कर सकता। इसी प्रकार दान से अहम भी हमसे दूर होता है। इसी के साथ ही दान से मन को शांति भी मिलती है।सीधे हाथ का सभी धार्मिक कार्य में विशेष महत्व है क्योंकि धर्म शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि हमारे शरीर का बायां भाग स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है और दायां भाग पुरुषों का।

इस बात की पुष्टि शिवजी के अद्र्धनारीश्वर स्वरूप से की जा सकती है। शिवजी के इस रूप में दाएं भाग में स्वयं शिवजी और बाएं भाग में माता पार्वती को दर्शाया जाता है। धर्म से संबंधित सभी कार्य पुरुषों से कराए जाने की बात हमेशा से ही कही जाती रही है। दान सीधे हाथ से करना चाहिए इस बात के लिए एक और तर्क यह है कि हम पवित्र कार्य के लिए सदैव सीधे हाथ का ही उपयोग करते हैं। इसी वजह से बाया हाथ धार्मिक कार्यों में उपयोग नहीं किया जाता।

क्या सचमुच अमर है अश्वत्थामा?
महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक अश्वत्थामा भगवान शंकर के अंशावतार थे। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर है तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। भगवान शंकर का यह अवतार संदेश देता है कि हमें सदैव अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए क्योंकि क्रोध ही सभी दु:खों का कारण है। यह गुण अश्वत्थामा में नहीं था। साथ ही एक और बात जो हमें अश्वत्थामा से सीखनी चाहिए वह यह कि जो भी ज्ञान प्राप्त करें उसे पूर्ण करें। अधूरा ज्ञान सदैव हानिकारक रहता है। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र चलाना तो जानते थे लेकिन उसका उपसंहार करना नहीं। फिर भी उन्होंने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जिसके कारण संपूर्ण सृष्टि के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया था। इस तथ्य से हमें यह शिक्षा मिलती है कि क्रोध तथा अपूर्ण ज्ञान से कभी सफलता नहीं मिलती।

द्रोणाचार्य के पुत्र थे अश्वत्थामा

अश्वत्थामा महादेव, यम, काल व क्रोध के अंशावतार थे। महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। अश्वत्थामा अत्यंत शुरवीर, प्रचंडक्रोधी स्वभाव के योद्धा थे। महाभारत संग्राम में अश्वत्थामा ने कौरवों की सहायता की थी। हनुमानजी आदि सात चिरंजीवियों में अश्वत्थामा का नाम भी आता है। इस विषय में एक श्लोक प्रचलित है-

अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।कृप: परशुरामश्च सरतैते चिरजीविन:॥

अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम ये सातों चिरंजीवी हैं। शिवमहापुराण(शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

शनि देव को मनाने के लिए मंदिर में जूते क्यों छोड़ दिए जाते हैं?
कई लोग शनि मंदिरों में जूते छोड़ जाते हैं और इसे शुभ माना जाता है। आखिर शनिवार को जूते छोड़ जाने से क्या लाभ होता है? क्यों ऐसा माना जाता है कि चमड़े के जूते छोड़ जाएं तो सारी परेशानी उसके साथ चली जाती हैं? वास्तव में यह मान्यता ज्योतिषीय आधार पर प्रचलित है। ज्योतिष शास्त्र में शनि को क्रूर और कठोर न्यायप्रिय ग्रह माना गया है। शनि जब किसी के विपरित होता है तो उस व्यक्ति को जी-तोड़ मेहनत के बाद भी फल थोड़ा ही मिलता है। जिसकी कुंडली में साढ़े साती, ढैया हो, या जिसकी राशि में शनि अच्छे स्थान पर न हो, उसे यह खास परेशानी होती है।

शनिवार शनि का दिन माना जाता है। हमारे शरीर के अंग भी ग्रहों से प्रभावित होते हैं। त्वचा (चमड़ी) और पैर में शनि का वास माना जाता है, इनसे संबंधित चीजें शनि के लिए दान की जाती हैं और इनकी बीमारियां भी शनि से संबंधित होती हैं। चमड़ा और पैर दोनों ही शनि से प्रभावित होते हैं, इस कारण चमड़े के जूते अगर शनिवार को चोरी हो जाएं तो मानना चाहिए कि हमारी परेशानी कम होने जा रही हैं। शनि अब ज्यादा परेशान नहीं करेगा। कई लोग इसी कारण से शनिवार को शनि मंदिरों में जूते भी छोड़कर आते हैं ताकि शनि उनके कष्ट कम कर दें।

कई बार मेहनत के बाद भी क्यों नहीं होता भाग्योदय?
कुछ लोग अपने कार्यक्षेत्र में मन लगाकर काम करते हैं हर तरह से अपना बेस्ट देने की कोशिश करते हैं लेकिन फिर भी उन्हें उचित परिणाम नहीं मिल पाता है इसके बहुत से कारण हो सकते हैं लेकिन उन्हीं में से एक कारण घर का वास्तु भी हो सकता है क्योंकि यदि कोई घर वास्तु के अनुसार बना हो तो आप अधिक ऊर्जावान बन सकते हैं।

वास्तु के अनुसार यह सकारात्मक ऊर्जा काम के साथ ही भाग्योदय में भी सहायक होती हैं।

ऐसा माना जाता है कि यदि घर का हर एक कोना वास्तु अनुरूप हो तो घर में आने वाले हर व्यक्ति को बहुत मानसिक शांति महसुस होती है और घर में रहने वाले हर सदस्य की तरक्की होती है।

इसीलिए घर के निर्माण के समय उसके वास्तु पर बहुत ध्यान रखना चाहिए क्योंकि कई बार घर में वास्तुदोष होने के कारण भी उसमें रहने वालों का भाग्योदय नहीं हो पाता इसीलिए घर बनवाते समय पूर्व दिशा के वास्तु पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए क्योंकि ऐसी मान्यता है कि पूर्व दिशा ऐश्वर्य व ख्याति के साथ सौर ऊर्जा प्रदान करती हैं।

गृहप्रवेश के समय पूजा में क्या और क्यों करवाना चाहिए?
नए घर में जीवन खुशियों से भर जाए,हर परेशानी जीवन को अलविदा कह जाए। इसी सोच के साथ कोई भी अपना नया घर बनवाता है। कहते हैं कि पूजा से मन को शांति मिलती है। गृहप्रवेश पूजा का रिवाज इसलिए बनाया है ताकि घर पर हमेशा भगवान की कृपा बनी रहे। इससे नया घर सकारात्मक उर्जा से भर जाता है।वास्तु शांति कराएं, विधिवत वास्तु पूजन कराएं।

उसके बाद ही गृह प्रवेश करें जिससे उन्नति होगी एवं समृद्धि होगी।विधिवत गृह प्रवेश कराएं, वास्तु जप जरूर कराएं। देवी दुर्गा की अक्षत, लाल पुष्प, कुमकुम से पूजा करें। प्रसाद चढ़ाएं, धूप, दीप दिखाएं एवं जप करें। निश्चित ही घर में सुख, शांति एवं समृद्धि होगी।दुर्गासप्तशती का नौ दिन तक पाठ विधिवत घी का अखंड दीपक लगाकर, उपरांत नौ कन्याओं का भोजन (2-10 वर्ष की कन्या) करवाने से जीवन सुखद होता है। महामृत्युंजय मंत्र का जप करें, इससे भी लाभ प्राप्त होता है।

आप जानते हैं क्यो नहीं देना चाहिए बुधवार को कर्ज?
कर्ज चुकाने की स्थिति आदमी को अत्यंत दुविधा में डाल देती है। आदमी के मन में रात-दिन सिर्फ उसे चुकाने के लिए तनावग्रस्त रहता है। लेकिन जैसी स्थिति व मुश्किलें कर्ज लेने वाले के लिए होती है कई बार उन्हीं मुसीबतों का सामना कर्ज देने पर भी करना पड़ता है। ऐसे में कई बार कर्ज देने वाले को भी अटके हुए पैसों के कारण आर्थिक तंगी या बिजनेस में नुकसान का सामना करना पड़ता है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बुध को व्यापार का कारक ग्रह माना गया है। कोई भी व्यक्ति कर्ज देता है तो यह बुध यानी व्यापार के कारक ग्रह का ही प्रभाव होता है। बुध को कार्यक्षेत्र का ग्रह तो माना ही जाता है साथ ही इसे नपुंसक ग्रह भी माना गया है। इसी वजह से शास्त्रों द्वारा बुधवार को कर्ज देना वर्जित किया गया है। इस दिन लोन पर बहुत कम परिस्थितियों में कोई व्यक्ति इसे चुका पाता है।

बुध को कर्ज लेने से यह चुका पाना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन कर्ज देने पर व्यक्ति के बच्चों तक को इस कर्ज से मुसीबतें उठाना पड़ती हैं। बुधवार को कर्ज देने से पैसा डूबता है और व्यापार में हानि होती है। इसी कारण ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बुधवार के दिन कर्ज देना अच्छा नहीं माना गया है।

ध्यान रखें, कभी भी खाली हाथ घर ना लौटे क्योंकि...

अधिकतर लोग ऑफिस से या कार्यस्थल से जब अपने घर लौटते हैं तो अपनी व्यस्तता के कारण बिना कुछ लिए खाली हाथ ही घर लौट आते हैं। लेकिन आपने अक्सर हमारे घर के वृद्ध लोगों को यह कहते हुए सुना होगा कि कभी शाम को खाली हाथ घर नहीं लौटना चाहिए क्योंकि हमारे शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि घर लौटते समय घर के बूजुर्गों या बच्चों के लिए कुछ न कुछ लेकर जाना चाहिए।
घर में कुछ भी नई वस्तु आने पर बच्चें और बूजुर्ग ही सबसे ज्यादा खुश होते हैं। कहीं कहीं इस परम्परा में घर लौटते वक्त बच्चों के लिए मिठाई लाने के बारें में बताया गया है। बुजूर्गों के आशीर्वाद से घर में सुख समृद्धि बढऩे लगती है और जिस घर में बच्चे और वृद्ध खुश रहते है उस घर में लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है।

ऐसा माना जाता है कि रोज खाली हाथ घर लौटने पर धीरे धीरे उस घर से लक्ष्मी चली जाती है और उस घर के सदस्यों में नकारात्मक या निराशा के भाव आने लगते हैं।इसके विपरित घर लौटते समय कुछ न कुछ वस्तु लेकर आएं तो उससे घर में बरकत बनी रहती है, उस घर में लक्ष्मी का वास हो जाता है। हर रोज घर में कुछ न कुछ लेकर आना वृद्धि का सूचक माना गया है। ऐसे घर में सुख समृद्धि और धन हमेशा बढ़ता जाता है। और घर में रहने वाले सदस्यों की भी तरक्की होती है।

सिन्दूर का नहीं चंदन का तिलक लगाना चाहिए क्योंकि...
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जा के समय तिलक लगाने का विशेष महत्व है और भगवान को स्नान करवाने के बाद उन्हें चन्दन का तिलक किया जाता है।पूजन करने वाला भी अपने मस्तक पर चंदन का तिलक लगाता है। यह सुगंधित होता है तथा इसका गुण शीतलता देने वाला होता है।

भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है।

स्त्रियों को मस्तक पर कस्तूरी का तिलक या बिंदी लगाना चाहिए। गणेशजी, हनुमानजी, माताजी या अन्य मुर्तियों से सिंदूर निकालकर ललाट पर नही लगाना चाहिए। सिंदूर उष्ण होता है। चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चंदन का तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता।

बॉडी मसाज से पहले इस बात का ध्यान जरूर रखें क्योंकि...
तेल मालिश करना शरीर के लिए लाभदायक होता है लेकिन इसके भी अपने नियम हैं, अगर उसे ध्यान में नहीं रखा जाए तो परेशानी खड़ी हो सकती है। शास्त्रों और आयुर्वेद में बताया गया है कि रविवार, मंगलवार और शुक्रवार को तेल की मालिश नहीं करनी चाहिए। इससे शरीर पर विपरित प्रभाव पड़ता है।

शास्त्रों के अनुसार रविवार, मंगलवार और शुक्रवार को तेल से मालिश करना मना है। इसके पीछे भी विज्ञान है।

- रविवार का दिन सूर्य से संबंधित है। सूर्य से गर्मी उत्पन्न होती है। अत: इस दिन शरीर में पित्त अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक होना स्वाभाविक है। तेल से मालिश करने से भी गर्मी उत्पन्न होती है। इसलिए रविवार को तेल से मालिश करने से रोग होने का भय रहता है।

- मंगल ग्रह का रंग लाल है। इस ग्रह का प्रभाव हमारे रक्त पर पड़ता है। इस दिन शरीर में रक्त का दबाव अधिक होने से खुजली, फोड़े फुन्सी आदि त्वचा रोग या उनसे मृत्यु होने का डर भी रहता है।

- इसी तरह शुक्र ग्रह का संबंध वीर्य तत्व से रहता है। इस दिन मालिश करने से वीर्य संबंधी रोग हो सकते हैं।

- अगर रोजाना मालिश करना हो तो तेल में रविवार को फूल, मंगलवार को मिट्टी और शुक्रवार को गाय का मूत्र डाल लेने से कोई दुष्प्रभाव नहीं होता।

पूर्णिमा पर क्या और क्यों करना चाहिए?

कहते हैं किसी भी माह की पूर्णिमा को दान करने से इसका बहुत ज्यादा फल मिलता है। आखिर पूर्णिमा को ही दान क्यों किया जाए? इसके पीछे क्या कारण और दर्शन है? कौन सी बात है जो पूर्णिमा को इतना खास बनाती है? पूर्णिमा पर नदियों में स्नान के बाद दान का महत्व क्यों है? इस परंपरा के पीछे दार्शनिक कारण भी और वैज्ञानिक भी। पूर्णिमा पर नदियों में स्नान और फिर उसके बाद दान, दोनों अलग-अलग विषय है। स्नान सीधे हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा और दान हमारे व्यवहार से।

पूर्णिमा पर चंद्रमा की रोशनी सबसे ज्यादा होती है। इससे कई ऐसी किरणें निकलती हैं जो नदियों के पानी, वनस्पति और भूमि पर औषधीय प्रभाव डालती हैं। इसलिए पूर्णिमा पर नदियों में स्नान करने से उस औषधीय जल का प्रभाव हम पर भी होता है, जिससे हमें स्वास्थ्यगत फायदा होता है। नदी में स्नान के बाद दान का महत्व इसलिए है कि चंद्रमा मन का अधिपति होता है।

चंद्रमा की किरणों से युक्त जल में स्नान करने से मन को शांति और निर्मलता आती है। दान का महत्व इसीलिए रखा गया है क्योंकि जब हम शांत और निर्मल होते हैं तो ऐसे समय अच्छे कार्य करने चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का विकास हो। दान करने से मन पर सद्भाव और प्रेम जैसी भावनाओं का प्रभाव बढ़ता है। इससे हमारे व्यक्तित्व का सकारात्मक विकास होता है।

क्यों और कैसे रखें घर में मूर्तियां?
पूजा घर प्राचीन समय में घर के भीतर नहीं बनाया जाता था क्योंकि वास्तु के अनुसार इसे उचित नहीं माना जाता था लेकिन वर्तमान में घर के अंदर ही पूजा घर बनाया जाता है। इसीलिए पूजा घर में मूर्तिया रखते समय कुछ वास्तु नियमों का ध्यान अनिवार्य रूप से रखना चाहिए क्योंकि पूजास्थल के वास्तु का ध्यान रखने से घर की सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है। घर की सुख व समृद्धि बढ़ती है। साथ ही घर में क्लेश नहीं होता है।

कैसे रखें मूर्तियां: वास्तु के अनुसार कम वजन की तस्वीरें और मूर्तियाँ ही पूजाघर में रखनी चाहिए। इनकी दिशा पूर्व, पश्चिम, उत्तर मुखी हो सकती है, लेकिन दक्षिण मुखी कभी नहीं। भगवान का चेहरा किसी भी वस्तु से ढँका नहीं होना चाहिए, फूल और माला से भी नहीं। इन्हें दीवार से एक इंच दूर रखना चाहिए, एक-दूसरे के सम्मुख नहीं। इनके साथ अपने पूर्वजों की तस्वीर नहीं रखनी चाहिए। खंडित मूर्तियाँ पूजाघर के अंदर कभी नहीं रखना चाहिए। अगर कोई मूर्ति खंडित हो जाए तो उसे तुरंत प्रवाहित कर देना चाहिए।

घर के मंदिर में शास्त्रों के अनुसार बताई गई भगवान की मूर्तियां ही रखें। घर में श्रीगणेश की 3, माताजी की 3 प्रतिमाएं और सूर्य की दो प्रतिमाएं और 2 शंख नहीं होना चाहिए। मंदिर में दो शिवलिंग नहीं होना चाहिए तथा शिवलिंग अंगूठे के आकार का होना चाहिए। साथ ही पूजा स्थल की नियमित रूप से सफाई की जानी चाहिए। साथ ही प्रतिदिन विधि-विधान से पूजन-अर्चन भी करना चाहिए। सुंगधित अगरबत्ती लगाने से घर का वातावरण भी पवित्र होता है और सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है।

नई दुल्हन को शादी में गहने क्यों दिए जाते है?
हिन्दू परंपरा के अनुसार बेटियों की शादी में उसके मायके वालों की ओर से अनेक उपहार विवाह के उपलक्ष्य में बेटी को दिए जाते हैं। माता-पिता का यही सपना होता है कि उनकी बेटी ससुराल में हमेशा खुश रहे। उसे कभी किसी तरह की कोई कमी महसूस न हो। नववधु को माता-पिता की ओर से आभुषण दिए जाने का एक मुख्य कारण यह है कि उनकी बिटिया को जिंदगी में कभी भी अभाव का सामना ना करना पड़े। साथ ही इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी है।

पहले जब वधू को कमरधनी (तगड़ी) पहनाई जाती थी और गले में भारी हार पहनाए जाते थे और भारी-भारी पायल भी पहनाई जाती थी तो उसके पीछे तथ्य शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखना था। ये विशेष आभूषण भारी होने से एक्युप्रेशर के पाईन्ट को दबाए रखने का एक महत्वपूर्ण साधन हैं और पायल रिप्रोडेक्टिव ऑर्गन को भी ठीक रखती है। यही कारण है कि आभूषण केवल स्त्रियाँ ही नहीं पहनती थीं बल्कि पुरूष भी बड़े और भारी आभूषण धारण किया करते थे। आज भारी आभूषणों की जगह हल्के और सुंदर आभूषणों ने ले ली है और इन सबके पीछे काल और परिस्थिति का बदल जाना है।

खाना खाते समय इस बात का जरूर रखें ध्यान क्योंकि...
खाने के संबंध में ऐसी मान्यता है कि परिवार के सभी सदस्यों को एक साथ भोजन करना चाहिए। घर में ही नहीं बल्कि बाहर भी अकेले खाना नहीं चाहिए। घर के बाहर मित्रों के साथ खाना खाने से मित्रता का रिश्ता और मजबूत बनता है।अधिकांश बड़े-बुजूर्ग अक्सर यही बात कहते हैं कि खाना सभी को एक साथ बैठकर खाना चाहिए। इससे घर के सदस्यों में प्रेम बढ़ता है और रिश्ते मजबूत बनते हैं। यदि हम पुराने समय से आज की तुलना करें तो यही बात सामने आती है कि आज अधिकांश घरों में लड़ाइयां बढ़ रही हैं।

परिवार के सदस्यों में परस्पर प्रेम की कमी आ गई है और अपनापन घट रहा है। जबकि पुराने समय में परिवार के सभी सदस्यों में अटूट प्रेम रहता था और सभी एक-दूसरे का पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। इसकी वजह यही है कि उस समय दिन में कम से कम दो बार पूरा परिवार साथ बैठता था और सभी साथ खाना खाता थे। उस समय सभी जीवन की कई परेशानियों का हल निकाल लेते थे। जबकि आज समय अभाव के कारण घर के सभी सदस्य पर्याप्त समय नहीं निकाल पाते। ऐसे में सदस्यों का आपस में संपर्क काफी कम हो जाता है। धीरे-धीरे इसी वजह से परिवार में कलह आदि की बात सामने आने लगती है। इन्हीं कारणों से सभी विद्वान और वृद्धजन यही बात कहते हैं कि पूरे परिवार को एक साथ खाना चाहिए। ताकि सभी सदस्यों का आपस में संपर्क हमेशा बना रहे और प्रेम में किसी भी प्रकार की कोई न आ सके।

सभी के साथ खाना खाने से हम अच्छे से भोजन कर पाते हैं, जबकि अकेले में कई बार ठीक से भोजन नहीं हो पाता। यह स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। साथ ही पूरा परिवार एक साथ खाना खाएगा तो सभी का खाने का समय भी निश्चित रहेगा। इससे परिवार के सभी सदस्यों की सेहत भी अच्छी रहती है।

दूल्हा क्यों और कौन से सात वचन देता है दुल्हन को?
वैदिक संस्कृति के अनुसार सोलह संस्कारों को जीवन के सबसे महत्वपूर्ण संस्कार माने जाते हैं। विवाह संस्कार उन्हीं में से एक है जिसके बिना मानव जीवन पूर्र्ण नहीं हो सकता। इसीलिए विवाह से जुड़ी अनेक रस्में बनाई गई हैं। उन्हीं में से सबसे महत्वपूर्ण रस्म मानी जाती है फेरों की।

हिन्दू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है सात फेरों में दूल्हा व दुल्हन दोनों से सात वचन लिए जाते हैं। वर के द्वारा दिए जाने वाले वचन ऐसे है जिनमें उसे गृहस्थी का सम्पूर्ण दायित्व सौपा जाता है ताकि दोनों की गृहस्थी सुख पूर्वक चले।

वर से वधु द्वारा लिए जाने वाले वचन इस प्रकार है। गृहस्थ जीवन में सुख-दु:ख की स्थितियां आती रहती हैं, लेकिन तुम हमेशा अपना स्वभाव मधुर रखोगे। मुझे बताये बिना कुआं - बावड़ी - तालाब का निर्माण, यज्ञ-महोत्सव का आयोजन और यात्रा नहीं करोगे। मेरे व्रत, दान और धर्म कार्यों में रोक-टोक नहीं करोगे। मेहनत से जो कुछ भी अर्जित करोगे, मुझे सौंपोगे। मेरी राय के बिना कोई भी चल-अचल सम्पति का क्रय-विक्रय नहीं करोगे। घर की सभी कीमती चीजें, गहने, आभूषण मुझे रखने के लिए दोगे। माता-पिता के किसी आयोजन में मेरे मायके जाने पर आपत्ति नहीं लोगे।

उपवास के दिन क्यों और क्या जरूर ध्यान रखना चाहिए?
संकल्प या दृढ़ निश्चय को ही व्रत या उपवास कहा जाता है। उपवास का अर्थ ईश्वर या इष्टदेव के समीप बैठना भारतीय संस्कृति में व्रत तथा उपवास का इतना अधिक महत्व है कि हर दिन कोई न कोई उपवास या व्रत होता ही है। सभी धर्मों में व्रत उपवास की आवश्यकता बताई गई है। इसलिए हर व्यक्ति अपने धर्म परंपरा के अनुसार उपवास या व्रत करता ही है। वास्तव में व्रत उपवास का संबंध हमारे शारीरिक एवं मानसिक शुद्धिकरण से है। इससे हमारा शरीर स्वस्थ रहता है।

1. नित्य

2. नैमित्तिक

3. काम्य व्रत

1. नित्य: जो व्रत भगवन को प्रसन्न करने के लिए निरंतर किया जाता है।

2. नैमित्तिक: यह व्रत किसी निमित्त से किया जाता है।

3. काम्य: किसी कामना से किया व्रत काम्य व्रत है।

स्वास्थ्य: व्रत उपवास से शरीर स्वस्थ रहता है। निराहार रहने, एक समय भोजन लेने अथवा केवल फलाहार से वाचनतंत्र को आराम मिलता है। इससे कब्ज, गैस, एसिडीटी अजीर्ण, अरूचि, सिरदर्द, बुखार, आदि रोगों का नाश होता है। आध्यत्मिक शक्ति बढ़ती है। ज्ञान, विचार, पवित्रता बुद्धि का विकास होता है। इसी कारण उपवास व्रत को पूजा पद्धति को शामिल किया गया है।कौन न करें: सन्यासी, बालक, रोगी, गर्भवती स्त्री, वृद्धों को उपवास करने पर छूट प्राप्त है।क्या नियम है व्रत का: जिस दिन उपवास या व्रत हो उस दिन इन नियमों का पालन करना चाहिए:किसी प्रकार की हिंसा न करें।दिन में न सोएं।बार-बार पानी न पिएं।झूठ न बोलें। किसी की बुराई न करें।व्यसन न करें।भ्रष्टाचार न करने का संकल्प लें।व्यभिचार न करें।सिनेमा, जुआं, टीवी आदि न देखें।

घर में जरुर रखना चाहिए साबूत नमक क्योंकि....
हमारे यहां शादी-ब्याह हो या कोई अन्य रस्म सामान सबसे पहले घर में नमक लाया जाता है क्योंकि साबुत नमक घर में रखना बहुत शुभ माना जाता है।

जब शादी में सबसे पहले गणेश स्थापना के पूर्व भी जो पूजा सामग्री रखी जाती है उसमें साबुत नमक भी जरुर रखा जाता है। वास्तु के अनुसार ऐसी मान्यता है कि साबुत नमक में पॉजिटीव एनर्जी को अपनी तरफ आकर्षित करने की क्षमता होती है।

साथ ही यह नकारात्मक उर्जा को घर से दूर करता है। इसलिए घर में कोई भी शुभ काम करने जा रहे हों तो नमक डालकर पौछा जरूर लगाएं। साथ ही घर में हमेशा साबुत नमक जरुर रखना चाहिए क्योंकि इससे घर से कई तरह के वास्तुदोष दूर हो जाते हैं। इसीलिए घर के जिस भी कोने में वास्तुदोष दूर करने के लिए वहां एक बाऊल में भरकर साबुत नमक रखा जाता है।

मन में खिन्नता, भय, चिंता होने से, दोनों हाथों में साबुत नमक भर कर कुछ देर रखे रहें, फिर वॉशबेसिन में डाल कर पानी से बहा दें। नमक इधर-उधर न फेंकें। नमक हानिकारक चीजों को नष्ट करता है। फफूंदी भी नहीं लगने देता।

हनुमानजी की कितनी परिक्रमा करें?

कलयुग में हनुमानजी की भक्ति सभी मनोकामनाओं को शीघ्र पूर्ण करने वाली मानी गई है। इसी वजह से आज इनके भक्तों की संख्या काफी अधिक है। ऐसा माना जाता है हनुमानजी बहुत जल्द अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करके सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। हनुमान जी के पूजन में एक महत्वपूर्ण क्रिया है परिक्रमा।

किसी भी भगवान के पूजन कर्म में एक महत्वपूण क्रिया है प्रतिमा की परिक्रमा। वैसे तो सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है।

धर्म शास्त्रों के अनुसार आरती और पूजा-अर्चना आदि के बाद भगवान की मूर्ति के आसपास सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है, इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए परिक्रमा की जाती है। सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की अलग-अलग संख्या है। वेद-पुराण के अनुसार श्रीराम के परम भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है। भक्तों को इनकी तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए।

परिक्रमा के संबंध में नियम:
परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। साथ परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी। ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है।

सत्यवान के प्राण यमराज से कैसे लाई सावित्री?
ज्येष्ठ शुक्ल अमावस्या को वटसावित्री का व्रत किया जाता है। इस दिन सावित्री व सत्यवान की कथा सुनने का विशेष महत्व है। यह कथा इस प्रकार है-

किसी समय मद्रदेश में अश्वपति नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी कन्या का नाम सावित्री था। सावित्री जब बड़ी हुई तो उसने पिता के आज्ञानुसार पति के रूप में राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को चुना। राजा द्युमत्सेन का राज-पाठ जा चुका था और वे अपनी आंखों की रोशनी भी खो चुके थे। वे जंगल में रहते थे। जब यह बात नारदजी को पता चली तो उन्होंने अश्वपति को आकर बताया कि सत्यवान गुणवान तो है लेकिन इसकी आयु अधिक नहीं है। यह सुनकर अश्वपति ने सावित्री को समझाया कि वह कोई और वर चुन ले लेकिन सावित्री ने मना कर दिया।

तब अश्वपति ने विधि का विधान मानकर सावित्री का विवाह सत्यवान से कर दिया। सावित्री अपने पति व सास-ससुर के साथ जंगल में रहने लगी। नारदजी के कहे अनुसार सत्यवान की मृत्यु का समय निकट आ गया तो सावित्री व्रत करने लगी। नारदजी ने जो दिन सत्यवान की मृत्यु का बताया था उस दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ जंगल में गई। जंगल में लकड़ी काटते समय सत्यवान की मृत्यु हो गई और यमराज उसके प्राण हर कर जाने लगे। तब सावित्री भी उनके पीछे चली।

सावित्री के पतिव्रत को देखकर यमराज ने उसे वरदान मांगने के लिए कहा। तब सावित्री ने अपने अंधे सास-ससुर की नेत्र ज्योति, ससुर का खोया हुआ राज्य आदि सबकुछ मांग लिया। इसके बाद सावित्री ने यमराज से सत्यवान के सौ पुत्रों की माता बनने का वरदान भी मांग लिया। वरदान देकर यमराज ने सत्यवान की आत्मा को मुक्त कर दिया और सत्यवान पुन: जीवित हो गया।

इस तरह सावित्री के पतिव्रत से सत्यवान फिर से जीवित हो गया और उसका खोया हुआ राज्य भी वापस मिल गया। वतसावित्री व्रत के दिन सभी को यह कथा अवश्य सुननी चाहिए।

पहचानें अपने इस जन्मजात गुण को...
इस दौर में इंसान मुश्किल मंजिलों के निकट से गुजर जाता है, लेकिन जहां से गुजर कर थोड़ी देर ठहरना चाहिए वहां हम कभी नहीं जाते। अपने भीतर की यात्रा न केवल हमें डराती है बल्कि कभी-कभी भटका भी देती है लेकिन यह स्थिति उनके साथ बनती है जो परिस्थितियों से डर कर भागते हैं।

भीतर की यात्रा के समय हमें जिस सत्य को जानना और स्वीकार करना होता है उससे भागते हैं। अपने जन्मजात गुणों को नहीं पहचान पाते, केवल भीतर भी भटक कर लौट आते हैं। जिन्दगी जीते-जीते हम यह भूल जाते हैं कि हमारे जीवन में जो महत्वपूर्ण था वह जन्मजात था। पैदा होते वक्त हम उसे साथ ही लाए थे।

अभी गलती यह कर रहे हैं कि इस खास को, महत्वपूर्ण को बाहर दुनिया में ढूंढ रहे हैं। भीतर टटोलिए, खोई हुई वस्तु की तरह हमारा अपना होना कहीं पड़ा हुआ है। जन्म हुआ है तो संसार में रहना भी पड़ेगा। संसार जितना देता है उससे ज्यादा ले लेता है। इसलिए जो हमारे जन्मजात महत्वपूर्ण है उस पर नजर रखें, खोने न दें और दुनिया में जो खो रहे हैं उसके प्रति जागरूक रहें।

एक सवाल उठता है कि ये जन्मजात महत्वपूर्ण है क्या? कौन सी खास बात हम अपनी पैदाइश के साथ लाए हैं। यह बात है किसी परमशक्ति का अंश है। जन्म के साथ हमारे भीतर हमारा परमात्मा भी आया है। उसकी मौजूदगी हमें यह एहसास कराती है कि मालिक कोई और है, हमें तो हुक्म का पालन करना है। हम सिर्फ माली हैं, बगीचे का मालिक कोई और है।

अपनी पहली पहचान ईश्वरीय प्रतिनिधि के रूप में रखें। सारे कर्म, सभी रिश्ते इसी दायित्व बोध के आसपास रहें। स्वार्थ और परमार्थ का संतुलन संसार में बनाना पड़ता है। यदि हम भगवान के प्रतिनिधि हैं ऐसा जान लें तो फिर हर दिन बेफिक्री से बीतेगा।




क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

2 comments:

  1. कृपया हमें बताये " हम ईश्वर के गले मे हार क्यूँ डालते है..."

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  2. सनातन धर्म में पूजा - पद्धति ऋषि - मुनियों द्वारा प्रदान की गयी है. इसलिए हमारे ऋषि मुनियों ने प्रकृति से लेकर पशु और विभिन्न वस्तुओं को देव पूजन सामग्री में शामिल किया है. जिनका न सिर्फ धार्मिक दृष्टि से बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण लाभ है. प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुगंधित पुष्प और औषधियों से भगवान का अभिषेक - श्रृंगार किया जाता है. फूलों से एक ओर जहां प्रभु का श्रृंगार होता है. वहीं ऐरोमा थैरपी में फूलों की खुशबू से अनेक तरह के लाभ बताए गये हैं. इसलिए साधक को भी फूलों से प्रभु का श्रृंगार करने से साधना के साथ स्वास्थ्य लाभ होता है. इसी तरह औषधियों से भी देव आराधना की जाती है. पंचगव्य यानि गाय के दूध से बने पदार्थों से देव अभिषेक होता है. जिसे पंचामृत अभिषेक कहा जाता है. गाय के दूध से बने पदार्थों में अनेक गुण होते हैं. यही वजह है देव पूजा की षोडशोपचार विधि पूजन में 16 तरह से देव पूजन किया जाता है. उनमें फूल और फूलों की माला से देव श्रृंगार का विधान ऋषि - मुनियों द्वारा शामिल किया गया है....

    जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
    और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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