Tuesday, February 1, 2011

Jigyasa(जिज्ञासा) Part 6

फिर आपका हर काम फायदेमंद होगा
हर कोई चाहता है उसको कर्म के परिणाम मिले और वह भी लाभ की शक्ल में। हानि उठाने को कोई भी तैयार नहीं है। जो लोग कर्म और उसके परिणाम के प्रति बहुत आग्रहशील हैं उन्हें अपने तन और मन की गति को संतुलित और नियंत्रित करना पड़ेगा। फकीरों ने कहा है-
मन चलतां तन भी चलै, ताते मन को घेर।
तन मन दोऊ बसि करै, होय राई सुमेर।।
मन से ही तन प्रभावित होता है। जब मन किसी विषय से आकर्षित होकर सक्रिय होता है, तो यह तन भी चलायमान हो जाता है। इसलिए सदैव मन को वश में करना चाहिए। यदि तन और मन दोनों को वश में कर लिया जाए तो इस थोड़े से समय में होने वाले संयम-साधना का परिणाम-लाभ सुमेरु पर्वत के समान पाया जा सकता है। मन को साधने के लिए यूं तो अनेक तरीके हैं, लेकिन तीन तरीके थोड़े आसान हैं-पहला सत्संग किया जाए। इससे मन को शुभ समय मिलता है। दूसरा गुरु कृपा हो जाए। गुरु मंत्र की ताकत भी मन को नियंत्रित करने में मददगार होती है और तीसरा है थोड़ा योग किया जाए। मन के लिए कहा गया है-
पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात।
अब तो मन हंसा भया, मोती चुनि-चुनि खात।।
पहले अज्ञान दशा में यह मन कौवे की भांति था। इसका खान-पान, बोल-चाल तथा रंग-ढंग आदि सब अशुभ था। यह हिंसक था, इसीलिए जीवों को घात करता था। परन्तु अब सत्संगति तथा सद्गुरु के ज्ञानोपदेश से मन हंस की भांति हो गया है। अत: सहज-सरल तथा विवेकी भाव से दुर्गुणों को छोड़कर सद्गुण-ज्ञान रूपी मोतियों को ही चुन-चुनकर खाता है। इसलिए मन पर काम किया जाए और मन का भोजन है सांस। जितनी गहरी सांस लेंगे और उसे अपनी चेतना से जोड़ेंगे उतना मन नियंत्रित होता जाएगा और संसार में मोतियों के परिणाम मिलेंगे।

इसलिए हमारे सोचे काम कभी पूरे नहीं होते
हमारा सोचा हुआ काम जब नहीं होता है तो कुछ लोग केवल स्थितियों का विश्लेषण करते हैं। कुछ सारा दोष दूसरों पर डाल देते हैं। जो धर्म भीरू हैं वे लोग भगवान और भाग्य को भी बीच में ले आते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी असफलता, दु:ख और परेशानियों का कारण व निदान अपने भीतर ढूंढते हैं।
एक फकीर के पास आदमी ने जाकर कहा दुनिया में बहुत दु:ख हैं। जिधर देखो लोग परेशान हैं। कब हटेंगे दुनिया से दु:ख। उस फकीर ने कहा। दुनिया दु:खी नहीं है, तुम ही दु:ख हो। बात बड़ी गहरी है और सारे फकीर, संत-महात्मा यही कहते हैं। जिन्दगी दु:ख है, दुनिया नहीं। यह दु:ख और सुख का खेल मन में है पहले यहां से शुरू होता है और फिर इसका प्रतिबिम्ब दुनिया में नजर आता है।
फौजियों को परेड क्यों कराई जाती है? युद्ध में परेड काम नहीं आती लेकिन उनका शरीर लेफ्ट और राईट की ध्वनि के साथ अनुशासन में आ जाता है। और युद्ध में परेड नहीं अनुशासन काम आता है। ठीक ऐसे ही हमें जीवन के संघर्ष में विचारों का अनुशासन काम आएगा। इसी को कहा गया है दु:ख हम हैं, संसार नहीं। पहले दुकानों पर एक तख्ती लगी रहती थी जिस पर लिखा होता था आज नगद, कल उधार। इसमें कल शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है, क्योंकि कल कभी आता नहीं।
हर कल आज है, वर्तमान है। जिस दिन आप भूतकाल को छोड़ेंगे, वर्तमान से जोड़ेंगे और भविष्य को योजना के स्तर पर पकड़ेंगे उस दिन आपकी पकड़ अपने सुख-दु:ख पर अलग ढंग से होगी। इसलिए जब भी जीवन में दु:ख जैसा आए, उसके कारण में स्वयं को जरूर खोजिए और ऐसा करते हुए एक काम अवश्य करें जरा मुस्कुराइये...

तो फिर आपके जीवन में दुख आना तय है....
दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा बड़ी प्रिय लगती है। विज्ञान और टेक्नालॉजी के युग में एनालिसीस की आड़ में आलोचना और निंदा की आदत कब जन्म ले लेती है पता नहीं लगता। आलोचना और निंदा में बारीक सा फर्क है। निंदा का अर्थ है अपने अहंकार का दूसरे के अहंकार से टकराना। जबकि आलोचना का मकसद होता है कहीं न कहीं सत्य को ढूंढना। निंदा जीवन में प्रवेश करे तो समझिए कि जीवन में दुखों का आना भी तय हो गया है।
निंदा के पीछे शत्रुता छिपी है और आलोचना मैत्री को साथ लेकर चलती है। निंदा में मिटाने का भाव है, आलोचना में जगाने की इच्छा होती है। निंदा का नुकसान रानी कैकयी ने उठाया था। रामजी के राजतिलक के पूर्व एक ही रात में कैकयी के सामने मंथरा ने जो वार्तालाप आरंभ किया था उसका आरंभ निंदा स्तुति से ही हुआ था। अपनी निंदा वृत्ति को उसने कैकयी में भी प्रवेश करा दिया था। कैकयी के जीवन में निंदा आते ही राम दूर चले गए। निंदा की आदत भगवान को हमसे दूर कर देती है। निंदावृत्ति ने पूरे विश्व के धार्मिक दृश्य को आहत किया है।
अनेक धार्मिक गुरु और उनके असंख्य अनुयायी एक दूसरे के प्रति निंदा भाव रखने के कारण धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बनाते गए। धर्म शास्त्र अपने शब्दों से पहचाने गए हैं, निंदा के खेल में शब्दों की बड़ी भूमिका होती है इसलिए कई बार तो धर्मों शास्त्रों के बीच निंदा हथियार बनकर सामने आई। लेकिन अध्यात्म थोड़ा धर्म से गहरा मामला है। यह शब्द से परे है। धर्म व्यक्त है, अध्यात्म अनुभूति है। लेकिन इस निंदा की वृत्ति ने आध्यात्मिक गुरुओं में भी खुद को ही ईश्वर बनाने की वृत्ति डाल दी। हम और हमारा धर्म श्रेष्ठ बाकी सब निकृष्ट है यह निंदावृत्ति की ही देन है। यदि हम चाहें कि हमारे भीतर की निंदावृत्ति विदा हो तो जरा मुस्कराइए...।

कैसे बचाएं समय और ऊर्जा? हनुमानजी से सीखें..
समय और ऊर्जा का सद्पयोग करना केवल एक अनुशासन ही नहीं है, यह कामनसेंस भी है।
सुंदरकाण्ड में प्रसंग आता है हनुमानजी जैसे ही लंका के लिए चले सबसे पहले उड़ते हुए आंजनेय के सामने सुरसा नामक राक्षसी सामने आती है। इन्हें खाने के लिए उस राक्षसी ने अपना मुंह बड़ा करके खोला तो इन्होंने भी अपने रूप को बड़ा कर लिया। फिर छोटे बनकर उसके मुंह में प्रवेश किया और बाहर निकल गए। सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा। जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी हनुमानजी इसका दुगुना रूप दिखलाते थे। उसने सो योजन (सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया।
इस आचरण से उन्होंने बताया कि जीवन में किसी से बड़ा बनकर नहीं जीता जा सकता। लघुरूप होने का अर्थ है नम्रता! जो सदैव विजय दिलाएगी। इस प्रसंग में जीवन-प्रबंधन का एक और महत्वपूर्ण संकते है। हनुमानजी चाहते तो सुरसा से युद्ध कर सकते थे, लेकिन उन्होंने विचार किया मेरा लक्ष्य इससे युद्ध करना नहीं है, इसमें समय और ऊर्जा दोनों नष्ट होंगे, लक्ष्य है सीता शोध। इसे कहते हैं सहजबुद्धि (कॉमनसेंस)। समय और ऊर्जा बचाने का एक माध्यम शब्द भी हैं इसलिए जीवन में मौन भी साधा जाए। हनुमानजी सुरसा के सामने मौन हो गए थे। एक संत हैं रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार, वे कम बोलने के लिए जाने जाते हैं। पूरी तरह मौनी भी नहीं हैं पर छानकर बोलने की कला भी जानते हैं। कम शब्द की वाणी भीतरी सद्भाव से पूरे व्यक्तित्व को सुगंधित कर देती है और इसीलिए जाते-जाते सुरसा हनुमानजी को आशीर्वाद दे गई।

वाणी बता देती है आपका आचरण, मीठा बोलिए...
आपके मित्र, सहयोगी और हितैषी सदैव इसी प्रकार आपके हितकारी बने रहें इसके लिए मीठी वाणी की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। श्रीराम ने शबरी को चारू भाषिणी कहा था। शबरी वही पात्र थी जिसे श्रीराम ने भक्ति के नौ स्वरूप का उपदेश दिया था। आज भी कई लोग व्यक्तित्व परखने के लिए वाणी को माध्यम बनाते हैं।
किसी व्यक्ति से थोड़ी देर बातचीत करिए तो उसकी वाणी से पता लग सकता है कि वह किस आचरण का है। लेकिन ध्यान रखें इसी वाणी का लोगों ने दुरुपयोग भी किया है। यह आवरण ओढ़े जाने का समय है और लोगों ने वाणी का भी आवरण ओढ़ लिया है। कम योग्य व्यक्ति अच्छा बोलकर अपने दुर्गुण छुपा लेते हैं।
इसी तरह जिन्हें बोलने की कला नहीं आती ऐसे योग्य भी कभी-कभी प्रस्तुति के अभाव में अपनी योग्यता साबित नहीं कर पाते। अध्यात्म में इस बात का महत्व है कि आप जो हैं वे वैसे ही व्यक्त हो जाएँ। मीठी वाणी का अर्थ केवल बोल-बोल करते रहना ही नहीं है मौन भी इसमें शामिल है। बातचीत की कला न आने के कारण दुनिया की आधी से अधिक योग्यता सामने नहीं आ पाई है। आप अपनी योग्यता से परिश्रम करते हैं लेकिन यदि उस परिश्रम का लाभ नहीं उठा पाते तो यह आपकी गलती है और इसमें वाणी की भी भूमिका है। शब्दों का उपयोग करना न आए ऐसे व्यक्ति संकोची हो जाते हैं और संकोच को हमेशा शालीनता नहीं माना जा सकता। इसलिए कहा गया है एक समय था सोचकर बोलने का, फिर वक्त आया तौल-मोलकर बोलने का और अध्यात्म कहता है छानकर बोलिये। असंतुलित वाणी आनन्द के अवसरों को खो देती है। मीठी वाणी का एक रूप है जरा मुस्कुराइये.

मन के हारे हार है
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। इस साधारण-सी कहावत का जन्म कई महत्वपूर्ण श्लोकों से गुजरकर हुआ है। सभी धर्मों ने अपने साधकों को घुमा-फिराकर मन पर ला टिकाया है। जो अपने मन से हारा वो चाहे बाहर दुनिया जीत ले फिर भी पराजित ही माना जाएगा और जिसने मन को जीत लिया वह विश्वजीत हो जाएगा।
हनुमानजी को जब लंका में पहली बार प्रवेश करना था तो वे जानते थे कि लंका भोग और विलास का केन्द्र है। यहां सबसे अधिक मन को नियंत्रण में रखना होगा। हनुमानजी का सिद्धांत था मन को नियंत्रण में रखने के दो तरीके हैं-पहला है अभ्यास और दूसरा है वैराग्य। महर्षि पतंजलि ने भी लिखा है 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:'। मन के लिए सबसे अच्छा अभ्यास है 'सतत् नाम जप'। 24 घंटे में कुछ समय निकाला जाए जब प्रत्येक सांस के साथ विचार न लेते हुए 'नाम जप' किया जाए। यह नाम गुरु मंत्र हो सकता है। ईश्वर की स्मृति के लिए कई शब्द हो सकते हैं लेकिन उस समय मन को विचारों से मुक्त रखा जाए। धीरे-धीरे जीवन के सभी कार्य करते हुए यह जप भीतर-भीतर चलने लगता है। इस अभ्यास से मन को नियंत्रित करने में सुविधा रहती है। दूसरा तरीका है वैराग्य। वैराग्य का यह अर्थ नहीं है कि दुनिया छोड़कर साधु बाबा बना जाए। अध्यात्म ने तो कहा है हर साधक की छ: सम्पत्तियां होती है-शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान, श्रद्धा। उपरति का अर्थ है वैराग्य। भोग और विलास के प्रति सजगता का दूसरा नाम वैराग्य है। वैराग्य आते ही कामनाएं और तृष्णाएं वश में होने लगती हैं। यहीं से भ्रम और द्वंद समाप्त होते हैं। उलझनें मिटने लगती हैं। यह स्पष्ट होने लग जाता है जो सही है वही करना है जो गलत है उसे करना तो दूर उसे चिंतन में भी नहीं लाना है। वैराग्य ऐसी स्पष्टता भी देता है। हनुमानजी ने लंका प्रवेश के पहले इन दोनों बातों को साध लिया था।

बुराइयों से कैसे दूर रहें?
जीवन में दुर्गुण आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। हम कितने ही ताले लगा लें या चौकीदार बैठा लें दुर्गुणों के आक्रमण करने पर स्वयं की रक्षा करना मुश्किल हो जाता है। हनुमानचालीसा की 21वीं चौपाई हमें हनुमानजी के नए रूप से परिचित करा रही है। राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे।। आप रामद्वार के द्वारपाल हैं, आप रक्षा करते हैं रामद्वार की। आपकी आज्ञा के बिना कोई कैसे प्रवेश कर सकता है। इसका सीधा सा अर्थ है आपकी कृपा के बिना भगवान श्रीराम की कृपा प्राप्त नहीं हो सकती।
इस चौपाई की आजकल लोग नई परिभाषा कर रहे हैं। बिनु पैसारे यानी बिना पैसे दिए कोई नहीं जा सकता, क्योंकि आजकल हर काम के लिए पैसे देना पड़ते हैं, लेकिन वास्तविक अर्थ ऐसा नहीं है। द्वारपाल की भूमिका को समझा जाए। अपने हृदय के हम स्वयं द्वारपाल हैं।
हम काम को, लोभ को, मोह को प्रवेश देते हैं तो क्या हम सच्चे द्वारपाल हैं? क्या हम सत्य, विवेक, शांति, परोपकार, अहिंसा जैसे गुणों को प्रवेश देते हैं? इन सद्गुणों को प्रवेश देते समय हम रिश्वतखोर हो जाते हैं। इसलिए संकेत दिया कि हमें किस प्रकार का द्वारपाल बनना चाहिए। अनेक लोग ऐसे स्वाभिमानी होते हैं कि यदि आग्रह न हो तो आमंत्रण स्वीकार नहीं करते। सद्गुण ऐसे ही स्वाभिमानी होते हैं। उन्हें तो बुला-बुलाकर आग्रहपूर्वक प्रवेश कराना होगा। द्वारपाल को आग्रह कर आमंत्रण देने की कला में भी पारंगत होना चाहिए। हनुमानजी की कृपा हो जाए तो हमारा प्रवेश-प्रबंधन सफलता पूर्वक निपटेगा और द्वारपाल सजगता, बल, विवेक तथा आग्रह के साथ सही परिणाम देगा। तो चलिए दुर्गुणों के आक्रमण के समय हनुमान रूपी चौकीदार को जीवन में बनाए रखें।

भक्ति कैद है और आप भक्त बने हुए हैं...

इस दौर में एक बड़ी उपलब्धि होगी कि हम किसी के विश्वासनीय बन जाएं। विश्वसनीय व्यक्ति जब किसी को सलाह देगा तो सामने वाले का हित होना तय ही है। श्री हनुमानचालीसा की सत्रहवीं चौपाई में व्यक्त है कि-तुम्हरो मंत्र विभीषण माना। लंकेश्वर भए सब जग जाना।। आपके परामर्श से विभीषण लंका के राजा बन गए यह सारा संसार जानता है।
गोस्वामीजी कहते हैं कि आपने सुग्रीव पर तो उपकार किया लेकिन विभीषण को मंत्र दिया और विभीषण ने मंत्र को माना भी तथा लंकेश्वर बन गए। मतलब हनुमानजी एकमात्र देवता हैं जो श्रीराम से भी मिलाते हैं और राज भी दिलाते हैं। यदि किसी को राज की आकांक्षा हो तो वह भी दिला देंगे और राम तो दिला ही देंगे। विभीषण को जो मंत्र श्री आंजनेय ने दिया था वह मंत्र था क्या? प्रसंग आता है कि सीता शोध के समय हनुमानजी लंका में घूम रहे थे। थोड़े परेशान थे, क्योंकि लंका में तो सब जगह आडम्बर, छल-कपट था। वे बहुत सावधानी रख रहे थे तब उन्होंने देखा कि पूरी लंका में एक अलग ही भवन दिख रहा है। वहां भगवान का एक अलग मंदिर बना हुआ था। उन्होंने सोचा कि लंका में हरि का मंदिर कैसे हो सकता है?
विभीषण से मिलने पर हनुमानजी ने कहा-देखिए विभीषणजी। आप राम नाम तो ले रहे हैं, लेकिन आप राम काम नहीं कर रहे। राम नाम जप रहे हैं, तुलसी क्यारा लगा रखा है, हरि मंदिर बना रखा है लेकिन इसी स्थान पर रावण ने अपहृत सीताजी को बंदी बनाकर रखा है और आप कुछ नहीं कर रहे हैं? ऐसे राम नाम लेने से क्या फायदा? भक्ति कैद है और आप भक्त बने हुए हैं? क्या यह ठीक है? विभीषण जैसी भक्ति हम भी करते हैं। इसलिए हमें राम नाम और राम काम दोनों करना चाहिए। इसका एक तरीका है जरा मुस्कराइए...

बोनस होता है ज्यादा प्यारा और उपयोगी..
भक्त भगवान की प्रार्थना करता है यह एक सामान्य घटना है, लेकिन भगवान भी भक्त को आमन्त्रित करते हैं कि आओ मेरे पास आओ। इस निमन्त्रण को बहुत बारीकी से सुनना पड़ता है। बाइबिल में एक जगह जीसस ने कहा है- 'बहुत परिश्रम करने के कारण तुम लोग बोझ से लदे हो, तुम सभी लोग मेरे पास आओ मैं तुम्हे आराम दूँगा।' ये जो आराम का आश्वासन, विश्राम देने का विचार ईश्वर की ओर से हमें आया है इसे ठीक से समझ लें तो जीवन में शान्ति आने में आसानी हो जाएगी। इस आमन्त्रण को अध्यात्म ने एक सुंदर शब्द दिया है शरणागति। संसार में काम करते हुए परिणाम लेने की हमारी एक सीमा होती है। कभी-कभी आदमी अपने ही पुरुषार्थ के बोझ से दब जाता है। इससे आई हुई थकान कब निराशा में बदल जाती है पता ही नहीं चलता। इसका प्यारा-सा समाधान है शरणागति। इस शरण में जाने को आलस्य न समझ लिया जाए। शरणागति में भरोसे का भाव होता है और भरोसा अपने आपमें एक हिम्मत है। करना सबकुछ हमको ही है लेकिन शरणागति हमारे कर्म में सहयोगी, ताकत, स्पष्टता, स्फूर्ति, उत्साह और परिणाम के प्रति अनासक्त बना देती है।
धर्म कोई-सा भी हो इस आध्यात्मिक आह्वान को लेकर सभी का स्वर एक जैसा है। बुद्ध ने जिसे शरण कहा है उसे ही महावीर ने अपनी दया घोषित किया, कृष्ण ने गीता में इसे ही 'मेरे भरोसे' का नाम दिया तो नानक कह गए 'चिंता छोड़ो' और मोहम्मद ने इसे 'तेरी रहमत' कहकर हमें बेफिक्र रहने का मंत्र दे दिया। आज के प्रबंधन के युग में इस शरणागति को बोनस समझ लें। लेन-देन के दौर में सैलेरी, मूल भुगतान से बोनस ज्यादा प्यारा और उपयोगी लगता है।

कई लोग दूसरों के सुख से दुखी है...
बचपन से हमें खानपान के सलीके सिखाए जाते हैं, हमें आ भी जाते हैं। चलिए आज केवल पीने की बात करें, खाने की बात फिर कभी। एक चीज पीना हम नहीं सीख पा रहे, वह है आनंद को पीना। चाहते हुए भी इसका रसपान हम नहीं कर पाते हैं। आते हुए आनंद को भी हम छिटक देते हैं। मंगल भवन अमंगलहारी जैसी चौपाइयों को रटने वाले हम लोग अपने दुख से कम दुखी बल्कि दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी रहते हैं। यह वृत्ति हमारी आनंद की प्यास को विकृत कर देती है।
संसार की हर गतिविधि में, प्रकृति के हर तत्व में रस भरा है। इसे साधन की पद्धति से रिफाईंड करना पड़ता है। इसी प्रक्रिया का नाम आनंद प्राप्त करना है। इस आनंद के घूंट को पूरा स्वाद लेकर पीना है। साधु संत यह कला जानते हैं कि हर सांस के साथ आनंद को कैसे भीतर उतारना है। हम सांसारिक लोग इसके लिए एक अभ्यास कर सकते हैं। जब भी पानी पिएं बैठकर ही पिएं। पीते समय कमर सीधी हो, आंखें बंद हों और पानी का घूंट भीतर उतारते समय महसूस करें कि आप जल नहीं प्रकृति का पूरा प्राण तत्व अपने भीतर घूंट दर घूंट उतार रहे हैं। अपने ही हाथ से पानी के ग्लास को उचित स्थान पर मानसिक आभार देते हुए रख दीजिए।
दिनभर में तीन-चार बार भी ऐसा अभ्यास सध जाए तो अन्य समय आनंद पी जाने में सरलता होगी। जलपान की ऐसी प्रक्रिया अपने आपमें प्राणायाम के परिणाम दे देगी। संत हर घड़ी, हर क्रिया से आनंद उठा लेते हैं। उन्हें तो कोई हार-फूल पहनाता है और उसमें गेंदा हो तो वे यह कह कर आनंद उठा लेते हैं यह संसार गेंदा फूल है, क्योंकि गेंदा एक ऐसा फूल है जो है तो फूल पर फेंक कर मारो तो चोट भी देता है। संत एक साथ हार-फूल और संसार-शूल को समझकर आनंद का रसपान कर लेते हैं।

क्या होती है गुप्त नवरात्रि ?

हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है लेकिन आमजन केवल दो नवरात्रि (चैत्र व शारदीय नवरात्रि) के बारे में ही जानते हैं। आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि को गुप्त नवरात्रि कहा जाता है। माघ मास की गुप्त नवरात्रि 4 फरवरी, शुक्रवार से प्रारंभ हो रही है।
आषाढ़ मास की गुप्त नवरात्रि का समय शाक्य एवं शैव धर्मावलंबियों के लिए पैशाचिक, वामाचारी क्रियाओं के लिए अधिक शुभ एवं उपयुक्त होता है। इसमें प्रलय एवं संहार के देवता महाकाल एवं महाकाली की पूजा की जाती है। इन्हीं संहारकर्ता देवी-देवताओं के गणों एवं गणिकाओं अर्थात भूत-प्रेत, पिशाच, बैताल, डाकिनी, शाकिनी, खण्डगी, शूलनी, शववाहनी, शवरूढ़ा आदि की साधना की जाती है। ऐसी साधनाएं शाक्त मतानुसार शीघ्र ही सफल होती है। दक्षिणी साधना, योगिनी साधना, भैरवी साधना के साथ पंचमकार की साधना इसी नवरात्रि में की जाती है।
आषाढ़ मास की नवरात्रि की तरह माघ मास की नवरात्रि को भी गुप्त नवरात्रि कहते हैं। लेकिन इन दोनों में काफी भिन्नताएं हैं। आषाढ़ मास की नवरात्रि में जहां वामाचार उपासना की जाती है वहीं माघ मास की नवरात्रि में वामाचार पद्धति को अधिक मान्यता नहीं दी गई है। ग्रंथों के अनुसार माघ मास के शुक्ल पक्ष का विशेष महत्व है। शुक्ल पक्ष की पंचमी को ही देवी सरस्वती प्रकट हुई थीं। इन्हीं कारणों से माघ मास की नवरात्रि में सनातन, वैदिक रीति के अनुसार देवी साधना करने का विधान निश्चित किया गया है।

कभी-कभी लजीज खाना भी स्वाद नहीं देता...
भोजन का आनंद दो बातों में है स्वाद और परोसगारी में। स्वाद का संबंध निर्माण से है और परोसगारी का आग्रह से। वही बात हमारे व्यक्तित्व निर्माण से जुड़ी है। बाहरी जगत् के व्यक्तित्व निर्माण के अपने तरीके हैं इनसे सुख, सफलता मिलती भी है, लेकिन शांति के मामले में ये बाहरी साधन मौन हैं। व्यक्तित्व निर्माण की एक भीतरी प्रक्रिया भी है जिसे आध्यात्मिक कहते हैं। यहाँ आदमी केवल विचारों, सिद्धान्तों से तैयार नहीं होता, यहाँ वह ध्यान से गुजरता है।
ध्यान के अनुभव को जीने वाले लोग अपने व्यक्तित्व को किसी पर थोपते नहीं हैं, वे स्वयं को परोसते हैं। जैसे भोजन में परोसगारी का अपना महत्त्व है। इसमें आग्रह अपने आपमें एक स्वाद बन जाता है। कभी-कभी तो अच्छा खासा लजीज खाना ठीक से परोसा न गया तो स्वाद नहीं देता और बेस्वाद भोजन भी अपनी बेहतर परोसगारी से पसंद कर लिया जाता है। ऐसे अनेक साधु-संत हुए जो अपने व्यक्तित्व की बेहतर परोसगारी के कारण स्वादु भी बन गए और तृप्ति भी दे गए।
जब मनुष्य केवल अध्ययन, मनन, सिद्धान्त विचारों से चलता है तो उसके हाथ लगी जानकारी उसे थोपा हुआ व्यक्तित्व बना देती है लेकिन ध्यान जिस अनुभूति और बोध को स्वयं के भीतर जगाता है उससे एक प्यारा-सा लोच पैदा होता है व्यक्तित्व में जिसे सहजता, सरलता और सर्वस्वीकार्य कहा गया है। इसलिए जिन्दगी में अध्यात्म का स्पर्श आते ही आप भौतिकता के सफर के हर रिश्ते में चाहे वह परिवार का हो, सामाजिक हो या राष्ट्रीय, स्वयं की परोसगारी करने की कला जान जाते हैं और भक्ति की यात्रा में इसे ही शरणागति कहा गया है।

करोड़ों लोगों को गाइड करती है हनुमानचालिसा

हमारे जीवन में कई शब्द ऐसे गुजरते हैं जो होते तो सरल हैं लेकिन उनके अर्थ गहरे होते हैं। श्रीहनुमानचालीसा का प्रत्येक शब्द ऐसा ही है। हर शब्द में दर्शक, दिशा और व्यावहारिक जीवनशैली के संकेत हैं। तुलसीदास केवल कवि नहीं थे वे ऋषि होने के भाव को स्पर्श कर गए थे। जीवन जीने और कर्म करने की समझ देने वाले सृजनकर्ता थे।
हनुमानजी उनके पथ प्रदर्शक थे और हनुमानचालीसा लिखकर उन्होंने हमारा मार्गदर्शन कर दिया। इसीलिए हनुमानचालीसा जैसा छोटा-सा साहित्य करोड़ों लोगों का गाईड और गॉड फादर दोनों बन गया। समस्याओं और घटनाओं से निपटने की हनुमानजी की अपनी विशिष्ट शैली है। यदि कोई इसे समझकर जीवन में उतारे तो वह अपने यश और शौर्य में वृद्धि कर सकता है।
यह सवाल अनेक लोगों के मन में है कि हनुमानजी वानर हैं, मनुष्य हैं या अवतार? वे वन में रहने वाले नर हैं। उनका वानर रूप मनुष्यों का ही रूप था। मानव बनकर ही मानव को लीला का अर्थ सही तरीके से समझाया जा सकता है। दुनियाभर के धर्मों में जब भी कोई परम शक्ति या देवता मनुष्य बनकर आता है तो उसका उद्देश्य यही रहता है कि मनुष्य यह समझ सके परमात्मा के निकट पहुँचने का मानवीय मार्ग क्या है क्योंकि मनुष्य होना जितने गौरव की बात है उतनी ही तकलीफ का भी मामला है।
जानवर श्रेष्ठ होगा तो ज्यादा से ज्यादा अच्छा जानवर बन जाएगा पर यदि मनुष्य उत्तम बना तो देवत्व को भी प्राप्त कर सकता है और पतित हुआ तो पशु से भी अधिक गिर सकता है। अपनी ही सीमाओं के पार जाने की असीम संभावनाएं जिस मनुष्य में छिपी हैं उसके लिए हनुमानजी रोल मॉडल हैं।

कुंडली के 12 भागों में उलझा है हमारा जीवन

कुंडली, 12 खानों का एक ऐसा चक्र है जिसमें हमारा जीवन उलझा हुआ है। इन्हीं 12 भागों में ग्रहों की स्थिति ही हमारा भाग्य बनाती है। कुंडली के सभी बारह भागों का अलग-अलग प्रभाव पड़ता है।

कुंडली का प्रथम भाव अर्थात् लग्न को तनु कहा जाता है। इस भाव से व्यक्ति का स्वरूप, जाति, आयु, विवेक, दिमाग, सुख-दुख आदि के संबंध में विचार किया जाता है। इस भाव का स्वामी सूर्य है।
द्वितीय भाव
को धन का भाव माना जाता है। इस घर का स्वामी गुरु ग्रह है। धन भाव से हमारी आवाज, सौंदर्य, आंख, नाक, कान, प्रेम, कुल, मित्र, सुख आदि बातों पर विचार किया जाता है।
तृतीय भाव सहज भाव कहलाता है। इसका स्वामी मंगल है। इस भाव से पराक्रम, कर्म, साहस, धैर्य, शौर्य, नौकर, दमा बीमारी आदि पर विचार किया जाता है।
चतुर्थ भाव को सुहृद भाव कहलाता है। इसका स्वामी चंद्र है। इस भाव से सुख, घर, ग्राम, मकान, संपत्ति, बाग-बगीचा, माता-पिता का सुख, पेट के रोग आदि पर विचार किया जाता है।
पंचम भाव को पुत्र भाव कहा जाता है। इसका स्वामी गुरु है। इस भाव से बुद्धि, विद्या, संतान, मामा का सुख, धन मिलने का उपाय, नौकरी आदि पर विचार किया जाता है।
षष्ठ भाव को रिपु भाव कहा जाता है। इसका स्वामी मंगल ग्रह है। इस भाव से शत्रु, चिंता, संदेह, मामा की स्थिति, यश, दर्द, बीमारियां आदि पर विचार किया जाता है।
सप्तम भाव को स्त्री या जाया भाव कहा जाता है। इस भाव से स्त्री, मृत्यु, काम की इच्छा, सहवास, विवाह, स्वास्थ्य, जननेंद्रिय, अंग विभाग, व्यवसाय, बवासीर आदि पर विचार किया जाता है।
अष्टम भाव को आयु भाव कहा जाता है। इस भाव का स्वामी शनि है। इस भाव से व्यक्ति की आयु पर विचार किया जाता है। साथ ही जीवन, मृत्यु का कारण, चिंताएं, गुप्त रोग के संबंध में विचार किया जाता है।
नवम भाव को धर्म कहा जाता है। इसका स्वामी गुरु है। इस भाव से धर्म-कर्म, विद्या, तप, भक्ति, तीर्थ यात्रा दान, विचार, भाग्योदय, पिता का सुख आदि पर विचार किया जाता है।
दशम भाव को कर्म भाव कहा जाता है, इसका स्वामी बुध है। इस भाव से कर्म, अधिकार, नेतृत्व क्षमता, ऐश्वर्य, यश, मान-सम्मान, नौकरी आदि पर विचार किया जाता है।
एकादश भाव को लाभ भाव कहा जाता है। इसका स्वामी गुरु ग्रह है। इसके द्वारा संपत्ति, ऐश्वर्य, मांगलिक कार्य, वाहन आदि पर विचार किया जाता है।
द्वादश भाव को व्यय भाव कहा जाता है। इसका स्वामी शनि है। इससे दंड, व्यय, हानि, रोग, दान, बाहरी संबंध आदि पर विचार किया जाता है।

मन की शांति के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है ये बातें
आप जितने भीतर हैं उतने शांत हैं। संतों के पास जब भी लोग अपनी अशांति की बात करते हैं संत कहते हैं थोड़ा अपनी ओर मुडि़ए, भीतर उतरिए शांत हो जाएंगे। सवाल सभी के मन में उठता है आखिर भीतर उतरने से होता क्या है।
यह बिल्कुल ऐसा है जैसे फिल्म देखने जाएं तो थियेटर में अंधेरा करना ही पड़ता है। अंधकार में चित्र स्पष्ट नजर आते हैं। हम जितना गहरा उतरेंगे उतना हमें वह बातें स्पष्ट हो जाएंगी जो अशांति का कारण होती हैं। बाहर की दुनिया में जो उजाला है उसमें सही तथ्य खो जाते है, इसलिए कहते हैं भीतर उतरो। कहा जाता है अहंकार परमात्मा के मिलने में बाधा है। तो सब लोग अहंकार मिटाने में जुट जाते हैं। बाहरी रूप से पहला काम किया जाता है विनम्रता ओढ़ ली जाए तो अहंकार चला जाएगा। लेकिन विनम्र लोग भी अशांत पाए जाते हैं।
अब भीतर उतरने के लिए इसलिए कहा जाता है कि जैसे ही आप गहरे और खुद के भीतर उतरेंगे तो पाएंगे विनम्रता भी सूक्ष्म अहंकार है। जैसे मान और अभिमान का फर्क होता है, उदासी और शांति में अंतर होता है। कई साधु-संत हमें उदास नजर आते हैं पर यदि गहरे में उतरकर देखें तो वे शांति में डूबे हुए हैं और कई बार जो लोग बाहर से शांत नजर आते हैं, गहराई में उतरकर देखें तो उदास पाए जाएंगे। आदमी जब बाहर अहंकारी होता है तो नजर आ जाता है कि ये अभिमानी है लेकिन जब गहरे उतरकर देखा जाए तो कुछ लोग बाहर अभिमानी नहीं होते पर भीतर बड़े मानी हो जाते हैं।
बाहरी अहंकार अगरबत्ती के धुंए की तरह दिख रहा है लेकिन भीतरी मान सुगंध जैसा होता है। इसलिए बार-बार कहा गया है भीतर उतरें तब उन बातों का अंतर साफ नजर आएगा जो हमें शांति और अशांति प्रदान करती हैं।

इन रास्तों पर मिलेंगे हर काम के सही परिणाम
यह कर्मयोग का युग है। समाज और व्यवस्था कितनी ही भृष्ट, चापलूसी प्रिय और अपराध ग्रस्त हो जाए, अच्छे काम एक दिन जरूर बोलेंगे और अपना परिणाम देंगे। हनुमानचालीसा की दसवीं चौपाई में हनुमानजी के कर्मयोगी स्वरूप पर सुंदर टिप्पणी आई है। हनुमानजी का मानना है कि आप सीधे-सीधे ईमानदारी, निष्ठा और परिश्रम से अपना काम करते चलिए अच्छे परिणाम मिलेंगे ही।

भीम रूप धरि असुर संहारे। रामचंद्र के काज संवारे।।
आपने विशाल रूप धरकर राक्षसों का नाश किया और श्रीराम के कार्यों को पूरा किया। गोस्वामी तुलसीदासजी ने राक्षसों के नाश के साथ रामजी के कार्य को जोड़ा है। श्रीराम का प्रमुख ध्येय था राक्षसों का वध। वनवास के समय श्रीराम जब ऋषि-मुनियों के आश्रम में गए थे तब हड्डियों का ढेर देखकर उन्होंने मुनियों से पूछा था- यह क्या है?
ऋषि-मुनियों ने उत्तर दिया - आप सब जानते हुए भी हमसे अनजान की तरह प्रश्न कर रहे हैं? राक्षसों ने जिन मुनियों के दलों को खा लिया है ये उन्हीं की हड्डियों के ढेर हैं। यह सुनते ही सुनि रघुबीर नयन जल छाए श्रीराम की आंखों में करुणा के आंसू भर आए।
उसी समय उन्होंने प्रतिज्ञा ली थी। मैं पृथ्वी को राक्षसों से मुक्त कर दूंगा। फिर समस्त मुनियों के आश्रमों में जा-जाकर उनको दर्शन एवं संभाषण का सुख दिया। श्रीराम का प्रमुख उद्देश्य था, राक्षसों का वध कर ऋषि-मुनियों को सुख पहुंचाना। हनुमानजी ने लंका में यही कार्य पूरा किया। इसी कारण उनके लिए कहा गया है- रामचंद्र के काज संवारे। रामकाज के दो अर्थ हैं। पहला, केवल तिलक लगाना, चोटी रखना ही नहीं, अपने कार्य को पूरी ईमानदारी नित्य से करना तथा दूसरा अर्थ है दुर्गुण पर विजय पाना। राक्षसवध का अर्थ है अपने दुर्गुणों का विनाश।

गुरु और तत्वज्ञान
मैं एक आध्यात्मिक गुरु, जिनको निष्चित रूप से सभी लोग जानते हैं, उनके जिज्ञासु शिष्य द्वारा पत्र भेज कर पूंछे गए प्रश्न तथा गुरुजी द्वारा दिए गए उत्तर के सन्दर्भ में आप सभी से विचार आदान-प्रदान करना चाहूंगा :
जिज्ञासु का पत्र : ज्ञान मिला तो नाचने लगे, घर पहुंचे तो नाचते हुए आनंदित, घर वाले घबडा गए, समझे पागल हो गए हैं बड़े ज्ञान की बात करते हैं, पकड़ लिया और अस्पताल में भरती करा दिया, सदा हंसता रहता हूँ, लोग समझते है मैं काम से गया.
गुरूजी द्वारा उत्तर दिया गया था : ऐसा स्वाभाविक है
मेरी कुछ अनुत्तरित जिज्ञासा :
यदि उपरोक्त स्थिति स्वाभाविक है तो अगर सबको ज्ञान मिल गया तो क्या होगा, तथा परमपिता के उस उद्देश्य का क्या होगा जिसके लिए हमारी रचना हुई !आध्यात्म में हमेशा चर्चा का विषय रहा है कि हमें जिसने बनाया है वो कौन है, कहाँ है और हम उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं !जबकि चर्चा का यह विषय होना चाहिए कि हम क्यों है, हमारे रचनाकार का हमें रचित करने का उद्देश्य क्या है और क्या हम उसे पूरा कर रहे हैं ! हमारे द्वारा निर्मित बल्ब उजाला न देकर यदि हमें ही जानने में लग जाय तो हम उसे फ्यूज घोषित कर देते है ! इसी तरह यदि हम सिर्फ उजाला कर रौशनी दें अपने रचनाकार को जाने या न जाने कोई फर्क नहीं पड़ता, न रचनाकार को न हमको उद्देश्य विहीन ज्ञान पागल पन है बेकार है क्या जनक जैसे ब्रम्हवेत्ता, कृष्ण जैसे तत्वज्ञानी या विवेकानंद जैसे बुद्धिमान एवं
परमात्मप्राप्त उपरोक्त वर्णित स्वाभाविक स्थिति में थे

समर्पण
कथा महाभारत के युद्ध की है| अश्वत्थामा ने अपने पिता की छलपूर्ण ह्त्या से कुंठित होकर नारायणास्त्र का प्रयोग कर दिया| स्थिति बड़ी अजीब पैदा हो गई| एक तरफ नारायणास्त्र और दुसरी तरफ साक्षात नारायण| अस्त्र का अनुसंधान होते ही भगवान् ने अर्जुन से कहा - गांडीव को रथ में रखकर नीचे उतर जाओ ... अर्जुन ने न चाहते हुए भी ऐसा ही किया और श्रीकृष्ण ने भी स्वयं ऐसा ही किया| नारायणास्त्र बिना किसी प्रकार का अहित किए वापस लौट गया, उसने प्रहार नहीं किया, लेकिन भीम तो वीर था, उसे अस्त्र के समक्ष समर्पण करना अपमान सा लगा| वह युद्धरथ रहा, उसे छोड़कर सभी नारायणास्त्र के समक्ष नमन मुद्रा में खड़े थे| नारायणास्त्र पुरे वेग से भीम पर केन्द्रित हो गया| मगर इससे पहले कि भीम का कुछ अहित हो, नारायण स्वयं दौड़े और भीम से कहा - मूर्खता न कर! इस अस्त्र की एक ही काट है, इसके समक्ष हाथ जोड़कर समर्पण कर, अन्यथा तेरा विध्वंस हो जाएगा|

भीम ने रथ से नीचे उतर कर ऐसा ही किया और नारायणास्त्र शांत होकर वापस लौट गया, अश्वत्थामा का वार खाली गया|
यह प्रसंग छोटा सा है, पर अपने अन्दर गूढ़ रहस्य छिपाये हुए है ... जब नारायण स्वयं गुरु रूप में हों, तो विपदा आ ही नहीं सकती, जो विपदा आती है, वह स्वयं उनके तरफ से आती है, इसीलिए कि वह शिष्यों को कसौटी पर कसते है ... कई बार विकत परिस्थियां आती हैं और शिष्य टूट सा जाता है, उससे लड़ते| उस समय उस परिस्थिति पर हावी होने के लिये सिर्फ एक ही रास्ता रहता है समर्पण का ... वह गुरुदेव के चित्र के समक्ष नतमस्तक होकर खडा हो जाए और भक्तिभाव से अपने आपको गुरु चरणों में समर्पित कर दे और पूर्ण निश्चित हो जाए ... धीरे धीरे वह विपरीत परिस्थिति स्वयं ही शांत हो जायेगी ... और फिर उसके जीवन में प्रसन्नता वापस आ जायेगी|

कौन सी तीन बातें तय करती हैं हमारी योग्यता?
आप किसी भी क्षेत्र में हों योग्यता के तीन प्रमाण माने जाते हैं। निरंतरता, विश्वसनीयता और समर्पण। कार्य के प्रति प्रयासों में जो निरंतरता होती है उससे आलस्य दूर होता है। हमारी कार्यशैली से बासी और ऊबाउपन चला जाता है। हमारा पूरा व्यक्तित्व ताजा रहता है।आज के समय में यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी कि आप किसी की नजर में विश्वसनीय माने जा रहे हैं। ईमानदारी का प्रकट रूप है समर्पण। जो भी करें, जमकर करें। हनुमानजी में ये तीनों गुण थे। उनसे बल, बुद्धि और विद्या की माँग की जाती है। हनुमानचालीसा के आरंभ के दूसरे दोहे में लिखा गया है

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोही, हरहु कलेस विकार।।

अर्थात् -मैं अपने को बुद्धिहीन जानकर आपका स्मरण कर रहा हूं, आप मुझे बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करके मेरे सभी कष्टों और दोषों को दूर करने की कृपा करें। इसके पीछे सूत्र यह है कि बुद्धि विश्वसनीय हो, बल में समर्पण भाव रहे और विद्या निरंतर यानी सक्रिय रहे, जड़ न हो जाए।इन तीनों का जब संतुलन जीवन में होगा तो क्लेश (कष्ट), विकार (दोष) दूर हो सकेंगे। क्लेश पांच हैं-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश (मृत्यु का भय)। क्लेश मनुष्य को पीड़ा पहुंचाते हैं।
पीडि़त मन कभी शांत नहीं हो सकता और विकार छ: माने गए हैं- काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, भत्सर (ईष्र्या)। ये छ: मनुष्य को उसके लक्ष्य से भटकाते हैं। विकारों में जकड़ा हुआ व्यक्ति लक्ष्य की ओर ठीक से चल नहीं सकता। यह हनुमानजी की विशेषता है कि वे मनुष्यों के क्लेश और विकारों को पहचानते भी हैं और दूर करना जानते भी हैं।

तो फिर को जीएं उत्सव की तरह
हर महापुरुष ने अपने जीवन के समापन काल में अद्भुत बातें बोली हैं। इनमें से कुछ ने तो मौत का सीधा साक्षात्कार किया तथा हमें भी मृत्यु से परिचय करवाया। लेकिन श्रीकृष्ण इनसे भी आगे निकल गए। उन्होंने अपने देवलोकगमन के समय केवल जन्म और मृत्यु पर चर्चा नहीं की, बल्कि उनका ज्यादा जोर इस बात पर था कि इन दोनों के बीच महत्वपूर्ण है जीवन, इसे भी साधा जाए।
जन्म तब ही सार्थक होगा जब जीवन सही जीया जाएगा और जीवन को ठीक से समझ लिया गया तो मृत्यु अपने आप सध जाएगी। जन्म बीज की तरह है। बीज में यदि अंकुरण नहीं हुआ तो कोई फर्क नहीं उसमें और कंकर में। उसके अंकुरण से जीवन आरंभ होता है। पौधे से वृक्ष तक की यात्रा ही जीवन है। कई साज संभाल लगती है, मौसम की अनुकूल, प्रतिकूल परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है तब जाकर फल देने लायक होता है और पके फल का नाम होश पूर्ण मृत्यु है।
इसलिए कृष्ण ने कहा था जीवन को उत्सव मानो तो जन्म और मृत्यु भी उत्सव बन जाएंगे। समूचा जीवन उत्सवों की तीन श्रृंखला होना चाहिए। जीवन में समस्याओं की हजामत बनानी पड़ती है। जैसे केश कटते और उगते हैं। ऐसा ही जीवन में परिस्थितियों के साथ होता है। लेकिन यदि अध्यात्म का दृष्टिकोण रहे तो शरीर की हजामत और जीवन की हजामत में फर्क आ जाएगा। शरीर में हम जड़ से इलाज नहीं कर पाएंगे, आज कटे केश कल फिर उगेंगे लेकिन जीवन में अध्यात्म आने पर हम समस्याओं का केशन कर्तन जड़ से कर सकेंगे। ऐसा करते ही जीवन के साथ जन्म और मृत्यु दोनों सध जाएंगे।

आखिर क्यों जरूरी है टाइम मैनेजमेंट?
समय प्रबंधन में पाबंदी पर बड़ा जोर दिया जाता है। जो पाबंद है वह समय का सदुपयोग कर रहा है और जो पाबंद नहीं है वह दुरूपयोग में लगा है। भारतीय संस्कृति ने समय को काल नाम देकर और ऊंचा उठा दिया है। हिन्दू परंपरा तो जीवन के चौबीस तत्वों के अलावा पच्चीसवां तत्वकाल को मानती है। परमात्मा को काल का स्वरूप बताया है।
समय को ईश्वर से जोड़ते ही एक नया भाव आता है प्रतीति यानी एहसास। समय की पाबंदी सिर्फ काल गणना करती है। पर काल को भी जीया जा सकता है। इसका प्रयोग भारतीयों ने किया है और उसका नाम दिया है सत्संग। बुरे वक्त के क्षण भी एक बुरा दौर लगता है और अच्छे वक्त पल फटाफट गुजर जाते हैं। सत्संग इसकी तीसरी अवस्था को लाता है। यहां वक्त न छोटा लगता है, न बड़ा बल्कि पता ही नहीं चलता है कब गुजर गया।
एक शून्य सा हो जाता समय। वक्त ज्यादा न रुका, न जल्दी करता बल्कि खो गया, इसे ही ध्यान भी कहा गया है।सत्संग इसी का नाम नहीं है कि एक बोल रहा है, कई सुन रहे हैं। इसे कथा कहें, व्याख्यान या प्रवचन माना जाए, पर होना चाहिए ज्योत से ज्योत जलाने जैसा। एक दीए की रोशनी दूसरे में उतर गई। इस घटना में समय का सबसे अच्छा उपयोग होता है। उसका संबंध प्रतीति से हो जाता है। सत्संग का ऐसा सहजप समय को लेकर जब जीवन के दूसरे क्षेत्रों में होता है तो अपने आप पाबंदी, हर पल को जीने जैसी बात आ जाती है। यह भी समय का एक सदुपयोग है जरा मुस्कुराइए...

मेङिटेशन का सबसे सहज तरीका यही है
फकीरों की बात में छुपा हुआ सन्देश ढूँढना पड़ता है। वे सरल होते हैं इसलिए उनके शब्द भी सरल होते हैं लेकिन हम इतने बाँके हो चुके हैं कि उनकी सीधी बात भी हमें तिरछी लगती है। किसी को पैदल सड़क क्रॉस करना हो और गाडिय़ाँ लगातार आ-जा रही हों तो सामान्य आदमी कहेगा जब वाहन नहीं आ रहे होंगे तब गुजरेंगे पार। परन्तु फकीर कहेगा जब खाली स्थान आएगा तब जाएंगे दूसरे सिरे पर।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से दोंनों संवाद एक जैसे हैं। परन्तु आध्यात्मिक विचार से मामला बदल जाएगा। सड़क पर गुजर रहे वाहनों की तरह ही विचार होते हैं। जब विचार आना रुक जाएं और खाली स्थान रह जाए वह ध्यान है। खाली स्थान आएगा का मतलब है खाली जगह पहले से है ही, आते-जाते वाहनों के कारण हमें उपलब्ध नहीं है। बस इसी तरह ध्यान जीवन में होता ही है, विचारों को रोका और ध्यान स्वत: घटा।
मेङिटेशन का सबसे सहज तरीका यही है, अपने भीतर विचारों की दौङ को रोक दीजिए।ऐसे ध्यान का परिणाम है कि पूरा व्यक्तित्व सरल हो जाता है और उस परम शक्ति को हमारे भीतर उतरना ही पड़ता है। मोहम्मद साहब के ऊपर जब कुरान की आयतें उतरीं तब वे गहरे ध्यान में ही रहे होंगे। वे बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं थे। किसी दिव्य वाणी को सुनकर दुनिया में पहुँचाने की जिम्मेदारी उस परवरदिगार ने एक ऐसे शख्स को दे दी जो शब्दों की जानकारी, उनके खेल से अनभिज्ञ था। लेकिन वे गहरे उतर चुके थे, सारे शब्द शून्य होकर भी साकार हो गए और दुनिया को कुरान जैसा जिन्दा साहित्य मिल गया।

क्या होते है धर्मांधता और अंध-विश्वास?
धर्मान्धता का अर्थ यह न लिया जाए कि आदमी बाहर की आंखों से अंधा हो गया। धर्मान्धता का अर्थ है एक ऐसा अंधापन कि हमारे पास आंख तो है लेकिन हम उसको बंद करके बैठ गए हैं। आंखों से न दिखे और जिसे अंधा कहा जाए वह तो फिर भी धर्म के मामले में क्षमा योग्य है लेकिन आंख होकर भी न देखा जाए इसे धर्मान्धता कहा जाएगा।
फिर धर्म के मामले में तो भीतर की आंख अधिक काम आती है। इस भीतर की आंख से जब-जब भी देखा जाएगा धर्म के अर्थ ही बदल जाएंगे। हर धर्म स्थल का सम्मान किया जाए, यह भीतर की आंख से देखने पर होगा। जिस समय ईसाइयों और मुसलमानों के बीच एक लंबा कू्रसेड (धर्मयुद्ध) चला था तब यरूसलम मुसलमानों के कब्जे में आ गया था।
उस समय खलीफा उमर शासक था। उसने यह फैसला दिया था कि इस नगर का एक हिस्सा ईसाइयों के रहने, पूजा करने और व्यवसाय के लिए सुरक्षित रहेगा। इस बात के लिए ईसाई समुदाय के लोग दो सोने के सिक्के हुकुमत को अदा करते थे और हुकुमत उनके ईसाई धर्म का सम्मान करती थी।
इतिहास में एक बात दर्ज है कि ईसाइयों ने खलीफा उमर से यह गुजारिश की थी कि वे गिरजाघर में आकर नमाज अदा करें लेकिन खलीफा इसलिए राजी नहीं हुए यदि मैंने गिरजाघर में नमाज अदा कर दी तो आगे आने वाले समय में हमारे लोग इस गिरजाघर को मस्जिद में न बदल डालें। खलीफा उमर का यह फैसला आज भी संवेदनशील और समझदार लोग याद रखते हैं। एक-दूसरे के धर्म स्थल का सम्मान अपने ही धर्म का सम्मान करना है, वरना धर्मान्धता उस परम शक्ति को भी नहीं देखने देती जिसके नाम पर धर्म चलाए जाते हैं।

किस तरह काम करते हैं मंत्र ?
हिंदू धर्म में मंत्रों को महिमा बताई गई है। निश्चित क्रम में संगृहीत विशेष वर्ण जिनका विशेष प्रकार से उच्चारण करने पर एक निश्चित अर्थ निकलता है, मंत्र कहलाते हैं। शास्त्रकार कहते हैं-मननात् त्रायते इति मंत्र:। अर्थात मनन करने पर जो त्राण दे, या रक्षा करे वही मंत्र है।
मंत्र एक ऐसा साधन है, जो मनुष्य की सोई हुई शक्तियों को सक्रिय कर देता है। मंत्रों में अनेक प्रकार की शक्तियां होती है, जिसके प्रभाव से देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त की जा सकती है। रामचरित मानस में मंत्र जप को भक्ति का पांचवा प्रकार माना गया है। मंत्र जप से उत्पन्न शब्द शक्ति संकल्प बल तथा श्रद्धा बल से और अधिक शक्तिशाली होकर अंतरिक्ष में व्याप्त ईश्वरीय चेतना के संपर्क में आती है जिसके फलस्वरूप मंत्र का चमत्कारिक प्रभाव साधक को सिद्धियों के रूप में मिलता है। शाप और वरदान इसी मंत्र शक्ति और शब्द शक्ति के मिश्रित परिणाम हैं। साधक का मंत्र उच्चारण जितना अधिक स्पष्ट होगा, मंत्र बल उतना ही प्रचंड होता जाएगा।
वैज्ञानिकों का भी मानना है कि ध्वनि तरंगें ऊर्जा का ही एक रूप है। मंत्र में निहित बीजाक्षरों में उच्चारित ध्वनियों से शक्तिशाली विद्युत तरंगें उत्पन्न होती है जो चमत्कारी प्रभाव डालती हैं।

इसीलिए जीवन अशांत, उदास, उबाऊ और थका हुआ लगता है

जीवन मिला है तो मृत्यु तय है। दुनिया की सबसे तयशुदा घटना है मौत। हम जीवनभर बहुत सारी ऊर्जा उन बातों पर लगाते हैं जो तय नहीं हैं। जो अस्पष्ट है, ना ही भरोसे का है हमारी इच्छाएं उसी की ओर दौड़ती हैं। इच्छाएं और वासनाएं जितनी हावी होंगी हमारी गुप्त शक्तियां प्रकट होने में उतनी ही देर लगेगी।
जितना हम गुप्त शक्तियों को जाग्रत कर लेंगे उतना हम मृत्यु को जान लेंगे। अब सवाल यह उठता है कि मौत को जानना क्या जरूरी है, जब आएगी तब आएगी और उसके बाद किसने देखा, क्या हुआ? एक वर्ग इस सिद्धांत से जीवन जीता है और दूसरा वर्ग है भयभीत लोगों का। ये जीवन को मौत के भय में गुजारते हैं। जरा बारीकी से देखें तो दोनों ही तरीके के लोगों का परिणाम एक सा है। मौत का भय या मृत्यु का अज्ञान, दोनों एक जैसे नतीजे देते हैं। तीसरा तरीका है मृत्यु का ठीक से परिचय कर लेना।
जिसने मौत को जान लिया उसने फिर जीवन होश में जी लिया। जीवन अशांत, उदास, उबाऊ और थका हुआ इसीलिए लगता है कि हम सबसे सुनिश्चित घटना के प्रति होश में नहीं हैं। ये बेहोशी अगले जन्म तक परिणाम देगी। हम जो आज हैं वह पीछे से आया और लाया हुआ है। इसीलिए संतों का उनके जन्म पर पूरा अधिकार होता है और सामान्यजन का जन्म वश में नहीं होता। कहां, कब पैदा होना यह वश के बाहर है, लेकिन दिव्य पुरुष इस मामले में कन्फर्म बर्थ-डेथ वाले होते हैं। हम भी मृत्यु से परिचय ले सकते हैं। तीन तरीके हैं गुरुकृपा, सत्संग और ध्यान। इन तीनों के माध्यम से जो मृत्यु को जान लेगा फिर वो जीवन को भी पूरी मस्ती से जी लेगा।

मन की शांति चाहिए तो ऐसे रहें
मानव जीवन में अब विज्ञान के युग में जैसे सुविधाओं की भरमार है वैसे ही परेशानियों का भी अम्बार है। कुछ बातों का अभाव है तो कुछ बातें भरपूर हैं। इसलिए आज के समय में सफलता, सुख और सम्पत्ति अर्जित करने वाले लोगों को लगातार शान्ति के लिए कोशिश करते रहना होगा। जैसे हमारे बाहर के आँगन में हवा चलने से, फूल, पत्ते, कचरा आ जाता है और हमें प्रतिदिन इसे साफ करना पड़ता है। जबकि इसमें हमारा कोई योगदान नहीं होता है।
घरों में कुछ गंदगी बाहर से आती ही है। किन्तु घर बचाना है तो सफाई हमें ही करना होगी। इसी प्रकार रोज मन के आंगन की भी सफाई करना होगी। इसमें कई झोंके बाहर से कचरा लाकर भीतर पटक देते हैं। चाहते, न चाहते हम भी इसमें योगदान दे देते हैं। रोज-रोज मन के आँगन की सफाई का नाम एक अनुशासन है। अपने भीतर हमें एक सुव्यवस्था बनाना होगी और उसमें पहला काम यह करना होगा कि जो भी वचन, वादा, निर्णय हम अपने प्रति लें उसे पूरा भी करें।
ईमानदारी से देखें तो हम दूसरों के वादे निभा देते हैं और दिनभर अपने से ही किए वादे तोड़ते रहते हैं। सुबह समय पर उठेंगे, कम भोजन करेंगे, अकारण नहीं बोलेंगे, क्रोध नहीं करेंगे ऐसे कितने ही वादे हम दिन में खुद से ही करते हैं और जब निभाने का वक्त आता है तो पता नहीं हम कहां चले जाते हैं और कोई दूसरा ही व्यक्ति हमारी जगह आकर बैठ जाता है। जैसे सामाजिक संस्थाओं में कुछ समय बाद वहां का प्रमुख, वहां का अध्यक्ष बदल जाता है वैसे ही हमारे भीतर भी प्रमुख बदल जाता है जिसने पहले निर्णय लिया था। कर्म हो जाने के बाद फिर हम पछताते हैं। हमारी यह अनुशासन हीनता ही हमें परेशानी में डालती है। इसलिए अपने से किया वादा जरूर निभाएं।

सफलता चाहिए तो लक्ष्य पर इस तरह फोकस करें.
जिन्हें अपना लक्ष्य स्पष्ट होता है वे यह भी जानते हैं कि लक्ष्य की पूर्ति कराने में कौन लोग सहायक होंगे। बाजार की दुनिया में व्यापारी अपने फोकस ग्रुप को टारगेट करते हैं। इसी तरह अध्यात्म के संसार में भी सिद्ध-बुद्ध लोगों ने ऐसे ही प्रयोग किए थे और आज भी कर रहे हैं। राम-कृष्ण अवतारों से लेकर महावीर, बुद्ध, मोहम्मद, ईसा, नानक ने ऐसे ही प्रयोग किए।
इन सभी ने उन लोगों पर बराबर फोकस रखा जो इनके उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते थे और सहायक बन सकते थे। केवल एक उदाहरण से समझें। पाण्डव ही कृष्ण के भरोसे नहीं थे, कृष्ण ने भी पाण्डवों को अपने लक्ष्य के लिए चुना था। ये सिद्ध पुरुष इस बात पर ध्यान देते हैं कि इनसे पूर्व हुए श्रेष्ठ व्यक्तियों ने या शास्त्रों ने वे कौन से सन्मार्ग बताए थे जो आज उनके फोकस ग्रुप के लोग चूक रहे हैं और फिर ये प्रयास करते हैं कि लोगों को श्रेष्ठ जीवन पद्धति का लाभ मिले।
अपने फोकस ग्रुप के लोगों को सिद्ध पुरुष संस्कारित भी करते हैं। अब इस पर विचार करें कि हर युग में ऐसे सिद्ध लोग आते रहे हैं नाम, रूप, परिवेश और तरीका बदल-बदलकर। आज भी हैं, हमारी कोशिश होना चाहिए कि हम उनके फोकस ग्रुप में आ जाएं। वे जो अवसर दे रहे हैं उसे कृपा समझ हमें जो मौका देंगे उसे सेवा मानें, लेकिन चूक न जाएं। किसी सिद्ध के फोकस ग्रुप में आना बड़ी उपलब्धि होगी। भौतिक आकांक्षाओं को झपटने में माहिर हम लोगों को ऐसे आध्यात्मिक अवसरों को लपकने की कला भी आना चाहिए।

महत्वकांक्षाएं पूरी करें लेकिन इस तरह...
महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए हर स्तर पर जाकर, हर प्रकार के हथकंडे अपना कर लक्ष्य हासिल करें, इस सीख का यह समय बन गया है। महत्वाकांक्षी अपने मार्ग में संवेदना, अपनेपन और रिश्ते-नातों को बाधा तथा बोझ मानता है। बस मेरा काम हो जाए चाहे दूसरों को सीड़ी बनाना पड़े या टंगड़ी लगाना पड़े, मेरा सोचा, मेरा किया हो ही जाना चाहिए। नए युग के इस विचार की तपन में सूख रही अपनेपन की चादर के रंग ही उड़ गए हैं। महत्वाकांक्षा की यात्रा में तीन बातें अपने भीतर बनाए रखें। पहली बात है अपनापन, इससे हम एक दूसरे को ठीक से जान पाते हैं और आपसी अच्छाइयों का लाभ उठा सकते हैं। दूसरी बात है सयानापन, मैज्योरटी से की जा रही महत्वाकांक्षा की यात्रा में हम दूसरों की संवेदना को समझेंगे और निजहित, परहित में संतुलन बना सकेंगे। तीसरी बात नयापन। बदलाव को पकड़ें और अपनी महत्वाकांक्षा में शोषण, षडय़ंत्र, निंदा, स्वार्थ से बचें। महत्वाकांक्षा की दौड़ में जीते हुए लोग अंत में स्वयं को अकेला पाते हैं। दूसरों से संवेदना, भावना के साथ जुडऩे के लिए हिन्दुओं ने श्राद्ध का प्रयोग बहुत ही अच्छा किया है। ये निजजन की स्मृतियों का क्रियात्मक रूप है। विज्ञान इससे असहमत हो, पर भावना से भेजा संदेश दिल में कैसे मिल जाता है इस पर विज्ञान भी चुप हो जाता है। ओशो ने एक जगह कहा है धर्म प्रेम का राज्य है, तर्क और बुद्धि का नहीं। चाहे पीपल पूजो, कब्र पर फूल रखो, क्रॉस के सामने आंखे बंद करो विज्ञान तमाशा कहेगा इसे, पर प्रेम पूजा ऐसे प्रतीकों के माध्यम से परमात्मा तक पहुंचा देगी। श्राद्धपक्ष का अर्थ ही अपने के प्रति आभार, उनको याद करना और ऐसी स्मृतियों के साथ जब हम अपनी महत्वाकांक्षा की यात्रा पर निकलेंगे तो लक्ष्य पर पहुंच कर आभार का यह भाव अशांति को दूर करेगा।

सफलता चाहिए तो लक्ष्य पर इस तरह फोकस करें...
जिन्हें अपना लक्ष्य स्पष्ट होता है वे यह भी जानते हैं कि लक्ष्य की पूर्ति कराने में कौन लोग सहायक होंगे। बाजार की दुनिया में व्यापारी अपने फोकस ग्रुप को टारगेट करते हैं। इसी तरह अध्यात्म के संसार में भी सिद्ध-बुद्ध लोगों ने ऐसे ही प्रयोग किए थे और आज भी कर रहे हैं। राम-कृष्ण अवतारों से लेकर महावीर, बुद्ध, मोहम्मद, ईसा, नानक ने ऐसे ही प्रयोग किए।
इन सभी ने उन लोगों पर बराबर फोकस रखा जो इनके उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते थे और सहायक बन सकते थे। केवल एक उदाहरण से समझें। पाण्डव ही कृष्ण के भरोसे नहीं थे, कृष्ण ने भी पाण्डवों को अपने लक्ष्य के लिए चुना था। ये सिद्ध पुरुष इस बात पर ध्यान देते हैं कि इनसे पूर्व हुए श्रेष्ठ व्यक्तियों ने या शास्त्रों ने वे कौन से सन्मार्ग बताए थे जो आज उनके फोकस ग्रुप के लोग चूक रहे हैं और फिर ये प्रयास करते हैं कि लोगों को श्रेष्ठ जीवन पद्धति का लाभ मिले।
अपने फोकस ग्रुप के लोगों को सिद्ध पुरुष संस्कारित भी करते हैं। अब इस पर विचार करें कि हर युग में ऐसे सिद्ध लोग आते रहे हैं नाम, रूप, परिवेश और तरीका बदल-बदलकर। आज भी हैं, हमारी कोशिश होना चाहिए कि हम उनके फोकस ग्रुप में आ जाएं। वे जो अवसर दे रहे हैं उसे कृपा समझ हमें जो मौका देंगे उसे सेवा मानें, लेकिन चूक न जाएं। किसी सिद्ध के फोकस ग्रुप में आना बड़ी उपलब्धि होगी। भौतिक आकांक्षाओं को झपटने में माहिर हम लोगों को ऐसे आध्यात्मिक अवसरों को लपकने की कला भी आना चाहिए।

परिवार में प्रेम और शांति चाहिए तो यह करें....
चाहते तो सभी हैं लेकिन दाम्पत्य जीवन आज कितनों का दिव्य होता है? कोई भी परिवार, कोई भी गृहस्थी तब ही शान्त, आनन्दमय और दिव्यता में रहेगी जब उस परिवार का आधार आपसी प्रेम होगा।
प्रेम वह झरोखा है जिससे परमात्मा झलकता है। इसलिए अपने परिवार को प्रेम पर खड़ा करिए। प्रेम परमात्मा की व्यवस्था है और विवाह आदमी का इन्तजाम है। हम अपने प्रयासों से विवाह कर लें और फिर परिवार को परमात्मा को सौंपें तो प्रेम का जन्म होगा। जिन परिवारों से प्रेम लुप्त हो गया है उन परिवारों के मनुष्य विकृत, अधार्मिक और हिंसक हुए हैं, वे परिवार अधर्म तथा अशान्ति का अड्डा बन गए।
जब परिवार से प्रेम गायब हो जाए, तो जिसको हम गृहस्थी कहते हैं उसमें संघर्ष, कलह, द्वेष, ईष्र्या और उपद्रव का प्रवेश हो जाता है। इसलिए परिवार के केन्द्र में परमात्मा होना चाहिए। परन्तु आज केन्द्र में निज स्वार्थ, अहंकार, मैं बड़ा, तू छोटा यह भाव है। इसका परिणाम यह होता है कि परिवार के सदस्य प्रेम के भूखे रह जाते हैं और जिन्हें प्रेम नहीं मिलता वह व्यक्तित्व तड़पता हुआ, अतृप्त और बेचैन हो जाता है। तड़पता हुआ व्यक्ति समाज में अनाचार पैदा करता है।
जब किसी आदमी को परिवार में प्रेम नहीं मिलता, उसके दाम्पत्य से प्रेम खत्म हो जाता है तो वह फिर एक मिथ्या प्रेम की तलाश में घर से बाहर निकल जाता है। दुनिया में वैश्याएं असफल दाम्पत्य के कारण ही पैदा हुई हैं। परस्त्री और परपुरुष गमन जैसी दुर्घटनाएं प्रेम के अभाव का परिणाम होती हैं। फिर ऐसे दाम्पत्य से जब संतानों का जन्म होता है तो वे अधूरे बच्चे समाज में विकृति ही फैलाते हैं। इसलिए दाम्पत्य में जिन माता-पिता को संतान उत्पन्न करना है वे अपने दाम्पत्य का आधार प्रेम रखें।

मेङिटेशन का सबसे सहज तरीका यही है.....
फकीरों की बात में छुपा हुआ सन्देश ढूँढना पड़ता है। वे सरल होते हैं इसलिए उनके शब्द भी सरल होते हैं लेकिन हम इतने बाँके हो चुके हैं कि उनकी सीधी बात भी हमें तिरछी लगती है। किसी को पैदल सड़क क्रॉस करना हो और गाडिय़ाँ लगातार आ-जा रही हों तो सामान्य आदमी कहेगा जब वाहन नहीं आ रहे होंगे तब गुजरेंगे पार। परन्तु फकीर कहेगा जब खाली स्थान आएगा तब जाएंगे दूसरे सिरे पर।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से दोंनों संवाद एक जैसे हैं। परन्तु आध्यात्मिक विचार से मामला बदल जाएगा। सड़क पर गुजर रहे वाहनों की तरह ही विचार होते हैं। जब विचार आना रुक जाएं और खाली स्थान रह जाए वह ध्यान है। खाली स्थान आएगा का मतलब है खाली जगह पहले से है ही, आते-जाते वाहनों के कारण हमें उपलब्ध नहीं है। बस इसी तरह ध्यान जीवन में होता ही है, विचारों को रोका और ध्यान स्वत: घटा।
मेङिटेशन का सबसे सहज तरीका यही है, अपने भीतर विचारों की दौङ को रोक दीजिए।ऐसे ध्यान का परिणाम है कि पूरा व्यक्तित्व सरल हो जाता है और उस परम शक्ति को हमारे भीतर उतरना ही पड़ता है। मोहम्मद साहब के ऊपर जब कुरान की आयतें उतरीं तब वे गहरे ध्यान में ही रहे होंगे। वे बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं थे। किसी दिव्य वाणी को सुनकर दुनिया में पहुँचाने की जिम्मेदारी उस परवरदिगार ने एक ऐसे शख्स को दे दी जो शब्दों की जानकारी, उनके खेल से अनभिज्ञ था। लेकिन वे गहरे उतर चुके थे, सारे शब्द शून्य होकर भी साकार हो गए और दुनिया को कुरान जैसा जिन्दा साहित्य मिल गया।

इन पांच रास्तों से आती हैं जीवन में समस्याएं
आदमी की जिंदगी में समस्या आने के पाँच रास्ते हैं- शरीर से, मन से, धन से, परिवार से और संसार से। कई क्षेत्रों में ''बिना अनुमति प्रवेश निषेध'' की व्यवस्था होती है लेकिन मनुष्य अपने जीवन में ऐसी व्यवस्था करने में चूक जाता है। इन समस्याओं का यदि वो हल निकालता भी है तो अस्थाई रूप से।
इनका स्थायी निदान केवल अध्यात्म के पास है। शरीर की सबसे बड़ी समस्या है रोग। जानवर और इन्सान के फर्क को समझ लें। पशु-पक्षी कभी बीमार नहीं पड़तेे, अपवाद को छोड़कर। आजकल तो आदमी कभी-कभी ही स्वस्थ रहता है। अध्यात्म कहता है स्वस्थ रहने के लिए सबसे पहले जीभ के स्वाद पर नियन्त्रण रखा जाए। चटोरापन शरीर का दुश्मन है।
मन का काम अशांत बनाए रखना है। उसकी सक्रियता में मनुष्य की बेचैनी व उदासी बसी है। तनाव से मुक्त होना है तो मन को निष्क्रिय करना पड़ेगा। गलत तरीके से कमाया धन भोग और नाश में जाएगा, दान इसे शुद्ध रखने का तरीका है। परिवार से प्रेम गया तो दाम्पत्य को समस्याओं का ज्वालामुखी बनने में देर नहीं लगती है और संसार को ही सब मान लेना अशांति का बड़ा कारण होगा
अध्यात्म कहता है ये समस्याएं आती रहेंगी, इनसे घबराना नहीं है। इन्हें वार्निंग अलार्म से ज्यादा मत समझें। समस्या आए तो ऊपरी सतह पर निदान न ढूंढें, सीधे उसकी जड़ की ओर चलें। जैसे मक्खी-मच्छर पर तलवार चलाने से बेहतर है गंदगी साफ की जाए। बस अध्यात्म यही कहता है जड़ पर काम करो, आरंभ को स्पर्श कर लो। शुरुआत ही सम्भाल लो, फिर हर आती समस्या अपने साथ समाधान भी लाएगी।

ये है उपासना का सही तरीका.....

किसी के सद्गुण हमारे भीतर उतरें इसका एक सरल तरीका है उस व्यक्तित्व का यशगान किया जाए। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा में हनुमानजी का यशगान किया है। इसीलिए जब-जब हनुमानचालीसा की पंक्तियां स्मरण की जाएंगी इसका सीधा सा अर्थ होगा हनुमानजी के गुण हमारे भीतर उतारने की तैयारी।
बहुत गहराई में जाकर देखा जाए तो महसूस होगा यशगान भी एक तरह की उपासना होती है। उपासना का अर्थ होता है पास में बैठना, उपआसन। परमात्मा के निकट बैठना या अपने स्वयं के निकट बैठना। आजकल लोग अपने पास भी नहीं बैठते हैं। मनुष्य बाहर बड़ी लंबी-लंबी यात्राएं करता है लेकिन भीतर अपनी ओर नहीं मुड़ता। उपासना का सीधा सा अर्थ है परमात्मा के पास थोड़ी देर शांति से बैठा जाए।
पूजा करते समय मनुष्य स्वयं नहीं बैठता, शरीर से हम बैठे हैं और मन से दुनियाभर में दौड़ रहे होते हैं। इस तरह से तो हम संसार के कई काम करते हैं। जब हम गाड़ी चला रहे होते हैं, बागवानी कर रहे होते हैं, रसोई बना रहे होते हैं, तैयार हो रहे होते हैं उस समय बाहर से करने वाला कोई और तथा भीतर से इधर-उधर घूम रहा व्यक्तित्व कोई और होता है। वह तो अचानक जब इन कार्यों में व्यवधान आता है तब ध्यान आता है हम क्या कर रहे हैं। यह सब मशीन की तरह हो रहा है। याद रखें पूजा आदत नहीं स्वभाव होना चाहिए। संसार आदत से चलता है परन्तु पूजा स्वभाव का विषय है। परमात्मा आदत से नहीं स्वभाव से मिलता है। हनुमानचालीसा की पंक्तियों की विशेषता है कि ये हमें हमारे स्वभाव की ओर ले जाती हैं।

ध्यान रखें....शुरुआत में ऐसा न हो
एक दूसरे से असहमत होना दिक्कत की बात नहीं है। विचारों की परिपक्वता, भौतिक प्रतिस्पर्धा और व्यक्तित्व विकास में असहमति का भाव मददगार बनेगा। सांसारिक प्रबंधन में असहमति कभी-कभी योग्यता बनकर सामने आ जाती है।
यह लंबे समय असहमति जब स्वभाव के रूप में जीवन में टिक जाती है तो फिर ये वृत्ति आपको विचलित और काफी हद तक विकृत भी बना सकती है। असहमति से विरोध का जन्म होता है जो बुरा नहीं है। खतरा शुरु होता है विरोध से ईष्र्या, द्वेष और फिर षडयंत्र तक जाने में। हिंसा तो इन्तजार ही करती है इन नई परिस्थितियों में प्रवेश करने का। इसलिए जीवन में असहमति का भाव आते ही आरंभ से ही सावधान हो जाना चाहिए, क्योंकि शुरुआत में ही चूक गए तो परिणाम घातक होंगे। बाइबिल में सर्मन ऑन दि माउन्ट में एक प्रसंग है।
उसमें जीसस कहते हैं च्च्यदि पूजा की जगह पर कोई भेंट लाए हो, चढ़ाना चाहते हो और उस समय तुम्हे तुम्हारे भाई से विरोध (यहां ईष्र्या, द्वेष शामिल है) याद आता है तो सबसे पहले घर लौटो, इस विरोध को दूर करो, फिर आओ और चढ़ावा चढ़ाओ।ज्ज् ईश्वर को साफ दिल का उपहार पसंद है। असहमति की वृत्ति का उपयोग सृजन में होता रहे तब तक तो ठीक है। इसलिए अध्यात्म सुझाव देता है कि असहमति का भाव जब भी आए उसके साथ अनासक्ति, क्षमा और विनय के अभ्यास का सपोर्ट जरूर रखें।
अन्यथा असहमति की प्रकृति मनुष्य से मनुष्य को जोडऩे की जगह तोडऩे का काम ही करेगी। अपनी असहमति को सृजनात्मक और दूसरे के लिए उपयोगी बनाने का एक सरल तरीका है इसे व्यक्त करते समय जरा मुस्कुराइए....

कितने प्रकार की होती हैं चित्त की अवस्थाएं
आज योग से सम्बंधी कई प्रकार की अफवाएं हैं यदि हम साफ शब्दों में कहें तो योग स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर जाने वाला रास्ता है। हम जितना अपने मन को शांत बनाएंगें तब हमारे अन्दर सत अर्थात सम्यक ज्ञान के दर्शन होंगे मुनि व्यास ने चित्त की पांच अवस्थाएं बताई हैं।
1. मूढ़ अवस्था. यह अवस्था तम प्रधान होतीहै यह काम क्रोध लोभ मोह के कारण होती है इसमें मनुष्य की अवस्था अज्ञानमय होने के कारण समाधिस्थ नहीं हो पाती।
2.क्षिप्त अवस्था. इस अवस्था का मनुष्य रज प्रधान होता है इसलिए राग द्वेष मोह कषाय सांसारिक कर्मों की प्रवृत्ति मन की चंचलता आदि गुणवृत्ति अधिक पाई जाती है।
3. विक्षिप्त अवस्था. इस अवस्था का मनुष्य सतगुण प्रधान होता है अत धर्म ज्ञान वैराग्य और ऐश्वर्य अधिक पाया जाता है।
4.एकाग्रावस्था. इस अवस्था का मनुष्य सत्व गुण प्रधान होता है इसमें रज और तम गुण आंशिक मात्रा में रहते हैं।
5. निरुद्धावस्था. जब विवेक ख्याति द्वारा चित्त और पुरुष का भेद साक्षात प्रकट हो जाता है। उस ख्याति से भी वैराग्य उदस होता है।

अगर परिवार में प्रेम जगाना हो तो....

इस समय हमारे पारिवारिक जीवन में जितनी समस्याएं चल रही हैं उसमें एक बड़ी समस्या है इमोशनल एप्सेंस। संवेदनाओं के अभाव के कारण घर के सदस्य एक दूसरे के प्रति रूखे और सूखे हो गए हैं। अब तो कई घरों में हो रही बातचीत सुन और देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी मॉल के काउंटर पर लेन-देन हो रहा है या किसी कॉर्पोरेट ऑफिस के केबिन में मीटिंग हो रही है या पेढ़ी पर ब्याज-बट्टे का हिसाब चल रहा है।
घर परिवार का हर सदस्य अपना सौदा खुटा रहा है। पिछले दिनों एक खबर सुनने में आई कि गर्भस्थ बालक की मुस्कान थ्री-डी स्केनिंग में फोटो के रूप में प्राप्त हुई है। चिकित्सा विज्ञान के जानकार लोगों का कहना है यह गर्भ में पलने वाले शिशु की संवेदना का मामला है। एक बात तो यह समझने जैसी है कि इसमें मुस्कान संवेदना की प्रतिनिधि क्रिया है। फिर बच्चे की मुस्कान तो और अद्भुत होती है। दरअसल बड़ा जब भी मुस्कराएगा समझ लीजिए बच्चे होने की तैयारी ही कर रहा होगा। अध्यात्म कहता है जैसे-जैसे समझ बढ़ेगी वैसे-वैसे हम छोटे हो जाएंगे और जितने छोटे होंगे उतने ही विराट के प्रकट होने की संभावना बढ़ जाएगी। बल्कि छोटे होते-होते जितना खो जाएंगे बस उसके बाद फिर उसे पा जाएंगे जिसका नाम परमात्मा है।
वह बच्चा गर्भ में मुस्कराकर यही संदेश दे रहा है कि मैं भीतर जिसके भरोसे मुस्करा रहा हूं हम बाहर भी उसी के भरोसे प्रसन्न रह सकते हैं। यह एक तरह की बायो फीडबेक क्रिया है। जैसे मंदिरों में गुम्बज इसलिए बनाए गए ऊँकार का गुंजन कई गुना होकर हम पर लौट आए। इसी प्रकार भीतर की मुस्कान बाहर और बाहर की स्थितियां भीतर को बायो फीडबेक प्रक्रिया से व्यक्तित्व को शांत बनाने में काम आएगी और शांति जिस भी कीमत पर मिले हासिल कर लेना चाहिए। उस गर्भस्थ शिशु का यही संदेश है।

ऐसे हुआ शिव का नंदी अवतार

शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर अयोनिज एवं मृत्युहीन पुत्र का वरदान मांगा। इंद्र ने इसमें असर्मथता प्रकट की तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा।
तब शिलाद ने कठोर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया उनके ही समान मृत्युहीन तथा अयोनिज पुत्र की मांग की।
भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। एक दिन भगवान शंकर द्वारा भेजे गये मित्रा-वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम आए। उन्होंने नंदी को देखकर कहा कि नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन देकर कहा- वत्स नंदी! तुम्हें मृत्यु से भय कैसे हो सकता है? तुम अजर-अमर, अदु:खी हो।
मेरे अनुग्रह से तुम्हे जरा, जन्म और मृत्यु किसी से भी भय नहीं होगा। भगवान शंकर ने उमा की सम्मति से संपूर्ण गणों व गणेशों व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। भगवान शंकर की प्रतिज्ञा है कि जहां पर नंदी का निवास होगा वहां उनका भी निवास होगा।

हर जीवन में ये तीन बातें होती हैं ...

दुनिया में आदमी के जीवन में तीन बातें होती हैं- आधि, व्याधि और उपाधि। आधि का अर्थ है वस्तु होने का दु:ख। व्याधि का अर्थ है शारीरिक दु:ख और उपाधि का अर्थ वस्तु न होने का दु:ख। मनुष्यों के पहले माता-पिता मनु-शतरूपा के बारे में जरा सोचा जाए। क्या भाग्य हैं इन दोनों के? चारों ओर से सौभाग्य की वर्षा हो रही थी।
पूरा परिवार प्रतिष्ठित था। अब इतना सुख किसी को हो, लेकिन शारीरिक रोग हो जाए तो भी गए काम से। मनु महाराज को कोई रोग भी नहीं था, स्वस्थ थे। सब मिला, लोक में, वेद में प्रतिष्ठा मिली, दिव्य दाम्पत्य, पुत्र उत्तानपाद और प्रियव्रत जैसे, पौत्र ध्रुव जैसा, देवहुति जैसी पुत्री, कर्दम मुनि जैसा दामाद, कपिल जैसा पुत्री का पुत्र और स्वास्थ्य उत्तम। लेकिन इन इसके साथ जो बड़ी घटना उनके साथ घटी वैसी हमारे साथ भी होना चाहिए।
प्रभु की कृपा ऐसी हो जाए कि प्रभु याद आ जाएं यह सबसे बड़ी बात है। विषयों से वैराग्य नहीं हो रहा, एक दिन यह दु:ख मनु महाराज को हुआ था। संसार वृक्ष की शाखाएं फूटती ही रहेंगी, इसका कभी अन्त नहीं होगा। एक उम्र आने पर हमें यह सब छोड़ देना चाहिए। विषयों में से वैराग्य हो जाना चाहिए। वृद्धावस्था में हमारी इंद्रियां विषयों को ग्रहण करने योग्य नहीं रह जाती, असमर्थ हो जाती है, लेकिन हम वस्तु का भोग करना चाहते हैं।
ऐसी स्थिति में मनुष्य का अंतर्मन अशान्त हो जाता है, इन्द्रियां मनुष्य को परस्पर इधर-उधर खींचती रहती हैं। हम वर्षों से विषय को भोगने के अभ्यस्त रहते हैं और ऐसा क्रम चलता रहता है। बुढ़ापे में हम लोगों को अधिक परेशान देखते हैं। किसी को भविष्य का भय है, किसी को स्वास्थ्य की चिन्ता है, कोई यूं ही चिढ़चिढ़ा रहा है। मनु-शतरूपा से सीखा जाए समय रहते परमात्मा की ओर मुड़ जाएं।

लक्ष्य पाना है तो व्यवहार ऐसा न रखें
कभी कभी अचानक व्यक्तित्व में ऐसे परिवर्तन हो जाते हैं कि हमारी हर किसी से झगडऩे की इच्छा होने लगती है। धीरे-धीरे यह आदत हो जाती है। जब हम किसी से लड़ते हैं तो दो बातें होती हैं। हमारी ऊर्जा, शक्ति गलत जगह अकारण खर्च होती है और दूसरे लडऩे वाले के लिए उस पर रूकना पड़ता है।
ऊर्जा का दुरूपयोग और गति में रूकावट दोनों ही जीवन यात्रा के लिए नुकसानदायक है जिनके पास बड़े लक्ष्य और लंबी यात्रा हो उन्हें छोटी बातों पर रुकना नहीं चाहिए। एक और बात भी होती है। जब दूसरों से लडऩे की आदत पड़ जाती है और यदि सामने कोई दूसरा न मिले तो आदमी खुद से ही लडऩे लगता है। खुद से लडऩे का दूसरा नाम है चिड़चिड़ापन। इसे आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी देखा जाए।
इस आदत के रहते हम अपने दुर्गुणों से लडऩे लगते हैं। दुर्गुणों से लडऩा वैसा ही होगा जैसे कोई मूर्तिकार मूर्ति बनाते समय, ठीक परिणाम न मिलने पर पत्थर से ही सिर फोडऩे लगे। अच्छा मूर्तिकार पत्थर का उपयोग करना जानता है। इसी प्रकार समझदार साधक अपने दुर्गुणों से झगड़ा नहीं करता, उससे सिर नहीं फोड़ता बल्कि उसका उपयोग करना जानता है। इसे अध्यात्म की भाषा में रूपांतरण कहा गया है।
क्रोध से झगड़ेंगे तो वह चिड़चिड़ा बना देगा। क्रोध का रूपांतरण क्षमा और दया में होता है। यौन वृत्ति से झगड़ा मानसिक विकृति दे जाता है। इसके रूपांतरण का नाम ब्रम्हचर्य है। दुर्गुणों की सीढ़ी बनाकर, उन पर चढ़कर जिसे विजयी होना कहा गया, जीवन की ऊंचाइयों को छुआ जाए न कि उनसे उलझकर टकराकर घायल हुआ जाए या औंधे गिरा जाए।

खूब धन कमाएं लेकिन यह ध्यान रखें....
अगर मुंह न खोलतीं तो मछलियां कभी पकड़ाई में नहीं आतीं। वो आटा लपकती हैं और कांटा मिल जाता है। यदि मछली जान जाए कि आटे के पीछे कांटा है तो या तो लपके ही नहीं या सावधानी से आटा उतार ले। मछलीमार जानता है आटे की आड़ में कैसे कांटा अपना काम कर जाता है।
यह हमारे साथ भी होता है। वैभव के आटे में विलास का कांटा है। अपनी देह-बुद्धि के कौशल से कार्य सिद्ध कर जो उपलब्धि हासिल की जाती है उसे ही वैभव-सम्पत्ति कहा गया है। संसार में सम्पत्ति अर्जित करना धर्मसम्मत है। धन में कोई बुराई नहीं है। गड़बड़ है उसके उपयोग, दुरूपयोग में। खूब धन कमाना है तो अधिक परिश्रम, दक्षता का उपयोग करना होगा। हरामखोरी से, अनुचित मार्ग से, अंधी दौड़ के साथ और धन कमाने का नशा चढ़ाकर जब सम्पन्नता को खरीदने की कोशिश की जाएगी तो यह एक दिन आटे के बाद कांटे जैसी स्थिति होगी।
धन कमाते समय उत्साह, दक्षता और चैतन्यता एक साथ बनाए रखें। परिश्रम में लोभ की वृत्ति आते ही कांटा अपना काम शुरू कर देता है। इसीलिए जिनके पास खूब दौलत है वे भी कहीं परेशान हैं। उनके जीवन में अशांति की चुभन है। सुख का बिस्तर है पर नींद का चैन गायब है। धर्म कहता है धन भोग की नहीं भक्ति की वृत्ति से कमाया जाए। भक्ति भावना आते ही सुखी मीन जे नीर अगाधा की स्थिति आ जाती है। वो मछलियां सुखी हैं जो प्रभुकृपा के गहरे जल में हैं। भक्त धनवान होगा तो सुखी और शांत भी रहेगा। फिर भगवान ही उसकी आटे और कांटे दोनों से रक्षा करेंगे।

आज ऐसा भी करके देखिए...

किसी एक दिन सुबह से यह तय कर लें कि आज हम जड़ वस्तुओं से वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा प्राणवान से करते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारे जूते-चप्पल, दरवाजे, हमारी कार का दरवाजा, हमारा पेन, रसोई के सामान इन सबसे आपका व्यवहार ऐसा हो जैसे ये सब जीवित हैं। इनको स्पर्श करते समय महसूस करें कि इनमें भी प्राण हैं। हमारा पूरा व्यवहार इनके साथ बदल दें।
आज तृण से ब्रह्म तक सबको खूब मान दीजिए, स्नेह दीजिए, संवेदना बहा दीजिए। रोज जिन चीजों को हम अवॉइड कर जाते हैं आज उन्हें गौर से देखिए। उनका इस्तेमाल पूरे सलीके से कीजिए। एक दिन उनके नाम कर दीजिए। यदि पेन हाथ में है तो अपने हृदय की संवेदना को उससे जोड़ दीजिए, समझ लीजिए कोई नवजात शिशु हाथ में है। यदि आप रसोई घर में हैं तो प्रत्येक बर्तन में प्राण देखिए। आज किसी बर्तन को पटकना नहीं है।
कुछ जिन्दा तजुर्बा करना है, अपना व्यवहार बदल दीजिए। आज उन्हें ऐसे न पटकें जैसे रोज पटकते हैं। आज सलीका दूसरा होगा। दिनभर जड़ के साथ खूब चेतन व्यवहार करें। ये प्रयोग आपके भीतर प्रत्येक के लिए प्रेम का आरम्भ कराएगा। हो सकता है हमें कुछ अजीब सा लगे लेकिन इसे पागलपन न समझें। पागल तो हम तब हैं जब जड़ के साथ निष्प्राण व्यवहार कर रहे हैं। इनके साथ जरा सा चेतन हुए कि आप होश में आ जाएंगे।
आपका आनन्द बढ़ जाएगा। राम अवतार में सेतु निर्माण के समय वानर जब पत्थर को हाथ में उठाते थे और उसके नीचे राम लिखते थे उसका अर्थ ही यही था कि जड़ वस्तु भी उनके हृदय से जुड़ी हुई है। जिसने जड़ से प्रेम कर लिया वह फिर सारे संसार के प्रति प्रेम में डूब जाता है।

अगर दुनिया अपने तरीके से चलाना चाहते हैं तो....
जिन्हें बाहर की दुनिया अपने हिसाब से चलानी हो उन्हें भीतर की दुनिया में अपने हिसाब से चलना भी आना चाहिए। जब हम अपने भीतर उतरकर यात्रा आरम्भ करते हैं तो सबसे पहले हमारी भेंट अपने मन से होगी। आध्यात्मिक दुनिया में मन को सभी सन्त महात्माओं ने अलग-अलग सम्बोधन दिया है। यह तय है कि मन को जीते बिना दुनिया नहीं जीती जा सकती।
कबीरदासजी ने तो लिखा है-
कबीर मन मरकट भया, नेक न कहुं ठहराय।
राम नाम बांधै बिना, जित भावै तित जाय।।
कबीर कहते हैं कि यह मन तो बन्दर की भांति अति चंचल है, तनिक समय भी कहीं नहीं ठहरता। जब तक इसे अन्तर्यामी राम-नाम की ज्ञान रूपी जंजीर से नहीं बांधा जाएगा, तब तक यह उड़ारी लेता रहेगा। स्वच्छन्द रूप से इसे जहां अच्छा लगेगा, वहीं जाता रहेगा। यह स्वच्छन्द है इसी कारण इसका असंतुलन में विश्वास है। यदि हम बाहर और भीतर दोनों दुनिया में समान रूप से सफलता चाहते हैं तो हमें संतुलित व्यक्तित्व बनाना होगा।
भावना, विचार और कर्म इन तीनों के बीच तालमेल बैठाना पड़ेगा। मन के काम-काज को तीन भागों में बांटा जाता है। पहला है भावना। अपनी भावना जब अति संवेदनशीलता में बदल जाती है तो मन इसका लाभ उठाता है। दु:ख, अवसाद, निराशा ऐसे लोगों को जल्दी घेर लेती है। मन का दूसरा भाग है विचार। अधिक विचारवान लोग अहंकार की पकड़ में जल्दी आ जाते हैं। और जो लोग इन दोनों से हटकर केवल कर्म में विश्वास रखते हैं वे भी सम्पूर्ण परिणाम नहीं पा सकते। इसलिए मन को संतुलन का अभ्यास डालिये। मन को संतुलित रखने के लिए एक बार जरा मुस्कुराइए...

कुछ सफलताएं जीवन में खुद ही चलकर आती हैं

कभी जीवन में कुछ उपलब्धियां चलकर आ जाती हैं लेकिन उन्हें स्वीकार करने में हम चूक जाते हैं। सत्यनारायण व्रत कथा में एक प्रसंग आता है - ग्वाले प्रसाद देने आए और राजा तुंगध्वज ने अहंकारवश प्रसाद नहीं लिया। यह प्रसाद सत्य का प्रसाद था।
हमें कोई आकर भी जीवन में सत्य देता है, परमात्मा देता है, लेकिन हम अपने स्वभाव, आचरण, मनोवृत्ति, जीवनशैली, तौर-तरीके, हठ, अहंकार के कारण आती हुई कृपा को ठुकरा देते हैं, फिर दु:ख पाते हैं।अहंकार न करें यदि भक्त बनने की तैयारी में हैं। यदि भगवान को पाने की चाह है तो एक चीज से मुक्ति पाई जाए और वह है अहंकार। यह अहंकार हमें कहीं का नहीं रखेगा। याद रखिए आदमी के पास जो कुछ भी होता है वह अहंकार के कारण उल्टा चला ही जाता है।
परमात्मा तब ही उपलब्ध होगा जब हम अपने च्च्मैंज्ज् को गिरा देंगे। राजा तुंगध्वज भेदभाव, छुआछूत के पुराने जमाने में जी रहा था। ग्वालों को उसने छोटा समझा था। परमात्मा के विधान में छोटे बड़े का न तो महत्व है और न ही इसकी आज्ञा। यह नए का युग है।जीवन वहाँ उदास हो जाएगा जहाँ नए जीवन की धाराएं बंद हो जाएगी। यदि हमारा दिमाग, हमारा चित्त, हमारे भीतर का आदमी पुराना ही रहा, तो हम अपने आसपास भेदभाव की गंदगी इकट्ठा कर लेंगे। उस प्रसंग में सारे ग्वाले युवा थे, उत्साही थे।
नई पीढ़ी राजा की ओर हाथ बढ़ा रही थी और राजा पीछे की ओर हट रहे थे। प्रगति की ओर पीठ करके यात्रा करने वाली कोई भी सत्ता कैसे टिक सकती है?उस प्रसंग में इस कारण राजा को नुकसान उठाना पड़ा था, लेकिन बाद में युवा पीढ़ी से जुड़कर राजा को लाभ हुआ। नए युग से जुडऩा विकास की ओर बढऩा ही है।

शिव का स्वरूप
शिव की महिमा अनंत है। उनके रूप, रंग और गुण अनन्य हैं। समस्त सृष्टि शिवमयहै। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की, परंतु जब सृष्टि का विस्तार संभव न हुआ तब ब्रह्मा ने शिव का ध्यान किया और घोर तपस्या की। शिव अर्द्ध नारीश्वर रूप में प्रकट हुए। उन्होंने अपने शरीर के अर्द्ध भागसे शिवा (शक्ति या देवी) को अलग कर दिया। शिवा को प्रकृति, गुणमयीमाया तथा निर्विकार बुद्धि के नाम से भी जाना जाता है। इसे अंबिका, सर्वलोकेश्वरी,त्रिदेव जननी, नित्य तथा मूल प्रकृति भी कहते हैं। इनकी आठ भुजाएं तथा विचित्र मुख हैं। अचिंत्य तेजोयुक्तयह माया संयोग से अनेक रूपों वाली हो जाती है। इस प्रकार सृष्टि की रचना के लिए शिव दो भागों में विभक्त हो गए, क्योंकि दो के बिना सृष्टि की रचना असंभव है। शिव सिर पर गंगा और ललाट पर चंद्रमा धारण किए हैं। उनके पांच मुख पूर्वा, पश्चिमा, उत्तरा,दक्षिणा तथा ऊध्र्वाजो क्रमश:हरित,रक्त,धूम्र,नील और पीत वर्ण के माने जाते हैं। उनकी दस भुजाएं हैं और दसों हाथों में अभय, शूल, बज्र,टंक, पाश, अंकुश, खड्ग, घंटा, नाद और अग्नि आयुध हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वह त्रिशूल धारी, प्रसन्नचित,कर्पूर गौर भस्मासिक्तकालस्वरूपभगवान हैं। उनकी भुजाओं में तमोगुण नाशक सर्प लिपटे हैं। शिव पांच तरह के कार्य करते हैं जो ज्ञानमय हैं। सृष्टि की रचना करना, सृष्टि का भरण-पोषण करना, सृष्टि का विनाश करना, सृष्टि में परिवर्तनशीलतारखना और सृष्टि से मुक्ति प्रदान करना। कहा जाता है कि सृष्टि संचालन के लिए शिव आठ रूप धारण किए हुए हैं। चराचर विश्व को पृथ्वी रूप धारण करते हुए वह शर्वअथवा सर्व हैं। सृष्टि को संजीवन रूप प्रदान करने वाले जलमयरूप में वह भव हैं। सृष्टि के भीतर और बाहर रहकर सृष्टि स्पंदित करने वाला उनका रूप उग्र है। सबको अवकाश देने वाला, नृपोंके समूह का भेदक सर्वव्यापी उनका आकाशात्मकरूप भीम कहलाता है। संपूर्ण आत्माओं का अधिष्ठाता, संपूर्ण क्षेत्रवासी, पशुओं के पाश को काटने वाला शिव का एक रूप पशुपति है। सूर्य रूप से आकाश में व्याप्त समग्र सृष्टि में प्रकाश करने वाले शिव स्वरूप को ईशान कहते हैं। रात्रि में चंद्रमा स्वरूप में अपनी किरणों से सृष्टि पर अमृत वर्षा करता हुआ सृष्टि को प्रकाश और तृप्ति प्रदान करने वाला उनका रूप महादेव है। शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है। तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं। प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के आदि में महाशिवरात्रि को मध्य रात्रि में शिव का ब्रह्म से रुद्र रूप में अवतरण हुआ, इसी दिन प्रलय के समय प्रदोष स्थिति में शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुए संपूर्ण ब्रह्माण्ड अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर दिया। इसीलिए महाशिवरात्रि अथवा काल रात्रि पर्व के रूप में मनाने की प्रथा का प्रचलन है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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