यह है श्री गणेश का शुभ और अनूठा रूप
हर धार्मिक कर्म, पूजा, उपासना या शुभ और मंगल कार्यों में स्वस्तिक का चिन्ह बनाया जाता है। लोक भाषा में यह मंगल का प्रतीक है। लेकिन यहां जानते हैं कि वास्तव में शुभ कार्यों में स्वस्तिक बनाने का क्या कारण है -
दरअसल धार्मिक नजरिए से स्वस्तिक भगवान श्री गणेश का साकार रूप है। इसमें बाएं भाग में गं बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसकी आकृति में चार बिन्दियां भी बनाई जाती है। जिसमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानि कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है।
स्वस्तिक के भगवान गणेश का रुप होने का प्रमाण दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ माने जाने वाले वेदों में आए शांति पाठ से भी होती है, जो हर हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों में बोला जाता है। यह मंत्र है -
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:
स्वस्तिनस्ता रक्षो अरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पर्तिदधातु
इस मंत्र में चार बार स्वस्ति शब्द आता है। जिसका मतलब होता है कि इसमें भी चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन किया गया है।
इसमें व्यावहारिक जीवन का पक्ष खोजें तो पाते हैं कि जहां शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है, वहीं स्वस्तिक का वास होता है सरल शब्दों में जहां परिवार, समाज या रिश्तों में प्यार, सुख, श्री, उमंग, उल्लास, सद्भाव, सुंदरता और विश्वास का भाव हो। वहीं सुख और सौभाग्य होता है। इसे ही जीवन पर श्री गणेश की कृपा माना जाता है यानि श्री गणेश वहीं बसते हैं। इसलिए श्री गणेश को मंगलकारी देवता माना गया है।
श्रीकृष्ण के इन गुणों से सीखें सरताज बनना
हिन्दू धर्म में श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का आठवां अवतार माना गया है। विष्णुपुराण में भगवान के छ: गुण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, वैराग्य तथा मोक्ष बताए गए हैं। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन, चरित्र और लीलाओं में भी अंनत बल, अनन्त यश, अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य प्रकट होता है। श्रीमद्भगवद् गीता में भी श्रीकृष्ण को भगवान कहा गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता हिंदू धर्म का पवित्र ग्रंथ है। जीवन, व्यक्तित्व और चरित्र के विकास के लिए गीता के उपदेश अमूल्य है। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की सबसे बड़ी खासियत है - कर्म की निरंतरता। उन्होंने स्वयं अपने आचरण से हमेशा कर्म और दूसरों का कल्याण करने का संदेश दिया। इसीलिए विष्णु के दस अवतारों में से केवल कृष्ण को ही जगद्गुरु कहा गया है।व्यावहारिक जीवन में भी कर्म ही अंतत: सफलता का कारण बनता है, जो किसी भी व्यक्ति को कामयाब और ताकतवर बनाता है। ऐसा व्यक्ति ही समाज में भगवान की छबि रखता है।
श्रीकृष्ण का जीवन भी कर्म से सफलता की प्रेरणा देता है। इसलिए आज भी समाज के हर वर्ग और जाति के लोगों के लिए वे गुरु, सखा, बालक या प्रियतम हैं और श्रीकृष्ण भगवान के रूप में पूजित हैं।
बस, इतना कर लें! मिल जाएगी शांति
भारतीय धर्म की सबसे बड़ी खासियत है कि वह पुरानी, परंपरागत जड़-मान्यताओं और कट्टरपंथी ढकोसलों से मुक्त होने की इजाजत देता है। देशकाल परिस्थिति के अनुसार बदलाव करते हुए धर्म को पाला जाए, यह स्वीकृति और सुविधा धर्म देता है। अच्छा सोचें, अच्छा बोलें और अच्छा करें, सफल और सुखमय जीवन के लिए ये तीन सूत्र हैं। धर्म सिखाता है इन्हें कैसे किया जाए।
धर्म जानने के बाद एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि अध्यात्म क्या है? यदि सीधे-सीधे समझा जाए तो धर्म शरीर है अध्यात्म आत्मा है। धर्म व्यवहार है तो अध्यात्म स्वभाव। धर्म एक क्रिया है और अध्यात्म उसका परिणाम। धर्म यदि पिता का प्यार है तो अध्यात्म मां की ममता।
असल में अध्यात्म का शाश्वत और स्वाभाविक स्वरूप ही समस्याओं और परेशानियों की उलझनों से थके-मांदे इंसान को नई ताजगी और स्फूर्ति दे सकता है। लेकिन आज के मशीनी युग में इंसान अध्यात्म से जुडऩे के गहन उपायों को अपनाने के बजाय कुछ सरल तरीकों से सुख और शांति की चाहत रखता है। इसलिए जानते हैं अध्यात्म का सुख पाने के कुछ स्वाभाविक और आसान उपाय -
- स्वस्थ रहने का हर उपाय करें।
- स्वयं भी प्रसन्न रहें और दूसरे को भी खुश करने का प्रयत्न करें।
- नित्य अपने ईश्वर से अच्छे विचार और कर्म के लिए प्रेरित करने हेतु प्रार्थना करें।
- अपना कर्तव्य कुशलता से पूरा करें और दूसरों की मदद के लिए तैयार रहें।
- कठिन परिस्थिति में ईश्वर को यादकर आत्मविश्वास और संयम बनाए रखें।
- प्रत्येक प्राणी को ईश्वर का अंश समझकर व्यवहार करें।
- कुदरत के नियमों का सम्मान करें।
बेहतर शुरूआत का यही है सही वक्त
शास्त्रों में धार्मिक कर्मों खासतौर पर देव उपासना व साधना के शुभ फल पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त का विशेष महत्व बताया जाता है। इसे सबसे शुभ व पवित्र समय भी माना जाता है। किंतु आज के दौर की व्यस्त जीवनशैली खासतौर पर युवाओं को इस खास वक्त का लाभ उठाने से दूर कर रही है।
ब्रह्ममुहूर्त धर्म, अध्यात्म ही नहीं व्यावहारिक नजरिए से भी फायदेमंद माना गया है। इसलिए जानते हैं ब्रह्ममुहूर्त के धार्मिक, पौराणिक व व्यावहारिक पहलूओं को -
धार्मिक महत्व - व्यावहारिक रूप से यह समय सुबह सूर्योदय से पहले चार या पांच बजे के बीच माना जाता है। किंतु शास्त्रों में साफ बताया गया है कि रात के आखिरी प्रहर का तीसरा हिस्सा या चार घड़ी तड़के ही ब्रह्ममुहूर्त होता है।
मान्यता है कि इस वक्त जागकर इष्ट या भगवान की पूजा, ध्यान और पवित्र कर्म करना बहुत शुभ होता है। क्योंकि इस समय ज्ञान, विवेक, शांति, ताजगी, निरोग और सुंदर शरीर, सुख और ऊर्जा के रूप में ईश्वर कृपा बरसाते हैं। भगवान के स्मरण के बाद दही, घी, आईना, सफेद सरसों, बैल, फूलमाला के दर्शन भी इस काल में बहुत पुण्य देते हैं।
पौराणिक महत्व - वाल्मीकि रामायण के मुताबिक माता सीता को ढूंढते हुए श्री हनुमान ब्रह्ममुहूर्त में ही अशोक वाटिका पहुंचे। जहां उन्होंने वेद व यज्ञ के ज्ञाताओं के मंत्र उच्चारण की आवाज सुनी।
व्यावहारिक महत्व - व्यावहारिक रूप से अच्छी सेहत, ताजगी और ऊर्जा पाने के लिए ब्रह्ममुहूर्त बेहतर समय है। क्योंकि रात की नींद के बाद पिछले दिन की शारीरिक और मानसिक थकान उतर जाने पर दिमाग शांत और स्थिर रहता है। वातावरण और हवा भी स्वच्छ होती है। ऐसे में देव उपासना, ध्यान, योग, पूजा तन, मन और बुद्धि को पुष्ट करते हैं।
इस तरह युवा पीढ़ी शौक-मौज या आलस्य के कारण देर तक सोने के बजाय इस खास वक्त का फायदा उठाकर बेहतर सेहत, सुख, शांति और नतीजों को पा सकती है।
नाम रोशन करती हैं ये 16 खूबियां
यश, कीर्ति, ख्याति या नाम पाने की ख्वाहिश छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब हर व्यक्ति करता है। जिसे पाने के लिए वह अपने हालात और शक्ति के मुताबिक अलग-अलग रास्ते या तरीके भी अपनाता है। कुछ लोगों का फलसफा बदनामी से भी नाम कमाने का होता है। किंतु सांसारिक जीवन में नाम वही मायने रखता है, जो सद्गुणों और अच्छे कामों से कमाकर जीते-जी नहीं बल्कि मरकर भी व्यक्ति को लोगों के दिलों और यादों में जिंदा रखे।
हिन्दू धर्मशास्त्रों में ऐसे ही नामी किरदारों में भगवान श्रीराम प्रसिद्ध हैं। जिन्होंने जन-जन का भरोसा और विश्वास अपने आचरण और असाधारण गुणों से पाया। उनकी चरित्र की खास खूबियों से ही वह न केवल लोकनायक बने, बल्कि युगान्तर में भी भगवान के रूप में पूजित हुए।
वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम की ऐसे ही सोलह गुण बताए गए हैं, जो आज भी लीडरशीप के अहम सूत्र हैं ( जानते इन गुणों को आज के संदर्भ में अर्थों के साथ -
- गुणवान (ज्ञानी व हुनरमंद)
- वीर्यवान (स्वस्थ्य, संयमी और हष्ट-पुष्ट)
- धर्मज्ञ (धर्म के साथ प्रेम, सेवा और मदद करने वाला)
- कृतज्ञ (विनम्रता और अपनत्व से भरा)
- सत्य (बोलने वाला ईमानदार)
- दृढ़प्रतिज्ञ (मजबूत हौंसले)
- सदाचारी (अच्छा व्यवहार, विचार)
- सभी प्राणियों का रक्षक (मददगार)
- विद्वान (बुद्धिमान और विवेक शील)
- सामथ्र्यशाली (सभी का भरोसा, समर्थन पाने वाला)
- प्रियदर्शन (खूबसूरत)
- मन पर अधिकार रखने वाला (धैर्यवान व व्यसन से मुक्त)
- क्रोध जीतने वाला (शांत और सहज)
- कांतिमान (अच्छा व्यक्तित्व)
- किसी की (निंदा न करने वाला सकारात्मक)
- युद्ध में जिसके क्रोधित होने पर देवता भी डरें (जागरूक, जोशीला, गलत बातों का विरोधी)
क्यों शिवलिंग के सामने बैठता है नंदी?
हम अनेक बार शिव मंदिर जाते हैं। वहां जाकर हम भक्ति भाव और धार्मिक विधि-विधान से शिव पूजा भी करते हैं। शिव मंदिर में शिव परिवार के साथ उनके वाहन सहित दर्शन होते हैं। लेकिन क्या कभी हम धर्म भाव से दूर होकर यह सोचते हैं कि शिव मंदिर में विराजित यह मूर्तियां व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से क्या संदेश देती है? डालते हैं इसी पर एक नजर -
शिव मंदिर में जाते ही सबसे पहले हमें शिव के वाहन नंदी के दर्शन होते हैं। नंदी के बारे में यह भी माना जाता है कि यह पुरुषार्थ का प्रतीक है। किंतु हर विषय और वस्तु का संबंध आखिरकार पुरुषार्थ से ही जुड़ता है, तो फिर शिवलिंग के सामने बैठे नंदी में पुरुषार्थ के नजरिए से क्या अनोखी बात है? शिव मंदिर में नंदी की विशेषता होती है कि उसका मुख शिवलिंग की ओर होता है। अब सवाल यह बनता है कि नंदी शिवलिंग की ओर ही मुख करके क्यों बैठा होता है? जानते हैं नंदी की इसी मुद्रा का व्यावहारिक जीवन के नजरिए से महत्व -
नंदी का संदेश है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है। जैसे नंदी की नजर शिव की ओर होती है, उसी तरह हमारी नजर भी आत्मा की ओर हो।
इस बात का सरल अर्थ यही है कि हर व्यक्ति को अपने मानसिक, व्यावहारिक और वाणी के गुण-दोषों की परख करते रहना चाहिए। मन में हमेशा मंगल और कल्याण करने वाले देवता शिव की भांति दूसरों के हित, परोपकार और भलाई का भाव रखना चाहिए।
नंदी का इशारा यही होता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है। इसे ही आम भाषा में मन का साफ होना कहते हैं। जिससे शरीर भी स्वस्थ होता है और शरीर के निरोग रहने पर ही मन भी शांत, स्थिर और दृढ़ संकल्प से भरा होता है। इस प्रकार संतुलित शरीर और मन ही हर कार्य और लक्ष्य में सफलता के करीब ले जाता है।
इस तरह अब जब भी मंदिर में जाएं शिव के साथ नंदी की पूजा कर शिव के कल्याण भाव को मन में रखकर वापस आएं। इसी को शिवतत्व को जीवन में उतारना कहा जाता है।
क्या और कैसा सुनें? सिखाते हैं श्री गणेश
भगवान गणेश की पहली पूजा सिर्फ इसलिए नहीं की जाती है कि वह शंकर के पुत्र हैं या वह देवताओं के स्वामी यानि गणपति माने जाते हैं। बल्कि इसलिए भी की जाती है कि भगवान गणेश का चरित्र व्यावहारिक जीवन के लिए आदर्श है।हर इंसान में अच्छे-बुरे गुण होते हैं। बुरे गुणों से जीवन में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इनमें ही एक बुराई है - कानों का कच्चा होना। इसका मतलब है हम दूसरों के द्वारा बोली बातों की सच्चाई जानें बिना ही उन पर भरोसा कर लेते हैं और जिसके बारे में गलत बातें कहीं गई है। उसके प्रति गलत मानसिकता बनाकर बातें और व्यवहार करना शुरु कर देते हैं। इसका बुरा नतीजा यह होता है आप अपनों और करीबी लोगों का विश्वास खो देते हैं। ऐसे लोग भी आपसे दूरी बना लेता है, जो आपके कार्यों में मददगार होते हैं। इस तरह अपनों, सहयोगियों का अलगाव जीवन और कार्यों में बाधा बनता है। इसका बुरा परिणाम निराशा और असफल जीवन के रूप में मिलता है।
इसी बुरे फल से बचने का उपाय गजानन यानि गणेशजी से मिल सकता है। भगवान श्री गणेश का मुख हाथी का है। हाथी मुख में बड़े कान होते हैं। गणेश के यह बड़े कान यही संदेश देते हैं कि अगर हम जीवन में बेवजह की परेशानी और बाधाओं से बचना चाहते हैं तो अपने स्वभाव में बड़प्पन को स्थान दें यानि किसी से अपने खिलाफ बुरी, कड़वी, नफरतभरी बातें सुनकर भी अपने दिमाग को असंतुलित और आवेशित किए बगैर बदले की भावना से न कुछ बोले, न करें।
इस तरह स्वयं को बैचेनी और मानसिक परेशानियों से बचाकर आपके लिए सफलता की राह आसान हो जाएगी। आपका मजबूत चरित्र और व्यक्तित्व लोगों से मिलने वाले समर्थन व सहयोग से आपका रुतबा बढ़ाएगा। इस तरह सद्गुणों से दबदबा बनाकर आप दूसरों के लिए भी आदर्श साबित होंगे। इसलिए भगवान गणेश के बड़े कानों से यही सबक लेकर कामयाब जिदगी का लुत्फ़ उठाएं।
ऐसी अचूक रणनीति है कामयाबी का मंत्र
खराब दिनचर्या और समय का कुप्रबंधन व्यक्ति को परेशान और तनावग्रस्त कर देता है। इस हालात में निजी जिंदगी से लेकर कार्यक्षेत्र या कारोबार से जुड़े सभी कार्यो पर बुरा असर पड़ता है। जिससे सही योजना और प्रबंधन के अभाव में तमाम जद्दोजहद करने के बाद भी मनचाहे नतीजे नहीं मिल पाते। किंतु अनुभव और हुनर से ऐसे परिणामों से बचा जा सकता है। लेकिन अगर अध्यात्म और धर्म के जरिए से हम कुछ सीखना चाहें तो भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र व रणनीतिक कौशल से कुछ उपाय सीखे जा सकते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण का कुशल प्रबंधन और श्रेष्ठ रणनीति देखने को मिलती है- कुरुक्षेत्र के मैदान में। महाभारत के युद्ध में पाण्डव और उनकी सेना, कौरवों और उनकी सेना के मुकाबले संख्या और ताकत में कमतर थी। किंतु श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के साथ सही युद्ध नीति और प्रबंधन के द्वारा पाण्डवों के पक्ष में छोटी सेना से भी जीत दिलाई।
मानव जीवन भी कुरुक्षेत्र की भांति ही संघर्ष से भरा है। जहां हर व्यक्ति कामयाबी और हक के लिए जूझता रहता है। कुरुक्षेत्र के युद्ध में श्रीकृष्ण की विजय में व्यावहारिक जीवन के लिए यही संदेश है कि सफलता के लिए अधिक या कम योग्यता और साधन ही मायने नहीं रखते। बल्कि योग्यता का सही और कुशलता से उपयोग कामयाबी के लिए बहुत जरुरी है। आधुनिक समय में मानव प्रबंधन की बात करें तो सफलता में परिवार का साथ तो जरुरी है, किंतु बाहरी दुनिया या कार्यालय में अन्य लोगों से संपर्क, सहयोग और मधुर व्यवहार की नीति भी सफलता में अहम होती है।
ऐसी खामोशी देती है जीत का जज्बा
सामान्य रूप से मौन का मतलब चुप रहना या नहीं बोलना माना जाता है। किंतु धर्म के नजरिए से मौन का सही अर्थ होता है - वाणी का संयम के साथ उपयोग, जरूरत के मुताबिक बोलना, झूठ या कटु बोल न बोलना।
इस तरह वाणी का संयम के साथ उपयोग करने की आदत ही मौन है। व्यावहारिक रूप से किसी भी व्यक्ति के लिए मौन रखना आसान नहीं होता। क्योंकि इंसानी स्वभाव होता है कि वह आसानी और सरलता को पसंद करता है। चूंकि मौन, मन को काबू रखने का कठिन काम होता है। यही कारण है कि मन पर संयम छूटते ही व्यक्ति नाकामी और पतन की ओर जाने लगता है। मन पर नियन्त्रण करने का ही धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से सबसे उचित तरीका है - मौन।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में इंसान को संयम से जीने और रहने के लिए ही धर्म से जुड़ी परंपराएं नियत है। इसी का अंग है हिन्दू माह माघ मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला पर्व मौनी अमावस्या। धार्मिक मान्यताओं में इस दिन से मौन व्रत धारण करने की परंपरा है। ऐसा मना जाता है कि मान्यता है कि इसी दिन भगवान ब्रह्मा ने महाराज मनु और महारानी शतरूपा को प्रकट कर सृष्टि की शुरूआत की थी । वहीं धर्म परंपराओं को मानने वाले इस विचार के साथ कि इस दिन पृथ्वी के किसी न किसी स्थान पर सूर्य या चन्द्र ग्रहण हो जाता है, स्नान-दान पुण्य कर्म करते हैं।
इस पर्व और परंपरा के पीछे संकेत यही है कि जब जीवन में मौन किसी भी व्यक्ति को आत्मप्रशंसा, वाचालता, विवादों, विपत्तियों से दूर कर मन को शांत रखता है। क्योंकि जिंदगी में अनेक अवसरों पर इंसान का मन बुरे समय, असहयोग और आलोचना के कारण आहत, बेचैन और बेकाबू हो जाता है।
ऐसे समय में खामोशी यानि मौन ही अपनी ताकत और काबिलियत को थामे रखने का सबसे बेहतर तरीका माना जाता है। क्योंकि मौन से शांत हुआ मन शरीर को ऊर्जा देता है, जिससे शरीर सबल और स्वस्थ्य बना रहता है। तब सही मौका आने पर अपनी काबिलियत और ताकत से बेहतर नतीजे पाकर आलोचकों का मुंह बंद किया जा सकता है। इस तरह मौन जीत और जीने का जज्बा देता है।
तबाह कर देते हैं ये 14 पाप
धर्म की नजर से हर व्यक्ति मन, वचन या कामों से कोई न कोई पाप कर ही देता है। इन दोषों या पापों का फल व्यक्ति या तो दु:ख के रूप में भोगता है या फिर देव उपासना से इन दोषों की शांति होना माना जाता है। किंतु अनजाने और अदृश्य रूप से हुए पापों के अलावा शास्त्रों में 14 ऐसे कारण या यूं कहें 14 ऐसी जगह बताई गई है, जिनसे व्यक्ति स्वयं जानते-समझते भी जुड़कर पाप का भागी बनता है।
इन पाप की खाईयों में गिरकर इंसान भी शैतान बन सकता है। यह किसी भी समय किसी भी व्यक्ति को अपने आगोश में ले सकती हैं।
हिन्दू धर्म ग्रंथों के मुताबिक जब कलियुग की मार की डर से गाय और लंगड़े बैल का रूप लेकर भाग रहे पृथ्वी और धर्म की रक्षा के लिए जब राजा परीक्षित ने कलियुग पर हमला किया, तब डरकर कलियुग ने आत्म समर्पण कर राजा से अभयदान मांगा। तब पुण्यात्मा परीक्षित ने पनाह में आए कलियुग को इन 14 स्थानों पर रहने की अनुमति दी। यह ऐसे स्थान है जो व्यावहारिक और वैचारिक रूप से बुराई का घर माने जाते हैं। जानते हैं वह 14 स्थान जहां पाप बसता है -
- व्यभिचार (अनैतिक और बुरे काम)
- शराब
- मांसाहार
- चुगली
- विश्वासघात
- क्रोध या गुस्सा
- वासना (भौतिक सुखों की चाह)
- दुर्बुद्धि (बुद्धि का अभाव)
- छल-कपट
- अज्ञान
- विषयों में प्रीति (मौज-मस्ती, सुविधाओं को भोगना)
- स्वार्थ
- स्वर्ण यानि सोना
- वेश्या
दिलों को जीत लेता है ऐसा काम
परिवार की जिम्मेदारियों या नौकरी में अपने कर्तव्यों का पालन पूरी ईमानदारी और डेडीकेशन यानि समर्पण से करने पर ही आपको नई पहचान, सम्मान और पद मिलता है। गणेश जन्म कथा में भी इन बातों के सूत्र छुपे हैं।
माता पार्वती ने स्नान के समय अपने उबटन की बत्तियों से एक शिशु बनाकर उसे जीवित करके पुत्र मान लिया और आदेश दिया कि उनके स्नान करने तक वह किसी को भी भीतर न आने दे।
इसी बीच भगवान शंकर वहां आए और अंदर जाने से रोकने पर इस बात से अनजान कि वह उनका ही पुत्र है, क्रोधित होकर उस बालक का सिर काट दिया। तब पार्वती के दु:खी और क्रोधित होने पर भगवान शंकर ने हाथी का कटा सिर उस बालक के धड़ पर लगाया और उसे आशीर्वाद दिया कि जगत में सबसे पहले उनकी ही पूजा की जाएगी। वह बालक ही गजानन कहलाया। जिसे हम भगवान के गणेश नाम से सबसे पहले पूजते हैं।
संदेश है कि हर व्यक्ति के जन्म के साथ या नौकरी या व्यवसाय में शुरुआत के साथ जिम्मेदारियों का भी जन्म होता है। कुछ लोग अपने दायित्वों को समय का रुख भांपकर स्वयं पूरा करने का बीड़ा उठाते हैं तो कभी दूसरों के द्वारा आप पर भरोसा कर जिम्मेदारियां सौंपी जाती है। यहां माता पार्वती का गणेश को जन्म देना और द्वार पर पहरा देने को कहना इसी बात का संकेत है।
दूसरी बात जिस रुप में भी जिम्मेदारी आए, हर हालात में एक बात समान है कि उसको पूरा करने के लिए आप स्वयं को तैयार रखें। उसको पूरे समर्पण, निष्ठा के साथ बिना किसी भय, तनाव के पूरा करने का जज्बा रखें। भगवान गणेश ने भी ऐसा ही किया।
इस गणेश कथा में शंकर को अपने पुत्र गणेश से अनजान होना इस बात का प्रतीक है कि अपने कर्तव्यो को पूरा करते हुए ऐसा समय भी आता है, जब अपनों से सामना होने पर टकराव की स्थिति आ सकती है। किंतु ऐसे कठिन समय में आप अपने-पराये के भाव दूर रखकर बिना किसी पक्षपात के जिम्मेदारी को पूरा करें। ऐसा करने पर आपकी साफ छबि से न केवल आपकी अलग पहचान बनेगी, जो निश्चित रुप से आपको अव्वल जरूर बना देगी। ठीक उसी तरह जैसे सिर कटने पर भगवान गणेश को नया रूप और पहला स्थान मिला।
सात पीढिय़ों को खुशहाल करें ये सात बातें
इंसान मात्र व्यक्तिगत गुणों या चरित्र से ही सम्मान नहीं पाता, बल्कि परिवार या कुटुंब भी उसके नाम या पहचान में अहम होते हैं। जहां इंसान की कामयाबी कुटुंब का सम्मान बढ़ाती है तो शांत और सुखी परिवार इंसान की प्रतिष्ठा का कारण बनता है।
यही कारण है कि सामाजिक जीवन में हर व्यक्ति की चाहत यही होती है कि वह कुछ ऐसा कर गुजरे जिससे उसके साथ आने वाली पीढिय़ां भी खुशहाल जीवन का लुत्फ उठाए। किंतु यह कामना मात्र सोचने से पूरी नहीं होती। बल्कि इसके लिए शास्त्रों में सात अहम बातें बताई गई है।
जानें इन सात बातों और उनके आधुनिक समय के मुताबिक अर्थ -
तप - आत्मा और परमात्मा के मिलन के लिए तप मन, शरीर और विचारों से कठिन साधना। तप का अच्छे परिवार के लिए व्यावहारिक रूप अर्थ है कि परिवार के सदस्य सुख और शांति के लिए कड़ी मेहनत, परिश्रम और पुरुषार्थ करें।
इंद्रिय संयम - कर्मेंन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों पर संयम रखना। जिसका मतलब है परिवार के सदस्य शौक-मौज में इतना न डूब जाए कि वह कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को भूलने से परिवार दु:ख और कष्टों में डूब जाए।
वेदों का अध्ययन - वेदों में छुपे ज्ञान और विद्या से प्रकृति और इंसान के रिश्तों को समझना। व्यावहारिक रूप से परिवार के सदस्य धर्म, कर्म के साथ ही उच्च व्यावहारिक शिक्षा को भी प्राप्त करें।
यज्ञ - जगत के हित के लिए नि:स्वार्र्थ और त्याग भाव से किया जाने वाला कर्म। जिसका व्यावहारिक मतलब हुआ कि व्यक्तिगत हित को छोड़ परिवार की भलाई और सम्मान के लिए तत्पर रहे।
पवित्र विवाह - पुरुषार्थ प्राप्ति का अहम संस्कार। व्यावहारिक अर्थ में सम्मानीय या प्रतिष्ठित परिवार में परंपराओं के अनुरूप विवाह संबंध दो परिवारों को सुख देता है।
अन्नदान - दान धर्म पालन के लिए अहम माना गया है। खासतौर पर भूखों को अनाज का दान धार्मिक नजरिए से बहुत पुण्यदायी होता है। संकेत है कि सक्षम होने पर ब्राह्मण, गरीबों को भोजन या अन्नदान से मिले पुण्य अदृश्य दोषों का नाश कर परिवार को संकट से बचाते हैं।
सदाचार - अच्छा विचार और व्यवहार। संदेश है कि परिवार के सदस्य संस्कार और जीवन मूल्यों से जुड़े रहें। ताकि सभी का स्वभाव, चरित्र और व्यक्तित्व श्रेष्ठ बने।
जिस कुटुंब या परिवार की परंपराओं, व्यवहार और विचारों में यह सात बातें शामिल होती है। उसकी आने वाली पीढिय़ां खुशहाल होती है और उसकी गिनती प्रतिष्ठित कुल में होती है।
यह फर्ज देता है ख्याति और पहचान
दान का सीधा मतलब है भलाई के लिए देना या छोडऩा। असल में दान के गहरे अर्थ में न भी जाएं तो दान में त्याग, मोह, स्वार्थ की भावना को छोडऩे का संदेश होता है। किंतु युग और समय के बदलाव में दान के पीछे छुपे परोपकार के भाव के स्थान पर स्वयं के हितपूर्ति की कामना हावी देखी जाती है।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में दान की अहमयित और दान किस भाव से करना चाहिए, के बारे में साफ तौर पर बताया गया है। इन बातों को अपनाकर कोई भी साधारण व्यक्ति, जो पहचान बनाने के लिए भरसक कोशिशें करता है। मात्र दान से ही ऊंचा मुकाम और पहचान भी पा सकता है।
शास्त्रों में दान को कर्तव्य मानकर यह भी बताया गया है कि दान कब, कहां और कैसा दें। जानते हैं -
- जिस देश, काल में जिस वस्तु की कमी हो, उसका दान ही भलाई के लिए श्रेष्ठ होता है। सरल अर्थ है स्थान समय और हालात के मुताबिक दान करें।
- भूखे, अनाथ, दु:खी, रोगी, भिक्षुक और असहाय के अनाज, दवाईयां या उनके पास जिस वस्तु की कमी हो, उसी का दान और वह लोग दान के लिए श्रेष्ठ है।
- इनके अलावा विद्वान और पवित्र आचरण वाले ब्राह्मण धन सहित अन्य सभी पदार्थों का दान करने के लिए श्रेष्ठ हैं।
- पद, प्रतिष्ठा, सम्मान, प्रशंसा और अपने तन, मन के सुख के स्वार्थ से दिया गया दान निष्फल होता है।
- शराब, मांसाहार, बुरे कामों को करने वाले या उपेक्षा भाव से दिया गया दान अनुचित होता है।
- बदले में कुछ पाने की चाहत से किया गया दान भी फलित नहीं होता।
ऐसे ही निस्वार्थ भाव से किए दान धर्म के पालन से कर्ण और राजा बली को मान, सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ भगवत कृपा भी मिली। इसलिए जब भी दान करें, मात्र धार्मिक नजरिए से ही नहीं बल्कि कर्तव्य मानकर सही वस्तु और सही व्यक्ति को करें।
ये हैं अहिंसा के फायदे
धर्म के पालन में अहिंसा का स्थान उतना ही अहम माना गया है, जितना सत्य का। सामान्यत: अहिंसा का मतलब शरीर को हानि पहुंचाने के अर्थ में लिया जाता है। जबकि धर्म के नजरिए से अहिंसा शरीर की ही नहीं बल्कि मन और बोल से भी होती है। हर धर्म किसी भी तरह की हिंसा को नकारता है।
व्यावहारिक जीवन की बात करें, खासतौर पर आज का युवा जहां सफल भी है, तो कुछ सफलता के लिए ऐसे रास्ते अपनाता है, जो उनके जीवन के लिए ही बाधा बन जाते हैं। उनमें से ही एक है हिंसा। आज के युवा में हिंसा का भाव तब देखा जाता है जब बहुत कुछ जल्द पाने की लालसा में वह असफल हो जाए और दूसरा संयम की कमी। इससे बचने का ही सटीक उपाय धर्म में अहिंसा का बताया गया है। अहिंसा जीवन में उन्नति के लिए किस रुप में लाभ देती है, जानते हैं -
- अहिंसा की बात करने वाला प्राय: डरपोक या भीरु मान लिया जाता है। वास्तव में अहिंसा आपको निर्भय करती है। क्योंकि वह बदले का भाव पैदा ही नहीं होने देती।
- अहिंसा का भाव आपको मानसिक विकारों से दूर करता है। आप अपने लक्ष्य के प्रति स्थिर मन और एकाग्र होते हैं।
- अहिंसा सामाजिक स्तर पर प्रेम और विश्वास बढ़ाती है और आपका सम्मान भी।
- अहिंसा का भाव परिवार में कलह को दूर करता है। मेलजोल और भरोसा बनाए रखता है।
- अहिंसा आपको बैचेनी और व्यर्थ की उलझनों से बचाती है।
व्यावहारिक जीवन के नजरिए से यह असंभव लगता है कि मन, वचन या कर्म की हिंसा से पूरी तरह से बचा जा सकता है। लेकिन अहिंसा से सफलता तक का सफर देवीय रुप में महावीर स्वामी से लेकर मानव रुप में महात्मा गांधी सहित अन्य महापुरुषों ने भी पूरा किया।
ये संकेत कहें, घमण्ड से चूर हैं आप
सभी जानते हैं कि अहंकार करना एक बुराई है। फिर भी कब इसके शिकार हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। लोग एक-दूसरे को ईगो-प्राब्लम कह कर दोषी ठहराते रहते हैं। असल में स्वभाव से जुड़े इस दोष को पहचानना भी कठिन होता है। इसलिए इसकी पहचान स्वभाव और व्यवहार में दिखाई देने वाले संकेतों से संभव है। इन संकेतों को जानकर आप अपने जीवन में अनचाहे दु:खों से बच सकते हैं -
जानते हैं जब व्यक्ति घमण्ड में डूबा होता है, व्यवहार में कैसे बदलाव आते हैं -
दरअसल जब भी व्यक्ति के मन में स्वयं का महत्व सबसे ऊपर हो जाता है और अपनी बात, विचार और कामों के साथ ही वह स्वयं को ही बड़ा मानने लगता है। तब यह स्थिति ही अहंकार की होती है। सच यही है कि अहंकार कभी न कभी किसी में आता है या यूं कहें कि यह सभी में रहता है।
जब मन में यह विचार आये कि मैंने यह किया या वह किया तब समझ लीजिये कि वह हमारे अंदर बैठा अहंकार बोल रहा है। फिर इससे आगे यह भी होता है कि जब हम किसी का कार्य करते हैं और उसके बदले कोई भौतिक लाभ नहीं मिलता तब भारी निराशा घेर लेती है। व्यक्ति ऐसी स्थिति में अपनी सोच और काम को ही सही मानता है। इसके बाद भी वह लोगों से हर तरह के सहयोग की अपेक्षा भी रखता है।
अहंकारी का स्वभाव उग्र हो जाता है, ताकि सभी उसकी बात स्वीकार करें। अहंकार में व्यक्ति को अपनी बुराई या विरोध या आलोचना नापसंद होती है। अपने मन-मुताबिक बातें और अपनी प्रशंसा से प्रसन्न होता है। जबकि वह स्वयं दूसरों की आलोचना करने से नहीं चूकता।
व्यक्ति में संयम और धीरज की कमी दिखाई देता है। उसका मन बैचेन रहता है। अहंकार से मन अशांत रहता है। विचार और चिन्तन में सन्तुलन नहीं रहता। किसी भी विषय को लेकर गलत नजरिया पैदा हो जाता है। छोटी बात को भी बढ़ा-चढ़ाकर व्यर्थ के विवाद पैदा कर देता है। इस प्रकार अहंकार एक प्रकार की बीमारी बन जाती है। फिर भी व्यक्ति को इस स्थिति का एहसास नहीं होता। अहंकार जितना बढ़ता है, व्यक्ति अपने ही विरोधियों की संख्या बढ़ाता है।
ऐसे हालात से निकलकर ही सुख संभव है। विचार करें तो सुख आपके साथ होगा।
ये हैं स्त्री और धन की रक्षा के 3 सूत्र
किसी भी पुरूष के जीवन में स्त्री और धन अहम हिस्सा होते हैं। स्त्री मात्र पत्नी के रूप में ही नहीं बल्कि मां, बहन और पुत्री के साथ ही अन्य रिश्तों के रूप में पुरूष की जिंदगी को बेहतर बनाने में योगदान देती है। इसी तरह धन भी स्त्री हो या पुरूष व्यक्तिगत रूप से सुख और सुविधा के साथ ही सामाजिक रूप से मान-सम्मान देने वाला होता है।
यही कारण है कि पुराणों में गृहस्थ के लिए स्त्री और धन की रक्षा के तीन सटीक और व्यावहारिक उपाय बताए गए हैं। इन पर आधुनिक समय के मुताबिक विचार कर बदलाव के साथ अपनाया जा सकता है। जानते हैं -
स्त्री और धन इन तीन के साये में हमेशा सुरक्षित रहते हैं - पुरूष, स्थान और घर।
पुरूष - अच्छे कुल, बुद्धिमान, सच बोलनेवाला, विनम्र, धर्म में विश्वास रखने वाला, बुलंद हौंसले वाले पुरूष की पनाह और संग में स्त्री और धन सुरक्षित रहता है।
स्थान - नगर के द्वार, चौक, यज्ञशाला, कारीगरों के रहने के स्थान, जुआ घर और मांस की दुकान, झूठे, पाखण्डी, राजा के नौकर के स्थान, मन्दिर के रास्ते में, राजमार्ग, राजा के महल से दूर ऐसे नगर में रहने का स्थान चुनना चाहिए जहां सज्जन लोगों का निवास करता है। इससे स्त्री और धन के नाश का भय नहीं रहता।
घर - शास्त्रों के मुताबिक स्त्री और धन की सुरक्षा के लिए घर के स्थान चुनने और निर्माण में भी खास सावधानी बरतना चाहिए। घर हमेशा साफ जगह, मुख्य सड़क पर, अच्छे स्वभाव और व्यवहार वाले लोगों के रहने के स्थान पर घर बनाना चाहिए। घर की जमीन का ढलान पूर्व या उत्तर दिशा में रखें। रसोईघर, स्नानकक्ष, गोशाला, शयनकक्ष और पूजाघर सभी अलग-अलग बनाए जाएं।
इन तीन उपायों को आज के दौर में अपनाने से भी स्त्री का सम्मान और धन-सम्पत्ति की रक्षा किया जाना संभव है।
अगर इस कारण उड़ी है नींद तो
अक्सर परिवार, समाज या नौकरी-व्यवसाय में उठते-बैठते यह देखने में आता है कि अपने स्वार्थ या हित पूर्ति के लिए कुछ लोग या समूह एक-दूसरे के विरोधी हो जाते हैं। उनके कारण पैदा हुए अशांत माहौल का हिस्सा अनचाहे ही भले लोग भी बन जाते हैं। किंतु अलगाव से बिगड़े हालात का बुरा असर सभी पर होता है।
अगर आप भी अलगाव से भरे माहौल के हिस्से या जिम्मेदार हैं तो हिन्दू धर्म ग्रंथों में बताई गई उन बातों पर गौर कर सबक लें, जिनके मुताबिक कटु वातावरण बनाने या उनमें रहने वाले ऊपर से सामान्य नजर आते हैं, किंतु अंदर से उनका सुख-चैन छिन जाता है। जानें कहीं आप भी ऐसे अनुभव से तो नहीं गुजर रहे -
- ऐसे लोग चैन की नींद नहीं सो पाते, फिर चाहें कितना ही आरामदायक बिस्तर क्यों न हो।
- उन लोगों के व्यवहार और स्वभाव में धर्म पालन जैसे सच, प्रेम, भलाई की जगह झूठ, रू खापन या स्वार्थ ले लेता है। जिससे वह सम्मान या गौरव से वंचित होते रहते हैं।
- ऐसे लोगों को स्त्रियों का संग या अधीनस्थ या अपनों की प्रशंसा भी सुख नहीं देती।
- उनको सभी की भलाई की बात नहीं सुहाती।
- वे सुलह की बात नापसंद करते हैं।
- असुरक्षा की भावना से व्यवहार करता है। जिससे दूसरों के मन में अविश्वास पैदा होता है।
- ऐसे सोच-व्यवहार से बार-बार असफलता का सामना करता है या उसका पतन हो जाता है।
इन बातों से सबक लेकर कोई भी व्यक्ति मतलब और स्वार्थ से परे होकर मतभेद या मनमुटावों को दूर कर दिन का चैन ओर रात को सुकून भरी नींद पा सकता है।
ये आदतें बताती हैं मूर्ख और बुद्धिमान का फर्क
आज आगे निकलने की होड़ में अक्सर आपसी संबंधों में तनाव पैदा होता है। चाहे फिर वह घर, कुटुंब हो या कार्यक्षेत्र हो। जिसके कारण रिश्तों में प्रेम, विश्वास और सहयोग की भावना कम होती जाती है। बात बढऩे पर किसी न किसी रूप से एक-दूसरे को कमतर दिखाने की चेष्टा शुरू होती है।
इस कवायद में अक्सर सभी स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के लिए दूसरों के लिए सीधे या पीठ पीछे मूर्ख शब्द का इस्तेमाल भी करते हैं। जो किसी भी व्यक्ति को दिमागी रूप से कमजोर या आहत करने का आसान उपाय है। किंतु हिन्दू धर्म शास्त्रों में मूर्ख या बुद्धिमान होने की कसौटी बताई गई है। जिस पैमाने पर स्वयं को परखकर कोई भी व्यक्ति दूसरों को मूर्ख कहने के पहले स्वयं की पहचान कर सकता है कि वह बुद्धिमान है या मूर्ख ।
शास्त्रों के मुताबिक विचार और व्यवहार के आधार पर संसार में चार तरह व्यक्ति बताए गए हैं। जानते हैं इनकी पहचान -
- पहली तरह के लोग वह होते हैं, जो स्वार्थ या हित पूर्ति से दूर, त्याग भावना से दूसरों की मदद कर काम बनाते हैं। जिन्हें सज्जन, सत्पुरूष या बुद्धिजीवी कहा जाता है।
- दूसरी तरह के लोग साधारण मानव होते हैं, जो अपने हित को साधकर साथ ही दूसरों के काम में भी मदद करते हैं।
- तीसरी तरह के लोग ऐसे होते हैं, जिनको राक्षस वृत्ति या दुष्ट स्वभाव का माना जाता है, जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को भी गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं।
- किंतु चौथी तरह के लोग स्वयं और दूसरों के लिए गहरे दु:ख का कारण बन सकते हैं। क्योंकि ऐसे लोग बिना अपने स्वार्थ के ही बिना सोचे-समझे दूसरों के हित का नाश करते हैं। जिनको धर्म के नजरिए से मूर्ख या विचारशून्य कहा है।
यहां अंतिम श्रेणी के व्यक्ति के बारे में शास्त्रों में खासतौर पर लिखा गया है कि मूर्ख विचारहीन होता है। वह अज्ञानी होने पर भी स्वयं को सिद्ध, पंडित मान अभिमान करें। इससे सही या गलत का फर्क न समझ पाने से वह अपनी जिम्मेदारियों को लेकर मनमाने फैसले करता है। ऐसे लोग सम्मान के पात्र न होकर खुद ठोकरे खाकर दूसरों को भी भटकाते हैं। धार्मिक दृष्टि से इनको 84 लाख योनियों में घूमकर अलग-अलग नीच गति में दण्ड भोगना पड़ता है।
इन तरीकों से मिलती है बेधड़क तरक्की
तरक्की की चाहत किसे नहीं होती? चूंकि तरक्की के रास्ते ही कामयाबी की मंजिल तक पहुंचना संभव है। इसलिए हर व्यक्ति आगे बढऩे की कवायद अपने तरीकों से करता है। इसी कारण कुछ लोगों को कामयाबी आसानी से नसीब होती दिखाई देती है, तो कुछ लोगों के लिए सफलता की डगर बेहद कठिन भी होती है।
सवाल यह उठता है कि सफलता की राह सरल और कठिन बनने में कौन-सी बातें निर्णायक हो जाती है? असल में इसके लिए चाहत ही काफी नहीं होती बल्कि सबसे अहम बात है सही सोच और सही दिशा में की गई कोशिश। जिनके साथ स्थिति, हालात और सुविधाएं कामयाबी में सहारा बन जाती हैं।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में तरक्की की सीढिय़ों पर चढऩे के लिए ही ऐसे सरल सूत्रों को बताया गया है, जो व्यावहारिक और सांसारिक जीवन के लिए भी सटीक बैठते हैं। जानें वेदों में बताए इन बेहतरीन सूत्रों को -
वेदों में लिखा है -
आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम।
जिसका सरल शब्दों में मतलब है कि -
- आगे बढऩे के लिए हमेशा सफल, विद्वान और बुद्धिमानों को प्रेरणा बनाकर कोशिश करें।
- यही नहीं अपने बराबर वालों से आगे बढऩा बेहतर होता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि किसी को कमतर जताकर या बताकर आगे बढ़े। बल्कि इस बात का ज्ञान के पैमाने पर मतलब है कि कुशल लोगों से प्रतियोगिता कर उनसे कुछ सीखकर आप भी बेहतर बन अच्छे नतीजे पा सकते हैं।
- दूसरी बात कि नासमझ, अज्ञानी या मूर्ख लोगों से बराबरी या तुलना कर तरक्की की कोई कोशिश न करें। क्योंकि उनको ज्ञान देना या उलझना खुद का समय और ऊर्जा बर्बाद करना होता है। जिससे आप मकसद से भी भटक सकते हैं।
- हमेशा दिमाग में आगे बढऩे या बड़े लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सिलसिलेवार छोटे-छोटे लक्ष्य को बनाना और पाना बेहतर तरीका है।
ठान लें यह बात, उम्र भर रहेंगे खुश
हर इंसान खुशियों के सपने ताउम्र बुनता है। कभी ये सपने पूरे होते हैं, तो कभी टूट भी जाते हैं। सपनों का संबंध इच्छाओं से होता है। चूंकि इच्छाओं का कोई अंत नहीं होता। इसलिए वह व्यक्ति को कभी चैन से नहीं बैठने देती। किंतु यह भी सच है कि सांसारिक जीवन में अगर इच्छाओं का अंत नहीं तो उन पर काबू पाना तो संभव है।
बस, यही एक बात व्यक्ति के लिए मुश्किलें पैदा करती है। क्योंकि हर व्यक्ति घर या बाहर उठते-बैठते अनचाहे ही किसी न किसी तरह से उन बातों के संपर्क में आता है, जो इच्छाओं को बढ़ाती है। इस वजह से अनेक लोग स्वयं को बेचैन और अशांत पाते हैं। यह अशांति उस वक्त निराशा या हताशा में बदल जाती है। जब मेहनत के बेहतर नतीजे नहीं मिलते।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में ऐसे ही मानसिक दु:ख की घड़ी से बाहर निकलने के लिए कुछ बातें बताई गई हैं, जो इंसान का नजरिया बदल हर पल खुशी दे सकती हैं।
वेदों में लिखा गया है कि -
प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय।
इसका सरल शब्दों में संदेश यही है कि -
- इंसान जीवन हंसते-मुस्कराते गुजारे।
- परेशानियों, तकलीफों में भी हौंसला रख जिंदगी को बोझ न माने। इन दु:खों, चिन्ता, निराशा से निकलने का सबसे बेहतर तरीका है कि उस वक्त हम उन लोगों के बारे में संवेदना और भावना रख सोचें, जो आपसे भी कहीं ज्यादा अभाव या पीड़ा से जीवन बसर कर रहे हों।
- यह सोच कहीं न कहीं आपको बेहतर जीवन का एहसास कराएगी और मानसिक सुकून देने के साथ ही ईश्वर के प्रति भरोसा जगाएगी।
- निराशा और हताशा के दौर में भी व्याकुल हुए बिना किसी भी अच्छे काम में सक्रिय रखें। ऐसा व्यवहार ही आपको लोगों से जोड़ेगा और लोगों को आपके करीब रखेगा।
इस बात को जिद की तरह पकड़ कर चलें तो उम्रभर आप खुशियों से कभी भी दूर नहीं होगें।
इस काम में चूक, बना देती है चोर!
यह सभी जानते हैं कि इंसानी स्वभाव है कि वह दु:ख में भगवान को भजता है और सुख के मद में खुद को ही भगवान मान बैठता है। किंतु जब वक्त का बदलाव उसे जमीन पर ला पटकता है तो कुछ लोग तो भूल का एहसास कर सुधर जाते हैं, किंतु कुछ फिर भी नुकसान की भरपाई की सोच में मौका तलाशते हुए वक्त के पीछे दौड़ लगाते हैं, पर वह उनके हाथ नहीं आता।
बस, ऐसी ही बदहाली से बचने के लिए हिन्दू धर्म शास्त्रों में अनेक सूत्र बताए गए हैं। अगर आप भी ऐसी हालात का सामना नहीं करना चाहते तो समय निकाल धर्म से जुड़ी इन बातों पर गौर करें।
यहां इशारा है भगवद्गगीता में बताई ऐसी अहम बात की ओर, जिसमें व्यावहारिक जीवन और प्रकृति प्रेम से जुड़ा सुंदर संदेश है। दरअसल शास्त्रों में गृहस्थ जीवन में पांच जगह ऐसी मानी गई है, जहां जाने-अनजाने हिंसा हो जाती है। यह है - चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली और जल का पात्र। हालांकि आज इनके उपयोग और रूप में बदलाव होने पर भी यह गृहस्थ जीवन का हिस्सा हैं। इसलिए शास्त्रों में हिंसा के इस दोष को दूर करने के लिए पांच यज्ञों का महत्व बताया गया है।
इनमें ही खासतौर पर देवयज्ञ की अहमियत बताई गई है। जिसे गीता का यह श्लोक बेहतर तरीके से बताता है -
इष्टान्भोगन्हि वे देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स:।।
इसका संकेत यही है कि हर व्यक्ति को हर रोज देवताओं के लिए अग्रि हवन करना चाहिए। धार्मिक नजरिए इसके पीछे कारण यह है कि जगत रचना के समय से ही देव शक्तियां अनेक रूपों में खासतौर पर इंसान के जीवन, खुशहाली और जरूरतों को पूरा क रने के लिए अनाज, पानी, फल, फूल, जड़ी-बुटियों के अलावा दूसरें जीव-जन्तुओं, पेड़, घास का भी पोषण करते हैं।
इस तरह इंसान पर देवताओं का कर्ज होता है। इसलिए हर व्यक्ति का धर्म और कर्तव्य है कि वह देवताओं के प्रति आभार या कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अग्रि हवन करे। अगर कोई व्यक्ति देवताओं और उनकी कृपा को स्मरण न कर मात्र सभी सुख-सुविधाओं का भोग करता रहे, वह चोर होता है।
सीधी बात यही है कि यह काम प्रेम के इजहार का भी बेहतर तरीका है। जिससे हर कोई जिंदगी, परिवार, भगवान और कुदरत से अपनापन प्रकट कर सकता है।
तो कभी न होगें आपे से बाहर
काम और जिम्मेदारियों का बोझ या लापरवाही के बुरे नतीजों से पैदा तनाव और दबाव अनचाहे ही परिजनों, दोस्तों, रिश्तेदारों या सहकर्मियों से मनमुटाव पैदा कर देता है। इस स्थिति से अक्सर हर एक गुजरता है। यह तनाव जिस रूप में सामने आता है, उससे भी कोई बचता नहीं है, यह रूप है - क्रोध। जिसे धर्म के नजरिए से दुश्मन भी माना गया
वक्त रहते अगर इससे निपटा न जाए तो इससे रिश्तों में बनी कटुता की दरार, खाई बन सकती है। जिसमें रहकर व्यक्ति अंदर ही अंदर घुटता है और अलगाव के दु:ख को लेकर जीवन जीता है।
अगर आप भी स्वभाव की इस कमजोरी या ऐसे बुरे दौर से पैदा समस्या में उलझे हैं, तो धर्म शास्त्रों में ऐसे उपाय भी बताए गए हैं, जो गुस्से को काबू ही नहीं रखती, बल्कि मन को शांत भी रखती है। जानते हैं ये सूत्र -
धर्म की नजरिए से क्रोध या गुस्से पर काबू करने के सबसे बेहतर तरीके है -
क्षमा या माफी - क्षमा का भाव व्यक्ति को सहज, सरल बनाये रखता है। इसके जिसके लिए जरूरी है अपने मन से दूसरों के प्रति दुर्भावनाओं, शिकायतों और कटुता को दूर रखने का अभ्यास करें। जिससे मन स्वस्थ और स्वभाव शांत रहेगा। इसलिये क्षमा करना सीखें। क्योंकि धर्म के नजरिए से क्षमा करने वाला सही मायनों में वीर होता हैं।
देव स्मरण - शांत रहने का व्यावहारिक रूप से बेहद सटीक उपाय है। जब भी दिमाग अशांत लगे तो अशांति बढऩे से पहले ही कटु बोल और कलह न करने के संकल्प के साथ अपने प्रिय देवता का ध्यान, स्मरण और मंत्र जप करें। इससे निश्चित रूप से दिमाग शांत, स्थिर और दिल में सुकून महसूस करेंगे।
इस तरह व्यावहारिक रूप से इन बातों की गांठ बांधकर चलें तो कभी भी आप आपा न खोकर अपने साथ दूसरों का भी भला कर पाएंगे।
दूसरों में बुराई नजर आती है, क्योंकि
घर-परिवार, समाज या कामकाजी जीवन में उठते-बैठते हमारे अनेक मित्र भी बनते हैं और अनेक लोगों के साथ हमारे मतभेद भी हो जाते हैं। असल में मित्रता या शत्रुता के पीछे सिर्फ समान सोच या फर्क नहीं होता है। बल्कि धर्म के नजरिए से इसके पीछे समय, स्वार्थ और हालात भी मायने रखते हैं।
हिन्दू धर्म शास्त्र श्रीमद्भागवतगीता में बताए सूत्र किसी के प्रति विरोध या बैर के भाव को भी प्रेम में बदल सकते है। जानतें है ऐसा ही एक सूत्र -
गीता में कहा गया है कि -
कामात् क्रोधोभिजायते।
जिसका सरल अर्थ है कि हमारे मन में पैदा हुई चाहत पूरी न होना गुस्से में बदल जाता है। इसके पीछे निजी कामना या दूसरों से की गई अपेक्षा या स्वाथपूर्ति की इच्छा भी होती हे। जो भी हो अधूरी इच्छाओं से पैदा क्रोध दु:ख का रूप भी ले लेता है।
ऐसे हालात में व्यक्ति का दिमाग उन लोगों पर टिक जाता है या ढूंढने लगता है, जो इच्छा को पूरा करने में बाधा बने। बस, यही कारण परेशानी और दु:खों को बढाने वाला होता है। क्योंकि दूसरों को दोषी मानने या ठहराने की मानसिकता ही किसी व्यक्ति के लिए मन में बैर, द्वेष या ईर्ष्या पैदा करती है। जिससे उस व्यक्ति के हर व्यवहार, आचरण या बोल में दोष दिखाई देते हैं। फिर चाहे वह व्यक्ति वैसा न हो।
ऐसी स्थिति यानि बैर, द्वेष या जलन से बाहर आने का सीधा तरीका यही है कि पहले तो अपनी इच्छाओं को अपनी हालात के मुताबिक दायरे में रखने की हरसंभव कोशिश करें। दूसरा अगर कोई व्यक्ति आपके हितों में बाधा भी बना तो खुद को उस हालात में रख विचार करें कि उसकी जगह आप होते तो क्या करते?
इन बातों को अपनाने पर आप अपनी खुशियों का भरपूर लुत्फ उठाएंगे, वहीं बैर भाव से पैदा मानसिक कलह से दूर भी रहेंगे।
सूर्य साधना में हैं कामयाबी के ये सूत्र
हिन्दू धर्म के पंचदेवों में एक सूर्य को प्रत्यक्ष देवता भी माना गया है। माना जाता है कि सूर्य ही इस जगत के रचनाकार है। धार्मिक दृष्टि से उनकी उपासना और साधना स्वास्थ्य, ऊर्जा, सुंदरता और यश देने वाली मानी जाती है। धार्मिक आस्था रखने वाले अनेक लोग हर रोज सूर्य ध्यान या पूजा से दिन की शुरूआत करते हैं।
असल में सूर्य पूजा मात्र धार्मिक कर्मों की खानापूर्ति तक ही सीमित नहीं है। बल्कि सूर्य के स्वरूप, गुण और गति के पीछे भी जीवन को साधने की कला छुपी है। उन गुणों को व्यावहारिक रूप से अपनाने की कोशिश करें तो हर कोशिश कामयाब जिंदगी का कारण बन सकती है। जानते हैं कुछ ऐसे ही अहम सूत्र -
सूर्य की दूरी व ऊंचाई - सूर्य दूर होकर भी जगत की प्राणशक्ति है। उनकी रोशनी और ऊर्जा के बिना प्रकृति हो या प्राणी जगत का जीवन संभव नहीं। इसलिए वह पूजनीय भी है। संकेत है कि व्यक्ति ऐसा व्यक्तित्व, चरित्र और आचरण बनाए कि फिर चाहे वह जहां भी हो अपने गुणों से लोगों की चाहत और दिलों में बसकर सफलता की ऊंचाईयों को छूएं।
सूर्य का तेज व ताप - सूर्य की चमक व ताप परोपकार और भलाई की प्रेरणा देते हैं। संकेत है कि आप मात्र अपने हित या भले की सोच जीवन न बिताएं बल्कि जिस तरह सूरज की रोशनी और ताप जगत का भला करता है, उसी तरह आप भी किसी भी रूप में मदद कर दूसरों की जिंदग़ी को रोशन करें।
सूर्योदय और सूर्यास्त - हर व्यक्ति यह जानता है कि सूर्य पूर्व में उदय होकर पश्चिम में अस्त होता है। सूर्य का रास्ता और गति संकेत है कि जीवन में नाम, पहचान और चमक पाने के लिए सूर्य की भांति ही सही दिशा या रास्ता चुनें। साथ ही समय और गति का ध्यान रखें। इन पर चलकर किए गए सभी अच्छे कामों के कारण परिवार, समाज की उम्मीदें और भरोसा आप पर बना रहे। जिस तरह अस्त होने के बाद भी यह विश्वास बना होता है कि अगले दिन सूर्य फिर उदय होगा।
स्त्रियों पर हो ऐसी नज़र..
हिन्दू धर्म शास्त्रों में स्त्रियों के अपमान से पैदा हुए कलह और उसके बुरे नतीजों के प्रसंग हैं। जिनमें खासतौर पर रावण द्वारा सीता का अपहरण हो या द्रौपदी का चीरहरण, आखिरकार वह दोषी के लिए मृत्यु का कारण बने। किंतु साथ ही उनसे जुड़े सभी लोगों के जीवन में भी कलह और अशांति का कारण भी। धर्म की दृष्टि यही है कि समाज तभी सुखी रहता है, जब स्त्री सुखी रहे।
बीते समय की तुलना में आज आदर्श, मूल्य, नैतिकता के भाव जैसे शब्द बनकर रह गए हैं। बदलते माहौल में अनेक युवक-युवतियां संस्कृति और संस्कारों की बातों को उपदेश मान नजरअंदाज करते देखे जा सकते हैं। जिसके नतीजों में स्त्री-पुरुष के संबंधों की मर्यादाएं और गरिमा भी टूट रही है। स्त्री को शक्ति के रूप में पूजने वाले हिन्दू धर्म में भी स्त्रियों के प्रति सम्मान का भाव घटता महसूस होता है। तो फिर ऐसा क्या करें कि स्त्री, परिवार और समाज सुखी रहे?
इसका उत्तर धर्म शास्त्रों में बताई कुछ ऐसी बाते हैं, जो यह बताती है कि पुरुषों को किन-किन स्त्रियों के प्रति माता का भाव रखना चाहिए। जिनके पीछे संदेश स्त्रियों के लिए भावना और विचारों की पवित्रता का ही है। जानते हैं उन स्त्रियों को -
- स्तनपान कराने वाली यानि दूध पिलाने वाली
- गर्भधारण करने वाली
- भोजन देने वाली
- गुरु पत्नी
- इष्टदेव की पत्नी
- पिता की पत्नी (विमाता या सौतेली मां)
- पितृकन्या (सौतेली बहन)
- सहोदरा या सगी बहन
- पुत्रवधु
- सास
- नानी
- दादी
- भाई की पत्नी
- मौसी
- बुआ और
- मामी
सीख देने से पहले ध्यान रहें ये चार बातें
कोई भी व्यक्ति अपनी अनदेखी या अपनी बात को अनसुना किया जाना पचा नहीं पाता। लेकिन इसके पीछे किसी के लिए बुरे भाव मन में बना लेने से पहले अच्छा है, इस बात पर विचार किया जाए कि ऐसा क्या कारण है कि लोग आपकी बातों को सुनना नहीं चाहते।
असल में इंसान स्वभाव है कि दूसरों की गलतियां तुरंत पकड़ता है, किंतु खुद की कमियों को जानकर भी अनदेखा करता है। यही कारण है कि अनेक अवसरों पर आपकी सलाह, मशविरे या राय को दूसरे अहमियत नहीं देते। क्योंकि आप स्वयं उन बातों में व्यावहारिक रूप से उतरे नहीं होते।
इस बात को हिन्दू धर्म शास्त्रों में बताई कुछ खास बातों से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। धर्म और अध्यात्म के नजरिए से उपदेश देने वालों में चार बातें जरूरी है। तभी लोग उसकी बातें सुनते और मानते हैं। यह बाते हैं -
- पहली, उपदेशक जो उपदेश या बात बताए वह सत्य हो।
- दूसरी, उपदेशक खुद उस उपदेश या बात को मानने वाला हो।
- तीसरी, उपदेशक अपने बताए उपदेश या बात को मानने वाला ही न हो, बल्कि उस बात का व्यावहारिक रूप से पालन करने वाला भी हो।
- चौथी और अहम बात कि उस उपदेश को बताने के पीछे प्रतिष्ठा, मान-सम्मान या धन पाने का स्वार्थ न हो।
आध्यात्मिक या धर्म क्षेत्र से जुड़े उपदेशक की तरह सांसारिक व्यक्ति के ऊपर भी यह चार बातें लागू होती है। इसलिए किसी भी व्यक्ति के लिए खुद को इस पैमाने पर उतारकर दूसरों को राय या सलाह देना मान, प्रतिष्ठा और पहचान दे सकता है।
अपनी क्षमता को बढ़ाएं, तरक्की जरुर मिलेगी
कई बार ऐसा होता है कि हम मन लगाकर ईमानदारी से अपना काम करते हैं इसके बाद भी हमारी तरक्की नहीं होती। जबकि जो व्यक्ति हमारे बाद कंपनी में आता है उसकी तरक्की जल्दी हो जाती है। ऐसी स्थिति में हम खुद को ठगा हुआ सा महसूस करते हैं और अपने मालिक को दोषी ठहराते हैं। आखिर ऐसा हुआ क्यों? इस विषय पर हमारा ध्यान नहीं जाता। जबकि होना यही चाहिए कि सबसे पहले हमें उस व्यक्ति तथा खुद की तुलना करें फिर खुद में बदलाव लाएं और अपनी कार्यक्षमता बढ़ाएं। जब हम ऐसा कर लेंगे तो आपकी तरक्की की बाधा खुद ही हट जाएगी।
किसी गांव में हरिया नाम का एक लकड़हारा रहता था। वह अपने मालिक के लिए रोज जंगल से लकडिय़ां काटकर लाता था। यह काम करते हुए उसे पांच साल हो चुके थे लेकिन मालिक ने न तो कभी उसकी तारीफ की और न ही वेतन बढ़ाया। थोड़े दिनों बाद उसके मालिक ने जंगल से लकडिय़ां काटकर लाने के लिए बुधिया नाम के एक और लकड़हारे को भी नौकरी दे दी। बुधिया अपने काम में बड़ा माहिर था। वह हरिया से ज्यादा लकडिय़ां काटकर लाता था। एक साल के अंदर ही मालिक ने उसका वेतन बढ़ा दिया। यह देखकर हरिया बहुत दु:खी हुआ और मालिक से इसका कारण पूछा।
मालिक ने कहा कि पांच साल पहले तुम जितने पेड़ काटते थे आज भी उतने ही काटते हो। तुम्हारे काम में कोई फर्क नहीं आया है जबकि बुधिया तुमसे ज्यादा पेड़ काटकर लाता है। यदि तुम भी कल से ज्यादा पेड़ काटकर लाओगे तो तुम्हारा वेतन भी बढ़ जाएगा। हरिया ने सोचा कि बुधिया भी उतनी ही देर काम करता थे जितनी देर मैं। तो भी वह ज्यादा पेड़ कैसे काट लेता है। यह सोचकर वह बुधिया के पास गया और उससे इसका कारण पूछा। बुधिया ने बताया कि वह कल काटने वाले पेड़ को एक दिन पहले ही चुन लेता है ताकि दूसरे दिन इस काम में वक्त खराब न हो। इसके अलावा रोज कुल्हाड़ी में धार भी करता है इससे पेड़ जल्दी कट जाते हैं और कम समय में ज्यादा काम हो जाता है।
ऐसी कामयाबी जायज़ नहीं जो..
ज़िंदगी में कामयाब होना कौन नहीं चाहता? जीवन मिलता ही इसीलिये है कि इंसान अपने पुरुषार्थ का भरपूर उपयोग करते हुए ऊंचा मुकाम हासिल करे। लगन, परिश्रम, समर्पण और अटूट धैर्य को लगातार बनाए रखते हुए जीवन में बड़ी से बड़ी सफलता और मान-सम्मान पाना हर इंसान का मकसद तो होता ही है, अध्यात्म की मानें तो यह सब पाना इंसान का फर्ज भी है।
अब सवाल यह उठता है कि सफलता पाना ज़िंदगी का मकसद तो है पर वह सफलता किन शर्तों पर मिल रही है, यह सोचना भी बेहद अहम् है। सच्चाई, ईमानदारी और सही नीति पर चलकर पाई गई कामयाबी ही जायज भी है और सभी की तारीफ़ के काबिल भी वही है।
हिन्दू धर्म ग्रंथ रामायण इसी तरह इंसान को सावधान करता हुआ कहता है-
परहित सरिस धर्म नहिं कोई,
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
अगर इस पर गहराई से विचार करें तो यह उजागर हो जाता है कि नीति और धर्म दोनों का मतलब एक ही होता है। जबकि अनीति को अधर्म कहा जाना पूरी तरह से सही है। यानि जिन कार्यों को करने की प्रेरणा और सीख व्यक्ति को धर्म या धार्मिक शास्त्रों से प्राप्त होती है वे कार्य नीति के अन्तर्गत ही आते हैं। दूसरी तरह यह भी जाहिर है कि जिन कार्यों को धर्म में बुरा, अनैतिक या पाप पूर्ण बताया गया है, वे सब अनीति के दायरे में आते हैं। तरक्की करना, कामयाब होना, यश-समृद्धि के शिखर को छूना कोई गलत बात नहीं है, पर नैतिकता और जीवन मूल्यों को भूल किसी दूसरे के हक को छीनकर ऊंचा उठना किसी भी नजरिये से जायज़ नहीं है।
ऐसी स्त्री होती है पतिव्रता
आज के दौर में हर गृहस्थ पुरूष या अविवाहित, ऐसी स्त्रियों की चाहत या कामना रखता है, जिनके बोल, विचार और व्यवहार से गृहस्थ जीवन स्वर्ग बन जाए। वैसे पति-पत्नी के बीच मधुर संबंधों के लिए दोनों का एक-दूसरे पर पूरा भरोसा और समर्पण ही अहम होता है। चूंकि स्त्री गृहस्थ जीवन की धुरी मानी जाती है। इसलिए यहां हम खासतौर पर समझते हैं कि गृहस्थ जीवन में स्त्री का पति के लिए कैसा भाव, विचार और व्यवहार जरूरी है?
हिन्दू धर्म शास्त्र अनेक ऐसी स्त्रियों के प्रसंगों से भरा है, जिन्होंने अपने पातिव्रत्य के धर्म पालन से पति, परिवार या कुटुंब की संकटों से रक्षा की। जिससे उन्होंने न केवल स्त्री जाति का मान बढ़ाया, बल्कि हर स्त्री को उसकी ताकत से पहचान कराई। यही कारण है कि वे युग के बदलाव होने पर भी आज भी सुखद गृहस्थ जीवन के लिए स्त्रियों की प्रेरणा और आदर्श हैं। जिनमें सती अनुसूया, सीता सहित अनेक नारियां प्रमुख हैं।
इसलिए सती या पातिव्रत्य का पालन करने वाली इन स्त्रियों को सामने रखकर जानें हिन्दू धर्म शास्त्र में बताए गए उन गुणों को जिनसे हर स्त्री की पहचान पतिव्रता के रूप में होती है -
- पति को हमेशा भगवान मानने वाली यानि पति के प्रति हर तरह से समर्पित स्त्री।
- दु:खों से न घबराकर हंसमुख और प्रसन्न रहने वाली।
- हर स्थिति में सुख को खोजने वाली।
- पति में मन रखने वाली।
- पति को सेवा से वश में करने वाली।
- पति के कटु बोल और व्यवहार को भी सहन कर खुश रहने वाली।
- पति के धनहीन, रोगी, दीन या थके होने पर भी सेवा को आतुर रहे।
- संयम रखने, चतुरता यानि व्यावहारिक समझ रखने वाली।
- पति से संतान उत्पति करने वाली।
- पति को बड़े से बड़े सुख से भी ज्यादा चाहने वाली।
- सधी हुई दिनचर्या, जीवनशैली वाली स्त्री जैसे - सुबह जल्दी उठना, स्वयं और घर को साफ रखना या घर को व्यवस्थित रखना, देव पूजा करना।
- सास-ससुर का हर तरह से ख्याल रखने वाली।
- अतिथि, मेहमान यहां तक कि घर के नौकर से भी विनम्रता और स्नेह से व्यवहार करने वाली।
- पीहर में माता-पिता को भी सुख देने वाली।
सार यही है कि पति और गृहस्थी के लिए जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को समझ बिना किसी द्वेष भाव से, मन को वश में रख, शौक-मौज की लालसा से दूर, गृहस्थी को धर्म मानकर चलाने वाली स्त्री सही मायनों में सती और पतिव्रता है।
ऐसे 4 भक्तों पर होती है देवकृपा
हर धर्म में सुख और शांति से भरा जीवन बिताने के लिए ईश्वर के प्रति विश्वास और आस्था को सबसे बेहतर तरीका माना गया है। जिसके लिए सभी अपनी धर्म परंपराओं के मुताबिक देव उपासना करते हैं। किंतु हर व्यक्ति के लिए सुख और शांति के अर्थ अलग हो सकते हैं।
यही कारण है कि अलग-अलग कामनाओं या लक्ष्यों से देव उपासना की जाती है। हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमद्भगवद्गीता में इसी आधार पर 4 तरह के भक्तों और भक्ति के कारण बताए गए है, जिन पर भगवान की कृपा होती है, साथ ही यह भी साफ किया गया है कि इनमें से कौन-सा भक्त भगवान को भी सबसे ज्यादा प्यारा होता है? जानते हैं उन चार भक्तों को -
- अर्थार्थी यानि सांसारिक पदार्थों के लिए भगवान को भजने वाला। सरल अर्थों में ऐसे लोग जीवन में भौतिक सुखो को पाने की इच्छा से भगवान को स्मरण करते हैं।
- आर्त यानि संकटमुक्ति के लिए भगवान को भजना। सरल शब्दों में ऐसे लोग जिंदगी में आए संकट, दु:ख और पीड़ा से छुटकारा पाने की इच्छा से भगवान को याद करते हैं।
- जिज्ञासु यानि भगवान के स्वरूप को जानने की इच्छा से भगवान को भजने वाला। मतलब है कि ऐसा भक्त भगवान के साक्षात रूप के दर्शन की कामना से भगवान की भक्ति में लीन हो जाता है।
- ज्ञानी या निष्कामी यानि बिना किसी सांसारिक इच्छाओं, स्वार्थ या हितपूर्ति की कामना से प्रेम, समर्पण से भगवान की भक्ति करता है।
इन चार भक्तों में वैसे तो सभी भगवान का ध्यान किसी भी रूप या कारण से करने के कारण श्रेष्ठ हैं। किंतु ज्ञानि और निष्कामी भक्त की स्वार्थ या इच्छाओं से परे होकर की गई भक्ति, सेवा और शरणागति से वह भगवान को भी बहुत पंसद होता है।
कैसा और किससे हो जिहाद?
मुस्लिम धर्म में मिलादुन्नबी पर्व पैगम्बर हजरत मुहम्मद के जन्मदिन और उस वक्त घटी घटनाओं के लिए याद किया जाता है। उनको अल्लाह का दूत भी माना गया है। इस्लामी मान्यताओं में यह दिन मात्र पैगम्बर हजरत के जन्म का ही नहीं बल्कि इस दुनिया से विदा होने का अर्थात् रुखसत का भी है। असल में मिलाद शब्द जन्म के समय और जगह का प्रतीक ही है।
पैगम्बर साहब ने असाधारण धार्मिक, सामाजिक व नैतिक कार्य कर तत्कालीन समाज की गलत परंपराओं और व्यवस्था में व्यावहारिक और वैचारिक बदलाव ला दिया। जिसके लिए उन्होंने इस्लाम धर्म स्थापित कर धर्म और अध्यात्म के रास्ते जीवन को खुशहाल बनाने को नजरिया दिया।
यही कारण है कि उनका चरित्र आज भी समाज को धर्म के आचरण पर चलने की प्रेरणा देता है। उनके सभी कार्य और विचार इस्लामी धर्म की शिक्षा, नियम एवं कानून के रूप में स्थापित हुए।
इस्लाम धर्म की ऐसी ही शिक्षाओं में अहम है- जिहाद करना। आज जबकि धर्म विरोधी या कट्टरंपथी ताकतों द्वारा जिहाद शब्द को खौफ और आतंक से जोड़ दिया गया है। जिससे पैदा हिंसा और मारकाट जिहाद का गलत संदेश देती है। असल में पैंगबर और ईस्लाम धर्म के नजरिए से जिहाद के यह मायने हैं -
असल में जिहाद का संबंध आत्मरक्षा से है। किंतु वह इस अर्थ में कि व्यक्ति अपनी रक्षा चाहता है तो वह तन, मन और आचरण से पवित्र रहे यानि पहले खुद पर विजय प्राप्त करे, न कि बाहरी दुनिया में लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनैतिक, गैर-कानूनी और बुरे कर्म करे। संकेत है कि खुद के दोष, बुराई को दूर करें और किसी भी मकसद को पाने के लिए झूठ और अन्याय का रास्ता न अपनाएं।
यही नहीं कामनाओं और भावनाओं को काबू में रख आवेश में कोई गलत काम न करें। कोई काम संशय की स्थिति में न कर निर्भय होकर करें। इस तरह जिहाद के गहरे अर्थ यही है कि स्वयं को पहचानना ही खुदा को जानना है, न कि पहचान या नाम के लिए दूसरों को भयभीत, दु:खी करना।
पैंगबर द्वारा बताए ऐसे ही जिहाद ने मक्का नगर में अत्याचार से दु:खी कमजोर और जरूरतमंदों में जीने का जज्बा भर दिया और धर्म की प्राणवायु से मानव समाज में जान फूंक दी।
ऐसी स्त्रियों से रूठ जाती है लक्ष्मी
भारतीय संस्कृति स्त्री को शक्ति और लक्ष्मी का रूप मानती है। यही कारण है कि गृहस्थ जीवन की खुशहाली और बदहाली पुरुष ही नहीं स्त्री के श्रेष्ठ आचरण, व्यवहार और चरित्र पर भी निर्भर है। स्त्री परिवार की जिम्मेदारियों की बागडोर संभाल अपने तन के साथ मन और धन के संतुलन व प्रबंधन से शक्ति बन परिवार में खुशियां बनाए रखती है।
इसी तरह हिन्दू धर्म में भी देवी लक्ष्मी ऐश्वर्य, धन और सुख-समृद्धि देने वाली मानी जाती है और यह भी मान्यता है कि वह दरिद्रता पसंद नहीं करती। इसलिए स्त्री को लक्ष्मी रूप मानना सही भी है। किंतु सांसारिक नजरिए से लक्ष्मी रूप होने पर भी स्त्री के लिए धन की अहमियत कम नहीं है। चाहे वह विवाहित हो या फिर अविवाहित।
शास्त्रों में ऐसी ही रोचक बातों का वर्णन मिलता है। जिनमें साफ बताया गया है कि लक्ष्मी कैसी स्त्रियों से रूठ जाती है? जानते हैं ऐसी स्त्रियों के लक्षण -
- जो स्त्री हमेशा पति के खिलाफ़ काम करे
- पति को कटु बोल बोलती है
- पति को तरह-तरह से दु:ख देती है
- लज्जाहीन स्त्री, झगड़ालू, गुस्सैल
- चिढ़चिढ़ी और निर्मम
- पति का घर छोड़कर दूसरे के घर में रहना पसंद करे
- बड़ों का अपमान करने वाली
- परपुरुष को पसंद करे।
- आलसी और अस्वच्छ रहने वाली
- वाचाल यानि ज्यादा बोलने वाली
- घर का सामान इधर-उधर फेंकने वाली
- अधिक सोने वाली
- घर को अस्त-व्यस्त रखने वाली
- अनजान लोगों से अनावश्यक बात करने वाली
इन 7 लोगों को नमस्कार न करें!
सनातन धर्म की श्रेष्ठता का कारण उसकी परंपराओं के पीछे इंसानी जीवन से जुड़ी वैचारिक और व्यावहारिक गहराई है। सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक बताई गई अनेक क्रियाएं इंसान के विचार और व्यवहार को अनुशासित रख जीवन को ऊंचा उठाती है।
ऐसी ही एक क्रिया है - नमस्कार। यह शारीरिक मुद्रा पूरी दुनिया में भारतीय होने की पहचान भी है। नमस्कार की मुद्रा असल में सम्मान या स्नेह प्रगट करती है। वहीं इसका असर संबंधों को गहरा ही नहीं करता, बल्कि यह छोटी-सी शारीरिक मुद्रा किसी भी इंसान के व्यक्तित्व, चरित्र और व्यवहार को भी बेहतर बनाती है। क्योंकि दोनों हाथों को मिलाकर, हल्का सा शरीर के झुकाव के साथ किया गया नमस्कार असल में सबसे पहले व्यक्ति के अहं को दूर करता है, जो अनेक मानसिक और व्यावहारिक दोषों का कारण भी है।
नमस्कार द्वारा अभिवादन का यह तरीका दूसरों पर भी अच्छा असर करता है, जो आपके लिए भी सकारात्मक नतीजे देता है। क्योंकि दूसरों को दिया गया सम्मान बदले में वैसा ही सम्मान, सहयोग और प्रेम लाता है।
चूंकि हर क्रिया और व्यवहार का महत्व मर्यादा के बिना अधूरा है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म शास्त्रों में नमस्कार करने के लिए भी कुछ मर्यादाएं बताई गईं है। जिनका पालन आपके साथ दूसरों के लिए भी हितकारी होती हैं। जानते हैं किसी व्यक्ति से नमस्कार किन-किन स्थितियों में न करें -
जो व्यक्ति दूर हो - ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति आपके अभिवादन को न देख पाए। जिसे अनदेखी समझकर आपके मन में कलह पैदा हो सकता है।
जो व्यक्ति जल में हो - जल में रहने या तैरते वक्त थोड़ी भी चूक जानलेवा हो सकती है। यह ध्यान भंग आपके नमस्कार से भी संभव है।
जो व्यक्ति दौड़ रहा हो - आपके द्वारा किए गए नमस्कार से दौड़ते व्यक्ति की एकाग्रता और लय बिगडऩा उसकी चोट या ठोकर का कारण बन सकता है।
धन के अहंकार से ग्रसित व्यक्ति - ऐसे व्यक्ति से नमस्कार आपके अपमान का कारण भी बन सकता है।
नहाता हुआ व्यक्ति - स्नान का समय नमस्कार के लिए उचित स्थिति नहीं मानी जाती। क्योंकि यह आप और उस व्यक्ति को असहज बना सकती है।
मूढ़ या मूर्ख व्यक्ति - आचरण व व्यवहार की समझ ने होने से ऐसा व्यक्ति नमस्कार की अहमियत नहीं समझता और आपकी भावना को आहत कर सकता है।
जो व्यक्ति अपवित्र हो - किसी कारणवश जैसे मृत्यु संस्कार कर्म या किसी अन्य कारण से अपवित्रता के दौरान कोई व्यक्ति सहज मनोदशा में नहीं होता, तो नमस्कार उचित नहीं है।
ऐसे व्यक्ति के सिर पर हमेशा मण्डराती है मौत
धर्म शास्त्रों में मृत्यु को जीवन का अटल और अंतिम सच बताया गया है। इसका मतलब है जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु भी तय है। फिर भी स्वाभाविक रूप से इंसान अपना भविष्यफल, जन्मकुण्डली देखकर या अन्य किसी तरह से जीवन से जुड़े सारे सुखों को तो जानना चाहता है। लेकिन बिरले लोगों को छोड़कर कोई भी मृत्यु से जुड़े सवाल को टालता ही है।
हर व्यक्ति की प्राकृतिक या अकाल मृत्य के अलग-अलग कारण होते हैं। अगर अकाल मृत्यु की ही बात करें तो इसके पीछे दुघर्टना, रोग या घात हो सकती है। किंतु धर्म शास्त्रों के मुताबिक कुछ मृत्यु के ऐसे कारण भी है, जिसके पीछे व्यक्ति के स्वाभाविक और व्यावहारिक दोष होते हैं। जिनके कारण व्यक्ति खुद अपनी मौत को बुलावा देता है।
हिन्दू धर्म शास्त्र महाभारत में बताए इस कारण से व्यक्ति को मृत्यु कभी भी अपने आगोश में ले सकती है। जानें कौन-सी है वह बात -
लिखा गया है कि -
अरुन्तुदं परुषं रूक्षवाचं, वाक्कण्टकैर्विदन्तं मनुष्यान्।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां, मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वै वहन्तम्।।
जिसका सरल शब्दों में संकेत यही है कि जो व्यक्ति अपने बुरे स्वभाव और दूसरों से हमेशा कटु और रुखी बातें कर उनके मन को दु:ख देता है। वह वाणी और व्यवहार से दरिद्र होने से हमेशा संकटों का सामना करता है। क्योंकि मुख, शब्द और वाणी की ऐसी दरिद्रता से विवाद व कलह पैदा होते हैं। जिससे उस व्यक्ति के अनेक दुश्मन या विरोधी होते हैं, जो अवसर आने पर किसी भी तरह से प्राणों के लिए घातक साबित होते हैं। यही कारण है कि ऐसे लोगों पर मौत का साया हमेशा बना रहता है।
इस तरह सार यही है कि अगर व्यक्ति अकाल मौत से बचना चाहे तो सबसे पहले स्वभाव और बोल के दोष से हमेशा बचे।
कमाया धन टिकता नहीं, क्योंकि..
अक्सर हम अपने आस-पास देखते हैं कि कोई व्यक्ति बहुत पैसा कमाता है। किंतु उसका वही धन बहुत जल्दी किसी न किसी कारण से खर्च भी हो जाता है। हालांकि वह कमाए धन से कुछ समय तो सुख और सुविधा पाता है, लेकिन उससे कहीं भी अधिक दु:ख से दो-चार होता रहता है। ये कष्ट शारीरिक हानि, दुघर्टना, वाद-विवाद या परिवारिक सदस्यों के रोगी होने के रूप में सामने आते हैं।
सवाल यही उठता है कि आखिर क्यों इंसान को ऐसी हालात से गुजरता पड़ता है? जिसका व्यावहारिक जवाब आज के माहौल को सामने रखकर यही मिलता है कि चूंकि आज महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति की चाहत में हर व्यक्ति खुद को बचाकर दूसरे के आचरण में दोष ढ़ूंढ रहा है, जबकि इस बात को अनदेखा करता रहता है कि वह खुद भी उसी गलत व्यवस्था में शामिल हो उसका हिस्सा बन चुका है। यही कारण है कि व्यक्ति बिना अच्छे-बुरे कामों का विचार किए पैसा कमाता है और उनसे मिलने वाली परेशानियों से जूझता रहता है।
वहीं हिन्दू धर्म शास्त्रों में घर में लक्ष्मी न टिकने का कारण और उससे मिली दरिद्रता का कारण बहुत सटीक बताया गया है। जानते हैं महाभारत में बताई ऐसी बात को। जिसके मुताबिक -
प्रध्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्रीर्मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान्।।
इसका सरल शब्दों में मतलब है कि क्रूरतापूर्वक यानि गलत तरीके या कामों से कमाई लक्ष्मी या धन नाशवान होता है। ऐसा धन किसी भी कारण या रूप में खर्च हो जाता है। जबकि इसके विपरीत मृदुलता यानि सच और ईमानदारी से किए गए काम से पाया धन सुख और समृद्धि लाता है। यहां तक कि उसके सुख पुत्र, पौत्र और अगली पीढ़ीयों को जरूर मिलता है।
बोलने के ये 4 तरीके करते हैं मशहूर
कोई खूबसूरत, धनवान या ताकतवर व्यक्ति सभी को आकर्षित करता है। किंतु इन खूबियों वाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ हो, यह जरूरी नहीं। क्योंकि ये सभी गुण एक गुण के बिना बेअसर हो जाते हैं। यह अहम गुण है - वाणी।
जी हां, किसी व्यक्ति के उजले चरित्र और बेहतर व्यक्तित्व के लिए वाणी बहुत अहम है। व्यावहारिक अर्थों में लें तो बोलने का तरीका और अंदाज व्यक्ति की मान-प्रतिष्ठा बढ़ाता है। फिर यह जरूरी नहीं रह जाता कि वह व्यक्ति सुंदर या सक्षम हो। कोई भी सामान्य रूप रंग का व्यक्ति भी वाणी पर नियंत्रण और कला से लोगों पर अपना जादू चला सकता है
हिन्दू धर्म शास्त्रों में वाणी या बोलने के ऐसे ही चार तरीके बताए गए हैं। जिनको अपनाकर हर व्यक्ति सफलता की ओर कदम बढ़ा सकता है। जानते हैं महाभारत में बताए वाणी के ऐसे ही सूत्रों को -
- पहला बोलने से न बोलना बेहतर है।
- दूसरा सूत्र सच बोलें, क्योंकि मौन रहने की तुलना में यह दोगुना फायदेमंद है।
- तीसरा अगर सत्य बोल रहे हैं तो वह प्रिय यानि समय और हालात को देखकर सही तरीके से बोला जाय। कटु सत्य या बोल के रूखेपन से बचें।
- चौथा और अहम सूत्र कि जो सत्य बोला जा रहा है, वह धर्मसम्मत यानि सही, गलत, न्याय और अन्याय को अच्छी तरह परखकर और जानकर बोला जाय। किसी के प्रति पूर्वाग्रह, भेदभाव रख नुकसान पहुंचाने की नियत से नहीं बल्कि रिश्ते और माहौल में प्रेम और विश्वास बना रहे, इस भाव से वचन बोले जाएं।
ये 4 बातें हैं भले व्यक्ति की पहचान
भला व्यक्ति और भलाई किसे पसंद नहीं आती? किंतु हर व्यक्ति अच्छा या भला नहीं होता। यहां तक कि अनेक बुरे व्यक्ति अपना स्वार्थ या मतलब पूरा करने के लिए भलाई और भला होने का मुखौटा पहनते हैं। जिससे पैदा अविश्वास असल में भले व्यक्ति के प्रति भी शंका पैदा करता है। इस तरह यह पहचानना मुश्किल होता है कि भला कौन और बुरा कौन?
अनुभव और व्यवहार से कोई व्यक्ति यह भी सीख सकता है। किंतु इसमें लंबा वक्त भी लग सकता है। किंतु धर्म शास्त्रों में बताई कुछ बातों से भले व्यक्ति की पहचान कुछ ही पलों में की जा सकती है। जानते हैं महाभारत में बताई ऐसी ही सज्जनों को पहचानने की रोचक बातें -
लिखा गया है कि -
तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सुनृता।
सतामेतानि गेहुषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन।।
इनका सरल शब्दों में मतलब है कि सज्जन लोगों की पहचान उनके घरों में होने वाली कुछ खास बातों से हो सकती है। यह चार बाते हैं -
- तृण का आसन
- पृथ्वी
- जल और
- मीठी वाणी
इसे व्यावहारिक नजरिए से देखें तो किसी व्यक्ति के घर जाने पर जब वह मीठे बोल बोलकर, जल पिलाकर और बैठाकर आदर सत्कार करता है, तो यह गुण उसके सज्जन होने की पहचान हैं।
सच्चे साथी में होते हैं ये सात गुण
साथी का शाब्दिक अर्थ होता है साथ देने वाला। ऐसे साथ की आस भी हर कोई करता है। क्योंकि जीवन के सुख-दु:ख में किसी का साथ राहत देने वाला होता है। ऐसा साथ अनेक रिश्तों के रूप में व्यक्ति को मिलता है। चाहे वह माता-पिता, पत्नी, भाई या बहन। किंतु पारिवारिक रिश्तों के अलावा एक ऐसा रिश्ता भी है, जो वैसे ही विश्वास, प्रेम, सहयोग के साथ सुख-दु:ख के अवसरों पर परिजनों की तरह ही आस-पास ही होता है। यह रिश्ता है-मित्रता का।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी राम-सुग्रीव या कृष्ण-सुदामा के प्रसंग मित्रता के आदर्श हैं, जो सिखाते हैं कि मित्रता का भाव प्रेम देने और बढ़ानेवाला और नफरत जैसे बुरे भाव को मन से दूर रखता है। इसलिए हर कोई मित्र का संग चाहता है। किंतु सांसारिक जीवन में यह जरूरी नहीं कि मित्रता का कारण प्रेम ही हो। बल्कि स्वार्थ, हित के कारण भी मित्र बनते हैं और मतलब पूरा होने पर वही मित्र दूर हो सकता है, जो मन को दु:खी करता है। जबकि मित्रता का असल रूप प्रेम और सुख देने वाला ही है।
सवाल यह है कि सच्चे मित्र की पहचान कैसे हो? जिससे ताउम्र खुशी और साथ मिले। धर्म शास्त्रों में सच्चे मित्र के कुछ खास गुण बताए गए हैं। जानते हैं ये गुण -
प्रेमी- प्रेम सच्चे मित्र का सबसे अहम गुण है। क्योंकि इसके बिना मित्रता संभव ही नहीं। मित्र का प्रेम ऐसा हो जिसके बदले वह कुछ न चाहे।
उदार- सच्चे मित्र की खासियत होती है कि वह उदार सरल शब्दों में बड़े दिल वाला होता है, जो मित्र के सहयोग और जरूरत को पूरा करने के लिए लाभ-हानि की परवाह न करे।
दक्ष- मित्र व्यावहारिक और वैचारिक नजरिए से परिपक्व और कुशल होना चाहिए।
सच्चा- मित्र सत्य बोलने वाला ही नहीं बल्कि उसका व्यवहार में भी सच्चाई होना चाहिए।
सुख-दु:ख में समान - जिसका मतलब है मित्र मात्र सुख में ही मित्रता न निभावे बल्कि दु:ख में जरूर साथ खड़ा रहे।
विश्वासपात्र- अच्छा मित्र बोल, व्यवहार और विचारों से प्रामाणिक यानि भरोसेमंद हो। व्यावहारिक अर्थ में उसकी कथनी और करनी में अंतर न हो।
शौर्यवान - मित्र बहादुर, हौंसले वाला हो। जिससे मित्र की संकट के समय रक्षा कर सके।
ऐसे गुणों वाले व्यक्ति को आंखे मूंदकर साथी बनाना भी आपके सौभाग्य का कारण बन सकता है।
ये हैं कलियुग के अंत के संकेत!
हिन्दू धर्म शास्त्रों में चार युग बताए गए हैं। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर और कलियुग। इनमें से पहले तीन युगों में ईश्वर ने अलग-अलग अवतारों में दुष्ट शक्तियों का अंत किया। क्योंकि धार्मिक मान्यता है कि जब-जब धर्म का नाश होता है या बुरी शक्तियां हावी होकर जगत के दु:खों का कारण बनती है, तो भगवान स्वयं अवतार लेकर उसका अंत करते हैं और युग परिवर्तन होता है।
वर्तमान समय कलियुग माना गया है। कलियुग में भी भगवान विष्णु के होने वाले दसवें अवतार की मान्यता है। वहीं लोक मान्यताओं में भी प्रलय काल की धारणाएं भी प्रचलित है। धार्मिक और वैज्ञानिक काल गणनाओं से परे हटकर अगर यह सोचें तो यह समय कब आएगा या कितना नजदीक है? यह बताना कठिन है। पर शास्त्रों में ही इंसान के व्यावहारिक जीवन से जुड़े कुछ ऐसे संकेत बताए गए हैं, जो कलियुग की पहचान ही नहीं बल्कि अधर्म और बुराईयों के बढऩे से होने वाले ईश्वर अवतार और युग के अंत के संदेश भी है।
जानते हैं कैसे हैं यह संकेत -
- संत यानि सज्जन, धर्म आचरण या अच्छे लोग बुराईयों के हावी होने से दु:खी रहेंगे।
- असंत यानि धर्म विरोधी, दुर्जन या बुरे लोग शौक-मौज और विलासिता से जीवन बिताएंगे। जिसके लिए वह सज्जन लोगों को कष्ट देंगे।
- परायों से दोस्ती और अपनों से बैर - लोगों पर सुख-सुविधाओं की चाहत में पैदा हुए स्वार्थ या हित इतने हावी होंगे कि उनमें भावना और संवेदना न रहेंगी। जिससे वह अपनों के विरोधी होकर परायों से प्रीत या मित्रता रखेंगे।
- पुत्र की आयु घटेगी और पिता दीर्घायु - विचार, व्यवहार, संस्कार, मर्यादा और जीवन मूल्यों के पतन से बिगड़ी जीवनशैली संभवत: पिता को अपने सामने ही पुत्र की मृत्यु देखने पर विवश करेगी।
लगातार सफलता के लिए अपनाएं ये सूत्र
हर इंसान की ताकत जो नहीं है, उसको पाने और जो पा लिया, उसे बचाने की कवायद में खर्च हो जाती है। सफलता पाने और उसे कायम रखने पर भी यही बात लागू होती है। सफलता के लिए व्यक्ति जद्दोजहद करता है और जब कामयाबी की मंजिल को छू लेता है, तो वहां पर बने रहने का संघर्ष शुरू हो जाता है।
सवाल यही बनता है कि व्यक्ति ऐसा क्या करे कि ताकत और कामयाबी दोनों ही कायम रहे? हिन्दू धर्म शास्त्रों में इनका जवाब बेहतर तरीके से ढूंढा जा सकता है। जिनमें आए कुछ प्रसंग साफ करते हैं कि ताकत और सफलता को संभाल पाना आसान नहीं है।
शास्त्रों में बताए कुछ अधर्मी चरित्र जिनमें रावण से लेकर कंस और दुर्योधन से लेकर शिशुपाल के जीवन चरित्र बताते हैं कि शक्ति, सफलता और तमाम सुखों को पाने के बाद दूसरों को कमतर समझने से पैदा दंभ या अहं उनके अंत का कारण बना।
इन चरित्रों से यही सूत्र मिलते है कि सफल होकर या शक्ति पाने पर उसके हर्ष या मद में इतना न डूब जाएं कि उससे पैदा हुआ अहं आपको आगे बढ़ाने के बजाए पीछे धकेल दे या कामयाबी का सफर रोक दे। इसलिए अगर लगातार सफलता की चाहत है तो इसके लिए सबसे जरूरी है कि कामयाबी मिलने पर सरल, विनम्र और शांत रहें। अहंकारी या घमण्डी न बने, बल्कि हितपूर्ति की भावना को दूर रख उससे दूसरों को भी मदद और राहत देने की भावना से आगे बढ़ें। कामयाब होने पर भी अपने दोष या कमियों पर ध्यान दें और दूर करें।
यह बातें सफलता को पाने के बाद भी आपको मन और व्यवहार दोनों तरह से संतुलित और शांत रखेगी। जिससे आप पूरी तरह से एकाग्र, स्थिर, सजग, योजना और सहयोग के साथ सफलता के सिलसिले को जारी रख पाएंगे।
भक्ति के बाद भी मन में शांति नहीं, क्योंकि...
भगवान में आस्था रखने वाला इंसान दु:ख में, किसी विशेष इच्छा को पूरा करने, किसी देव साधना से जुड़े नित्य कर्म या खास मौके पर धार्मिक कर्मों में भगवान को याद जरूर करता है। इसके बावजूद अनेक लोग परेशानियां पूरी तरह से दूर न होने या इच्छाएं अधूरी होने से निराश होकर भगवान के नियमित ध्यान से दूरी बना लेते हैं। ऐसी हालात में वे यह नहीं सोच पाते कि भगवान की कृपा से ही संभव हो कि उनकी दिक्कतें बढ़ी नहीं और कुछ हद तक कामनाएं भी पूरी हुईं।
आखिर क्यों ऐसा होता है कि भक्ति के बाद भी व्यक्ति बेचैन और परेशान रहता है? धर्म के नजरिए से इसके पीछे भगवान को स्मरण करने में इच्छाओं, भाव से जुड़ी कुछ खास बातों को भूलना है। जानते हैं भगवान के ध्यान में कौन-सी हैं ये जरूरी बातें-
- पहली बात जब भी भगवान या अपने इष्ट का ध्यान करें या मंत्र जप करें। वह नाम और जप उजागर न करें। क्योंकि धार्मिक महत्व की दृष्टि से भगवान के नाम का ध्यान जितना छुपा रहता है, वह उतना ही असरदार और फलदायी होता है।
- दूसरी बात आप जिस भी देवता या इष्ट का नाम लें उस नाम का मतलब और देव स्वरूप का ध्यान कर जप करें। जिससे मन शांत और एकाग्र रहता है।
- तीसरी और अंतिम बात जो व्यावहारिक रूप से अजीब लगती है, किंतु धार्मिक रूप से अहम है। वह है भगवान का ध्यान या उनका नाम किसी इच्छा, कामना के मकसद से न लेकर बिना किसी स्वार्थ या हितपूर्ति की कामना से पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ करें। धार्मिक दृष्टि से इस भाव से नाम स्मरण से भक्त को भगवान की प्रसन्नता और अदृश्य कृपा मिलती है। साथ ही वह शांत और सहज हो जाता है।
ऐसी स्त्री के संग रहती है लक्ष्मी
व्यावहारिक जीवन के लिए धन सुखी रहने का एक साधन है। धार्मिक हो या सांसारिक नजरिया धन को जीवन की अहम जरूरत बताया गया है। वैसे सुख देव और दु:ख दानव शक्ति का प्रतीक भी है। इसलिए सुख देने वाला हर व्यक्ति, स्थान और साधन देवता के समान पूजित भी हो जाता है।
इसी बात को सामने रख सोचें तो भारतीय धर्म परंपराओं में स्त्री को भी लक्ष्मी रुप मानने के पीछे सुख देने वाली उसकी वह शक्ति है, जो वह मां, बेटी और अन्य सभी रिश्तों के द्वारा सृजन, पालन, सेवा के रूप में परिवार, समाज या जगत को देती है। जिनसे कुटुंब खुशहाल और सुखी होता है। धार्मिक मान्यता भी यही है कि देवता खासतौर पर धन और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी उसी स्थान पर वास करती है। जहां दरिद्रता और आलस्य न हो। यही कारण है कि जो स्त्री घर की व्यवस्थाओं और माहौल को अपने व्यवहार, आचरण और विचारों से पवित्र रखती है, उसे लक्ष्मी और उस घर में लक्ष्मी का वास माना जाता है।
शास्त्रों में भी बताया गया है कि लक्ष्मी ऐसी स्त्रियों पर हमेशा प्रसन्न रहती है। किंतु इसके लिए उसका व्यवहार और आचरण कैसा होना चाहिए? जानते हैं -
- सच बोलने वाली स्त्री। जिस स्त्री के बोल, व्यवहार और विचारों में सच समाया होता है, उससे लक्ष्मी बहुत खुश रहती है।
- पतिव्रता स्त्री यानि पति के लिए हर तरह से समर्पित और सेवा का भाव रखने वाली।
- जिस स्त्री का तन, मन और व्यवहार साफ हो।
- धार्मिक यानि देवता, शिक्षित और ब्राह्मणों को सम्मान देने वाली स्त्री।
- घर आए अतिथि की सेवा-सत्कार करने वाली स्त्री।
- सहनशील स्त्री यानि जो स्त्री पति या परिवार के सदस्यों की बड़ी से बड़ी गलती या दोष को भी माफ कर दे। दूसरे अर्थों में क्षमा का भाव रखने वाली स्त्री।
इन 7 बातों में हैं सफल जीवन का राज
अक्सर देखा जाता है कि मकसद पाने को बेताब और संकल्पित व्यक्ति सफलता के लिए भरसक कोशिश करता है और कामयाबी के शिखर पर बैठा व्यक्ति वहीं पर टिका रहने की तमन्ना रखता है। चूंकि जीवन उतार-चढ़ाव से भरा सफर है। जिससे कोई व्यक्ति ऊंचाईयों से जमीन पर भी आ सकता है, वहीं कोई तरक्की भी पा लेता है।
सवाल यही बनता है कि क्या ऐसा संभव है कि जीवन की उथल-पुथल के बीच भी व्यक्ति कामयाबी को जारी रख सके और नाकाम व्यक्ति भी सफलता की ऊंचाईयों को छू ले? इसका जवाब धर्म शास्त्रों में बताई कुछ खास बाते हैं, जिनमें से सभी या किसी एक का भी किसी इंसान की जिंदगी में होना या जुड़ जाना उसके जीवन, भाग्य और समय को सही दिशा में मोड़ देती है।
ऐसी ही सात बातें यहां बताई जा रही है, जिसे किसी व्यक्ति को स्वयं भी पाने के पूरे प्रयास करते रहना चाहिए -
सरस्वती - धार्मिक दृष्टि से माता सरस्वती ज्ञान, कला व विद्या की देवी है। इसलिए किसी व्यक्ति की बुद्धि, कुशलता और कामयाबी के लिए सरस्वती की कृपा होना अहम माना जाता है। सरल शब्दों में व्यक्ति के चरित्र, व्यक्तित्व विकास में शिक्षा बहुत निर्णायक होती है।
संपत्ति - स्वयं द्वारा अर्जित या पारिवारिक संपत्ति का होना सुख-सुविधा देने के साथ तमाम परेशानियों को भी कम कर देता है। यही काराण् है कि जीवन की अहम जरूरतों और लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए धर्म के नजरिए से भी धन भी पुरूषार्थ में शामिल है।
संत कृपा - किसी सज्जन यानि गुणी, विद्वान का संग या आशीर्वाद मिल जाने पर व्यक्ति के जीवन में सफलता की बाधाएं दूर हो सकती हैं।
सत्य - सच्चे बोल, व्यवहार और विचार व्यक्ति को भरोसमंद बनाते हैं। यह कलह और अशांत जीवन से भी बचाता है।
अच्छे कर्म - किसी व्यक्ति की तरक्की और असफलता उसके अच्छे-बुरे कर्मों से नियत होती है। व्यक्ति के अच्छे काम न केवल मान-प्रतिष्ठा, यश दिलाते हैं बल्कि संकट से बचाकर आत्मविश्वास भी बनाए रखते हैं।
संतान - धर्म के नजरिए से पुरूषार्थ प्राप्ति के लक्ष्य में और व्यावहारिक दृष्टि से गृहस्थ जीवन की खुशहाली के लिए संतान प्राप्ति अहम है।
सत्ता - सत्ता या शासन का मतलब है शक्ति या अधिकार मिल जाना। चाहे वह परिवार, घर हो या समाज हाथ में शक्ति मिल जाने पर व्यक्ति के लिए पद और सम्मान भी साथ चले आते हैं।
पुरुष की शान बढ़ाती है ये 8 खूबियां
अक्सर हमारे आस-पास हम ऐसे अनेक व्यक्ति खासतौर पर पुरुष देखते हैं, जिनको अपनी योग्यता और ताकत के मुताबिक सफलता नसीब नहीं होती। व्यावहारिक रूप से इसके अनेक कारण हो सकते हैं। जिनमें स्थिति, समय, सुविधा और प्रयास भी अहम हैं। किंतु धर्म के नजरिए से इस बात पर विचार करें तो किसी पुरुष की तरक्की और सफलता में कुछ खास खूबियां निर्णायक होती हैं।
हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में अनेक वीर और असाधारण पुरुष पात्रों के बारे में लिखा गया है। इसी महाग्रंथ के मुताबिक पुरुष में कुछ खास गुणों का होना उसे हमेशा सम्मान और ऊंचे पद का हकदार बनाते हैं। जानते हैं पुरुषों के लिए जरूरी
ऐसे आठ गुणों को -
बुद्धि - बुद्धिमानी यानि अक्लमंदी पुरुष को किसी भी बुरे वक्त या समस्याओं से बाहर निकालकर सफलता व यश देने वाली होती है।
दम - हौंसला, ताकत, जोश और उत्साह किसी भी लक्ष्य को भेदने में निर्णायक होता है।
कुलीनता - पुरुष का अच्छे कुल का होना और उसके अच्छे संस्कार, आचरण, कर्म और विचार उसका मान बढ़ाते हैं।
ज्ञानी - पुरुष का ज्ञानी यानि शिक्षित और जानकार होना। खासतौर पर शास्त्रों की शिक्षा और उनकी व्यावहारिक समझ पुरुष को प्रतिष्ठा दिलाती है।
अधिक न बोलना - वाचालता या अधिक बोलना दोष बन जाता है। इसलिए पुरुष का कम और मीठा बोलना उसे सम्माननीय बनाता है।
दानी - दान करने वाला व्यक्ति दूसरों का सम्मान और प्रेम पाता है।
उपकार मानने वाला - किसी की मदद को याद रख उसके प्रति समर्पण रखने वाला कृतज्ञ पुरुष सभी का सम्मान पाता है।
वीरता - भय और कायरता को दूर रखने वाला बहादुर या पराक्रमी पुरुष आत्मविश्वास से भरा होता है, जो जीवन के हर कदम पर बहुत जरूरी होता है।
ये हैं शिव भक्ति के पांच तरीके
भगवान शिव को स्वयंभू और अजन्मा माना जाता है। महाशिवरात्रि ऐसे ही अनादि, अनंत ईश्वर शिव के ज्योर्तिलिंङ्ग रूप में प्रगट होने का उत्सव है। शास्त्रों के मुताबिक फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की अर्द्घरात्रि को ज्योर्तिलिंङ्ग प्रकट हुआ था। इसलिए यह महाशिवरात्रि मानी जाती है। वहीं दूसरी मान्यताओं में इस दिन शिव-पार्वती का विवाह उत्सव भी मनाया जाता है।
महाशिवरात्रि पर विवाह उत्सव से जुड़ा धर्म दर्शन यही है कि भगवान शिव पुरुष और माता पार्वती प्रकृति रूपा है। इनका विवाह प्रतीक रूप में पुरुष एवं प्रकृति का मिलन है। इस तरह यह जगत की रचना की रात है। इसलिए उपासना की रात्रि है।
महाशिवरात्रि शिव भक्ति, उपासना और साधना की रात्रि होने से यह जानना भी जरूरी है कि आखिर शिव भक्ति और सेवा के सही तरीके क्या है? इसका जवाब भी शिव पुराण में मिलता है। जिसमें शिव सेवा को शिव भी धर्म कहा गया है। जानते हैं क्या है शिव धर्म -
शिव पुराण के मुताबिक भक्ति के तीन रूप बताए गए हैं। यह है मानसिक, वाचिक और शारीरिक सरल शब्दों में तन, मन और वचन से भक्ति।
इनमें भगवान शिव के स्वरूप का चिन्तन मन से, मंत्र और जप वचन से और पूजा विधान शरीर से सेवा मानी गई है। इन तीनों तरीकों से की जाने वाली सेवा ही शिव धर्म कहलाती है।
इस शिव धर्म या शिव की सेवा के भी पांच रूप है। यह हैं -
कर्म - लिंगपूजा सहित अन्य शिव पूजन परंपरा कर्म कहलाते हैं।
तप - चान्द्रायण व्रत सहित अन्य शिव व्रत विधान तप कहलाते हैं।
जप - शब्द, मन आदि द्वारा शिव मंत्र का अभ्यास या दोहराव जप कहलाता है।
ध्यान - शिव के रूप में लीन होना या चिन्तन करना ध्यान कहलाता है।
ज्ञान - भगवान शिव की स्तुति, महिमा और शक्ति बताने वाले शास्त्रों की शिक्षा ज्ञान कही जाती है।
इस तरह शिव धर्म का पालन या शिव की सेवा हर शिव भक्त को बुरे कर्मों, विचारों व इच्छाओं से दूर कर शांति और सुख की ओर ले जाती है।
ऐसी अनूठी सोच से मन रहे शांत और सुखी
व्यावहारिक जीवन में समाज, कार्यक्षेत्र में मेल-मिलाप या अपनों के बीच ही उठने-बैठने के दौरान बातों, विचारों या व्यवहार को लेकर दूसरों से मतभेद पैदा होते हैं। स्वार्थ पूर्ति न होना भी इसका कारण हो सकता है। लेकिन इससे आखिऱ में व्यक्ति ही नहीं उससे जुड़े लोग भी एक-दूसरों को दोषी मानकर मन में दुर्भाव बना लेते हैं। ऐसी भावना असल में व्यक्ति विशेष को ही ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। क्योंकि खराब मनोदशा व्यक्ति को अपने कार्य और लक्ष्य से दूर कर बुरे नतीजे देती है।
सवाल यह बनता है कि क्या ऐसा संभव है कि व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में ऐसी स्थितियों से बचकर संतुलित और सफल जीवन बीता सके। इसका बात का हल हिन्दू धर्मग्रंथ रामचरित मानस में लिखे एक प्रसंग में मिल सकता है। जानते हैं वह चौपाई और प्रसंग का संदेश -
बोले लखन मधुर मृदु बानी, ग्यान बिराग भगति रस सानी।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता, निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।
इस प्रसंग के मुताबिक राम, लक्ष्मण और सीता को वनवास के दौरान कष्ट में देख जब निषादराजा माता कैकई को दोषी ठहराते हैं। तब लक्ष्मण निषादराज को ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से भरी बात कहते हुए समझाते हैं कि कोई किसी को सुखी या दु:खी नहीं करता बल्कि सभी अपने किए गए कर्मों का फल भोगते हैं।
इस चौपाई में व्यावहारिक संदेश यही है कि स्वार्थ या हितपूर्ति की सोच में व्यक्ति या समूह एक-दूसरे को दोषी मानकर कुछ भी फैसला या प्रतिक्रिया करने से पहले यह जरूर सोच-विचार करे कि उस बात के लिए वह स्वयं कितने जिम्मेदार है। ऐसा करने से मन में आए क्रोध, द्वेष या कटु भावना घटती है। मन अशांत नहीं होता, सोच सही दिशा में जाती है और संबंधों में मिठास आती है।
दस चलते हैं, एक पहुंचता है
लक्ष्य जीवन में बहुत जरुरी है। बिना लक्ष्य के जीवन बिल्कुल निरर्थक है। कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ लोग किसी अन्य व्यक्ति को देखकर अपना लक्ष्य निर्धारित तो कर लेते हैं लेकिन उस तक पहुंच नहीं पाते क्योंकि लक्ष्य प्राप्ति में कई बाधाएं, लालसाएं आदि आती है। जो व्यक्ति सिर्फ अपने लक्ष्य को देखता है सिर्फ वही लक्ष्य तक पहुंचता है। यानि जब लक्ष्य तय करते हैं तो चलते तो कई लोग साथ में है लेकिन पहुंचते कुछ ही लोग हैं।
एक महात्मा ने एक नया आश्राम खोला तो पुराने आश्रम को खबर भेजी कि यहां की व्यवस्था के लिए वहां से एक संत भेजो। तो पुराने आश्रम के जो महात्मा थे उन्होंने 10 संत नए आश्रम की व्यवस्था के लिए भेज दिए। सबने कहा कि गुरुजी वहां तो सिर्फ ही व्यक्ति की आवश्यकता है। तो महात्मा कुछ नहीं बोले। कुछ दिनों बाद खबर आई कि आपने जो एक संत भेजा था वह पहुंच गया है।
यह सुनकर बाकी सब आश्चर्य में पड़ गए कि यहां से 10 गए थे वहां 1 ही पहुंचा बाकी 9 कहां रह गए? महात्मा ने अपनी दिव्य दृष्टि से बताया कि जब 10 लोग यहां से चले तो रास्ते में एक शहर आया वहां का राजा मर चुका था तो राजज्योतिष ने मंत्रियों को सलाह दी कि जो व्यक्ति सबसे नगर में प्रवेश करे उसे राजा बना दो। तो 10 में से एक वहां रुक गया और राजा बन गया। थोड़ी आगे चले तो एक अन्य शहर आया । यहां भी मंत्रीमंडल मिला। उसने कहा कि हमारे राज्य में कोई राजकुमार नहीं है तो आप में से कोई एक राजकुमार बन जाईए। उसी से राजकुमारी का विवाह किया जाएगा और वही राजा भी बनेगा। तो एक और संत वहां रुक गया।
थोड़ी आगे गए तो एक गांव आया वहां के लोगों ने बताया कि हम यहां एक बहुत बड़ा मंदिर बना रहे हैं तो उसकी देखभाल के लिए हमें एक महात्मा रखना है तो आपमें से एक यहां रुक जाईए। तो एक और वहां रुक गया। ऐसे करते-करते किसी न किसी कारण से और भी संत रुकते रहे। अंत में केवल एक ही संत नए आश्रम तक पहुंचा। उसी की सूचना पुराने आश्रम को दी गई।
क्यों शिव उपासना की रात है महाशिवरात्रि?
हिन्दू माह फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात महाशिवरात्रि के रूप में शिव की उपासना के लिए बहुत ही शुभ मानी जाती है। शास्त्रों के मुताबिक चतुर्दशी तिथि के स्वामी भगवान शंकर ही माने जाते हैं। इस तरह हिन्दू पंचाग के हर माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि शिवरत्रि आती है। इनमें से फाल्गुन माह की यह तिथि ही महाशिवरात्रि मानी जाती है। जानते हैं इससे जुड़े कारण -
यह सभी जानते हैं कि चन्द्रमा की कलाएं शुक्लपक्ष में बढ़ती और कृष्ण पक्ष में घटती है। चूंकि चन्द्रमा मन और जल तत्व का स्वामी भी माना जाता है। यही कारण है कि जब कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा की कलाएं घटते हुए अमावस्या तिथि पर पूरी तरह से लुप्त हो जाती है। तब इस तिथि पर खासतौर पर रात्रि में इंसानी मन पर बुरा असर ही नहीं होता, बल्कि पूरे जगत के जीव भी किसी न किसी रूप में अशांत होते हैं। जिससे मन, वचन और कर्मों में बुराई हावी रहती है।
हिन्दू धर्म के त्रिदेवों में शिव तामसी या दुष्ट प्रवृत्तियों के नियंत्रक माने जाते हैं। यही कारण है कि अमावस्या से पहले चतुर्दशी तिथि की रात से ही बुरी और तामसी शक्तियों को काबू करने के लिए भगवान शिव की आराधना की जाती है। लोक परंपराओं में यही ताकतें भूत-पिशाच बाधा के रूप में भी जानी जाती है। वहीं शास्त्रों में लिखे अर्द्घरात्रि में तेजोमयी शिवलिंग के प्रागट्य के पीछे भी ज्ञान रूपी प्रकाश द्वारा अज्ञान रूपी अंधकार के अंत का ही संकेत है।
हिन्दू वर्ष के हर मास के तिथि की तरह ही अंतिम माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या से पहले इस चतुर्दशी या शिवरात्रि पर इस भाव के साथ कि आने वाले समय में भी बुरे समय या अज्ञान से आए संकट और विपत्तियों से जीवन दूर रहे, इस तिथि पर अर्द्घरात्रि में कल्याण के देवता शिव की उपासना की जाती है और यह महाशिवरात्रि कहलाती है।
कैसा है इंसान? बताते हैं ये तीन कारण
भय या डर ऐसा भाव है, जिससे जगत का कोई प्राणी अछूता नहीं। इंसानी जीवन की बात करें तो भय के कारण अलग-अलग हो सकते हैं। जिनका संबंध शारीरिक, मानसिक या व्यावहारिक दोषों से होता है। किंतु कहीं न कहीं यह जीवन में विचार, व्यवहार व स्बभाव पर असर डालते हैं। किंतु क्या आप जानते हैं कि किसी व्यक्ति के भयभीत होने के कारण भी उस व्यक्ति की पहचान बताते हैं?
हिन्दू धर्मशास्त्र महाभारत में ऐसे ही तीन कारण बताए गए हैं, जो किसी इंसान की अच्छाई या बुराई को उजागर कर देते हैं। जानते हैं वे बातें जिनसे व्यक्ति की पहचान हो सकती है -
लिखा गया है कि -
अवृत्तिर्भयमन्त्यानां मध्यानां मरणाद् भयम्।
उत्तमानां तु मर्त्यानामवमानात् परं भयम्।।
इस श्लोक का सरल व व्यावहारिक अर्थ जानें तो -
- जो व्यक्ति जीविका यानि आमदनी, नौकरी या धन प्राप्ति न होने से डरता है, वह अधम यानि कमजोर, बुरे और दुष्ट स्वभाव के होते हैं।
- जो व्यक्ति मौत से डरता है, वह साधारण या मध्यम श्रेणी का व्यक्ति होता है।
- वहीं जो श्रेष्ठ, संस्कारी व्यक्ति होता है, वह मात्र असम्मान और अपमान से डरता है। संसार का अन्य कोई कारण उसे भयभीत नहीं कर पाता। उसके लिए मान-सम्मान ही अहम होता है।
हर युग में संकटमोचक हैं हनुमान
श्री हनुमान बल, पराक्रम, ऊर्जा, बुद्धि, सेवा, भक्ति की आदर्श प्रतिमा माने जाते हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में श्री हनुमान को सकलगुणनिधान भी कहा गया है। श्री हनुमान को चिरंजीव सरल शब्दों में कहें तो अमर माना जाता है।
हनुमान उपासना के महापाठ श्री हनुमान चालीसा में गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि चारो जुग परताप तुम्हारा है परसिद्ध जगत उजियारा।
इस चौपाई से साफ संकेत है कि श्री हनुमान ऐसे देवता है, जो हर युग में किसी न किसी रूप, शक्ति और गुणों के साथ जगत के लिए संकटमोचक बनकर मौजूद रहे। श्री हनुमान से जुड़ी यही विलक्षण और अद्भुत बात उनके प्रति आस्था और श्रद्धा गहरी करती है। इसलिए यहां जानते हैं श्री हनुमान किस युग में किस तरह जगत के लिए शोकनाशक बनें-
सतयुग - श्री हनुमान रुद्र अवतार माने जाते हैं। शिव का दु:खों को दूर करने वाला रुप ही रुद्र है। इस तरह कहा जा सकता है कि सतयुग में हनुमान का शिव रुप ही जगत के लिए कल्याणकारी और संकटनाशक रहा।
त्रेतायुग - इस युग में श्री हनुमान को भक्ति, सेवा और समर्पण का आदर्श माना जाता है। शास्त्रों के मुताबिक विष्णु अवतार श्री राम और रुद्र अवतार श्री हनुमान यानि पालन और संहार शक्तियों के मिलन से जगत की बुरी और दुष्ट शक्तियों का अंत हुआ।
द्वापर युग - इस युग में श्री हनुमान नर और नारायण रूप भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के साथ धर्मयुद्ध में रथ की ध्वजा में उपस्थित रहे। यह प्रतीकात्मक रूप में संकेत है कि श्री हनुमान इस युग में भी धर्म की रक्षा के लिए मौजूद रहे।
कलयुग - हिन्दू धर्म शास्त्र श्रीमद्भागवत के मुताबिक कलयुग में श्री हनुमान का निवास गन्धमानदन पर्वत पर है। यही नहीं माना जाता है कि कलियुग में श्री हनुमान जहां-जहां अपने इष्ट श्रीराम का ध्यान और स्मरण होता है, वहां अदृश्य रूप में उपस्थित रहते हैं। शास्त्रों में उनके गुणों की स्तुति में लिखा भी गया है कि -
यत्र-यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र-तत्र कृत मस्तकांजलिं।
इस तरह श्री हनुमान हर युग में अलग-अलग रुप और शक्तियों के साथ संकटमोचक देवता के रूप में जगत को विपत्तियों से उबारते हैं।
ये हैं तरक्की के दो बेहतर तरीके
इंसान सफलता की मंजिल दो रास्तों से होकर तय करता है। पहला - अनुभव और दूसरा ज्ञान। कामयाबी के लिए दोनों ही रास्ते बेहतर हैं। जिनमें से पहले रास्ते से हर व्यक्ति को गुजरना ही पड़ता है। किंतु जो व्यक्ति शीघ्र सफलता की चाहत रख्ता है, उसके लिए दूसरा रास्ता अपनाना भी अहम हो जाता है। क्योंकि ज्ञान और अनुभव के जरिए सपनों को जल्दी पूरा करना आसान हो जाता है। इसलिए यहां धर्म के नजरिए से जानते हैं कि तरक्की के लिए कौन-सा रास्ता किस तरह बेहतर साबित हो सकता है -
अनुभव के रास्ते तरक्की की बात करें तो व्यावहारिक जीवन में मिले अच्छे बुरे अनुभव किसी व्यक्ति को जानकार और हुनरमंद बनाते हैं। इस रास्ते व्यक्ति शरीर, विचार और व्यवहार के द्वारा की गई गलतियों से सीख और अनुभव लेकर बेहतर बन सकता है। हां, ऐसा होने में समय अधिक लग सकता है।
यही कारण है दूसरा रास्ता यानि ज्ञान का रास्ता न केवल व्यक्ति को हर तरह की गलतियों से दूर रखता है, बल्कि शरीर, मन, विचार और व्यवहार से भी श्रेष्ठ बना कर तुरंत और हमेशा कामयाबी देता है।
धर्म के नजरिए से ज्ञान पाने या सीखने की बात हो तो स्वाध्याय सबसे बेहतर उपाय माना गया है। स्वाध्याय शब्द के भी दो अर्थ निकलते हैं। पहला स्वयं का अध्ययन यानि खुद के गुण-दोष को जानकर दूर करना। वहीं दूसरा मतलब है स्वयं ही अध्ययन करना। जिसमें स्वयं किताबों, ग्रंथ की शिक्षाओं को पढ़कर या विद्वान और सिद्ध लोगों के अनुभव या सोच को जानकर व्यावहारिक जीवन में अपनाया जाता है।
हिन्दू धर्म शास्त्र गीता में इसी उद्देश्य से स्वाध्याय को वाणी का तप बताकर लिखा गया है कि -
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।
सार यही है कि स्वाध्याय का रास्ता इसीलिए बेहतर है कि इससे व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में आने वाली परेशानियों से बाहर आने का तरीका, सही निर्णय लेने की सीख या विद्वान लोगों के अनुभव पुस्तकों के अध्ययन के जरिए जान लेता है। जिनको व्यावहारिक जीवन में अपनाकर बिना किसी भूल के आगे बढ़ा जा सकता है।
लक्ष्मी को पसंद है ऐसा इंसान और घर
बोल, कर्म और व्यवहार के गुण-दोष व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और व्यावहारिक जीवन पर असर डालते हैं। जिससे रिश्ते बनते और बिगड़ते हैं, खान-पान या व्यवहार में भी बदलाव आता है। इससे व्यक्ति कुछ वस्तु या व्यक्तियों को पसंद या नापसंद करने लगता है। लेकिन कोई ऐसा भी है, जिसका साथ हर व्यक्ति हमेशा चाहता है और पसंद करता है। जानते हैं वह कौन है और वह भी किस व्यक्ति को पसंद या नापसंद करता है -
वह है लक्ष्मी यानी धन। धर्म और व्यवहार दोनों ही नजरिए से धन जीवन में सुखों को पाने का जरिया है। धर्म के नजरिए से धन जीवन, यश, सम्मान और स्वास्थ्य को बढ़ाने और कायम रखने वाला होता है। लेकिन हिन्दू धर्म शास्त्रों में बताया गया है कि व्यक्ति या घर में लक्ष्मी को लाने और बनाए रखने के लिए कुछ बातें बहुत अहम हैं।
धर्म शास्त्रों में लिखी यह बात इस ओर संकेत भी करती है -
भव क्रियापरो नित्यम्।
जिसका सरल शब्दों में मतलब है कि व्यक्ति को हमेशा कर्म यानी मेहनत, सेवा या काम करते रहना चाहिए। क्योंकि धन पाना या कमाना बिना कार्य के संभव नहीं। यहां तक कि अगर किसी कारण से धन हानि भी हो जाए तो मेहनत या उद्योग द्वारा फिर से पाया जा सकता है।
यही नहीं शरीर, मन और विचारों की पवित्रता से घर-परिवार का वातावरण स्वच्छ बनाए। क्योंकि बुरे कामों से लाया गया धन या आलस्य घर के माहौल में अशांति और कलह पैदा करता है, जो शास्त्रों के मुताबिक लक्ष्मी को नापसंद है।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
आपका हार्दिक धन्यवाद आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं..
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