Saturday, June 5, 2021

श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part(3)

 घटनाओं का जोड़ है मनुष्य

भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को लेकर भीष्म के पास पहुंच गए हैं,भीष्म शरशैया पर हैं। भगवान ने कहा- मैंने आपको वचन दिया था कि मैं आपके अंतिम समय में आऊंगा, मैं आ गया। मेरा आपसे एक निवेदन है कि युधिष्ठिर राजा बनने वाले हैं आप इनको राजधर्म का ज्ञान दीजिए। जैसे ही भीष्म राजधर्म पर बोलना शुरु करते हैं एक अठ्ठहास सुनाई देता है।

देखा वहां द्रौपदी हंस रही थीं। द्रौपदी ने कहा-पितामह आप किस राजधर्म की बात कर रहे हैं? यह राजधर्म और धर्म उस समय कहां चला गया था जब भरी सभा में मुझे खींचकर लाया गया और दुर्योधन के आदेश से मेरा अपमान किया गया था। द्रौपदी के शब्द सुन भीष्म मौन हो गए। तब श्रीकृष्ण बोले- द्रौपदी, मैं जानता हूं तेरे साथ दुनिया का वो अपमान हुआ है जो सबसे घिनौना है। इतिहास सदैव इस पर आंख नीची करेगा। लेकिन पांचाली एक बात याद रखना, किसी एक घटना से किसी व्यक्ति का मूल्यांकन मत करना।

व्यक्ति घटनाओं का जोड़ होता है। जिन भीष्म पर तुम आरोप लगा रही हो वे भीष्म कुछ और ऊंचाइयों पर भी जीते हैं। किसी एक स्थिति में पतित व्यक्ति दूसरी स्थिति में बहुत पुण्यात्मा हो सकता है। किसी एक स्थिति में बहुत बढिय़ा काम करने वाला व्यक्ति कहीं गिर भी सकता है। पहचानों पांचाली ये भीष्म हैं। पांचाली श्रीकृष्ण की बात सुनकर चुप हो गई। तब भीष्म ने कहा- श्रीकृष्ण, मैं राजधर्म की शिक्षा तो दूंगा पर मेरा एक प्रश्न है आपसे। कृष्ण बोले पूछिए और भीष्म ने बड़ा सुंदर प्रश्न पूछा और श्रीकृष्ण ने जो उत्तर दिया वो हमारे बड़े काम का है।

सबके पापों का हिसाब रखते हैं भगवान
भीष्म ने श्रीकृष्ण से पूछा- मेरा जीवन ब्रह्मचारी के रूप में, योद्धा के रूप में, राजपुरूष के रूप में निष्कलंक रहा। मैंने कभी कोई पाप नहीं किया लेकिन मुझे आज ये दिन क्यों देखना पड़ रहा है। श्रीकृष्ण बोले- भीष्म। आप भूल गए आपने एक पाप किया था। भीष्म बोले- मैंने कभी कोई पाप नहीं किया।

श्रीकृष्ण ने कहा-लोगों के पाप का हिसाब रखना ही भगवान का काम है, मैं रखता हूं। मैं बताता हूं आपने कौन सा पाप किया था। जिस दिन द्रौपदी को राजसभा में लाया गया, ये आदेश करके कि यह जीत ली गई है। तब द्रौपदी ने एक बड़ा मौलिक प्रश्न किया था उस सभा में। द्रौपदी ने कहा था कि पांडव हार गए हैं, ये अपना राज्य हार गए उसके बाद इन्होंने अंत में मुझे दाव पर लगाया। तो जो राजा, जो पति स्वयं हार चुका हो तो वो दूसरे को कैसे दाव पर लगा सकता है । ये द्रोपदी का प्रश्न था।

राजसभा में दो मत हो गए थे। विदुर ने कहा था द्रौपदी ठीक बोल रही है। उस समय द्रौपदी ने आपसे भी यही प्रश्न पूछा था। आपने आंख नीची कर ली थी। आपने कहा था कि दुर्योधन राजा है इसलिए मैं इसके विपरीत नहीं बोल सकता। आपने कहा था मेरी शपथ है कि मैं हस्तिनापुर की राजगादी को सुरक्षित रखूंगा मेरी निष्ठा कुरूवंश से जुड़ी है और आपने गर्दन नीची कर ली थी। यही एक पाप था जो आपके जीवन को यहां ले आया।

भीष्म ने कहा- ये आप क्या कह रहे हैं भगवन मैंने तो संबंधों का निर्वाह किया था। मैंने तो शपथ ली थी प्रतिज्ञा का पालन करना तो राजपुरूष का कर्तव्य है। श्रीकृष्ण ने जो उत्तर दिया भागवत का संदेश यहीं से आरंभ हो रहा है।

समय के अनुसार बदल दें परपराएं
श्रीकृष्ण भीष्म से कह रहे हैं -भीष्म याद रखिए जीवन में अपनी शपथ, अपने संकल्प, अपने निर्णय व अपनी परंपरा का पुनर्मूल्यांकन करते रहना चाहिए। जब आपने हस्तिनापुर की राजगादी की रक्षा की शपथ ली थी तब चित्रांगद और विचित्रवीर्य बैठे थे राजगादी पर। और जब द्रोपदी का अपमान किया गया उस समय दुर्योधन जैसा दुष्ट बैठा था राजगादी पर।

श्रीकृष्ण का यह संवाद हमारे लिए संकेत है। वर्षों पुरानी हमारे घर की कोई परंपरा हो, हमारी जीवन की परंपरा व्यवस्थाओं की परंपराएं हो तो समय- समय पर उनका पुनर्मूल्यांकन करते रहिए। पांडव अपने सारे निर्णयों की पुष्टि भगवान से करवाते थे और भीष्म यहीं पर चूक गए थे। श्रीकृष्ण ने कहा-जीवन संतुलन का नाम है। जो लोग जीवन को अति से जिएंगे वे एक दिन परेशान हो जाएंगे।

यह सुनकर भीष्म ने कहा इतना बड़ा कुरुवंश था मैं कैसे संबंध निभाता था? मैं ही जानता था। श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले- आपने हस्तिनापुर की राजगादी को सुरक्षित रखा लेकिन आसपास के वातावरण को रूपांतरित नहीं किया ये आपकी बड़ी भूल थी। दुर्योधन भ्रष्ट बन गया, ये आपकी भूल है। भीष्म ने नजर नीची की। भगवान ने भीष्म को जो संदेश दिया हमारे भी काम आएगा। भीष्म ने कहा मैं प्रणाम करता हूं और भीष्म ने आभार व्यक्त किया।उन्होनें फिर धर्मराज को उपदेश दिया। और फिर परमधर्म बताया, विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना ही परमधर्म है। अब भीष्म प्राण त्यागने की तैयारी में हैं।

भक्तों को दिया वचन निभाते हैं भगवान
महाभारत के युद्ध के दौरान भीष्म ने श्रीकृष्ण से निवेदन किया था कि जिस दिन मेरी मृत्यु हो, आप अवश्य उपस्थित रहना। श्रीकृष्ण ने अपना वचन निभाया। जब महात्मा भीष्म ने प्राणों का उत्सर्ग किया तो भगवान भी भावुक हो गए। सोचिए क्या दिव्य मृत्यु रही होगी कि जिसकी मृत्यु पर भगवान आंसू बहाने लगे। ऐसी भीष्म की मृत्यु हुई। प्रथम स्कंध में भीष्म का चरित्र भागवत के ग्रंथकार सुना रहे हैं। भीष्म का गमन हुआ। भीष्म को भगवान ने विदा किया। भगवान श्रीकृष्ण महाभारत को समाप्त करके जा रहे हैं।

भगवान ने कहा मेरा समय हुआ, मुझे द्वारिका जाना है। भगवान द्वारिका जाने लगे और पांडवों से कहा कि- देखो अब तुम लोग अपना जीवन आरंभ करना। युधिष्ठिर का राजतिलक करके श्रीकृष्ण द्वारिका गए। वहां की जनता ने उनकी रथ यात्रा का दर्शन किया। यह वर्ण प्रथम स्कंध के 10 तथा 11वें अध्याय में आता है। बाहरवें अध्याय में परीक्षित के जन्म की कथा है। उत्तरा ने बालक को जन्म दिया और वह बालक जन्म लेते से ही उस चतुर्भुज रूप को खोजने लगा जिसे उसने अपनी माता के गर्भ में देखा था।

परीक्षित भाग्यशाली था कि उसको माता के गर्भ में ही भगवान के दर्शन हुए। यही कारण है कि वह उत्तम श्रोता है। युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों से पूछा कि यह बालक कैसा होगा? ब्राह्मणों ने कहा कि वैसे तो सभी ग्रह दिव्य हैं किंतु मृत्यु स्थान में कुछ त्रुटी है। इसकी मृत्यु सर्प दंश से होगी। यह सुनकर धर्मराज को दु:ख हुआ कि मेरे वंश का पुत्र सर्पदंश से मरेगा। पर ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर को आश्वस्त किया कि जो कुछ भी होगा उसी से इस बालक को सदगति मिलेगी।

क्यों हारे अर्जुन लुटेरों से ?
हम प्रथम स्कंध में चल रहे हैं। इसके सोलहवें अध्याय से परीक्षित का चरित्र आरंभ होता है। विदुरजी तीर्थयात्रा करते हुए प्रभास क्षेत्र में पहुंचे। विदुरजी महाभारत युद्ध के समय हस्तीनापुर छोड़ चुके थे। उन्हें खबर हुई कि सभी कौरवों का विनाश हो चुका है और धर्मराज युधिष्ठिर राजसिंहासन पर बैठै हैं। मध्यरात्रि के समय विदुरजी धृतराष्ट्र और गांधारी को लेकर वन में सप्त स्त्रोत तीर्थ चले गए।

यदुवंश की कथा आगे विस्तार से जानेंगे। अभी सिर्फ इतना कि भगवान ने जाते-जाते अर्जुन को अपने यदुवंश की स्त्रियां और संपत्ति सौंप दी और कहा कि तुम इनको लेकर हस्तिनापुर चले जाओ क्योंकि अब राक्षस लोग आक्रमण करेंगे, द्वारिका डूब जाएगी। अर्जुन उनको लेकर आ रहे थे कि रास्ते में लुटेरों ने हमला किया, अर्जुन हार गए। अर्जुन पराजित होकर आए। युधिष्ठिर ने देखा और पूछा अर्जुन तुम तो द्वारिका गए थे। भगवान श्रीकृष्ण व उनके परिवार के सदस्यों को लेने। क्या हुआ, तेरा चेहरा ऐसा डूबा हुआ क्यों है?

चेहरे का तेज कहां चला गया, वो ओज कहा चला गया जिसके लिए अर्जुन जाना जाता था? तू रोता-रोता सा क्यों दिखता है। अर्जुन ने कहा- भैया हम लूट गए। भगवान चले गए। वे स्वधाम जा चुके हैं। जब मैं कुछ स्त्रियों को लेकर आ रहा था लुटेरों ने मुझे लूट लिया। मैं गांडीव उठाता था तो मेरा शस्त्र नहीं उठता। मैं साधारण लुटेरों से हार गया। वो स्त्रियां ले गए, धन ले गए। मैं लुटापिटा आपके पास आया हूं ।

भगवान की उपस्थिति में ही बल है
लुटे-पिटे अर्जुन को देखकर युधिष्ठिर ने कहा-आज हमें समझ में आ गया हम पांडवों के पास कोई ताकत नहीं थी। ताकत तो सिर्फ श्रीकृष्ण की थी। अरे तू जिस गांडीव से बड़े-बड़े योद्धाओं को पराजित करता था। वो लूटेरों से हार गया। तेरे गांडीव में ताकत नहीं थी। ताकत तो सिर्फ श्रीकृष्ण की मौजूदगी में थी। जीवन में परमात्मा की मौजूदगी की ही ताकत है। उसके जाते ही हम बेकार हो जाएंगे इसलिए निर्भय बने रहिए उसका बल हमारे साथ है। यह बहुत सूत्र की बात है। भगवान को सदा अपने जीवन के केंद्र में रखिए।

अब पांडवों ने विचार किया चलो हम भी संसार त्यागते हैं। ऐसा कहते हैं कि पांडवों में सिर्फ ही युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग में गए थे। युधिष्ठिर अपने भाइयों व पत्नी द्रोपदी को साथ लेकर चले। स्वर्गारोहण के समय सबसे पहले द्रौपदी गिर गई। प्रश्न पूछा ये क्यों गिर गई? उत्तर मिला पांच पतियों में सबसे अधिक अर्जुन को प्रेम करती थी, भेदभाव रखती थी इसलिए इनका पतन सबसे पहले हुआ। उसके बाद सहदेव का पतन हुआ क्योंकि उनको ज्ञान का अभिमान था। नकुल का पतन हुआ क्योंकि उन्हें अपने रूप का अभिमान था। अर्जुन जब गिरे तो युधिष्ठिर ने कहा अर्जुन को अपने बल पर अभिमान था इसलिए अर्जुन भी स्वर्ग में सशरीर नहीं जा पाए।

अब बचे भीम और युधिष्ठिर। तो पहले भीम गिर गए। उसने पूछा मैं क्यों गिर गया भैया? तो उन्होंने कहा तू इसलिए गिर गया कि तू खाता बहुत था। अधिक खाना भी पाप है। भीम अधिक खाता था और अधिक सोता था। ये दो काम न करें ये पाप की श्रेणी में आते हैं। उसके बाद युधिष्ठिर स्वर्ग में गए। उन्होंने वहां भाइयों और पत्नी को देखा और सबको मुक्ति दिलाई। आगे भागवत के प्रमुख पात्र परीक्षित की कथा आएगी।

धर्म के चार चरण होते हैं
पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित राज करने लगे। उन्होंने धर्म के आधार पर प्रजापालन किया। तीन अश्वमेध यज्ञ किए। सब प्रसन्न थे उनके राज में। जन्म के समय ज्योतिषियों ने जिन गुणों का वर्णन किया वे सब उनमें प्रकट होने लगे थे। यथासमय उन्होंने उत्तर की कन्या दरावति से विवाह किया। जिससे जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए।

एक बार जब वे कहीं जा रहे थे तभी उन्हें एक लंगड़ा दुर्बल बैल और दुर्बल गाय दिखाई दी। वास्तव में वह बैल धर्म था और गाय के रूप में पृथ्वी थी। परीक्षित ने देखा की राजा का वेष धारण किए हुए एक शुद्र उन दोनों पर निरंतर चाबुक का प्रहार कर रहा है। वह राजा वेष धारण किए हुए और कोई नहीं साक्षात कलियुग था। राजा से अन्याय नहीं सहा गया। उन्होंने कलियुग का हाथ पकड़ लिया। पूछा कि इन निर्बलों को क्यों प्रताडि़त कर रहा है? परीक्षित को तब तक उनके रूप का ज्ञान नहीं था। तब बैल ने अपना परिचय दिया, गौ ने अपना परिचय दिया।

बैल रूपी धर्म का केवल एक ही पैर था शेष तीन पैर टूट चुके थे। धर्म के चार चरण होते हैं-सत्य, तप, पवित्रता, और दान। सतयुग में तो धर्म के चार चरण थे। फिर त्रेता में सत्य चला गया द्वापर में सत्य ओर तप न रहे और कलयुग में सत्य और तप के साथ पवित्रता भी चली गई। कलयुग में केवल दान और दया के सहारे धर्म रह गया। गाय रूपी पृथ्वी का शरीर जर्जर, केवल अस्थिपंजर रह गया था। तब राजा ने उनकी ये दुर्दशा देखी और प्रण किया कि आप लोग निश्चित रहिए मैं इस आततायी कलयुग का सर्वनाश करके रहूंगा।

कलयुग को अभयदान दिया परीक्षित ने
राजा परीक्षित की प्रतिज्ञा को जब कलयुग ने सुना तो वह भय से कांप उठा। वह राजा की शरण में आ गया। परीक्षित ने उसे अभय दान दे दिया। तब कलयुग ने कहा कि पद्धति के क्रम से मेरा भी समय आ गया है। आप मुझे रहने के लिए उचित स्थान दीजिए। तब परीक्षित ने कलयुग को मदिरा, जुआ, व्याभिचार और हिंसा इन चार स्थानों पर रहने की अनुमति दे दी। कलयुग ने फिर अनुनय विनय किया कि उसको एक और पंचवां स्थान दिया जाए। और वह पांचवां स्थान स्वर्ण था। राजा ने स्वीकृत कर लिया।

समय बीता और एक दिन ऐसा हुआ कि परीक्षित को जिज्ञासा हुई कि देखूं तो सही कि मेरे दादा ने मेरे घर में क्या-क्या रख छोड़ा है ? एक पेटी में स्वर्ण मुकुट मिला। बिना कुछ सोचे ही राजा परीक्षित ने मुकुट पहन लिया। यह मुकुट जरासंघ का था। पाण्डवों ने जब जरासंघ का वध किया था तब वे इसे ले आए थे। यह धन अनीति का था, छीना-छपटी का था। अनीति का धन उसके कमाने वाले को और वारिस को भी दु:ख देता है, इसलिए उस मुकुट को पेटी में बंद करके रखा गया था। आज परीक्षित ने देखा तो पहन लिया।

अधार्मिक व्यक्ति का वह मुकुट अधर्म से ही लाया गया था। इसलिए उसके द्वारा कलयुग ने परीक्षित की बुद्धि में प्रवेश कर लिया। जिस कलयुग को राजा परीक्षित अपने देश में भी नहीं रहने देना चाहते थे उस कलयुग को राजा के मुकुट में ही स्थान मिल गया।

जब ऋषि ने परीक्षित को दिया श्राप
एक दिन राजा परीक्षित शिकार खेलने गए। मृग का पीछा करते-करते वे बहुत थक गए। प्यास लगी तो वे शमीक ऋषि के आश्रम में गए। शमीक ऋषि ध्यान लगाकर बैठे थे। परीक्षित ने सोचा कि ये मेरी बात नहीं सुन रहे। भूख प्यास के मारे राजा अपना विवेक खो बैठा। और उसने एक छड़ी से एक मृत सर्प को शमीक ऋषि के गले में डाल दिया। और राजा चला गया। शमीक ऋषि की समाधि फिर भी भंग नहीं हुई। शमीक ऋषि का पुत्र श्रृंगी वहां पहुंचा। उसने देखा कि किसी ने मृत सर्प पिता के गले में डाल दिया है। तो उन्हें बड़ा क्रोध आया।

उन्होंने क्रोध में आकर श्राप दे दिया कि जिस किसी ने मेरे पिताजी के गले में मृत सर्प डाला है आज से ठीक सातवे दिन सर्पराज तक्षक उसको डंस लेंगे।जब ऋषि शमीक की तपस्या पूर्ण हुई तब उन्हें पूरी बात श्रृंगी ने बताई।ऋषि ने ध्यान लगाया। वे समझ गए कि राजा परीक्षित ने कलयुग के प्रभाव में आकर यह किया है। अनजाने में उनसे भूल हो गई। मेरे पुत्र ने छोटी सी भूल का उन्हें इतना बड़ा दंड दे दिया। यह तो अच्छा नहीं हुआ। अगर राजा परीक्षित न रहें तो पृथ्वी पर अराजकता व्याप्त हो जाएगी। यह सोच ऋषि चिंतित हो गए।

इधर राजा परीक्षित ने जब मुकुट उतारा तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। राजा परीक्षित को जब शाप के बारे में ज्ञान हुआ तो उन्होंने इसे प्रभु आज्ञा मानकर शिरोधार्य किया और तुरंत राजपाट छोड़ दिया। उन्होंने निश्चय किया कि अब जो भी थोड़े दिन बचे हैं, उन दिनों में वे भगवान की भक्ति करेंगे। ऐसा विचार कर परीक्षित राजमहल छोड़कर गंगा के तट पर आकर विराज गए और संकल्प लिया कि मरणकाल तक वे निराहार रहकर तपस्या करेंगे।

संकट आने पर धैर्य रखें
ऋषि-मुनियों को जब यह पता चला कि राजा परीक्षित श्रापित हो चुके हैं तो वे राजा के समीप उनके आश्रम पहुंचे। उनमें मुख्य थे अत्री, वशिष्ठ, च्यवन अरिष्ठनेमी, अंगीरा, पाराशर, विश्वामित्र, परशुराम, भृगु, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, अगस्त्य, और वेदव्यास। नारदजी भी वहां पहुंच गए। राजा ने सबको प्रणाम किया और सारी बात बता दी व कहा कि अब मैं इसी प्रकार से अपना शेष जीवन-यापन करूंगा। तब सभी ऋषि-मुनियों ने विचार किया कि जब तक आप जीवित हैं तब तक वे सब लोग यहीं विराजेंगे और धर्मोपदेष करेंगे।

ऋषियों ने राजा को भांति-भांति का उपदेष देना आरंभ किया और संयोग से शुकदेवजी वहां उपस्थित हो गए। सभी ने उनका स्वागत किया, सत्कार किया उनको उचित आसन पर बैठाया। राजा ने अपनी कथा संक्षेप में शुकदेवजी महाराज को सुनाई और अपने कल्याण की कामना की। राजा ने कहा कि वो ऐसा उपाय बताएं जिससे मेरा उद्धार हो। प्रश्न सुन शुकदेवजी ने मौन होकर राजा की भावनाओं को पहचाना और परीक्षित को उपदेश देना आरंभ किया। उस वातावरण को देखकर परीक्षित ने अपने को धन्य माना।

शुकदेवजी ने कहा जो समय बीत गया उसका स्मरण मत करो, भविष्य का विचार भी मत करो। केवल वर्तमान को सुधारो। सात दिन बाकी रहे हैं। भगवान नारायण को स्मरण करो। तुम्हारा जीवन अवश्य धन्य हो जाएगा और इस प्रकार व्यासजी प्रथम स्कंध को समाप्त करते है। परीक्षित से सीखा जाए कि संकट आने पर कैसे संयम रख जीवन बिताएं। संयम को बल देना हो तो एक काम और किया जा सकता है, जरा मुस्कुराइए...

जगत नहीं जगदीश की उपासना करें
परीक्षित श्रापित हो चुके हैं। परीक्षितजी ने अपना पाप बता दिया, उनसे भूल हुई, गंगा के तट पर बैठ गए। साधु-संतों से कहा जीवन के अंतिम समय में क्या किया जाए कि आदमी को मोक्ष मिले। कोई मुझे सिखाए। साधु-संतों ने कहा हम ये नहीं कर सकते। तभी किसी ने कहा शुकदेवजी यह कर सकते हैं। तभी शुकदेवजी पधारे। शुकदेवजी से परीक्षित ने पूछा- शुकदेवजी आप ज्ञान दीजिए हमें क्या करना चाहिए, हम अपने जीवन को कैसे सिद्ध कर सकें? शुकदेवजी ने कहा मैं आपको सात दिन तक कथा सुनाऊंगा। परीक्षितजी ध्यान से बैठ गए। यहां भागवत का प्रथम स्कंध समाप्त होने जा रहा है।

शुकदेवजी कह रहे हैं- यह संसार आपको कुछ अधिक नहीं देगा, दुनिया पर टिकोगे कुछ नहीं मिलेगा, दुनिया बनाने वाले पर टिकोगे तो बहुत मिलेगा। शुकदेवजी ने कथा सुनाई- चंचला नाम की बहुत सुंदर स्त्री थी। सारे गांव के युवक उससे विवाह करना चाहते थे पर चंचला ऐसी नखराली कि सबको मना कर गई। एक दिन उसके गांव के पागलखाने में राजनेता निरीक्षण करने आए वहां उन्होंने देखा कोठरी में एक सुंदर युवक बाल नोच रहा था। उन्होंने पूछा ये कैसे पागल हो गया? किसी ने बताया हमारे गांव में चंचला नाम की स्त्री है। ये उससे विवाह करना चाहता था। उसने मना कर दिया तो यह पागल हो गया। अगली कोठरी में गए तो एक युवक खुद को थप्पड़ मार रहा था। उन्होंने कहा ये कैसे पागल हो गया? फिर किसी ने कहा चंचला ने इससे शादी कर ली इसलिए ये पागल हो गया।

चंचला जिसको मिली वो भी पागल हो गया और जिसको नहीं मिली वो भी गया। ये संसार चंचला है। दुनिया जिसे मिली उसको भी कुछ नहीं मिला और जिसकी चली गई वो भी दु:खी हो गया। शुकदेवजी राजा परीक्षित को द्वितीय स्कंध की ओर ले जा रहे हैं। यहां दूसरे स्कंध से लेकर आठवें स्कंध तक गीता हमें जीवन में निष्काम कर्म करना सीखाएगी तथा व्यवसायिक जीवन में परिश्रम की चर्चा आएगी।

श्रोता में कौन से गुण होने चाहिए
भागवत के प्रथम स्कंध में अधिकार निरूपण किया गया है। श्रोता कैसा होना चाहिए, और वक्ता कैसा होना चाहिए। यह दूसरा स्कंध साधन प्रधान स्कंध है। दस अध्याय हैं, जिनमें परमात्मा की प्राप्ति के साधन बताए हैं। मुख्य रूप से श्रवण को ही परमात्मा प्राप्ति का साधन बताया है। इस स्कंध के दस अध्याय में से पहले दो में ध्यान की चर्चा है। बाद के दो अध्याय में वक्ता, श्रोता की श्रद्धा का वर्णन है। शेष छ: अध्याय में मनन का वर्णन है। इन साधनों के द्वारा मनुष्य भगवान को प्राप्त कर लेता है।

आगे के स्कंधों में सर्ग-विसर्ग का वर्णन आएगा इसलिए शुकदेवजी ने अधिकार और साधन को पहले बता दिया है। यह भागवत की विशिष्ट भाषा है। द्वितीय स्कंध आरंभ होता है। शुकदेवजी को राजा परीक्षित के प्रश्न सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा कि राजा के प्रश्न बड़े ही महत्व के हैं। आत्म तत्व को न जानने के कारण प्राणी प्रपंच में ही लीन रहता है जबकि मानव जीवन का लक्ष्य भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण एवं कीर्तन होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण की अद्भूत लीला का वर्णन श्रीमद्भागवत में उल्लेखित है। यह श्रीमद्भागवत पुराण वेद के समान पठनीय और मननीय है। शुकदेवजी ने राजा को कहा कि उनके कल्याण और जनहित की दृष्टि से वे इस कथा को सुनाएंगे।

परीक्षित अधिकारी थे अत: उनको शुकदेव जैसे सदगुरू मिले। परीक्षित में पांच प्रकार की शुद्धियां हैं- मातृ शुद्धि, पितृ शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, अन्न शुद्धि, और आत्म शुद्धि। शुकदेवजी ने परीक्षित से कहा- हे राजन, तुम यह न समझना कि तुम्हारी आयु अल्प रह गई है। दो घड़ी के सद्विचार से ही मनुष्य अपना हित साध सकता है।

मृत्यु ज्ञात हो जाने पर क्या करें?
अब आरंभ हो रहा है दूसरा स्कंध। इस स्कंध से आठवें स्कंध तक गीता हमें बताएगी जीवन में कर्म कैसे किए जाएं। गीता महाभारत का एक छोटा सा साहित्य है। महाभारत के बीच में छोटे से दीए के रूप में पूरी महाभारत को प्रकाशित करने वाले का नाम गीता है। शुकदेवजी राजा परीक्षित को बताते हैं। किस तरह से खट्वांग राजा को जब यह पता लगा इंद्र के द्वारा उसकी मृत्यु में दो चार घड़ी शेष हैं तो खट्वांग राजा तुरंत स्वर्ग से उतरकर अयोध्या आए, दान दक्षिणा दी, वैराग्य लिया, सरयू तट पर तप किया और योग क्रिया द्वारा अपने शरीर को मुक्त कर दिया। शुकदेवजी ने बताया कि मृत्यु निकट जानकर मनुष्य को चाहिए कि वह माया मोह का त्याग कर औंकार मंत्र का जाप करे। इस प्रकार राजा परीक्षित को मृत्युकाल में क्या करना उचित है, शुकदेवजी इसका उपदेश देकर कहते हैं कि अलग-अलग देवताओं की उपासना का फल सुनिए। जो ब्रह्म तेज चाहते हैं वे मनुष्य ब्रह्मा की, उत्तम इंद्रियों को चाहने वाले इंद्र की, संतान चाहने वाले दक्ष प्रजापति की, संपत्ति की कामना वाले देवी दुर्गा की, तेज चाहने वाले अग्नि की, धन चाहने वाले वरूण की, विद्या चाहने वाले शंकर की, पति-पत्नी में प्रेम चाहने वाले पार्वती की, धर्म चाहने वाले विष्णु की, कुल को चाहने वाला पितरों की तथा विघ्नों से रक्षा चाहने वाला यज्ञ उपासना करें। फिर शुकदेवजी ने बताया निष्काम कर्म के लिए साधक को इन देवी-देवताओं की उपेक्षा करते हुए श्रीनारायण की ही आराधना करनी चाहिए।

सूतजी कहने लगे कि मुने, शुकदेवजी के वचन सुनकर राजा परीक्षित ने अपना तन-मन श्रीकृष्ण भक्ति में लीन कर दिया। राजा ने जब देखा कि उनका मृत्यु काल समीप आ गया है तो उन्होंने नित्य नैमित्तिक कर्मोंको छोड़कर भगवान श्रीकृष्ण में ही ध्यान लगाया। राजा ने शुकदेवजी से कहा कि प्रभु इस जगत को अपनी माया से किस भांति उत्पन्न करते हैं ? किस भांति इसका पालन करते हैं? और किस भांति इसका संहार करते हैं? कृपया बताइए?

नारायण ही परब्रह्म हैं
हम पुन: ध्यान में ले आएं कि कथा शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे हैं तथा शौनकादी ऋषियों को सूतजी कथा सुना रहे हैं।भागवत में अब ब्रह्मा, विष्णु वार्ता की चर्चा आएगी। आदिदेव अपने जन्मस्थान कमल पर बैठकर सृष्टि रचना की इच्छा से सोच में डूबे हुए थे। तभी ब्रह्माजी ने आकाशवाणी सुनी- तप, तप। ब्रह्माजी ने समझा कि मुझे तप करने का आदेश मिला है। ब्रह्माजी ने सौ वर्ष तक तप किया और चतुर्भुज नारायण के दर्शन हुए। नारायणजी ने ब्रह्माजी को चतुश्लोकी भागवत का उपदेश दिया।

द्वितीय स्कंध के नवें अध्याय के 32वें से 35 वें श्लोक तक चतुश्लोकी की भागवत है। शुकदेवजी ने परीक्षितजी को समझाया कि भगवान की सृष्टि का विषद वर्णन करने के उद्देश्य से ब्रह्माजी ने नारदजी को समझाया कि एक से अनेक होने की इच्छा भगवान विष्णु ने की। भगवान ने ब्रह्माण्ड की रचना की और हजारों वर्ष तक उसको जल में रखा। फिर उसको बाहर निकालकर चैतन्य किया और उसे फोड़कर उससे सहस्त्रोचरण नेत्र भुजा मस्तक वाले विराट पुरूष की उत्पत्ति की। वही नारायण ब्रह्मा रूप से संसार की सृष्टि करते हैं, रौद्र रूप से लय करते हैं, विष्णु रूप में इसका रक्षण पालन पोषण करते हैं तथा सृष्टि करते हैं।

उसके पश्चात नारदजी को ब्रह्माजी ने चौबीस अवतार की संक्षिप्त कथा कही। ब्रह्माजी ने अपने पुत्र नारद से कहा कि वे इस विषय में जितना जानते थे उतना उन्होंने बता दिया है। जो कथा मैंने तुम्हें सुनाई है उस कथा अर्थात श्रीमद्भागवत पुराण का जन-जन में प्रचार तुम करो।

कर्ता और कर्म में अंतर बताती है भागवत
अवतार की बात हम लोग अच्छी तरह से समझ लें। जब भगवान के अवतार की चर्चा आती है तो यह प्रश्न सहज है कि भगवान अवतार क्यों लेते हैं? भगवान जानते थे कि मैं भक्तों को कहता हूं कि तुम ऐसा जीवन जियो तो भक्त एक दिन मुझसे कहेंगे कि भगवान एक तो हमको मनुष्य बना दिया और ऊपर से बहुत से नियम लाद दिए। आपको क्या मालूम की धरती पर कितना कष्ट है। तो भगवान ने कहा कि मैं स्वयं भी मनुष्य बनकर आऊंगा और तुम्हें बताऊंगा कि कैसे जीवन जिया जाए।

श्रीकृष्ण और श्रीराम के जीवन में कुछ नया नहीं था। जैसा हमारा जीवन है वैसा ही उनका जीवन था। लेकिन अवतार लेकर भगवान अपने आचरण से बता रहे हैं कि कर्ता का अर्थ क्या होता है ? अवतारों के प्रति पूजा और प्रार्थना क्या हैं? यह हम गोपियों के जीवन से समझ सकते हैं। गोपियों जैसी पूजा विधि-विधान से नहीं हो सकती। अगर हम बाहर से इस बात को जाचेंगे तो समझ में नहीं आएगी। बात थोड़ी भीतर की है। करने वाले में कर्ता का भाव यदि न हो तो उसके हाथ से जो भी होगा वह परमात्मा से हो रहा होगा।

करने वाले में कर्ता का भाव हो तो जो भी होगा वह अहंकार से घटित होगा। हमने ही सब किया है यही भाव बना रहेगा और कर्म में निष्कामता नहीं आएगी।जब हम अवतारों की चर्चा कर रहे हैं तब कर्ता और कर्म की बात को आसानी से समझा जा सकता है।इस कर्ता और कर्म के भाव को दास मलूका के दोहे से बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। ''अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम। इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि काम न करें। न करने का मतलब आलस्य बिलकुल नहीं है। यहीं बस थोड़ा का फर्क है।

कर्ता का भाव मन से मिटा दें
जब हम दास मलूक का यह दोहा अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम, पढ़ते हैं तो सोचते हैं कि मलूक कर्म छोडऩे की बात कह रहे हैं । लेकिन सच यह है कि मलूक कर्ता छोडऩे की बात कह रहे हैं। मलूक कह रहे हैं कर्ता भाव छोड़ दो। पक्षी काम नहीं करते। लेकिन वे किसी नौकरी पर नहीं जाते। फिर भी देखिए कि पक्षी घोंसला बना रहे हैं, घास-पात ला रहे हैं, भोजन जुटा रहे हैं। काम तो चल रहा है लेकिन उनके अंदर का कर्ता भाव नहीं है।

अजगर चाकरी नहीं कर रहा है अपने भोजन की तलाश तो फिर भी करता है। हिलता-डुलता है, चलता-फिरता है लेकिन कर्ता का भाव वहां नहीं है। तो मलूक इतना ही कह गए हैं कि प्रकृति बिना कर्ता भाव से चल रही है। परमात्मा उसे चलाता है। अवतारों से हम एक संकेत यह लें कि किस तरह से अकर्ता भाव से कर्म होता है।ब्रह्माण्ड के सात आवरणों का वर्णन करते हुए वेदान्त-प्रक्रिया में ऐसा माना है कि-पृथ्वी से दस गुना जल है, जल से दस गुना अग्नि, अग्नि से दस गुना वायु, वायु से दस गुना आकाश, आकाश से दस गुना अहंकार, अहंकार से दस गुना महत्व और महत्व से दस गुनी मूल प्रकृति है। वह प्रकृति भगवान के केवल एक पाद में है। इस प्रकार भगवान की महत्ता प्रकट की गई है।

अगले स्कंध में विदुर के गृह त्याग का प्रसंग तथा तीर्थयात्रा में महर्षि मैत्रेय से हुए उनके सत्संग का वृत्तांत जो राजा परीक्षित को शुकदेवजी ने सुनाया और जो सूतजी ऋषियों को सुना रहे हैं, वह आएगा। इसी के साथ द्वितीय स्कंध समाप्त होता है।

वनवास के बाद ही सुख मिलता है
अब धीरे-धीरे हम कथा में प्रवेश कर रहे हैं। इसमें सर्ग और विसर्ग का वर्णन है। सर्ग अर्थात सृजन, सृष्टि। यहां से श्रीमद्भागवत में परमात्मा को समझने के लिए प्रसंग आए हैं। तृतीय स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि- हे राजन, तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है यही प्रश्न विदुरजी ने मैत्रेय मुनि महाराज से किया था। तब राजा परीक्षित ने कहा कि विदुरजी और मैत्रेय महाराज में यह वार्तालाप कहां पर हुआ? कृपया मुझे बताइए।

शुकदेवजी महाराज ने बताया कि जब पांडव अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करके वनवास बिताकर धृतराष्ट्र के समक्ष आए और अपना राज वापस मांगा तो धृतराष्ट्र ने इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के दूत के रूप में गए। धृतराष्ट्र ने तब भी नहीं स्वीकारा। विदुर धृतराष्ट्र को समझाने गए लेकिन धृतराष्ट्र ने विदुरजी की सलाह नहीं मानी।जब विदुर धृतराष्ट्र को समझा रहे थे तो शकुनी और दुष्शासन वहां आ गए उन्होंने विदुरजी का बहुत अपमान किया। इस कारण विदुरजी दु:खी हो गए। दुष्शासन ने तो यहां तक कहा कि विदुर को देश निष्कासन का दंड दिया जाए।

विदुरजी ने इस घटना को प्रभुलीला के रूप में ग्रहण किया और कौरवों का प्रदेश छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। बहुत वर्षों तक इधर-उधर घूमने के उपरांत विदुरजी यमुना तट पर पहुंचे और संयोग से वहां उनकी भेंट उद्धवजी से हो गई।याद रखिए वनवास के बिना जीवन में सुवास नहीं आ सकता इसलिए पांडवों ने और भगवान रामचंद्रजी ने वनवास बिताया था लेकिन कलयुग में वनवास का यह अर्थ नहीं कि गृह छोड़कर जंगल की ओर जाया जाए। घर में भी रहकर वनवास के नियमों का पालन किया जा सकता है।

संतों का सदैव सम्मान करें
विदुरजी ने सोचा कि अब कौरव मेरी निंदा कर रहे हैं तो वनवास की ओर निकल पड़े । महापुरूष निंदा और विपरीत परिस्थितियों में भी सार्थकता खोजते हैं। अच्छी वस्तुओं में अच्छाई देखे ऐसे लक्षण साधारण वैष्णव के होते हैं लेकिन बुरी वस्तुओं में अच्छाई देखी जाए ये उत्तम वैष्णव के लक्षण होंगे।भगवान ने सोचा कि यदि कौरवों के साथ विदुरजी रहेंगे तो कौरवों का विनाश न हो सकेगा इसीलिए विदुरजी को वह स्थान छोडऩे की प्रेरणा प्रभु ने दी।

रामायण में रावण ने विभीषण का और महाभारत में दुर्योधन ने विदुरजी का अपमान किया था। इस प्रकार संतों का अपमान करने के कारण उनका विनाश हुआ। भगवान भी जानते थे जब तक विभीषण लंका में है रावण नहीं मरेगा। तो उसको ज्ञान बांटा और कहा तू बाहर निकल और जैसे ही विभीषण बाहर गया सभी लंकावासी आयुहीन हो गए। पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर ये तीन भाई थे। विदुर बहुत संत प्रवृत्ति के थे ।

विदुर ने धृतराष्ट्र को कई बार समझाया कि तुम्हारे गलत आचरण से दुर्योधन का स्वभाव बिगड़ता जा रहा है। इस प्रकार की बात करने के बाद भी जब धृतराष्ट्र ने ध्यान नहीं दिया तो विदुर चले गए तीर्थयात्रा पर और उधर विदुर को उद्धव मिल गए। उद्धव वो पात्र है जो कृष्ण के सखा भी है और रिश्तेदार भी हैं। कृष्ण जैसे ही हैं उद्धव।

कैसे हुआ सृष्टि का निर्माण
यह उस समय की बात है जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था। कौरव पराजित तथा श्रीकृष्ण परम तत्व में विलिन हो चुके थे। उनके वियोग में उद्धव महाराज तीर्थाटन के लिए निकल पड़े और उस समय विदुरजी और उद्धवजी की भेंट हो गई। उद्धवजी ने विदुरजी को सारी जानकारी दी। कैसे कौरवों व पांडवों का युद्ध हुआ? कैसे भगवान ने देह त्यागी? दोनों एक-दूसरे की बात सुनकर दु:खी हो गए। उद्धवजी तो श्रीकृष्ण के परम सखा थे। उन्होंने सारी बात विदुरजी को बताई।

उद्धव ने बताया कि भगवान से बिछुड़ जाने पर वे दु:खी हैं और अब वे यहां से बद्रीकाश्रम के लिए प्रस्थान करेंगे। उनकी बात सुनकर विदुर चिंतित हो गए। विदुर ने कहा जो आत्मबोध कृष्णजी ने आपको सुनाया वह मैं भी सुनाना चाहूंगा। तब उद्धवजी ने कहा कि आप मैत्रेय मुनि की सेवा में चले जाइए क्योंकि जिस समय भगवान ने मुझे उपदेश दिया उस समय महामुनि मैत्रेय वहीं उपस्थित थे। महात्मा विदुर भागीरथ के तट पर स्थित मैत्रेय मुनि के आश्रम के लिए प्रस्थान कर गए। विदुर मैत्रेय मुनि के पास पहुंचे। उनसे निवेदन किया श्रीकृष्ण की लीलाओं का मर्म समझाएं।

मैत्रेयजी ने विदुर को बताया कि महाप्रलय के समय भगवान श्रीकृष्ण अपनी योगमाया को समेट कर सुषुप्त अवस्था में रहते हैं। यद्यपि उस अवस्था में भी चैतन्य और पुन:रचना के लिए अवसर की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। भगवान देवों की प्रार्थना स्वीकार कर 23 तत्वों को संकलित करते हैं और फिर उसमें प्रविष्ट हो जाते हैं।

क्या है सृष्टि का क्रम
मैत्रेय मुनि विदुरजी को सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बता रहे हैं। उसके अनुसार भगवान सृष्टि की उत्पत्ति के लिए एक विराट पुरूष की रचना करते हैं। विराट पुरूष प्राण, अपान, समान, और उदान, व्यान इन पांच वायु सहित नाग, कुर्म, कलकल, दह, धनंजय आदि तत्वों को प्रकट करता है। अपने कठिन तप के कारण भगवान इन प्राणियों की जीविका के लिए इनकी मुख, जिव्हा, नासिका, त्वचा, नेत्र, कर्ण, लिंग, गुदा, हस्तुपाद, अनुभूति और चित्त और इनके विषय क्रमश: वाणी, स्वाद, ध्यान, स्पर्श, दर्शन, श्रवण, वीर्य, मल त्याग, कर्मशक्ति, चिंतन, अनुभूति चेतना और फिर इनके देवता अग्नि, वरूण, अश्विनी कुमार, आदित्य, पवन, प्रजापति इंद्र लोकेश्वर आदि को उत्पन्न करते हैं।

विदुरजी ने मैत्रेयजी से कुछ प्रश्न किए। मैत्रेयजी ने उनसे कहा कि आपने जो प्रश्न पूछा है उनके उत्तर आगे आने वाली कथाओ में निहित है। मैत्रेयजी कहते हैं अब सृष्टि का क्रम सुनिए विदुरजी। ब्रह्माजी सर्वप्रथम तप, मोह आदि तामसिक वृत्तियों के उत्पन्न होने पर खिन्न हो गए। तब ब्रह्माजी ने विष्णुजी का ध्यान किया और दूसरी सृष्टि की रचना करने लगे। उनमें सनकादि आदि वीतराग ऋषि उत्पन्न हुए। ब्रह्माजी की भौंह से नील और लोहित वर्ण का एक बालक उत्पन्न हुआ। वह अपने जन्म के साथ ही निवास स्थान और नाम के लिए रोने लगा। उसके रूदन के कारण ही ब्रह्माजी ने उसका नाम रूद्र रख दिया। उसको उन्होंने प्रजा उत्पन्न करने का आदेश दिया। नील लोहित की जो संतती उत्पन्न हुई वह इतनी उग्र और भयंकर थी कि स्वयं ब्रह्माजी भयभीत रहने लगे। नील लोहित वन में चला गया।

ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न हुए ऋषि
नील लोहित के जाने पर ब्रह्माजी ने अपने दस अंगों से दस पुत्र उत्पन्न किए। उनकी गोद से प्रजापति, अंगुष्ट से दक्ष, प्राण से वशिष्ठ, त्वचा से भृगु, हस्थ से ऋतु, नाभि से पुलक, कर्णों से पुलस्त्य मुख से अंगिरा, नेत्रों से अत्रि, मन से मरीची और इसके अतिरिक्त भी ब्रह्माजी के हृदय से काम, भोहों से क्रोध, अदरोष्ठ से लोभ, वाक से सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से निरूक्ति, छाया से कर्दम, दक्षिण स्तन से धर्म ओर वाम स्तन से अधर्म उत्पन्न हुए।

जब मरीची आदि से भी प्रजा बढ़ी तो ब्रह्माजी ने पुन: भगवान का स्मरण किया। भगवान का ध्यान करते ही ब्रह्माजी के शरीर के दो भाग हो गए। एक भाग पुरूष बना और दूसरा भाग स्त्री। जो पुरूष बना वही स्वयंभू मनु और जो स्त्री बनीं वे शतरूपा नाम की रानी बनी। मनु व शतरूपा से दो पुत्र व तीन कन्याएं उत्पन्न हुईं। पुत्रों के नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद व कन्याओं के नाम हैं आकूति, देवहूति, और प्रसूति थे। इन्हीं तीन कन्याओं का क्रमश: रूचि, कर्दम और दक्ष प्रजापति के साथ विवाह किया। फिर इन तीन दंपत्तियों से ही आगे की समस्त सृष्टि का विस्तार हुआ।

जब हिरण्याक्ष को इस बात का ज्ञान हुआ तो उसने संपूर्ण पृथ्वी को पानी में छुपा दिया। तब ब्रह्मा की नासिकाओं से वराह भगवान प्रकट हुए। उन्होंने पृथ्वी को पानी से बाहर निकाला। हिरण्याक्ष को मारा। और पृथ्वी का शासन मनु के हाथों सौंपकर भगवान स्वधाम लौट गए।

कन्या को ईश्वर का वरदान समझें
विदुरजी को मैत्रेयजी बता रहे हैं ऐसे ब्रह्मांड की रचना की गई। जब ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की और इतने सारे मानस पुत्र पैदा हो गए। तब भगवान ने ब्रह्माजी से कहा- आपको मनुष्यों की सृष्टि पैदा करनी पड़ेगी जैसे ही भगवान ने संकेत दिया ब्रह्माजी के शरीर के दो भाग हुए। एक भाग स्त्री के रूप में तथा दूसरा पुरूष के रूप में पैदा हुआ। पुरूष मनु तथा स्त्री शतरूपा रूप में जानी गईं। ब्रह्मा ने उन्हें संतानोपत्ति की आज्ञा दी। उनको तीन बेटियां पैदा हुईं आकुति, देवहुति और प्रसूति तथा दो पुत्र पैदा हुए उत्तानपाद और प्रियव्रत।

संत कहते हैं कि पहले तीन कन्याएं हुईं और बाद में हुए पुत्र। भगवान भी ये घोषणा करते हैं कि मुझे जब अवसर मिलता है तो मैं पहले कन्या देना पसंद करता हूं। जिन लोगों के घर में कन्या पैदा हो और वे दु:ख मनाए तो यह भगवान के निर्णय के प्रति पाप है। यहां से वे बताते हैं कि जब मनुष्य पैदा हुए तो मनु शतरूपा ने कहा कि ये हमारे बेटे-बेटी सब पैदा हुए हैं तो इनको हम कहां रखेंगे। पृथ्वी तो रसातल में जा चुकी है और हिरण्याक्ष नाम का राक्षस उसको बाहर नहीं लाने दे रहा है। तब भगवान ने वराह अवतार लिया और जब पृथ्वी को बाहर लाए तथा हिरण्याक्ष को मारा। तब एक प्रश्न खड़ा हुआ कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु कहां से आए।

परीक्षित ने शुकदेव से पूछा, विदुर ने मैत्रेयजी से पूछा। उन्होंने कहा एक ऋषि थे कश्यप। उनकी पत्नी थीं दिति। वे एक दिन संध्या को कामांध होकर अपने पति के पास पहुंचीं। उन्होंने कहा मुझे आपसे इसी समय एक पुत्र चाहिए। ऋषि ने कहा दाम्पत्य में पति-पत्नी के बीच भोग का भी एक अनुशासन होना चाहिए। आप गलत समय संतान की मांग कर रही हैं लेकिन वो हठ पर अड़ गई । ऋषि ने उनकी इच्छा पूरी की और उनके गर्भ में दो पुत्र आए हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु।

ज्ञानी पुरुषों का पतन क्रोध से होता है
जब दिति ने जाना कि उसके गर्भ से राक्षस उत्पन्न होंगे तो वह घबरा गई। तब कश्यप ने कहा कि उनका संहार करने के लिए भगवान नारायण स्वयं आएंगे। जब वे दोनों राक्षस दिति के गर्भ में आए तो उसने विचार किया कि यदि मैं इनको पैदा करूंगी तो ये देवताओं का नाश करेंगे अत: दोनों को 100 वर्ष तक दिति ने गर्भ में रखा। ब्रह्माजी ने दिति के गर्भ में जो दो राक्षस थे उनकी कथा देवताओं को सुनाई।

ब्रह्माजी बोले एक बार मेरे चार मानस पुत्र सनकादि ऋषि बैकुण्ठ लोक गए। सनदकुमार बैकुण्ठ के छ: द्वार पार कर सप्तम द्वार में जब पहुंचे तो वहां द्वारपाल जय-विजय खड़े थे। सनदकुमार भगवान के प्रासाद में प्रवेश कर ही रहे थे कि भगवान के द्वारपाल जय-विजय ने उन्हें रोका। द्वारपालों ने सनदकुमार से कहा कि अंदर से आज्ञा मिलने पर ही हम आपको प्रवेश करने देंगे तब तक आप यहीं रूकिए। सनदकुमार यह सुनकर क्रोधित हुए। ज्ञानी पुरूष का पतन क्रोध के द्वारा होता है। सनदकुमार क्रोधित हुए अत: उनका पतन हुआ। प्रभु के द्वार पर पहुंचकर उन्हें वापस लौटना पड़ा।

तब सनदकुमारों ने क्रोधित होकर जय-विजय को शाप दिया कि राक्षसों में विषमता होती है, तुम दोनों के मन में विषमता है अत: तुम राक्षस हो जाओगे। सनकादि ऋषियों के शाप के कारण जय-विजय को दैत्य रूप में तीन बार जन्म लेना पड़ा। सनकादि ऋषियों ने बैकुण्ठ के द्वार पर क्रोध किया था। अत: उन्हें बैकुण्ठ में प्रवेश नहीं मिला, भगवान बाहर ही आ गए थे दर्शन देने।

लोभ ही सभी पापों की जड़ है
हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु प्रतिदिन चार-चार हाथ बढ़ते थे। लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है। हिरण्याक्ष का अर्थ है संग्रह वृत्ति और हिरण्यकषिपु का अर्थ है भोगवृत्ति। भगवान श्रीराम ने क्रोध यानि रावण को मारने के लिए तथा शिशुपाल के वध के लिए श्रीकृष्ण ने एक ही अवतार लिया था। किंतु लोभ को मारने के लिए भगवान को दो अवतार लेना पड़े हिरण्याक्ष के लिए वाराह और हिरण्यकषिपु के लिए नृसिंह अवतार।

हिरण्याक्ष की इच्छा हुई कि स्वर्ग में से सम्पत्ति ले आऊं। दिन-प्रतिदिन उसका लोभ बढ़ता गया। एक बार वह पाताल में गया। वहां उसने वरूण से लडऩा चाहा। वरूण ने कहा युद्ध करना है तो वाराह नारायण से युद्ध करो। हिरण्याक्ष ने वाराह भगवान को युद्ध के लिए ललकारा। मुष्ठि प्रहार करके भगवान ने हिरण्याक्ष का संहार किया और पृथ्वी का राज मनु महाराज को सौंप दिया।

मनु से उन्होंने कहा कि धर्म से पालन करना और वे बद्रीनारायण के स्वरूप में लीन हो गए। तृतीय स्कंध में दो प्रकरण हैं पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा। हम पढ़ चुके हैं स्वयंभू मनु की रानी का नाम शतरूपा था। मनु महाराज के दो पुत्र थे प्रियव्रत और उत्तानपाद। उनकी तीन कन्याएं थी आकुति, देवहूति और प्रसूति। आकुति का रूचि से, देवहूति का कर्दम से और प्रसूति का दक्ष से विवाह हुआ था। कर्दम ऋषि और देवहूति के घर कपिल भगवान आए थे।

ज्ञान के प्रतीक हैं कपिल मुनि
पूर्व मीमांसा के बाद इस उत्तर मींमासा का आरंभ किया गया है। उत्तर मीमांसा में ज्ञान प्रकरण है। मैत्रेयजी कहते हैं कपिल ब्रह्मज्ञान के स्वरूप हैं। कर्दम अर्थात इंद्रियों का दमन करने वाला, अर्थात जितेंद्रीय। उनके तप से भगवान प्रसन्न हुए और भगवान ऋषि के घर पधारे।भगवान ने कर्दम ऋषि से कहा- दो दिन बाद मनु महाराज तुम्हारे पास आएंगे, अपनी पुत्री देवहुति तुम्हें देंगें। भगवान ने कहा कि मैं पुत्र रूप में तुम्हारे यहां आऊंगा। जगत को सांख्य शास्त्र का उपदेश करना है। ऐसा कहकर श्रीहरि वहां से विदा हुए।

मनु-शतरूपा अपनी पुत्री देवहुति को लेकर आए कर्दम से कहा विवाह कर लो। कर्दम ने विवाह स्वीकार किया। मनु महाराज ने विधि पूर्वक कन्यादान किया और देवहूति तथा कर्दम ऋषि का विवाह हो गया। पूर्व मीमांसा में वाराह नारायण की कथा कही गई है और उत्तर मीमांसा में कपिल नारायण का चरित्र है।हर माता-पिता को चिंता होती है कि अपनी पुत्री का विवाह करना है। तो मनु-शतरूपा को भी लगा कि हमारी तीन बेटियां हैं और तीनों को ठीक घर में दें। उनको मालूम था आकुति हर किसी से मिल जाती है तो आकुति का विवाह रूचि से कर दिया।

अब बचीं देवहुति। हुति मतलब बुद्धि, जिसकी बुद्धि देव भगवान में लगी हो तो उन्होंने उसे कर्दम को सौंप दिया। तीसरी बेटी थीं प्रसूति जो सती की मां थीं। प्रसूति को माता-पिता जानते थे कि इसका विवाह ऐसे घर में करना पड़ेगा जो युवक इसे प्रसन्न रख सके। माता-पिता सोच रहे हैं कि प्रसूति का विवाह किससे करें तो उन्होंने दक्ष से विवाह कर दिया। दक्ष मतलब जो बहुत ही टेलेंटेड हो, दक्ष मतलब सक्षम हो, वह संभाल लेगा हमारी बेटी को।

दाम्पत्य जीवन में संयम रखें
भागवत महापुराण की जब सात दिवसीय कथा की जाती है तो सप्ताह पारायण के सात विश्राम स्थल होते हैं। पहला विश्राम तीसरे स्कंध के 22वें अध्याय तक रहता है। हम कल वहां तक पढ़ चुके थे जहां मनु और शतरूपा के वंश की चर्चा आई है। कर्दम का विवाह मनु महाराज की पुत्री देवहुति से हुआ। अब इसके बाद भगवान कपिल का जन्म होगा। यहां कथा 22वें अध्याय पर आकर खत्म हो रही है।

हमने तृतीय स्कंध में पढ़ा था इसके दो भाग थे पूर्वनिमांसा, उत्तरनिमांसा। आगे भगवान कपिल का वर्णन होगा। अपनी स्मृति में दो-तीन बातें बनाए राखिएगा कि पहले दिन संयम की कथा की जाएगी। संयम चूक गए दिति और कश्यप और उनके घर हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु का जन्म हुआ। संयम बना हुआ था तो कर्दम और देवहुति के जीवन में तो कपिल भगवान का जन्म हुआ। आइए विश्राम स्थलों के अनुसार भागवतजी के इस अनुष्ठान के दूसरे दिन में प्रवेश करते हैं। आप लोग पुन: स्मरण कर लें सूतजी शौनकादि ऋषियों को कथा सुना रहे हैं। कथा सुना रहे हैं शुकदेवजी, परीक्षितजी को। पिछले प्रसंगों में मैत्रेयजी विदुरजी को कथा सुना रहे थे।

तो एक श्रोता एक वक्ता, एक श्रोता एक वक्ता। बहुत सारी कथा फ्लैशबैक में चल रही हैं लेकिन हमें स्मरण रखना है कि इसके मुख्य वक्ता शुकदेवजी हैं और मुख्य श्रोता राजा परीक्षित हैं। अब हम गीता से निश्कामता को जानते हुए प्रसंगों को पढ़ेंगे। दूसरी बात इसमें भगवान का वाड्मय स्वरूप है। भगवान अपने स्वरूप के साथ स्थापित हुए हैं। इसलिए इसका महत्व है। दूसरे स्कंध से आठवें स्कंध तक की जो कथा अब आएगी इसमें गीता कर्म करना सीखाती है।

जीवन में जरुरी है पारदर्शिता
हम जिस तरह का जीवन जीते हैं इसमें चार तरह का व्यवहार होता है। हमारा पहला जीवन होता है सामाजिक जीवन, दूसरा व्यावसायिक , तीसरा पारिवारिक और चौथा हमारा निजी जीवन। हमारा सामाजिक जीवन पारदर्शिता पर टिका है। व्यावसायिक जीवन परिश्रम पर, पारिवारिक जीवन प्रेम पर तथा निजी जीवन पवित्रता पर टिका है। हमारे जीवन के ये चार हिस्से भागवत के प्रसंगों में बार-बार झलकते मिलेंगे।

हमारे सामाजिक जीवन में पारदर्शिता बहुत जरुरी है। महाभारत में जितने भी पात्र आए उनके जीवन की पारदर्शिता खंडित हो चुकी थी। भागवत में भी चर्चा आती है कि दुर्योधन, दुर्योधन क्यों बन गया। दुर्योधन, दुर्योधन इसलिए बन गया क्योंकि दुर्योधन जब पैदा हुआ तो उसके मन में जितने प्रश्न थे उसके उत्तर उसको नहीं दिए गए। जब उसने होश संभाला तो सबसे पहले उसने ये पूछा कि मेरी मां इस तरह से अंधी क्यों है। राजमहल में कोई जवाब नहीं देता था क्योंकि सब जानते थे कि गांधारी ने अपने स्वसुर भीष्म के कारण पट्टी बांधी थी।

भीष्म ने दबाव में गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से करवाया था। भीष्म ने सोचा योग्य युवती अंधे के साथ बांधेंगे तो गृहस्थी, राज, सिंहासन अच्छा चलेगा। जैसे ही गांधारी को पता लगा कि मेरा पति अंधा है और मुझे इसलिए लाया गया तो उसने भी आजीवन स्वैच्छिक अंधतत्व स्वीकार कर लिया। ये प्रश्न हमेशा दुर्योधन के मन में खड़ा होता था कि मेरी मां ने ये मूर्खता क्यों की? तो महाभारत ने कहा गया है कि पारदर्शिता रखिए अपने सामाजिक जीवन में।

प्रेम पर टिका है पारिवारिक जीवन
हमारे पारिवारिक जीवन में प्रेम होना चाहिए। परिवार जब भी टिकेगा प्रेम पर टिकेगा। समझौतों पर टिका हुआ दाम्पत्य बड़े दुष्परिणाम लाता है। एक काल की घटना है जिस समय हस्तिनापुर में दाम्पत्य घट रहे थे लोगों के। उसी समय द्वारिका में कृष्णजी का भी दाम्पत्य घट रहा था पर कितना अंतर है कोई ये नहीं कह सकता कि इतने सारे परिवार में सदस्य थे इसलिए हस्तिनापुर में कौरव-पांडव लड़ मरे। जितने कौरव थे उससे चार गुना तो श्रीकृष्ण की संतानें थीं लेकिन कृष्ण के दाम्पत्य में कभी आप अशांति नहीं पाएंगे क्योंकि कृष्ण ने एक सूत्र दिया ?

आपके पास ध्यान योग हो, आपके पास ज्ञान योग हो, आपके पास कर्मयोग हो, आपके पास भक्तियोग हो तो कृष्ण बोलते हैं कि यह सब बेकार है यदि आपके पास प्रेमयोग नहीं है। अंतिम बात आपका निजी जीवन पवित्रता पर टिकेगा। पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है। परमात्मा हमारे जीवन में तभी उतरेगा जब हमारा निजी जीवन पवित्र होगा । भागवत में प्रवेश से पहले अपने चार जीवन को टटोलते रहिएगा। पवित्रता बनाई रखिए, पवित्रता का बड़ा महत्व है। जिसके जीवन से पवित्रता चली गई वह बहुत कष्ट उठाएगा।
इसलिए आज हम जिन प्रसंगों में प्रवेश कर रहे हैं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के प्रसंग हैं तो जीवन के ये चार व्यवहार को समझिए और आइए हम प्रवेश करें इसके पहले मैं आपको पुन: दोहरा दूं हमने शास्त्रों का सार देख लिया, भगवान का वांड्मय रूप देख लिया। जीवन के चार व्यवहार हमने देख लिए और दाम्पत्य के सात सूत्र हम आगे पढ़ते चलेंगे।

सुखी जीवन के सात सूत्र हैं
पहले हमने दाम्पत्य का पहला सूत्र देखा था संयम। अब हम देखेंगे दाम्पत्य का दूसरा सूत्र संतुष्टि। संतोष दाम्पत्य में बहुत आवश्यक है। देखिए कौशल्या की संतुष्टि के कारण अवध का कुल टूटा नहीं, कुंती की संतुष्टि के कारण पांडव एक बने रहे। अब दाम्पत्य का दूसरा सूत्र संतुष्टि पर विचार करेंगे। फिर आगे आएगा दाम्पत्य का तीसरा सूत्र संतान फिर संवेदनशीलता, फिर संकल्प, फिर सक्षम और अंतिम सूत्र है समर्पण। ध्यान रखिए अब दूसरे विश्राम स्थल यानि कथा आयोजन का जो दूसरा दिन होता है उसमें संतुष्टि के साथ हम प्रवेश करने जा रहे हैं।

तो भगवान कपिल का जन्म अब होने जा रहा है। इसी के साथ तीसरे स्कंध का 23वां अध्याय आरंभ हो रहा है। 22वें अध्याय में कर्दम और देवहुति का विवाह हुआ। कर्दम ऋषि ने कहा देखो देवी मुझसे विवाह तो कर रही हो। मैं तो संत हूं, तपस्वी हूं। संतान पैदा होने के बाद मैं तुम्हें यहीं छोड़कर अकेला जंगल में चला जाऊंगा। देवहुति क्या करतीं, उन्होंने कहा ठीक है। इनके संतानें हुईं, नौ पुत्रियां और उसके बाद भगवान कपिल का जन्म हुआ।

कर्दम जा ही रहे थे, लेकिन देवहुति ने बोला नौ कन्याएं हैं इनकी व्यवस्था तो कर जाओ आप। मैं अकेली कहां तक वर ढूंढ़ती रहूंगी तो कर्दम ने उन कन्याओं का विवाह किया। संतान के रूप में कपिल दिए और चले गए वन को। अब देवहुति अकेली, एक दिन बैठकर विचार कर रही थीं मेरे पति चले गए। मेरे घर कपिल का जन्म हुआ है। उन्होंने कपिल भगवान से कहा -तू गुरु बन जा, तू गुरु की श्रेणी में आ जा, तू ज्ञान का अवतार है। आज तू मुझे जीवन के कुछ प्रश्नों का उत्तर दे।

भक्तियोग का महत्व बताती है भागवत
भगवान मनु की पुत्री देवहुति अपने पुत्र से बात कर रही है। देवहुति ने जो प्रश्न पूछे अपने बेटे से, वो एक मां ने भी पूछे हैं और एक स्त्री ने भी। एक मां अपने बेटे से प्रश्न पूछ रही है और एक स्त्री पुरूष से प्रश्न पूछ रही है कि यह कैसा जीवन है हमारा। जब मैं पुत्री थी तो मेरे माता-पिता के अधीन थी। उन्होंने एक दिन लाकर कर्दम को सौंप दी तो मैं कर्दम की पत्नी बन गई। उसके बाद मेरे पति ने निर्णय लिया और वो चले गए तथा मुझे बेटे को सौंप गए।

कपिलजी ने उत्तर दिए अपनी मां को। मां अब सुनिए मैं आपको उत्तर दे रहा हूं, आध्यात्मिक, व्यावहारिक और सामाजिक पक्ष पर देवहुति अपने पुत्र से सत्संग कर रही है। उन्होंने प्रश्न पूछा कौन सी भक्ति की जाए। मन को कैसे नियंत्रित किया जाए? कपिल मुझे तुम बताओ । वे बता रहे हैं अपनी मां को। मां सुनिए दुनिया में यदि सबसे श्रेष्ठ कोई है तो भक्तियोग है। मां आप ज्यादा झंझट में न पड़ें। आप अपने जीवन में सबसे पहले भक्ति को आरंभ करें और उन्होंने बताया कि नवधा भक्ति को जीवन में उतारें। नौ तरह की भक्ति होती है श्रवण भक्ति, कीर्तन भक्ति, स्मरण भक्ति, पाद सेवन भक्ति , अर्चन, वंदन, सख्य, दास व आत्मनिवेदन। आप इतनी में से कोई एक भक्ति कर लो।

फिर मां ने पूछा कि तू ये सब बता तो रहा है पर मुझे यह समझ में नहीं आता कि भगवान का रूप क्या है? उन्होंने कहा भगवान तो बहुत विराट है मां। पूरी प्रकृति उसकी है। आप क्या सोच रही हैं मां। पृथ्वी से दस गुना जल, जल से दस गुना अग्नि, अग्नि से दस गुना आकाश, आकाश से दस गुना वायु, वायु से भी दस गुना प्राकृत तत्व और उसके बाद महत्व तत्व और वो सब मिलाकर भगवान का एक पैर है। इतना बड़ा भगवान का विराट स्वरुप है तो मां आप इस प्रकृति तत्व की अनुभूति करिए।

भक्ति के लिए मन को बांधना पड़ता है
भगवान का स्वरूप तथा भक्ति के विषय में जब भगवान कपिल ने अपनी माता को बताया तो उन्होंने कहा- यह बात तो ठीक है कि भक्ति करना चाहिए लेकिन जब भक्ति करने बैठूं तो मन नहीं लगता। कपिलजी ने बोला मां बिल्कुल ठीक कह रही हो, बिना मन के नियंत्रण में भक्ति नहीं उतरती। मन को बांधना ही पड़ेगा।

देवहुति ने अगला प्रश्न पूछा कि बेटा तू यह तो बता कि मन कैसे लगेगा ? अब कपिल देव समझा रहे हैं, मां वह भी बताता हूं। आपका मन अष्टांग योग से लगेगा। अब कपिलजी अष्टांग योग की चर्चा कर रहे हैं। भागवत में वे कह रहे हैं आठ प्रकार के योग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि।

समाधि अंतिम अवस्था है। ध्यान उसके पहले की अवस्था है। पहले ध्यान रखो आप, फिर उसके बाद ध्यान करो। तो प्राणायाम की पूरी प्रक्रिया कपिलजी ने बतलाई। पूरी क्रिया भागवत में लिखी कि आप प्राणायाम कैसे करें? कपिल देव बताते हैं मां, ऐसे सांस का नियंत्रण करिए और सांस के नियंत्रण करते ही आपकी देह, आपकी आत्मा का ध्यान जाग जाएगा और मन गौण हो जाएगा। यह श्वास का नियंत्रण है। इस प्रकार कपिलजी ने प्रणायाम के तरीके बताए। मां, आप अष्टांग योग करिए। आपको अष्टांग योग से बहुत आनंद प्राप्त होगा। अष्टांग योग का विस्तार से वर्णन करते हुए योग के बारे में लिखा है कि योग करने से तीन बातें होती हैं आत्मा की शुद्धि, तन की शक्ति और मन की प्रसन्नता बढ़ जाती है। उन्होंने कहा आप योग करिए जैसे ही आप योग करेंगे आप स्वत: ही प्रसन्न हो जाएंगे और यदि कुछ न कर पाएं तो एक काम तो कर ही सकते हैं जरा मुस्कुराइए.....

भक्ति के तीन रूप होते हैं
कपिलजी अपनी मां देवहुति को योग की चर्चा सुना रहे हैं। फिर मां ने उनसे एक प्रश्न पूछा क्या भक्ति के रूप भी होते हैं? तो कपिलजी ने कहा- हां भक्ति के तीन रूप होते हैं। नौ तरह की भक्ति और तीन तरह के रूप । कौन-कौन से रूप होते हैं तो उन्होंने कहा एक तो सतरूप होता है, एक रजरूप होता है और एक तमरूप होता है इसको सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण बोलते हैं।

कपिल भगवान मां से कह रहे हैं कि मां आप सतोगुणी भक्ति कर सकती हैं, आप रजोगुणी भक्ति कर सकती हैं और तमोगुणी भक्ति कर सकती हैं। परिणाम भी ऐसे ही मिलेंगे। अब मां ने एक प्रश्न पूछा कि चलो मुझे सब समझ में आ गया लेकिन तू तो ज्ञान का अवतार है तूने मुझे सब समझा दिया पर मैं आज तुझसे एक प्रश्न पूछना चाहती हूं कपिल। गृहस्थी में रहकर भक्ति कैसे की जाए? एक भक्त की गृहस्थी कैसी होना चाहिए।

देखिए एक स्त्री का प्रश्न एक पुरूष से। अभी मां के भीतर की नारी जाग गई। यदि गृहस्थी में कोई उल्टी-सीधी घटना घटे तो गृहस्थ अपनी भक्ति को कैसे बचाए? मां पूछ रही हैं।गृहस्थी में सदैव इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। कुछ न कुछ उल्टा-सीधा चलता रहता है। उस समय भक्ति कैसे बचाएं कितना मौलिक प्रश्न पूछ रही है देवहुति अपने बेटे से।

गृहस्थी के केंद्र में परमात्मा को रखें
देवहुति अपने बेटे कपिल से प्रश्न कर रही है- बेटे तू ये बता गृहस्थी कैसे चलाएं। गृहस्थी को कैसे बचाएं, गृहस्थी को कैसे हम केंद्र में रखकर भगवान की स्तुति कैसे करें? गृहस्थी के बारे में उन्होंने मां को बड़े विस्तार से वर्णन किया और मां से कहा- मां गृहस्थी बचाने के बहुत सारे सूत्र हैं पर चलो मैं आपको एक सूत्र बता देता हूं और बड़ी सुंदर बात बता रहे हैं भगवान कपिल । यह बात हमारे भी बड़े काम की है। बात वहीं से शुरू हुई जहां से भागवत लिखी गई थी।

महाभारत लिखने के बाद वेदव्यास दु:खी थे तो नारदजी ने उनसे कहा था केंद्र में परमात्मा को रखें और फिर कोई ग्रंथ लिखें। तो व्यासजी ने लिखी भागवत, जिसके केन्द्र में भगवान हैं। कपिल देव अपनी मां से कह रहे हैं मां, अपनी गृहस्थी के केंद्र में कौन है? यह बात गृहस्थी की शांति और अशांति को तय करेगी। यदि बहुत अधिक संसार है तो बहुत परेशानी है। परमात्मा को गृहस्थी के केंद्र में रखिएगा। यदि परमात्मा नहीं है केंद्र में संसार ही संसार है तो मां इस दु:ख का कोई अंत नहीं है।

जिन लोगों की गृहस्थी के केंद्र में परमात्मा नहीं होता उनकी गृहस्थी कैसी होती है? कपिल देव अपनी मां को बोल रहे हैं कि कितना ही बड़ा दु:ख हो जाए दाम्पत्य परमात्मा का प्रसाद है। कपिल देव ने अपनी से मां से कहा मां गृहस्थी को उदासी से मत लो। ये परमात्मा का प्रसाद है ये आपके जीवन में उतरा है।तो आज एक बेटे ने अपनी मां को ज्ञान दिया है। तीसरे स्कंध का यहां समापन कर रहे हैं ग्रंथकार।

जीवन में धर्म का महत्व
अब आगे चतुर्थ स्कंध आएगा जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों का वर्णन करता है। जीवन में धर्म का क्या महत्व है, यह चतुर्थ स्कंध बताएगा। धर्म शुद्धि से प्राप्त होता है। धर्म प्राप्ति के लिए शुद्धि चाहिए। देश की शुद्धि, काल की शुद्धि, मन की शुद्धि, देह की शुद्धि, विचार की शुद्धि, इंद्रियों की शुद्धि और द्रव्य की शुद्धि। सात तरह की शुद्धि हो तब जीवन में धर्म का अवतरण होता है।

तो पहला बताया धर्म। फिर बताया अर्थ। अब भागवत बता रही है अर्थ की प्राप्ति पांच प्रकार से होती है। पहली होती है माता-पिता के आशीर्वाद से, दूसरी गुरु की कृपा से, तीसरी अपने उद्यम से, चौथी अपने प्रारब्ध से और पांचवीं होती है प्रभु कृपा से। काम का अर्थ है पुरूषार्थ। मोक्ष की कैसे प्राप्ति है इसकी चर्चा अब ग्रंथकार करने जा रहे हैं। यहां से ग्रंथकार हमको एक घटना पढ़ाने जा रहे हैं।अब ग्रंथकार चौथे स्कंध के आरंभ में अत्री और अनुसूइया की चर्चा कर रहे हैं। अनुसूइया कपिल की बहिन और कर्दम-देवहुति की बेटी थीं। अनुसूइया के पति का नाम था अत्री।

अत्री और अनुसूइया का दाम्पत्य बड़ा दिव्य था। अत्री का अर्थ होता है अ, त्री जिसमें तीन न हो, त्री का भाव न हो। तीन कौन से? सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण इन तीनों का अभाव होने पर आदमी अत्री बन जाता है। उनकी पत्नी थीं अनुसूइया। अनुसूइया का अर्थ है जिसमें असूइया प्रवृत्ति का अभाव हो। असूइया को ईष्या कहते हैं। तो पत्नी में ईष्र्या का अभाव तथा पति निर्गुणी थे इसलिए उनका दाम्पत्य इतना दिव्य था। नारदजी इनके दाम्पत्य को देखकर बड़े प्रसन्न होते थे। कितना दिव्य दाम्पत्य है इनका।

जब त्रिदेव ने ली अनुसूइया की परीक्षा
घूमते-घूमते नारदजी एक दिन कैलाश पर पहुंचे। कैलाश पर पहुंचे तो शंकर जी ध्यानमग्न थे। पार्वती ने कहा मैं ही आपकी सेवा-पूजा करती हूं। पार्वतीजी ने लड्डू बनाया और नारदजी को दिया कि प्रसाद पाओ। नारदजी तो नारदजी हैं उन्होंने लड्डू मुंह में रखा और उसके बाद बोले वैसा स्वाद नहीं है। पार्वतीजी ने बोला कौन सा स्वाद नहीं है? बोले वो वाला स्वाद है ही नहीं जो उस आश्रम में है, अत्री और अनुसूइया के आश्रम में। क्या लड्डू बनाती हैं मां अनुसूइया। पार्वतीजी ने बोला ये कौन है? नारद ने कहा बहुत ही पतिव्रता स्त्री हैं, उनके पतिव्रत को सब प्रणाम करते हैं।

नारदजी अपना काम करके चले गए। पार्वतीजी ने सोचा मुझसे बड़ी पतिव्रता कौन होगी? उन्होंने शंकरजी को पूरा वृत्तांत सुनाया और बोला उसके पतिव्रत में सचमुच इतनी ऊंचाई है कि हमसे भी अधिक पतिव्रता है तो आप उसकी परीक्षा लीजिए। शंकरजी ने बोला दूसरों के चक्कर में आप न पड़ें देवी। परंतु पार्वतीजी ने कहा नहीं आप ही को जानना पड़ेगा। शंकरजी कैलाश से नीचे उतरे, उनको मिल गए विष्णुजी। कहां जा रहे हैं शंकरजी ने पूछा, विष्णुजी से। बोले, वहीं अत्री आश्रम। आपका क्या हुआ, शंकरजी ने पूछा।
विष्णुजी बोले नारद आया था लक्ष्मी को बोल गया कि वैकुण्ठ में वैभव और वो आनंद है ही नहीं जो अत्री के आश्रम में है। लक्ष्मी अड़ गई कि जरा पता तो लगाओ कि कौन पतिव्रता है। मैं भी शंकरजी अब आपके साथ हूं। दोनों को रास्ते में मिल गए ब्रह्माजी। दोनों ने ब्रह्माजी से पूछा क्या हुआ? अधिक पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। नारद ब्रह्माणी को भी समझा गए थे। लक्ष्मीजी, पार्वतीजी और ब्रह्माणी जी ने कहा उसके पतिव्रत का परीक्षण करके आप आइए।

जब त्रिदेव बन गए बच्चे
ब्रह्मा, विष्णु व शिव तीनों देव अत्री के आश्रम में आए और तीनों ने विचार किया कि इनकी क्या परीक्षा ली जाए? त्रिदेव वेश बदलकर गए और भिक्षा मांगी। उन्होंने कहा हम आपसे भिक्षा तो लेंगे पर आपको निर्वस्त्र होकर भिक्षा देनी पड़ेगी। अनुसूइया ने बोला ऐसे तो मेरा पतिव्रत भंग हो जाएगा। ये कैसी मांग कर रहे हैं साधु लोग। उन्होंने कहा ठीक है, मेरे द्वार पर आए हो और आपकी वाणी से ऐसा निकला है तो मैं आपको ऐसे ही भिक्षा दूंगी जैसे आप चाहते हैं। उन्होंने हाथ में जल लिया, संकल्प लिया कि ये तीनों छोटे-छोटे बच्चे बन जाएं, छह-छह महीने के। बस तीनों ब्रह्मा, विष्णु, महेश छोटे-छोटे बच्चे बन गए। उठाकर अंदर ले आई और भिक्षा करा दी।

तीनों भगवान छोटे-छोटे हो गए। पहुंचे ही नहीं वापस, न कैलाश में, न वैकुण्ठ में, न ब्रह्मलोक में। तो माताएं परेशान हो गईं। दौड़ी चली आईं तीनों आश्रम में। यहां आकर देखा तो उनके पति बच्चे बने पड़े हैं। तब नारदजी आए तो तीनों देवियों ने कहा नारदजी,हमारे पति तो बच्चे बन गए।

नारदजी ने बोला ये तो बनने ही थे। पतिव्रता का प्रताप देख लिया आपने। तीनों बोलीं हमने तो देख लिया। अब इनको वापस तो बड़ा कराओ आप। नारदजी ने कहा आप अनुसूइया से ही मांग लीजिए। तीनों देवियों ने कहा क्या बात कर रहे हैं, यदि अनुसूइया को ये बता दिया कि ये त्रिदेव हैं और हम तीनों आईं हैं तो ये तो जीवनभर कभी इनको हमें नहीं देंगी और अपराध भी क्षमा नहीं करेंगी। तब नारद ने कहा इनका नाम अनुसूइया है। ये असूइया वृत्ति से निवृत्त हैं। आप मांगिए तो सही, ये क्षमा कर देंगी। तीनों माताओं ने अपना परिचय दिया। तब तक तो अत्री आ गए। अत्री ने पूछा, देवी ये तीन संतानें? उन्होंने अत्रीजी से सारी बात कही। अत्री ने कहा अनुसूइयाजी ये तो त्रिदेव हैं, भगवान हैं इनको मुक्त करिए।

ऐसे होता है जीवन में धर्म का प्रवेश
अत्री मुनि के कहने पर माता अनुसूइया ने त्रिदेव को पुन: वास्तविक स्वरूप प्रदान कर दिया। त्रिदेव ने अनुसूइयाजी से कहा हम आपकी भक्ति, आपके तप से बहुत प्रसन्न हैं। हमारे तीनों के अंश से आपके घर तीन पुत्र जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शिव के अंश से ऋषि दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ। ये भगवान का एक और अवतार हुआ। हमने कर्दम और देवहुति की पुत्री की कथा भी सुन ली। अब आइए प्रसूति के घर में चलते हैं।

मनु-शतरूपा की तीसरी पुत्री है प्रसूति। उनका विवाह किया गया दक्ष से। इनके यहां सोलह कन्याओं का जन्म हुआ। दक्ष ने अपनी तेरह कन्याओं का विवाह कर दिया धर्म से। अपनी चौदह व पंद्रह कन्या में एक अग्नि को दी एक पितरों को प्रदान करी और सोलहवीं कन्या सती का विवाह भगवान शंकर से करवा दिया।इस तरह दक्ष ने अपनी तेरह बेटी धर्म को सौंप दी। श्रद्धा, दया, मैत्री, शांति, पुष्टि, क्रिया, उन्नति ये पत्नियों के नाम हैं धर्म के। बुद्धि, मेधा, स्मृति, तितिक्षा, धृति और मूर्ति ये तेरह, धर्म की तेरह पत्नियां हैं। यानि धर्म को जीवन में लाना है तो ये तेरह काम करने पड़ेंगे और इसमें अंतिम पत्नी का नाम है मूर्ति। विचार करिए मूर्ति धर्म की पत्नी है। कितनी सुंदर बात भागवत में आ रही है।

हम मूर्तिपूजक हैं क्योंकि धर्म की पत्नी हैं मूर्ति। तो मूर्ति माता हैं और धर्म पिता हैं। इस अंतर को समझ लीजिए बड़ी बारीक बात है। मंदिरों में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा कराते हैं तो मूर्ति धर्म की तेरहवीं पत्नी हैं। वो मां के रूप में हैं और धर्म पिता के रूप में हैं। माताएं घर को साधती हैं ऐसे ही मूर्ति मंदिर में रखी जाती हैं और धर्म की चारों तरफ जय-जयकार होती है। पिता जो होता है वो बाहर की सारी व्यवस्था जुटाता है। ये एक आदर्श व्यवस्था है। धर्म की पत्नी मूर्ति। तो आप देखिए जब-जब धर्म की प्रतिष्ठा जीवन में करने जाएं तो जयजयकार करिए धर्म की और मूर्ति के साथ प्राण-प्रतिष्ठा रखिए।

ऐसे करें भगवान के दर्शन
अभी मनु और शतरूपा की संतानों की कथा चल रही है। जब मनु और शतरूपा ने भगवान के पहली बार दर्शन किए तो भगवान के दर्शन को लेकर मनु और शतरूपा ने जो भाव प्रकट किया वो हमारे भीतर हमें रखना चाहिए। जैसे ही भगवान प्रकट हुए, मनु-शतरूपा ने देखा तो ऐसा लिखा है-

छबि समुद्र हरि रूप बिलोकी, एकटक रहे नयन पट रोकी। चितवहीं सादर रूप अनूपा, तृप्ति न मानही मनु-शतरूपा।छबि समुद्र हरि रूप बिलोकी

अर्थात भगवान के रूप को देखकर ऐसा लगे कि ये छवि का समुद्र है, सौंदर्य का सागर है । पहला भाव ये होना चाहिए। एकटक रहे नयन पट रोकी अर्थात एकटक हो जाइए, अचंभित हो जाइए जैसे बहुत समय बाद हमारा परिचित मिले हम उसको देखकर चौंक जाते हैं, ऐसे ही भगवान को देखकर एकदम अचंभित होने का भाव लाइए। नयनपट रोकी, पलकों को झुकाना बंद कर दीजिए। पलक तो दुनिया के सामने झुकाई जाती है भगवान को देखें तो एकटक देखते रहें। तीसरा काम नैनो को रोक दीजिए आंख खुली रखकर देखते जाइए-देखते जाइए।

चितवहीं सादर रूप अनूपा, चौथी बात प्रतिमा को देखें तो सादर, आदर का भाव रखें। मूर्ति के प्रति सम्मान का भाव रखें, गरिमा से खड़े रहें। चितवहीं सादर रूप अनूपा, एक शब्द आया अनूपा, भगवान के रूप को देखें तो प्रतिपल अनूप लगना चाहिए, नया-नया लगना चाहिए। छठी सबसे महत्वपूर्ण बात तृप्ति न मानहीं मनु-शतरूपा। दर्शन करने के बाद मनु-शतरूपा को तृप्ति नहीं हुई। अतृप्त भाव बना रहे। भगवान के दर्शन करने के बाद तृप्ति का भाव न बना रहे। इन छह तरीकों से भगवान के दर्शन किए जाते हैं।

दिव्य है शंकर-पार्वती का दाम्पत्य
मनु-शतरूपा ने अपनी पुत्री प्रसूति दक्षराज को सौंपी और प्रसूति तथा दक्ष की सौलह कन्याएं हुईं उसमें सौलहवीं सबसे छोटी कन्या थीं सती। सतीजी का विवाह किया गया शंकरजी से। अब आप सती और शंकर का दाम्पत्य देखिए। सती के साथ शंकरजी का दाम्पत्य आरंभ हो रहा है। ग्रंथकार अब हमको आगे ले जा रहे हैं। दक्ष की कथा बताई।

सबसे पहले जब दक्ष को सम्मान मिला तो दक्ष को आया अहंकार। एक बार साधु-संतों का कार्यक्रम था, अनुष्ठान था उसमें सब देवता साधु-महात्मा बैठे हुए और उसमें दक्ष सबसे बाद में आए। उन्होंने इधर-उधर देखा कि मैं आया तो सब खड़े हो गए पर शंकर भगवान खड़े नहीं हुए, ध्यान लगाए बैठे थे। बस यहीं से श्वसुर और दामाद में बैर-भाव आरंभ हो गया। दोनों में मतभेद हो गए। उस सभा में बात ऐसी हुई कि दक्ष के जो सचिव थे उन्होंने शंकरजी को कुछ कह दिया। तो शंकरजी के जो गण थे उन्होंने उनको भी अपशब्द कह दिए। सती को भी ये मालूम हो गया कि मेरे पिता से मेरे पति का मतभेद हो गया है।

एक बार शंकरजी की रामकथा सुनने की इच्छा हुई तो उन्होंने सती से कहा चलो कुंभज ऋषि के आश्रम में चलते हैं। कुंभज ऋषि के आश्रम में पति-पत्नी पहुंचे। उन्होंने कहा मैं आपसे रामकथा सुनना चाहता हूं। शंकरजी आए तो कुंभज ऋषि खड़े हो गए उन्होंने शंकरजी को प्रणाम किया और बोले बैठिए मैं सुनाता हूं। सतीदेवी ने सोचा ये क्या बात हुई जो वक्ता हैं वो श्रोता को प्रणाम कर रहा है। श्रोता वक्ता को करता है ये तो समझ में आता है। तो जो खुद ही प्रणाम कर रहा है वो क्या रामकथा सुनाएगा। सती ने सोचा शंकरजी तो ऐसे ही भोलेनाथ हैं किसी के भी साथ बैठ जाते हैं। यहां से सती के दिमाग में विचारों का क्रम तर्कों के साथ चालू हो गया। ऋषि ने इतनी सुंदर रामकथा सुनाई कि शंकरजी को आनंद हो गया। हम संक्षेप में चर्चा करते चल रहे हैं। शंकरजी ने कथा सुनी, अपनी पत्नी को देखा कि वे कथा नहीं सुन रही थीं।

जब माता सती ने ली श्रीराम की परीक्षा
सतीजी कथा नहीं सुन रही थीं। वे इधर-उधर देख रही थीं। शंकरजी ने बोला आपकी इच्छा आप सुनो या न सुनो। जब दोनों पति-पत्नी लौट रहे थे तब भगवान श्रीरामचंद्र की विरह लीला चल रही थी। सीताजी का अपहरण हो चुका था। भगवान सीताजी को ढूंढ रहे थे। सामान्य राजकुमार से रो रहे थे। यह देखकर शंकरजी ने कहा जिनकी कथा सुनकर हम आ रहे हैं उनकी लीला चल रही है। शंकरजी ने उन्हें दूर से ही प्रणाम किया, जय सच्चिदानंद।

और जैसे ही उनको प्रणाम किया तो सतीजी का माथा और ठनक गया कि ये पहले तो कथा सुनकर आए एक ऐसे ऋषि से जो वक्ता होकर श्रोता को प्रणाम कर रहे थे और अब ये मेरे पतिदेव इनको प्रणाम कर रहे हैं रोते हुए राजकुमार को। शंकरजी ने बोला ''सतीदेवी आप समझ नहीं रही हैं ये श्रीराम हैं जिनकी कथा हम सुनकर आए उनका अवतार हो चुका है और ये लीला चल रही है मैं प्रणाम कर रहा हूं आप भी करिए''। सतीजी ने बोला मैं तो नहीं कर सकती प्रणाम। सतीजी ने कहा ये ब्रह्म हैं मैं कैसे मान लूं मैं तो परीक्षा लूंगी। शंकरजी ने कहा ले लीजिए लेकिन मर्यादा का ध्यान रखना देवी तथा एक पत्थर पर बैठ गए।

सतीजी गईं हठ करके परीक्षा लेने। लिखा है ''होई है वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा। अस कहि लगे जपन हरिनामा, गईं सती जहां प्रभु सुखधामा।'' शंकरजी कह रहे हैं अब जो होगा भगवान की इच्छा। कई लोग इन पंक्तियों का अर्थ आलस्य से करते हैं। ''होई है वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा।'' तर्क की शाखा बढ़ाने से क्या फायदा, होगा वही जो भगवान चाहेंगे। इसलिए कुछ मत करो ऐसा समझना बिल्कुल गलत बात है। शंकरजी ने पूरा पुरूषार्थ किया, कथा सुनाने ले गए , कथा सुनाते समय समझाया, वापस समझाया अपना पूरा पुरूषार्थ करने के बाद परिणाम के लिए भगवान पर छोड़ दिया।

दाम्पत्य में झूठ नहीं होना चाहिए
भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने के लिए सतीदेवी गईं । विचार किया इनकी परीक्षा लूं तो सीता का वेश धर लिया और सोचा ये तो राजकुमार हैं सीता-सीता चिल्ला रहे हैं मुझे पहचान नहीं पाएंगे। सीता बनकर गईं और रामजी ने देखा तो दूर से प्रणाम किया। श्रीराम बोले आपको नमन है माताजी, पिताजी कहां हैं। ओह! सतीजी समझ गईं कि मैं पकड़ी गईं। ये तो मुझे पहचान गए। भागी वहां से, लौटकर आई और अपने पति के पास आकर बैठ गईं।

शंकरजी ने पूछा देवी परीक्षा ले ली? कुछ उत्तर नहीं दिया, झूठ बोल दिया। ''कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं, कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं।'' इतना झूठ बोला कि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली मैंने तो आप ही की तरह प्रणाम किया।झूठ बोल गईं अपने पति से। भगवान शंकर ने ध्यान लगाकर देखा कि घटना तो कुछ और हुई है और ये कुछ और बता रही हैं। इन्होनें सबसे बड़ी गलती यह की कि ये सीता बन गई, मेरी मां का रूप धर लिया तो अब मेरा इनसे दाम्पत्य नहीं चलेगा। मैं इनका मानसिक त्याग करता हूं। दोनों लौटकर कैलाश आए भगवान ध्यान में बैठ गए।

थोड़े दिन तो सती सोचती रहीं कि ये तो रूठ गए, लंबे रूठ गए, दो-तीन दिन तो रूठते थे पहले भी, तो मना लेती थी पर इस बार तो स्थायी हो गया । तब चिंता होने लगी। ये तो सुन ही नहीं रहे हैं, ध्यान में चले गए। उसी समय देखा ऊपर से विमान उड़कर जा रहे थे। मालूम हुआ कि पिता दक्ष ने बड़ा भारी यज्ञ किया है, ये सारे देवता उसी में भाग लेने जा रहे हैं। बेटी को चिंता हुई, पिता के घर इतना बड़ा काम और मुझे आमंत्रित नहीं किया। तब उनको ध्यान आया कि श्वसुर-दामाद का बैर चल का रहा है। सती ने कहा- हमको बुलाया नहीं गया लेकिन मैं जाऊंगी।

अहंकार ही पतन का कारण है
पिता दक्ष के यहां यज्ञ की बात सुनकर सतीजी अपने पति शंकरजी से बोलती हैं पिता के घर यज्ञ हो रहा है आप मुझे जाने दीजिए। शंकरजी कह रहे हैं देवी बात समझो, बिना आमंत्रण के नहीं जाना चाहिए। दक्षराज के मन में मेरे प्रति ईश्र्या है, आप मत जाइए। लेकिन सती बोलीं नहीं मैं तो जाऊंगी। शंकरजी ने कहा आप जाएं साथ में ये दो गण भी ले जाएं। ये आपकी रक्षा करेंगे।

वे गईं और जैसे ही वहां पहुंची तो देखा दक्षराज का बड़ा भारी यज्ञ चल रहा था। दक्षराज ने देखा मेरी बेटी आई है तो ध्यान ही नहीं दिया अपनी बेटी पर। माता प्रसूति ने देखा तो बेटी से बोला आ तू बैठ। सतीजी ने कहा मां तू तो लाड़ करती हैं पर यह सब क्या, मेरे पति शंकरजी का आसन नहीं है। उनका स्थान नहीं इस यज्ञ में, यह तो बड़ा भारी अपमान है। तब बड़ा क्रोध आया सतीजी को और क्रोधाग्नि में उन्होंने अपनी देह को भस्म कर दिया। जैसे ही उनकी देह भस्म हुई शंकरजी के गणों ने उपद्रव शुरू कर दिया। दक्ष के सैनिकों ने उनकी पिटाई कर दी। कुटे-पिटे गण आए शंकरजी के पास कैलाश पर। पूरा वृत्तांत सुनाया। शंकरजी को क्रोध आया, जटाएं हिलाईं। वीरभद्र नाम का एक गण पैदा किया, और कहा जाओ ध्वंस कर दो दक्ष के यज्ञ को।

शिवजी तांडव की मुद्रा में आ गए। वीरभद्र ने सारा यज्ञ ध्वंस कर दिया। सारे देवता दौड़ते-भागते ब्रह्मा और विष्णुजी के पास गए। भगवान ने कहा तुमने शिव के प्रति अपराध किया तो यह तो भुगतना ही है। सबने जाकर भगवान शंकरजी से प्रार्थना की कि आप शांत हो जाएं इनको क्षमा कर दें, उन्होंने क्षमा भी किया। इसीलिए उनका एक नाम आशुतोष पड़ा। इस तरह यह कथा हमको यह बता रही है कि दक्ष का अहंकार दक्ष को ले डूबा। सती को जाते-जाते ये बड़ा दु:ख था कि मैं अपने पति का अपमान नहीं देख सकती इसलिए मैं जा रही हूं लेकिन मैं जन्म-जन्म तक इन्हें ही पति चाहती हूं।

पार्वती श्रद्धा व भगवान शंकर विश्वास हैं
जब माता ने सती ने देह त्याग किया तो ऐसा कहते हैं कि अगले जन्म में वो पार्वती कहलाईं। इस जन्म में वे हिमाचल के यहां बेटी बनीं। मनुष्य के अंतिम समय में जो उसकी अंतिम इच्छा होती है वह अगले जन्म का कारण बन जाती है। पार्वती बनकर नया दाम्पत्य शंकरजी का आरंभ हुआ। शंकर और पार्वती का दिव्य दाम्पत्य था तभी तो उनके यहां कार्तिकेय व गणेश जैसी संतानें पैदा हुईं। ''भवानीशंकरोवंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ'' अर्थात पार्वती श्रद्धा हैं शंकर विश्वास हैं। जीवन में श्रद्धा और विश्वास का जब मिलन होता है तब कार्तिकेय व गणेश पैदा होते हैं।

सूतजी शौनकादि से कह रहे हैं, परीक्षित को समझा रहे हैं शुकदेवजी। अपने दाम्पत्य को ऐसे बचाकर रखो। मां देवहुति ने भी अपने पुत्र कपिल से यही प्रश्न पूछा था कि गृहस्थी में भक्ति कैसी हो। यहां भी यही प्रश्न आया। तो सती और पार्वती के माध्यम से हम ये सीख सकते हैं कि अपने दाम्पत्य को आपसी समझ व गइराई से कैसे चलाया जाए।आइए हम अगले दृश्य में प्रवेश करते हैं। ग्रंथकार बहुत सुंदर दृश्य बताते हैं। भगवान शंकर और पार्वती का विवाह हुआ और अभी-अभी दोनों कैलाश पर पहुंचे हैं। दोनों बैठे हैं पति-पत्नी और बैठकर बात कर रहे हैं।

पार्वतीजी, शंकरजी से पूछ रही है कि आप मुझे रामकथा सुनाइए जो मैं चूक गई सती जन्म में।तो शंकरजी उनको रामकथा सुना रहे हैं। अब देखिए पति-पत्नी अकेले में बैठे हों तो कामकथा फूटती है पर यहां रामकथा फूट रही है। दिव्यता का महत्व है जीवन में। परमात्मा उतरेगा तो शुद्धता को पसंद करके उतरता है। दोनों पति-पत्नी बैठकर बातचीत कर रहे हैं।

जीवन साथी का आदर करें
एक दृश्य में जब पार्वतीजी आती हैं तो शंकरजी कह रहे हैं ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा जानी प्रिय'' दो शब्द आए हैं प्रिया और आदर। अपनी पत्नी पार्वतीजी को प्रिया प्रेम दिया। केवल प्रेम देने से काम नहीं चलता। शंकरजी कहते हैं आदर भी जरूरी है। ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा'' ये दाम्पत्य का सूत्र है। शंकरजी यहीं नहीं रुकते ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा, बाम भाग आसन हर दीन्हा''। पार्वतीजी को अपने बाएं भाग में समान बैठाया। पहली बात है हम प्रेम दें, आदर करें। अपने जीवनसाथी के साथ समानता का व्यवहार करें। बाम, भाग, आसन हर दिन्हा, अपने पास में बैठाया।

शंकरजी दाम्पत्य का छोटा सा सूत्र बताते हैं, हमें यह समझना चाहिए। अब ग्रंथकार हमें आगे ले जा रहे हैं। ये धर्म का प्रसंग था। धर्म का प्रसंग हमने पढ़ा, धर्म कैसे बच सकता है। चाहे वह गृहस्थ धर्म हो। अब हम चतुर्थ स्कंध के उस प्रकरण में प्रवेश कर रहे हैं जिसे अर्थ प्रकरण कहा है और अर्थ प्रकरण में धु्रव भगवान का जन्म होने वाला है। मनु-शतरूपा के वंश की चर्चा चल रही थी। हमने तीनों पुत्रियों का जीवन, दाम्पत्य देख लिया। अब पुत्रों की बारी आ रही है। तो उत्तानपाद और प्रियव्रत, उनके दो पुत्र थे।

उत्तानपाद की कहानी अब ग्रंथकार कह रहे हैं। सूतजी कह रहे हैं कि शौनकजी सावधान होकर सुनिएगा। उत्तानपाद बड़े धार्मिक राजा थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम सुनीति और दूसरी का नाम सुरुचि था। इन दो पत्नियों के साथ उनका जीवन चल रहा था। एक बार सिंहासन पर बैठे थे उत्तानपाद। वे छोटी पत्नी सुरुचि को बहुत प्यार करते थे। वह पास में बैठी थी। सुरुचि के पुत्र का नाम था उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम था धु्रव। पांच साल का बालक ध्रुव अपने पिता के पास आया। उसने देखा पिता की गोद में उत्तम भी बैठा है पास में सौतेली मां सुरुचि बैठी हुई है।

कर्कश वाणी सभी दु:खों का कारण है
मनु महाराज के पुत्र उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने जब अपने पिता को सिंहासन पर बैठा देखा तो वह भी राजसिंहासन पर चढऩे का प्रयास करने लगा। पांच साल के बालक ने कोशिश की कि अपने पिता की गोद में बैठ जाए। उत्तानपाद ने सोचा इसको गोदी में बैठा लेता हूं लेकिन जैसे ही प्रयास करने लगे, उनकी दूसरी पत्नी सुरुचि अड़ गई। सुरुचि ने कहा ध्रुव तू पिता की गोद में नहीं बैठ सकता। उसने कहा- क्यों मां? वह बोली यदि तुझे पिता की गोद में बैठना है तो तुझे सुरुचि के गर्भ से जन्म लेना पड़ेगा, नहीं तो भगवान की पूजा कर फिर वही देखेंगे।

सौतेली मां ने ऐसी कर्कश वाणी बोली जिसे सुन ध्रुव परेशान हो गया। रोने लगा और चूंकि राजा उत्तानपाद सुरुचि के प्रभाव में थे तो पत्नी को मना भी नहीं कर सके, क्योंकि वो जानते थे कि अगर मैंने ध्रुव को गोदी में उठाया तो ये सारा घर माथे पर उठा लेगी। वह सुरुचि का स्वभाव जानते थे। ध्रुव रोते-रोते अपनी मां सुनीति के पास चला गया। उसने कहा मां से- मैं आज पिताजी की गोद में बैठने गया तो मां ने मुझे बैठने नहीं दिया और ऐसा कहा है कि जा तू भगवान को पा ले तो तू अधिकारी बनेगा। मां भगवान कहां मिलते हैं।

सुनीति ने कहा ध्रुव तू सौभाग्यशाली है कि तेरी सौतेली मां ने तुझसे यह कहा कि जा भगवान को प्राप्त कर। तेरा बहुत सौभाग्य है। तू भगवान को प्राप्त कर। वो यह सीखा रही है। पांच साल का बच्चा जंगल में चल दिया। ऐसा कहते हैं जब वो जंगल की ओर जा रहा था उसके मन में विचार आ रहा था कि भगवान कैसे मिलते हैं, भगवान कहां मिलेंगे, कैसे प्राप्त होंगे और चल दिया।

यहां एक बात ग्रंथकार कह रहे हैं घर-परिवार में सुरुचि ने कर्कश वाणी बोली और ध्रुव का दिल टूट गया। समाज में, परिवार में, निजी संबंधों में कर्कश वाणी का उपयोग न करें। ये बहुत घातक है । शब्दों का नियंत्रण रखिए। जीवन में कभी भी कर्कष वाणी न बोलिए। भक्त की वाणी हमेशा निर्मल होती है इसलिए ध्रुव चला जा रहा है और भगवान को ढूंढ़ रहा है। उसे मार्ग में नारदजी मिल गए।

कठिन तप से मिलते हैं भगवान
अब तक की कथा में आपने पढ़ा कि भगवान की खोज में निकले ध्रुव को मार्ग में नारदजी मिले। नारदजी ने ध्रुव को रोका और कहा बालक इस जंगल में कहां जा रहा है। नारदजी को देखकर ध्रुव कहते हैं कि मैं भगवान को प्राप्त करने जा रहा हूं। नारदजी हंसे, तू जानता नहीं है भगवान क्या होता है। बड़ा कठिन है जंगल में तप करना। ऐसे ही भगवान नहीं मिलते। नारदजी ध्रुव को डरा रहे हैं। ध्रुव ने कहा कि देखिए मुझे डराइए नहीं, अगर आप भगवान को प्राप्त करने का कोई रास्ता बता सकते हैं तो अच्छी बात है मुझे भयभीत क्यों कर रहे हैं।

जो भी स्थिति होगी मैं भगवान को प्राप्त करुंगा। बस मैंने सोच लिया है, मेरा हठ है। नारदजी बोले वाह, ठीक है क्या चाहता है? ध्रुव बोले आप मेरे गुरु बन जाओ। नारदजी को गुरु बना लिया। नारदजी ने उसे मंत्र दिया ऊं नमो भगवते वासुदेवाय, जा तू इसका जप करना, जितनी देर तू इसका जाप करेगा और अगर सिद्ध हो गया तो परमात्मा तेरे जीवन में उतर आएंगे। ध्रुव बैठ गए और ध्यान किया। उन्होंने ''ऊं नमो भगवते वासुदेवाय'' का जप शुरू कर दिया। छह महीने तक करते रहे। भगवान सिद्ध हो गए, सिंहासन डोल गया, भगवान को लगा कोई भक्त मुझे याद कर रहा है। अब मुझे जाना पड़ेगा।

भगवान प्रकट हुए और जैसे ही भगवान प्रकट हुए तो देखा कि ध्रुव तो बस ध्यान लगाए बैठा है। अपने हाथों से ध्रुव के गाल को स्पर्श किया। आंख खोली तो भगवान सामने खड़े हुए थे। ध्रुव ने भगवान को प्रणाम किया, धन्य हो गए। भगवान ने कहा बोल क्या चाहता है? बच्चा था ज्यादा बातचीत करना तो आती नहीं थी, पांच साल के बच्चे ने कह दिया बस जो आप दे दो। भगवान बहुत समझदार हैं उन्होंने कहा ठीक है तू वर्षों तक राज करेगा, तेरी अनेक पीढिय़ां सिद्ध हो जाएंगी। तेरे पुण्य प्रताप से वे धन्य हो जाएंगे, तेरा राज्य अद्भुत माना जाएगा। तुझे मनोवांछित की पूर्ति होगी जो तू चाहता है वो मिलेगा, तथास्तु कह कर भगवान चले गए।

क्रमशः...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....
मनीष

No comments:

Post a Comment