परमशक्ति हमेशा सत्य के
साथ रहती है
मनुष्य को खाना,
पीना, सोना और
विषय का भोग
कैसे करना ये
बातें सिखानी नहीं
पड़ती। लालन-पालन
में बचपन से
कुछ चीजें जुड़ती
चली जाती हैं
और आदमी को
समझ में आ
जाता है कि
खूब धन कमाओ,
दूसरों को पीछे
छोड़कर आगे बढ़ो।
धर्म मनुष्य की
इस जन्मजात वृत्ति
को मर्यादित बनाता
है।
दुनियादारी
में आदमी अमर्यादित
हो जाए तो
समझ में आता
है लेकिन, कभी-कभी धर्म
निभाते हुए वह
कुटिल हो जाता
है और परमात्मा
को पाने में
षड्यंत्र करने लगता
है। धर्म के
संसार में भी
अमर्यादित आचरण करने
लगता है, इसीलिए
संत लोग मनुष्यों
को तीन तरीके
से धर्म का
सही अर्थ समझाते
हैं- पुकारकर, पुचकारकर
और पिलाकर। पुकारना
यानी सत्संग, पुचकारने
को गुरु का
सान्निध्य कहते हैं
और पिलाते हैं
भजन-कीर्तन के
माध्यम से।
भगवान राम शिवलिंग की स्थापना के समय ये तीनों काम कर रहे थे। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।।’ अर्थात शिवलिंग की स्थापना कर विधिवत उसका पूजन किया और बोले शिवजी के समान मुझे अन्य कोई प्रिय नहीं है। यहां रामजी ने शंकरजी से अपने संबंधों को बड़ी गरिमा के साथ प्रस्तुत किया है, क्योंकि वे जानते थे कि युद्ध रावण से होना है और वह शिवभक्त है।
भविष्य में लोग इसका अनुचित अर्थ निकालेंगे कि राम ने शिवभक्त को मारा, जबकि उन्होंने एक गलत व्यक्ति पर प्रहार किया था। धर्म और धार्मिक स्थितियों का लोग आज भी ऐसा ही दुरुपयोग करते हुए धर्म से धर्म तथा एक ही धर्म की परमशक्ति को भी आपस में उलझा देते हैं। राम यही कहना चाहते हैं कि शिव मुझे प्रिय है, इसका मतलब है परमशक्ति किसी से भेद नहीं करती, वह सदैव सत्य के साथ है।
परिजनों के साथ
भी आचरण उत्तम
रखें
हम छोटी-छोटी
बातों को छोटा
मानने की बड़ी
भूल कर जाते
हैं। दिनचर्या में
कुछ काम ऐसे
होते हैं, जिन्हें
हम मशीन की
तरह करते हैं
और उन पर
ध्यान नहीं देते।
जैसे हमारा उठना,
बैठना, भोजन करना,
किसी से बात
करना, अजनबी के
साथ सफर करना,
कार्यक्षेत्र में साथियों
के साथ फुरसत
का समय या
जीवनसाथी के साथ
बिताया जाने वाला
एकांत। इन सब
छोटी-छोटी बातों
में ध्यान नहीं
रहता कि हमारा
आचरण कैसा होना
चाहिए। हम आम
काम की ही
तरह ये सब
भी करने लगते
हैं।
हमारे शास्त्रों में गृत्समद ऋषि का वर्णन आया है। वे कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञ होने के साथ बहुत अच्छे किसान भी थे और बुनकर भी कमाल के थे। कुल-मिलाकर बहुत हुनरमंद होकर कई क्षेत्रों में दक्ष थे। उन्होंने एक बहुत अच्छी पंक्ति लिखी है- प्रायेप्राये जिगीवांस: स्याम।’ इसका मतलब है हमें हर एक व्यवहार में विजय होना है। यहां ‘हर एक व्यवहार’ शब्द पर ध्यान दीजिएगा। हर छोटे से छोटे काम में भी हमारी मुद्रा विजय की होनी चाहिए। विजय का अर्थ किसी को हराना नहीं है। वे कहना चाहते हैं हर काम, हर स्थिति में श्रेष्ठ होना।
उदाहरण के लिए यदि आप परिवार के साथ डाइनिंग टेबल पर बैठे हैं तो काम छोटा-सा है भोजन करना परंतु यहां भी मुद्रा विजय की होनी चाहिए। जैसे हम किसी के घर जाते हैं या किसी को अपने घर बुलाते हैं तो बड़े सलीके से बातचीत व भोजन आदि का आग्रह करते हैं। ऐसा ही आचरण हर दिन अपने घर में भी होना चाहिए। हर सदस्य का ध्यान रखा जाए। बस, यहीं से आपमें अपनापन जागेगा, जो दूसरों के प्रति प्रेमपूर्ण बना देगा। इसका सबसे बड़ा फायदा होगा कि आप अचानक शांत होने लगेंगे। किसी भी क्रिया का आप पर दबाव नहीं आएगा।
खुद को जानने
के ये तीन
दर्पण
हम लोग जीवनभर
जो होते हैं
वह दिखने नहीं
देते। कुछ जान-बूझकर ऐसा करते
हैं, कुछ अनजाने
में। मनुष्य अपने
आपको पूरी तरह
प्रकट होने ही
नहीं देता। भीतर
से हम क्या
हैं और बाहर
से क्या हो
जाते हैं इसका
अंतर समझाता है
अध्यात्म। यदि जानना
चाहें कि भीतर
से क्या हैं
और जो कर
रहे हैं वह
ठीक है या
नहीं तो इसके
लिए अध्यात्म ने
तीन दर्पण दिए
हैं।
इनमें चेहरा देखेंगे तो आप जो हैं, जान जाएंगे। दुनिया आपको क्या समझती है यह अलग बात है लेकिन, कम से कम मनुष्य शरीर में रहते हुए यह जानना जरूरी है कि हम हैं क्या। बाहर की देह सामान्य दर्पण में देखी जा सकती है और भीतर की देखना हो, अपने आप को जानना हो तो इन तीन दर्पणों का प्रयोग कीजिए- परिश्रम, ईमानदारी और भलाई। आप कितने ही परिश्रमी हों लेकिन, ध्यान रखिए, परिश्रम तो कोई दूसरा भी करा सकता है और मजबूरी में भी करना पड़ सकता है। पर परिश्रम के दर्पण में अपने आपको देखें तो पाएंगे परिश्रम हमें साहस देता है।
परिश्रम के इस दर्पण पर आलस्य की धूल न जमने दें। दूसरा दर्पण है ईमानदारी का। परिश्रम तो मजबूरी हो सकती है पर ईमानदारी बिल्कुल स्वैच्छिक क्रिया होनी चाहिए। इस दर्पण में अपने आपको देखेंगे तो पाएंगे भीतर प्रेम उतर आया है। इस दर्पण पर भी धूल जमती है, जिसका नाम है अहंकार। अहंकार आते ही आप प्रेम से कट जाते हैं, इसलिए इस धूल से भी बचना होगा। तीसरा दर्पण है भलाई और इस पर जमने वाली धूल का नाम है ईर्ष्या। इस दर्पण में झांकेंगे तो सेवा दिखेगी। जितनी अधिक सेवा करेंगे उतने ही ईर्ष्या से मुक्त हो जाएंगे। दुनिया भले ही आपको कुछ भी समझे पर इन तीन आईनों में देखकर अपने आपको जान जाएंगे। खुद को जानने का यही उपाय है।
ईश कृपा से
सफलता आसान हो
जाती है
मेहनतकश को हरि
कृपा मिल जाए
तो सफलता और
आसान हो जाती
है। कोई कठिन
काम भी करने
निकलें तो वह
पूरा तो कठिनाई
से ही होगा
लेकिन, उसे करने
में आनंद आने
लगेगा। यह आनंद
इस बात का
आभास कराएगा कि
मुश्किलें दूर हो
गईं। अपने से
ऊपर की परमशक्ति
कैसे हमसे जुड़
जाती है और
फिर हमें क्या
लाभ होता है
इसका दृश्य लंका
कांड में देखने
को मिलता है।
जब नल और नील ने पत्थरों का सेतु बना दिया तब यह बात सामने आई कि वानर सेना ज्यादा है और सेतु की चौड़ाई कम। ऐसे में सभी उस पर से कैसे गुजर पाएंगे? उसी समय श्रीराम समुद्र के किनारे खड़े हो गए और सारे जलचर रामजी को देखने वहां एकत्र हो गए। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे।।’ भगवान राम को देखकर सब के सब ऐसे हर्षित हुए कि हटाने पर भी नहीं हट रहे थे। आगे दोहा लिखते हैं- ‘सेतु बंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं। अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं।।’
तब कुछ सेना पत्थर के सेतु से गई, कुछ उड़कर और बाकी बचे सदस्य रामजी की आज्ञा पाकर उन जीव-जंतुओं के ऊपर से चले गए। इस पूरी घटना से भगवान राम संदेश दे रहे हैं कि कोई भी काम करें, श्रम तो करना ही पड़ेगा। एक सेतु तो तुमने परिश्रम का बनाया लेकिन, दूसरा जो जलजंतुओं का सेतु है, वह मेरे कारण बना है। इसे मेरी कृपा मानिए। मेहनतकश लोग परिश्रम करते हुए दबाव में आ जाते हैं, परेशान हो जाते हैं और कभी-कभी अपनी मेहनत को दुर्भाग्य मानने लगते हैं। तब भगवान कहते हैं- थोड़ा दाएं-बाएं देखो, मेरी कृपा का भी सेतु मिलेगा। यहां सेतु से मतलब है, एक तरीका, प्रोत्साहन और साहस। ये सब मिल जाने के बाद आप अपने अभियान में जरूर सफल होंगे।
शास्त्रों के दृष्टांतों
में हर समस्या
का हल
कल्पना की क्रियाशील
अभिव्यक्ति का नाम
प्रबंधन है। इस
दौर में जिस
तरह से विज्ञान
और तकनीक ने
हमारे जीवन को
प्रभावित किया है,
यदि प्रबंधन ठीक
नहीं हुआ तो
इन दोनों का
नुकसान ही उठाएंगे।
भारत में प्रबंधन
के अर्थ पूरी
दुनिया से थोड़े
अलग हो जाते
हैं, क्योंकि हमारी
जड़ें मूल रूप
से धर्म से
जुड़ी हैं। धर्म-अध्यात्म को लेकर
भारत के ऋषि-मुनियों ने हमें
जो चिंतन परम्परा
दी ऐसी दुनिया
में किसी और
देश के पास
है भी नहीं,
इसलिए यहां प्रबंधन
को थोड़ा शास्त्रों
और ऋषि-मुनियों
के चिंतन से
जोड़ दिया जाए
तो शायद दुनिया
में प्रबंधन का
हम जैसा अच्छा
अर्थ कोई और
नहीं निकाल सकेगा।
भारत में जन्मे या किसी भी रूप में यहां की धरती से जुड़े हर व्यक्ति की जड़ें कहीं न कहीं, किसी न किसी धर्म से जुड़ी हैं। पश्चिमी मान्यता तने से शुरू होती है। एक गलती हम लगातार कर रहे हैं कि जीवन को तना ही मानकर चल रहे हैं लेकिन, उसका पोषण जड़ से होता है। अपनी जड़ों से न कटें इसके लिए धर्म को समझें, अपने धर्म में जीएं और दूसरों के धर्म का मान करें। किसी भी धर्म के शास्त्र पढ़िए, उनके रूपकों में, प्रसंगों में प्रबंधन की झलक जरूर मिलेगी।
प्रबंधन से जुड़े लोगों को प्राचीन शास्त्रों, ऋषि-मुनि, फकीरों की बातों को प्रबंधन में जोड़ते रहना चाहिए। यदि ठीक से अध्ययन किया तो उनमें बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान दृष्टांत के साथ मिल जाएगा। कुछ ऐसे पात्र मिल जाएंगे जो आपके रोल मॉडल हो सकते हैं।
आज जब आदर्श व्यक्तित्व की कमी-सी हो गई है तो मार्गदर्शन किससे लें, किसको प्रेरणास्रोत बनाएं? यह एक समस्या हो गई है। इन सबका समाधान उन शास्त्रों में, धर्म गुरुओं के पास मिल जाएगा। उन तक पहुंचिए और इसके लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहिए।
हनुमानजी की ये
चार बातें जीवन
में उतारें
जिसका भी जन्म
हुआ है उसकी
मृत्यु भी होगी
ही। जन्म और
मृत्यु के बीच
जो महत्वपूर्ण घटना
घटती है वह
है जीवन। अधिकतर
लोग जान ही
नहीं पाते कि
जीवन को जीवन
बनाया कैसे जाए?
वो जन्म और
मृत्यु को ही
जीवन का हिस्सा
समझ लेते हैं।
जीते तो पशु
भी हैं लेकिन,
जीवन को जानने
की संभावना ईश्वर
ने सिर्फ मनुष्य
को दी है।
जन्म-मृत्यु के
बीच में जीवन
कैसा तैयार किया
जाता है, इसका
जीता-जागता उदाहरण
है हनुमानजी। जिस-जिस धर्म
में जो-जो
भी संदेश हैं
वे समूचे व्यक्तित्व
यानी हनुमानजी में
उतरे हैं। आज
उनकी जयंती है।
अपने जन्म के
उद्देश्य को समझने
के साथ उनका
जन्मोत्सव मनाया जाए। हनुमान
जयंती का मतलब
ही होगा कि
सचमुच जान सकें
कि इस धरती
पर हम मनुष्य
बनाए क्यों गए
हैं। हनुमानजी ने
बचपन में मां
से पूछा था-
मैं बड़ा होकर
क्या बनूंगा? तब
मां अंजनी ने
कहा था कि
चार काम करते
रहना तो तू
वह बन जाएगा,
जिसके लिए संसार
में भेजा गया
है। लक्ष्य को
कभी मत भूलना,
समय का सदुपयोग
करना, ऊर्जा का
दुरुपयोग मत करना
और सेवा का
कोई अवसर मत
चूकना। इन बातों
को हनुमानजी ने
बचपन से ही
आत्मसात कर लिया
था। यदि सच्चे
हनुमान भक्त हैं
तो आज हमें
भी इस बात
का ध्यान रखना
चाहिए कि हम
लक्ष्य से भटक
न जाएं। हनुमानजी
ने बचपन में
ही तय कर
लिया था कि
मेरा लक्ष्य श्रीराम
का दूत बनकर
उनकी सेवा करना
है और वो
बने भी। सच्चा
हनुमान भक्त सच्चा
सेवक भी होता
है। एक-एक
पल का उपयोग
कीजिए। ऊर्जा का दुरुपयोग
मत करिए। हनुमानजी
के चरित्र की
ये चार बातें
जीवन में उतार
लें, तब ही
लगेगा सच्ची भक्ति
भावना के साथ
सही अर्थ में
उनकी जयंती मनाई
गई।
अपनी आत्मा से जुड़ेंगे
तो अशांत नहीं
होंगे
वस्तुओं का इस्तेमाल
करने की अक्ल
और अधिकार केवल
मनुष्य को है।
पशुओं के भाग्य
में यह नहीं
होता। समझदार मनुष्य
यदि कोई चीज
खरीदकर लाता है
या उसे प्राप्त
होती है तो
वह उसका उपयोग
जानता है। यहां
गाड़ियों का उदाहरण
लिया जा सकता
है। यदि आपके
पास एक से
अधिक गाड़ियां हैं
तो आपको मालूम
होता है कि
कब किस गाड़ी
का उपयोग करना
है। लंबे समय
तक यदि किसी
वाहन का उपयोग
न करें तो
पड़े-पड़े ही
उसकी बैटरी खराब
हो जाएगी और
जिस दिन उसका
उपयोग करना चाहेंगे,
वह सही काम
नहीं करेगी, इसलिए
गाड़ियों को काम
में लेते रहिए
ताकि जरूरत के
समय धोखा न
दे जाए। आइए,
इस उदाहरण को
जिंदगी के एक
पक्ष से जोड़ते
हैं। ईश्वर ने
हमें तीन चीजें
दी हैं- शरीर,
मन और आत्मा।
इन तीनों
को चलाने, इनसे
जुड़े रहने के
लिए साधन भी
दिए हैं। शरीर
तीन बातों से
चलता है- भोजन,
नींद और भोग।
ये तीनों शरीर
की जरूरत हैं।
इनमें संयम खोया
कि शरीर को
नुकसान हुआ। मन
के लिए मनुष्य
को सांस से
जोड़ दिया गया।
मन यदि सक्रिय
है तो आप
अशांत हो जाएंगे,
परेशान रहेंगे। निष्क्रिय है
तो जीवन में
शांति उतरेगी। इन
दोनों का संबंध
सांस से है।
तीसरी चीज यानी
आत्मा सिर्फ अनुभूति
से जुड़ी है।
इसे न कोई
देख सकता है,
न जान सकता
है। आत्मा के
मामले में भी
वाहन वाला नियम
लागू होता है।
इसे लंबे समय
तक स्पर्श नहीं
किया तो अशांत
होना ही है।
आत्मा के साथ
जुड़ने के लिए
योग करना पड़ता
है। शरीर के
लिए तीनों क्रियाएं
हम करते ही
हैं, मन भी
दौड़ता है, थकता
है। आत्मा के
साथ भी समय-समय पर
झाड़-पोंछ का
काम करते रहना
चाहिए। आत्मा काम आती
रहे तो फिर
किसी को कोई
अशांत नहीं कर
सकता।
अपने व्यक्तित्व को सकारात्मक बनाइए
हमारे साथ कोई
कदम से कदम
मिलाकर क्यों चले? इस
सवाल के जवाब
में तीन बातें
सामने आएंगी- किसी
व्यवस्था का दबाव,
अपनापन या कोई
मजबूरी। हम किसी
व्यवस्था का हिस्सा
हों, कहीं नौकरी
या कोई व्यवसाय
कर रहे हों
तो कुछ लोगों
के साथ चलना
पड़ेगा या कुछ
हमारे साथ चलेंगे।
यह व्यवस्था का
हिस्सा है। इसकी
बहुत अधिक व्याख्या
नहीं हो सकती।
चूंकि साथ काम
करना है तो
चलना भी पड़ेगा।
दूसरी बात है
अपनापन। लोग अपनेपन
के कारण भी
साथ चलते हैं।
तीसरा कारण बनता
है मजबूरी। कोई
ऐसी मजबूरी आ
जाती है कि
हमें किसी के
साथ या किसी
को हमारे साथ
लंबा चलना पड़े।
यहीं चौंकाने वाली
बात सामने आती
है कि अब
तो लोगों ने
अपनापन भी मजबूरी
में बदल दिया
है।
कई घरों में रिश्ते निभाते हुए लोग एक-दूसरे के प्रति मजबूरी का अपनापन लिए चल रहे हैं। इन तीनों के साथ एक चौथी स्थिति का निर्माण भी किया जा सकता है, वह है- हमारे भीतर के आकर्षण को देखकर कोई साथ चले। व्यक्तित्व में ऐसा खिंचाव आ जाए कि साथ चलने वाला सिर्फ चले। उसके पास कोई जवाब न हो कि वह क्यों चल रहा है।
इस स्थिति के निर्माण के लिए यह समझना पड़ेगा कि हमारे शरीर से तरंगें निकलती रहती हैं। यदि मन निगेटिव है तो तरंगें नकारात्मक होंगी और मन पॉजिटीव है तो तरंगें भी सकारात्मक होंगी। एक भक्त का, योगी का मन निर्मल होता है और निर्मल मन से जो तरंगें निकलती हैं वो दूसरों को आकर्षित करेंगी ही। यह चौथा प्रयोग इसलिए जरूरी हो गया है कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो सारे रिश्ते एक-दूसरे को ढोएंगे, घसीटते हुए चलेंगे। कोई बड़ा अभियान नहीं चलाना है। थोड़ा समय निकालिए, योग से जुड़िए और अपने व्यक्तित्व से सकारात्मक तरंगें प्रवाहित कीजिए।
मृत्यु को भी
संदेश बना देते
हैं महापुरुष
महापुरुष मृत्यु को भी
संदेश बना जाते
हैं। सदकार्य करते
हुए कुछ लोग
प्रेरणा के स्रोत
बन जाते हैं
लेकिन, वे सचमुच
महान होते हैं
जो संसार से
जाते-जाते भी
बहुत कुछ सिखा
जाते हैं। आज
ईसा मसीह को
सलीब पर चढ़ाए
जाने का दिन
है। गुड फ्राइडे
अपने आप में
उत्सव है,क्योंकि
एक फकीर दुनिया
को बहुत कुछ
देकर विदा हुआ
था। मृत्यु सभी
की होना है।
हम सब मृत्यु
के पहले और
उसके बाद की
तैयारी जरूर करते
हैं। वृद्धावस्था से
पहले मनुष्य धन,
रहन-सहन आदि
की व्यवस्था इस
तरह से जुटा
लेता है कि
कहता है मरें
तो संतोष से
मरें।
यह मौत के पहले की तैयारी है। समाज में ज्यादातर लोग इसी तैयारी से मृत्यु की ओर चलते हैं। कुछ बीमा, वसीयत आदि के रूप में मृत्यु के बाद की भी तैयारी करके रखते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो मौत की ही तैयारी कर लें। असाधारण लोग जिनके भीतर फकीरी घट चुकी होती है, वे पहले या बाद के चक्कर में न पड़ते हुए सीधे मृत्यु की ही तैयारी करते हैं। उनकी रुचि इसी में होती है कि जब मौत आए उसी क्षण उसके साथ चल दें। इसी को कहते हैं मृत्यु से साक्षात्कार। मौत आने पर अच्छे-अच्छों को होश नहीं रहता कि वह कैसे आती है और कैसे ले जाएगी। आपकी मृत्यु में आपका कोई योगदान नहीं होता। सारा काम मृत्यु की देवी ही संपन्न करती है। महान लोग जिन्होंने आत्मा की गहराई तक की यात्रा कर ली है, वे सारा काम उस देवी को न करने देते हुए मृत्यु में अपनी भी भूमिका शुरू कर देते हैं। मृत्यु भी उन लोगों का सम्मान करती है, जो आगमन पर उसका स्वागत करते हैं। सुनने में कठिन लगता है पर यदि कोई ऐसा करने पर उतर आए तो अपनी ही मौत को देखना जीवन का सबसे सुखद पक्ष होगा।
यह मौत के पहले की तैयारी है। समाज में ज्यादातर लोग इसी तैयारी से मृत्यु की ओर चलते हैं। कुछ बीमा, वसीयत आदि के रूप में मृत्यु के बाद की भी तैयारी करके रखते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो मौत की ही तैयारी कर लें। असाधारण लोग जिनके भीतर फकीरी घट चुकी होती है, वे पहले या बाद के चक्कर में न पड़ते हुए सीधे मृत्यु की ही तैयारी करते हैं। उनकी रुचि इसी में होती है कि जब मौत आए उसी क्षण उसके साथ चल दें। इसी को कहते हैं मृत्यु से साक्षात्कार। मौत आने पर अच्छे-अच्छों को होश नहीं रहता कि वह कैसे आती है और कैसे ले जाएगी। आपकी मृत्यु में आपका कोई योगदान नहीं होता। सारा काम मृत्यु की देवी ही संपन्न करती है। महान लोग जिन्होंने आत्मा की गहराई तक की यात्रा कर ली है, वे सारा काम उस देवी को न करने देते हुए मृत्यु में अपनी भी भूमिका शुरू कर देते हैं। मृत्यु भी उन लोगों का सम्मान करती है, जो आगमन पर उसका स्वागत करते हैं। सुनने में कठिन लगता है पर यदि कोई ऐसा करने पर उतर आए तो अपनी ही मौत को देखना जीवन का सबसे सुखद पक्ष होगा।
सोशल मीडिया के नशे
से परिवार बचाएं
नशा इनसान की फितरत
में शामिल है।
हर किसी के
पास एक नशा
है। रूप का,
बल का, धन
का और एक
होता है खुद
को भूल जाने
का नशा। बाकी
सारे नशे फिर
भी चल सकते
हैं पर जिस
दिन इनसान खुद
को भूलने के
लिए कोई नशा
करता है वह
बहुत खतरनाक हो
जाता है। हमारे
देश में पुराने
लोग गांजा, अफीम,
शराब आदि का
सीमित नशा करते
थे। धीरे-धीरे
ये बढ़ते गए
और नशे की
लत ने विकराल
रूप ले लिया।
कोकीन, चरस जैसी चीजें आ गईं, नशा जहर बनकर कई भारतीयों के रक्त में घुल गया। युवा पीढ़ी ने मस्ती के नाम पर नशे को अपना लिया। इनके दुष्परिणामों से बचने के उपाय शुरू हुए, नशामुक्ति केंद्र बने लेकिन, लोग भूल गए कि आने वाले दस-पंद्रह वर्षों में ऐसा नशा भारतीयों के मिजाज में घुस जाएगा, जिसे निकालना मुश्किल होगा। वह होगा सोशल मीडिया का नशा। गांजा आदि नशीले पदार्थों का सेवन करने वालों को पैसा चाहिए और इसके लिए वे अपराध करते हैं। जिन्होंने सोशल मीडिया को नशा बना लिया, वे पागलों की तरह समय चुराने लगे। जो भी समय होता है, इसमें झोंक देते हैं।
आने वाले दिनों में यह ऐसा नशा बनेगा कि इसके लिए भी एडिक्शन बूट कैंप लगाने पड़ेंगे। चूंकि ये सब पढ़े-लिखे लोग होंगे तो उन्हें इससे निकालना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। पुराने नशों के परिणाम से शरीर खराब होता है और अब तो पूरा जीवन ही खराब होने लगा है। अकेलापन मिटाने के लिए लोग सोशल मीडिया को जीवन में उतारते हैं और वही एक दिन उन्हें इतना अकेला कर देगा कि जीवन बोझ लगने लगेगा। यदि परिवार में यह लत उतर चुकी है तो थोड़ा सावधान हो जाएं। आने वाले दस वर्षों के लिए तैयारी नहीं की तो पूरा परिवार इस नशे की भेंट चढ़ने वाला है।
इन चार लोगों
के करीब जरूर
रहें
कुछ अच्छा सीखने की
तमन्ना हो तो
जीवन को चार
लोगों से जरूर
गुजारिए। साइन्स और टेक्नोलॉजी
तेजी से विकसित
होती दुनिया की
जानकारी दे देगी।
जिस भी विषय
में दक्षता चाहें
उसकी जानकारियां जुटाना
भी कठिन नहीं
रहा। अब तो
शोध भी टेक्नोलॉजी
के साथ किया
जा सकता है।
इसमें शारीरिक और मानसिक श्रम के ढंग बदल जाते हैं लेकिन, एक चीज सदियों से जिस ढंग से सीखी जा सकती है, आज जिसकी जरूरत है और भविष्य में भी शायद उसमें बदलाव न आए, वह है जीवन की कला। इसे न तो कोई विज्ञान समझा सकता है न कोई तकनीक। यह स्वयं ही सीखनी है और इसे सिखाने वाले लोग भी अलग होते हैं। इसीलिए चार लोगों- कोच, शिक्षक, गुरु और सदगुरु को आसपास रखिए। कोच मतलब वह व्यक्ति जो नियमित रूप से शरीर का संयम सिखाए, उसके कायदों से परिचित कराए। उसके बाद शिक्षक की भूमिका शुरू होती है। कोच ने तैयार कर दिया कि आप शरीर से सक्षम हैं। फिर शिक्षक थोड़ा मन से गुजरकर बुद्धि तक जाता है। वह बताता है कि जो भी कोच से सिखा है उससे आजीविका कैसे चलाई जाए। इन दोनों के बाद जरूरत पड़ती है गुरु की।
कोच ने शरीर तक ठीक से ला दिया, शिक्षक मस्तक तक ले गया लेकिन, इसके बाद जब मन को क्रास कर आत्मा तक जाना है तो बिना गुरु के जा ही नहीं सकते। चूंकि हम शरीर और बुद्धि से गुजरे हुए रहते हैं तो भीतर कई दोष उतर आते हैं। गुरु उनकी सफाई कर आत्मा तक जाने का रास्ता बताता है। आत्मा का अगला चरण होता है परमात्मा। मतलब शांति, आंतरिक प्रसन्नता। परमात्मा तक पहुंचाने का काम करते हैं सदगुरु, इसलिए अच्छे काम करने वालों को इन चार लोगों को अपने आसपास जरूर रखना चाहिए।
इंद्रियों का सदुपयोग
ही संयम है
स्वतंत्रता
नियंत्रित नहीं हुई
तो स्वछंदता में
बदल जाती है।
स्वतंत्रता कहती है
सब अपना-अपना
काम करें और
मैं भी अपने
ढंग से अपना
काम करूं। स्वछंदता
कहती है मैं
जब अपने ढंग
से काम करूं
तो कोई मुझे
रोके-टोके नहीं।
मैं किसी अनुशासन
में बंधना नहीं
चाहती। अनुशासन में यदि
निजी स्वतंत्रता न
रहे तो वह
दबाव लगने लगता
है। आज जब
किसी व्यवस्था का
अनुशासन लादा जाता
है या कहें
कि स्वेच्छा से
उस अनुशासन से
बंधना पड़े तो
थोड़े दिन में
लोग विद्रोह करने
लगते हैं।
लंबे समय यदि मन को मारकर नियम को पालना पड़े तो फिर जब भी अवसर मिलेगा, मन विद्रोह या गलत काम कराएगा, इसलिए यदि अनुशासन को दबाव नहीं बनाना चाहते हों तो थोड़ा संयम को समझ लें। अनुशासन बाहर से आता है, संयम भीतर से जाग्रत होता है। संयम में चूंकि सहमति होती है, इसलिए वह दबाव नहीं बनाता। साने गुरुजी तो कहा करते थे कि संयम भारतीय संस्कृति की आत्मा है। यदि श्रेष्ठ कार्य करना हो तो अनुशासन और संयम दोनों का तालमेल बैठाना पड़ेगा। संयम को समझने के लिए कछुए का उदाहरण लिया जा सकता है। कछुए की विशेषता होती है कि जरा-सा खतरा आने पर पैरों को समेटकर ऐसा हो जाता है कि उसकी पीठ पर कोई आक्रमण नहीं हो सकता। संयम का मतलब है हमारी इंद्रियों का हम जब चाहें उपयोग करें और जैसे ही भोग-विलास या पतन का खतरा दिखे, उन्हें समेट लें।
संयम का मतलब कुछ छोड़ना नहीं है। इसका मतलब है यह जागरूकता कि इंद्रियों का सदुपयोग कैसे करें। जिसके पास संयम व अनुशासन का तालमेल बैठ जाए, वह जो भी काम करेगा, श्रेष्ठ होकर सफलता पर ही पूरा होगा।
भीतर उतरने पर मिलेगी
कल्याण शांति..
किसी दार्शनिक ने कहा
था- मनुष्य स्वतंत्र
होने के लिए
अभिशप्त है। स्वतंत्रता
उसकी पहली पसंद
है, इसलिए यहीं
से उसके जीवन
में चुनाव शुरू
हो जाता है।
हम एक चीज
चुनते हैं, दूसरी
ठुकराते हैं। फिर
तीसरी पकड़ते हैं,
चौथी हाथ से
निकल जाती है।
चुनते-चुनते इतनी
चिंता में डूब
जाते हैं कि
एक दिन जो
पाना चाहते हैं
वह मिल तो
जाता है लेकिन,
जीवन से शांति
चली जाती है।
लंका कांड में भगवान राम ने रावण से युद्ध से पहले शिवलिंग की स्थापना की और जो कहा उसे तुलसीदासजी ने ऐसे लिखा, ‘संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास। ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुं बास।।’ अर्थात जिन्हें शिवजी प्रिय हैं परंतु मेरे विरोधी हैं एवं जो शिवजी के द्रोही पर मुझे चाहने वाले हैं वे लोग घोर नरक में निवास करते हैं। यहां नर्क का मतलब है अशांति। राम का कहना है मुझसे और शिवजी से यदि ठीक से कोई जुड़ जाए, वह अशांति से बच सकता है। राम मर्यादा के प्रतीक हैं और शिव को कल्याण कहा गया है। मर्यादा का अर्थ है अनुशासन, जिंदगी की दौड़-भाग में थोड़ा विराम और कल्याण मतलब अपनी उपलब्धियों में से दूसरों के हित का काम करना। इसीलिए कल्याण को विश्राम माना है।
विराम यानी रुकना, विश्राम यानी रुके हुए को भीतर उतारना। जैसे ही आप थोड़ा-सा भीतर उतरते हैं, अपने निकट चले जाते हैं। जब मनुष्य अपने से एकाकार हो जाता है, तो स्वतंत्रता, चुनाव, भेद ये सब समाप्त हो जाते हैं। सबसे बड़ी शांति मिलती है। इसके लिए योग कीजिए, स्वयं के भीतर उतरिए। अपने निकट पहुंचते ही आप और परमशक्ति एक हो जाएंगे। यहीं से जीवन में मर्यादा और कल्याण शांति प्रदान करते हैं। रामजी यही संदेश दे रहे हैं।
धन, प्रतिष्ठा के साथ
आदर जरूर कमाएं
सभी लोग कुछ
न कुछ कमाने
निकले हैं। कमाना
भी चाहिए। जीवन
में धन-दौलत,
पद-प्रतिष्ठा सब
जरूरी है। कुछ
लोग बहुत अधिक
कमा लेते हैं
तो कुछ सामान्य
या उससे भी
कम अर्जित कर
पाते हैं। किंतु
हर एक के
पास कुछ न
कुछ कमाई है।
आदमी कमाता क्यों
है? इसलिए कि
जीवन का आनंद
उठा सके और
जरूरत पड़ने पर
वह कमाई काम
आ जाए। यदि
कमाने निकल चुके
हैं या कमा
चुके हैं तो
एक चीज जरूर
हासिल कीजिए, वह
है इज्जत।
मान, आदर, कीर्ति, प्रतिष्ठा ये सब भी कमाई के रूप हैं। धन-दौलत और उससे मिलने वाले सुख को तो हम भोग लेते हैं पर बहुत कम लोग होते हैं, जो अपनी इज्जत का आनंद लेते हैं। यदि आपके पास मान-सम्मान है तो उसका खूब मजा लीजिए। ये ही ऐसी कमाई है जो तृप्ति देगी। धन को भोगेंगे, लालसा और बढ़ेगी। परिणाम में आप गलत मार्ग पर भी जा सकते हैं। ध्यान रखिए, यदि आदर, इज्जत की कमाई का आनंद उठाना है तो अकड़ कम करनी पड़ेगी। मनुष्य मान कमा तो लेता है लेकिन, उसकी अकड़ उसका मजा नहीं लेने देती। मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं, जिनके पास खूब धन-दौलत, संपत्ति है पर उन्होंने इज्जत भी खूब कमाई है। कई लोग ऐसे भी हैं, जिनके पास दौलत तो ज्यादा नहीं परंतु उनका मान-सम्मान बहुत है। ऐसे लोग उस स्थिति को दिल खोलकर जीते हैं।
इज्जत कमाई जाती है ईमानदारी, अपनापन, निष्ठा और दूसरों के लिए जीने की तमन्ना से। आपका परिवार, समाज, रिश्तेदार, मित्र इस आदर को बड़ी प्रसन्नता से लौटाते हैं और जब आप उसे भोगते हैं तो जीवन का आनंद ही कुछ और होता है, इसलिए इज्जत जरूर कमाएं और उसका खूब आनंद व सुख भी उठाएं।
अपने भीतर के
बच्चे को बचाकर
रखें
लिखे और समझदार
लोग भी कुसंग
क्यों कर जाते
हैं? हम सभी
के भीतर एक
नासमझ, नादान बच्चा होता
है जिसका उम्र
बढ़ने से कोई
लेना-देना नहीं।
आप युवा, प्रौढ़
और वृद्ध हो
सकते हैं पर
भीतर का बच्चा
हमेशा बच्चा ही
रहता है और
सही-गलत का
निर्णय नहीं ले
पाता। कुल-मिलाकर
आप बाहर से
किसी भी उम्र
में हों, भीतर
का बच्चा गड़बड़
कर सकता है।
इसके प्रति होश
में रहिए। उसे
जिंदा रखिए और
बचाइए भी। जिनके
भीतर का बच्चा
जीवित रहता है,
वे दुनियादारी के
सारे काम करते
हुए भी शांत
और प्रसन्न रहते
हैं।
बच्चों की विशेषता होती है स्वभाव में जीना। उनकी खुशी, गम बड़ा अस्थायी होता है, क्योंकि वे भविष्य के प्रति अनजान होकर किसी के भरोसे होते हैं। कुसंग मनुष्य को कब घेर ले, कह नहीं सकते। आजकल तो इसके कई मार्ग खुल गए हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि ख्यात, प्रतिष्ठित लोग जिनसे कि एक बच्चा आकर्षित होता है, वे भी गलत मोड़ पर ही खड़े जिंदगी बिता रहे हैं। भीतर के बच्चे को बचाए रखने के लिए बाहर हो रहे गलत काम अस्वीकृत करने होंगे। गलत लोग प्रतिष्ठित भी हैं तो उन्हें स्वीकार मत कीजिए।
भीतर का बच्चा ऐसे लोगों के प्रभाव में जल्दी आ जाता है और हम गलत मार्ग पर चल पड़ते हैं। इस बच्चे को समझाएं फकीरी, वैराग्य, ईमानदारी, त्याग क्या होता है। बेईमानी को हटाएं और ईमानदारी को मान दें। बाहर जो लोग प्रतिष्ठित, ईमानदार हैं उन्हें अपने भीतर के बच्चे से जोड़ें। जब गलत लोगों को हटाकर अच्छे को जीवन में लाएंगे तो भीतर का बच्चा बचेगा और यदि वह सद्मार्ग पर है तो खूब शांति प्रदान करेगा।
त्योहार पर आप
जो हैं उसे
व्यक्त होने दें
भारत जैसे उत्सव-त्योहार दुनिया में
शायद ही कहीं
होते हैं। यहां
हर उत्सव के
पीछे आनंद का
संदेश और अनुशासन
का मकसद है।
ऐसा ही त्योहार
है होली। पहले
इसकी विशेषता थी
कि जल और
रंग के रूप
में लोग एक-दूसरे में घुलमिल
जाते थे। धीरे-धीरे इसका
स्वरूप विकृत होता गया।
बाद में आने
वाली पीढ़ियों को
एेसे घुलना-मिलना
पसंद नहीं रहा।
जल-संकट भी
सामने आया। सूखी
होली का आह्वान
होने लगा। फिर
भी इस त्योहार
में एक-दूसरे
की निकटता का
भाव और बोध
बना रहा। किंतु
आने वाले वर्षों
में शायद धीरे-धीरे यह
भी समाप्त हो
जाएगा।
पहले उत्सव के दौरान एक-दूसरे के निकट आने का मतलब था अपनेपन की नई इबारत लिखना। आजकल तो लोग दूरी बनाने में ही रुचि लेते हैं। संबंध इस बात पर तौले जाते हैं कि लेन-देन में हासिल क्या होगा। नि:स्वार्थ संबंधों को आधार देने वाले उत्सव व त्योहार के रूप ही बदल गए। लगभग सारे ही संबंध किसी न किसी स्वार्थ पर टिके हैं। लोगों के उद्देश्य, सफलता की परिभाषाएं बिल्कुल अलग हो गई। ऐसे में एक-दूसरे से दूरी बनाना जरूरी भी है। कल तक आप मित्रों के साथ विद्यार्थी थे, आज कोई सरकारी अफसर हो जाते हैं, प्रतिष्ठित राजनेता या सफल उद्यमी बन जाते हैं तो दूरी बनाना लाजमी है।
इसमें कोई दोष नहीं, लेकिन बदल मत जाइएगा। अपनापन जरूर बनाए रखें। होली का पर्व यही याद दिलाता है कि जब-जब कोई त्योहार या उत्सव की तिथि बने, उस दिन अपना मूल व्यक्तित्व बाहर निकाल लें। आप जो हैं उसे प्रदर्शित होने दें। यह भी एक तरीका होगा बाहर और भीतर से खुश रहने का। एक दिन बाद होली है। हमारी भेंट हो न हो, इस कॉलम के माध्यम से हृदय से बहुत शुभकामनाएं, बधाइयां..
सवाल पूछते रहें और
श्रद्धा से उत्तर
सुनें
आप सवाल पूछने
में संकोची तो
नहीं हैं? यदि
ऐसा है तो
अपना यह व्यवहार
बदल लें और
सवाल पूछने में
देर न करें।
यह आदत व्यावसायिक
क्षेत्र के साथ
पारिवारिक जीवन में
भी बड़ी काम
आएगी। किसी काम
या बात की
पूरी जानकारी निकालने
के बाद भी
जीवन में कुछ
प्रश्न ऐसे खड़े
होते हैं, जिनके
उत्तर समय रहते
दूसरों से ले
लेने चाहिए।
यदि आप माता या पिता हैं तो बच्चों की भलाई के लिए उनसे कोई सवाल जरूर पूछते रहें। कुछ सवाल तो जीवनसाथी से भी होते रहने चाहिए। सवाल पूछने में बुराई नहीं है लेकिन, सवाल पूछने का भी तरीका होता है। दो तरीके से पूछे जाते हैं। पहला अहंकार के साथ और दूसरा सरलता के साथ। यदि अहंकार से सवाल पूछ रहे हैं तो उत्तर शायद परेशान करे और समाधान भी नहीं मिलेगा। सवाल पूछते समय अहंकार रहित होकर सरलता से पूछिए और उत्तर पूरी श्रद्धा से सुनिए।
अपने तर्क को हटाइए, गिराइए या रोक लीजिए। ज्ञान को थोड़ा विश्राम दे दीजिए फिर उत्तर सुनिए। जब तसल्ली से उत्तर सुन लें तब अपने ज्ञान, तर्क व जानकारी का उपयोग कीजिए। पता नहीं कौन-सा उत्तर आपके लिए प्रेरणा बन जाए, भविष्य के लिए बहुत बड़ा मार्गदर्शन बन जाए। दुनिया में कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसके पास हर प्रश्न का उत्तर है।
बहुत से उत्तर तो उस सवाल से ही जुड़े होते हैं। यदि आप सवाल की चाबी लगाएंगे नहीं तो उत्तर का ताला खुलेगा भी नहीं। सभी के पास अपने-अपने उत्तर होते हैं। सवाल पूछने की क्रिया का लाभ यह है कि इससे अहंकार गिरता है। सरलता से पूछेंगे, श्रद्धा से सुनेंगे तो आपकी जानकारी बढ़ जाएगी। इसलिए सवाल करने में देर न करते हुए जवाब सुनते समय पूरी तरह सरल हो जाएं।
देवस्थान में नि:स्वार्थ भाव की
गूंज सुनें
आजकल तो लोग
बिना हिसाब-किताब
के कोई काम
करते ही नहीं।
मैं इतना करूंगा
तो मुझे कितना
मिलेगा, यह मनुष्य
की सोच बन
गई है। हिसाब-किताब और लेन-देन की
इस मानसिकता के
साथ जब जीवन
जीना मजबूरी हो
गया है तो
क्यों न इसका
एक प्रयोग मंदिर
में भी कर
लें। मंदिरों में
जो भीड़ देखी
जाती है उसमें
ज्यादातर तो सौदागरों
की ही होती
है।
श्रद्धा और भरोसा लेन-देन की वस्तुएं हो गइ हैं। हमने यह दिया है और इतना मिल जाए ऐसी बात भगवान से करने में सभी माहिर हैं। भले ही मामला स्वार्थ का हो पर भगवान से बातचीत तो की जा रही है और यह कला इंसान सीख चुका है। तो क्यों न एक प्रयोग किया जाए। देवस्थानों की विशेषता होती है वहां एक अनुगूंज सदैव चलती रहती है। वहां से गुजरने वाले हजारों-लाखों लोगों में से कुछ अपनी श्रद्धा छोड़कर जाते हैं, जिसकी गूंज वहां टिक जाती है।
सौदेबाजों के लाख शोर के बाद भी वह शून्य बना रहता है। किसी दिन शांति से बैठकर वह गूंज सुनिए। न उसके कोई शब्द हैं, न अर्थ। लेकिन महसूस होगा कि वह गूंज कह रही है- अच्छा हुआ तुम आ गए। पहली बार ऐसा लग रहा है कि यहां कोई सौदा करने नहीं आया है। नि:स्वार्थ भाव से बैठे हो। धीरे-धीरे यह गूंज महसूस कराने लगेगी कि आप वे नहीं हैं, जो रोज यहां आकर कुछ मांगते हैं, सौदेबाजी करते हैं। बल्कि आप कुछ और हैं। जैसे ही यह अहसास होगा, पहली निकटता परमात्मा की मिल जाएगी। मंदिर आने का कारण भी यही होता है। पर चूंकि दुनिया हमारे ऊपर हावी है इसलिए हम मूल कारण को भूल, दुनिया के दंद-फंद के साथ खड़े हो जाते हैं वहां। जब भी शांति से बैठकर यह प्रयोग करेंगे, पता लगेगा आज सचमुच वह मकसद पूरा हुआ जिसके लिए देवस्थान बनाए गए हैं।
जीवनसाथी को गुरुभाव
से देखना शुरू
करें
बहुत कम लोग
ऐसे भाग्यशाली होंगे
जिनके जीवन में
तब गुरु आ
गए हों जब
वे माता-पिता
से कुछ सीख
रहे होते हैं।
अधिकतर के जीवन
में गुरु तब
आते हैं जब
वे यौवन में
प्रवेश कर चुके
होते हैं या
गृहस्थी बसा लेते
हैं। आज उन
लोगों की बात,
जिनके जीवन में
गृहस्थी उतर चुकी
है। गृहस्थी के
केंद्र में जीवनसाथी
होता है। यदि
आपके जीवन में
कोई गुरु है
तो भी और
नहीं है तो
भी एक प्रयोग
कीजिए।
जीवनसाथी के प्रति कभी-कभी गुरु का भाव रखिए। उसे केवल शरीर या उम्र के साथ चल रहा साथी न मानते हुए उसमें गुरुभाव देखना शुरू कर दें। गुरु से एक निश्चित दूरी बनानी पड़ती है और जब किसी को निश्चित दूरी से देखते हैं तो ज्यादा अच्छे से देख सकेंगे। गुरु हर दिन नया होता है, इसलिए ऐसा भाव रखिएगा कि जीवनसाथी भी प्रतिदिन नवीनता लिए है। गुरु हमें इन्द्रियों की शुद्धता सिखाता है।
इन्द्रियों का सर्वाधिक उपयोग जीवनसाथी के साथ ही होता है। उस एकांत व गोपनीयता में यदि इन्द्रियों की शुद्धता साध ली तो इस रिश्ते के भाव ही बदल जाएंगे। जैसे गुरु-शिष्य के बीच मंत्र होता है वैसे जीवनसाथी के बीच तन होता है। मंत्र की ही तरह तन को भी साधिए। जीवनसाथी के तन को जीएं, भोगे नहीं। गुरु और शिष्य के बीच ऐसा हिसाब चलता है कि यदि गुरु को कुछ मिला है तो वह मंत्र के माध्यम से शिष्य में बांटता है।
इसी प्रकार जीवनसाथी में यदि किसी एक को कोई सुख मिला है तो उसे दोनों बांटें और दुख आता है तो उसे भी अलग-अलग न करें। गुरु तो फिर भी एक सीमा के बाद इशारा देकर हट जाएगा पर जीवनसाथी के साथ यह शुभ होता है कि जब तक दोनों का जीवन है, एक-दूसरे के लिए है। जीवनसाथी के प्रति गुरुभाव आपकी गृहस्थी का अंदाज बदल देगा।
भीतर की अव्यवस्था
दूर करना ही
धर्म
कभी किसी कबाड़ी
की दुकान देखिएगा।
लगेगा इस अटाले
की रिसाइकलिंग होगी
तब ही यह
कुछ बनेगा या
इसे नष्ट करने
के लिए भी
कोई क्रिया करनी
पड़ेगी। अब अपने
भीतर झांकिए। हमने
जो भी व्यक्ति,
विचार, स्थितियां भीतर इकट्ठी
कर रखी हैं
वे बिल्कुल उस
कबाड़ी की दुकान
जैसी अव्यवस्थित हैं।
गौर से देखिएगा,
सबकुछ अधूरा है।
अभी एक व्यक्ति
को देखा, बीच
में दूसरा आ
गया, फिर तीसरा
दिखने लगा। कोई
अपना हो गया,
कोई पराया लगने
लगा।
कभी विचारों से बिल्कुल गिर गए तो कभी एकदम श्रेष्ठ हो गए। यह सब कबाड़े की दुकान की तरह है। इसे एक क्रम में जोड़ना ही ध्यान है, धर्म है। लंका कांड में रामजी ने रामेश्वरम् की स्थापना के साथ जो कहा, उसे चौपाइयों के रूप में लिखकर तुलसीदासजी ने इशारा किया है कि हमें भीतर से व्यवस्थित, साफ-सुथरे होना चाहिए। रामजी कहते हैं-‘होई अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरी तेहि संकर देइहि।। मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही।।’ जो छल छोड़ और निष्काम होकर रामेश्वरजी की सेवा करेंगे उन्हें शंकरजी मेरी भक्ति देंगे।
मेरे बनाए सेतु के दर्शन करने वाला बिना परिश्रम के संसार से तर जाएगा। यदि छल छोड़कर निष्काम हो जाते हैं तो भीतर सेतु का निर्माण होता है। शरीर से आत्मा तक पहुंचने के लिए सेतु मन है जिसे निश्छल, निष्काम बनाना है। बिना परिश्रम के संसार से पार होने का अर्थ है सफलता के साथ शांति। परिश्रम न करने का मतलब आलस नहीं है। एक ऐसा श्रम जो थकाए नहीं। यह तब ही होगा जब अपने भीतर उतरकर देखेंगे, उस सेतु से गुजरेंगे। मन के सेतु से गुजरकर आत्मा तक पहुंच जाने पर आपके कृत्य और आप एक हो जाते हैं। यहीं से बिना थके सारे अच्छे परिणाम पाए जा सकते हैं।
जीवन खोकर कमाना,
निर्धनता की तैयारी
ध्यान रखिएगा, आपकी अमीरी
कहीं किसी रूप
में गरीब न
बना दे। गरीबी
को लेकर दुनिया
की परिभाषा है,
जिसके पास धन-दौलत, वैभव और
भोग-विलास के
साधन न हो
वह गरीब। लेकिन
अध्यात्म कहता है
असल गरीब वह
जिसके भीतर का
रस सूख जाए।
यदि आप बहुत
धन कमा चुके
हैं, अमीरों में
गिने जाते हैं
तो धन कमाते
हुए अपने भीतर
का रस न
सूखने दें।
देखा जाता है कि जब आदमी पैसा कमाने की दौड़ में शामिल हो जाता है तो धीरे-धीरे भीतर से सूखने लगता है। कठोर, कर्कश, स्वार्थी और अशांत होता जाता है। धन कमाने के लिए बाहर से तो मिलनसार, विनम्र और खुश रहता है लेकिन भीतर एकदम नीरस, थका हुआ और निराश। ऐसे में वह अमीर होकर भी गरीब है। जो लोग भीतर से गरीब और बाहर से अमीर हैं उनके सारे निर्णय फिर वैसे ही होने लगते हैं। अपनापन समाप्त होकर उनके भीतर एक रेगिस्तान पैदा हो जाता है, अजीब-सी उधेड़बून चलती रहती है।
यदि किसी प्रिय व्यक्ति को भी समय देना पड़े तो वे उस वक्त को भी रुपए से तोलने लगते हैं कि जितनी देर इसके साथ रहा उतनी देर में इतना धन कमा लेता। भीतर से नीरस होते ही हम जिस चीज को खोने लगते हैं वह है जिंदगी। जीवन खोकर जो भी कमाया, समझ लीजिए निर्धन होने की तैयारी कर ली। जिनके भीतर रस है वे जिंदगी के साथ ठीक से कदमताल कर सकेंगे।
जीवन अलग ही चाल से चलता है। कई जुड़ेंगे, कई छूट जाएंगे पर जितने जुड़ें उनको रस से जोड़िए और जो छूट जाएं उनके लिए नीरस न हो जाएं। यदि भीतर से रसभोर हैं तो ही कमाए गए धन का वास्तविक आनंद उठा सकेंगे। वरना यह अमीरी एक दिन ऐसी गरीबी बख्श देगी, जिसे मिटाने का कोई तरीका आपके पास नहीं होगा।
कम खाएं, दीर्घायु और
स्वस्थ रहें..
अपने से जुड़े
लोगों को लंबी
उम्र की दुआ
देना स्वाभाविक है।
लेकिन, केवल लंबी
उम्र से कुछ
नहीं होता। इन
दिनों मनुष्य को
जैसे बीमारियां चिपक
रही हैं उससे
यह समझ में
आने लगा है
कि लंबी उम्र
को जीने के
मौके भी होने
चाहिए। कोई बीमार
हो जाए और
उम्र लंबी हो
तो वह बोझ
ही है। इसलिए
जब कभी किसी
को आशीर्वाद दें,
स्वस्थ और दीर्घायु
होने का दें।
एक आशीर्वाद कम
यानी संतुलित खाने
का भी दीजिए।
भोजन का उम्र
और बीमारी से
सीधा संबंध है।
कहा गया है
कि कम खाने
से उम्र बढ़ने
की गति कम
हो जाती है।
ध्यान रखिए, खाने
का संबंध स्वाद
से है। हम
लाख निर्णय ले
लें कि अब
भोजन के प्रति
संयमित रहेंगे लेकिन, थाली
सामने आते ही
सारे संकल्प भूल
जाते हैं। सबका
स्वाद अलग-अलग
है। कम ही
लोग जानते हैं
कि जिस प्रकार
किसी के फिंगर
प्रिंट किसी से
नहीं मिलते ऐसे
ही टंग प्रिंट
भी सबका अलग-अलग होता
है। जिह्वा की
रेखाओं के साथ-साथ स्वाद
या रुचि भी
बदल जाती है।
भोजन जब तक
स्वाद से जुड़ा
है, तकलीफ दे
जाएगा। उसे आवश्यकता
से भी जोिड़ए।
अधिक भोजन आलस
का कारण बनता
है और आलस
तो हर हाल
में महंगा ही
पड़ता है। इसलिए
उम्र के किसी
भी पड़ाव पर
हों, भोजन के
मामले में यह
आशीर्वाद जरूर दीजिए
या लीजिए कि
कम खाएं, दीर्घायु
और स्वस्थ रहें।
बचपन में हो
सकता है आपका
निर्णय कोई और
ले रहा हो,
स्वाद के मामले
में आप जिद्दी
हों पर बड़े
हो जाएं और
यदि आपके बच्चे
हों तो उनके
स्वाद को स्वास्थ्य
और उम्र से
जोड़कर चलिए। जवानी में
सावधान हो जाएं,
बुढ़ापा तो मजबूर
कर ही देगा।
यदि स्वाद पर
नियंत्रण है तो
जवानी में लिया
गया संतुलित भोजन
बुढ़ापे में भी
फायदा ही पहुंचाएगा।
संसार से हटकर
खुद को देखना
ही वैराग्य
किसी गाड़ी से यात्रा
के दौरान आप
स्वयं ड्राइवर हों
या किसी अन्य
ड्राइवर के साथ
बैठे हों, दोनों
ही स्थिति में
जीवन से जुड़ी
एक गहन मानसिकता
काम कर रही
होती है। सुन-पढ़कर आश्चर्य होगा
पर इस मानसिकता
का नाम है
वैराग्य। चूंकि वैराग्य का
सामान्य अर्थ गलत
ले लिया जाता
है, इसलिए यह
शब्द जीवन की
गहराइयों के सही
उत्तर नहीं दे
पाता।
लोग समझते हैं वैराग्य का अर्थ है चीजों का त्याग करना। सबकुछ छोड़कर, दुनिया को भूलकर अलग ही जीवन जीना। लेकिन इसका सीधा-सा अर्थ है दूसरे क्या कर रहे हैं, दूसरों से हमें क्या मिल सकता है यह चाहत खत्म हो जाना। संसार से अलग हटकर स्वयं को देखने की स्थिति का नाम है वैराग्य। जब मनुष्य के जीवन में वैराग्य उतरता है तो न वह दृश्य होता है, न ही दर्शक। वह दृष्टा होता है। हम या तो दर्शक होते हैं या दृश्य लेकिन, यदि वैराग्य साध लें तो दृष्टा हो जाते हैं। इस स्थिति में हम ही दिख रहे और हम ही देख रहे होते हैं।
जब हम ड्राइविंग कर रहे होते हैं तो सामने से आती गाड़ी कौन-सी है, उसमें कौन बैठा है इस पर हमारी नजर तो होती है लेकिन, इन्वॉल्वमेंट नहीं होता। चूंकि हम गाड़ी चला रहे होते हैं इसलिए अवेयर होते हैं पर सामने वाला कौन है, कहां जा रहा होगा; इससे कोई लेना-देना नहीं होता। सारी जागरूकता इस बात को लेकर होती है कि कहीं सामने वाले से टकरा न जाएं।
यदि उस पर ज्यादा ध्यान देंगे तो भी टक्कर हो सकती है और कम देंगे तो भी एक्सीडेंट की आशंका बढ़ जाएगी। देखकर भी अनदेखा करना एक अच्छे ड्राइवर की पहचान है। बस, वैराग्य इसी तरह है। दुनिया में रहकर भी दुनिया में नहीं रहना। दुनिया वालों को देखकर भी अनदेखा करना। यहीं से सच्चा वैराग्य घटने लगता है।
योग से जानें
आदमी को पहचानने
की कला
हर व्यवसायी अपने धंधे
से जुड़े लोगों
को पहचान लेता
है। एक व्यापारी
किसी भी व्यक्ति
में ग्राहक ढूंढ़
लेता है और
समझदार हो तो
उसके भीतर उसकी
पसंद की भी
पहचान कर लेता
है। यह एक
कला है। लोग
अपने से जुड़े
लोगों की पहचान
तो कर लेते
हैं पर आदमी
को पहचानने में
चूक जाते हैं।
ग्राहक पहचाना जा सकता
है, उसकी पसंद
पहचानी जा सकती
है पर आदमी
पहचानने में चूक
हो जाती है।
ऋषि-मुनियों ने तो आदमी को पहचानने की भी विधि बता रखी है। योग उसी का नाम है। योग करने वालों को आदमी की पहचान बहुत अच्छे से हो जाती है। सवाल उठता है कि योग के माध्यम से किसी की पहचान कैसे की जा सकती है? यदि योग की क्रिया समझें तो बात आसानी से गले उतर जाएगी। योग का अर्थ ही है आत्मा से निकटता बढ़ाना, अपनी आत्मा को पहचानना। जब हम ध्यान में उतर जाते हैं तो आत्मा के बहुत निकट होते हैं।
धीरे-धीरे उस आत्मा को पहचान जाते हैं, जो जन्म से साथ आई और मृत्यु होने पर साथ ही जाएगी। जिसने अपनी आत्मा से परिचय कर लिया, धीरे-धीरे वह दूसरे की आत्मा को भी अनुभूत करने लगता है। फिर सामने वाले की पहचान होने लगती है। यदि आप सार्वजनिक जीवन में हैं और चाहते हैं कि कोई धोखा न दे, आप किसी के साथ छल न करें, साथ उठने-बैठने वाले लोगों की अच्छाई आप में उतरे, आपकी अच्छाइयां उन तक पहुंचे तो कुछ समय योग को देना ही चाहिए।
आज परिवार के सदस्यों में एक-दूसरे से शिकायत होती है कि अपने ही लोग हमें जान नहीं पाते। यह स्थिति ठीक नहीं है। अपनों से जान-पहचान बढ़ाने के लिए आत्मा से निकटता बढ़ाएं और यह संभव हो पाएगा योग से। योग कीजिए, मस्त रहिए..।
लापरवाही और आलस्य
से सावधान रहें
आलस्य मैल और
लापरवाही एक मूर्छा
है। इन दो
शब्दों को उस
समय बहुत ठीक
से समझिए जब
नववर्ष में प्रवेश
कर रहे हों।
हम भारतीयों के
लिए दो बार
नया साल आता
है- पहली जनवरी
और गुड़ी पड़वा
को जो कि
आज है। इसमें
क्या होता है
और उसमें क्या
होना चाहिए इस
बहस को छोड़कर
विचार यह कीजिए
कि जब नए
काल में प्रवेश
कर रहे हों
तो हमारे पास
कुछ ऐसा होना
चाहिए, जिससे कि आने
वाले दिनों में
अपने व्यक्तित्व को
निखार सकें।
आज नववर्ष में एक संकल्प लें कि अब हर दिन इस बात का आकलन करेंगे हमने दिनभर में ऐसा क्या किया कि अपने आपको सफल मानें। यह भी ध्यान रखिएगा कि आपकी सफलता में किसी और की कमजोरी या विफलता का भी योगदान होता है। जब कोई असफल रहता है तब आपको सफलता का मार्ग मिलता है। सफल होने पर हम अपनी ही सफलता पर टिक जाते हैं। लगता है सारा परिश्रम हम ही ने किया है और इस कामयाबी में किसी का कोई योगदान नहीं। पर याद रखिए, बारीकी से देखेंगे तो पाएंगे सामने वालों ने जो गलतियां की हैं, उनकी विफलता पर चढ़कर आप सफल हुए हैं।
सावधान यहां रहना है कि यदि उनकी कमजोरियां आपके भीतर प्रवेश कर गईं तो आपकी सफलता भी बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाएगी। शीर्ष पर खड़े रहना बड़ा मुश्किल काम है। बुलंदी की इमारत कब ढह जाए, पता नहीं लगता। दो बातों से दूसरों की कमजोरी आपकी सफलता में प्रवेश कर सकती है- लापरवाही और आलस्य। सफल होकर यदि भूल गए कि दूसरों ने ये दो गलतियां की होंगी तब आप सफल हुए हैं तो इसी भूल में उनकी ये दोनों गलतियां आपके भीतर भी आ सकती हैं। यदि ऐसा हुआ तो एक दिन आपकी सफलता अतीत की घटना हो जाएगी।
प्रौढ़ अवस्था में विद्यार्थी
होने का अर्थ
उम्र और विद्यार्थी
होना एक साथ
चलता रहता है।
हमें लगता है
उम्र के एक
पड़ाव तक पढ़
लिए तब तक
ही विद्यार्थी थे।
उसके बाद रोजी-रोटी, घर-परिवार
में लग गए
और विद्यार्थी जीवन
समाप्त हो गया।
लेकिन, ऐसा होता
नहीं है। यदि
जीवन के किसी
भी पड़ाव पर
कुछ निराश, थके
हुए हों और
लग रहा हो
कि कुछ समस्याओं
के समाधान नहीं
मिल रहे तो
सबसे पहले अपने
आपको विद्यार्थी मानिए।
कई प्रश्नों के
उत्तर मिलने शुरू
हो जाएंगे। अपने
विद्यार्थी होने को
उम्र के साथ
बांटते हुए इस
पर चिंतन करते
रहिएगा।
बचपन के विद्यार्थी
के लिए इच्छा
प्रधान होती है।
उस समय जीवन
की नींव रखी
जा रही होती
है, इसलिए हम
बहुत चीजों में
बिखरे हुए नहीं
होकर एकाग्र होते
हैं कि माता-पिता के
साए में रहकर
पढ़ना है। फिर
भी इच्छाएं जाग्रत
होती हैं और
जवान होने पर
ये जि़द में
बदल जाती हैं।
फिर व्यक्तित्व बहुआयामी
हो जाता है।
प्रौढ़ावस्था में यही
जि़द थकान में
बदलने लगती है
लेकिन, इसकी एक
विशेषता होती है
कि इसमें आप
थोड़े स्थिर भी
होने लगते हैं।
एक घर-परिवार
होता है, बच्चे
बड़े हो चुके
होते हैं, वृद्ध
माता-पिता साथ
होते हैं। इस
अवस्था में आप
विचारों-निर्णयों में थोड़े
स्थिर तो हो
जाते हैं पर
एक अज्ञात भय
सताता रहता है।
ध्यान रखिएगा, इस
समय अपने विद्यार्थी
होने में यह
न भूलें कि
अब आप बुढ़ापे
में प्रवेश करने
वाले हैं।
बुढ़ापे के विद्यार्थी
को आध्यात्मिक हो
जाना चाहिए। अध्यात्म
का अर्थ होता
है अपनी आत्मा
के पास बैठना।
इस उम्र में
जब आप विद्यार्थी
होते हैं तो
सबसे बड़ा साथीभाव
होता है अपनी
आत्मा के पास
बैठना। यहीं से
जीवन के समापन
पर विद्यार्थी होने
के अर्थ बदल
जाएंगे। हर उम्र
में विद्यार्थी रहिए
और उसी के
लक्षण के साथ
जीना सीखिए।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....
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