Tuesday, September 27, 2016

जीवन जीने की राह(Jeevan Jeene Ki Rah)

दूसरों को संतुष्ट करना भी एक हुनर
अयोग्य व्यक्ति परेशान होदिक्कत में आए तो समझ में भी आता है परंतु कभी-कभी मनुष्य की योग्यता भी उसे मुसीबत में डाल देती है। पढ़-लिखकरपरिश्रम करके जब किसी बड़े पद पर पहुंच जाते हैंहमारे पास कुछ अधिकार आ जाते हैं तो हम उनका उपयोग करते हैं। जिन लोगों के पास अधिकार नहीं होता उनके पास कुछ ऐसा ज्ञान होता है कि वे उससे दूसरों का भला करते हैं। यह योग्यता का सदुपयोग है। किंतु ऐसे योग्य लोगों को परेशानी भी उठानी पड़ सकती हैै। बहुत योग्य व्यक्ति अपने लिए समय नहीं निकाल पाते। वे सदैव उन लोगों से घिरे रहते हैंजिनका काम इन्हें करना होता है। कुल-मिलाकर योग्य व्यक्तियों को अपना और अपने घर वालों का समय दूसरों को देना पड़ता है।

कभी-कभी तो आप आराम भी नहीं कर पाते और मन ही मन खीज-सी होती है कि यह सफलतायह योग्यतायह प्रतिष्ठा किस काम की जब आप अपना ही काम नहीं कर पा रहे हैं। आपके अपने लोग लगातार आरोप लगाते हैं कि आप हम से दूर होते जा रहे हैं। ऐसे समय में हर योग्य व्यक्ति को एक काम सीखना चाहिए और वह है दूसरों को संतुष्ट करना। जब आप अधिकार संपन्न होते हैंयोग्य होते हैं तो लोग आपसे अपेक्षा करते हैं कि उनकी परेशानी तुरंत दूर करें। हो सकता है उस समय आप विश्राम चाहते हों तो सामने वाले को संतुष्ट करें कि प्रतीक्षा कीजिएआपका काम कुछ समय बाद होगा। दूसरों को संतुष्ट करना एक बहुत बड़ा हुनर है। तो जब आप योग्य बन रहे होंकामयाब हो रहे होंऊंचाइयों पर जा रहे हों तो इस बात में भी दक्ष होते जाएं कि दूसरों को संतुष्ट कैसे करें। मालवा की भाषा में इसको चाले लगाना भी कहते हैं। दूसरों को संतुष्ट कैसे किया जाए इस पर चिंतन करते रहिए। आगे के दिनों में हम इसी पर बात करेंगे।

रिश्तों में संवादहीनता न आने दें
अपेक्षा अशांति का कारण हैलेकिन यह स्वाभाविक है कि मनुष्यमनुष्य से अपेक्षा करेगा ही। फिर जहां संबंध होते हैंवहां तो अपेक्षा होती ही है। एक रिश्ता तो पूरी तरह अपेक्षा पर ही टिका है और वह है पति-पत्नी का। शायद इसीलिए इस रिश्ते में तनाव बहुत अधिक होता है। जो लोग समझदार हैंयोग्य हैं वे उनसे अपेक्षा रखने वालों को संतुष्ट करने का हुनर जानते हैं। सभी को संतुष्ट किया भी नहीं जा सकतालेकिन हमसे अपेक्षा रखने वाले लोग जीवन में आते रहेंगे। वे हमारी जिम्मेदारी के दायरे में भी हो सकते हैं। इनकी संख्या कम हो तब तो बात आसान है पर यदि बड़ी संख्या में ऐसे लोग आपसे जुड़ गए तो फिर सभी को संतुष्ट करना चुनौती बन जाता है।

पहला प्रयास तो यह करें कि जो भी कोशिश आप कर रहे हैंउसमें पूरी तरह ईमानदार रहें। सामने वाला संतुष्ट हो रहा है या नहींयह अलग बात है पर आप पूरी तरह ईमानदार बने रहें। दूसरी बात संवादहीनता न आने दें और तीसरी बात कोई न कोई मध्यस्थ जरूर रखें। मध्यस्थ व्यक्ति भी हो सकते हैं और व्यवस्था भी हो सकती है। जैसे लंबे समय तक आप किसी से बात न कर पा रहे हों तो उसे यह गलतफहमी हो सकती है कि आप उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। किसी को संतुष्ट करने में यह उपेक्षा भाव बीच में आ ही जाता है। तो प्रयास कीजिए कि आपसी संवाद बना रहे। किसी व्यक्ति या व्यवस्था को मध्यस्थ रखने का मतलब है जैसे किसी से प्रत्यक्ष नहीं मिल सकें तो मोबाइल आदि के माध्यम से संदेश भेजते रहें। कोई व्यक्ति आपके और उसके बीच ऐसा होजो इस कार्य को पूरा कर ले। इस थोड़ी-सी सक्रियता से आप उन सभी को संतुष्ट कर सकते हैं जो आपसे अपेक्षा लगाए बैठे हैं। यह हुनर आपको जीवन में बड़ा काम आएगाक्योंकि दूसरों को संतुष्ट करना भी एक बहुत बड़ी सेवा है।

आशीर्वाद से बढ़ता है आत्मबल
कुछ लोग पैर से छूकर भी आशीर्वाद देते हैं। यह बात सुनने में अजीब लगती हैक्योंकि पैर छूकर आशीर्वाद लिया जाता हैदिया नहीं जाता। मैंने अपने जीवन में एक-दो संत ऐसे देखे हैंजिनके सामने मैं झुकूं उससे पहले वे मेरे सामने झुक गए और जब वे झुके तो मुझे अनुभूति हुई कि ये झुककर भी मुझे आशीर्वाद ही दे रहे हैं।

समझ में आया कि इसके पीछे विनम्रता काम कर रही है। स्वभाव में विनम्रता तभी आ सकती है जब अहंकार गले। इसके जितने भी तरीके हैंउनमें हमारे ऋषि-मुनियों ने एक तरीका निकाला है प्रणाम करने का। इसके भी कई प्रकार होते हैं। साष्टांग प्रणाम शत-प्रतिशत होता है। फिर आप घुटने झुकाकर मस्तक सामने वाले के पैरों पर रखते हैं।

यह 75 प्रतिशत होता है। कमर झुकाकर दोनों हाथों से किया प्रणाम 50 प्रतिशत होता है। एक हाथ से किया प्रणाम 25 फीसदी और खड़े-खड़े हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हैं तो 15 प्रणाम प्रतिशत होता है। सीधे खड़े रहकर केवल हाथ जोड़ते हैं तो यह 10 प्रतिशत प्रणाम होता है। प्रणाम करते समय हम दूसरे की योग्यता देखते हैं।

जो जिस योग्य होता है आप उतने प्रतिशत प्रणाम कर लेते हैंलेकिन कुछ रिश्ते ऐसे होते हैंजिसमें योग्यता नहींसंबंध देखे जाते हैं। आगे से ध्यान रखिएगा कि प्रणाम हर हालत में लाभकारी हैक्योंकि उसके एवज में आप आशीर्वाद ले रहे होते हैंसामने वाले का सद्‌भाव ग्रहण कर रहे होते हैं।

जितने प्रतिशत प्रणाम करेंगे उतना ही प्रतिशत उसका लाभ भी मिलेगा और आशीर्वादसद्‌भाव यदि इस कीमत पर मिले तो जिस भी प्रतिशत का आप प्रणाम कर रहे हों उसको बढ़ाते रहें। प्रणाम के बदले में मिलने वाली आशीर्वाद की पूंजी आपका आत्मबल और आनंद बढ़ाने में बहुत काम आती है।

ये चार तरीके अपनाएंसदा खुश रहें
कुछ समय बाद खुश रहना भी सपने जैसा हो जाएगा। बड़ी बात नहीं कि शांति सिर्फ स्वप्न में ही मिला या दिखा करेगीजबकि खुश रहना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। फिर ऐसा क्यों है कि आज जिसे देखो वह अशांत नज़र आता है। परिवारों में लोग लगातार चिंतित हैं कि कैसे खुश रहें और दूसरों को रखें। इसके लगातार प्रयास किए जा रहे हैं कि लोग खुश रहें। कहीं कोर्स हो रहे हैंकहीं क्लासेस चल रही हैंशिविर लगाए जा रहे हैं।

यहां तक कि अब तो सरकार इसका अलग मंत्रालय बनाने जा रही है। भारत की संस्कृति में दो अवतार ऐसे हुए हैंजो हैं तो हिंदुओं के देवता परंतु इन्होंने अपनी लीलाओं से समूचे मानव जीवन को प्रभावित किया है और इसीलिए किसी भी धर्म का आदमी होयदि राम-कृष्ण की लीला को ठीक से समझ लें तो धर्म से परे जाकर जीवन में शांति प्राप्त की जा सकती है। इन दोनों ही अवतारों ने अपने साथ रहने वाले लोगों के लिए खुश रहने के बड़े अच्छे तरीके निकाले थे।

राम मर्यादा के अवतार थेइसलिए उन्होंने भक्तों की शांति-प्रसन्नता के लिए हनुमानजी को नियुक्त कर दिया था। एक प्रकार से हनुमानजी उनका चलता-फिरता हैप्पीनेस मंत्रालय थे। कृष्ण स्वयं अपने आप में प्रसन्नता के प्रतीक और शांति के दूत थे। इन दोनों अवतारों ने हमें यह सिखाया कि यदि चार काम करते रहें तो आपको प्रसन्न रहने से कोई नहीं रोक सकता। एकअपने से ऊपर किसी और शक्ति पर भरोसा रखिए। दोखूब शिक्षित होंलेकिन शिक्षा को संस्कार से जोड़ें। तीनपरहित की कामना करें और चारअहंकारशून्य जीवन जीएं। ये चार बातें आपको किसी भी स्थिति में अशांति से बचाए रखेंगी और आप हर हाल में खुश रहेंगे। इन्हें अपनाइए और सदा मुस्कुराइए..।

जनहित में मर्यादित व्यवहार है राजनीति
आजकल राजनीति’ शब्द कुछ लोगों के बीच गाली जैसा हो गया है। कुछ गलत लोग राजनीति में आ गए इसलिए राजनीति को गलत समझा जा रहा हैअन्यथा राजनीति कभी गलत नहीं रही। देश की आजादी में राजनीति का बड़ा योगदान है। राजनीति को समझने के लिए किष्किंधा कांड की यह चौपाई बड़े काम की है। हनुमानजी के सिर पर हाथ रखकर भगवान राम ने उन्हें विदा किया। हनुमानजी प्रसन्न होकर चले तब तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुर त्राता।।’ यद्यपि देवताओं की रक्षा करने वाले प्रभु सब बात जानते हैं तो भी वे राजनीति की रक्षा कर रहे हैं। इसे हम यूं समझें कि नीति की मर्यादा रखने के लिए श्रीराम वानरों को भेज रहे हैं।

राम के लिए राजनीति का अर्थ है मर्यादा का व्यवहार। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए हैं। वे सारे व्यवहार में मर्यादा रखते हैं। जो शब्द आया है-सुरत्राता’ मतलब देवताओं की रक्षा के लिए राम अवतार हुआ है और रावण की मृत्यु मनुष्य के हाथों होनी थीइसलिए राम समझ गए कि देवताओं की रक्षा के लिए मुझे मनुष्य के माधुर्य का माध्यम अपनाना पड़ेगाईश्वर के ऐश्वर्य का नहीं। अत: वे मनुष्य बनकर मर्यादा का व्यवहार कर रहे हैं। यही राजनीति है। राम हमें समझा रहे हैं राजनीति का मतलब है जनहित में मर्यादित व्यवहार। ऐसे उद्‌देश्य की पूर्ति करने का एक साधनजिसमें सबका भला हो। वे जानते थे कि मैं यह जो कर रहा हूं उसमें वानर दूत बनकर जाएंगे फिर सूचना लेकर आएंगे। इसमें समय लगेगा और यह समय बीतेगा तब ही रावण के मरने की अवधि आएगी। राजनीति में धैर्यभविष्य की समझ और सबके हित की कामना होती है और होनी चाहिएयही श्रीराम का संदेश है।

जीवन में दुर्गुणों का प्रवेश है आत्मघात
ऊपर वाला अपने ढंग से सबको जन्म देता है और जीवन का समापन भी करवाता है। हमारे हाथ में जो कुछ भी है वह बीच का मामला है। न हम जन्म का चयन कर सकते हैं और न ही मृत्यु को अपने ढंग से प्राप्त कर सकते हैं। किंतु भगवान उन्हें अपराधी मानता हैजो दूसरे के जीवन पर अकारण प्रहार करते हैं। आतंकी घटनाओं के साथहमारा परिचय एक नए ढंग की मृत्यु- आत्मघाती हमले से हुआ है। ऐसे हमलों से पूरी दुनिया कांप रही है। आतंक इसलिए बढ़ रहा हैक्योंकि लोग मानव जीवन के महत्व को समझ ही नहीं पा रहे हैं। मनुष्य का शरीर मिला है तो हमें अध्यात्म से जुड़कर इसका महत्व समझना होगा। शांति प्राप्त करना और धर्म को सही रूप में समझना हो तो अध्यात्म से जुड़ें।

समझ में आ जाता है कि जिस व्यक्ति के जीवन में दुर्गुणों का प्रवेश होसमझ लीजिए वह आत्मघात की तैयारी कर रहा है। जीवन में भी जब कामक्रोधमदमोह और लोभ हावी हो जाते हैं तो हम आत्मघाती कदम ही उठाते हैं। जो आतंकी सामूहिक हत्याकांड कर रहे हैं वे तो अपराधी हैं हीलेकिन दुर्गुणों को भीतर स्थान देकर स्वयं को आत्मघाती बनाकर हम भी कुछ अदृश्य हत्याएं करते रहते हैं। कभी किसी की भावनाओं काकभी किसी के चरित्र का और कभी अपने ही कर्तव्यों के प्रति उदासीन होकर जीवन जीने का। ये सब आत्मघाती कदम हैंइसलिए आतंकियों के घिनौने अपराध से सीखें कि हमारे भीतर दुर्गुणों का प्रवेश न हो और हमसे कभी कोई ऐसा काम न हो जो उस मानव जीवन या प्राणी जीवन के विरुद्ध हो जो परमात्मा ने दिया है। वरना किसी भी दिन अवसर मिलने पर ये दुर्गुण हमसे भी गलत काम करवा लेंगे और बाद में हमारे पास सिवाय पछतावे के और कुछ नहीं रहेगा।

अपने भीतर भक्ति को बनाए रखें
पहले पारिवारिक जीवन में बड़ी उम्र का व्यक्ति नेतृत्व करता था। वह जो बोलता थाआदेश बन जाता था और उसे मानना पड़ता था। समाज के और राष्ट्र के जीवन में भी ऐसा ही था कि नेतृत्व और निर्णय कुछ ही लोगों के हाथों में होता था। धीरे-धीरे समय बदला और परिवार में शक्ति व निर्णय के अनेक केंद्र बन गए। परिवार में जितने सदस्य हैंसबकी अपनी-अपनी राय महत्वपूर्ण हो गई और परिणाम में कलह हाथ लगी। इसलिए कलह पैदा हो रही हो तो एक काम करते रहिएगा और वह है विकल्प का प्रयोग। यदि आपको कोई निर्णय लेना हो तो यह न मानें कि आपने जो कह दिया वही हो जाएगा। विकल्प खुले रखिए। यह समझें कि ऐसा होना चाहिए लेकिनहो सकता है उससे सभी सहमत न हों। जब ऐसा मानते हैं कि हम विकल्प पर टिकेंगे तो हमारा अहंकार बाधा पहुंचाता है। सामने वाले अपने अहंकार के कारण आपकी राय नहीं मान रहे होंगे।

अहंकार टकराने से ही कलह आरंभ हो जाती हैइसलिए पारिवारिक जीवन में भक्ति बनाए रखिए। मैं हमेशा कहता हूं कि व्यावसायिक जीवन में भी भीतर के भक्त को खत्म न होने दें। आप कितने ही बड़े अधिकारी होंप्रोफेशनल होंअपने भीतर भक्ति बनाए रखें। जो भक्ति करता है वह हमेशा अपने ऊपर एक शक्ति को मानता है। भक्ति की शुरुआत होती है- तू हैमैं कहीं भी नहीं’ से। यही है भक्ति का अर्थ। इसका समापन होता है न मैं हूं न तू है। जब इतना इन्वॉल्वमेंट होता है तो अहंकार गल जाता है। यदि कोई आपकी बात न माने या आपका मनपसंद काम न हो तो आप मान लेते हैं कि संभवत: भगवान को यही मंजूर होगा। यही आत्मस्वीकृति आपके अहंकार को गलाकर जीवन को कलह-मुक्त कर देती है।

प्रत्येक काम योजनाब ढंग से करें
खुद पर नियंत्रण रखना अग्नि से गुजरने जैसा है। जो बाहर से बहुत दृढ़ दिख रहे हों वे भी भीतर से खुद पर नियंत्रण पाने के लिए संघर्ष कर रहे होंगे। बदलते हालात में स्व-नियंत्रण की कला सबको आनी चाहिए वरना पतन बड़ी आसानी से हो जाएगा। आदत बना लें कि बिना योजना के कोई काम नहीं करेंगे और प्रतिदिन योजना बनाएंगे। अपने सारे कार्य कुछ खानों में बैठा लें। जैसे हमारी पांच कर्मेंद्रियां हैं- आंखकाननाकत्वचा और जीभ। आप जो भी काम करेंइन कर्मेंद्रियों को खाने में बैठाकर करें कि आज क्या देखना हैकितना सुनना हैस्पर्श किसका रहेगा और कैसा स्वाद होगा। ध्यान रहे कि योजना का मूल्यांकन यानी समीक्षा करते रहें। जरूरी हो तो बदलाव करें और यदि रोकना पड़े तो तुरंत रोक लें।

कुल-मिलाकर कोई भी काम करेंबिना योजना के न करें। उसका एक फायदा और होता है। जब हम काम करने बैठते हैं तो हमारे साथ कई दूसरी परिस्थितियां और व्यक्ति भी जुड़ जाते हैं। कभी-कभी तो आस-पास इतनी भीड़ हो जाती है कि एक धुंध-सी जम जाती है और हम कर रहे काम को भूलकरउन्हीं में उलझ जाते हैं। एक छोटा-सा उदाहरण लें कि आप कोई प्रोजेक्ट बना रहे हों और उसी बीच आपके मित्र या घर का कोई सदस्य आ जाए और घंटे-दो घंटे उनके साथ बिताना पड़े तो जब वह स्थिति या व्यक्ति हटता हैहम भूल ही जाते हैं कि कर क्या रहे थे। यदि योजनाबद्ध तरीके से काम करेंगे तो तुरंत याद आ जाएगा और उनके साथ बिताया हुआ समय हमारे काम को बाधित नहीं करेगा। योजना का यह बड़ा फायदा है कि आप अपने से बंधे रहते हैं। जो स्वयं पर नियंत्रण पाना चाहते हों वे हर काम योजनाबद्ध तरीके से संपन्न करें।

हमेशा प्रसन्न रहने के लिए योग करें
परमात्मा जब किसी को जन्म देता है तो उसके साथ प्रसन्न रहने की सारी संभावनाएं छोड़ता है। मनुष्य शरीर का गठन बाहर और भीतर से ऐसा किया गया है कि उसे खुश रहना ही चाहिए। फिर हम उदास क्यों रहते हैंअसल में उदासी बाहर से हमारे भीतर आती है और खुशी भीतर मौलिक रूप से मौजूद है। चूंकि हम सावधान नहीं रहतेइसलिए बाहर से आई उदासी हावी हो जाती है। बहुत गहराई में न जाएं तो हमारे पास पांच ज्ञानेंद्रियांपांच कर्मेंद्रियांऔर पंचतत्व होते हैं। ये पंद्रह चीजें हमें खुशी देने के लिए ही हैं। इन सबके साथ एक सोलहवीं चीज है मन। वैसे शास्त्रों में इससे आगे तक का वर्णन है पर हम सामान्य लोगों को इस सोलहवीं स्थिति पर काम कर लेना चाहिए। मन है उदासी का केंद्र।

रोग के इलाज के पहले डॉक्टर पैथालॉजी का टेस्ट कराता हैजिससे तय होता है कि बीमारी की जड़ है कहांमन उदासीदुखपरेशानीनिराशाचिड़चिड़ापनबेचैनीहताशाथकान और डिप्रेशन का केंद्र हैजो पंद्रह साधनों को मटियामेट कर देता है। इसका नियंत्रण केवल और केवल योग से हो सकता है। मानवता अगर इतनी उदास हो जाएगी तो प्रकृति उसका साथ कैसे देगीइसलिए योग करना एक पात्र को हाथ में लेने जैसा है। पात्र का ढक्कन खुला हुआ हैप्रसन्नता बरस रही हैआप भर लीजिए। यदि ढक्कन बंद है या पात्र उल्टा है तो प्रसन्नता तो बरसेगी परंतु आप एकत्र नहीं कर पाएंगे। पात्र को खुला रखें और दोनों हाथों से खुशियां समेट लें। इसके लिए चौबीस घंटे में कुछ समय योग जरूर करें। यदि हनुमान चालीसा से मेडिटेशन कर लिया जाए तो फिर प्रसन्न रहना और आसान हो जाता हैक्योंकि हनुमानजी से बड़ा कोई योगी नहीं है।

मन को तन्मय करेंगे तो होंगे बड़े काम
सभी के जीवन में बड़ी जिम्मेदारी का काम करने के अवसर आते हैं। कुछ लोग सदैव जिम्मेदारी के काम करते हैं और कुछ कभी-कभी ही दायित्व बोध को जीवन से जोड़ पाते हैं। जब भी बहुत महत्वपूर्ण काम करना हो और उसमें हमारी भूमिका भी गहरी हो तो दो काम करने चाहिए। पहलामन को पूरी तरह से तन्मय करें। दूसरातन का मोह छोड़ें। यानी भ्रमित न हों और खूब परिश्रम करें। इसी बात को तुलसीदासजी ने किष्किंधा कांड में वानरों से जोड़कर कहा है। वानर सीताजी की खोज में चल चुके थे। तुलसीदासजी ने दोहा लिखा,‘चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह। राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह।।’ इस दोहे में चलना शब्द लिखा है।

यह शब्द पहले भी आया हैलेकिन यहां जो चलना शब्द आया है उसमें चलने का अर्थ था रामजी ने सबको विदा किया। कुछ पंक्तियों बाद फिर चलना शब्द आया हैजिसका अर्थ है अब वे स्वयं चले। मतलब उस बड़े कार्य की जिम्मेदारी वानर समझ चुके थे। इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है मन लयलीन। तन्मय होनालीन होनामगन होना। मन बहुत कम तल्लीन होता है। हमेशा इधर-उधर भागता रहता हैलेकिन चूंकि बड़ा काम करना है तो मन को केंद्रितनियंत्रित और जरूरत पड़े तो अनुपस्थित कर देना चाहिए। यहीं से एकाग्रता आती है। उसके बाद फिर तुलसीदासजी ने कहा है कि देह का ममत्व भूल गए। देह परिश्रम में बाधा पहुंंचा सकती है। उसे थोड़ा आराम चाहिए। देह की और भी कुछ मांगें होती हैं। जब हम यह तय कर लेते हैं कि घोर परिश्रम करना है तो मन और तन मिलकर हमें उस बड़े काम को पूरा करने में मदद करते हैं। ये ही बाधा है और ये ही दोनों सहयोगी भी हैं।



वक्त को सुविधाजनक बनाता है योग
समय के मामले में दो तरह के लोग मिल जाएंगे। एक वेे जो हमेशा यही कहते रहते हैं कि क्या करें टाइम नहीं है। एक वर्ग ऐसा भी हैजिसके साथ समस्या है कि समय कैसे काटेंसेवानिवृत्तवृद्धावस्था की ओर जाते हुए लोग दूसरी श्रेणी में पाए जाते हैं। फिर शरीर भी साथ नहीं देता तो चौबीस घंटे भी भारी पड़ने लगते हैं। जो युवावस्था में हैंवे बहुत कुछ पाना चाहते हैं। उन्हें समय कम पड़ रहा है। खाना-पीनासोना-उठना इन सबका तालमेल बिगड़ गया है। 25वां घंटा भगवान ने किसी को दिया नहीं है। इसलिए अध्यात्म कहता है समय का सदुपयोग ही समय का विस्तार और समय का संकोच है। बात गहरी है पर इसे यूं समझें कि कुछ लोगों को चौबीस घंटे कम पड़ रहे हैं और उन्हें काम अधिक है।

उन्हें समय का सदुपयोग कैसे करना हैयही अध्यात्म सिखाता है। ये लोग थोड़ी देर योग करेंमंत्र का जप ध्यान के साथ करें। जैसे मैं आग्रह करता हूं श्री हनुमान चालीसा से मेडिटेशन किया जाए। इसमें तीन से दस मिनट का समय लगता है। यह दस मिनट आपके चौबीस घंटे की अवधि को बढ़ा सकते हैं। घंटे तो चौबीस ही रहेंगेलेकिन आप चाहते हैं काम अधिक है और चौबीस घंटे में परिणाम ज्यादा मिल जाएं तो योग के साथ बिताया हुआ यह दस मिनट का समय ऐसी ऊर्जासमझ और स्पष्टता देगा कि आप परिणाम के मामले में बिना चौबीस घंटे को विस्तार दिए अधिक अवधि प्राप्त कर सकेंगे। जिनके पास समय बहुत है वे जब योग से गुजरते हैंश्री हनुमान चालीसा को ध्यान से जोड़ते हैंतब यही थोड़ा समय उन्हें चौबीस घंटे फैला देगा। उनके व्यक्तित्व का वितरण इतने प्रेमपूर्ण ढंग से और आनंदित तरीके से होगा कि फिर उन्हें समय काटने की समस्या नहीं होगी।

नकारात्मकता के सागर में तैरना सीखें
एक शिकायत अलग-अलग ढंग से करते हुए कई लोग मिल जाएंगे। प्राय: सुनने को मिलता है कि हमारे यहां टांग खींचने वाले लोग बहुत हैं। कोई काम करने जाएं तो आलोचना पहले शुरू हो जाती है। यह छोटे कस्बों के लोगों की आम शिकायत है। जिस स्थान पर आप रहते हैं उसे कोसना एक मनोवृत्ति-सी हो जाती है। ऐसा नहीं है कि बड़े नगरों में रहने वालों को ऐसी शिकायत नहीं होती। वहां जीवन तेज होता है तो शायद खींचतान नज़र नहीं आती। छोटी जगहों के सुस्त जीवन में वहां की उठापटकधक्कामुक्की सब अजीब ढंग से स्पर्श करते हैं। किंतु तय है कि यदि छोटी जगह टांग खींचने वाले ज्यादा हैं तो बड़े स्थानों पर गर्दन उतारने वाले कम नहीं मिलेंगे। फिर आजकल तो एक ट्रेंड-सा चल गया है कि नकारात्मक उद्‌घोष करनिगेटिविटी को उछालकरकोई विवादास्पद बयान देकर कुछ ऐसा कर दो कि चर्चा हो जाए।

मार्केटिंग करने वाले लोग कहते हैं यदि नकारात्मक प्रचार कर दें तो 80 प्रतिशत लाभ होता है। बाजार की दुनिया मेंलोकप्रियता की दौड़ में नकारात्मकता को उछालकर आगे बढ़ना भले ही सफलता दे देलेकिन जीवन के लिए यह घातक है। इसके लिए नदी का उदाहरण लिया जा सकता है। जिन्हें तैरना नहीं आताउन्हें डूबो देती है। जो तैराक हैं वे नदी के साथ बहना जानते हैंउनसे नदी अलग ढंग से पेश आती है और मुर्दे को नदी ऊपर फेंक देती है। जब आप जीवित हैं और तैरना नहीं आता तो डूब रहे हैं और मर जाने पर नदी फेंक देती है। बसजिंदगी इसी तरह से होती है। यदि तैरना सीख गए तो चारों ओर जो निषेधजो नकारात्मकता है उसमें से अपने आपको बचाकर ले आएंगेअन्यथा या तो डूब जाएंगे या मुर्दे की तरह बाहर फेंक दिए जाएंगे।

विचारों के प्रति सजगता देती है शांति
मनुष्य का मन एक दिन में कम से कम पचास हजार या इससे भी अधिक विचार पी जाता है और यही उसकी अशांति का बड़ा कारण बन जाता है। शांति खोजनी हो तो अपने आसपास बह रहेअपनी ओर आ रहे विचारों के प्रति थोड़ा होश जगाना पड़ेगा। जैसे हम रिमोट का बटन दबाकर टीवी देखना आरंभ करते हैं तो कई चैनल लगाने के बाद किसी एक पर टिक जाते हैं। कई दृश्यफिल्मेंसमाचार वातावरण में मौजूद होते हैं। आपका टीवी उनमें से कुछ को पकड़ लेता है। बसऐसा ही विचारों के साथ चल रहा है।

कई विचार बह रहे हैंआपका मन उनको टटोलता है और फिर किसी अच्छे या बुरे विचार पर टिक जाता है। थोड़ी देर बाद किसी दूसरे पर चला जाता है। यह बिल्कुल टीवी देखने जैसा है। लंबे समय तक टीवी देखते रहें तो थक जाते हैं। मन का थकना ही अशांतिउदासीअवसाद है। जब मन विचारों से भर जाता है तो नशा मांगता है। यह नशा शराब का हो सकता हैकाम का हो सकता है और किसी दवा का भी हो सकता है। मादक पदार्थ मन को और तेज कर देते हैं।

जीवन तयशुदा गति से ही चलता हैलेकिन मन को सबकुछ तेजी से चाहिएइसीलिए तालमेल बिगड़ रहा है। जो लोग नशा करते हैं उन्हें मालूम होना चाहिए कि वे जीवन के विपरीत गतिविधि कर रहे हैं। नशीली वस्तु भीतर उतरते ही आपको और तेज दौड़ाने लगती है। पीकर वाहन तेज चलानाचिल्लाना इन सबका यही कारण है। इसकी रोकथाम विचारों के स्तर पर ही करनी होगी। तो टीवी से समझें कि रिमोट आपके हाथ में है यानी कितने विचार लेना हैयह आपकी मर्जी पर निर्भर है। वरना लाखों विचार आपकी ओर आ रहे हैंयदि रोकने में चूक गए तो समझ लीजिए अशांति को आमंत्रण स्वयं आपने ही दिया है।

ऊपर वाली सरकार से जुड़े रहें
सरकारें दो तरह की होती हैं। ऊपर वालीऔर नीचे वाली। ऊपर वाली यानी भक्ति की सरकार और नीचे वाली यानी भौतिकता की दुनियानवी सरकार। अयोध्या जाएं तो वहां रामजी को सब सरकार ही कहते हैं। वहां देवता और गुरु को भी सरकार कहते हैं। ऊपर वाली सरकार अखंड हैसारे संसार को चलाती है। नीचे वाली सरकार खुद भी डरी रहती है और लोगों को भी भयभीत करती है। ऊपर वाली सरकार याद आने से ही सुरक्षा लगने लगती है। वह कृपा बरसाती हैनीचे वाली सरकार जो हमारे पास है वह भी ले जाती है। सरकार दोनों में से कोई भी होझूठ जरूर बोलेगी। ऊपर वाली सरकार के झूठ में भी सच होगा। जैसे संसार व्यर्थ हैझूठ है छोड़ो इसे। इसका सच यह है कि आप संसार में रहेंसंसार आप में न रहे।

नीचे वाली सरकार के सच में भी झूठ ही रहेगा। एक बार एक बच्चे ने नीचे वाली सरकार से पूछा, ‘माई-बाप आप क्या करते हैं?’ सरकार ने कहा, ‘इस पेड़ पर चढ़कर कूद जाओ।’ बच्चा बोला, ‘गिर जाऊंगा।’ सरकार ने कहा, ‘हम संभाल लेंगे।’ बच्चा कूद गया। सरकार थोड़ी खिसक गई। बच्चा धड़ाम से धरती पर गिरा। रोते हुए बोला, ‘ये क्या किया?’ सरकार बोली, ‘तू पूछ रहा था हम क्या करते हैंयही करते हैं! पहले चढ़ा देते हैंफिर कहते हैं कूद जासंभाल लेंगेफिर हट जाते हैंगिरा देते हैं।’ ऊपर वाली सरकार गोद में ले ले तो फिर गिरने नहीं देतीलेकिन हमें तो दोनों ही सरकारों से काम चलाना है। ऊपर वाली सरकार आपके परिश्रमनिष्ठाप्रेम और समर्पण से मिलेगीइसलिए ये गुण कभी न छोड़ें। हो सकता है ऐसे गुण वाले नीचे वाली सरकार में हाशिये पर पटक दिए जाएं। जो भी होऊपर वाली सरकार हमेशा रहेगीइसलिए उससे जुड़े रहें। नीचे वाली तो आती-जाती रहेगी।

बड़ा काम करना हो तो योग से जुड़ें
भयभीत लोग ज्यादा दावे करते हैंक्योंकि उनके भीतर कहीं भय छीपा रहता है। भीतर की कमजोरी छिपाने के लिए हिम्मत की बातें करने हैं। किष्किंधा कांड में जब सारे वानर सीताजी की खोज के लिए निकले तो खूब उत्साह में थे। सात्विक अहंकार था कि हम इतने महत्वपूर्ण कार्य के लिए चुने गए हैं। हमारे साथ भी ऐसा ही होता है। जब हमें किसी बड़े काम या लोकप्रिय घटना से जुड़ने का अवसर मिलता हैतो प्रयास की गंभीरता से अधिक अहंकार का स्पर्श काम करता है। सीताजी की खोज शक्तिभक्ति और शांति की खोज का रूपक है। यह बताता है कि सद्कार्य की नीयत के बाद भी बाधाएं भी आती हैं।

तुलसीदासजी ने इस दृश्य पर लिखा, ‘लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने।। मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना।।’ वानरों को प्यास लगी और पीने के लिए जल नहीं मिल रहा। हनुमानजी ने मन ही मन विचार किया कि ये सब मरना चाहते हैं। भूख और प्यास भक्तिशक्ति और शांति के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। इन्हें कब लगना चाहिए और कब इनकी पूर्ति होनी चाहिए यदि इसमें सावधानी नहीं है तो हम इन तीनों मामलों में चूक जाएंगे। हनुमानजी ने मन ही मन विचार किया। हनुमानजी का मन में विचार करने का अर्थ मन को निर्विचार करना भी है। हनुमानजी योगी थे और योगी जब भी सोचता हैदूरदर्शिता के साथ सोचता है। वे समझ गए इन्हें ऐसी प्यास लगी है कि यदि पूर्ति नहीं हुई तो सब मर जाएंगे। कुछ करना पड़ेगा। यह समझ योग का ही परिणाम थी। बड़े काम करना हो तो योग से जुड़ना चाहिए। यदि हम हनुमान भक्त हैं तो हमारा संबंध किसी धर्म से विशेष से नहींसिर्फ सफलता पाने से है।


धन से रिश्ता तय करता है लाभ-हानि
लालच सभी को होता है। कम या ज्यादा हो सकता है परंतु हर आदमी अपने ढंग से लालची है। ध्यान रखिएगा, आपका लालची स्वभाव यदि लोगों को पता चल गया तो वे आपका फायदा उठा सकते हैं और आपको नुकसान हो सकता है। फिर धन तो सीधे लालच से जुड़ा है। यह आता ही लालच के गलियारों से है। आप लालच की जितनी पूर्ति करेंगे, धन उतना तेजी से आएगा, इसलिए आज के समय में सारा जीवन धन के आसपास ही संचालित हो रहा है। ध्यान रखिएगा, तीन गति है धन की- दान, भोग और नाश। आइए, विचार करें कि जब हम धन से जुड़ते हैं या जीवन में धन उतरता है तो यदि हम धन के स्वामी बन गए तो कंजूस होकर रह जाएंगे।

यदि हमारे भीतर यह बात बार-बार आई कि मेरा धन-मेरा धन तो अहंकार पैदा होगा। दूसरी बात, धन को यदि सेवाभाव से जोड़ा तो हम दान करेंगे तथा धन को केवल विलास का विषय समझा तो भोगी हो जाएंगे। यदि धन के प्रति केवल पूर्ति का भाव रहा तो वह हमारी जरूरतें पूरी करने के काम आएगा, इसलिए जब धन के साथ जीएं तो उसके आदी मत हो जाइए वरना बिना उसके आप कोई काम नहीं कर पाएंगे। दौलत के बीच रहना जिनकी आदत बन जाती है, ऐसे लोग फिर निकट से निकट संबंधों में भी धन ही देखने लगते हैं। दौलत यदि पिता की आदत है तो वह संतान को धन ही मानेगा। वैसे ही खर्च करेगा, वैसे ही बचाएगा। पति-पत्नी के संबंधों में भी जब धन आदत के रूप में उतरता है तो कलह आना ही है। उसे हम धन से बचा नहीं सकेंगे, लेकिन हमारे-उसके संबंध स्वामी के हैं, सेवा के हैं, पूर्ति के हैं या भोग के हैं, इसी हिसाब से धन हमारे लिए लाभकारी होगा या नुकसानदायक।

परंपरा, संस्कार और मूल्यों से जुड़ें
इन दिनों जब नई पीढ़ी के बच्चों से राष्ट्रीयता, नैतिकता, परिवार या धर्म की बात की जाए तो वे कुछ सवाल हमारी ओर उछालते हैं। बच्चे जब इन बातों पर प्रश्न उठाएं तो सावधानी से उत्तर दें। परंपरा, संस्कार व मूल्य- ये तीनों शब्द बच्चों को भारी लगते हैं, लेकिन गहराई से देखें तो ये जीवन के लिए तीन सरल स्थितियां और सफलता प्राप्त करने के तीन सहज साधन हैं। परंपराएं परिवर्तित होती रहती हैं, संस्कारों का निर्माण करना पड़ता है और मूल्य स्थायी होते हैं। जैसे अगरबत्ती जलाई जाए तो परंपरा के रूप में यह पूजा की क्रिया है, उसकी सुगंध संस्कार है और यदि जलाने का तर्क समझ में आ जाए तो मूल्य शुरू हो जाते हैं। परंपरा में आपके पास ज्ञान होना चाहिए। फिर आप प्रयास करते हैं। जितना अधिक संसार में उतरेंगे परंपराएं, प्रयास ये सब भी उतने ही काम आएंगे। केवल संसार की खोज अशांति देगी।


थोड़ी-थोड़ी खोज स्वयं की भी करें, क्योंकि स्वयं की खोज के बाद ही परमात्मा की खोज होती है। स्वयं की खोज में ध्यान काम आता है और ध्यान संस्कारों से मिलता है। पहला परिश्रम, दूसरा हुआ पुरुषार्थ। ध्यान एक पुरुषार्थ है। परिश्रम जब स्वयं की खोज में लग जाता है तो वही परिश्रम पुरुषार्थ बन जाता है। तीसरा चरण है मूल्य। ध्यान के बाद आती है समाधि और मूल्य एक प्रकार की समाधि है, उसका प्रतीक है। तो परंपरा प्रयास है, संस्कार पुरुषार्थ है और मूल्य प्रतीक है, जो हमें किसी भी व्यक्ति, वस्तु या स्थिति के अच्छे, सही और महत्वपूर्ण होने से जोड़ते हैं। ये कभी नहीं बदलते। संसार पाइए ज्ञान से, स्वयं को खोजिए ध्यान से और परमात्मा तक पहुंच जाएंगे समाधि से। अत: आज की पीढ़ी अपने आप को परंपरा, संस्कार और मूल्यों से जरूर जोड़ें।

प्रबंधक के साथ लीडर भी बनें पालक
संदेह ऐसा शस्त्र है, जो आपकी सुरक्षा के काम आ सकता है और आत्मघाती भी हो सकता है। खासतौर पर संदेह यदि परिवार में उतर आए तो फिर परिवार बचाना मुश्किल हो जाता है। आज सबसे खतरनाक स्थिति यह है कि माता-पिता और पति-पत्नी भी संदेह के दायरे में आ गए हैं। माता-पिता बच्चों पर संदेह करने लगे हैं। उनके भविष्य की रक्षा के लिए संदेह कर रहे हों यहां तक तो ठीक है परंतु जब अपने भविष्य को लेकर बच्चों पर संदेह करने लगें कि ये बड़े होकर हमारी रक्षा-सेवा करेंगे या नहीं, यह खतरनाक है।

पहले माता-पिता सिर्फ समर्पण भाव से बच्चों को पालते थे, लेकिन आज वे भविष्य को लेकर डरे हुए हैं। संदेह अच्छे-अच्छों को भ्रम में डाल देता है। संकुचित कर देता है और अंत में संताप में पटक देता है। बच्चों का भी यही हाल है। पहले बच्चे माता-पिता के साथ श्रद्धा और विश्वास से जुड़े थे। ये दोनों संदेह की तरह जीवन को संकुचित नहीं करते, उसे विस्तार देते हैं, इसलिए पहले बच्चों को अच्छा लगता था कि परिवार और हमसे अधिक से अधिक लोग जुड़ें परंतु आज कोई किसी को साथ रखने को तैयार नहीं है। इसका एक कारण और है कि माता-पिता मैनेजर की भूमिका में ज्यादा आ गए हैं। एक अजीब प्रबंधन के साथ बच्चे पाले जा रहे हैं। प्रबंधक और लीडर में फर्क होना चाहिए। उदाहरण के लिए स्वामी रामकृष्ण परमहंस बहुत अच्छे प्रबंधक थे, लेकिन लीडर होने की योग्यता उन्होंने विवेकानंद में खोजी और इन दोनों का मणिकांचन योग विश्व को अनूठा वरदान दे गया, इसलिए यदि माता-पिता अपने भीतर प्रबंधक और लीडर होने की योग्यता उतारें तो उनका और बच्चों का योग वैसा ही बन जाएगा जैसा रामकृष्ण और विवेकानंद का था।

उदारता व संयम को आचरण में लाएं
यह उदारता और संयम का वक्त होना चाहिए। जो लोग आज सार्वजनिक जीवन में सक्रिय, पारिवारिक जीवन में समर्पित, धार्मिक जीवन में गतिशील हैं और राजनीतिक जीवन में कुछ मुकाम पाना चाहते हैं उन्हें इन दो शब्दों को गहना बनाकर आचरण में उतारना ही पड़ेगा अन्यथा सारी दुनिया के साथ हमारा देश भी इसका नुकसान उठाएगा। उदारता मनुष्य के भीतर सेवाभाव लाती है, हिंसा को दूर करती है। उदारता से परहित होता है और संयम से जीवन की अति समाप्त हो जाती है, हम भोगी होने से बच जाते हैं। इन दो बातों से अहंकार, क्रोध सब काबू में आ जाएंगे। आज जिसे देखो वह या तो अहंकार में डूबा है या क्रोध से घिरा हुआ है।

बल, धन, रूप और पद इन चारों का अहंकार एक दिन गिरना ही है। बलवान को एक दिन शरीर साथ नहीं देगा। रूपवान का रूप समाप्त हो जाएगा। पद पर सदैव कोई बैठा नहीं रह सकता और धन बहता ही रहता है। लोग फिर भी अहंकार करते हैं, यह उनकी मूर्खता है। ऐसे लोग बहुत अधिक दिन तक नहीं टिक पाएंगे। इन सबसे ज्यादा खतरनाक है धर्म का अहंकार। धर्म का अहंकार बढ़ता ही जाता है। मेरे शास्त्र, मेरे धार्मिक स्थल, मेरी साधना.. मैं और मेरेका भाव बढ़ता ही जाएगा और इसी कारण आज हिंसा हो रही है, इसलिए उदारता और संयम का पाठ श्रीकृष्ण की शैली में समझाना होगा। कृष्ण कहते थे ये दोनों बातें सिखाने के लिए सामने वाले को दंड देना पड़े तो दे दीजिए, क्योंकि उसी दंड में क्षमा छिपी होती है, इसलिए जिनके पास अधिकार हैं, जो योग्य हैं वे स्वयं उदारता व संयम बरतें और दूसरों को यह सिखाने के लिए एक सख्त अनुशासन बनाए रखें।


आगे रहकर भी साथ चलना सीखें
आगे चलते हुए साथ में चलनायह मुहावरा नेतृत्व करने वालों के लिए बड़े काम का है, चाहे बात उल्टी लगती है। किष्किंधा कांड के उस प्रसंग से यह मुहावरा समझें, जिसमें सीताजी की खोज में निकले वानर प्यास सेे परेशान हो गए। हनुमानजी को लगा कि वानर प्यास से व्याकुल होकर प्राण छोड़ देंगे।

एक ऊंचे स्थान पर चढ़कर दृष्टि डाली तो कुछ पक्षी एक गुफा में जाते दिखे और वे समझ गए कि वहां पानी होगा। सारे वानरों को वहां ले गए। दल का नेतृत्व अंगद कर रहे थे, लेकिन उन्होंने गुफा में जाने से इनकार कर दिया। सभी हनुमानजी की ओर देखने लगे। जिस समय वानर रामजी से विदा लेकर निकले तब अति-उत्साह में सभी आगे-आगे तथा हनुमानजी सबसे पीछे चल रहे थे, लेकिन जब परेशानी आई तो उन्हें आगे कर दिया। किसी की परेशानी कम करना, परेशानी में फंसे लोगों का नेतृत्व करना हनुमानजी का स्वभाव है।आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु कीन्हा।।यहां एक शब्द आया है- ‘विलंबु कीन्हा।

हनुमानजी ने नेतृत्व संभालते हुए बिना देरी किए सभी वानरों को गुफा के भीतर ले जाने की व्यवस्था की। जब आप किसी का नेतृत्व कर रहे हों तो आगे चलते हुए भी साथ रहना होगा। यह गुण हमारे भीतर भी होना चाहिए। चाहे हम परिवार का नेतृत्व कर रहे हों, समाज का या व्यवसाय में किसी दल का। बेशक आगे आपको चलना है परंतु अपने साथ वालों को यह अहसास कराएं कि हम उनके साथ ही चल रहे हैं। यह अहंकार हीनता के लक्षण हैं और यही हनुमानजी की विशेषता थी कि बिना विलंब किए आगे रहते हुए अहंकार रखें। जिस दिन यह गुण किसी के भीतर उतरता है, नेतृत्व के मतलब बदल जाते हैं।

सफलता को परिवार के साथ बांटें
आप अपने संस्थान के प्रतिनिधि हैं, चेहरा हैं, ऐसा आधुनिक प्रबंधन में सिखाया जाता है। बताया जाता है कि आप सार्वजनिक रूप से सक्रिय हों या किसी काम से मैदान में हों तब यह भूलें कि आपका कामकाज देख रहे लोग आपके माध्यम से आपके संस्थान का परिचय ही ले रहे हैं। यदि आपका प्रदर्शन श्रेष्ठ है, व्यक्तित्व आकर्षक प्रभावी है तो लाभ संस्थान को मिलेगा और यदि आप चूक रहे हैं तो नुकसान भी संस्थान ही उठाएगा, इसीलिए आधुनिक प्रबंधन में व्यक्तित्व विकास पर बहुत काम किया जाता है। ठीक इसी प्रकार आप अपने परिवार के भी प्रतिनिधि हैं। जब समाज में आप कोई भूमिका निभाते हैं तो आप परिवार का प्रतिनिधित्व कर रहे होते हैं। लोग आपसे आपके वंश, आपके कुल की पहचान करेंगे।

कोई भी आचरण करते समय यह भूलें कि आपके परिवार के लोग भी आप ही से प्रतिष्ठा पाएंगे या आलोचना के केंद्र बनेंगे। भारतीय संस्कृति सिखाती है कि यदि परिवार में आप अन्य के मुकाबले अधिक सफल हो गए हों तो उस सफलता को अन्य सदस्यों के साथ जरूर बांटिए। सबको साथ लेकर चलने की मनोवृत्ति रखें, क्योंकि आप प्रतिनिधि हैं, चेहरा हैं। संभव है जब आपका बहुत नाम हो जाए तो परिवार के किसी सदस्य से कोई गलती हो जाए या वह किसी विवाद में पड़ जाए तो उसके छींटे आप पर भी आएंगे। उस विवाद से स्वयं को बचाएं और उस सदस्य को भी समझाएं। एक अच्छे परिवार के प्रतिनिधि की यही पहचान है कि अपनी सफलता सब में बांटें, दूसरों की कमजोरी को दूर रखें और यदि कोई सदस्य विवाद अथवा संकट में फंस गया हो तथा उसका प्रभाव आप पर पड़ रहा हो तो धैर्य रखें और परिवार का साथ छोड़ें।

धर्म व शिक्षा स्थलों का मेल चाहिए
पिछले दिनों एक शिक्षाविद ने मेरे सामने टिप्पणी की कि देश में मंदिर-मस्जिदों की संख्या स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों से अधिक है। ऐसे में देश का शैक्षणिक विकास कैसे होगा, युवा पीढ़ी को मार्गदर्शन कैसे मिलेगा? दरअसल, दोनों का अपनी-अपनी जगह महत्व है। दुनिया में जब हम लक्ष्य पूर्ति के लिए दौड़ रहे हों, घोर तनाव में हों तो ऐसे विहार से विराम देते हैं धार्मिक स्थल। फिर हिंदुओं ने तो मंदिर के मामले में कुछ अनूठे काम किए हैं। जैसे मूर्ति को प्राण प्रतिष्ठित कर दिया। यह घोषणा है कि परम शक्ति इस रूप में उपलब्ध है, आप यहां आकर उसे प्राप्त कर सकते हैं।

अन्य धार्मिक स्थलों में भी इबादत के जो साधन हैं, ये सब ऊर्जा के ही स्रोत हैं। किंतु शिक्षा स्थलों को लेकर चिंता यह है कि वे व्यवसाय के केंद्र बन गए हैं। दूसरों का भला करने की बजाय वे शोषण के तरीके सिखाने लगे। इधर, धार्मिक स्थलों की दुर्गति धर्म को मानने वालों ने ही कर दी। धार्मिक स्थल पर केवल मांगने नहीं जाया जाता। वहां जाने पर शक्ति प्राप्त होती है, मन का भ्रम दूर होता है। ये केवल कर्मकांड के लिए नहीं, जीवन को नई दिशा देने के लिए है। ऐसे में शिक्षा केंद्रों में यदि धार्मिक स्थल हों तो भी शुभ संकेत होंगे और धार्मिक स्थल यदि शिक्षा के केंद्रों से जुड़ जाएं तो देश के विकास को कौन रोक सकता है। इसलिए हमेशा धर्म पर तीखी टिप्पणी करना, धार्मिक स्थलों का मजाक बनाना और शिक्षा केंद्रों पर बहुत अधिक चिंता व्यक्त करना। ये सब इसी कारण हैं कि दोनों अपने महत्व को ठीक से प्रकट नहीं कर पा रहे। जिस दिन मंदिरों का महत्व और शिक्षा स्थलों का प्रभाव ठीक से स्थापित होगा, हमारे देश का यह मणिकांचन योग सारी दुनिया में प्रमाण बन जाएगा।

साक्षी भाव से समस्या का हल निकालें
जब कभी आपको लगे कि स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो गई हैं, कुछ ऐसी उलझन जाए कि समझ में ही आए कि परेशानी हमने ही आमंत्रित की है या दूसरों ने दी है। जब जीवन में ऐसा दौर आता है तो फिर हम उलझने लगते हैं। उस परेशानी को सुलझाने की बजाय दूसरों पर दोषारोपण करते हैं या अपने ही प्रति इतने दुखी हो जाते हैं कि धीरे-धीरे हम डिप्रेशन में जाते हैं। ऐसी परिस्थितियां कभी जीवन में आएं तो जो भी प्रयास आप कर रहे हैं वह तो करते रहिए, लेकिन अपने मन में एक रूपक तैयार कीजिए।

रूपक का मतलब है एक दृश्य बनाइए और कल्पना कीजिए कि इस दृश्य के लेखक आप हैं, अभिनेता यानी नायक या नायिका आप हैं, खलनायक आप हैं, सह-अभिनेता की भूमिका में भी आप हैं और निर्देशक भी आप ही हैं। हर दृश्य में ये छह भूमिकाएं आप निभा रहे हैं। उस परेशानी भरे माहौल या स्थिति में जब आप स्वयं की ये छह भूमिकाएं तय कर लें तब फिर एक सातवीं भूमिका रखिए और वह होती है दर्शक की भूमिका। आप ही उस सारे दृश्य के दर्शक बनते हुए दूर खड़े होकर देखिए। ऋषि-मुनियों ने इसे ही साक्षीभाव कहा है। अपने को करते हुए देखना ही साक्षीभाव है और इस भाव में वो जो छह भूमिकाएं हैं, जिसमें सबकुछ आप ही हैं- देख रहे हैं आप, कर रहे हैं आप.. यहां से एक दूरी बनेगी और हो सकता है दूरी बनते ही आपको समाधान दिखने लगे। आपको लगने लगेगा कहां-कहां आपका योगदान है और कहां-कहां आप उसे ठीक कर सकते हैं। बस, यहीं से आप में एक आत्मविश्वास जागेगा विपरीत परिस्थिति से अपने आप को बाहर निकाल लेने का, इसलिए उलझन के दौर में साक्षीभाव जरूर रखिए।

व्यवहार कुशल होने के सात तरीके
जीवन में कभी-कभी आपको आक्रामक होना पड़ता है। इसका मतलब है आपमें भरपूर जोश हो, लेकिन जोश और जज्बा विवेक से दूर भी ले जाता है, इसलिए जरूरत पड़ने पर आक्रमक हों परंतु साथ में व्यवहार कुशल भी हों। पिछले दिनों मैं एक मिलिट्री स्कूल में व्याख्यान देने गया तो वहां जवानों की ट्रेनिंग देखी। उसमें कुछ ड्रील तो दांतों तले उंगली दबा लेने जैसी थी। इन्स्ट्रक्टर से मैंने पूछा आपको नहीं लगता कि इन लोगों से अत्यधिक शारीरिक श्रम करवाया जा रहा है? उन्होंने कहा, हम इन्हें आक्रामक बनाना चाहते हैं। फिर कहा कि हम इन्हें व्यवहार कुशल भी बनाते हैं। यानी दूसरों की सुविधा का भी ध्यान रखना। हमसे किसी को असुविधा हो, बल्कि हमारी मौजूदगी में दूसरों को लगना चाहिए कि वे किसी से संरक्षित हैं।

व्यवहार कुशल होने के लिए सहनशील भी होना पड़ता है। अगर लगता है कि व्यवहार कुशल होने में दिक्कत है, तो ये सात काम जो फौजी इन्स्ट्रक्टर ने मुझे बताए थे, आपके भी काम सकते हैं। एक, ड्राइविंग करें। इससे आपकी असहजता दूर होती है। दो, थोड़ी देर एक टांग पर खड़े होकर सारा ध्यान स्पाइनल कॉर्ड पर लगाएं। तीन, भीड़ भरे इलाके में पैदल घूमिए। चार, जो वातावरण सूट होता हो, कुछ देर उसमें भी रहिए। पांच, कुछ समय बदबूदार स्थान पर बिताइए। छह, कुछ देर वहां भी रहिए जहां बहुत शोर हो रहा हो और सात, जो लोग आपको पसंद हों, जितना हो सके, उनके साथ भी रहिए, लेकिन व्यक्त होने दें। इससे सहनशीलता बढ़ती है और आपकी आक्रामकता दूसरों की परेशानी का कारण नहीं बनेगी। यह सहनशीलता सफल होने में आपकी मदद करती है और सफल होने के बाद शांत रहने में व्यवहार कुशलता काम आएगी।

भीतर स्थायी शांति ही आत्मज्ञान
पिछले दिनों कुछ लोगों ने मुझसे पूछा कि आत्मज्ञान क्या होता है? यह जिन्हें प्राप्त होता है उनका आचरण कैसा होता है? जब लोग भक्ति से आगे बढ़कर मेडिटेशन करने हैं तो उनकी अनुभूतियों में परिवर्तन आने लगता है। कई लोगों को आंखें बंद करने पर दृश्य दिखते हैं, थोड़ी दृष्टि बदलती है। वे सोचते हैं यह क्या हो रहा है? आइए, आत्मज्ञान को रूपक से समझें। किष्किंधा कांड में जब हनुमानजी वानरों को पानी पिलाने गुफा में ले जाते हैं तो वहां स्वयंप्रभा नाम की देवी मिलती हैं जो श्रीराम की भक्त थीं। जब उन्हें पता चलता है कि सीताजी की खोज में निकले वानर प्यास से परेशान हैं तो कहती हैं- आप सभी आंखें बंद करें और जब खोलेंगे तो खुद को समुद्र तट पर पाएंगे। वहीं से सीताजी के संकेत मिलेंगे।

तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘मूदहु नयन बिबर तजि जाहु, पैहहु सीतहि जनि पछिताहु।। नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा, ठाढ़े सकल सिंधु के तीरा।।नयन मूदि का अर्थ है ध्यान। अभ्यास और वैराग्य दोनों योग के प्रमुख लक्षण हैं। हनुमानजी में वैराग्य ऐसा था कि वे इच्छा रहित जीवन जीते हुए सिर्फ कर्तव्य का वहन करते थे। जीवन में जब वैराग्य और अभ्यास उतरते हैं तो योग्यता खुद प्रवाहित होने लगती है। योग का तो मतलब ही है बुरी और कमजोर आदतों के विरुद्ध संघर्ष। बस, इसे ही आप आत्मज्ञान कह सकते हैं, क्योंकि इस सब में हम योग से गुजरते हैं तो अपनी आत्मा की ओर चलने लगते हैं। यदि सरलता से ध्यान से जुड़ना हो तो हनुमान चालीसा के साथ मेडिटेशन किया जा सकता है। जिन्हें आत्मज्ञान में रुचि हो और थोड़ी भी अनुभूति हो गई हो उन्हें यदि देखना हो कि आत्मज्ञान का परिणाम क्या है तो वे भीतर शांति खोजें। जब-जब आप शांत हैं तब-तब आत्मज्ञानी हैं।

विज्ञान का लाभ लें, अस्तित्व से न कटें
जिंदगी बालों की तरह नहीं है, जो किसी कंघी से सुलझ जाए। बालों का गुच्छा भी जब उलझ जाए तो कंघी काम करना बंद कर देती है। जीवन या तो बहुत सरल है या बहुत जटिल। यह सरलता या जटिलता इस पर निर्भर है कि आप किसके सहारे जिंदगी को समझने का प्रयास कर रहे हैं। अनपढ़ के हाथ में शास्त्र दे दिया जाए तो वह मतलब ढंग से नहीं समझ पाता। ठीक ऐसा ही जीवन के साथ है। मनुष्य जन्म मिल तो गया है, लेकिन जो अनाड़ी हैं, लापरवाह हैं वे इसका दुरुपयोग करेंगे। कुछ तो इतना दुरुपयोग कर लेते हैं कि जीवन को ही कोसने लगते हैं। सहज मिली यह उपलब्धि बेकार गंवा दी जाती है।

परमात्मा ने यदि मनुष्य का शरीर दिया है तो मानकर चलिए कि आप श्रेष्ठ होंगे तभी ऐसा अवसर मिल सका है। इस दौर में चारों ओर विज्ञान छा चुका है, टेक्नोलॉजी ने मनुष्य के रोम-रोम में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है, बीते वक्त से आज हमारे पास अधिक सुख-सुविधाएं हैं। फिर हम अशांत क्यों हैं? वह कौन-सी चीज है, जिसने विज्ञान और तकनीक के दिए सारे लाभों को हानि में बदल दिया है? इसे समझना होगा, क्योंकि विज्ञान और तकनीक को नकारना नहीं है। दरअसल, जब हम इनसे जुड़ें तो पूरी तरह इनसे ही जुड़ गए और अपने अस्तित्व से कट गए। जो लोग स्वयं से दूर होकर, अपने अंतरमन से कटकर विज्ञान और टेक्नोलॉजी को भोगेंगे वे किसी सूरत में शांत नहीं रह पाएंगे। इसलिए व्यक्तित्व, विज्ञान और तकनीक से जुड़ने पर लाभ उठाता है और अस्तित्व के लिए स्वयं से जुड़ना पड़ेगा। अपने अस्तित्व से कटें और विज्ञान-तकनीक का भरपूर लाभ लें तो इस युग में भी आप स्वयं शांत रहकर मनुष्य जीवन का लाभ उठा पाएंगे।

लक्ष्य प्राप्ति में आत्मा का भी योगदान हो
किसी चील के मुंह में बोटी या किसी पक्षी के मुंह में रोटी हो और उसे उड़ता हुआ देखें तो लगता है यह बहुत दूर जा रहा है। बस, मनुष्य का भाग्य ऐसा ही हो गया है। कभी-कभी तो लगता है, कौन उड़ा ले जाता है हमारे भाग्य को हमसे? खूब प्रयास करते हैं, कोई कसर नहीं छोड़ते, योग्य भी हैं फिर भी वह क्यों नहीं मिल पाता जो मिलना चाहिए। जब ऐसा लगता है तो हम निराश होने लगते हैं।

एक बारीक कारण देखें तो पाएंगे इस समय हम लोग बहुत अधिक भागने लगे हैं। भागते-भागते भी सबकी इच्छा होती है छलांग लगा लें। कुछ तो हमेशा उड़ने की कोशिश में रहते हैं। यह जो तेजी है, यह अशांत करके ही छोड़ेगी। मतलब यह नहीं कि रुक जाएं या धीमे चलने लगें। मतलब इतना ही है कि कुछ पड़ाव और जो अंतिम लक्ष्य है, वहां थोड़ा विराम लेने की वृत्ति बनाएं। रुकने का वह स्थान कोई मंदिर हो सकता है, आपका घर हो सकता है या आपका एकांत भी हो सकता है। इसके बाद चलेंगे तो आपकी चाल में तेजी तो होगी पर अशांति नहीं होगी। केवल शरीर और मन से संचालित लक्ष्य की यात्रा या कहें कि आपका कॅरिअर इस समय शरीर और मन से ही जुड़ा हुआ है। इसको कहीं कहीं आत्मा से जोड़िए। जैसे ही आत्मा का स्पर्श मिलेगा, वह आपको कुछ पड़ाव पर रुकने की समझाइश देगी और जो लोग ध्यान-योग करते हुए अपनी आत्मा से जुड़ेंगे वे लक्ष्य पर पहुंचकर आराम करना भी सीख जाएंगे। वरना लोग लक्ष्य पर पहुंचकर भी भागना बंद नहीं कर रहे हैं। इसी का नतीजा है सबकुछ मिल जाने के बाद भी अशांति। तो लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए शरीर और मन से अधिक योगदान अपनी आत्मा का भी रखिए, फिर देखिए जो मिलेगा वह अलग ही आनंद देकर जाएगा।

मौन साधने से ऊर्जावान हो जाते हैं शब्द
बरसते पानी में यदि छाते की छड़ किसी और ने थाम रखी हो तो आपका भीगना तय है। छाते को सबसे अच्छा वही पकड़ और संभाल सकता है, जो भीगने से बचने के लिए उसका उपयोग करना चाहता हो। ऐसे ही जिंदगी में कई बार हम अपने बचाव या सुरक्षा के प्रमुख साधनों की कमान दूसरों को सौंप देते हैं और परेशान होते हैं। दूसरों को हमें क्या और कितना देना है इसकी समझ कायम रखें। इसी समझ की कमी के कारण हम कुछ महत्वपूर्ण चीजें भी दूसरों को पकड़ा देते हैं जैसे प्रभावी शब्द। हम अपने कई महत्वपूर्ण शब्द दूसरों पर खर्च कर देते हैं। दिनभर में हम अपने-पराए कई लोगों से मिलते हैं और इतना बोलते हैं, अपने शब्दों को बेकार फेंक रहे होते हैं। ये शब्द केवल बाहर निकलकर बातचीत ही नहीं कर रहे, हमारी ऊर्जा को भी चूसकर बाहर कर रहे हैं। यह ऊर्जा कहीं और काम सकती है।

थोड़ा विचार करें कि शब्द बाहर फिंक क्यों जाते हैं? बोलने के बाद लगता है कि नहीं बोला होता तो ठीक था। दरअसल, जब भीतर विचारों का शोर होता है तो ये बेतरतीब, भड़-भड़ करते विचार आपके शब्दों को बाहर धक्का दे देते हैं और इस तरह निकले शब्द अर्थहीन बकवास बन जाते हैं, संभव है अनर्थ भी पैदा कर दें। भीतर के विचार, उनका शोर रोकना हो तो मौन साधना पड़ेगा। जैसे ही मौन की बात आती है, लोग होंठ बंद कर लेते हैं, लेकिन यह मौन नहीं, यह तो चुप्पी है। चुप्पी से कुछ हासिल नहीं होगा। हासिल होगा मौन से और मौन तब घटता है जब आप स्वयं से भी बात करना बंद कर देते हैं। जैसे ही आपने मौन साधा, विचार विदा हो जाएंगे और इसके बाद जो शब्द होंगे वे अद्भुत प्रभावशाली होकर आपकी ऊर्जा को बढ़ाने वाले होंगे।

संघर्ष में धैर्य रखना ही शिव का विषपान
जब अपनों से संघर्ष करना पड़े तो सबसे बड़ी ताकत होती है आंतरिक प्रसन्नता। अपनों से संघर्ष में अच्छे-अच्छे टूट जाते हैं। सभी को कभी कभी अपनों से संघर्ष करना पड़ता है। इसके लिए पहली ताकत जुटाएं आंतरिक प्रसन्नता के रूप में। भीतर से खूब प्रसन्न रहिए, शायद स्वजन शत्रु में नहीं बदलेंगे। वे आकर आपसे जुड़ जरूर सकते हैं। जानवरों में मनुष्य को सबसे ज्यादा डर लगता है सांप से। कोई हिंसक जानवर मनुष्य को इतना भयभीत नहीं करता। इसका कारण है सांप की अज्ञात उपस्थिति और दूसरा उसका जहरीला होना।

सपने में शेर जाए तो नींद खुलने पर ज्यादा विचार नहीं आते, लेकिन सांप जाए तो बहुत देर तक मन में पता नहीं क्या-क्या चलता रहता है। अपनों से संघर्ष भी ऐसा ही होता है, इसीलिए कहा गया है- आस्तीन के सांप से सावधान रहिए। इसी सर्प को शिव से जोड़ दें तो अर्थ बदल जाते हैं। सर्प एक बहुत बड़ा संदेश देते हैं कि विषपान कीजिए जैसाकि शिव ने किया था। विषपान यानी विपरीत परिस्थितियों में, संघर्ष में धैर्य रखना। जब अपनों से आहत हो जाएं तो लड़खड़ाना नहीं, वर्तमान परिस्थिति प्रतिकूल हो तो भविष्य के प्रति आशान्वित रहना। इस प्रकार विषपान धैर्य, निर्भयता ये सब सिखाता है। सांप से एक बड़ी शिक्षा यह भी मिलती है कि उसकी मौजूदगी यदि शिव के पास है तो वह पूजनीय है और यदि जंगल में है तो हिंसक है और लोग उसको मारकर ही मानेंगे।

हमारे पास शिव की उपस्थिाति का मतलब यही है कि हम विष को स्वीकार करें और इसी स्वीकारोक्ति से जीवन में भगवत्ता उतरेगी, परमात्मा का स्वाद उतरेगा। ध्यान रखिए, जिसके पास विषपान की स्वीकृति है उससे बड़ा पराक्रमी और निर्भय कोई हो नहीं सकता।

विराम में ही शांति और भय से मुक्ति है
राजनीति में अंतिम परिणाम सत्ता ही माना जाता है और भक्ति में अंतिम परिणाम है भय मुक्ति। राजनीति की बात तो समझ में आती है। मौजूदा नेता तो सत्ता के लिए ही हैं। किंतु भक्ति के क्षेत्र में भी कुछ लोग चूक रहे हैं। भक्त को भय-मुक्त रहना चाहिए, क्योंकि उसकी पीठ पर भगवान का हाथ रहता है। सबसे बड़ा भय होता है अज्ञात का भय और भक्त इसी से मुक्त रहता है। इसे किष्किंधा कांड के प्रसंग से समझते हैं। 

स्वयंप्रभाजी के कहने पर आंख बंद करने वाले वानरों ने जब आंखें खोलीं तो खुद को समुद्र तट पर पाया, लेकिन निराशा हाथ लगी। सीताजी का पता नहीं मिल रहा था। तुलसीदासजी ने लिखा- इहां बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीं।। वानरगण मन में विचार कर रहे हैं कि अवधि तो बीत गई, पर काम कुछ नहीं हुआ। कहने लगे कि बिना सीताजी की सूचना लिए वापस जाकर क्या करेंगे?

यह निराशा में डूबी वाणी थी। कई बार जीवन में हम निराश हो सकते हैं, लेकिन भय में डूब जाना अच्छी बात नहीं है। वानरों के नेता अंगद की वाणी भयभीत व्यक्ति की वाणी थी, ‘कह अंगद लोचन भरि बारी। दुहुं प्रकार भइ मृत्यु हमारी।। अंगद रोते, डरते हुए कह रहे थे मेरी तो मृत्यु तय है, क्योंकि असफल लौटने पर राजा सुग्रीव मुझे मार डालेंगे। ‘दुहुं प्रकारयानी दोनों तरह से। हम लोग भी दोनों तरह से डरे हुए हैं। संसार में भयभीत रहते हैं कि पता नहीं भौतिक सफलता मिलेगी या नहीं और संसार से मुंह मोड़कर भगवान की ओर दौड़ने लगते हैं। कुल मिलाकर दोनों ही स्थितियों में हम दौड़ते हैं। अगर सफलता में शांति, भय-मुक्ति चाहते हैं तो हमें इस दौड़ को कहीं न कहीं विराम देना होगा, जिसे मेडिटेशन कहते हैं। यह काम अब इन वानरों के लिए हनुमानजी करेंगे।

बुढ़ापे का सौंदर्य है आंतरिक प्रसन्नता
कहते हैं बुढ़ापे में सौंदर्य चला जाता है। शरीर की बात करें तो यह बिल्कुल सही है। जिस्म का नूर कोई नहीं बचा सकता। चाहे जितनी देखभाल शरीर की कर लो। आज तुलसीदासजी की जयंती है, जिनका लिखा श्रीरामचरित मानस भारतीयों के जीवन की आचार-संहिता बन गया। घर-घर में इतनी पैठ शायद ही किसी और साहित्य की हुई होगी। उन्होंने जो बातें हमें सिखाई हैं उनमें एक बड़ी बात यह है कि बुढ़ापे का सौंदर्य आंतरिक प्रसन्नता है। लोग वृद्धावस्था में भगवान को पाने से ज्यादा भुनाने का प्रयास करते हैं। किंतु तुलसी कहते हैं वृद्धावस्था में सबसे पहले उदासी मिटाएं। परमात्मा उम्र नहीं देखता। उसे तो आपके भीतर की मौज से मतलब है। तुलसीदासजी ने श्रीरामचरित मानस वृद्धावस्था में ही पूरा किया था। उनके संतत्व ने घोषणा की कि मैंने अपने अंदर उतरकर जितना आनंद प्राप्त किया उससे बहुत ज्यादा संसार में बांट दूंगा।

वृद्धावस्था की ओर जा रहे और वहां पहुंच चुके हैं लोग आज तुलसी जयंती पर यह विचार अपनाएं कि अब अधिकांश समय बच्चों के बच्चों को देंगे। आज मां-बाप इतने व्यस्त हैं कि बच्चों के लालन-पालन में कहीं न कहीं दादा-दादी, नाना-नानी, बड़े-बूढ़ों का स्पर्श होना जरूरी है। वे स्वीकार करते हैं कि उनकी सबसे बड़ी समस्या है बच्चों का लालन-पालन। इसे सुलझाने में वे ऊंट को घोड़ा बनाने जैसे तरीके आजमाते हैं। इससे चाल तो तेज हो जाती है, पर कद छोटा हो जाता है। आज के माता-पिता, पति-पत्नी होकर एक-दूसरे की उलझन से बाहर ही नहीं निकल पाते। बच्चों के लिए ऐसे मां-बाप को देखना रिंग में दो बॉक्सर देखने जैसा हो जाता है। वातावरण हिंसक हो उठता है। ऐसे में परिवार में वृद्धावस्था की मौजूदगी से ही प्रेम और शांति का वातावरण होगा।

संयम बनाए रखकर चरित्र बचाएं
नशा करने वाला व्यक्ति बड़ा हो या छोटा, अमीर हो या गरीब, पढ़ा-लिखा हो या निरक्षर, वह स्वयं के साथ दूसरों का भी नुकसान करता है। कहते हैं पता और पैगाम किसी दूसरे का भी हो, लेकिन फाड़ा तो लिफाफा ही जाएगा। इस तरह आदत और शराब मिलकर जब नशा बनता है तो नुकसान तो पीने वाले का ही होना है। पिछले कुछ दिनों की खबरें देखें तो पाएंगे कि शराब के नशे में किसी ने फुटपाथ पर सो रहे लोगों को रौंद दिया तो किसी ने दुष्कर्म किया।

पहले लोग मौज-मस्ती के लिए नशा करते थे, अब 90 प्रतिशत अपराधी अपराध करने के पहले नशा करते हैं ताकि हिम्मत खुल जाए। कमाल की बात है मनुष्य को सबसे कमजोर करने वाली शराब हिम्मत का माध्यम बन गई है। आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो नशा दुर्गुणों का रक्षक है। मनुष्य शरीर में दुर्गुण शत्रु की तरह हैं। नशा करते ही दुर्गुण बलशाली हो जाते हैं। फिर लोग उन्हीं दुर्गुणों के शिकार हो जाते हैं। किसी मनोवैज्ञानिक ने प्रयोग किया था- कुत्ते को रोटी खिलाते हुए घंटी बजाई। दस दिन में कुत्ते के लिए रोटी खाने और घंटी की आवाज में संबंध बन गया। 11वें दिन रोटी न होने पर भी घंटी बजाने पर कुत्ते की लार टपकने लगी।

मनुष्य के लिए आदत और नशा ऐसा ही हो जाता है। जो लोग शराब या अन्य कोई नशा करते हैं धीरे-धीरे वह आदत बन जाती है। सायकोलॉजी में इसे कंडीशन्ड रिफ्लेक्स कहते हैं, इसीलिए हम देखते हैं बरात में बिना पिए नाच नहीं सकते। पार्टी में मेलजोल नहीं हो सकता। अब तो गंभीर बात करने के लिए भी पैमाना चाहिए। सीमा से बाहर जाकर जो भी काम होगा वह नुकसान ही पहुंचाएगा। फिर चाहे नशा मदिरा का हो या किसी अन्य चीज का। संयम बनाए रखिए। चरित्र बचाए रखिए।

हालात खराब हों तो भक्ति को बढ़ाएं
जो लोग आशा में जी रहे हैं वे अब भी नारा उछालते हैं- भ्रष्टाचार का घड़ा या तो फूटेगा या फोड़ दिया जाएगा। पता नहीं ऐसा कब और कैसे होगा? भले लोग चिंतित हैं कि जिम्मेदार लोगों का भी आचरण बच नहीं पा रहा है। सरकारी व्यवस्था में चारों ओर बिगड़ी बनाने वालों की जमात फैल गई है। जो काम आसानी से न हो सके वह ये कराते हैं। जिन्हें भगवान पर भरोसा है वे अपनी भलाई को ऐसे भ्रष्ट आचरण से आहत न करें। जिस समय श्रीराम हुए, श्रीकृष्ण का दौर गुजरा, महावीर ने जो समय देखा, बुद्ध के समय जो परिस्थितियां थीं, नानक और मोहम्मद साहब भी कठिन हालात से गुजरे, लेकिन इन हस्तियों ने दिखा दिया कि कमल कीचड़ में ही खिलता है।

पतन की कितनी ही आंधी चले, भ्रष्ट आचरण के तूफान उठें, चरित्रहीनता की लहरें फैल जाएं, लेकिन हमारे व्यक्तित्व को आंच नहीं आनी चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब हमारा जुड़ाव परमशक्ति से हो। जब-जब बाहर हालात खराब हों तब-तब भक्ति बढ़ाते रहें, चाहे किसी धर्म के हों, भक्ति का मतलब ही है अपनी आत्मा से जुड़ना। इसमें योग जैसी साधना बड़ी काम आती है। योगी विपरीत परिस्थिति में भी टिका रहता है। खूब धन कमाएं, नाम अर्जित करें, पद और प्रतिष्ठा हासिल कर लें, लेकिन भीतर के भक्त को मरने न दें। जब भी उस परमपिता परमेश्वर के सामने खड़े हों तब उनसे कहें कि मेरी भक्ति का जो फल मुझे मिला है वैसा ही सबको मिले। यदि आपको आनंद मिल गया है तो उसे दोनों हाथों से लुटाइए। एक भक्त जब किसी के साथ खड़ा होता है तो लोगों को उसमें अपना संरक्षक दिखने लगता है। भक्त अपना एक हिस्सा भगवान से जोड़कर रखता है और दूसरा उन लोगों के लिए, जो संसार में उससे जुड़े हैं।

परिवार के केंद्र में हो श्रीकृष्ण जैसा गुरु
चौपड़ के खेल में कहावत है- जरूरी नहीं कि सारे पासे आपके हाथ में हों, जरूरी यह है कि आप बाजी कैसे चलते हैं। इसे यूं समझें कि संसाधन सीमित हो या कभी कोई साधन नहीं भी हो सकता है। ऐसे में हम किस-किस नीयत से निर्णय लेंगे यह महत्वपूर्ण है। कौरवों के पास सारे पासे थे, लेकिन बाजी पांडवों ने सही ढंग से चली, क्योंकि श्रीकृष्ण उनके साथ थे। श्रीकृष्ण यानी स्पष्ट चिंतन, सुदृढ़ निर्णय शक्ति और आत्म-विश्वास। श्रीकृष्ण का यह रूप हमारे भीतर उपस्थित है। बस, उघाड़ना भर है। श्रीकृष्ण जैसी उपलब्धि हमारे भीतर शिक्षा अथवा किसी के मार्गदर्शन से प्राप्त हो सकती है।

श्रीकृष्ण मूल रूप से पारिवारिक व्यक्ति थे, लेकिन अत्यधिक सामाजिक और राष्ट्रीय नेतृत्व करते दिखते थे। हम अधिकतम समय घर से बाहर गुजारते हैं। ऐसे में परिवार बचाने की यही शैली है कि जरूरी नहीं हमारे पास पासे कितने हैं? आवश्यक यह होगा कि हम बाजी कैसे चलें। घरों में ऐसा ही वातावरण है। एक-दूसरे से चाल चल रहे हैं। परिवार एकमात्र ऐसा खेल है, जिसमें या तो सभी को जीतना है या सभी से हारना है। एक ही परिवार में अपनों को हराना और अपनों से जीतना ठीक नहीं है, इसलिए श्रीकृष्ण जैसा गुरु परिवार के केंद्र में होना चाहिए।

गुरुमंत्र लेते समय इसकी गोपनीयता बनाए रखने को कहते हैं। ऐसा क्यों कहा जाता है? दरअसल मनुष्यों का शारीरिक गठन इस प्रकार है कि हम कोई चीज भीतर लाएंगे तो उसको बाहर निकालना ही होगा। भोजन और मल विसर्जन इसी का उदाहरण है। कोई भी वस्तु भीतर रोकने में धैर्य लगता है, तप की जरूरत होती है। इसे पारिवारिक जीवन में अपनाएं। अपने परिवार में पूरी तरह रुकें, प्रत्येक पल को जिएं फिर बाहर की दुनिया भी अलग ही आनंद देगी

खुद से जुड़ेंगे तो निराशा दूर होगी
‘नक्शे से इमारत चले, वृक्ष चले निज लीलाजीवन-यात्रा के लिए यह पंक्ति बड़े काम की है। हम में से बहुतों को स्पष्ट होगा कि हमारी मंजिल कहां है। इमारत की चाल नक्शे से हो तो इमारत अच्छी होती है। नक्शे से बाहर निकलकर इमारत बनाई जाएगी तो उसके कमजोर होने की आशंका बढ़ जाती है। किंतु वृक्ष के मामले में नक्शा काम नहीं करता। जमीन में उसकी जड़ें कितनी गहरी होंगी, तना कितना मोटा होगा, डालियां कहां-कहां बिखरेंगीं और फूल कैसे निकलेंगे यह उसकी निज लीला है। मनुष्य ने अपने हाथ वृक्ष पर भी डाल दिए और उसके समापन में जुट गया। इसकी कीमत भी वह चुका रहा है।

किष्किंधा कांड में अंगद के लिए तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘पुनि पुनि अंगद कह सब पाहीं। मरन भयउ कछु संसय नाहीं।।सीताजी मिल नहीं रही थीं और सारे वानरों के साथ अंगद भी उदास थे। उन्होंने कह दिया, ‘मेरा मरण निश्चित है।यदि विपरीत परिस्थिति में हम जीवन की यात्रा को वृक्ष की तरह न देखते हुए इमारत की तरह देखेंगे तो परेशान हो जाएंगे। वृक्ष की निज लीला में जड़ की बड़ी भूमिका होती है। जड़ का मतलब होता है अपने से जुड़ना। जिस दिन मनुष्य वृक्ष की निज लीला की तरह यात्रा करेगा, वह जड़ से जुड़ना शुरू कर देता है। जैसे ही हम अपनी जड़ में उतरते हैं, हमें एकांत मिलता है और एकांत में आत्म-साक्षात्कार होने लगता है व उदासी, निराशा जाती रहेगी। अंगद को यह आत्म-साक्षात्कार हनुमानजी की उपस्थिति करा रही थी।

जीवन में जब भी निराशा आए, हनुमानजी जैसी हस्ती को बनाए रखिए। तब आप पाएंगे कि इमारत की तरह चलेंगे तो निराश हो जाएंगे, वृक्ष की तरह निज लीला करते हुए चलेंगे तो लक्ष्य तक भी पहुंचेंगे, प्रसन्न भी रहेंगे।

प्रेम से जुड़ने का संदेश देने वाला पर्व
जितने उत्सव और त्योहार हमारे देश में मनाए जाते हैं संभवत: किसी मुल्क में नहीं मनाए जाते। हमारे पूर्वज कुछ काम ऐसे कर गए हैं, जो हमारे डीएनए में उत्सव और त्योहार बनकर बह रहे हैं। हमें समझना चाहिए कि ये केवल हुड़दंग नहीं है। त्योहार हमें आपस में जोड़ते हैं और विश्राम के लिए पड़ाव देते हैं। आज व्यावसायिक जगत में इतनी चुनौतियां प्रतिस्पर्द्धा हो गई है कि यदि शीर्ष पर पहुंचकर थक गए तो आप सफलता की दुनिया में भूतपूर्व ही नहीं, स्वर्गीय हो जाएंगे। कुछ लोगों के मन में तो यह बात बैठ गई है कि आगे बढ़ना है तो दूसरे को पीछे नहीं छोड़ना, उसे समाप्त ही कर देना है। ऐसे प्रतिस्पर्द्धी माहौल में त्योहार विराम देते हैं, शांति देते हैं। रचनात्मक सोचने का मौका और दूसरों के साथ खिलवाड़ करने का संदेश देते हैं। खासतौर पर यह संदेश देते हैं कि जो भी करें, पूरी तरह डूबकर करें।

भक्ति ऐसा ही उत्सव है जो हमें डूबो देता है। जैसे ही हम तल्लीन होते हैं, कर्म और कर्ता एक हो जाते हैं। जैसे आज राखी का त्योहार है। इसे जब आप परहित की भावना से जोड़ते हैं, एक पुरुष भाई के रूप में स्त्री बहन की रक्षा और उसके संबंधों को प्रगाढ़ता से देखता है। उसी दिन उसके मन में यह भाव आता है कि क्यों ऐसा रक्षा सूत्र प्रत्येक रिश्ते में उतर आए। जिस दिन हम एेसा सोचेंगे उस दिन एक हस्ती ऊपर बैठी है जो हमारी रक्षा करने उतर आएगी।

राखी ऐसा ही त्योहार हैं, जो दूसरों से प्रेम से जुड़ने का संदेश देता है, इसलिए राखी को केवल साधारण धागा ही मानें। एक-दूसरे से सब जुड़ जाएं तो फिर समाज प्रेम की धारा में डूबेगा और परिवार भी सुरक्षित होने लगेंंगे। तब आप जो भी करना चाहेंगे, आनंद के साथ कर सकेंगे।

रोज खुद से जुड़ने का समय निकालें
विपरीत समय में, संकट के दौर में जब घबराहट हो तो बहादुरी का मुखौटा ओढ़ लेना चतुराई मानी जाती है। कई लोग ऐसा ही करते हैं। जो परमात्मा में विश्वास करते हैं उनको एक बात सिखाई जाती है कि यदि केवल कर्मकांड करोगे तो बहादुरी मुखौटा ओढ़ने जैसी होगी, लेकिन यदि भक्ति करेंगे और अपनी भक्ति को योग से जोड़ेंगे तो फिर निर्भयता आपका स्वभाव बन जाएगी। बहादुरी और निर्भयता में बारीक फर्क है। बहादुर से बहादुर आदमी भी असफलता के डर से भरा रहता है, लेकिन जो निर्भय होता है उसे बहादुरी से कोई लेना-देना नहीं होता।

बस, वह भयमुक्त है, इसीलिए अपने से ऊपर किसी परम शक्ति से जुड़िए और योग इसका बहुत अच्छा माध्यम है। योग पहले स्वयं से जोड़ता है और फिर उस परम शक्ति से जोड़ता है। परंतु दिक्कत यह है कि लोग अनेक लोगों से जुड़े रहते हैं पर खुद से नहीं जुड़ते। तो चूंकि स्वयं से जुड़ने की ठीक से तैयारी नहीं है इसलिए ऐसी संस्थाओं में, ऐसे स्थानों पर आते-जाते रहते हैं, जिन्हें कभी आश्रम कहा गया है, कभी तीर्थ कहा है। किंतु वहां भी उन्हें खुद से जुड़ने के अवसर नहीं मिलते, शांति प्राप्त नहीं होती।

ऐसे लोग जब किसी आश्रम में जाते हैं तो वहां चमत्कार, आशीर्वाद, कृपा, सलाह इन सबकी अपेक्षा रखते हैं। जबकि आश्रम वे केंद्र होते हैं जहां कोई एक या बहुत सारे व्यक्ति आपको स्वयं से ही जोड़ने की कला सिखाते हैं। हर आश्रम के केंद्र में एक गुरु होता है, जो आपका रूपांतरण इस प्रकार से करता है कि आप खुद--खुद स्वयं से जुड़ जाते हैं। इसलिए तमाम व्यस्तताओं के बीच 24 घंटे में कुछ समय स्वयं से जुड़ने के लिए जरूर निकालिए। योग और गुरु इसमें आपकी बहुत मदद करेंगे।

सरल रहकर सत्ता का सुख उठाएं
सत्ता स्वभाव से ही नरभक्षी होती है। उस पर बैठने वाले को खा जाती है। शुरुआत से ही जमीर कुतरना शुरू करती है। इसीलिए जब कोई सत्ता पर बैठता है तो आचरण का संतुलन खो बैठता है। सत्ता केवल राजनीतिक सत्ता नहीं होती, जिसके लिए नेता जीवन दांव पर लगा देते हैं। सत्ता परिवार में मुखिया की भी हो सकती है, किसी व्यवस्था में नेतृत्व की भी हो सकती है और एक सबसे बड़ी सत्ता है आपके अपने होने की। इसमें आपको अपनी इंद्रियों पर राज करना पड़ता है। यह आंतरिक सत्ता है परंतु इतना ध्यान रखें कि हर सत्ता नरभक्षी है।

निज मन ही निज तन को खाए ऐसा कहा गया है। इसलिए मन से संचालित हमारी इंद्रियां हमें कुतर लेती हैं।
कहा जाता है सत्ता पर अनुभवी को बैठना चाहिए। किंतु ध्यान रखिए, अनुभव के बाद हम कुटिल हों, सरल होते जाएं। देखा गया है कि अनुभवी व्यक्ति कुटिल होने लगता हैै, क्योंकि जब आपने बहुत दुनिया देखी हो, तो आप इस बात में माहिर हो जाते हैं कि बचा कैसे जाए और निपटाया कैसे जाए? अधिकतर अनुभवी लोग सरलता खो बैठते हैं। अध्यात्म कहता है, जितने अनुभवी हों उतने सरल हो जाएं। इसके लिए अपने मन को सक्रिय सहयोग देना बंद कर दें। इससे जीवन और स्वभाव में सरलता उतरती है और जिस दिन सरलता अनुभव से जुड़ जाए उस दिन आपके पास कैसी भी सत्ता हो, उसका दुरुपयोग नहीं होगा बल्कि वह आपको जीवन का आनंद देगी।

अभी जो भी सत्ता पर बैठा है वह आनंद के लिए या तो शोषण करता है या गलत आचरण। लोग मानते ही नहीं हैं कि सरल रहकर भी सत्ता का सुख उठाया जा सकता है। वह सुख मिलता है मन के नियंत्रण से और मन का नियंत्रण होगा योग से। इसलिए योग को अपनाइए।

खुद को भीतर से ठीक कर आगे बढ़ें
अंतरतम में झांककर अपनी कमजोरियां ठीक करने के लिए बनाए दर्पण भारतीय संस्कृति को ऋषि-मुनियों की बड़ी देन है। इन आईनों में एक है कथाएं। यदि ठीक से उनका अर्थ ग्रहण कर लें तो वे आईने का ही काम करेंगी। प्रसंग है किष्किंधा कांड का। अंगद दुखी हो चुके थे कि सीताजी की खोज के बिना लौटेंगे तो सुग्रीव मुझे जीवित नहीं छोड़ेंगे। उन्हें दुखी देख रामजी की सेना के वयोवृद्ध सदस्य जामवंत कुछ कथाएं सुनाते हैं। यहां तुलसीदासजी ने लिखा है- ‘जामवंत अंगद दुख देखी। कहीं कथा उपदेस बिसेषी।। हम सब सेवक अति बड़भागी। संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी।।जामवंत कथा सुनाते हुए कहते हैं कि हम लोग बड़े भाग्यशाली हैं, जो रामजी का काम करने को मिला है।

प्रभु श्रीराम भक्तों से अतिरिक्त प्रीति रखते हैं और जिन्हें भगवान प्रेम कर रहा हो वे क्यों दुखी हों? लेकिन दुखी रहना मनुष्य स्वभाव बन जाता है, क्योंकि दूसरों की सहानुभूति, सांत्वना प्राप्त होती है। बच्चा बचपन में ही सीख जाता है कि खेलो-कूदो, मस्त रहो तो लोग डांटते हैं और बीमार हो जाओ तो सारा घर आस-पास बैठ जाता है। उसका यह मनोविज्ञान तैयार हो जाता है कि दुखी हो जाओ तो सहानुभूति मिलती है। लेकिन बोधकथाएं आईना दिखाती हैं कि क्यों दुखी हो रहे हो, क्यों संसार से झूठी सांत्वना बटोर रहे हो? आपके पास स्वयं इतना कुछ है कि उससे अपने को भीतर से ठीक करो और फिर संसार की कैसी भी परेशानी हो, उसका सामना करो। यही बात जामवंत अंगद को समझा रहे थे और हमें भी समझना होगा कि जीवन में जब सफलता की यात्रा पर चलें और मार्ग में बाधाएं आएं तो दुखी होकर बैठ जाएं। तुरंत कथा-सत्संगरूपी दर्पण देखें, स्वयं को ठीक करें और आगे बढ़ जाएं।

गुरु की सत्ता से जुड़कर अहंकार मिटाएं
जो लोग सत्ता पर लंबे समय तक बैठ जाते हैं, वे खड़े होना ही भूल जाते हैं। चलने का प्रयास करते हैं तो स्वयं नहीं चल पाते, दो-चार लोगों की मदद लगती है। सत्ता अपनी कीमत वसूलती है। सत्ता चाहे राजनीति की हो, परिवार की या किसी अन्य व्यवस्था की हो, थोड़ा सावधान रहना होगा। बाकी क्षेत्र में सत्ता पर बैठे लोग यदि बिगड़ जाएं तो उतना खतरा नहीं है, क्योंकि वहां दूसरे आपको उतारने को तैयार रहते हैं। किंतु जब धर्म क्षेत्र में सत्ता मिल जाए और उसका अहंकार जाए तो फिर पूरा जीवन ही बर्बाद हो जाता है। सत्ता भक्त की भी है और गुरु की भी। श्रेष्ठ होने का अहंकार भक्त को भी जाता है। कुछ भक्त अपना धर्म श्रेष्ठ होने का अहंकार पाल लेते हैं।

कमजोरी धर्म में नहीं, धर्म के प्रति अहंकार करने में है। धर्म तो सबका एक जैसा है। अहंकार और द्वेष के कारण लोगों ने उसे अलग-अलग स्वरूप दे दिया है। धर्म में प्रवेश करते ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए कि वह हमारा रूपांतरण कर दे। ऐसा मार्ग दिखाए कि हम परमात्मा की ओर चल सकें। धर्म आमंत्रण है उसी परमात्मा का। यदि आप किसी विशेष धर्म से हैं तो गुरु की सत्ता पर जरूर भरोसा कीजिए। गुरु की सत्ता और अन्य सत्ताओं में फर्क यह है कि गुरु केवल इसीलिए सत्ता पर बैठा है कि आपको परम सत्ता तक पहुंचा दे। उनका आग्रह नहीं होता कि उन्हें ही श्रेष्ठ मानो। वे तो कहते हैं, ‘मैंने दीपक जलाकर आपकी हथेली पर रख दिया है, अब यह दीपक और आपकी यात्रा.. कर दें आरंभ। जब कभी भी हमें सत्ता का अहंकार आए तो गुरु की सत्ता से जुड़िए और अपने आप को अहंकार-शून्य करके उस परम सत्ता के लक्ष्य पर पहुंचिए, जिसे लोग जीवन में भूल जाते हैं।

दुर्गुणों से लड़ने में सक्षम बनने का पर्व
दुर्गुण उस जमीन को खुरदुरा बना देते हैं, जिस पर चलकर मनुष्य को जीवन-यात्रा पूर्ण करनी होती है। इसलिए जिसके भीतर दुर्गुण जाएं, उसकी यात्रा में बाधाएं आएंगी। दुर्गुण तो तैयार ही बैठै रहते हैं। छिद्र दिखा कि प्रवेश किया। सवाल है कि दुर्गुणों से बचा कैसे जाए? गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, ‘जब-जब मेरे भक्त असुरक्षित होंगे, जब अधर्म हावी होगा, उन्हें मेरी जरूरत होगी, मैं अवश्य आऊंगा।

तो क्या भगवान सचमुच जाते हैं? जिस काल में कृष्ण मौजूद थे उस समय भी महाभारत का युद्ध हो गया। उनके सामने ऐसे-ऐसे काम हो गए कि सोचकर शर्म आती है। जब भगवान थे तब मनुष्यता इतनी गिर गई तो आज जब वे नहीं दिखते हैं तब तो हालात और खराब होने चाहिए, लेकिन ध्यान दें, इसीलिए वे कह गए थे मैं आऊंगा। उनके आने का मतलब है वे कहीं गए नहीं हैं, वे यहीं हैं। आने का मतलब है आप उन्हें महसूस कर लें, क्योंकि जितने मनुष्य जन्मे उतने ही कृष्ण चुके हैं। इसलिए भगवान यह व्यवस्था स्थायी रूप से करके चलते हैं कि आपका महसूस कर लेना ही मेरे आने को जान लेना है। जन्माष्टमी उसी का संदेश है। इस पर्व को मनाकर हम कृष्ण-जन्म को याद करते हैं। इसका मतलब है- वे हैं ही।

आज उन्हें याद करके हम महसूस कर रहे हैं कि वे हमारे बीच चुके हैं और आते ही सबसे बड़ा काम करेंगे कि जब दुर्गुणों के आक्रमण होंगे तो आपको उनका सामना करने लायक सक्षम बना देंगे। दुर्योधन तब भी था जब कृष्ण थे, वह आज भी है जब कृष्ण दिखते नहीं। किंतु पांडव जैसी क्षमता वे हमें देंगे ताकि हम कुरुक्षेत्र में जीत सकें। इसलिए उत्सव को वह अवसर मानें जब हम अपने दुर्गुणों से लड़ने के लिए खुद को सक्षम कर सकें।

गलत लोगों के प्र‌भाव से बचाता है योग
आज की राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था ने लोगों को नागरिक तो बना दिया पर हम मनुष्य बनने में चूकते जा रहे हैं। कई बार हमें दूसरों की मदद लेनी पड़ती है और हो सकता है, जिससे हमारा संपर्क है वह व्यक्ति बहुत प्रभावशाली हो। ऐसे व्यक्ति का मूल्यांकन करने में हम चूकने लगते हैं, क्योंकि उसका प्रभामंडल हमारी सोच को कुंद कर देता है। हम इसी में खुश हो जाते हैं कि प्रभावशाली व्यक्ति हमारी मदद कर रहा है। ध्यान रखिएगा, ऐसे लोगों का मूल्यांकन करना बहुत जरूरी है। भले ही बाहर से न कर पाएं पर भीतर ही भीतर मूल्यांकन जरूर करिए, क्योंकि अपराधी को जब राजनीति के वस्त्र मिल जाते हैं तो वह उनमें अपने काले कारनामे भी छिपा लेता है।

गलत व्यक्ति को जब महत्वपूर्ण पद मिल जाता है, तो उसका गलत कपूर की तरह अदृश्य हो जाता है। हम मानकर बैठ जाते हैं कि समर्थ व्यक्ति हमारे ऊपर कृपा कर रहा है और दबाव में आ जाते हैं। परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है, इसीलिए हम बहुत महत्वपूर्ण हैं तो किसी गलत व्यक्ति से क्यों दबें? कहीं ऐसा न हो कि हम भी कोई गलत काम कर जाएं या उससे गलत लाभ उठा लें। अपने आप को बचाकर चलने के लिए भी आत्म-विश्वास की जरूरत पड़ती है। फिर ऐसे समय जब चारों तरफ ऐसे लोगों की बाढ़-सी आई हो, जिन्होंने तय कर लिया हो कि कुल-मिलाकर सफल होना है, रास्ता सही हो या गलत।

उस समय आपको अपने मनुष्य होने पर बहुत ध्यान रखना होगा। इसके लिए अपने आप को योग से जरूर जोड़ें। योग ही आपके आत्मविश्वास को जगा पाएगा। यह भी ध्यान रखें, योग केवल तन के स्वास्थ्य के लिए ही नहीं है बल्कि इससे जुड़कर आप बाहर से कई गलत लोगों के आक्रमण से भी बच जाएंगे।

ईश्वर को इंद्रियों का अर्पण सच्चा भोग
सभी लोगों को किसी न किसी से लगाव होता है। कोई धन से, कोई पद से, कोई बच्चों से, कोई प्रतिष्ठा से तो किसी को दुर्गुणों से लगाव हो जाता है। यह अनुचित और गलत जुड़ाव हमें भटका देता है। नेता हो या नौकरशाह, उनका लगाव केवल अधिकार संपन्न होने से होता है। आम जनता को उदासीन रहने में बड़ा मजा आता है। हम मान लेते हैं कि हम सामान्य व्यक्ति हैं, कोई राष्ट्रीय या सामाजिक जिम्मेदारी क्यों उठाएं। यह सही है कि हम सामान्य लोग हैं, लेकिन खुद को इतना तैयार कर सकते हैं कि श्रेष्ठ नागरिक, मनुष्य बन जाएं।

अध्यात्म में एक शब्द है- भोग। इसके दो अर्थ हैं, बना हुआ अन्न या कोई भी खाद्य सामग्री जो भगवान को चढ़ाई जाए उसे भोग कहते हैं। उसके बाद भक्त लोग प्रसाद मानकर उसे ग्रहण कर लेते हैं। देह की संतुष्टि, इंद्रियों की अनुचित मांग को पूरा करना भी भोग है। जब इंद्रियों की मांग बढ़ती जाए और हम पूरी करते जाएं तो यह विलास होता है। जीवन में भोग और विलास हावी हो जाए तो व्यक्ति भटक जाता है। किंतु यदि आपने इंद्रियों की मांग को मोड़कर परमात्मा में अर्पित करके भोग बनाया तो वह प्रसाद आपको फायदा पहुंचाएगा। जो लोग आज सत्ता में बैठकर गलत काम करते दिखते हैं, अपने मूल कर्तव्य के प्रति उदासीन होते हैं और उन्हें पूरा नहीं करते तो समझिए वे उस भोग में डूब गए हैं, जो इंद्रियों की मांग है। उन्हें देखकर हमें अपने आप को उस अच्छाई से जोड़ना है कि हमारी इंद्रियां यदि कोई मांग करे तो उसे परमात्मा को चढ़ाकर प्रसादरूपी भोग बना लें। बस, यहीं से आपके और उसके मनुष्य होने में फर्क हो जाएगा।
आप पाएंगे कि जो भी करेंगे उसके बाद खूब शांत और प्रसन्न होंगे, क्योंकि ऐसे ऊंचे और ख्यात लोग प्रसन्न नहीं होते, अशांत ही बने रहते हैं।

संकट के समय अनुभव का लाभ लें
यदि ठीक से सर्वे किया जाए तो पाएंगे कानून सामान्य से अधिक प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने तोड़ा है। सामान्य व्यक्ति मजबूर होता है और मजबूरी के पास विकल्प नहीं होते। जो विशिष्ट होते हैं उनके पास सारे रास्ते होते हैं, लेकिन ऐसा भी समय आता है कि वे भी उलझ जाते हैं। सामान्य व्यक्ति तो किसी परमशक्ति के भरोसे खुद को मुसीबत से निकाल लेता है, लेकिन प्रतिष्ठित लोगों का अहंकार आड़े आ जाता है। यदि सामान्य बनकर नियम का पालन किया तो बेइज्जती हो जाएगी। फिर वे गलत कदम उठाते हैं। किष्किंधा कांड के प्रसंग में अंगद यही भूल कर रहे थे। सीताजी की खोज में चलते समय कानून बना था कि बिना काम किए लौटना नहीं है, समय पर काम करना है। प्रतिष्ठित वर्ग के अंगद इसी व्यवस्था को तोड़ रहे थे। अच्छा था कि श्रीराम की सेना के वयोवृद्ध जाम्बवंत वहां थे। वृद्ध दूसरों के ज्ञान का सदुपयोग करना जानते हैं।

जाम्बवंत बहुत विद्वान नहीं थे, लेकिन उन्होंने अनुभव से अंगद को बहुत कथाएं सुनाईं। एहि बिधि कथा कहहिं बहु भांती। गिरि कंदरा सुनी संपाती।। बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा।। जाम्बवान बहुत प्रकार से कथाएं कह रहे थे। इनकी बातें पर्वत की कंदरा में संपाती ने सुनीं। बाहर निकलकर उसने बहुत से वानर देखे और बोला- जगदीश्वर ने मुझको घर बैठे बहुत-सा आहार भेज दिया। इससे संदेश मिलता है कि जब भी विपरीत समय आए सत्संग जरूर कर लेना चाहिए, जिसकी कथाओं में समस्या का समाधान छुपा होता है। हमारे भीतर भी एक जाम्बवंत है जिसे अनुभव कह सकते हैं। जब भी संकट का समय आए, अपने अनुभव को सोने मत दीजिए। जब हमारा अपना अनुभव सो जाता है तभी हम दूसरों से उनकी अक्ल उधार लेते हैं।

इस बाजार युग में प्रकृति से भी जुड़ें
बीते वक्त में इंसान के पास सुविधाएं कम थीं तो दुख आने के रास्ते भी अधिक नहीं थे। अब इस बाजार युग में ऐसा लगता है कि सारे देश का शरीर बाजार में और उसकी शक्ति दुकान में तब्दील हो गई है। घर हो या बाहर, जिसे देखो वह सौदा करने में लगा है। बाजार शरीर से ही चलता है, वहां आत्मा का कोई लेना-देना नहीं होता। ध्यान रखिए दुख का संबंध तीन स्तरों पर होता है- शरीर, मन और आत्मा का दुख। सुनकर आश्चर्य होगा कि आत्मा का भी दुख होता है, लेकिन इसे यूं समझें कि जब पीड़ा अंतरतम तक हो जाए तो इसे कहने के लिए आत्मा का दुख कहेंगे।

मन का दुख कल्पनाओं से जुड़ा है, लेकिन शरीर का दुख हमारी जीवनशैली से संबंधित है। बाजार के जीवन के कारण शरीर अपनी मूल प्रकृति से दूर होता जाता है। इसकी तासीर है पृथ्वी, अग्रि, जल, वायु और आकाश से तालमेल बनाना। यदि बारीकी से देखें तो आज पंचतत्व को भी प्रोडक्ट बनाकर मुनाफे और घाटे में बदल दिया गया है। शरीर चाहे तो सीधे प्रकृति से जुड़ सकता है, लेकिन बाजार ने उसे दूसरे रास्ते दिखाए। प्रकृति हमेशा कहती है थोड़ी देर मेरे साथ ठहर जाओ, ठहरते ही मेरे भीतर का सुख तुम्हारा आनंद बन जाएगा। थोड़ा तल्लीन होना पड़ता है प्रकृति के साथ, लेकिन बाजार कहता है भागो, कहीं मत ठहरो। एक दुकान में जरा ठहरों तो दूसरा आवाज लगाने लगता है। इसीलिए आज बाजार ने आदमी के शरीर को अस्वस्थ बना दिया है।

इसका यह मतलब नहीं कि बाजार से संबंध तोड़ लें, लेकिन एक ऐसी यात्रा भी करते रहें, जो हमें प्रकृति की ओर ले जाती है और उस यात्रा का नाम है योग। अगर कठिन लगे तो श्री हनुमान चालीसा से ध्यान किया जा सकता है। हनुमानजी की विशेषता ही यह है कि वे लंका जैसे बाजार में से भी सलामत लौट आए थे।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

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