हर व्यक्ति में कोई न कोई गुण
जब हम सांसारिक कार्यों में उतरते हैं, तो हम जानते हैं कि इसमें प्रतिस्पर्द्धा होगी। इसके के लिए हम लगातार अपना व्यक्तित्व मांजते रहते हैं। लगातार स्वयं को नहीं मांजेंगे तो पिछड़ जाएंगे। एक गलती बहुत से लोगों से होती है कि हम कुछ लोगों को मूर्ख मान लेते हैं, नासमझ समझ लेते हैं। हमें लगा कि हमने उन्हें मूर्ख बना दिया या वे कम अक्ल थे, इसलिए हमने उनका उपयोग नहीं किया और बाद में वे समझदार निकल गए। कुछ लोग खुद को जानबूझकर मूर्ख साबित करते हैं, ताकि लोग उनको मूर्ख मानकर अवॉइड कर सकें और उनके लिए काम आसान हो जाए। आदमी समझदार है, योग्य है तो लोग उसकी तगड़ी घेराबंदी करते हैं। यदि अयोग्य और मूर्ख व्यक्ति हो तो लोग उसको छोड़ देते हैं। इसी छूट का वे फायदा उठाते हैं। इसलिए इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि नादान कोई नहीं होता।
यदि आपको संपर्क में आए लोगों का लाभ उठाना है तो आप यह तय कर लीजिए कि आपके पास क्या योग्यता है कि आप लाभ उठा सकें। वो मूर्ख हो या समझदार, लेकिन आपकी तैयारी पक्की है तो आप उसका लाभ अवश्य उठा सकेंगे। श्रीकृष्ण पांडवोंं को हमेशा समझाते थे कि सदैव सामने वाले की योग्यता से ही लाभ नहीं मिलता, उसकी कमजोरी भी हमारे लिए लाभकारी हो सकती है। कृष्ण जानते थे कि भीष्म जैसे योग्य और समर्थ व्यक्ति से पांडव पराजित हो जाएंगे, इसलिए उन्होंने युधिष्ठिर को भेजकर भीष्म से ही उनकी मृत्यु का तरीका पूछ लिया था। हम आज ऐसा प्रयोग नहीं कर सकते, लेकिन इतना तो कर ही सकते हैं कि जरा होश में रहें, नजर खुली रखें और मूर्ख, कमजोर आदमी को यह मानकर न छोड़ दें कि हमारे किसी काम का नहीं। हरेक में कुछ न कुछ ऐसा है कि यदि आप तैयार हों तो उसका उपयोग कर सकते हैं और यही बुद्धिमानी है।
लोगों से काम लेने का मंत्र
यह तो तय है कि अकेला मनुष्य सबकुछ नहीं कर सकता। किसी भी सफलता को प्राप्त करने के लिए अनेक लोगों के सहयोग की जरूरत होती है, लेकिन उस समय हमें यह सावधानी रखनी पड़ेगी कि जिनका हम सहयोग ले रहे हैं, उनमें योग्यता क्या है। अयोग्य से अयोग्य आदमी भी किसी न किसी काम का जरूर होता है और योग्य से योग्य आदमी भी आपका काम बिगाड़ सकता है। वह दौर खत्म हुआ कि आपने एक मार्ग पकड़ा और मंजिल पर पहुंच गए। अब कई मार्ग बदलने पड़ते हैं। कभी छलांग लगानी पड़ेगी, कभी कूदना पड़ेगा, कभी उस रास्ते को छोड़ना पड़ेगा और कभी नया रास्ता बनाना पड़ेगा। जब भी किसी व्यक्ति से मिलें तोे उसकी वह संभावना टटोलें, जो आपके काम आ सके।
किससे क्या काम लेना है यदि इस बात को जानना चाहें तो सामने वाले को त्रिगुण में फिट करके देखें- सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण। सतोगुण वाले सदैव अच्छे काम करेंगे, ईमानदारी से करेंगे और उनके व्यवहार में पवित्रता होगी। रजोगुण प्रधान लोग लेन-देन में माहिर होते हैं। सांसारिक कामों में छल-कपट भी करना पड़े तो कर लेंगे। तमोगुणी मनुष्य कुटिल होगा। किसी भी काम को गलत तरीके से कैसे किया जाए उसमें उसकी रुचि होगी। यदि हम थोड़ा भी मेडिटेशन से गुजरें तो किसी भी मनुष्य में इन गुणों की तरंग को पकड़ सकते हैं। मेडिटेशन में हम स्वयं पर केंद्रित होते हैं और ऐसा व्यक्ति दूसरे के केंद्र से निकलने वाली तरंगों को पकड़ सकता है। आपको बड़ी व्यवस्था में तीनों गुणों से संयुक्त व्यक्ति से भी काम लेना पड़ सकता है। कब, किसके, किस गुण को उजागर कर कौन-सा काम लेना है, यही संसार में काम लेने का गुण है। अभ्यास करिए त्रिगुण वृत्ति को जानने का, अपनी भी और दूसरे की भी।
ज्ञान से विश्राम पाती हैं इंद्रियां
परमात्मा सभी से अलग-अलग समय में अलग-अलग रोल करवाते हैं। कभी आप नेतृत्व कर रहे होंगे, कहीं अधिकारी होंगे, कभी व्यापारी की भूमिका में होंगे। रिश्तों को निभाना भी महत्वपूर्ण भूमिका है। आप जो भी दायित्व निभा रहे हों, उसके प्रति अपना नज़रिया स्पष्ट कर लें। किष्किंधा कांड के प्रसंग में श्रीराम राज्य से वंचित राजा थे, भाई थे और विचारक की भूमिका भी निभा रहे थे। इस बार श्रीराम जो टिप्पणी कर रहे हैं इस पर तुलसीदासजी ने लिखा है - बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा।। जहं तहं रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना।। ‘पृथ्वी अनेक तरह के जीवों से भरी हुई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुराज्य पाकर प्रजा की वृद्धि होती है। जहां-तहां अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैं, जैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इंद्रियां शिथिल होकर विषयों की ओर जाना छोड़ देती हैं।’
चूंकि श्रीराम राजा थे, उन्होंने वर्षा बाद की नई व्यवस्था को स्वराज से जोड़ा है। स्वराज यानी जहां प्रजा हर तरह से सुखी हो। श्रीराम प्रजा के प्रति सदैव चिंतित रहते थे। श्रीराम जैसे महापुरुष परहित का पर्याय हैं। वे कहते हैं कि जब पृथ्वी के पास दूसरों को देने के इतने अवसर हों तो पथिक यहां विश्राम पाते हैं। हमारी इंद्रियां लगातार भागती हैं। इंद्रियों की रुचि उनके विषय में होती है। जैसे आंख इंद्रिय है तो उसका विषय देखना है, लेकिन यदि ज्ञान सही ढंग से जीवन में उतर जाए तो इंद्रियां भी विश्राम में आ जाती हैं। इंद्रियों के साथ बेकार की खींचातानी नहीं करनी चाहिए। उन्हें ज्ञान के सहारे विश्राम दिला दीजिए। इस प्रसंग से हमारे लिए सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि हम मनुष्य हैं तो इंद्रियों का भरपूर उपयोग कर सकते हैं, लेकिन कब इन्हें सक्रिय रखना है और कब विश्राम देना है श्रीराम की वाणी हमें यही बता रही है।
मन का भोजन है विचार
कुछ लोगों को किसी भी रास्ते पर चलाया जाए, वे भटकते ही नज़र आएंगे। भटकना कुछ लोगों का शौक है और कुछ की मजबूरी। जैसे मनुष्य के शरीर में बुद्धि भटकती भी है और सही मार्ग भी दिखाती है। हृदय भटक भले ही जाए, लेकिन उसकी पहली कामना सही मार्ग की होती है। मन किसी एक रास्ते पर चलना ही नहीं चाहता। भटकना उसकी मूल रुचि है। मन किस तरह से भटकता है इसको समझना हो तो कुत्ते-बिल्ली का उदाहरण लिया जा सकता है। भारत में कुछ लोग बिल्ली रास्ता काट जाए तो अशुभ मानते हैं और विदेश में बिल्ली घरों में पाली जाती है ताकि वह रास्ता काटे तो कुछ अच्छा लगे। ये दोनों ही पालतू हैं। दोनों भटकते रहते हैं। बिल्ली को खाने की वस्तु मिले तो उसी स्थान पर गिराती है फिर खाती है। कुत्ते को कोई खाने की वस्तु दी जाए तो वह कहीं और जाकर खाता है। श्वान को झुकना हो, प्रेम बताना हो तो पूंछ हिलाता है।
बिल्ली को दबना हो, अपनापन बताना हो तो वह म्याऊं करती है। मनुष्य का मन भी उलटी-पलटी खाता ही रहता है। कब किसका गुलाम हो जाए, कब किसका मालिक बन जाए पता नहीं चलता। श्वान की तरह भौंकता ही रहता है। कभी आपसे किसी का मतभेद हो जाए, आपको क्रोध आ जाए और बाहर क्रोध व्यक्त न कर सकें तो भीतर अपने आप को ध्यान से देखिएगा। पाएंगे कि कोई श्वान जोर से भौंक रहा है। जब आप अपनी पसंद की चीज नहीं पा सकें तो देखिए मन उस पर बिल्ली की तरह झपट रहा है। इन दोनों को सिखाया जाता है भोजन से। मन का भोजन विचार है और वह उसे खाता है सांस से। सांस के प्रति सजग हो जाएं, विचारों को नियंत्रित करें तब मन बिल्कुल पालतू होगा और जिसका मन पालतू है वह दुनिया का सबसे शांत व्यक्ति होगा।
शृंगार में व्यक्तित्व न खो जाए
इन दिनों दूसरों को प्रभावित करना भी प्रबंधन का हिस्सा माना जाता है। इसके लिए लोग कई तरह के नुस्खे अपनाते हैं। कम साधनों में खुद को अधिक वैभवशाली दिखाना एेसी ही युक्ति है। आपके आस-पास ऐसे कई लोग दिखेंगे, जो उतने समृद्ध नहीं हैं, जितने दिखते हैं या दिखाते हंै। कभी-कभी तो दिखावा इतना बढ़ जाता है कि लोग उधार लेकर इसीलिए मकान सजाते हैं कि दूसरों को प्रभावित कर सकें। यह बिल्कुल मदारी के खेल जैसा है। मदारी किसी साधन को अपने ढंग से नचाता है। चाहे वह बंदर हो या खिलौना। जिन बातों में वह सक्षम नहीं है उन बातों को भी ऐसे दिखाता है कि लोग उसका लोहा मान जाएं, लेकिन तारीफ पाकर मदारी भूल ही जाता है कि मैंने झूठ का सहारा लिया है। वह मान लेता है कि मैं सचमुच कमाल का हूं। आजकल सभी मनुष्य मदारी बनने लग गए हैं।
जब आपका ओढ़ा हुआ वैभव, समृद्धि दूसरों को प्रभावित करती है तो वे आपकी प्रशंसा करने लगते हैं और यहीं से मनुष्य उस छवि में कैद हो जाता है। दूसरे आपको कह-कहकर वह बना देते हैं जो आप होते नहीं हैं। जिन्होंने वैभव का दिखावा किया है, वे भूल जाते हैं कि सच कुछ और था। कम सौंदर्य को गहनों से ढंका जाता है और जिसके पास सौंदर्य हो वह गहने निखारने के लिए पहनता है। लेकिन शृंगार का तीसरा तरीका भी है- आत्मा का शृंगार। यह शृंगार ऐसा होता है कि इसमें कुछ दिखे या न दिखे, लेकिन सुगंध अवश्य महसूस होती है। संसार में रहते हुए दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए कुछ शृंगार किए जाएं इसमें बुराई नहीं है, लेकिन इस बात की पूरी सावधानी रखी जाए कि उस शृंगार की आड़ में हमारा मूल व्यक्तित्व न खो जाए। आत्मा का शृंगार करने का प्रतिदिन कुछ अवसर निकालिए। उसी का नाम योग है।
बच्चों को सुसंग का स्वाद दें
सभी गृहस्थ संतान सुख चाहते हैं। कभी-कभी गृहस्थी बसाने के बाद संतान की प्राप्ति नहीं होती और संतान सुख प्राप्ती के लिए लोग कई उपाय करते हैं। संतान सुख अलग बात है और संतान से सुख मिलना बिल्कुल दूसरी बात है। कभी-कभी संतान भी दुख का कारण बन जाती है। श्रीराम किष्किंधा कांड में लक्ष्मणजी से कहते हैं कि यदि संतान दुराचारी हो जाए तो उस कुल के श्रेष्ठ आचरण नष्ट हो जाते हैं। तुलसीदासजी लिखते हैं- कबहुं प्रबल बह मारुत जहं तहं मेघ बिलाहि। जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।। ‘कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती है, जिससे बादल जहां-तहां गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते हैं। संतानें अयोग्य हों तो जीवन का सबसे बड़ा दुख मनुष्य पर टूटने लगता है। किंतु श्रीराम यह भी इशारा कर देते हैं कि संतानों को योग्य बनाना हमारे हाथ में है।
कबहुं दिवस महं निबिड़ तम कबहुंक प्रगट पतंग। बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग।। ‘जैसे बादल ढंक जाए, सूर्य छिप जाए तो समझ लीजिए कुसंग हो गया, अंधकार छा गया। बादल छंट जाए, प्रकाश आ जाए यह सत्संग का ही परिणाम है। अपनी संतानों को सुसंग का स्वाद सबसे पहले घर से ही दिया जा सकता है। अगर बच्चों को घर में होश संभालते यह बात समझ में आ जाए तो जब वे घर से बाहर निकलेंगे, उन्हें इसका ज्ञान रहेगा कि किन लोगों के साथ उठा-बैठा जाए। जैसे हम भोजन-पानी के मामले में बच्चों को बचपन से स्वाद पैदा कर देते हैं ऐसे ही हमें सुसंग का स्वाद भी घर में ही उनके जीवन में उतार देना चाहिए। फिर बाहर निकलने पर वे अच्छे मित्र, अच्छे साथी ही ढूंढ़ेंगे। घर से अच्छी बातें बाहर ले जाएंगे तथा बाहर से श्रेष्ठ बातें भीतर लाएंगे, तब जाकर संतान से सुख मिलेगा।
शक्ति केंद्र जानें, साहस जगाएं
हमें महत्व मिले ऐसी इच्छा सभी की रहती है। जो लोग समाज में महत्वपूर्ण हैं उनको तो महत्व मिल ही जाता है, लेकिन जिनके पास कोई बहुत बड़ा पद-प्रतिष्ठा न हो वो भी महत्व चाहते हैं। अपनी जिंदगी में इससे भी थोड़ा आगे बढ़ा जा सकता है। यदि हमें महत्व पाने की इच्छा है तो धीरे-धीरे इसको सम्मान पाने में बदलिए। लोग हमको महत्व दें या न दें, लेकिन हमारा प्रयास होना चाहिए कि लोग हमें सम्मान दें। सम्मान प्राप्त करना पड़ता है, महत्व मिल जाता है। कभी-कभी दूसरे को महत्व देना मजबूरी भी हो जाती है, लेकिन अधिकांश मौकों पर व्यक्ति सहमत होकर दिल से सम्मान देता है। सम्मान पाने के लिए हमको ही प्रयास करना पड़ता है। इसमें हमारी हिम्मत बड़ा काम करती है।
जन्म से ही सभी लोग हिम्मती नहीं होते, यदि हम समाज में सम्मान पाना चाहते हैं तो हमें अपने भीतर की हिम्मत को अंगड़ाई देनी होगी। अधिकांश लोग जन्म से ही संकोची, डरपोक और शर्मीले होते हैं, लेकिन यदि इस संसार में सम्मान से रहना है तो हिम्मती होना सीखना पड़ेगा। और यदि आपके बच्चे हिम्मती नहीं हैं तो उन्हें सिखाना पड़ेगा। जब हमारे भीतर की हिम्मत हमें समझ में आने लगती है तब हम कुछ रिस्क भी ले लेते हैं। आज जीवन में आगे बढ़ने के लिए खतरे उठाने ही पड़ेंगे और बिना साहस के खतरा उठाया तो नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। अपने भीतर की हिम्मत को जगाने के लिए तीन बातों की जरूरत पड़ती है- हमारा संग, हमें समर्थन कौन लोग दे रहे हैं और हमारे पास क्या साधन हैं, इसीलिए परमात्मा ने हमारे शरीर में स्वयं का मूल्य जानने के लिए कुछ केंद्र बनाए हैं। यदि इन शक्ति केंद्रों को हम भीतर से जान जाएं तो हमें अपने साहस को अपनी सफलता से जोड़ने में दिक्कत नहीं आएगी।
दाम्पत्य में निजता का सम्मान हो
कुछ लोग बाहर से बहुत सरल और चरित्रवान दिखते हैं, लेकिन यह सही है कि हर एक भीतर से जटिल और अपवित्र है। यह बात अलग है कि कई लोग अपनी भीतरी अपवित्रता को मिटाने में सतत प्रयास करते हैं, अपनी जटिलता को समाप्त करने के लिए लगे रहते हैं। ऐसे लोगों को साधक-भक्त कहा जाता है। सारी बातें जीवन में उजागर करने के बाद भी कुछ गोपनीय रह ही जाता है और उसे हर व्यक्ति भीतर रखता है। दुनिया की बाकी रिश्तेदारियों में यह गोपनीयता चल जाती है, लेकिन पति-पत्नी के बीच इस गोपनीयता के कारण कभी-कभी तनाव भी पैदा हो जाता है, क्योंकि यह एकमात्र रिश्ता है जो एक-दूसरे से जितनी अपेक्षा करता है उतने ही खुलेपन की मांग करता है। इस रिश्ते में अंतरमन को उघाड़ना पड़ता है।
हालांकि, यह भी उतना ही सच है कि दोनों कितने ही आत्मीय हों, कुछ बातों में गोपनीयता की रक्षा करनी चाहिए। इसे निजता भी कहा जाता है। अपनी निजता में कोई भी हस्तक्षेप नहीं चाहता, इसलिए यदि आपका जीवन साथी कुछ गोपनीय रखना चाहता है तो उस पर संदेह न करें और न दबावपूर्वक जानने का प्रयास करें। यदि प्रेम से बात बाहर आ जाए तो धैर्य से सुनिए, क्योंकि प्रेम से आपने उजागर तो कर दिया पर वह अप्रिय भी हो सकता है। इसलिए पति या पत्नी कोई बात नहीं बता रहा है तो उस पर अविश्वास करने की बजाय सोचें कि इसका क्या कारण होगा? कहीं सामने वाला किसी दबाव में तो नहीं? ऐसा है तो उसकी मदद की जाए। हर बात उघाड़ने से यह रिश्ता खूबसूरती खो देता है, इसलिए दाम्पत्य में कुछ ढंका रहने दें जो एक-दूसरे की निजता होगी। जितना इसका सम्मान करेंगे, उतना आपसी विश्वास बढ़ेगा और दाम्पत्य सुखमय होगा।
रिश्तों से बच्चों को एेसे जोड़ें
प्रतिस्पर्धा के दौर में सभी माता-पिता अपने बच्चों को जानकारियों से भरपूर रखना चाहते हैं। बाहरी सफलताओं का इतना दबाव है कि कई बच्चे तो अपना मूल स्वभाव ही खो देते हैं। परिंदे भी अपने बच्चों को उड़ना सिखाते हैं, लेकिन लौटकर घोंसलों पर आएं इतनी गुंजाइश उन बच्चों में जरूर रखते हैं। किंतु देखने में आ रहा है कि इंसान के बच्चे यदि परिवार की डाली से उड़ जाए तो उन्हें लौटाना मुश्किल हो रहा है। इसीलिए परिवार लगातार खाली होते जा रहे हैं। पहले तो एक परिवार में इतने सदस्य होते थे कि छोटे-मोटे खेल के लिए टीमें बना सकें। और अब सदस्य तो कम हुए ही हैं, साथ में प्रेम, अपनापन भी गायब होने लगा है।
जब भी कभी फुर्सत मिले, अपने बच्चों को एक छोटी-सी एक्सरसाइज से जरूर गुजारिए। उन्हें अपने कुछ रिश्तेदारों की सूची सौंपकर एक प्रश्नावली थमाइए और उनसे लिखवाइए कि आपको कौन-सा रिश्तेदार पसंद है और क्यों? इस बहाने वे उनका परिचय भी प्राप्त कर लेंगे। फिर उनसे यह भी पूछिए कि यदि अपने लोगों को खुश करना है तो वे क्या-क्या करेंगे? हो सकता है वे प्रश्नावली को गलत भरें, तब हमारी जिम्मेदारी होगी कि हम उसे ठीक कर दें।
कुछ उत्तर तो ऐसे मिलेंगे कि आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे। कुछ नजदीक के और महत्वपूर्ण रिश्तों को तो बच्चे खारिज ही कर देंगे। कहीं वे शिकायत करते मिलेंगे तो कहीं वे अनजाने से बन जाएंगे, लेकिन साल में एक या दो बार अपने बच्चों से यह अभ्यास जरूर करवाएं। चूंकि आजकल इसी तरीके से पढ़ाई की जा रही है, इसलिए उनकी शिक्षा के कोर्स में, उनके सिलेबस में अपनी ओर से परिवार का चैप्टर भी जोड़ दीजिए। आपको भविष्य में इसके सद्परिणाम अवश्य मिलेंगे।
इंद्रियों का उचित उपयोग करें
पागलपन और मूर्खता इनसान के साथ जुड़े हैं। फर्क बारीक-सा है। पागल कहे जाने का ज्यादा बुरा लगता है। मूर्ख कहने पर भी बुरा तो लगता है पर उससे कम। चलिए, आज दोनों को समझते हैं। क्रोध में डूबकर जो भी करेंगे वह क्षणिक पागलपन है, परंतु क्रोध आए और हम उसे वापस न भेज सकें तो यह हमारी मूर्खता होगी। कभी-कभी काम के जुनून को भी यह संज्ञा दी जाती है। जैसे वह पागलों की तरह भिड़ गया। पागल भी जो करते हैं उसमें वे दूसरों की फिक्र नहीं करते। वह वही करता है जो उसे करने की इच्छा होती है, इसीलिए मेहनत करता हुआ इनसान भी पागल दिखता है। फर्क यह है कि वह अपना लक्ष्य जानता है और पागल बेतरतीब काम करता है।
किंतु परिश्रम में अत्यधिक डूबकर जब हानि अधिक उठा ली जाए तो वह मूर्खता होगी। पागलपन को मूर्खता में और मूर्खता को पागलपन में परिवर्तित होने में ज्यादा समय नहीं लगता। यह ऐसा ही है कि पानी गरम किया तो भाप बन गया, जमा दिया तो बर्फ बन गया। परमात्मा ने हमें दस इंद्रियां दी हैं, जिनका उपयोग हम पागलों की तरह कर सकते हैं और मूर्खों की तरह भी। पागल अपनी इंद्रियों को अनियंत्रित करके चलता है और मूर्ख परिवर्तित करके चलता है। जिस प्रकार परमात्मा ने कान दिए हैं सुनने के लिए पर कुछ लोग इनसे देखने लगते हैं। आंखों से सुनने लगते हैं। दिल से दिमाग का काम लेते हैं और दिमाग में तेल डाल देते हैं, यह मूर्खता है। सीधी सी बात है मनुष्य को दो पैर चलने के लिए दिए हैं, लेकिन यदि हाथ टिकाकर दोनों हाथ, दोनों पैरों से चलें तो लोग मूर्ख ही कहेंगे। समझदार आदमी पागलपन का भी सदुपयोग कर जाता है, मूर्खता से भी अच्छे-अच्छे काम निकाल लेता है।
धन के साथ संतोष को जोड़ें
पिछले कुछ दिनों से जीवन धन के आस-पास घूम रहा है। जरूरी नहीं कि जीवन में धन आ ही गया हो। कुछ ने प्रयास किया, कुछ ने धन को बरसते देखा और कुछ लोगों के पास आ भी गया होगा, लेकिन ये धन से परिचय के दिन थे। जब जीवन में समृद्धि, धन, वैभव आता है तो जरूरी नहीं कि सुख भी आ जाए। हम धनतेरस से गुजरकर दीपावली तक पहुंच रहे हैं। चलिए, इस पूरे कालखंड को किष्किंधा कांड से जोड़कर देखें। श्रीराम ने लक्ष्मण को जो समझाया वह हम जीवन से जोड़ लें तो दीपावली अपने अर्थ लेकर आएगी। श्रीराम लक्ष्मणजी से कह रहे हैं, ‘बरषा बिगत सरद रितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई।। फूले कास सकल महि छाई। जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई।। ‘हे लक्ष्मण, देखो वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद-ऋतु आ गई। कास के फूल खिलने से चारों ओर सफेदी छा गई। मानो वर्षा ऋतु का बुढ़ापा (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) आ गया हो।
शरद अद्भुत ऋतु है। वर्षा ऋतु का बुढ़ापा यानी अंत आ गया हो। इस समय हमारा जीवन समृद्धि और वैभव से ढंका नजर आता है। निर्धन से निर्धन व्यक्ति के यहां भी धन अपने ढंग से दस्तक दे रहा होता है। ऐसे में श्रीराम आगे सावधान करते हैं, ‘उदित अगस्त पंथ जल सोषा। जिमि लोभहि सोषइ संतोषा।। सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा।।’ ‘अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया है, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय।’ हमें दीपावली पर यह संदेश लेना चाहिए कि यदि धन के साथ संतोष जुड़ जाए तो धन जो तकलीफ देता है वह नहीं होगी। साथ में मद व लोभ से अपने आप को मुक्त रखिए।
योग्यता का सदुपयोग महत्वपूर्ण
यह सवाल वर्षों से चला आ रहा है कि आदमी की महानता यानी ग्रेटनेस, उसका महत्व यानी इम्पॉर्टेंस और उसकी महिमा यानी उसकी ग्लोरी योग्यता के कारण होती है या उसने उस योग्यता का सदुपयोग कैसे किया, इस कारण होती हैं। योग्यता बहुत सारे लोगों में होती है। महत्व तब शुरू होता है जब आप उस महत्ता का दुरुपयोग करते हैं या सदुपयोग। रावण के साथ भी ऐसा ही है। कोई रावण को महान पंडित बताता है, कोई उसकी इस बात के लिए प्रशंसा करता है। रावण की प्रशंसा करना निषेध में कहे गए शब्द हैं। हमें थोड़ा समझना होगा कि रावण का महत्व था, क्योंकि वह वीर था, विश्वविजेता था। उसके पास सिद्धियां थीं, उसने तपस्या की थी, लेकिन तप किया जाता है पुण्य अर्जित करने के लिए और उसने पाप का संग्रह किया था, इसलिए उसका महत्व तो था, लेकिन वह महान था या नहीं इस पर संदेह है।
यदि योग्यता का सदुपयोग नहीं किया तो आप महान नहीं हो सकते। रावण से यदि कुछ सीखना है तो यही सीखिए कि शीर्ष पर पहुंचकर जो गलतियां की जाती हैं वे रावण जैसे विश्वविजेता को भी एक दिन धूल चटा देती हैं। किसी को दबाकर, आतंक मचाकर, अपने प्रभाव का उपयोग करके स्वयं को महान घोषित करना मूर्खता है। रावण बाद में ऐसी ही गलतियां करता रहा, इसलिए जो भी रावण की प्रशंसा करे वह उसके महत्व की तो जरूर प्रशंसा करे पर उसे महानता से न जोड़ें। वरना वही भूल हम कर जाएंगे जो रावण कर बैठा था। वह अपनी योग्यता से एक महान नायक हो सकता था किंतु दुरुपयोग किया तो बड़ा खलनायक बन गया। हमें खलनायकों का अनुसरण नहीं करना है। उनके द्वारा की गई गलतियों को समझकर उससे बचना है, समाज के सामने नायक की भूमिका में आना है।
धन के अभाव में भी सुख संभव
शास्त्रों में कहा गया है कि जो लोग सारी दुनिया जीत लेते हैं वे एक जगह हार जाते हैं और वह है समय। बड़े-बड़े विश्वविजेता भी वक्त के आगे हार गए। किंतु यदि सही ढंग से चला जाए तो फिर भी इसे हल्की-सी विजय माना जा सकता है। श्रीराम से अच्छा उस समय कौन जान सकता था। लक्ष्मण को प्रकृति और परिस्थिति का उदाहरण देकर उन्होंने जो कहा उसे तुलसदासजी ने ऐसे व्यक्त किया, रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी।। जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।। ‘नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद्-ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए।
जैसे समय पाकर अच्छे कर्मों का फल प्राप्त होता है।’ श्रीराम कह रहे हैं ममता का त्याग ज्ञानी व्यक्ति कर सकता है। किसी बात के प्रति अत्यधिक आकर्षित हो जाना ममता है। जो लोग इससे बंध जाते हैं वे परेशानी उठाएंगे। जीवन की कुछ घटनाओं के निर्णय समय पर छोड़ देने चाहिए। वक्त के फैसले अपने ही ढंग के होते हैं। उसका इंतजार करिए। श्रीराम आगे कहते हैं - पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप के जसि करनी।। जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना।। ‘न कीचड़ है न धूल, इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीति-निपुण राजा की करनी। जल के कम हो जाने से मछलियां व्याकुल हो रही हैं जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है।’ ये पंक्तियां श्रीराम ने इसलिए कहीं कि वे वनवासी राजा थे और साथ में गृहस्थ भी। गृहस्थ के पास यदि धन न हो तो उसे व्याकुल नहीं होना चाहिए। बिना धन के भी गृहस्थी में सुख उतारा जा सकता है। श्रीराम यही कहना चाहते हैं।
अच्छाई देखने की आदत डालें
दूसरे से अच्छा बनने की तमन्ना सभी में रहती है। धीरे-धीरे खुद को अच्छा देखने की आदत अनियंत्रित होने लगती है तो फिर हम दूसरों में बुराई देखने लगते हैं। इन दिनों तो अच्छा और बुरा देखने की आदत धर्म में भी उतर आई है। हमारा धर्म दूसरे धर्म से अच्छा है- धीरे-धीरे यह घोषणा राष्ट्रीय तनाव का कारण बनती जा रही है। सभी धर्मों के महापुरुषों और शास्त्रों ने घोषणा भी की है कि हमारे धर्म में क्या अच्छा है यह बताया जाए। हमारा धर्म अच्छा है इसकी घोषणा न की जाए, क्योंकि निश्चित कुछ न कुछ अच्छाई सबमें रही होगी, तभी वह धर्म प्रतिष्ठित हुआ। धीरे-धीरे यह आदत घरों तक आ जाती है। नज़दीकी रिश्ते भी एक-दूसरे के लिए अच्छे-बुरे की घोषणा करने लगते हैं। अपनी अच्छाई को स्थापित करना और दूसरे की बुराई को उजागर करना भी पति-पत्नी के बीच झगड़े का एक कारण होता है।
बहुत दिनों से नारा चल रहा है, अच्छे दिन आने वाले हैं। अच्छी बातें देखने के दिन आने चाहिए। चाहे हमारे रिश्तेदार हों, मित्र हों या कामकाजी सहयोगी हों, सबकी अच्छाई देखी जाए। बुराई सबमें होती है, लेकिन अब अच्छाई उजागर करने और उसको स्वीकार करने का समय है। इस समय देश में दूसरों की बुराई देखने का दौर है। इससे हम कभी सही जगह नहीं पहुंचेंगे। बहुत बड़ी क्रांति न करें, पर निजी स्तर पर यह तैयारी की जाए कि हम सुबह से लेकर रात तक अब दूसरों की अच्छाई ही देखेंगे और उसे स्वीकार करेंगे। अगर यह स्वभाव हमारा बन गया तो लाभ यह होगा कि हमें बैठे-ठाले दूसरों की अच्छाई मिलने लगेगी। जिसे प्राप्त करने के लिए लोग तप-तपस्या करते हैं वो हमें घर बैठे, चलते-फिरते मिल जाएगी, इसलिए अच्छाई देखने के दिन आ गए हैं ऐसी घोषणा की जाए और फिर जीवन का असली आनंद लिया जाए।
धन को बांटने का संकल्प लें
अभी-अभी दीपावली का त्योहार गुजरा है। घर में लक्ष्मी पूजन होता है तो हम किसी पंडित को बुलवाकर मंत्रोच्चार कर लेते हैं या स्वयं पूजा करते हुए कुछ मंत्र बोलते हैं। अधिकांश लोगों को इन मंत्रों का अर्थ पता नहीं होता, क्योंकि पूजा रस्म बन गई है। किंतु यह न भूलें कि शास्त्रों में लक्ष्मीजी के कुछ रूप व्यक्त किए गए हैं। राजा के यहां वे राजलक्ष्मी हैं, गृहस्थी में वे गृहलक्ष्मी हैं, उद्योग और परिश्रम वालों के यहां लक्ष्मी शोभा बनकर आती हैं। पापियों में वे कलह के रूप में आ जाती हैं। हमारे काम की बात यही है कि लक्ष्मी अर्जित करते हुए कोई पाप नहीं होना चाहिए। यानी ऐसा कोई काम न किया जाए जो संसार या संसार बनाने वाले के विधान के विरुद्ध हो। अगर गलत रास्ते से संपत्ति घर लाए तो वह कलह का कारण बनेगी। इसलिए जरूरी नहीं कि धनवान व्यक्ति कलह से मुक्त हो या उसे सच्चा सुख प्राप्त हो जाए।
अत: अपने परिश्रम से अर्जित धन का एक हिस्सा उन लोगों के लिए जरूर निकालें जो आज असमर्थ हों या जिनके पास वे साधन नहीं हैं, जो हमें उपलब्ध हो गए हों। समाज के लिए हमारी यह हिस्सेदारी मां लक्ष्मी को बड़ी पसंद आती है। हमारे देश में कुछ लोगों को सबकुछ मिल गया है, लेकिन एक बड़ा वर्ग आज भी ऐसा है जिसे कुछ नहीं मिला। ध्यान दें ‘कुछ नहीं’ शब्द पर। वे योग्य हैं, अधिकारी हैं फिर भी वंचित हैं, क्योंकि पूरी व्यवस्था इस तरह से हो गई है कि कुछ लोगों ने लूट लिया है और कुछ लुट गए हैं। अत: हम संकल्प लें कि पूरे वर्ष कम से कम अगली दीपावली तक उन लोगों का भी ध्यान रखेंगे, जो किसी कारण से सुख, साधन, संपत्ति, शांति से वंचित हो गए हैं। जो घर आई हुई लक्ष्मी को इस रूप में बांटेगा, लक्ष्मी उसके जीवन में, उसके घर में अधिक समय शांति और सुख के साथ रहना पसंद करेंगीं।
संकट का समाधान हमारे भीतर
संकट और परेशानी से निपटने के सबके अपने ढंग होते हैं। विपरीत परिस्थिति में हम लोगों की मदद लेते हैं। हम नहीं लेना चाहें तो भी कुछ लोग सहयोग करते हैं। ऐसा भी होता है कि सबकी सीमाएं समाप्त हो जाती हैं और हमें लगता है कि अब कौन हमारी मदद करेगा। सारे रास्ते बंद हो गए, अब कैसे निपटें? कर्म करने की अपनी क्षमता होती है। दिक्कत के समय आदमी उससे भी थक जाता है। कर्म करना रुक जाए, लेकिन भीतर के विचार नहीं रुकते। ऐसे समय या तो हम पूरी तरह से टूट जाएंगे या फिर अगर अपने चिंतन को सही दिशा दे दी तो संकट से बाहर भी आ जाएंगे। जब ऐसी घड़ी जीवन में आए कि अब करने से कुछ होगा नहीं और सोचना रुक नहीं रहा हो, तो अपने विचारों को परमात्मा से जोड़ दें और यूं सोचिए कि हमारा निर्माण किसी और ने किया है। हमारे माता-पिता तो सिर्फ माध्यम हैं।
हम परमात्मा के द्वारा भेजे गए हैं, उन्हीं के अंश हैं, इसीलिए उनकी श्रेष्ठता हमारे भीतर निश्चित उतरी है। यह विचार हमारी आंतरिक ऊर्जा को और प्रबल करेगा, क्योंकि जब परमशक्ति का सारा श्रेष्ठ हमारे भीतर है तो हम क्यों निराश हों। विज्ञान कुछ भी कहे पर यह सही है कि हमारे भीतर हमारे माता-पिता के डीएनए के अलावा प्रकृति ने बहुत कुछ भर रखा है और उसका उपयोग करने के लिए हमें स्वयं से जुड़ने की कला आनी चाहिए, इसलिए जब कभी भी परेशान हों, तो पूरी तरह से बाहर से अपने को काट लें। एकांत में बैठ जाएं और अपने ही भीतर गहरे उतरें। एक सरल-सा प्रयोग किया जा सकता है कि अपने भीतर अपनी नाभि पर स्वयं को खींच कर डालें। यह केंद्र आपको धीरे-धीरे ऊर्जा से भर देगा और यहीं हमें महसूस होने लगेगा कि हमारे पास कुछ अतिरिक्त ऐसा है जो हमें इस संकट से बाहर निकालने में काम आएगा।
परिवार में सामूहिक ध्यान जरूरी
पहले रिश्ते बनाना और निभाना गौरव की बात हुआ करती थी। आज रिश्ते आसानी से टूट जाते हैं। रिश्ते टूटने के कारणों में बड़ा कारण है एक-दूसरे पर ध्यान नहीं देना। पति-पत्नी के बीच कलह इसीलिए है कि जरूरत के वक्त वे एक-दूसरे पर ध्यान नहीं दे पाते। बूढ़े माता-पिता की बच्चों से यही शिकायत है। छोटे बच्चे अपनी जिद इस आरोप के साथ पूरा कराते हैं कि मां-बाप के पास उनके लिए फुर्सत नहीं है। कुल-मिलाकर सब एक-दूसरे पर ध्यान न देने का आरोप लगा रहे हैं। मैं पिछले दिनों एक कॉर्पोरेट हाउस की वर्कशॉप में था। वहां मुझे बताया गया कि पहले व्यक्ति जब किसी बात पर ध्यान देता था तो उसकी सीमा 12 सेकंड हुआ करती थी, अब वह घटकर 8 सेकंड रह गई। 8 सेकंड से अधिक अब कोई व्यक्ति किसी बात पर ध्यान नहीं देता, इसलिए प्रबंधन में सिखाया जाता है कि ग्राहक का ध्यान 8 सेकंड से ज्यादा नहीं रहेगा, इसलिए इसी अवधि में उसे लपक लिया जाए।
ध्यान देने की यही वृत्ति रिश्तों के प्रति भी बनती जा रही है, इसलिए घरों में ऐसे अभ्यास होते रहना चाहिए कि एक-दूसरे पर ध्यान देने, साथ निभाने का समय बढ़े। अध्यात्म ने इसीलिए ध्यान पर बहुत अधिक बल दिया है। ध्यान का मतलब ही है वर्तमान पर रुक जाना। आज मनुष्य या तो अतीत में गिरने में देर नहीं लगाता या भविष्य में छलांग की जल्दी में रहता है। जो लोग थोड़ा बहुत वर्तमान पर टिकने की आदत डाल लेंगे उनके परिवारों में शांति और प्रेम जल्दी उतरेगा, क्योंकि ध्यान का मतलब ही है वर्तमान पर टिकना। यह बात परिवारों में भी ध्यान रखनी होगी कि लोग बहुत जल्दी एक-दूसरे से दूर हो जाएंगे, लेकिन जिन परिवारों में सामूहिक योग की वृत्ति बनी रहेगी वे परिवार एक-दूसरे के प्रति अधिक समय तक वहीं रुकेंगे। एक-दूसरे का अधिक समय तक साथ देंगे।
भक्ति में श्रम के साथ विश्राम
जीवन में परिश्रम और विश्राम का संतुलन बिगड़ जाए तो आदमी के लिए काम नशा हो जाएगा या फिर वह बेवक्त आलसी हो जाएगा। दोनों ही खतरनाक हैं। श्रीराम जीवन के कठिन दौर से गुजर रहे थे और सिर्फ लक्ष्मण से बात कर रहे हैं। बस, यहीं विश्राम और परिश्रम का मतलब समझ में आ जाएगा। किष्किंधा कांड के ये प्रसंग हमारे लिए बड़े काम के हैं। श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं- तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा।। कहुं कहुं बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी।। शरद ऋतु में बादल छंटकर आकाश साफ हो जाता है जैसे भगवद् भक्त आशा छोड़कर सुशोभित होते हैं। यहां आशा का मतलब है बहुत अधिक आसक्ति। जिद और आसक्ति में फर्क है।
हठ तो कभी-कभी मनुष्य को फिर भी परिश्रम के लिए प्रेरित करता है, लेकिन आसक्ति उसे गलत मार्ग पर भी ले जा सकती है। फिर श्रीराम कहते हैं जैसे राजा विजय पाना चाहता है, तपस्वी को तप चाहिए, व्यापारी को धन-संपत्ति और भिखारी को भीख। ये चारों जब भी अवसर मिलता है, अपने काम पर निकल जाते हैं, लेकिन यदि जीवन में परमात्मा की भक्ति आ जाए तो इन चारों के परिश्रम का मतलब बदल जाता है। श्रीराम ने टिप्पणी की है कि ये श्रम को त्याग देते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि आलसी हो जाएं, परिश्रम करना छोड़ दें। सभी को विजय पानी है, धन पाना है, तप अर्जित करना है और भिक्षा प्राप्त करनी है। इन सबके साथ भक्ति जुड़ जाए तो फिर मनुष्य कुछ समय के लिए श्रम के साथ विश्राम भी करने लगता है। जीवन में सदैव दौड़ने से ही कुछ मिलता है, ऐसा नहीं है। थोड़ी देर रुकें, बैठिए, शांत हो जाइए और अपने आपको एक नई स्थिति के लिए तैयार कीजिए।
ईश्वर जैसे होने की संभावना
हम सब कुछ न कुछ बनना चाहते हैं। बचपन से हमें यह सिखाया जाता है। अब तो बच्चों को भविष्य में क्या बनना है इसकी योजना माता-पिता बच्चे के जन्म से पहले ही तैयार कर लेते हैं। पहले के माता-पिता इस बात पर जोर देते थे कि अधिक से अधिक बच्चे पढ़-लिख लें और अच्छा इंसान बन जाएं। वे अपने बच्चों को किसी विशेष क्षेत्र के लिए तैयार नहीं किया करते थे। धीरे-धीरे वक्त बदला और अब तो बच्चे शुरू से ही इस बात के लिए तैयार किए जाते हैं कि उन्हें इस क्षेत्र में जाना है। यही तुम्हें होना है इस बात का आग्रह बच्चों के व्यक्तित्व को दबाव में ला देता है। यह सही है कि हर बच्चा कोई न कोई संभावना लेकर आता है। बहुत कम लालन-पालन करने वाले यह जानते हैं। किंतु अब आप अपने भविष्य के प्रति समझदार हैं तो इस पर विचार जरूर कीजिए कि मूल रूप से आप में कौन-सी संभावना थी, जो आप हो सकते थे और उसको अब भी पकड़ने का वक्त है।
जीवन के मामले में देर कभी भी नहीं होती। परमात्मा ने मनुष्य बनाकर उसे कहा था मैं तुम्हें अपने जैसा बनने में पूरी मदद करूंगा। तुम्हारे भीतर सबसे बड़ी संभावना छिपी है मेरे जैसा होने की। भगवान का अर्थ है, जिसने अपने ऐश्वर्य का सदुपयोग कर लिया हो। इतनी बड़ी मदद मिल रही हो और फिर भी हम उसके जैसे नहीं बनें तो यह हमारी भूल होगी। उदाहरण देने के लिए ही परमात्मा इस संसार में कुछ ऐसे मनुष्यों को भेज देता है, जिनमें वह अपनी झलक डाल देता है और उनमें से एक है गुरुनानक देव। आज उनकी जयंती पर हम यही विचार करें कि जो संभावना परमात्मा ने गुरुनानक देव के भीतर छोड़ी, वह सबके भीतर छिपी है। थोड़ी-सी तैयारी हम करें, बहुत अधिक मदद वह करने को तैयार है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष
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