Tuesday, November 17, 2015

Jeene Ki Rah11 (जीने की राह)

हर व्यक्ति में कोई न कोई गुण
जब हम सांसारिक कार्यों में उतरते हैंतो हम जानते हैं कि इसमें प्रतिस्पर्द्धा होगी। इसके के लिए हम लगातार अपना व्यक्तित्व मांजते रहते हैं। लगातार स्वयं को नहीं मांजेंगे तो पिछड़ जाएंगे। एक गलती बहुत से लोगों से होती है कि हम कुछ लोगों को मूर्ख मान लेते हैंनासमझ समझ लेते हैं। हमें लगा कि हमने उन्हें मूर्ख बना दिया या वे कम अक्ल थेइसलिए हमने उनका उपयोग नहीं किया और बाद में वे समझदार निकल गए। कुछ लोग खुद को जानबूझकर मूर्ख साबित करते हैंताकि लोग उनको मूर्ख मानकर अवॉइड कर सकें और उनके लिए काम आसान हो जाए। आदमी समझदार हैयोग्य है तो लोग उसकी तगड़ी घेराबंदी करते हैं। यदि अयोग्य और मूर्ख व्यक्ति हो तो लोग उसको छोड़ देते हैं। इसी छूट का वे फायदा उठाते हैं। इसलिए इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि नादान कोई नहीं होता।

यदि आपको संपर्क में आए लोगों का लाभ उठाना है तो आप यह तय कर लीजिए कि आपके पास क्या योग्यता है कि आप लाभ उठा सकें। वो मूर्ख हो या समझदारलेकिन आपकी तैयारी पक्की है तो आप उसका लाभ अवश्य उठा सकेंगे। श्रीकृष्ण पांडवोंं को हमेशा समझाते थे कि सदैव सामने वाले की योग्यता से ही लाभ नहीं मिलताउसकी कमजोरी भी हमारे लिए लाभकारी हो सकती है। कृष्ण जानते थे कि भीष्म जैसे योग्य और समर्थ व्यक्ति से पांडव पराजित हो जाएंगेइसलिए उन्होंने युधिष्ठिर को भेजकर भीष्म से ही उनकी मृत्यु का तरीका पूछ लिया था। हम आज ऐसा प्रयोग नहीं कर सकतेलेकिन इतना तो कर ही सकते हैं कि जरा होश में रहेंनजर खुली रखें और मूर्खकमजोर आदमी को यह मानकर न छोड़ दें कि हमारे किसी काम का नहीं। हरेक में कुछ न कुछ ऐसा है कि यदि आप तैयार हों तो उसका उपयोग कर सकते हैं और यही बुद्धिमानी है।

लोगों से काम लेने का मंत्र
यह तो तय है कि अकेला मनुष्य सबकुछ नहीं कर सकता। किसी भी सफलता को प्राप्त करने के लिए अनेक लोगों के सहयोग की जरूरत होती हैलेकिन उस समय हमें यह सावधानी रखनी पड़ेगी कि जिनका हम सहयोग ले रहे हैंउनमें योग्यता क्या है। अयोग्य से अयोग्य आदमी भी किसी न किसी काम का जरूर होता है और योग्य से योग्य आदमी भी आपका काम बिगाड़ सकता है। वह दौर खत्म हुआ कि आपने एक मार्ग पकड़ा और मंजिल पर पहुंच गए। अब कई मार्ग बदलने पड़ते हैं। कभी छलांग लगानी पड़ेगीकभी कूदना पड़ेगाकभी उस रास्ते को छोड़ना पड़ेगा और कभी नया रास्ता बनाना पड़ेगा। जब भी किसी व्यक्ति से मिलें तोे उसकी वह संभावना टटोलेंजो आपके काम आ सके।

किससे क्या काम लेना है यदि इस बात को जानना चाहें तो सामने वाले को त्रिगुण में फिट करके देखें- सतोगुणरजोगुण और तमोगुण। सतोगुण वाले सदैव अच्छे काम करेंगेईमानदारी से करेंगे और उनके व्यवहार में पवित्रता होगी। रजोगुण प्रधान लोग लेन-देन में माहिर होते हैं। सांसारिक कामों में छल-कपट भी करना पड़े तो कर लेंगे। तमोगुणी मनुष्य कुटिल होगा। किसी भी काम को गलत तरीके से कैसे किया जाए उसमें उसकी रुचि होगी। यदि हम थोड़ा भी मेडिटेशन से गुजरें तो किसी भी मनुष्य में इन गुणों की तरंग को पकड़ सकते हैं। मेडिटेशन में हम स्वयं पर केंद्रित होते हैं और ऐसा व्यक्ति दूसरे के केंद्र से निकलने वाली तरंगों को पकड़ सकता है। आपको बड़ी व्यवस्था में तीनों गुणों से संयुक्त व्यक्ति से भी काम लेना पड़ सकता है। कबकिसकेकिस गुण को उजागर कर कौन-सा काम लेना हैयही संसार में काम लेने का गुण है। अभ्यास करिए त्रिगुण वृत्ति को जानने काअपनी भी और दूसरे की भी।

ज्ञान से विश्राम पाती हैं इंद्रियां
परमात्मा सभी से अलग-अलग समय में अलग-अलग रोल करवाते हैं। कभी आप नेतृत्व कर रहे होंगेकहीं अधिकारी होंगेकभी व्यापारी की भूमिका में होंगे। रिश्तों को निभाना भी महत्वपूर्ण भूमिका है। आप जो भी दायित्व निभा रहे होंउसके प्रति अपना नज़रिया स्पष्ट कर लें। किष्किंधा कांड के प्रसंग में श्रीराम राज्य से वंचित राजा थेभाई थे और विचारक की भूमिका भी निभा रहे थे। इस बार श्रीराम जो टिप्पणी कर रहे हैं इस पर तुलसीदासजी ने लिखा है - बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा।। जहं तहं रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना।। पृथ्वी अनेक तरह के जीवों से भरी हुई उसी तरह शोभायमान हैजैसे सुराज्य पाकर प्रजा की वृद्धि होती है। जहां-तहां अनेक पथिक थककर ठहरे हुए हैंजैसे ज्ञान उत्पन्न होने पर इंद्रियां शिथिल होकर विषयों की ओर जाना छोड़ देती हैं।

चूंकि श्रीराम राजा थेउन्होंने वर्षा बाद की नई व्यवस्था को स्वराज से जोड़ा है। स्वराज यानी जहां प्रजा हर तरह से सुखी हो। श्रीराम प्रजा के प्रति सदैव चिंतित रहते थे। श्रीराम जैसे महापुरुष परहित का पर्याय हैं। वे कहते हैं कि जब पृथ्वी के पास दूसरों को देने के इतने अवसर हों तो पथिक यहां विश्राम पाते हैं। हमारी इंद्रियां लगातार भागती हैं। इंद्रियों की रुचि उनके विषय में होती है। जैसे आंख इंद्रिय है तो उसका विषय देखना हैलेकिन यदि ज्ञान सही ढंग से जीवन में उतर जाए तो इंद्रियां भी विश्राम में आ जाती हैं। इंद्रियों के साथ बेकार की खींचातानी नहीं करनी चाहिए। उन्हें ज्ञान के सहारे विश्राम दिला दीजिए। इस प्रसंग से हमारे लिए सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि हम मनुष्य हैं तो इंद्रियों का भरपूर उपयोग कर सकते हैंलेकिन कब इन्हें सक्रिय रखना है और कब विश्राम देना है श्रीराम की वाणी हमें यही बता रही है।

मन का भोजन है विचार
कुछ लोगों को किसी भी रास्ते पर चलाया जाएवे भटकते ही नज़र आएंगे। भटकना कुछ लोगों का शौक है और कुछ की मजबूरी। जैसे मनुष्य के शरीर में बुद्धि भटकती भी है और सही मार्ग भी दिखाती है। हृदय भटक भले ही जाएलेकिन उसकी पहली कामना सही मार्ग की होती है। मन किसी एक रास्ते पर चलना ही नहीं चाहता। भटकना उसकी मूल रुचि है। मन किस तरह से भटकता है इसको समझना हो तो कुत्ते-बिल्ली का उदाहरण लिया जा सकता है। भारत में कुछ लोग बिल्ली रास्ता काट जाए तो अशुभ मानते हैं और विदेश में बिल्ली घरों में पाली जाती है ताकि वह रास्ता काटे तो कुछ अच्छा लगे। ये दोनों ही पालतू हैं। दोनों भटकते रहते हैं। बिल्ली को खाने की वस्तु मिले तो उसी स्थान पर गिराती है फिर खाती है। कुत्ते को कोई खाने की वस्तु दी जाए तो वह कहीं और जाकर खाता है। श्वान को झुकना होप्रेम बताना हो तो पूंछ हिलाता है।

बिल्ली को दबना होअपनापन बताना हो तो वह म्याऊं करती है। मनुष्य का मन भी उलटी-पलटी खाता ही रहता है। कब किसका गुलाम हो जाएकब किसका मालिक बन जाए पता नहीं चलता। श्वान की तरह भौंकता ही रहता है। कभी आपसे किसी का मतभेद हो जाएआपको क्रोध आ जाए और बाहर क्रोध व्यक्त न कर सकें तो भीतर अपने आप को ध्यान से देखिएगा। पाएंगे कि कोई श्वान जोर से भौंक रहा है। जब आप अपनी पसंद की चीज नहीं पा सकें तो देखिए मन उस पर बिल्ली की तरह झपट रहा है। इन दोनों को सिखाया जाता है भोजन से। मन का भोजन विचार है और वह उसे खाता है सांस से। सांस के प्रति सजग हो जाएंविचारों को नियंत्रित करें तब मन बिल्कुल पालतू होगा और जिसका मन पालतू है वह दुनिया का सबसे शांत व्यक्ति होगा।

शृंगार में व्यक्तित्व न खो जाए
इन दिनों दूसरों को प्रभावित करना भी प्रबंधन का हिस्सा माना जाता है। इसके लिए लोग कई तरह के नुस्खे अपनाते हैं। कम साधनों में खुद को अधिक वैभवशाली दिखाना एेसी ही युक्ति है। आपके आस-पास ऐसे कई लोग दिखेंगेजो उतने समृद्ध नहीं हैंजितने दिखते हैं या दिखाते हंै। कभी-कभी तो दिखावा इतना बढ़ जाता है कि लोग उधार लेकर इसीलिए मकान सजाते हैं कि दूसरों को प्रभावित कर सकें। यह बिल्कुल मदारी के खेल जैसा है। मदारी किसी साधन को अपने ढंग से नचाता है। चाहे वह बंदर हो या खिलौना। जिन बातों में वह सक्षम नहीं है उन बातों को भी ऐसे दिखाता है कि लोग उसका लोहा मान जाएंलेकिन तारीफ पाकर मदारी भूल ही जाता है कि मैंने झूठ का सहारा लिया है। वह मान लेता है कि मैं सचमुच कमाल का हूं। आजकल सभी मनुष्य मदारी बनने लग गए हैं।

जब आपका ओढ़ा हुआ वैभवसमृद्धि दूसरों को प्रभावित करती है तो वे आपकी प्रशंसा करने लगते हैं और यहीं से मनुष्य उस छवि में कैद हो जाता है। दूसरे आपको कह-कहकर वह बना देते हैं जो आप होते नहीं हैं। जिन्होंने वैभव का दिखावा किया हैवे भूल जाते हैं कि सच कुछ और था। कम सौंदर्य को गहनों से ढंका जाता है और जिसके पास सौंदर्य हो वह गहने निखारने के लिए पहनता है। लेकिन शृंगार का तीसरा तरीका भी है- आत्मा का शृंगार। यह शृंगार ऐसा होता है कि इसमें कुछ दिखे या न दिखेलेकिन सुगंध अवश्य महसूस होती है। संसार में रहते हुए दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए कुछ शृंगार किए जाएं इसमें बुराई नहीं हैलेकिन इस बात की पूरी सावधानी रखी जाए कि उस शृंगार की आड़ में हमारा मूल व्यक्तित्व न खो जाए। आत्मा का शृंगार करने का प्रतिदिन कुछ अवसर निकालिए। उसी का नाम योग है।

बच्चों को सुसंग का स्वाद दें
सभी गृहस्थ संतान सुख चाहते हैं। कभी-कभी गृहस्थी बसाने के बाद संतान की प्राप्ति नहीं होती और संतान सुख प्राप्ती के लिए लोग कई उपाय करते हैं। संतान सुख अलग बात है और संतान से सुख मिलना बिल्कुल दूसरी बात है। कभी-कभी संतान भी दुख का कारण बन जाती है। श्रीराम किष्किंधा कांड में लक्ष्मणजी से कहते हैं कि यदि संतान दुराचारी हो जाए तो उस कुल के श्रेष्ठ आचरण नष्ट हो जाते हैं। तुलसीदासजी लिखते हैं- कबहुं प्रबल बह मारुत जहं तहं मेघ बिलाहि। जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।। कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती हैजिससे बादल जहां-तहां गायब हो जाते हैं। जैसे कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म (श्रेष्ठ आचरण) नष्ट हो जाते हैं। संतानें अयोग्य हों तो जीवन का सबसे बड़ा दुख मनुष्य पर टूटने लगता है। किंतु श्रीराम यह भी इशारा कर देते हैं कि संतानों को योग्य बनाना हमारे हाथ में है।

कबहुं दिवस महं निबिड़ तम कबहुंक प्रगट पतंग। बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग।। जैसे बादल ढंक जाएसूर्य छिप जाए तो समझ लीजिए कुसंग हो गयाअंधकार छा गया। बादल छंट जाएप्रकाश आ जाए यह सत्संग का ही परिणाम है। अपनी संतानों को सुसंग का स्वाद सबसे पहले घर से ही दिया जा सकता है। अगर बच्चों को घर में होश संभालते यह बात समझ में आ जाए तो जब वे घर से बाहर निकलेंगेउन्हें इसका ज्ञान रहेगा कि किन लोगों के साथ उठा-बैठा जाए। जैसे हम भोजन-पानी के मामले में बच्चों को बचपन से स्वाद पैदा कर देते हैं ऐसे ही हमें सुसंग का स्वाद भी घर में ही उनके जीवन में उतार देना चाहिए। फिर बाहर निकलने पर वे अच्छे मित्रअच्छे साथी ही ढूंढ़ेंगे। घर से अच्छी बातें बाहर ले जाएंगे तथा बाहर से श्रेष्ठ बातें भीतर लाएंगेतब जाकर संतान से सुख मिलेगा।

शक्ति केंद्र जानेंसाहस जगाएं
हमें महत्व मिले ऐसी इच्छा सभी की रहती है। जो लोग समाज में महत्वपूर्ण हैं उनको तो महत्व मिल ही जाता हैलेकिन जिनके पास कोई बहुत बड़ा पद-प्रतिष्ठा न हो वो भी महत्व चाहते हैं। अपनी जिंदगी में इससे भी थोड़ा आगे बढ़ा जा सकता है। यदि हमें महत्व पाने की इच्छा है तो धीरे-धीरे इसको सम्मान पाने में बदलिए। लोग हमको महत्व दें या न देंलेकिन हमारा प्रयास होना चाहिए कि लोग हमें सम्मान दें। सम्मान प्राप्त करना पड़ता हैमहत्व मिल जाता है। कभी-कभी दूसरे को महत्व देना मजबूरी भी हो जाती हैलेकिन अधिकांश मौकों पर व्यक्ति सहमत होकर दिल से सम्मान देता है। सम्मान पाने के लिए हमको ही प्रयास करना पड़ता है। इसमें हमारी हिम्मत बड़ा काम करती है।

जन्म से ही सभी लोग हिम्मती नहीं होतेयदि हम समाज में सम्मान पाना चाहते हैं तो हमें अपने भीतर की हिम्मत को अंगड़ाई देनी होगी। अधिकांश लोग जन्म से ही संकोचीडरपोक और शर्मीले होते हैंलेकिन यदि इस संसार में सम्मान से रहना है तो हिम्मती होना सीखना पड़ेगा। और यदि आपके बच्चे हिम्मती नहीं हैं तो उन्हें सिखाना पड़ेगा। जब हमारे भीतर की हिम्मत हमें समझ में आने लगती है तब हम कुछ रिस्क भी ले लेते हैं। आज जीवन में आगे बढ़ने के लिए खतरे उठाने ही पड़ेंगे और बिना साहस के खतरा उठाया तो नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। अपने भीतर की हिम्मत को जगाने के लिए तीन बातों की जरूरत पड़ती है- हमारा संगहमें समर्थन कौन लोग दे रहे हैं और हमारे पास क्या साधन हैंइसीलिए परमात्मा ने हमारे शरीर में स्वयं का मूल्य जानने के लिए कुछ केंद्र बनाए हैं। यदि इन शक्ति केंद्रों को हम भीतर से जान जाएं तो हमें अपने साहस को अपनी सफलता से जोड़ने में दिक्कत नहीं आएगी।

दाम्पत्य में निजता का सम्मान हो
कुछ लोग बाहर से बहुत सरल और चरित्रवान दिखते हैंलेकिन यह सही है कि हर एक भीतर से जटिल और अपवित्र है। यह बात अलग है कि कई लोग अपनी भीतरी अपवित्रता को मिटाने में सतत प्रयास करते हैंअपनी जटिलता को समाप्त करने के लिए लगे रहते हैं। ऐसे लोगों को साधक-भक्त कहा जाता है। सारी बातें जीवन में उजागर करने के बाद भी कुछ गोपनीय रह ही जाता है और उसे हर व्यक्ति भीतर रखता है। दुनिया की बाकी रिश्तेदारियों में यह गोपनीयता चल जाती हैलेकिन पति-पत्नी के बीच इस गोपनीयता के कारण कभी-कभी तनाव भी पैदा हो जाता हैक्योंकि यह एकमात्र रिश्ता है जो एक-दूसरे से जितनी अपेक्षा करता है उतने ही खुलेपन की मांग करता है। इस रिश्ते में अंतरमन को उघाड़ना पड़ता है।

हालांकियह भी उतना ही सच है कि दोनों कितने ही आत्मीय होंकुछ बातों में गोपनीयता की रक्षा करनी चाहिए। इसे निजता भी कहा जाता है। अपनी निजता में कोई भी हस्तक्षेप नहीं चाहताइसलिए यदि आपका जीवन साथी कुछ गोपनीय रखना चाहता है तो उस पर संदेह न करें और न दबावपूर्वक जानने का प्रयास करें। यदि प्रेम से बात बाहर आ जाए तो धैर्य से सुनिएक्योंकि प्रेम से आपने उजागर तो कर दिया पर वह अप्रिय भी हो सकता है। इसलिए पति या पत्नी कोई बात नहीं बता रहा है तो उस पर अविश्वास करने की बजाय सोचें कि इसका क्या कारण होगाकहीं सामने वाला किसी दबाव में तो नहींऐसा है तो उसकी मदद की जाए। हर बात उघाड़ने से यह रिश्ता खूबसूरती खो देता हैइसलिए दाम्पत्य में कुछ ढंका रहने दें जो एक-दूसरे की निजता होगी। जितना इसका सम्मान करेंगेउतना आपसी विश्वास बढ़ेगा और दाम्पत्य सुखमय होगा।

रिश्तों से बच्चों को एेसे जोड़ें
प्रतिस्पर्धा के दौर में सभी माता-पिता अपने बच्चों को जानकारियों से भरपूर रखना चाहते हैं। बाहरी सफलताओं का इतना दबाव है कि कई बच्चे तो अपना मूल स्वभाव ही खो देते हैं। परिंदे भी अपने बच्चों को उड़ना सिखाते हैंलेकिन लौटकर घोंसलों पर आएं इतनी गुंजाइश उन बच्चों में जरूर रखते हैं। किंतु देखने में आ रहा है कि इंसान के बच्चे यदि परिवार की डाली से उड़ जाए तो उन्हें लौटाना मुश्किल हो रहा है। इसीलिए परिवार लगातार खाली होते जा रहे हैं। पहले तो एक परिवार में इतने सदस्य होते थे कि छोटे-मोटे खेल के लिए टीमें बना सकें। और अब सदस्य तो कम हुए ही हैंसाथ में प्रेमअपनापन भी गायब होने लगा है।
जब भी कभी फुर्सत मिलेअपने बच्चों को एक छोटी-सी एक्सरसाइज से जरूर गुजारिए। उन्हें अपने कुछ रिश्तेदारों की सूची सौंपकर एक प्रश्नावली थमाइए और उनसे लिखवाइए कि आपको कौन-सा रिश्तेदार पसंद है और क्योंइस बहाने वे उनका परिचय भी प्राप्त कर लेंगे। फिर उनसे यह भी पूछिए कि यदि अपने लोगों को खुश करना है तो वे क्या-क्या करेंगेहो सकता है वे प्रश्नावली को गलत भरेंतब हमारी जिम्मेदारी होगी कि हम उसे ठीक कर दें।

कुछ उत्तर तो ऐसे मिलेंगे कि आप आश्चर्यचकित हो जाएंगे। कुछ नजदीक के और महत्वपूर्ण रिश्तों को तो बच्चे खारिज ही कर देंगे। कहीं वे शिकायत करते मिलेंगे तो कहीं वे अनजाने से बन जाएंगेलेकिन साल में एक या दो बार अपने बच्चों से यह अभ्यास जरूर करवाएं। चूंकि आजकल इसी तरीके से पढ़ाई की जा रही हैइसलिए उनकी शिक्षा के कोर्स मेंउनके सिलेबस में अपनी ओर से परिवार का चैप्टर भी जोड़ दीजिए। आपको भविष्य में इसके सद्परिणाम अवश्य मिलेंगे।

इंद्रियों का उचित उपयोग करें
पागलपन और मूर्खता इनसान के साथ जुड़े हैं। फर्क बारीक-सा है। पागल कहे जाने का ज्यादा बुरा लगता है। मूर्ख कहने पर भी बुरा तो लगता है पर उससे कम। चलिएआज दोनों को समझते हैं। क्रोध में डूबकर जो भी करेंगे वह क्षणिक पागलपन हैपरंतु क्रोध आए और हम उसे वापस न भेज सकें तो यह हमारी मूर्खता होगी। कभी-कभी काम के जुनून को भी यह संज्ञा दी जाती है। जैसे वह पागलों की तरह भिड़ गया। पागल भी जो करते हैं उसमें वे दूसरों की फिक्र नहीं करते। वह वही करता है जो उसे करने की इच्छा होती हैइसीलिए मेहनत करता हुआ इनसान भी पागल दिखता है। फर्क यह है कि वह अपना लक्ष्य जानता है और पागल बेतरतीब काम करता है।

किंतु परिश्रम में अत्यधिक डूबकर जब हानि अधिक उठा ली जाए तो वह मूर्खता होगी। पागलपन को मूर्खता में और मूर्खता को पागलपन में परिवर्तित होने में ज्यादा समय नहीं लगता। यह ऐसा ही है कि पानी गरम किया तो भाप बन गयाजमा दिया तो बर्फ बन गया। परमात्मा ने हमें दस इंद्रियां दी हैंजिनका उपयोग हम पागलों की तरह कर सकते हैं और मूर्खों की तरह भी। पागल अपनी इंद्रियों को अनियंत्रित करके चलता है और मूर्ख परिवर्तित करके चलता है। जिस प्रकार परमात्मा ने कान दिए हैं सुनने के लिए पर कुछ लोग इनसे देखने लगते हैं। आंखों से सुनने लगते हैं। दिल से दिमाग का काम लेते हैं और दिमाग में तेल डाल देते हैंयह मूर्खता है। सीधी सी बात है मनुष्य को दो पैर चलने के लिए दिए हैंलेकिन यदि हाथ टिकाकर दोनों हाथदोनों पैरों से चलें तो लोग मूर्ख ही कहेंगे। समझदार आदमी पागलपन का भी सदुपयोग कर जाता हैमूर्खता से भी अच्छे-अच्छे काम निकाल लेता है।

धन के साथ संतोष को जोड़ें
पिछले कुछ दिनों से जीवन धन के आस-पास घूम रहा है। जरूरी नहीं कि जीवन में धन आ ही गया हो। कुछ ने प्रयास कियाकुछ ने धन को बरसते देखा और कुछ लोगों के पास आ भी गया होगालेकिन ये धन से परिचय के दिन थे। जब जीवन में समृद्धिधनवैभव आता है तो जरूरी नहीं कि सुख भी आ जाए। हम धनतेरस से गुजरकर दीपावली तक पहुंच रहे हैं। चलिएइस पूरे कालखंड को किष्किंधा कांड से जोड़कर देखें। श्रीराम ने लक्ष्मण को जो समझाया वह हम जीवन से जोड़ लें तो दीपावली अपने अर्थ लेकर आएगी। श्रीराम लक्ष्मणजी से कह रहे हैं, ‘बरषा बिगत सरद रितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई।। फूले कास सकल महि छाई। जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई।। हे लक्ष्मणदेखो वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद-ऋतु आ गई। कास के फूल खिलने से चारों ओर सफेदी छा गई। मानो वर्षा ऋतु का बुढ़ापा (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) आ गया हो।

शरद अद्‌भुत ऋतु है। वर्षा ऋतु का बुढ़ापा यानी अंत आ गया हो। इस समय हमारा जीवन समृद्धि और वैभव से ढंका नजर आता है। निर्धन से निर्धन व्यक्ति के यहां भी धन अपने ढंग से दस्तक दे रहा होता है। ऐसे में श्रीराम आगे सावधान करते हैं, ‘उदित अगस्त पंथ जल सोषा। जिमि लोभहि सोषइ संतोषा।। सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा।।’ ‘अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया हैजैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय।’ हमें दीपावली पर यह संदेश लेना चाहिए कि यदि धन के साथ संतोष जुड़ जाए तो धन जो तकलीफ देता है वह नहीं होगी। साथ में मद व लोभ से अपने आप को मुक्त रखिए।

योग्यता का सदुपयोग महत्वपूर्ण
यह सवाल वर्षों से चला आ रहा है कि आदमी की महानता यानी ग्रेटनेसउसका महत्व यानी इम्पॉर्टेंस और उसकी महिमा यानी उसकी ग्लोरी योग्यता के कारण होती है या उसने उस योग्यता का सदुपयोग कैसे कियाइस कारण होती हैं। योग्यता बहुत सारे लोगों में होती है। महत्व तब शुरू होता है जब आप उस महत्ता का दुरुपयोग करते हैं या सदुपयोग। रावण के साथ भी ऐसा ही है। कोई रावण को महान पंडित बताता हैकोई उसकी इस बात के लिए प्रशंसा करता है। रावण की प्रशंसा करना निषेध में कहे गए शब्द हैं। हमें थोड़ा समझना होगा कि रावण का महत्व थाक्योंकि वह वीर थाविश्वविजेता था। उसके पास सिद्धियां थींउसने तपस्या की थीलेकिन तप किया जाता है पुण्य अर्जित करने के लिए और उसने पाप का संग्रह किया थाइसलिए उसका महत्व तो थालेकिन वह महान था या नहीं इस पर संदेह है।

यदि योग्यता का सदुपयोग नहीं किया तो आप महान नहीं हो सकते। रावण से यदि कुछ सीखना है तो यही सीखिए कि शीर्ष पर पहुंचकर जो गलतियां की जाती हैं वे रावण जैसे विश्वविजेता को भी एक दिन धूल चटा देती हैं। किसी को दबाकरआतंक मचाकरअपने प्रभाव का उपयोग करके स्वयं को महान घोषित करना मूर्खता है। रावण बाद में ऐसी ही गलतियां करता रहाइसलिए जो भी रावण की प्रशंसा करे वह उसके महत्व की तो जरूर प्रशंसा करे पर उसे महानता से न जोड़ें। वरना वही भूल हम कर जाएंगे जो रावण कर बैठा था। वह अपनी योग्यता से एक महान नायक हो सकता था किंतु दुरुपयोग किया तो बड़ा खलनायक बन गया। हमें खलनायकों का अनुसरण नहीं करना है। उनके द्वारा की गई गलतियों को समझकर उससे बचना हैसमाज के सामने नायक की भूमिका में आना है।

धन के अभाव में भी सुख संभव
शास्त्रों में कहा गया है कि जो लोग सारी दुनिया जीत लेते हैं वे एक जगह हार जाते हैं और वह है समय। बड़े-बड़े विश्वविजेता भी वक्त के आगे हार गए। किंतु यदि सही ढंग से चला जाए तो फिर भी इसे हल्की-सी विजय माना जा सकता है। श्रीराम से अच्छा उस समय कौन जान सकता था। लक्ष्मण को प्रकृति और परिस्थिति का उदाहरण देकर उन्होंने जो कहा उसे तुलसदासजी ने ऐसे व्यक्त कियारस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी।। जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए।। नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद्-ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए।

जैसे समय पाकर अच्छे कर्मों का फल प्राप्त होता है।’ श्रीराम कह रहे हैं ममता का त्याग ज्ञानी व्यक्ति कर सकता है। किसी बात के प्रति अत्यधिक आकर्षित हो जाना ममता है। जो लोग इससे बंध जाते हैं वे परेशानी उठाएंगे। जीवन की कुछ घटनाओं के निर्णय समय पर छोड़ देने चाहिए। वक्त के फैसले अपने ही ढंग के होते हैं। उसका इंतजार करिए। श्रीराम आगे कहते हैं - पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप के जसि करनी।। जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना।। न कीचड़ है न धूलइससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीति-निपुण राजा की करनी। जल के कम हो जाने से मछलियां व्याकुल हो रही हैं जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है।’ ये पंक्तियां श्रीराम ने इसलिए कहीं कि वे वनवासी राजा थे और साथ में गृहस्थ भी। गृहस्थ के पास यदि धन न हो तो उसे व्याकुल नहीं होना चाहिए। बिना धन के भी गृहस्थी में सुख उतारा जा सकता है। श्रीराम यही कहना चाहते हैं।

अच्छाई देखने की आदत डालें
दूसरे से अच्छा बनने की तमन्ना सभी में रहती है। धीरे-धीरे खुद को अच्छा देखने की आदत अनियंत्रित होने लगती है तो फिर हम दूसरों में बुराई देखने लगते हैं। इन दिनों तो अच्छा और बुरा देखने की आदत धर्म में भी उतर आई है। हमारा धर्म दूसरे धर्म से अच्छा है- धीरे-धीरे यह घोषणा राष्ट्रीय तनाव का कारण बनती जा रही है। सभी धर्मों के महापुरुषों और शास्त्रों ने घोषणा भी की है कि हमारे धर्म में क्या अच्छा है यह बताया जाए। हमारा धर्म अच्छा है इसकी घोषणा न की जाएक्योंकि निश्चित कुछ न कुछ अच्छाई सबमें रही होगीतभी वह धर्म प्रतिष्ठित हुआ। धीरे-धीरे यह आदत घरों तक आ जाती है। नज़दीकी रिश्ते भी एक-दूसरे के लिए अच्छे-बुरे की घोषणा करने लगते हैं। अपनी अच्छाई को स्थापित करना और दूसरे की बुराई को उजागर करना भी पति-पत्नी के बीच झगड़े का एक कारण होता है।

बहुत दिनों से नारा चल रहा हैअच्छे दिन आने वाले हैं। अच्छी बातें देखने के दिन आने चाहिए। चाहे हमारे रिश्तेदार होंमित्र हों या कामकाजी सहयोगी होंसबकी अच्छाई देखी जाए। बुराई सबमें होती हैलेकिन अब अच्छाई उजागर करने और उसको स्वीकार करने का समय है। इस समय देश में दूसरों की बुराई देखने का दौर है। इससे हम कभी सही जगह नहीं पहुंचेंगे। बहुत बड़ी क्रांति न करेंपर निजी स्तर पर यह तैयारी की जाए कि हम सुबह से लेकर रात तक अब दूसरों की अच्छाई ही देखेंगे और उसे स्वीकार करेंगे। अगर यह स्वभाव हमारा बन गया तो लाभ यह होगा कि हमें बैठे-ठाले दूसरों की अच्छाई मिलने लगेगी। जिसे प्राप्त करने के लिए लोग तप-तपस्या करते हैं वो हमें घर बैठेचलते-फिरते मिल जाएगीइसलिए अच्छाई देखने के दिन आ गए हैं ऐसी घोषणा की जाए और फिर जीवन का असली आनंद लिया जाए।

धन को बांटने का संकल्प लें
अभी-अभी दीपावली का त्योहार गुजरा है। घर में लक्ष्मी पूजन होता है तो हम किसी पंडित को बुलवाकर मंत्रोच्चार कर लेते हैं या स्वयं पूजा करते हुए कुछ मंत्र बोलते हैं। अधिकांश लोगों को इन मंत्रों का अर्थ पता नहीं होताक्योंकि पूजा रस्म बन गई है। किंतु यह न भूलें कि शास्त्रों में लक्ष्मीजी के कुछ रूप व्यक्त किए गए हैं। राजा के यहां वे राजलक्ष्मी हैंगृहस्थी में वे गृहलक्ष्मी हैंउद्योग और परिश्रम वालों के यहां लक्ष्मी शोभा बनकर आती हैं। पापियों में वे कलह के रूप में आ जाती हैं। हमारे काम की बात यही है कि लक्ष्मी अर्जित करते हुए कोई पाप नहीं होना चाहिए। यानी ऐसा कोई काम न किया जाए जो संसार या संसार बनाने वाले के विधान के विरुद्ध हो। अगर गलत रास्ते से संपत्ति घर लाए तो वह कलह का कारण बनेगी। इसलिए जरूरी नहीं कि धनवान व्यक्ति कलह से मुक्त हो या उसे सच्चा सुख प्राप्त हो जाए।

अत: अपने परिश्रम से अर्जित धन का एक हिस्सा उन लोगों के लिए जरूर निकालें जो आज असमर्थ हों या जिनके पास वे साधन नहीं हैंजो हमें उपलब्ध हो गए हों। समाज के लिए हमारी यह हिस्सेदारी मां लक्ष्मी को बड़ी पसंद आती है। हमारे देश में कुछ लोगों को सबकुछ मिल गया हैलेकिन एक बड़ा वर्ग आज भी ऐसा है जिसे कुछ नहीं मिला। ध्यान दें कुछ नहीं’ शब्द पर। वे योग्य हैंअधिकारी हैं फिर भी वंचित हैंक्योंकि पूरी व्यवस्था इस तरह से हो गई है कि कुछ लोगों ने लूट लिया है और कुछ लुट गए हैं। अत: हम संकल्प लें कि पूरे वर्ष कम से कम अगली दीपावली तक उन लोगों का भी ध्यान रखेंगेजो किसी कारण से सुखसाधनसंपत्तिशांति से वंचित हो गए हैं। जो घर आई हुई लक्ष्मी को इस रूप में बांटेगालक्ष्मी उसके जीवन मेंउसके घर में अधिक समय शांति और सुख के साथ रहना पसंद करेंगीं।

संकट का समाधान हमारे भीतर
संकट और परेशानी से निपटने के सबके अपने ढंग होते हैं। विपरीत परिस्थिति में हम लोगों की मदद लेते हैं। हम नहीं लेना चाहें तो भी कुछ लोग सहयोग करते हैं। ऐसा भी होता है कि सबकी सीमाएं समाप्त हो जाती हैं और हमें लगता है कि अब कौन हमारी मदद करेगा। सारे रास्ते बंद हो गएअब कैसे निपटेंकर्म करने की अपनी क्षमता होती है। दिक्कत के समय आदमी उससे भी थक जाता है। कर्म करना रुक जाएलेकिन भीतर के विचार नहीं रुकते। ऐसे समय या तो हम पूरी तरह से टूट जाएंगे या फिर अगर अपने चिंतन को सही दिशा दे दी तो संकट से बाहर भी आ जाएंगे। जब ऐसी घड़ी जीवन में आए कि अब करने से कुछ होगा नहीं और सोचना रुक नहीं रहा होतो अपने विचारों को परमात्मा से जोड़ दें और यूं सोचिए कि हमारा निर्माण किसी और ने किया है। हमारे माता-पिता तो सिर्फ माध्यम हैं।

हम परमात्मा के द्वारा भेजे गए हैंउन्हीं के अंश हैंइसीलिए उनकी श्रेष्ठता हमारे भीतर निश्चित उतरी है। यह विचार हमारी आंतरिक ऊर्जा को और प्रबल करेगाक्योंकि जब परमशक्ति का सारा श्रेष्ठ हमारे भीतर है तो हम क्यों निराश हों। विज्ञान कुछ भी कहे पर यह सही है कि हमारे भीतर हमारे माता-पिता के डीएनए के अलावा प्रकृति ने बहुत कुछ भर रखा है और उसका उपयोग करने के लिए हमें स्वयं से जुड़ने की कला आनी चाहिएइसलिए जब कभी भी परेशान होंतो पूरी तरह से बाहर से अपने को काट लें। एकांत में बैठ जाएं और अपने ही भीतर गहरे उतरें। एक सरल-सा प्रयोग किया जा सकता है कि अपने भीतर अपनी नाभि पर स्वयं को खींच कर डालें। यह केंद्र आपको धीरे-धीरे ऊर्जा से भर देगा और यहीं हमें महसूस होने लगेगा कि हमारे पास कुछ अतिरिक्त ऐसा है जो हमें इस संकट से बाहर निकालने में काम आएगा।

परिवार में सामूहिक ध्यान जरूरी
पहले रिश्ते बनाना और निभाना गौरव की बात हुआ करती थी। आज रिश्ते आसानी से टूट जाते हैं। रिश्ते टूटने के कारणों में बड़ा कारण है एक-दूसरे पर ध्यान नहीं देना। पति-पत्नी के बीच कलह इसीलिए है कि जरूरत के वक्त वे एक-दूसरे पर ध्यान नहीं दे पाते। बूढ़े माता-पिता की बच्चों से यही शिकायत है। छोटे बच्चे अपनी जिद इस आरोप के साथ पूरा कराते हैं कि मां-बाप के पास उनके लिए फुर्सत नहीं है। कुल-मिलाकर सब एक-दूसरे पर ध्यान न देने का आरोप लगा रहे हैं। मैं पिछले दिनों एक कॉर्पोरेट हाउस की वर्कशॉप में था। वहां मुझे बताया गया कि पहले व्यक्ति जब किसी बात पर ध्यान देता था तो उसकी सीमा 12 सेकंड हुआ करती थीअब वह घटकर 8 सेकंड रह गई। 8 सेकंड से अधिक अब कोई व्यक्ति किसी बात पर ध्यान नहीं देताइसलिए प्रबंधन में सिखाया जाता है कि ग्राहक का ध्यान 8 सेकंड से ज्यादा नहीं रहेगाइसलिए इसी अवधि में उसे लपक लिया जाए।

ध्यान देने की यही वृत्ति रिश्तों के प्रति भी बनती जा रही हैइसलिए घरों में ऐसे अभ्यास होते रहना चाहिए कि एक-दूसरे पर ध्यान देनेसाथ निभाने का समय बढ़े। अध्यात्म ने इसीलिए ध्यान पर बहुत अधिक बल दिया है। ध्यान का मतलब ही है वर्तमान पर रुक जाना। आज मनुष्य या तो अतीत में गिरने में देर नहीं लगाता या भविष्य में छलांग की जल्दी में रहता है। जो लोग थोड़ा बहुत वर्तमान पर टिकने की आदत डाल लेंगे उनके परिवारों में शांति और प्रेम जल्दी उतरेगाक्योंकि ध्यान का मतलब ही है वर्तमान पर टिकना। यह बात परिवारों में भी ध्यान रखनी होगी कि लोग बहुत जल्दी एक-दूसरे से दूर हो जाएंगेलेकिन जिन परिवारों में सामूहिक योग की वृत्ति बनी रहेगी वे परिवार एक-दूसरे के प्रति अधिक समय तक वहीं रुकेंगे। एक-दूसरे का अधिक समय तक साथ देंगे।

भक्ति में श्रम के साथ विश्राम
जीवन में परिश्रम और विश्राम का संतुलन बिगड़ जाए तो आदमी के लिए काम नशा हो जाएगा या फिर वह बेवक्त आलसी हो जाएगा। दोनों ही खतरनाक हैं। श्रीराम जीवन के कठिन दौर से गुजर रहे थे और सिर्फ लक्ष्मण से बात कर रहे हैं। बसयहीं विश्राम और परिश्रम का मतलब समझ में आ जाएगा। किष्किंधा कांड के ये प्रसंग हमारे लिए बड़े काम के हैं। श्रीराम लक्ष्मण से कह रहे हैं- तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा।। कहुं कहुं बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक पाव भगति जिमि मोरी।। शरद ऋतु में बादल छंटकर आकाश साफ हो जाता है जैसे भगवद् भक्त आशा छोड़कर सुशोभित होते हैं। यहां आशा का मतलब है बहुत अधिक आसक्ति। जिद और आसक्ति में फर्क है।

हठ तो कभी-कभी मनुष्य को फिर भी परिश्रम के लिए प्रेरित करता हैलेकिन आसक्ति उसे गलत मार्ग पर भी ले जा सकती है। फिर श्रीराम कहते हैं जैसे राजा विजय पाना चाहता हैतपस्वी को तप चाहिएव्यापारी को धन-संपत्ति और भिखारी को भीख। ये चारों जब भी अवसर मिलता हैअपने काम पर निकल जाते हैंलेकिन यदि जीवन में परमात्मा की भक्ति आ जाए तो इन चारों के परिश्रम का मतलब बदल जाता है। श्रीराम ने टिप्पणी की है कि ये श्रम को त्याग देते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि आलसी हो जाएंपरिश्रम करना छोड़ दें। सभी को विजय पानी हैधन पाना हैतप अर्जित करना है और भिक्षा प्राप्त करनी है। इन सबके साथ भक्ति जुड़ जाए तो फिर मनुष्य कुछ समय के लिए श्रम के साथ विश्राम भी करने लगता है। जीवन में सदैव दौड़ने से ही कुछ मिलता हैऐसा नहीं है। थोड़ी देर रुकेंबैठिएशांत हो जाइए और अपने आपको एक नई स्थिति के लिए तैयार कीजिए।

ईश्वर जैसे होने की संभावना
हम सब कुछ न कुछ बनना चाहते हैं। बचपन से हमें यह सिखाया जाता है। अब तो बच्चों को भविष्य में क्या बनना है इसकी योजना माता-पिता बच्चे के जन्म से पहले ही तैयार कर लेते हैं। पहले के माता-पिता इस बात पर जोर देते थे कि अधिक से अधिक बच्चे पढ़-लिख लें और अच्छा इंसान बन जाएं। वे अपने बच्चों को किसी विशेष क्षेत्र के लिए तैयार नहीं किया करते थे। धीरे-धीरे वक्त बदला और अब तो बच्चे शुरू से ही इस बात के लिए तैयार किए जाते हैं कि उन्हें इस क्षेत्र में जाना है। यही तुम्हें होना है इस बात का आग्रह बच्चों के व्यक्तित्व को दबाव में ला देता है। यह सही है कि हर बच्चा कोई न कोई संभावना लेकर आता है। बहुत कम लालन-पालन करने वाले यह जानते हैं। किंतु अब आप अपने भविष्य के प्रति समझदार हैं तो इस पर विचार जरूर कीजिए कि मूल रूप से आप में कौन-सी संभावना थीजो आप हो सकते थे और उसको अब भी पकड़ने का वक्त है।

जीवन के मामले में देर कभी भी नहीं होती। परमात्मा ने मनुष्य बनाकर उसे कहा था मैं तुम्हें अपने जैसा बनने में पूरी मदद करूंगा। तुम्हारे भीतर सबसे बड़ी संभावना छिपी है मेरे जैसा होने की। भगवान का अर्थ हैजिसने अपने ऐश्वर्य का सदुपयोग कर लिया हो। इतनी बड़ी मदद मिल रही हो और फिर भी हम उसके जैसे नहीं बनें तो यह हमारी भूल होगी। उदाहरण देने के लिए ही परमात्मा इस संसार में कुछ ऐसे मनुष्यों को भेज देता हैजिनमें वह अपनी झलक डाल देता है और उनमें से एक है गुरुनानक देव। आज उनकी जयंती पर हम यही विचार करें कि जो संभावना परमात्मा ने गुरुनानक देव के भीतर छोड़ीवह सबके भीतर छिपी है। थोड़ी-सी तैयारी हम करेंबहुत अधिक मदद वह करने को तैयार है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

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