Thursday, August 4, 2011

Jigyasa(जिज्ञासा) Part 8

इस राह में दो खतरे होते हैं...
दो बड़े खतरे हैं जीवन में। ज्ञान का खतरा अहंकार और भक्ति का खतरा आलस्य। आज के विकास के युग में आलस्य अपराध है। घोर परिश्रम के दौर में आलस्य दुर्गुण बन कर लगातार हमारी परिश्रमी वृत्ति पर प्रहार करता है। भक्त होना एक योग्यता है। भक्ति को केवल क्रिया न मानें यह जीवन शैली है। फकीरों ने भक्ति को बीज बताते हुए कहा है, ऐसा बीज कभी भी निष्फल नहीं जाता।

युग बीत जाने पर भी इसके परिणाम में फर्क नहीं आएगा। भक्ति बीज पलटे नहीं, जो जुग जाय अनंत। कबीर एक जगह कह गए हैं कि इस सीढ़ी पर लगन और परिश्रम से चढऩा पड़ता है। जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछिताय। साधना के मार्ग में आलस्य कभी-कभी सीधे प्रवेश नहीं करता, वह रूप बनाकर भी आता है। संदेह, नास्तिकता ये भी आलस्य की शक्ल होती हैं। भक्ति के मार्ग पर चलते हुए कई भक्तों को यह भी लगता है कि हम जिस राह पर हैं वह सही भी है या नहीं?

जीवन में सही गलत को पहचानना भी बड़ी चुनौती है। आस्तिकता का एक रास्ता है और नास्तिकता के दस। भरोसे की एक किरण हाथ लगती है तो संदेह का बड़ा अंधकार आ घेरता है। इसी चक्कर में लोग नास्तिक हो जाते हैं। हर धर्म के महात्माओं, फकीरों ने इस झंझट से बचने का एक सरल तरीका बताया है, वह है भरोसा। उस मालिक का करो और उससे पूछो, कहो कि जो मार्ग, जो जीवनशैली आप तय कर दें उसी पर हम चल देंगे। इस निर्णय से हम कहीं पहुंच भी जाएंगे। वरना जीवन भर भटकते रहेंगे।

भक्ति का दूसरा नाम भरोसा हो जाता है और हमारे भीतर निष्कामता आ जाती है। करने वाले हम होते हैं कराने वाला दूसरा। यहीं से आज के कर्म-युग में शान्ति प्राप्त हो जाएगी। भक्त अशान्त हो ऐसा संभव नहीं है। अत: एक बार भक्ति को भरोसे से जोड़ दें।

सच का पहला फायदा है धन...
आज के बच्चे पूछते हैं आखिर सत्य क्या देता है? सत्य का पहला फल है, धन की प्राप्ति। धन की कामना सभी को है। अधिकांशत: धन के मूल में लोभ रहता है। अति महत्वाकांक्षा, वासनाएं ये सब लोभ के बायप्रॉडक्ट हैं। लोभ भविष्य पर निशाना रखता है।

कल जो आने वाला है उसके लिए लोभ मनुष्य को लगभग बीमार जैसा कर देता है लेकिन जीवन में जिसने सत्य जान लिया उसका भविष्य, आने वाला कल, संवर जाता है। दूसरा फल है, बंधन मुक्ति। सम्पत्ति और परिवार छोडऩे से बंधन मुक्ति नहीं आएगी। असल में एक सम्पत्ति हमारे भीतर है जो हमें जन्म से परमात्मा ने दी है। हम उसे भूल गए हैं।

यह वह दौलत है जो जन्म से पहले हमारे साथ भी और मृत्यु के बाद भी हमारे साथ रहेगी। यह हमारी निजी धरोहर है, रत्तीभर भी उधार नहीं। इसको कहते हैं जो हमारा अपना होना है हमारी आत्मा। तीसरा फल है भय मुक्त होना। बड़े-बड़े साधन होने के बाद भी आदमी भयभीत है। बड़ी सुरक्षा व्यवस्था है, बहुत धन है, बहुत बाहुबल है, बहुत लोग हैं साथ में उनके, इसके बाद भी आदमी भयभीत है। हमें निर्भय कोई नहीं कर सकता दुनिया में।

धन के साथ यदि सत्य है तो ही हम निर्भय हो सकेंगे। चौथा फल है वैकुण्ठ की प्राप्ति होना। वैकुण्ठ का अर्थ है जहाँ हम पूरी तरह परमात्मा को समर्पित हो गए। जिस क्षण स्वयं को उसे दे दिया बस वहीं वैकुण्ठ घट गया। उसकी परम निकटता का नाम वैकुण्ठ है। संसार में अर्थहीन अस्तित्व रहता है परन्तु भगवान के आते ही इसमें अर्थ आ जाता है और संसार यहीं अभी का अभी वैकुण्ठ में बदल जाता है। इसलिए जीवन के हर आचरण में सत्य बना रहना चाहिए।

एकाग्रता से मिलते हैं ये तीन फायदे...
दुनिया की लम्बी दौड़ में कई मोड़ ऐसे आते हैं जब न चाहते हुए भी हाफना पड़ जाता है। ऊर्जा के सांसारिक केन्द्र बहुत अधिक मदद नहीं कर पाते हैं। ऐसे समय आध्यात्मिक शक्ति अपने भीतर उत्पन्न करने की कला हमें सीख लेना चाहिए।

हमारे ऋषि-मुनियों ने एकाग्रता पर बहुत काम किया है। हर काम करते समय एकाग्रता का अभ्यास रखें। जब जो करें, जमकर करें। यह भी एकाग्रता है। एकाग्रता से तीन फायदे होते हैं। पहला- शक्ति उत्पन्न होती है, दूसरा- धैर्य जागता है और तीसरा- शक्ति और धैर्य के परिणाम में हम साहसी हो जाते हैं।

यह साहस ही हमें संसार की हर उपलब्धि को प्राप्त कराएगा तथा भगवान के निकट भी ले जाएगा। इतिहास गवाह है कि जो-जो लोग भी खूब सफल हुए हैं वे अपने कार्य के प्रति एकाग्र चित्त रहे हैं। एकाग्र चित्त होने का अभ्यास प्रतिदिन नियमित रूप से करना होगा। सीधा सा तरीका तो यह है कि कोई भी कार्य आरंभ करने के पहले अनर्गल विचार और गतिविधियों को विराम दें।

निश्चय करें कि जो भी कुछ करना है, सोचना है, मिलना-जुलना है वह किए जा रहे कार्य के बाद ही होगा। इस समय जो कर रहे हैं, बस वही करना है। यह दृढ़ता धीरे-धीरे एकाग्र चित्त बना देगी। हम जितने एकाग्र चित्त होंगे उतने ही जागे हुए रहेंगे। भगवान महावीर स्वामी ने जैन धर्म में एक सुंदर शब्द दिया है- असुत्ता मुनि और सुत्ता अमुनि।

इसका अर्थ है जो एकाग्र चित्त है वह जागा हुआ है और जो जाग कर जी रहा है उसे लोग संन्यासी कहेंगे, वर्ना सोया हुआ व्यक्ति संसारी है। असुत्ता मुनि मतलब जो सोया हुआ नहीं है और सुत्ता अमुनि मतलब जो सोते हुए चल रहा है, वह असाधु है। इसलिए खूब काम करें, पर होश में करें। इसी को जागते हुए करना कहते हैं।

धर्म में ये चार बातें हैं सबसे ज्यादा काम की
धर्म के मामले में चार बातें काम की हैं- सेवा, सत्य, परहित और अहिंसा। हमारे यहां एक प्यारा शब्द है धर्मभीरू, यानी धर्म से डरने वाला। धर्म सृष्टि को धारण करने वाला शाश्वत नियम है। केवल पूजा-पाठ को पूरी तरह से धर्म नहीं माना जा सकता। वह तो उपासना है।

मनु ने धर्म के 10 लक्षण बताए हैं- धैर्य, क्षमा, दम, दस्तेय, शौच, इंन्द्रिय निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध। इन नियमों की आवश्यकता तो हर वर्ग, हर जाति को पड़ेगी चाहे वह हिन्दू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो कि जैन हो। सीधी सी बात यह है कि मनुष्य को इन नियमों का पालन करना चाहिए। इन नियमों से डरना चाहिए, न कि धर्म से डरना चाहिए।

धर्मभीरू होने का अर्थ तो यही लगा लेते हैं कि धर्म से डरो, जबकि डरना धर्म के नियमों से चाहिए। ट्रेफिक पुलिस से नहीं, ट्रेफिक नियमों से डरना चाहिए। हम अपने कर्तव्य से एक अच्छी व्यवस्था को जन्म दें। यहीं से शुरू होता है सेवाधर्म। परमात्मा ने हर काम के लिए किसी न किसी को चुन रखा है, वैसे ही हम भी चुने गए हैं। चयन सृष्टि का आधारभूत नियम है। जाने-अनजाने हर कोई चुन रहा है।

प्रकृति भी चुपचाप चुनाव कर रही है। पेड़ को देखिए, फल गिरते हैं, उन फलों में कई बीज भी होते हैं, पर इन बीजों में से कोई एक वृक्ष बन पाता है। जड़ और चेतन सबमें चयन की प्रक्रिया चल रही है। राम ने अपने काम के लिए हनुमान को चुना, परमहंस ने नरेन्द्र को चुना, कहीं मालिक ने मोहम्मद को चुना, कहीं जीसस, कहीं बुद्ध, कहीं महावीर चुने गए हैं। ऐसे ही हम भी चयन किए गए हैं और यहीं से शुरू होता है हमारा सेवाधर्म। इसकी सबसे अच्छी शुरूआत हो सकती है जरा मुस्कराइए...।

रैकी'...सिर्फ छूने भर से छू मंतर हो जाते हैं कई रोग
दुनिया के पश्चिमी देशों ने भौतिक विज्ञान में अपना ध्यान लगाया और भौतिक रूप से विककित बन गए। जबकि भारत ने अध्यात्म के क्षेत्र में हजारों वर्षों तक गहन शोध किया और कई अद्भुत, चमत्कारी और आश्चर्यजनक उपलब्धियां हांसिल कीं। और आज तो दुनिया भी अध्यात्म को सुप्रीम सांइस यानी कि परम विज्ञान के रूप में मान रही है।

रेकी भी ऐसी ही एक चमत्कारी विद्या है जिसका आविष्कार भारत में ही हुआ है। हमारा देश आध्यात्मिक शक्तियों से संपन्न देश है। हजारों वर्ष पूर्व भारत में स्पर्श चिकित्सा का ज्ञान था। अथर्ववेद में इसके प्रमाण पाए गए हैं, किंतु गुरु-शिष्य परंपरा के कारण यह विद्या मौखिक रूप से ही रही। लिखित में यह विद्या न होने से धीरे-धीरे इस विद्या का लोप होता चला गया।

2500 वर्ष पहले भगवान बुद्ध ने ये विद्या अपने शिष्यों को सिखाई ताकि देशाटन के समय जंगलों में घूमते हुए उन्हें चिकित्सा सुविधा का अभाव न हो और वे अपना उपचार कर सकें। भगवान बुद्ध की 'कमल सूत्र' नामक किताब में इसका कुछ वर्णन है।

19वीं शताब्दी में जापान के डॉ. मिकाओ उसुई ने इस विद्या की पुन: खोज की और आज यह विद्या रेकी के रूप में पूरे विश्र्व में फैल गई है। डॉ. मिकाओ उसुई की इस चमत्कारिक खोज ने 'स्पर्श चिकित्सा' के रूप में संपूर्ण विश्व को चिकित्सा के क्षेत्र में एक नई दिशा प्रदान की है।

तो मिल जाएंगी चमत्कारी दिव्य शक्तियां
हमारा देश आध्यात्मिक शक्तियों से संपन्न देश है। हजारों वर्ष पूर्व भारत में स्पर्श चिकित्सा का ज्ञान था। अथर्ववेद में इसके प्रमाण पाए गए हैं, किंतु गुरु-शिष्य परंपरा के कारण यह विद्या मौखिक रूप से ही रही। लिखित में यह विद्या न होने से धीरे-धीरे इस विद्या का लोप होता चला गया। भारत में जन्मी इस अति प्राचीन स्पर्श चिकित्सा को ही वर्तमान समय में रेकी के नाम से जाना जाता है। इस अद्भुत विद्या के जरिये कोई भी शरीर और मन की समस्या से स्थाई रूप से निजात पा सकता है। आइये जानते हैं कि आप इस विद्या का इस्तेमाल कहां-कहां कर सकते हैं....

- यह शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक स्तरों को प्रभावित करती है

- शरीर की अवरुद्ध ऊर्जा को सुचारुता प्रदान करती है

- शरीर में व्याप्त नकारात्मक प्रवाह को दूर करती है

- अतीद्रिंय मानसिक शक्तियों को बढ़ाती है

- शरीर की रोगों से लडऩे वाली शक्ति को प्रभावी बनाती है

- ध्यान लगाने के लिए सहायक होती है

- समक्ष एवं परोक्ष उपचार करती है

- सजीव एवं निर्जीव सभी का उपचार करती है

- रोग का समूल उपचार करती है

- पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करती है


असंतुष्ट और अशांत दाम्पत्य में कैसे लाएं सुख?
इस समय दो तरह के दाम्पत्य चल रहे हैं। पहला अशांत दाम्पत्य और दूसरा असंतुष्ट दाम्पत्य। जो पति-पत्नी ना समझ हैं उनके उपद्रव, खुद उनके सामने और दुनिया के आगे जाहिर हो जाते हैं। वे अपनी अशांति पर आवरण नहीं ओढ़ा पाते।

दूसरे वर्ण का दाम्पत्य वह है जिसमें पति-पत्नी थोड़े समझदार या कहें चालाक हैं, लिहाजा इस अशांति को ढंक लेते हैं, उपद्रव को खिसका भर देते हैं। ऐसा दाम्पत्य असंतुष्ट दाम्पत्य है। फिर ये असंतोष स्त्री या पुरुष दोनों को ही अपने-अपने गलत मार्ग पर जाने के लिए प्रोत्साहित कर देता है। जिन्हें सचमुच घर बसाना हो वे चमड़ी की तरह एक बात अपने से चिपका लें और वह है प्रेम।

बिना प्रेम के परिवार चलाया जा सकता है, बसाया नहीं जा सकता। इस समय ज्यादातर लोगों की गृहस्थी शोषण और उत्पीडऩ पर चल रही है। पति-पत्नी में से जो ज्यादा चालाक है वह इसे व्यवस्थित ढंग से करता है और जो कम समझदार है वह अव्यवस्थित तरीके से निपटा रहा है। मूल कृत्य में कोई अंतर नहीं है। प्रेम यदि आधार बनेगा तो जो पक्ष अधिक बुद्धिमान, समझदार होगा वह अपने जीवनसाथी को भी वैसा बनाने का प्रेमपूर्ण कृत्य करेगा। यही आपसी मुकाबला न होकर समान होने के सद्प्रयास होंगे।

गुण, कर्म और स्वभाव की समानता से जोड़े बन जाएं यह किस्मत की बात है। वरना अपनी समूची सहनशक्ति, उदारभाव और माधुर्य को अपने जीवनसाथी के साथ संबंधों में झोंक दें और इसके लिए जो ताकत लगती है उसके शक्ति संचय के लिए ये नौ दिन काम आएंगे। नामभर नवरात्र है, पर इसमें गजब का उजाला है।

बिन बुलाई मेहमान होती हैं परेशानियां, इस तरह निपटें इनसे
परेशानियां सूचना देकर नहीं आती और न ही उनके पैर होते हैं, न ही उनको आने के लिए कोई वाहन पकडऩा पड़ता है। जीवन में वे कब प्रकट हो जाएं, पता नहीं चलता। जब बहुत सारी परेशानियां एकसाथ आ जाएं तो उसे संकट कहते हैं।

बाहर संकटों से लड़ते-लड़ते मनुष्य के भीतर पीड़ा का जन्म हो जाता है। हनुमानजी अपने भक्तों की इस स्थिति से परिचित हैं। इसलिए हनुमानचालीसा की ३६वीं चौपाई में लिखा है-

संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।

जो लोग हनुमानजी का स्मरण करते हैं उनके संकट दूर होते हैं, पीड़ा मिट जाती है। तुलसीदासजी ने संकट कटने और पीड़ा मिटने के साथ सुमिरन शब्द लिखा है। इसके पीछे अनोखा दर्शन है। ध्यान और सुमिरन के अंतर को समझा जाए। अधिकांश लोगों को ध्यान में सबसे बड़ी बाधा मन की रहती है। मन ध्यान को जमने नहीं देता।

संसार में एक बड़ा संकट है मन का अनियंत्रित होना तथा पीड़ा है उसका अत्यधिक गतिशील रहना। आरंभ करने के लिए ध्यान से सुमिरन आसान है। सुमिरन करते हुए हम मन की गतिविधि को देख सकते हैं। जब यह प्रक्रिया सध जाए, तो ध्यान लगाने में आसानी होगी। संकट और पीड़ा के समय व्यक्ति तुरंत निराकरण चाहता है। फटाफट और हड़बड़ाहट का अंतर समझते हुए समस्या का त्वरित हल निकालना भी श्रेष्ठ प्रबंधन का प्रमाण है।

कहा जाता है कि वायु की गति तेज होती है, उससे तेज ध्वनि की गति, उससे तेज प्रकाश की गति और इन सबसे तेज मन की गति होती है, किन्तु मन से भी अधिक तेज गति होती है प्रभु की कृपा की। और इस कृपा को प्राप्त करने का सबसे सरल माध्यम है सुमिरन। हमारे भीतर सुमिरन चल रहा है इसका प्रमाण देखना हो तो जरा मुस्कराइए...


ये है सारी समस्याओं का एकमात्र कारण...
जीवन में उत्थान और पतन चलता ही रहता है। भौतिक सफर में ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं, लेकिन आध्यात्मिक यात्रा में भी ऐसा हो जाता है और इसकी चिंता पालना चाहिए। कई बार पतन के बाद भी उत्थान का क्रम बन जाता है, लेकिन जीवन की कुछ स्थितियां ऐसी होती हैं कि पतन पर पहुंचकर आदमी उत्थान पर पहुंचना ही नहीं चाहता।

इसका उदाहरण है रावण। रावण एक ऐसा पात्र है जिसको कई बार अनेक पात्रों ने अपने-अपने स्तर पर समझाया था। हनुमानजी, अंगद, शूर्पणखा, मंदोदरी, मारीच जैसे लोगों ने उसे समझाया लेकिन उसे समझ में नहीं आया। मानस रोगों का वर्णन करते हुए लिखा गया है-

'मोह सकल व्याधिन कर मूला।'

मोह ही मूल है और रावण साक्षात मोह का प्रतीक है। मेघनाथ काम है और शूर्पणखा अंदर की वासना है। रावण को मेघनाथ और शूर्पणखा दोनों बहुत प्यारे थे। शूर्पणखा का अर्थ है जिसके नाखून बड़े हों। इंद्रियों में जो वासनाएं होती हैं उसकी तुलना नाखूनों से की जाती है।

यानी एक सीमा तक वासना ठीक है, उसके बाद नाखूनों को काट देना चाहिए। जो अपने नाखून नहीं काटेगा, समाज में उसका जीवन अमर्यादित हो जाएगा। कुछ लोगों का मानना है कि रावण ने कुछ गलत नहीं किया था। उसकी बहन की नाक काटे जाने पर उसने राम की पत्नी का हरण कर लिया। शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव रखा, इसमें क्या गलत था।

इस प्रसंग को लोग गहराइयों में नहीं देखते। शूर्पणखा ने पूरे समय झूठ बोला था, छल किया था। रावण ने शूर्पणखा यानी छल का पक्ष लिया। जो छल का पक्ष लेता है वह रावण के समान होता है और पतन में गिरने के बाद उत्थान की संभावना को रावण ने स्वयं नकार दिया था।

अगर आपके भीतर भय, घबराहट और भ्रम है तो यह करें
जब कभी आपके भीतर भय, घबराहट और भ्रम आने लगे तो गहराई में जाकर टटोलिए, इसके पीछे ईष्र्या की वृत्ति नजर आएगी। ईष्र्या हमारी सद्प्रवृत्तियों को धीरे-धीरे नुकसान पहुंचाने लगती है।

फिर यह हमारी क्रिया में उतरने लगती है और यहीं से हम गलत काम करने लग जाते हैं। हमारे भीतर ईष्र्या आते ही हम अपने आसपास कुछ जहरीली किरणें छोडऩे लगते हैं। लिहाजा जो हमारे संपर्क में आता है उसे महसूस होने लगता है और यदि वह सामान्य व्यक्ति है तो वह भी इस क्रिया की प्रतिक्रिया करेगा और संबंध खराब होना शुरू हो जाते हैं।

हमारी संस्कृति में ईष्र्या मिटाने का एक सरल तरीका बताया है थोड़े कोमल हो जाएं, विनम्र हो जाएं। जो जितना अधिक झुकेगा वह उतना अधिक ईष्र्या से मुक्त होगा। इसीलिए हमारे यहां झुककर नमस्कार करने की पद्धति चलाई है। प्रणाम तो झुककर किया ही जाता है पर हमारे ऋषिमुनियों ने नमस्कार में भी विनम्रता का भाव ला दिया।

फिर इसके भी आगे एक और कदम है और वह है होठों से प्रेमपूर्ण शब्दों का उपचारण करना। कोई जयरामजी की कहता है तो कोई जय मातादी बोलता है। होठ का संबंध हृदय से होता है। आप जैसे शब्द बोलेंगे वैसा स्पंदन हृदय में होने लगता है।

इसीलिए बार-बार कहा गया है उठते हुए, सोते वक्त, लोगों से मिलते समय कोई न कोई प्रभु स्मरण के शब्द बोले जाएं, क्योंकि होठ जब ऐसे शब्दों से जुड़ते हैं तो सीधा असर हृदय पर होता है। ऐसा हृदय ईष्र्या वृत्ति को अनुमति नहीं देता और आसपास का पूरा वातावरण महक जाता है। अत: सावधान रहें हर उन शब्दों के प्रति जो होठों से स्पर्श होते हैं।

तो इतना आसान लगेगा धर्म की राह पर चलना
हमारे देश में बात-बात पर धर्म की दुहाई दी जाती है। धर्म पर बात करना आसान है, धर्म को समझना सरल नहीं है, धर्म को समझ कर पचा लेना उससे भी अधिक मुश्किल है, लेकिन सबसे कठिन है धर्म में जी लेना। धर्म में जी लेना जितना कठिन है, जीने के बाद उतना ही आसान भी है। बिल्कुल इसी तरह है कि जब कोई पहली बार साइकिल सीखने जाता है।

तब उसे ऐसा लगता है कि दुनिया में इससे असंभव काम कोई नहीं, क्योंकि जैसे ही वह दोपहिया वाहन पर बैठता है, वह लडख़ड़ाता है, गिर जाता है। सीखने वाला आदमी जब दूसरे को साइकिल मस्ती में चलाते हुए देखता है तो उसे बड़ा अजीब लगता है। यह कैसे मुमकिन है मैं तो पूरे ध्यान से चला रहा हूं फिर भी गिर जाता हूं और वह बड़ी मस्ती में चला रहा है।

जब एक बार आदमी साइकिल चलाना सीख जाता है तो वह भी मस्ती से साइकिल चला लेता है। धर्म का मामला कुछ इसी तरह का है, जब तक उसे जिया न जाए यह बहुत खतरनाक, परेशानी में डालने वाला, लडख़ड़ाकर गिर जाने वाला लगता है। लेकिन एक बार यदि धर्म को हम जी लें तो फिर हम उस मस्त साइकिल सवार की तरह हैं जो अपनी मर्जी से लहराते हुए चलाता है, अपनी मर्जी से रोक लेता है, अपनी मर्जी से उतर जाता है और बिना लडख़ड़ाहट के चला लेता है।

जीवन में धर्म बेश कीमती हीरे की तरह है। जिसे हीरे का पता नहीं वो जिंदगीभर कंकर-पत्थर ही बीनेगा। पहले तो हमारी तैयारी यह हो कि हम जौहरी की तरह ऐसी नजर बना लें कि धर्म को हीरे की तरह तराश लें। वरना, हम हीरे को भी कंकर-पत्थर बनाकर छोड़ेंगे। धर्म को तराशने की एक क्रिया का नाम है जरा मुस्कराइए...।

हार-जीत की दुविधा से बचने का यह आसान तरीका है...
हार-जीत का खेल जीवन में बाहर ही नहीं चलता, बल्कि भीतर भी जय-पराजय के दृश्य देखने को मिल जाते हैं। बस, इसके लिए जरा बारीकी से अपने भीतर झांकना होगा। जैसे भीतर बुद्धि और हृदय में से कभी बुद्धि जीतती है, कभी हृदय हारता है।

कभी विचार विजयी हो जाते हैं, कभी भाव जीतने लगते हैं। जब जो वृत्ति जीतती है वैसी हमारी क्रिया होने लगती है। भारत के ऋषियों ने भीतर की इस हार-जीत को देखने के लिए सत्संग की बड़ी अद्भुत व्यवस्था की है। वे जानते थे कि मनुष्य स्वयं के भरोसे शायद भीतर न उतर पाए। इसलिए सत्संग एक सहारा बन जाता है।

सत्संग को केवल देखने-सुनने की घटना न मानें। जब आदमी सत्संग में उतरता है, किसी के विचारों को सुनता है और उसमें डूबने की कोशिश करता है तब यदि वह पुरुष है तो उसके भीतर का स्त्रैण चित्त जाग जाता है और बिना स्त्रैण चित्त जगाए आदमी भक्ति रस में डूब भी नहीं पाता। इसलिए महिलाएं सत्संग में बड़ी संख्या में होती हैं और लाभ भी अधिक उठा लेती हैं।

इसका ठीक उल्टा भी होता है। स्त्रैण चित्त में सत्संग से कुछ पुरुषत्व भी जागता है। सत्संग स्त्रियों का आत्मविश्वास लौटाता है। यही उनके पुरुष भाव जागने के संकेत हैं। पुरुष में 50 प्रतिशत स्त्री और स्त्री में 50 प्रतिशत पुरुष आते ही व्यक्तित्व संतुलित हो जाता है। ऐसे संतुलित व्यक्तित्व से जब सत्संग किया जाता है तो अपने आप जागरण की इच्छा जाग्रत होती है और यदि कोई ध्यान में उतर जाए तभी समझे कि सत्संग का पूरा लाभ उठाया गया है। सत्संग यदि गुरु का हो तो ध्यान घटने की संभावना और अधिक हो जाती है।

अगर जीवन में भरपूर सुख और मंगल चाहते हैं तो...
जीवन में मंगल और शुभ की तलाश सभी को रहती है। अमंगल को आमंत्रण कोई नहीं देना चाहता। हनुमान चालीसा के समापन पर तुलसीदासजी ने हनुमानजी को मंगल के रूप में याद किया है।

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।

हे पवनसुत! आप सारे संकटों को दूर करने वाले साक्षात् कल्याण स्वरूप हैं। आप भगवान श्रीराम, लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ मेरे हृदय में निवास करें। श्री हनुमान चालीसा का आरंभ 'श्रीगुरु चरन सरोज रज' से हुआ है और अंत 'हृदय' पर हुआ है।

गुरु के चरण-रज से मन को साफ करें, क्योंकि परमात्मा को बसाने के लिए एकमात्र स्थान है हृदय। हृदय से स्वभाव बनता है और मस्तिष्क से व्यवहार बनता है। बाहरी संसार मनुष्य के व्यवहार से संचालित होता है और भीतरी जगत् (आध्यात्मिक) मनुष्य के स्वभाव से नियंत्रित होता है। पहली श्रेणी में वे लोग होते हैं जो व्यवहार से स्वभाव को बनाते हैं। दूसरी श्रेणी में ऐसे लोग होते हैं जो स्वभाव से व्यवहार बनाते हैं। ज्ञान, कर्म, उपासना, अपनी नौकरी, व्यवसाय, समाज, परिवार में दोनों ही प्रकार के लोग अलग-अलग परिणाम देते हैं।

पहली श्रेणी के लोग कुशल होते हैं, किन्तु उनके कार्यकलाप कहीं न कहीं स्वार्थ से प्रेरित होंगे। दूसरी श्रेणी के लोग सर्वप्रिय रहेंगे और उनकी कार्यशैली में मूलरूप से ईमानदारी रहेगी। ऐसे लोग स्वयं का मंगल करेंगे तथा दूसरों का भी कल्याण करेंगे। इनका हर काम शुभ और जनहितकारी होगा। आप दूसरों के संकट तभी हर सकते हैं जब आपके भीतर शुभ करने की वृत्ति हो। इसलिए अपना स्वभाव साधें। इसके लिए एक काम जरूर करें जरा मुस्कराइए...।

अपने अहंकार को गिराने का एक तरीका यह भी है...
अहंकार बर्फ की चट्टान की तरह होता है। न पिघलाओ तो पत्थर जैसा कड़क रहेगा और हमें घायल भी करता रहेगा, लेकिन इस चट्टान में पिघलने की संभावा होती है, इसलिए कोई गर्मी तलाशना पड़ेगी। परमात्मा हमारे जीवन में सूरज की तरह है।

उनका प्रकाश, तेज, ओज हमारे व्यक्तित्व के लिए जितना जरूरी है उतना ही उसकी गर्मी अहंकार की चट्टान को पिघलाने के लिए आवश्यक है। हम जब संसार के कामकाज में व्यस्त होते हैं तो वहां हमारी अपनी पहचान बनाना जरूरी होती है। दुनिया में चारों तरफ प्रतिस्पर्धा है।

यदि स्वयं की रक्षा नहीं करेंगे तो दूसरे आपको पटकनी भी दे सकते हैं, पीछे भी छोड़ सकते हैं और नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। इसलिए अपनी पहचान, अपना अस्तित्व और अपना अहंकार आत्म-रक्षा का कवच भी बन जाता है।

कभी-कभी मैं को हथियार बनाना पड़ता है ताकि दूसरे आपको घायल न कर जाएं,आपका दुरूपयोग न कर जाएं, लेकिन इस 'मैं'को एक सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाएंगे मैं को गिराना पड़ेगा और रक्षा के दूसरे हथियार अपनाना पड़ेंगे। उनमें से एक है ईश्वर के प्रति श्रद्धा।

श्रद्धा का यह भाव अगले चरण में हमारे भीतर जाग जाना चाहिए। श्रद्धा पैदा करने के लिए सेवा के कार्य हाथ में लेते रहिए। ऐसा कहते हैं अहंकार गिराना हो तो संगठन से जुडऩे के प्रयोग करें। जब हम कुछ समूह में लोगों के साथ रहेंगे तब हमारे अहंकार की लगातार परीक्षा होती रहेगी। समूह में समानता का अधिकार, एक-दूसरे को सहयोग करना यह सब जरूरी होता है।

और यहीं से अहंकार गिरता है, सेवा जागती है और परमात्मा की ओर हम चलते हैं। इसलिए संसार के आरंभ में मैं जरूरी है और परमात्मा के आरंभ में मैं गैर जरूरी है।

हनुमान चालीसा को पढऩा ही जरूरी क्यों है?
पूजा-पाठ में अधिकांश लोग मंत्रों को, शब्दों को रट लेते हैं। यह सही है कि श्रद्धा से पढ़े हुए शब्द अपना असर करते हैं, लेकिन अर्थ समझकर दिल से यदि पंक्तियां बोली जाएंगी तो परिणाम और सुंदर होंगे। हनुमानचालीसा की ३९वीं चौपाई में तुलसीदासजी कहते हैं-

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा।

ऐसा नहीं लिखा है कि जो यह 'बोले', लिखा है 'पढ़े', क्योंकि पुस्तक खोलकर पढऩे का मतलब है कि नेत्रों से पढऩा ही पड़ेगा। तुलसीदासजी यहां ऐसा लिख सकते थे कि जो यह 'सुने' हनुमान चालीसा। ऐसा होता तो लोगों को और आराम मिल जाता। किसी को सामने बैठा लेते कि सुनाओ, पांच बार वो सुना देता, हम सुन लेते, लेकिन तुलसीदासजी ने स्पष्ट लिखा है जो यह 'पढ़ै' हनुमान चालीसा।

पढऩा खुद को पड़ता है, सुना कोई दूसरा भी सकता है। 'पढ़ै' शब्द का एक और गूढ़ अर्थ है। यदि हम जप भी करें तो हृदय की पुस्तक पर उस जप को पढ़ते रहें। कहने का मतलब यह है कि गाएं भी तो अंतर्मुखी होकर हृदय की पुस्तक पर पढ़कर गाएं। मन की पुस्तक खुली हुई है और हम उसे पढ़ रहे हैं, तो आनन्द अलग ही आएगा। इसलिए गोस्वामीजी ने कहा कि पढऩा ही पड़ेगा।

आगे वर्णन आया है 'होय सिद्धि साखी गौरीसा।' तुलसीदासजी ने प्रमाण दिया 'साखी गौरीसा।' गौरीसा का अर्थ है शंकर और पार्वतीजी। इनकी शपथ ली गई है। क्योंकि इन्हें श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक माना गया है। कहने का मतलब यह है कि श्री हनुमानचालीसा श्रद्धा और विश्वास के साक्ष्य में पढ़ी जाए। हमारे भीतर श्रद्धा और विश्वास है इसको प्रकट करने का एक सरल तरीका है जरा मुस्कराइए...।

अगर अपनी वाणी को बनाना है प्रभावशाली तो ये करें...
अध्यात्म में एक प्यारा शब्द है आत्मानुभव। यह एक स्थिति है। यहां पहुंचते ही मनुष्य में साधुता, सरलता, सहजता और समन्वय की खूबियां जाग जाती हैं। उपवास में बहुत से लोग मौन का प्रयोग करते हैं। आत्मानुभव के लिए मौन एक सरल सीढ़ी है।

भीतर घटा मौन बाहर वाणी के नियंत्रण के लिए बड़ा उपयोगी है। जैसे ही वाणी नियंत्रित होती है हम दूसरों के प्रति प्रतिकूल शब्द फेंकना बंद कर देते हैं। शब्द भी भीतर से उछाले लेते हैं और बाहर आकर निंदा के रूप में बिखरते हैं। ऐसे शब्दों का रूख अपनी ओर मोड़ दें, अपने ही विरोध में कहे गए शब्द आत्म विश्लेषण का मौका देंगे।

जितना सटीक आत्म विश्लेषण होगा उतना ही अच्छा आत्मानुभव रहेगा। मन को आत्म विश्लेषण करना ना पसंद है। इसलिए वह हमेशा अपने भीतर भीड़ भरे रखता है। विचारों की भीड़, मन को खूब प्रिय है। फिर विचारों की भीड़ तो इन्सानों की बेकाबू भीड़ से भी ज्यादा खतरनाक होती है।

ऐसा भीड़भरा मन मनुष्य के भीतर से तीन बातों को सोख लेता है- प्रेम, चेतना और जीवन को। प्रेमहीन व्यक्ति सिर्फ स्वार्थ और हिंसा के निकट ही जीएगा। चेतना को तो भीड़भरा मन जागृत ही नहीं होने देता। भीतर इतना शोर होता है कि इस विचार-भीड़ की चेतना की आवाज ही सुनाई नहीं देती। यहीं से एक बेहोश व्यक्ति जीवन चलाने लगता है।

हमें लगता है कि हम जिन्दा हैं, परन्तु दरअसल में हम तो बेहोशी में ही सारे काम कर रहे होते हैं। हमारा जीवन उस समय एक कृत्य न होकर धक्का भर है। होश में आने के लिए नवरात्रा से अच्छा समय फिर नहीं मिलेगा।

जीवन का सफर किसके भरोसे करें पूरा...
अपनी जीवन यात्रा अपने ही भरोसे पूरी की जाए। यदि सहारे की आवश्यकता पड़े तो परमात्मा का लिया जाए। सहयोग संसार से लिया जा सकता है, पर इसके भरोसे न रहें। संसार के भरोसे ही अपना काम चला लेंगे यह सोचना नासमझी है, लेकिन केवल अपने ही दम पर सारे काम निकाल लेंगे, यह सोच मूर्खता है।

इसलिए सहयोग सबका लेना है लेकिन अपनी मौलिकता को समाप्त नहीं करना है। इसके लिए अपने भीतर के साहस को लगातार बढ़ाते रहें। अपने जीवन का संचालन दूसरों के हाथ न सौंपें। हमारे ऋषिमुनियों ने एक बहुत अच्छी परंपरा सौंपी है और वह है ईश्वर का साकार रूप तथा निराकार स्वरूप। कुछ लोग साकार को मानते हैं।

उनके लिए मूर्ति जीवंत है और कुछ निराकार पर टिके हुए हैं। पर कुल मिलाकर दोनों ही अपने से अलग तथा ऊपर किसी और को महत्वपूर्ण मानकर स्वीकार जरूर कर रहे हैं। जो लोग परमात्मा को आकार मानते हैं, मूर्ति में सबकुछ देखते हैं वह भी धीरे-धीरे मूर्ति के भीतर उतरकर उसी निराकार को पकड़ लेते हैं जिसे कुछ लोग मूर्ति के बाहर ढूंढ रहे होते हैं। भगवान के ये दोनों स्वरूप हमारे लिए एक भरोसा बन जाते हैं।

वह दिख रहे हैं तो भी हैं और नहीं दिख रहे हैं तो भी हैं। यहीं से हमारा साहस अंगड़ाई लेने लगता है। जीवन में किसी भी रूप में परमात्मा की अनुभूति हमें कल्पनाओं के संसार से बाहर निकालती है। भगवान की यह अनुभूति यथार्थ का धरातल है। व्यर्थ के सपने बुनकर जो अनर्थ हम जीवन में कर लेते हैं, परमात्मा के ये रूप हमें इससे मुक्त कराते हैं। क्योंकि हर रूप के पीछे एक अवतार कथा है।

अवतार का जीवन हमारे लिए दर्पण बन जाता है। आइने में देखो, उस परमशक्ति पर भरोसा करो और यहीं से खुद का भरोसा मजबूत करो।

अगर मौत के भय से होना हो आजाद...
मनुष्य को मनुष्य बनाना एक कला है जिसे भारतीय संस्कृति ने बहुत सुंदर तरीके से सजाया है। जन्म होना और मृत्यु होना इसके बीच का जो जीवन है उसे संवारने की संभावना परमात्मा ने सबको समान दी है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं अपने-अपने तरीके से सब लोग शक्ति सम्पन्न होते जाते हैं, लेकिन कुछ बातें सबमें समान होती हैं।

इनमें से एक है भीतरी अशांति। सांसारिक रूप से समर्थ और असमर्थ दोनों ही तरह के लोग भीतर से समान रूप से अशांत पाए जाते हैं। इसलिए अध्यात्म की जरूरत जीवन में जरूरी हो जाती है। अपने भीतर उतरते ही आदमी एक ऐसे निराकार रूप से परिचित होता है जिसका नाम परमात्मा है। जो अपने भीतर के भगवान से परिचित हो जाता है उसके बाहर का मामला बदल जाता है और यहीं से मनुष्य, मनुष्य बनने लगता है।

कुछ लोग एक बार गुरुनानक को ढूंढ रहे थे। पता लगा वे मरघट की ओर गए हैं, सब चौंक गए। नानक जीते जी वहां क्यों गए? नानक का जवाब था जो मरघट पर जीते जी पहुंच गया, फिर वह कभी नहीं मरता। जिसे हमने संसार का घर-परिवार कहा है वह एक दिन मरकर रहेगा और जिसने मरघट पर जीना सीख लिया उसे कोई नहीं मार सकेगा।

नानक की बात आध्यात्मिक लगती है, पर शहीद भगतसिंह जैसे लोगों ने इसी आध्यात्मिक दर्शन को जीवन में क्या गजब उतारा है। कोई फांसी का फंदा भगतसिंह को नहीं मार सका। नानक की भाषा में भगतसिंह और उनके साथी तो पहले से ही मरघट पर पहुंच चुके थे और इसीलिए वे आज भी जीवित हैं। हम अपने भीतर उतरकर अपने परमात्मा से परिचित होते ही जीवन की बाहरी परिस्थितियों के नए अर्थ जान लेंगे।

थोड़ी देर ध्यान करें स्वयं का और ऐसे महान् लोगों का जो हमें मनुष्य का मनुष्य बनना सिखा गए।

इसलिए हनुमान भक्तों को नहीं सताते हैं शनि
किसी में विश्वास करने का मतलब यह नहीं होता कि दूसरे में अविश्वास करें या उनका अपमान करें। विश्वास करने का अर्थ है सबका सम्मान करें। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा की 35वीं चौपाई में समझाया है कि विश्वास का क्या अर्थ है।

और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।

हे हनुमानजी, आपकी इस महिमा को जान लेने के बाद लोग अन्य देवता को अपने चित्त में स्थान नहीं देंगे। केवल आपकी ही सेवा में सारे सुख मिल जाएंगे। 'और देवता' कहने का एक अन्य अर्थ भी है। 'और अधिक' देवताओं को चित्त में न रखें। जो भी आपके इष्ट हों उन्हें बनाए रखें, लेकिन दूसरों के इष्ट की आलोचना भी न करें।

इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि यदि हनुमानजी को आप पूजेंगे, तो अन्य देवता आपको परेशान नहीं करेंगे। जैसे होता है कि कभी हम सोचते हैं शनि महाराज नाराज हो जाएंगे। तो तुलसीदासजी यह आश्वासन दे रहे हैं कि चिंता न की जाए। जिन्हें ज्योतिष में विश्वास है, वे ग्रहों के रूप में शनि को अत्यधिक पीड़ादायक मानते हैं। यदि जातक की राशि में शनि का प्रवेश हो, तो हर संभव प्रयास किया जाता है कि उनके कोप से बचा जाए। एक बार गर्व में डूबे सूर्य पुत्र शनि ने श्रीराम के ध्यान में मग्न श्री हनुमान को बाधा पहुंचाई।

हनुमानजी ने शनिदेव को समझाया कि वे ध्यान कर रहे हैं, परेशान न करें। किन्तु, शनिदेव ने उन्हें बलपूर्वक युद्ध के लिए ललकारा। तब हनुमानजी ने अपनी पूंछ से शनिदेव को लपेटा और चारों ओर घुमाते हुए चट्टानों पर पटक-पटक कर लहूलुहान कर दिया। पीडि़त शनिदेव ने अपनी मुक्ति के लिए श्री हनुमानजी को यह वचन दिया कि 'मैं कभी आपके भक्त की राशि में प्रवेश नहीं करूंगा।' अपने घावों से परेशान होकर शनिदेव तेल-तेल का विलाप करने लगे। इसीलिए उन्हें तेल चढ़ाकर प्रसन्न किया जाता है।

असफलता से बचना है तो इस कमजोरी को दूर करें...
सफलता का श्रेय स्वयं लेना और असफलता का दोष दूसरे पर मढऩा मनुष्य की आदत बन जाता है। क्योंकि श्रेय अहंकार को तृप्त करता है और दूसरों को दोष देने में ईष्र्या वृत्ति को मजा आता है, लेकिन याद रखें कुछ समय बाद दोनों के ही परिणाम में मन अप्रसन्न हो जाता है।

इसलिए जब भी हम असफल हों दूसरों में कारण न ढूंढते हुए खुद के भीतर उतरकर अपनी ही कोई कमजोरी अवश्य पकड़ें। असफलता को जितना स्वयं की कमजोरी से जोड़ेंगे अगली बार की सफलता के लिए रास्ता आसान बना देंगे और जितना दूसरों से जोड़ेंगे पुन: असफल होने की तैयारी कर रहे होंगे।

जैसे अच्छा स्वास्थ्य और बीमारी दोनों को ही संक्रमण माना गया है। यानी यह दोनों ही अपने साथ वालों में जल्दी से प्रवेश कर जाते हैं।

संक्रमण का अर्थ है अज्ञात आक्रमण। असफल होने पर यदि आप स्वयं में कारण ढूंढ रहे होते हैं तो आप दु:ख की तरंगों से मुक्त रहते हैं क्योंकि भीतर आपको एक एकांत मिलता है और वह एकांत आपकी सांसों में भी शांति का स्वाद भर देता है। आपसे मिलने वाला व्यक्ति उसी सांस को बाहर से महसूस करता है और काफी हद तक पी भी लेता है।

यदि हमारी सांस में अहंकार का स्वाद है, अशांति का झोंका है तो हमसे मिलने वाले लोग इसी को चखेंगे और हो सकता है वे हमसे दूर जाने का प्रयास करें। इसे कहते हैं व्यक्तित्व की तरंग। किसी के भीतर से निकल रही तरंग हमको तरोताजा बना देती है और किसी के पास लौटने पर लगता है हमें पूरा निचोड़ लिया गया है। अत: सफलता और असफलता पर अपने भीतर से जुड़कर बाहर की तरंगों को इतना स्वस्थ रखें कि हमसे मिलने वाला हर व्यक्ति यह कहे कि इनके पास बैठकर अच्छा ही लगता है, हालात चाहे जैसे भी हों।

किसी के विचारों को बदलना है तो उन्हें प्रेम करना सिखाएं...
दूसरों को अपने साथ जोड़ा जा सकता है। बल्कि जीवन का लंबा समय उनके साथ बिताया भी जा सकता है, लेकिन जब उनके विचारों को परिवर्तन करने का अवसर आता है तो या तो मतभेद हो जाते हैं या आप इसमें असफल हो जाएंगे। यह मामला केवल बाहरी दुनिया का नहीं है।

परिवार में यदि माता-पिता अपने कुल की परंपरानुसार अच्छे विचारों को बच्चों में भी उतारना चाहते हैं तो यही परेशानी आती है। बच्चे आपका कहना मान लेंगे, आपके अनुसार दिनचर्या भी कर लेंगे, लेकिन विचार बदलने को तैयार नहीं होते।

किसी का दृष्टिकोण बदलना है तो प्रेम को जीवन में उतारना होगा। दबाव में आप किसी की जीवनशैली बदल सकते हैं, चिंतनशैली नहीं बदल सकते। इसके लिए प्रेम की ही जरूरत पड़ेगी। अपने प्रेम को इतना विस्तार दिया जाए, बढ़ाया जाए कि फिर उसमें अपनेआप अहंकार गलने लगता है।

जैसे ही प्रेम में से अहंकार गया, भक्ति का प्रवेश शुरू हो जाता है। प्रेम जैस-जैसे ऊंचा उठेगा, भक्ति का रूप लेता जाएगा। इसलिए परिवारों में बच्चों को भक्ति करना सिखाएं। आप उन्हें जो भी बनाना चाहें जरूर बनाएं, पर भक्त वे बनें ऐसा अवश्य करें। भक्त देना जानता है, लेना नहीं जानता। जैसे प्रेम मांगने लग जाए तो वासना हो जाती है।

इसी तरह भक्ति यदि मांगने लग जाए तो मात्र कर्मकाण्ड बन जाएगी। भक्ति जितनी जागेगी, परमात्मा पर भरोसा उतना बढ़ेगा। इसीलिए भक्तों के पास जाकर लोग आसानी से अपने विचार बदल लेते हैं और सद्विचार यदि सुपात्र में उतर जाएं तो ऐसे लोग परिवार, समाज और राष्ट्र को हित ही पहुंचाएंगे। भक्ति जगाने के लिए एक सरल तरीका है जरा मुस्कराइए...

तब यह दुनिया सबसे मुश्किल काम लगता है...
हमारे देश में बात-बात पर धर्म की दुहाई दी जाती है। धर्म पर बात करना आसान है, धर्म को समझना सरल नहीं है, धर्म को समझ कर पचा लेना उससे भी अधिक मुश्किल है, लेकिन सबसे कठिन है धर्म में जी लेना।

धर्म में जी लेना जितना कठिन है, जीने के बाद उतना ही आसान भी है। बिल्कुल इसी तरह है कि जब कोई पहली बार साइकिल सीखने जाता है तब उसे ऐसा लगता है कि दुनिया में इससे असंभव काम कोई नहीं, क्योंकि जैसे ही वह दोपहिया वाहन पर बैठता है, वह लडख़ड़ाता है, गिर जाता है।

सीखने वाला आदमी जब दूसरे को साइकिल मस्ती में चलाते हुए देखता है तो उसे बड़ा अजीब लगता है। यह कैसे मुमकिन है मैं तो पूरे ध्यान से चला रहा हूं फिर भी गिर जाता हूं और वह बड़ी मस्ती में चला रहा है। जब एक बार आदमी साइकिल चलाना सीख जाता है तो वह भी मस्ती से साइकिल चला लेता है।

धर्म का मामला कुछ इसी तरह का है, जब तक उसे जिया न जाए यह बहुत खतरनाक, परेशानी में डालने वाला, लडख़ड़ाकर गिर जाने वाला लगता है। लेकिन एक बार यदि धर्म को हम जी लें तो फिर हम उस मस्त साइकिल सवार की तरह हैं जो अपनी मर्जी से लहराते हुए चलाता है, अपनी मर्जी से रोक लेता है, अपनी मर्जी से उतर जाता है और बिना लडख़ड़ाहट के चला लेता है। जीवन में धर्म बेश कीमती हीरे की तरह है। जिसे हीरे का पता नहीं वो जिंदगीभर कंकर-पत्थर ही बीनेगा।

पहले तो हमारी तैयारी यह हो कि हम जौहरी की तरह ऐसी नजर बना लें कि धर्म को हीरे की तरह तराश लें। वरना, हम हीरे को भी कंकर-पत्थर बनाकर छोड़ेंगे। धर्म को तराशने की एक क्रिया का नाम है जरा मुस्कराइए...।

सच को समझने के लिए यह जरूरी है...
हमारी समझ में जो बात आती है ज्यादातर मौकों पर हम उसे सही और सत्य मान लेते हैं। जो बात हमारी समझ से बाहर है या तो हम उसे गलत साबित कर देते हैं या नकार देते हैं। हमारी बुद्धि के विपरीत जो भी दिखता है उसे हम इसलिए खारिज कर देते हैं कि हम अपनी बुद्धि को सही मानते हैं।

पढ़ाई-लिखाई के इस युग में ज्यादातर लोग यह मान लेते हैं कि सत्य मेरी ही समझ पर समाप्त होता है। इससे आगे सब कुछ असत्य है और बेकार है। इसीलिए उलझनें समाप्त नहीं होती। जिस समय हम यह मानते हैं कि मेरी समझ से परे भी सत्य हो सकता है, वहीं से सत्य मिलने की संभावना बढ़ जाती है।

जो लोग सचमुच सत्य को प्राप्त करना चाहते हों उन्हें लगातार वर्तमान पर टिकने की आदत बनाना होगी। ईश्वर को जानते, पहचानते जो काम किए जाएंगे वे सत्य के निकट होंगे। अतीत पर टिककर हम भगवान को भूल जाते हैं और अत्यधिक भविष्य में खोकर भी हम परमात्मा को याद नहीं रख सकते, क्योंकि इन दोनों स्थिति में हमारा 'मैं' सक्रिय रहता है।

वर्तमान एक ऐसी स्थिति होती है जहां 'मैं' कमजोर पड़ता है और वहीं से भगवान का प्रवेश सरल हो जाता है। बीता हुआ कल और आने वाला कल हमें जानकारियों से भर देगा, पर वर्तमान हमें अनुभव से जोड़ता है। इस समय हम जानकारियों का ढेर बन गए हैं, जबकि हमें अनुभव की बहती हुई नदी बनना है। वर्तमान में टिकने का एक बड़ा फायदा यह होता है कि हमारी ऊर्जा जबर्दस्त रूप से संगठित होकर अपने लक्ष्य से जुड़ जाती है।

हम अपने काम में डूबकर ध्यानस्थ स्थिति पर चले जाते हैं। कार्य का परफेक्शन इसे ही कहते हैं। वर्तमान हमें तन्मय बनाता है और अपने काम में डूबा हुआ, तन्मय व्यक्ति अतीत का अधिक लाभ उठाएगा और भविष्य का सही उपयोग कर जाएगा।

खुश रहने के हैं इतने तरीके...
खुश रहने के कई तरीके हैं। सांसारिक माध्यम से जब हम खुश रहते हैं तो एक दिक्कत आती है वह माध्यम खत्म हुआ और हम पुन: दु:खी हो जाते हैं। क्लब गए, टीवी देखी, खेल खेला उनसे दूर हटे और हम वापस अशांत हुए। कुछ स्थाई इलाज ढूंढना होंगे। अपनी निजी और आंतरिक वृत्तियों में इसके सहारे ढूंढे जाएं।

यदि स्थाई प्रसन्न रहना है तो अपने आंतरिक सुख को पकड़ें। जो लोग भी इस संसार में स्थाई रूप से प्रसन्न रहे हैं उन्होंने अपने अकेलेपन को ठीक से समझा है और उसका एक बड़ा लाभ यह उठाया है कि उस अकेलेपन के दौरान अपनी भीतरी शक्तियों को विकसित कर लिया, क्योंकि ऐसा करने के लिए थोड़ा संसार से कटना जरूरी हो जाता है। भीतरी सुख थोड़ा सहज होता है, लेकिन सांसारिक सुख में एक उत्तेजना होती है।

मजेदार बात यह है इस संसार का दु:ख भी उत्तेजित करता है और सुख भी, लेकिन इन दोनों को जब अपनी भीतरी शक्तियों से जोड़ दें तो भीतर न सुख होता है न दु:ख और इन दोनों के पार की स्थिति है शांति। परमात्मा ने हर व्यक्ति की समझदारी का एक आंतरिक तल तय कर दिया है।

आप जितनी जल्दी उस तल तक पहुंच जाएंगे उतने ही शीघ्र शांत हो सकेंगे। इस तल पर कोई उत्तेजना नहीं होती। यहां सबकुछ ठहरा हुआ रहता है। आप सुख और दु:ख दोनों को भोग रहे होते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं रहते। बाहर अनेक लोगों से घिरे हुए रहने के बाद भी भीतर बिल्कुल एकांत घट रहा होता है। ऐसी शांति सुगंध बनकर आपके व्यक्तित्व से झरती है और उस घेरे में आने वाले अन्य व्यक्तियों को वह महसूस भी होती है।

भगवान को पाना है तो ऐसे करें भक्ति...
भगवान को पाने के लिए भक्ति करना पड़ती है। यह एक सामान्य विचार है। अधिकांश लोगों का मकसद भी यही होता है कि भगवान मिल जाए। संत-महात्माओं से कई लोग यही प्रश्र पूछते हैं क्या आपने कभी भगवान को देखा है?

कई लोग तो अपनी जिंदगी ऐसे व्यक्तियों की तलाश में गुजार देते हैं जिन्हें कभी भगवान मिला हो। दरअसल भगवान को पाना और भक्ति करना दो अलग-अलग बातें हैं। यदि किसी की दृष्टि चली जाए और वह अंधा हो जाए तब उसे प्रकाश की जगह आंख खोजना चाहिए। भक्ति एक तरह की आंख है जिससे भगवान देखा जा सकता है।

भक्ति करने का अर्थ है अपनी आंख को खोजना। जो अंधे लोग सीधे प्रकाश खोजने के चक्कर में रहेंगे उन्हें जीवनभर अंधकार ही हाथ लगेगा। पहले आंख खोजी जाए। देखा गया है कि जिन्होंने सीधे भगवान को खोजने की कोशिश की उन्होंने जीवनभर कर्मकाण्ड ही किया और इसमें निराशा हाथ लग जाती है। केवल कर्मकाण्ड का अर्थ है एक चौराहे पर ही चक्कर काटना।

इसीलिए केवल पूजा करने वाले लोग उदास और खिन्न भी पाए जाते हैं। अब पूजा को भक्ति में बदलना होगा। भक्ति जीवन में आते ही भीतर से रूपांतरण होना आरंभ हो जाता है। फिर भगवान दिखना और मिलना सुनिश्चित है। तो महत्वपूर्ण यह है कि जीवन में भक्ति को लाया जाए। कर्मकाण्ड इसका आरंभ हो सकता है। कर्मकाण्ड करते हुए अपने भीतर के प्रेम को धीरे-धीरे बढ़ाएं।

जितना प्रेम बढ़ेगा, कर्मकाण्ड के भक्ति में बदलने की संभावना भी उतनी ही बढ़ जाएगी। क्योंकि प्रेम की अधिकता में अहंकार को गलना पड़ता है। क्रिया निरहंकारी होते ही भक्ति बन जाती है और भक्ति की आंख से परमात्मा को दिखना ही पड़ता है।

अपनी आमदानी का उपयोग ऐसे करें...
अपने लिए तो सभी कमाते हैं, पर हमारी कुछ कमाई ऐसी होना चाहिए जो सेवा के रूप में बदल सके। आजकल सेवा भी हथियार बना ली गई है। धंधा बना ली गई थी यहां तक तो ठीक था, लेकिन अब शस्त्र के रूप में सेवा और खतरनाक हो जाती है।

जो दुनियादारी के सेवक हैं, यह अक्सर ऐसे ही काम करते हैं। कोई सेवक कहता है कि मैं हिन्दू धर्म को संगठित करना चाहता हूं। कोई कह रहा है मैं इस्लाम की सेवा करना चाहता हूं। कोई ईसा की सेवा में घूम रहा है। नेता कह रहे हैं कि हम देश की सेवा कर रहे हैं। यह सब समाजसेवा तो हो सकती है, लेकिन इससे भीतर परमात्मा पैदा नहीं होता।

जब चित्त में ईश्वर या कोई परम शक्ति होती है तो सेवा का रूप बदल जाता है। हिन्दू धर्म के साधु-संतों की, इस्लाम के ठेकेदारों की, क्रिश्चनिटी के पादरियों की और हमारे राष्ट्र के नेताओं की सेवा के ऐसे परिणाम नहीं आते, जैसे आज धर्म के नाम पर मिल रहे हैं। इसलिए सेवा के ईश्वर वाले स्वरूप को समझना होगा। अभी सेवा चित्त के आनंद से वंचित है। परमात्मा का एक स्वरूप है सत्य।

ईमानदारी से देखा जाए तो चाहे धर्म हो या राजधर्म, जो लोग सेवा का दावा कर रहे हैं उनके भीतर से सत्य गायब है। धर्म का चोला ओढ़ लें यहां तक तो ठीक है, अब तो लोगों ने भगवान का ही चोला ओढ़ लिया है। वेष के भीतर से जब विचार समाज में फिंकता है तो लोग सिर्फ झेलने का काम करते हैं। वे यह समझ नहीं पाते कि सत्य कहां है। इसलिए दूसरे जो कर रहे हैं उनसे सावधान रहें और हमें जो करना है उसके प्रति ईमानदार रहें। लगातार प्रयास करें कि भीतर परमात्मा जागे और तब बाहर हमारे हाथ से सेवा के कर्म हों।

इस तरह भूला सकते हैं दर्दभरी यादों को...
पीड़ा दायक स्मृतियों को भुला देना ही बुद्धिमानी है और अच्छी बातों को याद रखना समझदारी है, लेकिन यदि अच्छी बातें सही समय पर आचरण में न उतारी गईं तो ये भी बोझ बन जाएंगी। कुछ घटनाएं जीवन में ऐसी होती रहती हैं कि जिन्हें यदि नहीं भुलाया गया तो वे मानसिक उधेड़बुन में हमको पटक देती हैं।

एक घटना फिर कई विपरीत घटनाओं को जन्म देने वाली बन जाती है। इसलिए अप्रिय प्रसंगों को तत्काल विस्मृत करें। इनको सतत् याद रखने का नाम है चिंता। चिंता करने वाला आदमी कुछ समय बाद अवसाद में जरूर डूबेगा। प्रिय और अच्छी स्थितियां सद्पयोग के लिए होती हैं। अपने शुभ कर्मों को एक जगह अपनी स्मृति में स्टॉक की तरह रखना चाहिए और उनका उपयोग भविष्य में करते रहना चाहिए।

चार तरीके से अपने शुभ कर्मों को दूसरों के प्रति उपयोग करें। पहला, अपने से छोटी उम्र के लोगों से अपने शुभ कर्म जोड़ें इससे स्नेह बढ़ेगा। अपने समान व्यक्ति जैसे- दोस्त, पति-पत्नी से शुभकर्म जुड़कर प्रेम का रूप ले लेते हैं। तीसरा तरीका है अपने से जो बड़े हैं यानी माता-पिता, गुरु, समाज के वृद्धजन इनके प्रति जुड़े हुए शुभकर्म श्रद्धा का रूप ले लेते हैं।

जैसे ही हमारे शुभकर्म चौथे चरण में परमात्मा के प्रति जुड़ते हैं, बस फिर इसे भक्ति कहा जाएगा। इसलिए अशुभ, अप्रिय और अनुचित घटे हुए को विस्मृत करें, भूल जाएं तथा शुभ को याद रखते हुए उनका इन चार चरणों में सद्पयोग करें। इसका सीधा असर आपके स्वास्थ्य पर पड़ेगा। क्या भूलना है और क्या याद रखना यह अपनेआप में एक इलाज है। आप चिंतामुक्त हुए और आपके कर्मों ने सफलता की यात्रा आरंभ कर दी। ऐसा मानकर चलिए और आरंभ करिए, जरा मुस्कराइए...

प्रेम का ढ़ाई अक्षर बनाता है पंडित, मगर कैसे?
एक तरफ तो हम देखते हैं कि प्यार-मोहब्बत को लेकर आए दिन समाज में झगड़ा, विवाद और बखेड़ा होता रहता है। प्यार करने वाले युवाओं को आवारा, अनैतिक और अमर्यादित मानकर समाज में दुत्कारा जाता है। जबकि ऐसा भी देखने को मिलता है कि कई धार्मिक पुस्तकों और संत-महात्माओं के वचनों में प्रेम को बड़ा ही ऊंचा दर्जा दिया गया है। यहां तक कि प्रेम को ईश्वर प्राप्ति का एक सरल और श्रेष्ठ उपाय बताया गया है। आइये जानते हैं कि प्रेम यानी प्यार के विषय में ऐसी दो तरह की बातें क्यों देखने को मिलती हैं...

प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है। प्रेम कोरा शब्द नहीं अनुभूति का नाम है, वो भी दुनिया की सर्वोत्तम अनुभूति का। भारत में तो प्रेम को ही सर्वश्रेष्ठ विद्या यानी परम ज्ञान माना गया है। कबीर कहते हैं कि जिसने सबसे प्रेम करना सीख लिया वही पंडित है। सबके साथ अनुराग, सबके साथ प्रेम तभी संभव है जब या तो सबमें ईश्वर नजर आने लगे।

सबमें ईश्वर है। सब उसी के अंश हैं। फिर घृणा क्यों और किससे? इसलिए दुनिया में अगर कुछ करने लायक कुछ है तो वह है सिर्फ और सिर्फ प्रेम और कुछ भी नहीं। लेकिन ऐसा तभी संभव है जब कोई व्यक्ति ईश्वर में स्थित हो जाए। फिर तो जित देखूं तित तूं, यानी जहां देखूं वहां बस तू ही तू जैसी अवस्था हो जाती है। ऐसा व्यक्ति किसी पर नाराज नहीं हो सकता, कुपित नहीं हो सकता, क्रोधित नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति इस दुनिया में सिर्फ एक ही काम कर सकता है और वह है प्रेम।

यह जीवन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है...
गुरु का जीवन में आना समझ लें सबसे बड़ी उपलब्धि है। हम भौतिक मार्ग पर चल रहे हों या आध्यात्मिक जीवन जी रहे हों, गुरु का मार्गदर्शन दोनों ही स्थिति में जरूरी है। गुरु और जल एक जैसे होते हैं। जिस प्रकार जल का महत्व यह है कि वो सबमें मिलकर उसका मान, स्वाद, रूप बढ़ा देता है। बिना जल के जीवन, जीवन ही नहीं रह जाता। ऐसे ही गुरु का महत्व है।

हनुमानचालीसा की ३७वीं चौपाई में तुलसीदासजी ने गुरु को याद किया है। जै जै जै हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरु देव की नाईं।। हे हनुमानजी! तीनों काल (भूत, भविष्य, वर्तमान) में आपकी जय हो। आप मेरे स्वामी हैं, श्री गुरु देव की तरह मुझ पर कृपा करिए। तीन बार जै जै जै कहा है, यानी तीनों काल में कृपा करें। इस चौपाई में 'गोसाईं' शब्द का प्रयोग किया है। 'गो' का मतलब इंद्रियाँ और 'साईं' का मतलब उसके मालिक। जो अपनी इन्द्रियों के स्वामी हैं वे हनुमान हैं, जिसके वश में अपनी इन्द्रियां हैं, वे हनुमान हैं। आगे लिखा है, कृपा करहु गुरुदेव की नाईं। हे हनुमानजी! आप मुझ पर गुरुदेव की तरह कृपा करें। मेरी रक्षा गुरु बनकर करें।

देखिए, गुरु बनाना आजकल बहुत समस्या का काम हो गया है। किसे गुरु बनाएं? फिर ठीक गुरु मिले न मिले। गुरु के मामले में हमारी निष्ठा दांवा-डोल होती रहती है। लेकिन यह सत्य है कि दुनिया में कृपा यदि कोई कर सकता है तो गुरु कर सकता है। भगवान एक बार नाराज हो जाएं, लेकिन गुरु कभी नाराज नहीं होते। गोस्वामीजी ने कहा- 'कोई चिन्ता की बात नहीं है। न गुरु मिले तो न सही।' उन्होंने तो घोषणा कर दी- 'कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।और कोई गुरु न मिले, तो हनुमानजी को ही गुरु बनाएं। इनसे अधिक कृपालु गुरु हमारे और कौन हो सकते हैं। सम्पूर्ण श्रीहनुमानचालीसा हमारी गुरु है और जो जीवन में गुरु को महत्व देना चाहते हैं उन्हें जल को भी उतना ही महत्व देना चाहिए। गुरु जीवन बनाएंगे, जल जीवन बचाएगा।

यहां आत्महत्या करना असंभव है!! क्योंकि...
योग में रुचि रखने वालों को यह बात अच्छी तरह से ज्ञात होगी कि योग की दुनिया को सम्पन्न बनाने में जितना योगदान महर्षि पतंजलि का है उतनी ही भूमिका नाथ संप्रदाय के अग्रणी गोरखनाथ जी की भी है। योग और साधना के विभिन्न आयामों के क्षेत्र में गोरखनाथ ने जितना योगदान दिया है उतना सायद ही किसी दूसरे परवर्ती योगी या साधक ने दिया हो। अष्टांग योग से लेकर हठयोग तक योग के हर छोटे बड़े पहलुओं पर गोरखनाथ जी ने भरपूर प्रकाश डाला है। उनकी गोरखवाणी में योग के ऐसे-ऐसे कीमती सूत्र भरे पड़े हैं जिनपर चलकर कोई भी सच्चा साधक नर से नारायण बन सकता है।

एक बार की घटना है कि गोरखनाथ जी के पास एक व्यक्ति आया और आकर अपने जीवन की कठिनाइयों और दुखों का वर्णन करने लगा। उसने कहा कि वह अपने जीवन से इतना दुखी और त्रस्त हो चुका है कि सिवाय आत्महत्या करने के अलावा उसके पास दूसरा कोई रास्ता ही नहीं बचा है।

गोरखनाथ जी पहले तो थोड़ा मुस्कुराए और फिर गंभीर होकर बोले जिस काम को करने का तुम कह रहे हो वह किसी के भी द्वारा संभव नहीं है। जिन परेशानियों से भागकर तुम मृत्यु को गले लगाने की सोच रहे हो वे तो मौत के बाद भी तुम्हारे साथ ही बनी रहेंगी। तुम आत्महत्या कर ही कैसे सकते हो? तुम तो सिर्फ अपने कीमती और बेकसूर शरीर को खत्म कर सकते हो जिससे कि कुछ होने वाला नहीं है। तुम अपनी जिंदगी का सफर जंहा से अधूरा छोड़ोगे तुम्हारी आत्मा को फिर से नया शरीर धारण करके फिर वहीं से सफर का प्रारंभ करना पड़ेगा। इसलिये आत्महत्या करने की इस मूर्खतापूर्ण इच्छा को तत्काल त्याग दो, क्योंकि यहां इस संसार में कोई भी आत्महत्या कर ही नहीं सकता। हां अपने कीमती शरीर को नष्ट करने की मूर्खता अवश्य कर सकता है।


दुनियादारी के साथ एक काम ये भी जरूर करें...
संसारभर के काम करते हुए एक इरादा और रखें कि हम ईश्वर को प्यारे लगने वाले काम भी करते रहें। कबीर कह गए हैं- 'तेरा जन एकाध है कोई' करोड़ों-करोड़ों लोग हैं दुनिया में। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च हैं। कई लोग पूजा-अर्चना कर रहे हैं, लेकिन परमात्मा यदि सवाल पूछे तो कुछ ही लोगों के लिए यह जवाब आएगा कि 'तेरा जन एकाध है कोई'। उस मालिक का कोई एक हो पाएगा और वह वो होगा जो उस चयन के दायित्व को पूरा कर सकेगा, जिसके लिए मालिक ने उसे चुना है। दुनिया का मार्ग बड़ा कांटों से भरा हुआ है।

बहुत प्रलोभन है मार्ग में। जगह-जगह रुकने की संभावना है। एक-एक कदम उठाना श्रम मांगता है। भक्ति ऐसे ही दुर्गम मार्ग पर चलकर की जा सकती है। जो भक्ति सही स्वरूप में कर जाएगा वह निजी और सांसारिक दोनों जीवन में सफल हो जाएगा। भीड़ में सिर्फ एक चेहरा होना तो बहुत आसान है, लेकिन भीड़ का सामना करना बहुत मुश्किल काम है।

भक्त जब सेवा करता है तो उसकी सेवा के अर्थ बदल जाते हैं। जरूरी नहीं है कि सेवा हमेशा धर्म बन जाए। धार्मिक व्यक्ति में सेवा हो सकती है, लेकिन सेवक धार्मिक होगा इसमें थोड़ा अंतर है। जो लोग सेवा करने निकले हैं उनकी जिंदगी में भक्ति आ जाएगी यह बिल्कुल जरूरी नहीं है। हां, लेकिन जिस व्यक्ति के चित्त भक्तिमय है, उसकी जिंदगी में सेवा अवश्य हो सकती है।

जिस व्यक्ति का चित्त शांत हो गया, आनंदित हो गया, भक्ति से परिपूर्ण हो गया, उसकी सारी जिंदगी सेवा बन जाती है। लेकिन अगर कोई यह सोचे कि मैं सेवा करने निकला हूं तो मेरा चित्त आनंदित हो जाएगा और भक्ति से भर जाएगा तो ऐसा जरूरी नहीं है, बल्कि ऐसी सेवा अहंकार को पोषित कर देगी।

हनुमान चालीसा सिखाती है भक्ति का सही तरीका
भक्ति में हृदय की प्रमुखता होती है। बुद्धि से भक्ति करने में बाधा आएगी। प्रेम का स्थान हृदय है। हनुमानचालीसा की अंतिम चौपाई में तुलसीदासजी ने भगवान से निवेदन किया है हमारे हृदय में विराजिए। हनुमानचालीसा मन से आरंभ हुई थी। पहले ही दोहे में

श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।

यहां निज मनु का अर्थ है कि मन रूपी दर्पण को गुरु के चरणों की धूल से साफ किया जाता है। तो मन को लगातार साफ, शुद्ध करें और हृदय में परमात्मा के लिए स्थान बनाएं। मन और हृदय के बीच में हनुमानचालीसा ने प्रवाह लिया है। 40वीं चौपाई में लिखा गया है-

तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।।

हे हनुमानजी! यह तुलसीदास सदा सर्वदा के लिए श्रीराम (हरि) का सेवक है। ऐसा समझ कर आप उसके (तुलसीदास) के हृदय में निवास करिए। इस अंतिम चौपाई में 'नाथ' शब्द का प्रयोग किया है, 'कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।' नाथ इसलिए कहा कि यदि हमको लगे कि हम अनाथ हैं, तो फिर हमारे भीतर बाबा हनुमंतलालजी की कृपा का अनुभव करें, हम अनाथ नहीं रहेंगे।

तुलसीदासजी तो अनाथ थे ही। इसलिए अंत में उन्होंने अपने प्रभु को नाथ संबोधन से याद किया। आगे 'डेरा' शब्द का प्रयोग किया है। गोस्वामीजी ने स्पष्ट मांग की है कि- हे हनुमानजी! अकेले मत आना, पूरा डेरा- डण्डा लेकर आना। डेरा-डण्डा से मतलब है कि आप तो आएंगे ही साथ में रामजी, सीताजी, लक्ष्मणजी पूरा डेरा लेकर आना।

भक्त का हृदय भगवान का कैम्प होता है। डेरे में जब सब होते हैं, तब जाकर फिर डेरा पूरा लगता है और लगता तो कोई एक दिन में नहीं उठता। इसलिए कहा है कि महाराज डेरा लेकर आना।

नुकसान के साथ ही कभी-कभी फायदा भी देता है शक
कहते हैं शंका करके काम करने से नुकसान और फायदा दोनों होता है। फायदा यह होता है कि हम धोखा खाने से बच जाते हैं, क्योंकि शंका एक तरह की सावधानी बन जाती है। नुकसान यह होता है कि शंका की वृत्ति यदि लंबे समय कायम रह जाए तो हर एक पर अविश्वास करने की आदत बन जाती है।

धीरे-धीरे आदमी खुद पर भी विश्वास करना बंद कर देता है और यहीं से वह सारे हानि-लाभ दूसरों में, अपने से बाहर देखने लगता है। कुछ लोग जब गुरु बनाते हैं, कोई विशेष भक्ति का मार्ग चुनते हैं, ध्यान के क्षेत्र में उतरते हैं और कुछ समय बाद उन्हें वैसा लाभ नहीं मिलता जैसा वे चाहते हैं तो वे इन विधियों को बदलते हैं, गुरु बदल देते हैं और तो और धर्म बदल देते हैं।

शायद फिर भी उन्हें लाभ नहीं मिलता। आदमी खुद को नहीं बदलता। कारण वही है लगातार शंका और अविश्वास की आदत बन जाना। खुद को बदलने के लिए एक आसान उपाय है अपने भीतर आस्था का जन्म देना। किसी धर्म, गुरु, व्यवस्था में जैसे-जैसे हम आस्था बढ़ाएंगे, स्वयं पर विश्वास भी बढऩे लगेगा। आस्थावान लोगों की देखने की क्षमता बढऩे लगती है।

वे हर बात को अलग निगाह से देखते हैं, जिसको कहते हैं पॉजिटिव एटीट्यूट। आस्था हमें थोड़ा भीतर ले जाती है। हम व्यक्ति या वस्तुओं को बहिर्मुखी होकर नहीं देखते। आस्था हमें भीतर से जोड़ती है। एक बात और है आस्थावान व्यक्ति अपने ही भीतर से जुड़कर बाहर सक्रिय होता है और हमारा चिंतन स्पष्ट हो जाता है कि जो भी अच्छा और बुरा हम करते हैं उसके जिम्मेदार हम होते हैं। दूसरों पर दोष न दिया जाए। अपने भीतर आस्था का भाव बढ़ाने के लिए एक प्रयोग लगातार करते रहिए, जरा मुस्कराइए...

तो जीवन और ज्यादा सुंदर बन जाता है
कुछ संयोग जीवन को और भी सुंदर बना देते हैं। जैसे धैर्य के साथ आशा को बनाए रखना। देखा गया है कि कुछ लोग मजबूरी को ही धैर्य समझ लेते हैं। अधिकांश ने तो अपने आलस्य को ही धैर्य की घोषणा बना दी। अधीर लोग जल्दी पागल हो जाते हैं, उदास हो जाते हैं।

ध्यान रखिएगा उदासी भी पागलपन के शुरूआत की हल्की सी थाप है, पहली कड़ी है। पूरे पागलपन का तो फिर भी इलाज संभव है, पर आधे पागलपन का क्या करेंगे? इस अर्ध स्थिति का इलाज दुनियाभर के मनोचिकित्सक भी नहीं कर सकते हों, वे आपको चाले लगा देंगे।

हां, इसका इलाज एक मात्र अध्यात्म के पास है। मन के पार होने की कला सीख जाइए और यह भी धैर्य से आएगी। इसके लिए ध्यान की क्रिया काम आएगी। ध्यान लगा या नहीं इस पर ज्यादा जोर न दें। इसमें परिणाम से अधिक क्रिया महत्वपूर्ण है। बस इतना काफी है कि आप ध्यान की क्रिया भर करें।

धैर्य से ध्यान करें, फिर ध्यान से धैर्य उपजेगा, यह एक कड़ी की तरह है। इससे, वह और उससे, यह पा जाना ही ध्यान तथा धैर्य होगा। अपने धैर्य को फिर आशा से जोड़ दें। आशा बनाए रखें कि जीवन में जो भी महान है वह मिलकर रहेगा। एक बात तय कर लें जो छलांग विकास और प्रगति की आपको लगाना है उसका आधार ध्यान यानी मेडिटेशन रहे। धैर्य और आशा की मजबूत जमीन से उछला हुआ मनुष्य हर उस आसमान को मुठ्ठी में भर सकेगा, जिसे संसार ने सफलता का नाम दिया है।

अपने जन्मदिन पर ये बात कभी न भूलें...
जन्मदिन पर ज्यादातर लोग तारीख को याद रखते हैं कि हम इस दिन पैदा हुए। थोड़े बहुत लोग इससे आगे जाकर उनको याद कर लेते हैं जिनके कारण पैदा हुए, यानी अपने माता-पिता के प्रति आभारी होना। पर बहुत कम लोग ऐसे हैं जो अपने जन्मदिन पर एक और बात याद रखते होंगे। दरअसल हमें पैदा किया है परमात्मा ने और केवल उन्होंने जन्म दिया है ऐसा नहीं है। उस दिन हमारे भीतर परमात्मा भी पैदा हुआ। इस बात को अपने हर जन्मदिन पर जरूर याद रखें। हमारे साथ वह भी उतरा है इस संसार में। गंगा की लहरों को देखते हुए हम महसूस कर सकते हैं कि पानी और लहर अलग-अलग हैं, लेकिन फिर भी दोनों एक हैं। ऐसे ही हम और परमात्मा हैं। भीतर के परमात्मा से परिचित होने के लिए हमें बाहर एक सुविधा दी गई है जिसका नाम है प्रकृति। बाहर जितना हम प्रकृति से परिचित होंगे, भीतर हमें परमात्मा से मिलने में उतनी ही सुविधा होगी। यह शरीर पंच तत्वों से बना है। आज अग्नि तत्व की बात करें। हमारी संस्कृति में यज्ञ का विधान इसीलिए है कि समूचे जीवन को यज्ञमय बना दें। इसका अर्थ है अनुशासनमय जीवन। यज्ञ में जब समिधा डाली जाती है तो अग्नि अपने व्यवहार में पूरी तरह से निष्पक्ष रहती है। यज्ञ से गुजरकर हम प्रकृति के प्रति अत्यधिक अनुशासित हो जाएंगे और यहीं से हम परमात्मा के सही स्वरूप को जान सकेंगे। गौतमबुद्ध ने यही कहा था कि जिस दिन मैं आध्यात्मिक अनुशासन से भीतर उतरा उसी दिन मुझे पता लगा कि दृष्टि निर्मल हो चुकी है। अब परमात्मा दिख नहीं रहा, अनुभव हो रहा है और इस अनुभव का नाम समाधि है। तो वापस अच्छी तरह समझ लें अपने जन्मदिन पर हमारे भीतर, हमारे साथ जिसने जन्म लिया है उसकी अनुभूति का सुंदर अवसर गंवाए न। भीतर उतरने की एक सीढ़ी ऐसी भी है जरा मुस्कराइए...।

ऐसे करें अपनी शक्ति का सही उपयोग...
शक्ति सभी के पास होती है। इसके कम और ज्यादा होने का झगड़ा चलता ही रहता है। महत्वपूर्ण यह है कि शक्ति का उपयोग कैसे और कब किया जाए?

मनुष्य लगातार शक्तिशाली होने का प्रयास करता है। मनुष्य से मनुष्य की शक्ति टकराए तो परिणाम उतने घातक नहीं होते, लेकिन जब मनुष्य प्रकृति की शक्ति से टकराता है तब हमें जापान जैसे दृश्य दिखते हैं, जहां जल में भी ऐसी जलन पैदा हो जाती है जिससे सबकुछ झुलस जाता है।

तीन तरह की शक्ति बताई गई हैं- शारीरिक, मानसिक और आत्मिक। इन सबमें मानसिक शक्ति को स्थिर करना सबसे अधिक जरूरी है। इसके बिना आत्मिक शक्ति तक नहीं पहुंच पाएंगे। शारीरिक शक्ति के नियंत्रण, सामाजिक मर्यादा, मनुष्य की सीमाओं के कारण सरल होता है। लेकिन मानसिक शक्ति का नियंत्रण इसलिए कठिन है कि यह नजर नहीं आती है।

यदि मानसिक शक्ति नियंत्रित है तो हमारा अगला कदम होगा हम आत्मिक शक्ति के केन्द्र में उतर जाएंगे, बल्कि हमारी मानसिक शक्ति वहां फेंक देगी और आत्मिक शक्ति के क्षेत्र में आलोचना के केन्द्र बदल जाएंगे। इसलिए मानसिक शक्ति के नियंत्रण में सदैव जागरुक रहें। जैनमुनि प्रज्ञासागरजी ने एक जगह कहा है- किसी ने उनसे पूछा था धर्म करने का सबसे अच्छा समय कौन सा है? उनका जवाब था आज, अभी, इसी समय।

फिर उनसे पूछा गया पाप करने का वक्त? उनका जवाब था कभी-कभी, किसी वक्त। बात गहरी है। मानसिक शक्ति का सद्पयोग आज, अभी, जब भी मौका मिले करते रहें। और शारीरिक शक्ति का उपयोग कभी-कभी, किसी वक्त पर करें। इसी का अगला कदम होगा आत्मिक शक्ति तक पहुंच जाना और यहीं से सारी क्रियाएं बदल जाएंगी और सांसारिक उपलब्धियों के अर्थ भी।

इस तरह दूर करें अपने जीवन की अशांति को...
इन दिनों लोगों का समय भारी व्यस्तता में बीत रह है। कुछ लोग कमाने में जुटे हैं तो कुछ कामाया हुआ ठिकाने लगाने में। अब जिनके पास खूब धन आ गया यदि वो भी अशांत होंगे और जिनका गया वो भी शांत नहीं होंगे तो बेकार रही सारी मारा-मारी। जरा इस पर ध्यान दीजिए बचाया क्या हमने?

हमारी बचत सुख के साथ शांति होना चाहिए। जब हमारे भीतर मानसिक असंतुलन और उत्तेजना आती है तो व्यक्तित्व में अधीरता आ जाती है। अधिक अधीरता हृदय को संकीर्ण करती है और कुछ लोगों को मानसिक बालपन आ जाता है। इसलिए इस समय खूब मेहनत के बाद थोड़ा थम जाएं, शांत हो जाएं।

इसके लिए एक तरीका अपनाएं, जो होना था वह हो गया, अब जो हो रहा है वह भी होता रहेगा, बस खुद को बीच में से हटा लें। अपनी ही रुकावट को खुद ही खत्म कर दें। मैंने किया, मैं कर दूंगा यहीं से अशांति शुरू होती है। हमारा च्च्मैंज्ज् ही हमसे भिड़ जाता है। एक कुत्ता पानी में झांक रहा था। अपनी ही परछाई दिखी तो भोंकने लगा।

जाहिर है परछाई भोंक रही थी और कुत्ता समझ रहा था सामने वाला मुझ पर भोंक रहा है। वह डरा भी और गुस्से में भी आया। पानी में अपनी ही परछाई पर कूद गया। बस, परछाई गायब हो गई। इसी तरह हम भी अपनी ही छाया से झगड़ रहे हैं। एक बार भीतर कूद जाएंगे तो परछाई मिट जाएगी और हम ही रह जाएंगे। परछाई शब्द पर यदि ध्यान दें तो ये हमारी छाया के लिए कहा जाता है। लेकिन इसमें च्च्परज्ज् शब्द आया है यानी दूसरे की छाया। होती हमारी ही छाया है पर नाम है परछाई।

अपना ही शेडो दूसरे के होने का भान कराती है और हम उससे उलझ जाते हैं। खुद से लड़ते रहो, हाथ कुछ नहीं लगेगा। बीच में से खुद को हटा लो, शांत होना आसान हो जाएगा। दिवाली की धूम के बाद आइए इस शून्य का अभ्यास करें।

अगर आपको सुख-दुख की चिंता ज्यादा सताती है...
कहते हैं सुख और दुख जैसे एक ही सिक्के हैं। ये इस संसार की दो धुरियां भी है। कोई सुख से सुखी है तो कोई दुख से अशांत। मुसीबत यह है कि जिन्हें दुख नहीं है, वो भी सुख की कमी से परेशान हैं।

जिन्हें सुख और दुख की चिंता बहुत सताती हो वे एक बात याद रखें कि दुनिया जड़ पदार्थों की बनी हुई है। उसमें अच्छाई और बुराई अलग से नहीं है। हर इन्सान अपनी अनुभूतियों के आधार पर सुख-दुख, अच्छा-बुरा इस कायनात में डाल देता है। परम शक्ति किसी न किसी मनुष्य के रूप में ही दुनिया में आती रही है।

हिन्दुओं ने अवतार कह दिया, कहीं ये ईशु कहलाए, कहीं नानक बनकर आए। ये हस्तियां अपने विशिष्ट आचरण से हमें गहरी शिक्षा दी गईं। जैसे हजरत मोहम्मद ने बड़ा काम यह किया कि उस परवरदिगार की कार्यप्रणाली को संसार के सामने लाए और अमल करके भी दिखाया ताकि लोग उन्हें देखकर उस सही मार्ग पर चल सकें।

सीधी सी बात है उन्होंने अल्लाह के बंदों को अल्लाह का हिदायत नामा समझाया और लोगों को ठीक जिन्दगी जीने के लिए प्रेरित किया। दो बातें मोहम्मद ने अपने चरित्र में विशेष रूप से दिखाई थीं। पहली वे बहुत नेक थे और दूसरा सहनशील थे। ये फकीरी के गहने हैं। हर धर्म में इन्हें अपनाया गया है। सच तो यह है दो ही लोगों में चेतना मानी गई है एक ईश्वर में और दूसरा उसके द्वारा बनाए गए मनुष्य में।

मनुष्य की इन्द्रियां चूंकि सक्रिय होती हैं और उसके पास इस बोध की संभावना होती है कि वे इनका सदुपयोग कर सके। इसलिए मानव सत्ता को सुर-दुर्लभ कहा गया है। हम मनुष्यों को भटका हुआ देवता बताया जाता है। अत: हम सबसे पहला काम यह करें उन सारी संभावनाओं का दोहन करें जो हमें श्रेष्ठ बना सकती हैं।

जिन्दगी को उस आइने में देखें जहां छवि ही नहीं व्यक्तित्व भी नजर आता है। बाहरी दर्पण में देखेंगे तो आकृति या छवि ही दिखेगी, लेकिन मन के दर्पण में प्रकृति और व्यक्तित्व दोनों नजर आएंगे।

भगवान को जीवन में लाना हो तो यह स्थान सबसे अच्छा है...
परमात्मा को जीवन में उतारना हो तो सबसे सही स्थान है हृदय। इसकी साफ-सफाई करना होगी। श्री हनुमान चालीसा के अंतिम दोहे में तुलसीदासजी ने श्री आंजनेय को आमंत्रण दिया है कि वे पधारें, लेकिन साथ में श्रीरामजी, सीताजी और लखनजी को भी लाएं और आने के पश्चात वापस न जाएं, स्थाई रूप से निवास करें।

भगवान को रहने के लिए तुलसीदासजी ने जो स्थान प्रस्तावित किया है, वह है उनका हृदय।

'कीजै नाथ हृदय महँ डेरा' तथा अंतिम दोहे में कहा 'हृदय बसहु सुर भूप।'

हृदय में परमात्मा उतरते ही हम व्यवहार की जगह स्वभाव पर टिकना सीख जाते हैं। इससे स्वभाव सधेगा और ऐसे लोग सरल, सहज और सुव्यवस्थित होंगे। प्रबंधन की ऊंची उड़ानें इन्हीं तीनों से आरंभ होती हैं, परिश्रम की सारी ऊर्जा इन्हीं में समाहित है।

जो सरल होता है उसका सोच-सत्य और स्पष्ट होता है। जो सहज होता है उसके निर्णय परिपक्व और दूरगामी रहते हैं और जो सुव्यवस्थित है वह अथाह परिश्रम में भी थकता नहीं। दुनिया की सारी सफलताएं इन्हीं तीनों गुणों की दासी हैं और ये गुण श्री हनुमान चालीसा का प्रसाद है।

अब जब श्री हनुमान चालीसा का समापन हो, तब विचार करें कि गोस्वामीजी ने यह जो श्री हनुमान चालीसा लिखी है यह हमारे लिए कैसे उपयोगी बनी। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा लिखकर यह बताया इसकी पंक्ति-पंक्ति में परिणाम तो वेद मंत्र का ही है, लेकिन यदि कोई दोष हो जाए तो गलती से दुष्परिणाम नहीं मिलेगा। इतनी बढिय़ा व्यवस्था कर दी। इसकी हर पंक्ति मंत्रों के समान प्रभावशाली और दिव्य बन गई।

इसे ही कहते हैं असली पुरुषार्थ...
परिश्रम एक साधारण शब्द है, फिर इस समय जब मेहनत का बड़ा मोल है सब लोग जम कर शोर मचाते हैं कि खूब मेहनत करो। इस चक्कर में परिश्रम और हम्माली का अंतर ही समाप्त हो गया। चलिए इन्हीं से मिलाजुला एक शब्द है पुरुषार्थ।

आज इससे परिचय प्राप्त करें। परिश्रम में जब मन, वचन और कर्म एक जैसे हो जाते हैं तब वह पुरुषार्थ कहलाएगा। यह परिश्रम की दिव्य स्थिति है। जिनकी कथनी और करनी के बीच अंतर जितना कम होता है उनकी सफलता और शांति के बीच भी उतना ही कम फर्क रह जाता है।

जो लोग इस अंतर को मिटा देंगे वे निष्काम कर्मयोगी होंगे। ऐसे लोग किसी भी क्षेत्र में हों सफल होने पर कभी भी अशांत नहीं रहेंगे। हम यह कैसे तय करें कि हम जो कर रहे हैं या कह रहे हैं वह सही है। अपने परिश्रम को पुरुषार्थ का रूप देते समय निर्णायक तत्व क्या हो।

इसके लिए एक प्रयोग करिए, कुछ ऐसे लोगों को लगातार ढूंढते रहें जिनके पास बैठने पर चित्त रूपांतरित होने लगे। हमें एहसास हो कि इन्हें देखकर, सुनकर और इनके पास बैठकर हम अपने भीतर एक परिवर्तन महसूस करते हैं, जो सदैव सु:खद होता है। इस बात का ध्यान रखें कि ऐसे व्यक्तियों के पास बैठते समय हमें जो उपलब्ध हो रहा है उसके लिए हमें कोई प्रयास न करना पड़े, अपने आप ऐसा होने लगेगा, बस अपने को थोड़ा शून्य बना लीजिए, थोड़ा खाली छोड़ दीजिए।

यदि अच्छे से अच्छे व्यक्ति के पास बैठकर भी हम खाली नहीं होंगे तो उसकी अच्छाई को अपने भीतर कैसे भरेंगे। उसकी आती हुई तरंगों का अपने खालीपन से स्वागत करना पड़ेगा और जब आप लगभग फ्रेश हो चुके हों तब अपना परिश्रम करिए और ऐसा परिश्रम पुरुषार्थ में अवश्य बदल जाएगा।

कैसा हो आपका व्यवहार अच्छी या बुरे वक्त में...
जीवन जितना उच्च है उतना ही हम घटनाओं में अनुकूलता देखने लगेंगे और जीवन की गतिविधियां जितनी अधिक निम्न स्तर की होंगी हम प्रतिकूलता देखेंगे। अनुकूल यानी सुख, प्रतिकूल यानी दु:ख। कोई भी दावा नहीं कर सकता कि सदैव एक ही स्थिति बनी रहेगी।

इसलिए कोशिश यह की जाए कि दोनों ही हालात में जो उत्तम है, जो जीवन को ऊँचा ले जा सकता है वह सब ग्रहण किया जाए और बाकी छोड़ दिया जाए। सुख और दु:ख दोनों ही हमारे ऊपर राज न करे बल्कि हम उन पर अधिकार बना लें।

जैसे ही अधिकार बनेगा दोनों के प्रति हमारा आग्रह बदल जाएगा। अभी हमारा सुख के प्रति आग्रह होता है और दु:ख के प्रति नकारने का भाव होता है। श्रेष्ठ लोगों ने अपने जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति आने पर कैसा आचरण किया लगातार इस पर वॉच रखें।

सभी धर्मों ने यह सुविधा दी है कि आप कई विभूतियों के माध्यम से सीख सकते हैं। अवतार परंपरा संभवत: इसीलिए हुई है। यह न समझें कि अवतार किसी पुराने युग में हुए, उनका जीवन आज कैसे प्रेरणा दायक होगा और यह भी न मानें कि आज तो हमारे बीच वे अवतार नहीं हैं। जिस भी युग में ऐसे लोग हुए उस समय जिन लोगों ने उन्हें पाया ठीक वैसी ही स्थितियाँ आज भी हमारे साथ हैं।

हम अवतारों को उनके पुराने रूप में खोजने की आदत बना लेते हैं। हमने जो अपने भीतर छवि बनाई है वह अपनी सुविधा से बना ली है। लेकिन भगवान हर काल में नए-नए रूप में आता है। वह तब भी था और आज भी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार वह नए स्वरूप में हमें मिलेगा ही। इसके लिए सबसे पहले स्वयं के भीतर के परमात्मा को स्वीकार करना पड़ेगा।

हम उसका अंश हैं यह एहसास ही हमें उसके स्वरूप से परिचित करा देगा। और तब जीवन का जो भी उत्तम है वह हमारे हाथ जरूर लगेगा।

ये दो चीजें हमें भटकने से बचाती हैं...
बचपन से हमें सिखाया जाता है सावधान रहना, जिंदगी की राहों में भटक मत जाना। साधारणतया भटकने का अर्थ है आवारागिर्दी न करने लगें, चरित्रहीन न हो जाएं, वासनाओं से न घिर जाएं। हमारी अच्छीखासी चलती यात्रा में दो चीजें होती हैं तब हम भटकते हैं।

पहला, यदि कोई धक्का लगे तो चाल लडख़ड़ाएगी और दूसरा यदि कोई घसीट ले तो मार्ग से इधर-उधर हो जाएंगे। लोभ, मोह, काम, क्रोध, मान, पद, प्रतिष्ठा इन सबके धक्के हमें गिरा देते हैं। घसीटने के मामले में इन्द्रियां बहुत ताकतवर होती हैं।

खींच-खींचकर विषयों की ओर ले जाकर पटक देती हैं। इनसे बचने के लिए अपने भीतर या तो अति आत्मविश्वास जगा लें या श्रद्धा का अंकुर पैदा कर लें। श्रद्धावान व्यक्ति नसीहतों के प्रति गंभीर होता है। उसके लिए सीख आचरण से अधिक भरोसे का विषय होती है।

माता-पिता और गुरुजन की सीख वह अनुशासन के रूप में नहीं, श्रद्धा के रूप में लेता है। जब हम श्रद्धावत होते हैं तब हम निर्भय भी हो जाते हैं, क्योंकि श्रद्धा हमें आश्वासन देती है कि कोई और हैं जो हमारी रक्षा कर लेंगे, जो हमारी ताकत को बढ़ा देंगे। झोंकों से गिरने वाले और इन्द्रियों से घसीटे गए लोग भविष्य के अज्ञात भय से भी डरने लगते हैं कि अब क्या होगा?

यदि श्रद्धा जीवन में है तो भय को जाना ही पड़ेगा। एक बारीक बात और समझ ली जाए कि जीवन में जब भी भय आएगा उसके मूल में अहंकार जरूर होगा। अहंकारी व्यक्ति अपना मूल्यांकन दूसरों से करवाता है। उसका जीवन दूसरों द्वारा की गई प्रशंसा और आलोचना पर निर्भर होता है। उसे सदैव भय बना रहता है कि दूसरे उसके बारे में क्या कहेंगे और इसीलिए वह धक्के भी खाता है और घसीटा भी जाता है। श्रद्धा आपको स्वयं पर टिकाएंगी, निर्भय बनाएगी।

हर इंसान को बस इसी एक चीज की तलाश है...
यदि जाना सीखा है तो लौटना भी सीखिए। व्यावहारिक जानकारी हमें संसार में जाना सिखाता है और आध्यात्मिक ज्ञान हमें भीतर मुडऩा बताता है। जीवन में भक्ति और भौतिकता का संतुलन बनाए रखना चाहिए। अति हर बात की बुरी है।

संयम की जरूरत हर क्षेत्र में है, पर संयम की भी अति न कर दें। हर परिस्थिति के दूसरे पहलू से परिचित जरूर रहें। संसार से भी परिचय रखें और संसार बनाने वाले को भी न भूलें। हम संसार में सफलता की खोज पर निकले हुए हैं। सभी यही कर रहे हैं, बस क्षेत्र अलग हैं, मार्ग अलग हैं, मंजिल अलग हैं।

कुल मिलाकर चाहिए सबको सफलता। आप जो कुछ भी खोज रहे हों थोड़ा रुकिए जरूर, फिर भीतर मुड़ जाएं। अपनी इस तलाश को थोड़ा रोक दें, अपने भीतर झाकें और कुछ पाने की कोशिश करें। जो भीतर मिलेगा वह बाहर की खोज और सफलता के अर्थ बदल देगा। अपना कुछ भी नहीं है बस पकडऩे के तरीके बदलना है। जैसे ही आपने अपने भीतर भगवान होने को जान लिया, फिर आपके कर्म में निष्कामता आ जाएगी और आपकी वाणी में विश्वसनीयता तथा प्रभाव आ जाएगा।

एक ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि आपको बोलने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी और लोग खुद ब खुद आपकी ओर खिंचे चले आएंगे। जैसे ही हम भीतर उतरते हैं, जिस ईश्वर से हमारा परिचय होता है वह परमपिता है, जो सबके भीतर जन्म से ही आया हुआ है। हम उसके निकट गए, उसको पहचाना और उसी के जैसे होना शुरू कर देते हैं। बाप की नकल बेटा करता ही है। संतानों में अपने जनक-जननी के लक्षण आ ही जाते हैं। इस अनुभूति के बाद हमारी बाहरी क्रियाएं ईश्वर की तरह दिव्य और पवित्र होने लगती हैं।

ऐसी आदतों से हमेशा बचते रहना चाहिए...
संसार में रहते हुए हम कुछ आदतों को ओढ़ लेते हैं और कुछ को जीने लगते हैं। आदतों का स्वभाव होता है कि उसे बार-बार करने की इच्छा होती है। पुनरावृत्ति आदत का मूल स्वभाव है। देर से उठने की आदत है तो अगले दिन फिर देर से उठने की इच्छा होगी।

आदत अतीत से जुड़कर अतीत को ही भविष्य में पटकने पर उतारू होती है। इसीलिए कहा है आदतों से मुक्त सावधानी से हो जाएं। आदत से बचने के लिए अपने भीतर के स्वभाव को समझना होगा। अभी तो हमने भक्ति को भी आदत बना लिया है, जबकि भक्ति स्वभाव का विषय है।

सामान्य रूप से ऐसा समझा जाता है कि जो लोग भक्ति कर रहे हैं वे या तो कमजोर लोग हैं या छोटे ओहदे के व्यक्ति हैं। यह एक भ्रम है। जिनके पास मिटने की क्षमता है वे ही भक्ति कर सकेंगे, क्योंकि जितना हम मिटेंगे उतने ही हमारे भीतर के परमात्मा को रूप लेने कर अवसर मिलेगा।

जितना हमने अपने को बचाया, समझ लें उतना ही उसको खोया। भक्ति एक आत्मघाती आर्ट है। इसलिए जैसे-जैसे भक्ति जीवन में उतरेगी हमें भीतर उतरने में सुविधा होगी। मन को निष्क्रिय करने में सहारा मिलेगा। अभी मन मालिक है और शरीर गुलाम। लेकिन भक्ति के उतरते ही परमात्मा प्रकट होने लगता है और ईश्वर की अनुभूति के सामने मन गौण हो जाता है।

मन मौन हुआ और हमारी सारी मस्ती, तमाम शौर-शराबे, धूमधाम भौतिक सफलताओं के बाद भी हमें खूब शांत रखेंगी, प्रकाश ही प्रकाश होगा और इसी प्रकाश को आंतरिक उत्सव कहा गया है। जब हर काम आनंद हो जाए तो फिर जिन्दगी के अर्थ ही बदल जाते हैं।

मुसीबत सामने आए तो सबसे पहले यह करें...
किसके जीवन में मुसीबत नहीं आती। छोटे को छोटी और बड़े को बड़ी दिक्कतें आती ही रहती हैं। मुसीबतों को आने के लिए कोई रिजर्वेशन नहीं कराना पड़ता और ना ही वे पूर्व सूचना दिए आती हैं।

कुछ तो वे स्वयं चलकर आती हैं और कुछ हम खुद आमंत्रित करते हैं। स्वआमंत्रित समस्याओं के मामले में कुछ लोग बहुत भरेपूरे होते हैं। जैसे ही मुसीबतों के आने का एहसास हो या वह सामने आकर खड़ी ही हो जाए तो अपने भीतर के अध्यात्म को जगाएं। यहीं से आपका होश बदलेगा, सोचने का तरीका परिवर्तित हो जाएगा।

अपने मन में ग्रंथी न बनने दें। हानि-लाभ, खुशी-गम इनके बारे में ज्यादा न सोचें क्योंकि जब मुसीबत आती है हम उसके परिणाम पर टिक जाते हैं। अभी घटा नहीं है और हम भविष्य के भय से जुड़ जाते हैं। मन को ग्रंथी बांधने का शौक होता है।

इसी कारण वह दिमाग में उलझनें और उथल-पुथल पैदा कर देता है। ऐसे समय सात्विक आहार, शुद्ध विचार और संतुलित शारीरिक क्रियाएं बड़े काम आती हैं। मुसीबत आते ही इन तीनों पर काम करना शुरू कर दीजिए। मन ऐसे समय बार-बार हमें कुछ पुरानी स्थितियों, व्यक्तियों से विपरीत भाव से जोड़ता है। हम निदान निकालने की जगह पुरानी झंझटों में उलझ जाते हैं। एक अजीब सा उद्वेग पैदा होने लगता है।

इससे मुसीबत को बड़ा होने में सुविधा हो जाती है। यहीं से मेंटल बॉडी का लोड फिजीकल बॉडी पर और फिजीकल का लोड मेंटल बॉडी पर आने लगता है। हम शक्तिहीन होने लगते हैं। जबकि हमारा धर्म, हमारी भक्ति हमें सिखाती है शरीर और आत्मा दोनों के महत्व को जानें और दोनों के बीच अंतर को बढ़ाएं।

कुछ लोग केवल आत्मा पर टिककर शरीर को भूल जाते हैं और कुछ लोग केवल शरीर पर टिककर आत्मा को भूल जाते हैं, लेकिन हमें दोनों पर टिकना है अंतर बनाकर। और फिर कैसी भी समस्या हो, मुसीबत रहे, हम पार लग जाएंगे।

आत्मा, जीवात्मा व प्राण
आत्मा संपूर्ण ब्रह्मांड में समाया एक चेतन तत्व है। यह नित्य, शाश्वत, सत्, चित् व आनंद स्वरूप है। यह न तो कभी जन्म लेता है और न कभी मरता है। यह अकर्ता है। अकेला आत्मा कुछ भी नहीं करता। इसको क्रियाशील बनाने के लिए प्रकृति की जरूरत पड़ती है। शास्त्रों में वर्णन आता है कि परमात्मा की इच्छा होने पर प्रकृति आत्मा के साथ मिल कर सृष्टि का निर्माण करती है।

सृष्टि के निर्माण के समय प्रकृति के 25 तत्त्व बनते हैं। इन्हीं से 84 लाख योनियां बनी हैं। इसी से हमारा शरीर भी बना है। प्रकृति के इन तत्वों में से मन, बुद्धि, अहंकार व चित्त को अंत:करण कहा जाता है। इस अंत:करण को जीव नाम से भी जाना जाता है।

आत्मा सर्वव्यापक है। लेकिन जब इस आत्मा का एक अंश अंत:करण से घिर जाता है, तब उसको जीवात्मा कहा जाता है। आत्मा की तरह यह जीवात्मा भी कुछ नहीं कर सकता। इसलिए अंत:करण को क्रियाशील बनाने के लिए एक शक्ति इसके साथ और जुड़ जाती है, जिसको प्राण कहा जाता है। प्राण भी एक सर्वव्यापक तत्त्व है। इस व्यापक शक्ति को महाप्राण कहा जाता है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड में एनर्जी के रूप में मौजूद होता है। लेकिन जब यह महाप्राण अंत:करण को गति देता है, तब इसको प्राण कहा जाता है। समझने के लिए हम कह सकते हैं कि शिव सर्वव्यापी आत्मा है और उनकी शक्ति सर्वव्यापी महाप्राण है।

यह प्राण शरीर में दो प्रकार का होता है: 1. नासिक्य प्राण, जिसके अंदर पांच प्राण -प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान तथा पांच उप प्राण -नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त एवं धनंजय आते हैं। ये सभी प्राण शरीर के अलग-अलग हिस्सों में रह कर उसको चलाते रहते हैं। इसको नासिक्य प्राण इसलिए कहा जाता है, क्योंकि शरीर में स्थित सभी प्राण अपने मूल स्त्रोत महाप्राण से ही बल पाते हैं और यह कार्य नासिका से आती हुई सांस करती है। क्योंकि नासिक्य प्राण इन सभी को बल देता है, इसलिए शरीर के सभी प्राणों को नासिक्य प्राण कहा जाता है।

2. हमारी सभी इंद्रियों को भी प्राण ही कहा जाता है क्योंकि प्राण और कुछ नहीं बल्कि एक शक्ति है। जब यही शक्ति देखने का कार्य करती है तो आंख कहलाती है, सुनने का कार्य करती है तो कान कहलाती है। इस प्रकार दसों इंद्रियों को भी प्राण में ही गिना जाता है।

इस प्रकार प्राण की सहायता से अंत:करण कार्य करने वाला बन जाता है। हम शरीर के द्वारा सभी कार्य इसी प्राण की सहायता से करते हैं। असल में यह प्राण ही जीवात्मा को इस शरीर में रहने के योग्य बनाता है।

स्वस्थ बने रहने के लिए शरीर में स्थित इस प्राण को बलिष्ठ बनाया जाता है, जिसके लिए अनेक उपाय बताए गए हैं। लेकिन जब यह प्राण किन्हीं कारणों से शरीर में बहुत कम मात्रा में रह जाता है, तब शरीर कार्य करने योग्य नहीं रह जाता और जीवात्मा उस शरीर का साथ छोड़ देती है, जिसको मृत्यु कहा जाता है।

मृत्यु के पश्चात आत्मा सर्वव्यापक होने के कारण उस शरीर में भी विद्यमान रहती है, लेकिन उसकी अंत:करण मिश्रित आत्मा जिसको जीवात्मा कहते हैं, वह प्राण के सहयोग से शरीर से निकल जाती है। जीवात्मा में ही अंत:करण, इंद्रियां, नासिक्य प्राण -तीनों सम्मिलित हो जाते हैं। एक शरीर से दूसरे शरीर तक अंत:करण को ले जाने का कार्य यही प्राण करता है, जो जीवात्मा का ही एक अंग होता है। इस प्रकार इस जन्म में किए गए अच्छे, बुरे कर्मों का फल भी जीवात्मा के साथ चला जाता है और उनका फल उसी को भोगना पड़ता है।

जीवात्मा हर जन्म में एक ही रहता है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य के द्वारा साधक के अहंकार के साथ-साथ उसके सभी विकार भी खुद ब खुद नष्ट होते हैं। फिर योगी में इच्छा और आसक्ति नहीं रहती और चित्त में पड़े हुए पिछले सभी जन्मों के संस्कारों का नाश होने लगता है। उस अवस्था को मुक्ति कहते हैं। योगी इसी मुक्त भाव में रहते हैं और शरीर त्याग के बाद उनका जीवात्मा सर्वव्यापक आत्मा में लीन हो जाता है, प्राण अपने मूल महाप्राण में लीन हो जाता है। इस प्रकार योगी का पुनर्जन्म नहीं होता।

खुद का ज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान है
एक कहानी है। एक समय चार विद्वान एक नाव पर सवार हुए दूसरी ओर जाने के लिए। उनमें एक भूगोलशास्त्री था, दूसरा ज्योतिष, तीसरा गणितज्ञ और चौथा भाषाविद। नाव बीच धारा में पहुंची तभी भूगोलशास्त्री ने पूछा, भैया मल्लाह! क्या आपने भूगोल पढ़ा है? नाविक ने सहजता से उत्तर दिया, नहीं साहब। भूगोलशास्त्री ने कहा, तब तो तुमने अपना पच्चीस प्रतिशत जीवन व्यर्थ में ही गंवा दिया क्योंकि भूगोल पढ़े बिना तुम्हें दिशाओं आदि का ज्ञान कैसे होगा?

उस के कुछ समय बाद ज्योतिष ने पूछा, 'भैया नाविक! क्या तुमने ज्योतिष की कुछ पढ़ाई की है?' नाविक ने उत्तर दिया, 'हम ठहरे गंवार, भला ज्योतिषशास्त्र कैसे पढ़ते?' तब ज्योतिष ने कहा, तब तो आपने आधा जीवन बेकार में खो दिया, कब क्या होगा, यह हम अच्छी तरह बता सकते हैं क्योंकि हमने ज्योतिष विद्या का अध्ययन किया है। अब गणितज्ञ भी बोल उठा, भैया, क्या आप गणित के बारे में कुछ जानते हैं? नाविक ने कहा, साहब, मैं तो बिल्कुल अनपढ़ आदमी हूं, कभी किसी पाठशाला में नहीं गया। तो गणित क्या होता है मुझे कैसे मालूम होगा? गणितज्ञ बोला, तब तो मल्लाह! आपने अपना तीन चौथाई जीवन यूं ही बर्बाद कर दिया क्योंकि न तो भूगोल जानते हो, न ही ज्योतिष का ज्ञान है और न ही गणित का ज्ञान। बिना गणित की पढ़ाई किए हिसाब-किताब कैसे समझेंगे?

अब भाषाविद की बारी थी, उसने भी पूछ लिया, तुम्हें कुछ भाषाओं का ज्ञान तो होगा ही! नाविक बोला, 'नहीं साहब! मुझे यही टूटी-फूटी बोलने की भाषा आती है। दूसरी कोई भाषा नहीं जानता। तब तो तुम्हारा पूरा का पूरा जीवन ही व्यर्थ गया, कुछ हासिल नहीं किया।'

यह चर्चा चल ही रही थी कि इतने में तेज आंधी व तूफानी हवा चलने लगी। चारों विद्वान अपनी विद्वता पर अभिमान से भरे हुए थे। तूफान के आसार बनते देख नाविक ने कहा, क्या आप सभी लोगों को तैरना आता है? उन विद्वानों ने कहा, भाई! हमें फुर्सत ही नहीं मिली यह तैरने की विद्या जानने की। सारी उम्र पढ़ाई-लिखाई में ही बीत गई। समय ही नहीं मिला। तब नाविक बोला, तैरना नहीं सीखा, तो अब आपका पूरा जीवन ही समाप्त हो जाएगा। यह नाव डूबने वाली है और यह आपको भी ले डूबेगी। इतने में एक तेज लहर आई और वे चारों विद्वान डूब गए। मल्लाह तैर कर किनारे आ गया।

यह कहानी हम सभी मनुष्यों पर भी घटित हो रही है। कैसे? हमने बहुत सारे ज्ञान अर्जित किए लेकिन 'खुद' का ज्ञान नहीं प्राप्त किया। इससे सारा ज्ञान होते हुए भी यह जीवन अधूरा है। निरर्थक है। भवसागर पार करने का ज्ञान भी जरूरी है जीवन में। क्या है भवसागर? भावनाओं का, विचारों का सागर जिसमें सभी आकंठ डूबे हुए हैं। और यह सागर हमारा अपना ही बनाया हुआ है। प्रश्नों के तूफान इसमें उभरते रहते हैं, झंझावातों और समस्याओं का तेज ज्वार -भाटा आता रहता है। कैसे पार लगेंगे? हमेशा डूबने का भय रहता है! तैरने का ज्ञान होना जरूरी है, तभी तो डूबने के भय से मुक्त हो पाएंगे!

संत-महात्माओं ने जोर देकर ज्ञान की चर्चाएं की है। पोथी-पुराण का ज्ञान नहीं बल्कि 'खुद' का ज्ञान! जिसे 'आत्मज्ञान' भी कहा। भवसागर पार करने की विद्या हमेशा से संत-महापुरुषों ने जिज्ञासुओं को सिखाई और उनका जीवन धन्य हुआ। अर्जुन जैसा महायोद्धा को भी युद्ध के मैदान में, जो कि एक तरह का गहरा भवसागर था, भगवान कृष्ण मल्लाह बनकर 'ज्ञान' की नौका द्वारा पार लगाते हैं ।

रामकृष्ण परमहंस कहते हैं, 'सारी विद्याएं अधूरी हैं। जो परमात्मा को जान गया उसी का जीवन सफल है। जिसने प्रभु का आश्रय लिया है, वही इस भवसागर से पार हो सकता है। शेष लोगों का तो पूरा जीवन ही व्यर्थ में चला जाता है। 'विद्या' वही है जो प्रभु से मिला दे, जो भवसागर पार करा दे -वह ज्ञान सर्व श्रेष्ठ है। और खुद का ज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान कहलाता है। ऐसा ज्ञान जो जीवन को आनंद से सरोबार कर दे।'

जानिए प्रार्थना का क्या महत्व है जीवन में...
प्रार्थना परत उतारने की प्रक्रिया है। हमने संसार में रहते हुए अपने चेहरे पर, अपने व्यक्तित्व पर कई परतें जमा कर ली हैं। प्रार्थना द्वार जैसी है परमात्मा तक जाने के लिए। उस दिव्य शक्ति के सामने छिपा हुआ चेहरा लेकर नहीं जा सकते।

वहां तो जैसे हैं वैसा ही रहना होगा। हम क्या हैं यह बताने की क्रिया जगत में अलग होती है और जगदीश के सामने अलग होती है। दुनिया में कई लोगों के सामने हम चिल्लाते हैं जानते नहीं मैं कौन हूं? हमारा मनपसंद काम नहीं हुआ, अपमान हुआ, तो हम एक दम ब्लास्ट हो जाते हैं। अभी बताता हूं मैं क्या हूं।

यह अकड़ का प्रदर्शन है, परिचय का नहीं, शब्दों की हिंसा है। अध्यात्म जगत थोड़ा उल्टा चलता है। यहां जब यह कहा जाए कि जानते नहीं मैं कौन हूं तो सबसे पहले मैं गिर जाएगा। क्योंकि जो जानता है उसका मैं गल ही जाएगा। जानने में ही मैं का विसर्जन है। हमारा मैं दुनिया में तीन रूप में एपियर होता है।

अकड़, हिंसा और अहंकार। जबकि ये तीनों पानी के बुलबुले जैसे, ताश के पत्तों के महल समान और कागज की नाव की औकात के होते हैं। ढह जाएंगे एक दिन ये तीनों, पर नुकसान पहुंचा कर। प्रार्थना यदि सच्ची रहे तो परमात्मा के सामने हमारा वो चेहरा प्रकट होगा जो हमारे जन्म से पहले था और मृत्यु के बाद रहेगा। बीच में जीते जी जो भी दुर्गुणों से लिपापुता हमने अपना चेहरा बनाया वह असत्य लेपन था।

प्रार्थना इसी की धुलाई है। प्रार्थना में जब हम अपने व्यक्तित्व को धोते हैं तब हम पवित्र होने लगते हैं और पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है। तीन चरण बना लें प्रार्थना के, पहला आरम्भ में भीतर से विचार शून्य हों, दूसरा मध्य मे बाहर से समर्पण रखें और तीसरा समापन पर जरा मुस्कुराइए...।

हर काम में सफलता के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है यह बात
दृढ़ निश्चय कार्य की सफलता के लिए जरूरी है। इस निश्चय में निश्चलता और जोड़ देना चाहिए। यानी हम कार्य को पूरा करने के लिए जितने अनुशासित रहेंगे उतने ही विनम्र भी होंगे। निश्चय मतलब अपने ही प्रति अनुशासन हेतु कठोर होना और निश्चल यानी दूसरों के मामले में कुटिल भावना न रखना।

अपने ही द्वारा बनाए गए नियमों का अपने ही द्वारा पालन करना कोई आसान काम नहीं है। बड़े-बड़े इसमें चूक जाते हैं। अपने अनुशासन का पालन करने के लिए हमें सतत् स्वयं के गुण-दोषों की पहचान और आंकलन करना होगी। इसके लिए एक सरल तरीका है सत्संग करते रहना।

सत्संग में या तो हम किसी महापुरुष को सुन रहे होते हैं, देख रहे होते हैं और उन्हीं के द्वारा पहले बीत गए कुछ अवतारों, फकीरों की जीवनी सुन रहे होते हैं। जीवन का जो भी श्रेष्ठ होता है वह सत्संग में उस समय उतर रहा होता है। लिहाजा कोई चूक न हो जाए इसलिए आत्म अनुशासन काम आता है।

अपने व्यक्तित्व में दृढ़ता लाने के लिए सत्संग के माध्यम से महान हस्तियों की जीवन शैली को ऐसे सुना जाए जैसे पहले उन लोगों ने जीवन जिया है। चाहे राम हों या कृष्ण, जीसस हों या महावीर, बुद्ध हों। इन सबका जीवन बिल्कुल ऐसा था जैसे बांसुरी। बंसी अपनी आकृति और कृति से एक बड़ा सुंदर संदेश देती है। उसके अपने पेट में कुछ नहीं होता।

जैसी फूंक मारी गई और उंगलियां चलाई गई वह मधुर संगीत संसार में फेंक देती है। इसी प्रकार हम सब परमात्मा की अंधरों की बंसी बन जाएं। स्वर हमारा होगा, क्रिया उसकी होगी। यही आत्म अनुशासन का एक स्वरूप है। इस अनुभूति में हम दृढ़ भी होंगे और निश्चल भी।

क्यों रखा गया सुंदरकाण्ड का नाम सुंदर?
संघर्ष जीवन को थकाता ही नहीं है, बल्कि सुंदर भी बनाता है। जो लोग सफलता अर्जित करना चाहते हों वे अपनी सफलता को सौंदर्य से जरूर जोड़ें। जीवन की सुंदरता का अर्थ है सफलता के साथ शांति। यदि आनंद नहीं है और भरपूर सफलता है तो जीवन असुंदर ही माना जाएगा।

हनुमानजी की सफलता के लिए सुंदरकाण्ड को याद किया जाता है। रामचरितमानस के इस पाँचवें सौपान को लेकर लोग चर्चा करते हैं कि इसका नाम सुंदरकाण्ड क्यों रखा गया। जबकि मानस के अन्य काण्ड का नाम व्यक्ति या स्थितियों के नाम पर रखे गए हैं।

बाललीला का बालकाण्ड, अयोध्या की घटनाओं का अयोध्या काण्ड, जंगल के जीवन का अरण्य काण्ड, किष्किंधा राज्य के कारण किष्किंधा काण्ड, लंका के युद्ध की चर्चा लंका काण्ड में और जीवन के प्रश्नों का उत्तर फिलॉसफी के साथ उत्तरकाण्ड में दिया गया है।

फिर अचानक सुंदरकाण्ड का नाम सुंदर क्यों रखा गया? दरअसल, लंका त्रिकुटाचल पर्वत पर बसी हुई थी। तीन पर्वत थे - पहला सुबैल, जहां के मैदान में युद्ध हुआ था। दूसरा, नील पर्वत, जहां राक्षसों के महल बसे हुए थे और तीसरे पर्वत का नाम है सुंदर पर्वत जहां अशोक वाटिका निर्मित थी और यहीं हनुमानजी और सीताजी के मिलन की प्रमुख घटना घटी थी इसलिए इसका नाम सुंदरकाण्ड है।

चूंकि यहां की घटनाओं में हनुमानजी ने एक विशेष शैली अपनाई थी। वे अपने योग्य प्रबंधक शिष्यों को योगी प्रबंधक बनाते हैं, जिसकी आज जरूरत है। सुंदरकाण्ड में इन्हीं बातों के इशारे हैं। सुंदरकाण्ड पढ़कर उनके भक्त जान जाते हैं कि जगत का वैभव और जगदीश का ऐश्वर्य एक साथ कैसे प्राप्त होता है। इसी दृष्टि से हमें भी अपनी सफलता की यात्रा को जब भी जरूरत पड़े और अवसर मिले सुंदरकाण्ड से गुजारते रहना चाहिए।

जहां पहुंचते ही आत्मा और परमात्मा एक हो जाते हैं
योग के विषय में दुनिया का नजरिया काफी बदल चुका है। अब इसे किसी धर्म विशेष की उपासना पद्धति न मानकर सभी का भला करने वाला विशुद्ध ज्ञान माना जाने लगा है। यहां तक कि आज तो योग को एक प्रामाणिक विज्ञान मानकर इस विषय में दुनियाभर में अधिक से अधिक रिसर्च और खोजबीन की जा रही है। योग जिसे अष्टांग योग के नाम से भी जाना जाता है। अष्टांग योग यानी आठ अंगों वाले योग विज्ञान की अंतिम अवस्था समाधी के नाम से जानी जाती है।

अष्टांग योग का उच्चतम सोपान ही समाधि के नाम से जाना जाता है। यह हमारी चेतना का वह स्तर है, जहां मनुष्य पूर्ण मुक्ति का अनुभव करता है। योग शास्त्र के अनुसार ध्यान की सिद्धि होना ही समाधि है।

पातंजलि योगसूत्र में कहा गया है-

तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:। (3-3)

अर्थ- वह ध्यान ही समाधि है जब उसमें ध्येय अर्थमात्र से भासित होता है और ध्यान का स्वरूप शून्य जैसा हो जाता है। यानि ध्याता (योगी), ध्यान (प्रक्रिया) तथा ध्येय (ध्यान का लक्ष्य) इन तीनों में एकता-सी होती है। समाधि अनुभूति की अवस्था है वह शब्द, विचार व दर्शन सबसे परे है। इस अवस्था मे पहुंचा हुआ साधक परम शांति और परम आनंद का अनुभव करता है।

अगर जिंदगीभर निभाना है साथ तो ऐसा समझौता करें...
एक-दूसरे के साथ रहने में थोड़ा सा यदि प्रेमभरा समझौता किया जाए तो आनंद और सुगंध दोनों मिल जाते हैं। बगीचे में हर फूल अपनी महक लिए होता है। उसी प्रकार जब हम परिवार में रहते हैं तो हर सदस्य की अपनी एक खुश्बू होती है।

जो सुगंध आपको अच्छी लगती है वैसे व्यक्ति के पास हम रहना पसंद करते हैं। चाहत सबकी होती है कि किसी न किसी का सान्निध्य बना रहे। यह संगति चाहे मन से हो या तन से, अपने तरीके से संतोष देती ही है और इसकी हैण्डलिंग ठीक से न की जाए तो यह निराशा और तनाव भी देती है। परिवार में सहयोग, समझौता और सूझबूझ रिश्तों के मतलब ही बदल देती है।

एक कुटुंब में न तो केवल पुरुषों से जीवन आएगा और न केवल स्त्रियों से। घर की माता, पत्नी, बहन, पुत्री, बहु, भाभी के रूप में हर औरत एक विशेष सुगंध लिए रहती है। जैसे पुरुष के पास एक सौरभ होता है वैसे ही स्त्री के पास विशिष्ट सुगंध होती है। जैसे ही यह किसी पवित्र रिश्ते से जुड़ती है पूरा जीवन महक उठता है।

परिवारों में साथ-साथ जीने की जो इच्छा होती है उसके पीछे ऐसी ही महक काम करती है। इसे पवित्र रखने के लिए हर घर में भक्ति का आचरण बड़ा काम आएगा। जैसे ही परिवार में भक्ति उतरती है सबसे समानता का व्यवहार होने लगता है।बाहर की दुनिया में कहा जाता है व्यक्तिवादी दृष्टिकोण ठीक नहीं है लेकिन घर के संसार में व्यक्तिवादी दृष्टिकोण होना चाहिए।

इसका अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति का घर में समान विकास हो। उसके मान और ध्यान में भेदभाव न हो। न कोई विशिष्ट हो और न ही निकृष्ट। हर एक की स्वतंत्रता मान्य की जाए और उसके निजी तथा सामाजिक विकास में पूरा परिवार सहयोग करे। परिवार की सामुहिक भक्ति भावना इस जीवनशैली को प्रेरित और प्रोत्साहित करती है। इसलिए परिवार के जीवन में भक्ति बनाए रखें।

ऐसे बनती हैं हमारे कर्म की रेखाएं....
विचारों से संकल्प, संकल्प से क्रिया और फिर जो परिणाम मिलता है इनमें आपस में तालमेल रहता है। एक भी कड़ी कमजोर हुई, समझ लीजिए गड़बड़ हो जाएगी। निवृत्तमान शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंदजी एक जगह कहते हैं कर्म का प्रारंभ संकल्प का बिंदु है।

उससे धीरे-धीरे रेखाएं बनती हैं। उनसे चाहे महल बने, चाहे मित्र बने। पुल बनेगा तो पहले रेखाएं खींचनी पड़ेंगी। उन्हीं रेखाओं के आधार पर पुल का निर्माण होता है। मानव मन में संकल्प बिन्दु के निर्मित होते ही कर्म की रेखाएं खिंचती हैं।

व्यक्ति के साथ सुसंस्कार हों तो वह राम का प्रतिनिधि बन जाता है, राममय हो जाता है। संकल्प को न संभाला और पूर्व के कुसंस्कार जाग गए तो व्यक्ति दानव बन जाता है जो सम्पूर्ण जगत को कष्ट देता है। इससे यूं भी समझा जा सकता है कि क्रिया करते समय संकल्प हर हालत में शुद्ध होना चाहिए।

हमारी संस्कृति में कल्याण के लिए शुभ संकल्प की बात कही गई है। संकल्प अशुद्ध हुआ तो वासना के गहरे गड्ढे में गिरना तय है। शुभ संकल्प के साथ जब भी कोई काम करेंगे हम उस कर्म की कुरूपता के पक्ष से मुक्त होंगे। कर्म व्यावहारिक जीवन से जुड़ा है और व्यावहारिक जीवन में अच्छाई-बुराई दोनों रहती है। शुभ संकल्प हमें व्यावहारिक जीवन में उतार तो देंगे लेकिन अच्छे पक्ष से ही जोड़े रखेंगे। हम अपने जीवन का सृजन करना चाहेंगे, विध्वंस नहीं। ऐसा संकल्प समाज के भेदभाव को भी मिटाएगा, धन की शुद्धता पर ध्यान देगा और यहीं से अपराध और भृष्टाचार जैसी बीमारियों से मुक्ति होगी।

बाबा रामदेव का अभियान जब तक योग से जुड़ा है इसीलिए शुभ संकल्प से जुड़ा है और उसके दायरे में आने वाले लोग निश्चित ही करुणा के साथ परिवर्तन लाएंगे। दोष केवल दण्ड से दूर नहीं किया जा सकता उसके निवारण के लिए मनुष्य के भीतर के पूरे रसायन को ही बदलना पड़ेगा। संतों द्वारा यह जो राष्ट्रीय निदान सुझाया जा रहा है उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए।

सफलता के साथ शांति का सूत्र सीखिए सुंदरकांड से...
यह दिख रही सफलता को केवल अर्जित करने का ही नहीं, बल्कि नई-नई सफलता गढऩे का भी युग है। असफल कोई नहीं रहना चाहता। इसी कारण सतत् सफलता का तनाव असफलता से भी ज्यादा हो गया है। सुख अर्जित करना एक बड़ी सफलता माना जा रहा है।

पढ़ा-लिखा हो या बिना पढ़ा-लिखा आजकल इतना सक्षम और जुगाड़ु तो आदमी होता ही जा रहा है कि इधर-उधर से सुख उठा ही लेता है। सुख की सामान्य परिभाषा यही बना दी गई है कि जो हमारे अनुकूल हो वह सुख तथा विपरीत हो वह दु:ख। तो सुख अर्जित करना इस समय बहुत कठिन काम नहीं है। परन्तु सवाल यह है कि शांति कहां से लाएंगे?

यह किसी तिजोरी से नहीं निकलती, किसी सैलेरी से नहीं मिलती, केवल बही-खाते में नहीं बसी है, किसी इंस्टीट्यूट में नहीं पढ़ाई जाती। यह तो आदमी को खुद अर्जित करना पड़ेगी। सुख के साथ जब शांति होगी तभी सफलता सही और स्थाई होगी तथा जीवन सुंदर होगा। तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के पाँचवें सौपान का नाम सुंदरकाण्ड रखा है।

इसमें हनुमानजी की सफलताओं के प्रसंग हैं। इसके आरंभ के श्लोक का पहला शब्द ही शांति को समर्पित है-

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं...

शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परम्शान्ति देने वाले श्रीराम की वंदना इन पंक्तियों में की गई है। जीवन सुंदर ही तब है जब सफलता के साथ शांति हो। सुंदरकाण्ड में हनुमानजी ने तीन बड़ी सफलताएं एक साथ अर्जित की थीं। सीताजी को संदेश दिया था, विभीषण के हृदय में श्रीराम का स्वभाव स्थापित किया और रावण के मन में प्रभाव।

इस तरह होता है धर्म का सही निर्वाह...
धर्म निश्चय से होता है, व्यवहार से नहीं। यह दार्शनिक वाक्य धर्म और अध्यात्म के बीच में सेतू की तरह है। इन दिनों धर्म की स्थिति धार्मिक लोगों ने ही भ्रम और विवाद जैसी बना दी है। खासतौर पर नई पीढ़ी के लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर किस तरह से धार्मिक हुआ जाए।

जैन ग्रंथों का अध्ययन करने वाले दिगम्बर जैन समाज के सद्गुरु कानजी स्वामी ने इस वाक्य को कहा था। 'धर्म निश्चय से होता है' का अर्थ उन्होंने बताया था कि केवल कर्मकाण्ड, पूजापाठ से दिव्य स्थिति उपलब्ध नहीं होगी। अध्यात्म एक स्वभाव होता है, इसे जीना पड़ता है।

कानजी स्वामी ने जैन ग्रंथों का व्यापक अध्ययन करके बहुत ही सुंदर आध्यात्मिक विचार प्रकट किए थे। उन्होंने एक जगह कहा था जीवन में कोई भी कार्य करना हो तो दो बातें होती हैं- पहला निमित्त और दूसरा उपादान। इसमें उपादान महत्वपूर्ण है। जैसे किसी स्त्री ने रोटियाँ बनाई।

अब इसमें वह स्त्री, बर्तन और रोटी तो निमित्त होंगे लेकिन उपादान होगा आटा। जिन्दगी के प्रति जिस दिन ऐसा नजरिया आता है कार्य के फल में निष्कामता अपने आप आ जाएगी और इसी का परिणाम होगा सफलता के साथ शांति भी आएगी। जीवन में बहुत सारी चीजें क्रमबद्ध घटती हैं। कानजी स्वामी एक जगह कहते हैं - घटनाओं का तयशुदा क्रम परिवर्तित नहीं होता।

इसीलिए पुरुषार्थ पूरा किया जाए एवं फल को साक्षी भाव से देखा जाए। जीवन में जो तय है वह अपने आप प्रकट होगा। जैसे कुंआ खोदते समय पानी को कहीं ओर से नहीं लाना पड़ता। वह तो मौजूद रहता ही है। सिर्फ आसपास के मिट्टी, कंकर-पत्थर हटा दिए जाएं तो पानी स्वयं निकल आएगा। जिंदगी में व्यर्थ हटा दें तो सार्थक अपने आप बाहर आता है।

इस ताकत से पाया जा सकता है भगवान को....
हर तरह से बलशाली बनने के इस समय में बाहुबल, धनबल, जनबल इन्हें भौतिक तौर-तरीकों से पाया जा सकता है। यह कोई बहुत कठिन काम नहीं होता। यह सब तो रावण के पास भी था, क्योंकि उसने अर्जित किया था। लेकिन आत्मबल की कमी उसमें भी थी और आज भी कई लोगों में रहती है।

लगातार प्रयास करते रहिए कि बाहर से सब तरह से सक्षम होने के साथ हम आत्मबली भी हों। इसकी शुरूआत आत्मज्ञान से होती है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना। अपने को जानने की पहली सीढ़ी है हम भीतर से क्या हैं? या यूं कहें हमारे भीतर हमारे अलावा और कौन रहता है?

जैसे ही इस सवाल के जवाब में हम थोड़ा गहरे उतरेंगे तभी हमें अनुभूति होगी हमारे भीतर परमात्मा रहता है और जितने उसके निकट जाएंगे उतना ही हम यह अधिक महसूस करेंगे कि हम ही परमात्मा हैं। हमारे भीतर रहकर ईश्वर ने हमें अपने जैसा बनाया है, लेकिन संभावना छोड़ दी है कि हम पहचानें या न पहचानें। हम भगवान की शानदार कृति हैं और वे हमारे भीतर बसे ही हैं।

इस अनुभव को बढ़ाने के लिए एक प्रयोग करें। जब भी हम कोई काम करें इस बात का दबाव स्वयं पर बनाएं कि हमारा हर कृत्य हमारी भगवत्ता को जरूर स्पर्श करे। यदि हम कुछ गलत कर रहे हैं तो हमारी भगवत्ता उससे अछूति नहीं है। फिर विचार करें परमात्मा अनुचित नहीं करता। चूंकि हम उससे कट गए हैं इसलिए जीवन में गलत शुरू हो गया है।

जैसे ही हम भीतर उससे जुड़ेंगे अनुचित अपने आप उचित में बदलने लगेगा। भीतर भगवान से जुडऩा ही आत्मबल है। कोई है जो हमसे सीधे-सीधे जुड़ा है। भीतर से उनका साथ होना बाहर हमारे व्यक्तित्व को ओज और तेजमय बना देगा। भीतर उतरने की शुरूआत करने के लिए सरल उपाय है जरा मुस्कराइए...

तरक्की के लिए यह बात भी जरूरी है...
दुनियाभर में उन्नति का बड़ा शोर है। निजी, परिवार, समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिए बड़े-बड़े अभियान चल रहे हैं। हमें इन सभी क्षेत्रों में अपना योगदान देना चाहिए। लेकिन इसी के साथ लगातार आत्म-उन्नति के लिए अत्यधिक सजग और सक्रिय होना पड़ेगा। इसके लिए स्वाध्याय जरूरी है यानी स्वयं का अध्ययन।

यह दो तरीके से हो सकता है। पहला, हम खुद इस काम को करें, अपने को देखते रहें। दूसरा, हमारे पास कुछ ऐसे लोग होना चाहिए जो कोच की तरह दूर से हमें देखकर समझाते रहें। ये माता-पिता, जीवनसाथी, मित्र, गुरु के रूप में भी हो सकते हैं। मानसिक उन्नति में इन लोगों का योगदान इसलिए अधिक होता है कि यह हमारे अंतर तल को स्पर्श कर सकते हैं।

जो लोग मानसिक रूप से उन्नत और स्वस्थ होते हैं उनके लिए जीवन में सुख और दु:ख के अर्थ बदल जाते हैं। शांति और सुख दो अलग-अलग बातें हैं। शांति का मतलब सुख बिल्कुल नहीं लगाना चाहिए। सुख अपनेआप में एक झंझट हो सकती है। सुख कई तरह की उठापटक भी जीवन में लेकर आता है।

दु:ख तो परेशान करता ही है। सुख और दु:ख दोनों की अपनी प्रचण्डता होती है। दोनों भीषण, विकट और विकराल रूप ले लेते हैं। लिहाजा संतोष दोनों में ही गायब हो जाता है। सुख के उत्पात दु:ख के उपद्रव से कम नहीं होते है। तनाव दोनों में है, शक्ल बदल जाती है। सुख भी बेचैन करता है और दु:ख भी व्यग्रता में डाल देता है।

दु:ख में यदि संघर्ष है तो सुख की खींचातानी भी कम नहीं है। कुलमिलाकर दोनों ही विश्राम रहित हैं। दोनों में ही थकावट है। यदि इन दोनों स्थितियों में निढाल होने से बचना चाहें तो शांति ढूंढना पड़ेगी और शांति उन्हें ही मिलेगी जो मानसिक रूप से अपने आप को उन्नत कर लेंगे।

दो ही तरह के लोगों को अच्छी लगती है तन्हाई...
दिल लगता नहीं अकेले में, यह भी आजकल की जीवनशैली की एक बड़ी समस्या है। पुराने दार्शनिक लोग कह गए हैं कि दो ही लोगों को अकेलापन प्रिय लगा है। योगियों में साधु-संतों को और भोगियों में स्त्रियों को।

अकेलेपन में मनुष्य की निकटता, स्पर्श और संग को अलग-अलग रूप से देखा जाता है। अकेलेपन का अर्थ लिया जाता है किसी का साथ न होना और इसीलिए इसे दूर करने के लिए दूसरे को ढूंढा जाता है, किसी और से इसको भरते हैं, खासतौर पर देह से। या तो अपनी देह को आदमी अपने अकेलेपन में किसी और से जोडऩे का प्रयास करता है।

जैसे खेल, मनोरंजन के साधन या और कोई व्यक्ति। इसीलिए शरीर से मिटाया जाने वाला अकेलापन अस्थाई होता है। कुछ समय के लिए खत्म होगा और फिर लौटकर आएगा। अकेलापन मिटाने का दूसरा तरीका होता है भावनात्मक स्पर्श से। आदमी केवल शरीर से शरीर को नहीं छूता, दृष्टि और हृदय से भी दूसरों को स्पर्श किया जा सकता है।

अकेलापन मिटाने की इस क्रिया में मन और हृदय सक्रिय हो जाते हैं। भावनात्मक स्पर्श अपना काम तो करता है लेकिन जरूरी नहीं कि अकेलापन मिट जाए, पूर्ण तृप्ति और संतुष्टि तब भी नहीं मिलती। इसलिए इस मामले में एक बार फिर हमें अपने हृदय और मन की भूमिका को समझना होगा। भावनात्मक रूप से अकेलापन मिटाने में मन केवल विचार और जानकारियां भीतर भरता है और बाहर उगलता है।

मन से हटकर जब हृदय से जुड़ जाएं तो अकेलेपन में हृदय कुछ अधिक पवित्र होता है, ठीक बदलाव लाता है। मन को विचारों से खाली कर दीजिए। खाली मन अपने आप खिसककर हृदय के पास चला जाता है और हृदय से फिर पूरे शरीर में भावनाओं का संचार होता है और ऐसा संचार अकेलेपन को आनंद में बदल देता है। यह क्रिया है तो गहरी पर करने पर परिणाम बड़े शुभ देती है।

अच्छे-बुरे की ऐसे करें पहचान...
भौतिक चीजों के असली-नकली होने के मापदण्ड स्थूल होते हैं। थोड़ी अक्ल हो तो हम पहचान सकते हैं कौन सी चीज सही है और कौन सी गलत। लेकिन जब जीवन के गुणों और दुर्गुणों की बात आती है और उसमें असली नकली की पहचान करना हो तो झंझट शुरू हो जाती है।

मन गुणों और दुर्गुणों पर लेपन करने में बड़ा माहिर होता है। संसार के काम करते हुए त्याग और वैराग्य लाना कठिन हो जाता है, जबकि शांति के लिए दोनों जरूरी हैं। वैराग्य का सामान्यतया अर्थ गलत लगा लिया जाता है।

त्याग आदमी तभी कर सकता है जब उसके भीतर वैराग्य जागा हो। वरना त्याग भी एक तरह का शोषण बन जाएगा, सौदा बन जाएगा। वैराग्य का यह अर्थ नहीं होता कि चीजों को छोड़ दें। बल्कि इसका सही अर्थ यह होगा कि उन्हीं चीजों का सद्पयोग दूसरों के हित में होता रहे।

जितना हम दूसरों को सही लाभ पहुंचा सकेंगे उतना ही हमारे वैराग्य और त्याग का मतलब सही होगा। इसलिए कहते हैं अपने भीतर थोड़ी वैराग्य की वृत्ति होना जरूरी है। जब-जब आप भीतर से अशांत हों थोड़ा अपने वैरागी लेवल को चैक करिए। बिना वैराग्य जागे हम अपने भीतर का जो भी रूपांतरण करना चाहेंगे वह नकली होगा। इसलिए नकली सद्गुण हमें सरल मालूम पड़ते हैं।

असली सद्गुण अपनाने के लिए साहस की जरूरत होती है। जब तक भीतर वैराग्य नहीं होता, साहस नहीं जागेगा। वैराग्य का अर्थ ही यह है छोडऩे की शक्ति। पकडऩे की चाह भय पैदा करती है और छोडऩे की इच्छा ताकत देती है। यदि वैराग्य भीतर है तो अहंकार छोडऩे का साहस आसान होगा। यह आध्यात्मिक समीकरण हम अपने हर सद्गुण और दुर्गुण के साथ लगा सकते हैं।

हनुमान से सीखें दुश्मनों को दोस्त बनाना....
आपके संघर्ष की यात्रा में आप अकेले नहीं होते हैं, जितने मित्र होते हैं उससे अधिक शत्रु भी जुड़ जाते हैं। लेकिन हर काम को यदि सुंदरता से किया जाए तो एक जगह जाकर शत्रु और मित्र का फर्क ही खत्म हो जाता है।

सुंदरकाण्ड पढ़कर लोगों को यह समझ में आ जाता है कि हनुमानजी कर्म-धर्म, अनुराग-विराग, भक्ति-योग के समन्वय और संतुलन की पाठशाला हैं। इनके जीवन की एक-एक घटना यह सिखा देती है कि थोड़ी सी आध्यात्मिकता काफी है बहुत अधिक भौतिकता के लिए। भौतिकता के सही परिणाम पाना हो तो हल्का सा छींटा आध्यात्मिकता का देना पड़ता है।

लंका की ओर सीताजी की खोज में जैसे ही हनुमान उड़े, तुलसीदासजी ने एक दोहा लिखा है -

जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।

देवताओं ने पवन पुत्र हनुमानजी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए उन्होंने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमानजी से कहा आज मुझे तुम्हारे रूप में भोजन प्राप्त हो गया है। हनुमानजी की सफलता की यात्रा में यह एक और बाधा थी। हम जब भी अपने कर्मक्षेत्र में उतरेंगे सुरसा जैसी बाधाएं भी आएंगी। सुरसा को सर्पों की माता कहा गया है।

सर्पिणी का स्वभाव है कि वह अपने ही अण्डे खा जाती है। हनुमानजी ब्रह्मचारी हैं और सामने एक स्त्री। यहां लिखा गया है-

सुनत बचन कह पवनकुमारा।

सुरसा की बात सुनकर तत्काल हनुमानजी ने उत्तर दिया। हनुमानजी समझा रहे हैं कि एक तो समस्या का निराकरण करने में देर न की जाए। पेंडिंग रखना आलस्य का रूप है और पहले सुरसा को शब्दों में समझाते हैं, उसके बाद क्रिया पर उतरते हैं। हमारे लिए यही सबक है कि चरणबद्ध चलें और समस्याओं को निपटाएं।

तो हम सब ज्यादा सुरक्षित रहेंगे
मिलजुलकर रहना हिम्मत का काम है। पहले कहा जाता था सब मिलकर रहेंगे तो सुरक्षित रहेंगे और आज महसूस किया जाता है कि अपनों से ही खतरे पैदा हो जाते हैं। दो-चार लोग मिलकर रहें दूर की बात है, अब तो एक छत के नीचे दो लोग पति-पत्नी के रूप में मिलकर नहीं रह पाते।

महात्मा गांधी ने अपने 11 व्रतों में स्पर्श भावना को भी एक व्रत कहा है। उनका मामला केवल छुआछूत से नहीं जुड़ा था। उस समय हो सकता है इस बात का महत्व था कि कोई अछूत न रहे, लेकिन आज इसके अर्थ और बदल गए। आदमी अपने ही लोगों को अछूत मानता है और वैसा ही व्यवहार करता है, जबकि हमें अपने पास, साथ रहने वालों के प्रति एक पवित्र स्पर्श का भाव होना चाहिए।

धर्म कुछ अलग सिखाता है इससे हटकर धार्मिकता यह सिखाती है कि जब हम अपने निजी जीवन के प्रति सम्मान का भाव रखेंगे, पूरे अस्तित्व के प्रति आभार की भावना रखेंगे तभी हम दूसरों के प्रति करुणामयी रहेंगे, स्पर्श भावना लिए हुए होंगे। स्पर्श भावना मनुष्य की स्वाभाविक मांग है। चाहे वह सत्संग से पूरी हो, दाम्पत्य से संतुष्ट हो या मित्रता से, पर बिना इसके काम नहीं चलता। अपने और दूसरे के शरीर के प्रति हमें बहुत ही पवित्रता का भाव रखना चाहिए। इससे हमारे मिलजुलकर रहने की वृत्ति पर बड़ा अनुकूल असर पड़ेगा।

शरीर को हथियार मानकर इस्तेमाल करना या अपवित्र जानकर दुरूपयोग करना पूरी शारीरिकता और परमात्मा दोनों का अपमान है। मानव मात्र का शरीर उतना ही पवित्र है जितना किसी साधु का या मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित प्रतिमा का। यह भाव जितना परिपक्व होगा परिवार और समाज में हमारी मिलजुलकर रहने की भावना उतनी ही दृढ़ होगी। ऐसी मानवीय समझ मनुष्यता के विकास के लिए बहुत ही जरूरी है।

ऐसे लोगों को ज्यादा सावधान रहना चाहिए...
भूल किससे नहीं होती। अनजाने में होती है और जानबूझकर भी की जाती है, लेकिन कर्म के साथ भूल का सिलसिला बना ही रहता है। कुछ लोगों की भूलें दूसरे ही उनको बताते हैं और कुछ लोग स्वयं उन्हें पकड़ लेते हैं।

जो अनजाने में गलती कर जाते हैं उनकी अबोध दशा तो माफ की जा सकती है लेकिन जो जानबूझकर गलत कर रहे हों और ऐसा समझकर कि यह हमारे हित के लिए है फिर भी करते रहें, उन्हें सावधान रहना चाहिए। लम्बे समय तक ऐसी गतिविधि भविष्य में बड़ा नुकसान पहुंचाएगी। जिस क्षण यह पता लगे कि हमसे गलती हो गई है और वह गलती किसी व्यक्ति या परिस्थिति से जुड़ी है तो फोरन क्षमा मांग ली जाए।

धर्म में इसे ही प्रायश्चित का बोध कहा गया है। प्रायश्चित का भाव केवल अफसोस नहीं होता, बल्कि दोबारा गलत काम न करने का संकल्प भी इसमें छुपा रहता है। गलत काम हो जाने पर जब हम क्षमा मांगने की तैयारी कर रहे होते हैं तब हमारा मन हमें रोकता है। इसके पीछे हमारा अहं काम कर रहा होता है। अहंकार को क्षमायाचना करने में बड़ी पीड़ा होती है।

अहंकार हमें समझाता है कि गलत काम करने के बाद यदि क्षमा मांगी गई तो लोग आपको कायर, निर्बल, मूर्ख समझेंगे। अहंकार कहता है बड़ी से बड़ी मुसीबत आ जाए उससे निपट लेंगे, पर गलती होने पर क्षमा मत मांगो। और यहीं से मनुष्य लगातार गलतियां करते चला जाता है। जीवन में प्रसन्नता और आनंद की जो संभावना होती है वह समाप्त होने लगती है।

हमारे और हमारी सफलता के बीच में ये गलतियां रुकावटें और बाधाएं बनकर स्थाई रूप बस जाती हैं। गलत के विरूद्ध लडऩे और संघर्ष करने की रूचि समाप्त हो जाती है। इसलिए पहली बात तो गलत करें न और यदि हो जाए तो प्रायश्चित से गुजरें। हो सकता है हर गलती एक सीख बन जाए।

इन अनचाही घटनाओं से इस तरह बचें...
जीवन घटनाओं का जोड़ होता है। जिन घटनाओं का संबंध हमसे है उनका प्रवेश हमारे भीतर हो यह स्वाभाविक है, लेकिन दिक्कत तब होती है जब कुछ ऐसी घटनाएं भी हमारे भीतर प्रवेश ले लेती हैं जिनका हमसे कोई लेना-देना नहीं है।

हम कहीं से गुजर रहे हों, विवाह समारोह का संगीत बज रहा हो या जाती हुई कोई शवयात्रा की धुन सुनाई दे जाए और भले ही इनसे हमारा संबंध न हो लेकिन हमारा मन इन्हें तत्काल आमंत्रित कर लेता है, लपक लेता है और असंबंधित घटनाएं भी भीतर उतरकर झंझटें शुरू कर देती हैं। इसकी दूसरी ओर जिन घटनाओं से हम जुडऩा चाहिए उन्हें लेकर हमारा मन अपने दरवाजे बंद कर लेता है।

इससे हमारे जीवन की गंभीरता चली जाती है, एक उथलापन आ जाता है, जिनसे जुडऩा है उनसे कट जाते हैं और उन सब बातों से संबंध रख लेते हैं जो अकारण हैं, बल्कि कई मामलों में अप्रिय भी। इसलिए अपने मन को लेकर एक निजी समझ, व्यक्तिगत विचार और संयमित शैली की जरूरत होती है।

मन और हृदय दो अलग-अलग बातें हैं। काम दोनों एक साथ करते हैं। मन शब्द और विचार के माध्यम से गतिशील होता है, कार्रवाई करता है, मुखरित रहता है और हृदय जुड़ा हुआ है भावनाओं और संवेदनाओं के रूप में। इसलिए हृदय के पास शब्द नहीं हैं और मन के पास शब्दों का भंडार रहता है।

अवांछित घटनाओं को भीतर आने से रोकने के लिए और सही घटनाओं से जुडऩे के लिए मन और हृदय के बीच एक ब्रिज बनाना चाहिए। इसी पुल का नाम ध्यान है। मेडिटेशन जितना अधिक होगा, जुड़ाव और कटाव उतना परिपक्व रहेगा। हमारे शरीर के यह दोनों केन्द्र अद्भुत रूप से काम करेंगे। ध्यान का एक तरीका यह भी है कि जरा मुस्कराइए...

बड़े-बड़े लोग हो जाते हैं इस कमजोरी के शिकार...
अनेक तरह से बलशाली लोग भी मानसिक दुर्बलता के शिकार पाए जाते हैं। हमारे संत-महात्माओं ने तो मानसिक बल पर खूब जोर दिया है और काम भी किया है। जब भी जीवन में निराशा आए, अपने पुराने सड़ेगले विचारों को त्यागें।

विचार भी लगातार बने रहने से बासी हो जाते हैं, इन्हें भी मांजना पड़ता है, इनकी भी साफ-सफाई करना पड़ती है। कुछ समय स्वयं को विचार शून्य रखना भी विचारों की साफ-सफाई है। यह शून्यता गलत विचारों को गलाती है और इसके बाद आने वाले विचार दिव्य और स्पष्ट होंगे। विचार शून्य होने की स्थिति का नाम ध्यान, मेडिटेशन है।

कुछ समय अपने ऊपर अपने ही द्वारा अपने ही विचारों के आक्रमण को रोकिए। कुछ लोग काफी समय ध्यान की विधि ढूंढने में लगा देते हैं। कौन सी विधि से ध्यान करें इसमें ही उनके जीवन का बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। ध्यान के पहले इतना अधिक विचार किया जाता है कि आदमी विचारों में ही उलझ जाता है। थोड़ा समझें ध्यान की अपनी कोई विधि नहीं होती, ध्यान में जो बाधाएं आती हैं उन बाधाओं को हटाने-मिटाने की विधियां जरूर होती हैं।

ध्यान तो एक अवेयरनैस है। एक ऐसा होश जो अपनी शून्यता से विचारों को धो देता है। ताजे और प्रगतिशील विचार रोम रोम में समाते हैं और उनके नियमित उपयोग की कला भी आ जाती है। जो विधि जिसको जम जाए वह ठीक है लेकिन हर विधि एक रास्ता है बस बाधा को हटाने के लिए उसे ही ध्यान मानकर पकडऩा गलत होगा।

मानसिक दुर्बलता से मुक्ति पाने के लिए कोई न कोई ऐसा मार्ग पकड़ लें जो आपको ठीक लगे, ध्यान का स्वाद स्वयं आ जाएगा।

ये तीन चीजें दिलाती है हर काम में सफलता...
लगन के साथ श्रम और श्रम के साथ ईमानदारी का संयोग होना जरूरी है। केवल लगन अधूरे और घातक परिणाम देगी। गलत काम करने वालों के भीतर भी लगन होती है। चोर भी अपना काम पूरी लगन से करता है। चोरी दिखती तो है श्रम के साथ, पर है घोर-आलस्य का काम।

जो लोग परिश्रम और ईमानदारी से संपत्ति अर्जित नहीं करना चाहते वे गलत काम करके इसे पूरा करते हैं। यह आलस्य और अपराध ही है। लगन, श्रम और ईमानदारी का मेल सही बैठ जाए तो शांति मिलना आसान है। ऐसे लोग सफल हों या असफल, शांत जरूर रहेंगे। वैसे बारीकी से देखें तो पाएंगे शांति हमारा मूल स्वभाव है।

हम खुद ही अपनी इच्छाओं, मनोरथों के उपद्रव खड़े कर इससे दूर होते जाते हैं। जिनके कारण हमारे भीतर व्यग्रता, उदासी, बेचैनी आती है, उन कृत्यों को पहचान कर, चिन्हित कर जीवन से फेंकना पड़ेगा। इसे ध्यान रखा जाए कि शांति को अलग से प्राप्त नहीं करना है, वह तो पहले से, जन्म से ही हमारे अस्तित्व में है।

मनुष्य की मूल चेतना शांति ही है, बस व्यर्थ हटा देना है। कुछ लोग शांति पाना भी अपनी महत्वाकांक्षा बना लेते हैं। ऐसे लोगों के लिए योग, प्राणायाम, ध्यान भी फैशन या हथियार बन जाते हैं। वे शांति को भी ऐसे खोजते हैं जैसे धन और पद को ढूंढा जाता है। शांति पाने के लिए भी लोग तनाव ले लेते हैं।

इसलिए लगन, श्रम और ईमानदारी को ठीक से पाएं, इन तीनों के आते ही अन्य अकारण चीजें खुद ब खुद गिर जाएंगी और आप पाएंगे कि आप अपनी मूल स्थिति शांति पर होंगे आसानी से। इस परिणाम के लिए एक काम और किया जा सकता है जरा मुस्कराइए...।

इसलिए हर काम का मनचाहा फल नहीं मिलता है...
यह स ही है कि कर्म हम ही करते हैं लेकिन उसके परिणाम तक आते-आते अन्य कुछ बातों का योगदान उसमें हो जाता है। इसलिए परिणाम के सौ प्रतिशत भाग को तीन भागों में बांटा जाए। पचास प्रतिशत जिम्मेदार हम स्वयं रहेंगे।

पच्चीस प्रतिशत भाग दूसरे व्यक्ति या परिस्थिति होंगे और शेष पच्चीस प्रतिशत में भाग्य और प्रारब्ध की भूमिका भी होगी। हमारे काम करने का तरीका और दृष्टिकोण परिणाम के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। यदि हम अपने हिस्से को और अधिक प्रभावशाली बनाना चाहते हैं तो एक काम करते रहिए।

हर कार्य की योजना बनाते समय चिंतन और चरित्र का समन्वय बनाए रखें। इससे भीतरी विरोधाभास समाप्त होगा तथा बाहर एक आत्मविश्वास जागता है। हमारी बॉडी लैंग्वेज बयान करने लगती है कि हम एक सुलझे हुए व्यक्ति हैं। यदि हम अपनी भूमिका वाले ५० प्रतिशत हिस्से पर ठीक से काम नहीं करेंगे तो न सिर्फ हम भ्रम में पड़ेंगे बल्कि हठी भी हो जाएंगे। अपने निर्णय और विचार दूसरों पर थोपने की अजीब सी जिद हमारे भीतर आ जाएगी।

जो हमने सोचा व कहा वही सही है यह दुराग्रह हमें अच्छे लोगों से दूर कर देगा। ऐसा व्यक्तित्व फिर किसी मध्य मार्ग के आधार को स्वीकार ही नहीं करता। जीवन हर बार एक अति पर टिका दया जाता है। ऐसा व्यक्तित्व फिर घोषणा करने लगता है कि या तो कोई हमारा मित्र है और यदि मित्र नहीं है तो फिर शत्रु है। जबकि जरूरी नहीं है कि जो हमारा मित्र न हो उसे शत्रु बना लिया जाए।

परन्तु, फिर व्यवहार ऐसा ही होने लगता है। इसी कारण कार्य के परिणाम में हमारी भूमिका गड़बड़ा जाती है और दोष हम दूसरे व्यक्ति, परिस्थिति, भाग्य और प्रारब्ध को देने लगते हैं।

हनुमान से सीखें प्लानिंग को सफल कैसे बनाया जाए...
योजना जितनी स्पष्ट पूर्व नियोजित होगी परिणाम उतने ही सफलता लिए रहेंगे। आइए, किसी कार्य से पूर्व प्लानिंग कैसे की जाए हनुमानजी से सीख लें। सुंदरकाण्ड में जब वे सीताजी की खोज के लिए लंका की ओर उडऩे की तैयारी कर रहे थे तब तुलसीदासजी ने लिखा -

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।

बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी।।

समुद्र के तीर पर एक सुंदर पर्वत था। हनुमानजी खेल-खेल में ही कूद कर उस पर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके हनुमानजी उस पर से बड़े वेग से उछले। यहां एक शब्द आया है कौतुक यानी खेल-खेल।

हनुमानजी जा तो रहे थे युद्धभूमि में लेकिन वृत्ति थी खेल की। हनुमानजी कहते हैं जिंदगी को खेल की तरह लिया जाए। खेल में भी एक हारेगा, दूसरा जीतेगा। लेकिन खेल में प्रतिस्पर्धा होती है हिंसा नहीं होती, वैमनस्य नहीं होता। हारने वाला खिलाड़ी जानता है एक दिन फिर जीतने का मौका मिलेगा।

पर्वत पर चढऩे का अर्थ है अपना आधार दृढ़ रखा। जिन्हें जीवन में लम्बी छलांग लगाना हो उन्हें अपना बेस मजबूत रखना चाहिए। इसका सीधा सा अर्थ है योजना व्यवस्थित रखी जाए उसके बाद काम किया जाए। दृढ़ आधार का एक और अर्थ है जिंदगी की ईमारत की नींव बचपन होती है। जिसका बचपन दृढ़ है, सुलझा हुआ है उसकी जवानी फिर नहीं लडख़ड़ाएगी।

आगे शब्द लिखा है - बार-बार। हनुमानजी ने श्रीरामजी को बार-बार याद किया। अपने हर अभियान में परमात्मा को निरंतर याद रखिएगा। भक्त का जीवन सांप-सीढ़ी के खेल की तरह होता है। कभी शीर्ष पर तो कभी सांप के मुंह में अटक कर वापस पूंछ पर आना पड़ता है। भक्ति करते हुए कभी बहुत अच्छा लगता है तो दुर्गुण के थपेड़ों से अचानक पतन भी हो जाता है। इसलिए हनुमानजी सिखाते हैं कि परमात्मा से जुड़ाव की निरंतरता बनाए रखें।

ऐसे हो सकती है तन-मन-धन की शुद्धि
अपनी असफलता और सफलता को दूसरों की सफलता-असफलता से तुलना करने में बुराई नहीं है। एक स्वस्थ विश्लेषण करना अहंकार से बचने का आसान तरीका हो सकता है। पूरी ईमानदारी से और पूर्वाग्रह से मुक्त होकर दूसरों की अच्छाई को देखें और समझें।

फिर लगातार विचार करें कि ऐसी अच्छाई अपने भीतर है या नहीं, और यदि नहीं है तो किन प्रयासों से ये खूबियां हमारे भीतर उतर सकती हैं। भक्ति का एक लक्षण यह भी है कि दूसरों की अच्छाइयों को आत्मसात करें। जो सच्चे भक्त हैं वे इस मामले में बहुत सदाशय होते हैं। भक्ति में कथा-सत्संग का महत्व ही इसलिए है कि वहां जाकर हम अच्छाइयों को स्वीकार करते हैं और ग्रहण भी।

कथा के लिए कहा जाता है वहां जाकर सुनते हुए दो बातें होना चाहिए देह की विस्मृति और दोष का भान। इन दोनों के बिना हम अच्छे विचार, आचरण अपने भीतर उतार ही नहीं पाएंगे। ध्यान दीजिए हम स्वस्थ तब ही होते हैं जब हम शरीर को भूले हुए रहते हैं।

सिर दुखा, पैरों में तकलीफ हुई तो शरीर याद आया। जितना शरीर अधिक याद होगा उतने हम अधिक बीमार होंगे। शरीर की विस्मृति और मन का अभाव हमें आत्मा की अनुभूति कराता है। यहीं से हम थोड़े हल्के होंगे, हमारी ग्राह्यता बढ़ेगी अच्छी बातें स्वीकार करने में, शरीर और मन जो बाधा पहुंचाते हैं, बल्कि दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं वह दूर होगी।

इसके लिए नियमित प्राणायाम-ध्यान बड़े काम के हैं। जिसके पास जितना समय हो उस हिसाब से योग करें, लेकिन करे जरूर। देह की शुद्धि स्नान से, धन की शुद्धि दान से और मन की शुद्धि ध्यान से हो ही जाती है।

इससे हो सकता है हमारा और समाज का विकास...
अच्छी बातें जहां कहीं भी मिलें स्वीकार करके अपने भीतर उतारना चाहिए लेकिन इसी समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अच्छाई और शांति हमारे भीतर से फिर बाहर निकले और समूचे समाज में फैले। यह जब दो तरफा होगा तभी इसके परिणाम सही मिलेंगे।

स्वामी अवधेशानंद गिरिजी एक जगह कहते हैं- प्रत्येक व्यक्ति इस तरह का जीवन जी रहा है कि उसकी जिंदगी कई हिस्सों में बंट जाती है- भौतिक शरीर, मन, बुद्धि। और इन सबके अलावा एक आध्यात्मिक पक्ष है भगवान। इन स्तरों पर हम अपने आप को बिखरा हुआ महसूस करते हैं जबकि इनमें तालमेल होना चाहिए, एक रिदम होना चाहिए, एक भरोसा होना चाहिए।

हम सही तरीके से पूरे व्यक्तित्व के रूप में संगठित नहीं हो पाते। इसका एक कारण यह है कि हम लोग अपने आध्यात्मिक पक्ष से ठीक से परिचित नहीं हो पाते। यदि अपने व्यक्तित्व को सम्पूर्ण बनाना है तो अपने आध्यात्मिक पक्ष को विकसित भी करना पड़ेगा और उससे परिचित भी होना होगा। इसमें एक बाधा है अहंकार।

अहंकार हमें तोड़ता है, जोड़ता नहीं। लेकिन अहंकार का भाव आसानी से जाता भी नहीं है। आप इसे जितना मिटाने की कोशिश करेंगे यह उतना ही नई-नई शक्लों में सामने आ जाता है। और कुछ नहीं तो विनम्रता के रूप में ही आ जाएगा। अहंकार को मिटाने से अच्छा है उसे समझा जाए। बिना इसे समझे यह मिटेगा नहीं, बल्कि समझ आई और यह गया। अहंकार के अंधकार को हटाने के लिए समझ एक दीए का काम करेगा।

अहंकार हटा और हमें अपने भीतर उतरने में सुविधा हुई। भीतर उतरते ही हमारा सबसे पहला जुड़ाव परमात्मा से होगा। प्रभु में प्रेम है, प्रकाश है, शांति है, आनंद है और चेतन है। यही सब हमारे भीतर आएगा और हमारे व्यक्तित्व के टूटे हुए हिस्से फिर जुड़ जाएंगे।

अगर स्वर्ग चाहते हैं तो यह जरूर करें...
सभी चाहते हैं स्वर्ग मिल जाए या स्वर्ग जैसी स्थितियों का समावेश जिंदगी में हो जाए। दार्शनिकों ने कहा है हमारा होना ही स्वर्ग है। जिस ढंग का जीवन हम जीते हैं उसी ढंग से स्वर्ग और नरक अपने आसपास निर्मित कर लेते हैं। एक संत हुए हैं सुंदरदासजी।

ये प्रसिद्ध संत दादूजी के शिष्य थे और खंडेलवाल वैश्य समाज में राजस्थान के दोसा में पैदा हुए थे। इन्होंने बड़ी अद्भुत पंक्तियां लिखी हैं। एक जगह इन्होंने लिखा है -

सुंदर सतगुरु आपनैं किया अनुग्रह आइ।

मोह-निसा में सोवते हमको लिया जगाई।।

सुंदरदासजी ने गुरु के महत्व पर बहुत सुंदर लिखा है। जो स्वर्ग की खोज में हों उन्हें जीवन में गुरु और संत का महत्व समझना चाहिए। जितनी देर हम संतों के साथ बैठेंगे समझ लीजिए स्वर्ग के निकट हैं या स्वर्ग में ही बैठे हैं। संत तीन बातें करते हैं और इसीलिए उनके तीन रूप माने गए हैं - पहला तो वे सूरज हैं, जो सोए हुए हैं उनको जगाते हैं।

दूसरा, वे पवन की भांति हैं, सोए हुए को हिलाने के लिए हवा की भूमिका में रहते हैं और यदि आदमी तब भी न उठे तो संत, पंछी की तरह होते हैं शोर करेंगे कि अब तो उठ जाओ। सूर्य, पवन और पंछी तीनों का अपना कोई स्थाई ठिकाना नहीं होता। जो लोग विस्मरण में पड़े हैं ये लोग उनके भीतर स्मरण कराते हैं। संत के सान्निध्य में समझ में आ जाता है कि स्वर्ग का अर्थ है- परिष्कृत, गुण-ग्राही, विधायक दृष्टिकोण, हर शुभ का स्वीकार। फकीर की फकीरी हमें यही समझाती है। जहां आप सहमत होना सीखें वहीं स्वर्ग घटा है।

इसलिए सुंदरदासजी की घोषणा है जो उनके नाम के अनुरूप ही है कि जीवन सुंदर तब है जब सबकुछ स्वीकार्य है और उसी के साथ शांति भी जीवन में उतर जाए। इसलिए स्वर्ग चाहते हों तो संतों का सान्निध्य बनाए रखिए।

एक प्रार्थना से कट सकते हैं ये तीनों संकट...
हमारे कर्मकाण्ड में प्रार्थना एक महत्वपूर्ण पक्ष है। बहुत बारीकी से देखें तो प्रार्थना कर्मकाण्ड है भी और नहीं भी। या यूं कहें कि इसकी शुरुआत कर्मकाण्ड से होती है और समापन भक्ति पर जाकर होता है। जब हम अपने व्यावसायिक जीवन को अध्यात्म से जोडऩा चाहें तो प्रार्थना एक सेतु का काम करेगी।

परमात्मा से जुड़े रहने के लिए प्रार्थना का सहारा लेना चाहिए। जीवन में कोई भी काम करें भगवान की हिस्सेदारी, साझेदारी बनाए रखिएगा। गायत्री परिवार के युग पुरुष पं. श्रीराम शर्मा ने एक सुंदर शब्द दिया है- ईश्वरीय साझेदारी। वे कहा करते थे परमात्मा यदि हमारे जीवन व्यापार में घुल जाए तो लोहे का सा काला कुरूप जीवन पारस स्पर्श से बने स्वर्ण की तरह साकार हो जाएगा।

हर मनुष्य में कुछ अपूर्णता, कमियाँ या कहें अधूरापन रहता है। परमात्मा की साझेदारी से यह दूर होगा। इसका सीधा सा अर्थ है जीवन के हर निर्णय में भगवान की उपस्थिति। उसकी मौजूदगी हर खालीपन के लिए एक भराव बन जाएगी। पूरा जीवन अपने आप में एक व्यवसाय है, उद्योग है।

जैसे ही भगवान को पार्टनर बना लेते हैं हमारे नफे-नुकसान, सफलता-असफलता में भी वे साझेदार होंगे और इनके अर्थ बदल जाएंगे। हमारे भीतर का अज्ञान, अशक्ति और अभाव, ये तीनों संकट इस साझेदारी से दूर होंगे। यह हिस्सेदारी बनी रहे इसके लिए लगातार प्रार्थना जरूर करिए। शुरूआत में लगेगा हम प्रार्थना कर रहे हैं, पर धीरे-धीरे इस करने को समाप्त कर दीजिए और होने दीजिए।

प्रार्थना करना और प्रार्थना होना दोनों में फर्क है। जैसे सांस ली नहीं जाती, वह अपने आप आती है और बाहर जाती है। उसी तरह प्रार्थना को बनाए रखें। परमात्मा को याद करके जिन क्षणों में आंखों में आंसू आ जाएं समझ लें प्रार्थना हो रही है और परमात्मा मौजूद है जीवन में अपनी साझेदारी के साथ।

तो फिर हर काम का परिणाम हमारे पक्ष में होगा...
हम जो भी काम करें उसके पीछे क्या है इस बात का सदैव मूल्यांकन जरूर करें। हमारे काम के पीछे शरीर कितना है, बुद्धि कितनी है और हृदय कितना है। इन तीनों का आंकलन जितना सही होगा उतना ही किए हुए का आनंद हम अधिक उठा पाएंगे।

आर्ट ऑफ लिविंग के केन्द्रीय पुरुष श्री श्री रविशंकर कहते हैं कार्य के परिणाम को लेकर यदि हम ज्वरग्रस्त हैं यानी परिणाम हर हाल में हमारे पक्ष में आए इसकी बीमारी पाले हुए हैं तो स्वस्थ होने के लिए कुछ इस प्रकार करिए। पहला काम तो अपने भीतर भरोसा और आत्मविश्वास जगाएं कि जो भी परिणाम होगा वह कल्याणकारी होगा।

अच्छा या बुरा होगा इसे भूल जाएं। यह भाव आते ही हम कर्म-बंधन और उपलब्धियों की आकांक्षा से थोड़ा मुक्त हो जाएंगे। परिणाम के प्रति कुछ लोग बीमार जैसे हो जाते हैं। खासतौर पर विद्यार्थियों का जब परीक्षाफल आने को होता है तो वे किसी भी हद तक उसके लिए जा सकते हैं। कुछ तो भय में आत्महत्या कर बैठते हैं।

परिणाम के प्रति अत्यधिक चिंताग्रस्त, भयग्रस्त होने से बचने के लिए कुछ और काम किए जा सकते हैं। जैसे कहीं और व्यस्त हो जाएं, संगीत सुनें, कुछ न हो तो सो जाएं। स्नान करना भी इस तरह की बीमारी से मुक्त होने का तरीका है। जब परिणाम के प्रति भय सताए तो एक आदत बना लें जब भी जो काम कर रहे हों पूरी तरह उसमें डूब जाएं।

इसका फायदा यह होगा हमारी सृजन शक्ति बढ़ेगी और परिणाम को लेकर स्मरण शक्ति घटेगी। जीवन को खेल की तरह लें युद्ध की तरह नहीं। महसूस करिए जिंदगी में कुछ चीजें होती ही हैं और होकर रहती हैं। आपका वश एक सीमा तक ही चलेगा। ऐसे समय अपनी क्रिया को शरीर, बुद्धि और हृदय के संतुलन के साथ करें।

ऐसे हो टाइम मैनेजमेंट तो होगा हर काम सफल...

हर पल का सद्पयोग करना समझदारी है, लेकिन हर पल में कामकाज ठूंस देना मूर्खता है। इस समय तो लोग काम को नशा बना चुके हैं। कई लोग कहते हैं हम एक क्षण भी खाली नहीं बैठ सकते। समझ लीजिए वे अशांति के ढेर पर बैठने की तैयारी कर रहे हैं। ईश्वर ने एक क्षमता हमको ऐसी दी है जिसको हल्का-फुल्का बनाकर जीना चाहिए, वरना क्षमता का दुरूपयोग हो जाएगा।

24 घण्टे में कुछ समय निष्काम हो जाएं, अपने आप को खाली छोड़ दें विचारों से, कर्म से। यह खालीपन आगे के भराव के लिए काम आएगा। बल्कि हमें नियमित रहने में भी सहयोग देगा। इस खालीपन में एक रसपान करें। भारतीय संस्कृति में रस शब्द का बड़ा सुंदर उपयोग किया है। रसायन शब्द इसी से बना है। शास्त्रों में ईश्वर को 'रसो वै स: कहा है।

इसका एक अर्थ है परमात्मा एक रस है। इसकी एक बूंद 24 घण्टे में जरूर पी जाए। रसायन का अर्थ ही यह है कि इसे भीतर उतारा जाए। यह रस दो जगह मिलता है - गुरु के सान्निध्य में और कथा-सत्संग में। वहां और कुछ नहीं मिलता। ये दोनों स्थान प्याऊ हैं इस रस के लिए।

गरमी में प्याऊ का महत्व ही यह है कि वह प्यास बुझाने के काम आती है। जीवन भीतर से कई बार प्यासा हो जाता है और बाहर से हम बेचैन रहते हैं। हम समझ नहीं पाते कि यह बेचैनी किस प्यास के कारण है। इस बेचैनी को दूर करने के लिए हम बाहर के तरीके अपनाते हैं। जबकि यह प्यास भीतर बुझ सकती है और उस रस से बुझती है जिसे दुनिया ने ईश्वर कहा है।

इसलिए 24 घण्टे खूब काम करें, पर कुछ पल रसपान जरूर करें। इस रस को पीते ही प्रेम की अनुभूति स्वयं होगी और हम दूसरों को भी करा सकेंगे। फिर आप कितने ही व्यस्त रहें आपका व्यक्तित्व प्रेमपूर्ण रहेगा और दूसरों की यह शिकायत अपने आप बंद हो जाएगी कि आप वक्त नहीं देते।

सफलता चाहिए तो खुद के प्रति भी हो श्रद्धा...
अधिकांश मौकों पर हम अपने व्यक्तित्व को दूसरों से संचालित करते हैं। होना यह चाहिए कि हमें अपने व्यक्तित्व पर श्रद्धा रखना होगी। कोई भी काम करें इस बात पर अधिक ध्यान न दें कि लोग हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे। दूसरों की टिप्पणियों से जब हम संचालित होने लगते हैं तो एक बड़ा नुकसान यह भी होता है कि हमारा आत्मविश्वास डगमगाने लगता है।

हम अपने व्यक्तित्व पर जितनी अधिक श्रद्धा रखेंगे हमारे भीतर एक नई योग्यता का जन्म होगा और वह है अच्छी और बुरी दोनों परिस्थितियों में जीने का निर्णय हम स्वयं लेने लगेंगे। जिन्दगी को बगिया और जंगल दोनों की तरह जीना पड़ता है।

बगीचे के पेड़-पौधे व्यवस्थित रूप से तैयार किए जाते हैं। माली उनकी बराबर देखभाल करता है। बगीचे में सब कुछ सुरक्षित होता है। वहां सजावट होती है, वहां के खिले हुए सुंदर फूल न सिर्फ आकर्षित करते हैं बल्कि मन को मोह लेते हैं। हमारा जीवन इस तरह के बगीचे की तरह ही होता है, लेकिन जीवन का एक पक्ष जंगल के माफिक भी होना चाहिए। प्रकृति का यह रूप वन में भी देखने को मिलेगा। लेकिन वहां एक स्वाभाविकता होती है जंगल का रूप अनघड़ और अछूता होता है।

किसी मालिक या माली ने उस पर अपना नियंत्रण नहीं किया होता है। वहां संघर्ष है, पर सौंदर्य भी है। हमारा व्यक्तित्व जब जंगल की भांति होता है तो उसकी अभिव्यक्ति बिल्कुल अलग रहती है। इसलिए पुराने समय में वनवास का भी एक महत्व था। जीवन को वन और बाग दोनों से गुजारना चाहिए।

सुविधा और संघर्ष दोनों अपनी-अपनी सीख देकर जाते हैं। जितना हम अपने व्यक्तित्व पर श्रद्धावान होंगे उतना हम इन परिस्थितियों ने परिचित हो जाएंगे। अपने व्यक्तित्व पर लौटने के लिए सत्संग एक सरल माध्यम है। जीवन में सत्संग के अवसर बनाए रखिए।

ऐसा सोचेंगे तो हर काम मुश्किल हो जाएगा...
जीवन में कई काम दूसरों के सहयोग से ही पूरे होते हैं। मनुष्य यह सोच ले कि सबकुछ मैं ही कर लूंगा तो मुश्किल है। लेकिन जैसे ही जीवन में दूसरे का प्रवेश होता है, हलचल भी शुरू हो जाती है। आदमी की अपनी सत्ता बड़ी निरंकुश होती है।

दूसरा कितना सहयोग देगा या असहयोग करेगा इससे कभी-कभी भूचाल आ जाता है। लेकिन बिना उसके काम भी नहीं चलता। फकीरों ने एक शब्द कहा है खुमारी। इसका अर्थ होता है एक ऐसी स्थिति जहां आप होश में भी हैं और बेहोश भी, जहां दु:ख भी है और सुख भी, आंसू भी हैं और मुस्कान भी। कोशिश करें कि भावनात्मक रूप से दूसरों पर आश्रित न रहें।

व्यावहारिक रूप से सहयोग लें और सहयोग दें। ऐसा बिल्कुल न सोचें कि दूसरे हमारे ही हिसाब से चलेंगे। कई लोगों को यह बीमारी लग जाती है कि जो हम सोच रहे हैं या कह रहे हैं वैसा ही दूसरा करे। और इसी कारण हम दूसरों पर हावी होने की कोशिश करते हैं। या अपनी ऊर्जा इसमें लगाते हैं कि दूसरा हम पर हावी न हो जाएं। इस दुनिया में आए हैं तो दूसरों के बिना रहना मुश्किल है। इसलिए थोड़ा समय ध्यान यानी मेडिटेशन करें।

ध्यान से खुमारी जागती है। जब आप खुमारी का मतलब समझ जाएंगे तब आप स्थित-प्रज्ञ जैसे हो जाते हैं। लोगों से जुड़े भी रहेंगे और छिटके हुए भी रहेंगे। यदि आप भक्ति भी करेंगे तो आपके भीतर मीरा का नृत्य भी हो रहा होगा और बाहर महावीर की तरह, गौतमबुद्ध की तरह बिल्कुल शांत नजर आएंगे।

आप कृष्ण की तरह छोटी उंगली पर पर्वत भी उठा लेंगे और आप राम की तरह एक-एक पत्थर को समुद्र में पत्थर फिंकवाकर सेतु बनाते नजर आएंगे। इसलिए ध्यान की खुमारी २४ घण्टे में थोड़ी देर के लिए अपने भीतर जरूर उतारें।

केवल इन बातों को ही याद रखें...
अच्छी स्मरण शक्ति का यह अर्थ नहीं है कि बातों को याद रखा जाए। बढ़िया याददाश्त के मायने यह भी हैं कि जो भुलाने लायक है उसे भुला दिया जाए। ताकत याद रखने में ही नहीं लगती, उससे ज्यादा ताकत तो व्यक्तियों और स्थितियों को भुलाने में लगती है।
स्मरण शक्ति का उपयोग लाभकारी होना चाहिए। हर उस बात को याद रखें, जो खुशी दे, चित्त को हल्का बनाए, तबीयत प्रसन्न रखे। जिससे खिन्नता, भारीपन, निराशा, उदासी आती हो उसे भुलाने में ही भला है।

स्मरण शक्ति को भी रीचार्ज करना पड़ता है। इसकी मेमोरी को हमेशा फुल न रखें, खाली करते रहें। रिफ्रेश की कला को याददाश्त से जरूर जोड़ें। जो ज्यादा याद रखते हैं, वे डिप्रेशन में भी जल्दी चले जाते हैं। याददाश्त की साफ-सफाई ठीक से नहीं करेंगे तो एक बीमारी और हो जाती है।

जो जरूरी बातें हैं वो समय पर दिमाग में नहीं आतीं और ऊटपटांग, इधर-उधर के विचार मस्तिष्क में न चाहने पर भी आते हैं। स्मरण शक्ति के सदुपयोग के लिए कुछ ऐसा किया जाए कि विचार के स्तर पर उनसे जुड़ें जिनसे सीधा संबंध न हो, जैसे प्रकृति और परमात्मा, मनुष्यों और उनके द्वारा निर्मित स्थितियों के अलावा भी संसार में बहुत कुछ है, जैसे- वृक्ष, नदी, पर्वत आदि, इनके अस्तित्व से जुड़ें।

इनसे जुड़ते ही विचार नवीन बनेंगे, जो हमें जीवन की गहरी जड़ों तक ले जाएंगे और स्मृति को ताजगी प्रदान करेंगे, तब आसान होगा याद रखने वाली बात याद रखना, भूल जाने वाली भूल जाना।

भगवान सिर्फ उन्हें मिलता है जिनके पास यह संपदा है...
इस समय हर आदमी बहुत तेजी में है। प्रतीक्षा कोई नहीं करना चाहता। जल्दी के चक्कर में इंसानियत ने एक बात खो दी है और वह है धर्य। भौतिक मार्ग में जल्दबाजी भी योग्यता मानी जाती है।

अध्यात्म मार्ग में धैर्य गहना है। परमात्मा उन्हें ही मिलता है, जिनके पास धीरज है। जिनकी जीवन यात्रा में धर्य होता है, वे थोड़ा अपने आसपास भी देख पाते हैं। जो जल्दी में हैं, उन्हें इतनी फुर्सत कहां कि वे अपने आसपास के लोगों को देख सकें।

पराए तो दूर, ये जल्दीबाजी वाले अपने सगे लोगों पर भी ध्यान नहीं दे पाते। यही जल्दी इन्हें अपने लोगों के लिए समय के मामले में कंगाल बना देती है। जीवन में धर्य हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम अपनी सेवा और सहयोग से दूसरों को सुखी बनाएं।

जब दूसरे विपत्ति में हों तो उन्हें देख हमारा धीरजभरा स्वभाव हमें प्रेरित करता है कि हम उनकी मदद करें। धर्य का एक और गुण है कि दूसरों को सुखी देख वह हमारे भीतर प्रसन्नता भरता है। वरना आजकल लोग अपने दुख से कम, बल्कि दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी रहते हैं।

अधीरता के कारण लोगों की प्रतीक्षा की क्षमता ही खत्म हो गई है। ऐसे में संसार तो मिल जाएगा, पर परमात्मा नहीं और बिना परमात्मा के शांति कैसे मिलेगी?

भगवान हर घड़ी हमारी ओर हाथ बढ़ाता है, लेकिन हम देख नहीं पाते, क्योंकि जल्दी में हैं। बाहर की गति तो रहे, पर भीतर का धर्य बना रहे तो दुनिया भी मिलेगी और दुनिया बनाने वाला भी नहीं छूटेगा।

अगर हमेशा खुश रहना है तो यह करें
खुश रहने के कई तरीके हैं। सांसारिक माध्यम से जब हम खुश रहते हैं तो एक दिक्कत आती है। वह माध्यम खत्म हुआ और हम पुन: दुखी हो जाते हैं। क्लब गए, टीवी देखी, खेल खेला और जब उनसे दूर हटे तो वापस अशांत हो गए। कुछ स्थायी इलाज ढूंढ़ने होंगे। अपनी निजी और आंतरिक वृत्तियों में इसके सहारे ढूंढ़े जाएं। यदि स्थायी रूप से प्रसन्न रहना है तो अपने आंतरिक सुख को पकड़ें।

जो लोग इस संसार में स्थायी रूप से प्रसन्न रहे हैं, उन्होंने अपने अकेलेपन को ठीक से समझा है और उसका एक बड़ा लाभ यह उठाया है कि उस अकेलेपन के दौरान अपनी भीतरी शक्तियों को विकसित कर लिया, क्योंकि ऐसा करने के लिए थोड़ा संसार से कटना जरूरी हो जाता है।

भीतरी सुख थोड़ा सहज होता है, लेकिन सांसारिक सुख में एक उत्तेजना होती है। मजेदार बात यह है कि इस संसार का दुख भी उत्तेजित करता है और सुख भी, लेकिन इन दोनों को जब अपनी भीतरी शक्तियों से जोड़ दें तो भीतर न सुख होता है, न दुख और इन दोनों के पार की स्थिति है शांति।

परमात्मा ने हर व्यक्ति की समझदारी का एक आंतरिक तल तय कर दिया है। आप जितनी जल्दी उस तल तक पहुंच जाएंगे, उतने शीघ्र शांत हो सकेंगे। आप सुख और दुख दोनों को भोग रहे होते हैं, लेकिन उत्तेजित नहीं रहते। ऐसी शांति सुगंध बनकर आपके व्यक्तित्व से झरती है और उस घेरे में आने वाले अन्य व्यक्तियों को महसूस भी होती है।

ऐसे बुलाएं हनुमानजी को अपने जीवन में...
भक्ति में हृदय की प्रमुखता होती है। बुद्धि से भक्ति करने में बाधा आएगी। प्रेम का स्थान हृदय है। हनुमानचालीसा की अंतिम चौपाई में तुलसीदासजी ने भगवान से निवेदन किया है कि हमारे हृदय में विराजिए। हनुमानचालीसा मन से आरंभ हुई थी। पहले ही दोहे में

श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनउं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।

यहां निज मनु का अर्थ है कि मन रूपी दर्पण को गुरु के चरणों की धूल से साफ किया जाता है। तो मन को लगातार साफ, शुद्ध करें और हृदय में परमात्मा के लिए स्थान बनाएं। 40वीं चौपाई में लिखा गया है -

तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महं डेरा।।

हे हनुमानजी! यह तुलसीदास सदा सर्वदा के लिए श्रीराम (हरि) का सेवक है। ऐसा समझकर आप उसके (तुलसीदास) हृदय में निवास करिए। इस चौपाई में ‘नाथ’ इसलिए कहा कि यदि हमको लगे कि हम अनाथ हैं, तो फिर हमारे भीतर बाबा हनुमंतलालजी की कृपा का अनुभव करें, हम अनाथ नहीं रहेंगे। आगे ‘डेरा’ शब्द का प्रयोग किया है।

गोस्वामीजी ने स्पष्ट मांग की है कि हे हनुमानजी! अकेले मत आना, पूरा डेरा-डंडा लेकर आना। डेरा-डंडा से मतलब है कि आप तो आएंगे ही, साथ में रामजी, सीताजी, लक्ष्मणजी पूरा डेरा लेकर आना। भक्त का हृदय भगवान का कैंप होता है। डेरे में जब सब होते हैं, तब जाकर डेरा पूरा लगता है और एक दिन में नहीं उठता। इसलिए कहा है कि महाराज डेरा लेकर आना।

अगर आप बदलना चाहते हैं अपनी आदतें...
संसार में रहते हुए हम कुछ आदतों को ओढ़ लेते हैं और कुछ को जीने लगते हैं। आदतों का स्वभाव होता है कि उसे बार-बार करने की इच्छा होती है। पुनरावृत्ति आदत का मूल स्वभाव है। देर से उठने की आदत है तो अगले दिन फिर देर से उठने की इच्छा होगी।

आदत अतीत से जुड़कर अतीत को ही भविष्य में पटकने पर उतारू होती है। आदत से बचने के लिए अपने भीतर के स्वभाव को समझना होगा। अभी तो हमने भक्ति को भी आदत बना लिया है, जबकि भक्ति स्वभाव का विषय है।

सामान्य रूप से ऐसा समझा जाता है कि जो लोग भक्ति कर रहे हैं, वे या तो कमजोर लोग हैं या छोटे ओहदे के व्यक्ति हैं। यह एक भ्रम है। जिनके पास मिटने की क्षमता है, वे ही भक्ति कर सकेंगे, क्योंकि जितना हम मिटेंगे, उतने ही हमारे भीतर के परमात्मा को रूप लेने का अवसर मिलेगा।

भक्ति एक आत्मघाती कला है। इसलिए जैसे-जैसे भक्ति जीवन में उतरेगी, हमें भीतर उतरने में सुविधा होगी। मन को निष्क्रिय करने में सहारा मिलेगा। अभी मन मालिक है और शरीर गुलाम। लेकिन भक्ति के उतरते ही परमात्मा प्रकट होने लगता है और ईश्वर की अनुभूति के सामने मन गौण हो जाता है।

मन मौन हुआ और हमारी सारी मस्ती, धूमधाम भौतिक सफलताओं के बाद भी हमें शांत रखेगी, प्रकाश ही प्रकाश होगा और इसी प्रकाश को आंतरिक उत्सव कहा गया है। जब हर काम में आनंद आने लगे तो फिर जिंदगी के अर्थ ही बदल जाते हैं।

असली पुरुषार्थ तो ऐसा होता है...
परिश्रम एक साधारण शब्द है। फिर इस समय जब मेहनत का बड़ा मोल है, सब लोग जमकर शोर मचाते हैं कि खूब मेहनत करो। इस चक्कर में परिश्रम और हम्माली का अंतर ही समाप्त हो गया। इन्हीं से मिला-जुला एक शब्द है पुरुषार्थ। परिश्रम में जब मन, वचन और कर्म एक जैसे हो जाते हैं, तब वह पुरुषार्थ कहलाएगा।

यह परिश्रम की दिव्य स्थिति है। जिनकी कथनी और करनी के बीच अंतर जितना कम होता है, उनकी सफलता और शांति के बीच भी उतना ही कम फर्क रह जाता है। जो लोग इस अंतर को मिटा देंगे, वे निष्काम कर्मयोगी होंगे।

ऐसे लोग किसी भी क्षेत्र में हों, सफल होने पर कभी भी अशांत नहीं रहेंगे। अपने परिश्रम को पुरुषार्थ का रूप देते समय निर्णायक तत्व क्या हो, इसके लिए एक प्रयोग करिए। कुछ ऐसे लोगों को लगातार ढूंढ़ते रहिए, जिनके पास बैठने पर चित्त रूपांतरित होने लगे।

इस बात का ध्यान रखें कि ऐसे व्यक्तियों के पास बैठते समय हमें जो उपलब्ध हो रहा है, उसके लिए हमें कोई प्रयास न करना पड़े। अपने आप ऐसा होने लगेगा, बस अपने को थोड़ा शून्य बना लीजिए, थोड़ा खाली छोड़ दीजिए।

यदि अच्छे से अच्छे व्यक्ति के पास बैठकर भी हम खाली नहीं होंगे तो उसकी अच्छाई को अपने भीतर कैसे भरेंगे। उसकी आती हुई तरंगों का अपने खालीपन से स्वागत करना पड़ेगा और जब आप लगभग फ्रेश हो चुके हों, तब अपना परिश्रम करिए और ऐसा परिश्रम पुरुषार्थ में अवश्य बदल जाएगा।

सुखी और सम्पन्न भविष्य चाहिए तो इनकी बातें मानिए...
कोई भी वृक्ष कभी अपने बीज से बड़ा नहीं हो सकता। माता-पिता हमारे बीज, हमारी जड़ हैं। इसलिए जो जड़ से जुड़ा रहेगा, वह सूखेगा नहीं। माता-पिता में समूचे समाज की वृद्धावस्था विराजित है। समाज और राष्ट्र में बड़े-बूढ़ों का मान सबके सुखद भविष्य के लिए आवश्यक है।

तुलसीदासजी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के पंचम सोपान सुंदरकांड की पहली चौपाई का पहला शब्द जामवंत है। जामवंत श्रीराम की सेना के सबसे वरिष्ठ और वृद्ध सदस्य थे। सुंदरकांड की पहली पंक्ति अपने प्रथम शब्द के साथ समाज की वृद्धावस्था को समर्पित है -

जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।

जामवंत के वचन हनुमानजी के हृदय को बहुत भाए। सुंदरकांड हनुमानजी की सफलता की यात्रा है।

हनुमानजी ने अपने लंका अभियान के आरंभ में समाज के वृद्ध जामवंत को प्रणाम किया और चल दिए। हनुमानजी संदेश दे रहे हैं कि जीवन में जब भी कोई कार्य करने जाएं, समाज के बड़े-बूढ़ों को प्रणाम करें। माता-पिता को मान दें। उनके अनुभव और आशीर्वाद हमारे अभियान को सफल करेंगे। आगे की पंक्ति में लिखा गया है -

यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा।

मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है सबको मस्तक नवाकर। हनुमानजी ने सबको प्रणाम किया तथा प्रसन्नचित्त होकर चल दिए। उन्होंने समझाया कि किसी भी अभियान में तीन बातें ध्यान में रखें - विनम्रता, परमात्मा का स्मरण व प्रसन्नता।

सफलता के साथ जीवन की रक्षा के ये सूत्र भी याद रखें...
जब हम खूब परिश्रम कर रहे होते हैं, उस समय काम के दबाव में व्यावहारिक लक्ष्य तो याद रहता है, लेकिन जिंदगी से जुड़ी कुछ जरूरी बातें भूल जाते हैं। इसलिए कितने ही व्यस्त रहें, अपनी जीवन रक्षा के लिए काम आने वाले सूत्र कभी न भूलें, क्योंकि ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने बहुत कुछ पा लिया, पर जिसको जीवन कहते हैं, वो खो दिया।

चलिए, आज सिर्फ एक ही समस्या की बात करें और वह यह है कि जब बहुत नाम, दाम मिल जाए तब विलास से बचिए। वासना ऐसे समय चिपक जाती है। विलास का अगला कदम आलस्य होता है। विलासी आदमी के भीतर एक ऐसा आलस्य उतर जाता है, जो उसको सद्कर्मो से तोड़ता है।

खाना, रहना, पहनना, नौकर-चाकर की सेवा लेना, उत्सव, अत्यधिक दान करना ये सब जीवन के जरूरी काम हैं और इन्हीं मार्गो से वासनाएं प्रवेश की तैयारी रखती हैं। इसलिए बहुत अधिक व्यस्त रहते हुए इस बात की सावधानी रखें कि इन दैनिक क्रियाकलापों में विलासिता का प्रवेश न हो। एक छोटा-सा आध्यात्मिक प्रयोग है।

अपने कार्य में लोभ, लगाव की जगह वात्सल्य भाव उतारें। भक्ति में वात्सल्य का बड़ा महत्व है। मां को अपनी संतान से ऐसा ही भाव होता है। ठीक ऐसी रुचि हम अपने कर्म और उसके परिणाम के प्रति रखें। वात्सल्य भाव के उतरते ही हमारी सारी क्रियाएं पवित्र हो जाएंगी, वासनाओं के प्रति हम निडर रहेंगे और जीवन के प्रति आनंदित।

जब भी किसी बात का डर सताए तो ये दो काम करें...
हम जो भी काम करें, उसके पीछे क्या है सदैव इस बात का मूल्यांकन जरूर करें। हमारे काम के पीछे शरीर कितना है, बुद्धि कितनी है और हृदय कितना है, इन तीनों का आकलन जितना सही होगा, उतना ही किए हुए का आनंद हम अधिक उठा पाएंगे।

स्वामी जी कहते हैं कि कार्य के परिणाम को लेकर यदि हम ज्वरग्रस्त हैं तो स्वस्थ होने के लिए कुछ इस प्रकार करिए। पहला काम तो अपने भीतर आत्मविश्वास जगाएं कि जो भी परिणाम होगा, वह कल्याणकारी होगा।

यह भाव आते ही हम कर्मबंधन और उपलब्धियों की आकांक्षा से थोड़ा मुक्त हो जाएंगे। परिणाम के प्रति कुछ लोग बीमार जैसे हो जाते हैं। खासतौर पर विद्यार्थी अपने परीक्षा परिणाम से भयभीत हो किसी भी हद तक जा सकते हैं। कुछ तो आत्महत्या कर बैठते हैं।

परिणाम के प्रति अत्यधिक चिंताग्रस्त, भयग्रस्त होने से बचने के लिए कुछ और काम किए जा सकते हैं। जैसे कहीं और व्यस्त हो जाएं, संगीत सुनें, कुछ न हो तो सो जाएं। स्नान करना भी इससे मुक्त होने का तरीका है।

परिणाम के प्रति भय सताए तो जो काम कर रहे हों, पूरी तरह उसमें डूब जाएं। इससे हमारी सृजन शक्तिबढ़ेगी और परिणाम को लेकर स्मरण शक्ति घटेगी। जीवन को खेल की तरह लें, युद्ध की तरह नहीं। महसूस करिए जिंदगी में कुछ चीजें होती ही हैं और होकर रहती हैं।

आपका वश एक सीमा तक ही चलेगा। ऐसे समय अपनी क्रिया को शरीर, बुद्धि और हृदय के संतुलन के साथ करें।

अगर आप वाकई बड़ा बनना चाहते हैं तो ये करें...
जीवन में ज्ञान, कर्म और उपासना तीनों में से कोई भी मार्ग चुन लें, समस्याएं हर मार्ग पर आएंगी। लेकिन अच्छी बात यह है कि हर समस्या अपने साथ एक समाधान लेकर ही चलती है। समाधान ढूंढ़ने की भी एक नजर होती है।

सामान्यत: हमारी दृष्टि समस्या पर पड़ती है, उसके साथ आए समाधान पर नहीं। श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में जब हनुमानजी लंका की ओर उड़े तो सुरसा ने उन्हें खाने की बात कही। पहले तो हनुमानजी ने उनसे विनती की।

इस विनम्रता का अर्थ है शांत चित्त से, बिना आवेश में आए समस्या को समझ लेना। जब सुरसा नहीं मानी और उसने अपना मुंह फैलाया। जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।। सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।

उसने योजनभर (चार कोस में) मुंह फैलाया। तब हनुमानजी ने अपने शरीर को उससे दोगुना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया, हनुमानजी तुरंत ही बत्तीस योजन के हो गए। यह घटना बता रही है कि सुरसा बड़ी हुई तो हनुमानजी भी बड़े हुए।

हनुमानजी ने सोचा कि ये बड़ी, मैं बड़ा, इस चक्कर में तो कोई बड़ा नहीं हो पाएगा। दुनिया में बड़ा होना है तो छोटा होना आना चाहिए। छोटा होने का अर्थ है विनम्रता।

दुनिया जब भी जीती जाएगी, विनम्रता से जीती जाएगी। बड़ा होकर सिर्फ किसी को हराया ही जा सकता है। इसीलिए हनुमानजी ने छोटा रूप लिया और सुरसा के मुंह से बाहर आ गए।

श्रीकृष्ण की ये 6 अद्भुत बातें अपनाएं, फिर सफलता चूमेंगी आपके कदम
मानव जीवन को सुर-दुर्लभ कहा गया है, यानी देवताओं को भी कठिनाई से हांसिल होने वाली स्थिति। जिस जीवन को पाने के लिय देवता भी तरसते हों, अगर उसे बगैर तैयारी के, बिना किसी योजना और गंभीर सोच-विचार के वैसे ही बिता दिया जाए तो यह हमारी समझदारी नहीं होगी।

दुनियादारी से जुड़े सारे काम, व्यापार-व्यवसाय और शादी-ब्याह तक को सफल बनाने या सही अंजाम तक पहुंचाने के लिये प्लानिंग की जरूरत पड़ती है, तो फिर जिंदगी को बगैर किसी प्लानिंग के कैसे बीतने दिया जा सकता है। मगर अधिकांश लोगों के साथ हो यही रहा है। जहां जीवन और उसके प्रबंधन की बात आए तो सबसे पहले पूर्णावतार श्री कृष्ण का नाम याद आता है।

श्रीकृष्ण पूर्ण कलाओं के अवतार हुए हैं। सौलहों कलाएं जिनकी विकसित हों, ऐसे अवतार थे श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण ने स्वयं तो सफल और सार्थक जीवन जीया ही साथ ही अपने करीबी दूसरे लोगों को भी जीवन को सार्थक बनाने, संवारने, निखारने में सहयोग किया। जीवन पूरी तरह से खिल व महक सके इसके सारे सूत्र श्रीकृष्ण ने दिये।

संतान की परवरिश कैसे हो इस प्लानिंग की कमी रह जाने के कारण धृतराष्ट्र-गांधारी के 100 कौरव पुत्रों का भविष्य अंधकार भरे दुखांत में बदल गया। वहीं दूसरी तरफ कृष्ण की बुआ देवी कुंती ने पांचों पाण्डु पुत्रों को प्रारंभ से ही ऐसे संस्कारों में ढाला कि बड़े होकर वे एक से बढ़कर एक सफलताओं और उपलब्धियों को प्राप्त करते चले गए।

देवी कुंती द्वारा दिये गए श्रेष्ठ संस्कारों के कारण पाण्डवों के जीवन की शुरुआत तो सुधर ही चुकी थी, लेकिन जब से पाण्डवों को श्रीकृष्ण का साथ और मार्गदर्शन मिला उनके जीवन की दिशा और दशा दोनों बदल गए। श्री कृष्ण द्वारा बताएऔर समझाए गए जीवनप्रबंधन के सूत्रों के कारण ही जूए में हारे हुए दर-दर भटकने वाले निराश पाण्डव फिर से अपना खोया हुआ आत्मविश्वास और अधिकार प्राप्त कर पाते हैं।

महाभारत के युद्ध का सर्वश्रेष्ठ घोषित यौद्धा अर्जुन श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन मे ही इस योग्यता और मुकाम को हांसिल कर पाया था।

आइए जानते हैं उन सूत्रों को जो श्री कृष्ण ने बनाए और बताए हैं। इन सूत्रों को अपनाकर हम भी अर्जुन की तरह से अपने जीवन को सार्थक ही नहीं बल्कि कामयाबियों के सर्वोच्च शिखरों तक पहुंचा सकते हैं....

जीवन निखार के 6 अद्भुत सूत्र:

1. समर्पण- पहला और सबसे अहम् सूत्र जो जिंदगी को बनाता, संवावता और निखारता है, वह है अपने काम के प्रति पूरा का पूरा समर्पण। समर्पण ऐसा कि जिसमे फिर कोई भी शंका और संदेह की गुंजाइश न रह जाए।

2. अविचलन- काम के परिणाम या नतीजे को लेकर भी किसी प्रकार की बैचेनी या उतावलापन न हो। किसी भी प्रकार का विचलन समस्या ही पैदा करेगा, इससे आपकी एकाग्रता तो टूटेगी ही साथ में गति भी धीमी पड़ जाएगी।

3. संघर्ष- जिंदगी में कठिनाइयों, मुसीबतों, दु:खों या कड़वाहटों का होना सामान्य बात है। इस हकीकत को हर कोई जानता है। लेकिन बहुत गहराई में छुपी हुई सच्चाई यह है कि जीवन में दुखों के रूप में आने वाले संघर्ष ही जीवन का सौन्दर्य हैं। आप दुनिया के किसी भी सुन्दर और सफल जीवन को देख लें और उसमें से यदि संघर्षों और दुखों को निकाल दिया जाए तो उसका सौन्दर्य और सुगंध समाप्त हो जाएगा।

4. केन्द्र- श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के जीवन को संवारने और सफल बनाने में ही क्यों सहयोग किया। क्या इसलिये कि पाण्डव इनके रिश्तेदार थे? रिश्तेदार तो कंस भी कम नहीं था, लेकिन सगे मामा को खुद अपने ही हाथों मार डाला।

पाण्डवों का साथ देने के पीछे कारण रिश्तेदारी नहीं बल्कि कुछ ओर ही था। कृष्ण के मन में ओरों से अधिक जगह बना सके, क्योंकि पाण्डव धर्म, सत्य और नीति के मार्ग पर हर सुख-दु:ख में डटे रहे। उन्होने केन्द्र में श्रीकृष्ण और धर्म को अंत तक बनाए रखा, यही उनकी जीत का कारण बना।

5. भावुकता- भावनाएं जीवन में रहें तो कोई हर्ज नहीं लेकिन संतुलन और सीमा सदैव बनी रहना चाहिये। भावनाओं में बहकर कर्तव्य से विमुख हो जाना या कमजोर पड़ जाना भावनाओं की नहीं बल्कि भावनाओं के असंतुलन की गड़बड़ का परिणाम है। यही हुआ था अर्जुन के साथ, जिन भावनाओं को हृदय की उदारता या महानता मानकर अर्जुन धर्म युद्ध से विमुख हो रहा था वह भावनाओं का असंतुलन ही था। गीता के माध्यम से श्रीकृष्ण ने अर्जुन के जीवन में संतुलन लाया।

6. परिणाम की चिंता- अच्छाई, सच्चाई या भलाई का रास्ता आमतौर पर कठिन हुआ ही करता है। इसलिये ऐसे कामों में इंसान परिणाम को लेकर अक्सर आशंकित और चिंतित रहने लगता है। इस चिंता और बैचेनी का बुरा असर यह होता है कि व्यक्ति का ध्यान अपने कर्तव्य से भटकने लगता है। साथ ही इंसान की कार्यक्षमता और योग्यता भी प्रभावित होकर घटने लगती है। इसलिये कर्म करें, परिणाम की चिंता परमात्मा पर छोड़ दी जाए।

अब की बार इस तरह मनाएं जन्माष्टमी...
केवल जन्म लेने से जिंदगी पूरी नहीं हो जाती। यह तो सिर्फ एक घटना है। जन्म को जब संवारा जाता है, तब जीवन शुरू होता है। लेकिन जिसे जीवन कहते हैं, उसका अधिकार मनुष्य के पास है। जन्म को जीवन में बदलने की संभावना श्रीकृष्ण के चरित्र में जन्माष्टमी के दिन अच्छे-से देखी जा सकती है।

आधी रात को उत्सव मनाए जाने का अर्थ है जीवन के अंधकार के प्रति विद्रोह। भारतीय संस्कृति में अवतारों ने अपने जन्म को भी बड़े सुंदर संदेश के साथ प्रस्तुत किया है। राम भरी दोपहरी में आए थे और कृष्ण घोर अंधकार में।

दोनों ने ही आश्वासन दिया कि हमारे जीवन में प्रकाश है, तब भी परमात्मा आएगा और दुगरुणों का अंधेरा होगा तब भी। श्रीकृष्ण के जन्म के पूर्व एक घटना घटी थी। उन्होंने योगमाया से कहा था कि मैं जन्म तो मथुरा में कारावास में लूंगा और माध्यम होंगे देवकी, वसुदेव।

उसके बाद मुझे गोकुल पहुंचाया जाएगा और योगमाया यशोदाजी के यहां जन्म लेंगी। आधी रात को वसुदेव कृष्ण को वहां रखेंगे और माया को मथुरा ले आएंगे तथा उसी माया का वध कंस करेगा। इस छोटी-सी घटना में बड़ा संदेश यह है कि कृष्ण के आने के पहले माया आई थी।

माया का सीधा-सा अर्थ है जादू। इसी जादू से भ्रम, भेद पैदा होता है। हमारे जीवन में कृष्ण जन्म का अर्थ होना चाहिए सबके प्रति समानता का भाव। कृष्ण ने जीवन के हर क्षण, पहलू को भरपूर जिया था। हम आज भरपूर जीने में चूक रहे हैं।

हनुमानजी से सीखिए सफलता के ये सूत्र
बुद्धिमान व्यक्ति को धर्यवान भी होना चाहिए। कभी-कभी बुद्धि की अधिकता आदमी को अधीर बना देती है। हनुमानजी के लिए सुंदरकांड में मतिधीर शब्द का उपयोग किया गया है। इसका अर्थ है - वे बुद्धिमान भी हैं और धर्यवान भी।

सुरसा नाम की राक्षसी जब मुंह फैलाकर उन्हें खाने के लिए आगे बढ़ी तो हनुमानजी पहले तो बड़े हुए और फिर बहुत छोटे होकर उसके मुंह से बाहर आ गए थे। वे अपने समय, लक्ष्य और ऊर्जा को लेकर अत्यधिक सावधान रहे। वे जानते थे कि उनका लक्ष्य रामकाज है।

सीताजी तक श्रीराम का संदेश पहुंचाना है। इसीलिए मैनाक पर्वत को उन्होंने कह दिया था -

रामकाजु कीन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम।

दूसरी बात, वे जानते थे कि सुरसा से युद्ध करने पर ऊर्जा और समय दोनों नष्ट होंगे। इसीलिए तुरंत वहां से आगे बढ़ गए। आगे उनके साथ एक घटना घटी- समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। हनुमानजी ने उसको मार डाला और आगे चले।


तुलसीदासजी ने हनुमानजी के लिए लिखा है -

ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।

धीर, बुद्धिमान, वीर श्री हनुमानजी उसको मारकर समुद्र के पार गए। मतिधीर लिखकर तुलसीदासजी बताते हैं कि इस समय जब शिक्षा के युग में बुद्धिमान होना सरल है, तब धर्यवान उतना ही कठिन होता जा रहा है। बुद्धि के साथ धर्य जुड़ जाए तो लक्ष्य पर पहुंचना आसान हो जाएगा।

क्या मांगें भगवान से सफल या असफल होने पर?
हमें अपनी कार्यक्षमता पर भरोसा होना चाहिए और अपने लोगों पर भी विश्वास करना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में जो भी घट रहा होता है, उसमें हमसे ऊपर एक परम शक्ति की बड़ी भूमिका रहती है। रामकथा में राम अवतार के पांच कारण बताए गए हैं।

उनमें से एक प्रसंग है कि शिवजी पार्वतीजी को कथा सुनाते हैं कि एक बार नारदजी ने विष्णुजी को शाप दिया। यह सुनकर भवानी चौंक उठीं। उन्होंने कहा - एक तो नारद विष्णुजी के भक्त हैं, उस पर ज्ञानी हैं, उन्होंने शाप क्यों दे दिया? यहां एक बहुत सुंदर पंक्ति आती है -

‘कारन कवन शाप मुनि दीन्हा, का अपराध रमापति कीन्हा।’

नारदजी पार्वतीजी के गुरु हैं। इसलिए उन्हें लग रहा है कि यदि कोई अपराध हुआ होगा तो वह विष्णु ने ही किया होगा, नारद नहीं कर सकते। शंकरजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया। शंकरजी ने कहा -

‘बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोई,

जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ।’

यह शंकरजी का अपना दर्शन है कि संसार में न कोई मूढ़ है, न ज्ञानी। परमात्मा जब डोरी घुमाता है तो आदमी कठपुतली की तरह डोलता है। वह ऊपर वाला ऐसा है कि न उसकी अंगुली दिखती है और न धागे, बस हम कठपुतलियों की तरह दिखते हैं। हमें अपनी क्षमता पर विश्वास होना चाहिए। ऊपर वाला जिंदगी की डोर अपने हाथ में रखता है, इसलिए सफल हों तो उसे धन्यवाद दें और असफल हों तो उससे ताकत मांगें।

हनुमानजी से सीखें गलत का विरोध और सही का समर्थन कैसे हो?
सहमति और विरोध की जीवन में अलग-अलग स्थिति में जरूरत पड़ती है, लेकिन यदि गलत में सहमति हो जाए और सही का विरोध हो जाए तो नुकसान भी उठाना पड़ता है। कहां सहमति देना और कहां विरोध करना है, इसमें हनुमानजी बहुत जागरूक थे।

जब सुंदरकांड में वे लंका प्रवेश के समय लंका की सुरक्षा अधिकारी लंकिनी के सामने आते हैं, तो मच्छर के समान छोटा-सा आकार लेकर हनुमानजी लंका में प्रवेश कर रहे होते हैं और लंकनी उन्हें पकड़ लेती है। तुलसीदासजी ने लिखा है-

जानेहि नहीं मरम् सठ मोरा। मोर अहार जहां लगि चोरा।।

हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना। जितने चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। लंकिनी ने हनुमानजी को चोर बोला। बस, यहीं से हनुमानजी ने विरोध का स्वर प्रकट किया। उन्होंने लंकिनी से कहा- तुम मुझे क्या चोर बता रही हो, दुनिया का एक बड़ा चोर रावण हमारी मां सीता को चुरा लाया है।

जब सुरक्षा व्यवस्था चोरों की ही रक्षा करने लग जाए, तब हनुमान का विरोध आरंभ होता है। हनुमानजी ने लंकिनी को एक मुक्का मारा और उसके मुंह से रक्त निकल आया। यह उनका सीधा विरोध था। गलत के प्रति आवाज उठाना, अनुचित का प्रतिकार करना हनुमानजी के चरित्र में था।

हम उनसे सीखें कि जब गलत बात हो तो हम विरोध में आगे खड़े हों और सही बात के समर्थन में पीछे न हटें। आमतौर पर लोग तटस्थ हो जाते हैं, इसीलिए उनकी अच्छाई के नीचे भी बुराई पनप जाती है।

तो आपके बच्चे होंगे यशस्वी और सफल
भारतीय परिवारों में सोलह संस्कार की जो व्यवस्था रखी गई है, उसमें संतान को भी संस्कार से जोड़ा गया है। ऋषि-मुनियों ने यह व्यवस्था बड़े सोच-समझकर की है। गृहस्थी में बिना प्रेम के शांति नहीं हो सकती। परिवार में प्रेम लाने के लिए शारीरिकता से ऊपर उठना होगा।

रिश्तों में शरीर के भाव को कम करने के लिए संतान बहुत बड़ा अवसर होती है। जैसे ही संतान होती है, माता-पिता प्रेम और संवेदना के साथ संतान पर टिक जाते हैं। यहीं से पति-पत्नी के बीच शारीरिकता कम होती जाती है। परिवार में बच्चों की मौजूदगी झगड़े और तनाव को कम करती है।

स्त्रित्व मातृत्व में और पुरुषत्व पितृत्व में घुल-मिल जाता है। बच्चों के लिए जब माता-पिता त्याग करते हैं तो वे इसे बोझ न मानकर आनंद मानते हैं, जबकि ऐसा त्याग पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए नहीं कर पाते। पहले के मुकाबले आज के बच्चे बाहर की स्थितियों से जल्दी व ज्यादा परिचित हो जाते हैं। ऐसे में संस्कारों को उनसे जोड़े रखना थोड़ा दबाव का काम हो जाता है।

लेकिन उनके व्यक्तित्व में संतुलन बनाने के लिए प्रेम से संस्कारों को उनके व्यक्तित्व में उतारा जाए, नहीं तो यह बच्चे घर और बाहर दोनों ही स्थिति में अशांत होकर अपने आप को दुख की स्थिति में पटक लेंगे।

इन्हें घर उपद्रव का अड्डा लगने लगेगा और बाहर नर्क नजर आएगा, जबकि नर्क हमारे जीने के तरीके का दूसरा नाम है। इसलिए परिवार जितना प्रेमपूर्ण होगा, संतानें उतनी ही यशस्वी हो सकेंगी।

इन लोगों को सबसे ज्यादा पसंद होता है अकेलापन...
दिल लगता नहीं अकेले में, यह भी आजकल की जीवनशैली की एक बड़ी समस्या है। पुराने दार्शनिक लोग कह गए हैं कि दो ही लोगों को अकेलापन प्रिय लगा है। योगियों में साधु-संतों को और भोगियों में स्त्रियों को।

अकेलेपन में मनुष्य की निकटता, स्पर्श और संग को अलग-अलग रूप में देखा जाता है। अकेलेपन का अर्थ लिया जाता है किसी का साथ न होना और इसीलिए इसे दूर करने के लिए दूसरे को ढूंढ़ा जाता है। अकेलापन मिटाने का दूसरा तरीका होता है भावनात्मक स्पर्श से।

आदमी केवल शरीर से शरीर को नहीं छूता, दृष्टि और हृदय से भी दूसरों को स्पर्श किया जा सकता है। अकेलापन मिटाने की इस क्रिया में मन और हृदय सक्रिय हो जाते हैं। भावनात्मक स्पर्श अपना काम तो करता है, लेकिन जरूरी नहीं कि अकेलापन मिट जाए, पूर्ण तृप्ति और संतुष्टि तब भी नहीं मिलती।

भावनात्मक रूप से अकेलापन मिटाने में मन केवल विचार और जानकारियां भीतर भरता है और बाहर उगलता है। मन से हटकर जब हृदय से जुड़ जाएं तो अकेलेपन में हृदय कुछ अधिक पवित्र होता है, ठीक बदलाव लाता है। मन को विचारों से खाली कर दीजिए।

खाली मन अपने आप खिसककर हृदय के पास चला जाता है और हृदय से फिर पूरे शरीर में भावनाओं का संचार होता है और ऐसा संचार अकेलेपन को आनंद में बदल देता है। यह क्रिया है तो गहरी, पर करने पर परिणाम बड़े शुभ देती है।

अपनी मौत को हमेशा इस तरह याद रखें...
जीवन में सीखने के लिए जितनी स्थितियां हैं, उनमें से एक महत्वपूर्ण है मृत्यु। फकीरों ने कहा है धार्मिकता शुरुआत है जीवन को सही रूप में देखने की। और अंत होते-होते धार्मिकता जब अध्यात्म में बदलती है, तब मृत्यु को सही ढंग से देखना आ जाता है।

मृत्यु भी गुरु की भूमिका में होती है। बड़ी से बड़ी सीख मृत्यु से ली जाती है। कई लोग कहते हैं फटाफट शरीर खत्म हो जाए तो ठीक है, पर थोड़ा-थोड़ा शारीरिक कष्ट और फिर मौत, यह बड़ा कष्टकारी है। लोग मौत भी सुविधाजनक चाहते हैं।

दरअसल, जब तक जिंदगी में बढ़िया चल रहा होता है, तब तक मृत्यु की याद भी नहीं आती और जहां शरीर के, हालात के कष्ट शुरू हुए तब मनुष्य थोड़ा-बहुत मौत को टटोलता है। मृत्यु को मजबूरी या भय से याद न किया जाए, इसे सतत स्मरण रखा जाए।

जितना मृत्यु से परिचय गहरा होगा, जिंदगी उतने ही अच्छे से समझ में आएगी। यदि जीना चाहते हैं तो मृत्यु को न भूलें। परमात्मा ने मनुष्य को बुद्धिमान बनाकर सर्वश्रेष्ठ वरदान दिया है। इसलिए थोड़ी बुद्धि मृत्यु के स्वाद, समझ और स्वागत में भी खर्च की जाए।

उसे जब आना होगा, कोई रोक नहीं पाएगा, लेकिन तैयारी पूर्व से ही होगी तो जीवन जरूर मस्ती का स्पर्श ले लेगा। मृत्यु की समझ के लिए सतत जागृति हमें प्रेमपूर्ण बनाएगी, हरेक के प्रति हमारी दृष्टि बदल देगी। ऊर्जा मौत से बचने में न लगाकर समझने में लगाई जाए तो जीवन जीना भी उपलब्धि हो जाएगा।

भगवान को देखना हो तो इस झरोखे से देखें...
जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टि और विश्वास जगाने के लिए कुछ विशेष परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। ऐसी ही एक परिस्थिति का नाम होता है गुरु। हम चाहे किसी भी मार्ग के व्यक्ति हों, भौतिकता का पथ हो या भक्ति की राह, कुछ न कुछ संदेह, भ्रम और प्रश्न खड़े हो ही जाते हैं।

जिज्ञासु लोग उत्तर पाना चाहते हैं। यह चाहत ही गुरु पर जाकर पूरी होती है, लेकिन याद रखिए गुरु उत्तर दे या न दे, पर समझ को एक उत्तेजना प्रदान कर देता है। वही समझ होश बनकर साधक के काम आती है।

जैसे छात्र जीवन में सफलता के लिए दो बातें जरूरी हो जाती हैं- शिक्षक और पाठच्यक्रम। इनसे भी जुड़ाव समर्पण और परिश्रम से होता है। योग्य शिक्षक मिल जाए और उपयोगी पाठच्यक्रम का चयन कर लिया जाए तो सफलता मिलती है।

यही दृश्य भक्ति के मार्ग में भी रहेगा। गुरु अपने मंत्र से मन के विसर्जन, निष्क्रियता की तैयारी कराता है। गुरुमंत्र रटने का विषय नहीं, मन को निष्क्रिय करने का साधन है। जिनके पास गुरुमंत्र है उनके लिए ध्यान में उतरना सरल है।

भौतिक जगत में भी सफलता के साथ जिस शांति की जरूरत है, वह जिस होश से आती है, उसका स्रोत ध्यान होता है। तो सद्गुरु के प्रभाव को व्यक्ति से अधिक मंत्र में मानें।

गुरु के झरोखे से भगवान को झांका जा सकता है, पर झरोखे पर ही टिक गए तो यह गुरु का अपमान होगा। जिन कारणों से सद्गुरु हमारे जीवन में आते हैं, यदि वे ही पूरे न किए जाएं तो यह सद्गुरु का अपमान ही होगा।

इस तरह बना सकते हैं जिंदगी को खूबसूरत....
जिंदगी तब और खूबसूरत हो जाती है, जब हम प्रत्येक क्षण को भरपूर जीते हैं। जीवन में जो रस होता है, उसको पूरी तरह से निचोड़ने की कला आनी चाहिए। हनुमानजी इस जीवनशैली के पारंगत थे। वे जो जब करते थे, जमकर करते थे।

चलिए, सुंदरकांड के उस प्रसंग में चलें, जहां लंका प्रवेश के अवसर पर हनुमानजी की चर्चा लंकनी से हो रही थी। हनुमानजी ने उसको एक मुक्का मारा। घायल होकर वह हनुमानजी से कहती है-

जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।

रावण को जब वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की पहचान बता दी थी। यहां एक शब्द आया है चीन्हा अर्थात चिन्ह यानी आइकॉन। इसका सीधा-सा अर्थ है हनुमानजी राक्षसों के विनाश की पहचान थे।

जिस तरह हम अपने संस्थान या काम का एक मोनो, लोगो या आइकॉन बनाते हैं, उसी तरह हनुमानजी सदैव से बुराइयों का विनाश और अच्छाइयों की स्थापना के आइकॉन हैं।

उनकी मौजूदगी का परिणाम था कि उनसे शत्रुता रखने वाली लंकनी ने कहा- हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए तो भी वे उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से होता है।

यानी लंकनी को हनुमानजी की उपस्थिति सत्संग लगी। हमारे भीतर यदि सद्गुण हैं तो हम जहां भी खड़े होंगे, आसपास के लोग सत्संग-सी अनुभूति करेंगे और यही हमारी उपलब्धि होगी।

अगर आप संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं तो ये याद रखें...
आजकल कुछ भी पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जिन्हें बिना संघर्ष के कुछ मिलता है, वे उसकी कीमत भी नहीं जान पाते। स्थितियों से संघर्ष करते-करते आदमी खुद से संघर्ष करने लगता है, फिर धीरे-धीरे अपनों से संघर्ष करने लग जाता है। यहीं से अपने और पराए का भेद शुरू हो जाता है।

नतीजा यह होता है कि सगे-संबंधियों में भेदभाव पैदा होकर घर टूट जाता है। इसलिए संघर्ष करने वालों को अपने भीतर अपनापन बनाए रखना चाहिए। अपनत्व का भाव जितना अधिक होगा, संघर्ष के दौरान संकीर्ण मनोवृत्ति उतनी ही कम होगी।

यदि ऐसा नहीं है तो जीवन में कलह का प्रवेश हो जाता है। परिवार टूटते हैं, सामाजिक एकता समाप्त होती है और देश की अखंडता पर भी इसका असर पड़ता है। इसलिए संघर्ष के दौर में अपनापन बनाए रखें।

हमारे भीतर अपनेपन की वृत्ति जागे, इसके लिए ईसाई महात्माओं का एक वचन याद रखना चाहिए - हर संत का एक अतीत होता है और हर पापी से एक भविष्य जुड़ा होता है। इस विचार को जीवन में उतारते ही हम समझ जाते हैं कि संत की स्तुति और पापी की निंदा करने में यह ध्यान रखें कि अपनेपन का भाव समाप्त न हो।

संतों की स्तुति इसलिए करते हैं कि हम उनके जैसा होना चाहते हैं और पापी की निंदा इसलिए करते हैं कि अपने अहंकार को तृप्ति मिले। अपनेपन का भाव आते ही हमारी दृष्टि बदल जाएगी और हम अपने संघर्ष को उत्सव का रूप दे सकेंगे।

क्या हनुमान की पूजा से दूसरे देवता नाराज होते हैं?
किसी में विश्वास करने का मतलब यह नहीं कि दूसरे में अविश्वास करें। विश्वास का अर्थ है सबका सम्मान करना। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा की 35वीं चौपाई में यही समझाया है।

और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।

हे हनुमानजी, आपकी इस महिमा को जान लेने के बाद लोग अन्य देवता को अपने चित्त में स्थान नहीं देंगे। ‘और देवता’ कहने का एक अन्य अर्थ भी है। ‘और अधिक’ देवताओं को चित्त में न रखें। जो भी आपके इष्ट हों उन्हें बनाए रखें।

इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि यदि श्रीहनुमानजी को आप पूजेंगे, तो अन्य देवता नाराज नहीं होंगे। तुलसीदासजी यह आश्वासन दे रहे हैं कि चिंता न की जाए। जिन्हें ज्योतिष में विश्वास है, वे ग्रहों के रूप में शनि को अत्यधिक पीड़ादायक मानते हैं।

यदि जातक की राशि में शनि का प्रवेश हो, तो प्रयास किया जाता है कि उनके कोप से बचा जाए। एक बार गर्व में डूबे सूर्य पुत्र शनि ने हनुमानजी को बाधा पहुंचाई। हनुमानजी ने शनि को समझाया कि उन्हें परेशान न करें, किंतु शनिदेव ने उन्हें युद्ध के लिए ललकारा।

तब हनुमानजी ने अपनी पूंछ में शनि को लपेटा और चट्टानों पर पटक-पटककर लहूलुहान कर दिया। पीड़ित शनि ने अपनी मुक्ति के लिए हनुमानजी को वचन दिया कि ‘मैं कभी आपके भक्त की राशि में प्रवेश नहीं करूंगा।’

अपने घावों से परेशान होकर शनिदेव तेल-तेल का विलाप करने लगे। इसीलिए उन्हें तेल चढ़ाकर प्रसन्न किया जाता है।

अगर दबंग होकर काम करना चाहते हैं तो यह करें...
विपरीत परिस्थितियों में विचलित न होना, संकट के समय धर्य रखना, विपत्ति में विवेक न खोना, इन विशेषताओं को शौर्य कहा जाता है। बुराइयों के विरुद्ध प्रतिशोध शौर्य माना गया है। स्वाभिमान, धर्म और राष्ट्रहित के लिए जो कार्य किए जाएं, वह शौर्य की श्रेणी में आते हैं।

इस छोटे से शब्द ‘शौर्य’ के लिए अभ्यास की आवश्यकता है। साहसी को सतत अभ्यास करना पड़ता है। निरंतर अभ्यास ही आपको शौर्यवान बनाएगा। इसीलिए जीवन में निरंतरता का बड़ा महत्व है। निरंतरता के अभ्यास के लिए हमारे साधु-संतों ने एक छोटी-सी विधि बताई है।

सूफी फकीरों ने कहा है - अल्लाह के नाम को जितनी बार लेंगे, उतना मजा बढ़ता जाएगा। साधु-संतों ने इसे ही आनंद कहा है। नाम जप की पुनरावृत्ति हमारे पूरे अस्तित्व को प्रेम से लबालब कर देती है।

हर सांस जब नाम से जुड़ जाती है तो हर कृत्य शौर्यपूर्ण होता है। इसलिए जिन्हें संसार में साहसिक कार्य करना हो, उन्हें अपने भीतर निरंतर जप का अभ्यास बनाए रखना चाहिए। लेकिन ध्यान रखें, इस अभ्यास को यांत्रिक न बनाएं। इसे श्रद्धा और निष्ठा से जिया जाए।

अभ्यास इस तरह से हो, जैसे हम नहीं कर रहे, वह हो रहा है। लगातार इस बात को अपने भीतर उतारें। नाम जप का काम प्रथम हो और करने वाले हम द्वितीय। जब ऐसा होने लगता है तो पूरा व्यक्तित्व शौर्यपूर्ण हो जाता है। हर काम दबंगता के साथ पूरा होगा, क्योंकि हम निरंतरता के अर्थ समझ चुके होंगे।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

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