शनि जयंती: इस मंत्र से प्रसन्न करें शनिदेव को
1 जून, बुधवार को शनि जयंती है। कहते हैं जिसने शनिदेव को प्रसन्न कर लिया उसे जीवन में कभी कोई कष्ट नहीं होता। शनि जयंती ऐसा ही एक अवसर है जब शनिदेव को सरलता से प्रसन्न किया जा सकता है। धर्म शास्त्रों में शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए कई मंत्रों की रचना की गई है। उन्हीं में से कुछ मंत्र नीचे दिए गए हैं। शनि जयंती के दिन इनका विधि-विधान से जप करें तो शनिदेव शीघ्र ही प्रसन्न हो जाएंगे।
1- ध्यान मंत्र
इंद्रनीलद्युति: शूली वरदो गृधवाहन:।
बाणबाणासनधर: कर्तव्योर्क सुतस्तथा।।
2- बीज मंत्र
ऊँ शं शनैश्चराय नम:।
जप विधि
शनि जयंती के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर कुश (एक प्रकार की घास) के आसन पर बैठ जाएं। सामने शनिदेव की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें व उसकी पंचोपचार से विधिवत पूजन करें। इसके बाद रूद्राक्ष की माला से इनमें से किसी एक मंत्र की कम से कम पांच माला जप करें तथा शनिदेव से सुख-संपत्ति के लिए प्रार्थना करें। यदि प्रत्येक शनिवार को इस मंत्र का इसी विधि से जप करेंगे तो शीघ्र लाभ होगा।
शून्य से शिखर तक पहुंचा देंगे शनिदेव, यदि करें ये उपाय
ज्योतिष का जन्म भारत में हुआ है। इसीलिये इसके मानने वाले भी दुनियाभर में सबसे ज्यादा भारत में ही पाए जाते हैं। ज्योतिष की बात करने के लिये आज विशेष मोका है क्योंकि आज शनि जयंति है। आमतौर पर यह मान्यता है कि शनिदेव बड़े ही कू्रर यानी निर्दयी स्वभाव के देवता हैं। लेकिन ऐसी मान्यता बड़ी ही सतही और भ्रामक है। अगर ज्योतिष की ही माने तो शनिदेव कू्रर नहीं बल्कि बेहद न्यायप्रिय और जैसे के साथ तैसा करने वाले हैं। यह किसी भी व्यक्ति की उसके कर्मफलों और स्वभाव के अनुसार फल देने वाले न्यायप्रिय देवता हैं। यदि कोई इंसान मेहनती ईंमानदार और सच्चाई के रास्ते पर चलने वाला है तो शनिदेव उसको आश्चर्यजनक सफलता दिलाने में भरपूर मदद भी करते हैं, या यूं कहें कि योग्य व्यक्ति को शून्य से शिखर तक पहुंचाने में शनिदेव का भरपूर सहयोग मिलता है। लेकिन पिछले कुछ अज्ञात गलत कर्मों के कारण यदि शनिदेव का प्रभाव हमारे जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा हो तो उसे भी नीचे दिये गए अचूक उपायों से समाप्त किया जा सकता है...
- पिछले कर्मों के अच्छे-बुरे परिणामों की फ्रिक छोड़कर निष्काम भाव से सच्चे और न्यायप्रिय कर्म करें।
- प्रतिदिन सूर्योदय के समय गायत्री जप और ध्यान करें, लेकिन मन में किसी फल की आशा न रखें सिर्फ सद्बुद्धि की ही
कामना रखें।
- माता-पिता यथा संभव प्रशन्न रखें इससे आपका बुरा प्रारब्ध भी समाप्त होने लगेगा।
- किसी का दिल न दुखाएं बद्दुआओं से सदा बच कर रहें।
-हर मंगलवान और शनिवार को शुन्दरकांड का पाठ करें और प्रतिदिन स्नान करने के बाद हनुमान चालीसा और गायत्री चालीसा का पाठ करें।
-संभव हो तो प्रतिदिन 1-माला गायत्री मंत्र का जप और उगते हुए सूर्यदेव का ध्यान करें।
ऐसे चढ़ावे से दूर होते हैं शनि दोष क्योंकि...
जिस व्यक्ति की कुंडली में शनि अशुभ स्थान पर होता है उसे साढ़ेसाती व ढैय्या के समय आर्थिक नुकसान तो होता ही है साथ ही मान-सम्मान, परिवार में कलह आदि कष्ट भी भोगने पड़ते हैं। यदि कुंडली में भी शनि अशुभ स्थान पर बैठा है। ऐसे में ज्योतिषीय शनि से प्रभावित व्यक्ति को काली चीजें दान करने को कहते हैं लेकिन शनि के कुप्रभाव को दूर करने के लिए काली चीजों का दान ही क्यों किया जाता है ये बहुत कम लोग जानते हैं? दरअसल शास्त्रों की एक कथा के अनुसार शनि सूर्य की पत्नी छाया के पुत्र हैं कहते हैं कि सूर्य की पत्नी से उनका प्रकाश यानी तेज सहन नहीं होता था।
इसलिए वे सूर्य के पास अपने रुप में छाया छोड़कर चली गई और छाया से ही शनि का जन्म हुआ है। इसीलिए शनि का रंग काला है। उनका वाहन भी काला है।इसीलिए उन्हें काला रंग बहुत प्रिय है ऐसी मान्यता है। ज्योतिष के अनुसार शनि को मनाने के लिए काले छाते, उड़द, व काले कपड़े के अलावा काले तिल का दान किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि काली चीजों का दान करने से शनि का अशुभ प्रभाव कम होता है। इसीलिए शनि को प्रसन्न करने के लिए काली चीजों का दान किया जाता है।
शनि जयंती : दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलें ऐसे
भारतीय ज्योतिष के अनुसार हर ग्रह की अपनी प्रकृति है और वह उसी के अनुसार किसी व्यक्ति पर असर डालता है। मनुष्य जीवन पर सबसे अधिक समय तक यदि कोई ग्रह प्रभाव डालता है तो वह है शनि। शनि किसी भी धनवान व्यक्ति को भिखारी भी बना सकता है। 1 जून, बुधवार को शनि जयंती है। इस अवसर पर यदि शनिदेव को प्रसन्न किए जाए तो उनका कुप्रभाव कम हो सकता है। नीचे शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए कुछ मंत्र दिए हैं। इनके विधिवत जप से शनिदेव प्रसन्न हो जाते हैं-
वैदिक मंत्र
ऊँ शन्नोदेवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शन्योरभिस्त्रवन्तु न:।
लघु मंत्र
ऊँ ऐं ह्लीं श्रीशनैश्चराय नम:।
जप विधि
शनि जयंती के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर कुश (एक प्रकार की घास) के आसन पर बैठ जाएं। सामने शनिदेव की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें व उसकी पंचोपचार से विधिवत पूजन करें। इसके बाद रूद्राक्ष की माला से इनमें से किसी एक मंत्र की कम से कम पांच माला जप करें तथा शनिदेव से सुख-संपत्ति के लिए प्रार्थना करें। यदि प्रत्येक शनिवार को इस मंत्र का इसी विधि से जप करेंगे तो शीघ्र लाभ होगा।
शनि जयंती पर क्यों करे छाया दान?
कहते हैं जब शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या किसी ऐसे व्यक्ति पर होता है, जिसकी कुंडली में शनि अशुभ स्थिति में हो तो न्याय के देवता शनि उस समय में उनकी परीक्षा तो लेते ही हैं। साथ ही उन्हें उनके बुरे कर्मों क ा फल भी देते हैं। इसी कारण ऐसी मान्यता है कि जब शनि की साढ़ेसाती लगती है या शनि की टेड़ी नजर किसी व्यक्ति पर पड़ती है तो साया भी उसका साथ छोड़ देता है। इसी कारण कहा जाता है कि जब किसी व्यक्ति की कुंडली में शनिदोष हो तो उसे छायादान करना चाहिए। छाया दान से तात्पर्य अपनी छाया तेल में देखकर उसे दान करने से है।
हम अपने पाप व दोष को नहीं देख सकते सिर्फ उनका अनुभव कर सकते हैं। इसीलिए हम अपनी छाया के रूप में देख कर उनके लिए क्षमायाचना करते हैं क्योंकि ज्योतिष के अनुसार साढ़ेसाती या ढैय्या की शुरूआत में शनि छाया के रूप में अपना प्रभाव शुरू करता है। दरअसल शनि की चाल को धीमा माना गया है और ऐसा भी कहा जाता है कि शनिदोष के कारण किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उसे अपनी छाया दिखना बंद हो जाती है।
इस तरह छाया दान करना मात्र एक टोटका नहीं दरअसल ज्योतिष के अनुसार छायादान के रूप में शनि से प्रभावित व्यक्ति अपने पाप व दोष का नाश करने के लिए न्याय के देवता शनि की प्रिय वस्तु तेल का दान करता है। तेल का दान कांसे या लोहे के पात्र में भरकर किया जाता है। ये दोनों धातुएं भी शनि की धातु मानी जाती हैं। ऐसी मान्यता है कि इस तरह दान करने से शनि की साढ़ेसाती के समय संघर्ष से व कुंडली में किसी भी तरह का शनिदोष होने पर उससे मुक्ति मिलती है।
शनिवार को लोहा लाना शुभ भी हो सकता है आपके लिए क्योंकि...
शनि देव को न्याय करने वाला माना गया है कई बार कुछ लोगों से जाने-अनजाने में कुछ अधार्मिक कर्म हो जाते हैं, जिनका फल निश्चित ही बुरा होता है। शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या को सबसे अधिक बुरा फल देने वाला समय माना गया है। इस दौरान व्यक्ति को कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
शनि देव किसी भी तरह से ना रूठे और उनकी प्रसन्नता हमेशा बनी रहे इसीलिए शनिवार को घर में तेल नहीं लाया जाता है साथ ही घर में लोहा भी नहीं लाना चाहिए ऐसी मान्यता है। शनि को लोहा प्रिय है, किन्तु शनिवार को लोहा घर में नहीं लाया जाता। जिस धातु को शनि सर्वाधिक पसंद करते हैं, उसी धातु का घर में शनिवार को आना पीडादायक और कलहकारक सिद्घ होता है।
ऐसा तभी होता है जबकि निजी उपयोग के लिए शनिवार को लोहा (किसी भी रूप में) खरीदा जाये या घर में लाया जाये, लेकिन पूजा करने हेतु अथवा विधिपूर्वक धारण करने हेतु लोहा प्राप्त किया जाये तो शनि प्रसन्न होते हैं। शनिवार को लोहे के दान से भी शनि की प्रसन्नता होती है। शनिदेव के अशुभ प्रभावों की शांति हेतु लोहा धारण किया जाता है किन्तु यह लौह मुद्रिका सामान्य लोहे की नहीं बनाई जाती। काले घोडे की नाल की बनाई जाती है।
हनुमानजी की कितनी परिक्रमा करें?
कलयुग में हनुमानजी की भक्ति सभी मनोकामनाओं को शीघ्र पूर्ण करने वाली मानी गई है। इसी वजह से आज इनके भक्तों की संख्या काफी अधिक है। ऐसा माना जाता है हनुमानजी बहुत जल्द अपने भक्तों के सभी दुखों को दूर करके सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। हनुमान जी के पूजन में एक महत्वपूर्ण क्रिया है परिक्रमा।
किसी भी भगवान के पूजन कर्म में एक महत्वपूण क्रिया है प्रतिमा की परिक्रमा। वैसे तो सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है।
धर्म शास्त्रों के अनुसार आरती और पूजा-अर्चना आदि के बाद भगवान की मूर्ति के आसपास सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है, इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए परिक्रमा की जाती है। सभी देवी-देवताओं की परिक्रमा की अलग-अलग संख्या है। वेद-पुराण के अनुसार श्रीराम के परम भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है। भक्तों को इनकी तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए।
परिक्रमा के संबंध में नियम:
परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। साथ परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी। ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है।
शादी से पहले क्यों और किस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए ?
विवाह के संबंध में कई महत्वपूर्ण सावधानियां रखना जरूरी है। विवाह के बाद वर-वधू का जीवन सुखी और खुशियोंभरा हो यही कामना की जाती है।
वर-वधू का जीवन सुखी बना रहे इसके लिए विवाह पूर्व लड़के और लड़की की गुणों का मिलान कराया जाता है। किसी विशेषज्ञ ज्योतिषी द्वारा भावी दंपत्ति की कुंडलियों से दोनों के गुण और दोष मिलाए जाते हैं। गुण मिलान करते समय वर-वधु के छत्तीस गुण होते हैं। छत्तीस में से कम से कम अठारह गुणों का मिलना जरू री होता है। ये गुण क्रमश: वर्ण, वश्य, तारा, योनी, गृहमैत्री, गण, भृकुट, नाड़ी है।
36 गुणों में से नाड़ी के लिए सबसे अधिक 8 गुण निर्धारित हैं। नाडियां तीन होती हैं-आद्य,मध्य और अन्त्य। इन नाडियों का संबंध मानव की शारीरिक धातुओं से है। वर-वधू की समान नाड़ी होने पर दोषपूर्ण माना जाता है तथा संतान पक्ष के लिए यह दोष हानिकारक हो सकता है। शास्त्रों में यह भी उल्लेख मिलता है कि नाड़ी दोष केवल ब्राह्मण वर्ग में ही मान्य है। समान नाड़ी होने पर पारस्परिक विकर्षण तथा असमान नाड़ी होने पर आकर्षण पैदा होता है।
ज्योतिषाचार्यों ने भी अपना वैज्ञानिक पक्ष रखते हुए कहा कि विवाह के लिए वर-कन्या यदि एक ही रक्त समूह के होंगे तो संतानोत्पत्ति में बाधा आ सकती है। कर्मकांडों में नाड़ी दोषों वाले विवाह को सर्वथा वर्जित माना गया है।
चिकित्सकों का मानना है कि यदि लड़के का आरएच फैक्टर पॉजिटिव हो व लड़की का आरएच फैक्टर निगेटिव हो तो विवाह उपरांत पैदा होने वाले बच्चों में अनेक विकृतियाँ सामने आती हैं, जिसके चलते वे मंदबुद्धि व अपंग तक पैदा हो सकते हैं। वहीं रिवर्स केस में इस प्रकार की समस्याएँ नहीं आतीं, इसलिए युवा अपना रक्त परीक्षण अवश्य कराएँ, ताकि पता लग सके कि वर-कन्या का रक्त समूह क्या है।
दूल्हा-दुल्हन की मांग में सिंदूर क्यों भरता है?
हमारे देश में विवाह संस्कार से जुड़ी अनेक परंपराएं हैं। हिन्दू विवाह पद्धति में कुछ परंपराएं ऐसी हैं जिनका निर्वाह शादी में नहीं किया जाए तो शादी पूरी नहीं मानी जाती है जैसे मंगलसुत्र पहनाना, मांग में सिंदूर भरना, बिछिया पहनाना आदि।
इन रस्मों का निर्वाह शादी में तो किया ही जाता है साथ ही इन सभी चीजों को सुहागन के सुहाग का प्रतीक माना जाता है।इसीलिए हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार इन्हें सुहागनों का अनिवार्य श्रृंगार माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन श्रृंगारों के बिना सुहागन स्त्री को नहीं रहना चाहिए।
किसी भी सुहागन स्त्री के लिए मांग में सिंदूर भरना अनिवार्य माना गया है। हिन्दू शादी में बहुत से रिवाज निभाए जाते है।
शादी में निभाई जाने वाली सभी रस्मों में फेरों की रस्म सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। फेरों के समय वधू की माँग सिंदूर से भरने का प्रावधान है। शादी में मांग सिंदूर व चांदी के सिक्के से भरी जाती है। मांग भर विवाह के पश्चात् ही सौभाग्य सूचक के रूप में माँग में सिंदूर भरा जाता है। यह सिंदूर माथे से लगाना आरंभ करके और जितनी लंबी मांग हो उतना भरा जाने का प्रावधान है।
यह सिंदूर केवल सौभाग्य का ही सूचक नहीं है इसके पीछे जो वैज्ञानिक धारणा है कि वह यह है कि माथे और मस्तिष्क के चक्रों को सक्रिय बनाए रखा जाए जिससे कि ना केवल मानसिक शांति बनी रहे बल्कि सामंजस्य की भावना भी बराबर बलवती बनी रहे अत: शादी में मांग भरने की रस्म इसीलिए निभाए जाती है ताकि वैवाहिक जीवन में हमेशा प्रेम व सामंजस्य बना रहे।
क्यों और क्या करें ताकि लक्ष्मी कभी ना रूठे?
घर में आमदनी से अधिक खर्च अक्सर मानसिक तनाव का कारण बन जाता है। हर व्यक्ति चाहता है कि उसे कभी धन की कोई कमी नहीं हो इसीलिए लक्ष्मीजी को मनाने के लिए अलग-अलग तरह के पूजा व अनुष्ठान किए जाते हैं। लेकिन हर व्यक्ति अपनी भागदौड़ से भरी जिंदगी में से पूजा पाठ के लिए समय नहीं निकाल सकता है। इसीलिए हमारे यहां कुछ ऐसी परंपराएं या मान्यताएं है जिनका ध्यान रखने पर माना जाता है कि घर में लक्ष्मी का स्थाई निवास होता है। ये मान्यताएं कुछ इस प्रकार हैं।
हर रोज कम से कम पच्चीस मिनट के लिए खिड़की जरुर खोलें, इससे कमरे से नकारात्मक उर्जा बाहर निकल जाएगी और साथ ही सूरज की रोशनी के साथ घर में सकारात्मक उर्जा का प्रवेश हो जाएगा। शाम के समय एक बार पूरे घर की लाइट जरूर जलाएं। इस समय घर में लक्ष्मी का प्रवेश होता है। साल में एक दो-बार हवन करें। घर में अधिक कबाड़ एकत्रित ना होने दें।
शाम के समय एक बार पूरे घर की लाइट जरूर जलाएं। सुबह-शाम सामुहिक आरती करें।महीने में एक या दो बार उपवास करें।घर में हमेशा चन्दन और कपूर की खुशबु का प्रयोग करें। माना जाता है कि इन सभी बातों का ध्यान रखने से घर से नकारात्मक ऊर्जा खत्म होती है और सकारात्मक वातावरण का निर्माण होता है।
रस्म नहीं ये है जिम्मेदारी क्योंकि...
घर के मुखिया की मृत्यु होने के पश्चात बड़े पुत्र को पगड़ी बांधी जाती है, जिसे हिंदू धर्म में पगड़ी रस्म कहा जाता है। पगड़ी रस्म की परंपरा काफी पुराने समय से चली आ रही है। इस प्रथा के संबंध में सभी समाजों में अलग-अलग व्यवस्था रखी गई है परंतु घर के सदस्य की मृत्यु के पश्चात पगड़ी रस्म अवश्य की जाती है। इस रस्म के पीछे सामाजिक कारण है।
ऐसी मान्यता है कि घर के मुखिया के मरने के बाद की जवाबदारी बड़े पुत्र को ही संभालना होती है। अत: उस पुत्र को पगड़ी बांधने का यही आशय है कि अब वही घर का मुखिया है और उसे ही परिवार के सभी सदस्यों का पालन-पोषण करना है, उनके सुख-दुख का ध्यान रखना है।
साथ ही परिवार के सभी फैसले उसे लेने होते हैं। सभी खुश रहे इस का बात का ध्यान भी पगड़ी जिसे बांधी जाती है उसी को रखना होता है।इस रस्म के संबंध में सभी जातियों और समाजों में अलग-अलग रीति-रिवाज होते हैं परंतु मूल भाव यही होता है कि मरने वाले व्यक्ति की जो भी जवाबदारियां होती हैं वे सभी उस व्यक्ति को संभालना होती है जिसे पगड़ी बांधी जाती है।
खाना बनाते समय क्यों और क्या ध्यान रखना चाहिए?
कहते हैं स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। इसीलिए जब कोई स्वस्थ रहता है तो उसमें हर कार्य को करने की दोगुनी स्फूर्ति अपने आप आ जाती है। स्वस्थ शरीर सबसे अधिक निर्भर करता है भोजन पर। खाना जितना पोषक और स्वादिष्ट होगा घर के सभी सदस्य उतने ही अधिक स्वस्थ होंगे।
भोजन कैसा बन रहा है यह सबसे अधिक उस घर की गृहिणी पर निर्भर करता है। इसीलिए अगर गृहिणी स्वस्थ रहेगी तो पूरा परिवार अपने आप स्वस्थ रहेगा। किचन में खाना बनाते समय यह विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि किचन में अपने कुकिंग रेंज अथवा गैस स्टोव को इस प्रकार व्यवस्थित करें कि खाना बनाते वक्त आपका मुख पूर्व दिशा की ओर रहे।
यदि खाना बनाते समय गृहिणी का मुख उत्तर दिशा में हो तो वह सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस एवं थायरॉइड से प्रभावित हो सकती है। दक्षिण दिशा की ओर मुख करके भोजन बनाने से बचें।
गृहिणी के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर इसका नकारात्मक प्रभाव पडता है। इसी तरह पश्चिम दिशा में मुख करके खाना बनाने से आंख, नाक, कान एवं गले से संबंधित समस्याएं हो सकती हैं। इसीलिए जहां तक हो सके गैस स्टैंड दक्षिण पूर्व कोने में यानी आग्रेय कोण में होना चाहिए और खाना हमेशा पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बनाना चाहिए।
क्यों और क्या करें ताकि आए सुकून भरी नींद?
आजकल हर व्यक्ति की जिंदगी भागदौड़ से भरी है। अतिरिक्त बोझ के कारण तनाव से ग्रस्त होना एक आम समस्या है। ऐसे में स्वास्थ्य तो प्रभावित होता है साथ ही अनिद्रा भी व्यक्ति को घेरे रहती है। मानव की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं ने उसकी आँखों की नींद छीन ली है इसीलिए वह दिनभर की भागदौड़ व थकान के बाद भी चैन की गहरी नींद नहीं सो पाता है क्योंकि नींद में भी अपने काम के बारे में ही सोचते रहता है।
कुछ हद तक इसका कारण घर का वास्तु व सही दिशा में ना सोना या गलत दिशा में पलंग लगा होना भी होता है क्योंकि ये सभी चीजे नकारात्मक प्रभाव डालती है।
शयन कक्ष में कोई खुली अलमारी नहीं होनी चाहिए अलमारी कवर्ड रखें शयनकक्ष में यदि शीशा लगा है तो परदे से ढक दें। वास्तु के अनुसार ऐसी मान्यता है इससे पति-पत्नी में अधिक झगड़े होते हैं। सोते समय सर दक्षिण या पश्चिम दिशा की ओर रखें कोशिश करें कि़ अपराह्न तीन बजे के बाद शयन कक्ष में सूर्य किरणें न आयें सोने से एक घंटे पहले टी.वी.बंद कर दें,रेडिओ या रिकार्ड प्लयेर पर शास्त्रीय संगीत सुन सकते हैं। इसीलिए गहरी नींद के लिए इन सभी बातों का ध्यान रखना जरूरी है।
दीपक कहां और क्यों लगाने से बढ़ता है पैसा?
कहते हैं जिस घर का वास्तु ठीक होता है जहां किसी तरह का दोष नहीं होता है तो घर में सुख-समृद्धि हमेशा बनी रहती है। यदि किसी घर की आर्थिक तरक्की नहीं हो रही है। पूरी मेहनत के बाद भी घर के हर सदस्य को उसकी योग्यता के अनुसार सफलता नहीं मिल पाती है, किसी ना किसी तरह की समस्या या परेशानी हमेशा बनी रहती है।
घर में बार-बार एक्सीडेंट्स होते हैं तो निश्चित ही उस घर में पितृदोष होता है।
इसीलिए जिस घर में पीने के पानी का स्थान दक्षिण दिशा में हो उस घर को पितृदोष अधिक प्रभावित नहीं करता साथ ही यदि नियमित रूप से उस स्थान पर घी का दीपक लगाया जाए तो पितृदोष आशीर्वाद में बदल जाता है। ऐसा माना जाता है।
यदि पीने के पानी का स्थान उत्तर या उत्तर-पूर्व में भी है तो भी उसे उचित माना गया है और उस पर भी पितृ के निमित्त दीपक लगाने से पितृदोष का नाश होता है क्योंकि पानी में पितृ का वास माना गया है और पीने के पानी के स्थान पर उनके नाम का दीपक लगाने से पितृदोष की शांति होती है ऐसी मान्यता है।
अस्थियों को दस दिन तक सम्भाल कर क्यों रखा जाता है?
अस्थियों को पूरे दस दिन सुरक्षित रखा जाता है फिर ग्यारहवें दिन श्राद्ध व तर्पण किया जाता है। आखिर दस दिन तक अस्थियों का संचय क्यों किया जाता है? हड्डियों में ऐसी कौन सी विशेष बात होती है जो शरीर के सारे अंग और हिस्से छोड़कर उनका ही संचय किया जाता है?वास्तव में अस्थि संचय का जितना धार्मिक महत्व है उतना ही वैज्ञानिक भी।
हिंदू धर्म में मान्यता है कि मृत्यु के बाद भी व्यक्ति की सूक्ष्म आत्मा उसी स्थान पर रहती है जहां उस व्यक्ति की मृत्यु हुई। आत्मा पूरे तेरह दिन अपने घर में ही रहती है। उसी की तृप्ति और मुक्ति के लिए तेरह दिन तक श्राद्ध औ भोज आदि कार्यक्रम किए जाते हैं। अस्थियों का संख्य प्रतीकात्मक रूप माना गया है। जो व्यक्ति मरा है उसके दैहिक प्रमाण के तौर पर अस्थियों संचय किया जाता है।
अंतिम संस्कार के बाद देह के अंगों में केवल हड्डियों के अवशेष ही बचते हैं। जो लगभग जल चुके होते हैं। इन्हीं को अस्थियां कहते हैं। इन अस्थियों में ही व्यक्ति की आत्मा का वास भी माना जाता है। जलाने के बाद ही चिता से अस्थियां इसलिए ली जाती हैं क्योंकि मृत शरीर में कई तरह के रोगाणु पैदा हो जाते हैं। जिनसे बीमारियों की आशंका होती है। जलने के बाद शरीर के ये सारे जीवाणु और रोगाणु खत्म हो जाते हैं और बची हुई हड्डियां भी जीवाणु मुक्त होती हैं। इनको छूने या इन्हें घर लाने से किसी प्रकार की हानि का डर नहीं होता है। इन अस्थियों को श्राद्ध कर्म आदि क्रियाओं बाद किसी नदी में विसर्जित कर दिया जाता है।
क्यों और क्या करें घर में बरकत के लिए?
ऐसा माना जाता है कि ईशान्य कोण में नित्य प्रति ईश्वर की पूजा करने से स्वर्ग में स्थान मिलता है। उसी दिशा से सारी उर्जाएं घर में बरसती है।
किसी भी घर के वास्तु में ईशान्य कोण यानी उत्तर-पूर्वी कोने का बड़ा महत्व है। वास्तु के अनुसार ईशान्य कोण स्वर्ग का मार्ग कहलाता है।
ईशान्य सात्विक ऊर्जाओं का प्रमुख स्त्रोत है। किसी भी भवन में ईशान्य कोण सबसे ठंडा क्षेत्र है।
वास्तु पुरूष का सिर ईशान्य में होता है। जिस घर में ईशान्य कोण में दोष होगा उसके निवासियों को दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है। इसलिए ईशान्य कोण में किसी तरह का कटाव या विस्तार नहीं होना चाहिए। साथ ही इस कोने में शौचालय होने पर आर्थिक हानि का सामना तो करना ही पड़ता ही है साथ ही घर की महिलाओं का स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है।
ईशान्य कोण का अधिपति शिव को माना गया है। वास्तु के अनुसार ऐसी मान्यता है कि जिस घर में इस कोने की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। साथ ही उत्तर-पूर्वी कोने में ही भगवान का स्थान बनाया जाता है तो ऐसे घर में सकारात्मक उर्जा का निवास होता है। बाद में ये उर्जाएं पूरे घर में फैल जाती है। ऊर्जा का संतुलन बनाए रखने के लिए और इस कोने की सफाई का ध्यान रखने पर घर में हमेशा बरकत रहती है।
ऐसा क्यों: गुरुवार के दिन घर की सफाई नहीं की जाती?
हमारे बढ़े-बूजुर्गों द्वारा बनाई गई सारी परंपराओं और रीति-रिवाजों के पीछे एक सुनिश्वित वैज्ञानिक कारण है। किसी बात को पूरा का पूरा समाज यूं ही नहीं मानने लग जाता। हर मान्यता के पीछे कोई ना कोई धार्मिक या वैज्ञानिक कारण जरूर होता है। ऐसी ही एक परंपरा गुरुवार के दिन सफाई ना करने की। इससे जुड़ी हमारे शास्त्रों में विष्णु भगवान की एक कहानी है
जिसके अनुसार एक राजा जो कि विष्णु भगवान का भक्त था उसने गुरुवार के दिन अपने महल की साफ-सफाई करवा दी और जाले झड़वा दिए। जबकि कहानी के अनुसार उस दिन विष्णुजी लक्ष्मीजी सहित उसके महल में आने वाले थे। वैसे उस राजा को उस दिन विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए थी। उनकी आराधना और आवाह्न करना चाहिए था।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं करते हुए बल्कि उल्टा राजा ने उनके आने से पहले पूरे महल में सफाई काम फैला दिया। जब विष्णु भगवान लक्ष्मीजी के साथ उसके महल में पहुंचे तो धूल व जाले देखकर लक्ष्मीजी रूष्ट हो गई और वहां से चली गई और विष्णुजी ने जब देखा कि लक्ष्मीजी रूठ कर जा रही हैं तो वे भी वहां से चल दिए और उस राजा को शाप दे दिया कि आज से तुम लक्ष्मीविहिन रहोगे और गुरूवार के दिन जो भी घर में साफ-सफाई करेगा उसके घर में कभी लक्ष्मी निवास नहीं करेगी। इसी कहानी के कारण ऐसी मान्यता है कि गुरुवार के दिन घर की सफाई नहीं करना चाहिए।
क्यों किया जाता है परेशानियां दूर करने के लिए मिठाई का दान?
कहते हैं सुख और दुख धूप व छांव की तरह होते हैं। इसीलिए जीवन कभी स्थिर नहीं रहता है। हमेशा जीवन में उतार चढ़ाव आते रहते हैं लेकिन कुछ लोगों का जीवन हमेशा दुख व परेशानियों से भरा ही रहता है जब वे अपने आसपास दूसरे लोगों को देखते हैं तो उनके मन में यही बात आती है कि क्या हमारी किस्मत में भगवान ने सुख नहीं लिखा है। दरअसल ऐसे लोगों के जीवन में रूकावटे या परेशानियां आने का एक सबसे बड़ा कारण पितृदोष भी है। ज्योतिष के अनुसार ऐसी मान्यता है कि पितृदोष वाले व्यक्ति को हमेशा कोई ना कोई परेशानी घेरे रहती है। इसीलिए पितृदोष दूर करने के लिए इसके उपाय करने भी जरूरी है।
इसीलिए ज्योतिष के अनुसार गरीब लोगों को चावल का दान करना या बच्चों को सफेद मिठाई दान करने से पितृदोष दूर होता है क्योंकि सफेद रंग को पितृ का कारक माना गया है दरअसल पितृ का रंग ज्योतिष के अनुसार सफेद माना गया है। इसीलिए कहा जाता है कि पितृदोष होने पर सपने में सफेद रंग के सांप दिखाई देते हैं। इसीलिए ऐसी मान्यता है कि सफेद मिठाई या चावल के दान से पितृदोष दूर होते है।
शिवलिंग का पूजन करते समय जरूर ध्यान रखें ये बात क्योंकि...
कहते हैं शिव भोले हैं और अपने भक्तों पर बहुत जल्दी प्रसन्न होकर उनके जीवन से परेशानियों को दूर करते हैं लेकिन शिवजी के पूजन के भी कुछ विधान है जिनका पालन शास्त्रों के अनुसार जरूरी माना गया है और ऐसी मान्यता है कि यदि शिवजी कि शिवलिंग का या शिवजी के पूजन के समय कुछ बातों का ध्यान रखा जाए तो भोलेनाथ जल्दी प्रसन्न होते हैं।शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ।
शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए घोर तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए।
विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए।
तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और उसने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए।ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया।
देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पातिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया।
अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशुल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।
कोई पुरुष बारात में नहीं गया तो समझो आ गई उसकी शामत!
शादी यानी रस्मों के साथ ही नाच-गाना मस्ती,धूम। शादी की इस रस्म में भरपूर मजाक मस्ती होती है। बड़े ही उत्साह और उमंग के साथ निभाई जाती है। हमारे देश में ऐसी कई लोक परंपराएं हैं जिनके बारे में सुनकर आश्चर्य तो होता है साथ ही मन में जिज्ञासा और हास्य का भाव उत्पन्न होते हैं। डोमकच या टूटया भी एक तरह की क्षेत्रिय परंपरा है इसे राजस्थान में टूटया और बिहार में डोमकच कहा जाता है।
डोमकच की रस्म में स्त्री पुरुषों के संबंध को कलात्मकता के साथ दर्शाया जाता है। इस रस्म में औरते किसी तरह की कोई शर्म नहीं करती। यहां बस औरतें होती है और होती हैं उनकी उन्मुक्तता। यहां वे खुलकर सांसें लेती हैं, हंसती हैं। गाती हैं मजाक करती हैं। वह भी बगैर पुरुषों की अनुमति के। डोमकच या टूटया औरतों का मनोरंजन तो करती ही हैं साथ ही उनकी कुंठा को बाहर निकालकर उनमें नया उत्साह व उमंग भर देती है।
इसके माध्यम से हर पुरानी पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को दांपत्य जीवन जीने का तरीका बताती है। जबकि, इसका व्यावहारिक पक्ष यह है कि बारात में घर के सभी पुरुषों के चले जाने के बाद घर की सुरक्षा के लिए औरतों द्वारा मनोरंजन का कार्यक्रम तो यह होता ही है साथ ही युवतियों को शादी के बाद कैसा जीवन जीना है इस बारे में भी बताया जाता है। इस रस्म में एक महिला स्त्री और दूसरी पुरुष बनती है। इसमें महिलाओं को इतनी स्वतंत्रता रहती है कि बारात नहीं जाने वाले पुरुषों के साथ ये इतना मजाक करती हैं कि वे भाग खड़े होते हैं।
गांव में कई पुरुष बारात नहीं गया हो तो उसकी शामत आ जाती है।
कभी-कभी इसकी अति भी हो जाती है, जिसके गलत परिणाम निकल आते हैं। दरअसल इसका एक कारण यह भी है कि वर पक्ष के यहां रात्रि में शयन करना अच्छा नहीं माना शुभ नहीं माना जाता है। इस रस्म में गांव भर से अनाज व नकद भी इकट्ठा किया जाता है जिसका प्रसाद बनाया जाता है। यही प्रसाद दुल्हन के आने के बाद बांटा जाता है। इस तरह यह परंपरा पति-पत्नी के बीच मधुर संबंध बनाए रखने के साथ ही समाज से ऊंच-नीच के भाव को भी खत्म करने का संदेश देती है।
उन दिनों में क्यों नहीं करने दिया जाता रसोई में काम?
मासिक धर्म के समय दिनों में महिलाओं के लिए सभी धार्मिक कार्य वर्जित किए गए हैं। साथ ही इस दौरान महिलाओं को अन्य लोगों से अलग रहने का नियम भी बनाया गया है। उन दिनों महिलाओं पर अधिक तीव्र खुशबु वाले परफ्युम लगाने को भी मना किया जाता है। साथ ही ऐसा भी कहा जाता है कि इन दिनों में भोजन भी नहीं बनाना चाहिए। आजकल के अधिकांश युवा इसे अंधविश्वास मानकर उस पर विश्वास नहीं करते हैं।
इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि मासिक धर्म के समय महिलाओं को अनेक तरह के शारीरिक व्याधियां परेशान करती है। जिसके कारण वे आम दिनों की अपेक्षा अधिक कमजोर हो जाती हैं। महिलाओं के गर्भाशय का मूंह इन दिनों खुला रहता है इस कारण उनके शरीर को इस समय आराम की जरूरत होती है।
जबकि शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि मासिक धर्म यदि कोई स्त्री खाना बनाती है और घर के सभी सदस्य भोजन करते हैं तो वह सबके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है साथ ही इससे घर की बरकत खत्म होती है ऐसी मान्यता है। इसीलिए उन दिनों में महिलाओं का खाना बनाना या रसोई में काम करना वर्जित माना गया है।
रस्म: जिसमें दूल्हा-दुल्हन से लिया जाता है दोस्ती का वादा
कहते हैं विवाह एक जन्म का नहीं सात जन्मों का बंधन होता है। सात जन्म के इस रिश्ते को हर जन्म में और मजबूत बनाने के लिए विवाह संस्कार निभाया जाता है। विवाह संस्कार में पाणिग्रहण के समय अनेक परंपराए निभाई जाती हैं। उनमें से एक रस्म है सप्तपदी की। इस रस्म में दूल्हा व दुल्हन एक साथ सात कदम आगे बढ़ाते हैं।
सप्तपदी का महत्व: सभी स्मृतिकारों ने स्वीकार किया है। मनु के अनुसार इसके बिना विवाह पूर्ण नहीं माना जाएगा। इसमें वर और वधू अपना - अपना दाहिना पैर एक - एक पद के साथ आगे बढ़ाते हैं। पहले वर , पीछे कन्या। जिस जगह से सीधा पैर उठाया , उसी जगह बायां पैर रखते जाते हैं। इस प्रकार सात मंत्रों से सप्तपद चलते हैं। मंत्रों के माध्यम से वर वधू को सखी मान कर अन्न , ऊर्जा , धन , पशुओं और सभी ऋतुओं में सुख और सातों लोकों में यश की प्राप्ति की कामना करते हैं। कई मंत्रों में वर विश्व के पोषक विष्णु की सहायता से धनधान्य और सुख की प्राप्ति की कामना करता है। इस तरह हमारे यहां वर-वधु को इस रस्म के माध्यम से जन्मों का साथी ही नहीं दोस्त भी बना दिए जाते हैं।
शादी के बाद लड़की का सरनेम क्यों बदला जाता है?
कहते हैं शादी एक ऐसा बंधन है जिससे किसी लड़की की जिंदगी बदल जाती है। लेकिन शादी के बाद सिर्फ जिंदगी ही नहीं सरनेम भी बदल जाता है। यह प्रथा सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के तकरीबन सभी देशों में है। शादी के बाद लड़कियों के नाम के साथ उनके पिता का नहीं बल्कि उनके पति का सरनेम लगाया जाता है। परिवार के सभी सदस्यों का सरनेम एक होने पर समाज में किसी व्यक्ति की पहचान उसके पारिवारिक सरनेम से होती है। इससे परिवार के सदस्यों के बीच एकता की भावना का भी अहसास होता है।
इससे यह भी व्यक्त होता है कि लड़की को ससुराल में स्वीकार कर लिया गया है और वह शादी के बाद ससुराल में रच-बस गयी है। इससे लड़की के ससुराल वालों को यह एहसास होता है कि बहू भी हमारे घर की ही है इसलिए वे बहू के साथ बेटी जैसा व्यवहार करते हैं। पति का सरनेम अपनाने से लड़की का अपने पति और ससुराल वालों के प्रति आदर भी व्यक्त होता है। इसके अलावा यह किसी लड़की के त्याग और अपनानपन की भावना के साथ-साथ परिवार की प्रतिष्ठा को भी दर्शाता है। किसी शादीशुदा महिला के द्वारा पति का सरनेम अपनाने के कई फायदे हैं। यह प्रथा समाज में शादीशुदा महिला की स्थिति को और मजबूत करता है। जब कोई महिला अपने पारिवारिक सरनेम को हटाकर अपने पति का सरनेम लगाती है तो इससे यह पता चल जाता है कि वह शादीशुदा है और उसे अविवाहित महिलाओं से अलग करना आसान हो जाता है।
इस प्रथा को लागू करने का उद्देश्य यही है कि परिवार के हर सदस्य को एक समान परिवार का नाम मिलना चाहिए। इससे लड़की को समाज में आदर भी मिलता है। शादीशुदा महिला न सिर्फ अपने पति के परिवार के सरनेम को अपनाती है बल्कि वह अपने पति के लाइफ स्टाइल को भी अपनाती है। इससे पति के प्रति उसके सच्चे प्यार और आदर की भावना का पता चलता है। इसके उलट जब कोई पत्नी अपने पति के सरनेम को नहीं अपनाती है तो माना जाता है कि उसके दिल में अपने पति के प्रति सच्चे प्यार और आदर की भावना नहीं है।
आंवले के पेड़ की पूजा से क्यों बढ़ती है समृद्धि?
भारत में हर तरह की प्राकृतिक संपदा को सम्मान देने की परंपरा है। नदी, तालाब, पेड़, पौधे या गाय सभी का पूजन किया जाता है।आंवले के वृक्ष के विषय मे यह मत है, की इसकी उत्पति भगवान श्री विष्णु के मुख से हुई है। इसीलिए हमारे धर्म में आंवले के वृक्ष का पूजन किया जाता है। दरअसल शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि विष्णु से उत्पति होने के कारण आंवले के वृक्ष में लक्ष्मी का निवास माना गया है।
कहते हैं कि जो आंवले के वृक्ष का पूजन करता है उसके घर में हमेशा सुख समद्धि बनी रहती है। आंवले के वृक्ष के पूजन का व्यहारिक कारण यह है कि आंवले वृक्ष को अनेक बीमारियों की औषधी माना गया है। आंवला तो विटामिन सी का स्त्रोत है ही साथ ही इस वृक्ष की जड़ से लेकर पत्ती तक सभी उपयोगी है।
कहा जाता है कि आंवले के वृक्ष की छांव में बैठने से या उसकी छांव में भोजन करने से बहुत सी बीमारियां दूर तो होती है और शरीर स्वस्थ्य रहता है। इसीलिए कार्तिक माह में आने वाली आंवला नवमी को आंवले के पूजन का विधान है साथ ही आंवला एकादशी पर आंवले की छांव में बैठकर भोजन करने का विधान है।
पेड़ काटना पाप है ऐसा क्यों?
प्राचीन काल से ही हमारे देश में पेड़-पौधों के पूजन की परंपरा प्रचलित है। पौधे कब, कहां और कैसे लगाए जाएं साथ ही उन्हें लगाने का लाभ और वृक्ष काटे जाने से होने वाली हानियों का वर्णन हमारे सभी धर्म के ग्रथों में है। पेड़ों की पूजा प्रकृति के प्रति आदर प्रकट करने का माध्यम है, जिसकी वजह से आज तक प्रकृति का संतुलन बना हुआ है।
आज सभी लोग सिर्फ भविष्य के बारे में सोच रहे हैं, क्योंकि सब यह बात भुलते जा रहे हैं कि वह प्रकृति ही है जिसके कारण हमारा ये जीवन है। हमारा जीवन पानी, मिट्टी व वायु पर आधारित है। भारतीय संस्कृति वृक्ष पूजक संस्कृति रही है । हमारे देश में वृक्षों में देव की अवधारणा और उसकी पूजा की परम्परा प्राचीनकाल से रही है । हर पेड़ या पौधे में किसी ना किसी देवी या देवता का निवास माना जाता है।
वैदिक काल से ही ऋषि-मुनि औषधीय पेड़ो की लकडिय़ों से किए जाने वाले अनुष्ठानों को महत्व देते थे। पेड़ व पौधों के पूजन की अवधारणा का उल्लेख वेदों के अलावा मुख्य रूप से मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, भविष्यपुराण, मद्मपुराण, नारदपुराण, रामायण, भगवद्गीता और शतपथब्राह्मण आदि ग्रंथों में मिलता है। सभी धर्मशास्त्रों के अनुसार पेड़ काटना पाप माना गया है क्योंकि इन्हीं से हमारा जीवन है और यही हमारे जीवनदाता है।
पीपल के पूजन से होती है पितृदोष की शांति क्योंकि...
वेदों में भी पीपल के पेड़ को पूज्य माना गया है। पीपल की छाया तप, साधना के लिए ऋषियों का प्रिय स्थल माना जाता था। महात्मा बुद्ध का बोधक्तनिर्वाण पीपल की घनी छाया से जुड़ा हुआ है। शास्त्रों के अनुसार पीपल में भगवान विष्णु का निवास माना गया है और विष्णु को पितृ के देवता माना गया है क्योंकि प्रसिद्ध ग्रन्थ व्रतराज की अश्वत्थोपासना में पीपल वृक्ष की महिमा का उल्लेख है।
इसमें अर्थवणऋषि पिप्पलादमुनि को बताते हैं कि प्राचीन काल में दैत्यों के अत्याचारों से पीडि़त समस्त देवता जब विष्णु के पास गए और उनसे कष्ट मुक्ति का उपाय पूछा, तब प्रभु ने उत्तर दिया-मैं अश्वत्थ के रूप में भूतल पर प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान हूं। इसलिए यह मान्यता हैं विष्णु भगवान के स्वरूप पीपल को पितृ निमित्त जो भी चढ़ाया जाता है। उससे हमारे पूर्वजों को तृप्ति मिलती अमावस्या पितृ के दिन माने जाते है इसलिए इस दिन पूर्वजों की तृप्ति के लिए पीपल को दूध और जल चढ़ाया जाता है।
यहां शादी में जूते नहीं चुराते बल्कि पौधे लगवाते हैं...
दुल्हन के देवर तुम दिख लाओ ना युं तेवर जूते लिए हैं नहीं चुराया कोई जेवर जूते ले लो पैसे दे दो। फिल्म हम आपके हैं कौन का ये सुपर हिट गाना सुनते ही याद आ जाती है। शादी में जूते चुराई की रस्म के समय होने वाली मस्ती व हंसी ठिठौली की। लेकिन भारत में उत्तराखंड के कुछ गांव ऐसे भी हैं जहां अब जूते चुराने की परंपरा नहीं है बल्कि उसकी जगह पिछले कुछ दशकों से एक नई परंपरा ने ले ली है। इस परंपरा के तहत साली दूल्हे के जूते चुराकर उनसे पैसे नहीं मांगती बल्कि मैती की यानी मायके में पौधा लगवाने की इस रस्म के तहत सालियां दूल्हे से पौधा लगवाती हैं।
इस रस्म के तहत गांव में लड़कियां गांव में किसी भी सुरक्षित स्थान पर पेड़ लगाती है। हर लड़की एक पौधा लगाती है और उसे देवता की तरह पूजती है। वह उसे बड़े ही प्यार से सहजती है उसकी देखभाल करती है और शादी के समय उस पौधे को सभी रिश्तेदारों की उपस्थित में दूल्हे से लगवाया जाता है जो एक तरह से दुल्हन के मायके में उसके व उसकी पति की निशानी के रूप में रहता है। मैती परंपरा से प्रभावित होकर कनाडा सहित अमेरिका, ऑस्ट्रिया, नार्वे, चीन, थाईलैंड और नेपाल में भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे है।
शिवजी की पूजा से क्यों मान जाते हैं रूठे शनि देव?
शनि देव को न्यायाधीश भी कहते हैं। कहा जाता है कि शनि की कुदृष्टि जिस पर पड़ जाए वह रातों-रात राजा से भिखारी हो जाता है और वहीं शनि की कृपा से भिखारी भी राजा के समान सुख प्राप्त करता है। इसीलिए शनिदेव को मनाने के लिए उनके भक्तो द्वारा अनेक उपाय किए जाते हैं उनमें से ही एक है शिव पूजा व महामृत्युंजय मंत्र का जप।
लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि शिव को मना लेने पर रूठे शनि क्यों मान जाते हैं? दरअसल शास्त्रों के अनुसार शनिदेव सूर्यदेव के पुत्र हैं। शनि को काला माना गया है। कथा के अनुसार एक बार शनिदेव अपने काले रंग रूप से दुखी होकर अपने पिता के पास पहुंचे और उनसे बोले पिताश्री मैं आपका पुत्र हूं और आप तो इतने तेजस्वी हैं और मैं इतना श्यामवर्ण और कुरूप इसीलिए सभी आपको पूजते हैं लेकिन मेरी पूजा कोई नहीं करता है। इसीलिए मैं बहुत दुखी हूं। मुझे समझ नहीं आता कि मैं क्या करूं।
तब सूर्यदेव ने कहा पुत्र तुम महामृत्युंजय मंत्र के जप से शिव का जप करो तो तुम्हारी इस समस्या का समाधान निश्चित ही हो जाएगा। उसके बाद शनिदेव ने शिवजी की महामृत्युंजय मंत्र द्वारा आराधना कि और शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें ग्रह के रूप में पूजा ने का आर्शीवाद दिया तभी से शनिदेव नौ ग्रहों में पूजे जाते हैं। इसीलिए धर्मशास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि शिवजी के पूजन व महामृत्युंजय मंत्र के जप से भी शनि के अशुभ प्रभाव से मुक्ति मिलती है।
गौमूत्र छिड़कने से बढ़ती है समृद्धि क्योंकि...
भारतीय संस्कृति में गाय को माता माना गया है। कहा जाता है कि गाय का मुख अशुद्ध होता है और शरीर का पिछला भाग शुद्ध होता है। घर में गौ मूत्र छिड़कने के साथ ही सुबह शाम भगवान के समक्ष गाय के दूध से निर्मित घी का दीपक लगाने से इस से घर के सभी वास्तुदोष दूर होते हैं। साथ ही घर में सक्रिय नेगेटिव एनर्जी का प्रभाव खत्म हो जाता है। घर का वातावरण शुद्ध होता है और सभी सदस्य निरोगी बने रहते हैं।
गाय की सेवा से लक्ष्मी सहित सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त होती है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि गाय के शरीर में सभी देवी-देवताओं का वास होता है। इसी वजह से गाय की सेवा का अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। गाय की सेवा से सभी सुखों को देने वाले भगवान शिव भी प्रसन्न होते हैं।गोमूत्र को भी घर से दोष दूर करने में उपयोग किया जाता है। घर में गोमूत्र छिड़कने से घर के सभी वास्तुदोषों निष्क्रिय हो जाते हैं। गोमूत्र के प्रभाव से घर में फैले सभी हानिकारक कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। साथ ही देवी लक्ष्मी की विशेष कृपा बनी रहती है। इसीलिए घर में गौ मूत्र छिड़कने से समृद्धि बढ़ती है।
समस्या हो या खुशी नदी को लिखते हैं चिठ्ठी, यहां के लोग
वर्तमान में मोबाइल के चलन के कारण लोग अपने रिश्तेदारों को अब चिठ्ठियां नहीं लिखते। लेकिन कुछ दशक पूर्व तक लोग अपनों तक अपने संदेश पहुंचाने के लिए सिर्फ चिठ्ठियों का ही उपयोग किया करते थे। वहीं कई क्षेत्रों में देवी-देवताओं को पत्ते पर लिख कर उन्हें चिठ्ठी समर्पित करते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से मनोकामना बहुत जल्दी पूरी होती है। अब इसे कोई परंपरा कहे या अंधविश्वास।
सामान्यत: इंसानों तक ही अपनी बात पहुंचाने के लिए लोग चिठ्ठियों का उपयोग किया जाता है। लेकिन उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के कछला क्षेत्र में नदी को चिठ्ठी लिखने की अनूठी परंपरा है।यहां कछला और बंदायूं क्षेत्र में सैकड़ों सालों से यह परंपरा है कि यहां कोई भी मांगलिक कार्य हो शादी हो या त्यौहार या कि सी बच्चे का मुंडन उसका आमंत्रण पत्र गंगा नदी में प्रवाहित किया जाता है ताकि गंगा मैया कि कृपा से हर मांगलिक कार्य निर्विघ्र संपन्न हो।
इस क्षेत्र में ऐसी भी मान्यता है कि किसी को यदि कोई भयंकर बीमारी है तो वह अपनी बीमारी के बारे में एक पत्र लिखकर उसे गंगा नदी में प्रवाहित कर दे तो उसे सारे रोगों से मुक्ति मिल जाती है।दूर दराज के जो लोग नहीं आ पाते हैं वे गंगा मैया को डाक के माध्यम से चिठ्ठी लिखकर भेजते हैं और उनकी चिठ्ठियों को गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।
रिंग फिंगर से ही क्यों लगाते हैं तिलक?
हिन्दू धर्म में पूजा के समय तिलक जरूर लगाया जाता है। सिर्फ पूजा ही क्यों? अन्य किसी भी तरह का कोई मांगलिक कार्य हो तो उसका प्रारंभ भी तिलक लगाकर किया जाता है। बिना तिलक धारण किए कोई भी पूजा-प्रार्थना शुरू नहीं होती है।
मान्यताओं के अनुसार, सूने मस्तक को शुभ नहीं माना जाता। पूजन के समय माथे पर अधिकतर कुमकुम या चंदन का तिलक लगाया जाता है। तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है।रिंग फिंगर के नीचे का क्षेत्र हस्तज्योतिष के अनुसार सूर्य पर्वत या सूर्य क्षेत्र माना जाता है।
ललाट पर जहां तिलक लगाया जाता है वहां आज्ञा चक्र होता है। माना जाता है कि सूर्य की अंगुली से आज्ञा चक्र पर तिलक लगाने से चेहरे को सूर्य के समान तेज प्राप्त होता है। साथ ही आज्ञा चक्र भी जागृत होता है जिससे एकाग्रता बढ़ती है और तिलक लगवाने वाला यशस्वी व ओजस्वी होता है। इसीलिए तिलक हमेशा रिंगफिंगर से लगाया जाता है।
कृष्ण मंदिर जाएं तो जरूर ध्यान रखें ये बात क्योंकि...
हमारे यहां पूजा-पाठ से जुड़े अनेक नियम है कुछ नियम मंदिर जाने को लेकर भी बनाए गए हैं जैसे शुद्ध वस्त्र धारण करके व नहाकर ही मंदिर जाना ऐसा ही एक नियम है कृष्ण भगवान की पीठ के दर्शन ना करने का। इसलिए जब भी कृष्ण भगवान के मंदिर जाएं तो यह जरुर ध्यान रखें कि कृष्ण जी कि मूर्ति की पीठ के दर्शन ना करें। दरअसल पीठ के दर्शन न करने के संबंध में भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण की एक कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण जरासंध से युद्ध कर रहे थे तब जरासंध का एक साथी असूर कालयवन भी भगवान से युद्ध करने आ पहुंचा। कालयवन श्रीकृष्ण के सामने पहुंचकर ललकारने लगा।
तब श्रीकृष्ण वहां से भाग निकले। इस तरह रणभूमि से भागने के कारण ही उनका नाम रणछोड़ पड़ा। जब श्रीकृष्ण भाग रहे थे तब कालयवन भी उनके पीछे-पीछे भागने लगा। इस तरह भगवान रणभूमि से भागे क्योंकि कालयवन के पिछले जन्मों के पुण्य बहुत अधिक थे और कृष्ण किसी को भी तब तक सजा नहीं देते जब कि पुण्य का बल शेष रहता है। कालयवन कृष्णा की पीठ देखते हुए भागने लगा और इसी तरह उसका अधर्म बढऩे लगा क्योंकि भगवान की पीठ पर अधर्म का वास होता है और उसके दर्शन करने से अधर्म बढ़ता है। जब कालयवन के पुण्य का प्रभाव खत्म हो गया कृष्ण एक गुफा में चले गए। जहां मुचुकुंद नामक राजा निद्रासन में था। मुचुकुंद को देवराज इंद्र का वरदान था कि जो भी व्यक्ति राजा को निंद से जगाएगा और राजा की नजर पढ़ते ही वह भस्म हो जाएगा। कालयवन ने मुचुकुंद को कृष्ण समझकर उठा दिया और राजा की नजर पढ़ते ही राक्षस वहीं भस्म हो गया।
अत: भगवान श्री हरि की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए क्योंकि इससे हमारे पुण्य कर्म का प्रभाव कम होता है और अधर्म बढ़ता है। कृष्णजी के हमेशा ही मुख की ओर से ही दर्शन करें। यदि भूलवश उनकी पीठ के दर्शन हो जाते हैं और भगवान से क्षमा याचना करनी चाहिए। शास्त्रों के अनुसार इस पाप से मुक्ति के लिए कठिन चांद्रायण व्रत करना होता है। इस व्रत के कई नियम बताए गए हैं। जैसे-जैसे चंद्र घटता जाता है ठीक उसी प्रकार व्रती को खान-पान में कटौती करना होती है और अमावस्या के दिन निराहार रहना पड़ता है। अमावस्या के बाद जैसे-जैसे चांद बढ़ता है ठीक उसी प्रकार खान-पान में बढ़ोतरी की जानी चाहिए और पूर्णिमा के बाद यह व्रत पूर्ण हो जाता है। ऐसा करने पर भक्त की आराधना से श्री हरि अतिप्रसन्न होते हैं और सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं।
घर पर झंडा लगाने से बढ़ता है सुख क्योंकि...
झंडे या ध्वजा को विजय और सकारात्मकता ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए पहले के जमाने में जब युद्ध में या किसी अन्य कार्य में विजय प्राप्त होती थी तो ध्वजा फहराई जाती थी। वास्तु के अनुसार भी झंडे को शुभता का प्रतीक माना गया है। माना जाता है कि घर पर ध्वजा लगाने से नकारात्मक ऊर्जा का नाश तो होता ही है साथ ही घर को बुरी नजर भी नहीं लगती है। लेकिन घर के उत्तर-पश्चिम कोने में यदि ध्वजा लगाई जाती है तो उसे वास्तु के दृष्टिकोण से बहुत अधिक शुभ माना जाता है।
वायव्य कोण यानी उत्तर पश्चिम में झंडा या ध्वजा वास्तु के अनुसार जरूर लगाना चाहिए क्योंकि ऐसा माना जाता है कि उत्तर-पश्चिम कोण यानी वायव्य कोण में राहु का निवास माना गया है। ज्योतिष के अनुसार राहु को रोग, शोक व दोष का कारक माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यदि घर के इस कोने में किसी भी तरह का वास्तुदोष हो या ना भी हो तब भी ध्वजा या झंडा लगाने से घर में रहने वाले सदस्यों के रोग, शोक व दोष का नाश होता है और घर की सुख व समृद्धि बढ़ती है।
बुधवार का व्रत क्यों करना चाहिए?
बुधवार को शास्त्रों के अनुसार गणेश जी का दिन माना जाता है। ज्योतिष के अनुसार बुध को व्यापार का कारक माना जाता है। साथ ही बुध को बुद्धि का कारक भी माना जाता है। जिसकी कुंडली में बुध शुभ फल देने वाला होता है वह बिजनेस के साथ ही वाणी व लेखन से जुड़े कामों में विशेष सफलता प्राप्त करता है। लेकिन यदि कुंडली में बुध अशुभ फल देने वाला हो तो ऐसे व्यक्ति को बिजनेस में व कार्यक्षेत्र में अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाती है।
इसीलिए व्यापार व कार्यक्षेत्र में अपेक्षित सफलता प्राप्त करने के लिए श्री गणेश की आराधना करने को कहा जाता हैं क्योंकि गणेशजी को बुद्धि और विद्या के स्वामी हैं। गणेशजी की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए बुधवार का व्रत करने के साथ ही बुधवार के दिन उन्हें दूर्वा चढ़ाकर लड्डू का भोग लगाना चाहिए। इससे व्यापार व कार्यक्षेत्र में शीघ्र ही सफलता प्राप्त होती है क्योंकि ज्योतिष के अनुसार गणेशजी के प्रसन्न होने पर बुध शुभ फल देने लगता है।
गंगा दशहरा 11 को, गंगा पूजन से पाएं हर सुख
हिंदू संस्कृति में गंगा को सबसे पवित्र व पापों का नाश करने वाली नदी कहा गया है। धर्म ग्रंथों के अनुसार गंगा देवनदी है जो मनुष्य के कल्याण के लिए धरती पर आई है। धरती पर गंगा का अवतरण ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को हुआ था इसीलिए इस तिथि को गंगा दशहरा या गंगा दशमी के नाम से जाना जाता है-
दशमी शुक्लपक्षे तु ज्येष्ठमासे बुधेहनि।
अवतीर्णा यत: स्वर्गाद्धसतक्र्षे च सरिद्वरा।।
गंगा तट पर इस दिन भव्य रूप से सांस्कृतिक व धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस बार यह उत्सव 11 जून, शनिवार को है। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी संवत्सर का मुख कही जाती है। इस दिन गंगा स्नान व दान का विशेष महत्व है-
ज्येष्ठस्य शुक्लादशमी संवत्सरमुखा स्मृता।
तस्यां स्नानं प्रकुर्वीत दानं चैव विशेषत:।।
इस दिन गंगा स्नान व पूजन से दस प्रकार के पापों (तीन कायिक, चार वाचिक व तीन मानसिक) का नाश होता है इसीलिए इसे दशहरा कहते हैं-
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशमी हस्तसंयुता।
हरते दश पापानि तस्माद् दशहरा स्मृता।।
(ब्रह्मपुराण)
वैसे तो गंगा तट पर हर दिन एक उत्सव की तरह ही होता है लेकिन गंगा दशहरा पर्व पर आयोजित कार्यक्रम हिंदू सभ्यता में गंगा के महत्व का आभास दिलाते हैं। इस दिन गंगा तटों पर बड़ी संख्या में धर्मालुजन गंगा स्नान व पूजन के लिए आते हैं और स्वयं को धन्य महसूस करते हैं।
धरती पर क्यों आना पड़ा देवनदी गंगा को?
हमारे देश में अनेक नदियां है लेकिन उन सभी में गंगा का अपना अलग महत्व है। धर्म शास्त्रों के अनुसार गंगा के स्नान मात्र से जन्म-जन्मांतर के पाप धुल जाते हैं। गंगा के धरती पर आने की कथा भी बड़ी रोचक है जो इस प्रकार है-
भगवान श्रीराम के पूर्वज सूर्यवंशी राजा सगर की दो पत्नियां थीं केशिनी और सुमति। केशिनी का एक ही पुत्र था जिसका नाम असमंजस था, जबकि सुमति के साठ हजार पुत्र थे। असमंजस बहुत ही दुष्ट था। उसको देखकर सगर के अन्य पुत्र भी दुराचारी हो गए। इधर असमंजस के यहां अंशुमान नाम का धर्मात्मा पुत्र हुआ वह अपने दादा राजा सगर की सेवा करने लगा। एक बार सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। तब इंद्र ने उस यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल में कपिलमुनि के आश्रम में छुपा दिया। जब अश्व नहीं मिला तो सगर के पुत्रों ने पृथ्वी को खोदना प्रारंभ किया। तब पाताल में उन्हें कपिलमुनि के आश्रम में यज्ञ का घोड़ा दिखाई दिया।
यह देखकर सगर के सभी पुत्रों ने समाधि में लीन कपिल मुनि को भला-बुरा कहा। सगर पुत्रों की बात सुनकर जैसे ही कपिल मुनि ने आंखें खोली सभी सगर पुत्र वहीं भस्म हो गए। इसके बाद सगर ने अपने पौत्र अंशुमन को घोड़े की खोज में भेजा। अंशुमन भी कपिल मुनि के आश्रम तक गए और वहां उन्होंने अपने पितरों की भस्म तथा यज्ञ का घोड़ा देखा। तब अंशुमन ने कपिलमुनि की स्तुति की। प्रसन्न होकर कपिलमुनि ने अंशुमन को वह घोड़ा दिया और यह भी बताया कि गंगाजल से ही तुम्हारे पितरों का उद्धार संभव है।
अंशुमन के बाद उनके पुत्र दिलीप और दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए। सभी ने अपने पितरों की शांति के लिए घोर तपस्या की। तब भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर देवी गंगा ने पृथ्वी पर आना स्वीकार किया। गंगा का वेग धारण करने के लिए भगीरथ ने भगवान शंकर से निवेदन किया। तब गंगा पृथ्वी पर आई और उसके जल के स्पर्श से राजा सगर का 60 हजार पुत्रों का उद्धार हुआ।
दुल्हन के बदले देनी पड़ती है दुल्हन नहीं तो...
आज लोग जीवनसाथी को ढ़ूंढने के लिए जहां अखबार व इंटरनेट का सहारा ले रहे हैं। वहीं आज भी एक ऐसी बिरादरी भी है, जिसके रस्म और रिवाज खासतौर पर लड़के की शादी को कठिन बना देते हैं। जहां एक और सामान्य रूप से हमारे समाज में यह मान्यता है कि बेटी की शादी करने में माता-पिता को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। लेकिन वन गुर्जर समाज में इसके ठीक विपरित मान्यता है।
इस समाज में किसी के घर जब पुत्र का जन्म होता है तभी से माता-पिता को उसके विवाह के संबंध में चिंता सताने लगती है क्योंकि उनमें दुल्हन लेने के बदले दुल्हन देने की प्रथा है। हां शायद ये बात आपको थोड़ी अजीब लगे लेकिन वन गुर्जर समाज में ऐसी ही कुछ अजीबो-गरीब रिवाज है। इस समाज में महिला संगीत की बजाय पुरुष संगीत होता है।
जिसमें पुरुष सुफियाना गीत गाते हैं। इस समाज में लड़के की शादी में दुल्हन के बदले दुल्हन का आदान-प्रदान किया जाता है अर्थात वर पक्ष दुल्हन लेने के बदले कन्या पक्ष को भी दुल्हन देता है जिसे स्थानीय भाषा में साटा-पल्टा कहा जाता है।
यदि देने के लिए दुल्हन न हो, तो दामाद को विवाह से पहले ही घर जमाई बना दिया जाता है, जिसे पांच से दस साल तक लड़की के घर रहकर उनके घर के कामों में हाथ बटांना पड़ता है। वन गुर्जर समुदाय का मानना है कि यह रस्म मुश्किल जरूर है लेकिन इसके पालन से लड़की को सम्मान तो मिलता ही है साथ ही आपसी भाईचारा भी बढ़ता है।
सोने से पहले क्या और क्यों पढ़े?
कहते हैं रात को हम जिस तरह के विचारों के साथ सोते हैं सुबह हमारे दिन की शुरूआत जैसे होती है वैसे ही पूरा हमारा दिन बीतता है। यदि रात को मंत्र जप करते हुए, ध्यान करते हुए या कुछ अच्छे विचार रखकर सोएं तो नींद गहरी आती ही है। साथ ही आने वाला दिन भी सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ होता है।
अधिकतर नियमबद्ध धार्मिक लोग अपनी दिनचर्या की शुरूआत धर्म ग्रंथों के साथ करते हैं लेकिन आजकल की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में लोग चाहकर भी यह नहीं कर पाते हैं। कहते हैं सुबह के समय इनको पढऩे से कोई विशेष फल मिलता है यह केवल एक रूढ़ी मात्र है।
दरअसल यह हमारी विचारधारा, मानसिकता और स्वास्थ्य के लिए तय किया गया है कि धर्म ग्रंथ सुबह ही पढ़े जाएं। लेकिन यदि रात को अच्छे विचारों वाली या आध्यात्मिक पुस्तक पढ़ते हुए सोएं तो कुछ ही दिनों में आप अपने आप में और अपने जीवन में इसका प्रभाव महसूस करेंगे। इसीलिए रात को सोने से पहले आध्यात्मिक विचारों वाली किताब का ज्यादा नहीं तो सिर्फ एक पेरेग्राफ पढ़कर सोएं। आपका आने वाला कल सकारात्मक ऊर्जा से भरा हुआ होगा।
झमाझम बारिश के लिए टोटके कैसे-कैसे?
आजकल गर्मी के कारण पारा बढ़ता जा रहा है। हर साल गर्मी बढऩे के कई नए रिकार्ड बनते बिगड़ते रहते है। ऐसे में सभी लोगों को गर्मी से राहत के लिए रिमझिम बारिश का इंतजार होता है। लेकिन कई बार मानसून समय पर नहीं आता है और मानसून में देरी होने पर जहां एक तरफ गर्मी से राहत नहीं मिल पाती वहीं दूसरी और किसानों के सिर पर भी चिंता की लकीरें दिखने लगती है।
ऐसे में रूठे मेघों को मनाने के लिए हमारे देश के विभिन्न क्षेत्रों में कुछ अजीब परंपराएं प्रचलित है। हमारे यहां लोग जल्दी बारिश के लिए नुस्खे अपनाते हैं। इनमें से कुछ अद्भुत नुस्खे इस प्रकार है।
1.एक प्रचलित नुस्खें के अनुसार महिलाओं द्वारा खेत में हल खींचकर जुताई करना है। कुछ अंचलों में तो महिलाएँ अर्धरात्रि को अर्धनग्न होकर हल खींचकर जुताई करतीं हैं। बच्चों के लिए यह अवसर काले मेघा को रिझाने का भी होता है और शरारतें करने का भी। वे नंगे बदन जमीन पर लोटते हैं और प्रतीक रूप में उन पर पानी डालकर बादलों को बुलाया जाता है।
2.एक अन्य मजेदार परम्परा में गधों की शादी द्वारा इन्द्र देवता को रिझाया जाता है। इस अनोखी शादी में इंद्र देव को खास तौर पर निमंत्रण भेजा जाता है। मकसद साफ है इंद्र देव आएँगे तो साथ मेघ-मानसून भी ले आएँगे। गधे और गधी को नए वस्त्र पहनाए जाते हैं और शादी के लिए बाकायदा मंडप सजाया जाता है, शादी खूब धूम-धाम से होती है।
3. बरसात ना होने पर मनुष्य असमय दम तोड़ सकता है।इन्द्र देवता को रूबरू कराने के लिए जीवित व्यक्ति की शव-यात्रा तक निकाली जाती है। इसमें बरसात के लिए एक जिंदा व्यक्ति को आसमान की तरफ हाथ जोड़े हुए अर्थी में लिटा दिया जाता है। सभी प्रक्रिया 'दाह संस्कार' की होती है।
4.सबसे प्रचलित नुस्खा मेंढक-मेंढकी की शादी है। मानसून को रिझाने के लिए देश के सभी हिस्सों में चुनरी ओढ़ाकर बाकायदा रीति-रिवाज से मेंढक-मेंढकी की शादी की जाती है।
5. कर्नाटक के एक गाँव में इंद्र देवता को मनाने के लिए एक अनोखी परंपरा है। यहां हाल ही में नीम के पौधे को दुल्हन बनाया गया और अश्वगंधा पेड़ को दूल्हा। पूरी हिंदू रीति रिवाज से शादी संपन्न हुई जिसमें गाँव के सैकड़ों लोगों ने हिस्सा लिया। नीम के पेड़ को बाकायदा मंगलसूत्र भी पहनाया गया। लोगों का मानना है कि अलग-अलग प्रजाति के पेड़ों की शादी का आयोजन करने से झमाझम पानी बरसता है। माना जाता है कि इन टोटकों से इंद्र देव प्रसन्न होते हैं व जल्द ही वर्षा करते हैं।
ये रस्म सिखाती है बुरे समय में भी साथ निभाना क्योंकि...
विवाह के बाद दो इंसानो के साथ-साथ दो परिवारों का जीवन भी पूरी तरह बदल जाता है। विवाह में सबसे मुख्य रस्म होती है वरमाला की। हिन्दू धर्म के अनुसार वरमाला और फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है। वरमाला प्रतीक है दो आत्माओं के मिलन का। जब श्रीराम ने सीता स्वयंवर में धनुष तोड़ा, तब सीता ने उन्हें वरमाला पहना कर पति रूप में स्वीकार किया।
इसी तरह वरमाल के संबंध में कई प्रसंग हमारे धर्म ग्रंथों में भी दिए गए हैं। वरमाला फूलों और धागे से बनती है। फूल प्रतीक हैं खुशी, उत्साह, उमंग और सौंदर्य का, वहीं धागा इन सभी भावनाओं को सहेज कर रखने वाला माध्यम है। जिस तरह फूलों के मुरझाने पर भी धागा उन फूलों का साथ नहीं छोड़ता उसी तरह वरमाला नव दंपत्ति को भी यही संदेश देते हैं कि जैसे अच्छे समय में हम साथ-साथ रहे वैसे ही बुरे समय में भी एक-दूसरे के साथ कदम से कदम मिलाकर चले, किसी एक को अकेला ना छोड़े।
जब भी लगाएं पौंछा रखें इन बातों का ध्यान क्योंकि...
कहते हैं किसी भी घर में साफ-सफाई पर यदि विशेष ध्यान दिया जाए तो उस घर में हमेशा बरकत रहती है। शास्त्रों के अनुसार धन की देवी लक्ष्मी जिस घर में अधिक साफ-सफाई रहती है वहां स्थाई रूप से निवास करती है। साथ ही घर की साफ-सफाई से हमारा मन हमेशा प्रसन्न और खुश रहता है।
जबकि इसके विपरित घर में गंदगी रहने पर दरिद्रता का निवास होता है। इसीलिए घर में नियमित रूप से पौंछा लगाना चाहिए। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि कभी शाम को पौछा ना लगाएं। पूजा घर व रसोई घर पौंछा अलग से रखें।
मान्यता है कि इन बातों का ध्यान ना रखने पर लक्ष्मी रूठ जाती है। घर में पौंछा लगाएं इस संबंध में वास्तुशास्त्र में जरूरी टिप्स बताई गई हैं। पौंछा लगाने के पानी में थोड़ा नमक मिला लेना चाहिए।
इस पानी से बीमारी फैलाने वाले सभी कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। साथ ही नमक नकारात्मक शक्तियों को भी दूर करता है। घर के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह भी बढ़ जाता है। मान्यता है कि इस उपाय से घर के वास्तुदोषों का प्रभाव कम होने लगता है।
चरणामृत सीधे हाथ से ही क्यों लेना चाहिए?
कहते हैं भगवान श्रीराम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया। चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत के बारे में एक मान्यता और प्रचलित है वो ये कि चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से ही लेना चाहिए।
कहते हैं हर शुभ काम या अच्छा काम जिससे आप जल्द ही सकारात्मक परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं वह काम सीधे हाथ से करना चाहिए। इसीलिए हर धार्मिक कार्य चाहे वह यज्ञ हो या दान-पुण्य सीधे हाथ से ही किया जाना चाहिए । जब हम हवन करते हैं और यज्ञ नारायण भगवान को आहूति दी जाती है तो वो सीधे हाथ से ही दी जाती है।
दरअसल सीधे हाथ को सकारात्मक ऊर्जा देने वाला माना जाता है।
आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते। इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। साथ ही सीधे हाथ से चरणामृत लेने पर ईश्वर की कृपा तो प्राप्त होती ही है साथ ही सोच भी सकारात्मक होती है।
खाना खाने से पहले आचमन क्यों करना चाहिए?
कहते हैं स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मस्तिष्क निवास करता है और जिसका शरीर स्वस्थ्य रहता है वह जीवन का हर दिन पूरी ऊर्जा व खुशी के साथ जीता है और उसे अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। हमारे यहां दैनिक जीवन से जुड़ी कई परंपराएं हैं। उन्ही में से कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो हमारे स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखने में मदद करती है।
ऐसी ही एक परंपरा है भोजन के समय आचमन की। भोजन से पहले आचमन किया जाता है। आचमन करते समय हाथ में जल लेकर पहले तीन बार उसे खाने की प्लेट की चारों तरफ घुमाते हैं। उसके बाद मन ही मन ईश्वर का स्मरण किया जाता है और ईश्वर को नैवेद्य ग्रहण करने की प्रार्थना तो कि ही जाती है। साथ ही उन्हें भोजन प्रदान करने के लिए धन्यवाद दिया जाता है। उसके बाद तीन बार आचमन लेकर उसे ग्रहण किया जाता है।
माना जाता है कि ऐसा करने से ईश्वर का आर्शीवाद तो प्राप्त होता ही साथ ही भोजन भी बहुत जल्दी पच जाता है और भोजन से पूरी तरह से सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी है वह यह कि भोजन से पहले थोड़ा जल ग्रहण करने से आहार नलिका जो थोड़ी सिकुड़ी हुई होती है खुल जाती है। जिससे भुख तो बढ़ती ही है साथ ही पाचन संबंधित कोई समस्या भी नहीं होती है।
कुछ लोगों को पूजा का परिणाम क्यों नहीं मिलता?
हिन्दू धर्म शास्त्रों में पूजन के लिए अनेक विधि-विधान है। कहा जाता है कि पूरी विधि-विधान से पूजन करने पर ही किसी भी व्रत या पूजन का पूरा परिणाम मिलता है। इसीलिए जब भी हमारे घर में किसी तरह के पूजन का आयोजन किया जाता है तो किसी शास्त्रों को जानने वाले पंडित को बुलाया जाता है। लेकिन पूजा के कुछ विधान ऐेसे भी हैं जिन्हे रोज पूजा के समय करने पर पूजा के पूर्ण फल की प्राप्ति होती है। लेकिन सामान्य लोग अक्सर ऐसे उपायों से अनजान होते हैं।
शास्त्रों के अनुसार ऐसा ही एक नियम है पूजा से पहले संकल्प लेने का। पूजा से पहले यदि संकल्प ना लिया जाए तो उसका पूजा फल नहीं मिलता है। साथ ही माना जाता है कि उस पूजा का सारा फल इन्द्र देव को प्राप्त होता है। पूजा के लिए संकल्प लेने का अर्थ है एक तरह से स्वयं की कसम उठाना, या स्वयं को साक्षी मानकर कोई संकल्प लेना। संकल्प लेते समय हाथ में जल भी लिया जाता है क्योंकि इस पूरी सृष्टि के पंचमहाभूतों (अग्रि, पृथ्वी, आकाश, वायु और जल) में भगवान गणपति जल तत्व के अधिपति हैं, उन्हें आगे रखकर संकल्प लेना यानी संकल्प में हर कार्य शुभ हो ऐसी प्रार्थना भी शामिल होती है।
कुल मिलाकर व्रत व पूजन के लिए एक बार संकल्प करने के बाद उसे पूरा करना आवश्यक हो जाता है। ऐसे में जो व्यक्ति संकल्प करता है उसे हर हाल में संकल्प पूरा करना पड़ता है जिससे उसकी संकल्प शक्ति मजबूत होती है। जीवन की विषम परिस्थितियों से निपटने की व अपने हर कार्य की प्रति दृढ़संकल्प कर उसे पूरा करने की शक्ति मिलती है।
गायत्री जयंती 11 को, पाएं जीवन का हर सुख
हिंदू धर्म में मां गायत्री को वेदमाता कहा जाता है अर्थात सभी वेदों की उत्पत्ति इन्हीं से हुई है। गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी भी कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को मां गायत्री का अवतरण माना जाता है। इस दिन को हम गायत्री जयंती के रूप में मनाते है। इस बार गायत्री जयंती का पर्व 11 जून, शनिवार को है।
धर्म ग्रंथों में यह भी लिखा है कि गायत्री उपासना करने वाले की सभी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं तथा उसे कभी किसी वस्तु की कमी नहीं होती। गायत्री से आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए गए हैं, जो विधिपूर्वक उपासना करने वाले हर साधक को निश्चित ही प्राप्त होते हैं। विधिपूर्वक की गयी उपासना साधक के चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण करती है व विपत्तियों के समय उसकी रक्षा करती है ।
हिंदू धर्म में मां गायत्री को पंचमुखी माना गया है जिसका अर्थ है यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड जल, वायु, पृथ्वी, तेज और आकाश के पांच तत्वों से बना है। संसार में जितने भी प्राणी हैं, उनका शरीर भी इन्हीं पांच तत्वों से बना है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव के भीतर गायत्री प्राण-शक्ति के रूप में विद्यमान है। यही कारण है गायत्री को सभी शक्तियों का आधार माना गया है इसीलिए भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को प्रतिदिन गायत्री उपासना अवश्य करनी चाहिए।
क्यों रखी जाती है पूजा घर में बालगोपाल की मूर्ति?
कृष्ण ही एक मात्र ऐसे भगवान है जिनका बालरूप भी पूजा जाता है। दरअसल कृष्ण के बचपन की जितनी उल्लेखनीय घटनाएं हैं। उतनी किसी और देवता के बारे में नहीं है। लेकिन घर में बालगोपाल की सेवा पूजा करना बहुत शुभ माना जाता है। इसीलिए हर घर में बालगोपाल की छोटी सी मूर्ति पूजा घर में जरूर रखी जाती है।
पूजा घर में बालगोपाल की मूर्ति क्यों रखी जाती है?
इस सवाल का सारा आधार बहुत दार्शनिक है। यह पूरी तरह मानवीय संवेदना और मनोदशा पर आधारित है। दरअसल भगवान का बाल रूप मन में हर तरह इंसान के मन में प्रेम और वात्सल्य जगाता है। जब हम भगवान की प्रतिमा की सेवा एक जीवित बालक की तरह करते हैं तो मन में हमेशा प्रेम, सद्भाव, दया, करूणा और आदर जैसे भाव पैदा होते हैं, जो हमारे आध्यात्मिक और वैयक्तिक विकास के लिए जरूरी है।
इससे हमारे भीतर किसी के प्रति दुर्भावना नहीं आती है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इससे हमारे जीवन में व्यवहारिक और आध्यात्मिक अनुशासन भी आता है। भगवान का बाल रूप जीवित मानकर पूजा करने से हमारी दिनचर्या में नियमितता आती है।हर काम समय पर, सावधानी से करने की आदत भी पड़ जाती है। भगवान का यह स्वरूप मन में प्रेम जगाता है, जिससे वैष्णव किसी छोटे का भी अपमान नहीं करते, उससे बड़े प्रेम से ही पेश आते हैं।
इस समय खाना खाने के हैं अनेक फायदे क्योंकि...
भोजन से हमारे शरीर को ऊर्जा मिलती है। इसीलिए कहते हैं स्वस्थ्य रहने के लिए सही समय पर भोजन करना बहुत जरूरी है। सभी स्वस्थ्य और निरोगी रहे इसीलिए हमारे धर्म शास्त्रों में भी खाने से संबंधित कई नियम बनाए गए हैं ऐसा है सूर्य अस्त से पूर्व भोजन का। इस नियम का सबसे अधिक पालन जैन धर्म के लोग करते हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वाकई में सूर्यास्त से पूर्व भोजन के अनेक फायदे हैं। दरअसल यह नियम व्यक्ति के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर बनाया गया है। सूर्यास्त के पहले भोजन करने से न केवल पाचन तंत्र ठीक रहता है बल्कि हम कई तरह की बीमारियों से भी बच जाते हैं। कई तरह के बैक्टिरिया और अन्य जीव हमारे भोजन के साथ शरीर में प्रवेश नहीं कर पाते।
इस नियम के पीछे सबसे बड़ा कारण है कि सूर्यास्त के बाद मौसम में नमी बढ़ जाती है और इस नमी के कारण कई तरह के सूक्ष्म जीव और बैक्टिरिया उत्पन्न हो जाते है। सूर्य की रोशनी में ये गरमी के कारण पनप नहीं पाते हैं और सूर्यास्त के साथ ही जैसे ही नमी बढ़ती है ये जीव सक्रिय हो जाते हैं। साथ ही सही समय पर खाना-खाने से पानी अधिक पीने में आता है जिससे भोजन तो जल्दी पच ही जाता है। साथ ही अन्य कई बीमारियों से भी बचाव होता है।
कैसे नारियल से होती है लक्ष्मीजी प्रसन्न?
हिन्दू रिवाज और मान्यताओं के अनुसार श्रीफल यानि नारियल के बिना पूजा अधुरी मानी जाती है क्योंकि श्री फल लक्ष्मी जी का फल माना गया हैं। यह पूर्णता और सुख समृद्धि देने वाला फल है। इसलिए किसी भी शुभ काम या पूजा पाठ करने से पहले श्री फल का उपयोग किया जाता है ताकि किया गया कार्य पूरा हो और उसका सकारात्मक फल भी मिल सके।
धन अर्पित करने की हमारी शक्ति नहीं परंतु प्रतीक रूप से हम भगवान को श्रीफल अर्पित करते हैं। जिससे धन का अहंकार हमारे भीतर से निकल जाए और हम नारियल के भीतर की तरह श्वेत, कोमल और दोषरहित हो जाए। नारियल ऊपर से जितना कठोर होता है अंदर से उतना मुलायम। जिसका स्वाद सभी को अच्छा लगने वाला है।
लेकिन क्या आप जानते है कि बिना मौली का नारियल ऐसा शुभ फल नही देता है। जी हां हिन्दु धर्म के कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथ ओर शास्त्रों के अनुसार बिना मौलि का नारियल अपूर्ण माना जाता है। ऐसा नारियल अधूरा फल देने वाला होता ह्रै। क्योंकि पूजा पाठ में मौलि का उपयोग उपवस्त्र के रूप में किया जाता है और श्री फल का उपयोग बिना वस्त्र के या बिना ढंके नही किया जाता है। माना जाता है कि श्री फल पर मौली लपेटकर अर्पित करने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती है और घर में स्थिर लक्ष्मी का निवास होता है।
देखें कुदरत का करिश्मा! बॉडी में कैसे आए रक्त, शुक्राणु और मन
अध्यात्म का वास्तविक अर्थ है वैज्ञानिक धर्म। समस्या यह है कि लोग अध्यात्म की असलियत और गहराई जाने बगैर ही उसके विषय में अपनी राय बना लेते हैं। आम लोगों का सोचना यह है कि अध्यात्म में सिर्फ आत्मा और परमात्मा के बारे में विचार किया जाता है इसलिये यह हमारे किस काम का? जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। अध्यात्म को जाने, समझे और गहराई से उसमें उतरे बगैर कोई भी जिंदगी को असल मायने जान ही नहीं सकता। अध्यात्म जिंदगी के हर पहलू पर बेहद अनमोल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ बात करता है। यहां तक कि भोजन जैसे विषय पर भी अध्यात्म में सूक्ष्म वैज्ञानिक जानकारियां दी गई हैं।
अध्यात्म में भोजन का भी बड़ा महत्व बताया गया है। अध्यात्म कहता है कि यदि हमारा भोजन ठीक न हो तो शरीर, मन और अंतत: पूरा व्यक्तित्व भी ठीक नहीं रह सकता। भोजन के विषय में अध्यात्म में एक बड़ी ही कीमती बात कही गई है। इसमें भोजन का बड़ा ही वैज्ञानिक या कहें बॉयोलाजीकल विश£ेषण किया गया है।
अध्यात्म का सुप्रीम सांइस कहता है कि याद रखिए जो भी कुछ हम खाते हैं उसमें से एक चौथाई से मन बनता है, एक चौथाई से रक्त बनता है, एक चौथाई शुक्र यानी वीर्य (वीर्य को ही अंगे्रजी में सीमन कहा जाता है) में और एक चौथाई मल में परिवर्तित हो जाता है। मतलब यह कि आपके भोजन करने लेने के बाद ये चार प्रक्रियाएं घटती हैं। हमें बड़ी सावधानी और चोकन्नेपन के साथ मन, रक्त (खून) और शुक्र यानी वीर्य को संभालकर रखना है और सिर्फ मल का त्याग करना है।
अध्यात्म में मन, रक्त और वीर्य के विषय में जो बात कही गई है यदि उसका ध्यान रखा जाए तो इंसान 100 फीसदी महान
व्यक्तित्व का मालिक बन सकता है।
विदाई के समय तिलक क्यों लगाते हैं?
हिन्दू धर्म में किसी भी तरह का पूजन करते समय मस्तक पर तिलक जरूर लगाया जाता है। माना जाता है कि बिना तिलक लगाए पूजा करने पर पूजा का पूरा फल नहीं मिलता। लेकिन सिर्फ पूजन के समय ही तिलक नहीं किया जाता है बल्कि तिलक हमारी भारतीय संस्कृ़ति का भी एक अभिन्न अंग है। इसीलिए हमारे यहां जब किसी का स्वागत किया जाता है , शादी ब्याह में कोई रस्म निभाई जाती है या किसी कि विदाई की जाती है तो भी मेहमानों को तिलक लगाकर ही विदा किया जाता है।
लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि विदाई के समय तिलक क्यों लगाया जाता है? दरअसल तिलक को हमारी सभ्यता में सम्मान का प्रतीक माना गया है। इसके अलावा इसे विजय का प्रतीक भी माना जाता है। इसीलिए प्राचीन समय से ही जब हमारे यहां कोई युद्ध के लिए जाता था। तब उसे तिलक लगाकर ही विदा किया जाता था ताकि जब वो लौटे तो विजय प्राप्त करके लौटे। ऐसे में तिलक करने वाले की सकारात्मक भावना या दुआएं विदाई लेने वाले के साथ रहती है और उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता करती है। साथ ही तिलक लगाने से एकाग्रता और आत्मविश्वास बढ़ता है क्योंकि तिलक लगाने से आज्ञा चक्र जागृत होता है। साथ ही मस्तिष्क को शीतलता भी मिलती है।
बेडरूम में नहीं रखने चाहिए झूठे बर्तन क्योंकि...
बेडरूम या शयन कक्ष घर का वह कमरा होता है जिसका वास्तु अगर सही हो तो पूरे घर में सुख व शांति रहती है क्योंकि किसी भी सुखी गृहस्थी की नींव है सुखी दांपत्य जीवन। लेकिन बेडरुम में किसी भी तरह का वास्तु दोष होने पर पति-पत्नी का रिश्ता बहुत मजबूत नहीं रह पाता है।हमारे शास्त्रों के अनुसार बेडरूम में झूठे बर्तन छोडऩा निषिद्ध माना गया है। क्योंकि इससे घर की सुख व समृद्धि नष्ट होती है।
पति-पत्नी के रिश्ते भी प्रभावित होते हैं। साथ ही घर में अलक्ष्मी का वास होता है। वास्तु के अनुसार भी घर में बेडरूम में झूठे बर्तन रखना अच्छा नहीं माना गया है। आलस्य के कारण ऐसा करने पर रोग व दरिद्रता आती है। हमारे यहां बनाई गई ऐसी हर एक परंपरा के पीछे कोई ना कोई वैज्ञानिक कारण भी जरूर छूपा होता है। घर में झूठे बर्तन रखने से उन बर्तनों में छोटे-छोटे बैक्टिरिया जन्म ले लेते हैं और इनकी संख्या तेजी से बढऩे लगती है। जिससे कमरे में नकारात्मक ऊर्जा तो फैलती ही है साथ ही कई बीमारियां भी हो सकती हैं।
बिना जीवनसाथी के दान अधूरा क्यों माना जाता है?
दान करने के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि दान हमेशा अपने जीवनसाथी के साथ ही किया जाना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि शिवजी के अद्र्धनारीश्वर स्वरूप में शिवजी के दाएं भाग में स्वयं शिवजी और बाएं भाग में माता पार्वती को दर्शाया जाता है। धर्म से संबंधित सभी कार्य पुरुषों से कराए जाने की बात हमेशा से ही कही जाती रही है।
दान सीधे हाथ से करना चाहिए लेकिन दान का धर्म तब और अधिक मिलता है जब दान जोड़े से किया जाए क्योंकि पत्नी को पति की अद्र्धांगिनी कहा जाता है, इसका मतलब यही है कि पत्नी के बिना पति अधूरा है। पति के हर कार्य में पत्नी हिस्सेदार होती है। शास्त्रों में इसी कारण सभी पूजा कर्म दोनों के लिए एक साथ करने का नियम बनाया गया है।
यदि दोनों एक साथ पूजादि कर्म करते हैं तो इससे पति-पत्नी को पुण्य तो मिलता है साथ ही परस्पर प्रेम भी बढ़ता है। स्त्री को पुरुष की शक्ति माना जाता है इसी वजह से सभी देवी-देवताओं के नाम के पहले उनकी शक्ति का नाम लिया जाता है जैसे सीताराम, राधाकृष्ण। इसी वजह से पत्नी के बिना पति को किसी भी तरह के दान का कोई पुण्य नहीं लगता और दिया गया दान अधूरा ही माना जाता है।
शादी में किसी को भी काले कपड़े नहीं पहनना चाहिए क्योंकि....
काला रंग अशुभ होता है। अधिकतर लोग इसे अंधविश्वास मानकर इस बात को नहीं मानते हैं क्योंकि काले रंग के कपड़े इन दिनों फैशन में है इसलिए आजकल शादी में दूल्हा- दुल्हन भी और उनके रिश्तेदार भी इस बात को अंधविश्वास मानकर टाल देते हैं।
लेकिन ज्योतिष के अनुसार भी शुभ कार्य में काले रंग के कपड़े नहीं पहनना चाहिए। इसलिए शादी में भी वस्त्रों में लाल, पीले और गुलाबी रंगों को अधिक मान्यता दी जाती है क्योंकि लाल रंग सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह है कि लाल रंग ऊर्जा का स्तोत्र है। साथ ही लाल रंग सकारात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है।
इसके विपरीत जब नीले, भूरे और काले रंगों की मनाही करते हैं तो उसके पीछे भी वैज्ञानिक कारण हैं। काला और गहरा रंग नैराश्य का प्रतीक है और ऐसी भावनाओं को शुभ कार्यो में नहीं आने देना चाहिए। जब पहले ही कोई नकारात्मक विचार मन में जन्म ले लेंगे तो रिश्ते का आधार मजबूत नहीं हो सकता। इसलिए शादी में वर और वधु दोनों को ही काले कपड़े नहीं पहनना चाहिए। साथ ही उनके रिश्तेदारों को भी काले कपड़े पहनने से बचना चाहिए।
क्यों और किस दिन नहीं करना चाहिए सफर ?
हमारे यहां हर दिन से जुड़ी एक अलग मान्यता है जैसे गुरूवार के दिन सफाई ना करना या शनिवार के दिन घर में लोहा ना लाना ऐसी ही कुछ परंपराए तिथियों के लिए भी बनाई गई है जैसे ग्यारस के दिन चावल ना खाना या चतुर्थी के दिन चंद्रमा के दर्शन की। ऐसी ही अनेक परंपराएं या मान्यताएं है जिन्हें हम मानते हैं और इनका पालन भी करते हैं पर कारण नहीं जानते हैं कि आखिर ये मान्यताए बनाई क्यों गई हैं?
ऐसी ही एक मान्यता है कि अमावस्या के दिन यात्रा नहीं करनी चाहिए। अमावस्या में अमा का अर्थ है करीब तथा वस्य का अर्थ है,रहना यानी करीब रहना।इस दिन चंद्र दिखाई नहीं देता तथा तिथियों में इस तिथि के स्वामी पितृ होते हैं।इसलिए इस तिथि को भी शुभ कर्म करना निषेध है।यहां तक की मजदूरवर्ग भी इस दिन काम बंद रखता है और इस दिन यात्रा भी नहीं करना चाहिए
क्योंकि चंद्रमा की शक्ति प्राप्त नही होने के कारण शरीर में एक महत्वपूर्ण तत्व जल का संतुलन ठीक नही रहता जिससे निर्णय सही नही हो पाते और गलतियां अधिक होती है। दुर्घटनाओं के होने का भय रहता है। साथ ही यदि यात्रा व्यापारिक हो तो सही फैसले नहीं होते जिससे व्यापार में नुकसान भी हो सकता है। इसलिए अगर आप किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए जा रहे हों तो अमावस्या के दिन को टालना चाहिए और यात्रा नहीं करना चाहिए।
पूजा में भगवान को अबीर क्यों चढ़ाया जाता है?
पूजा से जुड़ी अनेक परंपराओं में से एक परंपरा है पूजन के समय गंध अर्पित करने की। चंदन, हल्दी, गुलाल व मेंहदी इन सभी को शास्त्रों के अनुसार गंध माना गया है। ऐसी मान्यता है कि पूजन के समय ये गंध अर्पित करने से भगवान की विशेष कृपा प्राप्त होती है। लेकिन सारे गंध में से सबसे श्रेष्ठ गंध अबीर को माना गया है।अबीर अभ्रक से प्राप्त होता है।
इसे अभ्रक भस्म भी कहा जाता है। भगवान की मूर्तियों पर अबीर चढ़ाने से मूर्तियां चमकती है और माना जाता है कि इससे भगवान के अंगों का तेज बढ़ता है। अबीर को पूजा में गुलाल के साथ सुगंधित द्रव्य व गंध के रूप में चढ़ाया जाता है। इसीलिए इसे भगवान का प्रिय माना जाता है। मान्यता है कि अबीर को पूजन में पूरी श्रृद्धा के साथ चढ़ाकर भगवान से उनके ही समान तेज देने की प्रार्थना की जाती है तो उससे सभी अंग तेजस्वी बनते हैं।साथ ही रोग खत्म होकर शरीर स्वस्थ्य बनता है।
15 जून को चंद्रग्रहण, इन बातों का रखें विशेष ध्यान
15 जून, बुधवार को खग्रास चंद्रग्रहण है। यह ग्रहण भारत के अलावा अफ्रीका, यूरोप, अटलान्टिक महासागर, दक्षिण अमेरिका, मध्य पूर्व एशिया, अन्टार्टिका व दक्षिण पश्चिम पेसेफिक महासागर में भी दिखाई देगा।
पं. मनीष के अनुसार भारतीय समयानुसार ग्रहण 15 जून की रात 11 बजकर 52 मिनट से प्रारंभ होगा तथा 3 बजकर 32 मिनट पर इसका मोक्ष होगा। ग्रहण का काल 3 घंटे 40 मिनट रहेगा। ग्रहण का सूतक काल 15 जून दोपहर को 2 बजकर 52 मिनिट से प्रारंभ हो जाएगा। यह ग्रहण ज्येष्ठा नक्षत्र चतुर्थ चरण पर वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा होंगे तब शुरु होगा तथा इसका मोक्ष मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में धनु राशि के चंद्रमा में होगा। अत: वृश्चिक एवं धनु राशि वाले जातक इस ग्रहण को न देखें तो बेहतर रहेगा।
ये करें चंद्रग्रहण के दौरान
ग्रहण काल में अपने इष्टदेव का ध्यान, गुरु मंत्र का जाप, धार्मिक कथाओं का श्रवण एवं मनन करना चाहिए। इनमें से कुछ न कर पाने की स्थिति में राम नाम का या अपने इष्टदेव के नाम का जप भी कर सकते हैं। इस दौरान भगवान की मूर्ति को छूना, भोजन पकाना या खाना एवं पीना, सोना, मनोरंजन या कामुकता का त्याग करना चाहिए। भोजन व पानी में दुर्वा या तुलसीदल डाल कर रखें तो बेहतर रहेगा। ग्रहण के पश्चात पूरे घर की शुद्धि एवं स्नान कर दान देने का महत्व है।
चन्द्रग्रहण में बोलें चंद्र गायत्री मंत्र.. टेंशन से मिलेगा छुटकारा
प्रतियोगिता के इस दौर में मानसिक तनाव जीवन का हिस्सा है। तनाव से बिखरा और दु:खी मन इंसान की मनोदशा ही नहीं व्यवहार में भी बुरे बदलाव लाता है। जिससे जीवन में आंतरिक ही नहीं बाहरी कलह भी स्वयं के साथ करीबी लोगों के तनाव और कष्ट का कारण बन सकता है। ऐसी दशा से बाहर आने के लिए मानसिक संयम रख तनाव का कारण बनी समस्या, असफलता या अधूरी इच्छाओं पर सकारात्मक विचार जरूरी है।
वहीं इस समस्या के धार्मिक उपायों पर विचार करें तो शास्त्रों में चन्द्र मन का स्वामी माना गया है। यही कारण है कि ज्योतिष शास्त्रों में तनाव, बेचैनी, मानसिक रोगों का कारण चन्द्र दोष माना जाता है। चन्द्र की अनुकूल स्थिति में इंसान मानसिक ऊर्जा से भरपूर, शांत और निरोगी जीवन पाता है।
वैसे तो चन्द्र दोष दूर करने के लिए सोमवार, अमावस्या का दिन बहुत ही शुभ होता है। किंतु चन्द्र दोष से पीडि़त के लिए चन्द्रग्रहण के दौरान चन्द्र उपासना बहुत ही जरूरी होती है। चन्द्रग्रहण से जुड़ी पौराणिक कथाओं के मुताबिक समुद्र मंथन से निकले अमृत के बंटवारे के दौरान पैदा हुई शत्रुता के कारण छायाग्रह राहु के द्वारा चन्द्र को ग्रसने से चन्द्रग्रहण होता है।
बहरहाल, धर्म हो य विज्ञान चन्द्र के मानव जीवन और प्रकृति पर चन्द्र के प्रभाव को स्वीकारते हैं। इसलिए अगर आप भी किसी मानसिक परेशानी या तनाव से गुजर रहें है तो मन को शांत और एकाग्र करने के लिए कल यहां बताई जा रही चन्द्र पूजा की सरल विधि के साथ चन्द्रग्रहण के दौरान इस चन्द्र गायत्री मंत्र का जप करें -
- प्रात: स्नान कर नवग्रह मंदिर या देवालय में चन्द्रदेव की प्रतिमा को गंगाजल से स्नान कराएं।
- स्नान के बाद चंद्र पूजा में विशेष तौर पर सफेद सामग्रियों को अर्पित करें। इनमें सफेद चंदन, सफेद सुंगधित फूल, अक्षत, सफेद वस्त्र, दूर्वा चढ़ाकर दही या दूध से बनी मिठाईयों का भोग लगाएं।
- पूजा के बाद इस चन्द्र गायत्री मंत्र का स्मरण करें, इसी चंद्र मंत्र का चंद्रग्रहण के दौरान भी जाप करें -
ॐ क्षीरपुत्राय विद्महे, अमृत तत्वाय धीमहि। तन्नो चन्द्रः प्रचोदयात्।।
- पूजा व मंत्र जप के बाद घी व कर्पूर से आरती कर मानसिक सुख की कामना कर प्रसाद ग्रहण करें। रात्रि में चन्द्रग्रहण के दौरान मन ही मन चंद्र जप का यथाशक्ति जप मन को शांत, एकाग्र और स्थिर करने के साथ स्वास्थ्य और संतान सुख भी देने वाला माना गया है।
आप जानते हैं, ग्रहण के समय भोजन क्यों नहीं करना चाहिए!
हिंदु धर्म के अनुसार ग्रहण के दौरान भोजन करने को निषिद्ध माना गया है। यह परंपरा हमारे यहां आज से ही नही ऋषि-मुनियों के समय से ही चली आ रही है।हमारे धर्म शास्त्रों में सूर्य ग्रहण लगने के समय भोजन के लिए मना किया है, क्योंकि मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते है। खाद्य वस्तु, जल आदि में सूक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित कर देते हैं।
इसके पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि ग्रहण के समय मनुष्य के पेट की पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है, जिसके कारण इस समय किया गया भोजन अपच, अजीर्ण आदि शिकायतें पैदा कर शारीरिक या मानसिक हानि पहुँचा सकता है। इसीलिए हिन्दू धर्म में ऐसी मान्यता है कि चंद्र ग्रहण लगने से दस घंटे पूर्व से ही इसका कुप्रभाव शुरू हो जाता है। अंतरिक्षीय प्रदूषण के समय को सूतक काल कहा गया है। इसलिए सूतक काल और ग्रहण के समय में भोजन तथा पेय पदार्थों के सेवन की मनाही की गई है। साथ ही इस समय मंत्र जप व पूजा-पाठ व दान पुण्य आदि करने के बाद भोजन करने का नियम बनाया गया है।
ग्रहण के बाद जरूरी है नहाना क्योंकि...
शास्त्रों के अनुसार ग्रहण करने के बाद स्नान करना बहुत जरूरी माना गया है क्योंकि माना जाता है कि ग्रहण के समय में अंतरिक्षीय प्रदूषण होता है। अंतरिक्षीय प्रदूषण के इस समय को सूतक काल कहा गया है। इसलिए सूतक काल और ग्रहण के समय में भोजन तथा पेय पदार्थों के सेवन की मनाही की गई है। साथ ही इस समय मंत्र जप व पूजा-पाठ के बाद दान पुण्य आदि करने के बाद भोजन करने का नियम बनाया गया है।
इसलिए ऋषियों ने पात्रों के कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएं और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जाएं। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिए बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जाएं और धुल कर बह जाएं।
सूतक के प्रभाव को खत्म करती है तुलसी क्योंकि....
हिंदु धर्म के अनुसार ग्रहण के दौरान सभी खाद्य पदार्थ और पानी आदि में तुलसी की पत्तियां डालना अनिवार्य बताया गया है। ग्रहण में तुलसी के पत्ते खाने में डालने से धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों की फायदे प्राप्त होते हैं। तुलसी एक ऐसा पौधा है जो धर्म और आयुर्वेद में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी पत्तियों में कई औषधीय गुण होते हैं जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद है।
इसी वजह से तुलसी के पत्ते का नियमित सेवन करने की सलाह दी है। साथ ही तुलसी पवित्रता का भी प्रतीक है। ऐसा माना जाता है ग्रहण काल में भोजन की सामग्री आदि अपवित्र हो जाती है। अत: भोजन को ग्रहण की अपवित्रता से बचाने के लिए पवित्रता की प्रतीक तुलसी को खाने में डाल दिया जाता है।
दरअसल इसका मुख्य कारण यह है कि तुलसी डालने से भोजन को हानिकारक विकिरणें प्रभावित नहीं करती। इसीलिए ऐसी मान्यता है कि ग्रहण के समय खाने में कई विषैले कीटाणु आदि पैदा हो जाते हैं, इन कीटाणुओं के बुरे प्रभाव को खत्म करने के लिए तुलसी के पत्ते सक्षम होते हैं। औषधीय गुण वाली तुलसी हमारे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालने वाले कीटाणु को नष्ट कर देती है और खाने को खराब होने बचा लेती है।
ग्रहण के बाद जरूर करना चाहिए 'स्नान' क्योंकि...
शास्त्रों के अनुसार ग्रहण करने के बाद स्नान करना बहुत जरूरी माना गया है क्योंकि माना जाता है कि ग्रहण के समय में अंतरिक्षीय प्रदूषण होता है।
अंतरिक्षीय प्रदूषण के इस समय को सूतक काल कहा गया है। इसलिए सूतक काल और ग्रहण के समय में भोजन तथा पेय पदार्थों के सेवन की मनाही की गई है। साथ ही इस समय मंत्र जप व पूजा-पाठ के बाद दान पुण्य आदि करने के बाद भोजन करने का नियम बनाया गया है।
इसलिए ऋषियों ने पात्रों के कुश डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जाएं और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है ताकि कीटाणु मर जाएं। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिए बनाया गया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अंदर ऊष्मा का प्रवाह बढ़े, भीतर-बाहर के कीटाणु नष्ट हो जाएं और धुल कर बह जाएं।
सूर्य... सौरमंडल का ही नहीं सेहत का भी राजा है
प्रकृति को पूजने की परम्परा हमारे यहां प्राचीन काल से चली आ रही है। हमने गाय के दिव्य गुणों को देखा और लाभ उठाया तो उसके प्रति अपना सम्मान और आभार व्यक्त करने के लिये उसे गौ माता कहने लगे। देव नदी गंगा के महान गुणों को देखकर भी ऐसा ही हुआ पहले तो अद्भुत गुणों को देखकर हमें आश्चर्य हुआ और फिर यही आश्चर्य गहरे विश्वास, श्रृद्धा और कृतज्ञता में परिवर्तित हो गया।
गाय और गंगा की तरह ही जब हमें अपने अनुभवों से ज्ञात हुआ कि सूर्य किस तरह से हमारे ऊपर अनंत उपकार करता है तो उसके प्रति भी वैसी ही भावना ने जन्म लिया। ऐसा नहीं है कि प्रकृति के इन अंगों के लिये हमारे मन में जो सम्मान है वह सिर्फ भावना और श्रृद्धा पर ही निर्भर है। इस सम्मान के पीछे पुख्ता वैज्ञानिक आधारा भी हैं।
विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले कई शोधों से यह साबित हो चुका है कि सूर्य की प्रात:कालीन किरणें हमारे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिये बेहद फायदेमंद हैं। गाय के दूध से, देव नदी गंगा के पानी से और उगते हुए सूरज की किरणों के स्पर्श से हमारा शरीर और मन इतना शक्तिशाली हो जाता है कि किसी भी तरह की कोई भी बीमारी हम पर अपना बुरा प्रभाव नहीं दिखा पाती।
घर में जरूर रखना चाहिए बांसुरी क्योंकि.....
कहते हैं कृष्ण जी सोलह कलाओं से परिपूर्ण हैं। श्रीकृष्ण की सबसे प्रिय वस्तु में से एक है बांसुरी। कृष्ण जब बांसुरी बजाते थे तो पूरा गोकुल मुग्ध होकर उनकी बांसुरी सुना करता था। इसीलिए बांसुरी को सम्मोहन खुशी व आकर्षण का प्रतीक मानी गई है । इसीलिए हर कोई इस संगीत की तरफ सहज ही आकर्षित हो जाता है।ऐसी मान्यता है कि घर में बांसुरी जरूर रखना चाहिए क्योंकि बांसुरी रखने से घर से कई तरह के वास्तुदोष दूर होते हैं।बांसुरी में से गुजर कर नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक उर्जा में बदल जाती है।
बांस के तने, बांसुरी छत के बीम की नकारात्मक ऊर्जा के दुष्प्रभाव को रोकने में कारगर हैं। इससे आपके घर का माहौल खुशनुमा रहेगा।साथ ही बांसुरी शांति व समृद्धि कर प्रतीक है। घर के मुख्य द्वार के समीप बांसुरी लटकाएं। इससे घर की सकारात्मक ऊर्जा में बढऩे लगती है। घर में सुबह-शाम शंख घंटी के साथ अगर बांसुरी भी बजाएं तो इसकी मधुर आवाज से प्राणिक ऊर्जा में वृद्धि होती है।
क्यों और किस दिशा में शुभ नहीं होता बेडरूम?
कहते हैं यदि किसी व्यक्ति का वैवाहिक जीवन सुखी हो तो उसका पूरा जीवन अपने आप सुखी हो जाता है। वास्तु के अनुसार यदि बेडरूम सही दिशा में नहीं हो तो पति-पत्नी में झगड़े होते हैं। पूर्व दिशा में बेडरूम शुभ नहीं माना जाता है। इस दिशा में बेडरूम बना हुआ हैं तो उसे अविवाहित बच्चों के लिए प्रयोग में ला सकते हैं। नवविवाहित विवाहित दम्पत्ति के लिए यह दिशा वर्जित हैं।
दरअसल वास्तु के अनुसार पूर्व दिशा इन्द्र की होती हैं और ग्रहों में सूर्य-ग्रह की दिशा होती हैं। बुजुर्गों एवं अविवाहित बच्चों के लिए बेडरूम के लिए प्रयोग में लाया जा सकता हैं। उत्तर-पूर्व दिशा में बेडरूम का निर्माण न करें तो श्रेष्ठ रहेगा। यह दिशा ग्रहों में गुरू की दिशा मानी जाती है जो कि पूजा कक्ष या बच्चों के अध्ययन कक्ष के रूप में उपयोग में ला सकते हैं।
शादीशुदा इस कक्ष में शयन करेंगे तो कन्या संतान अधिक होने की सम्भावना बनी रहती हैं। दक्षिण-पश्चिम दिशा का कक्ष शयन के लिए सबसे अच्छा माना जाता हैं। गृहस्वामी के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। नैऋत्य कोण पृथ्वी तत्व हैं अर्थात स्थिरता का प्रतीक हैं। अत: इस कक्ष में गृहस्वामी का शयन कक्ष होने पर वह निरोगी एवं भवन में दीर्घकाल तक निवास करता हैं। दक्षिण दिशा में शयन कक्ष गृहस्वामी के लिए उपयुक्त माना गया हैं। गृहस्वामी के अतिरिक्त विवाहित दम्पत्तियों के लिए भी उपयुक्त कक्ष माना जाता हैं।
ध्यान रखें शिवजी को कभी तुलसी ना चढ़ाएं..
शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यराज दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए। तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और शंखचूड ने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए।
ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखजीचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की भी आज्ञा दे दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर भगवान विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए।
परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और तुलसी राक्षसराज की पत्नी थी। इसीलिए ऐसी मान्यता है कि शिवजी को पूजा में तुलसी चढ़ाने पर पूजा का फल नहीं मिलता और ऐसा करने से दोष लगता है।
गोद भराई के बाद गर्भवती महिलाओं को मायके क्यों भेज दिया जाता है?
हमारे यहां बच्चे के जन्म के पूर्व की भी अनेक परंपराएं हैं जिनका गर्भवती महिला को पालन करना होता है। ऐसी ही एक परंपरा है कि गर्भवती स्त्री को सातवें महीने के बाद नदी व नाले पार नहीं करना चाहिए या उनके पास नहीं जाना चाहिए ताकि माता और उसके गर्भ में पल रहा शिशु दोनों की सुरक्षा और सेहत अच्छी बनी रहे।
गोद भराई करके होने वाले शिशु की मां को मायके भेज दिया जाता है क्योंकि सातवें महीने के बाद गर्भवती महिलाओं के लिए यह बहुत जरूरी होता है कि वे अच्छे से आराम करें यात्राएं ना करे ताकि होने वाली संतान स्वस्थ्य हो क्योंकि सातवे महीने के बाद गर्भवती महिलाओं को यात्रा करने पर कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। जब कोई स्त्री गर्भवती होती है तो उसके शरीर में बहुत सारे शारिरीक परिवर्तन होते हैं। उनका शरीर सामान्य से अधिक संवेदनशील होता है। ऐसे मे यात्रा करने से या उनके पास जाने से होने वाले बच्चे पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।
इसका एक कारण यह भी है कि पुराने समय में समाज में पर्दा प्रथा थी और बहुओं पर काफी बंधन होते थे। इसीलिए वे सहज ही उन्हें होने वाली तकलीफ या अपनी जरूरतों को नहीं बता पाती थी। ऐसे समय में उसे किसी तरह की कोई कमी या तकलीफ ना हो और वह खुश रहे। इसीलिए यह नियम बनाया गया कि गोद भराई के तुरंत बाद गर्भवती महिलाओं मायके भेज दिया जाता है।
शादी के बाद लड़कियों को बिंदी लगाना जरूरी क्यों?
बिंदिया लड़कियों को सोलह श्रृंगार में से एक माना गया है। इसीलिए बिंदी किसी भी लड़की की खूबसूरती में चार-चांद लगा देती है। लड़कियां इसका उपयोग सुंदरता बढ़ाने के उद्देश्य से करती हैं और विवाहित महिलाओं के लिए यह सुहाग की निशानी मानी जाती है। हिंदू धर्म में शादी के बाद हर स्त्री को माथे पर लाल बिंदी लगाना आवश्यक परंपरा माना गया है।
बिंदी का संबंध हमारे मन से भी जुड़ा हुआ है। योग शास्त्र के अनुसार जहां बिंदी लगाई जाती है वहीं आज्ञा चक्र स्थित होता है। यह चक्र हमारे मन को नियंत्रित करता है। हम जब भी ध्यान लगाते हैं तब हमारा ध्यान यहीं केंद्रित होता है। यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना गया है। मन को एकाग्र करने के लिए इसी चक्र पर दबाव दिया जाता है।
लड़कियां बिंदी इसी स्थान पर लगाती है।बिंदी लगाने की परंपरा आज्ञा चक्र पर दबाव बनाने के लिए प्रारंभ की गई ताकि मन एकाग्र रहे। महिलाओं का मन अति चंचल होता है, अत: उनके मन को नियंत्रित और स्थिर रखने के लिए यह बिंदी बहुत कारगर उपाय है। इससे उनका मन शांत और एकाग्र रहता है।
मंदिर में मूर्ति की उल्टी परिक्रमा करना अशुभ क्यों माना गया है?
मंदिर या देवालय वह स्थान है जहां जाकर कोई भी व्यक्ति मानसिक शांति महसूस करता है। किसी भी मंदिर में भगवान के होने की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है। भगवान की प्रतिमा या उनके चित्र को देखकर हमारा मन शांत हो जाता है और हमें सुख प्राप्त होता है। हम इस मनोभाव से भगवान की शरण में जाते हैं कि हमारी सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी, जो बातें हम दुनिया से छिपाते हैं वो भगवान के आगे बता देते हैं, इससे भी मन को शांति मिलती है, बेचैनी खत्म होती है।
श्रद्धालु जब मंदिर या किसी देव स्थान पर जाते हैं तो आपने उन्हें देवमूर्ति की परिक्रमा करते हुए देखा होगा। दरअसल परिक्रमा इस कारण की जाती है क्योंकि शास्त्रों में लिखा है कि देवमूर्ति के निकट दिव्य प्रभा होती है।इसलिए प्रतिमा के निकट परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मंडल से निकलने वाले तेज की सहज ही प्राप्ती हो जाती है।
लेकिन देवमूर्ति की परिक्रमा सदैव दाएं हाथ की ओर से करनी चाहिए क्योकि दैवीय शक्ति की आभामंडल की गति दक्षिणावर्ती होती है। बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मंडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्य परमाणुओं में टकराव पैदा होता है, जिससे हमारा तेज नष्ट हो जाता है। जाने-अनजाने की गई उल्टी परिक्रमा का दुष्परिणाम भुगतना पडता है।
रात को पानी का बरतन सिरहाने रखकर क्यों सोते हैं?
कहते हैं अगर शरीर को स्वस्थ्य रखना हो तो ज्यादा से ज्यादा पानी पीना चाहिए। पानी पीने से कई तरह के रोग तो दूर होते ही है साथ ही शरीर में उपिस्थत विषैले पदार्थ भी बाहर निकल जाते हैं। त्वचा कांतिमय रहती है। हमारे शास्त्रों में वरूण को जल का देवता माना गया है। माना जाता है कि तांबे के जग या पात्र का पानी पीने से कई तरह की पेट से संबंधित समस्याएं भी खत्म होती हैं।
लेकिन ज्योतिष के अनुसार तांबे को सूर्य की धातु माना गया है। ऐसी मान्यता है कि जन्मकुंडली में सूर्य अच्छी स्थिति में ना हो या नीच राशि में हो तो तांबे के लौटे से सूर्य को अघ्र्य देने से सूर्य से संबंधित सभी दोष दूर हो जाते हैं। इसी कारण नीच के सूर्य का प्रभाव कम करने के लिए तांबे की अंगुठी पहनने की राय दी जाती है। साथ ही ज्योतिष के अनुसार एक मान्यता यह भी है कि कुंडली में सूर्य के अच्छी स्थिति में ना होने पर किसी भी कार्य में आसानी से सक्सेस नहीं मिल पाती है। इसीलिए किसी भी व्यक्ति को अगर सफलता नहीं मिल रही हो और वह अपने जीवन में सफलता चाहता हो तो उसे सूर्य से जुड़े उपाय करने चाहिए। ज्योतिष के अनुसार सूर्य आत्मा का कारक है।
सूर्य अच्छा है तो आत्मविश्वास बढ़ता है।इसीलिए सफलता प्राप्ति के लिए सूर्य को बलि बनाना आवश्यक है। इसके लिए रात्रि को तांबे के पात्र में जल भरकर उसमें माणिक डालकर रातभर रखें और वह पानी पीएं क्योंकि माणिक को सूर्य का रत्न माना गया है। दरअसल इसका एक ओर पहलू है वो है कलर थैरेपी। कलर थैरेपी के अनुसार लाल रंग को आत्मविश्वास बढ़ाने वाला माना जाता है और लाल धातु में लाल रत्न यानी तांबे में माणिक रत्न यही काम करता है।ऐसा नियमित रूप से करने से सूर्य से जुड़े सारे दोष दूर होने के साथ ही कई रोग दूर होते हैं। दिनभर तन व मन स्फूर्ति से भरा रहता है और शीघ्र ही सफलता के रास्ते खुलने लगते हैं।
शिवलिंग पर शंख से जल नहीं चढ़ाना चाहिए क्योंकि...
कहते हैं कि जिस घर में नियमित शंख ध्वनि होती है वहां कई तरह के रोगों से मुक्ति मिलती है। वैदिक मान्यता के अनुसार शंख को विजय घोष का प्रतीक माना जाता है। कार्य के आरम्भ करने के समय शंख बजाना शुभता का प्रतीक माना जाता है। इसके नाद से सुनने वाले को सहज ही ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव हो जाता है और मस्तिष्क के विचारों में भी सकारात्मक बदलाव आ जाता है।
हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। शंख को विष्णु और लक्ष्मी का अतिप्रिय माना गया है।
लेकिन शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है। दरअसल इसके पीछे कारण यह है कि शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।
बुधवार के दिन बेटियों को ससुराल नहीं भेजना चाहिए क्योंकि.....
जब हम किसी भी मंजिल या शहर की तरफ घर से निकलते हैं तो अगर यात्रा सुखद होती है तो कार्य में निश्चित ही सफलता मिलती है। यात्रा कभी सुखदायी होती है तो कभी इतनी यातनाएं यात्रा में मिलती है कि व्यक्ति सोचता है कि यह यह यात्रा, यात्रा नहीं यातना थी। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हम कभी भी यात्रा में जाने से पहले शकुन और दिशा शूल का विचार नहीं करते, फलस्वरूप कभी सफल हो जाते है तो कभी हमें असफलता का मुंह देखना पड़ता है। ऐसी ही एक मान्यता ज्योतिष के अनुसार बुधवार के बारे में भी है।
कहते हैं बुधवार को ना तो यात्रा करनी चाहिए और ना ही बेटियों को अपने ससुराल जाना चाहिए। दरअसल इसके पीछे कारण यह है कि हमारे शास्त्रों व ज्योतिष के अनुसार बुधवार के दिन बेटियों को विदा करने पर या यात्रा करने पर किसी भी तरह का अशुभ परिणाम या अनिष्ट होने की संभावना उस दशा में बढ़ जाती है जबकि उसकी गृह दशा भी खराब हो। दरअसल इसका ज्योतिषीय कारण यह है कि ज्योतिष के अनुसार बुध व चंद्र शत्रु है। एक कथा के अनुसार बुध चंद्र को शत्रु मानता है पर चंद्र बुध को नहीं।
ज्योतिष के अनुसार चंद्र को यात्रा का कारक माना जाता है और बुध को आय या बिजनेस का कारक माना जाता है। इसीलिए बुधवार के दिन किसी भी तरह की व्यवसायिक यात्रा पर हानि व अन्य किसी तरह की यात्रा करने पर नुकसान होता है। यदि बुध खराब हो तो ऐक्सीडेंट या किसी तरह की अनिष्ट घटना होने की संभावना बढ़ जाती है। इसीलिए ऐसी मान्यता है कि बुधवार के दिन बेटियों को ससुराल नहीं भेजा जाता है।
शादी से पहले सेक्स पर पहरा क्यों?
'सेक्स' एक ऐसा शब्द जो सबसे ज्यादा गोपनीय होने के बावजूद आज सर्वाधिक तेजी से उजागर होता जा रहा है। सेक्स, यौन संबंध, शारीरिक संबंध, काम, रति क्रिया...जैसे कई नामों से इसे जाना जाता है। युवाओं और बड़ों को तो स्वयं कुदरत ही इस तिलिस्म से रूबरू करवा देती है।
किन्तु एक तीसरा वर्ग भी है जिसमें अवयस्क बच्चे आते हैं। बच्चों और विवाह पूर्व युवाओं को सेक्स से दूरी बनाए रखने की प्रेरणा कई स्तरों पर मिलती है। माता-पिता, परिवार, समाज, धर्म और परम्पराएं सभी मिलकर इस महत्वपूर्ण कार्य की जिम्मेदारी सम्हालते हैं।
समय के साथ ही मान्यताओं और परम्पराओं में बदलाव भी आते जा रहे हैं। बदलाव यदि सही दिशा में हो तब तो ठीक है, किन्तु हालात तो कुछ और ही बयान कर रहे हैं। सेंसर से मुक्त इंटरनेट, लिव इन रिलेशनशिप, को-एजुकेशन, व्यस्त माता-पिता, फिल्मों व टीवी कार्यक्रमों का सीमा रहित खुलापन...इन सभी ने मिलकर ऐसा माहोल बना दिया है कि नई जनरेशन पतन के गहरे दलदल की तरफ बढ़ती जा रही है।
इतना ही नहीं कुछ तथाकथित विद्वान तो बच्चों को सेक्स ऐजुकेशन देने की भरपूर वकालत कर रहे हैं। ये विद्वान यह नहीं सोचते कि सुरक्षा के नाम पर जिन हथियारों से बच्चों को परिचित करवाया जाता है, बच्चे अपनी स्वाभाविक कौतुकता और जिज्ञासा की आदत के कारण उन हथियारों को चलाकर देखने का भी प्रयास करने लगते हैं। क्या कारण है कि दुनिया के तमाम धर्मों में विवाह पूर्व किसी भी प्रकार के शारीरिक संबंध या सेक्स को पूरी तरह वर्जित और गैर धार्मिक बताया गया है। धर्म और अध्यात्म मात्र श्रद्धा या भक्ति पर ही निर्भर नहीं हैं ये पूरी तरह से वैज्ञानिक सिद्धांतों पर चलते हैं।
आइये जाने उन अज्ञात वैज्ञानिक कारणों को जिनके कारण विवाह पूर्व सेक्स या यौन संबंध को पूरी तरह वर्जित माना गया है:-
- 25 वर्ष की उम्र तक शरीर और मस्तिष्क का पूर्ण विकास होने के लिये ब्रह्मचर्य का पालन होना निंतात आवश्यक है।
- समाज जिस आधार पर खड़ा है, वह है पति-पत्नी का संबंध। विवाह पूर्व बना यौन संबंध इस आधार को कमजोर कर समाज के पतन का कारण बनता है।
- एड्स जैसे लाइलाज रोगों का प्रमुख कारण भी अनैतिक और अधार्मिक यौन संबंध ही होते हैं।
- विवाह से पूर्व इंसान को अपनी योग्यताओं और क्षमताओं को विकसित करना होता है। इस कार्य के लिये जिस एकाग्रता और दृढ़ता की आवश्यकता होती है वही यौन संबंधो के कारण नष्ट हो जाती है।
- योग्य, बुद्धिमान और प्रतिभाशाली संतान की प्राप्ति के लिये विवाह पूव का चरित्र और पवित्रता बड़ी अहम भूमिका निभाते हैं।
टिफिन पैक करने से पहले खाने को जूठा करना चाहिए क्योंकि...
भोजन हमारे जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं में से एक है। इसीलिए भोजन बनाते समय व भोजन ग्रहण करते समय भी हम अनेक मान्यताओं और परंपराओं का पालन करते है। हमारे यहां ऐसी कई परंपराएं है जिन्हें अधिकांश लोग अंधविश्चास मानकर टाल देते हैं।
ऐसी ही एक परंपरा है किसी के लिए भी यदि टिफिन या किसी भी तरह का खाना पहुंचाया जाता है। उस भोजन का भोग पहले भगवान को लगाने के बाद उसे चखा जाता है या झूठा करके भेजा जाता है।
दरअसल ऐसी मान्यता है कि ऐसा ना करने पर पितृदोष लगता है। साथ ही भोजन को करने वाले को उस भोजन से पूरी ऊर्जा नहीं मिलती है। इसका कारण यह है कि जब भोजन को बिना झूठा किए ले जाया जाता है तो ब्रह्माण्ड में उपस्थित नकारात्मक शक्तियां उसे प्रभावित करती हैं। इस मान्यता के पीछे वही कारण है जो आचमन करने के पीछे है। ज्योतिषीय मान्यता है कि यदि भोजन को घर से बाहर भेजने से पहले झूठा नहीं किया जाता तो कई तरह की नकारात्मक शक्तियां उसे प्रभावित करती हैं।
उस भोजन के बाद मन में सकारात्मक विचार कम आते हैं और नकारात्मकता बढऩे लगती है। साथ ही इसका एक फायदा यह भी होता है कि भेजने वाला उस खाने को किसी अतिथि या महत्वपूर्ण व्यक्ति को भेजने से पहले चख लेता है। इससे भोजन में किसी भी तरह की कमी होने पर उसके स्वाद में सुधार लाया जा सकता है ताकि भोजन करने वाला पूरी रूचि से भोजन करे। इसी कारण यह मान्यता है कि घर से बाहर ले जाने से पहले खाने का भोग भगवान को लगाकर उसे झूठा जरूर करना चाहिए।
डायनिंग टेबल पर खाना क्यों नहीं खाना चाहिए?
भारत में प्राचीन समय से ही जमीन पर सुखासन में बैठकर खाना खाने की परंपरा है। हमारे यहां खड़े होकर खाना-खाने को या डायनिंग टेबल पर भोजन करने को अच्छा नहीं माना जाता है। हमारे यहां तो भोजन को बाजोट पर रखने की परंपरा थी। इसका का कारण यह है कि भोजन को हमारी संस्कृति में सिर्फ दिनचर्या का सिर्फ एक काम मात्र ही नहीं माना गया है। हमारे शास्त्रों के अनुसार भोजन एक तरह का हवन है। हमारा हर ग्रास इस हवन में एक आहूति की तरह है।
जिस तरह पूरी आस्था और सम्मान से हवन में देवताओं का आवाह्न कर उनसे निवेदन करने से समस्याएं खत्म हो जाती है। उसी तरह भोजन को पूरे सम्मान व आस्था के साथ ग्रहण करें तो शरीर की सारी व्याधियां व रोग खत्म हो जाते हैं। शरीर स्फूर्तिवान रहता है। अन्न को देवता माना जाता है इसीलिए उसे सम्मान देकर अपने आसन से थोड़ा ऊपर बाजोट पर रखकर ग्रहण किया जाता है।
साथ ही इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि सुखासन में बैठकर खाना खाने से खाना शीघ्र ही पच जाता है। इससे चेहरे का तेज भी बढ़ता है। जबकि डायनिंग टेबल पर खाने से भोजन ठीक से नहीं पचता है जिसके कारण अनेक बीमारियों का सामना करना पड़ता है। इसीलिए डायनिंग टेबल पर भोजन करना उचित नहीं माना गया है।
नहाते समय गाना नहीं गाना चाहिए क्योंकि...
नहाने से शरीर में एक नई ताजगी व स्फूर्ति आ जाती है। नहाने से शरीर की सफाई तो होती ही है साथ ही आलस, बुरे विचार दूर होते हैं। अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे नहाते समय या तो गाने गाते हैं या मंत्र बोलते हैं या भगवान का नाम लेते हैं। शास्त्रों के अनुसार हमें आंतरिक और बाहरी शुद्धता का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। बाहरी शुद्धता तो नहाने से ही होती है।
कुछ लोग नहाते समय मंत्र जप करते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि ऐसा करने से पापों से मुक्ति मिलती है। वही कई लोग नहाते समय फिल्मी गीत गुनगुनाते हैं। जिस पर अक्सर बढ़े- बूजुर्ग लोग टोकते हैं और कहते हैं कि नहाते समय सिंगिंग नहीं करना चाहिए इससे दोष लगता है। दरअसल ये सिर्फ अंधविश्वास नहीं है। हमारे शास्त्रों के अनुसार भी ऐसी ही मान्यता है। शास्त्रों के अनुसार नहाते समय नहीं बोलना चाहिए और न ही गाना चाहिए।
मान्यता है कि नहाते समय बोलने से वरूण देव जिन्हें जल का देवता माना गया है वे शरीर का तेज छीन लेते हैं। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि स्नान से पहले शरीर पर कई कीटाणु व धूल के कण लगे होते हैं। नहाते समय मंत्र बोलने से मुंह के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर सकते हैं। विज्ञान के अनुसार इससे इम्युनिटी पावर कम होता है। इसीलिए नहाते समय मंत्र नहीं बोलना चाहिए।
खाने के तुरंत बाद ना लेटे और ना सोएं नहीं तो...
समय के साथ-साथ हमारी दिनचर्या में कई बड़े-बड़े परिवर्तन आ गए हैं। हमारी सभी काम और उन्हें करने का तरीका बदल गया है। आधुनिकता की दौड़ में हमारा खाना खाने का तरीका भी पूरी तरह प्रभावित हुआ है। पुराने समय में जमीन पर बैठकर खाना खाने की परंपरा थी।
लेकिन बढ़ते पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में डायनिंग टेबल पर बैठकर भोजन करने का कल्चर हमारे देश में आया। वर्तमान में लोग डायनिंग टेबल पर बैठकर तो भोजन करते ही हैं साथ ही अधिकतर लोग खाना-खाने के तुरंत बाद सो जाते हैं या लेट जाते हैं।जिसे हमारे शास्त्रों में भी ठीक नहीं माना गया है। हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार यह मान्यता है कि खाने के तुरंत बाद सोने से या आलस्य लेने से घर में दरिद्रता आती है। साथ ही यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो मन में नकारात्मक विचारों का प्रभाव बढ़ता है। इस तरह खाना खान के तुरंत बाद सोने से या लेटने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है।आलस्य बढ़ता है व शरीर को ऊर्जा और स्फूर्ति कम हो जाती है। इसलिए खाना खाकर कुछ देर वज्रासन में बैठना चाहिए और कम से कम सौ कदम जरूर चलना चाहिए।
घर से किसी को भी खाली हाथ न जाने दें, क्योंकि
हमारी भारतीय संस्कृति में मान्यता है अतिथि देवो भव:। हम अपने अतिथियों को देवतुल्य मानते हैं और अपनी शक्ति के अनुसार उनके स्वागत सत्कार और कोई क मी नहीं छोड़ते। अतिथियों के साथ ठीक से व्यवहार करना, उनकी आवश्यकताओं को समझ कर उनको पूरा करने के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिए। उनके मान सम्मान और उनकी सुख सुविधा का ध्यान रखना चाहिए।
उनके लिये यथा सम्भव एक सुखद और सौहाद्र्रपूर्ण वातावरण उपलब्ध करवाना चाहिए। इसी प्रकार के संस्कार बचपन से हमें हमारे माता पिता देते हैं। हमारे यहां प्राचीनकाल से ही यह परंपरा है जिसका उल्लेख हमें अपने धर्मग्रंथों में भी मिलता है। इसका एक सबसे अच्छा उदाहरण भागवत में श्रीकृष्ण और सुदामा की कथा में मिलता है। इस कथा के अनुसार जब गरीब सुदामा कृष्ण के घर पहुंचे तो स्वयं कृष्ण ने उनके चरण धोए व आदर सत्कार किया।
उसके बाद जब वे वहां से विदा हुए तो उन्हें अनेक तरह के उपहार देकर श्रीकृष्ण ने विदा किया। इस तरह के अनेक उदाहरण हमें हमारे धर्मग्रंथों में मिलते हैं। इसीलिए मेहमान को कभी घर बिना तिलक किए व बिना उपहार दिए विदा नहीं करना चाहिए। दरअसल इसके पीछे ज्योतिषीय मान्यता है यह है कि घर से मेहमानों को कुछ उपहार देकर विदा करने से घर में हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहती है।
तिलक लगाकर व उपहार देकर विदा करना भारतीय संस्कृति के अनुसार सम्मान सूचक तो है ही साथ ही ऐसा करने से घर आए अतिथि के पास वह उपहार जिंदगी भर उस घर के लोगों के साथ बिताए पलों की यादों के रूप में रहता है। इससे रिश्तों में सुधार होता है। आपसी सामंजस्य और मधुरता बढ़ती है। समाज में मान-सम्मान भी बढ़ता है।
बिना आसन बिछाए नहीं करना चाहिए पूजा क्योंकि...
पूजा करने से मानसिक शांति मिलती है। नियमित रूप से पूजन करने के अनेक लाभ हैं। लेकिन पूजा का फल तभी मिलता है जब पूरे विधि-विधान के साथ पूजा की जाए।
हमारे धर्मशास्त्रों में पूजन के समय के अनेक नियम बताए गए हैं। उन्ही में से एक विधान है पूजा के समय आसन बिछाने का। आसन को पूजन के समय बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। इसीलिए किसी भी तरह की पूजा की जाती है या हवन किया जाता है तो जिस भी देवता का आवाह्न किया जाता है।
उन्हें मंत्रों द्वारा आसन ग्रहण करवाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि बिना आसन के पूजा या जप करते हैं तो उस पूजा से मिलने वाली ऊर्जा पृथ्वी में चली जाती है। आसन ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोक लेता है।
इसीलिए कहा जाता है कि हर पूजा करने वाले व्यक्ति को अपना आसन अलग रखना चाहिए। इससे पूजा के सकारात्मक परिणाम जल्दी मिलने लगते है। साथ ही रोज एक ही आसन पर बैठकर पूजा करने से पूजा के समय ध्यान स्थिर रहता है। इसके अलावा जिस आसन पर बैठकर पूजा की जाती है। शास्त्रों के अनुसार उसे पैर से खिसकाना भी उचित नहीं माना गया है।
आप जानते हैं क्यों बनाई गई थी स्वयंवर की परंपरा?
प्राचीनकाल में स्वयंवर की प्रथा थी। उस समय विवाह आज की पद्धति के ठीक विपरीत था यानी लड़कियां अपनी इच्छा अनुसार वर का चुनाव करती थी। ऋगवेद के अनुसार स्त्री को अधिकार है कि वह किसे अपनी भावी संतान का पिता बनाए?
यह कोई छोटा-मोटा अधिकार नहीं है। इस अधिकार को पाकर ही स्त्री पति की आज्ञाकारिणी हो जाती है, नहीं तो विचारों के ना मिलने के कारण गृहस्थी चलना कई बार मुश्किल हो जाता है।
दरअसल वेदों में कहा गया है कि पति-पत्नी प्रेम से ही विवाह के एकता सूत्र को बांधे रख सकते हैं। जिसके लिए गृहस्थ आश्रम बनाया गया है। इसलिए उस समय ऐसी मान्यता थी कि प्रारंभ में ही यदि चुनाव ठीक नहीं हुआ तो जीवन शांति से नहीं चल सकता। इसीलिए विवाह में चुनाव एक जरूरी चीज है। जो वेदों के अनुसार पति को नहीं पत्नी को करना चाहिए।
इसका कारण यह है कि गृहस्थाश्रम का वास्तविक बोझ पत्नी पर ही होता है। उसे सन्तानोत्पति के समय भी कई तरह के कष्ट झेलने पड़ते हैं। इसीलिए जब उस पर इतनी जिम्मेदारी है और उसके लिए उसे पूरे जीवनभर इतना त्याग करना है। इसी सोच के साथ स्वयंवर की प्रथा बनाई गई व लड़कियों को वर के चुनाव का अधिकार दिया गया था।
क्या लहसून-प्याज खाना धर्म के विरूद्ध है?
अक्सर कई संप्रदायों में देखा जाता है कि कई लोग लहसून-प्याज को भोजन में इस्तेमाल नहीं करते। जैन समाज, वैष्णव संप्रदाय इन दोनों तरह के समाजों में यह अधिकतर पाया जाता है।लहसून और प्याज से परहेज किया जाता है। क्यों इसे खाने में उपयोग करने से बचा जाता है? क्यों इन्हें सन्यासियों के भोजन में भी जगह नहीं मिलती?वास्तव में लहसून और प्याज कोई शापित या धर्म के विरुद्ध नहीं है। इनकी तासीर या गुणों के कारण ही इनका त्याग किया गया है।
लहसून और प्याज दोनों ही गर्म तासीर के होते हैं।ये शरीर में गरमी पैदा करते हैं। इसलिए इन्हें तामसिक भोजन की श्रेणी में रखा गया है। दोनों ही अपना असर गरमी के रूप में दिखाते हैं, शरीर को गरमी देते हैं जिससे व्यक्ति की काम वासना में बढ़ोतरी होते है। ऐसे में उसका मन अध्यात्म से भटक जाता है।
अध्यात्म में मन को एकाग्र करने के लिए, भक्ति के लिए वासना से दूर होना जरूरी होता है। केवल लहसून प्याज ही नहीं वैष्णव और जैन समाज ऐसी सभी चीजों से परहेज करते हैं जिससे की शरीर या मन में किसी तरह की तामसिक प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले।
तो इसलिए रात 12 बजे कभी न दें जन्मदिन की बधाई
जिस दिन कोई व्यक्ति जन्म लेता है वह उसके लिए बहुत विशेष दिन होता है। इसीलिए हर व्यक्ति को अपने जन्मदिन को लेकर मन में एक विशेष उत्साह रहता है। इसीलिए इस दिन को लोग सेलीब्रेट करते हैं। जन्मदिन के दिन किसी भी व्यक्ति को बधाई देने पर उसे लगता है कि बधाई देने वाले का उससे आत्मीय जुड़ाव है।
इसीलिए आजकल दोस्त हो या रिश्तेदार किसी भी करीबी का जन्मदिन होने पर उसे सबसे पहले बधाई देने के लिए वर्तमान में रात को 12 बजे बधाई देने का चलन है। विशेषकर युवाओं में यह चलन बहुत अधिक बढ़ गया है। लेकिन यदि हमारी संस्कृति या धर्मशास्त्रों के नजरिए से समझे तो यह सही नहीं है। दरअसल रात्रि के 12 बजे वातावरण में रज-तम कणों की मात्रा अधिक होती है, इस समय तामसिक या नकारात्मक शक्तियां अधिक प्रभावी रहती हैं।
इसीलिए उस समय दी गई शुभकामनाएं फलदायी नहीं होती हैं। हिंदू संस्कृति के अनुसार दिन सूर्योदय से आरंभ होता है और दूसरे दिन सूर्योदय पर खत्म होता है । मान्यता है कि सुबह का समय ऋषि-मुनियों की साधना का समय है, इसलिए वातावरण में सात्त्विकता अधिक होती है और सूर्योदय के पश्चात् दी गई शुभकामनाएं फलदायी सिद्ध होती हैं। इसीलिए जन्मदिन की बधाई सुबह ही देनी चाहिए।
शनिवार को कबाड़ बेचने से मिलता है दरिद्रता से छूटकारा क्योंकि...
शनिवार के दिन से जुड़ी अनेक मान्यताएं है। ऐसी ही एक मान्यता है शनिवार के दिन कबाड़ बेचने की। लेकिन ये बहुत ही कम लोग जानते हैं कि शनिवार के दिन कबाड़ बेचना शुभ क्यों माना जाता है? दरअसल ज्योतिष के अनुसार कबाड़ में शनि का निवास होता है। घर पर शनि की कृपा हो यह तो बहुत अच्छा माना गया है। लेकिन घर में शनि का निवास नहीं होना चाहिए।
शनिवार के दिन घर का कबाड़ बेचने से दरिद्रता दूर होती है और रोग भी दूर होते हैं। ज्योतिष में शनि को कबाड़ और पुरानी वस्तुओं का कारक ग्रह माना गया है। जिन लोगों की कुंडली में शनि अशुभ फल देने वाला होता है या जिस राशि के लोगों पर साढ़ेसाती या ढैय्या का प्रभाव होता है। उन्हें
शनिवार के दिन कबाड़ बेचना चाहिए। ऐसा करने से उनके घर में कभी चोरी की घटना नहीं होती है। साथ ही इस दिन कबाड़ बेचने से घर में क्लेश नहीं होता और एक्सीडेंट्स भी नहीं होते हैं। इसीलिए शनिवार को घर का कबाड़ बेचना शुभ माना गया है।
मृत व्यक्ति के मुंह मे जरूर डालना चाहिए तुलसी के पत्ते क्योंकि....
हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद मृतक का दाह संस्कार किया जाता है अर्थात मृत देह अग्नि को समर्पित किया जाता है। दाह संस्कार के समय कपाल क्रिया भी की जाती है। लेकिन दाह संस्कार के पूर्व भी हमारे यहां मृत्यु से जुड़े अनेक रिवाज है। जिन्हें अनिवार्य माना गया है। ऐसा ही एक रिवाज है। मृत व्यक्ति के मुंह में तुलसी के पत्ते डालने का? मृतक का सिर दक्षिण में रखा जाता है तथा पैर उत्तर दिशा में रखे जाते हैं।
इस प्रकार लिटाएं जाने के बाद मृतक के मुख में गंगाजल और तुलसीदल डाला जाता है। तुलसीदल के गुच्छे से मृत व्यक्ति के कानों और नासिकाओं को बंद कर दिया जाता है। गरूड़पुराण के अनुसार ऐसा करने से मृत आत्मा को शीघ्र ही मोक्ष मिलता है। मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए जीव की सूक्ष्म देह परिजनो के आस-पास ही घूमती रहती है।
मान्यता है कि जीवात्मा बारह दिन के लिए अंगुष्ठ के आकार की होती है और बारह दिन के पिंडदान करने से जीवात्मा को मोक्ष मिलता है। कहते हैं उससे प्रक्षेपित रज-तम तरंगें इस विधि को करने से परिजनों तक नहीं पहुंचती। इससे जीवात्मा की तरफ सकारात्मक तरंगें आकर्षित होती है वउन्हें शीघ्र ही मुक्ति मिलती है।
जल्दी शादी के लिए क्यों और क्या करें?
कहते हैं जिन लोगों की कुंडली में दोष होता है उनकी शादी में विघ्र आते हैं या तो उनकी शादी या तो बहुत जल्दी होती है या बहुत देर से होती है। लोगों के विवाह में देरी का एक कारण मंगली लड़की या लड़के का ना मिलना भी होता है। समय पर योग्य वर या वधु नहीं मिल पाते हैं। जो मिलते हैं वहां कोई दूसरी समस्या सामने आ जाती है। ऐसे में शीघ्र विवाह के लिए गुरु के उपाय करने को कहा जाता है।
ज्योतिष के अनुसार गृहस्थ जीवन को गुरु प्रभावित करता है। पारिवारिक शांति और सुखमय गृहस्थ जीवन के लिए बृहस्पति यानी गुरु से संबंधित उपाय किए जाते है तो निश्चित ही घर में सुख शांति बनी रहती है। दरअसल गुरु को विवाह का कारक गृह माना जाता है। जब किसी की कुंडली में गुरु अशुभ होता है तो उसकी कुंडली में विवाह विलंब योग बनता है।गुरु को जन्मकुंडली के सप्तम भाव का कारक माना जाता है।
कुंडली का यह भाव पति या पत्नी का माना गया है। इसलिए मंगल होने पर भी मंगल के उपाय के साथ ही ज्योतिषों द्वारा गुरुवार का व्रत रखने की ओर गुरु से जुड़े उपाय करने की सलाह दी जाती है ताकि जन्मकुंडली के दोष का निवारण हो और विवाह योग्य लड़के या लड़की का शीघ्र विवाह हो जाए।
खाने के पहले रोटी का एक टूकड़ा अलग क्यों निकालना चाहिए?
हमारे यहां भोजन से पहले भोजन मंत्र बोलने के बाद आचमन किया जाता है। उसके बाद हमारे शास्त्रों के अनुसार अपने भोजन से ग्रास के रूप में अलग किया जाता है। इस निवाले को गाय को ही खिलाया जाता है। पहले निवाले को गौ-ग्रास कहा जाता है।
दरअसल माना जाता है की पहला निवाला अलग निकालकर गाय को देने से पितृदोष कम होता है साथ ही इसे गौसेवा को धर्म के साथ ही जोड़ा गया है। गौसेवा भी धर्म का ही अंग है। गाय को हमारी माता बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि गाय में हमारे सभी देवी-देवता निवास करते हैं।
इसी वजह से मात्र गाय की सेवा से ही भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के साथ ही गौमाता की भी पूजा की जाती है। भागवत में श्रीकृष्ण ने भी इंद्र पूजा बंद करवाकर गौमाता की पूजा प्रारंभ करवाई है। इसी बात से स्पष्ट होता है कि गाय की सेवा कितना पुण्य का अर्जित करवाती है। साथ ही पहली ज्योतिषीय मान्यता है कि ऐसा करने से घर में हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहती है।
क्या आप जानते हैं दुनिया की सबसे महान खोज कैसे हुई?
वेदों को धार्मिक पुस्तक मात्र समझ कर दुनिया ने बड़ी भूल की है। दुनिया की प्राचीनतम पुस्तकों यानी वेदों में ऐसे अनेक आश्र्चजनक आविष्काकों और खोजों का वर्णन दिया है जिनसे आज भी दुनिया अनजान ही बनी हुई है वेद प्राचीनकाल से आज तक के आविष्कारों व खोजों की सूची हैं। यदि हम ठीक से इन्हे पढें तो पता चलेगा कि विश्व की पहली खोज या आविष्कार कब और कहां हुआ था।
वेदों में वैज्ञानिक तथ्यों की भरमार है। असल में वेदों में हमारे आस पास की प्रकृति में ही छुपे हुए अनेक गुप्त वैज्ञानिक तथ्यों का ही अध्ययन किया गया है। वेदों के मन्त्र बडे ही सांकेतिक है जिनमें ऐसी ऐसी बातों का वर्णन है जिसे आज का विज्ञान अब भी पूरी तरह से ढूंढ नहीं पाया है। इन्ही सूक्ष्म वैज्ञानिक तथ्यों का खुलासा करने करने के लिये हम यहां वेदों के कुछ सूक्तों का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं-
संकेत- अग्निमीले पुरोहितं......... रत्नधातमम् ।। (ऋग्वेद-1/1/1)
अर्थ: हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं जो यज्ञ के पुरोहित, देवता, ऋत्विज, होता और याजकों को रत्नों से विभूषित करने वाले हैं। विशेष अग्नि विश्व की सर्वप्रथम खोज है, ये विश्व की सबसे महानतम खोज कही जा सकती है। इस मन्त्र में अग्नि की महत्ता का वर्णन है। ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र किसी विशिष्ट देव को ही समर्पित किया जाना चाहिये। विशिष्ट में भी देवराज इन्द्र प्रधान हैं किन्तु फि र भी प्रथम मन्त्र उनको समर्पित नहीं किया गया।
देवगुरू वृहस्पति तो इन्द्र के भी मार्गदर्शनकर्ता हैं पर प्रथम मन्त्र उनको भी समर्पित न होकर अग्नि को समर्पित किया गया इससे यह पता चलता है कि वैदिक काल में ही अग्नि की महत्ता का पता चल गया था। अग्नि याजकादि को समृद्धि प्रदान करने वाले हैं इससे भी अग्नि की महत्ता की ओर संकेत किया गया है । वेदों में आगे के मन्त्रों में अग्नि की उत्पत्ति का भी वर्णन दिया गया है और अग्नि का विशेष महत्व भी बताया गया है।
पूजा के बाद मुरझाए फूलों और पूजा साम्रगी का क्या करें?
हमारे यहां कोई उत्सव होया अन्य कोई शुभ काम पूजन का आयोजन किया जाता है। अक्सर पूजा के बाद सामग्री बच जाती है। जैसे ताजे फूलों को पूजा में हमेशा रखा जाता है। इसका कारण यह है कि फूल की खुश्बू और सुन्दरता पूजन करने वाले के मन को सुन्दरता और शांति का एहसास दिलावाती है।
ऐसा माना जाता है कि जब पूजा में इनका उपयोग किया जाता है, तो फूल अद्भुत ऊर्जा का सृजन पूरे घर में करते है और इससे घर में खुशियों का आगमन होता है। जबकि इसके विपरित मुरझाये फूल मृत्यु के सुचक माने जाते हैं। फल व पूजा सुपारी, चावल, धान व अन्य पूजन सामग्री को भी ज्यादा समय तक पूजा के बाद घर में रखना शुभ नहीं माना जाता। पूजा की बची हुई सामग्री जो उपयोगी हो उसे ब्राह्मण को दान कर देना चाहिए और जो उपयोगी ना हो उसे तुरंत नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए।
इसके अलावा पितृ या भगवान को उपले पर लगाए गए भोग की राख को भी घर में रखना शुभ नहीं माना जाता है। तीनों बातों के पीछे का कारण वास्तु से ही जुड़ा है। वास्तु के अनुसार इन तीनों ही चीजों का घर में रखने पर घर की सकारात्मक ऊर्जा का स्तर कम होने लगता है व नकारात्मक ऊर्जा बढऩे लगती है।
जब जाएं किसी जरूरी काम पर तो इन बातों का रखें ध्यान...
जब भी हम घर से किसी खास कार्य को लक्ष्य बनाकर निकलते हैं उस वक्त सीधा पैर पहले बाहर रखने से निश्चित ही आपको कार्यों में सफलता प्राप्त होती है।
यह परंपरा काफी पुरानी है जिसे हमारे घर के बुजुर्ग समय-समय पर बताते रहते हैं। इस प्रथा के पीछे मनोवैज्ञानिक और धार्मिक कारण दोनों ही हैं।
धर्म शास्त्रों के अनुसार सीधा पैर पहले बाहर रखना शुभ माना जाता है। सभी धर्मों में दाएं अंग को खास महत्व दिया गया है। सीधे हाथ से किए जाने वाले शुभ कार्य ही देवी-देवताओं द्वारा मान्य किए जाते हैं। देवी-देवताओं की कृपा के बिना कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।
इसी कारण सभी पूजन कार्य सीधे हाथ से ही किए जाते हैं। जब भी घर से बाहर जाते हैं तो सीधा पैर ही पहले बाहर रखते हैं ताकि कार्य की ओर पहला कदम शुभ रहेगा तो सफलता अवश्य प्राप्त होगी।
इस परंपरा के पीछे एक तथ्य और है कि इसका हम पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। सीधा पैर पहले बाहर रखने से हमें सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है और मन प्रसन्न रहता है। इस बात का हम पर दिनभर प्रभाव रहता है। बाएं पैर को पहले बाहर निकालने पर हमारे विचार नकारात्मक बनते हैं।
जानिए, तंत्र के कुछ अनछुए पहलुओं के बारे में
तंत्र शास्त्र के बारे में हम अपने जीवन में कभी न कभी सुनते अवश्य है। आखिर तंत्र शास्त्र है क्या और यह किस सिद्धांत पर कार्य करता है? इसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। ग्रंथों में तंत्र शास्त्र की विस्तृत व्याख्या दी गई है जिसे कुछ शब्दों में बता पाना कठिन है। तंत्र शास्त्र से जुड़े कुछ रोचक पहलुओं के बारे में नीचे बताया गया है जो इस प्रकार है-
तंत्रशास्त्र के सिद्धांतानुसार कलियुग में वैदिक मंत्रों, जपों और यज्ञों आदि का उतना अधिक फल मिलना कठिन है जितना तंत्र प्रयोगों से संभव है। कलयुग में सब प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिए तंत्र शास्त्र में वर्णिक मंत्रों और उपायों आदि से ही सफलता मिलती है। तंत्र शास्त्र मुख्य रूप से शाक्तों (देवी-उपासकों) का है और इसके मंत्र प्राय: एकाक्षरी होते हैं जैसे- ह्नीं, क्लीं, श्रीं, ऐं, क्रूं आदि। तंत्रशास्त्र की उत्पत्ति कब से हुई इसका निर्णय नहीं हो सकता लेकिन मान्यता के अनुसार वैदिक क्रियाओं और तंत्र-मंत्रादि विधियों को भगवान शंकर ने स्वयं कीलित किया है और भगवती उमा के आग्रह से ही कलियुग के लिए तंत्रों की रचना की है।
अथर्ववेदीय नृसिंहतापनीयोपनिषद में सबसे पहले तंत्र का लक्षण देखने में आता है। इस उपनिषद में मंत्रराज नरसिंह- अनुष्टुप प्रसंग में तांत्रिक महामंत्र का स्पष्ट आभास सूचित हुआ है। तंत्र शास्त्र के अनुसार दीक्षा ग्रहण करने के बाद ही तांत्रिक प्रयोग करना चाहिए। बिना दीक्षा के तांत्रिक कार्य करने का अधिकार नहीं है। तांत्रिक गण पाँच प्रकार के आचारों में विभक्त हैं। ये श्रेष्ठता के आधार पर इस प्रकार हैं- वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धांताचार एवं कौलाचार।
जानिए, क्या होती है गुप्त नवरात्रि
हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है लेकिन आमजन केवल दो नवरात्रि (चैत्र व शारदीय नवरात्रि) के बारे में ही जानते हैं। आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि को गुप्त नवरात्रि कहा जाता है। इस बर आषाढ़ मास की गुप्त नवरात्रि 2 जुलाई, शनिवार से प्रारंभ हो रही है।
आषाढ़ मास की गुप्त नवरात्रि का समय शाक्य एवं शैव धर्मावलंबियों के लिए पैशाचिक, वामाचारी क्रियाओं के लिए अधिक शुभ एवं उपयुक्त होता है। इसमें प्रलय एवं संहार के देवता महाकाल एवं महाकाली की पूजा की जाती है। इन्हीं संहारकर्ता देवी-देवताओं के गणों एवं गणिकाओं अर्थात भूत-प्रेत, पिशाच, बैताल, डाकिनी, शाकिनी, खण्डगी, शूलनी, शववाहनी, शवरूढ़ा आदि की साधना की जाती है। ऐसी साधनाएं शाक्त मतानुसार शीघ्र ही सफल होती है। दक्षिणी साधना, योगिनी साधना, भैरवी साधना के साथ पंचमकार की साधना इसी नवरात्रि में की जाती है।
आषाढ़ मास की नवरात्रि की तरह माघ मास की नवरात्रि को भी गुप्त नवरात्रि कहते हैं। लेकिन इन दोनों में काफी भिन्नताएं हैं। आषाढ़ मास की नवरात्रि में जहां वामाचार उपासना की जाती है वहीं माघ मास की नवरात्रि में वामाचार पद्धति को अधिक मान्यता नहीं दी गई है।
तो इसलिए पूजा में कपूर का उपयोग जरूर करना चाहिए
भगवान की पूजा एक ऐसा उपाय है जिससे जीवन की बड़ी-बड़ी समस्याएं हल हो जाती हैं। इसी वजह से पूजनकर्म के संबंध में कई सावधानियां और विधियां बताई गई हैं।कहा जाता है कि पूरी विधि-विधान से पूजन करने पर ही किसी भी व्रत या पूजन का पूरा परिणाम मिलता है। इसीलिए जब भी हमारे घर में किसी तरह के पूजन का आयोजन किया जाता है तो किसी शास्त्रों को जानने वाले पंडित को बुलाया जाता है। लेकिन पूजा के कुछ विधान ऐसे भी हैं जिन्हे रोज पूजा के समय करने पर पूजा के पूर्ण फल की प्राप्ति होतीहै।
हिंदू धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्मकांडों तथा पूजन में उपयोग की जाने वाली सामग्री के पीछे सिर्फ धार्मिक कारण ही नहीं है इन सभी के पीछे कहीं न कहीं हमारे ऋषि-मुनियों की वैज्ञानिक सोच भी निहित है।प्राचीन समय से ही हमारे देश में विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में कर्पूर का उपयोग किया जाता है। कर्पूर का सबसे अधिक उपयोग आरती में किया जाता है।
प्राचीन काल से ही हमारे देश में देशी घी के दीपक व कर्पूर के देवी-देवताओं की आरती करने की परंपरा चली आ रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान आरती करने के प्रसन्न होते हैं व साधक की मनोकामना पूर्ण करते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि कर्पूर जलाने से देवदोष व पितृदोष का शमन होता है। कर्पूर अति सुगंधित पदार्थ होता है। इसके दहन से वातावरण सुगंधित हो जाता है।
वैज्ञानिक शोधों से यह भी ज्ञात हुआ है कि इसकी सुगंध से जीवाणु, विषाणु आदि बीमारी फैलाने वाले जीव नष्ट हो जाते हैं जिससे वातावरण शुद्ध हो जाता है तथा बीमारी होने का भय भी नहीं रहता।यही कारण है कि पूजन, आरती आदि धार्मिक कर्मकांडों में कर्पूर का विशेष महत्व बताया गया है।
खाने की थाली में हाथ क्यों नहीं धोना चाहिए?
भोजन या खाना हमारे जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं में से एक है। हमारी हिन्दू संस्कृति में अन्न को देवता माना जाता है। इसीलिए भोजन का सम्मान किया जाता है। प्राचीन समय में इसीलिए भोजन को बाजोट यानी लकड़ी के पटिए पर रखकर ग्रहण किया जाता था।
इसका कारण भी भोजन के प्रति सम्मान की भावना रखना ही था। इसीलिए जब कभी किसी खाने के बर्तन पर अगर गलती से पैर लग जाता है तो कहा जाता है कि भोजन से क्षमा याचना करना चाहिए।
इसके अलावा हमारे यहां खाने की थाली में हाथ धोना भी उचित नहीं माना जाता है। जैनधर्म में तो भोजन के हर एक दाने को इतना सम्मान दिया जाता है कि इस धर्म के कई लोग थाली को धोकर भी पीने का नियम ले लेते हैं। हिन्दू धर्म के भी कई लोग इसका पालन करते हैं। शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि भोजन की थाली में हाथ धोने से मां लक्ष्मी रूष्ट हो जाती हैं और दरिद्रता आती है।
चूंकि हमारी संस्कृति में अन्न को देवता माना जाता है। इसलिए कहा जाता है कि भोजन की थाली में हाथ धोने से अन्न देवता का अपमान होता है। दरअसल इस मान्यता के पीछे का मुख्य कारण यही है कि सभी भोजन के हर एक दाने का सम्मान करें और उसकी अहमियत को समझे। भोजन का एक दाना भी व्यर्थ नहीं जाए। इसी कारण यह मान्यता बनाई गई।
आप जानते हैं, नववधु के लिए कौन से श्रंगार जरूरी माने गए हैं?
हिन्दू धर्म में नववधु के लिए कुछ श्रंगार अनिवार्य माना माने गए हैं।है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी इन सभी श्रंगारों को सुहागन के सुहाग का प्रतीक माना गया है। इसीलिए सभी नववधु के लिए ये सोलह श्रंगार बहुत जरूरी और एक तरह का शुभ शकुन माने गए हैं।
बिन्दी - सुहागिन स्त्रियां कुमकुम या सिन्दुर से अपने ललाट पर लाल बिन्दी जरूर लगाती है और इसे परिवार की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
सिन्दुर - सिन्दुर को स्त्रियों का सुहाग चिन्ह माना जाता है। विवाह के अवसर पर पति अपनी पत्नि की मांग में सिंन्दुर भर कर जीवन भर उसका साथ निभाने का वचन देता है।
काजल - काजल आँखों का श्रृंगार है। इससे आँखों की सुन्दरता तो बढ़ती ही है, काजल दुल्हन को लोगों की बुरी नजर से भी बचाता है।
मेंहन्दी - मेहन्दी के बिना दुल्हन का श्रृंगार अधूरा माना जाता है। परिवार की सुहागिन स्त्रियां अपने हाथों और पैरों में मेहन्दी रचाती है। नववधू के हाथों में मेहन्दी जितनी गाढी़ रचती है, ऐसा माना जाता है कि उसका पति उतना ही ज्यादा प्यार करता है।
शादी का जोडा़ - शादी के समय दुल्हन को जरी के काम से सुसज्जित शादी का लाल जोड़ा पहनाया जाता है।
गजरा-दुल्हन के जूड़े में जब तक सुगंधित फूलों का गजरा न लगा हो तब तक उसका श्रृंगार कुछ फीका सा लगता है।
मांग टीका - मांग के बीचोंबीच पहना जाने वाला यह स्वर्ण आभूषण सिन्दुर के साथ मिलकर वधू की सुन्दरता में चार चाँद लगा देता है। राजस्थान में "बोरला" नामक आभूषण मांग टीका का ही एक रुप है। ऐसी मान्यता है कि इसे सिर के ठीक बीचोंबीच इसलिए पहना जाता है कि वधू शादी के बाद हमेशा अपने जीवन में सही और सीधे रास्ते पर चले और वह बिना किसी पक्षपात के सही निर्णय लें।
नथ - विवाह के अवसर पर पवित्र अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेने के बाद में देवी पार्वती के सम्मान में नववधू को नथ पहनाई जाती है।
कर्ण फूल - कान में जाने वाला यह आभूषण कई तरह की सुन्दर आकृतियों में होता है, जिसे चेन के सहारे जुड़े में बांधा जाता है।
हार - गले में पहना जाने वाला सोने या मोतियों का हार पति के प्रति सुहागन स्त्री के वचनबध्दता का प्रतीक माना जाता है। वधू के गले में वर व्दारा मंगलसूत्र (काले रंग की बारीक मोतियों का हार जो सोने की चेन में गुंथा होता है) पहनाने की रस्म की बड़ी अहमियत होती है। इसी से उसके विवाहित होने का संकेत मिलता है।
बाजूबन्द - कड़े के समान आकृति वाला यह आभूषण सोने या चान्दी का होता है। यह बांहो में पूरी तरह कसा रहता है, इसी कारण इसे बाजूबन्द कहा जाता है।
कंगण और चूडिय़ाँ - हिन्दू परिवारों में सदियों से यह परम्परा चली आ रही है कि सास अपनी बडी़ बहू को मुंह दिखाई रस्म में सुखी और सौभाग्यवती बने रहने के आशीर्वाद के साथ वही कंगण देती है, जो पहली बार ससुराल आने पर उसकी सास ने दिए थे। पारम्परिक रूप से ऐसा माना जाता है कि सुहागिन स्त्रियों की कलाइयां चूडिय़ों से भरी रहनी चाहिए।
अंगूठी - शादी के पहले सगाई की रस्म में वर-वधू द्वारा एक-दूसरे को अंगूठी पहनाने की परम्परा बहुत पूरानी है। अंगूठी को सदियों से पति-पत्नी के आपसी प्यार और विश्वास का प्रतीक माना जाता रहा है।
कमरबन्द - कमरबन्द कमर में पहना जाने वाला आभूषण है, जिसे स्त्रियां विवाह के बाद पहनती है। इससे उनकी छरहरी काया और भी आकर्षक दिखाई देती है। कमरबन्द इस बात का प्रतीक कि नववधू अब अपने नए घर की स्वामिनी है। कमरबन्द में प्राय: औरतें चाबियों का गुच्छा लटका कर रखती है।
बिछुआ - पैरें के अंगूठे में रिंग की तरह पहने जाने वाले इस आभूषण को अरसी या अंगूठा कहा जाता है। पारम्परिक रूप से पहने जाने वाले इस आभूषण के अलावा स्त्रियां कनिष्का को छोडकर तीनों अंगूलियों में बिछुआ पहनती है।
पायल- पैरों में पहने जाने वाले इस आभूषण के घुंघरूओं की सुमधुर ध्वनि से घर के हर सदस्य को नववधू की आहट का संकेत मिलता है।
बिना चावल रखे भगवान को दीपक नहीं लगाना चाहिए क्योंकि.
दीपक का पूजन में बहुत महत्व है। भगवान के समक्ष जब तक दीपक नहीं जलाया जाता है। हिन्दू पंरपराओं के अनुसार तब तक पूजन पूरा होना संभव ही नहीं है। इसीलिए पूजा शुरू होने से पहले दीपक जलाया जाता है। फिर पूजा के समापन के समय आरती की जाती है।
पूजा में दीपक के नीचे चावल रखे जाते हैं। चावल को शुद्धता का प्रतीक माना गया है।दीपक को पूर्णता का प्रतीक माना जाता है। हिन्दू धर्म में दीपक को देव रूप माना जाता है। इसीलिए किसी भी तरह की पूजा शुरू करने से पहले दीपक का तिलक लगाकर पूजन किया जाता है। उसके बाद दीपक को आसन दिया जाता है यानी दीपक को स्थान दिया जाता है।
दीपक के नीचे चावल ना रखें जाने पर इसे अपशकुन माना जाता है। यदि दीपक के नीचे चावल नहीं हो तो दीपक अपूर्ण होता है। मान्यता है कि यदि दीपक को आसन देकर पूजा में ना रखा जाए तो भगवान भी पूजन में आसन ग्रहण नहीं करते हैं। साथ ही चावल को लक्ष्मीजी का प्रिय धान भी माना जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि पूजन के समय दीपक को चावल का आसन देने से घर में स्थिर लक्ष्मी का निवास होता है। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि शुक्रवार के दिन लक्ष्मी मां के सामने चावल की ढेरी बनाकर उसके ऊपर घी का दीपक लगाने से धन लाभ होता है।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
jap tap virat yam niyam apara.davi deval jagat main kotik puje koi sadguru ki pooja kiye sabki pooja hoye.baaki saare jaal hai ye karo ye naa karo . sadguru milne se sub mil gaya.
ReplyDeleteअपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार...
DeleteThanks for the outstanding advice, it really is useful.
ReplyDeleteOnline puj vidhi
हार्दिक धन्यवाद आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार...
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